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यज्ञ मीमांसा

अरुण कु मार उपाध्याय


१. यज्ञ सम्बन्धी सन्देह- इस लेख का उद्देश्य यज्ञ सम्बन्धी कई धारणाओं और सन्देहों का निराकरण है-
(१) अग्नि में मन्त्रों के उच्चारण सहित घी या अन्य सामगी की आहुति देना ही यज्ञ है।
(२) कु छ पदार्थों की आहुति से वातावरण पवित्र होता है।
(३) यज्ञ द्वारा वर्षा या सन्तानोत्पत्ति की जा सकती है।
(४) बहुत प्राचीन काल में वैदिक युग था तब यज्ञ होते थे।
(५) यज्ञ में पशुबलि होती है।
(६) सारा जीवन दैनिक, मासिक, वार्षिक यज्ञ करने चाहिये।
(७) यज्ञ ही श्रेष्ठतम कर्म है।
(८) यज्ञ करके बचा हुआ हविष्यान्न ही खाना चाहिये।
(९) सोम तथा अग्नि का मिलन ही यज्ञ है।
२. यज्ञ की परिभाषा-इन सन्देहों के निराकरण के लिये सर्वप्रथम यज्ञ की परिभाषा निर्धारित करनी होगी। इसके लिये गीता के माध्यम से समझना अधिक
उपयोगी होगा। वेद का अर्थ बाह्मण ग्रन्थ हैं या नहीं, इस चर्चा का यहां कोई महत्त्व नहीं है। वेद को समझने के लिये ब्राह्मण ग्रन्थ (ब्राह्मण = व्याख्या, आरण्यक
= प्रयोग, तथा उपनिषद् = सिद्धान्त) तथा इनके अतिरिक्त कल्प, गाथा, नाराशंसी, पुराण, विद्या, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान, अनुव्याख्यान, इतिहास आदि
इसके अर्थ को समझने के लिये आवश्यक हैं। वे वेद के अङ्ग माने जायें या नहीं, वेद का अर्थ समझने के लिये ये आवश्यक हैं-
अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतत् यद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदाथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं, विद्या उपनिषदः श्लोका सूत्राण्यनुव्याख्यानानि
व्याख्यानान्यस्यैवैतानि सर्वाणि निःश्वसितानि। (शतपथ ब्राह्मण १४/४/१०, बृहदारण्यक उपनिषद् २/४/१०)
एवमिमे सर्वे वेदा निर्मिताः सकल्पाः सरहस्याः सब्राह्मणाः सोपनिषत्काः सेतिहासाः सान्वाख्यानाः सपुराणाः सस्वराः ससंस्काराः सनिरुक्ताः सानुशासनाः
सानुमार्जनाः सवाकोवाक्याः। (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व २/४)
इन सैद्धान्तिक चर्चाओं के अतिरिक्त पुराणों से पता चलता है कि वास्तव में यज्ञ कै से हुये थे-
इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपवृंहयेत्। बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति॥ (महाभारत, १/१/१६७)
उपनिषद् वेद के सिद्धान्त हैं तथा गीता उनका सार-सङ्कलन है-सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपङ्कज विनिर्गता॥ (गीता माहात्म्य)
निराकार परमेश्वर की वाणी वेद रूप में कै से प्रकट हुई, इसका कोई तार्कि क या व्यावहारिक वर्णन नहीं है। किन्तु गीता परमेश्वर के संनिकर्ष मनुष्य रूप में
श्रीकृ ष्ण की वाणी है।
यज्ञ परिभाषा सम्बन्धी गीता वाक्य निम्नलिखित हैं
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। (गीता ३/९)
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविध्यष्वमेषवोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ (गीता ३/१०)
एवं प्रवर्तितं चक्रं ... (गीता ३/१६)
अतः यज्ञ के लक्षण हैं-(१) यह एक विशेष प्रकार का कर्म है। (२) यज्ञ प्रजा के साथ ही उत्पन्न हुआ। अतः यह सदा रहेगा जब तक प्रजा रहेगी। (३) इससे
उपयोगी वस्तु का उत्पादन होता है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार कोई नयी वस्तु नहीं बनती है। पुरानी वस्तुओं के अणुओं के मिलन से नयी वस्तु बनती है। यह
अग्नि तथा सोम का मिलन ४ प्रकार का है। (४) इष्ट वस्तु का उत्पादन ही यज्ञ है। उसके साथ अनुपयोगी वस्तु भी हो सकती है। (५) यज्ञ प्रक्रिया चक्र में होती
है। इसके ३ अर्थ हैं-(क) उत्पादन के लिये सदा नयी स्थिति बनाने की आवश्यकता नहीं है, (ख) यज्ञ का चक्र सदा चलने पर ही मनुष्य सभ्यता चल सकती
है, (ग) जिस वस्तु द्वारा सभी प्रकार के यज्ञ चक्र चलते रहें, वही उपयोगी हैं।
इन ५ लक्षणों से युक्त कार्य यज्ञ है। अतः इसकी परिभाषा हुयी-
यज्ञ वह कर्म है जो चक्रीय क्रम में इच्छित वस्तु का उत्पादन करता है।
गीता अध्याय ८ में अन्य प्रकार से इसे समझाया गया है। सम्पूर्ण विश्व ब्रह्म है। इसमें हर प्रकार की आन्तरिक तथा बाह्य गति है। जो गति दीखती है , वह कर्म
है। आधुनिक भौतिक विज्ञान में कर्म की परिभाषा है-
कर्म = बल x विस्थापन
हर प्रकार का कर्म यज्ञ नहीं है। वृक्ष से पत्ते गिरना, वस्तुओं का पुराना होकर या अन्य कारण से नष्ट होना कर्म है, पर यज्ञ नहीं है। वही कर्म यज्ञ है, जो चक्र में
इष्ट वस्तु का उत्पादन करे।
३. अग्नि-सोम का मिलन-ब्रह्मरूप सभी पदार्थों को २ भागों में बांटा गया है-अग्नि, तथा सोम। अग्नि के कई अर्थ हैं-वह्नि (आग), अग्रणी (नेता, प्रथम उत्पन्न),
ठोस पिण्ड (पृथ्वी = पृथुल)। इन सभी का समन्वय करने से पदार्थ (या ऊर्जा) का घनीभूत रूप अग्नि है। सृष्टि प्रक्रिया में पदार्थ क् क्रमशः सघन रूप बनता
है, अतः प्रथम क्रिया अग्नि या सघन रूप ही है। मनुष्य रूप नेता में सभी वैधानिक सक्तियां घनीभूत रहती हैं। वह अग्रणी इस अर्थ में है कि उसके आदेश के
अनुसार लोग काम करते हैं। इसके विपरीत आकाश में प्रसारित पदार्थ सोम है, जो विरल पदार्थ या शक्ति है। यह अग्नि द्वारा नियन्त्रित होता है। ज्वाला रूप अग्नि
भी ऊर्जा या ताप का सघन रूप है।
अग्नि-सोम का मिलन ४ प्रकार से होता है-
(१) अग्नि + अग्नि -जैसे ईंट पर ईंट जोड़कर दीवाल बनती है। परमाणु कणों से परमाणु, उनसे अणु, शरीर कोष (कलिल = Cell), शरीर आदि बनते हैं।
(२) अग्नि + सोम (क) अग्नि में सोम की आहुति। जैसे कार के इञ्जन में पेट्रोल जलने से इच्छित गति होती है।
(ख) अग्नि का सोम रूप में प्रसार-मुक्त रूप में अग्नि फै ल कर सोम हो जाता है। अग्नि का विकिरण घनीभूत के न्द्रीय स्थान से सरल रेखा में होता है। इसका
धारण श्रवा (रेखा) द्वारा होने के कारण कहा है कि श्रद्धा से सोम होता है-श्रद्धत्स्व सोम्येति। (छान्दोग्य उपनिषद् ६/१२/३)। सामान्यतः किसी श्रेष्ठ मनुष्य के
प्रति अन्य का अनुगत सम्बन्ध श्रद्धा कहा जाता है। यह भी दो व्यक्तियों के बीच रैखिक सम्बन्ध माना जा सकता है।
(३) सोम + सोम -प्रसारित पदार्थों का मिलन, जैसे हवा में गैसों का मिश्रण, पानी में चीनी का घोल, नदी की धारा को विभाजित कर सिंचाई, पीने के लिये
व्यवहार।
४. चक्रीय क्रम- आधुनिक पदार्थ विज्ञान में उष्मा-गतिकी के द्वितीय नियम में सादी कार्नो द्वारा कहा गया है कि चक्रीय क्रम में ही इञ्जन सबसे ज्यादा कार्य
करता है (यथा फे मान लेक्चर्स इन फिजिक्स, पृष्ठ ५५७-५६०)। छान्दोग्य उपनिषद् में निर्माण क्रम के ५ या ७ भाग बताये गये हैं-पञ्चविध या सप्तविध साम
(अध्याय २)। उसी अध्याय में सम्वत्सर, पति-पत्नी मिलन, वर्षा, मनुष्य शरीर का निर्माण, सृष्टि आदि के ५ खण्डों को अलग अलग साम कहा गया है। यह
सभी यज्ञ हैं। विशेषकर सृष्टि निर्माण का क्रम ५ पशुओं के रूप में कहा गया है-अज, अवि, गो, अश्व, मनुष्य। इसी अर्थ में पुरुष की उत्पत्ति ५वीं आहुति में
कही गयी है (छान्दोग्य उपनिषद्, ५/९)। यहां पशु का अर्थ कु छ विशेष गुण-कर्मों के पदार्थ हैं। वैसे गुण वाले पशुओं को वही नाम दिया गया है। आहुति का अर्थ
भी आग में किसी पदार्थ को जलाना नहीं है, वरन् एक पदार्थ का क्रमशः अगले पदार्थों में रूपान्तर है।
गीता में इस चक्रीय क्रम को ७ खण्डों में बांटा गया है-
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः। यज्ञाद् भवन्ति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः॥१४॥
कर्मं ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्भवम्। तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥१५॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥
(गीता, अध्याय ३)
(१) अक्षर-यह चेतन कर्त्ता रूप है-क्षरः सर्वाणि भूतानि कू टस्थोऽक्षर उच्यते। (गीता, १५/१६)।
(२) ब्रह्म-सर्वगत अर्थात् सभी पदार्थों में है। यहां सर्व-व्यापी पदार्थ को ब्रह्म कहा है, उसका कर्त्ता रूप अक्षर है।
(३) कर्म-जिस पदार्थ की स्पष्ट गति है, वह कर्म है। शुक्ल कर्म बाहर से दीखता है, कृ ष्ण गति बाहर से नहीं दीखती। जैसे मनुष्य का चलना, हाथ-पैर हिलाना
आदि शुक्ल गति है। शरीर के भीतर का पाचन, श्वास, चिन्तन, नाड़ी में प्राण का प्रवाह आदि कृ ष्ण गति हैं। उसी प्रकार पार्थिव शरीर के अङ्ग पृथ्वी के तत्त्वों में
लीन होना कृ ष्ण गति है-पृथ्वी के बाहर से देखने पर यह आन्तरिक परिवर्त्तन है। जो भाग सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड से सम्बन्धित हैं, वे अपने मूल स्रोत में मिलते
हैं। वह शुक्ल गति होगी। (गीता, ८/२२-२६)।
(५) यज्ञ-जो कर्म चक्रीय क्रम में इष्ट उत्पादन करता है, वह यज्ञ है।
(५) पर्जन्य-इसका शाब्दिक अर्थ मेघ है। पर यहां मेघ अर्थ उद्दिष्ट नहीं है। इसके ४ खण्ड हैं-परि+जन्य। अर्थात् जनन के लिये परिस्थिति या वातावरण करना।
पर्जन्य के २ खण्ड हुये-क्रिया या उत्पादन का क्षेत्र, उसमें निर्माण योग्य परिस्थिति और साधन। मनुष्य के लिये सबसे जरूरी भोजन है, उसका उत्पादन कृ षि
ही मूल यज्ञ है। उस यज्ञ के लिये मुख्य पर्जन्य मेघ है।
(६) अन्न-जिस पदार्थ का उपभोग किया जा सके , वह अन्न है। जैसे सम्पत्ति (अन्न) का भोक्ता (अन्नाद) बड़ा भाई होता है। अतः बड़े भाई को अन्ना कहते हैं
(दक्षिण भारत में)। अत्ता हि वीरः (वीरभोग्या वसुन्धरा के अर्थ में)-शतपथ ब्राह्मण (४/२/१/९)। अतः उत्तर-पश्चिम भारत में बड़े भाई को वीर कहते हैं। मोटर
कार में पेट्रोल जलता है, उसके लिये वही अन्न है। पढ़ाने में मस्तिष्क की शक्ति खर्च होती है। अधिक परिश्रम होने पर कहते भी हैं-मेरा सिर मत खाओ।
(७) भूत-भूत का अर्थ चर-अचर, सजीव-निर्जीव सभी हैं। अन्न के उपभोग द्वारा क्रियाशील पदार्थ भूत है।
पुनः (१) अक्षर-भूतों का क्रियाशील रूप ही अक्षर है। क्षर ब्रह्म पदार्थों की संहति है, जिसकी रचना में सदा परिवर्तन होता रहता है। लेकिन कार्यरूप परिचय
वही रहता है, जो दीखता नहीं है। अतः कू टस्थ कहा जाता है।
५. यज्ञ तथा काल-यज्ञ के चक्रीय क्रम के काल द्वारा ही काल की माप होती है। पुरुष ४ पाद का होने से अज कहा जाता है। उसमें परात्पर का शाब्दिक वर्णन
सम्भव नहीं है, अतः वर्णनीय रूप में उत्तम अव्यय को पुरुषोत्तम या अज कहते हैं_
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कू टस्थोऽक्षर उच्यते॥१६॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१७॥
यस्मात् क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥१८॥ (गीता, अध्याय १५)
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। (गीता, ४/६)
काल के २ रूपों का ज्योतिष में वर्णन है-नित्य काल सदा लोकों का क्षरण करता है, जन्य काल मापा जाता है जिसके द्वारा ज्योतिष की गणनायें होती हैं-
लोकानामन्तकृ त् कालः, कालोऽन्यः कलनात्मकः। (सूर्य-सिद्धान्त, १/१०)।
जब काल नित्य है, तो लोक (विश्व या व्यक्ति अनित्य या क्षरणशील होते हैं। क्षरण की प्रक्रिया एक ही दिशा में चलती है। प्रत्येक सजीव या निर्जीव वस्तु सदा
पुरानी होती रहती है, अन्त में नष्ट हो जाती है। एक बार जो अवस्था चली गयी, वह वापस नहीं आती। अतः नित्य काल को मृत्यु भी कहते हैं।
कालोऽस्मि लोक क्षय कृ त् प्रवृद्धो, लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। । (गीता, १०/३२)
इसका प्रथम भाग नित्य काल की परिभाषा है, द्वितीय भाग तात्कालिक कर्म है (महाभारत युद्ध में लोकों का विनाश)।
मनुष्य का स्थूल शरीर बालक से बूढ़ा हो सकता है, पर वापस बच्चा नहीं हो सकता। कच्चा फल पक कर सड़ जाता है, पर वह पुनः कच्चा नहीं होता। आग से
निकल कर धुआं फै ल जाता है, वापस नहीं सिमटता। किन्तु कु छ क्रियायें एक ही प्रकार के चक्र में चलती रहती हैं। प्राकृ तिक चक्र हैं-दिन-रात (पृथ्वी का
अक्ष-भ्रमण), मास (चन्द्र की सूर्य सापेक्ष गति), वर्ष (पृथ्वी द्वारा सूर्य परिक्रमा का काल)। सामान्यतः प्रत्येक चक्र में निर्माण का खण्ड दिन तथा विनाश
भाग रात्रि कहते हैं-
आब्रह्म भुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन॥१६॥
सहस्र युग पर्यन्तमहर्यद् ब्रह्मणॊ विदुः। रात्रिं युग सहस्रान्तां तेऽहोरात्र विदो जनाः॥१७॥
अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वे प्रभवन्त्यहरागमे। रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त संज्ञके ॥१८॥ (गीता, अध्याय ८)
यजुर्वेद की विभिन्न शाखाओं में इसे दर्शपूर्णमास यज्ञ कहा गया है। यह चान्द्रमास से सम्बन्धित शब्द है, पर सभी निर्माण- विनाश चक्रों के लिये प्रयुक्त है। दर्श
(चन्द्र-दर्शन से चान्द्र-मास का आरम्भ) से पूर्णिमा तक काल निर्माण प्रक्रिया है, जब चन्द्रमा का प्रकाश बढ़ता है। पूर्णिमा से दर्श तक का काल प्रकाश का क्षय
होता है, वह विनाश या ह्रास का क्रम है। पक्ष में इसे शुद्ध या बहुल दिवस (सुदी-बदी) कहा गया है। लोक-भाषा में इसे गमन-वापसी कहा गया है-गयी बहोर
गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू। (रामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड)। जगन्नाथ रथ यात्रा सृष्टि-यज्ञ का प्रतीक है, इसमें भी वापसी यात्रा को बहुला कहते
हैं-यह दिव्य दिन के अहः भाग (उत्तरायण) की समाप्ति पर होता है-
अहोरात्रिश्च ते पार्श्वे (उत्तर नारायण सूक्त, वाजसनेयि यजुर्वेद ३१/२२)।
अव्यय पुरुष परिवर्तन का क्रम है, जो वृक्ष कहा गया है। इसमें निर्माण का आरम्भ मूल या ऊर्ध्व है तथा उससे सृष्टि की विभिन्न दिशायें शाखा हैं-
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्। (गीता १५/१)
ऐसे विभिन्न निर्माण क्रमों तथा उनकी संहति को वेद में वृक्ष तथा वन कहा गया है-
किं स्विद् वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावा पृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तत् यदध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्॥
(ऋक् , १०/८१/४, तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/९/१५, तैत्तिरीय संहिता, ४/६/२/१२)
ब्रह्म वनं ब्रह्म स वृक्ष आसीत् यतो द्यावा पृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा विब्रवीमि वो ब्रह्माध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/९/१६)
इसे ही अश्वत्थ भी कहा है-
अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृ ता। (ऋक् १०/९७/५)।
निर्माण में कोई नयी चीज नहीं बनती, पुरानी चीजों का ही पुनर्विन्यास होता है। अतः इसे अज = अजन्मा कहा गया है। भौतिक विज्ञान में इसे ५ प्रकार के
संरक्षण सिद्धान्त द्वारा वर्णन किया गया है-मात्रा, आवेग, कोणीय आवेग, परमाणु कणों में स्पिन का संरक्षण या (मात्रा + ऊर्जा) का संरक्षण। वेद में भी अव्यय
पुरुष की ५ कलायें हैं-आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण, वाक् (तैत्तिरीय उपनिषद्, भृगुवल्ली आदि में)। पर इनका अलग वर्गीकरण है।
कलनात्मक काल में भौतिक विज्ञान में अभी भी सन्देह है कि यन्त्र विज्ञान तथा विद्युत्-चुम्बकत्व में वर्णित काल एक ही हैं या अलग। यह गणना की सबसे
कठिन समस्या है, अतः कृ ष्ण ने गणना में अपने को कलनात्मक काल कहा है-
कालः कलयतामहम् । (गीता, १०/३०)
अव्यय पुरुष से सम्बन्धित काल को अक्षय काल कहा है, जिसे गुरु-ग्रन्थ साहब के प्रथम छन्द में अकाल-पुरुष कहा है-
अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतो मुखः (गीता, १०/३३)
अतः पुरुष तथा काल के ४ पादों की तुलना इस प्रकार है-
पुरुष काल वर्णन
क्षर नित्य सदा क्षरण(Thermodynamic arrow of Time)
अक्षर जन्य यज्ञ द्वारा निर्माण (Measurable time-cycles)
अव्यय अक्षय संरक्षण सिद्धान्त
परात्पर परात्पर वर्णन से परे
६. प्राकृ तिक चक्र के अनुसार मनुष्य यज्ञ- हमारे सभी कार्य प्राकृ तिक काल-चक्र के अनुसार होते हैं-
(१) पृथ्वी का अक्ष-भ्रमण-यह दिन-रात का चक्र है। दैनिक कर्त्तव्य को अग्निहोत्र कहते हैं क्योंकि पृथ्वी को भी अग्नि कहते हैं-
यथाग्निगर्भा पृथिवी यथा द्यौरिन्द्रेण गर्भिणी (बृहदारण्यक उपनिषद् ६/४/२२)
दिन-रात में २ प्राकृ तिक अग्नि-चक्र हैं-(१) भोजन बनाने के लिये प्रतिदिन चूल्हा जलाना पड़ता है, (२) भोजन के बाद अन्न पचाने के लिये पेट के पाचन रसों
की रासायनिक शक्ति का तथा आन्तरिक अङ्गों की क्रिया होती है जिसे जठराग्नि कहते हैं।
विश्व के ५ पर्व भी अग्नि हैं, जो मूल अव्यक्त तत्त्व का क्रमशः घनीकरण हैं। सबसे घना पिण्ड पृथ्वी है जो अन्तिम अग्नि है अतः इसे ही अग्नि कहते हैं। ५ पर्व हैं-
स्वायम्भुव (अनन्त आकास में आकाशगंगाओं का समूह), परमेष्ठी (आकाशगंगा), सौरमण्डल, चान्द्र मण्डल (चन्द्र कक्षा का गोला), पृथ्वी। विश्व के ५ पर्वों
के अनुरूप रुद्र-यामल तन्त्र में ५ दैनिक सन्ध्या कही गयी है। दिन-राति में गणित के अनुसार ४ सन्ध्या हैं-दिन और रात्रि की सन्धियां तथा उनके मध्य विन्दु।
प्रातः काल एक और जोड़कर ५ सन्ध्या की जाती है। इसी प्रकार इस्लाम में प्रतिदिन ५ नमाज होते हैं। एक सन्ध्या मध्यरात्रि है, जिसमें सभी सोये रहते हैं,
उसकी सन्ध्या या नमाज सोने से पहले होती है। सामान्य गृहस्थ मध्यरात्रि को छोड़कर ३ सन्ध्या करता है। दैनिक कर्त्तव्यों को ५ महायज्ञ कहा गया है
(शतपथ ब्राह्मण ११/५/६/१-३)-(१) देव यज्ञ, (२) भूत यज्ञ, (३) मनुष्य यज्ञ, (४) पितृ यज्ञ, (५) ब्रह्म यज्ञ। इन ५ यज्ञों को विश्व के ५ पर्वों की प्रतिमा
भी मान सकते हैं-ब्रह्म पूरा विश्व है, आकाश गंगा पितर है जो रात्रि काल में दीखता है, सौर मण्डल के प्राण देव हैं, वृक्ष तथा अन्या भूत चन्द्र पर निर्भर हैं,
तथा मनुष्य पृथ्वी पर आधारित है। ५ महायज्ञ ५ प्रकार के दैनिक पापों का निराकरण करते हैं-चुल्ही, चक्की, झाड़ू , घड़ा तथा छु री से दैनिक हिंसा होती है।
यह समाज द्वारा हमारे ऊपर ३ प्रकार के ऋणों से भी उद्धार है-देव, ऋषि, पितृ ऋण। दो अन्य यज्ञ मनुष्य तथा भूत यज्ञ पशु तथा मनुष्यों पर हमारी निर्भरता
का प्रत्युपकार हैं। परिवेश द्वारा हमारा पालन होने के बदले देव-यज्ञ है। समाज में ज्ञान परम्परा का रक्षण और विकास ब्रह्म यज्ञ है। कई प्रकार के पितरों या
उत्पादन साधनों-देव, ऋषि, ऋतु तथा मानव पितरों, तथा आकाश में उनके स्थानों (चन्द्र, शनि = यमलोक) का ऋण चुका कर उनको शक्ति देते हैं जिससे
व हमारा भी विकास करें।
(२) मास-सूर्य तुलना में चन्द्र गति के कारण चन्द्र के प्रकाशित भाग (कला) का चक्र प्रायः ३० दिनों में होता है। यह १ मास हुआ जिसके २ पक्ष हैं-दर्श (शुक्ल
पक्ष के आरम्भ में द्वितीय तिथि को) से पूर्ण (पूर्णिमा के दिन पूरा चन्द्र प्रकाशित) तक तथा पूर्ण से दर्श तक कृ ष्ण पक्ष। सूक्ष्म से विराट् तक सभी चक्रों को २
भाग में बांट सकते हैं, उनको उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी, उद्ग्राभ-निग्राभ आदि भी कहते हैं। यज्ञ के चक्र से ही काल की माप होती है, अतः इस काल को मास
कहते हैं। चन्द्र गति से मास या माप योग्य काल होता है, अतः चन्द्र को मास-कृ त् कहा गया है। यही अरबी में महताब हो गया है। मास का विपरीत समा है
जिसका अर्थ है वर्ष जिसमें सभी १२ मास बराबर ३० दिनों के होंगे। चन्द्र-मास का एक सम्बन्ध स्त्रियों के रजो-दर्शन से है। चन्द्र आकर्षण द्वारा मनुष्य का मन
प्रभावित होता है, जो आकाश-गंगा की प्रतिमा है-दोनों में १०११ कण हैं। अतः चन्द्र को विराट् मन से उत्पन्न कहा गया है-चन्द्रमा मनसो जातः (पुरुष सूक्त,
यजुर्वेद ३१/१२)
कोई भी पूजा मन से ही होती है अतः पूजा-स्थल को मन्दिर या मस्जिद् (मस्तिष्क) कहते हैं। हमारे व्रत और उपवास चन्द्र तिथि के अनुसार ही हैं। इसके
लिये एकादशी तिथि का द्वितीय भाग श्रेष्ठ माना गया है जिसमें वैष्णव एकादशी (जिसमें सूर्यास्त से पूर्व द्वादशी हो) या ईद (सूर्यास्त समय द्वादशी) होती है।
(३) वर्ष-यह पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा काल है, जो पृथ्वी से देखने पर सूर्य द्वारा परिक्रमा लगती है। ऋतु चक्र प्रायः पृथ्वी की ५० सेकण्ड कोण गति के
बराबर छोटा होता है क्योंकि पृथ्वी का अक्ष शंकु आकार में २६,००० वर्षों में १ चक्र विपरीत दिशा में घूम रहा है। इसे तैत्तिरीय ब्राह्मण (३/१/१/११-१२)
तथा देवी-भागवत पुराण (९/१२/४७) में कृ त्तिका नक्षत्र के न्द्र से रास कहा गया है, अतः कार्त्तिक-पूर्णिमा को रास-पूर्णिमा कहते हैं जिस दिन चन्द्र कृ त्तिका
नक्षत्र में होता है।
कार्त्तिक्यां पूर्णिमायां तु राधायाः सुमहोत्सवः॥४७॥ कृ ष्णः सम्पूज्य तं राधामुवास रासमण्डले।
कृ ष्णेन पूजितां तां तु सम्पूज्य हृष्ट मानसाः॥४८॥ (देवीभागवत पुराण, ९/१२)
तन्नो देवासो अनुजानन्तु कामम् .... दूरमस्मच्छत्रवो यन्तु भीताः।
तदिन्द्राग्नी कृ णुतां तद् विशाखे, तन्नो देवा अनुमदन्तु यज्ञम्।
नक्षत्राणां अधिपत्नी विशाखे, श्रेष्ठाविन्द्राग्नीभुवनस्य गोपौ॥११॥
पूर्णा पश्चादुत पूर्णा पुरस्तात्, उन्मध्यतः पौर्णमासी जिगाय।
तस्यां देवा अधिसंवसन्तः, उत्तमे नाक इह मादयन्ताम्॥१२॥
(तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१/१)
= देवता इन्द्राग्नि (कृ त्तिका) से विशाखा तक परिक्रमा कर हमारी कामना पूरी करते हैं। उस समय वे पूर्ण होते हैं जिसे पौर्णमासी कहते हैं। तब गति उलटी होती
है। यह परिक्रमा नाक (पृथ्वी कक्षा का उच्च विन्दु या ध्रुव) के चारो तरफ है। नाक से पृथ्वी अक्ष का २२.५ से २४.५ अंश तक झुकाव में परिवर्तन का चक्र
४१,००० वर्षों में है, जो च्युति (nutation) है।
सम्वत्सर को २ अर्थों में यज्ञ कहा गया है-
(१) सम्वत्सर = सम-वत्-सरण = साथ चलना। पूरा समाज इसी के अनुसार चलता है, अतः इसे सम्वत्सर कहते हैं। जैन परम्परा में वार्षिक समारोह को
समवसरण कहते हैं। कृ षि, व्यापार, उद्योग-सभी महत्त्वपूर्ण यज्ञ वार्षिक चक्र में ही होते हैं।
(२) सूर्य से १ वर्ष में प्रकाश जहां तक जाता है वह भी सम्वत्सर है। यह सूर्य की वाक् (प्रभाव क्षेत्र) है, इसके ६ भाग वषट् -कार (वाक् वै षट् ) हैं। पृथ्वी को
मापदण्ड मानकर इनकी त्रिज्या अहर्गण में मापी जाती है। क अहर्गण = पृथ्वी त्रिज्या x २(क-३)। ३, ९, १५, २१, २७, ३३ अहर्गण त्रिज्या के क्षेत्र ६भाग हैं।
इन क्षेत्रों में सूर्य के तेज से निर्माण होता है अतः यह सम्वत्सर भी यज्ञ है। सूर्य तेज की तीव्रता और गुणों के आधार पर उसके ५ भेद किये गये हैं जिनको ५
पशुओं का नाम दिया गया है-(१) अश्व = चलाने वाली शक्ति, (२) गौ-निर्माण का स्थान, गति तथा पदार्थ, (३) अवि (भेड़)-किरण की रैखिक गति, (४)
अज (अव्यय पुरुष, निर्माण क्रम), (५) वैश्वानर-विश्व रूप में नर, चेतन शक्ति। वर्ष के विभिन्न भागों में किये गये कार्य पशु-बन्ध हैं। ऋतु अनुसार कार्य सूर्य
की संक्रान्ति से आरम्भ होते हैं।
७. राष्ट्र -यज्ञ-(क) अश्वमेध यज्ञ के ३ रूप-अश्व या इस यज्ञ के ३ अर्थ हैं-आधिदैविक (आकाश में), आधिभौतिक (पृथ्वी पर), आध्यात्मिक (मनुष्य शरीर
के भीतर)। अश्व का मूल धातु २ हैं-अश भोजने (पाणिनीय धातुपाठ ९/५४), या अषूङ् (अश्) व्याप्तौ सङ्घाते च (५/१८)। प्रायः इसी उच्चारण की धातु है -
अस गति दीप्त्यादानेषु (१/६२५) या, अष् गति दीप्त्यादानेषु (१/६२६)। यह सर्वव्यापी शक्ति है जो गति और दीप्ति देती है। गति या ऊर्जा देने के लिये इसे
भोजन की आवश्यकता होती है। जैसे घोड़ा गाड़ी खींचता है, उसके लिये उसे भोजन की जरूरत है। गाड़ी के इञ्जन में भी पेट्रोल का भोजन मिलने पर वह
चलता है। समुद्री वायु भी अश्व है जिसे सूर्य किरणों से शक्ति मिलती है। उस शक्ति से पाल की नाव चलती है। जिस क्षेत्र में शान्त वायु है, वह भद्राश्व वर्ष है।
आधुनिक भूगोल में उसे (Horse latitude) कहते हैं (जापान-कोरिया के दक्षिण का समुद्र)-यह भारत से प्रायः ९०० अंश पूर्व है। आकाश में इसकी
उत्पत्ति परमेष्ठी मण्डल के पदार्थ से हुयी जिसे जल कहा गया है। सूर्य को इससे शक्ति मिलती है, तथा वह किरणों के रूप में ऊर्जा निकालता है। इन किरणों
को ७ प्रकार का अश्व कहते हैं। इस अर्थ में अश्व शब्द ७ संख्या का वाचक है। इन्द्रधनुष के ७ रंगों को कई लोग ७ घोड़े समझते हैं। पर सूर्य किरणों का तेज
प्रत्येक ग्रह कक्षा के पास अलग-अलग है, उन्हें ही ७ किरणें कहते हैं। कू र्म पुराण (पूर्व ४३/२-८), ब्रह्माण्ड पुराण (पूर्वभाग, अध्याय २४), तथा वायु पुराण
(५३/४४-५०) में इनके नाम हैं-
ग्रह- बुध शुक्र (विश्वव्यचाः) पृथ्वी-चन्द्र मंगल गुरु शनि नक्षत्र
नाड़ी- विश्वकर्मा विश्वश्रवा सुषुम्ना संयद् वसु अर्वाग्वसु स्वर हरिके श
दिशा- दक्षिण पश्चिम ---- उत्तर ऊपर --- पूर्व
इसका मूल भी वेदों में ही है-वाजसनेयी यजुर्वेद, अध्याय १५-अयं पुरो हरिके शः सूर्यरश्मिस्तस्य रथगृत्सश्च रथौजाश्च सेनानीग्रामण्यौ। पुञ्जिकस्थला च
क्रतुस्थला चाप्सरसौ दृङ्क्ष्णवः पशवो हेतिः पौरुषेयो वधः प्रहेतिस्तेभ्यो नमो अस्तु ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः॥
१५॥ अयं दक्षिणा विश्वकर्मा तस्य रथस्वनश्च रथेचित्रश्च सेनानी ग्रामण्यौ। मेनका च सहजन्या चाप्सरसौ यातुधाना हेती रक्षांसि प्रहेतिस्तेभ्यो नमो अस्तु ते
नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः॥१६॥ अयं पश्चाद्विश्वव्यचास्तस्य रथप्रोतश्चासमरथश्च सेनानी ग्रामण्यौ। प्रम्लोचन्ती
चानुम्लोचन्ती चाप्सरसौ व्याघ्रा हेतिः सर्पाः प्रहेतिस्तेभ्यो नमो अस्तु ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः॥१७॥ अयमुत्तरात्
संयद्वसुस्तस्य तार्क्ष्यश्चारिष्टनेमिश्च सेनानी ग्रामण्यौ। विश्वाची च घृताची चाप्सरसावापो हेतिर्वातः प्रहेतिस्तेभ्यो नमो अस्तु ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं
द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः॥१८॥ अयमुपर्यर्वाग्वसुस्तस्य सेनजिच्च सुषेणश्च सेनानी ग्रामण्यौ। उर्वशी च पूर्वचित्तिश्चाप्सरसाववस्फू र्जन् हेतिर्विद्युत्
प्रहेतिस्तेभ्यो नमो अस्तु ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः॥१९॥
अध्याय १७-सूर्यरश्मिर्हरिके शः पुरस्तात् सविता ज्योतिरुदयाँ अजस्रम्। तस्य पूषा प्रसवे याति विद्वान्त्सम्पश्यन्विश्वा भुवनानि गोपाः॥५८॥
अध्याय १८-सुषुम्णः सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वस्तस्य नक्षत्राण्यप्सरसो भेकु रयो नाम। स न इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट् ताभ्यः स्वाहा॥४०॥
कू र्म पुराण, पूर्वविभाग, अध्याय ४१-
तस्य ये रश्मयो विप्राः सर्वलोक प्रदीपकाः। तेषां श्रेष्ठाः पुनः सप्त रश्मयो ग्रहयोनयः॥२॥
सुषुम्नो हरिके शश्च विश्वकर्मा तथैव च। विश्वव्यचाः पुनश्चान्यः संयद्वसुरतः परः॥३॥
अर्वावसुरिति ख्यातः स्वराडन्यः प्रकीर्तितः। सुषुम्नः सूर्यरश्मिस्तु पुष्णाति शिशिरद्युतिम्॥४॥
तिर्यगूर्ध्वप्रचारोऽसौ सुषुम्नः परिपठ्यते। हरिके शस्तु यः प्रोक्तो रश्मिर्नक्षत्र पोषकः॥५॥
विश्वकर्मा तथा रश्मिर्बुधं पुष्णाति सर्वदा। विश्वव्यचास्तु यो रश्मिः शुक्रं पुष्णाति नित्यदा॥६॥
संयद्वसुरिति ख्यातः स पुष्णाति च लोहितम्। बृहस्पतिं प्रपुष्णाति रश्मिरर्वावसुः प्रभोः।
शनैश्चरं प्रपुष्णाति सप्तमस्तु सुराट् तथा॥७॥
एवं सूर्य प्रभावेण सर्वा नक्षत्रतारकाः। वर्धन्ते वर्धिता नित्यं नित्यमाप्याययन्ति च॥८॥
मत्स्य पुराण, अध्याय १२८-सुषुम्ना सूर्यरश्मिर्या क्षीणम् शशिनमेधते। हरिके शः पुरस्तात्तु यो वै नक्षत्रयोनिकृ त्॥२९॥
दक्षिणे विश्वकर्मा तु रश्मिराप्याययद् बुधम्। विश्वावसुश्च यः पश्चाच्छु क्रयोनिश्च स स्मृतः॥३०॥
संवर्धनस्तु यो रश्मिः स योनिर्लोहितस्य च। षष्ठस्तु ह्यश्वभू रश्मिर्योनिः सा हि बृहस्पतेः॥३१॥
शनैश्चरं पुनश्चापि रश्मिराप्यायते सुराट् । न क्षीयन्ते यतस्तानि तस्मान्नक्षत्रता स्मृता॥३२॥
क्षेत्राण्येतानि वै सूर्यमातपन्ति गभस्तिभिः। क्षेत्राणि तेषामादत्ते सूर्यो नक्षत्रता ततः॥३३॥
ब्रह्माण्ड पुराण, पूर्वभाग, अध्याय २४-
रवे रश्मिसहस्रं यत्प्राङ्मया समुदाहृतम्। तेषां श्रेष्ठाः पुनः सप्तरश्मयो ग्रहयोनयः॥६५॥
सुषुम्णो हरिके शश्च विश्वकर्मा तथैव च। विश्वश्रवाः पुनश्चान्यः संपद्वसुरतः परः॥६६॥
अर्वावसुः पुनश्चान्यः स्वराडन्यः प्रकीर्त्तितः। सुषुम्णः सूर्यरश्मिस्तु क्षीण शशिनमेधयेत्॥६७॥
तिर्यगूर्ध्वप्रचारोऽसौ सुषुम्णः परिकीर्त्तितः। हरिके शः पुरस्ताद्य ऋक्षयोनिः स कीर्त्यते॥६८॥
दक्षिणे विश्वकर्मा तु रश्मिन्वर्द्धयते बुधम्। विश्वश्रवास्तु यः पश्चाच्छु क्रयोनिः स्मृतो बुधैः॥६९॥
सम्पद्वसुस्तु यो रश्मिः स योनिर्लोहितस्य तु। षष्ठस्त्वर्व्वावसू रश्मिर्योनिस्तु स बृहस्पतेः॥७०॥
शनैश्चरं पुनश्चापि रश्मिराप्यायते स्वराट् । एवं सूर्यप्रभावेण ग्रहनक्षत्रतारकाः॥७१॥
वर्त्तन्ते दिवि ताः सर्वा विश्वं चेदं पुनर्जगत्। न क्षीयन्ते यतस्तानि तस्मान्नक्षत्रसंज्ञिताः॥७२॥
क्षेत्राण्येतानि वै पूर्वमातपन्ति गभस्तिभिः। तेषां क्षेत्राण्यथादत्ते सूर्यो नक्षत्रकारकाः॥७३॥
सूर्य रश्मियों से जीवन को गति मिलती है। इनका निर्माण बुध क्षेत्र से आरम्भ है-विश्वकर्मा। ज्यादा तेजस्वी शुक्र का क्षेत्र विश्वश्रवा है। पृथ्वी के पास सम-
शीतोष्ण क्षेत्र है-सुषुम्ना। यह सूर्य के विकीर्ण अंगारों (अङ्गिरा) तथा परमेष्ठी के आकर्षित शीत पदार्थ का सन्तुलन होने से अत्रि है। सूर्य रूपी इराट् पुरुष के चक्षु
से यह उत्पन्न है, जैसे माता पिता के संयोग से सन्तान का जन्म होता है-
अथ नयन समुत्थं ज्योतिरतेरिवद्यौः, सुरसरिदिव तेजो वह्नि निष्ठ्यूतमैशम्।
नरपतिकु ल भूत्यै गर्भमाधत्त राज्ञी .... (रघुवंश २/७५)
भौतिक अश्वमेध का उद्देश्य है पृथ्वी पर यातायात और सञ्चार की बाधा दूर करना। अश्वमेध की पारम्परिक कथाओं में यही दिखाया जाता है कि घोड़ा सम्पूर्ण
भारत में अबाध गति से घूम सकता है। रामायण में २ स्थानों पर अश्वमेध का वर्णन है। राजा दशरथ के पुत्र कामेष्टि यज्ञ के समय भी अश्वमेध हुआ था। लेकिन
इसमें कोई घोड़ा नहीं छोड़ा गया जो भारत परिक्रमा के लिये निकले। जिस समय राम १५ वर्ष के थे, उस समय विश्वामित्र राजा दशरथ के पास राम
लक्ष्मणको मांगने के लिये गये थे। दशरथ ने अपनी आयु ६०,००० वर्ष (दिन-रात्रि) अर्थात् प्रायः ८२ वर्ष कही थी। अर्थात् राम जन्म के समय उनकी आयु
६७ वर्ष की थी। इस आयु में पुत्र जन्म के लिये शरीर का स्वस्थ होना जरूरी है। अतः पहले अश्वमेध यज्ञ द्वारा प्राण का शरीर में प्रवाह निर्बाध किया गया
अर्थात् नाड़ी शोधन किया गया। इस नाम का एक प्राणायाम भी है। तब एक ही कोषिका को ४ भागों में बांट कर ४ रानियों का गर्भाधान हुआ। देश के लिये जैसे
वाहनों की गति है, उसी प्रकार शरीर में प्राणों का प्रवाह है।
अश्व के विभिन्न अर्थों में प्रयोग-
(१) गतिशील अग्नि या विद्वान्-प्र नूनं जातवेदसं अश्वं हिनोत।
वाजिनम् इदं नो बर्हिरासदे (ऋक् १०/१८८/१, निरुक्त ७/२०)
(२) वीर्य-वीर्यं वा अश्वः (शतपथ ब्राह्मण २/१/४/२३)
(३) वज्र-वज्रोऽश्वः। (शतपथ ब्राह्मण १३/१/२/९)
(४) इन्द्रो वा अश्वः (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद् १५/४)
(५) आत्माब्रह्मन्नश्वं भन्त्सयामि (वाजसनेयि संहिता २२/४, मैत्रायणी संहिता ३/१२/१, शतपथ ब्राह्मण १३/१/२/४)
(६) कर्मेन्द्रिय-गोभिरश्वभिर्वसुभिर्न्यृष्टः (ऋक् १०/१०८/७)
(७) सौर शक्ति-सौर्यो वा अश्वः (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर ३/१९)
(८) पशु अश्व-अश्वो मनुष्यान् (अवहत्)- (शतपथ ब्राह्मण १०/६/४/१)
(९) वरुण, जल या प्रजापति के अश्रु से उत्पन्न-प्रजापतेरक्ष्यश्वयत्। तत्पराततत्ततोऽश्वः समभवद्, यदश्वयत् तत् अश्वस्य अश्वत्वम्। (शतपथ ब्राह्मण
१३/३/१/१)
वारुणो वा अश्वः। (शतपथ ब्राह्मण ७/५/२/१८)
अश्वमेध यज्ञ से राष्ट्र या व्यक्ति दोनों की शक्ति बढ़ती है-श्रीर्वै राष्ट्रमश्वमेधः। (शतपथ ब्राह्मण १३/२/९/२, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/९/७/१)
प्राणापानौ वा एतौ देवानाम्। यदर्काश्वमेधौ। (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/९/२१/३)
एष वै ब्रह्मवर्चसी नाम यज्ञः। एष वै तेजस्वी नाम यज्ञः। एष वै अतिव्याधि नाम यज्ञः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/९/१९/३)
इञ्जन की शक्ति की माप की एक इकाई का नाम भी अश्वशकि (Horse power) है। प्राचीन काल में भी हजार घोड़े वाले रथ का वर्णन है-
अश्वोषितं रजेषितं शुनेषितं प्राज्म तदिदं नु तत्। अगं प्रियमिषिराय षष्टिं सहस्रासनम्। (ऋक् , ८/४६/२९) ततश्चिन्तयमानस्य गुडाके शस्य धीमतः। रथो
मातलिसंयुक्त आजगाम महाप्रभः॥२॥
असयः शक्तयो भीमा गदाश्चोग्रप्रदर्शनाः। दिव्य प्रभावाः प्रासाश्च विद्युतश्च महाप्रभाः॥४॥
तथैवाशनयश्चैव चक्रयुक्तास्तुलागुडाः। वायुस्फोटाः सनिर्घाता महामेघस्वनास्तथा॥५॥
दशवाजि सहस्राणि हरीणां वातरंहसाम्। वहन्ति यं नेत्रमुषं दिव्यं मायामयं रथम्॥७॥
(महाभारत, वन पर्व, अध्याय ४२)
किसी गाड़ी में हजार घोड़े लगाना सम्भव नहीं है, यह उसके इञ्जन की शक्ति की ही माप हो सकती है। इसी प्रकार अर्जुन का दिव्य रथ कभी कभी भूमि से
ऊपर भी चलता था। सामान्य घोड़े का रथ ऊपर नहीं उड़ सकता।
(ख) राजसूय यज्ञ-आकाश में लोकों को रज कहा गया है। उनके निर्माण तथा पालन की क्रिया ही राजसूय यज्ञ है। राज एक प्रकार का सोम है। उस सोम से
लोकों का निर्माण होता है तथा उनका रूप बना रहता है-
इमे वै लोका रजांसि\ (वाजसनेयि यजुर्वेद ११/६, शतपथ ब्राह्मण ६/७/३/१०)
सूय का शाब्दिक अर्थ सृष्टि या जनन है। अतः राजसूय का का अर्थ राज सोम से लोकों की उत्पत्ति है।
सोमो वैष्णवो राजेत्याह। (शतपथ ब्राह्मण १३/४/३/८)
यो राजसूयः स वरुण सवः। (शतपथ ब्राह्मण ५/३/४/१२, तैत्तिरीय ब्राह्मण २/७/६/१)
तस्माद् राजसूयेन इजानः सर्वम् आयुरेति (तैत्तिरीय ब्राह्मण १/७/७/५)
वरुण के जल समुद्र (ब्रह्माण्ड या आकाशगंगा का पदार्थ) से सौर-मण्डल की सृष्टि हुयी। माता के गर्भ में शरीर का विकास जल से घिर कर ही होता है। जन्म के
बाद भी जलीय प्रवाह (रक्त-सञ्चार, पाचन आदि) द्वारा शरीर का विकास तथा पालन होता है। राज्य का पालन प्रजा से कर लेकर विभिन्न प्रकार से राज्य की
रक्षा होती है, जैसे महाभारत में युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ। यह राज्य का आवश्यक अंग है, जिसे कोष तत्त्व कहा गया है। आधुनिक राजनीति सिद्धान्तों में
राज्य के के वल ४ तत्त्व माने गये हैं-भूमि, प्रजा, राजा (शासन), सम्प्रभुता। मार्क्स ने जीवन भर के वल सम्पत्ति के लिये संघर्ष की बात की, पर उनके ध्यान में
भी नहीं आया कि यह राज्य का एक तत्त्व है।
(ग) वाजपेय यज्ञ-वाज भी एक प्रकार का सोम है। वाजीकरण का अर्थ शरीर की शक्ति बढ़ाना है। अतः शरीर का रोग दूर कर विभिन्न प्रकार के व्यायामों द्वारा
उसकी शक्ति बढ़ाना ही वाजपेय यज्ञ है। राज्य की सक्ति बढ़ाने के लिये लोगों की शिक्षा, सैन्य शक्ति, उत्पादन आदि उपाय हैं। ओडिशा में १२०० ई. में प्रचण्ड
समुद्री तूफान आया था। दैवी इपत्ति दूर करने के लिये राजा अनंग भीमदेव द्वारा पुरी जगन्नाथ मन्दिर का विस्तार हुआ, उसे भी वाजपेय यज्ञ कहा गया है
(मादला पाञ्जि)। वाज का अर्थ अन्न, शक्ति, अश्व आदि हैं।
अन्नं वै वाजः (तैत्तिरीय ब्राह्मण १/३/६/२, १/३/८/५, शतपथ ब्राह्मण ५/१/४/३, ६/३/२/४, ताण्ड्य महाब्राह्मण १३/९/१३,२१; १५/१२/१२,
१८/६/८)
वीर्य्यं वै वाजाः (शतपथ ब्राह्मण ३/३/४/७)
ओषधयः खलु वै वाजः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण १/३/७/१)
वाजो वै स्वर्गो लोकः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १८/७१२, गोपथ ब्राह्मण, उत्तर ५/८)
वाजो वै पशवः। (ऐतरेय ब्राह्मण ५/८)
अन्नं वाऽएष यज्जयति यो वाजपेयेन यजतेऽन्नपेयं ह वै नामैतद्यद्वाजपेयम्। (शतपथ ब्राह्मण ५/१/३/३)
प्रजापतिरकामयत वाजमाप्नुयं स्वर्गं लोकमिति स एतं वाजपेयमपश्यद् वाजपेयो वा एष वाजम् एवैतेन स्वर्गं ष (स?) लोकमाप्नोति। (ताण्ड्य महाब्राह्मण
१८/७/१)
यो वै वाजपेयः। स सम्राट्त्सवः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/७/६/१)
सम्राट् वाजपेयेन (इष्ट्वा भवति)-शतपथ ब्राह्मण (५/१/१/१३,९/३/४/८)
स वाजपेयेन इष्ट्वा सम्राट् इति नाम आधत्त। (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व ५/८)
(घ) चयन यज्ञ-हर व्यक्ति या क्षेत्र को उसकी योग्यता या क्षमता के अनुसार काम देना चयन यज्ञ है। जो ज्ञानी है वह पढ़ा सकता है या सलाहकार हो सकता है।
बलवान या शस्त्र कु शल व्यक्ति सेना के योग्य है। व्यवस्था कु शल व्यक्ति व्यापार कर सकता है। समतल तथा सिञ्चित भूमि खेती के लिये उपयुक्त है। समुद्र तट
विदेश व्यापार का के न्द्र हो सकता है। खनिज वहीं से निकल सकता है जहां वह जमीन के नीचे उपलब्ध हो। ये सभी राजा के निर्णय तथा कर्त्तव्य हैं। चयन द्वारा
हर वस्तु या व्यक्ति को अपने स्थान पर व्यवस्थित करना चिति है। यह अपने आप नहीं होता है, प्राकृ तिक कारणों से कोई चीज नष्ट हो सकती है, निर्माण नहीं
होता। इसके लिये मनुष्य की आवश्यकता है। जो चयन कर सके वह शक्ति चेतना है, यह क्रिया चिति () है।
यच्चेतयमाना अपश्यंस्तस्माच्चितयः। (शतपथ ब्राह्मण ६/२/२/९)
पञ्च तन्वो व्यस्रं सन्त लोम त्वङ् मांसम् अस्थि मज्जा ता एवैता पञ्च चितयः। (शतपथ ब्राह्मण ६/१/२/१७)
(ङ) शीर्ष यज्ञ-कोई भी कार्य करने के लिये एक व्यक्ति को उसका उत्तरदायित्व लेना पड़ता है, वह शीर्ष या मुख्य कहलाता है। मनुष्य शरीर में भी शीर्ष
या सिर द्वारा सभी अंगों का सञ्चालन होता है। राज्य चलाने के लिये भी राजा की आवश्यकता है। उसका कार्य ही शीर्ष यज्ञ है। राजा मुख्य होने का यह अर्थ
नहीं है कि उसके ऊपर कोई नहीं है या वह पूरी तरह स्वतन्त्र है। आधुनिक राजनीति-शास्त्र में सभी राज्यों की सम्प्रभुता समान मानी जाती है। पर वैदिक काल
में इनके ४ स्तर थे, सभी में छोटे बड़े २-२ प्रकार के राजा थे-१. राजा-भोज, महाभोज, २. सम्राट् -चक्रवर्त्ती, सार्वभौम, ३. स्वराट् -इन्द्र, महेन्द्र, ४. विराट् -
ब्रह्मा, विष्णु। (पण्डित मधुसूदन ओझा का ’जगद्गुरु वैभवम्’-राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर में ४/३)
ऐतरेय ब्राह्मण (३७/२)-तानहमनु राज्याय साम्राज्याय भौज्याय स्वाराज्याय पारमेष्ठ्याय राज्याय महाराज्यायाऽऽधिपत्याय स्वावश्यायाऽऽतिष्ठायाऽऽरोहामि।
सायण भाष्य-तान् = अग्न्यादि देवान्, अनु = पश्चाद् अहम् आरोहामि। किमर्थम् ? राज्यसिद्ध्यर्थम्। राज्यं = देशाधिपत्यम्। साम्राज्यं = धर्मेण पालनम्।
भौज्यं = भोगसमृद्धिः। स्वाराज्यम् = अपराधीनत्वम्। वैराज्यम् = इतरेभ्यो भूपतिभ्यो वैशिष्ट्यम्। एअतदुक्तमैहिकम्, अथाऽऽ मुष्मिकमुच्यते-पारमेष्ठ्यं =
प्रजापति लोक-प्राप्तिः। तत्र राज्यम् = ऐश्वर्यम्। माहाराज्यम् = तत्रत्येभ्य इतरेभ्य आधिक्यम्। आधिपत्यम् = तान् इतरान् प्रति स्वामित्वम्। स्वावश्यम् =
अपारतन्त्रम्। आतिष्ठत्वम् = चिरकालवासित्वम्।
किसी क्षेत्र में अन्न आदि के उत्पादन का प्रबन्ध करनेवाला भोज है। कु छ भोजों का समन्वय करनेवाला महाभोज है। पूरे भारत पर शासन करनेवाला
सम्राट् है-देश के भीतर व्यापार तथा यातायात की सुविधा करनेवाला चक्रवर्त्ती तथा देश के बाहर भी ऐसा सम्बन्ध रखनेवाला सार्वभौम है। कई देशोंपर प्रभुत्व
रखनेवाला इन्द्र तथा महाद्वीप पर प्रभुत्व रखनेवाला महेन्द्र है। विश्व पर ज्ञान का प्रभाव ब्रह्मा का था, बल का प्रभाव विष्णु का है।
राज्य चलाने के लिये ४ प्रकार की नीति हैं-(१) साम-प्रजा को समानता का अधिकार, (२) दाम-धन, (३) दण्ड-राज्य के भीतर के अपराधी या बाहरी
शत्रुओं को दण्ड, (४) भेद-राज्य के लोगों के साथ उनकी क्षमता तथा आवश्यकता के अनुसार व्यवहार। बाहरी शत्रुओं में फू ट डालना।
८. विश्व यज्ञ-(क) क्रम-आकाश में सृष्टि का कम तैत्तिरीय उपनिषद् (२/१) में दिया है-
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः । आकाशाद्वायुः । वायोरग्निः । अग्नेरापः । अद्भ्यः पृथिवी । पृथिव्या ओषधयः । ओषधीभ्योऽन्नम् । अन्नात्पुरुषः ।
इसके अनुसार सृष्टि का क्रम है-(१) आत्मा-मूल चेतन तत्त्व। इसका शून्य में स्थित मन को श्वो-वसीयस (शून्य में वास) मन कहा जाता है। (२) आकाश-
खाली स्थान, (३) वायु = गति, (४) आप् = पदार्थ का समरूप विस्तार, पृथिवी = घनीभूत (पृथु) पिण्ड, (६) ओषधि = वृक्ष। सामान्यतः इनको २ प्रकार
का कहते हैं-ओषधि वह है जो प्रतिवर्ष फल होने पर नष्ट हो जाते हैं, जैसे धान, गेहूं, चना आदि। जिन वृक्षों में प्रतिवर्ष फल लगते हैं तथा वे बने रहते हैं, वे वृक्ष
हैं, जैसे आम, जामुन आदि। यहां दोनों को ओषधि कहा गया है। (७) अन्न-भोजन। साधारणतः खाने की वस्तुओं को अन्न कहते हैं। किन्तु यज्ञ सन्दर्भ में
इसका व्यापक अर्थ है कोई भी वस्तु जिसके उपयोग से व्यवस्था चल सके । (८) पुरुष-यह भी प्रथम तत्त्व आत्मा ही है, किन्तु उसका व्यक्ति या स्थानीय रूप।
यज्ञ चक्र के ७ स्तरों को छान्दोग्य उपनिषद् (२/८-१०) में सप्तविध साम कहा गया है। साम ३ प्रकार के हैं-(१) वाक् = आकाश (शब्द रूप वाणी तरङ्ग है,
उसका क्षेत्र आकाश है), (२) आदित्य -विश्व का पूर्व रूप (आदि = आरम्भ), (३) निधन= मृत्यु के बाद अनन्त स्थायित्व। छान्दोग्य उपनिषद् (२/२-७)
में ६ प्रकार के पञ्चविध साम का वर्णन है-(१) लोक = आकाश की रचनायें, मनुष्य से बड़े ५ विश्व हैं-भू, चान्द्र, सौर, परमेष्ठी, स्वयम्भू। इनमें ७ लोक हैं-
भू, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्य। मनुष्य से छोटे आकार के भी ७ विश्व क्रमशः १-१ लाख भाग छोटे हैं-कलिल, जीव, कु ण्डलिनी, जगत्, देव-दानव,
पितर, ऋषि। (२) वर्षा-मेघ से जल की वर्षा होती है। इसी के समान किसी भी प्रकार का विकिरण जैसे सूर्य से प्रकाश निकलना वर्षा है। वर्षा करनेवाला वृषा
(वृषभ = बैल) पुरुष है। ग्रहण करने वाला क्षेत्र योषा (युक्त होना) स्त्री है। (३) जल=पानी सदा समरूप रहता है। विश्व के विभिन्न स्तरों में पदार्थ का समरूप
विस्तार जल है। स्वयम्भू (पूर्ण अनन्त विश्व) में यह रस या आनन्द है, आकाशगंगा या परमेष्ठी में यह अप् तथा सौर मण्डल में मर है। (४) ऋतु-१ वर्ष में ६
ऋतु हैं जिसमें सूर्य का तेज भिन्न प्रकार का होता है। सौर मण्डल में भी सौर तेज क्रमशः घटता जाता है। सूर्य से आरम्भ कर उसकी सीमा तक ६ क्षेत्र माने गये
हैं। ये सूर्य की वाक् (क्षेत्र) को ६ (षट् ) भाग में बांटते हैं, अतः वषट्कार हैं। सभी आकाश रचनाओं में तेज के विभिन्न क्षेत्र ही अलग अलग प्रकार के पितर हैं,
जो अपने तेज क्षेत्र के अनुरूप सृष्टि करते हैं, अतः इनको ऋतु-पितर कहते हैं। पितर = पिता + माता। पदार्थ या क्षेत्र माता है, चेतना द्वारा निर्माण क्रिया पिता
है। (५) पशु-जो भी दीखता है, वह पशु है (पश्य = देखना)। उसका स्रष्टा पश्यक का विपरीत कश्यप है। (६) प्राण = ऊर्जा, जो हर सृष्टि के लिये आवश्यक
है।
(ख) प्राण-माण्डू क्य उपनिषद् (२/१८) में ७ प्रकार के प्राण कहे गये हैं, जो अग्नि की ७ जिह्वा से उत्पन्न होते हैं। प्रथम रचना अग्रि है, जो वेद में अग्नि कही
जाती है। यज्ञ में प्रथम काम भोजन के लिये कृ षि है अतः यह भी अग्रि (agri-culture) है। श्वेताश्वतर उपनिषद् (१/५) आदि में ५ प्राण कहे गये हैं। ७
प्राणों में २ असत् अर्थात् हमारे अनुभव से परे हैं, अतः अनुभव गम्य ५ ही प्राण हैं। २ असत् प्राण हैं-(१) परोरजा-रजः = लोक (रज = धूलि, दीखना, लोक
= जो दीखता है, विश्व या मनुष्य)। दृश्य जगत् से परे या स्रोत रूप जो प्राण है, वह परोरजा है।(२) ऋषि-इससे लोकरचना आरम्भ हुई, पर सूक्ष्मतम होने के
कारण किसी भी यन्त्र या विधि से इसका दीखना असम्भव है। यह अव्यक्त तथा व्यक्त के बीच में रस्सी होने के कारण ऋषि है। मनुष्य से क्रमशः १-१ लाख
भाग छोटे विश्वों में यह ७वां है, अतः इसका आकार प्रायः १०-३५ मी. है जिसे आधुनिक भौतिक विज्ञान में सूक्ष्मतम प्लांक दूरी कहा जाता है। अग्नि की ७
जिह्वा २ प्रकार की हैं-१ निगलनेवाली (लेलायमाना) तथा दूसरी उगलनेवाली (अर्चि =अंगारा) जिनका उल्लेख मुण्डक उपनिषद् के (१/२/४ तथा २/१/८)
में है। अतः स्वस्तिपाठ में कु ल १४ जिह्वा कही जाती हैं (अग्निजिह्वा मनवः, मनु = १४)।
(ग) विपरीत वृक्ष-३ प्रकार के विश्वों के ३ वृक्ष हैं। निर्माण का क्रम वृक्ष है। निर्माण का स्रोत या मूल को ऊर्ध्व = ऊपर कहा जाता है। हर स्तर पर निर्माण के
प्रकार शाखा हैं, तथा कोई भी पिण्ड पत्ता है। कोई भी पिण्ड धीरे धीरे नष्ट होता है तथा उसके स्थान पर नये पिण्ड आ जाते हैं, किन्तु निर्माण का क्रम तथा
प्रक्रिया सदा चलती रहती है। इसी प्रकार पत्ते झड़ते रहते हैं, किन्तु वृक्ष बना रहता है। कोई व्यक्ति या पिण्ड नष्ट हो सकता है, किन्तु कु ल मिलाकर संसार वैसा
ही बना रहता है, अतः निर्माण क्रम को अव्यय पुरुष कहा गया है जिसकी विपरीत वृक्ष से तुलना की गयी है-
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥ (गीता १५/१)
यहां शाखा= अधः या नीचे, छन्द = सीमाबद्ध वस्तु, पर्ण = पत्ते। यह वृक्ष अव्यय (पुरुष) है। श्वः = कल, जो कल रहेगा वह श्वत्थ है। सामान्य वृक्ष कल
नहीं रहेगा वह अश्वत्थ है। किन्तु सृष्टि का जो वृक्ष है वह अव्यय या सनातन है। यही वेद का विषय है। यही कठोपनिषद् में है-
ऊर्ध्वमूलोऽवाक् शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते। तस्मिँल्ल्काः श्रिताः सर्वे तदु नान्येति कश्चन। एतद् वै तत्॥ (कठोपनिषद्
२/३/१)
यहां वृक्ष से ही निर्माण का बीज होता है, वह बीज शुक्र है। निर्माण प्रक्रिया में मूल से फल तक ब्रह्म है। इसी क्रम में सभी लोक हैं। वही तत् (ब्रह्म) है।
आकाश में निर्माण के ५ पर्व या स्तर हैं, उसकी प्रतिमा रूप शरीर के मेरुदण्ड में ५ चक्र हैं। इनका मूल २ स्तर के अव्यक्त हैं-सृष्टि का मूल रस था जिसे पाने
पर आनन्द होता है। उससे निर्माण का क्रम मूल तत्त्व के द्विधा विभाजन से हुआ, जिसे पुरुष-प्रकृ ति (चेतना + पदार्थ), शिव-शक्ति (द्रष्टा-दृश्य, पदार्थ-
ऊर्जा), अग्नि-सोम (सघन पिण्ड-विरल पदार्थ) आदि हैं। इसके अनुरूप मनुष्य मस्तिष्क में २ चक्र हैं-सहस्रार मूल है जिससे १००० प्रकार न्र्माण की
सम्भावना है, किन्तु कोई एक ही होता है। आज्ञा चक्र शरीर का नियन्त्रण करता है, इसके २ भाग शिव-शक्ति या अर्द्ध-नारीश्वर हैं। इनको ही २ पक्षी कहा गया
है, उसमें आत्मा (adam) शुद्ध चैतन्य अज या शिव है, जीव (eve) कर्म लें लिप्त रहता है, यह अजा या ३ गुणों की प्रकृ ति है। सारणी-
क्रम विश्व-वृक्ष तत्त्व मानव वृक्ष
१. मूल स्रोत रस विन्दु (ॐ का चतुर्थ अदृश्य पद) सहस्रार (सिर के ऊपर)
(सहस्र बल्शा = निर्माण की १००० शाखा)
२. श्वो-वसीयस मन ॐ के ३ पाद अ+उ+म आज्ञा = मस्तिष्क के २ भाग, शरीर से सम्बन्ध
(मूल सङ्कल्प जिससे निर्माण आरम्भ हुआ, पदार्थ-ऊर्जा का समन्वय) (भ्रूमध्य के पीछे)
३. स्वयम्भू= इदम् (निर्मित विश्व) आकाश = प्रायः शून्य कण्ठ मूल में विशुद्धि चक्र
निर्माता तत् (अदस्) है। कु ल रस का १/४ भाग. १०११ ब्रह्माण्ड
४.परमेष्ठी (सबसे बड़ी ईंट) वायु =गति का आरम्भ हृदय में अनाहत चक्र
(१०११ तारा, ब्रह्म का१ अण्ड = ब्रह्माण्ड) (रक्त तथा वायु सञ्चार का के न्द्र)
५. सौर-मण्डल तेज (प्रकाश का विकिरण) नाभि में मणिपूर चक्र
(सूर्य ऊर्जा स्रोत के रूप में जगत् की आत्मा) (पाचन और शक्ति का के न्द्र)
६. चान्द्र मण्डल अप् (जल, सूर्य तुलना में शीत क्षेत्र) स्वाधिष्ठान-मेरुदण्ड का मूल
(वनस्पति निर्माण चन्द्र द्वारा) (मल मूत्र निष्कासन, जनन)
७. भूमण्डल अग्नि (अग्रि=प्रथम निर्माण, पद = आधार) मूलाधार (बैठने पर के न्द्रविन्दु)
पृथ्वी पर इसके अनुरूप ७ लोक तथा ७ पाताल हैं। द्वीप, समुद्र, पर्वत आदि भी ७-७ भागों में विभाजित हैं। उत्तरीगोलार्द्ध में पृथ्वी के ४ पद्म हैं-उज्जैन से ४५०
पूर्व से पश्चिम तक भारत-वर्ष, पूर्व में भद्राश्व-वर्ष, पश्चिम में के तुमाल-वर्ष, तथा विपरीत दिशा में (उत्तर) कु रु-वर्ष हैं। इनके विपरीत समान नाम के दक्षिण
गोलार्द्ध में भी ४ पद्म हैं-अतः पृथ्वी का वर्णन अष्ट-दल-कमल के रूप में है। भारत-पर्न में ७ लोक हैं-(१) भू-विषुव से विन्ध्य, (२) भुवः-विन्ध्य हिमालय के
बीच, (३) स्वः-हिमालय, (४) महः-चीन, (५) जनः-मंगोलिया, (६) तपस् (steppes)-साइबेरिया, (७) सत्य-ध्रुव-वृत्त। भरत के अतिरिक्त अन्य ७ दल
७ पाताल हैं।
(घ) वर्ण- क्रम ३ से ७ तक सभी व्यक्त स्तर ५ अग्नि हैं। उनमें स्वयम्भू और परमेष्ठी का हमारे ऊपर् प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं होता अन्तिम ३ का मिलाजुला प्रभाव
है। ये शिव के ३ नेत्र हैं-सूर्य, चन्द्र, अग्नि (पृथ्वी)। अलग से स्पष्ट को चिके त कहते हैं, मिलाजुला नाचिके त है, अतः इनको त्रिणाचिके त कहा है।
ऋतं पिबन्तौ सुकृ तस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे ।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिके ताः ॥ (कठोपनिषद् १/३/१)
अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ, दिशः श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः। (मुण्डक उपनिषद् २/१/४)
चन्द्रार्क -वैश्वानर लोचनाय, तस्मै शिकाराय नमः शिवाय (शिव पञ्चाक्षर स्तोत्र)
विश्व के प्रथम ५ स्तरों को ५ मूल स्वरों से व्यक्त करते हैं-अ, इ, उ, ऋ, लृ। ये माहेश्वर सूत्र के प्रथम दो सूत्र हैं। इनके सवर्ण (एकस्थान से उच्चरित)
अन्तःस्थ वर्ण -ह, य, व, र, ल-इनकी प्रतिमा रूप शरीर के ५ चक्रों के बीज मन्त्र हैं, जो इसी क्रम में सूत्र में हैं-
अइऊण् । ऋलृक् ।.....हयवरट् । लण् । (माहेश्वर सूत्र)
शान्ति के लिये शिव के ३ नेत्रों का स्मरण किया जाता है। उ, ऋ,लृ-का बारम्बार उच्चारण हुलहुली कहते हैं (ओडिशा, बन्गाल आदि में मांगलिक अवसरों पर)।
यह वेद का उलुलयः है जो राम अश्वमेध यज्ञ में सीता के स्वागत के लिये किया गया था-उद्धर्षतां मघवन् वाजिनान्युद वीराणां जयतामेतु घोषः।
पृथग् घोषा उलुलयः एतुमन्त उदीरताम्॥। (अथर्व ३१/९/६)
तां दृष्ट्वा श्रुतिमायान्तीं ब्रह्माणमनुगामिनीम्। वाल्मीकेः पृष्ठतः सीतां साधुवादो महानभूत्॥१२॥
ततो हलहला शब्दः सर्वेषामेवमाबभौ। दुःख-जन्म विशालेन शोके नाकु लितात्मनाम्॥१३॥
(रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग ७८)
(ङ) आदित्य-विश्व के ३ धाम हैं-स्वयम्भू, परमेष्ठी, सौर। मूल समरूप विश्व परम धाम है। इन ३ धामों के आदित्य (आदि रूप) हैं- अर्यमा, वरुण, मित्र।
धामों में जो गोलाकार आधार है वह पृथ्वी या माता है, खुला आकाश द्यु या पिता है, बीच का अन्तरिक्ष मूल आदित्य जैसा है-भुवः (भू और सौर के बीच),
महः (सौर और जनःके मध्य), तपः (जनः सत्य के मध्य)।
या ते धामानि परमाणि यावमा या मध्यमा विश्वकर्मन्नुतेमा । (ऋग्वेद १०/८१/४)
तिस्रो मातॄस्त्रीन् पितॄन् बिभ्रदेक ऊर्ध्वतस्थौ नेमवग्लापयन्ति ।
मन्त्रयन्ते दिवो अमुष्य पृष्ठे विश्वमिदं वाचमविश्वमिन्वाम् ॥ (ऋग्वेद १/१६४/१०)
तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।
ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ॥ (ऋग्वेद २/२७/८)
(च) लोक-चान्द्र के अतिरिक्त बाकी ४ मण्डल और उनके बीच के ३ अन्तरिक्ष मिलाकर ७ लोक हैं-(१) भू = पृथ्वी ग्रह। (२) भुवः = सूर्य की ग्रह कक्षा का
क्षेत्र, (३) स्वः-सौर मण्डल-१५७ लाख सूर्य व्यास, या पृथ्वी का २३० गुणा। (४) महः-पृथ्वी का २४० गुणा, आकाशगंगा की सर्पिल भुजा की मोटाई का गोला
जहां सूर्य है। (५) जनः-परमेष्ठी, परार्ध योजन (१०१७ योजन का आधा) जहां योजन विषुव रेखा का ७२० भाग = ५५.५ कि.मी. है। (६) तपः लोक-८६४
अरब प्रकाश वर्ष त्रिज्या का गोला (ब्रह्मा का दिन-रात), (७) सत्य लोक-अनन्त विश्व जो ३ प्रकार से सत्य है-सभी स्थान, काल और दिशा में समान।
(च) वराह-आदित्य से पृथ्वी बनने के बीच की स्थिति। वराह के २ अर्थ हैं-मेघ जो जल और वायु का मिश्रण है, या सूअर जो जल और स्थल दोनों का प्राणी
है। ३ वाराहों से ३ धाम हुये-आदि वराह-स्वयम्भू, यज्ञ वराह-सृष्टि कार्य का आरम्भ)-परमेष्ठी, श्वेत-सौर (श्वेत प्रकाश का आरम्भ)। सौर मण्डल के भीतर २
और हैं-पृथ्वी का निर्माण जिस क्षेत्र के पदार्थ के घनीकरण से हुआ वह भू-वराह है। वायु पुराण (६/१) के अनुसार यह सूर्य से १०० योजन (= सूर्य व्यास)
दूर है, तथा मोटाई १० योजन है। इसमें पृथ्वी १/१०९ योजन की है जो वराह के दांत पर चिह्न मात्र है। पृथ्वी के आवरण रूप वायुमण्डल एमूष (निकट का)
वराह है। इससे प्राणियों का जीवन चलता है।
७. गीता के यज्ञ-गीता (४/२३-३०) में १३ प्रकार के यज्ञों का वर्णन है। देव पूजा १४वां भाव-यज्ञ है-देवान् भावयतानेनं ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं
भावयन्तः श्रेयं परमवाप्स्यथ। (गीता ३/११) १३ सृष्टि यज्ञ हैं-
(१) ब्रह्म यज्ञ-सभी आधार, निर्माण, निर्माता आदि को ब्रह्म समझना ही यह यज्ञ है। वृक्ष के समान ब्रह्म के कई रूपहैं-(क) ब्रह्म वृक्ष जैसा शान्त दर्शक है, (२)
वृक्ष द्वारा फल निर्माण जैसा ब्रह्म निर्माता तथा उसका आधार है, (ग) मूल, शाखा-पत्र क्रम जैसा निर्माण का क्रम, (घ) वृक्ष के काष्ठ की तरह निर्माण सामग्री,
(ङ) सभी प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रिया, आदि।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥ (गीता, ४/२४)
यह मन्त्र प्रायः भोजन के समय पढ़ा जाता है। पर भोजन की सभी क्रिया की तरह संसार की सभी क्रिया ब्रह्म है-अर्पण (हाथ से डालना), हवि (भोजन
सामग्री), अग्नि (जठराग्नि से पाचन), पाचन क्रिया, अन्तिम परिणाम (मल, रक्त निर्माण आदि) तथा सभी का ब्रह्म कर्म से एकत्व।
अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ।१/१/१। जन्मद्यस्ययतः ।१/१/२। (ब्रह्मसूत्र) = जिससे संसार का निर्माण, विकास, लय आदि हो वह ब्रह्म है।
यस्मात् परं नापरमस्ति किञ्चिद् यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित् ।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् ॥ (श्वेताश्वतरउपनिषद्, ३/९)
= ब्रह्म से परे, उससे छोटा या बड़ा कु छ नहीं है। वह वृक्ष के समान स्थिर होकर पूरे विश्व को देख रहा है।
निर्माण का आधार, सामग्री तथा निर्माता-प्रश्न ऋग्वेद में है-
किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस(सीद्) यतो द्यावा पृथिवी निष्टतक्षुः ।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तत् यदध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन् ॥
(ऋक् , १०/८१/४, तैत्तिरीय संहिता ५/६/१/२०, तैत्तिरीय ब्राह्मण २/८/९/२०)
= वह कौन सा वृक्ष है जिसे काट कर पृथ्वी-आकाश बने। मनीषियों ने मन में प्रश्न किया कि इन सबका आधार क्या था?
उत्तर-ब्रह्म वनं ब्रह्म स वृक्ष आसीद् यतो द्यावा पृथिवी निष्टतक्षुः ।
मनीषिणो मनसा विब्रवीमि वो ब्रह्माध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन् ॥
(तैत्तिरीय संहिता ५/६/१/२१, तैत्तिरीय ब्राह्मण २/८/९/२१)
= मनीषियों ने मन में ही उत्तर पाया कि ब्रह्म ही वह वृक्ष और वन है जिसे काट कर पूरा विश्व बना है तथा ब्रह्म ही सबका आधार है।
किं स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं कतमत्स्वित् कथासीत्।
यतो भूमिं जनयन् विश्वकर्मा वि द्यामौर्णोन् महिना विश्वचक्षाः॥(ऋक् , १०/८१/२)
= कौन सा अधिष्ठान (नींव), आरम्भ, मूल सामग्री थी जिससे विश्वकर्मा ने कई प्रकार की भूमि बनाकर उनको व्यवस्थित किया?
ऊर्ध्व मूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययं ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ (गीता, १५/१)
= वेद बही जानता है, अव्यय अश्वत्थ को जानता है, जो उलटा वृक्ष है, मूल ऊपर है, शाखायें नीचे तथा छन्द (सीमाबद्ध वस्तु) जिसके पत्ते हैं।
(२) दैव यज्ञ-ब्रह्माण्ड में उर्जा के जिस अंश से निर्माण हो सकता है वह प्रायः १/४ भाग है। उसे देव कहते हैं। बाकी ३/४ भाग असुर हैं, जिनसे कोई
निर्माण नहीं होता। पृथ्वी पर भी जो यज्ञ द्वारा स्वयं उत्पादन करते हैं वे देव हैं, जो बल द्वारा दूसरों की सम्पत्ति का उपभोग करते हैं, वे असुर हैं। सौर
मण्डल के ३३ क्षेत्रों (धाम) के प्राण ३३ देवता हैं। इनमें ३ धाम पृथ्वी के भीतर और ३० बाहर है। इनके चिह्न क से ह तक ३३ अक्षर हैं। चिह्न के रूप
में देवताओं का नगर होने के कारण संस्कृ त लिपि को देवनागरी कहा गया। प्रति धाम में ३-३ असुर हैं, अतः वे ३३ x ३ = ९९ हुये। ३ प्रकार के
असुर हैं-(१) बल-बलन = मुड़ना, वक्र सतह द्वारा पदार्थ सीमाबद्ध होने के कारण वह अन्य से मिलकर निर्माण नहीं कर सकता। (२) वृत्र-यह वृत्तीय
सीमा या नाग है, जो पदार्थ को मूल रूप में ही लाती है। (३) नमुचि-यह फे न है जो जल और वायु का मिश्रण है तथा पारदर्शक जल की सीमा को
अदृश्य कर देता है। हम परिवेश की शक्तियों या देवताओं पर अपने अस्तित्व के लिये निर्भर हैं, अतः एक दूसरे की भावना द्वारा पूजा करने पर दोनों की
उन्नति होती है।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयं परमवाप्स्यथ ॥ (गीता ३/११)
हमारे लिये इच्छित दो प्रकार के पदार्थ हैं-प्रेय द्वारा हमें तात्कालिक प्रसन्नता होती है, श्रेय दीर्घकाल में लाभ देता है। धीर व्यक्ति श्रेय मार्ग का अनुसरण करता
है, उसकी विशेषता श्री है। जो हमें प्रेय दे सकता है वह पेरिया (तमिल में बड़ा) या पीर (अरबी में सिद्ध) है।
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः ।
श्रेयोहि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते॥ (कठोपनिषद् १/२/२)
ध्यान द्वारा शरीर के देवताओं को निर्माण के लिये सक्रिय करते हैं या उनको सही मार्ग पर लगाते हैं।
सौर मण्डल में निर्माण के लिये ३ प्रकार के पदार्थों का हवन होता है-ठोस पदार्थ दधि है या मंगल तक के ठोस ग्रहों की कक्षा को भागवत पुराण, स्कन्ध ५ में
दधि समुद्र कहा गया है। सूर्य किरणों का तेज मधु है, उसके उपयोग की विद्या मधु विद्या है। ग्रह कक्षा के बाहर का सञ्चित पदार्थ घृत है। प्रतीक रूप में इन
पदार्थों का हवन होता है।
(३) ब्रह्माग्नि यज्ञ-यह यज्ञों का क्रम है। एक यज्ञ का उत्पाद दूसरे यज्ञ की सामग्री है। पुरुष (मनुष्य शरीर या विश्व) के ४ रूप हैं-क्षर पुरुष मनुष का भौतिक
शरीर है। वह अक्षर पुरुष या चेतन व्यक्तित्व के अधीन रहता है। मनुष्य अव्यय पुरुष अर्थात् परिवार और समाज के भीतर है-दोनों परस्पर निर्भर हैं। अन्ततः
सभी परात्पर में लीन होते हैं। यह ४ पाद का पुरुष अज है, एक स्तर का अगले द्वारा उपयोग अज की बलि या बकरीद है। मनुष्य का मूल यज्ञ कृ षि है, उसके
अन्न से मनुष्य शरीर चलता है, अन्न से अन्य प्रकार के खाद्य उद्योग चलते हैं-तेल, मसाला, अचार, शर्बत आदि का निर्माण। भूमि के निचले भाग से खनिज
निकलते हैं, जिनको समुद्र मन्थन कहा गया है। भूमि, जल, वायु और जीव मण्डल के विस्तार-ये पृथ्वी के ४ समुद्र हैं। खनिज से धातु, यन्त्र आदि के उद्योग
चलते हैं। एक यज्ञ के उत्पाद का अगले यज्ञ में प्रयोग ही यज्ञ में यज्ञ की आहुति है। इनका क्रम व्यवस्थित करने से ही साध्य लोग उन्नति के शिखर पर पहुंचे
और देव कहलाये- ब्रह्माग्नवपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति । (गीता ४/२५)
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ (पुरुष-सूक्त, यजुर्वेद ३१/१६)
(४) संयम यज्ञ-विषयों से आकर्षित होकर मनुष्य अपने मार्ग से भटक जाता है। बेकार कामों से अपनी शक्ति हटाना प्रत्याहार है। उसे मुख्य कार्य में लगाना
धारणा है। धारणा लगातार बनाये रखना ध्यान है। मस्तिष्क को शान्त रखना समाधि है। इन तीनों-धारणा, ध्यान, समाधि-का संयोग कर कार्य करना संयम है।
पातञ्जल योग सूत्र-स्वविषयसम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः। (२/५४)
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। (३/१) तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम्। (३/२) तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशुन्यमिव समाधिः। (३/३)। त्रयमेकत्र संयमः। (३/४)
योग सूत्र के अध्याय ३ में विभिन्न प्रकार के संयमों द्वारा ५२ प्रकार की सिद्धि का वर्णन है। ये सभी संयम यज्ञ हैं-
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति। आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥ (गीता २/२७)
(५) इन्द्रिय यज्ञ- यह संयम यज्ञ से सम्बन्धित है। उसका एक साधन होने पर भी यह अपने आप में यज्ञ है जिससे शरीर स्वस्थ, कार्यक्षम बनता है तथा सभी
प्रकार के यज्ञ पूरे किये जा सकते हैं। इसके लिये ज्ञानेन्द्रियों के ५ गुणों को अपने विषयों से दूर करते हैं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध।
(६) प्राण-कर्म यज्ञ-५ प्राण और ५ उप-प्राण हैं, जो शरीर अंगों की क्रियाओं से सम्बन्धित हैं। प्राणों का कर्म जानने पर उनको आत्म-संयम की अग्नि में
जलाते हैं। इन्द्रियों और उनके प्राणों में समन्वय रख कर उनका अधिकतम उपयोग हो सकता है।
(७) द्रव्य यज्ञ-इससे द्रव्य या खरीदे जानवाली सम्पत्ति का उत्पादन होता है। खरीद बिक्री में पैसा एक हाथ से दूसरे में जाता रहता है। यह द्रव की तरह प्रवाह
है, अतः इसको द्रव्य कहते हैं। दक्षिण भारत भी व्यापार प्रधान होने के कारण द्रविड़ है। उत्तर भारत समतल होने के कारण कृ षि प्रधान है, यहां ऋत (समतल
भूमि, आचार) रहने के कारण आर्य क्षेत्र है। व्यापार में यात्रा और लाभ की चेष्टा होने के कारण कई नियमों का पालन नहीं होता जो कृ षि क्षेत्र में सम्भव है। द्रव्य
यज्ञ में द्रव्य (सम्पत्ति, पदार्थ, मुद्रा) का उत्पादन होता है। हर प्रकार के यज्ञ में उत्पादन का कु छ भाग भविष्य के लिये बचा कर रखते हैं जिससे यज्ञ सदा
चलता रहे और हमारा पालन हो। कृ षि में कु छ अन्न बीज के लिये बचा कर रखते हैं जिससे अगले वर्ष भी खेती हो सके । व्यापार में भी उतना ही खर्च करते हैं
जिससे मूलधन बचा रहे। इसेही कहते हैं कि यज्ञ से बचा अन्न ही खाना चाहिये। उसे अमृत-भुजः कहा गया है, क्योंकि ऐसा करने वाला सदा कर्म और भोग
करता रहेगा।
(८) तपो-यज्ञ-तप का अर्थ श्रम है। इससे ताप (गर्मी) होती है अतह् यह तप है। दृश्य जगत् को भी तपो-लोक कहा गया क्योंकि इसके एक भाग का तेज अन्य
भागों तक पहुंच सकता है। सिद्धान्ततः तपो लोक से बाहर से कोई प्रकाश हम तक नहीं पहुंच सकता। देश में उर्जा के साधनों का संरक्षण और उपयोग ही तपो
यज्ञ है-बिजली उत्पादन, कोयला, पेट्रोल आदि का भन्डार सुरक्षित रखना। इसी तप से असुरों ने देवताओं को कई बार पराजित किया था। व्यक्तिगत रूप से
दैनिक व्यायाम, भोजन और व्यवहार में संयम और कु छ कष्ट सहन क्षमता रखना तपो यज्ञ है। ऐसा नहीं है कि के वल ऋषि ही तप करते थे। असुरों ने बहुत
कठोर तप किया। उनकी तुलना में देवता विलासी होने के कारण हार गये।
(९) योग यज्ञ-योग का अर्थ है जोड़ना। शरीर में श्वास और क्रिया को जोड़ना योग है। इसके ८ स्तरों के बाद अन्ततः आत्मा और परमात्मा का योग होता है -
(१) यम, (२) नियम, (३) आसन, (४) प्राणायाम, (५) प्रत्याहार, (६) धारणा, (७) ध्यान, (८) समाधि।
(१०) स्वाध्याय यज्ञ-नियमित अध्ययन, चिन्तन और ध्यान द्वारा अपनी मानसिक शक्ति का विकास और ज्ञान पाना स्वाध्याय यज्ञ है।
(११) ज्ञान यज्ञ-समाज में शिक्षा व्यवस्था, ज्ञान परम्परा को चलाना और विकास ज्ञान यज्ञ है। यह गुरु-शिष्य परम्परा से आगे बढ़ता है। स्वाध्याय व्यक्ति के
लिये है, यह समाज के लिये।
(१२) प्राणायाम यज्ञ-श्वास नियन्त्रण के रूप में यह योग यज्ञ का चतुर्थ अंग है। यहां इसका अर्थ है कि कम से कम साधन द्वारा शरीर को शक्तिशाली और
उपयोगी बनाया जाय। शरीर में शक्ति के लिये भोजन लेना और उसका पाचन जरूरी है। यह प्राण का अपान में हवन है। अपान वायु से पाचन होकर मल
निष्कासन होता है। किन्तु शरीर में भोजन सञ्चित करने से ही कोई लाभ नहीं है। जैसे नियमित भोजन जरूरी है, नियमित रूप से कु छ शक्ति खर्च कर काम
करना भी जरूरी है। यह अपान का प्राण में हवन है। भौतिक स्तर पर शुद्ध भोजन लेकर उसे पचाना और दैनिक कार्य या व्यायाम करना ही प्राणायाम यज्ञ है।
सूक्ष्म स्तरों पर श्वास और मन का नियन्त्रण भी होता है।
(१३) प्राण यज्ञ- यह प्राण का अपान में तथा अपान का प्राण में हवन है तथा नियत आहार द्वारा प्राण का प्राण में हवन है-
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायाम परायणः॥
अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति। (गीता ४/२९-३०)
शरीर में भोजन का ग्रहण प्राण का ग्रहण है, जिसका अपान में हवन होता है। काम में उसका खर्च होना अपान का प्राण में हवन है। अन्न के पाचन से आरम्भ कर
७ स्तरों पर प्राण का उत्थान प्राण-यज्ञ है। बृहदारण्यक उपनिषद् (१/५/१) के अनुसार हम ७ प्रकार का अन्न लेते हैं-(१) मन या ज्ञान, (२) प्राण, (३)
पृथिवी (ठोस पदार्थ), (४) जल, (५) तेज, (६) वायु (श्वास), (७) आकाश। वैशेषिक दर्शन में ९ द्रव्य हैं इनमें काल और आत्मा को भी गिना गया है।
छान्दोग्य उपनिषद् (६/५/१) में कहा गया है कि अन्न का ३ भाग में पाचन होता है-ठोस पदार्थ मल रूप में निकल जाता है, मध्यम का उपयोग शरीर को पुष्ट
करने में होता है तथा सूक्ष्म भाग मन हो जाता है-अन्नमशितं त्रेधा विधीयते, तस्य यः स्थविष्टो धातुस्तत्पुरीषं भवति, यो मध्यस्तन्मांसं, योऽणिष्टस्तन्मनः।
(छान्दोग्य ६/५/१)।
आयुर्वेद के अनुसार स्थूल भोजन ७ स्तरों में पचता है-
(१) रस (द्रव)-शरीर की पुष्टि। इसका मल भोजन का अवशेष है जो शरीर से बाहर निकलता है।
(२) असृक् (द्रव में ठोस कण)-रक्त। यह जीवन देता है (वाजीकरण या शक्ति)। इसका मल पित्त है।
(३) मांस-इसमें मांसपेशी तथा चर्म भी है। यह शरीर का लेपन करता है (आवरण, भरना)। इसका मल कान के मल आदि हैं।
(४) मेद (चर्बी, वसा) शरीर की क्रिया को चिकना करती है (स्नेहन)। इसका मल स्वेद (पसीना) है।
(५) अस्थि (हड्डी)-यह शरीर का ढांचा है, धारण करता है। इसका मल नख और के श हैं।
(६) मज्जा-हड्डी के भीतर का भीतरी भाग, मस्तिष्क, सुषुम्ना तन्त्र। यह भरता है (पूरण)। इसका मल ग्रन्थियों का स्राव है।
(७) शुक्र (रज, वीर्य= स्त्री पुरुष के प्रजनन के लिये रस)-इससे सन्तान जन्म होता है। इसका रस है ओज (तेज)। ओज की साधना करनेवाला ओझा है।
पं. मधुसूदन ओझा ने संशय तदुच्छेदवाद के यज्ञैकसत्योपनिषद् (अंग्रेजी अनुवाद तथा टिप्पणी सहित-ब्रह्मविद्या रहस्यम्-ए.एस.रामनाथन-राजस्थान पत्रिका,
जयपुर-खण-२, पृष्ठ १५९-१७६) में प्रायः इन्हीं का वर्गीकरण किया है। यज्ञ की परिभाषा दी है-एक वस्तु का दूसरे में लय होना। यह पदार्थ का भीतरी
परिवर्तन है। ४ प्रकार के सम्बन्धों से ४ प्रकार के यज्ञ हैं-१. ब्रह्म-कर्म, २. जीव-ईश्वर, ३. मन-प्राण-वाक् , ४. ज्ञान-क्रिया।
१. ब्रह्म-कर्म यज्ञ-ब्रह्म की कर्म में तथा कर्म की ब्रह्म में आहुति। इन क्रियाओं को ब्रह्मा का दिन और रात्रि कहा गया है।
२. जीव-ईश्वर यज्ञ-तत् सृष्ट्वा तदेव अनुप्राविशत् (तैत्तिरीय उपनिषद् २/६/३)
३. प्राण यज्ञ-यह ३ प्रकार का है-(क) मन-प्राण, (ख) मन-वाक् , (ग) प्राण-वाक् ।
शक्ति के अनुसार प्राण ४ स्तर के हैं-परोरजा, आग्नेय, सौम्य, आप्य। क्रिया के अनुसार ७ प्रकार के हैं, जो मुण्डकोपनिषद् (१/२/४, २/१/८) के अनुसार
अग्नि की ७ निगलने वाली ज्वाला से बने हैं। उगलने अर्चि) के लिये भी ७ जिह्वा हैं-कु ल १४ (मनु) जिह्वा हैं-अग्नि जिह्वा मनवः (ऋक् १/८९/७)। क्रियात्मक
अंगों के कारण प्राण को सुपर्ण कहा गया है, जो रस रूप ब्रह्म के समुद्र में प्रवेश कर भूमि, जीवों की सृष्टि करता है। सृष्टि क्षेत्र (भूमि) माता है, रचित पदार्थ पुत्र
है। दोनों एक-दूसरे का पालन करते हैं (गीता ३/११ में परस्परं भावयन्तः)। प्राण-वाक् यज्ञ-
एकः सुपर्णः स समुद्रमाविवेश स इदं भुवनं वि चष्टे। तं पाके न मनसा पश्यमन्तितस्तं माता रेळ्हि स उ रेळ्हि मातरम्। (ऋक् १०/११४/४)
वेद शब्दों के अनुसार भौगोलिक तथा अन्य संस्था होने के कारण समुद्र तट की भूमि का पालक रेड्डि कहलाता है। भारत के समुद्र तट पर सबसे अधिक खेती
आन्ध्र में होती है अतः वहां के कृ षकों की उपाधि है।
मन-वाक् यज्ञ का क्रम तैत्तिरीय उपनिषद् (२/१) में है-मन-आकाश-वायु-अग्नि-अप्-पृथिवी (सृष्टि यज्ञ में वर्णित)। लय क्रम में ये क्रमसः अपने स्रोतों में लीन
होते हैं।
मन में कोई कर्म नहीं है, उसकी प्राण में आहुति से कर्म होता है। समाधि में कर्म का मन में लय होता है।
लीन द्रव्य अन्न है तथा जिसमें लय होता है, वह अन्नाद है। अन्न-अन्नाद यज्ञ का सामवेद में उल्लेख है-
अहमस्मि प्रथमजा ऋतस्य पूर्वं देवेभ्यो अमृतस्य नाम।
यो मा ददाति स इदेवमावदहमन्नमन्नमदन्तमद्मि।॥ (सामवेद ५९४)
ज्ञान-क्रिया यज्ञ का क्रम उदयनाचार्य ने न्याय-कु सुमाञ्जलि में कहा है-
ज्ञानजन्या भवेदिच्छा इच्छाजन्या कृ तिर्भवेत्। कृ तिजन्यं भवेत्कर्म तदेतत् कृ तमुच्यते॥
अर्थ-क्रिया की परस्पर आहुति यज्ञ है। यहां अर्थ सिर्फ पैसा नहीं है, इन्द्रियों का प्रत्येक विषय अर्थ है।
८. अन्य विचार-(१) सनातन यज्ञ-इन वर्णनों से स्पष्ट है कि सिर्फ प्राचीन काल के वैदिक युग में ही यज्ञ होते थे। वैदिक युग आज भी है, गीता में भगवान् ने
यह नहीं कहा है कि पहले वैदिक युग में मुझे पुरुषोत्तम कहते थे, आजकल लौकिक युग में भी वही कहते हैं। दोनों के लिये वर्तमान काल का ही प्रयोग है-
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः। (गीता १५/१८)
के वल ऋषि ही नहीं, सभी गृहस्थ यज्ञ करते थे और आज भी करते हैं। गृहस्थ कर्मों का आधार विवाह भी मुख्य यज्ञ है। गृहस्थों पर ही पूरा समाज और ऋषि
मुनि भी निर्भर हैं। दैनिक कर्त्तव्यों को अग्निहोत्र कहा गया है। भारत के बाहर असुर भी यज्ञ करते थे। मेघनाद ने निकु म्भिला देवी का आसुरी यज्ञ किया था जिसे
लक्ष्मण ने ध्वस्त किया।
स होतुकामो दुष्टात्मा गतश्चैत्य निकु म्भिलाम्। निकु म्भिलामधिष्ठाय पावकं जुहुवेन्द्रजित्॥२६॥
यज्ञभूम्यां तु विधिवत् पावकस्तेन रक्षसा। हूयमानः प्रजज्वाल मांस-शोणित-भुक्तदा॥२७॥
(वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड, सर्ग ८२)
इसमें आसुरी यज्ञ का लक्षण है कि जीवित प्राणियों की बलि दी जाती है। मुख्य लक्षण है कि यह समाज के पालन के लिये नहीं, दूसरों के विनाश के लिये होता
है।
तप यज्ञ में असुर देवताओं से भी आगे निकल गये थे, इसी कारण वि विजयी हुये। हिरण्यकशिपु तथा रावण ने घोर यज्ञ द्वारा शक्ति पाकर देवों को पराजित
किया।
(२) श्रेष्ठ कर्म-सभी कर्म अच्छे नहीं हैं। कई कर्मों से नाश भी होता है। परिभाषा में ही कहा है कि उपयोगी वस्तु का उत्पादन ही यज्ञ है। जितने अधिक लोगों
का उपकार हो सके , उतना ही अच्छा यज्ञ है। समाज इसी से चलता है, अतः समाज को स्थायी रूप से चलाने के लिये यज्ञ चलाना जरूरी है। इसके लिये यज्ञ
का कु छ उत्पाद उसे चलाने में खर्च करना पड़ता है। उससे बचा हुआ ही उपभोग करना चाहिये नहीं तो यज्ञ बन्द हो जायेगा। कृ षि समाज का मुख्य यज्ञ है जो
सम्वत्सर के चक्र में है, अतः सम्वत्सर को भी यज्ञ कहा गया है। अगले वर्ष की कृ षि के लिये बीज आदि बचना चाहिये, वाणिज्य में मूलधन सुरक्षित रखना है।
गीता के इन श्लोकों का यही तात्पर्य है-
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। (३/९)
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्व किल्बिषैः। (३/१२)
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। (४/३१)
(३) पशु की आहुति-सीमित अर्थ में अग्नि में मन्त्र सहित हवन को ही यज्ञ मानते हैं, जिसका गीता में कोई उल्लेख नहीं है। जो भी उत्पादन में प्रयुक्त हुआ वह
पशु है। इसे के वल जीवित प्राणी मान कर उनकी बलि देना भी यज्ञ नहीं है। अवश्य ही मांसाहारियों के लिये मांस भोजन भी उनके अपान में प्राण का हवन है,
पर वह यज्ञ का उद्देश्य नहीं है। वेद में अज का अर्थ भगवान् तथा बकरी दोनों है। कु रान में भी बकर का अर्थ भगवान् तथा बकरी दोनों है। दोनों स्थितियों में
लोगों ने अपने मांस भोजन लोभ के लिये पशु बलि देना शुरु किया। मन्त्र सहित मूर्त्ति पूजा या अग्नि में आहुति का सांके तिक अर्थ है। बाह्य जगत् का प्रतीक रूप
सरीर मेमें शरीर के अंगों में न्यास किया जाता है। इन दोनों के ध्यान के लिये प्रतीक मूर्त्ति तथा आहुति है। आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक जगत्
का परस्पर सम्बन्ध ही इसका अर्थ है। इस सम्बन्ध की वैज्ञानिक माप या परीक्षण अभी तक सम्भव नहीं है। सम्भवतः इन ३ प्रकार के विश्वों का अलग सत्ता
के लिये जरूरी है कि ये एक दूसरे को अधिक प्रभावित नहीं करें, माया के आवरण द्वारा अलग रहें।
(४) सभ्यता का विकास-समाज का अस्तित्व कृ षि पर ही आधारित है अतः वह प्रथम या अग्रि-यज्ञ (agri-culture) है। कृ षि का उद्देश्य है कि मनुष्य का
भोजन अन्न है, मांस नहीं। आश्चर्य की बात है कि बाइबिल तथा कु रान में बहुत स्पष्ट रूप से मांस भोजन मना किया गया है, पर उनके अनुयायी ही मांस खाने
पर सबसे अधिक जोर देते हैं। (बाइबिल, सृष्टि १/२९, कु रान-अलबकराः २/२३,६२ आदि)। वेद या गीता में कहीं भी मांस भोजन का निषेध नहीं है, वरन्
चरक संहिता के ३ अध्याय विभिन्न प्रकार के मांसों के गुणों का वर्णन करते हैं। मनुस्मृति में भी मांस-मद्य मैथुन को मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति कहा गया है,
पर कल्याण के लिये इनमें संयम करने को कहा है-
न मांस-भक्षणे दोषः न मद्ये न च मैथुने। प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला॥ (मनु स्मृति ५/५६)
सभी यज्ञ एक-दूसरे के सहायक हों तभी देश का विकास हो सकता है। सभी देश शान्ति से सहयोग करें तो विश्व का विकास हो सकता है। कू र्म अवतार ने
असुरों को यही समझाया था कि मिलकर समुद्र मन्थन करने से ही उत्पादन होगा। उत्पादन नहीं होने से लूटने के लिये कु छ नहीं बचेगा। इतिहास में सबसे
अधिक लूट एसिया में अफगानिस्तान तथा यूरोप में स्पेन ने किया है-यही देश सबसे अधिक गरीब हैं। एक यज्ञ द्वारा अन्य यज्ञ का सम्पादन से ही साध्य गण
उन्नति के शिखर पर पहुंचे तथा देव कहलाये (ब्रह्म यज्ञ में वर्णित, पुरुष सूक्त १६)। अपने यज्ञ द्वारा अन्य का विनाश (पशु का, अन्य समाज या देश का)
आसुरी यज्ञ है।
शरीर के भीतर यज्ञों का क्रम दिखाया गया है। आधिभौतिक यज्ञों का क्रम प्रायः इस प्रकार है-
कृ षि-वितरण-तेल आदि उद्योग-घर में पकाना-भोजन-पाचन।
कृ षि वर्षा पर आधारित है, अतः इस क्रम में दैहिक-दैविक-भौतिक सभी यज्ञ आ जाते हैं। परस्पर सम्बन्ध होने के कारण देव-मनुष्यों का परस्पर यजन कहा
गया है (गीता ३/९)
सभी उद्योग कच्चे माल पर आधारित है। इनका उत्पादन, परिवहन, विक्रय आदि यज्ञों के क्रम हैं।
गुरु-शिष्य क्रम से शिक्षा का प्रसार-विस्तार ज्ञान-यज्ञ का चक्र है। यह भौतिक, आध्यात्मिक (व्यक्तिगत) दोनों है।
(५) सर्वहुत यज्ञ-विश्व तथा उसकी प्रतिमा रूप मनुष्य का निर्माण सर्वहुत यज्ञ है क्योंकि इसमें सभी पदार्थों का हवन होता है तथा सभी की प्रतिमा रूप
मनुष्य बनता है। ब्रह्म स्वयं अपने में अपना हवन कर सृष्टि करता है जिसे पुरुष सूक्त (ऋक् १०/९०/९) में सर्वहुत यज्ञ कहा गया है। यह १० रात्रि में सम्पन्न
होता है। यहां रात्रि का अर्थ कम तेज का या शान्त स्थिति है जो उत्पादन के लिये जरूरी है। विराट् विश्व ही पुरुष है, उसकी क्रमशः प्रतिमा बनते-बनते व्यक्ति
पुरुष बनता है, अतः सर्वमेध को पुरुषमेध भी कहा गया है-
पुरुषमेधात् सर्वमेधः। स सर्वमेधेनेष्ट्वा सर्वराडिति नामाधत्त। (गोपथब्राह्मण पूर्व ५/७)
अथ यद्दशममहरुपयन्ति अथ यद्दशरात्रमुपयन्ति। विश्वानेव देवान् देवतां यजन्ते। (शतपथ ब्राह्मण १२/१/३/२०)
तस्मै (ब्रह्मणे) दशमं हूतः प्रत्यशृणोत्। स दशहूतोऽभवत्। ... एतं दशहूतं सन्तं दशहोता-इति आचक्षते। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/३/११/१)
विराड् वा एषा समृद्धा यद्दशाहानि। (ताण्ड्य महाब्राह्मण ४/८/६)
सभी ५ महाभूतों के परस्पर मिलन को वेदान्त में पञ्चीकरण कहा गया है। मनुष्य पुरुष का जन्म भी १० दिनों में होता है। यहां पृथ्वी के चारों तरफ चन्द्र का
परिभ्रमण काल (२७.३ दिन) को दिन कहा गया है। अतः गर्भ में १० चन्द्र परिक्रमा २७३ दिन में मनुष्य जन्म होता है। मनुष्य शरीर का पार्थिव भाग पृथ्वी में
मिल जाता है (मृत् भाग होने से मिट्टी)। चान्द्र मण्डल का भाग १ वर्ष में चन्द्र-कक्षा तक पहुंचता है। (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद्)। इनको ऋक् (१०/१५/१)
में सोम्यासः कहा गया है। इस सोम्य शरीर का निर्माण भी १० रात्रि में होगा। चन्द्र मण्डल के लिये पृथ्वी का अक्ष-भ्रमण काल दिन है, अतः १० दिनों में प्रेत-
शरीर का दशगात्र होता है। अथर्ववेद का सम्पूर्ण १८वां काण्ड इन प्रेत पितरों का ही वर्णन है।
(६) इष्टि यज्ञ-सभी इष्टि-यज्ञ एककालिक इच्छा पूर्त्ति हैं। लगता है कि इनका कोई चक्र नहीं है। किन्तु जो भी उत्पन्न हुआ है, अपनी आयु के बाद उसका
विनाश निश्चित है, तथा वह जब तक जीवित है अन्य यज्ञों में योगदान करता है। यहां २ इष्टि यज्ञों के उदाहरण दिये जाते हैं। सन्तान उत्पन्न करने के लिये
पुत्रकामेष्टि यज्ञ है। आधुनिक काल में भी सन्तानोत्पत्ति के कई कृ त्रिम उपाय हैं। प्राचीन काल के उदाहरण हैं- (१) वेन के शरीर कोष से मान्धाता का जन्म
(कोष का विकास)। (२) एक ही पिण्ड से १०० कौरवों की उत्पत्ति। उनको १०० घटों (cell) में दीर्घकाल तक रखा गया था। (३) गरुड़-अरुण का जन्म-
समय से पूर्व निकलने के कारण अरुण का पूर्ण विकास नहीं हो पाया। (४) राम-जन्म-इसे अश्वमेध भी कहा गया है। इसका कारण है कि उनके जन्म के समय
दशरथ प्रायः ६७ वर्ष के तथा कौशल्या भी ६० से ऊपर थीं। अतः गर्भाधान के पूर्व उनके शरीर में प्राण का प्रवाह नियमित करना था जो आन्तरिक अश्वमेध
है।
एक अन्य इष्टि यज्ञ है वर्षा कराना। वर्षा के चक्र को नियमित कराना ही इसका उद्देश्य है, क्योंकि कभी-कभी प्राकृ तिक विपर्यय के कारण असमय या कम-
अधिक वर्षा हो जाती है। इस अर्थ में अधिक वर्षा को कम करना या वन्या जल का उचित निष्कासन भी वृष्टि यज्ञ ही है। वर्षा कराने के कई नये पुराने उपाय हैं-
(१) वन लगाना, (२) कृ त्रिम पर्वतों (गोवर्धन) से मेघ रोकना, (३) बादल में धूलि कण डालकर उनसे जल विन्दु निर्माण, (४) मन्त्र आहुति से यज्ञ जो
इसके विशेषज्ञों द्वारा होता है। इसे तैत्तिरीय संहिता (२/४/७) में कारीर-इष्टि कहा गया है। करीर फल, वर्षाह्व (वर्षा का आह्वान करने वाले) काष्ठ आदि की
अग्नि में आहुति से वायु में सोम-धारण (जल-विन्दु निर्माण) की क्षमता बढ़ जाती है और वर्षा होती है। वर्षा का जन्म भी मनुष्य जन्म जैसा है। इसकी प्रक्रिया में
६.५ मास लगता है जो गर्भ में आधान है-
सप्तार्धगर्भा भुवनस्य रेतो विष्णोस्तिष्ठन्ति प्रदिशा विधर्मणि।
ते धीतिभिर्मनसा ते विपश्चितः परिभुवः परिभवति विश्वतः॥ (ऋक् १/१६४/३६)
= सूर्य (विष्णु का भौतिक रूप) की किरणें ६ १/२ मास तक जल धारण करती हैं, जो पृथ्वी को गर्भित कर सकती हैं। पूरे आकाश में फै ल कर अपने कार्य के
लिये प्रतीक्षा करती हैं। परि+भुवः, या परिभवति के भाव को ही गीता (३/११) में पर्जन्य कहा गया है।
कृ ष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति।
त आववृत्रन् त्सदनादृतस्यादिद् घृतेन पृथिवी व्युद्यते॥ (ऋक् १/१६४/४७)
= कृ ष्ण मार्ग (दक्षिणायन) में सूर्य किरणें जल लेती हैं, तब उत्तर दिशा में जाती हैं। ऋतु के स्रोत से लौटकर वे पृथ्वी को जल से सिञ्चित करती हैं।
समानमेतदुदक मुच्चैत्यव चाहभिः। भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः॥ (ऋक् १/१६४/५१)
= जल पहले ऊपर जाता है, फिर उसी मात्रा में नीचे आता है (अपनी ऋतु में)। जल को अग्नि ऊपर ले जाता है, तथा पर्जन्य उसे वर्षा के रूप में नीचे लाता
है।
ओ श्रावय-इति वै देवाः पुरो वातं ससृजिरे। अस्तु श्रौषट् -इति अभ्राणि समप्लावयन्। यज-इति विद्युतम्। ये यजामहे-इति स्तनयित्नुम्। वषट्कारेणैव प्रावर्षन्।
(शतपथ ब्राह्मण १/५/२/१८)
= देवताओं ने पुरवा हवा को उत्पन्न करने के लिये कहा-ओ श्रावय। (इस हवा में अन्न से भूसी को अलग करने के लिये उनको हवा में उड़ाते हैं-वह ओसाना =
ओश्रावय है)। बादलों को लाने के लिये कहा-अस्तु श्रौषट् । बिजली की चमक के लिये कहा-यज। उसकी गड़गड़ाहट के लिये कहा-ये यजामहे। वर्षा बून्दों के
गिरने के लिये कहा-वौषट् (छठी क्रिया)।
वैदिक मत का सारांश इस प्रकार है-
पृथ्वी पर वर्षा एक प्रकार का गर्भाधान है जिसके कारण वनस्पति तथा जीव-जगत् का जन्म होता है।
(२) सूर्य किरणों के ताप से समुद्र का जल उठता है तथा वह हवा द्वारा उत्तर लाया जाता है।
(३) जब सूर्य सबसे उत्तर भाग में आता है, तब नम हवा भी हिमालय के पाद देश में आती है।
(४) पूर्व-उत्तर दिशा में बहने वाली हवा हिमालय से टकरा कर पश्चिम दिशा में बहती है, जिसे पुरवा (पुरोवात) या पूर से आने वाली हवा कहते हैं। इससे नम
हवा वर्षा को पश्चिम उत्तर भारत तक ले जाती है। विश्व के अन्य भागों में भी प्रायः इसी प्रकार वर्षा होती है।
(५) दक्षिण समुद्र से जल के शोषण तथा उससे उत्तर-पूर्व भारत में वर्षा होने के बीच प्रायः ६ मास का समय लगता है।
(६) हवा की दिशा, वर्षा की मात्रा, चमक तथा गड़गड़ाहट के आधार पर वर्षा के ८ भेद हैं (तैत्तिरीय संहिता २/४/७)।
(७) करीर फल, कु छ काष्ठों के हवन से वर्षा करायी जा सकती है (जब बादल आते हैं, किन्तु बिना वर्षा के चले जाते हैं)।
(८) आधान या विकास काल की घटनाओं से वर्षा की मात्रा प्रभावित होती है । इसकी पहचान ५ लक्षणों से होती है-हवा, वर्षा, मेघ, गर्जन, विद्युत्।
(९) सूर्य चन्द्र की स्थिति या कई मासों की विशेष ग्रह-स्थिति भी वर्षा को प्रभावित करती है।
(७) नरमेध यज्ञ-अश्वमेध तथा सर्वमेध यज्ञ का वर्णन हो चुका है। पूरे आकाश के मण्डलों या लोकों का निर्माण स्र्वमेध या विराट् पुरुष का मेध है। व्यक्ति रूप
में पुरुष मेध का अर्थ है, उसे शिक्षा और संस्कार द्वारा योग्य बनाना। राजा हरिश्चन्द्र को वरुण की कृ पा से पुत्र प्राप्ति हुई, जिसके विषय में वरुण ने कहा था
कि ३ लोकों में गुणों से विभूषित पुत्र होगा। किन्तु जन्म होते ही कहा कि यज्ञ में इसकी बलि दो। बलि रूप में वध होने पर वरदान का कोई अर्थ नहीं होता कि
वह ३ लोकों में विख्यात होगा। अतः इसका अर्थ यही है कि उसे श्रम औरतप द्वारा क्रमशः योग्य बनाया जाय। इसी अर्थ में हरिश्चन्द्र ने कहा कि इसका दांत
निकले तब यज्ञ करूं गा, दांत टू ट कर नये दांत निकले तब यज्ञ करूं गा, धनुर्वेद की शिक्षा पूरी होने पर यज्ञ करूं गा, युवराज बनने पर यज्ञ करूं गा। ये सभी
शिक्षा तथा संस्कार के क्रम हैं।नरमेध का भी यही अर्थ है कि मनुष्य को सक्षम किया जाय जिससे वह अपने को तथा समाज को कु छ दे सके । इसी अर्थ में
वरुण ने रोहित की बलि के लिए कहा था। व्यक्ति शिक्षा के लिए अपने को समर्पित करेगा तभी गुणी बन सकता है, जैसा वरुण ने पुत्र जन्म के आशीर्वाद के
समय कहा था। गुरु के पास शिक्षा के लिए कोई जाता है, तो गुरु उसका आलभन करते है। इस क्रिया को सभी पशुओं की शमिता (शान्त करना) कहते हैं।
आलभन का अर्थ किया जाता है कि पशु या मनुष्य को छू कर देखते हैं कि कहां से उसे काटा जाय कि वह शान्त या मृत हो जाय। मरने के बाद न कोई शिक्षा
हो सकती है, न पशु का लगातार उपयोग।
शमितार उपेतन यज्ञं देवेभिरन्वितम् (तैत्तिरीय संहिता, ३/१/४/१०)
देव, माता-पिता आदि को शमिता कहा गया है। निश्चित रूप से वे अपने बच्चों को नहीं मारेंगे।
दैव्याः शमितार उत मनुष्या आरभध्वम्। उपनयत् मेध्या दुरः। अन्वेनं माता मनयताम्। अनुं पिता। ... उदीचीनां अस्य पदो निधत्तात्। ... अध्रिगो शमीध्वं
शमीध्वमध्रिगो। अध्रिगुश्चापापश्च उभौ शमितारौ॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/६/६/४)
९. गोमेध यज्ञ-गो यज्ञ का स्वरूप है। अतः व्यापक रूप में सभी यज्ञ गोमेध ही हैं।
(१) आधिदैविक रूप-आकाश में किरण रूपी व्याप्त तेज गौ है।
(क) स्वयम्भू मण्डल के मनोता हैं-वेद (निर्माण सङ्कल्प, सृष्टि यज्ञ), सूत्र (पिण्डों के बीच सम्बन्ध), नियति (प्रकृ ति द्वारा नियत दिशा में कर्म-सञ्चर या
सम्भूति। विपरीत दिशा में असम्भूति, विनाश या प्रतिसञ्चर कार्य है। सृष्टि में सञ्चर अधिक है, प्रलय में यह कम होता है। दोनों गतियों का नियन्त्रण या समन्वय
हृदय से होता है जिसके तत्त्व हैं-हृ = आहरण या लेना, द = देना, य = यम या नियमन, चक्रीय गति। (बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/३/१) विश्व वृक्ष के निर्माण
का क्रम ही प्रकृ ति रूपी गौ है-
वृक्षे वृक्षे नियता मीमयद् गौः ततौ वयः प्र पतान् पूरुषादः।
अथेदं विश्वं भुवनं भयात इन्द्राय सुन्वदृषये च शिक्षत्॥ (ऋक् १०/२७/२२) ।
(ख) परमेष्ठी मण्डल (ब्रह्माण्ड) के ३ मनोता हैं-इट् (इडा, इष्टका-सीमाबद्ध पिण्ड), ऊर्क (प्राण, उसके द्वारा क्रिया-work), भोग (निर्माण या क्रिया के
लिए प्रयुक्त पदार्थ, पशु)। इडा को ही पृथ्वी या गौ भी कहा गया है-
गोभूवाचस्त्विळा इडा (अमरकोष, ३/३/४२)
इडा हि गौः। (शतपथ ब्राह्मण, २/३/४/३४, १४/२/१/७)
इट् के ३ रूप हैं-अन्न = उपभोग की वस्तु, गौ = निर्माण का स्थान तथा क्रिया, श्रद्धा = ईंटों के बीच का योग-सूत्र (आकर्षण, रासायनिक बन्धन, स्नेह)।
दृश्य जगत् विराट् (राट् = प्रकाशित, दृश्य) है। वह भी गौ है-
विराड् (यजु. १३/४३) वै गौः। (शतपथ ब्राह्मण, ७/५/२/१९)
विराजो वा एत रूपं तद् गौः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, ४/९/३)
ब्रह्माण्ड की सर्पाकार भुजा (अहिर्बुध्न्य = अप् समुद्र का सर्प, या शेषनाग) में भी निर्माण होता है, अतः वह गौ है-
गौर्वै सार्पराज्ञी। (कौषीतकि ब्राह्मण २७/४)
या गौः सा सिनीवाली सो एव जगती। (ऐतरेय ब्राह्मण, ३/४८)
जगती छन्द से ब्रह्माण्ड की माप है (पृथ्वी x २ घात ४८), रात्रि या सिनीवाली में इसका तारा समूह दीखता है।
(ग) सौर मण्डल के मनोता हैं-ज्योति, गौ, आयु। ज्योति सूर्य के प्रकाश का विस्तार है। जहां तक यह ब्रह्माण्ड से अधिक है, वह सूर्य की वाक् या क्षेत्र है और
इसकी माप ३० धाम (पृथ्वी x २ घात ३०) है।
त्रिंशद्धाम वि-राजति वाक् पतङ्गाय धीमहि । प्रति वस्तोरहद्युभिः ॥ (ऋक् , १०/१८९/३)
ज्योति के ३ क्षेत्र हैं-१०० योजन (सूर्य व्यास) तक ताप, १००० योजन तक तेज (वायु), तथा कोटि योजन तक प्रकाश।
यहां सृष्टि निर्माता रूप गौ के ३ रूप हैं-वसु, रुद्र, आदित्य। निर्माण स्थान वसु की पुत्री। आदित्य तेज से निर्माण-यह स्वसा = बहन है। पदार्थों के टू टने (रुद्र)
से निर्माण होता है = रुद्र की माता है।
माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसा आदित्यानां अमृतस्य नाभिः।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट॥ (ऋक् ८/१०१/१५)
आयु के ३ अर्थ हैं-आयतन = कितना पदार्थ इस क्षेत्र में आ सकता है।
आय = कितना धन आया, आयु = शरीर कितना समय चल सकता है।
इनके ३ माप छन्दों में हैं-गायत्री (२४), त्रिष्टु प् (४४), जगती (४८)
गायत्री सौर पृथ्वी है (जहां तक के पिण्ड सूर्य की कक्षा में रहेंगे)। त्रिष्टु प् महर्लोक तथा जगती ब्रह्माण्ड की माप है (अहर्गण क्रम में प्रत्येक धाम पिछले से २
गुणा)
मनुष्य की आयु के भी ३ भाग हैं-गायत्री = २४ वर्ष तक गात्र का विकास, उष्णिक् (पगड़ी) = २८ वर्ष तक परिवार या संस्था का मुख्य तथा उसके बाद
जगती = ४८ वर्ष तक समाज कार्य।
सम्पत्ति भी ३ प्रकार की है-शरीर के भीतर की योग्यता (गायत्री), बाहर की अदृश्य सम्पत्ति (श्री), दृश्य सम्पत्ति (लक्ष्मी)।
(घ) चान्द्र मण्डल-इसके ३ मनोता हैं-रेत, यश, श्रद्धा।
१. रेत परमेष्ठी पदार्थ का कण रूप है। इसकी सघनता के ३ रूप हैं-सोम द्रव की तरह फै ला है। नाभनेदिष्ट में नाभि के न्द्र है पर सीमा नहीं है। हिरण्य में के न्द्र
और सीमा दोनों हैं।
२. यश रेत का प्रभाव है। इसके ३ स्तर हैं-सुरा (मद्य) मन का नियन्त्रण कम करता है। पशु = उपभोग की वस्तु। सोम = अनुपयुक्त फै ला पदार्थ।
३. श्रद्धा दो भूतों के बीच का सम्बन्ध है। श्रवा (रेखा) + धा (धारण) = दो पिण्डों के बीच १ रेखा में सम्बन्ध। यह सम्बन्ध ३ प्रकार का है-पत्नी, आपः,
तेज। पत्नी बराबर का सम्बन्ध है। आपः (जल) सम्बन्ध में दोनों एक दूसरे से मिल कर एकाकार हो जाते हैं। तेज में दूर से सम्बन्ध होता है-शब्द, स्पर्श, रूप,
रस, गन्ध द्वारा।
(ङ) भूमण्डल के मनोता हैं-वाक् , गौ, द्यौ।
१. वाक् = पृथ्वी का क्षेत्र। वेद में ३ प्रकार की पृथ्वी है, पृथ्वी ग्रह, सूर्य का आकर्षण क्षेत्र, सूर्य जहां तक विन्दु रूप में दीखता है। इनकी माप छन्दों में गायत्री
(२४), त्रिष्टु प् (४४), जगती (४८) है।
२. गौ-पृथ्वी ३ रूपों में गौ है-निर्माण का स्थान, साधन, क्रिया। सौर मण्डल की तरह इसके भी ३ भाग हैं-वसु, रुद्र, आदित्य। पर इसमें अपना तेज नहीं है।
सूर्य से जो किरण आती है वह गो है, उसका जो भाग पृथ्वी में रहता है वह धेनु है (अग्निं तं मन्ये यो वसुः, अस्तं यं यन्ति धेनवः- ऋक् ३/५३/८)। सूर्य का
तेज सावित्री है, जो पृथ्वी द्वारा उपयोग हुआ वह गायत्री है।
३. द्यौ= आकाश। सीमा के भीतर का पिण्ड भूमि है। उसका प्रभाव क्षेत्र आकाश में फै ला हुआ है, वह भूमा है। ३ सीमाओं को ३ साम कहा है (त्रिसामा-विष्णु
सहस्रनाम)। ३ द्यौ हैं-
भूमि (पृथ्वी), अन्तरिक्ष (चन्द्र कक्षा, जहां तक के पिण्ड पृथ्वी की परिक्रमा कर सकते हैं-आकाश का १ लाख योजन का जम्बू द्वीप), द्यौ= जहां तक के
पिण्डों का पृथ्वी गति पर प्रभाव पड़ता है (शनि कक्षा तक का क्षेत्र, सूर्य व्यास = अक्ष का १००० गुणा, सहस्राक्ष)।
(च) आध्यात्मिक यज्ञ-आन्तरिक यज्ञ है कि हृदय से निकली १०० नाड़ियों को छोड़ कर के वल सुषुम्ना मार्ग से जायें तब मुक्ति होती है। इसे शतौदना गौ का
दान कहा गया है।
शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति, विष्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति॥
(कठोपनिषद्, २/३/१६)
पदच्छेद ७ (१३) में प्राण यज्ञ रूप में आध्यात्मिक यज्ञ की विस्तृत चर्चा है।
(१०) यजुर्वेद का प्रथम मन्त्र-ॐ इ॒षे त्वो॑र्जे त्वा॑ वा॒यव॑ स्थ दे॒वो वः॑ सवि॒ता प्रार्प॑यतु आप्या॑यध्व मघ्न्या॒ इन्द्रा॑य भा॒गं प्र॒जाव॑तीरनमी॒वा अ॑य॒क्ष्मा मा व॑ स्तेन
ई॑षत माघशँ॑सो ध्रुवा अ॒स्मिन् गोप॑तौ स्यात ब॒ह्वीर्यजमा॑नस्य प॒शून्पा॑हि (वा. यजु १/१)
(क) सौरमण्डल में सौर वायु का प्रवाह ईषा है। विष्णु पुराण (२/८/३) में सूर्य के ईषा दण्ड का विस्तार (परिधि) १८००० योजन है। अतः इसकी त्रिज्या
३,००० योजन है। सौरमण्डल के लिए सूर्य का व्यास योजन है। वहां से ३००० व्यास दूर यूरेनस कक्षा है जहां तक सौर वायु जाती है। इस सौर वायु से
सविता देव क्रतु या यज्ञ करते हैं। क्रतु की सीमा पर ६०,००० बालखिल्य हैं। सूर्य तेज से ही पृथ्वी पर जीव सृष्टि, उसका पालन तथा रोगनाश हो रहा है।
(ख) आधिभौतिक यज्ञों का वर्णन पदच्छेद ७ में किया गया है। गौ रूपी यज्ञ का नाश नहीं होना चाहिये तभी उसके उत्पाद मिलते रहेंगे। इस अर्थ में गौ अघ्न्या
है। पृथ्वी का मुख्य यज्ञ कृ षि है, वह गौ वृषभ पर आधारित है। जीवन भर मनुष्य गोदुग्ध का भोग करता है तथा पञ्चगव्य द्वारा अनमीवा (सूक्ष्म जीवाणु रहित),
अयक्ष्मा रहता है। इस यज्ञ से धन-धान्य की वृद्धि होती है। अपनी आवश्यकता का स्वयं उत्पादन करने पर दूसरों का लूटने की प्रवृत्ति नहीं होगी तथा पाप से
बचे रहेंगे।
अथैष गोसवः स्वाराजो यज्ञः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १९/१३/१)
इमे वै लोका गौः यद् हि किं अ गच्छति इमान् तत् लोकान् गच्छति। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/२/३४)
इमे लोका गौः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/५/२/१७)
धेनुरिव वाऽइयं (पृथिवी) मनुष्येभ्यः सर्वान् कामान् दुहे माता धेनुर्मातेव वाऽइयं (पृथिवी) मनुष्यान् बिभर्त्ति। (शतपथ ब्राह्मण, २/२/१/२१)
गावो लोकास्तारयन्ति क्षरन्त्यो गावश्चान्नं संजयन्ति लोके । यस्तं जानन् न गवां हार्द्दमेति स वै गन्ता निरयं पापचेताः॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, ७१/५२ नाचिके त-यमराज-सम्वाद)
(ग) मनुष्य शरीर में मेरुदण्ड ही ईषादण्ड है। इसकी सुषुम्ना नाड़ी द्वारा प्राण वायु के आरोहण से मुक्ति होती है। इसे शतौदना गौ का दान कहा है। अन्य
आध्यात्मिक यज्ञों का वर्णन पदच्छेद ७ (१३) में प्राण यज्ञ के नाम से है।
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहम्, स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि।
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्त्वा कु लपथम्, सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसि (विहरसे)-सौन्दर्य-लहरी, ९

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