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महामारी के परिप्रेक्ष्य में डिजिटल शिक्षा की प्रासंगिकता

भारत सरकार नई शिक्षा नीति को 2022 तक डिजिटल पढ़ाई कराने की योजना लागू
करने का प्रावधान पहले ही कर चुकी है । जिसमें 3 साल के बच्चे को प्ले स्कूल में
दाखिला कराना अनिवार्य है । ग्रामीण या शहर के स्लम बस्तियों में रहने वाले या वंचित
समाज के तीन साल के बच्चों के लिए आंगनबाड़ी की कार्यकर्ताओं को स्मार्टफोन और
टै बलेट दिए जाएंगे जिससे कि वे कार्यकर्ता बच्चों को प्ले स्कूल की पढ़ाई शरू
ु करायेंगी।
यह भविष्य ही बताएगा कि इतनी बड़ी जनसंख्या के बच्चों को प्ले स्कूल की तरह
आंगनवाड़ी की कार्यकर्ता शिक्षित करने में कितनी सक्षम होंगी?

हमारा दे श असमानताओं से भरा है महानगर, शहर, कस्बे, ग्रामीण क्षेत्र, जंगलों


के क्षेत्र,पहाड़ी क्षेत्र, अमीर-गरीब,जाति- धर्म जैसी समस्या ऑनलाइन या डिजिटल शिक्षा
व्यवस्था के सामने चुनौती बनकर खड़ी है । साल 2019 के एक सर्वे के अनुसार भारत में
12 साल से अधिक उम्र के बच्चे 38 करोड हैं। इनमें करीब 50 लाख इंटरनेट यूजर हैं
51% शहरी क्षेत्रों में और 27% ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। वही 5 से 11 साल के 6 करोड़ 60
लाख बच्चे इंटरनेट यूज करते हैं। जानकारों का मानना है कि कोविड-19 जैसी महामारी
के समय दनि
ु या के अधिकतर दे शों में स्कूल बंद है तब ऐसे में ई लर्निंग डिजिटल शिक्षा
दे ना बहुत जरूरी हो गया है । क्योंकि अभी इस महामारी का पता नहीं कब खत्म होगी।
ई लर्निंग और डिजिटल शिक्षा व्यवस्था को प्रोत्साहित करने के लिए वित्त मंत्री निर्मला
सीतारमण ने आर्थिक पैकेज के तहत पीएम ई विद्या (PM E. Vidya) कार्यक्रम की
घोषणा की थी।

ऑनलाइन शिक्षण व्यवस्था में तकनीकी यंत्र के रूप में स्मार्टफोन, लैपटॉप,
कंप्यट
ू र,डेस्कटॉप के साथ इंटरनेट की आवश्यकता होती है । ग्रामीण क्षेत्रों, पिछड़े क्षेत्रों,
पहाड़ी क्षेत्रों में बिजली की उपलब्धता तथा हाई स्पीड इंटरनेट की जरूरत होती है जो कि
नहीं मिलती। दस
ू रे वहां के लोग जरूरी नहीं कि ऑनलाइन तकनीकी में शिक्षक निपुण
हो, कैसे ऑनलाइन शिक्षा में प्रयोग होने वाले सॉफ्टवेयर को संचालित किया जाए या

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संचालन में रुकावट आए तो कैसे बार-बार ठीक कराया जाए।ऐसे हालात में ग्रामीण व
सुदरू इलाकों में ऑनलाइन से बच्चों का शिक्षा में भागीदारी करना सपना जैसा है ।

26 मई 2020 को पटना में राइट टू एजुकेशन फोरम में , कोरोना संकट में
बिहार में बच्चों और बाल अधिकारों पर चर्चा के लिए सभी संगठनों ने हिस्सा लिया था।
ये चर्चा सिर्फ बिहार की नहीं बल्कि सभी पिछड़े राज्यों की एक जैसी है चाहे बिहार हो ,
झारखंड, राजस्थान, मध्य प्रदे श, उत्तर प्रदे श और उड़ीसा व छत्तीसगढ प्रश्न यह उठता
है कि क्या ऐसे प्रदे शों की सरकारें शिक्षा के अधिकार को जमीन पर लागू करने के लिए
सभी बच्चों को ऑनलाइन शिक्षा दे पाएंगी। जो प्रवासी मजदरू परिवार सहित पलायन
कर अपने गांव या शहर पहुंचे (जिन शहरों में बच्चे पढ़ते थे वहां से भी पढ़ाई छूट गई)
वे बच्चे भी ऑनलाइन शिक्षा में भागीदार हो सकते हैं? क्या इन राज्यों की सरकारों के
पास ऑनलाइन के इतने संसाधन है जो सरकारें सरकारी स्कूलों में बच्चों को बैठने का
फर्नीचर,पानी, शौचालयों व बिजली जैसी मूलभूत सुविधा नहीं करा पाती थी आज वे
ऑनलाइन शिक्षा का खर्च उठा पाएंगी? जबकि 2009 के शिक्षा के अधिकार कानन
ू के
तहत वंचित समाज के बच्चे अभी तक 2 % लाभ ले सकें हैं। संगठनों का मानना है कि
ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली या डिजिटल प्रणाली वंचित और गरीब समाज को शिक्षा की
मुख्यधारा से काटकर उन्हें हाशिए पर डालने की व्यवस्था है । जो समावेशी,नवाचार और
समान अवसर के साथ गण
ु वत्तापर्ण
ू शिक्षा हासिल करने के उनके अधिकारों का हनन भी
है । जहां सरकारी स्कूलों में 90% बच्चे गरीब घरों के पढ़ते हैं उनके सामने बिजली की
समस्या, इंटरनेट की समस्या तथा उपकरणों (फोन, लैपटॉप आदि) की समस्या होगी तो
बच्चे कैसे ऑनलाइन शिक्षा का लाभ ले सकेंगे। पिछले वर्षों में सरकार मफ्
ु त किताबें दे ती
थी इस बार तो सरकार किताबें भी नहीं दे पाई इससे रिक्शे वाले, मजदरू का बच्चा पढ़
पाता था। इस शिक्षा प्रणाली में विशेषकर लड़कियों की शिक्षा प्रभावित होगी, क्योंकि
अगर घर में एक मोबाइल फोन है तो लड़के तो पहले पढ़ने को दिया जाएगा तब लड़की
की पढ़ाई पीछे छूट जाएगी क्योंकि लिंगभेद में लड़की गौण है ।

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केरल के मालापरु म जिले के इरूमबिलियम पंचायत की गवर्नमें ट सेकेंडरी स्कूल
की वंचित परिवार की बच्ची जो कक्षा 9 में पढ़ती थी। उसका टीवी सेट खराब था,
लॉकडाउन में ठीक भी नहीं हो सकता था। ऑनलाइन क्लास नहीं ले पाने के कारण
अप्रैल माह में बच्ची ने आग लगाकर आत्महत्या कर ली। ऐसे न जाने लाखों करोड़ों
बच्चे है जो आर्थिक तंगी से, जो प्रवासी गए,उनके परिवार मुखिया की मौत, कुछ बीमारी
से, कुछ ने आत्महत्या कर ली वे बच्चे कैसे ऑनलाइन शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं? जम्मू
कश्मीर, लद्दाख में जहां 2G इंटरनेट आता है वहां अध्यापकों को क्लास लेते परे शानी आ
रही है कभी वे रिकॉर्डेड वीडियो व्हाट्सएप पर, कभी यट्
ू यब
ू पर अपलोड करते हैं। जब
सभी राज्यों में शिक्षा संस्थान बंद हैं तो ऐसे में क्या ऑनलाइन डिजिटल या ई लर्निंग
शिक्षा सिर्फ पब्लिक स्कूल के अमीर बच्चों तक ही सिमट कर रह जाएगी।

यूनिसेफ के साथ जुड़े शिक्षा विशेषज्ञ शेष गिरी के० एम० का कहना है कि
"ऑनलाइन शिक्षा दे ना एक पावरफुल माध्यम है लेकिन इस विधि से 20 से 30% बच्चों
को ही शिक्षा मिल पाती है ।"

लोकल सर्क ल नाम की एक संस्था ने हाल ही में एक सर्वे किया जिसमें बताया
गया कि 203 जिलों के 23 हजार लोगों ने हिस्सा लिया जिसमें से बताया गया कि 43
% लोगों के पास स्मार्टफोन,लैपटॉप, टे बलेट आदि की सवि
ु धा नहीं है । छत्तीसगढ़,झारखंड
जैसे नक्सली इलाकों में कुछ वीडियो डालकर अपलोड करने को कहें गे तो वेबसाइट पर
जाकर डाउनलोड करने की विधि हर किसी को पता नहीं होगी या वहां साइबर कैफे कहां
और कितने होंगे या होंगे भी या नहीं।

ऑनलाइन डिजिटल, ई लर्निंग शिक्षा की भारत में समस्या-

1- सरकारी स्कूलों में जो भी बच्चे पढ़ते हैं वे आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं वे
स्मार्टफोन, लैपटॉप, टे बलेट आदि खरीद कर पढ़ने में असमर्थ होते हैं।

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2- स्लम एरिया में , ग्रामीण इलाकों, पहाड़ी व पिछड़े इलाकों में बिजली की उपलब्धता ना
होना, इंटरनेट,वाई-फाई का ना होना। बच्चों का शिक्षा में पिछड़ना मुख्य कारण है ।

3- सरकारी स्कूल का बच्चा जो घटाव, जोड़, पहाड़े, हिंदी-अंग्रेजी शब्द ज्ञान भी ठीक से
नहीं समझता हो ऐसे में फोन या लैपटॉप की डिजिटल शिक्षा को बच्चा कैसे समझ
सकता है । सरकारी स्कूल और पब्लिक स्कूलों में पढ़ाई के स्तर में बड़ा अंतर होता है ।
इसलिए हर क्षेत्र में ऑनलाइन पढ़ाना और बच्चों को समझना बड़ी समस्या है ।

4- टीचर के सामने पारं परिक तरीके से पढ़ने से बच्चे में अनुशासन भावना बढ़ती है ।
डिजिटल शिक्षा से अनश
ु ासन में कमी आएगी क्योंकि टीचर ध्यान भटकने से रोकती है ।

5- पारं परिक कक्षाओं में बच्चों को स्वयं सोचने से मस्तिष्क का विकास तथा स्मरण
शक्ति बढ़ती है । डिजिटल शिक्षा में फोटो की भरमार होती है याद करने पर कंट्रोल कम
होता है ।

6- एकाग्रता-आज के बच्चे को लगातार पढ़ने में परे शानी होने लगी है एकाग्रता ध्यान
लगाने में परे शानी होती है वे बीच-बीच में उठने लगते हैं बहाने बनाते हैं।

विदे शी शिक्षकों के विचार-पारं परिक स्कूलों में मिलने वाली टास्क और पढ़ाई पर
तकनीक का प्रभाव पड़ने लगा है जहां बच्चे टै क्सबुक पर आधारित डिजिटल मीडिया,
इंस्टाग्राम और स्नैपचैट जैसे एप्स की ओर बढ़ रहे हैं। जहां चित्रों की भरमार है ।

एजुकेशन पब्लिशर पियर्सन ने 2018 के अध्ययन में पाया कि जेनरे शन जेड


के छात्र किताबों के स्थान पर वीडियो दे खना पसंद करते हैं, विद्यार्थियों को शिक्षकों के
बाद सूचनाओं का स्रोत वीडियो हो रहा है , कुछ स्कूलों में गूगल को क्लास रूम में
अपनाया जा रहा है । जहां छात्र और अभिभावक ग्रेड और आगामी असाइनमें ट को
मॉनिटर करते हैं। पियर्सन के ग्लोबल रिसर्च एंड इनसाइट की वाइस प्रेसिडेंट आशा
चौकसी कहती है कि एक शिक्षिका उदाहरण दे ती है कि उन्होंने एक वैज्ञानिक प्रयोग के
लिए अपना वीडियो यूट्यूब पर डालकर क्लासरूम में उबाऊ पाठ को समझाने की कोशिश

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की। वे अपने छात्रों को इंस्टाग्राम के जरिए काम में लगाए रखती हैं। डेस्लर उन शिक्षकों
की प्रशंसा करती हैं जो शिक्षक अनिवार्य पाठ को आज की प्रासंगिकता को जोड़कर छात्रों
को समझाने की कोशिश करते हैं।

कई शिक्षक ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली पर इसलिए निर्भर हो रहे हैं क्योंकि


ऑफलाइन संसाधनों की कमी होती है ।

फिलाडेल्फिया की डेट 12 वीं कक्षा सामाजिक अध्ययन पढ़ाती हैं वह तकनीक पर


प्रश्न उठाती हैं और कहती हैं "कक्षाओं में तकनीक को बढ़ाने पर जोर बड़े सुधारों की
कीमत पर हो रहा है । उनका कहना है कि अनद
ु ान दे ने वाले संस्थाओं को लैपटॉप,टे बलेट
के लिए खुशी से पैसा दे ते हैं लेकिन शिक्षक का वेतन दे ने के लिए पैसा नहीं। डेट का
स्पष्ट कहना है कि कम आय के छात्रों के लिए भी तकनीक समान रूप से पहुंचना बहुत
महत्वपर्ण
ू है , लेकिन यह व्यवस्थागत बदलाव की जगह नहीं ले सकता।"

स्मार्टफोन बच्चों को ध्यान केंद्रित करने की क्षमता को नुकसान पहुंचा रहा है ।


18 महीने ,2-3 साल तथा 3-5 साल के बच्चे ऐसी दनि
ु या में पैदा हुए हैं जहां बच्चों की
दिशा स्मार्टफोन से हो रही है । नई पीढ़ी को पढ़ाना और सिखाना बड़ी चुनौती है । बच्चे
स्मार्टफोन एप्स और स्ट्रीमिंग प्लेटफार्म से आ रही उत्तेजनाओं के इतने अभ्यस्त हो
चक
ु े हैं कि क्लास रूम में ध्यान नहीं दे ते। कुछ वर्षों से बच्चों के मस्तिष्क-विकास के
लिए दनि
ु या भर के शोधकर्ताओं ने एकाग्रता पर स्मार्टफोन और मल्टीमीडिया टे लीकॉम
के दष्ु प्रभावों को लेकर चिंता जाहिर की है ।

रे जिग
ं जनरे शन टे क के लेखक डॉ० जिम टे लर कहते हैं कि "इसके स्पष्ट सबूत
हैं कि तकनीक सोशल मीडिया, इंटरनेट तक पहुंच और स्मार्टफोन बच्चों को नुकसान
पहुंचा रहे हैं। उनका कहना है कि हम बच्चों के सोचने और मस्तिष्क के विकास के
तरीकों को मौलिक रूप नहीं दे पा रहे हैं।"

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फिलाडेल्फिया में 12- 14 साल के बच्चों को पढ़ाने वाली लॉरा शाद का कहना है
कि "आज करीब औसतन किशोर लगभग 30 सेकंड ही ध्यान केंद्रित कर पा रहे हैं।
स्मार्टफोन ने बच्चों के दिमागी विकास को प्रभावित किया है और शिक्षकों के पास ऐसा
कोई उपाय नहीं कि इस समस्या से कैसे निपटा जाए। शिक्षक क्लास रूम में तकनीक
अपना रहे हैं लेकिन अध्ययनों से पता चलता है कि पारं परिक क्लासरूम अधिक उपयुक्त
हैं।

लंदन ऑफ इकोनॉमिक्स के 2015 के अध्ययन में पाया गया है कि जब बंघिम


लंदन, लिसेस्टर और मैनचेस्टर के स्कूलों में फोन पर पाबंदी लगा दी थी तब न्यूरो
साइंस के प्रो० लेम ने बताया कि "द लर्निंग स्किल्स में नोट्स लिखने वाले छात्र लैपटॉप
पर लिखने वाले छात्रों से अधिक याद रख पाते थे। लेम शिक्षकों द्वारा पाठ को छोटे -छोटे
टुकड़ों में बांटना भी खतरनाक बताते हैं।"

डेविस मानती हैं कि "नया मीडिया नया कौशल सिखा सकता है लेकिन व्याख्यानों
की अपनी जगह अपनी पहचान है , शिक्षा का अधिकार आज भी पवित्र है टे क स्पेक्ट्रम
को सभी शिक्षाविद मानते हैं।"

वर्जीनिया की अलेक्जडिया हुवर का कहना है कि शिक्षकों से मिलने वाले निर्देशों को


बंद नहीं करना चाहिए। शिक्षक के आमने-सामने की बातचीत आज भी क्लास रूम का
सबसे महत्वपर्ण
ू हिस्सा है । हूव तकनीक का पक्ष वही लेती हैं जहां ऑफलाइन पढ़ाना
मुश्किल हो।

सरकार की चुनौती है कि यदि दरू दर्शन पर ऑनलाइन क्लास कक्षा 1-12 वीं तक
दें गे, चैनल भी अलग-अलग बना दें गे लेकिन जिस परिवार में दो या तीन बच्चे अलग-
अलग क्लास के होंगे तो वे स्कूलों के साथ एक टीवी सेट पर 6 घंटे की क्लास कैसे ले
सकते हैं। शिक्षा अधिकार फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अम्बरीश राय का कहना है कि
"सरकारी और निजी स्कूलों में काफी गैप है । लॉकडाउन में स्कूल बंद है स्मार्टफोन ले
नहीं सकते तो हमारे गरीब बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। पब्लिक स्कूल और सरकारी स्कूलों
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के अंतर के अलावा जातिगत भेद और अमीर गरीब खाई और बढ़े गी। अम्बरीश राय का
कहना है कि पहले शिक्षा प्रोग्राम में बदलाव शिक्षण संस्थान तथा सुप्रशिक्षित शिक्षक
बनाते थे अब कंपनियों के अधिकारी बना रहे हैं जिन्हें समाज और शिक्षा की
वास्तविकता से कोई मतलब नहीं होता। महामारी के बहाने सरकार शिक्षा को डिजिटाइल
करने का पहला कदम बढ़ा चक
ु ी है ।"

विशेषज्ञ शेष गिरी के अनस


ु ार पहले दरू दर्शन का ज्ञान दर्शन प्रोग्राम आते
थे, सरकार को पाठ्यक्रमों के अनुसार फिर से पहल करनी चाहिए।

1. शिक्षा की बच्चों तक पहुंच बहुत ज़रूरी है ।

2. कंटें ट की गण
ु वत्ता तथा माता-पिता की जागरूकता होनी चाहिए।

एचआरडी (HRD) मंत्रालय का मानना है कि यदि सोशल डिस्टें सिग


ं से क्लास
शरू
ु करनी है तो सिर्फ 30% बच्चों की पढ़ाई कराई जा सकती है या दो पालियों में
क्लास ली जाए। ई कोर्सेज, शैक्षिक चैनल, सामद
ु ायिक रे डियो का प्रयोग किया जा सकता
है । दृष्टि बाधित, श्रवण बाधित के लिए अलग से विशेष कंटें ट तैयार किया जाएगा।

शेष गिरी कहते हैं कि अब तक की रणनीति "वन साइज़ फिट ऑल टाइप" की है ।


उनका मानना है कि जिसके पास फोन इंटरनेट एक्सेस नहीं है वहां स्थानीय प्रशासन ऐसे
परिवारों के बच्चों को छोटा छोटा किट बनाकर उनके घरों में भिजवाए। इनमें गणित और
विज्ञान की किट के साथ वर्क शीट और आगे की एजक
ु े शनल सामग्री भी दी जाए। जिससे
बच्चों की पढ़ाई ना छूटे । यदि बच्चे ज्यादा दिन तक शिक्षा से दरू रहें गे तो बच्चे ड्रॉप
आउट होने लगें गे , बच्चों का लौटना मुश्किल हो जाएगा। सरकार को अधिक खर्च करके
दो पाली में या ऑड इवन से डिस्टें सिग
ं का पालन करते हुए स्कूलों में पढ़ाई करानी
चाहिए।

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