Professional Documents
Culture Documents
*्भगनि्पच्छ्हठ्करर्रहेउँ्दीक्हह्महाररषि्साप।
मुनन्दर्
ु लभ्बर्पायउँ ्दे खहु्भजन्प्रिाप॥114्ख॥
भावार्थ:-मैं्हठ्करके्भक्ति्पक्ष्पर्अडा्रहा,्क्जससे्महषिल्र्ोमश्ने्मुझे्शाप्हदया,्परं िु्उसका्
फर््यह्हुआ्कक्जो्मुननयों्को्भी्दर्
ु लभ्है,्वह्वरदान्मैंने्पाया।्भजन्का्प्रिाप्िो्
दे खखए!॥114्(ख)॥
चौपाई :
*्जे्असस्भगनि्जानन्पररहरहीं।्केवर््ग्यान्हेिु्श्रम्करहीं॥
िे्जड्कामधेनु्गह
ृ ँ्त्यागी।्खोजि्आकु्कफरहहं्पय्र्ागी॥1॥
भावार्थ:-जो्भक्ति्की्ऐसी्महहमा्जानकर्भी्उसे्छोड्दे िे्हैं्और्केवर््ज्ञान्के्सर्ए्श्रम्
(साधन)्करिे्हैं,्वे्मूखल्घर्पर्खडी्हुई्कामधेनु्को्छोडकर्दध
ू ्के्सर्ए्मदार्के्पेड्को्
खोजिे्कफरिे्हैं॥1॥
*्सन
ु ्ु खगेस्हरर्भगनि्बबहाई।्जे्सख
ु ्चाहहहं्आन्उपाई॥
िे्सठ्महाससंधु्बबनु्िरनी।्पैरर्पार्चाहहहं्जड्करनी॥2॥
भावार्थ:-हे्पक्षीराज!्सुननए,्जो्र्ोग्श्री्हरर्की्भक्ति्को्छोडकर्दस
ू रे ्उपायों्से्सुख्चाहिे्हैं,्वे्
मूखल्और्जड्करनी्वार्े्(अभागे)्बबना्ही्जहाज्के्िैरकर्महासमुद्र्के्पार्जाना्चाहिे्हैं॥2॥
*्सुनन्भसुंडि्के्बचन्भवानी।्बोर्ेउ्गरुड्हरषि्मद
ृ ्ु बानी॥
िव्प्रसाद्प्रभु्मम्उर्माहीं।्संसय्सोक्मोह्भ्रम्नाहीं॥3॥
भावार्थ:-(सशवजी्कहिे्हैं-)्हे्भवानी!्भश
ु क्ु डिजी्के्वचन्सन
ु कर्गरुडजी्हषिलि्होकर्कोमर््वाणी्
से्बोर्े-्हे्प्रभो!्आपके्प्रसाद्से्मेरे्हृदय्में्अब्संदेह,्शोक,्मोह्और्कुछ्भी्नहीं्रह्
गया॥3॥
*्सुनेउँ्पुनीि्राम्गुन्ग्रामा।्िुम्हरी्कृपाँ्र्हेउँ्बबश्रामा॥
एक्बाि्प्रभु्पूँछउँ ्िोही।्कहहु्बुझाइ्कृपाननधध्मोही॥4॥
भावार्थ:-मैंने्आपकी्कृपा्से्श्री्रामचंद्रजी्के्पषवत्र्गण
ु ्समह
ू ों्को्सन
ु ा्और्शांनि्प्राप्ि्की।्हे्
प्रभो!्अब्मैं्आपसे्एक्बाि्और्पछ
ू िा्हूँ।्हे्कृपासागर!्मझ
ु े्समझाकर्कहहए॥4॥
* कहहहं्संि्मुनन्बेद्पुराना।्नहहं्कछु्दर्
ु लभ्ग्यान्समाना॥
सोइ्मुनन्िुम्ह्सन्कहेउ्गोसाईं।्नहहं्आदरे हु्भगनि्की्नाईं॥5॥
भावार्थ:-संि्मुनन,्वेद्और्पुराण्यह्कहिे्हैं्कक्ज्ञान्के्समान्दर्
ु लभ्कुछ्भी्नहीं्है।्हे्गोसाईं!्
वही्ज्ञान्मुनन्ने्आपसे्कहा,्परं िु्आपने्भक्ति्के्समान्उसका्आदर्नहीं्ककया॥5॥
*्ग्यानहह्भगनिहह्अंिर्केिा।्सकर््कहहु्प्रभु्कृपा्ननकेिा॥
सुनन्उरगारर्बचन्सुख्माना।्सादर्बोर्ेउ्काग्सुजाना॥6॥
भावार्थ:-हे्कृपा्के्धाम!्हे्प्रभो!्ज्ञान्और्भक्ति्में्ककिना्अंिर्है?्यह्सब्मझ
ु से्कहहए।्
गरुडजी्के्वचन्सुनकर्सुजान्काकभुशुक्डिजी्ने्सुख्माना्और्आदर्के्साथ्कहा-॥6॥
*्भगनिहह्ग्यानहह्नहहं्कछु्भेदा।्उभय्हरहहं्भव्संभव्खेदा॥
नाथ्मुनीस्कहहहं्कछु्अंिर।्सावधान्सोउ्सुनु्बबहंगबर॥7॥
भावार्थ:-भक्ति्और्ज्ञान्में्कुछ्भी्भेद्नहीं्है।्दोनों्ही्संसार्से्उत्पहन्तर्ेशों्को्हर्र्ेिे्हैं।्
हे्नाथ!्मुनीश्वर्इनमें्कुछ्अंिर्बिर्ािे्हैं।्हे्पक्षीश्रेष्ठ!्उसे्सावधान्होकर्सुननए॥7॥
*्ग्यान्बबराग्जोग्बबग्याना।्ए्सब्परु
ु ि्सन
ु हु्हररजाना॥
पुरुि्प्रिाप्प्रबर््सब्भाँिी।्अबर्ा्अबर््सहज्जड्जािी॥8॥
भावार्थ:-बहे्हरर्वाहन!्सुननए,्ज्ञान,्वैराग्य,्योग,्षवज्ञान-्ये्सब्पुरुि्हैं।्पुरुि्का्प्रिाप्सब्
प्रकार्से्प्रबर््होिा्है।्अबर्ा्(माया)्स्वाभाषवक्ही्ननबलर््और्जानि्(जहम)्से्ही्जड्(मूखल)्
होिी्है॥8॥
दोहा :
*्परु
ु ि्त्याधग्सक्नाररहह्जो्बबरति्मनि्धीर।
न्िु्कामी्बबियाबस्बबमुख्जो्पद्रघब
ु ीर॥115्क॥
भावार्थ:-परंिु्जो्वैराग्यवान््और्धीरबुद्धध्पुरुि्हैं्वही्स्त्री्को्त्याग्सकिे्हैं,्न्कक्वे्कामी्
पुरुि,्जो्षवियों्के्वश्में्हैं्(उनके्गुर्ाम्हैं)्और्श्री्रघुवीर्के्चरणों्से्षवमुख्हैं॥115्(क)॥
सोरठा :
*्सोउ्मुनन्ग्यानननधान्मग
ृ नयनी्बबधु्मुख्ननरखख।
बबबस्होइ्हररजान्नारर्बबष्न्ु माया्प्रगट॥115्ख॥
भावार्थ:-वे्ज्ञान्के्भडिार्मुनन्भी्मग
ृ नयनी्(युविी्स्त्री)्के्चंद्रमुख्को्दे खकर्षववश्(उसके्
अधीन)्हो्जािे्हैं।्हे्गरुडजी!्साक्षाि््भगवान्षवष्णु्की्माया्ही्स्त्री्रूप्से्प्रकट्है॥115्(ख)॥
चौपाई :
*्इहाँ्न्पच्छपाि्कछु्राखउँ ।्बेद्पुरान्संि्मि्भािउँ ॥
मोह्न्नारर्नारर्कें्रूपा।्पहनगारर्यह्रीनि्अनूपा॥1॥
भावार्थ:-यहाँ्मैं्कुछ्पक्षपाि्नहीं्रखिा।्वेद,्पुराण्और्संिों्का्मि्(ससद्धांि)्ही्कहिा्हूँ।्हे्
गरुडजी!्यह्अनुपम्(षवर्क्षण)्रीनि्है्कक्एक्स्त्री्के्रूप्पर्दस
ू री्स्त्री्मोहहि्नहीं्होिी॥1॥
*्माया्भगनि्सन
ु हु्िम्
ु ह्दोऊ।्नारर्बगल्जानइ्सब्कोऊ॥
पुनन्रघुबीरहह्भगनि्षपआरी।्माया्खर्ु्निलकी्बबचारी॥2॥
भावार्थ:-आप्सुननए,्माया्और्भक्ति-्ये्दोनों्ही्स्त्री्वगल्की्हैं,्यह्सब्कोई्जानिे्हैं।्कफर्श्री्
रघुवीर्को्भक्ति्प्यारी्है।्माया्बेचारी्िो्ननश्चय्ही्नाचने्वार्ी्(नहटनी्मात्र)्है॥2॥
*्भगनिहह्सानुकूर््रघुराया।्िािे्िेहह्िरपनि्अनि्माया॥
राम्भगनि्ननरुपम्ननरुपाधी।्बसइ्जासु्उर्सदा्अबाधी॥3॥
भावार्थ:-श्री्रघन
ु ाथजी्भक्ति्के्षवशेि्अनक
ु ू र््रहिे्हैं।्इसी्से्माया्उससे्अत्यंि्िरिी्रहिी्है।्
क्जसके्हृदय्में्उपमारहहि्और्उपाधधरहहि्(षवशुद्ध)्रामभक्ति्सदा्बबना्ककसी्बाधा्(रोक-टोक)्
के्बसिी्है,॥3॥
*्िेहह्बबर्ोकक्माया्सकुचाई।्करर्न्सकइ्कछु्ननज्प्रभुिाई॥
अस्बबचारर्जे्मुनन्बबग्यानी।्जाचहहं्भगनि्सकर््सुख्खानी॥4॥
भावार्थ:-उसे्दे खकर्माया्सकुचा्जािी्है।्उस्पर्वह्अपनी्प्रभुिा्कुछ्भी्नहीं्कर्(चर्ा)्
सकिी।्ऐसा्षवचार्कर्ही्जो्षवज्ञानी्मनु न्हैं,्वे्भी्सब्सख
ु ों्की्खानन्भक्ति्की्ही्याचना्
करिे्हैं॥4॥
दोहा :
*्यह्रहस्य्रघुनाथ्कर्बेधग्न्जानइ्कोइ।
जो्जानइ्रघुपनि्कृपाँ्सपनेहुँ्मोह्न्होइ॥116्क॥
भावार्थ:-श्री्रघुनाथजी्का्यह्रहस्य्(गुप्ि्ममल)्जल्दी्कोई्भी्नहीं्जान्पािा।्श्री्रघुनाथजी्की्
कृपा्से्जो्इसे्जान्जािा्है,्उसे्स्वप्न्में्भी्मोह्नहीं्होिा॥116्(क)॥
*्औरउ्ग्यान्भगनि्कर्भेद्सुनहु्सुप्रबीन।
जो्सुनन्होइ्राम्पद्प्रीनि्सदा्अबबछीन॥116्ख॥
भावार्थ:-हे्सुचिुर्गरुडजी!्ज्ञान्और्भक्ति्का्और्भी्भेद्सुननए,्क्जसके्सुनने्से्श्री्रामजी्के्
चरणों्में्सदा्अषवक्च्छहन्(एकिार)्प्रेम्हो्जािा्है॥116्(ख)॥
चौपाई :
*्सुनहु्िाि्यह्अकथ्कहानी।्समुझि्बनइ्न्जाइ्बखानी॥
ईस्वर्अंस्जीव्अबबनासी।्चेिन्अमर््सहज्सुख्रासी॥1॥
भावार्थ:-हे्िाि!्यह्अकथनीय्कहानी्(वािाल)्सुननए।्यह्समझिे्ही्बनिी्है,्कही्नहीं्जा्
सकिी।्जीव्ईश्वर्का्अंश्है।्(अिएव)्वह्अषवनाशी,्चेिन,्ननमलर््और्स्वभाव्से्ही्सुख्की्
रासश्है॥1॥
*्सो्मायाबस्भयउ्गोसाईं।्बँध्यो्कीर्मरकट्की्नाईं॥
जड्चेिनहह्ग्रंधथ्परर्गई।्जदषप्मि
ृ ा्छूटि्कहठनई॥2॥
भावार्थ:-हे्गोसाईं्!्वह्माया्के्वशीभूि्होकर्िोिे्और्वानर्की्भाँनि्अपने्आप्ही्बँध्गया।्
इस्प्रकार्जड्और्चेिन्में्ग्रंधथ्(गाँठ)्पड्गई।्यद्यषप्वह्ग्रंधथ्समथ्या्ही्है ,्िथाषप्उसके्
छूटने्में्कहठनिा्है॥2॥
*्िब्िे्जीव्भयउ्संसारी।्छूट्न्ग्रंधथ्न्होइ्सख
ु ारी॥
श्रुनि्पुरान्बहु्कहेउ्उपाई।्छूट्न्अधधक्अधधक्अरुझाई॥3॥
भावार्थ:-िभी्से्जीव्संसारी्(जहमने-मरने्वार्ा)्हो्गया।्अब्न्िो्गाँठ्छूटिी्है्और्न्वह्
सुखी्होिा्है।्वेदों्और्पुराणों्ने्बहुि्से्उपाय्बिर्ाए्हैं,्पर्वह्(ग्रंधथ)्छूटिी्नहीं्वरन्
अधधकाधधक्उर्झिी्ही्जािी्है॥3॥
*्जीव्हृदयँ्िम्मोह्बबसेिी।्ग्रंधथ्छूट्ककसम्परइ्न्दे खी॥
अस्संजोग्ईस्जब्करई।्िबहुँ्कदाधचि्सो्ननरुअरई॥4॥
भावार्थ:-जीव्के्हृदय्में्अज्ञान्रूपी्अंधकार्षवशेि्रूप्से्छा्रहा्है,्इससे्गाँठ्दे ख्ही्नहीं्
पडिी,्छूटे ्िो्कैसे?्जब्कभी्ईश्वर्ऐसा्संयोग्(जैसा्आगे्कहा्जािा्है)्उपक्स्थि्कर्दे िे्हैं्
िब्भी्कदाधचि््ही्वह्(ग्रंधथ)्छूट्पािी्है॥4॥
*्साक्त्वक्श्रद्धा्धेनु्सुहाई।्जौं्हरर्कृपाँ्हृदयँ्बस्आई॥
जप्िप्ब्रि्जम्ननयम्अपारा।्जे्श्रुनि्कह्सुभ्धमल्अचारा॥5॥
भावार्थ:-श्री्हरर्की्कृपा्से्यहद्साक्त्वकी्श्रद्धा्रूपी्संद
ु र्गो्हृदय्रूपी्घर्में्आकर्बस्जाए,्
असंख्य्जप,्िप्व्रि्यम्और्ननयमाहद्शुभ्धमल्और्आचार्(आचरण),्जो्श्रुनियों्ने्कहे्
हैं,॥5॥
*्िेइ्िन
ृ ्हररि्चरै ्जब्गाई।्भाव्बच्छ्सससु्पाइ्पेहहाई॥
नोइ्ननबषृ ि्पात्र्बबस्वासा।्ननमलर््मन्अहीर्ननज्दासा॥6॥
भावार्थ:-उहहीं्(धमालचार्रूपी)्हरे ्िण
ृ ों्(घास)्को्जब्वह्गो्चरे ्और्आक्स्िक्भाव्रूपी्छोटे ्
बछडे्को्पाकर्वह्पेहहावे।्ननवषृ ि्(सांसाररक्षवियों्से्और्प्रपंच्से्हटना)्नोई्(गो्के्दह
ु िे्
समय्षपछर्े्पैर्बाँधने्की्रस्सी)्है,्षवश्वास्(दध
ू ्दह
ु ने्का)्बरिन्है,्ननमलर््(ननष्पाप)्मन्जो्
स्वयं्अपना्दास्है।्(अपने्वश्में्है),्दह
ु ने्वार्ा्अहीर्है॥6॥
भावार्थ:-हे्भाई,्इस्प्रकार्(धमालचार्में्प्रवि
ृ ्साक्त्वकी्श्रद्धा्रूपी्गो्से्भाव,्ननवषृ ि्और्वश्में्
ककए्हुए्ननमलर््मन्की्सहायिा्से)्परम्धमलमय्दध ू ्दह
ु कर्उसे्ननष्काम्भाव्रूपी्अक्ग्न्पर्
भर्ी-भाँनि्औटावें।्कफर्क्षमा्और्संिोि्रूपी्हवा्से्उसे्ठं िा्करें ्और्धैयल्िथा्शम्(मन्का्
ननग्रह)्रूपी्जामन्दे कर्उसे्जमावें॥7॥
भावार्थ:-िब्मुहदिा्(प्रसहनिा)्रूपी्कमोरी्में्ित्व्षवचार्रूपी्मथानी्से्दम्(इंहद्रय्दमन)्के्
आधार्पर्(दम्रूपी्खंभे्आहद्के्सहारे )्सत्य्और्सुंदर्वाणी्रूपी्रस्सी्र्गाकर्उसे्मथें्और्
मथकर्िब्उसमें्से्ननमलर्,्सुंदर्और्अत्यंि्पषवत्र्वैराग्य्रूपी्मतखन्ननकार््र्ें॥8॥
दोहा :
*्जोग्अधगनन्करर्प्रगट्िब्कमल्सभ
ु ासभ
ु ्र्ाइ।
बुद्धध्ससरावै्ग्यान्घि
ृ ्ममिा्मर््जरर्जाइ॥117्क॥
भावार्थ:-िब्योग्रूपी्अक्ग्न्प्रकट्करके्उसमें्समस्ि्शुभाशभ
ु ्कमल्रूपी्ईंधन्र्गा्दें ्(सब्कमों्
को्योग्रूपी्अक्ग्न्में्भस्म्कर्दें )।्जब्(वैराग्य्रूपी्मतखन्का)्ममिा्रूपी्मर्,्जर््जाए,्
िब्(बचे्हुए)्ज्ञान्रूपी्घी्को्(ननश्चयाक्त्मका)्बुद्धध्से्ठं िा्करें ॥117्(क)॥
*्िब्बबग्यानरूषपनी्बुद्धध्बबसद्घि
ृ ्पाइ।
धचि्हदआ्भरर्धरै ्दृ़ि्समिा्हदअहट्बनाइ॥117्ख॥
भावार्थ:-िब्षवज्ञान्रूषपणी्बुद्धध्उस्(ज्ञान्रूपी)्ननमलर््घी्को्पाकर्उससे्धचि्रूपी्दीए्को्
भरकर,्समिा्की्दीवट्बनाकर,्उस्पर्उसे्दृ़ििापव
ू क
ल ्(जमाकर)्रखें॥117्(ख)॥
*्िीनन्अवस्था्िीनन्गुन्िेहह्कपास्िें्काह़ि।
िूर््िरु ीय्सँवारर्पुनन्बािी्करै ्सुगाह़ि॥117्ग॥
भावार्थ:-(जाग्रि,्स्वप्न्और्सुिुक्प्ि)्िीनों्अवस्थाएँ्और्(सत्त्व,्रज्और्िम)्िीनों्गुण्रूपी्
कपास्से्िुरीयावस्था्रूपी्रूई्को्ननकार्कर्और्कफर्उसे्सँवारकर्उसकी्सुंदर्कडी्बिी्
बनाएँ॥117्(ग)॥
सोरठा :
*्एहह्बबधध्र्ेसै्दीप्िेज्रासस्बबग्यानमय।
जािहहं्जासु्समीप्जरहहं्मदाहदक्सर्भ्सब॥117्घ॥
भावार्थ:-इस्प्रकार्िेज्की्रासश्षवज्ञानमय्दीपक्को्जर्ावें,्क्जसके्समीप्जािे्ही्मद्आहद्सब्
पिंगे्जर््जाएँ॥117्(घ)॥
चौपाई :
*्सोहमक्स्म्इनि्बषृ ि्अखंिा।्दीप्ससखा्सोइ्परम्प्रचंिा॥
आिम्अनभ
ु व्सख
ु ्सप्र
ु कासा।्िब्भव्मर्
ू ्भेद्भ्रम्नासा॥1॥
भावार्थ:-'सोऽहमक्स्म'्(वह्ब्रह्म्मैं्हूँ)्यह्जो्अखंि्(िैर्धारावि््कभी्न्टूटने्वार्ी)्वषृ ि्है,्वही्
(उस्ज्ञानदीपक्की)्परम्प्रचंि्दीपसशखा्(र्ौ)्है।्(इस्प्रकार)्जब्आत्मानुभव्के्सुख्का्सुंदर्
प्रकाश्फैर्िा्है,्िब्संसार्के्मूर््भेद्रूपी्भ्रम्का्नाश्हो्जािा्है,॥1॥
*्प्रबर््अबबद्या्कर्पररवारा।्मोह्आहद्िब्समटइ्अपारा॥
िब्सोइ्बुद्धध्पाइ्उँ क्जआरा।्उर्गह
ृ ँ्बैहठ्ग्रंधथ्ननरुआरा॥2॥
भावार्थ:- और्महान््बर्विी्अषवद्या्के्पररवार्मोह्आहद्का्अपार्अंधकार्समट्जािा्है।्िब्
वही्(षवज्ञानरूषपणी)्बुद्धध्(आत्मानुभव्रूप)्प्रकाश्को्पाकर्हृदय्रूपी्घर्में्बैठकर्उस्जड्
चेिन्की्गाँठ्को्खोर्िी्है॥2॥
*्छोरन्ग्रंधथ्पाव्जौं्सोई।्िब्यह्जीव्कृिारथ्होई॥
छोरि्ग्रंथ्जानन्खगराया।्बबघ्न्नेक्करइ्िब्माया॥3॥
भावार्थ:-यहद्वह्(षवज्ञान्रूषपणी्बुद्धध)्उस्गाँठ्को्खोर्ने्पावे,्िब्यह्जीव्कृिाथल्हो,्परं िु्हे्
पक्षीराज्गरुडजी!्गाँठ्खोर्िे्हुए्जानकर्माया्कफर्अनेकों्षवघ्न्करिी्है॥3॥
*्ररद्धध-ससद्धध्प्रेरइ्बहु्भाई।्बुद्धधहह्र्ोभ्हदखावहहं्आई॥
कर््बर््छर््करर्जाहहं्समीपा।्अंचर््बाि्बुझावहहं्दीपा॥4॥
भावार्थ:-हे्भाई!्वह्बहुि्सी्ऋद्धध-ससद्धधयों्को्भेजिी्है,्जो्आकर्बुद्धध्को्र्ोभ्हदखािी्हैं्
और्वे्ऋद्धध-ससद्धधयाँ्कर््(कर्ा),्बर््और्छर््करके्समीप्जािी्और्आँचर््की्वायु्से्उस्
ज्ञान्रूपी्दीपक्को्बझ
ु ा्दे िी्हैं॥4॥
*्होइ्बुद्धध्जौं्परम्सयानी।्निहह्िन्धचिव्न्अनहहि्जानी॥
जौं्िेहह्बबघ्न्बुद्धध्नहहं्बाधी।्िौ्बहोरर्सुर्करहहं्उपाधी॥5॥
भावार्थ:-यहद्बुद्धध्बहुि्ही्सयानी्हुई,्िो्वह्उन्(ऋद्धध-ससद्धधयों)्को्अहहिकर्(हाननकर)्
समझकर्उनकी्ओर्िाकिी्नहीं।्इस्प्रकार्यहद्माया्के्षवघ्नों्से्बुद्धध्को्बाधा्न्हुई,्िो्
कफर्दे विा्उपाधध्(षवघ्न)्करिे्हैं॥5॥
*्इंद्री्द्वार्झरोखा्नाना।्िहँ्िहँ्सुर्बैठे्करर्थाना॥
आवि्दे खहहं्बबिय्बयारी।्िे्हहठ्दे हहं्कपाट्उघारी॥6॥
भावार्थ:-इंहद्रयों्के्द्वार्हृदय्रूपी्घर्के्अनेकों्झरोखे्हैं।्वहाँ-वहाँ्(प्रत्येक्झरोखे्पर)्दे विा्थाना्
ककए्(अड्िा्जमाकर)्बैठे्हैं।्ज्यों्ही्वे्षविय्रूपी्हवा्को्आिे्दे खिे्हैं,्त्यों्ही्हठपूवलक्ककवाड्
खोर््दे िे्हैं॥6॥
*्जब्सो्प्रभंजन्उर्गह
ृ ँ्जाई।्िबहहं्दीप्बबग्यान्बझ
ु ाई॥
ग्रंधथ्न्छूहट्समटा्सो्प्रकासा।्बुद्धध्बबकर््भइ्बबिय्बिासा॥7॥
भावार्थ:-सज्यों्ही्वह्िेज्हवा्हृदय्रूपी्घर्में्जािी्है,्त्यों्ही्वह्षवज्ञान्रूपी्दीपक्बुझ्जािा्
है।्गाँठ्भी्नहीं्छूटी्और्वह्(आत्मानुभव्रूप)्प्रकाश्भी्समट्गया।्षविय्रूपी्हवा्से्बुद्धध्
व्याकुर््हो्गई्(सारा्ककया-कराया्चौपट्हो्गया)॥7॥
*्इंहद्रहह्सुरहह्न्ग्यान्सोहाई।्बबिय्भोग्पर्प्रीनि्सदाई॥
बबिय्समीर्बद्
ु धध्कि्भोरी।्िेहह्बबधध्दीप्को्बार्बहोरी॥8॥
भावार्थ:-इंहद्रयों्और्उनके्दे विाओं्को्ज्ञान्(स्वाभाषवक्ही)्नहीं्सुहािा,्तयोंकक्उनकी्षविय-भोगों्
में्सदा्ही्प्रीनि्रहिी्है्और्बुद्धध्को्भी्षविय्रूपी्हवा्ने्बावर्ी्बना्हदया।्िब्कफर्(दोबारा)्
उस्ज्ञान्दीप्को्उसी्प्रकार्से्कौन्जर्ावे?॥8॥
दोहा :
*्िब्कफरर्जीव्बबबबधध्बबधध्पावइ्संसनृ ि्तर्ेस।
हरर्माया्अनि्दस्
ु िर्िरर्न्जाइ्बबहगेस॥118्क॥
भावार्थ:-(इस्प्रकार्ज्ञान्दीपक्के्बुझ्जाने्पर)्िब्कफर्जीव्अनेकों्प्रकार्से्संसनृ ि्(जहम-
मरणाहद)्के्तर्ेश्पािा्है।्हे्पक्षीराज!्हरर्की्माया्अत्यंि्दस्
ु िर्है,्वह्सहज्ही्में्िरी्नहीं्
जा्सकिी॥118्(क)॥
*्कहि्कहठन्समुझि्कहठन्साधि्कहठन्बबबेक।
होइ्घन
ु ाच्छर्हयाय्जौं्पनु न्प्रत्यह
ू ्अनेक॥118्ख॥
भावार्थ:-ज्ञान्कहने्(समझाने)्में्कहठन,्समझने्में ्कहठन्और्साधने्में्भी्कहठन्है।्यहद्
घुणाक्षर्हयाय्से्(संयोगवश)्कदाधचि््यह्ज्ञान्हो्भी्जाए,्िो्कफर्(उसे्बचाए्रखने्में)्अनेकों्
षवघ्न्हैं॥118्(ख)॥
चौपाई :
*्ग्यान्पंथ्कृपान्कै्धारा।्परि्खगेस्होइ्नहहं्बारा॥
जो्ननबबलघ्न्पंथ्ननबलहई।्सो्कैवल्य्परम्पद्र्हई॥1॥
भावार्थ:-ज्ञान्का्मागल्कृपाण्(दोधारी्िर्वार)्की्धार्के्समान्है।्हे्पक्षीराज!्इस्मागल्से्धगरिे्
दे र्नहीं्र्गिी।्जो्इस्मागल्को्ननषवलघ्न्ननबाह्र्े्जािा्है,्वही्कैवल्य्(मोक्ष)्रूप्परमपद्को्
प्राप्ि्करिा्है॥1॥
*्अनि्दर्
ु लभ्कैवल्य्परम्पद।्संि्परु ान्ननगम्आगम्बद॥
राम्भजि्सोइ्मक
ु ु नि्गोसाईं।्अनइक्च्छि्आवइ्बररआईं॥2॥
भावार्थ:-संि,्परु ाण,्वेद्और्(िंत्र्आहद)्शास्त्र्(सब)्यह्कहिे्हैं्कक्कैवल्य्रूप्परमपद्अत्यंि्
दर्
ु लभ्है,्ककं िु्हे्गोसाईं!्वही्(अत्यंि्दर्
ु लभ)्मुक्ति्श्री्रामजी्को्भजने्से्बबना्इच्छा्ककए्भी्
जबदलस्िी्आ्जािी्है॥2॥
*्क्जसम्थर््बबनु्जर््रहह्न्सकाई।्कोहट्भाँनि्कोउ्करै ्उपाई॥
िथा्मोच्छ्सुख्सुनु्खगराई।्रहह्न्सकइ्हरर्भगनि्बबहाई॥3॥
भावार्थ:-जैसे्स्थर््के्बबना्जर््नहीं्रह्सकिा,्चाहे्कोई्करोडों्प्रकार्के्उपाय्तयों्न्करे ।्वैसे्
ही,्हे्पक्षीराज!्सुननए,्मोक्षसुख्भी्श्री्हरर्की्भक्ति्को्छोडकर्नहीं्रह्सकिा॥3॥
*्अस्बबचारर्हरर्भगि्सयाने।्मुक्ति्ननरादर्भगनि्र्ुभाने॥
भगनि्करि्बबनु्जिन्प्रयासा।्संसनृ ि्मूर््अबबद्या्नासा॥4॥
भावार्थ:-ऐसा्षवचार्कर्बुद्धधमान््हरर्भति्भक्ति्पर्र्ुभाए्रहकर्मुक्ति्का्निरस्कार्कर्दे िे्
हैं।्भक्ति्करने्से्संसनृ ि्(जहम-मत्ृ यु्रूप्संसार)्की्जड्अषवद्या्बबना्ही्यंत्र्और्पररश्रम्के्
(अपने्आप)्वैसे्ही्नष्ट्हो्जािी्है,॥4॥
*भोजन्कररअ्िषृ पनि्हहि्र्ागी।्क्जसम्सो्असन्पचवै्जठरागी॥
असस्हरर्भगनि्सुगम्सुखदाई।्को्अस्मू़ि्न्जाहह्सोहाई॥5॥
भावार्थ:-जैसे्भोजन्ककया्िो्जािा्है्िक्ृ प्ि्के्सर्ए्और्उस्भोजन्को्जठराक्ग्न्अपने्आप्
(बबना्हमारी्चेष्टा्के)्पचा्िार्िी्है,्ऐसी्सुगम्और्परम्सुख्दे ने्वार्ी्हरर्भक्ति्क्जसे्न्
सह
ु ावे,्ऐसा्म़ि
ू ्कौन्होगा?॥5॥
दोहा :
*्सेवक्सेब्य्भाव्बबनु्भव्न्िररअ्उरगारर।
भजहु्राम्पद्पंकज्अस्ससद्धांि्बबचारर॥119्क॥
भावार्थ:-हे्सपों्के्शत्रु्गरुडजी!्मैं्सेवक्हूँ्और्भगवान््मेरे्सेव्य्(स्वामी)्हैं,्इस्भाव्के्बबना्
संसार्रूपी्समद्र
ु ्से्िरना्नहीं्हो्सकिा।्ऐसा्ससद्धांि्षवचारकर्श्री्रामचंद्रजी्के्चरण्कमर्ों्
का्भजन्कीक्जए॥119्(क)॥
*्जो्चेिन्कहँ्जड्करइ्जडहह्करइ्चैिहय।
अस्समथल्रघुनायकहह्भजहहं्जीव्िे्धहय॥119्ख॥
चौपाई :
*्कहेउँ्ग्यान्ससद्धांि्बुझाई।्सुनहु्भगनि्मनन्कै्प्रभुिाई॥
राम्भगनि्धचंिामनन्सुंदर।्बसइ्गरुड्जाके्उर्अंिर॥1॥
भावार्थ:-मैंने्ज्ञान्का्ससद्धांि्समझाकर्कहा।्अब्भक्ति्रूपी्मखण्की्प्रभुिा्(महहमा)्सुननए।्
श्री्रामजी्की्भक्ति्सुंदर्धचंिामखण्है।्हे्गरुडजी!्यह्क्जसके्हृदय्के्अंदर्बसिी्है,॥1॥
*परम्प्रकास्रूप्हदन्रािी।्नहहं्कछु्चहहअ्हदआ्घि
ृ ्बािी॥
मोह्दररद्र्ननकट्नहहं्आवा।्र्ोभ्बाि्नहहं्िाहह्बझ
ु ावा॥2॥
भावार्थ:-वह्हदन-राि्(अपने्आप्ही)्परम्प्रकाश्रूप्रहिा्है।्उसको्दीपक,्घी्और्बिी्कुछ्भी्
नहीं्चाहहए।्(इस्प्रकार्मखण्का्एक्िो्स्वाभाषवक्प्रकाश्रहिा्है)्कफर्मोह्रूपी्दररद्रिा्समीप्
नहीं्आिी्(तयोंकक्मखण्स्वयं्धनरूप्है)्और्(िीसरे )्र्ोभ्रूपी्हवा्उस्मखणमय्दीप्को्बुझा्
नहीं्सकिी्(तयोंकक्मखण्स्वयं्प्रकाश्रूप्है,्वह्ककसी्दस
ू रे ्की्सहायिा्से्प्रकाश्नहीं्
करिी)॥2॥
*्प्रबर््अबबद्या्िम्समहट्जाई।्हारहहं्सकर््सर्भ्समद
ु ाई॥
खर््कामाहद्ननकट्नहहं्जाहीं।्बसइ्भगनि्जाके्उर्माहीं॥3॥
भावार्थ:-(उसके्प्रकाश्से)्अषवद्या्का्प्रबर््अंधकार्समट्जािा्है।्मदाहद्पिंगों्का्सारा्समूह्
हार्जािा्है।्क्जसके्हृदय्में्भक्ति्बसिी्है,्काम,्क्रोध्और्र्ोभ्आहद्दष्ु ट्िो्उसके्पास्भी्
नहीं्जािे॥3॥
*्गरर््सुधासम्अरर्हहि्होई।्िेहह्मनन्बबनु्सुख्पाव्न्कोई॥
दब्यापहहं्मानस्रोग्न्भारी।्क्जहह्के्बस्सब्जीव्दख
ु ारी॥4॥
भावार्थ:-उसके्सर्ए्षवि्अमि
ृ ्के्समान्और्शत्रु्समत्र्हो्जािा्है।्उस्मखण्के्बबना्कोई्सुख्
नहीं्पािा।्बडे-बडे्मानस्रोग,्क्जनके्वश्होकर्सब्जीव्दुःु खी्हो्रहे्हैं,्उसको्नहीं्व्यापिे॥4॥
*्राम्भगनि्मनन्उर्बस्जाकें।्दख
ु ्र्वर्ेस्न्सपनेहुँ्िाकें॥
चिुर्ससरोमनन्िेइ्जग्माहीं।्जे्मनन्र्ाधग्सुजिन्कराहीं॥5॥
भावार्थ:-श्री्रामभक्ति्रूपी्मखण्क्जसके्हृदय्में्बसिी्है,्उसे्स्वप्न्में्भी्र्ेशमात्र्दुःु ख्नहीं्
होिा।्जगि्में्वे्ही्मनुष्य्चिुरों्के्सशरोमखण्हैं्जो्उस्भक्ति्रूपी्मखण्के्सर्ए्भर्ी-भाँनि्
यत्न्करिे्हैं॥5॥
*्सो्मनन्जदषप्प्रगट्जग्अहई।्राम्कृपा्बबनु्नहहं्कोउ्र्हई॥
सग
ु म्उपाय्पाइबे्केरे ।्नर्हिभाग्य्दे हहं्भटभेरे॥6॥
भावार्थ:-यद्यषप्वह्मखण्जगि््में्प्रकट्(प्रत्यक्ष)्है,्पर्बबना्श्री्रामजी्की्कृपा्के्उसे्कोई्पा्
नहीं्सकिा।्उसके्पाने्के्उपाय्भी्सुगम्ही्हैं,्पर्अभागे्मनुष्य्उहहें ्ठुकरा्दे िे्हैं॥6॥
*्पावन्पबलि्बेद्परु ाना।्राम्कथा्रुधचराकर्नाना॥
ममी्सज्जन्सुमनि्कुदारी।्ग्यान्बबराग्नयन्उरगारी॥7॥
भावार्थ:-वेद-पुराण्पषवत्र्पवलि्हैं।्श्री्रामजी्की्नाना्प्रकार्की्कथाएँ्उन्पवलिों्में्सुंदर्खानें्हैं।्
संि्परु
ु ि्(उनकी्इन्खानों्के्रहस्य्को्जानने्वार्े)्ममी्हैं्और्संद
ु र्बद्
ु धध्(खोदने्वार्ी)्
कुदार््है।्हे्गरुडजी!्ज्ञान्और्वैराग्य्ये्दो्उनके्नेत्र्हैं॥7॥
*्भाव्सहहि्खोजइ्जो्प्रानी।्पाव्भगनि्मनन्सब्सुख्खानी॥
मोरें ्मन्प्रभु्अस्बबस्वासा।्राम्िे्अधधक्राम्कर्दासा॥8॥
भावार्थ:-जो्प्राणी्उसे्प्रेम्के्साथ्खोजिा्है,्वह्सब्सुखों्की्खान्इस्भक्ति्रूपी्मखण्को्पा्
जािा्है।्हे्प्रभो!्मेरे्मन्में्िो्ऐसा्षवश्वास्है्कक्श्री्रामजी्के्दास्श्री्रामजी्से्भी्ब़िकर्
हैं॥8॥
*्राम्ससंधु्घन्सज्जन्धीरा।्चंदन्िरु्हरर्संि्समीरा॥
सब्कर्फर््हरर्भगनि्सुहाई।्सो्बबनु्संि्न्काहूँ्पाई॥9॥
भावार्थ:-श्री्रामचंद्रजी्समुद्र्हैं्िो्धीर्संि्पुरुि्मेघ्हैं।्श्री्हरर्चंदन्के्वक्ष
ृ ्हैं्िो्संि्पवन्हैं।्
सब्साधनों्का्फर््सुंदर्हरर्भक्ति्ही्है।्उसे्संि्के्बबना्ककसी्ने्नहीं्पाया॥9॥
*्अस्बबचारर्जोइ्कर्सिसंगा।्राम्भगनि्िेहह्सर्
ु भ्बबहंगा॥10॥
भावार्थ:-ऐसा्षवचार्कर्जो्भी्संिों्का्संग्करिा्है,्हे्गरुडजी्उसके्सर्ए्श्री्रामजी्की्भक्ति्
सुर्भ्हो्जािी्है॥10॥
दोहा :
*्ब्रह्म्पयोननधध्मंदर्ग्यान्संि्सरु ्आहहं।
कथा्सध
ु ा्मधथ्का़िहहं्भगनि्मधरु िा्जाहहं॥120्क॥
भावार्थ:-ब्रह्म्(वेद)्समुद्र्है,्ज्ञान्मंदराचर््है्और्संि्दे विा्हैं,्जो्उस्समुद्र्को्मथकर्कथा्
रूपी्अमि
ृ ्ननकार्िे्हैं,्क्जसमें्भक्ति्रूपी्मधुरिा्बसी्रहिी्है॥120्(क)॥
*्बबरनि्चमल्असस्ग्यान्मद्र्ोभ्मोह्ररपु्मारर।
जय्पाइअ्सो्हरर्भगनि्दे खु्खगेस्बबचारर॥120्ख॥
भावार्थ:-वैराग्य्रूपी्ढार््से्अपने्को्बचािे्हुए्और्ज्ञान्रूपी्िर्वार्से्मद,्र्ोभ्और्मोह्रूपी्
वैररयों्को्मारकर्जो्षवजय्प्राप्ि्करिी्है,्वह्हरर्भक्ति्ही्है,्हे्पक्षीराज!्इसे्षवचार्कर्
दे खखए॥120्(ख)॥
*्पुनन्सप्रेम्बोर्ेउ्खगराऊ।्जौं्कृपार््मोहह्ऊपर्भाऊ॥।
नाथ्मोहह्ननज्सेवक्जानी।्सप्ि्प्रस्न्मम्कहहु्बखानी॥1॥
भावार्थ:-पक्षीराज्गरुडजी्कफर्प्रेम्सहहि्बोर्े-्हे्कृपार्ु!्यहद्मुझ्पर्आपका्प्रेम्है,्िो्हे्नाथ!्
मुझे्अपना्सेवक्जानकर्मेरे्साि्प्रश्नों्के्उिर्बखान्कर्कहहए॥1॥
*्प्रथमहहं्कहहु्नाथ्मनिधीरा।्सब्िे्दर्
ु लभ्कवन्सरीरा॥
बड्दख
ु ्कवन्कवन्सख
ु ्भारी।्सोउ्संछेपहहं्कहहु्बबचारी॥2॥
भावार्थ:-हे्नाथ!्हे्धीर्बुद्धध!्पहर्े्िो्यह्बिाइए्कक्सबसे्दर्
ु भल ्कौन्सा्शरीर्है्कफर्सबसे्
बडा्दुःु ख्कौन्है्और्सबसे्बडा्सुख्कौन्है,्यह्भी्षवचार्कर्संक्षेप्में्ही्कहहए॥2॥
*्संि्असंि्मरम्िुम्ह्जानहु।्निहह्कर्सहज्सुभाव्बखानहु॥
कवन्पुहय्श्रुनि्बबहदि्बबसार्ा।्कहहु्कवन्अघ्परम्करार्ा॥3॥
भावार्थ:-संि्और्असंि्का्ममल्(भेद)्आप्जानिे्हैं,्उनके्सहज्स्वभाव्का्वणलन्कीक्जए।्कफर्
कहहए्कक्श्रुनियों्में्प्रससद्ध्सबसे्महान््पुडय्कौन्सा्है्और्सबसे्महान््भयंकर्पाप्कौन्
है॥3॥
*्मानस्रोग्कहहु्समुझाई।्िुम्ह्सबलग्य्कृपा्अधधकाई॥
िाि्सन
ु हु्सादर्अनि्प्रीिी।्मैं्संछेप्कहउँ ्यह्नीिी॥4॥
भावार्थ:-कफर्मानस्रोगों्को्समझाकर्कहहए।्आप्सवलज्ञ्हैं्और्मुझ्पर्आपकी्कृपा्भी्बहुि्
है।्(काकभुशुक्डिजी्ने्कहा-)्हे्िाि्अत्यंि्आदर्और्प्रेम्के्साथ्सुननए।्मैं्यह्नीनि्संक्षेप्से्
कहिा्हूँ॥4॥
*नर्िन्सम्नहहं्कवननउ्दे ही।्जीव्चराचर्जाचि्िेही॥
नरक्स्वगल्अपबगल्ननसेनी।्ग्यान्बबराग्भगनि्सुभ्दे नी॥5॥
भावार्थ:-मनष्ु य्शरीर्के्समान्कोई्शरीर्नहीं्है।्चर-अचर्सभी्जीव्उसकी्याचना्करिे्हैं।्वह्
मनुष्य्शरीर्नरक,्स्वगल्और्मोक्ष्की्सी़िी्है्िथा्कल्याणकारी्ज्ञान,्वैराग्य्और्भक्ति्को्दे ने्
वार्ा्है॥5॥
*्सो्िनु्धरर्हरर्भजहहं्न्जे्नर।्होहहं्बबिय्रि्मंद्मंद्िर॥
काँच्ककररच्बदर्ें्िे्र्ेहीं।्कर्िे्िारर्परस्मनन्दे हीं॥6॥
भावार्थ:-ऐसे्मनुष्य्शरीर्को्धारण्(प्राप्ि)्करके्भी्जो्र्ोग्श्री्हरर्का्भजन्नहीं्करिे्और्
नीच्से्भी्नीच्षवियों्में्अनरु ति्रहिे्हैं,्वे्पारसमखण्को्हाथ्से्फेंक्दे िे्हैं्और्बदर्े्में्
काँच्के्टुकडे्र्े्र्ेिे्हैं॥6॥
*्नहहं्दररद्र्सम्दख
ु ्जग्माहीं।्संि्समर्न्सम्सख
ु ्जग्नाहीं॥
पर्उपकार्बचन्मन्काया।्संि्सहज्सुभाउ्खगराया॥7॥
भावार्थ:-जगि््में्दररद्रिा्के्समान्दुःु ख्नहीं्है्िथा्संिों्के्समर्ने्के्समान्जगि््में्सुख्नहीं्
है।्और्हे्पक्षीराज!्मन,्वचन्और्शरीर्से्परोपकार्करना,्यह्संिों्का्सहज्स्वभाव्है॥7॥
*्संि्सहहहं्दख
ु ्पर्हहि्र्ागी।्पर्दख
ु ्हेि्ु असंि्अभागी॥
भूजल्िरू्सम्संि्कृपार्ा।्पर्हहि्नननि्सह्बबपनि्बबसार्ा॥8॥
भावार्थ:-संि्दस
ू रों्की्भर्ाई्के्सर्ए्दुःु ख्सहिे्हैं्और्अभागे्असंि्दस
ू रों्को्दुःु ख्पहुँचाने्के्
सर्ए।्कृपार्ु्संि्भोज्के्वक्ष
ृ ्के्समान्दस
ू रों्के्हहि्के्सर्ए्भारी्षवपषि्सहिे्हैं्(अपनी्खार््
िक्उधडवा्र्ेिे्हैं)॥8॥
*्सन्इव्खर््पर्बंधन्करई।्खार््क़िाई्बबपनि्सहह्मरई॥
खर््बबनु्स्वारथ्पर्अपकारी।्अहह्मूिक्इव्सुनु्उरगारी॥9॥
*्पर्संपदा्बबनासस्नसाहीं।्क्जसम्ससस्हनि्हहम्उपर््बबर्ाहीं॥
दष्ु ट्उदय्जग्आरनि्हेिू।्जथा्प्रससद्ध्अधम्ग्रह्केिू॥10॥
भावार्थ:-वे्पराई्संपषि्का्नाश्करके्स्वयं्नष्ट्हो्जािे्हैं,्जैसे्खेिी्का्नाश्करके्ओर्े्नष्ट्
हो्जािे्हैं।्दष्ु ट्का्अभ्युदय्(उहननि)्प्रससद्ध्अधम्ग्रह्केिु्के्उदय्की्भाँनि्जगि्के्दुःु ख्
के्सर्ए्ही्होिा्है॥10॥
*्संि्उदय्संिि्सुखकारी।्बबस्व्सुखद्क्जसम्इंद्ु िमारी॥
परम्धमल्श्रुनि्बबहदि्अहहंसा।्पर्ननंदा्सम्अघ्न्गरीसा॥11॥
भावार्थ:-और्संिों्का्अभ्युदय्सदा्ही्सुखकर्होिा्है,्जैसे्चंद्रमा्और्सूयल्का्उदय्षवश्व्भर्के्
सर्ए्सुखदायक्है।्वेदों्में्अहहंसा्को्परम्धमल्माना्है्और्परननहदा्के्समान्भारी्पाप्नहीं्
है॥11॥
*्हर्गुर्ननंदक्दादरु ्होई।्जहम्सहस्र्पाव्िन्सोई॥
द्षवज्ननंदक्बहु्नरक्भोग्करर।्जग्जनमइ्बायस्सरीर्धरर॥12॥
भावार्थ:-शंकरजी्और्गुरु्की्ननंदा्करने्वार्ा्मनुष्य्(अगर्े्जहम्में)्मेंढक्होिा्है्और्वह्
हजार्जहम्िक्वही्मेंढक्का्शरीर्पािा्है।्ब्राह्मणों्की्ननंदा्करने्वार्ा्व्यक्ति्बहुि्से्नरक्
भोगकर्कफर्जगि््में्कौए्का्शरीर्धारण्करके्जहम्र्ेिा्है॥12॥
भावार्थ:-जो्असभमानी्जीव्दे विाओं्और्वेदों्की्ननंदा्करिे्हैं,्वे्रौरव्नरक्में्पडिे्हैं।्संिों्की्
ननंदा्में्र्गे्हुए्र्ोग्उल्र्ू्होिे्हैं,्क्जहहें ्मोह्रूपी्राबत्र्षप्रय्होिी्है्और्ज्ञान्रूपी्सूयल्क्जनके्
सर्ए्बीि्गया्(अस्ि्हो्गया)्रहिा्है॥13॥
*्सब्कै्ननंदा्जे्जड्करहीं।्िे्चमगादरु ्होइ्अविरहीं॥
सन
ु हु्िाि्अब्मानस्रोगा।्क्जहह्िे्दख
ु ्पावहहं्सब्र्ोगा॥14॥
भावार्थ:-जो्मूखल्मनुष्य्सब्की्ननंदा्करिे्हैं,्वे्चमगादड्होकर्जहम्र्ेिे्हैं।्हे्िाि!्अब्मानस्
रोग्सुननए,्क्जनसे्सब्र्ोग्दुःु ख्पाया्करिे्हैं॥14॥
*्मोह्सकर््ब्याधधहह्कर्मूर्ा।्निहह्िे्पुनन्उपजहहं्बहु्सूर्ा॥
काम्बाि्कफ्र्ोभ्अपारा।्क्रोध्षपि्ननि्छािी्जारा॥15॥
भावार्थ:-सब्रोगों्की्जड्मोह्(अज्ञान)्है।्उन्व्याधधयों्से्कफर्और्बहुि्से्शूर््उत्पहन्होिे्हैं।्
काम्वाि्है,्र्ोभ्अपार्(ब़िा्हुआ)्कफ्है्और्क्रोध्षपि्है्जो्सदा्छािी्जर्ािा्रहिा्है॥15॥
*्प्रीनि्करहहं्जौं्िीननउ्भाई।्उपजइ्सहयपाि्दख
ु दाई॥
बबिय्मनोरथ्दग
ु लम्नाना।्िे्सब्सूर््नाम्को्जाना॥16॥
भावार्थ:-यहद्कहीं्ये्िीनों्भाई्(वाि,्षपि्और्कफ)्प्रीनि्कर्र्ें्(समर््जाएँ),्िो्दुःु खदायक्
सक्हनपाि्रोग्उत्पहन्होिा्है।्कहठनिा्से्प्राप्ि्(पण
ू ल)्होने्वार्े्जो्षवियों्के्मनोरथ्हैं,्वे्ही्
सब्शर्
ू ्(कष्टदायक्रोग)्हैं,्उनके्नाम्कौन्जानिा्है्(अथालि््वे्अपार्हैं)॥16॥
चौपाई :
*्ममिा्दाद्ु कंिु्इरिाई।्हरि्बबिाद्गरह्बहुिाई॥
पर्सुख्दे खख्जरनन्सोइ्छई।्कुष्ट्दष्ु टिा्मन्कुहटर्ई॥17॥
भावार्थ:-ममिा्दाद्है,्ईिाल्(िाह)्खुजर्ी्है,्हिल-षविाद्गर्े्के्रोगों्की्अधधकिा्है्(गर्गंि,्
कडठमार्ा्या्घेघा्आहद्रोग्हैं),्पराए्सख
ु ्को्दे खकर्जो्जर्न्होिी्है,्वही्क्षयी्है।्दष्ु टिा्
और्मन्की्कुहटर्िा्ही्को़ि्है॥17॥
*्अहंकार्अनि्दख
ु द्िमरुआ।्दं भ्कपट्मद्मान्नेहरुआ॥
िस्
ृ ना्उदरबद्
ृ धध्अनि्भारी।्बत्रबबधध्ईिना्िरुन्निजारी॥18॥
*्जुग्बबधध्ज्वर्मत्सर्अबबबेका।्कहँ्र्धग्कहौं्कुरोग्अनेका॥19॥
दोहा :
*्एक्ब्याधध्बस्नर्मरहहं्ए्असाधध्बहु्ब्याधध।
पीडहहं्संिि्जीव्कहुँ्सो्ककसम्र्है्समाधध॥121्क॥
भावार्थ:-एक्ही्रोग्के्वश्होकर्मनुष्य्मर्जािे्हैं,्कफर्ये्िो्बहुि्से्असाध्य्रोग्हैं।्ये्जीव्
को्ननरं िर्कष्ट्दे िे्रहिे्हैं,्ऐसी्दशा्में्वह्समाधध्(शांनि)्को्कैसे्प्राप्ि्करे ?॥121्(क)॥
*्नेम्धमल्आचार्िप्ग्यान्जग्य्जप्दान।
भेिज्पुनन्कोहटहह्नहहं्रोग्जाहहं्हररजान॥121्ख॥
भावार्थ:-ननयम,्धमल,्आचार्(उिम्आचरण),्िप,्ज्ञान,्यज्ञ,्जप,्दान्िथा्और्भी्करोडों्
औिधधयाँ्हैं,्परं ि्ु हे्गरुडजी!्उनसे्ये्रोग्नहीं्जािे॥121्(ख)॥
चौपाई :
*्एहह्बबधध्सकर््जीव्जग्रोगी।्सोक्हरि्भय्प्रीनि्बबयोगी॥
मानस्रोग्कछुक्मैं्गाए।्हहहं्सब्कें्र्खख्बबरर्ेहह्पाए॥1॥
भावार्थ:-इस्प्रकार्जगि््में्समस्ि्जीव्रोगी्हैं,्जो्शोक,्हिल,्भय,्प्रीनि्और्षवयोग्के्दुःु ख्से्
और्भी्दुःु खी्हो्रहे्हैं।्मैंने्ये्थोडेो़ ्से्मानस्रोग्कहे्हैं।्ये्हैं्िो्सबको,्परं िु्इहहें ्जान्पाए्हैं्
कोई्षवरर्े्ही॥1॥
*्जाने्िे्छीजहहं्कछु्पापी।्नास्न्पावहहं्जन्पररिापी॥
बबिय्कुपथ्य्पाइ्अंकुरे ।्मनु नहु्हृदयँ्का्नर्बापरु े ॥2॥
भावार्थ:-प्राखणयों्को्जर्ाने्वार्े्ये्पापी्(रोग)्जान्सर्ए्जाने्से्कुछ्क्षीण्अवश्य्हो्जािे्हैं,्
परं िु्नाश्को्नहीं्प्राप्ि्होिे।्षविय्रूप्कुपथ्य्पाकर्ये्मुननयों्के्हृदय्में्भी्अंकुररि्हो्उठिे्
हैं,्िब्बेचारे ्साधारण्मनुष्य्िो्तया्चीज्हैं॥2॥
*्राम्कृपाँ्नासहहं्सब्रोगा।्जौं्एहह्भाँनि्बनै्संजोगा॥
सदगुर्बैद्बचन्बबस्वासा।्संजम्यह्न्बबिय्कै्आसा॥3॥
भावार्थ:-यहद्श्री्रामजी्की्कृपा्से्इस्प्रकार्का्संयोग्बन्जाए्िो्ये्सब्रोग्नष्ट्हो्जाएँ।्
सद्गुरु्रूपी्वैद्य्के्वचन्में्षवश्वास्हो।्षवियों्की्आशा्न्करे ,्यही्संयम्(परहेज)्हो॥3॥
भजन महहमा
चौपाई :
*्रघुपनि्भगनि्सजीवन्मूरी।्अनूपान्श्रद्धा्मनि्परू ी॥
एहह्बबधध्भर्ेहहं्सो्रोग्नसाहीं।्नाहहं्ि्जिन्कोहट्नहहं्जाहीं॥4॥
भावार्थ:-श्री्रघुनाथजी्की्भक्ति्संजीवनी्जडी्है।्श्रद्धा्से्पूणल्बुद्धध्ही्अनुपान्(दवा्के्साथ्
सर्या्जाने्वार्ा्मधु्आहद)्है।्इस्प्रकार्का्संयोग्हो्िो्वे्रोग्भर्े्ही्नष्ट्हो्जाएँ,्नहीं्िो्
करोडों्प्रयत्नों्से्भी्नहीं्जािे॥4॥
*्जाननअ्िब्मन्बबरुज्गोसाँई।्जब्उर्बर््बबराग्अधधकाई॥
सुमनि्छुधा्बा़िइ्ननि्नई।्बबिय्आस्दब
ु लर्िा्गई॥5॥
भावार्थ:-हे्गोसाईं!्मन्को्ननरोग्हुआ्िब्जानना्चाहहए,्जब्हृदय्में्वैराग्य्का्बर््ब़ि्जाए,्
उिम्बुद्धध्रूपी्भूख्ननि्नई्ब़ििी्रहे्और्षवियों्की्आशा्रूपी्दब
ु लर्िा्समट्जाए॥5॥
*्बबमर््ग्यान्जर््जब्सो्नहाई।्िब्रह्राम्भगनि्उर्छाई॥
ससव्अज्सुक्सनकाहदक्नारद।्जे्मुनन्ब्रह्म्बबचार्बबसारद॥6॥
भावार्थ:-इस्प्रकार्सब्रोगों्से्छूटकर्जब्मनुष्य्ननमलर््ज्ञान्रूपी्जर््में्स्नान्कर्र्ेिा्है,्िब्
उसके्हृदय्में्राम्भक्ति्छा्रहिी्है।्सशवजी,्ब्रह्माजी,्शुकदे वजी,्सनकाहद्और्नारद्आहद्
ब्रह्मषवचार्में्परम्ननपुण्जो्मुनन्हैं,॥6॥
*्सब्कर्मि्खगनायक्एहा।्कररअ्राम्पद्पंकज्नेहा॥
श्रनु ि्परु ान्सब्ग्रंथ्कहाहीं।्रघप
ु नि्भगनि्बबना्सख
ु ्नाहीं॥7॥
भावार्थ:-हे्पक्षीराज!्उन्सबका्मि्यही्है्कक्श्री्रामजी्के्चरणकमर्ों्में्प्रेम्करना्चाहहए।्
श्रुनि,्पुराण्और्सभी्ग्रंथ्कहिे्हैं्कक्श्री्रघुनाथजी्की्भक्ति्के्बबना्सुख्नहीं्है॥7॥
*्कमठ्पीठ्जामहहं्बरु्बारा।्बंध्या्सुि्बरु्काहुहह्मारा॥
फूर्हहं्नभ्बरु्बहुबबधध्फूर्ा।्जीव्न्र्ह्सुख्हरर्प्रनिकूर्ा॥8॥
भावार्थ:-कछुए्की्पीठ्पर्भर्े्ही्बार््उग्आवें,्बाँझ्का्पुत्र्भर्े्ही्ककसी्को्मार्िार्े,्आकाश्
में्भर्े्ही्अनेकों्प्रकार्के्फूर््खखर््उठें ,्परंि्ु श्री्हरर्से्षवमख
ु ्होकर्जीव्सख
ु ्नहीं्प्राप्ि्कर्
सकिा॥8॥
*्िि
ृ ा्जाइ्बरु्मग
ृ जर््पाना।्बरु्जामहहं्सस्सीस्बबिाना॥
अंधकारु्बरु्रबबहह्नसावै।्राम्बबमुख्न्जीव्सुख्पावै॥9॥
भावार्थ:-मग
ृ िष्ृ णा्के्जर््को्पीने्से्भर्े्ही्प्यास्बझ
ु ्जाए,्खरगोश्के्ससर्पर्भर्े्ही्सींग्
ननकर््आवे,्अहधकार्भर्े्ही्सूयल्का्नाश्कर्दे ,्परं िु्श्री्राम्से्षवमुख्होकर्जीव्सुख्नहीं्
पा्सकिा॥9॥
*्हहम्िे्अनर््प्रगट्बरु्होई।्बबमुख्राम्सुख्पाव्न्कोई॥10॥
भावार्थ:-बफल्से्भर्े्ही्अक्ग्न्प्रकट्हो्जाए्(ये्सब्अनहोनी्बािें्चाहे्हो्जाएँ),्परं िु्श्री्राम्से्
षवमुख्होकर्कोई्भी्सुख्नहीं्पा्सकिा॥10॥
दोहा :
*्बारर्मथें्घि
ृ ्होइ्बरु्ससकिा्िे्बरु्िेर्।
बबन्ु हरर्भजन्न्िव्िररअ्यह्ससद्धांि्अपेर्॥122्क॥
भावार्थ:-जर््को्मथने्से्भर्े्ही्घी्उत्पहन्हो्जाए्और्बार्ू्(को्पेरने)्से्भर्े्ही्िेर््ननकर््
आवे,्परं िु्श्री्हरर्के्भजन्बबना्संसार्रूपी्समुद्र्से्नहीं्िरा्जा्सकिा,्यह्ससद्धांि्अटर््
है॥122्(क)॥
*्मसकहह्करइ्बबरं धच्प्रभु्अजहह्मसक्िे्हीन।
अस्बबचारर्िक्ज्संसय्रामहह्भजहहं्प्रबीन॥122्ख॥
भावार्थ:-प्रभु्मच्छर्को्ब्रह्मा्कर्सकिे्हैं्और्ब्रह्मा्को्मच्छर्से्भी्िुच्छ्बना्सकिे्हैं।्ऐसा्
षवचार्कर्चिुर्पुरुि्सब्संदेह्त्यागकर्श्री्रामजी्को्ही्भजिे्हैं॥122्(ख)॥
श्लोक :
*्षवननक्श्चिं्वदासम्िे्न्अहयथा्वचांसस्मे।
हररं्नरा्भजक्हि्येऽनिदस्
ु िरं ्िरक्हि्िे॥122्ग॥
भावार्थ:-मैं्आपसे्भर्ी-भाँनि्ननक्श्चि्ककया्हुआ्ससद्धांि्कहिा्हूँ-्मेरे्वचन्अहयथा्(समथ्या)्
नहीं्हैं्कक्जो्मनुष्य्श्री्हरर्का्भजन्करिे्हैं,्वे्अत्यंि्दस्
ु िर्संसार्सागर्को्(सहज्ही)्पार्
कर्जािे्हैं॥122्(ग)॥
चौपाई :
*्कहेउँ्नाथ्हरर्चररि्अनूपा।्ब्यास्समास्स्वमनि्अनुरूपा॥
श्रनु ि्ससद्धांि्इहइ्उरगारी।्राम्भक्जअ्सब्काज्बबसारी॥1॥
भावार्थ:-हे्नाथ!्मैंने्श्री्हरर्का्अनुपम्चररत्र्अपनी्बुद्धध्के्अनुसार्कहीं्षवस्िार्से्और्कहीं्
संक्षेप्से्कहा।्हे्सपों्के्शत्रु्गरुडजी्!्श्रुनियों्का्यही्ससद्धांि्है्कक्सब्काम्भुर्ाकर्
(छोडकर)्श्री्रामजी्का्भजन्करना्चाहहए॥1॥
*्प्रभु्रघुपनि्िक्ज्सेइअ्काही।्मोहह्से्सठ्पर्ममिा्जाही॥
िुम्ह्बबग्यानरूप्नहहं्मोहा।्नाथ्कीक्हह्मो्पर्अनि्छोहा॥2॥
भावार्थ:-प्रभ्
ु श्री्रघन
ु ाथजी्को्छोडकर्और्ककसका्से
ो़ वन्(भजन)्ककया्जाए,्क्जनका्मझ
ु ्जैसे्
मूखल्पर्भी्ममत्व्(स्नेह)्है।्हे्नाथ!्आप्षवज्ञान्रूप्हैं,्आपको्मोह्नहीं्है।्आपने्िो्मुझ्पर्
बडी्कृपा्की्है॥2॥