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पा तरकार

िवराज

सं करण: 2008 © राजपाल ए ड स ज़


ISBN: 978-81-7028-776-6
VIKRAMORVASHI TATHA MALVIKAGNIMITRA
(Sanskrit Play) by Kalidas
राजपाल ए ड स ज़, क मीरी गेट, द ली-110006
Website: www.rajpalpublishing.com
E-mail: mail@rajpalpublishing.com

भूिमका

िव मोवशीय

मालिवकाि िम
भूिमका

महाकिव कािलदास को सवस मित से भारत का सव े किव माना जाता है। उ ह ने


अपने महाका , नाटक तथा मेघदूत और ऋतुसंहार जैसे का म जो अनुपम स दय
भर दया है, उसक तुलना सं कृ त सािह य म अ य कह नह िमलती। इसीिलए उ ह
‘किव-कु लगु ’ भी कहा जाता है। य सं कृ त म माघ, भारिव और ी हष बड़े किव ए
ह, िजनक रचनाएँ ‘िशशुपालवध’, ‘ कराताजुनीय’ तथा ‘नैषधीयच रतम्’ बृह यी
अथात् तीन बड़े महाका म िगनी जाती ह और कािलदास के ‘रघुवंश’,
‘कु मारस भव’ और ‘मेघदूत’ को के वल लघु यी कहलाने का गौरव ा है। फर भी
भाव क गहराई, क पना क उड़ान तथा सादगुणयु मंजी ई भाषा के कारण
लघु यी पाठक को जैसा रस-िवभोर कर देती है, वैसा बृह यी क रचनाएँ नह कर
पात । िविभ कार के का -चम कार के दशन म भले ही उन किवय ने भारी
यास कया है, क तु जहाँ तक िवशु का -रस का स ब ध है, उनम से कोई भी
कािलदास के िनकट तक नह प च ँ ता। “एकोऽिप जीयते ह त कािलदासो न के निचत्।
शृंगारे लिलतोद्गारे कािलदास यी कमु।” (राजशेखर)।
क तु सं कृ त भाषा के इस सव े किव के स ब ध म हमारी जानकारी के वल
इतनी ही है क वे कु छ सं कृ त का और नाटक के णेता थे। उनक िलखी ई
अड़तीस रचनाएँ कही जाती ह, जो िन िलिखत ह–1. अिभ ान शाकु तल 2.
िव मोवशीय 3. मालिवकाि िम 4. रघुवंश 5. कु मारस भव 6. मेघदूत 7.
कु ते रदौ य 8. ऋतुसंहार 9. अ बा तव 10. क याण तव 11. काली तो 12.
का नाटकालंकारा: 13. गंगा क 14. घटकपर 15. चंिडकादंडक तो 16. चचा तव
17. योित वदाभरण 18. दुघटका 19. नलोदय 20. नवर माला 21.
पु पबाणिवलास 22. मकर द तव 23. मंगला क 24. महाप षट् क 25. र कोष 26.
रा सका 27. ल मी तव 28. लघु तव 29. िव ि नोदका 30. वृ दावनका 31.
वै मनोरमा 32. शु चि का 33. शृंगारितलक 34. शृंगाररसा क 35.
शृंगारसारका 36. यामलादंडक 37. ऋतुबोध 38. सेतुब ध। क तु इनम से पहली
छह और ‘ऋतुसंहार’ ही सामा यतया ामािणक प से उनक िलखी मानी जाती ह।
कु छ लोग ‘ऋतुसंहार’ को भी कािलदास-रिचत नह मानते। ऐसा भी तीत होता है क
कािलदास नाम से बाद म एक या दो और किवय ने भी अपनी रचनाएँ िलख ।
इसीिलए राजशेखर ने अपने ोक म, िजसका हमने ऊपर उ लेख कया है, तीन
कािलदास का िज कया है। स भव है क असली कािलदास के अित र दूसरे
कािलदास-नामधारी किवय ने ये शेष रचनाएँ िलखी ह , िजनको आलोचक मूल
कािलदास के नाम के साथ जोड़ना पस द नह करते।
‘अिभ ान शाकु तल’, ‘िव मोवशीय’ और ‘मालिवकाि िम ’ नाटक तथा
‘रघुवंश’, ‘कु मारस भव’ और ‘मेघदूत’ का कािलदास के यश को अमर रखने के िलए
पया ह। सं कृ त म ऐसे किव कम ह िजनक इतनी ौढ़ रचना क सं या एक से
अिधक हो। भवभूित के िलखे तीन नाटक तो ा होते ह, क तु उसने महाका िलखने
का य नह कया।
इतने बड़े सािह य का सृजन करने वाले इस किव-िशरोमिण ने अपने स ब ध म
कह भी कु छ भी नह िलखा। यह किव क अ यिधक िवन ता का ही सूचक माना जा
सकता है। अ य कई सं कृ त किवय ने अपनी रचना म अपने नाम के साथ-साथ अपने
माता-िपता के नाम तथा ज म थान का उ लेख कया है; पर तु कािलदास ने के वल
अपने नाटक के ार भ म तो यह बतला दया है क ये नाटक कािलदास रिचत ह,
अ यथा और कह उ ह ने अपना संकेत तक नह दया। रघुवंश के ार भ म उ ह ने यह
अव य िलखा है क “म रघु के वंश का बखान क ँ गा।” पर तु यह ‘म’ कौन है,
इसका उ लेख रघुवंश के ोक म नह है। वहाँ भी जहाँ कािलदास ने उ मपु ष, एक
वचन म अपना उ लेख करते ए यह िलखा है क “म रघु के वंश का बखान क ँ गा”,
वहाँ अितशय िवनय से काम िलया है। न के वल उ ह ने अपने-आपको ‘तनुवाि वभव’
कहा है, अिपतु यह भी कहा है क “मेरी ि थित उस बौने के समान है, जो ऊँचाई पर
लटके फल को लेने के िलए हाथ बढ़ा रहा हो” और यह क “मेरा य छोटी-सी नाव
से सागर को पार करने के य जैसा है”; और अ त म दूसरे ाचीन किवय का आभार
वीकार करते ए कहा है क “जैसे व से मिण म छेद कर देने के बाद उसम सुई से भी
धागा िपरोया जा सकता है, उसी कार ाचीन किवय ारा रघु के वंश का वणन कए
जा चुकने के बाद म भी सरलता से उसका वणन कर सकूँ गा।” कािलदास क यह
िवनयशीलता उनके िलए शोभा क व तु है और स भवत: इसी के वशीभूत होकर वे
अपने स ब ध म कु छ भी नह िलख गए। और आज उनक रचना का रसा वादन
करने वाले रिसक को जब यह िज ासा होती है क कािलदास कौन थे और कहाँ के
रहनेवाले थे, तो इसका उ ह कु छ भी सुिनि त उ र ा नह हो पाता। अिधक-से-
अिधक कािलदास के स ब ध म जो जानकारी ा क जा सकती है, वह उनक
रचना म जहाँ-तहाँ िबखरे ए िविभ वणन से िन कष िनकालकर ा क गई है।
यह जानकारी अपूण तो है ही, साथ ही अिनि त भी है। उदाहरण के िलए के वल इतना
जान लेने से क कािलदास पहली शता दी ई वी-पूव से लेकर ईसा के बाद चौथी
शता दी तक क अविध म ए थे, और या तो वे उ ैन के रहनेवाले थे या क मीर के या
िहमालय के कसी पाव य देश के , पाठक के मन को कु छ भी संतोष नह हो पाता। इस
कार के िन कष िनकालने के िलए िव ान ने जो माण उपि थत कए ह, वे ब त
जगह िव ासो पादक नह ह और कई जगह तो उपहासा पद भी बन गए ह। फर भी
उन िव ान का म थ गया नह समझा जा सकता, िज ह ने इस कार के य
ारा कािलदास के थान और काल का िनधारण करने का यास कया है। अ धेरे म
टटोलने वाले और गलत दशा म बढ़ने वाले लोग भी एक मह वपूण ल य को पूण करने
म सहायक होते ह, य क वे चरम अ ान और िनि यता क दशा से आगे बढ़ने का
यास करते ह।

कािलदास का काल
कािलदास का काल िनणय करने म सबसे बड़ा आधार िव मा द य का है। न के वल
जन ुित यह चली आ रही है क कािलदास उ ियनी के महाराज िव मा द य क
राजसभा के नवर म से एक थे, अिपतु ‘अिभ ान शाकु तल’ के ार भ म सू धार
भी आकर यह घोषणा करता है क ‘आज रस और भाव के िवशेष महाराज
िव मा द य क सभा म बड़े-बड़े िव ान एकि त ए ह। इस सभा म आज हम लोग
कािलदास-रिचत नवीन नाटक ‘अिभ ान शाकु तल’ का अिभनय तुत करगे।’ इससे
इस िवषय म स देह नह रहता क ‘अिभ ान शाकु तल’ क रचना महाराज
िव मा द य क सभा म अिभनय करने के िलए ई थी। कािलदास के नाटक
‘िव मोवशीय’ म ‘िव म’ नामक योग भी इसी बात को सूिचत करता है क
िव मा द य के साथ कािलदास का घिन स ब ध था और ‘िव म’ श द का योग
करने म उ ह िवशेष आन द आता था। इस आन द का मूल स भवत: यह रहा हो क
जब वे नाटक राजसभा म तुत कए जाते थे, तो ‘िव म’ श द आते ही रं गशाला
तािलय क गड़गड़ाहट से गूँज उठती होगी।

िव मा द य का थान और काल

क तु के वल इतना िन य हो जाने से क कािलदास िव मा द य के समकालीन थे और


उनक राजसभा के किव थे, सम या पूरी तरह हल नह होती, य क वयं इस
िव मा द य के स ब ध म कु छ समय पहले तक िव ान म बड़ा मतभेद था। जैसी क
पि मी िव ान क वृि रही है, िव मा द य के स ब ध म भी पहली बात तो यह
कही गई क िव मा द य नाम का कोई राजा आ ही नह ; दूसरी बात यह कही गई क
िव मा द य एक नह ; कई ए; तीसरी बात यह कही गई क िव मा द य कसी
ि का नाम नह था, अिपतु एक उपािध थी, िजसे कई राजा ने धारण कया। इस
कार इन इितहासकार ने िव मा द य के काल और थान को अ धकार म से खोजकर
बाहर लाने के बजाए उसे और भी धुंध म िछपा देने का य कया।
िव मा द य के स ब ध म हमारी ाचीन पर परा से चली आ रही थापना यह है
क िव मा द य एक जाव सल राजा थे। उनक राजधानी िश ा नदी के तीर पर
उ ियनी म थी। उ ह ने एक महान यु म िवदेशी शक आ ा ता को परा त कया
और उस िवजय के उपल य म एक संवत् का ार भ कया, जो आज भी सारे देश म
िव म-संवत् नाम से चिलत है। िव म-संवत् के चिलत होते ए यह कह देना क
िव मा द य नाम का कोई राजा आ ही नह , ठीक ऐसा ही है जैसे ई वी-सन् के
िव मान रहते यह कह दया जाए क कोई ईसा आ ही नह ।
इसके बाद भी पि मी िव ान ने ऐसा ही कहने का य कया है। िव मा द य
के स ब ध म कु छ बड़े-बड़े पि मी िव ान के मत नीचे दए जाते ह, जो आज तो
य िप िनि त प से ितर कृ त और उपहासा पद समझे जाते ह, क तु कसी समय ये
मत स य और मह वपूण समझे जाते थे।

फ यूसन का मत

इन िव ान म से एक िव ान ी फ यूसन ह, िजनका मत यह है क िव मा द य नाम


का राजा कोई नह आ। सन् 544 ई वी म उ ैन म हष नाम का एक राजा आ था,
िजसक उपािध िव मा द य थी। उसने को र क लड़ाई म शक को परा त कया था
और इस िवजय क मृित को थाई बनाने के िलए उसने एक संवत् चलाया था। क तु
इस संवत् को उसने अपने समय से ारं भ न करके 600 वष पूव से ार भ कया, िजससे
वह ईसा से 57 वष पहले ार भ आ समझा गया। फ यूसन ने को र क लड़ाई क
बात अलबे नी क पु तक से ली है; और िव मा द य और कािलदास को 544 ई वी के
बाद का मानने के स ब ध म उसक युि यह है क कािलदास के ंथ म ण, शक,
प लव तथा यवन जाितय के नाम आते ह। इन नाम का उ लेख इस बात का माण है
क कािलदास इन जाितय के भारत म आने के बाद ही ए ह गे; ण के भारत पर
आ मण 500 ई वी से ार भ ए थे।
इस कार फ यूसन को अपना यह मत आिव कृ त करने क आव यकता के वल
इसिलए पड़ी क कािलदास क रचना म ण, शक, प लव और यवन जाितय के
नाम पाए जाते ह, हालाँ क कािलदास क रचना म ऐसा उ लेख नह िमलता क ये
जाितयाँ भारत म आई ई थ और भारत म इन जाितय के साथ लड़ाई ई हो। के वल
इतना उ लेख है क रघु ने अपनी दि वजय म इन जाितय को परा त कया था।
भारत के उ र-पि म म ये जाितयाँ कािलदास से भी न जाने कतने समय पहले रहती
आ रही ह। अपने मण ारा या लोग से सुनकर कािलदास ने यह जान िलया होगा क
कन देश म कौन-सी जाितयाँ बसती ह और उनके अनुसार ही उनका वणन कया
होगा। ऐसी दशा म फ यूसन को यह िविच क पना करने क आव यकता य पड़ी
क हष ने 600 साल पहले से एक संवत् चला दया होगा, कु छ समझ नह पड़ता।
यह बात भी सामा य बुि से परे क जान पड़ती है क कोई राजा अपनी िवजय
क मृित को थाई बनाने के िलए 600 वष पहले से कसी संवत् का ार भ करे । और
फर इस 600 सं या का ही या मह व है? 500 वष पहले से या 800 वष पहले से
संवत् का ार भ य न कया जाए?
इससे भी अिधक बल युि फ यूसन के िवप म एक और है। य द यह मान
िलया जाए क िव म-संवत् का जब ार भ कया गया था, उसी समय इसका काल
600 वष पीछे धके ल दया गया था, अथात् संवत् ार भ करने के दन ही िव म-संवत्
601 रहा था, तो 600 से पहले के िव म-संवत् अथात् 500-400 िव म-संवत् का कह
उ लेख नह िमलना चािहए, य क उस काल म इस संवत् का अि त व ही नह रहा
होगा। कु छ समय तक ि थित यही रही। 600 िव म-संवत् से पूव का कोई अिभलेख
ा नह आ; पर तु बाद म म दसौर का िशलालेख िमला, िजसपर 529 मालव-संवत्
क ितिथ अं कत है। एक और किव का अिभलेख ा आ है, जो 430 िव म-संवत् का
है। िव ान लोग मालव-संवत् और िव म-संवत् को एक ही मानते ह। इन दो अिभलेख
के िमल जाने के बाद फ यूसन का मत िबलकु ल िनराधार और बेपर क उड़ान िस
होता है।

गु कालीन मत

क थ इ या द यूरोिपयन िव ान ने एक और मत यह तुत कया है क िजस


िव मा द य के राजकिव कािलदास थे, वह कोई वत िव मा द य न होकर गु
स ाट च गु ि तीय था, िजसक उपािध िव मा द य थी। च गु के िपता समु गु
क उपािध परा मांक या परा मा द य थी। यह च गु 375 ई वी से 413 ई वी तक
रहा। च गु के पु का नाम कु मारगु था, और कु मारगु के पु का नाम कं दगु ।
इस मत के समथन म ब त-सी युि याँ दी जाती ह, िजनका मह व पाठक वयं समझ
लगे।
(1) िव मा द य को च गु ि तीय और कािलदास को उसका राजकिव मानने
के स ब ध म पहली युि यह दी जाती है क गु काल भारतीय इितहास का वणकाल
था। इस काल म सारे देश म शाि त रही और सुख-समृि खूब बढ़ी। कािलदास क
रचना म भी सुख और समृि का ही िच ण है; इसिलए उसका गु काल म होना ही
उिचत जान पड़ता है।
(2) च गु के िपता समु गु ने अनेक लड़ाइयाँ लड़कर अपने सा ा य का
िव तार कया था। समु गु के इन यु का वणन चौथी शता दी म ह रषेण ारा
िलखी गई च गु क शि त म ा होता है। ह रषेण क शि त और कािलदास
ारा िलखे गए रघु के दि वजय-वणन म काफ समानता दखाई पड़ती है। इसिलए
कािलदास का च गु के समय म होना युि संगत है।
(3) कािलदास का महाका ‘कु मारस भव’ च गु के पु कु मारगु के ज म के
अवसर पर या उसको ल य करके िलखा गया तीत होता है। और भी कई जगह
कािलदास ने ‘कु मार’ श द का योग कया है। ‘िव मोवशीय’ म भी उवशी के पु
आयु को बार-बार ‘कु मार’ कहा गया है। यह ‘कु मार’ श द कु मारगु क ही ओर संकेत
करता है।
(4) कािलदास के ंथ म ‘गो ा’ श द का योग और ‘गुप्’ धातु का योग बार-
बार कया गया है, िजससे पता चलता है क वे गु वंश के ित अनुर थे। इसके
अित र ‘च ’ और ‘इ ’ श द का योग भी ब त बार आ है, िजससे वे च गु
क ओर संकेत करते जान पड़ते ह।
(5) च गु ि तीय ने अपना संवत् चलाया था, पर तु उसे आदरणीय बनाने के
िलए मालव-संवत् के साथ िमला दया। वही संवत् अब िव म-संवत् नाम से िस है।
(6) च दगु ि तीय ने शक को अि तम प से परा त करके भारत से बाहर
खदेड़ दया था; शायद इसीिलए उ ह ‘शका र’ कहा जाने लगा हो। इस कार
कािलदास के आ यदाता िव मा द य के शका र होने क भी संगित पूरी बैठ जाती है।
क तु इन युि य के खंडन म भी ब त-सी युि याँ दी जाती ह। वे ये ह–
(1) गु का अपना संवत् था, िजसे इस वंश क थापना करने वाले च गु थम
ने चलाया था। च गु ि तीय के बाद होने वाले गु राजा भी इसी गु संवत् का
योग करते रहे। िगरनार म क दगु का एक िशलालेख िमला है। उसम गु संवत् का
ही योग है। इसिलए च गु ारा नया संवत् चलाने और फर उसे मालव-संवत् से
िमला देने क बात िव सनीय नह जान पड़ती। य द च गु को अपना संवत् चलाना
ही अभी होता, तो वह वयं अपने नाम से ही संवत् चला सकता था। इतने महान
स ाट के िलए संवत् चलाना कोई बड़ी बात न होती।
(2) ‘गुप’् धातु का योग कािलदास का स ब ध गु वंश से जोड़ने के िलए पया
नह माना जा सकता। य द कािलदास को अपने आ यदाता राजा और उनके पूवज
और वंशज के नाम से उ लेख करना अभी ही होता, तो वह अपने कसी भी नाटक क
तावना म सरलता से राजा के पूरे नाम का उ लेख कर सकता था। य द वह च गु
ि तीय क राजसभा म रहा होता, तो वह अिभ ान शाकु तल क तावना म च गु
क राजसभा िलखता, िव मा द य क नह ; य क मूल नाम को छोड़कर के वल
उपािध का उ लेख कर देना कसी भी कार संगत नह माना जा सकता। य द समु गु
जैसा परा मी स ाट कािलदास के आसपास या पहले आ होता, तो यह अस भव था
क कािलदास उसका उ लेख पूरा नाम देकर न करता। पर तु कािलदास क कसी भी
रचना म च गु , या समु गु , कु मारगु या क दगु का नाम नह िमलता। ‘कु मार’
श द का योग देखकर उससे कु मारगु का अनुमान करना ब त दूर क सूझ है, य क
कु मार श द ऐसा है, िजसका योग कसी भी राजकु मार के िलए सामा यतया कया ही
जाता है।
(3) एक और मह वपूण बात, िजसे इस मत के समथक भूल गए दीखते ह, यह है
क कािलदास और गु स ाट म आधारभूत मतभेद है। गु स ाट क र वै णव थे और
कािलदास प े शैव। कािलदास क रचना म िशव क तुित इतनी बार और इतनी
अिधक िमलती है क उनको वै णव स ाट का राजकिव समझना गलती होगी। यह
क पना कर पाना क ठन है क च गु िव मा द य क राजक य रं गशाला म
‘अिभ ान शाकु तल’ का अिभनय होने से पूव ना दी के प म िशव क तुित क गई
होगी। कािलदास के सभी नाटक क ना दी म िशव क तुित है और िव णु क तुित
कह भी नह क गई। यह बात यान देने यो य है क ‘कु मारस भव’ म कािलदास ने
ा क तुित म भी बीस-एक ोक िलख दए ह, और िशव क तुित तो सारे
कु मारस भव म ही भरी ई है, पर तु िव णु क तुित कह नह क गई। यह उ लेख
क ‘तारकासुर ने देवता को क दया और जब िव णु ने उस पर अपना सुदशन च
चलाया, तो वह च उसके गले म आभूषण क तरह बनकर रह गया’, िव णु क ऐसी
तुित नह है, िजसे सुनकर वयं िव णु को या वै णव गु स ाट को स ता होती।
(4) च गु क उपािध िव मा द य थी; इससे यह विनत होता है क उससे पूव
कोई और राजा िव मा द य ऐसा हो चुका था क जो अपनी जा-व सलता,
लोकि यता और यायपरायणता आ द गुण के कारण ऐसा आदश समझा जाने लगा
था क राजा अपने नाम के साथ उसके नाम को उपािध के प म लगाना पस द करते
थे। यह युि तब और भी बल बन जाती है, जब दूसरी जगह िमलनेवाले माण से
ऐसे िव मा द य का अि त व िस हो जाता है।

57 ई वी पूव का मत

तीसरा मत, जो हम भी ठीक तीत होता है, यह है क महाराज िव मा द य ईसा से


57 वष पूव ए थे, या कम-से-कम ईसा से 57 वष पूव उ ह ने एक बड़ी िवजय ा क
थी, िजसके उपल य म उ ह ने नया संवत् ार भ कया था। उनके अि त व के स ब ध
म इितहासकार को स देह इसिलए हो गया था, य क उस समय यह समझा जाता
था क 57 ई वी-पूव म उ ियनी म कोई बड़ा तापी राजा नह आ। पर तु अब यह
िस हो गया है क कािलदास के आ यदाता परमारवंशी िव मा द य थे। उन
िव मा द य के िपता का नाम महे ा द य था। महे ा द य ने िश ा नदी के कनारे
महाकाल के मं दर का िनमाण करवाया था। कािलदास के नाटक म इ के िलए जगह-
जगह ‘महे ’ श द का योग कया गया है, जो जानबूझकर इ ह महे ा द य का
संकेत करने के िलए कया गया तीत होता है, बि क िव मोवशीय नाटक म
कु मारआयु के युवराज अिभषेक के िलए जब नारद कहते ह क ‘र भा, वयं महे ारा
भेजी गई सामि याँ तो ले आओ’, तब ऐसा तीत होता है क जैसे महे ा द य ारा
कए गए िव मा द य के युवराज-अिभषेक के वणन का संकेत करने का य कया जा
रहा हो। यहाँ यह यान देने यो य है क इ के थान पर ‘महे ’ श द का योग करने
क युि उससे िब कु ल िभ है, जो गु मत के समथक ने ‘च ’ और ‘इ ’ श द का
योग के स ब ध म दी है। कािलदास ने ‘च ’ और ‘इ ’ श द का योग जहाँ कया
है, वहाँ सामा य दशा म भी इ ह श द का योग होता है; और व तुत: ‘च ’ और
‘इ ’ ऐसे श द ह, क िजनके योग से सं कृ त का म बचा नह जा सकता और न
इनके योग को देखकर कोई असाधारण िन कष ही िनकाला जा सकता है। पर तु
‘इ ’ और ‘महे ’ श द के स ब ध म यह बात नह है। सामा यतया सं कृ त म ‘इ ’
श द का ही योग होता है। ऐसी दशा म ‘इ ’ श द को छोड़कर ‘महे ’ श द का
योग करना, और वह भी बार-बार, कु छ असाधारण बात है।
इन िव मा द य के समय शक ने भारत पर आ मण कया था और उस समय
िव मा द य ने उ ह परा त कया था। महे ा द य और िव मा द य दोन ही परम
शैव थे। इसिलए कािलदास क िशव क तुित का भी इनके साथ पूरा मेल बैठ जाता है।
‘कथास र सागर’, ‘वैताल पंच वंशितका’ और ‘ ा ंशत् पु िलका’ आ द कथा
म िव मा द य का उ लेख िमलता है। य िप इन पु तक को ऐितहािसक तो नह कहा
जा सकता, पर तु इन पु तक म दी गई कथा म अनेक ऐितहािसक पा का वणन
िमलता है। उदाहरण के िलए व स-नरे श उदयन का वणन ‘कथा-स र सागर’ म है, और
उदयन क ऐितहािसकता को असं द ध समझा जाता है। उसी तर का वणन
िव मा द य का भी है, िजसम उ ह जाव सल और याय-परायण िचि त कया गया
है। ‘कथास र सागर’ म कहािनयाँ िव मा द य को यश वी बनाने के िलए िलखी ग ,
क तु उनसे यह अव य िस होता है क उससे पहले कई िव मा द य हो चुके थे,
िजनका च र इस यो य समझा गया था क कथाकार अपनी ितभा ारा उसे और
सु दर बना दे।
इस स ब ध म दो और बात िवचारणीय ह। कािलदास को चौथी शता दी या
उससे भी बाद का िस करने के िलए एक युि यह दी गई है क कािलदास के ंथ म
योितष-स ब धी बात कही गई ह; और इस मत के समथक ने वयं ही यह भी मान
िलया है क योितष भारतवािसय ने यूनान और रोम से सीखा था। इसिलए
कािलदास का काल यूनािनय के भारत म आगमन के काफ समय बाद माना जाना
चािहए। इस युि के िनराकरण के िलए पहली बात तो यह कही जा सकती है क
वा मी क रामायण िनि त प से यूनािनय के भारत म आने से पहले िलखी गई थी
और उसम भी योितष के अनेक उ लेख ह। इससे प है क योितषशा
भारतवािसय ने यूनान और रोम से नह सीखा। यूनान और रोमवािसय ने वयं
बैबीलोिनया से योितष सीखा था। यह िनि त नह कहा जा सकता क
बैबीलोिनयावािसय ने भारत से योितष सीखा या भारत ने बैबीलोिनया के
िनवािसय से। दोन ने एक-दूसरे से, कसी से भी सीखा हो, क तु कािलदास के काल
पर इस युि का भाव नह पड़ सकता; िवशेष प से तब, जब क य द भारत ने
यूनान से ही योितष सीखा हो, तो यूनानी भी तो भारत म ईसा से चार शता दी पहले
आप च ँ े थे और तीन शताि दयां योितष के ान के िव तार के िलए पया समय
समझी जा सकती ह।
कािलदास के काल-िनणय म अ घोष का भी उ लेख कया गया है। कहा गया है
क अ घोष और कािलदास क रचनाएँ एक-दूसरे से ब त िमलती-जुलती ह, यहाँ तक
क कह -कह तो श दावली भी एक जैसी ही बन गई है। साथ ही यह भी िनि त है क
कािलदास क रचना अ घोष क रचना से अिधक अ छी और प रमा जत है। इससे
यह िन कष िनकाला गया है क पहले अ घोष ने अपना का िलखा और बाद म
कािलदास ने उसका अनुकरण करके और उसक शैली और भाषा को प रमा जत करके
अपनी का -रचना क । य क अ घोष का समय ईसा क पहली शता दी म किन क
के रा यकाल म माना जाता है, इसिलए यह क पना क गई क कािलदास उसके काफ
समय बाद ईसा क चौथी शता दी म ए ह गे। इस युि म दो बात यान देने यो य ह।
एक तो यह क अ घोष मु यतया किव नह थे। वे बौ िभ ु थे। उ ह ने अपनी का
क रचना कला क दृि से नह , बि क धम क भावना से े रत होकर क थी। दूसरी
बात यह है क अ घोष और कािलदास क शैली म पर पर बड़ी समानता है। अ घोष
क ितभा िन संदह े कािलदास क भांित िविवधमुख नह थी। ऐसी दशा म अिधक
स भव यह है क पहले कािलदास ने अपनी का रचना क हो और उसके ब त
लोकि य हो जाने पर अ घोष ने उसीके अनुकरण म बु च रत िलखा हो, और य क
उसक रचना मूलत: कला क ेरणा से नह िलखी गई थी, इसीिलए वह कािलदास के
का िजतनी सु दर न बन पड़ी हो। यह ठीक ऐसी ही ि थित है, जैसे क आजकल भी
िच पट के अ य त लोकि य हो जाने वाले गीत क तज म अनुकरण करके उसी शैली
म धा मक वृि य के लोग ई र-भि के भजन तैयार कर लेते ह। अव य ही ये
धा मक रचनाएँ कला क दृि से मूल रचना के समक नह हो पात । कािलदास
अ घोष से पहले ही ए ह गे।
एक बात यहाँ िवशेष प से जोर देकर कह देनी उिचत है। कु छ आलोचक ने यह
मत कट कया था क कािलदास के समय तक बौ धम बड़े आदर क दृि से देखा
जाने लगा था। इसके समथन म बड़ी युि यह दी गई है क ‘मालिवकाि िम ’ नाटक
म एक प र ािजका का वणन है। वह प र ािजका िविभ िव ा और कला म
पारं गत है; और जब दो नाट् याचाय म होड़ लग जाती है तो िनणय करने के िलए राजा
और रानी के साथ-साथ यह प र ािजका भी िनणायक म बैठती है। िसवाय इस एक
उ लेख के कािलदास क स पूण रचना म बु का या बौ का कोई उ लेख नह
िमलता। न बु ारा व तत दुःखवाद या वैरा य का ही कोई संकेत कािलदास क
रचना म िमलता है। कािलदास क र प से आय सं कृ ित के भ ह; वह आय
सं कृ ित, िजसका मूल आधार मनु मृित ारा ितपा दत आदश है। अब रह जाती है इस
प र ािजका क सम या। हमारा िवचार है क यह प र ािजका बौ नह है, अिपतु
ाचीन सनातन धम क अवलि बनी ही है। वह गृह था म को पार करके वान थ म
दीि त हो चुक है, अथवा सं यासी बन गई है। इस कार क गृह था म को छोड़
चुक मिहला कािलदास के नाटक म एक यही नह है, अिपतु कािलदास के तीन
नाटक म इस कार क बड़ी आयु क मिहला का उ लेख है, जो गृह था म को पार
करके वान थ अथवा सं यास म जीवन िबता रही ह। ‘अिभ ान शाकु तल’ म आया
गौतमी इसी कार क तपि वनी है। ‘िव मोवशीय’ म तपि वनी स यवती भी इसी
कार क एक मिहला है, िजसने मह ष यवन के आ म म कु मार आयु का पालन
कया है। आया गौतमी और तापसी स यवती के साथ-साथ मालिवकाि िम म
पा र ािजका कौिशक का आगमन कािलदास क व तु-योजना के अनु प ही है,
ितकू ल नह ; और जैसे पहली दो ी पा बौ नह ह, ठीक उसी कार यह तीसरी
पा भी बौ नह , अिपतु आय मतावलि बनी ही है। के वल ‘प र ािजका’ श द से म
म नह पड़ना चािहए, य क ‘प र जन’, ‘प र ाट् ’ आ द श द का योग ‘मनु मृित’
म भी खूब आ है। ‘मनु मृित’ का िलिखत प चाहे जब का रहा हो, क तु उसके
आदश और उसक श दावली कािलदास से भी पुरानी जान पड़ती है। कािलदास के सारे
नाटक म कह कोई ऐसा संकेत नह है क िजससे उस पर बौ मत का भाव
दृि गोचर होता हो। अ घोष से कािलदास के पूववत होने का यह भी एक बड़ा माण
है।

कािलदास का िनवास थान

िव मा द य के काल क भाँित ही कािलदास के ज म और िनवास थान के स ब ध म


भी िव ान ने बड़े अनुमान लगाए ह और जैसा िव ान को शोभा देता है, वे सब
अलग-अलग िन कष पर प च ँ े ह। ऐसा तीत होता है क कािलदास ने देश का पया
पयटन कया था और इसिलए उ ह ने अपनी रचना म देश के िविभ भाग का
वणन कया है। इन वणन से ही िव ान को यह अनुमान करने का आधार िमलता है
क कािलदास कहाँ के रहने वाले थे। कु छ ने उनका िनवास थान उ ियनी और कु छ ने
क मीर बतलाया है। अपने देश के ेम से अनु ािणत होकर कु छ िव ान ने उ ह
बंगाली तक बताने का साहस कया है। इतना िन स देह कहा जा सकता है क
कािलदास उ ैन म रहे थे, य क उनके आ यदाता महाराज िव मा द य क
राजधानी वही थी। उ ियनी के ित उनका प पात मेघदूत के उस ोक से विनत
होता है, िजसम य मेघ से कहता है क “भले ही तु हारा रा ता कु छ टेढ़ा हो जाए,
पर तु तुम उ ियनी अव य जाना। य क य द तु हारी िबजली चमकने से च कत ए
पुरना रय के लोचन का तुम आन द न लो, तो समझो क तु हारी आँख थ ही
रह ।” (पूव मेघ ोक 29)। उ ियनी के ित इस अनुराग के कारण यह माना जा
सकता है क कािलदास उ ियनी म अव य रहे थे। उनक रचना म िश ा नदी और
महाकाल का उ लेख भी िमलता है।
य द यह मान िलया जाए क कािलदास िव मा द य क राजसभा के र म से
एक थे, तो सरलता से यह समझा जा सकता है क अपनी ितभा का मू यांकन कराने
और राजा का आ य ा करने के िलए उ ह उ ियनी जाना पड़ा हो। यह आव यक
नह क उनका ज म भी उ ियनी म ही आ हो। उनके ज म थान का अनुमान करने
के िलए हम उन थान क ओर अिधक यान देना होगा, िजनका वणन कािलदास ने
बार-बार और अ य त त मय होकर कया है। के वल एक-आध जगह यह उ लेख कर देने
से क ‘क मीर म के सर पाया जाता है’ या यह क ‘महाराज रघु के घोड़े क मीर म से
गुजरते ए के सर के खेत म लोटने लगे’; यह मान लेना क कािलदास क मीर म उ प
ए थे या उनका बा यकाल वहाँ बीता था, ब त भोलेपन क बात होगी। य द
कािलदास का ज म क मीर म आ होता और उनका बा यकाल वह तीत होता, तो
या यह स भव था क क मीर क मनोरम घाटी के सु दर दृ य कािलदास क रचना
म िचि त न ए होते? तब या िवत ता नदी, िचनार के पेड़ और अमरनाथ–उनक
रचना से बचकर भाग सकते थे? क मीर क झील का वणन कस तरह िबना ए रह
जाता? पर तु कािलदास क रचना म जो व तु हम बार-बार िमलती है, वह है
िहमालय और गंगा। िहमालय और गंगा का वणन करते वह अघाते नह । जो लोग यह
मानते ह क ‘मेघदूत’ का मेघ कािलदास के अपने ज म थान क ही ओर स देश लेकर
जा रहा है, वे भी मेघ के साथ चलते-चलते कनखल तक तो अव य ही प च ँ जाएँगे और
वहाँ उ ह गंगा को पार भी करना पड़ेगा। इस समय कोट ार और कनखल के बीच म
वह थान है, िजसे क व ऋिष का आ म कहा जाता है। इस आ म के पास मािलनी
नाम क नदी भी बहती है। व तुत: यही वह देश है, जहाँ का दृ य कािलदास क
क पना म पूरी तरह रमा आ है। यही वह थान है, जहाँ गंगा और िहमालय दोन
साथ-साथ ह। इस देश म पाई जानेवाली वृ -वन पितय और पशु-पि य का िच ण
कािलदास क रचना म यथे िमलता है। यहाँ के साल, देवदा , याल, सेमल,
पा रजात आ द वृ के नाम कािलदास ने अपने वणन म बार-बार दए ह। यहाँ पाए
जाने वाले संह, बाघ, वराह, िहरण, मिहष, हाथी तथा तोते और मोर भी कािलदास
क रचना म अवसर पाते ही आ प च ँ ते दीखते ह। और-तो-और यहाँ के बेर के जंगल
भी, िजनम स दय म खूब ओस पड़ती है, कािलदास क दृि से बच नह पाए ह। जैसा
अनुराग इस थान के ित कािलदास का दखाई पड़ता है, वैसा अ य कसी थान के
ित नह है। ‘कु मारस भव’ म उ ह ने ार भ म स ह ोक के वल िहमालय के वणन म
ही िलखे ह। य िप ये ोक वा तिवकता क अपे ा क पना से अिधक भरे ह, क तु यह
सारी-क -सारी क पना वा तिवकता के आधार को लेकर ऊपर पड़ी है। कहने का
अिभ ाय यह है क ‘कु मारस भव’ के इन ारि भक ोक म िहमालय का जो वणन है,
वह स भवत: सारे िहमालय को देखने पर शायद ही कह दीख पाए; फर भी इन
क पना-ब ल ोक को िलख के वल वही सकता है, िजसने िहमालय को ल बे समय
तक भली-भाँित देखा हो। िबना िहमालय को देखे िहमालय का ऐसा वणन कर पाना
शायद स भव नह है।
‘कु मारस भव’ क सारी कथा िहमालय के देश म ही घ टत होती है। रघुवंश के
ार भ म भी दलीप और उसक रानी सुदि णा स तान- ाि के िलए िहमालय क
उप यका म ही जाते ह, जहाँ विश ा ऋिष का आ म है। वह िहमालय क गुफा म,
जहाँ गंगा का पात भी आसपास ही कह था, नि दनी का दलीप क परी ा लेने का
रोमांचकारी संग घ टत होता है। व तुत: यह अके ला संग ही कािलदास के वास थान
का िनणय करने के िलए पया समझा जाना चािहए। न के वल इसिलए क संग का
उसने बड़ी त मयता से वणन कया है, अिपतु इसिलए भी क इसम हाथी, शेर, गंगा,
िहमालय और देवदा वृ का एक ही साथ उ लेख आ गया है। ये व तुएँ बंगाल और
क मीर म स भवत: एकसाथ उपल ध न हो सक।
‘िव मोवशीय’ नाटक क कथा भी कह हेमकू ट िशखर के आसपास ही घ टत
होती दखाई गई है, जो थान वग और भूिम के म य का समझा जाता है।
ऐसा तीत होता है क म ययुग म पवतीय देश को, िजसम कै लाश इ या द
थान ि थत ह, वगभूिम माना जाता था। महाभारत का वगारोहण भी इसी मा यता
क पुि करता है। देवता के थान भी, जो वग म समझे जाते थे, आजकल इ ह
पवत म पाए जाते ह। इसिलए वग और म यलोक के बीच क भूिम भी िहमालय क
उप यका के आसपास ही होनी चािहए।
इस कार हम मोटे तौर पर इस िन कष पर प च ँ सकते ह क कािलदास या तो
पवतीय देश के रहनेवाले थे, या पवत क तराई म कोट ार से लेकर कनखल के बीच
के कसी देश के िनवासी थे। क तु इस स ब ध म कोई स देह नह क यह देश
उनक बा यकाल क ड़ाभूिम रहा था और उनक ममता इस देश के साथ ब त थी।
बाक िजतने देश का उ ह ने वणन कया है, वह सब या ा के संग म ही कया है,
िजसे उनके वास थान का प रचायक न मानकर उनके िव तृत पयटन का माण
मानना अिधक उपयु होगा।
इस कार हम समझ सकते ह क कािलदास इस िहमालय पवत क उप यका के
िनकटवत देश म उ प ए थे। इस देश के लोग कभी भी स प और समृ नह
रहे। आज भी इस देश के िनवािसय को जीिवका क खोज म द ली, ब बई और
कलक ा तक जाना पड़ता है; तो कु छ आ य नह क घुम ड़ कािलदास भी
बा याव था को पार करने के प ात् जीिवका क खोज म मैदानी देश म आए ह
और य क उस समय राजधानी उ ियनी थी, इसिलए वहाँ प च ँ े ह ; अपनी ितभा
के बल से उ ह ने राजा का आ य ा कर िलया हो और राजा य म रहते दूर-दूर के
थान का भी मण कया हो। बीच-बीच म उ ह अपने ज म थान क याद भी अव य
सताती रही होगी और कभी-कभी वे उस ओर भी जाते रहे ह गे। इसीिलए उस थान
का आकषण उनके मन म याव ीवन ती बना रहा होगा। ब त स भव है क य द
कािलदास अपने ज म थान म ही सारा जीवन तीत करके वगवासी ए होते तो उस
सुर य देश क रमणीयता भी उ ह अितप रचय के कारण सामा य तीत होने लगती
और शायद उनके का म उतना थान न पा सकती, िजतना अब पा सकती है।

कािलदास का ि व

िजस कार उनक रचना म उपल ध होनेवाले जहाँ-तहाँ िबखरे सू के आधार पर


कािलदास के थान और काल के स ब ध म अनुमान कया गया है, उसी कार
कािलदास के ि व के स ब ध म भी काफ -कु छ अनुमान कया जा सकता है। फर
भी यह अनुमान अनुमान ही होगा, इससे अिधक कु छ नह । कािलदास क रचना को
पढ़ने से सबसे पहली बात यह दखाई पड़ती है क वे सौ दय के अ यािधक ेमी थे। यह
सौ दय ाकृ ितक दृ य म या मानवीय आकृ ितय म, जहाँ भी उ ह दीख पड़ता था,
वह वे उसक उपासना करते थे। िजतना वणन उ ह ने कृ ित के मनोहारी प का
कया है। उतना मानव-सौ दय का भी कया है। उनक शकु तला, गौरी, उवशी,
मालिवका, इ दुमती सभी नाियकाएँ उनक लेखनी ारा अमर सु दरी बन गई ह।
कािलदास क रचना म स दय- ेम के साथ-साथ एक िविच आदशवाद-सा भी
दखाई पड़ता है। सारे कािलदास-सािह य म ेम क पहली ती ललक को सु दर
मानते ए भी, शायद उसे िशव नह माना गया। जैसे कह उसम कु छ अनौिच य-सा
िछपा रहता है, और जब तक उस अनौिच य को समा करने के िलए काफ क
उठाकर उसका शोधन न कर िलया जाए, तब तक उस ेम को सफल होता नह
दखाया गया। इसे का -का औिच य भी माना जा सकता है क थम िमलन का कु छ
देर आन द अनुभव करने के बाद ल बे िवरह का दुःख बीच म डालकर अ त म णयी
युगल के िमलन को और भी अिधक सुखमय बना दया जाए, या फर इसे एक कार का
ताि वक आदशवाद समझा जा सकता है, जैसा क इसे रिव बाबू ने माना है क आवेश
और आवेग से भरा आ ेम ही सब कु छ नह है। उसे क याण बनाने के िलए िववेक का
सहारा चािहए और समाज का आशीवाद चािहए।
इस कार सौ दय- ेमी होने के साथ-साथ कािलदास कु छ आदशवादी भी ह।
क तु उनके ये आदश ब त-कु छ अपने ही बनाए ए ह। कािलदास को भारतीय सं कृ ित
के आधारभूत त व ब त चे थे। हमारे ाचीन धमशा म जीवन को चार आ म म
बाँट दया गया था और उसीके अनुसार चय, गृह थ, वान थ और सं यास क
धारणाएँ कािलदास को ब त ि य लग । रघुवंश के ार भ म रघुवंशी राजा का
वणन करते ए उ ह ने कहा है–
‘म उन रघुवंिशय का वणन करने लगा ,ँ जो सारा जीवन-पिव ता के साथ
िबताते थे; जो ार भ कए ए काय को समा करके ही दम लेते थे; िजनका रा य
समु के तट तक फै ला आ था; िज ह ने भूलोक से वगलोक तक रथ का माग बनाया
आ था; जो शा ो िविध से य करते थे और याचक को मुँह-माँगा दान देते थे; जो
अपरािधय को यथोिचत द ड देते थे और अवसर के अनुसार काय करते थे। वे धन
इसिलए एक करते थे क दान द; वे इसिलए िमतभाषी थे क सदा स यवादी रह। वे
के वल यश के िलए िवजय ा करते थे और स तानो पि के िलए िववाह करते थे।
शैशव म वे िव ा यास करते थे; यौवन म सुख का सुखोपभोग करते थे; वृ ाव था म
मुिनवृि धारण करके वान थी हो जाते थे, और अ त म योग ारा शरीर का याग
करते थे।
इससे प है क कािलदास को मनु मृित के आदश ि य थे।
कािलदास राजसभा म रहे थे और राजसभा म होने के कारण उ ह गरीबी से
वा ता नह पड़ा था। या तो उस काल म हमारे देश म इतनी द र ता थी ही नह क
वह किव को ब त चुभे, या फर कािलदास को ऐसा अवसर न िमला था क द र ता
क चुभन उ ह अनुभव हो। उनक सारी का -रचना म गरीबी और दुःख का अभाव है।
य द कह दुःख का वणन आ भी है तो वह िवरह या मृ यु के कारण उ प दुःख का ही
वणन है, जीवन क सुिवधा के अभाव से उ प दुःख का नह । कािलदास क किवता
सुख और समृि के वातावरण म रहकर िलखी गई है।
राजदरबार से स ब ध होने के कारण कािलदास को राजभाषा और राजमहल
म होनेवाले षड् य का अ छा ान था। उनक रचना म इनका बड़ा सु दर िच ण
आ है।
कािलदास के नाटक को देखने पर यह प हो जाता है क उनम िवनोद-वृित भी
पया थी। उनके तीन ही नाटक म हा यरस खूब पाया जाता है और वह हा य कह
भी सु िच क सीमा से बाहर नह गया है।
िह दी भाषा के अनेक किवय क भाँित कािलदास अनपढ़ या अ प-िशि त नह
थे। उ ह ने िविभ िव ा का भली-भाँित अ ययन कया था। उनक रचना म न
के वल भाषा बड़ी प रमा जत और िनद ष है, अिपतु साथ ही आयुवद, योितष इ या द
के भी ऐसे उ लेख िमलते ह, िजनसे यह प हो जाता है क इन िवषय का उनका
ान के वल इन उ लेख तक ही सीिमत नह था, अिपतु जो व तु िजतनी किवता म
उपयु बैठ गई, के वल उतनी-भर का उपयोग कर िलया गया है।
कािलदास को एक ओर तो राजसभा म रहने का अवसर ा था और दूसरी ओर
उ ह वन और पवत म, न दय और समु के तीर पर मण ब त ि य था। ाकृ ितक
दृ य के िजतने िव तृत और मनोहारी िच ण उ ह ने कए ह, उतने स भवत: कसी
अ य किव ने नह कए। कृ ित का भी के वल ऐसा वणन नह जो दूर से देखकर
अनमनेपन से कर दया गया हो; अिपतु ऐसा सजीव वणन िमलता है क जैसे किव ने
कृ ित से एका मता थािपत कर ली हो। कािलदास ने थान- थान पर कृ ित को,
वृ , बेल , फू ल , और पशु-पि य को चेतन और मनु य के सुख-दुःख म िह सा
बँटानेवाला िचि त कया है। इस अनुभूित तक प च ँ ने के िलए कृ ित के कतने िनकट
स पक म आने क आव यकता है, इसक क पना सरलता से क जा सकती है।
ऐसा तीत होता है क कािलदास क गित के वल किवता तक ही सीिमत नह थी,
अिपतु िच कला का भी उ ह अ छा अ यास था। अपने नाटक ‘अिभ ान शाकु तल’ म
उ ह ने दु य त ारा बनाए गए शकु तला के िच का िजस ढंग से वणन कया है और
िजस ढंग से उसम शेष रही ु टय का उ लेख कया है, उससे इस िवषय म स देह नह
रहता क कािलदास वयं कु शल िच कार थे। ‘कु मारस भव’ म भी उ ह ने एक जगह
कहा है, ‘उ मी लंत तूिलकयेव िच ’ं तूिलका से िच का िनखर उठना (उ मीलन)
िच कार क दृि म ही पकड़ाई दे सकता है। िजसने वयं िच नह बनाया, वह इस
प से इस बात को कट नह कर सकता।
इस कार हम सं ेप म कह सकते ह क कािलदास का ज म ई वी-पूव दूसरी या
पहली शता दी म िहमालय क उप यका म ह र ार और कोट ार के बीच कसी थान
पर आ था। उनका बा यकाल कृ ित के घिन ेम म तीत आ। युवाव था के
ार भ म ही वह उ ियनी के परा मी लोकि य स ाट िव मा द य क राजसभा म
राजकिव का थान पा चुके थे। क तु उनका कृ ित- ेम छू टा नह । उनक घुम ड़-वृि
ने उ ह देश के दूर-दूर के भाग क सैर कराई, िजनका वणन वह अपनी रचना म
छोड़ गए ह। उनका सारा जीवन सुख और समृि के वातावरण म तीत आ। संगीत,
का और िच , इन तीन कला म वे वीण थे।

कािलदास का किव व

कािलदास क किवता के उ कष के स ब ध म ाचीन और अवाचीन सभी आलोचक


एकमत ह। सवस मित से कािलदास सं कृ त के सबसे बड़े किव माने गए ह। इसिलए
कसी ने उ ह ‘किवता-कािमनी का िवलास’ और ‘किव-कु लगु ’ कहा है। अब यह
िवचार कर लेना उिचत होगा क कािलदास के का म ऐसी या िवशेषता है जो और
किवय म नह पाई जाती। एक आलोचक ने “उपमा कािलदास य भारवैरथ गौरवं।
दंिडन: पदलािल यं, माघे सि त योगुणा:।” िलखकर उपमा को कािलदास क सबसे
बड़ी िवशेषता बताया है। इस सीमा तक इस आलोचक का यह कथन ठीक है क
कािलदास क उपमाएँ और उ े ाएँ ब त ही सु दर होती ह; और शायद इस दृि से
उनक ट र म दूसरा कोई किव ठहर नह सकता। पर तु इतने पर भी उपमा कािलदास
क सबसे बड़ी िवशेषता नह है।
उपमा से भी बड़ी िवशेषता कािलदास क सरल और वाहपूण भाषा है। इसे
सं कृ त म वैदभ रीित कहा जा सकता है। वैदभ रीित म िलखी ई कािलदास क
सुबोध किवता पैने तीर क तरह पाठक के दय तक पैठ जाती है। ल बे-ल बे समास
कह नह ह, िजनका अथ िनकालने म पाठक को मि त क का ायाम करना पड़े; न
दूरा वय दोष ही है, और न कह वा य अपूण छोड़ दए गए ह। कािलदास क किवता
क लोकि यता का अ य बात के साथ-साथ एक यह भी बड़ा कारण है।
कािलदास को मम पश संग क ब त अ छी पहचान है। कस संग का वणन
िव तार से करना चािहए और कसको उ लेख-मा करके छोड़ देना चािहए, इस बात
को कािलदास से बढ़कर अ य कसी किव ने नह समझा। इसीिलए जब कह कािलदास
मा मक वणन करने बैठते ह, तो पाठक के दय को भाव-तरं ग से उ िे लत कर देते ह।
ऐसे संग ‘रघुवंश’ और ‘कु मारस भव’ म भी कम नह ह, जब क उनके तीन नाटक म
इस बात का िवशेष यान रखा गया है। ‘रघुवंश’ म नि दनी गाय पर संह का आ मण
और राजा ारा उसक र ा, रघु का इ से यु , इ दुमती वयंवर, इ दुमती क मृ यु
पर अज का िवलाप, रघु क दि वजय-या ा इ या द संग बड़ी सावधानी से वणन के
िलए चुने गए ह। इसी कार ‘कु मारस भव’ म मदन-दहन, रित-िवलाप, पावती-
तप या और िशव क िववाह-या ा के संग बड़े मा मक ह। य िप कु छ आलोचक को
‘कु मारस भव’ का आठवाँ दृ य घोर शृंगार तीत आ है, पर तु जहाँ तक का के
उ कष का है, वह सग कािलदास के सव म संग म िगना जाने यो य है।
कािलदास क एक और बड़ी कु शलता यह है क वे अपने वणन म बड़े सजीव
गित-िच -से तुत कर देते ह। उनका वणन इस कौशल के साथ कया गया होता है क
पाठक के सामने उसका यथावत् िच उपि थत हो जाता है, और इन िच को सजीव
बनाने म कािलदास क उपमाएँ और उ े ाएँ िवशेष प से सहायक होती ह।
उदाहरण के िलए रघुवंश के उस संग को लीिजए, जहाँ इ दुमती का वयंवर हो रहा
है। दोन ओर आकां ी राजकु मार बैठे ह। उनके बीच म से सखी सुन दा के साथ
इ दुमती धीरे -धीरे आगे बढ़ रही है। सुन दा एक-एक राजकु मार का प रचय देती है
और पूछती है, “ या यह राजकु मार तु ह पस द है?” इ दुमती िबना उ र दए आगे
बढ़ जाती है। इस कार िजन राजकु मार को अ वीकृ त कर दया है, उनके चेहरे फ के
पड़ जाते ह। इसका वणन कािलदास ने अपने एक ोक म कया है।
संचा रणी दीपिशखेव रा ौ यं यं तीयाय पित वरा सा।
नरे मागा इव पेदे िववणभावं स स भूिमपाल:।।
अथात् वह इ दुमित राि म आगे चलती ई दीपिशखा क भाँित िजस-िजस
राजकु मार को पार कर जाती थी, वही राजमाग के कनारे खड़े ए महल क भाँित
फ का पड़ता जाता था। इ दुमती राजकु मार के बीच म से या गुजर रही है, अ धेरी
रात म उस सड़क पर, िजसके दोन ओर बड़े-बड़े मकान खड़े ह, एक दीपिशखा चली
जा रही है। वह दीपिशखा जहाँ प च
ँ ती है, वहाँ तो उसके काश के कारण आसपास के
महल जगमगा उठते ह, और जब वह दीपिशखा आगे बढ़ जाती है तो अ धकार के
कारण वे महल फर िववण हो उठते ह। इ दुमती के सामने आने पर राजकु मार का
आशा से िखल उठना और उसके आगे बढ़ जाने पर िनराशा से मिलन हो जाना, इस
ोक ारा कतने सु दर प से कट कया गया है।
इसी कार ‘कु मारस भव’ के तीसरे सग म महादेव के पास प च ँ ती ई पावती
का वणन है। ‘ तन के भार से उसके कं धे कु छ झुक गए ह; लाल रं ग के व उसने पहने
ए ह’; तब उसके इस स दय को करने के िलए कािलदास उपमा ढू ँढ़कर लाते ह
क “पावती मानो ढेर-के -ढेर फू ल के गु छ से लदी ई और प के कारण हरी-भरी
चलती- फरती कोई लता है।” इस उपमा ारा भी कािलदास ने पावती के स दय को
साकार-सा कर दया है। इस कार इन गित-िच का सृजन ही हम कािलदास क
सबसे बड़ी िवशेषता तीत होती है।
कािलदास ारा तुत कए गए िच कह तो िव तृत वणन ारा पूरे कए गए
ह; और कह ंजना के योग ारा। ‘अिभ ान शाकु तल’ म ार भ म िशकारी के
तीर से डरकर भागते ए िहरण का िच िवशद् वणन ारा ही तुत कया गया है।
वहाँ िलखा है–“यह िहरण बार-बार गदन मोड़कर पीछे क ओर रथ को देखने लगता है
और फर चौकड़ी भरने लगता है। तीर लगने के भय से उसके शरीर का िपछला आधा
भाग मानो अगले आधे भाग म धंसा-सा जा रहा है। दौड़ने क थकान से उसका मुँह खुल
गया है और उसम से अधबची घास के ितनके रा ते म िगर रहे ह। उसक चाल ऐसी तेज
है क वह मानो आकाश-ही-आकाश म उड़ा चला जा रहा है।” इस वणन ारा ाणर ा
के िलए बेतहाशा भागता आ िहरण आँख के सामने दखाई-सा पड़ने लगता है।
इस कार के उदाहरण ब त दए जा सकते ह। क वा म के पास प च ँ कर राजा
दु य त िजन िच न से आ म का अनुमान करते ह, वे भी आ म का स पूण िच ही
सामने ला खड़ा करते ह। वह वणन देिखए–“पेड़ के खोखल म तोते िनवास करते ह;
उनके ारा लाए गए धान के दाने खोखल म से िगरकर पेड़ क जड़ के पास िबखर
गए ह। कह ऋिषय ने प थर से इं गुदी के फल तोड़े ह, िजनसे प थर िचकने हो गए ह
और ये िचकने प थर जगह-जगह िबखरे पड़े ह। इस देश के िहरन मनु य क अथवा
रथ क आवाज़ सुनकर भयभीत होकर भागते नह ह, य क वे मनु य से प रिचत
तीत होते ह और नदी से जल लाने के रा ते पर व कल व के छोर से चूनेवाले जल-
िब दु क पंि याँ बनी दखाई पड़ रही ह।”
वणन-कौशल के अित र संवाद-कौशल भी कािलदास म िवल ण है। का म
संवाद-कौशल क उतनी अपे ा नह रहती, िजतनी नाटक म रहती है। कािलदास के
संवाद िजतने चुटीले और भावशाली ह, उतने अ य दुलभ ह। संवाद क भाषा ब त
सरल है और अपनी भावो पादकता के कारण उनके अनेक संवाद तो सूि य के प
म चिलत हो गए ह।

नाटककार कािलदास

कािलदास ने तीन नाटक िलखे ह–“अिभ ान शाकु तल’, िव मोवशीय’ और


‘मालिवकाि िम ’। य िप ये नाटक कहने को तीन अलग-अलग नाटक ह और इनक
कथा भी अलग-अलग है, क तु कु छ गहराई तक देखने से ये तीन एक-दूसरे से ब त
िमलते-जुलते तीत होते ह। तीन नाटक म नायक एक राजा है। उसे अक मात् कह
नाियका के दशन हो जाते ह। उससे िमलन भी हो जाता है। फर प रि थितय के कारण
नायक और नाियका एक-दूसरे से पृथक् हो जाते ह। नायक-नाियका के िवरह म तड़पने
लगता है और काफ िवरह-पीड़ा भुगतने के बाद उसे नाियका फर िमल जाती है।
बीच-बीच म हा य क सृि करने के िलए एक िवदूषक रहता है, जो राजा का िम
होता है। तीन ही नाटक म कोई-न-कोई वृ ा तपि वनी भी आ जाती है।
‘अिभ ान शाकु तला’ और ‘िव मोवशीय’ म कु छ अलौ कक और द पा भी
आते ह, क तु ‘मालिवकाि िम ’ म द पा का अभाव है। तीन ही नाटक म
राजमहल और राजदरबार म होनेवाले कु च क कु छ-कु छ झाँक दखाई पड़ती है।
यह कहने क आव यकता नह है क कािलदास ने सं कृ त के नाट् यशा के
िनयम का यथावत् पालन कया है; बि क अनेक िव ान का तो यह िवचार है क
ल ण- ंथ अथात् दश पक इ या द नाट् यशा -िववेचना के ंथ कािलदास के बाद
बने और इनम उ ह बात को िनयम बना दया गया जो कािलदास के नाटक म पाई
जाती थ । चाहे ि थित जो भी हो, क तु कहना होगा क कािलदास के नाटक पूणतया
नाट् यशा के िनयम के अनुकूल ह।

मालिवकाि िम कािलदास रिचत है या नह

जैसा िव मा द य और वयं कािलदास के स ब ध म देखा जा चुका है, पि मी िव ान


क िव ा ाय: ऐसे िन कष िनकालने क ओर लगी रहती है जो उस समय तक माने
जानेवाले स य के ितकू ल ह । य िप मालिवकाि िम ’ नाटक म यह प उ लेख है
क यह कािलदास क कृ ित है; फर भी ोफे सर वैबर नाम के िव ान ने यह िवचार
कट कया क ‘मालिवकाि िम ’ उस कािलदास क कृ ित नह है, िजनक रचनाएँ
‘अिभ ानशाकु तल’ और ‘िव मोवशीय’ ह। अपने प के समथन म उसने युि याँ दी
ह क ‘मालिवकाि िम ’ के ोक म दूसरे दो नाटक जैसा माधुय नह है, और न इसम
वैसी क पना क उड़ान ही है। साथ ही ोफे सर वैबर ने यह भी कहा क
‘मालिवकाि िम ’ म िह दू समाज के अधःपतन क अव था का िच ण दीख पड़ता है,
जब क शेष दो नाटक म ऐसा नह है।
ये तीन आ ेप, अथात् माधुय का अभाव, क पना क कमी और िह दू समाज क
पितत दशा का िच , कसी दृढ़ आधार पर टके नह ह। जहाँ तक ोक के माधुय का
है, ‘मालिवकाि िम ’ के ोक शाकु तल के ोक से पूरी ट र लेते ह। दोन क
भाषा-शैली और अिभ ि इतनी समान है क यह िन स देह कहा जा सकता है क
दोन पु तक का रचियता एक ही किव है। य द कसी कार यह मान भी िलया जाए
क ‘मालिवकाि िम ’ क रचना कसी अ य कािलदास नामधारी ि ने क तो यह
मानना पड़ेगा क वह नया ि असली कािलदास से ितभा म कसी कार कम नह
था, बि क इस दृि से कु छ अिधक ही था क वह कािलदास क रचना का ऐसा
सफल अनुकरण कर सका क असली और नकली म पहचान कर पाना स भव नह है।
व तुत: कािलदास के तीन नाटक म कथानक, भाषा-भाव और श दावली तक क
इतनी समानताएँ ह क इसम स देह नह रहता क ये तीन कसी एक ही किव क
रचनाएँ ह।
िह दू समाज क अधःपतन क अव था के िच ण के स ब ध म भी वैबर का
दृि कोण िवशेष मह व नह रखता। स भवत: िह दू समाज म चिलत ब िववाह को
वैबर पितत दशा का माण मानता है। पर तु िह दु के िलए ब िववाह कोई नई व तु
नह है और इसे कसी भी काल म बुरा नह माना गया; और य द ब िववाह पतन का
ही माण हो, तो फर यह कािलदास के तीन नाटक म उपल ध होता है। ब िववाह
के अित र और कोई माण ऐसा नह है, िजससे िह दू जाित क पितत दशा का
अनुमान लगाया जा सके ।
इसिलए इस बात को दृि म रखते ए क नाटक कािलदास-रिचत माना जाता है
और वयं इस नाटक क भूिमका म भी इस बात का उ लेख है क यह कािलदास-रिचत
है और कसी ाचीन टीकाकार ने इस िवषय म कोई शंका खड़ी नह क , ोफे सर वैबर
के मत पर यान न देना ही उिचत होगा।

मालिवकाि िम क कथा के ोत

‘अिभ ान शाकु तल’ और ‘िव मोवशीय’ क कथाव तु पौरािणक है, क तु


‘मालिवकाि िम ’ क कथा इितहास पर आधा रता है। नाटक का नायक अि िम
और उसका िपता पु यिम इितहास- िस पा ह। मौयवंश के अि तम राजा बृह थ
को उसके सेनापित पु यिम ने मारकर उसके रा य पर अिधकार कर िलया था और
नए वंश का ार भ कया था, िजसे इितहास म शुंगवंश कहा जाता है। पु यिम ने
अ मेध य भी कया था। इितहासकार के अनुसार पु यिम (िजसे कािलदास ने
पु पिम िलखा है या यह िलिप-दोष के कारण ‘प’ और ‘य’ म म हो गया हो) ने 185
ई वी-पूव म बृह थ को मारकर रा य पर अिधकार कया था। शुंगवंश का रा य 73
ई वी-पूव तक चलता रहा। ऐसा तीत होता है क िजस समय कािलदास ने अपना यह
नाटक िलखा, उस समय तक अि िम और मालिवका के ेम क कथा जनता के िलए
ताजा रही होगी, इतनी ताजा क उसको नाटक के प म तुत करने पर जनता उसम
िच ले सके ।
पु यिम , अि िम और उसके पु वसुिम के नाम इितहास पर आधा रत ह,
य क इितहास म भी वे य के य पाए जाते ह। पु यिम ारा अ मेध य करने
क बात भी इितहास- मािणत है। पु यिम क मृ यु 149 ई वी-पूव म ई और उसके
बाद उसका पु अि िम राजा आ। बौ लेखक के कथनानुसार पु यिम बौ का
बड़ा िवरोधी था और उसने बौ पर बड़े अ याचार कए। अि िम के बाद उसका
भाई सु ये ग ी पर बैठा और वसु ये के बाद अि िम का लड़का वसुिम राजा
बना।
कािलदास ने पु यिम , अि िम और वसुिम के अित र जो असं द ध प से
ऐितहािसक नाम ह, कु छ और नाम का भी उ लेख कया है, जो ऐितहािसक हो सकते
ह। उदाहरण के िलए अि िम का म ी वाहतक, अि िम का साला वीरसेन, िवदभ
का राजा य सेन, य सेन का चचेरा भाई माधवसेन और माधवसेन का म ी सुमित।
इन नाम के ऐितहािसक दृि से स य होने क स भावना अिधक है; िवशेष प से
य सेन और माधवसेन नाम क । पहले अंक म ही मौयसिचव श द का उ लेख आता है,
जो पुराने मौय राजा बृह थ का म ी जान पड़ता है। वसुल मी और धा रणी नाम भी
ऐितहािसक दृि से स य जान पड़ते ह। ‘मालिवका’ नाम से विनत होता है क वह
मालवा क राजकु मारी थी। शेष पा कि पत ह। यह भी अनुमान लगाना अनुिचत न
होगा क मालिवका और अि िम क इस कार क कोई ेमकथा सचमुच घटी होगी
और लोक म चिलत कथा के प म िव मान रही होगी, िजसके आधार पर कािलदास
ने अपने नाटक का ढाँचा खड़ा कर दया है।
इितहास म यह बताया गया है क शुंग रा य क राजधानी मौय क राजधानी
क भाँित ही पाटिलपु म बनी रही। पर तु इस नाटक म अि िम को िव दशा का
राजा कहा गया है।
इस नाटक म व णत कथाव तु के आधार पर ी हष ने अपना नाटक
‘ि यादशिशला’ िलखा। कािलदास ने इस नाटक म भास, सौिम ल और किवपु नाम
के पुराने बड़े समझे जानेवाले नाटककार का उ लेख कया है, िजनक तुलना म वह
अपने आपको वतमान किव कािलदास कहता है। भास के लगभग 13 नाटक ा हो
चुके ह, क तु सौिम लक और किवपु क कोई रचना अब तक ा नह ई है; क तु
कािलदास के समय ये तीन यश वी नाटककार माने जाते थे।
मालिवकाि िम नाटक का अिभनय वस तो सव के समय कया गया था।
कािलदास के तीन नाटक म मालिवकाि िम सबसे घ टया समझा जाता है।
तीन म यह सबसे छोटा है और स भवत: यह तीन म सबसे पहले िलखा गया था।
पर तु इस स ब ध म कु छ भी अनुमान लगाना स भवत: उिचत न होगा, य क यह
आव यक नह क कसी किव ारा पहले िलखी गई कोई रचना अव य ही घ टया और
बाद म िलखी गई रचना अव य ही ब ढ़या हो।

िव मोवशीय क कथा के ोत

िव मोवशीय क कथा ऋ वेद, शतपथ ा ण, िव णुपुराण, प पुराण, म यपुराण,


ीमद्भागवत, ह रवंश पुराण और कथा स र सागर म ा होती है। ऋ देव म तो
के वल पु रवा और उवशी को लेकर दस-बारह म िलखे गए ह, िजनम से कथा का
अंश थोड़ा-ब त िनकाला जा सकता है। क तु अ य थ म कथा कथा- प म िमलती
है। म यपुराण म कथा इस प म िमलती है क “एक बार पु रवा इ के दशन करके
लौट रहा था। रा ते म आकाश म अपने रथ पर जाते ए उसने देखा क के शी नाम का
असुर िच लेखा और उवशी को पकड़ कर िलए जा रहा है। राजा ने के शी पर आ मण
कया और वाय ा से के शी को मार डाला और अ सरा को बचा िलया। के शी के
कारण इ का संहासन भी संकट म पड़ गया था, इसिलए उसक मृ यु से स होकर
इ ने उसे और भी अिधक मान दान कया। एक बार इ के दरबार म ल मी-
वयंवर नाम का भरत-रिचत नाटक होने लगा था। इ ने पु रवा को भी नाटक देखने
के िलए बुलाया था। इस नाटक म मेनका, र भा और उवशी अिभनय कर रही थ ।
उवशी ल मी का अिभनय कर रही थी। वह राजा पु रवा के यान म डू बी ई थी और
इसिलए यह भूल गई क उसे या अिभनय करना है। इसपर भरत ने होकर उसे
शाप दया क तुझे म यलोक म जाकर 55 वष तक लता के प म रहकर अपने ेमी से
िवरह का क भोगना होगा। उवशी म यलोक म आकर पु रवा क प ी बनकर रहने
लगी और जब शाप क अविध समा ई तो उसने आठ पु को ज म दया। इनके नाम
आयु, धृतायु, अ ायु, धनायु, धृितमान, वसु, दिवजात और स यायु थे। इस कार
कािलदास ने कहानी मूलत: कस ोत से ली है, यह कह पाना स भव नह है, य क
पुराण के स ब ध म भी िन य से यह नह कहा जा सकता क ये कािलदास से पहले के
ह या बाद के । उसने चाहे जहाँ से भी कहानी य न ली हो, क तु उसे अपनी क पना से
काफ सँवारा है।
वैसे तो कािलदास के तीन ही नाटक म किव व भरपूर है और कृ ित का िच ण
भी खूब आ है, पर तु ये दोन चीज िव मोवशीय नाटक म शेष दोन नाटक क
अपे ा कह अिधक ह। इसम चौथे अंक म कािलदास ने ऐसा संग ला खड़ा कया है,
िजसम उसे गीता मक का क ितभा के दशन का अ छा अवसर िमला है। राजा
उवशी के िवरह म िवकल घूमता है। कािलदास क रचना म कृ ित मनु य के हष
और शोक म िह सा बँटाती-सी िचि त क गई है। इसीिलए िवरह-िवकल राजा पेड़
से, पहाड़ से, न दय से और पशु-पि य से अपनी ि यतमा का समाचार पूछता-
फरता है और उनक िविवध या या चे ा से वयं ही अपने के उ र का
अनुमान कर लेता है। य िप राजा क यह उ माद क अव था है, पर तु का क दृि
से यह सारा संग ब त मनोरम बन पड़ा है। ऐसा सु दर गीतका बस मेघदूत म ही
उपल ध होता है।
िव मोवशीय म कािलदास ने अपनी क पना को खुली छू ट दी है। अनेक दृि य से
िव मोवशीय नाटक कािलदास के तीन नाटक म सबसे अिधक सुकुमार है। इसम
नायक म यलोकवासी राजा है और नाियका वगलोक क रहनेवाली अ सरा। इन दोन
का ेम उन ब त-से ब धन से मु है िजनम क म यलोकवािसय का ेम बँधकर
चलता है। अ सराएँ वे छानुसार आकाश म आती-जाती ह; अपने भाव से अदृ य को
भी जान लेती ह और ितर का रणी िव ा के योग से सामने खड़ी होने पर भी दूसरे
ि को दखाई नह पड़ती। ऐसे पा क अवतारणा करके और उनम मानव-सुलभ
भाव भरकर कािलदास ने अपनी क पना से एक नवीन सृि क है, जो सामा य
म यलोक क अपे ा कह अिधक सु दर है। इसी कार पु रवा और उवशी के
ग धमादन पवत पर ेम-िवहार क क पना भी इतनी मनोरम है क कािलदास के अ य
नाटक म कह नह िमलती। मेघ के िवमान पर चढ़कर राजा का अपने नगर को
लौटना भी उसी कार क घटना है।
कृ ित का िच ण ‘अिभ ान शाकु तल’ म भी आ है और वहाँ भी वह बड़ा
मम पश रहा है। वहाँ भी कृ ित न के वल चेतन है, अिपतु मनु य के ित
सहानुभूितपूण भी है। अथात् मनु य क सुख-दुःख क अनुभूितय म िह सा बाँटती है।
कािलदास का कृ ित के ित अनुराग इतना ती है क जहाँ कह भी उसे कृ ित के
सौ दय के वणन का अवसर िमल जाता है वहाँ वह चूकता नह । उवशी के िलए
लालाियत राजा पु रवा भी जब अपने मदवन म प च ँ ता है, उस समय उसे वस त
क शोभा ऐसी आकषक जान पड़ती है क पल-भर के िलए वह उवशी को भूलकर उस
कृ ित के सौ दय पर ही ल टू हो जाता है। कृ ित के ित इतना ेम होने के कारण ही
अनेक आलोचक ने कािलदास को ‘ कृ ित का किव’ कह डाला है।
क तु कािलदास व तुत: के वल कृ ित का किव नह है, मानव- दय का भी वह
उतना ही सू म पारखी है, िजतना कृ ित का। राजमहल और एका त वन, दोन म ही
उसक समान गित है। वन म से वह कृ ित के िच ढू ँढ़कर लाता है और राजमहल म
मानव- दय क िविभ कार क भावना का िव ेषण करता है। इस मा ा म
पर पर िमले ए ये दोन गुण संसार के अ य कसी भी किव म शायद ही पाएँगे।

िव मोवशीय के चौथे अंक के ाकृ त ोक

िव मोवशीय म चौथे अंक म लगभग 31 ोक ाकृ त भाषा म िमलते ह। इन ोक म


से कु छ तो राजा का वणन करने के प म ह, कु छ राजा क ओर से कहे गए ह। ये ोक
का क दृि से सु दर कहे जा सकते ह, पर तु जब सारे नाटक के संग म इनको देखा
जाए, तो ये थ और फालतू तीत होते ह। इससे यह अनुमान कया गया है क ये
ोक कािलदास क रचना नह , बि क बाद म डाले गए ेप ह। ब त-सी
पा डु िलिपय म ये ोक ा भी नह होते। पर तु एक या दो पा डु िलिपय म ोक के
िमलने से काफ स देह पैदा हो गया है।
ये ोक अनाव यक, अ वाभािवक और िनयम के िव ह, यह मानने के िलए कई
कारण ह। पहला कारण तो यही है क अनेक पा डु िलिपय म ये पाए नह जाते। दूसरी
युि यह है क इन ोक म से कु छ राजा के मुँह से बोले जाने के िलए ह; जब क राजा
उ म पा होने के कारण ाकृ त म नह बोल सकता, उसे सं कृ त म ही बोलना चािहए।
तीसरी बात यह है क जो बात इन ोक म ाकृ त म कही गई ह, ठीक वही उससे
तुर त पहले या पीछे सं कृ त ोक म कही गई ह, इससे ये ोक पुन ि -मा बनकर
रह जाते ह। एक और युि यह है क इनम से कोई भी ोक कथा क गित को आगे नह
बढ़ाता, अिपतु कु छ ोक तो कथा के वाह म बाधा डालते-से तीत होते ह। इन ोक
म और भी कई असंगितयाँ ह, िज ह देखते ए यही बात ठीक जान पड़ती है क ये ोक
मूल नाटक म नह थे, और बाद म कसी अ य ितभाशाली ने अपनी ितभा का क ा-
प ा उपयोग करते ए बीच-बीच म जहाँ-तहाँ जड़ दए गए ह, जो अपने-आप म तो
सु दर ह, क तु िजस थान पर वे रखे गए ह, वह सुिनि त प से उनके अनुपयु है।
य द ये ोक वयं कािलदास ारा िलखे गए होते, तो इस कार क असंगित या
पुन ि होने क स भावना एक ितशत भी नह थी।
सं कृ त ना शा के कु छ पा रभािषक श द

ना दी: नाटक के पहले देवता , ा ण , राजा इ या द का आशीवाद ा करने


के िलए पढ़ा गया एक ोक या दो-तीन ोक होते ह। सं कृ त नाटक म असली नाटक
के ार भ होने से पहले कु छ और िविधयाँ पूरी क जाती ह, िज ह पूवरं ग कहते ह।
ना दी पूवरं ग क या म से ही एक है। इस स ब ध म ‘सािह य-दपण’ म िलखा है
क नाट् यव तु के अिभनय से पहले नाटक के बीच म आनेवाले िव क शाि त के िलए
नट लोग जो िविधयाँ पूरी करते ह, उ ह पूवरं ग कहा जाता है। इसम देवता, ा ण और
राजा क तुित तथा आशीवाद के जो वचन कहे जाते ह, उ ह ना दी कहते ह। ना दी
म बारह या आठ चरण होने चािहए। इसका पाठ सू धार को म यम वर म करना
चािहए।
सू धार: सू धार रं गमंच का व थापक होता है। अिभनय के उपकरण को
‘सू ’ कहा जाता है और उनका संचालन करनेवाला होने के कारण इसे सू धार कहते
ह। सू धार को नाट् यकला म िन णात होना चािहए; उसे अनेक भाषा का ान होना
चािहए; नीितशा के रह य को भी उसे समझना चािहए; वेषभूषा बनाने म चतुर और
रस और भाव को कट करने म कु शल होना चािहए। इस कार सू धार को ब त-से
गुण से यु होना आव यक है।
पा रपा क: सू धार के साथ रहनेवाले सहायक को पा रपा क कहा जाता है।
तावना: तावना को ही आमुख भी कहते ह। कोई नट या िवदूषक या
पारपा क सू धार के साथ बातचीत करके जो कए जानेवाले नाटक क सूचना देते ह,
उसे आमुख या तावना कहा जाता है।
िव क भक: नाटक क कथाव तु क सब घटना का अिभनय रं गमंच पर कर
दखाना स भव नह होता और न अभी ही होता है। िजन घटना को व तुत: रं गमंच
पर तुत नह करना होता उनक सूचना दशक को दूसरी नाट् यिविधय से दे दी
जाती है। ये नाट् यिविधयाँ िव क भक और वेशक कहलाती ह। िव क भक तो वह
िविध है, िजसम म यम पा आकर कसी घटी ई या घटनेवाली घटना क सूचना दे
जाते ह। य द इसम सारे पा म यम वग के ह गे तो वह शु िव क भक कहलाएगा,
पर तु य द कु छ पा म यम और कु छ नीच वग के ह गे तो वह संक ण िव क भक या
िम िव क भक कहलाएगा।
वेशक: वेशक, िव क भक जैसी ही व तु है। इसके ारा भी पहले घटी ई या
आगे घटनेवाली घटना क सूचना दी जाती है। क तु िव क भक से इसका अ तर यह
है क वेशक म के वल नीच पा होते ह, जब क िव क भक म म यम पा का होना
आव यक है; चाहे उनके साथ नीच पा ह या न ह ।
य क म यम पा सं कृ त बोलते ह, और नीच पा ाकृ त, इसिलए िव क भक
या तो सं कृ त म हो सकता है, या सं कृ त और ाकृ त दोन भाषा म पा के अनुसार
हो सकता है। क तु वेशक सदा सारा का सारा ाकृ त म ही िलखा होगा, य क
उसके सारे पा नीच पा होते ह।
िव क भक और वेशक का एक अ तर यह भी है क िव क भक तो पहले अंक के
ार भ म भी आ सकता है, क तु वेशक के वल दो अंक के बीच म ही आएगा। अथात्
वेशक कसी भी दशा म पहले अंक के ार भ म नह हो सकता।
ना ोि : रं गमंच पर पा िजस अलग-अलग ढंग से बोलते ह, उ ह नाट् योि याँ
कहा जाता है। ‘ वगत’, ‘ कट’, ‘धीरे -से’ या ‘आड़ करके ’ इ या द िविवध ढंग से
ना ोि याँ ह।
कट: जब यह अभी होता है क पा ारा कही गई बात को रं गमंच पर
उपि थत सभी पा सुन ल, तो उसे कट कहा जाता है। य द अ य कोई िनदश न दया
गया हो, तो सभी उि याँ कट होती ह।
वगत: पर तु जब कोई पा इस कार बोलता है क जैसे वह मन-ही-मन सोच
रहा है, और यह द शत करता है क उसक बोली गई बात को रं गमंच पर उपि थत
अ य कोई पा नह सुन पा रहा, तब उसे ‘ वगत’ कहा जाता है। इसके बाद भी यह
नह भूलना चािहए क नाट् योि चाहे ‘ वगत’ हो चाहे ‘ कट’, े क को दोन ही
सुनाई पड़नी चािहए। इस कार सव ा अथात् जो सब पा को सुनाई पड़े, वह
उि कट कहलाती है और जो कसी पा को सुनाई न पड़े, वह उि ‘ वगत’
कहलाती है।
जनाि तक: जनाि तक िजसका अनुवाद ‘धीरे -से’ या ‘चुपके -से’ कया गया है, वे
ना ोि याँ ह जो ‘ वगत’ और ‘ कट’ के बीच क ह। ये उि याँ इस ढंग से बोली
जाती ह क उ ह मंच पर उपि थत सब पा तो न सुन पाएँ, अिपतु वे ही पा सुन पाएँ
िजनसे वे कही जा रही ह। कसी के कान के पास मुँह ले जाकर बोलना ‘जनाि तक’ के
अ तगत आता है।
अपवा रत: अपवा रत िजसका अनुवाद ‘ओट करके ’ कया गया है, वह उि है
जो रं गमंच पर उपि थत सब पा को सुनाने के िलए नह कही जाती, अिपतु ओट
करके एक या दो ि य को सुनाने के िलए कही जाती है। ‘जनाि तक’ और
‘अपवा रत’ म अ तर ब त थोड़ा है। ‘अपवा रत’ म तो के वल छोटे-से वा य ही बोले
जाते ह और सामा यतया बोलनेवाला अपने हाथ क तीन उं गिलयाँ खड़ी करके ओट
करने का दशन करता है, िजससे दूसरे लोग उस बात को न सुन सक; पर तु
‘जनाि तक’ उि काफ देर तक कानाफू सी के प म चलती रह सकती है।
आकाशभािषत: यह भी एक कार क नाट् योि ही है। इसम कोई एक पा
रं गमंच पर उपि थत होता है और वह ऐसा दशन करता है क जैसे वह कसी दूसरे
पा से बात कर रहा है, जो व तुत: मंच पर उपि थत नह होता। उस अनुपि थत
ि क ओर से ‘ या कहते हो’, ‘तुमने यह कहा’ इ या द कहकर वह वयं
अनुपि थत पा ारा कही गई बात क सूचना देकर उनका उ र देता चला जाता है।
इस णाली को आकाशभािषत कहते ह। य क इसम उपि थत पा आकाश से
बातचीत करता तीत होता है या वह ऐसा द शत करता है क उसे आकाश से कसी
ि क बात सुनाई पड़ रही ह।
िवदूषक: िवदूषक सं कृ त नाटक का अ य त सुप रिचत पा है। वह
हा यो पादक वेषभूषा धारण करता है; उसक आकृ ित भी कु प होती है; उसका मु य
काय हा य क सृि करना होता है। सामा यतया वह राजा का िम , ा ण और पेटू
होता है।
कं चुक : यह कोई वृ मनु य होता है, जो राजा के अंतःपुर का मु य अिधकारी
होता है। यह िव ान और अनुभवी होता है। उसका सभी पा आदर करते ह।
भरतवा य: नाटक के अ त म नट क ओर से जो आशीवाद दया जाता है, उसे
भरतवा य कहते ह। नाटक के अ त म भरतवा य सि मिलत वर म गाया जाता है।
भरत श द का योग नट के िलए होता है। इसिलए भरतवा य का अथ है नट क ओर
से कहा गया वा य। इस कार सं कृ त नाटक ना दी से ार भ होते ह और भरतवा य
पर समा होते ह।
िव मोवशी
पा

पु ष
पु रवा : ित ान का राजा; नाटक का नायक
माणवक :िवदूषक; राजा का अ तरं ग िम
आयु :पु रवा का पु
नारद :देव ष; ा के पु
िच रथ :ग धव का राजा
प लव गालव :भरत मुिन के िश य
सू धार :रं गमंच का व थापक
पा रपा क :सू धार का सहायक
ि याँ
उवशी : वग क अ सरा; नाटक क नाियका
िच लेखा :अ सरा; उवशी क अंतरं ग सखी
सहज या,
र भा
मेनका तथा :उवशी क सखी अ य अ सराएँ
अ य अ सराएँ
महारानी :कािशराज क क या; पु रवा क रानी
िनपुिणका :रानी क दासी
स यवती :एक तपि वनी
दािसयाँ :रानी क दािसयाँ
यवनी :राजा क सेिवका
अय
इ :देवता का राजा
के शी :असुर का राजा
भरत :नाट् यशा के णेता
पहला अंक
वेदा त म पु ष एक िज ह उचारा,
है ा भूिम िजनसे दव-लोक सारा,
जो ह यथाथ शुभ ई र नामधारी,
ह खोजते दय म िजनको पुजारी
मो े छु ; जो सुलभ ह ि थर भि ारा,
वे थाणु देव िशव इ कर तु हारा।।
[ना दी समा होने पर]
सू धार :बस करो भाई ब त आ। (नेप य क ओर देखकर) मा रष, ज़रा
इधर तो आना।
[ वेश करके ]
पा रपा क :भाव, लीिजए, म आ गया। आ ा क िजए।
सू धार :मा रष, िव ान क यह प रषद् पहले किवय क रसपूण कृ ितय को
तो देख चुक है। म आज इस प रषद् के सामने कािलदास ारा
रिचत एक नया नाटक तुत क ँ गा। पा से कह दो क वे अपने-
अपने पाठ को सावधानी से तैयार कर ल।
पा रपा क :जैसी आपक आ ा। (बाहर जाता है।)
सू धार :तब तक म इन स दय महानुभाव को सूचना दे दू।ँ ( णाम करके )
स दय वृ द, अपने ेिमय पर दयालु होने के कारण, अथवा अ छी
व तु और अ छे पु ष का आदर करने क दृि से आप कािलदास क
इस कृ ित को द िच होकर सुिनए।
[नेप य म]
बचाओ-रे -बचाओ, कोई बचाओ। जो भी कोई देवता के प का
समथक हो या िजसक भी आकाश म गित हो, हम आकर बचाओ।
सू धार :( यान से सुनने का अिभनय करके ) अरे यह या! मेरी सूचना के
तुर त बाद ही आकाश म िच लाती ई कु र रय का सा शोर सुनाई
पड़ने लगा। कभी तो यह आवाज ऐसी लगती है क जैसे फू ल का रस
पीकर म ए भ रे गुँजार कर रहे ह ; कभी ऐसा लगता है क रह-
रहकर कोयल बोल रही हो; और कभी ऐसा लगता है क देवता से
भरे ए आकाश म देव-ना रयाँ मधुर वर म गीत गा रही ह ।
आिखर यह है या? (सोचकर) ठीक है! समझ गया। नारायण मुिन
क जाँघ से पैदा ई अ सरा उवशी कै लाशनाथ कु बेर क सेवा करके
वापस लौट रही थी; उसे बीच रा ते म ही असुर पकड़कर ले भागे ह।
इसीिलए अ सरा का दल चीख-पुकार मचा रहा है।
[बाहर िनकल जाता है]
[ तावना]
[अ सरा का वेश]
अ सराएँ :आय बचाओ, बचाओ! जो भी देवता का प पाती हो या िजसक
भी आकाश म गित हो, ज दी आकर बचाओ।
[िबना पटा ेप के रथ पर चढ़े ए राजा पु रवा और सारिथ का
वेश]
राजा :रोओ नह , रोओ नह । म राजा पु रवा ।ँ सूय क उपासना करके
लौट रहा ।ँ मेरे पास आकर किहए क आपक कससे र ा करनी
है।
र भा :असुर के आ मण से।
राजा :असुर ने आपपर आ मण कया है?
र भा :सुिनए महाराज! हमारी ि य सखी उवशी को तो सारा संसार
जानता है। बड़े-बड़े तपि वय के तप से शं कत होने पर सुकुमार
अ के प म इ उसीका योग करते ह। अपने सौ दय से ग वत
ल मी और पावती भी उसको देखकर लजा जाती ह। वह इस सारी
सृि का सु दर अलंकार है। वही उवशी कु बेर के भवन से वापस लौट
रही थी क बीच रा ते म ही कोई दानव उसे और िच लेखा को
पकड़कर ले भागा है।
राजा :कु छ मालूम है क वह पापी कस दशा म गया है?
अ सराएँ :उ र-पूव क ओर गया है।
राजा :तब आप दुःखी न ह । म आपक सखी को लौटा लाने का य
करता ।ँ
अ सराएँ :सोमवंशी राजा को यही शोभा देता है।
राजा :अ छा, आप मेरी ती ा कहाँ करगी?
अ सराएँ :यह हेमकू ट पवत का िशखर दीखता है, वह ।
राजा :सारिथ, घोड़ को पूव र दशा क ओर तेजी से बढ़ाओ।
सारिथ :जो िचरं जीव क आ ा। (घोड़ को हाँकता है।)
राजा :(रथ के वेग क अनुभूित का अिभनय करते ए) शाबाश-शाबाश!
इतने तेज दौड़ते रथ से तो म आगे जाते ए ग ड़ को भी पकड़
सकता ,ँ फर इ का अपकार करनेवाले उस दानव का तो कहना
ही या! मेरे रथ के आगे जो बादल छाए ए ह, वे चूर-चूर होकर
धूल-से बनते जा रहे ह। पिहय के तेजी से घूमने के कारण ऐसा म
होता है क अर के बीच म और नए अरे बन गए ह। घोड़ के िसर
पर लगी ई चंव रयाँ रथ के वेग के कारण ऐसी ि थर हो गई ह क
मानो िच म अं कत ह और वायु के ती वेग के कारण वजा का
व वजद ड और अपने छोर के बीच तनकर ि थर-सा हो गया है।
[रथ पर चढ़े ए राजा और सारिथ का थान]
सहज या :सिख, राज ष तो गए। चलो, हम भी वह चलकर बैठ, जहाँ िमलने
को हमने राजा से कहा है।
मेनका :ठीक है सखी; यही करती ह।
[हेमकू ट िशखर पर चढ़ने का अिभनय करती ह।]
र भा :देख, यह राज ष हमारे मन क था िमटा पाते ह या नह ?
मेनका :सखी, इस िवषय म स देह मत कर!
र भा :दानव को जीत पाना बड़ा क ठन है।
मेनका :जब कभी इ पर भी िवपि पड़ती है, तो वह भी बड़े आदर के
साथ मनु य-लोक से इ ह को बुलाकर देवता क िवजय के िलए
इ ह सेनापित बनाता है।
र भा :मेरी तो यही कामना है क वे िवजयी ह ।
मेनका :( ण-भर ककर) सिखयो, धीरज धरो; धीरज धरो। वह उस
राज ष का ह रण- वज फहराता आ सोमद रथ दखाई पड़ रहा
है। मुझे तो लगता है क वे िबना काम पूरा कए वापस नह लौटते
ह गे।
[शुभ शकु न जताकर उसी ओर देखती ई खड़ी रहती ह।]
[रथ पर चढ़े ए राजा और सारिथ का वेश। उवशी क आँख भय
के मारे मुँदी ई ह और उसने दािहने हाथ से िच लेखा का सहारा
िलया आ है।]
िच लेखा :सखी, धीरज धरो, शा त होओ।
राजा :सु द र, िनि त होओ। दानव का भय जाता रहा है। इ क
मिहमा तीन लोक क र ा करती है। अब अपनी इन बड़ी-बड़ी
आँख को उसी कार खोल दो, जैसे िनशा क समाि पर कमल-
लता कमल को खोल देती है।
िच लेखा :ओफ! इसे तो अब भी चेतना नह लौट रही। के वल इसके ास-
ास से ही इतना पता चलता है क यह अभी जीिवत है।
राजा :ये ब त अिधक डर गई ह। तभी तो बार-बार गहरा साँस लेते और
छोड़ते ए इन बड़े-बड़े तन के बीच म पड़ी ई यह म दार कु सुम
क माला बार-बार काँप-काँप उठती है, िजससे पता चलता है क
इनका दय अब तक काँप रहा है।
िच लेखा :(सक ण वर म) सखी उवशी, होश म आओ। इस दशा म तो तुम
अ सरा-सी तीत नह होती।
राजा :अभी भी भय क कँ पकँ पी इनके फू ल जैसे सुकुमार दय को छोड़
नह रही; और वह कँ पकँ पी तन के बीच म िसहर उठनेवाले व
के छोर से रह-रहकर झलक उठती है।
[उवशी क चेतना लौट आती है।]
राजा :( स होकर) िच लेखा, बधाई हो। तु हारी ि य सखी होश म आ
गई। देखो न, जैसे च मा के उदय होने पर राि अ धकार से मु
होकर चमक उठती है, या राि म जलती ई अि क िशखा धुआँ
समा होने पर दमक उठती है, या गंगा का जल कगार से टू टकर
िगरने से मिलन होने के प ात् फर धीरे -धीरे िनमल हो जाता है,
उसी कार यह सु दरी भी बेहोशी से मु होने पर फर व थ ई
दखाई दे रही है।
िच लेखा :सखी उवशी, िनि त होओ। दुःखी जन पर दया करनेवाले
महाराज ने देवता के श ु दानव को परा त करके दूर भगा दया
है।
उवशी :(आँख खोलकर) या अद्भुत भावशाली देवराज महे ने मेरी
र ा क है?
िच लेखा :महे ने नह , क तु महे के समान ही परा मी राज ष पु रवा
ने।
उवशी :(राजा क ओर देखकर मन-ही-मन) तब तो दानवराज ने आ मण
करके भी मेरा उपकार ही कया।
राजा :(उवशी को देखकर मन-ही-मन) नारायण ऋिष को लुभाने के िलए
जो अ सराएँ गई थ , उनका नारायण क जाँघ से उ प ई इस
अ सरा को देखकर लजा जाना ठीक ही था। मुझे तो ऐसा लगता है
क यह उस तप वी क रचना नह है। य क इसका िनमाण करते
ए तो काि त बरसानेवाला च मा ही ा बना होगा; या फर
शृंगार रस के देवता कामदेव ने इसका सृजन कया होगा; अथवा
पु प से लदे वस त ने इसक रचना क होगी। यह कै से हो सकता है
क ऐसा मनोहर प वेद रटते-रटते कुं ठत हो गए और भोग-िवलास
से दूर रहनेवाले वे बु े मुिन नारायण रच पाए ह ।
उवशी :सखी िच लेखा, बाक सिखयाँ कहाँ ह गी?
िच लेखा :यह तो हमारी र ा करनेवाले महाराज ही जानते ह।
राजा :(उवशी को देखकर) आपक सिखयाँ गहरे िवषाद म डू बी ई ह।
िजसने आपके सु दर प को कभी एक बार भी देखकर अपने नयन
को सफल कया है; वह भी आपके िवयोग म बेचैन हो उठे गा; फर
अ यिधक ेम करनेवाली सिखय का तो कहना ही या!
उवशी :(मन-ही-मन) आपके वचन अमृत ह; या फर च मा से अमृत झरे ह,
इसम आ य ही या है। ( कट) इसीिलए तो उ ह देखने को मेरा
दय ज दी मचा रहा है।
राजा :(हाथ से संकेत करके दखाता आ) सु द र, वे तु हारी सिखयाँ
हेमकू ट िशखर पर खड़ी उ सुक नयन से तु ह उसी कार देख रही
ह, जैसे हण से मु ए च मा को मनु य देखा करते ह।
[उवशी राजा क ओर अिभलाषा-भरे नयन से देखती है।]
िच लेखा :देखो, सिख देखो!
उवशी :दुःख म साथ देनेवाला नयन से मेरा पान-सा कर रहा है।
िच लेखा :(मु कराकर) कौन है री वह?
उवशी :वही, सिखय का दल।
र भा :(आन द के साथ देखकर) सखी िच लेखा के साथ-साथ हमारी ि य
सखी उवशी को लेकर राज ष उसी कार चले आ रहे ह, जैसे दो
िवशाखा न के साथ च मा उ दत आ हो।
मेनका :(भली-भाँित देखकर) सखी, ये तो दोन ही बात हमारी मनचाही हो
ग । एक तो हमारी ि य सखी वापस लौट आई, दूसरे राज ष का भी
बाल-बाँका नह आ।
सहज या :सखी, ठीक कहती हो। वे दानव सचमुच ही बड़े भयानक ह।
राजा :सारिथ, यही वह पवत-िशखर है। रथ को नीचे उतार दो।
सारिथ :जैसी िचरं जीव क आ ा। (रथ को नीचे उतारता है)।
[रथ के उतरने पर झटके का अिभनय करती ई उवशी डरकर
राजा का सहारा लेती है।]
राजा :(मन-ही-मन) इस िवषम भूिम पर रथ को झटके के साथ उतरना भी
मेरे िलए भला ही आ। रथ के झटके खाने के कारण इस बड़ी-बड़ी
आँख वाली उवशी ने अपने शरीर से मेरा शरीर जो छु आ, तो उससे
ऐसा रोमांच हो उठा है, जैसे शरीर के ऊपर ेम के अंकुर फू ट आए
ह।
उवशी :सखी, थोड़ा उधर को तो सरक जाओ।
िच लेखा :मुझसे नह िहला जाता।
र भा :आओ; थोड़ा आगे बढ़कर अपना ि य करनेवाले इन राज ष का
वागत कर।
[सब आगे बढ़ती ह।]
राजा :सारिथ, रथ को रोक दो; िजससे अपनी सिखय से िमलने के िलए
उ सुक सु दर भ ह वाली यह उवशी अपनी उ कं ठत सिखय से उसी
कार फर िमल सके , जैसे वस त क छटा फर वन क लता म
आकर िमलती है।
[सारिथ रथ को रोक देता है।]
अ सराएँ :महाराज को िवजय क बधाई हो।
राजा :और आपको अपनी सखी से िमलन क बधाई हो।
उवशी :(िच लेखा का सहारा लेकर रथ से उतरकर) आओ सिखयो, मेरी
छाती से लग जाओ। मुझे तो यह भरोसा ही नह था क अब फर
कभी सिखय को देख भी सकूँ गी।
[सिखयाँ गले िमलती ह।]
मेनका :( शंसा करते ए) महाराज, आप सौ-सौ क प तक इस पृ वी का
पालन करते रह।
सारिथ :िचरं जीव, पूव दशा म कसी रथ के आने क बड़ी जोर क आवाज़
सुनाई पड़ रही है और यह तपे ए सोने सा अन त भुजा म बाँधे न
जाने कौन आकाश से उसी कार उतर रहा है, जैसे िबजली से भरा
आ बादल पहाड़ पर उतरता है।
अ सराएँ :(उस ओर देखती ई) अरे , यह तो िच रथ है!
[िच रथ का वेश]
िच रथ :(राजा को देखकर आदर के साथ) महाराज, बधाई हो। आपका
परा म इतना महान है क आप देवराज इ का भी उपकार कर
पाते ह।
राजा :अरे , ग धवराज ह? (रथ से उतरकर) ि य िम का वागत है।
[दोन एक-दूसरे का हाथ छू ते ह।]
िच रथ :िम , नारद के मुख से यह सुनकर क उवशी को के शी नामक दानव
हर ले गया है, इ ने उसे वापस लाने के िलए ग धवसेना को आदेश
दया था। बीच म हम चारण से तु हारे िवजय-गीत को सुनकर
यहाँ आ प च ँ े ह। अब आप इसे लेकर चल और हमारे साथ ही इ के
दशन कर। आपने सचमुच ही इ का अ य त ि य काय कया है।
देिखए, पहले तो नारायण मुिन ने इ के िलए इसका सृजन कया;
और अब आप जैसे िम ने दै य के हाथ से छीन लाकर फर सृजन-
सा कया है।
राजा :िम , ऐसा न कहो। यह देवराज इ का बल है क िजससे उसके प
के समथक लोग श ु पर िवजय ा करते ह। वनराज संह के
गजन क पवत क क दरा म गूँजनेवाली ित विन भी हािथय
को डराकर भगा देती है।
िच रथ :ठीक है, ठीक है। िनरिभमानता परा म क शोभा है।
राजा :िम , इस समय इ के दशन करने का अवसर नह है। इसिलए तुम
ही इ ह देवराज के पास ले जाओ।
िच रथ :जैसी आपक इ छा। आप सबक सब इधर आइए।
[सब अ सराएँ चल पड़ती ह]
उवशी :(धीरे -से) सखी िच लेखा, उपकार करनेवाले इन राज ष से िवदा
लेते मुझे संकोच हो रहा है। तो इस समय तू ही मेरा मुख बन जा।
िच लेखा :(राजा के पास) महाराज, उवशी कहती है क आपक अनुमित हो तो
म महाराज क क त को अपनी ि य सखी क भाँित देवलोक ले
जाऊँ।
राजा :जाइए, फर दशन दीिजएगा।
[सब अ सराएँ ग धव के साथ आकाश क ओर उड़ने का अिभनय
करती ह।]
उवशी :(उड़ने म बाधा का अिभनय करके ) अरे , मेरी यह मोितय क
एकलड़ी माला लता क शाखा म उलझ गई! (बहाना बनाकर पास
जाकर राजा को देखती ई) सखी िच लेखा, ज़रा इसे छु ड़ा तो दे।
िच लेखा :(देखकर और हँसकर) ओह, यह तो ब त कसकर उलझ गई है। यह
छु ड़ाए न छू टेगी।
उवशी :चल, प रहास ब त आ। अब इसे छु ड़ा दे।
िच लेखा :हाँ, इसका छू टना क ठन ही दीखता है, फर भी छु ड़ाने का य
करती ।ँ
उवशी :(मु कराकर) ि य सखी, अपनी इस बात को याद रखना।
राजा :(मन-ही-मन) हे लता, तुमने इसके जाने म ण-भर का िव
डालकर मेरा ि य काय ही कया; य क इसी कारण म बड़े-बड़े
ने वाली इस अ सरा को उस समय देख सका जब वह मेरी ओर
आधा मुंह मोड़कर खड़ी ई थी।
[िच लेखा छु ड़ाती है, उवशी राजा क ओर देखती ई गहरा साँस
छोड़कर आकाश म उड़ती ई अपनी सिखय को देखती है।]
सारिथ :िचरं जीव, यह तु हारा वाय अ इ के अपराधी दै य को खारे
समु म पटककर फर तु हारे तरकस म ठीक वैसे ही आ घुसा है,
जैसे सपराज अपनी बाँबी म घुस जाता है।
राजा :ठीक है। रथ को ज़रा रोककर खड़ा करो; म ऊपर चढ़ता ।ँ
[सारिथ वैसा ही करता है। राजा रथ पर चढ़ने का अिभनय करता
है।]
उवशी :(लालसा के साथ राजा को देखती ई) फर भी कभी या इस
उपकारी के दशन कर पाऊँगी!
[ग धव और सिखय के साथ थान]
राजा :(उवशी के जाने के रा ते क ओर देखते ए) अहो, ेम भी उन
व तु क कामना करता है, जो दुलभ ह। यह उवशी िपतृ-सदृश
इ के म यम लोक क ओर उड़कर जाती ई मेरे मन को शरीर से
उसी कार अलग करके बलपूवक ख चे िलए जा रही है, जैसे
राजहंसी कमल-नाल के अगले िह से को काटकर उसम से पतला-सा
सू ख चकर ले जाती है।
[सारिथ और राजा का थान]
दूसरा अंक
[िवदूषक का वेश]
[घूम- फरकर एक जगह बैठ जाता है और दोन
हाथ से अपना मुँह ब द करके बैठा रहता है।]
िवदूषक :हा-हा-हा! जैसे िनम ण पाए ए ा ण का पेट खीर खा-खाकर
फटने लगता है, उसी कार राजा के ेम-रह य से भरा पेट फटा जा
रहा है और लोग के बीच म भी उस रह य को कहने से म अपनी
जीभ को रोक नह सकता। इसिलए जब तक राजा धमासन से
उठकर यहाँ नह आ जाते, तब तक म इस देवछ दक महल म ऊपर
चढ़कर बैठता ,ँ य क यहाँ लोग का आना-जाना नह है।
[चेटी का वेश]
चेटी :कािशराज क पु ी महारानी ने मुझे आदेश दया है क अरी
िनपुिणका, जब से महाराज भगवान सूय क पूजा करके लौटे ह, तब
से वह कु छ अनमने-अनमने-से दीख पड़ते ह। तो तू कसी तरह आय
माणवक से उनक इस उदासी के कारण का पता चला। तो, अब इस
बु धू ा ण के पेट से बात कै से िनकाली जाए? वैसे तो मेरा याल
है क जैसे घास क नोक पर पड़ी ओस क बूँद देर तक टकती नह ,
उसी तरह इसके मन म भी राजा का रह य देर तक टके गा नह ।
अ छा चलूँ; पहले उसे खोजूँ तो। (थोड़ा चलकर और एक ओर
देखकर) अरे , यह तो िच म बने ए ब दर क तरह एका त म ही
बैठे कु छ बोलते ए आय माणवक बैठे ह। अ छा तो इनके पास ही
चलती ।ँ (पास जाकर) आय, णाम करती ।ँ
िवदूषक :आपका क याण हो। (मन-ही-मन) इस दु चेटी को देखकर तो राजा
के ेम का वह रह य मेरे दय को फाड़कर बाहर आ जाना-सा
चाहता है। (मुख को थोड़ा ढककर। कट) य िनपुिणकाजी, आज
गाना-बजाना छोड़कर कस ओर चली ह?
चेटी :महारानीजी के आदेश से आपके ही दशन करने आ रही थी।
िवदूषक : य , रानीजी का या आदेश है?
चेटी :महारानीजी ने कहा है क आजकल आप हमपर कृ पालु नह ह। हम
इतना क उठाना पड़ रहा है और फर भी आप हम देखने तक नह
आते।
िवदूषक :िनपुिणका, या बात ई? महाराज ने महारानी के ितकू ल तो कोई
काम नह कया?
चेटी :आजकल महाराज िजस सु दरी के िलए उ कं ठत ह, उसीका नाम
लेकर उ ह ने एक बार महारानीजी को पुकारा।
िवदूषक :(मन-ही-मन) तो या वयं महाराज ने ही सारा भेद खोल दया है?
तो अब म बेचारा ा ण अपनी जीभ कै से रोककर रख सकता ।ँ
( कट) तो या महाराज ने महारानीजी को उवशी नाम लेकर
बुलाया?
चेटी :आय, यह उवशी कौन है?
िवदूषक :यह उवशी एक अ सरा है। उसके दशन से महाराज को ऐसा उ माद-
सा हो गया है क उसके कारण वे न के वल महारानी को दुःख दे रहे
ह, खाना-पीना भूलकर मुझ ा ण को भी बड़ा क दे रहे ह।
चेटी :(मन-ही-मन) ठीक है! महाराज के रह य का भेद तो मने पा िलया।
तो अब चलकर यह सब महारानी को बतला दू।ँ (चलने को तैयार
होती है।)
िवदूषक :िनपुिणका, मेरी ओर से कािशराज क पु ी से कहना क म तो
महाराज को इस मरीिचका से वापस लौटाने का य कर-करके थक
गया। अब तो य द वे आपके मुख-कमल का दशन कर, तभी उनका
मन वापस फर सकता है।
चेटी :जो आय क आ ा। (बाहर जाती है।)
[नेप य म वैतािलक का गीत]
महाराज क जय हो। इन जा क तमोवृि को संसार से हटाने के
िलए आपका और भगवान सूय का अिधकार समान ही है। योितय
का राजा सूय भी आकाश म कु छ समय िव ाम करता है; उसी कार
आप भी दन के छठे भाग म िव ाम का अवसर पाते ह।
िवदूषक :(कान लगाकर सुनता है) अ छा, हमारे ि य िम महाराज धमासन
से उठकर इसी ओर आ रहे ह। ठीक है! तो उ ह के पास प च
ँ ता ।ँ
[ वेशक]
[उ कं ठत राजा और उसके साथ िवदूषक का वेश]
राजा :जब से मने उस देवलोक क सु दरी अ सरा को देखा है, तब से ही
कामदेव के अचूक बाण से बने ए माग ारा वह मेरे दय म िव
हो गई है।
िवदूषक :(मन-ही-मन) तब तो कािशराज क पु ी पर गाज ही िगर पड़ी।
राजा :(भली-भाँित देखकर) य जी, तुमने हमारा रह य तो गु रखा है
न?
िवदूषक :(मन-ही-मन) हाय-हाय, वह दु दासी िनपुिणका मुझे ठग ले गई!
नह तो महाराज मुझसे यह य पूछते?
राजा : य जी, तुम चुप य हो?
िवदूषक :मने जीभ को ऐसा कसकर बाँधा है क आपको भी उ र देते नह
बनता।
राजा :ठीक है! अब यह बताओ क मनोिवनोद के िलए या कया जाए।
िवदूषक :तो चिलए पाकशाला चलते ह।
राजा :वहाँ या होगा?
िवदूषक :वहाँ पाँच कार के पकवान को तैयार होते देखकर हम लोग क
उदासी कु छ बहल जाएगी।
राजा :वहाँ तु हारी मनचाही चीज होने से तु हारा मन तो स हो
जाएगा, पर तु मेरा मन कै से बहलेगा; िजसक चाही चीज कसी
तरह ा ही नह हो सकत ?
िवदूषक :अ छा, यह तो बताइए क उवशीजी ने भी आपको देखा है या नह ?
राजा : य , इसका या होगा?
िवदूषक :मुझे ऐसा लगता है क उसे पाना आपके िलए क ठन नह है।
राजा :सौ दय ने उसके साथ जैसा प पात कया है, वह भी अलौ कक ही
है।
िवदूषक :आपके इस कार कहने से मेरे मन म एक कु तूहल जाग उठा है। या
उवशीजी सु दरता म वैसी ही अनुपम ह, जैसा म कु पता म?
राजा :माणवक, समझ लो क उसके अंग- यंग का वणन कर पाना स भव
नह है। इसिलए सं ेप म कहे देता ;ँ सुनो।
िवदूषक :किहए; म सुन रहा ।ँ
राजा :उसका शरीर आभूषण -का-आभूषण है; शृंगार क िविधय का
शृंगार है; और सौ दय जताने के िलए यु होनेवाले उपमान का
एक नया उपमान है।
िवदूषक :इसीिलए द रस क अिभलाषा से आपने यह चातक का त
धारण कर िलया। अब आप कधर चल रहे ह?
राजा :उदास ि के िलए एका त छोड़कर और कोई शरण नह है। चलो,
मुझे मदवन ले चलो।
िवदूषक :(मन-ही-मन) अब उपाय या है! ( कट) इधर आइए महाराज,
इधर।
[दोन चलने का अिभनय करते ह।]
िवदूषक :यह मदवन आ गया। दि ण पवन ने त को झुकाकर आपका
वागत कया है।
राजा :(सामने देखकर) इस वायु का दि ण (दि ण या िश ) िवशेषण
यथाथ है, य क माधवी लता क शोभा को ेह से स चता आ
और कु द क बेल को नचाता आ अपने ेम और सौज य के कारण
मुझे तो यह दि ण पवन कसी ेमी जैसा ही तीत हो रहा है।
िवदूषक :इसका और आपका ेम एक ही जैसा है। (कु छ चलकर) यह मदवन
है। आइए, इसके अ दर चल।
राजा :चलो, आगे बढ़ो।
[दोन मदवन म घुसने का अिभनय करते ह।]
राजा :(घबराहट का अिभनय करते ए) िम , मने तो मन म सोचा था क
उ ान म प च ँ ने पर मेरी िवपि कु छ कम हो जाएगी, पर यह तो
ठीक उ टा ही आ। अपनी था को शा त करने के िलए यहाँ
उ ान म आकर तो मने ऐसा ही कया, जैसे नदी क धार म बहा जा
रहा ि पानी से बाहर आने के िलए उलटा–बहाव के ितकू ल ही
तैरने लगे।
िवदूषक :वह कै से?
राजा :दुलभ व तु क अ य त ती लालसा से भरे मेरे इस मन को कामदेव
पहले ही जजर कए दे रहा है, और यहाँ उपवन म मलयपवन से
आम के पीले प े झड़ गए ह और उनम नए अंकुर दखाई पड़ रहे
ह। इ ह देखकर मेरे मन को शाि त कै से िमल सकती है?
िवदूषक :महाराज, खेद न क िजए। शी ही यह कामदेव ही आपके मन क
कामना पूरी करने म आपका सहायक बनेगा।
राजा : ा ण का आशीवाद िसर-माथे!
[दोन घूमने का अिभनय करते ह।]
िवदूषक :देिखए, मदवन कतना सु दर हो उठा है! सब ओर वसंत छाया
आ दीख पड़ता है।
राजा :हाँ, एक-एक पौधे को देख रहा ।ँ वह सामने कु रबक का पौधा है,
िजसके फू ल दोन कनार से साँवले और बीच म से ि य के नाखून
के समान लाल ह। उस ओर लाल अशोक का फू ल िखलने को तैयार
ही है। उसक लािलमा कतनी भली तीत हो रही है! आम के पेड़
पर नई मंज रयाँ आ गई ह, िजनक नोक पर पीले-पीले पराग के
कण लगे ए ह। िम , मुझे तो ऐसा लग रहा है, जैसे वस त क
शोभा मु धता और यौवन के बीच म खड़ी ई हो।
िवदूषक :देिखए, उधर वह चमेली क लता का म डप आपको िनमि त-
सा कर रहा है। उसके अ दर मिणिशला क चौक िबछी ई है।
उसके फू ल पर मर के झु ड-के -झु ड गुँजार कर रहे ह। ऐसा तीत
होता है क वह आपका वागत कर रहा है। चिलए, इसे कृ ताथ
क िजए।
राजा :चलो, जैसी तु हारी इ छा।
[थोड़ा चलकर बैठ जाते ह।]
िवदूषक :अब यहाँ आन द से बैठकर इन सु दर लता क छिव िनहारते ए
आप उवशीजी के कारण ई उदासी को भूल जाइए।
राजा :(गहरी साँस लेकर) िम , फू ल के बोझ से दबी जा रही इन उपवन
क लता को देखकर भी उस सौ दय को देखने के िलए अधीर मेरी
आँख को चैन नह िमल रहा है। इसिलए कोई उपाय सोचो, िजससे
मेरी इ छा पूरी हो जाए।
िवदूषक :(हँसकर) जैसे अह या को चाहनेवाले इ को सलाह देते समय
च मा क बुि थ रही थी, उसी कार उवशीजी को पाने के
िलए अधीर आपको सलाह देने म भी मेरी बुि कु छ काम नह कर
रही है।
राजा :ऐसा न कहो। ती ेम काय-साधन का कोई-न-कोई उपाय िनकाल
ही लेता है। अब कोई उपाय सोचो।
िवदूषक :अ छा, सोचता ।ँ पर अब बीच-बीच म हायतोबा मचाकर आप
मेरी समािध म िव न डाल (सोचने का अिभनय करता है।)
राजा :(शुभ शकु न दीखने का अिभनय करके ; मन-ही-मन) वह पूनो के
च मा के समान मुखवाली सु दरी कसी कार सुलभ नह है। फर
भी कामदेव मुझे कु छ भले शकु न दखा रहा है। मेरा मन एकाएक
इस कार शा त हो गया है, जैसे मेरे मन क कामनाएँ अभी पूण हो
जानेवाली ह।
[आशा से भर उठता है।]
[आकाशयान पर बैठी ई उवशी और िच लेखा का वेश]
िच लेखा :सखी, िबना कु छ कारण बताए इस कार कस ओर चली जा रही
हो?
उवशी :( ेम क था का अिभनय करते ए; ल ा के साथ) सखी, जब
हेमकू ट िशखर पर लता क शाखा म व उलझ जाने से मुझे आकाश
म उड़ने म थोड़ा िवल ब हो गया था, तब तो तुमने मेरी हँसी उड़ाई
थी; और अब पूछती हो क कहाँ जा रही ?ँ
िच लेखा :अ छा; तो तुम उस राज ष पु रवा के पास चली हो?
उवशी :और या, अब तो म सारी ल ा यागकर यही करने चली ।ँ
िच लेखा :तो तुमने अपने आगमन क सूचना देने के िलए पहले कसे भेजा है?
उवशी :अपने दय को।
िच लेखा :एक बार फर भली भाँित सोच-समझ लो।
उवशी :सखी, यह तो ेम ही मुझे ख चे िलए जा रहा है। इसम सोच-िवचार
का अवसर ही कहाँ है?
िच लेखा :इससे अिधक म और या क !ँ
उवशी :अ छा, तो उस माग से ले चलो, िजससे हमारे जाते ए बीच म कोई
बाधा न पड़े।
िच लेखा :सखी, इससे िनि त रहो। देवता के गु भगवान बृह पित ने
अपरािजता नाम क जूड़ा बाँधने क िव ा िसखाकर हम ऐसा कर
दया है क देवता के श ु अब हमपर हाथ नह डाल सकते।
उवशी :(सकु चाकर) अरे , यह तो म भूल ही गई थी!
[दोन घूमने- फरने का अिभनय करती ह।]
िच लेखा :सखी, देखो, उधर देखो। यह भगवती भागीरथी और यमुना के संगम
पर िवशेष पिव ए जल म अपना ितिब ब-सा देखता आ उस
राज ष का महल खड़ा है। यह इस सारे ित ान नगर क मुकुटमिण
के समान शोभा दे रहा है। हम दोन इस महल के पास आ ही प च
ँ ी
ह।
उवशी :(चाव से साथ देखकर) यह तो कहना चािहए क वग ही आकर
दूसरी जगह बस गया है। (कु छ सोचकर) सखी, दुिखय पर दया
करनेवाले राज ष इस समय कहाँ ह गे?
िच लेखा :न दनवन के एक भाग के समान सु दर यह मदवन दीख रहा है।
पहले इसम उतरती ह। फर वह से पता करगी।
[दोन नीचे उतरती ह।]
िच लेखा :(राजा को देखकर स ता के साथ) सखी, तो यह राज ष यहाँ बैठे
वैसे ही तु हारी ती ा कर रहे ह, जैसे पहले उ दत होकर च मा
चाँदनी क ती ा कया करता है।
उवशी :(देखकर) सखी, इस समय तो महाराज उससे भी अिधक सु दर दीख
रहे ह, िजतना क थम िमलन के समय दीख पड़े थे।
िच लेखा :ठीक है! आओ, तो फर इनके पास चल।
उवशी :नह , इस तरह पास नह जाऊँगी। ितर क रणी िव ा से अपने-
आपको िछपाकर इनके पास प चँ कर यह सुनूँगी क ये पास बैठे ए
अपने इस िम के साथ एका त म या बातचीत कर रहे ह!
िच लेखा :चलो, जैसी तु हारी इ छा।
[दोन ऐसा ही करती ह।]
िवदूषक :अजी, मने वह उपाय सोच िनकाला, िजससे आपका उस दुलभ
ि यतमा से िमलन हो सकता है।
[राजा चुप रहता है।]
उवशी :(ई यापूवक) कौन है वह ध य ी िजसका जीवन इनके चाहने के
कारण सफल हो गया है?
िच लेखा :सखी, तुम यह या मनु य क सी बात करने लगती हो?
उवशी :सखी, म अपने द भाव से इस रह य को जानने म थोड़ा िहचक
रही ।ँ
िवदूषक :अजी, म कह रहा ँ क मने उपाय खोज िनकाला है।
राजा :तो फर बताओ न।
िवदूषक :आप िन ा का सेवन क िजए, िजससे व म ि यतमा से िमलन हो
सके ; या फर िच फलक पर उवशीजी का िच बनाकर उसे बैठे
देखा क िजए।
उवशी :( स होकर मन-ही-मन) अरे , अनुदार दय, धीरज रख; तस ली
रख।
राजा :ये दोन ही उपाय ठीक नह रहे। य क देखो, मेरा यह दय
कामदेव के बाण से ऐसा बंधा आ है क इसम सदा कसक होती
रहती है। इसिलए व म ि या का िमलन करानेवाली िन ा मुझे
कै से ा य हो सकती है? और िच म भी उस सु दरी ि यतमा को म
पूरा इसिलए नह बना पाऊँगा, य क बीच-बीच म मेरी आँख म
आँसू भर आएँग।े
िच लेखा :सुन ली तुमने इनक बात?
उवशी :सखी, सुन तो ली; पर जी नह भरा।
िवदूषक :मेरी बुि क दौड़ तो यह तक थी।
राजा :(गहरी साँस लेकर) या तो वह मेरी इस अ य त क ठन मनो था को
जानती नह है; या अपने भाव से मेरे ेम को जानकर भी मेरी
अवहेलना कर रही है। उसके साथ िमलन क मेरी इस इ छा को
िन फल और नीरस बनाकर ही अगर कामदेव का जी भरता हो तो
भर ले।
िच लेखा :सखी, सुन िलया तुमने?
उवशी :ओफ-ओफ! ये मुझे ऐसा समझते ह? (सखी क ओर देखकर) सखी,
अब इनके सामने जाकर उ र देना तो मेरे बस का नह । म चाहती ँ
क अपने द भाव से एक भोजप बनाकर उसपर िलखकर उ ह
उ र दे दूग
ँ ी।
िच लेखा :मुझे भी यही ठीक लगता है।
[उवशी ज दी-ज दी हड़बड़ाहट म िलखकर राजा और िवदूषक के
बीच म प फकने का अिभनय करती है।]
िवदूषक :(देखकर और हड़बड़ाकर) हाय रे बाप रे ! यह या बला है? या यह
साँप क कचुली मुझे खाने के िलए आ िगरी है?
राजा :( यान से देखकर और हँसकर) िम , यह साँप क कचुली नह है।
यह तो भोजप पर िलखे ए कु छ अ र से दीख रहे ह।
िवदूषक :अरे , यह भी तो हो सकता है क अदृ य प से खड़ी ई उवशी ने ही
आपके रोने-कलपने को सुनकर आपके -से ही अपने ेम क भी सूचना
देने के िलए यह अ र िलखकर डाल दए ह ।
राजा :मनोरथ क कोई सीमा नह है। (भोजप को उठाकर और पढ़कर
स ता के साथ) िम , तु हारी सूझ ठीक िनकली।
िवदूषक :ही-ही-ही! अजी ा ण के वचन भी कभी झूठे होते ह? तो अब
स हो जाइए। अ छा, इसम या िलखा है, वह भी तो ज़रा
सुनाइए।
उवशी :शाबाश, आप भी अ छे ेमी ह।
राजा :िम , सुनो।
िवदूषक :किहए, म यान से सुन रहा ।ँ
राजा :लो सुनो। ‘ वािमन्, आप मेरे मन क बात नह जानते। य द म
इतना अिधक ेम करनेवाले आपके ित वैसी ही होऊँ, जैसा आपने
मुझे समझा है, तो यह बताइए क सु दर पा रजात क सेज पर लेटने
पर भी न दनवन क पवन मेरे शरीर म लू क तरह य लगती है?’
उवशी :देखती ,ँ अब ये या कहते ह।
िच लेखा :जो कहना था, वह तो मुरझाई ई कमल-नाल जैसे इनके अंग-
यंग ने कह ही दया है।
िवदूषक :यह तो ब त भला आ क भा य से इस उदासी म आपको यह
आ ासन ठीक वैसा ही िमल गया, जैसे भूख लगने पर मुझे ब ढ़या
भोजन िमल जाए।
राजा :इसे आ ासन या कहते हो? यह सु दर अथ को बतलानेवाला मेरी
ि या के तु य अनुराग का सूचक प मुझे तो ऐसा लग रहा है, जैसे
उस मद-भरी आँख वाली ि या का मुख ती ा म खुली पलक वाले
मेरे मुख से आ लगा हो।
उवशी :तब तो यहाँ हम दोन क ही ीित बराबर है।
राजा :िम , अँगुिलय के पसीने से ये अ र खराब हो जाएँगे। मेरी
ि यतमा का यह ह तलेख ज़रा तुम स भाल लो।
िवदूषक :(प को लेकर) िजन उवशीजी ने आपके मनोरथ पर ये फू ल िखलाए
ह, वे अब उनका फल देने म या आनाकानी करगी!
उवशी :सखी, इनके समीप जाते ए मेरा दय कु छ डर रहा है। जब तक म
अपने िच को शा त करती ,ँ तब तक तू इनके स मुख कट होकर
मेरी ओर से जो भी उिचत हो वह कह दे।
िच लेखा :ठीक है। (ितर क रणी को हटाकर राजा के पास प च ँ कर) महाराज
क जय हो!
राजा :(देखकर और स होकर) वागत है आपका (उसके आस-पास
देखकर) भ ,े िबना अपनी सखी को साथ िलए आप दृि -गोचर ई
ह, इससे मुझे पूरा आन द नह हो रहा, जैसे संगम पर गंगा के िबना
पहले-पहल यमुना को देखकर पूरा आन द नह आता।
िच लेखा :पहले मेघमाला दखाई पड़ती है और उसके बाद िबजली क चमक।
िवदूषक :(मुँह के सामने आड़ करके ) अ छा! तो ये उवशीजी नह ह! ये उनक
ि य सखी ही ह।
राजा :यह आसन है; आइए बै ठए।
िच लेखा :उवशी िसर झुकाकर महाराज से िनवेदन करती है।
राजा : या आ ा देती है?
िच लेखा :कहती है क उस समय दानव ारा कए गए उ पात म महाराज ने
ही मुझे शरण दी थी। उस समय आपके दशन करके मेरे मन म आपके
ित ती ेम उ प हो गया है। अब महाराज फर मुझपर दया
कर।
राजा :हे शुभवचने, तुम उस सु दरी को मेरे िलए बेचैन बतला रही हो,
क तु उसके िलए आतुर इस पु रवा को तुम नह देखत ? यह ती
ेम तो दोन ओर ही एक समान है। तपा आ लोहा ही तपे ए लोहे
के साथ जुड़ने यो य होता है।
िच लेखा :(उवशी के पास जाकर) सखी, आओ; तुमसे भी अिधक ती तु हारे
ि यतम के ेम को देखकर उसक दूती बनकर म तु हारे पास आई
।ँ
उवशी :(ितर क रणी को हटाकर) यह या, तू मेरा यान न रखकर मुझे
छोड़कर चली गई?
िच लेखा :(मु कराकर) सखी, अभी कु छ ही देर म पता चल जाएगा क कौन
कसको छोड़ता है! पहले महाराज को अिभवादन तो कर लो।
उवशी :(हड़बड़ाहट के साथ राजा के पास जाकर णाम करके ल ा के
साथ) महाराज क जय हो!
राजा ( स ता के साथ) सु दरी, सचमुच ही मेरी जय ई समझो; य क
:तुमने मेरे िलए ‘जय’ श द कहा है और इससे पहले तुमने इ के
िसवाय और कसी पु ष के िलए यह श द नह कहा।
[हाथ से पकड़कर उसे अपने पास िबठाता है।]
िवदूषक : य जी, या बात है? आपने महाराज के ि य िम ा ण को
नम कार नह कया?
[उवशी मु कराकर णाम करती है।]
िवदूषक :आपका क याण हो!
[नेप य म देवदूत]
िच लेखा! उवशी को ज दी लेकर आओ; ज दी करो! भरत मुिन ने
आठ रस से यु जो नया नाटक आपको िसखाया है, उसके सु दर
अिभनय को लोकपाल -समेत देवराज इ आज देखना चाहते ह।
[सब कान देकर सुनते ह। उवशी िवषाद का अिभनय करती है।]
िच लेखा :सखी, तुमने देवदूत का वचन सुन िलया न? तो अब महाराज से िवदा
लो।
उवशी : या क ँ ? मेरी जीभ ही नह खुलती।
िच लेखा :महाराज, उवशी िनवेदन करती है क हम लोग पराधीन ह। य द
महाराज अनुमित दे द तो म इस समय चली जाऊँ और देवता के
स मुख अपराधी िगनी जाने से बच जाऊँ।
राजा :(जैसे-तैसे अपनी वाणी को वश म करके ) आप लोग को म आपके
वामी क आ ा का उ लंघन करने को नह कह सकता। फर भी
हम याद अव य रिखएगा।
[उवशी िवयोग के दुःख का अिभनय करती ई राजा क ओर
देखती ई सखी के साथ चली जाती है।]
राजा :(गहरी साँस लेकर) िम , ऐसा लगता है क अब मेरी दोन आँख
थ हो गई ह।
िवदूषक :(प दखाने क इ छा करके ) यह है न! (इतना बोलकर बीच म ही
िवषाद के साथ मन-ही-मन) हाय-हाय, उवशी के दशन से म तो
इतना च कत हो गया क मुझे यह भी याल न रहा क वह भोजप
मेरे हाथ से कब िगर पड़ा।
राजा : य िम , या कहना चाहते हो?
िवदूषक :यही कहने लगा था क अब आप हताश न ह । य क उवशी भी
आपसे ेम करती है और वह इस ेम म ढील न आने देगी।
राजा :मेरा मन भी यही कहता है। उसके शरीर पर तो उसका अपना वश
था नह , क तु दय पर उसका वश अव य था। सो, जाते समय वह
अपने उस दय को गहरी साँस लेने के कारण कि पत होते ए तन
ारा मुझे स प-सी गई है।
िवदूषक :(मन-ही-मन) मेरा दय तो यह सोच-सोचकर काँप रहा है क बस
अब महाराज उस भोजप का नाम लेने ही वाले ह।
राजा :िम , अब अपनी दृि को कस तरह बहलाऊँ? ( मरण-सा करके )
हाँ, ज़रा मुझे वह भोजप तो देना।
िवदूषक :(सब ओर देखकर, िवषाद कट करते ए) ओह, वह तो कह दीख
नह रहा। अजी, वह तो द भोजप था। उवशी जी के ही साथ
चला गया।
राजा :(खीझकर) मूख कह के ! तुम सदा ऐसी लापरवाही करते हो। जाओ,
ढू ँढ़ो उसे।
िवदूषक :(उठकर) शायद इधर पड़ा हो! देखूँ कह उधर न हो! उस ओर तो
नह है! (इस कार भोजप को ढू ंढ़ने का अिभनय करता है।)
[अपनी अनुच रय के साथ कािशराज क पु ी महारानी और
दासी का वेश।]
महारानी :अरी िनपुिणका, तूने स य ही कहा था क तूने आय माणवक के साथ
आयपु को इस लता-गृह म िव होते देखा था?
िनपुिणका :नह तो या, मने पिहले कभी महारानी को झूठी सूचना दी है?
महारानी :अ छा, म लता क आड़ म खड़ी होकर सुनती ँ क ये या बात
कर रहे ह। पता चल जाएगा क तूने जो कहा, वह स य है या नह ।
िनपुिणका :जैसी आपक इ छा!
महारानी :(थोड़ा चलकर और आगे क ओर देखकर) अरी िनपुिणका, यह पुराने
कपड़े जैसी या चीज़ दि ण वायु म उड़ी इधर आ रही है?
िनपुिणका :(अ छी तरह देखकर) महारानीजी, यह तो भोजप है। हवा म
उड़ता उ टा-सीधा होकर आ रहा है। पर ऐसा लगता है क इसपर
कु छ अ र िलखे ए ह। अरे , यह आकर आपके िबछु ए क नोक म ही
अटक गया। (उठाकर) लीिजए, इसे पढ़ लीिजए?
महारानी :तू ही पढ़। य द यह अनुिचत न होगा, तो सुन लूँगी।
िनपुिणका :(पढ़कर) यह तो वही ेम- ापार मालूम होता है। मुझे तो लगता है
क महाराज को ल य करके उवशी ने ही यह का -रचना क है।
आय माणवक क लापरवाही से यह हमारे हाथ म आ पड़ा है।
महारानी :तब तो म अव य सुनूँगी।
[िनपुिणका पढ़कर सुनाती है।]
महारानी :(सुनकर) अ छा, तब तो यही उपहार लेकर अ सरा पर लट् टू
होनेवाले महाराज के दशन क ँ गी।
िनपुणका :ठीक है।
[अनुच रय के साथ लता-म डप क ओर जाती ह।]
िवदूषक :(सामने क ओर देखकर) िम , वह देखो; उधर मदवन के पास म
ड़ा पवत के छोर पर हवा म या उड़ा जा रहा है?
राजा :(उठकर) हे वस त के ि य दि ण पवन, य द तु ह सुवास के िलए
कु छ चािहए ही तो इन लता के फू ल के पराग को ले लो। मेरी
ि यतमा ारा ेमपूवक िलखे गए इस प को लेने से तु हारा या
काम िस होगा? तुमने भी तो कभी अंजना से ेम कया था;
इसिलए तुम अव य जानते होगे क ेमी लोग इसी कार के छोटे-
मोटे मनोिवनोद ारा अपना समय िबताया करते ह।
िनपुिणका :महारानीजी, देिखए-देिखए; यह इसीक खोज हो रही है।
महारानी :ठीक है, देखती ।ँ ज़रा चुपचाप खड़ी रह।
िवदूषक :(िवषाद के साथ) हाय रे , ध ेरे क ! यह तो मोर का पँख है, िजसका
रं ग मैला पड़ गया है। इसीसे मुझे धोखा हो गया।
राजा :तब तो मर ही गए।
महारानी :(एकाएक प चँ कर) आयपु , घबराइए नह , वह भोजप यह रहा।
राजा :(हड़बड़ाकर), अरे महारानी ह! महारानी का वागत है!
िवदूषक :(ओट करके ) इस समय तो दुरागत ही आ समझो।
राजा :(धीरे से) िम , अब या कया जाए?
िवदूषक :(ओट करके ) लूट के माल के साथ पकड़ा गया चोर जवाब ही या दे
सकता है?
राजा :(धीरे से) मूख, यह प रहास का समय नह । ( कट) महारानी, म इसे
नह ढू ँढ़ रहा था। हम लोग तो कु छ और ही ढू ँढ़ रहे थे।
महारानी :ठीक है, आपको अपने सौभा य को िछपाना ही चािहए।
िवदूषक :महारानीजी, ज दी से इनके भोजन का ब ध क िजए, िजससे
इनका िप कु छ कम हो।
महारानी :िनपुिणका, देख तो इस ा ण ने अपने िम को बचाने का या
सु दर उपाय िनकाला है!
िवदूषक :महारानीजी, आप तो वयं जानती ह क भोजन से तो िपशाच तक
भी शा त हो जाते ह।
राजा :मूख, मुझे य ही बेबात अपराधी ठहराए दे रहा है।
महारानी :आपका अपराध नह है; अपरािधनी तो म ही ,ँ जो आपके न चाहते
आपके सामने आकर खड़ी ।ँ अ छा लीिजए, म चली जाती ।ँ
िनपुिणका, आ चल। ( ोध का अिभनय करते ए चल पड़ती है।)
राजा :(उसके पीछे जाकर) हे सु दरी, म ही अपराधी ।ँ तुम इस कार
ोध न करो। य क जब से वामी कु िपत हो गया हो, तो दास
िनरपराध कै से हो सकता है?
[पैर पर िगर पड़ता है।]
महारानी :(मन-ही-मन) म इतनी छोटे दलवाली नह ँ क इस अनुनय-िवनय
के झाँसे म आ जाऊँ। क तु मुझे डर यही लग रहा है क य द इस
समय कु छ उ टा-सीधा कठोर वहार कर बैठँू गी, तो उसके िलए
बाद म पछतावा मुझे ही होगा।
[राजा को छोड़कर सब अनुच रय -समेत चली जाती है।]
िवदूषक :बरसाती नदी क भाँित मिलनमुख होकर महारानी तो चली गई,
अब आप उ ठए।
राजा :(उठकर) िम , यह जो कु छ आ, कु छ गलत नह आ। य क ेमी
लोग िबना स े ेम के ि य से चाहे कतने ही मीठे श द म
अनुनय-िवनय य न कर, क तु वह अनुनय-िवनय ि य के मन म
पैठती ही नह । ठीक वैसे ही जैसे ऊपर से चढ़ाया आ रं ग मिण के
अ दर तक नह पैठता और कु शल जौहरी उसे चट पहचान लेते ह।
िवदूषक :चिलए, यह भी आपके िलए भला ही आ! य क आँख दुखनी आई
ह तो सामने जलती दीप-िशखा भी अ छी नह लगती।
राजा :नह , ऐसा न कहो। यह ठीक है क इस समय मेरा मन उवशी म लगा
आ है, फर भी म महारानी का पहले िजतना ही आदर करता ।ँ
क तु य क आज इ ह ने मेरे अनुनय-िवनय क भी उपे ा कर दी,
इसिलए अब म कु छ समय के िलए चु पी साध जाऊँगा।
िवदूषक :अजी, आप चु पी को छोिड़ए एक ओर। पहले कसी तरह भूख से
कु लबुलाते ए मुझ ा ण के ाण क र ा क िजए। अब ान और
भोजन का समय हो चुका है।
राजा :(ऊपर क ओर देखकर) अरे , आधा दन समा हो चुका! इसीिलए
गम से घबराया आ मोर पेड़ क जड़ के आसपास बने थांवले क
ठ डक म बैठा आ है; भ रा कनेर क किलय का मुख खोलकर
उसम िछपने का य कर रहा है; यह कार डव प ी तालाब के गम
पानी को छोड़कर कनारे पर लगी ई कमिलनी क छाया म जा
बैठा है; और हमारे ड़ागार म पंजड़े म बैठा आ यह तोता यास
से ाकु ल होकर पानी माँग रहा है।
[दोन बाहर जाते ह।]
तीसरा अंक

[भरत मुिन के दो िश य का वेश।]


गालव :िम पेलव, देवराज इ के भवन म जाते ए गु जी ने तो तु ह
अपना आसन थमाकर साथ चलने को कहा था और मुझे यहाँ हवन-
य इ या द का काम यथोिचत रीित से करते रहने को दया था।
इसीसे पूछता ँ क गु जी के नाटक को देखकर देवता क सभा
स ई या नह ?
पेलव :गालव भाई, यह तो म नह जानता क सभा स ई या नह ,
पर तु वहाँ ल मी वयंवर नामक नाटक म सर वती ारा बनाए
गए गीत को सुनकर सारी सभा उन गीत के रस म पूरी तरह म
हो जाती थी। ले कन...
गालव :तु हारे अधूरे वा य म ऐसा लगता है क जैसे कु छ कसर भी रह गई
थी?
पेलव :हाँ, कसर यह रह गई थी क नाटक म उवशी असावधानी से कु छ-
का-कु छ बोल गई।
गालव :वह या?
पेलव :ल मी क भूिमका म अिभनय करती ई उवशी से वा णी क
भूिमका म अिभनय करती ई मेनका ने जब यह पूछा क ‘सखी,
यहाँ ये तीन लोक के े पु ष और के शव-समेत सारे लोकपाल
आए ए ह, इनम से तु ह कौन सबसे अ छा लगता है’...
गालव :तब या आ?
पेलव :उवशी को कहना चािहए था क ‘पु षो म’; पर उसके मुँह से
िनकला ‘पु रवा’।
गालव :जो कु छ होना होता है, उसके अनुसार ही मनु य क इि याँ भी
काम करने लगती ह। इस बात से गु जी उसपर नाराज़ नह ए?
पेलव :गु जी ने तो उसे शाप दे दया था, पर तु इ ने फर उसपर कृ पा
कर दी।
गालव :वह कै से?
पेलव :गु जी ने उसे शाप दया था क “ य क तूने मेरे उपदेश का
उ लंघन कया है, इसिलए तू देवलोक म नह रह सके गी।’ इसपर
नाटक क समाि पर जब वह ल ा से िसर झुकाए खड़ी थी, तब
इ ने उससे कहा क यु म मेरी सहायता करनेवाले िजन राज ष
से तुम ेम करती हो, उनका भी कु छ ि य काय करना ही चािहए।
तो अब तुम तब तक पु रवा के पास जाकर मनमाने ढंग से रह
सकती हो, जब तक क तु हारी और उनक स तान न हो जाए।
गालव :दूसर के दय क बात जाननेवाले देवराज इ को यही शोभा देता
है।
पेलव :(सूय क ओर देखकर) अरे , इस बातचीत के िसलिसले म तो हम भूल
ही गए क गु जी के ान का समय बीता जा रहा है–तो आओ,
ज दी से गु जी के पास प च ँ े।
[दोन बाहर जाते ह।]
[िम िव क भक]
[कं चुक का वेश]
कं चुक :(गहरी साँस लेकर) कु टु बवाले सभी गृह थी लोग अपनी जवानी के
दन म धन कमाने के िलए य करते ह। उसके बाद कु टु ब का
भार पु पर छोड़कर अपने-आप िव ाम करने लगते ह। पर तु
हमारी यह दशा है क इस ित ा को बनाए रखने के िलए हम
ित दन चाकरी करनी पड़ती है। सचमुच ही ि य क सेवा करने
का काम ब त ही क दायक होता है। (थोड़ा चलकर) कािशराज क
पु ी महारानी ने त धारण कया आ है और मुझे आदेश दया है
क अपने त को पूरा करने के िलए मान को यागकर िनपुिणका
ारा महाराज से पहले भी याचना क थी; पर अब आप ही मेरी
ओर से महाराज को सूचना दे आइए। अ छा, अब तक महाराज
स या के जाप इ या द से िनवृ हो चुके ह गे। तो चलकर उनके
दशन करता ।ँ (थोड़ा चलकर और सामने देखकर) आहा! राजमहल
म दवस के अवसान का काल भी ब त रमणीय होता है। यहाँ रात
के समय आनेवाली न द के कारण अपने-अपने अड् ड पर आल य से
भरकर बैठे ए मोर ऐसे दखाई पड़ रहे ह, मानो प थर म खोदकर
बनाए गए ह । कबूतर के बैठने के टा ड म से होकर धुएँ क घूंघर
ऊपर को उठ रही ह, िजनके कारण यह पता ही नह चलता क
कबूतर बैठे भी ह या नह । राजा के रिनवास म रहनेवाले वृ लोग
िनयमानुसार फू ल से सजे ए महल म थान- थान पर स या के
जगमगाते मंगल-दीप जला रहे ह। (नेप य क ओर देखकर) अरे , यह
तो महाराज इसी ओर आ रहे ह! इ ह चार ओर से घेरकर वे
दािसयाँ चल रही ह, िज ह ने अपने हाथ म जलते ए दीप िलए
ए ह। इस समय ऐसे सु दर दीख रहे ह, मानो िबना पँख वाला कोई
पहाड़ चला आ रहा हो, और उसके कनारे - कनारे कनेर के फू ल
िखले ए ह । अ छा; तो यहाँ ऐसी जगह खड़ा होकर इनक ती ा
करता ,ँ जहाँ से गुज़रते ए ये मुझे देख सक।
[थोड़ा-सा चलकर खड़ा हो जाता है।]
[ऊपर बताए अनुसार राजा और िवदूषक का वेश]
राजा :(मन-ही-मन) ओफ! दन म तो दूसरे काम म लगे रहने के कारण
उदासी कु छ बहली रही और दन जैसे-तैसे बीत गया; पर रात के इन
ल बे-ल बे पहर म तो मनोिवनोद का कोई साधन नह है। अब यह
रात कै से बीतेगी?
कं चुक :(पास जाकर) महाराज क जय हो! महाराज, महारानीजी ने
कहलवाया है क र -महल क छत पर से च मा अ छा दखाई
पड़ता है, इसिलए मेरी इ छा है क जब च मा और रोिहणी का
संयोग हो, उस समय महाराज के साथ खड़ी होकर उसके दशन क ँ ।
राजा :आय लात , महारानी से कह दो क जो वे चाहती ह, वही होगा।
कं चुक :जो महाराज क आ ा! (बाहर जाता है।)
राजा :िम , या महारानी ने यह सारी धूमधाम सचमुच ही त के िलए
क है?
िवदूषक :मुझे तो ऐसा लगता है क उ ह ने उस समय जो आपके अनुनय-
िवनय क उपे ा कर दी थी, उसीके िलए बाद म प ा ाप आ
होगा; और अब इस त के बहाने से वे अपने उस दोष को प छ
डालना चाहती ह।
राजा :तुम ठीक कहते हो; य क जो मािननी ि याँ ठकर अपने ि य के
अनुनय-िवनय का ितर कार कर देती ह, वे बाद म उसी अनुनय-
िवनय क याद करके मन-ही-मन ब त दुःखी आ करती ह। अ छा,
तो अब र -महल क छत पर मुझे ले चलो।
िवदूषक :ठीक है, इधर से आइए। ये फ टक मिणय से बनी ई सी ढ़याँ ह,
जो देखने म गंगा क तरं ग के समान सु दर ह। इन पर चढ़कर आप
र -महल क छत पर चिलए। र -महल क छत सायंकाल के समय
ब त ही रमणीय हो उठती है।
राजा :ठीक है। आगे-आगे चलो।
[सब सी ढ़य पर चढ़ने का अिभनय करते ह।]
िवदूषक :(चार ओर देखभालकर) अजी, अब बस च ोदय होने ही वाला
होगा; य क पूव दशा म अ धेरा फट चला है और काश झलकने
लगा है।
राजा :तु हारा िवचार िबलकु ल ठीक है। अभी च मा उदय नह आ है,
क तु होने ही वाला है। उसक करण से अ धेरा दूर-दूर तक परे हट
गया है। इससे पूव दशा का मुख ऐसा नयनािभराम हो उठा है,
मानो उसने मुख के सामने से अलक समेटकर पीछे क ओर बाँध ली
ह।
िवदूषक :(सामने देखकर) अहा-हा-हा! अजी वह देिखए, वह कै सा खा ड के
लड् डू जैसा ा ण का राजा च मा उ दत हो रहा है!
राजा :(मु कराकर) पेटू आदमी को सब जगह खाने-पीने क चीज़ ही सूझती
ह । (हाथ जोड़कर णाम करके ) हे भगवान िनशानाथ, आपका
स न क धा मक या म सूय के साथ-साथ मरण कया जाता
है। आप देवता और िपतर को अमृत ारा तृ करते ह। आप राि
म सब ओर छा जानेवाले अ धकार कर नाश करनेवाले ह। आपका
िनवास महादेव क जटा के ऊपर है। आपको णाम हो!
[च मा क पूजा करता है।]
िवदूषक :अजी, आपके दादा च मा मुझ ा ण के मुख से आपको यह
अनुमित दे रहे ह क आप चलकर आसन पर बैठ जाएँ, िजससे म भी
आराम से बैठ सकूँ ।
राजा :(िवदूषक के कथनानुसार बैठकर, दािसय क ओर देखकर) जब सब
ओर चाँदनी िछटक ई है, तो इन दीपक का या लाभ है? आप भी
जाइए और िव ाम क िजए।
दािसयाँ :जैसी आपक आ ा। (बाहर जाती ह।)
राजा :(च मा क ओर देखकर िवदूषक से) िम , अभी महारानी के आने म
थोड़ी देर है। तो इस एका त म म तु ह अपनी दशा ही सुनाऊँ।
िवदूषक :वह तो दीख ही रही है! क तु उसके उस कार के ेम को देखकर
आशा के सहारे कु छ-न-कु छ धीरज मन म रखा जा सकता है।
राजा :यह ठीक है; पर तु मेरे मन म बड़ी ती था है। जैसे नदी का वाह
िवषम िशला से टकराकर और सौ गुने वेग से बहने लगता है, उसी
कार िमलन के सुख म बाधाएँ आ पड़ने पर अिभलाषा भी सौ गुनी
हो उठती है।
िवदूषक :आप दन दन दुबल होकर ऐसे सु दर दीखने लगे ह क अब आपका
अपनी ि यतमा से िमलन ब त दूर नह जान पड़ता।
राजा :(शुभ शकु न दीखना जताकर) िम , जैसे तुम अचानक बात कह-
कहकर मेरी ती था को कम करना चाहते हो, उसी तरह मेरा यह
दायाँ हाथ भी फड़क-फड़कर मुझे कु छ सा वना-सी दे रहा है।
िवदूषक : ा ण का वा य कभी झूठा नह होता!
[राजा आशा से भरकर बैठा रहता है।]
[आकाश-यान पर बैठी ई अिभसा रका का वेश धारण कए
उवशी और िच लेखा का वेश।]
उवशी :(अपने ऊपर दृि डालकर) य सखी िच लेखा, देख, आज मने ये
ब त थोड़े-से आभूषण पहने ह और नीला व धारण कया है। तुझे
मेरा यह अिभसा रका-वेश पस द आया?
िच लेखा :सखी, मुझम इतना वचन-चातुय नह है क म सौ दय क पूरी
शंसा कर सकूँ । पर मेरे मन म यह आता है, कसी तरह म ही
पु रवा बन जाऊँ!
उवशी :सखी, कामदेव क यह आ ा समझो; और मुझे ज दी-से-ज दी उस
ि य के नगर म ले चलो।
िच लेखा :(सामने देखकर) यह लो, दूसरे कै लास िशखर के समान बने ए
तु हारे ि यतम के महल पर हम दोन आ प च ँ ी ह।
उवशी :अ छा, तो अब अपने द भाव से यह पता चलाओ क वह मेरे
दय का चोर कहाँ है और या कह रहा है।
िच लेखा :( यान लगाकर हँसते ए मन-ही-मन) अ छा; ज़रा इससे खेल ही
क ँ ! ( कट) सखी, मने देख िलया है। इस समय वे अपनी मनचाही
ि यतमा के साथ बैठे आन द मना रहे ह।
उवशी :(िवषाद का अिभनय करती है। गहरी साँस लेकर) ध य है वह
भा यवती, जो ऐसी हो!
िच लेखा :अरी भोली, तुझे छोड़कर और दूसरी कस ि या से िमलने क बात वे
सोचगे?
उवशी :(ल बी साँस छोड़कर) सखी मेरा भोला-भाला दय तो यही स देह
कर बैठा था।
िच लेखा :(सामने देखकर) यह राज ष पु रवा र -महल क छत पर के वल
अपने िम के साथ बैठे ए ह। तो आओ न, इनके पास प च
ँ ।े
[दोन उतरती ह।]
राजा :िम , य - य रात बढ़ रही है, य - य मेरी ेम क था भी बढ़
रही है।
उवशी :इनक बात का अथ कु छ प नह है, इसिलए मेरा दय काँप रहा
है। कु छ देर िछपे रहकर ही इनके इस िनि त वातालाप को सुनती
ह, िजससे हमारा स देह िमट जाए।
िच लेखा :जैसी तु हारी इ छा।
िवदूषक :महाराज, अमृत से भरी ई इन च मा क करण का आन द
लीिजए।
राजा :िम , इस कार क व तु से यह पीड़ा शा त होनेवाली नह है।
देखो, इस समय मेरी इस ेम क था को न तो ताज़े फू ल से बनी
ई सेज ही शा त कर सकती है, न च मा क करण। सारे शरीर
पर च दन का लेप करने से भी यह शा त नह होगी और न मोितय
क माला से। इस था को तो या तो वही देवलोक म रहनेवाली दूर
कर सकती है या...
उवशी :(छाती पर हाथ रखकर) या दूसरी कौन?
राजा :...या एका त म उसके िवषय म बातचीत करने से भी यह कु छ कम
हो सकती है।
उवशी : दय, तुम मुझे छोड़कर उनके पास प च ँ गए, उसका फल तु ह
सचमुच ा हो गया।
िवदूषक :हाँ, मुझे भी जब माँगने पर भी ब ढ़या मीठे ह रणी के माँस से बना
आ भोजन नह िमलता, तब म भी उसका नाम ले-लेकर ही अपना
दल बहलाया करता ।ँ
राजा :पर तु ह यह िमल तो जाता है न?
िवदूषक :आपको भी वह ज दी ही ा होगी।
राजा :िम , मुझे तो ऐसा लगता है...
िच लेखा :अरी अस तु ,े सुन।
िवदूषक :कै सा लगता है?
राजा :रथ के काँपने से मेरा यह क धा उसके क धे से टकराया था, इसिलए
सारे शरीर म के वल इतना अंग ही ध य है; बाक शरीर तो भूिम का
भार-मा है।
िच लेखा :सखी, अब कसिलए देर करती हो?
उवशी :(एकाएक पास प च ँ कर) सखी, म सामने खड़ी ,ँ फर भी महाराज
मेरे ित उदासीन-से दीखते ह।
िच लेखा :(मु कराकर) ज दबाज ही तुम इतनी हो क तुमने अपनी
ितर क रणी तो हटाई ही नह है।
[नेप य]
इधर से आइए महारानी, इधर से।
[सब कान देकर सुनते ह। उवशी और उसक सखी दोन िवषाद से
भर जाती ह।]
िवदूषक :(आ य के साथ) अजी, महारानी आ रही ह, इसिलए ज़रा चुप
होकर ही बै ठए।
राजा :तुम भी शा त होकर बैठ जाओ।
उवशी :सखी, अब या कया जाए?
िच लेखा :घबराओ मत, इस समय हम दोन अदृ य ह। राज ष को महारानी
का वेश त धारण करनेवाल का सा दीखता है; इसिलए यह देर
तक यहाँ के गी नह ।
[पूजा क साम ी िलए ए दािसय और उनके साथ महारानी
तथा चेटी िनपुिणका का वेश]
महारानी :(घूमकर च मा को देखकर) अरी िनपुिणका, रोिहणी के िनकट होने
के कारण भगवान च मा कै से सुशोिभत हो रहे ह?
चेटी :वैसे ही जैसे महारानीजी के साथ होने पर महाराज िवशेष सु दर
दीख पड़ते ह।
[दोन आगे चलती ह।]
िवदूषक :(देखकर) अजी, मुझे तो यह समझ नह पड़ रहा है क महारानी मुझे
भट-पूजा देने आ रही ह; या उस दन आपके अनुनय-िवनय को
टालकर जो चली गई थ , आज त के बहाने से सारा मान छोड़कर
उसी दोष को प छने क इ छा से आ रही ह। कु छ भी हो, आज
महारानी मुझे देखने म भली लग रही ह।
राजा :(मु कराकर) दोन ही बात ठीक ह। फर भी तुमने जो बात बाद म
कही, वह मुझे भी सच लग रही है, य क इस समय ये महारानी
ेत व धारण कए के वल सौभा य के आभूषण को पहने और
बाल म पिव दूवा के अंकुर लगाए आ रही ह। इनके शरीर को
देखकर ही यह पता चल जाता है क त के बहाने से ये अपना मान
छोड़कर मुझपर स हो उठी ह।
महारानी :(पास जाकर) आयपु क जय हो!
दािसयाँ :महाराज क जय हो!
िवदूषक :आपका क याण हो!
राजा :महारानी का वागत है। (उसे हाथ से पकड़कर पास िबठाता है।)
उवशी :सखी, इसके िलए ‘महारानी’ श द का योग ठीक ही है। यह तेज म
कसी कार शची से कम थोड़े ही है।
िच लेख :तुमने ई या को छोड़कर स ी बात कही है।
महारानी :आयपु को साथ लेकर म एक िवशेष त को पूरा करना चाहती ;ँ
इसिलए आपको कु छ देर क सहन करना होगा।
राजा :ऐसा न कहो। यह क नह , यह तो तु हारी कृ पा है।
िवदूषक :इस तरह क भट-पूजा से भरा आ क बार-बार हो तो अ छा है।
राजा :जो त कर रही हो, उसका नाम या है?
[महारानी िनपुिणका के मुँह क ओर देखती है।]
िनपुिणका :महाराज, इस त का नाम ि य-अनु सादन (ि य को स करने
का त) है।
राजा :(महारानी क ओर देखकर) य द यह बात है तो सु द र, इस त
ारा तुम अपने मृणाल के समान कोमल शरीर को थ ही क दे
रही हो; य क यह जो तु हारा दास उ सुकता से तु हारी कृ पा का
आकां ी है, उसको स करने के िलए तुम य य करती हो?
उवशी :ये तो इससे ब त ेम करते ह।
िच लेखा :अरी भोली, जो लोग दूसरी ि य से ेम करने लगते ह, वे अपनी
पि य के साथ और भी अिधक ेम का दशन करते ह।
महारानी :(मु कराकर) यह इस त के धारण करने का ही भाव है क
आयपु ने ऐसी मीठी बात तो कह ।
िवदूषक :महाराज, आप चुप ही रिहए। अ छी कही गई ि य बात का उ र
देना ठीक नह होता।
महारानी :लड़ कयो, पूजा क साम ी लाओ, िजससे र -महल क छत पर
पड़ती ई च मा क करण का पूजन कर डालूँ।
दािसयाँ :जो महारानी क आ ा। यह सुगि धत फू ल इ या द पूजा-साम ी है।
महारानी :यहाँ ले लाओ। (ग ध, पु प इ या द ारा च मा क करण क
पूजा करती है) अरी िनपुिणका, पूजा के इन ल डु को आय
माणवक को दे दे।
िनपुिणका :जो महारानी क आ ा! आय माणवक, ये तु हारे िलए ह।
िवदूषक :(लड् डु क त तरी को लेकर) आपका क याण हो। आपके इस त
का खूब ब ढ़या फल िमले।
महारानी :आयपु , आप ज़रा इधर आइए।
राजा :लो, यह म आ गया।
महारानी :(राजा क पूजा का अिभनय करके हाथ जोड़कर णाम करके ) आज
यह म देव-युगल रोिहणी और च मा को सा ी बनाकर आयपु को
स करती ।ँ आज से आयपु िजस ी क कामना कर और जो
ी आयपु से ेम करती हो, उसके साथ म ेमपूवक वहार
क ँ गी।
उवशी :अरे , न जाने यह कसको ल य करके यह सब कह रही है! पर इससे
मेरे दय को कु छ तो सा वना िमल गई।
िच लेखा :सखी, इस उदार िच वाली पित ता क अनुमित िमल जाने के
कारण अब अपने ि य से िमलने म तु ह कोई बाधा न होगी।
िवदूषक :(ओट करके ) जब मछली हाथ म से िनकलकर भाग जाती है, तब
िन पाय होकर धीवर यही कहता है क ‘अ छा जा, तुझे छोड़ने से
मुझे पु य िमलेगा।’ ( कट) महारानीजी, या महाराज आपको इतने
ि य ह?
महारानी :मूख, म तो अपने सुख क बिल देकर भी आयपु को सुखी देखना
चाहती ।ँ इसीसे समझ ले क वे मुझे ि य ह या नह ?
राजा :महारानी, तुम वािमनी हो। चाहे मुझे कसी और को दे डालो या
अपना दास बनाकर रख लो, पर तु तु हारे ित मेरे मन म वैसा
भाव नह है जैसा क तुम मुझे समझ रही हो।
महारानी :हो या न हो; मने तो िविध के अनुसार ि य-अनु सादन त पूरा कर
दया है। आओ री लड़ कयो, चल।
[बाहर जाने को होती ह।]
राजा :ि ये, तुम मुझे इस तरह छोड़कर चली जा रही हो; यह तो मुझे स
करना न आ।
महारानी :आयपु , म कभी त का उ लंघन नह कया करती।
[दािसय -समेत बाहर जाती है।]
उवशी :सखी ये, राज ष अपनी रानी से ब त ेम करते ह, फर भी म इनक
ओर से अपने दय को लौटा नह पा रही ।ँ
िच लेखा :तो या अब तुम िनराश होकर लौटना चाह रही हो?
राजा :(आसन के पास आकर) िम , अभी महारानी दूर तो नह गई ह गी?
िवदूषक :अजी, आपने जो कु छ भी कहना है बे फ होकर किहए। जैसे वै
रोगी को असा य समझकर छोड़ बैठता है, उसी कार महारानी ने
भी आपको वत छोड़ दया है।
राजा :काश आज उवशी...
उवशी :...आज कृ ताथ हो सकती।
राजा : वयं िछपी रहकर भी अपने नूपुर का मधुर श द मेरे कान म डाल
दे; या पीछे से आकर धीरे से मेरी आँख को अपने कर-कमल से मूँद
ले। इस महल पर उतरकर घबराहट के कारण वह धीमे-धीमे चलती
हो; और उसक चतुर सखी उसे बलपूवक पकड़कर मेरे पास ख च
लाए।
िच लेखा :सखी उवशी, अब इनके इस मनोरथ को तो पूरा कर दो।
उवशी :(घबराते ए) अ छा, ज़रा खेल ही क ँ गी। (ितर क रणी को
हटाकर पीछे जाकर राजा क आँख मूँद लेती है।)
[िच लेखा ितर क रणी को हटाकर िवदूषक को इशारा करती है।]
िवदूषक :अजी महाराज, किहए ये कौन ह?
राजा :(छू कर पहचानने का अिभनय करते ए) िम , यह तो वही सु दरी
है, जो नारायण मुिन क जाँघ से उ प ई थी।
िवदूषक :यह आप कै से जानते ह?
राजा :इसम जानने क या बात है! अपने कर- पश से और कोई भी
सु दरी मेरे इस ेम-िवकल शरीर को आनि दत नह कर सकती?
कु मुद च मा क करण से ही िखला करता है, सूय क करण से
नह ।
उवशी :(अपने हाथ हटाकर उठ खड़ी होती है और कु छ अलग हटकर)
महाराज क जय हो!
राजा :सु द र, तु हारा वागत है! (उसे अपने पास एक ही आसन पर िबठा
लेता है।)
िच लेखा :किहए महाराज, आप सुखी तो है
राजा :हाँ, अभी-अभी तो सुख ा आ है।
उवशी :सखी, महारानी ने महाराज को मुझे दे डाला है, इसिलए म इनक
ेिमका के समान ही इनके शरीर से लगकर बैठी ।ँ मुझे ऐसी-वैसी
न समझना।
िवदूषक :अ छा, तो या आप यहाँ सूया त से पहले से ही आई ई थ ?
राजा :(उवशी को देखता आ) य जी, आज तो तुम यह कहती हो क तुम
मुझसे लगकर इसिलए बैठी हो, य क मुझे महारानी ने तुमको दे
डाला है; पर तु तुमने पहले जो मेरा दय चुरा िलया था, वह कससे
पूछकर चुराया था?
िच लेखा :महाराज, इसका जवाब यह न दे सके गी। अब आप मेरी ाथना
सुिनए।
राजा :किहए; म यान से सुन रहा ।ँ
िच लेखा :वस त बीतने पर ग मय म मुझे भगवान सूय क सेवा करनी है।
इसिलए आप कु छ ऐसा कर, िजससे मेरी यह सखी फर वग जाने के
िलए बेचैन न हो।
िवदूषक : वग म याद आने लायक रखा ही या है! न वहाँ खाना होता है, न
पीना। के वल देवता लोग िबना पलक झपके मछिलय से होड़ कया
करते ह।
राजा :भ !े वग के सुख अवणनीय ह; इसिलए वे तो इसको कै से भूल
पाएँगे। फर भी इतना अव य है क और सब ि य का यान
छोड़कर यह पु रवा इसका दास बना रहेगा।
िच लेखा :यह कहकर आपने बड़ा अनु ह कया है। सखी उवशी, अब स मन
से मुझे िवदा दो।
उवशी :(िच लेखा को गले लगाकर, क णाजनक वर म) सखी, मुझे भूल
मत जाना।
िच लेखा :(मु कराकर) अब तुम तो हमारे इन िम के साथ रहोगी, इसिलए
मुझे ही यह अनुरोध करना चािहए क तुम मुझे मत भूल जाना।
(राजा को णाम करके बाहर जाती है।)
िवदूषक :महाराज, आपको मनोकामना पूरी होने क बधाई हो!
राजा :यह तो सचमुच ही मेरा बड़ा भारी सौभा य है। देखो, साम त क
मुकुट-मिणय से िजस संहासन के चरण रं ग-िबरं गे दखाई पड़ते ह
वह संहासन और सारी पृ वी का एकछ रा य पाकर भी म अपने-
आपको वैसा ध य अनुभव नह करता जैसा म आज इसके चरण का
दास बनकर अनुभव कर रहा ।ँ
उवशी :महाराज, इससे भी बढ़कर यारी बात कह सकने यो य वचन-
कौशल मुझम नह है।
राजा :(उवशी का हाथ पकड़कर) मनचाही व तु िमल जाने पर ितकू ल
व तुएँ भी अनुकूल हो उठती ह; य क च मा क वही करण अब
मेरे शरीर को आन द दे रही ह और कामदेव के वही बाण अब बड़े
यारे लग रहे ह। सु द र, तु हारे िमलन से पूव जो-जो भी व तुएँ
कठोर और नीरस जान पड़ती थ , वे ही सब अब तु हारे िमलन के
बाद बड़ी यारी लग रही ह।
उवशी :इतना िवल ब करके मने आयपु का बड़ा अपराध कया है।
राजा :ऐसा न कहो सु द र, दुःख के बाद जो सुख ा होता है, वही अिधक
रस से भरा होता है। पेड़ क छाया उसी को शीतल जान पड़ती है,
जो तपती धूप म से चलकर आ रहा हो।
िवदूषक :अजी, आपने स याकाल क रमणीय च - करण का तो काफ
सेवन कर िलया; अब आपका महल के अ दर चलने का समय हो
गया है।
राजा :अ छा तो ठीक है। अपनी इस सखी को रा ता दखाकर ले चलो।
िवदूषक :आइए, इधर आइए।
[सब चलने का अिभनय करते ह।]
राजा :सु द र, अब मेरी एक ही कामना है।
उवशी :वह या?
राजा :अपने मनोरथ पूरे होने से पहले यह रात जैसी सौगुनी ल बी मालूम
होती थी, य द अब तु हारे िमल जाने पर भी यह वैसी ही ल बी
बनी रहे, तो म अपने-आपको ध य समझू।ँ
[सब बाहर जाते ह।]
चौथा अंक
[उदास मु ा म िच लेखा और सहज या का वेश]
सहज या :(िच लेखा को देखकर खेद के साथ) सखी िच लेखा, तेरा मुख
कु हलाए ए कमल के समान हो रहा है, इससे दीखता है क तेरा
मन व थ नह है। अपनी उदासी का कारण मुझे बता, म भी तेरे
दुःख को बाँट लेना चाहती ।ँ
िच लेखा :(दु:ख-भरे वर म) सखी, हम अ सरा को बारी-बारी से सूय
भगवान क सेवा के िलए जाना पड़ता है। आज इसीिलए बरबस
उवशी क याद आ रही है।
सहज या :जानती ,ँ तुम दोन म पर पर बड़ा ेह है। तो बात या ई?
िच लेखा :जब मने यान लगाकर यह जानना चाहा क इन दन उवशी का
या हाल है, तो पता चला क वह तो बड़ी िवपि म है।
सहज या :(घबड़ाकर) कै सी िवपि ?
िच लेखा :उवशी के साथ िवहार करने के िलए राज ष पु रवा ने अपना रा य-
भार मि य को स प दया था और उवशी उनके साथ ग धमादन
वन म िवहार करने गई थी।
सहज या :हाँ, ेम-लीलाएँ तो वही ह, जो उस कार के सु दर देश म क
जाएँ। फर या आ?
िच लेखा :वहाँ म दा कनी क रे ती म रे त के पवत बनाकर खेल करती ई
िव ाधर क या उदयवती को वे राज ष बड़ी देर तक ेम से देखते
रहे, इससे उवशी हो गई।
सहज या :वह तो होना ही था। च ड ेम ब त असिह णु होता है। अ छा,
फर या आ।
िच लेखा :इसके बाद महाराज के ब त अनुनय-िवनय करने पर भी सब कु छ
अनसुना करके गु के शाप से मूढ़ ई वह उस कु मार वन म जा घुसी,
जहाँ ि य का वेश िनिष है। उस वन म घुसने के साथ ही वह
उस वन के कनारे एक लता बन गई और अब उस लता- प म ही
वहाँ रह रही है।
सहज या :भा य जो चाहे कर सकता है। वैसे ेम का ऐसा प रणाम हो, यह
अनथ ही है। अ छा, अब उस राज ष का या हाल है?
िच लेखा :वे उसी वन म अपनी ि यतमा को ढू ँढ़ते ए अपने दन और रात
िबता रहे ह। (आकाश क ओर देखकर) अब ये बादल उमड़ने लगे ह,
िजनसे सुखी लोग के मन भी अधीर हो उठते ह। तो इनसे तो उनक
दशा और भी दयनीय हो जाएगी।
सहज या :उस कार के े पु ष ब त देर तक दुःखी नह रहा करते। अव य
ही कसी-न- कसी क कृ पा से कोई ऐसा उपाय फर िनकलेगा,
िजससे उन दोन का िमलन हो जाएगा। (पूव क दशा क ओर
देखकर) अ छा, अब आओ, भगवान सूय उदय होनेवाले ह। चलकर
उनक पूजा कर।
[दोन बाहर जाती ह।]
[ वेशक]
[आकाश क ओर दृि लगाए, पागल का वेश बनाए राजा का
वेश।]
राजा :( ोध के साथ) अरे पापी रा स, ठहर-ठहर! मेरी ि यतमा को लेकर
कहाँ भागा जाता है? (देखकर) अरे , यह तो पवत के िशखर से उड़कर
मेरे ऊपर बाण बरसाने लगा!
[ढेला उठाकर मारने के िलए दौड़ता है। फर यान से देखकर
क णाजनक वर म]
यह या! यह तो नया उमड़ता आ बादल है, श -सि त दप से
भरा आ रा स नह है। यह तो इ धनुष दीख रहा है। रा स का
दूर तक ताना आ धनुष नह है। ये बाण नह बरस रहे, अिपतु
बादल से बूँद क बौछार हो रही ह; और वह कसौटी पर चमकती
ई सोने क लक र जैसी िबजली है, मेरी ि या उवशी नह ।
मने तो समझा था क उस मृगनयनी को कोई रा स हरकर िलए जा
रहा है, पर यह तो नई िबजली से भरा आ काला बादल बरस रहा
है । (कु छ सोचकर क णाजनक वर म) अ छा, वह सु दर
जाँघ वाली उवशी आिखर गई कहाँ होगी? हो सकता है क कु िपत
होकर अपने द भाव से अ तधान होकर खड़ी हो? पर तु वह तो
ब त देर तक कु िपत रहती नह । यह भी स भव है क वह उड़कर
वग चली गई हो। पर तु वह तो मुझसे ेम करती थी, इसिलए वग
नह गई होगी मेरे स मुख रहते रा स भी उसको हरकर नह ले जा
सकते। फर भी वह मेरी आँख के सामने िबलकु ल ही दखाई नह
पड़ रही, आिखर यह भा य का खेल या है?
(चार ओर देखकर गहरी साँस लेकर) ओह, िजनसे भा य मुँह फे र
लेता है, उनपर एक के बाद एक दुःख आ-आकर पड़ते ह। य क
अपनी ि यतमा से यह एकाएक आ िवयोग मेरे िलए पहले ही
अस हो रहा है, उस पर ऊपर से ये नए-नए बादल और उमड़ उठे
ह, िजनसे धूप िछप गई है और दन रमणीय हो उठे ह। आ रे बादल,
तू जो सब दशा म छाकर मूसलधार बरस रहा है; म तुझे आ ा
देता ँ क तू अपने इस ोध को रोक ले। य द म इस पृ वी पर
भटकता- फरता अपनी ि या को देख पाऊँगा, तो तब तू जो कु छ
करे गा वह सब सह लूँगा। (हँसकर) म अपने मन के इस बढ़ते ए
लेश क थ ही उपे ा कर रहा ;ँ य क मुिन लोग भी कह गए
ह क राजा काल का िवधाता होता है। तो म य न इस वषा ऋषु
को लौट जाने को क ।ँ
या, इस वषा ऋषु को लौट जाने को म नह क ग ँ ा। इस समय इस
वषाकाल ारा तुत कए गए िच ह से ही तो म राजा जान पड़ता
।ँ िबजली क लक र से सुनहला दीख पड़नेवाला बादल मेरा
च दोवा है। िनचुल के वृ मेरे ऊपर अपनी मंज रय के चंवर डु ला
रहे ह। गम समा हो जाने के कारण ज़ोर-ज़ोर से बोलते ए मोर
मेरे चारण ह, और ये बड़े-बड़े पवत वे ापारी ह, जो वषा से
उमड़ती ई धारा के उपहार लेकर मेरे पास चले आ रहे ह।
या छोड़ो, अपने इस ठाट-बाट क शंसा करने म या रखा है! चलूँ;
पहले इस वन म अपनी ि यतमा को ढू ँढूँ।
(थोड़ा चलकर और सामने देखकर) हाय, उसे देखने का य ही
िन य करता ,ँ य ही मेरी था ती तर ही उठती है; य क यह
नई क दली क बेल बूँद से भरे ए उन फू ल ारा, िजनम ह क
लाल-लाल लक र पड़ी ई ह, मुझे उसक उन आँख क याद करा
रही है, जो ोध से लाल हो उठी थ और िजनम आँसू छलक आए थे।
अब कै से पता चले क वह यहाँ से कस ओर गई है? य क य द वह
सु दरी इन वन-भूिमय पर पैर रखती ई जाती, िजनक रे ितय पर
बादल क बूँद बरस चुक ह, तो यहाँ उसक आलते के रं ग से रं गी
ई सु दर पदिच न-पंि दखाई पड़ती, िजसम पैर के िच न
िनत ब के भार के कारण एिड़य के पास यादा दबे ए दखाई
पड़ते।
(थोड़ा चलकर और देखकर; स होकर) अ छा! मुझे वह िच न
िमल गया है, िजससे यह अनुमान हो सकता है क वह ठी ई
उवशी कस ओर गई है। यहाँ यह उनक चोली पड़ी है, जो तोते के
पेट के रं ग के समान साँवली है। अव य ही यह ोध के कारण
डगमगाकर चलते समय िगर पड़ी होगी। इसपर उन आँसु के
िच न बने ह, जो होठ का रं ग साथ लेकर नीचे को बहते ए इसपर
िगरकर अपना रं ग अं कत कर गए ह।
अ छा, चलकर इसे उठाता ।ँ (थोड़ा चलकर भली भाँित देखकर
आँख म आँसू भरता है।) अरे , यह तो हरी घासवाली ज़मीन का
छोटा-सा टु कड़ा है, िजसपर बीरब टयाँ फर रही ह। अब यहाँ इस
एका त वन म कै से पता चले क मेरी ि यतमा इस समय कहाँ है।
(मोर को देखकर) उधर वषा के कारण भाप छोड़ती ई च ान पर
बैठा आ मोर बादल क ओर देख रहा है। सामने से आती ई तेज़
हवा इसक कलगी को िछतरा-सी रही है। यह अपने क ठ को ऊँचा
उठाकर ऊँचे वर म बोल रहा है।
(उसके पास जाकर) अ छा, तो इसीसे पूछता ।ँ
[हाथ जोड़कर]
ओ सफे द कोर क आँख वाले मोर, या तुमने इस वन म मेरी उस
ि यतमा को देखा है, िजसक बड़ी-बड़ी आँख ह और िजसक गदन
ऐसी सु दर है क देखते ही बनती है?
(देखकर) अरे यह या! यह तो िबना उ र दए ही नाचने लगा।
इसके इतने आन द का कारण आिखर या है? (सोचकर) अ छा! म
समझ गया। मेरी ि या के चले जाने के कारण इसके ये घने और
सु दर पँख जो म द पवन म लहरा रहे ह, अब ित ी-िवहीन हो
गए ह। उस सु दर के शवाली उवशी के फू ल से सजे ए और ेम-
लीला म खुलकर िबखर गए के शपाश के होते यह बेचारा मोर
या गव करता?
अ छा, यह दूसरे क िवपि पर आन द मना रहा है, इसिलए इससे
नह पूछूँगा (थोड़ा चलकर और सामने देखकर) अरे , उधर यह
जामुन के पेड़ पर कोयल बैठी है। गम क ऋतु समा हो जाने से
यह मद से भर उठी है। पि य म यह ब त समझदार कही जाती है,
तो चलकर म इसीसे अनुनय करता ।ँ
[घुटन के बल बैठकर]
ओ कोयल, ेमी लोग तुझे कामदेव क दूती कहते ह। मािनिनय का
मान भंग करने का तू अचूक अ है। ओ मधुरभािषणी, या तो तू मेरी
ि यतमा को मेरे पास ले आ, या मुझे शी ही वहाँ ले चल जहाँ मेरी
ि यतमा है।
, तूने या कहा? ऐसे तुझ जैसे ेमी को छोड़कर वह य चली गई
(सामने क ओर देखकर) अ छा, सुन। वह मुझसे ठ तो गई, क तु
मुझे अपना एक भी काम याद नह आता िजसके कारण वह ठी हो।
सु द रय का अपने ेिमय पर इतना अिधकार होता है क वे उनसे
ठने के िलए कोई अपराध होने का इ तज़ार नह करत ।
यह या? मेरी बात को िबना पूरा सुने यह अपने ही काम म लगी
ई है। या ठीक ही कहा है क दूसरे का दुःख चाहे कतना ही बड़ा
य न हो, क तु उससे और को लेश नह होता। तभी तो मुझ
िवपि त के ेम क परवाह न करके यह कोयल नशे म डू बी ई-
सी राजज बू वृ के पकते ए फल को खाने म ऐसी जुटी है, जैसे
उसके ह ठ को चूम रही हो।
इसके ऐसे आचरण के बाद भी मुझे इसपर ोध नह है, य क
इसका वर भी मेरी ि या के वर के समान ही मधुर है। अ छा
कोयल, तुम सुख से बैठो। हम तो अब यहाँ से चलते ह। (थोड़ा
चलकर और यान से सुनने का अिभनय करके ) अरे , इस वन म
दि ण क ओर से ि यतम के पैर रखने से होनेवाली नुपूर क सी
विन सुनाई पड़ी है। उसी ओर चलता ।ँ (थोड़ा चलकर
क णाजनक वर म) हाय, या मुसीबत है, अिपतु बादल से काली
पड़ती ई दशा को देखकर मानसरोवर जाने के िलए अधीर
राजहंस के कू कने क आवाज़ है।
अ छा, मानसरोवर जाने के िलए उ सुक इन पि य के इस तालाब
से उड़ने से पहले ही इनसे अपनी ि या का पता पूछ लेना चािहए।
(पास जाकर) हे जलिवहंगम राज, तुम मानसरोवर बाद म जाना।
तुमने रा ते के भोजन के िलए जो ये कमलनाल तोड़ ली ह, उ ह इस
समय छोड़ दो, फर ले लेना। पहले मेरी ि यतमा का समाचार
बतलाकर इस क से मेरा उ ार कर दो। स न लोग अपने वाथ
क अपे ा िम का काम करना अिधक आव यक समझते ह। अरे ,
यह िजस कार मुख ऊपर को उठाकर देख रहा है, उससे यह कहता
तीत होता है क मानसरोवर जाने क उ क ठा के कारण मेरा
यान उसक ओर नह गया।
पर ओ हँस, य द वह घुमावदार भ ह वाली उवशी तु ह इस सरोवर
के तीर पर दखाई नह पड़ी; तो चोर कह के , तुमने उसक यह मद
और ड़ा-भरी चाल सारी-क -सारी कै से ले ली?
इसिलए–हे हँस, य क तूने मेरी ि या क चाल ली है, इसिलए मेरी
ि या को मुझे वापस लौटा दे। िजसके पास चोरी के माल का थोड़ा-
सा भी भाग पहचान िलया जाता है, उसे चोरी का सबका सब माल
लौटाना पड़ता है।
(हँसकर) अरे , यह तो यह सोचकर डरकर उड़ गया क चोर को
द ड देनेवाला राजा आ प च ँ ा है। अ छा, अब कसी दूसरी जगह
जाकर खोजता ।ँ (थोड़ा चलकर और देखकर) वहाँ अपनी ि यतमा
के साथ वह च वाक प ी बैठा है। चलूँ, उसीसे पूछूँ। हे रथांगनामा,
(च वाक) रथांग (पिहए) के समान बड़े-बड़े िनत ब वाली अपनी
ि यतमा से िबछु ड़ा आ यह महारथी सैकड़ मनोरथ से भरकर
तुमसे यह पूछता है।
या, यह कहता है क कौन है, कौन है? अ छा छोड़ो; यह शायद
मुझे जानता नह । अरे , म वह पु रवा ,ँ िजसके नाना (मातामह)
सूय ह और दादा (िपतामह) च मा ह; और िजसे उवशी और पृ वी
दोन ने वयं अपना पित चुना है।
य , या आ? यह चुप रह गया? अ छा इसे जरा उलाहना ही दे
लूँ। य जी, जब तु हारी सहचरी ि या तालाब म कमिलनी के प े
क भी ओट म हो जाती है, तब तो तुम उसे दूर गई समझकर रोना-
िच लाना शु कर देते हो। अपनी ि या से तो तु ह इतना ेम है क
तुम पल-भर भी उससे अलग नह रह सकते; और जो म अपनी ि या
से िबछु ड़ा आ ,ँ उसे तुम ि या का समाचार तक देने को तैयार
नह हो।
अव य ही यह मेरे उ टे भा य का फल कट हो रहा है। अ छा कह
और चलू।ँ (दो कदम चलकर) या अभी नह जाता। (थोड़ा चलकर
और देखकर) यह कमल, िजसके अ दर गुँजार करता आ भ रा ब द
है, मुझे रोक-सा रहा है। यह कमल मुझे ऐसा लग रहा है, मानो यह
उस उवशी का मुख हो जो उसके होठ पर मेरे दाँत गड़ जाने पर
‘सी-सी’ कर उठा हो।
अ छा, इस कमल पर बैठे ए भ रे से भी बातचीत कर लूँ िजससे
मुझे बाद म इस बात का प ा ाप न रहे क मने इससे नह पूछा
था।
ओ मधुकर, मुझे उस मदभरे नयन वाली उवशी का पता बता दे।
[कु छ सोचकर]
या ऐसा लगता है क तूने मेरी उस सु दरी ि या को देखा ही नह है,
य क य द तुझे उसके मुख से िनकली साँस क सुग ध िमल गई
होती तो या फर तू इस कमल से इस तरह यार करता? अ छा,
अब चलते ह। (थोड़ा चलकर और सामने देखकर) अरे , वहाँ कद ब
क शाख पर सू ड रखे अपनी हिथनी के साथ गजराज खड़ा है। इससे
मुझे अपनी ि या का हाल पता लग जाएगा। अ छा, इसीके पास
प च ँ ता ।ँ
(सामने देखकर) या, ज दबाजी करना ठीक नह । अभी इसके पास
जाने का मौका नह है। पहले यह अपनी ि या हिथनी ारा सू ड से
दी गई हरे -हरे प से लदी और आसव के समान सुगि धत रसवाली
श लक क शाखा को खा ले, फर इसके पास चलूँगा। ( ण-भर
खड़ा रहने के बाद सामने देखकर) ठीक है, अब इसने भोजन कर
िलया है। अ छा, अब इसके पास चलकर पूछता ।ँ हे मदम त
गजराज, या तुमने अपनी दूर-दूर तक देखनेवाली आँख से अ य
यौवनवाली मेरी ि यतमा को देखा है, जो आँख को बड़ी यारी
लगती है, िजसके बाल म जूही के फू ल गुँथे ह, और जो युवितय म
च मा क कला के समान सु दर दखाई पड़ती है। (सुनने का
अिभनय करके और स होकर) अहा-हा, तु हारे इस ेम-भरे और
ग भीर गजन से यह तीत होता है क तुमने मेरी ि या को देखा है।
यह सुनकर मुझे बड़ी तस ली ई है। फर म और तुम दोन एक जैसे
ह, इससे तु हारे ित मेरे मन म िवशेष ेम है।
मुझे राजा का राजा कहा जाता है और तुम भी हािथय के राजा
हो। तु हारे म तक से भी दान (मद का जल) िनर तर बहता रहता है
और म भी याचक को िनर तर दान करता ।ँ ि य म े उवशी
मेरी ि यतमा है और तु हारे यूथ म तु ह यह ि यतमा िमली ई है।
तु हारा और सब कु छ मेरे समान है, पर तु तु ह कभी भी मेरी भाँित
ि या के िवरह का क न सहना पड़े। अ छा; तुम आराम से बैठो,
हम तो चलते ह। (थोड़ा चलकर और एक ओर देखकर) अरे , यह
सुरिभक दर नाम का बड़ा सु दर पहाड़ दीख रहा है। अ सरा को
यह पवत िवशेष प से ि य है। शायद वह सु दरी इस पवत क
तलहटी म ही कह िमल जाए। (थोड़ा चलकर और देखकर) यह
या? यहाँ तो बड़ा अ धकार है। अ छा, िबजली चमके गी तो
देखूँगा। हाय, मेरे दुभा य से बादल म िबजली भी नह चमकती।
अ छा, फर भी इस पवत से पूछे िबना नह लौटूँगा।
ओ बड़े-बड़े ढलान वाले पवत, या तुमने यहाँ कह सु दर
िनत ब वाली उस मेरी ि यतमा को देखा है, िजसके पैर सुडौल ह
और िजसके बड़े-बड़े तन एक-दूसरे के साथ खूब सटे ए ह? कह
वह तु ह इस कामदेव के वन म घूमती तो दखाई नह पड़ी?
या बात है? यह तो चुपचाप ही खड़ा है। मुझे लगता है क ब त दूर
होने के कारण वह मेरी बात सुन नह सका। अ छा, पास जाकर
इससे फर पूछता ।ँ
ओ पवत के राजा, या इस सु दर वन म तुमने मुझसे िबछु ड़ी ई
उस सवाग-सु दरी मेरी ि यतमा को देखा है?
[नेप य म से अपनी कही ई बात को ही फर सुनकर]
या यह कहता है क जैसा-जैसा मने बताया है, ठीक वैसा-वैसा देखा
है? तु ह इससे भी अिधक ि य बात सुनने को िमल! ( फर पहली
तरह ही पूछता है। नेप य म से फर वही श द सुनाई पड़ता है।
सोचकर) हाय-हाय, यह तो पहाड़ क क दरा म से मेरे ही श द क
ित विन लौट रही है। (मू छत हो जाता है। उठकर बड़े दु:ख के
साथ) ओह, ब त थक गया ।ँ अब चलकर इस पहाड़ी नदी के
कनारे बैठकर तरं ग के ऊपर से आनेवाली वायु का सेवन क ँ गा।
(थोड़ा चलकर और सामने देखकर) इस नए-नए पानी के कारण
मैली नदी को देखकर भी मेरा मन स ही हो रहा है; य क यह
नदी लड़खड़ाती ई और च ान से टकराती ई आगे को बढ़ी चली
जा रही है। मुझे तो ऐसा लगता है जैसे ु ई मेरी ि या उवशी ही
यह नदी बन गई है। इसक टेढ़ी तरं ग उसक टेढ़ी भ ह के समान ह
और घबराए ए पि य क पंि उसक करधनी के समान है। यह
अपने झाग को उसी तरह ख चे िलए जा रही है, जैसे वह गु से के
कारण ढीला पड़ गया व हो और वह उसीको घसीटे िलए जा रही
हो। अ छा, इसे स करने का य करता ।ँ (हाथ जोड़कर)
हे ि यभािषणी, यह तो बताओ क म तुमसे इतना ेम करता ँ और
कभी अपने ेम म कसी कार क कमी नह आने देता, फर तुम
मेरा ऐसा कौन-सा अपराध देखती हो, िजसके कारण, हे मािननी,
तुम इस दास को छोड़कर चली जा रही हो।
यह या? यह तो चुपचाप ही है। (सोचकर) या फर यह सचमुच
नदी ही है! उवशी पु रवा को छोड़कर समु से यार करने नह
जाएगी। अ छा, िबना दुःख भोगे सुख ा नह होता। तो फर उसी
जगह चलता ,ँ जहाँ वह सु दर नयन वाली मेरे नयन से ओझल हो
गई थी। (थोड़ा चलकर और सामने देखकर) उधर वह ह रण बैठा है,
चलकर उसीसे अपनी ि या का पता पूछूँ।
यह ह रण अपने िचतकबरे रं ग के कारण ऐसा दखाई पड़ रहा है,
मानो वन ी ने नई ह रयाली को देखने के िलए अपनी ितरछी
िचतवन फक हो।
(देखकर) यह या? मेरी उपे ा-सी करता आ दूसरी ओर को मुँह
फे रकर खड़ा हो गया! (देखकर) इसके पास आती ई ह रणी को दूध
पीनेवाले ह रण के ब े ने बीच म ही रोक िलया। अब यह गदन मोड़े
एकटक उसी ह रणी क ओर देख रहा है। (पास जाकर हाथ जोड़कर)
ओ ह रणी के वामी, या तुमने इस वन म मेरी ि यतमा को देखा
है? सुनो, म उसक पहचान भी बताए देता ।ँ तु हारी सहचरी यह
ह रणी अपनी बड़ी-बड़ी आँख से िजस कार िनहारती है, उसी
कार मेरी ि यतमा भी िनहारती है। यह या? मेरी बात को
अनसुना करके अपनी ह रणी क ओर ही मुँह करके बैठ गया। ठीक
तो है! क मत उ टी होने पर सभी लोग अपमान करते ही ह।
अ छा, अब कसी और जगह चलूँ। (थोड़ा चलकर और सामने
देखकर) अहा, यह उसके जाने के रा ते का िच ह िमल गया। यही
वह अ ण कद ब का वृ है, िजसके फू ल ी म ऋतु क समाि पर
िखले थे। इसके एक नए-नए फू ल को, य िप उस समय तक
अधिखला होने के कारण वह कठोर ही था, फर भी मेरी ि या ने
अपने बाल म सजा िलया था। (थोड़ा आगे चलकर और सामने
देखकर) अरे लाल अशोक, बता, वह सु दरी मुझ ेमी को छोड़कर
कहाँ चली गई?
[अशोक वृ क वायु से िहलती चोटी को देखकर ोध के साथ]
हवा के कारण काँपते ए अपने इस िसर को िहला-िहलाकर झूठ-मूठ
यह य कह रहे हो क मने उसे देखा ही नह है। य द उसके पैर क
चोट तुमपर न लगी होती तो तु हारे ये फू ल कहाँ से िखल उठते,
िजनके ऊपर भ रे बड़ी अधीरता के साथ टू ट पड़ रहे ह और उन फू ल
क पँखुिड़य को कु तरे डाल रहे ह?
अ छा, सुख से रहो। (थोड़ा चलकर और सामने देखकर) यह इन
च ान क दरार म फँ सा आ ब त लाल-लाल-सा या दीख रहा
है? यह इस कार दमकता आ पदाथ संह ारा मारे ए हाथी के
माँस का टु कड़ा तो है नह , और न यह अि क ही िचनगारी है,
य क इस वन म अभी जोर क वषा हो चुक है।
[सोचकर]
अरे , यह तो लाल अशोक के फू ल के समान रं गवाली मिण है। ऐसा
तीत होता है क सूय अपनी करण के हाथ बढ़ा-बढ़ाकर इसे
ख चकर िनकालने का य कर रहा है।
यह मेरे मन को ब त ही यारी लग रही है, अ छा, इसे उठाए लेता
।ँ
(उठाने का अिभनय करता है। उठाकर) या िजसके म दार पु प से
सुवािसत बाल म यह मिण सजाई जानी चािहए थी, वह मेरी ि या
तो अब पास है ही नह ; फर इसे थ ही अपने आँसु से य
मिलन क ँ ।
[मिण को छोड़ देता है।]
[नेप य म]
ब ा, ले लो। इसे ले लो। यह मिण पावतीजी के चरण के महावर से
बनी है। इसका नाम संगमनीय मिण है। जो ि इसे धारण करता
है, उसका ज दी ही अपने ि य ि से िमलन हो जाता है।
राजा :( यान से सुनकर) यह या कोई मुझ ही से कह रहा है? (सामने
देखकर) अ छा, मृग- प म िवचरण करते ए मुिन मेरे ऊपर दया
करके ऐसा कह रहे ह? भगवान, यह बताकर आपने मुझपर बड़ी
कृ पा क है। (मिण को उठाकर) अरी संगमनीय मिण, य द तेरे कारण
मुझे वह पतली कमरवाली िबछु ड़ी ई ि यतमा फर ा हो
जाएगी, तो म तुझे उसी कार म तक के ऊपर धारण कया क ँ गा,
जैसे महादेवजी च मा क नई कला को िसर पर धारण कए रहते
ह । (थोड़ा चलकर और सामने देखकर) यह या बात है? इस
सामनेवाली बेल पर फू ल भी नह ह, फर भी इसे देखकर मेरा मन
फू ला नह समा रहा। या ठीक है; इसका मुझे ऐसा यारा लगना
उिचत ही है। यह बेल उवशी के समान पतली है और देखने म ऐसी
लग रही है क पैर म पड़े ए मेरी ोध म भरकर अवहेलना करके
चले जाने के बाद अब वह पछताती ई खड़ी हो। इसके प े वषा के
जल से गीले ह, जो ऐसे लगते ह, जैसे आँसू बह-बहकर उसके ह ठ
पर आ टपके ह । इस समय इस बेल पर फू ल नह िखले ए जो ऐसा
तीत है क िवरह के कारण उवशी ने अपने आभूषण उतारकर परे
कर दए ह । इस बेल पर मर क गुँजार का श द नह हो रहा,
िजससे ऐसा लगता है क वह उवशी िच ता म बैठी हो।
अ छा; अपनी ि यतमा से इतनी अिधक िमलती-जुलती इस बेल को
गले लगाकर आनंद लेता ।ँ
[बेल का आ लंगन करता है। उसी जगह उवशी खड़ी होती दीखती
है।]
राजा :(आँख मीचे-मीचे ही पश करने का अिभनय करते ए) अरे , मुझे
ऐसा आन द हो रहा है, जैसे यह उवशी के ही शरीर का पश हो।
फर भी मुझे िव ास नह हो रहा। य क िजस कसी भी व तु को
म पहले-पहल अपनी ि यतमा समझने लगता ,ँ वही ण-भर म
बदलकर कु छ और दीखने लगती है। इसिलए पश से यह पता चल
जाने पर भी क यह मेरी ि यतमा ही है, म एकाएक आँख नह खोल
पा रहा।
(धीरे -धीरे आँख खोलकर) या सचमुच ही मेरी ि यतमा है!
उवशी :(आँसू बहाते ए) महाराज क जय हो!
राजा :सु द र, जब म तु हारे िवयोग के कारण घोर अ धकार म डू बता जा
रहा था, तब तुम मुझे भा य से फर उसी कार आ िमली हो, जैसे
िन ाण ि म फर चेतना लौट आए।
उवशी :महाराज, आपका सारा वृ ा त मने अपनी आ त रक इि य से
जान िलया है।
राजा :म समझा नह क आ त रक इि य से तु हारा या अिभ ाय है!
उवशी :बतलाती ँ महाराज। पर तु पहले आप मुझे इस अपराध के िलए
मा कर दीिजए क मने ोध के वश म होकर आपको इस अव था
तक प चँ ा दया।
राजा :क याणी, मुझे स करने क कोई आव यकता नह । तु हारे दशन
से ही मेरी आ मा अ दर-बाहर पूरी तरह स हो उठी है। यह
बताओ क इतने समय तक तुम मेरे िबना कै से रह सक ।
उवशी :सुिनए महाराज! कु मार का तके य ने सदा कु मार रहने का त िलया
और ग धमादन पवत के इस देश का नाम ‘अकलुष’ रखकर इसपर
अपना आसन जमाया और यह िनयम बना दया...
राजा : या िनयम?
उवशी : क इस देश म जो भी ी वेश करे गी, वह बेल बन जाएगी और
पावतीजी के चरण से उ प ई मिण के िबना वह उस बेल- प से
मु नह हो सके गी। गु भरतमुिन के शाप के कारण मेरा मि त क
फर गया था और म देवता का तके य ारा बनाए िनयम को भूलकर
आपके अनुनय क अवहेलना करके इस कु मार वन म िव हो गई
थी। िव होते ही म वास ती लता बन गई थी।
राजा :ठीक कहती हो। ेम-लीला के बाद म तु हारे साथ सेज पर सोया
होता था, तब भी तुम ऐसा समझती थ क जैसे म परदेश चला गया
;ँ तो ि यतमे, तुम मेरे इतने ल बे िवयोग को कस कार सह
सकती थ ?
जैसा तुमने कहा है, उसीके अनुसार तुमसे िमलने के िलए मुिन से यह
मिण मने ा क थी और इसीके भाव से मने तु ह पाया है।
उवशी :अरे , यह तो संगमनीय मिण है। इसीिलए महाराज के आ लंगन करते
ही म अपने असली प म आ गई थी। (मिण को लेकर माथे पर पहन
लेती है।)
राजा :सु द र, ज़रा ण-भर इसी तरह खड़ी तो रहो। माथे पर इस मिण
को धारण कर लेने पर तु हारा मुख इसक िबखरती ई लाली के
कारण ऐसा सु दर तीत हो रहा है क जैसे लाल कमल पर बाल
सूय क करण पड़ रही ह ।
उवशी : ित ान नगर से िनकले ए आपको ब त समय हो गया। जा मुझे
दोष दे रही होगी। तो आइए, नगर को वापस चल।
राजा :जैसे तु हारी इ छा।
उवशी :किहए, महाराज, कस कार वापस लौटना चाहते ह?
राजा :सु द र, मुझे उस नए मेघ के िवमान पर ित ान नगर ले चलो,
िजसपर िबजली क पताकाएँ फहरा रही ह और इ धनुष के
सु दर-सु दर िच बने ए ह ।
[सब बाहर जाते ह]
पाँचवाँ अंक

[ स मु ा म िवदूषक का वेश]
िवदूषक :आहा-हा! यह भला आ क हमारे िम महाराज ब त समय तक
उवशी के साथ न दन वन इ या द देवता के उ ान म िवहार
करके वापस लौट आए। उनके लौट आने पर जा ने नगर म उनका
खूब वागत-स कार कया। अब वे बड़े आन द के साथ रा य कर रहे
ह। बस, एक स तान को छोड़कर अब उ ह और कोई कमी नह है।
आज िवशेष पव होने के कारण गंगा-यमुना के संगम म रािनय के
साथ ान करके वह अभी राजमहल म िव ए ह। इस समय वह
लेप-माला इ या द से अपना शृंगार कर रहे ह गे। तो चलूँ, चलकर
उसम से अपना िह सा पहले ही ले लूँ। (चलने का अिभनय करता
है।)
[नेप य म]
हाय-हाय! म महारानीजी के िसर पर धारण करने के र को ताड़ के
प क िपटारी म रे शम का टु कड़ा िबछाकर, िसर पर रखकर िलए
जा रही थी क माँस के टु कड़े के म म एक िग उसे लेकर उड़
गया।
िवदूषक :( यान से सुनने का अिभनय करके ) बुरा आ, बुरा आ! य क
संगमनीय नाम क वह चूड़ामिण तो महाराज को ब त ि य है।
इसीिलए साज- संगार िबना पूरा कए ही महाराज आसन से उठकर
इसी ओर आ रहे ह। तो चलूँ इ ह के पास प च
ँ ।ूं (बाहर जाता है)
[ वेशक]
[घबराए ए अनुचर के साथ राजा का वेश]
राजा :वेधक, अपनी मृ यु को बुलानेवाला वह चोर प ी कहाँ गया? इस
मूख ने पहली चोरी जा के र क राजा के ही घर म कर डाली।
करात :वह देिखए उधर! वह च च म सोने क जंजीर से बँधी मिण को थामे
ए आकाश म रे खा-सी ख चता आ म डरा रहा है।
राजा :हाँ, वह दीख रहा है। वह मुख म सोने क जंजीर म लटक ई मिण
को थामे ए तेजी से म डलाकर उड़ता आ मिण के रं ग क रे खा से
आकाश म वैसा ही च -सा बना रहा है, जैसा जलती ई लकड़ी को
तेजी से घुमाने पर बन जाता है। अब या कया जाए?
िवदूषक :(पास प चँ कर) अजी, यहाँ दया का काम नह । अपराधी को द ड ही
देना चािहए।
राजा :ठीक कहते हो। अ छा, धनुष लाओ धनुष।
यवनी :अभी लेकर आती ँ (बाहर जाती है।)
राजा :िम , अब तो वह क ब त प ी दीख ही नह रहा। कहाँ गया?
िवदूषक :अजी, वह नीच, माँसभोजी दि ण दशा क ओर गया है।
राजा :(मुड़कर और देखकर) हाँ, अब दीखा। वह प ी काि त से दमकती
ई इस दशा को उसी कार सुशोिभत कर रहा है, मानो वह दशा
के बाल म अशोक के फू ल का गु छा सजा रहा हो।
यवनी :(धनुष हाथ म िलए वेश करके ) महाराज, यह है ह तर क और
धनुष।
राजा :अब धनुष से या होगा? वह माँसभोजी बाण क मार से दूर िनकल
गया। अब तो उसी प ी ारा दूर ले जायी जाती ई वह मिण इस
कार चमकती दीख रही है, जैसे घने बादल के बीच म रात म
मंगल ह चमक रहा हो। (कं चुक क ओर मुड़कर) आय लात !
कं चुक :आ ा क िजए महाराज!
राजा :मेरी ओर से सब नाग रक को कहलवा दो क प ी सायंकाल के
समय अव य ही कसी वृ पर आ य लेगा। इसिलए उस समय इस
चोर क खोज कर।
कं चुक :महाराज क जैसी आ ा!
िवदूषक :अजी, अब आप बै ठए। आिखर वह र का चोर आपके शासन से
बचकर जाएगा कहाँ?
राजा :(िवदूषक के साथ बैठकर) िम , िजस मिण को यह प ी लेकर उड़
गया है, वह मुझे इसिलए ि य नह है क वह ब मू य र है, अिपतु
वह संगमनीय मिण मुझे इसिलए ि य है य क उसने ि या के साथ
मेरा िमलन कराया था।
िवदूषक :ठीक है! यह सब तो आप पहले बता ही चुके ह।
[तीर से बंधी ई मिण को िलए कं चुक का वेश]
कं चुक :महाराज क जय हो! वह वध के यो य प ी इस बाण ारा बंधकर
नीचे िगर पड़ा। ऐसा तीत होता है क आपका ोध ही यह बाण
बनकर उसी प ी को जा लगा। उसे अपने अपराध का उिचत द ड
ा आ और वह चूड़ामिण के साथ-साथ आकाश से भूिम पर आ
िगरा।
[सब आ य का अिभनय करते ह।]
कं चुक :महाराज, इस मिण को जल से धोकर साफ कर िलया है। अब इसे
कहाँ प च
ँ ाया जाए?
राजा :वेधक, जाओ और इसे अि ारा शु करके स दूक म रख दो।
करात :जो महाराज क आ ा (मिण को लेकर बाहर जाता है।)
राजा :आय लात , या आप कह सकते ह क यह बाण कसका है?
कं चुक :इसपर नाम तो िलखा दीख पड़ता है, क तु दृि कमजोर होने के
कारण अ र मुझसे पढ़े नह जाते।
राजा :अ छा, तो बाण यहाँ लाओ। म ही पढ़ता ।ँ (कं चुक बाण देता है।
राजा बाण के अ र को पढ़कर कु छ िवचार म पड़ जाता है।)
कं चुक :अ छा, म भी चलूँ और अपना काम क ँ । (बाहर जाता है।)
िवदूषक :आप कस सोच म पड़ गए।
राजा :इस तीर को छोड़नेवाले का नाम सुनो।
िवदूषक :किहए, म सुन रहा ।ँ
राजा :सु नो। (पढ़कर सुनाता है।) यह बाण धनुधारी पु रवा के उवशी से
उप ए पु कु मार आयु का है, जो श ु क आयु का हरण
करनेवाला है।
िवदूषक :( स तापूवक) तब तो आपको स तान होने क बधाई हो।
राजा :िम , यह आ कै से? नैिमषेय य को छोड़कर और कभी म उवशी से
अलग नह रहा। मने कभी उवशी म गभाव था के िच न भी नह
देख।े फर यह स तान कै से ई? क तु इतना अव य है क उसका
शरीर के वल कु छ दन के िलए लवली के प के समान ह का
पीला-सा पड़ गया था; तन के अ भाग काले पड़ गए थे और आँख
कु छ आल य से भरी रहती थ ।
िवदूषक :आप द ि य म सारे मनु योिचत गुण क आशा न कर। उनके
च रत अपने द भाव से िछपे ही रहते ह।
राजा :हो सकता है क जो तुम कहते हो, वह ठीक ही हो। पर पु ज म क
बात को िछपाने म उसका या योजन हो सकता है?
िवदूषक :कह मुझे वृ ा समझकर राजा छोड़ न द, यही।
राजा :चलो, मजाक रहने दो। सोचो क या कारण हो सकता है?
िवदूषक :देवता के रह य को कौन कतना सोचे।
[कं चुक का वेश]
कं चुक :महाराज क जय हो! महाराज, यवन ऋिष के आ म से एक कु मार
को लेकर कोई तापसी आई ह। वे आपके दशन करना चाहती ह।
राजा :दोन को अिवल ब यहाँ ले आओ।
कं चुक :जो आ ा महाराज क । (बाहर जाता है और धनुष हाथ म िलए ए
कु मार तथा तापसी के साथ फर वेश करता है।)
कं चुक :भगवती, इधर आइए इधर। (सब चलने का अिभनय करते ह।)
िवदूषक : या यह वही ि य कु मार है, िजसके नाम से अं कत बाण ने िग
को ल य बनाकर ब ध डाला था? इसक आकृ ित आपसे ब त
िमलती-जुलती है।
राजा :शायद ऐसा ही हो। इसीिलए इसपर पड़ते ही मेरी दृि आँसु से
धुँधली हो उठी है। दय म इसके ित वा स य जाग रहा है; मन
आन द से भर उठा है, मेरा अंग-अंग सारा धीरज छोड़कर काँप-सा
रहा है और इ छा हो रही है क इसे कसकर छाती से लगा लूँ।
कं चुक :भगवती, आप यह कए।
[तापसी और कु मार दोन ककर खड़े हो जाते ह।]
राजा :माताजी णाम!
तापसी :महाभाग सोमवंश का िव तार करनेवाले बनो! (मन-ही-मन) अरे !
यह तो इस राज ष और इस कु मार आयु का स ब ध िबना बताए भी
प मालूम हो जाता है। ( कट) बेटा, अपने िपता को नम कार
करो।
[कु मार हाथ म धनुष पकड़े-पकड़े हाथ जोड़कर नम कार करता
है।]
राजा :बेटा िचरं जीव रहो।
कु मार :(मन-ही-मन) य द मुझे यह सुनकर ही इतना आन द हो रहा है क ये
मेरे िपता ह और म इनका पु ,ँ तो उन बालक को अपने माता-
िपता से कतना ेम होता होगा, जो उनक गोद म रहकर ही पलते
और बड़े होते ह।
राजा :भगवती, कस योजन से आपका यहाँ आगमन आ?
तापसी :सुिनए महाराज। इस िचरं जीव कु मार आयु को उवशी ने ज म देते ही
न जाने कस कारण मेरे पास धरोहर के प म रखवा दया था।
ि य बालक के िलए जातकम इ या द जो भी सं कार कए जाने
होते ह, इस बालक के वे सब सं कार मह ष यवन ने यथािविध कर
दए ह। िश ा समा करने के बाद इसे धनुवद का अ यास भी करा
दया है।
राजा :तब तो यह बड़ा भा यशाली है।
तापसी :आज फू ल, सिमधाएँ और कु शा लाने के िलए यह ऋिष-कु मार के
साथ वन म गया था। वहाँ इसने ऐसा काम कर डाला, जो
आ मवासी के िलए उिचत नह था।
िवदूषक :(घबराकर) वह या?
तापसी :इसने पेड़ क चोटी पर माँस का टु कड़ा िलए बैठे ए एक िग को
देखा और उसे तीर का िनशाना बना दया।
[िवदूषक राजा क ओर देखता है।]
राजा :उसके बाद या आ?
तापसी :उसके बाद जब मह ष यवन को यह सारा वृ ा त ात आ, तो
उ ह ने मुझे आदेश दया क उवशी क इस धरोहर को उवशी को ही
लौटा दो। इसिलए म रानी उवशी से िमलना चाहती ।ँ
राजा :अ छा, तो आप इस आसन पर िवरािजए।
[तापसी लाए ए आसन पर बैठ जाती है।]
राजा :आय लात , उवशी को बुला लाओ।
कं चुक :जो महाराज क आ ा। (बाहर जाता है)
राजा :(कु मार क ओर देखकर) आओ बेटा, यहाँ आओ। कहते ह क पु का
पश सारे शरीर को आनि दत कर देता है। तो आओ और अपने पश
से मुझे वैसा ही आनि दत करो, जैसे च मा क करण च का त
मिण को स कर देती है।
तापसी :बेटा, जाओ; िपता को सुखी करो।
[कु मार राजा के पास जाकर पैर छू ता है।]
राजा :(कु मार को छाती से लगाकर और चौक पर िबठाकर) बेटा, ये
तु हारे िपता के ि य िम ा ण बैठे ह; इ ह भी िनभय होकर
णाम करो।
िवदूषक :भय उसे य होगा? वह आ म म रहता रहा है, इसिलए ब दर को
तो भली भाँित जानता-पहचानता होगा।
कु मार :(मु कराकर) तात, णाम!
िवदूषक :तु हारा क याण हो! दन - दन तु हारी ी-वृि हो।
[उवशी और कं चुक का वेश]
उवशी :(कु मार को देखकर) अरे , यह कौन है, जो धनुष िलए चौक पर बैठा
है और िजसके बाल को महाराज वयं संवार रहे ह? (तापसी को
देखकर) ओह, इस स यवती को देखकर तो यही लगता है क यह
मेरा बेटा आयु है। अब तो यह ब त बड़ा हो गया!
[ स होकर आगे बढ़ती है।]
राजा :(उवशी को देखकर) बेटा, यह तु हारी माँ आ प च ँ ी ह, जो टकटक
लगाए तु हारी ओर देख रही है और िजसक चोली ेह के कारण
टपकते ए दूध से गीली हो उठी है।
तापसी :बेटा, आओ अपनी माँ का वागत करो। (कु मार के साथ उवशी के
पास जाती है।)
उवशी :माताजी, चरण म णाम करती ।ँ
तापसी :बेटी, तु ह पित का ेम ा हो!
कु मार :माताजी णाम!
उवशी :(ऊपर मुँह उठाए ए कु मार को छाती से लगाकर) बेटा, तुम िपता
को स करनेवाले बनो। (राजा के पास प च ँ कर) महाराज क जय
हो।
राजा :पु वती उवशी का वागत है। आओ यहाँ बैठो। (उसे अपने आसन के
ही आधे भाग पर िबठाता है।)
[उवशी बैठ जाती है, बाक लोग भी यथोिचत थान पर बैठ जाते
ह।]
तापसी :बेटी, यह आयु पढ़-िलखकर अब कवच धारण करने यो य हो गया है।
तो अब यह तेरी धरोहर तेरे पित के स मुख ही तुझे लौटाए देती ।ँ
और अब म िवदा चाहती ।ँ मेरे आ म के काम को देर होती होगी।
उवशी :ब त दन बाद आज आपको देखा है, इसीसे आपको देखकर जी नह
भर रहा है। आपको िवदा देते मुझसे नह बनता; पर आपको रोकना
भी अ याय होगा। तो अब आप जाइए, पर फर दशन अव य
दीिजएगा।
राजा :माताजी, मह ष यवन को मेरा णाम किहएगा।
तापसी :अ छा, अव य क गँ ी।
कु मार :य द आप सचमुच ही वापस लौट रही ह , तो मुझे भी अपने साथ
आ म ले चिलए।
राजा :बेटा, अब तुम पहले आ म म िनवास कर चुके हो। अब तु हारा
ि तीय आ म म रहने का समय आया है।
तापसी :बेटा, अपने िपता क आ ा का पालन करो।
कु मार :अ छा, तो फर मेरे उस मिणक ठक मोर को मेरे पास अव य भेज
दीिजएगा, जो मेरी गोदी म आकर सोया करता था और िसर
खुजलाने पर खूब स होता था। अब तो उस मोर के पँख भी
िनकल आए ह।
तापसी :(हँसकर) अ छा, भेज दूग
ँ ी।
उवशी :भगवती, चरण म णाम करती !ँ
राजा :भगवती, णाम!
तापसी :आपका क याण हो!
[बाहर जाती है।]
राजा :(उवशी से) हे क याणी, िजस कार शची से उ प ए जय त के
कारण इ पु वाले िपता म े िगन जाते ह, उसी कार तु हारे
पु के कारण म भी आज सब पु वाल म े बन गया ।ँ
[उवशी कसी पुरानी बात का मरण करके रोने लगती है।]
िवदूषक :(देखकर, घबराहट के साथ) अजी, यह या आ क ये तो एकाएक
रोने लगी।
राजा :(घबराकर) सु द र, आज इस महान हष के अवसर पर जब क मुझे
मेरा वंशधर ा आ है, तुम रोने य लग ? तु हारे इन पीन
पयोधर पर पहले ही मोितय क माला पड़ी ई है, अब उसके
ऊपर आँसु के ये मोती और य िगरा रही हो?
[उसके आँसू प छता है।]
उवशी :सुिनए महाराज! पहले तो म इस पु के दशन के आन द म अपने-
आपको भूल बैठी थी, पर तु जब आपने अब इ का नाम िलया, तो
मुझे एक शत याद आ गई, िजसके कारण मेरा दय फट-सा रहा है।
राजा :वह शत ही या थी?
उवशी :ब त पहले क बात है। मेरा मन महाराज क ओर लगा आ था।
उस समय गु भरत मुिन के शाप से म कं कत िवमूढ़ हो गई थी।
तब इ ने यह कहा था।
राजा : या?
उवशी :उ ह ने कहा था क जब मेरे ि य िम राज ष पु रवा तुमसे उ प
अपने वंशधर पु का मुख देख लगे, तब तु ह फर वापस मेरे पास
लौट आना होगा।
इस पर महाराज के िवयोग से बचने के िलए मने इसे उ प होते ही
िव ा ययन के िनिम भगवान यवन के आ म म आया स यवती
के हाथ म स प दया था और यह बात कसी-को बताई नह थी।
उसने आज यह समझकर क अब यह अपने िपता क सेवा करने के
यो य हो गया है, यह मेरा चंरजीव पु आयु मुझे लौटा दया है।
महाराज के साथ मेरा इतने दन रहना ही िलखा था!
[सब िवषाद का अिभनय करते ह; राजा मू छत हो जाता है।]
िवदूषक :बुरा आ, बुरा आ।
कं चुक :धीरज ध रए, महाराज, धीरज ध रए!
राजा :(होश म आकर, एक गहरी साँस लेकर) ओह, भा य भी सुख का कै सा
श ु है! सु द र, पु पाने के कारण मुझे अभी कु छ धीरज बँधा ही था
क अब तुरंत तुमसे िवयोग का ण आ उपि थत आ; जैसे
ी मकाल म थम वृि से कसी वृ का धूप का लेश समा आ
हो और उसके साथ ही उसपर िबजली िगर पड़े।
िवदूषक :यह सुघटना तो दुघटना को लेकर आई। अब मुझे लगता है क
महाराज व कल धारण करके तपोवन को चले जाएँगे।
उवशी :और महाराज मुझ अभािगनी के िवषय म भी यही सोचते ह गे क
पढ़ा-िलखा पु ा होने पर अपना काय समा आ जानकर यह
वग को चली जा रही है।
राजा :नह सु द र, ऐसा न कहो। िजस पराधीनता म िवयोग इतनी
आसानी से हो जाता है, उसम ि अपना मनचाहा नह कर
सकता। इसिलए तुम जाओ; अपने भु क आ ा का पालन करो। म
भी आज ही तु हारे पु को रा य स पकर उन बन क ओर िनकल
जाऊँगा, िजनम पशु के झु ड-के -झु ड घूमा करते ह।
कु मार :तात, िजस भार को े बैल ख चता रहा हो, उसम बछड़े को
जोतना उिचत नह है।
राजा :बेटा, ऐसा न कहो। य क ग धराज छोटा होने पर भी दूसरे
हािथय को हरा देता है। नाग के ब े का िवष भी बड़े साँप जैसा ही
च ड होता है। उसी कार राजा बालक होने पर भी सारी पृ वी
क र ा करने म समथ होता है। यह अपने काय को िनबाहने क
शि अव था से नह , अिपतु ज म से ही आती है। आय लात !
कं चुक :आ ा क िजए महाराज।
राजा :मेरी ओर से अमा य-प रषद् से कहो क कु मार आयु के रा यािभषेक
क तैयारी क जाए।
कं चुक :जो महाराज क आ ा। (दु:खी होकर बाहर जाता है।) [सब लोग
आँख चुंिधयाने का अिभनय करते ह।]
राजा :(आकाश क ओर देखकर) यह या, िबना बादल के ही आकाश से
िबजली िगर रही है!
उवशी :(देखकर) ओह, यह तो भगवान नारद आ रहे ह।
राजा :( यान से देखकर) अ छा, भगवान नारद है! यह गोरोचना के समान
ह क भूरी जटा वाले और च मा क कला के शु य ोपवीत
पहने और मोितय क माला से अपना शृंगार कए ऐसे दखाई पड़
रहे ह मानो कोई चलता- फरता क पवृ हो, िजसम से सोने क
शाखाएँ फू ट रही ह । अ छा, तो इनक पूजा के िलए साम ी लाओ।
उवशी :(राजा के कथनानुसार साम ी लाकर) यह भगवान नारद क पूजा
के िलए साम ी है।
[नारद का वेश। सब उठ खड़े होते ह।]
नारद :म यम लोक के लोकपाल क जय हो।
राजा :(उवशी के हाथ से पूजा क साम ी लेकर और पूजा करके ) भगवन्,
अिभवादन करता ।ँ
उवशी :भगवन्, णाम करती ।ँ
नारद :तुम दोन पित-प ी को कभी एक-दूसरे का िवरह न सहना पड़े।
राजा :(मन-ही-मन) काश, क ऐसा हो सकता! (कु मार को छाती से
लगाकर। कट) बेटा, भगवान नारद को णाम करो।
कु मार :भगवन्, उवशी का पु आयु णाम करता है!
नारद :िचरं जीव होओ!
राजा :यह आसन है; इसपर पधा रए।
नारद :ठीक है। (बैठ जाते ह।)
[सब नारदजी के प ात् अपने-अपने आसन पर बैठते ह।]
राजा :(िवनयपूवक) भगवन्, किहए कस योजन से आपका आगमन आ?
नारद :महाराज इ ने एक स देश भेजा है; वह सुिनए।
राजा :किहए; म सुन रहा ।ँ
नारद :इ ने अपने भाव से यह जान िलया क आप वन जाने क सोच
रहे ह। इसिलए उनका आपसे यह अनुरोध है क...
राजा : या आ ा है उनक ?
नारद :ि कालदश मुिनय ने बताया है क शी ही देवता और असुर म
एक महान यु िछड़नेवाला है और आप यु म हमारी सहायता
कया करते ह। इसिलए आप श - याग न कर, यह उवशी
आयुपय त आपक प ी रहेगी।
उवशी :(ओट करके ) आह, मेरे दल का काँटा-सा िनकल गया!
राजा :म तो देवराज इ का आ ाकारी ही ।ँ
नारद :ठीक है। आप इ का काम करते रिहए और वे आपका ि य काय
करते रह। सूय अि क काि त को बढ़ाता है और अि सूय के तेज
को बढ़ाती है। (आकाश क ओर देखकर) र भा, आयु के युवराज-
अिभषेक के िलए वयं इ ारा भेजी गई सामि याँ ले आओ।
[हाथ म सामि याँ िलए ए अ सरा का वेश]
अ सराएँ :भगवन् ये ह अिभषेक क सामि याँ।
नारद :िचरं जीव आयु को भ पीठ पर िबठाओ।
र भा :इधर आओ बेटा। (कु मार को भ पीठ पर िबठाती है।)
नारद :(कु मार के िसर पर पानी का घड़ा उँ ड़ेलकर) र भा, बाक िविध पूरी
कर दो।
र भा :(नारद के कहे अनुसार िविध स प करके ) बेटा, भगवान नारद को
और अपने माता-िपता को णाम करो!
[कु मार मश: तीन को णाम करता है।]
नारद :तु हारा क याण हो!
राजा :तुम अपने कु ल क शोभा बढ़ाओ!
उवशी :अपने िपता क सेवा करनेवाले बनो!
[नेप य म दो वैतािलक]
वैतािलक :युवराज क िवजय हो!
पहला वैतािलक :जैसे ाजी से देव-मुिन अि का ज म आ और अि के पु
च मा और च मा के पु बुध और बुध के पु महाराज पु रवा
ए, उसी कार तुम भी अपने लोक-आ लादक गुण ारा अपने
िपता के अनु प बनो। इसके अित र और सब आशीवाद तो
तु हारे वंश म पहले ही फलीभूत हो चुके ह।
दूसरा वैतािलक :उ त म भी अ णी िगने जानेवाले तु हारे िपता महाराज पु रवा
और अटल धैयवाले और साहसी वयं तु हारे बीच इस समय यह
राजल मी उसी कार और भी अिधक सुशोिभत हो रही है, जैसे
िहमालय और समु दोन म ही अपना पानी बाँटकर बहती ई गंगा
सुशोिभत होती है।
अ सराएँ :(उवशी के पास जाकर) ि य सखी के पु के युवराज-अिभषेक क
और पित के िवयोग न होने क बधाई हो!
उवशी :इस सौभा य क तो तु ह भी बधाई हो! (कु मार का हाथ पकड़कर)
आओ बेटा, चलकर बड़ी माँ को भी णाम कर आओ।
[कु मार चलने को तैयार होता है।]
राजा :थोड़ा ठहरो, हम सब साथ ही महारानी के पास चलते ह।
नारद :इस समय तु हारे इस कु मार आयु का युवराज-पद पर अिभषेक मुझे
उस अवसर क याद दला रहा है, जब देवराज इ ने कु मार
का तके य को देवसेना के सेनापित-पद पर अिभिष कया था।
राजा :यह सब इ क कृ पा है।
नारद :किहए राजन्, इस समय इ आपका और या ि य काय कर सकते
ह।
राजा :य द देवराज इ मुझसे स ह, तो इसके अित र और भला मुझे
या चािहए? पर फर भी यह हो जाए, तो और भी भला।
[भरत वा य]
जो ल मी और सर वती सदा एक-दूसरे क िवरोिधनी ह, और
िजनका एक थान पर िमलकर रह पाना क ठन है, वे ल मी और
सर वती स न के क याण के िलए पर पर िमलकर रहने लग।
और साथ ही सब लोग क ठनाइय को पार कर जाएँ; सब लोग के
भले दन आ जाएँ; सबक कामनाएँ पूरी ह ; और सब सदा आन द
मनाते रह!
[सब बाहर जाते ह।]
मालिवकाि िम
पा

पु ष
सू धार :नाटक का ब धक
पा रपा क :सू धार का सहायक
राजा :िव दशा नरे श अि िम
वाहतक :म ी
िवदूषक :राजा का िम गौतम
कं चुक :अ तःपुर का अ य
गणदास :नाट् याचाय
हरद
सारस :कु बड़ा नौकर
वैतािलक : तुित पाठक
ि याँ
मालिवका :मालव नरे श माधवसेन क बिहन
धा रणी :अि िम क पटरानी
इरावती :अि िम क दूसरी रानी
प र ािजका :माधवसेन के म ी सुमित क बिहन कौिशक
बकु लाविलका :धा रणी क सेिवका; मालिवका क सखी
मधुक रका :मािलन
कौमु दका :दासी
समािहितका :प र ािजका क दासी
िनपुिणका :इरावती क दासी
जयसेना : ितहारी
चेटी :दासी
मदिनका :िवदभ देश क िश पी क याएं
योि का
पहला अंक

पूरी कर भ क कामना सब, ले कन वयं ह गजचमधारी।


ह अधनारी र, क तु फर भी सबसे बड़े वह यित चारी।
जग को स भाले िनज अ मू त से, न इसका उ ह क तु
अिभमान भारी।
स माग दीखे, इस हेतु वह िशव मेट तमोवृि याँ सब
तु हारी।।
[ना दी के बाद]
सू धार :ब त आ भाई; बस करो। (नेप य क ओर देखकर) मा रष, ज़रा
इस ओर तो आओ!
[ वेश करके ]
पा रपा क : ीमन्, लीिजए; म आ गया।
सू धार :अभी िव त्-प रषद् ने मुझे यह आदेश दया है क इस वस तो सव
म कािलदास-रिचत ‘मालिवकाि िम ’ नाटक का अिभनय करना
है। तो उसके िलए संगीत शु करो।
पा रपा क :न ीमन्, ऐसा न क िजए। अ य त यश वी भास, सौिम लक और
किवपु इ या द किवय के नाटक को छोड़कर वतमान किव
कािलदास के नाटक को आप इतना आदर य दे रहे ह?
सू धार :यह भी तुमने एक ही कही। देखो, कोई भी का के वल पुराना होने
से ही अ छा नह हो जाता; और न नया होने से ही कोई का
खराब हो जाता है। िव ान् लोग जाँच-पड़ताल कर दोन म से भले
को चुनते ह और नासमझ लोग के वल दूसर क कही बात के भरोसे
रहते ह।
पा रपा क :अ छा; जैसी आपक आ ा।
सू धार :ठीक है! तो ज दी करो। म चाहता ँ क इस प रषद् क आ ा का
वैसे ही अिवल ब पालन क ँ , जैसे महारानी धा रणी क आ ा का
पालन सेवा म वीण सेवक कर रहे ह।
[दोन का थान]
[ तावना समा ]
[बकु लाविलका का वेश]
बकु लाविलका :महारानी धा रणी ने मुझे आ ा दी है क आचाय गणदास के पास
जाकर यह पूछूँ क हाल म ही मालिवका ने छिलक नाम का जो नया
नृ य सीखना ार भ कया है, उसम वह कै सी चल रही है। अ छा,
अब संगीतशाला ही जाती ।ँ (चलने का अिभनय करती है।)
[आभूषण हाथ म िलए कु मु दनी का वेश]
बकु लाविलका :(कु मु दनी को देखकर) सखी कु मु दनी इतनी बड़ी कै से हो गई क मेरे
पास से िनकली जा रही है, फर भी मेरी ओर आँख उठाकर देखती
नह ?
कु मु दनी :अरे बकु लाविलका! सिख, अभी सुनार के पास से महारानी क यह
नई अँगूठी लेकर आ रही ।ँ इस अँगूठी म महारानी के नाम क मुहर
भी लगी है। इसीक सु दर बनावट को देखती आ रही थी, इसीिलए
तुझे उलाहने का मौका िमल गया।
बकु लाविलका :(देखकर) तेरी दृि ठीक थान पर ही जाकर गड़ी है। इस अँगूठी से
जो करण का जाल-सा फू ट रहा है, उसके कारण ऐसा तीत होता
है मानो अँगुली के ऊपर फू ल िखल उठा हो।
कु मु दनी : य सिख, तुम कधर चली हो?
बकु लाविलका :महारानी ने आचाय गणदास से यह पूछने के िलए भेजा है क
मालिवका क िश ा कै सी चल रही है।
कु मु दनी : य री, इतनी सावधानी बरतने पर भी िबना सामने आए महाराज
ने उसे कै से देख िलया?
बकु लाविलका :हाँ, एक िच म महारानी के पास उसका िच बना था। वह
महाराज ने देख िलया।
कु मु दनी :वह कै से?
बकु लाविलका :बताती ।ँ महारानी िच शाला म जाकर आचाय ारा बनाए ए
ताज़े-ताज़े िच को खड़ी देख रही थ । तभी महाराज आ प च
ँ ।े
कु मु दनी : फर या आ?
बकु लाविलका :अिभवादन के बाद जब महाराज महारानी के साथ एक ही आसन
पर बैठ गए, तब उ ह ने िच म महारानी क सेिवका के म य
खड़ी उस लड़क को देखकर महारानी से पूछा।
कु मु दनी : या पूछा?
बकु लाविलका :यह जो लड़क महारानी के पास िच म िचि त है, इसे पहले कभी
देखा नह । इसका या नाम है?
कु मु दनी :मनोहर कृ ितय के ित ेम उ प हो ही जाता है। अ छा, फर
या आ?
बकु लाविलका :जब महारानी ने इस बात का कोई उ र न दया, तो महाराज को
कु छ स देह आ और उ ह ने फर आ ह के साथ महारानी से पूछा।
तब कु मारी वसुल मी ने कह दया, महाराज, यह मालिवका है।
कु मु दनी :(मु कराकर) आिखर ब ी ही है न! अ छा, फर या आ?
बकु लाविलका :होना या था! आजकल इस बात के िलए ब त सावधानी बरती जा
रही है क मालिवका पर महाराज क दृि न पड़ सके ।
कु मु दनी :अ छा बहन, चलो अपने काम को भुगता डालो। म भी एक अँगूठी
महारानी के पास ले जा रही ।ँ (बाहर जाती है।)
बकु लाविलका :(चलने का अिभनय करके और सामने क ओर देखकर) ये
नाट् याचाय संगीतशाला से बाहर आ रहे ह। चलकर इनसे िमल लूँ।
(चलने का अिभनय करती है।)
[ वेश करके ]
गणदास :वैसे तो सभी को अपनी वंश-पर परागत िव ा ब त भली मालूम
होती है, पर तु नाट् यकला के ित हमारा अिभमान िम या नह है;
य क मुिन लोग ने बताया है क नाट् यकला देवता का शा त
रस-भरा चा ुष य है। वयं महादेव ने भी उमा से िववाह करने के
उपरा त इस नृ य को ता डव और ला य नामक दो भाग म िवभ
करके अपने शरीर म धारण कया था। नृ य म स व, रज और तम
तीन गुण से यु और अनेक रस से पूण लोकच रत दृि गोचर
होता है। य िप लोक-समाज क िच िभ -िभ होती है, फर भी
इस अके ले नृ य ारा ाय: सभी लोग का मनोरं जन हो जाता है।
बकु लाविलका :(पास जाकर) आय, णाम करती ।ँ
गणदास :भ ,े िचरं जीवी होवो।
बकु लाविलका :आय, महारानी ने पूछा है क नाट् यकला क िश ा हण करने म
आपक िश या मालिवका आपको ब त परे शान तो नह करती?
गणदास :भ ,े महारानी से जाकर कहना क मालिवका ब त ही िनपुण और
मेधािवनी है। और अिधक या क ,ँ िजस-िजस नृ य के स ब ध म म
उसे जो भाव िसखाता ,ँ उनका और भी सु दर प से अिभनय
करके वह बािलका उलटे मुझे ही िसखाना-सा ार भ कर देती है।
बकु लाविलका :(मन-ही-मन) मुझे लगता है क यह शी ही इरावती से भी आगे बढ़
जाएगी। ( कट) आपक िश या के बड़े भा य ह क उसके गु उससे
इतने स ह!
गणदास :भ ,े ऐसे स पा सरलता से कह िमलते नह । इसीिलए पूछता ँ
क महारानी को यह मालिवका कहाँ से ा हो गई?
बकु लाविलका :महारानी के एक दूर के भाई ह, उनका नाम है वीरसेन। महाराज ने
उ ह नमदा नदी के तट पर सीमा त के दुग का अ य बना दया है।
उ ह ने यह देखकर क यह बािलका नाट् यकला सीखने के यो य है,
अपनी बिहन महारानी के पास उपहार के प म भेज दी है।
गणदास :(मन-ही-मन) इसक असाधारण सु दर आकृ ित को देखकर ऐसा
तीत होता है क यह कसी बड़े प रवार क क या है। ( कट) भ ,े
मेरे भाग म भी यश िलखा तीत होता है; य क गु ारा स पा
को दान क गई कला और भी अिधक उ कृ बन जाती है, जैसे
बादल का पानी समु क सीपी म पड़कर मोती बन जाता है।
बकु लाविलका :आय, इस समय आपक िश या है कहाँ?
गणदास :अभी पंचांग आ द का अिभनय िसखाकर मने उसे थोड़ी देर िव ाम
करने को कहा है। इस समय वह सरोवर क ओर खुलनेवाले झरोखे
म खड़ी ई वायु का आन द ले रही होगी।
बकु लाविलका :अ छा; तो मुझे अनुमित दीिजए। म भी जाकर उसे बताऊँ क आप
उससे कतने स तु ह। इससे उसका उ साह बढ़ेगा।
गणदास :हाँ, हाँ जाइए। आप अपनी सखी से अव य िमिलए। म भी कु छ देर
के िलए अपने घर जा रहा ।ँ
[दोन का थान]
[िम िव क भक]
[एका त म अपने सभासद के साथ बैठे ए महाराज दखाई पड़ते
ह। म ी अपने हाथ म एक लेख िलए ए है।]
राजा :(म ी के लेख पढ़ चुकने के प ात् उसक ओर देखकर) वाहतक,
आिखर िवदभराज चाहता या है?
अमा य :अपना िवनाश, महाराज।
राजा :हाँ, उसने यह या स देश भेजा है?
अमा य :उसने यह िलखकर भेजा है क ीमान् ने मुझे यह आदेश दया था
क “आपके चचेरे भाई कु मार माधवसेन स ब ध प ा करने के
प ात् जब मेरे पास आ रहे थे, तो माग म आपके अ तपाल ने उ ह
बलपूवक पकड़कर ब दी बना िलया। अब आप उ ह मेरे कहने से
उनक बिहन और प ी-समेत छोड़ दीिजए।” आपको यह तो ात
ही है क समान गौरववाले राजा म पर पर कस कार वहार
होता है। इसिलए ीमान् यहाँ पर समान वहार कर, तो भला है।
माधवसेन क बिहन पकड़-धकड़ के कोलाहल म कह खो गई है। म
उसे ढू ँढ़ने का य क ँ गा। य द आप चाहते ह क म माधवसेन को
अव य ही छोड़ दू,ँ तो उसके िलए मेरी शत सुन लीिजए। य द
ीमान् मेरे साले मौयसिचव को छोड़ दगे, िजसे आपने कै द कया
आ है, तो म भी माधवसेन तो तुर त ही मु कर दूग ँ ा। बस, यह
िलखा है महाराज।”
राजा :( ोधपूवक) अ छा, यह मूख मेरे साथ बराबरी का लेन-देन करना
चाहता है। वाहतक, िवदभराज वभावत: हमारा श ु है, और सदा
हमारा कु छ-न-कु छ िबगाड़ करता रहता है। हमने पहले ही इसे जड़
से उखाड़ फकने का संक प कया था। अब वीरसेन क अधीनता म
उस ओर पड़ी सेना को आ ा दो क वह इसे उिचत द ड दे।
अमा य :जो महाराज क आ ा।
राजा :अ छा, आपक स मित या है?
अमा य :महाराज ने िबलकु ल शा ानुकूल बात कही है। िजस श ु को
राज संहासन पर बैठे ब त देर न ई हो, उसक जड़ जा म पूरी
तरह जमी नह होती; इसीिलए वह नए रोपे गए ढीले-ढाले वृ क
भाँित होता है, और उसे उखाड़ना ब त सरल होता है।
राजा :ठीक है। तब तो शा कार क बात स य ही है। चलो, इसी शा -
वा य को माण मानकर सेनापित को आदेश भेज दो।
अमा य :अव य महाराज। (बाहर जाता है।)
[बाक लोग राजा के चार ओर अपने काय म लगे बैठे रहते ह।]
[ वेश करके ]
िवदूषक :महाराज ने मुझे आदेश दया है क गौतम, कोई ऐसा उपाय खोज
िनकालो क िजससे संयोगवश िच म दीख पड़ी मालिवका य
दीख सके । अब मने एक उपाय ढू ँढ़ िनकाला है। वही चलकर महाराज
को बताता ।ँ (चलने का अिभनय करता है।
राजा :(िवदूषक को देखकर) लो; यह एक और हमारे दूसरे काय के सिचव
आप च ँ ।े
िवदूषक :(पास जाकर) महाराज क ी-वृि हो!
राजा :(िसर िहलाकर) आओ, यहाँ बैठो।
[िवदूषक पास जाकर बैठ जाता है।]
राजा :कहो, हमारे अभी का कोई उपाय सूझा या नह ?
िवदूषक :महाराज, यह पूिछए क काम बना कै से!
राजा :अ छा, कै से बना?
िवदूषक :(राजा के कान म) इस कार।
राजा :शाबाश, िम शाबाश! ब ढ़या उपाय िनकाला! अब इस दु कर काय
म भी मुझे सफलता क आशा हो गई है। य क िजस व तु क ाि
म अनेक बाधाएँ ह , उसे वही ि ा कर सकता है, िजसके
ब त-से सहायक ह । अ धकार म दीपक के िबना आँख वाले ि
को भी कु छ दखाई नह पड़ता।
[नेप य म]
थ क बकवाद मत कर। अब राजा के सामने ही यह पता चलेगा
क हमम से कौन बड़ा और कौन छोटा है।
राजा :( यान से सुनकर) लो िम , तु हारी नीित के पौधे पर तो अभी से
फू ल भी िखलने लगे।
िवदूषक :ज दी ही फल भी दखाई पड़गे।
[कं चुक का वेश]
कं चुक :महाराज, अमा य ने कहा है क ीमान् क आ ा का पालन कर
दया गया है। अब यहाँ ये दो नाट् याचाय हरद और गणदास
आपके दशन के िलए उपि थत ह। ये एक-दूसरे को नीचा दखाने क
ठानकर आए ह और देखने म ऐसे तीत हो रहे ह, मानो वयं भाव
ही शरीर धारण करके आ प च ँ ेह।
राजा :उ ह अ दर ले आओ।
कं चुक :जो महाराज क आ ा। (बाहर जाता है और फर उन दोन के साथ
वेश करता है।) इधर आइए आप लोग।
गणदास :(राजा को देखकर) राजा का तेज भी बड़ा दुर त है! यह नह क
महाराज मुझसे प रिचत न ह ; और न ये असु दर ही ह, फर भी
इनके पास जाते ए मुझे कु छ िविच -सा लग रहा है। समु क
भाँित इनका वही प ित ण मेरी आँख को िबलकु ल नया तीत
हो रहा है।
हरद :ये महाराज पु ष के प म कोई महान योित ह। देखो न, य िप
ारपाल से अनुमित ा करके ही अ दर आया ँ और राजा के
संहासन के िनकट रहनेवाले सेवक के साथ चल रहा ,ँ पर तु इनके
तेज के कारण मेरी दृि कु ि ठत-सी हो गई है और मुझे ऐसा लग रहा
है क कसी ने िबना कु छ कहे ही मुझे आगे बढ़ने से रोक दया है।
कं चुक :वे महाराज बैठे ह। आप लोग उनके पास जाइए।
दोन :(पास जाकर) महाराज क जय हो!
राजा :आप दोन का वागत है। (सेवक क ओर देखकर) आप दोन के
िलए आसन लाओ।
[दोन आचाय सेवक ारा लाकर रखे गए आसन पर बैठ जाते
ह।]
राजा :यह तो आप दोन का अपने िश य को पढ़ाने का समय है। इस समय
आप दोन एकसाथ यहाँ कै से आ प च
ँ ?े
गणदास :सुिनए महाराज, मने बड़े धुर धर गु से अिभनय-कला क िश ा
भली भाँित ा क है। म इस कला को िसखा भी रहा ।ँ महाराज
और महारानी ने भी मेरी कला को देखा है।
राजा :जी हाँ, म जानता ।ँ पर इससे या आ?
गणदास :इस हरद ने राजपु ष के स मुख यह कहकर मेरा ितर कार कया
है क यह गणदास मेरे पैर क धूल भी नह है।
हरद :महाराज, पहले इ ह ने झगड़ा शु कया था। इ ह ने कहा क इनम
और मुझसे वही अ तर है, जो समु म और घड़े म होता है। अब आप
ही इनके और मेरे शा - ान और अिभनय- ान का िवचार कर।
आप ही इस िवषय के िवशेष ह। अब आप िनणायक बनकर हमारा
फै सला कर दीिजए।
िवदूषक :बात तो ठीक कही है।
गणदास :िबलकु ल ठीक। अब महाराज यान से मेरी बात सुन।
राजा :जरा ठह रए। महारानी यह न समझ क हमने प पात कया है
इसिलए भला यह है क याय-िवचार उनके और पि डता कौिशक
के स मुख ही कया जाए।
िवदूषक :आप िबलकु ल ठीक कहते ह।
दोन आचाय :जैसी महाराज क इ छा।
राजा :मौद्ग य, यह सारा वृ ा त बतलाकर महारानी और पि डता
कौिशक को बुला लाओ।
कं चुक :जो महाराज क आ ा। (बाहर जाता है और प र ािजका तथा
महारानी के साथ वेश करता है।) इधर आइए इधर।
धा रणी :(प र ािजका क ओर देखकर) य भगवती, हरद और गणदास के
इस िववाद म आपको कसक जय होती दखाई पड़ती है?
प र ािजका :अपने प क पराजय का भय मत क िजएगा। गणदास अपने
ित पध से हारनेवाला नह है।
धा रणी :यह तो ठीक है। फर भी राजा क कृ पा कसीको भी िजता सकती है।
प र ािजका :आप इस बात का भी तो यान रिखए क आप भी महारानी ह।
देिखए न, य द सूय क कृ पा से अि अ यिधक देदी यमान हो उठती
है, तो िनशा क कृ पा से च मा भी तो काि तमान हो उठता है।
िवदूषक :अरे , पि डता कौिशक को साथ िलए महारानी धा रणी आ प चँ ी।
राजा :देख रहा ।ँ ये महारानी सौभा यसूचक आभूषण पहने ए साधु-वेश
धा रणी कौिशक के साथ आती ई ऐसी तीत हो रही ह, मानो
अ या म िव ा के साथ शरीर धारण कए ए यी िव ा चली आ
रही हो।
पा र ािजका :(पास प च ँ कर) महाराज क जय हो!
राजा :भगवती, नम कार!
प र ािजका :महाराज, आप महातेज वी पु और र को उ प करनेवाली
तथा समान प से माशील धा रणी और धरणी दोन के ही सैकड़
वष तक वामी बने रह।
धा रणी :आयपु क जय हो।
राजा :महारानी का वागत है। (प र ािजका क ओर देखकर) भगवती,
आसन पर बै ठए न।
[सब बैठ जाते ह।]
राजा :भगवती, आचाय हरद और गणदास म अपने-आपको एक-दूसरे से
बड़ा िस करने क होड़ लग गई है। इस िववाद म आप िनणायक
बिनए।
प र ािजका :(मु कराते ए) छोिड़ए भी इस मजाक को। शहर छोड़कर गाँव म
र क परख!
राजा :नह , यह बात नह । म और महारानी तो प पाती ह। आप िबलकु ल
िन प ह।
दोन आचाय :महाराज ने िबलकु ल ठीक कहा है। भगवती कौिशक ही म य थ
बनकर हम दोन के गुण-दोष का िनणय कर द।
राजा :अ छा, तो अब अपना िववाद तुत क िजए।
प र ािजका :महाराज नाट् यशा तो योग- धान है। यहाँ के वल जीभ चलाने से
या होगा? य , महारानी क या स मित है?
धा रणी :य द मुझसे पूछ, तो मुझे तो इन दोन का यह िववाद ही भला नह
लग रहा।
गणदास :महारानी, यह न समिझए क म नाट् यशा क िव ा म कसी से
हार जाऊँगा!
िवदूषक :महारानीजी, इन दोन पेटू ा ण के िववाद को देख ही य न ल।
इ ह बैठे-िबठाए वेतन देते रहने का भी या लाभ है?
धा रणी :तु ह तो बस झगड़ा ही अ छा लगता है।
िवदूषक :यह बात नह च डीजी, एक-दूसरे से लड़ने के िलए उता इन दो
म त हािथय म से एक के िबना हारे शाि त हो कहाँ सकती है?
राजा :भगवती, आप इन दोन के अपने अिभनय-कौशल को तो देख ही
चुक है।
प र ािजका :जी हाँ, य नह !
राजा :तो अब उससे अिधक और िव ास दलाने के िलए ये दोन या कर
सकते ह?
प र ािजका :म वही करना चाहती ।ँ कसीक कला ऐसी होती है क वह वयं
उसम ब त वीण होता है; पर कु छ लोग क कला ऐसी होती है क
वे दूसर को भी उस कला को भली भाँित िसखा सकते ह। िश क म
उसीको सबसे अ छा समझना चािहए, िजसम ये दोन गुण
िव मान ह ।
िवदूषक :आप दोन ने भगवती का आदेश सुन िलया? इसका सारांश यह है क
िनणय इस बात से होगा क आप लोग ने अपने िश य को
नाट् यकला कै सी िसखाई है।
हरद :िबलकु ल ठीक! हम वीकार है।
गणद :महारानीजी, तो फर यही सही।
धा रणी :पर तु, य द म दबुि िश य गु ारा िसखाई ई िव ा को ठीक
द शत न कर सके , तो वह आचाय का दोष नह समझा जाना
चािहए।
राजा :महारानी, ऐसा कहा जाता है क य द गु अपा को अपना िश य
बना ले, तो उससे गु क ही बुि हीनता कट होती है।
धा रणी :(मन-ही-मन) अब या कया जाए? आयपु को िजस इ छा से
इतना उ साह हो रहा है, उसे पूण नह होने देना। (गणदास क ओर
देखकर। कट) इस िनक मे झगड़े को छोड़ो भी।
िवदूषक :महारानी ठीक कहती ह। अरे गणदास, संगीताचाय का पद ा
करके तु ह सर वती देवी क कृ पा से लड् डू खाने को िमलते ह, तो
फर थ म य ऐसा िववाद मोल लेते हो, िजसम तु हारी बोलती
ब द हो जाए?
गणदास :महारानी क बात का तो यही अथ है। पर लो, जब मौका आ पड़ा है,
तो म कहे ही देता ँ क जो आचाय ित ा ा करने के बाद
शा ाथ से घबराता है; दूसर ारा क जानेवाली िन दा को
चुपचाप सुन लेता है और िजसका शा ान के वल जीिवका-उपाजन
के िलए है, उसे आचाय नह बि क ान बेचनेवाला बिनया कहा
जाता है।
धा रणी :पर तु आपने तो िश या को कु छ ही समय पहले नाट् यकला िसखानी
ार भ क है। उसका इतनी ज दी दशन करना यायोिचत नह है।
गणदास :और इसीिलए तो म इतना आ ह कर रहा ।ँ
धा रणी :अ छा, तो आप दोन के वल भगवती कौिशक को ही अपने
नाट् कला-िश ण क कु शलता दखलाइए।
प र ािजका :नह महारानी, यह उिचत न होगा। अके ले ि का, चाहे वह
सव ही य न हो, िनणय िनद ष हो पाना क ठन है।
धा रणी :(मन-ही-मन) अरी मूख प र ािजका, तू मुझ जागती को ही सोती-
सी कर देना चाहती है। (खीझकर दूसरी ओर मुँह फे र लेती है।)
[राजा प र ािजका को रानी क ओर देखने का संकेत करता है।]
प र ािजका :अरी च वदनी, िबना बात ही तुम महाराज से मुँह फे रकर य बैठ
गई हो? िजन गृिहिणय के पित उनके वश म होते ह, वे भी अपने
पितय से कसी-न- कसी उिचत कारण पर ही ठती ह।
िवदूषक :यह ठना भी सकारण ही है। अपने प को तो बचाना ही चािहए।
(गणदास क ओर देखकर) कु शल मनाओ क महारानी ने ठने के
बहाने तु हारी र ा कर ली। पर सच बात तो यह है क कोई कतना
भी सुिशि त य न हो, पर तु उसक कु शलता उसक िश ण क
िनपुणता को देखकर ही क जाती है।
गणदास :महारानीजी सुन रही ह? ये लोग इस बात को कस प म ले रहे ह?
अब म इस िववाद म यह दखाकर ही छोड़ूग ँ ा क म अिभनय-कला
के िश ण म कतना कु शल ।ँ और य द आप मुझे इसक अनुमित
नह दगी तो म समझूँगा क आपने मुझे नौकरी से अलग कर दया
है।
[आसन से उठना चाहता है।]
धा रणी :(मन-ही-मन) अब उपाय या है। ( कट) िश य तो आचाय के ही
अधीन होता है।
गणदास :मुझे ब त देर से यही डर था क कह आप आ ा देकर मुझे अपने
कौशल- दशन म रोक न द। (राजा क ओर देखकर) महारानी ने
अनुमित दे दी है। अब महाराज आदेश द क कस अिभनय को
आपके स मुख तुत कया जाए।
राजा :भगवती कौिशक जो आदेश द, वही क िजए।
प र ािजका :महारानी के मन म ज़ र कोई बात है; इसीसे मुझे िहचक हो रही है।
धा रणी :आप िनि त होकर किहए। अपने सेवक पर मुझे पूरा अिधकार है।
राजा :और कहो क मुझपर भी
धा रणी :भगवती, अब आप आदेश दीिजए।
प र ािजका :महाराज श म ा ारा रिचत च पद वाला छिलक नामक नाट् य
ब त क ठन समझा जाता है। इसिलए इन दोन आचाय क कला
क परी ा उसी नाट् य के योग म हो जाए। उसीसे इन दोन के
िश ण-कौशल का अ तर ात हो जाएगा।
दोन आचाय :जैसी भगवती क आ ा।
िवदूषक :अ छा, अब दोन प परी ा-गृह म जाकर संगीत का ब ध
क िजए और उसके बाद कसीके ारा महाराज को सूचना िभजवा
दीिजए। या सूचना क या आव यकता है? मृदग
ं का श द सुनकर
ही हम लोग उठ खड़े ह गे।
हरद :ठीक है। (उठ खड़ा होता है।)
[गणदास धा रणी क ओर देखता है।]
धा रणी :(गणदास क ओर देखकर) आपक िवजय हो। म आचाय क िवजय
म बाधा नह बनना चाहती।
[दोन आचाय का थान]
प र ािजका :जरा और सुिनए।
दोन आचाय :(मुड़कर) जी किहए।
प र ािजका :िनणय का अिधकार मुझे स पा गया है, इसिलए मेरा कथन है क
आप अपने पा को ब त स ा और शृंगार के साथ न लाएँ, िजससे
उनका स पूण अंग-सौ व ठीक-ठीक कट हो सके ।
दोन आचाय :हम यह बताने क आव यकता नह है। (दोन बाहर जाते ह।)
धा रणी :(राजा क ओर देखकर) य द आयपु राज-काज म ऐसा कौशल
द शत कर, तो कतना भला हो!
राजा :रानी, इन सबको गलत न समझ बैठना। इसम मेरा कोई हाथ नह
है। एक-दूसरे क ट र के िव ान् लोग ाय: एक-दूसरे के बढ़ते ए
यश को सह नह पाते।
[नेप य म मृदंग क विन सुनाई पड़ती है। सब कान देकर सुनते
ह।]
प र ािजका :अरे , संगीत ार भ हो गया। यह दूर-दूर तक गूँजने वाली म यम
वर म उठी ई मायूरी नामक मृदग ं क गमक मन को उ म -सा
कर रही है। इस श द को सुनकर मेघ-गजन के म म मोर अपनी
ीवाएँ उठा-उठाकर बोलने लगे ह।
राजा :महारानी चलो। चलकर उसका आन द ल।
धा रणी :(मन-ही-मन) आह, आयपु भी कतने ढीठ ह!
[सब उठ खड़े होते ह।]
िवदूषक :(ओट करके ) अरे भाई, धीरे चिलए; नह तो धा रणीजी सारा खेल
िबगाड़ दगी।
राजा :य िप म ब त धैय रखने का य कर रहा ,ँ पर तु यह मुरज वा
से उठा आ राग मेरी गित को ती कर रहा है। ऐसा तीत होता है
मानो यह राग िसि -पथ पर उतरते ए मेरे मनोरथ का ही मधुर
श द हो।
[सब बाहर िनकल आते ह।]
दूसरा अंक
[सुसि त संगीतशाला म संहासन पर बैठा आ
राजा, उसके साथ िवदूषक, महारानी धा रणी,
प र ािजका और आसपास अ य प रचायक दखाई
पड़ते ह।]
राजा :भगवती, इन दोन आचाय म से पहले कसके िश ण-कौशल का
दशन देखा जाए?
प र ािजका :य िप ान क दृि से तो दोन समान ह, पर तु आयु क दृि से
गणदास बड़े ह; इसिलए उ ह ही पहले अवसर देना उिचत है।
राजा :अ छा मौद्ग य, दोन आचाय को यह सूचना दे दो और उसके बाद
तुम जाकर अपना काम देखो।
कं चुक :जो महाराज क आ ा। (बाहर जाता है।)
[ वेश करके ]
गणदास :महाराज, यह श म ा ारा रिचत एक चतु पदी है, जो म य लय म
है। अब उसके छिलक नामक अिभनय को महाराज यानपूवक देख।
राजा :आचाय, म अ य त आदरपूवक सावधान होकर सुन रहा ।ँ
[गणदास बाहर जाता है।]
राजा :(धीरे से) िम , मेरी आँख नेप य म खड़ी ई मालिवका के दशन के
िलए इतनी अधीर ह क जैसे वे परदे को हटा डालने का य -सी
कर रही ह।
िवदूषक :(ओट करके ) आपक आँख का मधु अब सामने उपि थत है; पर तु
मधुम खी भी पास ही बैठी ह। हाँ, ज़रा सावधान होकर ही देिखए।
[मालिवका का वेश। आचाय गणदास उसके अंग-सौ व क ओर
पूरी तरह यान लगाए ए ह।]
िवदूषक :(धीरे से) देिखए महाराज, इसका स दय इसके िच से कसी कार
कम तो नह है?
राजा :(ओट करके ) िम , जब मने इसके िच को देखा था, तो मुझे यह भय
लगा था क कह इसका वा तिवक प िच के समान न हो; पर तु
अब तो मुझे ऐसा लग रहा है क िजसने इसका िच बनाया था,
उसने ठीक यान से िच ांकन नह कया।
गणदास :बेटी, घबराओ मत; सचेत रहो।
राजा :अहा! इसका यह सौ दय कै सा सब दृि य से िनद ष है! देखो न,
इसक आँख बड़ी-बड़ी ह; शरद ऋतु के च मा क भाँित उ वल
मुख है; बाँह क ध पर से झुक ई ह; छाती उभरे ए कठोर तन
से भरी ई ह; दोन कांख खूब िचकनी ह; कमर इतनी पतली है क
मु ी म आ जाए; जाँघ खूब भारी ह; और पैर क अँगुिलयाँ झुक -
झुक सी ह। ऐसा तीत होता है क इसके शरीर को ठीक वैसा
बनाया गया है जैसा क इसके ना -गु ने अपने मन म चाहा था।
मालिवका :(थोड़ा-सा आलाप भरकर एक चतु पदी गाती है।)
दुलभ है ि यतम मेरा, म कै से उसको पाऊँ?
मत आस लगा मन उसक तुझको कतना समझाऊँ?
यह आँख फड़कती बा , इसका या अथ लगाऊँ?
िचरकाल बाद ि य दीखे, पर कै से पास बुलाऊँ?
म नाथ, पड़ी ँ परबस, कस तरह चाह जतलाऊँ?
[गीत के भाव के अनुसार अिभनय करती है।]
िवदूषक :(धीरे से) िम , इस चतु पदी ारा तो इ ह ने अपने-आपको तु हारे
स मुख सम पत ही कर दया है।
राजा :हाँ िम , मेरा मन भी यही कहता है। ‘नाथ, मुझे अपने ित अनुर
समझो’ ऐसा गीत गाकर और अपने अिभनय ारा उसी भाव को
और भी कट करते ए अ य त सुकुमार ाथना के बहाने मुझीसे
यह बात कही है। इस समय महारानी धा रणी पास बैठी ह, इसिलए
ेम कट कर पाने का और कोई उपाय तो हो ही नह सकता था।
[मालिवका गीत क समाि पर बाहर जाना चाहती है।]
िवदूषक :ज़रा ठह रए जी। आप अिभनय म एक खास चीज भूल गई ह। म
आपसे वही पूछना चाहता ।ँ
गणदास :बेटी, जरा ठहरो। जब इन लोग को यह िव ास हो जाए क तु हारा
िश ण िबलकु ल ठीक आ है, तभी जाना।
[मालिवका लौटकर खड़ी हो जाती है।]
राजा :(मन-ही-मन) अहा, सु दरता सब दशा म कु छ-न-कु छ नई ही छिव
दखाती है! देखो, यह अपने बाएँ हाथ को कमर पर रखे खड़ी है,
िजससे हाथ का कं गन फसलकर कलाई के जोड़ पर आ प च ँ ा है।
इसका दूसरा हाथ यामा लता क डाल क तरह ढीला होकर झूल
रहा है। यह फश पर पड़े ए एक फू ल को पैर के अँगूठे से िहला-डु ला
रही है और दृि य को नीची कए उसीको देख रही है। इसका यह
सीधा शा त खड़ा आ शरीर इसके नृ य क अपे ा भी कह अिधक
सु दर लग रहा है।
धा रणी :आय, आप गौतम क बात पर भी यान देने लगे?
गणदास :महारानी ऐसा न किहए। महाराज के साथ रहते-रहते स भव है,
गौतम भी सू मदश हो गए ह । िव ान मनु य के संसग से मूख भी
िव ान बन जाता है, जैसे िनमली के बीज से मिलन जल भी व छ
हो जाता है। (िवदूषक क ओर देखकर) ठीक है, हम सुन लेते ह क
आय गौतम या कहना चाहते ह।
िवदूषक :(गणदास क ओर देखकर) पहले भगवती कौिशक से पूिछए, उसके
बाद जो भूल मुझे दखाई पड़ी है, उसे म बताऊँगा।
गणदास :भगवती, जैसा आपने देखा है, वैसा किहए। वह ठीक है या गलत।
प र ािजका :जो कु छ मने देखा है, वह तो सबका सब िनद ष है; य क
मालिवका ने अपने अंग ारा वचन म िनिहत अथ को िबलकु ल
ठीक-ठीक ढंग से कर दया। उसके पैर लय के साथ-साथ चल
रहे थे और वह भाव म त मय हो गई थी। उसका अिभनय अ य त
आकषक था और उसको देखकर भाव पर पर इस कार टकरा-से
रहे थे क मन उनम बँध गया-सा तीत होता था।
गणदास :अ छा, महाराज क या स मित है?
राजा :अब हम अपने प पर वैसा अिभमान नह रहा।
गणदास :आज म अपने-आपको पूरे तौर पर नाट् याचाय समझता ;ँ य क
िव ान लोग आचाय के उसी िश ण को िनद ष समझते ह, जो आप
जैसे परी क के स मुख आने पर भी िनद ष िस हो; जैसे खरा
सोना अि म पड़ने पर भी काला नह पड़ता।
धा रणी :आपको बधाई हो क आपके िश ण पर कसी कार क आँच नह
आई।
गणदास :मेरी इस िवजय का ेय आपक कृ पा को ही है। (िवदूषक क ओर
देखकर) गौतम, अब कहो; तु हारे मन म या बात है?
िवदूषक :जब पहले-पहले अपनी िश ण-कला का दशन कया जाए, तो
ार भ म ा ण क पूजा करनी चािहए; वह आप लोग भूल ही
गए।
प र ािजका :अहा! या नाट् यकला क गहराई क बात पूछी है!
[सब हँस पड़ते ह। मालिवका मु कराती है।]
राजा :(मन-ही-मन) मेरी अिभलिषत व तु आँख के ारा तो मुझे ा हो
ही गई, य क मेरी आँख ने बड़े-बड़े नयन वाली मालिवका का
मु कराता आ वह मुख देख िलया, िजसम ज़रा-ज़रा दाँत दखाई
पड़ रहे थे, और इसी कारण वह और भी सु दर हो उठा था। ऐसा
तीत आ मानो कोई नया िखलता आ ऐसा कमल का फू ल दखाई
पड़ा हो, िजसके के सर अभी थोड़े-थोड़े ही दीखने शु एह।
गणदास : ा ण देवता, यह हमारा थम अिभनय- दशन नह है, नह तो
दान-दि णा पर जीनेवाले आपक पूजा हम कह भूल सकते थे?
िवदूषक :मने भी सूखे गरजते ए बादल से चातक के समान पानी क आशा
क । अ छा ठीक है; अगर पि डत लोग को स तोष हो जाए तो
उनक देखा-देखी मूख लोग भी स तु हो जाते ह। अब य क
भगवती कौिशक ने कह ही दया है क तु हारा अिभनय अ छा
रहा, तो लो तु ह यह पा रतोिषक देता ।ँ (यह कहकर राजा के हाथ
से सोने का कड़ा उतार देना चाहता है।)
धा रणी :ठहरो तो। दूसरे क कला को िबना जाने य यह आभूषण देने लगे
हो?
िवदूषक :दूसरे का है, देने म या हज है?
धा रणी :(आचाय क ओर देखकर) आय गणदास, अब तो आपक िश या
अपनी सीखी ई कला दखा चुक न!
गणदास :आओ बेटी; अब चल।
[मालिवका आचाय के साथ बाहर िनकल जाती है।]
िवदूषक :(धीरे से) आपक सेवा करने का मुझम इतना ही बुि -कौशल था।
राजा :(धीरे से) न, न, इतने पर ही बस न करो। मुझे तो ऐसा तीत हो रहा
है क इस पद के पीछे उसके िछप जाने से मेरी आँख का भा य अ त
हो गया है, दय का उ सव समा हो गया है, और ेम का ार ब द
हो गया है।
िवदूषक :(धीरे से) द र रोगी क भाँित आप यह चाहते ह क वै आपको
औषध भी अपने घर से ही दे।
[ वेश करके ]
हरद :महाराज, अब मेरा अिभनय देखने क कृ पा क िजए।
राजा :(मन-ही-मन) देखने का योजन तो समा हो चुका। (िश ाचार के
पालन के िलए कट) हाँ, हम तो उ सुक ही बैठे ह।
हरद :आपक कृ पा है।
[नेप य म]
वैतािलक :महाराज क जय हो। म या न हो चला है; बाविड़य म कमल के
प क छाया म हँस आँख मूँदे िव ाम करने लगे ह। महल धूप से
ऐसे तप उठे ह क उनके छ पर कबूतर का बैठ पाना भी क ठन
हो गया है। यासा मोर घूमते ए अरघ य से िगरते ए
जलकण को पीने के िलए चार ओर च र काट रहा है। सूय अपनी
स पूण करण से उसी कार देदी यमान हो उठा है जैसे आप सम त
राजगुण से देदी यमान ह।
िवदूषक :अरे , यह तो हमारे भोजन का समय हो गया। िच क सक का कथन
है क उिचत समय पर भोजन न करने से बड़ा दोष होता है। (हरद
क ओर देखकर) य हरद , अब या कहते हो?
हरद :अब कहा ही या जा सकता है?
राजा :अ छा, आपके अिभनय- दशन को हम कल देखगे। आज आप
िव ाम क िजए।
हरद :महाराज क जैसी आ ा। (बाहर जाता है)
धा रणी :चिलए, आप ान कर डािलए।
िवदूषक :महारानीजी, अब तो ज दी से कु छ ब ढ़या खाने-पीने का ब ध
करवाइए।
प र ािजका :(उठकर) भगवान् आपका क याण कर। (इतना कहकर प रचारक -
समेत महारानी के साथ बाहर चली जाती है।)
िवदूषक :िम , मालिवका न के वल प-सौ दय म अनुपम है, अिपतु
नृ यिश प म भी अि तीय है।
राजा :िम , िवधाता ने उस सहज सु दर मालिवका को लिलत कला म
वीण बनाकर कामदेव के बाण को िवषबुझा बाण बना दया है।
और या क ,ँ मेरी दशा िच तनीय हो उठी है।
िवदूषक :दशा तो मेरी भी िच तनीय है। मेरे पेट के अ दर इस समय हलवाई
क भ ी जैसी आग लगी ई है।
राजा :अब ज दी ही तुम अपने इस िम के िलए कोई उपाय ढू ँढ़ो।
िवदूषक :उसके िलए तो दि णा आपसे िमल ही चुक है। क तु क ठनाई यह
है क मालिवकाजी का दशन तो मेघमाला म िछपी ई चाँदनी क
भाँित दूसरे के हाथ म है और आप कसाई के घर पर मँडरानेवाले
िग के समान माँस-लोभी और भी ह। पर इतनी अधीरता के साथ
अपना काम बनवाने का आ ह करते ए आप लगते ब त भले ह।
राजा :म अधीर कै से न होऊँ? मेरा दय इस समय अपने अ तःपुर क सब
रािनय से फर गया है और वही सु दर आँख वाली मालिवका मेरे
ेम क एकमा पा बन गई है।
[सब बाहर जाते ह।]
तीसरा अंक
[प र ािजका क प रचा रका समािहितका का वेश]
समािहितका :भगवती ने आ ा दी है क समािहितका, जाकर महाराज के उपवन
से नीबू ले आओ। तो अब चलकर मदवन क मािलन मधुक रका को
ढू ँ ढ़ँू । (चलने का अिभनय करके और देखकर) उधर वह मधुक रका
सुनहले अशोक पर दृि गड़ाए खड़ी है। उसीके पास जाती ।ँ
[उ ान-पािलका मधुक रका का वेश]
समािहितका :(पास जाकर) य मधुक रका, तु हारे उ ान का हाल-चाल सब
ठीक तो है न?
मधुक रका :अरे समािहितका है! सखी, तु हारा वागत है।
समािहितका :सखी, भगवती ने कहा है क उ ह महारानी के पास जाना है। ऐसे
समय खाली हाथ नह जाना चािहए, इसिलए कु छ नीबू ले जाना
चाहती ।ँ
मधुक रका :नीबू तो वे रहे। अ छा, यह तो बताओ, उन दोन नाट् याचाय म जो
िववाद उठ खड़ा आ था, उसम उन दोन के अिभनय को देखकर
भगवती ने कसे े ठहराया?
समािहितका :दोन ही शा म वीण और योग म िनपुण ह, क तु िश या
मालिवका के िवशेष कौशल के कारण गणदास क िश ण-कला े
समझी गई।
मधुक रका :अ छा! और मालिवका के बारे म या कु छ चचाएँ चलती ह?
समािहितका :ठीक है; महाराज उसे चाहते ह; क तु के वल महारानी धा रणी का
मन रखने के िलए प प से कु छ नह कहते। मालिवका भी इन
दन गले म पहनने के बाद उतारी ई मालती-माला के समान कु छ
उदास-उदास-सी दखाई पड़ती है। इससे अिधक म और कु छ नह
जानती। अ छा, अब िवदा दो।
मधुक रका :ये डाली पर नीबू लटक रहे ह, ले लो।
समािहितका :ठीक है। (नीबू तोड़ने का अिभनय करती है।) सिख, साधु लोग क
सेवा करने का तु ह इससे भी अ छा फल िमले। (इतना कहकर चल
पड़ती है।)
मधुक रका :सिख, चलो दोन साथ ही चल। इस सुनहले अशोक म फू ल आने म
ब त देर लग रही है। म भी चलकर महारानी से िनवेदन करती ँ
क इसका कोई उपाय कर।
समािहितका :ठीक है; यह काम ही जो तु हारा ठहरा।
[दोन बाहर जाती ह।]
[ वेशक समा ]
[िवरह- ाकु ल राजा और उसके साथ िवदूषक का वेश]
राजा :(अपनी ओर देखकर) यह तो ठीक है क ि यतमा के आ लंगन का
सुख न िमलने पर शरीर दुबल हो जाए; यह भी ठीक है क ण-भर
को भी ि यतमा के दखाई न पड़ने के कारण आँख म आँसू भर
आएँ; पर तु हे दय, तुम तो कभी भी उस मृगनयनी से दूर नह
रहते; फर तुम कसिलए इतने दुःखी हो रहे हो?
िवदूषक :इस कार अधीर होकर िवलाप न क िजए। म मालिवकाजी क ि य
सखी बकु लाविलका से िमला था। आपने मुझे जो स देश देने को कहा
था, वह मने उससे कह दया है।
राजा :तो उसने या कहा?
िवदूषक :बोली क महाराज से कहना क उनके इस आदेश से म कृ ताथ ई ;ँ
क तु नाग ारा रि त िनिध क भाँित वह बेचारी भी महारानी क
देख-रे ख म है, इसिलए सरलता से ा नह हो सकती। फर भी म
य क ँ गी।
राजा :भगवान् कामदेव, िजन व तु पर इतना कड़ा ितब ध है, उनक
ओर मेरा िच लगाकर तुम इस कार य हार पर हार कए
जा रहे हो क मेरे िलए समय काटना भी दूभर हो गया है? (आ य
द शत करते ए) कहाँ तो दय को मथ डालनेवाली यह ािध,
और कहाँ तु हारा यह िव ास यो य हिथयार ेम! यह जो कहा
जाता है क कोमल व तु अिधक ती ण होती है वह तु हारे िवषय म
पूरी तरह स य दखाई पड़ता है।
िवदूषक :म कहता ँ क उस काय को पूरा करने के िलए मने एक उपाय खोज
िनकाला है। आप अपने-आपको ज़रा शा त तो क िजए।
राजा :अ छा! अब मेरा भी मन कसी काम-काज म तो लग नह रहा, और
दन अभी काफ बाक पड़ा है। यह समय कहाँ िबताया जाए?
िवदूषक :आज ही तो रानी इरावती ने िनपुिणका के हाथ नए-नए ताजे लाल
कु रबक के फू ल आपके पास उपहार म िभजवाए थे और वस त के
नवागमन के बहाने आपसे अनुरोध कया था क म आयपु के साथ
झूला झूलने का आन द लेना चाहती ;ँ और आप भी उसे इसका
वचन दे चुके ह। तो आइए, मदवन क ओर ही चल।
राजा :इस समय वहाँ चल पाना स भव नह है।
िवदूषक : य , या बात है?
राजा :िम , ि याँ वभाव से ही ब त िनपुण होती ह। यह स भव नह क
तु हारी सखी इस बात को पहचान न ले क इस समय मेरा दय
कसी दूसरे क ओर लगा आ है। इसिलए मुझे तो ऐसा लगता है क
इस ेम के संग को कोई-न-कोई बहाना बनाकर टाल देना भला है।
मनि वनी रमिणय के स मुख कृ ि म ेम का दशन करना और भी
अिधक भावशू य तीत होता है।
िवदूषक :अपनी अ तःपुर क रािनय के ित ेम को इस कार एकाएक छोड़
देना भी तो भला नह मालूम होता।
राजा :(कु छ सोचकर) अ छा, तो चलो मदवन क ओर ही ले चलो।
िवदूषक :ठीक है; आइए, इधर आइए।
[दोन चलने का अिभनय करते ह।]
िवदूषक :देिखए, यह मदवन पवन से काँपती ई अपनी प लव-अँगुिलय से
ज दी िव होने के िलए िनम ण दे रहा है।
राजा :(पवन- पश का अनुभव करने का अिभनय करते ए) वस त आ ही
प च ँ ा है। देखो, उ म ई को कला का कण-मधुर वर सुनाई पड़
रहा है। ऐसा तीत होता है मानो वस त सहानुभूितपूवक मुझसे पूछ
रहा है क ेम क था स तो है? आ क मंज रय क सुग ध से
भरा आ दि ण पवन मेरे शरीर से ऐसे पश कर रहा है, मानो
वस त अपने सुकोमल हाथ से मेरे शरीर को सहला रहा हो।
िवदूषक :आइए, आन द ा करने के िलए इस उपवन के अ दर चिलए।
[दोन उपवन म वेश करते ह।]
िवदूषक :ज़रा यान से देिखए। ऐसा तीत होता है, मानो आपका िच
लुभाने के िलए वनल मी ने वस त-कु सुम से शृंगार कया है। उसका
यह वेश त िणय को भी लजा देनेवाला दीख रहा है।
राजा :मुझे भी देख-देखकर आ य हो रहा है। इस लाल अशोक क काि त
युवितय के िब बाधर क अ िणमा से भी अिधक सु दर है। इन
कु रबक के काले, सफे द और लाल फू ल ने त िणय के मुख पर
शृंगार के िलए क गई िच कारी को भी नीचा दखा दया है। काले
भौर से िघरे ए ितलक के फू ल ने सु द रय के म तक पर लगे ए
ितलक को फ का कर दया है, ऐसा तीत होता है क ि य के मुख
का शृंगार वस त-शोभा के पैर क धूल भी नह है।
[दोन उ ान क शोभा को देखने का अिभनय करते ह।]
[िवचारम मालिवका का वेश]
मालिवका :मुझे यह मालूम नह क महाराज के दय म मेरे ित या भाव है?
इसिलए उनक कामना करते ए मुझे अपने-आपसे भी ल ा होती
है। फर मेरे ऐसे भा य कहाँ क अपनी ि य सिखय से ये सब बात
कह सकूँ ! मालूम नह , इस उपायहीन अस वेदना को मुझे कतने
दन सहना होगा! (कु छ कदम चलकर) अरे , म चली कहाँ ?ँ
( मरण करने का सा अिभनय करके ) हाँ, महारानी ने मुझे आदेश
दया है क मालिवका, गौतम क शरारत के कारण म झूले से िगर
पड़ी; इससे मेरे दोन पैर म दद हो रहा है। इसिलए तू ही जाकर
सुनहले अशोक क अिभलाषा को पूण कर आ। य द इससे पाँच रात
के अ दर-अ दर फू ल िखल उठे , तो म तुझे मुँहमाँगा पुर कार दूग
ँ ी।
अ छा म पहले वह जा प च ँ ती ।ँ मेरे पीछे-पीछे पैर म पहनने के
गहने लेकर बकु लाविलका आ रही होगी। तब तक ज़रा देर एका त म
जी खोलकर रो ही लूँ।
िवदूषक :(देखकर) अरे रे , या गजब आ! िम , यह देखो मधुपान से उ म
ए ि को भी उ म बना देनेवाली खा ड आ प च ँ ी।
राजा : य - य , या आ?
िवदूषक :यह उधर पास ही मामूली व पहने मालिवका अके ली और उदास
बैठी है।
राजा :( स होकर) या मालिवका है?
िवदूषक :और नह तो या?
राजा :तब तो अब जीवन को धारण कए रहना स भव है। तुमसे यह
सुनकर क ि यतमा कह पास ही है, मेरा यह बेचैन दय आन द से
अधीर हो उठा है, जैसे कोई यासा पिथक सारस के श द को सुनकर
वृ के पीछे िछपी ई नदी का अनुमान करके स हो उठे । अ छा,
वह है कहाँ?
िवदूषक :वह वृ के झुरमुट म से िनकलकर इधर ही आती दीख रही है।
राजा :(आन द के साथ देखकर) िम , अब मुझे भी दीख रही है। ये भारी-
भारी िनत ब, यह पतली कमर, वे उभरे ए कु च-युगल और खूब
बड़ी-बड़ी आँख यह मानो अपना जीवन ही चला आ रहा है। िम ,
अब तो यह पहले क अपे ा और भी अिधक सु दर हो उठी है। देखो,
इसका मुख सरक डे के रं ग के समान पीला पड़ गया है; और इसने
ब त थोड़े-से आभूषण पहने ए ह। यह ऐसी तीत हो रही है, मानो
कोई कु दलता है, िजसके प े वस त म पीले पड़ गए ह और िजसपर
थोड़े-से फू ल िखल उठे ह।
िवदूषक :शायद यह भी आपक ही भाँित ेम के रोग से पीिड़त होगी।
राजा :िम ता के कारण ही तु ह ऐसा तीत हो रहा है।
मालिवका यह लिलत और सुकुमार कामना के िलए, कु सुम के शृंगार से शू य
:और ि य के िलए उ कं ठत अशोक वृ मेरी ही नकल-सी कर रहा
है। अ छा, कु छ देर छाया म पड़ी ई शीतल प थर क चौक पर
बैठकर अपना मन बहलाती ।ँ
िवदूषक :सुना आपने? वे कह रही ह क म अपने ि य के िलए उ कं ठत ।ँ
राजा :के वल इतने-भर से तु हारा तक मुझे ठीक नह मालूम होता। य क
इस समय मलय पवन कु रबक के पराग को लेकर बह रहा है और नव
प लव के िखलने के साथ ही उनके जल-िब दु को वह उड़ा रहा
है। ऐसे समय ि का मन अकारण भी उ कं ठत हो सकता है।
[मालिवका बैठ जाती है।]
राजा :िम , आओ हम इधर लता के पीछे िछप जाते ह।
िवदूषक :वह पास ही इरावती भी दखाई पड़ रही है।
राजा :कमिलनी को देखकर हाथी मगरम छ क परवाह नह करता।
[मालिवका क ओर देखता आ खड़ा रहता है।]
मालिवका : दय, य ऐसे मनोरथ के पीछे पड़ा है, जहाँ तक प च ँ ने का कोई
सहारा नह है, और जो अपनी प च ँ से बाहर है? य थ ही मुझे
दुःख देता है?
[िवदूषक राजा क ओर देखता है।]
राजा :ि य, ेह क उलटी गित तो देखो। य िप तुमने यह कट नह
कया क तुम कसे पाने के िलए उ सुक हो; और न म अनुमान ारा
ही कसी एक िनि त प रणाम पर प च ँ सका ,ँ फर भी हे
र भो , म यही समझ रहा ँ क तु हारे इस िवलाप का ल य म ही
।ँ
िवदूषक :अभी आपका संशय िमटा जाता है। िजसके हाथ आपने ेम-स देश
भेजा था, वह बकु लाविलका भी यहाँ एका त म आ प चँ ी है।
राजा :पता नह उसे मेरा अनुरोध याद भी होगा या नह ?
िवदूषक :यद दासी क ब ी आपके ऐसे मह वपूण स देश को कभी भूल सकती
है? अभी म तक तो भूला नह ।ँ
[पैर म पहनने के आभूषण हाथ म िलए बकु लाविलका का वेश]
बकु लाविलका :किहए, सखी अ छी तो ह?
मालिवका :अरे बकु लाविलका आ गई! आओ सिख, तु हारा वागत है। यहाँ
बैठो।
बकु लाविलका :(बैठकर) सिख, तुम सचमुच इस यो य थ , इसीिलए इस काम पर
िनयु क गई हो। अपना पैर आगे करो, म उसम आलता लगा दूँ
और नूपुर पहना दू।ँ
मालिवका :(मन-ही-मन) दय, यह ऐसा आन द का अवसर उपि थत आ है;
पर स ता से फू ल मत उठना। इस समय बच पाने का उपाय या
है? या शायद यही मेरा मृ यु का शृंगार हो जाए।
बकु लाविलका : य , सोच या रही हो? महारानी इस सुनहले अशोक के फू ल देखने
के िलए ब त उ सुक ह।
राजा :अ छा, तो यह सारा आयोजन अशोक क इ छापू त के िलए है?
िवदूषक :तो या आपका यह िवचार था क महारानी ने इसे आपके िलए इस
कार अ तःपुर के शृंगार से सजाकर भेजा है?
मालिवका :अ छा तो सखी, लो; पर मुझे मा करना। (पैर आगे करती है।)
बकु लाविलका :सखी, तुम तो मेरा अपना ही शरीर हो। (यह कहकर पैर को रं गने का
अिभनय करती है।)
राजा :िम , इस ि य मालिवका के पैर पर खंचती ई इन सु दर रं ग क
रे खा को देखो। ये ऐसी तीत हो रही ह, मानो महादेव ारा जला
दए गए कामदेव-त म फर से पहले-पहल नवप लव फू ट िनकले
ह।
िवदूषक :जैसे सु दर इनके पैर ह, वैसा ही इ ह काम भी तो स पा गया है।
राजा :िबलकु ल ठीक कहते हो। इस बाला के पैर के नाखून से करण-सी
िबखर रही ह। नवप लव के समान अ ण अँगुिलय वाला यह पैर
या तो अभी न फू ले ए अशोक पर उसक अिभलाषा को पूरा करने
के िलए पड़ना उिचत है, या फर तुर त अपराध करके आए ए और
िसर झुकाकर बैठे ए ेमी के ऊपर।
िवदूषक :जब आप अपराध करगे, तो यह आपको इसी पैर से मारगी।
राजा :अभी दश ा ण का वचन िसर-माथे।
[इसके बाद मधुपान से म इरावती का दासी के साथ वेश]
इरावती :अरी िनपुिणका, मने ब त बार सुना है क आसव पीने से ि य क
काि त ब त बढ़ जाती है। या यह वाद सच है?
िनपुिणका :अब तक तो वाद ही था; क तु आज स य हो उठा है।
इरावती :चल बस कर, झूठा ेम मत दखा। यह बता क यह कै से पता चले
क महाराज मुझसे पहले दोलागृह म प च
ँ गए ह या नह ?
िनपुिणका :आपका अख ड ेम ही इस बात का माण है क वे प च ँ गए ह।
इरावती :चल, खुशामद ब त हो ली। ठीक-ठीक बता।
िनपुिणका :वस तो सव का उपहार ा करने के लालच म आय गौतम ने यह
कहा था क रानी को ज दी ही भेज दो।
इरावती (मतवालेपन के साथ चलने का अिभनय करती इ) िनपुिणका, इस
:समय मेरा दय मद से म होकर आयपु के स मुख प च ँ ने के
िलए अधीर है, क तु मतवालेपन के कारण मेरे पैर आगे ही नह बढ़
रहे।
िनपुिणका :लीिजए, हम लोग दोलागृह म आ प च ँ ।े
इरावती :िनपुिणका, आयपु तो यहाँ दखाई नह पड़ते।
िनपुिणका :अ छी तरह देिखए; महाराज प रहास करने के िलए कह िछपे ए
ह गे। आइए, हम दोन भी ि यंगु क बेल से िघरे ए उस अशोक के
नीचे बने िशला-पट् ट पर चलकर बैठ।
इरावती :ठीक है।
िनपुिणका :(सामने देखकर) देिखए वािमनी, आ क मंज रयाँ चुनते ची टय
ने काट िलया!
इरावती : य , या आ?
िनपुिणका :वहाँ अशोक के वृ क छाया म बैठकर बकु लाविलका मालिवका के
पैर का शृंगार कर रही है।
इरावती :(संशय का अिभनय करते ए) यह जगह तो मालिवका के आने क
नह ? या याल है तेरा?
िनपुिणका :मेरा याल है क महारानी झूले पर से िगर पड़ी थ , इसिलए पैर म
क होने के कारण उ ह ने मालिवका को अशोक क अिभलाषा पूरी
करने के िलए िनयु कया है। नह तो महारानी अपने पहनने के
िबछु के जोड़े को अपनी प रचा रका को कै से दे देत ?
इरावती :अव य यही बात है।
िनपुिणका :अब महाराज को नह ढू ँढ़त या?
इरावती :सिख, अब मेरे पैर आगे नह पड़ते। म दरा के मद से भी मेरा बुरा
हाल है। यह जो स देह पैदा हो गया है, इसको भी अ त तक प च
ँ ाना
ही होगा। (मालिवका को देखकर और सोचकर; मन-ही-मन) इस
सबको देखकर मेरे मन का िचि तत हो उठना ठीक ही है।
बकु लाविलका :(मालिवका को उसका पैर दखाते ए) तु ह यह रं ग क सजावट
पस द भी आई?
मालिवका :सिख, पैर मेरा अपना है, इसिलए इसक शंसा करते ल ा आती
है। यह साधन क कला तु ह िसखाई कसने?
बकु लाविलका :इस कला म तो म महाराज क िश या ।ँ
िवदूषक :ज दी प िँ चए, और अभी गु -दि णा माँग लीिजए।
मालिवका :यह अद्भुत है क इतने पर भी तु ह अिभमान नह है।
बकु लाविलका :जैसी कला सीखी है, उसके अनु प चरण पाकर आज ज र
अिभमानी हो उठूँ गी। (रं ग को देखकर, मन-ही-मन) अहा, आज मेरा
अिभमान पूण आ! ( कट) सिख, तु हारे एक पैर क रं गाई तो पूरी
हो गई; के वल मुख से फूँ क मार-मारकर इसे सुखाना-भर शेष है; या
यहाँ तो हवा भी काफ चल रही है।
राजा :िम , देखो, इसके पैर म लगे ए गीले आलते को मुँह से फूँ क
मारकर सुखाने के काम म यह मेरा सेवा करने का पहला-पहला
अवसर ा हो गया है।
िवदूषक :इतने अधीर य होते ह? ऐसे अवसर तो आपको ब त ा होते
रहगे।
बकु लाविलका :सिख, इस समय तु हारा पैर लाल शतदल कमल के समान तीत हो
रहा है, भगवान् करे क तुम सदा महाराज क गोद म ही लेटी रहो।
[इरावती िनपुिणका क ओर देखती है।]
राजा :मेरा भी यही आशीवाद है।
मालिवका :सिख, ऐसी बेढ़ंगी बात मत कहो।
बकु लाविलका :मने वही कहा है, जो कहना चािहए।
मालिवका :तु ह मुझसे ब त ेम है न?
बकु लिवका :के वल मुझे ही नह ।
मालिवका :और कसे?
बकु लाविलका :गुण पर रीझ उठनेवाले महाराज को भी।
मालिवका :झूठ बोलती है! उनका अनुराग मुझपर है ही नह ।
बकु लाविलका :ठीक है, वह तुमपर दखाई नह पड़ता, पर तु महाराज के कृ श, पीले
पड़े ए और सु दर अंग पर प दखाई पड़ता है।
िनपुिणका :इस दु ा ने ऐसा उ र दया है। जो पहले से ही सोचा-िवचारा आ
मालूम पड़ता है।
बकु लाविलका :भले आदिमय क इतनी बात तो तु ह भी माननी होगी क ेम क
परी ा ेम से ही करनी चािहए।
मालिवका : या अपने मन से ही बात बनाए जा रही है?
बकु लाविलका :नह -नह , ये ेम से भरे ए सुकुमार श द महाराज ने अपने ही मुँह
से कहे ह।
मालिवका :सिख, महारानी का िवचार करके मेरा मन इन बात पर िव ास
करने का नह होता।
बकु लाविलका :अरी भोली, भौरे आ-आकर सताएँग,े या इस डर से लोग अपने
कान पर नववस त क आ मंजरी को पहनना छोड़ देते ह?
मालिवका :य द म कसी िवपि म पड़ने लगूँ, तो मेरी सािथन रहना।
बकु लाविलका :म बकु लाविलका ।ँ िजतनी ही िघसी-रगड़ी जाऊँगी, उतनी ही
अिधक सुग ध दूग ँ ी।
राजा :वाह, बकु लाविलका वाह! मन के भाव को जानकर उसे ठीक ढंग से
तुत करके और इनकार होने पर उसका उपयु उ र देकर तुमने
इसे अपने वश म कर िलया है। यह स य ही है क ेमी पु ष के ाण
दूितय क मुट्ठी म रहते ह।
इरावती :सिख, देखो, इस बकु लाविलका ने ही इस मालिवका को इस पद तक
प चँ ा दया है।
िनपुिणका : वािमनी, इसे जो काम स पा गया होगा, उसीको यह ठीक ढंग से
िनभा रही है।
इरावती :तब तो मेरे दय क शंका िबलकु ल ठीक ही थी। अब इस सारे
मामले को भली भाँित जाँच-पड़ताल कर कोई उपाय सोचूँगी।
बकु लाविलका :यह तु हारा दूसरा पैर भी पूरी तरह रं ग गया। अब इसम नूपुर पहना
दूँ। (नूपुर का जोड़ा पहनाने का अिभनय करके ) सिख, उठो, अशोक
को िवकिसत करने के िलए महारानी के आदेश का पालन करो।
[दोन उठ खड़ी होती ह।]
इरावती :महारानी का काम भी सुन िलया। अ छा, इसे भी होने दो।
बकु लाविलका :लो, यह अनुराग क लाली से भरपूर और उपभोग के यो य तु हारे
सामने ही मौजूद है।
मालिवका :( स होकर) कौन, महाराज?
बकु लाविलका :(मु कराते ए) महाराज नह , यह अशोक क शाखा से झूलता आ
प का गु छा। लो, इसे कान पर सजा लो।
[मालिवका उदास होने का अिभनय करती है।]
िवदूषक :सुन िलया आपने?
राजा :िम , ेिमय के िलए इतना भी पया है। जो ेमी- ेिमका एक-
दूसरे को पाने के िलए अधीर न ह , उन दोन का पर पर िमलन भी
थ है; और जहाँ दोन का एक-दूसरे के ित समान अनुराग हो,
वहाँ एक-दूसरे क ाि से िनराश होकर उनका मर जाना भी कह
अिधक अ छा है।
[मालिवका कान पर प े सजाकर अशोक वृ को लात मारती
है।]
राजा :िम , इस अशोक वृ से कान के िलए नव प लव लेकर बदले म
इसने उसे लात मार दी है। इन दोन के इस समुिचत लेन-देन को
देखकर म यह अनुभव कर रहा ँ क जैसे म वंिचत हो गया ।ँ
बकु लाविलका :सिख, य द तु हारे चरण का पश पाकर भी इस अशोक म फू ल न
िखल, तो उसम तु हारा दोष न होगा बि क यह अशोक ही गुणहीन
समझा जाएगा।
राजा :अरे अशोक, य द इस कृ श क टवाली मालिवका के नूपुर से मुख रत
नव कमल के समान कोमल चरण का पश पाकर भी तू अिवल ब ही
किलय से न भर उठे , तो मानना होगा क ेिमय के मन म
वभावत: उ प होनेवाली ि यतमा क लात खाने क इ छा तेरे
मन म थ ही पैदा ई। िम , कोई बहाना ढू ँढ़कर अब इसके पास
प चँ ना चाहता ।ँ
िवदूषक :आइए, कु छ देर इ ह हँसाऊँगा।
[दोन वेश करते ह।]
िनपुिणका : वािमनी, वािमनी, देिखए महाराज आ रहे ह।
इरावती :यह तो म पहले ही सोच रही थी।
िवदूषक :(पास प च
ँ कर) देिखए जी, आपने हमारे इस ि य िम अशोक को
बा लात मारकर भला काम नह कया।
दोन :(घबराकर) अरे , महाराज ह!
िवदूषक :बकु लाविलका, तू तो सब कु छ जानती है। फर तूने ऐसा अनुिचत
काय करने से इ ह रोका य नह ?
[मालिवका डरने का अिभनय करती है।]
िनपुिणका : वािमनी, देिखए, आय गौतम ने यह या खेल रचा है!
इरावती :यह सब न करे , तो फर इस िनक मे ा ण क जीिवका कै से चले?
बकु लाविलका :आय, ये तो महारानी के आदेश का पालन कर रही ह। य द इनसे
कोई भूल ई हो, तो उस िवषय म ये पराधीन थ । महाराज मा
कर। (अपने साथ-साथ मालिवका से भी भूिम पर झुककर णाम
करवाती है।)
राजा :य द यह बात है तो तु हारा कोई अपराध नह । भ े उठो।
(मालिवका को हाथ पकड़कर उठाता है।)
िवदूषक :यह तो ठीक है। इस िवषय म महारानी क आ ा का पालन होना ही
चािहए।
राजा :(हँसकर) य सु द र, नव प लव के समान कोमल तु हारे इस बाएँ
पैर को इस वृ के कठोर तने पर मारने से तु हारे पैर म क तो नह
हो रहा?
[मालिवका लि त होने का अिभनय करती है।]
इरावती :अहा, आयपु का दय इस समय तो नवनीत के समान कोमल हो
उठा है!
मालिवका :बकु लाविलका, आओ चल। महारानी को बतला द क हमने अपना
काय पूरा कर दया है।
बकु लाविलका :महाराज से कहो क हम जाने क अनुमित द।
राजा :भ ,े तुम जाओगी तो अव य; क तु अवसर िमला है तो मेरा एक
अनुरोध सुनती जाओ।
बकु लाविलका : यान से सुनो। किहए महाराज!
राजा :ब त ल बे समय से इस अशोक क ही भाँित मुझपर भी ेम के फू ल
नह आ रहे ह। मेरी भी िच इस समय तु ह छोड़कर और कसीम
नह । अपने अमृत-सदृश पश से मेरी मनोकामनाको भी पूण करो।
इरावती :(एकाएक पास प च ँ कर) हाँ, हाँ, पूण करो इनक कामना। अशोक
पर तो अभी तक फू ल नह िखले, क तु ये तो अभी से फू ल-से उठे ह।
[इरावती को देखकर सब च क उठते ह।]
राजा :(ओट करके ) िम , अब या उपाय कया जाए?
िवदूषक :उपाय और या होना है; पैर के बल का ही सहारा लीिजए।
इरावती :बकु लाविलका, तूने यह अ छा जाल फै लाया है! अब आयपु क
अिभलाषा पूरी करवा न?
दोन : न होइए वािमनी, महाराज क ेम- ाथना पूरी करनेवाली हम
कौन ह? (इतना कहकर दोन चली जाती ह।)
इरावती :पु ष का िव ास नह करना चािहए। मुझे यह मालूम न था क
जैसे ाध के गीत को सुनकर ह रणी मु ध हो जाती है, वैसे ही म भी
इनक धोखे-धड़ी क बात पर िव ास करके फँ स जाऊँगी।
िवदूषक :(धीरे से) अजी, इस समय कु छ उ र दीिजए। रं गे हाथ पकड़ा गया
चोर भी यह कहा करता है क म चोरी नह कर रहा था, अिपतु यह
देख रहा था क मुझे सध लगानी आती है या नह ।
राजा :सु द र, मुझे मालिवका से कु छ लेना-देना न था। तु ह आने म देर हो
रही थी, इसिलए कु छ देर य ही दल बहलाने के िलए उससे बात
करने लगा।
इरावती :ज़ र आप सच बोल रहे ह। मुझे मालूम नह था क आयपु को
मनोिवनोद का ऐसा साधन िमल गया है, नह तो म अभािगन इस
तरह बीच म न आ पड़ती।
िवदूषक :महाराज के सामा य िश ाचार- दशन पर भी ऐसी रोक न लगाइए।
अ छा, आप ही कह दीिजए, या आप यह चाहती ह क महाराज
महारानी क आसपास से गुजरनेवाली प रचा रका से बातचीत
तक न कर?
इरावती :ठीक है, खूब बातचीत हो। म य अपना जी जलाऊं! ( होकर
चल पड़ती है।)
राजा :(उसके पीछे चलते ए) रानी, न होओ।
[इरावती क करधनी फसलकर पैर म अटक जाती है, फर भी
इरावती चलती ही जाती है।]
राजा :सु द र, अपने ेमी के ित ऐसा उदासीन हो जाना तु ह शोभा नह
देता।
इरावती :ठग कह के , अब मुझे तु हारा िव ास नह रहा!
राजा :तुम ‘ठग’ कहकर मेरा ितर कार कर रही हो ि ये! यह तो मेरे िलए
नई बात नह है। क तु हे च डी, तु हारी यह मेखला पैर पड़कर
तुमसे मा माँग रही है, फर भी तुम स नह हो रही हो?
इरावती :यह अभागी भी तुमसे ही िमल गई। (यह कहकर करधनी उठाकर
राजा को मारना चाहती है।)
राजा :िम , देखो, यह इरावती आँख म आँसू भरे , कमर से टू टकर िगरी ई
सोने क करधनी से मुझे इस कार मारने को उ त खड़ी है, जैसे
घनघटा िव ु माला से िव याचल पर चोट करना चाह रही हो।
इरावती :अ छा, फर अपराध का दोष भी मेरे ही िसर मढ़ने लगे?
राजा :(इरावती के मेखलावाले हाथ को पकड़ लेता है।) अरी घुँघराले
बाल वाली, मुझ अपराधी को द ड देते-देते तुम क य ग ? तुम
अपने इस दास पर कु िपत होती ई भी अ य त सु दर दीख रही हो।
अब तो तुम ज़ र ही मान जाओगी। (इतना कहकर पैर पर िगर
पड़ता है।)
इरावती :ये मालिवका के पैर नह ...िजनसे तु हारी आन द क अिभलाषा पूण
हो सके ।
[दासी के साथ बाहर िनकल जाती है।]
िवदूषक :उ ठए, रानी आपपर स नह ई।
राजा :(उठकर इरवती को न देखकर) तो या ि या इरावती चली ही गई?
िवदूषक :िम , कु शल मनाओ क इस अिवनय से अ स होकर वे यहाँ से
चली ग । अब यहाँ से तुर त भाग खड़े होने म ही कु शल है। ऐसा न
हो क वे मंगल ह क भाँित उ टी लौटकर फर इसी रािश पर आ
जाएँ।
राजा : ेम भी कै सा िविच होता है! मेरा मन तो मालिवका हर ले गई थी।
ऐसे समय म इरावती ने मेरी िवनय को वीकार न करके भी भला
ही कया; य क अब मेरी यह ेिमका मुझसे कु िपत हो गई है,
इसिलए अब कु छ दन तक तो इसके ित उपे ा दखाई ही जा
सकती है।
[िवदूषक के साथ बाहर चला जाता है।]
चौथा अंक
[अनमने-से राजा और उसके साथ ितहारी का वेश]
राजा :(मन-ही-मन) उस ि य मालिवका के िवषय म वातालाप को सुनकर
उसे ा करने क आशा से िजस ेम के त क जड़ जमी थी, और
उसके आँख के स मुख आ जाने पर िजसम नव प लव फू ट िनकले थे,
और उसके हाथ के पश से आ मेरा रोमांच ही िजसका फू ल-सा बन
गया था, वही ेम का वृ अब मुझे फल भी चखने का अवसर दे।
( कट) िम गौतम!
ितहारी :महाराज क जय हो! गौतम यहाँ नह ह।
राजा :(मन-ही-मन) ओह, उसे तो मने मालिवका का हाल जानने के िलए
भेजा था!
िवदूषक :( वेश करके ) महाराज क ी-वृि हो!
राजा :जयसेना, जाकर यह तो पता करो क पैर म चोट आ जाने के कारण
महारानी धा रणी इस समय कहाँ अपना जी बहला रही ह।
ितहारी :जो महाराज क आ ा। (कहकर बाहर चली जाती है।)
राजा :कहो गौतम, तु हारी सखी का या हाल है?
िवदूषक :जो िब ली के पंजे म फँ सी कोयल का होता है।
राजा :(दुखी होकर) य , ऐसी या बात है?
िवदूषक :उस पीली आँख वाली धा रणी ने बेचारी मालिवका को भ डार के
नीचे तहखाने म ऐसे डाला आ है, जैसे गुफा म ब द कया आ हो।
राजा :उसे मालिवका से मेरे िमलने-जुलने क बात मालूम हो गई होगी?
िवदूषक :और नह तो या!
राजा :ऐसा हमसे िचढ़ा आ कौन है, िजसने महारानी को इतना ु कर
दया?
िवदूषक :बताता ।ँ प र ािजका ने मुझे बताया था क कल रानी इरावती
महारानी धा रणी से उनके पैर क चोट का हाल-चाल पूछने गई थ ।
राजा : फर या आ?
िवदूषक :वहाँ महारानी ने उनसे पूछा क इन दन ि यतम से भट ई या
नह ? इरावती ने कहा क आपका यह योग गलत है, य क
आपको यही मालूम नह क महाराज तो अब दािसय से ेम करने
लगे ह।
राजा :ओफ! भले ही बात प प से नह कही, फर भी इससे मालिवका
के ऊपर ही स देह जाना वाभािवक है।
िवदूषक :इसके बाद जब महारानी ने बार-बार आ ह कया, तो इरावती ने
उ ह आपके और मालिवका के बारे म सब बात िव तार से कह
सुना ।
राजा :तब तो इरावती ब त अिधक तीत होती है। फर या आ।
िवदूषक :और होना या था? इस समय मालिवका और बकु लाविलका पैर म
बेड़ी डालकर नीचे तहखाने म डाल दी गई ह। वहाँ सूय क करण
तक नह प च ँ सकत । दोन नागक या क भाँित पातालवास-सा
कर रही ह।
राजा :ओफ, बड़े दुख क बात है! नई िखली ई आ मंजरी के साथ
रहनेवाली मधुर वरवाली कोयल और मरी दोन च ड पुरवा
हवा के साथ आई ई असमय वषा के कारण वृ क कोटर म धके ल
दी गई ह। अ छा, अब इसका कोई उपाय कया जा सकता है या
नह ?
िवदूषक : या उपाय कया जाए? उस भ डार के तहखाने पर िजस माधिवका
को पहरे पर लगाया गया है, उसे महारानी ने अ छी तरह समझा
दया है क वह उनक अँगूठी क मोहर को िबना देखे कसी भी दशा
म अभािगन मालिवका और बकु लाविलका को छोड़े नह ।
राजा :(गहरी साँस लेकर सोचते ए) िम , अब या करना चािहए?
िवदूषक :(सोचकर) एक उपाय है तो!
राजा :वह या?
िवदूषक :(चार ओर देखकर) कोई िछपकर सुन न ले। आपके कान म क ग ँ ा।
(कान के पास मुँह ले जाकर) इस तरह। (कान म बात करता रहता
है)
राजा :( स होकर) ब त ब ढ़या। बस, अब इस काम म जुट जाओ।
[ वेश करके ]
ितहारी :महाराज, महारानी हवामहल म लेटी ई ह। उनके पैर म लाल
च दन का लेप कया गया है; दािसयाँ उस पैर को सहला रही ह;
और भगवती प र ािजका कथाएँ सुना-सुनाकर महारानी का
मनोरं जन कर रही ह।
राजा : फर तो हमारे वहाँ जा प च
ँ ने का यह अ छा अवसर है।
िवदूषक :अ छा, आप चिलए। म भी महारानी के दशन के िलए कु छ भट हाथ
म लेकर आता ।ँ
राजा :ठीक है। ये सब बात जयसेना को भी अ छी तरह समझा दो।
िवदूषक :अव य। (कान म कहता है) इस तरह होना है। (बात पूरी कहकर
बाहर िनकल जाता है।)
राजा :जयसेना, हम हवामहल ले चलो।
ितहारी :इधर आइए महाराज, इधर।
[िब तर पर लेटी ई महारानी, उसके पास बैठी ई प र ािजका
और आसपास खड़ी दािसय का वेश]
धा रणी :भगवती, यह कहानी तो ब त ही मनोरं जक है। अ छा आगे या
आ?
प र ािजका :(दूसरी ओर देखकर) महारानी, इससे आगे क कहानी फर
सुनाऊँगी। अब तो वे िव दशा के महाराज आ प च
ँ े ह।
धा रणी :अरे , महाराज ह! (उठकर खड़ा होना चाहती है।)
राजा :बस-बस, यह िश ाचार का क न करो। अरी मधुर-भािषणी, सोने
क चौक पर रखे ए इस पैर को िहला-जुलाकर क न दो। यह
बेचारा पहले ही नूपुर का अनुिचत िवरह सह रहा है। इस िश ाचार
से तु ह पैर को क होने के साथ-साथ मुझे भी पीड़ा होगी।
धा रणी :आयपु क जय हो!
प र ािजका :महाराज क जय हो!
राजा :(प र ािजका को णाम करके बैठकर) य महारानी, पीड़ा कु छ
कम ई या नह ?
धा रणी :हाँ, आज तो काफ कम है।
[य ोपवीत से अँगूठा बाँधे ए घबराए ए िवदूषक का वेश]
िवदूषक :बचाइए, महाराज, मेरी र ा क िजए। मुझे साँप ने काट िलया है!
[सब िवषाद से भर जाते ह।]
राजा :ओफ, गजब हो गया! तुम कहाँ भटक रहे थे?
िवदूषक :म महारानी के दशन को आना चाहता था; भट देने के िलए कु छ फू ल
लेने मदवन म गया था।
धा रणी :हाय-हाय! मेरे ही कारण इस बेचारे ा ण का जीवन संकट म पड़
गया।
िवदूषक : मदवन म जाकर मने य िह अशोक का गु छा तोड़ने के िलए
अपना दायाँ हाथ फै लाया, य ही उसक कोटर म से िनकलकर
सप पी काल ने मुझे डस िलया। देिखए, ये रहे उसके डसने के दो
िनशान। (डसने के िनशान दखाता है।)
प र ािजका :सुनते ह क जहाँ साँप काटे, वहाँ पहला काम यह करना चािहए क
उस अंग को काट दया जाए। ज दी ही इनका भी अँगूठा काट
डािलए। िजस मनु य को साँप काट खाए, उसके ाण बचाने का यही
उपाय है क दंश के थान को या तो काट दया जाए या जला दया
जाए और या उस थान को चीरकर काफ खून िनकाल दया जाए।
राजा :यह तो िवष क िच क सा करनेवाले वै का ही काम है। जयसेना,
ज दी जाकर वै ुविसि को बुला लाओ।
ितहारी :जो महाराज क आ ा। (बाहर जाती है।)
िवदूषक :हाय रे ! पापी काल ने मुझे जकड़ िलया है।
राजा :ऐसे अधीर न होवो िम ! यह भी स भव है क कसी िन वष साँप ने
ही डसा हो।
िवदूषक :घबराऊँ कै से नह ! मेरे सारे अंग सु पड़ते जा रहे ह।
[िवष चढ़ने का सा अिभनय करता है।]
धा रणी :अरे रे , इनक दशा तो तेजी से िबगड़ रही है! ा ण को स भालो।
[प र ािजका घबराकर िवदूषक को थाम लेती है।]
िवदूषक :महाराज, आपका तो म बचपन से ही िम रहा ।ँ उस िम ता का
यान करके ही मेरी वृ माताजी क देखभाल करते रिहएगा।
राजा :डरो मत गौतम! ज़रा धीरज रखो। अभी वै जी आकर तुरत-फु रत
तु हारा इलाज कर दगे।
[ वेश करके ]
जयसेना :महाराज, मने वै ुविसि को आपका आदेश कह सुनाया। वे कहते
ह क गौतम को यह ले आओ।
राजा :अ छा, तो इ ह सहारा देते ए अ छी तरह संभालकर उनके पास ले
जाओ।
जयसेना :जो आ ा महाराज।
िवदूषक :(धा रणी क ओर देखकर) महारानीजी, देिखए अब म जीऊँ या न
जीऊँ। महाराज क सेवा करते ए मुझसे आपके ित कोई अपराध
आ हो, तो उसे मा कर दीिजएगा।
धा रणी :भगवान् करे , तु हारी आयु ल बी हो!
[िवदूषक और तीहारी बाहर जाते ह।]
राजा :यह बेचारा गौतम वभाव से ही ऐसा भी है क इसे ुविसि जैसे
िस वै पर भरोसा नह है।
[ वेश करके ]
जयसेना :महाराज क जय हो! वै ुविसि ने कहलाया है क पानी के
घड़ेवाली िविध से नागमु ा ारा यह िवष उतारना होगा। इसिलए
कह से नागमु ा खोजकर लाई जाए।
धा रणी :नागमु ा तो मेरी इस अँगूठी म ही जड़ी ई है। इसे ले जा। बाद म
लाकर मुझे ही देना (यह कहकर अँगूठी दे देती है।)
[ तीहारी अँगूठी लेकर खड़ी रहती है।]
राजा :जयसेना, जाओ और तुर त आकर खबर दो क सारा काम ठीक ढंग
से हो गया।
जयसेना :जो महाराज क आ ा!
प र ािजका :मेरा मन तो कह रहा है क गौतम का िवष उतर गया।
राजा :भगवान् करे , ऐसा ही हो।
[ वेश करके ]
जयसेना :महाराज, क जय हो! कु छ ही देर म गौतम का िवष उतर गया, और
वह अब फर व थ हो गए ह।
धा रणी :कु शल ई क म कलंक से बच गई।
जयसेना :और अमा य वाहतक ने कहलवाया है क राजकाय के स ब ध म
कु छ आव यक म णा करनी है, इसिलए आप दशन देने क कृ पा
कर।
धा रणी :जाइए आयपु , अपना काय पूरा क िजए।
राजा :रानी, इस थान पर भी अब धूप आ चली है। तु हारे इस रोग के
िलए शीतल योग अ छा होगा। इसिलए अपनी श या कसी और
थान पर िलवा ले जाओ।
धा रणी :लड़ कय , जैसा आयपु कह रहे ह, वैसा ही करो।
सेिवकाएँ :जो आ ा।
[महारानी धा रणी, प र ािजका और सेिवकाएँ बाहर जाती ह।]
राजा :जयसेना, मुझे गु माग से मदवन ले चलो।
जयसेना :तो इधर आइए महाराज।
राजा :जयसेना, गौतम का काम बन गया न?
जयसेना : य नह ?
राजा :मनचाही व तु को पाने के िलए हमने जो उपाय रचा है, वह
िबलकु ल अचूक है, यह जानते ए भी मेरा यह अधीर दय अभी भी
सफलता के बारे म स देह ही कए जा रहा है।
[ वेश करके ]
िवदूषक :बधाई हो िम । आपके मंगल काय पूण हो गए ह।
राजा :अ छा जयसेना, अब तुम जाओ और अपना काम देखो।
जयसेना :जो महाराज क आ ा। (बाहर जाती है।)
राजा :गौतम, यह माधिवका क ी िनकली। उसने कु छ भी सोच-िवचार
नह कया?
िवदूषक :महारानी क अँगूठी को देखकर सोच-िवचार या करती?
राजा :अँगूठी क बात नह । उसे यह तो सोचना चािहए था क इन दोन
को कसिलए छोड़ा जा रहा है। उसे यह भी पूछना चािहए था क
जब महारानी के पास अपने इतने प रचायक िव मान ह, तो
उ ह ने आपको ही इस काम के िलए य भेजा?
िवदूषक :यह तो उसने पूछा था। पर उस समय मुझ मूख क बुि अचानक
चेत गई।
राजा :तब तुमने या कहा?
िवदूषक :मने कहा क योितिषय ने महाराज को बताया है क इस समय
आपके ह ब त खराब ह। उ ह शा त करना हो तो तुर त अपने
रा य के सब बि दय को मु करवा दीिजए।
राजा :( स होकर) अ छा! फर?
िवदूषक :उसे सुनकर रानी इरावती का मन रखने के िलए महारानी ने यह
काम मुझे स प दया, िजससे ऐसा मालूम पड़े क राजा ही बि दय
को छु ड़वा रहे ह। माधिवका ने समझा क यह सारी बात ठीक है और
उसने हमारा काम कर दया।
राजा :(िवदूषक को गले लगाकर) िम , तुम सचमुच ही मुझसे ब त ेम
करते हो; य क िम का काम के वल बुि के बल से ही पूरा नह
हो जाता, अिपतु कायिसि का सू म पथ ेह के ारा भी ा
होता है।
िवदूषक :अ छा, अब आप ज दी क िजए। म मालिवका और उनक सखी को
समु -गृह म प चँ ाकर आपसे िमलने आया ।ँ
राजा :ठीक है। म भी चलकर उनसे िमलता ।ँ चलो, आगे चलो।
िवदूषक :आइए, आइए। (थोड़ा चलकर) यह समु -गह है।
राजा :(आशंका के साथ) िम , यह रानी इरावती क प रचाियका चि का
फू ल चुनती ई इधर ही आ रही है। आओ, इस दीवार के पीछे िछप
जाएँ।
िवदूषक :ठीक है! चोर और ेिमय को चि का से दूर-ही-दूर रहना चािहए।
[दोन दीवार के पीछे िछप जाते ह।]
राजा :गौतम, तु हारी सखी मालिवका मेरी ती ा कस कार कर रही
होगी? आओ, जरा इस झरोखे से खड़े होकर देख।
िवदूषक :ठीक है।
[दोन खड़े होकर देखने लगते ह।]
[मालिवका और बकु लाविलका का वेश]
बकु लाविलका :सिख, महाराज को णाम करो।
मालिवका :नम ते!
राजा :लगता है क मालिवका मेरे िच क ओर संकेत कर रही है।
मालिवका :(ब त स होकर ार क ओर देखकर और फर उदास होकर)
य री, मुझे धोखा दे रही है?
राजा :इसके इस हष और िवषाद को देखकर मुझे ब त ही आन द आ है।
सूय दय और सूया त के समय कमल क जो दशाएँ होती ह, वे दोन
ही सु दरी के मुख पर एक ण म ही दखाई पड़ ग ।
बकु लाविलका :देखो न, यह महाराज का िच है।
दोन :(िसर झुकाकर) महाराज क जय हो!
मालिवका :सिख, उस दन घबराहट म महाराज के प को देखकर जैसे जी नह
भरा था, वैसे ही आज भी महाराज के इस िच को देखकर कसी
कार तृ नह हो पा रही ।ँ
िवदूषक :सुन िलया? वे कह रही ह क जैसे आप िच म दखाई पड़ते ह, वैसे
व तुत: स मुख देखने पर दखाई नह पड़ते। जैसे खाली र -मंजूषा
झूठा गव करती है, उसी कार आप भी यौवन का थ ही दम भरते
ह।
राजा :िम , ि याँ उ सुक होने पर भी वभाव से ही शालीन होती ह।
जब वे थम िमलन म अपने ि य के प को भली कार देखना भी
चाहती ह, तब भी उन बड़ी-बड़ी आँख वाली सु द रय के ने पूरी
तरह खुलकर उस प को भली भाँित देख ही नह पाते।
मालिवका :सिख, यह कौन है, िजसक ओर मुँह मोड़कर मेरे महाराज बड़ी ेम-
भरी दृि से देख रहे ह।
बकु लाविलका :यह तो रानी इरावती ह, जो उनके पास खड़ी ह।
मालिवका :सिख, मुझे तो महाराज अिश -से तीत होते ह, जो सब रािनय को
छोड़कर एक के ही मुँह क ओर टकटक लगाए देख रहे ह।
बकु लाविलका :(मन-ही-मन) यह तो महाराज के िच को ही सचमुच महाराज
समझकर ई या करने लगी है। अ छा, जरा इसके साथ खेल ही क ँ ।
( कट) सखी, ये तो महाराज क ब त ही ि य रानी ह।
मालिवका :तो फर म अपना जी य जलाऊँ? (ई या के साथ दूसरी ओर मुँह
फे र लेती है।)
राजा :िम , देखो तो, इसने जब ई या म भरकर अपना मुँह इधर से फे रा
तो भौह टेढ़ी होने के कारण माथे का ितलक बीच म से टू ट-सा गया।
इसके ह ठ फड़क-से उठे । ऐसा तीत होता है क इसके गु ने अपने
ि यतम के अपराध पर कु िपत होने के समय जैसा लिलत अिभनय
करने क िश ा दी है, वैसा ही इसने यहाँ कर दखाया।
िवदूषक :तो अब आप अनुनय-िवनय करके इ ह मनाने के िलए तैयार हो
जाइए।
मालिवका :आय गौतम भी तो पास ही बैठे ए इ ह रानी इरावती क सेवा कर
रहे ह। ( फर उस थान से भी मुँह फे रकर कसी दूसरी ओर मुड़ना
चाहती है।)
बकु लाविलका :(मालिवका को पकड़कर) अब तो तुम नाराज नह हो?
मालिवका :य द तुम समझती हो क म सदा नाराज ही रहा करती ,ँ तो लो म
नाराज ही ई जाती ।ँ
राजा :(पास प च
ँ कर) री कमलनयनी, िच म मेरी चे ा को देखकर तुम
मुझसे य ई जा रही हो? म के वल तु हारा दास यहाँ सा ात्
आ उपि थत आ ।ँ
बकु लाविलका :महाराज क जय हो!
मालिवका :(मन-ही-मन) अरे , तो या म महाराज के िच से ही ई या कए जा
रही थी? ( कट। ल ा के साथ िसर झुकाकर हाथ जोड़ती है।)
[राजा ेमातुरता का अिभनय करते ह।]
िवदूषक : या बात ह; आप उदासीन-से य दखाई पड़ रहे ह?
राजा :तु हारी सखी का मुझे िव ास जो नह है।
िवदूषक : य ? इनपर अिव ास करने का या कारण है?
राजा :सुनो, ये मेरी आँख म बार-बार आकर फर एकाएक िछप जाती है।
बाँह के बीच म आकर भी बार-बार िनकल जाती है। इस िमलन क
छलना और ेम के क से पीिड़त मेरा मन इनपर िनि त होकर
कै से िव ास करे ?
बकु लाविलका :सिख, तुमने महाराज को ब त बार धोखा दया। अब कु छ ऐसा करो
िजससे ये तुमपर िव ास करने लग।
मालिवका :सिख, मुझ अभािगन का तो इनसे व म भी िमल पाना दूभर था।
बकु लाविलका :महाराज, अब इस बात का उ र दीिजए।
राजा :उ र या दू,ँ अब तो ेम क अि को सा ी बनाकर म इनसे सेवा
पाने के िलए नह , अिपतु इनक सेवा करने के िलए अपने-आपको
इनके हाथ स प देता ।ँ
बकु लाविलका :आपक बड़ी कृ पा है।
िवदूषक :(एक ओर को चलकर। घबराहट-सी दखाते ए।) अरी
बकु लाविलका, वह ह रण उस अशोक के छोटे-से पौधे के प े खाए
जा रहा है। आ, ज़रा इसे भगा द।
बकु लाविलका :अ छा, अ छा। (बकु लाविलका चल पड़ती है।)
राजा :िम , संकट के समय म तुम ज़रा सावधान ही रहना।
िवदूषक : या यह बात भी गौतम को बतानी होगी?
बकु लाविलका :(कु छ दूर चलकर) आय गौतम, म ज़रा िछपकर बैठती ।ँ तुम
दरवाजे क रखवाली करो।
िवदूषक :ठीक है।
[बकु लाविलका बाहर जाती है।]
िवदूषक :अ छा, म भी इस फ टक के ख भे का सहारा लेकर बैठ जाऊँ। (वैसा
ही करता है।) अहा, यह प थर भी कै सा िचकना और ठ डा है।
(इतना कहकर ऊँघने लगता है।)
[मालिवका घबराई-सी खड़ी रहती है।]
राजा :सु द र, इस िमलन क घबराहट को छोड़ दो। म िचरकाल से तु हारे
ेम के िलए अधीर ।ँ आओ और मुझसे उसी कार िलपट जाओ,
जैसे माधवीलता आम के वृ से िलपट जाती है।
मालिवका :महारानी के भय के कारण इ छा होने पर भी म ऐसा कर नह
सकती।
राजा :अरी, डरो मत।
मालिवका :(उलाहना देते ए) जो नह डरते, उन महाराज का साम य भी मने
उस दन देख िलया था, िजस दन रानी इरावती आ प च ँ ीथ।
राजा :अरी िब बाधरी, िश ाचार तो नायक का कु ल त समझा जाता है।
पर तु सुनयने, मेरे ाण तो इस समय तु ह ा करने क आशा पर
ही लटके ए ह। अब अपने इस िचर अनुरागी ि पर कृ पा करो।
(आ लंगन करना चाहता है।)
[मालिवका अपने को छु ड़ाने का अिभनय करती है।]
राजा :(मन-ही-मन) इन नई-नवेली त िणय क म े लीला भी ब त भली
मालूम होती है। देखो न, इसके हाथ काँप रहे ह और यह अपनी
चंचल अँगुिलय से अपनी करधनी को पकड़े ए है। जब म बलपूवक
आ लंगन करने लगता ,ँ तो यह अपने दोन हाथ से अपने तन
को ढक लेती है। सु दर पलक और आँख वाले मुख को जब म चु बन
करने के िलए ऊपर उठाता ,ँ तो यह उसे दूसरी ओर फे र लेती है।
इस कार सफल न होने पर भी मुझे अपनी अिभलाषाएँ पूण होने
का सा आन द िमल रहा है।
[इरावती और िनपुिणका का वेश]
इरावती : य री िनपुिणका, या तुझसे सचमुच चि का ने यह कहा था क
उसने आय गौतम को समु -गृह के बरामदे म अके ले सोते ए देखा
है?
िनपुिणका :वह न कहती, तो म आपको य ही झूठ-मूठ थोड़े ही कह देती!
इरावती :अ छा, तो चलो वह चल। हमारा ि य िम गौतम संकट से मु हो
गया है, उसका हाल भी पूछते चल।
िनपुिणका :इसके अित र कोई और योजन भी मालूम पड़ता है?
इरावती :दूसरा योजन यह है क वहाँ आयपु के िच को भी मनाएँगे, और
स करगे।
िनपुिणका :अब महाराज को इस तरह य मनाना चाहती ह?
इरावती :अरी भोली, हमारे िलए तो जैसे िच म अं कत महाराज, वैसे ही
दूसरे के ेम म पागल। यह तो म के वल इसिलए करना चाहती ँ क
उस दन मने उनके स मुख िश ाचार का उ लंघन कर दया था।
िनपुिणका :तो इधर आइए वािमनी, इधर।
[दोन चलने का अिभनय करती ह।]
[ वेश करके ]
चेटी : वािमनी क जय हो! वािमनी, महारानी ने कहा है क यह समय
हमारे पर पर ष े का नह है। इसीिलए आपके साथ ेम बढ़ाने के
िलए मने मालिवका को हथकड़ी-बेड़ी लगाकर ब दीगृह म डाल
दया है। य द आयपु को मनाने के िलए तुम उ त होवो, तो जैसा
कहो वैसा क ँ । जो कु छ तुम चाहती हो, वह मुझे कहला भेजना।
इरावती :नाग रका, मेरी ओर से महारानी से कहना क हम उ ह कोई काम
बतानेवाली कौन होती ह। अपनी सेिवका को ब दी करके उ ह ने
मुझपर कृ पा दखाई है। और नह तो कसके अनु ह से हम लोग का
इतना मान बढ़ता!
चेटी :जो आ ा। (बाहर जाती है।)
िनपुिणका :(कु छ चलकर और देखकर) वािमनी, यह समु -गृह के ार के
बरामदे म आय गौतम बैठे-ही-बैठे इस तरह सो रहे ह, जैसे बाज़ार म
बैठा साँडा सोया करता है।
इरावती :गजब हो गया! ऐसा तो नह क िवष का भाव कु छ बचा आ हो?
िनपुिणका :देखने से तो ब त स मुख दखाई पड़ता है। वैसे भी व
ु िसि ने
इसक िच क सा क है, इसिलए िच ता क कोई बात नह है।
िवदूषक :( व - सा देखते ए) अजी मालिवकाजी!
िनपुिणका :सुना वािमनी ने? अपना काय पूरा कराने के िलए इस अभागे का
भरोसा कौन करे ? सदा तो यह आपके यहाँ से वि तवाचन के बाद
िमले लड् डु से पेट भरता है और अब व म मालिवका को देख
रहा है।
िवदूषक :भगवान् करे तू इरावती से भी आगे बढ़ जाए!
िनपुिणका :यह तो ब त बुरी बात कही! अ छा, यह ा ण का ब ा साँप से
ब त डरता है। म ख भे के पीछे िछपकर साँप क तरह टेढ़ी-मेढ़ी इस
लकड़ी से इसे डराती ।ँ
इरावती :ऐसे कृ त के साथ शरारत करनी ही चािहए।
[िनपुिणका िवदूषक के ऊपर एक टे ढ़ी-मेढ़ी लकड़ी फकती है।]
िवदूषक :(एकाएक जागकर) हाय रे , मरा रे ! िम , मेरे ऊपर साँप आ िगरा है।
राजा :(एकाएक पास आकर) िम डरो, मत; डरो मत।
मालिवका :(पीछे-पीछे आकर) महाराज, एकाएक इस तरह बाहर न जाइए।
बाहर साँप है।
इरावती :ओफ-ओफ! यह तो महाराज ही इधर दौड़े आ रहे ह।
िवदूषक :(हँसते ए) यह या? यह तो लकड़ी है। मने तो समझा था क मने
के वड़े के काँट से साँप के डसने के िच न बनाकर जो साँप को
बदनाम कया था, शायद उसीका फल मुझे िमलने लगा है।
[परदा िगराकर वेश करके ]
बकु लाविलका :महाराज, इधर न आइए। इधर न आइए। यहाँ बड़ी टेढ़ी चालवाला
साँप-सा दखाई पड़ रहा है।
इरावती :(ख भे के पीछे से एकाएक राजा के पास प च ँ कर) किहए, दन म
समय िनि त करके यहाँ िमलने के िलए आनेवाले इस युगल क
अिभलाषा िबना कसी िव के पूरी तो हो गई न?
[इरावती को देखकर सब घबरा जाते ह।]
राजा :ि ये, तु हारा यह वहार िबलकु ल अनोखा ही है।
इरावती :बकु लाविलका, बड़े भा यवाली है क तूने इन दोन के अिभसार क
दूती बनकर अपनी ित ा पूण कर दखाई।

बकु लाविलका : वािमनी, न ह । मने या कु छ कया है, यह महाराज से ही पूछ


लीिजए। मढ़क बोलगे नह , तो या बादल धरती पर बरसेगा ही
नह ?
िवदूषक :ऐसा न किहए, उस दन आपने महाराज के अनुनय-िवनय क
परवाह न क ; आपके उस कठोर वहार को महाराज ने आपको
देखते ही भुला डाला, और आप अब भी स होने म नह आ रही
ह।
इरावती :अब म कु िपत होकर भी या क ँ गी?
राजा :इस कार िबना बात कु िपत होना तु ह शोभा नह देता। आज तक
िबना कसी कारण के तु हारे मुख पर एक ण के िलए भी ोध
आया है? िबना च हण का समय आए, कह राि का च म डल
रा से त होकर मिलन पड़ता है?
इरावती :म गलत जगह ठ रही ,ँ यह आपने ठीक कहा। य द हमारे भा य
दूसर को िमल जाएँ, और उसपर म नाराज होने लगू,ँ तो सब लोग
मेरी हँसी न उड़ाएँगे?
राजा :तुम तो उलटा ही मतलब िनकालती हो। मुझे तो सचमुच ही तु हारे
कु िपत होने का कारण दखाई नह पड़ रहा। उ सव के दन म
अपराधी सेवक को भी ब धन म डालकर नह रखना चािहए,
इसीिलए मने इन दोन को छु ड़वा दया है और उसके बाद ये दोन
मुझे णाम करने के िलए यहाँ आ गई ह।
इरावती :िनपुिणका, जाओ। जाकर महारानी को सूचना दे दो क आपका
प पात आज हमने देख िलया है।
िनपुिणका :जो आ ा। (बाहर जाती है।)
िवदूषक :(मन-ही-मन) अरे , यह तो अनथ हो गया। पालतू कबूतर पंजड़े से
िनकलकर िब ली के सामने आ पड़ा।
िनपुिणका :( वेश करके । ज़रा-सी आड़ करके ) वािमनी, माग म अचानक मुझे
माधिवका िमल गई थी। उसने बताया है क यह सब ऐसे-ऐसे घ टत
आ है क (उसके कान म कहती है।)
इरावती :(मन-ही-मन) ठीक है। ज़ र यह सारी चालबाजी इस ा ण के ब े
क है। (िवदूषक क ओर देखकर कट) यह सारी नीित इस ेमत
के म ी क है।
िवदूषक :अजी, य द मने नीित के दो अ र भी पढ़े होते, तो म गाय ी को भी
भूल गया होता।
राजा :(मन-ही-मन) अब इस संकट से कस तरह छु टकारा पाया जाए?
[ वेश करके ]
जयसेना :महाराज, कु मारी वसुल मी गद के पीछे दौड़ रही थी क एक भूरे
ब दर ने एकाएक उसे आकर ब त डरा दया। अब वह महारानी क
गोद म पड़ी ई वायु से िहलते प े क तरह काँप रही है और कसी
तरह होश म ही नह आ रही ह।
राजा :ओफ-ओफ! ब े भी ब त ज दी डर जाते ह।
इरावती :महाराज, ज दी जाइए और उसे स भािलए। भय के कारण उसका
क और अिधक बढ़ न जाए।
राजा :म अभी जाकर उसे होश म लाता ।ँ (तेजी से चल पड़ता है।)
िवदूषक :शाबाश रे भूरे ब दर, शाबाश! आज तो तूने हमारे प को बचा ही
िलया।
[राजा, िवदूषक, इरावती, िनपुिणका और तीहारी बाहर जाते
ह।]
मालिवका :सिख, महारानी क बात सोच-सोचकर मेरा दय काँप रहा है। पता
नह , अभी आगे और या- या भोगना शेष है?
[नेप य म]
बड़े अचरज क बात है! अभी पाँच रात भी नह बीत क सुनहले
अशोक म किलयाँ िखल उठी ह। अ छा, चलकर महारानी को खबर
देती ।ँ
[दोन सुनकर स हो उठती ह।]
बकु लाविलका :धीरज धरो सिख, महारानी अपने वचन क प ह।
मालिवका :अ छा, चलो हम भी इस मदवन क मािलन के पीछे-पीछे चल
पड़।
बकु लाविलका :ठीक है, आओ चल।
[दोन बाहर जाती ह।]
पाँचवाँ अंक
[उ ानपािलका का वेश]
उ ानपािलका :मने अ छी तरह सजा इस सुनहले अशोक के चार ओर अ छी डौल
बना दी है। अब चलकर महारानी को बता आऊँ क मने अपना काम
पूरा कर दया है। (थोड़ा चलकर) अहा, मालिवका पर भा य क
बड़ी कृ पा है। अब इस अशोक के फू ल उठने के वृ ा त को सुनकर
ु महारानी उसपर स हो उठगी। अ छा, इस समय महारानी
ह गी कहाँ? (सामने क ओर देखकर) अरे , यह महारानी का
प रचायक कु बड़ा सारिसक लाख क मुहर लगी ई स दूकची को
लेकर महल से िनकल रहा है। इसीसे चलकर पूछती ।ँ (ऊपर बताए
के अनुसार स दूकची हाथ म िलए कु बड़े का वेश) कहो सारिसक,
कहाँ चले?
सारिसक :मधुक रका, िव ान् ा ण को ितमास दी जानेवाली दि णा
पुरोिहतजी के पास ले जा रहा ँ क वे ा ण म बाँट द।
मधुक रका :यह दि णा कसिलए बाँटी जाने लगी है?
सारिसक :जब से युवराज वसुिम अ मेध य के घोड़े क र ा म िनयु
कए गए ह, तब से ही उनक दीघायु क कामना से महारानी चार
सौ वण मु ाएँ ा ण को दि णा के प म देती ह।
मधुक रका :इस समय महारानी कहाँ ह, और या कर रही ह?
सारिसक :इस समय वे मंगल-घर म आसन पर बैठी ई िवदभ देश से अपने
भाई वीरसेन के भेजे ए प को पढ़वाकर सुन रही ह।
मधुका रका :आजकल िवदभराज का हाल-चाल कै सा है?
सारिसक :वीरसेन ने महाराज क िवजियनी सेना लेकर िवदभराज को कै द कर
िलया है और उसके चचेरे भाई माधवसेन को कै द से छु ड़ा दया है।
उ ह ने महाराज के िलए उपहार के प म ब मू य र , हाथी और
घोड़े और ब त-से गुणी कलाकार सेवक भी भेजे ह।
मधुक रका :अ छा-अ छा, अब चलो। तुम अपना काम भुगताओ, म भी जाकर
महारानी के दशन क ँ ।
[दोन जाते ह।]
[ वेशक समा ]
[ तीहारी का वेश]
अशोक वृ के पूजा-समारोह क तैयारी म लगी ई महारानी ने
मुझे आदेश दया है क जाकर आयपु से कहो क म अशोक वृ क
सून-ल मी को आयपु के साथ चलकर देखना चाहती ।ँ इस
समय महाराज यायासन पर बैठे ह। तो म चलकर वह उनक
ती ा क ँ ।
[चलने का अिभनय करती है।]
[नेप य म दो वैतािलक गाते ह।]
पहला वैतािलक :महाराज क जय हो! अपनी द ड-शि से ही महाराज श ु के
िसर को पैरो से र द रहे ह। मुँहमाँगा वर देनेवाले महाराज, आप तो
यहाँ िव दशा के तीर पर उ ान म शरीरधारी कामदेव के समान
वस त का आन द ले रहे ह और कोयल क कू क सुनकर स हो रहे
ह; और वहाँ वरदा नदी के तीर पर आपका श ु उन वृ के साथ-
साथ झुका खड़ा है, िजनके साथ आपके िवजयी हाथी बाँधकर रखे
गए ह।
दूसरा वैतािलक :िवदभ म किवय के गाने यो य दो ही घटनाएँ ई ह। एक तो यह क
आपने अपनी बल सेना ारा िवदभराज क ल मी का अपहरण
कर िलया है और दूसरी यह क भगवान् कृ ण ने अपनी िवशाल
बा ारा बलपूवक ि मणी का हरण कया था। इस समय देव-
तु य िव ान ारा रचे गए आप दोन के गीत को वीर- ेमी किव
लोग बड़े ेम से गा रहे ह।
ितहारी :इस जय- विन से मालूम होता है क महाराज वहाँ से चल पड़े ह
और इधर ही आ रहे ह। उनके साथ लोग क भीड़ आ रही है। उससे
बचने के िलए म इस ख भे के पीछे खड़ी हो जाती ।ँ (एक ओर खड़ी
हो जाती है।)
[िवदूषक के साथ राजा का वेश]
राजा :जब एक ओर यह सोचता ँ क मेरी वह ि य मालिवका कसी भी
कार सरलता से ा नह हो सकती, और दूसरी ओर यह सुनता ँ
क मेरी सेना ने िवदभराज को परा त कर दया है, तो मेरा मन उस
कमल के समान एकसाथ ही दुःखी और सुखी होने लगता है, िजसपर
साथ-ही-साथ धूप भी पड़ रही हो और वषा भी िगर रही हो।
िवदूषक :मुझे तो ऐसा दखाई पड़ता है क अब आप के वल सुखी-ही-सुखी
ह गे।
राजा :वह कै से?
िवदूषक :आज महारानी ने पि डता कौिशक से यह कहा था क भगवती,
आपको अपनी शृंगार-कला का िजतना अिभमान है, उसे आज
मालिवका का िववाहोिचत शृंगार करके पूरा कर दखलाइए।
कौिशक ने मालिवका को ब त अ छे आभूषण से सजाया है। हो
सकता है क महारानी आपक अिभलाषा को पूरी ही कर द।
राजा :िम , मेरे िलए पहले भी इस धा रणी ने जो-जो कु छ कया है, उससे
यह स भव ही तीत होता है क शायद वह ऐसा भी कर दे।
ितहारी :(पास जाकर) महाराज क जय हो! महारानी ने कहलाया है क आप
सुनहले अशोक के नए फू ल को मेरे साथ चलकर देख और इस
समारोह को सफल कर।
राजा : य , महारानी या वह ह?
ितहारी :जी हाँ। यथोिचत आदर के साथ सब रािनय से िवदा लेकर वे
मालिवका के साथ अपनी प रचा रका को िलए महाराज क
ती ा कर रही ह।
राजा :( स ता के साथ िवदूषक क ओर देखकर) अ छा जयसेना, चलो;
आगे चलो।
ितहारी :आइए महाराज, आइए। (आगे चलने का अिभनय करती है।)
िवदूषक :(चार ओर देखकर) िम , ऐसा तीत होता है जैसे मदवन म
वस त का यौवन फर लौट आया है।
राजा :ठीक कहते हो। वह सामने आम के बीच-बीच म जहाँ-तहाँ कु रबक
के फू ल िखल उठे ह, िजनके कारण बीतती ई वस त ऋतु का यौवन
मन को फर उ सुक करने लगा है।
िवदूषक :(कु छ चलकर) अहा! यह सुनहला अशोक तो फू ल के गु छ से ऐसा
लद उठा है क मानो कसीने इसका शृंगार कर दया हो। देिखए
ज़रा इसे।
राजा :इसका देर से फू लना भला ही था। इस समय इसक शोभा अ य सब
वृ से िनराली हो उठी है। देखो, ऐसा तीत होता है क िजन
अशोक वृ ने वस त का वैभव पहले द शत कर दखाया था, अब
इसक अिभलाषा पूरी हो जाने पर उ ह ने अपने सारे फू ल इसे ही दे
दए ह।
िवदूषक :ठीक है। अब बे फ हो जाइए। हम लोग के पास प च ँ जाने पर भी
महारानी धा रणी मालिवका को अपने पास ही िबठाए ए ह।
राजा :( स होकर) िम , देखो, महारानी मेरे आदर के िलए उठ खड़ी ई
ह और उनके पीछे मेरी ि या मालिवका भी उठ खड़ी ई है। उसने
अपने दोन कर-कमल फै लाए ए ह, और ऐसा तीत हो रहा है,
मानो पृ वी के पीछे राजल मी खड़ी ई हो।
[धा रणी, मालिवका, प र ािजका और आसपास प रचारक का
वेश]
मालिवका :(मन-ही-मन) मुझे इस साज-शृंगार का कारण तो मालूम है; फर भी
मेरा दय कमिलनी के प े पर पड़ी ई पानी क बूँद के समान काँप
रहा है। इधर मेरी बा आँख भी बार-बार फड़क रही है।
िवदूषक :िम , िववाह के यो य शृंगार और वेश म मालिवका और भी सु दर
दखाई पड़ रही है।
राजा :हाँ, देख रहा ।ँ इसने एक छोटा-सा दुप ा ओढ़ा आ है और ब त-से
आभूषण से लदी ई यह ऐसी तीत हो रही है, मानो तार से भरी
चै क रात हो, िजसम से कोहरा हट चुका हो, और अभी चाँदनी
िनकलनेवाली हो।
धा रणी :(पास जाकर) आयपु क जय हो।
िवदूषक :आपक दन दूनी रात चौगुनी वृि हो।
पा र ािजका :महाराज क जय हो।
राजा :भगवती, णाम।
पा र ािजका :आपके मनोरथ पूण ह ।
धा रणी :(मु कराते ए) आयपु , देिखए, हमने इस अशोक को आपके िलए
अ छा-खासा संकेत-गृह बना डाला है, जहाँ आप त िणय से िमल-
जुल सकते ह।
िवदूषक :महाराज, तब तो इ ह ने आपके मन क बात ही कर दी।
राजा :(कु छ लजाते ए अशोक के चार ओर घूमकर) यह अशोक तो
तु हारे इस कार के स कार का पा ही है, य क इसने
वस तल मी के आदेश को तो टाल दया था और उन दन फू ला
नह था, पर तु अब तु हारे य का आदर करके फू ल से भर उठा
है।
िवदूषक :अब आप िनि त होकर इस यौवन से मदमाती को िनहा रए।
धा रणी : कसे?
िवदूषक :अजी, सुनहले अशोक के फू ल क शोभा को।
[सब बैठ जाते ह।]
राजा :(मालिवका क ओर देखकर; मन-ही-मन) ओह, इतने िनकट होकर
भी अलग रहना बड़ा दुखदायी है। म चकवा ँ और मेरी ि या
मालिवका चकवी है। यह धा रणी, जो हम पर पर िमलने क
अनुमित नह दे रही, हम दोन के िलए राि बनी ई है।
[ वेश करके ]
कं चुक :महाराज क जय हो! अमा य ने कहलाया है क िवदभ देश से भट के
प म दो गुणी दािसयाँ आई ह। पहले वे दूर से आने के कारण थक
ई थ , इसिलए उ ह आपके पास नह भेजा था। अब वे िव ाम
करके इस यो य हो गई ह क आपके पास आ सक। आप आ ा देने क
कृ पा कर।
राजा :उ ह ले आओ।
कं चुक :जो महाराज क आ ा। (बाहर जाता है और उन दोन के साथ
वापस आता है।) इधर आइए, इधर।
पहली :(धीरे से) सखी मदिनका, इस अद्भुत राजकु ल म िव होते समय
मेरा दय स ता से भर उठा है।
दूसरी : योि का, ऐसा कहते ह क आनेवाले सुख या दुःख को मनु य का
मन पहले ही कह देता है।
पहली :यह बात अब स ी हो जाए, तभी ठीक है।
कं चुक :ये महाराज महारानी के साथ बैठे ह। आप दोन उनके पास जाइए।
[दोन पास जाती ह।]
[मालिवका और प र ािजका उन दोन दािसय को देखकर एक-
दूसरे क ओर देखती ह।]
दोन :( णाम करके ) महाराज क जय हो! महारानी क जय हो!
[दोन राजा क आ ा से बैठ जाती ह।]
राजा :आप दोन ने कस कला का अ यास कया है?
दोन :महाराज, हमने संगीत क िश ा पाई है।
राजा :रानी, तुम इनम से कसी एक को ले लो।
धा रणी :मालिवका, ज़रा देख तो इधर। तुझे इनम से अपने संगीत के िलए
कौन-सी सािथन पस द है।
दोन :(मालिवका को देखकर) अरे राजकु मारी! राजकु मारी क जय हो।
[ णाम करके उसके साथ-साथ रोने लगती ह।]
[सब आ य के साथ देखते ह।]
राजा :आप दोन कौन ह? और यह कौन है?
दोन :महाराज, ये हमारी राजकु मारी ह।
राजा :वह कै से?
दोन :सुिनए महाराज! महाराज ने अपनी सेना ारा िवदभराज को
परा त करके िजस कु मार माधवसेन को कै द से छु ड़ाया है, यह
उसीक छोटी बिहन मालिवका है।
धा रणी : या यह राजकु मारी है? हाय, म च दन से खड़ाऊँ का काम लेती
रही।
राजा : फर इनक यह दशा कै से ई?
मालिवका :(गहरी साँस छोड़कर मन-ही-मन) भा य के फे र से।

दूसरी :सुिनए महाराज! जब राजकु मार माधवसेन अपने चचेरे भाई के पास
कै द हो गए, तब उनके अमा य सुमित हम प रचा रका को
छोड़कर इ ह चुपचाप ले आए।
राजा :यह म पहले सुन चुका ।ँ फर या आ?
दूसरी :महाराज, इससे आगे मुझे मालूम नह ।
प र ािजका :इससे आगे क बात म अभािगन सुनाऊँगी।
दोन :राजकु मारी, यह तो आया कौिशक क सी आवाज मालूम होती है?
अरे , ये तो वही ह।
मालिवका :और नह तो या!
दोन :प र ािजका का वेश पहने ए आचाया कौिशक बड़ी क ठनता से
पहचानी जाती ह। भगवती, नम ते!
प र ािजका :तुम दोन का क याण हो!
राजा :यह या बात है? या भगवती इन दोन को पहले से जानती ह?
प र ािजका :जी हाँ। यही बात है।
िवदूषक :अ छा, भगवती, अब आप मालिवकाजी का सारा वृ ा त सुना
डािलए।
प र ािजका :(दु:खी होने का अिभनय करते ए) अ छा तो सुिनए। माधवसेन के
सिचव सुमित मेरे बड़े भाई ह।
राजा :समझ गया। अ छा, फर या आ?
प र ािजका :वे इसे और मुझे साथ लेकर इसका स ब ध आपके साथ कराने के
िलए िव दशा क ओर आनेवाले ापा रय के एक दल म सि मिलत
हो गए।
राजा :ठीक है। फर?
प र ािजका :कु छ दूर चलने पर ापा रय का वह दल एक घने जंगल म जा
प च ँ ा।
राजा : फर?
प र ािजका :उसके बाद और या होना था! क ध पर तरकस लटकाए और पीठ
पर घुटन तक लटकते ए मोर के पँख बाँधे ए, हाथ म धनुष
िलए िच लाता और ललकारता आ डाकु का दल हमपर एकाएक
इस तरह टू ट पड़ा क मुकाबला कर पाना अस भव हो गया।
[मालिवका भयभीत होने का अिभनय करती है।]
िवदूषक :अजी, ड रए नह ; ये तो बीती ई बात सुना रही ह।
राजा : फर?
प र ािजका :इसके बाद कु छ ही देर म ापा रय के दल के यो ा को डाकु
ने हराकर भगा दया।
राजा :ओफ! या इससे भी अिधक दुःखद बात सुननी होगी?
प र ािजका :तब मेरे वे भाई श ु के आ मण से घबराई ई इस मालिवका क
र ा करते ए वगवासी हो गए और उ ह ने अपने ाण देकर अपने
वामी का ऋण चुका दया।
पहली :तो या सुमित मारे गए?
दूसरी :अहो! तभी हमारी राजकु मारी क यह दशा ई।
[प र ािजका रोने लगती है।]
राजा :भगवती, सभी शरीरधा रय क अ त म यही गित होनी है। अपने
वामी का अ सफल करने वाले सुमित के िलए आपको शोक नह
करना चािहए। फर या आ?
प र ािजका :उसके बाद म बेहोश हो गई। जब मुझे होश आया, तो मालिवका
कह दखाई नह पड़ी।
राजा :तब तो आपने ब त क सहा।
प र ािजका :उसके बाद भाई के शरीर का अि -सं कार करके म आपके देश म आ
प चँ ी। यहाँ मेरे िवधवापन का दुःख फर से ताजा हो उठा और मने
सं यास लेकर ये गे ए कपड़े पहन िलए।
राजा :ठीक है। भले आदिमय का यही माग है। फर या आ?
प र ािजका :उसके बाद यह डाकु से होती ई वीरसेन के पास और वीरसेन के
पास से महारानी के पास आ गई। जब म महारानी के पास प च
ँ ी,
तो मने इसे यहाँ पाया। यही है इसक कहानी।
मालिवका :(मन-ही-मन) अब देख,ूँ महाराज या कहते ह?
राजा :हाय, िवपि आने पर मनु य क दशा कतनी िगर जाती है! कहाँ तो
यह सा वी रानी कहलाने यो य थी और कहाँ इससे दासी का काम
िलया गया। यह तो पशमीने से अंगोछे का काम लेने क बात ई।
धा रणी :भगवती, आपने मुझे यह न बताकर क मालिवका ऊँचे कु ल क है,
भला नह कया।
प र ािजका :ऐसा न किहए। एक खास कारण था, िजससे म इस कार अपने दल
को प थर कए रही।
धा रणी :वह कारण या था?
प र ािजका :जब इसके िपता जीिवत थे, तब तीथया ा से लौटे ए एक
भिव यदश साधु ने मेरे सामने ही इसके िवषय म बताया था क
एक वष तक यह कह दासी के प म काम करे गी और उसके बाद
इसे उपयु पित िमलेगा। जब मने यह देखा क उसक बात इस प
म स ी हो रही है और यह आपके यहाँ सेवा करके समय िबता रही
है, तो मुझे लगता है क मने चुपचाप रहकर ती ा करके भला ही
कया।
राजा :आपक यह ती ा ठीक ही रही।
कं चुक :महाराज, इस कथा के कारण म एक बात कहना भूल गया। अमा य
ने कहलावाया है क िवदभ के स ब ध म जो कु छ ब ध करना था,
वह कर दया गया है। पर म महाराज क इ छा भी जान लेना
चाहता ।ँ
राजा :मौद्ग य, मेरी इ छा है क म य सेन और माधवसेन दोन के दो
अलग-अलग रा य बना दूँ और वे दोन वरदा नदी के उ री और
दि ण तट पर उसी कार रा य करते रह, जैसे सूय और च मा
रात और दन का बँटवारा करके सुशोिभत होते ह।
कं चुक :ठीक है महाराज। म यही बात अमा य-प रषद से िनवेदन कर आता
।ँ
[राजा अँगुली से अनुमित देने का संकेत करता है। कं चुक बाहर
जाता है।]
पहली दासी :(धीरे से) राजकु मारीजी, बधाई हो! अब तो महाराज ने राजकु मार
को आधा रा य दलवा दया है।
मालिवका :यह बड़ी बात है क उनके ाण बच गए।
[ वेश करके ]
कं चुक :महाराज क जय हो। अमा य ने कहलाया है क महाराज का िवचार
िबलकु ल ठीक है। म ी-प रषद क स मित भी यही है। िजस कार
रथ के दोन घोड़े सारथी के िनय ण म रहकर चलते ह, उसी कार
दो भाग म बँटी ई रा य ी का उपभोग करते ए और एक-दूसरे
से षे न रखते ए ये दोन भी आपके िनय ण म बन रहगे।
राजा :तो जाकर म ी-प रषद से कहो क सेनापित वीरसेन को िलख भेज
क वे ऐसा ही कर द।
कं चुक :जो महाराज क आ ा। (बाहर जाता है और उसके बाद उपहार -
समेत एक प लेकर फर आता है।) महाराज क आ ा का पालन
कर दया गया है। यह महाराज के सेनापित पु यिम के पास से
दुशाले के उपहार के साथ प आया है। महाराज इसे देख ल।
[राजा उठकर िश ाचार- दशन के साथ उपहार-समेत प को
लेता है और एक सेवक को स प देता है। सेवक प को खोलने का
अिभनय करता है।]
धा रणी :(मन-ही-मन) ओह! मेरा दय भी इसीको सुनने के िलए अधीर हो
रहा है। गु जन का कु शल-वृ ा त सुनने के बाद वसुिम का हाल
सुनूँगी। सेनापित ने भी मेरे बालक को बड़ा भयानक काम स प दया
है।
राजा :(बैठकर आदर के साथ प को लेकर पढ़ता है।) वि त! य के घोड़े
के साथ-साथ चलनेवाले सेनापित पु यिम िव दशा म ि थत पु
िचरं जीव अि िम को ेहपूवक आ लंगन करके िलखते ह, आपको
यह मालूम हो क अ मेध य क दी ा लेकर मने एक वष के िलए
जो खुला घोड़ा छोड़ा था, और िजसक र ा के िलए वसुिम क
अधीनता म सैकड़ राजकु मार को लगाया था, वह घोड़ा जब िस धु
के दि णी कनारे पर फर रहा था, तब उसे यवन क अ ारोही
सेना ने पकड़ िलया। उसके बाद दोन सेना म जमकर भीषण यु
आ।
[धा रणी दुःखी होने का अिभनय करती है।]
राजा :अरे , मामला या यहाँ तक बढ़ गया? ( फर आगे पढ़ता है।) तब
धनुधर वुसिम ने श ु को परा त करके मेरे िछने ए घोड़े को
बलपूवक वापस लौटा िलया।
धा रणी :यह सुनकर दय को कु छ आ ासन िमला।
राजा :(शेष प को पढ़ता है।) अब म इस घोड़े को लौटाकर उसी कार
अ मेध य क ँ गा, जैसे सगर के पौ अंशुमान के घोड़े को लौटा
लाने पर सगर ने य कया था। अब आप अिवल ब अपना सारा
ोध भूलकर ब को साथ लेकर इस य म भाग लेने के िलए आ
जाइए।
राजा :यह िलखकर उ ह ने बड़ी कृ पा क है।
प र ािजका :आप दोन को पु क िवजय के िलए बधाई हो! महारानी, आपके
पित ने आपको वीरपि य म सबसे ऊँचा थान दलाया, और
आपके पु ने आपको वीर माता का पद भी दलवा दया है।
धा रणी :भगवती, मुझे तो यही बड़ा स तोष है क मेरा बेटा अपने िपता के
समान ही िनकला।
राजा :मौद्ग य, यह तो इस हाथी के ब े ने यूथपित का सा काम कर
दखाया।
कं चुक :महाराज, कु मार के इस वीरोिचत परा म म हम कोई आ य नह
हो रहा, य क जैसे बड़वानल से समु को सोखनेवाले उ ज मा
ऋिष उ प ए थे, उसी कार आप जैसे अपरािजत वीर के पु का
ऐसा परा मी होना वाभािवक ही है।
राजा :मौद्ग य, य सेन के साले मौयसिचव तथा अ य सब कै दय को
आज छोड़ दया जाए।
कं चुक :जो महाराज क आ ा। (बाहर जाता है।)
धा रणी :जयसेना, जा। इरावती इ या द अ य सब रािनय को भी जाकर पु
का यह वृ ा त तो सुना आ।
[ ितहारी चल पड़ती है।]
धा रणी :जरा सुन तो।
ितहारी :(लौटकर) आ गई, किहए।
धा रणी :(धीरे से) मने अशोक क इ छा पूण करने के िलए मालिवका को
िनयु करते समय जो वचन दया था, उसे और इसक कु लीनता के
िवषय म बताकर इरावती से मेरी ओर से अनुरोध करना क वह
कु छ ऐसा न करे , िजससे मुझे झूठा बनना पड़े।
ितहारी :जो महारानी क आ ा। (बाहर जाकर वेश करके ) वािमनी,
राजकु मार क िवजय के वृ ा त को सुनकर रािनय को इतना
आन द आ है क म तो गहन क िपटारी ही बन गई ।ँ
धा रणी :इसम आ य क या बात है? इसम तो मेरा और उनका समान ही
बड़ पन है।
ितहारी :(धीरे से) वािमनी, इरावतीजी ने कहलवाया है क आपने अपने
बड़ पन के अनुकूल ही सोचा है। आपने जो वचन दया आ है, उसे
अव य पूरा क िजए।
धा रणी :भगवती, य द आप अनुमित द तो म चाहती ँ क आय सुमित ने जो
मालिवका को आयपु को देने का संक प कया था, उसे पूण कर दू।ँ
प र ािजका :अब तो आपका ही इनपर अिधकार है।
धा रणी :(मालिवका का हाथ पकड़कर) आयपु , आपने ि य समाचार
सुनाया है, तो उसके उपयु यह पुर कार वीकार क िजए।
[राजा ल ा का अिभनय करता है।]
धा रणी :(मु कराकर) या आयपु इस भट को वीकार नह करना चाहते?
िवदूषक :अजी, यह तो लोकाचार है। सभी नए वर इसी तरह लजाया ही करते
ह।
[राजा िवदूषक क ओर देखता है।]
िवदूषक :महाराज चाहते ह क आप ही इ ह बड़े ेम के साथ रानी कहकर
बुलाएँ, तभी वे इ ह हण करगे।
धा रणी :ये तो पहले से ही राजकु मारी ह, अपने कु ल के कारण ही इ ह रानी
का पद ा है, फर उसे दुहराने क या आव यकता है।
प र ािजका :ऐसा न किहए। भले ही र खान म उ प आ हो और अ छी को ट
का भी हो, फर भी उसे सोने म जड़ना ही पड़ता है।
धा रणी :(कु छ मरण-सा करके ) भगवती, मा क िजए। पु क िवजय कथा
के आन द म मुझे उिचत बात भी यान न रही। जयसेना, जा तू
ज दी से ऊन और रे शम का जोड़ा तो ले आ।
ितहारी :जो महारानी क आ ा। (बाहर जाती है और पशमीने का जोड़ा
लेकर फर वेश करती है।) लीिजए महारानीजी, यह है।
धा रणी :(मालिवका के िसर पर कपड़ा डालकर उसका घूँघट कर देती है।)
आय पु अब इसे वीकार क िजए।
राजा :तु हारा आदेश तो मानना ही होगा। (ओट करके ) यह तो मने पहले
से ही वीकार क ई थी।
िवदूषक :अहा, महारानी भी कतनी कृ पालु ह!
[महारानी सेवक क ओर देखती ह।]
ितहारी :(मालिवका के पास जाकर) वािमनी, आपक जय हो!
[धा रणी प र ािजका क ओर देखती है।]
प र ािजका :यह उदारता आपके िलए कु छ नई नह है। पित से ेह करनेवाली
सा वी ि याँ सौत लाकर भी पित को स रखती ह; जैसे बड़ी-
बड़ी न दयाँ अ य छोटी न दय के जल को भी समु तक प च ँ ा देती
ह।
[ वेश करके ]
िनपुिणका :महाराज क जय हो। इरावतीजी ने कहलाया है क उस समय मने
िश ाचार का उ लंघन करके जो अपराध कया था, वह सब मने
आपके काय-साधन के िलए ही कया था। अ आपका मनोरथ पूण
आ, इसिलए आशा है क आप अपनी स ता ारा मुझे अनुगृहीत
करगे।
धा रणी :िनपुिणका, उ ह ने महाराज क जो सेवा क है, उसे ये भूलगे नह ।
िनपुिणका :सुनकर कृ ताथ ई।
प र ािजका :महाराज, म चाहती ँ क जाकर माधवसेन को इस उिचत स ब ध
का समाचार सुनाकर स क ँ ।
धा रणी :भगवती, हम छोड़कर यहाँ से आपका जाना ठीक नह ।
राजा :भगवती, म अपनी ओर से जो प भेजूँगा, उसीम आपक ओर से भी
बधाई िलख भेजूँगा।
प र ािजका :म तो अब आप दोन के ेम के वश म ही ।ँ
धा रणी :आयपु , किहए, अब आपका और कौन-सा ि य काय क ँ ?
राजा :देवी, म तो दय से के वल इतना ही चाहता ँ क तुम सदा मुझपर
स बनी रहो। फर भी ऐसा हो जाए क–
[भरत वा य]
जब तक अि िम रा य करते रह, तब तक जा को कसी कार
का भय या क न हो।
[सब बाहर जाते ह।]
सं कृ त का अमर सािह य (िह दी म)
□ अिभ ानशाकु तल :कािलदास
□ कु मारसंभव :कािलदास
□ िव मोवशी तथा मालिवकाि िम :कािलदास
□ व वासवद ा तथा ित ायौग धरायण:भास
□ दशकु मारच रत :द डी
□ मृ छक टक :शू क
□ मु ारा स :िवशाखद
□ उ ररामच रत :भवभूित

1590 मदरसा रोड, क मीरी गेट


द ली-110006

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