Professional Documents
Culture Documents
रवि रंजन - - - - - - राग दरबारी - यथास्थितिवाद के विरुद्ध खड्गहस्त बतरस की कला - - आलोचना
रवि रंजन - - - - - - राग दरबारी - यथास्थितिवाद के विरुद्ध खड्गहस्त बतरस की कला - - आलोचना
हमारे रचनाकार हद लेखक पुरानी व वशेषांक खोज संपक व व ालय सं हालय लॉग समय
कहना न होगा क आजाद के बाद धीरे-धीरे तथाक थत लोकतं ा मक शासन-तं ारा लगभग अपद थ क जा चुक जनतां क
एवं वचारधारा मक राजनी त के वघटन एवं पतन क इं तहा के चलते आम आदमी के क ठन जीवन अनुभव का बयान करने वाली
यह औप या सक कृ त अपने रचनाकाल तक हद उप यास क प रपो षत, पुर कृत तथा प रपु परंपरा म एक व ेप या थान क
तरह वीकृत है। उस ओर थान, जहाँ सा ह य अपने समय और स यता के गहरे अंत वरोधी एवं संकट म फँसे सबसे वं चत और
स ाहीन मनु य क वडंबना के लए जवाबदे ह ताकत क कमजोर रग पर उँगली रखता है। गहरे अनुभवज य आलोचना मक ववेक
से र चत आलो य उप यास वातं यो र भारतीय सामा जक जीवन के वरोधाभासी एवं ं ा मक संग को सहजता के साथ एक
ताजा, जीवंत, व त, पा ो चत और ासं गक कथा-भाषा को अपने पाठ क संरचना म व य त करके अपने कथा-समय का एक
ामा णक संवेदना मक द तावेज बन पड़ा है।
रोलां बाथ का कहना है क 'लेखन' इ तहास-जनक एका मता क या है और 'उप यास' सामा जकता का कृ य (ए जे चर ऑफ
सोशे ब लट )। इस से 'राग दरबारी' अपने समय का एक साथक 'कथा- योग' भी स होता है, जसके लेखन क कई परत ह।
सरे श द म व भ सू एवं ोत के स म ण से र चत इसक संरचना 'कोलाज' क तरह है - एक ऐसी संरचना जसम समाज का
मुक मल आईना दखाने के लए नाना वध े (टु ची चुनावी राजनी त, गाँव-दे हात का जीवन, जात-पांत, लंपटता, नौकरशाही,
लालफ ताशाही, कुछ का पं याँ, पूव-र चत उप यास का ज , कई लोक य फ मी गाने आ द) क संयो जत साम ी इ तेमाल क
गई है. इसके चलते 'राग दरबारी' के औप या सक पाठ म कई जगह एक वल ण अंतरपाठ यता है।
नव दशक से कृ ष- े म धीरे-धीरे कॉप रेट पूँजी और नई तकनीक के आ ामक सा ा य से ल लुहान छोटे और मँझोले
भारतीय कसान क दशा और खास तौर से हाल के दशक म कसान ारा क जा रही आ मह या के म े नजर कहा जा सकता है क
ीलाल शु ल ने हद प के गाँव म जन कु पता एवं वकृ तय क कशोराव था म शना त क थी, उनके ही वक सत प
आज हम ौढ़ाव था म दखाई दे रहे ह। आलो य उप यास म ं य- वनोद क तह म छपे मानवीय सारत व क ापकता एवं गहराई
इसे सावका लक मह व वाली ला सक कृ तय के समक खड़ा करती है। शु से अखीर तक ं य स म त इस रचना से गुजरते
ए याद आ सकते ह बा जाक, ज ह ने एक कारगर कथा-यु के तौर पर ं य के इ तेमाल क वकालत करते ए लखा है - "हमसे
सुंदर च क माँग क जाती है, कतु उनके नमूने इस समाज- व था म ह कहाँ? आपके घनौने व , आपक अप रप व ां तयाँ,
आपका बातूनी बुजुआ, आपका मृत धम, आपक नकृ श , बना सहासन के आपके बादशाह, ये सब इतने का ा मक ह क इनका
च ण कया जाएँ? हम अ धक से अ धक इनका मखौल उड़ा सकते ह।"
'राग दरबारी' का लेखक भी उप नवेशो रकालीन अ शती के दौर म भारत के भौ तक-आ मक जीवन के रग-रेशे को बेधने वाली
थापोषक राजनी त पर ं य-वाण क अंधाधुंध बौछार करता है। भारत म उ च श ा- व था और खास तौर से 'बु जीवी' कहे
जाने वाले ा णय से संबं धत उप यास म व णत एक संग है जसम 'वै जी' रा संचा लत एक महा व ालय के ाचाय ारा
कहलवाया गया है।"
"और सच पूछो तो मुझे यु नव सट म लै चरार न होने का कोई गम नह है। वहाँ तो और भी नरक है. पूरा कुंभीपाक ! दन-रात
चापलूसी। कोई सरकारी बोड दस प ली क ांट दे ता है और फर कान पकड़कर जैसी चाहे वैसी थी सस लखा लेता है। जसे दे खो,
कोई-न-कोई रसच- ोजे ट ह थआए है। कहते ह रसच कर रहे ह; पर रसच भी या, जसका खाते ह उसी का गाते ह। और कहलाते
या ह। दे खो, दे खो, कौन-सा श द है - हाँ - हाँ, याद आया - बु जीवी। तो हालत यह है क ह तो बु जीवी, पर वलायत का एक
च कर लगाने के लए यह सा बत करना पड़ जाए क हम अपने बाप क औलाद नह ह, तो सा बत कर दगे। चौराहे पर दस जूते मार
लो, पर एक बार अमरीका भेज दो - ये ह बु जीवी।" ('राग दरबारी', राजकमल पेपरबै स सं करण, पृ. 191)
उपयु संदभ से गुजरते ए याद आते ह ेमचंद, ज ह ने अपने जमाने के श त म यवग के बारे म 'पशु से मनु य' कहानी म
लखा था - "इन महान पु ष म से येक सैकड़ नह , हजार -लाख क जी वका हड़प जाते ह और फर भी उ ह जा त के भ
बनने का दवा है। पैदा सरे कर, पसीना सरे बहाएँ - खाना और मूँछ पर ताव दे ना इनका काम है। म सम त श त समुदाय को
नक मा ही नह , अनथकारी भी समझता ँ।"
गौरतलब है क आलो य उप यास म ं य क धार एक तरीय नह है। कारण यह क यहाँ भु वशाली तबक के साथ-साथ उस
वग क भी ज रत पड़ने पर यथा थान खबर ली गई है जो मोटे तौर पर भोलाभाला समझा जाता है - " कसान को... जमीन यादा यारी
होती है। यही नह , उसे अपनी जमीन के मुकाबले सरे क जमीन ब त यारी होती है और वह मौका मलते ही अपने पड़ोसी के खेत के
त लाला यत हो उठता है। न य ही इसके पीछे सा ा यवाद व तार क नह , सहज ेम क भावना है जसके सहारे वह बैठता अपने
खेत क मड़ पर है, पर जानवर अपने पड़ोसी के खेत म चराता है। ग ा चूसना हो तो अपने खेत को छोड़कर बगल के खेत से तोड़ता है
और सर से कहता है क दे खो, मेरे खेत म चोरी हो रही है। वह गलत नह कहता है य क जस तरह उसके खेत क बगल म कसी
सरे का खेत है उसी तरह और के खेत क बगल म उसका खेत है और सरे क संप के लए सभी के मन म सहज ेम क भावना
है।" (पृ.201)
सा ह य-सृजन के बारे म अपने नज रए का खुलासा करते ए ीलाल शु ल कहते ह - "कथालेखन म म जीवन के मूलभूत नै तक
मू य से तब होते ए भी यथाथ के त ब त आकृ ँ। पर यथाथ क यह धारणा इकहरी नह , वह ब तरीय है और उसके सभी
तर - आ या मक, आ यंत रक, भौ तक आ द ज टल प से अंतरगुं फत ह। उनक सम प म पहचान और अनुभू त कह -कह
रचना को ज टल भले बनाए, पर उस सम ता क पकड़ ही रचना को े ता दे ती है। जैसे मनु य एक साथ कई तर पर जीता है, वैसे ही
उस सम ता क पहचान रचना को ब तरीयता दे ती है।"
ीलाल शु ल क अंतरभेद अपने समय म पनप रही और आज बड़े पैमाने पर फल-फूल रही पतनशील राजनी तक सं कृ त
क ती त को भेदकर सार ( वकृ त) को रेखां कत करती है। इस वजह से वे यथाथवाद के आला उ ताद ठहरते ह। 'राग दरबारी' क
कालजयी मह ा क वजह लेखक के उस नज रए म न हत है जसके तहत उसने आम आदमी को एक ऐसे स य ाणी के प म
च त कया है जो तथाक थत नै तक आ ह और आदश के शेखी बघारने वाल क अस लयत अ छ तरह समझता है। चूँ क वह
त काल कोई ां तकारी कदम उठाने क थ त म नह है, इस लए उप यास म य द अ त र ां तका रता का पैबंद लगाया गया होता
तो वह वाभा वक के बजाए आरो पत ही तीत होता। यह लगभग नानपा म बचे-खुचे जल के साथ-साथ ब चे को भी फक दे ने वाली
वृ होती। बावजूद इसके लेखक को यथा थ त कतई वीकाय नह है। यथा थ तवाद मान सकता को वह सपल साहब के इस
बयान ारा वखं डत करता है - "बाद म इस नतीजे पर प ँचा क सब ऐसे ही चलता है। चलने दो, सब चड़ीमार ह तो तु ह साले
तीसमारखाँ बनकर या उखाड़ लोगे... तुम कुछ कहो तो भैया, ब त ठ क! और वै जी कुछ कह तो हाँ महाराज, ब त ठ क! और पन
बाबू कुछ कह तो हाँ महाराज, ब त ठ क! पहलवान! जो कहो, सब ठ क ही है।" (पृ.190)
शवपालगंज क चौह से लेकर वहाँ के हरेक तबके के नवा सय क मान सकता एवं जीवनचया से लेकर अंततः 'मदारी के
सामने बड़ी गंभीरता से मुँह फुलाकर बैठे ए' दोन बंदर के वणन तक कथाकार ने पुराने का , पुराकथा , और लोक-सा ह य म
मौजूद वणन करने क जो ठे ठ भारतीय ला सक परंपरा है, उसका जबरद त इ तेमाल कया है। सरे श द म ीलाल शु ल क
शीष पर
सृजन-या ा म वणना मकता क श के चलते उनक यह कृ त पाठक के साथ सीधे-सीधे संवाद था पत करती है। कहना न होगा क
जाएँ
वणना मकता म एक कार क व तु न ता अनु यूत होती है और प ही सा ह य-सृजन म व तु न ता वणन करने वाले क व णत
ं े ी ै ै ी ी ं ो
संदभ या थ तय से गाढ़ प रचय क दरकार रखती है। याद आता है एक प रवतनकामी कथन क - "म अपनी परंपरा को अ छ
तरह जानना चाहता ँ, ता क उससे घृणा कर सकूँ।"
ऑडेन के श य तथा जाने माने अँ ेजी क व रॉय फुलर का मानना था क सामा जक धरातल पर सबसे अश भू म पर खड़े
रचनाकार क कृ त म ही यथाथ के सम वत सम दबाव को अ भ दान करने क ताकत सबसे यादा होती है। उ लेखनीय है
क एक उ चा धकारी के प म जीवन यापन करने वाले ीलाल शु ल के भीतर अपने ही वग-च र को लेकर य द आलोचना मक
ववेक से उपजा नमम आ म नषेध पैदा नह आ होता, वे 'राग दरबारी' म आई वणना मकता को कला के तर पर साध नह पाते। यह
कला जब सध गई तो वणन उसके लए केवल लेखन-शैली के बजाए लेखन- म म अनेकानेक संग को दे खने- दखाने का एक
रचना मक ह थयार बन गया। प ही उप यासकार ने इसका साथक इ तेमाल करते ए आलो य उप यास क कथा-भू म के वणन क
या म वहाँ के जीवन- संग के लगभग तमाम पहलु को पाठक के सामने एक-एक कर परत-दर-परत खोल कर रख दया है।
कई बार लगता है क 'राग दरबारी' के रचना मक मजाज क वजह से इसके लेखक क थ त एक हद तक सी भाषा के एक
अ यंत संवेदनशील कथाकार वा सले शु सन क तरह थी, जसे सी सं ांत वग दे हाती और दे हात के लोग उसे शहरी मानते थे।
जब क शु सन गाँव और नगर, दोन से नवा सत थे। कहने क ज रत नह क यह आ म- नवासन कतई नह था। ीलाल शु ल को
भी एक अरसे तक सा ह यक बरादरी म एक उ चपद थ अ धकारी और आला अफसर के बीच सा ह य का आदमी माना जाता था।
यह बात हद के कुछ अ य रचनाकार पर भी कमोबेश लागू होती है।
'उप यास' के वधागत वभाव क ा या करते ए मखाइल बा तन ने लखा है क उसम य एवं वर क अनेकता होती
है। उनका यह भी मानना है क उप यास क औप या सकता उसक संवादध मता म न हत होती है। 'राग दरबारी' के रचना- वधान म
केवल रचनाकार क क ही नणायक भू मका हो, ऐसा नह है। इसम आए येक पा क एवं वर क अपनी स ा है, उसका
वतं अ त व है। इसका सुफल यह आ है क उप यास के सारे पा अपनी वाभा वकता के साथ ठ क उसी तरह पर पर संवाद करते
दखते ह जैसे कसी क बे या गाँव म लोग आपस म ब तयाते ह। नतीजतन कोई भी संवाद यहाँ आरो पत तीत नह होता। पा क यह
सहज संवादध मता एवं बतरस क कला इस कृ त के त पाठक के भीतर एक खास लगाव व जुड़ाव पैदा करने म समथ ई है, जो क
इसक लोक यता क एक बड़ी वजह है।
ीलाल शु ल अपने समय के ामीण जीवन-जगत को शहरी म यवग य रोमानी रबीन से कसी खूबसूरत लड केप क तरह
दे खने के बजाए उ ीस सौ साठ के दशक म हद े के लगभग ठहरे ए ामीण प रवेश म ा त कूपमंडूकता एवं पर पर वैमन य का
हा य- ं य स म त बतरस क शैली म इस कदर वणन करते ह क पाठक के मन म वहाँ ा त व प ू ता के त सहज ही वतृ णा
पैदा होती है। इस संदभ म लेखक य व तुपरकता खास तौर से का बलेगौर है जसके तहत त कालीन गाँव म जड़ जमाए पछड़ेपन,
अ ानता, सामंती अहंकार और पाखंड, अराजकता एवं अमानवीकरण क ब खया उधेड़ी गई है। कहना न होगा क ये सब वकास क
मु यधारा से कटे या अलग-थलग पड़े अ सामंती इलाके के वाभा वक ल ण ह।
ऐसे मंद-मंथर ग त वाले इलाके म बड़ी पूँजी का वेश से कैसे अपराध को ज म दे ता है और लोग को कस हद तक नमम-
नरंकुश एवं मानवीय सारत व से र हत बनाता है, इसका ग प कालांतर म ' क सा लोकतं ' म वभू तनारायण राय तथा 'रेहन पर र घू' म
काशीनाथ सह ने रचा है। व तुतः 'राग दरबारी' हद उप यास के इ तहास म 'ता का लक' त य के कला मक वणन से एक ऐसे
'कालातीत' स य व अथ का सा ा कार कराने वाली ला सक कृ त है जसे रोलां बाथ ने रचना का अवगुं ठत अथ (Obtuse
meaning) तथा भतृह र ने 'अंतर यनय के प म अ भ हत कया है। प ही रचना के बा ाथ एवं अंतराथ क वल ण एका व त
को उदा त करने वाली इस कलाकृ त क सृजन-परंपरा थोड़े-ब त गुणभेद के साथ आज भी जी वत है।
संपक व व ालय
शीष पर
जाएँ