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जैन धर्म और र्हाकाल र्न्दिर उज्जैयन

उज्जैयन को पन्हले अवन्दि नार् से भी पुकारा जािा था,


उज्जैयन नार् दिया र्हाराज उद्दैयन ने जब र्हाराज कौन्िक के
बाि पिभार संभाला। र्हाराज कौन्िक र्हाराज श्रेन्िक और
र्हारानी चेलना के गभम र्ें जब आया, िब से ही र्हारानी
चेलना असदिुष्ट थी क्योंदक कौन्िक कालजयी था। र्हाराज
श्रेन्िक को कारावास र्ें डालकर राज्यप्राप्त दकया था और नाना
चेटक के साथ युद्ध दकया न्जसर्ें िो करोड़ जीवों ने अपने प्राि
गंवाए और उसकी राजधानी राजगृह थी। जब उद्दैयन ने
राज्यभार संभाला िो राजधानी उज्जैयन बनाई न्जसका
अन्भप्राय था उत्तर् जैन। यह जैन नगरी भी कहलािी थी, सिा
जैन सदिों का आवागर्न लगा रहिा था।
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एक सर्य की बाि है दक वहााँ का र्हाराज न्वक्रर्ादित्य
अश्वारूढ़ होकर क्रीड़ा के न्लए जा रहा था दक रास्िे र्ें जैन
र्ुन्न श्री न्सद्धसेन को िेखा और र्न ही र्न र्ें भाव उत्पन्न हुए
और र्न से वदिना की, र्हार्ुन्न जी ने धर्मलाभ कहकर
आशीवमचन दिया। र्हाराज न्वक्रर्ादित्य ने कहा- गुरुिेव र्ैंने
वदिना िो की नहीं आपने आशीवमचन क्यों दिया। र्ुन्न श्री
न्सद्धसेन ने कहा, आपने काया से वदिना नहीं की परदिु र्न र्ें
वदिना के भाव आए और वदिना की है। र्हाराज न्वक्रर्ादित्य
अश्चयम चदकि रह गया, घोड़े से नीचे उिरा घोड़ा बांधकर र्ुन्न
श्री जी के चरिों र्ें बैठ गया और धर्मलाभ प्राप्त दकया।
राजिरबार र्ें पधारने की न्वनिी भी की। र्ुन्न श्री जी
धर्मलाभ िेकर आगे न्वहार कर दिया।
कु छ सर्य के पश्चाि श्री न्सद्धसेन का पधारना हुआ और
वह राजिरबार पर पहुाँच गये और एक संस्कृ ि का श्लोक
न्लखकर िरबारी को दिया, जो इस प्रकार है-
एक न्भक्षु आपके द्वार पर आया है चार श्लोक लेकर, क्या
वे न्बना र्ुलाकाि के लौट जाए ?
र्हाराज न्वक्नर्ादित्य भी संस्कृ ि का न्वद्वान था उसने
िरबारी के हाथ न्लखकर भेज दिया दक इस न्वद्वान को इस
श्लोक के िस लाख र्ुद्रा और चोिह नगर का शासन िेकर न्विा
करो। अगर दिर चाहे िो हर्ें न्र्लने के न्लए आए।
श्री न्सद्धसेन ने राजा का न्लखा श्लोक पढ़ा और जान गये
दक र्हाराज न्वद्वानों का सम्र्ान िो करिे हैं, र्ेरे चारों श्लोको
से सदिुष्ट हो जाएंगें । वे चार श्लोक लेकर राज्यसभा र्ें पधारे ।
र्हाराजा न्वक्रर्ादित्य ने खड़े होकर सम्र्ान दकया और योग्य
आसन दिया।
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श्री न्सद्धसेन ने लक्षिों से भरे श्लोक र्े कहा- र्हाराज
आपने यह धनुर्वमद्या कहााँ से प्राप्त की प्रयंचा डोरी िो आपके
पास ही रहिा है और धनुष िूर चला जािा हा परदिु आपकी
न्वद्या र्ें न्वलक्षण्िा है दक िीर आपके पास आिा है और गुि
िूर िक चले जािे हैं अथामि आपकी प्रन्सन्द्ध िूर-िूर िक िै लिी
है।
गागर र्ें सागर भरने वाले इस श्लोक से प्रसन्न होकर
न्वक्रर्ादित्य िन्क्षि की ओर र्ुह ाँ करके बैठ गये और इस प्रकार
प्रकट दकया दक पूवम दिशा का राज्य कन्ववर सुरीश्वर को अर्पमि
करिा हाँ।
इस प्रकार कन्ववर श्री न्सद्धसेन ने िूसरा श्लोक का
उच्चारि दकया, जो इस प्रकार है-
राजन् ! बड़े बड़े कन्व लोग आपके बारे र्ें कहिे हैं, दक
आप सभी वस्िुओं को र्ुक्त हाथ से िान करिे हैं, परदिु उनका
यह कथन न्र्थ्या है। आप अपने शरु ु को कभी पीठ नहीं िेिे,
आप सब चीजों के िािा कहे जािे है, यह कै से सम्भव है ?
न्नदिा के बहाने प्रशंसा करने वाले के इस श्लोक को
सुनकर राजा न्वक्रर्ादित्य बहुि खुश हुए और पन्श्चर् की ओर
र्ुाँह करके बैठ गये और संकेि दिया दक इस कन्ववर को िन्क्षि
का राज्य िेिा हाँ।
इस प्रकार कन्ववर श्री न्सद्धसेन ने िीसरा श्लोक का
उच्चारि दकया, जो इस प्रकार है-
हे राजन् ! सर्ुद्र र्ें स्नान करने से ठं ड़ी के कारि आप की
कीर्िम धूप की इच्छा से सूयमर्ण्डल र्ें गई है। न्जसकी आभा िसों
दिशाओं र्ें व्याप्त होिी हैं, उसी प्रकार आपका यश चारों ओर
िै ल हुआ है।
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र्हाराजा न्वक्रर्ादित्य उत्तर दिशा को र्ुंह कर के बैठ
गयें हैं अथामि पन्श्चर् का राज्य िेने का संकेि दकया की गजमना
सुनकर शरु ु का दयिय रूपी घट िू ट जाने पर उसका पानी
उनकी पन्ियों की आाँखों र्ें आाँसू रूप बहिा है, अथामि उनके
र्र जाने पर आाँसू बहािी है।
इस प्रकार कन्ववर श्री न्सद्धसेन ने पांचवा श्लोक का
उच्चारि दकया, जो इस प्रकार है-सरस्विी और लक्ष्र्ी चंचला
आपसे क्रुद्ध होकर िेश-िेशादिरों र्े चली गई। अथामि आपका
यश चारों ओर िै ला हुआ है।
र्हाराज श्रद्धान्वभूि होकर ससंहासन से नीचे उिरा
और हाथ जोड़कर कन्ववर र्हापन्ण्डि से कहने लगे-
“ हे प्रभो ! हाथी, घोड़े, रथ, रि आदि से युक्त र्ेरे इस
राज्य को स्वीकार कीन्जए।”
“ राजन् ! आपने र्ािा-न्पिा के उत्तरान्धकारी होिे हुए,
र्ैं सर्स्ि राजवैभव को िो र्ैं पहले ही त्यागकर चुका हाँ, हर्
जैसे िपन्स्वयों के न्लए िो शरु ु-न्र्रु , र्न्ि और न्र्ट्टी, स्वगम
और संसार सब एक सर्ान है। हर्े िो न्भक्षान्न ही हर्ारे न्लए
सवमस्व है । िुम्हारा राज्य धन र्ेरे दकसी कार् का नहीं।”
र्हाराज न्वक्रर्ादित्य गिगि होकर उनके चरिों र्ें
वदिन करने लगा। न्सद्धसेन न्वहार कर आगे बड़े।
श्री न्सद्धसेन के र्न र्ें भाव पैिा हुए दक र्हावीर वािी
जो प्राकृ ि भाषा र्ें है उसे संस्कृ ि र्ें न्लख दिया जाए िो
न्वद्वानों के न्लए उन्चि रहेगी। र्हादरु नवकार को संस्कृ ि र्े
न्लखकर अपने गुरुिेव के पास गये, गुरुिेव आश्चयम चदकि होकर
कहने लगे, क्या गिधरों ने जो प्राकृ ि र्ें न्लखे क्या वह संस्कृ ि

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र्ें नहीं न्लख सकिे थे, गिधरों ने जो भाषा प्रयोग की है वे
र्ूखम, बालक व अदजान सर्झ सकिे हैं, इस न्वचारधारा से
आपको भवभ्रर्ि करना पड़ेगा। श्री न्सद्धसेन ने गुरुवर से
प्राथमना की र्ैं प्रायन्श्चि करना चाहिा हाँ, आप र्ुझे िंड िो,
गुरुिेव ने कहा, िुर् बारह वषम अज्ञाि र्ें रहकर िप करो, दिर
दकसी र्हाराजा को बोध िो, श्री न्सद्धसेन िप करने के न्लए
अज्ञाि र्ें चले गये और घोर िपस्या की, बारह वषम के पश्चाि
िप और अज्ञािवास पूिम कर उज्जैयन र्हाकाल र्न्दिर पधारे
और न्शवसलंग की िरि पााँव पसार कर लेट गये, र्न्दिर के
पुजाररयों के न्वरोध पर भी नहीं उठे , अदििः र्हाराजा
न्वक्रर्ादित्य को अवगि करवाया गया, र्हाराज न्वक्रर्ादित्य
ने आिेश दिया, अवज्ञा करने वाले को कोड़े र्ारकर बाहर
न्नकाल िो। सर्स्ि पुजारी कोड़े लगाने लगे, परदिु श्री
न्सद्धसेन को कोड़े नहीं लग रहे, र्हाराज न्वक्रर्ादित्य की
र्हारान्नयां न्चल्लाने लगी, कोई अिृश्य शन्क्त कोड़े र्ार रही
हैं, िान्सयां र्हाराज के पास पहुाँचकर सारी न्स्थन्ि बिाने
लगी, र्हाराज न्वक्रर्ादित्य सर्झ गये, दक र्न्दिर र्ें कोई
ज्ञानी, िपस्वी है और िुरदि र्हाकाल र्न्दिर पहुाँचे और जा
कर िेखा दक र्ुन्न जी िो न्बल्कु ल सकु शल हैं कोई कोड़ा लगा
ही नहीं और श्री न्सद्धसेन से कहने लगे, र्हात्र्न् आप न्शवसलंग
की िरि पााँव पसार कर लेट रहे हो, आपको िो इनकी पूजा
अचमना करनी चान्हए। श्री न्सद्धसेन, र्हाराज ! यह र्ेरी
प्राथमना स्वीकार नहीं कर सकें गे।
न्वक्रर्ादित्य र्हाराज नहीं, ऐसी कोई बाि नहीं, श्री
न्सद्धसेन जी र्हाराज ने न्सद्ध स्िुन्ि का पाठ कल्याि र्न्दिर
स्िोरु की रचना आरम्भ की, राजन् चाहे वीिरागी परर्ात्र्ा
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कोई भी हो, वह न्शव हो या पाश्वमनाथ हो, र्ेरे न्लए सर्ान रुप
है, वदिनीय हैं अभी िो ही गाथाएं का ऊाँचे स्वर से स्र्रि
दकया दक न्शवसलंग से धुाँआ उठना आरम्भ हो गया, ज्यों ज्यों
पढ़िे गये न्शवसलंग िटिा गया िशमक िंग रह गये और
भगवान श्री पाश्वमनाथ की र्ूर्िम स्थान्पि हो गई। यह न्सद्ध
करिी है दक वास्िव र्ें न्शव (कल्याि कारिी) भगवान
पाश्वमनाथ ही हैं र्हाराज न्वक्रर्ादित्य र्ुन्न श्री न्सद्धसेन के
चरि स्पशम कर इसका कारि जानने की याचना करने लगे।
यह र्ेरा पुण्य उिय है दक आप र्ेरा अज्ञान न्र्टाने यहााँ पधारें
हैं । र्ैं आपका पररचय जानने का उत्सुक हाँ।
राजन् ! िुम्हें याि होगा दक एक बार र्ैंने एक श्लोक
न्लखकर द्वारपाल के हाथ िुम्हारे पास भेजा था। उस श्लोक के
उत्तर र्ें आपने एक श्लोक भेजा था, उसके बाि र्ैंने िुम्हारी
राज्यसभा र्ें आकर पााँच श्लोक और भी सुनाए थे, उसकी
काव्यात्र्ाकिा से प्रभान्वि होकर िुर्ने अपना सम्पूिम राज्य
िेना चाहा था। र्ैं वही न्सद्धसेन सूरर गुरुवर वृद्धवािी का
न्शष्य हाँ। अपने एक अपराध का प्रायन्श्चि करिे हुए बारह वषम
िक अवधूि वेश र्ें इधर-उधर घूर्िा रहा हाँ अब िुम्हें न्िवृद्ध
करने आया हाँ।
र्हाज्ञानी और र्हापन्ण्डि न्सद्धसेन का पररचय
जानकर र्हाराज न्वक्रर्दित्य बहुि प्रसन्न हुए। र्हाकाल
र्न्दिर के प्रांगि र्ें सुरीश्वर जी र्हाराज का धर्म सर्ारोह
हुआ और राजा-प्रजा, पुजारी सभी श्रद्धा भन्क्त से गुरु वािी का
श्रवि करने लगे।
श्री न्सद्धसेन, र्हाराज ! सुनो, उज्जैयन नगरी की
कहानी इस र्हाकाल र्न्दिर की स्थापना से है। यह र्हाकाल
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र्न्दिर पहले पाशमवनाथ का र्न्दिर था। बाि र्ें ब्राह्मिों ने इसे
र्हाकाल न्शव का रूप बना दिया।
र्ैं िुम्हें सुकर्ाल की रोर्ांचकारी कथा सुनािा हाँ. ध्यान
िेकर सुनो।
र्हाराज गदधवमसेन के शासनकाल र्ें कु छ वषम पहले
उज्जयन्न र्े एक गाथापन्ि की पिी भद्रा नार् की सर्ृद्धशाली
और श्रर्िोपासक सेठानी रहिी थी। भद्रा ने पुरु रि को जदर्
दिया न्जसका नार् था अवदिी सुकर्ाल, वे िेव न्वर्ान
नन्लनीगुल्र् से च्वर कर उसके गभम र्ें आया था, वे अन्ि सुदिर
और सुकोर्ल था, जब बड़ा हुआ िो बाईस कु र्ाररयों के साथ
उसका न्ववाह दकया, वे सुखभोग से अपना जीवन व्यिीि करने
लगा। हर िरि खुशहाली थी, भद्रा ने िेखा िो र्ुन्नराज आ रहे
हैं, उसने उदहों को वदिना नर्स्कार कर आहार की न्वनिी की,
र्ुन्नराज, कल्यािी ! हर् आहार के न्लए नहीं आए हैं, हर्ें
आचायम श्री जी के दकसी बिाए हुए ओर कार् के न्लए आए है।
भद्रा ने कहा र्ुझे बिाओ क्या कार् है ? सेवा करके र्ेरा
जीवन धदय हो जाए।
र्ुन्नराज आचायम श्री बाहर उद्यान र्ें ठहरे हुए हैं, साधु
सर्ुिाय को नगर र्ें कोई उन्चि भवन की िलाश र्ें हर् आए
हैं।
भद्रा बहुि प्रसन्न हुई और साधुओं से बोली र्ेरा अन्िन्थ
गृह इस सर्य खाली पड़ा है, आप आचायम श्री जी को लाएं र्ैं
इसकी अभी सिाई करवा िेिी हाँ, र्ेरा अहो भाग्य, र्ुन्न र्ंडल
का लाभ र्ुझे न्र्लेगा। यह घटना भगवान र्हावीर के न्नवामि
के पश्चाि िसवें आचायम श्री सुहस्िी के सर्य की है। आचायम श्री
अपनी न्शष्य र्ंडली सन्हि पधार गये। अपने श्रर्िाचार की
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साधना र्ें लग गये। एक दिन आचायम श्री जी की कथा ऊाँचे स्वर
नन्लनीगुल्र् न्वर्ान की कर रहे थे, दक वह स्वर अवदिी
सुकर्ाल सािवें खण्ड र्ें अपनी बत्तीस पन्ियों के साथ सोया
हुआ था, अचानक वह उठकर बैठ ही गया। शैय्यापर बैठा
श्रेष्ठीपुरु कान लगाकर सुनने लगा। उसे ऐसा लगा दक इस
नन्लनीगुल्र् न्वर्ान के सुखों को र्ैंने भोगा हुआ है, सब कु छ
जाना-पहचाना लग रहा है। अवदिी सुकर्ाल को यह पाठ
इिना भाया दक नीचे आचायम श्री सुहन्स्ि के पास ित्तन्चत्त
होकर नन्लनीगुल्र् पाठ सुनने लगा और जान्ि स्र्रि ज्ञान हो
गया। उसे सब कु छ याि आ गया दक पूवमभव र्ें वह नन्लनीगुल्र्
न्वर्ान र्ें िेव था। िेवलोक से च्युि होकर वह भद्रासुि अवदिी
सुकर्ाल बना है। पुनः इच्छा हुई दक र्ैं नन्लनीगुल्र् न्वर्ान का
िेव बनूाँ। आचायम सुहन्स्ि से प्राथमना करने लगा।
“ भगवन् ! नन्लनीगुल्र् पाठ र्ें वर्िमि सभी सुखों को र्ैं
भोग चुका हाँ. प्रभो ! र्ैं पुनः नन्लनीगुल्र् न्वर्ान र्ें जाना
चाहिा हाँ। र्ेरा पथ-प्रिशमन कीन्जए। ”
“ वत्स ! नन्लनीगुल्र् न्वर्ान र्ें पहुाँचने के न्लए संयर्
ग्रहि करना पड़ेगा और िुर् संयर् पालना नहीं कर पाओगे।
इसन्लए ऐसे स्वप्न को भूलना ही होगा।”
श्रेष्ठी पुरु ने कहा- “ भगवन ! र्ेरा यह स्वप्न नहीं है, अब
यह जीवन का लक्ष्य बन चुका है। आप र्ुझे िीक्षा प्रिान
कीन्जए। र्ैं संयर् पालन करूाँगा।”

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आचायम श्री जी ने पुऩः सर्झाया, संयर् की अराधना
हाँसी-खेल नहीं, अंगारों पर चलने से भी अन्धक करठन है।
शीि-अिाप, भूख-प्यास के परीषहों को िुर् नहीं सहन पाओगे।
अवदिी सुकर्ाल ने िृढ़िा से कहा-
प्रभो, र्ेरा न्नश्चय अटल है, शरीर से कोर्ल हं, शरीर
र्न अनुगार्ी है, शरीर की पालना र्न से होिा है, र्ैं
गजसुकर्ाल की िरह िृढ़ हाँ, कृ पया िीक्षा िीन्जए।
आचायम श्री, िीक्षा के कु छ न्नयर् होिे है, सवमप्रथर्
अपनी 22 पन्ियों और र्ािा से आज्ञा लेकर आओ।
अवदिी सुकर्ाल घर गया और पन्ियों एवं र्ािा से
आज्ञा र्ांगी, सब ने इदकार कर दिया। सुकर्ाल ने अपने के श
लुाँचन दकये और साधु वेष अपनाकर आचायम श्री जी से िीक्षा
की याचना की। आचायम श्री जी ने िीक्षा प्रिान कर आशीवामि
दिया।
िीक्षा ग्रहि करिे ही र्ुन्न अवदिी सुकर्ाल ने आचायम
श्री जी से कहा- र्ुझे अर्रि अन्नशन त्याग साधना की आज्ञा
प्रिान कीन्जए। आचायम श्री जी से आज्ञा प्राप्त कर कं टकशील
उद्यान की ओर चल पड़ा। कोर्ल पांवो र्ें चुबन से रक्त बहने
लगा और आगे बढ़िा गया, एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो गये।
श्रृंगाल अपने शावकों के साथ जर्ीन पर पड़े रक्त को चूसिे हुए
वहााँ पहुाँच गये जहााँ सुकर्ाल ध्यानस्थ थे, पावों से रक्त बह
रहा था, दक श्रृंगाल उनके पााँवो को चाटने लगा और सपंडली
र्ुाँह र्ें िबा ली, सुकर्ाल धरिी पर न्गर पड़ा, ध्यान र्ें न्स्थर
श्रृंगाल का धदयवाि, र्ेरे सहायक बन रहे हो, दक सारे शावक
उस पर टू ट पड़े और र्ांस खाने लगे, न्जससे सुकर्ाल िेह
त्यागकर लक्ष्य पूिम कर नन्लनीगुल्र् िेव न्वर्ान र्ें पहुाँच गये ।

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अगले दिन जब उनकी पन्ियां िशमन के न्लए पहुाँची िो
क्षि-न्वक्षि शरीर िेखकर न्चल्लाने लगी, आचायम श्री, वह िो
अपना लक्ष्य पूिम कर गया आप क्यों रोिी हो, िुम्हें िो प्रसन्न
होना चान्हए। सब पन्ियों ने िीक्षा लेने का संकल्प दकया,21
पन्ियां और एक र्ािा ने िीक्षा ग्रहि की, एक पिी गभमविी
थी, न्जसने िीक्षा नहीं ली और सर्य आने पर पुरु को जदर्
दिया। जब वह पुरु बड़ा हुआ िो न्पिा के र्हाकाल जानकर
उसी स्थान पर र्हाकाल भवन बनवाया, जो भगवान
पाश्वमनाथ का र्न्दिर था, यह वही स्थान है जहााँ हर् बैठे हैं।
सर्य के प्रभाव से ब्राह्मिों ने इसे भैंरो का र्न्दिर
र्हाकाल बना दिया। जो श्रृंगाल था वह सुकर्ाल के दकसी पूवम
भव र्ें पिी थी। आज इस र्हाकाल र्न्दिर र्ें प्रन्िदिन िस
बोिल शराब चढ़ाई जािी है।
जैन धर्म अल्प संख्यक क्यों ?
भारि भून्र् पर सवमप्रथर् श्रर्ि धर्म ने जदर् न्लया।
श्रर्ि संस्कृ न्ि काल (सर्य) को िो भागों र्ें बांटिी है,
अवसपमन्ि और उत्सपमन्ि इन र्ें छः छः आरे होिे हैं।
अवसपमिी- पूाँछ से र्ुाँह िक (1 से 6 िक ) उिसपमिी र्ुंह से पूंछ
िक ( 6 से 1 िक) इसी भारि भून्र् पर वैष्िव संस्कृ न्ि भी है
जो ईश्वरवािी है और सर्य को चार भागों र्ें बांटिी है- िपो
युग, द्वापर युग, रु ेिा युग और कलयुग जबदक जैन संस्कृ न्ि
आत्र्ाथी, परर्ात्र्ा को िो र्ानिी है परदिु उसके इस्िीत्व को
नहीं र्ानिी । अवसपमन्ि का प्रथर् आरा-सुखर्ा- सुखर्ा,
िूसरा- सुखर्ा, िीसरा- सुखर्ा-िुःखर्ा, चौथा िुखर्ा-सुखर्ा,
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पांचवां िुःखर्ा और छटा िुःखर्ा-िुःखर्ा। अब पांचवा आरा
िुःखर्ा का सर्य है। वैष्िव सर्य के प्रभाव से िपो युग र्ें र्दरु
( जो र्न र्ें धारा) से पूर्िम हो जािी थी, द्वापर र्ें यदरु से कार्
चलने लगा, रु ेिा र्ें िदरु चलने लगा और कलयुग र्ें षड्यदरु
हावी हो गया है ।
श्रर्ि संस्कृ न्ि और वैष्िव संस्कृ न्ि िोनों ही भारि र्ााँ
के लाल है । आज से 2600 वषम पूवम भारि भून्र् पर आसहंसा के
अविार भगवान र्हावीर और र्हात्र्ा बुद्ध हुए । उस सर्य के
राजा-र्हाराजा शादिन्प्रय एवं धार्र्मक प्रावृन्ि के होिे थे, जो
अपने अन्दिर् सर्य र्ें सदयास धारि कर लेिे थे। जनिा भी
धर्म से ओि-प्रोि होिी थी, न्जससे जैन धर्म जन-जन का धर्म
था। अन्धकांश राज्यों र्ें जैन धर्म के उपासक थे। श्रर्ि भगवान
र्हावीर न्नवामि के लगभग 250 वषम के पश्चाि आचायम
भद्रबाह के सर्य भी 12 वषम का भीषि आकाल और र्हार्ारी
भी आई (जैसे आजकल कोरोना) आचायम भद्रबाह स्वार्ी ने
उपसग्गहारं स्िोरु की रचना की और र्हार्ारी शांि हो गई।
उस सर्य सम्राट चदद्रगुप्त न्जसका राज्य गुरु चािक्य था को
राि के िीसरे पहर 16 स्वप्न आए और वह अपनी न्जज्ञासा पूिम
करने के न्लए आचायम भद्रबाह के पास गये । उस सर्य
उज्जन्यनी र्ें चदद्रगुन्प्त नार्क राज्य करिा था। र्हाराज को
रान्रु के न्पछले प्रहर र्ें आश्चयमजनक 16 स्वपन िेखे । उन
स्वपनों का िल जानने की राजा के र्न र्ें िीव्र इच्छा हुई और
नगर के बाहर आचायम भद्रबाह अपने 12000 र्ुन्नयों के साथ

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राजकीय उपवन र्ें पधारे । राजा चदद्रगुन्प्त अपने
र्न्दरु यों,सार्दिों,पररजनों और पररन्िन्ष्ठि नगर न्नवान्सयो के
साथ आचायम भद्रबाहुस्वार्ी के सर्क्ष अपने सोलह स्वप्न सुनािे
हुए िल जानने की इच्छा व्यक्त की ।
ज्ञानबल से आचायम श्री स्वपनों का िल बिािे कहा आने
वाला सर्य घोर अन्नष्ट का सूचक है । जो इस प्रकार है –
 अस्िर्ान रन्विशमन-पंचर्काल र्ें द्वािशांगादि ज्ञान दयून
हो जाएगा।
 कल्पवृक्ष की शाखा भंग- भन्वष्य र्ें राजा िीक्षा ग्रहि नहीं
करे गें।
 छलनीिुल्य सन्छद्र चदद्र-जैन धर्म र्ें अनेक र्िों का
प्रािुभामव होगा ।
 बारह ििों वाला सांप- न्नरदिर बारह वषम का िुष्काल।
 उल्टे लौटिे िेवन्वर्ान-िेविा न्वद्याधर, चारिर्ुन्न
भरिक्षेरु र्ें नहीं आवें गे ।
 अशुन्च स्थान र्ें कर्ल- उत्तर् कु ल की जगह हीन जान्ि के
जैन धर्म अनुरागी होगें ।
 भूिों का नृत्य- अधो जान्ि के िेवों के प्रन्ि श्रद्धाय़
 खद्योि का उद्योि- जैनागर्ों का उपिेश करने वाले
न्र्थ्यात्व से ग्रस्ि होगें और जैन धर्म कहीं कहीं रहे गा ।
 बीच र्े सुखा पर न्छछले जल से युक्त दकनारो वाला
सरोवर- न्जन पन्वरु स्थानों पर िीथंकरों के कल्यािक हुए
हैं वहां धर्म नष्ट होगा । िन्क्षिादि कहीं कहीं रहेगा ।
 कु त्ते को स्विम थाली र्ें खीर- लक्ष्र्ी प्राय़ः नीच पुरुषों के
पास कु लीन वंन्चि होगें ।
 बदिर को हाथी पर- नीच कु ल के अनायम राज्य करे गें ।
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 सर्ुदद्र के िटों का उलंघन- राजा लोग दयायर्ागम का
उलंघन,प्रजा से लक्ष्र्ी लूटने वाले होंगे ।
 बछड़े द्वारा रथ-युवास्था र्ें ही संयर् ग्रहि करे गे,
वृद्धावस्था र्ें शन्क्त क्षीि होगी ।
 राजकु र्ार को ऊाँट पर- सत्य र्ागम का त्याग कर सहंसा
र्ागम अपनाना .
 धून्ल से आच्छादिि रि राशी- न्नग्रदथ र्ुन्न भी आपस र्ें
एक िूसरे की न्नदिा करे गें ।
 िो काले हान्थयो के लड़िे- सर्य पर बािल नहीं बरसेगें ।
र्हाराज चदद्रगुन्प्त आचायम श्री भद्रबाहुस्वार्ी से िल
जान कर पुरु को राज-पाट संभाल कर आचायम श्री जी के पास
िीन्क्षि हो गये ।
उस सर्य भारि सोने की न्चन्ड़या कहलािा था और
र्हावीर न्नवामि के 200-250 वषम के बाि न्विेन्शयों ने
आक्रर्ि करने आरम्भ कर दिए और भारि को लूटने लगे,
न्जसर्ें सबसे पन्हले न्सकदिर र्हान आया और भारन्ियों के
शोयम के आगे निर्स्िक होकर जैनर्ुन्न कल्याि ऋन्ष से भेंट
हुई और उनके प्रभाव से वान्पस जाने का र्न बना न्लया और
अपना गुरु र्ान कर जैनर्ुन्न कल्याि ऋन्ष को साथ ले गये,
वह बाि अलग है दक न्सकदिर की रास्िे र्ें ही र्ृत्यु हो गई।
जैनर्ुन्न कल्याि ऋन्ष वहााँ जाकर कलवायस नार् से प्रन्सद्ध
हुए।
चदद्रगुप्त के बाि न्बम्बसार (श्रेन्िक), आशोक, कु िाल
और सम्प्रन्ि जो ईसा के छटी शिाब्िी िक सब ने जैन धर्म का

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न्वस्िार भारि र्ें ही नहीं अन्पिु विमर्ान पादकस्िान,
अिगान्नस्िान,युनान, ईरान, न्िब्बि, कु छ भाग चीन का,
ब्रह्मा और लंका िक का दकया । सम्राट आशोक कु छ सर्य बाि
बुद्ध धर्म का अनुयायी हो गया। आशोक के बेटे सम्प्रन्ि ने जैन
धर्म को न्वशाल धर्म बनाया और 1,25000 जैन र्न्दिरों का
न्नर्ामि करवाया । र्हाराजा चदद्रगुप्त जैन धर्म र्ें िीन्क्षि होने
वाले अन्दिर् राजा थे । इन के बाि कोई राजा जैन धर्म र्ें
िीन्क्षि नहीं हुए और इन सब ने ब्राह्मि संस्कृ न्ि को कोई
अन्धक सम्र्ान नहीं दिया। चदद्रगुप्त अपने गुरु के साथ अन्दिर्
सर्य चदद्रन्गरर पवमि पर गये और वहां सर्ान्ध ली। अब प्रश्न
उठिा है इिना न्वशाल धर्म आज अल्पसंख्यक क्यों ?
इस घर को आग लग गई, घर के न्चराग से ।
सवमप्रथर् जैन धर्म सम्प्रिाय की आग र्ें झुलसा, जो
चदद्रगुप्त के स्वप्न धून्ल से आच्छादिि रि राशी- न्नग्रदथ र्ुन्न
भी आपस र्ें एक िूसरे की न्नदिा करे गें । िब ब्राह्मि सर्ाज के
न्वद्वानों (रार्ानुज और शंकराचायम) जो ईसा की छटी शिाब्िी
का अदि एवं सािवीं शिाब्िी र्ें कलयुग के षडयदरु से जैनों पर
अत्यदि प्रभावी न्वनाश लीला रची और एक ही दिन र्ें 8000
जैन सदिों को र्ौि के घाट उिार दिया, न्जसका इन्िहास
न्र्नाक्षी र्ंन्दिर के कर्ल सरोवर र्ें उपलब्ध है, जो आजकल
वर्जमि दकया गया है और एक हजार र्न्दिर ध्वस्ि कर दिया
और बड़े बड़े र्न्दिरो के नार् बिल कर र्ीनाक्षी र्न्दिर,
कपलेश्वर, न्िरुपन्िबाला जी कर दिये गये और धर्म पररविमन

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करवाया गया। दिर र्ुगलों ने जैन न्वरास्ि को नष्ट करने र्ें
कोई कसर नहीं छोड़ी, यहााँ िक दक जो आज कु िबर्ीनार है
वह भी कभी जैन र्न्दिर होिा था । एक बाि िो स्पष्ट है इन
र्न्दिरों के नार् चाहे बिले गये पकदिु र्ूर्िमया जैन िीथंकरों की
है न्जन की अचमना होिी है न्िरुपन्िबाला जी नेर्नाथ भगवान
की खड़ी दिगम्बर र्ूर्िम न्जसको वस्त्र और गहनों से ढ़ांप दिया
जािा है।
आज हर् अल्पसंख्यक जरूर है परदिु आज पूरा न्वश्व
आसहंसा को सर्झिा है, आसहंसा कभी कर्जोर नहीं होिी,
आज आवश्यकिा है जैन सर्ाज के संगठन की, हर्ें संख्या नहीं
बढ़ानी, हर् सब न्र्लकर जैन न्सद्धांिो को आगे बढ़ाना है। आज
आवश्यकिा है स्थानक-र्न्दिरों से बाहर आकर अदय जनिा को
जैन न्सद्धािों आसहंसा, शाकाहार से अवगि करवाएं, धर्म
पररविमन नहीं दयिय पररविमन का सदिेश िें ।
स्वजदरु जैन जलदधर
9855285970
4.7.2020

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