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गौतम बुद्ध और विपस्सना ध्यान योग

डॉ. आभा सिंह


असिस्टेंट प्रोफे सर/परामर्शदाता, शालाक्यतंत्र विभाग
उत्तराखण्ड आयुर्वेद विश्वविधालय,हर्रावाला, देहरादून

गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी में हुआ था, जो नेपाल में है।1 कपिलवस्तु की महारानी
महामाया देवी के अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने एक बालक को जन्म दिया। शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया।2 गौतम गोत्र में जन्म लेने
के कारण वे गौतम भी कहलाए। क्षत्रिय राजा शुद्धोधन उनके पिता थे। परंपरागत कथा के अनुसार सिद्धार्थ की माता का उनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था।
उनका पालन पोषण उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी महाप्रजावती (गौतमी)ने किया। शिशु का नाम सिद्धार्थ दिया गया, जिसका अर्थ है "जो सिद्धी प्राप्ति के लिए
जन्मा हो"।

सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद्‌को तो पढ़ा हीं, राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का कन्या यशोधरा के साथ
विवाह हुआ। पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ। सुंदर
पत्नी यशोधरा, दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़े। वह राजगृह पहुँचे। वहाँ भिक्षा माँगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार
कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचे। उनसे योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचे और वहाँ पर तरह-तरह से
तपस्या करने लगे।

वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ। उसने बेटे के लिए एक वटवृक्ष की मनौती मानी थी। वह मनौती
पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहा था। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर
बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’ उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की
साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ 'बुद्ध' कहलाए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह
स्थान बोधगया।3

क्या है विपस्सना - विपस्सना मनुष्य-जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान-प्रयोग है। विपस्सना अपूर्व है! विपस्सना शब्द का अर्थ होता है: देखना, लौटकर
देखना। बुद्ध कहते थे: इहि पस्सिको, आओ और देखो! बुद्ध किसी धारणा का आग्रह नहीं रखते। बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर को मानना न मानना, आत्मा को मानना
न मानना आवश्यक नहीं है। बुद्ध का धर्म अके ला धर्म है इस पृथ्वी पर जिसमें मान्यता, पूर्वाग्रह, विश्वास इत्यादि की कोई भी आवश्यकता नहीं है। बुद्ध का धर्म अके ला
वैज्ञानिक धर्म है। बुद्ध कहते: आओ और देख लो। मानने की जरूरत नहीं है। देखो, फिर मान लेना। और जिसने देख लिया, उसे मानना थोड़े ही पड़ता है; मान ही लेना पड़ता
है। और बुद्ध के देखने की जो प्रक्रिया थी, दिखाने की जो प्रक्रिया थी, उसका नाम है विपस्सना। यह आत्मनिरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की अत्यंत पुरातन साधना-विधि है।
लगभग २५०० वर्ष पूर्व भगवान गौतम बुद्ध ने विलुप्त हुई इस पद्धति का पुन: अनुसंधान कर इसे सार्वजनीन रोग के सार्वजनीन इलाज, जीवन जीने की कला, के रूप में
सर्वसुलभ बनाया। इस सार्वजनीन साधना-विधि का उद्देश्य विकारों का संपूर्ण निर्मूलन एवं परमविमुक्ति की अवस्था को प्राप्त करना है। इस साधना का उद्देश्य के वल शारीरिक
रोगों को नहीं बल्कि मानव मात्र के सभी दुखों को दूर करना है। अपने ही शरीर और चित्तधारा पर पल-पल होनेवाली परिवर्तनशील घटनाओं को तटस्थभाव से निरीक्षण करते
हुए चित्तविशोधन का अभ्यास हमें सुखशांति का जीवन जीने में मदद करता है। हम अपने भीतर शांति और सामंजस्य का अनुभव कर सकते हैं। हमारे विचार, विकार,
भावनाएं, संवेदनाएं जिन वैज्ञानिक नियमों के अनुसार चलते हैं, वे स्पष्ट होते हैं। अपने प्रत्यक्ष अनुभव से हम जानते हैं कि कै से विकार बनते हैं, कै से बंधन बंधते हैं और कै से
इनसे छु टकारा पाया जा सकता है। हम सजग, सचेत, संयमित एवं शांतिपूर्ण बनते हैं।

कै से करें विपस्सना - यह बड़ा सीधा-सरल प्रयोग है । अपनी आती-जाती श्वास के प्रति साक्षीभाव। श्वास जीवन है । श्वास
से तु है । इस पार दे ह है , उस पार चै तन्य है , मध्य में श्वास है । प्राणायाम और विपस्सना में यही भे द है । प्राणायाम में
श्वास को बदलने की चे ष्टा की जाती है , विपस्सना में श्वास जै सी है वै सी ही दे खने की आकां क्षा है । जै सी है —ऊबड़-खाबड़
है , अच्छी है , बु री है , ते ज है , शांत है , दौड़ती है , भागती है , ठहरी है , जै सी है ! 
बु द्ध कहते हैं , तु म अगर चे ष्टा करके श्वास को किसी तरह नियोजित करोगे , तो चे ष्टा से कभी भी महत फल नहीं होता।
चे ष्टा तु म्हारी है , तु म ही छोटे हो; तु म्हारी चे ष्टा तु मसे बड़ी नहीं हो सकती। तु म्हारे हाथ छोटे हैं ; तु म्हारे हाथ की जहां -जहां
छाप होगी, वहां -वहां छोटापन होगा। इसलिए बु द्ध ने यह नहीं कहा है कि श्वास को तु म बदलो। बु द्ध ने प्राणायाम का
समर्थन नहीं किया है । बु द्ध ने तो कहा: तु म तो बै ठ जाओ, श्वास तो चल ही रही है ; जै सी चल रही है बस बै ठकर दे खते रहो।
यदि तु म श्वास को ठीक से दे खते रहो, तो अनिवार्य रूपे ण, अपरिहार्य रूप से , शरीर से तु म भिन्न अपने को जानोगे । श्वास
को दे खने के लिए जरूरी हो जाये गा कि तु म अपनी आत्मचे तना में स्थिर हो जाओ। बु द्ध कहते नहीं कि आत्मा को मानो।
ले किन श्वास को दे खने का और कोई उपाय ही नहीं है । जो श्वास को दे खेगा, वह श्वास से भिन्न हो गया, और जो श्वास से
भिन्न हो गया वह शरीर से तो भिन्न हो ही गया। क्योंकि शरीर सबसे दरू है ; उसके बाद श्वास है ; उसके बाद तु म हो। अगर
तु मने श्वास को दे खा तो श्वास के दे खने में शरीर से तो तु म अनिवार्य रूपे ण छट ू गए। शरीर से छट ू ो, श्वास से छटू ो, तो
शाश्वत का दर्शन होता है । उस दर्शन में ही उड़ान है , ऊंचाई है , उसकी ही गहराई है । बाकी न तो कोई ऊंचाइयां हैं जगत में ,
न कोई गहराइयां हैं जगत में । बाकी तो व्यर्थ की आपाधापी है । और निर्चुनाव—बिना चु ने दे खने में बड़ी शां ति है । अपने
करने का कोई प्रश्न ही न रहा। जै सा है ठीक है । जै सा है शु भ है । जो भी गु जर रहा है आं ख के सामने से , हमारा उससे कुछ
ले ना-दे ना नहीं है । तो उद्विग्न होने का कोई सवाल नहीं, आसक्त होने की कोई बात नहीं। जो भी विचार गु जर रहे हैं ,
निष्पक्ष दे ख रहे हो। श्वास की तरं ग धीमे -धीमे शांत होने लगे गी। श्वास भीतर आती है , अनु भव करो स्पर्श...नासापुटों में ।
श्वास भीतर गयी, फेफड़े फैले ; अनु भव करो फेफड़ों का फैलना। फिर क्षण-भर सब रुक गया...अनु भव करो उस रुके हुए क्षण
को। फिर श्वास बाहर चली, फेफड़े सिकुड़े , अनु भव करो उस सिकुड़ने को। फिर नासापुटों से श्वास बाहर गयी। अनु भव करो
उत्तप्त श्वास नासापुटों से बाहर जाती। फिर क्षण-भर सब ठहर गया, फिर नयी श्वास आयी। यह पड़ाव है । श्वास का भीतर
आना, क्षण-भर श्वास का भीतर ठहरना, फिर श्वास का बाहर जाना, क्षण-भर फिर श्वास का बाहर ठहरना, फिर नयी श्वास
का आवागमन, यह वर्तुल है —वर्तुल को चु पचाप दे खते रहो। यही विपस्सना का अर्थ है । 
क्या होगा इसे दे खने से ? इसे दे खने से अपूर्व होता है । इसके दे खते -दे खते ही चित्त के सारे रोग तिरोहित हो जाते हैं ।
इसके दे खते -दे खते ही, मैं दे ह नहीं हं ,ू इसकी प्रत्यक्ष प्रतीति हो जाती है । इसके दे खते -दे खते ही, मैं मन नहीं हं ,ू इसका
स्पष्ट अनु भव हो जाता है । और अं तिम अनु भव होता है कि मैं श्वास भी नहीं हं ।ू
और विपस्सना की सु विधा यह है कि कहीं भी कर सकते हो। किसी को कानों-कान पता भी न चले । बस में बै ठे, ट् रेन में सफर
करते, कार में यात्रा करते , राह के किनारे , दुकान पर, बाजार में , घर में , बिस्तर पर ले टे...किसी को पता भी न चले ! क्योंकि न
तो कोई मं तर् का उच्चार करना है , न कोई शरीर का विशे ष आसन चु नना है । धीरे -धीरे ...इतनी सु गम और सरल बात है और
इतनी भीतर की है , कि कहीं भी कर ले सकते हो।

बु द्ध कहते हैं : ईश्वर को मानना मत, क्योंकि शास्त्र कहते हैं ; मानना तभी जब दे ख लो। बु द्ध कहते हैं : इसलिए भी मत
मानना कि मैं कहता हं ।ू मान लो तो चूक जाओगे । दे खना, दर्शन करना। और दर्शन ही मु क्तिदायी है । मान्यताएं हिं द ू बना
दे ती हैं , मु सलमान बना दे ती हैं , ईसाई बना दे ती हैं , जै न बना दे ती हैं , बौद्ध बना दे ती हैं ; दर्शन तु म्हें परमात्मा के साथ एक
कर दे ता है । फिर तु म न हिं द ू हो, न मु सलमान, न ईसाई, न जै न, न बौद्ध; फिर तु म परमात्ममय हो। और वही अनु भव पाना
है । वही अनु भव पाने योग्य है ।4 

संदर्भ-

1. Indian Rationalism, Charvaka to Narendra Dabholkar


2. The Dating of the Historical Buddha: A Review Article
3. http://hindi.webdunia.com/buddhismreligion/%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA
%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF%E0%A4%97%E0%A5
4. https://www.osho.com/hi/meditate/meditation-tool-kit/questions-about-meditation/what-is-vipassana

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