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वह चणक का पु होने के नाते चाण य था।

उसक चाल श ु क पकड़ म नह आती थ , अ त


कु टल थ , इसी लए उसे लोग ने नाम दया था—
कौ ट य।
वह दखने म जतना कठोर था, उतना ही
स दय भी था। राजनी त क बसात पर टे ढ़ -मेढ़
चाल का खलाड़ी होने पर भी वह स चा महा मा
था। उसके लए सुख-वैभव, पद आ द मह वपूण
नह थे, मह वपूण था दे श का अखंड गौरव। अखंड
भारत के उस व को साकार करने के लए वह न
कह का, न कह झुका।
तदहं सं व या म लोकानां हतका यया।
येन व ानमा ेण सव वं प ते।।
“म लोग क भलाई क इ छा से (राजनी त
के) उन गूढ़ रह य का वणन कर रहा ं, ज ह
जान लेने मा से मनु य सव हो जाता है
अथात् और कुछ जानना उसके लए शेष नह
रह जाता।”
संपूण चाण य नी त, चाण य सू
और जीवन-गाथा
व स कूटनी त , अथशा ी तथा श क का नी त ान तथा जीवनवृ

ा याकार
व म शमा
संपादन—संवधन
काका ह रओ३म्
वेदांताचाय (शां.वे.) एम.ए. (मनो व ान)

मनोज प लकेश स
© सवा धकार काशकाधीन
काशक :
मनोज प लकेश स
761, मेन रोड, बुराड़ी,
द ली-110084
फोन : 27611116, 27611349, फै स : 27611546
मोबाइल : 9868112194
ईमेल : inho@manojpublications.com
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शो म :
मनोज प लकेश स
1583-84, दरीबा कलां, चांदनी चौक, द ली-110006
फोन : 23262174, 23268216, मोबाइल : 9818753569

भारतीय कॉपीराइट ए ट के अंतगत इस पु तक क साम ी तथा रेखा च के


अ धकार ‘मनोज प लकेश स, 761, मेन रोड, बुराड़ी, द ली-84’ के पास
सुर त ह, इस लए कोई भी स जन इस पु तक का नाम, टाइटल- डजाइन,
अंदर का मैटर व च आ द आं शक या पूण प से तोड़-मरोड़कर एवं कसी
भी भाषा म छापने व का शत करने का साहस न कर, अ यथा कानूनी तौर पर
हज-खच व हा न के ज मेदार वे वयं ह गे।
कसी भी कार के वाद- ववाद का याय े द ली ही रहेगा।

ISBN : 978-81-310-1774-6
थम सं करण : 2013
संपूण चाण य नी त, चाण य सू और जीवन-गाथा : व म शमा
काशक य
नी त का शा दक अथ है—जो आगे ले जाए। इस कार अपने ल य को ा त
करने के लए जो नयम या स ांत नधा रत कए जाते ह, वह भी नी त श द म समा हत
ह। ‘सु व था’ भी नी त का अथ है। इसके संदभ गत, सामा जक और राजनी तक
अलग-अलग या कुल मलाकर सब एक साथ भी हो सकते ह। इस तरह ‘नी त’ का इ तहास
य द दे ख, तो इसके अ त व को मानव स यता के वकास के साथ ही वीकार करना
पड़ेगा। अपने े , अपनी जा त और अपने अ त व को बनाए रखने और वक सत करने
के प म इसे समूची कृ त और इसके सभी ा णय म भी दे खा जा सकता है।
नी त शा के आचाय क वैसे तो ब त लंबी परंपरा है ले कन शु ाचाय, आचाय
बृह प त, महा मा व र और आचाय चाण य इनम मुख ह। आचाय चाण य ने ोक
और सू दोन प म नी त शा का ा यान कया है। अपने ंथ के ारंभ म ही वे
अपने पूववत आचाय को नमन करते ए प कर दे ते ह क वो कुछ नया नह बता रहे ह,
वे उ ह स ांत का तपादन कर रहे ह, ज ह वरासत म उ ह ने ा त कया है और जो
बदलते प रवेश म भी अ यंत ावहा रक ह। आचाय य क राजनी त और अथशा के
श क ह, इस लए वे जानते ह श ा क वा त वकता को। वो जानते ह क पु तक पर
अनुभव हावी आ करता है, और यह भी क ंथ का नमाण अनुभव का ही संकलन और
सं ह है इस लए इन रचना के त कतापन का अ भमान कैसा!
आचाय चाण य का जीवन पढ़ने से प हो जाता है क स य क समझ रखना ही
पया त नह है, ज री है क अ याय के व संघष भी कया जाए। तट थ रहना साहसी
और परा मी का वभाव नह होता। लोग का मानना है क स जन का
वभाव कु टलता के यो य नह होता। उसके लए तो कु टलता का नाटक कर पाना भी
संभव नह है। ले कन चाण य ने स कर दया क अपने वभाव को बनाए रखते ए
अथात् भीतर से स जन बने रहते ए भी को उ ह क भाषा म जवाब दया जा सकता
है। ीकृ ण और ीराम जैसे महान पु ष इसका उदाहरण ह। हां, इसके लए मन को वशेष
कार से श त करना पड़ता है। ीकृ ण ने धम यु म भी ‘अधम’ का योग कया।
धमराज यु ध र को भी झूठ बोलने के लए बा धत कया। य ? इस लए क ‘शठ से
शठता’ का वहार करना चा हए। ऐसा करते समय वचारणीय यह है क वह वहार या
त या वाथ के लए क जा रही है या क उसम जन हत क भावना समा हत है।
का वनाश होना ही चा हए, भले ही साधन कोई भी हो। अनास भाव से कया गया कम
पाप-पु य क सीमा से परे होता है—ऐसा दाश नक स ांत है। भगवान ीकृ ण ने गीता म
अजुन को यही उपदे श दया है।
उपरो स य को समझने के लए मह ष व ा म के वो नदश अ यंत मह वपूण
ह, जो उ ह ने स ा म म वेश करने से पहले राम को दए थे। उ ह ने कहा था, “राम!
सावधान हो जाओ। अब घोर जंगल ारंभ हो चुका है। यहां सतक रहना इस लए आव यक
है क रा स कसी भी समय छु पकर घात कर सकते ह। और इनक वा मनी ताड़का बना
कसी श के हमारे माग को रोक कर कभी भी खड़ी हो सकती है। तब तुम बे हचक
उसका संहार कर दे ना। अनाय से यु करते समय आय नयम का पालन करना वप म
डाल सकता है। बु मान को चा हए क वप को आने ही न दे ।” व ा म क बात सही
थी। रा स को धनुष-बाणधारी य कुमार के आने का समाचार मला और उ ह ने
अपनी वा मनी के साथ मलकर उन पर आ मण कर दया। ीराम ने मह ष के
नदशानुसार अपना काय कया। उ ह ने ताड़का को दे खते ही, बना यह सोचे क वह ी है
और नह थी है, एक ही बाण से ढे र कर दया।
चाण य का कौ ट य बनना जन हत के लए था। उनका व था अखंड भारत।
इसी के लए उ ह ने श ु को उ ह क चाल से मात द । आचाय ारा चलाया गया
अ भयान ‘आ मर ा’ का एक अं तम यास था। इससे चूकने का अथ था भारत के
अ त व को समा त कर दे ना। जरा सोचकर दे खो, य द आचाय ने त कालीन प र थ तय
का वरोध न कया होता, वक प के प म चं गु त को था पत न कया होता, तो आज के
भारत का व प कैसा होता। नंद के धान अमा य को चं गु त के साथ जोड़ना और उसे
ग रमामं डत करते ए धान अमा य के पद पर त त करना आचाय क अ तम सूझ-
बूझ और दय क वशालता का ही तो उदाहरण है। गुणी को गुण का स मान करना
चा हए। उसके लए गत मतभेद मायने नह रखते, मह वपूण होता है जन हत।
आचाय ारा ल खत नी तशा के ंथ को पढ़कर लगता है क वे ब आयामी
व के प धर थे। इसी लए उ ह ने वणा म के कत क चचा भी थान- थान पर
क है। ‘नी त’ म धम और अ या म को आचाय ने पूरा थान दया है। उनक म
राजनी त य द धम से र चली जाए, तो उसके भटक जाने क संभावना सौ तशत हो
जाती है। धमनी त को सोच क ापकता दान करती है।
यहां एक बात प प से हम समझ लेनी चा हए क आचाय के समय क
मा यताएं और सामा जक व था आज से कई मायने म बलकुल भ है। जा त-वण
व था अब ब त कमजोर हो चुक है। ंथ म लखे गए कुछ श द और मा यता को
लेकर व थ त या करना अ छ बात है, ले कन उस संदभ म मूल ंथ म घटाने-बढ़ाने
का रा ह करना हमारी नासमझी को ही द शत करता है। इ तहास के कड़वे-मीठे त य
को उधेड़ कर फका नह जा सकता। बदलाव के लए समझ और धैय क आव यकता है।
इसी लए आज के समय म आप जनक कहे जाने वाले अंश को बना छे ड़े उस पर अलग
से ट पणी दे द गई है। उन पर आप बु पाठक के सुझाव का हा दक वागत है।
ोक को याद रखना क ठन काय है ले कन ‘सू ’ इस मायने म मह वपूण ह। 585
सू को कंठा करने के लए य द रोज एक घंटे का समय दया जाए, तो दो-चार महीने म
उ ह आसानी से आ मसात् कया जा सकता है। आ म चतन के समय ये सुगमता से
मृ तपटल पर आ जाते ह। इसी बात को यान म रखते ए अलग से ‘सू ’ को दया गया
है। इनका योग पर पर बातचीत या क भाषण आ द म करके आप अपने वक
ग रमा को भी लोग के बीच था पत कर सकते ह। हम व ास है क यह ंथ आपके
व को सुसंग ठत करने तथा नखारने म मह वपूण भू मका नभाएगा।
चाण य नी त
अथ थमोऽ यायः
अथ तीयोऽ यायः
अथ तृतीयोऽ यायः
अथ चतुथ ऽ यायः
अथ पंचमोऽ यायः
अथ ष ोऽ यायः
अथ स तमोऽ यायः
अथ अ मोऽ यायः
अथ नवमोऽ यायः
अथ दशमोऽ यायः
अथ एकादशोऽ यायः
अथ ादशोऽ यायः
अथ योदशोऽ यायः
अथ चतुदशोऽ यायः
अथ पंचदशोऽ यायः
अथ षोडशोऽ यायः
अथ स तदशोऽ यायः
चाण य सू
चाण य जीवन गाथा
● व ाथ चाण य ● व ेषक चाण य ● ा यापक चाण य ● आं भक क कथा ● पु
(पोरस) के साथ यु ● अपमा नत चाण य ● तशोधक चाण य ● नंद क कहानी ●
योजनाकार चाण य ● कूटनी त चाण य ● धनानंद का अंत ● मगध का यु ● नी त
चाण य ● संकट त चाण य
चाण य के शा
● अथशा ● चाण य नी त ● पंचतं कथाएं
चाण य नी त
जस कार व ान म सु न त स ांत क खोज क जाती है और उनक पु
बार-बार कए गए योग से एकसमान ा त न कष से होती है, उसी कार नी तशा क
भी एक सु न त परंपरा है। इसके न कष भी येक थ त-प र थ त म एकसमान ह।
इसी लए आचाय चाण य ने नी तशा को व ान कहा है। वे इस ान के ारा ‘सव ’ होने
क बात भी कहते ह। यहां सव होने का अथ है अतीत, वतमान और भ व य का व ेषण
करने क मता ा त कर लेना।
मनसा च ततं काय वाचा नैव काशयेत्।
म ेण र येद ् गूढं काय चाऽ प नयोजयेत्।।
मन से सोचे ए काय को वाणी ारा कट नह करना चा हए, परंतु
मननपूवक भली कार सोचते ए उसक र ा करनी चा हए और चुप रहते
ए उस सोची ई बात को काय प म बदलना चा हए।
इ या ण च संय य बकवत् प डतो नरः।
दे शकालबलं ा वा सवकाया ण साधयेत।् ।
बु मान को अपनी इ य को वश म करके समय के अनु प
अपनी मता को तौलकर बगुले के समान अपने काय को स करना
चा हए
पर पर य ममा ण ये भाष ते नराधमाः।
त एवं वलयं या त व मीकोदरसपवत्।।
जो लोग एक- सरे के भेद को कट करते ह, वे उसी कार न हो
जाते ह जैसे बांबी म फंसकर सांप न हो जाता है।
तावना
“ या कर रहे हो?”
“कुश तो प व ह, इन पर ोध करना अ छा नह ।”
“जो क प ंचाए, उसे जीने का हक नह । उसे न करना ही पु य है।”*
“ले कन कुश तो न नह होते, अवसर पाकर फर फैल जाते ह।”
“नह ! म ऐसा नह होने ं गा। इसक दोबारा होने क सभी संभावना को
जलाकर राख कर ं गा। श ु को नमूल करने पर व ास करता ं म।”
बालक के पैर म कुश नामक घास चुभी थी। अतः उसने कुश को ही नमूल
कर दया। खोद-खोदकर उसक जड़ म मठा डालकर बची-खुची छोट -छोट जड़
को भी जला दया था उसने।
यो य आचाय ने बालक म छपी संभावना को पहचान लया था। ऐसा
आ म व ास और बल इ छाश ही व को ऊंचाइय पर प ंचाती है। ऐसे म
य द जनसंवेदना का पुट मल जाए, तो इ तहास पु ष ही बनता है और ऐसा ही
आ भी। लगभग दो हजार वष पूव भारत के इ तहास को जस बालक ने एक व णम
मोड़ दया, वही बालक बड़ा होकर चाण य बना। उसका असली नाम था—
व णुगु त। उसक कूटनी तक वल णता क वजह से लोग उसे कौ ट य भी कहते
थे।
यह घटना तब क है, जब व के मान च पर कुछ दे श का कह कोई अता-
पता नह था, ले कन भारत क स यता और सं कृ त अपने पूण यौवन पर थी। धम,
दशन और अ या म क ही नह , राजनी त तथा अथशा जैसे वषय क श ा लेने
के लए भी वदे श से व ाथ भारत भू म पर आया करते थे। यहां त शला और
नालंदा जैसे व व ालय थे। आचाय चाण य त शला म राजनी त तथा अथशा
के आचाय थे।
भारत क सीमाएं उस समय अफगा न तान से लेकर बमा ( यांमार) तक तथा
क मीर से लेकर क याकुमारी तक फैली ई थ । उस समय भारत सोने क च ड़या
था। वदे शी आ ांता को भारत क समृ खटक रही थी ले कन उनम ह मत नह
थी क वे ह तान के रणबाकुंर का सामना कर सक। अंततः उ ह ने दान और भेद
क नी त का सहारा लेकर मगध के शासक धमनंद क क मय को पहचान लया और
उसे अपने पाश म भी कस लया था। वतमान के पटना तथा त कालीन पाट लपु के
आसपास फैला पूव-उ र क सीमा को छू ता आ एक वशाल और श शाली
वैभव संप रा य था—मगध। मगध के सहासन पर आसीन धमनंद सुरा-सुंदरी म
इतना डू ब चुका था क उसे राजकाय को दे खने क फुरसत ही नह थी। वह अपनी
मौजम ती के लए जा पर अ याचार करता। जो भी आवाज उठाता, उसे कुचल दया
जाता। चणक को भी जन हत के लए उठाई गई आवाज क सजा मली थी। उस
महान आचाय को मौत के घाट उतार दया गया था।
एक-एक करके ई दय वदारक घटनाएं चणक पु चाण य के दय म
फांस क तरह धंसी ई थ । एक दन जब राजसभा म समूचे आयावत क थ त का
ववेचन करते ए चाण य ने मगधराज धमनंद को उनका कत याद दलाया तो वह
झुंझला उठा। उसने चाण य को दरबार से ध के मारकर नकाल फकने का आदे श
दया। सै नक के चाण य को ध के मारकर दरबार से नकालने क को शश के बीच
चाण य क शखा खुल गई। यह चाण य का ही नह , दे श क उस आवाज का भी
अपमान था, जो अपने राजा के सामने अंधकार म वलीन होते अपने भ व य को
बचाने क गुहार कर रही थी। उसी समय चाण य ने त ा कर ली—‘अब यह शखा
तभी बंधेगी, जब नंदवंश का समूल नाश हो जाएगा।’
चाण य ने अपने ल य को पूरा करने के लए चं गु त को चुना। चं गु त म
छपी संभावना को चाण य ने एक-एक करके तराशा। सोचे ए काय को मू प
दे ना चाण य के लए आसान नह था। मक नयां के छोटे से दे श से ‘ सकंदर’
नामक आंधी क गद भारत क सीमा पर छाने लगी थी। कंधार के राजकुमार
आ भी ने सकंदर से गु त सं ध कर ली थी। पवते र (पोरस) ने सकंदर क सेना
का डटकर सामना कया, ले कन सकंदर क रणनी त ने पांसा पलट दया। सकंदर
क ओर से ई बाणवषा से घबराई पोरस क जुझा गजसेना ने अपनी ही सेना को
र दना शु कर दया। पोरस क हार ई और उसे बंद बना लया गया। सकंदर ारा
यह पूछने पर क उसके साथ कैसा वहार कया जाए, पोरस ने नभ क होकर कहा
क जैसा एक राजा सरे राजा के साथ करता है। सकंदर ने पोरस को उसक वीरता
से स होकर छोड़ भी दया।* इस पराजय के बाद आचाय चाण य क दे खरेख म
चं गु त अपनी सेना को संग ठत करने, उसे तैयार करने और यु क रणनी त बनाने
म पूरी तरह से लग गया। भारी-भरकम श , शर ाण और कवच आ द क जगह
ह के, परंतु मजबूत ह थयार ने ली। शारी रक श के साथ ही बु -चातुय का भी
योग कया गया। चाण य क कूटनी त ने इस थ त म अमोघ ा का काम
कया। कौ ट य ने साम, दान, दं ड एवं भेद—चार नी तय का योग कया और अपने
ल य को ा त कया। नंदवंश का नाश आ। चं गु त ने मगध क बागडोर संभाली।
सकंदर के सेनाप त से यूकस क बेट हेलन का चं गु त के साथ ववाह आ। धमनंद
का धान अमा य ‘रा स’ चं गु त का महाअमा य बना। एक बार फर से भारत
बखरते- बखरते बच गया। सकंदर नाम क आंधी शांत होकर वापस अपने दे श चली
गई। भारत क ग रमा व के सामने फर से नखरकर सामने आई।
और चाण य? उसने नजन एकांत म राजनी त के पूव ंथ का अवगाहन कर
उसम अपने गत अनुभव का पुट दया और अथशा पर एक मह वपूण ंथ
लखा। ‘कौ ट य अथशा ’ नामक यह ंथ राजा, राजक मय तथा जा के संबंध
और रा य- व था के संदभ म अनुकरणीय व था दे ता है। कुछ व ान ने चाण य
क तुलना मै कया वली से क है ले कन भारत के थम धानमं ी पं. जवाहरलाल
नेह इस बात से सहमत नह थे। उनक म चाण य क महानता के मै कया वली
सामने काफ अदने ह। चाण य एक महान अथशा ी, राजनी त के वे ा तथा
कूटनी त होते ए भी महा मा थे। वे सभी कार क भौ तक उपा धय से परे थे।
इसी कारण ‘कामंदक य नी तसार’ म व णुगु त के लए ये पं यां लखी ग —
नी तशा ामृतं धीमानथशा महोदधेः
समुदद् े नम त मै व णुगु ताय वेधसे।।
‘ जसने अथशा पी महासमु से नी तशा पी अमृत का दोहन कया,
उस महा बु मान आचाय व णुगु त को मेरा नमन है।’
जनक याण के लए जो भी जहां से मला, उसे चाण य ने लया और उसके
त कृत ता कट क । वे अपने ंथ का शुभारंभ करते ए शु ाचाय और बृह प त
दोन को नमन करते ह। दोन गु ह। दोन क अपनी-अपनी व श धाराएं ह। अपने
त ा वा य म वे कहते ह—
पृ थ ा लाभे पालने च याव ताथ शा ा ण पूवाचायः था पता न
सं यैक मदमथशा ं कृतम्।
पृ वी क ा त और उसक र ा के लए पुरातन आचाय ने जन
अथशा वषयक ंथ का नमाण कया, उन सभी का सार-संकलन कर इस
अथशा क रचना क गई है।
‘चाण य नी त’ म नी तसार का नचोड़ है। इसका संकेत आचाय ने ारं भक
ोक म ही कर दया है।
ऐसा नह है क चाण य नी त पर इससे पहले काम न आ हो। इसके अनेक
अनुवाद का शत हो चुके ह। यह पु तक उनसे अलग इस मायने म है क इसम मूल
ोक के अथ को समझाते ए उसम छपे रह य क ओर भी संकेत करने का यास
कया गया है। ऐसा करने के पीछे उद्दे य है क पाठक उन न द सू को पकड़कर
क य क गु थयां अपने ढं ग से खोल। इसम इस बात का वशेष यान रखा गया है क
भाषा-शैली ऐसी हो, ता क साधारण भी इस ंथ का लाभ उठा सक। पु तक के
अंत म द गई फल ु त संकेत करती है क ववेकवान् इस ंथ को अव य पढ़े , यथा—
अधी येदं यथाशा ं नरो जाना त स मः।
धम पदे श व यातं कायाकाय शुभाशुभम्।।
इस शा को व धपूवक* अ ययन करने के बाद भलीभां त जान लेता
है क शा म कसे करने यो य कहा जाता है और कसका नषेध है, या शुभ है
और या अशुभ?
यहां पाठक को एक बात वशेष प से समझ लेनी चा हए क इस ंथ म
कुछ ऐसी मा यता का भी ज कया गया है, जो बदलते प रवेश के साथ या तो
बदल रही ह या फर उ ह ने अपना अ त व खो दया है। ंथ क ामा णकता को
बनाए रखने के लए उसके मूल प म कसी भी तरह क छे ड़खानी करना नै तक
से ठ क नह है। मूल को यथा प दे ने का अथ यह कतई नह है क लेखक या
काशक इन वचार या मा यता से सहम त रखते ह। इस लए पाठक को सही
संदभ म ही इस ंथ के क य को समझने क को शश करनी चा हए।

* कृते तकृतं कुयाद् हसने त हसनम्। त दोषो न पत त े ं


समाचरेत्।।
जो जैसा करे, उससे वैसा ही बरत। कृत के त कृत ता भरा, हसक से
हसा यु और ता का वहार करने पर कसी कार का पाप (पातक)
नह होता।
* सकंदर ारा पोरस को मु करना उन राजा के गाल पर करारा तमाचा था,
ज ह ने पवते र का साथ नह दया था।
* नी तशा म कही गई बात क ा या एकांगी नह होनी चा हए। इसके लए
ज री है क ा याता को लोक और शा दोन का ान हो। ‘लोक’ म
त कालीन समाज का व प आता है, जब क शा का अथ है— यु श दाथ
अथात् यु पा रभा षक श दावली का अथ प होना।
।। अथ थमोऽ यायः ।।
पहला अ याय
कसी क अथवा आप काल से बचाव के लए धन क
र ा करनी चा हए। धन खच करके भी य क र ा
करनी चा हए, परंतु य और धन से भी आव यक है क
वयं क र ा करे।
ण य शरसा व णुं ैलो या धप त भुम्।
नानाशा ोद्धृतं व ये राजनी तसमु चयम्।।
म तीन लोक —पृ वी, अ त र और पाताल के वामी सवश मान, सव ापक
परमे र व णु को सर झुकाकर णाम करता ं। भु को णाम करने के बाद म अनेक
शा से एक त कए गए राजनी त से संबं धत ान का वणन क ं गा।।।1।।
ाचीनकाल से हमारी यह परंपरा रही है क ंथ क न व न समा त के लए
ंथकार अपने आरा य का मरण अव य करता है। इसे ‘मंगलाचरण’ कहा जाता है।
आचाय चाण य ने भी सवश मान भु व णु को नमन करके इस ंथ क रचना क है।
व दत हो क ी व णु पालनकता ह और ‘नी त ‘का योजन भी और
समाज क व था दे ना है। चाण य ने अपने इस थ को राजनी त से संबं धत ान का
उ म सं ह बताया है। इसी सं ह को बाद म व ान और जन-सामा य ने ‘चाण य नी त’
का नाम दया।
अधी येदं यथाशा ं नरो जाना त स मः।
धम पदे श व यातं कायाकाय शुभाशुभम्।।
‘स मः’ अथात े पु ष, इस शा का व धपूवक अ ययन करके यह बात भली
कार जान जाएंगे क वेद आ द धमशा म कौन से काय करने यो य बताए गए ह और
कौन से काय ऐसे ह ज ह नह करना चा हए। या पु य है और या पाप है तथा धम और
अधम या है, इसक जानकारी भी इस ंथ से हो जाएगी। ।।2।।
मनु य के लए यह आव यक है क कुछ भी करने से पूव उसे इस बात का ान हो
क वह काय करने यो य है या नह , उसका प रणाम या होगा? पु य काय और पाप कम
या ह? े मनु य ही वेद आ द धमशा को पढ़कर भले-बुरे का ान ा त कर सकते
ह।
यहां यह बात जान लेना भी आव यक है क धम और अधम या है? इसके नणय
म, थम म धम क ा या के अनुसार— कसी के ाण लेना अपराध है और अधम
भी, परंतु लोकाचार और नी तशा के अनुसार वशेष प र थ तय म ऐसा कया जाना धम
के व नह माना जाता, पापी का वध और अपराधी को दं ड दे ना इसी ेणी म आते ह।
ीकृ ण ने अजुन को यु क ेरणा द , उसे इसी वशेष संदभ म धम कहा जाता है।
तदहं स व या म लोकानां हतका यया।
येन व ानमा ेण सव वं प ते।।
अब म मानवमा के क याण क कामना से राजनी त के उस ान का वणन क ं गा
जसे जानकर मनु य सव हो जाता है। ।।3।।
चाण य कहते ह क इस ंथ को पढ़कर कोई भी नयादारी और राजनी त
क बारी कयां समझकर सव हो जाएगा। यहां ‘सव ’ से चाण य का अ भ ाय ऐसी बु
ा त करना है जससे म समय के अनु प येक प र थ त म कोई भी नणय होने
क मता आ आए। जानकार होने पर भी य द समय पर नणय नह लया, तो जानना-
समझना सब थ है। अपने हत क र ा भी तो तभी स भव है।
मूख श योपदे शेन ीभरणेन च।
ः खतैः स योगेण प डतोऽ यवसीद त।।
मूख श य को उपदे श दे ने, - भचा रणी ी का पालन-पोषण करने, धन के
न होने तथा खी के साथ वहार रखने से बु मान को भी क उठाना
पड़ता है। ।।4।।
चाण य कहते ह क मूख को ान दे ने से कोई लाभ नह होता, अ पतु
स जन और बु मान लोग उससे हा न ही उठाते ह। उदाहरण के लए बया और बंदर क
कहानी पाठक को याद होगी। मूख बंदर को घर बनाने क सलाह दे कर बया को अपने
घ सले से ही हाथ धोना पड़ा था। इसी कार और कुलटा ी का पालन-पोषण करने से
स जन और बु मान य को ख ही ा त होता है।
खी य से वहार रखने से चाण य का ता पय है क जो अनेक रोग
से पी ड़त ह और जनका धन न हो चुका है, ऐसे य से कसी कार का संबंध रखना
बु मान मनु य के लए हा नकारक हो सकता है। अनेक रोग का ता पय सं ामक रोग से
है। ब त से लोग सं ामक रोग से त होते ह, उनक संग त से वयं रोगी होने का अंदेशा
रहता है। जन लोग का धन न हो चुका हो अथात जो दवा लया हो गए ह, उन पर
एकाएक व ास करना क ठन होता है। खी का अथ वषाद त से भी है। ऐसे लोग
का ख से उबरना ब त क ठन हो जाता है और ायः असफलता ही हाथ लगती है। जो
वा तव म खी है और उससे उबरना चाहता है, उसका सहयोग करना चा हए। य क खी
से तो वाथ ही बचता है।
ा भाया शठं म ं भृ य ो रदायकः।
ससप च गृहे वासो मृ युरेव न संशयः।।
वभाव वाली, कठोर वचन बोलने वाली, राचा रणी ी और धूत, वभाव
वाला म , सामने बोलने वाला मुंहफट नौकर और ऐसे घर म नवास जहां सांप के होने क
संभावना हो, ये सब बात मृ यु के समान ह। ।।5।।
जस घर म यां होती ह, वहां गृह वामी क थ त कसी मृतक के समान ही
होती है, य क उसका कोई वश नह चलता और भीतर ही भीतर कुढ़ते ए वह मृ यु क
ओर सरकता रहता है। इसी कार वभाव वाला म भी व ास के यो य नह होता, न
जाने कब धोखा दे दे । जो नौकर अथवा आपके अधीन काम करने वाला कमचारी उलटकर
आपके सामने जवाब दे ता है, वह कभी भी आपको असहनीय हा न प ंचा सकता है, ऐसे
सेवक के साथ रहना अ व ास के घूंट पीने के समान है। इसी कार जहां सांप का वास हो,
वहां रहना भी खतरनाक है। न जाने कब सपदं श का शकार होना पड़ जाए।
आपदथ धनं र ेद ् दारान् र े नैर प।
आ मानं सततं र ेद ् दारैर प धनैर प।।
कसी क अथवा आप काल से बचाव के लए धन क र ा करनी चा हए और
धन खच करके भी य क र ा करनी चा हए, परंतु य और धन से भी अ धक
आव यक यह है क अपनी र ा करे। ।।6।।
बु मान को चा हए क वह आप अथवा बुरे दन के लए थोड़ा-थोड़ा
धन बचाकर उसक र ा करे अथात धन का सं ह करे। समय पड़ने पर सं चत धन से भी
अ धक अपनी प नी क र ा करना आव यक है य क प नी जीवनसं गनी है। ब त से ऐसे
अवसर होते ह, जहां धन काम नह आता, वहां जीवनसाथी काम आता है। इसी संदभ म
वृ ाव था म प नी क अहम् भू मका होती है।
चाण य का वचार यह भी है क धन और ी से भी अ धक को अपनी र ा
करनी चा हए अथात का मह व इन दोन से अ धक है। य द का अपना ही नाश
हो गया तो धन और ी का योजन ही या रह जाएगा, इस लए के लए धन-सं ह
और ी र ा क अपे ा समय आने पर अपनी र ा करना अ धक मह वपूण है।
दे खने म आया है और उप नषद् के ऋ ष भी कहते ह क कोई कसी से ेम नह
करता, सब वयं से ही ेम करते ह—आ मन तु कामाय सव यं भव त।
आपदथ धनं र े मतां कुत आपदः।
कदा च च लता ल मीः स चतोऽ प वन य त।।
आप काल के लए धन क र ा करनी चा हए, ले कन स जन पु ष के पास
वप का या काम। और फर ल मी तो चंचला है, वह सं चत करने पर भी न हो जाती
है। ।।7।।
चाण य का कहना है, मनु य को चा हए क वह आप काल के लए धन का सं ह
करे। ले कन धनी ऐसा मानते ह क उनके लए आप य का कोई मह व नह है,
य क वे अपने धन से सभी आप य से बच सकते ह, परंतु वे यह नह जानते क ल मी
भी चंचल है। कसी भी समय वह मनु य को छोड़कर जा सकती है, ऐसी थ त म यह
इकट् ठा कया आ धन भी कसी समय न हो सकता है।
य मन् दे शे न स मानो न वृ न च बा धवाः।
न च व ाऽऽगमः क त् तं दे शं प रवजयेत।् ।
जस दे श म आदर-स मान नह और न ही आजी वका का कोई साधन है, जहां कोई
बंध-ु बांधव, र तेदार भी नह तथा कसी कार क व ा और गुण क ा त क संभावना
भी नह , ऐसे दे श को छोड़ ही दे ना चा हए। ऐसे थान पर रहना उ चत नह । ।।8।।
कसी अ य दे श अथवा कसी अ य थान पर जाने का एक योजन यह होता है क
वहां जाकर कोई नयी बात, नयी व ा, रोजगार और नया गुण सीख सकगे, परंतु जहां इनम
से कसी भी बात क संभावना न हो, ऐसे दे श या थान को तुरंत छोड़ दे ना चा हए।
ो यो ध नकः राजा नद वै तु प चमः।
प च य न व ते न त दवसं वसेत।् ।
जहां ो य अथात वेद को जानने वाला ा ण, ध नक, राजा, नद और वै ये
पांच चीज न ह , उस थान पर मनु य को एक दन भी नह रहना चा हए। ।।9।।
धनवान लोग से ापार क वृ होती है। वेद को जानने वाले ा ण धम क र ा
करते ह। राजा याय और शासन- व था को थर रखता है। जल तथा सचाई के लए नद
आव यक है जब क रोग से छु टकारा पाने के लए वै क आव यकता होती है। चाण य
कहते ह क जहां पर ये पांच चीज न ह , उस थान को याग दे ना ही ेय कर है।
लोकया ा भयं ल जा दा यं यागशीलता।
प चय न व ते न कुयात् त सं थ तम्।।
जहां लोकया ा अथात जीवन को चलाने के लए आजी वका का कोई साधन न हो,
ापार आ द वक सत न हो, कसी कार के दं ड के मलने का भय न हो, लोकलाज न हो,
य म श ता, उदारता न हो अथात उनम दान दे ने क वृ न हो, जहां ये पांच चीज
व मान न ह , वहां को नवास नह करना चा हए। ।।10।।
जानीयात् ेषणे भृ यान् बा धवान् सनाऽऽगमे।
म ं चाप कालेषु भाया च वभव ये।।
काम लेने पर नौकर-चाकर क , ख आने पर बंध-ु बांधव क , क आने पर म
क तथा धन नाश होने पर अपनी प नी क वा त वकता का ान होता है। ।।11।।
चाण य कहते ह क जब सेवक (नौकर) को कसी काय पर नयु कया जाएगा
तभी पता चलेगा क वह कतना यो य है। इसी कार जब कसी मुसीबत म फंस
जाता है तो उस समय भाई-बंधु और र तेदार क परी ा होती है। म क पहचान भी
वप के समय ही होती है। इसी कार धनहीन होने पर प नी क वा त वकता का पता
चलता है क उसका ेम धन के कारण था या वा त वक।
आतुरे सने ा ते भ े श -ु संकटे ।
राज ारे मशाने च य त त स बा धवः।।
कसी रोग से पी ड़त होने पर, ख आने पर, अकाल पड़ने पर, श ु क ओर से
संकट आने पर, राज सभा म, मशान अथवा कसी क मृ यु के समय जो साथ नह
छोड़ता, वा तव म वही स चा ब धु माना जाता है। ।।12।।
के रोग श या पर पड़े होने अथवा खी होने, अकाल पड़ने और श ु ारा
कसी भी कार का संकट पैदा होने, कसी मुकदमे आ द म फंस जाने और मरने पर जो
मशान घाट तक साथ दे ता है, वही स चा ब धु (अपना) होता है अथात ये अवसर
ऐसे होते ह जब सहायक क आव यकता होती है। ायः यह दे खा जाता है क जो कसी
क सहायता करता है, उसको ही सहायता मलती है। जो समय पर कसी के काम नह
आता, उसका साथ कौन दे गा?
यो ुवा ण प र य य अ व
ु ं प रसेवते।
ुवा ण त य न य त अ वु ं न मेव ह।।
जो मनु य न त को छोड़कर अ न त के पीछे भागता है, उसका काय या पदाथ
न हो जाता है। ।।13।।
चाण य कहते ह क लोभ से त होकर को हाथ-पांव नह मारने चा हए
ब क जो भी उपल ध हो गया है, उसी म स तोष करना चा हए। जो आधी छोड़कर
पूरी के पीछे भागते ह, उनके हाथ से आधी भी नकल जाती है।
वरयेत् कुलजां ा ो व पाम प क यकाम्।
पवत न नीच य ववाहः स शे कुले।।
बु मान को चा हए क वह े कुल म उ प ई कु प अथात् स दयहीन
क या से भी ववाह कर ले, पर तु नीच कुल म उ प ई सुंदर क या से ववाह न करे। वैसे
ववाह अपने समान कुल म ही करना चा हए। ।।14।।
आचाय चाण य ने यह ब त सुंदर बात कही है। शाद - ववाह के लए सुंदर क या
दे खी जाती है। सुंदरता के कारण लोग न क या के गुण को दे खते ह, न उसके कुल को। ऐसी
क या से ववाह करना सदा ही खदायी होता है, य क नीच कुल क क या के सं कार भी
नीच ही ह गे। उसके सोचने, बातचीत करने या उठने-बैठने का तर भी न न होगा, जब क
उ च और े कुल क क या का आचरण अपने कुल के अनुसार होगा, भले ही वह क या
कु प व स दयहीन हो। वह जो भी काय करेगी, उससे अपने कुल का मान ही बढ़े गा और
नीच कुल क क या तो अपने वहार से प रवार क त ा ही बगाड़ेगी। वैसे भी ववाह
सदा अपने समान कुल म ही करना उ चत होता है, अपने से नीच कुल म नह । यहां ‘कुल’ से
ता पय धन-संपदा से नह , प रवार के च र से है।
नखीनां च नद नां च शृंगीणां श पा णनाम्।
व ासो नैव कत ो ीषु राजकुलेषु च।।
‘नखीनाम्’ अथात बड़े-बड़े नाखून वाले शेर और चीते आ द ा णय , वशाल
न दय , ‘शृंगीणाम्’ अथात बड़े-बड़े स ग वाले सांड़ आ द पशु , श धारण करने वाल ,
य तथा राजा से संबं धत कुल वाले य का व ास कभी नह करना चा हए। ।।
15।।
बड़े-बड़े नाखून वाले हसक ाणी से बचकर रहना चा हए, न जाने वे कब आपके
ऊपर हमला कर द। जन न दय के पु ते अथवा तट प के नह , उन पर इस लए व ास
नह कया जा सकता क न जाने उनका वेग कब चंड प धारण कर ले और कब उनक
दशा बदल जाए, न जाने वे और कधर को बहना ारंभ कर द। इस लए ायः न दय के
कनारे रहने वाले लोग सदै व उजड़ते रहते ह।
बड़े-बड़े स ग वाले सांड़ आ द पशु का भी भरोसा नह है, कौन जाने उनका
मजाज कब बगड़ जाए। जसके पास तलवार आ द कोई ह थयार है, उसका भी भरोसा
नह कया जा सकता य क वह छोट -सी बात पर ोध म आकर कभी भी आ ामक हो
सकता है। चंचल वभाव वाली य पर भी व ास नह करना चा हए। वह अपनी चतुरता
से कभी भी आपके लए तकूल प र थ तयां पैदा कर सकती ह। इस तरह के कई
उदाहरण ाचीन ंथ म मल जाएंगे। राजा से संबं धत राजसेवक और राजकुल के
य पर भी व ास करना उ चत नह । वे कभी भी राजा के कान भरकर अ हत करवा
सकते ह। इसी के साथ वे राज नयम के त सम पत और न ावान् होते ह। राज हत
उनके लए मुख होता है—संबंध नह ।
वषाद यमृतं ा ममेधयाद प का चनम्।
नीचाद यु मा व ा ीर नं कुलाद प।।
वष म भी य द अमृत हो तो उसे हण कर लेना चा हए। अप व और अशु
व तु म भी य द सोना अथवा मू यवान व तु पड़ी हो तो वह भी उठा लेने के यो य होती
है। य द नीच मनु य के पास कोई अ छ व ा, कला अथवा गुण है तो उसे सीखने म कोई
हा न नह । इसी कार कुल म उ प अ छे गुण से यु ी पी र न को हण कर
लेना चा हए। ।।16।।
इस ोक म आचाय गुण हण करने क बात कर रहे ह। य द कसी नीच के
पास कोई उ म गुण अथवा व ा है तो वह व ा उससे सीख लेनी चा हए अथात को
सदै व इस बात का य न करना चा हए क जहां से उसे कसी अ छ व तु क ा त हो,
अ छे गुण और कला को सीखने का अवसर ा त हो तो उसे हाथ से जाने नह दे ना चा हए।
वष म अमृत और गंदगी म सोने से ता पय नीच के पास गुण से है।
ीणां गुण आहारो बु तासां चतुगुणा।
साहसं षड् गुणं चैव कामोऽ गुण उ यते।।
पु ष क अपे ा य का आहार अथात भोजन दोगुना होता है, बु चौगुनी,
साहस छह गुना और कामवासना आठ गुना होती है। ।।17।।
आचाय ने इस ोक ारा ी क कई वशेषता को उजागर कया है। ी के ये
ऐसे प ह, जन पर सामा य प से लोग क नह जाती।
भोजन क आव यकता ी को पु ष क अपे ा इस लए यादा है, य क उसे
पु ष क तुलना म शारी रक काय यादा करना पड़ता है। य द इसे ाचीन संदभ म भी दे खा
जाए, तो उस समय य को घर म कई ऐसे छोटे -मोटे काम करने होते थे, जनम ऊजा का
य होता था। आज के प रवेश म भी थ त लगभग वही है। शारी रक बनावट, उसम होने
वाले प रवतन और जनन आ द ऐसे काय ह, जसम य ई ऊजा को ा त करने के लए
ी को अ त र पौ कता क आव यकता होती है।
इस स य क जानकारी न होने के कारण, ब क वहार म इसके वपरीत आचरण
होने के कारण, बा लका और य को पु ष क अपे ा यादा कुपोषण का शकार
होना पड़ता है।
बु का वकास सम या को सुलझाने से होता है। इस से भी य को
प रवार के सद य और उसके अलावा भी कई लोग से वहार करना पड़ता है। इससे
उनक बु अ धक पैनी होती है, छोट -छोट बात को समझने क का वकास होता
तथा व वधता का वकास होता है। आज के संदभ म इस मता को प प से दे खा जा
सकता है।
भावना धान होने के कारण ी म साहस क उ च मा ा का होना वाभा वक है।
पशु-प य क मादा म भी दे खा गया है क अपनी संतान क र ा के लए वे अपने से
कई गुना बलशाली के सामने लड़-मरने के लए डट जाती ह।
काम का आठ गुना होना, पढ़ने-सुनने म अटपटा लगता है ले कन यह संकेत करता
है क हमने काम के प- व प को सही कार से नह समझा है। काम पाप नह है।
सामा जक कानून के व भी नह है। इसका होना अनै तक या च र हीन होने क पु भी
नह करता है। ीकृ ण ने वयं को ‘धमानुकूल काम’ कहा है। काम पतृऋण से मु होने
का सहज माग है। संतान उ प करके ही कोई इस ऋण से मु हो सकता है।
ी क कामे छा पु ष से भ होती है। वहां शरीर नह भावदशा मह वपूण है। ी
म होने वाले प रवतन भी इस मांग को सम लाते ह— वाभा वक प म। ले कन ी
उसका प र कार कर दे ती है जैसे पृ वी मैले को खाद बनाकर जीवन दे ती है। इसे पूरी तरह
से समझने के लए आव यक है कामशा का अ ययन कया जाए।
कुल मलाकर इस ोक ारा चाण य ने ी के वभाव का व ेषण कया है।

यह भारतीय परंपरा रही है क कसी भी शुभ काय को ारंभ करने से पहले दे वी-
दे वता अथवा भु का मरण कया जाए ता क वह काय बना कसी वधान के
सरलतापूवक स प हो। ‘चाण य नी त’ का मुख उद्दे य यह जानना है क कौन-सा
काम उ चत है और कौन-सा अनु चत। आचाय चाण य ने ाचीन भारतीय नी तशा म
बताए गए नयम के अनुसार ही इसे लखा है। यह पूव अनुभव का सार है। उनका कहना है
क लोग इसे पढ़कर अपने कत और अकत का भली कार ान ा त कर सकगे।
सम-साम यक राजनी त के ान म मनु य अपनी बु का पुट दे कर समय के अनुसार
अ छाई और बुराई म भेद कर सकता है।
सबसे पहले आचाय चाण य ने संग के मह व पर काश डालते ए यह बताया है
क लोग के संसग से बु मान मनु य को ख उठाना पड़ता है। चाण य ने मनु य के
जीवन म धन के मह व को बताया है। उनका कहना है क को संकट के समय के लए
धन का संचय करना चा हए। उस धन से अपने बाल-ब च तथा य क र ा भी करनी
चा हए। इसके साथ उनका यह भी कहना है क को अपनी र ा सव प र करनी
चा हए। जन लोग के पास धन है, वे कसी भी आप का सामना धन के ारा कर सकते
ह, परंतु उ ह यह बात भी भली कार समझ लेनी चा हए क ल मी चंचल है। वह तभी तक
टक कर रहती है, जब तक उसका स पयोग कया जाता है। पयोग आरंभ करते ही
ल मी चलती बनती है।
चाण य कहते ह क को उसी थान पर रहना चा हए जहां उसका स मान हो,
जहां पर उसके भाई-बंधु ह , आजी वका के साधन ह । इसी संबंध म वह आगे कहते ह क
जहां धनवान, वेद-शा को जानने वाले व ान ा ण, राजा अथवा शासन- व था, नद
और वै आ द न ह , वहां भी नह रहना चा हए। नौकर क कायकुशलता का पता तभी
चलता है, जब उ ह कोई काय करने के लए दया जाता है। अपने संबं धय और म क
परी ा उस समय होती है, जब वयं पर कोई आप आती है। गृह थ का सबसे बड़ा सहारा
उसक ी होती है, परंतु ी क वा त वकता भी उसी समय समझ म आती है, जब
पूरी तरह धनहीन हो जाता है।
मनु य को चा हए क वह अ धक लालच म न पड़े। उसे वही काय करना चा हए
जसके संबंध म उसे पूरा ान हो। जस काय के संबंध म उसे ान न हो, उसे करने से हा न
हो सकती है। जस काय का अनुभव न हो, उससे संबं धत नणय लेना क ठन होता है।
नणय य द ले लया जाए, तो संशय क थ त मन को डगमगाती रहती है। ऐसा नणय
कभी भी सही नह होता—‘संशया मा वन य त।’ मन य द संशय म हो तो वह रा ते से
भटकाता ही नह , गहरे और अंधेरे गड् ढे म फकता है। य द आप ऐसे वसा यय का जीवन
दे ख, ज ह ने अपने े म ऊंचाइय को छू आ है, तो आप पाएंगे क उ ह ने अपने काम को
समझने के लए कसी सरे अनुभवी के नीचे काम कया है। कताबी और
ावहा रक जानकारी म जमीन-आसमान का अंतर होता है।
ववाह के संदभ म, चाण य ने कुल के भेदभाव क बात नह मानी है। उनका कहना
है क नीच कुल म उ प क या भी य द अ छे गुण से यु है तो उससे ववाह करने म कोई
हा न नह । जन पर व ास नह करना चा हए उनके बारे म आचाय का कथन है क सह
और बाघ आ द तेज पंज वाले जानवर से र रहना चा हए, ऐसी न दय के आसपास भी
नह रहना चा हए, जनके कनारे क चे ह और जो बरसात आ द के दन म लंबे-चौड़े
मैदान म फैल जाती ह । इसी कार लंबे सीग वाले सांड़ आ द पशु से अपना बचाव
रखना चा हए। जसके पास कोई ह थयार है, उसका भी कभी व ास नह करना चा हए।
।। अथ तीयोऽ यायः ।।
सरा अ याय
‘मनसा च ततं काय’ अथात मन से सोचे ए काय को वाणी
ारा कट नह करना चा हए, परंतु मननपूवक भली कार
सोचते ए उसक र ा करनी चा हए और वयं चुप रहते ए
उस सोची ई बात को काय प म बदलना चा हए।
अनृतं साहसं माया मूख वम तलु धता।
अशौच वं नदय वं ीणां दोषाः वभावजाः।।
झूठ बोलना, बना सोचे-समझे कसी काय को ारंभ कर दे ना, साहस करना,
छलकपट करना, मूखतापूण काय करना, लोभ करना, अप व रहना और नदयता—ये
य के वाभा वक दोष ह। ।।1।।
य म ायः ये दोष पाए जाते ह—वे सामा य बात पर भी झूठ बोल सकती ह,
अपनी श का वचार न करके अ धक साहस दखाती ह, छल-कपट पूण काय करती ह,
मूखता, अ धक लोभ, अप व ता तथा नदयी होना, ये ऐसी बात ह जो ायः य के
वभाव म होती ह। ये य के वाभा वक दोष ह अथात अ धकांश य म ये होते ह।
अब तो यां श त होती जा रही ह। समय बदल रहा है। ले कन आज भी अ धकांश
अ श त यां इन दोष से यु हो सकती ह। इन दोष को ी क समाज म थ त और
उसके प रणाम व प बने उनके मनो व ान के संदभ म दे खना चा हए।
भो यं भोजनश र तश वरांगना।
वभवो दानश नाऽ प य तपसः फलम्।।
भोजन के लए अ छे पदाथ का ा त होना, उ ह खाकर पचाने क श होना,
सुंदर ी का मलना, उसके उपभोग के लए कामश होना, धन के साथ-साथ दान दे ने
क इ छा होना—ये बात मनु य को कसी महान तप के कारण ा त होती ह। ।।2।।
भोजन म अ छ व तु क कामना सभी करते ह, परंतु उनका ा त होना और
उ ह पचाने क श होना भी आव यक है। येक चाहता है क उसक प नी सुंदर
हो, परंतु उसके उपभोग के लए म कामश भी होनी चा हए। येक चाहता
है क उसके पास धन हो, परंतु धन ा त के बाद कतने ऐसे लोग ह, जो उसका स पयोग
कर पाते ह। धन का स पयोग दान म ही है। अ छ जीवन सं गनी, शारी रक श , पौ ष
एवं नरोगता, धन तथा व — ज रत पर कसी के काम आने क वृ आ द पूवज म म
क ही शुभ कम ारा ही ा त होते ह। ‘तपसः फलम्’ का अथ है कठोर म और
आ मसंयम।
य य पु ो वशीभूतो भाया छ दाऽनुगा मनी।
वभवे य स तु त य वग इहैव ह।।
जसका बेटा वश म रहता है, प नी प त क इ छा के अनु प काय करती है और
जो धन के कारण पूरी तरह संतु है, उसके लए पृ वी ही वग के समान है। ।।3।।
येक संसार म सुखी रहना चाहता है, यही तो वग है। वग म भी सभी
कार के सुख को उपभोग करने क क पना क गई है। इस बारे म चाण य कहते ह क
जसका पु वश म है, ी जसक इ छा के अनुसार काय करती है, जो अपने कमाए धन
से संतु है, जसे लोभ-लालच और अ धक कमाने क चाह नह है, ऐसे मनु य के लए
कसी अ य कार के वग क क पना करना थ है। वग तो वह जाना चाहेगा, जो यहां
खी हो।
ते पु ा ये पतुभ ाः स पता य तु पोषकः।
त म ं य य व ासः सा भाया य नवृ तः।।
पु उ ह ही कहा जा सकता है जो पता के भ होते ह, पता भी वही है जो पु
का पालन-पोषण करता है, इसी कार म भी वही है जस पर व ास कया जा सकता है
और भाया अथात प नी भी वही है जससे सुख क ा त होती है। ।।4।।
चाण य का मानना है क वही गृह थ सुखी है, जसक संतान उसके वश म है और
उसक आ ा का पालन करती है। य द संतान पता क आ ा का पालन नह करती तो घर
म लेश और ख पैदा होता है। चाण य के अनुसार पता का भी कत है क वह अपनी
संतान का पालन-पोषण भली कार से करे। जसने अपने कत से मुंह मोड़ लया हो,
उसे पु से भी भ क आशा नह करनी चा हए। इसी कार म के वषय म चाण य का
मत है क ऐसे को म कैसे कहा जा सकता है, जस पर व ास नह कया जा
सकता और ऐसी प नी कस काम क , जससे कसी कार का सुख ा त न हो तथा जो
सदै व ही लेश करके घर म अशा त फैलाती हो।
परो े कायह तारं य े यवा दनम्।
वजये ा शं म ं वषकु भं पयोमुखम्।।
जो पीठ पीछे काय को बगाड़े और सामने होने पर मीठ -मीठ बात बनाए, ऐसे म
को उस घड़े के समान याग दे ना चा हए जसके मुंह पर तो ध भरा आ है परंतु अंदर वष
हो। ।।5।।
जो म सामने चकनी-चुपड़ी बात बनाता हो और पीठ पीछे उसक बुराई करके
काय को बगाड़ दे ता हो, ऐसे म को याग दे ने म ही भलाई है। चाण य कहते ह क वह
उस बतन के समान है, जसके ऊपर के ह से म ध भरा है परंतु अंदर वष भरा आ हो।
ऊपर से मीठे और अंदर से को म नह कहा जा सकता। यहां एक बात वशेष
प से यान दे ने क है क ऐसा म आपके गत और सामा जक वातावरण को भी
आपके तकूल बना दे ता है।
न व सेत् कु म े च म े चाऽ प न व सेत।्
कदा चत् कु पतं म ं सव गु ं काशयेत।् ।
जो म खोटा है, उस पर व ास नह करना चा हए और जो म है, उस पर भी
अ त व ास नह करना चा हए य क ऐसा हो सकता है क वह म कभी नाराज होकर
सारी गु त बात कट कर दे । ।।6।।
चाण य मानते ह क जो अ छा म नह है उस पर तो व ास करने का
ही नह उठता, परंतु उनका यह भी कहना उ चत है क अ छे म के संबंध म भी पूरी तरह
व ास नह करना चा हए, य क कसी कारणवश य द वह नाराज हो गया तो सारे भेद
खोल दे गा।
आज बड़े-बड़े नगर म जो अपराध बढ़ रहे ह, जो कुकम हो रहे ह, उनके पीछे
प र चत ही अ धक पाए जाते ह। ‘घर का भेद लंका ढाए’—यह कहावत गलत नह
है। जो ब त अ छा म बन जाता है, वह घर के सद य जैसा हो जाता है। भावुक
होकर उसे अपने सारे भेद बता दे ता है, फर जब कभी मन-मुटाव उ प होते ह तो वह
क थत म ही सबसे यादा नुकसान दे ने वाला स होता है। ऐसा म जानता है आपके
मम थल कौन से ह। घर म काम करने वाले कमचारी के बारे म भी इस कार क सावधानी
रखना आव यक है।
मनसा च ततं काय वाचा नैव काशयेत्।
म ेण र येद ् गूढं काय चाऽ प नयोजयेत्।।
मन से सोचे ए काय को वाणी ारा कट नह करना चा हए, परंतु मननपूवक
भली कार सोचते ए उसक र ा करनी चा हए और चुप रहते ए उस सोची ई बात को
काय प म बदलना चा हए। ।।7।।
आचाय का कहना है क को कभी कसी को अपने मन का भेद नह दे ना
चा हए। जो भी काय करना है, उसे अपने मन म रख और समय आने पर पूरा कर। कुछ
लोग कए जाने वाले काय के बारे म गाते रहते ह। इस कार उनक बात का मह व कम हो
जाता है और य द कसी कारणवश वह उ काय को पूरा न कर सके तो उसक हंसी
होती है। इससे का व ास भी कम होता है। फर कुछ समय बाद ऐसा होता है क
लोग उसक बात पर यान नह दे त।े उसे बे- सर-पैर क हांकने वाला समझ लया जाता है।
अतः बु मान को कहने से अ धक करने के त य नशील होना चा हए।
क ं च खलु मूख वं क ं च खलु यौवनम्।
क ं तु क तरं चैव परगेह नवासनम्।।
मूखता और जवानी न त प से खदायक होती है। सरे के घर म नवास करना
अथात कसी पर आ त होना तो अ य त क दायक होता है। ।।8।।
मूख होना क दायक है, य क वह वयं को, अपन को और सर को एक समान
हा न प ंचाता है। मूखता के समान यौवन भी खदायी इस लए माना गया है य क उसम
काम, ोध आ द वकार के आवेग म उ े जत होकर कोई भी मूखतापूण काय कर
सकता है, जसके कारण उसे उसके अपन और सरे लोग को अनेक क उठाने पड़
सकते ह। चाण य कहते ह क ये बात तो क दायक ह ही परंतु इनसे भी अ धक क दायक
है सरे के घर म रहना, य क सरे के घर म रहने से क वतं ता समा त हो जाती
है, जससे व का पूण प से वकास नह हो पाता
शैले शैले न मा ण यं मौ कं न गजे गजे।
साधवो न ह सव च दनं न वने वने।।
सभी पहाड़ पर र न और म णयां नह मलत । न ही येक हाथी के म तक म
गजमु ा नामक म ण होती है। येक वन म चंदन भी उ प नह होता। इसी कार स जन
पु ष सब थान पर नह मलते। ।।9।।
आचाय चाण य के अनुसार येक थान पर सब कुछ उपल ध नह होता। व श
व तुएं वशेष थान पर ही होती ह। उ ह वह ढूं ढ़ना चा हए और उसी के अनुसार उनका
मू यांकन भी करना चा हए।
मा ण य एक लाल रंग का ब मू य र न होता है जो सभी पवत पर अथवा खान म
ा त नह हो सकता। ऐसी मा यता है क व श हा थय के माथे म एक ब मू य मोती
होता है। सब जंगल और वन म चंदन के वृ जस कार नह मलते, उसी कार स जन
भी सभी थान पर दखाई नह दे ते अथात े व तुएं मलनी लभ होती ह।
पु ा व वधैः शीलै नयो याः सततं बुधैः।
नी त ाः शीलस प ा भव त कुलपू जताः।।
बु मान लोग को चा हए क वह अपने पु और पु य को अनेक कार के अ छे
गुण से यु कर। उ ह अ छे काय म लगाएं, य क नी त जानने वाले और अ छे गुण से
यु स जन वभाव वाले ही कुल म पूजनीय होते ह। ।।10।।
चाण य कहते ह क बचपन म ब च को जैसी श ा द जाएगी, उनके जीवन का
वकास उसी कार का होगा, इस लए माता- पता का कत है क वे उ ह ऐसे माग पर
चलाएं, जससे उनम चातुय के साथ-साथ शील वभाव का भी वकास हो। गुणी य से
ही कुल क शोभा होती है।
माता श ु पता वैरी येन बालो न पा ठतः।
न शोभते सभाम ये हंसम ये बको यथा।।
वे माता- पता ब च के श ु ह, ज ह ने ब च को पढ़ाया- लखाया नह , य क
अनपढ़ बालक व ान के समूह म शोभा नह पाता, उसका सदै व तर कार होता है।
व ान के समूह म उसका अपमान उसी कार होता है जैसे हंस के झुंड म बगुले क
थ त होती है। ।।11।।
केवल मनु य ज म लेने से ही कोई बु मान नह हो जाता। उसके लए श त
होना अ य त आव यक है। श ल-सूरत, आकार- कार तो सभी मनु य का एक जैसा होता
है, अंतर केवल उनक व ा से ही कट होता है। जस कार सफेद बगुला सफेद हंस म
बैठकर हंस नह बन सकता, उसी कार अ श त श त य के बीच म
बैठकर शोभा नह पा सकता। इस लए माता- पता का कत है क वे ब च को ऐसी श ा
द, जससे वे समाज क शोभा बन सक।
लालनाद् बहवो दोषा ताडनाद् बहवो गुणाः।
त मा पु ं च श यं च ताडये तु लालयेत।् ।
लाड़- लार से पु म ब त से दोष उ प हो जाते ह। उनक ताड़ना करने से अथात
दं ड दे ने से उनम गुण का वकास होता है, इस लए पु और श य को अ धक लाड़- लार
नह करना चा हए, उनक ताड़ना करते रहनी चा हए। ।।12।।
यह ठ क है क ब च को लाड़- यार करना चा हए, कतु अ धक लाड़- यार करने से
ब च म अनेक दोष भी उ प हो सकते ह। माता- पता का यान ेमवश उन दोष क ओर
नह जाता। इस लए ब चे य द कोई गलत काम करते ह तो उ ह पहले ही समझा-बुझाकर
उस गलत काम से र रखने का य न करना चा हए। ब चे के ारा गलत काम करने पर,
उसे नजरअंदाज करके लाड़- यार करना उ चत नह । ब चे को डांटना भी चा हए। कए गए
अपराध के लए दं डत भी करना चा हए ता क उसे सही-गलत क समझ आए।
ोकेन वा तदधन पादे नैका रेण वा।
अब यं दवसं कुयाद् दाना ययन कम भः।।
को एक वेदमं का अ ययन, चतन अथवा मनन करना चा हए। य द वह पूरे
मं का चतन-मनन नह कर सकता तो उसके आधे अथवा उसके एक भाग का और य द
एक भाग का भी नह तो एक अ र का ही त दन अ ययन करे, ऐसा नी तशा का
आदे श है। अपने दन को थ न जाने द। अ ययन आ द अ छे काय को करते ए अपने
दन को साथक बनाने का य न कर। ।।13।।
चाण य कहते ह क मनु य ज म बड़े भा य से मलता है, इस लए उसे थ नह
जाने दे ना चा हए— को चा हए क वह अपना समय, अपना दन वेदा द शा के
अ ययन म ही बताए तथा उसके साथ-साथ दान आ द अ छे काय भी करे। महान पु ष
क वशेषता का वणन करते ए कहा गया है—‘ सनं ुतौ’ अथात् े ंथ का
अ ययन करना उनका सन होता है।
का ता वयोगः वजनापमानः ऋण य शेषः
कुनृप य सेवा।
द र भावो वषमा सभा च वना ननैते दह त
कायम्।।
प नी का बछु ड़ना, अपने बंध-ु बांधव से अपमा नत होना, कज चढ़े रहना,
अथवा बुरे मा लक क सेवा म रहना, नधन बने रहना, लोग और वा थय क सभा
अथवा समाज म रहना, ये सब ऐसी बात ह, जो बना अ न के शरीर को हर समय जलाती
रहती ह। ।।14।।
स जन लोग अपनी प नी के वयोग को सहन नह कर सकते। य द उनके अपने
भाई-ब धु उनका अपमान अथवा नरादर करते ह तो वह उसे भी नह भुला सकते। जो
कज से दबा है, उसे हर समय कज न उतार पाने का ख रहता है। राजा अथवा
मा लक क सेवा म रहने वाला नौकर भी हर समय खी रहता है। नधनता तो ऐसा
अ भशाप है, जसे मनु य सोते और उठते-बैठते कभी नह भुला पाता। उसे अपने वजन
और समाज म बार-बार अपमा नत होना पड़ता है।
अपमान का क मृ यु के समान है। ये सब बात ऐसी ह, जनसे बना आग के ही
अंदर-ही-अंदर जलता रहता है। जीते-जी चता का अनुभव करने क थ त है यह।
नद तीरे च ये वृ ाः परगेहेषु का मनी।
म हीना राजानः शी ं न य यसंशयम्।।
जो वृ बलकुल नद के कनारे पैदा होते ह, जो ी सर के घर म रहती है और
जस राजा के मं ी अ छे नह होते वे ज द ही न हो जाते ह, इसम कोई संशय नह है। ।।
15।।
नद के कनारे के वृ का जीवन कतने दन का हो सकता है, यह कोई नह कह
सकता, य क बाढ़ तथा तूफान के समय न दयां अपने कनारे के पेड़ को ही या, अपने
आसपास क फसल और ब तय को भी उजाड़ दे ती ह। इसी कार सरे घर म रहने
वाली ी कब तक अपने आपको बचा सकती है? जस राजा के पास अ छ सलाह दे ने
वाले मं ी नह होते, वह कब तक अपने रा य क र ा कर सकता है? अथात ये सब
न यपूवक ज द ही न हो जाते ह।
बलं व ा च व ाणां रा ां सै यं बलं तथा।
बलं व ं च वै यानां शू ाणां प रचयकम्।।
ा ण का बल व ा है, राजा का बल उनक सेना, ापा रय का बल उनका
धन है और शू का बल सर क सेवा करना है। ।।16।।
ा ण का कत है क व ा हण कर। राजा का कत यह है क सै नक
ारा वे अपने बल को बढ़ाते रह। वै य को चा हए क वे पशु-पालन और ापार ारा धन
बढ़ाएं, शू का बल सेवा है।
चाण य ने इस ोक म चार वण के कत क ओर संकेत कया है। उनके
अनुसार—चार वण को अपने-अपने काय म नपुण होना चा हए। समाज म कसी क
थ त कम नह है। समय के अनुसार प र थ तयां बदलती ह, संभवतः कसी समय ज म
के अनुसार चार वण माने जाते रहे ह , परंतु त य यह है क वण क मा यता काय पर
नभर करती है।
इस लए कसी भी कुल म ज म लेने वाला श ा के े म है, तो उसे ा ण
ही माना जाएगा। जो ापार करता है, कृ ष काय म लगा है, पशु-पालन करता है,
उसे वै य माना जाएगा। जो सेना म भत ह अथवा सेना से संबं धत काय कर रहा है, उसे
य कहा जाएगा। शेष शू क ेणी म आते ह। शू भी श त हो सकता है।
परंतु कसी भी वण म पैदा आ , जो लोग क सेवा के काय म लगा है, उसे शू माना
जाएगा—शू का अथ नीच नह है। आ ापालन क भावना शू का वशेष गुण है। ायः
इस ेणी के लोग मान सक प से संतु होते ह।
नधनं पु षं वे या जा भ नं नृपं यजेत्।
खगा वीतफलं वृ ं भु वा चाऽ यागता गृहम्।।
वे या नधन पु ष को, जा परा जत राजा को, प ी फलहीन वृ को और
अचानक आया आ अ त थ भोजन करने के बाद घर को यागकर चले जाते ह। ।।17।।
आचाय ने यहां संबंध क साथकता क ओर संकेत कया है। कोई तभी तक संबंध
रखता है, जब तक उसके वाथ क पू त होती है।
वे या का धंधा परपु ष से धन लूटना होता है। धन के समा त होने पर वह मुंह मोड़
लेती है। जा तापी राजा को ही स मान दे ती है। जब वह श हीन हो जाता है तो जा
राजा का साथ छोड़ दे ती है। इसी कार कृ त के सामा य नयम के अनुसार—वृ पर
रहने वाले प ी तभी तक कसी वृ पर बसेरा रखते ह, जब तक वहां से उ ह छाया और
फल ा त होते रहते ह। घर म अचानक आने वाले अ त थ का जब भोजन-पान आ द से
वागत-स कार कर दया जाता है तो वह भी सामा जक नयम के अनुसार वदा लेकर अपने
ल य क ओर चल पड़ता है। भाव यह है क को अपने स मान क र ा का वयं
यान रखना चा हए। उसे अपे ा करते समय संबंध के व प को सही कार से समझना
चा हए। कसी थान, या व तु से आव यकता से अ धक लगाव नह रखना चा हए।
गृही वा द णां व ा यज त यजमानकम्।
ा त व ा गु ं श या द धाऽर यं मृगा तथा।।
ा ण द णा ा त करने के बाद यजमान का घर छोड़ दे ते ह, व ा ा त करने के
बाद श य गु के आ म से वदा ले लेता है, वन म आग लग जाने पर वहां रहने वाले हरण
आ द पशु उस जंगल को छोड़कर कसी सरे जंगल क ओर चल दे ते ह। ।।18।।
यह ोक भी उसी बात क पु करता है, जसे पहले कहा गया है। य द कोई
कसी वशेष काय के कारण कसी के पास जाता है, तो अपना काय स हो जाने
पर उसे वह थान छोड़ दे ना चा हए, जस कार ा ण लोग यजमान के कसी काय क
पू त के बाद द णा ा त हो जाने पर आशीवाद दे कर वहां से चले जाते ह। श य भी व ा
क ा त के बाद गु कुल छोड़कर अपने-अपने घर चले जाते ह। जब कसी जंगल म आग
लग जाती है तो वहां रहने वाले पशु भी उस जंगल को छोड़कर कसी सरे जंगल क खोज
म चल पड़ते ह अथात को अपना काय समा त हो जाने पर कसी के यहां डेरा डालने
क मंशा नह करनी चा हए।
राचारी र राऽऽवासी च जनः।
य मै ी यते पु भनरः शी ं वन य त।।
बुरे च र वाले, अकारण सरे को हा न प ंचाने वाले तथा गंदे थान पर रहने वाले
के साथ जो पु ष म ता करता है, वह ज द ही न हो जाता है। ।।19।।
सभी साधु-संत , ऋ ष-मु नय का कहना है क जन का संग नरक म वास करने के
समान होता है, इस लए मनु य क भलाई इसी म है क वह जतनी ज द हो सके,
का साथ छोड़ दे ।
आचाय ने यहां यह भी संकेत कया है क म ता करते समय यह भली कार से
जांच-परख लेना चा हए क जससे म ता क जा रही है, उसम ये दोष तो नह ह। य द ऐसा
है, तो उससे होने वाली हा न से बच पाना संभव नह । इस लए यादा अ छा है क उससे र
ही रहा जाए।
समाने शोभते ी तः रा सेवा च शोभते।
वा ण यं वहारेषु द ा ी शोभते गृहे।।
े म वहार बराबरी वाले य म ही ठ क रहता है। य द नौकरी करनी ही हो तो
राजा क नौकरी करनी चा हए। काय अथवा वसाय म सबसे अ छा काम ापार करना
है। इसी कार उ म गुण वाली ी क शोभा घर म ही है। ।।20।।
अपनी बराबरी वाले से ेम-संबंध शोभा दे ता है। असमानता सामने आए
बना नह रहती, तब ेम श ुता म बदल जाता है। इस लए य न पहले ही यान रखा जाए।
इसी कार य द को नौकरी तथा कसी सेवा काय म जाना है तो उसे य न करना
चा हए क सरकारी सेवा ा त हो, य क उसम एक बार वेश करने पर अवकाश ा त
होने तक कसी वशेष कार का झंझट नह रहता।
फर वह न द नयम से संचा लत होता है, न क कसी वशेष के आदे श
से। य द अ य काय करना पड़े तो अपना ही कोई च का ापार करे। गुणयु ी
से घर क शोभा है और घर म अपनी मयादा और कत का पालन करते ए ी भी
अपने सद्गुण क र ा कर सकती है।

इस अ याय के ारंभ म ही य क ओर यान दलाया गया है। दे खा जाए तो दोष


तो सभी म होता है। कुछ के पास अनेक पदाथ होते ह, परंतु वे या तो उनका उपभोग नह
जानते अथवा फर उनम उपभोग क श नह होती। इस अ याय म यह भी बताया गया है
क कौन-सा प रवार सुखी रहता है। सुख उसी प रवार को ा त होता है, जहां सब एक-
सरे का स मान करते ह, एक- सरे म ा रखते ह—अथात पु को पता और पता को
पु का यान रखना चा हए।
यह संसार बड़ा व च है। कुछ लोग ऐसे भी होते ह, जो सामने तो मीठ बात करते
ह, परंतु पीठ पीछे बुराइयां करते ह। ऐसे लोग से बचना चा हए। चाण य तो यहां तक कहते
ह क मन से सोची ई बात का वाणी से भी उ लेख नह करना चा हए अथात अपना रह य
अपने म को भी नह बताना चा हए। मूखता तो क दायक होती ही है, जवानी और सरे
के घर म आ त होकर रहना भी भारी ख दे ने वाला होता है। उसके साथ यह भी यान म
रखना चा हए क े और उ म व तुएं तथा स जन लोग सब थान पर ा त नह होते।
चाण य ने बार-बार इस बात पर जोर दया है क माता- पता को चा हए क वे
अपनी संतान को गुणवान बनाएं, उनका यान रख और उ ह बगड़ने न द। आचाय कहते ह
क को चा हए क वह अपना समय साथक बनाए, अ छा काय करे। इसके साथ
उनका कहना है क सब लोग को अपना काय अथात कत पूरा करना चा हए।
कौ ट य ने मनु य को बार-बार सचेत कया है क उसे वा त वकता समझनी चा हए,
गफलत म नह रहना चा हए। उसे यह ात होना चा हए क वे या का ेम एक धोखा है।
इस लए उसे इस कार क य तथा पु ष से बचना चा हए। उसे चा हए क वह ेम
और म ता अपने बराबर वाल से ही रखे।
।। अथ तृतीयोऽ यायः ।।
तीसरा अ याय
जहां मूख क पूजा नह होती, जहां अ आ द काफ मा ा
म इकट् ठे रहते ह, जहां प त-प नी म कसी कार का
कलह, लड़ाई-झगड़ा नह , ऐसे थान पर ल मी वयं आकर
नवास करने लगती है।
क य दोषः कुले ना त ा धना को न पी डतः।
सनं केन न स ा तं क य सौ यं नर तरम्।।
संसार म ऐसा कौन-सा कुल अथवा वंश है, जसम कोई-न-कोई दोष अथवा अवगुण
न हो, येक को कसी-न- कसी रोग का सामना करना ही पड़ता है, ऐसा मनु य
कौन-सा है, जो सन म न पड़ा हो और कौन ऐसा है जो सदा ही सुखी रहता हो, य क
येक के जीवन म संकट तो आते ही ह। ।।1।।
आचाय चाण य ने यह बात ठ क ही कही है क कोई वरला ही वंश अथवा कुल
ऐसा हो, जसम कसी कार का दोष न हो। इसी तरह सभी कभी-न-कभी कसी रोग
से पी ड़त होते ह। जो मनु य कसी बुरी लत म पड़ जाता है अथवा जसे बुरे काम करने क
आदत पड़ जाती है, उसे भी ख उठाने पड़ते ह। संसार म ऐसा कोई नह है, जसे
सदा सुख ही मलता रहा हो और संकट ने उसे कभी न घेरा हो। अथात कोई मनु य पूण
नह । कोई न कोई ख सभी को लगा ही आ है।
आचारः कुलमा या त दे शमा या त भाषणम्।
स मः नेहमा या त वपुरा या त भोजनम्।।
मनु य के वहार से उसके कुल का ान होता है। मनु य क बोल-चाल से इस बात
का पता चलता है क वह कहां का रहने वाला है, वह जस कार का मान-स मान कसी को
दे ता है, उससे उसका ेम कट होता है और उसके शरीर को दे खकर उसके भोजन क मा ा
का अनुमान लगाया जा सकता है। ।।2।।
मनु य जस कार का वहार करता है, उससे उसके कुल का ान भली- कार हो
जाता है। इसी कार मनु य क भाषा और बोलचाल से उसके दे श- दे श अथवा रहने के
थान का पता चलता है। मनु य जस कार का कसी के त आदर कट करता है, उससे
यह प हो जाता है क उसका वभाव कैसा है। इसी कार उसके शरीर क बनावट
दे खकर उसके खाने क मा ा का अनुमान होता है।
बनावट और उसका वहार कसी भी मनु य के मन क थ त को पूरी तरह से
बता दे ता है। ले कन इसके लए अनुभव अपे त है।
सुकुले योजये क यां पु ं व ासु योजयेत्।
सने योजये छ ुं म ं धम नयोजयेत्।।
समझदार का कत है क वह अपनी क या का ववाह कसी अ छे कुल म
करे, पु को अ छ श ा दे । उसे इस कार क श ा दे , जससे उसका मान-स मान बढ़े ।
श ु को कसी ऐसे सन म डाल दे , जससे उसका बाहर नकलना क ठन हो जाए और
अपने म को धम के माग म लगाए। ।।3।।
येक माता- पता का कत है क अपनी पु ी का ववाह कसी अ छे प रवार म
ही कर। ‘अ छा कुल’ अथात् जो सं का रत हो और श त भी। उ ह चा हए क वह अपनी
संतान को व ान बनाएं, ता क उनका अपना कुल भी गुण-संप हो।
श ु के संबंध म सन क बात चाण य ने जस कार से कही है, उससे कट
होता है क वे कतनी र क बात सोचते थे। आज भी दे खने म आता है क ब त से पड़ोसी
दे श अपने वकास म लगे ए दे श को माग से भटकाने के लए लोग म धन का लालच पैदा
करके उ ह नशीले पदाथ के ापार म लगाने का य न करते ह। आज पहले सी
प र थ तयां नह रह गई ह, पर पर यु क संभावना ब त कम हो गई है। इसी लए सरे
दे श को कमजोर बनाने के लए व भ कार के हथकंडे अपनाए जाते ह। नशे क लत म
एक बार फंसने पर नकलना क ठन होता है। सनी मान सक प से कमजोर हो
जाता है और ऐसा श ु य द जी वत भी रहे, तो कोई अंतर नह पड़ता। म को सदै व े
काय क ओर े रत करते रहना चा हए।
जन य च सप य वरं सप न जनः।
सप दं श त कालेन जन तु पदे पदे ।।
और सांप, इन दोन म से कसी एक को चुनना हो तो क
अपे ा सांप को चुनना ठ क होगा, य क सांप समय आने पर ही काटे गा, जब क
हर समय हा न प ंचाता रहेगा। ।।4।।
चाण य ने यहां प कया है क सांप से भी अ धक हा नकर होता है।
सांप तो आ मर ा के लए आ मण करता है, परंतु अपने वभाव के कारण
सदै व कसी-न- कसी कार का क प ंचाता ही रहता है। इस कार सांप से भी
अ धक घातक होता है।
एतदथ कुलीनानां नृपाः कुव त सं हम्।
आ दम याऽवसानेषु न यज त च ते नृपम्।।
राजा लोग कुलीन य को अपने पास इस लए रखते ह क वे राजा क उ त
के समय, उसका ऐ य समा त हो जाने पर तथा वप के समय भी उसे नह छोड़ते। ।।
5।।
राजा लोग अथवा राजपु ष रा य के मह वपूण पद और थान पर उ म कुल वाले
य को ही नयु करते ह, य क उनम उ च सं कार तथा अ छ श ा के कारण
एक व श ता होती है, वे राजा के हर काम म सहायक होते ह। वे उसक उ त के समय
अथवा सामा य-म यम थ त म तथा संकट आने के समय भी साथ नह छोड़ते। कुलीन
अवसरवाद नह , आदशवाद होता है।
य द इस बात को आज के संदभ म भी दे खा जाए तो वाथ और नीच कुल के
ही अपना वाथ स होने पर दल-बदल कर लेते ह और अपने दल का साथ छोड़
दे ते ह। परो प से चाण य लोग को सचेत करना चाहते ह क सहयो गय का चुनाव
करते समय कुल और सं कार का वचार अव य करना चा हए।
लये भ मयादा भव त कल सागराः।
सागरा भेद म छ त लयेऽ प न साधवः।।
समु भी लय क थ त म अपनी मयादा का उ लंघन कर दे ते ह और कनार को
लांघकर सारे दे श म फैल जाते ह, परंतु स जन लय के समान भयंकर वप और
क आने पर भी अपनी सीमा म ही रहते ह, अपनी मयादा नह छोड़ते। ।।6।।
वशाल सागर ब त गंभीर रहता है, परंतु चाण य धैयवान गंभीर को सागर
क अपे ा े मानते ह। लय के समय सागर अपनी सारी मयादा भूल जाता है, अपनी
सभी सीमाएं तोड़ दे ता है और जल-थल एक हो जाता है, पर तु े अनेक संकट को
सहन करता है और अपनी मयादाएं कभी पार नह करता।
मूख तु प रहत ः य ो पदः पशुः।
भन वा यश येन अ ः क टको यथा।।
मूख से र ही रहना चा हए, य क मनु य दखता आ भी वह दो पैर वाले
पशु के समान है। वह स जन को उसी कार क प ंचाता रहता है, जैसे शरीर म चुभा
आ कांटा शरीर को नरंतर पीड़ा दे ता रहता है। ।।7।।
कांटा छोटा होने के कारण अ य हो जाता है और शरीर म धंस जाता है। मूख क
भी यही थ त है। वह भी अनजाने म ख और पीड़ा का कारण बनता है। अकसर लोग
मूख क ओर भी यान नह दे ते, वे उसे साधारण मनु य ही समझते ह।
पयौवनस प ाः वशालकुलस भवाः।
व ाहीना न शोभ ते नग धा इव कशुकाः।।
सुंदर प वाला, यौवन से यु , ऊंचे कुल म उ प होने पर भी व ा से हीन मनु य
सुगंधर हत ढाक अथवा टे सू के फूल क भां त उपे त रहता है, शंसा को ा त नह होता।
।।8।।
य द कसी ने अ छे कुल म ज म लया है और दे खने म भी उसका शरीर
सुंदर है, परंतु य द वह भी व ा से हीन है तो उसक थ त भी ढाक के उसी फूल के समान
होती है, जो गंधर हत होता है। ढाक का फूल दे खने म सुंदर और बड़ा होता है, परंतु जब
लोग यह दे खते ह क उसम कसी कार क सुगंध नह है तो वे उसक उपे ा कर दे ते ह। न
तो वह कसी दे वता के पूजन म चढ़ाया जाता है, न ही साज-शृंगार म उसका उपयोग कया
जाता है।
को कलानां वरो पं ीणां पं प त तम्।
व ा पं कु पाणां मा पं तप वनाम्।।
कोयल का स दय उसके वर म है, उसक मीठ आवाज म है, य का स दय
उनका प त ता होना है, कु प लोग का स दय उनके व ावान होने म और तप वय क
सुंदरता उनके मावान होने म है। ।।9।।
भाव यह है क का स दय उसके गुण म छपा रहता है। जस कार कोयल
और कौआ दोन काले होते ह, परंतु कोयल क मीठ कूक सभी को पसंद होती है, यही
मीठा वर उसका स दय है, इसी कार यां वे ही सुंदर मानी जाती ह, जो प त ता होती ह
अथात ी का स दय उसका पा त त धम है। समाज म भी प त-परायणा ी को ही
स मान ा त है, उसी क लोग ारा सराहना क जाती है। शरीर से कु प भी व ा
के कारण आदर का पा बन जाता है जैसे स यवती पु ास। तप करने वाले क
शोभा उसक माशीलता के कारण होती है। मह ष भृगु ने ‘ मा’ करने क वशेषता के
कारण ही ी व णु को दे वता म े घो षत कया था।
यजेदेकं कुल याऽथ ाम याऽथ कुलं यजेत्।
ामं जनपद याऽथ आ माऽथ पृ थव यजेत।् ।
य द एक का याग करने से कुल क र ा होती है, उ त होती है, सुख-शां त
मलती है तो उस एक को छोड़ दे ना चा हए, उसका याग कर दे ना चा हए। ाम के
हत के लए कुल छोड़ दे ना चा हए। य द एक गांव को छोड़ने से पूरे जले का क याण हो,
तो उस गांव को भी छोड़ दे ना चा हए। इसी कार आ मा क उ त के लए सारे भूमंडल
का ही याग कर दे ना चा हए। ।।10।।
छोटे वाथ के याग क ओर संकेत करता है यह ोक। इस से ‘ व’ ही
सव े है अथात् य द अपनी उ त म कसी चीज को बाधक समझता है तो उसका
याग कर दे ने म दे र नह करनी चा हए—वह कतनी भी मू यवान य न हो।
उ ोगे ना त दा र य
् ं जपतो ना त पातकम्।
मौने च कलहो ना त ना त जाग रते भयम्।।
उ ोग अथात पु षाथ करने वाला द र नह हो सकता, भु का नाम जपते
रहने से मनु य पाप म ल त नह होता, मौन रहने पर लड़ाई-झगड़े नह होते तथा जो
जागता रहता है अथात सतक रहता है, उसे कसी कार का भय नह रहता। ।।11।।
जो नरंतर प र म करते रहते ह, उनक गरीबी वयं र हो जाती है। प र म
करके भा य को भी अपने वश म कया जा सकता है। जो सदै व भु का मरण करता
रहता है, अपने दय म सदै व उसे व मान समझता है, वह पापकाय म वृ नह होता।
ोक के सरे भाग म कहा गया है क मौन रहने से लड़ाई-झगड़ा नह होता अथात् ववाद
का समाधान है मौन। यह बात जीवन के सभी प पर लागू होती है। जो सावधान
रहता है, सतक रहकर अपने काय करता है, उसे कसी भी कार के भय क आशंका नह
रहती। जस को आल य, असावधानी और गफलत म रहने क आदत है, उसे हर
थान पर हा न उठानी पड़ती है। उसका न तो आज है, न कल।
अ त पेण वै सीता अ तगवण रावणः।
अ तदानात् ब लब ो अ त सव वजयेत्।।
अ यंत पवती होने के कारण ही सीता का अपहरण आ, अ धक अ भमान होने
के कारण रावण मारा गया, अ य धक दान दे ने के कारण राजा ब ल को क उठाना पड़ा,
इस लए कसी भी काय म अ त नह करनी चा हए। अ त का सव याग कर दे ना चा हए।
।।12।।
चाण य ने यहां इ तहास स उदाहरण दे कर यह समझाने का य न कया है क
येक काय क एक सीमा होती है। जब उसका अ त मण हो जाता है तो को क
उठाना पड़ता है। सीता अ यंत पवती थ , इसी कारण उनका अपहरण आ। इसी कार
रावण य प अ यंत बलवान और समृ राजा था, परंतु अ भमान क सभी सीमाएं लांघ
गया, प रणाम व प उसे अपने वजन के साथ मौत के घाट उतरना पड़ा। राजा ब ल के
संबंध म सभी जानते ह क वह अ यंत दानी था। उसके दान के कारण जब उसका यश सारे
संसार म फैलने लगा तो दे वता लोग भी च तत हो उठे । तब भगवान व णु ने वामन का
अवतार लेकर उससे तीन पग धरती दान म मांगी। ब ल के गु शु ाचाय ने उसे सावधान भी
कया, परंतु ब ल ने उनक बात न मानकर वामन बने व णु क बात मान ली और भगवान ने
तीन पग म धरती, वग और पाताल—तीन लोक को नापकर ब ल को भखारी बना दया।
इन सब उदाहरण का भाव यही है क अ छाई भी एक सीमा से आगे बढ़ जाती है,
तो वह बुराई अथात् हा नकर बन जाती है। लोग उसका लाभ उठाते ह। इसी लए कहा गया
है क अ त न करो।
को ह भारः समथानां क रं वसा यनाम्।
को वदे शः स व ानां कः परः यवा दनाम्।।
समथ अथवा श शाली लोग के लए कोई भी काय क ठन नह होता, ापा रय
के लए भी कोई थान र नह , पढ़े - लखे व ान य के लए कोई भी थान वदे श
नह । इसी कार जो मधुरभाषी ह, उनके लए कोई पराया नह । ।।13।।
जो लोग श शाली ह अथात जनम साम य है, उनके लए कोई भी काम पूरा कर
लेना क ठन नह होता। वे येक काय को सरलतापूवक कर लेते ह। ापारी अपने ापार
क वृ के लए र- र के दे श म जाते ह, उनके लए भी कोई थान र नह । व ान
के लए भी कोई परदे स नह । वह जहां भी जाएगा, व ा के कारण वह स मा नत
होगा। इसी कार मधुर भाषण करने वाला पराये लोग को भी अपना बना लेता है।
उसके लए पराया कोई भी नह होता, सब उसके अपने हो जाते ह।
एकेनाऽ प सुवृ ेण पु पतेन सुग धना।
वा सतं त नं सव सुपु ेण कुलं तथा।।
जस कार सुगं धत फूल से लदा आ एक ही वृ सारे जंगल को सुगंध से भर
दे ता है, उसी कार सुपु से सारे वंश क शोभा बढ़ती है, शंसा होती है। ।।14।।
ब त से लोग के ब त से पु अथवा संतान होती ह, परंतु उनक अ धकता के
कारण प रवार का स मान नह बढ़ता। कुल का स मान बढ़ाने के लए एक सद्गुणी पु ही
काफ होता है। धृतरा के सौ पु म से एक भी ऐसा नह नकला जसे स मान से मरण
कया जाता हो। ऐसे सौ पु से या लाभ? सगर के तो साठ हजार पु थे।
एकेन शु कवृ ेण द मानेन वह् नना।
द ते त नं सव कुपु ेण कुलं तथा।।
जस कार एक ही सूखे वृ म आग लगने से सारा जंगल जलकर राख हो जाता है,
उसी कार एक मूख और कुपु सारे कुल को न कर दे ता है। ।।15।।
जैसे जंगल का एक सूखा पेड़ आग पकड़ ले तो सारा वन जल उठता है, उसी कार
कुल म एक कुपु पैदा हो जाए तो वह सारे कुल को न कर दे ता है। कुल क त ा,
आदर-स मान आ द सब धूल म मल जाते ह। य धन का उदाहरण सभी जानते ह, जसके
कारण कौरव का नाश आ। लंकाप त रावण भी इसी ेणी म आता है।
एकेनाऽ प सुपु ेण व ायु े न साधुना।
आह्ला दतं कुलं सव यथा च े ण शवरी।।
एक ही पु य द व ान और अ छे वभाव वाला हो तो उससे प रवार को उसी
कार खुशी होती है, जस कार एक चं मा के उ प होने पर काली रात चांदनी से खल
उठती है। ।।16।।
यह आव यक नह है क प रवार म य द ब त-सी संतान ह, तो वह प रवार सुखी ही
हो। अनेक संतान के होने पर भी य द उनम से कोई व ान और सदाचारी नह तो प रवार
के सुखी होने का ही नह उठता। इस लए चाण य कहते ह क ब त से मूख पु और
संतान क अपे ा एक ही व ान और सदाचारी पु से प रवार को उसी कार स ता
मलती है, जैसे चांद के नकलने पर उसके काश से काली रात जगमगा उठती है।
क जातैब भः पु ैः शोकस तापकारकैः।
वरमेकः कुलाऽऽल बी य व ा यते कुलम्।।
ख दे ने वाले, दय को जलाने वाले ब त से पु के उ प होने से या लाभ? कुल
को सहारा दे ने वाला एक ही पु े होता है, उसके आ य म पूरा कुल सुख भोगता है। ।।
17।।
ऐसे ब त से पु से कोई लाभ नह , जनके काय से प रवार को शोक का सामना
करना पड़े, दय को ख प ंच।े ऐसे ब त से पु क अपे ा प रवार को सहारा दे ने वाला
एक ही पु अ धक उपयोगी होता है, जसके कारण प रवार को सुख ा त होता है।
लालयेत् प च वषा ण दश वषा ण ताडयेत्।
ा ते तु षोडशे वष पु ं म वदाचरेत्।।
पांच वष क आयु तक पु से यार करना चा हए, इसके बाद दस वष तक उसक
ताड़ना क जा सकती है और उसे दं ड दया जा सकता है, परंतु सोलह वष क आयु म
प ंचने पर उससे म के समान वहार करना चा हए। ।।18।।
वकासा मक मनो व ान का सू है यह ोक। पांच वष क आयु तक के ब चे के
साथ लाड़- लार करना चा हए, य क इस समय वह सहज वकास से गुजर रहा होता है।
अ धक लाड़- यार करने से ब चा बगड़ न जाए, इस लए दस वष क आयु तक उसे दं ड दे ने
क बात कही गई है, उसे डराया-धमकाया जा सकता है, परंतु सोलह वष क आयु तक
प ंचने पर उसके साथ इस कार का वहार नह कया जा सकता।
उस समय उसके साथ म जैसा वहार करना चा हए, य क तब उसका
व और सामा जक ‘अहं’ वक सत हो रहा होता है। म ता का अथ है, उसे यह
महसूस कराना क उसक प रवार म मह वपूण भू मका है। म पर जैसे आप अपने वचार
को लादते नह ह, वैसा ही आप यहां अपनी संतान के साथ भी कर। यहां भी समझाने-
बुझाने म तक और ावहा रकता हो, न क अहं क भावना।
उपसगऽ यच े च भ े च भयावहे।
असाधुजनस पक यः पलाय त स जीव त।।
ाकृ तक आप यां—जैसे अ धक वषा होना और सूखा पड़ना अथवा दं ग-े फसाद
आ द होने पर, महामारी के प म रोग फैलने, श ु के आ मण करने पर, भयंकर अकाल
पड़ने पर और नीच लोग का साथ होने पर जो सब कुछ छोड़-छाड़कर भाग जाता है,
वह मौत के मुंह म जाने से बच जाता है। ।।19।।
भावाथ यह है क जहां दं ग-े फसाद ह , उस जगह से को र रहना चा हए।
य द कसी श ु ने हमला कर दया हो या फर अकाल पड़ गया हो और लोग अ धक
संपक म आ रहे ह , तो को वह थान छोड़ दे ना चा हए। जो ऐसा नह करता, वह
मृ यु का ास बन जाता है।
धमाथकाममो ाणां य यैकोऽ प न व ते।
ज म-ज म न म यषु मरणं त य केवलम्।।
जस के पास धम, अथ, काम और मो आ द इन चार पु षाथ म से कोई
भी पु षाथ नह है, वह बार-बार मनु य यो न म ज म लेकर केवल मरता ही रहता है, इसके
अ त र उसे कोई लाभ नह होता। ।।20।।
चाण य का भाव यह है क मनु य ज म म आकर धम, अथ और काम के
लए पु षाथ करता आ मो ा त करने का य न करे, मानव दे ह धारण करने का यही
लाभ है।
मूखा य न पू य ते धा यं य सुस चतम्।
द प येः कलहो नाऽ त त ीः वयमागता।।
जहां मूख क पूजा नह होती, जहां अ आ द काफ मा ा म इकट् ठे रहते ह, जहां
प त-प नी म कसी कार क कलह, लड़ाई-झगड़ा नह , ऐसे थान पर ल मी वयं आकर
नवास करने लगती है। ।।21।।
इस ोक का ता पय यह है क जो लोग—दे श अथवा दे शवासी, मूख लोग क
बजाय गुणवान का आदर-स मान करते ह, अपने गोदाम म भली कार अ का सं ह
करके रखते ह, जहां के लोग म घर-गृह थी म लड़ाई-झगड़े नह , मतभेद नह , उन लोग क
संप अपने-आप बढ़ने लगती है। यहां एक बात वशेष प से समझने क है क ल मी को
ी भी कहते ह, ले कन इन दोन म मूलतः अंतर है। आज जब क येक ल मी का
उपासक हो गया है और सोचता है क सम त सुख के साधन जुटाए जा सकते ह, तो उसे
इनम फक समझना होगा।
ल मी का एक नाम चंचला भी है। एक थान पर न कना इसका वभाव है। ले कन
जस ी क बात आचाय चाण य ने क है, वह बु क सखी है। बु क ी के साथ
गाढ़ म ता है। ये दोन एक- सरे के बना नह रह सकत । मह ष ास ने ी का माहा य
भगवान के साथ जोड़कर कया है। उनका कहना है क जहां ी है, वहां भगवान को
उप थत जानो। इस ोक म जन गुण को बताया गया है उनका होना भगवान क
उप थ त का संकेत है।
ल मी चंचला है ले कन ी जसके मन या घर म व हो जाती है उसे अपनी इ छा
से नह छोड़ती। ी का अथ संतोष से भी कया जाता है। संतोष को सव े संप माना
गया है। इस कार संतोषी को ल मी के पीछे -पीछे जाने क आव यकता नह होती,
वह वयं उसके घर-प रवार म आकर नवास करती है।

आचाय ने वशेष प से मनु य के आचार अथात च र के संबंध म कुछ बात कही


ह। उ ह ने माना है क अ छे -से-अ छे कुल म कह -न-कह कसी कार का दोष मल ही
जाता है और संसार म ऐसा कौन-सा पु ष है, जो कभी रोग का शकार न आ हो। सभी म
कोई-न-कोई सन भी होता है। इस संसार म लगातार कसको सुख ा त होता है अथात
कोई सदा सुखी नह रह सकता, कभी-न-कभी वह क म पड़ता ही है। सुख- ख का संबंध
दन-रात क तरह है।
महान य को और धमा मा को अनेक क उठाने पड़ते ह। ऐसा संसार का
नयम है। चाण य का मानना है क मनु य के आचार- वहार से, बोलचाल से, सर के
त मान-स मान कट करने से उसके कुल क व श ता का ान होता है।
आचाय का मानना है क पु ी का ववाह अ छे आचरणशील प रवार म करना
चा हए और पु को ऐसी ेरणा दे नी चा हए क वे उ च श ा ा त कर। श ा ही जीने क
कला सखाती है।
श ु को सन म फंसाने क बात करते ए आचाय संकेत करते ह क श ु का
नाश बौ क चातुय के साथ कया जाना चा हए। इस लए सावधान रह और लाभ उठाएं।
चाण य ने श ा और बु म ा पर सब काय क अपे ा अ धक जोर दया है। वे कहते ह
क मूख भी स जन और बु मान क तरह दो पैर वाला होता है परंतु वह चार पैर वाले पशु
से भी नकृ और गया-गुजरा माना जाता है, य क उसके काय सदै व क प ंचाने वाले
होते ह। चाण य कहते ह क य द कोई अ छे कुल म उ प आ है तथा प और
यौवन आ द से भी यु है, परंतु उसने व ा हण नह क तो यह सब उसी कार नरथक
है जस कार बना सुगंध के सुंदर फूल। उनका मानना है क कसी का स मान उसके गुण
के कारण होता है, न क प और यौवन के कारण। आचरण से संबं धत एक और
मह वपूण बात चाण य ने यह कही है क य द कसी एक के ब लदान से पूरे कुल का
क याण हो तो उसका ब लदान कर दे ना चा हए, परंतु उ ह ने मनु य को सव प र माना है
और वे कहते ह क य द अपने क याण के लए चाहे तो येक व तु का ब लदान कर
सकता है।
उनका मानना है क को अपनी नधनता र करने के लए उ म और पाप से
बचने के लए भु का मरण करते रहना चा हए। उ ह ने बार-बार मनु य को सचेत कया है
क वह कस कार क से बच सकता है। उनका कहना है क को सदै व सतक
रहना चा हए। आचरण म आचाय कसी भी तरह क अ त के प म नह ह।
आचाय के अनुसार मधुर भाषण करने वाला समूचे संसार को अपना बना
सकता है। अनेक कुपु होने के बजाय एक सुपु होना कह अ छा है। चाण य ने बाल
मनो व ान पर भी काश डाला है। उनका कहना है क पांच वष तक क आयु के ब चे से
लाड़- लार करना चा हए। इसके बाद क आयु म अनुशा सत करने के लए डांट-फटकार,
ताड़ना करने क आव यकता हो, तो वह भी करनी चा हए, परंतु जब ब चा सोलह वष क
आयु तक प ंच जाता है तब उसे म के समान समझकर वहार करना चा हए। ोक म
‘पु ’ श द का योग संतान के अथ म कया गया है। बे टय के संदभ म भी यही नयम लागू
होता है।
आचाय ने बार-बार मनु य को यह बताने-समझाने का य न कया है क यह मानव
शरीर अ यंत मू यवान है। को अपना दा य व नभाने के लए यथाश धमाचरण
करते रहना चा हए। चाण य इस अ याय के अंत म समूचे समाज को मूख से बचने का
परामश दे ते ह। अपने अ तथा अ य उ पाद को ठ क ढं ग से संभालकर रखना चा हए और
आपस म ेमपूवक रहना चा हए। झगड़े-फसाद म अपना जीवन न नह करना चा हए।
ऐसा करके हम वयं को ख के गत म डालते ह।
।। अथ चतुथ ऽ यायः ।।
चौथा अ याय
को चा हए क वह ऐसे धम का याग कर दे , जसम
दया और ममता आ द का अभाव हो। इसी कार व ा से
हीन, सदा ोध करने वाली ी और जन बंध-ु बांधव म
ेम का अभाव हो, उनका भी याग कर दे ना चा हए। उनसे
भी र रहना चा हए।
आयुः कम च व ं च व ा नधनमेव च।
प चैता न ह सृ य ते गभ थ यैव दे हनः।।
जीव जब मां के गभ म आता है तभी उसक आयु, कम, धन, व ा और मृ यु—यह
पांच बात न त हो जाती ह। ।।1।।
चाण य का व ास है क मनु य के जीवन क ायः सभी बात पहले से ही न त
हो जाती ह जैसे क वह कतने वष तक जी वत रहेगा, कस कार के कम करेगा, उसे धन
आ द क ा त कैसे होगी तथा वह कतनी व ा ा त कर सकेगा।
साथ ही उ ह ने कम अथात् पु षाथ को कह नकारा भी नह है। कारण प है—
इन सबके मूल म कम ही तो है, जसे ार ध कहते ह। माना जाता है क उसी के अनुसार
जीव को शरीर क ा त होती है, वह भी हमारे कम का ही प रणाम है। शा म कहा गया
है क का थम कत कम करना है, अतः वह अपनी व ा और बु के अनु प
े कम करता रहे। दे खने म आता है क संक पपूवक कए गए कम से इन सबम भी
प रवतन कया जा सकता है।
साधु य ते नवत ते पु ा म ा ण बा धवाः।
ये च तैः सह ग तार त मा सुकृतं कुलम्।।
पु , म और ब धु-बा धव साधु लोग से वमुख हो जाते ह य क उ ह ऐसे लोग
का आचरण मूखतापूण लगता है, परंतु जो लोग साधु के अनुसार अपना जीवन बताते ह,
उनका संग करते ह, उनके अनुकूल आचरण करते ह, उनके इस काय से जो पु य ा त होता
है, उससे सारा वंश-प रवार कृतकृ य हो जाता है। ।।2।।
दशन यानसं पशम सी कूम च प णी।
शशुं पालयते न यं तथा स जनसंग तः।।
जैसे मछली अपने ब च को दे खकर, मादा कछु आ यान (दे खभाल) से और मादा
प ी पश से अपने ब च का लालन-पालन करते ह, उसी कार स जन क संग त भी
दशन, यान और पश ारा संसग म आए का पालन करती है।।3।।
आचाय ने इस ोक ारा स जन के अ यंत सू म भाव क ओर संकेत कया है।
मा यता है क मछली अपनी से, मादा कछु आ यान से तथा प ी पश से अपनी संतान
का लालन-पालन करते ह। स जन भी दशन, यान और पश से अपने आ त को सुर ा
दान करते ह और वकास म सहयोगी होते ह। स जन के दशन से आ मबल म वृ होती
है और संक प ढ़ होता है। य द उनका यान कया जाए और य द उनके चरण का पश
कर उनका आशीवाद ा त कया जाए, तो सफलता, उ त और वकास सहज हो जाता है।
याव व थो यं दे हो याव मृ यु रतः।
तावदा म हतं कुयात् ाणा ते क क र य त।।
जब तक यह शरीर व थ तथा नीरोग है और जब तक मृ यु नह आती तब तक
को अपने क याण के लए धमयु आचरण— अथात पु य कम करने चा हए
य क करने-कराने का संबंध तो जीवन के साथ ही है। जब मृ यु हो जाएगी, उस समय वह
कुछ भी करने म असमथ हो जाएगा अथात कुछ भी नह कर सकेगा। ।।4।।
कसी को इस बात का ान नह क मनु य का शरीर कब रोग से घर जाएगा। उसे
यह भी मालूम नह क मृ यु कब होने वाली है। इस लए मनु य को चा हए क जब तक वह
जी वत है, अ धक-से-अ धक पु य कम करे, य क करने-कराने का संबंध तो जीवन से है।
जब मृ यु हो जाती है, तब सारे व ध- नषेध नरथक हो जाते ह।
कामधेनुगुणा व ा काले फलदा यनी।
वासे मातृस शी व ा गु तं धनं मृतम्।।
व ा म कामधेनु के गुण होते ह। उससे असमय म ही फल क ा त होती है।
वदे श म व ा ही माता के समान र ा और क याण करती है, इस लए व ा को गु तधन
कहा गया है। ।।5।।
गु तधन वह होता है जससे मनु य संकट के समय लाभ उठा सके। इस लए चाण य
ने व ा को गु तधन बताया है और उसक उपमा कामधेनु से क है। कामधेनु उसे कहा
जाता है, जससे मनु य क सभी इ छाएं पूण होती ह। उससे उस समय भी फल क ा त
होती है, जब दे शकाल के अनुसार फल ा त संभव न हो। व ा के कारण ही वदे श म
का स मान होता है। माता जस कार ब चे क र ा करती है, उसी कार वदे श म
व ा से क हर कार से र ा होती है और सुख ा त होते ह। नी त वा य भी है—
व ान् सव पू यते।
वरमेको गुणी पु ो न णै शतैर प।
एक तमो ह त न च ताराः सह शः।।
सैकड़ गुणर हत और मूख पु के बजाय एक गुणवान और व ान पु का होना
अ छा है, य क हजार तार क अपे ा एक चं मा से ही रा का शत होती है। ।।6।।
सैकड़ मूख पु क अपे ा एक व ान और गुण से यु पु से ही पूरे प रवार का
क याण होता है। रा के समय जस कार आकाश म हजार तारागण दखाई दे ते ह, परंतु
उनसे रा का अंधकार र होने म सहायता नह मलती। उसे तो चं मा ही र कर पाता है।
आचाय क म सं या नह गुण मह वपूण ह।
मूख रायुजातोऽ प त मा जातमृतो वरः।
मृतः स चाऽ प ःखाय याव जीवं जडो दहेत्।।
द घ आयु वाले मूख पु क अपे ा पैदा होते ही मर जाने वाला पु अ धक े
होता है, य क पैदा होते ही मर जाने वाला पु थोड़े समय के लए ही ख का कारण होता
है, जब क लंबी आयु वाला मूख पु मृ युपय त ख दे ता रहता है। ।।7।।
संतान से माता- पता क उ मीद जुड़ी होती ह। जब ज मते ही संतान क मृ यु हो
जाती है, तो माता- पता नराशा के अंधकार म डू ब जाते ह। भ व य म इस मृत संतान को
लेकर कोई सुख- ख क उ मीद नह रहती है। जब क मूख जी वत पु न य- त अपने
माता- पता क आशा के टु कड़े-टु कड़े करता रहता है। इस ख से पहला ख यादा ठ क
है।
कु ामवासः कुलहीनसेवा कुभोजनं ोधमुखी च
भाया।
पु मूख वधवा च क या वनाऽ नना षट्
दह त कायम्।।
अ श त तथा अनुपयु थान या ाम म रहना, नीच क सेवा, अ चकर
और पौ कता से र हत भोजन करना, झगड़ालू ी, मूख पु और वधवा क या, ये छह
बात ऐसी ह जो बना अ न के ही शरीर को जलाती रहती ह। ।।8।।
कुछ बात ऐसी होती ह जनसे जीवनभर खी रहता है। उनम सबसे मुख
वह थान है, जहां उसे लगातार रहना होता है। य द वह थान ठ क न हो और वहां के
नवा सय का आचार- वहार सही न हो तो सदै व खी रहता है। इसी कार य द
कसी को नीच क नौकरी करनी पड़े, गंदा, बासी और पौ कता से र हत भोजन
करना पड़े तो वह भी खदायी ही है। य द ी झगड़ालू हो, छोट -छोट बात पर झगड़ा
करती हो तो गृह थ का सुख कैसे ा त हो सकता है? पु य द मूख हो और लड़क वधवा
हो तो यह आयुभर का असहनीय लेश हो जाता है। ऐसी थ तय से बच पाना य द संभव
न हो, तो मान सक प से इससे नपटने के लए तैयार रहना चा हए।
क तया यते धे वा या न दो ी न ग भणी।
कोऽथः पु ेण जातेन यो न व ान् भ मान्।।
जस तरह ध न दे ने वाली और गभ न धारण करने वाली गाय से कोई लाभ नह ,
उसी कार य द पु भी व ान और माता- पता क सेवा करने वाला न हो तो उससे कसी
कार का लाभ नह हो सकता। ।।9।।
कोई भी ऐसी गाय को पालना पसंद नह करेगा, जो न तो ध दे ती हो और न
ही गभ-धारण करने के यो य हो, इसी कार ऐसे पु से भी कोई लाभ नह , जो न तो पढ़ा-
लखा हो और न ही माता- पता क सेवा करता हो।
संसार तापद धानां यो व ा तहेतवः।
अप यं च कल ं च सतां संग तरेव च।।
इस संसार म खी लोग को तीन बात से ही शा त ा त हो सकती है—अ छ
संतान, प त ता ी और स जन का संग। ।।10।।
अपने काय अथवा ापार म लगे ए य के लए घर म आने पर शा त
मलनी चा हए। ऐसा तभी हो सकता है जब उसके पु और पु यां गुणी ह , ी प त ता
और न वभाव वाली हो तथा के म भले और स जन ह ।
सकृ ज प त राजानः सकृ ज प त प डताः।
सकृत् क याः द य ते ी येता न सकृ सकृत्।।
राजा एक ही बार आ ा दे ते ह, प डत लोग भी एक ही बार बोलते ह। क या भी
एक ही बार ववाह के समय दान म द जाती है। ।।11।।
सरकार एक ही बार आ ा दे ती है। उसका आदे श कानून का प ले लेता है। जा
को उस पर चलना ही होता है। इसी कार प डत लोग भी कसी आयोजन म ोका द
एक ही बार बोलते ह। ठ क इसी कार क या का ववाह भी एक ही बार होता है। माता-
पता अथवा अ य संबंध रखने वाले कोई वचन दे ते ह, तो उसे नभाने का पूरा य न कया
जाता है।
चाण य का कहना है क ये काय ऐसे ह, जो केवल एक-एक बार ही होते ह, इ ह
बार-बार नह दोहराया जाता। इनके संबंध म बार-बार न य बदलने से बात ह क पड़
जाती है और उसका भाव कम हो जाता है। हा न और समाज म अपयश दोन ा त होते
ह।
एका कना तपो ा यां पठनं गायनं भः।
चतु भगमनं े ं प च भब भरणः।।
तप अथवा कसी कार क साधना का काय एक अकेला ही अ छा करता
है, य द दो छा मलकर पढ़ तो अ ययन अ छा होता है और गाने के लए य द तीन
मलकर अ यास करते ह, तो अ छा रहता है। इसी कार य द या ा आ द पर जाना हो तो
कम-से-कम चार को जाना चा हए। खेती आ द काय ठ क कार से चलाने के लए
पांच य क आव यकता होती है, जब क यु म यह सं या जतनी हो उतना अ छा
है। ।।12।।
चाण य कहते ह क तप अथवा साधना को अकेले ही करनी चा हए, एक से
अ धक ह गे तो उसम व न पड़ेगा। अ ययन दो य के बीच ठ क रहता है, य क
दोन एक- सरे को कोई बात समझा सकते ह। गाने के अ यास के लए तीन लोग का होना
इस लए आव यक है य क उनम से एक जब अ यास करता है, तो दोन सुनने वाले अपनी
त या जा हर कर सकते ह। कह या ा पर जाने के समय चार और खेती आ द के
काय के लए पांच य क आव यकता होती है। यु ऐसा काय है जसम जतने भी
अ धक लोग ह , उनसे सहायता मलती है।
सा भाया या शु चद ा सा भाया या प त ता।
सा भाया या प त ीता सा भाया स यवा दनी।।
प त के लए वही प नी उपयु होती है, जो मन, वचन और कम से एक जैसी हो
और अपने काय म नपुण हो, इसके साथ ही वह अपने प त से ेम रखने वाली तथा स य
बोलने वाली होनी चा हए। ऐसी ी को ही े प नी माना जा सकता है। ।।13।।
आचाय चाण य ने आदश प नी के गुण क चचा करते ए यह भी संकेत कया है
क प त को कैसा होना चा हए। हम यह तो चाहते ह क प नी प त से कुछ न छपाए,
ले कन प नी से रह य को छपाना अपना अ धकार मानते ह। घर को संभालने का काय
प नी कुशलता से करे और प त? प नी प त से ेम करती है और प त? आज बदलते
प रवेश म आचाय के कथन को ावहा रक प से दे खने-परखने क आव यकता है। ये
बात दोन के लए एक समान ह।
अपु य गृहं शू यं दशः शू या वबा धवाः।
मूख य दयं शू यं सवशू या द र ता।।
जस घर म बेटा नह होता, वह घर शू य माना जाता है, जसके कोई ब धु-बा धव
नह होते उसके लए सारी दशाएं, सारा संसार ही शू य होता है। मूख का दय शू य
होता है और द र के लए तो सभी कुछ शू य है। ।।14।।
येक माता- पता यह चाहते ह क उनक एक संतान बेटा हो, बेटे के बना घर सूना
मालूम होता है। य क आज सोच बदली है। कायदे -कानून बदले ह। जो इस संसार
म अकेला है, जसके कोई र तेदार अथवा ब धु-बा धव नह , उसके लए चार दशाएं
अथवा सारा संसार ही सूना होता है। वह कसी से अपने मन का ख कट करने म असमथ
रहता है। मूख क णा, दया और ममता से र हत होता है, इस लए कहा गया है क
इसका दय सूना होता है। द र अथवा नधन के लए तो सभी कुछ सूना है य क
कोई भी उसका साथ दे ने को तैयार नह होता। उससे सब क ी काटते ह।
अन यासे वषं शा मजीण भोजनं वषम्।
द र य वषं गो ी वृ य त णी वषम्।।
अ यास के बना शा वष होता है, अजीण अथात भोजन के ठ क कार से पचे
बना फर भोजन करना वष के समान होता है, नधन और द र के लए समाज म
रहना वष के समान होता है और बूढ़े पु ष के लए युवती वष के समान होती है। ।।15।।
मनु य को नरंतर अ यास ारा शा का ान ा त करना चा हए। य द वह शा
ान के लए नरंतर अ यास नह करता तो वह अधकचरा ानी बनता है, ऐसा ान वष के
समान खदायी होता है। इसी कार पेट म अपच क थ त म य द ब ढ़या-से-ब ढ़या
भोजन कया जाएगा तो वह भी वष के समान क दे गा। द र य द कसी सभा, सोसायट
अथवा समाज म जाता है तो वहां उसक पूछ न होने के कारण उसे वष का घूटं भी पीना
पड़ता है।
बूढ़ा आदमी य द त णी के साथ ववाह रचाता है तो उसका जीवन अ य त क मय
हो जाता है, य क वचार म आयुगत असमानता सदै व लेश का कारण बनती है और
शारी रक प से नबल होने के कारण वह नवयौवना को यौन संतु भी दान नह कर
सकता। ऐसी प नी पथ हो सकती है, जो क स मा नत के लए अ यंत क दायी
थ त होती है।
यजे म दयाहीनं व ाहीनं गु ं यजेत्।
यजे ोधमुख भाया नः नेहान्
बा धवां यजेत।् ।
को चा हए क वह ऐसे धम का याग कर दे जसम दया और ममता आ द का
अभाव हो, इसी कार व ा से हीन गु का भी याग कर दे ना चा हए। सदा ोध करने
वाली ी का याग भी ेय कर है और जन ब धु-बा धव म ेम अथवा नेह का अभाव
हो, उनका भी याग कर दे ना चा हए। ।।16।।
येक धम से आशा क जा सकती है क वह दया, अ हसा और ेम का संदेश
दे गा। य द उसम ये बात नह ह तो ऐसे धम को छोड़ दे ना चा हए। गु का कत ान दे ना
है, य द वह अनपढ़ और मूख है तो उसे गु बनाने से कोई लाभ नह । ी प त को सुख दे ने
वाली होती है, परंतु य द वह हर समय गु से म भरी रहे और ोध करती रहे तो ऐसी प नी
का भी याग कर दे ना चा हए। र तेदार, भाई-ब धु के ख म काम आते ह, परंतु य द
उनम नेह और ेम का अभाव है तो ऐसे भाई-बंधु का कोई लाभ नह । उ ह यागना ही
हतकर है।
याग भी तभी संभव है, जब उसक सही दशा-दशा का ान हो।
अधवा जरा मनु याणां वा जनां ब धनं जरा।
अमैथुनं जरा ीणां व ाणामातपो जरा।।
जो मनु य अ धक पैदल चलता अथवा या ा म रहता है, वह ज द बूढ़ा हो जाता है।
य द घोड़ को हर समय बांधकर रखा जाएगा तो वे भी ज द बूढ़े हो जाते ह। य से य द
संभोग न कया जाए तो वे ज द बूढ़ हो जाती ह। इसी कार मनु य के कपड़े धूप के
कारण ज द फट जाते ह अथात धूप उ ह ज द बूढ़ा कर दे ती है। ।।17।।
जो लोग हमेशा या ा म रहते ह, वे नय मत न रहने के कारण ज द बुढ़ापे का
शकार हो जाते ह। या ा क थकान और खान-पान क गड़बड़ी का तन-मन पर वपरीत
भाव पड़ता है। जस घोड़े को हर समय बांधकर रखा जाता है वह भी ज द बूढ़ा हो जाता
है। ऐसा करना उसक शारी रक कृ त के तकूल है।
यह तो मनु य ने उसे पालतू बना लया, असल म तो यह व छं द वचरण करने
वाला ाणी है। य के बारे म आचाय ने यहां जो कहा, वह पढ़ने म अटपटा लगेगा,
ले कन है स य। शारी रक रचना क से दे ख, तो ‘संभोग’ ी के शरीर क जै वक
आव यकता यादा है, मनोवै ा नक कम—जब तक वह मा सक च म है। और फर ऐसा
होना उसके अपने प त से संबंध के ठ क न होने क ओर भी संकेत करते ह। इस बात को
येक बु मान वीकार करता है क य द मन के तर पर असंतोष होगा तो बुढ़ापा
आएगा ही। कपड़े यादा दे र तक धूप म पड़े रहने पर ज द फट जाते ह य क मट् ट और
सूय क त पश कपड़े के बारीक तंतु को जला दे ती है।
कः कालः का न म ाण को दे शः कौ
याऽऽगमौ।
क ाऽहं का च मे श र त च यं मु मु ः।।
समझदार को चा हए क इन बात के संबंध म सदै व सोचता रहे जैसे क मेरा
समय कैसा है? मेरे म कतने ह? म जस थान पर रहता ,ं वह कैसा है? मेरी आय और
य कतना है? म कौन ं? मेरी श या है अथात म या करने म समथ ? ं ।18।।
ज नता चोपनेता च य तु व ां य छ त।
अ दाता भय ाता प चैते पतरः मृताः।।
ज म दे ने वाला, य ोपवीत कराने वाला गु , व ा दान दे ने वाला अ यापक, अ
दे ने वाला और भय से मु रखने वाला, यह पांच पतर माने गए ह। ।।19।।
चाण य का मत है क इन पांच को सदै व संतु रखना चा हए, तथा इनका पता क
तरह स मान करना चा हए।
राजप नी गुरोः प नी म प नी तथैव च।
प नीमाता वमाता च प चैता मातरः मृताः।।
राजा क प नी, गु क प नी, म क प नी, प नी क माता अथात सास और
ज म दे ने वाली अपनी माता, ये पांच माताएं मानी गई ह, अथात् इनका स मान माता के
समान करना चा हए। याय करते समय भी इन संबंध को ‘मां’ क प रभाषा म ही वीकार
कया जाता है। ।।20।।
अ नदवो जातीनां मुनीनां द दै वतम्।
तमा व पबु नां सव समद शनः।।
ा ण, य और वै य को जा त कहा गया है, इनका दे वता य है। मु नय का
दे वता उनके दय म नवास करता है। मंद बु वाल के लए मू त ही दे वता होती है। जो
समदश ह, जनक समान है, वे परमे र को सव व मान मानते ह। ।।21।।
ा ण, य, वै य को जा त इस लए माना जाता है क ज म के बाद गु
उनका उपनयन सं कार करता है। उनके लए य ही उनका दे वता है। मु नय के दय म
दे वता का नवास होता है य क वह सदै व उनका मनन- चतन करते रहते ह। मू त पूजा
को यहां साधना के ारं भक चरण के लए आव यक माना गया है—जैसे वणमाला के
मा यम से फल-फूल आ द का ान व ाथ को कराया जाता है। जो संसार का रह य
जानते ह, उनके लए ई र सव ापक है। वे संसार के कण-कण म उसे दे खते ह।

चाण य का कहना है क जीव जब गभ म होता है, तभी उसक आयु, कम, धन,
व ा और मृ यु आ द बात न त हो जाती ह अथात मनु य ज म के साथ ही न त कम
के ब धन म बंध जाता है। इस संसार म आने के बाद स जन के संसग के फल व प
सांसा रक बंधन से मु होता है। अ छे लोग का साथ हर तरह से मनु य क र ा के
लए ही होता है।
आचाय के अनुसार, मनु य जब तक जी वत है, तब तक उसे पु य काय करने
चा हए, य क इसी से उसका क याण होता है और जब मनु य दे ह याग दे ता है तो वह
कुछ भी नह कर सकता।
व ा को चाण य ने कामधेनु के समान बताया है। जस तरह कामधेनु से सभी
इ छाएं पूरी हो जाती ह, उसी कार व ा से मनु य अपनी सभी मनोकामना को पूण कर
सकता है। व ा को बु मान ने गु त धन भी कहा है।
चाण य कहते ह क अनेक मूख पु क अपे ा एक गुणी पु अ धक हतकर
होता है। उनका कहना है क मूख पु य द द घ आयु वाला होता है तो वह आयुभर क दे ता
रहता है, इससे तो अ छा है क वह ज म के समय ही मर जाए, य क ऐसे पु क मृ यु से
ख थोड़ी दे र के लए होगा।
उनका कहना है क इस संसार म खी लोग को अ छे पु , प त ता ी और
स जन से ही शां त ा त होती है। सांसा रक नयम के अनुसार चाण य बताते ह क राजा
एक ही बात को बार-बार नह कहते, प डत लोग भी (मं को) बात बार-बार नह दोहराते
और क या का भी एक ही बार दान कया जाता है। इस लए इन कम को करते ए
सावधानी बरतनी चा हए।
को तप या अकेले करनी चा हए। व ाथ मलकर पढ़ तो उ ह लाभ होता
है। इसी कार संगीत, खेती आ द म भी सहायक क आव यकता होती है। यु के लए तो
जतने अ धक सहायक ह उतने ही अ छे रहते ह।
चाण य कहते ह क उसी प नी का भरण-पोषण करना चा हए जो प तपरायणा हो।
जस मनु य के घर म कोई संतान नह , वह घर सूना होता है। जसके कोई र तेदार और
ब धु-बा धव नह , उसके लए यह संसार ही सूना है। द र अथवा नधन के लए तो सब
कुछ सूना है। व ा क ा त के लए अ यास करना पड़ता है, बना अ यास के व ा वष
के समान होती है। जस कार अपच के समय हण कया आ भोजन वषतु य होता है
और नधन के लए स जन क सभा म बैठना मु कल होता है, उसी कार बूढ़े
के लए ी संसग वष के समान होता है।
धम उसे कहते ह, जसम दया आ द गुण ह । गु उसे कहते ह जो व ान हो। प नी
वह होती है, जो मधुरभा षणी हो, ब धु-बा धव वह होते ह, जो ेम कर, परंतु य द इनम यह
बात न ह अथात धम दया से हीन हो, गु मूख हो, प नी ोधी वभाव क हो और र तेदार
बंध-ु बांधव ेमर हत ह , तो उ ह याग दे ना चा हए। अ धक या ाएं करने से मनु य ज द
बूढ़ा होता है। य क कामतु न हो तो वे ज द बूढ़ हो जाती ह और कपड़े य द अ धक
दे र तक धूप म पड़े रह तो ज द फट जाते ह।
चाण य बताते ह क मनु य को अपनी उ त के लए चतन करते रहना चा हए क
समय कस कार का चल रहा है? म कौन ह और कतने ह? कतनी श है? बारबार
कया गया ऐसा चतन मनु य को उ त के माग पर ले जाता है। इस अ याय के अंत म
आचाय चाण य कहते ह क ा ण, य, वै य आ द का दे वता अ न अथात अ नहो
है। ऋ ष-मु नय का दे वता उनके दय म रहता है, अ पबु लोग मू त को अपना दे वता
मानते ह और जो सारे संसार के ा णय को एक जैसा मानते ह उनका दे वता सव ापक
और सव प ई र है।
।। अथ पंचमोऽ यायः ।।
पांचवां अ याय
धन से धम क , योग से व ा क , मधुरता से राजा क और
अछ य से घर क र ा होती है।
गु र न जातीनां वणानां ा णो गु ः।
प तरेव गु ः ीणां सव वाऽ यागतो गु ः।।
ा ण, य और वै य आ द ज के लए अ नहो गु के समान आदरणीय
है, चार वण म ा ण सबसे अ धक े और आदरणीय है। य के लए प त ही गु है
और घर म आया आ अ त थ सभी के आदर-स कार के यो य माना गया है। ।।1।।
ज का कत है क वे अ नहो आ द कम आदरपूवक न य करते रह।
अ नहो से वायुमंडल शु होता है। मनु य के वा य और पयावरण के सुधार के लए
हवन, य आ द करना आव यक माना गया है। ा ण को पूजनीय इस लए माना गया है
य क वे सभी वण को व ा दे ते ह। य के लए प त ही उसका आदरणीय गु होता है,
य क वही उसका भरण-पोषण करता है और उसे स माग पर ले जाने म सहायता करता
है। घर म आए ए अ त थ का आदर-स कार सभी लोग को करना चा हए य क वह ब त
थोड़ी दे र के लए कसी के घर आता है। ‘अ त थ दे वो भव’, ऐसा शा वचन भी है।
यथा चतु भः कनकं परी यते
नघषण छे दनतापताडनैः।
तथा चतु भः पु षः परी यते यागेन शीलेन गुणेन
कमणा।।
जस कार सोने क परी ा चार कार से क जाती है—उसे कसौट पर घसा
जाता है, काटकर दे खा जाता है, तपाया जाता है और कूटकर उसक जांच क जाती है, उसी
कार मनु य कतना े है इसक पहचान भी इन चार बात से होती है।
चाण य के अनुसार, इन चार कार से क गई परी ा म वयं को सही स करने
वाला ही ‘खरा’ है। उसक स जनता, उसका च र , उसके गुण और उसका आचार-
वहार उसके खरेपन क पु करते ह। ।।2।।
तावद् भयेषु भेत ं यावद्भयमनागतम्।
आगतं तु भयं ् वा हत मशंकया।।
संकट येक मनु य पर आते ह, परंतु बु मान य को संकट और आप य
से तभी तक डरना चा हए जब तक वे सर पर न आ जाएं। संकट और ख आने पर तो
को अपनी पूरी श से उ ह र करने का य न करना चा हए। ।।3।।
एकोदरसमुदभू
् ता एक न जातकाः।
न भव त समाः शीले यथा बद रक टकाः।।
एक ही माता के पेट और एक ही न म उ प ए बालक गुण, कम और वभाव
म एक समान नह होते, जैसे बेर—वृ के सभी फल और उनके कांटे एक जैसे नह होते,
उनम अंतर होता है। ।।4।।
चाण य ने बेर और कांट क उपमा एक वशेष वचार से द है। एक ही बेर के वृ
पर लगे ए सभी फल मीठे नह होते। बेर वृ पर कांटे भी होते ह, परंतु वह कांटे भी एक
जैसे कठोर नह होते।
इसी कार यह आव यक नह क एक ही माता- पता के और एक ही न म पैदा
होने वाले ब च के गुण, कम और वभाव एक जैसे ह । उनका भा य तथा उनक चयां
एक जैसी नह होत । माता- पता के एक होने पर भी ार ध और प र थ तय का अंतर तो
होता ही है।
नः पृहो नाऽ धकारी या ाकामी म डन यः।
नाऽ वद धः यं ूयात् फुटव ा न व चकः।।
कोई भी अ धकारी लोभर हत नह होता, शृंगार ेमी म कामवासना क अ धकता
होती ही है। जो चतुर नह है, वह मधुरभाषी भी नह हो सकता तथा साफ बात कहने
वाला कभी भी धोखेबाज नह होता। ।।5।।
ायः दे खा जाता है क जस म बड़ा बनने क लालसा होती है, वही अ धकार
ा त करना चाहता है। जो अपने शरीर को अ छे व और खुशबू आ द से सजाता है,
उसम कामवासना क अ धकता होती है। मूख और फूहड़ मधुरभाषी नह होता। जो
साफ बात कहता है अथात प व ा होता है, वह कसी को धोखा नह दे ता। नद ष
ही सच बोल सकता है।
मूखाणां प डता े या अधनानां महाधनाः।
वारांगनाः कुल ीणां सुभगानां च भगाः।।
मूख व ान से वैर भाव रखते ह। द र और नधन धनवान को अपना श ु समझते
ह। वे याएं कुलीन य से े षभाव रखती ह और वधवा यां सुहा गन को अपना श ु
मानती ह। ।।6।।
यह संसार का नयम है क वपरीत थ त वाले लोग एक- सरे को अपना श ु
समझते ह। चा हए तो यह क मूख प डत का आदर कर, जससे उ ह भी कुछ लाभ हो,
परंतु वह उनका स मान करने के बजाय उनसे मनी रखते ह। नधन और आलसी लोग
मानते ह क धनी सर को लूट-खसोटकर धनवान होता है, परंतु उ ह यह ान नह
होता क उन य ने धन एक त करने म कतना प र म कया है। इतना ही नह , उसे
संभालकर रखने के लए भी एक वशेष कार के धैय क आव यकता होती है। वे याएं भी
कुलीन य से े ष करती ह और वधवा यां सुहा गन को भावना क से दे खती
ह।
संकेत है क अयो य और अभाव त ही े ष करते ह।
आल योपहता व ा परह तगताः यः।
अ पबीजं हतं े ं हतं सै यमनायकम्।।
आल य के कारण व ा न हो जाती है, सरे के हाथ म गई ई यां न हो
जाती ह, कम बीज डालने से खेत बेकार हो जाता है और सेनाप त के मारे जाने पर सेना न
हो जाती है। ।।7।।
इसका भाव यह है क व ा क ा त और उसक वृ के लए को आल य
का याग कर दे ना चा हए। आलसी कसी गुण को ा त नह कर सकता। सरे के पास जाने
वाली ी का धम न हो जाता है अथात कसी सरे के अ धकार म जाने पर ी का
सती व कायम नह रह पाता। य द खेत म बीज बोते समय कंजूसी क जाएगी और बीज
कम डाला जाएगा तो अ छ फसल नह हो सकेगी। सेना का बल सेनाप त से ही थर रहता
है। जब सेनाप त मारा जाता है तो सेना का हार जाना वाभा वक ही है।
अ यासा ायते व ा कुलं शीलेन धायते।
गुणेन ायते वायः कोपो ने ेण ग यते।।
व ा क ा त नरंतर अ यास से होती है। अ यास से ही व ा फलवती होती है।
उ म गुण और वभाव से ही कुल का गौरव और यश थर रहता है। े पु ष क पहचान
सद्गुण से होती है। मनु य क आंख दे खकर ोध का ान हो जाता है। ।।8।।
जन य को उ म व ा ा त करनी है, वे नरंतर य न करते ह। वे य द बार-
बार अ यास न कर तो व ा क ा त असंभव होती है। कसी कुल का थर होना, उसका
यश फैलना, उसका स होना, गौरव क से दे खा जाना आ द उसके उ म गुण, कम
और वभाव के कारण ही होता है। य द गुण, कम और वभाव े नह ह गे तो कुल का
गौरव नह बढ़ सकता। इसी कार े क पहचान उसके अ छे गुण के कारण होती
है। कसी के ो धत होने का ान उसक आंख दे खकर हो जाता है, य क ोध के
कारण क आंख लाल हो जाती ह।
व न े र यते धम व ा योगेन र यते।
मृ ना र यते भूपः स या र यते गृहम्।।
धन से धम क र ा क जाती है। व ा को योग के ारा बचाया जा सकता है।
मधुरता के कारण राजा को बचाया जा सकता है और अ छ यां घर क र क होती ह।
।।9।।
धम क र ा के लए भी धन क आव यकता होती है। धम, कम भी धन के ारा ही
संप हो सकता है। सर का उपकार करना, दान दे ना, मं दर आ द का नमाण आ द काय
धम माने जाते ह। व ा को थर रखने के लए चतुरतापूवक उसका अ यास करने क
आव यकता होती है, इस लए कहा गया है क ‘ व ा योगेन र यते।’
राजा क र ा उसके मधुर वहार के कारण ही होती है। य द शासक ू र हो जाए
तो जा व ोह कर सकती है, इस लए राजा का कत है क वह मधुर और उदार- वहार
से अपना रा य न होने से बचाता रहे। राजा को अपनी जा के त वहार दयालुतापूण
होना ही चा हए। जब तक य को अपने सती व का यान रहता है, उनके मन म अपने
प रवार क त ा सव प र रहती है, तब तक घर बचा रहता है अथात प रवार न नह
होता, परंतु जब वे अपने शील और सती व का प र याग कर दे ती ह तो वह घर न होता है।
अ यथा वेदपा ड यं शा माचारम यथा।
अ यथा कुवचः शा तं लोकाः ल य त चा यथा।।
व ान के पां ड य क नदा करने वाले, शा ारा कहे गए े आचरण
को थ बताने वाले, धीर, गंभीर और शांत रहने वाले को ढ गी और पाखंडी बताने
वाले लोग हमेशा ख उठाते ह। इस पर नदा प काय से कोई लाभ नह होता है। ।।10।।
ब त से लोग अपने वभाव के कारण व ान पं डत क व ा को थ बताते ह,
उनक नदा करते ह। शा म बताए गए नयम के अनुसार आचरण करने वाले को
भी वे थ का आचरण करने वाला बताते ह। व ान को ढ गी और शा को क पत
बताते ह। ऐसा करते ए वे व ान या शा क साथकता को तो नकार नह पाते, अ पतु
लाभ से वं चत हो जाते ह, जो उ ह मल सकता था।
शांत और चुपचाप रहने वाले क चु पी को मूख क भाषा म कमजोरी ही माना
जाता है। व ान, े आचरण करने वाले, धीर, गंभीर और शु का नदा से कुछ भी
नह बगड़ता, हां, नदक सदै व खी रहते ह। य द कोई नद का जल नह पीता, तो उससे
नद का या घटता है?
दा र य
् नाशनं दानं शीलं ग तनाशनम्।
अ ानना शनी ा भावना भयना शनी।।
दान दे ने से द र ता न होती है, अ छे आचरण से क र होते ह, मनु य क ग त
समा त होती है, बु से अ ान न होता है अथात मूखता न होती है और ई र क भ
से भय र होता है। ।।11।।
आचाय चाण य कहते ह क दान दे ने से द र ता न होती है। अनेक शा और
संत ने भी कहा है क ‘दान दए धन ना घटे ’। य द मन के साथ इसे जोड़ा जाए, तो यह
कथन और भी प हो जाता है, य क धनी भी मन से द र हो सकता है और नधन भी
ीमान्।
अ छे गुण , न वहार और सुशीलता के कारण अपने क र करता है,
य क सभी सद्गुणी और सुशील को आगे बढ़ाने क इ छा रखते ह।
भु सबक सहायता करने वाला है। जो न य नयम से ई र क ाथना
करते ह, वे सदै व गुण से बचे रहते ह। उ ह न तो कसी से डरने क आव यकता
होती है और न ही वे संकट के आने पर भयभीत होते ह।
नाऽ त कामसमो ा धनाऽ त मोहसमो रपुः।
नाऽ त कोपसमो वह् ननाऽ त ानात् परं
सुखम्।।
कामवासना के समान कोई रोग नह । मोह से बड़ा कोई श ु नह । ोध जैसी कोई
आग नह और ान से बढ़कर इस संसार म सुख दे ने वाली कोई व तु नह । ।।12।।
अ धक कामवासना म ल त रहने वाला श हीन होकर अनेक रोग का
शकार हो जाता है। वह कामवासना क पू त के लए रोगी से संबंध बनाकर कसी रोग क
गर त म भी आ सकता है।
का ोध उसके लए आग का काम करता है। उसका अपना ोध उसे जला
डालता है। ान से बढ़कर संसार म सुख दे ने वाली कोई भी व तु नह है, जो बु
और ववेक से काय करता है, वह सदा सुखी रहता है। मोह को सबसे बड़ा श ु बताया गया
है। मोह का अथ है मू छा अथात् अ ववेक। यह बु को न कर दे ता है।
ज ममृ यु ह या येको भुन येकः शुभाऽशुभम्।
नरकेषु पत येक एको या त परां ग तम्।।
जस कार मनु य अकेला ही ज म लेता है, उसी कार अकेले ही उसे पाप और
पु य का फल भी भोगना पड़ता है। अकेले ही अनेक कार के क भोगने पड़ते ह अथात
अकेले ही उसे नरक का ख उठाना पड़ता है और अकेला ही वह मो को ा त होता है। ।।
13।।
मनु य के ज म और मृ यु के च म उसका कोई साथ नह दे ता। वह जब ज म लेता
है तब भी अकेला होता है। जब उसक मृ यु होती है तब भी वह अकेला होता है। अतः बार-
बार ज म लेने और मरने के च म मनु य को अकेले ही भागीदारी करनी होती है।
चाण य ने मनु य के अकेले ही नरक म जाने क बात कही है। नरक और कुछ नह
है, मनु य ारा भोगे जाने वाले क का ही नाम है। अकेला ही इस क को भोगने के
लए मजबूर होता है। उसके क म सहानुभू त तो जताई जा सकती है, परंतु उसका क
बांटा नह जा सकता। य द वह अ छे काय करता है तो इसी ज म म जीव मु क थ त
को ा त कर लेता है।
आचाय चाण य ने यहां संकेत दया है क सब अकेले ही करना है, इस लए
उ रदा य व को नभाने के लए हमेशा तैयार रहना चा हए। सर क ओर य दे खना?
सर का सहारा लेने क आदत से मु ह , यही ेय कर है।
तृणं वदः वग तृणं शूर य जी वतम्।
जताऽश य तृणं नारी नः पृह य तृणं जगत्।।
जसे ान है, उसके लए वग तनके के समान अथात तु छ है। शूरवीर के लए
जीवन तनके के समान होता है। जते य अथात संयमी के लए ी (भोग पदाथ)
तनके के समान होती है और इ छार हत मनु य के लए सारा संसार ही तनके के समान
है। ।।14।।
जसे ान है, उसके लए वग का कोई मह व नह , य क वह जानता है क
वग के सुख भी णक ह। शूरवीर जीवन क ब ल दे ने से नह डरता, उसके लए
अपना जीवन एक तनके के समान है, उसे अपने जीवन म कसी से भय नह होता। जस
ने इ य को अपने वश म कया है, उसे नारी अपने वश म नह कर सकती। यहां
नारी श द का अथ है सभी भोग पदाथ, नारी तो उसका तीक मा है। इसी कार
इ छार हत के लए सारा संसार तनके के समान होता है य क उसक कसी व तु
म आस नह होती। आस ही या व तु को मू य दान करती है।
व ा म ं वासेषु भाया म ं गृहेषु च।
ा धत यौषधं म ं धम म ं मृत य च।।
वदे श म व ा ही मनु य क स ची म होती है, घर म अ छे वभाव वाली और
गुणवती प नी ही मनु य क सबसे अ छ म होती है। रोगी क म दवाई है और
जो मनु य मर चुका है उसका धम-कम ही उसका म होता है। ।।15।।
म क प रभाषा करते ए कहा गया है—जो सदै व अपने म का हत चतन करे
तथा वप म साथ न छोड़े, वही स चा म होता है। इस संदभ म व ा, गुणी प नी,
औष ध और धम को दे खने क आव यकता है। ये चार म क तरह हत करते ह। धम क
े ता क ओर भी आचाय ने संकेत कया है य क जब सब साथ छोड़ जाते ह, उस समय
धम ही मृता मा को सद्ग त दे ता है, उसके मो का कारण बनता है।
वृथा वृ ः समु े षु वृथा तृ तेषु भोजनम्।
वृथा दानं धनाढ् येषु वृथा द पो दवाऽ प च।।
समु म बा रश होना, भोजन से तृ त ए मनु य को फर से भोजन कराना, धनी
लोग को दान दे ना और दन म द पक जलाना आ द बात थ और नरथक होती ह। ।।
16।।
नाऽ त मेघसमं तोयं नाऽ त चा मसमं बलम्।
नाऽ त च ुःसमं तेजो नाऽ त धा यसमं यम्।।
बादल के जल जैसा सरा कोई जल शु नह , आ मबल के समान सरा कोई बल
नह , ने यो त के समान सरी कोई यो त नह और अ के समान सरा कोई य पदाथ
नह होता। ।।17।।
मेघ के जल को सबसे अ धक प व इस लए माना जाता है क वह वा यवधक
होता है। जस म आ मा का बल है अथात जो वयं पर व ास करता है, उसम सभी
कार के बल का सहज प म समावेश हो जाता है। आ मबल या शरीर और इ य के
बल से बढ़कर नह है? चाण य ने ने क यो त को सबसे अ धक उपयोगी माना है य क
ने क यो त के बना मनु य के लए सारा संसार अंधकारमय होता है। अ को मनु य के
लए सबसे अ धक य पदाथ कहा गया है य क जब तक अ नह मलता तब तक शरीर
मन आ द अपना-अपना काय नह कर सकते। ा णय के अ मय कोष अथात् शरीर क
पु तो अ से ही होती है।
अधना धन म छ त वाचं चैव चतु पदाः।
मानवाः वग म छ त मो म छ त दे वताः।।
धनहीन और अ धक धन पाना चाहता है, चौपाये अथात चार पैर वाले पशु
चाहते ह क वे बोल सक, मनु य वग चाहता है और दे वता मो क कामना करते ह। ।।
18।।
हर समय चाहता है क उसे धन क ा त हो परंतु उसे यह पता ही नह होता
क उसके लए लगातार म करना पड़ता है। पशु वाणी चाहते ह ता क वे अपने मन क
बात कसी सरे से कर सक। मनु य यह भी चाहता है क उसे वग मले, दे वता और व ान
इस जीवन से मु होने क कामना करते, इस लए वह जीवन म ऐसे काय करते ह
जनसे जीवन-मरण के बंधन से मु होकर मो क ा त होती है। ाणीमा का यह
वभाव है क जसके पास जो नह है, वह उसक कामना करता है।
स येन धायते पृ थवी स येन तपते र वः।
स येन वा त वायु सव स ये त तम्।।
स य के कारण पृ वी थर है, सूय भी स य के बल से काश दे ता है, स य से ही
वायु बहती है, सब स य म ही थर है। ।।19।।
स य का आधार है। पृ वी अथवा यह संसार स य के कारण ही टका आ है।
इसी स य और से सूय का काश सारे संसार म फैलता है। स य अथवा भु क श
से ही इस संसार म वायु का संचार होता है। इस कार सभी कुछ स य अथवा म थत
है।
चला ल मी लाः ाणा लं जी वत-यौवनम्।
चलाचले च संसारे धम एको ह न लः।।
इस चराचर जगत् म ल मी (धन) चलायमान है अथात ल मी थर नह रहती, न
हो जाती है, ाण भी नाशवान ह, जीवन और यौवन भी न होने वाले ह, इस चराचर संसार
म एकमा धम ही थर है। ।।20।।
धन-स प मनु य के पास सदा नह रहती, उसके कम के अनुसार आती-जाती है।
जस मनु य ने जीवन धारण कया है, उसका मरना भी आव यक है, इसी लए ाण को
थर नह कहा जा सकता। मनु य का यौवन सदा थर रहने वाली व तु नह , बुढ़ापा यौवन
का य है, परंतु धम ऐसा त व है जसका नाश नह होता। मनु य क मृ यु के बाद भी धम
ही उसका साथ दे ता है। शा क भी मा यता है क आते भी हम अकेले ह और जाते भी
अकेले ही ह, ले कन धम हमेशा साथ रहता है। आचाय के अनुसार जो हमेशा साथ रहने
वाला है उसक ओर मनु य को यान दे ना चा हए।
नराणां ना पतो धूतः प णां चैव वायसः।
चतु पदां शृगाल तु ीणां धूता च मा लनी।।
मनु य म नाई सबसे अ धक चालाक और हो शयार होता है। प य म कौआ, चार
पैर वाले जानवर म गीदड़ और य म मा लन अ य धक चतुर होती है। ।।21।।
यहां जन जा तय क बात आचाय चाण य ने क है, उसे आप जनक मानना
आचाय के कथन को सही संदभ म न समझने क भूल करना है। जो जा त जतनी अ धक
सामा जक होती है, उसे इस बात का ावहा रक अनुभव होता है क कस से कस
कार काय करवाना है।
कुछ बराद रय म जो पुरानी परंपरा का नवाह कर रही ह, आज भी ‘ना पत’ क
मह वपूण भू मका होती है। पहले शाद - ववाह आ द म मह वपूण नणय भी इनके ारा
लए जाते थे। ये मी डएटर का काम करते थे और अपने यजमान के त वफादार होते थे।
इनके सामने लोग अपने मन क बात खोलकर भी रख दे ते ह। यही थ त फूल का ापार
करने वाली जा त क य क भी है। उनका मेल हर तरह के लोग के साथ होता था।
अपनी बात रखने के बारे म तथा कसी के सवाल का त काल जवाब दे ने म आज भी उनक
कोई बराबरी नह है।
यहां एक बात वशेष प से समझने क है क इस नया म कुछ भी नकारा मक
नह है। बु मान येक व तु का, येक थ त-प र थ त का और येक संवेग
का सही योग और उपयोग करना जानता है। यही उसक सफलता का मूलमं है। इसी लए
वह ‘ वशेष’ कहलाता है। और यह भी क श द का अथ ढ़ क जगह य द यौ गक प म
कया जाए, तो सवसाधारण उसे ख चकर उसी ओर ले जाता, जो जनसामा य म च लत
है। इस बारे म तो सभी एकमत से सहमत ह क कुछ श द का एक अथ नह होता। उसके
सही अथ को संदभ के अनुसार लगाना पड़ता है। जब श द का अथ भाव के वपरीत हो, तो
ल याथ को समझने का यास करना चा हए।

गु क म हमा का वणन सव कया गया है, परंतु चाण य ने यह भी प कया है


क सामा य जीवन म कौन कसका गु होता है। उनका कहना है क य का गु उसका
प त होता है, गृह थ का गु अ त थ होता है। ा ण, य और वै य का गु अ न अथात
अ नहो है और चार वण का गु ा ण होता है।
जस कार सोने को कसौट पर घसकर, आग म तपाकर उसक शु ता क परख
होती है, उसी कार मनु य अपने अ छे कम और गुण से पहचाना जाता है और तकूल
प र थ तय म ये नखरते ह।
चाण य कहते ह क मनु य को जीवन म भयभीत होने क आव यकता नह । उसे
नडर होकर काय करने चा हए। य द कसी भय क आशंका हो तो भी घबराना नह चा हए
ब क संकट आने पर उसका डटकर मुकाबला करना चा हए।
चाण य कहते ह क यह आव यक नह है क एक ही माता से उ प होने वाली
संतान एक ही कार के वभाव वाली हो, सबम अलग-अलग गुण होते ह। यह वैय क
भ ता तो कृ त का वशेष गुण है।
चाण य का मानना है क कोई भी वह व तु ा त नह कर सकता, जसे
ा त करने क उसम इ छा न हो। जसे वषय-वासना से ेम नह , वह शृंगार अथवा
सुंदरता बढ़ाने वाली व तु क मांग नह करता। जो बना कसी लाग-लपेट के प
बात कहता है, वह कपट नह होता। व ा अ यास से ा त होती है और आल य से न हो
जाती है। सरे के हाथ म दया आ धन वापस मलना क ठन होता है और जस खेत म
बीज कम डाला जाता है, वह फसल न हो जाती है। चाण य कहते ह क दान दे ने से धन
घटता नह वरन् दानदाता क द र ता समा त होती है। सद्बु ारा मूखता न होती है
और मन म सकारा मक वचार से भय समा त हो जाते ह।
मनु य म अनेक ऐसे दोष होते ह, जनसे उसे अनेक क उठाने पड़ते ह। चाण य
कहते ह क कामवासना से बढ़कर कोई सरा रोग नह , मोह और ोध के समान वयं को
न करने वाला कोई श ु नह । चाण य का कहना है क ोध को हर समय जलाता
रहता है। मनु य जो कम करता है, अ छा या बुरा, उसका फल उसे अकेले ही भोगना पड़ता
है, वह अकेला ही इस संसार म ज म लेता है और अकेला ही मरता भी है। वग अथवा नरक
म भी वह अकेला ही जाता है, केवल कम ही उसके साथ जाते ह।
मनु य जब वदे श म जाता है तो उसका ान और बु ही साथ दे ती है। घर म प नी
ही स ची म होती है। औष ध रोगी के लए हतकर होने के कारण उसक म है। मृ यु के,
बाद जब संसार क कोई व तु या मनु य का साथ नह दे ता उस समय धम ही
का म होता है।
चाण य का कहना है क वषा के जल से े सरा जल नह और का
आ मबल ही उसका सबसे बड़ा बल है। मनु य का तेज उसक आंख ह और उसक सबसे
य व तु है अ । संसार म कोई भी अपनी थ त से संतु नह है। जो पास म नह है, उसी
क चाह येक करता है। नधन धन चाहता है। पशु वाणी चाहते ह। मनु य वग क
और दे व व को ा त जीव मो क कामना करते ह। आचाय यहां संकेत दे रहे ह क दे वता
भी असुर त ह। उ ह भी पु य समा त के बाद मृ युलोक म आना पड़ता है इसी लए वे
दे वयो न से भी मु होना चाहते ह।
स य क मह ा बताते ए चाण य कहते ह क स य के कारण ही नया के सम त
काय- ापार चल रहे ह। ल मी, मनु य के ाण और यह संसार सभी न र ह, केवल धम ही
शा त है अथात मनु य को अपनी च धम म रखनी चा हए।
।। अथ ष ोऽ यायः ।।
छठा अ याय
बु मान को अपनी इं य को वश म करके समय के
अनु प बगुले के समान अपने काय को स करना
चा हए। तब तक धैय रखना चा हए जब तक ल य चलकर
पास न आ जाए।
ु वा धम वजाना त ु वा यज त म तम्।
ु वा ानमवा ो त ु वा मो मवा ुयात्।।
मनु य वेद आ द शा को सुनकर धम के रह य को जान लेता है। व ान क बात
सुनकर बुरे ढं ग से सोचना छोड़ दे ता है। गु से ान ा त कर मनु य संसार के
बंधन से छू ट जाता है। ।।1।।
चाण य का व ास है क वेद-शा के अ ययन के अलावा उ ह सुनकर भी
लाभ उठा सकता है। उनका कहना है क वेद आ द शा के सुनने से धम के रह य
को समझ सकता है और व ान के उपदे श सुनकर अपने बुरे वचार को याग सकता है।
सुनने का अथ वेद तपा दत ान को गु मुख से वण करना भी है। इस कार ान क
ा त वण से ही होती है, जससे मनु य संसार के बंधन से मु हो जाता है।
आचाय ने इस ोक ारा वण के मह व पर काश डाला है। यह वण व ान
और अनुभवी गु के मुख से होने पर ही फल दे ता है। ‘सुनो, मनन करो और उसे आ मसात्
करो’—यह ु तवा य है।
प णां काक ा डालः पशूनां चैव कु कुरः।
मुनीनां कोपी चा डालः सवषां चैव न दकः।।
प य म कौआ, पशु म कु ा, मु नय म ोध करने वाला और सामा यजन म
सरे लोग क नदा करने वाला और चा डाल होता है। ।।2।।
भाव यह है क और चा डाल ाणी सभी थान पर होते ह परंतु ता क
सीमा कहां होती है, इसक ा या चाण य ने क है। कौआ प य म इस लए सबसे
अ धक गंदा और माना गया है य क उसे कसी कार क शु ता का कोई भी ान
नह होता, वह सदै व गंदगी पर जाकर बैठता है, पशु म कु े का भी वही हाल है। आचाय
का कहना है क ऋ ष-मु नय म भी जो ोध करता है, उसे और चांडाल मानना
चा हए, परंतु सामा य य म और चा डाल वह है, जो सर क नदा करता है।
भ मना शु यते कां यं ता म लेन शु य त।
रजसा शु यते नारी नद वेगेन शु य त।।
कांसे का बतन राख से मांजने पर, तांबा खटाई से, ी रज वला होने के बाद तथा
नद का जल ती वेग से शु होता है। ।।3।।
मन् स पू यते राजा मन् स पू यते जः।
मन् स पू यते योगी ी म ती वन य त।।
अपनी जा म घूम- फरकर उसक थ त को जानने वाले राजा क जा उसक
पूजा करती है। जो ज अथात व ान ा ण दे श- दे श क भू म पर ान का चार
करता है, उसक पूजा होती है। जो योगी सदा घूमता रहता है, वह आदर-स कार का भागी
होता है, परंतु मण करने वाली ी हो जाती है। ।।4।।
राजा का कत यह है क वह वयं भी अपने रा य म घूम- फरकर जा क
वा त वक थ त ात करने क को शश करे। वह अपने ान के अनुसार उसके ख र
करने का य न कर सकता है।
ा ण का कत है क वह घूम- फरकर लोग को शा का ान दे । एक थान
पर कने से उस थान और वहां संपक म आने वाले लोग से संबंध था पत होने के कारण
आस और मोह का दय म उठ खड़ा होना वाभा वक है। यह थ त योगी को बांधती
है। इसके लए योगी का एक थान पर 24 घंट से यादा नह कना चा हए। इसके वपरीत
इन लोग के समान इधर-उधर घूमने वाली नारी अपने धम से वच लत हो जाती है। ी का
इधर-उधर घूमना प रवार के अपमान का कारण होता है और वह समाज क नजर म गर
जाता है।
ता शी जायते बु वसायोऽ प ता शः।
सहाया ता शा एव या शी भ वत ता।।
मनु य जैसा भा य लेकर ज म लेता है, उसक बु उसी के अनुसार वृ होती है
और वह वसाय अथवा काम-ध धा भी वैसा ही चुनता है तथा उसके सहायक भी उसी
कार के होते ह। ।।5।।
आचाय का कहना है क जो होना है वह तो होकर ही रहता है। मनु य काम-ध धे के
लए अपनी बु के अनु प ही वसाय का चुनाव करता है और उसके काम-ध धे म
सहायता करने वाले भी उसके वचार के अनु प मल जाते ह।
कालः पच त भूता न कालः संहरते जाः।
कालः सु तेषु जाग त कालो ह र त मः।।
समय सब ा णय को अपने पेट म पचा लेता है अथात सबको न कर दे ता है।
काल ही सबक मृ यु का कारण होता है। जब सब लोग सो जाते ह, तो काल ही जागता
रहता है। इसम संदेह नह क काल बड़ा बलवान है। काल से पार पाना अ यंत क ठन है। ।।
6।।
काल के भाव से नह बच सकता है, जीव स हत सभी व तुएं काल के
भाव से न हो जाती ह। सबके सो जाने पर भी वह काल जागता रहता है। काल च सृ
के आरंभ से लेकर लय काल तक चलता रहता है कभी नह कता। जो उसक उपे ा
करता है, काल (समय) उसे पीछे छोड़कर आगे नकल जाता है। काल हम सबके साथ ऐसे
खेलता है जैसे शकार बने चूहे के साथ ब ली ड़ा करती है।
न प य त च ज मा धः कामा धो नैव प य त।
न प य त मदो म ो थ दोषान् न प य त।।
ज म से अंधे को, कामांध को और शराब आ द के नशे म म त को कुछ
दखाई नह दे ता। वाथ क भी यही थ त है य क वह उस के दोष को
दे ख नह पाता, जससे उसके वाथ क पू त होती हो। ।।7।।
वयं कम करो या मा वयं त फलम ुत।े
वयं म त संसारे वयं त मा मु यते।।
जीवा मा वयं काय करता है और उसका फल भी वयं भोगता है। वह वयं ही
व भ यो नय म ज म लेकर संसार म मण करता है और वयं ही अपने पु षाथ से
संसार के बंधन तथा आवागमन के च से छू टकर मु को ा त करता है। ।।8।।
आचाय के अनुसार, जैसे कम करता है, उसके अनुसार ही उसे कम का फल
भोगना पड़ता है। कम के फल के अनु प ही उसे ख और सुख मलता है। वह वयं ही
अपने कम के अनुसार संसार म व भ यो नय म ज म लेता है और ज म-मरण के च म
पड़ा रहता है। उसे इस च से मु भी वयं उसके े काय से ही मलती है। आचाय का
कथन है क बंधन और मु दोन तु हारे हाथ म ह। ‘ वयं’ श द पर जोर दया है, जो
उ रदा य व क ओर संकेत करता है।
राजा रा कृतं भुं े रा ः पापं पुरो हतः।
भता च ीकृतं पापं श यपापं गु तथा।।
राजा को रा के पाप का फल भोगना पड़ता है। राजा के पाप पुरो हत भोगता है।
प नी के पाप उसके प त को भोगने पड़ते ह और श य के पाप गु भोगते ह। ।।9।।
राजा य द रा को ठ क ढं ग से नह चलाता अथात अपना कत पालन नह करता
तो उससे होने वाली हा न राजा को ही क प ंचाती है। य द पुरो हत अथात राजा को
परामश दे ने वाला राजा को ठ क तरह से मं णा नह दे ता तो उसका पाप पुरो हत को
भोगना पड़ता है। ी य द कोई बुरा काय करती है तो उसका प त दोषी होता है। इसी कार
श य ारा कए गए पाप का वहन गु को करना पड़ता है। ‘अधीन’ ारा कए गए पाप का
भागी वामी होता है।
ऋणकता पता श ु माता च भचा रणी।
भाया पवती श ुः पु श ुरप डतः।।
ऋणी पता अपनी संतान का श ु होता है। यही थ त बुरे आचरण वाली माता क
भी है। सु दर प नी अपने प त क और मूख पु अपने माता- पता का श ु होता है। ।।10।।
कसी भी कारण से अपनी संतान पर ऋण छोड़कर मरने वाला पता श ु कहा गया
है, य क उसके ऋण क अदायगी संतान को करनी पड़ती है। भचा रणी माता भी श ु
के समान मानी गई है, य क उससे प रवार कलं कत होता है। इसी कार अ य धक सुंदर
ी प त के लए श ु के समान है य क ब त से लोग उसके प से आकृ होकर उसे
पथ करने का य न करते ह। मूख पु के काय क वजह से माता- पता को न य
अपमान सहना पड़ता है, इससे प रवार को ख व हा न होती है। इसी लए वह प रवार का
श ु है।
लु धमथन गृ यात् त धम लकमणा।
मूखः छ दोऽनुवृ ेन यथाथ वेन प डतम्।।
लोभी को धन दे कर, अ भमानी को हाथ जोड़कर, मूख को उसक इ छा के अनुसार
काय करके और व ान को स ची बात बताकर वश म करने का य न करना चा हए। ।।
11।।
लोभी अपने वाथ म इतना अंधा होता है क वह धन ा त के बना संतु
नह होता। उसे धन दे कर वश म कया जा सकता है। जस को अ भमान है, अहंकार
है, उसे न तापूवक वहार करके वश म कया जा सकता है। मूख सदै व हठ होता
है, इस लए उसक इ छा के अनुसार काय करके उसे अपने अनुकूल बनाया जा सकता है
और व ान को वश म करने का सबसे सही उपाय यह है क उसे वा त वकता से
प र चत करवाया जाए।
वरं न रा यं न कुराजरा यं वरं न म ं न
कु म म म्।
वरं न श यो न कु श य श यो वरं न दारा न
कुदारदाराः।।
बुरे रा य क अपे ा कसी कार का रा य न होना अ छा है, म के बजाय
म न होना अ छा है, श य क जगह श य न होना अ धक अ छा है और प नी
का प त कहलाने से अ छा है क प नी न हो। ।।12।।
चाण य मानते ह क शासन- व था से संप रा य म ही रहना चा हए और म
भी सोच- वचारकर ही बनाने चा हए।
गु को भी चा हए क परखकर श य बनाए तथा ी को प नी बनाने क
अपे ा अ छा है क ववाह ही न कया जाए।
कुराजरा येन कुतः जासुखं कु म म ेण
कुतोऽ त नवृ तः।
कुदारदारै कुतो गृहे र तः कु श यम यापयतः
कुतो यशः।।
राजा के शासन म जा को सुख नह मल सकता, धोखेबाज म से सुख क
ा त नह हो सकती, ी को प नी बनाने से घर म सुख और शां त नह रह सकती,
इसी कार खोटे श य को व ा दान दे ने वाले गु को भी अपयश ही मलता है। ।।13।।
सहादे कं बकादे कं श े च वा र कु कुटात्।
वायसा प च श े च षट् शुन ी ण गदभात्।।
को शेर और बगुले से एक-एक, मुग से चार, कौए से पांच, कु े से छह और
गधे से तीन गुण सीखने चा हए। ।।14।।
इस संसार क येक व तु और येक ाणी हम कोई न कोई उपदे श दे रहे ह। इन
गुण को सीखकर जीवन म सफलता, उ त और वकास कया जा सकता है। आगामी चार
ोक म ऐसे ही कुछ गुण का वणन कया गया है।
भूतं कायम पं वा य रः कतु म छ त।
सवार भेण त काय सहादे कं च ते।।
काय छोटा हो या बड़ा को शु से ही उसम पूरी श लगा दे नी चा हए, यह
श ा हम सह से ले सकते ह। ।।15।।
इसका भाव यह है क जो भी काय करे, चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा, उसे
पूरी श लगाकर करना चा हए, तभी उसम सफलता ा त होती है। सह पूरी श से
शकार पर झपटता है—वह बड़ा हो या छोटा। बड़े को दे खकर घबराता नह और छोटे क
उपे ा नह करता। सफलता पाने के लए यास पर व ास आव यक है।
इ या ण च संय य बकवत् प डतो नरः।
दे शकालबलं ा वा सवकाया ण साधयेत्।।
बु मान को अपनी इ य को वश म करके समय के अनु प अपनी मता
को तौलकर बगुले के समान अपने काय को स करना चा हए। ।।16।।
बगुला जब मछली को पकड़ने के लए एक टांग पर खड़ा होता है तो उसे मछली के
शकार के अ त र अ य कसी बात का यान नह होता। इसी कार बु मान जब
कसी काय क स के लए य न करे तो उसे अपनी इ यां वश म रखनी चा हए। मन
को चंचल नह होने दे ना चा हए तथा च एक ही दशा म, एक ही काय क पू त म लगा
रहे, ऐसा यास करना चा हए। शकार करते समय बगुला इस बात का पूरा अंदाजा लगा
लेता है क कया गया यास न फल तो नह जाएगा।
यु थानं च यु ं च सं वभागं च बंधुष।ु
वयमा य भु ं च श े च वा र कु कुटात्।।
समय पर उठना, यु के लए सदा तैयार रहना, अपने ब धु को उनका उ चत
ह सा दे ना और वयं आ मण करके भोजन करना मनु य को ये चार बात मुग से सीखनी
चा हए। ।।17।।
गूढमैथुनच र वं च काले काले च सं हम्।
अ म म व ासं प च श े च वायसात्।।
छपकर मैथुन करना, ढ ठ होना, समय-समय पर कुछ व तुएं इकट् ठ करना, नरंतर
सावधान रहना और कसी सरे पर पूरी तरह व ास नह करना, ये पांच बात कौए से
सीखने यो य है। ।।18।।
ब ाशी व पस तु ः सु न ो लघुचेतनः।
वा मभ शूर षडेते ानतो गुणाः।।
ब त भोजन करना ले कन कम म भी संतु रहना, गहरी न द ले कन ज द से उठ
बैठना, वा मभ और बहा री ये छह गुण कु े से सीखने चा हए। ।।19।।
सु ा तोऽ प वहेद ् भारं शीतो णं न च प य त।
स तु रते न यं ी ण श े च गदभात्।।
को ये तीन बात गधे से सीख लेनी चा हए—अपने मा लक के लए बोझ
ढोना, सद -गम क चता नह करना तथा सदा संतोष से अपना जीवन बताना। ।।20।।
य एतान् वश तगुणानाच र य त मानवः।
कायाऽव थासु सवासु अजेयः स भ व य त।।
जो इन बीस गुण को सीख लेता है अथात इ ह अपने आचरण म ले आता है,
वह सब काय और अव था म वजयी होता है अथात उसे कसी भी अव था म पराजय
का मुख नह दे खना पड़ता। ।।21।।
आचाय का कथन है क शा म जो ान दया गया है, वह सै ां तक है। जसने
भी सफलता और उ त के त व को वयं म, अपने आसपास या समूची कृ त म दे खा,
उसे उ ह ने ज ासु के लए ल पब कर दया, ले कन उसे अपने जीवन म उतारने के
लए संदेह र हत होना ज री है।
ये गुण पशु-प य म सहज प से दे खने को मलते ह। इ ह अपनाकर ही वे
अ त व क लड़ाई म वयं को बचा पाते ह। कैसे? उसी क बानगी द है आचाय ने।
भगवान द ा ेय ारा 24 गु से कुछ-न-कुछ सीखना।
इसी तरह के अ य उदाहरण ह। अपनी जांच-पड़ताल के लए आप यह दे ख क
इनम से आपके पास कौन-से गुण ह और कौन से नह !

वण का जीवन म अ यंत मह व है ले कन उसक भी एक सु न त व ध है।


गु मुख से ही शा का वण करना चा हए। गु व ान और अनुभवी होता है, इस लए
उसके सुने वचन को जीवन म धारण करने से भटकाव समा त होता है, न त दशा
मलती है।
चाण य का कहना है क मनु य जीवन बड़े सौभा य से ा त होता है। इस लए
मनु य को चा हए क वह अपने जीवन को शुभ काय क ओर लगाए, सर क नदा आ द
करना छोड़ दे । वेद आ द शा के पढ़ने और शुभ काय करने से मनु य इस संसार म यश
को ा त होता है। चाण य कहते ह, जस मनु य के पास धन है, सभी उसके भाई-बंधु, म
बनने को तैयार हो जाते ह और उसे ही े पु ष मान लया जाता है। वे यह भी कहते ह क
जैसी होनी होती है, मनु य क बु और उसके कम भी उसी कार के हो जाते ह। इस
संसार म समय ही ऐसी व तु है जसे टाला नह जा सकता। चाण य के अनुसार जब मनु य
अपने वाथ म अंधा हो जाता है तो उसे अ छे -बुरे म अंतर दखाई नह दे ता। मनु य का
बंधन और मु उसके ारा कए जाने वाले कम पर ही आ त होते ह, य क वह जैसा
कम करता है, उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है।
आचाय के अनुसार जा के काय का फल राजा को, प नी के काय का फल प त
को तथा पता ारा छोड़ा गया ऋण पु को चुकाना पड़ता है। भचा रणी माता और मूख
पु मनु य के लए श ु के समान होते ह। चाण य सामा य जीवन म आने वाली सम या
पर काश डालते ए कहते ह क कसी का लोभी से पाला पड़ जाए तो उसे धन
दे कर, व ान को अपने मधुर वहार से और मूख तथा को उसके अनुकूल वहार से
वश म कया जा सकता है। ऐसे रा य म रहना उ चत नह , जहां सु व था न हो। इसी
कार से म ता करने के बजाय म र हत रहकर जीवन गुजार दे ना यादा हतकर है।
चाण य का कहना है क सह से एक गुण सीखना चा हए— कसी भी काय को
करते समय उसम अपनी पूरी श लगाना। बगुला मछली पकड़ने के लए आंख बंद करके
एक टांग पर खड़ा होता है, यह इं य को वश म करने का उदाहरण है। यह बगुले से सीखने
यो य गुण है। यास करना मह वपूण है, इस लए उसे करने से पहले अपनी मता को परख
ल। बगुला यह न त हो जाने के बाद ही क अब शकार बच नह सकता, अपना यास
करता है। इसी कार मुग से चार बात सीखनी चा हए। मनु य को मु त म उठना, झगड़े
का संकट उ प होने पर पीछे न हटना और जो कुछ भी ा त हो उसे अपने भाई-ब धु म
बांटकर ही उपयोग म लाना। इसी कार कौए म भी पांच गुण होते ह, छपकर मैथुन करना,
हठ होना, समय-समय पर व तु को इकट् ठा करना, हमेशा चौक ा रहना तथा कसी पर
व ास न करना। कु े म ब त अ धक खाने क श होती है, परंतु जब उसे ब त कम
भोजन मलता है तब भी वह उसी म संतोष कर लेता है। वह एकदम गहरी न द म सो जाता
है, परंतु अ यंत सतक रहता है और जरा-सी आहट होने पर ही जाग उठता है। उसे अपने
मा लक से ेम होता है और समय पड़ने पर वह वीरतापूवक श ु से लड़ता भी है। इसी
कार गधा अ यंत थका होने पर भी अपने काम म लगा रहता है, उसे सद -गम आ द कसी
बात का क नह होता और अपने जीवन से पूण प से संतु रहता है।
चाण य के अनुसार जो इन गुण को धारण कर लेता है, उसे जीवन म
सफलता ा त होती ही है। सफलता क कामना करने वाले को चा हए क वह इन गुण को
अपने जीवन म वशेष थान दे । इनके आधार पर हम अपनी संभावना को भी आंक
सकते ह। दे खए, कसौट पर घसकर अपने खरेपन को।
।। अथ स तमोऽ यायः ।।
सातवां अ याय
जस मनु य ने व ा को हण नह कया, उसका जीवन
कु े क उस पूंछ के समान है, जससे न तो वह अपने गु त
भाग को ढं क सकता है, न ही काटने वाले म छर आ द
क ट को उड़ा सकता है।
अथनाशं मन तापं गृहे रता न च।
व चनं चाऽपमानं च म तमा काशयेत।् ।
एक बु मान को चा हए क वह अपने धन के न होने को, मान सक ख
को, घर के दोष को, कसी ारा ठगे जाने और अपना अपमान होने क बात कसी
पर भी कट न करे, कसी को भी न बताए।।।1।।
येक को कभी-न-कभी धन क हा न उठानी पड़ती है, उसके मन म कसी
कार का ख या संताप भी हो सकता है। येक घर म कोई-न-कोई बुराई भी होती है। कई
बार उसे धोखा दे कर ठगा जाता है और कसी के ारा उसे अपमा नत भी होना पड़ सकता
है, परंतु समझदार को चा हए इन सब बात को वह अपने मन म ही छपाकर रखे,
इ ह कसी सरे पर कट न करे। जानकर लोग हंसी ही उड़ाते ह। ऐसी थ त म वह
वयं उनका मुकाबला करे और सही अवसर क तलाश करता रहे।
धन-धा य योगेषु व ासं हणेषु च।
आहारे वहारे च य ल जः सुखी भवेत।् ।
जो धन-धा य के लेन-दे न म, व ा अथवा कसी कला को सीखने म, भोजन
के समय अथवा वहार म ल जाहीन होता है, अथात् संकोच नह करता वह सुखी रहता
है। ।। 2।।
को लेन-दे न म कसी कार का संकोच नह करना चा हए। अपनी बात प
और साफ श द म कहनी चा हए। व ा अथवा कसी गुण को सीखते समय संकोच करने
से भी हा न होती है।
इसी कार भोजन करते समय जो संकोच करता है, वह भूखा रह जाता है,
इसी लए भोजन के समय, लोकाचार और वहार के समय को संकोच न करके
अपने वचार प प से करने चा हए। लोग ोक के आ खरी वा य को उद्धृत कर
कहते ह क ‘ नल ज सुखी होता है।’ संदभ के अनुसार इसका अथ करना चा हए ता क
अथ का अनथ न हो।
स तोषाऽमृततृ तानां य सुखं शा तचेतसाम्।
न च तद् धनलु धाना मत ेत धावताम्।।
जो संतोष पी अमृत से तृ त है, मन से शांत है, उसे जो सुख ा त होता है,
वह धन के लए इधर-उधर दौड़-धूप करने वाले को कभी ा त नह होता। ।।3।।
संतोष क बड़ी म हमा है। जो संतोष से अपना जीवन बताते ह और शांत
रहते ह, उ ह जतना सुख ा त होता है, वह धन के लालच के लए हर समय दौड़-धूप करने
वाले को ा त नह हो सकता। संकेत है क लोभी से संतोषी े है और संतोष
जीवनदाता है।
स तोष षु कत ः वदारे भोजने धने।
षु चैव न कत ोऽ ययने तपदानयोः।।
अपनी प नी, भोजन और धन—इन तीन के त मनु य को संतोष रखना चा हए,
परंतु व ा ययन, तप और दान के त कभी संतोष नह करना चा हए। ।।4।।
चाण य के अनुसार, को अपनी प नी से ही संतु रहना चा हए, अ य य
से संबंध बनाना अपमा नत करता है। को घर म जो भोजन ा त होता है और उसक
जतनी आय है उसम ही संतोष करना चा हए ले कन व ा के अ ययन, यम- नयम आ द
के पालन और दान आ द काय से कभी भी संतु नह होना चा हए अथात जतना
अ धक अ ययन करेगा, जतना अ धक अपने च र को ऊंचा उठाने के लए तप करेगा तथा
दान आ द करता रहेगा, उससे मनु य को लाभ होगा। ये तीन चीज ऐसी ह, जनसे मनु य को
संतोष नह करना चा हए। संतु कहां हो और कहां नह , जीवन म यह जानना भी ज री
है।
व यो व वह् यो द प योः वा मभृ ययोः।
अ तरेण न ग त ं हल य वृषभ य च।।
दो ा ण के बीच से, ा ण और अ न के बीच से, प त-प नी के बीच से, सेवक
और नौकर के बीच से तथा हल—बैल के बीच से कभी नह नकलना चा हए। ।।5।।
जहां दो ा ण खड़े ह या बात कर रहे ह , उनके बीच से नह नकलना चा हए।
इससे उनका अपमान होता है। इसी कार ा ण और अ न के बीच से नकलकर नह
जाना चा हए, हो सकता है क ा ण हवन, य आ द कर रहा हो।
इसी कार प त-प नी जहां कह खड़े अथवा बैठे ह , उनके बीच से नकलना भी
अनु चत माना गया है। मा लक और नौकर, हल और बैल—इन दोन के बीच से भी नह
नकलना चा हए, हो सकता है क मा लक और नौकर कसी वशेष बात पर चचा कर रहे
ह । हल और बैल के बीच म से नकलने का भाव बलकुल प है क ऐसे म चोट लग
सकती है।
पादा यां न पृशेद नं गु ं ा णमेव च।
नैव गं न कुमार च न वृ ं न शशुं तथा।।
अ न, गु , ा ण, गाय, कुंवारी क या, बूढ़ा आदमी और छोटे ब चे—इन सबको
पैर से कभी नह छू ना चा हए। ।।6।।
कुछ काय ऐसे भी ह, ज ह करने से हा न होती है और कुछ काय आचार- वहार
के वपरीत होते ह, उ ह करने से समाज म अपयश होता है। अ न को प व माना गया है,
इस लए उसे पैर से पश नह करना चा हए। गु , ा ण और गाय को भी पू य होने के
कारण पैर से छू ना उ चत नह । कुंवारी लड़क , बूढ़े आदमी और ब चे भी स मान के पा
होते ह, इस लए इ ह भी पैर से नह छू ना चा हए। पू य को यथायो य स मान दे ने पर य द
आयु, व ा, यश और बल क ा त होती है, तो अनादर करने से इनक हा न भी तो होगी
ही। इ तहास म ऐसे कई उदाहरण ह, जनसे इस कथन क पु होती है।
शकटं प चह तेन दशह तेन वा जनम्।
ह ती शतह तेन दे श यागेन जनम्।।
बैलगाड़ी से पांच हाथ, घोड़े से दस हाथ और हाथी से सौ हाथ र रहने म ही मनु य
क भलाई है। ले कन से बचने के लए य द थान वशेष का याग भी करना पड़े तो
हचकना नह चा हए। ।।7।।
को वयं इस बात का य न करना चा हए क कसी कारणवश उसे हा न न
प ंच।े बैलगाड़ी के बलकुल नकट चलने से कोई घटना हो सकती है। घोड़ा कसी कार
क हा न प ंचा सकता है। हाथी से भी कुचले जाने का भय रहता है, इस लए इनसे र रहना
चा हए। चाण य का मानना है क इन सबसे बुरा होता है। इन सबसे बचने का
य द कोई और उपाय न हो तो को वयं वह थान वशेष याग दे ना चा हए।
ह ती अंकुशमा ेण वाजी ह तेन ता ते।
शृंगी लगुडह तेन खड् गह तेन जनः।।
हाथी को अंकुश से वश म कया जाता है। घोड़े को हाथ क थाप से सीधे रा ते पर
लगाया जाता है। स ग वाले पशु को डंडा मारकर सीधे रा ते पर लाया जा सकता है, परंतु
को हाथ म पकड़ी ई तलवार से मारा जाना चा हए य क वह वश म नह
आता, उसे न ही करना होता है। ।।8।।
तु य त भोजने व ा मयूरा घनग जते।
साधवः परस प ौ खलः पर वप षु।।
ा ण भोजन से तृ त हो जाता है, मोर बादल के गजने पर, स जन सरे को संप
और सुखी दे खकर परंतु सर को वप म पड़ा दे खकर स होते ह। ।।9।।
आचाय चाण य ने यहां वभाव क ओर संकेत कया है। भोजन करके ा ण
संतु होता है, य क इससे उसे खलाने वाले को पु य क ा त होती है। बादल को जल
से भरा और स ता के कारण गजना करता दे खकर मयूर नृ य करने लगता है। इसी तरह
स जन सर को सुखी दे खकर हष का अनुभव करते ह, जब क सरे के ख म सुखी
होते ह।
आचाय ने और स जन के वभाव के अंतर से यह बताना चाहा है क येक
को वयं म झांककर दे खना चा हए क वह सर के सुख म सुख का अनुभव कर रहा है या
उसे सर को ख प ंचाने म या खी दे खने म सुख क अनुभू त होती है। पहली थ त
स जन क है और सरी क।
अनुलोमेन ब लनं तलोमेन जनम्।
आ मतु यबलं श ुं वनयेन बलेन वा।।
बलवान श ु को अनुकूल तथा जन श ु को तकूल वहार ारा अपने वश म
कर। इसी कार अपने समान बल वाले श ु को वन ता या बल ारा, जो भी उस समय
उपयु हो, अपने वश म करने का य न करना चा हए। ।।10।।
चाण य का कहना है क समय और थ त के अनुसार अपने श ु से वहार करना
चा हए। य द श ु बलवान है तो वनयपूवक उसे जीतने का य न करना चा हए अथवा
अपने अनुकूल बनाने का य न करना चा हए। श ु के साथ तकूल वहार करना
चा हए य क स जनतापूवक कए गए वहार को वह कमजोरी समझेगा, इस लए उसके
साथ ऐसा वहार इस कार कया जाना चा हए ता क उसक ता पर अंकुश लगे।
बा वीय बलं रा ो ा णो वद् बली।
पयौवनमाधुय ीणां बलमु मम्।।
राजा का बल अथवा श उसक भुजा का बल है। ा ण का बल उसका ान
है और य का बल प और यौवन के साथ-साथ उनका सुमधुर वहार है। ।।11।।
राजा के भुजबल से चाण य का भाव उसक सश सेना से है, जस राजा क सेना
सश होगी, वह दे श क र ा कर सकेगा परंतु इसके साथ-साथ शारी रक प से राजा को
वयं भी बलवान होना चा हए। वह सेना क ेरणा होता है। ा ण क श ई र संबंधी
ान है। य का बल प और यौवन के साथ-साथ उनका मधुर वहार है। इन दोन का
सम वय य द न हो, तो ी उतनी भावशाली नह हो पाती जतनी क उसम संभावना है।
नाऽ य तं सरलैभा ं ग वा प य वन थलीम्।
छ ते सरला त कु जा त त पादपाः।।
मनु य को अ य त सरल और सीधा भी नह होना चा हए। वन म जाकर दे खो, सीधे
वृ काट दए जाते ह और टे ढ़े-मेढ़े गांठ वाले वृ खड़े रहते ह। ।।12।।
आचाय चाण य के अनुसार, मनु य को अ य त सरल और सीधे- वभाव का भी
नह होना चा हए। इससे उसे सब लोग बल और मूख मानने लगते ह तथा हर समय क
दे ने का य न करते ह। सीधा- सादा येक के के लए सुगम होता है जब क
टे ढ़े से सब बचने क को शश करते ह। ऐसे म पयोग तो होगा ही।
य ोदकं त वस त हंसाः तथैव शु कं
प रवजय त।
न हंसतु येन नरेण भा ं पुन यज ते
पुनरा य ते।।
जहां जल रहता है, वहां हंस रहते ह और जब जल सूख जाता है तो हंस उस थान
को छोड़ दे ते ह। मनु य को हंस के समान वाथ नह होना चा हए, य क वे कभी याग
करते ह और कभी आ य लेते ह। ।।13।।
मनु य ही नह दे वता भी वाथ ह। जब तक कोई तु त करता है, संबंध रखते ह,
फर छोड़ दे ते ह। ले कन चाण य इसे ठ क नह मानते। उनका मानना है क सुख म ही
नह , ख म भी साथ नह छोड़ना चा हए, य द कसी ने समय पर आपके लए कुछ कया है
तो। ऐसा नी त क से भी आव यक है। संबंध को तोड़ना बु मान का वभाव
या गुण नह है। कभी भी कसी क ज रत पड़ सकती है। अगर संबंध ही तोड़ दया, तो
आप उसके पास फर कस मुंह से जाएंग।े
उपा जतानां व ानां याग एव ह र णम्।
तडागोदरसं थानां परीवाह इवाऽ भसाम्।।
अ जत अथवा कमाए ए धन का याग करना अथात् उसका ठ क ढं ग से य
करना, उससे साथक लाभ उठाना ही उसक र ा है। जस कार तालाब म भरे ए जल को
नकालते रहने से ही उस तालाब का पानी शु और प व रहता है। ।।14।।
मनु य ारा कमाए गए धन का सही उपयोग यही है क वह उसे ठ क ढं ग से काम म
लाए। उसका दान करे, उसका उ चत उपभोग करे—सही अथ म यही धन क र ा है। य द
धन कमाने के बाद उसका सही उपयोग नह कया जाएगा तो धन कमाने का लाभ ही या
है? यह बात उसी कार ठ क है जैसे य द तालाब म भरे ए पानी को नकाला नह जाएगा
तो वह सड़ जाएगा। सड़ने से बचाने के लए उसका उपयोग आव यक है। इसी तरह तालाब
क र ा हो सकती है। धन क र ा का भी उपाय यह है क उसका स पयोग कया जाए।
य याऽथा त य म ा ण य याऽथा त य बा धवाः।
य याऽथाः स पुमां लोके य याऽथाः स च जीव त।।
संसार म जसके पास धन है उसी के सब म होते ह, उसी के सब भाई-ब धु और
वजन होते ह। धनवान को ही े माना जाता है। इस कार वह आदरपूवक
अपना जीवन बताता है। ।।15।।
आचाय ने धन के मह व पर काश डालते ए यहां प कया है क मनु य के पास
जब तक धन रहता है, तब तक सब उसके म बने रहते ह। जसके पास धन होता है, उसके
र तेदार भी ब त होते ह। धनवान को ही संसार म े माना जाता है और धनवान
का ही जीवन ध य कहलाने यो य है। नधन तो नज व के समान है य क न
तो उसक ओर कोई यान दे ता है, न ही कोई उसका अपना होता है।
धन म ऐसी श है क यह जानते ए भी क यह आने-जाने वाला है सब लोग
धनवान को ही अपना म और पा रवा रकजन बनाना उ चत समझते ह, उसे ही े
माना जाता है।
वग थताना मह जीवलोके च वा र चह्ना न
वस त दे हे।
दान संगो मधुरा च वाणी दे वाऽचनं ा णतपणं
च।।
वग से इस संसार म आने वाले जीव के शरीर म चार बात उसके च प म रहती
ह अथात् उसके चार मुख गुण होते ह। उसम दान दे ने क वृ होती है। वह मधुरभाषी
होता है। दे वता क पूजा-अचना करता है, उनका आदर-स कार करता है और व ान-
ा ण को सदै व तृ त अथात् संतु रखता है। ।।16।।
आचाय चाण य के अनुसार, जन य म ये चार गुण होते ह। वे मानो पृ वी पर
उतरे ए दे वता ही ह। वाणी म मठास, ेमपूवक बना अ भमान के बात करना, दान दे ने क
वृ , दे वता का आदर-स कार और उनक पूजा-अचना करना तथा ा ण को पूजा
तथा आदर-स मान ारा तृ त करने का य न करना ही तो दे वता के ल ण ह। इसे
धम ंथ म दै वी संप कहते ह।
अ य तकोपः कटु का च वाणी द र ता च वजनेषु
वैरम्।
नीच संगः कुलहीनसेवा चह्ना न दे हे
नरक थतानाम्।।
(इसी कार) नरक म रहने वाले जब दे ह धारण कर इस संसार म आते ह तो उनम
ऊपर बताए गए च के सवथा वपरीत च होते ह। वे मधुरभाषी होने के बजाय अ यंत
ोधी वभाव के होते ह। कड़वी बात कहते ह। वे नधन होते ह। अपने प रवारजन तथा
म से वे े ष-भाव रखते ह। उनक संग त म नीच लोग रहते ह और वे नीच कुल वाल क
सेवा करते ह। ।।17।।
यह ोक पूव ोक के भाव से संबं धत है। लोग अ य त ोधी वभाव के
होते ह। मधुर भाषण करने के बजाय कठोर और कड़वी बात बोलते ह। वे द र होते ह
अथात उनके पास धन नह होता। जस कार कु ा सरे अप र चत कु े को दे खकर उस
पर भ कता है, उसी कार अपन से भी वैर-भाव रखने लगता है। उसके संगी-साथी
नीच होते ह और वह नीच लोग क ही सेवा करता है। ऐसे लोग नरक से आते ह और जहां
रहते ह वहां भी नरक ही बना दे ते ह।
ग यते यद मृगे -म दरं ल यते
क रकपोलमौ कम्।
ज बुकाऽऽलयगते च ा यते व स-पु छ-खर-चम-
ख डनम्।।
य द कोई मनु य सह क गुफा म प ंच जाए तो वहां संभव है क उसे हाथी के
म तक का मोती (गजमु ा) ा त हो जाए ले कन य द कोई गीदड़ क गुफा म जाएगा तो
वहां उसे कसी बछड़े क पूंछ का अथवा गधे क खाल का टु कड़ा ही ा त होगा। ।।18।।
इस ोक से चाण य का भाव यह है क साहसी और शूरवीर क संग त म
य प भय और खतरा है, फर भी वहां र न क ा त हो सकती है, परंतु , कायर और
ठग के पास तो कुछ भी हाथ नह लगता, कुछ मलता भी है, तो वह तु छ तथा
नकृ होता है।
शुनः पु छ मव थ जी वतं व या वना।
न गु गोपने श ं न च दं श नवारणे।।
व ा के बना मनु य का जीवन कु े क उस पूंछ के समान है, जससे न तो वह
अपने शरीर के गु त भाग को ढक सकता है और न ही काटने वाले म छर आ द को उड़ा
सकता है। ।।19।।
वाचः शौचं च मनसः शौच म य न हः।
सवभूते दया शौचं एत छौ ं पराऽ थनाम्।।
वाणी क प व ता, मन क शु , इं य का संयम, ा णमा पर दया, धन क
प व ता, मो ा त करने वाले के ल ण होते ह। ।।20।।
नी त ंथ म अ या म से संबं धत ोक का आना कुछ पाठक को खटक सकता
है। उ ह ऐसा लगेगा मानो आचाय अपने ल य से भटक गए ह। ले कन ऐसा समझना
आचाय चाण य के व को न समझ पाना है। अपनी कूटनी तक चाल से श ु को मात
दे ने वाले आचाय अपने ल य को ा त करने म इसी लए सफल ए य क वे अपने
अंतरमन से उतने सरल और सहज थे। महान उद्दे य को ा त करने के लए लघु वाथ को
छोड़ने क उ ह ने श ा ही नह द , उ ह अपने आचरण म भी व श थान दया। अ या म
उनके जीवन का आधार था। बंधन तो लीला मा है, असल म तो उनके सारे यास मु के
लए ही थे।
उ ह ने इन ोक ारा बताया क भगव ा और द ता कह अ य नह ह।
येक म वह रची-बसी है। ज रत है उसका अनुभव करने क । आचाय ने उस अनुभव के
लए शु चता (प व ता) को सबसे आव यक माना है। जो वाणी और मन से प व होगा और
जो सर को खी दे खकर खी होता होगा वही ववेकवान् हो सकता है। परोपकार क
भावना हो, ले कन इं य पर संयम न हो, तो भी अपने ल य को पाया नह जा सकता। एक
थ त ा त करने के बाद माग से भटकने का भय बना रहता है। संयमी तो वहां वयं को
संभाल लेता है, जहां इं य लोलुप उलझ जाता है। बना ववेक के स य का ान नह होता
और उसके बना बंधनमु भी नह आ जा सकता।
पु पे ग धं तले तैलं का ेऽ नं पय स घृतम्।
इ ौ गुडं तथा दे हे प याऽऽ मानं ववेकतः।।
जैसे फूल म सुगंध होती है, तल म तेल होता है, सूखी लकड़ी म अ न होती है, ध
म घी और ईख म गुड़ तथा मठास होती है, वैसे ही शरीर म आ मा और परमा मा व मान
है। बु मान मनु य को ववेक का सहारा लेकर आ मा और परमा मा को जानने का य न
करना चा हए। ।।21।।
आचाय ने साधन और सा य दोन का प कथन कया है यहां।

मनु य को कई कारण से धन क हा न होती है। कई कारण से वह खी रहता है।


प रवार म कभी कुछ दोष भी आ जाते ह तथा कई बार उसे धूत लोग के हाथ से धोखा भी
उठाना पड़ता है। चाण य का कहना है क मनु य को ऐसी बात को कसी सरे पर कट
करने क आव यकता नह , य क ऐसा करने से जगहंसाई के अ त र कुछ हाथ नह
आता। इससे सामा जक त ा पर भी आंच आती है।
जो मनु य लेन-दे न के संबंध म संकोच करता है, उसे हा न उठानी पड़ती है। कसी
व ा क ा त अथवा कोई गुण सीखते समय भी मनु य को संकोच नह करना चा हए।
यहां संकोच न करने का अथ यह नह है क मनु य अ यंत लोभी हो जाए। मनु य को संतोषी
होना चा हए, परंतु कुछ बात ऐसी भी ह जनके संबंध म संतोष करने से हा न होती है, जैसे
— व ा, भु मरण और दान आ द।
यहां आचाय ने सामा य आचरण क बात का भी उ लेख कया है य क इनसे
गत प से लाभ होता है और सामा जक त ा भी ा त होती है। जहां दो मनु य
बात कर रहे ह , उनके बीच म नह पड़ना चा हए। इसी कार जब कोई ा ण हवन आ द
कर रहा हो तो उसके बीच से गुजरना ठ क नह । हल और बैल के बीच म जो अंतर होता है,
उसे बनाए रखना चा हए। य द उस बीच म आने का कोई य न करेगा तो हल के (फाल)
अगले तीखे भाग से घायल हो जाएगा। अ न, गु , ा ण, गौ, क या, वृ और बालक को
पैर नह लगाना चा हए। इ ह पैर लगाने का अथ है उनका अपमान करना। उ ह ने यहां पर
यह भी बताया है क ा ण को य द स मानपूवक भोजन आ द करवा दया जाए तो वह
संतु हो जाता है। आकाश म उमड़ते बादल को दे खकर मोर स होता है। साधु अथवा
स जन लोग सर का क याण होने से स होते ह, परंतु आदमी सरे क भलाई नह
दे ख सकता। उसे इससे क होता है।
चाण य ने जहां समय के अनुकूल आचरण करने क बात कही है, वह वे यह भी
कहते ह क अपने से बलवान श ु को चतुरतापूवक अनुकूल वहार करके स करना
चा हए और अपने से कमजोर दखाई दे ने वाले श ु को भय दखाकर वश म कर लेना
चा हए। इस कार राजा म चतुरता, वन ता और बल का स म ण होना चा हए। ा ण
को अपनी श वेद आ द शा के ान से बढ़ानी चा हए जब क य क श उनक
मधुर वाणी है।
चाण य कहते ह क को अ य त सरल और सीधे वभाव का भी नह होना
चा हए। सीधे को सब अपने उपयोग म लाना चाहते ह, जससे उसे अकसर हा न ही
होती है, य क उसके हत क चता कसी को नह होती।
आचाय के अनुसार को सदै व अपना प नह बदलते रहना चा हए और न ही
अपना थान। वे कहते ह क केवल उसी धनी का स मान समाज म होता है, जो उस
धन का स पयोग करता है अथात अ छे धन को काम म लगाता है, य क जो अ छे लोग
इस संसार म आते ह, उनम दान दे ने क वृ होती है। जो कटु -भाषण नह करते, दे वी-
दे वता तथा ई र क पूजा करते ह और ा ण को भोजन आ द से संतु रखते ह—व तुतः
वे ही े पु ष कहलाते ह। इसके वपरीत आचरण करने वाले क ेणी म आते ह।
चाण य का कहना है क मनु य को सदै व स जन और अपने से उ म पु ष क
ही संग त करनी चा हए अथात मनु य का ल य होना चा हए क वह अपने से े य
से संपक बनाए, तभी वह संसार म सफल हो सकता है। नीच लोग के साथ रहने म सदै व
हा न होती है।
जस कार फूल म सुगंध, तल म तेल, लकड़ी म आग, ध म घी, ईख म गुड़ होने
पर भी दखाई नह दे ता अथात ये चीज इन व तु म व मान रहती ह, परंतु उ ह आंख से
दे खा नह जा सकता, इसी कार मनु य के शरीर म आ मा व मान रहती है। इसे कट
करने के लए वशेष और सु व थत यास अथात् वशेष कार क नरंतर साधना
आव यक है।
।। अथ अ मोऽ यायः ।।
आठवां अ याय
भू म के अंदर से नकलने वाला पानी शु माना जाता है।
प त ता नारी प व होती है। लोग का क याण करने वाला
राजा प व माना जाता है और संतोषी ा ण को भी प व
माना गया है।
अधमाः धन म छ त धनं मानं च म यमाः।
उ माः मान म छ त मानो ह महतां धनम्।।
जो लोग संसार म केवल धन क इ छा करते ह, वे अधम अथात नीच को ट के ह।
म यम ेणी के लोग धन और स मान दोन क इ छा करते ह जब क उ म को ट के मनु य
को केवल आदर-स मान ही चा हए होता है। ।।1।।
संसार म धन क इ छा तो सभी को रहती है, परंतु धन क ा त के लए न न ेणी
के लोग अ य सब बात भूल जाते ह। सब कुछ भुलाकर धन के पीछे भागना ठ क नह ।
म यम ेणी के लोग वे ह जो धन के साथ मान-स मान क भी इ छा रखते ह, वे धन क
ा त के लए अपने मान-स मान को दांव पर नह लगाते। े पु ष अथात उ म को ट के
मनु य वे ह, जनके लए आदर-स कार ही सब कुछ है। उ म को ट के लोग को महा मा
कहा जाता है, उनके लए धन का वशेष मह व नह होता। वे धन का योग जीने के लए
करते ह, धन के लए नह जीते ह।
इ रु ापः पयो मूलं ता बूलं फलमौषधम्।
भ य वाऽ प कत ाः नानदानाऽऽ दकाः
याः।।
ग ा, पानी, ध, कंदमूल फल, पान तथा दवाइय का सेवन करने के बाद भी नान
आ द और धम काय कए जा सकते ह। ।।2।।
सामा य भारतीय म यह धारणा पाई जाती है क नान- यान आ द करने के बाद ही
फल और औष ध आ द का सेवन करना चा हए, परंतु चाण य कहते ह क बीमारी क
अव था म ध, जल, कंदमूल फल और दवाई आ द का सेवन कया जा सकता है, इसम
कोई पाप नह । उसके बाद नान आ द करके पूजा-पाठ और धा मक काय करना अनु चत
नह है।
द पो भ यते वा तं क जलं च सूयते।
यद ं भ ये यं जायते ता शी जा।।
द पक अंधकार को खाता है और उससे काजल क उ प होती है। इसी कार
मनु य जैसा अ खाता है, वैसी ही उसक संतान उ प होती है। ।।3।।
ता पय बलकुल प है—य द अ छे काय से अपनी आजी वका चलाएगा
तो उसक संतान भी सद्गुण से यु होगी, य द वह चोरी और म कारी से पैदा कए ए
धन से अपनी संतान का पालन-पोषण करता है तो संतान के वचार भी उसी कार के
नकृ ह गे। आचाय यहां संकेत दे रहे ह क जैसी संतान चाहते हो, वैसा ही अ सेवन करो।
संतान य द फल है, तो अ उसका बीज है।
व ं दे ह गुणा वतेषु म तम ा य दे ह व चत्
ा तं वा र नधेजलं घनमुखे माधुययु ं सदा
जीवा थावरजंगमां सकलान् संजी
भूम डलम्
भूयः प य तदे व को टगु णतं ग छ तम भो न धम्।।
बु मान या अ छे गुण से यु मनु य को ही धन दो, गुणहीन को धन मत दो।
समु का खारा पानी बादल के मीठे पानी से मलकर मीठा हो जाता है और इस संसार म
रहने वाले सभी जड़-चेतन, चर और अचर जीव को जीवन दे कर फर समु म मल जाता
है। ।।4।।
चाण य ने बु मान को धन दे ने क उपमा वषा के जल से क है अथात
जस कार वषा का जल जड़-चेतन आ द को जीवन दे ने के बाद फर समु म जा मलता
है और फर समु से करोड़ गुना अ धक बादल को पुनः ा त हो जाता है, उसी कार गुणी
को दया आ धन अनेक अ छे काय म यु होता है। यह ोक यह भी संकेत
करता है क य प धन अनेक गुण से यु है, फर भी गुणी का साथ पाकर वह
नद ष हो जाता है—जनोपयोगी हो जाता है।
चा डालानां सह े च सू र भ त वद श भः।
एको ह यवनः ो ो न नीचो यवनात् परः।।
त व को जानने वाले व ान ने यह कहा है क हजार चा डाल के समान एक
यवन अथात ले छ— धम वरोधी होता है। इससे बढ़कर कोई सरा नीच नह होता। ।।5।।
यहां यवन श द का अथ कसी स दाय वशेष से नह है, वरन् अधम का आचरण
करने वाले से है। य द इस श द का अथ सम प म लया जाए, तो वह है तन
और मन से अशु तथा अप व रहने वाला। नीचे दया गया ोक इसी बात क पु करता
है।
तैलाऽ यंगे चताधूमे मैथुने ौरकम ण।
तावद्भव त चा डालो याव नानं न चाऽऽचरेत्।।
तेल क मा लश करने के बाद, चता के धुएं के पश करने के बाद, ी से संभोग
करने के बाद और हजामत आ द करवाने के बाद मनु य जब तक नान नह कर लेता, तब
तक वह चा डाल अथात् अशु होता है। ।।6।।
अजीण भेषजं वा र जीण वा र बल दम्।
भोजने चामृतं वा र भोजना ते वष दम्।।
अपच क थ त म जल पीना औष ध का काम दे ता है और भोजन के पच जाने पर
जल पीने से शरीर का बल बढ़ता है, भोजन के बीच म जल पीना अमृत के समान है, परंतु
भोजन के अंत म जल का सेवन वष के समान हा नकारक होता है। ।।7।।
हतं ानं याहीनं हत ाऽ ानतो नरः।
हतं ननायकं सै यं यो न ा भतृकाः।।
आचरण के बना ान थ है। अ ान से मनु य न हो जाता है। सेनाप त के
अभाव म सेना न हो जाती है और प त से र हत यां भी न हो जाती ह। ।।8।।
यद को ान है क कौन-सा काय उ चत है और कौन-सा अनु चत, इसके
बावजूद वह अपने आचरण म इस बात को नह अपनाता, तो ऐसा ान थ है, उसका कोई
लाभ नह ।
मनु य का जीवन बड़ी क ठनाई से ा त होता है। ई र ने ाणी को बु इसी लए
द है क वह ानवान होकर शुभाचरण करे, कतु कुछ लोग अपनी अ ानता के कारण
जीवन संकट म डालकर न हो जाते ह अथात अ ान उ ह नगल जाता है। इसी कार
सेनाप त के बना सेना थ होती है और वह न हो जाती है। यां भी प त के बना
लोग ारा सताए जाने के कारण न हो जाती ह। प त उसका र क होता है। वही उसक
र ा करता है। प त के बना वह अपने माग से भटक सकती है। इस संदभ म आज य
क थ त म ब त अंतर आया है। श ा इसका मुख कारण है।
वृ काले मृता भाया बंधुह ते गतं धनम्।
भोजनं च पराधीनं त ः पुंसां वड बना।।
वृ ाव था म प नी का दे हा त हो जाना, धन अथवा संप का भाई-ब धु के हाथ
म चले जाना और भोजन के लए सर पर आ त रहना, यह तीन बात मनु य के लए
मृ यु समान खदायी ह। ।।9।।
ख जीवन का एक मह वपूण ह सा है। ले कन वृ ाव था म य द कोई पु ष
अपनी प नी को खो दे , तो वह दा ण थ त है। जीवन साथी क जीवन म दो भू मकाएं ह
—भोग और सहयोग। वृ ाव था म एक- सरे के सहयोग क अपे ा होती है। परंपरा के
अनुसार प त अकसर प नी से 5-7 वष बड़ा होता था। वृ ाव था म इस अंतर का अ यंत
मह व है। जब पूरे प रवार क अपनी नया हो, वृ एक तरह से नरथक हो चुके ह , बूढ़े
दं प त ही एक- सरे के लए साथक ह , ऐसे म एक का, वशेषकर प नी का, चले जाना प त
के लए मृ यु के समान है। आचाय ने एक मह वपूण सम या क ओर मानो इस ोकांश से
संकेत कया है। पु ष के बना ी अपना समय काट लेती है। सो चए, पराधीन कौन है?
ना नहो ं वना वेदा न च दानं वना या।
न भावेन वना स त माद्भावो ह कारणम्।।
अ नहो आ द कम के बना वेद का अ ययन थ है तथा दान-द णा के बना
य आ द कम न फल होते ह। ा और भ के बना कसी भी काय म सफलता ा त
नह होती अथात मनु य क भावना ही उसके वचार, उसक सब स य और सफलता का
कारण मानी गई है। ।।10।।
का पाषाणधातूनां कृ वा भावेन सेवनम्।
या च तया स त यः व णुः सीद त।।
लकड़ी, प थर अथवा धातु क मू त म भु क भावना और ा रखकर उसक
पूजा क जाएगी, तो स अव य ा त होती है। भु इस भ पर अव य स होते ह। ।।
11।।
लकड़ी, प थर अथवा धातु क मू तय से को स ा त नह होती, स
ा त होती है तप या और भावना से अथात मनु य उनके त जैसी भावना रखता है और
ापूवक सेवा करता है, को वैसी स ही ा त होती है। उसी भ पर व णु
तथा परमे र स होते ह। ‘जाक रही भावना जैसी भु मूरत दे खी तन तैसी’ अथात् पूजा
म भावना ही धान है—जैसी भावना, वैसा फल।
न दे वो व ते का े न पाषाणे न मृ मये।
भावे ह व ते दे व त माद् भावो ह कारणम्।।
दे वता अथवा परमे र, काठ अथवा प थर क मू त म नह ह। परमे र तो मनु य क
भावना म व मान रहते ह अथात जहां मनु य भावना ारा उसक पूजा करता है, वह वे
कट होते ह। ।।12।।
शा ततु यं तपो ना त न स तोषा परं सुखम्।
न तृ णायाः परो ा धन च धम दयापरः।।
शां त से बढ़कर कोई तप नह , संतोष से बढ़कर कोई सुख नह । तृ णा अथवा चाह
से बढ़कर कोई रोग नह , दयालुता से बढ़कर कोई धम नह । ।।13।।
शांत रहने के लए को अपनी कामना और इं य पर नयं ण रखना होता
है इसी लए यह तप है। जो हर समय भागता-दौड़ता रहता है, और और क कामना
करता रहता है, उसे सुख नह मल सकता। मनु य क तृ णा उस रोग क तरह है, जसम
भूख कभी शांत नह होती। दया को आचाय ने सव े धम माना है। दया का अथ है संवेदना
का वकास, इसम अ य का भाव समा त हो जाता है।
ोधो वैव वतो राजा तृ णा वैतरणी नद ।
व ा काम धा धेनुः स तोषो न दनं वनम्।।
ोध यमराज के समान है। तृ णा वैतरणी है। व ा कामधेनु है और संतोष नंदन वन
अथात इं के उ ान के समान है। ।।14।।
ोध यमराज के समान मृ युदाता है। मनु य क इ छाएं वैतरणी नद के समान ह
जनका पार नह पाया जा सकता।
व ा को सब कामना को पूण करने वाली कामधेनु बताया गया है, अतः व ान
सरलतापूवक धन और मान-स मान दोन को अ जत कर सकता है। मनु य के जीवन म
संतोष को इं क वा टका के समान अ य त सुख दे ने वाला माना गया है। इस लए
को चा हए क जीवन म सुखी रहने के लए व ा का सं ह करे और अपना समय संतोष के
साथ बताए।
गुणो भूषयते पं शीलं भूषयते कुलम्।
स भूषयते व ां भोगो भूषयते धनम्।।
गुण से मनु य के सौ दय क वृ होती है। शील से कुल क शोभा होती है। काय
म सफलता से व ा शो भत होती है और धन के सही उपभोग से धन क शोभा बढ़ती है। ।।
15।।
मनु य क दे ह य द सुंदर है ले कन उसम गुण का अभाव है तो वह स दय कसी
काम का नह । अ छे आचरण के कारण ही कुल क शोभा होती है। य द उ च कुल म उ प
आ नीच आचरण करता है तो उसका कुल बदनाम होता है और ऐसी व ा क भी
कोई शोभा नह होती, जससे मनु य कसी काय को स न कर सके अथात मनु य को
अपने काय म स व ा के कारण ही ा त होती है। ऐसी व ा का कोई लाभ नह ,
जससे कोई भी काय न लया जाए। धन के उपभोग का अथ है क धन को अ छे काय म
लगाया जाए। धन क शोभा तभी है, जब उसका ठ क से उपयोग कया जाए, उसे अ छे
काय म लगाया जाए।
नगुण य हतं पं ःशील य हतं कुलम्।
अ स य हता व ा अभोगेन हतं धनम्।।
गुणहीन मनु य का सुंदर अथवा पवान होना थ होता है। जस का
आचरण शील से यु नह , उसक कुल म नदा होती है। जस म कसी काय को
स करने क श नह , ऐसे बु हीन क व ा थ है और जस धन का उपभोग
नह कया जाता, वह धन भी थ है। ।।16।।
शु चभू मगतं तोयं शु ा नारी प त ता।
शु चः ेमकरो राजा स तोषी ा णः शु चः।।
भू म के अंदर से नकलने वाला पानी शु माना जाता है। प त ता नारी प व होती
है। लोग का क याण करने वाला राजा प व माना जाता है और संतोषी ा ण को भी
प व माना गया है। ।।17।।
चाण य का कथन है क भू म के नीचे से ा त होने वाला जल शु माना जाता है।
प त के त सम पत नारी शु और प व मानी जाती है। जो राजा अपनी जा के क याण
म लगा रहता है, जो सरकार अपनी जनता का क याण करती है, ाचार म नह पड़ती,
उसे शु और प व माना जाता है। उसी कार जो ा ण संतु रहता है अथात जसम
धन क लालसा नह है, वही प व है।
अस तु ा जा न ाः स तु ा महीभृतः।
सल जा ग णका न ा नल जा कुलांगना।।
संतोषर हत ा ण, संतु होने वाला राजा, शम करने वाली वे या और ल जाहीन
कुलीन यां न हो जाती ह। ।।18।।
असंतु रहने वाला ा ण अपने कम से हो जाता है। वह अपना कत भूल
जाता है। समाज म उसक त ा ीण होती है। इसी कार जो राजा अपनी थोड़ी-सी
सफलता से संतोष कर लेता है, उसम मह वाकां ाएं कम हो जाती ह, वह अपना रा य का
व तार न करने के कारण श हीन होकर न हो जाता है। वे या का काय लोग को
संतु करना है। वह बाजार म बैठकर भी य द संकोच और ल जा करती रहेगी तो वह भूखी
मर जाएगी। इसी कार य द अ छे घर क औरत ल जा को याग दे ती ह तो वे भी न हो
जाती ह। इस ोक से प होता है कोई एक काय कसी के लए हतकर है, तो कसी को
हा न प ंचाने वाला होता है। कत का नणय संदभ के अनुसार होता है। उसक कोई
न त गाइडलाइन नह है।
क कुलेन वशालेन व ाहीनेन दे हनाम्।
कुलीनोऽ प व ां दे वैर प सुपू यते।।
य द कुल व ाहीन है तो उसके वशाल और बड़े होने से कोई लाभ नह , य द बुरे
कुल म उ प आ व ान है तो दे वता लोग भी उसक पूजा करते ह। ।।19।।
व ार हत बड़े कुल म उ प होने से कोई लाभ नह य क का स मान बड़े
कुल म उ प होने से नह होता, ब क व ान होने और अ छे गुण के कारण होता है। इस
कार चाण य केवल वंश को मह व नह , वे के व ान होने को अ धक मह व दे ते ह।
उनका कहना है क य द नीच कुल म उ प आ भी व ा आ द गुण से यु है तो
सभी लोग उसका स मान करते ह। रावण उ चकुल म उ प आ, ले कन गुण के कारण
येक वष जलाया जाता है।
व ान् श यते लोके व ान् ग छ त गौरवम्।
व या लभते सव व ा सव पू यते।।
इस संसार म व ान क शंसा होती है। व ान को ही आदर- स मान और धन-
धा य क ा त होती है। येक व तु क ा त व ा ारा ही होती है और व ा क सब
जगह पूजा होती है। ।।20।।
मांसभ ैः सुरापानैमूख ा रव जतैः।
पशु भः पु षाकारैभाराऽऽ ा ता च मे दनी।।
मांस खाने वाले, शराब पीने वाले, मूख और नर र मनु य पी पशु के भार से
यह पृ वी पी ड़त और खी रहती है। ।।21।।
मांस खाने वाले और शराब पीने वाले यह सोच भी नह पाते क कौन-सी
व तु खाने के यो य है और कौन-सी नह । इस कार मूख और नर र प-रंग म तो
मनु य के समान होते ह, परंतु वह पशु के समान इस पृ वी का भार ह अथात उनसे इस
संसार का कोई उपकार नह होता। ऐसे लोग को पशु कहना, पशु का अपमान है।
अ हीनो दहेद ् रा ं म हीन ऋ वजः।
यजमानं दानहीनो ना त य समो रपुः।।
जो दे श को अ हीन करता हो, जसम मं को न जानने वाले ऋ वज ह , जसके
यजमान दान भावना से र हत ह , ऐसा य श ु समान है। ।।22।।
आचाय के अनुसार, य जहां मनु य के लए अनेक कार से लाभकारी है, वह
य द य ठ क कार से स प न कया जाए तो उससे ब त बड़ी हा न भी होती है। य से
वषा होती है और रा म अ और धन-धा य क वृ होती है। यह य का य फल है।
ऋ वज अथात् य कराने वाले आचाय को मं होना चा हए। इसी कार य कता
अथात् यजमान का दय भी वशाल होना चा हए।
उसक आचाय के त न ा और ा होगी, तभी वह उ ह धन-धा य आ द दे कर
स करेगा। आचाय य क साथकता के लए ऋ वज और यजमान के यो य होने क
ओर संकेत कर रहे ह।

चाण य ने इस अ याय म शरीर क से एक समान दखने वाले मनु य का गुण


और वृ के अनुसार वभाजन कया है। वभाव और वृ ही को उ म, म यम
और न न बनाती है। न न ेणी के लोग जैसे-तैसे धन इकट् ठा करना चाहते ह। वे ऐसे
उपाय से भी धन ा त करना चाहते ह जनसे उनका अपमान होता है। उ ह मान-अपमान
क कोई चता नह होती। म यम ेणी के लोग मान-स मान के साथ-साथ धन इकट् ठा
करना चाहते ह, परंतु उ म ेणी के लोग केवल मान-स मान को ही मह व दे ते ह, धन उनके
लए गौण होता है, मु य नह ।
चाण य कहते ह क जस कार का भोजन करता है, जैसा अ खाता है
उसक संतान भी वैसी ही होती है। यह संकेत है क भोजन केवल वाद या पेट भरने क
से ही मह वपूण नह है, यह मानव-जा त के भ व य को भी नधा रत करता है।
चाण य ने तीन बात मृ यु के समान क दे ने वाली बताई ह— वृ ाव था म मनु य
क प नी क मृ यु होना, धन-संप का सर के हाथ म जाना और खान-पान के लए
सर पर आ त रहना। इनम से दो का अनुभव तो कसी भी अव था के को हो
सकता है ले कन एक का संबंध वशेष अव था से है। इस ओर संकेत करके आचाय ने
जीवन के कटु स य को उजागर कया है। इससे उस अव था म पु ष क नरीहता भी कट
होती है।
चाण य ने के वचार और उसक भावना को अ धक मह वपूण बताया है।
उ ह ने कहा है क लकड़ी, प थर और धातु क मू तय क य द शु भावना और ा से
पूजा क जाए तो सब काय पूण हो जाते ह। इन मू तय म भगवान का वास उस प म नह
होता जैसा क लोग मानते ह। मनु य क उ च भावनाएं अथवा वचार ही मू त को मा यम
बनाकर पूजक का क याण करते ह।
।। अथ नवमोऽ यायः ।।
नौवां अ याय
जो ा ण धन क ा त के वचार से वेद का अ ययन
करते ह और जो ु अथात नीच मनु य का अ खाते ह, वे
वषहीन सांप के समान कुछ भी करने म असफल होते ह।
मु म छ स चे ात वषयान् वषवत् यज।
माऽऽजवं दया शौचं स यं पीयूषवद् भज।।
य द तू मु चाहता है तो बुरे सन और बुरी आदत को वष के समान समझकर
उनका याग कर दे तथा मा, सरलता, दया, प व ता और स य को अमृत के समान हण
कर। ।।1।।
आचाय चाण य ने मु चाहने वाल को सलाह द है क वषय को वे वष के
समान छोड़ द य क जस तरह वष जीवन को समा त कर दे ता है, उसी तरह वषय भी
ाणी को ‘भोग’ के प म न करते रहते ह। यहां वषय श द का अथ व तु नह ब क
उसम आस का होना है। इस कार आचाय क म वषयास ही मृ यु है। लोग
जस अमृत क तलाश वग म करते ह, उसे आचाय ने इन पांच गुण म बताया है। इस
ोक का उ लेख ‘अ ाव गीता’ म भी इसी प म जनक-अ ाव संवाद के प म आ
है। यहां चेत् अथात् य द श द अ यंत मह वपूण है। ऐसा कहने का ता पय है क य द कोई
मु होने का संक प कर चुका है—वैसे ायः हम बंधन म आनं दत होते रहते ह, बंधन म
सुर ा महसूस करते ह।
पर पर य ममा ण ये भाष ते नराधमाः।
त एवं वलयं या त व मीकोदरसपवत्।।
जो लोग एक- सरे के भेद को कट करते ह, वे उसी कार न हो जाते ह जैसे
बांबी म फंसकर सांप न हो जाता है। ।।2।।
अपमा नत करने के वचार से अपने म के रह य को कट करने वाले उसी
कार न हो जाते ह जस कार बांबी म घुसा आ सांप बाहर नह नकल पाता और बांबी
के अंदर ही दम घुटने से मर जाता है। ऐसे लोग न घर के रहते ह, न घाट के।
ग धः सुवण फल म ुद डे
नाऽका र पु पं खलु च दन य।
व ान् धना नृप रायुः
धातुः पुरा कोऽ प न बु दोऽभूत।् ।
ा ने सोने म सुगंध और ईख के पौधे म फल उ प नह कए और न य ही
चंदन के वृ म फूल भी पैदा नह होते, इसी तरह व ान को अ धक धनी और राजा
को अ धक लंबी आयु वाला नह बनाया। उससे ऐसा लगता है क ाचीनकाल म भु को
बु दे ने वाला कोई नह था। ।।3।।
े व तु को येक चाहता है। यही चाह उसे उस व तु से र कराती है,
जसे ा त करने के लए उसने कठोर म कया है। य क उसम भी उसे कमी नजर आने
लगती है। ऐसे असमंजस क थ त को ही आचाय ने यहां तुत करने का यास कया।
य द सोने म सुगंध भी होती, तो उसका मू य और भी बढ़ जाता। इस ‘य द’ के संदभ म ही
लोग क ओर से आचाय यहां सृ रच यता को उलाहना दे रहे ह, उसक बु को कोस रहे
ह। ले कन य द ऐसा हो जाता जैसी लोग क चाह है, तो वैसा न होने क कामना लोग करते,
या यह सच नह है?
सव षधीनाममृता धाना सवषु सौ ये वशनं
धानम्।
सव याणां नयनं धानं सवषु गा ेषु शरः
धानम्।।
सभी कार क औष धय म अमृत सबसे मुख औष ध है। सुख दे ने वाले सब
साधन म भोजन सबसे मुख है। मनु य क सभी इं य म आंख सबसे धान और े ह
तथा शरीर के सभी अंग म मनु य का सर सव े है। ।।4।।
कुछ य ने इस ोक म आए ए अमृता श द का अथ गलोय से भी कया
है। गलोय का उपयोग अनेक रोग के लए कया जाता है, परंतु मूल अथ अमृत ही उ चत
है, य क अमृत भी एक कार क औष ध है और अमृत से सभी को जीवन ा त होता है।
मनु य के पास धन आ द सभी सुख के साधन ह, परंतु जब तक वह भोजन नह
करता तब तक उसे पूण सुख ा त नह होता, इस लए भोजन को सब सुख म धान माना
गया है। मनु य अनेक इं य से यु है—वह सुनता है, पश करता है, चखता है, अनुभू त
करता है परंतु य द वह दे ख नह सकता तो उसे इं य से पूण सुख ा त नह होता, इस लए
आंख को सब इं य म धान बताया गया है। इसी कार शरीर के सभी अंग म मनु य का
सर धान है, उसी को सभी अंग म े माना गया है। म त क का मह व सव व दत है।
तो न स चर त खे न चले च वाता
पूव न ज पत मदं न च संगमोऽ त।
ो न थतं र वश श हणं श तं
जाना त यो जवरः स कथं न व ान्।।
आकाश म कसी त का जाना संभव नह और वहां कसी से कसी कार क
बातचीत भी नह हो सकती, परंतु जस े ा ण ने आकाश म सूय और चं मा के हण
क बात बताई है, उसे व ान य न माना जाए। ।।5।।
व ाथ सेवकः पा थः ध ु ाऽऽत भयकातरः।
भा डारी तहारी च स त सु तान् बोधयेत।् ।
व ाथ , सेवक, माग म चलने वाला प थक, या ी, भूख से पी ड़त, डरा आ
और भ डार क र ा करने वाला ारपाल य द अपने कायकाल म सो रहे ह , तो इ ह जगा
दे ना चा हए। ।।6।।
य द व ाथ सोता रहेगा तो व ा का अ यास कैसे करेगा। मा लक य द सेवक को
सोता दे ख लेगा तो उसे नौकरी से पृथक कर दे गा। य द या ी रा ते म सो जाएगा तो या तो
उसक चोरी हो जाएगी अथवा उसक ह या कर द जाएगी। व म य द कोई यास या भूख
से ाकुल है, तो उसे जगाना ही उसक सम या का समाधान है। यही बात व म डरे ए
पर भी लागू होती है।
भ डार के र क तथा ारपाल सो रहे ह तो इ ह जगा दे ना ठ क रहता है, य क
इनके सोने से इनक ही नह अनेक लोग क हा न होती है। आचाय के इस कथन को शा
के उन आदे श से जोड़कर दे खना चा हए, जनम यह कहा गया है क सोते ए को
उठाना नह चा हए। न ा शारी रक और मान सक व ाम क वह अव था है जो ाणी को
संतुलन क समु चत व था दे ती है।
इसी संदभ म पशु और वृ को सोते ए से न जगाने और रा के समय पश न
करने का नदश कया गया है।
अ ह नृपं च शा लं क ट च बालकं तथा।
पर ानं च मूख च स त सु तान् न बोधयेत।् ।
सांप, राजा, बाघ, सूअर, बालक, सरे के कु े और मूख को सोते म जगाना
नह चा हए। ।।7।।
य द सोए ए सांप को जगाएंगे तो वह काट खाएगा, इसी कार सोते ए राजा को
जगाने पर वह ो धत होकर ह या का आदे श दे सकता है। बाघ आ द हसक पशु को
जगाने का या प रणाम हो सकता है, यह सब जानते ह। सोते ए बालक को जगाएंगे तो
वह भी मुसीबत खड़ी कर दे गा। इसी कार सरे के कु े और मूख मनु य को जगाना
नह चा हए। उनके सोते रहने म ही भला है।
अथाऽधीता यैवदा तथा शू ा भो जनाः।
ते जाः क क र य त न वषा इव प गाः।।
जो ा ण धन क ा त के वचार से वेद का अ ययन करते ह और जो शू
अथात नीच मनु य का अ खाते ह, वे वषहीन सांप के समान कुछ भी करने म असमथ
होते ह। ।।8।।
जो ा ण वेद का अ ययन कर उससे धन कमाते ह अथात उस ान से पैसा
बटोरते ह और वे ा ण भी जो अपना पेट भरने के लए शू के अधीन रहते ह अथात नीच
लोग का अ खाते ह, वे वषर हत सप के समान नरथक ह। तेजहीन हो जाने के कारण
ऐसे व ान ा ण को संसार म कसी कार का यश और स मान ा त नह होता।
य मन् े भयं ना त तु े नैव धनाऽऽगमः।
न होऽनु हो ना त स ः क क र य त।।
जसके नाराज होने पर कसी कार का डर नह होता और जसके स होने पर
धन ा त क आशा नह होती, जो न द ड दे सकता है और न ही कसी कार क दया
कट कर सकता है उसके नाराज होने पर कसी का कुछ नह बगड़ता। ।।9।।
न वषेणाऽ प सपण कत ा महती फणा।
वषम तु न चा य तु घटाटोपो भयंकरः।।
वषहीन सांप को भी अपना फन फैलाना चा हए, उसम वष है या नह , इस बात को
कोई नह जानता? हां, उसके इस आडंबर से अथवा दखावे से लोग भयभीत अव य हो
सकते ह। ।।10।।
ात ूत संगेन म याह्ने ी संगतः।
रा ौ चौय संगेन कालो ग छ यधीमताम्।।
मूख लोग अपना ातःकाल का समय जुआ खेलने म, दोपहर का समय ी संग म
और रा का समय चोरी आ द म थ करते ह। ।।11।।
चाण य ारा यु मूख और थ श द यहां मह वपूण ह। मूख के बारे म ऐसा
कहकर आचाय ने संकेत कया है क व ान अपना समय सद्काय म तीत करते ह।
वह त थता माला वह तघृ च दनम्।
वह त ल खतं तो ं श या प यं हरेत्।।
अपने ही हाथ से गुंथी ई माला, अपने हाथ से घसा आ चंदन और अपने ही हाथ
से लखी ई भगवान क तु त करने से मनु य इं क धन-स प को भी वश म कर
सकता है। ।।12।।
चाण य का भाव यह है क धनवान को भगवान क तु त करने के लए कए
जाने वाले उपाय को वयं अपने हाथ से करना चा हए। सर से करवाने से कोई लाभ नह
होता।
इ ुद डा तलाः ु ाः का ता हेम च मे दनी।
च दनं द ध ता बूलं मदनं गुणवधनम्।।
ईख, तल, मूख, छोटे आदमी, ी, सोना, भू म, चंदन और दही तथा पान इ ह
जतना मला जाएगा उतने ही इनके गुण बढ़गे। ।।13।।
ईख और तल आ द को जतना अ धक दबाएंगे उतना ही अ धक तेल और रस
नकलेगा। सोने को भी जतना तपाया अथवा शु कया जाएगा, उसम चमक और नखार
आएगा। भू म म जतना अ धक हल चलाया जाएगा उतना ही अ धक उससे अ क उ प
होगी। इसी कार चंदन और दही आ द को जतना रगड़गे और मथगे उतना ही उनके गुण म
वृ होती है। इसी कार मूख के म त क पर भी जब जोर पड़ेगा तभी वह कुछ गुण को
हण कर सकेगा। यह बात उन जा तय और रा पर भी लागू होती है जो माद म डू बी ई
ह तथा नक मी हो गई ह। ज ह ने संघष कया, वो उ त और वक सत ह।
द र ता धीरतया वराजते कुव ता शु तया
वराजते।
कद ता चो णतया वराजते कु पता शीलतया
वराजते।।
द र अव था म य द धैय नह छोड़ता, तो नधनता क नह दे ती। साधारण
व को य द साफ रखा जाए तो वह भी अ छा लगता है। य द सामा य भोजन, जसे
पु कारक न माना जाए, भी ताजा और गम-गम खाया जाए तो अ छा लगता है। इसी कार
सुशीलता आ द गुण के होने पर कु पता बुरी नह लगती। ।।14।।
आचाय के अनुसार म य द गुण ह तो उसके दोष क ओर कोई यान नह
दे ता। व भले ही स ता हो, ले कन व छ होना चा हए। भोजन भले ही साधारण हो, क तु
उ चत ढं ग से उसे य द पकाया और परोसा जाए तो वह भी चकर लगता है। अथ यह है क
म गुण क धानता होनी चा हए, दखावे क नह ।

चाण य ने मनु य को जीवन का ल य बताते ए कहा है क जो संसार से


मु होना चाहते ह, उ ह वषय-वासना का याग वष के समान कर दे ना चा हए अथात्
बे हचक। जो नीच मनु य सर के त घृणा के कारण कठोर बात बोलते ह, वे न हो जाते
ह। कोई भी उनका स मान नह करता।
चाण य संसार क व च धारणा को करते ए बताते ह क सोने म सुगंध
नह होती, ईख पर फल नह लगता, चंदन के वृ पर फूल नह लगते, व ान के पास
धन नह होता और राजा को ायः अ धक आयु नह मलती—ये बात दे खकर ऐसा लगता है
क परमे र ने यह काम करते ए बु का सहारा नह लया। अथात् भूल तो कसी से भी
हो सकती है। काश! परमा मा ने ऐसा कया होता।
चाण य कहते ह क अमृत सबसे उ म औष ध होती है य क इससे मृ यु, रोग से
मु मल जाती है। सबसे बड़ा सुख भोजन क ा त है, ान य म सबसे उ म आंख है
और शरीर के अंग म सबसे े मनु य का सर है।
ा ण क व ा बताते ए चाण य का कथन है क आकाश म कोई गया नह ,
सूय, चं मा तक कोई प ंचा नह , परंतु जस व ान ा ण ने उनक ग त, उनके हण से
संबं धत ान दया है और भ व यवाणी क है, उसे व ान मानने म संकोच नह करना
चा हए। अथात् पृ वी पर बैठे-बैठे जसने इन आकाशीय घटना का पूरी तरह से सही
आकलन कर लया, वह अव य सराहना के यो य है।
चाण य ने अनेक थान पर कहा है क को संसार म सतक होकर जीवन
बताना चा हए। व ाथ , नौकर, या ी और भूख से खी, डरा आ और ारर क
—इ ह सदा जागते रहना चा हए, य द इ ह सोता दे ख तो इ ह जगा द ले कन राजा, सांप,
बाघ, जंगली सूअर और सरे का कु ा तथा मूख य द सोए पड़े ह तो इ ह जगाना
नह चा हए। ये सोए ही हतकारी ह।
इस अ याय म आचाय चाण य ने ा ण के संबंध म कहा है क उ ह प तत लोग
से कसी कार क सहायता नह लेनी चा हए य क ऐसे लोग के वाथ भी तु छ ही होते
ह। समय आने पर उनक पू त म सहयोग करना और न करना दोन ही थ तयां वधावाली
ह। सहयोग करने पर नै तकता क हा न होती है तथा न करने पर कृत न होने का आभास
होता है। आचाय का कहना है क मनु य को अपना वा त वक वभाव नह छोड़ना चा हए
अथात य द सांप वषर हत है तो भी उसे अपने पर आ मण करने वाले को डराने के लए
फन फैलाते रहना चा हए। इसका अथ यह है क आड बर से भी सरे य को भा वत
कया जा सकता है। कसी संत ारा सप को दया गया यह उपदे श सभी ने पढ़ा-सुना होगा
क फुफकारना ज र चा हए, भले ही डंसने का मन न हो।
मूख को इस बात का ान नह होता क कस समय कौन-सा काय कया जाए, वह
ातःकाल ही जुआ आ द खेलने लगते ह, दोपहर का समय भोग- वलास और रा का
समय चोरी आ द बुरे काम म बताते ह। ये तीन काय धम और कानून दोन से न ष
ह। इनसे धन और स मान क हा न होती है। सबसे बढ़कर इनसे आ मा का पतन होता है।
चाण य का कहना है क भु क उपासना को वयं करनी चा हए। जस कार भूख-
यास तभी शांत होती है, जब आप वयं भोजन खाते और पानी पीते ह, उसी कार आपके
ारा कए गए शुभ कम—ई र उपासना आ द तभी पूरी तरह से फल दे ता है, जब आप उसे
वयं कर। को क म धैय रखना चा हए। धैय से क उतने खदायी तीत नह होते
जतने धैय न होने पर। अनुभव म तो यह भी आया है क धैय ख को कम ही नह करता
ब क सुख को भी साथ के साथ उजागर कर दे ता है। ऐसे म ख ख रहता ही नह है।
ीकृ ण ने गीता म धैयशील को अमृत व का अ धकारी माना है—यो धीरः सः अमृत वाय
क पते। इस कार मनु य का सबसे सवा धक मह वपूण गुण है धैय।
।। अथ दशमोऽ यायः ।।
दसवां अ याय
भा य अथवा भु क म हमा अपर पार है, उसके कारण एक
नधन भखारी पल म राजा बन सकता है और राजा को
कंगाल होना पड़ता है।
धनहीनो न हीन ध नकः स सु न यः।
व ार नेन यो हीनः स हीनः सवव तुष।ु ।
धन से हीन मनु य द न-हीन नह होता, य द वह व ा धन से यु हो तो, परंतु जस
मनु य के पास व ा पी र न नह है, वह सभी चीज से हीन माना जाता है। ।।1।।
पूतं यसेत् पादं व पूतं पबे जलम्।
शा पूतं वदे त् वा यं मनः पूतं समाचरेत्।।
भली- कार आंख से दे खकर मनु य को आगे कदम रखना चा हए, कपड़े से
छानकर जल पीना चा हए, शा के अनुसार कोई बात कहनी चा हए और कोई भी काय
मन से भली कार सोच-समझकर करना चा हए। ।।2।।
आचाय के अनुसार, मनु य को सोच-समझकर उ चत काय करना चा हए। कसी
काय को करने से पहले यह भली कार जांच-परख ल क वह वहार और शा से व
तो नह है। सदै व सावधान और सचेत रहकर येक काय को करने क सलाह यहां द गई
है। जल के त क गई असावधानी अनेक रोग क उ प कर सकती है।
सुखाथ वा यजे ां व ाथ वा यजेत् सुखम्।
सुखा थनः कुतो व ा व ा थनः कुतो सुखम्।।
य द सुख क इ छा हो तो व ा अ ययन का वचार छोड़ दे ना चा हए और य द
व ाथ व ा सीखने क इ छा रखता है तो उसे सुख और आराम का याग कर दे ना
चा हए, य क सुख चाहने वाले को व ा ा त नह हो सकती और जो व ा ा त करना
चाहता है, उसे सुख नह मल सकता। ।।3।।
चाण य का व ास है क व ा ा त के समय व ाथ को सुख-सु वधा क
आशा नह करनी चा हए। कठोर तप से ही व ा क ा त हो सकती है। य द व ाथ व ा
म पारंगत होना चाहता है तो उसे नरंतर अ यास करना पड़ता है, जो सुख से नह हो सकता
है। या क ठनता से मलने वाली कोई भी व तु मू यवान नह होती? अतः व ाथ को सुख
क आशा ही छोड़ दे नी चा हए अ यथा उसे व ा ा त नह हो सकती। भोग और ान
पर पर वरोधी ह।
कवयः क न प य त क न कुव त यो षतः।
म पाः क न ज प त क न भ त वायसाः।।
क व अपनी क पना से या नह दे ख सकते? अथात् सभी कुछ दे ख सकते ह और
यां या नह कर सकत ? वे सभी कार क मनमानी कर सकती ह। नशे म चूर
या नह बोल सकता? अथात् कुछ भी बोल सकता है और कौआ या नह खाता? ।।4।।
आचाय ने क व श द का योग यहां ऋ ष और क व दोन अथ म कया है। कहा
जाता है—‘जहां न प ंचे र व, वहां प ंचे क व।’ और ऋ ष उसे कहते ह, जो मं का
सा ा कार करता है—ऋषयो मं ारः।
यां अपने साहस के कारण ऐसे काय कर सकती ह ज ह करने से पूव पु ष
कई बार सोचेगा। नशे म चूर के जो कुछ भी मन म आता है, बक दे ता है। उस समय
उसे भले-बुरे का ान नह होता। इसी कार कौआ भी अपने वभाव के कारण कह भी जा
बैठता है।
रंकं करो त राजानं राजानं रंकमेव च।
ध ननं नधनं चैव नधनं ध ननं व धः।।
भा य क म हमा अपर पार है य क वह नधन अथात भखारी को पल म राजा
बना सकता है और राजा को कंगाल। इसी तरह भा य के ही कारण धनवान नधन
बन जाता है और नधन धनवान। ।।5।।
लु धानां याचकः श म
ु ूखाणां बोधकः रपुः।
जार ीणां प तः श ु ोराणां च मा रपुः।।
मांगने वाला लोभी मनु य का श ु होता है। मूख का श ु उ ह स पदे श दे ने वाला
होता है। भचा रणी य का श ु प त होता है और चोर का श ु है चं मा। ।।6।।
लोभी अथवा लालची उसको अपना श ु मानता है, जो उससे कसी चीज को
लेने क आशा रखता है अथवा कुछ मांगता है, मूख को स पदे श दे ने वाला अथवा उ ह
स माग पर चलाने वाला उनका सबसे बड़ा श ु होता है, य क मूख क यह वशेषता
होती है क कसी क अ छ बात को वह नह मानता और अपने काय को ही सही ठहराता
है। जो ी भचा रणी है, प त उसे इस काम से रोकने का य न करता है, इस लए उसे
वह अपना श ु मानती है। चोर- उच के लोग रा के समय अंधकार म अपना काय करते ह,
चांदनी रात म उनके लए चोरी करना असंभव होता है, इस लए चं मा उनका सबसे बड़ा
श ु होता है। इस कार जो कसी के काय म कावट डालता है, वही उसका श ु है।
येषां न व ा न तपो दानं न ानं न शीलं न गुणो न
धमः।
ते म यलोके भु व भारभूता मनु य पेण
मृगा र त।।
जन मनु य के पास न व ा है न ही ज ह ने कसी कार का तप कया है, जनम
न दान दे ने क वृ है, न ान है, दया और न ता आ द भी नह है, गुण और धमाचरण क
भावना नह है, ऐसे मनु य पशु के प म इस संसार म वचरते ह। ।।7।।
धम ही मनु य को मनु य बनाता है।
अ तःसार वहीनानामुपदे शो न जायते।
मलयाचलसंसगात् न वेणु दनायते।।
जन य म कसी कार क भीतरी यो यता नह अथात जो अंदर से खोखले
ह, बु हीन ह, ऐसे य को कसी भी कार का उपदे श दे ना उसी कार थ होता है
जस कार मलयाचल पवत से आने वाले सुगं धत हवा के झ क का बांस से पश। ।।8।।
जस म कसी कार क भीतरी यो यता नह और जसका दय भी साफ
नह , उसम बुरे वचार भरे ह, उसे कसी भी कार का उपदे श दे ना थ है। उस पर उपदे श
का कोई भाव नह पड़ेगा। ऐसा होना उसी कार थ है जैसे चंदन वन से आने वाली
सुगं धत वायु के पश से बांस म न तो सुगंध ही आती है और न ही वह चंदन बन पाता है।
य य ना त वयं ा शा ं त य करो त कम्।
लोचना यां वहीन य दपणः क क र य त।।
जस के पास अपनी बु नह , शा उसका या कर सकेगा, आंख से
र हत को दपण का कोई लाभ नह हो सकता है। ।।9।।
आचाय का यह कथन संकेत करता है क केवल बाहरी साधन से कोई ानवान
नह हो सकता। मनु य के भीतर न हत सं कार को ही बाहरी साधन से उभारा और
नखारा जा सकता है।
खेत म बीज ही न हो तो खाद आ द दे ने से फसल नह उगती। कभी-कभी तो उलटा
ही होता है। इ छत फसल को पाने के लए कए गए उवरक के योग से ऐसी हा नकर
फसल लहलहाने लगती है, जसक कसी ने कभी क पना ही नह क होती।
जनं स जनं कतुमुपायो न ह भूतले।
अपानं शतधा धौतं न े म यं भवेत्।।
इस संसार म ऐसा कोई उपाय नह , जससे जन को स जन बनाया जा
सके, बलकुल उसी तरह जस कार गुदा को चाहे सैकड़ कार से और सैकड़ बार धोया
जाए फर भी वह े अंग नह बन सकती। ।।10।।
आ म े षात् भवे मृ युः पर े षात् धन यः।
राज े षात् भवे ाशो े षात् कुल यः।।
जो मनु य अपनी ही आ मा से े ष रखता है वह वयं को न कर लेता है। सर से
े ष रखने से अपना धन न होता है। राजा से वैर-भाव रखने से मनु य अपना नाश करता है
और ा ण से े ष रखने से कुल का नाश हो जाता है। ।।11।।
‘आ म े षात्’ क जगह कह ‘आ त े षात्’ श द का भी योग कया गया है। इसे
पाठभेद कहते ह। ‘आ त’ का अथ है व ान, ऋ ष, मु न और स पु ष—‘आ त तु
यथाथव ा।’ जो स य बोले, वह आ त है। जो आ मा के नजद क है, वही आ त है।
इस से इस ोक के दोन प सही ह। जो बना कसी लाग-लपेट के न प
भाव से बोले वह आ त है। आ मा क आवाज और आ तवा य एक ही बात तो है। य क
शा म कहा गया है क मनु य अपना ही सबसे बड़ा म है और श ु भी। इसी कार
आ त अथात व ान और स पु ष से े ष रखने वाला भी न हो जाता है।
वरं वनं ा गजे से वतं मालयं
प फला बुभोजनम्।
तृणेषु श या शतजीणव कलं न बंधुम ये
धनहीनजीवनम्।।
भले ही मनु य सह और बाघ आ द हसक जानवर से यु वन म नवास करे,
कसी पेड़ पर अपना घर बना ले, वृ के प े और फल खाकर तथा पानी पीकर गुजारा कर
ले, तनक क श या पर सो ले, फटे -पुराने वृ क छाल के कपड़े पहन ले, परंतु अपने
भाई-बंधु म धन से र हत अथात द र बनकर जीवन न बताए। ।।12।।
इस ोक से यह बात भली कार प होती है क नधनता एक कार का
अ भशाप है। चाण य का मानना है क अ य सभी कार के क सहन कर सकता है
परंतु नधनता के कारण अपने सगे-संबं धय ारा कए जाने वाले अपमान को सहन नह
कर सकता। नधन को कौन अपना मानता है?
व ो वृ त य मूलं च सं या वेदाः शाखा
धमकमा ण प म्।
त मा मूलं य नतो र णीयं छ े मूले नैव शाखा न
प म्।।
ा ण एक वृ के समान है और सं या अथात भु क उपासना और आराधना
उसक जड़ है, वेद उसक शाखाएं ह और धम-कम उसके प े ह, इस लए य नपूवक जड़
क र ा करनी चा हए य क जड़ के न हो जाने पर न शाखाएं रहगी, न ही प े। ।।13।।
ा ण एक वृ के समान है। ातः और सायं दो काल के बीच म जो समय पड़ता
है उसे सं धवेला कहते ह, उस समय ा ण भु क पूजा व उपासना करता है। यह उसका
आव यक कम है। यह ा ण पी वृ के फलने-फूलने क जड़ ह अथवा आधार ह। वेद
का ान उस वृ क शाखाएं ह। उसके धमानुकूल अ छे काय, उसके प े के समान ह।
इस लए य नपूवक उस वृ के मूल क र ा करनी चा हए। मूल क र ा से ही वृ फलता-
फूलता है। य द जड़ ही न हो जाएगी तो वृ कैसे बचेगा? आचाय यहां कहते ह क येक
ा ण को सं या करनी ही चा हए। इसी से वह बल को ा त करता है।
माता च कमलादे वी पता दे वो जनादनः।
बा धवाः व णुभ ा वदे शो भुवन यम्।।
कमला दे वी अथात ल मी जसक माता ह और सव ापक ी व णु जसके पता
ह, भु के भ जसके भाई-बंधु ह ऐसे पु ष के लए तीन लोक अपने ही दे श के समान ह।
।।14।।
एकवृ समा ढा नाना वणा वहंगमाः।
भाते दशसु द ु त का प रवेदना।।
रा के समय अनेक रंग- प वाले प ी एक वृ पर आकर बैठते ह। ातःकाल के
समय वे सभी दस दशा म उड़ जाते ह। ऐसे म या शोक करना। ।।15।।
इस संसार पी प रवार म अनेक बंध-ु बांधव और र तेदार उसी तरह आकर मलते
ह जस कार सायंकाल होते ही अनेक तरह के प ी बसेरा लेने के लए एक पेड़ पर आ
बैठते ह और समय आने पर अथात सूय उदय होने पर वे व भ दशा म चल दे ते ह।
इसी कार एक प रवार म इकट् ठे ए ब धु-बा धव भी समय आने पर बछु ड़ जाते ह,
इस लए उनके संबंध म कसी कार का शोक करना उ चत नह है।
बु य य बलं त य नबु े तु कुतो बलम्।
वने सहो मदो म ः शशकेन नपा ततः।।
जसके पास बु अथात ान है, उसके पास ही बल होता है, बु हीन के
पास बल कहां। जंगल म अपनी श के मद म म त सह को एक खरगोश ने मार डाला
(यह इसी का माण है)। ।।16।।
पंचतं म भी इस कथा का उ लेख है, जसम छोटे से खरगोश ने अपनी बु के
बल से बलवान सह को भी मरने को ववश कर दया। बु मान अपने बल का तो
सही उपयोग करता ही है, वह सरे के बल को भी अपने अनुसार योग करने म सफल हो
जाता है।
का च ता मम जीवने य द ह र व भरो गीयते
नो चेदभकजीवनाय जननी त यं कथं नमयेत्।
इ यालो य मु मु य पते ल मीपते केवलं
व पादा बुजसेवनेन सततं कालो मया नीयते।।
य द भगवान व णु को सारे संसार का पालन-पोषण करने वाला कहा गया है तो
मुझे इस जीवन म कसी बात क चता करने क आव यकता नह । य द भगवान व णु न
होते तो गभ म थत बालक के जीवन के लए माता के तन म ध कहां से आता? बार-
बार इस तरह का वचार करके हे तीन लोक के वामी! म आपके चरण- कमल क सेवा
करते ए अपना जीवन तीत कर रहा ।ं ।।17।।
भाव यह है क सृ कता परमे र ही सबका भरण-पोषण करता है, ऐसी थ त म
मनु य को कसी बात क चता नह करनी चा हए, य क जो बालक गभ म है उसके
पालन-पोषण के लए माता के तन म ध पहले ही उ प हो जाता है। य द ऐसा है, तो
चता कस बात क । हां, परमे र का मरण करते ए उसके त अपनी कृत ता का भाव
अव य कट करना चा हए।
गीवाणवाणीषु व श बु तथा प
भाषा तरलोलुपोऽहम्।
यथा सुराणाममृते थतेऽ प वगागनानामधरासवे
चः।।
सं कृत के अ त र म सरी भाषा का भी लोभी ं, जैसे वग म व मान
दे वता को अमृत क ा त के बाद भी वग क अ सरा के ह ठ के रस का पान करने
म च रहती है। ।। 18।।
चाण य ने इस ोक म सं कृत भाषा का वशेष आदर करते ए यह संकेत दया है
क अ य भाषा को भी सीखना चा हए। उनका मानना है क य प सं कृत म सम त रस
का वाद है, ले कन अ य भाषा का वाद भी व ान को चखना चा हए, य क उनका
भी अपना एक वाद है। उसम त संबंधी सं कृ त और चतन क झलक और खुशबू मलती
है।
अ ाद्दशगुणं प ं प ाद्दशगुणं पयः।
पयसोऽ गुणं मांसं मांसाद्दशगुणं घृतम्।।
अ से दस गुणा अ धक श उसके आटे म है। आटे से दस गुणा अ धक श
ध म है, ध से आठ गुणा अ धक श मांस म है और मांस से दस गुणा अ धक श घी
म है। ।।19।।
शाकेन रोगा वध ते पयसा वधते तनुः।
घृतेन वधते वीय मांसा मांसं वधते।।
साग खाने से रोग बढ़ते ह, ध से शरीर मोटा होता है, घी से वीय क वृ होती है
और मांस से मांस बढ़ता है। ।।20।।
साग से रोग बढ़ना संकेत करता है क अ धकांश लोग उसे भली कार धोकर योग
म नह लाते। इस लए नरंतर उनका सेवन करने से रोग क वृ होती है। ध से शरीर
बढ़ता है। बालक और कशोर को ध का सेवन करना चा हए। घी का अ धक सेवन करने
से वीय क वृ होती है—कम मा ा से यादा ऊजा। मांस खाने से शरीर का मांस बढ़ता
है। मोटापे से पी ड़त को इसके सेवन से बचना चा हए। इस कार चाण य के
अनुसार घी इन सब व तु म े माना गया है, जससे बल और वीय दोन क वृ होती
है।

चाण य ने व ा पी धन को सब धन म े माना है। उनका कहना है क जस


मनु य के पास व ा पी धन नह , वह सब कुछ होते ए भी ‘हीन’ है। ‘पहले सोच, फर
कर’, चाण य ऐसा करने क सलाह दे ते ह। करने के बाद सोचने का तो कोई अथ ही नह
है। व ाथ के कत क ओर यान दलाते ए आचाय फर कहते ह क जो व ाथ व ा
ा त करना चाहता है, उसे सुख क अ भलाषा छोड़ दे नी चा हए।
चाण य का मानना है क पु षाथ के बावजूद भा य से ही नधन से धनी
होता है। इस कार जीवन म भा य क मह वपूण भू मका है। नय त क ग त को समझना
ही बु म ा है।
चाण य यहां फर कहते ह क मनु य को व ा पी धन ा त करना चा हए,
दानशील होना चा हए, धम से यु होना चा हए परंतु जस मनु य म ऐसी कोई भी बात नह ,
वह पृ वी पर पशु के समान है और भार प है। को अपनी भीतरी यो यता का ान
होना चा हए। जसम भीतरी यो यता नह और जो बु हीन है, वेद आ द शा से भी
उसका क याण नह हो सकता। चाण य कहते ह क सदा ही रहता है, वह
अपना वभाव कभी नह छोड़ता।
अपने ब धु-बा धव , र तेदार म मनु य को नधन होकर अपना जीवन नह बताना
चा हए। उसे चा हए क वह अपनी नधनता र करने का य न करे। चाण य ने इस संसार
के रंग-ढं ग का वणन करते ए कहा है क जस कार सायंकाल के समय अनेक प ी एक
वृ पर आकर बसेरा लेते ह और ातःकाल अपनी दशा म उड़ जाते ह, उसी कार
ब धु-बा धव भी मनु य को संयोग से ही मलते ह, इस लए उनके बछु ड़ने का मनु य को
शोक नह करना चा हए। यह तो कृ त का नयम है। चाण य मनु य क बु को ही
उसका सबसे बड़ा सहायक मानते ह। उनका मानना है क जब परमे र ही संसार का पालन
करने वाला है तो जी वका क चता य ?
।। अथ एकादशोऽ यायः।।
यारहवां अ याय
जो सर के काय को बगाड़ता है, ढ गी है, अपना ही वाथ
स करने म लगा रहता है, सर को धोखा दे ता है, सबसे
े ष करता है, दखने म अ य त न और अ दर से पैनी छु री
के समान है, ऐसे ा ण को बलाव समझना चा हए।
दातृ वं यव ृ वं धीर वमु चत ता।
अ यासेन न ल य ते च वारः सहजा गुणाः।।
दान दे ने क इ छा, मधुर भाषण, धैय और उ चत अथवा अनु चत का ान, ये चार
गुण मनु य म सहज- वभाव से ही होते ह, अ यास से इ ह ा त नह कया जा सकता। ।।
1।।
सहज का अथ है—साथ म उ प अथात् ज म के साथ। वहार म इसे कहते ह,
‘खून म होना’। इन गुण म वकास कया जा सकता है, ले कन इ ह अ यास ारा पैदा नह
कया जा सकता।
आज क भाषा म य द कह, तो ये गुण आनुवं शक ह—ज स म ह। प रवेश इ ह
वक सत कर सकता है बस। इ ह थोड़ा-ब त तराश सकता है वातावरण। सहज और
अ यास ारा ा त गुण म अंतर होता है। सहज गुण न नह होते, जब क अ यास ारा
ज ह ा त कया जाता है, अन यास ारा वे समा त हो जाते ह।
हां, ऐसा दे खने म आया है क कभी-कभी सहज गुण उ चत वातावरण न मलने के
कारण सामने नह आ पाते।
आ मवग प र य य परवग समा येत।्
वयमेव लयं या त यथा राजाऽ यधमतः।।
जो मनु य अपने समुदाय के लोग को छोड़कर सर के समुदाय का सहारा लेता है,
वह उसी कार न हो जाता है जैसे सरे के धम का आ य लेने वाला राजा। ।।2।।
राजा का कत होता है क वह अपनी जा क र ा करे, यही उसका धम है। य द
वह अपने इस धम को छोड़ दे ता है तो वह वयं ही न हो जाता है, जस कार अपने वग
के लोग का प र याग करके सरे वग के लोग का आ य लेने से न हो जाता है।
इसी लए को चा हए वह अपने धम म थत रहे। यहां धम का अथ ‘ व+भाव’ भी
लया जा सकता है। ीकृ ण ने भी ‘ वधम नधनं ेयः’ कहकर इसी बात क ओर संकेत
कया है।
ह ती थूलतनुः स चांकुशवशः क ह तमा ोकुशो
द पे व लते ण य त तमः क द पमा ं तमः।
व ेणा प हताः पत त गरयः क व मा ो ग रम्
तेजो य य वराजते स बलवान् थूलेषु कः
ययः।।
हाथी लंब-े चौड़े शरीर वाला होता है परंतु उसे ब त छोटे से अंकुश ारा वश म कया
जाता है। द पक जलने पर अंधकार न हो जाता है तो या अंधकार द पक के आकार का
होता है? हथौड़े क चोट करने से बड़े-बड़े पवत गर पड़ते ह, तो या पवत का आकार-
कार हथौड़े से छोटा होता है? येक व तु अपने तेज के कारण ही बलवान होती है, लंबा-
चौड़ा शरीर कोई मायने नह रखता है। ।।3।।
कलौ दशसह ेषु ह र यज त मे दनीम्।
तदध जाह्नवीतोयं तदध ामदे वता।।
लोग ऐसा मानते ह क क लयुग के दस हजार वष समा त होने के बाद परमा मा
पृ वी का याग कर दे ते ह। उससे आधे अथात पांच हजार वष समा त होने पर गंगा का जल
पृ वी को छोड़ दे ता है और उसके आधे वष समा त होने पर गांव का दे वता गांव छोड़कर
चला जाता है। ।।4।।
कुछ लोग ने इसका अथ इस कार भी कया है क जब क लयुग क समा त म
दस हजार वष रह जाएंगे तब भगवान इस संसार को छोड़कर चले जाएंग।े पांच हजार वष
शेष रहने तक गंगा का जल समा त हो जाएगा और ढाई हजार वष शेष रहने तक गांव का
दे वता, गांव छोड़कर चला जाएगा। कुछ लोग का ऐसा वचार है क क लयुग म अधम बढ़
जाने से इस कार क थ त पैदा होती है।
कुछ व ान का मानना है क चाण य जैसा बु मान इस कार क बात
नह कह सकता, इस लए यह ोक बाद म जोड़ा गया है। अथात् त है यह ोक।
गृहाऽऽस य नो व ा नो दया मांसभो जनः।
लु ध य नो स यं ण
ै य न प व ता।।
जस क घर म अ धक आस है, घर म अ धक मोह और लगाव है, उसे
व ा क ा त नह हो सकती। जो लोग मांस खाते ह उनम दया नह , जो धन के लोभी
होते ह, उनम स य नह होता तथा राचारी, भचारी और भोग वलास म लगे रहने वाले
मनु य म प व ता का अभाव रहता है। ।।5।।
न जनः साधुदशामुपै त ब कारैर प
श यमाणः।
आमूल स ः पयसा घृतेन न न बवृ ो
मधुर वमे त।।
जस कार नीम के वृ को ध और घी से स चने पर भी उसम मठास पैदा नह
होती, उसी कार जन अनेक कार से समझाने-बुझाने पर भी स जन नह हो
पाता। ।।6।।
जस तरह कुछ शारी रक याएं मनु य के नयं ण से बाहर होती ह, इसी कार
लंबे अ यास के प रणाम व प पड़े सं कार के कारण कुछ मान सक याएं भी मनु य के
वश से बाहर हो जाती ह, जसे सगमंड ायड ने ‘अवचेतन मन’ कहा है। स जनता और
ता का संबंध इसी मनो तर पर बैठे मनु य क या को नयं त करने वाले सं कार
से है। इसी लए जब तक वहां प रवतन न हो, कसी के मूल वभाव को बदलना अ यंत
क ठन होता है।
अ तगतमलो तीथ नानशतैर प।
न शु य त यथा भा डं सुराया दा हतं च यत्।।
जस का अंतःकरण कामवासना आ द मल से भरा आ है, ऐसा मनु य य द
सैकड़ बार भी तीथ- नान करे तो भी प व नह हो सकता, बलकुल उसी तरह जस कार
शराब रखने का बतन आग पर जलाने से भी शु नह हो सकता। ।।7।।
जस के मन, वचार और अ तःकरण प व नह , य द वह सैकड़ तीथ म
भी नान य न कर ले, वह प व और न पाप नह हो सकता। ‘पाप’ का संबंध शरीर से
नह अंतःकरण से है।
न वे यो य य गुण कष स तं सदा न द त नाऽ
च म्।
यथा कराती क रकु भजाता मु ाः प र य य
बभ त गु ाः।।
जसे कसी के गुण क े ता का ान नह , वह सदा उनक नदा करता रहता है।
उसके ऐसा करने से कसी को आ य नह होता, जैसे भीलनी हाथी के म तक म उ प होने
वाली गजमु ा को छोड़कर घुंघ चय क माला ही धारण करती है। ।।8।।
जसम कसी क वशेषता अथवा गुण को परखने का ान ही नह , वह उसक
क कस कार करेगा? गुण के मह व को न जानने वाला य द उनक उपे ा करता
है अथवा नदा करता है तो उससे कसी को भी आ य नह करना चा हए, वह तो जंगल म
रहने वाली उस भीलनी क तरह है, जो हाथी के म तक से उ प होने वाले मो तय को
छोड़कर घुंघ चय क ही माला धारण करती है। उसे इस बात का ान ही नह होता क
हाथी के म तक म उ प होने वाले (गजमु ा) मोती कतने मू यवान होते ह। गुण का मू य
गुणी ही लगा पाता है।
ये तु संव सरं पूण न यं मौनेन भु ते।
युगको टसह ं तु वगलोके महीयते।।
जो पूरे वष तक मौन रहकर चुपचाप भोजन करता है, वह एक करोड़ वष
तक वग म आदर-स मान ा त करता है। ।।9।।
अथ यह है क जो अपने धम का पालन करते ए सदाचारपूवक म करता
है और जो कुछ भी अ जत करता है उससे संतु रहता है, उससे सभी दे वी-दे वता स रहते
ह अथात उसे कसी कार के क का मुख नह दे खना पड़ता। उसका सभी जगह स मान
होता है। यहां मौन का अथ ा त क सहज वीकृ त है—चुप रहना नह ।
कामं ोधं तथा लोभं वादं शृंगारकौतुके।
अ त न ाऽ तसेवे च व ाथ वजयेत्।।
व ाथ के लए आव यक है क वह काम, ोध, लोभ, वा द पदाथ क इ छा,
शृंगार, खेल-तमाशे, अ धक सोना और चापलूसी करना आ द इन आठ बात का याग कर
दे । ।।10।।
अकृ फलमूलेन वनवासरतः सदा।
कु तेऽहरहः ा मृ ष व ः स उ चते।।
जो बना खेती क ई भू म से उ प होने वाले फल और कंदमूल आ द को खाकर
नवाह करता है और सदा जंगल म रहकर ही स रहता है और जो त दन ा करता
है, ऐसा ा ण ऋ ष कहलाता है। ।।11।।
ऐसे ा ण को ऋ ष इस लए कहा जाता है य क उसका जीवन सवथा कृ त के
अनुकूल है। वह वन म बना कसी य न के उ प होने वाले फल और कंदमूल आ द को
खाकर अपना जीवन नवाह करता है। अ पैदा करने से होने वाले दोष का भी उस पर
भाव नह होता। मह ष कणाद के बारे म च लत है क वे फसल के कट जाने के कुछ दन
बाद पृ वी पर गरे अ कण को एक त करके अपनी भूख को शांत कया करते थे। फसल
कटने के कुछ दन बाद इस लए य क उस अ पर प य का अ धकार होता है। ऐसा
कभी स वगुण म थत हो ही नह सकता जो सरे के अ धकार को छ नने वाला हो।
जसे वन म रहना ही अ छा लगता है। त दन ा आ द वै दक अनु ान कर, जो अपने
पतर को तृ त करता है, ऐसे ा ण को ही ऋ ष कहा गया है। ऐसा जीवन सा वक
कहलाता है।
एकाहारेण स तु ः षट् कम नरतः सदा।
ऋतुकाला भगामी च स व ो ज उ यते।।
एक समय भोजन करने से जो संतु है, जो न य अपने कत को पूरा करता
रहता है, ी का संग ऋतुकाल म, केवल संतान क उ प करने के लए ही करता है,
उपभोग के लए नह , ऐसे ा ण को ही ज कहा जाता है। ।।12।।
चाण य ने यहां येक वण के लोग का कत बताने का य न कया है। य द
येक वण का अपने कत का भली कार पालन करता रहे तो दे श म शां त और
सुख बना रहे। जब लोग अपना कत भूलकर गलत आचरण करने लगते ह, अन धकार
चे ा करते ह तो राचार के साथ-साथ समाज म अशां त भी फैलती है।
लौ कके कम ण रतः पशूनां प रपालकः।
वा ण यकृ षकता यः स व ो वै य उ यते।।
सदा सांसा रक काय म संल न, पशु के पालक, ापार और खेती आ द करने
वाले ा ण को वै य कहा जाता है। ।।13।।
ला ा दतैलनीलानां कुसु भमधुस पषाम्।
व े ता म मांसानां स व ः शू उ यते।।
जो ा ण वृ क लाख, तेल, नील, कपड़े आ द रंगने का रंग, शहद, घी, शराब,
मांस आ द चीज का ापार करता है, उसे शू कहते ह। ।।14।।
यहां प है क चाण य ज म से कसी को उ च कुल का अथवा ा ण नह
मानते। वे कम के अनुसार ही वण के वभाजन म व ास रखते ह। ऐसी थ त म कम के
प रवतन से उसके वण-जा त क संभावना को खुला रखा जा सकता है। ले कन
सामा जक तर पर ऐसा हो पाना उतना आसान नह है, य क पूव थ त म बनाए गए
संबंध को तोड़ पाने या उ ह नभाने म आने वाली क ठनाइय का ावहा रक हल ढूं ढ़ पाने
म अ सर चूक हो जाती है। इसे कैसे आसान और सहज बनाया जाए, यह अपने आप म
एक वचारणीय वषय है।
परकाय वह ता च दा भकः वाथसाधकः।
छली े षी मृ ः ू रो व ो माजार उ यते।।
जो सर के काय को बगाड़ता है, ढ गी है, अपना ही वाथ स करने म लगा
रहता है, सर को धोखा दे ता है, सबसे े ष करता है, ऊपर से दे खने म अ यंत न और
अंदर से पैनी छु री के समान है, ऐसे ा ण को बलाव कहा गया है। ।।15।।
जस का यान सदा सर के काय बगाड़ने म लगा रहता है, जो सदा ही
अपने वाथ क स म लगा रहता है, लोग को धोखा दे ता है, बना कारण के ही उनसे
श ुता रखता है, जो ऊपर से कोमल और अ दर से ू र है, उस ा ण को बलाव के समान
नकृ पशु माना गया है।
वापी कूप तडागानामाराम सुर वे मनाम्
उ छे दने नराऽऽशंकः स व ो ले छ उ यते।।
जो ा ण पानी के थान , बावड़ी, कुआं, तालाब, बाग-बगीच और मं दर म तोड़-
फोड़ करने म कसी कार का भय न अनुभव करते ह , उ ह ले छ कहा जाता है। ।।16।।
पीने के जल वाले थान , उ ान और मं दर आ द के नमाण का धम ंथ म
अ य धक मह व है। ऐसे काय करना बताता है क उ ह करने वाला केवल अपने बारे म ही
नह और के बारे म भी सोचता है।
जो अपने से े सर को माने। जन हत के चतन म लीन रहे, वही ा ण है।
परोपकार क भावना ही ा ण क प रचा यका है और जो इ ह न करने वाला हो,
क णा वहीन और ू र हो वह ा ण कैसे हो सकता है। ऐसे को तो तु छ या ले छ
ही कहना चा हए।
दे व ं गु ं परदाराऽ भमशनम्।
नवाहः सवभूतेषु व ा डाल उ यते।।
जो दे वता और गु के धन को चुरा लेता है, सर क य के साथ सहवास
करता है और जो सभी तरह के ा णय के साथ अपना जीवन गुजार लेता है, उस ा ण
को चा डाल कहा जाता है। ।।17।।
दे यं भो यधनं सदा सुकृ त भन स चत ं कदा
ीकण य बले व मपतेर ा प क तः थता
अ माकं मधु दानभोगर हतं न ं चरा स चतं
नवाणा द त पा णपादयुगले घष यहो म काः।।
शहद का सं ह करने म आदश मधुम खय को भी प ा ाप करना पड़ता है,
य क शहद का दान न करने से शहद न हो जाता है। इसी कार कुछ लोग धन का दान
नह करते और जब वह न होने लगता है तो प ा ाप करते ह, जब क कुछ लोग अपने धन
का दान के प म उ चत योग करते रहते ह। राजा ब ल, कण और व मा द य दान करने
के कारण ही आज तक समाज म स मान के पा ह। ।।18।।
आचाय चाण य ने इस ोक म दान का माहा य बताया है। आम लोग क धारणा
है क दान दे कर वे लोग पर उपकार करते ह। यह थम म सही भी है ले कन यथाथ
इससे हटकर है। य द दान न कया जाए, तो या होगा? आचाय के अनुसार इसका उ र है
धन का वनाश। याग से द गई व तु न नह होती, ब क बढ़ती है। जब क संकोच से वह
सड़-गल जाती है, न हो जाती है। इस नयम के अनुसार दान ारा दानकता अपने धन क
वृ का माग श त करता है। इतना ही नह , ऐसा करने से उसके यश म भी वृ होती है।
इससे े सौदा और या हो सकता है?
दान को अकसर लोग धन से जोड़कर दे खते ह, वा त वकता ऐसी नह है। अ का
दान, व ा का दान, वा य का दान आ द अ य भी दान के प ह। स जन य का
धन सदा दान करने के लए ही होता है। वे कभी उसका संचय नह करते, य क दान करने
के कारण ही दानवीर कण, महाराज ब ल और व मा द य का यश आज भी संसार म फैला
आ है। चाण य ने वण के अनुसार कम क ा या क है और यह प कया है क
अपने कुछ गुण के कारण ही सदा याद कया जाता है।

चाण य कहते ह क कुछ बात मनु य म वाभा वक प से होती ह, उ ह केवल


अ यास से ा त नह कया जा सकता। दान म च, मधुर भाषण क इ छा, मधुरता, वीरता
ये गुण मनु य को वभाव से ही ा त होते ह, अ यास से केवल इनम वृ क सकती है,
तराशा जा सकता है बस। चाण य कहते ह क मनु य को अपना वभाव नह छोड़ना
चा हए य क जो अपने वभाव और कम को छोड़कर सरे के आ य म जाता है, वह न
हो जाता है।
चाण य कहते ह क मोटे शरीर को दे खकर ऐसा नह मानना चा हए क वह ब त
बलवान हो सकता है। लंबे-चौड़े शरीर वाला हाथी छोटे से अंकुश से वश म कर लया जाता
है। इसी कार द पक क छोट -सी ली वष के अंधकार को पलभर म न कर दे ती है। इतना
ही नह अपने से कई गुना लंबाई-चौड़ाई म वह काश फैलाती है। बड़े- बड़े पहाड़ और
शला को हथौड़े क चोट से तोड़ा जा सकता है जब क हथौड़े का आकार-भार पहाड़
और शला से ब त कम होता है। इस लए लंबे-चौड़े शरीर को दे खकर यह नह मान लेना
चा हए क वह बलवान है।
चाण य के अनुसार व ाथ को व ा क ा त के समय घर से मोह नह रखना
चा हए। य द वह घर के मोह म फंसा रहेगा तो उसे व ा ा त नह होगी। उनका कहना है
क को जतना भी समझाया जाए, वह ही रहता है, उसका स जन बनना
उसी कार असंभव है, जैसे नीम के पेड़ को ध, घी, चीनी आ द से स चने पर भी उसम
मठास पैदा नह क जा सकती। इसी संबंध म वे आगे कहते ह क जस मनु य का
अंतःकरण शु नह , य द वह अनेक बार तीथया ा भी करता है तो भी वह प व नह हो
सकता।
आचाय का मानना है क गुण क े ता को समझना येक के बस क बात
नह है। जो उसके गुण को नह समझता, वह उसक नदा करने लगता है। व ाथ के लए
कुछ और हदायत दे ते ए चाण य कहते ह क व ाथ को काम, ोध, लोभ, मोह, खेल-
तमाशे और शृंगार तथा अ धक सोने से बचना चा हए। य क ये गुण ह और इनसे उसके
मन म व ेप पैदा होता है। इनसे उसक ऊजा का य होता है, जससे एका ता पर असर
पड़ता है। ा ण, य आ द वण के संबंध म बताते ए चाण य कहते ह क जो
कंदमूल फल खाकर अपना जीवन बताता है, जो त दन पतर का ा करता है, ऐसे
ा ण को ऋ ष कहा जाता है। इस कार ऋ ष वह है जो संयमी है और अपने पूवज के
त जसके मन म स मान का भाव है। जो एक समय के भोजन से संतु रहता है
तथा अ ययन-अ यापन का काम करता है, उसे ज कहते ह। जो ा ण संसार के काम
म लगा आ है और पशुपालन, खेती आ द करता है, उसे वै य कहा जाता है। जो ा ण
क सेवा करता है और शराब, मांस आ द बेचकर अपनी जी वका चलाता है, उसे शू कहते
ह। उनका कहना है क ा ण का कत यह है क वह अ य लोग के काय क स म
उनक सहायता करे, सर से छल-कपट न करे। जो ा ण सावज नक थल , जैस— े
बावड़ी, कुआं, तालाब, मं दर और पाक आ द को अप व करता है, वह ले छ है।
जो ा ण और व ान के धन को चुरा लेता है, सर क य का स मान नह
करता और सभी कार के लोग के साथ जीवन बता लेता है, वह ा ण न होकर चा डाल
है।
अंत म, चाण य कहते ह क स जन और महा मा धन को कभी इकट् ठा नह
करते, वे उसे दान दे ने क व तु समझते ह, वे इसका योग धम ारा यश ा त के लए
करते ह जब क कंजूस धन का योग अपन पर और वयं पर भी नह करते। ऐसा धन न
हो जाता है। तब कंजूस के पास पछतावा करने के अलावा कुछ नह बचता। के धन क
ग त भी वषय के भोग म होती है। वषय भोग णक होने के कारण अपना फल भी उसी
प म दे ते ह। वह सुख- ख दे ते ह।
।। अथ ादशोऽ यायः ।।
बारहवां अ याय
बु मान मनु य को भोजन ा त के संबंध म चता नह
करनी चा हए, उसे केवल धम-कम के संबंध म चतन करना
चा हए, य क मनु य के ज म के समय ही भोजन का बंध
हो जाता है।
सान दं सदनं सुता सु धयः का ता याला पनी
इ छापू तधनं वयो ष तर तः वाऽऽ ापराः
सेवकाः
आ त यं शवपूजनं त दनं म ा पानं गृहे
साधोः संगमुपासते च सततं ध यो गृह थाऽऽ मः।।
उसी का घर सुखी हो सकता है, जसके पु और पु यां अ छ बु से यु ह ,
जसक प नी मृ भा षणी हो, जसके पास प र म हो, ईमानदारी से पैदा कया आ धन
हो, अ छे म ह , अपनी प नी के त ेम और अनुराग हो, नौकर-चाकर आ ा का पालन
करने वाले ह । जस घर म अ त थय का आदर-स मान होता है, क याणकारी परमे र क
उपासना होती है, घर म त दन अ छे मीठे भोजन और मधुर पेय क व था होती है,
सदा स जन पु ष का संग अथवा संग त करने का अवसर मलता है, ऐसा गृह थ आ म
ध य है, शंसा के यो य है। ।।1।।
आदश गृह थ का प- व प कैसा होना चा हए, इस ओर आचाय ने इस ोक म
प प से इशारा कया है।
आतषु व ेषु दया वत यत् या व पमुपै त
दानम्।
अन तपारं समुपै त राजन् यद्द यते त लभेद ्
जे यः।।
दयालु और क णा से यु मनु य खी ा ण को ा से जो कुछ भी दान दे ता
है। हे राजन्! वह दान दे ने वाले को उतना ही ा त नह होता है, भु क कृपा से उसम
काफ वृ होती है और वह दान दे ने वाल को भली- कार मलता जाता है। ।।2।।
कबीर आ द अनेक संत ने भी इस बात क पु क है क ‘दान दए धन न घटे ’,
अथात दान करने से दान दे ने वाले के धन म कमी नह आती ब क उसम पु य के प म
वृ ही होती है।
दा यं वजने दया परजने शाठ् यं सदा जने
ी तः साधुजने मयः खलजने व जने चाजवम्।
शौय श ुजने मा गु जने नारीजने धृ ता
इ थं ये पु षाः कलासु
कुशला ते वेवलोक थ तः।।
अपने ब धु-बा धव के साथ वही सुख से रह सकता है, जो उनके साथ
स जनता और न ता का वहार करता है, सरे लोग पर दया और जन के त भी
उनके अनुकूल वहार करता है, स जन लोग से जो ेम रखता है, के त जो कठोर
होता है और व ान के साथ सरलता से पेश आता है। जो श शाली लोग के साथ
शूरवीरता और परा म से काम लेता है, गु , माता- पता और आचाय के त जो
सहनशीलतापूण वहार रखता है तथा य के त अ धक व ास न करके जो उनके
त चतुराईपूण वहार करता है, वही कुशलतापूवक इस संसार म रह सकता है। ।।3।।
ह तौ दान वव जतौ ु तपुटौ सार वत ो हणौ
ने े साधु वलोकनेन र हते पादौ न तीथ गतौ।
अ याया जत व पूणमुदरं गवण तुंगं शरो
रे रे ज बुक मु च मु च सहसा न ं सु न ं
वपुः।।
जसके दोन हाथ कभी दान आ द के काय म नह लगे अथात जसने जीवन म
कभी दान न दया हो, कान से वेद आ द शा का वण नह कया अथात उनसे े ष
करता रहा हो, अपने दोन ने से स जन पु ष के दशन नह कए, पैर से तीथया ा नह
क , माता- पता तथा आचाय क सेवा के लए जो उनके पास कभी नह गया, जसने
अ याय से धन इकट् ठा करके अपनी आजी वका चलाई, इतने पर भी जो आदमी अ भमान
से सर ऊंचा उठाकर चलता है, ऐसे के लए चाण य कहते ह क हे गीदड़ के समान
नीच मनु य! तू तो नीच लोग से भी नीच है, तू अ यंत नदनीय है, इस लए जतनी ज द हो
सके, इस नीच शरीर को याग दे अथात तेरे इस कार के जीवन से तेरा मर जाना अ त
उ म है। ।।4।।
प ं नैव यदा करीर वटपे दोषो वस त य क
नोलुकोऽ यवलोकते य द दवा सूय य क षणम्।
वषा नैव पत त चातकमुखे मेघ य क षणं
य पूव व धना ललाट ल खतं त मा जतुं कः
म:।।
य द करील नामक पौधे पर प े नह नकलते, तो इसम वसंत ऋतु का या दोष है?
य द उ लू को दन म दखाई नह दे ता तो इसम सूय का या दोष है? य द चातक क च च
म वषा का पानी नह टकता तो इसम बादल का या दोष है? संसार को बनाने वाले ा ने
मनु य के भा य म जो कुछ लख दया है, उसे कोई भी नह मटा सकता, वह उसे अव य
भोगना पड़ता है। ।।5।।
चाण य यहां कहते ह क जसके भा य म जो कुछ लखा है, उसे कोई नह मटा
सकता। ले कन आचाय भा यवाद भी नह ह!
स संगाद्भव त ह साधुता खलानां साधूनां न ह
खलसंगमा खल वम्।
आमोदं कुसुम-भवं मृदेव ध े मृदग् धं न ह
कुसुमा न धारय त।।
स जन के स संग से जन मनु य भी स जन हो सकता है, परंतु स जन पु ष म
क संग त से ता वैसे ही नह आती जैसे फूल से उ प होने वाली सुगंध मट् ट म तो
आ जाती है, परंतु मट् ट क गंध फूल म नह आ पाती है। ।।6।।
इसका अथ यह है क जसका जो वा त वक वभाव है, उसम प रवतन नह होता
अथात ऐसा वभाव जो प रवतनशील नह है, े माना जाता है। का स जन के संग से
स जन बन जाना और के संग से स जन का स जन ही बने रहना इस बात क पु
करता है क स जनता मनु य का स चा वभाव है।
साधूनां दशनं पु यं तीथभूता ह साधवः।
कालेन फलते तीथ स ः साधुसमागम:।।
स जन पु ष के दशन से पु य ा त होता है, य क साधु पु ष अपने आपम
सा ात् तीथ व प होते ह। तीथ तो अपने समय के अनुसार ही फल दे ता है, परंतु साधु
का संग करने से ज द ही मन क आशाएं पूण हो जाती ह। ।।7।।
व ाऽ म गरे महान् कथय क ताल माणां गणः
को दाता रजको ददा त वसनं ातगृही वा न श।
को द ः परदार व हरणे सवऽ प द ो जनः
क मा जीव स हे सखे वषकृ म यायेन
जीवा यहम्।।
कोई राही अथवा या ी कसी नगर म प ंचकर कसी ा ण से पूछता है क हे
ा ण! मुझे बताओ क इस नगर म कौन सबसे अ धक महान है? उस ा ण ने उ र
दया, ताड़ के वृ का झुंड। या ी ने फर कया क इस नगर म दाता कौन है? उसे
उ र मला, धोबी ही यहां का सबसे बड़ा दाता है, जो ातःकाल कपड़े धोने अथवा रंगने के
लए ले जाता है और सायंकाल के समय लौटा दे ता है। या ी ने फर पूछा क इस नगर म
चतुर कौन है? तो ा ण ने उ र दया क इस नगर के सभी सर का धन
और उनक ी का हरण करने म चतुर ह। या ी ने फर पूछा क ऐसी अव था म तु हारा
जीवन यहां कैसे बीतता है? ा ण ने उ र दया क म वष म पैदा होने वाले क ड़े के
समान ं, जो उसी म उ प होता है ले कन फर भी वष के भाव से मु रहता है। वष का
उस पर कोई असर नह होता। म उसी कार इन लोग के साथ अपना जीवन बता रहा ं।।
8।।
तकूल प र थ तय म जीने का सू है यह वष कृ म याय।
न व पादोदककदमा न न
वेदशा व नग जता न।
वाहा- वधाकार- वव जता न मशानतु या न
गुहा ण ता न।।
जन घर म ा ण के पांव धोने वाले जल से क चड़ न आ हो, जहां वेद आ द
शा के पाठ न होते ह , जसम वाहा और वधा इन श द का उ चारण न होता हो, वे घर
मशान के समान ह। ।।9।।
जन घर म ा ण का आदर-स कार नह होता, जहां वेद आ द शा क वन
नह गूंजती, जस घर म अ नहो अथात् होम आ द शुभकम नह होते ह, उसे मशान के
समान समझना चा हए। वह घर मुद का नवास थान ही माना जाएगा। वहां जीवनी श
नह होती।
स यं माता पता ानं धम ाता दया वसा।
शा तः प नी मा पु ः षडेते मम बा धवाः।।
कसी सांसा रक पु ष ने कसी संत-महा मा को अ यंत आनंद क थ त म दे खकर
उनसे उनके बंध-ु बांधव के बारे म पूछा, तो संत ने उ र दया-स य ही मेरी माता है और ान
मेरा पता है, धम ही मेरा भाई है और दया मेरी बहन है, शां त मेरी प नी है और मा और
सहनशीलता मेरे पु ह, यह छह ही मेरे प रवार के सद य ह, मेरे ब धु-बा धव ह, मेरे
र तेदार ह। ।।10।।
अ न या न शरीरा ण वभवो नैव शा तः।
न यं स हतो मृ युः कत ो धमसं हः।।
यह शरीर अ न य है अथात नाशवान है, धन-स प भी सदा कसी के पास थर
नह रहती, मृ यु सदै व येक के पास रहती है, इस लए येक को धमाचरण करना
चा हए। ।।11।।
मनु य जानता है क जसने इस संसार म ज म लया है, वह मरेगा अव य। धन भी
कसी के पास सदा थर नह रहता। सबको इस संसार से एक दन वदा लेनी है, इस लए
उसका कत है क वह इस संसार म धमाचरण ारा धम का संचय करे, य क धम ही
मनु य क मृ यु के बाद उसका साथ दे ता है। अपने अ छे आचरण के कारण संसार म उसे
याद कया जाता है।
आम णो सवा व ा गावो नवतृणो सवाः।
प यु साहयुता नायः अहं कृ णरसो सवः।।
कसी ा ण के लए भोजन का नमं ण मलना ही उ सव है। गौ के लए ताजी
नई घास ा त होना ही उ सव के समान है। प त म उ साह क वृ होते रहना ही य के
लए उ सव के समान है। और मेरे लए? मेरे लए तो ीकृ ण के चरण म अनुराग ही उ सव
के समान है। ।।12।।
मातृवत् परदारां पर ा ण लो वत्।
आ मवत् सवभूता न यः प य त स प य त।।
जो सरी य को माता के समान दे खता है, सर के धन को मट् ट के
ढे ले के समान समझता है और संसार के सभी ा णय को अपनी आ मा के समान दे खता
है, वा तव म वही यथाथ को दे खता है। ।।13।।
जो सर क य को अपनी माता के समान आदर दे ता है, सर के धन
अथवा उनके ह से को हड़पने क इ छा नह करता और सभी ा णय के साथ वह उसी
कार का वहार करता है जैसा अपने साथ वहार कए जाने क इ छा रखता है, ऐसा
ही बु मान है अथात उसका इस कार का आचरण ही उसे े बनाता है। आचाय
के अनुसार, कसे कैसे दे खना है, इसे वह जानता है।
धम त परता मुखे मधुरता दाने समु साहता
म ेऽव चकता गुरौ वनयता च ेऽ त ग भीरता।
आचारे शु चता गुणे र सकता शा ेषु व ानता
पे सु दरता शवे भजनता स वेव सं यते।।
धम म नरंतर लगे रहना, मुख से मीठे वचन बोलना, दान दे ने म सदै व उ सुक रहना,
म के त कोई भेद-भाव न रखना, गु के त न ता और अपने दय म गंभीरता, अपने
आचरण म प व ता, गुण के हण करने म च, शा का वशेष ान, प म स दय और
भु म भ आ द का होना—ये गुण स जन पु ष म ही दखाई दे ते ह। ।।14।।
का ं क पत ः सुमे रचल ताम णः तरः
सूय ती करः शशी यकरः ारो ह वारा धः।
कामो न तनुब ल द तसुतो न यं पशुः कामगौ-
नतां ते तुलया म भो रघुपते क योपमा द यते।।
सबक कामना क पू त करने वाला क पवृ लकड़ी है, सुमे एक पवत है,
चता को र करने वाली म ण— चताम ण एक प थर है, सूय भयंकर प से चंड
करण वाला है, चं मा क कलाएं ीण होती रहती ह, समु खारा है, कामदे व का कोई
शरीर नह , दानशील ब ल दै य ह, कामधेनु अथात सबक इ छा पूण करने वाली गाय एक
पशु है, म इन सबको आपके समान अथात आपके बराबर नह समझता। हे भु राम!
आपक तुलना कसके साथ क जाए? अथात् आप अतुलनीय ह। ।।15।।
वनयं राजपु े यः प डते यः सुभा षतम्।
अनृतं ूतकारे यः ी यः श ेत् कैतवम्।।
सभी थान से कुछ न कुछ सीख सकता है। उसे राजपु से न ता और
सुशीलता, व ान से य वचन बोलना, जुआ रय से म या-भाषण अथात सही थ त का
पता न लगने दे ना और य से छल करना सीखना चा हए। ।।16।।
इस संसार म कुछ भी ऐसा नह है, जो उपयोगी न हो। बस उसका सही समय पर,
सही तरह से उपयोग आना चा हए। म या भाषण और छल भी जीवन म उपयोगी होते ह।
इनका उपयोग उ ह के त कर, जो आपको इनम उलझाएं। लोहे को लोहा ही काटता है।
अनालो य यं कता नाथः कलह यः।
आतुरः सव े ेषु नरः शी ं वन य त।।
जो बना वचारे और बना दे खे श से अ धक खच करता है, नबल होने
पर भी जो लड़ाई-झगड़े म च रखता है, सभी वण क य से जो संभोग के लए
उतावला रहता है, वह ज द ही न हो जाता है। ।।17।।
नाहारं च तयेत् ा ो धममेकं ह च तयेत।्
आहारो ह मनु याणां ज मना सह जायते।।
बु मान मनु य को भोजन ा त के संबंध म चता नह करनी चा हए, उसे केवल
धम-कम के संबंध म चतन करना चा हए, य क मनु य के ज म के समय ही भोजन का
बंध हो जाता है, ार ध ारा कर दया जाता है। ।।18।।
बु मान खानपान क चता कए बना धम-काय म लगे रहते ह। कत का
नवाह करने वाले क इ छाएं कृ त पूरी करती है।
आचाय के इस कथन से उ ह भा यवाद मानने क भूल नह करनी चा हए। यहां
आचाय यह कहना चाह रहे ह क को अपने कत का करना चा हए। कत क
दशा य द सही हो, तो उसक कामना क पू त सहज म होने लगती है। कई संत -
महापु ष का जीवन इस कथन क पु करता है।
जल ब नपातेन मशः पूयते घटः।
स हेतुः सव व ानां धम य च धन य च।।
जैसे बूंद-बूंद से घड़ा भर जाता है, उसी कार नरंतर इकट् ठा करते रहने से धन,
व ा और धम क ा त होती है। ।।19।।
वयसः प रणामेऽ प यः खलः खल एव सः।
सुप वम प माधुय नोपयाती वा णम्।।
जो है, वह प रप व अव था का हो जाने पर भी ही बना रहता है,
जैसे इं ायण का फल पक जाने पर भी मीठा नह होता, कड़वा ही बना रहता है। ।।20।।
यह आव यक नह है क आयु के बढ़ने के साथ-साथ अपने वभाव म भी
प रवतन कर सके। अ धकांश , जो और जन होते ह, अपने जीवन क अं तम
थ त तक ही बने रहते ह। उनके जीवन म कोई वशेष प रवतन नह आता। जस
कार इं ायण नामक फल पूरी तरह पक जाने पर भी कड़वा ही रहता है, उसी कार मनु य
अपने वभाव को छोड़ने म असमथ रहता है।

अ याय के ारंभ म चाण य उस गृह थ को सुखी बताते ह, जसके घर म मंगल


काय होते रहते ह। जसक संतान बु मान हो, प नी मधुरभा षणी हो, जसने स कम से
धन क ा त क हो, जसके म समय पर उसका साथ दे ने वाले ह , नौकर आ द उसक
आ ा का पालन करने वाले ह , जहां अ त थय का वागत-स कार होता हो, जो गृह थ
नत- नयम से भु क उपासना करता हो और जस घर म त दन े , वा द भोजन
बनता हो, ऐसी गृह थी ही शंसनीय होती है अथात ऐसा गृह थ सदै व सुखी रहता है।
दान का मह व बताते ए चाण य ने अनेक थान पर कहा है क दान दे ने से धन
क कमी नह होती। हां, यो य और व ान ा ण को ही दान दे ना चा हए, य क ऐसे
को दया आ दान कई गुना होकर मलता है। असल म दे खा जाए तो धन का दान
करना तो इस लए भी लाभ द है य क ऐसा करके यश और पु य क ा त करता
है, जो धन क अपे ा ब त यादा समय तक रहने वाली है।
इस संसार म न य ऐसे कम होते ह, जनसे कसी के न होने का भय-सा बना
रहता है। जस ने अपने हाथ से कभी दान नह दया, कान से कभी शा वचन नह
सुने, आंख से कभी स जन य के दशन नह कए और जो कभी तीथ पर भी नह
गया, चाण य कहते ह क ऐसा जीवन थ है।
होनी बड़ी बल होती है, यह बात सभी जानते ह। अपनी होनी अथवा भा य के
कारण करील के वृ पर प े नह होते तो इसके लए वसंत को दोषी नह माना जा सकता,
य द उ लू को दन म दखाई नह दे ता तो उसम सूय का या अपराध है, इस लए जो कुछ
भा य म लखा है, उसके त कसी को दोष दे ना उ चत नह । एक ब त ही उपयु
उदाहरण दे कर आचाय चाण य ने कहा है क के पास रहने से भी स जन
अपनी स जनता का याग नह करता, जब क स जन क संग त म आकर स जन बन
सकता है। स जन के संबंध म आचाय का कहना है क उनके दशनमा से पु य फल क
ा त होती है, परंतु जहां कोई स जन पु ष नह होता, वहां का जीवन भी वष के उस
क ड़े के समान होता है, जो वष म ही उ प होता है और वष म ही मरता है। इस ोक
का आशय यह भी हो सकता है क जस कार वष का क ड़ा वष से अ भावी रहता है,
उसी कार म रहने पर भी स जन गुण से कोस मील र रहता है।
चाण य ने आदश घर उसे माना है, जहां ा ण का स मान होता है, उनक सेवा
होती है, जहां वेद मं और शा क व न गूंजती रहती है और अ नहो से वातावरण
सुगं धत रहता है। जहां यह सब नह होता, ऐसा धम-कम र हत घर मशान के समान होता
है। ऐसे घर म नकारा मक ऊजा का नवास हो जाता है। चाण य कहते ह क मनु य को
चा हए अ य बात क ओर से यान हटाकर अपना मन धम के काय म लगाए।
आचाय के अनुसार, जो सर क ी को माता के समान दे खता है, सरे के
धन को तु छ समझता है और सब ा णय को अपने समान मानता है, सदै व धम म लगा
रहता है, कटु वचन नह बोलता, जसम दान क वृ होती है, म से जो कसी कार
का छल-कपट नह करता, गु के त जो न रहता है, जसका अंतःकरण समु के समान
गंभीर है, जो आचरण म प व , शा को जानने वाला और हर समय भु को याद रखने
वाला है, वही स जन है।
भगवान राम के संबंध म चाण य कहते ह क वे क पवृ से भी े ह, सुमे पवत
से भी अ धक धनी ह, उनका तेज सूय से भी अ धक है, वे कामधेनु से भी अ धक
मनोकामनाएं पूरी करने वाले ह, इस लए उनक उपासना करनी चा हए।
इन ोक से लगता है क आचाय चाण य भगवान ीराम के मयादा पूण जीवन
तथा नी तय से भा वत थे।
।। अथ योदशोऽ यायः ।।
तेरहवां अ याय
जस कार हजार गाय म बछड़ा केवल अपनी मां के ही
पास आता है, उसी कार जो कम कया जाता है, वह कम
करने वाले के पीछे -पीछे चलता है।
मु तम प जीवे च नरः शु लेन कमणा।
न क पम प क ेन लोक य वरो धना।।
मनु य को य द एक मु त अथात 48 मनट का जीवन भी मले तो उसे उ म और
पु य काय करते ए जी वत रहना चा हए, य क ऐसा ही जीवन उ म है, परंतु इस लोक
और परलोक म कम करते ए हजार वष जीना भी थ है। ।।1।।
चाण य का भाव यह है क मनु य का जीवन ब त भा य से मलता है। य द जीवन
ब त छोटा भी हो तो भी उसे अ छे कम करते ए जी वत रहना चा हए। बुरे काम करते ए
हजार साल का जीवन भी थ है। मनु य का धम है क अ छे कम करता आ अपने
जीवन को बताए। आयु क साथकता शुभ कम से है।
गते शोको न कत ो भ व यं नैव च तयेत।्
वतमानेन कालेन वत ते वच णाः।।
जो बात बीत चुक ह, उन पर शोक नह करना चा हए और भ व य क भी चता
नह करनी चा हए। बु मान लोग वतमान समय के अनुसार काय म लगे रहते ह। ।।2।।
को चा हए वह बीती ई बात पर शोक करने म थ समय न गंवाए। उसे
इस बात क भी चता नह करनी चा हए क आगे या होने वाला है। अतीत हाथ से नकल
चुका है, तो भ व य क केवल क पना क जा सकती है। इस लए बु मान को
वतमान थ तय के अनु प अपने काम म लगे रहना चा हए। इससे बीते कल म ई भूल
को ठ क कया जा सकता है और आने वाले कल को एक उ म आधार दया जा सकता है।
वभावेन ह तु य त दे वाः स पु षाः पता।
ातयः नानपाना यां वा यदानेन प डताः।।
दे वता, स जन और पता वभाव से संतु होते ह, ब धु-बा धव अ छे खानपान से
जब क पं डत ( ववेकशील) मधुर भाषण से ही स हो जाते ह। ।।3।।
दे वता, स जन और पता केवल के वभाव को दे खते ह। पता अपने
पु के वभाव से ही स होता है। र तेदार, ब धु-बा धव अ छे खानपान से खुश रहते ह
अथात य द उनक खानपान से अ छ आवभगत क जाए तो वह स रहते ह और व ान
मीठ बात से ही स हो जाते ह। इसी बात को कुछ इस तरह भी कहा जा सकता है।
दे वता, स जन और पता अपने पूजक और संत त से सदा ही संतु रहते ह।
अहो बत व च ा ण च रता न महाऽऽ मनाम्।
ल म तृणाय म य ते तद्भारेण नम त च।।
महा मा और स जन का च र बड़ा व च होता है। वे धन को तनके के समान
समझते ह, परंतु तब उसके भार से वह झुक जाते ह, अथात वन बन जाते ह जब वह
आता है। ।।4।।
स जन धन को तनके के समान अथात् अथहीन समझते ह, परंतु य द इनके पास
धन आ जाए तो वे और भी न हो जाते ह अथात धन के आने पर भी उ ह अ भमान नह
होता। वे उसी कार झुक जाते ह, जस कार फल से लदे ए वृ क टह नयां नम हो
जाती ह।
य य नेहो भयं त य नेहो ःख य भाजनम्।
नेहमूला न ःखा न ता न य वा वसे सुखम्।।
जसका कसी के त नेह अथवा म े होता है, उसी से उसको भय भी होता है।
नेह अथवा ेम ही ख का आधार है। नेह ही सारे ख का मूल कारण है। इस लए उन
नेह ब धन को यागकर सुखपूवक रहने का य न करना चा हए। ।।5।।
अनागत वधाता च यु प म त तथा।
ावेतौ सुखमेधेते यद्भ व यो वन य त।।
आने वाले क को र करने के लए जो पहले से ही तैयार रहता है और जो वप
आने पर उसे र करने का उपाय सोच लेता है, ये दोन कार के अपने सुख क वृ
करते ह अथात सुखी रहते ह तथा जो यह सोचता है क जो भा य म लखा है वही होगा,
ऐसा न हो जाता है। ।।6।।
चाण य ने कहा है क संकट आने से पूव जो बचाव का उपाय कर लेता है
और जो संकट आने पर त काल आ मर ा का उपाय कर लेता है—ये दोन सुख से जीवन
बताते ह, परंतु जो भा य के लखे के अनुसार सोचता है क दे खा जाएगा, वह न हो जाता
है।
रा ध म ण ध म ाः पापे पापाः समे समाः।
राजानमनुवत ते यथा राजा तथा जाः।।
राजा के धमा मा होने पर जा भी धा मक आचरण करती है। राजा के पापी होने
पर जा भी पाप म लग जाती है। राजा उदासीन रहता है, तो जा भी उदासीन रहने लगती
है, य क जा वैसा ही आचरण करती है, जैसा राजा करता है। ।।7।।
जीव तं मृतव म ये दे हनं धमव जतम्।
मृतो धमण संयु ो द घजीवी न संशयः।।
चाण य कहते ह क म धम से र हत अधम को जी वत रहने पर भी मरे ए
के समान समझता ं। जब क धमयु मनु य मृ यु के बाद भी जी वत रहता है, इस बात म
कसी कार का स दे ह नह । ।।8।।
मृ यु के बाद धा मक के जीने का अथ यह है क क क त, उसका
यश, उसके अ छे काय के कारण अमर रहते ह। अधा मक तो जी वत रहता आ भी
मरे के समान है य क न तो उसे कोई पूछता है और न ही उसका समाज म कोई स मान
होता है।
धमाथकाममो ाणां य यैकोऽ प न व ते।
अजागल तन येव त य ज म नरथकम्।।
जस मनु य के पास धम, अथ, काम और मो इन चार म से एक चीज भी नह है,
उसका ज म बकरी के गले म लटकते ए तन के समान नरथक होता है। ।।9।।
द मानाः सुती ेण नीचाः परयशोऽ नना।
अश ा त पदं ग तुं ततो न दां कुवते।।
नीच मनु य सरे के यश को बढ़ता आ दे खकर उसक यश पी क त से
जलते ह और जब उस पद को ा त करने म असमथ रहते ह, तब उस क नदा करने
लगते ह। ।।10।।
सरे को तर क करता दे खकर उससे जलने लगते ह। उसक क त पी
आग उ ह जलाती रहती है। जब वे उस क त को ा त करने म असमथ रहते ह, तब उस
क नदा करने लगते ह।
ब धाय वषयाऽऽस ं मु यै न वषयं मनः।
मन एवं मनु याणां कारणं ब धमो योः।।
मनु य अपने वचार के कारण ही अपने आपको ब धन म फंसा आ मानता है
और अपने वचार के कारण ही अपने आपको बंधन से मु समझता है। वषय-वासनाएं
ही मनु य के बंधन के कारण ह और वषय-वासना से मु होकर ही मनु य को मो
ा त होता है। ।।11।।
दे हा भमाने ग लते व ाते परमा म न।
य य मनो या त त त समाधयः।।
अपने शरीर के अ भमान से न हो जाने पर, अपने आपको परमा मा से यु जान
लेने पर मन जहां-जहां जाता है, वहां-वहां ही उसे समा ध से यु समझना चा हए। ।।12।।
मनु य क आ मा और दे ह दोन अलग ह—जब को इस बात का ान हो
जाता है तब उसका शरीर संबंधी अ भमान न हो जाता है, यही उसक समा ध अव था है।
ई सतं मनसः सव क य स प ते सुखम्।
दै वाऽऽय ं यतः सव त मा स तोषमा येत्।।
मनु य के मन क सभी इ छाएं कभी भी पूण नह होत , य क वे सभी भा य के
अधीन ह, इस लए मनु य को अपने जीवन म संतोष धारण करना चा हए। ।।13।।
यथा धेनुसह ेषु व सो ग छ त मातरम्।
तथा य च कृतं कम कतारमनुग छ त।।
जस कार हजार गाय म बछड़ा केवल अपनी मां के ही पास जाता है, उसी कार
जो कम कया जाता है, वह कम करने वाले के पीछे -पीछे चलता है। ।।14।।
अनव थतकाय य न जने न वने सुखम्।
जने दह त संसग वने संग ववजनम्।।
बेढंगे काम करने वाले को न समाज म सुख मलता है, न ही जंगल म। ऐसे
को समाज म मनु य का संसग खी करता है जब क जंगल म अकेलापन। ।।15।।
अ व थत जीवन वाला कभी भी सुखी नह हो सकता।
यथा खा वा ख न ेण भूतले वा र व द त।
तथा गु गतां व ां शु ूषुर धग छ त।।
जैसे फावड़े से खोदने पर पृ वी से जल ा त होता है, वैसे ही गु क सेवा करने
वाला व ाथ व ा को ा त करता है। ।।16।।
कमाय ं फलं पुंसां बु ः कमानुसा रणी।
तथा प सु धय ाऽऽयाः सु वचायव कुवते।।
मनु य को कम के अनुसार ही फल मलता है और मनु य क बु भी कम के
अनुसार ही काय करती है। इतने पर भी बु मान और स जन भली-भां त सोच- वचार कर
ही काय करते ह। ।।17।।
मनु य जस कार का कम करता है, उसी के अनुसार उसे फल मलता है। गीता म
भी कहा गया है क मनु य को कम करना चा हए उसके फल क चता छोड़ दे नी चा हए।
इस लए यह और भी आव यक हो जाता है क मनु य सोच- वचार कर ही कम करे, बना
सोचे- वचारे काय करने से काय स नह होती और फल ा त क तो आशा ही नह क
जा सकती।
एका र दातारं यो गु ं ना भव द त।
ानयो नशतं भु वा चा डाले व भजायते।।
एका र मं दे ने वाले गु क जो वंदना नह करता, वह कु े क यो न म सौ बार
ज म लेकर फर चा डाल के घर उ प होता है। ।।18।।
एक अ र का अथ यहां दो कार से हो सकता है। एक अ र का ान दे ने वाला भी
इसका अथ कया जा सकता है। शा म ॐ को एका र कहा गया है। इ ह दान
करने वाला ही गु है। गु का जो आदर नह करता, वह चा डाल के समान है। शा म
कृत नता को ऐसा पाप माना गया है जसका कोई ाय नह होता।
युगा ते चलते मे : क पा ते स त सागराः।
साधवः तप ाथान् न चल त कदाचन।।
एक युग के अंत म सुमे पवत भी अपने थान पर थर नह रहता, क प के अंत म
समु भी अपनी सीमाएं लांघकर इस संसार को क म डाल दे ता है, परंतु े पु ष अपने
हाथ म लए ए काय को पूरा करने क त ा से वच लत नह होते। ।।19।।
इसका भाव यह है क कृ त के नयम भले ही बदल जाएं, पवत और समु भले ही
अपना थान छोड़ द, परंतु स जन य ने जस कसी काय क पू त के लए वचन
दया है, वह अव य उसे पूरा करते ह। वे अपने दए गए वचन से टलते नह , भले ही उ ह
इसके लए अपने ाण गंवाने पड़। राजा दशरथ ने अपने वचन का नवाह करने के लए ही
तो अपने ाण याग दए थे। वे जानते थे क राम के बना जी वत रहना संभव नह , फर भी
उ ह ने राम को वन म भेजा।
चाण य ने अनेक बार ‘मनु य’ क े ता को वीकार कया है। उनका कहना है क
य द मनु य-जीवन एक ण के लए भी ा त होता है तो उस काल म भी मनु य को े
कम करने चा हए और य द उसका जीवन एक युग से भी अ धक हो तो भी उसे बुरे कम म
ल त नह होना चा हए।
चाण य कहते ह क मनु य को चा हए क वह जो समय बीत चुका है, या जो आगे
आने वाला है, इसक चता छोड़कर वतमान क ओर ही यान दे । सम या का समाधान
उसी म न हत है।
मनु य क सफलता उसके वभाव पर नभर करती है। वह वभाव से ही स जन
पु ष और अपने माता- पता को स कर सकता है। महा मा का वभाव ही ऐसा होता
है क वे धन को तनके के समान तु छ समझते ह, य द उनके पास अ धका धक धन हो
जाए तो भी वे अ भमान नह करते, वे उसी कार न होकर झुक जाते ह, जस कार फल
से लद ई वृ क शाखा। आचाय का कहना है क अपने ब धु-बा धव के त कत पूरे
करते ए उनसे इतना अ धक लगाव नह बढ़ाना चा हए क उनके बछड़ने से क अनुभव
हो।
जो सदै व सतक रहते ह और समय आने से पूव ही आने वाले क को रोकने
के उपाय कर लेते ह, ऐसे अपना जीवन सुख से बता दे ते ह, परंतु जो भा य के भरोसे
रहता है, उसे क उठाना पड़ता है।
जैसा राजा वैसी जा, एक ब त पुरानी कहावत है। यह आचाय चाण य के समय
से ही स ई दखाई दे ती है। चाण य कहते ह क जस मनु य के जीवन म धम का
अभाव है, म उसको मृत के समान समझता ं और धमाचरण करने वाला मरने
के बाद भी जी वत रहता है।
इसी संबंध म आचाय कहते ह क जस ने धम, अथ, काम और मो इन
चार म से एक के लए भी पु षाथ नह कया तो समझो क उसका जीवन थ है। शा
धम, अथ और काम को पु षाथ मानते ह—मो उनक म परमपु षाथ है। यह संकेत
है क इन तीन क साथकता तभी है, जब सम त बंधन से जीव मु हो जाएगा।
जब कसी के बढ़ते ए यश को दे खता है तो वह उसक नदा करने
लगता है। भगवान ीकृ ण ने भी मनु य के मन को ही मनु य का सबसे बड़ा म और
सबसे बड़ा श ु बताया है, य क उसके वचार ही उसे संसार के मोह-माया म फंसाए रखते
ह, जो उसके लए बंधन के समान ह। योगी मन को वश म करके उसके सभी बंधन को काट
फकते ह।
मनु य के कम के संबंध म वे कहते ह क जस कार ब त-सी गौ म भी बछड़ा
अपनी मां को पहचान लेता है और उसी के पीछे -पीछे चलता है, उसी कार मनु य के कम
ही मनु य का साथ दे ते ह अथात वह जैसा काय करता है, उसके अनुसार ही उसको फल
भोगना पड़ता है।
कम के संबंध म चाण य आगे यह कहते ह क मनु य को कम के अनुसार ही फल
मलता है और उसक बु भी उसके ारा कए जाने वाले कम के अनुसार ही काय करती
है। इतने पर भी व ान और स जन सोच- वचार कर काय करते ह य क वे जानते
ह क कुछ ऐसा भी है, जसे बु ारा नई दशा द जा सकती है।
चाण य अंत म मनु य के वभाव का वणन करते ए कहते ह क स जन पु ष
अपने कत अथवा अपने वचन से कभी भी वमुख नह होते, जब क संकट आने पर बड़ी
से बड़ी ाकृ तक श यां भी मनु य का साथ छोड़ दे ती ह।
।। अथ चतुदशोऽ यायः।।
चौदहवां अ याय
दे खने वाले एक ही व तु को तीन कार से दे खते ह। योगी
उसे अ त- न दत शव के प म दे खते ह। कामी लोग सुंदर
नारी के प म दे खते ह और कु ा उसे एक मांस के लोथड़े
के प म दे खता है।
पृ थ ां ी ण र ना न जलम ं सुभा षतम्।
मूढैः पाषाणख डेषु र नसं ा वधीयते।।
इस पृ वी पर तीन ही र न ह—जल, अ और हतकारी वचन, परंतु मूख लोग
प थर के टु कड़े को र न कहते ह। ।।1।।
आ माऽपराधवृ य फला येता न दे हनाम्।
दा र य
् रोग ःखा न ब धन सना न च।।
द र ता, रोग, ख, बंधन तथा आप यां—ये सब मनु य के अधम पी वृ के
फल ह। ।।2।।
मनु य जैसे कम करता है, उसे वैसे ही फल क ा त होती है। मनु य क द र ता,
खी होना, रोग से यु रहना, सांसा रक बंधन म फंसे रहना और इसके साथ अनेक कार
क आप यां आ द आना, ये मनु य के कम के ही फल ह। इस लए मनु य का कत
यह है क वह शुभ कम करे, ता क उसका जीवन सुखपूवक बीते।
आचाय ने यहां कम के स ांत का ववेचन करते ए शुभ काय करने क ेरणा द
है य क यही सुख का साधन है।
पुन व ं पुन म ं पुनभाया पुनमही।
एत सव पुनल यं न शरीरं पुनः पुनः।।
धन भी पुनः ा त हो सकता है, म भी मल सकते ह, प नी भी फर से मल
सकती है। ये सब व तुएं मनु य को बार-बार ा त हो सकती ह, परंतु यह शरीर बार-बार
ा त नह हो सकता। ।।3।।
ब नां चैव स वानां समवायो रपु यः।
वषाधाराधरो मेघ तृणैर प नवायते।।
न त प से ब त से मनु य मलकर श ु को जीत सकते ह। मनु य का समुदाय
अथात उनका सगंठन श ु को जीतने म उसी कार सफल रहता है, जस कार इकट् ठे
कए ए तनके जल क धारा को रोक दे ते ह अथात घास-फूस का छ पर वषा के पानी से
र ा करता है। ।।4।।
यह बात दे खने-सुनने म ब त सामा य तीत होती है, परंतु यह है अ यंत मह वपूण।
जस प रवार म मतभेद होते ह, आपस म एकता नह होती, वह प रवार न हो जाता है।
इसी तरह जन प रवार म अथवा दे श के लोग म एकता है, मलकर काम करने क इ छा
है, वे भयंकर-से-भयंकर श ु को परा जत करने म समथ होते ह। वृ क एक शाखा को
कोई एक ब चा भी तोड़ सकता है, परंतु जब पतली-पतली शाखाएं इकट् ठ हो जाती ह तो
इ ह श शाली हाथी के लए तोड़ना भी क ठन हो जाता है—संघे श ः कलौ युगे।
जले तैलं खले गु ं पा े दानं मनाग प।
ा े शा ं वयं या त व तारं व तुश तः।।
जल पर तेल, के पास गु त वाता, सुपा को दया गया दान,
बु मान का शा ान ये सभी बात ऐसी ह, जो पूरी होने पर व तु क श अथात
वशेषता से बना कसी यास के वयं फैल जाती ह, इनका व तार हो जाता है। ।।5।।
पानी पर य द तेल क बूंद डाली जाएगी तो वह बूंद के प म न रहकर उस पर फैल
जाएगी, इसी कार के पास कोई रह य गु त नह रह सकता। सुपा को
दया आ दान और बु मान को दया गया शा ान, ये सब अपने आप अपनी
वशेषता के कारण चार ओर फैल जाते ह।
धमाऽऽ याने मशाने च रो गणां या म तभवेत।्
सा सवदै व त े चेत् को न मु येत ब धनात्।।
धा मक कथा आ द के सुनने के समय, मशान भू म म और रोगी होने पर मनु य के
मन म जो सद्बु उ प होती है, य द वह सदै व थर रहे तो मनु य संसार के बंधन से छू ट
सकता है। ।।6।।
जब मनु य धम संबंधी उपदे श सुनता है तो उसके मन म अ छे वचार का उदय
होता है। इसी कार जब मनु य कसी मृत के साथ मशान भू म म जाता है तो वह
समझता है क यह शरीर न र है, उस समय उसके मन म पाप से मु होने क सद्भावना
उ प होती है। ऐसे ही जब मनु य रोग त होता है तो वह भु को याद करता है और उस
समय सोचता है क वह ऐसा कोई काय नह करेगा, जससे उसे फर बीमार होना पड़े।
चाण य कहते ह क य द सदै व इसी कार सोचता रहे तो वह संसार के ब धन से
छू ट सकता है। परंतु होता यह है क जब मनु य धम सभा से उठ जाता है, मशान भू म से
लौट आता है और रोग से मु हो जाता है तो वह फर से संसार के उसी मोह-मायाजाल म
फंस जाता है। यही माया है।
उ प प ा ाप य बु भव त या शी।
ता शी य द पूव यात् क य न या महोदयः।।
कम करने के बाद प ा ाप करने वाले मनु य क बु जस कार क होती है,
वैसी बु य द पाप करने से पहले भी हो जाए तो सभी को मु ा त हो सकती है। ।।7।।
मनु य बुरा काय करने के बाद पछताता है, उसे अपने कए ए काय पर पछतावा
होता है। वह जानता है क उसने वह कया है, जो उसे नह करना चा हए। चाण य कहते ह
क य द कम करने से पहले ही मनु य के वचार वैसे ही हो जाएं जैसे प ा ाप के समय
होते ह, तो कोई भी कम न हो।
दाने तप स शौय वा व ाने वनये नये।
व मयो न ह कत ो ब र ना वसु धरा।।
दान, तप या, वीरता, व ान, वन ता और नी तवान होने म मनु य को सबसे बड़ा
होने का अ भमान नह करना चा हए, य क पृ वी अनेक अमू य र न से भरी ई है। ।।
8।।
र थोऽ प न र थो यो य य मन स थतः।
यो य य दये ना त समीप थोऽ प रतः।।
जो जसके दय म बसा आ है, वह य द ब त र है तो भी उसे र नह कहा जा
सकता और जो जसके दय म समाया आ नह है, वह ब त नकट रहने पर भी र तीत
होता है। ।।9।।
जन लोग म स चा ेम है, वे य द एक- सरे से ब त र रहते ह, तो भी उ ह र
नह मानना चा हए, परंतु जसने कसी के दल म घर नह कया, वह पास रहने से भी र
रहता है। आचाय के अनुसार, स चे ेम म री का कोई मह व नह है।
य य चा य म छे त त य ूयात् सदा यम्।
ाधो मृगवधं कतु गीतं गाय त सु वरम्।।
जसका बुरा करने क इ छा हो, उससे सदा मीठ बात करनी चा हए, जैसे शकारी
हरण को पकड़ने से पहले मीठ आवाज म गीत गाता है। ।।10।।
इस ोक म एक सामा य सांसा रक बात कही गई है। जो मन अपने पाप के कारण
कसी का अ हत चाहता है, वह पहले सदा मीठ -मीठ बात करता है। जस कार हरण
आ द का शकार करने से पहले शकारी मधुर आवाज म गीत गाता है, सांप को पकड़ने
वाला म त होकर बीन बजाता है। इस कार ये दोन मधुर वर के आकषण म बंधकर
शकारी के पास खुद आ जाते ह तो शकारी उ ह पकड़ लेता है। जब तक सरे म असुर ा
क भावना है, उसके मम थल पर आघात नह कया जा सकता।
चाण य कहते ह क अ हत करने क इ छा से मीठ -मीठ बात करते ह,
ऐसा करके वे पहले रझाते ह फर हा न प ंचाते ह। जुआरी पहले लाभ होने का लालच
दखाता है, जससे भोलाभाला उसके जाल म फंसकर बड़ी-सी रकम दांव म लगा
दे ता है और अपनी हा न कर बैठता है।
अ यास ा वनाशाय र था न फल दाः।
से वत ं म यभागेन राजा वह् नगु ः यः।।
राजा, अ न, गु और ी इनके पास हर समय नह रहना चा हए। ऐसा करने से
मनु य को हा न हो सकती है। परंतु इनसे र रहने से भी मनु य को कोई लाभ नह होता।
इस लए इनसे वहार करते समय को ब त सोच-समझकर बीच का रा ता अपनाना
चा हए—इसी को म यम माग कहते ह। ।।11।।
म यम माग का अथ है क को कसी व तु अथवा वचार म न तो अ धक
ल त होना चा हए और न ही उसका सवथा प र याग करना चा हए। म यम माग म दोन
छोर का प र याग करना पड़ता है और एक बीच का रा ता अपनाना पड़ता है। गौतम बु ने
इसी माग को अपनाने पर बल दया था। ीकृ ण इसे ‘सम व’ कहते ह। इसम अ त व जत
है।
अ नरापः यो मूखाः सपा राजकुला न च।
न यं य नेन से ा न स ः ाणहरा ण षट् ।।
अ न, जल, यां, मूख, सांप और राजप रवार का सेवन करते समय मनु य को
सदै व सावधान रहना चा हए, य क ये छह कभी भी मृ यु का कारण हो सकते ह। ।।12।।
स जीव त गुणा य य य य धमः स जीव त।
गुणधम वहीन य जी वतं न योजनम्।।
संसार म वही जी वत रहता है, जसम गुण और धम जी वत रहता है। गुण और धम
से र हत मनु य का जीवन थ है। ।।13।।
इस संसार म गुणी य के जीवन को े माना गया है, इस कार धमा मा
य का जीवन ही जीवन है, परंतु जस म न तो कोई गुण है और न ही धम,
उसका जीवन बलकुल थ है।
यद छ स वशीकतु जगदे केन कमणा।
परापवादस ये यो गां चर त नवारय।।
हे मनु य! य द तू कसी एक ही कम ारा सारे संसार को अपने वश म करना चाहता
है तो तू सर क नदा करने वाली अपनी वाणी को वश म कर ले अथात सर क नदा
करना छोड़ दे । ।।14।।
सर क नदा छोड़ने का अथ है अपनी आलोचना और सर के गुण को हण
करना। ऐसा करने वाला सहज प से व को जीत लेगा।
तावस शं वा यं भावस शं यम्।
आ मश समं कोपं यो जाना त स प डतः।।
जो अवसर के अनुकूल बात करना जानता है, जो अपने यश और ग रमा के अनुकूल
मधुर-भाषण कर सकता है और जो अपनी श के अनुसार ोध करता है, उसी को वा तव
म व ान कहा जाता है। ।।15।।
को अवसर के अनुकूल ही वा य का योग करना चा हए और उस समय
इस बात का सदै व यान रखना चा हए क इससे त ा बढ़े गी अथवा घटे गी। जो
समय के अनुकूल बात नह करता, जसे अपने मान-अपमान का कोई ान नह या जो य
भाषण अथवा मधुर-भाषण करना नह जानता, वह मूख है। जो समय के अनु प
बात करता है, अपनी श के अनुसार ोध करता है, वही प डत अथवा सब कुछ जानने
वाला व ान है।
एक एवं पदाथ तु धा भव त वी तः।
कुणपः का मनी मांसं यो ग भः का म भः भः।।
एक ही चीज को दे खने वाले ाणी तीन कार से दे खते ह। योगी उसे अ त- न दत
शव के प म दे खते ह, कामी लोग सुंदर नारी के प म दे खते ह और कु ा उसे एक मांस
के लोथड़े के प म दे खता है। भेद का है, व तु तो एक ही है। ।।16।।
‘जैसी , वैसी सृ ’ यह एक ावहा रक और दाश नक स ांत है। आचाय ने
सुंदर उदाहरण से इसक पु क है।
सु स मौषधं धम गृह छ ं च मैथुनम्।
कुभु ं कु ुतं चैव म तमा काशयेत्।।
बु मान को चा हए क स क ई औष ध, अपने ारा कए जाने वाले
धमाचरण, घर के दोष, ी के साथ संभोग, कुभोजन तथा सुने ए न दत वचन कसी के
सामने कट न करे। ।।17।।
ताव मौनेन नीय ते को कलै व
ै वासराः।
याव सवजनान ददा यनी वा वतते।।
जब तक सभी को आनंद दे ने वाली बसंत ऋतु आरंभ नह होती, तब तक कोयल
मौन रहकर अपने दन बता दे ती है अथात बसंत ऋतु के आने पर ही कोयल क कूक सुनाई
दे ती है। ।।18।।
इसका भावाथ है क को बड़े धैय से सही समय क ती ा करनी चा हए।
सही समय पर कही गई सही बात ही असरदार होती है।
धम धनं च धा यं च गुरोवचनमौषधम्।
सुगृहीतं च कत म यथा तु न जीव त।।
जीवन को सही से बताने के लए धम का आचरण, धन पैदा करना, अ का
संचय, गु के वचन का पालन, अनेक कार क औष धय का सं ह व धपूवक और य न
से करना चा हए। ।।19।।
मनु य को चा हए क धन, धम, अ , गु क कही ई बात और अनेक कार क
उपयोगी औष धयां का सं ह करता रहे। जो मनु य ऐसा नह करता, उसे जीवन म तरह-
तरह क क ठनाइय का सामना करना पड़ता है।
यज जनसंसग भज साधुसमागमम्।
कु पु यमहोरा ं मर न यम न यताम्।।
हे मनु य! के संग को याग दे और स जन पु ष का संग कर। दन-रात अ छे
काय कया कर, सदै व संसार को नाशवान समझकर परमे र का यान कया कर। ।।20।।
मनु य को जीवन म या करना चा हए और या नह , इसी का सू है मानो यह
ोक। नै तकता का सार-सं ेप न हत है इस ोक म।

इस अ याय म सामा य लोग के लए चाण य ने कुछ मह वपूण बात क ओर


यान आकृ कया है। वे कहते ह क इस पृ वी पर अ , जल और नी तयु बात—इन
तीन को ही मह वपूण मानना चा हए। उनके अनुसार, ये तीन चीज ही मनु य के लए र न के
समान ह अथात मनु य का इस संसार म इनके बना काय- ापार करना क ठन है। धनी से
धनी के लए और अ यंत नधन के लए अ और जल एक जैसा मह व रखते ह।
इसके साथ नी तयु मधुरवाणी इस लए आव यक है क इससे मनु य का क याण होता है।
आचाय ने आगे कहा है क य द द र है, रोगी है, खी है और बंधन तथा क म
पड़ा है तो यह सब उसके अधम पी काय का फल है। उनका कहना है क इस संसार म
जन व तु को हम ब त उपयोगी मानते ह, उनम से धन, म , ी, भू म तथा मकान
आ द मनु य को बार-बार मल सकते ह, परंतु मनु य जीवन ऐसा है जो बड़ी क ठनाइय से
ा त होता है। इस लए मनु य को चा हए क वह अपने जीवन को सफल बनाने का य न
करे, धमाचरण करे, न क हर समय संसार के भोग म फंसा रहकर अपने जीवन को थ
गंवा दे ।
ायः हर दे श के नवा सय के लए संग ठत रहना, ाचीनकाल से ही मह वपूण
आव यकता रही है, इस लए वे कहते ह क य द नबल से नबल रा संग ठत रहगे तो
अ यंत बलवान श ु को भी परा जत करना उनके लए संभव होगा। इसी संदभ म वे आगे
कहते ह क जीवन म कोई समय ऐसा भी आता है, जब मनु य जीवन क वा त वकता के
बारे म सोचने लगता है। मनु य जब कसी धम पदे श को सुनता है तो उसके मन म धमाचरण
क वृ जा त होती है। जब मनु य कसी को अपने कंधे पर लादकर मशान भू म म
जाता है तो उसे ऐसा तीत होता है क यह जीवन न र है और जब मनु य कसी रोग से
पी ड़त होता है तो ायः हाय-हाय करता आ भु को याद करता है। चाण य कहते ह क
य द मनु य सदा इसी कार के वचार मन म रखे तो वह संसार के बंधन से छू ट सकता है।
इसी संदभ म वे आगे कहते ह क मनु य जब कोई कम करता है तो उसके बाद वह
पछताने लगता है अथात उसक बु म एक प रवतन होता है। य द कम करने से पूव
मनु य क बु उस दशा म काय करे तो वह संसार के बंधन से छू ट सकता है।
मो ा त म बाधक काय क ओर संकेत करते ए आचाय का कहना है क
अ भमान मनु य को ले डू बता है। य द कोई यह समझता है क उसके जैसा तप वी,
दानी, शूरवीर और ानवान कोई सरा नह है तो यह उसका म है, य क संसार इतना
वशाल है क उसम एक से बढ़कर एक गुणी ह।
यहां एक सामा य-सी बात क ओर इशारा करते ए आचाय ने कहा है क समीपता
और री का संबंध दय से है न क थान से।
चाण य ने यहां ऐसी कूटनी तपूण बात कही है, जो कसी भी रा य के लए उपयु
हो सकती है। उनका कहना है क जो रा य आपको हा न प ंचाता है, य द आपम श से
उसका नवारण करने क यो यता नह है तो उससे म ता गांठकर, मधुर वहार का
दखावा करते ए बु पूवक श हीन कर दे ना चा हए।
वे आगे कहते ह क राजा, अ न, गु और ी आ द के न तो अ य त नकट जाना
चा हए और न ही इनसे अ यंत री रखनी चा हए। उदाहरण के लए सामा य-सी बात है क
यद अ न के अ धक समीप जाएगा तो वह जलकर भ म हो जाएगा। इसी लए
उ ह ने कहा है क इन सब व तु का उपयोग म यम री अथवा म यम अव था म करना
चा हए, य क य द इनके सेवन म सावधानी नह बरती जाएगी तो न होना न त है। वे
कहते ह क जो गुणी है, उसी का जीवन सफल है, जसम कसी कार का गुण नह ,
कोई वशेष बु नह , उसका जीवन थ है।
इसी संदभ म वे आगे कहते ह क मनु य य द संसार को अपने वश म करना चाहता
है तो उसे सर क नदा करना छोड़ दे ना चा हए। समझदार वही है, जो समय के
अनुकूल बात करता है, अपने मान-स मान के अनु प मधुर और य वचन बोलता है और
ोध करते समय इस बात का अनुमान कर लेता है क वह उसक श के अनु प है या
नह । इसी के साथ ही वे कहते ह क संसार क येक व तु को मनु य व भ कोण से
दे खते ह। ी का उदाहरण दे ते ए वे कहते ह क योगी ी के व प को घृणा क से
एक लाश के समान दे खता है। कामी उसे हर कार से सुंदर समझता है और कु े क
म वह एक मांस के लोथड़े अलावा कुछ नह है। सभी अपने भाव के अनुसार उसका
दशन करते ह, इसी लए इस कार क पर पर व भ ता दे खने म आती है। आगे चलकर
चाण य बताते ह क बु मान मनु य को चा हए वह अ छे कम, घर के दोष, ी से
सहवास और अपने संबंध म सुने ए न दत वचन को कभी कसी सरे के सम
कट न करे।
चाण य का कहना है क मनु य को क के समय मौन रहना चा हए। चीखने-
च लाने से कोई लाभ नह होता। उसे चा हए क वह सदै व धा मक काय म लगा रहे।
यथाश अ छे काय से धन का सं ह करता रहे। धन का सं ह भी समय के अनुकूल
समझा गया है। गु के क याणकारी वचन को संजोकर रखना अ यंत आव यक है। य द
इन चीज का सं ह नह करता तो उसका जीवन संकट म पड़ सकता है।
अंत म, वे मनु य को सुखी जीवन बताने के लए मागदशन करते ए कहते ह क
मनु य को क संग त छोड़ दे नी चा हए, उसको स जन के पास उठना-बैठना चा हए।
दन-रात उसे अ छे कम करते रहने चा हए और उसे यह बात यान म रखनी चा हए क यह
संसार अ न य है, इस लए उसे सदै व अपना मन भु के चतन म लगाए रखना चा हए।
।। अथ पंचदशोऽ यायः ।।
पं हवां अ याय
अ याय से कमाया आ धन अ धक से अ धक दस वष तक
कसी के पास ठहरता है और यारहवां वष ारंभ
होते ही याज और मूल स हत न हो जाता है।
य य च ं वीभूतं कृपया सवज तुषु।
त य ानेन मो ेण क जटाभ मलेपनैः।।
जसका दय ा णमा पर दया से पघल जाता है, उसे ान और मो ा त करने,
तथा जटाधारण और शरीर पर भ म लगाने क या आव यकता है? ।।1।।
जस के मन म ा णय के क को दे खकर दया के भाव आते ह, उसे ान
ा त करने और मो ा त करने के लए तप करने क आव यकता नह है। चाण य ने
मनु य के मन म दया के भाव को सभी धम से ऊंचा थान दया है।
एकमेवा रं य तु गु ः श यं बोधयेत।्
पृ थ ां ना त तद् ं यद्द वा चाऽनृणी भवेत।् ।
जो गु अपने श य को एक अ र ॐ अथात परमे र का ठ क से ान करवा दे ता
है, उस गु के ऋण से श य मु नह हो पाते। संसार म ऐसा कोई पदाथ नह , जसे गु
को सम पत करके श य गु के ऋण से मु हो सके। ।।2।।
खलानां क टकानां च वधैव त या।
उपान मुखभंगो वा रतो वा वसजनम्।।
जन और कांटे इन दो चीज से बचने के दो ही उपाय ह, या तो जूत से इनका मुंह
कुचल दया जाए, उसके अ त व को ही समा त कर दया जाए अथवा उनको र से ही
याग दया जाए। ।।3।।
चाण य कांटे और को एक ही ेणी म रखते ह। इनसे वहार करने के
भी वे दो माग बताते ह। य द श है, तो उसे कुचल द, अ यथा उससे बचकर नकल जाएं।
कुचै लनं द तमलोपसृ ं बह्वा शनं न ु रभा षणं
च।
सूय दये चा त मते शयानं वमु च त ीय द
च पा णः।।
गंदे कपड़े पहनने वाले, गंदे दांत वाले अथात दांत क सफाई न करने वाले, अ धक
भोजन करने वाले, कठोर वचन बोलने वाले, सूय उदय होने तथा सूया त के समय सोने वाले
को ल मी— वा य, स दय और शोभा याग दे ती है, भले ही व णु य न हो। ।।4।।
यज त म ा ण धनै वहीनं दारा भृ या
सु जना ।
तं चाथव तं पुनरा य ते अथ ह लोके पु ष य
बंधुः।।
जब मनु य के पास धन नह रहता तो उसके म , ी, नौकर-चाकर और भाई-बंधु
सब उसे छोड़कर चले जाते ह। य द उसके पास फर से धन-संप आ जाए तो वे फर
उसका आ य ले लेते ह। संसार म धन ही मनु य का ब धु है। ।।5।।
आचाय ने धन के ावहा रक प को बताते ए कहा है क इसी के इद- गद सारे
संबंध का ताना-बाना आ करता है। इसम कोई आ य नह !
अ यायोपा जतं ं दश वषा ण त त।
ा ते चैकादशे वष समूलं तद् वन य त।।
अ याय से कमाया आ धन अ धक से अ धक दस वष तक आदमी के पास ठहरता
है और यारहवां वष ारंभ होते ही याज और मूल स हत न हो जाता है। ।।6।।
अयु ं वा मनो यु ं यु ं नीच य षणम्।
अमृतं राहवे मृ यु वषं शंकरभूषणम्।।
समथ और श वान पु ष य द कोई अनु चत काय भी करता है तो उसे उ चत
समझा जाता है, जब क नीच पु ष ारा कया उ चत काय भी अनु चत कहलाता है।
उदाहरण के लए रा नामक दै य के लए अमृत भी मृ यु का कारण बन गया और शव के
लए वष भी उनके कंठ का आभूषण माना गया। वषपान के कारण उनक मृ यु नह ई,
ब क उ ह नीलकंठ कहा जाने लगा। ।।7।।
तद्भोजनं यद् जभु शेषं त सौ दं य यते
पर मन्।
सा ा ता या न करो त पापं द भं वना यः यते
स धमः।।
वा त वक भोजन वह है जो ा ण आ द को खला दे ने के बाद बचता है, अथात
गृह थ को चा हए क वह वयं भोजन करने से पहले ा ण को भोजन कराए, इसी कार
ेम और नेह उसे ही कहा जा सकता है जो पराय से कया जाता है, अपने ब धु-बा धव से
तो सभी ेम करते ह। बु म ा यह है क मनु य पाप कम करने से बचा रहे। धम वह है
जसम छल-कपट न हो। ।।8।।
अपन से कया जाने वाला ेम पूणतया ावहा रक होता है। इसी लए वह ढोया
जाता है। जब क पराये जससे अपने बन जाएं और बने भी रह, वही सही अथ म ेम है।
म णलु ठ त पादा े काचः शर स धायते।
य व यवेलायां काचः काचो म णम णः।।
कसी वशेष थ त म र न चाहे पैर म लुढ़कता रहे और कांच को सर पर धारण
कया जाए, परंतु जब बेचने अथवा लेने का समय आता है तो कांच को कांच और र न को
र न ही कहा जाता है। ।।9।।
इसका भाव यह है क कसी अयो य व तु अथवा को उ चत थान पर रखने
अथवा नयु करने से उसके मू य म कसी कार का प रवतन नह होता, परंतु जब
मू यांकन का समय आता है तो उनक वा त वक थ त का पता लग ही जाता है।
अन तशा ं ब ला व ाः अ प कालो
ब व नता च।
य सारभूतं त पासनीयं हंसो यथा
ीर मवा बुम यात्।।
वेद आ द शा अ यंत वशाल ह, वे ान के समु ह, व ाएं भी ब त सी ह, परंतु
मनु य क आयु सी मत है और उसके माग म क ठनाइयां भी ब त-सी आती ह, इस लए
उसके लए उ चत है क वह शा से सारभूत बात को उसी कार हण कर ले, जस
कार हंस पानी मले ध से ध हण कर लेता है। ।।10।।
रागतं प थ ा तं वृथा च गृहमागतम्।
अनच य वा यो भुं े स वै चा डाल उ यते।।
र से चलकर आने वाला या ी थका आ होता है, बना कसी वाथ के घर म आए
ए अ त थ क पूजा कए बना जो घर का वामी वयं भोजन कर लेता है, उसे न य ही
चा डाल कहा जाता है। ।।11।।
वेद आ ा दे ते ह क अ त थ दे वता है—अ त थ दे वो भव! गृह थ को चा हए क र
से चलकर आने वाले अ त थ का वह आदर-स कार करे। अ त थ क उपे ा करना पाप कम
है। शा म अ त थ क सेवा का वधान है। अ त थ सेवा ारा अनजाने को भी
स जन स मान और ा का पा बना लेते ह।
पठ त चतुरो वेदान् धमशा ा यनेकशः।
आ मानं नैव जान त दव पाकरसं यथा।।
जो लोग वेद आ द शा का अ ययन करने के बाद भी आ मा- परमा मा के संबंध
म कुछ नह जानते, वे आ म ान से र हत उस कलछ क तरह ह, जो वा द साग स जी
म तो घूमती है, परंतु उसे उसके वाद का बलकुल भी ान नह होता। ।।12।।
शा के अ ययन क साथकता इसी बात म है क जो कुछ पढ़ा जाए, उसका सार
हण करके मनु य उसे अपने जीवन म उतारे। य द मनु य ऐसा नह करता तो उसका जीवन
थ है। शा उन उपाय को भी बताते ह जनसे आदश को जीवन म उतारने का काय
आसान हो जाता है।
ध या जमयी नौका वपरीता भवाणवे।
तर यधोगताः सव उप र थाः पत यधः।।
इस संसार-सागर म ा ण पी नौका ध य है, जो उ ट ग त से चलती है। यह
उ ट ग त या है? जो इस नाव के नीचे रहते ह, वे सब तो भवसागर से पार उतर जाते ह
और जो नाव के ऊपर चढ़ते ह, उनका पतन हो होता है। ।।13।।
ता पय यह है क जो अथवा गृह थ लोग ा ण के साथ न रहकर उनक
सेवा करते रहते ह, उनका तो उ ार हो जाता है और जो अ भमान म चूर रहकर उनका
अपमान करते ह, उनक सदै व अधोग त ही होती है।
अयममृत नधानं नायकोऽ यौषधीनां
अमृतमयशरीरः का तयु ोऽ प च ः।
भव त वगतर मम डलं ा य भानोः
परसदन न व ः को लघु वं न या त।।
सरे के घर म जाने से का स मान घटता है, वह छोटा होता है। जैसे चं मा
को अमृत का भ डार कहा जाता है, यह गुणकारी औष धय का वामी भी है, इसक छ व
अथवा इसक करण को अमृत के समान माना जाता है, इसम कां त भी है अथात यह
काश से यु है, परंतु जब यही चं मा सूयम डल पर जाता है तो तेजर हत हो जाता है,
वहां उसक सारी चमक-दमक समा त हो जाती है। ।।14।।
जो नजी वाथ क पू त के उद्दे य से सरे के घर म जाता है, उसका
बड़ पन थर नह रह पाता। आचाय का यह कथन है क को कभी भी अपने माग
का प र याग नह करना चा हए।
अ लरयं न लनीदलम यगः
कम लनीमकर दमदालसः।
व धवशा परदे शमुपागतः कुटजपु परसं ब
म यते।।
भ रा कम लनी के फूल क पंखु ड़य म बैठा रहता है, उसके पराग का रस चूसता
रहता है और उसके म य म म त बना रहता है, परंतु दै वयोग से जब उसे एक थान से कसी
सरे थान को जाना पड़ता है, तो वहां उसे करील आ द वृ के फूल से रस तो मल जाता
है, कतु कांट के कारण काफ क भी उठाना पड़ता है। ।।15।।
इसका भाव यह है क वदे श म जाने से अनेक बार धन क ा त तो करता
है, परंतु उसे अनेक कार के क भी उठाने पड़ते ह, इस लए उसे चा हए क वह वयं को
समय के अनुसार ढाले, अथात क आने पर उसे खी नह होना चा हए।
पीतः ु े न तात रणतलहतो व लभो येन रोषाद्
आबा या वयः ववदन ववरे धायते वै रणी मे।
गेहं मे छे दय त त दवसमुमाका तपूजा न म ं
त मा ख ा सदाहं जकुल नलयं नाथ यु ं
यजा म।।
व णु ल मी से पूछते ह क वह ा ण से नाराज य रहती ह तो उ र दे ती ई
ल मी कहती ह—अग य ऋ ष ने नाराज होकर मेरे पता समु को ही पी लया था, ा ण
भृगु ने ोध म आकर आपक छाती पर लात मारी थी और ये ा ण लोग बचपन से ही मेरी
सौत सर वती को स करने का य न करते रहते ह, त दन शव क पूजा के लए मेरे
नवास थान से कमल पु प को उजाड़ दे ते ह। हे वामी! यही कारण है, जससे म ा ण
से सदा र रहती ं। ।।16।।
इस ोक का सामा य भाव यह है क ा ण अ धक लोभी नह होते और वे ारंभ
से ही धन कमाने क वृ से र हत होकर व ा अ ययन म लगे रहते ह। धन-संप जुटाने
पर उनका वशेष यान नह होता। इसी लए वे व ान तो होते ह, धनवान नह ।
ब धना न खलु स त ब न
ेमर जु ढब धनम यत्।
दा भेद नपुणोऽ प षडं न यो भव त
पंकजकोशे।।
इस संसार म ब त से बंधन ह, परंतु ेम पी र सी का बंधन कुछ व च होता है।
लकड़ी को छे दने क श रखने वाला भ रा भी कमल के फूल म बंद होकर न य हो
जाता है। कमल क पंखु ड़य को काटने क उसम श होती है, परंतु उनके त अ तरेक
ेम- भावना होने के कारण वह ऐसा नह करता। ।।17।।
संसार म मनु य अनेक कार के बंधन म बंधा आ है, परंतु सबसे मजबूत बंधन
ेम का होता है, जस कार कमल क कोमल पंखु ड़य म बंद हो जाने पर भ रा ेमवश
उ ह काट नह पाता, इसी कार मनु य ेम के पाश म बंधा आ सब क उठाने के लए
तैयार हो जाता है अथात वह ेम के बंधन से मु नह हो पाता।
छ ोऽ प च दनत न जहा त ग धं
वृ ोऽ प वारणप तन जहा त लीलाम्।
य ा पतो मधुरतां न जहा त चे ुः
ीणोऽ प न यज त शीलगुणान् कुलीनः।।
चंदन का वृ कट जाने पर भी अपनी सुगंध नह छोड़ता, बूढ़ा हो जाने पर भी हाथी
अपनी ड़ाएं नह छोड़ता, को पर पेर (पेल) दए जाने के बाद भी ईख अपनी मठास
को नह छोड़ता, इसी कार कुलीन मनु य नधन हो जाने पर भी अपनी शालीनता को नह
छोड़ता। ।।18।।
वभाव कसी भी प र थ त म बदलता नह है। इससे पूव भी कई थान पर
आचाय ने क चचा क है।
वभाव पर जोर दे ने का आचाय का ता पय वहार क दशा को नधा रत करना
है। इसी आधार पर व ास क सीमा का नधारण भी कया जा सकता है। वभाव म य द
स जनता है, तो व ास क संभावना का तशत बढ़ जाता है। आचाय ने अपने जीवन म
भी इस मनो व ान का ावहा रक योग कया है। धमनंद के व त और मगध के
न ावान धान अमा य रा स को चं गु त का अमा य बनाना इसी उपरो कथन का
सश उदाहरण है।
‘कुलीन’ श द का योग कर आचाय ने वंश-परंपरा क ओर भी संकेत कया।
परंपरा या ा त होने वाले सं कार का जीवन म अ य धक मह व है। पा रवा रक पृ भू म
व का अ य धक सश प से नधारण करती है।
इस अ याय के ारंभ म आचाय ने दया के मह व को प कया है। उनका कहना है
क जो इस संसार के ा णमा पर दया करता है, उसे न तो मो ा त करने के लए
जप-तप आ द साधन क आव यकता है और न ही जटाजूट धारण करके साधु-सं यासी
बनने क । दया सभी धम का सार है।
गु के मह व को बताते ए आचाय चाण य बताते ह क य द श य गु को अपना
सव व सम पत कर दे तो भी गु का ऋण श य से नह उतरता। गु ही श य को
वा त वक ान दे ता है, जससे उऋण होना संभव ही नह है।
से बचने का उपाय बताते ए चाण य कहते ह क या तो उसे मसलकर
न कर दे ना चा हए अथवा ऐसा य न करना चा हए क वह आपके काय म कसी कार
क कावट न डाल सके।
चाण य का कहना है क जो मैले कपड़े पहने रहता है, जसके दांत पर मैल
जमा आ दखाई दे ता है, जो हर समय कड़वी बात करता रहता है तथा जो सूय दय और
सूया त के समय सोया रहता है, उसे न तो ल मी ा त होती है, न ही उसका वा य ठ क
रहता है। इसी लए को अपने जीवन को सुखी बनाने के लए कृ त के नयम के
अनुसार चलना चा हए।
आचाय के अनुसार धन मनु य का बंधु और सखा है, इस लए मनु य को धन सं ह
करते रहना चा हए। उनका यह भी कहना है क धन को धमपूवक ही कमाना चा हए।
अ याय से पैदा कया आ धन दस वष से यादा नह ठहरता।
अनेक व ान का कहना है क समथ जो कुछ करता है, लोग उसके लए
उसे दोषी नह ठहराते—“समरथ को न ह दोष गोसा ।” असमथ ारा कया गया अ छा
काम भी दोषयु माना जाता है। इसका कारण भय और वाथ है, न क स य ।
आचाय ने दान क म हमा का बखान कया है। वे कहते ह क ा ण को भोजन
करवाने के बाद ही गृह थ को भोजन करना चा हए। उनके अनुसार ेम और नेह उसे ही
कहा जाता है, जो सर से कया जाए। अपने संबं धय तथा म आ द से तो सभी ेम
करते ह। आचाय ने बु मान उसे कहा है जो पाप कम क ओर आकृ न हो।
चाण य मनु य को यह बताना चाहते ह क ान का कोई अंत नह है, जब क
मनु य का जीवन ब त छोटा है। उनका कहना है क वेद आ द शा के पढ़ने पर भी जसे
उनम व णत आ मा और परमा मा का ान नह आ, उसका जीवन थ है। उसका जीवन
बलकुल उसी कार है, जैसे धातु क कलछ वा द भो य पदाथ म घूमती ई भी उसका
वाद नह ले पाती।
चाण य कहते ह क जब सर के घर म जाता है अथात अपना घर छोड़ता
है तो उसे छोटा माना जाता है। चं मा को अमृत का भ डार कहा जाता है, परंतु जब वह सूय
क सीध म आता है तो एक कार से उसका अ त व समा त हो जाता है, य क उस समय
वह सूय से ही काश हण करता है।
चाण य ने यह बात प करने का य न कया है क ा ण के पास धन य
नह होता? उनका कहना है क वे सदै व सर वती क उपासना म लगे रहते ह इस लए धन
इकट् ठा करने क उनक वृ ही नह होती। इस संसार म ेम का बंधन ही सबसे ढ़ होता
है। चाण य उदाहरण दे ते ए कहते ह क भ रे म इतनी श होती है क वह लक ड़य म
भी छे द कर सकता है, परंतु कमल के अनुराग म बंध जाने के कारण उसक श थ हो
जाती है। इसी कार मनु य के जो वाभा वक गुण ह, वे कभी भी समा त नह होते। जस
कार चंदन का वृ छोटे -छोटे टु कड़ म काट दए जाने पर भी अपनी सुगंध नह छोड़ता,
उसी कार े कुलीन मनु य नधन होने पर भी अपने गुण का याग नह करता।
।। अथ षोडशोऽ यायः ।।
सोलहवां अ याय
संसार एक कड़वा वृ है ले कन आ य है क इस पर अमृत
सरीखे मीठे और जीवन दे ने वाले दो फल लगते ह, एक मधुर
वाणी और सरी स जन क संग त।
न यातं पदमी र य व धव संसार व छ ये
वग ारकपाटपाटनपटु धम ऽ प नोपा जतः।
नारीपीनपयोधरो युगलं व ेऽ प ना ल गतं
मातुः केवलमेव यौवनवन छे दे कुठारा वयम्।।
जस मनु य ने संसार पी जाल को काटने के लए भु के व प का यान नह
कया, जसने वग के ार खोलने के लए धम पी धन का सं ह नह कया, जसने व म
भी नारी के सुंदर तन और जंघा का आ लगन नह कया, वह माता के यौवन पी वृ
को काटने वाले कु हाड़े का काम करता है। ।।1।।
चाण य कहते ह क जस ने न तो भु का यान कया, न ही कोई धम-कम
कया और न ही सहवास का सुख ा त कया, ऐसे का जीवन एक कार से नरथक
है। इस ोक के ारा आचाय ने उन तीन जीवन धारा को बताने का यास कया, जनम
जन-सामा य उलझा आ है। धम, अथ, काम—इन तीन पु षाथ के लए ही तो यास
कया जा रहा है। आचाय ने ईश- मरण को थम थान दया है।
ज प त साधम येन प य य यं स व माः।
दये च तय य यं न ीणामेकतो र तः।।
वे या क कसी एक से ी त नह होती। वे बातचीत तो कसी अ य से
करती ह, परंतु हाव-भाव पूवक दे खती कसी अ य को ह और अपने दय म चतन
कसी अ य का करती ह। इस कार वे या का ेम कसी एक से नह होता,
यह उनका वभाव है। जो कोई यह समझता है क कोई वे या उससे ेम करती है,
वह उसक मूखता है। ।।2।।
यो मोहा म यते मूढो र े यं म य का मनी।
स त य वशगो भू वा नृ येत् डा-शकु तवत्।।
जो मूख यह समझता है क कामुक ी केवल उसी से ेम करती है, वह उसके वश
म होकर कठपुतली के समान उसके इशार पर नाचता रहता है। ।।3।।
वा त वकता यह है क मनु य कामुक ी के छल-कपट को नह समझ पाता। ी
अपने चातुय से के मन म यह व ास पैदा कर दे ती है क वह उसी से ेम करती है।
जो उस पर व ास कर लेता है, वह मूख है। वह उसके इशार पर कठपुतली के
समान नाचता रहता है। उसका व और अ त व दोन ही समा त हो जाते ह।
कोऽथान् ा य न ग वतो वष यणः क यापदोऽ तं
गताः
ी भः क य न ख डतं भु व मनः को नाम रा ां
यः।
कः काल य न गोचर वमगम कोऽथ गतो गौरवं
को वा जनवागुरासु प ततः ेमेण यातः प थ।।
इस संसार म ऐसा कोई नह , जसे धन और ऐ य क ा त होने पर
अ भमान न आ हो? कोई भी वषय भोग म ल त ऐसा नह आ, जसे क न
भोगने पड़े ह । संसार म ऐसा कौन-सा है, जो सुंदर य के वश म न आ हो?
मांगने वाले को कब स मान मला है और कौन ऐसा है, जो लोग के
च कर म फंसकर कुशलतापूवक संसार म रह सकता हो। ।।4।।
संसार म ऐसे ब त कम होते ह, जो धनवान होने पर भी अ भमानर हत और
न बने रहते ह। संसार म ऐसा कोई नह है, जो वषय भोग म ल त होने के बाद
क म न फंसा हो और संसार म ऐसे य का भी अभाव है, जो य के मोह-जाल म
न फंसे ह । जो सदा याचना करता रहता है, उसे स मान कैसे मल सकता है।
न न मतः केन न पूवः न ूयते हेममयः कुरंगः।
तथाऽ प तृ णा रघुन दन य वनाशकाले
वपरीतबु ः।।
आज तक न तो सोने के मृग क रचना ई है और न ही कसी ने सोने का मृग दे खा
है, फर भी ीरामच वण मृग को पकड़ने के लए उतावले हो गए। यह बात ठ क ही है
क जब मनु य के बुरे दन आते ह, तो उसक बु उ ट बात सोचने लगती है। ।।5।।
गुणै मतां या त नो चैरासनसं थताः।
ासाद शखर थोऽ प काकः क ग डायते।।
मनु य अपने अ छे गुण के कारण ही े ता को ा त होता है, ऊंचे आसन पर
बैठने के कारण नह । राजभवन क सबसे ऊंची चोट पर बैठने पर भी कौआ कभी ग ड़
नह बन सकता। ।।6।।
गुणाः सव पू य ते न मह योऽ प स पदः।
पूण क तथा व ो न कलंको यथा कृशः।।
सभी थान पर मनु य का आदर-स कार उसके गुण के कारण ही होता है। गुणहीन
मनु य के पास य द धन के भ डार भी ह तो भी उसका स मान नह होता। ब त थोड़े से
काश वाला, परंतु दाग-ध ब से र हत ज का चांद जस कार पूजा जाता है अथवा शुभ
समझा जाता है, पू णमा के चं मा को वैसा स मान ा त नह होता। ।।7।।
इसका भाव यह है क मनु य का आदर-स कार उसके गुण के कारण होता है।
पू णमा के चांद म अनेक दाग-ध बे दखाई दे ते ह, परंतु ज का चांद एक पतली-सी लक र
के समान होता है, उसम कोई दाग-ध बा नह होता, इस लए वह पूरे चांद क अपे ा अ धक
सुंदर दखाई दे ता है। भगवान शव ने इसी लए तो उसे अपने शरोभाग म थान दया है।
पर- ो गुणो य तु नगुणोऽ प गुणी भवेत्।
इ ोऽ प लघुतां या त वयं या पतैगुणैः।।
जस मनु य के गुण क तारीफ सरे लोग करते ह, वह गुण से र हत होने पर भी
गुणी मान लया जाता है, परंतु य द इं भी अपने मुख से अपनी शंसा करे तो उ ह छोटा ही
माना जाएगा। ।।8।।
गुणी वह होता है जो अपने से यादा गुणवान क ओर दे ख।े इसी लए वह वयं को
गुणर हत मानता है। जब क गुणहीन अपनी क मय को छपाने के लए अपने मुंह
मयां मट् ठू बनता है।
ववे कनमनु ा ता गुणा या त मनो ताम्।
सुतरां र नमाभा त चामीकर नयो जतम्।।
जस कार सोने के आभूषण म जड़ा आ र न और भी सुंदर दखाई दे ता है, उसी
कार को चा हए क ववेकपूवक अपने म गुण का वकास करके अपने व
को और भी अ धक सुंदर बनाए तथा सदै व गुण को हण करे। ।।9।।
गुणैः सव तु योऽ प सीद येको नरा यः।
अन यम प मा ण यं हेमा यमपे ते।।
गुण म सव -परमा मा के समान होने पर भी नरा त खी होता रहता है,
जैसे अ य त मू यवान हीरा भी सोने म जड़े जाने क आशा करता है, उसी कार गुणी
मनु य को भी कसी सहारे क अपे ा रहती है अथात गुणी भी आ य के बना
समाज म वह स मान ा त नह कर पाता, जसक उसको अपे ा होती है। ।।10।।
अ त लेशेन ये चाथा धम या त मेण तु।
श ूणां णपातेन ते था मा भव तु मे।।
जो धन सर को हा न और पीड़ा प ंचाकर, धम व काय करके, श ु के सामने
गड़ गड़ा कर ा त होता हो, वह धन मुझे नह चा हए। ऐसा धन मेरे पास न आए तो अ छा
है। ।।11।।
चाण य कहते ह क मनु य को ऐसे धन क कामना नह करनी चा हए, जो सर
को हा न प ंचाकर एक त कया जाए। धम व काय करके और श ु के सामने
गड़ गड़ाने से ा त कया आ धन अक याणकारी और अपमान दे ने वाला होता है। मनु य
को ऐसा धन ा त करने क चे ा नह करनी चा हए। उसे सदै व प र म और अ छे उपाय
से ही धन का सं ह करना चा हए। शुभ धन ही शुभ व दे ता है।
क तया यते ल या या वधू रव केवला।
या तु वे येव सा मा या प थकैर प भु यते।।
ऐसे धन का भी कोई लाभ नह , जो कुलवधू के समान केवल एक ही मनु य के लए
उपभोग क व तु हो। धन-संप तो वही े है, जसका लाभ राह चलते लोग भी उठाते ह
अथात धन-संप वही े है, जो वे या के समान अ य लोग के भी काम आती है। ।।
12।।
इस ोक का भाव है क उ म धन वही है, जो परोपकार के काम म लगाया जाता
है, जस धन को कोई एक समेटकर बैठ जाता है, न तो उसे उपयोगी माना जाता है
और न ही उससे कसी का लाभ होता है, समाज क याण के उपयोग म लाया गया धन ही
े धन है। धन क ग त कनी नह चा हए।
धनेषु जी वत ेषु ीषु चाहारकमसु।
अतृ ताः ा णन: सव याता या य त या त च।।
इस संसार म कोई भी ाणी ऐसा नह है जो धन का व भ कार से उपभोग करने
पर तृ त आ हो। इस धन का उपभोग इस जीवन के काय , य के सेवन और व भ
कार के भोजन आ द पर करने से भी मनु य अतृ त रहेगा और अतृ त रहते ए ही इस
संसार से चला जाएगा अथात धन को कसी भी कार से उपभोग म लाया जाए, मनु य तृ त
नह होता। ।।13।।
सामा य धारणा से वपरीत यह ोक स य क ओर संकेत करता है। धन से संतु
मलेगी, ऐसा माना जाता है, ले कन आचाय चाण य का कथन है क यह स य नह है—
चाहो तो दे ख लो। हां, य द धन संतु दे गा तो केवल परोपकार म लगकर। ऐसा धन मनु य
को संतोष और तृ त दोन दान करता है।
ीय ते सवदाना न य होमब ल याः।
न ीयते पा दानमभयं सवदे हनाम्।।
सभी कार के अ , जल, व , भू मदान आ द, सभी कार के य , दे व-य
और ब ल य आ द—सभी कम न हो जाते ह अथात यह सभी व तुएं न होने वाली ह,
परंतु सुपा को दया आ दान और ा णमा को दया गया अभयदान कभी भी न
नह होता। ।।14।।
तृणं लघु तृणा ूलं तूलाद प च याचकः।
वायुना क न नीतोऽसौ मामयं याच य य त।।
संसार म एक तनका अ यंत ह का होता है। तनके से भी अ धक ह क ई होती
है, परंतु याचक को तो सबसे अ धक ह का माना गया है अथात जब कोई चीज कसी
से मांग बैठता है, तो वह सभी चीज से ह का अथात तु छ माना जाता है। ।।15।।
वरं ाणप र यागो मानभंगेन जीवनात्।
ाण यागे णं ःखं मानभंगे दने दने।।
अपमा नत होकर जीने के बजाय मर जाना अ धक अ छा है, य क मृ यु से तो
णभर का ही क होता है, जब क अपमा नत होने पर दन- त दन मरता रहता है।
।।16।।
भाव यह है क को अपना जीवन स मानपूवक बताना चा हए। अपमा नत
होने क अपे ा मर जाना इस लए े माना गया है, य क मरते समय णभर का क
होता है, जब क अपमा नत पग-पग पर ख झेलता रहता है।
यवा य दानेन सव तु य त ज तवः।
त मा दे व व ं वचने का द र ता।।
मधुर बोली वाले से सभी ाणी स रहते ह, अतः को सदै व य वचन ही
बोलने चा हए, उसे चा हए क वह वाणी म अमृत पी मधुरता घोलकर बोले। को
वाणी से द र नह होना चा हए। ।।17।।
मधुर-भाषण के लए कहा गया है क जो मीठ बात बोलता है, ेमपूवक
वहार करता है, वह सबको अपना बना लेता है अथात मनु य को मधुर भाषण करने म
बलकुल भी कंजूसी नह दखानी चा हए।
संसार वषवृ य े फले अमृतोपमे।
सुभा षतं च सु वा संग तः सुजने जने।।
संसार एक कड़वा वृ है, इसके दो फल ही अमृत जैसे मीठे होते ह। एक मधुर
वाणी और सरी स जन क संग त। ।।18।।
जो मधुर वाणी का योग करता है वह श ु को भी जीत लेता है और सरी
है मधुर संग त, स जन क संग त अथात मनु य को मधुर य वचन बोलने और स जन
क संग त करने म कभी हच कचाना नह चा हए। संसार म शेष सब तो कड़वा ही है।
ज म-ज म य य तं दानम ययनं तपः।
तेनैवाऽ यासयोगेन तदे वा य यते पुनः।।
अनेक ज म म मनु य ने दान, अ ययन और तप आ द जन बात का अ यास
कया, उसी अ यास के कारण वह बार-बार उ ह दोहराया करता है। ।।19।।
इस ोक का भाव यह है क मनु य को अपना भावी जीवन सुधारने के लए इस
ज म म अ छे काय करने का अ यास करना चा हए। पहले के अ यास का ही प रणाम है
हमारा आज और भ व य म जो हम ह गे वह होगा आज के अ यास का तफल।
पु तकेषु च या व ा परह तेषु य नम्।
उ प ेषु च कायषु न सा व ा न त नम्।।
जो व ा पु तक तक ही सी मत है और जो धन सर के पास पड़ा है, आव यकता
पड़ने पर न तो वह व ा काम आती है और न ही वह धन उपयोगी हो पाता है। ।।20।।
आचाय कहना चाहते ह क व ा क ठा होनी चा हए तथा धन सदै व अपने हाथ म
होना चा हए, तभी इनक साथकता है।

अ याय के आरंभ म ही चाण य ऐसे के ज म लेने को नरथक बताते ह


जसने इस संसार म आकर न तो संसार के कसी सुख का उपभोग कया है और न भु क
ा त के लए कोई य न कया है।
वशेष प से वे या के संबंध म चाण य ने अनेक थान पर इस बात पर जोर
दया है क उनका कसी वशेष से ेम नह होता, उनका ेम केवल के धन से
होता है, परंतु जो हमेशा यह समझते ह क वे या उनसे ेम करती है, वे मूख ही ह।
और उसी बहकावे म वे कठपुतली के समान उसके इशार पर नाचते रहते ह।
मनु य के वभाव के संबंध म आचाय का कहना है क अ धकांश धन-संप
और सांसा रक सुख ा त करने के बाद अ भमान करने लगते ह। जो इ य भोग क
तृ त म लगा रहता है, उसके क कभी समा त नह होते और य द यां चाह तो बड़े-से-
बड़े तप वी के तप को खं डत कर सकती ह। इसी कार जो सदै व हाथ पसार
कर मांगता रहता है, उसका कभी स मान नह हो सकता और जो एक बार के
संपक म आ जाता है, उसका जीवन भी सुखी नह हो सकता।
मयादा पु षो म ीराम का उदाहरण दे ते ए चाण य कहते ह क जब के
वनाश का समय आता है तो उसक बु ठ क से काम नह करती। वह मत हो जाता है,
जस कार ीराम सोने के मृग को पकड़ने के लए उसके पीछे भागे, जब क सभी जानते ह
क सोने का मृग नह होता। ीराम भी इस स य को भलीभां त जानते थे। फर भी वणमृग
के पीछे भागे।
मनु य क े ता कसी ऊंचे पद पर बैठने के कारण नह होती, वरन् उसके गुण के
कारण होती है। य द म कोई गुण नह है, तो अ यंत धनी होने पर भी उसका स मान
नह होता। मनु य के गुण के संबंध म आचाय ने एक और मह वपूण बात कही है। उनका
कहना है क गुणी व तुतः उसी को समझना चा हए जसके गुण क शंसा सरे लोग करते
ह , अपनी वयं शंसा करने से मनु य बड़ा नह बनता। गुण के संबंध म यह बात और भी
मह व रखती है क य द ानवान गुणी है तो उसके गुण उसी कार वक सत हो जाते
ह जैसे सोने के आभूषण म जड़ा आ र न, परंतु उनका यह भी मानना है क गुणवान
सवदा अकेला रहता है, उसे ख भी उठाने पड़ सकते ह।
धन सं ह करना आचाय क म बुरा काम नह है, परंतु सर को खी करके
और अधमाचरण से अथवा अपनी द नता दखाकर धन इकट् ठा करना उ चत नह । धन का
लाभ तभी है, जब उसका ठ क से उपयोग कया जाए। धन एक ऐसी व तु है, जसक
कामना हर समय करता रहता है। धन के संबंध म उसक इ छा कभी पूण नह होती।
धन का सही उपयोग यही है क उसे परोपकार म लगाया जाए।
धन के ही संबंध म आगे चलकर चाण य एक और मह वपूण बात कहते ह क
संसार म तनका एक अ यंत ह क व तु है, परंतु तनके से भी ई अ धक ह क होती है।
ई से भी ह का सर से धन क याचना करने वाला होता है। वायु तनके और ई
को उड़ाकर ले जाती है परंतु याचक को य नह उड़ाती, इसका कारण संभवतः यह है क
वायु को डर लगता है क याचक उससे कुछ मांग न बैठे, इस कार उ ह ने याचक को सबसे
अ धक अपमा नत माना है। कुछ लोग हर समय हर थान पर अपने द र होने का
माण दे ते रहते ह। इस कार के वभाव वाले कसी से दो मीठ बात करने से भी
कतराते रहते ह। जब क मीठ बात कहने म कसी कार का मू य चुकाना नह पड़ता। इस
संसार म मनु य को अनेक कटु अनुभव होते ह। य वचन और स जन क संग त ही दो
ऐसी बात ह जससे इस जीवन म कुछ शां त ा त हो सकती है।
आचाय चाण य का कहना है क व ा मनु य के कंठ म रहनी चा हए, पु तक म
लखी व ा से काम नह चलता। इस कार वह धन भी काम नह आता जो सर के पास
होता है।
।। अथ स तदशोऽ यायः ।।
स हवां अ याय
घर म सुंदर, सती और प त ता प नी, धन-संप ,
वनयशील पु और पौ -पौ ी आ द ह तो वगलोक म भी
इससे अ धक सुख नह मलता।
पु तक ययाधीतं नाधीतं गु स धौ।
सभाम ये न शोभ ते जारगभा इव यः।।
जन य ने गु के पास बैठकर व ा का अ ययन नह कया वरन् पु तक से
ही ान ा त कया है, वह व ान लोग क सभा म उसी तरह स मान ा त नह करते,
जस कार कम से गभ धारण करने वाली ी का समाज म स मान नह होता। ।।1।।
इस ोक का भाव यह है क गु के पास बैठकर ही सही अथ म व ा का
अ ययन कया जा सकता है। गु से ही ान क ा त होती है। मनु य अपने य न से जो
ान ा त करता है, वह कई कार से अधूरा रहता है, इसी लए ऐसा व ान क
सभा म उपहास का पा होता है जसने गु मुख से व ा ा त नह क है।
गु से व ा ा त करने का मह व इस लए है क गु हण करने यो य सब बात
श य पर कट कर दे ता है। ान के सब रह य उसके सम खुल जाते ह। अपने य न से
व ा ा त करने पर कुछ न कुछ अनजाना रह ही जाता है। ऐसी थ त म या करना
चा हए, इसक जानकारी भी गु मुख से ही ा त होती है। तभी तो येक थ त का
सामना करने के लए वयं को तैयार कर पाता है।
इस ोक से चाण य का भाव गु के मह व को कट करना है।
कृते तकृतं कुयाद् हसने त हसनम्।
त दोषो न पत त े ं समाचरेत्।।
जो जैसा करे, उससे वैसा बरत। कृत के त कृत ता भरा, हसक ( ) के साथ
हसायु और से ताभरा वहार करने म कसी कार का पाप (पातक) नह है। ।।
2।।
यद् रं यद् रारा यं य च रे व थतम्।
त सव तपसा सा यं तपो ह र त मम्।।
जो व तु अ यंत र है, जसक आराधना करना अ यंत क ठन है और जो अ यंत
ऊंचे थान पर थत है, ऐसी चीज को तप ारा ही स कया जा सकता है। स का
योग यह ा त करना भी है। ।।3।।
जो चीज जतनी र दखाई दे ती है, ऐसा तीत होता है क उसको पाना असंभव है,
उसे भी य न पी तप या ारा ा त कया जा सकता है। तप अथवा प र म ारा
असंभव काय को भी संभव बनाया जा सकता है। तप से ही मनु य को अनेक स यां
ा त हो सकती ह।
लोभ ेदगुणेन क पशुनता य त क पातकैः
स यं चे पसा च क शु च मनो य त तीथन
कम्।
सौज यं य द क गुणैः सुम हमा य त क म डनैः
स ा य द क धनैरपयशो य त क मृ युना।।
य द मनु य म लोभ है तो उसे कसी अ य बुराई क आव यकता नह । य द
चुगलखोर है तो इससे बढ़कर और या पाप हो सकता है? य द उसके जीवन म
स यवा दता, स याचरण आ द गुण ह तो उसे तप करने क या आव यकता है? य द मनु य
का मन प व है तो व भ तीथ पर जाकर वहां नान करने से या लाभ? य द मनु य म
ेम है तो उसे अ य गुण क या आव यकता है? य द संसार म उसका यश फैल रहा है तो
उसे अ य कसी आभूषण क या आव यकता है? अथात उसे अपने शरीर को सजाने के
लए आभूषण क आव यकता नह है, य द उसके पास उ म व ा है तो उसे कसी अ य
धन क या आव यकता है और य द उसका अपयश फैल रहा है तो उसे मृ यु से या लेना-
दे ना? वह जीते जी मृत के समान है। ।।4।।
पता र नाकरो य य ल मीय य सहोदरा।
शंखो भ ाटनं कुया ाऽद मुप त ते।।
समु शंख का पता है। ल मी का ज म भी समु म आ है अथात वह शंख क
बहन है। शंख चं मा के समान चमकता है, इतने पर भी य द कोई शंख बजाकर भीख
मांगता है तो यही समझना चा हए क दान दए बना मान-स मान नह होता। ।।5।।
ब त से साधु लोग शंख बजाते ए भ ा मांगते फरते ह, इससे यही तीत होता है
क शंख ने दान दे ने जैसा स कम नह कया। अथात् अ छे कुल म उ प होने और
अनेक गुण से संप होने पर भी दान आ द अ छे कम य द नह करता, तो उसे भी यश और
सुख क ा त नह होती, इसी लए येक का कत है क वह अ छे कुल म उ प
होने पर भी दान आ द शुभकम करता रहे।
अश तु भवे साधु चारी च नधनः।
ा ध ो दे वभ वृ ा नारी प त ता।।
श हीन स जन, नधन चारी, रोगी दे वाचन करने वाला और बूढ़ ी
प त ता बन जाती है। ।।6।।
चाण य का भाव यह है क ववशता के कारण भी अपना व प बदल लेता
है, व तुतः वह वैसा होता नह है। बलवान को स जनता का वहार करना चा हए।
भु क भ तो मनु य का वाभा वक कत है परंतु जब कोई रोगी होने पर ही भु का
नाम लेता है तो यह उसक ववशता है। इसी कार य द सुंदर पवती यौवन से भरपूर ी
प त ता धम का पालन करती है तो यह उसक वशेषता मानी जाएगी। वृ ा ी प त ता
होने के अलावा कर भी या सकती है? यह उसक ववशता होती है, वशेषता नह ।
नाऽ ोदकसमं दानं न त थ ादशी समा।
न गाय याः परो म ो न मातुः पर दै वतम्।।
अ और जल के समान कोई े दान नह , ादशी के समान कोई े त थ नह ,
गाय ी से बढ़कर कोई मं नह और माता से बढ़कर कोई दे वता नह । ।।7।।
चाण य का कहना है क भूखे को भोजन और यासे को जल पलाने के
समान े दान कोई नह । उनका वचार है क ादशी को कया आ पु य कम अ धक
फल दे ने वाला होता है। गाय ी को सव े मं माना गया है। गाय ी को स कर लेने पर
के सभी मनोरथ पूण हो जाते ह। इसी कार सबसे बढ़कर माता स मान क पा है।
उसका थान दे वता से भी ऊंचा है, य क वह मनु य को ज म दे ने वाली है। माता ही
संतान को य और परो प से सं का रत करती है। सं कार ही मनु य के जीवन का
आधार है।
त क य वषं द ते म काया तु म तके।
वृ क य वषं पु छे सवागे जने वषम्।।
सांप का वष उसके दांत म होता है, म खी का वष उसके सर म रहता है, ब छू
का वष उसक पूंछ म होता है अथात इन सभी वषैले ा णय के एक-एक अंग म ही वष
होता है, ले कन जन मनु य के सभी अंग वष से भरे ए होते ह। ।।8।।
आचाय का कथन है क वषैले ा णय को वष का योग करने के लए समय
चा हए। वे वशेष प र थ तय म ही, जैसे क शकार करने या अपने बचाव के लए ही
अपने वष का योग करते ह, जब क तो सदै व वषदं श करता रहता है।
प युरा ां वना नारी उपो य तचा रणी।
आयु यं हरते भतुः सा नारी नरकं जेत्।।
प त क आ ा के बना जो ी उपवास पी त करती है, वह अपने प त क आयु
को कम करने वाली होती है। वह ी नरक म जाती है, उसे महान क भोगने पड़ते ह। ।।
9।।
न दानैः शु यते नारी नोपवासशतैर प।
न तीथसेवया त द् भतुः पादोदकैयथा।।
ी अनेक कार के दान करने से शु नह होती अथात मो ा त नह कर
सकती, सैकड़ उपवास करने से भी वह शु नह होती, अनेक तीथ क या ा करने के बाद
भी वह शु नह होती, वह तो केवल प त चरण क सेवा से ही शु हो सकती है अथात
मो ा त कर सकती है। ।।10।।
आचाय के अनुसार ी का सबसे थम कत अपने प त क सेवा है। जो ी
अपने प त क सेवा न करती हो। तथा अ य धा मक काय म अपना समय बताने का य न
करती है, उसे कोई वशेष लाभ नह होता। उसका सव थम कत प त क सेवा करना है,
उसी से उसे मो मलता है। परो प से संदेश यह है क ी पहले अपने पा रवा रक
कत का नवाह करे। सेवा ही उसक मु का साधन है।
दानेन पा णन तु कंकणेन नानेन शु न तु
च दनेन।
मानेन तृ तन तु भोजनेन ानेन मु न तु
म डनेन।।
हाथ क शोभा कगंन पहनने से नह वरन् दान आ द दे ने से होती है। शरीर क शु
नान करने से होती है, चंदन लगाने से नह । मनु य क तृ त आदर-स मान से होती है,
भोजन से नह और मनु य को मो ान से होता है, चंदन आ द के तलक लगाने से नह ।
।।11।।
आचाय ने यहां पर बाहरी साधन क नरथकता बतलाते ए आंत रक े ता और
संतु पर जोर दया है। बा साधन को ही असल मान लेना मनु य क सबसे बड़ी भूल है।
यह भूल अकसर लोग करते ही रहते ह।
स ः ाहरा तु डी स ः ाकरी वचा।
स ः श हरा नारी स ः श करं पयः।।
कुंद खाने से त काल मनु य क बु न होती है, वच खाने से त काल बु
बढ़ती है, नारी शी ही श का हरण करती है और ध पीने से उसी ण बल ा त होता
है। ।।13।।
परोपकरणं येषां जाग त दये सताम्।
न य त वपद तेषां स पदः युः पदे पदे ।।
जन स जन लोग के दल म सर का उपकार करने क भावना जा त रहती है,
उनक वप यां न हो जाती ह और पग-पग पर उ ह धन-संप क ा त होती है। ।।
14।।
आहार न ाभयमैथुनं च सामा यमेतत्
पशु भनराणाम्।
धम ह तेषाम धको वशेषो धमण हीनाः पशु भः
समानाः।।
भोजन करना, न द लेना, भयभीत होना और मैथुन अथात संतान क उ प करना,
ये सब बात मनु य और पशु म एक जैसी होती ह। मनु य म पशु क अपे ा धम ही ऐसी
वशेष व तु है जो उनसे अ धक होती है। य द मनु य म धम न हो तो वह पशु के समान है।
।।15।।
दाना थनो मधुकरा य द कणतालैर् रीकृताः
क रवरेण मदा धबु ा।
त यैव ग डयुगम डनहा नरेषा भृंगाः
पुन वकचपद्मवने वस त।।
य द मद म अंधा हाथी अपनी मंदबु के कारण अपने म तक पर बैठे ए मद पीने
के इ छु क भ र को अपने कान फड़फड़ाकर र भगा दे ता है तो इसम भ र क कोई हा न
नह होती। वे जाकर खले ए कमल पर जा बैठते ह, उ ह वहां से रस मल जाता है, परंतु
ऐसा करने से हाथी के ग ड थल क ही शोभा न होती है। ।।16।।
आचाय का अ भ ाय है क कुछ मांगने आए ए याचक को लौटाने से याचक क
हा न नह होती अ पतु दाता क हा न होती है। याचक को नराश नह लौटाना चा हए,
उसका स मान करके उसको दान-द णा द, ता क वह लोग के सामने दाता के गुण का
बखान करे।
राजा वे या यमो न त करो बालयाचकौ।
पर ःखं न जान त अ मो ामक टकः।।
राजा, वे या, यमराज, अ न, चोर, बालक, याचक और ामीण को सताने वाले—ये
आठ बड़े ही कठोर होते ह। ये सर के क को नह समझते। ।।17।।
संकेत है क इनसे बचकर रह।
अधः प य स क वृ े प ततं तव क भु व।
रे रे मूख न जाना स गतं ता यमौ कम्।।
कसी अ यंत बूढ़ ी को, जसक कमर बुढ़ापे के कारण झुक गई थी, दे खकर
कोई युवक ं य करते ए पूछने लगा—हे वृ े ! नीचे या ढूं ढ़ रही हो? या पृ वी पर
तु हारी कोई चीज गरी पड़ी है? तु हारा कुछ खो तो नह गया? उस ं य को सुनकर बूढ़
औरत ने कहा क अरे मूख! तू नह जानता क मेरा यौवन पी मोती खो गया है। म उसी को
ढूं ढ़ रही ं। ।।18।।
वृ ा का संकेत है क इस संसार म जसने ज म लया है, वह बचपन, कशोर और
युवाव था के बाद वृ ाव था को ा त होता है, इससे कोई भी नह बच सकता। तू भी यहां
प ंचेगा। इस लए मुझ पर न हंस! जसका सामना करना हो, उस पर य हंसना?
यह ोक वृ क उपे ा क ओर भी यान दलाता है। हर पीढ़ अपनी पछली
पीढ़ का मजाक ही उड़ाती है। एक वचारक ने सही कहा है क वृ क शाखाएं, प े और
फूल यह भूल जाते ह क उ ह जीवन उन जड़ से मल रहा है, जो कु प, परो और
न य ह।
ाला याऽ प वफला प सक टकाऽ प।
व ाऽ प पं कल-भवाऽ प रासदाऽ प।
ग धेन बंधुर स केत क सवज तोर्
एको गुणः खलु नह त सम तदोषान्।।
हे केतक ! तुझसे सांप लपटे रहते ह, फल भी नह लगते, कांटे भी ह और व ता
भी है। इसके अ त र तेरा ज म क चड़ म होता है और तू सरलता से ा त भी नह होती।
इतना सब कुछ होने पर भी तेरे म जो गंध है, वह सब ा णय को मोह लेती है। ।।19।।
आचाय के अनुसार, म य द एक भी े गुण हो तो उसम सारे दोष सहज ही
छु प जाते ह।
आचाय चाण य का कहना है क व ा गु से ही ा त करनी चा हए, वयं व ा
का अ यास करने से वह लाभ नह होता जैसा गु ारा ा त क गई व ा से।
उनका कहना है क जो आपसे जैसा वहार करता है, उससे उसी कार का
वहार करना चा हए। जसने आपके त हसा का वहार कया है, उसके त हसक
वहार ही ठ क रहेगा। कुछ महान पु ष ऐसे भी ए ह, जनका यह कहना था क हसा
का उ र अ हसा से दया जा सकता है। वहार क से एक सामा य ारा ऐसा
कर पाना संभव नह हो पाता। ऐसी संत-महा मा क हो सकती है। चाण य ने यह
स ांत कूटनी त क से बताया है। दे श के संदभ म तो ‘जैसे को तैसा’ क नी त यादा
उपयु है।
आचाय ने इस अ याय म तप के मह व को भी प कया है। उनका कहना है क
य द मनु य म तप का अभाव है और वह लोभ म फंसा आ है तो उसे और कसी बुराई क
या आव यकता है। य द मनु य का वभाव सर क नदा करना है तो चाण य इसे महान
पाप क ेणी म रखते ह। उ ह ने स य को ही तप बताया है अथात जो स याचरण
करता है, उसे कसी अ य तप क आव यकता नह है।
चाण य ने इस अ याय म दान का मह व बताते ए कहा है क जो दान नह
करता, उसे धन क ा त नह हो सकती।
चाण य कहते ह क मनु य का जो वा त वक व प है, उसको ही थर रखना
चा हए, उसे ा त करने के लए कसी कार के ढ ग क आव यकता नह है। इसी कार
उनका यह कहना पूण प से ावहा रक है क इस संसार म जो श हीन होता है,
वह ऐसा कट करने लगता है क उससे बढ़कर कोई स जन नह , परंतु इस कार के ढ ग
को आचाय चाण य नकारते ह। ववशता म कया जा रहा काय वभाव क स यता को नह
दशाता।
आचाय चाण य कहते ह क अ और जल से बढ़कर कोई े दान नह । भूखे
को सोने-चांद क अपे ा भोजन क आव यकता होती है। उ ह ने गाय ी को सबसे
े मं बताया है। उनका यह भी कहना है क सभी दे वी-दे वता म सबसे े थान माता
का है।
के संबंध म तो अनेक थान पर उसक ता का वणन कया गया है।
जन अथात स जन को हर समय ख दे ता रहता है। उसके शरीर का कोई
थान ऐसा नह , जो जनता से र हत हो। उसका संग कसी भी तरह से य न हो,
हा नकारक ही है।
ी के संबंध म आचाय चाण य का मानना है क उसका क याण प त क सेवा से
ही होता है। य द वह प त क सेवा न करके उपवास, दान आ द ही करती रहे तो भी उसका
क याण नह हो सकता। उनके ये वचार वहार क कसौट पर खरे ह। प त-प नी का यह
संबंध गृह थ क उ त का आधार है। इसी से प रवार म शां त बनी रहती है। दोन के लए
प रवार ही े है।
आचाय ने जहां दान के मह व को बताया है, वहां उ ह ने यह भी कहा है क
क शोभा दान से ही होती है, साज-शृंगार करने से उसक शोभा नह बढ़ती। स जन के
संबंध म उनका कहना है क वे आप य से इस लए र रहते ह य क उनके मन म
सवसाधारण के त परोपकार करने क भावना रहती है। इससे उनके क अपने आप र
हो जाते ह और उ ह कसी भी कार क कमी भी नह रहती।
सामा य गृह थ के लए आचाय का कहना है क य द उसक ी प त ता है, कटु -
भाषण नह करती और उसके घर म कसी कार क कोई कमी नह , उसक संतान शालीन
और वनय आ द गुण से यु है, तो उसका घर ही वग के समान है।
यह तो सभी जानते ह क ब त-सी बात पशु और मनु य म एक समान होती ह।
भेद उनम केवल धम के कारण ही होता है। मनु य भी पशु के समान खाता, पीता, सोता
और संतान उ प करता है, य द उसम धम का अभाव है, तो उसका जीवन भी पशु के
समान समझा जाना चा हए। ब क पशु से भी बदतर, य क पशु कृ त के कुछ न त
नयम म बंधा आ है।
मनु य का जीवन अनेक प र थ तय से गुजरता है। माता के गभ से ज म लेने के
बाद ब चे के प म उसका वकास होता है। कशोराव था के बाद युवाव था आती है और
दन ढलने के समान मनु य का शरीर भी अ त होने लगता है। उसक कमर म बल पड़ जाते
ह। उस थ त को दे खकर अ ानी पु ष ही उसका उपहास कर सकता है, य क युवाव था
के बाद शरीर का बल होना अव यंभावी है। जो युवा वृ का उपहास करते ह, वे मूख ह।
वे भूल जाते ह क एक दन उ ह भी इस अव था को ा त होना है।
आचाय ने इस अ याय के अंत म एक ब त ही मह वपूण बात कही है। उनका
मानना है क य द कसी चीज म कोई ऐसा गुण है, जससे अ धकांश लोग को लाभ होता है
तो उसके अवगुण मह वहीन हो जाते ह। येक का कत है क वह अपने म लोग
का उपकार करने के गुण का वकास करे। य द उसम लोग के उपकार करने का गुण है तो
उसके अ य दोष क ओर कसी का यान नह जाएगा। इस वशेष गुण के सामने अ य
अवगुण गौण हो जाएंग।े
राजा को चा हए क वह कसी भी थ त म वषय—भोग म न डू ब।े इससे उसक श का
ास होता है। भंवरा रस चखने के लोभ म कमल के पु प म रातभर बंद रहता है, उसके
कोमल प को नह काटता, जब क वह बांस को काटने म स म है। यह थ त सदै व
आप य और वप य को नमं ण दे ने वाली आ करती है।
चाण य सू

दशन-सा ह य म अपनी बात को सू म कहने क अ यंत ाचीन परंपरा है। इन सू को


कंठ थ करना सरल होता है। आ म चतन के लए ये अ यंत उपयोगी होते ह। ये उन बीज
क तरह ह, जो दे खने म तो छोटे होते ह, ले कन जनके गभ म वशाल वृ क संभावना
छपी होती है। आचाय चाण य ने नी त शा के सार को सू प म इसी लए तुत कया
है, ता क उ ह समझकर वहार म उनसे लाभ उठाया जा सके।
।। अथतो षणं ीः प र यज त ।।
जो राजा थोड़े-से धन से संतु हो जाता है, रा य ल मी उसे याग दे ती है।
।। यो य मन् कम ण कुशलः तं त म ेव योजयेत् ।।
जो जस काम को करने म कुशल हो, उसे वही काय करने का भार स पना
चा हए।
।। आ म छ ं न काशयेत् ।।
श ु को अपनी बलता का प रचय नह दे ना चा हए अथात् ऐसा य न करना
चा हए क अपनी बलताएं श ु पर कट न ह ।
।। गुणे न म सरः क ः ।।
सरे के अ छे गुण से ई या नह करनी चा हए।
।। सवाव थासु माता भत ा ।।
येक अव था म माता का भरण-पोषण करना चा हए।
।। अथ चाण य सू ं ार यते ।।
।। नमः शु बृह प त याम् ।।
शु ाचाय और बृह प त को नम कार है! ।1।
पृ थ ा लाभे पालने च याव यथशा ण
पूवाचायः
था पता न सं यैक मदमथशा ं कृतम्।
पृ थवी क ा त और उसक र ा के लए पुरातन आचाय ने जतने भी अथशा -
वषयक ंथ का नमाण कया, उन सभी का सार-संकलन कर ‘अथशा ’ ( तुत) क
रचना क गई है। चाण य क म ‘अथ’ का ता पय भू म से है। इस कार भू म का
संर ण और संवधन नी त शा का उद्दे य है। ‘कोष’ इस अथ का एक आयाम है। । 2 ।

।। सुख य मूलं धमः ।।


सुख धम से ा त होता है अथात् धम मानवो चत क का पालन ही सुख का
मूल है।
संसार म येक मनु य सुख चाहता है परंतु येक क सुख क अवधारणा
पृथक् होती है। कोई सुख केवल इसी बात म मानता है क उसके पास धन हो जससे
वह अपनी इ छाएं पूरी कर सके, सुख से रह सके, अ छा मकान बना सके, कार रख सके
और ी का भोग कर सके आ द। कसी को सुख लखने-पढ़ने म मलता है। कोई अपनी
संतान को अ छा बनाने म ही सुख समझता है।
ब त कम लोग जानते ह क वा त वक सुख या है।
इस संबंध म भी मा यताएं भ ह।
कोई शराब-मांस से बचता है, वे या के पास नह जाता। कोई अपना काम नयम से
करता रहता है और इसी तरह जीवन बता दे ता है। कोई ब च के पोषण म लगा रहता है
और कोई दे श-सेवा म सुख समझता है। कुछ लोग धा मक कृ य म ही सुख का अनुभव
करते ह। वह धा मक काय म खूब बढ़-चढ़कर ह सा लेते ह।
यह सब बात सुख नह ह, सुख का आभास मा ह। मानवो चत क का पालन
करने से ही मनु य के धम का पालन होता है और यही धम-पालन सुख है। । 3 ।

।। धम य मूलमथः ।।
धम का मूल है अथ। धम अथात् नी तपूवक मानवो चत काय को करते रहने से ही
अथ क ा त होती है। अथ को सुर त रखने के लए रा य- व था का मह वपूण
सहयोग होता है।
आचाय चाण य ने अनेक थान पर अथ क मह ा को प कया है। उनका
कहना है क धन के बना धम का पालन भी असंभव होता है। अथात् धन के बना न तो
मनु य कसी कार क उ त कर सकता है और न कसी कार के क याणकारी काय।
उ ह ने नधन को संसार म सबसे नरीह बताया है। नधन को कसी कार का
भी सुख ा त नह होता और न ही वह अपने क का पालन कर पाता है। इस लए
मनु य को चा हए क धम काय के लए धन का सं ह कर।
धन तो पापी के पास भी हो सकता है परंतु उसके पास धन होने से न तो उसे
कोई लाभ हो सकता है और न ही संसार का कसी कार का क याण। जस धन का योग
धम क र ा और मानव-क याण के लए होता है, वा तव म वही धन है, बाक मट् ट है। ।
4।

।। अथ य मूलं रा यम् ।।
अथ का मूल है रा य। अथात् रा य क सहायता अथवा व था के बना धन सं ह
करना क ठन है। धन सं ह के लए रा य म थरता और शां त था पत होना अ यंत
आव यक होता है। जब तक रा य म अशा त रहती है तब तक रा य संप नह हो सकता।
जन दे श अथवा रा य ने अपने य न ारा दे श को वक सत और स प बनाया
है, उसम वहां क सरकार क मुख भू मका रही है। इसके अ त र येक रा य अथवा
सरकार ापा रय को अनेक कार क सु वधाएं दान करती है, जससे रा य संप होता
है। आज के वक सत रा इस बात का माण ह क उ ह ने अपने ापा रय अथवा
उ ोगप तय को कस कार ो साहन दया अथात् यह बात प है क कसी दे श के लोग
का संप होना उस दे श क शासन- व था पर नभर होता है। । 5 ।
।। रा यमूल म यजयः ।।
रा य का मूल इं य को अपने वश म रखना है।
येक रा जो उ त करता है, वहां के सव च पदा धका रय का क है क वे
अपनी इं य को वश म रख। उनके संयम के कारण ही रा य क समृ थर रह सकती
है। य द वहां के अ धकारी अथवा सव च नेता कसी कार का संयम नह रख सकगे तो
जनता भी उनका अनुसरण करती ई वैसा ही आचरण करेगी।
इं य पर संयम रखने का अथ काफ ापक है। अ धकारी स ा के नशे म नरंकुश
होकर काय करने लगगे तो रा य म व ोह पैदा हो जाएगा, इससे रा य क हा न होगी।
आज भी हमारे सामने अनेक दे श के उदाहरण ह, जहां के शासक ने अपनी
नरंकुशता के कारण रा को हा न प ंचायी है। अनेक दे श म वहां के सव च स ा पु ष ने
जनता पर इतने अ याचार कए और वयं तथा अपने सगे-संबं धय को रा य म मनमाना
काय करने क आजाद द , जससे रा को त उठानी पड़ी। ब त से राजनेता भोग-
वलास के कारण जना ोश का नशाना बने। ब त से ाचार व वाथपरता के कारण
अपमा नत ए।
इं य पर वजय का अथ यही है क अपनी इ छा को सी मत रखे। इसे
आ म नयं ण भी कह सकते ह। ‘यथा राजा तथा जा’ वाली बात है। राजपु ष असंयमी,
ाचारी व अकम य ह गे तो भला जा इन राचरण से अछू ती कहां रह सकती है। । 6 ।

।। इ यजय य मूलं वनयः ।।


इं य को जीतने का सबसे मु य कारण न ता है।
मनु य वनयशील रहकर ही इं य को जीत सकता है। वनयशील रहने के लए
मनु य को स जन लोग क संग त म रहना चा हए। व तुतः गुणी मनु य ही वनयशील होते
ह। जस कार फल से लद ई वृ क शाखाएं नीचे क ओर झुक जाती ह उसी कार
गुणवान न वभाव का होता है।
वनयशील ही श ाचार का तीक हो सकता है। । 7 ।

।। वनय य मूलं वृ ोपसेवा ।।


ान-वृ क सेवा वनय का मूल है।
यहां वृ का अथ आयु म बड़ा होना नह है परंतु ान क अ धकता से है। जो लोग
व ान् ह, ज ह संसार के मह वपूण वषय का ान है, उन लोग को ान-वृ कहा जाता
है। यह आव यक नह क ान-वृ क आयु ब त अ धक हो। ब त से छोट आयु म
ही अपने य न से अनेक वषय और व ा का ान ा त कर लेते ह। जो लोग ऐसे
य क सेवा म रहते ह, वे ही वनयशील हो सकते ह। वनयशील व ान , अपने
माता- पता आ द सभी का मान-स मान करता है। व ान के पास जो ान- पी धन है उसे
ा त करने के लए को न होकर कुशलतापूवक उसे ा त करने का य न करना
चा हए। राज अथवा रा य के अ धका रय को भी व ान् लोग के त वनयशील रहते ए
उनक सेवा करते ए, उनसे ान ा त करने का य न करना चा हए। । 8 ।

।। वृ सेवया व ानम् ।।
मनु य वृ क सेवा से ही वहारकुशल होता है और उसे अपने क क
पहचान होती है।
वृ क सेवा से को इस बात का पता चलता है क कौन-सा काय करने
यो य है और कौन-सा न करने के यो य। इसका भाव यह है क वृ ने अपने
जीवनकाल म ब त कुछ सीखा है, उसने ब त मामल म अनुभव ा त कया होता है। य द
कोई सांसा रक काय- वहार म कुशलता ा त करना चाहता है तो उसे बूढ़े य
क सेवा करनी चा हए। उनके अनुभव से लाभ उठाना चा हए। जो मनु य ान-वृ लोग
के पास नरंतर उठता-बैठता है और उनम ा रखता है, वह ऐसे गुण सीख लेता है क उसे
समाज म अपने आचार- वहार से स मान ा त होता है। वह धोखेबाज और पाखंडी लोग
के च ूह म नह फंसता।
इस सू म जो ‘ व ानम्’ श द आया है उसका अथ केवल वहारकुशल होना ही
नह वरन् संसार क अनेक ऐसी बात ह जनका ान वृ लोग के पास आने-जाने, उनके
उपदे श और उनक संग त करने से ा त होता है। वे अपने अनुभव से उनका जीवन सरल
बनाने म सहायक होते ह। इस कार व ान का अथ एक ापक जानकारी से है। जसक
ा त केवल पु तक से ही संभव नह । य क उ ह पढ़ने, समझने और ान ा त करने म
काफ समय लगता है। वृ पु ष के पास जीवन का नचोड़ होता है, इस लए वृ क
सेवा ा और भ पूवक करने से मनु य संसार के अनेक मह वपूण ान सरलतापूवक
हण कर सकता है। । 9 ।

।। व ानेना मानं स पादयेत् ।।


रा या भलाषी लोग व ान, वहार-कुशलता या क का प रचय ा त करके
अपने आपको यो य शासक बनाएं। मनु य को चा हए क वह अपने आपको उ त के माग
म ले जाने के लए ान- व ान से संबंध बनाए। उसक ा त का य न करे।
चाण य सू क ा या करने वाले अनेक य ने इस सू का अथ यो य
शासक बनाने क दशा म कया है, परंतु यह सू केवल शासक के लए ही नह ,
जनसामा य के लए भी है य क येक ान- व ान ा त करने के बाद ही अपने
को यो य बना सकता है। यहां ान- व ान का अथ वहार-कुशलता से है, जो सभी के
लए है। कसी भी े म सव च शखर तक प ंचने के लए को वहार-कुशल
होना चा हए। । 10 ।

।। स पा दता मा जता मा भव त ।।
जो पु ष ान- व ान से संप होता है, वह वयं को भी जीत सकता है, अथात् वही
संसार म सफल होता है।
इस सू के भी आधु नक संदभ म दो अथ होते ह—अथात् जो शासक स य के
अनुसार आचरण करना सीख लेता है, वह अपनी इं य को जीत सकता है।
सरा अथ यह है क जो सामा यजन स य वहार से प र चत हो जाता है, जसे
स य और अस य का ान हो जाता है, वह अपनी इं य को जीत सकता है और
आ म वजयी हो सकता है। अ ानी मनु य अपने आप पर वजयी नह हो सकते, य क
उसको स य और अस य का ान नह होता, इस लए मनु य का क यह है क अपने
आप पर वजयी होने का य न करे। अपने आप पर वही नयं ण रख सकता है
जसे सांसा रक वा त वकता का ान हो। जो वयं को जीत लेता है, वह संसार को जीत
सकता है। स भवतः चाण य के कहने का यही ता पय है। । 11 ।

।। जता मा सवाथः संयु येत् ।।


अपने ऊपर काबू पाने वाला मनु य स चे अथ से संप होता है अथात् नी त जानने
वाले और अपने ऊपर नयं ण रखने- वाले लोग अपने आप को सम त संप य से संप
समझ।
जो अपने आप को जीत लेता है अथात् अपने ऊपर नयं ण कर लेता है,
उसक यह वशेषता होती है क वह जो काय अपने हाथ म लेता है उसे स पूण करके ही
छोड़ता है। ऐसे ही धन-धा य और संप य के वामी होते ह। ल मी और स यां
ऐसे के वश म रहती ह, जो जत य होता है। अथात् उसी के पास धन इकट् ठा
होता है, वही संप शाली होता है जो अपने पर वजय ा त कर लेता है। जो ,
अपने पर नय ंण नह रखता वह संप य को ा त नह कर सकता। अथात् धनवान बनने
के लए को अपने पर नयं ण रखना सीखना चा हए। । 12 ।

।। अथस पत् कृ तस पदं करो त ।।


रा य क संपदा से वभाववश जा क संप य म भी वृ होती है।
राजा के संप होने से जा के धन-धा य म भी वृ होती है, ऐसा वाभा वक
है। य द राजा ही संप नह होगा तो जा कैसे संप हो सकती है। द र रा क जा भी
द र ही होती है।
य द रा य म अ छ व था था पत होती है तो राजा व जा दोन का ही संप
होना सरल हो जाता है। अ व था अथवा अशां त म कसी भी रा अथवा के संप
होने क संभावनाएं समा त हो जाती ह। अतः रा को संप बनाने के लए वहां सु व था
का होना ज री है। इस संब ध म राजा अथवा जा, जा अथवा राजा दोन एक- सरे पर
आ त होते ह। य द जा द न- खी और द र है तो रा भी संप नह कहला सकता। ।
13 ।
।। कृ त स पदा नायकम प रा यं नीयते ।।
कृ त-संप से जाजन क गुण-वृ के ारा नेता-र हत रा य का भी संचालन
कया जा सकता है।
भाव यह है क कसी कारणवश य द राजा का अभाव भी हो जाए तो ऐसी थ त म
य द जा नी तयु काय करती है तो रा य के काय अ छे ढं ग से चलते रहते ह।
इस सू का वा त वक अथ यह है क नी तवान राजा के भाव से उसे परामश दे ने
वाले मं ी, रा य कमचारी तथा टै स आ द दे कर अपने क को पूरा करनेवाली जा के
मुख नी तयु रहकर काय-कौशल से संप हो जाते ह अथात् जब रा य कमचारी
और जा के लोग रा के संबंध म अपने क को भली कार समझते ह तो रा य-शासन
चलाने म कोई क ठनाई नह होती। य द जा और अ धका रय को अपने क का बोध है
तो राजकाय सु व थत ढं ग से चल सकता है। । 14 ।

।। कृ त कोपः सवकोपे यो गरीयान् ।।


रा य के व कृ त का ोध सब ोध से भयंकर होता है।
एक राजा से सरा राजा ो धत हो जाए, तो उससे नपटा जा सकता है। कोई रा य
कमचारी या मं ी हो जाय तो उसे समझा-बुझाकर अपने प म कया जा सकता है।
जा हो जाए तो उसे अ य धक सुख-सु वधा दान कर स कया जा सकता है, परंतु
य द कृ त कु पत हो जाय—कह भूकंप, कह अ तवृ , कह अनावृ , कह च वात
और उपल वृ —तो राजा के लए यह अ नवारणीय हो जाता है। इसी लए कहा गया है क
कृ त का कोप सभी कोप से बढ़कर होता है। । 15 ।

।। अ वनीत वा मलाभाद वा मलाभः ेयान् ।।


अ वनीत वामी के ा त होने क अपे ा, वामी का न होना ेय कर है। इसका
भाव यह है क अयो य को राजा बनाने क अपे ा राजा न बनाना ही रा य के लए
क याण क बात हो सकती है।
कसी रा क बागडोर अयो य शासक के हाथ म होने से रा क हा न होना न त
है। अयो य राजा के हाथ म अ धकार दे ने से अ छा यह है क वहां पंचायती रा य था पत
कया जाय। अयो य राजा से जा का क याण नह हो सकता। इस सू का वा त वक
भावाथ यह है क रा के लए यह आव यक नह है क कसी को अ नवाय प से राजा
बनाया ही जाए। इस कार चाण य गणतं का समथन करते ह। । 16 ।

।। स पा ा मानम व छे त् सहायवान् ।।
राजा को रा यो चत गुण से संप होना चा हए तथा अपने जैसे ही गुणी सहायक
रखकर रा य का कायभार संभालना चा हए।
राजा का क है क वयं अपने आप को यो य बनाने के बाद अपने वचार से
मेल खाने वाले गुणवान य को ही अपना सहायक बनाए। तभी वह भली कार
रा यभार को संभालने म समथ हो सकता है। उसे अपनी श य व क का पूण ान
होना चा हए। उसक इं यां वश म होनी चा हए। उसके वचार नी तपूण, स य से यु होने
आव यक ह। शासक का क यह है क वह शासको चत गुण से संप हो, उसम
गंभीरता होना आव यक है, तभी वह अपने सहायक से उ चत काय लेने म समथ हो सकता
है। जब राजा को वयं ही राज से संबं धत नी तय और काय का ान नह होगा तो उसके
सहयोगी उसको स माग से वमुख कर सकते ह। । 17 ।

।। नासहाय य म न यः ।।
गुणी सहायक से हीन राजा के वचार अ न त होते ह। मं प रषद् क बौ क
सहायता से हीन अकेला राजा अपने सी मत अनुभव के बल से राज जैसे ज टल क के
वषय म उ चत नणय नह कर सकता।
मं प रषद् क उ चत सलाह के बना अकेला राजा राजकाय को ठ क से नह नभा
सकता य क अ धकांश य का अनुभव और उनक श यां सी मत होती ह, जब क
रा य से संबं धत वचार और नणय का रगामी प रणाम होता है। इस लए राजा का
क है क जब भी कोई न य करे अथवा कसी नी त का नधारण करे, उसे अपने
बु मान सहायक से परामश अव य करना चा हए।
इस कार यह कट है क रा य-शासन चलाने के लए बु मान मं य क
आव यकता रहती है। । 18 ।

।। नैकं च ं प र मय त ।।
जैसे रथ को एक अकेला प हया नह चला सकता उसी कार रा य को एक
चलाने म असमथ होता है। राजा के अ त र मं प रषद् रथ के सरे प हये के समान काम
करती है।
य द अकेला राजा बु मान मं य क सहायता के बना काय करता है, तो वह
एकतं और तानाशाह रा य कहलाता है। इससे रा य क हा न होती है। इ तहास ऐसे
उदाहरण से भरा पड़ा है जहां एक तानाशाह ने जो भी काय कए अ ततः उनका प रणाम
रा के लए हा नकारक आ। जस कार एक अकेले च से गाड़ी नह चल सकती, उसी
कार कोई राजा भी सहयोगी मं प रषद् के बना भली- कार काय-भार नह चला सकता।
। 19 ।
।। सहायः सम ःखसुखः ।।
सुख- ःख आ द दोन थ तय म जो मं ी राजा से पूण मेल रखकर उसक
सहायता करता है, उसे ही वा त वक सहायक कहते ह।
सुख और ःख जीवन क दो प र थ तयां ह। दोन थ तय म जो एक-सा वचार
रखता आ सहायता करता है, उस को ही वा त वक सहायक माना जाता है। सामा य
प से ायः दे खने म यह आता है क सुख म तो ब त से साथी हो जाते ह परंतु ःख म
साथ दे ने वाले ब त कम होते ह। तब उसके सगे-संबंधी और यहां तक क प नी भी
उसका साथ छोड़ दे ती है। कतु जो सुख- ःख म समान भाव रखते ह, को उ ह ही
अपना स चा सहायक और हतैषी मानना चा हए। । 20 ।

।। मानी तमा ननमा म न तीयं म मु पादयेत् ।।


बंध संबंधी सम या के उ प होने पर वा भमानी राजा का क है क वह
सम या के तकूल वचार अपने मन म उ प करे, फर दोन थ तय को अपने
स मुख रखकर वचार करे।
येक सम या के दो पहलू होते ह। समाधान के प म सरा वक प हो सकता है
और उस समाधान को नकारने वाला तक भी संभव है। सम या उ प होने पर राजा को उन
दोन पहलु पर वचार करना चा हए। उसके बाद ही कोई नणय लेना चा हए अथात् उसे
इस बात का भली कार चतन-मनन करना चा हए क वह उन सम या का जो समाधान
सोच रहा है, उसका प रणाम या होगा। जो राजा अथवा रा य-सं था इस कार कसी
सम या के दोन पहलु पर वचार करती है वही उ चत नणय ले सकती है। उ चत नणय
का अथ यह है क राजा अथवा रा य के अ धका रय को अपने नणय के संबंध म कसी
कार का संदेह नह होना चा हए। संशया मन वन य त—संशयमना ल य से हो जाता
है। । 21 ।
।। अ वनीतं नेहमा ेण न म े कुव त ।।
स य और ववेक से हीन को केवल नेही होने के कारण ही अपना हत
करनेवाला नह मानना चा हए। उसे अपने से संबंध रखनेवाली सम या पर वचार करने म
भी स म लत नह करना चा हए।
जो ववेकहीन है अथात् जसे समय के उपयु काय करने का कोई ान
नह , ऐसे से य द आप नेह रखते ह तो भी उसे अपने जीवन से संबं धत रह य और
मह वपूण लाभदायक बात के संबंध म वचार- वमश म स म लत नह करना चा हए। उसे
यह अ धकार भी नह दे ना चा हए क वह आपसे संबं धत काय क जांच-परख करे, उनक
आलोचना करे। । 22 ।

।। ुतव तमुपधाशु ं म णं कुयात् ।।


तकशा , द डनी त तथा मं णा करने क श आ द वधा के पारंगत तथा
गु त प से ली गई परी ा म खरे उतरे को ही मं ी नयु करना चा हए।
राजा का क है क मं ी नयु करने से पूव उसक परी ा ले क कह वह
वाथ और लोभी तो नह । वाथ और लोभी ायः ऐसे काय करते ह, जससे हा न
होती है। । 23 ।

।। म मूलाः सवार भाः ।।


भ व य म कए जाने वाले सभी काय के लए पहले से ही भली- कार सोच-
समझकर काय म बनाने से ही काय स होते ह।
इस सू म मं का अथ भली कार सोच-समझकर बनाई गई काय-योजना है। यह
एक सामा य सूझबूझ क बात है क कोई भी काय ारंभ करने से पूव उसके संबंध म भली-
कार सोचकर काय म क योजना नह बनाई जाएगी तो उस काय के स होने म संदेह
हो सकता है। इसके लए आव यक है क वशेष के साथ काय से संबं धत सभी बात पर
वचार- वमश कया जाए। कसी भी काय को स करने के लए इस कार का वचार
आधार शला का काम करता है। उसके सफल होने क संभावना बढ़ जाती है। । 24 ।

।। म र णे काय स भव त ।।
भ व य के संबंध म बनाई गई काय-योजना को गु त रखने से ही काय स हो पाता
है।
भ व य क कसी भी योजना को गु त रखना चा हए। इसका यह लाभ होता है क
उस योजना से संबं धत श ु उस काय म बाधा उ प नह कर पाते। अचानक अपना
काय संप कर लेता है और श ु मुंह ताकते रह जाते ह। । 25 ।

।। म व ावी काय नाशय त ।।


जो कसी काय के संबंध म बनाई गई योजना को गु त नह रख सकते, उनके
काय न - हो जाते ह।
कसी काय के लए बनाई गई योजना असावधानी बरतने से ऐसे लोग पर कट हो
जाती है जो उसके वरोधी होते ह। कई बार ऐसा होता है जब योजना बनाई जाती है तो उस
समय वहां कोई ऐसे अवां छत हो सकते ह, जो उसका भेद श ु पर कट कर द।
इस लए यह बात यान म रखनी चा हए क सब काय क सफलता के लए मं णा गु त
होनी चा हए और उसे तब तक गु त रखा जाना चा हए जब तक काय पूणतया सफल न हो
जाए। । 26 ।

।। मादाद् षतां वशमुपया य त ।।


य द राजा अथवा रा य के कमचारी अपनी मं णा को गु त रखने म थोड़ा-सा भी
आलस अथवा लापरवाही बरतते ह तो योजना क गोपनीयता सुर त न रह पाएगी और
उसका भेद श ु के पास चला जाएगा, जससे रा य क हा न होगी और श ु को लाभ होगा।
। 27 ।
।। सव ारे यो म ो र त ः ।।
अपनी योजना के भेद कट होने के सभी माग को रोककर उसक र ा करनी
चा हए अथात् इस कार का य न करना चा हए क अपनी योजना कसी भी कार कट
न होने पाए।
मं अथवा गु त रह य को कट होने से बचाने के लए पूण य न करना चा हए।
ऐसे सभी ार को बंद कर दे ना चा हए, जनसे रह य के फूटने क संभावना हो अथात्
चुगलखोर, जसके पेट म बात न पचती हो ऐसे के सामने मं णा नह करनी चा हए।
। 28 ।
।। म स पदा ह रा यं वधते ।।
मं का रह य गु त रखने से ही रा य के धन, धा य क वृ होती है।
रा य के काय से संबं धत सभी मं णा और योजना को सुर त रखने के
कारण ही रा समृ हो सकता है। इस लए आव यक है क अपनी योजना को गु त रखने
म पूण सतकता बरती जाए। । 29 ।
।। े तमां म गु तमा ः ।।
मं को गु त रखने क नी त सव े नी त है।
राजधम के आचाय बृह प त, वशाला , बा दं तीपु , पशुन भृ त व ान् लोग,
मं गु त रखने क नी त को अ य सब नी तय का सरमौर बता गए ह। । 30 ।

।। काया ध य द पो म ः ।।
मं अंधकार म माग दखाने वाले द पक के समान है। यह अपने काय के संबंध म
अ न त नी त वाले को उसका क -माग दखाने म सहायक होता है।
जैसे घर का मा लक काश के बना अपने ही घर म अंधे के समान वहार
करता है, उसी कार मनु य सु वचा रत मं के बना अपना क -पालन करने म अंधा
बना रहता है। । 31 ।

।। म च ुषा पर छ ा यवलोकय त ।।
जन राजा को अपनी वजय क आशा रहती है, वे अपने परामशदाता मं य क
आंख से अथवा उनक से अपने वरो धय क कमजो रय को जान लेते ह।
जो राजा सदै व सतक रहता है वही जीत क आशा कर सकता है। वह अपने मं य
अथवा अ य परामशदाता क सहायता से अपने वरोधी रा क कमजो रय का पता
लगा लेता है। सरे रा क कमजो रय अथवा बलता का ान होने पर राजा लाभ उठा
सकता है और अपने रा य को सु ढ़ बना सकता है। । 32 ।

।। मं काले न म सरः कत ः ।।
मं हण करते समय मं दाता के छोटे अथवा बड़ेपन पर यान न दे कर उसके
अ ां पन पर ई या न करके ा के साथ म हण करना चा हए।
इसका भाव यह है क जस समय कसी योजना के संबंध म वचार कया जा रहा
हो, उस समय कसी को छोटा अथवा नबल समझकर उसक बात को मह वहीन नह
समझना चा हए। मं णा म भाग लेने वाले सभी सद य का क है क वे न प भाव से
सबके वचार सुन। । 33 ।

।। याणामेकवा ये स ययः ।।
कसी वचारणीय क के वषय म जब कोई वचार कया जा रहा हो तो उसम
भाग लेने वाले व भ कार के य का एकमत होना े माना जाता है। एकमत होने
के कारण काय स सु न त हो जाती है। । 34 ।

।। कायाकायत वाथद शनो म णाः ।।


काय, अकाय क वा त वकता को ठ क-ठ क समझनेवाले, अपने वेतन से अ धक न
चाहने वाले तथा मं के रह य को समझनेवाले मं ी होने चा हए।
इस सू म आचाय चाण य ने इस बात क ओर संकेत कया है क राजा के मं ी
कस कार के ह । राजा को चा हए क वे ऐसे मं ी नयु कर ज ह इस बात का ान हो
क कौन-सा काय करने यो य है और कौन-सा न करने यो य अथात् ऐसे को मं ी
बनाना चा हए जो वा त वकता को ठ क से समझनेवाला हो। इसके अ त र उसम
कसी कार का लोभ और लालच न हो अथात् उसे जस वेतन पर नयु कया गया है,
उसके मन म उससे अ धक पाने क इ छा न हो। । 35 ।

।। षट् कणाद् भ ते म ः ।।
चाण य ने इस सू म भी अपने रह य को गु त रखने क बात कही है। उनका
कहना है क कोई वचा रत बात छह कान म प ंचने से रह य नह रह पाती।
मं राजा तथा मु यमं ी के अ त र कसी भी तीसरे के कान तक प ंचने
से ही असार हो जाता है। यही इस सू का भाव है। इसके अनुसार जब मं णा को अं तम
प दे ना हो तो उस समय केवल दो उ रदायी मनु य ही उसे न त अं तम प द। । 36 ।

।। आप सु नेहसंयु ं म म् ।।
वप के दन म जब सारा संसार वप म फंसे ए को अकेला छोड़ दे ता
है तो उस समय सहानुभू त रखनेवाला ही म कहलाता है। । 37 ।

।। म सं हणे बलं स प ते ।।
स चा म मल जाने अथवा उनका सं ह करने से मनु य को बल ा त होता है
अथात् मनु य स चे म के कारण अपने को बलवान अनुभव करता है।
मनु य को स चा म मलने से जो बल ा त होता है, उसे सात व भ प म
दे खा जाता है। यह बल उसे अपने वामी, मं ी, दे श, ग, खजाना, सेना और म आ द के
प म ा त होता है अथात् इनम से कोई भी एक या एक से अ धक ोत उसके प म होते
ह तो अपने आप को श -संप मान सकता है।
इससे पहले सू म भी यही बताया गया है क आप म जो नेह रखता है,
उसे भी म कहा जा सकता है और इस सू का प अथ यह है क मनु य के स चे म
ही उसका वा त वक बल होते ह। । 38 ।

।। बलवान ल धलाभे यतते ।।


अथात् स चे म से जो बल ा त होता है, उससे राजा अ ा त रा यै य को पाने
का य न करता है अथवा कर सकता है।
इसी कार सामा य मनु य भी स चे म के ा त होने से उन लाभ को ा त करने
का य न कर सकता है, जो उसे जीवन म ा त नह ह। इस कार म के स चे बल से
अपने आपको बलवान अनुभव करनेवाला उस बल से अपने जीवन को वक सत कर
सकता है, परंतु इसके लए उसे उ म करने क आव यकता होती है। बल ा त होने पर भी
उसके उपयोग और उससे लाभ उठाने क मता म होनी चा हए। । 39 ।

।। अल धलाभो नालस य ।।
आलसी अ ा त रा यै य ा त नह कर सकता अथात् आलसी
अथवा आलसी राजा न तो अपने रा य क सीमा को वक सत कर सकता है और न अपने
रा य को समृ शाली बना सकता है।
व तुतः स य म न ा न होना ही आल य है। जो स यहीन है वह सदै व ऐसे
काय करता है, जो करने के लायक नह होते ह और उपयु काय को करने म आल य
दखाता है। आल य उसे भी कह सकते ह जससे कसी कार का लाभ नह होता।
आल य मनु य का सबसे बड़ा श ु है। ‘आल यं ह मनु याणां शरीर थो
महान् रपुः’, अथात् आल य ही मनु य के शरीर म रहनेवाला उसका सबसे बड़ा श ु है। ।
40 ।
।। अलस य ल धम प र तुं न श यते ।।
स यहीन आलसी , जो कुछ ा त है उसक र ा करने म भी असमथ होता है
अथात् आलसी राजा अपने क से वमुख होने के कारण ा त रा यै य को भी सुर त
रखने म समथ नह होता।
सामा य संसार म भी यह दे खने म आता है क आलसी अपने धन-ऐ य,
संप अथवा सुख का व तार नह कर सकता। इसके वपरीत उसे इस संसार म जो कुछ
ा त है, आल य के कारण वह उससे भी हाथ धो बैठता है। । 41 ।

।। न चालस य र तं ववधते ।।
आलसी, स यहीन, य नहीन का दै ववश सं चत रा यै य कुछ काल तक
सुर त दखने पर भी वृ को ा त नह होता।
राजा के ऐ य म वृ न होना, वा तव म उसका वनाश है। जैसा क पहले बताया
जा चुका है क मनु य के शरीर म रहनेवाला आल य ही उसका सबसे बड़ा श ु होता है।
इस लए मनु य का क है क वह आल य पी दोष को सदै व र करने का य न करे।
। 42 ।
।। न भृ यान् ेषय त ।।
आलसी, स यहीन, अकम य, भोग वलास म फंसा आ राजा अथवा रा य
अ धकारी, रा य के कमचा रय को उनके उ चत काम पर लगाने अथवा उनसे अ धक काम
करवाने म आल य से काम लेता है।
जो लोग आलसी ह, वे अपने अधीन रहने वाले यो य कमचा रय से भी सही कार
से काम लेने म असमथ रहते ह। आलस को न यागना, नौकर-चाकर तथा अ य
अ धका रय से उनक यो यता के अनुसार काय न लेना राजा का एक कार से अपराध है।
इससे रा य- व था म गड़बड़ पड़ जाती है। । 43 ।

।। अल धलाभा द चतु यं रा यत म् ।।
अल ध का लाभ, ल ध क र ा, र त का वधन तथा राजकमचा रय क उ चत
नयु ारा काय म व नयोग या य ये रा य- व था के चार आधार ह। ये चार बात
मलकर राजतं कहलाती ह।
अथात् रा य-तं के लए यह आव यक है क रा को जो कुछ ा त नह है, उसे
उपल ध करवाने का य न कया जाये, उसे जो कुछ ा त है उसक र ा क जाए और
उसक वृ क जाए, यह राजतं के मुख काय ह। । 44 ।

।। रा यत ाय ं नी तशा म् ।।
समाज म च लत वहार म आने वाली बात को ही नी तशा कहते ह। रा य-
व था नी तशा के अनुसार ही होती है।
य द रा य- व था एक व श नी त से संप हो तो समाज म एक वशेष कार
क नी त ज म लेती है और इसी कार के समाज म उसे फलने-फूलने का अवसर मलता
है। । 45 ।

।। रा यत े वाय ौ त ावापौ ।।
अपने रा से संबं धत तथा सरे रा से संबंध रखने वाले क अपनी रा -
व था के आव यक अंग होते ह।
येक रा क अ य रा के संबंध म एक वशेष नी त होती है। येक सरकार म
एक वदे श मं ालय भी होता है, जसका काम अपने पड़ोसी रा य अथवा सु र रा य के
त नी त- नधारण करना होता है। इस नी त का वशेष लाभ यह होता है क इससे रा
सु ढ़ होता है। वदे श नी त इस कार क होनी चा हए, जससे रा का अ हत न हो। उसक
सुर ा म कसी कार क बाधा न पड़े। यह वभाग कसी भी दे श के क याण के लए
अ य त आव यक होता है। । 46 ।

।। त ं व वषयकृ ये वाय म् ।।
वरा - व था तं कहलाती है और वह केवल वरा संबंधी क से संब
रहती है।
अपने रा के संबंध म अपने क पूरे करने से ही रा य म व था कायम रहती
है। रा य म अ व था होने का कारण यही है क रा य के अ धकारी अपने दे श से संबं धत
क क उपे ा करते ह। वे अपने क का पालन नह करते। इससे रा य म
अ व था फैलती है और रा य को हा न प ंचती है। । 47 ।

।। आवापो म डल न व ः ।।
आवाप अथात् सरे रा से संबं धत क म डल अथात् पड़ोसी रा से संबंध
रखता है।
जो रा सरे रा पर वशेष नजर रखता है, उनक ग त व धय क जानकारी ा त
करता है, वही सफलतापूवक अपने रा य को थर रख सकता है। जो पड़ोसी रा य क
ग त व धय पर नह रखता उसे हा न उठानी पड़ती है। । 48 ।

।। स ध व हयो नम डतः ।।
पड़ोसी रा य से अनेक कार क सं धयां तथा उसके व काय- व था रा
नी त का मह वपूण अंग है।
सं ध का अथ है कसी पड़ोसी दे श से ऐसे समझौते करना, जो दे श के हत म हो।
व ह का अथ है, पड़ोसी रा य के संबंध म वरोधी कारण को अपनाना। जहां सं धय ारा
दोन दे श को लाभ होता है, वहां कुछ काय ऐसे भी होते ह जनका संबंध आपसी वरोध से
भी होता है। अथात् येक रा को पड़ोसी दे श के वहार के अनु प सं ध और व ह
करते रहना चा हए। इससे दे श म रा य- व था थर रहती है। । 49 ।
।। नी तशा ानुगो राजा ।।
राजा को नी तशा के अनुसार चलना चा हए।
राजा को द डनी त, तकशा तथा अथशा आ द क बात का पूण ान होना
चा हए। इन बात का शासन- व था से संबंध है, इस लए राजा अथवा रा य के
अ धका रय को इन शा का सू म ान ा त करना चा हए। य द राजा अथवा रा य के
अ धकारी, इन बात से अप र चत ह तो उन पर कसी कार का सामा जक नयं ण नह रह
पाएगा। इस कार वे वे छाचार से पूण काय करने लगगे। इससे रा क भारी हा न होने क
संभावना रहती है और रा य म व ोह उठ खड़े होते ह। इस लए राजा का क है क वह
नी तशा के नयम के अनुसार ही जा का पालन करे। । 50 ।

।। अन तर कृ तः श ुः ।।
इस सू का भावाथ यह है क कसी रा के नकटवत रा य अथवा वहां के लोग
भी श ु बन जाते ह।
ायः यह दे खा जाता है क जहां सीमा पर संघष अथवा लड़ाई-झगड़े होने क
संभावना बनी रहती है, वे दे श आपस म श ु बन जाते ह। ऐसा ाचीनकाल से रा य के
इ तहास पर डालने से भी पता चलता है। आज के वातावरण म भी अनेक दे श म
सीमा को लेकर झगड़े होते रहते ह। इस लए राजा, रा य-अ धकारी और सीमा क
सुर ा करनेवाली सेना का क है क वे अपने पड़ोसी रा य से सतक रह, पड़ोसी
रा य क ग त व धय को दे खते रह। । 51 ।

।। एका त रतं म म यते ।।


श ु रा के पड़ोसी जसक सीमाएं श ु रा से मल रही ह उसक भी हमारे श ु
रा से श ुता रहनी वाभा वक है, अतः वह उस श ु के व हमारा म बन जाता है।
अनेक रा य आपस म एक- सरे से श ुता रखते ह, इस लए राजा को चा हए क
वह अपने पड़ोसी श ु रा से श ुता रखने वाले रा को अपना म बना ले। कूटनी त का
यह एक मह वपूण अंग है। इस नी त से लाभ उठाना राजा का क है। । 52 ।

।। हेतुतः श ु म े भ व यतः ।।
श ु और म बना कारण के नह होते। श ुता और म ता कसी कारणवश आ
करती है।
य द इस नी त सू को आधु नक संदभ म दे खा जाए तो यह बात ब त ज द प
हो जाती है। जब अमरीका और स म शीत यु चल रहा था तो अमरीका भारत का
वरोधी था। उस समय स ने भारत क ओर म ता का हाथ बढ़ाया। यह एक सामा य-सा
नयम है क कोई भी रा अपने प को बल करने के लए अ य रा का सहयोग मांगता
है। । 53 ।

।। हीयमानः स धं कुव त ।।
नबल राजा को अपने से श शाली रा य से सं ध कर लेनी चा हए।
नी त जाननेवाला नबल राजा अपने पड़ोसी सश और अ यायी राजा के साथ
सं ध करने से ही अपने रा य क र ा कर सकता है। उसे नी तपूवक सं ध करके अपने दे श
पर आए संकट अथवा यु क थ त को टाल दे ना चा हए। जो राजा ऐसा नह करता, उसे
भयंकर हा न उठानी पड़ती है। सं ध करने के प ात् परो प से कमजोर राजा को अपनी
थ त को ढ़ बनाने का य न करना चा हए। । 54 ।

।। तेजो ह स धानहेतु तदथानाम् ।।


सामा य प से सं ध करनेवाले दोन दे श म वा त वक और लाभदायक सं ध तभी
हो सकती है, जब दोन रा तेज वी और भावशाली ढं ग से आचरण करनेवाले ह ।
अथात् दो रा म सं ध का वा त वक लाभ तभी हो सकता है, जब दोन रा अपने
वा भमान को थर रख सक और भावशाली ढं ग से अपने रा का प उप थत कर
सक। ऐसी सं ध से दोन रा को लाभ हो सकेगा। । 55 ।

।। नात तलोहो लोहेन स धीयते ।।


जस कार गम लोहा ही गम लोहे से मल सकता है, उसी कार य द सं ध
करनेवाले दोन राजा तेज वी ह गे तभी सं ध सफल हो पाएगी।
जस कार गम लोहे पर चोट मारने से ही उसे अनुकूल प म ढाला जा सकता है,
इसी कार य द सं ध करनेवाले दोन रा तेज वी नह ह गे तो सं ध सफल नह हो सकेगी।
। 56 ।
।। बलवान् हीनेन व यात् ।।
बलवान् राजा को चा हए क वह श ु को कमजोर दे खकर ही उससे यु करने क
ठाने।
य द कोई बलवान् राजा कसी पर आ मण करना चाहता है तो उसे सरे रा क
श का पूवानुमान लगा लेना चा हए। य द सरा रा उससे श म उ ीस हो तभी उससे
यु क ठाननी चा हए, अ यथा नह । । 57 ।
।। न यायसा समेन वा ।।
अपने से अ धक समृ तथा अपने समान बल वाले रा से श ुता नह बांधनी
चा हए। । 58 ।

।। गजपाद व ह मव बलव हः ।।
अपने से बलवान् राजा से यु करना बलकुल वैसा ही है जैसे हा थय के झुंड ारा
पैदल सेना को कुचलवा दे ना।
इसका भाव यह है क जो राजा जानबूझकर अथवा अ ानवश कसी बलवान् राजा
पर आ मण करता है तो उससे आ मण करनेवाले राजा का ही वनाश होता है। यह
बलकुल इसी कार का काय है जैसे वशाल प थर क शला से अपना माथा टकराना। ।
59 ।
।। आमपा मामेन सह वन य त ।।
जस कार दो क चे पा य द आपस म टकराते ह तो दोन ही टू ट जाते ह, इसी
कार समान श वाले राजा म यु दोन के वनाश का कारण होता है। । 60 ।

।। अ र य नम भसमी ेत् ।।
राजा को चा हए क वह अपने श ु के य न अथवा उनके ारा कए जाने वाले
काय पर सावधानीपूवक नजर रखे।
येक रा का क है क वह अपने श ु रा पर हर समय सतकतापूवक नजर
रखे। उसे इस बात का ान भी होना चा हए क श ु रा कस बात का य न कर रहा है।
सरे रा से सं धय ारा उसे कस कार का लाभ होने क संभावना है। राजा को चा हए
क वह यह सब बात अपने गु तचर ारा जाने और अपनी तथा अपने रा य क र ा क
पूरी सावधानी बरते। । 61 ।

।। स धायैकतो वा ।।
अपनी वजय चाहनेवाले राजा को चा हए क वह अपने पड़ोसी रा य से सं ध
अथवा यु आ द येक अव था म श ु के य न पर पूरी तरह रखे। । 62 ।

।। अ र वरोधादा मर ामावसेत् ।।
राजा का क है क वह अपने रा को बाहर और भीतर के वरोध से बचाता
रहे।
श ु रा पड़ोसी रा को कमजोर करने के लए अनेक उपाय अपनाते ह। वे
आतंकवा दय ारा रा म भय फैलाने का य न करते ह। अनेक बार वे सां दा यक दं गे
करवाने का य न करते ह, अनेक थान पर बम- व फोट तथा लूटमार करके भी रा को
अ थर करने का य न करते ह। उस रा म कुछ ऐसे वरोधी त व पैदा हो जाते ह जो
वाथवश रा को उ त के माग पर ले जाने के य न का वरोध करते ह। इसी लए रा के
शासक का क है क वे बाहरी और आ यांत रक खतर से रा क र ा करने का
य न करे। । 63 ।

।। श हीनो बलव तमा येत् ।।


नबल तथा श हीन राजा का क है क वह कसी बलवान् परंतु धा मक राजा
को अपना म बना ले और उसक सहायता से अपने रा य को सुर त रखने का य न
करे।
नबल रा का क है क वह कसी बलवान् रा को सं ध आ द उपाय से
अपना म बना ले, जससे वह अपनी वतं ता क र ा कर सके। जस कार कमजोर
मनु य को दे खकर उसे क दे ने का य न करता है, उसी कार श शाली
पड़ोसी रा य श का भय दखाकर नबल रा को डराते-धमकाते रहते ह। इस लए
कूटनी त का सहारा लेते ए अपने रा को थर और सुर त रखने के लए कसी
श शाली रा का आ य लेना उ चत है। परंतु उसे इस बात का व ास होना चा हए क
जस रा का सहारा लया जा रहा है वह कसी कार का अनी तपूण काय नह करेगा। यह
तभी संभव होता है जब दोन रा एक- सरे के वाथ क पू त करते ए एक- सरे को लाभ
प ंचाने का य न करते ह। । 64 ।

।। बला यो ःखमावह त ।।
बल का आ य लेने से ःख उठाना पड़ता है।
य द कसी रा को अपनी श पर व ास न हो तो उसे अपनी वतं ता क र ा
के लए कसी श शाली रा का ही आ य लेना चा हए। नबल और कमजोर रा का
आ य लेने से लाभ नह होगा। य क बल रा से समय आने पर कसी कार के
क याण क आशा नह क जा सकती। इस कार यह प है क बल रा का सहारा लेने
से आ य लेने वाले रा को ःख उठाने पड़ते ह। । 65 ।

।। अ नव ाजानमा येत् ।।
कसी राजा से संबंध तोड़ लेने के बाद उससे उसी कार सावधान रहना चा हए जैसे
अ न से सावधान रहता है। । 66 ।

।। रा ः तकूलं नाचरेत् ।।
राजा के तकूल आचरण नह करना चा हए। राजा से ोह का अथ है रा का
ोह।
रा से ोह करना, एक भयंकर पाप माना जाता है। उसक सजा मृ युद ड है।
इस लए रा अथवा जनता ारा चुने गए त न ध अथवा रा य- व था से व ोह करना
रा - ोह क ेणी म आता है। । 67 ।

।। उ तवेषधरो न भवेत् ।।
मनु य को ऐसा वेष धारण नह करना चा हए जससे वेषधारण करनेवाले क
उद्दं डता कट हो।
मनु य जस समाज म रहता है उसे चा हए क वहां के सामा जक नयम के अनु प
ही व धारण करे। उसे ऐसे व धारण नह करने चा हए, जसे दे खकर मन म तर कार
अथवा घृणा क भावना पैदा हो। का वेष, समाज क च के अनु प होना चा हए। ।
68 ।
।। न दे वच रतं चरेत् ।।
मनु य का क है क वह उस कार के काम न करे जो राजा के यो य होते ह।
अथात् मनु य को राजा के च र का अनुकरण नह करना चा हए।
इसका भावाथ यह है क मनु य को धन के अ भमान म आकर राजा के समान
मुकुट और छ आ द धारण नह करने चा हए और उसे उन च का योग भी नह करना
चा हए जनका योग केवल राजा के लए ही न त होता है। सामा य मनु य को ऐसा
करना उ चत नह । भाव यह है क जन-सामा य को ऐसा कोई काय नह करना चा हए
जससे उसे राजा का त ं माना जाए। । 69 ।

।। योरपी यतोः ै धीभावं कुव त ।।


रा यै य से ई या करनेवाले दो य म वरोध पैदा कर दे ना चा हए।
रा य का क है क शासन- व था का वरोध करनेवाले संगठन के त सतक
रहे। उसका य न होना चा हए क रा य ोही और व भ दल संग ठत न हो सक।
अथात् उनम फूट डालकर उ ह न कर दे ना चा हए।
अनेक रा म रा य का वरोध करनेवाले अनेक संगठन पैदा हो जाते ह। शासन-
व था का क है क वह रा य का वरोध करनेवाले संगठन को पूरी तरह संग ठत न
होने दे । उनके संबंध म सतकता बरतनी चा हए। उ ह कसी कार का ऐसा अवसर नह दे ना
चा हए क वे आपस म इकट् ठे होकर संयु मोचा बना सक। । 70 ।

।। न सनपर य कायावा तः ।।
जो सन अथवा कसी कार क बुरी लत म फंसा आ है वह कसी भी
काय म सफल नह हो सकता अथात् उसका कोई भी काय सफल होना क ठन है।
जो कसी कार के सन आ द म फंसा आ है उसका काय उसके लए
कभी भी फलदायक स नह होता। कारण यह है क उसके काय म न तो कोई उ साह
होता है न ढ़ता। कसी कार के भी सन म फंसा आ आ म- व ास से र हत
होता है। आ म व ास से हीन के काय म कसी कार क तेज वता नह होती।
उसका मन हर समय वषय भोग म फंसे रहने के कारण क क ओर े रत ही नह
होता। । 71 ।

।। इ यवशवत चतुरंगवान प वन य त ।।
चतुरं गणी सेना से यु होने पर भी य द राजा अपनी इं य को वश म नह रख
सकता तो वह न हो जाता है।
इस सू का भाव यह है क मनु य को अपनी इं यां अपने वश म रखनी चा हए।
जस मनु य क इं यां अपने वश म नह होत , वह अपनी इ छा को पूण करने के लए
ऐसे काम करता है जो उसके वनाश का कारण होते ह। राजा के लए यह और भी
आव यक है य क उनके पास असी मत श यां होती ह। आचाय चाण य का कहना है
क य द राजा के पास असी मत श यां ह, उसके पास सभी कार क सेनाएं ह, सभी
कार के अ -श ह तो भी उसे चा हए क वह अपनी इं य को वश म रखे। इं य को
वश म न रखने से उसका समृ रा य भी न हो सकता है। । 72 ।

।। ना त काय ूत वृ य ।।
जन लोग को जुआ खेलने क आदत होती है, वे अपने क के त उदासीन
होते ह, अथात् उ ह अपने क का ान नह होता।
राजा क जुए के त अ य त आस रा के लए घातक स हो सकती है।
जुआ एक ऐसा सन है जसम परा जत होता आ भी अंत तक जीत क कामना
करता रहता है। परंतु उसे वा त वकता का तभी ान होता है जब वह सब कुछ खो बैठता
है। इ तहास इसका उदाहरण है। यु ध र ने जुआ खेलने के लए य धन के नमं ण को यह
कहकर वीकार कर लया क इस कार के नमं ण को अ वीकार करना राजा के लए
अ छा नह । परंतु सभी जानते ह क उस नमं ण को वीकार करने का फल या आ। ।
73 ।
मृगयापर य धमाथ वन यतः
शकार खेलना राजा का मनोरंजन हो सकता है परंतु जो उसके त अ यंत आस
हो, आव यकता से अ धक इस काम म च लेता हो, चाण य के अनुसार वह अपने धम
और अथ दोन ही न कर लेता है। । 74 ।

।। अथषणा न सनेषु ग यते ।।


जीवनयापन क आव यकता हेतु धन सं ह करने क इ छा को सन म नह
गना जाता।
येक को धन-सं ह करने क इ छा रहती है। चाण य ने अनेक थल पर
नधन के जीवन को नरथक बताया है। नधन सभी जगह क उठाते ह।
उसके सगे-संबंधी भी क म उसका साथ छोड़ दे ते ह। इस लए धन उपाजन के लए नरंतर
य न करना बुरा सन नह कहा जा सकता। । 75 ।

।। न कामास य कायानु ानम् ।।


अ य धक कामास अथवा च र हीन कसी भी काम को ठ क से नह कर
सकता।
कसी भी रा के लए आव यक है क वहां के रा य अ धकारी च र वान ह ,
य क य द वे वयं च र वान नह ह गे तो जा म भी पापाचार के त आस बढ़
जाएगी और पापाचार बढ़ने से अपराध म वृ होगी। इस लए जहां तक य न हो, ऐसे
काम से बचा जाए जनसे जा म वषय भोग के त च बढ़े । । 76 ।

।। अ न दाहाद प व श ं वा पा यम् ।।
कठोर वाणी आग से जलने से भी अ धक ःखदायी होती है।
कहा जाता है क तलवार का घाव भर जाता है परंतु कठोर वाणी का घाव दल पर
सदा के लए अं कत रहता है। कठोर बात बोलना एक कार का सन है। अ ववेक मनु य
ो धत होता है तो उसक वाणी भी कठोर हो जाती है। तब वह बना सोचे-समझे ऐसी बात
कहने लगता है जो सर के दय म सदा के लए चुभती रहती ह। इसका अथ यह है क
कठोर वाणी भ व य म होने वाले ववाद का बीज है। इस लए संत-महा मा ने कहा है क
मनु य को कटु वाणी से बचना चा हए। मधुर वाणी से अपने श ु को भी म बना
सकता है। । 77 ।

।। द डपा यात् सवजन े यो भव त ।।


गत े ष मन म रखकर य द कोई दं डदाता ( यायाधीश) कसी को कठोर दं ड
दे ता है तो वह अपने प व आसन से प तत होकर जनता का कोपभाजन बन जाता है।
दं ड दे ने का अथ यह होता है क म सुधार हो, वह अपने बुरे काम को छोड़े।
परंतु य द दं ड दे नेवाला गत े ष के कारण अथवा ोध म आकर अपराध के मुकाबले
अ धक कठोर दं ड दे ता है तो जनता के मन म दं ड दे नेवाले के त े ष-भावना पैदा हो जाती
है। व तुतः यायाधीश का क है क वह याय के प व आसन पर बैठकर अपराधी के
मन से अपराध-भावना न करने के लए दं ड दे , न क के त े ष अथवा ोध म
आकर कठोर दं ड दे ने क व था करे। ऐसा करने से लोग क याय के त आ था कम हो
जाएगी, जो जन हत म नह है। । 78 ।

।। अथतो षणं ीः प र यज त ।।
जो राजा थोड़े-से धन से संतु हो जाता है, रा य ल मी उसे याग दे ती है।
राजा को अपने राजकोष से कभी भी संतु नह होना चा हए। य द वह अपने
अपया त साधन से संतु होकर बैठ जाएगा तो रा य नधन और ीहीन होकर न हो
जाएगा। । 79 ।

।। अ म ो द डनी यामाय ः ।।
तु हारा श ु तु ह कतनी हा न प ंचा सकता है, इसका भाव तु हारी दं डनी त पर
आधा रत है।
य द श ु के त तु हारी दं डनी त नबल होगी और तु हारी तरफ से कसी कार क
सतकता नह बरती जाएगी तो श ु का दमन करना तु हारे लए क ठन हो जाएगा। इस लए
येक राजा का क है क वह ऐसी दं डनी त अपनाए जससे उसके श ु रा य के व
कसी कार का अपराध करने से घबराते रह। । 80 ।

।। द डनी तम ध त न् जाः संर त ।।


जो राजा दं डनी त को अपने अ धकार म रखता है, वही जा क र ा करने म समथ
होता है।
दं डनी त का नधारण करना रा यस ा का काय है। इस कार के दं ड क व था
करनी चा हए जससे श ु अथवा रा य- वरोधी लोग जा को क प च ं ाने म समथ न हो
सक। दं डनी त नधा रत करने के साथ राजा का क है क वह समय-समय पर उसक
समी ा भी करता रहे। य द कसी रा य क नी त नबल होगी तो उससे जा क र ा नह
हो पाएगी, जा संकट म पड़ जाएगी, इस लए ऐसी दं डनी त का नधारण करना चा हए
जससे जा अपने आपको सुर त अनुभव करे। । 81 ।

।। दं डः स पदां योजय त ।।
दं ड ारा ही राजा या रा य को सम त संप यां ा त होती ह अथात् वह सम त
संप य से संप बनता है।
दं ड याय का पयायवाची है। दं ड ही याय है। जा दं ड से ही वश म रहती है। रा य
म दं ड- व था न रहने से य- व य, खान, आयकर, तटकर, ऋणदान, याय-अ याय,
हाट- व था आ द से आय के सम त ोत भा वत होते ह। बड़े लोग छोट को लूटकर
खाने लगते ह। तब दे श म उप व खड़े हो जाते ह। इससे रा यनाश या संप नाश क थ त
बन जाती है। अतः दं ड-संबंधी राजा के नयम इस कार के होने चा हए जससे कसी भी
को उनके व जाने का साहस न हो। । 82 ।

।। द डाभावे म वगाभावः ।।
रा य म दं डनी त से उपे त होने पर राजा यो य मं य को छोड़कर अयो य मं य
के वश म हो जाता है।
जब रा य म दं डनी त क उपे ा होने लगती है तो राजा को उ चत परामश दे ने वाले
मं य का अभाव बन जाता है। दे श अथवा पड़ोसी श ु रा के संबंध म दं डनी त का सही
उपयोग करने के लए चतुर परामशदाता मं य क आव यकता होती है। जो राजा इस बात
से इनकार करता है अथवा इस बात क उपे ा करता है, उसे चापलूस अ धकारी घेर लेते ह।
ऐसी थ त म राजा मनमाने काय करने लगता है। इससे रा क हा न होती है। । 83 ।

।। न द डादकाया ण कुव त ।।
अपराधी वृ के लोग दं ड अथवा जुमाने आ द के भय से रा के वधान- वरोधी
काय से र रहते ह।
जस रा य म दं ड के भय से अपराध नह करते, उसे ही धम का शासन
कहा जाता है। उसी रा य म धम और अथ क र ा होती है।
धम और अथ क र ा का भाव यह है क अपराधी वृ के लोग यह जानते ह क
रा - वरोधी काय करने से उ ह कठोर दं ड दया जाएगा। इस लए वह रा य- वरोधी पाप-
कम करने से अलग रहते ह। ऐसे ही रा य को धमयु रा य कहा जाता है। । 84 ।
।। द डनी यामायतमा मर णम् ।।
दं ड संबंधी नी तय को ठ क रखने से आ मर ा हो सकती है।
प दं डनी त के ारा ही रा सुर त रह सकता है। रा य का क याण इसी बात
पर नभर करता है क दं डनी त संबंधी नयम या ह और उनका या भाव होता है। उसक
दं डनी तयां जा का क याण करने वाली ह , जा का क याण ही उसका अपना क याण
होता है और जा क र ा ही रा क र ा कहलाती है अथात् जा के अ त व से अ धक
राजा का अ त व नह होता। जा क सुर ा के बना राजा क सुर ा कैसे हो सकती है?।
85 ।
।। आ म न र ते सव र तं भव त ।।
राजा के सुर त रहने से ही पूरे रा को सुर त कया जा सकता है।
चाण य के सू को जन-सामा य और राजा संबंधी दोन कोण से दे खा जा
सकता है। चाण य ने अ य थान पर भी कहा है क मनु य को अपनी र ा के लए
सबकुछ ब लदान करने के लए नह हचकना चा हए। य द वह इस कार अपनी र ा कर
लेता है तो न ई धन-संप को फर से ा त करने का य न कर सकता है। इसी कार
य द राजा अपनी आ मर ा करने म समथ है तो इसे पूरे रा को सुर त समझा जा सकता
है। । 86 ।

।। आ माय ौ वृ वनाशौ ।।
मनु य क वृ और वनाश उसके अपने हाथ म होते ह।
भगवान् ीकृ ण ने गीता म लखा है क मनु य अपना ही सबसे बड़ा म और
अपना ही सबसे बड़ा श ु होता है। वह अपने ही काय से सबकुछ बनाता है और बगाड़ता
भी है। इसी कार रा क वृ और उसका पतन राजा के हाथ म है। राजा क यो यता और
अयो यता भी कसी रा य क वृ और वनाश का कारण होती है। राजा य द यो य होगा
तो रा य का व तार होने के साथ धन-धा य से समृ भी होगा। य द वह नी तहीन, शराबी,
भचारी और सन म फंसा आ है तो रा का वनाश हो जाएगा। अथात् मनु य क
वृ और वनाश उसके अपने वहार पर नभर करता है। । 87 ।

।। द डो ह व ाने णीयते ।।
दं डनी त का योग सावधानीपूवक, सोच-समझकर कया जाना चा हए।
दं डनी त के संबंध म य द सही ढं ग से उस पर वचार कया जाए तो उसक
अ नवायता और वा त वकता कट होती है। इसी कार दं ड का योग करते समय भली
कार से वचार करना चा हए।
इस सू से ऐसा ात होता है क उस काल म दं ड- वधान तो था परंतु उसका व प
पूणतः प नह था। इस लए येक थ त म दं ड-संबंधी नणय पर वशेष प से वचार
करना आव यक है। इस लए चाण य ने दं ड के संबंध म यह कहा है क इसका योग ब त
सोच-समझकर करना चा हए य क दं ड के योग, प रणाम, रगामी होते ह। उसका भाव
ब त ापक होता है। इस लए दं ड दे ते समय भली कार वचार कया जाना चा हए। । 88

।। बलोऽ प राजा नावम त ः ।।
राजा को नबल और एक साधारण आदमी समझकर उसक आ ा क अवहेलना
नह करनी चा हए।
जो लोग राजा अथवा रा य- शासन को कमजोर और साधारण मानते ह और
उसक आ ा अथवा वधान का उ लंघन करते ह, वे रा ीय अपराध करते ह। रा य क
उपे ा अथवा अपमान करने से सभी क हा न होती है। उससे रा का ापक अ हत होता
है। इस लए जो लोग राजा अथवा शासन- व था को कमजोर मानते ह, वे अंधकार म रहते
ह। राजा अथवा शासन का यह क है क वह अपने आपको श शाली बनाए और
नयम का कठोरता से पालन करे। । 89 ।

।। ना य नेद ब यम् ।।
अ न को कभी बल नह समझना चा हए।
एक छोट -सी चगारी भारी अ न-का ड का प धारण कर सकती है और भयंकर
वनाश हो सकता है। उससे वशाल जंगल भ म हो जाते ह। इसी कार जन लोग म
रा य ी कट होती है उनक श ीण दखाई दे ने पर भी जनता को संग ठत करने क
श के कारण बल प धारण कर लेती है। इस लए उसक अवमानना नह करनी
चा हए। । 90 ।

।। द डे तीयते वृ ः ।।
राजा क संपूण शासक य यो यता उसक दं डनी त से कट होती है। । 91 ।

।। वृ मूलमथलाभः ।।
धन-धा य क ा त अथवा रा य का समृ होना राजा के च र पर नभर करता
है।
रा य का समृ होना राजा के च र पर नभर करता है। रा य ी उसी राजा को
ा त होती है जो अपनी इं य को संयम म रखता आ जा के क याण के लए नरंतर
काय करता है। अतः राजा को च र वान् होना चा हए। । 92 ।

।। अथमूलौ धमकामौ ।।
धम का अनु ान तथा रा क कामना क पू त रा यै य क थरता पर ही
नभर रहा करता है।
सांसा रक क का पालन करते ए मान सक उ कष, धम का अनु ान और
रा ीय कामना क पू त तभी हो सकती है जब रा यै य थर रहता है अथात् धम क
र ा करते ए धन-सं ह अथवा रा य ी क वृ करनी चा हए। रा यै य क वृ तभी
होती है जब राजा और जा के काय धम पर आधा रत ह । अथात् धम का पालन धन के
बना नह हो सकता तथा धन से ही क याण भी कया जा सकता है। । 93 ।

।। अथमूलं कायम् ।।
अथ अथवा धन काय का मूल होता है।
कठोर कम से ही रा य ी क वृ होती है। धनाजन करने के लए को काय
करना पड़ता है। धन से ही सारे काय संप होते ह। धन के बना जस कार मनु य नज व
होता है, उसी कार धनहीन रा अथवा राजा भी जनता के हत का कोई काय नह कर
सकता। जैसे पवत से नकलकर बहती ई नद लोग को जीवन दान करती है, उसी कार
धन के वाह से सम त काय संप होते ह। । 94 ।

।। यद प य नात् काय स भव त ।।
रा य ी ा त होने पर कोई भी काय थोड़ा-सा य न करने पर ही स हो जाता
है।
कसी रा के काय क स उसके समृ होने पर ही नभर करती है। य द रा म
श है और उसके राजकोष म धन क कमी नह है तो ऐसे रा के लए कोई भी काय
करना क ठन नह होता। । 95 ।

।। उपायपूव न करं यात् ।।


य द कोई काय उपायपूवक कया जाए तो उसके संप होने म कोई क ठनाई नह
होती।
जैसा क ऊपर बताया गया है, काय क सफलता के लए य न का उतना मह व
नह जतना उपाय का होता है। दे खना यह होता है क मनु य ने कसी काय को स करने
के लए कन उपाय का योग कया। य द कसी काय को सही ढं ग से कया जाए तो वह
ब त थोड़े समय म भी संप हो जाता है। य द उपाय सही न हो तो काय के स होने म ही
संदेह बना रहता है। । 96 ।

।। अनुपायपूव काय कृतम प वन य त ।।


पहले कोई उपाय स कए बना ारंभ कया आ काय न हो जाता है अथात्
उपाय पूवक काय न करने से काय स नह होते।
काय स करने के लए आव यक है क नधा रत योजना बनाई जाए, उस योजना
पर चलने के लए उ चत उपाय न त कए जाएं। कोई भी काय ारंभ करने से पूव येक
अथवा रा को यह दे ख लेना चा हए क उस काय को करने के लए उसक श
कतनी है। वह कन उपाय ारा काय स करना चाहता है? य द उपाय सही ह गे तो काय
ज द स हो जाएगा, अ यथा काय बगड़ जाएगा। । 97 ।

।। काया थनामुपाय एव सहायः ।।


इस सू म भी चाण य का कहना है क जीवन म उपाय का या मह व होता है
अथात् उपाय ही काय स करने वाल के लए स चा सहायक स होता है। । 98 ।

।। काय पु षकारेण ल यं स प ते ।।
काय अपना व प नधा रत करने के बाद ल य बन जाता है।
जब तक मनु य अपने काय को क मानकर उसे ल य के प म वीकार नह
कर लेता, तब तक उनका स होना क ठन होता है। मनु य के लए उसके जीवन का ल य
अपने क का पालन करना होता है। जो मनु य ज म पाकर अपने क को पूरा
नह करता, वह अपने जीवन के ल य को भी ा त नह कर सकता। । 99 ।

।। पु षकारमनुवतते दै वम् ।।
भा य पु षाथ के पीछे चलता है।
‘उ ो गनं पु ष सहमुपै त ल मी, दै वेनदे य म त कापु षा वद त’ अथात् जो
पु षाथ करता है, उसे ही ल मी ा त होती है अथात् उसके काय स होते ह, भा य का
सहारा तो कमजोर और कायर लेते ह। यहां भा य के रह य को भी समझना
आव यक है। भा य के मूल म भी पु षाथ ही तो होता है। भा य को ार ध भी कहते ह।
अतीत का पु षाथ ही वतमान म ‘भा य’ बन जाता है। । 100 ।

।। दै वं वना त य नं करो त य फलम् ।।


भा य अनुकूल न हो तो सही ढं ग से कया आ काय भी भौ तक फल दान नह
करता।
परंतु भा य क अनुकूलता को कसी काय के लए इतना मह व नह दया जाना
चा हए, जतना य न को। य द मनु य बु म ापूवक सही ढं ग से काय करता है तो भा य
भी उसके अनुकूल हो जाता है। वा तव म जो काय केवल वाथ से े रत होकर कए जाते
ह, हो सकता है उनके लए भा य क अनुकूलता आव यक हो। परंतु जो काय जन हत के
लए कए जाते ह, उनके त संपूण भावना भा य को भी अनुकूल बना दे ती है। केवल भा य
के भरोसे बैठे रहने से काय नह चलता। । 101 ।

।। असमा हत य वृ न व ते ।।
अ व थत च वाले के पास सद् वहारपूण सद्भावना नह रहती।
जस का च अथवा बु थर नह रहती, उसक हा न होती है। जस
का मन थर नह होता उससे सद् वहार क आशा करना थ है। उसक
सद्भावना समा त हो जाती है। उसक च वृ यां ण- ण म बदलती रहने के कारण
व ास के यो य नह रहत , इससे न तो उसका कोई काय संप होता है और न कोई लाभ
होता है। । 102 ।

।। पूव न य प ात् कायमारभेत् ।।


काय आरंभ करने से पहले उसके वषय म सभी पहलु पर मन म वचार कर लेना
चा हए। काय को कन उपाय से पूण कया जाएगा, इस संबंध म पूणतः न त होने के बाद
ही काय ारंभ करना चा हए।
काय के संबंध म सभी बात पर वचार कए बना काय ारंभ करने से अनेक कार
क क ठनाइयां उ प हो सकती ह। कहा भी है—‘ बना वचारे जो करे, सो पाछे पछताय।’
अथात् बु मान पु ष को काय ारंभ करने से पूव सभी बात पर वचार कर लेना चा हए।
उसे इस बात को स ांत के प म वीकार कर लेना चा हए। । 103 ।

।। काया तरे द घसू ता न क ा ।।


काय आरंभ करने के बाद अ त वलंब अथवा आल य नह करना चा हए। अ त
वलंब तथा आल य क से होने का च है।
कोई भी काय ारंभ करने के बाद उसे पूरा करने म दे री अथवा आल य नह करना
चा हए। उसके संबंध म यह नह सोचना चा हए क उसे पूरा करने क अभी या ज द है?
ऐसे वचार हा नकारक ह। इससे मनु य के मन म आलस क भावना पैदा होती है और थोड़े
समय म समा त होने वाला काय लंबे समय तक अपूण रहता है। । 104 ।

।। न चल च य कायावा तः ।।
काय करते समय जनका च चंचल रहता है, उनके काय कभी समा त नह होते।
अ थर च और थोड़ी-थोड़ी दे र म जस के वचार बदलते ह , उसका कोई
भी काय पूरा होने म संदेह रहता है। चंचल च वाला येक बात म संदेह करता
रहता है। संदेह करने वाले के काम तो कभी पूरे नह होते पर तु वह वयं पूरा (समा त) हो
जाता है। । 105 ।

।। ह तगतावमाननात् काय त मो भव त ।।
काय को स करने के लए मनु य के हाथ म जो साधन ह , उनका स पयोग
करना चा हए। जो साधन का स पयोग नह कर सकता उसका काय न हो जाता है।
काय स के लए मूख लोग ऐसे साधन के पीछे भटकते ह जो उ ह ा त नह
होते। वा तव म उ ह काय को स करने के साधन का मू यांकन करना नह आता।
साधन के संबंध म य द मनु य के वचार थर नह ह तो उसे काय स करने म सफलता
ा त नह होती। । 106 ।

।। दोषव जता न काया ण लभा न ।।


संसार म ऐसे काय का मलना क ठन है जनम कोई दोष न हो।
मनु य जो भी काय करता है, उसे पूणतया नद ष नह कहा जा सकता। उसम कह -
न-कह कोई कमी अव य रह जाती है। मनु य वयं अपने आप म अपूण है। इसी लए यह
समझना अ यंत क ठन है क वह जो भी काय करेगा उसम कोई दोष नह रहेगा।
दोष व नद ष के संबंध म भी व भ य के वचार भ हो सकते ह य क
य द कृ त क ओर दे खा जाए तो भी उसम अनेक लोग के वचार से दोष दखाई दगे। ।
107 ।
।। रनुब धं काय नारभेत् ।।
मनु य को ऐसे काय म हाथ नह डालना चा हए जनके प रणाम न त प से शुभ
नह।
अशुभ काय करने से मनु य को हा न होती है। इस लए मनु य का क है क वह
जो भी काय ारंभ करे उसके संबंध म उसे पूण व ास होना चा हए क इसका प रणाम
अ छा होगा। । 108 ।

।। काल वत् काय साधयेत् ।।


अनुकूल समय को पहचानने वाला अपना काय बड़ी सरलता से स कर
दे ता है।
बु मान का क है क कोई काय ारंभ करने से पूव उसे यह दे खना
चा हए क समय उसके अनुकूल है अथवा तकूल। समय क अनुकूलता के अ त र उसे
अपने सहायक और प र थ तय के वषय म भी वचार करना चा हए। उसे यह बात भी
यान म रखनी चा हए क काय स करने म कतना य होगा।
इस कार क बात पर वचार करने से मनु य समय को अपने अनुकूल बना लेता
है। जो इन बात पर वचार नह करता, वह समय अनुकूल होने पर भी काय स करने म
असफल रहता है।
इसी लए को काय स के लए उ चत समय को पहचानने का य न करना
चा हए, जस कार गम लोहे पर चोट करने से ही उसे अपनी इ छानुसार ढाला जा सकता
है, इसी कार अनुकूल समय पर काय करने से काय ज द स हो जाता है। । 109 ।

।। काला त मात् काल एव फलं पब त ।।


क का समय टल जाने से वयं काल ही उसक सफलता को चाट जाता है।
जो काम कसी न त समय पर कया जाना आव यक होता है, य द वह समय
हाथ से नकल जाए तो उसका सफल होना असंभव होता है। कारण प है, सफलता के
लए तैयार थ तयां-प र थ तयां बखर जाती ह। । 110 ।

।। णं त काल व ेपं न कुयात् सवकृ येषु ।।


मनु य कसी भी न त क म णमा का वलंब न करे।
मनु य को चा हए क वह कसी भी न त क म एक ण भी वलंब न करे।
ठ क समय पर कये गये काम क सफलता मनु य को दखा दे ती है क यह काम जस ण
म कया गया है, वही उसका सव म काल था। काय के उ चत समय को पहचानना ही
मनु य के सीखने क सव म कला मानी गयी है। । 111 ।

।। दे शफल वभागौ ा वा कायमारभेत् ।।


मनु य का क है क वह प र थ तय और काय क सफलता क संभावना,
दोन को पूण प से समझकर काय ारंभ करे।
जो समय, दे श और प र थ तय को वचारकर काय नह करता उसे
सफलता नह मलती। काय ारंभ करने से पूव को इस बात पर भी वचार करना
चा हए क काय क सफलता क कतनी संभावना है। । 112 ।

।। दै वहीनं काय सुसा यम प ःसा यं भव त ।।


य द भा य तकूल हो तो आसानी से स होने वाला काय भी क ठनता से स
होने वाला दखाई दे ता है।
प र थ तय के अनुकूल न होने पर आसानी से स होने वाला काय भी क ठन
दखाई दे ने लगता है। मनु य का क यह है क वह अपने पु षाथ से उस काय को स
करने का य न करे, य क उ मी पु ष को ही ल मी ा त होती है, ‘दै वेन दे य म त
कापु षा वद त।’ तकूल थ तय क बात तो कायर पु ष करते ह। उ मी पु ष अपने
प र म से प र थ तय को अपने अनुकूल बना लेते ह। पु षाथ मनु य ने संसार म ऐसे
काय कर दखाए ह जनके संबंध म आज भी आ य होता है। मनु य को चा हए क काय
क क ठनता से न घबराकर पु षाथ से उसका मुकाबला करे। । 113 ।

।। नी त ो दे शकालौ परी ेत् ।।


क को ववेक से करना नी तवान् मनु य का थम क है।
वहार-कुशल प र थ तय और सुअवसर दोन बात का पूण ान करने के
बाद ही काय ारंभ करता है। वह काय ारंभ करने से पूव भली कार उसक ववेचना
करता है। नी तवान् वही है जो काय को बना वचारे ही आरंभ नह कर दे ता। । 114

।। परी यका र ण ी रं त त ।।
भली कार सोच- वचारकर तथा अवसर को पहचानने के बाद जो काय
करता है, उसे ही सफलता ा त होती है। । 115 ।

।। सवा स पदः सव पायेन प र हेत् ।।


राजा का क है क वह सभी कार के उपाय से अथात् अपनी बु -कौशल से
सभी कार क संप य का सं ह करे।
राजा का क है क वह साम, दान, दं ड, भेद आ द उपाय से संप य का संचय
करे। उसके लए सभी कार के साधन और संप य का संचय करना इस लए आव यक
है क उ ह से वह जा का हत कर सकता है। जा क भलाई के लए राजा को सभी
साधन जुटाने चा हए। संकेत है क राजा क ब मुखी होनी चा हए। । 116 ।

।। भा यव तमपरी यका रणं ीः प र यज त ।।


सफलता का अवसर पहचाने बना काय ारंभ करनेवाला ल मी र हत हो
जाता है अथात् ल मी उसे छोड़ जाती है।
भले ही अपने आपको भा यवान् समझता हो परंतु य द वह समय को पहचाने
बना, भली कार जांच कए बना काय ारंभ करता है तो उसे सफलता ा त नह होती। ।
117 ।
।। ानेनानुमानै परी ा क ा ।।
इस सू का भाव यह है क मनु य को अपने क क परी ा के साधन का कस
कार पता लगाना चा हए। उसका क यह है क वह अपने अनुभव-श तथा वचार-
श दोन के सहारे प रणाम के कारण का ठ क-ठ क पता करके यह न य करे क यह
काम कस कार से होना है। । 118 ।

।। यो य मन् कम ण कुशलः तं त म ेव योजयेत् ।।


जो जस काम को करने म कुशल हो, उसे वही काय करने का भार स पना
चा हए।
रा य कमचा रय क नयु करते समय उनक यो यता का यान रखना अ यंत
आव यक है। जो जस कार क यो यता रखता हो उसे वही काय स पना चा हए।
य द कोई ऐसा काय करता है जसका उसे अनुभव नह तो उस काय के बगड़ जाने
से रा य को हा न होती है। रा य क हा न का अथ जा के क से आंका जा सकता है। ।
119 ।
।। ःसा यम प सुसा यं करो त उपाय ः ।।
जब कसी काय को करने का उपाय जानता है तो वह क ठन-से-क ठन काय
को भी आसान बना दे ता है।
इसका भाव यह है क येक काय को पूणता तक प ंचाने के लए व भ उपाय
क आव यकता होती है। जसे उपाय का ान नह होता उसके लए सरल काय करना भी
क ठन हो जाता है परंतु जो उपाय को जानता है अथवा समय के अनु प साधन जुटा लेता
है, उसके लए क ठन-से-क ठन काय भी करना सरल हो जाता है। । 120 ।

।। अ ा नना कृतम प न ब म त म् ।।
चाण य कहते ह क य द कोई अ ानी कसी काय को सफल बना लेता है तो
उसक सफलता को आक मक घटना मानकर उसे मह व नह दे ना चा हए।
व तुतः इसका भाव यह है क य द कोई अनाड़ी कसी काय को स कर
लेता है तो उसे एक आक मक घटना मान लया जाता है और उसे उस काय को कर लेने
का मह व नह मलता, य क आक मक प से कया आ वह काम उसके ान के
कारण नह कया होता। । 121 ।

।। या छक वात् कृ मर प पा तरा ण करो त ।।


यह सू भी पहले सू क बात को पु करता है।
इसका भाव यह है क जैसे घुन या क ड़ा कसी पदाथ के आक मक प को बना
कसी ान के बदल दे ता है उससे उसक नमाणकुशलता मा णत नह होती। इस लए य द
अ ानी अचानक कोई काय संप कर लेता है तो उसे केवल संयोग ही मानना चा हए,
उसक कायकुशलता नह । जस कार लकड़ी म रहने वाला घुन नामक क ड़ा लकड़ी को
खाता आ उसम व भ कार क आकृ तयां बना दे ता है, भले ही वह आकृ तयां दे खने म
सुंदर ह , तो भी घुन के क ड़े को उसका ेय नह मलता य क उसको कुछ ान नह
होता। वह तो उसका एक आक मक काय होता है। । 122 ।

।। स यैव काय य काशनं क म् ।।


कसी काय के स हो जाने पर ही उसके संबंध म लोग को जानकारी दे नी
चा हए।
भाव यह है क जब कोई काय स करना चाहता है तो उसे गु त रखकर ही
स कया जा सकता है। य द उस काय के संबंध म लोग को पहले ही ान हो जाएगा, तो
संभवतः कोई अ य यह काय कर डाले। । 123 ।

।। ानवताम प दै वमानुषदोषात् काया ण य त ।।


कभी-कभी ब त से काय तकूल प र थ तय के कारण अथवा कसी मनु य ारा
कोई ु ट रहने पर अधूरे रह जाते ह अथात् स नह हो पाते।
अनेक बार ऐसा हो जाता है क तकूल प र थ तय के कारण काय पूरे नह हो
पाते। कई बार इनके पूरे न होने का कारण मानवीय ु टय को माना जाता है। कई बार
प र थ तयां भी मनु य का साथ नह दे त । इस लए ब त से काम स नह हो पाते, अधूरे
रह जाते ह। इनको पूरा करने का एकमा उपाय यही है क मनु य सोच-समझकर य न
करता आ तकूल प र थ तय को अपने अनुकूल बनाने का य न करे। । 124 ।

।। दै वं शा तकमणा तषे म् ।।
दै वी वप य के संबंध म को अपनी बु थर रखनी चा हए और शांत
रहते ए दै वी वप य से छु टकारे का य न करना चा हए।
दै वी वप यां अनेक कार क होती ह। भूकंप, बाढ़, तूफान, रा म व ोह अथवा
आतंकवा दय के आ मण आ द को इस ेणी म रखा जाता है। उस समय रोकर
अथवा च लाकर तथा कसी सरे के सर पर दोष मढ़कर वप य से छु टकारा नह पा
सकता। इस कार क वप य के समय को अपनी बु थर रखनी चा हए और
शांत रहकर वप य से छु टकारा पाने का य न करना चा हए। । 125 ।

।। मानुष काय वप कौशलेन व नवारयेत् ।।


दै वी वप य के समान कुछ वप यां ऐसी भी होती ह जो मनु य ारा पैदा क
जाती ह। ऐसा काय को बगाड़ने के लए कया जाता है। मनु य ारा पैदा क जाने वाली
वप य को सतकता और बु -कौशल से ही परा त कया जा सकता है। । 126 ।

।। काय वप ौ दोषान् वणय त बा लशाः ।।


मूख लोग कसी काय म असफल रहने के बाद या तो अपनी भूल पर पछतावा
करते ह या फर आपस म एक- सरे पर दोष लगाकर अपने आप को नद ष सा बत करते
ह। । 127 ।

।। काया थना दा यं न क म् ।।
रा य के जो अ धकारी काय को स करना चाहते ह उ ह श ु के त
भावुकता, उदारता, सरलता और भोलेपन म बहकर म या सहानुभू त नह बरतनी चा हए।
रा य के अ धका रय का क है क वे श ु को सदै व शंका क से दे ख।
उनके त उ ह कसी कार क उदारता आ द का वहार नह करना चा हए। भावुकता म
बहकर उनके त ऐसा वहार नह करना चा हए, जससे रा क हा न हो। श ु के त
रा य के अ धका रय को सदै व संदेहशील रहकर काय करना चा हए। । 128 ।

।। ीराथ व सो मातु धः तह त ।।
बछड़ा ध पीने क इ छा से अपनी मां के तन पर अपने सर से चोट करता है।
भाव यह है क मनु य को कसी भी चीज क ा त के लए वयं य न करना
पड़ता है। गाय भी अपने बछड़े को तब तक ध नह पलाती जब तक वह अपने माथे से
उसके थन पर चोट नह करता। इसी कार ब चे क माता भी ब चे के रोने पर ही उसे ध
पलाती है अथात् अपने य न से ही इस संसार म कुछ ा त कर सकता है। कोई
उसे कुछ दे ने नह आता। । 129 ।

।। अ य नात् काय वप भव त ।।
काय क स के लए जतने य न क आव यकता होती है उतना य न न
करने से काय न हो जाता है।
अनेक बार काय के पूण न होने का कारण यह होता है क उसे पूण करने के लए
जतने य न क आव यकता होती है, वे सब नह कये जाते। कोई काय करते समय
समझता है क उसने ब त य न कए ह परंतु फर भी काय स नह होता। इसका
कारण यही है क ने उतना य न नह कया जतना उस काय को स करने के
लए आव यक था। । 130 ।

।। न दै व माणानां काय स ः ।।
ज ह काय आरंभ करने से पहले ही काय म असफल रहने का न य होता है, उनके
काय कभी पूण नह होते। जो यह समझते ह क उनका काय सफल नह होगा, वे कोई काय
ारंभ ही नह करते।
तीन कार के होते ह—पहले कार के य को अधम ेणी म रखा गया
है। वे असफलता और क ठनाइय के भय से काय ारंभ ही नह करते। म यम ेणी के लोग
जोश म आकर काय तो ारंभ कर दे ते ह परंतु क ठनाइयां आने पर काय को बीच म ही छोड़
दे ते ह। तीसरे कार के वे होते ह जो काय को एक बार आरंभ करने पर अनेक कार
के संकट आने पर उसे पूरा कए बना नह छोड़ते। उ ह उ म ेणी का माना जाता
है। । 131 ।

।। कायबा ो न पोषय या तान् ।।


अपने क से बचने का य न करने वाले लोग अपने आ त का भरण-पोषण
नह कर पाते।
जो अपने काय से अथवा दा य व से बचने का य न करता है, एक दन
उसके आ त लोग ही भूख मरने लगते ह। वह अपने आ त य का भी भरण-
पोषण नह कर पाता। । 132 ।

।। यः काय न प य त सोऽ धः ।।
जो अपने क को नह पहचानता वह आंख के रहते ए भी अंधा है।
जो ववेक से काम न लेकर अपने ल य के त सचेत नह रहता उसे वा तव
म अंधा कहा जाना चा हए अथात् वह ऐसा अंधा है जो माग को दे खते ए भी माग से
भटक जाता है। इस लए को चा हए क वह अपने क को पहचानकर उसे पूरा
करने का य न करे। जो अपने क के त सजग नह रहता वह न तो इस संसार
म स मान का पा होता है और न ही सफल मानव। । 133 ।

।। य परो ानुमानैः काया ण परी ेत् ।।


को अपने क का न य करने से पूव ा त और अ ा त साधन पर
वचार करना चा हए।
जब कोई काय करने लगता है तो उससे पूव उसे अपनी श य का अनुमान
होना चा हए। उसे इस बात का ान होना चा हए क उसके पास कौन से साधन ह, जनसे
वह अपने काय को पूरा कर सकता है।
इसके अ त र उसे उस बात पर वचार करना चा हए क ा त साधन के
अ त र उसे अ य कौन से साधन ा त हो सकते ह। जो इन बात पर वचार करता
है वह न य ही अपने क को पूण करने म समथ होता है और जसे अपने साधन का
अनुमान नह होता है उसे असफलता ही हाथ लगती है। । 134 ।

।। अपरी यका रणं ीः प र यज त ।।


जो बना वचारे काय करता है उसे ल मी ा त नह होती, ल मी उसका
याग कर दे ती ह।
चाण य फर कहते ह क जो भली कार बना वचारे काय ारंभ कर दे ता
है, उसे हा न उठानी पड़ सकती है। जो बना सोचे- वचारे काय करता है उसे पछताना
पड़ता है। बना सोचे-समझे काय ारंभ करने से समय तो न होता है परंतु उसके साथ
श यां और साधन का भी अप य होता है। । 135 ।

।। परी य ताया वप ः ।।
कसी काय क सफलता के माग म आने वाली क ठनाइय को वचारपूवक र करने
का य न करना चा हए।
जब कोई काय ारंभ करता है तो उसके माग म क ठनाइय का आना
वाभा वक है। य द क ठनाइय से घबराकर काय को छोड़ बैठता है तो वह कसी भी
काय को पूरा करने म सदै व वयं को असमथ पाता है।
े पु ष वही होते ह जो वप य से घबराते नह और उ ह र करने का य न
करते ह। जब क नज कृ त के लोग वप य के भय से काय को शु ही नह करते ह। ।
136 ।
।। वश ा वा कायमारभेत् ।।
अपनी श को जांच-परखकर मनु य को अपना काय करना चा हए।
ब त से मनु य इस संसार म ऐसे ह ज ह मानव ज म तो ा त आ है परंतु उ ह
अपने मन और शरीर म सोई ई श य का ान नह । इस लए सबसे पहले मनु य का
क यह है क वह कोई भी काय ारंभ करने से पूव काय से संबं धत अपने ान और
श य का अनुमान लगाये। मनु य को कोई ऐसा काय अपने हाथ म नह लेना चा हए जो
वह करने म असमथ हो। । 137 ।

।। वजनं तप य वा यः शेषभोजी सोऽमृतभोजी ।।


जो अपने साधन अथवा धन से अपने बंध-ु बांधव , आ त तथा द न- खय
को संतु करने के बाद शेष धन से अपना गुजारा चलाता है, वह अमृतभोजी होता है।
का क है क वह जो कुछ साधन अथवा धन-समृ आ द ा त करता
है, उसे सर के क याण के लए भी योग म लाये। उसका क होता है क वह सबसे
पहले अपने ब धु-बा धव , र तेदार , अ त थय , आ त लोग , द न- खय क सहायता
करने के बाद जो कुछ बचे उससे अपना जीवन नवाह करे। वह धन उसके लए अमृत के
समान होता है। जो केवल वाथवश अपना ही यान रखता है उसे मानव क से
उदासीन माना जाता है। । 138 ।

।। सवानु ानदायमुखा न वध ते ।।
जस रा म भू म, धन- ापार, उ ोग-धंधे आ द रा हत के काय होते रहते ह, उस
रा क आय के साधन भी बढ़ते ह।
जस दे श म कोई भी काय ारंभ करते समय रा के हत को सव प र रखा जाता है,
उस रा क आय के साधन म भी वृ होती है। उसके लए आय के अनेक ार खुल जाते
ह अथात् जो रा भू म, धन, ापार और श प आ द से संबं धत काय को रा हत से
जोड़ता है। वह रा धन-धा य से पूण होने लगता है। वहां क जा खुशहाल होती है। ।
139 ।
।। ना त भीरोः काय च ता ।।
कायर पु ष को अपना क पूरा करने क चता नह होती।
व तुतः अपना क पूरा करने के लए मनु य म वीरो चत भावनाएं होनी चा हए।
य द वह छोट -छोट बात से डरता रहेगा तो अपने क को पूरा नह कर सकेगा। जस
के मन म भय बैठा रहता है उसके लए कसी भी काय को पूरा करना क ठन होता है।
काय को पूरा करने के लए म उ साह के साथ संघष करने क भावना भी होनी
चा हए। मनु य के मन म बैठा आ डर ही उसे क हीन बना दे ता है। । 140 ।

।। वा मनः शीलं ा वा कायाथ काय साधय त ।।


अपने मा लक के वभाव को जानकर आ त लोग उसके अनुसार काय करते ह।
कसी के अधीन अथवा आ य म रहनेवाले को चा हए क वह अपने
आ यदाता के वभाव से भली कार प र चत हो। उसके वभाव से प रचय होने के बाद
वह उसक च के अनुसार काय करेगा तो कसी कार क क ठनाई नह होगी। । 141 ।

।। धेनोः शील ः ीरं भुं े ।।


इस सू म भी चाण य ने इससे पहले के सू म कही ई बात का समथन कया है।
वे कहते ह क जस कार गाय से ध लेने वाला उसके वभाव को जानकर ध लेने
म सफल होता है, उसी कार राजा के सेवक तथा राजा के अ धकार को राजा क च के
अनुकूल अपना काय करके रा क सेवा का उद्दे य पूरा करना चा हए।
व तुतः रा य काय चलाने के लए जो भी व था काम कर रही हो, उसका एक
वधान होता है। वधान वहां क व था का दपण कहा जा सकता है इस लए राजा के
अ धका रय का क है क वे वधान के अनुसार काम कर। । 142 ।

।। ु े गु काशनं आ मवा कुव त (कुयात्) ।।


नीच और चंचल बु वाले अपने सेवक को अपनी गु त बात नह बतानी चा हए।
बु मान् अपने नीच व चंचल बु सेवक से अपनी कोई गु त बात कट
नह करते। उ ह अपने सेवक पर अ धक व ास नह होता य क उनके वचार नी तपूण
नह होते। वे लोग ायः मूख होते ह। उनक बु चंचल होती है, इस लए समझदार मनु य
अपना कोई भी भेद उन पर कट नह होने दे ता।
आज के संदभ म भी यह बात ब त मह वपूण है। अ धकांश अपराध म घर म काम
करनेवाले नौकर का ही हाथ होता है। वे थोड़े से लालच म आकर मा लक क ह या भी कर
बैठते ह। इससे उ ह लाभ क बजाय हा न होती है। । 143 ।

।। आ तैर यवम यते मृ वभावः ।।


कोमल वभाव का अपने आ त से अपमा नत होता है।
जो अयो य और कुपा लोग के त दयालुता का वहार करता है और
ेम-पा बनने क इ छा रखता है वह उन ववेकहीन य से आदर नह पाता। उनके
साथ उनक थ त के अनु प ही वहार करने से लाभ होता है।
भाव यह है क मनु य को नौकर से अ य त कोमल वभाव का नह होना चा हए।
उसे प र थ त और यो यता के अनुसार ही उससे वहार करना चा हए। । 144 ।

।। ती णद डः सव े जनीयो भव त ।।
छोटे से अपराध पर अ यंत कड़ा दं ड दे ने वाला शासक सबक घृणा का पा बन
जाता है। उसके इस काय से उसके शासन म वरोध उ प होने का भय भी रहता है।
छोटे से अपराध पर अ यंत कठोर दं ड दे नेवाले शासक के त लोग घृणा क नी त
अपना लेते ह। सभी उसको बुरा समझने लगते ह। उसक कठोर दं ड नी त के कारण उसके
े म व ोह होने क संभावना बढ़ जाती है। अतः दं ड दे ने से पहले अपराधी क वृ
और उसके अपराध क थ त के संबंध म वचार करना अ यंत आव यक है। । 145 ।

।। यथाहद डकारी यात् ।।


उ चत यही है क राजा यथा यो य दं ड दे ने वाला होना चा हए।
जो राजा अपरा धय को दं ड नह दे ता और नरपराध लोग को दं ड दे ता है, उसका
अपयश फैलता है। राजा पहले तो अपराध के कारण तथा अपराध क प र थ त और काल
को दे ख, फर अपराधी क दं ड सहन क श और अपराध के व प तथा उसके रा पर
पड़ने वाले भाव को समझकर दं ड द।
शा म कहा है क अधमपूवक दया आ दं ड यश, क त और सुख तीन को न
करनेवाला होता है। इस लए दं ड दे ते समय इस बात का यान रखना चा हए क अपराध
कस कार का है। इसके अ त र इस बात का भी यान रखा जाए क कोई अपराधी दं ड
के हाथ से बचने न पाए, य क दं ड से ही रा य म धम-अथ और काम तीन का संर ण
होता है। शा म यह भी कहा गया है क दं ड के भय से ब त से लोग पाप करने से बचे
रहते ह। । 146 ।
।। अ पसारं ुतव तम प न ब म यते लोकः ।।
जो ग भीर नह है उसके व ान् होने पर भी लोग उसे त ाक से नह
दे खते।
इसका भाव यह है क व ान् और यो य य को कुछ ग भीर भी रहना चा हए।
य द वह गंभीर नह रहता तो लोग उसका उतना स मान नह करते जतने स मान का वह
अ धकारी होता है। कुछ बात ऐसी होती ह जो को अपना स मान बनाए रखने के लए
करनी पड़ती ह, भले ही उन बात का कोई वशेष लाभ न हो। पर तु मनु य हर समय गंभीर
भी नह बनना चाहता, उसे अपने म , ब धु-बा धव से खुलकर बात करनी पड़ती है।
इस लए व ान् मनु य का क है क वह समय, प र थ तय और जन-समुदाय को
दे खकर गंभीरता अथवा सामा य थ त का ख अपनाये। । 147 ।

।। अ तभारः पु षमवसादय त ।।
श से अ धक कायभार उठाने वाला उ साहहीन होकर ज द थक जाता
है।
मनु य जो भी काय करे वह उसक श के अनु प होना चा हए। य द वह अपनी
श से अ धक काय-भार संभाल लेगा तो उससे वह ज द ही थकावट अनुभव करने
लगेगा। अ धक थकावट से मनु य के शरीर म तनाव पैदा होता है। तनाव वयं म एक रोग है,
इसी लए मनु य को चा हए क वह उतना ही काय करने का दा य व ले, जतना वह
सरलतापूवक नभा सके। इससे काय भी ठ क होगा और काम करनेवाले के मन म उ साह
क भावना भी बनी रहेगी। । 148 ।

।। यः संस द परदोषं शंस त स वदोषब वं यापय त ।।


जो संसद अथवा रा य के लए नयम नधा रत करनेवाली स म त म कसी
गत वरोध के कारण कसी के दोष क आलोचना करने लगता है, वह वयं अपने
आप को अपराधी घो षत कर दे ता है।
यहां संसद श द आया है। संसद लोकसभा आ द को भी कहते ह। कसी सभा या
स म त को भी संसद कहा जाता है। रा य से संबं धत कसी वषय पर वचार करते समय
सभी व ा का क है क उसी वषय पर ववाद को सी मत रख। उसी वषय के गुण-
दोष आ द के संबंध म वचार कर। जो लोग उस समय गत े ष के कारण कसी
सद य क आलोचना करने लगते ह, यह उ चत नह माना जाता। गत आलोचना
करनेवाला वयं अपराधी क ेणी म आ जाता है।
लोकसभा आ द म अथात् व भ दे श क वधान सभा म ब त-सा समय
गत आलोचना म समा त हो जाता है। इससे रा व दे श का कोई लाभ नह होता।
अ छा सांसद उसी को माना जाता है जो वषय से बाहर न जाकर वषय के सभी प पर
अपने वचार तुत करता है। । 149 ।

।। आ मानमेव नाशय त अना मवतां कोपः ।।


जन य का मन सुसं कृत नह , ऐसे अ ववेक लोग ोध करने से अपनी ही
हा न करते ह अथात् ऐसे अनै तक लोग का ोध उनके लए ही हा न द होता है।
जन लोग म अपना हत और अ हत वचारने क बु नह होती, ऐसे मूख लोग
वभाव से ही स य का वरोध करने वाले होते ह। वे अपनी वपरीत बु के कारण
वा त वकता को नह समझ पाते और उससे वपरीत काय करते ह, जससे मनु य अपने
ववेक को खो बैठता है। । 150 ।

।। ना य ा यं स यवताम् ।।
जन य के पास स य पी धन है उनके लए कोई भी व तु अ ा त नह रह
जाती।
जन लोग के पास स य का बल है उ ह कसी अ य व तु को ा त करने क इ छा
नह रहती अथात् स य ही उनके लए सव े संप होती है। स य क ा त के बाद संतोष
क भावना का वकास होता है। उस समय नाशवान पदाथ क ओर से उसका मन हट जाता
है अथात् जन लोग ने स य को ा त कर लया, उ ह अ य कसी व तु क इ छा नह
रहती। । 151 ।

।। साहसेन न काय स भव त ।।
केवल भौ तक श पर नभर रहने से काय स नह होता।
साहस एक भौ तक श है। केवल भौ तक श पर आ त रहने मा से काय
स नह होता। उसके लए अ य बात क भी आव यकता है। जनम स य, सूझबूझ और
भु पर व ास आ द अ य त आव यक होती ह। इन सब बात से मनु य म जो साहस पैदा
होता है उसी से काय स होते ह, मा भौ तक श के प म केवल वही काय स हो
सकते ह जनका शारी रक श से संबंध हो। । 152 ।

।। सनात व मर य वेशेन ।।
सन म फंसा आ कसी एक बात पर यान न टका पाने के कारण
क वमुख हो जाता है।
सन अथात् बुरी लत म पड़ा आ अपने क को भूल जाता है। उसे इस
बात का यान नह रहता है क उसे या करना है। वह और सब बात भूलकर अपने गलत
काम म ही अपना समय बता दे ता है। उसम इतनी श नह होती क वह अपने क क
ओर यान दे अथवा उसे पूण करने का य न करे। सन म फंसे ए य को इस बात
का अहसास भी नह रहता क उ ह कस कार का वहार करना चा हए। सन मनु य
का सबसे बड़ा श ु है। एक बार य द कसी सन के चंगुल म फंस जाता है तो उसके
च कर से नकलना उसके लए अ य त क ठन हो जाता है। । 153 ।

।। ना यन तरायः काल व ेपे ।।


काल का पयोग करने वाला अपना जीवन न व न होकर नह गुजार
सकता। आलसी का जीवन क ठनाइय से घरा रहता है।
जब मनु य समय का स पयोग नह करता तो उसे जीवन म अनेक बार हा न उठानी
पड़ती है। समय के संबंध म वे सब जानते ह क जो समय बीत जाता है उसे फर से वापस
नह लौटाया जा सकता। इस कार य द समय का स पयोग नह कया गया तो वह थ
जाता है। मनु य के जीवन म एक-एक पल का मह व है। इसी लए उसका स पयोग मनु य
के लए अ य त आव यक है। । 154 ।

।। असंशय वनाशात् संशय वनाशः ेयान् ।।


इस सू का भावाथ यह है क मनु य क मृ यु अव यंभावी है। इसी लए मनु य को
सं ाम से वमुख होकर जीना उतना लाभदायक नह , जतना सं ाम करते ए अ न त
मौत को गले लगाना।
सं ाम से बचने से मौत से बचा नह जा सकता। जस अ नवाय मौत से बचा ही नह
जा सकता, उस मौत का वजयी मन से आ ान करने से ही मानव-जीवन सफल होता है।
मौत को थ बना डालना, मृ युंजय बनना कहलाता है। वा त वक मृ यु से कोई नह
बच सकता। यह संसार एक समर भू म है। का काय म लगे रहना और काय करते ए
संसार का क याण करना वा त वक जीवन का येय है अथात् मनु य को अपना क
करने से कभी वमुख नह होना चा हए। । 155 ।

।। अपरधना न न े तुः केवलं वाथम् ।।


सरे के धन को धरोहर प म रखनेवाला य द धरोहर रखने के साथ वाथभेद और
सर के त अपना कोई उ रदा य व नह समझता, तो वह न त प म येक समय
अपना ही वाथ खोजता रहेगा।
सर क धरोहर रखनेवाले को अपना उ रदा य व समझना चा हए और
उसम अपने वाथ को पूरा करने क बात नह सोचनी चा हए। । 156 ।

।। दानं धमः ।।
दान अथात् यो य पा क सहायता करना मनु य का व हतकारी क है।
अनेक धम अथवा सं दाय म यह नयम है क क जतनी आय हो उसका
कुछ अंश उसे दान म अव य दे ना चा हए। यही धम है। । 157 ।

।। नायागतोऽथव परीतोऽनथभावः ।।
अनाय अथात् अ ानी लोग ारा समाज म थ क बात पर आचरण करने से
मनु य का जीवन न हो जाता है अथात् अ ानी लोग ारा च लत क गई परंपरा पर
आचरण करने से मानव जीवन का अनथ होता है।
संसार म ब त से ऐसे आचरण च लत हो जाते ह जनसे मानव समाज क कोई
भलाई नह होती, वरन् हा न होती है। समय न होने के अ त र इस कार के आचरण से
समाज म अनेक ऐसी बात फैलती ह ज ह कसी भी कारण से समाज के लए हतकारी
नह कहा जा सकता। । 158 ।

।। यो धमाथ न ववधय त स कामः ।।


जससे धम और अथ दोन क वृ न हो, उसे काम कहते ह।
अनेक थान पर धम और अथ, काम और मो मनु य के लए आव यक बताये
गए ह। यहां काम के संबंध म ा या करते ए चाण य कहते ह क जससे धम और अथ
दोन क वृ न होती हो, उसे काम कहते ह। व तुतः मानवो चत काम, धम और अथ तथा
नी त कसी को भी वच लत नह करता, ऐसे काम को वीकार कया जा सकता है अथात्
काम वही है जो धम और अथ दोन म से कसी को भी कसी कार क हा न न प ंचाये। ।
159 ।
।। त परीतोऽनथसेवी ।।
धमाथ वरोधी काम से वपरीत कामना करनेवाला मानव अपने जीवन को थ
करता है, समाज म अशां त उ प करता है।
जो धम और अथ क वृ म कावट डालने वाले काम का दास बन जाता
है, उसक हा न होती है अथात् काम को धम और अथ का वरोधी नह होना चा हए। ।
160 ।
।। ऋजु वभावो जनेषु लभः ।।
समाज म न कपट, सरल, स य और बना वाथ के वहार करनेवाले सरल
ब त कम होते ह।
संसार का काय- वहार अ धकांश वाथ से पूण है। सामा य प से येक
अपने वाथ से अ धक काय करता है। संसार म ऐसे लोग का मलना क ठन है ज ह कसी
कार का वाथ न हो। सीधे और सरल का मलना इसी लए भर हो जाता है क
सीधे सरल को लोग मूख समझते ह। इसके अ त र उसे कमजोर भी माना जाता है।
। 161 ।
।। अवमानेनागतमै यमवम यते साधुः ।।
स जन पु ष नकृ उपाय से आनेवाली संप को वीकार नह करते।
सृ के ारंभ से ही धन और ऐ य येक को अपनी ओर आकृ करता आ
रहा है। इसके लए नीच-से-नीच काय पर भी उतर आता है। लोग क ह याएं, चोरी,
डकैती आ द नीच कम करता है, परंतु स जन धन के संबंध म इस कार के वचार
नह रखते। वे धन-सं ह को पु षाथ से संबं धत मानते ह। धम के अनुसार चलनेवाले
नकृ काय से धन इकट् ठा करना पाप समझते ह, य क वे जानते ह क इससे केवल
अपमान के अ त र वा त वक सुख ा त नह होगा। वा त वक सुख धम और पु षाथ से
उ प कए गये धन से ही ा त हो सकता है। । 162 ।

।। ब न प गुणानेको दोषो सते ।।


मनु य म य द कोई एक ही बड़ा दोष हो तो वह ब त से गुण को दोष म बदल दे ता
है।
अनेक बार ऐसा दे खा जाता है क ब त से य म अनेक गुण होते ह। वे लोग
पर दया करते ह, उनक सहायता करते ह, परंतु य द उनम कोई वशेष दोष होता है तो लोग
उसके गुण क उपे ा कर दे ते ह। इसी लए जहां तक हो सके, मनु य का क है क वह
अपनी समी ा करता रहे और अपनी कमी अथवा अपने दोष र करने का य न करता रहे।
। 163 ।
।। महा मना परेण साहसं न क म् ।।
स य म आ था रखनेवाले महा मा को मह वपूण काय सर के भरोसे नह
छोड़ना चा हए। उ ह वे काय वयं करने चा हए।
सर पर भरोसा करने वाला ायः हा न उठाता है य क स य क र ा
करना बड़ा क ठन काय होता है। उसक र ा सरे सा थय के भरोसे नह क जा सकती।
इस कार के काय को सरे य पर नह छोड़ना चा हए। इसी लए मह वपूण काम
को वयं ही करने चा हए। । 164 ।

।। कदा चद प च र ं न लंघयेत् ।।
क ठन-से-क ठन प र थ तयां होने पर भी मनु य को अपने वभाव का प र याग
नह करना चा हए। इसके वपरीत जो कोई भी ऐसा करता है, उसके दय म कांटे के समान
यह बात चुभती रहती है।
मनु य को काम, ोध आ द के वश म होकर अपने मानवीय च र क अवहेलना
नह करनी चा हए। वषम प र थ तय म भी अपने च र अथात् मानवीय क का याग
नह करना चा हए।
चाण य ने इस सू म कहा है क को अपने च र का उ लंघन नह करना
चा हए। च र के संबंध म यहां प कर दे ना आव यक है क मनु य का वा त वक च र
लोभ, लालच आ द से र रहना है। मनु य का च र अथात् वभाव यह है क वह कोई ऐसा
काय न करे जससे सर को हा न प ंचती हो। य द वह ऐसा काय करता है तो यह बात
जीवन भर उसके दय म कांटे क तरह चुभती रहेगी। । 165 ।

।। ुधात न तृणं चर त सहः ।।


सह भूखा होने पर भी घास नह खाता।
यह सू भी ऊपर के सू क बात क पु करता है। अथात् मनु य को अपना
वभाव नह छोड़ना चा हए। जस कार सह भूख से अ य त ाकुल होने पर भी मांस
खाने के अपने वभाव को छोड़कर घास खाने पर ववश नह होता, उसी कार जो
अपने च र के मह व को समझते ह, वे अ यंत क ठन समय म भी स य का प र याग नह
करते। सदै व च र वान् बने रहते ह।
कृ त ने संसार के सभी ा णय को व श वभाव दया है। अ धकांश ाणी
जीवन भर अपने वभाव पर ढ़ रहते ह, अथात् घास खाने वाले ाणी कभी मांस क ओर
दे खना भी उ चत नह समझते। परंतु मनु य का वभाव ऐसा है जसे वह थोड़े से लालच,
भय के वशीभूत हो उसे छोड़ने पर ववश हो जाता है। इस लए मनु य का क है क वह
सदै व स य न वा त वक वभाव पर ढ़ रहे। । 166 ।

।। ाणाद प ययो र त ः ।।
यय का अथ है व ास अथात् मनु य को चा हए क वह अपने ाण को संकट म
डालकर भी स जन य के साथ स जनता पी अपनी व ासपा ता क र ा करे।
चाण य कहते ह क भयंकर संकट पड़ने पर भी मनु य को अपने मू य का
प र याग नह करना चा हए। सं ेप म मनु य को स जन के साथ स जनता का वहार
करना चा हए। स जन के त यह उसके व ास क बात है। । 167 ।

।। पशुनः ोता पु दारैर प य यते ।।


पशुन अथात् व ासघाती को उसके पु , ी आ द प रवार के लोग भी
याग दे ते ह।
सुनी ई बात के आधार पर लोग म लड़ाई-झगड़े करानेवाले को उसके
प रवारवाले भी याग दे ते ह। य द उसे न याग तो आपसी वपदा आने क आशंका बनी ही
रहती है। चुगलखोरी एक कार का मान सक पाप होता है। व ासघाती का कभी व ास
नह करना चा हए। इ तहास म ऐसे अनेक उदाहरण दे खने को मलते ह ज ह ने रा के
साथ व ासघात कया। सह वष के बाद भी उनका नाम घृणा से लया जाता है। इस लए
यह प है क जो व ासघात करता है वह सदा के लए बदनाम हो जाता है। ।
168 ।
।। बालाद यथजातं शृणुयात् ।।
य द कोई ब चा भी उपयोगी बात कहता है तो उसे सुनना चा हए। अथात् मनु य को
कसी भी मह वपूण बात क उपे ा नह करनी चा हए, भले ही उस बात को कहनेवाला
कतना ही सामा य और तु छ य न हो।
जस कार क चड़ म पड़े ए र न को भी उठा लेना चा हए, उसी कार य द कोई
साधारण कोई उपयोगी बात कहता है तो उसे हण कर लेने म संकोच नह करना
चा हए। ब त से दे खने म बड़े सामा य और उपे त-से दखाई दे ते ह परंतु वह कई
बार ऐसी कोई बात कह दे ते ह जो बड़ी मह वपूण होती है। उस बात को सुनना और अमल
करना बुरा नह है। इस कार क बात से कई बार मानव-जीवन म मह वपूण प रवतन के
उदाहरण दे खे गए ह, इस लए कह से भी उपयोगी बात को हण करने म आनाकानी नह
करनी चा हए। । 169 ।

।। स यम य े यं न वदे त् ।।
जस क सयम ा न हो, उस को स य के संबंध म कुछ कहना
थ है। चाण य कहते ह क जसे स य अ य लगता हो, उससे स य कहकर स य का
अपमान मत करवाओ।
स य बात सुनना काफ क ठन होता है। य द स य कठोर हो तो उसे सुनना और
सहन करना उससे भी क ठन काय है। परंतु इसके साथ ही स ची बात कहनेवाले भी
लभ होते ह य क येक अपने वाथ से े रत होकर कोई काय करता या बात
कहता है।? । 170 ।

।। ना पदोषाद् ब गुणा य य ते ।।
कसी के साधारण दोष दे खकर उसके मह वपूण गुण को अ वीकार नह करना
चा हए।
य द स चे गुणी मनु य का कोई वहार षत लगता हो या न हो, तो यह न त है
क यह गुण के च र को न समझने का दोष है, जब उस पर शांत काल म नरपे प से
वचार होगा, तो प प से समझ म आ जाएगा क वा तव म उसका दोष नह है।
सं ेप म इस सू का अथ यह है क कसी के मू य का आकलन उसके
संपूण आचरण को दे खकर ही करना चा हए। । 171 ।

।। वप व प सुलभा दोषाः ।।
सामा य प से ानी य के वहार म भी दोष नकाले जा सकते ह अथात्
य द दोष नकालने क से उनके वहार को दे खा जाए तो दोष नकालना क ठन काम
नह ।
अनेक थान पर चाण य ने यह बताया है क येक और येक कुल म
कह -न-कह दोष ज र होता है। परंतु स जन , व ान और ानी य के वहार म
इस तरह के दोष को मह व नह दे ना चा हए। उसक ओर यान दे ने से य को भले
ही स ता हो सकती है पर तु स जन को इससे कोई हा न नह होती। इसी लए नदा करने
वाले व ान् लोग म भी दोष ढूं ढ़ते रहते ह। । 172 ।

।। ना त र नमख डतम् ।।
जस कार येक र न म कसी-न- कसी कार क ु ट नकाली जा सकती है,
जैसे े म ण भी सवदा नद ष नह होती, इसी कार व ान म भी इं य से संबं धत भूल
अथवा दोष पकड़े जा सकते ह।
इसका भावाथ यह है क व ान् क नदा करना नदक का एक कार से
अपराध होता है। जस कार कसी भी र न म पहले दोष नकालने के बाद उसको
दोषर हत और वा त वक स कया जाता है, उसी कार व ान पर भी कसी-न- कसी
कार के दोष मढ़े जा सकते ह।
परंतु अंत म वही दोष उ ह नद ष स करनेवाले बन जाते ह अथात् व ान क
नदा करना अपने अ ान का प रचय दे ना है, जस कार पहले कसी र न को कृ म
बताया जाए और बाद म उसे असली करार दया जाए। । 173 ।

।। मयादातीतं न कदा चद प व सेत् ।।


जो सामा जक नयम अथात् मयादा का उ लंघन करते ह उनका कभी भी
व ास नह करना चा हए।
येक समाज के कुछ नयम होते ह। समाज उन नयम के सहारे जी वत रहता है।
यह एक कार क मयादाएं होती ह ज ह समाज का कोई भंग करने का य न नह
करता परंतु जो ऐसा करते ह वे समाज के वपरीत चलने वाले होते ह।
चाण य का कहना है क ऐसे य का कभी भी व ास नह करना चा हए।
ऐसे य पर व ास करने से समाज म वरोधी भावनाएं पैदा होती ह और सामा जक
बंधन के न होने का भय प हो जाता है। जो सामा जक मयादा को भंग करता
है, उस पर व ास करना मूखता है। । 174 ।

।। अ ये कृतं यम प े यं भव त ।।
श ु ारा ऐसा वहार जो दे खने म हतकारी तीत हो, उसे ध से भरे बतन के
मुख पर लगे वष के समान ही मानना चा हए।
श ु कई बार वरोधी रा को बहकावे म डालने के लए इस कार का वहार
करने लगता है जो दे खने म ब त अ छा लगता है। परंतु इस वहार पर व ास नह करना
चा हए।
भारतीय ने इस कार के वहार का फल चखा है। चाऊ एन लाई के समय भारत
म भाई-भाई का नारा लगाया गया था। भारतीय अ धका रय ने उस नारे म छपी ई
भावना को नह समझा। वह भावना तभी प ई जब चीन ने भारत पर आ मण कया।
इसी लए चाण य कहते ह क ऐसे क बात पर व ास नह करना चा हए जो व ास
करने यो य न हो। । 175 ।

।। न म य प तुलाको टः कूपोदक यं करो त ।।


जो कपटपूण न ता का वहार करता है उसका व ास उसी कार नह
करना चा हए जस कार ढकली नीचे को सर झुकाकर कुएं म घुसती है और उसका पानी
नकाल लाती है। उसी कार वाथ लोग के दखावट न तापूण वहार पर व ास नह
करना चा हए।
चाण य ने कुएं म से पानी नकालने वाली ढकली का ब त ही व च और उपयु
उदाहरण दया है। कसी कुएं म से जब ढकली ारा पानी नकाला जाता है तो जस भाग म
ढकली बंधी होती है उसे नीचे झुकाकर कुएं म डाला जाता है।
इस कार ढकली सर झुकाकर कुएं म घुसती है, परंतु धीरे-धीरे पानी नकालकर
उसे खाली कर दे ती है। इसी कार मनु य न तापूण बात हा न प ंचाने के लए ही करते
ह। । 176 ।

।। सतां मतं ना त मेत् ।।


स जन पु ष जो नणय लेते ह उसके व काय करना उ चत नह अथात्
स पु ष के नणय के व चलना मनु य का क नह ।
मनु य अपने ववेक से अपने क का न य करता है। क और अक के
संबंध म जब कोई सम या उ प होती है तो उसके करने या न करने म उसका अपना ववेक
ही सहायक होता है। परंतु जब मनु य कोई न य न कर पाए तो उसे यह दे खना चा हए क
स जन पु ष अथवा व ान् पु ष ने ऐसी थ त म या नणय लए। तब उस नणय के
अनुसार काम करना चा हए।
उस समय उसका क होता है क वह स जन ारा उन सीमा म रहे जो
उ ह ने न त क ह। उनके ारा नधा रत सीमा से बाहर जाना और उनका उ लंघन
करना उ चत नह । । 177 ।

।। गुणवदा या गुणोऽ प गुणी भव त ।।


गुणवान् मनु य का आ य लेने से अथवा उसके पास रहने से गुणहीन भी
गुणी हो जाता है।
येक को इस संसार म सभी बात का ान नह होता। ान ा त करने के
लए गु का आ य लेना होता है। परंतु गु हर समय कसी के साथ नह रह सकता।
उसका क उसे ान दे ना है, परंतु सांसा रक सम या के संबंध म जो भी नणय लेने होते
ह, उनका आधार स संग होता है अथात् अनुभवी पु ष के साथ रहकर ववेक-बु
अ जत कर लेता है और उनके अनुसार सांसा रक सम याएं हल करने म सु वधा होती है।
अनुभवी पु ष के स संग से मनु य के ववेक म वृ होती है। । 178 ।

।। ीरा तं जलं ीरमेव भव त ।।


ध म मला आ जल भी ध ही बन जाता है अथात् ध म मले ए पानी को भी
लोग ध ही मानते ह। इसी कार गुणी के संसग म रहने वाला गुणी बन जाता
है।
शराब बेचने वाला शराब के बतन म ध भरकर रखने का य न करेगा तो
लोग उसे शराब ही समझगे। इसी कार जो और नगुणी य का संग करता
है उसे गुणी माना जाता है, जो स जन का स संग करता है, वह गुणहीन होने पर
भी गुणी मान लया जाता है। । 179 ।

।। मृ प डोऽ प पाट लग धमु पादय त ।।


जस कार बना गंध वाली मट् ट म फूल के संसग से उसम गंध आ जाती है, इसी
कार वभाव से जो गुण हण करने क इ छा रखता है वह सद्गुण से संप
के संपक म आकर उससे अ छे गुण हण कर लेता है।
मट् ट म अपनी एक वशेष गंध होती है, परंतु जन या रय म वशेष सुगं धत फूल
उगाए जाते ह, उन फूल के संसग के कारण उस मट् ट म भी एक वशेष कार क गंध पैदा
हो जाती है। वन म सुगं धत पु प से लदा आ एक वृ सारे वन को अपनी सुगंध से महका
दे ने म समथ होता है। उसी कार सद्गुणी और व ान् के संपक से ही मनु य
सद्गुणी बन सकता है। इसम त नक भी संदेह नह । । 180 ।

।। रजतं कनकसंगात् कनकं भव त ।।


जैसे चांद सोने के साथ मलने पर सोना बन जाती है, चांद नह रहती। इसी कार
नगुणी गुणवान् के पास रहकर गुणी बन जाता है।
आभूषण बनाते समय सोने म चांद का म ण कया जाता है। चांद के म ण से
सोने म कुछ कठोरता आ जाती है परंतु सोने म मली ई चांद को सोना ही समझा जाता है।
चांद का अपना प समा त हो जाता है। इस सू म भी चाण य ने स जन पु ष के साथ
स संग से होने वाले लाभ के संबंध म लखा है। । 181 ।

।। उपकतयपकतु म छ यबधुः ।।
बु हीन ू र ववेकहीनता के कारण अपना हत करनेवाले को भी हा न
प ंचाकर अपनी वाथ स करने से पीछे नह हटता।
अपने नीच वभाव को नह छोड़ सकता। वह अपना उपकार करनेवाले
को भी हा न प ंचाने से भय नह खाता। जस कार जल का वभाव नीचे को गरना
है, उसी कार भी अपना वभाव नह छोड़ता। उसका वभाव स जन का
अ हत करना होता है। वह उनसे लाभ उठाने के बावजूद उनका अ हत करने म हच कचाहट
अनुभव नह करता। । 182 ।

।। न पापकमणामा ोशभयम् ।।
, पापी य को अपने नकृ कम के कारण नदा से भी भय तीत नह
होता। पाप करने वाला ल जार हत हो जाता है। उसे इस बात का भय नह रहता क
उसके
पाप कम के कारण समाज म उसक नदा होगी। नदा से भय अनुभव न करने के
कारण वह पाप कम से छु टकारा नह पा सकता और अपना सारा जीवन एक नल ज
के समान अपमान सहते ए बता दे ता है। । 183 ।

।। उ साहवतां श वोऽ प वशीभव त ।।


जो उ साही होते ह वे अपने अ त श ु को भी वश म कर सकते ह।
उ साही के लए इस संसार म कोई भी काय ऐसा नह जो वह कर न सके।
उ साही य ने संसार म असंभव काय को कर दखाया। सकंदर और चंगेज खां जैसे
छोटे -छोटे उ साही राजा ने संसार म ऐसे वशाल भूभाग पर क जा कया जसके संबंध म
वचार करने से आज भी आ य होता है।
इसके अ त र मनु य के दय म रहनेवाली पापवासनाएं मनु य क श ु होती ह।
मनु य अपने उ साह से उन पर भी वजय ा त कर सकता है। जस म कुछ करके
दखाने क ह मत होती है, वही संसार म सफल होता है। । 184 ।

।। व मधना राजानः ।।
राजा का सबसे बड़ा धन व म ही होता है। जो राजा व मी अथात् वीर नह ,
उसके लए संसार म यश ा त करना क ठन है।
राजधम चलाने के लए राजा के लए आव यक है क वह व म और शूर-वीर हो।
शूरवीरता उसका वशेष गुण माना जाता है। जो राजा आलसी और डरपोक होते ह, वे न
हो जाते ह। उनके लए अपने रा य क र ा करना भी क ठन होता है। धन-धा य और
समृ के साथ-साथ राजा का शूरवीर, बलवान् और व मी होना आव यक है। उसे इस
बात का ान होना चा हए क डरपोक आदमी अपने जीवन म अनेक बार मरता है परंतु
शूरवीर जीवन म अपने यश के बाद केवल एक बार ही मृ यु को ा त होता है। ।
185 ।
।। ना यलस यै हकामु मकम् ।।
आल य के कारण का वनाश हो जाता है।
जस को अपने काय म कसी कार का उ साह नह होता, वह मूख तो होता
ही है परंतु उसे अपने आल य के कारण वतमान और भ व य से संबं धत कसी काय म
सफलता भी नह ा त होती। सफलता का अथ यह है क जो वतमान म सफल है
वह अपने उ साह के कारण भ व य म भी सफल होने क आशा कर सकता है अथात् जस
ने अपने उ साह के कारण वतमान को सुर त बना लया है उसके भावी काय भी
अव य सफल होने क संभावना से पूण होते ह। आलसी जीवन म पराजय का ही
मुख दे खता है। । 186 ।

।। न साहाद्दै वं पत त ।।
जन काय म न त प से सफल हो सकता है य द वह उनम भी उ साह से
काम नह लेगा तो उसे सफलता ा त नह होगी।
भा य का सहारा तो कायर पु ष लेते ह। उ साही अपने उ साह से उन काय को भी
स कर लेते ह जनक सफलता म उ ह संदेह होता है, परंतु आलसी उस काय म
असफल रह जाते ह जनम भा य के कारण सफलता ा त होने क संभावना हो सकती थी।
। 187 ।
।। मा याथ व म या थवज्) जलमुपयु याथ गृ यात् ।।
पु षाथ को संकट से लड़ना होता है। जस कार मछली को पकड़ने क
इ छा रखनेवाले मछे रे को जल म घुसने का संकट मोल लेना ही पड़ता है।
जस कार मछे रा जल म वेश के संकट का सामना कर मछली पकड़ता है, उसी
कार पु षाथ मनु य भी संकट म कूदकर सफलता पी अपने दै व को व न से बचाकर
सुर त रखता है, अपना काम बनाता है। । 188 ।

।। अ व तेषु व ासो न क ः ।।
जन लोग के संबंध म कसी कार का परी ण न कया गया हो, उन लोग पर
व ास करना मूखता है अथात् अपा य पर कभी भी व ास नह करना चा हए।
राजा के अ त र सामा य य को भी अपने जीवन म ब त सोच-समझकर
व ासपा य को चुनना चा हए। जो व ास के यो य न हो उ ह कभी भी
अपना साथी नह बनाना चा हए। अपा पर व ास करने से को हा न होती
है। । 189 ।

।। वषं वषमेव सवकालम् ।।


वष सदा वष ही रहता है। वह कभी अमृत नह बन सकता अथात् वष का वभाव
नह बदलता।
ा णय के लए अपना वभाव छोड़ना क ठन होता है। जस कार वष सदै व वष
ही रहता है उसी कार अ व ासी भी अपने वभाव के अनुसार कभी भी व ास का
पा नह बन सकता। वष को य द अमृत-कलश म रख दया जाए तो भी वह अमृत नह
बन सकता, इसी कार य के लए अपना वभाव बदलना क ठन होता है। मनु य
को अपने जीवन म सफलता पाने के लए अ व ासी य से र रहना चा हए। । 190

।। अथसमादाने वै रणां संग एव न क ः ।।
अपने काय को स करने के लए को चा हए क वह अपने श ु से
कसी भी कार क सहायता न ले और न उनसे कसी कार का संपक रखे।
मनु य को कसी काय को पूण करने और उससे धन- ा त क इ छा रखते समय
अपने श ु से सतक रहना चा हए, उनसे अपने काय के संबंध म न तो कसी कार का
परामश लेना चा हए और न कसी कार का उनसे संपक रखना चा हए। य क ऊपर
बताया गया है क जैसे वष अपने वभाव को नह छोड़ता, उसी कार श ु भी आपको
हा न प ंचाने से अपने आप को नह रोक पाएगा। । 191 ।

।। अथ स ौ वै रणं न व सेत् ।।
अपने उद्दे य क पू त के संबंध म श ु पर कसी कार का व ास नह करना
चा हए।
जब मनु य अपने कसी काय को स करने म लगा रहता है तो अनेक उसम
क ठनाइयां उ प करने का य न करते ह। उनका उद्दे य को अपना काय स
करने से अलग करना होता है। वा तव म कुछ लोग का वभाव होता है क जब वे कसी
को अपने ल य तक प ंचते दे खते ह तो उसे अपने माग से वच लत करने का य न
करते ह। यह काय श ु का होता है, म का नह । म तो उद्दे य क पू त म सहायक
ही होते ह। । 192 ।

।। अथाधीन एव नयतस ब धः ।।
लोग के संबंध का आधार अपने उद्दे य क पू त के आधार पर होता है।
दे खने म आता है क मनु य अपने उ े य क पू त के लए ही कसी सरे से
संबंध था पत करता है अथात् संबंध का आधार का अपने उददे य क पू त होता है।
सामा य प से यह कहा जा सकता है क संबंध वाथ पर आधा रत होते ह। नः वाथ संबंध
रखनेवाले ब त कम होते ह। अपने उद्दे य के त वाथपूण कोण होना एक
सांसा रक वहार है परंतु अपने उद्दे य क पू त के लए कसी सरे को हा न प ंचाना
अ य त नदनीय काय है। इस सू का सरा अथ सामा य प से यह भी हो सकता है क
धन को ही म रखकर अपने संबंध था पत करता है। दे खने म आता है क जब
तक मनु य के पास धन रहता है तो वह सगे-संबं धय और म से घरा रहता है परंतु जब
उसका धन न हो जाता है तो म तो या उसके पु और उसक ी भी उसका साथ छोड़
जाते ह। । 193 ।

।। श ोर पसुत सखा र त ः ।।
श ु का पु भी य द म हो तो उसक र ा करना का क होता है।
बु मान राजा का क है क य द श ु का पु म बन जाए तो उसक र ा का
हर समय यास करना चा हए।
इस संसार म मनु य के स ब ध अथवा म ता उद्दे य क एकता के कारण होती
है। जनके ल य एक जैसे होते ह, वे आपस म एक- सरे के म बन जाते ह। वा त वक
श ु वही होता है जो वभाव का होता है और स य से े ष करने वाला होता है। स य के
आधार पर वजय ा त करना ही व ान् य का येय होता है। जो स य का
वरोध करते ह वे अस य के दास होते ह। उद्दे य म वरोध के कारण ही लोग म श ुता पैदा
होती है। ऐसे म पु अपने पता जैसा स य का श ु न होकर अस य का श ु भी हो सकता
है। । 194 ।

।। याव छ ो छ ं प य त ताव तेन वा क धेन वा वा ः


।।
श ु क जस कमजोरी पर हार करके उसे न करने का वचार हो तो उससे
दखावट म ता रखनी चा हए अथात् अपने श ु को म ता का दशन करके उसे धोखे म
डालने का समय तलाश करते रहना चा हए।
श ु क उस नबलता पर हार करने तथा न करने तक उसे कृ म मान तथा
कृ म म ता के दशन से सदा धोखे म रखना चा हए। श ु को म ता के धोखे म
डालकर परा त करना चा हए। । 195 ।

।। श ु छ े प रहरेत् ।।
श ु क बलता दे खकर उसे अपनी सहायता से वं चत कर दो। अथात् श ु क
कमजोरी दे खकर ही उस पर हार करना चा हए।
अपने श ु पर वजय चाहनेवाले राजा का क है क वह अपने श ु क बलता
का पता चलने पर, उसक बलता से ही उसे समा त करने का य न करे अथात् य द कोई
राजा सनी हो, जुए अथवा म और वषयभोग म ल त होनेवाला हो तो उसे सन म
फंसाकर ही उसे न कर दे ना चा हए। । 196 ।

।। आ म छ ं न काशयेत् ।।
श ु को अपनी बलता का प रचय नह दे ना चा हए अथात् ऐसा य न करना
चा हए क अपनी बलताएं श ु पर कट न ह ।
इस सू का अथ यह है क चतुर राजा अपने श ु के सामने सदै व अपने आपको
बलवान् द शत करता रहे, अपनी बलता का पता न लगने दे । । 197 ।

।। छ हा रण श वः ।।
श ु के वभाव को पहचानकर उसक नबलता पर ही आ मण करना चा हए।
राजा अपने श ु क नबलता को पहचानकर ही उस पर आ मण करते ह। वे सदै व
अपने आपको श ु क म बलवान् स करते रहते ह। य द श ु को अपने वरोधी क
नबलता का पता चल जाता है तो वह आ मण करता है। इस कार हार करनेवाला राजा
श ु को न कर दे ता है। बु मान राजा को चा हए क वह अपने वरोधी क बलता को
जानने का य न करे। । 198 ।

।। ह तगतम प श ुं न व सेत् ।।
वजय चाहनेवाले राजा का क है क अपने वश म आए ए श ु पर कभी
व ास न करे।
हो सकता है क अ धकार म आने पर श ु म ता का दशन करे, परंतु राजा का
क है क सदै व सतक रहे और श ु पर कभी व ास न करे। य द श ु को कसी कारण
से मा भी कर दया जाए तो भी कभी उसे अपनाने का य न नह करना चा हए। जो राजा
ऐसा करते ह उ ह धोखा होता है। श ु उन पर आ मण कर दे ता है और वे वनाश से बच
नह पाते। । 199 ।

।। वजन य वृ ं नवारयेत् ।।
सदै व वजय चाहनेवाले राजा का क है क वह अपने प के लोग के पापाचार
पूण आचरण को उपाय ारा र करने का य न करे।
बु मान राजा का क है क वह अपने प के अ धका रय तथा संब
य म कसी कार के पापाचारपूण काय को दे खे तो उसे समा त करने का य न
करे। यह इस लए आव यक है क श ु राजा इस कार के लोग को अपने प म फांसकर
वाथ स कर सकते ह। इसी लए वजय चाहनेवाले राजा का क है क वह अपने प
क स य- न ा को थर रखने के लए अपने लोग क बलता को र करने का य न
करे। । 200 ।

।। वजनावमानोऽ प मन वनां ःखमावह त ।।


य द अपने प के लोग र ह तो इसके कारण अपमान होता है और
वचारशील य को इससे ःख होता है।
अपने प के लोग (भाई-बा धव या र तेदार आ द या राजा हो तो म वत्
रा या धकारी) य द र ह तो वह कभी-न-कभी और अकसर ऐसे काय करते रहते ह,
जनसे को सर के सामने अपमा नत होना पड़ता है। अतः उनको संमाग पर लाकर
सुधारने का य न स जन पु ष को करना चा हए। । 201 ।

।। एकांगदोषः पु षमवसादय त ।।
जैसे मनु य के शरीर के कसी अंग म कोई क हो तो पूरे शरीर को उसक पीड़ा
अनुभव होती है। एक षत अंग के कारण सारा शरीर रोगी दखाई दे ता है। इसी कार
कसी रा य-सं था या कसी दल के एक म य द राचार पी क दखाई दे ता है तो
इससे सारे दल अथवा शासन- व था को हा न प ंचती है। । 202 ।

।। श ुं जय त सुवृ ता ।।
सदाचार ारा ही श ु पर वजय ा त क जा सकती है।
अ छे आचरण (सदाचार) से श ु पर वजयी होना सरल हो जाता है। यहां सदाचार
का अथ यह है क अपना स मान थर रखते ए सरे के स मान को थर रखे।
रा य से संबं धत येक वभाग क आचार सं हता होती है। उसका पालन करना भी
आव यक होता है।
इससे वदे श का मान-स मान और वा भमान थर रहता है। इसके वपरीत आचार
सं हता के उ लंघन से अपनी हा न होती है, श ु क नह । इस लए आचार सं हता का पालन
करना श ु पर वजय ा त करने का सबसे बड़ा साधन है। । 203 ।

।। नकृ त या नीचाः ।।
नीच कृ त के लोग स जन के साथ कपटपूण वहार करते ह।
नीच का यह वभाव होता है क वह सभी थान पर अपनी नीचता का
दशन करता है। उससे यह आशा नह क जा सकती क वह स जन य के साथ
स जनतापूण वहार करेगा। के लए सभी एक समान होते ह। वे स जन
और जन म भेद नह कर पाते।
अपने वभाव के अनुकूल वह स जन य से भी धोखे से भरा वहार करता
है। उसका वहार सदै व कपटपूण होता है। । 204 ।

।। नीच य म तन दात ा ।।
नीच के वभाव के संबंध म चाण य कहते ह क उसे स म त दान करना
उ चत नह , य क उसके लए अपना वभाव छोड़ना क ठन होता है।
को समझाना अथवा उसे उपदे श दे कर धम के माग म लाना थ होता
है। जस कार पानी का वभाव नीचे क ओर बहना है, उसी तरह नीच भी अपना
वभाव नह छोड़ सकता। अथवा नीच मनु य को इस बात का ान नह होता क कस
काय से का मान सक वकास होता है। जब वह इस मूल बात को ही नह समझता तो
उसे समझाने क बात करना ही थ है। । 205 ।

।। तेषु व ासो न क ः ।।
का व ास भी नह करना चा हए।
जो ू र, ठग और नीच है उसका व ास करने से हा न के अ त र और कुछ
नह होता। नीच लोग का क ही लोग को ठगना और उ ह स माग से वच लत करना
होता है। इसी लए उनसे सदै व री बनाए रखना चा हए। । 206 ।

।। सुपू जतोऽ प जनः पीडय येव ।।


से य द उदारतापूण वहार कया जाए तो भी वह समय पाते ही हा न
करने से नह चूकता।
से य द सोच-समझकर अथवा अनजाने म भी अ छा वहार कया जाए
और उदारता दखाई जाए तो भी वह अवसर पाते ही सर का बुरा करने से नह चूकेगा। ।
207 ।
।। च दनाद न प दावा नदह येव ।।
चंदन क शीतलता और उसक सुगंध आ द गुण का ान न करके वन म लगी ई
आग सरे वृ के साथ उसे भी जला डालती है।
जंगल म जब आग लगती है तो सभी वृ उसम जलकर राख हो जाते ह। वह चंदन
हो या अ य वृ । इसी कार मनु य कसी को नह ब शता। । 208 ।

।। कदा प पु षं नावम येत् ।।


कसी भी पु ष का कभी अपमान नह करना चा हए।
जो कसी अ य का अपमान करता है, वा तव म वह अपनी ही हीनता
का दशन करता है। उससे यही तीत होता है क वह कस ेणी का पु ष है। स जन लोग
येक को वैसा ही समझते ह और उससे उसी कार का वहार करते ह जैसा वे
अपने साथ कया जाना उ चत मानते ह। इस लए को सदै व सर से वहार करते
समय यह बात यान म रखनी चा हए। य द कोई आपका अपमान करता है तो
आपको कैसा तीत होगा। ऐसा सोचने वाले कभी कसी का अपमान नह करते। ।
209 ।
।। त म त पु षं न बाधेत् ।।
मा करना मनु य का धम है। इस बात को यान म रखकर जो मा के यो य
ह, उ ह कभी क नह प ंचाना चा हए। । 210 ।

।। भ ा धकं रह यु ं व ु म छ यबु यः ।।
राजा ारा एकांत म राजक य रह य पर कये गये वचार को बु हीन मनु य कट
कर दे ना चाहते ह।
इसका भाव यह है क मूख मनु य को ऐसी सभा म नह बुलाना चा हए जसम
राजक य काय से मह वपूण मामल पर वचार कया जाता हो। । 211 ।

।। अनुराग तु फलेन सू यते ।।


कसी से ेम अथवा अनुराग का मौ खक सहानुभू त से पता नह चलता। इसक
वा त वकता उसके फल से कट होती है।
मौ खक सहानुभू त दखाने वाले लोग तो ब त से मल जाएंगे परंतु आपके कम से
सहानुभू त रखनेवाले य का ेम कमफल से जुड़ा होता है। मनु य का ेम इस बात से
भी कट होता है क वह मनु य क कतनी सफलता चाहता है। ब त से य का
वभाव होता है क वे कसी को अपने जीवन म सफल दे ख उससे ई या करने लगते
ह परंतु वा त वक ेम अथवा अनुराग वही है जो मनु य क सफलता से सरे य को
भी स ता अनुभव हो। । 212 ।
।। ाफलमै यम् ।।
बु का ही फल एै य है। संसार म बु मान मनु य को ही सुख क ा त होती है।
व तुतः बु मान को ही संसार म े और बलवान् माना जाता है। शरीर से बलवान्
होना ायः उतना लाभदायक नह होता जतना बु मान होना। संसार के सभी ाणी खान-
पान, सोने, उठने, बैठने म एक समान ह परंतु मनु य क बु ही उसे अ य ा णय से अलग
करती है और उसक े ता स करती है। बु मान क ही इस संसार म पूजा होती
है। उसे आदर और स मान क से दे खा जाता है। । 213 ।

।। दात म पबा लशः लेशेन प रदा य त ।।


मूख सर को द जाने वाली व तु को दे ने म भी ःख अनुभव करता है।
संसार म अनेक व तुएं ऐसी ह जो कृ त ारा मनु य को बना कसी भेद-भाव के
दान क गई ह। बु मान तो दान के मह व को समझते ह और वह दान दे ना अपना
क मानते ह, परंतु मूख य को इस बात से लेश अनुभव होता है।
सद्गृह थ जहां दान दे ना अपना क मानता है वहां मूख छोट -से-
छोट व तु भी अपने से पृथक् करने म क अनुभव करता है। य क वह दान के मह व को
नह समझता। । 214 ।

।। महदै य ा या यधृ तमान् वन य त ।।


ववेकर हत रा यै य पाकर भी न हो जाते ह।
महान् ऐ य क ा त भु क कृपा और अपने य न से होती है। ववेकहीन
सुख-साधन और महान् ऐ य को ा त करने पर भी न हो जाता है।
सुख-साधन और ऐ य क ा त के लए मनु य को धैयपूवक य न करना पड़ता
है। य द वह अपने य न म धैय से काम न लेगा तो उसे महान् ऐ य और धन क ा त
होना क ठन होगा। य क जन य म धैय क कमी होती है, वे अपने अ ववेक के
कारण महान् ऐ य ा त करके भी न हो जाते ह। । 215 ।

।। ना यधृतेरै हकामु मकम् ।।


धैयहीन पु ष को न तो सांसा रक (लौ कक) सुख ा त होते ह और न ही
पारलौ कक।
जस म धैय नह होता उसम काय करने क श न हो जाती है। जो
धैयपूवक काय करते ह उ ह ही फल क ा त होती है। सफलता पाने के लए धैयपूवक
काय करना ब त आव यक होता है। अधीर अपने चंचल वभाव के कारण कसी
काय म सफल नह होते। । 216 ।

।। न जनैः सह संसगः क ः ।।
बु मान य को लोग से र रहना चा हए। लोग के संसग से बचने से
ही बु मान लोग को लाभ होता है।
मनु य जस कार के समाज म रहता है उसका भाव उसके जीवन पर अव य
पड़ता है। इसी लए को चा हए क वह अपने आपको के संसग से बचाता
रहे। य के संसग से मनु य म अनेक दोष उ प हो जाते ह। । 217 ।

।। शौ डह तगतं पयोऽ यवम येत् ।।


शराब बेचनेवाले के हाथ म य द ध भी होगा तो उसे भी शराब ही समझा जाएगा।
इसका भाव यह है क य द म कोई गुण भी होता है तो भी लोग उस पर
व ास नह करते। वे उस गुण के त भी आशं कत रहते ह।
जस कार शराब बेचने वाले क कान पर शराब के पा म य द ध भर
दया जाये तो भी लोग उसे शराब ही मानगे। इसी तरह के गुण पर भी संदेह कया
जाता है। । 218 ।

।। कायसंकटे वथ वसा यनी बु ः ।।


कसी काय को करते समय जब कोई क ठनाई सामने आती है तो मनु य बु ारा
ही ऐसा काय करने का न य करता है जससे सफलता ा त हो।
येक काय आरंभ करने के बाद मनु य के काम म क ठनाइयां अव य आती ह।
परंतु बु मान उन क ठनाइय को र करने के लए धैयपूवक सोच-समझकर अपने
क का माग खोज लेता है, अथात् बु ारा ही आने वाली क ठनाइय को र कया जा
सकता है। । 219 ।

।। मतभोजनं वा यम् ।।
जो भूख से कम भोजन करते ह, वे व थ रहते ह।
अथात् मनु य को जतनी भूख हो, उससे थोड़ा कम खाना चा हए। इससे मनु य का
वा य ठ क रहता है। उसे कसी कार के रोग नह घेरते। आव यकता से अ धक भोजन
करने वाला सदै व रोगी रहता है। । 220 ।
।। प यम यप याजीण ना ीयात् ।।
अप य के कारण य द अजीण हो गया हो तो प य भोजन को भी याग दे ना चा हए।
जब मनु य ऐसा भोजन करता है जसे पचाने म क ठनाई आती है तो उसका शरीर
अपच रोग का शकार हो जाता है। ऐसी थ त म भोजन याग दे ना अ धक अ छा है। कहा
गया है क ‘अजीण भोजनम वषम्’ अथात् अजीण होने पर भोजन करना वष के समान
होता है। इसी लए भोजन तभी करना चा हए जब पहले कया आ भोजन पच गया हो और
शरीर व थ अनुभव कर रहा हो। अजीण म भोजन करने से मनु य जानबूझकर अपने शरीर
म अनेक रोग को आमं त करता है। । 221 ।

।। जीणभो जनं ा धन पसप त ।।


भोजन के पच जाने पर ही जो भोजन करता है वह रोग से बचा रहता है।
मनु य का शरीर रोग का घर है, परंतु रोग से बचने का उपाय यह है क
अपनी मता से अ धक भोजन न करे। जो आव यकता से अ धक भोजन करते ह,
वे सदै व बीमार रहते ह, एक-न-एक रोग उ ह घेरे रहता है। कहा भी गया है—‘शरीरं ा ध
मं दरम्’। । 222 ।

।। जीणशरीरे वधमानं ा धन पे येत् ।।


वृ अव था म य द रोगी रहने लगता है तो उसे अ धक सावधान रहना
चा हए। उसे रोग क उपे ा नह करनी चा हए।
वृ ाव था म मनु य क इं यां श थल पड़ जाती ह। उनम इतनी श नह रहती,
जससे वे रोग का मुकाबला कर सक। वृ ाव था म शरीर के ब त से त व न हो जाते ह,
नये त व का नमाण क ठनाई से होता है। इसी लए वृ ाव था म शरीर को व य रखने के
लए को सतक रहने क आव यकता रहती है। य द उस अव था म कोई रोग शरीर म
घर कर ले तो उसके त मनु य को उपे त भाव नह अपनाना चा हए। इसे चा हए क वह
यथाशी उस रोग से मु पाने का य न करे। । 223 ।

।। अजीण भोजनं ःखम् ।।


जस समय अजीण हो, उस समय भोजन करना प वाशय को अ नवाय प से रोग
को घेर दे ने का कारण होता है। इससे मनु य का जीवन ःखी हो जाता है।
अपच क थ त म भोजन करने से प वाशय पर अ त र भार पड़ता है। उससे
शरीर म रोग पैदा हो जाते ह। दे खा गया है क अजीण क थ त म आव यकता से अ धक
भोजन करने के कारण कुछ य क भोजन- थल पर ही मृ यु हो गई।
भारत के ब त से लोग ऐसा व ास करते ह क भूख के कारण दे श म अ धक लोग
मरते ह परंतु यह बात अ धक स य है क मरने वाले लोग क अ धक सं या ऐसी होती है
जो पेट के रोग से आ ांत होते ह। । 224 ।

।। श ोर प व श यते ा धः ।।
शरीर के रोग श ु से भी अ धक हा नकारक होते ह।
रोग के कारण मनु य के शरीर पर आठ हर आ मण क -सी थ त बनी रहती है।
मनु य श ु के आ मण से भयभीत रहता ह परंतु ा ध तो शरीर के अंदर रहनेवाला श ु है।
जो जीवन पर हर समय आ मण करता रहता है। रोग के कारण मनु य के ाण, धन और
उसके शरीर का वनाश होता है। उसका शरीर कमजोर हो जाता है। दवाइय पर धन न
होता है, इस लए रोग श ु क अपे ा अ धक हा नकारक होता है। । 225 ।

।। दानं नधानमनुगा म ।।
मनु य को दान उतना ही करना चा हए, जतनी उसम श हो अथात् धन क श
को दे खकर ही मनु य को दान करना चा हए। जो अपनी श से अ धक दान करते ह, उ ह
हा न होती है।
इ तहास म ऐसे अनेक उदाहरण ह ज ह ने दान करने के वभाव के कारण
भखा रय का-सा जीवन बताया। राजा ब ल अपनी साम य को दे खे बना दान करने के
लए स ह। परंतु जब व णु ने वामन का अवतार धारण करके उससे केवल तीन पग
भू म मांगी तो वह इस बात को नह समझ सका और अपने वा भमान के कारण उसने तीन
पग भू म दे ने का वचन दे दया। वामन ने तीन पग म तीन लोक को नाप लया, इस लए
को चा हए क दान तो अव य करे परंतु उसे अपने धन क श का पूरा ान होना
चा हए। । 226 ।

।। पटु तरे तृ णापरे सुलभम तस धानम् ।।


अपने अनु चत वाथ क पू त के लए ब त से अनु चत प से घ न ता
बढ़ाने का य न करते ह। इस लए को चा हए क अनु चत प से अ धक मै ी बढ़ाने
का य न करनेवाले य से सावधान रहे।
अ धकांश लोग के मन म केवल एक ही बात रहती है, वे चाहते ह क कसी तरह
उनके वाथ क पू त हो। वे अपना काम स करने के लए ऐसे से अ धक घ न ता
बढ़ाते ह जो उनका वाथ पूण करने म सहायक हो सकता है। बु मान को चा हए
क इस कार अनु चत घ न ता बढ़ाने वाल से सतक रहे। । 227 ।
।। तृ णया म त छा ते ।।
लोभ के कारण मनु य क बु पर एक आवरण पड़ जाता है और वह ठ क से सोच
नह पाता।
जो हर समय लोभ के वश म रहते ह उनक बु सही दशा म सोचने म
असमथ रहती है। उसके लए व तु क ा त मह वपूण होती है, प रणाम नह ।
‘तृ णा न जीणा वयमेव जीणा’ अथात् मनु य म लोभ-लालच क भावनाएं कभी
समा त नह होती परंतु मनु य का शरीर जीण-शीण होकर समा त हो जाता है। इस लए जहां
तक हो सके मनु य को तृ णा अथवा लोभ-लालच के अ धक च कर म नह पड़ना चा हए।
इं य संयम से काम लेते ए बु को थर रखना चा हए। । 228 ।

।। कायब वे ब फलमाय तकं कुयात् ।।


जब मनु य के सामने अनेक काय करने के लए ह तो सबसे अ धक मह वपूण
थायी प रणामवाले काय को क के प म करना वीकार करना चा हए। उस काम को
समा त करने के प ात् अ य छोटे अथवा सामा य मह व के काय को अपने हाथ म लेना
चा हए।
अनेक मनु य के पास अनेक काय को पूरा करने का उ रदा य व होता है। आज
संसार क व था ही ऐसी है जसम मनु य को अनेक काय अपने हाथ म लेने पड़ते ह।
ऐसी थ त म मनु य को चा हए क वह सबसे पहले उस काय को हाथ म ले जो सबसे
अ धक मह वपूण हो और जसका प रणाम थायी तथा समाज के लए क याणकारी हो। ।
229 ।
।। वयमेवाव क ं काय नरी ेत ।।
काय करते समय जो काय बगड़ जाए उनको वयं दे खकर सुधारने का य न
करना चा हए।
मनु य क श यां सी मत होती ह या जो कोई भी काय करता है उसम अनेक
ु टयां रह जाती ह। उसे चा हए क वह वयं उन ु टय को र करने का य न करे। कसी
सरे ारा ु टयां ठ क करवाने से फर कसी-न- कसी ु ट क संभावना रह सकती
है। इस लए कसी भी बगड़े ए काय को वयं सोच- वचारकर ठ क करने का य न करना
चा हए। सरे के भरोसे रहकर काम स नह कया जा सकता। । 230 ।

।। मूखषु साहसं नयतम् ।।


साहस करना मूख का वभाव होता है।
मूख कोई ऐसा काय कर सकते ह ज ह साहस क ेणी म रखा जा
सकता है। कसी पर अचानक नदयतापूण आ मण, कसी से वहार और मूखतापूण
काय साहसपूण काय कहलाते ह। स जन और व ान् जो कोई काय करते अथवा
योजना बनाते ह उसम साहस क बात नह वरन् ब त सोच- वचारकर काय करने क
योजना रहती है। कसी कार के साहसपूण काय से मनु य को लाभ होते नह दे खा गया।
ह या, चोरी, डकैती आ द भी साहसपूण काय म आते ह, मूख ही ऐसे काय कर
सकते ह। बु मान सदै व इस कार के काय से बचने का य न करते ह। । 231 ।

।। मूखषु ववादो न क ः ।।
मूख य से कसी कार का वाद- ववाद नह करना चा हए।
जन य को उ चत और अनु चत काय के संबंध म कसी कार का ान नह ,
उनसे काम के संबंध म वाद- ववाद करना थ होता है। । 232 ।

।। मूखषु मूखवत् कथयेत् ।।


मूख से मूख के समान ही वहार करना चा हए।
मूख से स जनतापूण वहार करने से कोई लाभ नह होता। उसक समझ म
केवल डंडे क भाषा आती है। इस लए मूख से समानता का वहार करने वाला
सदा संकट म पड़ा रहता है। डंडे क भाषा से मतलब इस कार का कठोर वहार है
जसका मूख पर भाव पड़े। । 233 ।

।। आयसैरायसं छे म् ।।
लोहे से लोहे को काटा जाता है।
और प तत को अ छा उपदे श दे कर उसके हठ ले वभाव को प रव तत
नह कया जा सकता। इस कार उसे अपने वचार के अनुकूल बनाने क ां त से अलग
रहना चा हए। । 234 ।

।। ना यध मतः सखा ।।
मूख के स चे म नह होते।
यह कहावत स है क एक जैसे वचार और वभाव वाले एक- सरे के
साथ रहते ह। इससे भी स है क मूख के म भी मूख हो सकते ह। । 235 ।
।। धमण धायते लोकः ।।
इस संसार को धम के ारा ही धारण कया जा सकता है अथात् इस संसार म
स य पी मानव ही धम का संर क है।
े कम करना तथा अ े से बचना ये दो धम के बड़े भेद ह। धा मक मनु य को
क पूरे करने पड़ते ह, अक यागना उसका वभाव हो जाता है। मानव समाज का
संर क स य पी मानव धम ही है। । 236 ।

।। ेतम प धमाधमावनुग छतः ।।


मनु य क मृ यु हो जाने तथा उसके दे ह याग करने पर भी उसके अ छे व बुरे कम
उसके अंतकाल म भी उसके साथ जाते ह।
मनु य जस कार के काय करता है, मृ यु हो जाने पर उन कम का फल भी मनु य
के साथ जाता है अथात् मनु य दे ह से जो धम अथवा अधम के काय करता है, उसके
अनुसार उसे जीवन का फल भोगना पड़ता है। । 237 ।

।। दया धम य ज मभू मः ।।
दया ही धम क माता कही जा सकती है अथात् दया से ही धम न ा पैदा होती है।
दया ही ऐ हक अ युदय और मानस उ कष पैदा करनेवाले धम क ज मभू म है।
मै ी, क णा, स ता, उपे ा, पु या मा से मै ी, ः खय पर क णा, खु शय को
दे खकर हष व पा पय के त घृणा से च नमल होता है। नमल च म ही दया उ प
होती है। । 238 ।

।। धममूले स यदाने ।।
धम ही स य तथा दान दोन का मूल कारण है। । 239 ।

।। धमण जय त लोकान् ।।
धम क र ा मानव को व वजेता बना दे ती है।
समाज म मनु यता के संर क धा मक क जो न ा और क त है, वही तो उन
लोग क व वजय है। अस य का दमन या अस य का सर अवनत करने क साम य ही
उनक वजय है।
धम से मनु य क उ त और अधम से पतन होता है। । 240 ।
।। मृ युर प ध म ं र त ।।
मृ यु भी धा मक मनु य को इस संसार से पूरी तरह मटा नह पाती।
मृ यु के बाद भी मनु य धम से यु अपने काय के कारण जी वत रहता है। उसका
नाम अमर होता है य क धम को जीवन-मरण के च से भी न नह कया जा सकता। ।
241 ।
।। धमा परीतं पापं य स यते त धमावम तमहती
स येत ।।
धम का वरोधी पाप जब अ धक बल हो जाता है तो धम का अपमान होने लगता
है।
भाव यह है क जब संसार म पापपूण काय क बलता होती है तो धम से े ष
करनेवाले असुर लोग धम का अपमान करते ह अथात् धमपरायण क उठाते ह।
जब भी संसार के इ तहास म इस तरह क घटनाएं ारंभ ई ह और जब उसके
काय क अ त हो जाती है तो संसार म कोई ऐसा युगपु ष पैदा होता है जो धम क थापना
करता है—
“यदा यदा ह धम य ला नभव त भारत, अ यु थानमधम य तदा मानं
सृजा यहम्।”
ीकृ ण के ये श द इसी बात क पु करते ह। । 242 ।

।। उप थत वनाशानां कृ याकारेण ल यते ।।


वनाशो मुख असुर का स य े षी आकार (आचरण) उनके वनाश क सूचना दे ता
है।
पा पय का धम के व बल होता आचरण उनके वयं के वनाश का सूचक
होता है। इससे वे न हो जाते ह। । 243 ।

।। आ म वनाशं सूचय यधमबु ः ।।


जब मनु य के मन म अधम बु उ प होती है तो वह अधमा मा के वनाश क
सूचक होती है।
जब मनु य का वनाश अथवा कसी कार क हा न क संभावना होती है तो उसके
मन म धम के वपरीत वचार उ प होते ह। अधम-बु मनु य स य काय से े ष करने
लगते ह। इस कार वह अपने आपको वनाश के अंधकार म धकेल दे ता है अथात् मनु य के
मन म आए ए धम वरोधी वचार ही उसके वनाश क सूचना दे नेवाले होते ह। । 244 ।

।। पशुनवा दनो रह यम् ।।


चुगलखोर अथवा सर के दोष नकालने वाले य को कोई गु त बात नह
बतानी चा हए। उ ह बताई गई गु त बात गु त नह रह सकती।
जो लोग सर के दोष नकालते रहते ह अथवा जनका वभाव सर क नदा
करना है उनसे कोई भी बात गु त रखना असंभव हो जाता है। सर क नदा करनेवाले
को कभी भी अपना सहयोगी नह बनाना चा हए। । 245 ।

।। पररह यं नैव ोत म् ।।
सर क गु त बात सुनने क इ छा मन म पैदा नह होनी चा हए। अ य लोग क
गु त बात सुनने का आ ह भी नह करना चा हए।
जस कार पराये धन को ा त करने का लोभ चोरी अथवा अपहरण वृ का
ोतक है, उसी कार सर क गु त बात सुनने व जानने क इ छा होना भी एक दोष है।
सामा जक से भी यह बात अ छ नह मानी जाती। । 246 ।

।। व लभ य कारक वमधमयु म् ।।
वामी का कठोर होना अधम माना जाता है।
राजा का क है क वह अपने सेवक का हर कार से यान रखे। हर समय
उनसे कठोर वहार करना उ चत नह । जो वामी सदै व अपने नौकर -चाकर से कठोरता
बरतता है, समय आने पर उसके सेवक वरोधी बन जाते ह। अनेक बार इ ह य से
उसके जीवन के लए संकट उप थत हो जाते ह। इस लए येक अथवा राजा का
क है क वह अपने आ त के त यान दे और उनके त उदारता का बताव करे। ।
247 ।
।। वजने व त मो न क ः ।।
अपने हतै षय क कभी उपे ा नह करनी चा हए अथात् स जन और अपना हत
चाहनेवाले य का सदै व स मान करना चा हए।
मनु य एक सामा जक ाणी है। सर क सहायता के बना उसका जीवन- नवाह
क ठन हो जाता है। इस लए उसे चा हए क वह अपना हत चाहनेवाले य क कभी
उपे ा अथवा अनादर न करे, उनके साथ सदै व उनक थ त के अनुसार अ छा वहार
करे। इस बात का य न करना चा हए क उनके मन म आप के त अनादर क भावना
पैदा न हो। । 248 ।

।। माता प ा या या ।।
होने पर माता का याग भी कर दे ना चा हए। जो माता अपनी संतान से श ुता
करती है, उससे र रहना चा हए।
इस सू का मूल भाव यह है क य से सदै व र रहना चा हए। माता का
उदाहरण दे कर कहा गया है क य द ज म दे ने वाली माता भी वभाव क हो तो उसे भी
याग दे ना चा हए। । 249 ।

।। वह तोऽ प वष द ध छे ः ।।
य द अपने हाथ म भी वष फैल जाए तो आ मर ा हेतु उसे भी काट दे ना चा हए।
इसी कार य द कोई अ य त य संबंधी अ न करने पर उतर आए तो उसका याग करके
अपनी र ा करनी चा हए।
मनु य के शरीर के कसी अंग म जब वष फैल जाता है तो जीवन-र ा का उपाय
यही है क उस अंग को शरीर से अलग कर दे । य द ऐसा नह कया जाएगा तो उस अंग का
वष सारे शरीर म फैल जाएगा और मनु य का जीवन समा त हो जाएगा। जब, वष के
कारण मनु य अपने शरीर के अंग को कटवाने के लए तैयार हो जाता है तो य द कोई य
भी वनाश करने क तैयारी करता है तो उसको भी याग दे ने म ही भलाई होती है। ।
250 ।
।। परोऽ प च हतो ब धुः ।।
कसी कार का सांसा रक संबंध न होने पर भी य द कोई आपके हत के
अनुकूल वहार करता है तो उसे अपना बंधु समझकर अपना लेना चा हए।
यह आव यक नह क अपने सभी बंध-ु बांधव हत चाहने वाले ह , उनम ब त से
संबंधी उदासीन होते ह, इस लए य द कोई बाहर का आपके हत क र ा के लए
आगे आता है तो उसे अपना म मानने म या हा न है? । 251 ।

।। क ाद यौषधं गृ ते ।।
सूखे वन से भी औष धयां ा त क जा सकती ह।
जस कार सूखे वन से भी औष धयां ा त करने के लए उ सुक रहता है,
उसी कार य द कोई सांसा रक से हीन होकर भी आपका हत चाहने वाला है,
तो उसे वीकार करना चा हए। उसक अवहेलना नह करनी चा हए। । 252 ।

।। ना त चौरेषु व ासः ।।
चोर का कभी भी व ास नह करना चा हए।
चोर उसे कहते ह जो कसी क इ छा के व कसी व तु का अपहरण
करे। सर क व तु पर अपना अ धकार जमाने क इ छा रखनेवाले संसार के
सभी वग म मलते ह। अपने सगे-संबं धय म भी इस कार के हो सकते ह। इस लए
आव यक है क चोर कोई भी हो, उसका व ास नह करना चा हए। । 253 ।

।। अ तीकारे वनादरो न क ः ।।
बाधार हत काय के संबंध म कभी उपे ावृ नह अपनानी चा हए।
इसका भाव यह है क य द राजा यह समझे क इसका श ु अपने बचाव का उपाय
नह कर रहा तो भी उसक ओर से सदै व सतक रहना चा हए। उसक उपे ा करना वयं को
हा न प ंचाना है य क राजनी त का यह परम मं है क राजा को कभी अपना भेद कसी
पर कट नह करना चा हए। । 254 ।

।। सनं मनाग प बाधते ।।


वप या सन को छोटा मानकर उपे ा न करो।
कसी वप अथवा सन को ब त छोटा नह मानना चा हए।
य क वह छोटा-सा सन ही कसी समय सवनाश का कारण बन सकता है।
सन छोटा हो अथवा बड़ा, मनु य को हा न प ंचाने वाला होता है। सनी अपने क
को भूल जाता है। । 255 ।

।। अमरवदथजातमजयेत् ।।
मनु य का क है क वह अपने आपको अमर मानता आ आयु भर ऐसी
साम य का सं ह करता रहे जो जीवन के लए उपयोगी होती ह।
मनु य को चा हए क वह जीवनपयत धम और स याचरण पर आ त रहता आ
जीवन के लए उपयोगी व तु और धन का सं ह करता रहे। धन ऐसी व तु है जसके
बना धम के काय करना भी असंभव होता है। जस के पास धन नह होता वह अपने
सगे-संबं धय म भी स मान का जीवन नह बता सकता। इस लए आव यक है क
जीवन भर स याचरण ारा धन का सं ह करता रहे। । 256 ।
।। अथवान् सवलोक य ब मतः ।।
धनवान् हर जगह स मा नत होता है।
आज क थ त को दे खते ए चाण य क यह बात अ रशः स य है। । 257 ।

।। महे म यथहीनं न ब म यते लोकः ।।


संसार म नधन राजा को भी स मान ा त नह होता।
इस सू म मह श द आया है। इस श द का वा त वक अथ है— वग का स ाट।
अथात् य द वग के स ाट के पास भी धन नह है तो उसका इस संसार म स मान नह हो
सकता। । 258 ।

।। दा र य
् ं खलु पु ष य जी वतं मरणम् ।।
दर जी वत होते ए भी मृत के समान समझा जाता है।
संसार म द र ता एक ऐसा कलंक है जसके कारण जी वत को भी मरे ए के
समान मान लया जाता है, य क उसम कसी भी काय को संप करने क श नह
होती। इसी लए चाण य कहते ह क धनहीन मरे ए के समान है। । 259 ।

।। व पोऽथवान् सु पः ।।
कु प भी य द धनवान् है, तो उसे भी सु दर मान लया जाता है।
भारत म ऐसी कहावत स है क धनी प रवार के पागल को भी बु मान मान
लया जाता है। इससे स है क धन का मनु य के जीवन म ब त अ धक मह व है।
इस लए मनु य का क है क वह जीवन भर धन-सं ह के लए य नशील रहे। । 260

।। अदातारम यथव तम थनो न यज त ।।
धन-सं ह करने के इ छु क लोग कंजूस धनवान से भी धन ा त क इ छा रखते ह।
जो लोग अपने जीवन म धन-सं ह को अपना ल य बना लेते ह, वे ऐसे लोग से भी
धन ा त क इ छा रखते ह जो अ य त कंजूस होते ह। कंजूस कसी को धन या
दे गा, वह तो अपने पर धन खच करने म भी आना-कानी करता रहता है। परंतु कुछ लोग ऐसे
लोग से भी धन लाभ ा त कर लेते ह। । 261 ।
।। अकुलीनोऽ प कुलीना श ः ।।
अ छे कुल म न उ प होनेवाला धनवान् अपने धन का उपयोग य द समाज
सेवा के लए करता है तो समाज सेवा से वमुख रहनेवाले कुलीन से भी वह े है।
यह बात आव यक नह क अ छे कुल म उ प होनेवाला ही समाज म
स मान ा त करता है। समाज म स मान उस का भी होता है जो अ छे कुल म न
उ प होने पर भी अपना धन समाज सेवा से जुड़े काय म लगाता है। उसे कुलीन से
भी े माना जाता है। । 262 ।

।। ना यमानभयमनाय य ।।
नीच को समाज म अपमा नत अथवा तर कृत होने का कोई डर नह रहता।
नीच पर अपमान व तर कार का कोई भाव नह पड़ता। ऐसे क
आ मा का पूरी तरह से पतन हो चुका होता है। ऐसे के लए मान-अपमान का कोई
वशेष मह व नह रहता। । 263 ।

।। न चेतनवतां वृ भयम् ।।
चतुर को जीवन म आजी वका चलाने का कोई भय नह होता।
संसार के सुख म के पास एक अ छ आजी वका का होना भी अ छा माना
गया है। वहार-कुशल अथवा चतुर अपनी आजी वका चलाने के लए कसी के
मोहताज नह होते। न कसी क गलत बात बरदा त करते ह और न उ ह गुलामी वीकार है।
। 264 ।
।। न जते याणां वषयभयम् ।।
जत य को वषय का भय नह होता।
जस ने अपनी इं य को वश म कया आ है, य द वह वषयभोग के
नकट भी रहता है तो भी उसके च र के प तत होने क संभावना नह रहती। इस लए
जसने अपनी इं य को वश म कया आ है, वह कसी भी थान पर रह सकता है अथवा
कह भी जा सकता है। कसी भी कार से उसके पाप काय म ल त होने क संभावना नह
रहती। । 265 ।

।। न कृताथानां मरणभयम् ।।
संसार के रह य को समझकर जो अपने क -पालन ारा जीवन को
साथक बनाने का य न करता है उसे मृ यु का भी भय नह होता।
जो संसार म अपने जीवन क साथकता को समझकर अपने क का
पालन करते ह, उ ह मृ यु से कसी कार का भय नह होता। संसार का नयम है क जसने
ज म लया है, उसक मृ यु अव य होगी, परंतु जन य ने अपने जीवन के येय को
समझकर अपने क पूरे कर लए, उ ह संसार म मृ यु भयभीत नह कर सकती। । 266

।। क य चदथ व मव म यते साधुः ।।
स चे वभाववाले पु ष पराये धन को अपने पास रखी ई अपने धन के समान स य
क धरोहर मानते ह।
इसका भाव यह है क स जन जस कार अपने धन का सत् काय म योग करते
ह उसी कार वह चाहते ह क अ य लोग का धन भी समाज के क याणकारी काय म लगे।
जब क मूढ़म त और लोग चाहते ह क अपना धन तो बचा रहे और सरे का धन,
बीमारी, मुकदमे और सरे सन म न हो जाए। । 267 ।

।। पर वभवे वादरो न क ः ।।
सरे के धन के त लालच क भावना नह रखनी चा हए। को चा हए क
सरे के वैभव क ल सा न करे।
मनु य को कभी भी सर के धन के त लोभ क भावना नह रखनी चा हए। ऐसा
करना वयं के लए घातक है। अपने पु षाथ से जो संप अ जत करता है,
उसी पर संतोष करना चा हए। । 268 ।

।। पर वभवे वादरो प वनाशमूलम् ।।


सरे के धन, संप और वैभव क ल सा करना नाश का कारण बन सकता है।
सरे के धन को लालच क से दे खना सामा जक बंधन के लए हा नकारक है।
मनु य धन के लोभ म अपना ववेक खो बैठता है। उसे इस बात का ान नह रहता क
उसका क समाज का क याण करना है, न क सर के धन का हरण करने क इ छा
रखना। इस कार क वृ से उसका वयं का ही नाश हो जाता है। । 269 ।

।। पलालम प पर ं न हत म् ।।
सरे के धन का तनके जतना अंश भी अपहरण नह करना चा हए।
तनके के समान अ य त अ प मा ा म भी कसी सरे के धन को चुराने क
इ छा नह रखनी चा हए। अन धकारपूवक कसी क छोट -से-छोट व तु, जसका मह व
तनके के समान हो, लेने का य न करना भी चोरी है। चोरी के अपराध म चुराई गई व तु के
कम अथवा अ धक होने का मह व नह । चुराई गई व तु छोट हो अथवा बड़ी, वे चोरी क
ेणी म ही आती ह। व तुतः मन म चोरी क भावना होना ही अपराध है। इससे चोरी करने
वाले क मनोवृ का प रचय मलता है। इस लए को अपने मन से चोरी क भावना
को समा त कर दे ना चा हए। । 270 ।

।। पर ापहरणमा म नाशहेतुः ।।
सर के धन का अपहरण करना अपने धन के वनाश का कारण बन जाता है। ।
271।

।। न चौयात् परं मृ युपाशः ।।


चोरी से बढ़कर कोई भी अ धक क दे नेवाला बंधन नह ।
चोरी का फंदा मृ यु के फंदे से अ धक ःखदायी होता है। । 272 ।

।। यवागूर प ाणधारणं करो त लोके ।।


जीवन क र ा के लए जौ का द लया ही काफ होता है, य द वह उ चत समय पर
ा त हो जाए।
यद को ाण-र ा के लए उ चत समय पर सबसे स ते अ का घोल खाने
के लए मल जाए तो उससे भी उनक र ा हो जाती है अथात जीवन क र ा के लए समय
पर स ती-से-स ती व तु का अ प मा ा म ा त होने का भी मह व है। । 273 ।

।। न मृत यौषधं योजनम् ।।


मृ यु के बाद औष धय का कोई योजन नह रह जाता।
इसका भाव यह है क समय के अनु प ही साधन का योग अथवा उपयोग करना
चा हए। समय के बाद साधन का योग थ हो जाता है। जस कार मृ यु से पूव रोगी
के लए औष ध क आव यकता होती है। इसी कार जब कोई कोई काय कर
रहा होता है, तो उस काय के अनु प साधन का उपयोग करने से काय सरलतापूवक संप
हो जाता है। । 274 ।

।। समकाले वयम प भु व य योजनं भव त ।।


साधारण समय म अपना भु व बनाए रखना क का प धारण कर लेता है। ।
275 ।
।। नीच य व ाः पापकम ण योजय त ।।
नीच पु ष का ान और उसक व ा उसको पापकम म वृ करती है।
नीच मनु य अपने ान का उपयोग अपने पापकम के लए ही करता है। उसक
यो यता का दशन वह अपने नीच कम ारा ही करता है। अथात् नीच के पास य द
कसी कार का ान है तो वह इसका उपयोग भलाई के लए नह वरन् पापपूण काय के
लए ही करता है। उसक यो यता, चोरी, सर से कपट, झूठ बोलने तथा इसी कार के
अ य कम म ही कट होती है। वह अपने ान का योग अ छे काय के लए नह कर
सकता। । 276 ।

।। पयः पानम प वषवधनं भुजंग य नामृतं यात् ।।


सांप को ध पलाने से उसके वष म ही वृ होती है। वह अमृत नह बनता।
जस कार सांप को ध पलाने से उसके वष म ही वृ होती है, उसी कार नीच
का व ा को ा त करना उसक नीच वृ य को ही बढ़ावा दे ना है। उसके ान
से उसक नीच वृ यां कई गुना बढ़ जाती ह। वह उस व ा का उपयोग अपनी नीचता के
प म करता है। अपनी बुरी आदत के प म शा क उ कहते आपको ब त से लोग
आपके आसपास मल जाएंगे। । 277 ।

।। न ह धा यसमो थः ।।
संसार म अ के समान सरा कोई जीवनोपयोगी पदाथ नह । । 278 ।

।। न ुधासमः श ुः ।।
भूख से बढ़कर मनु य का सरा कोई श ु नह । । 279 ।

।। अकृते नयता ुत् ।।


नक मे को अकसर भूख का क भोगना पड़ता है।
आलसी और नक मा जीवनभर द र ता म फंसा रहता है। वह वयं तो भूख
मरता ही है, अपने आ त को भी भूख से मरने के लए ववश करता है। मनु य का क
है क वह अपने जीवन को नक मा और आलसी न बनाए। । 280 ।
।। ना यभ यं ु धत य ।।
भूखा मनु य कुछ भी अथात् अभ य को भी खाने के लए ववश हो जाता है।
भूखे लोग घास, वृ के प े, उनक छाल, मट् ट म मले ए अ के अंश और
मनु य के न खाने यो य नरमांस आ द को खाने के लए भी ववश हो जाते ह।
भूख संसार का सबसे बड़ा क है। राजा अथवा सरकार का क है क वे अपनी
जा को कभी भी अकाल से पी ड़त न होने द। भूखा न चाहते ए भी रा य का
अ हत कर सकता है। । 281 ।

।। इ या ण जरावशं कुव त ।।
इं य के मयादाहीन उपयोग से ही समय से पूव मनु य को बुढ़ापा घेर लेता है।
जो इं य को वश म न रखकर उनका पयोग करता है, उसको इसका
प रणाम भुगतना पड़ता है। वह समय से पूव ही बुढ़ापे का शकार हो जाता है। । 282 ।

।। सानु ोशं भतारमाजीवेत् ।।


ऐसे वामी क ही सेवा करके जी वका का उपाजन करना चा हए जो दयालु ह ।
सेवक को चा हए क वह ऐसे क ही चाकरी करे जो मनु यता का स मान
करता हो अथात् जो सरे मनु य को अपने समान समझता हो। । 283 ।

।। लु धसेवी पावके छया ख ोतं धम त ।।


लोभी और कंजूस वामी के सेवक क वही दशा होती है जो जुगनू को दे खकर
उससे आग ा त करने के लए उस पर पंखे से हवा करता है।
जस कार जुगनू क चमक से अ न पैदा नह हो सकती उसी कार
सहानुभू तहीन वामी का सेवक सदै व क पाता है। उसक इ छाएं कभी पूण नह होत ।
इस लए लोभी को कभी अपना वामी नह बनाना चा हए। । 284 ।

।। वशेष ं वा मनमा येत् ।।


व ान् अथवा वशेष वामी का आ य ा त करना चा हए।
जो गुणी को पहचानकर उसके गुण का आदर करता है, ऐसे को ही
अपना वामी मानकर उसक सेवा करनी चा हए। जो गुणी को नह पहचानता उसके
पास रहना अथवा उसक सेवा करना थ है। । 285 ।
।। पु ष य मैथुनं जरा ।।
अ धक मैथुन करने से पु ष समय से पूव ही बूढ़ा हो जाता है।
मैथुन क भी एक सीमा होती है। य द कोई सीमा और अपनी श से
अ धक ी का सेवन करता है तो वह समय से पूव ही वृ ाव था का शकार हो जाता है। ।
286 ।
।। ीणाममैथुनं जरा ।।
उ चत मैथुन सुख न मलने से ी ज द बूढ़ हो जाती है।
मैथुन शरीर क एक आव यकता है। य म रज वला होने के बाद मैथुन क इ छा
होती है। य द उनसे उ चत समय पर उ चत मैथुन न कया जाये तो वे ज द बूढ़ हो जाती
ह। । 287 ।

।। न नीचो मयो ववाहः ।।


नीच और उ म कुल के य म पर पर ववाह संबंध नह होना चा हए।
मनु य-समाज म येक कार के संबंध तभी सफल हो सकते ह जब वे समानता
पर आधा रत ह । जहां संबंध म असमानता होती है वह क पैदा हो जाते ह। ववाह आ द
के संबंध म तो कुल क समानता दे खना और भी आव यक हो जाता है। कुल क समानता
के अ त र वचार और सामा जक थ त म भी समानता का होना आव यक है। इन बात
को यान म रखे बना था पत कए गये संबंध के कारण कटु ता पैदा हो जाती है। । 288 ।

।। अग यागमनादायुयशः पु या न ीय ते ।।
वे या आ द य के साथ सहवास करने से आयु, यश और पु य न हो जाते ह। ।
289 ।
।। ना यहंकारसमः श ुः ।।
अहंकार अथात् म या भमान से बड़ा मनु य का कोई श ु नह है।
वा भमान और अहंकार म भारी अंतर है। मनु य म वा भमान तब आता है जब
उसम यो यता होती है और अहंकार अयो य य म होता है। वा भमान जहां को
अपने आ मगौरव को ठे स नह प ंचने दे ता वहां अहंकार के कारण को भारी हा न
उठानी पड़ती है। इसी लए अहंकार मनु य का सबसे बड़ा श ु बताया गया है। । 290 ।
।। संस द श ुं न प र ोशेत् ।।
सभा म श ु क नदा नह करनी चा हए। उसे कसी कार के कटु वचन कहकर
सभा को लड़ाई-झगड़े का क नह बनने दे ना चा हए।
बु मान का क है क सभा म कोई ऐसी कटु वाणी अपने वरो धय के
लए योग न करे जससे उनका ोध भड़के। चतुर सभा म अपनी बात इस तरह
कहता है क जससे उसके वचार भी प कट हो जाय और वरो धय को भी ोध न
आये। । 291 ।

।। श ु सनं वणसुखम् ।।
श ु क वप अथवा उसके ःख क बात सुनकर कान को आनंद अनुभव होता
है।
श ु पर वप आने क बात सुनकर ायः सभी य को स ता होती है। ।
292 ।
।। अधन य बु न व ते ।।
धनहीन क बु न हो जाती है।
संसार म नधनता से बढ़कर कोई अ भशाप नह । नधन का अपने ब धु-
बा धव , प रवारवाल और म म भी अपमान होता है। इस कार अपमान से घबराकर
वह ऐसे अनथ काय कर बैठता है जसक मनु य से आशा नह क जा सकती। । 293 ।

।। हतम यधन यवा यं न शृणो त ।।


नधन क हतकारी बात को भी कोई नह सुनता।
नधन य द कोई अ छ और उपयोगी बात भी कहता है तो लोग उसे मजाक
म लेते ह और उसक हंसी उड़ाते ह। नधन क भी बात को कसी यो य नह समझा
जाता। । 294 ।

।। अधनः वभाययाऽ यवम यते ।।


नधन क प नी भी उसका अपमान कर बैठती है।
मनु य के लए आव यक है क वह घर के काय को चलाने के लए आल य र हत
होकर वैध उपाय ारा धन सं ह करे। अ यथा उसे अपनी भाया तक से अपमा नत होना
पड़ता है। । 295 ।

।। पु पहीनं सहकारम प नोपासते मराः ।।


जस कार भ रे बौर अथवा पु पकाल बीत जाने पर फूल से र हत आम के वृ को
याग दे ते ह, उसी कार धन का उपासक संसार नधन से अपनी इ छा क पू त न
होते दे ख उसे याग दे ता है।
व तुतः य द बु मान नधन है तो यह उस समाज अथवा रा का क है
क उसे उपे त होने से बचाए। संसार म सभी को धन क ज रत होती है परंतु जब लोग
नधन से कसी कार क आशा पू त होते नह दे खते तो उसका याग कर दे ते ह। ।
296 ।
।। व ा धनमधनानाम् ।।
व ा ही नधन लोग का धन है।
नधन का स मान उसके ान के कारण होता है। नधन य द व ान् है
तो वह आव यकतानुसार धन उपाजन भी कर सकता है, इस लए व ा को नधन का ऐसा
धन माना जाता है जससे उ ह स मान ा त होता है। । 297 ।

।। व ा चौरैर प न ा ा ।।
व ा मनु य का एक ऐसा गु त धन है जसे चोर भी नह चुरा सकते। इसी लए व ा
पी धन को सभी धन म े माना गया है। । 298 ।

।। व या या पता या तः ।।
व ा से मनु य के यश का व तार होता है।
व ान् जहां भी जाता है उसका स मान कया जाता है। जस कार द पक
का काश छपा नह रह सकता, उसी कार व ान् क यो यता भी अपने आप
कट हो जाती है। जस कार ानी मनु य सुपा को दान करने से पु य और यश
का भागी होता है, उसी कार व ान् भी व ा का दान दे कर नरंतर अपने यश म
वृ करता है। । 299 ।

।। यशः शरीरं न वन य त ।।
मनु य क भौ तक दे ह तो मृ यु को ा त होती है परंतु उसका यश पी शरीर सदै व
अमर रहता है।
जस ने इस संसार म ज म लया है उसक मृ यु भी न त है। परंतु जो
अपने काय से, अपने सद्गुण से, इस संसार म यश ा त करते ह वे सदै व अमर बने
रहते ह। उनक मृ यु के बरस बाद भी लोग उनका नाम बड़ी ा और भ से लेते ह। ।
300 ।
।। यः पराथमुपसप त स स यु षः ।।
जो मनु य सर के परोपकार के लए आगे बढ़ता है वही स जन पु ष माना जाता
है।
वाथ तो इस संसार म सभी पूरा करते ह, परंतु स जन पु ष वही कहलाता है जो
सर के क को अपना समझकर उनका क याण करने के लए आगे आता है अथात् जो
सबके क याण म अपना क याण समझता है, वही स पु ष कहलाता है। । 301 ।

।। इ याणां शमं शा म् ।।
शा के ान से ही इं य को शांत अथवा उ ह अपने वश म रखा जा सकता है। ।
302 ।
।। अशा कायवृ ौ शा ांकुशं नवारय त ।।
अवैध काय के लए उ त को शा का अंकुश ही संयम म रखता है।
जब मनु य के मन म समाज के व कोई काय करने क भावना पैदा होती है तो
शा का अंकुश ही उसे रोकने म समथ होता है अथात् जो जत य होते ह, ज ह ने
अपनी इं य को वश म कया आ है, वे ही उस अवैध काय से बच सकते ह। शा म
इं य न ह क बात कही गई है, ज ह शा का ान है वे पापाचरण से बच जाते ह। ।
303 ।
।। नीच य व ा नोपेत ा ।।
नीच पु ष क व ा क अवहेलना करनी चा हए। । 304 ।

।। ले छभाषणं न श ेत् ।।
ले छ क भाषा का योग नह करना चा हए।
ले छ भाषा से चाण य का भाव अ ील अथवा अ श भाषा से है अथात् मनु य
को अपनी बातचीत अथवा अपने भाषण म अ श भाषा का योग नह करना चा हए।
अ श भाषा का योग करने वाले का समाज म अपमान ही होता है। । 305 ।

।। ले छानाम प सुवृ ं ा म् ।।
ले छ क अ छ बात को अपना लेना चा हए।
यद और अभ कोई अ छ बात कहता है तो उससे लाभ उठाने क
वृ होनी चा हए। य द ले छ लोग कसी कारण वश संग ठत होते ह तो उससे सीख लेने
म कोई हा न नह । । 306 ।

।। गुणे न म सरः क ः ।।
सरे के अ छे गुण से ई या नह करनी चा हए।
ायः यह मनु य का वभाव होता है क वह अ य य के उ कष को दे खकर
उनसे ई या करने लगता है। परंतु ई या करने से कोई लाभ नह होता। इससे केवल
क अस ह णु वृ का ही बोध होता है। । 307 ।

।। श ोर प सुगुणो ा ः ।।
श ु म य द अ छे गुण दखाई द तो उ ह हण कर लेना चा हए।
इस सू से चाण य का भाव श ु के रण-कौशल से है। रण-कौशल के संबंध म य द
श ु म कोई वशेष बात दखाई दे तो हण कर लेनी चा हए। । 308 ।

।। वषाद यमृतं ा म् ।।
वष म भी य द अमृत हो तो उसे हण कर लेना चा हए।
जस समय वष अमृत का काम करने लगे तो उसे वष न समझकर अमृत के प म
वीकार कर लेना चा हए। वष वा तव म योग करने वाले के चातुय से अमृत बन जाता है।
। 309 ।
।। अव थया पु षः स मा यते ।।
प र थ तयां पैदा करने से ही स मान का अ धकारी बनता है।
राजा के स मान पाने क एक अव था है। राजा अपनी शासन- व था म जा से
स मा नत होने यो य प र थ त पैदा करके ही जा से राजभ या स मान पाने क आशा
कर सकता है। जब तक रा यसं था अपने को जा हत के अनुकूल नह बना लेती, तब तक
उसे स मान ा त नह होता। । 310 ।

।। थान एव नराः पू य ते ।।
अपने थान पर बने रहने से ही को स मान मलता है।
क अपने भाव े म ही पूजा होती है। भाव यह है क जस े म
काम करता है, उस े के लोग उसक यो यता से प र चत होते ह। वे उसके गुण और
उसके वभाव से भी भली कार प र चत होने के कारण ही उसका स मान करते ह। ।
311 ।

।। आयवृ मनु त ेत् ।।


मनु य को चा हए क वह सदा आय ( े पु ष ) के आचरण का अनुसरण करे।
मनु य को चा हए क वह समाज म अपना स मान बनाए रखने के लए सदा न ता
और धम के अनुसार ही आचरण करे। े पु ष का आचरण इस कार का होता है क वे
नी तपूवक स य आचरण म ही व ास करते ह। । 312 ।

।। कदा प मयादां ना त मेत्


मयादा का कभी भी उ लंघन नह करना चा हए।
एक सामा जक ाणी है। येक समाज क कुछ सीमाएं और मयादाएं होती
ह। को चा हए क वह उन सीमा म रहते ए ही आचरण करे। । 313 ।

।। ना यघः पु षर न य ।।
व ान् और गुणी कसी भी रा और समाज के लए अमू य र न होते ह।
कसी भी े म क गई उनक सेवा और काय का रा के लए ब त मह व
होता है। इस कार के पु ष-र न समाज म ब त कम होते ह परंतु ऐसे य क न तो
कसी चीज से उपमा द जा सकती है और न उनका मू य ही आंका जा सकता है। । 314

।। न ीर नसमं र नम् ।।
ी-र न से बढ़कर कोई सरा अमू य र न नह है।
स च र प त ता ी कसी प रवार के लए स मान का कारण होती है। य का
स मान रा का स मान माना जाता है। ी को ल मी के प म ाचीन थ म सुचा रत
कया गया है। प रवार के अ त र दे श के नमाण म भी य का ब त बड़ा हाथ होता है।
अपने उ रदा य व को नभाने वाली ी क उपमा र न से द गई है। । 315 ।

।। सु लभं र नम् ।।
संसार म र न क ा त ब त क ठन है।
संदभ के अनुसार गुणवान म हला और पु ष का जस समाज म अभाव होता है,
उसे भा य समझना चा हए। र न उसे कहा जाता है जसम स दय हो, तेज हो, च ाकषण
हो। इसी कार समाज को अलंकृत करनेवाले अथवा समाज क शोभा बढ़ाने वाले ी और
पु ष को र न कहा जाता है। इसी कार के र न से समाज क शोभा बढ़ती है। । 316 ।

।। अयशो भयं भयेषु ।।


सभी कार के भय से अपयश अथात् बदनामी का भय सबसे बड़ा होता है।
स य और स जन पु ष सदा इस बात का यान रखते ह क उनसे कोई ऐसा काय
न हो जाए जससे उनक नदा हो। स जन य के लए उनक नदा अथवा लोग के
मन म उनके आचरण के त संदेह पैदा होना उनके लए मृ यु के समान होता है। । 317 ।

।। ना यलस य शा ा धगमः ।।
आलसी पु ष को कभी भी शा का यथाथ ान नह हो सकता।
आलसी व ा ा त नह कर सकता। भारतीय शा म अनेक थान पर
कहा गया है क शा का ान ा त करने वाले को सुखभोग क इ छा याग दे नी चा हए
और उसे आल य से र रहना चा हए। आलसी अपने प रवार के लए भी ःख दे ने वाला
स होता है। । 318 ।

।। न ैण य वगा तधमकृ यं च ।।
ी म आस पु ष को न तो वग मलता है और न उसके ारा कोई धम काय हो
पाता है।
जो इं य को वश म नह रख सकता, वह सदै व ःखी रहता है। उसके लए
मानवो चत क पालन करना भी क ठन होता है। उसे शारी रक, मान सक तथा
सामा जक कसी भी कार का सुख ा त नह हो सकता और वह समय से पूव ही बूढ़ा हो
जाता है। । 319 ।

।। योऽ प ैणमवम य ते ।।
यां भी ैण पु ष का अपमान कर दे ती ह।
मनु य क अपनी प नी भी उसके इस वभाव के कारण उसे उपे ा क से
दे खती है। । 320 ।

।। न पु पाथ सच त शु कत म् ।।
फूल का इ छु क कभी सूखे पेड़ को नह स चता।
मनु य को अपने येय के अनुसार ही काय करना चा हए। जो अपने येय से
वच लत हो जाता है, वह कह का नह रहता। न उसका जीवन सफल होता है और न
उसको समाज म स मान मलता है।
जस कार फूल क ा त के इ छु क सूखे पौध को नह स चते उसी कार
येक को अपने येय के अनुसार काय करना चा हए। । 321 ।

।। अ य नो बालुका वाथनादन यः ।।
बना कसी कारण से थ प र म करना और धन ा त क इ छा रखना बलकुल
ऐसी ही बात है जैसे बालू से तेल नकालने का य न करना।
धन क ा त के लए मनु य को ा त धारणा म पड़कर ऐसे उपाय नह करने
चा हए जनसे धन क ा त न हो। धन क ा त एक न त येय को सामने रखकर
न ापूवक काय करने से होती है। आल य म पड़े रहकर शेख- च लय क तरह ांत
धारणा से धन क ा त नह हो सकती। । 322 ।

।। न महाजनहासः क ः ।।
महान् पु ष का उपहास नह करना चा हए।
सीधे-सादे स य न य का मजाक उड़ाने से उनक कोई हा न नह होती
ब क का अपना ही छोटापन जा हर होता है। उनका उपहास करना बलकुल वैसा ही
है जैसे चांद पर थूकने का य न करना। । 323 ।

।। कायस पदं न म ा न सूचय त ।।


कसी काय के ल ण ही उसक स या अ स क सूचना दे दे ते ह।
जब कोई काय ार भ करता है, उस समय कस कार के ल ण कट होते
ह, इस बात से ही पता चलता है क काय म सफलता ा त होगी या असफलता। कोई काय
ारंभ करते समय मनु य के मन म एक कार का उ साह होता है। य द काय करते समय
वह उ साह बना रहता है तो ल ण काय स के होते ह। य द मनु य के मन म उ साह
उ प नह होता तो काय स होने म संदेह रहता है। । 324 ।

।। न ाद प न म ा न वशेषय त ।।
इसी कार न से भी कसी काय के स होने क सूचना मल जाती है।
ायः कोई काय ारंभ करते समय न क ग त व धय के आधार पर शुभ मु
नकाला जाता है। अ छा समय दे खकर काय ार भ करना बु म ा क बात हो सकती है।
परंतु उस काय क सफलता तभी न त होती है जब मनु य के मन म इस काय क स
के त कोई संदेह न हो।
इस लए को कत -पालन म वलंब नह करना चा हए, य क इससे शुभ
मु के न होने क संभावना रहती है। । 325 ।

।। न व रत य न परी ा ।।
अपने काय क स चाहनेवाला न क गणना पर अपने भा य क
परी ा नह करता।
जो अपने काय को शी ही सफल होता दे खना चाहता है, वह न के
च कर म नह पड़ता। वह अपने आ म- व ास और काय स के लए कए जाने वाले
उपाय पर रखता है। । 326 ।

।। प रचये दोषा न छा ते ।।
कसी से प रचय हो जाने के बाद उसके दोष छपे नह रहते।
मनु य जससे पूणतया प र चत हो जाता है उसके सभी गुण और दोष पर
कट हो जाते ह। कसी के दोष का ान मनु य को तभी होता है जब वह उसके
अ य त नकट आता है। । 327 ।

।। वयमशु ः परानाशंकते ।।
बुरे वचार वाला सर पर भी बुरा होने का संदेह करता है।
जो अपने आचरण से ह, वे संसार म कसी भी को शु आचरण
वाला नह मानते। वे येक को संदेह क से दे खते ह। । 328 ।

।। वभावो र त मः ।।
वभाव को बदलना ब त क ठन काय होता है।
मनु य का मन ान अथवा अ ान दोन म से कसी एक थ त को अपना लेता है।
इस कार वह उसका वभाव बन जाता है। वभाव के अनुसार वह आचरण करता है। जस
क वृ शुभ कम म है, उसे एकदम बदलना क ठन होता है। परंतु अ धकांश
मनु य अपने अ ान के कारण नकृ काय क ओर ज द वृ हो जाते ह। परंतु जब वे
एक ही कार के काय को बार-बार करते ह तो उनके वभाव को बदलना क ठन हो जाता
है। एक सामा य कहावत है क चोर य द चोरी छोड़ भी दे ता है तो हेरा-फेरी छोड़ना उसके
लए क ठन होता है। । 329 ।

।। अपराधानु पो द डः ।।
अपराध के अनु प ही दं ड दे ना चा हए।
अपरा धय को उनके अपराध के अनुसार ही दं ड दे ना शासन का क होता है।
इससे जनता म सुर ा क भावना बढ़ती है। दं ड के भय के कारण ही कहा गया है क वह
सोते ए भी जागता है अथात् द ड अपने थान पर सदै व थर रहता है। इसी से जा म
शासन- व था थर रहती है। कहा भी है—द डः शा त जाः सवाः द ड एवा भर त।
द डः सु तेषु जाग त द डं धम व बुधाः।। अथात् दं ड राजधम का आव यक अंग है। ।
330 ।
।। कथानु पं तवचनम् ।।
के अनु प ही उ र दे ना चा हए।
जन लोग पर व ास न हो, उनके का उ र दे ते समय इस बात को यान म
रखना चा हए क जो कुछ म पूछा गया है उसका उ र सी मत होना चा हए। पूछा कुछ
जाए और इधर-उधर क हांकने लगे, ऐसे लोग मूख कहलाते ह। । 331 ।

।। वभवानु पमाभरणम् ।।
अपनी धन-संप के अनु प ही को आभूषण धारण करने चा हए।
मनु य को अपने शरीर क सजावट अथवा वेषभूषा अपनी आ थक थ त के
अनु प सी मत रखनी चा हए। अपनी थ त से बाहर जाकर शरीर को सजाने से मनु य के
स मान म वृ नह होती।
मनु य को अपनी वेशभूषा दे शकाल के अनुसार रखनी चा हए। कहा भी गया है क
—‘ताते पैर पसा रए जाती ल बी सौर।’ । 332 ।
।। कुलानु पं वृ म् ।।
अपने कुल क मयादा के अनुसार ही को काय करना चा हए।
का आचरण इस कार का होना चा हए जससे कुल क मयादा को ठे स न
प ंचे। कुल क मयादा म के आचरण के साथ-साथ उसका वसाय भी आता है।
इस लए का क यह है क वह कोई ऐसा वसाय न अपनाये अथवा कोई ऐसा
आचरण न करे जससे उसके कुल क मयादा को हा न प ंचती हो। । 333 ।

।। कायानु पः य नः ।।
जैसा काय हो, य न भी उसी के अनुसार करना चा हए।
काय ारंभ करने से पूव उ चत समय, सहायक, अनुकूल प र थ तयां, धन आ द
साधन और अपने उ साह के संबंध म को प र चत होना चा हए। । 334 ।

।। पा ानु पं दानम् ।।
पा के अनुसार ही दान दे ना चा हए।
दान दे ने से पहले इस बात पर वचार करना आव यक है क जसे दान दया जा रहा
है, वह उसके यो य भी है अथवा नह । उसक यो यता के अनुसार ही दान क मा ा नधा रत
करनी चा हए। । 335 ।

।। वयोऽनु पो वेशः ।।
को अपनी आयु के अनुसार ही वेश धारण करना चा हए। । 336 ।

।। वा यनुकूलो भू यः ।।
वामी के अनुसार ही सेवक को काय करना चा हए।
सेवक का क है क वह वामी क इ छा के अनुकूल आचरण करनेवाला हो।
सेवक को अपने वामी के वचार , समाज म उसक थ त आ द को समझकर उसके
अनुसार ही आचरण करना चा हए। उसे कोई ऐसा काय नह करना चा हए जससे वामी
का अनादर हो। । 337 ।

।। भतृवशव तनी भाया ।।


प त के वश म रहनेवाली प नी ही भरण-पोषण क अ धका रणी होती है।
गृह थ पी रथ को चलाने के लए प त और प नी दो प हय के समान होते ह।
दोन का पार प रक तालमेल आव यक है। दोन क पार प रक एकता तभी संभव है, जब
दोन के जीवन का ल य एक जैसा हो, दोन के वचार एक समान ह । वचार म समानता न
होने के कारण कलह उ प होने लगता है। इस लए दोन म अनुकूलता होना गृह थ के
क याण के लए आव यक है। । 338 ।

।। गु वशानुवत श यः ।।
श य को सदा गु क इ छा के अधीन रहकर काय करना चा हए।
जब गु श य को श त करने के लए अपने अधीन लेता है तो इसे श य का
सरा ज म माना जाता है। य क गु ही श य को सब कार क व ा का ान दे ता है
जससे श य के ान-च ु खुलते ह और एक सामा जक परंपरा बनी रहती है। गु के बना
का क याण नह हो सकता। जीवन म अपने क को सही ढं ग से पूरा करने के
लए गु से ही ान ा त होता है। इस लए श य का क है क वह गु क इ छा के
अनुसार ही काय करे। । 339 ।

।। पतृवशानुवत पु ः ।।
पु को पता क इ छा के अनुसार चलनेवाला होना चा हए।
पु का क है क पता के अनुभव से लाभ उठाए। पता क आ ा के अनुसार
काय करने से ही वह पता क संप का अ धकारी हो जाता है। प रवार म सुख और शां त
बनाए रखने के लए भी आव यक है क पु पता क आ ा के अनु प ही काय करे। ।
340 ।
।। अ युपचारः शं कत ः ।।
अ य धक आदर से शंका उ प होती है।
य द कोई आगंतुक क थ त से अ धक आदर स मान करता है तो इससे
के मन म संदेह उ प हो सकता है।
इसका कारण यह हो सकता है क वागत-स कार करनेवाला उस पर कसी
अनु चत काय का दबाव डालना चाहता हो। । 341 ।

।। वा म न कु पते वा मनमेवानुवतत ।।
वामी के ु होने पर सेवक को वामी क आ ा के अनुसार ही काय करना
चा हए।
य द वामी कसी कारण वश सेवक से ु है तो सेवक को चा हए क वह अपने
वामी के त ोध न कट करके अपनी भूल को सुधारने का य न करे। सेवक का वामी
के त ोध करना अनु चत और हा न द होता है। । 342 ।

।। मातृता डतो व सो मातरमेवानुरो द त ।।


माता के ारा ता ड़त कया गया ब चा माता के पास जाकर ही रोता है।
जब माता अपने ब चे को उसक कसी भूल के कारण द ड दे ती है तो ब चा अपने
वभाव के अनुसार माता के पास जाकर ही रोकर अपना ःख कट करता है। इसी कार
मनु य का क यह है क उसे अपने हतै षय , अपने संबं धय तथा गु के कु पत हो
जाने पर भी उ ह यागना नह चा हए। अपनी ु टय का सुधार करके उ ह अपनी ओर से
स करने का य न करना चा हए। । 343 ।

।। नेहवतः व पो ह रोषः ।।
नेह करने वाले य का ोध णक और अ न र हत होता है।
भला चाहने वाले कसी कारण से य द ु होते ह तो उसके पीछे अ न
करने क भावना नह होती। माता- पता, गु , संबंधी आ द लोग का ोध थोड़ी दे र के लए
होता है। वे थोड़ी-सी दे र म स हो जाते ह। । 344 ।

।। आ म छ ं न प य त पर छ मेव प य त बा लशः ।।
मूख अपने दोष को न दे खकर सर के दोष को दे खता है।
मूख मनु य का यह वभाव होता है क वह अपने अवगुण को न दे खकर सरे
य म दोष ढूं ढ़ने का य न करता है। वह अपने को अपराधी न मानकर सरे के
अपराध और उनके दोष को ही खोजता रहता है। मूख का यह वभाव होता है। उसे
अपनी आंख का शहतीर दखाई नह दे ता जब क सर क आंख का तनका वह बड़ी
सरलता से दे ख लेता है।। 345 ।

।। सोपचारः कैतवः ।।
धूत लोग सर के पर बल बना करते ह अथात् आ म- दशन करते ह।
धूत लोग सर क कपट सेवा से कोई भेद जानना चाहते ह। धूत लोग जनका भेद
जानना चाहते ह उ ह अपनी सेवा ारा अपने वश म करने का य न करते ह। । 346 ।

।। का यै वशेषै पचरणमुपचारः ।।
कसी वशेष इ छा क पू त के लए जो सेवा क जाती है उसे उपचार कहते ह।
उपचार का अथ दवा-दा अथवा सेवा करना भी होता है। इस संदभ म यहां अपनी
कसी वशेष इ छा के कारण कसी सरे क जो सेवा क जाती है, उसको भी
उपचार कहते ह। ब त से लोग कसी का भेद जानने के लए गु तचर के प म काय करते
ह। । 347 ।

।। चरप र चतानाम युपचारः शं कत ः ।।


अ य धक प र चत य क अनु चत सेवा से मन म संशय पैदा होता है।
जस से काफ घ न प रचय हो, य द कसी दन उसक सेवा म अ य धक
च दखाई दे ती है तो इसे शंका क से दे खा जाता है। इसका अथ यह लगाया जाता है
क इसे कसी वशेष कार क काय पू त क इ छा है। अ य त प र चत से जो भी
काम लेना हो उससे प बात करनी चा हए। अपने आदर-स कार से उसके मन म संदेह
पैदा करने का य न नह करना चा हए। । 348 ।

।। गौ करा सह ादे का कनी ेयसी ।।


एक साधारण गाय भी सौ कु से अ धक े होती है।
जस कार ध न दे ने वाली गाय भी सौ कु से अ धक उपकार करने वाली मानी
जाती है, उसी कार उपकारी उपकार न करने वाले सह प र चत ठग से े होता
है। । 349 ।

।। ो मयूराद कपोतो वरः ।।


कल मलनेवाले मोर क अपे ा आज मलनेवाला कबूतर अ धक अ छा है।
वतमान क सामा य थ त क उपे ा करके कल ा त होनेवाली बड़ी आशा के
भरोसे नह रहना चा हए। आकाश म बादल को घरा दे खकर अपने घर का घड़ा फोड़ दे ना
मूखता है। । 350 ।

।। अ त संगो दोषमु पादय त ।।


अ य धक साहस अथवा अनै तकता से बुराई पैदा होती है।
कुछ सू म ‘अ त संग ’ के थान पर ‘अ तसंगो’ भी दया है। ‘अ त संग ’ का
अथ अनै तकता माना जाता है और ‘अ तसंगो’ का अथ कसी से अ धक जान-पहचान होना
कया जाता है।
दोन य से यह बात उ चत है य क जस से अ धक प रचय होगा उससे
कसी-न- कसी कार का दोष उ प होने का भय बना रहेगा। अनै तकता तो अपने आप म
बुराई है। । 351 ।

।। सव जय य ोधः ।।
ोधहीन सबको अपना बना लेता है, अथात् वह अपने वभाव के कारण
व वजयी बन जाता है। । 352 ।

।। य पका र ण कोपः कोपे कोप एव क ः ।।


य द बुराई करनेवाले पर ोध करना ही हो तो पहले अपने ोध पर ही ोध
करना चा हए।
भावाथ यह है क अपनी उ त चाहनेवाले य को ोध नह करना चा हए।
य द ोध करना ही हो तो पहले उसे अपने ोध पर ोध करना चा हए क वह इस कार
के वचार म कैसे फंसा। ोध से मनु य क वचार-श न हो जाती है और वह अनु चत
काय कर बैठता है। । 353 ।

।। म तम सु मूख म गु व लभेषु ववादो न क ः ।।


बु मान मनु य को मूख, म , गु और अपने यजन के साथ थ का ववाद
नह करना चा हए। । 354 ।

।। ना य पशाचमै यम् ।।
ऐ य पैशा चकता से र हत नह होता।
जन लोग के पास ऐ य के साधन होते ह, वे बड़ी सरलता से पैशा चकता क ओर
आकृ हो जाते ह। जन ऐ यशाली य म धम-कम का अभाव होता है, उनम बुरी
वृ यां सरलतापूवक घर कर जाती ह। इस लए मनु य का य न होना चा हए क वह
रा सी वृ य से बचता रहे तथा धन-संप और ऐ य आ द को समाज के काय के लए
योग म लाए। । 355 ।

।। ना त धनवतां सुकमसु मः ।।
धनवान् य को शुभ काय को करने म वशेष म नह करना पड़ता।
चाण य ने अनेक सू म धम-कम के लए धन क आव यकता पर बल दया है।
इस लए धनी के लए कोई भी काय करना क ठन नह होता। परंतु जो केवल धन क
ही उपासना करते ह अथात् हर समय और अ धक धन जोड़ने क इ छा रखते ह उनक
वृ अ छे काय को करने क ओर नह जाती। । 356 ।

।। ना त ग त मो यानवताम् ।।
वाहन पर या ा करने वाले को थकावट अनुभव नह होती।
जो यान अथवा कसी वाहन पर या ा करते ह, उन पर या ा के म का
भाव नह पड़ता। उ ह अ धक थकावट नह होती।
चाण य ने एक पूव सू म कहा क जो अ धक पैदल या ा करते ह, वे ज द
बूढ़े हो जाते ह। अ धक या ा वाहन ारा ही करनी चा हए। । 357 ।

।। अलोहमयं नगडं कल म् ।।
ी बना लोहे क बेड़ी है।
प नी प त के लए बना लोहे क ऐसी बेड़ी है जसे वह सहम त से वीकार करता
है। इसका अथ यह है क ववाह था वे छा से अपने पर लागू कया गया ऐसा धम-बंधन है
जससे वतः ही अनु चत काय पर रोक लगती है। । 358 ।

।। यो य मन् कुशलः स त मन् यो ः ।।


जो मनु य जस काय म पूणतः नपुण हो, उसको उसी काय म नयु करना
चा हए। कसी काय म नयु क यो यता का मापदं ड यही होना चा हए क जो
काय भली
कार जानता हो, उसक नयु उसी काम के लए होनी चा हए अथात् को
वही काम ारंभ करना चा हए जसे वह भली कार जानता हो। य द वह अप र चत काय म
हाथ डालेगा तो उसे हा न उठानी पड़ेगी। । 359 ।

।। कल ं मन वनां शरीरकशनम् ।।
ी अथवा प नी मन वी के शरीर को बल बना दे ती है।
अथात् य द प नी अ छे वचार क न हो तो मन वी लोग ऐसी य को ःख का
कारण मानते ह। । 360 ।

।। अ म ो दारान् नरी ेत् ।।


आल यर हत होकर सदा ी का नरी ण करना चा हए।
मनु य को आल य का याग करके ऐसा य न करना चा हए क उसक प नी बुरे
माग पर न जा सके। इस लए सदै व उसक दे ख-रेख करते रहना चा हए। परंतु ऐसा काम वह
प त ही कर सकता है जो मादर हत हो। । 361 ।

।। ीषु क चद प न व सेत् ।।
य पर क चत् मा भी व ास नह करना चा हए।
ऐसा तीत होता है क यह सू ी मा के लए नह कहा गया। ब क चाण य का
भाव यह है क ी जा त को श त करना आव यक है। इतने पर भी भूल तो सभी
शरीरधा रय से होती है। परंतु यां कुछ बात बना सोचे- वचारे कर बैठती ह। इ तहास म
ऐसे अनेक उदाहरण ह जहां सीता जैसी म हला ने ल मण रेखा जैसी मयादा का उ लंघन
करके अनेक कार के क उठाए। परंतु गृह थ धम आपसी व ास के बना नह चल
सकता। इस लए को चा हए क वह बड़ी सूझबूझ के साथ य के साथ वहार
करे। । 362 ।

।। न समा धः ीषु लोक ता च ।।


य म ववेक और लोक- वहार क कमी होती है।
य का वभाव चंचल होता है। चंचल वभाववाला कई बार प रवार के
लए भी हा न का कारण बन जाता है। इसके अ त र वाथ के कारण ब त से
लोक- वहार से भी प र चत नह होते। व तुतः जो समाज पूणतः श त न हो उसम
म हला को समानता के अवसर ा त नह होते। परंतु अब सभी दे श म य को
श त करने का य न कया जा रहा है और उ ह ने एक स मानपूण थान भी बना लया
है। इस लए इस कार क बात केवल अ श त म हला के संबंध म कही जा सकती ह।
। 363 ।
।। गु णां माता गरीयसी ।।
गु जन म माता का थान सव च होता है।
जो समाज मातृ-जा त को अ ान के अंधकार म रखता है, उससे वह वयं ही
रोग त हो जाता है। पु ष जा त पर यह उ रदा य व है क वह मातृ जा त को उ चत
गौरवमय थान दे कर वयं उ त हो। आचाय का पद उपा याय से दस गुणा ऊंचा है। पता
का पद आचाय से सौ गुणा ऊंचा है। माता का पद तो गौरव क से पता से सह गुणा
ऊंचा है। अतः माता स मान के यो य है। । 364 ।
।। सवाव थासु माता भत ा ।।
येक अव था म माता का भरण-पोषण करना चा हए।
माता मनु य को ज म दे नेवाली होती है, इस लए मनु य का क है क वह हर
कार से येक थ त म माता का स मान करे और उसके भरण-पोषण का यान रखे। ।
365 ।
।। वै यमलंकारेणा छा ते ।।
बनावट पन से पां ड य पर पदा पड़ जाता है अथात् बनावट पन से मनु य के
पां ड य को हा न प ंचती है।
व ान् लोग अपने शरीर को सजाने के लए उतना यान नह दे ते जतना अपने
वचार को ऊंचा बनाने का य न करते ह। अपने शरीर को सजाने का एक घ टया कार
बनावट पन है, इसे व ा वरोधी आचरण भी कहा जा सकता है परंतु इसका यह भाव नह
क मनु य अपने शरीर को सही थ त म रखने का य न न करे। । 366 ।

।। ीणां भूषणं ल जा ।।
ल जा ही य का भूषण (गहना) है। । 367 ।

।। व ाणां भूषणं वेदः ।।


ान ही ा ण का आभूषण है। । 368 ।

।। सवषां भूषणं धमः ।।


सभी य का आभूषण धम है।
जो धम से र हत है, स य न ा से र है और जसे अपने क का ान
नह , वह अपने शरीर को कतना भी सजाए, संवारे इसका कोई लाभ नह । । 369 ।

।। भूषणानां भूषणं स वनया व ा ।।


वनयसंप व ा सम त आभूषण का आभूषण है।
व ान् य द न ता से यु हो तो उसे सव े माना जाता है। अ धकांश लोग
को अपने गुण के कारण अहंकार हो जाता है और वे वन नह रह पाते।
इस लए मनु य को ऐसे ान क ा त का य न करना चा हए जससे वे न ,
सुशील और वहार-कुशल बन सक। न बनानेवाली व ा ही मनु य का सबसे बड़ा
आभूषण है। । 370 ।

।। अनुप वं दे शमावसेत् ।।
जस दे श म उप व होते रहते ह वहां रहना उ चत नह । । 371 ।

।। साधुजनब लो दे शः ।।
जस दे श म स जन पु ष का नवास हो वह बसना चा हए।
व तुतः वही रा रहने के यो य होता है जहां अ धकांश लोग का स य, कानून और
लोक-मयादा म व ास हो अथात् उसी दे श म रहना चा हए जहां कानून और व था का
पालन करनेवाले लोग रहते ह । । 372 ।

।। रा ो भेत ं सावकालम् ।।
राजा अथवा शासन से सदै व डरकर रहना चा हए।
मनु य को ऐसा य न करना चा हए क वह राजा अथवा शासन के ोध का पा
न बने। ऐसा तभी हो सकता है जब रा य के नयम का न ापूवक पालन कया जाए। ।
373 ।
।। न रा ः परं दै वतम् ।।
राजा से बड़ा कोई दे वता नह ।
दे वता उसे कहा जाता है जो धम का पालन करता और करवाता है। दे श भर म धम
का पालन रा य के नयम के भय के कारण ही होता है। इस लए राजा को रा का दे वता
कहा जाता है। उसके पास श और अ धकार होने से उसके मह व म और भी वृ होती
है। । 374 ।

।। सु रम प दह त राजव ह्नः ।।
राजा क ोधा न रा य के सु र कोने म प ंचकर भी दे श ोही को द ध (भ म)
करने म समथ होती है।
राजा अथवा शासन क श अपने दे श म ापक होती है। इस लए सदै व रा य
के नयम का पालन करना चा हए अ यथा राजा अथवा रा य के नयम के अनुसार
राज ो हय का सफाया कर दया जाता है। । 375 ।
।। र ह तो न राजानम भग छे त् ।।
राजा, दे वता अथवा गु के पास खाली हाथ नह जाना चा हए।
राजा, दे व अथवा गु के पास जाते समय को खाली हाथ नह जाना चा हए।
समाज क ऐसी मयादा है क जब कोई कसी महान् पु ष के पास जाता है तो कुछ-
न-कुछ भट करने के लए अव य अपने साथ ले जाता है। वतमान समाज क परंपरा है क
दे श के कसी बड़े नेता अथवा स जन पु ष के स मान के लए उसके पास प ंचकर पु प
भट कए जाते ह। । 376 ।

।। गु ं च दै वं च ।।
गु और दे वता के पास भी खाली हाथ नह जाना चा हए।
गु मनु य को व ा दान दे ता है और दे वता के कारण धम म आ था पैदा होती
है। इस लए इनके पास जाते समय भी ा और भ सूचक उपहार लेकर ही जाना
चा हए। । 377 ।

।। कुटु बनो भेत म् ।।


राजा के प रवार से संबंध रखनेवाले य से डरकर ही रहना चा हए।
राजा के प रवार से संब लोग का स कार करना चा हए। कभी ऐसा कोई काय
नह करना चा हए जससे वे नाराज होकर े ष रखने लग। । 378 ।

।। ग त ं च सदा राजकुलम् ।।
राजदरबार म सदै व जाते रहना चा हए।
राजप रवार अथवा रा य दरबार म जाते रहने अथवा रा यकुल के य से
मलते रहने से जा के हत के लए कए जानेवाले काय से प र चत रहता है। इसी
कार वह उनसे लाभ भी उठा सकता है। । 379 ।

।। राजपु षैः स ब धं कुयात् ।।


राजपु ष से संबंध बनाए रखना चा हए।
रा य- शासन से संबंध रखने वाले अ धका रय अथवा राजपु ष के साथ प रचय
रखना के लए लाभदायक होता है। इससे मनु य के अपने अनेक काय स होते ह।
राजपु ष से संबंध रखने के कारण अ य लोग के काय भी करवाए जा सकते ह। । 380 ।
।। राजदासी न से वत ा ।।
राजा क वशेष दासी से कसी कार का संबंध नह रखना चा हए।
राजा क सेवा करनेवाली दा सय से जा के लोग को गत संपक नह बनाना
चा हए। इससे राजा के होने क स भावना रहती है। इस लए कोई ऐसा काय नह करना
चा हए जससे राजा अ स हो। । 381 ।

।। न च ुषा प राजधनं नरी ेत् ।।


इसी सू का सरा प इस कार है ‘न च ुषा प राजानं नरी ेत।् ’
थम सू का अथ है क राजा के धन क ओर आंख उठाकर भी नह दे खना
चा हए। तीय सू का अथ है क राजा क ओर कभी सीधी आंख उठाकर नह दे खना
चा हए।
का क है क रा य से संबं धत धन क ओर कभी आंख उठाकर भी न
दे ख।े इसका अथ यह भी हो सकता है क रा य क ओर से जो कर आ द लगाए जाएं
उनक न त अदायगी होती रहनी चा हए। । 382 ।

।। पु े गुणव त कुटु बनः वगः ।।


गुणवान् पु से प रवार वग बन जाता है।
वग- ा त का अथ है सुख क ा त होना। पता के लए सबसे बड़ा सुख पु का
गुणवान और सदाचारी होना है। इससे प रवार म सुख और शां त के साथ-साथ समाज म
स मान भी बढ़ता है। पु का गुणवान् और सदाचारी होना पता क श ा पर ही नभर
करता है। इस लए पता को चा हए क वह अपने पु को व ान्, गुणवान् और सदाचारी
बनाए। । 383 ।

।। पु ा व ानां पारं गम यत ाः ।।
पु को सब व ा म पारंगत बनाना चा हए।
पता का क है क वह संतान को व ान् और गुणवान् बनाये। कहा गया है क
जो पता अपनी संतान को श त नह बनाता, वह संतान का श ु होता है। व तुतः वह
संतान का ही नह अपना भी श ु होता है। इसी लए पता का क है क वह अपने पु
को व ा म पारंगत बनाये। । 384 ।

।। जनपदाथ ामं यजेत् ।।


जले के हत के लए ाम के हत को याग दे ना चा हए।
य द ाम को याग दे ने से पूरे जले का क याण होता है तो उसको छोड़ दे ने म कोई
हा न नह । भावाथ यह है क अ धकांश लोग के लाभ के लए मनु य को अपने छोटे वाथ
का प र याग कर दे ना चा हए। । 385 ।

।। ामाथ कुटु ब य यते ।।


ाम के हत के लए प रवार के हत का ब लदान कर दे ना चा हए।
य द प रवार के कसी याग से ाम का भला होता है तो प रवार के वाथ का
ब लदान कर दे ना चा हए। । 386 ।

।। अ तलाभः पु लाभः ।।
पु क ा त सव े लाभ है।
परंतु वही पु पता और प रवार के लए लाभ और शंसा का कारण होता है जो
गुणवान् होता है। इसी लए गुणवान् पु को ही पता के लए सव े लाभ माना गया है। ।
387 ।
।। ायेण ह पु ाः पतरमनुवत ते ।।
ायः पु पता के जीवन के अनु प बन जाते ह।
पु पता के आचरण से ही ब त कुछ सीखता है। इस लए पता का क है क
वह पु के सामने आदश उप थत करे। । 388 ।

।। गतेः पतरौ र त सपु ः ।।


पु होने पर माता- पता क ग त नह होती।
जब माता- पता बूढ़े हो जाते ह तो पु ही उनक दे खभाल करता है। वृ लोग
अनेक रोग के शकार भी हो जाते ह, य द कोई उनक दे ख-रेख करनेवाला न हो तो उ ह
ब त क उठाना पड़ता है। उस समय केवल सद्गुणी पु ही माता- पता का सहारा होता है।
। 389 ।
।। कुलं यापय त पु ः ।।
सुपु से ही कुल क या त होती है।
सद्गुणी पु ही कुल के स मान को बढ़ाता है। उसी के कारण वंश का मुख उ वल
होता है। इसी लए गुणवान् पु को कुल का द पक कहा गया है। । 390 ।

।। येन त कुलं यातं सः पु षः ।।


जस पु ष के ारा कुल का गौरव बढ़े उसी को स चा पु ष कहा जाता है।
स चे अथ म मनु य वही है जससे कुल क शोभा बढ़ती है। कुल क या त म चार
चांद लगते ह। । 391 ।

।। नाऽनप य य वगः ।।
सुपु के बना वग क ा त नह होती।
जस प रवार म गुणवान् और बु मान पु नह होता, वह प रवार सदै व खी रहता
है। प रवार का सुख सुपु होने से ही बढ़ता है। । 392 ।

।। या सूते (सा) भाया ।।


संतान को ज म दे नेवाली ी ही भाया अथात् प नी कहलाती है।
अ छ संतान को ज म दे नेवाली ी को ही स ची भाया अथात् प नी माना जाता
है। अ छ संतान क उ प से ही भाया होने क सफलता है। जो अ छे पु उ प नह कर
सकती उसे स ची प नी नह कहा जा सकता। । 393 ।

।। सतीथाऽ भगमनाद् चय न य त ।।
एक ही गु कुल म पढ़नेवाले छा -छा ा का नकट संपक चय का वनाशक
है। । 394 ।

।। पु ाथा ह यः ।।
पु ा त के लए ही य का वरण कया जाता है।
प नी का स पयोग पु ा त के लए कया जाना चा हए, वषयभोग क तृ त के
लए नह । परंतु जो लोग य को वषयभोग का साधन मान लेते ह उनसे अ छ संतान
उ प होने क आशा नह क जा सकती। । 395 ।

।। वदासीप र हो ह वदासभावः ।।
अपनी दासी के साथ प र ह करना अपने को दास बना लेना है।
जो अपनी ही नौकरा नय को वषयभोग का साधन बना लेता है वह प तत
होने के साथ-साथ वयं उनका दास बन जाता है। । 396 ।

।। उप थत वनाशः प यवा यं न शृणो त ।।


जसका वनाश नकट होता है वह अपने हत क बात नह सुनता।
जब मनु य के दन आते ह तो वह अपना भला चाहनेवाले क बात क ओर भी
यान नह दे ता। कहा भी गया है क मनु य के वनाश से पूव उसक बु हो जाती है।
‘ वनाशकाले वपरीत बु ः।’ । 397 ।

।। ना त दे हनां सुख ःखाभावः ।।


येक दे हधारी के जीवन के साथ ःख और सुख लगे रहते ह।
जसने मनु य जीवन धारण कया है उसे सुख और ःख कसी-न- कसी प म
ा त होते रहते ह। जस कार जीवन म मनु य का बीमार रहना ःख है और व थ रहना
सुख, उसी कार सफलता और असफलता भी मानव जीवन के दो पहलू ह। । 398 ।

।। मातर मव व साः सुख ःखा न कतारमेवानुग छ त ।।


जैसे बछड़ा माता के पास जा प ंचता है वैसे ही सुख और ःख अपने कता के पास
जा प ंचते ह।
सुख और ःख मनु य के जीवन के आव यक अंग है परंतु उनक उ प का कारण
वह वयं होता है। जस कार गाय का बछड़ा गाय क अपनी उ प है और वह उसके
पीछे -पीछे चलता है, उसी कार मनु य ारा उ प कए गए सुख और ःख उसका पीछा
करते ह। । 399 ।

।। तलमा म युपकारं शैलमा ं म यते साधुः ।।


स जन पु ष तल के समान छोटे से उपकार को भी पहाड़ के समान बड़ा मानते ह।
यह स जन पु ष का वभाव होता है क कोई जो उनका छोटा-सा उपकार
करता है, वे उसे बड़ा भारी उपकार मानते ह और उसके त कृत बने रहते ह। । 400 ।

।। उपकारोऽनाय वक ः ।।
पु ष पर उपकार नह करना चा हए।
पु ष अपनी ता नह छोड़ता और वह उपकार करनेवाले के त कृत ता भी
कट नह करता। भाव यह है क पा दे खकर ही कसी पर उपकार करना चा हए। अपा
के त उपकार करने से कोई लाभ नह होता। । 401।

।। युपकारभयादनायः श ुभव त ।।
उपकार का बदला चुकाने के भय से पु ष श ु बन जाता है।
अपने त कये गए उपकार का बदला नह चुकाना चाहता। उसम ऐसी
भावना नह होती इस लए वह उपकार करनेवाले के त उपे ा और े ष क भावना
रखने लगता है। । 402 ।

।। व पम युपकारकृते युपकारं कतुमाय न व प त ।।


स जन पु ष थोड़े से उपकार के बदले अ य त मह वपूण उपकार करने के लए
तैयार रहते ह।
स जन पु ष छोटे से उपकार को ब त बड़ा मानते ह और वह इसका बदला चुकाने
के लए सदा तैयार रहते ह। उ ह तब तक चैन नह पड़ता जब तक क वे इस संबंध म
अपना क पूरा नह कर लेते। । 403 ।

।। न कदा प दे वताऽवम तका ।।


दे वता का कभी भी अपमान नह करना चा हए।
जन मू तय , च आ द को दे वता समझकर पूजा के यो य माना जाता है, उनका
अपमान करना उ चत नह । इसी कार पूजा थान और अ छे च र वाले े य का
भी अपमान करना नदाजनक काय है। । 404 ।

।। न च ुषः समं यो तर त ।।
आंख के समान सरी कोई यो त नह है।
मनु य के शरीर म ने ही ऐसा अंग है जसके बना मनु य-जीवन नरथक होता है।
कसी व तु को य दे खने का जो मह व है उसे कसी अ य कार से पूरा नह कया जा
सकता। । 405 ।

।। च ु ह शरी रणां नेता ।।


ने ही दे हधा रय का नेता है।
आंख को दे हधा रय का नेता इस लए कहा गया है य क जब तक मनु य के ान-
च ु नह खुलते तब तक वह कसी भी स य अथवा अस य काय के संबंध म नणय नह
करता। इसी लए ने को शरीरधारी का पथदशक माना गया है। । 406 ।

।। अपच ुषः क शरीरेण ।।


ने हीन का जीवन लेश द होता है।
आंख के बना मनु य संसार म अपनी जीवन-या ा अ य त लेश म रहकर ही पूरी
कर पाता है। ने हीन य के क क कोई सीमा नह होती। । 407 ।

।। ना सु मू ं कुयात् ।।
जल म मू याग नह करना चा हए।
जल म मू याग से वह उपयोग म लाने के यो य नह रहता। उसे पीने, नान करने
अथवा अ य कसी भी उपयोग म लाने से भयंकर प रणाम हो सकते ह। । 408 ।

।। न न नो जलं वशेत् ।।
पूरी तरह से न न होकर जल म नह उतरना चा हए।
जल म कुछ जीव इस कार के होते ह जो शरीर से चपककर र चूस लेते ह।
इसी लए जलाशय , न दय आ द म भी पूरी तरह न न होकर नह घुसना चा हए। । 409 ।

।। यथा शरीरं तथा ानम् ।।


शरीर जैसा होता है वैसा ही ान उसम रहता है।
येक के शरीर का आकार- कार व भ कार का होता है। ब त से
य के शरीर को दे खकर यह अनुमान लगाया जा सकता है क वे कतने बु मान ह।
परंतु उसे मानदं ड के प म वीकार करना क ठन है। । 410 ।

।। यथा बु तथा वभवः ।।


जैसी बु होती है वैसा ही वैभव होता है।
यहां सत्, रज, तम तीन गुण क बात है, जो ाणी जैसी बु का होता है, अपने
वैभव के लए वह वैसे ही स मान एक त करता है। सत् बु के वैभव सा वक ह गे, रज
बु के राजसी और तामस बु के वैभव भी तामसी ही ह गे। । 411।

।। अ नाव नं न न पेत् ।।
आग म आग नह डालनी चा हए। ोध के बदले ोध नह करना चा हए।
इसका भावाथ यह है क ोध का उ र ोध से नह दया जा सकता। ोध के
उ र म ोध करने से अशां त पैदा होती है और दोन प क हा न भी हो सकती है। ।
412 ।
।। तप वनः पूजनीयाः ।।
तप वय क सदा पूजा करनी चा हए।
तप वी वे लोग होते ह जो इं य को वश म रखने का य न करते ह। ऐसे
समाज के लए मागदशक का काम करते ह। वे समाज के मू यवान धन होते ह। समाज को
चा हए क वह उनका आदर-स कार करे, उनका अपमान न करे। । 413 ।

।। परदारान् न ग छे त् ।।
पराई ी के साथ समागम नह करना चा हए।
परप नय से संपक था पत करने क बात भी मन म नह सोचनी चा हए।
वृ य पर कठोर संयम रखने से ही मानव तथा सामा जक जीवन क शां त संभव है। जो
मनु य सर क ी से संभोग करते ह वे समाज म ल जत होते ह। । 414 ।

।। अ दानं ूणह याम प मा ।।


अ दान से ूण (गभ थ शशु) ह या का भी पाप मट जाता है। । 415 ।

।। न वेदबा ो धमः ।।
वेद- वीकृत धम ही वा त वक धम है।
धम वेद से बाहर नह । धम के ा याकार ने इस संबंध म जो कुछ भी बताया है
वह वेद के अनु प है। वेद ान का भंडार है। वेद के व चलने से धम का पालन नह हो
सकता। वेद के अनु प आचरण करना ही मनु य का धम है। । 416 ।

।। न कदा चद प धम नषेधयेत् ।।
धम का वरोध कभी नह करना चा हए और न ऐसे धम के वरो धय क संगत कर।
मनु य को धमानु ान करना चा हए। धम का पालन करना ही मनु य जीवन का
सबसे बड़ा क होता है। ण भर के लए भी धम से वच लत नह होना चा हए। धम का
पालन न करने वाले समाज म अशां त पैदा करते ह। को सदै व धम का
आचरण करना चा हए। । 417 ।

।। वग नय त सूनृतम् ।।
मीठ और स ची वाणी मनु य को वग ले जाती है।
जो मधुर वाणी बोलते ह वे सबको अपना म बना लेते ह। उनका कोई श ु
नह होता। वे संसार म नभय होकर वग का सुख भोगते ह। मनु य ेमपूण मधुरवाणी से
श ु को भी अपना म बना लेता है। । 418 ।

।। ना त स या परं तपः ।।
स य से बढ़कर कोई तप नह है।
स य का अवलंबन ही इस संसार म सबसे अ छ तप या है। स य का आचरण करने
से मनु य पर अनेक संकट भी आ सकते ह। परंतु स याचरण से ही उनसे वच लत
नह हो सकता। वह अनेक क उठाकर भी स य का प र याग नह करता। । 419 ।

।। स यं वग य साधनम् ।।
स य के ारा ही मनु य वग को ा त होता है।
मनु य के दय म रहनेवाले स य का येय यह होता है क मनु य क वाथ यु
वृ य पर अंकुश लगाये। इस कार मनु य कम म वृ नह होता। मनु य अपनी
भोली वृ य का माजन स य के बल पर ही करता है और उसक पूजा वग के दे वता के
समान होने लगती है। मनु य को यान दे ना चा हए क वयं स य ही साधन भी है और सा य
भी। इसी लए मनु य को स य का साथ नह छोड़ना चा हए। । 420 ।

।। स येन धायते लोकः ।।


स य पर ही संसार टका आ है।
स य के कारण ही मानव-समाज म व था कायम रहती है। सावज नक क याण
और आ म-क याण स य के ारा ही हो सकता है। स यहीन समाज य क
वे छाचा रता के कारण छ - भ हो जाता है, जससे इसका सवनाश भी हो जाता है। ।
421 ।
।। स याद् दे वो वष त ।।
स य से दे व क कृपा बरसती है।
जो समाज स य के अधीन रहता है, दे वता क कृपा क वहां ही वषा होती है। ।
422 ।
।। नानृता पातकं परम् ।।
झूठ से बढ़कर इस संसार म कोई पाप नह ।
झूठ अथवा अस य आचरण करने से मनु य को अनेक संकट का सामना करना
पड़ता है। झूठ के ारा मनु य सर को ही नह , वरन् वयं अपने आपको भी धोखा दे ता है।
। 423 ।

।। न मीमां या गुरवः।।
गु जन क आलोचना नह करनी चा हए।
मनु य को चा हए क अपने गु क कभी आलोचना न करे। गु श य का सदै व
हत चाहते ह। वे कभी उसका अ हत नह करते।
इसी लए य द उनके दय क भावना को न समझ सके तो भी उनक
आलोचना नह करनी चा हए। आलोचना का अथ के दोष को ढूं ढ़ना है। अतः अपने
गु जन म दोष ढूं ढ़ना मनु य क मूखता है। । 424 ।

।। खल वं नोपेयात् ।।
मनु य को चा हए क वह ता को वीकार न करे।
मनु य को नीचता का कभी आ य नह लेना चा हए। उसका क है क वह
सदै व नीच से र रहे। सर क नदा करना, लड़ाई-झगड़ा करना, अस याचरण
करना आ द नीच काय मानव को उसके उ च आदश से गराते ह। इसी लए उसे चा हए क
वह इस कार के पाप काय से पृथक् रहे। । 425 ।

।। ना त खल य म म् ।।
धूत मनु य का कोई म नह होता।
जो स जन लोग से वहार करता है वह धीरे-धीरे वयं अपने म म
कमी करता है। समय पाकर उसके ब धु-बा धव भी उसे छोड़ जाते ह। स जन ही
कसी को परखने के बाद म ता का हाथ बढ़ाते ह। धूत वभाव से ही स जन लोग
का श ु होता है। इसी लए समझदार को चा हए क , नीच और धूत य से
कभी स पक था पत न करे। । 426 ।
।। लोकया ा द र ं बाधते ।।
द र मनु य का जीवन- नवाह क ठन होता है।
द र ता जीवन का अ भशाप है। द र और नधन य को अपने प रवार के
आ त के अ त र वयं अपने जीवन को चलाना क ठन होता है। नधनता के कारण
उसके सगे-संबंधी भी उसे छोड़ दे ते ह। इसी लए को चा हए क वह धैयपूवक य न
करता आ नधनता को समा त करने का य न करे। । 427 ।

।। अ तशूरो दानशूरः ।।
दानवीर ही सबसे बड़ा वीर है। । 428 ।

।। गु दे व ा णेषु भ भूषणम् ।।
गु , दे वता और ा ण म भ रखना मानवता का आभूषण है।
जो गु , ा ण और स जन य आ द के संबंध म समान भाव
रखता है, उनक भ करता है, वा तव म वह इस कार अपने जीवन क शोभा बढ़ाता है।
ये काय उसके लए एक आभूषण के समान होते ह। उसक सव पूजा होती है। । 429 ।

।। सव य भूषणं वनयः ।।
वनय सबका आभूषण है।
वनय का अथ है न वभाव। परंतु न वभाव का वही हो सकता है
जसक स य म न ा होती है। स य आचरण करने वाला अपने न वभाव का कभी
याग नह कर सकता। मनु य का न वभाव उसे सबका य बना दे ता है। जस कार
आभूषण सबको अ छे लगते ह, उसी कार ाणी का आभूषण वनयशीलता सबको अ छा
लगता है। । 430 ।

।। अकुलीनोमऽ प वनीतः कुलीना श ः ।।


जो कुलीन न होता आ भी वनीत हो, वह े कुलीन अहंकारी क अपे ा
बड़ा है।
जो अ छे कुल म उ प न होने पर भी वनयशील बना रहता है वह अहंकार
यु कुलीन से अ छा माना जाता है। वन ता के कारण का समाज म आदर
बढ़ता है। । 431 ।
।। आचारादायुवधते क त ।।
सदाचार से मनु य क आयु और यश दोन क वृ होती है।
राचारी मनु य अपने नकृ काय के कारण अनेक रोग का शकार हो जाता है
और ज द ही मौत के मुंह म चला जाता है। परंतु सदाचारी मन, वचन और कम ारा
अपनी इं य को वश म रखने के कारण द घायु होता है। ऐसे का यश भी बढ़ता है।
सदाचारी का सभी स मान करते ह। । 432 ।

।। यम य हतं न व म् ।।
मधुर और य होने पर भी अ हतकर वाणी नह बोलनी चा हए।
ऐसी मीठ बात करने का भी कोई योजन नह होता, जनसे सर को ठे स प ंचे।
। 433 ।
।। ब जन व मेकं नानुवतत् ।।
अनेक लोग के वरोधी एक का अनुगमन नह करना चा हए।
जस एक का ब त से वरोध करते ह , उसका अनुकरण करने से
मनु य क हा न होती है अथात् इसका भाव यह है क कसी व का अनुसरण न करके
स य का अनुसरण करना चा हए। । 434 ।

।। न जनेषु भागधेयः क ः ।।
जन य के साथ कभी भी अपना भा य नह जोड़ना चा हए।
जन य क नीयत साफ नह है और जो वभाव से ह, उनके साथ
मलकर कोई काय नह करना चा हए। उनसे मलकर काय करने से मनु य को हा न उठानी
पड़ती है। । 435 ।

।। न कृताथषु नीचेषु स ब धः ।।
कृताथ अथात् अपने वसाय म सफल नीच से भी संबंध था पत नह
करना चा हए।
जो अपने वसाय म कसी कार सफलता ा त कर भा यशाली बन जाए,
और वभाव म नीचता रहे ऐसे भा यशाली नीच य से भी कभी संबंध था पत नह
करना चा हए। । 436 ।
।। ऋणश ु ा ध वशेषः क ः ।।
ऋण अथात् कज, श ु और रोग को सवथा समा त कर दे ना चा हए। । 437 ।

।। भू यनुवतनं पु ष य रसायनम् ।।
क याण-माग पर चलना ही मनु य के लए उ म साधन है। । 438 ।

।। ना थ वव ा काया ।।
याचक का अपमान नह करना चा हए।
याचक का कोई मान-अपमान नह होता। वह कन कारण से े रत होकर भीख
मांगने पर उता होता है, यह उसक ववशता समझते ए उसका अपमान करने से कोई
लाभ नह । । 439 ।

।। सु करं कम कार य वा कतारमवम यते नीचः ।।


नीच मनु य कम करवाने के बाद वह काय करनेवाले को अपमा नत करता है।
इस सू का अथ यह है क नीच मनु य कसी से कोई ऐसा क ठन काय
करवा लेता है जो उसके लए संभव नह होता। अपने वभाव के अनुसार वह काम करने
वाले का अपमान करता है। क ठन काय के संबंध म नीच मनु य कता को सफलता का यश
न दे ने क भावना से ही ऐसा करता है। । 440 ।

।। नाकृत य नरका वतनम् ।।


कृत न मनु य क नरक के अ त र कोई ग त नह ।
जो कसी के उपकार को नह मानता, उसक कभी उ त नह हो सकती।
ऐसा बारा कसी से सहायता न मलने के कारण सदै व खी रहता है। कसी के
उपकार को न मानना के अधःपतन क एक सीमा है। । 441 ।

।। ज ाय ौ वृ वनाशौ ।।
मनु य क उ त और अवन त उसक अपनी वाणी के अधीन है।
जस कार क बात करता है अथवा जस कार के वचन बोलता है, उ ह
के आधार पर संसार म उसक वृ और अवन त होती है। मधुर, उपयोगी और समय के
अनुकूल बात करनेवाले ब त कम होते ह। जो वाणी का सही उपयोग जानते ह, वे
इस संसार म उ त करते ह और सुखी भी रहते ह। । 442 ।

।। वषामृतयोराकरो ज ा ।।
मनु य क वाणी ही वष तथा अमृत क खान है। । 443 ।

।। यवा दनो न श ुः ।।
जो य वचन बोलता है उसका कोई श ु नह होता। । 444 ।

।। तुता अ प दे वता तु य त ।।
तु त करने से दे वता भी स हो जाते ह।
तु त ारा दे वता को भी अपना बना लेना अपने आप म एक लोको है। मं दर
म रखी ई मू त, दे वता अ य होता है परंतु भ मन से उसक तु त करता है, उसक
ाथना करता है, उससे उसक मनोकामनाएं पूरी हो जाती ह। जब अ य दे वता मधुर वचन
से स होते ह तो त दन संपक म आने वाले हत करनेवाली और मधुरवाणी से
य न स ह गे? । 445 ।

।। अनृतम प वचनं चरं त त ।।


अस य वचन लंबे समय तक मरण रहता है।
यही बात सरे प म य कही गई है क तलवार का घाव तो समय पाकर ठ क हो
जाता है, परंतु कटु वाणी से उ प आ े ष जीवन भर समा त नह होता, वरन् कई पी ढ़य
तक चलता रहता है। इसी लए मनु य को वचन का योग नह करना चा हए। । 446 ।

।। राज ंनचव म् ।।
राजा से े ष उ प करने वाली बात कभी नह बोलनी चा हए।
ऐसी बात अथवा भाषण कभी नह करना चा हए जससे राज ोह कट होता हो।
राज ोह अपराध है। । 447 ।

।। ु तसुखा को कलालापा ु य त ।।
काली कोयल क कूक सबको अ छ लगती है।
कु प होने पर भी कोयल क वाणी मधुर होती है, इसी लए वह सबको अ छ
लगती है। काला तो कौआ भी होता है, परंतु उसक वाणी कठोर होती है, इसी लए उसे कोई
पसंद नह करता। इस लए मनु य का क है क वह रा य के अ धका रय से ऐसी कठोर
बात न कहे जससे हा न प ंचती हो। । 448 ।

।। वधमहेतुः स पु षः ।।
अपने धम म थत होने के कारण ही पु ष स पु ष कहलाता है।
अपने धम का पालन करने से ही स पु ष कहलाता है। ीकृ ण ने गीता म
कहा क—‘ वधम नधनं ेयः परधम भयावहः।’ । 449 ।

।। ना य थनो गौरवम् ।।
याचक का समाज म कोई गौरव नह होता।
याचना करनेवाले और कंजूस धनी को संसार म स मान ा त नह होता।
मांगनेवाला सर क म हीन माना जाता है और कंजूस धनी दान न दे ने के
कारण स मानहीन बन जाता है। । 450 ।

।। ीणां भूषणं सौभा यम् ।।


य का आभूषण उनका सौभा य होता है।
जो यां अपने प त के त सम पत और प त ता होती ह, उनका समाज म
स मान होता है। इससे बढ़कर ी के लए न तो कोई आभूषण है और न कोई स दय। प त
ही उसके लए सब कुछ होता है। । 451 ।

।। श ोर प न पतनीया वृ ः ।।
श ु क भी आजी वका न नह करनी चा हए।
आजी वका एक ऐसा उपाय है जससे अपना और अपने प रवार का भरण-
पोषण करता है। कसी को जी वका उपल ध कराना ब त ही मह व और पु य का काय
समझा जाता है। चाण य कहते ह क श ु क जी वका को भी हा न नह प ंचानी चा हए। ।
452 ।
।। अ य नादे कं े म् ।।
जहां बना य न कये जल उपल ध हो वही कृ ष यो य भू म होती है। । 453 ।

।। एर डमवल य कुंजरं न कोपयेत् ।।


एरंड वृ का आ य लेकर हाथी को ु नह करना चा हए।
सू का भाव यह है क ु के भरोसे बलवान् श ु से ववाद नह करना
चा हए। एरंड का वृ ढ़ नह होता इसी लए उसका आ य लेकर हाथी से बैर नह करना
चा हए। । 454 ।

।। अ त वृ ा शा मली वारण त भो न भव त ।।
ब त पुराना होने पर भी सेमल के वृ से हाथी को नह बांधा जा सकता।
जैसे पुराना वशाल शा मली असार होने से हाथी बांधने के यो य नह माना जाता,
उसी कार नबल मन वाले लोग पया त समृ और -पु हो जाने पर भी बलवान् से
ट कर लेने यो य नह हो सकते। मनु य म बल, बु के लए अ तःसार होना चा हए।
हा दक बल ही सं ाम क वशेष यो यता है, भुजबल नह । दे ह क वशालता वजय का
साधन नह हो सकती। । 455 ।

।। अ तद घऽ प क णकारो न मुसली ।।
ब त बड़ा कनेर का वृ भी मूसल बनाने के काम नह आता।
कनेर का वृ अंदर से खोखला होता है। इसी लए उसक लकड़ी से मूसली बनाने
का काम नह लया जा सकता। इसी कार कमजोर, बल, मनवाले के पास जतने
भी भौ तक साधन ह , उनसे कोई भी मह वपूण काय नह कया जा सकता। । 456 ।

।। अ तद तोऽ प ख ोतो न पावकः ।।


जुगनू कतना भी अ धक चमक ला य न हो वह आग का काम नह दे सकता।
को कोई भी मह वपूण काय पूरा करने के लए मन का ढ़ होना आव यक
है। जस कार जुगनू क चमक से न काश होता है और न आग का काम लया जा सकता
है। इसी कार नबल मन वाले कोई मह वपूण काय नह कर सकते। । 457 ।

।। न वृ वं गुणहेतुः ।।
समृ शाली हो जाने पर भी कोई आव यक प से गुणवान नह हो पाता।
यह आव यक नह क को कसी एक बात म वृ ा त हो जाए और वह
गुणी भी हो। इसी कार यह भी आव यक नह क समृ शाली लोग म गुण का नवास
आव यक प से ही होता है। । 458 ।

।। सुजीण ऽ प पचुम दो न शङ् कुलायते ।।


ब त पुराना होने पर भी नीम के वृ का सरौता नह बन सकता।
जस कार नीम के पुराने होने पर भी सरौता अथवा चाकू बनाने का काम नह
लया जा सकता, इसी कार वभाव के लोग कतने भी पुराने अथवा वृ य न हो
जाएं, उनक सारहीनता न नह होती और उ ह सारवान नह बनाया जा सकता। अथात्
कृ त के लोग वशेष मह वपूण काय के उपयोगी नह होते। । 459 ।

।। यथा बीजं तथा न प ः ।।


जैसा बीच होता है वैसा ही फल उ प होता है।
जैसा बोओगे वैसा काटोगे अथात् मनु य जस कार के कम करता है उसको वैसा
ही फल मलता है। संतान भी वैसी ही होती है जैसे माता- पता और उनके वचार होते ह। ।
460 ।
।। यथा ुतं तथा बु ः ।।
श ा के अनु प ही बु होती है।
मनु य क श ा-द ा जैसी होगी, बु का वकास भी वैसा ही होगा। इसी लए
सदा ऐसा य न करना चा हए क संतान को अ छ श ा दे , जससे उनम अ छ बु का
वकास हो। । 461 ।

।। यथाकुलं तथाऽऽचारः ।।
जैसा कुल होता है वैसा ही आचरण होता है।
ायः दे खा गया है क कुल क परंपरा के अनुसार ही लोग का आचार- वहार
होता है। जस वंश के धमपरायण और गुणी होते ह उस कुल का लौ कक वहार भी
उदारता से यु होता है। ऐसे कुल म ज मे और पालन-पोषण ा त बालक उदार ह गे। ।
462 ।
।। सं कृतः पचुम दो न सहकारो भव त ।।
नीम को कतना भी शु य न कया जाए वह आम नह बन सकता।
नीम के वृ को ध और गुड़ आ द से कतना भी अ धक स चा जाए, कतु उसक
वाभा वकता समा त नह हो सकती और उसे आम के फल जैसा मधुर नह बनाया जा
सकता। इस कार नीच मनु य को भी कतने ही उपदे श दए जाय, उसके लए नीचता का
याग करना अ य त क ठन होता है। । 463 ।
।। न चागतं सुखं प र यजेत् ।।
ा त होने वाले सुख को नह छोड़ना चा हए।
न त और अनुकूल वतमान को यागकर अ न त भ व य क आशा म पड़े रहना
उ चत नह । जो अवसर ा त हो उसे खोना नह चा हए। कसी बड़े सुअवसर क आशा म
हाथ म आए छोटे अनुकूल काय को छोड़ नह दे ना चा हए। कहा भी गया है ‘यो ुवा ण
प र य य अ ुवा ण नशेवते। ुवा ण त य न य त अ ुवं न मेव तत्।।’
अथात् जो हाथ म है उसका लाभ उठाना ही बु मानी है। । 464 ।

।। वयमेव ःखम धग छ त ।।
अपने कम के अनुसार ही मनु य को ःख मलता है।
मनु य जैसे काय करता है उसी के अनुसार उसे सुख और ख क ा त होती है।
वा तव म ःख मनु य ारा वे छा से वीकृत कया आ रोग है। उसे समझना चा हए क
यह उसके काय का ही फल है। । 465 ।

।। न रा चारणं कुयात् ।।
रात के समय थ नह घूमना चा हए।
य को तो इसके त अ य धक सावधान रहना चा हए। । 466 ।

।। न चाधरा ं वपेयात् ।।
आधी रात तक जागते नह रहना चा हए।
रा व ाम करने के लए बनाई गई है। च क सा- व ान के अनुसार इस समय
शरीर म ऐसी रासाय नक या होती है जो शरीर के व थ रहने के लए उपयोगी है।
इसी लए रात म समय पर सो जाना शारी रक और मान सक वा य क से लाभदायक
है। रा को केवल योगी जागते ह, जो भु क ाथना म लीन रहते ह।
सामा य जन को समय के अनुसार वहार करना चा हए और ब त रात बताकर
नह सोना चा हए। । 467 ।

।। त द्भः परी ेत ।।
मनु य को कस समय या काय करना चा हए, यह व ान् और अनुभवी कुल के
वृ पु ष से सीखना चा हए।
प रवार के वृ पु ष को अपने अनुभव ारा ब त-सी बात ात होती ह। इसी लए
प रवार के लोग को जीवन म आचरण के लए उनसे ब त कुछ सीखना चा हए। । 468 ।

।। परगृहमकारणतो न वशेत् ।।
बना कसी कारण कसी सरे के घर म नह जाना चा हए।
बना कारण कसी सरे के घर जाने से का अपमान होता है। इसका एक
अथ यह भी हो सकता है क कानूनी अ धकार ा त होने पर ही कसी सरे के घर म वेश
कया जा सकता है, वैसे नह । । 469 ।

।। ा वा प दोषमेव करो त लोकः ।।


मनु य जानबूझकर ही अपराध क ओर वृ होता है।
मनु य अपनी वाभा वक बु के अनु प कसी काय को बुरा समझते ए भी उस
काय क ओर आकृ होता है। मनु य असंयम के कारण ऐसा करता है। जन य म
संयम नह होता वे ाचारी बन जाते ह। । 470 ।

।। शा धाना लोकवृ ः ।।
लोक वहार शा के अनुकूल होना चा हए।
मनु य के वहार के संबंध म ायः सभी शा म बताया गया है, इसी लए मनु य
को अपने काय- ापार म अ य लोग क अपे ा वहार आ द क ेरणा शा से ही लेनी
चा हए। । 471 ।

।। शा ाभावे श ाचारमनुग छे त् ।।
य द मनु य को शा का ान न हो तो मनु य को अपना आचरण े पु ष के
अनुसार करना चा हए।
य द कसी को शा का ान नह , तो उसे जीवन म ब त-सी बात के लए
क ठनाई हो सकती है। इस क ठनाई को र करने का एक सरल उपाय यह है क उसे अपना
आचरण े पु ष के समान करना चा हए अथात् जैसा वे करते ह, उनका अनुगमन करना
चा हए। । 472 ।

।। नाच रता छा ं गरीयः ।।


कोई भी शा सदाचार से बढ़कर नह है।
अ छा आचरण शा से अ धक मा य है। सभी शा म सदाचरण क ही श ा द
गई है। सदाचार शा से भी बड़ा है। । 473 ।

।। र थम प चारच ुः प य त राजा ।।
राजा गु तचर ारा र क व तु को भी दे ख लेता है।
गु तचर राजा क आंख होते ह। वह दे श तथा वदे श म अपने रा य से संबं धत
अनेक बात को गु तचर ारा जान लेता है। । 474 ।

।। गतानुग तको लोकः ।।


साधारण मनु य परंपरा का अनुसरण करते ह।
इसे सरे श द म भेड़-चाल भी कहा जा सकता है। केवल बु मान मनु य ही
सोच- वचार कर हतकर माग का अनुसरण करते ह और अ हतकर माग याग दे ते ह। वे
कसी सरे को दे खकर आचरण नह करते। वे अपनी बु से वचार कर काय करते ह। ।
475 ।
।। यमनुजीवे ं नापवदे त् ।।
जसके ारा जी वकोपाजन होता है उसक नदा नह करनी चा हए।
मनु य को आजी वका दे ने वाले वामी क नदा नह करनी चा हए। ऐसा करने से
जी वका समा त हो सकती है। यह सम त संसार स म त, पु य काय, धम, जी वका आ द
के कारण एक- सरे से बंधे ए ह।
इसी कारण यह संसार न व न चलता रहता है। अतः आजी वका दे ने वाले वामी
क नदा न करके उसका स मान करना चा हए। । 476 ।

।। तपःसार इ य न हः ।।
इं य को वश म रखना ही तप का सार है।
वषयभोग से संबंध रखने वाले एकांत वन म भी अपनी इं य को वश म
नह रख सकते। जो अपने घर म रहता आ भी इं य को वश म रखता आ अपना
काय करता है, वह तप पूण जीवन ही बता रहा होता है। । 477 ।

।। लभः ीब धना मो ः ।।
ी के बंधन से छू टना बड़ा क ठन काय है।
ी से भोग वलास संबंधी वचार आने पर मनु य असाधारण मनोबल से ही बच
सकता है। परंतु य द ी चाहे तो उसके तप को भंग भी कर सकती है। य द कोई तप वी भी
इं य पर वजय ा त नह कर सकता तो उसक तप या थ होती है। को य
के मोह म नह पड़ना चा हए। । 478 ।

।। ीणां सवाशुभानां े म् ।।
ी सभी संकट को ज म दे ने वाली होती है।
इ तहास म ऐसी अनेक घटनाएं इस बात का माण ह क य के कारण मनु य
समाज को भारी हा न उठानी पड़ी। रामायण, महाभारत, पृ वीराज और संयो गता क
कहा नयां इस बात का माण ह।
इसी लए रा को चा हए क ी जा त के संबंध म अपने कत के त पूण सचेत
रहे। ी को केवल भोग वलास का साधन मानने से भी अनेक हा नकारक प रणाम भुगतने
पड़ते ह। । 479 ।

।। अशुभ े षणः ीषु न स ाः ( स ः) ।।


अशुभ काय को न चाहने वाले लोग य म आस नह हो सकते।
समाज के हत म अपना हत समझने वाले लोग य के अ धक संपक म नह
आते। समाज का क याण चाहने वाले लोग को य म आस न होकर उनके साथ
केवल क का संबंध रखना चा हए। य म अ धक आस मनु य को पतन क चरम
सीमा तक प ंचा सकती है। । 480 ।

।। य फल ा वेद वदः ।।
ऋक्, यजु, साम आ द तीन वेद को जानने वाला ही य के फल को जानता है।
य फल से मनु य भु के संबंध म ान ा त करता है अथवा उसे अपने संबंध म
पूण ान क ा त होती है। अथात् वह अपने वा त वक व प को य के कारण समझ
पाता है। । 481 ।

।। वग थानं न शा तम् (याव पु यफलम्) ।।


वग क ा त थायी नह होती। उसक अव ध तब तक होती है जब तक पु य का
फल शेष रहता है।
मनु य वग म तभी तक वास करता है जब तक उसके पु य बचे रहते ह। इससे यह
कट है क मनु य के जीवन म सुख अ थायी होते ह। सुख और ःख मनु य को उसके
कम के अनुसार ही ा त होते ह। । 482 ।

।। याव पु यफलं तावदे व वगफलम् ।।


जब तक पु य का फल शेष रहता है तब तक मनु य वग पी फल अथात् सुख का
भोग करता है। । 483 ।

।। न च वगपतनात् परं ःखम् ।।


भौ तक सुख के नाश से बढ़कर साधारण मानव के लए सरा कोई ःख नह ।
जब मनु य के भौ तक सुख समा त हो जाते ह तो उसके ख क सीमा नह रहती।
परंतु यह सब उसके कम के कारण ही होता है। इसके साथ मनु य को सामा य जीवन
बताते ए अ धक सुख क आशा म भी नह पड़ना चा हए, जससे सुख क समा त पर
उसका जीवन भर न हो जाए। । 484 ।

।। दे ही दे हं य वा ऐ पदं न वांछ त ।।
ाणी को दे ह से इतना लगाव होता है क वह दे ह छोड़कर इं का पद भी नह
भोगना चाहता।
भावाथ यह है क मनु य अपने जीवन के वतमान काल म ही सुख क इ छा करता
है य क उसक आस अपनी दे ह म होती है। वह अपनी दे ह को छोड़कर इं -आसन
ा त करने क इ छा नह रखता। मरने के बाद सुख क इ छा का प नक होती है। । 485

।। ःखानामौषधं नवाणम् ।।
सम त ख क औष ध मो है।
मनु य जब तक मन क इ छा के बंधन म पड़ा रहता है तब तक ःख का
अनुभव होता है। मन के बंधन से पूणतः मु होना ही ःख से छु टकारा पाना है। अथात्
मनु य जब मो ा त कर लेता है, तब उसके ख वयं समा त हो जाते ह। । 486 ।

।। अनायसंब धा मायश ुता ।।


मनु य क म ता क अपे ा स जन क श ुता अ छ है।
आनाय अथात् वचार वाले राचारी, मायावी, कपट क म ता क
अपे ा ववेक-संप सदाचारी का श ु होना अ धक अ छा है। । 487 ।
।। नह त वचनं कुलम् ।।
वचन से सारे कुल का नाश हो जाता है।
कठोर वचन बोलने वाला कुल को कलं कत कर दे ता है जब क अ छ
मधुरवाणी उ च कुल के होने का माण दे ती है। मुख से वाणी नकलते ही सबसे पहले
बोलनेवाले के कुल क मयादा का पता चलता है क वह कैसे कुल म पैदा आ। इसी लए
को अपने कुल के गौरव के लए अ छ और मधुर भाषा का योग करना चा हए।
अ छे कुल का य द कुवाणी बोलता है तो यह उसके कुल के पतन का कारण होता है।
। 488 ।
।। न पु सं पशात् परं सुखम् ।।
पु सुख से बढ़कर सरा कोई सुख नह ।
पु -लाभ को सांसा रक सुख म सबसे अ छा माना गया है। संभवतः वधाता ने इस
सृ क परंपरा को चलाने के लए ही माता- पता के मन म पु -मोह पैदा कया। य द माता-
पता को पु से इस कार का मोह न होता तो संभवतः सृ क परंपरा का चलना असंभव
हो जाता। । 489 ।

।। ववादे धममनु मरेत् ।।


ववाद के समय धम के अनुसार काय करना चा हए।
चाण य का कहना है क आपसी लड़ाई-झगड़े अथवा कलह के समय धम का यान
रखना चा हए। धम को भूलना नह चा हए। लड़ाई-झगड़े के समय भी जो धम को
याद रखते ह, वे भयंकर पाप करने से बच जाते ह। य क लड़ाई-झगड़े के समय मनु य
ोध म आकर कुछ भी कर सकता है जसके कारण बाद म उसे आयु भर पछताना पड़ता
है। । 490 ।

।। नशा ते काय च तयेत् ।।


मनु य को न य ातःकाल दन के काय के संबंध म वचार करना चा हए।
ातःकाल जब मनु य सोकर उठता है तो उसे इस बात पर वचार करना चा हए क
दन भर का काय म या है। इस बात पर वचार करने से काय के संबंध म वधा समा त
हो जाती है और उसका सारा दन न त काय म के अनुसार चलता रहता है। । 491 ।

।। उप थत वनाशो नयं म यते ।।


जसका वनाशकाल नकट होता है वह अनी त करने पर उता हो जाता है।
जस मनु य के बुरे दन आते ह, वह अनी त पूण काय करने लगता है। अनी त पूण
काय से वयं ही उसका वनाश हो जाता है। । 492 ।

।। ीरा थनः क क र या ।।
ध क इ छा रखने वाले को ह थनी पालने क आव यकता नह होती।
ध ा त करने के लए कोई ह थनी को नह पालता अथात् थ के कम याग
करने के यो य होते ह। मनु य को जस व तु क आव यकता हो, उसी के अनु प काय
करना चा हए। इसका अथ यह भी है क मनु य को केवल उपयोगी का ही संचय करना
चा हए। थ क चीज बटोरने म अपनी श न नह करनी चा हए। । 493 ।

।। न दानसमं व यम् ।।
दान जैसा कोई वशीकरण मं नह ।
सदाचारी धनी लोग अपने धन का स पयोग समाज के क याण के लए करते ह।
समाज के क याण के साथ-साथ उनके यश म भी वृ होती है। जन लोग को उनके दान
से लाभ होता है, वे सदै व ही उनके नाम से भा वत रहते ह। उनका दान वशीकरण मं के
समान स होता है। । 494 ।

।। पराय ेषू क ठां न कुयात् ।।


पराई व तु को ा त करने क इ छा नह करनी चा हए।
साधु-संत का कहना है क सरे के धन को मट् ट के समान समझना चा हए।
अथात् जो पदाथ सर के पास है, उसे पाने के लए उतावला नह होना चा हए। उसे पाने के
लए अपनी श भी नह लगानी चा हए। उतावलापन श क हीनता का ोतक है। सरे
के अ धकार म चली गई अपनी व तु क ा त के लए भी धैयपूवक य न करना चा हए।
। 495 ।
।। अस समृ रस ररेव भु यते ।।
जन क समृ का उपभोग जन लोग ही करते ह।
लोग जो स प अथवा धन, दौलत इकट् ठा करते ह, उसका उपयोग बुरे काम
के लए होता है। । 496 ।

।। न बफलं काकैभु यते ।।


नीम के फल को कौए ही खाते ह।
जस कार नीम का कड़वा फल कौए जैसे प य के काम ही आता है, इसी कार
अ श उपाय से इकट् ठा कया आ धन च र हीन लोग के न दत काय के ही योग म
आता है। इसी लए मनु य का क है क उ चत उपाय से धन का सं ह करे जससे
उनक उ त हो। । 497 ।

।। ना भो ध तृ णामपोह त ।।
समु के खारे पानी से यास नह बुझती।
पाप क कमाई से कमाया आ धन कसी को संतु नह कर सकता। उसका अ छे
काम म उपयोग भी असंभव ही होता है। नकृ उपाय से सं ह कया आ धन अंत म
मनु य के अपने वनाश का कारण बनता है। । 498 ।

।। बालुका अ प वगुणमा य ते ।।
जस कार बालू या रेत अपने खे और कठोर वभाव को नह छोड़ पाता, इसी
कार मनु य भी अपना वभाव नह छोड़ते।
नीच अपने वभाव के कारण नीच उपाय से ही धन का सं ह करता है और उसका
उपयोग उसके अपने वभाव के कारण ही समाज-क याण के काय म नह होता। उसका
उपयोग बुरे काय के लए ही होता है। । 499 ।

।। स तोऽस सु न रम ते ।।
स जन लोग जन म रहकर आनंद (चैन) अनुभव नह करते।
मनु य समाज म रहने वाला ाणी है, परंतु वह अपने जैसे वचार वाले लोग म ही
रहता है। अं ेजी क एक कहावत है क एक जैसे प ी ही इकट् ठे उड़ते ह, इसी कार भ
मनु य भी भ लोग के साथ रहना चाहते ह।
इसका कारण यह भी है क मनु य जैसे लोग म रहता है, उसका वभाव भी वैसा
बन जाता है। वपरीत वभाव के लोग आपस म ेम से मलकर न कोई समाज-क याण का
काय कर सकते ह और न उ त कर सकते ह। । 500 ।

।। न हंसाः ेतवने रम ते ।।
हंस नामक प ी मशान म रहना पसंद नह करते।
जस कार हंस मशान म नह रहते, उसी कार यो य अयो य के
पास बैठना पसंद नह करते। गुणी एका त म अ ात जीवन बता दे ना तो वीकार कर
लेते ह, परंतु बुरी संग त म रहना कभी वीकार नह करते। । 501 ।

।। अथाथ वतते लोकः ।।


सारा संसार धन के पीछे दौड़ता है अथात् धन के पीछे नया पागल है। । 502 ।

।। आशया ब यते लोकः ।।


सभी सांसा रक ाणी आशा के ब धन से बंधे ए ह।
अ ववेकशील मनु य क के बंधन म नह ब क आशा के ब धन म बंधकर काम
करता है। केवल आशा के कारण काय करने से उसक इ छा पूण नह होती और उसका धैय
न होने लगता है। वतमान का सही उपयोग न करके भ व य क आशा पर रहना मन क
हा नकारक दशा है। भावाथ यह है क मनु य को केवल आशा पर ही नभर न रहकर क
का पालन करना चा हए। । 503 ।

।। न चाशापरैः ीः सह त त ।।
केवल आशा म लगे पु ष को ल मी नह मलती।
केवल आशा के उतार-चढ़ाव म रहने वाला ीहीन रहता है। जो क क
उपे ा करके केवल आशा के बंधन म बंधे रहते ह उ ह नराशा के अ त र कुछ ा त नह
होता। मनु य को चा हए क वह सदै व उ साह से स रहता आ क का पालन करे।
इसी से धन क ा त होती है। । 504 ।

।। आशापरे न धैयम् ।।
आशावान् मनु य धैयशाली नह होता।
केवल आशा का दास बना मनु य अपना धैय खो बैठता है। उसम थर बु नह
रहती। । 505 ।

।। दै या मरणमु मम् ।।
द र होकर जी वत रहने क अपे ा मर जाना अ छा है।
जो मनु य अपने को द नहीन, नक मा और असहाय समझ लेता है, वह जीते ए
भी मरे के समान है। द नता र हत जीवन बताना मनु य क साथकता है। अपने आपको
द नहीन समझकर उ साहहीन होना मृ यु के समान है। । 506 ।
।। आशा ल जां पोह त ।।
आशा के दास नल ज होते ह।
आशा अथात् वषय-लोलुपता के कारण मनु य क ल जा न हो जाती है। इसके
कारण वह अनु चत काय करने लगता है और श ाचार को छोड़ दे ता है अथात् आशा मनु य
को नल ज बना दे ती है। । 507 ।

।। आ मा न तोत ः ।।
अपने मुख से अपनी शंसा नह करनी चा हए।
अपनी शंसा के थान पर ऐसे आचरण क आव यकता है जससे क वयं
शंसा हो। जो ोता के सामने अपनी शंसा करता है, लोग उसे सुनकर ं य से
मु कराते ह। स जन आ म शंसा से र रहते ह। । 508 ।

।। न दवा व ं कुयात् ।।
दन म सोना नह चा हए।
दन म सोने से काय क हा न होती है और शरीर म अपच, वायु- वकार आ द दोष
उ प हो जाते ह। दन म केवल अ व य अथवा बालक को सोना चा हए। । 509

।। आयुः यी दवा न ा ।।
दन म सोने से आयु कम होती है।
इसका कारण यह है क जब मनु य सोता है तो उसक सांस तेजी से चलने लगती है
अथात् जागते समय वह जतनी भी सांस लेता है, सोते समय उनक सं या म वृ हो जाती
है। येक मनु य क सांस न त ह। इसी लए दन म सोना आयु-नाशक होता है। । 510

।। न चास म प प य यै या धः न शृणोती म् ।।
अपने धन के नशे म अंधा न तो अपने पास कसी व तु को दे खता है और न
ही हतकारी बात सुनता है।
मनु य के पास धन होना और धन के कारण अ भमान होना दोन बात म अंतर है।
जस को अपने धन का अ भमान है उसे अपने हत-अ हत का कोई यान नह रहता।
वह अपने लए उ चत बात क भी उपे ा करता है। बहारी ने कहा है क सोने का नशा
धतूरे के नशे से भी अ धक मनु य का मान सक संतुलन बगाड़ने वाला है। । 511 ।

।। ीणां न भतुः परं दै वतम् ।।


े ी के लए प त से बढ़कर और कोई दे वता नह है। । 512 ।

।। तदनुवतनमु भयसौ यम् ।।


प त क इ छा के अनुसार चलने वाली ी को इहलोक और परलोक दोन का सुख
ा त होता है। । 513 ।

।। अ त थम यागतं पूजये था व धः ।।
अपने घर म आए अ त थ का व धपूवक वागत करना चा हए।
गृह थ का क है क अक मात् आने वाले अ त थ और समय न त करके
आने वाले अ यागत दोन का यथो चत वागत-स कार करना चा हए। । 514 ।

।। न यं सं वभागी यात् ।।
अपने उपा जत धन म से दान को भी दै नक क मानना चा हए।
दान क म हमा का अनेक थान पर वणन कया गया है। दान दे ने से धन नह
घटता। इसी लए येक का क है क वह जो कुछ उपा जत करता है, उसम से
कुछ-न-कुछ ऐसे लोग को दे ना चा हए ज ह उसक आव यकता होती है। । 515 ।

।। ना त ह य ाघातः ।।
दे वता को नय मत दया गया कभी भी न नह होता। अथात् यो य पा को
दया गया दान कभी भी थ नह जाता।
समाज के यो य य क सहायता करना भी समाज क सेवा है। जो
समाज-क याण म अपना मन लगाते ह, वे अ य प से अपना ही क याण करते ह। ।
516 ।
।। श ुर प माद लोभात् ।।
लोभ दे कर श ु को भी उसके ल य (श ुता) से कया जा सकता है।
श ु को हराने का लोभ भी एक उपाय है। श ु को कसी भी कार के लोभ म
डालकर उसे अपने ल य म कया जा सकता है, य क लोभ मनु य को नबल बना
दे ता है। । 517 ।

।। श ु म वत् तभा त ।।
बु ंश श ु भी कभी-कभी म के समान दखाई दे ता है।
श ु म के समान तभी दखाई दे ता है जब लोभ के कारण उसक बु हो
जाती है। लोभ म पड़ने पर वह अपने श ु को भी अपना हत करने वाला म तीत होने
लगता है। । 518 ।

।। मृगतृ णा जलवद् भा त ।।
तृ णा के कारण मृग चमकती ई बालू को जल समझ बैठता है।
जसने अपनी इ य को वश म नह कया, वही ठगा जाता है। मृगतृ णा उसे कहते
ह जसम चमकती ई रेत भी जल के समान दखाई दे ती है और हरण उधर भागता है परंतु
उसे जल नह मलता।
इसी कार धूत लोग चकनी-चुपड़ी बात बनाकर लोग को अपने लालच म फंसा
लेते ह। बु म ा इसी म है क मनु य धूत लोग के बहकावे म न आए। । 519 ।

।। उपाल भो ना य णयेषु ।।
वनयर हत को उलाहना दे ने से कोई लाभ नह होता।
अथात् उद्दं ड मनु य को कठोर दं ड ारा ही सही माग पर लाया जा सकता है। ।
520।

।। मध सामस छा ं मोहय त ।।
बु हीन मनु य को नकृ सा ह य बना दे ता है अथात् सा ह य उनके मन
को मोह लेता है और वे माग पर चलना ारंभ कर दे ते ह। । 521 ।

।। स संगः वगवासः ।।
स संग ही वग म रहने के समान है।
क से भरे इस संसार म संत का समागम एक शीतल झरने के पास बैठने के
समान है। स संग से मनु य को शा त ा त होती है और वह धीरे-धीरे बुराई का माग
छोड़कर भलाई क ओर चलता है। । 522 ।

।। आयः व मव परं म यते ।।


े सबको अपने समान ही समझता है।
आय अथवा े उदार वभाव के होते ह। वे सर के साथ उसी कार का
वहार करते ह जैसा वे सर से अपने साथ बताव क आशा रखते ह। । 523 ।

।। पानुवत गुणः ।।
प के अनुसार ही मनु य म गुण होते ह।
गुण का मनु य के दय से संबंध होता है। उसके मन म जैसे वचार होते ह, वे
उसके मुख पर प झलकते रहते ह। इसी लए कहा गया है क मनु य का जैसा प होता है
वैसा ही गुण होता है।
ायः मनु य के प से ही उसके भीतर के शौय, धैय, शां त, संयम आ द गुण
हो जाते ह। पु ष को भांपने म पारंगत लोग मनु य को दे खते ही उसके गुण को भांप लेते
ह। । 524 ।

।। य सुखेन वतते तदे व थानम् ।।


जहां मनु य सुख से रह सके, उसके लए वही उ म थान है। । 525 ।

।। व ासघा तनो न न कृ तः ।।
व ासघाती मनु य का उ ार करने के लए कोई ाय त नह ।
इस संसार म मनु य एक- सरे के व ास पर जीता है। जहां व ास समा त हो
जाता है वहां जीवन भर हो जाता है। म ता का संबंध भी व ास पर आधा रत है। जो
मनु य व ासघात करता है, उसको इस पाप से कसी ाय त ारा न नह कया जा
सकता। । 526 ।

।। दै वाय ं न शोचेत् ।।
जो बात दे व के अधीन है, उसके संबंध म चता अथवा सोच- वचार नह करना
चा हए।
मनु य के साथ त दन ऐसी घटनाएं होती ह जन पर उसका कोई वश नह होता।
परंतु वह यह जानते ए भी उनके संबंध म चता करता रहता है। अनेक बार मनु य कसी
काय को करने के लए स चे मन से य न करता है परंतु उसम सफलता ा त नह होती।
ऐसी थ त म मनु य को दै व के अधीन समझकर चता नह करनी चा हए। । 527 ।

।। आ त ःखमा मन इव म यते साधुः ।।


स जन आ त के ःख को अपना ःख समझते ह।
स जन पु ष अपने आ त पर आये कसी ःख को दे खकर गत प से उस
ःख को र करने का य न करते ह। आ त पु ष के ःख को अपना ःख मानना
स जन पु ष क स जनता अथवा महानता है। । 528 ।

।। द्गतमा छा ा य द यनायः ।।
मन क वा त वक बात को छपाकर बनावट बात करने वाला अनाय अथात्
होता है।
धोखा दे ने वाले लोग मन क ता को छपाए रखते है और केवल वाणी से
मीठ -मीठ बात करते रहते ह। कई बार उनक मीठ बात से स जन पु ष धोखे म पड़
जाते ह। लोग क इस कार क वाणी पर व ास नह करना चा हए। जो व ास
करता है वह हा न उठाता है। । 529 ।

।। बु हीनः पशाचादन यः ।।
बु हीन अथात् मूख मनु य पशाच के समान होता है।
बु हीन घृणा का पा होता है। उसी बु हीन आचरण के कारण उसक
नीचता का दशन होता रहता है। बु मान मनु य अपने हत को यान म रखकर नीच
य को याग दे ता है परंतु बु हीन से यह सब कुछ संभव नह । इसी लए
बु हीन का समाज म कोई स मान नह होता। । 530 ।

।। असहायः प थ न ग छे त् ।।
सारथी के बना या ा नह करनी चा हए।
मनु य को कसी या ा म जाते समय आ मर ा के साधन साथ म लेकर चलना
चा हए। उसे अपनी सहायता के लए या तो अपने पास वैध श रखने चा हए अथवा अपने
सहायक के साथ या ा करनी चा हए। । 531 ।

।। पु ो न तोत ः ।।
अपने पु क शंसा नह करनी चा हए।
जस कार अपनी शंसा करना उ चत नह , उसी कार गुणी पु क शंसा करना
भी पता के लए उ चत नह । पता का कत है क अपने पु को उ सा हत करे परंतु पु
के गुण का उ लेख समाज म नह करना चा हए। यह काय भी आ म- शंसा जैसा ही है जो
उपहास का पा बना दे ता है। । 532 ।

।। वामी तोत ोऽनुजी व भः ।।


सेवक लोग को चा हए क वे अपने वामी का गुणगान करते रह। । 533 ।

।। धमकृ ये व प वा मन एव घोषयेत् ।।
रा य के अ धका रय का क है क राजा क आ ा से लोग के हत के लए
कए गए काय को अपना न बताकर अपने वामी अथवा रा य-सं था ारा कया गया
बताय। उनका कत है क रा य म कए गये अ छे काय के लए अपने आप को
अ धकारी न मान। । 534 ।

।। राजा ां ना तलंघयेत् ।।
राजा क आ ा का कभी उ लंघन नह करना चा हए। । 535 ।

।। वा यनु ही धमकृ यं भृ यानाम् ।।


अपने क पालन से वामी का अनु ह ा त करना सेवक का धम है। । 536।

।। यथाऽऽ तं तथा कुयात् ।।


राजा अथवा वामी क जैसी आ ा हो उसके अनुसार ही काय करना चा हए। ।
537 ।
।। स वशेषं वा कुयात् ।।
वशेष क को बना पूछे तुरंत कर लेना चा हए।
रा य के े कमचा रय का कत है क जनता के हत के काय म दे री न कर।
दे री करने से जनता को तो हा न होती ही है, साथ ही रा क उ त भी कती है। बु मान
राजकमचारी अपनी यो यता के अनुसार शंसनीय काय करके रा य का स मान ा त कर
सकते ह। । 538 ।
।। वा मनो भी ः वोपयु यते ।।
रा य सेवा म डरपोक और अकम य लोग का कोई उपयोग नह होता। । 539 ।

।। ना यनाय य कृपा ।।
से कसी कार क भलाई क आशा नह रखनी चा हए। । 540 ।

।। ना त बु मतां श ुः ।।
बु मान लोग के श ु नह होते।
बु मान लोग यह बात समझते ह क मनु य अपना ही सबसे बड़ा श ु और अपना
ही सबसे बड़ा म होता है। ऐसा उनके वचार के कारण ही माना जाता है। । 541 ।

।। श ुं न न दे त् सभायाम् ।।
सभा अथवा समाज म श ु क नदा नह करनी चा हए।
बु मान लोग सभा, गो ी आ द म श ु क नदा नह करते। वे गत प से
उनको अपमा नत होने पर ववश करते ह। इस कार अपमा नत होने पर वह श ुता रखने
का वचार छोड़ दे ता है।
परंतु समाज म न दत होने पर वह उसका तकार करने के लए पहले से अ धक
श ुता रखने लगता है। । 542 ।

।। आ म छ ं न काशयेत् ।।
अपनी कसी कमजोरी को उजागर न होने द।
ायः सभी जानते ह क येक मनु य म कमजो रयां होती ह परंतु उन कमजो रय
को श ु पर कट नह होने दे ना चा हए, उ ह र रखने का यास करना चा हए। । 543 ।

।। श ौ मा ाघनीया ।।
अपनी श का दशन करने के थान पर मा का दशन करना शंसनीय काय
है।
मा करना श वान् को ही शोभा दे ता है, नबल को नह । साम य होने पर भी जो
कसी पर दया दखाता है उसक ही शंसा होती है। । 544 ।
।। मावानेव सव साधय त ।।
माशील मनु य अपने सब काय स कर लेता है।
माशील मनु य म इतनी श होती है क वह अपमान करने वाले क अवहेलना
कर सकता है। धन-जन क हा न करने वाले को भी सहन कर सकता है। इस कार वह
अपने माग म आने वाली क ठनाइय क ओर यान न दे कर अपने काय म लगा रहता है।
वह न त प से अपने सब काय पूण कर लेता है। । 545 ।

।। आपदथ धनं र ेत् ।।


आपातकाल के लए धन क र ा करनी चा हए।
मनु य को कसी भी समय कोई आप अथवा क झेलना पड़ सकता है, परंतु सब
क का नवारण धन से ही होता है। इसी लए मनु य को चा हए क वह अपनी आय म से
थोड़े धन क बचत करे। । 546 ।

।। साहसवतां यं कत म् ।।
साहसी पु ष को अपना क य होता है।
साहसी पु ष केवल अपने क क ओर यान दे ते ह। वे अस य का सदै व वरोध
करते ह। अस य का सहारा लेने वाला कभी व सनीय नह हो सकता। अस य को
स य से ही परा त कया जा सकता है। । 547 ।

।। ः कायम कुव त ।।
जो काय कल करना है, उसे आज ही कर लेना चा हए।
‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब’, वाली बात से सभी प र चत ह।
इसी लए जो आव यक कत है उनके त टालमटोल नह करनी चा हए। । 548 ।

।। अपरा कं पूवाह्णा एवं कत म् ।।


म या ो र का काम दन के थम भाग म ही कर लेना चा हए।
अपने क को अगले ण के लए भी न टालकर उसी समय करना चा हए। ।
549 ।
।। वहारानुलोमो धमः ।।
धम ावहा रक होना चा हए। । 550 ।

।। सव ता लोक ता ।।
अपनी बु से लोक च र को समझना सव ता कहलाती है।
लोग के वभाव को समझ लेना ही सव ता है। बु मान लोग अपने बु बल से
घर बैठे ही संसार क सम या को समझ लेते ह। अपनी बु से स य और अस य म भेद
करते ए अपना काम भली कार स कर लेते ह। । 557 ।

।। शा ोऽ यलोक ो मूखतु यः ।।
शा को जानने वाला होने पर भी जो मनु य लोक- वहार को नह पहचान
सकता, वह पढ़ा- लखा होने पर भी मूख के समान है।
जो मनु य लोक-च र को नह समझ सकता, उसके संबंध म यही कहा जा सकता
है क वह शा को पूण प से न जानने के कारण मूख के समान है। शा - ान से मनु य
म चातुय आता है और वह मनु य को समझने म सफल भी होता है। । 552 ।

।। शा योजनं त वदशनम् ।।
यथाथ ान क ा त ही शा - ान का योजन है।
त वदशन अथात् लौ कक-अलौ कक पदाथ के यथाथ या रह य का पूण प रचय
ा त हो जाना या करा दे ना ही शा क उपयो गता है। शा से मनु य अ छे -बुरे का ान
ा त कर अपने जीवन म आने वाली क ठनाइय को सु वधापूवक हटा सकता है। । 553 ।

।। त व ानं कायमेव काशय त ।।


काय से ही यथाथ ान क ा त होती है।
अ छे वचार क श क पी काय को अपने ान क यो त से का शत
कर दे ती है। क को ढ़ बनाने म त व ान सराहनीय सहयोग करता है। भावाथ यही है
क त व ान ारा ही कए गये काय सफल होते है। । 554 ।

।। वहारे प पातो न कायः ।।


याय- वहार म प पात नह करना चा हए। । 555 ।

।। धमाद प वहारो गरीयान् ।।


वहार धम से भी बड़ा होता है।
वहार को धम का एक अंग माना जाता है। वहार के बना धम का सार नह
हो सकता। जस धम म वहार को मुखता द जाती है, उसी धम के लोग संसार म मु य
माने जाते ह। । 556 ।

।। आ मा ह वहार य सा ी ।।
आ मा ही वहार क सा ी है।
य द मनु य के मन म कोई पाप नह है तो वह वहार-कुशल माना जाता है। य द
मनु य के मन म पाप है तो वह वहार-कुशल नह हो सकता। समाज म उससे घृणा क
जाती है। प है क आ मा ही वहार का सा ी होता है। इसी लए आ मा का व छ होना
अ त-आव यक है। । 557 ।

।। सवसा ी ा मा ।।
सम त ा णय म आ मा सा ी प म व मान रहती है।
स य व प आ मा इस सकल जगत् के या इस मानव के जीवन ापी सम त च र
को या तो स य होने का माणप दे कर साधुवाद दे ने या अस य मा णत करके ध कारने
के लए मानव- दय म सा ी अथात् तट थ ा बनकर बैठा है। । 558 ।

।। न यात् कूटसा ी ।।
मनु य को कपट का समथक सा ी नह होना चा हए।
मनु य को अपने जीवन का एक स ांत यह बनाना चा हए क वह झूठ का कभी
समथन नह करेगा। मनु य को सदै व स य पर ढ़ रहकर स य का ही समथन करना चा हए।
। 559 ।
।। कूटसा णो नरके पत त ।।
झूठ का समथन करने वाले लोग सा ी नरक म जाते ह।
अ ानी लोग ही झूठ बात को सच बनाने के लए गवाही दे ने का काम करते ह। इस
कार झूठ को सच बनाने वाले लोग जो लाभ उठाते ह वह उनके लए कलंक के समान
होता है और वे सदै व ख पी नरक म पड़े रहते ह। । 560 ।

।। न ाशय त समु र त वा ।।
कसी के व या उसके प म सा ी दे ने वाला कसी अ य का न तो
उ ार करता है और न नाश करता है।
कसी के प म अथवा उसके व गवाही दे ने वाला कसी भी कार से दोन
प के लए लाभदायक या हा न द नह होता। यह भु क कृपा पर नभर रहता है क
कसका क याण होगा अथवा कसका वनाश। । 561 ।

।। छ पापानां सा णो महाभूता न ।।
छपकर कये गये पाप के सा ी पंचमहाभूत पृ वी, जल, तेज, वायु और आकाश
होते ह।
छपकर कया गया पाप भी छपा नह रहता। पाप के कट होने का कारण पापी
क आ मा होती है, जसके कारण उसका पाप उसके मुख अथवा काय से कट हो जाता
है। अतः मनु य को पापी क बजाय पाप से डरना चा हए। । 562 ।

।। आ मनः पापमा मैव काशय त ।।


पापी अपने पाप को अपने आप ही कट करता है।
पाप करनेवाले के मन म सदै व अशां त बनी रहती है। उसका मन उसे बेचैन कए
रहता है, जसके कारण वह अपने पाप को कट करने के लए ववश हो जाता है। परंतु यह
थ त तब होती है जब मनु य मृ यु के ार पर खड़ा होता है। अतः मनु य को चा हए क
वह पाप से बचता रहे। । 563 ।

।। वहारेऽ तगतमाकारः सूचय त ।।


के मन म या है, यह उसके चेहरे से कट होता है। । 564 ।

।। आकारसंवरणं दे वानामश यम् ।।


मनु य के मन के भाव को कट करने वाली आकृ त को दे वता भी छपाने म
असमथ रहते ह।
मनु य के मन के भाव उसके चेहरे पर कट हो जाते ह। साधारण मनु य तो या
दे वता भी उ ह छपाने म असमथ रहते ह। मनु य क आकृ त का संबंध मन के भाव से इस
कार जुड़ा आ है क उसे कसी भी कार से छपाकर नह रखा जा सकता। मन के भाव
मुख पर अपने आप कट हो ही जाते ह। । 565 ।

।। चोरराजपु षे यो व ं र ेत् ।।
राजा को चोर और रा य कमचा रय से रा के धन क र ा करनी चा हए।
राजा का क है क वह ऐसे नयम बनाये क जससे चोर और रा य के
अ धकारी जनता के धन का हरण न कर सक। जा राजा पर व ास करती है और उसे
अपना वामी समझती है। य द वह जा क संप क र ा नह कर सकता तो वह राजा
को भी मान लेती है। । 566 ।

।। दशना ह राजानः जा नाशय त ।।


जो राजा जा को दशन नह दे ता, अथात् उनके ःख-सुख म शरीक नह होता, ऐसे
राजा को न करनेवाले अनेक उ प हो जाते ह।
राजा ारा जा को दशन दे ने का भाव उनके क को सुनना और उनक थ त
जानने से है। जो राजा जा से मलता रहता है और उसक उ त के लए काय करता है,
जा उससे ेम करती है। राजा का क यह है क वह जा से मलता रहे। । 567 ।

।। सुदशना ह राजानः जा रंजय त ।।


जो राजा बराबर जा के सुख- ःख को सुनते ह, उनसे जा स रहती है।
राजा क लोक यता तभी बढ़ती है जब वह अपने जाजन से मलकर उनके क
र करने का य न करता है। राजा को चा हए क जा से घ न संबंध बनाए रखने के लए
उससे मलता रहे। । 568 ।

।। याययु ं राजानं मातरं म य ते जाः ।।


यायपरायण राजा को जा माता के समान मानती है।
जस कार माता अपनी संतान से एक जैसा वहार करती है, उसी कार याय
करने वाले राजा को भी जा अपनी माता के समान मानती है। । 569 ।

।। ता शः स राजा इह सुखं ततः वगमा ो त ।।


जा- य राजा लौ कक और पारलौ कक वग को ा त करता है।
जा का पालन करना राजा का धम है। जा के साथ याय करनेवाले तथा
धमपूवक शासन करनेवाले राजा को इस संसार म ही सुख ा त होता है और जा क
आशीष के कारण वग-सुख ा त करता है। । 570 ।

।। चोरां क टकां सततं वनाशयेत् ।।


राजा का क है क वह चोर , और राज काय म बाधा प ंचाने वाल को
समा त करता रहे। जा क र ा के लए राजा का क है क वह लोग को लूटनेवाले
और रा य के काम म बाधा खड़ी करने वाल को न कर दे । । 571 ।

।। अ हसाल णो धमः ।।
अ हसा ही धम का ल ण है।
धम का चार अ हसा से ही होता है। हसा से उसके माग म कावट पैदा होती ह।
अ हसा ेम का तीक है अथात् अ हसा को धम का तीक मानना चा हए। । 572 ।

।। वशरीरम प परशरीरं म यते साधुः ।।


स जन पु ष पराये शरीर को अपना ही मानते ह।
जो मनु य सरे के ःख को अपना ःख मानता है, उसी को स जन पु ष कहा जा
सकता है। सर के ःख म काम आना स पु ष का ल ण है। । 573 ।

।। वशरीर मव परशरीरं म यते साधुः ।।


स जन पु ष सरे के शरीर को भी अपने शरीर जैसा मानते ह।
अथात् वे सर के क को भी अपना क समझकर उ ह र करने का य न करते
ह। उ दोन सू म समानता है। । 574 ।

।। सव मा यं ंशय त बा लशः ।।
मूख और नीच कसी सरे को मह व दया जाना पसंद नह करते। । 575।

।। मांस भ णमयु ं सवषाम् ।।


मांस खाना उ चत आहार नह ।
मनु य के लए मांस खाना इसी लए उ चत नह य क उसके शरीर क रचना
हसक पशु के शरीर क रचना से भ है। वैसे मांस खाने का चलन सृ के ारंभ से
चला आ रहा है, परंतु है अनु चत। । 576 ।

।। न संसारभयं ानवताम् ।।
ानी पु ष को संसार म कसी कार का भय नह होता। । 577 ।
।। व ानद पेन संसारभयं नवतते ।।
ान पी व ान के द पक से संसार के भय भाग जाते ह।
ान पी द पक के काश के कारण ानी मनु य पाप पी अ ान म नह फंसते।
ान के काश से ानी भयमु रहते ह। । 578 ।

।। सवम न यं भव त ।।
इस संसार के स पूण भौ तक सुख और उन सुख को ा त करने के साधन सभी
अ न य ह। वे समय आने पर न हो जाते ह केवल मनु य क आ मा ही अमर रहती है। ।
579 ।
।। वदे हे दे हनां म तमहती ।।
दे हधा रय ारा अपने शरीर के त अ य धक आस होती है।
दे ह म आस मनु य का अ ान है य क दे ह न होनेवाली व तु है, अजर और
अमर तो आ मा है। इस लए पंचभूत से बने इस शरीर म असीम अ ान है। । 580 ।

।। कृ मशकृ मू भाजनं शरीरं पु यपापज महेतुः ।।


कृ म-क ट तथा मलमू का घर यह शरीर पु य और पाप का भी ज म थल है।
मनु य का शरीर मलमू और अनेक रोग का घर होने के बावजूद पाप-पु य का
ज म थल भी यही है।
इसी के ारा मनु य पाप भी कर सकता है और पु य भी। इस लए दे हधा रय का
क है क वे पु य काय ारा अपने शरीर को उ वल बनाय। । 581 ।

।। ज ममरणा दषु ःखमेव ।।


ज म-मरण का यह बंधन ःख का कारण है।
मनु य ज म-मरण से मु होकर मो को ा त होता है। मो क ा त का साधन
यही है क मनु य अ छे कम करे। अ छे काय से ही नवाण ा त होता है। । 582 ।

।। तपसा वगमा ो त ।।
तप से ही वग क ा त होती है।
जो मनु य अपनी इं य को वश म करके अपने क पूरे करता है, उसे इस लोक
और परलोक म सुख ा त होता है। । 583 ।

।। मायु य तपो ववधते ।।


माशील मनु य का तप बढ़ता रहता है।
जस पु ष क इं यां अपने वश म ह वही मावान हो सकता है। । 584 ।

।। त मात् सवषां काय स भव त ।।


तप या से सबके काय स होते ह।
जत य मनु य अपने वाथ को समाज-क याण के काय म वलीन करके जो कुछ
भी करता है, उसके कारण सब काम स हो जाते ह। । 585 ।
चाण य सू
मूल पाठ
1 नमः शु बृह प त याम्
2 पृ थ ा लाभे पालने च
याव यथशा ा ण पूवाचायः
था पता न सं यैक मदमथशा ं कृतम्।
3 सुख य मूलं धमः
4 धम य मूलमथः
5 अथ य मूलं रा यम्
6 रा य यमूल म यजयः
7 इ यजय य मूलं वनयः
8 वनय य मूलं वृ ोपसेवा
9 वृ सेवया व ानम्
10 व ानेना मानं स पादयेत्
11 स पा दता मा जता मा भव त
12 जता मा सवाथः संयु येत्
13 अथस पत् कृ तस पदं करो त
14 कृ त स पदा नायकम प रा यं नीयते
15 कृ त कोपः सवकोपे यो गरीयान्
16 अ वनीत वा मलाभाद वा मलाभः ेयान्
17 स पा ा मानम व छे त् सहायवान्
18 नासहाय य म न यः
19 नैकं च ं प र मय त
20 सहायः सम ःखसुखः
21 मानी तमा ननमा म न तीयं म मु पादयेत्
22 अ वनीतं नेहमा ेण न म े कुव त
23 ुतव तमुपधाशु ं म णं कुयात्
24 म मूलाः सवार भाः
25 म र णे काय स भव त
26 म व ावी काय नाशय त
27 मादाद् षतां वशमुपया य त
28 सव ारे यो म ो र त ः
29 म स पदा ह रा यं वधते
30 े तमां म गु तमा ः
31 काया ध य द पो म ः
32 म च ुषा पर छ ा यवलोकय त
33 मं काले न म सरः कत ः
34 याणामेकवा ये स ययः
35 कायाकायत वाथद शनो म णाः
36 षट् कणाद् भ ते म ः
37 आप सु नेहसंयु ं म म्
38 म सं हणे बलं स प ते
39 बलवान ल धलाभे यतते
40 अल धलाओ नालस य
41 अलस य ल धम प र तुं न श यते
42 न चालस य र तं ववधते
43 न भृ यान् ेषय त
44 अल धलाभा द चतु यं रा यत म्
45 रा यत ाय ं नी तशा म्
46 रा यत े वाय ौ त ावापौ
47 त ं व वषयकृ ये वाय म्
48 आवापो म डल न व ः
49 स ध व हयो नम डतः
50 नी तशा ानुगो राजा
51 अन तर कृ तः श ुः
52 एका त रतं म म यते
53 हेतुतः श ु म े भ व यतः
54 हीयमानः स धं कुव त
55 तेजो ह स धानहेतु तदथानाम्
56 नात तलोहो लोहेन स धीयते
57 बलवान् हीनेन व यात्
58 न यायसा समेन वा
59 गजपाद व ह मव बलव हः
60 आमपा मामेन सह वन य त
61 अ र य नम भसमी ेत्
62 स धायैकतो वा
63 अ र वरोधादा मर ामावसेत्
64 श हीनो बलव तमा येत्
65 बला यो ःखमावह त
66 अ नव ाजानमा येत्
67 रा ः तकूलं नाचरेत्
68 उ तवेषधरो न भवेत्
69 न दे वच रतं चरेत्
70 योरपी यतोः ै धीभावं कुव त
71 न सनपर य कायावा त:
72 इ यवशवत चतुरंगवान प वन य त
73 ना त काय ूत वृ य
74 मृगयापर य धमाथ वन यतः
75 अथषणा न सनेषु ग यते
76 न कामास य कायानु ानम्
77 अ न दाहाद प व श ं वा पा यम्
78 द डपा यात् सवजन े यो भव त
79 अथतो षणं ीः प र यज त
80 अ म ो द डनी यामाय ः
81 द डनी तम ध त न् जाः संर त
82 दं डः स पदां योजय त
83 द डाभावे म वगाभावः
84 न द डादकाया ण कुव त
85 द डनी यामायतमा मर णम्
86 आ म न र ते सव र तं भव त
87 आ माय ौ वृ वनाशौ
88 द डो ह व ाने णीयते
89 बलोऽ प राजा नावम त ः
90 ना य नेद ब यम्
91 द डे तीयते वृ ः
92 वृ मूलमथलाभः
93 अथमूलौ धमकामौ
94 अथमूलं कायम्
95 यद य य नात् काय स भव त
96 उपायपूव न करं यात्
97 अनुपायपूव काय कृतम प वन य त
98 काया थनामुपाय एव सहायः
99 काय पु षकारेण ल यं स प ते
100 पु षकारमनुवतते दै वम्
101 दै वं वना त य नं करो त य फलम्
102 असमा हत य वृ न व ते
103 पूव न य प ात् कायमारभेत्
104 काया तरे द घसू ता न क ा
105 न चल च य कायावा तः
106 ह तगतावमाननात् काय त मो भव त
107 दोषव जता न काया ण लभा न
108 रनुब धं काय नारभेत्
109 काल वत् काय साधयेत्
110 काला त मात् काल एव फलं पब त
111 णं त काल व ेपं न कुयात् सवकृ येषु
112 दे शफल वभागौ ा वा कायमारभेत्
113 दै वहीनं काय सुसा यम प ःसा यं भव त
114 नी त ो दे शकालौ परी ेत्
115 परी यका र ण ी रं त त
116 सवा स पदः सव पायेन प र हेत्
117 भा यव तमपरी यका रणं ीः प र यज त
118 ानेनानुमानै परी ा क ा
119 यो य मन् कम ण कुशलः तं त म ेव योजयेत्
120 ःसा यम प सुसा यं करो त उपाय ः
121 अ ा नना कृतम प न ब म त म्
122 या छक वात् कृ मर प पा तरा ण करो त
123 स यैव काय थ काशनं क म्
124 ानवताम प दै वमानुषदोषात् काया ण य त
125 दै वं शा तकमणा तषे म्
126 मानुष काय वप कौशलेन व नवारयेत्
127 काय वप ौ दोषान् वणय त बा लशाः
128 काया थना दा यं न क म्
129 ीराथ व सो मातु धः तह त
130 अ य नात् काय वप भव त
131 न दै व माणानां काय स ः
132 कायबा ो न पोषय या तान्
133 यः काय न प य त सोऽ धः
134 य परो ानुमानैः काया ण परी ेत्
135 अपरी यका रणं ीः प र यज त
136 परी य ताया वप ः
137 वश ा वा कायमारभेत्
138 वजनं तप य वा यः शेषभोजी सोऽमृतभोजी
139 सवानु ानदायमुखा न वध ते
140 ना त भीरोः काय च ता
141 वा मनः शीलं ा वा कायाथ काय साधय त
142 धेनोः शील ः ीरं भुं े
143 ु े गु काशनं आ मवा कुव त (कुयात्)
144 आ तैर यवम यते मृ वभावः
145 ती णद डः सव े जनीयो भव त
146 यथाहद डकारी यात्
147 अ पसारं ुतव तम प न ब म यते लोकः
148 अ तभारः पु षमवसादय त
149 यः संस द परदोषं शंस त स वदोषब वं यापय त
150 आ मानमेव नाशय त अना मवतां कोपः
151 ना य ा यं स यवताम्
152 साहसेन न काय स भव त
153 सनात व मर य वेशेन
154 ना यन तरायः काल व ेपे
155 असंशय वनाशात् संशय वनाशः ेयान्
156 अपरधना न न े तुः केवलं वाथम्
157 दानं धमः
158 नायागतोऽथव परीतोऽनथभावः
159 यो धमाथ न ववधय त स कामः
160 त परीतोऽनथसेवी
161 ऋजु वभावो जनेषु लभः
162 अवमानेनागतमै यमवम यते साधुः
163 ब न प गुणानेको दोषो सते
164 महा मना परेण साहसं न क म्
165 कदा चद प च र ं न लंघयेत्
166 ुधात न तृणं चर त सहः
167 ाणाद प ययो र त ः
168 पशुनः ोता पु दारैर प य यते
169 बालाद यथजातं शृणुयात्
170 स यम य े यं न वदे त्
171 ना मदोषाद् ब गुणा य य ते
172 वप व प सुलभा दोषाः
173 ना त र नमख डतम्
174 मयादातीतं न कदा चद प व सेत्
175 अ ये कृतं यम प े यं भव त
176 न म य प तुलाको टः कूपोदक यं करो त
177 सतां मतं ना त मेत्
178 गुणवदा या गुणोऽ प गुणी भव त
179 ीरा तं जलं ीरमेव भव त
180 मृ प डोऽ प पाट लग धमु पादय त
181 रजतं कनकसंगात् कनकं भव त
182 उपकतयपकतु म छ यबधुः
183 न पापकमणामा ोशभयम्
184 उ साहवतां श वोऽ प वशीभव त
185 व मधना राजानः
186 ना यलस यै हकामु मकम्
187 न साहाद्दै वं पत त
188 मा याथ व (म या थवज्) जलमुपयु याथ गृहवणीयात्

189 अ व तेषु व ासो न क ः
190 वषं वषमेव सवकालम्
191 अथसमादाने वै रणां संग एव न क ः
192 अथ स ौ वै रणं न व सेत्
193 अथाधीन एव नयतस ब धः
194 श ोर पसुत सखा र त ः
195 याव छ ो छ ं प य त ताव तेन वा क धेन वा वा ः
196 श ु छ े प रहरेत्
197 आ म छ ं न काशयेत्
198 छ हा रण श वः
199 ह तगतम प श ुं न व सेत्
200 वजन य वृ ं नवारयेत्
201 वजनावमानोऽ प मन वनां ःखमावह त
202 एकांगदोषः पु षमवसादय त
203 श ुं जय त सुवृ ता
204 नकृ त या नीचाः
205 नीच य म तन दात ा
206 तेषु व ासो न क ः
207 सुपू जतोऽ प जनः पीडय येव
208 च दनाद न प दावा नदह येव
209 कदा प पु षं नावम येत्
210 त म त पु षं न बाधेत्
211 भ ा धकं रह यु ं व ु म छ यबु यः
212 अनुराग तु फलेन सू यते
213 अ ाफलमै यम्
214 दात म पबा लशः लेशेन प रदा य त
215 महदै य ा या यधृ तमान् वन य त
216 ना यधृतेरै हकामु मकम्
217 न जनैः सह संसगः क ः
218 शौ डह तगतं पयोऽ यवम येत्
219 कायसंकटे वथ वसा यनी बु ः
220 मतभोजनं वा यम्
221 प यम यप याजीण ना ीयात्
222 जीणभो जनं ा धन पसप त
223 जीणशरीरे वधमानं ा धन पे येत्
224 अजीण भोजनं ःखम्
225 श ोर प व श यते ा धः
226 दानं नधानमनुगा म
227 पटु तरे तृ णापरे सुलभम तस धानम्
228 तृ णया म त छा ते
229 कायब वे ब फलमाय तकं कुयात्
230 वयमेवाव क ं काय नरी ेत
231 मूखषु साहसं नयतम्
232 मूखषु ववादो न क ः
233 मूखषु मूखवत् कथयेत्
234 आयसैरायसं छे म्
235 ना यध मतः सखा
236 धमण धायते लोकः
237 ेतम प धमाधमावनुग छतः
238 दया धम य ज मभू मः
239 धममूले स यदाने
240 धमण जय त लोकान्
241 मृ युर प ध म ं र त
242 धमा परीतं पापं य स यते त धमावम तमहती स येत
243 उप थत वनाशानां कृ याकारेण ल यते
244 आ म वनाशं सूचय यधमबु ः
245 पशुनवा दनो रह यम्
246 पररह यं नैव ोत म्
247 व लभ य कारक वमधमयु म्
248 वजने व त मो न क ः
249 माता प ा या या
250 वह तोऽ प वष द ध छे ः
251 परोऽ प च हतो ब धुः
252 क ाद यौषधं गृ ते
253 ना त चौरेषु व ासः
254 अ तीकारे वनादरो न क ः
255 सनं मनाग प बाधते
256 अमरवदथजातमजयेत्
257 अथवान् सवलोक य ब मतः
258 महे म यथहीनं न ब म यते लोकः
259 दा र य् ं खलु पु ष य जी वतं मरणम्
260 व पोऽथवान् सु पः
261 अदातारम यथव तम थनो न यज त
262 अकुलीनोऽ प कुलीना श ः
263 ना यमानभयमनाय य
264 न चेतनवतां वृ भयम्
265 न जते याणां वषयभयम्
266 न कृताथानां मरणभयम्
267 क य चदथ व मव म यते साधुः
268 पर वभवे वादरो न क ः
269 पर वभवे वादरो प वनाशमूलम्
270 पलालम प पर ं न हत म्
271 पर ापहरणमा म नाशहेतुः
272 न चौयात् परं मृ युपाशः
273 यवागूर प ाणधारणं करो त लोके
274 न मृत यौषधं योजनम्
275 समकाले वयम प भु व य योजनं भव त
276 नीच य व ाः पापकम ण योजय त
277 पयः पानम प वषवधनं भुजंग य नामृतं यात्
278 न ह धा यसमो थः
279 न ुधासमः श ुः
280 अकृते नयता ुत्
281 ना यभ यं ु धत य
282 इ या ण जरावशं कुव त
283 सानु ोशं भतारमाजीवेत्
284 लु धसेवी पावके छया ख ोतं धम त
285 वशेष ं वा मनमा येत्
286 पु ष य मैथुनं जरा
287 ीणाममैथुनं जरा
288 न नीचो मयो ववाहः
289 अग यागमनादायुयशः पु या न ीय ते
290 ना यहंकारसमः श ुः
291 संस द श ुं न प र ोशेत्
292 श ु सनं वणसुखम्
293 अधन य बु न व ते
294 हतम यधन यवा यं न शृणो त
295 अधनः वभाययाऽ यवम यते
296 पु पहीनं सहकारम प नोपासते मराः
297 व ा धनमधनानाम्
298 व ा चौरैर प न ा ा
299 व या या पता या तः
300 यशः शरीरं न वन य त
301 यः पराथमुपसप त स स पु षः
302 इ याणां शमं शा म्
303 अशा कायवृ ौ शा ांकुशं नवारय त
304 नीच य व ा नोपेत ा
305 ले छभाषणं न श ेत्
306 ले छानाम प सुवृ ं ा म्
307 गुणे न म सरः क ः
308 श ोर प सुगुणो ा ः
309 वषाद यमृतं ा म्
310 अव थया पु षः स मा यते
311 थान एव नराः पू य ते
312 आयवृ मनु त ेत्
313 कदा प मयादां ना त मेत्
314 ना यघः पु षर न य
315 न ीर नसमं र नम्
316 सु लभं र नम्
317 अयशो भयं भयेषु
318 ना यलस य शा ा धगमः
319 न ैण य वगा तधमकृ यं च
320 योऽ प ैणमवम य ते
321 न पु पाथ सच त शु कत म्
322 अ य नो बालुका वाथनादन यः
323 न महाजनहासः क ः
324 कायस पदं न म ा न सूचय त
325 न ाद प न म ा न वशेषय त
326 न व रत य न परी ा
327 प रचये दोषा न छा ते
328 वयमशु ः परानाशंकते
329 वभावो र त मः
330 अपराधानु पो द डः
331 कथानु पं तवचनम्
332 वभवानु पमाभरणम्
333 कुलानु पं वृ म्
334 कायानु पः य नः
335 पा ानु पं दानम्
336 वयोऽनु पो वेशः
337 वा यनुकूलो भृ यः
338 भतृवशव तनी भाया
339 गु वशानुवत श यः
340 पतृवशानुवत पु ः
341 अ युपचारः शं कत ः
342 वा म न कु पते वा मनमेवानुवतत
343 मातृता डतो व सो मातरमेवानुरो द त
344 नेहवतः व पो ह रोषः
345 आ म छ ं न प य त पर छ मेव प य त बा लशः
346 सोपचारः कैतवः
347 का यै वशेषै पचरणमुपचारः
348 चरप र चतानाम युपचारः शं कत ः
349 गौ करा सह ादे का कनी ेयसी
350 ो मयूराद कपोतो वरः
351 अ त संगो दोषमु पादय त
352 सव जय य ोधः
353 य पका र ण कोपः कोपे कोप एव क ः
354 म तम सु मूख- म -गु -व लभेषु ववादो न क ः
355 ना य पशाचमै यम्
356 ना त धनवतां सुकमसु मः
357 ना त ग त मो यानवताम्
358 अलोहमयं नगडं कल म्
359 यो य मन् कुशलः स त मन् यो ः
360 कल ं मन वनां शरीरकशनम्
361 अ म ो दारान् नरी ेत्
362 ीषु क चद प न व सेत्
363 न समा धः ीषु लोक ता च
364 गु णां माता गरीयसी
365 सवाव थासु माता भत ा
366 वै यमलंकारेणा छा ते
367 ीणां भूषणं ल जा
368 व ाणां भूषणं वेदः
369 सवषां भूषणं धमः
370 भूषणानां भूषणं स वनया व ा
371 अनुप वं दे शमावसेत्
372 साधुजनब लो दे शः
373 रा ो भेत ं सावकालम्
374 न रा ः परं दै वतम्
375 सु रम प दह त राजव ः
376 र ह तो न राजानम भग छे त्
377 गु ं च दै वं च
378 कुटु बनो भेत म्
379 ग त ं च सदा राजकुलम्
380 राजपु षैः स ब ध कुयात्
381 राजदासी न से वत ा
382 न च ुषा प राजधनं नरी ेत्
383 पु े गुणव त कुटु बनः वगः
384 पु ा व ानां पारं गम यत ाः
385 जनपदाथ ामं यजेत्
386 ामाथ कुटु ब य यते
387 अ तलाभः पु लाभः
388 ायेण ह पु ाः पतरमनुवत ते
389 गतेः पतरौ र त सपु ः
390 कुलं यापय त पु ः
391 येन त कुलं यातं सः पु षः
392 नाऽनप य य वगः
393 या सूते (सा) भाया
394 सतीथाऽ भगमनाद् चय न य त
395 पु ाथा ह यः
396 वदासीप र हो ह वदासभावः
397 उप थत वनाशः प यवा यं न शृणो त
398 ना त दे हनां सुख ःखाभावः
399 मातर मव व साः सुख ःखा न कतारमेवानुग छ त
400 तलमा म युपकारं शैलमा ं म यते साधुः
401 उपकारोऽनाय वक ः
402 युपकारभयादनायः श ुभव त
403 व पम युपकारकृते युपकारं कतुमाय न व प त
404 न कदा प दे वताऽवम तका
405 न च षः समं यो तर त
406 च ु ह शरी रणां नेता
407 अपच ुषः क शरीरेण
408 ना सु मू ं कुयात्
409 न न नो जलं वशेत्
410 यथा शरीरं तथा ानम्
411 यथा बु तथा वभवः
412 अ नाव नं न न पेत्
413 तप वनः पूजनीयाः
414 परदारान् न ग छे त्
415 अ दानं ूणह याम प मा
416 न वेदबा ो धमः
417 न कदा चद प धम नषेधयेत्
418 वग नय त सूनृतम्
419 ना त स या परं तपः
420 स यं वग य साधनम्
421 स येन धायते लोकः
422 स याद् दे वो वष त
423 नानृता पातकं परम्
424 न मीमां या गुरवः
425 खल वं नोपेयात्
426 ना त खल य म म्
427 लोकया ा द र ं बाधते
428 अ तशूरो दानशूरः
429 गु दे व ा णेषु भ भूषणम्
430 सव य भूषणं वनयः
431 अकुलीनोऽ प वनीतः कुलीना श ः
432 आचारादायुवधते क त
433 यम य हतं न व म्
434 ब जन व मेकं नानुवतत्
435 न जनेषु भागधेयः क ः
436 न कृताथषु नीचेषु स ब धः
437 ऋणश ु ा ध वशेषः क ः
438 भू यनुवतनं पु ष य रसायनम्
439 ना थ वव ा काया
440 सु करं कम कार य वा कतारमवम यते नीचः
441 नाकृत य नरका वतनम्
442 जह्ववाय ौ वृ वनाशौ
443 वषामृतयोराकरो जह्वा
444 यवा दनो न श ुः
445 तुता अ प दे वता तु य त
446 अनृतम प वचनं चरं त त
447 राज ंनचव म्
448 ु तसुखा को कलालापा ु य त
449 वधमहेतुः स यु षः
450 ना य थनो गौरवम्
451 ीणां भूषणं सौभा यम्
452 श ोर प न पतनीया वृ ः
453 अ य नादे कं े म्
454 एर डमवल य कुंजरं न कोपयेत्
455 अ त वृ ा शा मली वारण त भो न भव त
456 अ तद घऽ प क णकारो न मुसली
457 अ तद तोऽ प ख ोतो न पावकः
458 न वृ वं गुणहेतुः
459 सुजीण ऽ प पचुम दो न शंकुलायते
460 यथा बीजं तथा न प ः
461 यथा ुतं तथा बु ः
462 यथाकुलं तथाऽऽचारः
463 सं कृतः पचुम दो न सहकारो भव त
464 न चागतं सुखं प र यजेत्
465 वयमेव ःखम धग छ त
466 न रा चारणं कुयात्
467 न चाधरा ं वपेयात्
468 त भः परी ेत्
469 परगृहमकारणतो न वशेत्
470 ा वा प दोषमेव करो त लोकः
471 शा धाना लोकवृ ः
472 शा ाभावे श ाचारमनुग छे त्
473 नाच रता छा ं गरीयः
474 र थम प चारच ुः प य त राजा
475 गतानुग तको लोकः
476 यमनुजीवे ं नापवदे त्
477 तपःसार इ य न हः
478 लभः ीब धना मो ः
479 ीनाम सवाशुभानां े म्
480 अशुभ े षणः ीषु न स ाः ( स ः)
481 य फल ा वेद वदः
482 वग थानं न शा तम् (याव यु यफलम्)
483 याव पु यफलं तावदे व वगफलम्
484 न च वगपतनात् परं ःखम्
485 दे ही दे हं य वा ऐ पदं न वांछ त
486 ःखानामौषधं नवाणम्
487 अनायसंब धा मायश ुता
488 नह त वचनं कुलम्
489 न पु सं पशात् परं सुखम्
490 ववादे धममनु मरेत्
491 नशा ते काय च तयेत्
492 उप थत वनाशो नयं म यते
493 ीरा थनः क क र या
494 न दानसमं व यम्
495 पराय ेषू क ठां न कुयात्
496 अस समृ रस द्भरेव भु यते
497 न बफलं काकैभु यते
498 ना भो ध तृ णामपोह त
499 बालुका अ प वगुणमा य ते
500 स तोऽस सु न रम ते
501 न हंसाः ेतवने रम ते
502 अथाथ वतते लोकः
503 आशया ब यते लोकः
504 न चाशापरैः ीः सह त त
505 आशापरे न धैयम्
506 दै या मरणमु मम्
507 आशा ल जां पोह त
508 आ मा न तोत ः
509 न दवा व ं कुयात्
510 आयुः यी दवा न ा
511 न चास म प प य यै या धः न शृणोती म्
512 ीणां न भतुः परं दै वतम्
513 तदनुवतनमुभयसौ यम्
514 अ त थम यागतं पूजये था व धः
515 न यं सं वभागी यात्
516 ना त ह य ाघातः
517 श ुर प माद लोभात्
518 श ु म वत् तभा त
519 मृगतृ णा जलवद् भा त
520 उपाल भो ना य णयेषु
521 मध सामस छा ं मोहय त
522 स संगः वगवासः
523 आयः व मव परं म यते
524 पानुवत गुणः
525 य सुखेन वतते तदे व थानम्
526 व ासघा तनो न न कृ तः
527 दै वाय ं न शोचेत्
528 आ त ःखमा मन इव म यते साधुः
529 द्गतमा छा ा य द यनायः
530 बु हीनः पशाचादन यः
531 असहायः प थ न ग छे त्
532 पु ो न तोत ः
533 वामी तोत ोऽनुजी व भः
534 धमकृ ये व प वा मन एव घोषयेत्
535 राजा ां ना तलंघयेत्
536 वा यनु ही धमकृ यं भृ यानाम्
537 यथाऽऽ तं तथा कुयात्
538 स वशेषं वा कुयात्
539 वा मनो भी ः वोपयु यते
540 ना यनाय य कृपा
541 ना त बु मतां श ुः
542 श ुं न न दे त् सभायाम्
543 आ म छ ं न काशयेत्
544 श ौ मा ाघनीया
545 मावानेव सव साधय त
546 आपदथ धनं र ेत्
547 साहसवतां यं कत म्
548 ः कायम कुव त
549 अपराह् णकं पूवाह्णा एवं कत म्
550 वहारानुलोमो धमः
551 सव ता लोक ता
552 शा ोऽ यलोक ो मूखतु यः
553 शा योजनं त वदशनम्
554 त व ानं कायमेव काशय त
555 वहारे प पातो न कायः
556 धमाद प वहारो गरीयान्
557 आ मा ह वहार य सा ी
558 सवसा ी ा मा
559 न यात् कूटसा ी
560 कूटसा णो नरके पत त
561 न ाशय त समु र त वा
562 छ पापानां सा णो महाभूता न
563 आ मनः पापमा मैव काशय त
564 वहारेऽ तगतमाकारः सूचय त
565 आकारसंवरणं दे वानामश यम्
566 चोरराजपु षे यो व ं र ेत्
567 दशना ह राजानः जा नाशय त
568 सुदशना ह राजानः जा रंजय त
569 याययु ं राजानं मातरं म य ते जाः
570 ता शः स राजा इह सुखं ततः वगमा ो त
571 चोरां क टकां सततं वनाशयेत्
572 अ हसाल णो धमः
573 वशरीरम प परशरीरं म यते साधुः
574 वशरीर मव परशरीरं म यते साधुः
575 सव मा यं ंशय त बा लशः
576 मांस भ णमयु ं सवषाम्
577 न संसारभयं ानवताम्
578 व ानद पेन संसारभयं नवतते
579 सवम न यं भव त
580 वदे हे दे हनां म तमहती
581 कृ मशकृ मू भाजनं शरीरं पु यपापज महेतुः
582 ज ममरणा दषु ःखमेव
583 तपसा वगमा ो त
584 मायु य तपो ववधते
585 त मात् सवषां काय स भव त
चाण य जीवन गाथा
जीवन के अनुभव से ही स ांत क पु होती है। परंपरा से माना आ जब वहार क
कसौट पर खरा उतरता है, तो वह न ा बन जाता है—ल य क ा त के लए इस कार
क न ा का होना अ यंत आव यक है। इस न ा को ही मोट भाषा म हठ भी कहते ह—
दोन म अंतर इतना है क न ा म ववेक क भू मका होती है जब क हठ, सामा यतया,
इससे र होता है। आचाय चाण य के जीवन म ‘अखंड भारत’ के त जो न ा थी, उसने
ही उ ह उनके वभाव से र ले जाकर कु टल अथात् कौ ट य बना दया। इस समूची या ा
को समझे बना चाण य नी त के रह य को समझ पाना संभव नह है। जीवन को समझने
के बाद ही कही- लखी बात के संदभ का आकलन होता है।
नय त को पहचानना बु मान क पहचान है। ऐसा ववेकवान नय त के वाह को मोड़ने-
तोड़ने का थ यास नह करता, वह तो उसम से उस लहर का चुनाव कर लेता है, जो उसे
उसके ल य तक ले जाए।
बु मान अपनी श को संजोकर रखते ह, वह तो श ु क ऊजा का ही योग करते ह उसे
न करने म। ले कन ऐसी द ता के लए आव यक है क योगकता क आंख खुली ह
और उसक बु थर हो, ता क वह श ु के छोटे -छोटे याकलाप को दे ख सके और उसी
के अनुसार अपनी समरनी त को सु न त कर सके।
नय त जतनी उदार होती है, उससे भी यादा ू र होती है। थोड़ी-सी चूक ई नह क
आकाश पृ वी से टकराया। इ तहास के पृ ऐसी उथल-पुथल से ही तो भरे ए ह।
चाण य जीवन गाथा
चाण य ने ईसा से 300 वष पूव ऋ ष चणक के पु के प म ज म लया। वही
उनके आरं भक काल के गु थे। कुछ इ तहासकार मानते ह क चणक केवल उनके गु थे।
चणक के ही श य होने के नाते उनका नाम चाण य पड़ा। उस समय का कोई ामा णक
इ तहास उपल ध नह है। इ तहासकार ने ा त सूचना के आधार पर अपनी-अपनी
धारणाएं बना ।

व ाथ चाण य
परंतु यह सवस मत है क चाण य क आरं भक श ा गु चणक ारा ही द गई।
सं कृत ान तथा वेद-पुराण आ द धा मक ंथ का अ ययन चाण य ने उ ह के नदशन म
कया। चाण य मेधावी छा थे। गु उनक श ा हण करने क ती मता से अ यंत
स थे।
तब सभी सूचनाएं व वधाएं धम ंथ के मा यम से ही ा त होती थ । अतः धा मक
पु तक का अ ययन श ा ा त का एकमा साधन था। चाण य ने कशोराव था म ही
उन ंथ का सारा ान हण कर लया था। अब बारी उ च श ा क थी, जो उनम मंथन व
शोध क यो यता पैदा करे जससे वे अब तक ा त ान को रचना मक प दे सक व
उसका व तार कर सक।
उस काल म त शला एक व यात व - व ालय था, जो सधु नद के कनारे बसे
नगर के प म था। व व ालय म यात व ान तथा वशेष ोफेसर के प म छा
को श ा दे ते थे। त शला म श ा हण करने के लए र- र से राजकुमार, शाही
प रवार के पु , ा ण , व ान , धनी लोग तथा उ च कुल के बेटे आते थे।
त शला अब पा क तान म है। पुरात व खुदाई म यू नव सट का पूरा च उभरकर
सामने आया है। त शला म दस हजार छा के आवास व पढ़ाई क सु वधाएं थ ।
अ यापक क सं या का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। व व ालय म आवास
क , पढ़ाई के लए लास म, हॉल और पु तकालय थे। त शला के अवशेष को दे खने
के लए आज तवष हजार टू र ट, इ तहासकार तथा पुरात ववे ा आते ह।
व व ालय कई वषय के पाठ् य म उपल ध करता था जैसे भाषाएं, ाकरण,
दशनशा , च क सा, श य च क सा, कृ ष, भू व ान, यो तष, खगोल शा , ान-
व ान, समाज शा , धम, तं शा , मनो व ान तथा योग व ा आ द। व भ वषय पर
शोध का भी ावधान था।
कोस 8 वष तक क अव ध के होते थे। वशेष अ ययन के अ त र वेद, तीरंदाजी,
घुड़सवारी, हाथी का संधान व एक दजन से अ धक कला क श ा द जाती थी।
त शला के नातक का हर थान पर बड़ा आदर होता था।
यहां छा 15-16 वष क अव था म ारं भक श ा हण करने आते थे।
वाभा वक प से चाण य को उ च श ा क चाह त शला ले आई। यहां भी चाण य ने
पढ़ाई म वशेष यो यता ा त क । यह बात यान रखने यो य है क चाण य कु प थे व
उनका रंग भी काला था। इस लए उ ह ने अपना सारा यान पढ़ाई म क त कया। उ ह प
क कमी व ान बन कर पूरी करने क धुन सवार थी। फर एकाक छा और करता भी
या? एक काले, पहीन व नधन व ाथ को म बनाने म कसी सरे छा को च भी
नह थी।
पर सरे छा को चाण य के व ा के माण तो मलते ही रहते थे। यह बात
और थी क वह राजा-महाराजा का काल था। सर वती पु के गुण को आदर दे ने क
उदारता राजपु म नह थी।
एकाक होकर एका ता से चाण य ने अपने वषय क खूब पढ़ाई क । धा मक
ंथ का फर से मंथन करने क से अ ययन कया। उ ह ने राजनी त, अथशा , रा य
तथा सामा जक वषय पर उपल ध ंथ वा याय के लए पढ़े ।
यह प हो गया था क चाण य एक व ान बनने क राह पर थे, जो त शला
व व ालय ारा पैदा कया एक र न सा बत होने वाला था।

व ेषक चाण य
वह युग राजनी तक उथल-पुथल का था। चार ओर अराजकता फैली थी। लोग का
जीवन असुर त था। उन पर शोषण क मार पड़ती ही रहती थी।
शासक राजा नरंकुश थे, जो धनी वग व जम दार के साथ मलकर जनता पर
अ याचार करते व उनका खून चूसते थे। अ धकतर राजा के रा य म न कोई व ध-
वधान था न शास नक व था। अ धका रय व उनके का रद क मनमानी ही कानून था।
गरीब लोग त थे। चाण य वयं उसी नधन-असहाय वग से थे। अतः राजनी तक व
सामा जक दशा का व ेषण करना उनका वभाव हो गया। चार ओर घटती घटना से
भी वह श ा हण कर रहे थे।
यही काल था जब सोचते-सोचते उनके मन म एक आदश रा य, सुग ठत व था,
नाग रक सं हता तथा अथतं क प रक पनाएं ज म लेने लगी थ । उनके म त क म लंबे
समय तक वह प रक पनाएं पकती रह व प र कृत होती रह ज ह बाद म उ ह ने ंथ के
प म लखा व अमर हो गए।
इ तहास करवट ले रहा था। यूनान से एक यो ा व वजय का सपना लेकर एक
वशाल सेना के साथ पूव क ओर कूच कर चुका था। ए शया महा प के म य-पूव दे श
उसके आ मण क चपेट म आ गए थे। यु क गरम हवाएं भारत क ओर प म से आ
रही थ । कई रा य उजड़ रहे थे।
यूनान का वह दात यो ा था सकंदर जो महान कहलाया। उसक सेना वशाल थी
और उस सेना क यु प त नवीन थी जो ढ़वाद भारतीय शासक क समझ से परे थी।
यूनानी सेना एक यो म तक आकार म आगे बढ़ती थी। उनके सै नक चमचमाते कवच से
सुर त घोड़ पर बैठे आ मण करते थे। पैदल सेना लंबे भाल से र से ही श ु को ब ध
कर गरा दे ती थी। जसका भारतीय व सरे दे श क सेना के पास कोई उ र न था।
उजड़े लोग शरणाथ बनकर पूव क ओर आ रहे थे। त शला म भी शरणा थय क
भीड़ आ घुसी। व व ालय प रसर भी शरणा थय से भर गया। जस नगर म केवल
श ाथ आते थे अब वहां रोट -पानी व आ य मांगने वाले आ रहे थे।
सम या से नपटने के लए राजा ने अपने व श य क सभा बुलाई व
सम या का समाधान ढूं ढ़ा। पड़ोसी राजा भी वचार- वमश करने आए। अंत म नणय यह
लया गया क शरणा थय को नगर के बाहर एक भू म म आ य दया जाए। वे नगर म
केवल प रचय प दखाकर ही आ सकते थे, परंतु व व ालय प रसर म उनका वेश
व जत था।
इस कार चाण य ने वयं दे खा क इस कार क आपात थ त उ प होने पर
कौन से कदम उठाए जाने चा हए।
नातक बनने तक चाण य ने व ालय क श ा के साथ-साथ वयं भी व ेषक
के प म ब त कुछ सीखा।

ा यापक चाण य
नातक बनने के बाद चाण य त शला व व ालय म ही ा यापक बन गए।
एक ा यापक के प म वीकार कए जाने म कोई अड़चन नह आई।
नातक बनने के अं तम वष आने तक चाण य क व ा सब पर जा हर हो गई
थी। सभी अ यापक तथा छा उनका लोहा मानने लग गए थे। अ यापक तो उ ह समक
ही मानने लगे तथा छा अ ययन या शोध म न संकोच चाण य क सहायता लेते थे।
ा यापक के प म चाण य ने शी ही अपनी जगह बना ली तथा सरे ा यापक
को अपना शंसक बना लया। व व ालय म पढ़ाए जाने वाले वषय पर तो उनका
अ धकार था ही, वह वे अ य सामा जक, धा मक व राजनी तक वषय के भी अपनी
वल ण तभा के बल पर अ छे खासे वशेष बन गए।
छा तो उनक व ा पर मु ध थे ही। वे उनके ऐसे अनुयायी बन गए क बाद म
जब चाण य पूव क ओर थान कर गए तो कई छा उनक अ य ता म काम करने वहां
प ंच गए तथा चाण य के अ भयान म मह वपूण रोल अदा कया। भ भट् ट व पु षद
उनम मुख ह।
त शला अब तेजी से गरम हो रहा था। प म क ओर से यु क झुलसाने वाली
गरम हवाएं तूफानी अंदाज म आ रही थ । यूनानी यो ा सकंदर के घोड़ क टाप सुनाई दे ने
लगी थ । चाण य ने त शला छोड़ पूव क ओर कूच करने का मन बना लया था। उनके
दमाग म बड़ी-बड़ी योजनाएं थ एक आदश रा य था पत करने क । उन योजना को
फलीभूत होने के लए समय क दरकार थी पर त शला का तो अपना अं तम समय आ
गया था। यम ार पर द तक दे रहा था। वहां से खसकने म ही भलाई थी।
चाण य ने सु र पूव क ओर का ख कया। यहां मगध सा ा य था जसक
राजधानी पाट लपु (आज का पटना) थी। वहां का मोह चाण य के लए इस लए था, क
पाट लपु के नकट ही उस समय का महान व व ालय नालंदा था, जो त शला से
कसी सूरत कम नह था। 399 वष ईसा पूव एक चीनी घुमंतू इ तहासकार फाहयान ने वहां
क या ा क थी व पाट लपु के गुण गाए थे।
पाट लपु गंगा के कनारे बसा था। इ तहास के दौर म उसके कई नाम रहे,
पु पापुर, पु पनगर, पाट लपु और अब पटना है।
वह चाण य ने धरती के तर से काय करते-करते ऊपर उठने का मन बना लया
ता क वह धरती से जुड़ी स चाइय से भी गत प से प र चत हो जाएं। अपनी
त शला क नातकता व ा यापकता का हवाला दे ने के बजाय एक श क क साधारण
नौकरी वीकार कर ली।
मगध म धनानंद का रा य था। राजा केवल कर लगाकर धन उगाना व अपना
खजाना भरना जानता था। जनता खी थी। पर उसका मं ी समझदार था। मं ी अमा य
शकटार ने राजा को समझाया क केवल लूट-खसोट से काम नह चलेगा। उ ह कुछ धन
लोक क याण तथा पुर कार प म बांटकर जनता का आ ोश कम करना होगा। बात राजा
क समझ म आ गई। उसने कलाकार , व ान तथा लोक क याण काय के लए अनुदान
दे ने आरंभ कए। इस बीच चाण य अपनी यो यता से थानीय लोग के दल म घर कर चुके
थे। सामा जक काय म भी उनक च थी। वे सामा जक व शास नक व था सुधारना
चाहते थे। उ ह ने मुख लोग को सुझाया क राजा ारा दए अनुदान का पयोग हो रहा
है य क उपयु व था नह है। इसके स पयोग के लए व ान व मुख य क
एक स म त होनी चा हए।
बात सबको जंच गई। व ान ने मलकर एक संघ बनाया। चाण य को अ य
बनाने म कसी को भी आप नह ई। कुछ अ धका रय ने अनुदान क रा शयां संघ को
द । चाण य के नदशन म उनका अ यंत रचना मक उपयोग आ, जसक सबने शंसा
क।
संघ के कुछ सद य ने सुझाव दया क चाण य को वयं राजा धनानंद से मलना
चा हए ता क अ धक अनुदान क व था हो सके। उ ह यह भी आशा थी क राजा
चाण य क यो यता को दे खते ए उ ह उ चत दा य व सौपगे। चाण य तैयार हो गए।
ऐसे समय म चाण य को आचाय शकटार से मलने का वचार आया। वे चाण य के
सहपाठ व म रह चुके थे। दोन त शला म श ा हण कर चुके थे। श ा पूण करने के
प ात आचाय शकटार पहले नंद सा ा य म मं ी बने फर महामं ी। इसी लए तो चाण य
ने पहले नचले तर से काय शु कर अपनी यो यता स करने क को शश क थी। वे
ब त वा भमानी थे। वे पहले ही शकटार से मलते तो सभी को यह लगता क चाण य
अपने म को सीढ़ बनाकर ऊपर चढ़ गए और शायद उनक यो यता का सही मू यांकन न
होता। परंतु अब मलना आव यक था य क वे वदे शी आ मणकारी सकंदर क चाल व
खतर से मगध स ाट को सावधान करना चाहते थे।
एक संदेशवाहक के साथ चाण य ने प भेजकर आचाय शकटार से नजी प से
मलने क इ छा जताई। शकटार को अपने पुराने सहपाठ क पाट लपु म उप थ त से
स ता ई। वैसे संघ के काय का योरा पाकर उ ह कुछ-कुछ अनुमान तो पहले ही हो गया
था क शायद उसका संचालन-अ य चाण य उनका त शला श ा ा त के दन का
म ही हो सकता है। वह यह भी जानते थे क वा भमानवश वह म उनसे सहायता नह
लेना चाहेगा। शकटार ने सहष चाण य को अपने घर आने का नमं ण दे दया।
चाण य आए तो शकटार उनसे पुरानी आ मीयता से मले और भीतर ले जाकर
आदरपूवक बठाया। कुशल ेम के प ात चाण य ने भारत के प मी भाग के रा य क
दशा का वणन कया क कन प र थ तय म उ ह त शला छोड़कर पूव क ओर आना
पड़ा। उ ह ने यूनानी आ मणकारी सकंदर के अ भयान के खतर क चचा भी क ।
शकटार ने पूछा, “जरा व तार से बताइए क प मी भाग म या आ? और यह
सकंदर या मुसीबत है?”
चाण य ने लंबी सांस लेकर उ र दया, “अमा य! वही पुरानी कहानी बार-बार
दोहराई जा रही है। हमारे शासक आपस के छोटे -छोटे कलह म उलझे रहते ह और वदे शी
आ मणका रय के लए अपने ार खोल दे ते ह। इस बार यह वदे शी आ मणकारी कोई
साधारण नह है। वह यूनान दे श का महायो ा स ाट है। जसने व वजय क ठान
ली है और एक अ त वशाल सेना लेकर उसी अ भयान पर पूव क ओर कूच कर चुका है।
उसके सै नक नए कार के कवच व आयुध से स जत ह। उसक सेना या म तक
संरचनाब होकर वार करती है और यु क ऐसी प तय का योग करती है जनका
हमारी सेना को ान ही नह है। वह अपने सामने आने वाली सारी सेना व रा य को
र दता आ हमारी सीमा तक आ प ंचा है। उसक श के सामने पारस के महान सा ा य
भी टक नह पाए। म का पतन हो चुका। शक तान, कंधार और बख या ढह गए।
ह कुश पवत पार कर उसने हमारी भू म पर अपना पैर रखा।”
“तो या सकंदर ने त शला पर वजय ा त कर ली?” शकटार ने व मत और
च तत वर म पूछा।
“आचाय! आपको उस व ाथ क याद है जसका नाम आं भक था, जब हम
त शला म व ा हण कर रहे थे?”
“मुझे कुछ मरण नह है।” शकटार ने याद करने का य न करते ए कहा।
“उसक कहानी का सकंदर के संदभ म ब त मह व है।” ऐसा कहकर चाण य ने
शकटार को आं भक क कहानी सुनाई।

आं भक क कथा
“त शला गांधार रा य क राजधानी था। गांधार रा य सधु व झेलम न दय के
बीच का दे श था। सधु नद के प म क ओर का े प मी गांधार कहलाता था, जो
पृथक वतं रा य था। गांधार एक सुखी रा य था और त शला व व ालय उसका
गौरव था। इसी कारण सरे रा य म उसका नाम स मान से लया जाता था।
झेलम के पूव क ओर पु का केकय रा य था। त शला के यश व स के
कारण वह गांधार रा य से जलता था। पु एक मह वाकां ी राजा था। उसने अपने आस-
पास के कई छोटे रा य को साम-दाम व दं ड क नी त अथवा यु म परा त कर केकय म
जोड़ अपना व तार करने का अ भयान चला रखा था। ल य केकय को सा ा य बनाकर
राजा से स ाट बनना था। पु के पास चतुर व धूत मं य का दल व यो य सेनाप त था जो
पु के व तारवाद को साकार प दे रहे थे। इस दल ने यो य गु तचर का एक अ त
भावशाली तं बना रखा था, जो श ु दे श म कह भी घुसपैठ करने म स म था। मं ी दल
के मुख योजनाकार मु यमं ी इं द थे।
सभी जानते थे क राजा पु क गांधार रा य पर है। परंतु गांधार छोटा-मोटा
अश रा य नह था। उसे ह थयाने के लए द घकालीन योजना चा हए थी। इं द के
गु तचर ने सूचना द क गांधार के सेनाप त सहनाद नीरस एकाक जीवन तीत कर रहे
ह। कुछ वष पूव उनक ेयसी-प नी का दे हांत हो चुका था। अब उनका वधुर जीवन सूना
था। चतुर इं द को यहां अपना पच लगाने का अवसर नजर आया।
उनके गु तचर दल म एक अ त सुंदर युवती थी जो पहले भी कई षड् यं म
सफलतापूवक भाग ले चुक थी। इं द ने उसी युवती को वधुर सहनाद के जीवन म
घुसपैठ करने का भार स पा।
उस गु तचर यौवना को अपने काय म कोई क ठनाई पेश नह आई। कुछ ही समय
म सहनाद उसके ेम जाल म बुरी तरह फंस गए। वह उस यौवना के इशारे पर कुछ भी
करने को तैयार थे और अपने कत को भुलाकर उसी के ेमरस म डू बे रहने लगे। आ खर
वष बाद उनके जीवन म बहार जो आई थी। वह यौवना धीरे-धीरे और गु तचर को ले आई
व सरे अ धका रय और मं य को भी उ ह ने फांस लया।
गांधार का अ धकतर उ च शासन तं केकय के गु तच रय के साथ भोग वलास म
डू ब गया। गु तचर ने पूरे शासन को अपंग बना दया।
केकय के महामं ी इं द को यह समय आ मण के लए उपयु लगा। उ ह ने
सेनाप त को कायवाही करने का संकेत दे दया। केकय क सेना ने गांधार पर धावा बोला।
गांधार ारा तरोध का ही नह था य क वहां का सारा तं केकय के गु तचर के
जाल म पहले ही फंस कर न य हो चुका था। केकय सेना ने आसानी से गांधार पर क जा
जमा लया। गांधार नरेश बंद बना लए गए।
केकय नरेश पु ने राजनी तक रद शता का प रचय दे ते ए गांधार नरेश को केवल
केकय सा ा य का आ धप य वीकार करने व केकय के त न ध के प म शासक बने
रहने का ताव दया। गांधार नरेश ने तुरंत ताव वीकार ही नह कया अ पतु राजा पु
क उदारता से गद्गद हो गए व उनके कायल बन गए। यह एक म ता सं ध थी जो वजेता
ारा व जत से क थी। जब पु वयं त शला पधारे तो गांधार नरेश ने उनका भ
वागत कया। पु के मं य का वामी क भां त आदर-स कार कया गया।
परंतु गांधार के युवराज आं भक को यह सब अ छा नह लगा। उसे अपने पता का
श ु के सामने गड़ गड़ाना ब त खला। उसे ोध भी आया क एक धोखेबाज श ु को इस
कार स मान क से कैसे दे खा जा रहा था! उसे तो पु एक सांप क तरह नजर आ
रहा था जसने गांधार को डस लया था। आं भक का आ ोश इतना ती था क उसने मन
ही मन पु से बदला लेने का मन बना लया। अपने पता को पु का शंसक बना दे ख
उसका मन ोभ से भर गया था।
गांधार के शासन तं को कर उसे र दने वाले का त शला म जय-जयकार
हो रहा था। आं भक का तन-मन तो पु को दे खते ही जलने लगता था।
समय अपनी ग त से बढ़ता रहा।
गांधार क पराजय व उसका पड़ोसी रा य पर आ त होना त शला व व ालय
पर कोई कु भाव न डाल पाया। व व ालय म पढ़ाई पूववत चलती रही। बाहरी प रवतन
व हलचल से व ालय को जैसे कोई लेना-दे ना न हो। श क श ा दान करते रहे व छा
अपना-अपना पाठ् य म पढ़ते रहे ता क नयत समय पर वे नातक बन सक।
सच तो यह था क त शला क जनता क जीवनचया म भी कोई अंतर नह आया।
शासन भी लगभग पहले जैसा ही था। कोई अंतर था तो केवल यह क गांधार नरेश अब
कसी सरे के त न ध थे, वयंभू शासक नह । और यह त य एक अह य व तु थी—
शासक के बीच का मनोवै ा नक समीकरण—जो आम आदमी के जीवन को नह छू ता था।
परंतु राजकुमार आं भक तो आदमी नह था। वह उस मनोवै ा नक समीकरण का
एक भाग था। पराजय क याद भर से उसे आ म ला न होने लगती थी। राजकुमार उस समय
त शला व व ालय म श ा हण कर रहा था। उसके म त क पटल से राजा पु का
अहंकार से भरा चेहरा मटाए न मटता था जो शायद तशोध पूरा होने पर ही मटे गा।
राजकुमार आं भक का मन अब पढ़ाई म नह लगता था।
बस अपने क म बैठा वह कुढ़ता रहता। पु से बदला लेने क नई-नई योजनाएं
बनाता और उसके सपने उन योजना को वकृत प म साकार करते। उसक हर सांस म
तशोध क फुफकार थी। उसके लए श दकोष के सारे प े कोरे हो चुके थे, केवल दो ही
श द उसम बचे रह गए थे—भयानक तशोध। कभी-कभी लगता क वह सचमुच व त
हो गया है।
यही वह काल था जब त शला म चाण य व शकटार अपने अ ययन के अं तम
वष म थे। शकटार ने आं भक क ओर यान नह दया परंतु चाण य ने गौर से आं भक क
मान सक दशा का अ ययन कया, य क वह राजनी तक तथा सामा जक थ तय का
व ेषण कर रहा था और आं भक राजनी तक प र थ तय का एक उदाहरण था।
आं भक कभी-कभी भगवान से बदला लेने का अवसर दान करने क ाथना
करता य क वही अब उसक तशोध योजना का सहारा था। उसके पता गांधार नरेश व
उनके मं ी तो राजा पु के भ बन गए थे। उनसे आं भक को कोई आशा नह थी। शायद
भगवान ने आं भक क ाथना सुनने का नणय कर लया था, तभी तो आं भक क इ छा
पूरी करने सकंदर यूनान से सेना लेकर चल पड़ा था।
राजकुमार आं भक ने भी सुना क यूनान का महायो ा सकंदर व वजय
अ भयान पर एक वशाल अपराजय सेना लेकर भारत दे श क सीमा के नकट आ प ंचा
है। कोई सकदर का तशोध नह कर पाया था। सकंदर नामक तूफान के आगे बड़े-बड़े
सा ा य खोखले पेड़ क तरह उखड़-उखड़ कर गर रहे थे। उसे रोक पाना कसी के
साम य क बात नह थी।
उसने यह भी सुना क जो राजा वयं पराजय वीकार कर सकंदर क शरण म
जाता था, उससे वह म वत वहार करता था व आदरपूवक य दान करता था। जो
उसके सामने नह झुका वह समूल न कर दया जाता था। सकंदर क ोधा न म उस
अ भमानी को भ म होना पड़ता था। केवल शासक ही नह उसक जा को भी फल
भुगतना पड़ता था जसे यूनानी सै नक गाजर-मूली क तरह काट दे ते थे। वे यूनानी सै नक,
जो सदा चमचमाते जरा ब तर म सुस जत हो दमकते घोड़ पर सवार रहते।
ऐसे दे श क अभागी जनता भयभीत होकर सरे दे श म आ य लेने भाग जाती
थी। सकंदरी सेना के आगमन क अफवाह भर से क बे खाली हो जाते थे। ऐसे ही शरणाथ
एक बड़ी सं या म त शला म भी आ घुसे थे। तब चाण य ने वयं दे खा था क त शला
शासक ने कस कार उनके रहने व भोजन क व था क थी। शरणाथ सम या भारतीय
रा य के लए एक नए कार क चुनौती थी। तब चाण य अं तम नातक वष म थे।
जब भारतीय शासन व था के संचालक शरणाथ सम या का हल खोजने के लए
वचार- वमश कर रहे थे उसी समय सकंदर क सेना ने ह कुश पवत पार करके भारत क
भू म पर अपना पैर रख दया था। अब उसके सामने भारतीय रा य क शृंखला थी, जसे
उसे तोड़ना था। यह एक वडंबना ही थी क गांधार नरेश व उनके मं ी जब सकंदर के
आगमन को अ भशाप मानकर वचार- वमश कर रहे थे तब उनका ही राजकुमार आं भक
सकंदर को वरदान मानकर उसम अपनी सम या का समाधान खोज रहा था।
एक- सरे तर पर भी प र थ त बदल रही थी। रा य के शासक पर राजकुमार
आं भक का भाव बढ़ता जा रहा था। मं ीगण तथा अ धकारी अब राजकुमार का आदर
करने लगे थे। कारण प था। राजा ब त बूढ़े हो चले थे और ल ण साफ नजर आ रहे थे
क वे अ धक दन जीने वाले नह । आं भक का सहासन पर बैठना अ धक र क बात नह
रह गई थी। सभी को यह महसूस हो गया था क राजकुमार आं भक का व ास जीतने म ही
उनका भ व य सुर त है। राजकुमार आं भक से कोई भी संबंध नह बगाड़ना चाहता था।
कई अ धकारी तो सीधे राजकुमार से आदे श लेने लगे थे और उसका पालन भी करते य द
वह वतमान व था के ब त तकूल न हो तो।
समय को भांप कर कई युवा राजकुमार क चापलूस मंडली बना चुके थे व नरंतर
यास करते थे क वे आं भक को घेरे रख। वे राजकुमार म शंसा यो य नई-नई खू बयां
ढूं ढते रहते और गुणगान करते। चढ़ते सूय को सभी णाम करते ह। आं भक अब पहले
जैसा असहाय नह महसूस कर रहा था। उसम नया आ म व ास भरता जा रहा था और उसे
अपनी योजना अब यादा साथक नजर आने लगी थी।
चापलूस बड़े कांइयां होते ह। वे अपने वामी के मन क बात र से ही सूंघ लेते ह।
वे जान गए थे क उनके राजकुमार सकंदर के आ मण को सकारा मक से दे खते ह
और राजा पु से बदला लेना उनका सव च ल य है। अतः वे सकंदर महान के गुण गाने
लगे। सकंदर को एक अपूण यो ा सा बत करने लए र- र से कौ ड़यां ढूं ढ कर लाते और
उससे मै ी करने के लाभ पर हर कार क दलील दे त।े
एक कहता, “राजकुमार! हमने अपनी त शला म आए शरणा थय को दे खकर
जान लया क सकंदर से ट कर लेने वाल का या प रणाम होता है। उससे उलझने वाले
कतने मूख थे! अपनी जा को बरबाद कर दया। हम सकंदर से मै ी कर ल तो कम से
कम हमारी जा को ऐसे दन नह दे खने पड़गे। यह तो आपक रद शता है क आपने
पहले ही उ चत माग चुन लया। अब हमारे गांधार रा य के उ ार होने म मुझे जरा भी संशय
नह है। ध य हो राजकुमार!”
सरा लाल लोहे पर चोट करता, “एक बार हमारी सकंदर से मै ी हो जाए तो हम
अ त बलशाली हो जाएंग।े जन राजा ने हमारा अतीत म अपमान कया है, हम उनसे
तशोध ले सकगे और हम तशोध लए बना नह रहगे।”
आं भक सर हलाकर सहम त कट करता और कहता, “वह तो ठ क है, हम
जानते ह। पर हम करना या है और कैसे? यह तो कोई अनुभवी मं ी ही बता सकता है।
यह मै ी का वषय व ध- वधान से ही तो संभव होगा।”
“उसका बंध तो कया जा सकता है। कोई भी मं ी हमारा मागदशन करेगा।
आपक सेवा कौन नह करना चाहेगा?” चापलूस ने आं भक को आ त कया और जोड़ा,
“पु ने जो आपका अपमान कया है, उसका बदला तो लेना ही होगा।”
“ले कन या मेरे लए सकंदर केकय पर आ मण करेगा?” आं भक ने संदेह
कया।
“वह तो अपने वाथ के लए केकय पर आ मण करेगा। हमारी सेना तो यूना नय
क सहायता करेगी। सेना समय पर पु पर घातक वार करेगी। वामी, यह तो हम जानते ही
ह क सकंदर व वजय अ भयान पर नकला है। वह ह कुश पवत पार कर हमारे दे श
तक आ प ंचा है और पूव क ओर जाने के लए उसे केकय, काठगण, शु म, मालवा होते
ए हमारे रा य से गुजरना होगा। इस कार केकय पर तो उसे आ मण करना ही होगा।
म दे श होने के कारण केकय पर आ मण म हम उसक सहायता करगे। हमारी सहायता
वह स ता से वीकार करेगा य क उससे उसके सै नक क त कम होगी। उसे आगे के
यु के लए अपनी सेना बचाए रखनी है। इसम उसका अपना ही लाभ है। लगे हाथ हमारा
काम हो जाएगा। यूनानी सेना क सहायता से हम यु म पु को सहज ही परा त कर दगे।
ऐसा मेरा पूण व ास है।”
यह सुनकर आं भक स आ। उसने सर ऊपर-नीचे छपकली क तरह हलाकर
चापलूस क कथनी क सराहना क । न संदेह वह चापलूस कुछ-कुछ बु तो रखता ही
था। बात सच भी नकली। एक मं ी ने राजन यक परंपरा का वणन कया। उसी अनुसार
आं भक ने अपना त सकंदर क ओर पठाया, जो उस समय प मी गांधार क सीमा पर
पड़ाव डाले था। प मी गांधार क राजधानी पु करावली था सधु नद के उस पार। उस दे श
पर राजा ह ती का रा य था।
आं भक का त सकुशल सकंदर क छावनी म प ंच गया और उसने अपना
प रचय दे कर सै नक को अपने आने का उद्दे य बताया। सै नक के नायक ने उसे स ाट
सकंदर के खेमे म प चा दया। सकंदर आं भक का संदेश पाकर स आ। एक और
रा य बना यु लड़े उसक झोली म आ गरा था।
उसने तुरंत अपने दो राजनी तक त आं भक के त के साथ त शला भेजे ता क
सं ध क ल खत परेखा तैयार क जा सके। आं भक के त ने राजकुमार का प रचय
यूनानी राजन यक से कराया। आं भक ने उसका उ साह के साथ वागत कया तथा
अ त थगृह म उनको आदरपूवक ठहराया।
रात को यूनानी राज त तथा आं भक व उनके सलाहकार के साथ मं णा क म
सं धवाता आरंभ ई। अब तक अ धकतर मं ी राजकुमार के खेमे म शा मल हो गए थे, वे
भी वाता म स म लत ए। कुछ सेनानायक भी उप थत थे। सं ध क परेखा औपचा रक
प से तय होने लगी।
इस बीच कसी व त सै नक ने गांधार नरेश को महल प रसर म यूनानी सै नक
क उप थ त क सूचना द । श ु सै नक के महल म होने क बात से नरेश च के। काफ
समय वह महल व दरबार म सं द ध सी लगती ग त व धयां दे ख रहे थे जनसे षड् यं क
शंका होने लगी थी। सूचना के अनुसार यवन सै नक राजकुमार क ओर के भाग क ओर
जाते दे खे गए थे। नरेश का माथा ठनका।
वयं जांच करने के उद्दे य से वे महल के उसी भाग क ओर गए जधर राजकुमार
आं भक के क थे। नरेश तो यवन के व पु सेना के साथ मलकर ूह रचना क बात
सोच रहे थे और इधर कोई यवन से सांठ-गांठ कर रहा था। कौन? उ ह समझ नह आ रहा
था। यह सब या हो रहा था? उनका पु आं भक उनसे र- र रहता था। मं ीगण पहले क
भां त उ सा हत नह थे। नरेश को ऐसा लगने लगा था क वे अपनी बात खुलकर कहने से
हचकने लगे थे या कुछ ऐसा आभास मलता था जो वह कहते थे वह उनके मन क बात
नह होती थी।
राजकुमार अपने शयनक म नह थे और क भी खाली थे। हां, मं णा क म
कुछ संवाद हो रहा था। नरेश ने मं णा क का ार खोला तो भौच का रह गए। भीतर
राजकुमार, कुछ सेनानायक व उनके अ धकतर मं ी बैठे यवन त से मं णा कर रहे थे।
प था क कोई षड् यं रचा जा रहा था।
नरेश ने अपनी बूढ़ थरथराती आवाज म कहा, “यहां या हो रहा है? यवन के साथ
यह कैसी मं णा चल रही है? मुझे इसके बारे म य नह बताया गया?”
नरेश के अचानक आ धमकने से मं ीगण व सेनानायक सकते म आ गए थे। उ ह
सांप सूंघ गया था। कोई कुछ नह बोला। राजकुमार आं भक ने थ त को संभाला। वह
खड़ा आ व अपने पता के पास जाकर बोला, “ पताजी। यह कोई अनु चत काय नह हो
रहा है। आप चता न कर। हम महान यूनानी स ाट सकंदर के साथ मै ी सं ध क प रेखा
तैयार कर रहे ह ता क यु क वभी षका क गाज हमारे रा य पर न पड़े। मने आपको
इसके बारे म सू चत इस लए नह कया य क आपका वा य ठ क नह है और संभवतः
नए युवा क नई प र थतय का ठ क से आकलन करने के लए युवा कोण क
आव यकता है।”
गांधार नरेश का शरीर आवेश म कांप उठा, “म अभी इतना वृ नह आ ं। सारे
षड् यं समझ सकता ं। हम यवन से कोई सं ध नह चा हए। इनको यहां से नकाल
दो। कह दो क हमारे रा य म सेना लेकर आए तथा हम तलवार के साथ वागत करने का
अवसर द।”
यवन राज त भौच क रह गए और अपमा नत भी अनुभव कर रहे थे। उ ह समझा-
बुझा कर मायाचना ारा शांत कया गया। उ ह महल से नकाला नह गया अ पतु
अ त थक म ही रखा गया। बाद म राजकुमार ने अपने समथक के साथ गु त मं णा क ।
इसके बाद कोई ठ क-ठ क नह जानता या आ। सुबह गांधार नरेश अपने
शयनक म मृत पाए गए। उनके शरीर पर कुछ घाव थे। कसी म घाव के कारण के बारे म
पूछने का साहस नह था। नरेश को मृत घो षत कर उनका व धपूवक दाह सं कार कर
दया गया।
आं भक राजगद्द पर बैठे। यूनानी राजन यक ने स ाट सकंदर क ओर से
आं भक को पूव गांधार के महाराजा के प म तुरंत मा यता दे द । आनन-फानन म मै ी
सं ध को अं तम प दे दया गया तथा सकंदर क वीकृ त के लए भेज दया गया।
राजन यक म से एक सकंदर के राज त क है सयत से त शला म ही जमा रहा।
जब यह सब घटना म चल रहा था तो चाण य त शला व व ालय म नातक
बनने के बाद अ यापन काय कर रहे थे। राजनी तक घटना म पर उनक नजर रहती थी।
वशेषकर सकंदर के आने के बाद अ धक भा वत तथा चता त हो गए थे। जो कुछ चार
ओर घट रहा था उनके लए ख था। थ त असहनीय हो गई थी व उ ह ने त शला से पूव
क ओर थान करने का मन बना लया था। आं भक व सकंदर के बीच ई मै ी सं ध से
उ ह ती आघात लगा था।
जाने से पहले उ ह ने अपने म व व त छा से कहा, “ सकंदर एक यवन
आ ांता है। वह वदे शी जीवन, धम व सं कृ त का चारक है। वह अ त श शाली, ू र
शासक व ब त चतुर है। भारत दे श के नरेश व शासक को म बनाकर बना यु लड़े
वजय ा त करता जा रहा है। हमारे नरेश इतने वाथ , कूपमंडूक, ई यालु तथा झगड़ालू ह
क एकजुट होकर वदे शी आ मणकारी का सामना करने के बजाय वे या तो उसके चरण
म सा ांग बछ रहे ह अथवा अकेले सामना कर धूल चाट रहे ह। कह कोई आशा क करण
नह है।
मेरे लए अपने वै दक मू य का वनाश कया जाना दे खना सहनीय नह होगा। मने
त शला म आए शरणा थय से वाता क है। उ ह ने मुझे बताया क सकंदर व जत दे श
म कस तरह अपने सै नक से सबकुछ न करवा दे ता है। मेरे पास इतना समय यहां नह है
क नरेश को अपनी बात समझा सकूं क सकंदर से नपटने का एक ही माग है, वह है
भारतीय नरेश का एक होकर आ ांता को मुंहतोड़ जवाब दे ना। उनम इतनी बु नह है
क वे ठ क से समझ सक क सकंदर हमारे लए कतना भयंकार अ भशाप है। उनम से
आं भक जैसे कई ह, जो उस म अपना हत खोज रहे ह ता क आपसी तशोध पूरा कर
सक व एक- सरे को नीचा दखा सक। इन सबसे मुझे घोर मान सक लेश होता है। म इस
आशाहीन अंधकार से नकलना चाहता ं। मुझे यहां से थान करना ही होगा।”
“परंतु आचाय, आप जाएंगे कस दशा म?” एक म ने पूछा।
चाण य ने उ र दया, “मने मगध क राजधानी पाट लपु जाने का न य कया है
तथा प वहां का नरेश धनानंद , लोभी और कामुक बताया जाता है। म य न
क ं गा क पूव भारत के रा य अपनी श यां मगध सा ा य क वशाल सेना म मलाकर
एक संग ठत श बन व सकदर का वनाश कर। वहां तक प ंचने म सकंदर को समय
लगेगा। उसी अंतराल का म उपयोग करना चाहता ं। अगर परमे र क दया रही तो म
सफल हो जाऊंगा और वदे शी भाव न हो जाएगा।”
इस कार, सकंदर के त शला प ंचने से पहले ही चाण य वहां से रवाना हो गए।
त शला से चाण य केकय दे श गए जहां आचाय इं द ने उनका वागत कया। इं द
भी त शला व व ालय म ही नातक थे। चाण य ने इं द को सूचना द , क कैसे
गांधार अब उनके भाव े म नह है। वह का नरेश आं भक सकंदर से जा मला है।
उ ह ने केकय रा य पर सकंदर के आ मण के बारे म चेताया। उ ह ने यह भी सुझाव दया
क केकय को आस-पास के रा य के साथ मल कर संयु सेना ग ठत करनी चा हए ता क
वे यूनानी सेना का भावशाली तरोध कर सक व सकंदर को पाठ सखाएं।
आचाय इं द ने चाण य को आ ासन दया क वह उनके मू यवान सुझाव को
महाराज पु तक प ंचा दगे व वयं भी उसी मत का समथन करगे। हालां क इं द ने कहा
क समय ब त कम रह गया है। राजा को एक मंच पर लाने व आपसी मन-मुटाव भुलाने
पर राजी करने म वष का समय चा हए और स य यह भी था क दो दे सी वरोधी राजा
का मेल कराने के थान पर एक कु े और ब ली को म बनाना अ धक सरल था।
चाण य पूव क ओर व भ शासक को सकंदर के आ मण के व चेतावनी
दे ते ए चलते गए।
इस बीच राजा आं भक से सं ध होने के बाद सकदर पूव क ओर कूच करने पर
उतावला हो गया। उसने प मी गांधार के राजा ह ती को यूनानी सा ा य का भाग बनने का
नमं ण दया। ऐसा न करने पर यूनानी सेना का वार झेलने के लए तैयार हो जाने क
चेतावनी भी द ।
प मी गांधार का राजा ह ती एक वा भमानी शासक था। उसने झुकने से इनकार
कर दया और सकंदर को यु का योता दे दया। सकंदर क सेना क एक टु कड़ी ने
पु पावली पर आ मण कर दया। यूनानी वजय लगभग तय थी। राजा ह ती क छोट -सी
सेना यूनानी सेना के सामने या टकती? भारतीय सै नक ने पहली बार वदे शी सेना को
नए आयुध के साथ या म तक ूह रचना म आ मण करते दे खा। ह ती के सै नक
वीरतापूवक लड़े परंतु शी ही यूनानी उन पर भारी पड़ने लगे।
यूना नय ने राजा ह ती को बंद बनाना चाहा परंतु ह ती ने लड़ते-लड़ते ाण दे ना
अ धक ेय कर समझा। पु पावली पर वजय का सकंदर ने शानदार उ सव मनाया। उ सव
म राजा आं भक को मु य अ त थ बनाया गया। यूनानी सेना ने आं भक को पं ब होकर
सलामी थी। सकंदर ने उसे बराबर के राजा का थान दया व उसके साथ म वत वहार
कया। इस आदर-स कार से आं भक गद्गद हो गया। उसे सपने म भी आशा नह थी क
यूनानी स ाट उसे इतना स मान दे गा। वह सकंदर का दय से कृत हो गया। यह सकंदर
क एक राजनी तक चाल थी। वह सरे राजा व नरेश को संदेश दे रहा था क सकदर के
सामने नतम तक होने म कतना बड़ा स मान है। जो उसके पास आएगा वह म ता पाएगा
और यु के थान पर आदर का लाभ पाएगा।
सकंदर ने आं भक के चाचा को प मी गांधार का ‘सटराप’ (गवनर) नयु कया
और आं भक को एक और कृपा से ध य कर दया। सकंदर के कृपापा बनने के महान
लाभ का एक और उदाहरण लोग ने दे खा, इसका सरे राजा पर अनुकूल भाव पड़ा।
यह भी यूनानी यो ा क तु प चाल थी। सकंदर कूटनी त का भी मंजा आ खलाड़ी था।
आं भक को तो यह भी आशा होने लगी क सकंदर भारत से लौटते समय सारे व जत े
का शायद उसे स ाट ही घो षत कर दे !
आं भक सकंदर और उसक सेना को एक जुलूस बनाकर उ सव मनाता आ
त शला ले आया। दरबार म सकंदर का शाही वागत कया गया तथा उसक वीरता व
उदारता क गुणगाथा गाई गई। त शला क मधुशालाएं तथा मनोरंजन गृह यूनानी सै नक
के लए खोल दए गए। वे यौन ड़ा शाला म जी भर कर मौज-म ती मना सकते थे।
त शला यवन सै नक का ड़ांगन बन गया।
सै नक तो आमोद- मोद म त हो गए। सकंदर के साथ आय सा ह य, कला
तथा सं कृ त के वशेष व ान भी आए थे। सकंदर ने उनसे भारतीय स यता को यूनानी
स यता के भाव म लाने के उपाय को सुझाने का आदे श दया।
सकंदर व उसके व ान ने त शला व व ालय क श ा प त तथा पाठ् य
पु तक का भी अ ययन कया। उ ह ने त शला के आचाय चाण य से मलने क इ छा भी
कट क । वे चाण य के बारे म ब त कुछ सुन चुके थे। उ ह यह जानकर काफ नराशा ई
क आचाय चाण य त शला से थान कर चुके ह। वा तव म चाण य के थान करने
का कारण ही सकंदर का आगमन था। यह बात यवन नह जानते थे। आचाय चाण य से
बाद म भ प र थ तय म उनका सामना तो होना ही था।

पु (पोरस) के साथ यु
ी म ऋतु का अंत हो चुका था। आकाश म बादल क टु क ड़यां वषा ऋतु का
संदेश लेकर आ रही थ । केकय रा य पर यवन के आ मण का खतरा मंडरा रहा था।
एक शाम यवन सेनानायक ने यवन सै नक को बताया क उ ह रात को झेलम नद
पार करनी है। स ाट सकंदर ने केकय पर आ मण करने का आदे श दे दया था। केकय के
राजा पु ने सकंदर का आ धप य वीकार करने से इनकार कर दया था। रात को हजार
यवन ने घोड़ पर सवार होकर नद पार क और केकय दे श म घुस गए।
पु क सेना कसी और ही थान पर यवन के नद पार करने क ती ा कर रही
थी। वह यवन क छल नी त से अन भ थी। यवन ने ठ क उनके सामने सरे तट पर ब त
सी नाव एक कर रखी थ , यह आभास दे ने के लए क सकंदर क सेना वह से नद पार
करेगी। परंतु यवन ने उस थान से काफ र एक थल को नद पार करने के लए पहले ही
चुन रखा था। वहां नद का पाट ब त चौड़ा था व पानी क गहराई कम। रात के अंधेरे म भी
अ ारोही सरलता से नद पार कर सकते थे और यही आ भी।
केकय सेना को छले जाने का पता भोर म ही लग गया था, जब उस थान से र
नद के घाट पर यवन सै नक क पं ब टु क ड़य का भारी जमावड़ा उ ह नजर आया।
पर अब या हो सकता था। बना यु कए हार मानने का ही नह था। केकय सै नक
मरने-मारने क ठान चुके थे। दोन सेनाएं एक सरे पर टू ट पड़ । पु एक हाथी पर सवार
होकर अपनी सेना का संचालन कर रहे थे। यवन अ ारोही सै नक के पास लंबे बछ तथा
जंजीर से लटकते कांटेदार धातु के गोले थे। बछ और गोल क मार से पु क सेना पर
भारी मार पड़ने लगी। केकय सै नक श ु के नकट भी नह प ंच पा रहे थे। र से ही बछ
उ ह ब ध डालते अथवा गोले कपाल या कर दे त।े यवन इस तरह पं ब थे जैसे अभे
मानव द वार खड़ी हो गई हो। उनके शरीर कवच के पीछे सुर त थे।
केकय सेनाप त ने अपने सै नक क दशा दे खकर हा थय को लाने का आदे श
दया। इस बीच आं भक क सेना ने भी एक ओर से मोचा संभाल लया तथा केकय सेना पर
वार करने लगी। केकय सै नक एक हजार हाथी ले आए और उ ह अपने सामने खड़ा कर
दया। अब वे हा थय क बगल व उनक टांग के पीछे से यवन तथा आं भक क सेना पर
तीर वषा करने लगे। इससे यवन च तत हो गए। यवन सेना नायक ने मं णा क व नई यु
नी त को अपनाया गया। आं भक क सेना को र से हा थय पर बाण छोड़ने के लए कहा
गया। वयं यवन ने अपने बछ हा थय पर फके। तीर व बछ क मार से आहत हाथी
चघाड़कर पीछे मुड़े व केकय सै नक को कुचलते ए पलायन कर गए।
केकय सेनाप त ह भ रह गया। उसे समझ ही नह आ रहा था क बचे खुचे
सै नक का वह कैसे मनोबल बढ़ाए। वे प त हो चुके थे। यवन व आं भक के सै नक ने उ ह
आगे आकर मारना-काटना आरंभ कर दया।
इस बीच पु यवन-आं भक सै नक से घर चुके थे। उनका हाथी मार गराया गया।
यवन सै नक ने उ ह बंद बना लया। बे ड़य म जकड़े पु को दे खकर आं भक के कलेजे म
ठं डक प ंची। उसके होठ पर एक कु टल मु कुराहट खेल रही थी। यह ण आं भक के
जीवन के सवा धक संतु करने वाले ण थे। ऐसे ण जनम जीवन क साध पूरी होने क
स ता लबालब भरी होती है। आं भक को आशा थी क सकंदर पु को मौत के घाट
उतार दे गा।
नयत समय पर बे ड़य म जकड़े पु को सकंदर के स मुख लाया गया। सकंदर के
मुख पर घृणा के भाव नह थे। वा तव म जस वीरता से पु व उसक सेना यु साज-
स जा व कला म े यवन सेना से लड़े थे, उससे सकंदर ब त भा वत था। सकंदर
आ खर एक यो ा था तथा वीर श ु का आदर करना उसका वभाव था। यु ने उसे इतना
समदश तो बना ही दया था।
सकंदर बोला, “तुम इस दे श के राजा थे, ले कन अब बे ड़य म जकड़े खड़े हो।”
पु ने कहा, “य द म यु जीत गया होता तो तुम मेरी जगह बे ड़य म जकड़े खड़े
होते।”
सकंदर ने पु को घूरकर दे खा।
फर उसने पूछा, “बोलो तु हारे साथ या वहार कया जाए?”
पु ने नभ क वर म उ र दया, “जैसा एक स ाट सरे स ाट के साथ करता
है।” इस नभ क तथा बेलाग उ र से सकंदर स हो गया। उसने सर ऊपर-नीचे हलाकर
कहा, “ब त अ छे । तु हारे उ र से म स आ। म तु ह अपनी ओर से केकय, उरसा तथा
अ भसार का शासक नयु करता ।ं अब से तुम हमारे म ए।”
पु ने सर झुका कर कहा, “म आपक उदारता तथा स ची यो ा वृ का
अ भवादन करता ।ं आपके साथ सदा सहयोग करना मेरे जीवन का सौभा य होगा।”
यह नया अ या शत मोड़ आं भक को जरा भी उ चत नह लगा। वह तो पु के वध
कए जाने क ती ा कर रहा था। उसे सकंदर एक सनक लगा। परंतु सकंदर के नणय
पर उंगली उठाने का तो आं भक म साहस न था और न ही कोई अ धकार।”
आं भक क कथा सुनाने के बाद चाण य ने शकटार को समझाने का य न कया
क उसका स ाट धनानंद से मलना कतना आव यक था। वे उ ह सकंदर क सारी चाल
के बारे म बताना चाहते थे क कस कार वह हमारे धम व सं कृ त के लए अ न कारी
था। पूव प मी रा य के पतन के नचले न कष को चाण य व तार से धनानंद को
समझाना चाहते थे। आचाय शकटार भी चाण य से पूणतया सहमत थे। उ ह भी सकंदर के
अ भशाप का आभास हो गया था। आचाय शकटार बोले, “ म वर! अब म जान गया ं क
आपका स ाट को व तु थ त के बारे म सूचना दे ना कतना आव यक है। स ाट धनानंद
जी से भट करवाने म कोई अड़चन नह है। म तो ं ही। आप कल दरबार म आ सकते ह। म
आपका प रचय स ाट से करवा ं गा। फर आप न संकोच अपनी बात उनसे कह सकते ह।
म अपनी ओर से आपके कथन क पु करता र ंगा।”

अपमा नत चाण य
सरे दन स ाट धनानंद का दरबार सजा था। स ाट वयं अपने र नज ड़त
सहासन पर वराजमान थे। दरबार म राजसी शान क बहार थी। चार ओर आंख चुं धयाने
वाली सजावट थी। स ाट के सर पर हीरे-जवाहरात से मं डत मुकुट था। गले म ब मू य
हार तथा सरे आभूषण थे। तन पर मू यवान झल मलाते व थे, ज ह बनवाना केवल
राजा के बस क ही बात थी।
मं ीगण, अ धकारी, सेनानायक, भू मप त, सेठ व दरबारी अपने े व तथा
आभूषण से स जत अपने-अपने आसन पर बैठे थे। थान- थान पर वशेष प रधान पहने
संतरी पहरा दे रहे थे। सरे दरबारी कमचारी अपनी-अपनी जगह अपना कत नभा रहे
थे।
अमा य शकटार स ाट के सहासन क बगल म अपने आसन पर बैठे थे।
स ाट धनानंद य प बूढ़े थे परंतु उनका व भ था। अपनी युवाव था म वह
एक बांके सजीले नवयुवक थे। उनके 40 वष य पु म आज वही बांकापन था। धनानंद के
ातागण भी अ त आकषक व के वामी थे।
नयत समय पर चाण य ने दरबार म पदापण कया। शकटार ने दरबान को पहले ही
चाण य के बारे म बता दया था। चाण य का आ टपकना कुछ ऐसा ही था जैसे हीरे-
मो तय के ढे र म कोयले का टु कड़ा आ गरा हो। शारी रक प से वह ठगने, काले व कु प
थे। कुछ लोग का कथन है क उनके मुख पर चेचक के दाग भी थे। वेषभूषा भी उनक
साधारण य क थी।
दरबार म उप थत लोग ने चाण य को उपे ा से घूरा। कुछ दरबारी उपहास क
से भी दे ख रहे थे। ऐसे य क भी कमी नह थी जो दबे वर म चाण य को
दे खकर हंस रहे थे। स ाट धनानंद को उनका आना अना धकार चे ा लगा। उसके मुख
मंडल पर ोध के भाव उभरे, भृकु टयां तन ग ।
उस भद्दे का आगमन उसे दरबार क शान म बट् टा लगने जैसा लगा। फर
चाण य क कु पता को दे ख वह हंसे बना न रह सका। वह अपनी वीभ स हंसी ारा
चाण य को दरबार म आने क भूल करने का कठोर दं ड दे रहा था।
स ाट को हंसता दे ख दरबारी भी खुलकर हंसने लगे। मगध दरबार एक अ ील
अट् टहास से गूंज रहा था।
घोर अपमा नत चाण य जड़ होकर रह गए थे।
अमा य शकटार को यह दे ख बड़ी ल जा आई। उ ह ने अपने म को बचाने के
य न म खड़े होकर सबको शांत होने का संकेत कर कहा, “आदरणीय सभासदो। म
आपका प रचय त शला व व ालय के महान आचाय व ान चाण य से कराना चाहता
ं जो अभी हमारे दरबार म पधारे ह। ये हम एक ब त मह वपूण मं णा दे ना चाहते ह जो
हमारे रा य के लए लाभदायक स होगी।”
धनानंद ने टे ढ़ से आचाय शकटार को दे खा और ट पणी क , “यह कु प
ा ण हम या मं णा दे गा? मेरे इस सुंदर दरबार म इस भ े का काम नह है। हम
तो इसक यहां उप थ त पर ही आप है।”
दरबा रय ने स ाट क बात के समथन म अपने सर हलाए। उधर ोध के अ तरेक
म आचाय चाण य का सारा शरीर कांप रहा था। ऐसे तर कार तथा अपमान क उ ह ने
सपने म भी क पना नह क थी।
मगध सा ा य के दरबार के फूहड़पन से आचाय शकटार भी आहत थे। उ ह यह तो
पता था क धनानंद वलासी ह, लोभी तथा अहंकारी ह परंतु आज उ ह पता लगा क स ाट
म श ाचार क भी इतनी कमी है। उ ह समझ नह आ रहा था क या कर। बात इतनी
बगड़ चुक थी क उसे बनाने का कोई उपाय नह सूझ रहा था।
फर भी उ ह ने एक टू टा फूटा यास कया, “हे स ाट े ! इस दरबार म...”
उनका वा य पूरा न हो पाया। दरबा रय क ख लय क गूंज म उनका यास
छटपटा कर डू ब गया।
चाण य भी अब चुप नह रहने वाले थे। उनका ोध श द म ढलकर उनक ज ा
से लुढ़क कर बाहर आने के लए जोर मार रहा था। उ ह ने चीख कर कहा, “म इस दरबार म
यह सोचकर आया था क कदा चत इस थान पर एक का मू यांकन उसक यो यता
अथवा व ा पर कया जाता होगा। पर यहां तो सब कुछ वपरीत है। यहां इतना
छछलापन है क एक मनु य को उसके शारी रक रंग- प से तौला जाता है। एक क
बु व श ा का यहां कोई मोल नह है। मूख क सभा है यह दरबार।”
अब तक हंसते दरबारी मौन हो गए थे। सबक नगाह स ाट धनानंद क ओर उठ
ई थ य क उ ह व ास था क वे ऐसी धृ ता कभी सहन नह करगे।
धनानंद ने ोध से चाण य को दे खा और फुफकारते ए बोले, “तु छ ा ण! मेरे
दरबार को कु प व ा क कोई आव यकता नह है। मगध स ाट से श ता से वाता करो
अ यथा तु ह कठोर दं ड दया जाएगा। तुम हो या? वयं को या समझ रहे हो?”
चाण य ने घोषणा क , “म वयं को या समझता ं यही उसका मह व नह है।
परंतु सभी यह सुन लो क म इसी दरबार म ण करता ं क अहंकारी नंद वंश को ही समूल
न करके दखा ं गा। एक ऐसा अहंकारी शासक जसम व ान का आदर करने क भी
समझ नह है, वह सहासन पर बैठने का अ धकारी नही है। ऐसे शासक का अंत होना ही
सबके लए ेय कर होगा। जब तक मेरा ण पूरा नह होता म अपनी वेणी नह बांधूंगा।”
ऐसा कहकर सबके सामने चाण य ने अपनी वेणी खोल द । सारा दरबार ह भ
होकर दे खता रहा। स ाट ोध क मू त बने अपने सहासन पर बैठे रहे।
आचाय शकटार पर तो कुठाराघात ही हो गया था।
अपना ण सुनाकर आचाय चाण य वहां से पैर पटकते ए चले गए।
घटना ने इतनी गंभीरता का प ले लया था क सब जड़ हो गए थे। न तो चाण य
को तुरंत दं ड दया गया। ना ही कसी ने उ ह रोकने का यास कया। दं ड तो दया जाना था
पर कुछ समय बाद, जब सबक सामा य बु लौटती व चाण य के ण क द डनीयता
समझने क यो यता आती।

तशोधक चाण य
पांसा फका जा चुका था।
अब चाण य के लए पाट लपु म रहना खतरे से खाली नह था। उ ह धर दबोचने
और द ड दे ने के लए स ाट के सै नक कसी भी समय आ धमक सकते थे। अतः चाण य
ने साधू का वेष धरा और बना समय खोए नगर छोड़ दया। सौभा यवश नगर के ारपाल
उ ह नह पहचान पाए, वह बच नकलने म सफल हो गए। चाण य नगर से र प ंच एक
वीराने म चले जा रहे थे। उ ह अपने ल य का पता नह था। उनके म त क म तो तशोध
क आग धधक रही थी उस पर कई योजनाएं पक रही थ । कुछ और सोचने क फुरसत
कहां थी? बस, पैर बढ़े जा रहे थे दशा व ल यहीन होकर।
अचानक उनका एक पैर कंट ली झाड़ी म फंस गया। कांट ने पैर को छे द दया। खून
क धाराएं बह नकल । उस जहरीले पौधे क प य ने पैर म जलन पैदा कर द । चाण य
ने ो धत उस झाड़ी पर डाली, उ ह उस झाड़ी म राजा महानंद जैसी ही ता नजर
आई। जैसे उस राजा के श द ने उनका दय ब धा था व तन-मन म अपमान क
तल मलाहट व जलन पैदा क थी। उस कंट ली जहर बुझी झाड़ी ने वही हाल उनके पैर का
कर दया था।
अचानक चाण य उस पौधे पर टू ट पड़े। अपने डंडे से पीट-पीट कर उस पौधे को
उ ह ने तार-तार कर दया। उन पर उस झाड़ी को न करने का उ माद-सा सवार हो गया
था। तार-तार करने भर से चाण य को संतोष नह आ। उ ह ने झाड़ी के थान को खोदना
शु कया, तब तक दम नह लया जब तक उस झाड़ी क जड़ तक उ ह ने न उखाड़
फक । श ु को पूरी तरह न करने के बाद उ ह ने झाड़ी के अवशेष पर नगाह डाली व
संतोष भरी सांस ली। ह ठ पर ह क मु कराहट बखर गई।
तभी उ ह कसी और क वहां उप थ त का आभास आ। उ ह ने पाया क एक
युवक ब त कौतूहल से उनके काय-कलाप को दे ख रहा है। उसक आंख म कई च
थे।
चाण य ने अपने ल लुहान पैर क ओर इशारा कर प ीकरण दया, “वह पौधा
जहरीला व कंट ला था। उसे जड़ से न करना ज री था ता क वह कसी और को हा न न
प ंचा सके। इसी म बु म ा है।”
ु टहीन सं कृत म कहे गए श द ने युवक को बता दया क काले रंग का बावला
सा दखता एक उ च को ट का व ान है। उसने पूछा, “महोदय! आप कौन ह और
य इस वीराने म ठोकर खाते फर रहे ह? यह तो प है क आप व ान ह।”
चाण य ने लंबी सांस भर कर कहा, “युवक! म त शला का ा यापक यहां नए
अवसर क खोज म आया था। मां सर वती के पुजा रय क नय त ही ठोकर खाना और
नधनता से जूझना है। परंतु तुम कौन हो जो युवाव था म वीराने क खाक छान रहे हो?
लगता है, सं ात कुल के हो।”
युवक ने वीकार कया, “हे व ान! म एक क ठन दौर से गुजर रहा ं। पर म
अपनी भा यपूण कहानी का भार आप पर नह डालूंगा।”
चाण य ने आ ह कया, “ म ! म तु हारी था सुनना चाहता ।ं हो सकता है म
तु हारी सम या का कोई हल सुझा सकूं। फर समझदारी इसी म है क अपने ख म
व त म को भागीदार बनने का अवसर दे , भार ह का करे। व ास करो क म कोई
गु तचर नह ं।”
युवक आ त आ। उसने बताया, “मेरा नाम चं गु त है। म इसी दे श के भूतपूव
राजा सरवथ स का पौ ।ं उनके दो रा नयां थ —सुनंदा और मौरा। सुनंदा ने नौ पु
को ज म दया जो ‘नवनंद’ कहलाए। मौरा के केवल एक पु आ, वही मेरे पता थे।
कालांतर म नवनंद व मेरे पता म उ रा धकार को लेकर श ुता ठन गई। राजगद्द पर
नवनंद का अ धकार हो गया। मेरे पता क मृ यु के बाद नंद ने मेरे ाता को मार डाला।
म कसी कार बच गया। अब म अपनी माता के साथ एक ाम म गु त प से रहता ं। मेरे
जीवन का उद्दे य नंद से तशोध लेना है। पर कैसे, यह समझ नह आता। यही मेरी
कहानी है और यही ख मेरे जीवन को स रहा है।”
चाण य मु कराए। उ ह ने चं गु त को स ाट धनानंद ारा कए अपने अपमान क
कहानी सुनाई। उ ह ने चं गु त को उनके साथ मलने का सुझाव दया य क दोन का
उद्दे य एक ही था—धनानंद का वनाश करना। चाण य ने व ास दलाया क वह चं गु त
को मगध रा य क गद्द पर बठाने का चम कार कर सकते ह य द चं गु त पूरी तरह
उनका साथ दे ।
दोन चं गु त क मां के पास गए। चाण य उनसे चं गु त को अपना अनुयायी
बनाकर ले जाने क आ ा मांगना चाहते थे। मां ने सहष अपनी वीकृ त दे द । वह वयं
महानंद से बदला लेना चाहती थी, य क उसी ने चं गु त के नाना अथात उनके पता क
ह या भी करवाई थी।
चाण य को यह जानकर स ता ई क बचपन म खेल म साथी बालक चं गु त
को राजा या सेनाप त का रोल दे ते थे। इससे यह मा णत होता था क चं गु त म नेतृ व का
ज मजात गुण था। जस को चाण य स ाट बना दे खना चाहते थे उसम यह गुण
होना आव यक था। चं गु त क माता ने चाण य को नंद क पूरी कहानी सुनाई जैसी उसे
बताई गई थी।

नंद क कहानी
शशुगु त वंश म मगध पर शासन करने वाले नंदवधन अं तम शासक ए। उ ह ने
वला सतापूण व नरंकुश शासन चलाया। नंदवधन ने अपने नकट के छोटे -छोटे रा य तथा
जम दा रय पर केवल इस लए चढ़ाई क ता क वे उनक सुंदर म हलाएं छ न सक व अपने
जीवन को और रंगीन बना सक। ऐसे शासक थे नंदवधन।
एक बार वे अपने रा य का दौरा कर रहे थे। आ धका रक प से उनक या ा जा
के ख-सुख क खबर लेना था पर असली उद्दे य उनका रा य क सुंद रय पर अपनी
कु डालना था। एक ामीण े म उ ह एक अ न सुंदरी नजर आई। ऐसी यौवना
उ ह ने अपने जीवन म पहले कभी नह दे खी थी। उनका कामुक मन उस पर मु ध हो गया।
उनके इशारे पर यौवना के प त को सै नक ने कसी बहाने मार डाला और उस यौवना का
अपहरण कर लया।
वह यौवना कोई उ च कुल क म हला नह थी। वह तो एक चांडाल क प नी थी।
उसका नाम महामाया था। महामाया को महल म लाया गया और वह नंदवधन क
अंकशा यनी बन गई।
महामाया अपने मृत प त से ब त ेम करती थी। उसक मृ यु को वह कभी भुला न
पाई। उसके मन म बदले क आग सदा सुलगती रहती थी। नंदवधन क अंकशा यनी बनने
के बावजूद वह उसक मन ही मन श ु बनी रही। महामाया साधारण ी नह थी। सर को
अपने वश म करने क उसम ज मजात कला थी। वह वाकपटु भी थी। उसके महल म आने
के बाद सब उसके मायावी भाव के अधीन हो गए। महल के सारे कमचारी उसके इशारे पर
नाचने लगे। नंदवधन क सरी रा नयां उसके आगे बेबस थ । और स ाट नंदवधन तो उसके
हाथ क कठपुतली बन गए थे।
महामाया नंदवधन से इतना गु त े ष रखती थी क उसने कई बार उसक ह या
करवाने के य न कए परंतु वह षड् यं वफल रहे।
इसी बीच महामाया गभवती हो गई तथा उसने एक पु को ज म दया। अब उसका
सारा यान अपने पु के लालन-पालन पर क त हो गया। उसे अपना बेटा नंदवधन के
तशोध लेने का सव म साधन लगने लगा। अतः कसी दाई या आया क छाया उसने
अपने पु पर नह पड़ने द । उसक दे ख-रेख का सारा दा य व राजम हला होने के बावजूद
उसने वयं संभाला। बचपन से ही बेटे म उसने नंदवधन के व वष भरना आरंभ कया।
उसके म त क म यह बात बैठा द गई क नंदवधन वह पशु है जसे जीने का कोई अ धकार
नह है।
बेटा नंदवधन से घृणा करता बढ़ता रहा। उसने ण कर लया क जैसे ही उसे
अवसर मलेगा वह नंदवधन नामक अ भशाप को धरती पर से मटा डालेगा। वह अपनी
माता महामाया को स दे खने के लए कुछ भी कर सकता था। य द नंदवधन क मृ यु
महामाया क स ता का कारण बन सकता था तो ऐसा ही सही। वह उसके जीवन का
पहला उ े य बन गया।
जब वह युवाव था को ा त आ तो एक दन स ाट नंदवधन को अपने क म
उसने रात को अकेला पाया। वह ऐसा अवसर कैसे खोता? तलवार के एक वार से उसने
नंदवधन का सर धड़ से अलग कर दया।
अब चतुर महामाया ने अपना जाल फैलाया। अफवाह फैला द गई क स ाट का
व ो हय ने वध कर दया है। फर उसने अपने पु को सहासन का उ रा धकारी घो षत
करवा दया। उसका बेटा ‘महाप नंद’ क शासक य उपा ध के नाम से मगध का स ाट
बना।
महाप नंद ने अपनी माता के परामश पर नंदवधन के वफादार तथा सभी व त
मं य , सेनानायक तथा मु य अ धका रय को स ाट के व व ोह के अपराध म
कारागार म डलवा दया। बाद म उ ह मृ युदंड दे दया गया।
इस कार नंद वंश का आरंभ आ। महाप आरंभ से अ छा शासक व यो ा
मा णत आ। उसने अपनी कुशलता तथा वजय से मगध को एक श शाली सा ा य
बना दया। आरं भक सफलता के बाद उसक ना ड़य म बहता एक का खून रंग
लाने लगा। वह धीरे-धीरे पथ हो गया। वह वयं रंगर लय म डू बा रहने लगा। उसके मं ी
व अ धकारी छू ट पाकर रा य म लूटपाट मचाने लगे। जा त हो गई। पर जा क कोई
सुनने वाला नह था। शोषण तथा ाचार का सारे मगध म नंगा नाच होने लगा। महाप
अपने पता क भां त जा क सुध छोड़कर अपनी कामवासना संतु करने म लगा रहता।
मगध सा ा य म ही प प लवन नामक एक छोटा-सा रा य था। सवथा स
सूयवन उस रा य का शासक था। उसक रानी मौरा एक अ त सुंदर ी थी। उसक सुंदरता
के चच र- र तक फैले थे। महाप ने भी उसके बारे म सुना और उसे पाने के लए उसका
मन मचल उठा।
महाप अपने पता के पद च पर चल रहा था, जैसे अपने पता का इ तहास
दोहराना उसका ल य बन गया हो। वह भी अपने रा य क सुंदर युव तय को अपने सै नक
भेजकर बलपूवक उठवाता तथा अपने महल क शोभा बनाता। उसका अंतःपुर सुंद रय से
भरा पड़ा था परंतु उसक कामवासना थी क संतु होने का नाम नह लेती थी। अब उस पर
मौरा को अपनी अंकशा यनी बनाने क धुन सवार हो गई थी।
एक दन उसने अपने एक व त सेनानायक को प प लवन पर चढ़ाई कर मौरा
को लाने का आदे श दया। सेनानायक सेना क एक टु कड़ी लेकर प प लवन क ओर स ाट
के आदे श का पालन करने चल पड़ा। उस समय सूयवन कुछ सै नक के साथ आखेट पर
गया आ था। मगध सै नक ने प प लवन के राजमहल के चार ओर घेरा डाल दया।
सेनानायक ने महल के र क को अपने आने का उद्दे य बताया तथा रानी मौरा को उ ह
स पने के लए कहा। ऐसा न करने पर रानी को बलपूवक ले जाने क धमक द ।
र क ने इसक सूचना भीतर जाकर प प लवन के सेनानायक को द । सेनानायक
ने रानी को स पने से साफ इनकार कर दया तथा यु क चुनौती द य प प प लवन क
सेना ब त छोट थी। छोट -सी े ीय सेना भला मगध सा ा य क सेना क टु कड़ी का कब
तक सामना करती?
जब राजा सूयवन आखेट से लौट रहे थे। तो उ ह र से एक सै नक घोड़े पर उनक
ओर आता द खा। नकट आने पर उ ह ने पाया क सै नक घायल था। सूयवन का माथा
ठनका।
सै नक ने प प लवन राजमहल पर मगध सै नक ारा ए आ मण के बारे बताया
तथा उनका उद्दे य भी नह छपाया। सूयवन को अ यंत ोध आया। उसने अपने घोड़े को
ऐड़ लगाकर महल क ओर दौड़ाया। उसके साथ के सै नक ने भी उनका अनुसरण कया।
घोड़े सरपट दौड़े व शी ही आखेट दल महल के मु य ार पर प ंचा। चार ओर
प प लवन के सै नक मरे अथवा ज मी ए गरे पड़े थे। उनम कुछ मगध के सै नक भी थे।
तभी उ ह ने मगध सेनानायक को सै नक के साथ रानी मौरा को महल से बाहर
लेकर आते दे खा। सूयवन ने उनको ललकारा। दोन दल म एक सं त यु आ। सूयवन
के साथ केवल आठ-दस अंगर क थे। वे कब तक टकते? सूयवन को बंद बना लया गया।
महाप नंद ने सूयवन को एक अंधकूप म डलवा दया।
राजा सूयवन तथा रानी मौरा का एक रह य था जो कसी और के ान म नह था।
मौरा गभवती थी। य प गभ के ल ण अभी कट नह ए थे परंतु सूयवन और मौरा को
गभ के बारे म संदेह नह था। कभी-कभी यह आभास प त-प नी को र त या के बाद हो
जाता है। सूयवन ने कुएं म डाले जाने से पहले एक गु त संदेश मौरा के पास भजवा दया
था क रानी को अपने गभ म पल रही उनक संतान क र ा करनी है और उसके हत के
लए कोई भी समझौता करना पड़े, वह करे।
मौरा को अपने गभवती होने पर पूरा व ास था। जब महाप ने उसे अंतःपुर क
सद य बनने का नमं ण दया तो वह बना कसी तरोध के मान गई।
नयत समय पर मौरा ने एक पु को ज म दया। मौरा ने यही बताया क उसका पु
महाराज महाप का ही पु है। अतः उसके बेटे का लालन पालन एक राजकुमार क भां त
ही आ। वयं मौरा को अंतःपुर म रानी का दरजा कभी नह मला। उसे एक दासी ही
समझा गया। मौरा को इससे कोई ख नह था। उसका सारा ल य केवल अपने बेटे को
राजकुमार सा जीवन दान करना था ता क वह श त हो सके व संभव हो तो अपने
वा त वक पता क दशा का तशोध ले सके।
जब राजकुमार बड़े हो गए तो उनम वरासत के लए झगड़े होने लगे। महाप के
सरे बेटे मौरा के बेटे को राजकुमार मानने को कतई तैयार नह थे। वे उसे दासी का बेटा ही
मानते थे। नंद राजकुमार ने मौरा तथा उसके बेटे पर अ याचार करने आरंभ कर दए।
उनके अ याचार से बचने के लए मौरा ने बेटे समेत राजमहल छोड़ दया। तब उसने
अपने बेटे को स चाई बता द क उसका वा त वक पता राजा सूयवन था जो मगध के
अंधकूप म कारावास भुगत रहा था।
दोन मां बेटे प प लवन चले गए। परंतु अब प प लवन सूयवन के सरे बेट के
अ धकार म था। यह सूयवन क सरी रानी ( ये ) से उ प थे। उ ह ने मौरा के बेटे को
सूयवन क संतान मानने से इनकार कर दया। उनका यही कहना था क मौरा का कथन झूठ
है। उसका बेटा महाप नंद क ही संतान है। मां बेटे को फर पाट लपु लौटना पड़ा। परंतु वे
राजमहल नह गए। बाहर रह कर ही गुजारा करते रहे। मौरा ने बेटे का ववाह मुरा जा त के
एक सरदार क बेट से कर दया।
उनके कई बेटे पैदा ए। इस बीच नंद राजकुमार को मौरा के बेटे का पता लगा।
वे फर उ ह न करने क योजना बनाने लगे। नंद मौरा के कई पोत क ह या करने
म सफल हो गए। केवल एक बेटा बचा जो बाद म चं गु त नाम से चाण य को मला। नंद
से अपनी जान बचाने के लए चं गु त और उसक मां एक गांव म गु त वेश से साधारण
कामगार के वेश म रहने लगे।
मौरा का नधन हो गया था। चं गु त क माता मुरा दे वी के पता क भी नंद ने ह या
करवा द थी, इसी लए वे गु तवास ारा जी वत बचे रहने म सफल हो गए थे। इन
प र थ तय म चं गु त क सामा य श ा नह हो पाई थी। चं गु त ने अपने नाम के साथ
मौय जोड़ना आरंभ कर दया था जसका कारण शायद उसक दाद मौरा थी या माता
मुरादे वी।
चं गु त क चाण य से मुलाकात तब ई थी जब चाण य स ाट धनानंद के दरबार
म अपमा नत होने के प ात तशोध क भावना म जलते ए नजन वन म भटकते ए
एक कंट ली झाड़ी म अपना पैर ज मी कर बैठे थे। धनानंद गद्द का उ रा धकारी कैसे
बना यह भी एक रोचक कहानी है। कहते ह क महाप के नौ बेटे ए। धनानंद उनम सबसे
ये था और अमू यानंद उससे छोटा। जैस-े जैसे महाप बूढ़े होते गए उनक कामुकता
बढ़ती गई। वला सता के अ त र उ ह कुछ और सूझता नह था। उनके महामं ी को भी
समझ नह आ रहा था क या उपाय कया जाए। शासन व था न हो रही थी। जनता
पर अ याचार बढ़ते जा रहे थे। स ाट केवल चापलूस तथा दलाल क ही बात सुनते थे।
अब स ाट के पास केवल दलाल तथा दास ापा रय क ही पूछ होती थी। दलाल
ापारी सु र दे श से ब ढ़या म दरा तथा दा सयां लेकर आते थे। र दे श से खरीद कर लाई
बाला का महाप को च का लग गया था। ापा रय को स ाट मुंहमांगे दाम और ढे र
सारे पुर कार दे ते थे। महल म वह ापारी दलाल बेखटके आया जाया करते थे।
एक ऐसा ही दास ापारी स ाट का खास चहेता बन गया था। वह पहले भी कई
बार म दरा व बालाएं ला चुका था। स ाट उससे अ त स थे। ापारी को स ाट क पसंद
नापसंद का अ छा ान हो गया था। अतः वह उसी को यान म रखकर माल लाता था।
इस बार भी वह वदे श या ा से आया था और सीधे स ाट से मलने चला आया था।
महल के संतरी उसे जानने लगे थे। वह उ ह भी उस ारा उपहार व इनाम दया करता था।
अतः जब भी वह आता सीधे स ाट के पास प ंचा दया जाता। स ाट उससे अपने नजी
क म अकेले म ही मलते थे।
वह ब त उ सा हत लग रहा था। स ाट को णाम करने के बाद वह बोला,
“महास ाट, इस बार म आपक सेवा म वशेष उपहार लाया ।ं सु र पूव म गया था। वहां
क सबसे ब ढ़या म दरा खोज लाया ।ं मु ा ब त लगी परंतु स ाट के लए तो मु ाएं
कौ ड़य के समान ह।”
“और या लाए हो?” स ाट ने अधीरता से पूछा।
“और भी ब त कुछ लाया ं, स ाट! एक ऐसा जोड़ा जैसा पहले यहां कभी नह
आया। बालाएं या ह क उनके सामने अ सराएं भी फ क पड़ जाएं। जब म आपक सेवा
म उ ह तुत क ं गा तो न त ही आप स हो जाएंगे।”
“उ म! तुम भी हा न म नह रहोगे े ी। तु ह उ चत पुर कार मलेगा सदा क
भां त। तो कब ला रहे हो?” कामुक स ाट क सांस फूल रही थ व लार टपक रही थी।
“स ाट, आप रंगशाला म अकेले र हए। म अधरा को आपक सेवा म सब तुत
क ं गा,” ापारी धीमे वर म षड् यं कारी क भां त बोला।
स ाट ने सहम त म सर हलाया। ापारी अ भवादन करके स मु ा म चला
गया।
रात को नयत समय पर स ाट अकेले थे। उनका ापारी दलाल अपने वादे के
अनुसार तुत आ। उसके साथ एक सेवक था जो थाली म कुछ उठाए था जस पर रेशमी
कपड़ा पड़ा था। दो आकृ तयां भी थ जो सर से पैर तक रेशमी आवरण म ढं क थ । स ाट
ने यान से उन आकृ तय को दे ख अनुमान लगाया।
दलाल ापारी ने अपने सेवक को संकेत दया और सेवक ने थाल पर से कपड़ा
गरा दया। थाल म तीन अ त आकषक सुरा हयां रखी थ और था एक चांद का
न काशीदार गलास।
ापारी बोला, “स ाट, यह म दरा उस दे श का उपहार है जहां हंस याम होते ह
और काग ेत। यह व म सव े मानी जाती है। र ाभ आकाश का सा रंग है इसका।”
स ाट क तो रेशमी आवरण म ढं क उन आकृ तय पर जमी थी। बेताबी से
बोला, “उस आवरण के पीछे या है?” ापारी ने ताली बजाई। आकृ तय ने नाटक य ढं ग
से अपने आवरण उतार फके।
स ाट के स मुख आभूषण से सज दो कशोरवय क सांचे म ढली सी अ त मोहक
बालाएं थ । उ ह ने चु त पारदश कपड़े पहन रखे थे।
उ ह दे ख स ाट का दय उछलने लगा, वह पलक झपकना भी भूल गया। ापारी
क आंख चमक रही थ ।
एक बाला ने अपनी लंबी सुडौल उंग लय से गलास उठाया और सरी ने एक
सुराही उठाकर बड़ी नजाकत से म दरा क पतली गुलाबी रंग क धार गलास म उड़ेली।
पहली बाला नपे-तुले कदम से चलकर स ाट के पास आई और गलास उनके ह ठ से लगा
दया।
स ाट ने आंख आनंदम न हो बंद कर ल । म दरा सचमुच उ कृ थी। सरी बाला
सुराही लेकर पास ही खड़ी थी। स ाट क भूखी नगाह गलास वाली बाला के शरीर को घूर
रही थ ।
उसके ह ठ गुलाब क भोर के ओस म भीगी पंखु ड़य क तरह दहक रहे थे।
स ाट से रहा न गया। उ ह ने उसे पास ख चा और अपने बूढ़े ह ठ उन युवा ह ठ पर
रख दए। समय जैसे ठहर गया।
एकाएक स ाट को खांसी आई। उनका शरीर कांपने लगा। ने र ाभ हो गए।
चमड़ी का रंग नीला पड़ने लगा। दे खते ही दे खते वे आसन पर लुढ़क गए। एक वीभ स
हचक लेकर उनका शरीर न पंद हो गया।
वहां उप थत बाक चार स ाट का अंत शांत भाव से दे ख रहे थे। उनके
चेहर पर संतोष के भाव थे। दलाल ापारी ने बाला से कहा, “काय संप हो गया। इस
को जी वत रहने का कोई अ धकार नह था। अब हम यहां से चलना चा हए।”
बाला ने फर अपने आवरण ओढ़ लए व चार क से बाहर नकल गए। बाहर
मु य ार पर ापारी ने ारपाल से कहा, “स ाट व ाम कर रहे ह। वे कंबोज दे श क
म दरा पीकर न ाम न होना चाहते ह। उ ह कोई बाधा न प ंचाए। उ ह ने आदे श दया है क
कल ातः सूय दय के समय उ ह जगाया जाए।”
फर चार अंधकार म वलीन हो गए।
वे चार वा तव म एक पड़ोसी रा य के गु तचर थे। वह रा य जसे एक यु म वष
पहले महाप ने न कर दया था। जन चार ने स ाट क ह या म भाग लया था उ ह ने
उस यु म अपने नकट संबंधी खो दए थे। यह उनका तशोध था।
सुबह महामं ी को कसी आव यक काय से स ाट के पास जाना पड़ा। उ ह एक
आपात नदश लेना था।
स ाट के क का य दे ख वे सकते म आ गए। उनक अनुभवी आंख ने क का
नरी ण कया व यान से स ाट को दे खा। वचा का नीला पड़ा रंग दे खते ही वे समझ गए
क कसी वष क या ने स ाट क ह या कर द है।
वे कुछ दे र खड़े सोचते रहे।
फर कसी नणय पर प ंचकर वे क से बाहर नकले। महामं ी ने क का ार
बंद कर दया। उ ह ने सै नक को नदश दया क स ाट के क म कोई न जाए। महामं ी
सीधे सबसे ये राजकुमार धनानंद के महल म गए।
महामं ी को अनायास आते दे ख वह च का। उसके मुंह से नकला, “महामं ी
जी...?”
“हां। आपात थ त म महामं ी को स ाट के पास मं णा करने आना पड़ता है।”
धनानंद कुछ समझा नह , वह बोला, “स ाट? पर म तो...”
“अब आपक बारी स ाट बनने क आ गई है। स ाट महाप नंद का नधन हो
गया है।” महामं ी ने सूचना द ।
“क...कैसे?”
महामं ी ने समझाया, “स ाट! यह य और कैसे पर वचार करने का समय नह
है। व ोह न हो और अराजकता न फैले इस लए हम तुरंत स ाट क ाकृ तक कारण से
मृ यु क घोषणा करनी है। साथ ही आपके रा या भषेक क भी। इसी म हम सबका भला
है।”
महामं ी ने कुछ दे र तक फुसफुसाकर धनानंद को समय क गंभीरता तथा राजनी त
क आव यकता के बारे म समझाया।
धनानंद ने यान से उनक बात सुन ।
फर दोन उठ खड़े ए और उस क क ओर चल पड़े जहां महाप नंद का मृत
शरीर पड़ा था। रा ते म भी महामं ी ने ब त सी ऊंच-नीच व राजनी तक आव यकता क
बात बता ।
इस कार धनानंद मगध का स ाट बन गया था। आरंभ म तो वह भी अ छे शासक
का सा वहार करता रहा परंतु शी ही अपने पता क राह पर चल पड़ा। बूढ़ महामाया
को यह सब दे खकर ब त ख होता था।
वह सोचती यह कसके खून का भाव था?

योजनाकार चाण य
चाण य चं गु त को श चालन तथा यु कला म पारंगत करने के लए े नग दे ना
चाहते थे। परंतु सबसे आव यक चं गु त को व ालय क सामा य श ा दे ना था जससे
वह बु मान तथा कुशल शासक बन सके।
इसके लए वे चं गु त को त शला ले गए व वहां व व ालय म वेश दला
दया। कुछ इ तहासकार का मत भ है। वे मानते ह क त शला को तब तक वदे शी
आ मणका रय ने तहस-नहस कर दया था। वहां के ा यापक बेकार होकर व भ रा य
म लावा रस क तरह भटक रहे थे। चाण य उनम से कुछ को खोज नकालने म सफल हो
गए व उ ह चं गु त क श ा का भार स प दया गया। पर इसम कोई शक नह क चं गु त
ने लगभग सात वष उ च श ा हण करने म लगा दए। उसके साथ-साथ यो ा बनने क
उनक े नग भी चलती रही। चं गु त म यु कौशल क वाभा वक तभा थी अतः नपुण
यो ा बनने म कोई सम या सामने नह आई।
इस बीच यूनान क सेनाएं भारत के रा य को र दती ई पूव क ओर बढ़ रही थ ।
चं गु त और चाण य ने उनक रणनी तय का गहरा अ ययन कया। साथ ही यह भी दे खते
रहे क व जत रा य म यूनानी कस कार अपना शासन तं था पत करते ह। यह सब
नकट से दे खने व जानने के लए चाण य ने चं गु त व उनके कुछ सा थय को यूनानी सेना
क टु कड़ी म सै नक के प म भरती भी करवाया। वहां उ ह ने गु तचरी के रह य को भी
सीखा।
यूनानी व जत े म शासन खड़ा करते थे व शासन चलाने के लए एक
कमांडर नयु करते थे ज ह वे ‘ ॉप’ कहते थे। यह ॉप यूनानी सेना म भरती भारतीय
भी हो सकते थे।
वष अपनी धरती से र रह कर वदे श म लड़ते-लड़ते यूनानी सै नक थक चुके थे।
वे घर लौटना चाहते थे। इसी चाह म अ धकतर बीमार रहते थे। भारत म एक राजा को हराने
पर आगे सरा श शाली राजा उनके माग म आ जाता था। इसका कोई अंत ही नह आ
रहा था। मगध सा ा य तक प ंचते-प ंचते वे बेदम हो चुके थे। मगध क वशाल सेना से
भी उ ह नपटना बाक था।
सकंदर वयं बीमार हो चला था। उसने अपने दे श लौटने का फैसला कर लया।
उसके लौट जाते ही कई मुख यूनानी ॉप व ोह म मारे गए। कई भारतीय ॉप ने वयं
को वतं घो षत कर दया। कई आपस म ही लड़ने लगे। फर समाचार आया क बेबीलोन
म बीमार पड़ जाने से सकंदर क मृ यु हो चुक है। इसके साथ ही ॉप शासन का अंत हो
गया।
ॉप क इन लड़ाइय म चं गु त व उनके सा थय ने खूब मारकाट मचाई। इसी
घटना म म उ ह ने अपनी सेना भी खड़ी कर ली। चं गु त ने अपनी जोड़-तोड़ क
राजनी त का भी इन यु म भरपूर उपयोग कया।

कूटनी त चाण य
अब समय आ गया था जब चं गु त व चाण य को अपना असली यु मगध
सा ा य पर अ धकार करने व महानंद को न करने के लए लड़ना था। चं गु त ने मगध के
युवा तथा असंतु त व को अपनी ओर मला लया था। यु म टू ट कर ब त से सै नक,
जो लावा रस होकर घूम रहे थे, वे भी चं गु त क सेना म आ मले थे।
चं गु त क सेना ने मगध के म य भाग से अपना यु आरंभ कया। परंतु उ ह बार-
बार हार का मुंह दे खना पड़ा। मगध क सेना वशाल थी, सुग ठत थी तथा उ ह अमा य जैसे
यो य मं ी का नेतृ व ा त था। ॉप यु म अ जत अनुभव व कौशल यहां मगध क सेना
के व कुछ काम नह आ रहा था। चाण य तथा चं गु त को फर से अपनी यु नी त
पर वचार करना पड़ा।
न कष यह नकला क रा य के म य से यु लड़ना उनक भारी भूल थी। वह शेर
को उसक मांद म जाकर ललकारने जैसी मूखता थी। पाट लपु क सुर ा ब त मजबूत
थी। नगर ग के भीतर बसा था। ग म वेश के लए लगभग 64 ार थे। ग क सबसे
बड़ी सुर ा व था ग के चार ओर खुद खाई थी जसम पानी भरा रहता था। ऐसा
बताया जाता है क खाई लगभग 300 हाथ चौड़ी और चालीस हाथ गहरी थी। ग तक
प ंचने के लए अनेक पुल थे। इन पुल को चाहने पर ऊपर उठाकर हटाया जा सकता था।
जैसे ही चं गु त क सेना ने ग तक प ंचने का य न कया, पुल उठा लए गए थे। उसक
सेना के पास खाई पार करने का कोई और साधन नह था। और े से मगध क सेना क
टु क ड़य ने आकर उन पर पीछे से आ मण कया था। ब त क ठनाई से चं गु त तथा
चाण य जान बचाकर भागे थे।
अब उ ह यह समझ आ गई थी क उ ह आ मण सीमा से आरंभ कर राजधानी
क ओर बढ़ना चा हए था। दोन ने जान बचाने व फर से संग ठत होने के लए व याचल
पवत के साथ-साथ कूच कया था। वे कौशांबी होते ए मायापुरी प ंचे। फर वहां से
शवा लक पवतमाला के साथ-साथ चलते ए ूहण रा य म आ नकले। ूहण रा य मगध
सा ा य क सीमा के साथ लगा दे श था। अब वे मगध सेना क पकड़ से बाहर आ गए
थे।
ूहण म बड़ी सं या म व भ रा य के वे सै नक जाकर रह रहे थे जो सकंदर के
आ मण म मार खा चुके थे। उनके मन म सकंदर से बदला लेने क ब त ती भावना
थी। यूनानी सै नक के नाम से ही वे भड़क उठते थे।
यह चाण य व चं गु त के लए वरदान सा बत ए। उ ह ने उन सै नक को एक
कर संग ठत कया तथा अपनी नई सेना खड़ी कर द । सारे सै नक श त तो थे ही।
केवल उनके लए आयुध जुटाने पड़े तथा उ ह मान सक प से एक नई सेना म ढालना पड़ा
ता क वे चं गु त के ल य म ही अपनी उद्दे य स दे ख व उसके त तब हो जाएं।
चाण य व चं गु त ने अनुभव कया क मगध क वशाल सेना से लड़ने के लए
उ ह अभी और अनुभव ा त करना होगा, सम यु नी त तैयार करनी होगी। नई सेना
व नरेश को म बनाकर उनका पूण सहयोग ा त करना होगा। इसके लए उ ह कई यु
लड़ने ह गे व शासक को अपना आभारी बनाना होगा। यह सारे उ े य उ ह यूनानी ॉप के
व यु छे ड़कर ही ा त हो सकते थे, इससे वे और का व ास भी जीत सकते थे।
भारत छोड़ने से पहले सकंदर एक और चाल चल गया था। पाटन थ उस रा य
क राजधानी था जहां सकंदर ने भारत म अपना अं तम यु लड़ा था। वजय समारोह म
सकंदर ने अपने सारे ॉप तथा आ त भारतीय नरेश का स मेलन भी बुलाया था।
समारोह तथा स मेलन का सबसे बड़ा उद्दे य यूना नय के भारत अ भयान म ा त वजय
को थायी बनाना था। इसके लए सकंदर ने एक धूत योजना बनाई थी। स मेलन म आने
वाले भारतीय नरेश से उसने अपने-अपने े से अ धक से अ धक ववाह यो य युव तयां
लाने का आदे श दया था। इस कार समारोह म लगभग 700-800 युव तयां लाई ग और
उनका ववाह उन यूनानी सै नक से कर दया गया ज ह ॉप रा य क सुर ा के लए
भारत म ही रहना था।
इस कार यूनानी खून का भारतीय खून से मलन हो जाता और एक ऐसी पीढ़ पैदा
होती जसम भारत-यूनानी सं कृ त का संगम होता। इसी कार पी ढ़यां समय के साथ-साथ
आगे बढ़ती जात और यूनानी भाव का भारत म व तार होता जाता।
सकंदर ने अपने सबसे यो य सेनानी फ लप को वाहीर े का ॉप नयु कया।
उसे एक वशाल यूनानी सेना के साथ भारत म ही रहना था। उसक अपनी राजधानी थत
सै नक छावनी म पचास हजार सै नक थे। सकंदर ने गु त प से फ लप को यह भी संकेत
दया था क उससे जतने अ धक हो सके उसको अ धक यूनानी सै नक का ववाह भारतीय
युव तय से करवाना है।
फ लप एक वीर यो ा था।
परंतु वष के नरंतर यु से वह ऊब चुका था और मन थक गया था। सकंदर के
थान करते ही वह सुख ढूं ढ़ने लग गया। थानीय राजा तो व वलासी थे ही। उ ह ने
फ लप के मुंह को भी वलासी जीवन का खून चखा दया। अब फ लप सै नक कम और
भोगी अ धक बन गया। उसके सेनानायक ने भी उसी का अनुसरण कर लया। खाना, पीना
व भोग वलास उनक दनचया बन गया।
केकय दे श क राजधानी को ही फ लप ने अपना क बना रखा था। राजा पु का
राजमहल उसके लए खाली कर दया गया था। उसी म फ लप का डेरा था। राजा पु को
यह बात ब त चुभती थी। आरंभ म सकंदर ने उसे जो मान दया था वह धीरे-धीरे कम होता
गया व सकंदर के सेनानायक व अ धकारी वा मय का सा वहार करने लगे थे। राजा पु
भी यूना नय से अब चढ़ने लगा था। वह यूना नय को अपने रा य से भगाने का अवसर
तलाश करने लगा था।
महल के साथ ही एक हाट लगता था जहां थानीय लोग तथा ापारी वह सारा
सामान लाते थे ज ह यूनानी खरीदते थे। हाट म कभी-कभी बकने के लए दास-दा सयां भी
आती थ । एक दन एक दास-दा सय का ापारी आया। वह हाट म ब त ही सुंदर दा सय
और -पु दास का समूह लेकर आया था।
एक यूनानी सै नक ने बूढ़े ापारी का माल दे खा। उसे ब त आ य आ! उसने
बकने के लए आई इतनी सुंदर युव तयां तथा इतने व थ दास पहले कभी नह दे खे थे।
उसका मन दा सय के प म बेचने के लए आई युव तय पर आ गया।
उसने बूढ़े ापारी से उनके गुण व मू य पूछे। उसने एक दासी क ओर संकेत कया
और बोला क उसे वह ठ क दाम पर मल जाए तो ब त दास-दा सय को वह महल म
बकवा सकता है, य क महल को कमचा रय क आव यकता है।
बूढ़े ापारी ने सर हलाकर कहा क पहले वह कुछ दा सयां महल म बकवा दे तो
फर उसे उसक मनपसंद क चीज उपहार म कम दाम पर मलेगी।
सै नक ापारी को लेकर महल के अ धका रय को दखाने ले चला। दा सय का
झुंड व पांच-छह दास भी साथ गए। यूनानी अ धकारी व सेनानायक ॉप फ लप के साथ
बैठे कुछ मं णा कर रहे थे।
सै नक ने जाकर उनसे दा सय के बारे म बताया। सबक नगाह दा सय के झुंड पर
पड़ । उनक सुंदरता दे ख वे मु ध हो गए।
यूनानी भाषा म कई अथ ट प णयां क ग ।
बूढ़े ापारी ने वनती क , “यूनानी स ाटगण! ये साधारण बालाएं नह ह। इ ह
गायन, नृ य तथा राजसी पु ष का मनोरंजन करने क श ा द गई है। य द आ ा हो तो
एक नृ य तुत कर इसका माण दगी। तब आप वयं उसक उपयो गता समझगे तथा
मू यांकन करगे।”
यूना नय ने एक- सरे क ओर दे खा। फ लप ने सर हलाकर अपनी सहम त द ।
दा सय ने एक सामू हक नृ य तुत कया। नृ य एक वीर रस के गीत पर आधा रत
था। दासी बालाएं कटार और तलवार लेकर नृ य कर रही थ । यूनानी मं मु ध होकर नाच
दे ख रहे थे। नृ य के एक वशेष ब पर आते ही अक मात कसी ने कुछ गु त संकेत दया।
उसके साथ ही नृ य करती बालाएं यूना नय पर कटार व तलवार लेकर टू ट पड़ ।
नृ यांगना क ना यका कर भका ने पलक झपकते फ लप के सीने म कटार भ ककर
उसका काम तमाम कर दया। सरे अ धकारी भी मार डाले गए। दल के साथ भीतर आए
दास ने महल के भीतर थत अंगर क को मार डाला।
जो दास बाहर हाट म रह गए थे उ ह ने अपने गु त आयुध नकाल कर महल के
बाहर तैनात यूनानी सै नक को मार डाला अथवा बंद बना लया। बाद म र योद्घाटन
आ। दा सयां वा तव म श त सै नक थ । बकने वाले आए दास भी छ वेशी सै नक
थे। वे सब चुने ए लड़ाकू थे। बूढ़ा ापारी और कोई नह छ वेश म वयं चं गु त थे।
पु के सै नक भी इस अ भयान म स म लत थे।
यूनानी सेना क छावनी म अब तक जो कुछ महल म घटा उसका समाचार नह
प ंचा था। सै नक घटना म से बेखबर आराम कर रहे थे अथवा ड़ा आ द काय कलाप
म त थे। अक मात छावनी पर चं गु त तथा पु क सेना ने दो ओर से आ मण कर
दया। यूनानी बेखबर पकड़े गए। उ ह ठ क से संभलने का अवसर नह मला। पचास हजार
सै नक म से हजार गाजर-मूली क तरह काट डाले गए। हजार ने आ मसमपण कर दया
या बंद बना लए गए। अनेक सेना कमांडर चं गु त या पु क सेना म सेवा करने के लए
तैयार हो गए।
केकय एक बार फर वतं होकर पु का दे श बन गया। राजा पु क सहम त से
चं गु त तथा चाण य ने उनके 40 वष य पु पवतक को स ाट घो षत कर दया तथा
व धवत सहासन पर बठाया। इस उपकार के बदले पवतक ने सदा चं गु त का साथ
नभाने का वचन दया। ॉप फ लप क ह या करने वाली बाला कर भका कठ रा य क
राजकुमारी थी। फ लप ने एक यु म उसके पता और भाई को मार डाला था। उसी का
वह तशोध ले रही थी।
इस घटना के प ात चं गु त तथा कर भका काफ नकट आ गए थे। उनके म य
ेम का अंकुर फूटने लगा था।
चाण य क नगाह से उनका ेम छपा न रहा। परंतु उ ह इसम कोई आप नह
थी।
कर भका का सारा प रवार यु क भट चढ़ चुका था। चाण य ने उसे अपनी पु ी
घो षत कर उसे मान सक संबल दान कया था।
ॉप फ लप से नपटने के बाद चाण य व चं गु त ने सरे यूनानी कमांडर
यु दथमस को चुनौती दे ने का मन बनाया। यु दथमस सधु नद के पार एक बड़ी सेना लेकर
डेरा डाले बैठा था। वह एक कुशल यो ा था। यह संभावना थी क फ लप क मृ यु का
समाचार पाकर वह फर केकय पर अ धकार करने व यूनानी वच व को था पत करने
आएगा! चाण य ने परामश दया क उसे सधु तट पर ही रोकना होगा। वह इस पार आ
गया तो यूनानी समथक फर से संग ठत हो सकते थे और सम याएं खड़ी कर सकते थे।
कर भका ने भी यु दथमस के व यु भू म म जाने का मन बना लया। वह
चं गु त के साथ ही बनी रहना चाहती थी। चं गु त ूहण, व तक, केकय, कलूट व क मीर
क सेना का एक वशाल संयु दल लेकर सधु नद के तट पर प ंचा। तट के सरी ओर
यु दथमस यूनानी सेना के साथ मोचा संभाले था। यूना नय के अधीन क प मी गांधार,
बख या और ह ली रा य क सेनाएं भी उसके साथ थ ।
इ तहास म यह प उ लेख नह मलता क कस दल ने सधु नद पार कर सरे
दल पर आ मण कया। आ मण आ और यु भी। तकसंगत मत यही है क यूनानी सेना
ने नद पार क होगी य क उनके पास न दयां पार करने क मता थी, साधन थे व चुर
अनुभव था। यूना नय को उनके व वजय अ भयान के कारण यह सब लाभ ा त ए थे।
यु म चं गु त क सेना ने यूनानी सेनानायक को मार गराने म सफलता ा त
क । यह काय संभवतः पूरी यूनानी सेना के इस पार आ पाने से पहले कया गया होगा।
यु दथमस क मृ यु से यूनानी सेना का मनोबल चूर-चूर हो गया। वे प मी तट क ओर पीछे
हट गए। उनक भारत मूल क सेना ने चं गु त के सामने आ मसमपण कर दया।
फलहाल अब यूनानी हमले का खतरा टल गया था य क समाचार आया क यूनानी
सै नक अपने दे श जाने के लए लौट रहे थे। वे अथहीन यु म और जान नह गंवाना चाहते
थे।
सकंदर क पहले ही मृ यु हो चुक थी।
यूना नय से नपटने के बाद अब चं गु त व चाण य को अपना मूल उद्दे य ा त
करना था और वह मूल उद्दे य था मगध क राजधानी पाट लपु पर अ धकार करके नए
सा ा य क रचना करना।

धनानंद का अंत
इस बीच पाट लपु म भी काफ कुछ घट चुका था। पुराने स ाट का अंत हो गया
था व अब वहां नया शासक था।
जैसे क पहले वणन कया जा चुका है क महाप के नौ बेटे थे। धनानंद उन सबम
ये था। महाप क जब एक वषक या ने षड् यं रचकर ह या कर द थी तब महामं ी
क सहायता से धनानंद मगध क ग पर बैठा था।
आचाय शकटार महाप के मं मंडल म मं ी थे। ब त से इ तहासकार उ ह ही
महाप का महामं ी मानते ह। कुछ इ तहासकार मानते ह क वे केवल एक मं ी थे और
महामं ी धनानंद के शासन काल म ही बने। पर एक बात सवस मत है क शकटार एक ब त
मह वपूण मं ी थे जनका स ाट पर अ य धक भाव रहता था। मगध सा ा य के कई मं ी
व दरबारी शकटार के भाव से स नह थे। उ ह लोग म से एक थे आचाय व सार, जो
धनानंद के क न ाता समू यानंद के गु थे। समू यानंद को भी धनानंद तथा आचाय
शकटार क जोड़ी पर आप थी। वह समझता था क शकटार के कारण ही रा य क
व था खराब हो रही है।
व सार के पु रा स समू यानंद के सहपाठ व अंतरंग म थे। व सार को
राजनी त का मंजा आ खलाड़ी माना जाता था। उनके दांव-पच के कई शंसक थे।
उनका पु रा स उनसे भी बढ़कर धूत व यो य था। कुछ लोग तो यही मानते थे क
व सार क सारी नी तयां वा तव म रा स के म त क क ही उपज थ ।
पता-पु चाहते थे क समू यानंद स ाट बने ता क मगध म उ ह क तूती बजे। पर
सम या थी क धनानंद व शकटार का या कया जाए। उ ह वैसे हटाना संभव नह था। कुछ
टे ढ़ चाल चलना आव यक था।
र स ने अपना दमाग लड़ाना शु कया। धनानंद क कमजोरी उसक कामुकता
थी तथा उसी का उपयोग कया जा सकता था।
महाप भी तो इसी कमजोरी का शकार बना था।
वसंतो सव के अवसर पर राजमहल म वशेष समारोह हो रहे थे जसम एक अ त
सुंदर चंचल यौवना इधर-उधर इठलाती फर रही थी। धनानंद क उस पर वाभा वक ही
नगाह पड़ गई तथा उसक लार टपकने लगी। उस नवयौवना का नाम सुभा षणी था और
वह रा स ारा वहां इसी योजन से नयु क गई थी क कामुक स ाट को ललचाए।
योजना सफल हो गई थी।
स ाट धनानंद ने ऐसे ही काय के लए रखे एक व त सेवक से कहा क वह उस
नवयौवना से मेल कराने क जुगत भड़ाए। इस काय म कोई अड़चन नह थी। रा स तो
चाहता ही यही था।
सुभा षणी से मेल कराने का बंध एक वशेष क म कया गया। उस क का
अ छ तरह नरी ण कया गया ता क कोई षड् यं न रचा जा सके। स ाट महाप क
ह या के बाद महामं ी क आ ा पर ब त सावधानी बरती जाने लगी थी। सुभा षणी को उस
क म भेजे जाने से पूव उसके ह ठ क जांच क गई। वष के कोई ल ण नह मले।
वह क म व ई। स ाट पहले ही वहां आसन पर वराजमान थे। यौवना बाल
ठ क करने क मोहक मु ाएं बनाती ई स ाट तक प ंची। उन मु ा के दौरान उसने अपने
बाल म छपा कर रखी वष बुझी सलाइयां नकाल ली थ । उसने बजली क तेजी से
सलाइय से स ाट का शरीर कई थान से ब ध डाला।
एक चीख के साथ स ाट धनानंद ढे र हो गए। वष अ त घातक था। उनक चीख
सुनते ही र क पहरेदार भीतर दौड़े और सुभा षणी को उ ह ने खून सनी सलाइय के साथ
आ ामक मु ा म मृत स ाट के पास खड़े पाया।
रा स उस पर टू ट पड़े और तलवार से उसके टु कड़े कर दए गए।
रा स क योजना सफल हो गई थी। उस धूत ने ऐसा कोई सू नह छोड़ा था, जो
उसका संबंध ह या रनी सुभा षणी से जोड़ सके। उसका चयन ही इस कारण आ था।
सुभा षणी का प रवार धनानंद के अ याचार का शकार होकर न हो चुका था।
सुभा षणी के जीवन का येय अब केवल धनानंद से तशोध लेना रह गया था और वह
तशोध रा स क सहायता से पूरा आ। पर उसे कभी यह ात नह आ क रा स उसे
अपनी कठपुतली बनाकर अपना हत साध रहा था। इसी का नाम तो कूटनी त है।
धनानंद क मृ यु के प ात वाभा वक प से समू यानंद स ाट क गद्द पर बैठे।
उनके गु व सार को तो महामं ी बनना ही था। आचाय शकटार को स ाट क सुर ा म
असफल रहने के अपराध म कारागार म डाल दया गया।
अब मगध म आचाय व सार क तूती बोलने लगी। पर परदे के पीछे वा त वक
शासक रा स ही था। गु वही कुछ करते जो उनका बेटा रा स उ ह करने के लए कहता।
रा स मूलतः यो य, बु मान व द योजनाकार था। इस लए समू यानंद के
आरं भक शासन काल म कई अ छे काय भी ए। मगध क आ थक थ त सुधरी। जा भी
सुखी ई। पर फर वलासी खून रंग लाया सब बंटाधार हो गया।
समू यानंद भी अपने भाई और पता के समान ही नकला। कुछ समय सीधी
चाल चलने के बाद वह भी टे ड़ी चाल चलने लगा। जीवन तथा वला सता म वह पूरी
तरह डू ब गया। शासन का एक बड़ा भाग उसक वला सत क मांग पूरी करने म लग गया।
शासन फर भावहीन हो गया। अ याचार बढ़ने लगे।
आचाय व सार भी वलासी समू यानंद क हठ बु के आगे लाचार हो गए।
रा स ने हताशा म अपना माथा पीट लया।

मगध का यु
इस बार चाण य तथा चं गु त ने अपनी यु नी त बदल द थी। उ ह ने सीमा पर
आ मण कया तथा सीमावत े को वतं कया। इसी तरह पूरे े पर वजय ा त
करते ए वे राजधानी तक प ंचना चाहते थे। चं गु त ने यु क कमान संभाली तो चाण य
ने कूटनी तक दा य व संभाला। चाण य ने अपने त ारा जनता म वलासी व नंद
स ाट के व चार कराया तथा लोग क सहानुभू त जीतने का य न कया। इसका
सकारा मक भाव भी पड़ा तथा युवावग का एक बड़ा भाग चं गु त का समथक हो गया व
उसक सेना म स म लत भी हो गए। कई सीमावत जले सरलता से जीत लए गए और
चं गु त क सेना आगे कूच कर गई।
इस बार चं गु त क सेना वशाल थी। प मी अ भयान म बने म व सहयोगी
सेना समेत उनके साथ थे।
उनम मु य पु के बेटे पवतक भी थे।
रा स ने चं गु त ारा कए आ मण के बारे म सुना तो तुरंत तकार करने क
योजना म जुट गया। उसक बु ती थी व उसके पास आ ाकारी तथा व सनीय
अनुया यय का श शाली दल था। उसने मगध सा ा य म यो य गु तचर का जाल भी
बछा रखा था। शी ही उसने चं गु त क श , सै य रचना तथा संगठन का आकलन
गु तचर ारा द सूचना के आधार पर कर लया।
रा स ने अपने वशेष गु तचर द ते को पवतक के सै नक श वर म घुसपैठ कराया।
गु तचर म कांटे साफ करने वाले भी थे। वे पवतक क ह या करने म सफल हो गए। बाक
चारक गु तचर ने केकय सै नक श वर म यह अफवाह फैला द क चं गु त के मागदशक
चाण य ने ही पवतक क ह या करवाई है य क वह अपने श य चं गु त को मगध
सा ा य अथात भारत का स ाट हर मू य पर बनाना चाहते थे। पवतक को हटाना उ ह
इस लए आव यक लगा य क वह स ाट पद का चं गु त से अ धक वैध दावेदार था। वह
स ाट पु अथवा पोरस का बेटा था।
दलील ब त श शाली थी। उसे आसानी से काटना संभव नह था। चाण य को भी
मानना पड़ा क उनका पाला एक चतुर म त क से पड़ा है।
केकय सै नक खेमे म रोष छा गया। चं गु त के व व ोह क बात होने लग ।
चाण य ने सै नक को समझाने व ठं डा करने का हर संभव य न कया।
पवतक के बेटे मलयकेतु को केकय का नया स ाट घो षत कर दया गया। केकय
सै नक के सामने ही उसका राज तलक कया गया। सै नक का रोष कुछ ठं डा पड़ा।
मलयकेतु श ु क चाल समझ चुका था।
उसने अपने सै नक को श ु क चाल का खुलासा कर व ोह समा त कर दया।
इस बार चं गु त एक और भूल कर गया था। वे व उनक सेनाएं दे श मु करा कर
आगे बढ़ते जा रहे थे और व जत दे श खाली छोड़ते जा रहे थे। उनके जाने के बाद मगध
सा ा य के वफादार त व फर संग ठत हो जाते और चं गु त क आगे बढ़ती सेना पर पीछे
से घातक हमला करते। चाण य को पता लगा क नंद सा ा य के त लोग का मोह अभी
पूरी तरह भंग नह आ था। रा स ने शासन म भावी सुधार कए थे तथा आ थक
नी तयां अपनाई थ जनसे जा को काफ राहत मली थी। जनता रा स के भावहीन हो
जाने के बावजूद उसका अब तक स मान करती थी।
चाण य को यह जानकर स ता ही ई क मगध म कोई तो है जो जा क
सोचता है और कुछ करने का य न करता है।
चाण य ने चं गु त से वजय अ भयान का पुन नयोजन करवाया। अब वे व जत
दे श को खाली नह छोड़ते थे। वे अपनी सै नक टु क ड़यां एक यो य सेनानायक के अधीन
छोड़ जाते थे। सेनानायक नाग रक शासन का जानकार भी होता था। उसका दा य व
शासन को अपने भाव म लाकर चं गु त का वच व था पत करना होता था। साथ ही
उसे यह दे खना था क मगध के नंद सा ा य के हतैषी त व संग ठत न होने पाएं और मगध
के टू टे सै नक को अपनी सेना म थान दे उ ह लावा रस न छोड़े।
यह नई नी त ब त सफल रही। व जत े म चं गु त का शासन जड़ जमाने म
सफल हो गया तथा पीछे से आ मण क कोई संभावना शेष नह रही।
अब चं गु त क सेना न त होकर पाट लपु क ओर अ भयान जारी रख सक
और वहां प ंचने म सफल हो गई। इस अ भयान म थान- थान पर मगध सेना को पराजय
का सामना करना पड़ा। वह त- व त होती जा रही थी। इस बीच चाण य का नंद शासन
के व चार अ भयान भी जारी रहा। इससे आम जनता क सहानुभू त भी चं गु त के
प म होती जा रही थी।
पाट लपु के ग के चार ओर क सुर ा खाई म पानी शोण नद से जाता था।
चाण य के परामश व सरे सै य वशेष के मतानुसार चं गु त ने शोण नद पर प थर व
मट् ट से बांध बनवाकर नद के पानी का बहाव कवा दया व पानी सरी दशा म बहने
लगा।
खाई म पानी का तर घटता गया। फर इतना कम हो गया क ग के ार के सामने
क खाई को मट् ट ारा पाटकर आने-जाने के लए पट् टय का नमाण संभव हो पाया।
पट् टयां इतनी ठोस थ क उन पर से हाथी भी कले तक जा सकते थे। खाई पार कर
चं गु त क सेना ने ग के ार को तोड़ डाला व भीतर व हो गई।
मगध के नंद क बची-खुची सेना ग के भीतर अं तम र ा पं के प म तैनात
थी। पर वह चं गु त क वजयी सेना के वाह के सामने कतनी दे र टकती?
ग पर शी ही चं गु त क पताका फहराई गई।
स ाट समू यांनद को बंद बना लया गया। आचाय शकटार को कारागार से मु
मली। उ ह ने आचाय चं गु त का आभार कट कया।
चं गु त उस अंधकूप म गए जहां उनके पतामह सूयवन के बंद होने क बात वष
से कही जाती रही थी। वहां उ ह केवल एक नरकंकाल मला। चं गु त ने उस नरकंकाल के
चरण भावनावश छु ए और उसके व धवत दाह-सं कार क या पूण करवाई।
उधर चाण य ने समू यानंद तथा उसके बाक जी वत ाता को मृ युदंड क
घोषणा करवाई। वे श ु का समूल नाश करवाने म व ास रखते थे। सांप को अधमरा
छोड़ना कोई बु मानी का ल ण नह है। आचाय व सार तथा उनका पु रा स हाथ नह
आए।
चं गु त क सेना के पाट लपु प ंचने से पहले ही दोन पलायन कर भू मगत हो गए
थे। इससे चाण य कुछ नराश ए।
वे एक बार रा स से भट करना चाहते थे।
सारे काय संप होने के प ात चं गु त मौय के मगध सा ा य के स ाट के प म
राज तलक क तैया रयां आरंभ । राजकुमारी कर भका मगध स ाट क महारानी बनने
के सपने दे खने लगी।
इससे पहले चं गु त मौय का राज तलक हो पाता एक गंभीर समाचार पाट लपु
वा सय को मला। इससे चं गु त व चाण य च तत हो उठे ।
राज तलक समारोह थ गत करना पड़ा।
समाचार यह था क यूनान से एक और स ाट, जो सकंदर क भां त ही शूरवीर था,
एक वशाल सेना लेकर पुनः भारत वजय के अ भयान पर नकल पड़ा था और वह सारे
सा ा य पर वजय ा त करता आ ह कुश पवत पार कर रहा था।
चं गु त के लए स ाट क ग पर बैठने से पहले इस नई सम या का समाधान
करना आव यक था।
सकंदर क मृ यु के बाद यूनान म उसके उ रा धका रय म कलह फूट गई थी।
सकंदर के सा ा य के पांच टु कड़े हो गए थे। परंतु उन पांच टु कड़ म एक ब त श शाली
था। वा तव म वही सकंदर क महानता व परंपरा का वा रस था। वहां के स ाट का नाम था
से यूकस, जो सकंदर क भां त शूरवीर और बलशाली था। वह भी व वजय अ भयान पर
नकल पड़ा। वह भारत भू म को अपने पूवज सकंदर क वरासत मानकर दोबारा उस पर
यूनानी झंडा फहराना चाहता था।
चं गु त तथा चाण य के लए चता का वषय यह था क वदे शी आ ांता हर बार
नए यु आयुध तथा नई यु प तय लेकर आते थे, जसका भारतीय शासक के पास
कोई उ र नह होता था।
चाण य ने कहा क उ ह हर अव था म पहले से यूकस से नपटना होगा वरना
उनक अब तक क सफलताएं अथहीन हो जाएंगी।
चं गु त फर अपनी सारी सेना लेकर से यूकस का सामना करने चल पड़ा। यूनानी
आ ांता को भारत भू म म पैठ बनाने दे ना खतरे से खाली नह था। योजना उसे सीमा पर ही
ट कर दे ने क थी। कई स ताह क या ा के बाद चं गु त क सेना सधु तट के नकट
प ंची।
से यूकस सधु नद के पूव तट तक प ंच गया था। उसके साथ एक वशाल सेना
थी। दोन सेना म यु छड़ गया। यु कई दन चला। पलड़ा बार-बार बदलता रहा। अंत
म चं गु त क सेना यूनानी सेना पर भारी पड़ने लगी। य प यूनानी सेना अ धक आधु नक
ह थयार से लैस थी। उसके उ र म चं गु त के पास सेना क सं या अ धक थी।
अंत म से यूकस को बंद बना लया गया।
अब यह था क आगे या कया जाए, य क इस यु के कई पहलू थे।
से यूकस को परा जत करना सम या का अं तम हल नह था। भारतीय नरेश तथा व ान
क एक सभा बुलाई गई जसम चाण य ने अपने वचार रखे। उनका कहना था—
‘यूनान व भारत क सम या ब त उलझ गई है। सकंदर के आ मण, यवन के वष
भारत म रहने तथा दोन भूभाग क सं कृ तय के मलाप से नई थ त उ प हो गई है।
यूनानी भावना मक प से भारत से जुड़ गए ह और हमारे भू-भाग को अपना अंग समझने
लगे ह। यह बात नी तगत प से कतनी भी अनु चत व असंगत हो, पर एक ठोस त य बन
गया है। सकंदर के ॉप को हमने समा त कर दया तो अब से यूकस आया है।
य द हम से यूकस को बंद बनाकर रखते ह अथवा मृ युदंड दे ते ह तो से यूकस का
उ रा धकारी तशोध लेने या भारत भू म को फर व जत करने के लए आएगा। इसका
कोई अंत नह होगा। हमारे दे श के नरेश के सर पर यवन आ मण का खतरा सदा तलवार
क भां त लटकता रहेगा।
हमारे दे श म कोई सा ा य थर नह हो पाएगा। उसका सारा अ त व यवन खतर
से नपटने म ही चुक जाएगा। कैसे हम सुचा शासन व था था पत कर पाएंगे व आ थक
उ त कर पाएंगे य द हमारी सारी श यवन आ मण के तरोध म लगी रहेगी?
हम इस सम या का कोई थायी हल खोजना पड़ेगा ता क हम आ मण के भय से
मु हो जाएं।’
चाण य का कथन सही था। सभी नरेश तथा राजनी तक व ान पूणतः सहमत थे।
पर वह थायी हल या हो सकता था?
ब त वचार मंथन के प ात न कष यह नकाला गया क मै ी संबंध था पत कए
जाएं। मै ी संबंध कसी ऐसे ठोस आधार पर ह जससे यु क संभावना ही समा त हो
जाए।
इसका पाठ यूना नय से ही लया गया।
कसी ने सुझाया क ववाह संबंध मै ी का सबसे ठोस आधार होता है। से यूकस
क बेट हेलेना अपने पता के साथ अ भयान म आई थी। वह युवा थी और सुंदर भी। य द
उसका ववाह चं गु त मौय से हो जाए तो भारत व यूनान एक प व संबंध म बंध जाएंगे,
फर श ुता का ही नह उठे गा।
चाण य को यह सुझाव ब त उ चत व बु म ापूण लगा। चाण य ने सुझाव
चं गु त मौय के सामने रखा परंतु वह उलझन म पड़ गया।
वह कर भका को या उ र दे गा?
चाण य ने कहा क दे श हत गत वाथ से ऊपर होना चा हए। भावी स ाट
को इतना ब लदान दे ने म संकोच नह करना चा हए।
ववाह का ताव से यूकस के सामने रखा गया। उसने यह संबंध सहष वीकार
कर लया।
चाण य ने सारी प र थ त कर भका के सामने रखी। कर भका वदे श हत के लए
अपने ेम का ब लदान दे ने के लए तैयार हो गई।
अब सारी बाधाएं र हो गई थ ।
चं गु त मौय तथा हेलेना का ववाह धूमधाम से संप हो गया। ववाह के बाद
चं गु त मौय का रा या भषेक आ। रा या भषेक समारोह तक से यूकस भारत म ही रहे।
उनक पु ी भारत के सवा धक वशाल सा ा य मगध क महारानी बन गई।
दोन प के म य दशक से चला आ रहा संघष तथा टकराव का इ तहास समा त
हो गया। नरम मधुर संबंध का एक नया अ याय आरंभ हो गया था। दोन जा तय के लए
यह एक सुखद अनुभव था।
स ाट चं गु त मौय ने वाभा वक प से अपने गु चाण य को धानमं ी का पद
संभालने का अनु ह कया। उ ह अपने गु से अ धक व त व कुशल राजनी तक और
कहां मलता।
चाण य ने धानमं ी बनना वीकार कया। अब वे अपनी सारी सं वधान संचा लत
राजशाही तथा अथतं व नाग रक नयमावली क प रक पनाएं ावहा रक प म लागू
कर सकते थे।
अपने सवागीण सं वधान को लागू करने के अलावा चाण य ने मगध सा ा य के
व तार के लए अपनी कूटनी त का खुला योग कया। पड़ोसी रा य को मगध क
अधीनता वीकार करने के लए उ ह बा धत कया गया। जो नह झुके उ ह या तो सै नक
अ भयान म न कया गया या व ोह करवाकर हरा दया गया। सभी रा य को मगध
सा ा य का अंग बनाया गया और एक वशाल सावभौम सा ा य उभरकर सामने आ गया,
जसका व तार ईरान, क याकुमारी, म य ए शया, त बत व पूव म आज के वयतनाम-
थाईलड तक था और उसके एकछ स ाट थे चं गु त मौय, चाण य के श य।
अब चाण य अपने सं वधान व अथतं को ल खत प म एक शा के प म
ढालना चाहते थे। अब तक वे प रक पना प म अ ल खत था। शासन के समयकाल म जो
अनुभव ए तथा प रक पना म अ ावहा रक संदभ को संशो धत करना भी आव यक
था। वे सवागीण अथशा लखना चाहते थे जो और के लए एक नी त ंथ बने। उसके
लए समय चा हए था। स ाट चं गु त उ ह समय नह दे सकते थे, य क धानमं ी के
प म उनका पूणका लक शासक बने रहना सा ा य के लए आव यक था।
तो इसका हल या था?

नी त चाण य
चाण य भी जानते थे क स ाट चं गु त क सुर ा के लए भी उनका धानमं ी
पद पर बने रहना आव यक था। चं गु त क जान लेने के कई यास कए गए थे। परंतु
चाण य क कड़ी सुर ा व था के कारण वह यास वफल रहे।
ह या के यास अ धकतर रा स ारा कए गए थे। वह कह गु त थान पर जाकर
था पत हो गया था तथा कुछ अपने पुराने सै नक को संग ठत करने म सफल हो गया था।
कह से वह आ मघाती द ते भेज कर चाण य के लए सम याएं पैदा कर रहा था। वह यो य
था, अ छा योजनाकार था तथा अपने भूतपूव वामी समू यानंद का अब भी वफादार था
तथा अपना कत नभा रहा था।
एक दन गु तचर ने चाण य को बताया क रा स अपनी प नी तथा ब च को
साथ नह ले जा पाया था। उसक प नी व ब चे उसके एक व त साथी चंदनदास के
संर ण म छोड़ दए गए थे।
वे अब भी उसी म के पास थे।
अब चाण य के हाथ म तु प का प ा आ गया था। उ ह ने चंदनदास को बंद बना
लया तथा रा स के बीवी-ब च को अपने क जे म कर लया।
चंदनदास को मृ युदंड क घोषणा क गई। उस पर स ाट के व श ु के साथ-
साथ दे श ोह करने का अ भयोग लगाया गया था। मृ युदंड क घोषणा का रा य भर म खूब
चार कया गया।
रा स अपने स ांत का ब त प का था। उसे यह कैसे गवारा होता क उसके
कारण उसके घ न म क जान जाए? उसे बचाने के लए वह कुछ भी कर सकता था।
इस त य को चाण य जानते थे।
मृ युदंड दए जाने के दन से काफ पहले ही रा स ने आ मसमपण कर दया और
वनती क क उसके म चंदनदास को छोड़ दया जाए, य क वह नद ष था। रा स ने
सारे इ जाम अपने सर पर ले लए।
रा स को चाण य के सामने लाया गया।
चाण य ने पूछा, “ या तुम सचमुच अपने म क जान बचाना चाहते हो?”
रा स ने उ र दया, “हां, उसके लए म कुछ भी कर सकता ं। उसे दया गया मृ यु
दं ड म भुगतने के लए तैयार ।ं वा तव म ही मेरे त म ता नभाने के अ त र चंदनदास
ने कोई अपराध नह कया है।”
चाण य मु कुराए, “रा स! हम तु हारे म को तथा तु हारे प रवार को मादान दे
सकते ह य द तुम मेरी शत मान लो।”
“शत? म तो मृ युदंड के लए भी तैयार ।ं ”
“म तु हारे ाण नह मांग रहा ं।” चाण य बोले।
रा स ने च ककर चाण य क ओर दे खा। या चाण य ने मृ युदंड से भी कठोर दं ड
सोच रखा था उसके लए? यातनाएं?? “ फर?” रा स ने कया।
“म तो चाहता ं क तुम मगध सा ा य के धानमं ी पद का काय-भार संभालो।
हम तु हारी यो यता तथा न ा क आव यकता है। जो वफादारी तुमने राजा समू यानंद के
त दखाई, अब वही तु ह स ाट चं गु त मौय के त दखानी होगी।” चाण य ने अपना
ताव रखा।
चाण य क बात पर र स अवाक रह गया। भला उसे यह उ रदा य व वीकार
करने म या आप हो सकती थी?
इसके प ात रा स ने मगध सा ा य के धानमं ी का कायभार संभाला। चाण य
वयं एक मं ी बन गए।
वा तव म चाण य रा स क यो यता का ब त आदर करते थे और उसक न ा के
त आ त थे क उ रदा य व संभालने के बाद वह चं गु त मौय का स चा हतैषी बन
जाएगा।
अब चाण य के पास अपने सारे शा लखने का समय मल गया और इसी काल
म उ ह ने अपने च चत ंथ लख डाले।

संकट त चाण य
उस काल म जहर दे कर मारना ह या का सबसे अ धक च लत साधन था। राज
प रवार म एक- सरे का प ा साफ करने के लए वष का ही योग कया जाता था।
शासक को सबसे अ धक खतरा वष दए जाने का ही होता था, य क राजा अथवा स ाट
ारा खाए जाने वाले हर भोजन क जांच लगभग असंभव होती थी। चाण य को भी यही
डर लगा रहता था क कोई चं गु त को वष न दे दे ।
उ ह ने इसका एक उपाय सोच लया और शाही भोजनालय के मु य बावच को
व ास म लेकर स ाट को उ ह बताए बना त दन खाने म वष क अ प मा ा दे ने का
बंध कर दया।
तब यह व ास कया जाता था क रोज कसी को थोड़ा-थोड़ा वष दया
जाए तो उसके शरीर म वष नरोधक श पैदा हो जाती है और फर चाण य वयं भी
कुछ जड़ी-बूट व दवा क च क सा का ान रखते थे।
इसी बीच एक बार स ाट चं गु त क महारानी ने स ाट क थाली म से कुछ खाना
लेकर खाया। उन पर वष का भाव आ और वह मर गई। उस समय वह गभवती थी और
सू तकाल के काफ नकट थी।
इस घटना से चाण य ह भ रह गए।
उ ह ने मृत महारानी का पेट चीर कर उनके गभाशय से ब चा नकालने का राजवै
को आदे श दया। य द संभव आ तो वह ब चे को बचाना चाहते थे। पेट व गभाशय चीर कर
ब चा नकाला गया। चम कार यह आ क ब चा जी वत नकला। चीर-फाड़ के दौरान
ब चे के शरीर पर ब के आकार का एक गड् ढा पड़ गया।
उसे दे ख चाण य ने उसका नाम ही ‘ ब सार’ रख दया।
ब सार जब युवाव था म प ंचे तो स ाट चं गु त ने वान थ आ म म जाने का
मन बना लया। रा स क मृ यु हो चुक थी। चं गु त ने राजपाट अपने बेटे ब सार को स प
दया व वयं एक जैन संत के साथ कनाटक म ावण बेलागोला नामक थान पर रहने के
लए चले गए। कुछ समय के बाद चं गु त ने जैन परंपरा का पालन करते ए भोजन पानी
याग दया व नवाण को ा त ए।
इधर ब सार ने शासन भार संभाला तथा कुछ नए मं ी नयु कए। चाण य एक
मं ी के पद पर बने रहे।
नए मं ी चाण य से जलते थे। उनका खयाल था क चाण य मगध सा ा य का
वयं को नमाता समझकर बड़े पतामह क तरह वहार करते ह तथा नए मं य क
यो यता को सदा कम करके आंकते ह।
सुबंधु नामक एक मं ी तो चाण य से ब त चढ़ते थे। स ाट ब सार तो चाण य
का वाभा वक आदर करते ही थे, य क वे ही उनके पता के मागदशक रहे थे।
एक दन सुबंधु ने स ाट के कान म जहर घोल दया क चाण य ने ही उनक माता
को वष दे कर मारा था। ब सार ने अपनी माता क पुरानी प रचा रका को बुलवाया और
पूछताछ क । उ ह सुबंधु पहले ही खरीद चुका था।
प रचा रका ने सुबंधु के दावे का समथन कया। इससे स ाट ब त ो धत ए।
स ाट के ो धत होने का समाचार सुनकर चाण य को अ यंत ोभ आ। मगध
सा ा य के नमाता को अपने जीवन के अं तम पड़ाव पर एक खूनी होने का लांछन घोर
अपमान लगा।
उ ह सारे संसार से वर होने लग गई। चाण य ने खी होकर अपनी सारी संप
गरीब म बांट द या अनाथालय तथा धा मक सं थान को दान कर द ।
इसके प ात उ ह ने उपले और लक ड़यां मंगवाकर चता बनवाई और उस पर
आमरण अनशन पर बैठ गए।
इधर महल के एक पुराने सेवक ने स ाट ब सार को उनक माता क मृ यु का
स चा हाल सुनाया और यह भी राज खोला क कैसे चाण य के आदे श पर मृत महारानी का
पेट चीर कर ब सार को बचाया था। स चाई जानकर स ाट सकते म आ गए।
उ ह सुबंधु क ता पर ब त ोध आया।
सुबंधु को बुलाकर खूब फटकारा गया और आदे श दया गया क वह जाकर चाण य
से मा याचना करे व उनका अनशन तुड़वाए वरना उसे मृ युदंड दया जाएगा।
सुबंधु दौड़ा-दौड़ा चाण य के पास प ंचा, जो चता पर बैठे थे। उसने चाण य से
गड़ गड़ाकर मादान मांगा ले कन चाण य नह पसीजे। उ ह ने मं ी को वहां से चले
जाने के लए कहा।
मं ी सुबंधु लौटकर स ाट के पास गया और चाण य के हठ क बात सुनाई। स ाट
ने एक बार फर मं ी को लताड़ा और कसी भी तरह चाण य को मनाने का आदे श दया।
इस बार मं ी ने रो-रो कर मा मांगी। उसक दशा दे खकर चाण य को दया आ गई
और उ ह ने मा दान दे कर बात समा त क । इस पर सुबंधु ने घोषणा क क चाण य को
समारोहपूवक चता पर से उतारा जाएगा।
यह सब उसक चाल थी। वा तव म उसका दल साफ नह था। उसे चाण य के
कारण नीचा दे खना पड़ा, गड़ गड़ाना पड़ा।
इस कारण वह चाण य से पहले से भी अ धक घृणा करने लगा था।
समारोह क या म उसने कुछ ऐसा बंध कया क चता म रखे उपले सुलग
गए। लोग व चाण य यही समझते रहे क धुआं धूप-अगरब ी का है। तभी हवा चली और
सारी चता एकदम भभक उठ । चाण य लपट म घर गए और दे खते ही दे खते उनक
काया राख क ढे री म बदल गई।
इस कार भारतीय इ तहास का महान कूटनी त तथा सं वधान व अथशा ी घृणा
व ई या क आग क आ त बन गया।
आदमी क ह या क जा सकती है परंतु वचार क नह । वचारधारा अमर है।
चाण य अपनी नी तय और शा ारा सदा भारतीय का मागदशन करते रहगे।
चाण य नी त क बढ़ती लोक यता इसका जीता-जागता माण है।
चाण य के शा
चं गु त को स ाट के प म था पत करने के बाद चाण य अपने राजनी त एवं
अथ व था संबंधी वचार को ंथ प म ढालना (रचना) चाहते थे, जससे आने वाली
पीढ़ लाभा वत हो सके। ले कन धानमं ी पद एवं चं गु त क सुर ा का उ रदा य व
उनके आड़े आ रहा था। अनायास ही जब रा स ारा धानमं ी पद का दा य व हण कर
लया गया तो वे इस ओर से न त हो गए। अब उनके पास पया त समय था, और उ ह ने
अपनी वष क मह वाकां ा को पु तक ( ंथ) प म ढालना शु कर दया।

अथशा
चाण य का अथशा 15 खंड म लखा एक वृहद ंथ है जसम 180 अ याय
तथा 150 भाग ह। इस अथशा म एक राजशाही का पूरा सं वधान है, जसम राजा के
कत , मं मंडल, शासन व था का पूरा च ण है। आ थक व था क पूरी परेखा है।
अथ तं के अ धका रय व कर वसूली क वशद ा या है। इस भाग म खनन, धातु ,
र न , उपर न , ख नज संपदा, खनन व था तथा धातु के उ ोग का भी वणन है। दे खा
जाए तो यह शायद व का थम राजनी तक सं वधान तथा अथ व था का व ध- वधान
है।

चाण य नी त
चाण य नी त उनके ारा लखी सवा धक लोक य व पढ़ जाने वाली रचना है।
इसम उ ह ने सभी शा का सार, जीवन के मू य सू के प म सं कृत दोह व चौपाइय
क शैली म तुत कए ह। इसे पढ़कर एक आम आदमी जीवन म सफलता, उ चत व
अनु चत, नै तक या अनै तक, धम या अधम, बु मानी या मूखता, लाभदायक या
हा नकारक, अ छा या बुरा, उपयोगी या अनुपयोगी क पहचान कर सकता है। इन सू म
चाण य ने श ा पर ब त जोर दया है। वे कहते ह क श ा म ही का असली उ ार
है। पु तक म कुछ पूवा ह यु बात भी ह जो शायद आधु नक जगत क कसौट पर खरी न
उतर। पर आम तौर पर सू ब त तकसंगत ह।

पंचतं कथाएं
ब त से इ तहासकार का मत है क व स पंचतं क कथाएं आचाय
चाण य ने ही व णुगु त नाम से लखी थ । दं त कथा है क एक राजा के चार बेटे थे, बड़े
शरारती व नक मे। श ा ा त करने म उ ह कोई च नह थी। कई अ यापक ने उ ह
पढ़ाना चाहा, पर वे वयं राजकुमार के कारनाम से आतं कत होकर सर पर पैर रख भाग
नकले।
राजा ने पुर कार क घोषणा क क जो व ान उनके चार चकने घड़ पर अ ल
का पानी चढ़ा दे गा उसे वे बड़ा पुर कार दगे।
चुनौती वीकार कर व णुगु त सामने आए। पर उ ह ने पहले ही साफ बता दया क
वह धन के लोभी नह ह। वे यह काय केवल इस लए कर रहे ह ता क राजकुमार के कपाल
के अंदर पड़े प थर से जनता ल लुहान न हो जाए।
उ ह ने श ा का एक नया ही उपाय आजमाया। राजकुमार को वे कहा नयां सुनाते
जनके पा पशु-प ी, पेड़-पौधे व क ट-पतंग होते। कहा नय म चतुराई, सूझबूझ, नी त
तथा नै तक मू य से भरे संदेश होते।
उ ह कहा नय को सुन-सुन कर राजकुमार ानवान व नी तवान बन गए।
इ ह चम कारी कहा नय को पंचतं शीषक से जाना जाता है। यह कहा नयां
सबको इतनी भाय क व क सारी भाषा म इनका अनुवाद हो गया और यह व बाल
सा ह य खजाने के अनमोल मोती बन गए।
य द सचमुच व णुगु त चाण य ही थे तो मानना होगा क चाण य के प म भारत
म एक ऐसे ब आयामी पैदा ए जनका हर आयाम अद्भुत था व उनक रचनाश
अ तीय थी।

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