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ब्रज मंडल के वन

कोटवन • काम्यवन • कुमुदवन • कोककलावन • खकदरवन • तालवन • बहुलावन • कबहारवन • बे लवन • भद्रवन • भाांडीरवन
• मधुवन • महावन • लौहजांघवन • वृन्दावन

1- कोटवन
कोसी तथा होडल के बीच में कदल्ली-मथुरा राजमार्ग के आसपास कोटवन है । इसका पूवग नाम कोटरवन है । यह स्थान
चरणपहाडी से चार मील उत्तर और कुछ पूवग में है यहााँ शीतल कुण्ड है और सूयगकुण्ड दशग नीय है । यह कृष्ण के र्ोचारण और
क्रीडा-कवलास का स्थान है ।
प्रसंग
ककसी समय कौतुकी कृष्ण राकधका एवां सखखयोां के साथ यहााँ कवलास कर रहे थे। ककसी प्रसांर् में उनके बीच में अनन्तशायी
भर्वान कवष्णु की कथा-चचाग उठी। राकधका के हृदय में अनन्तशायी कवष्णु की शयन लीला दे खने की प्रबल इच्छा हो र्यी।अत:
कृष्ण ने स्वयां उन्हें लीला का दशगन कराया। अनन्तशायी के भाव में आकवष्ट हो श्रीकृष्ण ने क्षीरसार्र के मध्य सहस्त्र दल कमल
के ऊपर शयन ककया और राकधका ने लक्ष्मी के आवे श में उनके चरणोां की सेवा की। र्ोपी-मण्डली इस लीला का दशग नकर
अत्यन्त आश्चयगचककत हुई। श्री रघु नाथदास र्ोस्वामी ने ब्रजकवलास स्तव में इस लीला को इां कर्त ककया है। अकतशय कोमलाां र्ी
राकधका श्रीकृष्ण के अकतश कोमल सुमनोहर चरण कमलोां को अपने वक्षस्थल के समीप लाकर भी उन्हें अपने वक्षस्थल पर
इस भय से धारण नहीां कर सकीां कक कहीां हमारे ककगश कुचाग्र के स्पशग से उन्हें कष्ट न हो। उन शे षशायी कृष्ण के मनोरम
र्ोष्ठ में मेरी खस्थकत हो। श्रीचैतन्य महाप्रभु ब्रजदशग न के समय यहााँ पर उपखस्थत हुए थे तथा इस लीलास्थली का दशग नकर
प्रेमाकवष्ट हो र्ये । यहााँ मनोहर कदम्ब वन है , यहीां पर प्रौढ़नाथ तथा कहण्डोले का दशग न है । पास ही श्रीवल्लभाचायग जी की
बै ठक है ।

2- काम्यवन
ब्रजमण्डल के द्वादशवनोां में चतुथगवन काम्यवन हैं । यह ब्रजमण्डल के सवोत्तम वनोां में से एक हैं । इस वन की पररक्रमा करने
वाला सौभाग्यवान व्यखि ब्रजधाम में पूजनीय होता है । हे महाराज! तदनन्तर काम्यवन है , जहााँ आपने (श्रीब्रजेन्द्रनन्दन कृष्ण
ने) बहुत सी बालक्रीडाएाँ की थीां। इस वन के कामाकद सरोवरोां में स्नान करने मात्र से सब प्रकार की कामनाएाँ यहााँ तक कक
कृष्ण की प्रेममयी सेवा की कामना भी पूणग हो जाती है ।
यथाथग में श्रीकृष्ण के प्रकत र्ोकपयोां का प्रेम ही 'काम' शब्द वाच्य है । 'प्रेमैव र्ोपरामाणाां काम इत्यार्मत प्रथाम्', अथाग त
र्ोकपकाओां का कनमगल प्रेम जो केवल श्रीकृष्ण को सुख दे ने वाला होता है , कजसमें लौककक काम की कोई र्न्ध नहीां होती, उसी
को शास्त्रोां में काम कहा र्या है । साां साररक काम वासनाओां से र्ोकपयोां का यह शु द्ध काम सवग था कभन्न है। सब प्रकार की
लौककक कामनाओां से रकहत केवल प्रेमास्पद कृष्ण को सुखी करना ही र्ोकपयोां के काम का एकमात्र तात्पयग है । इसीकलए
र्ोकपयोां के कवशु द्ध प्रेम को ही श्रीमद्भार्वताकद शास्त्रोां में काम की सांज्ञा दी र्ई है । कजस कृष्णलीला स्थली में श्रीराधाकृष्ण युर्ल
के ऐसे अप्राकृत प्रेम की अकभव्यखि हुई है, उसका नाम कामवन है । र्ोकपयोां के कवशु द्ध प्रेमस्वरूप शु द्धकाम की भी सहज
ही कसखद्ध होती है , उसे कामवन कहा र्या है ।
काम्य शब्द का अथग अत्यन्त सुन्दर, सुशोकभत या रूकचर भी होता है। ब्रजमांडल का यह वन कवकवध–प्रकार के सुरम्य सरोवरोां,
कूपोां, कुण्डोां, वृ क्ष–वल्लररयोां, फूल और फलोां से तथा कवकवध प्रकारके कवहग्ङमोां से अकतशय सुशोकभत श्रीकृष्ण की परम
रमणीय कवहार स्थली है । इसीकलए इसे काम्यवन कहा र्या है।
कवष्णु पुराण के अनुसार काम्यवन में चौरासी कुण्ड (तीथग), चौरासी मखन्दर तथा चौरासी खम्बे वतग मान हैं । कहते हैं कक इन
सबकी प्रकतष्ठा ककसी प्रकसद्ध राजा श्रीकामसेन के द्वारा की र्ई थी
ऐसी भी मान्यता है कक दे वता और असुरोां ने कमलकर यहााँ एक सौ अडसठ(168) खम्बोां का कनमागण ककया था।

3- कुमुदवन
तालवन से दो मील पकश्चम में कुमुदवन खस्थत है । इसका वतग मान नाम कुदरवन है । यहााँ एक कुण्ड है , कजस कुमुकदनी कुण्ड
या कवहार कुण्ड भी कहते हैं । श्रीकृष्ण एवां श्रीबलराम जी सखाओां के साथ र्ोचारण करते हुए इस रमणीय स्थान पर कवचरण
करते थे। सखाओां के साथ श्रीकृष्ण स्वयां इसमें जलकवहार करते तथा र्ऊओां को भी मधु र शब्दोां से बु लाकर चूाँ –चूाँ कहकर
जल कपलाते , तीरी तीरी कहकर उन्हें तट पर बु लाते । कमुकदनी फूलोां के हार बनाकर एक दू सरे को पहनाते । कभी–कभी कृष्ण
सखाओां से कछपकर राकधका, लकलता, कवशाखा आकद कप्रयनमग सखखयोां के साथ जल–कवहार करते थे। आजकल यहााँ कुण्ड के
तट पर श्री ककपल दे व जी की मूकतग कवराजमान है। भर्वान ककपल ने यहााँ स्वयां भर्वान श्री कृष्ण की आराधना की थी। यहााँ से
ब्रजयात्रा शान्तनु कुण्ड से होकर बहुलावन की ओर प्रस्थान करती है । आसपास में उस पार, मानको नर्र, लर्ायो, र्णेशरा
(र्न्धे श्वरी वन) दकतहा, आयोरे , र्ौराई, छटीकरा, र्रुड र्ोकवन्द, ऊाँचा र्ााँव आकद दशग नीय लीला–स्थकलयााँ हैं ।

4- कोककलावन / कोलवन
नन्दर्ाांव से तीन मील उत्तर और जावट ग्राम से एक मील पकश्चम में कोककलावन खस्थत है । यहााँ अभी भी इस सुरकक्षत रमणीय
वन में मयूर-मयू री, शुक-सारी, हांस-सारस आकद कवकवध प्रकार के पक्षी मधु र स्वर से कलरव करते रहते हैं तथा कहरण, नीलर्ाय
आकद पशु भी कवचरते हैं । ब्रजवासी लोर् झुण्ड के झुण्ड में अपनी र्ायोां को चराते हैं । कवशे षत: इस वन में सैकडो कोककलें
मीठे स्वर से कुहू-कुहू शब्द के द्वारा वन प्रान्त को र्ुांजार कर दे ती हैं । ब्रज के अकधकाांश वन नष्ट हो जाने पर भी यह वन कुछ
सुरकक्षत है । इस वन की प्रदकक्षणा पौने दो कोस की है । ब्रजभूखि कवलास के अनुसार कोककलावन में रत्नाकर सरोवर और
रासमण्डल अवखस्थत हैं।
प्रसंग
एक समय महाकौतु की श्रीकृष्ण राकधकाजी से कमलने के कलए बडे उत्कखित थे, ककन्तु सास जकटला, ननद कुकटला और पकत
अकभमन्यु की बाधा के कारण वे इस सांकेत स्थल पर नहीां आ सके। बहुत दे र तक प्रतीक्षा करने के पश्चात कृष्ण वहााँ ककसी
ऊाँचे वृ क्ष पर चढ़ र्ये और कोयल के समान बारम्बार मधुर रूप से कुहकने लर्े । इस अद् भुत कोककल के मधुर और ऊाँचे
स्वर को सुनकर सखखयाां के साथ राकधका कृष्ण के सांकेत को समझ र्यीां और उनसे कमलने के कलए अत्यन्त व्याकुल हो उठीां।
उस समय जकटला ने कवशाखा को सम्बोकधत करते हुए कहा- कवशाखे! मैंने कोककलोां की मधु र कूक बहुत सुनी है, ककन्तु आज
तो यह कोयल अद् भुत कोयल है। यकद आदे श हो तो हम इस कनराली कोककल को दे ख आएाँ । वृद्धा ने प्रसन्न होकर उन्हें जाने
का आदे श दे कदया। सखखयााँ बडी प्रसन्न हुईां और इस कोककलवन में प्रवे श ककया तथा यहााँ श्रीकृष्ण से कमलकर बडी प्रसन्न
हुई। इसकलए इसे कोककला वन कहते हैं । भखिरत्नाकर में इसका बडा ही सरस वणगन ह

5- खकदरवन (खायरो)
इसका वतग मान नाम खायरा है । छाता से तीन मील दकक्षण तथा जावट से तीन मील दकक्षण पूवग में खायरा ग्राम खस्थत है ।
यह कृष्ण के र्ोचारण का स्थान है । यहााँ सांर्म में कुण्ड है , जहााँ र्ोकपयोां के साथ कृष्ण का सांर्म अथाग त कमलन हुआ था।
इसी के तट पर लोकनाथ र्ोस्वामी कनजग न स्थान में साधन-भजन करते थे। पास में ही कदम्बखण्डी है ।
यह परम मनोरम स्थल है । यहााँ कृष्ण एवां बलराम सखाओां के साथ तरह-तरह की बाल लीलाएाँ करते थे। खजू र पकने के
समय कृष्ण सखाओां के साथ यहााँ र्ोचारण के कलए आते तथा पके हुए खजू रोां को खाते थे।
प्रसंग
एक समय कांस का भेजा हुआ बकासुर बडी डीलडोल वाले बर्ले का रूप धारणकर कृष्ण को ग्रास करने के कलए यहााँ
उपखस्थत हुआ। उसने अपना एक कनचला चोांच पृथ्वी में तथा ऊपर का चोांच आकाश तक फैला कदया तथा कृष्ण को ग्रास
करने के कलए बडी तेजी से दौडा। उस समय उसकी भयां कर आकृकत को दे खकर समस्त सखा लोर् डरकर बडे जोर से
कचल्लाये 'खायो रे ! खायो रे ! ककन्तु कृष्ण ने कनभीकता से अपने एक पैर से उसकी कनचली चोांच को और एक हाथ से ऊपरी
चोांच को पकडकर उसको घास फूस की भााँ कत चीर कदया। सखा लोर् बडे उल्लाकसत हुए। 'खायो रे ! खायो रे !' इस लीला के
कारण इस र्ााँव का नाम खायारे पडा जो कालान्तर में खायरा हो र्या। यहााँ खदीर के पेड होने के कारण भी इस र्ााँ व का
नाम खदीरवन पडा है । खदीर (कत्था) पान का एक प्रकार का मसाला है । कृष्ण ने बकासुर को मारने के कलए खदे डा था।
खदे डने के कारण भी इस र्ााँ व का नाम खदे डवन या खदीरवन है ।
6- तालवन
यह वही तालवन है, जहााँ श्री कृष्ण और श्री बलराम जी ने यादवोां के कहताथग और सखाओां के कवनोदाथग धे नुकासुर का वध ककया
था। मधुवन से दकक्षण पकश्चम में लर्भर् ढाई मील की दू री पर यह तालवन खस्थत है । यहााँ ताल वृ क्षोां पर भरपूर एक बडा ही
सुहावना एवां रमणीय वन था दु ष्ट कांस ने अपने एक अनुयायी धे नुकासुर को उस वन की रक्षा के कलए कनयुि कर रखा था वह
दै त्य बहुत सी पकत्नयोां और पुत्रोां के साथ बडी सावधानी से इस वन की रक्षा करता था। अत: साधारण लोर्ोां के कलए यह वन
अर्म्य था। केवल महाराज कांस एवां उसके अनुयायी ही मधु र तालफलोां का रसास्वादन करते थे।
स्कन्द पुराण और श्रीमद् भार्वत पुराण में भी इसका उल्लेख है।
एक कदन की बात है सखाओां के साथ कृष्ण और बलदे व र्ोचारण करते हुए इधर ही चले आये । सखाओां को बडी भूख लर्ी
थी। उन्होांने कृष्ण बलदे व को क्षुधारूपी असुर से अपनी रक्षा के कलए कनवे दन ककया। उन्होांने यह भी बतलाया कक कहीां पास
से ही पके हुए मधु र तालफलोां की सुर्न्ध आ रही है । यह सुनकर कृष्ण और बलदे व सखाओां को साथ ले कर तालवन पहुाँचे ,
बलदे वजी ने पके हुए फलोां से लदे हुए एक पेड को नीचे से कहला कदया, कजससे पके हुए फल थप-थप कर पृथ्वी पर कर्रने
लर्े । ग्वाल बाल आनन्द से उछलने लर्े । इतने में ही फलोां के कर्रने का शब्द सुनकर धे नुकासुर ने अपने अनुचारोां के साथ
कृष्ण और बलदे व पर अपने कपछले पैरोां से जोरोां से आक्रमण ककया। बलदे व प्रभु ने अवलीलापूवगक महापराक्रमी धे नुकासुर
के कपछले पैरोां को पकडकर उसे आकाश में घु माया तथा एक बृ हत ताल वृ क्ष के ऊपर पटक कदया। साथ ही साथ वह असुर
मल–मूत्र त्यार् करता हुआ मारा र्या। इधर कृष्ण ने भी धे नुकासुर अनुचरोां का वध करना आरम्भ कर कदया। इस प्रकार सारा
तालवन र्धोां के मल-मूत्र और रि से दू कषत हो र्या। ताल के सारे वृ क्ष भी एक दू सरे पर कर्रकर नष्ट हो र्ये । पीछे से तालवन
शु द्ध होने पर सखाओां एवां सवग साधारण के कलए सुलभ हो र्या।
इस उपाख्यान में कुछ रहस्यपूणग कशक्षाएाँ हैं । श्रीबलदे वप्रभु अखण्ड र्ु रुतत्व हैं । श्रीर्ुरुदे व की कृपा से ही साधक अज्ञानता से
अपने हृदय की रक्षा कर सकता है अथाग त् श्रीर्ु रुदे व ही सद् कशष्य की कवकभन्न प्रकार की अज्ञानता को दू रकर उसके हृदय में
कृष्ण भखि का सांचार कर सकते हैं। धे नुकासुर अज्ञता की मूकतग हैं । अखांण्ड र्ु रुतत्व बलदे व प्रभु की कृपा से कृष्ण की भखि
सुदृढ़ होती है । र्धे , मूखग होने के कारण सांसार के कवकवध प्रकार के भारोां को ढोने वाले , र्दकहयोां की लातें खाने वाले तथा
धोकबयोां के द्वारा सवग दा प्रहार सहने वाले , बडे कामी भी होते हैं । जो लोर् भर्वान का भजन नहीां करते और र्धे के दु र्ुगणोां से
यु ि होते हैं , वे अपनी मूखगतावश वषाग ऋतु में प्रचु र घास वाले स्थान पर भी दु बले –पतले तथा र्मी के समय कम घास के कदनोां
में मोटे –ताजे हो जाते हैं । यहााँ बलभद्र कुण्ड और बलदे वजी का मखन्दर है । मथुरा के छह मील दकक्षण और मधुवन दो मील
दू र और नैऋत कोण में यह तालवन है ।

7- बहुलावन

द्वादश वन (बारह वनोां में) में बहुला नामक वन पांचम वन एां व वनोां में से श्रेष्ठ है । जो लोर् इस वन में आते है वे मृत्यु पश्चात
अकिलोक को प्राप्त होते है । आजकल यहााँ वाटी नाम का र्ाांव बसा है बहुला नामक र्ाांव की पौराकणक र्ाथा इसी वन से
सम्बखन्धत है ।
बहुलावन एक परम सुन्दर और रमणीय वन है । यह स्थान बहुला नामक श्रीहरर की सखी (र्ोपी) का कनवास स्थल है । 'बहुला
श्रीहरे : पत्नी तत्र कतष्ठकत सवगदा'। इसका वतग मान नाम बाटी है । यह स्थान मथुरा से पकश्चम में सात मील की दू री पर राधाकुण्ड
एवां वृन्दावन के मध्य खस्थत है । यहााँ सांकषगण कुण्ड तथा मानसरोवर नामक दो कुण्ड हैं । कभी राकधका मान करके इस स्थान
के एक कुांज में कछप र्ई। कृष्ण ने उनके कवरह में कातर होकर सखखयोां के द्वारा अनुसांधान कर बडी ककठनता से उनका मान
भांर् ककया था। जनश्रुकत है कक जो लोर् जै सी कामना कर उसमें स्नान करते हैं , उनके मनोरथ सफल हो जाते हैं । कुण्ड के तट
पर खस्थत श्रीलक्ष्मी-नारायण मखन्दर, बहुला नामक र्ाय का स्थान, सुदशग नचक्र का कचन्ह, श्री कुण्डे श्वर महादे व एां व श्री
वल्लभाचायग जी की बै ठक दशग नीय है । लोक-कथा के अनुसार ककसी समय बहुला नाम की एक र्ाय इस सरोवर में पानी पी
रही थी, उसी समय एक भयां कर बाघ ने उस पर आक्रमण कर उसे पकड कलया। वह अपने भूखे बछडे को दू ध कपलाकर लौट
आने का आश्वासन दे कर अपने स्वामी ब्राह्मण के घर लौटी। उसने अपने द्वारा बाघ को कदये हुये वचन की बात सुनाकर अपने
बछडे को भर-पेट दू ध पी ले ने के कलए कहा तो बछडा भी कबना दू ध कपये माता के साथ जाने की हठ करने लर्ा। ब्राह्मण उन
दोनोां को घर रखकर बाघ का ग्रास बनने के कलए स्वयां जाने को उद्यत हो र्या। अन्तत: ये तीनोां बाघ के समीप पहुाँचे। तीनोां ने
अपने-अपने को प्रस्तु त करने पर बाघ का हृदय बदल र्या। श्रीकृष्ण की कृपा से वह ब्राह्मण, र्ाय और बछडे को ले कर
सकुशल घर लौट आया।
8- कबहारवन
रामघाट से डे ढ़ मील दकक्षण-पकश्चम में कबहारवन है । यहााँ कबहारी जी का दशग न और कबहारकुण्ड है । यहााँ पर ब्रजकबहारी कृष्ण
ने राकधका के सकहत र्ोकपयोां के साथ रासकवहार ककया एवां अन्यान्य नाना प्रकार के क्रीडा-कवलास ककये थे। श्री यमुना के पास
ही यह एक रमणीय स्थल है । ब्रज के अकधकाांश वनोां के कट जाने पर भी अभी तक कबहारवन का कुछ अांश सुरकक्षत है । अभी
भी इसमें हजारोां मयूर 'के-का' रव करते हैं , वषाग के कदनोां में पांख फैलाकर नृत्य करते हैं , कोयलें कुहकती हैं। इसमें अभी भी
सुन्दर-सुन्दर कृञ्ज, कदम्बखण्डी तथा नाना प्रकार की लताएाँ वतग मान हैं । इनका दशग न करने से कृष्णलीला की मधुर स्मृकतयााँ
जर् उठती हैं । यहााँ की र्ोशाला में बडी सुन्दर-सुन्दर र्ऊएाँ , फुदकते हुए बछडे और मत्त सााँड श्रीकृष्ण की र्ोचारण लीला
की मधुर स्मृकत जार्ृत करते हैं।

9- तपोवन

यह स्थान अक्षयवट की पूवग कदशा में एक मील दू र यमुना के तट पर अवखस्थत है । र्ोप कन्याओ ने 'श्रीकृष्ण ही हमारे पकत होां'
इस कामना से आराधना की थीां कहते हैं ये र्ोप कन्याएाँ वे है जो पूवग जन्म में दण्डकारण्य में श्रीकृष्ण को पाने की लालसा से
तपस्या में रत थे तथा श्री रामचन्द्र जी की कृपा से द्वापर में र्ोपीर्भग से जन्मे थे। इनमें जनकपुर की राजकन्याएाँ भी सखिकलत
थीां, जो सीता की भााँकत श्रीरामचन्द्र जी से कववाह करना चाहती थीां। वे भी श्रीरामचन्द्र जी की कृपा से द्वापरयुर् के अांत में ब्रज
में र्ोपकन्याओां के रूप में जन्मी थीां। इन्हीां र्ोप कुमाररयोां की श्रीकृष्ण प्राखप्त के कलए आराधना स्थल है यह तपोवन। ब्रज की
श्रीलकलता कवशाखा आकद कनत्यकसद्धा र्ोकपयााँ अन्तरग्ङस्वरूप शखि राकधका जी की कायव्यूह स्वरूपा है। उन्हें तप करने की
कोई भी आवश्यकता नहीां।

10- बेलवन

तप: कसखद्ध प्रदायै व नमो कबल्ववनाय च।


जनादग न नमस्तुभ्यां कबल्वे शाय नमोस्तु ते ।। (भकवष्योत्तर पुराण) श्रीकृष्ण की प्रकट-लीला के समय इस वन में बे ल के पेडोां की
प्रचु रता रहने के कारण इसे बे लवन कहते हैं । श्रीकृष्ण सखाओां के साथ र्ोचारण करते हुए इस परम मनोहर बे लवन में कवकवध
प्रकार की क्रीडाएाँ करते तथा पके हुए फलोां का आस्वादन करते हैं । यहााँ श्रीलक्ष्मी जी का मखन्दर है ।

प्रसंग

एक समय नारद जी के मुख से ब्रजेन्द्र नन्दन श्रीकृष्ण की मधु र रासलीला और र्ोकपयोां के सौभाग्य का वणगन सुनकर श्रीलक्ष्मी
जी के हृदय में रासलीला दशग न की प्रबल उत्किा हुई। अनन्य प्रेम की स्वरूपभूता कवशु द्ध प्रेम वाली र्ोकपयोां के अकतररि
और ककसी का भी रास में प्रवेश करने का अकधकार नहीां है । वह प्रवे श केवल महाभाव-स्वरूपा कृष्ण कान्ता कशरोमकण राकधका
और उनकी स्वरूपभूता र्ोकपयोां की कृपा से ही सुलभ है। अत: यहीां पर उन्होांने कठोर तपस्या की, कफर भी उन्हें रासलीला में
प्रवे श सांभव नहीां हो सका। वे आज भी रास में प्रवेश के कलए यहााँ तपस्या कर रही हैं ।
श्रीमद्भार्वत के दशम स्कन्ध में इसका वणगन ककया र्या है। काकलय नार् की पकत्नयााँ श्रीकृष्ण की स्तु कत करती हुई कह रही
हैं -' भर्वत! हम समझ नहीां पातीां कक यह इसकी (कालीयनार् की) ककस साधना का फल है , जो यह आपके श्रीचरणोां की धू कल
पाने का अकधकारी हुआ है। आपके श्रीचरणोां की रज इतनी दु लगभ है कक उसके कलए आपकी अद्धाग खग्ङनी श्रीलक्ष्मीजी को भी
बहुत कदनोां तक समस्त भोर्ोां का त्यार् करके तथा कनयमोां का पालन करते हुए तपस्या करनी पडी थी कफर भी वह दु लगभ
श्रीचरणरज प्राप्त नहीां कर सकीां।'
यहााँ पास में ही कृष्ण कुण्ड और श्रीवल्लभाचायग जी की बै ठक भी है ।
रामकृष्ण सखा सह ए कबल्ववनेते।
पक्का कबल्वफल भुञ्जे महाकौतुकेते ।।
श्रीभद्रवन

हे भद्रस्वरूप भद्रवन! आप सवगदा सबका कल्याणकारी तथा अमग्ङल नाश करनेवाले हो, आपको पुन: पुन: नमस्कार है।
नन्दघाट से दो मील दकक्षण-पूवग में यमुना के उस पार यह लीलास्थली है। यह श्री कृष्ण और श्री बलराम के र्ोचारण का स्थान
है । श्रीबलभद्र के नामानुसार इस वन का नाम भद्रवन पडा है । यहााँ भद्रसरोवर और र्ोचारण स्थल दशग नीय हैं ।

11- भांडीरवन

भाां डीरवन मथुरा - मााँ ट मार्ग पर खस्थत हैं। भाांडीरवन श्रीकृष्ण की कवकवध प्रकार की मधुर लीलाओां की स्थली है। बारह वनोां से
यह एक प्रमुख वन हैं । यहााँ भाण्डीरवट, वे णुकूप, रासस्थली, वांशीवट, मल्लक्रीडा स्थान, श्रीदासमजी का मखन्दर, श्याम तलैया,
छाये री र्ााँ व और आकर्यारा र्ााँव आकद लीला स्थकलयााँ दशग नीय हैं । जहााँ सब प्रकार के तत्त्वज्ञान तथा ऐश्वयग -माधु यगपूणग लीला-
माधु ररयोां का सम्पू णग रूप से प्रकाश हो, उसे भाण्डीरवन कहते हैं ।
भाण्डीरवन के अन्तर्ग त भाण्डीरवट एक प्रकसद्ध लीलास्थली है। यहााँ श्रीराधाकृष्ण यु र्ल की कवकवध लीलाएाँ सम्पन्न होती हैं ।
श्रीकृष्ण की प्रकट-लीला के समय यहााँ पर एक बहुत बृ हत वट का वृ क्ष था उसकी अनेकोां लम्बी शाखाएाँ ऊपर-नीचे चारोां
ओर बहुत दू र-दू र तक फैली हुई थीां। पास में ही श्रीयमुना मधु रा ककल्लोल करती हुई वक्रर्कत से प्रवाकहत हो रही थीां, कजस पर
श्रीकृष्ण- बलदे व सखाओां के साथ कवकवध-प्रकार की क्रीडाएाँ करते हुए डाकलयोां के ऊपर-ही-ऊपर श्रीयमुना को पार कर जाते
थे। इसकी कवस्तृत शाखाओां पर शु क-सारी, मयूर-मयू री, कोयलें , पपीहे सदा सवग दा चहकते रहते थे तथा इसके फलोां के तृ प्त
रहते थे। इसकी कस्नग्ध एवां सुशीतल छाया में कहरण-कहरकणयााँ तथा वन के अन्य प्राणी यमुना का मधु र जलपान कर कवश्राम
करते थे। श्रीमती यशोदा आकद ग्वालबालोां की माताएाँ अपने-अपने पुत्रोां के कलए दोपहर का 'छाक' र्ोपोां के माध्यम से अकधकाांश
इसी कनकदग ष्ट भाण्डीरवट पर भेज कदया करती थीां। श्रीकृष्ण-बलदे व सखाओां के साथ र्ोचारण करते हुए यमुना में र्ायोां को
जलपान कराकर कनकट की हरी-भरी घासोां से पूणग वन में चरने के कलए छोड दे ते। वे स्वयां यमुना के शीतल जल में स्नान एवां
जलक्रीडा कर इस वट की सुशीतल छाया में बै ठकर माताओां के द्वारा प्रेररत कवकवध प्रकार के सुस्वादु अन्न व्यांजन का सेवन
करते थे। श्रीकृष्ण सबके मध्य में बै ठते । सखा लोर् चारोां ओर से घे र कर हजारोां पांखियोां में अर्ल-बर्ल एवां आर्े -पीछे बैठ
जाते । ये सभी सखा पीछे या दू र रहने पर भी अपने को श्रीकृष्ण के सबसे कनकट सामने दे खते थे। ये परस्पर सबको हाँ सते -
हाँ साते हुए कवकवध प्रकार की क्रीडाएाँ करते हुए भोजन सम्पन्न करते थे। आकाश से ब्रह्मा आकद दे वर्ण उनके भोजन क्रीडा-
कौतुक दे खकर आश्चयगचककत हो जाते थे। इसी वट वृ क्ष के नीचे श्रीराधाकृष्ण युर्ल का ब्रह्माजी द्वारा र्ान्धवग कववाह सम्पन्न
हुआ था।
प्रसंग
र्र्ग सांकहता एवां र्ीतर्ोकवन्द के अनुसार एक समय नन्दबाबा श्रीकृष्ण को लेकर र्ोचारण हे तु भाण्डीरवन में पधारे । सघन
तमाल, कदम्ब वृ क्षोां और हरी-भरी लताओां से आच्छाकदत यह वन बडा ही रमणीय सघन वन होने के कारण इसमें सूयग की
रखियााँ भी बहुत ही कम प्रवे श करती थीां। सहसा चारोां ओर काले -काले मेघ कघर आये तथा प्रचण्ड आाँ धी के साथ कुछ-कुछ
वषाग भी प्रारम्भ हो र्ई। चारोां तरफ अांधकार हो र्या। नन्दबाबा दु योर् दे खकर भयभीत हो उठे । उन्होांने कन्है या को अपने
अकां में सावधानी से कछपा कलया। इसी समय वहााँ नख से कशख तक श्रृांर्ार धारण की हुई अपूवग सुन्दरी वृ षभानु कुमारी
श्रीराकधकाजी उपखस्थत हुई। उन्होांने नन्दबाबा के आर्े अपने दोनोां होथोां को पसार कदया , मानोां कृष्ण को अपनी र्ोद में ले ना
चाहती हो। नन्दबाबा को बहुत ही आश्चयग हुआ। उन्होांने कृष्ण को उनके हाथोां मां समकपगत कर कदया। श्रीमती राकधका कृष्ण को
ले कर भाण्डीरवन के अन्तर्ग त इसी भाण्डीरवट की छाया में ले र्ई। वहााँ पहुाँचते ही श्रीकृष्ण मन्मथ-मन्मथ ककशोर के रूप में
प्रकट हो र्ये । इतने में लकलता, कवशाखा आकद सखखयााँ तथा चतुमुगख ब्रह्मा भी वहााँ उपखस्थत हुए दोनोां की अकभलाषा जानकर
ब्रह्माजी ने वेद मन्त्ोां के द्वारा ककशोर-ककशोरी का र्ान्धवग कववाह सम्पन्न कराया श्रीमती राकधका और श्रीकृष्ण ने परस्पर एक
दू सरे को सुन्दर फूलोां के हार अपगण ककये । सखखयोां ने प्रसन्नतापूवगक कववाहकालीन र्ीत र्ाये और दे वताओां ने आकाश से पुष्ोां
की वृकष्ट की। दे खते -दे खते कुछ क्षणोां के पश्चात ब्रह्माजी चले र्ये। सखखयााँ भी अन्तधाग न हो र्ईां और कृष्ण ने पुन: बालक का
रूप धारण कर कलया। श्रीमती राकधका ने कृष्ण को पूवगवत उठाकर प्रतीक्षा में खडे नन्दबाबा की र्ोदी में सौांप कदया। इतने में
बादल छट र्ये । आाँ धी भी शान्त हो र्ई। नन्दबाबा कृष्ण को लेकर अपने नन्द ब्रज में लौट आये ।

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