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मौताणा प्रथा: आदिवासियों का अंधा कानून

आधनि
ु क टे क्रोलोजी और मजबत
ू कानन
ू व्यवस्था के दावों के बीच निरन्तर प्रगति के पथ पर
आगे बढ़ते इस दे श में हमेशा से ही नागरिकों के धर्म/मजहब/रहन-सहन/आचार-विचार/कानन

व्यवस्था के प्रश्र पर शत-प्रतिशत आजादी की बात की जाती रही हैं। आजाद होने के बाद दे श
की शिक्षा/तकनीक/कानून व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन हुआ हैं, निश्चित रूप से इन सबके
चलते ही न केवल नागरिकों का जीवन पहले से बेहतर हुआ.. अपितु दे श के साथ खास तौर से
प्रदे शों की प्रगति भी अबाध तरीके से हुई हैं। इससे राजस्थान भी अछूता नहीं हैं , इस प्रदे श ने
भी सुशासन/बेहतर कानून व्यवस्था/नागरिकों को स्वछं दता के साथ जीवन जीने की आजादी के
दावों के बीच तरक्की के अपने अद्भत
ु आयाम स्थापित किए हैं। कमोबेश इसका दं भ भी प्रदे श की
सरकारों द्वारा भरा जाता रहा हैं। इन सबके बीच यह वाकई अफसोसजनक/दख
ु द हैं कि दे श..
खास तौर से राजस्थान के कुछ इलाकों में दे श/प्रदे श की कानून व्यवस्था/संवैधानिक प्रक्रियाओं
का खुलेआम मजाक उड़ाया जाता हैं। इन इलाकों में रह रहे लोगों के अपने रीति-रिवाज हैं..
अपना कानून और अपनी व्यवस्थाएं हैं। सीधे-सीधे कहा जाएं तो इनका अपना अंधा कानून हैं,
जहां इनकी अपनी बनाई हुई दण्ड व्यवस्था तक हैं।

दे श/प्रदे श की संवैधानिक/कानन
ू व्यवस्थाओं को वर्षों से सीधे तौर पर ठें गा दिखाते चले आ रहे
इन स्वयं-भू लोगों/इलाकों के बारे में ऐसा नहीं हैं कि प्रदे श सरकार/कानन
ू व्यवस्था/पलि
ु स को
मालम
ू नहीं हैं.. सच तो यह हैं कि मालम ू होते हुए भी ये स्वयं को असहाय महसस
ू करते हैं।
जी हां! मैं बात कर रहा हूं.. राजस्थान के उन आदिवासी इलाकों की जहां आज भी उनकी अपनी
व्यवस्थाएं हैं। फिर चाहे वह सामाजिक/आर्थिक/कानूनी.. सब कुछ संचालन/नियंत्रित करने का
उनका अपना तरीका हैं। इन आदिवासी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों की जिस प्रथा ने प्रदे श
सरकार व कानून व्यवस्था का जिम्मा संभाल रहे लोगों की नाक में सबसे ज्यादा दम कर रखा
हैं वह हैं ‘मौताणा’ प्रथा। एक ऐसी प्रथा जिसने अब तक हजारों परिवारों को तबाह/बर्बाद कर
दिया हैं। राजस्थान की अरावली पर्वतमाला के आसपास/खास तौर से उदयपुर/बांसवाड़ा/सिरोही
एवं पाली क्षेत्र के आदिवासी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों के बीच इस प्रथा का सर्वाधिक
चलन हैं। तथाकथित सामाजिक न्याय के उद्देश्य से शुरू हुई यह प्रथा अब कई परिवारों को
तबाह कर दे ने वाली कुप्रथा का रूप ले चुकी हैं।  

आदिवासी ‘मौताणा’ प्रथा एक नजर में ...


मौताणा प्रथा राजस्थान में उदयपरु /बांसवाड़ा/सिरोही एवं पाली क्षेत्र के आदिवासी इलाकों में
जनजातीय समद
ु ाय में प्रचलित हैं। ऐसी धारणा हैं कि इस प्रथा की शरु
ु आत तो सामाजिक न्याय
के उद्देश्य से हुई थी जिसमें यदि किसी ने किसी व्यक्ति की हत्या कर दी तो दोषी को दं ड
स्वरूप हर्जाना दे ना पड़ता था लेकिन अब अन्य कारण से हुई मौत पर भी आदिवासी मौताणा
मांग लेते हैं। वहीं पिछले कुछ सालों में दे खा गया हैं कि किसी भी वजह से हुई अपनों की मौत
का दोष दस
ू रे पर मढ़ कर जबरन मौताणा वसल
ू किया जाने लगा हैं। मौताणे की रकम नहीं
मिलने पर आदिवासी चढ़ोतरा करते हैं। इसमें सामने वाले कुटुंब के घर को लट
ू ा जाता हैं और
आग तक लगा दी जाती हैं। चढ़ोतरा में दोषी पक्ष के साथ ही मारपीट की जाती हैं। दरअसल
जब मत
ृ क का परिवार किसी को दोषी मानकर उसे मौताणा चक
ु ाने के लिए मजबरू करता हैं तो
आदिवासियों की अपनी अदालत लगती हैं , जहां पंच दोषी को सफाई का मौका दिए बिना ही
मौताणा चुकाने का फरमान जारी कर दे ते हैं। भुखमरी की नौबत झेल रहे आदिवासी परिवारों को
लाखों रुपए का मौताणा चुकाना पड़ता हैं। जिससे गरीब आदिवासी बर्बाद हो जाते हैं।

‘मौताणा’ नहीं तो पीड़ित पक्ष को बदला लेने का हक


राजस्थान के प्रतापगढ़, भीलवाड़ा, चित्तौडगढ़, राजसमन्द और में भी मौताणा प्रथा का चलन हैं।
‘मौताणा’ नहीं चुकाने पर मत
ृ क का परिवार दोषी परिवार के सदस्य की जान तक ले सकता हैं।
राशि नहीं चुकाने पर यह हिंसक रूप लेता हैं। इसके अनुसार यदि आरोपी पक्ष पीड़ित पक्ष को
मआ
ु वजा नहीं दे ता हैं तो पीड़ित पक्ष को उससे बदला लेने का हक हैं। चंकि
ू मौताणे की रकम
भारी भरकम होती हैं जिससे उनकी सारी जमीन जायदाद दांव पर लगानी पड़ जाती हैं। ऐसे में
कई परिवार या तो डर कर पलायन कर जाते हैं या फिर बर्बाद हो जाते हैं। दस
ू रे पक्ष के इनकार
करने पर पहला पक्ष दस
ू रे के घर में आग लगा सकता हैं या उसी तरह की वारदात को अंजाम
दे सकता हैं। चाहे हादसा हो या हत्या या कुछ और आदिवासी किसी भी वजह से हुई मौत पर
हर्जाना मांग लेते हैं। इसके अनेक उदाहरण हैं, मसलन.. उदयपरु के गल्दर में बाइक से हादसा
हुआ तो उसे बिठाने वाले को 80 हजार दे ने पड़े। खाखड़ में की कउड़ी की बिजली गिरने से मौत
पर पीहर ने मौताणा लिया। कुएं में शव मिला तो मालिक ने मौताणा मांगा। बाद में इसे लेकर
काफी हं गामा भी हुआ। नवंबर 2005 में ढ़े डमारिया के भैरूलाल डामोर की बीमारी से मौत हु ई।
चचेरे भाई से मौताणा लेने के लिए शव 35 दिनों घर में ही रखे रखा। मौताणा लेकर ही माने
परिजन।

सवा साल लटका रहा शव/20 साल बाद लौटे 30 परिवार


कउचा गांव में महिला को सांप ने डसा लिया। पीहर वालों ने कहा कि सांप ससुराल का ही था।
ऐसे ही महादे व नेत्रावला गांव में कुत्ते के काटने पर मालिकों से मौताणा लिया। नालीगांव में
1995 में हत्या के मामले में मौताणा ना चक
ु ाने पर 30 परिवारों को गांव छोड़ना पड़ा था। बीस
साल बाद ये घर लौट सके। गज
ु रात सीमा के आंजणी गांव में मौताणा नहीं मिलने पर अजमेरी
का शव सवा साल तक पेड़ से लटका रहा। मांडवा के भाटा का पानी में 50 परिवार 14 साल से
भटक रहे । कोर्ट ने भी आजीवन कारावास सन
ु ाया फिर भी दस
ू रा पक्ष मौताणा राशि की मांग पर
अड़ा हैं। कोटड़ा में 14 साल पहले हामीरा की दास्तान तो और भी अलग हैं। उसके घर के बाहर
कोई शव फेंक गया। हामीरा के परिवार पर हत्या का आरोप लगा। खेत छोडक़र दस
ू रों के रहमो
करम पर जिंदगी बसर करनी पड़ रही हैं। इसी प्रकार जोगीवड़ में अप्रैल 2014 परथा 50 दे वा
गरासिया की हत्या के बाद दस
ू रे पक्ष को झाल(अंतिम संस्कार की राशि) 90 हजार भरनी थी।
इसके लिए 5 बीघा 6 बीघा जमीन गिरवी रखी। बाकी राशि ना दे ने पर करीब 30 परिवारों को
पलायन करना पड़ा हैं। वर्ष 2010 में सुबरी के दिनेश की हत्या पर सात लाख मौताणा चुकाने के
लिए एक पक्ष के झालीया ने 70, परथा ने 40, लक्ष्मण ने 20 झालीया ने 45 हजार में जमीन
गिरवी रखी और मवेशी बेचे।

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