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{आलोचना (अंक 53, जनवरी-माचर् 2015, पृ.

48-61) म पर्कािशत}

जाित और जनतंतर् का उ र-रा ीय दौर

जहाँ उदारवादी जनतंतर् अपनी तमाम तर्ृिटय -खािमय के बावजूद आधुिनकता की सबसे िटकाऊ और
िनिववाद बरक़त म िगना जाता रहा है, वह जाित एक ऐसा संस्थान है िजसके िलए आधुिनकता की
स्वीकृ त पिरकल्पना म जगह बनाना नामुमिकन लगता रहा है। इस बुिनयादी टकराव के कारण
जाित और जनतंतर् के आपसी िरश्त का सवाल हमारे समाज और खासकर हमारे समाजिवज्ञान के
जिटलतम शुरुआती सवाल म एक रहा है। साथ-साथ, चूँिक आज भी हमारे पास न जाित की
के न्दर्ीयता को दूर करने का कोई सामािजक उपाय है और न ही जनतंतर् का कोई राजनैितक िवकल्प,
यही सवाल हमारे समय के सबसे महत्वपूणर् सवाल म भी िगने जाने को बाध्य है। इस पर् के
आरं िभक अवतार से उसके व र्मान स्वररूप तक पहुँचने म हमने और हमारे समाजिवज्ञान ने िकतनी
दूरी तय की और क्या हािसल िकया, यह जानने के िलए उस नवरिचत घटना की पड़ताल से बात
शुरू की जा सकती है िजससे आलोचना का यह अंक पर्ेिरत है।

मोदी सरकार के पर्चण्ड बहुमत की ाख्या करते हुए उस कोिट के कई िव ेषक ने िजन्ह अंगर्ेज़ी म
"पंिडत" कहा जाता है, यह सुझाया िक 2014 के चुनाव ने इस अपूवर् संभावना को जन्म िदया है िक
अब जाित हमारी राजनीित से जाती रहेगी। इस संभावना के पर्कट होने के आगर्ह को अलग अलग
दृि िबदु से िजस तरह देखा-समझा गया उससे जाित-जनतंतर् संबंध की उपयुक्त
र् जिटलता का ठोस
पिरचय िमलता है।

"जनमत" के एक ख़ासे मुखर िहस्से के पर्ितिनधी के तौर पर पेश िकया जा सकता है बी.बी.सी.
वेबसाईट पर 16 मई की रात पर्कािशत एक छोटा सा लेख। उनके िदल्ली संवाददाता ारा (अंगर्ेज़ी
म) िलखी इस िटप्पणी का शीषर्क है मोटे सुिखय म छपा सवाल – “क्या भारत के चुनाव ने पुरानी
रूिढ़य को चकनाचूर कर िदया है?” 1 पहली पंिक्त स्प कर देती है िक “पुरानी रूिढ़याँ” और कु छ
नह जाितगत अिस्मताएँ ह, और यह भी िक कु छ लोग इस खुश
़ फ़हमी म ह िक चुनाव के सनसनीखेज
नतीज ने इन अिस्मता को तहसनहस कर डाला है। आगे है इस खु़शफ़हमी के पक्ष म िदए गए
तक का संिक्ष ब्यौरा – भाजपा को हर मतदाता शर्ेणी से समथर्न, जाित-आधािरत दल की
िवफलता, कांगर्ेस (व उसके परं परागत जातीय समीकरण ) की दुदश
र् ा, इत्यािद। लेिकन जल्द ही इन
तथ्य को िनपटाकर इस बात पर ज़ोर िदया जाता है िक सभी पािटय ने उम्मीदवार के चयन म
उनकी जाित पर िवशेष ध्यान िदया था। इसके साथ ही, िकसी और तकर् की ज़रूरत महसूस िकए
िबना, लेखक अंितम पंिक्त म अपने पाठक को आ स्त करता है – “ग़लतफ़हमी म न पड – भारत
अब भी एक जाित-जिड़त जनतंतर् है!” 2

1 http://www.bbc.com/news/world-asia-india-27435650 “Has India election shattered old orthodoxies?”.


2 यहाँ इितहासकार पेर एन्डरसन के शब्दालंकार का इस्तेमाल िकया गया है – “कास्ट-आईरन डेमोकर्सी” ।

1
त्विरत समाचार िव ेषण की शैली म िलखे गये इस साधारण-से लेख म अगर कु छ कािबले-ग़ौर है तो
बस "कमबख्त कभी नह सुधरगे" वाले अंदाज़ म िलखा अंितम वाक्य। यहाँ लेख िजस पर्भावी
पर्ाच्यवादी धारणा के आगे मत्था टेकता नज़र आता है वह भारतीय समाजिवज्ञान के िवकास म सबसे
किठन अवरोध रहा है। इस धारणा का पर्त्यक्ष या परोक्ष आशय यही है िक पि म की आदशर्
आधुिनकता के बरक्स भारतीय (या अन्य ग़ैर-पि मी) समाज की आधुिनकता अधूरी, अपयार् ,
िवकृ त या खोटी ही हो सकती है।
यह कै से संभव है िक इक्कीसव सदी के दूसरे दशक म इस पर्कार की गई-बीती पर्ाच्यवादी धारणा का
सहज पर्सार हो रहा है? आिखर यह वही सदी है िजसम भारत िव मंच पर महाशिक्त बनकर
उभरना चाहता है। और आज हमारे अिभजन तबके म आत्मिव ास की कोई कमी नह है – उसे गवर्
है िक हमारे उ ोगपित भी खरब डॉलर का ापार करते ह, और हमारे ही पर्ितभावान वसाियक
पेप्सी, माइकर्ोसॉफ्ट व अन्य िवशाल वैि क कं पिनय के शीषर् अिधकारी ह। तो िफर क्य यह वगर्
अपनी ही राजनीित और अपने ही जनतंतर् को दोषदश िनगाह से देखता नज़र आता है? इन सवाल
का जवाब जाित-जनतंतर् संबंध के इितहास म ही िमल सकता है।

भाग 1 : पर्ाच्यवादी पर्स्थान से मंडल मोड़ तक

स्वतंतर् भारत के संदभर् को समिपत समाजवैज्ञािनक कहलाने लायक िवमशर् म शुरू से ही जाित और
जनतंतर् के बीच एक अजीब िरश्ता कायम िकया जाता रहा है। एक तरफ तो इनको एक दूजे के बाँह
म धके ल कर इनके बीच एक अपिरहायर्, िनयित-िनधार्िरत संबंध स्थािपत करने का पर्बल पूवर्गर्ह है,
तो दूसरी तरफ इसी संबंध को एक िवसंगत,अवैध स्कै न्डल क़रार देने का स्वघोिषत नैितक कतर् ।

इस पूवर्गर्ह और कतर् के सह-अिस्तत्व के िनिहताथर् क्या ह? और िफल्म पतर्कािरता के ज़िरए हर


भारतीय भाषा म घर कर चुका यह अंगर्ेज़ी-मूल शब्द “स्कै न्डल” – क्या यह जाित-जनतंतर् िरश्ते के
िलए उपयुक्त है? और अगर है तो इस संदभर् म इसकी उपयुक्तता बतौर िवशेषण है या बतौर संज्ञा –
यानी “स्कै न्डलमय” होना जाित-जनतंतर् संबध
ं का एक पहलू मातर् है या उसका नामकरण-योग्य ममर्?
और बॅालीवुड दुखान्त-नुमा इस कहानी के अलावा भी – जहाँ िनयित से वफ़ादारी ही नायक-नाियका
को बदनामी के कटघरे म खड़ा कर उनके िरश्ते को असंभव बना देती है – कोई कथानक है जो जाित
और जनतंतर् के परस्पर संबंध की ाख्या के िलए उपयोगी सािबत हो ?

आज़ादी के बाद भारतीय समाजिवज्ञान – खासकर राजनीित शा और समाजशा – के शुरुआती


दशक इसी तरह के पर् से उलझने म बीते। राजनीितशा की (आज़ादी के बाद की) पहली पीढ़ी ने
इन पर् का कारगर समाधान पर्स्तुत िकया। अमेिरकी िव ान लॉयड रुडॉल्फ एवं सुज़ै रुडॉल्फ की
जोड़ी ने "परं परा की आधुिनकता" की धारणा को िवकिसत िकया और यह िदखाया िक जाित
आधुिनक जनतांितर्क राजनीित को अमल म लाने के िलए अपर्त्यािशत ढंग से सिकर्य है। रजनी
कोठारी के िनणार्यक शोध ने यह स्थािपत िकया िक िजस पिरघटना को राजनीित का जाितकरण
कहा जा रहा था वह वास्तव म जाित का राजनीितकरण था। यह महज पद-पिरव र्न नह था –

2
इससे कोठारी ने यह दशार्या िक िकसी भी समाज म जनतांितर्क राजनीित का ावहािरक पक्ष
जीवंत समुदाय का समथर्न हािसल करने की होड़ के रूप प म पर्कट होता है। चूँिक भारतीय समाज
म जाितयाँ ऐसे ही जीवंत समुदाय ह, अतः राजनैितक दल उनका समथर्न पाने की होड़ म उनके
राजनीितकरण का िनिम बनते ह। इससे आगे बढकर अपने महत्वपूणर् संकलन कास्ट इन इं िडयन
पॉिलिटक्स की भूिमका के पर्िस शब्द म कोठारी ने यह भी कहा:
भारत म जो लोग 'राजनीित म जाितवाद' की िशकायत करते ह वे वास्तव म उस िकस्म की
राजनीित की खोज म ह िजसका समाज म कोई आधार नह होता। और शायद उनके पास न
राजनीित की पर्कृ ित की कोई स्प पिरकल्पना है न जाित की पर्कृ ित की। (उनम से कई तो
राजनीित और जाित वस्था, दोन को उखाड़ फकना चाहते ह.) 3 (कोठारी 1970:4)
इस पर्कार गई सदी के स र के दशक तक भारतीय राजनीितशा ने अपने सामािजक-ऐितहािसक
संदभर् के तथ्यगत िव ेषण को आधार बनाते हुए पर्ाच्यवादी धारणा की अटकल को िकनारे करने
का आत्मिव ास जगा िलया था। िकतु पि मी अवधारणा का सै ांितक िवरोध व उन्ह उनकी ही
वैचािरक ज़मीन पर चुनौती देने का पुख्ता इं तजाम बाद की पीढ़ी ही कर सकी। कई िव ान एवं
"सबॉलटनर् स्टडीज़" िव ान-समूह ने न के वल पि मी िस ांत की कू पमण्डू कता को उजागर िकया
बिल्क आधुिनकता की एकमुश्त अवधारणा से उत्प भर्ांितय की ओर भी ध्यान आकिषत िकया।
यिद पि मी आधुिनकता के दावे को मान िलया जाय तो इसका अपिरहायर् िनिहताथर् यही है िक
भारत जैसे समाज की आधुिनकता कभी पिरपक्व या संपूणर् नह हो पाएगी – वह या तो एक शा त
संकर्मणकाल म कै द रहेगी या िफर हमेशा ही अपयार् नज़र आएगी। इसिलए िव का इितहास यह
िसखाता है िक आधुिनकता का कोई एकमातर् अिधकािरक स्वरूप नह हो सकता वरन् यह
अिनवायर्तः बहुरूपी ही हो सकता है। 4 इन िस ांतकार के सामूिहक योगदान से यह स्थािपत िकया
गया िक योरोप का अपना इितहास भी एकआयामी या पिरवतर्न-रिहत नह रहा है। अतः भारतीय
राजनीित की ऐितहािसक िविश ता को उसे ग़ैरआधुिनक करार देने का कारण नह बनाया जा
सकता । इसे िवकृ त या संकर्मणकािलक आधुिनकता भी नह कहा जा सकता है, बिल्क इसकी
जिटलता को िकसी असाध्य मानक की कसौटी पर कसने के बजाय उसके ही धरातल पर
सुलझाना होगा। 5

बहरहाल उपयुर्क्त समस्त सै ांितक सू मता हािसल कर लेने के बावजूद इस तथ्य से इनकार नह
िकया जा सकता िक अस्सी के दशक के अंत तक भारतीय समाजिवज्ञान के पास जाित के पर् पर
कोई उल्लेखनीय उपलिब्ध नह थी। लेिकन यह भी एक ऐितहािसक तथ्य है िक नब्बे का दशक जाित
के सै ांितक िव ेषण के िलए िनणार्यक िस हुआ। इसके िलए फौरी पर्ेरणा और ऊजार् तो मण्डल

3 यह अनुवाद मेरा है। इसी आशय के वाक्य के वैकिल्पक अनुवाद के िलए देख अभय कु मार दुबे (सं), 2003:192
4 सुदी किवराज के शब्द म: "आधुिनकता का युग-तकर् जब स्वयं योरोप म िभ तावादी व बहुलतावादी पर्वृि दशार्ता है, तो
अन्य सांस्कृ ितक और ऐितहािसक पिरिस्थितय म इसका िवस्तारण आज्ञाकारी भाव से एकरूपी पिरणाम कै से िनिमत कर सकता
है?", (किवराज 2011: पृ.38, अनुवाद मेरा)
5ध्यान रहे िक कोई भी मानक पि मी/िवदेशी अथवा भारतीय/देशज होने मातर् से अनुिचत या उिचत नह सािबत होता, बिल्क
इसका िनधार्रण मानक की सै ांितक तकर् संगतता व सामािजक-ऐितहािसक पर्ासंिगकता से होता है। मानक के जन्मस्थान के बल पर
उसकी उपयोिगता या औिचत्य को न तो िस िकया जा सकता है और न ही खािरज।

3
िवस्फोट से उपजी, लेिकन यादातर काम दिलत िवमशर् के इदर्-िगदर् हुआ। कांचा ऐलैया और गोपाल
गुरु सरीखे िचतक ने िस ांत-िनमार्ण म अनुभव के महत्व को रे खांिकत करते हुए खुद भारतीय
समाजिवज्ञान की "ि जता" को उजागर िकया। ीवादी िचतक ने भी जाित पर् और िवशेषकर
दिलत अवस्था पर महत्वपूणर् योगदान िदया, िजसके अब सुपिरिचत हो चुके नमूने उमा चकर्वत ,
सूज़ी थारू, शिमला रे गे व अन्य िवदुिषय के काम म िमलते ह।

िकतु इस दशक की सबसे महत्वपूणर् उपलिब्ध एक रूपान्तरकारी अंतदृिर् के रूप म पर्कट हुई िजसने
िव त जगत को सचेत िकया िक भारतीय समाज म जाित एक सावर्भौिमक पर् है – यह के वल
किथत िन जाितय की समस्या नह है। इसी के सहारे यह समझ बन सकी िक वास्तव म आज़ाद
िहदुस्तान म जाित की मूल अवधारणा एक अजीब िकस्म के संक्षप
े ण का िशकार हो गई है – इसका
अथर्-िवस्तार कमोबेश "िनचली जाितय " तक िसमट कर रह गया है। ऐसा इसिलए हो सका है
क्य िक "ऊँची" जाितय म (और ख़ासकर उनके अिभजन वगर् म) यह िव ास घर कर गया है िक अब
वे जाित को त्याग चुके ह और उनकी "कोई जाित नह है"। 6 जाित के पर् पर भारतीय
समाजिवज्ञान के मंडल-पूवर् और मंडलो रीय नज़िरए म यही सबसे बडा अंतर है। इस कर्ांितकारी
मोड़ के बाद ही यह बोध जग सका िक किथत ऊँची जाितय की राज्य-िनयोिजत जातीय अदृश्यता
नेहरू युग की िवलक्षण िवरासत है।
वैसे यह अंतदृिर् अपने आप म नई नह थी। जैसा िक आिदत्य िनगम, मथायास पांिडयन् एवं ज्ञान
7
अलॉयिशयस ने अपने पर्भावशाली अध्ययन म दशार्या है, बाबासाहेब अंबेडकर और रामस्वामी
नाइकर "पेिरयार" सरीखे दिलत व िन जातीय िचतक को इस बात का तीवर् आभास था िक ि ज
जाितय (और िवशेषकर बर्ा ण ) ने पा ात्य आधुिनकता के साथ एक आत्म-सजग ावहािरक व
वैचािरक समझौता कर िलया है। इसके तहत वे एक तरफ अपने जातीय आचरण और पहचान को
बदल रहे ह और दूसरी तरफ आधुिनकता के सारे साधन व अवसर पर एकािधकार कायम कर रहे
ह। पेिरयार म यह अंतदृिर् लगभग बीस के दशक से उपलब्ध थी और अंबेडकर म चालीस के दशक
से, लेिकन इसके िनिहताथ के पर्ित सचेत होने के िलए मुख्यधारा के समाजिवज्ञान को नब्बे के दशक
तक इं तज़ार करना पडा।
इन िनिहताथ के म ेनज़र हम भारतीय समाजिवज्ञान की उस उ ाटक चुनौती का पुनः परीक्षण कर
सकते ह िजसका िज़कर् इस लेख की शुरुआती पंिक्तय म िकया गया था। मंडलो रीय समझ के
पर्काश म जाित और आधुिनकता के टकराव की मूल कथा अब एक नया रूप लेती है। अपने समय-
संदभर् म खड़े होकर इस शा ीय न् का पुनराकलन करने पर हम पाते ह िक इसके दोन धर्ुव एक
दूसरे से वैसे पृथक और अछू ते नह ह जैसे पहले लगते थे। हमारी आधुिनकता जल्द ही जाित-िल
हो गई तो जाित भी आधुिनकता से बेहद पर्भािवत हो चली। नतीजन हमारे इितहास म आधुिनकता
की कामना भी एकमुश्त या सावर्भौिमक नह रह सकी, बिल्क इसके अनेक जाित-भेिदत स्वरूप ही
जन्म ले सके । इस दृि कोण से देखा जाए तो स्वतंतर् भारत म िजसे हम "राजनीित" कहते आए ह वह

6 इस आशय का तकर् मंडलो रीय दौर म पहली बार शायद िववेक धारे र के महत्वपूणर् लेख म िमलता है। देख धारे र 1993.
7 देख िनगम 2002, पांिडयन् 2002 और अलॉयिशयस 2010.

4
आधुिनकता ारा उ ेिजत आकाँक्षा के जाित-िवभेिदत अवतार के आपसी संघष का मंचन मातर्
है।

भाग 2 : राजनीित की ितर्वेणी म सरस्वती की पहचान

मंडल-मोड़ के बाद जो टकराव पहले जाित और आधुिनकता के बीच होता दीख पड़ता था वह अब
आधुिनकता के ही जाित-िवभािजत पक्ष के आपसी तनाव के रूप म पर्कट होता है। िवशेषकर
दिलत िकतु कमोबेश सभी िन जाितय की आधुिनकता को लेकर जो बुिनयादी दुिवधा है वह भी
इसी तनाव का एक पहलू है। एक तरफ आधुिनकता िन जाितय को उनकी उत्पीिड़त परं परागत
जाित-पर्िस्थित से उबारने का वादा करती िदखती है, तो दूसरी तरफ वही आधुिनकता ऊँची जाितय
के कब्जे की चीज़ बनकर एक नवीन,उ त व शतपर्ितशत आधुिनक ि ज-वचर्स्व को कायम करती
नज़र आती है। ऐसे म िन जाितय और आधुिनकता के िरश्ते का जिटल, तनावपूणर् व िवरोधाभासी
होना स्वाभािवक है क्य िक वे आधुिनकता को न तो इित्मनान से अपना सकते ह और न ही बेिफकर्ी
से ठु करा सकते ह।

इसके िवपरीत उच्च जाितय और आधुिनकता का िरश्ता कमोबेश सहज और परस्पर लाभ का है।
शुरुआती दौर के विस्थत अपमान और पिरवतर्न-पीड़ा को भुला िदया जाए तो उच्चजाितय को
आधुिनकता से लाभ ही लाभ है। पहला पर्त्यक्ष फायदा नए ज़माने के साधन व क्षमता को हािसल
करने का व क़रीब से जानने का है। इसी लाभ से एक और अत्यंत महत्वपूणर् परोक्ष अवसर उपजता है
– जाित-रिहत सावर्भौिमक अिस्मता को अपना सकने की संभावना। आधुिनकता म और से पहले
पर्वेश करने के नाते उच्चजाितय को समुदाियक उ ित की दौड म िनणार्यक बढ़त िमलती है। इसकी
बदौलत उन्ह एक अनमोल वरदान िमलता है – अपने िहत साधने के िलए िवशु जातीय पहचान का
आह्वान करने की मज़बूरी से मुिक्त।
आधुिनकता के के न्दर्ीय क्षेतर् (िवशेषकर उच्च िशक्षा और इसपर िनभर्र पर्भावशाली आधुिनक
वसाय) म ि ज जाितय की यह "आिदम बढ़त" 8 पूणर्तया जाित-जिनत है। जैसा िक (महाकिव
तुलसीदास के सौजन्य से) सभी जानते ह, जाित वस्था के िनयम के अनुसार शूदर् और नारी (अित-
शूदर् तो बिहष्कृ त थे ही) ताड़ना के अिधकारी थे, िव ोपाजर्न के नह – बिल्क िशक्षा-दीक्षा उनके
िलए िनिष थी। इस वजह से जब औपिनवेिशक राज्य अपने पर्शासिनक ज़रूरत के चलते आधुिनक
िशक्षा की सीिमत वस्था स्थािपत करता है तो देशज िशक्षा प ितय म पढ़े-िलखे शहरी लोग ही
इसम पर्वेश करने की िस्थित म होते ह। कु छ िन जातीय अपवाद और ग़ैर-िहदू अल्पसंख्यक के
अिभजन वगर् की उपिस्थित के बावजूद ऐसे लोग म अिभजन िहन्दु-ि ज पुरूष का भारी बहुमत म
होना उस समय के िलए सामान्य है।
ि ज अिभजन की (औपिनवेिशक काल की) पहली पीढ़ी इसी जाित-जिनत "आिदम बढ़त" को
सामािजक पूँजी म बदल कर अपनी औलाद को िवरासत के रूप म भट करती है। ि ज जाितय की

8 "आिदम संचय" के माक्सर्वादी पर्त्यय की तजर् पर इस पिरघटना को "सामािजक पूँजी का आिदम संचय" कहा जा सकता है।

5
आगे की पीिढय के िलए आधुिनक योग्यता-तंतर् और उदारवादी कानून की औपचािरक बराबरी
सचमुच बरकत बनती ह। औपचािरक बराबरी की छतर्छाया म वास्तिवक िवषमता का फायदा
खुलकर, बाकायदा कानून के आिशवार्द समेत, उठाया जा सकता है। स्वतंतर् भारत का पर्गितशील
संिवधान उच्च जाितय को एक अमूल्य तोहफा देता है – अमूतर् सावर्भौिमक नागिरकता की िविध-
जिनत संभावना। इस पर्कार के अिचिह्नत, सामािजक पहचान-रिहत पातर् का भारतीय इितहास म
कह कोई नामोिनशान नह है। लेिकन इस भूिमका के उपलब्ध होते ही इसे बखूबी से अदा कर पाने
वाला अदाकार भी उपिस्थत हो जाता है, और यही िकरदार नवजात गणतंतर् के ताज़ा रचे जा रहे
इितहास का नायक भी बन बैठता है। 9
कहना न होगा िक उच्चजातीय अिभजन (जो आज़ाद िहदुस्तान म "मध्यम वगर्" की वेशभूषा धारण
कर चुके ह) 10 और सावर्भौिमक नागिरक की भूिमका, दोन एक दूजे के िलए बने ह। यह सचमुच रब
की बनाई जोड़ी है क्य िक सामािजक पहचान के जो िनशान सावर्भौिमक नागिरक के िलए विजत ह,
ठीक उन्ह िनशान को – यानी अपनी जाित अिस्मता और आिथक संप ता के िचन्ह को – ि ज
अिभजन िमटाना या कम से कम सावर्जिनक संदभर् म िछपाना-धुध
ं लाना चाहते ह। ध्यान रहे िक
संिवधान नागिरक के समुदाियक जीवन पर कोई रोक नह लगाता, वह के वल सावर्जिनक क्षेतर् के
राज्य-संचािलत भाग म समुदाियक अिस्मता के आह्वान को ग़ैरकानूनी ठहराता है। यानी अमूतर्
नागिरकता का जामा ओढ़ने के िलए िकसी भी जाित के सदस्य को अपनी जातीय अिस्मता को
त्यागना नह पडता है बिल्क के वल उसका सावर्जिनक आह्वान करने से बचना पडता है। उच्च
जाितय को अपनी संिचत सामािजक व आिथक पूँजी की दरकार है, िजसको उदारवादी कानून के
वरदहस्त तले संपूणर् संरक्षण पर्ा है। उन्ह अपनी जातीय अिस्मता के सावर्जिनक आह्वान से आज
कोई ख़ास फायदा नह है बिल्क नुकसान ही है। साथ ही, जाित-रिहत सावर्भौिमक नागिरकता भी
एक अिस्मता है िजसे अपनाने से ि ज अिभजन को आधुिनकता के पर्गितशील अगर्गामी होने का
नैितक-राजनैितक शर्ेय भी िमल सकता है। कु ल िमलाकर आधुिनकता से संबंध बनाने से ि ज
अिभजन को िच और पट दोन म जीत नसीब होती है।
िन जाितय के समानांतर समकालीन अनुभव को उपयुर्क्त उच्चजातीय सुखांत के िवलोम के रूप म
समझना सटीक नह है, हालाँिक पहली नज़र म यह ऐसा ही पर्तीत होता है। उनके पास न के वल
संिचत सामािजक पूँजी का अभाव है बिल्क इस खाते म भारी घाटा है िजसकी भरपाई िकए िबना वे
संचय के सपने भी नह देख सकते। उदारवादी कानून िन जाितय की वास्तिवक ग़ैरबराबरी को
कु बूलने से इनकार करते हुए उनको भी आधुिनक औपचािरक बराबरी के भाईचारे म शािमल होने का
िवडंबनापूणर् न्यौता देता है। नए गणतंतर् के नवरिचत संिवधान से िन जाितय को तीन चीज
िमलती ह – एक ठोस अिधकार, एक दुधारी नीित, और कु छ खुदरा नेकनीयती से भरे आदशर् िजनको
राज्य की इच्छा पर छोड िदया गया है। आरक्षण की नीित दुधारी है क्य िक वह एक तरफ
औपचािरक समता के अन्यायपूणर् पक्ष को संशोिधत करते हुए महत्वपूणर् अवसर पर्दान करती है तो
दूसरी तरफ लाभािन्वत को अिनि त काल तक जातीय अिस्मता के कटघरे म कै द रहने को मजबूर

9 इस भाग के तक पर िवसतृत चचार् के िलए देख: सतीश देशपाण्डे 2013.


10 देख – धीरुभाई शेठ 1999

6
करती है। िविश अिस्मता के परचम तले जो राजनीित पर्ोत्सािहत होती है उसकी फौरी फतह
से उसकी दीघर्कािलक कमज़ोिरयाँ और िववशताएँ ढक जाती ह, िजनका खािमयाजा िन जाितय
को ही भुगतना पडता है।
भारतीय संिवधान के चौथे भाग म िदए गए मूल्य व आदशर् समतामूलक ह और िन जाितय के काम
आ सकते थे। यह िनदेशक तत्व न के वल "देश के शासन म मूलभूत" करार िदए गए ह बिल्क इनके
बारे म राज्य को यह िहदायत भी दी गयी है िक "िविध बनाने म इन तत्व को लागू करना राज्य का
कतर् होगा"। लेिकन जैसा िक सब जानते ह, क्य िक यह तत्व "िकसी भी न्यालय ारा पर्वतर्नीय
नह ह गे", वे मातर् नेकिनयती तक सीिमत रह जाते ह। 11 सावर्भौिमक वयस्क मतािधकार ही
एकमातर् िनिववाद वरदान है जो संिवधान िन जाितय व वग को दे पाता है। इस ऐितहािसक
अिधकार की बदौलत िन जाितयाँ अपने जनसंख्यात्मक बल को एक पर्कार की पूँजी म तब्दील कर
सकती ह। लेिकन इस पूँजी को भुनाने के िलए पर्त्यक्ष चुनावी राजनीित के अलावा और कोई रास्ता
नह है। कािबले ग़ौर है िक इन सभी संवैधािनक पर्ावधान का बुिनयादी स्वरूप राजनैितक है, यानी
अंततोगत्वा इनकी रक्षा पर्त्यक्ष राजनीित के ारा और उसके क्षेतर् म ही संभव है।
दोन समुदाय की "पूँजी" की तुलना से जो महत्वपूणर् अंतर तुरंत दीख पडता है, वह है पर्त्यक्ष
राजनीित से इनकी िभ अपेक्षाएँ। जहाँ िन जाितय के िलए पर्त्यक्ष चुनावी राजनीित एक फौरी व
अिनवायर् आवश्यकता है िजसके िबना उनके समुदाियक उ ित की संभावनाएँ क्षीण पड जात ह,
वह उच्चजाितय के िलए ऐसी राजनीित से फौरी फायदे कम और खतरे ज्यादा ह। इसके िवपरीत
उदारवादी वस्तुिस्थित से जहाँ उच्चजाितय को लाभ है वह िन जाितय को नुकसान है। साथ ही,
अमूतर् नागिरकता की धारणा उच्चजातीय िहत के अनुकूल है तो िन जातीय फौरी िहत के पर्ितकू ल।
राजनैितक रणनीित के तहत जहाँ िन जाितयाँ जाित वस्था म अपने उत्पीिडत अतीत को रे खांिकत
करना चाहगी, वह उच्चजाितयाँ अपने भूतपूवर् जाितगत वचर्स्व और उत्पीडक की भूिमका को भुलाना
चाहगी।
इन परस्पर िवरोधी दृि िबदु के म ेनज़र जो सवाल उभरता है वह है राजनीित की उिचत पिरिध
का। यह स्वयं एक पुराना और बुिनयादी राजनैितक पर् है। िकसी भी देश-काल म स ा-संपि से
जुड़े कौन से मु े स्पधार्त्मक राजनीित के िलए खुले रहते ह और कौन से इस दायरे के बाहर, यह भी
एक पर्कार की राजनीित ारा ही तय होता है। राजनीित के इन दोन पर्कार या स्तर के अंतर को
समझने का एक आसान तरीका है उनको अलग अलग संदभ या पिरिस्थितय से जोडना। एक िकस्म
की राजनीित "साधारण समय" की राजनीित है, िजसम नए-पुराने पर्ित न् ी एक पूवर्िनधार्िरत दायरे
के अंदर िविभ मु पर एक दूसरे से संघषर् करते हुए जीतते-हारते रहते ह। दूसरे पर्कार या स्तर की
राजनीित "असाधारण समय" या संकट काल की संकर्मणकारी राजनीित है िजसम सामान्य राजनीित
की मूल धारणा और इसकी स्वीकृ त सीमा को नए िसरे से, नवोिदत राजनैितक शिक्तय के
पर्भामंडल म, पिरभािषत िकया जाता है। पहले पर्कार की राजनीित हमारे दैिनक जीवन म पर्त्यक्ष
दीखती है, और आम तौर पर हम इसे ही "राजनीित" की संज्ञा देते ह। दूसरे पर्कार की राजनीित

11 उ िरत अंश संिवधान के अिधकािरक संस्करण के ह जो भारत सरकार के वेबसाईट पर उपलब्ध है। देख :
http://india.gov.in/sites/upload_files/npi/files/constitution/PartIV.pdf

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सामान्य समय म अदृश्य रहती है और तब दीखती है जब कु छ ऐसे मु े उभरते ह िजनको "सामान्य"
कायर्क्षेतर् के दायरे म न तो सुलझाया जा सकता है और न ही दबा िदया जा सकता है। इस
संकर्मणकाल म स ा-संरचना म आए बदलाव को मान्यता दी जाती है, और "सामान्य" की
पुनपर्िरभािषत सीमा की स्थापना होती है। ऐसा होते ही राजनीित एक बार िफर अपना सामान्य-
साधारण स्वरूप धारण करती है, और "असाधारण" राजनीित एक बार िफर अदृश्य हो जाती है।

उपयुर्क्त स्थापना के जिरए हम इस िनष्कषर् पर पहुँचते ह िक राजनीित म जो दृश्यमान है वह


आंिशक है – हमारी राजनीित संगम नह ितर्वेणी है, िजसम सदा एक अदृश्य सरस्वती भी शािमल
होती है। इसके पीछे दो कारण ह। एक तो यह िक स ा-संरचना के िस्थर रहने तक स ा के
बुिनयादी सवाल पर कारगर पुनिवचार या मौिलक िववाद असंभव है – यह के वल तब संभव है जब
मौजूदा वस्था तीवर् संकट म हो। इससे िमला-जुला दूसरा कारण यह है िक जो तबका स ा-
संरचना के शीषर्स्थान पर िवराजमान है और िवचारधारात्मक स्तर पर भी हावी है, उसके पास यह
तय करने की शिक्त भी होती है िक वह कब और कै से अपने को समाज के सामने दृि गोचर करे और
कब आँख से ओझल रहे। स्वयं िक दृश्यता को िनयंितर्त करने की स्वाधीनता स ा के अनेक सुख म
एक है, जबिक स ाहीन की दृश्यता और अदृश्यता दोन ही पराधीन ह।
अब अगर हम इस लेख की शुरुआती बहस और उसम िजकर् की गई बी.बी.सी.की िटप्पणी की ओर
एक बार िफर लौट चल तो हािलया चुनाव और उससे संब पर्ितिकर्या की एक अलग ाख्या की
संभावना बनती है। जाित की धारणा का संक्षेपण, इस संक्षेिपत धारणा का राजनैितक िव ेषण म
सहज पर्योग, और इसके पिरणाम – यह सब अब साफ दीखते ह। इस पर्कार के िव ेषण म "जाित"
एक कू ट-शब्द है िजसका वास्तिवक अथर् "िन जाित" है। इस सांकेितक भाषा का स्प ीकरण करने
पर पता चलता है िक "जाित-रिहत" राजनीित का इशारा िन जातीय पर्भाव-मुक्त राजनीित की ओर
है। ऐसी राजनीित म पर्भुत्व िकसका होगा? इस सवाल का एक आसान जवाब है िक चूँिक
िन जातीय राजनीित का िवरोध उच्चजातीय राजनीित ारा िकया जा रहा है, भले ही यह िवरोध
जाित-िनरपेक्षता का वेश धारण िकए हुए है, अतः वचर्स्व उच्चजातीय ही होगा। आसान होने के
अलावा यह जवाब सही भी है, लेिकन िदक्कत यह है िक यह सवाल का एकमातर् जवाब नह है।
इस अधर्सत्य से पूणर्सत्य की ओर बढने के िलए ज़रूरी है िक हम पर्ाच्यवादी दृि िबदु का िफर से
आकलन कर। जैसा िक हम देख चुके ह, पर्ाच्यवादी पिरपर्े य का मूल भर्म उसके इस पूवगर्
र् ह म है िक
जाित वस्था एक पर्ाचीन (या कम से कम पूवर्-आधुिनक) संस्थान है िजसका आधुिनकता से कोई
वास्ता नह , और िजसकी वतर्मान उपिस्थित को के वल एक िवसंगित के रूप म समझा जा सकता है।
और इस पूवर्गर्ह के पीछे यह भर्ांितपूणर् अपेक्षा है िक आधुिनकता दुिनया म जहाँ भी और जब भी पर्कट
होगी, अपने अनन्य पि म योरोपीय स्वरूप की होनहार पर्ितिलिप के रूप म ही पर्कट होगी। इन
तक के िवरोध म भारतीय समाजिवज्ञान ने जो सै ांितक व तथ्यगत पर्िततकर् िवकिसत िकए, उनका
संिक्ष िववरण उपर िदया जा चुका है। इन पर्िततक का मूल आगर्ह भारतीय संदभर् की िविश ता
पर किदर्त है, जो "जाित की आधुिनकता" या "भारतीय जनतांितर्क राजनीित म जाित की सहज-
स्वाभािवक पर्ासंिगकता" जैसी स्थापना म क्त होता है। लेिकन हमारी अब तक की चचार् म
"िविश ता" का सारा बल भारतीय एवं पि मी/सावर्भौिमक आधुिनकता के परस्पर भेद के

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स्प ीकरण या बचाव पर रहा है, उनकी साझा समानता पर नह । आधुिनकता की शा ीय
पिरकल्पना से इस कदर जुदा होते हुए भी हमारी आधुिनकता क्य इस नाम से पुकारे जाने के लायक
है? – इस पर् का हमने अब तक सामना नह िकया।
उ र जुटाने के िलए आधुिनकता और "आधुिनक होना" की िविभ ाख्या म भेद करना होगा।
कहने की ज़रूरत नह िक आधुिनकता बहुत ापक और जिटल धारणा है, अतः यहाँ के वल उसके दो
मुख्य पहलु का िज़कर् है। आधुिनकता का एक पक्ष ऐितहािसक-तथ्यगत है, जहाँ इसे एक कालखण्ड
से और कु छ ख़ास पर्िकर्या और संस्थान के उ व से जोडा जाता है। इस नज़िरए से आधुिनक होने
के िलए ज़रूरी है एक ख़ास समय (मसलन 19व सदी या उसके बाद) और उस समय से जुडी
पर्िकर्या (मसलन विणज्यीकरण या बाज़ारीकरण, औ ोगीकरण, तकर् णाकरण (रे लाईज़े ),
शहरीकरण, इत्यािद) म शरीक होना या उनके पर्त्यक्ष पर्भाव ारा िनिमत होना। आधुिनकता का
दूसरा पक्ष नैितक-राजनैितक एवं िनयामक या आदशर्क है। इस ाख्या के अनुसार आधुिनक होने के
िलए ज़रूरी है िविश मूल्य एवं आदश (जैसे मानव िववेक की पर्धानता, मानव-िनिमत इितहास,
पर्गित, मौिलक समता, न्याय, इत्यािद) म िव ास करना या उनसे पर्भािवत होना। याद रहे िक
दोनो पक्ष का (और ख़ासकर दूसरे का) वास्तिवक इितहास िवरोधाभास और िवसंगितय से भरा है।
यहाँ इनमे िनिहत पर्िकर्या और आदश की उपिस्थित और पर्भाव पर बल िदया जा रहा है – उनकी
सरल या स्वचिलत स्थापना का कोई दावा नह है।
हमारी राजनीित, और िवशेषकर जाित-जनतंतर् संबंध, उपयुर्क्त दोनो पक्ष के मुतािबक आधुिनक
ठहराए जा सकते ह। लेिकन इस मामले की पड़ताल करते हुए हम पाते ह िक आधुिनकता के दोन
पहलु का जाित और जनतंतर् से िरश्ता पर्त्यक्ष नह परोक्ष है। सवाल चाहे ऐितहािसक पर्िकर्या
का हो या नैितक-राजनैितक मूल्य का, दोन म रा -राज्य की मध्यस्थता का िनणार्यक महत्व है।
हालांिक अब तक की चचार् म रा -राज्य की अथर्पूणर् उपिस्थित पहले ही दजर् हो चुकी है, इसकी
भूिमका का तफसीलवार ब्यौरा अभी बाक़ी है।

भाग 3 : रा -राज्य से उ र-रा तक, जाित की राह से

रा -राज्य आिथक वस्था (उत्पादन का सामूिहक िनयोजन), सामािजक-सांस्कृ ितक वस्था


(समुदाय का पोषण-पर्जनन) और राजनैितक वस्था (वैध स ा की स्थापना) की आपसी संगित को
बनाए रखने की नयी "अिध- वस्था" के रुप म उ ीसव सदी म उभरता है। उ व से वचर्स्व का
लंबा सफर यह िवस्मयकारी तेज़ी से तय करता है, और कु छ ही दशक म वैि क स्तर पर
अिभशासन तंतर् का लगभग अपिरहायर् स्वरूप बन जाता है। 12 जैसा िक वचर्स्ववादी धारणा के

12चूंकी रा वाद और रा -राज्य पर समाजवैज्ञािनक सािहत्य लगभग असीम है, यहाँ के वल उन मुख्य िबदु को संबोिधत िकया
गया है जो भारत जैसे ग़ैर-पि मी, तीसरी दुिनया के देश के संदभर् म पर्ासंिगक ह। इस संदभर् म भी िवशेष ध्यान उन चंद मु की
ाख्या पर िदया गया है जो जाित-जनतंतर् संबंध के िव ेषण म महत्वपूणर् ह।

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साथ अक्सर होता है, रा -राज्य एक स्वतःिस पिरघटना के रूप म पर्कट होता है मानो वह कोई
कु दरती शा त सत्य हो, मगर यह भर्म है।

रा -राज्य एक िवशु आधुिनक नवाचार है िजसका अपार महत्व इसके दो घटक – रा और राज्य
– के परस्पर संबंध की अिनवायर्ता म है। यह आधुिनक युग की देन और पहचान, दोन है िक इसी
परस्पर संबंध को वैध स ा का आधार बनाया जाता है, और जन-स्वीकृ ित के िनहायत नए आयाम
को पर्ाथिमकता देकर उसे राज्य-स ा को सत्याभूत करने वाले नैितक मूलतत्व की हैिसयत दी जाती
है। संक्षेप म कह तो आधुिनक रा -राज्य की आत्मकथा म सबसे पहले िकन्ह ज्ञात-अज्ञात कारण से
एक िविश "जन" का िनमार्ण होता है, िफर इस जन म रा बनने की कामना पनपती है, िफर यह
जन-जिनत रा अपने िलए एक राज्य का गठन करता है, और आिखरकार नवजात रा -राज्य अपनी
स्वयंभू संपर्भुता का ऐलान करता है। मगर यह महज रूमानी आत्मकथा है, भले ही कु छ राजनैितक
िस ांत और खासकर रा वादी िवचारधाराएँ अक्सर कमोबेश इसी िकस्म की पिरकथा म िव ास
करते िदखते ह । लेिकन तथ्यगत इितहास म रा -राज्य की रामकहानी कु छ अलग ही है, और
िवशेषतः औपिनवेिशक संदभ म इसकी जीवनी िबल्कु ल जुदा है।
न के वल ग़ैर-पि मी औपिनवेिशक संदभ म बिल्क अनेक पि मी संदभ म भी यह कहानी राज्य से
ही शुरु और खत्म होती है। 13 भारतीय पिरवेश म तो राज्य की के न्दर्ीयता का चौतरफा महत्व इतना
हावी है िक यहाँ अितशयोिक्त असंभव है। एक िवशाल व पर्ाचीन सभ्यता के रूप म पहचाने जाने के
कारण भारत औपिनवेिशक राज्य के ि पक्षीय चिरतर् को उजागर करता है। एक तरफ उसे लगता है
िक अपने आिथक-राजनैितक िहत की िहफाजत के िलए भारतीय समाज म कम से कम दखल देना
चािहए, लेिकन साथ ही यह भी िक एक कायर्कुशल शासन पर्णाली कायम करने के िलए उसे इस
समाज का गहन अध्ययन करना चािहए। दूसरी तरफ योिरपीय पर्बोधन का कािरन्दा होने के नाते
उसपर नैितक दबाव बनाता है िक वह इस िपछडे समाज को मध्ययुगीन अंधकार से आधुिनक तकर् णा
की रोशनी म घसीट कर लाए, और जैसे-तैसे इसका रूपांतरण करे । इन िवपरीत दबाव के चलते
राज्य की मशां जो भी हो, उसकी कथनी और करनी से अपर्त्यािशत नतीजे िनकलते ह।

जैसा िक सुदी किवराज ने अपने ापक शोधपर्बंध म दशार्या है, औपिनवेिशक राज्य जन और रा
की धारणा को ही नह बिल्क हमारे जनतंतर् के पर्ारं िभक ढाँचे को भी बुिनयादी स्तर पर पर्भािवत
करता है। 14 राज्य अपने औपिनवेिशक-सामर्ाज्यवादी िहत को साधने के िलए जो भी करता है,
उसके अपेिक्षत अथवा आकिस्मक पिरणाम रा िनमार्ण की पूवर्-शत को पूरा करने म सहायक भी
बनते ह और बाधक भी। पर्शासिनक गितिविधय के असर से धुंधली सीमा वाले "अस्प "
समुदाय का कायापलट होता है और वे "गणनाकृ त" समुदाय 15 बनकर अपनी और अपने समवत
समुदाय के सरहद व "संख्या-बल" के पर्ित अभूतपूवर् सतकर् ता बरतने लगते ह। इसी दौर म

13 इसीिलए कु छ राजनीितशाि य ने सुझाया है िक हम "राज्य-रा " के पर्त्यय को भी उतना ही महत्व द िजतना हम रा -राज्य
को देते आए ह। देख – स्टेपान, िलज़ और यादव 2011.
14 िवस्तृत व िवचारो ेजक चचार् के िलए देख – किवराज 2010 (िवशेषतः अध्याय 1, िकतु 2 व 3 भी पर्ासंिगक ह)।
15 अंगर्ेज़ी म इन्ह "फ ज़ी" और "एन्युमरे टेड" समुदाय (कम्यूिनटीज़) कहा जाता है। नीचे चिचत जनगणना की पर्िकर्या से जाित
अिस्मता म आए बदलाव इस पिरघटना की सटीक िमसाल है।

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यातायात व संचार-संपर्ेषण के साधन का िवकास होता है और रा के वजूद म आने की ज़मीन तैयार
होती है।
लेिकन जैसा िक ज्ञान एलोयिशयस की महत्वपूणर् स्थापना ने दशार्या है, भारतीय संदभर् म जाित का
कदर्ीय संस्थान रा िनमार्ण की पर्िकर्या को आधे रास्ते पर ही रोक देता है। 16 एलोयिशयस के
मुतािबक भारत म एक मुखर रा वाद ज़रूर पनपता है, मगर यहाँ शा ीय िस ांत के अनुसार िजस
पर्कार का "रा " होना चािहए वह नह बन सकता। बेनेिडक्ट एंडसर्न ने अपनी सुपर्िस पुस्तक
इमॉिजन्ड कम्यूिनिटज़ (कल्पनाकृ त समुदाय) म सुझाया था िक रा -भावना के उ व के िलए
आवश्यक है िक समाज म एक "गहरा क्षैितज बंधुत्व" (डीप हॉिरज़ोन्टल कॉमरे डिशप) पैदा होना
चािहए, भले ही यह िवचारधारात्मक स्तर तक सीिमत हो और समाज की तथ्यगत िवषमता को
नज़रअंदाज करता हो। इसके िवपरीत जाित एक ऐसा संस्थान है िजसका लंबवत ममर् "क्षैितज
बंधुत्व" से कोस दूर है। अतः एलोयिशयस के अनुसार आज़ादी िमलने के समय भारत म रा के
िनमार्ण की पर्िकर्या मातर् शुरु हुई थी – इस कायर् के संप होने म काफी कसर बाकी थी। स्वाधीनता
संगर्ाम िनिववाद रूप से ि ज जातीय नेता के कब्जे म था, और 15 अगस्त 1947 की घटना को
आज़ादी नह स ा-हस्तांतरण कहना यादा सटीक होगा। लेिकन जैसा सवर्िविदत है, इस "िनिष्कर्य
कर्ांित" ने रा वादी राज्य की न व रखी और भारतीय राज्य के इितहास म एक नया अध्याय रचा।
इस पर्कार भारतीय संदभर् म रा राज्य के इितहास को तीन अध्याय म बाँटा जा सकता है। पहला
अध्याय औपिनवेिशक राज्य का है जो 1858 से 1950 तक यानी लगभग एक सदी तक चलता है।
दूसरा अध्याय रा वादी राज्य का, या सही मायने म रा -राज्य का है, जो 1950 के नए संिवधान से
लेकर मंडल मोड़ तक चलता है। तीसरा अध्याय अभी शुरू ही हुआ है, और इसे पर्योगात्मक तौर पर
"उ र-रा ीय" राज्य की संज्ञा दी जा सकती है। आगे भारतीय रा -राज्य के इितहास के उन पर्संग
का संिक्ष िववरण है जो जाित-जनतंतर् संबंध के िलए िवशेष महत्व रखते ह।
राज्य की के न्दर्ीय भूिमका का पर्माण औपिनवेिशक काल के दूसरे चरण म िमलता है, यानी 1857 की
कर्ांित के बाद, जब राज्य अपने शासन तंतर् का िवस्तार करता है। स्थानीय समाज के कारगर पर्शासन
के िलए औपिनवेिशक राज्य समुदाय व सामािजक रीित-पर्था का अध्ययन करने-कराने लगता है।
िबर्तानी सरकार के इस दौर को "मानवशा ीय राज्य" की संज्ञा दी गयी है। 17 इस समय की सबसे
दूरगामी राजकीय पहल रा ीय स्तर की जनगणना है। 1870 के दशक से लेकर 1930 के दशक तक
भारतीय जनगणना की पर्िकर्या का जाित-समुदाय पर गहरा असर होता है। गणना की पर्िकर्या से
समुदाय को पहली बार अपनी तुलनात्मक सांिख्यकीय हैिसयत का एहसास होता है, और इससे
पुरानी अिस्मता के पुनगर्ठन और नयी अिस्मता के उ व की पर्िकर्या को पर्ोत्साहन िमलता है।
िबर्िटश राज के के न्दर्ीयकृ त ढांचे के बावजूद उसकी गहरी स्थानीय पहुँच, और उसके पर्शासन तंतर् के
मानकीकरण के कारण अिस्मता के समूहन की पर्िकर्या भी ज़ोर पकडती है। सरकार की "माई-
बाप" छिव उसे जनसाधारण के िलए एक साझा संदभर् िबदु बनाती है। इन सभी शासकीय पर्णािलय

16 देख ज्ञान एलोयिशयस 2007. इस पुस्तक की गहरी अंतदृर् ीय को समाजिवतज्ञान के जगत म उिचत सम्मान नह िमला है।
17 देख िनकोलस डक्सर् "दी एथ्नोगर्ािफक स्टेट", अध्याय . डक्सर् 1995.

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का सिम्मिलत असर भारतीय सामािजक वस्था को झकझोर देता है। यही कारण है िक कई िव ान
मानते ह िक जाित का वतर्मान िशल्प पूरी तरह से आधुिनक है और इसे आकार देने म औपिनवेिशक
राज्य की भूिमका िनणार्यक रही है। 18
जाित-जनतंतर् संबंध को पर्भािवत करने वाला दूसरा मुख्य पर्संग बीसव शताब्दी के दूसरे दशक म
शुरू होता है जब औपिनवेिशक राज्य छोटे पैमाने पर स्थानीय चुनाव का अनुमोदन करता है। इस
पहल से वह सारा तंतर् िवकिसत होता है जो स्पधार्त्मक चुनावी राजनीित से संलग्न है और आज
हमारी दुिनया का िचरपिरिचत और पर्भावशाली अंग है। इस दौर म िबर्िटश सरकार पृथक
समुदाियक िनवार्चन समूह को आधार बनाकर चुनाव करवाती है, िजसम अिधकांश समूह धािमक
समुदाय के होते ह। लेिकन िन तम जाितय को भी यह दजार् िदये जाने के िवरोध म महात्मा गांधी
अपने राजनैितक जीवन म पहली बार आमरण अन्शन की घोषणा करते ह। इससे उतप अस
दबाव के कारण िन जातीय नेता को, िजनम बाबासाहेब अंबेडकर पर्मुख ह, झुकना पडता है और
वे गांधी व कांगर्ेस पाट के नेतृत्व को स्वीकार करने को बाध्य हो जाते ह। "पूना समझौता" के नाम
से पर्िस 1932 की इस घटना का जाित और जनतंतर् के िरश्ते पर गहरा पर्भाव पडता है।

गांधी-अंबेडकर िववाद का मूल मु ा "भारत" के पर्ितिनिधत्व का है। अगर मुिस्लम समुदाय की तरह
दिलत समुदाय भी अपना अलग िनवार्चन समूह बनाए रखते तो देश की आबादी का एक बहुत बडा
े और गांधी के नेतृत्व से परे होता। 19 इससे गांधी का संपूणर् रा के पर्ितिनिधत्व का
िहस्सा कांगर्स
दावा अिव सनीय रह जाता, और वे (कमोबेश) सवणर् िहदु के नेता कहलाते। यही कारण है िक
गांधी ने अपना सब कु छ दांव पर लगाकर अंबेडकर को कांगर्ेस के पाले म रहने को मजबूर िकया। इस
घटना से रा वाद के िवचारधारात्मक महत्व के स्प संकेत भी िमलते ह। इस समझौते की माफर् त
रा ीय राजनीित पर उच्चजाितय का वचर्स्व कायम होता है, लेिकन यह जाित के नाम पर नह रा
के नाम पर होता है। रा की आज़ादी, और आगे चलकर रा िनमार्ण का पुण्य कायर् – इस तरह के
शिक्तशाली िवचारधारात्मक आगर्ह समुदाियक स्वाथ की उपिस्थित को अदृश्य बनाते ह।
रे खांिकत करना ज़रूरी है िक यह िकसी षडयंतर् के तहत नह होता है बिल्क सहज-स्वाभािवक ढंग से
सभी पातर् के "पीठ पीछे" होता है। आज़ादी या रा िनमार्ण का आह्वान सीधे-सपाट अथर् म
बेईमानी या धोखाधडी नह है – यह िहत का एक दूसरे की सीध म होने या लाए जाने का मामला
है। "रा ीय िहत" की अनेक ाख्याएँ संभव ह, जो िविभ जाितय के िहत के अनुकूल हो सकती
ह। इनम से िकस ाख्या को सामूिहक सहमित िमलेगी, यह "राजनीित" ारा तय िकया जाता है।
लेिकन रा वाद के िवचारधारात्मक वचर्स्व के दौर म हर पर्कार की राजनीित म सावर्जिनक आह्वान
रा के नाम का ही हो सकता है, िकसी समुदाियक िहत का नह । मंिदर हमेशा भगवान के नाम का
बनता है और भक्त-जन पर्साद भगवान को ही चढाते ह, भले ही उन्ह पता हो िक इसका लाभ पुजारी
ही पाता है।

18 इन िव ान म और के अलावा बनार्डर् कॉह्न, िनकोलस डक्सर् एवं अजुर्न अप्पादुरई के नाम पर्मुख ह।
19 एक अनुमान के मुतािबक मुसलमान और दिलत समुदाय के बाहर रहने से कांगर्ेस को के वल तकरीबन 53 पर्ितशत आबादी का
पर्ितिनिधत्व करने को िमलता। देख देशपाण्डे 2013।

12
इसी तकर् को उल्टे िसरे से भी समझा जा सकता है। सै ांितक और ऐितहािसक दृि से भारतीय
उपमहा ीप म सात नह सैकड रा बन सकते थे। और चूंिक इितहास बताता है िक रा की कोई
अिनवायर् पिरभाषा नह होती, यह जाित के आधार पर भी बन सकते थे। लेिकन ऐसा नह हुआ
क्य िक उस समय रा की धारणा का िवचारधारात्मक आकषर्ण जाित से कह यादा शिक्तशाली था
– यह हम आज, अपने समय म खड़े होकर, कह सकते ह। िकतु उस समय, जब यह घिटत हो रहा
था, यह कोई अवश्यंभावी नतीजा नह था बिल्क इसे संघषर् और ज ोजेहद से सच करना था। उस
समय हर उभरती हुई सामूिहक पहचान का राजनैितक पर्ित न् ी के रूप म पहचाना जाना
स्वाभािवक और अपेिक्षत था। ऐसे म िकसी भी महत्वाकांक्षी राजनैितक पक्ष को अपना आिधपत्य
कायम करने के िलए ज़रूरी है िक भावी पर्ित िन् य को या तो उभरने ही नह िदया जाय या िफर
उभरते ही िनर कर िदया जाय। दिलत समुदाय और अंबेडकर के साथ गांधी ने यही िकया। अलग
िनवार्चन समूह के बदले िविध पिरषद म आरिक्षत स्थान का सौदा दिलत समुदाय की राजनीित के
िलए घातक िस हुआ क्य िक इसकी बदौलत यह समुदाय एक राजनैितक पर्ितस्प की हैिसयत से
िगरकर एक फिरयादी या याचक बन गया। साथ ही, समान अिधकार के दावेदार म स ा के
बंटवारे का सवाल भेस बदल कर रा के उदारमना "मािलक " ारा दीन-हीन समुदाय-िवशेष को
ै ा कराने का कल्याणकारी कायर्कर्म बन गया। 20 "उच्चजातीय वचर्स्व" और
िविश सुिवधा मुहय
"िन जातीय दुिवधा" की इस ाख्या से अनुमान लगाया जा सकता है िक रा और रा वाद की
िवचारधारा ने जातीय राजनीित के दोनो छोर को िकस कदर पर्भािवत िकया।
लेिकन इस पर्संग म औपिनवेिशक राज्य की भूिमका को नज़रअंदाज़ नह करना चािहए। दिलत व
आिदवासी समुदाय को नागिरकता के खेल म मूक दशर्क के बजाए िखलाडी बनकर पर्वेश करने का
अवसर िबर्िटश राज ने ही िदया, और आरक्षण की नीित की न व भी िबर्िटश राज ने रखी। 21 जैसा
िक सवर्िविदत है, एक आरक्षण को छोड़ कर औपिनवेिशक राज्य की पर्ायः सभी जाित संबंिधत
नीितय का (और खासकर जाितगत जनगणना का) रा वािदय ने जमकर िवरोध यह कहते हुए
िकया िक ये बढती रा ीय एकता को तोड़ने की चाल है। बहरहाल औपिनवेिशक काल के औपचािरक
अंत के पहले से ही रा वादी पक्ष िकतना पर्भावी हो चला था, इसका संकेत इस तथ्य म िमलता है िक
1947 की आज़ादी का जाित-जनतंतर् संबंध पर कोई फौरी असर नह िदखता।

रा राज्य के रा वादी दौर की शुरुआत 26 जनवरी 1950 को होती है जब भारत का नया संिवधान
लागू होता है। संिवधान ारा आिवष्कृ त नई कानूनी हस्ती – समुदाियक पहचान-रिहत गुमनाम
साधारण नागिरक (िजसका उपर िज़कर् िकया जा चुका है) – वास्तव म िकतना असाधारण है, यह
22
तुरंत स्प हो जाता है। संिवधान के लागू होने के चंद महीन बाद उसके आरक्षण संबंधी पर्ावधान

20आरक्षण के राजनैितक स ा-बंटवारा पक्ष और इसका िव त िवमशर् से ग़ायब रहने के िवषय पर सू म व अंतदृर् ीपूणर् चचार् के
िलए देख : सूज़ी थारू इत्यािद, 2007.
21 दिलत जाितय व जनजाितय की अिधकृ त सूची (िजससे इनको "अनुसूिचत" की संज्ञा िमली) 1935 म कानून बन कर पािरत
हुई। यह कहने म कोई अितश्योिक्त नह है िक आज़ादी से आरक्षण नीित को कु छ भी फकर् नह पडा क्य िक 1950 के नए संिवधान
म औपिनवेिशक नीित को लगभग अक्षरशः दोहराया गया।
22 वैसे मदर्ास पर्ांत के िजस कानून को चुनौित दी जाती है वह स्थानीय समुदाियक बंटवारे की नीित का िहस्सा है, न िक 1935 के
कानून से बना दिलत-आिदवासी आरक्षण। लेिकन मुकदमे का कानूनी िनिहताथर् हर पर्कार के जाित-आधािरत आरक्षण को लपेट
लेता है।

13
को सव च्च न्यायालय म चुनौती दी जाती है इस दलील के साथ िक वे नागिरक के मौिलक अिधकार
का उल्लंघन करते ह िजनके अनुसार उसके साथ धमर्, जाित आिद से पर्ेिरत भेद-भाव नह िकया जा
सकता। यानी जाित िवषमता को दूर करने के िलए बनाए गए कानून को सेक्युलर 23 समता के हवाले
चुनौती दी जाती है ! दो बर्ा ण मुविक्कल ारा दजर् िकया गया मुकदमा सफल होता है और मदर्ास
की लंबे समय से चल रही समुदाियक बंटवारे की नीित को खािरज िकया जाता है। 24 सरकार को
मजबूर होकर नए संिवधान का सवर्पर्थम संशोधन उसके लागू होने के कु छ महीने बाद ही संसद ारा
पािरत करवाना पडता है। य िप इस संदभर् म सरकार आरक्षण का बचाव करती है, जाित – यानी
दृश्य जातीय राजनीित – के पर्ित उसका ापक रवैया नकारात्मक ही होता है। यह दौर रा वाद की
िवचारधारात्मक शिक्त की पराका ा का है, और इस दौरान जाित की सावर्जिनक चचार् पर अनकहा
पर्ितबंध लगा िदया जाता है।
नेहरु युग उच्चजातीय वचर्स्व का स्वणर् युग है। यह वह िनणार्यक घड़ी है जब ि ज अिभजन वगर्
आधुिनकता के संसाधन पर कब्जा जमाने की होड़ म अपनी जाित-जिनत "आिदम बढ़त" को
सेक्युलर सामािजक पूँजी के संचय म पिरवितत करता है। इस युग का अंत-काल साठ और स र के
दशक म पर्ांतीय राजनीित के पर्त्यक्ष जातीयकरण से शुरू होकर नब्बे के दशक म मंडल आयोग के
पर्ितवेदन का के न्दर्ीय सरकार ारा स्वीकृ त िकए जाने पर खत्म होता है।
मंडल िवस्फोट ही नेहरु युग का िनिववाद अतं है, यह िस करने के िलए मंडल आयोग की तुलना
उसके पूवर्वित काका कालेलकर आयोग से की जा सकती है। पर्थम िपछडा वगर् आयोग का गठन
1953 म होता है और इसका पर्ितवेदन 1955 म पर्स्तुत िकया जाता है। यह एक िविचतर् पर्संग है
िजसम आयोग को गिठत करने वाली के न्दर्ीय सरकार के पर्धानमंतर्ी जवाहरलाल नेहरु संसद म इसकी
िनदा करते ह, और खुद इसके अध्यक्ष को अपने ही पर्ितवेदन को नकारना पडता है। आयोग की
उपेक्षा रा ीय एकता और जाित िनमूर्लन की अिनवायर्ता के नाम पर होती है। लेिकन ि तीय िपछडा
वगर् आयोग, यानी मंडल आयोग, का िवरोध िबल्कु ल अलग ढंग से और अलग स्तर पर होता है। यह
तीखे मगर िश संसदीय भाषा के संभर्ांत दायरे म नह , बिल्क अभूतपूवर् कटु ता, ककर् शता और
अितरे क से भरे सावर्जिनक आंदोलन के रूप म होता है। मंडल िवरोधी आंदोलन को "रा ीय"
कहलाने वाले (उच्चजातीय) अिभजन वगर् और उसकी मीिडया का भरपूर समथर्न िमलता है। उसके
पास अतीत के असरदार नारे और तकर् भी होते ह जो रा ीय एकता, उदारवादी आधुिनकता, योग्यता
तंतर् और जाित-उन्मूलन का आह्वान करते ह। लेिकन इस बार रा वाद का जादू नह चलता है और
तमाम पर्त्यक्ष व परोक्ष समथर्न के बावजूद मंडल िवरोधी आंदोलन परािजत होता है। इस पराजय
की संपूणर्ता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है िक एक भी राजनैितक दल मंडल का पर्त्यक्ष
या सावर्जिनक िवरोध नह करता बिल्क सभी दल उसका समथर्न करते ह।
मंडल-बाद का दौर यानी नब्बे का दशक एक िवलक्षण अंतराल है िजसम तीन रूपांतरकारी
पिरघटनाएँ लगभग एक साथ घिटत होती ह। एक तो स्वयं मंडल है, दूसरा 'मंिदर' यानी बाबरी

23 जैसा िक िव त बहस म स्थािपत िकया गया है, सेक्युलर के िलए "धमर्-िनपक्ष" शब्द का उपयोग भर्ामक है, अतः अंगर्ेज़ी के शब्द
को अपनाना ही मुनािसब है।
24 तफसीलवार बहस के िलए देख क ािबरन 2009 और देशपाण्डे 2013.

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मिस्जद-रामजन्मभूिम मु े के सहारे आकर्ामक िहदुत्ववादी-दिक्षणपंथी राजनीित का उभार, और
तीसरा नई आिथक नीित के तहत अथर् वस्था का वै ीकरण, उदारीकरण व िनजीकरण। "उ र-
रा " की धारणा इन तीन के सिम्मिलत असर से आए ापक बदलाव को पिरभािषत करने का एक
तरीका है।
यह धारणा अपने आप म नई नह है बिल्क लगभग दो दशक से अमेरीका और ख़ासकर योरोप के
बौि क-राजनैितक िवमशर् म इसका अलग अलग स्वरूप म पर्योग होता रहा है। उ र-रा की एक
बहुचिचत धारणा जमर्नी के िचतंक युगन हाबरमास ारा सुझाई गई है। हाबरमास की िचता समाज
की जनतांितर्क पर्िकर्या पर किदर्त है, क्य िक उनकी राय म पि म योरोप का इितहास गवाह है िक
इस पर्िकर्या के उ व व पोषण के िलए रा -राज्य ही एकमातर् कारगर पिरवेश रहा है। 25 मगर खुद
रा -राज्य कु छ ख़ास पिरघटना व िविश सांस्थािनक वस्था के परस्पर समन्वय की बदौलत
संस्थािपत हो सका। समकालीन संदभर् म वैि करण से संब पर्िकर्या और घटना ने रा -राज्य
के उन सभी पूवर्-शत की न व िहला दी है िजन्ह हाबरमास "तारामंडल" की संज्ञा देते ह।
भूक्षेतर्ीय राज्य, रा , और रा ीय सरहद के भीतर संस्थािपत जन-स्वीकृ त (पॉप्युलर) अथर्
वस्था – इस [संयुक्त] पिरघटना ने एक ऐितहािसक तारामंडल को आकार िदया िजसम
जनतांितर्क पर्िकर्या ने कमोबेश िव सनीय सांस्थािनक स्वरूप धारण िकया। और इस िवचार
को, िक जनतांितर्क समाज का एक अंश संपूणर् समाज म हस्तक्षेप करने की क्षमता रखता है,
इसे अब तक के वल रा -राज्य के संदभर् म कायार्िन्वत िकया जा सका है। लेिकन आज "वै ी
करण" पद के तहत सपिरसीिमत घटना ने इस पूरे तारामंडल पर पर् िचन्ह लगा िदया है।
(हाबरमास 2001: 60)
वै ीकरण-जिनत शिक्तयाँ राज्य की भूक्षेतर्ीय संपर्भुता को खोखला करती ह, रा की धारणा म
िनिहत समुदाय व समाज की िस्थरता को चुनौती देती ह और भूमंडलीय बाज़ार की माफर् त रा ीय
अथर् वस्था को अपर्ासंिगक बना देती ह। अतः हाबरमास इस पर् से िथत ह, िक अगर रा -राज्य
का ढांचा ढह जाता है, तो जनतांितर्क संवेदना और पर्िकर्या को िकस पर्कार की नयी उ र-
रा ीय सांस्थािनक वस्था म शरण िमल सके गी – यानी उ र-रा के तारामंडल का क्या आकार
होगा?
अगर हाबरमास की धारणा कमोबेश उदारवादी राजनैितक दशर्न से पर्ेिरत है तो उ र-रा की एक
अन्य मशहूर धारणा िमशेल फू को की सै ािन्तक अंतरदृि य को अपना आधार बनाती है। माइके ल
हाटर् और एन्टोिनयो नेगर्ी ने अपनी धारणा को "सामर्ाज्य" की संज्ञा दी है, और वे इस बात पर ज़ोर
देते ह िक उनके िलए यह पद रूपक नह , पर्त्यय है (हाटर् और नेगर्ी 2000, पूवक
र् थन, पृ: 14)। इस
पर्त्यय की ाख्या व िव ेषण की प ित मूलतः सै ांितक है, न िक ऐितहीिसक-तथ्यगत। हाटर् और
नेगर्ी ने सामर्ाज्य के चार पािरभािषक चिरतर्-गुण सुझाए ह :
पहला और सव च्च [चिरतर्-गुण] यह है िक सामर्ाज्य का पर्त्यय एक ऐसी शासन पर्णाली का
आगर्ह करता है जो वस्तुतः िदक् -स्थान की संपूणर्ता (स्पेिशयल टोटेिलटी) को घेर लेता है या

25 हाबरमास 2001, खासकर अध्याय 4, "द पोस्टने ल कॉन्सटेल्लेशन एन्ड द फ्युचर ऑव डेमोकर्ेसी", पृ.58-112.

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समािव कर लेता है। कोई भी भूक्षतर्
े ीय (टेिरटोिरयल) सरहद उसके शासन को पिरसीिमत
नह करती। दूसरे , सामर्ाज्य का पर्त्यय स्वयं को यु -िवजय (कॉन्क्वेस्ट) से उतप
ऐितहािसक शासन तंतर् के रूप म नह पर्स्तुत करता है, बिल्क एक ऐसी वस्था के रूप म
जो इितहास को स्थिगत कर मौजूदा हालात को अनन्तकाल के िलए िस्थर कर देता है। ...
तीसरा, सामर्ाज्य का राज सामािजक वस्था के पर्त्येक स्तर पर लागू होता है और
सामािजक जगत की गहराइय तक इसकी पहुँच होती है। सामर्ाज्य न के वल िकसी जनपद
का संचालन-पर्बंधन करता है बिल्क अपने पूरे संसार को ही िनिमत करता है। ... उसके
शासन का ल य सामािजक जीवन की संपूणर्ता है, और अतः सामर्ाज्य जैिवक-स ा
(बायोपावर) का आिधकािरक स्वरूप पर्स्तुत करता है। अंततः, इसके बावजूद िक उसका
ावहािरक इितहास िनरं तर रक्तरं िजत रहा है, सामर्ाज्य का पर्त्यय हमेशा शांित को समिपत
होता है – एक ऐसी शा त, सावर्भौिमक शांित जो इितहास के बाहर है। (हाटर् और नेगर्ी
2000, पूवर्कथन, पृ.14-15)

हाबरमास की तरह हाटर् और नेगर्ी भी वैि करण से संबंिधत समकालीन पिरघटना के संदभर् म
रा -राज्य की अपर्ासंिगकता का सै ांितक सामना करने की कोिशश म लगे ह। उनके िहसाब से
आगामी सामर्ाज्य म शासन राज्यतंतर् के जिरए नह िकतु जैिवक-स ा (बायोपावर) की पर्णािलय
ारा कायम होगा। इसके फलस्वरूप "जन" या आवाम की धारणा भी चल बसेगी और उसकी जगह
एक गितशील, लचीला और िनरं तर िवभेिदत जनसमूह (मिल्ट ूड) होगा, जो न तो राज्य-स ा की
वैधता को सत्याभूत कर सके गा और न ही रा की सामूिहक-सामुदाियक भावना को पोिषत कर
सके गा (हाटर् और नेगर्ी 2000: 344)।
इस अपयार् और अितसंिक्ष ब्यौरे को यह समेटते हुए भारतीय संदभर् की ओर लौट तो हम पाते ह
िक उपयुर्क्त धारणाएँ और उनसे जुड़े तकर् कु छ हद तक यहाँ भी पर्ासंिगक ह। कहने की ज़रूरत नह
िक भारत भी वै ीकरण के पर्भाव से अछू ता नह रहा है, और इस िवशाल पिरघटना का असर रा -
राज्य पर भी पड़ा है, इस तथ्य से इनकार नह िकया जा सकता। लेिकन इन समानता के साथ-
साथ भारतीय पिरवेश की कई िविश ताएँ भी ह जो इस पर्कार की धारणा की उपयोिगता को
सीिमत करती ह। इसिलए ज़रूरी है िक उ र-रा की पर्चिलत पिरकल्पना को संशोिधत करते
हुए एक अलग धारणा तैयार की जाए जो हमारे पिरवेश के िलए पर्ासंिगक होगी। 26
भारतीय संदभर् की सबसे बडी िविश ता इसी म है िक (जैसी चचार् पहले की गई है) हमारे यहाँ रा
िनम ण की पर्िकर्या अधूरी रह गई और स ा अिभजात वगर् के कब्जे से बाहर नह गई। इसिलए
भारतीय रा -राज्य को चुनौती देने वाली ताकत के वल उसके उपर या उससे ापक स्तर की नह ह
बिल्क उसके अपने घटक व धड़े भी उसके आिधपत्य को पर्त्यक्ष या परोक्ष रुप से ठु कराने लगे ह।

26 दिक्षण एिशयाई िव ान के एक समूह ने हाल म ऐसा एक पर्यास िकया है। देख – मालती िड एिल्वस, सतीश देशपाण्डे,
पर्दीप जग ाथन्, मॆरी जॉन, िनवेिदता मेनन्, मथायास पांिडयन्, आिदत्य िनगम एवं अक़बर ज़ैदी, 2009.

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जैसा िक दिक्षण एिशयाई िव ान के एक समूह ने सुझाया है, उ र-रा की पिरभाषा के नकारात्मक
पहलू से उसके सकारात्मक पक्ष की ओर बढने के िलए ज़रूरी है िक हम इस पिरघटना को ापक
ऐितहािसक पिरपर्े य से देख :
हमारे िलए "उ ररा ीय" का संकेत इन िदशा म है – बौि क अवस्था, समीक्षा का
अवस्थान और बोधगम्यता का एक नया िक्षितज। इसका नयापन इस तथ्य से उपजता है िक
यह उस िक्षितज के परे है िजसे रा राज्य ने अपने वैभव के िदन म संस्थािपत िकया था,
हालांिक हमारे िलए इसका मतलब यह नह है िक "रा राज्य का ज़माना गुज़र चुका"।
लेिकन हमारा मानना है िक नागिरक के राजनैितक समुदाय के रूप म रा राज्य म जो
लोको ार की संभावना िनिहत थी, वह अब धूिमल पड चुकी है। (...)
हम मानते ह िक उ ररा ीय की धारणा को इसी शतर् पर साकार िकया जा सकता है िक रा
की जो एक पूवर्वत सै ांितक-राजनैितक िक्षितज की हैिसयत रही है, उसे स्थिगत कर उसकी
असाध्यता पर िचतन िकया जाए, भले ही हमारा अपना सुकून-रिहत स्थान अब भी उसी
रा के दायरे म हो। (मालती िड एिल्वस इत्यािद, 2009, पृ.35)
इसके बावजूद िक यह सोच अभी अधूरी है और इस िदशा म बहुत काम बाकी है, िफर भी इसके
ज़िरए हम उ र-रा म िनिहत असमानता के पर्ित सतकर् हो सकते ह जो रा और राज्य के पुराने
संबंध को बदल देता है। अब राज्य की शिक्त और उसका शासन-तंतर् पहले से कमजोर इस अथर् म हो
गया है िक बाजार और वैि क स ा-तंतर् का उसपर दबाव बना रहता है। लेिकन इसकी तुलना म
रा का िवचारधारात्मक आभामंडल कह यादा क्षीण पड़ चुका है (हालांिक यह अभी बुझा नह
है)। इसिलए उ र-रा के दौर म रा और राज्य के आपसी संबंध म राज्य का पलड़ा पहले से भारी
और रा का पलड़ा पहले से हल्का हो गया है। इससे रा के नाम के आह्वान पर पर् िचन्ह लग
जाता है क्य िक यह आज िकनको और िकतन को संबोिधत कर पाएगा, यह अिनि त है।
आज आिथक व सामािजक बोधगम्यता की शत और पर्कार बदल गए ह। मसलन जाित की अब तक
की वस्था, िजसम उसके अितदृश्य और अदृश्य घटक म एक ख़ास संबंध था, वह अब असाध्य है
क्य िक जो अदृश्य था वह अब लोग को िदख रहा है। साथ ही अितदृश्य जाितय पर िजस पर्कार के
नैितक पर्हार िकए जाते थे उनका असर जाता रहा है और अब दूसरी तरफ से पलट वार भी हो रहे ह।
सामािजक क्षेतर् म अब क्षैितज (हॉिरज़ॉन्टल) संबंध का पर्ाधान्य है तो आिथक क्षेतर् म लंबवत
(विटकल) संबंध का। दोन क्षेतर् म समूहन की पर्िकर्या भी अलग है।
जहाँ सामािजक और राजनैितक क्षेतर् म समूहन अब सुलभ और पारदश हो चला है वह आिथक
क्षेतर् म समूहन को लेकर संकट छा गया है। वैि करण और िनजीकरण का असर अब बोल रहा है –
आिथक क्षेतर् म छोटी इकाईय के समूहन से बड़ी इकाई का गठन अब नामुमिकन सा लगता है और
छोटी-बडी इकाय के संबंध पहले से कह यादा िवषम हो गए ह। आिथक पर्िकर्याएँ गूढ और
अपारदश हो चली ह – अथर् वस्था की बोधगम्यता अब अिनि त और क्षिणक हो गयी है।
समकालीन अथर् वस्था के तार दुिनया के सुदरू कोन को जोड़ते ज़रूर ह लेिकन यह संबंध एक
तरफा होते ह, इनम (सामािजक-नैितक दृि से) अपेिक्षत परस्परता नह होती।

17
लेिकन इस तरह के अमूतर् और समि गत स्थापना से पाठक का मन नह मानता। समाज िवज्ञान
पर ठोस भिवष्यवाणी के िलए अनवरत दबाव बना रहता है। लेिकन यह हमारे वसाय का
िनराशाजनक सत्य है िक समाजिवज्ञान का िव ेषणात्मक िववेक पर्ायः अतीतोन्मुख ही होता है।
आज के मोदीमय भारत का कल कै सा होगा? ऐसे सवाल का सटीक व िनिववाद जवाब दे पाना यिद
संभव होता तो हमारी दुिनया ही अलग होती। िफर भी, भिवष्यवाणी के लायक न हुए तो क्या हुआ,
हम भिवष्य के पर्ित स्वाभािवक मानवीय िजज्ञासा को िदशा तो दे ही सकते ह !
इतना ज़रूर कहा जा सकता है िक जो लोग हािलया चुनावी नतीज से सबसे यादा उत्सािहत ह वह
शायद यह आस लगाए बैठे ह िक "मोदी युग" नेहरू युग के िवलोमी दोहराव का रूप लेगा। दोहराव
इसिलए िक यह तबका िपछले ढाई दशक म "जाित की राजनीित" (यानी िन जाितय की
राजनीित) के पर्ाधान्य से तंग आ चुका है और वह उच्चजातीय वचर्स्व के नेहरु-कालीन स्वणर्युग की
वापसी की कामना करता रहा है। और िवलोम इसिलए िक जहाँ नेहरु युग आिथक क्षेतर् म
आत्मिनभर्रता, राजनैितक क्षेतर् म समाजवादी उदारता और सामािजक क्षेतर् म सेक्युलरवाद की
नीितयाँ अपनाता था, वह आने वाले युग म इन नीितय िक कोई गुंजाइश नह होगी।
क्या यह संभव हो सके गा? इस सवाल का जवाब दो अन्य सवाल के जवाब पर िनभर्र करता है।
इनम एक सवाल है जाित और जनतंतर् के भावी िरश्ते का – क्या जाित के राजनैितक समूहन के नए
पर्कार िवकिसत ह गे जो उसे आज के अवरोध के पार ले जाएंगी? दूसरा सवाल ि पक्षीय है – जाित
की अथर् वस्था और अथर् वस्था की जाित, इन दोन अवस्थान म िन जाितय िक, खासकर
मंझली व िपछड़ी जाितय की, क्या हैिसयत होगी?
समाजिवज्ञान की दुकान म बतौर भिवष्यवाणी इतना ही िमल सके गा। आगे भूल-चूक-लेनी-देनी !

सतीश देशपाण्डे
संपर्ित – समाज शा िवभाग, िदल्ली िव िव ालय.
संपकर् – sdeshpande7@gmail.com  

18
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