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सवशा शरोम ण ीमद भगवद गीता का ान-दाता कौन है ?

यह कतने आ चय क बात है क आज मनु यमा को यह भी नह मालू म क परम य परमा मा शव, िज ह “ ान का


सागर” तथा “क यानकार ” माना जाता है , ने मनु यमा के क याण के लए जो ान दया, उसका शा कौनसा है ?
भारत म य य प गीता ान को भगवान वारा दया हु आ ान माना जाता है , तो आज भी सभी लोग यह मानते है गीता गया
ीकृ ण ने वापर यु ग के अंत म यु के मैदान म, अजु न के रथ पर सवार होकर दया था | गीता- ान वापर यु ग म नह
दया गया बि क संगम यु ग म दया गया |

िच म यह अदभु त रह य िचि त िकया गया है िक वा तव म गीता- ान िनराकार, परमिपता परमा मा िशव ने िदया था | और िफर गीता ान
से सतयुग म ीकृ ण का ज म हआ | अत: गोपे र परमिपता िशव ीकृ ण के भी परलौिकक िपता है और गीता ीकृ ण िक भी माता है |

यह तो सभी जानते है िक गीता- ान देने का उ ेश पृ वी पर धम क पु न: थापना ही था | गीता म भगवान ने प कहा है िक “मै अधम का
िवनाश तथा स यधम िक थापनाथ ही अवत रत होता हँ |” अत: भगवान के अवत रत होने तथा गीता ान देने के बाद तो धम क तथ देवी
वभाव वाले स दाय क पु न: थापना होनी चािहए पर तु सभी जानते और मानते है क ापरयु ग के बाद तो किलयु ग ही शु हआ िजसमे
तो धम क अिधक हनी हई और मनु य का वभाव तमो धान अथवा आसु री ही हआ अत: जो लोग यह मानते है िक भगवान ने गीता ान
ापरयु ग के अं त म िदया, उ ह सोचना चािहए िक या गीता ान देने और भगवान के अवत रत होने का यही फल हआ ? या गीता ान देने
के बाद अधम का यु ग ार भ हआ ? सप है िक उनका िववेक इस का उ र “न” श द से ही देगा |

भगवान के अवतरण होने के बाद किलयु ग का ारं भ मानना तो भगवान क लानी करना है य िक भगवान का यथाथ प रचय तो यह है िक वे
अवत रत होकर पृ वी को असु रो से खाली करते है | और यहाँ धम को पू ण कलाओं सिहत थािपत करके तथा नर को ीनारायण मनु य क
सदगित करते है | भगवान तो सृ ि के ” बीज प ” है तथा व प है, अत: इसी धरती पर उनके आने के प ात् तो नए सृ ि -वृ , अथात नई
सतयुगी सृ ि का ादु भाव होता है | इसके अित र , यिद ापर के अं त म गीता ान िदया गया होता तो किलयु ग के तमो धान काल म तो
उसक ार ध ही न भोगी जा सकती | आज भी आप सीखते है िक िदवाली के िदन म ी ल मी का आ ान करने के िलए भारतवासी अपने
घरो को साफसु थरा करते है तथा दीपक आिद जलाते है इससे प है िक अपिव ता और अं धकार वाले थान पर तो देवता अपने चरण भी नह
धरते | अत: ीकृ ण का अथात ल मीपित ीनारायण का ज म ापर म मानना महान भू ल है | उनका ज म तो सतयु ग म हआ जबिक सभी
िम -स ब धी तथा कृ ित-पदाथ सतो धन एवं िद य थे और सभी का आ मा- पी दीपक जगा हआ था तथा सृ ि म कोई भी ले छ तथा
लेश न था |

अत: उपयु से प है िक न तो ीकृ ष ही ापरयु ग म हए और न ही गीता- ान ापर यु ग के अं त म िदया गया बि क िनराकार, पिततपावन
परमा मा िशव ने किलयु ग के अं त और सतयु ग के आिद के सं गम समय, दम- लानी के समय, ब ा तन म िद य ज म िलया और गीता - ान
देकर सतयु ग िक तथा ीकृ ण ( ीनारायण) के वरा य िक थापना िक ीकृ ण के तो अपने माता-िपता, िश क थे पर तु गीता- ान सव
आ माओं के माता-िपता िशव ने िदया |

गीता- ान िहं सक यु करने के िलए नह िदया गया था


आज परमा मा के द य ज म और “रथ” के व प को न जानने के कारण लोगो क यह मा यता ढ़ है क गीता- ान
ी ण ने अजु न के रथ एम ् सवार होकर लड़ाई के मैदान म दया आप ह सो चये क जब क अ हंसा को धम का परम ल ण
माना गया है और जब क धमा मा अथवा महा मा लोग नहो अ हंसा का पालन करते और अ हंसा क श ा दे ते है तब या
भगवान नव भला कसी हंसक यु के लए कसी को श ा द होगी ? जब क लौ कक पता भी अपने ब चो को यह श ा
दे ता है क पर पर न लड़ो तो या सृि ट के परम पता, शां त के सागर परमा मा ने मनु यो को पर पर लड़ाया होगा ! यह तो
कदा प नह ं हो सकता भगवान तो दे वी वभाव वाले सं दाय क तथा सव तम धम क थापना के लए ह गीता- ान दे ते है
और उससे तो मनु य राग, वेष, हंसा और ोध इ या द पर वजय ा त करते है | अत: वा त वकता यह है क
नराकार परम पता परमा मा शव ने इस सृि ट पी कम े अथवा कु े पर, जा पता ब मा (अजु न) के शर र पी रथ
म सवार होकर माया अथात वकारो से ह यु करने क श ा द थी , पर तु लेखक ने बाद म अलंका रक भाषा म इसका
वणन कया तथा च कार ने बाद म शर र को रथ के प म अं कत करके जा पता मा क आ मा को भी उस रथ म एक
मनु य (अजु न) के प म च त कया | बाद म वा त वक रह य ाय:लु त हो गया और थू ल अथ ह च लत हो गया |

सं गम यु ग म भगवान िशव ने जब जािपता ा के तन पी रथ म अवत रत होकर ान िदया और धम क थापना क , तब उसके प ात्


किलयु गी सृ ि का महािवनाश हो गया और सतयुग थापन हआ | अत: सव-महान प रवतन के कारण बाद म यह वा तिवक रह य लु हो
गया | िफर जब ापरयु ग के भि काल म गीता िलखी गयी तो बहत पहले ( संगमयु ग म) हो चु के इस वृ तांत का पां तरण यास ने
वतमानकाल का योग करके िकया तो समयांतर म गीता- ान को भी यास के जीवन-काल म, अथात ” ापरयु ग” म िदया गया ान मान
िलया पर तु इस भू ल से सं सार म बहत बड़ी हािन हई य िक लोगो को यह रह य ठीक रीित से मालू म होता िक गीता- ान िनराकार परमिपता
परमा मा िशव ने िदया जो िक ीकृ ण के भी परलौिकक िपता है और सभी धम के अनु याियय के परम पू य तथा सबके एकमा सादगित
दाता तथा रा य-भ य देने वाले है, तो सभी धम के अनु यायी गीता को ही सं सार का सव म शा मानते तथा उनके महावा यो को परमिपता
के महावा य मानकर उनको िशरोधाय करते और वे भारत को ही अपना सव म तीथ मानते अथ: िशव जयं ती को गीता -जयं ती तथा गीता
जयं ती को िशव जयं ती के प म भी मानते | वे एक योित व प, िनराकार परमिपता, परमा मा िशव से ही योग-यु होकर पावन बन जाते
तथा उससे सु ख-शां ित क पू ण िवरासत ले लेते पर तु आज उपयु सवो म रह य को न जानने के कारण और गीता माता के पित सव मा य
िनराकार परमिपता िशव के थान पर गीता-पु ीकृ ण देवता का नाम िलख देने के कारण गीता का ही खंडन हो गया और सं सार म घोर
अनथ, हाहाकार तथा पापाचार हो गया है और लोग एक िनराकार परमिपता क आ ा ( म मना भव अथात एक मु झ हो को याद करो ) को
भू लकर यिभचारी बु ि वाले हो गए है ! ! आज िफर से उपयु रह य को जानकर परमिपता परमा मा िशव से योग-यु होने से पु न: इस
भारत म ीकृ ण अथवा ीनारायण का सु खदायी वरा य थापन हो सकता है और हो रहा है |

जीवन कमल पु प समान कै से बनाय ?


नेह और सौहा के भाव के कारण आज मनु य को घर म घर-जैसा अनु भव नह ं होता | एक मामू ल कारण से घर का पू रा
वातावरण बगड़ जाता है | अब मनु य क वफ़ादार और व वा पा ता भी टकाऊ और ढ़ नह ं रहे | नै तक मू य अपने तर
से काफ गर गए है | कायालय हो या यवसाय, घर हो या रसोई, अब हर जगह पर पर संबंधो को सु धारने, वयं को उससे
ढालने और मलजु ल कर चलने क ज रत है | अपनी ि थ त को नद ष एवं संतु लत बनाये रखने के लए हर मानव को आज
बहु त मनोबल इक ा करने क आवशयकता है | इसके लए योग बहु त ह सहायक हो सकता है |
जो ाकु मार है, वे दु सरो को भी शां ित का माग दशाना एक सेवा अथवा अपना कत य समझते है | ाकु मार जन-जन को यह ान दे रहा है
िक “शां ित” पिव जीवन का एक फल है और पिव ता एवं शां ित के िलए परमिपता परमा मा का प रचय तथा उनके साथ मान का नाता
जोड़ना ज री है | अत: वह उ ह राजयोग-क अथवा ई रीय मनन िचं तन क पर पधारने के िलए आमं ि त करता है, जहाँ उ ह यह आव यक
ान िदया जाता है िक राजयोग का अ यास कै से करे और जीवन को कमल पु प के समान कै से बनाये इस ान और योग को समझने का फल
यह होता है िक कोई कायालय म काम कर रहा हो या रसोई म कायरत हो तो भी मनु य शां ित के सागर परमा मा के साथ वयं का स ब ध
थािपत कर सकता है | इस सब का े प रणाम यह होता है िक सारा प रवार यार और शां ित के सू म िपरो जाता है, वे सभी वातावरण म
आ नद एवं शां ित का अनु भव करते है और अब वह प रवार एक सु यवि थत एवं सं गिठत प रवार बन जाता है | िद य ान के ारा मनु य
िवकार तो छोड़ देता है और गु ण धारण कर लेता है |इसके िलए, िजस मनोबल क ज रत होती है, वह मनु य को योग से िमलता है | इस कार
मनु य अपने जीवन को कमल पु प के समान बनाने के यो य हो जाता है |

कमल क यह िवशेषता है िक वह जल म रहते हए जल से नायर होकर रहता है | हालाँिक कमल के अ य स ब धी, जैसे िक कमल ककड़ी,
कमल डोडा इ यािद है, पर तु िफर भी कमल उन सभी से ऊपर उठकर रहता है | इसी कार हम भी अपने स बं िधयो एवं िम जनो के बीच रहते
हए उनसे भी यारा, अथात मो जीत होकर रहना चािहए | कु छ लोग कहते है िक गृ ह थ म ऐसा होना अस भव है | पर तु हम देखते है िक
अ पताल म नस अनेक ब चो को सँभालते हए भी उनमे मोह-रिहत होती है | इसे ही हम भी चािहए िक हम सभी को परमिपता परमा मा के
व स मानकर यासी ( टी ) होकर उनसे यवहार करे | एक यायाधीश भी ख़ु शी या गमी के िनणय सु नाता है, पर तु वह वयं उनके
भावाधीन नह होता | ऐसे ही हम भी सु ख-दु ःख िक प रि थितय म सा ी होकर रहे, इसी के िलए हम सहज राजयोग िसखने िक आव यकता
है |

राजयोग का आधार तथा िविध

स पू ण ि थ त को ा त करने के लए और शी ह अ याि मक म उ न त ा त करने के लए मनु य को राजयोग के


नरं तर अ यास क आव यकता है , अथात चलते फरते और काय- यवहार करते हु ए भी परमा मा क मृ त म ि थत होने
को ज रत है |

य िप िनरं तर योग के बहत लाभ है | और िनरं तर योग ारा ही मनु य सव म अव था को ा कर सकता है | तथािप िवशेष प से योग म
बैठना आव यक है | इसीिलए िच म िदखाया गया है िक परमा मा को याद करते समय हेम अपनी बु ि सब तरफ से हटाकर एक जोितिबदु
परमा मा िशव से जु टानी चािहए मान चं चल होने के कारण काम, ोध, लोभ, मोह, अहं कार अथवा शा और गु ओ क तरफ भागता है |
लेिकन अ यास के ारा हम इसको एक परमा मा क याद म ही ि थत करना है | अत: देह सिहत देह के सव-स भं धो को भू ल कर आ म-
व प म ि थत होकर, बु ि म जोितिबदु परमा मा िशव क नेहयु मृ ित म रहना ही वा तिवक योग है जैसा क िच म िदखलाया गया है |

कई मनु य योग को बहत किठन समझते है, वे कई कार क हाथ ि याएं तप अथवा ाणायाम करते रहते है | लेिकन वा तव म “योग” अित
सहज है जैसे क एक ब चे को अपने देहधारी िपता क सहज और वत: याद रहती है वैसे ही आ मा को अपने िपता परमा मा क याद वत:
और सहज होनी चािहए इस अ यास के िलए यह सोचना चािहए िक- “म एक आ मा हँ, म योित -िबं दु परमा मा िशव क अिवनाशी सं तान
हँ जो परमिपता लोक के वासी है, शां ित के सागर, आनं द के सागर ेम के सागर और सवशि मान है –|” ऐसा मनन करते हए मन को
लोक म परमिपता परमा मा िशव पर ि थत करना चािहए और परमा मा के िद य-गु ण और कत यो का यान करना चािहए |

जब मन म इस कार क मृ ित म ि थत होगा | तब सां सा रक सं बं धो अथवा व तु ओ ं का आकषण अनु भव नह होगा िजतना ही परमा मा ारा
िसखाया गये ान म िन य होगा, उतना ही सां सा रक िवचार और लौिकक सं बं िधय क याद मन म नही आयेगी | और उतना ही अपने
व प का परमि य परमा मा के गु ण का अनु भव होगा |

आज बहत से लोग कहते है िक हमारा मन परमा मा िक मृ ित म नही िटकता अथवा हमारा योग नही लगता इसका एक कारण तो यह है िक वे
“आ म-िन य” म ि थत नही होते आप जानते है िक जब िबजली के दो तारो को जोड़ना होता है तब उनके ऊपर के रबड़ को हटाना पड़ता है,
तभी उनमे करं ट आता है इसी कार, यिद कोई िनज देह के बहन म होगा तो उसे भी अ य अनु भू ित नही होगी, उसके मन क तार परमा मा से
नही जु ड़ सकती |

दू सरी बात यह है िक वे तो परमा मा को नाम- प से यारा व् सव यापक मानते है, अत: वे मन को कोई िठकाना भी नही दे सकते | पर तु अब
तो यह प िकया गया है िक परमा मा का िद य-नाम िशव, िद य- प योित-िबं दु और िद यधाम परमधाम अथवा लोक है अत: वहा मन
को िटकाया जा सकता है |

तीसरी बात यह है िक उ ह परमा मा के साथ अपने घिन स ब ध का भी प रचय नही है, इसी कारण परमा मा के ित उनके मन म घिन
नेह नही अब यह ान हो जाने पर हमे लोक के वासी परमि य परमिपता िशव-जोती-िबं दु िक मृ ित म रहना चािहए |

राजयोग के त भ अथवा िनयम


वा तव म ‘योग’ का अथ – ान के सागर, शाि त के सागर, आन द के सागर, ेम के सागर, सव शि तवान, प ततपावन
परमा मा शव के साथ आ मा का स ब ध जोड़ना है ता क आ मा को भी शाि त, आन द, ेम, प व ता, शि त और
द यगु ण क वरासत ा त हो |

योग के अ यास के िलए उसे आचरण स ब धी कु छ िनयम का अथवा िद य अनु शासन का पालन करना होता है य िक योग का उ े य मन
को शु करना, ी कोण म प रवतन लाना और मनु य के िच को सदा स न अथवा हष-यु बनाना है | दू सरे श द म योग क उ च
ि थित िक ही आधारभू त त भ पर िटक होती है |

इनमे से एक है – चय या पिव ता | योगी शारी रक सुं दरता या वासना-भोग क और आकिषत नह होता य िक उसका ी कोण बदल
चू का होता है | वह आ मा क सुं दरता को ही पू ण मह व देता है | उसका जीवन ‘ हमचय’ श द के वा तिवक अथ म ढला होता है | अथात
उसका मन म ि थत होता है और वह देह क अपे ा िवदेही (आ मािभमानी) अव था म रहता है | अत: वह सबको भाई भाई के प म
देखता है और आि मक ेम व स ब ध का ही आन द लेता है | यहाँ आि मक मृ ित और चय इसे ही महान शारी रक शि , काय- मता,
नैितक बल और आि मक शि देते है | यह उसके मनोबल को बढाते है और उसे िनणय शि , मानिसक संतु लन और कु शलता देते है |

दू सरा मह वपू ण त भ है – साि वक आहार | मनु य जो आहार कता है उसका उसके मि त क पर ग भीर भाव पड़ता है | इसिलए योगी मां स,
अं डे उतेजक पेय या त बाकू नह लेता | अपना पेट पालने के िलए वह अ य जीव क ह या नह करता, न ही वह अनु िचत साधन से धन
कमाता है | वह पहले भगवान को भोग लगाता और तब शाद के प म उसे हण करता है | भगवान ारा वीकृ त वह भोजन उसके मन को
शाि त व पिव ता देता है, तभी ‘जैसा अ न वैसा मन’ क कहावत के अनु सार उसका मन शु होता है और उसक कामना क याणकारी तथा
भावना शु भ बनी रहती है |

अ य मह वपू ण त भ है –‘स संग ’ | जैसा सं ग वैसा रं ग’ – इस कहावत के अनु सार योगी सदा इस बात का यान रखता है िक उसका सदा
‘सत-िचत-आन द’ व प परमा मा के साथ ही सं ग बना रहे | वह कभी भी कु सं ग म अथवा अ ील सािह य अथवा कु िवचर म अपना समय
यथ नह गं वाता | वह एक ही भु क याद व ल न म म न रहता है तथा अ ानी, िम या-अिभमानी अथवा िवकारी, देहधारी मनु य को याद
नह करता और न ही उनसे स ब ध जोड़ता है |

चौथा त भ है – िद यगु ण | योगी सदा अ य आ माओं को भी अपने िद य-गु ण , िवचार तथा िद य कम क सु गं ध से अगरब ी क तरह
सु गि धत करता रहता है, न िक आसु री वभाव, िवचार व कम के वशीभू त होता है | िवन ता, सं तोष, हिषतमु ता, ग भीरता, अं तमुखता,
सहनशीलता और अ य िद य-गु ण योग का मु य आधार है | योगी वयं तो इन गु ण को धारण करता ही है, साथ ही अ य दु खी भू ली-भटक
और अशा त आ माओं को भी अपने गु ण का दान करता है और उसके जीवन म स ची सुख-शाि त दान करता है | इन िनयम को पालन
करने से ही मनु य स चा योगी जीवन बना सकता है तथा रोग, शोक, दु ःख व अशाि त पी भू त के ब धन से छु टकारा पा सकता है |
राजयोग से ाि –अ शि यां

रा योग के अ यास से, अथात मन का नाता परम पता परमा मा के साथ जोड़ने से, अ वनाशी सु ख-शां त क ाि त तो होती
ह है , साथ ह कई कार क अ याि मक शि तयां भी आ जाती है इनमे से आठ मु य और बहु त ह मह वपू ण है |

इनमे से एक है “िसकोड़ने और फै लानी क शि ”जैसे कछु आ अपने अं गो को जब चाहे िसकोड़ लेता है, जब चाहे उ ह फै लेता है, वैसे ही
राजयोगी जब चाहे अपनी इ छानु सार अपनी कमि य के ारा कम करता है और जब चाहे िवदेही एवं शां त अव था म रह सकता है | इस
कार िवदेही अव था म रहने से उस पर माया का वार नही होगा |

दू सरी शि है – “समेटने क शि ” इस सं सार को मु सािफर खाना तो सभी कहते है लेिकन यवहा रक जीवन म वे इतना तो िव तार कर लेते
है िक अपने काय और बु ि को समेटना चाहते हए भी समेत नही पाते, जबिक योगी अपनी बु ि को इस िवशाल दु िनया म न फै ला कर एक
परमिपता परमा मा क तथा आि मक स ब ध क याद म ही अपनी बु ि को लगाये रखता है | वह किलयु गी सं सार से अपनी बु ि और
सं क प का िब तर व् पेटी समेटकर सदा अपने घर-परमधाम- म चलने को तैयार रहता है |

तीसरी शि है “सहन शि ” जैसे वृ पर प थर मारने पर भी मीठे फल देता है और अपकार करने वाले पर भी उपकार करता है, वैसे ही एक
योगी भी सदा अपकार करने वालो के ित भी शु भ भावना और कामना ही रखता है |

योग से जो चोथी शि ा होती है वह है “समाने क शि ” योग का अ यास मनु य क बु ि िवशाल बना देता है और
मनु य गभीरता और मयादा का गु ण धारण करता है | थोड़ी सी खु िशया, मान, पद पाकर वह अ मानी नही बन जाता और न ही िकसी
कार क कमी आने पर या हािन होने के अवसर पर दु खी होता है वह तो समु क तरह सदा अपने दैवी कु ल क मयादा म बं धा रहता है और
गं भीर अव था म रहकर दू सरी आ माओं के अवगु ण को न देखते हए के वल उनसे गु ण ही धारण करता है |

योग से जो अ य शि जो िमलती है वह है “परखने क शि ” जैसे एक पारखी (जौहरी) आभू षण को कसौटी पर परखकर उसक असल
और नक़ल को जन जाता है, इसे ही योगी भी, िकसी भी मनु या मा के सं पक म आने से उसको परख लेता है और उससे स चाई या झू ठ कभी
िछपा नही रह सकता | वह तो सदा स चे ान-र न को ही अपनाता है तथा अ ानता के झू ठे कं कड़, प थर म अपनी बु ि नही फसाता |
एक योगी को महान “िनणय शि ” भी वत: ा हो जाती है | वह उिचत और अनु िचत बात का शी ही िनणय कर लेता है | वह यथ
सक प और परिच तन से मु होकर सदा भु िचं तन म रहता है | योग के अ यास से मनु य को “सामना करने क शि ” भी ा होती है |
यिद उसके सामने अपने िनकट स ब धी क मृ यु-जैसी आपदा आ भी जाये अथवा सांसा रक सम याए तू फान का प भी धारण कर ले तो भी
वह कभी िवचिलत नही होता और उसका आ मा पी दीपक सदा ही जलता रहता है तथा अ य आ माओं को ान- काश देता रहता है |

अ य शि , जो योग के अ यास से ा होती है, वह है “सहयोग क शि ” एक योगी अपने तन, मन, धन से तो ई रीय सेवा करता ही है,
साथ ही उसे अ य आ माओं का भी सहयोग वत: ा होता है, िजस कारण वे किलयु गी पहाड़ ( िवकारी सं सार) को उठाने म अपनी पिव
जीवन पी अं गु ली देकर वग क थापने के पहाड़ समान काय म सहयोगी बन जाते है |

राजयोग क या ा – वग क और दौड़

राजयोग क या ा – वग क और दौड़ राजयोग के नरं तर अ यास से मनु य को अनेक कार क शि तयाँ ा त होती है | इन
शि तय के वारा ह मनु य सांसा रक कावट को पार कता हु आ आ याि म क माग क और अ सर होता है | आज मनु य
अनेक कार के रोग, शोक, च ता और परे शा नय से सत है और यह सृि ट ह घोर नरक बन गई है | इससे नकलकर वग
म जाना हर एक ाणी चाहता है ले कन नरक से वग क और का माग कई कावट से यु त है | काम, ोध, लोभ, मोह और
अहं कार उसके रा ते म मु य बाधा डालते है | पु षोतम संगम यु ग म ान सागर परमा मा शव जो सहज राजयोग क श ा
जा पता मा के वारा दे रहे है , उसे धारण करने से ह मनु य इन बल श ु ओं (५ वकार ) को जीत सकता है |

िच म िदखाया है िक नरक से वग म जाने के िलए पहले-पहले मनु य को काम िवकार क ऊं ची दीवार को पार करना पड़ता है िजसमे नु क ले
शीश क बाढ़ लगी हई है | सको पार करने म कई यि देह-अिभमान के कारण से सफलता नह प् सकते है और इसीिलए नु क ल शीश पर
िगरकर लह-लु हान हो जाते है | िवकारी ी, कृ ित, वृित ही मनु य को इस दीवार को पार नह करने देती | अत: पिव ी (Civil
Eye) बनाना इन िवकार को जीतने के िलए अित आव यक है |

दू सरा भयं कर िव न ोध पी अि न-च है | ोध के वश होकर मनु य स य और अस य क पहचान भी नह कर पाता है और साथ ही उसमे


ई या, ेष, घृ णा आिद िवकार का समावेश हो जाता है िजसक अि न म वह वयं तो जलता ही है साथ म अ य मनु य को भी जलाता है |
इस भधा को पार करने के िलए ‘ वधम’ म अथात ‘म आ मा शां त व प हँ’ – इस ि तिथ म ि थत होना अ याव यक है |

लोभ भी मनु य को उसके स य पथ से े हटाने के िलए माग म खड़ा है | लोभी मनु य को कभी भी शाि त नह िमल सकती और वह मन को
परमा मा क याद म नह िटका सकता | अत: वग क ाि के िलए मनु य को धन व खजाने के लालच और सोने क चमक के आकषण पर
भी जीत पानी है |
मोह भी एक ऐसी बाधा है जो जाल क तरह खड़ी रहती है | मनु य मोह के कड़े ब धन-वश, अपने धम व काय को भू ल जाता है और पु षाथ
ह न बन जाता है | तभी गीता म भगवान ने कहा है िक ‘न ोमोहा मृ ितल धा:’ बनो, अथात देह सिहत देह के सव स ब ध के मोह-जाल से
िनकल कर परमा मा क याद म ि थत हो जाओ और अपने कत य को करो, इससे ही वग क ाि हो सके गी | इसके िलए आव यक है िक
मनु या मा मोह के ब धन से मु ि पाए, तभी माया के ब धन से छु टकारा िमलेगा और वग क ाि होगी |

अं हकार भी मनु य क उ नित के माग म पहाड़ क तरह कावट डालता है | अहं कारी मनु य कभी भी परमा मा के िनकट नह पहँच सकता है |
अहं कार के वश ,मनु य पहाड़ क ऊं ची छोटी से िगरने के समान चकनाचू र हो जाता है | अत: वग म जाने के िलए अहं कार को भी जीतना
आव यक है | अत: याद रहे िक इन िवकार पर िवजय ा करके मनु य से देवता बनने वाले ही नर-नारी वग म जा सकती है, वरना हर एक
यि के मरने के बाद जो यह ख िदया जाता है िक ‘वह वगवासी हआ’, यह सरासर गलत है | यिद हर कोई मरने के बाद वग जा रहा होता
तो जन-सं या कम हो जाती और वग म भीड़ लग जाती और मृ तक के स ब धी मातम न करते |

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