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Bhakti For Bliss Chapter 2
Bhakti For Bliss Chapter 2
श्रीमद्-भागवतम ् 4.22.37
तात्पर्य: इस श्लोक में विशेष रूप से यह उपदे श दिया गया है मनुष्य जीवन में आर्थिक
विकाश के लिए प्रयत्न करने तथा इन्द्रियतप्ति
ृ में समय गँवाने की अपेक्षा मनुष्य को चाहिए
कि वह उन भगवान ् को समझते हुए आध्यात्मिक जीवन के गुणों के अनुशीलन का प्रयत्न
करे , जो प्रत्येक जीव के हृदय में विराजमान हैं| आत्मा तथा परमात्मा दोनों ही रूपों में एक
साथ भगवान ् इस शरीर में आसीन हैं , जो स्थूल तथा सूक्ष्म तत्त्वों से ढका रहता है | इसे
समझ लेना ही वास्तविक आध्यात्मिक संस्कृति पाना है | आध्यात्मिक संस्कृति में प्रगति
करने की दो विधियाँ हैं – एक तो निर्विशेषवादियों की विधि तथा दस
ू री भक्ति| निर्विशेषवादी
इस निष्कर्ष पर पहुँचता है वह तथा परमात्मा एक हैं, किन्तु भक्त तथा सगुणवादी परम
सत्य का साक्षात्कार यह समझ कर सकता है कि प्रभु परम नियंता हैं, हम जीवात्माएँ उसी के
अधीन हैं और हमारा धर्म है कि हम उसकी सेवा करें | वैदिक आदे श है – तत्त्वमसि “तुम
वही हों” तथा सोऽहम ् “मैं वही हूँ|” इन मंत्रों की निर्विशेषवादी व्याख्या है कि परमेश्वर या
परम सत्य तथा जीवात्मा एक हैं , किन्तु भक्तों के मत से ये मंत्र इस पर बल दे ते हैं कि
ु वाले हैं | तत्त्वमसि, अयम ् आत्मा ब्रह्म| परमेश्वर तथा
परमेश्वर तथा हम सभी समान गण
जीवात्मा दोनों ही आत्मा हैं | इसको समझना ही आत्म-साक्षात्कार है | यह मनुष्य जीवन
आध्यात्मिक ज्ञान के अनश
ु ीलन द्वारा परमेश्वर तथा अपने आपको जानने के लिए है |
मनुष्य को चाहिए कि केवल आर्थिक उन्नति तथा इन्द्रियतप्ति
ृ में ही अमूल्य जीवन को
विनष्ट न करे |
इस श्लोक में क्षेत्रवित ् शब्द भी महत्वपूर्ण है | भगवद्गीता (13.2) में इस शब्द की व्याख्या की
गयी है – इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते| यः शरीर क्षेत्र (कर्मक्षेत्र) कःलता है और शरीर
के स्वामी (आत्मा तथा शरीर स्थित परमात्मा) क्षेत्रवित ् कहलाते हैं| किन्तु इन दोनों क्षेत्रवितों
में अंतर है | एक क्षेत्रवित अर्थात शरीर का ज्ञाता परमात्मा है , जो प्रत्येक आत्मा को निर्देशित
करता रहता है | परमात्मा से ही सही निर्देश प्राप्त करने पर सफलता प्राप्त होती है | वे भीतर
तथा बहार दोनों ओर से निर्देश दे ने वाले हैं| भीतर से वे चैत्य गुरु अर्थात हृदय में स्थित गुरु
के रूप में निर्देश दे ते हैं| अप्रत्यक्ष रूप में वे बहार से गुरु के रूप में प्रकट होकर जीवात्मा की
सहायता करते रहते हैं| दोनों ही तरह से भगवान ् जीवात्मा को निर्देश दे ते रहते हैं जिससे वह
भौतिक कार्यकलाप पूरा करके भगवन के धाम वापस जा सके| कोई भी व्यक्ति चाहे तो वह
शरीर के भीतर आत्मा तथा परमात्मा को दे ख सकता है , क्योंकि जब तक इन दोनों का शरीर
के भीतर निवास रहता है तब तक शरीर आभामय और ताजा बना रहता है | किन्तु इन दोनों
के प्रयाण करते ही स्थल
ू शरीर सड़ने लगता है | जो व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से आगे है , वह
मत
ृ शरीर तथा सजीव शरीर में जान सकता है | निष्कर्ष रूप में , मनुष्य को चाहिए कि
तथाकथित आर्थिक उन्नति तथा इन्द्रियतप्ति
ृ में अपना समय न गँवा कर परमात्मा तथा
आत्मा एवं उनके सम्बन्ध को समझने के लिए आध्यात्मिक का अनश
ु ीलन करे | इस प्रकार
ज्ञान के बढ़ने से मनुष्य को मोक्ष तथा जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त हों सकता है | कहा जाता
है कि यदि कोई तथाकथित सांसारिक कर्तव्यों का परित्याग भी कर दे और मोक्ष मार्ग का
अनुगमन करे तो भी वह घाटे में नहीं रहता है | किन्तु जो व्यक्ति मोक्ष मार्ग को ग्रहण नहीं
करता और फिर भी आर्थिक उन्नति तथा इन्द्रियतप्ति
ृ संपन्न करता रहता है , वह सब कुछ
खो दे ता है | इस प्रसंग में व्यासदे व के समक्ष नारद का यह कथन (भागवत 1.5.17) अत्यंत
उपयुक्त है |
***
बिना जोखिम, लाभ प्राप्ति
सनत ् कुमार जी विशिष्ट आत्मा एवं परमात्मा की प्रकृति की व्याख्या कर रहे हैं | इन दोनों
के बिना, यह शरीर मत
ृ है | परमात्मा एवं विशिष्ट आत्मा की समझ अत्यंत महत्त्वपर्ण
ू है |
जब हमें दोनों का ज्ञान होता है , तो हम आत्मा एवं परमात्मा के मध्य अंतर को समझ पाते
हैं; तथा हम आत्मा एवं उसके स्थल
ू एवं सक्ष्
ू म शरीर के मध्य के अंतर को भी जान पाते हैं |
आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति के लिए इनका ज्ञान अत्यावश्यक है |2
अद्वैत गोसाईं बहुत चिंतित थे कि भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु उनके साथ सदै व बहुत ही
सम्मान-पर्व
ू क व्यवहार करते हैं, जैसे उनके द्वारा भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु को अर्पित
किसी भी पूजा-सत्कार को अस्वीकार करके| अद्वैत आचार्य एक बुजुर्ग ब्राह्मण थे| अतः
भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु उनके द्वारा अर्पित पूजा-सत्कार को यह कहते हुए, “नहीं! आप
मेरे वरिष्ठ हैं| आप मुझे आदर-सत्कार न दें ” अस्वीकार करते रहे |
चँ ूकि अद्वैत गोसाईं को ज्ञात था कि चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान श्री कृष्ण हैं , अतः वह श्री
चैतन्य महाप्रभु को भगवान श्री कृष्ण की तरह यथावत ् रूप से उनकी पूजा एवं आदर-सत्कार
करना चाहते थे| वह भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु को उचित सम्मान दे ने की अपनी असमर्थता
के वियोग में इतने उद्विग्न हो गए कि उन्होंने निर्णय लिया कि वह अपने कार्य से चैतन्य
1
सनकं च सनन्दं च सनत्नमथात्म्भूः|
सनत्कुमारं च मनि
ु न्निष्क्रियानर्ध्व
ू रे तसः||
सर्वप्रथम ब्रह्मा ने चार महान ् मुनियों को उत्पन्न किया सनक, सनन्द, सनातन तथा सनत्कुमार हैं| वे सब भौतिकवादी
कार्यकलाप ग्रहण करने के लिए अनिच्छुक थे , क्योंकि ऊर्ध्वरे ता होने के कारण वे अत्यधिक उच्चस्थ थे | (श्रीमद्भागवत
3.12.4)
2
वेदांत दर्शन का अनुगमन करने से भक्ति का विकास होता है | इसका उल्लेख श्रीमद्भागवत (1.2.12) में हुआ है :
तच्छ्रद्दधाना मुनयो ज्ञानवैराग्ययुक्तया|
पश्यन्त्यात्मनि चात्मानं भक्त्या श्रत
ु गहृ ीतया||
इस श्लोक में भक्त्या श्रुतगह
ृ ीतया शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इससे सूचित होता है कि भक्ति को उपनिषदों तथा
वेदांत-सत्र
ू के दर्शन पर आधारित होना चाहिए| (श्रीचैतन्य-चरितामत
ृ , अदिलीला 7.102)
महाप्रभु को उन्हें प्रताड़ित करने के लिए बाध्य कर दें गे| अतएव अद्वैत गोसाईं बाहर
मायावाद का प्रचार प्रारं भ कर दिया| जैसे ही, भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु को यह विदित हुआ
कि अद्वैत गोसाईं ने निर्विशेष मायावाद सिद्धान्त का अध्यापन प्रारं भ कर दिया है , वह इतने
क्रोधित हुए कि वह एक डंडा लेकर उनकी तलाश में बाहर दौड़ पड़े| उसे ढूंढने के पश्चात, यह
कहते हुए, “अब कदापि तम
ु इस निरर्थक सिद्धांत-प्रचार की धष्ृ टता मत करना!”, वह उनकी
पीछा करने लगे|
अद्वैत गोसाईं हँसते हुए भाग रहे थे, और कह रहे थे, “ अंततः मैंने आपको मेरी अवमानना
करने पर बाध्य कर दी|”
प्रत्युत्तर में , भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस बिंद ु के महत्व पर, यह कहते हुए, “निश्चय,
मैंने तुम्हारा अपमान किया, मैं यह स्वीकार करता हूँ| किन्तु किसी भी परिस्थिति में तुम्हें इस
निर्विशेष सिद्धांत का प्रचार नहीं करना चाहिए” जोर दिया|3
अपितु, अद्वैत गोसाईं ,जैसे भक्त जो महाप्रभु को अत्यंत प्रिय थे, ने भी भगवान द्वारा प्राप्त
प्रतिष्ठा खो दी, जब उन्होंने मायावाद सिद्धांत-मत का प्रचार प्रारं भ किया| भगवान ् श्री चैतन्य
महाप्रभु के मन में उनके (अद्वैत गोसाईं) लिए जो भी सम्मान था वह नष्ट हो चूका था| तथा
भगवान ् ने उन्हें दं डित भी करना चाहा| स्वभावतः, वह अद्वैत आचार्य का एक स्वांग था|
परन्तु इस प्रसंग से हमें सीख मिलती है | कदाचित ् कोई वरिष्ठ भक्त हो सकता है , किन्तु यदि
वह मायावाद का प्रचार (कदाचित यह छाद्मावरित या सांकेतिक ही क्यों न हों) प्रारं भ करता है
, तो चैतन्य महाप्रभु उसे सहन नहीं करें गे|
मायावादी अपने तर्कों को शब्द-जाल द्वारा प्रस्तुत करने में अत्यंत निपुण होते हैं| भारतवर्ष
में , प्रायः ऐसा होता कि किसी विख्यात मायावादी संन्यासी की व्याख्यान-प्रस्तुति के बाद, यदि
कोई श्रोतागण से व्याख्यान के सन्दर्भ में पछ
ू े , तो उनका शीघ्र कथन होता है , “ओह, अद्भत
ु !
स्वामी जी ने अत्युत्तम बात कही|” और यदि वह पूछता है कि व्याख्याता ने क्या कहा, तो
3
इस लीला का वर्णन चैतन्य-भागवत, मध्य 19, में किया गया है | श्रील प्रभुपाद ने इस घटना के सन्दर्भ में इस
प्रकार टिप्पणी की है : “योग-वशिष्ठ नामक ग्रंथ को मायावादी अत्यधिक महत्व दे ते हैं, क्योंकि यह पूर्ण-पुरुषोत्तम
भगवान ् विषयक निर्विशेष भ्रांतियों से भरा है | इसमें वैष्णवता का लेश मात्र भी स्पर्श नहीं है | असल में सारे
वैष्णवों को ऐसी पस्
ु तक से बचना चाहिए, किन्तु अद्वैत आचार्य प्रभु चाहते थे कि महाप्रभु उन्हें दं ड दें , इसलिए
वे योग-वशिष्ठ के निर्विशेषवादी कथनों का समर्थन करने लगे| इसलिए भगवान ् चैतन्य महाप्रभु उन पर क्रुद्ध हो
गए और एक तरह से महाप्रभु ने उनका अपमान किया|” (श्रीचैतन्य-चरितामत
ृ , अदिलीला 12.40)
उनका उत्तर होगा, “यह इतना अद्भत
ु , भावपूर्ण और वाक्पटु था; इतना उत्तम कि कदाचित
हमारी समझ में नहीं आया! स्वामी जी तो महान हैं!”
अतः व्याख्याता का उद्देश्य किसी को समझाना नहीं होता है और वस्तुस्थिति प्रायः ऐसी ही
रहती हैं| वक्ता का ध्येय मात्र श्रोताओं को रिझाना एवं व्याख्यान के बारे में इस अनुभूति से
उन्मत्त कर गहृ प्रस्थान करवाने की होती है कि “वाह! व्याख्यान कितना अद्भत
ु था|”
और यदा-कदा लोग मझ
ु े कहते हैं, “अच्छा तो स्वामी जी, आपके व्याख्यान बहुत ही सहज
होते हैं – कि आपकी कही सारी बातों को हम समझ सकते हैं|”
उनके अनस
ु ार, सरल एवं सहज कथन अपात्रता है | वे वक्ता से दष्ु कर एवं दरु ाग्रही व्याख्यान
की अभिलाषा रखते हैं ताकि उनकी असमझ उन्हें इस बात की अनुभति
ू दिलाती रहें कि
वक्ता उनसे अधिक जानता है | अतएव वे चाहते हैं कि हम उनसे असम्प्रेषण द्वारा स्वयं को
व्यक्त करें |
सदै व ही श्रील प्रभुपाद के व्याख्यान में , जिसने भी थोड़ी एकाग्रता से उन्हें श्रवण किया हो, वे
पूर्णतया उनकी (श्रील प्रभुपाद की) व्याख्या को समझ सकते हैं| वह बहुत सरल थे परन्तु
अपने व्याख्यानों में बहुत ही गहन| वैष्णव आचार्यों की यही रीति रही है , ताकि सामान्य लोग
भी विषय-वस्तु को समझ सकें| परन्तु निर्विशेषवादी ज्ञानी प्रायः अपने व्याख्यानों का
प्रस्तति
ु करण इस तरीके से करते हैं कि उसे समझा नहीं जा सकें| वे सिद्धांतों को विविध
तरीकों से तोड़ने-मरोड़ने में दक्ष हैं|
मायावादी भगवान श्री कृष्ण के बारे में कदाचित उचित कहना पसंद नहीं करते हैं| उदाहरणार्थ,
एक बार, एक विख्यात मायावादी वक्ता से पूछा गया कि हरे कृष्ण मंत्र का जप इतना
अधिक आत्म-बल और आध्यात्मिक शक्ति किस तरह प्रदान करता है | उसने तत्क्षण उत्तर
दिया, “यह मंत्र के शब्द के कारण नहीं अपितु यह प्रत्येक शब्द-युग्मों के मध्य ठहराव है जो
आध्यात्मिक बल एवं शक्ति प्रदाता है |” तब सीधे-साधे मनुष्य कहते हैं, “ओह, हाँ स्वामी जी!
आप तो अत्यंत बद्धि
ु मान हैं!” इस तरह से, मायावादी भगवान श्री कृष्ण को श्रेय दे ने में
प्रतिकूल रहते हैं| अतएव भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि निर्विशेषवादी मायावादी
अपराधी है (मायावादी कृष्णे अपराधी)|
मायावादी कृष्ण के प्रति अनगिनत अपराध करते हैं | उदाहरणार्थ, यदि हम मार्ग में किसी
कपल (युवक-युवती युगल) के पास जाकर (श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों के वितरण के समय) और
युवक से कहें , “ओह, आपकी गर्लफ्रेंड (महिला-मित्र) बहुत खूबसूरत है किन्तु उनका तो चेहरा ही
नहीं है , उनकी बाहें भी नहीं हैं, उनके पैर नहीं है , उनके वक्षस्थल भी नहीं हैं, आँख भी नहीं,
इत्यादि”, तत्क्षण ही युवक प्रचारक के चेहरे पर मुठ्ठी भिंच घूंसा जड़ दे गा! हाँ, यही घटित होगा
कम से कम अमेरिका में | उसी प्रकार, मायावादी कहते हैं कि परम सत्य का अस्तित्व तो है
परं तु वह निराकार एवं निर्गुण है | तथ्य यह है , पर्ण
ू अद्वैत का सिद्धांत या अद्वैतवाद के प्रचार
की प्रक्रिया में , वे भगवान के चरण-कमल पर अनगिनत अपराध करते हैं|5 इसलिए हमलोग
4
तस्य यथा कप्यासम ् पुण्डरीकम ् एवं अक्षिणी तस्योद इति नाम स एष
सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदित उदे ति ह वै सर्वेभ्यः पाप्मभ्यो य एवम ् वेद
-(छान्दोग्य उपनिषद् 1.6.7)
5
मायावादी सन्यासी आसुरं भावमाश्रिताः हैं आर्तः उन्होंने असुरों का मार्ग अपना रखा है , जो भगवान ् के रूप के
अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते| मायावादी कहते हैं कि हर वस्तु का आखिरी उदगम ् निर्विशेष है और इस तरह
वे ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं| यह कहना कि ईश्वर नहीं हैं, ईश्वर का प्रत्यक्ष निषेध है | किन्तु यह कहना
कि ईश्वर हैं, किन्तु उनके न तो हाथ, पॉव या सिर होते हैं और न वे बोल सकते हैं, न सन
ु सकते हैं, न खा
सकते हैं, यह उनके अस्तित्व के निषेध करने का नकारात्मक मार्ग है | जो व्यक्ति दे ख नहीं सकता वह अंधा
कहलाता है , जो चल नहीं सकता वह लंगड़ा कहलाता है , जिसके हाथ नहीं है , वह असहाय होता है , जो बोल नहीं
इन मायावादियों के कथनों का श्रवण न करने के लिए निर्देशित किये जाते हैं क्योंकि हम
उनकी अपराधपूर्ण व्याख्या के श्रवण पर बाध्य हो जाएंगे | और यदि हम उनकी अपराधपूर्ण
व्याख्या का श्रवण करते हैं, तो यह हमारी आध्यात्मिक शक्ति को क्षीण करने पर बाध्य एवं
किंकर्तव्यविमूढ़ करके, हमारे आध्यात्मिक जड़ें काट दें गी| तो हम “प्रसन्न” होने के बजाय
उन्मादी हों जायेंगे तथा हम इस भौतिक जगत में अनियंत्रित रूप से गोता लगाते रहें गे|
सकता वह गग
ूं ा कहलाता है और जो सुन नहीं सकता वह बहरा कहलाता है | मायावादियों की यह कल्पना है कि
ईश्वर के न हाथ हैं, न आँखें, न पाँव, न कान| वे एक तरह से ईश्वर को अंधे, बहरे , गँग
ू े, लँ गड़े, असहाय इत्यादि
कहकर उनका अपमान करते हैं| इसलिए भले ही वे अपने आपको महान ् वेदांती क्यों न कहते रहें , वे वास्तव में
माययापहृतज्ञाना हैं| दस
ु रे शब्दों में , वे प्रकांड पंडित तो लगते हैं, किन्तु उनके ज्ञान का सार मानो निकाल लिया
गया है | (श्रीचैतन्य-चरितामत
ृ , अदिलीला 7.99 तात्पर्य)
6
कामस्य नेन्द्रियप्रितिर्लाभो जीवेत यावता |
जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः || 10 ||
जीवन की इच्छाएँ इन्द्रियतप्ति
ृ की ओर लक्षित नहीं होना चाहिए| मनष्ु य को केवल स्वस्थ जीवन की या
आत्म-संरक्षण की कामना करनी चाहिए, क्योंकि मानव तो परम सत्य के विषय में जिज्ञासा करने के निमित्त
बना है | मनुष्य की वत्ति
ृ यों का इसके अतिरिक्त, अन्य कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए|
तात्पर्य: पूर्ण रूप से मोहग्रस्त भौतिक सभ्यता गलत तरीके से इन्द्रियतप्ति
ृ की इच्छापूर्ति की दिशा में अग्रसर
है | ऐसी सभ्यता में , जीवन के सभी क्षेत्रों में , इन्द्रियतप्ति
ृ ही चरम लक्ष्य होता है | चाहे राजनीति हों या समाज
सेवा, परोपकार, परहितवाद या धर्म, यहाँ तक कि मोक्ष में भी वही इन्द्रियतप्ति
ृ के रं ग की प्रधानता बढती ही जा
रही है | राजनीतिक क्षेत्र में लोगों के नेता अपनी-अपनी इन्द्रीतप्ति
ृ के लिए परस्पर झगड़ते हैं | मतदाता भी
नेताओं को तभी मानते हैं, जब वे उनकी इन्द्रियतप्ति
ृ करने का वचन दे ते हैं | जब मतदाता अपनी इन्द्रीतप्ति
ृ में
असंतुष्ट हों जाते हैं, तब वे नेता को पदच्युत करा दे ते हैं | नेताओं द्वारा मतदाताओं की इन्द्रियों की तुष्टि न
करके उन्हें सदै व निराश करना पड़ता है | अन्य क्षेत्रों में भी यह लागू होता है ; कोई भी जीवन की समस्याओं के
प्रति गंभीर नहीं है | यहाँ तक कि परम सत्य से तदाकार होने के इच्छुक पथगामी(मम
ु क्ष
ु ु) भी इन्द्रियतप्ति
ृ के
लिए आध्यात्मिक हत्या करने तक को उद्यत रहते हैं | किन्तु भागवत का कथन है कि मनुष्य को इन्द्रियतप्ति
ृ
के लिए नहीं जीना चाहिए| इन्द्रियों की तुष्टि वहीँ तक की जाय, जहाँ तक आत्म-संरक्षण हेतु आवश्यकता हों,
कृष्णभावनामत
ृ में कितनी आशंकाएँ हैं?
कदाचित कोई कह सकता है : “ठीक है , यह अच्छा है एवं हितकर भी परन्तु सांसारिक जीवन
में हमें हमारे दोनों पैर धरती पर बनाए रखना होता है | यहाँ भोग के लिए विविध प्रकार की
वस्तुएँ हैं| मेरा तात्पर्य है , कम-से-कम उन्हें यह विदित होता है कि वह इस सांसारिक जीवन
से क्या प्राप्त कर सकते हैं| किन्तु आध्यात्मिक जीवन में , हम उद्घोषित परिणाम की प्राप्ति
में भी आशंकित रहते हैं| ठीक है , यदि हम पर्ण
ू -सिद्धि प्राप्त कर लें , हम मोक्ष की प्राप्ति कर
सकते हैं; हम कृष्ण-प्रेम पा सकते हैं| परन्तु हमने दे खा है कि बहुत-से वरिष्ठ भक्तों
(ऐतिहासिक काल को भी सम्मिलित करने पर) ने भी एक जीवन काल में भगवत ्-धाम जाने
में सफलता प्राप्त नहीं की| उनका प्रारं भ प्रशंसनीय था, किन्तु उनका पतन हो गया| हमने
किंचित श्रेष्ठ भक्तों को भी आन्दोलन का त्याग करते दे खा है | अतः हमारा क्या भविष्य है ?
हमें इस प्रकार के संकट मोल लेने की क्या आवश्यकता है ?”
इस सन्दर्भ में , श्रील नारद एवं श्रील व्यासदे व के मध्य वार्तालाप अत्यंत यथोचित है | वह कहते
हैं की यदि कोई व्यक्ति भाव-विह्वल होकर अथवा इतर किसी कारण हे तु श्री भगवान के
चरण-कमल का आश्रय ग्रहण करता है , किन्तु काल के प्रभाव में उसे जीवन के परम-लक्ष्य
की प्राप्ति में सफलता नहीं मिलती या अनभ
ु व-हीनता हे तु उसका पतन हो जाता है , तो भी
इस प्रयास में कोई हानि नहीं है | परन्तु वे मनुष्य जो भक्ति नहीं करते हैं एवं अपने
सांसारिक कर्तव्यों का उत्तम प्रकार से निर्वहण करते हैं , तो भी इस प्रयास में उनका कोई
लाभ नहीं है |7 जब भक्ति के लिए कोई संकट मोल लेता है , तो उसने जो कुछ भी भक्ति किया
है उसके लिए उसे असीमित लाभ की प्राप्ति होती है | एवं पुनः उसे भक्ति करने के लिए
इन्द्रियतप्ति
ृ के लिए नहीं| चँ ूकि शरीर इन्द्रियों से बना है और ये इन्द्रियाँ कुछ न कुछ तुष्टि चाहती हैं , अतः
इन्द्रियों की तुस्थी के लिए कुछ विधि-विधान बनाए गए हैं| किन्तु इन्द्रियाँ अनियंत्रित भोग के लिए नहीं हैं|
उदाहरणार्थ, विवाह यानी स्त्री तथा पुरुष की युति संतानोत्पत्ति के लिए आवश्यक है , किन्तु यह इन्द्रिय-भोग के
लिए नहीं होता| स्वेच्छ निरोध के अभाव में परिवार नियोजन के लिए प्रचार करना पड़ता है , किन्तु मर्ख
ू लोग
यह नहीं जानते है कि परम सत्य की खोज में लगते ही स्वतः परिवार नियोजन हो जाता है | परम सत्य की
खोज करने वाले कभी भी अनावश्यक इन्द्रिय-तप्ति
ृ के प्रति आकृष्ट नहीं होते, क्योंकि परम सत्य के खोज में वे
पूरी तरह व्यस्त रहते हैं| अतएव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परम सत्य की खोज को ही चरम लक्ष्य बनाना
चाहिए| इससे मनुष्य सुखी होगा क्योंकि वह तरह-तरह की इन्द्रियतप्ति
ृ में कम लिप्त होगा| और वह परम
सत्य क्या है , इसकी व्याख्या आगे की गयी है | (श्रीमदभागवत 1.2.10)
7
त्यक्त्वा स्वधर्मं चरणाम्बुजं हरे र्भजन्नपक्कोS थ पतेत्ततो यदि|
यत्र क्क वाभद्रमभूदमुष्य किं को वार्थ आप्तोS भजतां स्वधर्मतः||
यदि कोई कृष्णभावनामत
ृ अंगीकार कर लेता है तो भले ही वह शास्त्रानुमोदित कर्मों को न करे अथवा ठीक से
भक्ति न करे और चाहे वह पतित भी हो जाय तो इसमें उसकी हानि या बुराई नहीं होगी| किन्तु यदि वह
शास्त्रानुमोदित सारे कार्य करे और कृष्णभावनाभावित न हो तो ये सारे कार्य उसके किस लाभ के हैं ? (श्रीमद्भागवत
1.5.17)
अनेक अवसर प्राप्त होते हैं| तथा सर्वप्रथम उसे अपने सु-कर्मों का फल मिलता है जो उसके
लिए कल्याणकारी है | यदि किसी का अपने स्तर से पतन भी हो जाये , इसके बावजूद भी वह
निःसंदेह रूप से अपने किसी भी सांसारिक कर्तव्यों के निर्वहण के योग्य बना रहता है | और
यदि किसी ने कभी भक्ति नहीं किया हो, येन-केन प्रकारे ण वह पाप तो करते ही हैं , अंततः
वह पाप के फलों का भागी तो बनेंगे ही| किन्तु भक्ति करने वाले व्यक्ति (अपने सांसारिक
कर्तव्यों के निर्वहण के साथ-साथ) को स्वतः पर्याप्त आध्यात्मिक सक
ु ृ ति की प्राप्ति होती है ,
जिससे सर्वप्रथम वह लाभान्वित होता है | इस प्रकार, ऐसे व्यक्तियों को भक्ति-योग में अग्रसर
होने के एवं उच्च लोकों में जन्म लेने तथा वहाँ दीर्घ काल तक निवास करने के पन
ु ः अवसर
प्राप्त होते हैं| तत्पश्चात ्, उसे इसी भौतिक जगत में भक्तों या योगियों के परिवारों, ब्राह्मण
परिवारों या संभ्रांत परिवारों में जन्म लेकर आध्यात्मिक जीवन को ग्रहण करके , भक्ति को
अग्रसर करने का अवसर पुनः प्राप्त होता है | इस प्रकार, वस्तुतः उस व्यक्ति की कोई हानि
नहीं होती है |8
8
अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगच्चलितमानसः|
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां कृष्ण गच्छति|| 37||
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति|
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि|| 38||
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवह
े नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते|
न हि कल्याणकृत्कश्र्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति|| 40||
प्राप्य पण्
ु यकृतां लोकानषि
ु त्वा शाश्र्वती: समाः|
श्रुचीनां श्रीमतां ग्रेहे योगभ्रष्टोS भिजायते|| 41||
अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण! उस असफल योगी की गति क्या है जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक आत्म-साक्षात्कार की विधि
ग्रहण करता है , किन्तु बाद में भौतिकता के करण उससे विचलित हो जाता है और योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर
पाता ? हे महाबाहु कृष्ण! क्या ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग से भ्रष्ट ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही
सफलताओं से च्यत ु नहीं होता और छिन्नभिन्न बादल की भाँति विनष्ट नहीं हो जाता जिसके फलस्वरूप उसके
भगवद्-धाम जाने का सहज मार्ग
भक्त होने में इतनी कठिनाइयां क्या है ? भक्त का जीवन तो शांतिपूर्ण एवं आनंदमय है |
किंचित प्रकारे ण, कुसंगतियों के कारण लोग अपरिपक्व हैं; अतः वे सतर्क नहीं रहते हैं| वह भूल
करते हैं; और उनका पतन हो सकता है | इसके बावजूद, उनका क्या ह्रास हुआ है ? उनकी कोई
क्षति नहीं हुई है |9 इसके विपरीत, वे अत्यंत लाभान्वित हुए हैं| और यह आध्यात्मिक धन की
तरह है जो जन्म-जन्मांतर उनके साथ रहता है | लोगों को भक्ति करने का अवसर-लाभ लेना
चाहिए| यही उनके उद्धार का महानतम अवसर है | इससे श्रेष्ठतर कोई सेवा नहीं है जो करने
ू -जीवन भक्ति मार्ग पर नहीं रह सका, तो भी क्या क्षति है | किंतु
योग्य हो| यदि कोई सम्पर्ण
यदि कोई भक्ति में संलग्न न हुआ, तो उससे क्या लाभ? उसे पुनः जीवन की उसी चार
समस्याओं: जन्म, मत्ृ यु, जरा, व्याधि का सामना करना पड़ेगा| उनके लिए भक्ति-योग के
अलावा और कोई आशा नहीं है | परन्तु वे जो भक्ति में संलग्न है , उनकी सफलता की पूर्ण-
आशा है | एवं यहाँ कोई क्षति है ही नहीं| यह महान सनत ्-कुमार, जो कृष्णभावनामत
ृ की शिक्षा
न केवल महाराज पथ
ृ ु अपितु वहाँ उपस्थित सभी गणमान्य व्यक्तियों और हम सभी को
प्रदान कर रहे है , की विशेष कृपा है | अतएव हम उनके उपदे शों से लाभान्वित हो सकते हैं तथा
श्रील प्रभप
ु ाद का अनस
ु रण एवं हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हुए भक्ति में एकाग्रचित्त हो
सकते है , अंततः हम भगवद्-धाम को प्राप्त कर सकते हैं|
लिए किसी लोक में कोई स्थान नहीं रहता? हे कृष्ण! यही मेरा सन्दे ह है , और मैं आपसे इसे पर्ण
ू तया दरू करने
की प्रार्थना कर रहा हूँ| आपके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नहीं है , जो इस सन्दे ह को नष्ट कर सके | भगवान ् ने
कहा – हे पथ
ृ ापुत्र! कल्याण-कार्यों में निरत योगी का न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है | हे
मित्र! भलाई करने वाला कभी बुरे से पराजित नहीं होता| असफल योगी पवित्रात्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षों
तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या धनवानों के कुल में जन्म लेता है | अथवा (यदि
दीर्घकाल तक योग करने के बाद असफल रहे तो) वह ऐसे योगियों के कुल में जन्म लेता है जो अति बद्धि
ु मान
हैं| निश्चय ही इस संसार में ऐसा जन्म दर्ल
ु भ है | हे कुरुनन्दन! ऐसा जन्म पाकर वह अपने पूर्वजन्म की दै वी
चेतना को पुनः प्राप्त करता है और पूर्ण सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से वह आगे उन्नति करने का प्रयास
करता है | (श्रीमद्-भगवद्गीता 6.37-43)
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नेहाभिक्रमनाशो एस स्ति प्रत्यवायो न विद्यते |
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात ् || 40 ||
इस प्रयास में न तो हानि होती है न ही ह्रास अपितु इस पथ पर की गई अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा
कर सकती है | (श्रीमद्-भगवद्गीता 2.40)
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे