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जिन शासन गौरव आध्यात्म योगी बाल ब्रह्मचारी

चमत्कारी दिव्य जवभूजि


पूज्य गुरिेव स्वामी श्री श्री 1008
श्री रुप चन्ि िी महाराि
की िीवन झाांकी
एवां
समाजि स्थल िगरावाां

महाश्रमणी श्री रािेश्वरी िी महाराि की अन्िेवासी


प्रवचन प्रभाजवका कममयोजगनी

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महासाध्वी श्री सुनीिा िी महाराि
अपनी सुजशष्या
िप चक्रेश्वरी, िपचक्रचूडामजण महा साध्वी श्री शुभ िी महाराि की जनरन्िर
लम्बी िपस्या
जनराहार के वल गमम िल के अिार पर
के िप महोत्सव के उपलक्ष्य में
ebook library से मोबाईल पर उपलब्ि

समपमण
त्यागमूर्िम िपोजनष्ठ, ब्रह्माचयमव्रि जप्रयम्
शास्त्रज्ञ श्रमणां जभक्षु रुपचन्िां नमाजम अहम्
जिनका िीप मेरे जलए प्रकाश स्िम्भ है,
जिनके जवचार मेरे जलए पथ प्रिशमक हैं।
जिनका आचार मेरे जलए अनुकरणीय है,
जिनका पथ प्रिशमन मेरे जलए वरिान है
ऐसे श्रद्धेय िपजस्वन चमत्काररक महापुरुष
महान िपस्वी श्री रुपचन्ि िी महाराि के
पावन चरण सरोिों में सजवनय, सभजि
सािर समर्पमि है
साध्वी सुनीिा िी महाराि

श्री रुप गुरवे नमः


इजिहास की स्वर्णमम कडी
परम श्रद्धेय महान िपस्वी
स्वामी श्री रुपचन्ि िी महाराि

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भारि वषम ऋजषयों मुजनयों का िेश कहलािा है िथा भारिीय
सांस्कृ जि की अजमट छाप सारे जवश्व पर है। िैन सांस्कृ जि में श्रमण सांस्कृ जि
का गौरवपूणम स्थान है। जिस काल में पुण्य पाप का रूप िारण कर लेिे हैं,
िमम अिमम का िामा पहन लेिा है, चारों िरफ अन्िकार ही अन्िकार
दिखाई िेिा है िथा हहांसा अहहांसा पर अपनी छाप िमा लेिी है ऐसे समय
में मानव िाजि का उद्धार करने के जलए कोई दिव्य जवभूजि इस सांसार में
िन्म लेिी है। जिसके प्रभाव से सभी पापों का क्षय होकर पुण्य का अिमन
होिा है। श्रमण सांस्कृ जि को अलांकृि करने वाली दिव्य जवभूजि, चमत्कारी
िपस्वी महान पुरुष श्री श्री 1008 स्वामी श्री रुपचन्ि िी महाराि का
िपोमय िीवन इजिहास की एक ऐसी कडी है जिसके जबना इजिहास
अपूणम प्रिीि होिा है। उस महामुनीश्वर कममयोगी का िीवन अन्िकार में
भटकिी मानव िाजि के जलए वरिान है। उनका पावन नाम लेने मात्र से
िन्म िन्मान्िर के सांकट िूर होिे हैं, मनोकामनाएां पूणम होिी हैं िथा
िीवन में परम सुख और शाजन्ि का सांचार होिा है। यह उस महान पुरुष
की दिव्य गाथा है जिन्होंने पााँच महाव्रिों का कठोरिा से पालन करिे हुए
अहहांसा, अभय िथा अजभग्रह की ध्वि को लहरािे हुए नगर-नगर, ग्राम-
ग्राम घूम कर प्राणी मात्र का उद्धार दकया िथा उनके जनष्काम िप ने
िैनत्व की मान्यिा को अमर गौरव प्रिान दकया।
परम श्रद्धेय परम पूज्य स्वामी श्री रुप चन्ि िी महाराि एक सच्चे
सन्ि िथा चमत्कारी महापुरुष थे। उनका जचन्िन करने से हर प्रकार की
समस्या का समािान जमल िािा है िथा मन की मुरािें पूरी होिी हैं। वह
जनस्पृही, महान योगी, महान िपस्वी िथा िृढ़ जनश्चय वाले सरल और
सांयमी सांि थे। उनके गुणों का वणमन करने की क्षमिा भला दकस में है।
कोई भी प्राणी श्रद्धा और जवश्वास के साथ उनके पावन चरणों में लग
िािा है, िथा उनकी शरण में चला गया उसका िीवन िन्य हो िािा है।
वह अपनी दिव्य प्रेरणा से ऐसा प्रकाश पैिा करिे हैं जिसकी चमक लेकर

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सारा िेश अलोदकि हो उठिा है । उसी अलोक से प्रेरणा लेकर सांयम की
अपूवम अराजिका महासाध्वी श्री रािेश्वरी िी महाराि की सुजशष्या
प्रवचन प्रभाजवका, कममयोजगनी महासाध्वी श्री सुनीिा िी महाराि ने
कु छ चररि मुिाओं को श्रद्धाभाव से गूांथकर महाराि श्री िी के िीवन
गाथा का गुलिस्था पाठकों िक पहुाँचाने का सरल प्रयास दकया है। पूणम
जवश्वास है दक इस महान अध्यात्म योगी की पावन गाथा से प्रेरणा लेकर
श्रद्धालु अपने िीवन के िन्य बनाएांगें।
प्रवचन प्रभाजवका, कममयोजगनी, महासाध्वी श्री सुनीिा िी
महाराि एवम् उनकी सुजशष्या िपज्योजि, िपहसांहनी, िप चक्रश्वरी,
िपसूयाम, िपचक्र चूडामजण महासाध्वी श्री शुभ िी महाराि को महान
चमत्कारी महापुरुष स्वामी श्री रुप चन्ि िी महाराि के प्रजि अटूट श्रद्धा
है । वह िो कु छ भी हैं अपने आपको परम श्रद्धेय गुरुिेव का प्रसाि मानिी
है। दकसी भी कायम करने से पूवम उनका पावन आशीवामि लेकर दफर कायम
प्रारम्भ करिी हैं। गुरु महाराि का इन पर अपार कृ पा िृजि है। रुप नगरी
िगराओं मे 1997-1998 के चािुमामस में िप चक्र, चूडामणी महासाध्वी
श्री शुभ िी महाराि के अल्प िीक्षायु में 265 व्रिों के जवश्व ररकार्म के
उपलक्ष्य में 22 माचम 1998 को महाराि श्री की वार्षमक िीक्षा महोत्सव
के शुभ दिन मनाये गये िप अजभनन्िन समारोह वाले दिन 20-25 हिार
श्रद्धालुओं के समक्ष समाजि स्थल पर सांगमरमर के पत्थरों से लगभग साढ़े
िीन घांटे का के सर युि अमृि िल का जनकलना इस सिी में उन पर
अपार कृ पा का स्पि प्रमाण है। ऐसा साक्षाि् चमत्कार आि िक िेखने में
िो क्या सुनने में भी नहीं आया। हम दकन शब्िों से कममयोजगनी
महासाध्वी श्री सुनीिा िी महाराि का गुणगान करें जिन्हों ने पूणम श्रद्धा
के साथ उस सवम श्रेष्ठ पथ प्रिशमक, प्रािः स्मरणीय महान िपस्वी, महान
चमत्कारी स्वामी श्री रुप चन्ि िी महाराि के चमत्कारों िथा उनके
िीवन सम्बन्िी िानकारी एकजत्रि करके एक पुजस्िका के रूप में िन िन

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िक पहुांचाने का महाप्रयास करके परम उपकार दकया है। महाराि श्री का
िगराओं नगरी से जवशेष सम्बन्ि रहा है। उन्हों ने अपने िीवन का
अजन्िम भाग यहीं पर जबिाया िथा उनका स्वगमवास भी िगराओं में ही
हुआ। उनकी पजवत्र याि में िगराओं मे जवजभन्न सांस्थाएां बनी हुई हैं। िो
भारिवषम में अपना जवशेष स्थान रखिी हैं। नगर में प्रवेश करिे ही स्वामी
रुप चन्ि िैन स्मारक जिसे समाजि स्थल कहा िािा है एक िीथम स्थान
बना हुआ है। र्ल्ला रोर् पर जस्थि स्वामी रुप चन्ि िैन स्वगम आश्रम एक
शाजन्ि स्थल बना हुआ है। िहााँ पर महाराि श्री िी के स्वगमवास हो िाने
के पश्चाि उनका िाह सांस्कार दकया गया था।
शहर के मध्य में स्वामी श्री रुप चन्ि िैन सीनीयर सैकन्र्री
पजब्लक स्कू ल िन िन को जशजक्षि कर रहा है। जिसमें लगभग 2000
जवद्याथी हैं। िथा P.S.E.B. से +2 िक मान्यिा प्राप्त है। शहर के भीिरी
भाग में महाराि श्री रुप चन्ि िैन फ्री होम्योपैजथक हस्पिाल िन िन की
सेवा कर रहा है। पुराने उपाश्रय के स्थान पर नव जनर्ममि नया स्थानक
िहाां स्वामी श्री रुप चन्ि िी महाराि जवरािमान रहे श्रद्धालु बन्िुओं के
हृिय पटल पर अपनी अजमट छाप लगा रहा है। पुराना स्थानक जिसे श्री
रुप चन्ि िैन हाल कहा िािा है उसे सजियों का स्थानक एवां श्री रुप चन्ि
िैन िांि घर आदि सांस्थाएां भी सामाजिक उपकार में कायमरि हैं। बहुि सी
योिनाएां जिनमें ध्यान-के न्र, िनरल हस्पिाल, वृद्ध आश्रम,,पक्षी जवहार
समाि के जवचािीन हैं। िगराओं पर पूज्य गुरुिेव का पावन आशीवामि
बना हुआ है।
समस्ि िगि की दिव्य जवभूजि, जवश्व के िेिीप्यमान सूयम जवश्व
िमम प्रेरक अहहांसा के मसीहा, िप और करुणा के सागर स्वामी श्री रुप
चन्ि िी महाराि भगवान महावीर स्वामी की श्रमण परम्परा के उज्जवल
नक्षत्र हैं। महासाध्वी सुनीिा िी महाराि के महाप्रयास का प्रजिफल यह
पुजस्िका आपके हाथों में है। इस सफलिा पर हम महासाध्वी िी को

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कोरट-कोरट वन्िन करिे हुए अन्नानन्ि बिाई िेिे हैं। अन्ि में जवन्रतिा
पूवमक एक ही बाि कहना चाहिा हाँ दक आप इस पावन गाथा को स्वयां
पढ़ें-अन्य को सुनाएां। मेरा यह अटूट जवश्वास है िो श्रद्धालु महाराि श्री के
शरण में रहिा है वह उसकी मनोकामना पूणम करिे हैं, उसका मागमिशमन
करके उसे सुख-शाजन्ि प्रिान करिे हैं ।
ऐसे मुनीश्वरों के चरणों मे कोरट-कोरट वन्िन।
महाराि के चरणों का सेवक
मपेन्र िैन
मन्त्री श्री रुप चन्ि S.S. िैन जबरािरी (रजि)
िगराओं (लुजियाना) पांिाब

एक प्रभावशाली व्यजित्व श्री रुप चन्ि िी महाराि


सन्ि जमले परमेश्वर जमल गया
सन्ि की मजहमा वेि न िाने।
गुरु नानक िेव िी की यह वाणी हमारे िेश की उस परम्परा को बल
िेिी है जिसमें सन्ि को ईश्वर के बाि िूसरा स्थान दिया गया है। इस

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िरिी पर मनुष्यों के िुःखों एवां उलझनों को जमटाने के जलए सन्ि भगवान
का रूप में अविाररि होिे हैं।भय, क्रोि ईष्याम आदि मानवीय कमिोररयों
से ग्रजसि मानव को मुजि का मागम दिखाना सन्िों का लक्ष्य होिा है।
ऐसे ही घोर िपस्वी महानात्मा हमारे बीच अविाररि हुई जिन्हें
स्वामी श्री रुप चन्ि िी के नाम से िाना िािा है। उन्होंने अहमि िशमन के
माध्यम से िैन िमम की परम्परा को और अजिक सुिढ़ृ दकया। परम जसजद्ध
एवां मोक्ष को प्राप्त करने का सिि प्रयास करना ही िीवन है। िब भगवान
महावीर स्वामी से पूछा गया दक सांसार में आपने क्या िेखा िो उनका
उत्तर था-“ कु छ पैिा हो रहा है कु छ नि हो रहा है । लेदकन एक जबन्िु है
जिसके चारों ओर सब कु छ घूम रहा है। ज्ञान हर समय पैिा होिा है।
अररहन्ि, आचायम, सािु उनके जििने भी िमों के पयामय सांग्रह हुए हैं वे
उन्हें नि करने पर िुले हैं। नि होने और पैिा होने के बीच जसद्ध अवस्था
रूपी एक िूरी है जिसके चारों ओर सब कु छ घूम रहा है।”
कू एां से पानी जनकलिे रहट को आपने िेखा होगा। पानी से भरे हुए
छोटे जर्ब्बे उपर आिे है सारा पानी उलीच कर चले िािे हैं। पानी
उलीचने का क्रम जनरन्िर िारी रहिा है िहााँ पानी िा रहा है वह एक
के न्र है जिसके िोनों िरफ पैिा होना और नि होना घूम रहा है।
सन्िों की प्रकृ जि के इस रहस्य की पूणम समझ होिी है. उन के मन में
सुख िुःख अनुकूल प्रजिकू ल िैसी बािें कोई महत्व नहीं रखिी। वे िानिे
हैं दक यह सब जस्थजियााँ जिस आिार पर खडी है ये हमारी आत्मा के
आनन्ि का जवषय है। वह दकसी आिार पर जलखा नहीं होिा। स्वामी श्री
रुप चन्ि िी महाराि योजगयों की श्रेणी में आिे हैं जिन्हों ने इस ित्व को
समझ जलया था। भगवान महावीर जिसकी जनयजि कहिी है िाशमजनक
अिृष्य कहिे हैं, उसे ही श्री रुप चन्ि िी महाराि के व्यजित्व में सहि
िेखा िा सकिा है। िो अपने आप को िेख लेिे है, वही सन्ि है, वही ज्ञानी
है।
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महाराि श्री रुप चन्ि िी महाराि समाि सुिारक भी थे। उन्हों ने
समाि की अनेकों कु रीजियों पर प्रहार दकया। उनके प्रभावशाली व्यजित्व
के कारण उनके जवरोिी स्वयां ही उनके भि बन गये। आि भी उनका
स्मरण करने मात्र से स्वयां साक्षाि िशमन िेिे हैं। भौजिक रूप से मैंने उनके
िशमन नहीं दकये लौदकक िैजवक रूप से िशमन दकये हैं, उनका िशमन था,
श्रद्धा को िढ़ कर जस्थर करो। अहहांसा एव अनेकान्ि में श्रद्धा पैिा
करो,सत्य और जिज्ञासा पैिा करो। लोग ज्ञान के द्वारा सत्य को समझे,
िशमन के द्वारा जस्थर हो िाए, चररत्र के द्वारा िमम बन्िनों को िोडकर
आनन्ि को प्राप्त करें।
आि सबसे बडी आवश्यकिा इस बाि की है दक हम स्वामी श्री रुप
चन्ि िी महाराि के बिाए जसद्धाांिों का अनुसरण करें । उस दिव्य पुरुष
की समाजि स्थल िगराओं में है, िमम एवां मान्यिा के लोग श्रद्धा सुमन
चढ़ाने आशीवामि प्राप्त करने और मागम िशमन लेने पहुाँचिे हैं । वास्िव में
सन्िों का प्रभाव ऐसा ही होिा है जिससे सांसार के लोगों का मोह भांग हो
िािा है। उनमें मोह का लवलेश मात्र भी कहीं प्राप्त नहीं होिा। ऐसी
सरल जवभूजि थे श्री रुप चन्ि िी महाराि जिनके चरण सरोिों में
अन्निान्ि कोरटशः वन्िन नमन। स्वीकार करो मेरी वन्िना।
-----------------------------------------------------महासाध्वी सुनीिा

मेरी अगाि श्रद्धा के के न्र


दिव्य जवभूजि स्वामी श्री रुप चन्ि िी महाराि
एक जचत्रकार अपनी कलाकृ जि बनाने में एकाग्रजचि रहिा है, घांटो
काम करिा रहिा है िो यह भी एक प्रकार का िप है।, लेखक अपनी
लेखनी द्वारा साजहत्य सृिन करिा है, यह भी एक िप है. स्वणम िप कर

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शुद्ध से शुद्धिर हो िािा है। इसी प्रकार िप द्वारा सािक पजवत्र से
पजवत्रिम हो िािा है।
ग्रीष्म ऋिु के चार माह िक अनवरि रूप से पृथ्वी सूयम के प्रचण्र् िाप
से िपिी है। वषाम ऋिु के आगमन पर पहली बौछार होिी है िो जमट्टी में
ऐसी मन मोहक सुगन्ि जनकलिी है दक उस सुगन्ि के प्रभाव से मयूर
आनन्ि जवभोर होकर नृत्य करने लगिे हैं। ऐसी सुगन्ि थी हमारे महान
िपस्वी, महापुरुष स्वामी श्री रुप चन्ि िी महाराि के पास। जिसने भी
एक बार उस सुगन्ि का स्पशम दकया उसका सारा िीवन सुगजन्िि बन
गया। मुझे भी उस दिव्य सुगन्ि रूपी कृ पा का आश्रय जमला जिससे मेरा
यह साध्वी िीवन भी िन्य हो गया। िब से प्रवचन प्रभाजवका
कममयोजगनी महासाध्वी श्री सुनीिा िी महाराि के चरणों में िीक्षा ग्रहण
की है उनके मुखारजबन्ि से प्रायः स्वामी श्री रुप चन्ि िी महाराि के
िपोमय िीवन की गाथा श्रवण करने को जमलिी रही। उत्कण्ठा थी स्वयां
अनुभव करने की जचराजभलाषी पूणम हुई िब 30 िून 1997 को महाराि
श्री िी के समाजि स्थल िगराांवाां मे पहुाँचे। वहााँ का वािावरण मन को
मोहक लगने लगा िथा िीघामकालीन िपोनुष्ठान के जलए मन में एक िृढ़
सांकल्प पैिा हो गया और 2 िुलाई 1997 को सांकल्प ले जलया दक आने
वाले िीक्षात्सोव के पावन अवसर के पश्चाि ही पारणा करूाँगी। कै से हुआ?
दकसने प्रेरणा एवां शजि प्रिान की यह सब उस महान िपस्वी स्वामी श्री
रुप चन्ि िी महाराि की दिव्य प्रेरणा शजि के द्वारा ही िपोनुष्ठान सफल
हो पाया। अब भी उनकी कृ पा से ही सब कायम सम्पन्न हो रहे हैं। जििनी
उनकी आज्ञा होिी है उससे एक किम भी आगे नहीं बढ़िी। िो कु छ भी
आि हाँ गुरुिेव की कृ पा का प्रजिफल है। भजवष्य में भी ऐसी कृ पा िृजि
बनी रहेगी। यह मेरी अन्िरात्मा की आवि है। िब भी कोई पूछिा है दक
दकस की प्रेरणा से आप िपारिन कर रही हो ? मेरी आत्मा से वही

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आवाि मेरी अन्निान्ि आस्था के के न्र स्वामी श्री रुप चन्ि िी महाराि
की अपार कृ पा से।
गुरुिेव के पावन चरण सरोिों में प्रजिक्षण प्राथमना है दक आपकी ऐसी
कृ पा िृजि बनी रहे जिससे मेरा मन िप में लगा रहे। उत्तरोिर िपोमागम
पर बढ़िी रहाँ। आप का स्मरण करिी रहाँ 265 व्रिों का िप करना, मैं
स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकिी थी। यह दफर अल्प िीक्षायु में िप
करना कोई (सािारण बाि नहीं) आसान काम नहीं था। सब आपकी ही
कृ पा का प्रजिफल से सांभव हो पाया है।
आप मेरे प्रेरणा स्त्रोि हैं, आराध्य िेव हैं। मैं अपने महानिपस्वी
मुजनराि महापुरुष स्वामी श्री रुप चन्ि िी महाराि के चरणों मे
कोरटकोरट वन्िन, अजभनन्िन करिी श्रद्धाजन्वि होकर श्रद्धा सुमन
समर्पमि करिी हाँ।
साध्वी शुभ

हृियोद्गार
विुां गुणान गुण समुर शशाांक कान्िान्
कस्िे क्षमः सुर गुरू प्रजिमोùजपबुद्धध्या।।

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हे गुण सागर चन्रमा के समान कमनीय आपके गुणों का वणमन
बृहस्पजि के समान बुजद्ध-वैभव सम्पन्न व्यजि भी नहीं कर सकिा, दफर
मुझ में िो इिना सामथ्यम ही नहीं है।
िैन साजहत्य इिना जवशाल है दक इस की िुलना नहीं की िा सकिी।
पहले िो यह श्रुिज्ञान होिा था, दफर िब श्रुिेजन्रय क्षीण होने लगी िो
हमारे पूवम आचायम भगवन्िों ने इसे जलपी बद्ध दकया और लम्बा समय होने
के कारण हस्िजलजखि भी अजिक सुरजक्षि नहीं रहे। ऐसे अनेकों मुजनजषयों
का िीवन पररचय हमें नहीं जमलिा । इसी िरह महान िपस्वी वचनजसद्ध
पुरुष श्री रूप चन्ि िी महाराि का िीवन पररचय भी अनउपल्बि था।
प्रवचन प्रभाजवका साध्वी श्री सुनीिा िी महाराि ने अपनी अनथक
प्रयासों से कु छ सामग्री इकट्ठी कर के उसे एक पुजस्िका का रूप दिया। मेरा
उनसे पररचय िो बहुि पुराना है परन्िु मैं कु छ वेिनीय कमों से गुरु िशमनों
से वांजचि रहिा हाँ। अचानक बच्चों का समाजि स्थल िाने का जवचार बना
और मुझ से पूछा िो मैं भी िैयार हो गया। उसके पश्चाि साध्वी िी
महाराि के पावन िशमन करने का सौभाग्य जमला, िो मैंने स्वामी श्री रुप
चन्ि िी महाराि के िीवन पररचय के सम्बन्ि में िानकारी प्राप्त करने
की अजभलाषा प्रकट की िो उन्हों ने पुजस्िका थमा िी और कहा- दक अब
यह समाप्त हो चुकीं हैं। मैं ने कहा- आपकी आज्ञा हो िो मैं इसका नया
सांस्करण लैपटॉप पर करके ई-बुक लाईब्रेरी (ककां र्ल) पर र्ाल िू,ाँ उन्होंने
सहषम अनुमजि प्रिान की, मैं उनका आभार व्यि करिा हाँ।
िैन सन्ि चमत्कारी (िािूगर) नहीं होिे, उनकी सांयम, सािना ही कु छ
ऐसी घटना कर िेिी हैं जिसे हम चमत्कार मानिे हैं। आचायम मानिुांग को
बेजर्यों से झकडकर 48 कोठजडयों में बन्ि कर िाले लगा दिए गये,
शान्िमुरा में आदिनाथ का स्मरण करिे बेजडया टूट गई, दकवाड खुल गये।
ऐसे ही आचायम जसद्धसेन ने उज्जैन के महाकाल मजन्िर में प्रवेश दकया, िो
पुिाररयों ने िक्के दिए जपटाई की परन्िु उन को कु छ लग ही नहीं रहा था

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उन्होंने प्रभु पाश्वमनाथ का स्मरण करिे कल्याण मजन्िर की रचना की, दक
जशवहलांग फटकर भागवान पाश्वमनाथ की प्रजिमा स्थाजपि हो गई।
ऐसी ही एक घटना मुझे याि आ गई, दक एक बार परटयाला ररयास्ि
में िैन सन्ि इकजत्रि हो गये, उस समय वहााँ िैन स्थानक नहीं था छिे में
दकसी के मकान में ठहरे हुए थे, महारि श्री ियजन्ििास िी ने कु छ औषि
मलाई के साथ खाने को वैद्य ने कहा था, सायां िब आहार कर जलया िो
कसेरा चौंक में एक हलवाई की िूकान िो गमम िूि बेचिा था उसके पास
कु छ मलाई की याचना की, उसने एक ब़र्े बिमन में िो इकट्ठी की हुई थी
सारी उडेल िी, महाराि श्री ियजन्ििास िी ने कहा-अच्छा जिस भाव से
िी है, उसी भाव से िुम फलो-फू लो, आि वह पररवार अरबपजि है अनेकों
जमलों के माजलक हैं उसके पररवार ने इस समय िो िैन स्थानक है उन्हीं
का िान दिया हुआ है। स्थानक में आकर महाराि श्री िी ने सारी जमलाई
खा ली और आचायम श्री रिी राम िी से कहा- 90 दिन का पच्खान करा
िो, वहीं पर महान िपस्वी श्री रुपचन्ि िी महाराि ने कहा- महाराि
87 दिन का कल्प आएगा, िो सत्य जसद्ध हुआ। िीवनकाल में अनेकों
उपकार दकये होगें, कोई इजिहास उपलब्ि नहीं, दफर भी आि उनका
नाम स्मरण करने से कायम जसद्ध हो िािे है। िपसूयाम साध्वी श्री शुभ िी
महाराि प्रत्येक वषम लम्बी िपस्या रुपगुरु का ही आशीवामि है। महान
िपजस्वयों को मेरा कोरट-कोरट वन्िन नमन।
14.10.2020 स्विन्त्र िैन िलन्िर,लुजियाना
भूिपूवम महामन्त्री एस. एस. िैन सभा िालन्िर
एवां सांस्थापक महामन्त्री िैन कॉलोनी उपाश्रय सोसाईटी िालन्िर

श्री रुप चन्ि िी महाराि का कालियी व्यजित्व


भारि में पांिाब प्रान्ि का अपना ही इजिहास है। यहााँ के जनवासी
परम-वीर कि काठी से मज़बूि हैं। पांिाब प्रान्ि हर प्रकार से ऋजद्ध-

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समृजद्ध से पररपूणम है। यहााँ के खान-पान, रहन-सहन में समृद्धिा झलकिी
है। यहााँ के रीजि-ररवाि खासकर भांगडा बहुि ही प्रजसद्ध है और मन को
अल्हाि से भरने वाला है। यहााँ के नागररक िार्ममक हैं। पााँच निी होने के
कारण इस को पांिाब के नाम से पुकारा िािा है।
पांिाब प्रान्ि की एक बहुि प्रजसद्ध ररयास्ि है जिसको लोग
मालेरकोटला के नाम से पुकारिे है। सवमश्रेष्ठ पथ प्रिशमक िैन ऋजष,
कु लभूषण पूज्य श्री स्वामी रुप चन्ि िी महाराि के जपिा लाला
अमोलकराय िी ररयास्ि मालेरकोटला के ही जनवासी थे और ओसवाल
िाजि के भाबू गोत्र थे। अपने सि् व्यवहार से चहाँ ओर इनका नाम था।
प्रचीन काल से ही यह पररवार अटल प्रिाप और श्रेष्ठिा के कारण प्रख्याि
था। आप मालेरकोटला के सुप्रजसद्ध व्यापारी थे। बहुि बडा कारोबार था।
भाग्य अनुकूल होने से वाजणज्य व्यापार में जनरन्िर अजभवृजद्ध हो रही थी।
आपका जववाह लुजियाना जनवासी ओसवाल िाजि के रत्न माननीय लाला
छज्जूराम िी के पुत्र श्री गट्टूमल िी की सपुत्री श्री मजि मांगला िेवी के
साथ हुआ िो बहुि ही िममजनष्ठ, पजिव्रिा और सुशीला थी। साजत्वकिा,
मानव सेवा व लोक सेवा आदि उनके जवशेष गुण थे। वह शाांि, सौम्य और
क्षमा की मूर्िम थी। आप बडी साच्चररत्रा, सरल-हृिय और गृहस्थ कायों में
पूणमिया िक्ष थी। जनयजमि िार्ममक िीवन चयाम का जनवामह आपका
एकमात्र आिशम था।
सवम श्रेष्ठ पथ प्रिशमक, अटल प्रिीज्ञा, सांयम व्रििारी सम्यग् िशी
त्यागमूर्िम श्री रुप चन्ि िी महाराि का िन्म 1868 में माघ कृ ष्ण पक्ष
की िशमी के दिन हुआ। वह दिव्य मनमोहक मूर्िम चन्रमा िुल्य
प्रकाशमान थी। आजत्मक पजवत्रिा, हृिय की स्वच्छिा, मन-वचन कमम की
सत्यिा और जनममल आत्म िृजि, िमम परायण िनिा की आप पिवार बने।
आपका िन्म अपने नजनहाल में अपने नाना लाला गट्टू मल िी के घर
लुजियाना में हुआ। एक ऐसी पुण्य ज्योजि का आजवभावम हुआ जिसके

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उज्जवल प्रकाश की िैिीप्यमान पजवत्र दकरणें चहुां ओर प्रसाररि हुईं और
वह सांसार में भटकने वाले याजत्रयों के जलए प्रकाश स्िम्भ बन गई। वह
दिव्य मनमोहक मूर्िम सूयम समान प्रकाशमान शीिल स्वरूप यथा नाम
िथा गुण श्री रुप चन्ि िी थे।
मालेर कोटला का गौरव
वैशाख सम्वि् 1869 जवक्रमी में होनहार बालक अपनी मािा के साथ
मालेरकोटला में लाए गये।
इस प्रचीन नगरी को ऐसे महापुरुषों की िन्म भूजम होने का सौभाग्य
प्राप्त हुआ। जिन्हों ने िार्ममक और आत्मवेिा सांसार में अपनी जवद्विा और
आत्मोन्नजि की िूम मचाकर युगान्िर उपजस्थि दकये हैं ।
व्याख्यान –वाचस्पजि िैन रत्न श्री स्वामी परमानन्ि िी का पजवत्र
िन्म स्थान और श्री जबहारी लाल िी महाराि की िन्म भूजम होने का
सौभाग्य इसी मालेरकोटला को प्राप्त है। पूज्यपाि िैन रत्न श्री स्वामी रुप
चन्ि िी महाराि का पालन-पोषण भी यहीं पर हुआ था। श्री स्वामी
वृषभान िी का िन्म स्थान भी यही है।
इन पजवत्रात्माओं और स्वनाम-िन्य महापुरुष के प्रािः स्मरणीय कथा
और िगि-उद्धारक पुण्य कृ त्यों के साथ-साथ मालेरकोटला का नाम भी
अमर रहेगा।
भजवष्यवाणी
िैवयोग से इसी वषम िैनाचायम पूज्य श्री इन्रचन्र िी महाराि िपेवाले
स्थानक में जवरािमान थे। िमम-प्रेम िथा भजिभाव से प्रेररि होकर लाला
आमोलकराय िी और श्री मांगला िेवी िी बालक रुप चन्ि को लेकर
िशमनाथम स्थानक में आए। सजवनय वन्िना के पश्चाि् महाराि श्री िी के
िशमन दकये। आचायम श्री िी की िृजि िब बालक पर पडी िो उसके
उज्जवल भजवष्य की ओर सांकेि करिे हुए उन्होंने कहा-

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यह बालक िेिस्वी और िामामत्मा होगा। इसका भजवष्य बहुि उज्जवल
है और इसकी कीर्िम चन्र-दकरणें के समान चारों ओर फै लेंगी और यह पूणम
यौवन में सांयम िारण कर अपने सांयम का पराक्रम प्रिर्शमि करेगा।
मािा-जपिा ने आचायम श्री की भजवष्यवाणी सुनी िो बालक का
उज्जवल भजवष्य िानकर आनन्ि-जनमग्न होकर घर लौटे परन्िु बालक के
त्यागी, वैरागी और सांयमी भजवष्य िानकर कु छ िेर के जलए उन्हें गहरे
सोच-जवचार के सागर में जनमग्न कर दिया। इकलौिे पुत्र के सांयमी बन
िाने की कल्पना से उनका मन जवचजलि एवां जवक्षुब्ि भी हो उठिा था।
अनूठा चमत्कार
आचायम जशरोमजण पूज्य श्री रजिराम िी महाराि िैन समाि के
जवख्याि विा और जसद्ध-हस्ि लेखक थे। आप आत्मानुभाव और ज्ञान के
कोष थे। आत्म-सांयम इजन्रय जनग्रह और समत्व की सािना के आिशम द्वारा
उन्होंने अपने िीवनकाल में अनेकों अद्धभुि चमत्कार प्रिर्शमि दकये।
सम्वि् 1897 जवक्रमी में मालेरकोटला में िरटि होने वाली
जनम्नजलजखि चमत्कारी घटना जवशेष रूप से उल्लेखनीय है।
कार्िमक शुक्ला जत्रयोिशी को आचायम श्री िी के शरीर को कि हुआ।
कममगजि की यह यािना शरीरक िुःख का कारण िो थी ही, दकन्िु िनिा
को भी इसने जवजस्मि कर दिया। उनके शरीर से इिनी िुगमन्ि आिी थी
दक सेवा करना िो क्या समीप बैठना भी करठन प्रिीि होने लगा।
शारीरक परमाणु अपने स्वभाव के अनुसार गलने-सडने और नि होने
लगे। सवमसािारण िनिा में आपकी इस जचन्िािनक अवस्था की
घृणास्पि चचाम होने लगी। आपकी महानिा और श्रेष्ठिम िपस्वी व्यजित्व
के िृजिकोण से इस प्रकार वेिनायुि िुस्साह क्लेश लोगों के जलए अचम्भे
में र्ालने वाली एक पहेली बन गई। कमम गजि और परमाणु का स्वभाव
िोनों साक्षाि् रूप से िृजिगोचर होने लगे, परन्िु अनजभज्ञ जवरोजियों ने

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िैन िमम की जनन्िा करनी आरम्भ कर िी और यह बाि इिनी बढ़ी दक
कु छ िेर के जलए िैन िमामजवलजम्बयों की भी श्रद्धा र्ाांवार्ोल होने लगी।
आत्म-जवश्वासी और कमम-गजि के ज्ञािा महार्षम ने यह अनुभव करिे ही
आत्म-जसजद्ध का स्पि रूप से पररचय दिया। जवकृ जि भाव को िारण दकये
हुए शरीर के परमाणु और ही रांग मे पररवर्िमि हो गये। िुगमन्ि-सुगन्ि मे
बिल गई। चारों ओर वािावरण महकने लगा। आपका यह चमत्कार िेख
कर िम्भानुयायी द्वेषी िल स्वयांमेव िममपरायण बन गया और िमम -प्रेमी
सज्जनों िथा श्रद्धालुओं के जलए । यह समयानुकूल चमत्कार आनन्ि
प्रिायक िथा श्रद्धा-विमक जसद्ध हुआ।
कोटला के सूबा खान साजहब बहािुर इसी मागम से जनकले और िैन
उपाश्रय से आनेवाली सुगन्ि ने आपको आकृ ि दकया। वे जवजस्मि होकर
पूछने लगे दक यह सुगन्ि कहााँ से आ रही है? उपजस्थि सज्जनों ने िब
उपरोि चमत्कार का वणमन दकया िो खान साजहब अत्यन्ि प्रभाजवि हुए
और िशमन लाभ के जलए स्थानक में पिारे। िशमन दकया और सूजचि घटना
को यथावि पािे ही श्रद्धा से उनका मस्िक मुजन चरणों में झुक गया।
उन्होंने मुजनराि के उपिेशों से प्रेररि होकर अपनी राििानी में सब
प्रकार की िीव-हहांसा पर रोक लगा िी। इस अद्धभुि घटना की चचाम चारों
ओर फै ल गई और िैन िमम अजिक लोकजप्रय हो गया।
बाल्यकाल और जवद्याभ्यास
आपके बचपन के सम्बन्ि में बहुि ऐसी घटनाएाँ है िो प्रकाश में नहीं
आ सकी हों,कारण दक इनके इजिहाजसक महत्व के सहयोगी लेखक गण
समय पर न समझ सके .। गद्य और पद्य के थोडे से पृि हमें छानबीन और
अन्वेषण के पश्चाि् एक प्राचीन पुस्िकालय से प्राप्त हुए हैं। उनसे पिा
चलिा है दक आपका बाल्यकाल बडा गम्भीर और प्रशान्ि अवस्था में
बीिा है। साांसाररक सुख-सम्पजि और सन्िोष के साथ आपकी जवद्विा िथा
मानजसक िेि का उज्जवल, लाभिायक और सद्भाव से पररपूणम होना

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स्वाभाजवक था। िमम-परायणा मािा-जपिा श्री मांगला िेवी की िेख-रेख में
पाजलि होने वाले रुप चन्ि िी का शान्ि एवां गम्भीर बनना अजनवायम था।
आपका बाल्यकाल मािा की प्राथमना, जपिा का शुभाशीवामि, सम्बजन्ियों
का प्रेमानुराग और मुजनवयों का सत्सांग में जनरन्िर जवकजसि हो रहा था।
यहााँ यह बाि बिाना भी आवश्यक है दक सूक्ष्म जववेक और सरल
स्वभाव आपके िीवन का अांग वन चुके थे। आप सन्िों के समक्ष अपनी
मािुयम भरी िोिली जिव्हा से सांदिग्ि िरटल आध्याजत्मक समस्याओं का
समािान सुझाने के जलए प्रबल अनुरोि दकया करिे थे और िब िक
सन्िुि न होिे, पूछिे ही िािे थे। ित्व ज्ञान प्राप्त करने में आपकी रुजच
थी। इसी कारण आपकी जवद्वत्ता और योग्यिा सम-सामाजयक और
सहयोगी जवद्वानों िथा पजण्र्िों के बीच आिरमान और श्रद्धा का पात्र बन
गई।
साि वषम की आयु में आपको स्थानीय पाठशाला में जवद्या-अभ्यास के
जलए भेिा गया। थोडे ही समय में आपने जहन्िी में जलखने-पढ़ने का
अभ्यास कर जलया। साांसाररक जवद्या के साथ-साथ िार्ममक जवद्या का बोि
मािा िी करािी ही रही। स्वाध्याय की मनोवृजत्त भी जवद्याभ्यास में
सहयोगी और सहायक हुई। गजणि जवद्या को आपने इिना शीघ्र समझ
जलया दक जशक्षक-गण आपको असािरण प्रजिभा से चदकि रह गये।
गुरुिेव श्री नन्ि लाल िी महाराि
पुज्य श्री रिीराम िी महाराि की सन्ि परम्परा के दिव्य रत्न कजववर
व्याख्यान-वाचस्पजि जवख्याि सन्ि श्री पूज्यपाि स्वामी नन्िलाल िी
महाराि काश्मीरी पजण्र्ि थे। सम्वि् 1861 में 18 वषम की आयु में
ररयासि दकशनगढ़ में वे िीजक्षि हुए थे। आप वेिों एवां पुराणों के बहुि
बडे ज्ञािा थे। िैन-सूत्रों की जशक्षा और उनके स्वाध्याय ने सोने में सुगन्ि
का काम दकया। आप ज्योजिष-शास्त्र की, गजणि-फजलि जवषयक िोनों के
जवद्याओं मे जनपुण और शास्त्र-जविेयिा महारथी थे। आप फारसी के भी

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अच्छे जवद्वान थे। आपकी भव्य मूर्िम जििनी मनोहर और ओिस्वी थी,
उिने ही आपके उपिेश भी ित्त्वपूणम वैज्ञाजनक और प्रभावशाली होिे थे।
आपकी अजद्विीय लेखनशैली द्वारा राष्ट्रभाषा जहन्िी में अनेकों जचर-स्थायी
ग्रन्थों का जनमामण दकया। जिनमें से-
(1) अिुमन माली का चौढ़ाजलया सम्वि 1870 में
(2) रूक्मजण रास, छन्ि सांख्या 325 सम्वि् 1876 होजशयारपुर
(3) पारस पुराण, छन्ि सांख्या 325 सम्वि् 1870 नारोवाल में
(4) बावनी छन्ि सांख्या 55 सम्वि् 1896 सुनाम नगर में
(5) गौिम पृच्छा छन्ि सांख्या 215 सम्वि् 1898 सुनाम नगर में
(6) लजब्ि प्रकाश छन्ि सांख्या 1445 सम्विे 1903 कपूरथला में
(7) ज्ञान-प्रकाश छन्ि सांख्या लगभग 800 सम्वि् 1906 कपूरथला में
(8) समगि िमम
(9) रामायण रास
(10) जमथ्यािकां िली
(11) अगड बम्ब की कथा इत्यादि अनेकों पुस्िकें आपकी
जसद्धहस्ि लेखनी द्वारा प्रकाजशि हुई। इनके अजिररि अगजणि
कजविाएां आपकी साजहत्य सम्बन्िी
पूज्य श्री िी के रचे हुए सब ग्रन्थों का जववरण नहीं जलखा िा
सकिा, क्योंदक कपूरथला शास्त्रभांर्ार में से अनेकों ग्रन्थ रत्न
जनकाल जलए गये थे।
सवममान्य योग्यिा की साक्षाि प्रमाण है और सहस्त्रों सहृिय नर-
नाररयों को िमम और सेवा का उपिेश िेकर आत्म-सन्िोष िथा
शाजन्ि प्रिान की।
श्री रुपचन्ि िी ने जनयजमि प्रारजम्भक जशक्षा आप से ही प्राप्त की।
गुरुिेव िी के अनुकरणीय सिाचार का आज्ञाकारी जवद्याथी के सरल हृिय
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पर अत्याजिक प्रभाव अांदकि हुआ और आगामी िीवन में इनके प्रिाप से
उनका िीवन पूणम आनान्िमय और आत्मा पजवत्र होिी गई।
सम्वि् 1880 में आपकी प्रारजम्भक जशक्षा समाप्त हुई। सामाजयक,
प्रजिक्रमण, थोकडे कण्ठस्ि हो गये।
सम्वि् 1881 में आप अपने जपिा के व्यापार में सहयोग िेने लगे।
िो वषों मे ही आपने व्यापाररक रहस्य और काम काि के रांग-ढ़ांग की पूरी
िानकारी प्राप्त कर ली।
अटल भीष्म प्रजिज्ञा
सम्वि् 1883 में लोकमान्य िैन रत्न स्वामी श्री रामलाल िी
महाराि मालेरकोटला में पिारे. आपके उपिेश िथा व्याख्यान
जवद्विा,दक्रयासम्पन्निा,जनयमानुकूल, सांयम की भावनाओं से
पररपूणम,मममस्पशी िथा प्रभावशाली थे। वे जिस वाि-जववाि अथवा
समस्या का जनणमय करने लगिे उसको श्रोिाओं के हृियपटल पर अांदकि
कर िेिे थे। प्रभावशील व्याख्यान की कला में आप अपनी समिा में रखिे
थे। एक दिन “वनस्पजि काय” के महत्वपूणम जवषय पर व्याख्यान िेिे हुए
आप ने कहाः-
“वनस्पजि” में भी िीवन है, प्रत्येक िीव-िन्िु की िरह इसमें भी
चेिना है। यह भी सुख-िुःख का अनुभव करिी हैं, इसले वनस्पजि काय
की रक्षा करना प्रत्येक प्राणी का परम कत्तमव्य है।
श्रोिाओं ने प्रभाजवि होकर ित्काल प्रिीज्ञा दक की वह आि वनस्पजि
नहीं खायेंगे। इस प्रिीज्ञा करने वालों मे श्री रुप चन्ि िथा उन के जपिा िी
भी उपजस्थि थे। व्याख्यान समाप्त होने पर श्रोिागण अपने-अपने
व्यवसाय में जनमग्न हो गये। त्याग मूर्िम श्री रुप चन्ि िी भी अपनी िुकान
पर चले गये।
उन दिनों काबूल से कु छ अफगान व्यापारी मलेरकोटला में आए
हुए थे। लाला अमोलक राय की िुकान पर प्रायः वजणज्य व्यापार के
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सम्बन्ि में उनका आना-िाना था। उन्होंने कजिपय फल लाला िी को भेंट
दकये। रुप चन्ि भी समीप ही थे, उन को भी िो सेब िे दिये। अफगान िो
यह कह कर सुनाम से लौट कर व्यापाररक लेन-िेन करेंगे। प्रस्थान के
प्राथी हुए और लाला िी ने जमठाई भेंट करके उन्हें यथोजचि सत्कार से
जविा दकया। ित्पश्चाि् लाला िी ने रुप चन्ि को चाकू िे कर कहा-“ लो
बेटा सेव खाओ...........” यह सुनिे ही रुपचन्ि िी जवजस्मि हुए दक
सत्यवािी अटल-प्रजिज्ञा व्यापारी जपिा िी यह क्या कह रहे हैं? आपने
िुरन्ि जनवेिन दकया-“जपिा िी ! आपने कल ही िो वनस्पजि काय के
त्याग का जनयम जलया था, फल खाने के जलए आप दकस िरह कह रहे हैं?
” जपिा िी ने समझािे हुए कहा-“बेटा! वह त्याग िो के वल एक दिन का
था।’ भावी महापुरुष रुपचन्ि ने शांका समािान के आशय से प्रश्न दकया-
“जपिा िी! िो वस्िु आि बुरी है, क्या वह कल अच्छी हो सकिी है। िो
वस्िु बुरी है वह सिा ही बुरी रहेगी, इसजलए बुराई का पररत्याग करके
पुनः उसको ग्रहण करना दकसी प्रकार भी उजचि नहीं। में िो िीवन पयमन्ि
वनस्पजि काय की रक्षा करूाँगा। आत्म सांयम और त्याग की इिनी िृढ़िा
िेख कर जपिा िी बडे जचजन्िि हुए और उन्हें इस करठनाई का एकमात्र
उपाय यही सूझा दक रुपचन्ि को गृहस्थ आश्रम के प्रेम-पाश में र्ाल कर
उसका सांसार और पररवार से स्थायी सम्बन्ि स्थाजपि कर दिया िाये ।”
सम्वि् 1885 में त्यागमूर्िम महर्षम श्री रामलाल िी महाराि
लुजियाना पिारे। वजणज्य-व्यापार के सम्बन्ि में रुपचन्ि भी लुजियाना
आए हुए थे। महात्मा िी ने अपने ज्ञानोपिेश और विृ िाओं के कारण
िगि-जवख्याि हो चुके थे। व्यवाहाररक िार्ममक िीवन ने आपको अजिक
लोकजप्रय बना दिया था। आपकी जवद्वत्ता का लोहा सभी मानिे थे। अपके
व्यजित्व में अजद्विीय आकषमण शजि थी। आत्म, कमम, ईश्वर और िगि
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िैसे उलझे हुए प्रश्नों और करठन शास्त्रीय समस्याओ को भी आप ने
अनुभव और िक्षिा के स्पशम मात्र से अत्यन्ि सरल, सािारण और िैजनक
िीवन की बाि बना िेिे थे। इनकी सरलिा मे साजत्वक आनन्ि की ऐसी
लहर थी जिसके कारण जिज्ञासुओं के हृिय में अनन्ि उत्सुकिा िागृि हो
िािी थी। आपका प्रत्येक वाक्य एक जनबन्ि के समान महत्वपूणम होिा था
और गम्भीर जवषय की एक-एक वाक्य में पूणम रूप से व्याख्या कर िेिे थे।
आपकी इस जवद्वत्ता ने िनिा पर अपना जवशेष प्रभाव िमाया । जनसन्िेह
आप अनेक भूले-भटके मनुष्यों के जलए सच्चे पथ प्रिशमक थे। श्री रुपचन्ि
िी आपके उपिेशों से बहुि प्रभाजवि हुए। उनकी प्रकृ जि का झुकाव
ित्त्वजववेचन और िममजनष्ठा की ओर था ही, महात्मा के िीवन में साजत्वक
ज्ञान और िमम की सच्ची झलक िृजिगोचर हुई िो उन्होंने भी उनके
अनुगामी होकर स्वयां भी िपोमय सत्य मागम पर चलने का जनश्चय कर
जलया और मन ही मन में उस पुण्य दिवस की कल्पना करने लगे दक
उनका जनश्चय दक्रयात्मक रूप िारण करेगा।
आत्मोन्नजि की ओर बढ़िे किम
हृिय की पजवत्रिा का इससे अजिक प्रमाण और क्या हो सकिा है दक
श्री रुपचन्ि िी महात्माओं से उपिेश सुनिे,उन्हें अपनी दिनचयाम में
चररिाथम करके आत्मोन्नजि में एक पग और आगे बढ़ िािे। साांसाररक
काम-िन्िे में िो थोडा-बहुि अनुराग था उसे छोडने लगे। सत्य की
जिज्ञासा और भी प्रबल होने लगी। स्वाभाजवक सरलिा और जवरोजचि
अभय िीवन व्यिीि करिे उन्हें अनुभव हुआ दक साांसाररक यश और
कीर्िम प्राप्त करने के अजिररि मनुष्य का कु छ और लक्ष्य भी है। यह
प्रजसजद्ध और लोकजप्रयिा के वल दिखावा मात्र है। अिः हमें िीवन का
वास्िजवक लक्ष्य की उपलजब्ि के जलऱ प्रयत्नशील हो िाना चाजहए। आय
व्यय, पठन-पाठन, कलाकौशल,जवज्ञान व्यवसाय िथा श्रम िीजवका से
िनोपािमन की िौड-िूप और सुख-िुःख के वल िीवन का झांझट है। मृत्यु के

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बाि यह सब जनरथमक जसद्ध होंगे। मृत्यु के समय इन में से कोई सहायक
नहीं हो सकिा। अिः हमें भजवष्य के नव-िीवन को सफल बनाने के जलए
उस अगामी िीवन यात्रा के जलए पुण्य-सामग्री एकजत्रि करनी चाजहए,
अथामि् जनयजमि िीवन के सब िमम-क्षेत्र में प्रवेश करके सांयमी िीवन
बनाना चाजहए।
लोकजहि के मागम में बािाएां
सम्वि् 1888 में िेश की जनिमनिा और मनुष्य िीवन की
अनगजणि आवश्यकिाओं िथा िन-िाम के कलह-क्लेश, िार्ममक
ज्योजि से जवमुख िनसािारण के सांकुरठि व्यवहार, परस्पर
साम्प्रिाजयक द्वेष. मनोमाजलन्य, जमत्रों के स्वेच्छाचार और जवद्वानों
की आत्म श्लाघा को िेखकर उनके हृिय में सेवा-भाव और िममभाव-
िन्य प्रेम की अत्यन्ि प्रबल िरां गें उत्पन्न हुई िेश एवां समाि की
उन्नजि के जलए जचजन्िि रहने लगे। अपने समय में सबसे पहला
अत्याचार िुराचार िथा िासिा की मनोवृजद्ध के जवरुद्ध आपने ही
भारी अन्िोलन आरम्भ दकया। जनि सम्बजन्ियों में आपके नवीन
सुिारक जवचारों के प्रजि भी बडे ले िे हुई। प्राचीनिा के उपासक
और प्रत्येक नयी बाि को सन्िेहस्पि बनाने वाले लोग आपके कट्टर
जवरोिी बन गये। पग-पग पर सुिार और लोकजहि के मागम में
बािाएां र्ालने लगे। अपने इस उत्साह को अटल और यथावि प्रबल
रखने के जलए श्री रुपचन्ि िी ने अपने त्यागी गुरुिेव की शरण ली।
अन्याय के जवरुद्ध सांग्राम
श्री स्वामी रामलाल िी महाराि के उपिेशों में श्री रुपचन्ि को बहुि
श्रद्धा थी। उन्हों की प्रेरणा से वह अनन्ि उत्साह व अखांर् ब्रह्मचयम का व्रि
लेकर कायम-क्षोत्र में कू ि पडे। आपको साजत्वक उद्देश्य और युजियुि
जवचारों का जििना जवरोि हुआ उिना ही उनका उत्साह में अटल

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जवश्वास िृढ़ होिा गया। महर्षम रामलाल िी के उपिेश आपके इस
क्राजन्िकारी िीवन में अमृि वषाम के समान प्रेरणाप्रि जसद्ध हुए। नवीन
जवचारों के जवरोिी मठािीशों ने उनके उपर झूठे अजभयोग लगाए, मन
घडन्ि कृ जत्रम समाचार फै लाए और जबरािरी से बजहष्कार की िमदकयों
के साथ लगे हाथ यह उपहास-प्रि जवज्ञजप्त भी प्रकाजशि कर िी दक िुरन्ि
क्षमा प्राथी होने पर उन्हें क्षमा भी दकया िा सकिा है।
परन्िु श्री रुपचन्िलिी िब िुकानिार नहीं थे, िो उनकी
जवर्म्बना और िमदकयों से भयभीि हो िािे, अथवा िमदकयों से झुक
िािे। गुरु िी की कृ पा से इनमें महानशजि, सद्धव्वहार, उिारिा िथा
अत्याचाररयों को क्षमा करने की क्षमिा आ चुकी थी। सत्य की रक्षा के
जलए बडे-बडे त्याग भी उनके जलए सामान्य सी बाि थी। वास्िव में सत्य
और अन्याय के जवरुद्ध घोर-सांग्राम करना भी अपना िन्म जसद्ध अजिकार
समझिे थे।
वैराग्य की र्गर पर
आचायम श्री नन्िलाल िी महाराि सम्वि् 1888 के अन्ि में
पुनः मालेरकोटला आए। इस समय िक श्री रुपचन्ि िी का अन्िकरण
वैराग्य से पररपूणम हो चुका था। उन्होंने गुरुचरणों में उपजस्थि होकर
प्राथमना की-“ महाराि! आहार लाने के जलए सेवक के घर पिाररये।’
महाराि िी ने अनुमजि िेिे हुए कहा-‘ अच्छा सहयोगी मुजन िांगल से
िावें िो चलने का अवसर िेखा िाएगा।’ आपने पुनः पूछा-‘ आप क्यों
नहीं चलिे, हमारा घर जनकट ही िो है।’
महाराि श्री िी ने कहा-’ अत्यन्ि आवश्यकिा के जबना एक ब्रह्मचारी
िैन सािु अके ले गृहजस्थयों के घर िाना शोभा नहीं िेिा।’

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महाराि श्री िी ने ब्रह्मचयम व्रि का अत्यन्ि सह-गर्भमि व्याख्या की।
जवषय मनोहर था और व्याख्या की शैली रोचक थी। श्री रुपचन्ि के
अन्िःकरण पर ब्रह्मचयम का महत्त्व अांदकि हो गया। बालब्रह्मचारी गुरु के
समक्ष, आपने आिीवन ब्रह्मचयम-पालन की भीष्म प्रिीज्ञा कर ली और इस
व्रि को सिैव जनभाने के जलए िुग्ि और राजत्र भोिन का पररत्याग कर
दिया।
िब यह समाचार मािा-जपिा को जमला िो उन्हें जचन्िा हुई। वे सोचने
लगे दक रुपचन्ि के सािु बन िाने से घर का द्वार ही बन्ि हो िाएगा।
अिः जचन्िाग्रस्ि मािा-जपिा को इस अपजि से बचने का एकमात्र उपाय
सूझा- दक इसका िुरन्ि जववाह कर दिया िाये। वे अपनी योिना को
कायमजन्वि करने की िुन में लग गये।
ब्रह्मचयम की जविय
सम्वि् 1890 में मािा जपिा ने जववाहोत्सव रचाने का जनश्चय
दकया। एक दिन इस शुभ सांकल्प का समाचार मािा-जपिा ने आपको
दिया। वस्िुिः श्री रुपचन्ि िी के जलए यह बहुि भारी उलझन थी।
उन्होंने सोचा दक ब्रह्मचारी व्रि में जववाह के बांिन में कै से बांि कर
स्वीकार कर सकिा है? आज्ञाकारी पुत्र के जलए बडे,बूढ़ों की आज्ञा
का पालन करने के जलए जनि कृ त्तव्य समझिा था। इन िो जवरोिी
जवचारों ने आपको उलझन में र्ाल दिया। बडे िेर िक ित्तजचत्त
होकर इस समस्या का प्रयास करिे रहे। अटल ब्रह्मचयम प्रिीज्ञा और
मािा-जपिा की आज्ञा के पालन में दकस का पररत्याग करें और दकस
को अपनाएाँ ? अन्ि में ब्रह्मियम की जविय हुई और उनके मन में सािु
बन िाने की प्रबल उत्कण्ठा उत्पन्न होने लगी। प्रत्येक पल इसी िुन
में बीिने लगा। प्रजिक्रमण सीखा िो मािा-जपिा का सन्िेह और भी
अजिक हो गया। इिर मािा-जपिा ने जववाह िेने की ठानी हुई थी।
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पुत्र और पुत्रविु के कपडे लत्ते का चुनाव और आरजम्भक िैयाररयााँ
िूम-िाम से हो रही थी इिर पुत्र को शीघ्राजिशीघ्र सािु बन िाने
का िृढ़ जनश्चय होने लगा। अन्िस् का जववेक-भूजम मे अद्धभुि
खींचािानी और जवरोिी प्रयत्नों का िमघट हो गया।
अटल-प्रिीज्ञा, सांयम-व्रििारी,सम्यग्िशी त्यागमूर्िम श्री रुपचन्ि
िी प्रािः-सायां िमम ध्यान में लीन रहने लगे। सामाजयक, प्रजिक्रमण,
शास्त्राध्ययन और आत्म-हचांिन से उन्हें िजनक भी अवकाश न
जमलिा। दिन में के वल एक बार भोिन करके शेष समस्ि समय
आध्याजत्मक जवषयों के श्रवण, मनन, जनदिध्यासन करिे हुए मूल
ित्वाथम को कण्ठस्थ करने में व्यिीि थे। िमम-प्रेमी मािा-जपिा िब
इस प्रकार सांसार से उिासीन और समाजिस्थ िेखिे िो जचन्िा में र्ू ब
िािे। आचायम श्री रिीराम िी महाराि की भजवष्यवाणी का स्मरण
करके िब वे भजवष्य की कल्पना करिे िो उनके नेत्रों के सन्मुख पुत्र
के सािु-िीवन का जचत्र अांदकि होकर उन्हें जवह्वल कर िेिा और
मािा-जपिा स्नेह पूररि प्रेम में आकर करुणा भरे प्यार से कहिे-
“ रुपा! गृहजस्थयों के जलए इिना त्याग अथवा वैराग्य अच्छा नहीं
होिा। इस प्रकार साांसाररक िन्िे कभी नहीं चल सकिे।”
िूसरी ओर गुरुिेव और िमम के प्रजि पुत्र के जनममल-अनन्य अगाि
प्रेम को िेखिे ही मािा-जपिा के नेत्रों में आलौदकक दिव्य ज्योजि सी
आ िािी थी। लेदकन िूसरी ओर पुत्र का वैराग्य िारण और उसके
जवयोग की अनुभूजि मािा-जपिा के हृिय को पीडा से भर िेिी थी।
कभी अनुरोि करिे, कभी स्वयां ही क्षमा कर िेिे। इस प्रकार िोनों
ओर प्रजिद्वन्िी जवचारों के भयांकर सांघषम हो रहा था। एक दिन माां ने
पुत्र को समझािे हुए उसके समक्ष उसे जववाजहि िेखने की इच्छा
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प्रकट की िो वे बोले-“माां! मैं अिीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रिीज्ञा कर
चुका हाँ, अिः जववाह के जलए क्षमा चाहिा हाँ, िान बूझकर पुत्र को
भाड में क्यों झोंकना चाहिे हो ?”
माां ने बहुि समझाया, जपिा ने अनेक प्रलोभन दिये, परन्िु कमल
के पत्र पर पानीकी बूाँि कहााँ ठहर सकिी थी ? भीष्म प्रजिज्ञा को
कौन भांग कर सकिा था ? जहमालय की िृढ़िा को कौन चुनौजि िे
सकिा था ?
सािना का राज्यमागम
लाला अमोलक राय िी के इस इकलौिी सन्िान और एकमात्र
कन्या जशब्बा के अजिररि साांसाररक िीवन में िीसरा कोई आश्रय
नहीं था। अिः असहाय और बेबसी की सिीव प्रजिमा मािा-जपिा
की जस्थजि इस मानजसक सांघषम में अथाह सागर में र्ू बिे हुए िीन-
िुःखी नाजवक के समान थी । मािा के कोमल हृिय में साांसाररक
उन्नजि और िार्ममक उन्नजि का द्वन्ि होने लगा। जवचारों का समुर
उमड पडा। कभी साांसाररक भलाई और कभी यश कीर्िम के जवचारों
की िरां गें उठिी और िगि प्रजसजद्ध के महान सागर में िा जगरिी,
कभी िमम उपकार और सेवा का उत्साह उत्पन्न होिा और साांसाररक
उन्नजि स्वरूपी जहमालय पवमि को िृण के सिृश उडा ले िािा। अन्ि
में पुत्र का पररपूणम युजियुि बािों से सन्मुख वृद्ध मािा-जपिा की
युजियाां जनबमल जसद्ध हुई। अजवनाशी सत्य और एकाग्रिा के
जनयमानुसार िीवन व्यिीि करने वाले बालक के सन्मुख सांसार के
क्षण-भांगुर यश-वैभव ठहर न सके । मािा-जपिा ने कहा-“रुप! हम
आप को सत्यजनष्ठा के मागम में बािा र्ालना नहीं चाहिे, परन्िु कु छ
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समय और हमारे जनकट रह कर स्वाध्याय, योगाभ्यास और शास्त्रों
का अध्ययन करो, आपके पजवत्र िीवन की दिव्य-ज्योजि हमारे कु ल
को पजवत्र करे गी। दफर हम जनजश्चन्ि होकर प्रसन्निापूवमक आपके
सांयमी बनने में वास्िजवक सहायिा भी कर सकें गे।”
रुपचन्ि ने सािर प्रणाम करके स्वीकृ जि िेिे हुए जनवेिन दकया-
“पूज्य मािा-जपिा की आज्ञा का सिैव सप्रेम और सािर पालन करना
मेरा कृ त्तव्य है, इसजलए मैं आपके आिेशानुसार ही कायम करूाँगा,
परन्िु घर के काम-काि के प्रजि मेरी उिासीनिा के जलए आप मुझे
क्षमा-प्रिान करने की कृ पा करें गे ही।”
सम्वि् 1888 में पूज्य आचायम श्री रिीराम िी महाराि का
चािुमामस मालेरकोटला में हुआ। उस समय व्याख्यान वाचस्पजि कजव
श्री नन्िलाल िी महाराि अपने मिुर व्याख्यानों द्वारा अमृि-वषाम
दकया करिे थे। श्रोिागण बडी सांख्या में आिे और आपके पजवत्र
वाणी से अपने हृियों को पजवत्र करिे थे।
आध्याजत्मकिा के रािमागम पर
श्री रुपचन्ि िी के जलए ये व्याख्यान अत्यन्ि प्रभावशाली व दिशा
िेने वाले जसद्ध हुए। स्वणम िो थे ही अब कु न्िन बन गये। श्री रुपचन्ि
िी को इस चािुमामस में शास्त्रों का स्वाध्याय का उत्तमोत्तम अवसर
प्राप्त हुआ। िशवैकाजलक, उत्तराध्ययन सूत्र, प्रवचन-सार इत्यादि
अनेक ग्रन्थों का आप ने अध्ययन दकया। महाराि श्री नन्िलाल िी
िैसे आिशम महा-मुजन से जवद्या-लाभ लेकर श्री रुपचन्ि िी िीवन के
उस मोड पर आ खडे हुए िहााँ से आध्याजत्मकिा का राज्य मागम
आरम्भ होिा है।

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पूज्य श्री रिीराम िी महाराि जवहार करके बडोिा की ओर िाने
लगे, श्री रुपचन्ि िी इस अवसर का पूणम लाभ उठाना चाहिे थे।
आचायम िी के सत्य िमोपिेश उनके हृिय की आध्याजत्मक मस्िी की
पूणमिा िक पहुाँच चुके थे। उन्होंने जनयमपूवमक मािा-जपिा के चरणों
में प्रणाम दकया और साहस पूवमक िीक्षा लेने की अनुमजि प्रिान करने
की प्राथमना की। िीन मास से कु छ अजिक समय घर में व्यिीि करने
के पश्चाि् मािा-जपिा ने उन्हें सािु बनने की स्वीकृ जि िेकर कृ िाथम
दकया। इसी समय श्री रुपचन्ि िी ने अपनी सािु जनयमावली समाप्त
कर ली और अब गुरुिेव की खोि होने लगी। िैवयोग एक बडोिा
जनवासी िैन िाट मालेरकोटला में आया और आपसे भेंट की। श्री
रुपचन्ि िी उस से समाचार पाकर दक श्री िेव िनौिा में जवरािमान
हैं और शीघ्र ही बडोिा पिारें गे। यह समाचार पाकर उन्हें अत्यन्ि
आनन्ि हुआ-
िो करना है सो अब करले,
कल की सार न िाने कोय?
के जसद्धान्ि के अनुसार उन्होंने यही उपयुि समझा और वे मािा-
जपिा की सेवा में आज्ञा के जलए प्रस्िुि हुए।
मााँ के आाँसुओं और जपिा के जबलखिे प्यार से आज्ञा लेकर श्री
रुपचन्ि िी चल दिए उस गुरु की सेवा में िहााँ से उन्होंने उस पथ
पर चलना सीखना था। जिस मागम के जलए वे िन्म-िन्माांिरों से
सािना करिे चले आ रहे थे। इस प्रकार सम्वि् 1893 फाल्गुण कृ ष्ण
जद्विीया को वे चल दिये बडोिा की ओर।
आलोकमय त्यागीिीवन

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िैन-आचायम श्री नाथूराम िी महाराि की प्रशांसनीय उिारिा और
श्रेष्ठ आत्म-ज्ञान को सभी मानिे थे। आपके जशष्य श्री रायचन्ि िी
महाराि अजद्विीय जवद्वान, दिव्य िपस्वी और परोपकारी थे। परम-पूज्य
श्री रिीराम िी महाराि ने िैन िमम का प्रचार करने के जलए अगजणि
यािनाओं को सहिे हुए और आकजस्मक जवपजत्तयों का सामना करिे
हुए,मेवाड, कारठयावाड, गुिराि, मालवा, उज्जैन, बीकानेर आदि
ररयास्िों िथा प्रान्िों मे िैन िमम की ध्विा लहराई। लोकमान्य िैन-रत्न
प्रजसद्ध कजव श्री नन्िलाल िी महाराि की जवद्वत्ता और ज्ञान की सवमत्र
प्रजसजद्ध हो चुकी थी। उनके साजहत्य सािना ने उन्हें सवमजप्रय बना दिया
था। इन महापुरुषों के अजिररि अन्य कईं सन्ि और पुण्य-चररिा जविूषी
िेजवयााँ इस समय िमम प्रचार कर िन-मानस को पजवत्रिा प्रिान कर रही
थीं। श्री रुपचन्ि िी इन्हीं महात्माओं के अनुयायी बनकर उनके
आिेशानुसार अध्यात्म-मागम पर चलने के जलए पूज्य आचायम श्री रिीराम
िी महाराि और कजव श्री नन्िलाल िी महाराि के चरणों में सांयम
िारण करने के जलए उपजस्थि हुए।
िीक्षा महोत्सव
बडौिा नगर में फाल्गुण शुक्ला एकािशी सम्वि् 1894 का शुभ दिन
िीक्षा महोत्सव के रूप में युग-युग िक स्मरणीय रहेगा। िैन िगि में यह
पुण्य-दिवस सिा स्मरणीय एवां अजभनन्िनीय रहेगा क्योंदक इस दिन का
सम्वन्ि एक ऐसी महान शजि-सम्पन्न पजवत्र आत्मा के साथ है जिसने
अपने िपोबल से जवश्व को चदकि कर दिया। आध्याजत्मक शजियों के
गौरव की प्रजिष्ठा की और जिसने भारि की िार्ममक िागरुकिा का आिशम
उपजस्थि दकया। सभा मण्र्प में उपजस्थि मुजनश्वरों के िेि और प्रिाप के
सन्मुख साांसाररक सुख-सम्पजत्त िथा यश वैभव जनकृ ि और त्याज्य प्रिीि
हो गया। लौदकक ख्यजि मानो इस महोत्सव की आलौदकक ज्योजि को
िेखकर वहाां से बहुि िूर घोर-अन्िकार और अपना मागम टटोल रही थी।

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यह मनोहारी एवां प्रभावशील िृश्य िैन-िमम की महानिा और आचायम
श्री रिीराम िी महाराि के जवशाल व्यजित्व का प्रिशमन मात्र था। िशमक
एव श्रोिा आध्याजत्मकिा की मस्िी में झूम रहे थे। त्याग एव वैराग्य का
अजमट प्रभाव सबके हृिय पटलों पर अांदकि हो गया।
श्री रुपचन्ि िी ने रािकीय िलूस के वैभव को त्याग दिया। ठाट-बाट
की सवारी से जविा ली। रेशमी िरीिार वस्त्र उिारे। सोने के िडाऊ
आभूषणों को छोडा। सािु-वेष िारण करके िीक्षा-पाठ पढ़ा। पााँच महाव्रि
पालन का प्रण दकया। प्रजसद्ध िैनाचायम श्री नाथूराम िी महाराि के पौत्र-
जशष्य आचायम श्री रिीराम िी महाराि के जशष्य व्याख्यान वाचस्पजि
प्रजसद्ध कजव िैन रत्न श्री नन्िलाल िी महाराि के जशष्य बने और गुरु
कृ पा से से मुजनश्वरों की श्रेणी में िा जमले और रुपचन्ि से श्री रुपचन्ि िी
महाराि हो गये। त्यागमूर्िम गुरु ने श्री रुपचन्ि िी महाराि को सच्चे त्याग
का पाठ पढ़ाया गुरू रूपी िौहरी ने सािना की सान पर चढ़ाकर जशष्य
रूपी हीरे को और भी मूल्यवान बना दिया।
जशष्य की योग्यिा का अनुमान गुरु की महानिा, जवद्वत्ता िथा ज्ञान से
दकया िा सकिा है। श्री रुपचन्ि िी महाराि के गुरुिेव श्री नन्िलाल िी
महाराि को योग्यिा, आजत्मक बल, योग और त्याग अजद्विीय थे।
बुजद्धमान जशष्य के ज्ञान-स्वरूप गुरु को सािनामय गुणों और पजवत्र
जवचारों को पूणम रूप से अपना जलया। इन्हीं के प्रिाप से श्री रुपचन्ि िी
महाराि सांसार के महापुरुष बन गये।
प्रथम चािुमामस
गुरुिेव को जशक्षा प्रणाली का उद्देश्य और लक्ष्य अजिकिर आत्मोन्नजि
ही था। यही कारण है दक मुजन श्री रुपचन्ि िी महाराि की जवचार-िारा
और सब प्रयत्न आत्मोन्नजि के जलए समर्पमि हो गये। आत्म-जवश्वास ने
आपको अत्यन्ि जनभमय और न्रत बना दिया। वे महान आपजत्तयों और
जवकट बािाओं का सामना सन्िोष और शाजन्ि से करने लगे। सजहष्णुिा

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बढ़िी गई । अध्यात्मपथ के पढ़ाव समाप्त होिे गये। िपस्िेि प्रकाजशि
होने लगा। स्वाध्याय रूजच जवकजसि होने लगी। जवहार में भी स्वाध्याय
कभी नहीं रुका। रोहिक, झज्झर, फरुम खनगर, पटौिी, ररवाडी होिे हुए
आप अल्वर पहुाँचे। यहीं आपका पहला चािुमामस था। इसमें आपको
यथावि स्वाध्याय और अजिक ज्ञान प्राप्त करने का सुन्िर अवसर प्राप्त
हुआ। आत्म शजि में भी वृजद्ध हुई। िैन-सूत्रों की स्पि और पूणम व्याख्या
पर मनन करने के पश्चाि् वैर, जवरोि, अनुराग, घृणा, और मोह िीरे -िीरे
स्वयां ही इन्हें छोडने लगा। त्याग बढ़िा गया। मानजसक शाजन्ि अन्िःकरण
में अजिजष्ठि होिी गई।
चािुमामस बीिने के पश्चाि आप पूज्य आचायम और गुरुिेव के साथ
दिल्ली को जवहार दकया। मागम में झरका,दफरोिपुर, गुडगाांव आदि नगरों
का भ्रमण करिे हुए दिल्ली में एक कल्प जवचरण दकया।
यहााँ पर मुजन श्री रुपचन्ि िी महाराि ने िैन-शास्त्रों के जवषय में
प्रवचन दिया। ओिजस्वकिा, जवद्वत्ता एवां प्रभावशीलिा की िृजि से
आपका यह प्रवचन सबके जलए आकषमण का के न्र बन गया। सवमत्र प्रशांसा
हुई और आप की विृ िा की िाक बैठ गई। प्रशांसा एवां श्लाघा से मुि श्री
रुपचन्ि िी महाराि ने गुरुिेव से जनवेिन दकया दक अभी मुझे ज्ञान-प्राजप्त
और जवद्याभ्यास की आवश्यकिा प्रिीि हो रही है। इसजसए कोथा ग्राम के
चािुमामस िक सारा समय सूत्रों के स्वाध्याय और उनके मनन में लगाना
चाहिा हाँ। सम्वि् 1895 में श्री रुपचन्ि िी आचार्म श्री और गुरुिेव के
साथ सुनाम पिारे। िहााँ पूज्यवर रघुनाथ िास िी एक प्रजसद्ध जवद्वान
ज्योजिषी थे । आपके ज्योजिष ज्ञान की चचाम चारो ओर फै ली हुई थी।
परटयाला, समाना, रोढ़ी ,बुर्लार्ा, राजणयााँ, टोर् हाल एवां भटटांर्ा आदि
नगरों में श्रद्धालु आपके जनष्ठावान भि थे। आपके ज्योजिष और जचदकत्सा
की समृजद्ध परटयाला िरबार िक पहुाँची िो महाराि परटयाला ने उनकी
परीक्षा लेना चाहा। िरबार की ओर से एक पत्र दिया गया दक यह यजि

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िी के पास पहुाँचाकर शीघ्राजिशीघ्र उत्तर लायें। िरबारी आिेशानुसार
सुनाम पहुाँचा और पत्र िेकर उत्तर की प्रिीक्षा करने लगा। पूज्य यजि िी
ने खोलकर पढ़ा, उसमें जलखा था-
“ बिाईये परटयाला नरेश आि से िासरे दिन नगर के दकस द्वार से
कौन सी सवारी पर जनकलें गे ?”
पूज्य यजि िी समक्ष बडी िरटल समस्या खडी हो गई। मान-मयामिा का
प्रश्न था। कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था। वे बडे जचजन्िि हो गये। उन्हों ने
महाराि श्री नन्ि लाल िी को िेखा िो जनराशा के अन्िकार में उन्हें
आशा दक दकरण निर आई। आिर-सत्कार के साथ अजभवािन के पश्चाि
उन्होंने महाराि के समक्ष जनवेिन दकया-
“ महाराि ! कृ पया यह पत्र िेजखये, इसका उत्तर िेना मेरे जलए अशक्य
है, परन्िु ठीक उत्तर दिए जबना छु टकारा भी नहीं हो सकिा।”
महाराि श्री िी ने पूछा-“ िो दफर आप चाहिे क्या है ?”
पूज्य ज्योजिषी ने न्रतिा से जनवेिन दकया दक अपनी प्रचीन गद्दी की
मान-रक्षा और िैन-िमम का प्रभाव, यह सब आप की कृ पा से ही सम्भव
है।
महाराि श्री िी ने उत्तर जलख कर िरबारी को दिलवाया और साथ में
कहा- “ परटयाला नरेश की सवारी िब चार दिवारों से बाहर जनकलने के
पश्चाि इस पत्र को पढ़ा िाए।” िरबारी ने महाराि के आिेशानुसार
परटयाला नरेश के समक्ष उपजस्थि हुआ और पत्र िेकर कहा- जलजखि पत्र
को जनयमानुसार खोला िाए। महाराि परटयाला िब नगर से बाहर
जनकले िो पत्र खोलने की आज्ञा िी। उसमें जलखा था-
“ महाराि परटयाला आि नगर की चार दिवारी को एक भाग को
जगराकर खच्चर पर सवार होकर नगर के बाहर जनकलेंग।े ”
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इस भजवष्यवाणी एवां चमत्कार से िनिा बहुि प्रसन्न हुई और यजि िी
की बहुि ख्यजि हुई। ररयसिी सरकार की ओर से एक“मानपत्र” भेिा गया
और र्ेरे के नाम पुरस्कार स्वरुप एक िागीर लगा िी गई।
पूज्य यजि िी पत्र जमलिे ही परवाना लेकर आचायम श्री रिी राम िी
और गुरुिेव श्री नन्िलाल िी की सेवा में उपजस्थि हुआ और जनवेिन
दकया-“ महाराि! यह सब आप की कृ पा का फल है, सेवा की आज्ञा
िीजिए।”
प्रशांसा और प्रजसजद्ध से जवरि गुरुिेव ने कहा-“ यजि िी! िैन जभक्षु को
मान-पत्र एवां िागीर से क्या प्रयोिन? ” .यह कहिे हुए मान-पत्र एवां
िागीरनाम यजि को िे दिए। उिार –चररत्र मनस्वी महापुरुषों से यही िो
आशा की िा सकिी है। इस घटना पर मुजन श्री रुपचन्ि िी महाराि के
हृिय पर गुरुिेव िी की जवद्विा, सवमज्ञिा,मानजसक पजवत्रिा, त्याग भाव
की महत्ता का और भी अजिक श्रद्धापूणम प्रभाव अांदकि हो गया।
परन्िु साथ ही ज्योजिष जवद्या की अजनजश्चि बािों के प्रजि शांकाशील
एवां अनुसांिान-जप्रय भी रुपचन्ि िी महाराि ने गुरुिेव की सेवा में
जनवेिन दकया-“गुरुिेव! यह घटना िो िैवयोग से यर्वि् घटी है, परन्िु
आप प्रायः कहिे हैं दक ज्योजिष जवद्या जन्श्चथ और सत्य जवद्या नहीं है।
मुजन- महाराि- गणों में यदि ज्योजिष िथा िैवज्ञिा के प्रचार अथवा
समथमन की प्रथा चल पडेगी िो यदि कोई भजवष्यवाणी असत्य जसद्ध हुई
िो इससे िैन-िमम का दकिना िोषारोपण होने लगेगा ? भले ही इसमें
िैन-िमम का िजनक भी िोष न हो। इसके जवचार मात्र से मेरी आत्मा काांप
उठिी है, क्या मेरा समािान करने की कृ पा करेंगे ? ”

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गुरुिेव ने कहा,“रुपचन्ि! ज्योजिष जवद्या को मैंने गृहस्थ में सीखा था
और सािु बनकर उसमें प्रवीणिा भी प्राप्त की। सांसार में यह जवद्या बहुि
उपयोगी जसद्ध हुई है।”
मुजन रुपचन्ि ने पुनः प्राथमना की,:महाराि! उन सूत्रों में िो आपने मुझ
को पढ़ाये हैं स्पि जलखा है दक के वल ज्ञान ही पूणम ज्ञान है। वही शुद्ध कमम
का मागम है। ज्योजिष जवद्या िो िेख-रेख मात्र है। िो कभी असत्य एवां
जमथ्या भी जसद्ध हो सकिी है । इसजलए ज्ञान-वाणी अथामि् सूत्रों का
प्रचार करना ही परम उपयोगी हो सकिा है। ज्योजिष पर मेरी आस्था
रटक नहीं रही है। अि: मैं िैन िमम की प्रभावना के जलए िप को ही जवशेष
महत्ता िेना चाहिा हाँ।” गुरुिेव ने आिेश दकया दक िुम ज्ञान बल और
चररत्र-चयाम द्वारा ही िैन-िमम को अपनाओ और िनिा को िममजनष्ठ
बनाओ।
आत्मजसजद्ध का महान चमत्कार
श्री मुजन रुपचन्ि िी ने गुरुिेव की आज्ञा से उसी समय से एकल
जवहारी बनना स्वीकार दकया और चौिह वषम एकल-जवहारी रहे। इस
काल में आपने सम्वि् 1896 का चािुमामस कोथा ग्राम की एक कच्ची
कोठडी में दकया, जिसमें के वल एक द्वार और आगे एक फू स का छप्पर था।
आपका यह चािुमामस िपः परीक्षा की िृजि से जवशेष महत्व रखिा है।
वषाम ऋिु में असह्य गमी सहन करिे हुए अांिेरी कु रटया में आपका जनवास
जनःसन्िेह सजहष्णुिा और िपश्चयाम का िीिा िागिा चररत्र, िप िथा
त्याग के पूणम आिशम का दिग्िशमन था।
इन्हीं दिनों में एक आकजस्मक घटना घटी जिससे बहुि लोग आकर्षमि
हुए। चारों ओर आपकी आत्म –जसजद्ध की प्रशांसा होने लगी। वहााँ एक
औघड सन्यासी बाबा रहिे थे, जिनके चमत्कारों की चचाम चारों ओर फै ली

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हुई थी। िेवयोग से इस गाांव के िो िाटों का उस औघड बाबा से झगडा
हो गया और उसी दिन उन िो िाटों की राि को मृत्यु हो गई।
अभी इस घटना को लोग भूल भी नहीं पाये थे दक गाांव के एक महािन
से औघड बाबा से लडाई कर ली और वह महािन भी बाबा के क्रोि का
जशकार हो कर उसी राि को चल बसा। इन मृत्यु के भयभीि ग्रामीण
लोग औघड बाबा के भय से उसकी सेवा करने लगे।
जिस वषम स्वामी श्री रुपचन्ि िी का चािुमामस कोथा में था, उस वषम
वषाम ने होने के कारण ग्रामीण दकसानों का बुरा हाल हो गया। खेिी-बाडी
की हसांचाई िो क्या पशुओं को जपलाने के जलए भी पानी नहीं जमलिा था।
ग्राम जनवासी एकजत्रि होकर औघड बाबा के पास गये और प्राथमना की-
“ बाबा िी! कृ पया वषाम के होने का कोई प्रबन्ि कीजिए ।” परन्िु
सम्मान और प्रजसजद्ध का भूखा अांहकारी औघर् बाबा सपम के समान फूाँ कार
कर बोला-“दक जिस मुाँह बांिे िैनी की सेवा- भजि करिे हो, क्यों नहीं
उससे वषाम करवा लेिे ? िाओ! िब िक वह यहााँ है, वषाम नहीं हो
सकिी।”
औघर् की बाि सुनकर ग्रामवासी एक-िूसरे का मुाँह िाकने लगे।
जवचारे ककां कत्तमव्य-जवमूढ़ हो गये। वे कु छ कहना चाहिे थे, परन्िु औघड के
भयांकर क्रोि को टालने का साहस कहााँ से लािे ? जववश होकर लौट
आए। कानाफू सी होने लगी।
कु छ ने कहा-“क्यों न िैन मुजन को ग्राम से जनकाल दिया िाए ?” िूसरे
ने िीरे स्वर में कहा-“ भला उसने हमारा क्या बीगाडा है?” दकसी ने िूर
की सूझािे हुए पहले का समथमन दकया और चेिावनी िी की-“औघड बाबा
का क्रोि ग्राम का सत्यानाश कर िेगा।” कु छ समझिारों ने िजनक जनभमय

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होकर सब को समझािे हुए कहा-“ हमें िो औघड बाबा की बाबा की बाि
िांची नहीं । िूर-िूर के अनेक ग्रामों में िनिा अकाल-पीजडि है, कहीं भी
िो वषाम नहीं हो रही है, क्या सब िगह यह मुजन बैठे है ।” जििना मुांह
उिनी बािें हो रहीं थीं।
व्याख्यान के समय होने पर लोग कथा सुनने के जलए श्री रुपचन्ि िी
महाराि के पास आने लगे। ग्राम के वयोनृद्ध श्रावक गुलिारी मल ने
मुजनवर श्री रुपचन्ि िी महाराि से जनवेिन दकया, गुरुिेव! बाहर छप्पर
के नीचे पिाररये कथा का समय हो गया है।
महाराि श्री ने उत्तर दिया-“ भाई! वषाम होने की सम्भावना है इसजलए
आि भीिर ही बैठें गे।”
गुलिानीलाल का हृिय आनन्ि जवबोर हो गया, उसके नेत्रों मे प्रेमाश्रु
झलकनें लगे। उन्होंने आकाश की िरफ िेखा िो सूयम -िेव पूणम िेि से चमक
रहा था, परन्िु िृढ़ जवश्वासी गुलिारी मल ने श्रोंिाओं को अन्िर बैठने का
आग्रह दकया, व्याख्यान प्रराम्भ हुआ, अभी आिा भी व्याख्यान नहीं हुआ
था दक एक छोटी सी बिली िृजिगोचर हुई और आाँिी के प्रबल प्रभाव से
पल भर में वह आकाश पर छा गई और िेखिे ही िेखिे सारे गााँव को
िलमग्न कर दिया। िलथल एकाकार निर आने लगा। श्री रुपचन्ि िी
महाराि के िपोबल की मजहमा के समक्ष ग्रामवाजसयों के मस्िक झुक
गये। िैन िमम की श्रेष्ठिा ने अनायास ही लोगों के हृिय पर अजिकार कर
जलया।
इस वषाम ने औघड बाबा को शीिलिा के स्थान पर िाप ही दिया। वह
आग-बबूला हो गया और मुजनवर श्री रुपचन्ि िी महाराि से बिला लेने
के जलए व्याकु ल हो गया। वह क्रोिाजवष्ठ होकर श्री रुपचन्ि िी महाराि
की ओर चला आया। शान्ि जचि ओिस्वी मुजन के िशमन करिे ही वह
शान्ि हो गया। मुजन महाराि पात्री में पानी पी रहे थे। लकडी का यह
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सुन्िर पात्र िेखकर उसने बाि बढ़ाने के जलए उद्दण्र्िापूवमक कहा- ला यह
पात्री मुझे िे िो। मुजनवर मुस्कराए और बोले-“ बाबा! सािु िमम का पालन
दकए बगैर पात्री नहीं जमल सकिी। इस पात्री का वही अजिकारी हो
सकिा है िो मेरे िैसा हो।”
औघड जिलजमलाया और क्रोजिि होकर बोला-“ अच्छा िेखा िाएगा,
िरा सम्भल के रहना, मै औघड हाँ। पात्री न िेने का पररणाम िुझे भोगना
ही पडेगा।”
मुजनवर ने प्रेम और क्षमा का िृजि से िेखा वह चला गया और अपनी
िामसी सािना के जलए ग्राम के िोहड के दकनारे िा बैठा।
िब ग्राम वालों को औघड बाबा की अप्रसन्निा और क्रोघाजग्न प्रचण्र्
होने का समाचार जमला िो वह अत्यन्ि व्याकु ल हुए। महाराि से जनवेिन
दकया, “ मुजनवर! यह अच्छा नहीं हुआ। बाबा कोई न कोई अनहोनी
आवश्य करेगा।”
भय और जनराशा से मुि आत्म-जवश्वासी मुजन ने उन्हें आश्वासन िेिे
हुए कहा-“ आप जनजश्चन्ि रहे, होनहार को कोई नहीं टाल सकिा।”
राजत्र हो चुकी थी। श्रावक और ग्रामीण लोग भयभीि होकर कु रटया के
कु छ िूरी पर कच्चे बरामिे में जसमटे बैठे थे। औघड की आांिकमयी िामसी
सािनाओं से र्र एवां सहमे हुए। परन्िु मुजनराि का दिव्य िपः शजि उन्हें
बीच-बीच में आश्वस्ि भी कर रही थी।
अिम राजत्र का समय था, अचानक लोगों ने िेखा दक अजग्न की एक
िहकिी हुई ज्वाला जबिली की िरह चमकिी और कडकिी हुई कु रटया
की ओर आई जिसमें िपोमूर्िम श्री रुपचन्ि िी महाराि समाजिस्थ थे
परन्िु वह ज्वाला कु रटया के द्वार से टकरा कर लौट गई। यह ज्वाला राि
भर में िीन बार आई और िीनों बार मुजनराि के िप से लौट गई। प्रभाि

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हुई। िशमक भय के मारे काांप रहे थे। उन्हें भयानक पररणाम की सम्भावना
ने जनराश के अथाह सागर में र्ू बो दिया था।
श्रावक गुलिारी मल अजिक िैयम न रख सका, वे साहस करके सहमिे
हुए कु रटया की ओर चले। अन्य लोग भी साथ हो चले। उन्होंने ने िूर से
िेखा दक मुजनवर श्री रुपचन्ि िी महाराि समाजि लगाये खडे हैं। सब के
मस्िक शान्ि िपस्वी के चरणों मे झुक गये। थोडी ही िेर में ग्राम का
मुजखया ने आकर प्रसन्निापूवमक सूचना िी दक-“ महाराि ! औघड बाबा
िलाब के दकनारे पर मरा पडा है।”
लोग िुरन्ि बोल उठे - “अच्छा हुआ बहुि अत्याचारी था।”
परन्िु महाराि श्री ने उन्हें समझािे हुए कहा-“ नहीं भाई! ऐसा मि
कहो, सांसार में कोई बुरा नहीं है, परन्ि कभी-कभी मनुष्य भटक िािा है
और उसके बुरे कमम उसे समाप्त कर िेिे हैं।”
आपके इस शुभजचन्िन से लोगों की काया पलट गई, िनिा को आपके
व्यजित्व में श्रद्धा और िैन िमम में अगाि श्रद्धा और प्रेम हो गया। ग्राम-
जनवासी भारी सांख्या में िैन िमम के प्रेमी बन गए। चािुमामस पूरा हुआ
मुजन महाराि ने जवहार दकया और ग्राम-जनवाजसयों ने आिर और श्रद्धा से
जविाई िी और सबके मुख पर एक ही प्राथमना थी महाराि शीघ्र पिारऩे
की कृ पा करना।
सेवा का जनस्पृह आिशम
मुजनराि गाांव-गाांव में नांगे पाांव भ्रमण करिे हुए िींि पिारे। यहााँ
1008 श्री पूज्य रायचन्ि िी महाराि वृद्धावस्था में स्थानापजि हो गये
थे। अजिकिर ज्वर-पीजडि रहिे थे। स्वामी िी ने आपकी सेवा भजि के
जलए रहना स्वीकार कर जलया। आठ प्रहर में के वल एक बार भोिन करिे,
राजत्र को बहुि कम सोिे और अपना सारा समय पूज्य श्री िी की सेवा-
सुश्रषा में व्यिीि कर िेिे। इस अनन्य सेवा से पूज्य श्री स्वस्थ हो गये िो
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आपने कै थल जवहार करने का जवचार दकया। प्रस्थान करने से पूवम िेखा दक
पूज्य श्री िी के पास पयामप्त वस्त्र नहीं हैं, इसजलए महाराि श्री ने अपने
वस्त्र (चािर और चोलपट्टा) भेंट कर दिए। पूज्य श्री िी ने कहा-“ िुम्हें भी
आवश्यकिा है?”
आपने जनवेिन दकया-“दकन्िु आपका वस्त्राभाव िूर करने के पश्चाि मुझे
आवश्यकिा हो सकिी है, पहले नहीं।”
दफर पूज्य श्री िी जसद्धान्ि का आश्रय लेिे हुए कहा-“ आप अपने वस्त्र
मुझे भेंट कर स्वयां और ढ़ूांढ़ोगे, मुझे यह उजचि प्रिीि नहीं होिा।” श्री
रुपचन्ि िी महाराि ने उनका यह सांिह
े िूर करिे हुए उत्तर दिया,”
महाराि ! मैं एक वषम िक वस्त्र स्वीकार नहीं करूाँगा और न ही अपनी
आवश्यकिाओं के जलए दकसी गृहस्थ के प्रजि बोझ का कारण बनूांगा।”
वृद्ध सािु युवक सािु का यह त्याग िेखकर चदकि रह गये। उन्होंने
आनजन्िि वाणी में कहा-“रुप आपका यह त्याग आपके महान व्यजित्व को
प्रकट करिा है।”
स्वामी श्री रुपचन्ि िी महाराि ने न्रतिा से जनवेिन दकया-“आपकी
िया िृजि और आशीवामि है।” आपने उनसे आज्ञा प्राप्त करके कै थल की ओर
प्रस्थान दकया।

सािना की कसौटी पर
मागम में एक छोटे से ग्राम से होकर जनकले। यहााँ आपकी िपस्या एवां
ब्रह्मचयम की परीक्षा का अद्धभुि िृष्य िेखने को जमला। ग्राम छोटा सा था,
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र्ेरे में जनवास दकया। आप िोपहर को आहार लेने जनकले, परन्िु न जमला,
िो आपने उस दिन व्रि कर जलया। दफर िूसरे दिन जभक्षा याचना की
परन्िु भोिन प्राप्त न हुआ, िूसरे दिन भी जनराहारी ही रहे। िीसरे दिन
गोचरी के जलए गये, कोई प्रबन्ि न हुआ, िीसरे दिन भी आहार के जबना
ज्ञान-ध्यान के पश्चाि सो गये। इसी प्रकार कईं दिन व्यिीि हो गये, जभक्षा
को िािे पर कु छ न जमलिा िो लौट कर चुपचाप अपने स्वध्याय में जनमग्न
हो िािे। र्ेरे के सामने नन्िीबाई नामक की एक पुण्यशीला नारी का घर
था। वह यह जवजचत्र िृष्य िेखिी रहिी थी। वह महाराि श्री िी के
िपस्वी िीवन से प्रभाजवि हुई। सेवा और भजि-भाव से प्रेररि होकर
उसने स्वयां भोिन बनाकर थाली में परोसा और र्ेरे की ओर चल िी।
महाराि के सन्मुख पहुाँच कर जनष्कपट श्रद्धा से जनवेिन दकया-“महाराि
भोिन कीजिए !” महाराि ने उत्तर दिया-“बहन! िैन सािु इस प्रकार
जभक्षा नहीं लेिे।”
शुभ जचन्िक िेवी ने समझा दक सािु महोिय िजक्षणा की अजभलाषी है,
कहने लगी, आप भोिन कीजिए, यह कहकर थाल महाराि के सामने
रखने के पश्चाि् घर लौटी और िजक्षणा ले कर चली आई। िब भोिन उसी
प्रकार पडा िेखा िे कहा-“ महाराि! भोिन क्यों नहीं खाया ? लीजिए
िजक्षणा भी स्वीकार कीजिए।”
महाराि श्री ने उत्तर दिया-“बहन! मेरे भोिन लेने की यह रीजि नहीं
है, आप यह वाजपस ले िायें।”
सरल हृिय नन्िी िेवी ने बार-बार प्राथमना की और िोनों हाथों से
आपके चरणों को छू ने का प्रयत्न दकया। महाराि श्री ने उसे पाांव पकडने से
जििना रोकिे वह उिने से अजिक ही श्रद्धा-भाव से पाांव पांकि छू ने का
प्रयास करिी।

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यह िृष्य ग्राम के कईं लोगों ने िेखा और अनेक प्रकार की चचामएां
फालाईं। दकसी ने बेपर की उडाई और िो भी आया िी में कह र्ाला।
दकिने ही अपने सांकुजचि जवचारों के कारण महाराि श्री िी के पजवत्र-
चररत्र सम्पन्न व्यजित्व पर िोषारोपण करके पाप के भागी बने।
इिर महाराि श्री नन्िी बाई को सािु के कत्तमव्य और उसके जभक्षा
ग्रहण करने की रीजि समझािे रहे और उिर नन्िी बाई पश्चािाप करिी
हुई क्षमा-याचना करिी रही। महाराि स्त्री-स्पशम का पश्चािाप करने लगे
और वह बहन अपने कृ त्तव्य का जचन्िन करिी हुई भोिन लेकर घर चली
गई।
सांसार में कईं प्रकार के लोग हैं भले भी और बुरे भी। इनमें से एक आग
लगाकर िमाशा िेखने वाले व्यजि ने ग्राम के मुजखया चौिरी रामभि को
उसकी िममपत्नी नन्िीबाई के सम्बन्ि में जनरािार सूचनाएां िेकर उिेजिि
कर दिया। वह क्रोि के मारे लाल-पीला हो गया। क्रोि और नसमझी ने
उसे बिला लेने से प्रररि होकर क्रोिावेश में आकर महाराि श्री पर
आक्रमण करने को भी प्रस्िुि हो गया। सारा ग्राम वहाां पर आ पहुांचा।
राभि ने क्रोि में िााँि कटकटािे हुए कहा-“ढ़ौंगी बाबा बना दफरिा है,
अब िू बच नहीं सकिा।”
उसके साथी ने कहा-“ मारो इस ढ़ौंगी को, िीिा मि छोडो।”
महराि श्री ने गम्भीर मुरा में कहा-“ चौिरी ! इस प्रकार आवेश में
क्यों आिे हो, कु छ जववेक से काम लो। झूठे अपवािों के िाल में फां सकर
इस प्रकार होश नहीं खोना चाजहए।”
चौिरी बोला और कडका-“ इस प्रकार झूठ बोलकर िुम बच नहीं
सकिे।”

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सम्भव था दक शीघ्र ही कोई अनथम हो िािा, परन्िु महाराि श्री की
अन्िः प्रेरणा से नन्िी बाई िुरन्ि िौडिी आई. वहााँ पहुाँच गई और बोली-
“ दकिना अनथम है ऐसी िपस्वी के जलए अपशब्ि कहिे हे आप लोगों को
र्र नहीं लगिा ? िीन जिन से भूखे इस महात्मा ने मेरा लाया हुआ
भोिन िक ग्रहण नहीं दकया। मुझे चरण िक छू ने नहीं दिया। स्त्री स्पशम
को पाप मानने वाले सािु के प्रजि आपका यह िुव्यमवहार ?” यह कहकर
उसने िनिा के समक्ष सारी आप बीिी वणमन कर िी
सब को अपने दकये पर पश्चािाप हुआ, सब ने महाराि श्री िी से क्षमा
माांगी।
महाराि श्री िी ने उिारिा पूवमक कहा-“ अज्ञान और क्रोि के आवेश में
मनुष्य कईं बार सब कु छ भूल बैठिा है। सच्चाई यह है दक भूल करना
अपराि नहीं, वह िो मनुष्य से हो ही िािी है, परन्िु भूल का ज्ञान होने
पर पश्चािाप न करना भारी अपराि है। मेरा जवश्वास है दक अब आप
लोग प्रण करेंगे दक आप कभी भी आवेश में आकर जबना जवचारे कोई काम
नहीं करेंगे। जवचारहीनिा ही सब िुष्कमों को िन्म िेिी है। ग्रामीणों ने
आपको जवश्वास दिलाया दक वह उनके आिेशानुसार सिग, जववेकशील
और सिाचारी रहिे हुए िीवन व्यिीि करेंगे। कु छ दिन यहााँ ठहर कर
आपने जवहार दकया और आप जवजभन्न स्थानों पर अमृि वषाम करिे हुए
कै थल पहुांचे।”
कै थल पहुाँचने से पूवम ही आप के आत्म-जनग्रह और िपस्या की प्रजसजद्ध
वहाां पहुाँच चुकी थी। स्वागि के जलए लोग एकजत्रि थे। िूर से उन्हें आिे
िेखकर सभी के हृिय में हषोल्लास की लहर िौड गई। प्रेम और आिर
पूवमक उन्हें स्वच्छ स्थान पर ठहराया गया। िनिा ने िमम -उपिेश सुना,
िपस्वी िीवन का प्रभाव िेखा और आनजन्िि होकर सभी ने जवनय पूवमक

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चािुमामस की जवनिी की। आपने उत्तर दिया-“ भाई ! चािुमामस अभी बहुि
समय है, कल की कौन िाने ? यदि समय और जस्थजि से अवकाश जमला
िो कु छ दिन ठहरेने का प्रयत्न करूाँगा।” ििनुसार बीस दिन िक
कल्याणकारी उपिेश िेने के बाि आपने सुनाम की िरफ जवहार दकया।
श्रद्धेय जवद्यासागर
िैन-दिवाकर साजहत्य रत्न पूज्य श्री रामलाल िी महाराि अपने समय
के जवद्या-सागर समझे िािे थे। िूर-िूर के जवद्याथी वां जिज्ञासु आपकी
सेवा में उपजस्थि होकर अपनी शांकाओं का समािान पािे एवां ित्त्व-ज्ञान
प्राप्त दकया करिे थे। आप िैन सूत्रों, वेिों, पुराणों आदि अनेक िार्ममक
और आध्याजत्मक ग्रन्थों के महान ज्ञािा थे। आपने िैनागमों का मन्थन
करके िो ग्रन्थ रुप अमृि कलश हमें प्रिान दकये हैं वे अमृि -कलश
भण्र्ारों में पडे सूख रहे हैं। उनके प्रकाशन की व्यवस्था के प्रजि िैन-
समाि उपेक्षा मुझे सिा खटकिी रहिी है। उनके प्रकाशन की व्यवस्था
हमारा साांस्कृ जिक कत्तमव्य है।
सम्वि् 1897 और 1898 ई0 में आपके चािुमामस क्रमशः सुनाम और
रायकोट में हुए। श्री रुपचन्ि िी महाराि ने भी अपने चािुमामस क्रमशः
इन्हीं स्थानों में दकये। यहााँ आपको पुनः ज्ञान-प्राजप्त का अत्यन्ि सुन्िर
अवसर जमला। अप्राप्य रत्न िौहरी के पास पहुाँचा िो वास्िजवक रूप में
अमूल्य बन गया।
श्री सागर में गोिे
श्री स्वामी रुपचन्ि िी महाराि दिन राि शास्त्रों का अध्ययन करिे
रहे। जवभन्न मि-मिान्िरों के ग्रन्थों का स्वाध्याय दकया। दिन के प्रकाश में
िब िक पढ़ सकिे पढ़िे और राजत्र के अन्िकार में पढ़े हुए जवषयों का
मनन और उसे कण्ठस्ि करिे। िब हनांरा आने लगिी िो खडे हो िािे,
परन्िु उनका ज्ञान प्राजप्त का जनरांिर उद्योग कभी नहीं थका। आपके नेत्र

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मुांि िािे, जनरा आ िािी, परन्िु जनरावस्था में भी शास्त्रों का पाठ आठों
पहर स्फु ररि होिा रहिा था। श्री रामलाल िी महाराि आप की इस
एकाग्रिा को िेखकर कहा करिे- “रुप! िुम िो ज्ञान स्वरूप हो गये हो।
सांसार के नभ-मांर्ल पर चन्रमा के समान चमकोगे।”
स्वामी रुप चन्ि िी महाराि न्रतिा से उत्तर िेिे-“ मैं िो जिज्ञासु और
जवद्याथी ही रहना चाहिा हाँ। महाराि! यह सब आपके आशीवामि का
प्रिाप है।”
गम्भीरिा और िूरिर्शमिा स्वामी िी को प्राकृ जिक रूप में जमली हुई
थी। सांयम और िपस्र्ा आपके स्वभाव बन गये थे। योग्यिा और जवद्धिा
ने आपके िप में चार चााँि लगा दिये।
चािुमामस समाप्त होने पर भी श्री रामलाल िी महाराि की जविाई
लेकर ग्राम-ग्राम में भ्रमण करने लगे। िहााँ कहीं भी आप गये, आपकी
योग्यिा, िपस्था, सहनशीलिा और लोक सेवा का सम्मान हुआ, आपके
िपस्वी व्यजित्व ने सब को प्रभाजवि कर दिया और अनुगामी बन गये।
जवश्व-प्रेम में लीन होकर आपने अपने-आप को िगि-व्यापी सेवा के
जलए समर्पमि कर दिया। कईं लोगों को सांसार के अथाह गहराई में र्ू बने
से बचाया। श्री जबहारीलाल िी महाराि, स्वामी श्री महेषिास िी, श्री
कममचन्ि िी, स्वामी श्री िनपिराय िी और श्री वृषभान िी महाराि
आदि लजब्ि प्रजिजष्ठि सािुवगम आपकी िीक्षा-जशक्षा और सुप्रयत्नों का फल
है िो िैन समाि को िीवन चचाम में नेिृत्व प्रिान कर चुके हैं।
अब आपने अलवर,सुनाम, मालेरकोटला, सामाना, कोथा, नाभा,
परटयाला, बडे छींटा वाला, रायकोट भिौड, फरीिकोट िथा िगराओं
आदि स्थानों मे चािुमामस करके श्रावकों को उनके परम कत्तमव्य का ज्ञान
प्रिान दकया और सहस्त्रों ग्रामों में िैन ध्विा लहराई। आप िीवन भर
महावीर का सन्िेश को िन-िन िक पहुाँचाने का जनरन्िर सफल प्रयास
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करिे रहे । आपका आत्म-जनरीक्षण अजद्विीय था। आपकी प्रशांसनीय
सेवाओं ने मानविा के जलए परोपकार का पथ प्रकाजशि दकया। अपने
प्रेमामृि से िमम-वृक्ष को सींचा। स्वयां सत्य और सेवा के सुमागम पर चल
कर िनिा को सच्ची भजि और सिव्यवहार का मागम जसखया। िैन -िमम की
उत्तमिा और महानिा िशामकर सहस्त्रों मनुष्यों के हृिय में िमम-प्रेम की
ज्योजि िागृि की। अजवद्या का घर जनरा में जनमग्न श्रावकों को ज्ञान और
चररत्र का सन्िेश सुना कर िागृि दकया और उन्हें अहहांसा, सत्य ब्रह्मचयम,
आदि रूप में सांयम का पाठ पढ़ा कर वीर प्रभु के आिेश का पालन दकया।
अपनी जसद्ध वाणी द्वारा िैन-िमम को प्राणी मात्र का िमम बिािे हुए
अनेकान्िवाि अथामि् सप्तभांगी न्याय की कासौटी पर परख कराकर िीव-
अिीव जवषयक सूक्ष्म जवचारों को ऐसी सरल शैली में समझाया दक
सािारण बुजद्ध के व्यजि भी उसी हृियङ्मय कर लेिे थे। आपने िैन -शास्त्र,
इजिहास, िैन जसद्धाजन्िक-कमम मीमाांसा और अन्य षर्िशमनादि अनेक
सवोपयोगी जवष-जवषयन्िरों पर भी जवचार दकया। िो जिज्ञासुओं के जलए
अमृि के समान जसद्ध हुआ। इसके अजिररि आपने अपने सुसांयजमि
िपोबल से पररष्कृ ि स्विन्त्र जवचार भी प्रकट दकये जिससे साांसाररक
आज्ञान्िकार िूर होिा रहा और सत्य ज्ञान की ज्योजिष्मान दकरणें
प्रकाजशि होिी रहीं आपने िो ज्ञान-गांगा प्रवाजहि की उससे अनेक
िमामनुरागी अपनी शांकाओं की िृष्णा का जनवारण करके आत्मानन्ि को
प्राप्त करिे रहे।
सम्वि् 1910 में आपका चािुमामस िगराओं में हुआ। इस समय िक
आपका नाम और त्याग अपने सहयोजगयों और िैन-समाि में पयामप्त
सम्मान प्राप्त कर चुका था। दिल्ली से श्री अमर हसांह िी महाराि ने
महाराि श्री जवलासराय िी और श्री मोिीराम िी महाराि को िगराओं
भेिा। पूज्य श्री िी के प्रेम को महाराि श्री रुपचन्ि िी ने ऐसी सुन्िरिा
से अपनाया दक दिल्ली से पिारे हुए महाराि गण अजि प्रभाजवि हुए।

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यह चािुमामस अपने महत्त्व के िृजिकोण से अजद्विीय था। इसमें आपकी
िपस्या के साथ-साथ जवद्विा िथा ज्ञान के अद्धभुि चमत्कार भी िेखने को
जमले। आपके मनोहर व्याख्यानों ने िैन-िमम की प्रचीनिा और श्रेष्ठिा
भली भाांजि िनिा के हृिय पटल पर जचजत्रि की। शुद्ध चररत्र सम्पन्न
जवद्वान की जनष्काम सेवा कभी जनरथमक नहीं िािी। आपके सच्चे हृिय से
जनकले हुए सवमजप्रय और गुणकारी वचन श्रोिागण के अन्िस् में समा िािे
थे और वह गिगि् होकर आनन्ि से प्रेमान्माि में झूमने लगिे थे। अग्रवाल
और अरोड वांशी महानुभाव आपसे बहुि प्रभाजवि हुए िैन
िमामवालम्वजबयों मे ओसवालों की सांख्या बहुि कम थी, परन्िु अब िमम-
प्रेजमयों की सांख्या में बहुि वृजद्ध हुई। इन िाजियों के िमम -प्रवेश और िैन-
समाि की सहानुभूजि के पररणामस्वरूप आपने िैन -िमम की ओर िनिा
को अत्याजिक आकर्षमि दकया। चािुमामस आनन्िपूवमक सम्पन्न हुआ।
यहााँ से मुजन महाराि प्रस्थान करके लुजियाना पहुाँचे, िनिा के उत्साह
और सम्मान शुभागमन का स्वगि दकया गया। आपके उपिेशों में महावीर
के जवश्व-व्यापी सन्िेश की पूरी झलक िृजिगोचर होिी थी। बहुि से लोगों
ने िैन िमम अपनाया। सैंकडों घरो में िैन-िमम-प्रकाश हुआ। अग्रवाल िाजि
ने बडी उिारिा दिखलाई और कईं महानुभाव सपररवार िैन -िमामवल्म्बी
बन गये।
ग्राम सुिार योिना के सांस्थापक सहानुभजू ि का सन्िेश
भ्रमण करिे करिे आप सम्वि् 1912 में एक छोटे से गााँव भीखी में
पहुाँचे। ग्रामों में भ्रमण करना उपिेश िेना आपको जवशेष रुजचकर था।
महाराि श्री िी िेश रूपी शरीर में ग्रामों को िेश का मेरूिण्र् कहा करिे
थे और ग्रामों के सुिार को अपनी पुनीि कत्तमव्य मानिे थे। वे अजिकिर
नगरों से िूर ग्रामों में ही जवहार दकया करिे थे। यदि यह कहा िाये दक
भारि में ग्राम सुिार योिना के प्रथम सांस्थापक थे िो कोई अजियुजि
नहीं होगी।

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महाराि श्री जिस ग्राम में पिारे वहााँ के वासी अनपढ़ एवां सांकीणम
िलबन्िी के जशकार थे। अिः आपने समझािे हुए कहा-“प्रेम,ां सहानुभूजि
और िया मनुष्य के प्राकृ जिक गुण हैं। यहााँ प्रत्येक प्राणी को िया की
आकाांक्षा है। यदि मनुष्य को कोई िुःख-सुख का साथी जमल िािा है िो
उसके हृिय को शाजन्ि और सन्िोष प्राप्त होिे हैं। ऐसे मनुष्य को अपजत्तयााँ
हांसिी हुई आिी हैं और शीग्र ही चली िािी हैं। सहानुभूजि प्रिान करने
वाले के प्रजि हमारे हृिय में अत्यन्ि सम्मान और आिर होिा है, इसले
हमें सिैव यह यत्न करना चाजहए दक हम एक-िूसरे के जनकट आएां और
एक-िूसरे की सहायिा करें। आपका प्रेम आपके पडोजसयों के जलए वरिान
बन िाए और पडोजसयों का प्रेम आपके जलए अमृि हो िाए। इसी में
मनुष्य िन्म की साथमकिा है। स्वयां िीना और िूसरों को िीने िेना यही
िमम का ित्व है और यही भगवान महावीर की वाणी है ।”
आपके इस व्याख्यान उपिेश का िन-मानस पर इिना गहरा प्रभाव
हुआ दक जचरकाल से रूठे भाईयों ने एक-िूसरे से प्रेमाजलङ्गन करिे हुए
वैर-जवरोि के कु जत्सि भाव को जमत्रिा में पररणि कर दिया। द्वेषाजग्न अब
प्रेमानुराग बन गई। वैमनस्य िूर होकर ग्राम में सुख-शाजन्ि और सन्िोष
का सा्रताज्य स्थाजपि हो गया। एक-िूसरे की भलाई से सुसांगरठि प्रयत्न
होने लगे। इस प्रकार िमम का उपिेश िेिे-िेिे सिाचार और शाजन्ि का
प्रचार करिे हुए आप िूरी पहुाँचे।
िममस्थान को रणभूजम न बनाओ
श्री रुपचन्ि िी महाराि िी बडे स्पिवािी और िूरिशी थे। िूरी में
आपने िममशाला में जनवास दकया। यह िममशाला गप्प-शप्प हाांकने और
व्यथम समय जबिाने का अखाडा सा बनी हुई थी। एक दिन बहुि से लोग
बैठे थे, वे बािों ही बािों में एक-िूसरे के साथ लड पडे। िुवमचनों के पश्चाि
हाथापाई िक मार-पीट की भी नौबि आ गई। रिपाि होने ही वाला था

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दक स्वामी श्री रुपचन्ि िी महाराि उनके मध्य में कू ि पडे और अपने
िेिोमय रूप दिखा कर उन्हें समझािे हुए कहा-
“बन्िोओ ! िमम स्थान को रण-भूजम न बनाओ। यदि शजि के प्रिशमन
की अजभलाषा है िो आओ अपने मन को मारो, क्रोि का िमन करो, और
गवम की भस्मीभूि करके हार्िमक सन्िोष प्राप्त करो। शाजन्ि और आनन्ि से
िीवन व्यिीि करो। आपको ज्ञाि होना चाजहए दक शुभ स्थान में एकजत्रि
होकर फक्कडों िैसा व्यवहार वािामलाप जनिमयी होना शोभा नहीं िेिा।
िमम-स्थान कोई रण-क्षेत्र नहीं है, यह िमम-क्षेत्र है। इसे लडाई-झगडों से
मुि रखकर वही रहने िो िो इसको बनाने वाले का उद्देश्य था। सारे
नगर में ले-िेकर एक ही िममशाला हो और वही आप के अनाप-शनाप
बािों और लडने-झगडने का अड्डा बन िाये ? दकिनी शमम की बाि है।
आप यह भी नहीं समझिे दक दकसी व्यजि जवशेष के घर में यदि लडने-
जभडने के जलए िाओगे िो अत्याचारी और अपरािी कहलाओगे। सोचा
दक िमम-स्थान में लडने-झगडने से िुम क्या कहलाओगे ?”
“ सोचो समझो दक यह िमम-स्थान है। यह कला-क्लेश के जलए नहीं है,
आत्म-जनग्रह के जलए है। यहााँ शत्रु बनकर नहीं आना चाजहए, दकन्िु जमत्र
बनकर आईये। लडाई-झगडों के जलए समस्ि सांसार बडा है । िममशाला िो
के वल िार्ममक कामों के जलए होनी चाजहए।”
“ िमम शाला दकसी िममशील के िान से बना हुआ पुण्य िममस्थान है।
िममस्थानों पर अजिकार िमाने की चेिा करने वाले नरक में कु लबुलािे
कीडा ही बना करिे हैं। यहाां अपने हार्िमक कलुष को जमटाने के जलए
आईये। लडाई-झगडे आप को शोभा नहीं िेिा है। िमम -स्थानों को
िममस्थान ही रहने िो, इसे लडाई-झगडों मे नरक मि बनाईये।”

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आपके इस व्याख्यान ने िूरीवाजसयों पर ऐसा प्रभाव पडा दक
िममशाला सच्चे अथों में िममशाला बन गई और लोगों ने अनुभव दकया दक
महाराि के उपिेश का प्रत्येक शब्ि सत्य और सारगर्भमि है। भजवष्य के
जलए िनिा ने अपने अवगुणों के पररत्याग का प्रण दकया। िुव्यमवहार और
िुराचार को छोड दिया। िममशाल को पजवत्रिा का ध्यान दिया िाने लगा।
महाराि िी के उपिेश की मजहमा सुनकर लोग िशमनों के जलए उमड
पडे। महाराि ने अगजणि श्रद्धालुओं को िमम और नैजिक िीवन चररत्र की
जशक्षा िी और उन्हें िैन िमम का अमृि-पान करवा कर नव िीवन का
सांचार दकया। थोडे ही दिन वहााँ ठहर कर महाराि श्री िी ने
मालेरकोटला की िरफ जवहार कर दिया और िमोपिेश मागम में िेिे हुए
वहााँ पहुाँचे।
जनस्पृही योगी
महाराि श्री िी ने मालेरकोटला िो कोटला वालो में उत्साही श्रावक,
सेठ साहकार और व्यापारी नगर की सीमा के बाहर आपका स्वागि करने
के जलए एकजत्रि हुए। यह गुरु-भजि का प्रभावशाली िृश्य था, परन्िु
सांसार में जभन्न-जभन्न स्वभाव के लोग है। प्रत्येक मनुष्य अपनी मनोवृजत्त के
अनुसार आचरण करिा है। यह िृश्य एक िैवयोग से एक िो उठाईजगरों ने
भी िेखा, बस उनको बन आई। लगे अपना िाल जबछाने। एक ने अनुमान
लगािे हुए कहा- यह आवश्य िनी-मानी पुरुष है, इसी कारण िो सत्कार
हो रहा है। िूसरे ने कहा-इनके पास समान भी िो पयामप्त है। िीसरा िरा
गम्भीरिा से बोला- िैयम से यह पिा लगाने का प्रयत्न करो दक राि को यह
सािु कहाां िािे हैं और कहााँ ठहरिे हैं।
महाराि श्री िी ने प्रेमी श्रावकों के साथ नगर में प्रवेश दकया, मागम में
िो कोई रास्िे में आिा हाथ िोडकर खडा हो िािा, प्रेम और भजि से
नमस्कार करके साथ हो लेिा। इस प्रकार एक जवशाल िन-समूह के साथ
आप िैन स्थानक में पिारे । महाराि श्री िी से मांगलपाठ सुनकर श्रावक

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लौट गये। महाराि श्री िी ने सायां प्रजिक्रमण आदि िार्ममक कृ त्य सम्पन्न
दकये और यात्रा के श्रम से थकावट के कारण महाराि सो गये। चोर िाक
में थे ही, अवसर जमलने की िेर थी दक सब वस्त्र और समान लेकर चम्पि
हो गये। स्वामी िी की आाँख खुली िो िेखा सब कु छ उठ चुका है ।
प्रािः काल िशमनाजभलाषी उपजस्थि हुए िो महाराि को वस्त्रों और
समान से रजहि पाया। पूछने पर पिा चला दक राजत्र को सब कु छ चोर ले
उडें हैं। उिार-जचत्त श्रावकों ने जवनय-पूवमक जनवेिन दकया, “महाराि!
आवश्यकिानुसार अन्य वस्त्र स्वीकार करें ।” उत्तर दिया, “भाई जिनको
वस्त्रों की आवश्यकिा थी वे वस्त्र ले गए, इससे क्या हुआ? दफर वे कु छ िो
ले गए हैं मेरे प्रमाि के कारण ले गए हैं, अिः मुझे मेरे प्रमाि का प्रायजश्चि
कर लेने िीजिए । इसजलए मैं चािुमामस भर वस्त्र ग्रहण नहीं करूाँगा।”
िभी समीप बैठे हुए एक राि कममचारी ने जनवेिन दकया,“महाराि!
चोर को ढ़ूाँढ़ कर उसे आवश्य िण्र् दिलवाया िार्ेगा।”
महाराि ने सहि स्वभाव से उससे पूछा,“ उसको िण्र् दकस अपराि
का दिलवाओगे ? मुझे िो मेरी घोर जनरा का िण्र् जमला है। एक सािु का
इिना उन्मत्त होकर नहीं सोना चाजहए। िो सोिा है, अवश्यमेव अपना
सवमस्व खो बैठिा है।”
इस प्रकार दक स्वामी िी ने चार महीने अन्य वस्त्रों और आवश्यक
समान के जबना ही जबिा दिये और जनरा पर इिने जवियी हुए दक िृण की
आहट होने पर भी िाग िािे थे।
गुरु िशमन एवां िीथमयात्रा का आिशम
आप िहााँ भी िािे, िशमनाजभलाषीयों की भीड लग िािी िैन-िगि मे
आपका नाम और िप का प्रभाव सूयम के समान चमकिा हुआ िन-मानस
के अन्िकार को नि करिा रहा। आपके भिौड पिारिे ही छोटा सा गाांव
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िमम-प्रेमी िनिा के जलए िीथम-स्थान बन गया। आपके व्यजित्व का
आकषमण शजि प्रजिदिन सैंकडों याजत्रयों को भिौड ले िािी। भिौड-
जनवासी भाईयों का सारा समय इन याजत्रओं की सेवा सुश्रुआ में व्यिीि
होिा। आजिथीयों का यथायोग्य सत्कार होिा था। भिौड पहुाँचने का मागम
चारों और से ऊाँचा-नीचा और कच्चा होने के कारण िुगमम था। दफर भी
आने वाले िमम-प्रेमी यहााँ जनरन्िर पहुाँच रहे थे। याजत्रयों की श्रद्धा और
ग्राम जनवाजसयों की जनष्काम सेवा और भजि भाव अत्यन्ि प्रशांसानीय थे,
परन्िु िब िशमनाजभलाषी सज्जन अपने साि घोडा गाडी आदि सवाररयाां
लाने लगे िो ग्राम-जनवाजसयों की अजिथी-सेवा में कु छ असुजविा होने
लगी। सवमजहि-जचन्िक महाराि श्री से यह असुजविा जछपी नही, अिः
उन्हों ने जनभीक एवां स्पि शब्िों में अपने प्रवचन में कहा-
“ िमम प्रेजमयों ! प्रेम का सच्चा अपािमन करो और प्रेमी भाईयों के
जनष्काम प्रेम का अनुजचि लाभ न उठाओ। आवश्यकिा का जनयजमि
मात्रा से अजिक जवस्िार करना, प्रेम और भजि का जनरािर है। यह स्वाथम
है। प्रेम दिखावे में नहीं प्रेम सरलिा मन , वचन और काया के सिव्यवहार
में है।”
यदि आपको िमोपिेश से प्रेम है िो आप सवारी लेकर ठाठ-बाट से
क्यों आिे हो ? ग्राम जनवासी भले ही आपका स्वागि करिे हों और
आपकी यथाथम अजिजथ-सेवा भी होिी हो, परन्िु आपने कभी जवचार नहीं
दकया दक सािु के पास आकर त्याग सीखना है और िूसरों के जलए
सहानुभूजि िथा प्रेम लाना है। आप िानिे हैं, दक इस छोटे से ग्राम में
अनेक नगरों से िशमनाजभलाषी बडी-बडी सांख्या में सवाररयाां और नौकर
चाकर लेकर आिे हैं और यहााँ इन सबके जलए जमठाईयााँ जमलनी अजि
करठन हैं। जनसन्िेह भिौड जनवासी इस पररपाटी को जनभा रहे हैं, परन्िु
याजत्रयों का कत्तमव्य है दक नगर-जनवासीयों की करठनाई का जवचार करें.

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यहााँ ठाठ-बाठ के साथ सवारी लेकर न आएां और न जमठाईयााँ ही खाएां।
आवश्यकिानुसार सािा भोिन ही पयामप्त है। यदि आपने अपने इस कत्तमव्य
का पालन दकया, िो मुझे आपके िमम-प्रेम की परीक्षा का यथोजचि अवसर
जमल िायेगा। अन्यथा मुझे इस कत्तमव्य की उपेक्षा करने वाले सज्जनों के
ग्राम में एक वषम न िाने का प्रण करना पडेगा।
यह उपिेश सुनकर श्रोिाओं को अपने कत्तमव्य का ज्ञान हुआ और उन्होंने
मुजन िी को जवश्वास दिलाया दक “महाराि! आिेशानुसार ही सब कायम
होगा। “
इस प्रकार मजनवर की िूरिर्शमिा, समयानुसार सूझ और कत्तमव्य-
परायणिा ने अगजणि मनुष्यों को सामाजिक िथा आर्थमक करठनाईयों
और आकारण प्राप्त किों को िूर कर दिया। प्राचीन रूदढ़यों की भयांकर
जवकृ जि का सुिार हुआ।
प्रेम ही मुजि का मागम है
यहााँ से आपने फरीिकोट को जवहार दकया और मागम में मुांिकी ग्राम में
पिारे। यहााँ के लोगों को अहहांसा का मुजि मागम िशामिे हुए एक मनोहर
व्याख्यान में आपने सन्िेश दिया-
“ प्रेम एक पजवत्र भाव है िो स्वाथम और स्वेच्छाचार से रजहि है। इसका
प्रभाव प्राणी मात्र पर एक िैसा होिा है। इसका एक उद्देश्य गुण, कमम
और स्वभाव को उनके वास्िजवक रूप में िेखना और उनका ििनुसार
प्रयोग करना है। प्रत्येक िीव-िन्िु प्रेमाजभलाषी और प्रेम-मूर्िम है । यह
भाव अजि उच्चकोरट का और बहुि जवस्िृि है प्रेम यदि “ सत्यम् जशवम्
सुन्िरम” के जवशाल जनयम पर अिाररि है िो वह महान आकषमण का
उत्पािक होिा है। यह जवश्व के सभी प्राजणयों में जवद्यामान है और सभी
जवश्व के प्राणी इसके अन्िगमि आिे हैं। इसमें राग, द्वेष, मोह, माया अथवा

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काम, क्रोि का लेशमात्र भी नहीं होिा। प्रेम आत्मा का जनिी गुण और
प्राणी मात्र का परम िमम है।”
“ अहहांसा में प्रेम समाया हुआ है दक इनका पृथकाभाव अथामि व्यजिगि
रूप में ज्ञान प्राप्त करना, िानना, समझना और िेखना असम्भव है। यह
िोनों परस्पर एक स्वरूप हैं। प्रेम ही आत्म सांयम है, जिससे शारीरक या
मानजसक भोग-जवलास का नाम िक नहीं।”
“ प्रेम शब्ि इिना साथमकिापूणम हैं दक इसमें आशीवामि, शुभ-जचन्िन,
प्रशांसा िथा सद्धगुणों के सभी रूप समा िािे हैं। इसका जनरन्िर खोि
करो, गहराई िक पहुाँचो और इसकी प्राजप्त के प्रयत्न दकये िाओ।”
“ प्रेम कामिेनु है, सािना ही इसकी बजछया है, इस बजछया को िेखिे
ही इस कामिेनु के थनों में कामना-पूर्िम के िुग्ि की िाराएां स्त्रजवि होने
लगिी हैं। िूि को यदि चाहिे हो िो प्रेम की कामिेनु की सेवा करो। यह
िुम्हारे सब मनोरथ पूणम करे गी ।”
“ प्रेम से सूली भी पुष्पशैय्या बन िािी है। मृत्यु मनोहर फू ल हो िािी
है। आपाजत्तयाां रूजचकर प्रिीि होने लगिी हैं। प्रेम अपनी साथमकिा और
व्यापकिा के कारण शब्िकोष में सबसे महत्वपूणम शब्ि है । प्रेम ज्ञान
स्वरूप है, मानो यह स्वयां ज्ञान ही है। आत्म ज्ञान और सवमज्ञिा िो मुजि
के सािन हैं, प्रेम ही है। प्रेम ही आत्मा का जनिीगुण और जनिी स्थान है।
िूसरों के िुःख को अपना िुःख समझ कर उसे िूर करने में अत्यन्ि सुख
अनुभव करना और अपने आपको िूसरों की उन्नजि और परोपकार के जलए
समर्पमि करना ही सच्चा प्रेम है। प्रेम सत्यमेव सुख स्वरूप है, अपने और
पराये के जलए कल्याण कारी है।”
इस प्रकार िमोपिेश िेिे हुए आप फरीिकोट पहुाँचे। यहााँ आपने
चािुमामस दकया और बहुि से ज्ञान जपपासु आत्माओं को िमाममृि का पान
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करािे रहे। आपके उपिेशों ने िनिा को इिना िमम-प्रेमी बनाया दक सभी
एक-िूसरे से बढ़कर िार्ममक उत्साह और िमम-जनष्ठा का पररचय िेने लगे।
स्थानक में मेला सा लगा रहिा था। सामाजयक, प्रजिक्रमण, शास्त्राध्ययन,
थोकडे और अन्य िार्ममक दक्रयाएां और कायमक्रमों में िनिा बडे चाव से
सजम्मजलि होिी। िमम में आस्था बडी और आपके िैजनक व्याख्यानों ने
वास्िव में नगर जनवाजसयों में नवीन िमम-चेिना का सांचार कर दिया।
चािुमामस समाप्त होिे ही िगराओं की ओर चल दिये।
आपकी िाशमजनकिा,िपोजनष्ठा, अनुभवशीलिा िथा सच्चाररत्रिा के
पुष्पों की सुगन्ि िूर-िूर िक फै ल गई। जिसने भी आपकी शरण ली वह
लाभाजन्वि हुआ, पूणम मनोरथ हुआ। आपकी वाणी से सत्य की ऐसी
प्रिीष्ठा हुई दक आपके मुख से जनकली हुई वाणी कभी जमथ्या नहीं हुई।
आपके िप ज्ञान और त्याग िूि के चन्रमा की भाांजि बढ़िे ही गये। वाक्
जसजद्ध समझें, चाहें आत्मसाक्षात्कार, यह गुण आपके उस महान व्यजित्व
का साक्षी आवश्य है जिसकी ओर सहस्त्रों लोग आकर्षमि हुए।
आपका िुबला, साांवला शरीर, शाजन्ि-वषमण करिे नेत्र, िेिस्वी मुख-
मांर्ल जवशाल ललाट और प्रभजवष्णु वाणी के समक्ष बडों-बडों के मस्िक
नि हो िािे थे।
आपके िपोमय व्यजित्व में शजि और शाांजि का अक्षय भण्र्ार था।
आपने इस भण्र्ार से शजि और शाजन्ि के रत्न खूब बाांटे, परन्िु अक्षय ही
रहा और आि भी अक्षय है।
जनयजमि आहार और रसना पर जविय
आठ पहर में के वल एक बार आहार-सेवन आप का स्वभाव था। पका
जनजष्मि भोिन िो रोरटयाां, िाल और िो बार पानी पीने िक सीजमि था।
रोगी होने पर अथवा िब कोई और खाद्य-वस्िु सेवन करनी होिी िो
उपरोि िीन में से कोई एक को छोड िेिे। गुड शक्कर अथवा शरबि जलया
िो रोटी छोड िी। रोटी शक्कर से खाई िो िाल को छोड दिया। आपने

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समस्ि सािु िीवन काल में आप सिैव इस जनयम का पालन करिे रहे।
आपने सब्िी और अचार सािु बनने के बाि कभी नहीं ग्रहण दकया। एक
दिन महाराि श्री जबहारी लाल िी आहार लाये, उस दिन िाल न जमली,
जखचडी ले आये, िो रोरटयााँ और िाल के अनुमान से अजिक जखचडी रख
कर भेंट की आपने िेखिे ही पूछा-“ जबहारी लाल ! जखचडी इिनी क्यों
रखी गई है ?”
उन्होंने उत्तर दिया-“ महाराि! सहि भाव से रखी गई है।”
आपने सरलिा से कहा-“ भाई ! इस प्रकार का भोिन-लालसा में मुझे
मि फां साओ, कहीं िुम्हारा अन्िा प्रेम िोनों के पिन का कारण न बन
िावे। सािु के जलए युिाहार-जवहार का पालन करना अजनवायम है। अिः
मैं अपने अहार-जनयम को भांग नहीं करना चाहिा। आिेशानुसार महाराि
जबहारी लाल िी ने जनयजमि रूप से िाल के बराबर जखचडी रहने िी और
ित्पश्चाि् कभी ऐसी भूल नहीं की।”
आपके त्याग एवां वैराग्य के सम्बन्ि में में इिनी सावमिजनक घटनाएां हैं
दक उनसे प्रत्येक िमम-प्रेमी आपका श्रद्धालु बन िािा है। िन्य है ऐसा
महापुरुष जिन्हों ने अपने चररत्र-बल जलए एक िैन मुजन के पजवत्र िीवन
क्रम को अपना कर उसे सवमसािारण को श्रद्धा और सम्मान का पात्र
बनाया।
महाराि की दिव्य शजि और सहि घटनाएां
आपका िीवन असािारण घटनाओं और अद्धभुि चमत्कारों से पररपूणम है।
आप सीिे-सािे शब्िों में जनष्काम-भाव से िो बाि कहिे थे वही पूरी हो
िािी थी। आप ने कभी इसे चमत्कार या करामाि नहीं कहा, परन्िु वह
आलौदकक घटनाएां चमत्कारों के दकसी प्रकार कम नहीं हैं। इनका वृत्तान्ि
अजि जवस्िृि, भावपूणम और बडे महत्त्व का है। आप प्राय- कहा करिे थे दक
िपस्या और त्याग में अनन्ि शजि है। ब्रह्मचयम व्रि िीवन को ज्योर्िममय
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कर िेिा है और िप एवां वाणी-जसजद्ध को िन्म िेिी है । आपके िीवन का
महत्वपूणम घटनाओं में से कु छ का यहाां सांजक्षप्त उल्लेख दकया िािा है।
क्योंदक लम्बे समय अन्िराल के कारण पूवम वृि जमलने सम्भव नहीं हैं .
इनके पठन-पाठन और श्रवण से महाराि श्री िी के महान व्यजित्व का
सहि अनुमान हो सके गा।
जचन्िन के अनुरूप ही उपलजब्ि
रायकोट में पजण्र्ि हररराम नामक ब्राह्मण वैद्य रहिे थे। िब
महाराि िी मल जवसिमन के जलए बाहर िािे थे िो वैद्य िी उनको आिे
िेखकर आाँखें बन्ि कर लेिे थे, एक दिन दकसी श्रद्धालु ने आपसे जनवेिन
दकया, “ महाराि! आप िूसरे रास्िे से चलें िाया करें, हम से आपका यह
अपमान िेखा नहीं िािा .”
महाराि ने उत्तर दिया, “ भाई ! आि पजण्र्ि िी से जमलकर
जवचार जवजनमय कर लेगें।”
आि वे पुनः उसी मागम से ही गये िो पजण्र्ि िी ने पहले की भााँजि
आाँखें बन्ि कर ली। महाराि िी पजण्र्ि िी के पास िा कर ठहर गये और
उनसे पूछा-“ पजण्र्ि िी ! आपके द्वारा मुझे िेखकर आाँखें बन्ि कर लेनो
का क्या कारण है ?”
पजण्र्ि िी ने उत्तर दिया-“ मेरे िमम में िैन-मुजन के िशमन की आज्ञा
नहीं है। इसी कारण िशमन न हों िाने पर इसे अपशकु न माना िािा है ।”
आपने दफर प्रश्न दकया-“ पजण्र्ि िी ! कृ पया यह िो बिाइये दक आपके
शास्त्र मे ब्राह्मण के िशमन का क्या महत्व है ?”
उत्तर जमला- “ कायम-जसजद्ध और िीवन कल्याण।”

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आप ने दफर पूछा-“ पजण्र्ि िी ! िब मुझे आपके िशमन करने से िो
अजि आनन्ि और लाभ होगा? ”
उत्तर जमला-“ हाां ! अवश्य.”
आपने िासरा प्रश्न दकया-“ मेरे िृजिगोचर होने से आप की क्या िशा
होगी ?”
वैद्य िी ने कहा-“बुरी ही होगी ।”
महाराि श्री िी ने उिारिापूवमक वैद्य िी का भ्रम जनवारण करिे हुए
उन्हें समझाया पर उनकी समझ में कु छ नहीं आया । वह अपनी बाि से
टस से मस नहीं हुआ. अन्ि में महाराि श्री िी ने कहा-“ यह िो अपने-
अपने हैं पजण्र्ि िी ! िैसा मनुष्य सोचिा है, वैसा ही होिा है।”
कहिे हैं दक पजण्र्ि िी की आाँखें उसी दिन से िुःखने लगी और चौथे
दिन वैद्य िी की आाँखों की ज्योजि िािी रही।
जशकार का पररत्याग
मुजन महाराि भािौड में जवरािमान थे । शौचादि के जलए बाहर िािे
समय भािौड के प्रजिजष्ठि िनवान सरिार अिरहसांह जशकार को िािे
जमल गये। सरिार साजहब ने महाराि को नमस्कार दकया, परन्िु महाराि
मौन खडे रहे। सरिार साजहब ने जवजस्मि होकर पूछा-“ महाराि क्या
अपराि है मेरा, मेरा नमस्कार स्वीकार नहीं हुआ ?”
आपने ममम स्पशी वाणी मे उत्तर दिया- एक जशकारी और जभक्षु का क्या
मेल सरिार साजहब ?
सरिार साजहब ने हृिय की वेिना प्रकट करिे हुए उत्तर दिया-
“महाराि! सन्िान नहीं है । जशकार िो के वल समय जबिाने और मन

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बहलाने का सािनमात्र बना रखा है। यदि सन्िान हो िाए िो मैं जशकार
करना छोड िूग
ाँ ा ।”
आपने आिेश दिया-“ परोपकार में जनस्सांिह
े अपना भला है। सरिार
िी यदि औरों का भला करोगे िो अवश्यमेव आपका भी भला होगा।
इसजलए जशकार का त्याग से आपका भला होना अजनवायम है । सन्िान
होने या न होने का अिार मेरे कहने अथवा न कहने पर नहीं, यह िो
आपके भाग्य की बाि है।”
सरिार िी ने जशकार का पररत्याग कर दिया और एक वषम बीिने पर
ही सरिार साजहब के घर में पुत्र उत्पन्न हुआ। दफर िो सरिार साजगब
िीवन-पयमन्ि मुजन महाराि के सेवक बने रहे।
वचन जसद्ध महापुरुश स्वामी श्री रुपचन्ि िी
महाराि के िीवन का सांस्मरण
पहले समय में जववाह शादियों में वेश्याओं को नचाने का ररवाि था।
यह बडी कु प्रथा थी. एक सेठ ने िगरावाां में अपने लडके की शािी पर
यदि यह प्रथा बन्ि कर िी िाए, िो यह ररवाि हमेशा के जलए बन्ि हो
िायेगा । जबरािरी के प्रमुख लोगों ने महाराि श्री िी से कहा दक- आप
चौिरी साजहब से कहें दक जववाह में वेश्याओं को नचाने की कु प्रथा बन्ि
करवाने में पहल करें। यदि वह इसका पालन करेंगे िो यह कु प्रथा हमेशा
के जलए बन्ि हो िाएगी। महाराि श्री िी ने कहा- बहुि अच्छी बाि है।
उन्होंने एक सेवक को चौिरी साजहब के पास भेिा. सेवक ने महाराि श्री
िी का सांिशे सेठ िी को दिया। सेठ ने कहा- अच्छा िुकान पर ग्राहक
अजिक थे, वैसे समझ गया था दक मुझे दकस जलए बुलाया है. सेठ ने सेवक
से कहा- महाराि िी को िाकर कह िो अभी मेरे पास समय नहीं है, िब
समय जमलेगा िब मैं आऊाँगाां। सेवक ने उसी िरह महाराि श्री िी को कह
दिया। एक-िो दिन प्रिीक्षा की परन्िु वह नहीं आया।

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सन्ि बडे सीिे-सािे िपस्वी एवां सांयमी थे। हर समय सािना में लीन
रहिे थे. एक दिन स्वयां ही उसकी िुकान की ओर चल दिये। िुकान पर िा
कर कहने लगे-“श्रावक! मैंने िुम्हें बुलाया था, आप क्यों नहीं आए ?” वह
बोला- महाराि भूल गया था, आि शाम को अवश्य आऊाँगाां। साांयकाल के
समय उपाश्रय में पहुाँचा िो महाराि श्री िी ने कहा- िेखो िुम्हारे लडके
की शािी है, शािी में एक बुरी प्रथा वेश्या नचाने की चल रही है । आप
जववाह में ऐसा न करो, यह आप को शोभा नहीं िेिा, यदि आप छोड िोगे
िो अन्य भी छोडेंगे। सेठ ने कहा- महाराि यह प्रथा कै से बन्ि हो सकिी
है, शािी में िो यह करना ही पडिा है। वे सन्ि पुरुष थे। सेठ सुखों से
इिना आसि हो गया उसको यह भी ख्याल नहीं रहा दक सन्ि मेरे भले के
जलए कह रहें हैं। महाराि ने गुस्से में आकर कहा- अच्छा िुम शािी में सब
कु छ करोगे ? िुम्हारे लडके की शािी होगी िो िुम करोगे न।, िब शािी
ही नहीं होगी िो िुम करोगे ही क्या ? सेठ िुजनया बिलिे िेर नहीं
लगिी। एक जमन्ट में िख्ि वाला िख्िी पर और िख्िी वाला िख्ि पर आ
िािा है। यह कमम चक्कर ऐसा ही होिा है सेठ ! सन्ि के कहने पर सेठ का
कारोबार फे ल होने लगा, मार्कम ट में हवा खराब हो गई। िब सेठ को याि
आया दक सन्ि वाणी को न मानने पर, यह मुसीबि उसी का फल है।
सेठ दफर महाराि के पास गया और कहा- आपके कहने अनुसार ही
काम करूाँगा। महाराि बोले- मैंने िो पहले भी कु छ नहीं कहा और अब
भी कु छ नहीं कह रहा हाँ। सांयोग व्यजि की भावनानुसार ही बन िािे हैं।
इसमें बन्िु न िेरा िोष है न मेरा िोष है ? िब कमम अच्छा होिा है, सब
कु छ अच्छा होने लग िािा है .। न मेरे मन में कोई िुभामवना है और न ही
मेरे मन में कोई ईष्याम भाव है। ऐसा था उनकी वाणी का चमत्कार।

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हांसमुख व्यजित्व
एक बार श्री रुपचन्ि िी महाराि दकसी के घर जभक्षा लेने गये। एक
बहन मक्की की िो रोरटयाां उनको िेने लगी और बोली- महाराि! मेरी
लडकी मुटीयार याजन बडी हो गई है। इसके जववाह के जलए योग्य वर भी
जमल गया है, लेदकन शािी के जलए रुपये चाजहए और बेटा भी िवान हो
गया है। िोनों की शािी करनी है। महाराि ने पूछा-दकिने रुपये चाजहए?
वह बोली िोनों की शािी के जलए िो-िो हिार। इस पर महाराि हांस कर
बोले- बहन! रोटी का सौिा बडा मांहगा है। एक एक रोटी िो- िो हिार
में पडे गी। ऐसा था उनका व्यजित्व। सभी उन्हें अपना समझकर अपना
िुःख-सुख सुनािे थे और वह सहि भाव से उनको आशीवामि भी िेिे थे।
मूल है िो ब्याि की क्या कमी
श्री रुपचन्ि िी महाराि का जनयम था दक उनका व्याख्यान समाप्त
होने पर कोई भी मजहला वहीं बैठी न रह सकिी थी। लेदकन एक बार एक
वृद्धा व्यख्यान के बाि बैठी रही. महाराि ने उसे िेखा और कारण पूछा
िो वह बोली- महाराि! मेरे बच्चे के की सन्िान नहीं है. आप आशीवामि
िीजिए अन्यथा मेरा वांश खत्म हो िाएगा। महाराि ने कहा-क्या नाम है
िेरे बेटे का ? बुदढ़या बोली-मूला। महाराि ने कहा- िा, मूल है िो ब्याि
की क्या कमी ? महाराि का आशीवामि ऐसा फला दक मूला के वांशि िथा
मण्र्ी वाले आि हिारों पररवारों के रूप में सांसार भर में फै ले हुए हैं।
गवम नहीं करना
रायकोट में लाला उद्यममल ओसवाल प्रजिदिन सामाजयक दकया करिे
थे। जववाह के कारण थोडे दिन सामाजयक न कर सके । ित्पश्चाि जववाह
के आनन्ि में में िमम-ध्यान में रूजच कम होने लगी। एक दिन स्थानक में

60
आए िो महाराि िी ने पूछा-“क्यों भी उद्यममल! सामाजयक क्यों नहीं
करिे?”
गवम से भरा हुआ उत्तर जमला-“ महाराि ! सुसराल गया हुआ था। वहाां
समय ही नहीं जमलिा था और कु छ यहााँ आ कर भी काम-काि बढ़ िाने
से समय का अभाव हो गया है। अब िो िामाि भी बन गया हाँ महाराि.”
आपने समझाया-“ भाई ! िमािा बन गवम न करना चाजहए, क्या पिा
है दक दकिने िमािा बनाने पडे। उद्यममल के घर साि लडदकयााँ हुई।”
सद्भावना और प्रेम
श्री वृषभान िी महाराि का िीक्षा सांस्कार था । इस महोत्सव पर
पिारने वालों की सांख्या अनुमान से अजिक हो गई। खाने-पीने का प्रबन्ि
सीजमि रूप से दकया गया था। प्रबन्िकत्ताम जचजन्िि होकर रुपचन्ि िी
महाराि की सेवा में उपजस्थि होकर इस करठनाई का वणमन करके
जनवेिन दकया दक “थोडी अपजत्त में हैं, कु छ नहीं सूझिा क्या दकया िाय?
कायम दकस प्रकार चल सके गा.?”
आत्मजवश्वासी, िपस्वी मुजन ने आिेश दिया, “ भाई! व्यथम की जचन्िा
मि करो। सद्भावना और प्रेम से अपना कायम करिे रहो, शुभ सांकल्प और
आत्म-जवश्वास बडी वस्िु है। िो जििना माांगे उसे उिना िो क्या कभी
भोज्य पिाथम मे कमीं आया करिी है , खुला हाथ रखो, भण्र्ार भरे रहें गे।
आज्ञानुसार जखलाना-जपलाना आरम्भ हुआ और सभी खाने वाले खा-पी
चुके थे िो भोिन इिना बचा हुआ था दक इिने ही और लोग हो िो
भोिन कर सकिे थे।”
ऐसी सैंकडो घटनाओं से आपका िीवन ओि-प्रोि है। जिस अनुपम
साहस के साथ मुजनवर ने साांसाररक जवषय भोगों का पररत्याग दकया,

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मोहक पररवाररक िाल को जछन्न-जभन्न दकया, उसी प्रकार मन की
चांचलिा पर भी जविय प्राप्त की। काम, क्रोि, मोह, लोभ और जमथ्या
मान मयामिा की प्रबल श्रृांखला को िोडने के अजिररि स्वयां जिन भगवान
के सच्चे सेवक बनकर सवमसािारण को िशामया दक वीर प्रभु का एक सािु
दकस प्रकार अपने िीवन में अहहांसा, सत्य, ब्रह्मचयम और अपररग्रह का िशम
उपजस्थि कर सकिा है। उसका साकार रूप थे श्री रुपचन्ि िी महाराि।
आिशम िैन जभक्षु
आप िो कु छ कहिे थे सहि भाव से कहिे थे, उसमें काम, क्रोि का
िाप और द्वेष की िुगमन्ि नहीं होिी थी . उसमें सुिार की भावना का योग
रहिा था और उसमें जहि-जचन्िन की परोपकारमयी सद्भावना रहिी थी।
अिः यह जनणमय करना असम्भव नहीं िो करठन अवश्य है, उपरोि
घटनाओं को चमत्कार समझें या करामाि कहें अथवा िैवयोग, परन्िु इन
श्रद्धालुओं के पीछे िपोबल की जनष्ठा, ब्रह्मचयम की मजहमा और सािु
िीवन की मजहमा (चयाम) को स्वीकार करना ही पडिा है।
आपने साांसाररक जवषय-भोगों के पररत्याग द्वारा जिस उत्साह और
साजत्वक लगन का पररचय दिया था, वैसी ही वीरिा, एकाग्रिा, और
अटल आत्म जवश्वास के साथ क्रोि, जमथ्याजभमान, माया और लोभ को िूर
करने का आपने पूणम प्रयत्न दकया था।
उपयुमि घटनाओं के उल्लेख से श्री स्वामी िी महाराि के दकसी
चमत्कार या करामाि का प्रचार करने का कोई प्रयोिन नहीं है। इनसे िो
के वल यह मालूम होिा है दक महाराि श्री िी का िीवन साजत्वक और
जनयजमि था. घटनाओं का यथावि् समयानुसार वास्िजवक रूप में स्विः
जसद्ध प्रयोग होिा रहा। उनकी ित्त्व-िृजि एवां वैराग्य से इनका कु छ
सम्बन्ि न था।

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जशष्य और पिवी के मोह से जवरि मुिात्मा
सािु िीवन का इससे अजिक कोई उत्तम आिशम नहीं हो सकिा। मुजन
महाराि ने िपस्या, त्याग और वैराग्य में िीवन व्यिीि करिे हुए जवद्या-
लाभ, स्वाध्याय और ज्ञान-प्राजप्त में व्यस्ि रहकर भी मानव िाजि के
उद्धार के जलए जशक्षा-प्रि व्याख्यान िेकर सम्पूणम मानव िाजि को सही
रास्िा बिाया। उच्चिम आिशम पिवी को छोडकर के वल सािु बने रहने पर
ही सन्िोष दकया।
यदि आप चाहिे िो आप के अनेक जशष्य बनािे और उन जशष्यों के
सांगठन करके बहुि बडे सम्प्रिाय के आचायम बन िािे, परन्िु आप िानिे
थे दक प्रायः जशष्य भी मोह का कारण बन िाया करिे हैं।
शाश्वि सुख की प्राजप्त
अब आप की वृद्धावस्था आरम्भ हो चुकी थी और समस्ि िीवन
िपश्चयाममय होने से शरीर कृ ष हो गया िो आपने िगराओं नगर में जस्वर-
वास कर जलया और अपने िपोबल के प्रभाव से अपने िीवन के अजन्िम
समय को सजन्नकट समझ कर स्थानक में एकजत्रि हुए िनसमूह के समक्ष
प्रवचन करिे हुए कहा-
भव्यो ! यह आत्मा-स्वभाव से जसद्ध-बुद्ध और ज्ञानादि गुणों से समृद्ध
है, दकन्िु इसकी पररणजि जवभाव रूप में हो रही है। ज्ञानावरणीय,
िशमनावरणीय, वेिनीय, मोहनीय, आयु, नाम,गोत्र और अन्िराय-इन आठ
कमों के कारण बन्िन में बन्िा हुआ यह आत्मा, सांसार-चक्र अथामि नाना
योजनयों में िन्म-मरण के िथा अन्यान्य प्रकार के घोर कि सहन कर रहा
है। रां क हो या राव, सािन-सम्पन्न हो या जनिमन, सबल हो या जनबमल,
कु लीन हो या अकु लीन, सभी को समान रूप से कमम पीडा पहुाँचािे हैं।
इनका शासन जनष्कां टक है, कमम का फल सभी को भोगना पडिा है।
यहाां प्रत्येक प्राणी सुख चाहिा है, लेदकन अचरण जवपरीि करिा है।
साांसाररक पिाथों में सुख की गवेषणा करने में पररणाम में िुःख ही प्राप्त

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होिे हैं। सच्चा सुख िो आत्मा में ही जवद्यामान है। सुख आत्मा का ही गुण
है, अिः यह आत्मा को छोडकर अन्यत्र नहीं रह सकिा । अिएव सच्चे सुख
के अजभलाषी को आत्मा की ओर उन्मुख होना चाजहए । मोह आदि जवकार
ज्यों–ज्यों शान्ि होिे िािे हैं, त्यो-त्यों कमों की शजि का ह्रास होिा है
और िैसे िैसे कमों की शजि क्षीण होिी है, वैस-े वैसे दिव्य आनन्ि का
आजवभामव होिा है । अन्ि में आत्मा िब अपनी सािना द्वारा सवमथा
वीिरागी और जनष्काम हो िािी है िो अनन्ि सुख का सागर उमडिा है।
ज्ञानीिनों ने स्वयां ही सािना की है और उसका उपिेश भी दिया है।
सािना के जवकास क्रम को भी उन्होंने सवमवृजत्त और िेशवृजत्त जवकल्पों
रारा समझाया है ।
भव्य िीवों ! आप लोग अनादिकाल से इस मोह के प्रपांच में फां से हैं।
आपको इस प्रपांच से जनकलने के जलए मनुष्य िेह के रूप में मोक्ष जमली है
िो आप ऐसा प्रयत्न करो दक आपको शाशवि सुख की प्राजप्त हो।
महाराि के इस अजन्िम उपिेश का िनिा पर िो प्रभाव पडा, उससे
ओसवाल जबरािरी के अजिररि अनेकों अन्य िमामवालम्बी व्यजियों ने भी
श्रावक- िमम को िारण कर जलया । महाराि िी का सांकेि प्राय- सभी
समझ गये और यह समाचार िूर-िूर िक फै ल गया ।
इस समय श्री स्वामी जबहारी लाल िी, श्री महेषिास िी, श्री कममचन्ि
िी, श्री िनपिराय िी, श्री कु न्िनलाल िी आदि सन्ि आपकी सेवा में
उपजस्थि थे।
स्वामी श्री रुपचन्ि िी महाराि के चािुमामस
िीक्षा सम्वि् 1894
सम्वि् शहर सम्वि् शहर
1895 अलवर 1898 िगरावाां
1896 सुनाम 1899 बडेचा
1897 कोथा 1900 परटयाला
64
1901 िगरावाां
1902 छींटावाला
1903 समाना
1904 िगरावा
1905 भिौड
1906 रायकोट
1907 समाना
1908 िगरावाां
1909 भिौड
1910 रायकोट
1911 िगरावाां
1912 मालेरकोटला
1913 फरीिकोट
1914 समाणा
1915 भिौड
1916 परटयाला ठाणा-3
1917 समाना ठाणा-2
1918 भिौड ठाणा-2
1919 नाभा ठाणा-2
1920 समाना ठाणा-3
1921 भिौड ठाणा-3
1922 नाभा ठाणा-3
1923 समाना ठाणाां-3
1924 िगरावाां
1925 भिौड ठाणा-2
1926 रायकोट

65
1927 मालेरकोटला
1928 िगरावाां
1929 समाना
1930 भिौड
1931 रायकोट
1932 िगरावाां
1933 समाना
1934 रायकोट
1935 िगरावाां
1936 िगरावा
ज्ञान का सूयम अस्िाचल की ओर
सम्वि् 1937 में ज्येष्ठ शुक्ला द्वािशी को प्रािःकाल शुद्ध हृिय से आपने
सांथारा ग्रहण दकया और अपनी 69 वषम 4 मास और 2 दिन की आयु पूणम
करके राजत्र िो बिे िगराओं नगर में िेव-लोक गमन कर गये।
आपके स्वगमवास का समाचार पाकर स्थान-स्थान से श्रावक वगम
इस दिव्य अलौदकक जवभूजि के अजन्िम िशमनाथम िगराओं पहुाँचे.
अनुमानिः एक सौ नगरों के प्रजिजनजियों ने स्वगमस्थ आत्मा को जवशेष
रूप से श्रद्धाांिजलयाां अर्पमि की। नगर के अनेक प्रेजमयों का मानों समुर ही
उमड पडा। आपके नष्वर शरीर को एक सुसजज्जि मेघार्म्बरी-जवमान में
रखकर बहुमुल्य िरी, शाल-िुशाले इत्यादि 96 वस्त्र ओढ़ाये गये। अजन्िम
शोभयात्रा का यह िुलूस िय-ियकार की ध्वजनयों के साथ नगर के बीच
में होिा हुआ लाला छोनामल िी के बाग में पहुाँचा, िहााँ चन्िन की पजवत्र
लकजडयों से जचत्ता सिाकर अजन्िम जविाई िी गई।
िन्य है ऐसी पजवत्र और पुण्य आत्मायें जिनका सारा िीवन
परोपकार िन-सेवा और िेश उद्धार में ही व्यिीि होिा है।

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श्री स्वामी परमानन्ि िी को श्री रुपचन्ि िी महाराि का िेव -
लोक गमन की सूचना जमली िो आपक हृिय से ये ममम -स्पशी भाव प्रकट
हुए-
“ हम आि सांसार का श्रेष्ठिम, पथ-प्रिशमक, िाशमजनक और
सुिारक खो बैठे हैं. । िैन-समाि का सच्चा जहिैषी नेिा चल बसा है,
ज्ञान,िप और त्याग का सूयम अस्ि हो गया है। इस क्षजि का जनवारण
करठन है।”
श्री बसन्िराय िी को िब श्री रुपचन्ि िी महाराि के स्वगमवास
का समाचार जमला िो अपने हृिय के उद्गार प्रकट करिे हुए आपने कहा-
“ आि सांयम और इजन्रय-जनग्रह को समझने वाले व्यवहाररक रूप
में उसका प्रयोग करने वाले की भयांकर क्षजि हुई है । इस कमी की पूर्िम
अत्यन्ि करटन है। आपका सच्चा त्याग और सच्चा उपिेश युग-युग िक अमर
रहेगा। “
प्रचार का प्रभाव
सारा िेश आपके प्रचार से प्रभाजवि हुआ। पांिाब प्राांि में िो कोई
ऐसा स्थान न रहा होगा िहाां आपने िनिा को अपने िार्ममक- जसद्धाांिों के
सुिारस का पान न कराया हो।
सांयुि प्रान्ि रािस्थान और मेवाड में आपकी बडी प्रजसजद्ध प्राप्त
हुई. पांिाव की ररयास्िों अथामि् परटयाला, िींि, नाभा, फरीिकोट,,
नालागड,नाहन, जसरमौर, मालेरकोटला, बहावलपुर और रािस्थानी
ररयास्िे जवशेषिः अलवर, बीकानेर आदि में आपके श्रद्धालुओं और िैन-
िमम प्रेजमयों की सांख्या अत्याजिक थी। अपने सिुपिेशों, प्रभावशाली
व्याख्यानों और िकम -पररष्कृ ि शास्त्राथों से अपने सिाचार, कत्तमव्य-
परायणिा और िमम-प्रेम की एक ऐसी अमर-ज्योजि िागृि की, जिसने

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िैन-िमम के सवम-व्यापी जसद्धाांिो और जनयमों को िेश-िेशान्िरों में
प्रसाररि दकया।
अजन्िम शब्ि
मनुष्य िन्म लेिा है और सुख-िुःख का भोग करके मृत्यु की ओर
बढ़ िािे हैं। पापी मृत्यु से भयभीि होने के कारण सांकोच और क्षोभ से
प्राण िेिे हैं, परन्िु िमम-प्रेमी मृत्यु का स्वागि करिे हैं। वे पुनिमन्म में नई
शजि साहस और उमांग के नविीवन प्राप्त करने के जलए जनःसांकोच झीणम -
शीणम व्यथम वस्त्र की भाांजि यह िीवन समर्पमि कर मृत्यु को अपना लेिे हैं।
ज्ञानी और पजवत्र आत्माओं को मृत्यु का भय नही सिािा। उन्हें िो मृत्यु
एक ऐसे ऱक्षक और सहायक के समान शुभ-जचन्िक प्रिीि होिी है।
जिसका काम िरा-ििमररि नश्वर शरीर का पररत्याग कराकर नई शजि
और नवीन िीवन प्रिान करना है।
इस दिव्यात्मा की सांजक्षप्त पुण्य गाथा को जलखकर मेरी लेखनी
पजवत्र हो गई। इस चररत्र का िो भी सुिीिन अध्ययन व मनन करें गे
उसके सभी मनोरथ पूणम होंगे।
सांस्कार स्थल छोनामल बाग में समाजि
िगरावाां मे ही छोनामल िी के बाग में महान सन्ि श्री रुपचन्ि िी
को अजन्िम जविाई िी गई थी। शिाब्िी व्यिीि हो गई-माजलक बिलिे
रहे, अथक प्रयास करने पर भी सांस्कार स्थल पर फसल नही उगी। यहााँ
आि भी राजत्र समय स्वामी रूपचन्ि िी महाराि, िाजहर बली,
लप्पेशाह, मोहकमिीन इन चारों की मीटटांग होिी है। चारो ओर से
ज्योजि सी िलिी है। लपटें व प्रकाश चारों ओर से जनकलिा है। चारो
ओजलयों के मेले लगिे हैं पुरानी समाजि पर। िब िमींिारों ने यहााँ
चमत्कार घरटि िेखा िो स्वयां ही उनका सांस्कार स्थल िैन समाि
िगरावाां को अपमण कर दिया। आि िैन समाि और गुरु भिों के
सहयोग से समाजि स्थल जनर्ममि हो गया है और चमत्कारी महान सन्ि

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श्री रुपचन्ि िी महाराि के ियघोष चहाँ ओर गूाँि रहें हैं। िैन िो क्या
अिैन िनिा भी बाबा िी की िय बाबा िी की िय बोलिी है, बाबा
िी की समाजि पर िाना है, यह कहिी है। वहााँ के िमींिार लोग भी
शुभ कायम करने से पूवम वहाां प्रसाि चढ़ािे हैं और सन्ि श्री रुपचन्ि िी की
िय बोलािे हैं और आशीवामि प्राप्त करिे हैं। ऐसे सन्िों का नाम लेने से
ही कल्याण होिा है, िो नकी अरािना करिा है वह अपने सांजचि कमों
से ही मुि हो िािा है।
श्री रुप समाजि स्थल िगरावाां
पांिाब प्रान्ि का जसद्ध िीथम स्थल श्री रुपचन्ि िी महाराि की
समाजि स्थल िगराओं मे बनी है। इस दिव्यात्मा की समाजि से शायि ही
कोई व्यजि खाली झोली लेकर लौटा हो। इस समाजि के पास बैठकर
जिसने िो भी सोचा वही पूणम हुआ। आि इस समाजि की मानयिा िूर -
िूर िक फै ल चुकी है।
श्री रुपचन्ि एस. एस.िैन सभा िगराओं और िूर-िूर से आने वाले
भिों के अथक प्रयास से अब इस समाजि का अत्यन्ि एवां भव्य एवां
िशमनीय रूप दिया गया है। आि यह पांिाब प्रान्ि का पुण्य शुद्ध िीथम बन
चुका है। इसका जवशाल भवन में चारों ओर सांगमरमर से शोभायमान हो
रहा है। आने वाले याजत्रयों एवां िशमनार्थमयों के जलए उत्तम प्रबन्ि की
व्यवस्था की गई है।
एक बार समाजि स्थल पर चोर आ गये और िानपात्र उठाने लगे।
कहिे हैं दक ऐसा चमत्कार हुआ दक वे अांिे हो गये और अपनी करनी पर
पश्चािाप करने लगे िब उनके नेत्रों मे ज्यजि वापस प्राप्त हुई।
िगरावाां समाजि पर कायम चल रहा था. एक दिन अचानक एस.एस.
िैन सभा के प्रिान एक कायमकत्ताम के साथ आए और बोलें टाईलें लानी हैं,
राि-मज़िूरों को मििूरी िेनी है, पैसे का क्या प्रबन्ि दकया िाए ।

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श्री हरबांसलाल िी ने उत्तर दिया- काम चलाने के जलए मुझ से चार सौ
रुपये ले िाईये, टाईलों के जलए हम चार-पााँच हिार की व्यवस्था शीघ्र
ही कर लेगें। वे सज्ज्न रुपये लेकर चले गये। हरबांस लाल िी एवां अन्य
कायमकत्ताम समाजि पर लगे िान-पात्र को खोला िो उसमें 8000 रु जनकले.
िबदक िान दक औसि िीन-चार सौ से उपर नहीं होिा था। महापुरुष
चमत्कार नहीं दिखािे परन्िु ’ िेवा जविां नमांस्सजन्ि िस्स िम्मे सया मणो’
िमम कायों मे िेविा भी चमत्कार प्रिर्शमि करने में सहायक हो िािे हैं र्ह
ऐसा ही चमत्कार था
************************************

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िैन दिवाकर परम पूज्य श्रा नाथुराम िी महाराि की वांशावली
श्री राम चन्ि िी मारवाड- श्री इन्रसेन िी
श्री िलाराम िी
श्री हरचन्ि िी आचायम श्री रिीराम िी
श्री नरोत्तमिास िी
श्री नानूराम िी श्री नन्ि लाल िी श्री ठाकु रिास िी
श्री रिुनाथ िी
श्री नैनी राम िी श्री रुप चन्ि िी श्री दकशनचन्ि िी
श्री भोिराि िी
श्री लक्ष्मीचन्र िी श्री जबहारी लाल िी

श्री महेषराय िी श्री कममचन्ि िी

श्री िनपालराय िी श्री वृषभान िी श्री राम दकसन िी श्री पालोरामिी

श्री रािाराम िी

श्री शािीलाल िी श्री कालूराम िी श्री बालकराम िी श्री मोठू राम


श्री िानकी िास िी महाराि

श्री चेिराम िी श्री साहबराम िी श्री सखाराम िी श्री अनन्िराम िी श्री भोिराि िी श्री लक्ष्मीचन्ि िी

श्री मथुरािास िी श्री घासीराम िी श्री दकशन चन्ि िी

श्री गोजबन्िराम िी श्री िीवन लाल िी श्री कु न्िन लाल िी


श्री छोटे लाल िी श्री आत्माराम िी ( श्री आत्मानन्ि िी)
आचायम सुशील कु मार िी महाराि

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