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रघुवंश

रघुवंश
(सं कृ त के सु िस महाका ‘रघुवंश’
का िह दी पा तर)

महाकिव कािलदास
पा तरकार
इ वाच पित

सं करण : 2009 © राजपाल ए ड स ज़


ISBN : 978-81-7028-370-6
RAGHUVANSH (Sanskrit Epic) by Kalidas

राजपाल ए ड स ज़, क मीरी गेट, द ली-110 006


Website : www.rajpalpublishing.com
E-mail : mail@rajpalpublishing.com
भूिमका

छा ाव था से ही मुझे कािलदास के का के पारायण का सन रहा है। अब तक भी


र समय को काटने या मनोरं जन के िलए उप यास के थान पर म ायः कािलदास
का कोई का पढ़ा करता ।ं िजतना ही अिधक मने किव-स ाट् के का का
अनुशीलन कया, उतना ही अिधक उनका स दय और गौरव मेरे मन पर अं कत होता
गया।
कई ाचीन सािह यालोचक ने कािलदास के थ म सबसे उ कृ ‘
अिभ ानशाकु तल‘ को ठहराया है। शाकु तल म लिलत श द और कोमल भावना
का ऐसा अ छा िम ण है क उसक उपमा िमलनी क ठन है। इस दृि से उसका थान
न के वल कािलदास के थ म या सं कृ त के वाङ् मय म, अिपतु िव के सािह य म
ऊँचा माना जाए तो उिचत ही है। पर तु दो कारण से मने ‘रघुवंश‘ को पहला थान
दया है। थम कारण तो यह है क यह महाका है। उसम वणनीय िवषय और रस
क इतनी िविवधता है क किव को अपनी ितभा के काशन का पूरा अवसर िमला है।
दूसरा कारण यह है क ‘रघुवंश‘ म हम कािलदास के काल क अव था तथा भावना का
िवशद तथा उ वल िच देखते ह। यह ठीक है क ‘रघुवंश‘ महाका म स ाट् रघु
और उसके वंशज क कहानी िचि त क गई है, पर तु ग भीर दृि से पढ़नेवाला
पाठक इस प रणाम पर प च ं े िबना नह रह सकता क उस च र ावाली क पृ भूिम म
महाकिव का समय िव मान है।
मने ‘रघुवंश‘ के ोक का श दानुवाद नह कया। श दानुवाद से म किव के
आ त रक भाव को पाठक तक नह प च ं ा सकता था। मने य कया है क म किव के
आ त रक भाव को, सुबोध लोकभाषा म ितिबि बत कर दू।ं फलत: यह ‘रघुवंश‘ के
उ ीस सग के येक श द अथवा येक ोक का भावानुवाद भी नह है। यह कहना
अिधक संगत होगा क यथास भव तथा यथाशि किव के भाव और किव क कथन-
शैली क र ा करते ए, स ाट् रघु के तेज वी च र को िचि त करने का य कया
गया है।
समय और थान
कािलदास के ज म थान और ज मकाल के स ब ध म आज भी वैसा ही अिन य बना
आ है, जैसा आज से पचास वष पूव था। ाय: देश का येक देश कािलदास क
ज मभूिम होने का दावा कर चुका है। क मीर, िहमाचल देश, मालवा, मगध, बंगाल
तथा दि ण के प म बल युि य तथा माण से यु लेख िलखे गये ह। यह बात
िवशेष यान देने यो य है क देश-िवशेष का समथन ाय: उसी देश के िनवासी
िव ान ने कया है। यह उस ापक और गहरे ेम तथा आदर-भाव का सूचक है, जो
भारतवासी-मा के दय म कािलदास के िलए िव मान है। वे उसे अपनाना चाहते ह,
उसका ज म थान अपने देश म, य द हो सके तो, अपने गांव म खोजना चाहते ह। य द
महाकिव ने अपने कसी थ म ज म- थान के स ब ध म कोई संकेत दया होता तो
िववाद क कु छ बात ही न रहती। इसके अभाव म येक भारतवासी क यह अिभलाषा
वाभािवक ही है क वह कािलदास को व े ी िस करे । म थान-स ब धी तक-
िवतक म न पड़कर िव ान क स मितय के आधार पर इस प रणाम पर प च ं ना
अिधक सु दर और साथक समझता ं क कािलदास का ज म- थान स पूण भारतवष
था–उसे ज म देने का ेय कसी एक देश को न देकर, समूचे देश को देना चािहए।
अ वेषक ने कािलदास के ज म थान का िनणय करने के िलए िजन उपाय का
सहारा िलया है, उनम से एक यह भी है क कािलदास क रचना से किव के देश-
स ब धी प रचय तथा ेम क परख क जाए। अ वेषक ने मान िलया है क रचना
क छानबीन से िजस देश के साथ किव का गहरा प रचय तथा ेम भािसत होता हो,
किव का ज म उसी देश म आ होगा। बड़े आ य क बात यह है क इस उपाय के सू
को पकड़कर जब अ वेषक लोग आगे बड़े तो उनम से ाय: येक ज म- देश म प च ं
गया। म तो इसका मूल कारण यह समझता ं क कािलदास का देश- ेम और देश-
प रचय असाधारण प से ापक और गहरा था। देश- मण का किव को जो अवसर
िमला, उसने अपनी िनरी ण-शि और अ भुत ितभा के बल से उससे पूरा लाभ
उठाया। स पूण भारतखंड के िभ -िभ देश और उनक िवशेषता से िजतना
प रचय कािलदास का था, उतना शायद ही कसी अ य किव का हो। िहमालय क
चो टय , दि ण क न दय और पूव तथा पि म के वन-उपवन का ब त ही
वा तिवक और िवशेषतापूण वणन महाकिव के का तथा नाटक म िमलता है। उसे
पढ़कर तीत होता है क किव ने िचरकाल तक ब त समीप से उन थान को देखा है।
सामा य ि िचर-िनवास के िबना उतना िनरी ण नह कर सकता। ‘कु मारस भव’
के ार भ म कािलदास ने िहमालय का मानो नख-िशख-वणन कर दया है। उधर
‘रघुवंश‘ म रघु क दि वजय-या ा का वणन प ढ़ए तो आप अनुभव करगे क किव को
भारत के कोने-कोने क भौगोिलक और मानवीय िवशेष ता का िवशद् प रचय है।
‘मेघदूत’ का अनुशीलन क िजए तो आप भारत के उ र और दि ण के मु य दो पवत
को आपस म िमलानेवाले मे द ड का मा मक वणन पाएंग।े कािलदास के इस ापक
और गहरे प रचय का ही प रणाम है क भारत के येक देश का िनवासी किव के
थ म अपने देश के इतने िच न पा लेता है क उसे कािलदास के सम े ी होने का
िव ास हो जाता है। य द के वल कसी एक अंग पर दृि न डालकर किव के सम त
का पर प पातहीन दृि डाली जाए तो यही प रणाम िनकलेगा क कािलदास
भारत का िनवासी था। उसका ज म कहां आ था, इस का उ र तो काला तर म
कोई पुरात ववे ा ही दे सकगे, म तो इतना ही कहना चाहता ं क महाकिव
कािलदास भारत का िनवासी था और य द हम कािलदास के समय के भारतवष को
जानना चाहते ह, तो उसका सव कृ िच किव के का म िव मान है।
दूसरा ज मकाल का है। ज मकाल के स ब ध म भी िव ान के अनेक मत ह।
िव म संवत् के सं थापक स ाट् िव मा द य से लेकर छठी शता दी के कसी
िव मा द य तक के समय म महाकिव क स ा को िस करने के य कए गए ह।
इस िवषय म, कािलदास के थ म अथवा अ य कोई सीधा माण नह िमलता।
याित के अनुसार किलदास स ाट् िव मा द य क सभा के नव-र म से अ यतम थे।
यह याित सं कृ त-सािह य म स य करके मानी जाती रही है। वाभािवक तो यह था
क जब तक पु माण से उस याित का ख डन न हो जाता, तब तक उसे ही वीकार
कया जाता। पर तु पि म के समालोचक ने संवत् के सं थापक िव मा द य क स ा
पर ही आशंका उठा दी। बस, फर या था, मानिसक पराधीनता-काल के भारतीय
िव ान् िव मा द य को के वल भूत- ेत जैसा कि पत ि मानकर ता प और
िशलालेख म से कसी अ य िव मा द य को ढू ंढ़ िनकालने का य करने लगे। कई
िव मा द य खोदकर िनकाले गए, पर तु यह बताने वाला कोई िशलालेख अब तक नह
िमला क उनम से कसके समय म महाकिव ने किवता क । ऐसी दशा म म तो यही
समझता ँ क महाकिव कािलदास को िव मी संवत् के सं थापक स ाट् िव मा द य
का समकालीन ही माना जाए। इस म त के प म जन ुित के अित र सािह य के
पोषक माण भी िव मान ह। के वल का पिनक युि य के हार से 2000 वष पुरानी
याित का दुग नह तोड़ा जा सकता। य द हम एक बार इस माग पर चल पड़े, तो हम
अपने स पूण ाचीन इितहास से हाथ धोना पड़ेगा। हमारे मनु और मा धाता, हमारे
राम और कृ ण और हमारे वा मी क और ास पोषक िशलालेख और ता प के
अभाव के कारण अिव ास क आंधी से उड़ जाएंगे। इस कारण, अ य कसी पु क पना
के अभाव म, मने यही वीकार कर िलया है क अब से 2013 वष पूव, िव मा द य
नाम का एक तापी स ाट् भारत म रा य करता था। उसने िवदेशी आ मणका रय
पर िवजय ा करके मारक- प म िव मी संवत् क थापना क थी। महाकिव
कािलदास उसी क सभा का एक र था। जैसे उस आ द िव मा द य के अनुकरण म
अनेक भारतीय िवजेता ने अपने नाम के साथ िव मा द य क उपािध जोड़कर
अपना मान बढ़ाया, उसी कार अनेक किवय ने भी अपने को कािलदास नाम से
िवशेिषत करके –

एकोऽिप जीयते ह त कािलदासो न के निचत्


शृ गारे लिलतो ारे कािलदास यी कमु?
शृंगार रस और मधुर उि य म एक कािलदास को जीतना ही क ठन है, फर जब
तीन कािलदास ह तो उनसे कौन पार पा सकता है? –इस कार क उि य को ज म
दया।
कािलदास के समय का भारत
जब तक अ य त पु माण से कोई दूसरा मत िस नह हो जाता, तब तक इसी
ाचीन मत को ामािणक मानना चािहए क ‘रघुवंश‘ आ द का और
‘अिभ ानशाकु तल’ आ द नाटक के िनमाता महाकिव कािलदास ने िव मी संवत् के
सं थापक महाराजा िव मा द य के रा य काल म अपनी अमर कृ ितय क रचना क ।
य द कािलदास ने अ य अनेक उ रकालीन किवय क भांित थोड़ी-सी भी
आ मप रचय-स ब धी बात कह दी होत , तो आज कु छ महानुभाव को एक िनि त
िवषय पर ऐसा संशया मक होने का अवसर न िमलता। पर तु एक संतोष क बात भी
है। महाकिव के का म किव के समय का सीधा िनदश न होते ए भी, वह समय कै सा
था? –इस का उ र देने के िलए पया साम ी िव मान है। कािलदास के थ को
प ढ़ए तो आप उस समय के भाव क झलक ानच ु से देख सकते ह।आप ‘रघुवंश’
से उस समय क राजनीितक भावना , ‘कु मारस भव’ से धा मक िवचार और
‘मेघदूत’ से सामािजक तथा भौगोिलक प रि थितय का एक प िच ख च सकते ह।
तीन का मु य प से उस काल के राजा , राजप रवार और राजमहल क
अव था का दशन करने के अित र संगवश थोड़ा-ब त जनता के जीवन को भी
िचि त करते ह। अनेक- ितभा स प लेखक ने कािलदास के ंथ क सहायता से उस
समय के समाज का पूण िच ख चने का य कया। इस सारभूत तावना म उसका
द दशन कराने को भी थान नह है। यहां तो म थोड़े-से श द म उस िच क के वल
प रिध-रे खा को ही ख च सकता ,ं और वह भी इस प म क उ ह पढ़ने से मेरे मन
पर िव म के समय क कै सी परे खा खंची है।
वह समय अ य त समृि शाली था। भारत के शासक का आसपास के देश पर
आतंक था। देश के अ दर शि और िवभूित का दौर-दौरा था। जा संतु थी और
राजभ थी। चोर और द यु भय खाते थे और सामा य नाग रक सुख से अपना जीवन
तीत करते थे । नगर म िविवध कार क कलाएं िवकिसत होती थ और ाम के
िनवासी अ उपजाकार देश को जीवन-दान देते थे। कर- प म के वल भूिम का प ांग
िलया जाता था िजसका अिधकांश जा पर ही य कर दया जाता था। शासकवग
अपने को जा का र क और सेवक मानता था और अ याचार से भय खाता था।
उस समय देश म भारतीय धम अपने पौरािणक प म चिलत था। बौ धम
ीण हो गया था, जैनधम भी प रिमत े म ही जीिवत था। ाचीन आयधम
पौरािणक कलेवर म लोकस मत था। तीत होता है क मु यता भगवान के शंकर प
को दी जाती थी।
सािह य और कला क दृि से वह समय ब त उ त था। उसे भारतीय सािह य
का व णम युग कह सकते ह। उस समय के सािह यो ान का सबसे उ वल और
चम कारी पु प तो वयं कािलदास ही था, पर तु इितहास बतलाता है क कािलदास
जैसा पु प सािह यो ान म कभी अके ला नह िखलता। वह पु प और कुं ज से िघरा
रहता है। भारत क ऐितहािसक पर परा भी हम यही बतलाती है क वह समय
किवय , िव ान और कलाकार क दृि से अ य त समृ था। सं कारपूत, प र कृ त
और साधु भाषा का आदर कया जाता था। राजा से लेकर रं क तक सा र और
िव ा ेमी होते थे। सं कृ त के नाटक का ब त चार था। ना कला और िच कला
सावजिनक प से चिलत थ । ि य को कला क िश ा िवशेष प से दी जाती थी।
े ागृह’ अथात् नाटक-घर को नगरी का आव यक अंग माना जाता था।
कािलदास के का म िच कला के िनदश इतनी ब तायत से िमलते ह क उनसे
जहां एक ओर कािलदास के कला ेम का प रचय िमलता है, वह उस समय का कला-
स ब धी गौरव भी कट होता है। दृ य , ि य और पशु-पि य के िच क चचा
थान- थान पर आई है। िच कला म ऐसे ाकृ ितक दृ य के िच ण को सबसे अिधक
क ठन और मह वपूण समझा जाता है, िजसम िव तृत भूिम-भाग पर पवत, आकाश,
मनु य और पशु-पि य पर काश और अ धकार के सू म भाव को दखाया गया
हो। कािलदास के का से मािणत होता है क कला क वह शाखा भी उस समय
अ य त उ त दशा तक प च ं ी ई थी।
मू तकला तो उस समय क िवशेषता ही थी। देवी-देवता , मनु य और पशु-
पि य क भावपूण मू तय के जो गु कालीन अवशेष िमलते ह, वे िव मकालीन
पर परा के अंग ह। कािलदास के का म मू तकला के अनेक िनदश िमलते ह।
कािलदास के थ म िश पी, िश पसंघ आ द से िनदश के अित र घर और
नगर के ार और प क के , राजपथ और िवपिणय के जो सांगोपांग वणन िमलते ह,
वे ऊँचे दज क िश पकला को सूिचत करते ह।
कािलदास के का के अ ययन से मन पर उस समय क समृि और ऐ य का
जो भाव पड़ता है, वह इतना गहरा है क कभी-कभी आशंका होने लगती है क कह
वह के वल का पिनक ही तो नह । पर तु जब हम उस समय के सब ऐितहािसक अवशेष
क परी ा करके देखते ह तो वह िवचार जो महाकिव के अ ययन से बना था, पु हो
जाता है। उस समय देश क सवतोमुखी िवभूित अपने पूण यौवन पर थी। जा सुखी
और समृ थी। शासक कत परायण और ीमान् थे। देश के बल-परा म का आसपास
के देश पर आंतक था, िजसके फल व प ब मू य उपहार चार ओर से बरसते रहते
थे। देश म सुख था, शाि त थी और सुरा य था।
‘रघुवंश ’ का ल य बंद–ु येक महती रचना का कोई न कोई ल यिब दु होता है।
िजस रचना का कोई ल यिब दु न हो, वह महती नह कहला सकती। रचना भौितक हो
या आ याि मक, उसका ल यिब दु तो होना ही चािहए। कु छ लोग कला के िलए कला
और जीने के िलए जीने क क पना का समथन करते ए समझते ह क हमने एक ब त
अनूठी और अनमोल क पना क है। व तुत: वह अस भव क क पना है । यह ठीक है
क भोजन भूख को िमटाने के िलए कया जाता है, पर तु भो य व तु या हो, और कै से
खाई जाए, इसका िन य भोजन करने वाले के दृि कोण या ल यिब दु के अनुसार
होता है। जो मनु य शरीर क र ा और वा य के िलए भोजन करता है, उसके भोजन
म और जो मनु य वाद के िलए खाता है, उसके भोजन म ब त भारी अ तर रहता है।
ल यिब दु से रचना म भेद आना अव य भावी है ।
ऊँचे दज क सािहि यक रचना का कोई न कोई ल यिब दु अव य होता है।
का अनेक उ े य से िलखा जाता है–
का ं यशसेऽथकृ ते...
का तासि मतततोपदेशयुजे।
का क रचना यश के िलए हो सकती है, धन के िलए और मधुरतापूवक उपदेश
देने के िलए भी स भव है। और इनम से दो और तीन के िम ण से भी हो सकती है। यह
प है क जो का के वल धन या के वल यश के िलए िलखा जाएगा, वह उस ऊँचाई
तक नह प च ं सकता, िजस ऊंचाई तक वह प च ं ेगा, िजसका ल य लोक-क याण है।
संसार क िजतनी महती सािहि यक रचनाएं ह, उनम का ोपयोगी सब गुण के
अित र यह गुण भी आव यक प से उपल ध होता है क उनम मनु य के िलए एक
स देश होता है। स देश से हीन सािह य महान नह हो सकता। उस स देश को ही म
का का ल यिब दु कहता ।ं
‘रामायण’ स य क जीत और अस य क हार का स देश देती है। ‘महाभारत’ से
संसार को यह िश ा िमलती है क भाई-भाई के ष े और यु के कारण समृ से समृ
रा भी समूल न हो सकता है। होमर के ‘ईिलयड’ से संसार को यह िश ा िमलती है
क जाित का एक मुख ि य द कोई भारी अपराध करे तो स पूण जाित को उसके
बुरे फल भुगतने पड़ते ह। इसी कार कािलदास के ‘रघुवंश‘ का भी एक स देश है,
िजसने उसे सािह य म इतना ऊँचा थान ा कराया है। उसे म ‘रघुवंश’ का
ल यिब दु कहता ।ं ‘रघुवंश‘ म कािलदास ने रघुवंश पी सूय के उदय और अ त क
गाथा गाई है। महाराज दलीप ने गु विस के आदेशानुसार जो तप या क , उसका
फल तापी रघु के प म कट आ। दलीप ने इ वाकु कु ल क प ित के अनुसार सौ
य कए, िचरकाल जा का पालन कया और वृ ाव था आने पर रघु के क ध पर
रा यभार डालकर अर य का आ य िलया।
रघु ने अपने ताप से िपता के ताप का भी अित मण कर दया। उसने
दि वजय करके च वत रा य क थापना क । च वत राजा होने के कारण यह
स ाट् -पद का अिधकारी बन गया ।
रघु का पु अज भी परम तापी राजा था। दशरथ भी उसके अनु प ही आ।
रघुंवश के राजा िव ान्, धा मक और तापी होने के कारण वंश के यश और ताप को
दग त ापी बनाने म समथ ए।
राम तो असाधारण महापु ष था। उसका थान न के वल रघुकुल म और न के वल
भारतवष म, अिपतु सारे संसार म अि तीय है। उसके उ वल च र ने स ाट् रघु के
कु ल क क त को अमर कर दया।
राम के पीछे रा य क बागडोर कु श-लव और उनके पांच अ य भाइय के हाथ म
आई। वे भी वीर थे, पर तु उनम वह िवशालता न थी, जो उनसे पूव के रघुवंशी राजा
म िव मान थी। वहां से हम रघुवंश के गौरव को ीणता क ओर जाता देखते ह। सब
मानवी सं था और सा ा य के अ युदय और य के जो सामा य िनयम है, उनके
अनुसार म या तक प च ं कर राघव-कु ल का सूय भी अ ताचल क ओर झुकने लगा।
कािलदास ने िजस सु दरता और िवशदता से का के पूवभाग म रघुकुल के
अ युदय का वणन कया है, उ रभाग म भी उसी सु दरता और िवशदता से य क
ओर वृि का वणन कया है। राम के प ात् राघव के रा य म जो पहला प रवतन
आ, वह यह था क उसके एक के थान पर अनेक के बन गए। कु श कु शावती म
ित ािपत आ। लव का शासन के शरावती म बना। राम ने संधु देश का रा य
अपने भाई भरत को दे दया था। भरत ने ग धव को परा त करके रा य को िन क टक
कर दया, और अपने पु पु कल को पु कलावती म और त को त िशला म
अिभिष कर दया। ल मण ने अपने अंगद और च के तु नाम के पु को कारापथ
नामक देश का शासक बना दया। इसी कार महाराज राम के देह याग के साथ ही
रघु ारा ित ािपत िवशाल सा ा य अनेक टु कडे़ होकर िबखर गया। प रणाम यह
आ क वह राघव क पूरी अयो या, िजस पर स पूण रा को अिभमान था, थोड़े ही
समय म उजड़कर खंडहर का ढेर बन गई।
काकु थ वंश क लाड़ली अयो या के उजड़ने और फर से बसने क कहानी का
वणन करने म कािलदास ने अपनी ितभा का पूरा योग कर दया है। जीण व वाली
धूिल-धूस रत अयो या व म कु श को दशन देकर अपनी कथा सुनाती है। कु श का
दय उससे पसीज जाता है और वह राजधानी को कु शावती से उठाकर फर अयो या
म ले जाता है; इस कार कु श अपनी भूल का सुधार कर लेता है, पर तु सा ा य को
राजधानी के उजड़ने से जो ध ा प च ं चुका था, वह उसके भाव को दूर नह कर
सका। अयो या क आभा उसी कार उतर चुक थी जैसे एक सती-सा वी ी क आभा
पित ारा एक बार प र याग करके फर से हण करने से उतर जाती है।
कािलदास ने रघुवंश के अि तम दो सग म कु श के चौबीस उ रािधका रय का
उ लेख कया है। उनम से कु श के पु अितिथ को छोड़कर अ य कोई भी ऐसा नह था,
िजसके िवषय म किव को दो-चार से अिधक ोक कहने पड़े ह ं । वे सब सामा य राजा
थे। नल यौवन म ही रा य का बोझ पु के क ध पर डालकर वैरागी हो गया।
पा रया अ य त भोग के कारण असमय म मर गया। ुवसि ध को िशकार का ब त
सन था, वह शेर के हाथ मारा गया। सुदशन अभी सोलहव वष म ही था क
मि य ने देश को अराजकता क आपि से बचाने के िलए उसको ही संहासना ढ़
कर दया। सुदशन बा याव था म ही अनेक महान् पूवज के संहासन पर आ ढ़ हो
गया। य िप उसक आयु और िश ा अधूरी थी, तो भी कु ल के ौढ़ सं कार के कारण
उसने रा य के भारी बोझ को भली कार उठा िलया। इस िवशेषता के कारण महाकिव
ने उसे िवशेष स मान का पद दान कया है-रघुवंश म उसके स ब ध म उ ीस प ह।
सुदशन का रा यकाल सामा य प से सुखी और समृ रहा तीत होता है।
जीवन के अि तम दन म राघव क कु ल था का पालन करते ए उसने भी युवराज
अि वण का रा यािभषेक कर दया और वयं अर य का आ य िलया।
राम के पीछे कु श, और कु श के पीछे अितिथ–इन तीन नाम को ब धती ई य द
एक रे खा ख ची जाए तो यह पया झुकती ई तीत होगी। रे खा का यह झुकाव उनक
उ रवत स तितय म जारी रहा–वह झुकाव यहां तक प च ं ा क िजस वंश का
सं थापक, भगवान के अनुचर कु भोदर संह के सामने खड़ा होकर भी िवचिलत नह
आ था, उस वंश का एक राजा िशकार के संग म, सामा य शेर का िशकार बन गया।
प है क रघुकुल क वह गौरव-रे खा, जो रघु और राम के कारण सूय म डल को छू
रही थी, काला तर म झुकती-झुकती पृ वी को छू ने लगी थी।
ुवसि ध और सुदशन के समय म जो रे खा पृ वी को छू रही थी, सुदशन के
अयो य पु अि वण के समय म वह गहरे गत म िव हो गई। अि वण सु दर भी था
और वीर भी, पर तु उसम रघु के वंश के यो य च र बल नह था! कु छ समय तक तो
उसने शासन-काय म यान दया, पर शी ही उस पर माद छा गया। किव कहता है :

सोऽिधकारमिभकः कु लोिचतम्
का न वयमवतय समाः।
सि वे य सिचवे वत: परम्
ीिवधेय-नवयौवनो भवत्॥
कु छ समय तक तो अि वण ने अपने वंश के यो य कु शलता से रा य का संचालन
कया, उसके प ात् उसे कामुकता ने दबा िलया और रा य का काय मि य पर डाल
उसने अपना यौवन ि य को अपण कर दया।
जब कृ षक खेत क र ा छोड़कर िवषय-भोग म पड़ जाये तो जैसे जंगली पशु खेत
को खा जाते ह, राजा के कत युत होने पर रा क भी वैसी ही दशा हो जाती है;
राजा तो न हो ही जाता है। अि वण के पतन ने उसके रा य को भी दुदशा त कर
दया। उसक अपनी गित तो वही ई जो िवषयल पट ि य क आ करती है।
किव ने उसका वणन िन िलिखत प म कया है–

त यपा डु वदना पभूषणा।


सावल बगमना मृद ु वना ।
राजय मप रहािनराययौ
कायमानसमव थया तुलाम्॥
उसे राजय मा रोग ने स िलया, इस समाचार से रा य-भवन म मुदनी छा गई।
राजा के कोई स तान न थी। मि य ने कु छ समय तक जाजन को यह कहकर
आ ासन देने का य कया क राजा पु क ाि के िलए जपा द कर रहा है, पर तु
िम या आ ासन कब तक चल सकता था! एक ओर रोग और दूसरी ओर स तान के
अभाव क िच ता–दोन ने अि वण को अकाल म ही मृ यु का ास बना दया। वह
राघव के राज संहासन को उ रािधकारी से शू य छोड़कर संसार से िवदा हो गया ।
इस कार जो यश वी वंश दलीप क तप या, रघु के परा म और राम के
लोको र ि व के कारण म या के सूय क भांित दस दशा म देदी यमान हो
गया था, वह ुवसंिध जैसे सनी और अि वण जैसे िवषयल पट उ रािधका रय के
भाव से अ ताचलो मुख होकर अ त र म िवलु हो गया। यही संसार के शासक के
िलए महाकिव कािलदास का अमर स देश है।
कािलदास िव मा द य का समकालीन था। वह िव मा द य कस शता दी का
िव मा द य था? उसका नाम के वल िव मा द य अथवा वह च गु िव मा द य
अथवा कु मारगु िव मा द य था? इन क उलझन म न पड़कर भी इितहास का
िव ाथ इस प रणाम पर प च ं सकता है क ‘रघुवंश‘ के िनमाता महाकिव कािलदास
ने अपना का िजस समय िलखा, उस समय भारत पर िव मा द य पदवीधारी एक
तापी राजा रा य करता था। कािलदास उस राजा का स मािनत राजकिव था। यह
कोई असंभव बात नह क कािलदास ने अपने िम और संर क िव मा द य और
उसके वंशज को िश ा और चेतावनी देने के िलए ‘रघुवंश‘ महाका क रचना क
हो। ‘रघुवंश‘ के पाठ से महान् से महान् शासक और तापी से तापी िवजेता भी
िश ा हण कर सकता है। रा य और राजवंश के भवन तप या, सेवाभाव और
वीरता क न व पर खड़े होते ह और माद, ल पटता और कायरता के आघात से
जज रत होकर न हो जाते ह-‘रघुवंश’ के पाठ से हम यही स देश ा होता है।
–इ िव ावाच पित

तपोवन क या ा
दलीप क तप या
रघु क अि -परी ा
दि वजय
िव िजत् य
इ दुमती का वयंवर
अज का राजितलक
अज का वगवास
पु -िवयोग का शाप
राम-ज म
राम-िववाह
लंकेश-वध
भरत-िमलाप
वैदहे ी-वनवास
राम का शरीर- याग
उ रािधकारी कु श
राजा अितिथ
अितिथ के वंशज
पतन क ओर
तपोवन क या ा

रघुवंश के सं थापक यश वी रघु के िपता महाराज दलीप ने पृ वी के सबसे थम


स ाट् वैव वत मनु के उ वल वंश म ज म िलया था। दलीप ब त बलवान और
तेज वी राजा था, मानो सा ात् ा धम का अवतार हो। वह जैसा बलवान था, वैसा
ही बुि मान, िव ान् और कमशील था। जा उसे िपता के समान मानती थी। िवरोधी
और आततायी उसके दंड से डरते थे। समु - पी खाई से िघरे ए पृ वी- पी कले का
वह इस सुगमता से शासन करता था, मानो एक नगरी का शासन कर रहा हो।
जैसे य क संिगनी दि णा है, उसी कार राजा दलीप के साथ अटू ट स ब ध से
बंधी ई रानी सुदि णा थी, िजसने मगधवंश म ज म िलया था। राजा को अ य सब
सुख ा थे, के वल स तान का सुख नह था। स तान क ाि के िलए अनु ान करने
का िवचार करके राजा ने रा य क देख-रे ख का भार मि य के क ध पर डाल दया
और महारानी को साथ ले गु विस के आ म क ओर याण कया। सुसि त रथ म
बैठे ए राजा और रानी ऐसे शोभायमान हो रहे थे, जैसे घने सावन के बादल म िबजली
और बरसाती पवन शोभा पाते ह। उनक आ म-या ा ब त ही मनोरं जक और
मंगलसूचक रही। फू ल के पराग को चार दशा म िबखेरने वाला, साल के रस से
सुगि धत सुखकारी वायु उनक सेवा कर रहा था। मोर क षडज के सदृश वरवाली
के काएं उनके कान को आनि दत कर रही थ और ह रण के जोड़े रा ते के समीप ही
खड़े होकर उनक ओर िनहार रहे थे। उन ह रण क आंख म राजा और रानी एक-
दूसरे क आंख क छिव देखकर स हो रहे थे। माग म अहीर-बि तय के जो मुिखया
लोग, ताजे म खन क भट लेकर उपि थत होते थे, उनसे वे दोन जंगली वन पितय के
नाम पूछते थे। इस कार माग के सु दर दृ य देखते ए महारानी सुदि णा और
महाराज दलीप दन िछपने के समय मह ष विस के आ म म प च ं गए।
विस मुिन के आ म म उस समय स याकाल क चहल-पहल थी। तप वी लोग
सिमधा, कु शा और फल इक े करके जंगल से लौट रहे थे; ॠिष पि य ारा िबखेरे ए
अ से खंची ई मृग क टोिलयां कु टय के दरवाज पर इक ी हो रही थ , मुिन
क याएं आ म-वृ को स चकर दूर हट गई थ ; ता क प ी िनभय होकर थामल म से
पानी पी सक। होम से उठा आ धुआं बाहर से आनेवाले अितिथय को पिव कर रहा
था।
आ ममप च ं ने पर राजा दलीप ने सारिथ को आ ा दी क घोड़ को आराम
दो। वे वयं रथ से उतर गए और फर रानी को उतार िलया। स यता के िनयम से
प रिचत तप वी लोग ने सप ीक राजा का यथोिचत आदर-स कार कया। जब ॠिष
विस सायंकाल के स योपासना से िनवृ हो गए, तब राजा और रानी उनक सेवा म
उपि थत ए। ॠिष के समीप उस समय उनक प ी अ धती िवराजमान थी, मानो
वाहा य क अि के समीप िवराज रही हो। राजा और राजप ी ने ऋिषयुगल के
चरण म िसर झुकाकर णाम कया। ऋिषयुगल ने उ ह आशीवाद दया ।
ॠिष को जब यह स तोष हो गया क अितिथ-पूजा से राज-युगल क थकान उतर
गई है, तब उ ह ने रा य के कु शल- ेम के स ब ध म कए। राजा ने उ र दया–हे
गुरो, आपके साद से रा य म सब कु शल है। आपके म बल ने मेरे तीर को थ-सा
िस कर दया है। आपके य म, अि कु ड म डाला आ हिव मेघ से जल बनकर
बरस जाता है, िजससे सदा सुिभ बना रहता है। मेरी जा सौ साल तक जीती है और
िनभय होकर रहती है। यह आपके तेज का ही फल है। यह सब कु छ होते ए भी, हे,
गु वर, र को पैदा करने वाली यह ीप-सिहत भूिम मेरे मन को संतु नह कर
सकती, य क आपक इस ब क गोद संतान- पी र से शू य है। भिव य म कु ल क
लता को कटता देखकर मेरे पूवपु ष अव य ही परम दु:खी होते ह गे, और मेरी अ पत
जलांजिल उनके मुख म जाने से पूव ही िच ता के िन ास से कु छ गम हो जाती होगी।
जैसे ान रिहत हाथी को चुभनेवाला खूंटा क देता है, स तान न होने से िपतृॠण का
स ताप मुझे उसी कार तपा रहा है। हे तात, िजस िविध से म िपतृॠण से मु हो सकूं ,
वह क िजए। इ वाकु वंश के लोग येक क ठनाई क नदी को आपके िवधान से ही पार
करते रहे ह।
राजा के वचन सुन ॠिष ण-भर आंख मूंदकर यान म म रहे, मानो कसी
तालाब म सब मछिलयां सो गई ह । यानाव था म ॠिष ने जो कु छ देखा, वह राजा
को बतलाते ए कहा :
हे राजन्! एक बार देवराज इ से िमलकर जब तुम वग से पृ वी क ओर आ रहे
थे, सुरिभ गौ क पत क छाया म िव ाम कर रही थी। रानी ऋतु ाता है, इस िवचार
से तुम घर आने क ज दी म थे, और पूजा के यो य सुरिभ क उपे ा करके चले आए।
सुरिभ ने इस ितर कार से होकर तु ह शाप दया क जब तक तुम मेरी स तान क
आराधना न करोगे, तब तक तु हारे स तान न होगी। आकाशगंगा के ठाठ मारते ए
जल- वाह म द गज ान कर रहे थे, िजनके शोर के कारण सुरिभ का शाप न तुमने
सुना और न तु हारे सारिथ ने। जो पूजा के यो य ह, उनका ितर कार करने से मनु य के
सुख का ार ब द हो जाता है। तु हारी इ छा के ार क सांकल ब द होने का भी
यही कारण आ। सुरिभ आजकल ाचेतस् के य के िनिम पाताल म गई है। उसक
पु ी हमारे इस आ म म िव मान है। तुम और तु हारी प ी उसे सेवा से स तु करो,
तु हारी इ छा अव य पूण होगी ।
ॠिष के वा य अभी समा भी न ए थे क वन से लौटती ई नि दनी नाम क
सु दर- व थ गौ सामने आ गई। नि दनी का रं ग नई क पल के समान िचकना और
लािलमा िलए ए था। उसके माथे पर सफे द रोएं का टीका ऐसे शोभायमान हो रहा
था, जैसे स याकाल के आकाश पर च मा। बछडे़ को देखकर वयं टपकनेवाले पावन
दूध क धार से वह कु डो ी पृ वी को पिव कर रही थी। उसके खुर से उठने वाले रज
के रे णु से ान करके राजा ने मानो तीथ ान कर िलया। ॠिष ने नि दनी के उस
समय के दशन को मनोरथ-िसि के िलए क याणकारी जानकर राजा से कहा :
हे राजन्, नाम लेते ही यह क याणी सामने आ गई, इससे तुम अपना मनोरथ पूरा
आ मानो। जैसे िव ा को अ यास से स कया जाता है, इसी कार वनवािसय -सा
रहन-सहन करके िनर तर सेवा ारा नि दनी को स करो। इसके चलने पर चलो,
ठहरने पर ठहरो, बैठने पर बैठो और जल पीने पर जल पीयो। ब को भी चािहए क
इसक पूजा करे । वन जाने के समय कु छ कदम तक छोड़ने जाए और वापस आने पर
कु छ कदम आगे बढ़कर वागत करे । जब तक यह स न हो तब तक हे राजन्, तुम
इसक सेवा करो। तु हारी इ छा पूण होगी और तु हारा कु ल अिवि छ रहेगा।
राजा ने िसर झुकाकर गु के आदेश को वीकार कया। इस बातचीत म रात हो
गई थी। मधुर स य बोलनेवाले उस ॠिष ने जा के पालक दलीप को सोने क
आ ा देते ए ऐसा ब ध कर दया क राजा का रहन-सहन वनवािसय के सदृश हो
जाए। राजा और रानी, कु लपित ारा बतलाए ए झ पडे़ म कु श क सेज पर रात-भर
सोए। ात:काल होने पर आ म के छा के वेदपाठ से उनक न द खुली।
दलीप क तप या

ात:काल होने पर रानी सुदि णा ने नि दनी का ग ध और माला से स कार कया जब


बछड़ा दूध पीकर बांधा जा चुका, तब तप वी राजा ने गौ को खूंटे से खोल दया। जैसे
मृित- ंथ वेद का अनुसरण करते ह, उसी कार नि दनी के खुर के पश से पिव
वनमाग पर, महारानी भी पीछे-पीछे चल । दयावान् राजा ने प ी को वन जाने से
रोककर न दनी क र ा का बोझ अपने क ध पर िलया, मानो चार तन पी
समु वाली पृ वी क र ा का बोझ संभाला हो। राजा को वन क ओर जाते देखकर
राजपु ष भी पीछे-पीछे चलने लगे। राजा ने उ ह रोक दया य क मनु क स तान
दूसरे से र ा नह चाहती, अपने बा बल पर ही भरोसा रखती है। वन म स ाट् ने
नि दनी के भोजन के िलए वादु- वादु घास एक क , खुजली होने पर खुजलाया,
जंगली दंश को हटाया और रा ते क कावट को दूर करके इ छानुसार घूमने का माग
साफ कया। जब नि दनी ठहरती, तब राजा भी ठहर जाता, जब वह चलती तो चलने
लगता; जब नि दनी बैठ जाती, तब राजा बैठ जाता, और जब वह जल पीती, तब
जलपान करता था। इस कार राजा छाया के समान उसके साथ-साथ चलता था। जैसे
जब गजराज के कपोल से मदन चू रहा हो, तब भी डीलडौल के कारण उसक
गजराजता का अनुमान लगाया जा सकता है, उसी कार सब राजसी ठाठ का
प र याग कर देने पर भी, चेहरे के तेज से राजा का राजपन साफ-साफ झलक रहा था।
लता से के श का जूड़ा बांधे ए मुिनवेश म वह नरपित, मुिन क होम-धेनु क र ा
के बहाने हंसक ज तु को िनय ण म लाने के िलए जंगल म घूम रहा था। सब सेवक
का िवसजन कर देने के कारण िब कु ल एकाक , वह व ण देवता के समान ओज वी
राजा, िजस माग से िनकला था, उसके दोन ओर लगे वृ चहचहाते पि य के श द
से उसका जय-जयकार करते थे। वृ पर चढ़ी ई कोमल लताएं पवन- पी हाथ से
अि समान तेज वी दलीप पर पु पवषा कर रही थ , मानो नगर क क याएं अपने
घर क अटा रय से लाज क वषा कर रही ह । खोखले बांस म तार वर से गूंजते ए
पवन क विन ारा वनदेवता उसके यश का गान कर रहे थे। िहमालय क गोद म
बहनेवाली न दय के तुषार के पश से शीतल और वृ के फू ल के स पक से सुगि धत
पवन, छाते के िबना धूप म मण करते ए राजा क थकान को उतार रहा था। दन
तीत हो जाने पर, अपने प र मण से दशा को पिव करके , क पल के समान,
तांबे जैसी रं गवाली स या और मुिन क गौ घर क ओर लौटी। िजसके दूध से देवता,
िपतृगण और अितिथय को स तु कया जाता था, राजा उस पिव गौ के पीछे-पीछे
चला। नि दनी पीछे चलनेवाले राजा से ऐसे शोभायमान हो रही थी, जैसे ा
िविधपूवक कए गए अनु ान से शोभायमान होती है। उस समय जंगली सूअर जोहड़
म से िनकल रहे थे, मयूर अपने डेर क ओर जा रहे थे, और ह रण दन के मण से
लौटकर हरे मैदान म िव ाम कर रहे थे। दूध से भरे ए तन के कारण नि दनी और
शरीर के िवशाल डीलडौल के कारण राजा दलीप, दोन ही ऐसी शानदार चाल चल
रहे थे क आ म के माग क शोभा दस गुनी हो गई थी।
विस क गौ के पीछे-पीछे आते ए भता को रानी अ य त यासे ने से देर तक
एकटक िनहारती रही। आगे राजा, पीछे रानी और बीच म नि दनी-आ म म इस म
से जब वे तीन प च ं े, तो ऐसा तीत होता था, मानो दन और रात के म य म स या
पधार रही हो। ठकाने पर प च ं कर सुदि णा ने अ त का पा हाथ म लेकर नि दनी
क दि णा क , फर णाम कया और अ त म फल-िसि के ार के सदृश ृंग के
म य थान क पूजा क । नि दनी बछड़े के िलए उ सुक थी, तो भी उसने शा तभाव से
पूजा हण कर ली, इससे राजा-रानी ब त स ए। भि पूवक उपािसत ए
ा थय के ित ऐसे पावन ि य क स ता के िच पहले ही कट हो जाते ह
इसी कार राजा क दनचया चलने लगी। वह रात को नि दनी के सो जाने पर
सोता, ात: उठने पर उठता और दन चढ़ने पर नि दनी के पीछे-पीछे धनुष हाथ म
लेकर जंगल चला जाता। स ाट् और स ा ी को यह त पालन करते ए इ स दन
तीत हो गए।
एक दन नि दनी अपने सेवक के भाव क परी ा करने के िलए गंगा के पात के
समीप हरे -हरे घास से सुशोिभत िहमालय क गुफा म घुस गई। कोई हंसक ाणी भी
मुिन क य -धेनु का कु छ नह िबगाड़ सकता, इस भावना से राजा िब कु ल िनि त
था और पवत क शोभा िनहार रहा था क एक शेर ने धेनु को धर दबाया। उसका
आतनाद गुफा से ित विनत होकर गूंज उठा, िजसने िहमालय म लगी ई राजा क
दृि को मानो रास से पकड़ कर अपनी ओर ख च िलया। धनुधारी दलीप ने देखा क
उस पाटल गौ के समीप के शरी शेर खड़ा है, मानो तांबे के रं ग क च ान पर लो का
पेड़ िखला आ हो। शेर के समान चालवाले राजा के मन म शेर के इस अिवनय से
अ य त लािन उ प ई और उसका हाथ वभाव से तूणीर से तीर िनकालने के िलए
बढ़ा। पर तु राजा ने दु:ख और आ य से अनुभव कया क उसका दायां हाथ नख क
भा से रं गे ए तीर क के री पर प चं कर क गया–ऐसा गितहीन हो गया मानो कसी
िच का अंग हो।
ोध से भरे ए फिणयर सांप क जो दशा म और औषिध ारा काटने क
शि को रोक देने पर हो जाती है–भुजा के शि हीन हो जाने पर राजा क वही दशा
हो गई। वह भड़के ए तेज से अ दर ही अ दर जलने लगा। बिल हाथ के क जाने के
कारण ोध और आ य म पडे़ ए राजा के आ य को और बढ़ाता आ संह मनु य
क भाषा म कहने लगा–
हे राजन्, अपना हाथ तूणीर से हटा लो। य द तुम तीर चला दोगे, तो भी वह यहां
थ ही जाएगा। जो वायु का झ का पेड़ को जड़ से उखाड़कर फक देता है, वह च ान से
टकराकर थ हो जाता है। तुम मुझे साधारण शेर मत समझो। कै लास पवत के समान
सफे द वृषभ पर बैठने के समय, भगवान शंकर मेरी पीठ को पादयान बनाकर पिव
करते ह। मेरा नाम कु भोदर है, म भगवान का सेवक ।ं यह जो देवदा का वृ सामने
दखाई दे रहा है, इसे मेरे वामी ने अपना ब ा माना आ है। माता पावती ने सोने के
कलश से पानी देकर इसे ऐसे पाला है, जैसे छाती के दूध से ब े को पाला जाता है। एक
बार एक जंगली हाथी ने पीठ खुजलाकर इसक छाल उतार दी थी। उससे मां को ऐसा
दु:ख आ मानो सेनापित कु मार को असुर के अ ने घायल कर दया हो। तभी से
वामी ने मुझे इस वृ क रखवाली पर िनयु कर दया है। और यह िनयम बना दया
है क जो िशकार यहां वयं आ जाये, उसी से अपना पेट भरता र ।ं जैसे रा को तृि के
िलए च मा का अमृत ा होता है, आज परमे र ने उसी कार मेरी भूख का
िनवारण करने के िलए यह बिल भेजने क कृ पा क है। हे राजन्, िजसक र ा करनी
हो, य द य करने पर भी श से उसक र ा न हो सके तो अ धारी को दोष नह
दया जा सकता। तुम ल ा मत करो। तुमने गु के ित अपनी भि कट कर दी, अब
तुम घर लौट जाओ।
महाराज ने जब पशु के स ाट के ग भ वचन से यह जाना क भगवान् शंकर
के भाव ने उसके हाथ और श क शि को ीण कर दया है, तो उसके मन म
अपने ित जो लािन का भाव उ प आ था, वह ह का हो गया। राजा ने संह से
कहा–
हे मृगे , मेरा हाथ शंकर के भाव से क गया है, इस कारण म जो कु छ कहना
चाहता ,ं उसे सुनकर शायद तुम हँस पड़ोगे। पर तु तुम तो ािणय के मन क बात भी
जानते हो, तब कहने म ही या हािन है! सृि क रचना, र ा और संहार करने वाले
भगवान के सामने म िसर झुकाता ,ं पर तु म गु के य के साधनभूत इस गोधन को
न होता भी तो नह देख सकता। सो हे वन के वामी! अपनी भूख क मेरे शरीर से
िनवृि कर लो। स या के समय मह ष क इस धेनु का बछड़ा अपनी मां क बाट जोह
रहा होगा, इसे छोड़ दो।
देवािधदेव का सेवक राजा दलीप क बात सुनकर कु छ हँसकर कहने लगा।
बोलते समय उसके बड़े-बड़े दांत क सफे द करण से गुफा का अ धकार न हो रहा
था। उसने कहा–
पृ वी पर तु हारा एकछ रा य है, चढ़ती जवानी है और सु दर शरीर है। छोटी-
सी बात के िलए सब कु छ याग देने का संक प कट करते ए तुम मुझे नासमझ-से
तीत होते हो। य द तुम दया के कारण अपनी बिल दे रहे हो तो सोचो क तु हारे मरने
से के वल एक गौ बचेगी, और जीिवत रहोगे तो िचरकाल तक स पूण जा क , िपता के
समान आपि य से र ा कर सकोगे। हो सकता है क तु ह गु के अि -समान ोध से
डर लगता हो। उसका िनवारण तुम करोड़ दुधा गौ का दान करके कर सकते हो।
अत: तु ह उिचत है क अपने िनर तर सुखी और व थ शरीर क र ा करो, य क
पृ वी के च वत रा य और वग के रा य म के वल पृ वी को छू ने का भेद है, अ यथा
दोन एक समान ह।
के सरी इतना कहकर चुप हो गया तो ित विन ारा मानो गुफा ने भी उसके
कथन का अनुमोदन कया। राजा उसका उ र देने लगा तो उसने देखा क मुिन क गौ
ब त कातर आंख से उसक ओर एकटक िनहार रही है। राजा ने कहा — ि य उसे
कहते ह जो हार से िनबल क र ा करे । म तुमसे नि दनी क र ा न कर सका, ऐसी
दशा म अपने कत से हीन और िन दा से संकिलत ाण को बचाकर या क ं गा? तुम
कहते हो म ब त-सी अ य धेनु क भट देकर गु को संतु कर दू।ं यह नि दनी गौ
सुरिभ के बराबर मह व रखती है। अस य गौएं भी इसक बराबरी नह कर सकत ।
य द तु ह भगवान् का सहारा न होता, तो तुम इस हार न कर सकते। सो हे मृगे !
म अपने शरीर को मू य प म देकर तुमसे इसे खरीदना चाहता ।ं यह याय क बात
है, य क इससे तु हारी भूख भी िमट जाएगी, और मेरे गु का य भी खंिडत न
होगा। तु ह सोचकर देखो, भगवान क आ ा को मानकर तुम ाणपण से इस देवदा
के पेड़ क र ा कर रहे हो। या इसी कार गु क य धेनु क र ा म जीवन क बाजी
लगा देना मेरा कत नह है? मेरे जैसे ि धम के सामने अपने हाड़-चाम के िप ड
का कोई दाम नह समझते। य द तु हारे दय म मेरे ित दया का भाव उ प आ है,
तो उसका भाव मेरे यश पी शरीर क ओर वािहत करो। स न क मै ी का ज म
आपस क बातचीत से ही हो जाता है। वह हम दोन म हो चुका–इस कारण हे भगवान्
शंकर के सेवक, मेरी पहली इ छा का ितर कार न करो। मुझे कलेवा बनाकर ॠिष क
धेनु को छोड़ दो। संह ने उ र म कहा–ब त अ छा! उस समय राजा ने अनुभव कया
क उसके हाथ पर जो ितब ध लगा था, वह हट गया। राजा ने अपने हिथयार रख
दए, और मांस के िप ड के समान अपने िन े शरीर को बिलदान के िलए उपि थत
कर दया।
जा के िपता के समान स ाट् दलीप िसर नीचा करके संह के आ मण क
ती ा करने लगे। राजा ने आ य से देखा क वग के देवता उस पर पु प क वषा कर
रहे ह। इतने म श द सुनाई दया–बेटा उठो! राजा ने आंख उठाकर देखा तो वहां शेर का
कोई िच भी नह था। हां, मां के समान दूध बरसाती ई नि दनी सामने खड़ी थी।
राजा को आ य म डू बा देखकर नि दनी ने कहा–
हे राजन् मने अपनी माया के बल से तेरी परी ा ली है, अ यथा, ॠिष के भाव
से मुझपर तो यमराज भी आ मण नह कर सकता साधारण हंसक पशु क तो
िबसात ही या है! तूने अपने गु के ित भि और मेरे ित दया के भाव से मुझे स
कर िलया है। हे पु , तू यथे वर मांग! म के वल दूध नह देती, कामना क पू त भी
करती ।ं
नि दनी के इन वचन से आ ासन पाकर राजा ने शि ारा वीरता का यश
फै लाने वाले अपने हाथ को जोड़कर नि दनी को णाम कया, और वर मांगा क
सुदि णा क कोख से वंश का सं थापक पु -र उ प हो। ऐसा ही होगा–यह
आशीवाद देकर नि दनी ने राजा को आदेश दया क प े के दोन म लेकर मेरा दूध
िपयो; तु हारी कामना पूरी होगी। राजा ने िनवेदन कया–मां, जैसे म पृ वी क र ा
करके के वल उसका छठा भाग कर के प म लेता ,ं उसी कार बछड़े और य से बचा
आ तु हारा दूध म ॠिष क अनुमित से हण क ं गा ।
राजा के उ र से अ य त स तु होकर नि दनी िहमालय क गुफा से िनकल
आ म क ओर रवाना ई। आ म म प च ं कर राजा ने गु विस को शुभ समाचार
सुनाया। रानी सुदि णा ने राजा के स मुख को देखकर ही सब कु छ समझ िलया था।
राजा ने शुभ समाचार सुनाया, वह तो पुन ि मा ही आ। सायंकाल होने पर य
और बछड़े से बचे ए नि दनी के दूध को, गु क आ ा पाकर राजा ने इस कार िपया,
मानो शु यश का पान कर रहा हो।
दूसरे दन ात: काल ॠिष ने राजद पती को आशीवाद देकर िविधपूवक िवदाई
दी। दोन ने पहले य ाि क , फर गु अ धती सिहत गु विस क और अ त म
बछड़े-समेत नि दनी क दि णा क । अपने पूण ए मनोरथ के समान िव रिहत और
सुखकारी रथ से वे दोन घर क ओर चले। जैसे अमाव या के अन तर अ त र म फर
से दखाई देने वाले औषिधय के वामी च का दशन कया जाता है, िचरकाल के
प ात् जा क भलाई के िलए क गई तप या से कृ शकाय दलीप (के प) का
जाजन ने उसी कार यासे ने से पान कया, और झंिडय से राजधानी को
सजाकर अिभन दन कया।
महाराज संहासना ढ़ होकर समु -मेखला पृ वी का शासन करने लगे।
कु छ समय के प ात् जैसे अि मुिन के नयन से उ प च मा को आकाश ने
धारण कया था, जैसे अि ारा फके ए क द पी तेज को गंगा ने संभाल िलया था,
वैसे ही रानी सुदि णा ने कु ल के िलए उ कृ गभ को धारण कया।
रघु क अि -परी ा

कु छ दन प ात् रानी सुदि णा गभवती ई। जैसे भातकाल के समीप आने पर


च मा के काश से कािशत राि के आकाश पर पीलापन छा जाता है, उसी कार
सुदि णा के चेहरे पर भी लो पु प का-सा पीलापन आने लगा। ी म ॠतु के सूखे ए
तालाब क िम ी म वषा क बूंद से जो सुग ध उ प होती है, उसे सूंघकर जैसे जंगली
हाथी स होता है, वैसे ही रानी के मुंह से िम ी क बास लेकर राजा स होता न
थकता था। मानो रानी यह सोच रही हो क मेरी कोख से जो राजकु मार ज म लेगा,
उसे पृ वी का ही तो उपभोग करना है।
यह मुझसे ल ावश वयं कु छ न कहेगी, तुम बतलाओ क यह या चाहती है–इस
कार सहेिलय से पूछ-पूछकर राजा सुदि णा क इ छा को त काल पूरा कर देता
था। तीन लोक म ऐसी कोई व तु नह थी, जो परा मी धनुधारी के िलए दुलभ हो।
म से सुदि णा क ारि भक ीणता दूर होने और पूणता क सु दरता आने लगी।
मानो पुराने प के झड़ जाने पर नई सुंदर कोपल लता पर आ गई ह । राजा ने
पुरोिहत से यथासमय पुंसवना द सं कार िविधपूवक कराए । दसव मास म िच क सा
के जानने वाले कु शल वै ारा गभपोषण क या हो जाने पर, बादल से भरे ए
अ त र क भांित प रपूण प ी को देख कर राजा ने अ य त स ता का अनुभव
कया।
अ छे मु त म, जब पांच ह अनुकूल थे, शची-समान राजप ी ने पु र को
उसी कार ज म दया, जैसे भाव, उ साह और मं णा से स प शि अन र
स पि को ज म देती है। उस समय दशाएं िखल उठ , सुखकारी पवन बहने लगा,
य ाि चार ओर लपट को फै लाकर य क साम ी गहण करने लगी–इस कार उस
ण म सभी कु छ क याण क सूचना देने लगा। ऐसे महापु ष का ज म संसार के िलए
ही होता है। िजस समय सूितकागृह म उस नवजात को िब तर पर िलटाया गया तो
उसके उ तेज के सामने रात के समय जलने वाले दीपक म द पड़ गए, मानो दीवार पर
दीपक के के वल िच बने ए ह महल से आकर िजन प रचारक ने पु ज म का शुभ
समाचार सुनाया, महाराज ने उ ह च के समान उ वल राज छ और शाही चामर
को छोड़कर अ य जो कु छ भी उ ह ने मांगा, देने म संकोच नह कया। िजस समय राजा
दलीप ने पु के च -समान सुंदर मुख को एकटक दृि से देखा, उस समय उसके
दय- पी सागर म स ता का तूफान-सा उमड़कर कनारे क सीमा को पार कर रहा
था। ॠिष विस ने वन से आकर कु मार के जातकम-स ब धी सब सं कार िविधपूवक
कराए। िजस कार खान म से िनकले ए र को प थर पर िघसने से आभा बढ़ती है,
सं कारा से कु मार क आभा भी उसी कार उ रो र वृि पाने लगी। उस अवसर पर,
के वल स ाट दलीप के घर पर ही नह , अिपतु देवता के िवहार- थान
लस ाट दलीपके घरपरहीनह ,अिपतुदव े ता के िवहार- थान अ त र म भी मंगलमय
मधुर बाजे बजने लगे और अ सराएं स ता से नृ य करने लग । ाय: राजा लोग ऐसे
उ सव पर कै दय को छोड़ देते ह, पर उसके रा य म तो कोई कै दी ही नह था। हां,
वह वयं ही अपने पूव-पु ष के िव मान िपतृऋण से मु हो गया। ‘रघु‘ श द का
अथ है–जाने वाला।यह बालक िव ा पी समु को पार करे और श ु के अ त तक
जा प च ं –े इसी संक प से राजा ने उसका नाम ‘रघु’ रखा। िजस कार िशव और पावती
कु मार के ज म से तथा इ और शची जय त के ज म से स ए थे, दलीप और
सुदि णा भी रघु के ज म से उसी कार स ए। उन दोन का चकवा-चकवी का-सा
हा दक ेम, जो पहले ही ब त गहरा था, पु म एक होकर और भी अिधक गहरा हो
गया। रघु च मा क कला क भांित ित दन वृि पाने लगा। पहले वह धाय क
अंगुली पकड़ कर चलने लगा और उसके अनुकरण म श द बोलने लगा, फर अपने
समान आयु वाले अमा य-पु ा के साथ िमलकर िलिप सीखने लगा। जैसे नदी पी मुख
से अनेक कार के पदाथ समु म प च ं जाते ह, उसी कार िलिप ारा रघु ने भी िव ा
पी महासमु म वेश कया। कु छ समय पीछे उसका य ोपवीत सं कार आ, िजसके
प ात् गु जन ने उसे िविधपूवक िश ा देना आर भ कर दया।
रघु ने बड़े प र म से अ ययन कया। जैसे सूय अपनी करण के बल से चार
दशा को पार कर लेता है, वैसे रघु ने भी बुि बल से समु के समान िव तीण चार
िव ा को पार कर िलया। अ -िश ा तो उसने अपने िपता से ही ा क ।
चा रय के यो य मृगछाला पहनकर वह िपता से ही श ा -िव ा सीखता था,
य क उसका िपता के वल पृ वी का मुख शासक ही नह था, वह सव कृ धनुधारी
भी था। धीरे -धीरे रघु के बचपन से यौवन फू टने लगा, िजससे उसका शरीर सु दर और
ग भीर दखाई देने लगा–मानो बछड़ा िवशाल बैल क पदवी को छू रहा हो, मानो
हाथी का ब ा गजराज के प म प रणत हो रहा हो। समय अनुकूल देखकर राजा ने
रघु का दी ा त-सं कार कया, और िविधपूवक िववाह कर दया। अब तो रघु क
कलाएं ित दन बढ़ने लग । जब उसका जवानी से भरा आ शरीर ल बे और बिल
बा , उभरे ए कं धे और िवशाल व थल दृि गोचर होते थे, तब दलीप का शरीर
छोटा तीत होने लगता था। पर तु जब रघु क आंख पर दृि पड़ती थी, तब वे िपता
के सामने सदा झुक हई दखाई देती थ । उिचत अवसर देखकर, स ाट् दलीप ने अपने
क ध का बोझ ह का करने के िलए रघु को युवराज के पद से िवभूिषत कर दया। इससे
उसक शि और भी अिधक अस हो गई, मानो अि को वायु क सहायता िमल गई
हो, मानो बादल के हट जाने से सूय का तेज चमक उठा हो और मानो ग ड थल से मद
फू ट पड़ने के कारण हाथी का बल बढ़ गया हो।
च वत आय राजा क प ित का अनुकरण करते ए, रघु को युवराज के पद
पर िनयु करके स ाट् दलीप ने सौ अ मेध य करने का संक प कया। अ क
र ा का काय युवराज रघु और उसके अनुयायी राजपु क सेना को स पकर राजा य
करने म संल हो गया। इस कार िन यानवे अ मेध य िबना कसी िव -बाधा के
पूरे कर िलए। जब स वी बार अ मेध का घोड़ा दि वजय के िलए िनकाला तो युवराज
और उसके धनुधा रय ने आ य से देखा क अक मात् उनके सामने से घोड़ा लु हो
गया है। कु मार क सेना घबराकर क गई। कु मार भी कं कत िवमूढ़ हो गया। उसी
समय नि दनी धेनु मानो कु मार के संकट को टालने के िलए वहां आ प च ं ी। रघु ने उसे
दैवी संदशे समझकर नि दनी के अंगजल से अपनी आंख को धो डाला। धोने पर उसक
आंख परो को देखने लग , िजससे उसने या देखा क वयं वग के राजा इ य के
घोड़े को िलए जा रहे ह। घोड़ा बार-बार छू टने क चे ा कर रहा है और इ का सारिथ
उसे रोक रहा है। हरे रं ग के सौ घोड़ और सौ च ु वाले देवराज को कु मार ने आसानी
से पहचान िलया, और आकाश-म डल को गुंजा देने वाले ग भीर वर से उ ह मानो
पीछे लौटाते ए कहा–
हे देवता के राजा, य का भाग ा करने वाले देवता म सबसे पहला थान
आप ही का है । मेरे िपता िनर तर य करने म संल ह। आ य क बात है क आप ही
उसम िव कारी हो रहे ह। आप ि लोक के र क ह। जो लोग य का नाश करते ह,
द दृि से आप ही उनका िनय ण करते ह। य द आप ही धमा मा लोग के काय म
िव कारी बनने लगगे, तो धम कहां रहेगा? इस कारण भगवन् य के अंग इस अ को
आप छोड़ दीिजए। मनु य को वेदमाग दखलाने वाले आप जैसे महानुभाव को मिलन
माग पर नह चलना चािहए ।
रघु के इस ग भ वचन को सुनकर देवराज ने अपने रथ को लौटा दया और
उ र दया–
हे राजपु , तुमने जो बात कही, वह ठीक ही है, पर तु यश वी पु ष को अपने
यश क र ा भी तो करनी चािहए।
तु ह देखो क सारे संसार के सामने तु हारा िपता य ारा मेरे यश को धुंधला
करने क तैया रयां कर रहा है। जैसे संसार म के वल एक िव णु ह और एक महादेव ह,
उसी कार से सौ य करने वाला शत तु भी एक म ही ।ं कसी दूसरे ि को इस
पद को ा करने का अिधकार नह है। इस कारण मने तु हारे िपता के घोड़े का
अपहरण कर िलया। जैसे सगर क स तान, किप मुिन के समीप अ के िलए जाकर
भ मसात हो गई थी, तुम भी वैसे ही दु साहस मत करो।
इ के वचन को सुनकर कु मार ने िनभयतापूवक हँसते ए कहा–य द आपका
यही िन य है तो अपना हिथयार संभािलए। रघु को िवजय कए िबना आप य के
घोड़े को नह ले जा सकगे। रघु ने धनुष म तीर लगाने के िलए तूणीर क ओर हाथ
बढ़ाया। रघु के चलाए बलवान तीर क दय पर चोट खाकर देवराज का कोप भी
भड़क उठा और उसने नए बादल पर शोभायमान होनेवाले इ धनुष के सदृढ़ िवशाल
और सु दर धनुष पर अमोघ बाण चढ़ाया। देवराज का बाण रघु क छाती पर आकर
बैठा। उसे अब तक रा स के िधर पीने क आदत थी उसने पहली बार मानो बड़ी
उ सुकता से मनु य का र िपया। इस पर कु मार का रोष भी च ड हो गया और उसने
देवराज क उस भुजा पर िजसक अंगुिलयां ऐरावत के अंकुश से कठोर हो गई थ और
िजस पर देव क महारानी शची ारा बनाए ए मांगिलक िच िव मान थे, अपने
नाम से अं कत तीर आरोिपत कर दया। साथ ही कु मार ने मोर के पंख के समान
आकृ ितवाले एक बाण से इ क व ां कत वजा को काट डाला। उससे तो देवराज को
ऐसा अनुभव होने लगा, मानो देवता क ी-ललना के के श पर हाथ डाला गया हो।
यु क भीषणता और भी बढ़ गई। आकाश म िवमान पर बैठे ए देवगण और पृ वी
पर से सैिनक लोग उन दोन िवजय क इ छा रखने वाले वीर के अ भुत यु को
आ यपूवक देख रहे थे। इ और रघु के धनुष से िनकले ए, मशः नीचे बरसने और
ऊपर जाने वाले तीर से अ त र आ छा दत हो गया। जैसे अपनी िव ुत से लगाई
जंगल क अि को बुझाने म वयं बादल असमथ हो जाता है, उसी कार अनेक
शा ा का योग करके भी देवराज कु मार को परा त न कर सके । उसी समय कु मार
के धनुष से िनकले ए अ च ाकार बाण ने इ क तूफानी समु के समान ग भीर
गजना करती ई यंचा को मुठ्ठी के पास से काट दया। तब तो देवराज का ोध
अ य त उ हो गया। व धर ने धनुष को नीचे रख दया और अपनी चोट से पवत के
पहलु को तोड़ने वाले, चमकते ए काश पुंज व को हाथ म ले िलया। जब देवराज
का व रघु क छाती पर लगा, तो सैिनक के आंसु के साथ कु मार भी ण-भर के
िलए पृ वी पर िगर गया, पर तु अभी आंसू पूरी तरह पृ वी पर प च ं भी नह पाए थे
क सैिनक के गगनभेदी जयनाद के साथ रघु भी उठकर खड़ा हो गया । कु मार के इस
अपूव बल और साहस को देखकर इ का कोप शांत हो गया। मनु य अपने गुण से ही
ऊँचा पद ा कर सकता है।
तब संतु होकर व पािण ने रघु से कहा–
हे कु मार, मेरे िजस व के आघात को च ान भी नह सह सकत , उसे तूने सह
िलया। म तेरे बल और साहस से स आ ।ं बता घोड़े के अित र तू या चाहता
है। उस समय रघु का हाथ तूणीर पर था, िजसम से सुनहरी नोक वाला बाण आधा
िनकल चुका था और उसक फलक से कु मार क अंगुिलयां सुनहरी हो रही थ । देवराज
क बात सुनकर कु मार ने हाथ को वह थाम िलया, और मीठे वर म इ से कहा–हे
भो, य द आप य के अ को छोड़ना उिचत नह समझते तो मेरी ाथना है क
िविधपूवक य -समाि पर मेरे िपता को य के स पूण फल का भागी बना दीिजए,
ता क अ के न लौटने पर भी य सवाग-स प समझा जाए। एक कृ पा और क िजए
क इस सारी घटना का समाचार अपने दूत ारा महाराज तक ऐसे अवसर पर प च ं ा
दीिजए, जब वे सभा म िवराजमान ह ।
ऐसा ही होगा–कहकर देवराज वगलोक के िलए ि थत हो गए और कु छ
उदासिच से सुदि णा का वीर पु भी अपने घर क ओर लौटा। महाराज को सब
समाचार इ के दूत से ा हो चुके थे। जब रघु घर प च ं ा तो महाराज ने
स तापूवक अ य त शीतल हाथ से उसके व ारा आहत अंग का पश कया।
इस कार राजा दलीप ने िन यानवे य पूण करके मानो मृ यु के प ात् वग
तक प च ं ने के िलए िन यानवे सी ढ़यां तैयार कर ल । राजा का िच सांसा रक झंझट
से िवर हो चुका था। रघुकुल क मयादा के अनुसार दलीप ने अपने छ और चामर
वीर पु को स प दए, और देवी सुदि णा को साथ ले, तपोवन के वृ क शीतल और
शा त छाया का आ य िलया।
दि वजय

स या के समय, अ ताचलगामी सूय ारा दए गए तेज को ा करके जैसे आग


अिधक उ वल हो जाती है, उसी कार अपने िपता से शासन का अिधकार ा करके
रघु चमक उठा। उधर अ य शासक के दय म, दलीप के गौरव को देखकर ित पधा
क जो आग के वल सुलग रही थी, रघु के संहासना ढ़ होने पर भड़क उठी। उस वीर ने
िपता के संहासन पर और श ु के म तक पर एक ही समय म पैर रखा। रा यािभषेक
के समय जो छ रघु के िसर पर छाया गया, वह मानो सा ात् ल मी ने अपने परो
हाथ से धारण कया हो। जब चारण लोग उसक तुित के गीत गाते थे, तब तीत
होता था क उनक वाणी के बहाने वयं सर वती उपि थत ई ह। जैसे दि ण का वायु
न ब त शीतल होता है न ब त गम, उसी कार रघु जा के िलए उिचत द ड देने के
कारण न अ य त उ था और न ब त ढीला। जब आम के पेड़ पर फल आ जाता है तब
लोग उसके बौर को भूल जाते ह। रघु के गुण से भी दलीप क मृित जा के दय म
हलक होने लगी। यु के े के समान नीित के े म भी वह असाधारण ितभा
रखता था। उसके म ी लोग जब कोई सलाह देते थे, तो वह पूवप ही रहता,
िनणायक उ रप रघु का ही होता था। जैसे हषक होने के कारण िनशानाथ च
और तेज वी होने के कारण सूय तपन कहलाता है, वैसे ही जा के जन के कारण रघु का
‘राजा’ नाम साथक था। य िप उसक भौितक आंख िवशालता के कान को छू रह थ ,
पर तु उसके असली ने तो शा थे, िजनसे वह सू म सम या क तह तक प च ं जाता
था।
इस कार अपने परा म और बुि बल से उसने रा य म शाि त क थापना कर
दी; मानो उसके बढ़ते ए ताप पर साधुवाद देने के िलए कमल क भट लेकर
शरदऋतु के प म वयं रा य ी पृ वी पर उतर आ । बादल हट गए, आकाश व छ
हो गया, िजससे रघु का और सूय का ताप एक साथ िन व प से दशा म ा
होने लगा। इ देवता ने वष-भर के िलए अपने धनुष इ धनुष को ख च िलया, और
रघु ने अपना धनुष हाथ म िलया। जा क र ा के िलए वे दोन ही धनुधारी बारी-
बारी से तैयार रहते थे। शीतऋतु क रात म िछटकती ई चांदनी और रघु के सदा
स चेहरे को देखकर जाजन के दय स ता का अनुभव करते थे। हंस क
पंि य म, टम टमाते ए तार म, कु मु दनी के फू ल म और न दय के व छ जल म
मानो उसके यश क ेत आभा िछटक रही थी। ईख क छाया म आराम करने वाली
खेत क िनि त िनभय रखवािलयां उस जा-र क के ब -े ब े तक फै ले ए यश का
गान करती थ । शीतऋतु म अग य के उदय से जल स होने लगा, पर रघु के
अ युदय से श ु के मन कलुिषत होने लगे। इस कार पूरी सजधज के साथ आकर
शीतऋतु ने न दय को उथला कर दया और रा त के क चड़ को सुखाकर सुगम बना
दया, िजससे शि के अिभलाषी रघु के दय म श ु पर िवजय ा करने क ेरणा
उ प हो गई।
िवजय-या ा का संक प कर लेने पर रघु ने अ मेध क मांगिलक िविध का
आयोजन कया, िजसम अि देवता ने य - वाला क भुजा से उसे िवजयी होने का
आशीवाद दया। उसके प ात् रघु ने राजधानी क सुर ा का पूरा ब ध कया, माग
क सुर ा के िलए राजभ और शि स प सेनाएं िनयु क और गु जन से
आशीवाद ा कया। तब उसने अपनी सवागस प सेना क कमान संभाली और
दि वजय क या ा का डंका बजा दया।
जैसे ीरसमु क लहर दूध क फु हार से िव णु भगवान् क पूजा करती ह, उसी
कार नगर क वृ मिहला ने लाज क वषा करके िवजय-या ा के समय उसका
अिभन दन कया।
रघु ने दि वजय क या ा का आर भ पूव दशा से कया। उसक सेनाएं जब
ऊंची लहराती ई वाजा से श ु को ललकारती ई राजधानी से िनकल , तब
रथ के पिहय और मेघ के समान िवशाल तथा काले हािथय के पैर से उठी ई धूल
के कारण आकाश पृ वी के समान और पृ वी आकाश के समान तीत होने लगी। राजा
क मानवी सेना के साथ-साथ मानो एक और चतुरंिगणी सेना भी चली–आगे-आगे
राजा का ताप, उसके पीछे सेना का संहनाद, फर सेना से उठी ई धूल और अ त म
रथा द। राजा के दृढ़ िन य और शि के सामने म थल म जल बहने लगा, बड़ी-
बड़ी न दयाँ उथली हो ग और बड़े-बडे़ जंगल सपाट मैदान बन गए। पूव क ओर
उमड़ती ई सेना का नेतृ व करता आ रघु ऐसे शोभायमान हो रहा था, जैसे महादेव
के जटाजूट से बहती गंगा क धारा का दशन करता आ भगीरथ। जैसे म तहाथी
जंगल के िजस माग से गुजर जाता है, वहां वृ के िबखरे ए फल, उखड़ी ई जडे़ं और
टू टे ए तने ही शेष दखाई देते ह, वैस ही रघु िजन देश से आगे बढ़ता गया, उनम
परा त और झुके ए राजवंश के खंडहर ही दृि गोचर होते थे। पूव दशा के देश को
जीतता आ िवजेता रघु आगे ही आगे बढ़ता गया, यहां तक क उसक सेनाएं ना रयल
के वन से यामल समु -तट पर जा प च ं । अकड़कर खड़े होनेवाले पेड़ का मानभंग
करने वाले उस सेनापित के सामने बत क भांित िसर झुकाकर सु देशवािसय ने
अपनी ाणर ा क । रघु ने और आगे बढ़ कर नौका क सहायता से यु के िलए
उ त बंग लोग को पछाड़ा और गंगा क म यवत धारा के ीप म अपनी िवजय-
वजाएं गाड़ द । जैसे एक खेत से उखाड़कर दूसरे खेत म लगाने पर, उ कृ वासुमती
धान के पौधे बाल के बोझ से अिधक झुक जाते ह, उसी कार जब रघु ने बंग को
उखाड़कर फर से जमा दया तो उ ह ने रघु के चरण तक झुककर अधीनता वीकार
कर ली। यहां उसके माग म किपशा नाम क नदी आई। उसपर उसने हािथय का पुल
बनाया और उससे पार होकर उ कल के राजा ारा दखलाए ए माग से क लंग देश
क ओर याण कया। माग म महे पवत आया। जैसे हठीले हाथी को वश म लाने के
िलए हाथीवान उसके म तक पर अंकुश आरोिपत करता है, उसी कार रघु ने महे क
चोटी पर अपने ताप क वजा गाड़कर भु व क थापना क । क लंग देश के शासक
ने हािथय क सेना और श ा से रघु का उसी कार वागत कया जैसे पंख को
काटने को आए इ का वागत पवत ने िशला से कया था। श ु के पैने बाण क
वृि से राजा का जो ान आ, वही मंगल- ान बन गया। उससे ादुभूत िवजय- ी ने
राजा के गले म िवजय का हार पहना दया। िवजय ा करने के प ात् रघु के यो ा
ने महे पवत पर ता बूल के प के दोन से ना रयल क सुरा और क त–दोन का
साथ-साथ पान कया। क लगराज को परा त करके धम िवजेता ने उसका देश उसी को
वापस कर दया। उसने के वल उसक रा य ी का अपहरण कया, रा य का नह ।
क लंग-िवजय के प ात् आशातीत सफलता से िवभूिषत रघु ने फू ल से लदे ए
सुपारी के वृ से शोभायमान समु तट के रा ते से दि ण क ओर याण कया। माग
म कावेरी नदी पड़ी। राजा क सेना के म तक-जल से सुगंिधत होकर जब नदी का जल
न दय के वामी समु क गोद म प च ं ा, तो वह शं कत-सा हो गया ।
दि वजय क इ छा से आगे बढ़ता आ रघु मलया क तराई म जा प च ं ा।
वहां उसक सेना ने छावनी डाली, तो घबराए ए हारीत प ी बांस के घने जंगल
म भटककर इधर-उधर उड़ने लगे।
सेना के घोड़ ने इलायची के पौध को र द डाला तो उससे सुगि ध क जो रे णु
आकाश म फै ली, वह म त हािथय के वभावत: सुगि धत मदवाले ग ड थल पर
पड़कर एक भूत हो गई। पांव के ब धन को तोड़कर भागनेवाले हािथय ने जब च दन के
पेड़ से अपनी गदन को रगड़ा वहां सांप के िलपटने से ग े बने ए थे, अत: तब उनके
गले के ब धन टू टे नह । िजस दि ण दशा म जाकर सूय का तेज भी म द हो जाता है,
रघु के वहां प चं ने पर पा जाित के लोग ताप को न सह सके और समु तथा
ता पण नदी से एक कए ए अपने िचरसंिचत यश के समान उ वल मोितय क
भट लेकर सेवा म उपि थत ए। आगे बढ़कर रघु ने दि ण दशा के स पवत म वेश
कया। परशुराम के ारा स पवत से दूर हटाया गया समु भी, कनारे - कनारे
जानेवाली रघु क सेना के कारण पवत से लगा आ तीत हो रहा था। िवजेता क
सेना के समीप आने पर घबराहट के कारण के रल क ि य को के सरा द फू ल से के श
का ृंगार करने का होश न रहा तो सेना क धूल ही िसर के ृंगार का साधन बन
गई। के तक के फू ल का रज, मुरला नदी का पश करनेवाले वायु के झ क ारा जब
रघु क सेना के व पर पड़ा तो उसने वहां इ -फु लेल का काम दया। आगे बढ़ते
ए सैिनक और घोड़ के कवच क सि मिलत विन इतनी ऊँची ई क राजताली
जंगल म गूंजती ई हवा क विन उससे परा त हो गई। पु ाग के फू ल पर मंडराते ए
भ रे खजूर के तने से बंधे ए हािथय के बहनेवाले मद क सुग ध से आकृ होकर उनके
ग ड थल पर टू ट पड़े। िजस समु ने मांगने पर परशुराम को अपना कनारा खाली
कर दया था, उसने िबना मांगे ही अपने ीप राजा ारा दए गए कर के बहाने से रघु
क सेवा म भट व प उपि थत कए। ि कू ट पवत क च ान पर रघु क सेना के म त
हािथय ने दांत से जो िनशान बनाए, उनसे मानो वह पवत ही िवजेता का जय त भ
बन गया ।
वहां से वह संयमी, पारसीक लोग को जीतने के िलए थल के माग से रवाना
आ–जैसे योगी इि य नाम के श ु को त व ान से जीतने के िलए स होता है।
जैसे बरसात के अित र अ य ॠतु म सूय क ात:कालीन करण प को कु हला
देती ह, उसी कार रघु के ताप ने यवन-ि य के सुराग ध वाले मुखकमल को मुरझा
दया। पि म के घुड़सवार यो ा से उसका ऐसा घोर यु आ क धूल म
लड़नेवाल का अनुमान धनुष क टंकार से ही कया जा सकता था। काली-काली
मधुमि खय से सने ए शहद के समान दीखनेवाले यवन लोग के द ढ़यल चेहर को
काट-काटकर उसने पृ वी को ढक दया। अ त म वे मुकुट उतार कर उसके चरण म झुक
गए। महापु ष का ोध तभी तक रहता है, जब तक दूसरा न झुक जाए। वहां रघु के
िवजयी यो ा ने अंगूर के झुरमुट म ब त उ कृ मृगछाला पर लेटकर और अंगूरी
शराब पीकर अपनी थकान को उतारा।
उसके प ात् सूय के समान तेज वी रघु ने उ र दशा के जलसदृश िनवािसय को
सुखाकर नामशेष कर देने के िलए याण कया। का मीर म िस धु नदी के तट पर
लौटकर िवजेता के अ ने अपनी थकान को दूर कया, और उसने उनके क ध पर जो
के सर लग गया–उसे झकझोरकर उतार दया। रघु ने ण यो ा को परा त करके
उनक ि य को वैध -दु:ख दया, वह रो-पीटकर लाल ए उनके कपोल से
होता था। क बोज देश के िनवासी िवजेता के ताप को न सह सके और रघु क सेना के
हािथय के र स से बंधने के कारण झुके ए अखरोट के पेड़ के साथ वे भी झुक गए।
क बोज लोग ब त-साधन और देश के िस घोड़ क जो भट लेकर बार-बार रघु क
सेवा म उपि थत ए, उसे तो रघु ने अपने खजाने म वेश दे दया पर तु िवजय से
उ प होनेवाले अिभमान को दय म वेश नह दया।
क बोज को जीतने के प ात् अ के खुर से उठे ए गे आ द धातु के रज से
िशखर क ऊँचाई को मानो और अिधक बढ़ाते ए राजा रघु ने िहमालय पर चढ़ाई
बोल दी। सेना के कोलाहल से जागे ए राजा रघु ने िहमालय पर चढ़ाई कर दी।
सेना के कोलाहल से जागे ए गुफावासी संह ने के वल गदन फे रकर बाहर क ओर
देखा, मानो कह रहे ह क तुमसे िनबल नह , जो डर। भूजप क ममर विन और
बांस के जंगल म गूंज पैदा करनेवाले गंगाजल के स पक से शीतल पवन ने िहमालय
क चो टय पर रघु का वागत कया। उसके सैिनक ने क तूरी के संसग से सुगि धत
िशला पर बैठकर और नमे वृ क छाया म सु ताकर अपनी थकान को उतारा।
वहां राजा क सेना का पहाड़ी जाितय से यु आ। उस यु म फके गए बाण और
िशला से जो संघष आ उससे आग क िचनगा रयां चार ओर फै ल रही थ । रघु से
परा त होकर उ सव ि य लोग अपने उ सव को भूल गए और क रगण उसी के
िवजयगीत गाने लगे। पहाड़ी लोग जब ब मू य र क भट लेकर राजा क सेवा म
उपि थत ए, तब राजा ने िहमालय क और िहमालय ने राजा क शि को ठीक-ठीक
पहचाना। आगे कै लास पवत आर भ होता था। उसे तो रावण जैसा रा स भी िहला
देगा, मानो इसी िवचार से रघु ने उसे छोड़ दया और िहमालय से नीचे उतर आया।
उसके प ात् रघु ने लौिह य नदी को पार कया। तब तो ा योितष् का राजा
और रघु के हािथय के खूंटे बनने के कारण कालागु के वृ एकसाथ ही कांप गए।
ा योितष् का शासक िवजेता के रथ से उठे ए सूय को ढक देनेवाले मेघ को भी नह
सह सका, सेना को तो सहता ही या? आगे बढ़ने पर काम प के राजा ने म त
हािथय क उन ेिणय क भट देकर देवता के राजा से भी अिधक परा मशील रघु
का वागत कया, िजनसे वह अ य िवरोिधय का माग रोका करता था। उसने िवजेता
के चरण क र पी फू ल से पूजा क । इस कार रा यछ उतर जाने के कारण खुले
ए नरे श के म तक पर अपने रथ क उड़ी ई धूल का टीका लगाता आ रघु
राजधानी को लौट आया। मेघ के समान स न लोग जो कु छ लेते ह, वह के वल देने के
िलए ही। रघु ने िवजय-या ा से लौटकर ा ई अतुल स पि का दान करने के िलए
िव िजत् य का आयोजन कया।
रघु के िव िजत् य म दूर-दूर के राजा एक ए। परािजत होने के कारण उनके
दय म जो थोड़ा-ब त दु:ख था, उसे िवजेता ने मंि य क सहायता से बढ़े-चढ़े
आदर-स कार ारा शा त कर दया। य के अ त म रघु से अनुमित ा करके राजा
लोग अपने घर को वापस चले गए; िजनसे उनके प रवार क िचर-िवयोग के कारण
ई िच ता दूर हो गई। िवदा होते समय राजा ने रघु के रे खा वज, व और छ जैसे
च वत िच से यु चरण म िसर झुकाकर नम कार कया तो उनके करीट से िगरे
ए फू ल के पराग से रघु के चरण क अंगुिलयां गौर हो ग ।
िव िजत य

िजस समय ‘िव िजत्’ य म सव व दान करने के कारण स ाट् रघु का खज़ाना
िब कु ल खाली हो चुका था, उस समय वरत तु आचाय का िश य कौ स अपनी िश ा
समा करके गु दि णा क खोज म अयो या प च ं ा। सोने के सब बतन दए जा चुके
थे, अत: रघु ने िम ी के बतन म अ य तुत कया। अ य-पा आ द से उस तप वी का
स कार करके मािनय के मुख स ाट् रघु ने उसे आसन पर िबठाया और हाथ जोड़कर
कया–
हे कु शा बुि मुिनवर, जैसे सारा संसार सूय से जीवन ा करता है, वैसे ही
िजस म व ा के अ णी ॠिषवर से तुमने सब िव ाएं ा क है, वे कु शल से तो
ह? देवता के अिधपित को िहला देनेवाली मह ष क ि िवध तप या के माग म कोई
कावट तो नह आत ?
शरीर, वाणी और कम ारा देवता के राजा के आसन को िहला देनेवाला जो
ि िवद तप मह ष ने संिचत कया है, उसम कह िव बाधाएं तो उपि थत नह होत ?
शीतल छाया ारा थकान उतारनेवाले उन आ म के वृ को, िज ह
आ मवािसय ने आलवाल बनाकर तथा सब उपाय से स तान क तरह पाल-पोसकर
बड़ा कया है, वायु आ द के उप व से हािन तो नह प च ं ती?
ह रिणय क िजस स तित को मुिन लोग अपने ब से भी अिधक ेम करते ह,
िजनका ज म मुिनय क गोद से ही होता है, जो य ा द के िनिम से भी अलग नह
कये जाते, कु शल से तो ह?
िजन पिव जल से आप लोग दैिनक ाना द करते ह? िजनक अंजिलय से
िपतर का तपण होता है, और िजनक रे तीली तटभूिम अ के ष भाग पर लगे ए
राजकर के िच से अं कत है, वे जल उप व रिहत तो ह?
िजनसे आप अपना जीवन-िनवाह, और समय-समय पर आनेवाले अितिथय का
पूजन करते ह, उन नीवार यामाक आ द अ को भुस क खोज म आने वाले गौ-भस
आ द पालतू पशु तो न नह करते?
मह ष ने िव ा क समाि पर आपको गु कु ल से स तापूवक घर जाने क
अनुमित तो दे दी? य क अब वह समय आ गया है, जब आप अ य का उपकार करने
क यो यता के कारण ये आ म–गृह था म म वेश कर।
के वल आपके आने से ही मेरा मन स तु नह आ, म उ सुक ं क आपके कसी
आदेश का पालन भी क ं । आपने मुझपर अनु ह कया है क अपने गु क आ ा से
अथवा वयं जंगल से पधारकर मुझे कृ ताथ होने का अवसर दया है।
वरत तु मुिन के िश य कौ स ने अ य के पा को देखकर ही अनुमान लगा िलया
था क रघु सव व दान कर चुका है। राजा क उदार वाणी सुनकर भी कौ स क आशा
हरी नह ई और वह बोला–
हे राजन्, आ म म सब कार से कु शल-मंगल है। शासन क बागडोर आपके
हाथ म रहते जा को क हो ही कै से सकता है? जब सूय दमक रहा हो तब ािणय
क आंख को अंधेरा कै से ढक सकता है?
हे राजन्, पू य के ित भि क भावना रखना तु हारे कु ल क था है। अपनी
िवशाल दयता के कारण तुमने अपने पूव-पु ष को भी मात दे दी है। मुझे इतना ही
दु:ख है क म समय बीत जाने पर अपनी अ यथना लेकर यहां प च ं ा ।ं
हे नरे , वनवािसय ारा अ िनकाल लेने पर जैसे नीवार का खोखला त भ
(सूखा पौधा) शोभायमान होता है, स पा को सव व दान देकर तुम वैसे ही
शोभायमान हो रहे हो।
च वत सा ा य ा करके आज दान के कारण तु हारी यह धनहीनता
शोभाजनक ही है। देवता ारा अमृत िपए जाने पर च मा क ीणता उसक वृि
से कह अिधक शंसनीय होती है।
सो राजन्, म कसी अ य थान से गु दि णा ा करने का य क ं गा। मुझे तो
इस समय इसके अित र कोई काय नह है। भगवान तु हारा क याण कर। बरसकर
खाली ए बादल से तो चातक भी पानी नह मांगता।
यह कहकर जब कौ स िवदा होने लगा तो राजा ने उसे रोककर पूछा–हे िव ान,
आप यह तो बताइए क गु क सेवा म आपको या व तु कतनी रािश म भट करनी
है?
िव िजत् य को सफलतापूवक सफल करके भी अिभमान से शू य, वणा म क
र ा करनेवाले उस पित के को सुनकर वह ातक क गया और बोला–
िव ा ययन समा करके मने मह ष से िनवेदन कया था क मुझे गु दि णा भट
करने क आ ा दी जाए। गु ने मेरी िचरकाल तक क ई भि पूण सेवा को ही पया
समझा। फर भी म गु दि णा का आ ह करता गया। इससे अस तु होकर मह ष ने
कहा क य द तेरा ऐसा ही आ ह है तो हण क ई चौदह िव ा के बदले म चौदह
करोड़ मु ाएं गु दि णा के प म उपि थत कर। हे राजन्, पूजा के मृ मय पा से मने
जान िलया है क तु हारा के वल ‘ भु’ नाम ही शेष है, और मेरी मांग ब त बड़ी है, इस
कारण म तुमसे आ ह करने का साहस नह कर सकता।
वेदवे ा म े ा ण क इस कार क बात सुनकर तेज वी और िव ान्
स ाट् ने िनवेदन कया–
भगवन्, िव ा पी समु को पार करके एक ातक गु दि णा क खोज म रघु के
पास आया और िनराश होकर कसी दूसरे दानी के पास चला गया, यह अपक त मेरे
िलए एक नई व तु होगी, जो मुझसे सहन नह हो सके गी। अत: आप दो-तीन दन तक
मेरे य गृह म चतुथ अि क भांित आदरपूवक िनवास करने का अनु ह कर। इस बीच
म म आपक अभी धनरािश जुटाने का य करता ।ं
रघु के वचन को अटल ित ा के समान मानकर कौ स स तापूवक क गया।
इधर यह सोचकर क पृ वी का सार ख चकर तो म दान कर चुका ,ं राजा ने कै लास के
वामी कु बेर से अभी धनरािश लेने का संक प कया। जैसे वायु क सहायता ा होने
पर अि क गित अमोघ हो जाती है, उसी कार विस मुिन के वरदान से रघु के रथ
क गित न समु म कती थी, न आकाश म म द होती थी और न पवत पर ढीली
पड़ती थी। उस रात रघु श से सुसि त रथ म ही सोया, मानो वह ात:काल अपने
कसी साधारण साम त को जीतने के िलए यास करनेवाला हो। जब वह ात:काल
सोकर उठा तो कोषगृह के रखवाल ने सूचना दी क आज रात कोषगृह म आकाश से
सोने क वषा हो गई है। वह धनरािश इतनी थी क मानो िबजली क चोट खाकर सुमे
पवत क च ान टू ट पड़ी हो। रघु ने वह स पूण धन कौ स क सेवा म भट कर दया।
अयो या के िनवासी यह दृ य देखकर च कत और कृ तकृ य हो रहे थे क याचक
गु दि णा क मा ा से अिधक लेने से इ कार करता था, और दाता कु बेर से ा
सम त धनरािश देने पर तुला आ था।
राजा ने वह धनरािश सैकड़ ऊंट और ख र पर लादकर कौ स के सुपुद करते
ए झुककर णाम कया। स तु होकर िव ान् ा ण ने राजा को आशीवाद दया–
राजन्, तुम जैसे जा का पालन करने वाले शासक के िलए पृ वी कामधेनु हो, यह तो
वाभािवक ही है। पर तु तु हारा भाव अिच तनीय है, िजसने आकाश को भी दुह
िलया। संसार क सब िवभूितयां तु ह ा ह, अ य जो भी शुभकामना क जाएगी वह
पुन ि मा होगी। इस कारण मेरा इतना ही आशीवाद है क जैसे तु हारे यो य िपता
ने तु ह ा कया था वैसे ही तुम भी अपने अनु प पु ा करो।
इस कार आशीवाद देकर गु दि णा के साथ ा ण गु के पास चला गया।
जैसे संसार सूय से काश ा करता है, वैसे राजा ने भी भगवान् क दया से पु र
ा कया।
महारानी ने ा मु त म क द के समान तेज वी कु मार को ा कया। इस
कारण स ाट् ने उसका नाम ा के नाम पर ‘अज’ रखा।
अज म वही तेज वी प, वही बल और वही वाभािवक उदार भाव था। कु मार
अपने िपता से उसी कार अिभ था, जैसे दीये से जला आ दीया। जब गु से
िविधपूवक ा क ई िश ा और युवाव था के भाव से अज पूण प से सु दर और
ग भीर हो उठा, तब य िप रा य ी उसके गले म हार पहनाने को उ सुक थी, तो भी
ल ाशील क या क तरह िपता क अनुमित क ती ा कर रही थी। इस समय िवदभ
के राजा भोज के िव ान् दूत ने रघु के पास आकर िनवेदन कया क राजकु मार अज को
पु ी इ दुमित के वयंवर म भाग लेने को भेिजए। स ब ध उ म है और कु मार क
अव था िववाह के यो य हो गई है, यह िवचारकर राजा ने अज को सेना के साथ धन-
धा य से भरी ई िवदभ देश क राजधानी क ओर भेज दया। माग म युवराज ने जहां
पड़ाव कए वहां राजा के यो य ब मू य त बु के महल बनाए गए थे, िजनम नगर
से लाकर उ मो म साम ी इक ी क गई थी, और िज ह वा टका और िवहार थान से
सुखकारी बनाया गया था। उसका एक पड़ाव नमदा नदी के तीर पर आ, जहां माग क
धूल से सनी ई सेना को नदी जल से आ , और न माल के पश से ठं डे पवन से
शाि त ा ई।
जब नमदा के तट पर अज का डेरा पड़ा आ था, तब एक जंगली हाथी–िजसके
ग ड थल जल से धुल जाने के कारण िनमल हो गए थे, पर तु पानी के ऊपर मंडराते
ए भ र को देखकर यह सूिचत होता था क पानी म जाने से पूव उसके म तक से मद
बह रहा था–नदी के जल से िनकलता दखाई दया। उसके मद क ती बास से परा त
ए सेना के हाथी, हाथीवान के हाथ से िनकलने लगे। उसके भय से सेना के वाहन
र सी तुड़ाकर भागने लगे; िजससे रथ उलटकर टू टने लगे और िसपाही लोग ि य क
र ाम त हो गए। इस लोक था का आदर करते ए क जंगली हाथी राजा के िलए
अव य है, अज ने के वल उसे रोकने के िलए धनुष क यंचा को ह का सा ख चकर
उसके कु भ थल पर तीर मारा आ य से च कत सेना ने देखा क तीर से िव होकर
उस हाथी का प बदल गया, और वह चमचमाते तेज के म डल से िघरे ए
आकाशवासी ग धव के प म दखलाई देने लगा। उसने पहले राजकु मार पर क प प ु
के फू ल क वषा क , और फर िनवेदन कया–
हे राजकु मार, म ि यदशन नाम के ग धवराज का पु ि यंवद ।ं मेरे दुरिभमान
से होकर मतंग मुिन ने मुझे शाप दे दया, िजससे मुझे हाथी का प धारण करना
पड़ा। शाप िमलने पर मने अनुनय-िवनय कया तो वे शा त हो गए। पानी चाहे आग
और धूप के संयोग से गम हो जाए, पर तु वह वभाव से तो शीतल ही है। शा त होकर
तप वी ने शाप को कम करते ए कहा क इ वाकु वंश का राजकु मार अज जब बाण से
तेरे म तक को छेद देगा, तब तुझे अपना शरीर वापस िमल जाएगा। सो तुमने मुझे शाप
से छु ड़ाकर मुझपर बड़ा उपकार कया। इसके बदले म य द म युपकार न क ं , तो
मेरा िनज प म आना थ ही होगा। हे िम , मेरे पास स मोहन नाम का ग धव अ
है, िजसक सबसे बड़ी िवशेषता यह है क श ु क हंसा नह करनी पड़ती और जीत
हाथ म आ जाती है। यह अ म तु ह देता ।ं इसम ल ा क कोई बात नह है। तुमने
तीर का हार करते ए मुझपर मु त-भर जो दया का भाव द शत कया, उसने मेरे
दय म अपनापन पैदा कर दया है। कृ पया इस भट को लेने से इ कार न करना।
राजकु मार ने ि यंवद क बात वीकार कर ली और पूवािभमुख हो नमदा के जल
का आचमन करके स मोहना हण कया। इस कार दैव ने उन दोन को माग म
िमलाकर िम बना दया। अ - हण के प ात् वह चै रथ नाम के ग धव के
िनवास थान क ओर चला गया, और दूसरे ने उ म शासन के कारण सुखी और समृ
िवदभ देश क दशा क ओर थान कया।
जब अज िवदभ क राजधानी के पास प च ं ा, तो जैसे लहर क भुजा को
बढ़ाकर समु च मा का वागत करता है, वैसे ही िवदभराज ने स दय से उसका
वागत कया। िवदभराज भोज ने नगर वेश के समय ऐसी न ता से वहार कया,
िजससे सब अ यागत लोग ने अज को गृह वामी और भोज को अितिथ समझा।
वहां प च ं कर अिधकारी पु ष राजकु मार को िजस नविन मत और सु दर
राजमहल म ठहराने के िलए ले गए, उसके पूव ार पर जल से भरे ए घड़े थािपत
कए गए थे। उस भवन म अज ऐसा शोभायमान आ मानो सा ात् कामदेव युवाव था
म िनवास कर रहा हो।
राि के समय राजकु मार को ब त मीठी न द आई। उषाकाल म वैतािलक लोग
ने मधुर और ग भ तुितय ारा उसका उ ोधन कया। उ ह ने कहा–रात समा हो
गई। हे बुि मान के िशरोमिण! अब श या को छोिड़ए। इस पृ वी का बोझ िवधाता ने
दो क ध पर रखा है। एक कं धा तु हारे सदा जाग क िपता का है, और दूसरा तु हारा।
देखो, अभी भगवान भा कर आकाश म अवतीण भी नह ए क उनके सारिथ अ ण ने
अ धकार को िछ -िभ कर दया। ठीक भी है, हे वीर, जब तुम मैदान म उतर आओगे,
तो तु हारे गु को हिथयार उठाने क या आव यकता है! राजकु मार, कल सायंकाल
तैयार कए गए फू ल के हार िबखर रहे ह, दीपक क योित म द पड़ गई है, और पंजरे
म ब द तु हारा सु गा हमारे बोध वा य को मीठे गले से दोहरा रहा है। अब उठो।
इस कार तुितवा य से अज क न द टू ट गई और वह िब तर छोड़कर उठ
बैठा। उठकर शा ो रीित से उसने िन यकम का अनु ान कया। कु शल प रचारक
ने उसे सभा के यो य वेशभूषा से प र कृ त कया, िजसके प ात् वह िनयत समय पर
वयंवर के म डप क ओर ि थत आ।
इ दुमती का वयंवर

वयंवर के म डप म प च ं कर राजकु मार ने सु दर वेशवाले ि य को िवमान पर


आ ढ़ देवता के समान शोभायमान देखा। राजा ने जब कामदेव के सदृश सु दर
अज को देखा तो उनके मन म इ दुमती क ओर से िनराशा उ प हो गई। जैसे शेर का
ब ा िशला पर चरण रखता आ पवत क चोटी पर चढ़ जाता है, वैसे ही स ाट् रघु
का राजकु मार भी शानदार सी ढ़य से होकर राजा भोज ारा िन द संहासन पर
िवराजमान हो गया। संहासन र से जगमग हो रहा था और उसपर ब मू य रं ग-
बंरगे कालीन िबछे ए थे। उसपर आसीन कु मार ऐसे शोभायमान हो रहा था, जैसे
मोर क पीठ पर बैठा आ सेनानी गुह। जैसे अनेक मेघ म िभ -िभ प से एक ही
िबजली दमकती दखाती देती है, वैसे ही उन उपि थत नरे श म मानो एक ही राज ी
अनेक प म िछटक रही थी। ब मू य आसन पर िवराजमान उन राजा क ेणी म
स ाट् रघु का कु मार क पवृ म पा रजात के समान देदी यमान हो रहा था। जब
उपवन म कोई मदम त हाथी आ जाए, तो ग ध से खंचे ए भ रे फू ल को छोड़कर
उसी क ओर खंच जाते ह। नगरवािसय क आंख भी अज के प च ं ने पर ि य को
छोड़कर उसी क ओर आकृ हो ग ।
इस कार सूय और च वंशी राजा के एक हो जाने पर वंशपर परा से
अिभ ब दीजन ने उनका अिभन दन कया। धूपबि य के जलने से उठा आ धुआं
पताका क चो टय को छू ने लगा, और नगर के समीप उपवन म रहनेवाले मोर को
नचा देनेवाला ाभाितक शंख आकाश को गुंजाने लगा। मंगलाचरण समा होने पर,
मनु य ारा उठाई जाने वाली चौकोर पालक म प रजन ारा िघरी हई, पित के
वरण क इ छा रखनेवाली वयंवर-वेषधा रणी राजकु मारी इ दुमित ने मंडप के
राजमाग म वेश कया। सैकड़ आंख क एक ल य, िवधाता क उस अ भुत रचना के
स मुख आने पर सब नरे श अ त:करण से उसके समीप जा प च ं ,े संहासन पर तो
के वल उनके शरीर ही रह गए।
तब राजवंश के इितहास से प रिचत और पु ष के समान ग भ ितहारी
सुन दा इ दुमित को मगधदेश के राजा के समीप ले जाकर बोली–यह मगधदेश का
राजा पर तप है। जैसा नाम वैसे गुण वाला है। श ु का काल है, शरणा थय को शरण
देनेवाला है और वभाव से ग भीर है। जा का रं जन करने के कारण इसने यश ा
कया है। शासक तो अनेक ह, पर तु भूिम को राजव ती कहलाने का सौभा य इसी से
ा है। आकाश म अनगिनत ह-न ह, पर तु राि च के कारण ही उजली
समझी जाती है। इस राजा के ारा य म िनर तर िनमि त होने के कारण इ को
ब त समय तक वगलोक से अनुपि थत रहना पड़ता था। फलत: पित-िवयोग म
महारानी शची के सु दर के श कपोल तक लटक गए और म दार पु प से शू य हो गए
ह। य द तुम चाहती हो क यह े पु ष तु हारा पािण हण करे , तो पु पपुर म वेश
के िलए उ त हो जाओ, जहां वेश के समय नगर क सु द रयां महल के झरोख म
बैठकर तेरे दशन से अपने ने को आनि दत करगी।
सुन दा के वचन सुनकर इ दुमती ने मुंह से तो कोई उ र नह दया, के वल परं तप
क ओर देखकर ह का-सा णाम कर दया, िजसका अिभ ाय था क नह ।
जैसे वायु के वेग से उठी ई जल क लहर मानस सरोवर क राजहंसी को एक
कमल से दूसरे कमल के पास प च ं ा देती है, उसी कार वह दौवा रक सुन दा
राजकु मारी को परं तप के पास से हटाकर दूसरे राजा के समीप ले गई और बोली–
यह अंगदेश का राजा है। अ सराएं इसके यौवन पर लट् टू ह । िस महावत
ारा सधाए ए हािथय क िवभूित के कारण यह ऐरावत के वामी इ के सदृश
ऐ य का उपभोग कर रहा है। इसके परा म ने परािजत श ु क ि य के गले म
मोितय के समान थूल आंसु क मालाएं डालकर िबना सू के ही हार पहना दए
ह। ी और सर वती वभाव से एक-दूसरे के संग नह रहत , इसने अपने गुण से दोन
को वश म कर िलया है। शरीर के स दय और स य तथा ि य वाणी के कारण हे
इ दुमती, तुम ही इसके यो य हो।
सुन दा के वा य क समाि पर इ दुमित ने अंगराज पर से आंख हटाकर कहा–
आगे चल! इससे यह न समझना चािहए क अंगराज सु दर नह था, और न ही यह बात
थी क इ दुमती म पहचानने क शि न हो। तो भी इ दुमती उसे छोड़ गई। संसार म
सबक िच िभ -िभ है।
उससे आगे सुन दा इ दुमती को नवो दत च के समान सु दर और आकषक
अवि तनाथ के सामने ले गई, और कहने लगी–
यह िवशाल व थल और संकुिचत क टभाग से सुशोिभत महाबा अवि त का
शासक है। इसका तेज वी शरीर, िव कमा ारा च पर चढ़ाए ए सूय जैसा तीत
होता है। इसक िवजय-या ा म सेना के घोड़ क टाप से उठी ई धूिल श ु के मुकुट
क मिणय पर बैठकर, इसके प च ं ने से पूव ही उ ह आभाहीन कर देती है। यह
महाकाल-मि दर के िनवासी भगवान् च मौिल महादेव के समीप ही रहता है, इस
कारण अंधेरी रात म भी यह चांदनी से चमकती ई रात का अनुभव करता है। य द
इस नौजवान राजा के साथ, िश ा नदी के जल का पश करनेवाले वायु से कि पत
उ ान म िवहार करने का िवचार हो तो हे सु दरी राजकु मारी, मुझे बता दो।
अवि तनाथ अपने तेज से िम पी प को िवकिसत करनेवाला, और श ु पी
क चड़ को सुखा देनेवाला होने के कारण सूय के समान तेज वी था। पर तु जैसे सुकोमल
कु मु दनी उसे पस द नह करती, वैसे ही इ दुमती का दय भी उसक ओर नह झुका।
तब सुन दा इ दुमती को आगे लाकर अनूपराज का प रचय देने लगी–
ानी राजा कातवीय का नाम तुमने सुना होगा। जब वह सं ामभूिम म उतरा
था, तब श ु उसे सह बा -सा अनुभव करते थे। उसने अठारह ीपा म अपने य के
यूथ गाड़ दए थे। जारं जन के कारण ‘राजा’ यह िवशेषण उसम असाधारण प से
अ वथक जंचता था। जा पर उसका ऐसा आतंक था क मन म अपराध का िवचार
आते ही धनुधारी राजा क मू त मन के सामने आ जाती और मानिसक अपराध भी क
जाता था। िजस रावण ने इ को भी जीत िलया था, कातवीय के कारागृह म उसी
रावण क भुजाएं धनुष क यंचा से बंधी ई थ , और मुख से िनर तर जोर-जोर से
सांस िनकल रहे थे और उसे तब तक ब दी रहना पड़ा था जब तक राजा का अनु ह न
आ। उस कातवीय के वंश म वेदवे ा क सेवा करनेवाले इस ‘ तीप’ नामक राजा ने
ज म िलया है, िजसने अपनी दृढ़ता के कारण ी का ‘चंचलता’ अपयश धो दया है।
इस तप वी ने तप या ारा अि देवता को स करके सहायता का वर ा कया है।
उसके भाव म ि य के संहारकता परशुराम के परशु क धार को यह कमलप क
धार से भी अिधक कोमल समझता है। य द मिह मती नगरी क चहारदीवारी के चार
ओर कमरब द क तरह िलपटी ई और के शवेणी के समान लहर खाते ए जल वाह से
सु दर रे खा नदी को देखने क इ छा है, तो तुम इस राजा क गृहल मी बन जाओ।
वह देखने म सु दर राजा भी इ दुमती को पस द नह आया। बादल के हट जाने
से िन व चमकने वाला सोलह कला से यु च मा भी कमिलनी को िखलाने म
समथ नह होता।
तब वह अ त:पुर क रि का सुन दा, राजकु मारी को आचार क शु ता के कारण
माता और िपता दोन वंश क याित को चमकाने वाले, देश-देशा तर म िस
शुरसेन देश के राजा सुषेण के समीप ले जाकर बोली–मुिनय के आ म म जैसे संह और
गौ, वभाव से िवरोधी जीव आपस का िवरोध छोड़ देते ह, वैसे ही नीप वंश के अंकुर
इस य परायण राजा म इक े होकर अनेक पर पर-िवरोधी गुण ने िवरोध-भाव छोड़
दया है। इस राजा क जो काि त अपने घर म चांद क चांदनी क तरह शीतल होकर
फै ल रही है, वही परा त होने के कारण सुनसान ए श ु के घर म अस तेज
बनकर चमकती है। यमुना का जल अ य सब थान पर काला है, पर तु इस राजा क
नगरी मथुरा के पास जब राजप रवार क ि यां उसम ान करती ह, तो उनके व पर
लगे च दन के कारण वह धौला हो जाता है, िजससे तीत होने लगता है क मानो वह
यमुना और गंगा का संगम हो गया है। ग ड़ से डरे ए यमुना-तटवासी कािलया सप के
ारा दी ई मिण को छाती पर धारण करके यह राजा सुषेण शोभा म कौ तुभधारी
कृ ण को भी मात दे रहा है। हे राजकु मारी, य द तुम कु बेर क वा टका से भी अिधक
सु दर वृ दावन म कोमल प लव से ढक ई पु पश या पर िव ाम करने का िवचार
रखती हो तो अपनी यौवन- ी इन युवा को सम पत करो। तुम वहां वषाॠतु म,
गोवधन पवत क सु दर क दरा म, जलकण से भीगे ए पहाड़ी फल से सुगि धत
िशलातल पर, मोर का मनोहारी नाच देखोगी।
जैसे समु क ओर बहने वाली नदी माग म आए ए ऊंचे पवत को लांघ जाती
है, वैसे ही इ दुमती उस वीर राजा को छोड़कर आगे चली गई।
आगे क लंग के राजा हेमा गद का आसन था। उसक भुजा पर के यूर
शोभायमान हो रहा था। सुन दा उसे ल य करके इ दुमती से बोली–
महे पवत के समान िवशाल और दृढ़ यह राजा महे पवत और समु का
वामी है। जब इसक सेनाएं िवजय-या ा के िलए चलती ह, तब मद क धारा बहाते
ए हाथी उनके आगे-आगे चलते ह, मानो न दय को साथ िलए महे पवत वयं माग-
दशन कर रहा हो। इस धनुधारी क भुजा पर िनर तर धनु ालन के कारण यंचा
के िनशान पड़ गए ह, मानो इसके ारा मारे गए श ु क ि य के क ल-सिहत
आंसु क धारा के िच ह । इसके ासाद के नीचे फै ला आ समु , ात:काल
ासाद के रोशनदान म से दखाई देती ई लहर क ग भीर विन से इसे जगा देता है,
िजससे अ य कसी ाभाितक वा क आव यकता नह रहती। इसके साथ तुम ताड़ के
प के ममर श द से यु समु तट पर िवहार करो, जहां अ य ीप से उड़ाकर लाए
ए लवंग पु परज से सुगि धत वायु तु हारे पसीने क बूंद को सुखा देगी।
जैसे दैव के ितकू ल होने पर कु शल से कु शल नीित राजल मी को अपने अनुकूल
नह बना सकता, वैसे ही सुन दा के ब त लुभानेवाले वा य भी इ दुमती को महे क
ओर आकृ न कर सके । सुन दा इ दुमती को आगे ले गई, जहां सु दरता म देवता के
समान उरग नामक नगर का राजा िवराजमान था। वह बोली–राजकु मारी, इधर देखो,
यह पा डु दशे का राजा पा है। इसक च दन से सुशोिभत छाती पर ल बे लटकते
ए हार ऐसे दमक रहे ह मानो ात:काल क सूय- करण से लाल-लाल दीखनेवाली
िहमालय क िहमा छा दत चो टय से िगरता आ जलिनझर हो। िव यपवत को सूय
के माग म अड़ने से रोकने वाले तथा समु को सुखाकर भर देने वाले ॠिष अग य,
अ मेध क समाि पर ान से िनवृ ए यश वी ि य से ेमपूवक कु शल समाचार
पूछने आते ह। अिभमान से भरा आ लंकापित रावण जब इ लोक को जीतने के िलए
उ र क ओर जाने लगा, तब इस आशंका से क कह यह पीछे जन थान- देश पर
अिधकार न जमा ले, वह पा से सि ध करने के िलए बािधत आ था। हे
राजकु मारी! इस महाकु लीन राजा का पािण हण करके तुम र क लड़ी से सुभूिषत
समु पी कमरब दवाली दि ण दशा क सप ी बन जाओगी। य द तुम पा का
वरण करो तो तु ह मलय पवत के ता बूल क बेल ारा आ लंिगत, सुपारी, इलायची
आ द लता ारा प रवेि त, च दन और तमाल के प से बने ए आ तरण के
अलंकृत देश म िवहार करने का अवसर िमलेगा। नीलकमल के समान नीली
छिववाला यह राजकु मार है और रोचना के सदृश गोरे रं ग क तुम हो। जैसे िबजली और
काले बादल क शोभा एक-दूसरे से बढ़ती है, उसी कार तु हारी भी बढ़ेगी।
सुन दा ने पा के स ब ध म िजतने उपदेश दए, इ दुमती के दय पर उनम से
एक का भी भाव न पड़ा। सूय के अदशन से ब द ए निलनी के फू ल को खोलने म च
क करण कभी समथ नह होत । वह प तंवरा राजकु मारी जलती ई दीपिशखा के
समान िजस-िजस राजा के पास से गुज़रती जाती थी, राजमाग के दोन और बने ए
िवशाल भवन क तरह उसी पर अंधेरा छाता जा रहा था ।
जब इ दुमती अज के समीप प च ं ी तब अज का दल यह सोचकर धड़कने लगा
क यह मेरा वरण करे गी या नह , क तु उस समय उसक दि ण भुजा के के यूरब ध के
थान म जो फड़कन पैदा ई, उसने उसके स देह को दूर कर दया। उस सवाग-सु दर
ि य राजकु मार के सामने जाकर राजकु मारी क गई। फू ले ए सहकार के पौधे को
पाकर भौर क पंि अ य पौध के समीप नह जाती।
जब सुन दा ने देखा क राजकु मारी का मन अज क ओर आकृ हो गया है, तब
वह राजवंश के वृ ा त म वीण ितहारी िव तार सिहत य कहने लगी–
इ वाकु के वंश म ककु थ नाम का एक वीर उ प आ, जो राजा म ककु द के
समान उ त और े था और च वत के ल ण से यु था। उ रकोसल देश के
शासक उसी वीर के नाम से ककु थ कहलाते ह। उस परा मी ककु थ के वंश म
यश वी और कु ल को उ वल करनेवाले उस राजा दलीप ने ज म िलया, िजसने
िन यानवे राजसूय य करके सौवां य के वल इसिलए अधूरा छोड़ दया क देवता
के राजा इ के मन को पीड़ा न प च ं ।े उसके रा यकाल म जब नाचनेवाली ि यां
थककर ड़ा- थान के म यमाग म सो जाती थ , तब वायु का साहस नह होता था क
उनके कपड़ को िहलाए, हाथ तो डाल ही कौन सकता था! उस राजा दलीप का पु
रघु अब शासन कर रहा है। स ाट् रघु ने दि वजय करके िव िजत् नामक य को पूण
कया और य क समाि पर चार दशा से एक ई िवभूित का दान कर दया,
िजससे उसके पास के वल िम ी के बतन शेष रह गए। उसका यश आज पृ वी क
सीमा को पार कर गया है। वह पहाड़ से ऊँचा चला गया है, समु से पार हो गया
और पाताल को छेदकर उसके भी नीचे फै ल गया है, जैसे वग के वामी इ का जय त
नाम का पु है, उसी कार यह कु मार राजा रघु का तेज वी उ रािधकारी है, जो िपता
के िलए शासनभार उठाने म समान प से सहायक हो रहा है। कु ल, काि त, चढ़ती आयु
और अनेक िव ा, शील आ द गुण म यह तु हारे समान है। हे राजकु मारी, तुम इसके
गले म वरमाला पहना दो। हीरा वण से िमल जाए।
सुन दा का वचन समा होने पर नैस गक ल ा को दबाकर इ दुमती ने स
और िनमल दृि से कु मार अज को इस कार वीकार कर िलया, मानो वरमाला पहना
दी हो। राजकु मारी वहां मु ध-सी होकर खड़ी रह गई। कु लीनता के कारण मुंह से कु छ न
कह सक । उसके मन क अिभलाषा का अनुमान के वल शरीर ापी रोमांच से हो रहा
था। यह देखकर ितहारी ने सखीभाव से प रहास करते ए कहा—आय, चलो आगे
चल। इसपर रोषभरी दृि से उसने सुन दा क ओर देखा और िनदश कया क
राजकु मार के क ठ म वरमाला पहना दे। ितहारी सुन दा ने शरीरधारी ेम के सदृश
मांगिलक िस दूर से र वण ई माला को अज के गले म पहना दया। िवशाल
व : थल तक लटकनेवाले उस मंगलमय पु प के हार को पहनकर राजकु मार ऐसा
अनुभव करने लगा मानो िवदभराज क क या क कोमल भुजाएं उसके गले का पश
कर रही ह ।
उस दृ य से अ य त स होकर िवदभ के िनवासी कहने लगे क मेघ से मु
उ वल च मा को चांदनी ा हो गई और शीतल समु म भगवती गंगा अवतीण हो
ग । ये वा य वयंवर म उपि थत अ य राजा को ब त कटु तीत ए। उस समय
वहां एक ओर वयंवर के सु दर प रणाम से क या-प के लोग ब त मु दत हो रहे थे,
तो दूसरी ओर िनराश राजा के मन म जलन पैदा हो रही थी। वयंवर-म डप क
दशा उस तालाब-सी हो रही थी, िजसम उषाकाल म एक ओर कमिलनी िखल रही हो,
दूसरी ओर कु मु दनी मुरझा रही हो।
अज का राजितलक

िवदभ का राजा भोज, वयंवर क समाि पर अपनी बिहन इ दुमती को लेकर


राजधानी क ओर ि थत आ। ात:काल के चांद तथा अ य न के समान मुरझाए
ए चेहर को िलए, िनराश भूपित लोग भी अपने-अपने डेर को रवाना हो गए।
वयंवर म वग के वामी इ क प ी शची वयं उपि थत थ , इस कारण ोधी होने
पर भी राजा लोग शा त रहे। उधर वर नये सजावट के सामान से सुशोिभत, इ धनुष
के समान रं ग-िबरं गे अधच ाकार तोरण से यु उस राजमाग पर प च ं ा, जहां दोन
ओर लगी ई वजा ने छ बनकर धूप को रोक रखा था। सोने के झरोख वाली
हवेिलय पर से उस सु दर युगल को देखने के िलए नगरी क मिहलाएं भांित-भांित से
तता कट कर रही थ ।
कसी कािमनी का के शपाश गवा पर जाने क घबराहट म खुल गया, उसपर
िलपटी ई माला का ब धन भी टू ट गया। पर वह तब तक उ ह बांध न सक और हाथ
से ही रोके रही, जब तक वह गवा पर न प च ं गई। कोई सु दरी पांव म महावर लगा
रही थी, इतने म वर-वधू क सवारी राजमाग पर आ गई। सु दरी एकदम तेज़ी से
झरोखे क ओर चल पड़ी, िजससे फश पर ला ारस क लाल रे खा खंच गई। कसी ने
अभी अपनी दािहनी आंख म अंजन लगाया था, बा आंख म लगाने के िलए शलाका
उठाई ही थी क देखने के िलए िखड़क के पास जाना पड़ा, शलाका हाथ म ही रह गई।
इसी कार वर-वधू को देखने क उ सुकता म नगर क रमिणयां अपनी वेशभूषा और
व ाभरण तक क सुध भूलकर िखड़ कय पर आ ग । उनके सुगि धत मुख और
चंचल ने को देखकर तीत होता था मानो कमिलिनय पर भ रे मंडरा रहे ह । जब
वे रमिणयां अज को देख रही थ , तब उनका यान और कसी ओर नह था। तीत
होता था क अ य सब इि य क वृि भी पूण प से च ु म ही वेश कर गई है।
राजकु मारी ने अ छा ही कया क दूर से ही िववाह के ताव भेजनेवाले
राजकु मार को छोड़कर वयंवर से पित का वरण कया, अ यथा ल मी के सदृश
राजकु मारी नारायण के सदृश रघुकुमार को कै से पाती? य द िवधाता इस सु दर जोड़े
को आपस म न िमलाता तो उसका पिनमाण का य थ हो जाता। तीत होता है
क राजकु मारी ने कसी पूव-ज म क मृित से ही राजकु मार का वरण कया है अ यथा
सह राजा का जमाव होने पर भी यह कामदेव और रित क जोड़ी कै से िमल
जाती? नगर-सु द रय क इस कार क मधुर बात सुनता आ राजकु मार मंगलसूचक
िविध-िवधान से सजे ए सुर के महल के ार पर प च ं ा।
ार पर प च ं कर राजकु मार अज हिथनी पर से उतरा तो काम प के राजा ने उसे
सहारा दया, िवदभ का राजकु मार उसे माग दखाता चला। अज जैसे राजधानी क
ना रय के दय म वेश कर गया था, उसी कार आंगन म भी िव हो गया। वहां
िववाहम डप म ब मू य संहासन सजा आ था, अज उसपर िवराजमान आ।
र ज टत पा म उसके िलए मधुपक और अ य तुत कया गया, और वधू के िपता
क ओर से दुप का जोड़ा दया गया।
मिहला क दृि य के साथ ही उसने इन सब व तु को भी सादर हण कर
िलया। जैसे पूणच क करण फे िनल समु के जल को उकसाकर बेला के पास ले
जाती ह, वैसे ही अ त:पुर के िवनीत प रजन दुकूलधारी वर को वधू के समीप ले गए।
वहां भोज देश के राजा ने पहले तेज वी पुरोिहत क िविधपूवक पूजा क । फर पुरोिहत
ने य कु ड म अ याधान करके उसम आ या द साम ी से होम कया और उस य ाि
को सा ी बनाकर वर-वधू का गठजोड़ा कर दया। राजकु मार अपने हाथ म वधू के हाथ
को लेकर ऐसे शाेभायमान हो रहा था, मानो आम का वृ अपने प लव से समीप थ
अशोकलता के वाल का हण कर रहा हो। उस एक ही ण म दोन म ेम क भावना
िभ -िभ प म कट ई। अज का शरीर रोमांिचत हो रहा था, और इ दुमती क
अंगुिलयां पसीज रही थ । दोन एक-दूसरे को सं कार क या के समय देखने को
उ सुक थे, पर तु ल ावश पूरी तरह नह देख रहे थे। आंख के कोने से देखने का य
करते और दृि यां िमलने पर उ ह पलट लेते थे। विलत य ाि क दि णा करते
ए वे दोन ऐसे तीत हो रहे थे, मानो सदा स ब दन और रात चमकते ए मे
पवत के इद-िगद घूम रहे ह । दि णा के प ात् पुरोिहत के आदेशानुसार वधू ने
लाजा क आ ित दी। आ य और लाजा क आ ितय से उठा आ सुगि धत धू
इं दम
ु ती के कान म कणाभूषण के समान शोभायमान हो रहा था। य ाि के धुएं के
कारण वधू क आंख म जल आ रहा था, कान म पहना आ बीजांकुर नाम का पु प
का गहना मुरझा गया था, और उसके कपोल लाल हो रहे थे। सं कार के अ त म अज
और इ दुमती पर ातक , स बि धय सिहत राजा और गृह थ ि य ने गीले अ त
बरसाए।
इस कार िविधपूवक बिहन का पािण हण-सं कार स पा दत करके िवदभराज
ने अिधका रय को आदेश दया क वयंकर म आए ए अ य नरे श का आदर-स कार
कर। नरे श के दय म जलन थी, और मुंह पर मु कराहट। उनक उस तालाब-सी गित
हो रही थी, िजसक सतह पर शाि त हो पर तु अंदर भयानक मगरम छ िवचर रहे ह
। भोजराज ने उ ह जो भट दी, उसे उपहार के प म वापस करके वे लोग राजधानी से
िवदा हो गए।
राजधानी से तो राजा लोग िवदा हो गए, पर तु उनके दल म खोट था। पूव-
िनि त इशारे के अनुसार कु छ दूर जाकर इ दुमती को छीनने के िलए हं ज तु के
समान ोध म भरे ए नरे श का दल माग रोकने के िलए एक हो गया। राजा भोज ने
भी अपनी बिहन का िववाह भली कार समा करके और अपने उ साह के अनुसार
उपहार देकर राघव को िवदा कया, और वयं पीछे-पीछे चला। भोज तीन पड़ाव तक
राजकु मार के साथ रहा। उसके प ात् अपनी राजधानी को लौट आया। राजा को
दि वजय के समय स ाट् रघु ने परा त कया था, और उनसे कर वसूल कया था, इस
कारण वे पहले से ही अस तु थे। अब वे इस बात से ितलिमला उठे क ीर भी उसी
के पु के हाथ लगा। फलत: उस अिभमानी राजा के दल ने इ दुमती को लेकर जाते
ए अज का रा ता रोक िलया।
राजकु मार ने भोज-क या क र ा का काय अपने िपता के म ी के नेतृ व म सेना
के सुपद कया, और जैसे उमड़ती ई गंगा के जल को शोणनद अपनी छाती पर ले लेता
है, उसी कार उसने श ु क महती सेना को थाम िलया। यु म बराबर क ट र
ई। पैदल-पैदल से िभड़ गया, घुड़सवार घुड़सवार से और गजा ढ़ गजा ढ़ से जूझ
गया। िबगुल बज रहे थे, इस कारण दोन ओर के यो ा जो अपने नाम और कु ल क
घोषणा करते थे, वह सुनाई नह देता था। उनक सूचना एक-दूसरे पर चलाए गए
बाण पर अं कत नामा द से ही होती थी। यु क भयानकता बढ़ती गई। घोड़ क
टाप से जो धूल उड़ी उसे रथ के च ने गहरा कर दया, और जब हािथय के िवशाल
कान ने उसे पंख क तरह िहलाकर फै लाया तो धूिल ने सूयम डल को ढक िलया।
आकाश इतना धूिल-धूस रत हो गया क रथ का अनुमान पिहए के श द से, हाथी का
अनुमान गले म बंधे ए घ टे के िननाद से, और यो ा का अनुमान अपने मािलक के
नाम क घोषणा से हो रहा था। सेना के संघष से उ प उस धूल के घोर अ धकार म
मरे ए घोड़ और हािथय का िधर- वाह उषाकाल क लािलमा क तरह चमक रहा
था। रणभूिम शी ही र से सराबोर हो गई िजससे धूिल क जड़ कट ग , और
आकाश म धूिल इस कार दीखने लगी जैसे बुझती ई आग का धुआं हो।
यु ने अ य त भयंकर प धारण कर िलया। श ु के श से बेहोश ए वीर जब
होश म आते थे, तब वजा को पहचानकर घायल करने वाले श ु को ही मारते थे।
वीर क बिल भुजा से फके ए बाण य द माग म श ु के बाण से काट भी दए
जाते थे, तो भी उनके अ भाग अपने ारि भक वेग से ल य तक प च ं ही जाते थे।
गजा ढ़ सैिनक के िसर तेज धारवाले च से काट दए जाते थे। तो भी येनप ी
के श को पंजा म दबोचकर उ ह ले आकाश म देर तक मंडराते रहते थे। फलत: वे पृ वी
पर ब त देर म िगरते थे। सं ाम क इस भीषणता म भी वीर यो ा ा -धम के
िनयम को नह भूलता था। जब उसके हार से िवरोधी घुड़सवार घोड़े क पीठ पर ही
मू छत हो जाता था, तब हता उसपर दूसरा हार न करके यह चाहता था क वह
शी ही होश म आए और बराबरी क लड़ाई हो। यु म मरे ए हाथी-सवार यो ा
क नंगी तलवार हाथ से छू टकर जब हािथय के दांत पर पड़ती थ तो आग उ प हो
जाती थी, जो म त हािथय के ग ड थल से बहते ए जल से शांत हो जाती थी। वह
यु -भूिम मृ यु क मधुशाला-सी बन रही थी। बाण से कटे ए यो ा के िसर फल
क तरह सज रहे थे, नीचे िगरे ए िशरोव याल क जगह थे, िजनम िधर सुरा के
समान ढल रहा था। कई ि य वीरगित को ा होने पर वगगामी िवमान म
अ सरा के संग आ ढ़ होकर आकाश से अपने ही कब ध को नाचता आ देख रहे थे।
यु क भीषणता का यह हाल था क दो यो ा सारिथय के मर जाने पर वयं ही
अपने रथ के सारिथ बन गए थे, घोड़ के मरने पर पैदल होकर, गदा के भी टू ट जाने
पर गु थमगु था हो गए। दो वीर ने एक-दूसरे पर इक ा ही हार कया, िजससे दोन
के इक े ही ाण िनकल गए, और दोन इक े वग म प च ं े तो वहां दोन म के वल एक
अ सरा क ाि के कारण िववाद िछड़ गया।
जैसे आगे और पीछे के तूफान क थपेड़े खाकर समु क लहर कभी ऊपर उठत ह
और कभी नीचे िगरती ह, उसी कार वे दोन सै य समूह मश: कभी िवजय क ओर
बढ़ते और कभी न होते दखाई देते थे। श ु ने अज क सेना को िछ -िछ कर
दया, तो भी अज तो श ु क ओर बढ़ता ही गया। वायु धुएं को उड़ा सकती है, पर तु
अि तो उधर ही जायेगी िजधर घास का ढेर है। वह मैदान म अके ला खड़ा रह गया,
पर तु रथ, तूणीर, कवच और धनुष आ द शि य से सुसि त वह उस बाढ़ को ऐसे
रोक रहा था, जैसे लयकाल म उमड़ते ए सागर के जल को िव णु के वराहावतार ने
रोका था। यु म उसका दािहना हाथ तूणीर से धनुष तक बाण को िनर तर शी
प च ं ाता आ अनेक प-सा दखाई देता था। उसके धनुष क कान तक खंची ई
यंचा मानो श ु का नाश करनेवाले बाण को ित ण ज म दे रही थी। उसने
अपने धनुष से मु बाण ारा काट-काटकर रण े ा म नरमु ड का ढेर लगा दया।
उन नर-मु ड के ह ठ ोध के मारे काटते-काटते लाल हो गए थे, यो रय क रे खाय
प प से चढ़ी ई थ , और अब तक भी मुंह म मानो क ं ार का श द भरा आ था।
अज का यह परा म देखकर राजा लोग सब सेना और सब शा ा ा क सहायता से
उसी पर आ मण करने लगे। जैसे कु हरे से ढके ए भात का अनुमान के वल धुंधले-से
सूय से लगाया जाता है, वैसे ही उस समय रथ के अ ारा ढके जाने पर उसका
अनुमान के वल वजा से लगाया जा सकता था। ऐसी संकटमय दशा म राजकु मार को
ि यंवद से ा स मोहना का मरण आया। उसने श ु क सेना पर उस अ का
योग कर दया। स मोहना का हार होने पर श ु क सेना क ऐसी दशा हो गई
क जो हाथ धनुष क यंचा ख च रहे थे वे वहां से छू ट गए, िशर ाण कं ध पर िगर
गए, और शरीर वजा के ख भे पर झुक गए। श ु क सेना सो गई। उस समय िवजयी
राजकु मार ने शंख उठाकर ह ठो से लगाया और ज़ोरदार िवजय- विन क , मानो उस
शंख के माग से भुजबल से रचाए ए िवशु यश का पान कर रहा हो। अपने सेनापित
के शंख वर को पहचानकर भागते ए यो ा लौटा आए और यह देखकर हष से फू ल
गए क राजकु मार तालाब म कु हलाए पंकज के म य म च मा के ित बंब क भांित
शोभायमान हो रहा था। मू छत नरे श के रथ-के तु पर राघव ारा अं कत कए ए
र रं िजत बाण मान नरे श से कह रहे थे क तु हारा के वल यश छीना गया है, ाण
नह , इसका कारण कृ पा है, अशि नह ।
बेचारी इ दुमती सं ाम क भयानकता से घबरा-सी रही थी। यु से जीतकर जब
राजकु मार वधू के पास आया, तब उसका एक हाथ धनुष क को ट पर रखा आ था,
के श-समूह िशर ाण म से िनकलकर कपोल पर फै ल रहा था और माथे पर पसीने क
बूंदे झलक रही थ । राजकु मार ने इ दुमती से कहा–इन राजा को देखो, अब ब ा भी
इनके हिथयार छीन सकता है। ये लोग इसी बहादुरी के बल पर मुझसे तु ह छीनना
चाहते थे।
दपण पर से सांस क भाप को दूर कर देने से जैसे मनु य का चेहरा प दीखने
लगता है, उसी कार श ु का भय हट जाने से इ दुमती का चेहरा भी स और
दीखने लगा
आज क िवजय से इ दुमती ब त स ई, जो भी हो, उसने अपनी स ता
प प से कट नह क । जैसे आषाढ़ क वृि से तृ ई भूिम बादल का अिभन दन
मयूरी के का-श द से करती है, वैसे ही राजकु मारी ने ल ावश राघव का अिभन दन
सिखय ारा कया।
इस कार स ाट रघु का पु िवरोधी राजा के म तक पर पांव धरकर उस
िनद ष राजकु मारी को घर ले आया। सेना के अ के खुर से उठे ए रे णु ने इ दुमती
के सु दर के श को सुखा कर उसे सा ात अज क िवजय-ल मी का प दे दया था।
रघु को अज क िवजय का वृ ा त पहले ही िव दत हो गया था। िवजयी पु के
उ म वधू सिहत राजधानी म प च ं ने पर स ाट् ने उसका हा दक अिभन दन कया
और सम त प रवार और रा य का भार उसके क ध पर डालकर वयं शाि त माग का
अवल बन कया। यह सूयवंशी राजा क कु ल था थी क पु के समथ हो जाने पर वे
गृह छोड़कर तपोवन के िनवासी बन जाते थे।
अज का वगवास

रघु ने अज क कलाई पर िववाह-सू बंधने के साथ ही उसके हाथ म पृ वी का


राजद ड भी स प दया। िजस रा यल मी को पाने के िलए राजपु भयानक दु कम
करने म भी संकोच नह करते, उसे अज ने िपता का आदेश समझकर ही हण कया,
भोग क तृ णा से े रत होकर नह । जब विस मुिन ने राजितलक के अवसर पर, जल
से अज और वसुधा का साथ ही साथ अिभषेक कया, तब वसुधा भी मानो खुली सांस
लेकर उ म पित ा होने से उ प ए आन द को सूिचत करने लगी। अथववेद म
िविहत िविध-िवधान के वे ा विस मुिन ारा अिभषेक कए जाने पर अज श ु क
प चं से बाहर हो गया। जब ा ण का ानबल और ि य का अ बल पर पर िमल
जाते ह, तब दोन एक-दूसरे के सहायक बने ए अि और पवन के समान अस हो
जाते ह। अज अपने िपता के समान ही गुणवान था। जा को उसे पाकर ऐसा भान होने
लगा मानो रघु ही फर से युवा हो गया है। जनता म अज इतना लोकि य था क रा य
का हर एक ि अपने को राजा का िवशेष कृ पापा समझता था। जैसे समु सभी
न दय को समान प से मान-पूवक हण कर लेता है, वैसे ही रघु के िलए भी सारी
जा समान थी। जैसे वायु वृ को झुका देती है, पर तु जड़ से उखाड़कर नह फक देती
वैसे ही अज श ु के िलए न तो अ य त कठोर था, और न अ य त नम ही। वह
म यमाग का अनुयायी था। सदा अ य शि य को दबाकर रखता था, पर तु सवथा न
नह करता था।
रघु ने जब देखा क अज को जाजन ने ेम से अपना िलया है तो वह इस लोक
के तो या, वगलोक के सुख क ओर से भी उदासीन हो गया। उसने मुिनय के यो य
बाना पहन िलया। जब अज ने यह सुना तो तपोवन म जाकर अपने मुकुट-सुशोिभत
िसर को िपता के चरण म झुका दया, और यह ाथना क क मेरा प र याग न
क िजए। ा से क गई पु क उस ाथना को रघु ने वीकार कर िलया, और यह
संसार का याग न कया, पर तु राजकाज म भाग लेने से इ कार कर दया। जैसे सांप
उतारी कचुली को फर से नह पहनता, वैसे ही तप वी रघु ने भी छोड़े ए रा य को
हण नह कया। नगर के बाहर, एका त थान म रहकर वह योग साधना म लीन हो
गया, और कु छ समय प ात् समािध ारा शरीर याग कर परमपद को ा हो गया।
अज ने जब िपता के याण का समाचार सुना तो िचरकाल तक आंसू बहाकर मृत शरीर
क अि तम या िभ ु के समान अि रिहत प ित से क ।
शरीर क अिन यता का िवचार करके वीर अज ने शी ही शोक का प र याग कर
दया और अपना सारा यान जा के पालन म लगा दया। यो य पित के ा होने से
पृ वी र क और महारानी इ दुमती पु क जननी हो गई। अज का पु सह
करण वाले सूय के समान तेज वी था। उसका यश दश दशा म ा होने वाला
है, यह िवचार करके िपता ने उसका नाम दशरथ रखा। वह िव ा ारा ॠिषॠण, य
ारा देवॠण और स तान ारा िपतृॠण को चुकाकर उॠण हो गया। मानो सूय
हण-म डल से मु हो गया हो। अज का वैभव और गुण दोन ही अ य के िलए थे।
शि ारा वह दु:िखय के दु:ख का िनवारण करता था तो उसक िव ा िव ान के
स कार के काम म आती थी।
एक बार जा क सुख-समृि और उ म स तान क ाि से िनि त होकर वह
नगर के समीप, न दन के समान एक सु दर उपवन म, शची-सिहत इ के सदृश
आन द-िवहार कर रहा था। उसी समय नारद मुिन दि ण-समु के तटवत गोकण
नामक थान क ओर महादेव क आराधना के िलए जाते ए आकाश-माग से गुजरे ।
अक मात् वेगवान वायु ने वीणा के अ भाग पर टंगी ई द पु प क माला का
संभवतः उसक सुग ध के लोभ से अपहरण कर िलया। उस माला क सुग ध के लोभ से
जो मर क पंि उसके पीछे-पीछे चली, वह मानो पवन ारा अपमािनत मुिन-
वीणा क आंख के अंजन से काली अ -ु माला थी। द पु प क माला पा थव पु प
क ॠतुज य िवभूित को परा त करती ई नीचे आई और ठीक रानी इ दुमती क
छाती के म य भाग पर िगरी।
उर: थल पर िगरी ई माला को ण-भर तो इ दुमती ने देखा, फर आंख ब द
कर ल । उस आघात को वह सह न सक । वह अचेत होकर िगर गई, और जैसे दीपक का
िगरता आ तेल उसक लौ को भी साथ ले जाता है, वैसे ही पृ वी पर िगरती ई
इ दुमती ने पित को भी भूतल पर िगरा दया। उनके िगरने पर समीपवत सरोवर के
प ी मानो सहानुभूित से शोर मचाने लगे। इस पर प रजन लोग वहां प च ं गए, और
अज तथा इ दुमती को होश म लाने का य करने लगे। अज को तो होश आ गया, पर
इ दुमती सचेत न ई। उपाय भी तभी सफल होते ह जब आयु शेष हो। तार-रिहत
बीणा के समान िन:श द और िनज व इ दुमती को गोद म उठाकर जब अज वहां से
चला, तब ऐसे तीत होता था मानो भातकाल म मिलन मृगलेखा को धारण कए
च मा आकाशमाग से जा रहा हा। इ दुमती के िवयोग म अज क वाभािवक धीरता
जाती रही, और वह साधारण मनु य क तरह िवलाप करने लगा। ठीक भी है, अिधक
गम िमलने पर लोहा भी कोमल हो जाता है, शरीर का तो कहना ही या?
वह इस कार िवलाप करने लगा–य द पु प का स पक भी मनु य के ाण ले
सकता है तो और कौन-सी व तु है िजसे हार क इ छा होने पर िवधाता अपना साधन
नह बना सकता। अथवा िवधाता का ढंग ही ऐसा है, वह कोमल व तु का संहार कोमल
श से ही करता है। वह कमल क कोमल पि य को मारने के िलए ओस क शीत बूंद
को काम म लाता है। पर तु आ य है क म इस माला को अपने दय पर रखता ं तो
यह मुझे नह मारती। यह भी ई रे छा है। जो व तु एक के िलए िवष है, वही दूसरे के
िलए अमृत हो जाती है। यह मेरे भा य का ही दोष था क जब िबजली िगरी तो वृ
बच गया, और उस पर आि त लता न हो गई। ि ये, य द मुझसे कोई बड़ा अपराध हो
गया, तो भी तूने मेरा कभी अपमान नह कया। इस समय तो मुझसे कोई अपराध भी
नह आ। फर बोलना य छोड़ दया? पर तु यह या, पवन से तेरे पु प-सुगि धत
घुंघराले के श िहल रहे ह। मुझे ऐसा तीत होता है क तू जाग पड़ेगी। हे ि ये, जाग,
उठ, और जैसे रात के समय गुफा म फै ले ए अ धकार को तृण योित नाम क औषिध
न कर देती है, वैसे तू मेरे दय के िवषाद को न कर दे। हे दियते, भात के समय
अलग होकर सांझ के प ात् राि च मा को िमल जाती है और चकवी रात-भर अलग
रहकर भात-काल चकवे के पास आ जाती है। इन दोन के िवरह का अ त हो जाता है,
पर तु तेरा िवयोग तो अन त है– या वह मुझे न जलायेगा? जीवन-काल म ही मेरे िलए
तूने अपने गुण अथ म सि िहत कर दए थे। जैस,े को कल म मधुर क ठ वर, कलहंसी
म म त चाल ह रिणय म चंचल दृि , पवन से िहलती लता म सुंदर हाव-भाव पर तु
सब तेरे समान ही अ छे लगते थे। अब तेरे अभाव म ये के वल दु:ख को बढ़ाने के कारण
ह गे । वा टका म तूने आम के वृ और ि यंगु लता को इस संक प से बड़ा कया था क
उनको िववाह के ब धन म बांधेगी। अभी वे दोन ही कुं आरे ह। आज म िब कु ल लुट
गया। धैय का बांध टू ट गया, हंसी-खेल िवदा हो गए, संगीत शांत हो गया, ॠतु म
कोई आनंद न रहा, ये सुंदर अलंकार थ हो गए, और मेरी सेज खाली हो गई। मुझे
तुमसे पृथक् करके िवधाता ने सभी कु छ तो हर िलया–तू मेरी गृिहणी थी, प ी थी,
अतरं ग सहेली थी, और संगीता द लिलत कला म मेरी ि य िश या थी। बस, ि ये!
सब ऐ य होते ए भी मेरे आमोद- मोद तो तेरे साथ समा हो गए। अब तो के वल
सांस लेते ए जीना ही शेष है।
अपनी ि या के िवयोग म कोसल देश के वामी का यह िवलाप इतना
क णाजनक था क शाखा के िवत होने से रस बहने लगा, िजससे वृ भी आ हो
गए। प रजन लोग ने कसी कार इ दुमती के शव को अज क गोद से लेकर उसक
च दन, अगर आ द सुगि धत व तु ारा अ येि या कर दी। राजा ने ि या के
साथ ही िचता म वेश नह कया। इसका यह कारण नह था क उसे अिधक जीने क
इ छा थी, अिपतु यह था क संसार यह कहेगा क कत छोड़कर ी के पीछे चला
गया।
िजस समय अ येि के प ात् क सब या को उपवन म ही पूरा करके दस
दन के प ात् राि तीत हो जाने पर िन तेज च मा के सदृश अज ने राजधानी म
वेश कया, उस समय उसे नगर क ि य के आंसु म मानो सीमा का अित मण
कए ए अपने दु:ख के अवशेष दखाई दए।
जब य के िलए दीि त विस मुिन को अज क िवकलता के समाचार िमले, तब
उ ह ने अपने िश य ारा उसे सा वना-स देश भेजा। विस के िश य ने अज से कहा–
य आर भ हो चुका है। उसक समाि से पहले मुिन आ म से नह हट सकते।
इस कारण उ ह ने अपना स देश देकर मुझे आपके पास भेजा है। उसे सुनो, और दय म
धारण करो। मुिन समािध ारा भूत, भिव य और वतमान, तीन काल को जानते ह।
कु छ समय पूव, तृणिब दु नाम के एक ॠिष घोर तप या कर रहे थे। उनक परी ा
करने के िलए देवराज ने ह रणी नाम क अ सरा को उनके पास भेजा। ह रणी ने आ म
म जाकर जब तप के िवरोधी हाव-भाव दखाए, तब ॠिष क शांित का बांध टू ट गया।
और उ ह ने ोध म आकर शाप दे दया क तू मनु य-लोक म ज म ले। बेचारी ह रणी
ने ॠिष के चरण म िगरकर िनवेदन कया क मने जो कु छ कया है, वामी क आ ा
से कया है, और मा मांगी तो ॠिष को दया आ गई, उ ह ने शाप को नम कर दया।
उ ह ने कहा क जब तु ह वग य पु प के दशन ह गे, तब तुम शाप से छू ट जाओगी। वह
अ सरा थकै िशक राजा के वंश म इ दुमती नाम से उ प ई, और तु हारी प ी
बनी। आकाश से िगरे ए वग य पु प के हार ने उसे शाप से मु कर दया। इससे
तु ह दु:खी न होना चािहए, और न इस िच ता म अपने को घुला देना चािहए। जो ज म
लेते ह उन पर आपि यां तो आती ही ह। तु ह पृ वी क पालना म लगना चािहए,
य क पृ वी ही राजा क असली प ी है। अपने अ युदय के समय म अिभमान का
याग करके तुमने िजस धीरता का प रचय दया था, आपि के समय म साहस को न
छोड़कर उसका पुन:प रचय देना चािहए । रोकर भी तुम उसे कहां पा सकोगे? परलोक
गए ए जीव अपने कम के अनुसार िभ -िभ योिनय म ज म ले लेते ह। हे राजन्,
यह मरण रखो क मरना मनु य का वाभािवक धम है, और जीना कृ ि म है। मनु य
य द ण-भर भी जी लेता है, तो यह लाभ क बात है, यह भी सोचने क बात है क
जब मनु य के जीव और देह का मेल ही टू ट जानेवाला है, तो ब धु-बा धव का मेल
अटू ट कै से हो सकता है? फर उनके िवयोग म दु:ख कै सा? हे भूिमपाल, तु ह साधारण
ि य क भांित शोक से त होना शोभा नह देता। पेड़ और पवत म फर भेद ही
या है, य द दोन ही वायु के झ के से कि पत होने लग?
‘ऐसा ही होगा’ यह कहकर अज ने गु के िश य को िवदा कर दया, पर तु गु का
स देश उसके शोकपूण दय म घर न कर सका, इस कारण वह भी िश य के साथ ही
मानो गु के पास चला गया। बालक क आयु अभी कम थी, इस कारण इ दुमती के
िच और व -दशन ारा कसी तरह दल बहलाकर अज ने आठ वष काटे। उसके
प ात् जैसे ठु का आ क ल भवन के फश को तोड़ देता है, शोक ने उसके दय को ब ध
दया, और ि या के पास शी जाने का साधन मानकर वह मृ यु का भी वागत करने
लगा। भली कार सुिशि त और सं कारयु कु मार को रा य का भार स पकर, रोगी
शरीर का प र याग करने के िलए उसने आमरण अमशन का आ य िलया, और गंगा
तथा सरयू के संगम पर शरीर का यागकर वगलोक के न दन-वन म ि या के साथ
िवचरण का अिधकार ा कर िलया।
पु -िवयोग का शाप

िपता के प ात्, िजतेि य राजा के चरणिच पर चलते ए दशरथ ने उ रकोसल


देश पर शासन कया। उनके शासन म जा अ य त स तु थी। अ दर के रोग और
बाहर के श ु का कोई भय नह था। दशरथ के शाि तमय, तेज वी शासन के कारण
पृ वी भरपूर अ -फल दान करती थी। रघु क दश दशा को जीतकर एक क
ई िजस ी क र ा अज ने क थी, परा मी दशरथ के समय म भी उसक शोभा घटी
नह । वह मानो भूिम पर देवता का थानाप था। वह दु का दमन करने के कारण
यम था, धन क वषा के कारण कु बेर था, और खेती के िलए जल क व था करने के
कारण व ण का ितिनिध बना आ था। उसे न िशकार का अिधक शौक था, और न
जुए अथवा शराब का सन था। नवयौवना ि यतमा क आसि भी उसे कत के
माग से युत नह कर सकती थी। दशरथ ने देवता के राजा के सामने भी कभी दीन
वचन नह कहा, उपहास म भी कभी झूठ नह बोला और श ु से भी कठोर भाषा का
योग नह कया। राजा लोग उससे अभय और अ दोन का पाठ सीखते थे।
अनुकूलव तय का वह सु दय अथात् गहरा िम था, और िवरोिधय के िलए वह व
के समान कठोर दयवाला था।
उसने चतुरंिगणी सेना लेकर एकाक ही समु पय त भूिम पर िवजय ा क ।
कु बेर के समान स पि शाली दशरथ क िवजय-दु दुिभ समु क उमड़ती लहर के
ग भीर नाद म सुनाई दे रही थी। श ु के नाश के कारण िवधवा ई राजपि य और
मंि य क ेरणा से ब ांजिल होकर आए राजकु मार क ाथना से िवत होकर
दशरथ ने समु -तट पर प च ं कर अपनी िवजय-या ा ब द कर दी, और सेना के साथ
अलका के समान सु दर अयो या नगरी म लौट आया ।
अि के समान तेज वी और च मा के समान शीतल होने के कारण अ य त
सफल च वत राजा होता आ भी, यह सोचकर क ल मी अ य त चंचला है, वह सदा
सावधान और भाव-रिहत होकर शासन करता था। जैसे ऊँचे पवत से उ प ई
न दयां िवशाल समु को ा होती ह, वैसे ही कोसल, के कय और मगध के िति त
राजा क पुि यां दशरथ को प ी- प म ा ।
अक मात् वगलोक पर असुर ने आ मण कर दया। देवता के राजा इ ने
अपनी सहायता के िलए च वत दशरथ को िनम ण भेजा, िजसे वीकार करके
दशरथ ने यु म असुर को परा त कया और देवता क पि य का आशीवाद ा
कया। राजा जा, म ी और उ साह इन तीन राजशि य के समान तीन पि य से
यु थे। श ु को जीतने म कु शल राजा दशरथ वग के राजा इ के समान
शोभायमान होने लगे। इ के श ु को परा त करने के कारण उसके िवजय-संगीत
िनभय ई अ सरा के मुंह से सुनाई देने लगे। तब उस िवजेता ने मल का नाश
करनेवाली तमसा नदी के तट पर पधा- प म सुशोिभत य का आयोजन कया।
दि वजय और राजसूय य के कारण उसका पद इतना ऊँचा हो गया क इं के
अित र अ य कसी के सामने उसका िसर नह झुकता था।
शरद् क समाि पर मानो उ र दशा क या ा करने के िलए भगवान भा कर ने
मलयाचल से याण कर दया। पहले पु प िखले, फर वन पितय ने क पल को ज म
दया, उसके प ात् भ र और को कल क विनयां सुनाई देने लग , और अ त म हरी-
भरी वन थली को पार करके भूतल पर सुहावनी वस त ॠतु शोभायमान हो गई। दय
म उमंग उ प करनेवाले वस त ॠतु के भाव क रे णा पाकर राजा दशरथ ने
िशकार के िलए जाने का िन य कया। िशकार से उसका यह उ े य नह क सन क
पू त करे , अिपतु वह चलते ए ल य पर िनशाना लगाने के अ यास और ोध के समय
उनक चे ा के अ ययन, और प र म ारा शरीर को ह का और फु त ला करने के
िलए मृगया करना चाहता था। मृगया के िलए जाने से पहले उसने अपने मि य क
अनुमित भी ा कर ली थी। मृगया के अनुकूल वेश धारण करके और िवशाल धनुष को
हाथ म लेकर जब वह अ ारोही अनुयाियय के आगे-आगे वन क ओर चला तो खुर से
उठी ई धूिल से आकाश आ छा दत हो गया। राजा ने अपने िसर के के श को लता से
बांध रखा था, वृ के सदृश रं ग वाला कवच धारण कया आ था, और घोड़े क चाल
के साथ उसके कान के कु डल िहलते थे। इस वेश म वह ब त ही शोभायमान हो रहा
था। िशकार के िलए राजा के जंगल म घुसने से पहले वहां िशकारी कु और मृग को
बांधनेवाली रि सय को लेकर िशकारी लोग प च ं चुके थे। आग और चोर क आशंका
का उपाय कर िलया गया था, घोड़ के भोगने के यो य माग बना दए गए थे और
थान- थान पर याउ क व था कर दी गई थी।
राजा कई दन तक िशकार म लगा रहा। उसने जंगली सुअर , ह रण , संह और
शेर का ल य बनाने म सफलता ा क । एक दन ह रण का पीछा करता आ राजा
अके ला पड़ गया, और थकान के कारण मुंह से झाग िनकलते ए घोड़े को भगाता आ
तपि वय ारा सुशोिभत तमसा नदी के तट पर आ प च ं ा । यहां उसे दूर से आता आ
एक गंभीर श द सुनाई दया, िजसे उसने हाथी क विन समझा और जंगली हाथी को
मारने के िलए श दवेधी बाण का योग कया। वह श द व तुत: नदी से घड़े म पानी
भरने का था। जब मनु य क आंख पर रजोगुण का पदा छा जाता है, तब उसक बुि
कत ाकत का िवचार नह कर सकती। ि य के िलए हाथी का वध िनिष है।
आखेट के जोश म दशरथ वही कर बैठा। उसका फल ब त ही िवकट आ। ‘हा तात!’
का क णाजनक श द आकाश म गूंज गया। उसे सुनकर दशरथ ल य थान पर प च ं ा तो
देखा क बतो के झुरमुट म एक-मुिन कु मार घायल पड़ा है। उसे देखकर राजा के दय म
भी तीर-सा चुभ गया। राजा ने घोड़े से उतरकर घड़े के सहारे पड़े ए उस तप वी
कु मार से प रचय पूछा तो उसे ात आ क तपि वनी शू ा माता के गभ से उ प
आ तप वी िपता का पु वणकु मार है। मुिन कु मार के कहने से राजा उसे उठाकर
उसके अ धे माता-िपता के पास ले गया, और वहां अपना पूरा प रचय देकर यह
िनवेदन कया क यह पाप मुझसे अ ानवश आ है। पु क दशा जानकर बूढ़े माता-
िपता ने ब त िवलाप कया, और राजा को ेरणा क क वह बालक के शरीर से शर को
िनकाल द। शर के िनकालते ही खून क धारा बह िनकली, िजससे कु मार का शरीर
ठ डा हो गया। तब ु िपता ने अपनी आंख के जल को अंजिल म लेकर दशरथ को
शाप दया।
िपता ने कहा–जैसे बुढ़ापे म म पु -िवयोग म ाण छोड़ रहा ं वैसे तू भी पु -
िवयोग म ही ाण छोड़ेगा।
इस शाप को सुनकर दशरथ दु:खी भी आ और सुखी भी। उसके कोई स तान नह
थी। उसने मुिन से कहा–भगवन्, मुझ स तानहीन को ऐसा शाप देकर आपने एक कार
से यह वरदान भी दे दया है क मेरे स तान होगी। ऐसा भी है क जंगल को जलाकर
राख कर देनेवाली आग वहां क भूिम को उ म कृ िष के यो य बना देती है। राजा ने
फर िनवेदन कया क म अपराधी होने के कारण वध के यो य ।ं आ ा दीिजए, म
आपक इ छा पूरी क ं गा। मुिन ने यह इ छा कट क क पु के साथ ही प ी सिहत
िचता म भ मीभूत होने के िलए धन क व था कर दी जाए। इस समय अनुचर वहां
प चं गए थे। उनके ारा राजा ने उन तीन क अ येि क व था कर दी, और शाप
के बोझ से दबा आ दु:ख लेकर राजधानी को वापस आ गया। उस समय उसक दशा
उस समु जैसी थी, िजसके अ दर जलाने क शि रखने वाला बड़वानल िछपा आ
हो ।
राम-ज म

इ के समान तेज वी तथा तापी राजा दशरथ को पृ वी का रा य करते ब त वष


तीत हो गए। पर तु उसे िपतृ-ॠण चुकाने का एकमा साधन पु ा न आ।
म थन से पूव भी समु म र थे, पर तु िनिम न होने के कारण वे कट न ए। उस
समय राजा दशरथ क भी ऐसी ही दशा थी। तब राजा को स तान ा हो, इस उ े य
से ॠ य ृंगा द ॠिषय ने पु ेि य का आयोजन कया।
िजस समय यह य आर भ आ उसी समय, जैसे धूप से बचने के िलए राही लोग
वृ के पास जाते ह, रावण के अ याचार से सताए ए देवगण िव णु भगवान के पास
जा प च ं ।े जब देवगण ीरसमु म प च ं ,े तो भगवान क न द खुल गई। य द भट म देर
न हो, तो समझ लो क कायिसि होगी। देवता ने झुककर भगवान को णाम कया
और तुित-वा य ारा उनके असुरिवनाशक तथा वाणी और मन के अगोचर प का
इस कार अिभन दन कया–
सृि क रचना, पालन और संहार करने के कारण ा, िव णु और िशव इन
तीन नाम से मरण कए जाने वाले भगवान, तु ह नम कार हो। जैसे वषा का जल
पृ वी पर आकर देश-देश के िवकार को अपना िह सा बनाकर भी वयं जल ही रहता
है, वैसे तुम भी सब व था म रहते ए वयं िन वकार रहते हो। तुम अप रिमत हो,
पर तु संसार तुमसे प रिमत है। तु ह कु छ नह चािहए, पर तु तुम सब स न क
अिभलाषाएं पूण करते हो। तु ह कोई नह जीत सकता, पर तु तुम सबको जीते ए हो,
और तुम वयं सू माितसू म होते ए भी थूल सृि के कारण हो। योगा यास ारा
मन को अ तमुख करके योिगजन तु हारे योितमय प को देखने का य करते ह।
अनेक कार के मत-मतांतर मानने वाले साधक लोग समु म िगरने वाली गंगा क
अनेक धारा क भांित एक तु ह को ा हो जाते ह। जैसे िस धु के गभ म वतमान
र िगने नह जा सकते, और जैसे सूय क करण असं य ह, वैसे ही हे भो, तु हारे
गुण क तुलना नह हो सकती। तु हारी मिहमा का वणन करके मौन हो जाना पड़ता
है; उसका कारण यह नह क तु हारी मिहमा का अ त है अिपतु यह है क हमारी तुित
करने क शि सीिमत है।
इस कार देवता ने भगवान िव णु को तुित ारा स कया। वह तुित या
थी, के वल भगवान के स े गुण का वणन था। तुित के प ात् कु शल करके
देवता ने संसार के उस संकट का वणन कया, जो अकाल- लय के समान उमड़ते ए
रावण पी समु से हो रहा था। देवता का िनवेदन सुनकर समु -तट के पवत क
गुफा से ित विनत होते ए वर से भगवान बोले–
हे देवगण, जैसे तमोगुण सत् और रज को परा त कर देता है, वैसे ही रावण ारा
आप लोग के परा त होने क बात मुझे मालूम है। माद के कारण पाप से कु चले गए
मन क भांित आप लोग का रावण ारा दिलत होना मुझे िव दत है। हम दोन का एक
ही ल य है, इस कारण देवराज ने मुझसे रावण के नाश क ाथना नह क , ठीक भी है!
जब जंगल म आग लगती है तब वायु िनम ण के िबना ही उसका सारिथ बन जाता है।
अपने दु कम से रावण ने अपना िसर मानो मेरे च का ल य बना दया है। जैसे
च दन का वृ अपने साथ सप के स पक को यह समझकर सह लेता है क िवधाता क
ऐसी इ छा है, वैसे ही मने रावण क अब तक के वल इसिलए उपे ा क है क उसे ा
का वर ा है। उसने अपने तप से संतु करके ा से यह वर मांगा था क ‘मुझे
देवता से अभय ा हो ।’ मनु य को तु छ जानकर उससे अव यता के वर क
याचना नह क थी। सो म दशरथ के घर म ज म लेकर रावण का नाश क ं गा–म
रण े क बिलवेदी पर उसके कटे ए िसर पी कमल क भट चढ़ाऊंगा। तुम लोग
घबराओ नह । शी ही पृ वी पर य ा द याएं िन व प म होने लगग । आकाश
म िवचरण करने वाले लोग पु पक के डर को छोड़ िनभय प से मेघ-रिहत अ त र म
िवहार कर सकगे।
रावण पी दु भ के आंतक से कु हलाए ए देव-श य को अपनी आशाभरी
वाणी के अमृत से स चकर वह अ यायहारी मेघ ितरोिहत हो गए।
राजा दशरथ का जो पु ेि य हो रहा था, उसके अ त म पा म च लेकर एक
द पु ष उपि थत आ। उसने इस सूचना के साथ वह च महाराज को दया क इसे
रािनय को खाने के िलए बांट दया जाए। महाराज ने च का आधा-आधा भाग
पटरानी कौश या और ि या कै के यी को देकर उ ह इशारा कया क सुिम ा को भी बांट
दो। दोन रािनय ने महाराज के आशय को समझकर अ य त सौज य से अपने दोन
भाग म से आधा-आधा सुिम ा को भी दे दया। मद पर झूमनेवाली मरी हाथी के
म तक के दोन ओर बहनेवाली मदरे खा को समान प से यारी होती है। इसी
कार सुिम ा दोन रािनय को एक-सी यारी थी।
राजपि यां यथासमय गभवती । उस दशा म उ ह जो व आए, वे अ य त
मंगलसूचक थे। उ ह अपने चार ओर शंख, च , गदा और धनुष धारण करने वाली
मू तयां दखाई देती थ । उ ह तीत होता था क वे आकाश म सुनहले पंख से तेज को
फै लानेवाले और पंख के वेग से मेघ को िवचिलत करनेवाले सुवण-ग ड़ पर सवारी
कर रही ह। प प से हवा करती ई, कौ तुभधा रणी ल मी उनक सेवा म संल है।
आकाशगंगा म ान करके िवशु ए ष वेदपाठ करते ए उनक उपासना कर रहे
ह। इस कार के व को सुनकर राजा मन ही मन स होता था। उसे अनुभव होता
था क जैसे एक ही च मा िवशु जल म ितिबि बत होकर अनेक प म दखाई
देता है, वैसे ही एक भगवान अनेक प धारण करके पि य के गभ म िव मान ह।
समय आने पर पटरानी कौश या ने राि के अ धकार को न करने वाली योित
के समान तेज वी बालक को ज म दया। बालक क सु दरता से भािवत होकर राजा
ने उसका, संसार के िलए मंगलकारी ‘राम’ यह नाम रखा। रघुवंश के उस दीपक के
जलने पर सूितकागृह के सब दीप मानो आभाहीन हो गए। कै के यी के भरत नाम का
सुशील बालक उ प आ। जैसे न ता के संसग से ऐ य क शोभा बढ़ जाती है, उस
पु के संसग से माता क शोभा भी सौ गुणी हो गई। सुिम ा के गभ से जोड़ा उ प
आ–उन दोन के नाम ल मण और श ु रखे गए। उन बालक के ज म लेने पर
आकाश म देवता और पृ वी पर कृ ित ने आन द कट कया। य तो वे सभी एक-
दूसरे से गहरा ेम करते थे, पर तु उनम से भी राम और ल मण तथा भरत और श ु
म पर पर असाधारण ेम था, जैसे वायु और अि का और चांद और समु का पर पर
आकषण अटू ट है, वैसे उन युगल का भी था।
दै य क अिस-धारा को तोड़ देने वाले चार दांत से जैसे ऐरावत, साम, दाम,
द ड, भेद इन चार उपाय से जैसे नीित और घुटन को छू नेवाली ल बी चार भुजा से
जैसे िव णु शोभायमान होते ह, वैसे ही वह च वत राजा उन तेज के पुंज चार पु से
शोभायमान हो रहा था।
राम-िववाह

ॠिष िव ािम के आ म म य हो रहा था, रा स लोग उसम िव उ प करते थे।


य िप राम अभी ब े ही थे, और उनके िसर पर क बाल िशखा भी नह कटी थी, क
ॠिष ने महाराज दशरथ के पास जाकर य क र ा के िलए राम को भेजने क मांग
क । तेजि वय का तेज देखा जाता है, आयु के दन नह िगने जाते। महाराज ने इ छा न
रहते भी ॠिष के आ ह पर राम और ल मण को उनके साथ भेज दया। रघुकुल क यह
पुरातन प ित थी क मांगनेवाले य द ाण क याचना भी कर तो भी िनराश नह
होते थे। महाराज राजकु मार क या ा को मांगिलक करने के िलए अभी नगर के माग
क सफाई और सजावट के स ब ध म आ ा दे ही रहे थे क पु पग ध से यु जल
बरसानेवाले बादल ने वायु के साथ आकर उ ह स च दया। जब दोन धनुषधारी भाई
जाने के समय िपता के चरण म झुके तब उनके िसर पर िपता क आंख से िनकलते
ए िवयोगा ु टपक रहे थे। ॠिष के वल राम और ल मण को ही अपने साथ ले जाना
चाहते थे, सेना को नह । इस कारण महाराज ने दोन पु को आशीवाद दया, वही
उनका कवच बन गया। ॠिष के साथ जाते ए दोन भाइय ने माता को णाम
करके आशीवाद ा कया।
माग म ॠिष ने राजकु मार को बला और अितबला नाम क िव ा का उपदेश
कया। उसम उनका िच ऐसा म हो गया क मिणमय माग पर चलने के अ य त
राजकु मार के िलए कं टीले माग ऐसे बन गए मानो माता के आसपास क भूिम हो।
माग म ॠिष उ ह पुराने इितहास भी सुनाते गए िजसम उ ह थकान का अनुभव न
आ। जब वे आ म म प च ं े तो तप वी लोग को देखकर उ ह जो स ता ई वह न
कमल से सुशोिभत जलाशय को देख कर ई थी, और न माग क थकान को हरनेवाले
छायावाले वृ को देखकर। ॠिष िव ािम का वह आ म, जहां कसी दन महादेव
के कोप से कामदेव के शरीर का दाह आ था, राजकु मार के काम-सदृश सु दर शरीर
से एक बार फर सुशोिभत हो उठा।
माग म एक जंगल था, िजसम अग य ॠिष के शाप से दा ण प ताड़का िनवास
करती थी, और तपि वय को दु:ख देती थी। जब दोन भाई वहां प च ं े तो उ ह ने धनुष
पर यंचा चढ़ा ली, और चौक े हो गए। उनक यंचा का श द सुनकर रात के गहरे
अ धकार के समान काली, कपाल के कु डल धारण कए ए भयानक प के कारण
बलाका वाली काली मेघमाला के समान रा सी ादुभूत हो गई। उसके वेग से रा ते
के वृ कांप रहे थे, मुद के कफन उसके शरीर पर लटक रहे थे और वह ऊंचे वर से
चंघाड़ रही थी। मशान से आती ई आंधी क भांित दुग धयु ताड़का को देखकर
एक बार तो राम घबरा गया। पर तु जब उसने रा सी क हार के िलए उठी ई एक
भुजा को देखा, और कमर म लटकती ई पु ष क आंत क मेखला पर दृि डाली, तो
ी पर हार करने के स ब ध म उसके मन म जो घृणा क भावना थी, वह जाती रही।
उसने यंचा पर तीर चढ़ाया और पूरे वेग से ताड़का क छाती का िनशाना लगाकर
छोड़ दया। उस तीर ने ताड़का के व थल म जो सुराख कया, वह मानो रा स के
दुग म यमराज के वेश का ार बन गया। बाण जाकर दय म लगा। जब ताड़का
मरकर िगरी, उससे के वल उस जंगल क भूिम ही कि पत नह ई, तीन लोक को
परा त करके ि थर क ई रावण क राजल मी भी मूल से िहल गई।
ताड़का-वध से संतु मुिन ने माग म ही राम को रा स का संहार करनेवाले अ
का ान कराया था। वामना म म प च ं ने पर तपि वय ने दोन भाइय का वागत-
स कार कया।
ॠिष िव ािम ने दी ा लेकर य आर भ कर दया। जैसे सूय और च मा म
से उ दत होकर संसार क अ धकार से र ा करते ह, वैसे ही राम और ल मण रा स
से ॠिष क र ा करने लगे। य ार भ होने पर घबराए ए ॠिषय ने देखा क
ब धूक फू ल के समान थूल र बंद ु आकाश से वेदी पर िगर रहे ह, तूणीर म से बाण
िनकालते ए राम ने ऊपर दृि उठाई तो उ ह रा स क सेना दखाई दी। राम ने
उनके के वल दोन सेनानायक को ही अपने शर का ल य बनाया, दूसर को नह । या
महान् सष का श ु ग ड़ कभी छोटे सप पर भी वार करता है? आ मणका रय का
एक नेता ताड़का का पु मारीच था। राम ने वाय ा के योग से उसके पवत के
समान भारी शरीर को भी ब त दूर िगरा दया। दूसरे नेता सुबा को, जो क माया
ारा थान- थान पर िवचरण कर रहा था, ुर नामक बाण से काटकर आ म से
बाहर पि य और जंगली पशु के खाने के िलए फक दया। नेता के वध से शेष
रा स भाग गए। उप व के शा त हो जाने पर ॠि वज् लोग ने दोन भाइय क
सां ािमक सफलता का अिभन दन करके मौन त धारण कए ए मुिन िव ािम के
य को शाि तपूवक पूण कया। य के अ त म दोन भाइय ने चम कृ त काकप वाले
अपने िसर ॠिष के चरण म झुका दए। ॠिष ने आशीवाद देते ए कु शा से िछले
ए अपने हाथ से उनके िसर का पश कया।
िमिथला के राजा जनक ने अपनी पु ी सीता के वंयवर-य म ॠिष को भी
िनमि त कया था। वयंवर म यह िनयम था क जो राजपु पुराने िशव-धनुष को
उठाएगा, सीता उसके गले म वरमाला डालेगी। ॠिष जब वयंवर-य म जाने लगे तो
उ ह ने धनुष देखने के िलए उ सुक राम और ल मण को भी साथ ले िलया। माग म
अपने पित गौतम मुिन के शाप से प थर बनी अह या शाप के दन तीत कर रही थी।
उसने शाप के ब धन से छू टकर फर अपना सु दर मानव-वेश ा कर िलया। यह राम
के चरण-रे णु क ही कृ पा थी।
जब अथ और काम से अलंकृत शरीरधारी धम के समान राम-ल मण सिहत ॠिष
िव ािम के पधारने का समाचार िमला तो राजा जनक अगवानी के िलए आदर-
सिहत उनक सेवा म प च ं ।े पुनवसु नाम के न के समान तेज वी राजपु क छिव
को देखकर िमिथलापुर िनवासी इतने स ए क ण-भर के िलए आंख झपकाना
भी उ ह िव -सा तीत हो रहा था। जब य िविध समा हो गई, तब अनुकूल समय
देखकर ॠिष ने राजा को बतलाया क राम िशव-धनुष के दशन करना चाहते ह। एक
ओर राम का ऊँचा वंश और कोमल शरीर, दूसरी ओर िशव का न झुकनेवाला च ड
धनुष! दोन को िवचारकर राजा जनक मन म ब त िच ता करने लगे। वे मुिन से कहने
लगे–
भगवन, िजस काय को बड़े-बडे़ म त हाथी भी नह कर सके , उसके िलए म इस
कोसल-कलभ को कै से अनुमित दू?ं हे तात, धनुष क यंचा को ख चते-ख चते िजनके
हाथ क वचाएं कठोर हो गई ह, ऐसे अनेक धुनधारी ि य उस धनुष को उठाने के
िलए आए, और अशि के कारण अपनी भुजा को िध ारते ए चले गए।
ॠिष ने उ र दया–
राजन्! सुनो, इस राम के बल को वाणी से या क ?ं जब पवत पर िबजली क
भांित यह िशव-धनुष पर पड़ेगा, तब तुम वयं इसका प रचय पा जाओगे। जैसे जुगनू
िजतनी आग क िचनगारी पर भी मनु य क ा हो जाती है, उसी कार ॠिष के
कहने से थोड़ी आयु के कु मार पर भी राजा जनक क आ था हो गई, और उ ह ने अपने
सेवक को िशव धनुष दखाने क आ ा दे दी। सोए ए सपराज वासु क के समान बड़े
और भयानक धनुष को राम ने सहज भाव से पकड़ा और आ य-च कत दशक के
सामने ऐसी सुगमता से उस पर यंचा चढ़ा दी मानो कामदेव फू ल के चाप पर
यंचा चढ़ा रहा हो। यंचा को चढ़ाकर राम ने ख चा तो धनुष बड़ी भीषण विन के
साथ टू ट गया। वह विन इतनी ऊँची थी क तप या करते ए ोधी मुिन परशुराम के
कान तक प च ं कर उसने मानो यह समाचार दे दया क ि य-वंश फर से जीिवत
हो उठा है।
िमिथला-नरे श क ित ा थी क जो वीर िशव-धनुष को उठा लेगा, वह उससे
अपनी क या का िववाह करे गा। राम ने धनुष को न के वल उठाया अिपतु तोड़ भी दया।
शत पूरी हो जाने से स होकर, राजा जनक ने ल मी के सदृश गुणवती पु ी सीता का
िववाह राम से करने क अिभलाषा कट क , और अि के समान पिव ॠिष को
सा ी करके उसे राघव के अपण कर दया। साथ ही जनक ने अपने पुरोिहत को यह
िनवेदन करने के िलए अयो या-नरे श दशरथ के पास भेजा क आप मेरी क या को
अपनी पु -वधू के प म हण करके िनिमवंश को कृ ताथ क िजए। राजा दशरथ राम
के िलए गुणवती क या क तलाश म थे ही, अनुकूल स देश लेकर पुरोिहत के प च ं ने से
वे ब त ही स तु ए। स न के संक प क पवृ के फल क भांित शी ही प रप
हो जाते ह।
ा ण ारा िमिथलापित का संदश े पाकर महाराज दशरथ ने िमिथला क ओर
याण कर दया, और कु छ ही दन म सेना-सिहत जनकपुरी म वेश कया। व ण और
वासव के समान तेज वी दशरथ और जनक ने अपने पद और गौरव के अनुकूल धूमधाम
के साथ िववाहो सव स प कया। राम क सीता से, उसक छोटी बिहन उ मला का
ल मण से, और मा डवी और ुतक त का भरत और श ु से िववाह हो गया। वे
चार भाई अनु प पि य का पािण हण करके सफलता से यु साम, दाम, द ड और
भेद इन चार उपाय क भांित, राजा क मिहमा को बढ़ानेवाले हो गए। जैसे कृ ित
और यय के योग से शु और साथक पद बन जाता है, उसी कार उन यो य
राजकु मा रय का यो य कु मार से योग भी कृ ताथता का कारण बन गया।
महाराज दशरथ ने चार पु का िववाह करके सेना-सिहत अपनी पुरी क ओर
थान कया। तीन पड़ाव शेष रहने पर िमिथले र अपनी राजधानी को वापस हो
गए। अक मात् माग म अनेक अशुभ ल ण कट होने लगे। जैसे बढ़ता आ पानी नदी
के कनार को लेश देने लगता है, वैसे ही वृ को िगरा देनेवाला अंधड़ सैिनक के
पांव उखाड़ने लगा। सूय-म डल के चार ओर भयावनी धा रयां दखाई देने लग ।
दशाएं मिलन हो ग और िजस दशा म सूय दीखता था, उसी दशा म र के यासे
गीदड़ हाउ-हाउ करते सुनाई देने लगे। इन अशुभ ल ण को देखकर महाराज ने मुिन
विस से कया तो उ ह ने आ ासन देते ए कहा क ‘घबराओ नह , अ त म
प रणाम अ छा होगा ।’
थोड़ी देर म सेना के सामने तेज क एक रािश उठती ई दखाई दी। जब सैिनक
ने आंख मलकर यान से देखा तो एक तेज वी मनु यमू त दृि गोचर ई। वे मुिन
परशुराम थे। उनके गले म िपता के अंश के प म य ोपवीत पड़ा आ था और हाथ म
माता के अंश के प म िवशाल धनुष था। मानो सौ य च मा के संग ती आ द य हो,
अथवा ऐसा च दन का वृ हो िजसपर सांप िलपटा आ है। उसने ॠिष-मयादा का
उ लंधन करनेवाले िपता क आ ा के अनुसार, डर से कांपती ई माता का िसर
काटकर पहले क णा को जीता, और फर ोध के आवेश म ि य का संहार करके
सारी पृ वी को जीत िलया था। उसके दािहने कान पर अ के बीज का जो कु डल
िलपटा आ था, वह मानो इ स बार ि य के िवनाश क िगनती का मारक था।
एक ओर िपता जमदि क ह या से होकर ि य जाित का संहार करने के िलए
दृढ़ ित परशुराम पर, और दूसरी ओर अपने बालक पु राम पर जब अयो यापित क
दृि पड़ी तो वह घबरा गया। उस समय राजा क दृि दो राम पर पड़ रह थी–एक
श ु था और दूसरा पु । उसे एक सांप क मिण के समान तीत आ, तो दूसरा माला
क मिण के समान। ‘पूजा क साम ी लाओ!’ राजा क इस आ ा क उपे ा करके मुिन
ने ि य का दाह करनेवाली ू र दृि से उसक ओर देखा। फर वे राम क ओर मुड़।े
राम तब भी िनभय था। मुिन ने एक हाथ म धनुष को लेकर, और दूसरे हाथ क
अंगुिलय म तीर को पकड़े ए ु होकर कहा–
मेरे िपता क ह या करने के कारण ि य मेरे श ु ह। उनका कई बार नाश करके
म शा त हो गया था, पर तु सोए ए सांप क जो दशा लाठी क ठोकर खाकर होती है,
तेरे परा म क कथा सुनकर मेरी भी वैसी ही दशा ई है। तुमने िमिथलेश के उस धनुष
को तोड़ डाला है, िजसे अ य राजा झुका भी नह सके थे। इस ित म से मुझे ऐसा
तीत होता है, मानो मेरी शि का िसर कट गया हो। पहले ‘राम’ इस नाम से संसार
म के वल मेरा बोध होता था, अब तेरे बढ़ते ए यश के कारण वह नाम मेरे िलए ल ा
का कारण बन गया है। िजस जामद य का अ च पवत से टकराकर भी थ नह
आ था, उसके समान- पी से अपराधी होने के कारण दो बड़े श ु ह–पहला गौ के
बछड़े का हरण करने के कारण हैहय और दूसरा मेरे यश को छीनने का य करनेवाला
तू! य द म तुझे नह जीतता तो सब ि य को न करनेवाला अपना िव म भी मुझे
नह कर सकता। अि क यही तो शंसा है क वह जैसे जंगल म जलता है, वैसे ही
समु म भी देदी यमान होता है। यह समझ ले क तूने समय ारा जज रत िशव के
धनुष को तोड़कर कोई बहादुरी का काम नह कया। िजस पेड़ क जड़ को नदी के
पानी ने खोखला कर दया हो, उसे हवा का ह का-सा झ का भी िगरा देता है। यु को
जाने दे–मेरे इस धनुष को ले और शर चढ़ाकर इसे ख च दे। बस, इतने ही से मेरे समान
बलवान होने के कारण तू मुझे जीत लेगा। पर तु य द मेरे परशु क चमकती ई धार से
तू डर गया है तो धनुष क यंचा ख चने से कठोर अंगुिलय वाले अपने िनव य हाथ
को जोड़कर अभय-दान मांग ले।
भागव के ये वचन सुनकर राम कु छ नह बोले। के वल ह ठ म थोड़ा-सा
मु कराकर यही उ र दया क उनके हाथ से धनुष ले िलया। उस ऐितहािसक धनुष को
लेकर राम अ य त शोभायमान दखाई देने लगे। नया बादल वयं ही ब त सु दर होता
है, फर जब उसपर इ धनुष अं कत हो जाए तो शोभा का या कहना है!
राम ने पृ वी पर एक को ट जमाकर जब उस धनुष पर यंचा चढ़ा दी तो
ि य के श ु जामद य का तेज ीण हो गया–मानो अि क वाला न हो गई हो,
के वल धुआं शेष रह गया हो। उस समय एक ओर बढ़ता आ राम और दूसरी ओर ीण
होता आ राम–दोन लोग को ऐसे तीत हो रहे थे, मानो सायंकाल के समय च मा
उ दत हो रहा हो, और सूय डू ब रहा हो। राम ने धनुष पर अमोघ बाण चढ़ा िलया।
उधर मुिन एकदम उदास और ीण-बल हो गए। राम को दया आ गई, वे मुिन से बोले–
आप ा ण ह। आपने अपमािनत कया, तो भी आप पर िनदय होकर हार नह
करना चाहता, पर तु मेरा बाण अमोघ है। यह थ नह जा सकता। आप बताइए क
इससे कस व तु को न क ं ? आपक गित को या आपके य ारा ा कए वगलोक
के ार को?
ॠिष बोले–भगवन्! यह नह क म तु हारे व प को नह जानता था। म तो
तु हारे मानव-शरीर म वै णव तेज को य देखना चाहता था। अतः मने तु ह
उ ेिजत कया। मने अपने िपता के िे षय को भ मसात् कर दया था, और सारी पृ वी
दान म दे दी थी, इतना कु छ कर लेने के प ात् भु ारा मेरी पराजय भी शंसनीय ही
है। म अपने को ध य मानता ं । भगवन्! म पु यतीथ का मण कर सकूं , अत: मेरी
गित को सुरि त रहने द। म सुख-दु:ख क ओर से उदासीन हो चुका ,ं अत: मेरे वग-
ार को न कर द।
राघव ने मुिन क बात को वीकार कर िलया, और बाण को पूव क ओर छोड़
दया, िजससे भागव के वग जाने का माग ब द हो गया।
इसके प ात् राम ने धनुष एक ओर रख दया, और ॠिष के पांव पकड़कर मा-
ाथना क । श ु को जीतकर न हो जाना ही वीर के िलए यश कर होता है। मुिन राम
और ल मण से बोले–माता से ा ए श भाव को यागकर म भी अब अपने िपता के
श भाव को हण करता ।ं मुझपर तु हारा यह द ड- योग भी व तुत: अनु ह के
समान ही आ है। अब म िवदा होता ,ं तुम अपने देव-काय म लगो। यह कहकर ॠिष
अ तधान हो गए।
जामद य के चले जाने पर राजा ने राम को दूसरी बार उ प आ मानकर
स तापूवक गले लगाया, और कु छ दन क सुखमय या ा के प ात् सजी ई
अयो यापुरी म वेश कया।
लंकेश-वध

जैसे ात:काल के समय दीपक क िशखा ीण होकर न ाय हो जाती है, वैसे ही


दशरथ भी अपने जीवन क अि तम दशा म प च ं गया। मानो कै के यी के डर से बुढ़ापे ने
सफे द बाल के बहाने कान के पास आकर अपना स देश दया क अब रा यल मी राम
को दे दो। जैसे नदी से िनकली ई नहर उ ान के वृ को हरा-भरा कर देती है, राम के
अिभषेक क चचा ने नगरवािसय को वैसे ही ह षत कर दया। अिभषेक के अवसर पर
राम के ान के िलए आए ए पिव जल को कठोर दयवाली कै के यी ने अपने शोक-
सूचक पा थव आंसु से अपिव कर दया। महाराजा ने जब उसे मनाने का य कया
तो उसने पहले दए ए दो वर उगल दए–मानो वषा होने पर पृ वी ने कसी िबल से
दो सांप उगल दए ह । उसने पहले वर से राम को चौदह वष के िलए वन म िभजवा
दया, और दूसरे वर से भरत के िलए रा यल मी मांग ली–वह रा यल मी तो िमल गई
पर तु उसका प रणाम इतना भयंकर आ क पु -िवयोग म महाराज क मृ यु हो गई,
िजससे कै के यी को रा यल मी के थान पर वैध ा आ।
राम को जब रा यािभषेक क आ ा िमली, तब यह सोचकर क िपता वन को
चले जाएंगे, उनके आंसू िनकल आए, तदंनतर जब उ ह वन जाने क आ ा िमली, तो
आ ा-पालन करने का अवसर िमलने से स तापूवक उसे अंगीकार कर िलया। लोग
ने आ याि वत होकर देखा क पहले मंगलसूचक ब मू यवान् व और पीछे व कल
पहनते समय राम के मुख क छिव म कोई भेद नह आया। िपता के स य क र ा के
िलए वे सीता और ल मण के साथ द डकार य म चले गए। वन- वेश के साथ ही वे
स न के मन म भी िव हो गए। राम के िवयोग म राजा ने ब त दु:खी होकर
वणकु मार के माता-िपता के शाप का मरण करते ए शरीर- याग कर दया।
राजा क मृ यु हो गई। बड़े राजकु मार को वनवास हो गया। िजस रा य म राजा
न रहे, वह रा के धूत श ु का िशकार बन जाता है। यह सोचकर अनाथ जाजन ने
निनहाल म गए ए भरत को बुलाने के िलए दूत को भेज दया। उन दूत ने कसी
तरह अपने दु:ख के आंसु को थामकर भरत को अयो या चलने का स देश दया–
पर तु िपता क मृ यु का समाचार नह सुनाया। भरत को राजधानी म प च ं कर जब
सब समाचार ा ए तब वह न के वल अपनी माता के िवमुख हो गया, बि क रा य ी
से भी िवमुख हो गया। तब राम ने वनया ा म िजन वृ के नीचे िनवास कया था,
उनको अ ुभरे ने से देखता आ, भरत सेना के साथ िच कू ट म राम के आ म म
प चं ा, और िपता के वगगमन का वृ ा त सुनाकर यह िनवेदन कया क मने आपक
छोड़ी ई रा य-ल मी को अब तक छु आ भी नह है, आप ही चलकर उसका उपभोग
कर। भरत को ऐसा अनुभव हो रहा था क बड़े भाई के अिधकार को छीनकर मानो वह
वही अस यता करे गा जो क बड़े भाई के रहते ए िववाह करके छोटा भाई अपने बड़े
भाई के ित करता है। जब भरत के ब त आ ह करने पर भी िपता के वचन क र ा के
िलए राम ने वापस जाना वीकार नह कया, तो रा य का अिधदेवता बनाने के िलए
भरत ने राम क खड़ाऊं मांग ली। राम ने उसक इ छा पूरी कर दी। भरत खड़ाऊं लेकर
राजधानी म िव न आ, और नि द ाम म रहकर राम क धरोहर समझकर रा य
क र ा करने लगा। मानो वह अपनी तप या ारा माता के पाप का ायि कर रहा
था।
उधर राम वैदह
े ी के साथ रहते ए भी उस कठोर चय- त का पालन कर रहे
थे, िजसका पालन इ वाकु वंश के राजा वृ ाव था म कया करते थे। एक दन जंगल के
मण से कु छ थककर राम सीता क गोद म िसर रखकर एक वृ क छाया म सोए ए
थे क एक दु कौए ने आकर सीता को आहत कर दया। राम के जागने क आशंका से
सीता ने िहलना उिचत न समझा। कौए ने अवसर पाकर उनके चरण पर च च से घाव
कर दए। तब राम क न द खुली। ु होकर राम ने कौए पर एक सरकं डे का हार
कया, िजससे उस आततायी क आंख जाती रही।
िच कू ट अयो या के समीप ही था, राम को यह आशंका ई क कह भरत उससे
घर लौटने का आ ह करने के िलए फर न आ जाए, इस कारण उ ह ने उस सु दर
ह रण वाले िच कू ट देश को छोड़कर आगे जाने का िन य कया। जैसे शीत ॠतु म
सूय दि ण क ओर याण करता है–वैसे राम ने भी माग म ॠिषय के आ म पर
पड़ाव करते ए दि ण दशा क या ा आर भ क । कै के यी के िनषेध करने पर भी
मानो जानक के प म रा यल मी उनके पीछे-पीछे चलती ई शोभायमान हो रही
थी। माग म अग या म पड़ा जहां देवी अनसूया ने सीता को उपदेश और आदेश दया।
जंगल म जाते ए एक दन राम ने देखा क च को सनेवाले रा के सदृश भयानक
रा स रा ते को रोककर खड़ा है। वह रा स आगे बढ़ा और दोन भाइय के बीच म से
सीता को उठाकर ले चला। दोन भाइय ने उस आततायी को मार डाला, और इस
िवचार से क लाश से दुग ध न फै ले, उसे भूिम म गाड़कर दबा दया। मुिन अग य क
आ ा से वे वन के दि ण क ओर बढ़ गए, और पंचवटी म प च ं कर ठहर गए। सीता
और ल मण सिहत ीराम वह आ म बनाकर रहने लगे।
जैसे भयानक नािगन गम से ाकु ल होकर च दन के वृ क ओर भागती है, वैसे
ही कामदेव के वशीभूत होकर रावण क छोटी बिहन शूपणखा राम के पास जा प च ं ी,
और सीता के सामने ही राम से कहने लगी क मुझसे शादी कर ले य क म अितसु दरी
।ं कामी ि अवसर-अनवसर को नह देखता। संयमी राम ने कामा ध रा सी को
समझाते ए आ ा दी क हे बाले, म िववािहत ,ं अ य िववाह नह कर सकता। तू मेरे
छोटे भाई के पास जाकर ाथता कर।
दोन कनार का उपभोग करने का य करनेवाली नदी को जैसे दोन के बीच म
मंडराना पड़ता है वैसे ही शूपणखा ल मण ारा भी ितर कृ त होकर फर राम क ओर
भागी। सीता को यह देखकर हंसी आ गई। इससे रा सी का ोध भड़क उठा और वह
यह कहती ई सीता पर झपटी क तू ह रणी होकर ा ी का मज़ाक बनाती है, तो
इसका फल पा। सीता पर आ मण करते समय िव ोभ के कारण उसके नख सूप क
तरह फै ल गए, िजससे उसका वह प कट हो गया, िजसके कारण वह शूपणखा
कहलाती थी। जब ल मण ने उसका ोध म भरा ृंगाली-सा भयानक वर सुना तो वह
समझ गया क उसका पहला कोयल के सदृश मधुर वर के वल ढ ग था। रा सी क
िच लाहट सुनकर हाथ म तलवार ले ल मण राम क झ पड़ी म प च ं ,े और नाक-कान
आ द काटकर उस कु पा को और अिधक कु पा बना दया। तब वह ल बे नख वाली
और बांस क भांित कठोर गांठ वाली अंकुश जैसी अंगुिलय से राम और ल मण को
धमकाकर अपने जन थान क ओर भागी।
जन थान म प च ं कर उसने खर-दूषण आ द रा स को राम ारा रा स के
पराजय क यह नई कहानी सुनाई। इस पर रा स ने राम पर चढ़ाई करने का िन य
कया, पर तु उस समय उनके सामने शूपणखा क नाक-कान कटी सूरत आ गई, यह
भारी अमंगल हो गया। राम ने जब हजार रा स क सेना को आ मण करते देखा तो
सीता क र ा के िलए ल मण पर और िवजय- ाि के िलए अपने धनुष पर भरोसा
कया। ल मण सीता को लेकर सुरि त थान म चले गए, और राम रा स का संहार
करने लगे। राम अके ले थे–और रा स हजार –पर तु डर के मारे येक रा स को अपने
सामने एक-एक राम दखाई दे रहा था। पहले राम ने अवगुण के समान नाशयो य दूषण
क सुध ली। फर उ ह ने खर और ि िशरा को भी शर-वषा का ल य बनाया। राम के
तीर उनके शरीर म इतने वेग और लाघव से घुस गए क िजस समय शर के मुंह रा स
का जीवन न कर रहे थे, उनके पृ भाग िधर का पान कर रहे थे। राम ने सभी रा स
को मार डाला, फलत: रणभूिम म कब ध ही कब ध दखाई दे रहे थे। देवता के
श ु क वह सेना राम के साथ यु करके , मानो थककर सदा के िलए गृ क छाया
म सो गई।
जन थान के सब रा स मारे गए। उनके नाश के समाचार को रावण तक प च ं ाने
के िलए के वल शूपणखा ही शेष बची थी। बिहन के अंग छेद और िति त रा स के
नाश का वृ ा त सुनकर रावण को ऐसा तीत आ मानो राम ने उसके दश म तक
पर पांव रख दया हो। मृग का प धारण कए ए मारीच क सहायता से मायावी
रावण ने सीता का अपहरण कर िलया। माग म जटायु ने िव डाला तो रावण ने उसे
घायल कर डाला। िजस समय राम और ल मण सीता को आ म म न पाकर उसे ढू ंढ़ने
के िलए िनकले, तब उ ह ने देखा क उनके िपता दशरथ के िम जटायु ने अपने ाण
देकर िम ता का ॠण चुकाया है। उसने अि तम ास लेते ए बतलाया क जानक को
रावण ले गया है। उसने जानक क र ा के िलए जो महान य कया वह तो उसके
गहरे घाव से कट हो रहा था। दोन भाइय के दय म जटायु क मृ यु से अपने
िपता का सारा दु:ख फर से जाग उठा, और उ ह ने उसक अि तम याएं िपता के
समान ही क । जंगल म कब ध नाम का रा स िव कारी आ तो राम ने उसका वध
कर दया। राम ारा आहत कए जाने पर स ित को ा होते ए रा स ने राम को
सु ीव का प रचय दया। उसने बतलाया क अपने भाई बािल ारा रा य का अिधकार
और ी के िछन जाने से सु ीव भी दु:खी है। एक-से दु:खवाले सु ीव के साथ वभावत:
राम के दय म सहानुभूित उ प हो गई, जो गहरी िम ता के प म प रणत हो गई।
राम ने बािल को मारकर सु ीव को उसका िछना आ रा य और ी तारा, दोन
ही वापस दला दए। सु ीव के भेजे ए दूत सीता क तलाश म पृ वी पर चार ओर
घूमने लगे। स पाित से यह समाचार पाकर क रावण सीता को लेकर लंका म चला
गया है, हनुमान समु को ऐसे तैर गए, जैसे योगी संसार को तैर जाते ह। लंका म
घुसकर हनुमान ने िवषेली लता से िघरी ई जीवनौषिध क भांित रा िसय से
िघरी ई सीता को देखा। हनुमान ने जानक के सामने कट होकर, प रचय के िलए
राम ारा उं गली से उतारकर दी ई अंगूठी दी। उस समय वह अंगूठी ऐसी लग रही थी
मानो पित का समाचार पाकर सीता क आंख से िनकले ए शीतल आंसू ही थूल प
म आ गए ह ।
इस कार अपने सफल दौ यकम से जानक को स करके हनुमान ने लंका का
नाश करने का संक प कया, और राजकु मार अ का वध कर के ा ारा पकड़े
जाने पर, रावण क सुनहली लंका को जलाकर राख कर दया।
हनुमान ने लंका से लौटकर सीता क दी ई िनशानी राम को दी तो राम को ऐसा
तीत आ मानो सीता का दय थूल प धारण करके उ ह ा हो गया है। ि या का
समाचार ा करके , उसका उ ार करने के िलए दृढ़ ित राम को माग का समु खाई
के समान सुगम तीत होने लगा। वे सु ीव क िवशाल वानर सेना को लेकर, पृ वी और
आकाश के माग से समु तट क ओर ि थत ए। वहां समु तट पर रावण का भाई
िवभीषण, सुमित से े रत होकर राम से जा िमला, मानो लंका क रा यल मी ने
अपनी र ा के िलए िवभीषण के म तक म वेश करके उसे राम क शरण म जाने के
िलए े रत कर दया था। राम ने उसे यह आ ासन दे दया क रावण को मारकर लंका
का रा य तु ह दे दूग
ं ा। समय-समय पर योग क गई नीित ाय: सफलता ा करती
है। राम ने वानर क सहायता से समु पर पुल तैयार कर दया। वह सेतु ऐसा तीत
होता था मानो िव णु के सोने के िलए, समु म से िनकलकर सा ात् वासु क िबछ गया
हो।
वानर-सेना ारा बनाए गए सेतु से समु को पार करके राम के सुनहरे रं ग के
सैिनक ने लंका को घेरकर उसके चार ओर दूसरा ाकार-सा बना दया। तब रा स
और वानर क सेना का यु आर भ आ। वानर-सेना राम के जयकार से और रा स-
सेना रावण के जयकार से आकाश को गुंजा रही थी। वह यु अ भुत था। प रघ का
जवाब उखाड़ कर फके ए पेड़ से दया जा रहा था, मु र िशला से िपस रहा था,
नाखून के आघात श के आघात को मात कर रहे थे, और हाथी का हार पहाड़ से
तोड़ा जा रहा था। रावण ने यु म हार होते देखकर सीता को अपने वश म लाने का
य कया, पर तु ि जटा नाम क रा सी ने सीता क दशा पर तरस खाकर उसे स ी
बात बता दी। यह म हो जाने पर क राम नह रहे, सीता को अपना जीवन बोझ-सा
तीत होने लगा था। जब ि जटा के कथन से उनका म दूर हो गया तो वे स तु होकर
राम क िवजय क ती ा करने लग । रावण का पु मेघनाद श ा म परम वीण
था। उसने सपा का योग करके राम और ल मण को बांधने का य कया, पर तु
ग ड़ा के योग ने इनके ब धन खोल दए, और अ ारा बंधने क घटना व मा
रह गई। सपा के थ हो जाने पर मेघनाद ने ल मण पर शि का हार कया,
िजसने ल मण को तो मू छत कया ही, उस दु:ख म राम को भी मू छत त कर दया।
यह बताने पर क पवत से उ प होनेवाली महौषिध से ल मण क मू छा जा
सकती है, वीर हनुमान पवत से औषिध ले आया, िजससे ल मण क मू छा दूर हो गई,
और वे फर लंका के रा स का संहार करने लगे। जैसे शरद्-ॠतु बादल के गजन और
उनपर दीखने वाले इ धनुष को समा कर देती है, ल मण ने भी मेघनाद को मारकर
उसके वीर गजन और धनुष दोन का ही अ त कर दया तब रावण का भाई कु भकण
रण े म उतरा। जब सु ीव ने कान-नाक काटकर उसे शूपणखा के समान कर दया,
तब र बहने से लाल िशला वाले पवत के समान वह रा स राम पर टू टा। भाई
रावण ने तु ह थ ही न द से जगाने का क दया–मानो यह कहते ए राम के बाण
ने उसे शी ही अटू ट न द म सुला दया।
रा स क अ य सेनाएं भी यु े म आकर, वानर क सेना म ऐसे िवलीन
होती ग , जैसे रा स के िधर-जल म पड़कर यु भूिम क धूिल। तब इस हठ से साथ
क संसार म रावण ही रहेगा या राम, रावण वयं यु के िलए उ त-होकर राजभवन
से बाहर िनकला। रावण रथ पर आ ढ़ होकर मैदान म आया था, और राम पैदल थे।
यह देखकर देवता के राजा इ ने अपना किपलवण के घोड़ वाला िवशाल रथ राम
के िलए भेज दया। आकाशगंगा के जल के स पक से शीतल पवन क सी आ दोिलत
वाजावाला वह देवरथ जब रण े म प च ं ा तो राम उसके सारिथ मातिल के क धे
पर हाथ रखकर उसपर चढ़ गए। मातिल महे का असुरजयी कवच भी लाया था।
उसने कवच राम को पहना दया। िचरकाल से राम और रावण के परा म क
ित पधा-सी चल रही थी। आज यु -भूिम म जय-पराजय का िनणय होने का अवसर
आने से मानो उस पर पर दशन म सफलता आ गई। भाई, पु और अ य सहायक के
मर जाने से अके ला भी रावण मुंह, भुजा और पांव क अनेकता के कारण मानो रा सी
माता के वंश के सदृश दखाई दे रहा था। िजसने सब लोकपाल को जीत िलया था, और
अपने मुख क बिल देकर िजसने िशव को स कया था, उस परा मी रावण को यु
के िलए सामने खड़ा देखकर राम के दय म आदर का भाव उ प आ। यु आर भ
आ। मानो यु क समाि और सीता- ाि क सूचना देने के िलए फड़कती ई राम
क दािहनी भुजा पर रावण ने बाण का हार कया। उ र म राम ने जो बाण रावण के
दय को ल य करके चलाया, वह अपना काम करके मानो सपलोक म रावण के अिन
का समाचार सुनाने के िलए पृ वी म िव हो गया। जैसे वाद-िववाद म वादी और
ितवादी एक दूसरे के वा य को काटते ह, वैसे ही यु म उनके घात- ितघात होने
लगे, और यु का आवेग बढ़ गया। म त हािथय क भांित जय के अिभलाषी उन दोन
वीर का जोर बारी-बारी से घटता और बढ़ता था, िजससे उनके म य म जय ी
डावांडोल हो रही थी। रावण ने राम पर फौलाद क बनी ई शि का हार कया।
राम ने रा ते म ही अपने अधच ाकार बाण से उसे और रा स क आशा को एक ही
साथ ऐसे सुख से काट डाला जैसे के ले के तने को काट डालते ह। संसार के उस सव े
धनुधारी राम ने सीता के िवयोग से होनेवाली दु:ख पी क ल को िनकालने वाली
महौषिध के सदृश ा को धनुष पर चढ़ाया और रावण क ओर छोड़ दया। खुले
ए िवकराल फण-म डल से यु सपराज के समान योित को उगलता आ वह
ा ण-भर म आकाश म सैकड़ धारा म बंटकर फै लता आ दखाई दया और
आधे ण म ही उसने अनायास ही रावण के िसर काटकर भूिम पर िगरा दए।
रावण के कटे, र म सने और िससकते ए वे िसर भूिम पर पड़कर ऐसे दखाई दे
रहे थे, मानो भात के सूय के ितिब ब जल म चमक रहे ह । वे िसर कटकर भी ऐसे
तेज वी रहे क देवता को उनके जीिवत होने का स देह बना रहा ।
संसार को पीड़ा देने वाले रावण के वध से स होकर देवता राम पर पु प क
वषा करने लगे। इ का सारिथ मातिल यु समा होने पर दाशरिथ क आ ा ा
करके देवरथ वापस ले गया और राम ने भी अि परी ा ारा सीता क िवशु ता
घोिषत करके सीता, सु ीव तथा ल मण के साथ अपने भुजबल से जीते ए पु पक
िवमान पर आ ढ़ होकर अयो या क ओर थान कया। थान करने से पूव लंका का
रा य ि य िम िवभीषण को स प दया।
भरत-िमलाप

िवमान ारा आकाशमाग से अयो या क दशा म जाते ए भगवान राम को जब समु


दखाई दया तो वे अपनी सहध मणी से कहने लगे–
सीते! देखो, मेरी सेना के बनाए सेतु ने लंका से मलयाचल तक फे िनल समु को
दो भाग म बांट दया है, मानो तार से जगमगाते हए शीतकाल के व छ आकाश को
छायामाग क नीली धारा ने बीच म से काट दया हो। महाराज सगर के अ मेध य
के अ का अपहरण होने पर उसको ढू ंढ़ते ए हमारे पूवज सगर-पु ने किपल मुिन के
आ म तक प च ं ने के िलए इसे खोदकर बड़ा कया था। यह समु संसार का ब त
उपकार करता है। सूय क करण वषा के िलए इससे जल लेती ह। इसके गभ म र
पनपते ह, बाड़वाि इससे शरण पाती है, और इसने आनि दत करनेवाले काश से यु
च मा को ज म दया है। भगवान िव णु क तरह कभी शा त और कभी िव ु ध, कभी
उतार पर और कभी चढ़ाव पर, इस कार पर पर िव अनेक अव था और
िवशेषता से यु होने के कारण इस सागर का प बुि से भी परे है।
वह देखो, न दयां इसम वेश कर रही ह। जब जीव-ज तु को लेकर न दय का
जल इसम पड़ने लगता है, तब वेल मछिलयां सामने अपना मुंह खोल देती ह। वे
ज तुसिहत जल-धारा को अ दर ले लेती ह, और फर के वल जल को म तक म
िव मान ास-िछ म से िनकाल देती ह। दूसरी ओर देखो, पानी म से उछलते ए
ह ती के समान मगरम छ ह, िजनके ारा दो भाग म िवभ आ समु का झाग
उनके कपोल पर ण-भर के िलए चंवर क भांित शोभायमान होता है। वह मेघ इसम
जल पीने आया है और वायु म भंवर क तरह धूम रहा है। देखने म ऐसा लगता है, मानो
फर दूसरी बार पवत ारा समु का म थन हो रहा हो।
और वह दूर देखो, लोहे के च के समान नीले समु के तट पर तमाल और ताल
के जंगल क ेिणय के कारण नीली भूिम वाला समु तट दखाई दे रहा है। यह लो,
िवमान के वेग के कारण हम मु त-भर म समु तट के ऊपर प च ं गए। यहां रे त पर टू टी
ई सीिपय म से मोती िबखरे पड़े ह, और फू ल से लदे ए सुपारी के वृ शोभायमान
हो रहे ह। हे मृगनयनी, ज़रा पीछे क ओर देखो। ऐसा तीत होता है मानो पीछे छू टते
ए समु के गभ म से वन के साथ-साथ पृ वी िनकल रही है । दूर होता आ समु
वन-िवभूिषत पृ वी को अपने अ दर से बाहर फक रहा है। यह पु पक िवमान कभी
बादल के माग से जाता है तो कभी पि य के माग से। जैस-े जैसे मेरी अिभलाषा
चाहती है, वैसे ही इस िवमान क गित म प रवतन होता है।
अब हम समु से दूर जा रहे ह। म या का समय हो रहा है। ताप के कारण
तु हारे मुख पर पसीने क जो बूंद आ रही ह, आकाश-गंगा के जल से शीतल, और महे
के हाथी ऐरावत के मद से सुगि धत, आकाश-वायु उ ह प छ रहा है। तुमने कौतूहल से
अपना हाथ िवमान क िखड़क से िनकालकर बादल को छु आ तो वह डरकर तु ह स
करने के िलए अपनी िव ुत क लता को तु हारे गले म हार क तरह पहना रहा है। अब
हम जन थान के ऊपर प च ं गए ह। रावण क मृ यु के कारण िनभय होकर व कलधारी
तप वी लोग ब त काल से छोड़ी ई अपनी पि य क झ पिड़य को फर से आबाद
कर रहे ह। यह वह थान है, जहां तु ह ढू ंढ़ते ए मने मानो, तु हारे िवयोग के दु:ख से
चुपचाप पड़ा आ एक नूपुर देखा था। हे भी ! जब म वृ और लता से यह पूछता
फरता था क सीता कहां गई, तब मुंह से न बोल सकने के कारण ये लताएं मानो अपने
प के बोझ से दबी ई शाखा से मुझे वह माग बतला रही थ , िजससे तु ह रा स
उठा ले गया था। ह रिणयां मुझे ाकु ल देखकर कु शांकुर खाना छोड़कर बड़ी-बड़ी
आंख से दि ण दशा क ओर देखती ई, मानो मुझे तु हारा माग बतलाती थ । यह
सामने मा यवान् पवत क आकाश को छू नेवाली चोटी दखाई देती है, जहां नये मेघ ने
पानी और मेरी आंख ने िवयोग के आंसू साथ ही साथ बरसाए थे। इस पवत पर तु हारे
िबना रहते ए बरसात के दन म वषा क जलधारा से चोट खाए ए जोहड़ क
ग ध, नीम के अधिखले फू ल, और मयूर क मीठी के काएं भी मुझे क द तीत होती
थ । देखो, वह तटवत बत के झुरमुट से आ लंिगत और अ प दखाई देने वाले चंचल
सारस से सुशोिभत प पा का जल दखाई देता है, इस कारण उसपर पड़ी ई दृि
सुगमता से हटने का साहस नह करती। इस प पासर म जब म चकवा और चकवी को
एक-दूसरे पर फू ल क के सर डालते देखता था, तब तु हारी याद आती थी। यह
गोदावरी नदी है। हमारे िवमान म लगी ई घं टय का वर सुनकर, नदी तट क सारस
अपने सािथय के वर के म से, आकाश म उड़कर मानो तु हारा वागत कर रही ह ।
अब हम पंचवटी के पास प चं गए। यहां कोमल शरीर होते ए भी, घड़ के पानी
से स चकर तुमने आम के पेड़ को बड़ा कया था। यहां के कृ णसार मृग इस समय भी
मानो पूव-प रचय के कारण ऊपर क ओर देख रहे ह। तु हारी मधुर मृितय के कारण
यह थान आज भी मेरी दृि को आनि दत कर रहा है। मुझे याद आता है क एक बार
म िशकार करके थका आ आया था और गोदावरी के तट पर वानीर के कुं ज म, तु हारी
गोद म िसर रखकर लेटा था, तब शीतल वायु से भी थकान उतर गई थी और म सो
गया था। ोध म आते ए िजस ॠिष के माथे क के वल िसकु ड़न ने न ष को वग से
नीचे िगरा दया था, उस अग य मुिन का पृ वी क मिलनता को िवशु करने के
िनिम से बनाया आ भौम आ म यह पर है। उस िवशु क त ॠिष के ेताि के
य कु ड से उठा आ गगन ापी सुगि धत धुआं यहां तक भी प च ं रहा है, िजसे
सूंघकर मेरी अ तरा मा शाि त का अनुभव कर रही है।
और वह देखो, जंगल से िघरा आ शातक ण मुिन का पंचा सरस नाम का
डासर ऐसे शोभायमान हो रहा है मानो मेघ के बीच म च मा हो। यहां चार
य ाि य के बीच म समािध थ मुिन सुती ण तप या कर रहे ह। चार ओर अि है,
माथे को सूय क ती करण तपा रही ह। यह मुिन नाम से सुती ण होता आ भी
वभाव से शा त है। अ सरा ने इसके तप को भंग करने के िनिम अनेक भाव-
भंिगमाएं दखा , पर तु उ ह सफलता ा नह ई। मौन ती होने के कारण मेरे
नम कार को िसर िहलाकर अंगीकार करके , िवमान के सामने से हट जाने पर ॠिष ने
अपनी दृि फर सूय क ओर लगा दी है। वह जो शरणागत क र ा करनेवाला
न दीवन दखाई दे रहा है, वहां शरभंग ॠिष ने िचरकाल तक सिमधा से य ाि को
तृ करके अंत म अपने वेदपाठ से पिव शरीर क आ ित दे दी थी। ॠिष के पीछे
आ म म आनेवाले अितिथय क सेवा का भार शीतल छाया और उ म फल से यु
वृ पर पड़ा है, जो सुपु क भांित उसे िनभा रहे ह।
वह िच कू ट पवत है। उसक मुख के समान गुफा से झरन का िनझर-नाद
सुनाई दे रहा है और ृंग के सदृश चो टय पर मंडराते ए बादल क चड़ के समान
तीत होते ह। म त सांड क भांित म तक उठाकर खड़े ए उस पवत पर आंख मानो
बंध जाती ह। पास ही म दा कनी नदी बह रही है, जो शा तभाव से चलने और दूरी के
कारण सू म दीखने के कारण भूिम के गले म पड़ी ई मोितय क माला के सदृश
दखाई देती है। और पवत के समीप ही वह तमाल का वृ है, िजसक सुग धयु
क पल लेकर तु हारे जौ के समान रं गवाले शरीर क शोभा बढ़ाने वाला के श का जूड़ा
बांध दया था। वह आगे अि मुिन का आ म है। मुिन के तपोबल से िनभय हो जंगली
ज तु सौ य बने रहते ह, और पु प के िबना ही वृ फल देते ह। इस आ म के वृ भी
शा त मु ा के कारण समािध म बैठे ए मुिनय के समान तीत होते ह। वह जोहड़
का वृ फलवान होने से ग ड़ के रं ग क मिणय से जड़ा आ दखाई देता है। यह वही
वृ है, िजससे तुमने िवनयपूवक ाथना क थी क मेरा पित अपने त को
कु शलतापूवक पूरा करे ।
वह आगे गंगा-यमुना का संगम- थान है। गंगा के ेत और यमुना के कृ णवण जल
के िमलने से अ भुत शोभा उ प होती है। कह इ -नील मिणय से जड़ी ई सफे द
मोितय क माला दखाई देती है तो कह नीले रं ग के उ पल म गुंथी ई ेत कमल
क पंि दृि गोचर हो रही है। कह छाया म िछपी ई चांदनी-सी छिव िछटक रही है,
तो कही र थान म से दीखनेवाले नीले आकाश से िचतकबरे ेत मेघ क पंि -सी
भािसत हो रही है। समु क इन दोन सहध मिणय के पर पर संगम म ान करके
मनु य त व ान को ा कए िबना भी शरीर के बंधन से मु हो जाते ह। और यह
िनषाद के राजा गुह क नगरी आ गई, जहां मने म तक पर से मुकुट उतारकर जटाएं
बांधी थ , तब रोकर सुम त ने कहा था–‘कै के यी, आज तेरी कामनाएं सफल हो ग ।’
सीते! यह सर है, और उसके आगे अयो या के पास बहनेवाली सरयू नदी है,
िजसम इ वाकु वंश के राजा अ मेध य के अवसर पर ान के िलए उतरते रहे ह,
और िजसके तट पर आज भी य के यूप खड़े ए ह। यह सरयू उ र कोसल देश के
िनवािसय को अपने जल पी दु ध से पालकर बड़ा करती रही है, इस कारण मेरे दय
म इसके ित धा ी क -सी भावना है। इसक उठती ई तरं ग को देखकर मुझे भान
होता है क मा य वामी से िवयु मेरी माता के समान यह भी हाथ फै लाकर मुझे गोद
म ले रही है। वह देखो, सायंकालीन स या के समय क भांित अ त र लाल-लाल हो
रहा है। म समझता ं क हनुमान से हमारे आने का समाचार पाकर सेना-सिहत भरत
मेरी अगवानी को आ रहा है। तीत होता है क जैसे खरा द रा स को मारकर लौटने
पर ल मण ने सवथा सुरि त और पिव दशा म तु ह मेरे हाथ म स प दया था, उसी
कार ित ा का पालन करके घर लौटने पर यह तप वी अछू ती रा य-ल मी को मुझे
स प देगा।
वह देखो, सब कु छ प दखाई देने लगा है। आगे गु विस ह, पृ भाग म सेना
है। म य म बूढ़े मि य के साथ मुिन-वेशधारी भरत अ य क साम ी हाथ मे िलए आ
रहा है। मेरी अपे ा कम आयु का होने पर भी इसने मेरे ित ेम के कारण िपता ारा
छोड़ी ई रा य-ल मी का उपभोग न करके अिसधारा त का पालन कया है।
जब राम के यह वचन समा ए, तो वामी क इ छानुसार पु पक िवमान
आकाश से भूिम पर उतर आया। भरत क अनुयाियनी जा ऊपर उठाए ने से उस
अ भुत िवमान को देख रही थी। िवभीषण रा ता दखाता आ पहले उतरा। सेवा म
वीण सु ीव ने उतरने के िलए हाथ का सहारा दया। इस कार फ टक क सु दर
सी ढ़य पर पांव रखते ए राम िवमान पर से भूिम पर उतरे । पहले राम ने इ वाकु वंश
के गु ॠिष विस को णाम कया, फर अ य हण करके सजल ने से तप वी
भरत को गले लगाया, और िसर को सूंघा! लटकती जटा वाले बड़ के पेड़ के समान
ल बे-ल बे बाल वाले मि य के णाम का ेमपूण दृि और कु शल- ारा उ र
दया। राम ने ‘यह वानर का राजा मेरा आपि के समय का ब धु है’ और ‘यह यु म
आगे बढ़कर वार करने वाला पौल य ह, इन श द के साथ जब सु ीव और िवभीषण
का प रचय कराया तो भरत ने भाई ल मण को छोड़कर पहले उन दोन को णाम
कया। उसके प ात् भरत ल मण क ओर मुड़ा। पांव पड़े ए ल मण को हाथ उठाकर
उसने छाती से लगाया, और उसके मेघनाद के हार के कारण कठोर सीने को अपने
सीने से दबाया।
तब भरत को साथ लेकर राम फर िवमान पर आ ढ़ हो गए। वह महावाराह
ारा जल- लय से उ ार क ई पृ वी और शीत ॠतु ारा मेघ के फ दे से छू टी ई
च क भा क भांित राम ारा आपि य से मु क ई धैयमू त सीता िवराजमान
थ । भरत ने उ ह णाम कया। रावण के बार-बार झुकने पर भी सीता के जो चरण,
धम पर अिडग रहे, उनपर बड़े भाई से कए ए ण का पालन करने से जटाधारी
दृढ़ ती भरत का म तक झुक गया। यह संयोग उन दोन के िलए और भी अिधक पिव
करनेवाला बन गया।
लगभग आधा कोस तक राम का िवमान ब त धीरे -धीरे चलकर अयो या के
समीप उ ान म ठहर गया। वहां पूजा क साम ी िलए श ु पहले से प च ं ा आ था।
सब लोग उस थान पर िवमान से उतर गए।
वैदेही-वनवास

अयो या के उपवन म प च ं कर राम और ल मण ने एकमा आ य वृ के कट जाने से


िनराधार लता के समान वैध -शोक से मुरझाई ई माता के दशन कए। श ु
का िवनाश करके आए ए दोन पु ने जब अपनी माता को णाम कया, तो
अ ु के कारण दृि के क जाने से वे दृि से देख ही न सक । हां, पु - पश क
वाभािवक अनुभूित से उ ह ने पहचान िलया। जैसे गम से तपे ए गंगा और सरयू के
जल को पहाड़ से आया आ बफानी जल शीतल कर देता है, वैसे ही उनके पित-िवयोग
के गम आंसु को पु - ाि के शीतल आंसु ने शांत कर दया। जब माता ने पु
के शरीर को छू कर देखा तो थान- थान पर रा स के श ारा कए ए घाव
तीत ए। उस समय उ ह ने अनुभव कया क ाणी के िलए वीर माता बनना
के वल सुखकर ही नह है, दु:खकर भी है। म अपने पित के दु:खा का मूल हेतु होने के
कारण कु ल णा सीता णाम करती ’ं , यह कहती ई सीता वगवासी सुर क
रािनय के चरण म अभेद-भाव से झुक गई।
‘बेटी! उठ, दोन भाई तेरे शु च र के कारण ही इस महान् संकट से पार हो
सके ह’–ऐसा सुमधुर स य वा य कहकर माता ने सीता को आ ासन दया। उसके
प ात् माता के आन दा ु से राम का जो अिभषेक आर भ आ था, वृ अमा य
ने उसे तीथ से लाए ए जल के वणघट ारा पूरा कर दया। जब रा स तथा
वानर ारा लाए ए समु , नदी और तालाब के जल से राम को ान कराया गया,
तब वह मेघ से बरसते ए जल थािपत िव धाचल के समान शोभायान हो रहे थे। वन
को जाते ए जो राम तपि वय का वेश पहनकर भी अ य त सुंदर दखाई दए थे,
रा यािभषेक के यो य वेशभूषा धारण करके उनक शोभा ि गुिणत हो उठी। जब
रा यािभषेक के प ात् राजा राम ने अपने अमा य, रा स और वानर िम तथा
सेना के साथ कु ल क पुरातन राजधानी अयो या म वेश कया, तब हषसूचक तूय
आ द वा से आकाश गूंज रहा था, जो क जाजन के दय म आन द क लहर
उ प कर रहा था। मकान क छत से लाजा-वषा हो रही थी, और नगरी तोरण से
सजी ई थी। रथ म िवराजमान राम के िसर पर ल मण चंवर डु ला रहे थे, और भरत ने
छ धारण कया आ था। रघुवीर क सहध मणी सीता को ुजन ने व और
अलंकार से खूब सजा दया था। वे राम-रथ के साथ छोटे-से सु दर रथ म बैठकर जा
रही थ । साके त क मिहलाएं घर के वातायन म से उस तपोमयी देवी को हाथ
जोड़कर नम कार कर रही थ । मुिन-प ी अनसूया ारा दए ए न न होने वाले
अंगराग से जगमगाती ई तेजि वनी जानक को नगर-िनवािसय ने उसी दीि मय प
म देखा, िजसम परी ा के समय अि से िघरे होने पर राम ने देखा था। सब कार क
आराम देने वाली साम ी से सजे ए भवन म सु ीव, िवभीषण आ द िम के ठहरने
क व था करके जब राम ने अपने िपता के उस भवन म वेश कया, िजसम िपता
के वल िच प म िवराजमान थे, तब उनक आंख म आंसू आ गए। कै के यी ल ा और
संकोच के कारण राजभवन से बाहर नह गई थ । भवन म वेश करके राम ने उनके
चरण म झुककर णाम कया, उनक ल ा को दूर करने के िलए कहा–माता, य द
हमारे िपता स य से न होकर वग के अिधकारी बने रहे, तो यह तु हारे ही सुकृत
का फल था।
रा यािभषेक क िविध समा होने पर महाराज राम ने सब अ यागत का
यथोिचत आदर-स मान कया। सु ीव-िवभीषणा द िम को भांित-भांित के ब मू य
उपहार से स तु कया और ॠिष-मुिनय का कथा- वण और पूजन ारा अिभन दन
करके उ ह िवदा कया। मुिनय के जाने पर वयं सीतादेवी ने उन रा स और वानर
को, िजनके अयो या के दन सुखपूवक रहने के कारण ण क तरह तीत हो गए थे,
िविवध पा रतोिषक से स मािनत करके अपने-अपने घर को लौटने क अनुमित दे दी।
कै लाश के वामी कु बेर ने अपना पु पक िवमान रावणनाश पी िजस उ े य क पू त के
िलए भेजा था, वह पूरा हो गया, यह सोचकर महाराज ने िवमान को अपने वामी के
पास जाने क आ ा दे दी ।
वनवास से िनवृ होकर और िविधपूवक संहासन पर आ ढ़ होकर राम अथ,
धम और काम तीन का समान प म पालन करने लगे। सब भाइय और माता म
भी वे एक-सा ीितभाव रखते थे। महाराज राम लोभ से शू य थे, इस कारण जा
समृ थी। वे श ु का िवनाश करते थे, फलत: देश म य ा द याएं िन व होती
थ । वे िनयम का पालन कराते थे, अत: जा उ ह िपता मानती थी, और वे उनक
सेवा करते थे, इससे देश के िनवासी अपने को पु वान् मानते थे। राम दन-रात जा के
पालन म लगे रहते थे, साथ ही वे गृह थ धम के पालन म भी मादी नह थे। सा ात्
शरीरधा रणी ल मी के समान शाि तमयी प ी जानक उनक धम, अथ और काम-
ाि क संिगनी बनी ई थी। राम ने अपने भवन म वनवास क घटना के िच
बनवाए थे। उ ह देखकर दोन ने तीत दु:ख का मरण करके स तोष-सा अनुभव
कया।
कु छ समय प ात् सीता के ने क बढ़ी ई मधुरता और मुख पर छाई ई
सफे दी को देखकर राम ने समझ िलया क वह ग भणी है। अ र के िबना कहे ए इस
समाचार से राम का दय अ य त आनि दत आ। जानक का िसर गोद म लेकर,
एका त म राम ने दोहद ल ण से यु जानक से कहा क तुम अपने मन क
अिभलाषा बताओ, म उसे पूरा क ं गा। साि वक भाव क पुतली सीता ने उ र दया
क मेरा मन गंगा-तट पर बने ए उन कु शा वाले तपोवन म जाने को करता है जहां
हंसक ज तु भी वन पित खाकर स तोष करते ह और जहां तपि वय क क या से
ेम-स ब ध थािपत होता है। राम ि या क इस इ छा को पूरा करने का वायदा करके
अपने िव त पु ष के साथ स ता से भरपूर नगर मण को िनकल पड़े। अयो या
को देखकर स तोष आ क राजमाग क दूकान पर य-िव य क धूम है। सरयू
याि य और व तु को उस पार तथा समु तक ले जानेवाले नौका से भरी ई है
और नगर के उपवन म िवहार करनेवाले नाग रक क भीड़ है। जा क सुख-समृि से
स तु होकर महाराज ने अपने गु दूत से पूछा क या पुरवािसय म मेरे िवषय म
कोई ितकू ल कं वदि तयां भी फै ली ई ह? पहले तो गु दूत इ कार करता रहा, पर तु
ब त आ ह करने पर उसने उ र दया क हे देव, के वल इतनी बात को छोड़कर क
आपने रा स के घर म रही ई देवी जानक को अपने घर म थान दे दया है, अ य सब
बात म जाजन आपके च र क भू र-भू र शंसा करते ह। िवशु च र वाली प ी
क िन दा के कारण होने वाली अपक त का कठोर समाचार सुनकर महाराज राम का
दय ऐसे िवदीण हो गया जैसे लोहे के घन क चोट खाकर तपा आ लोहा िवदीण हो
जाता है। उनके सामने धम-संकट उपि थत हो गया। वे सोचने लगे क या म अपने
अपयश क चचा क उपे ा कर दू,ं अथवा अपनी दोषरिहत सती प ी का प र याग कर
दू!ं िचरकाल तक उनका मन स देह के झूले म झूलता रहा। अ त म उ ह ने िन य कया
क अपयश को धोने का अ य कोई उपाय नह है, इस कारण प ी का प र याग क ं गा,
यशोधन ि यश को इि य क सुख-साम ी से तो या, शरीर से भी अिधक
मू यवान् मानते ह।
राम ने अपने सब भाइय को बुलाकर शहर म फै ली ई िन दा क बात सुना तो
वे लोग अपने बड़े भाई को िचि तत देखकर ब त दु:खी हो गए। राम ने उनसे कहा–
तुम लोग देखो क सूय से उ प ए इस राज षय के कु ल पर सवथा सदाचारी
होते ए भी मेरे कारण इस कार कलंक लग रहा है, जैसे बरसाती हवा के झ के से
दपण पर ध बा पड़ जाता है; जैसे बांधने वाला खूंटा गज के िलए अस होता है, वैसे
ही पानी म तेल क भांित फै लते ए इस अपयश को म नह सह सकता। इस अपयश को
िमटाने के िलए म जानक का प र याग क ं गा। म जानता ं क वह स तानवती
होनेवाली है, पर तु पहले भी िपता क आ ा पी धम का पालन करके मने र गभा
वसुंधरा का प र याग कर दया था। म जानता ं क वैदह े ी सवथा िन कलंक है– पर तु
म लोकिन दा को ब त बलवान मानता ।ं िवशु च मा पर पृ वी क जो छाया
पड़ती है, लोक ने उसे स य मानकर च मा पर कं लक होने का आरोप लगा दया है। हो
सकता है, तुम लोग सोचो क फर रावण के वध म समा होनेवाले मेरे य िन फल
हो जाएंगे। उनका उ े य आततायी को द ड देकर अपकार का बदला लेना था, वह पूरा
हो गया। ठोकर मारनेवाले पांव को सांप या र पीने क इ छा से डंसता है? य द तुम
चाहते हो क म िचरकाल तक िन कलंक जीवन तीत क ं तो क णा के भाव म
आकर मेरे संक प का िवरोध न करना।
जब जानक के ित खाई से भरे ये श द भाइय ने सुने तो उसम से कसी क न
िनषेध करने क िह मत ई और न अनुमोदन करने क । तब अलग ले जाकर महाराज
ने अपने आ ाकारी भाई ल मण को ‘हे सौ य’ इस कार स बोधन करके आ ा दी क
तु हारी भाभी गभवती होने के प ात् तपोवन जाने क इ छा कट कर चुक है, सो
इसी िनिम तुम उसे वा मी क मुिन के आ म म ले जाकर छोड़ आओ।
ल मण ने सुन रखा था क परशुराम ने िपता क आ ा से श ु क तरह माता का
िसर उतार दया। गु क आ ा पालन करने म आगापीछा करना अनुिचत है, इस
भावना से उसने बड़े भाई के आदेश को वीकार कर िलया। ल मण ने सीता को सूचना
दी क महाराज ने उनक इ छा-पू त के िलए गंगातीर पर बने ए आ म पर जाने क
आ ा दे दी है। इस अनुकूल समाचार से स होकर वह सौिम ारा लाए ए, िनभय
और सुसं कृ त घोड़ से यु रथ म बैठकर ल मण के साथ आ म क ओर रवाना हो
गई। जब रथ उन मनोहर देश म से होकर जा रहा था तो जानक उसे देखकर मन ही
मन सोचती थी क मेरा पित कतना अ छा है क उसने मेरी ि य अिभलाषा इतनी
शी पूरी कर दी। उस बेचारी को या पता था क जो दूसर के िलए क पवृ था, वह
उस समय उसके िलए तलवार क तरह काटनेवाले प वाला अिसवृ बना आ है।
रा ते म ल मण ने सीता से स ी पर तु अि य बात नह कही, तो भी दािहनी आंख
फड़कने से जानक ने कसी भावी अनथ का अनुमान लगा िलया और मन ही मन
महाराज और उनके छोटे भाइय के क याण क ाथना करने लगी।
रथ गंगा के तट पर प च ं कर क गया। ल मण ने गंगा क ओर दृि डाली तो उसे
तीत आ, मानो गंगा अपने तरं ग- पी हाथ को उठाकर उसे ऐसा अ यायपूण काय
करने से रोक रही है। सुम ने रथ से उतरकर घोड़ को संभाल िलया तो ल मण ने
अपनी भाभी को भी गंगा तट पर उतार िलया और िनषाद ारा लाई ई नौका पर
बैठकर नदी को ऐसे पार कर िलया जैसे स य ित ि अटू ट िन य क सहायता से
अपनी ित ा के पार लग जाता है ।
गंगा के पार प चं कर, ल मण ने ब त य पूवक अपनी लड़खड़ाती वाणी को और
उमड़ते ए आंसु को दबाकर, महाराज क लय-काल के मेघ से बरसनेवाली
िशला क वषा के सदृश कठोर आ ा सीता को सुनाई। उस आ ा को सुनकर और
पराजय और अपमान क आंधी से चोट खाई लता क तरह आभूषण पी पु प को
िबखेरती ई सीता बेहोश होकर अपनी जननी पृ वी क गोद म लेट गई।
इ वाकु वंश म उ प आ, आय-च रतवाला पित इसे कै से याग सकता है, मानो
यह सोचकर पृ वी माता ने उस समय जानक को अपने अ दर शरण न दी। जब तक
सीता चेतनाहीन रही, दु:ख क अनुभूित से दूर रही, पर तु य ही उसे चेतना आई,
दय म वेदना क आग-सी जल उठी। ल मण के य से ा ई चेतना उसके िलए
मोह क अपे ा अिधक क दायक िस ई। उस अगाध दु:ख के समय भी सवथा पाप
से शू य सीता ने पित के दोष क बात नह कही, वह िनर तर दु:खी रहने के िलए, खोटे
कम को कारण मानकर, अपने आपको ही कोसने लगी। ल मण ने भाभी को सा वना
देकर वा मी क मुिन के आ म का माग बतला दया और ‘हे देवी! म बड़े भाई का
आ ाकारी होने से िववश ।ं मेरा अपराध मा करना’ ! कहकर सीता के चरण म
िगर पड़ा। सीता ने उसे उठाकर कहा–
सौ य, म तुझसे स ।ं तू िचरजीवी हो। जैसे भूपे िव णु अपने बड़े भाई इ
क आ ा से बंधा आ है, वैसे ही तू भी अपने बड़े भाई का पराधीन है। तू घर वापस
जाकर सब माता को म से मेरा णाम कहना, और मेरी ओर से िनवेदन करना क
मेरे शरीर म आपके पु क जो संतान गभ- प म िव मान है, उसे आशीवाद दीिजए
और मेरी ओर से उस राजा से कहना क तुम तो अि -परी ा ारा मेरे च र क
िवशु ता को जान चुके थे, फर भी के वल झूठे लोकापवाद को सुनकर तुमने मेरा याग
कर दया, या यह काम यश वी रघुकुल के यो य आ है? पर तु तुम बुि मान हो।
तुमने मेरे साथ जो कु छ कया, उसमे दोष क आशंका य क ं ? म समझती ं क यह
अस व ाघात मेरे ही पूवज म के पाप का फल है। जब सा ा य क ल मी तु हारे
चरण म लोट रही थी, तब उसे छोड़कर तुम मेरे साथ वन को चल दये थे। उस
असिह णु ल मी ने अिधकार पाते ही अपना बदला ले िलया। उसने मुझे तु हारे भवन
से िनकालकर बाहर कर दया। तुमने मुझे शरणा थनी बनाकर दूसर के साथ भेज दया
है। वनवास के समय रा स के उ पात से पीड़ा पाए ए वनवािसय क ि य को म
तु हारे बल पर शरण दया करती थी। तु हारे जा व यमान रहते आज म शरणा थनी
बनकर उ ह वनवािसय के पास कै से जाऊंगी! म तो तु हारे ारा प र य होने पर
इस अपमािनत जीवन को ही समा कर देती, पर तु या क ं , मेरे शरीर म तु हारा
जो तेज गभ के प म िव मान है, वह मुझे आ मघात से रोकता है। सो म स तान होने
तक सूय म यान लगाकर तप या करने का य क ं गी, िजससे दूसरे जीवन म भी
तु ह मेरे पित बनो, और तब इस जीवन क तरह हमारा िवयोग भी न हो। मनु ने
आदेश दया है क वण और आ म क र ा करना राजा का धम है; इस कारण य िप
तुमने मुझे घर से िनकाल दया है, तो भी साधारण तपि वनी समझकर मुझपर अपनी
सुर ा का हाथ तो रखना ही।
ल मण ने सीता देवी का स देश िसर झुकाकर सुना और आ ासन दया क वह
उसे महाराज तक प च ं ा देगा। तब ल मण वहां से चला गया। उसके जाने पर सीता
फू ट-फू टकर रोने लगी। उसके रोने का श द सुनकर मोर ने नाचना, वृ ने फू लना और
ह रिणय ने मुंह का कु शा ास छोड़ दया। उस सती के दु:ख से दु:खी होकर मानो सारा
तपोवन रो पड़ा।
उसी समय कु शा और धन के संचय के िलए घूमते ए मुिन वा मी क, च-वध
से दु:खी हो, िजनक आ मा से सव थम ोक कट आ था, सीता के रोने का श द
सुनकर वहां आ प च ं े। मुिन को देखकर सीता ने आंख पर छाए ए आंसु को प छ
डाला और िवलाप छोड़कर चरण म झुककर णाम कया। मुिन ने उसके चेहरे को
देखकर पहचान िलया क वह दोहद के िच से यु है और सुपु वती होने का
आशीवाद दया। फर कहा–
म समािध ारा जान चुका ं क तुझे, झूठे अपवाद से घबराकर, तेरे पित ने याग
दया है। बेटी, इसका दु:ख मत करना। तू यहां अपने िपता के दूसरे घर म ही आ गई है।
तीन लोक के क दायी कांट को िनकालने वाले, ित ा को पूण करनेवाले, और
िवनयशील राम ने िनद ष होते ए भी तेरे साथ दोषी जैसा वहार कया–इस कारण
राम से म ।ं तेरा यश वी सुर मेरा िम था। तेरा िपता िव ान को भी
मो संबंधी उपदेश देनेवाला है, तू वयं पित को देवता माननेवाली सती ि य म
मूध य है, ऐसी कौन-सी चीज़ है जो तुझे मेरी सहानुभूित का पा नह बनाती? सो
पु ी, इस तपोवन म, जहां तपि वय के साथ रहने के कारण हंसक ज तु भी अ हंसक
बन जाते ह, तू िनभय होकर िनवास कर। स तान होने पर उनके जातकमा द सं कार
यह पर हो जाएंगे। मुिनय के तटवत आ म से सुशोिभत, पाप का हरण करने वाली
सरयू म ान और उसक रे ती म इ देवता का पूजन करने से तेरे मन क उदासी
जाती रहेगी । मुिनय क वा पटु क याएं ॠतु के पु प , फल और वयं ही उ प
होनेवाली बिल के यो य चीज़ को जंगल से ला-लाकर तेरे नवीन दु:ख से घायल मन
को बहलाया करगी। आ म के न ह-न ह पौध को शि -अनुसार घड़ के जल से
स चकर, स तान-उ पि से पहले ही तू ब को दूध िपलाने का सुख ा कर सके गी।
इस कार आ ासन देकर, ॠिष वा मी क जनक-नि दनी को अपने आ म म ले
गए, और उसे उसके दु:ख से दु:खी स दय तपि वय के हाथ म स प दया। तपि वय ने
राि के समय सीता के िनवास के िलए जो कु टीर स कया, उसम इं गुदी के तेल से
दीपक जलाने क व था थी और शु मृग-चम का िब तर िबछा आ था। वहां
व कल-धा रणी सीता ित दन ान से िवशु होती और अितिथय क सेवा का पु य-
लाभ करती ई, पित क स तान के िनिम जीवन-या ा तय करने लगी।
स भव है, अब महाराज के मन म दया का भाव उ प हो जाए ऐसा सोचकर
ल मण ने सीता का दया आ क णा-जनक स देश अपने बड़े भाई को सुना दया। उसे
सुनकर राम क आंख म सहसा आंसू आ गए, जैसे पौष माह का च मा ओस से धुंधला
हो जाता है। कारण यह क राम ने सीता को बदनामी के डर से पृथक् कया था, मन से
पृथक् नह कया था। शी ही राम ने शोक के आवेश को धैय से दबा िलया और सब
भाइय के साथ िमलकर आसि से शू य होकर शासन के काय म लग गये। राजल मी
मानो सौत के हट जाने से िनि त होकर, राम क बगल म सुख से िव ाम करने लगी।
जब सीता को यह समाचार िमला क उसका प र याग करके राम ने दूसरा िववाह नह
कया, और यह भी सुना क अ मेध य म सहध मणी के थान पर उसक वणमयी
मू त को थािपत कया गया है, तब पित-िवयोग का ब त भारी दु:ख भी उसे कु छ स
तीत होने लगा।
राम का शरीर- याग

सीता का प र याग करने पर राम एकिच होकर र ाकर-मेखला पृ वी का शासन


करने म लग गए। यमुना-तट पर तप या करनेवाले मुिन लोग को लवण नाम का
रा स दु:खी करता था। वे लोग र ा क ाथना लेकर महाराज के पास आए। राम पर
भरोसा करके उ ह ने रा स पर अपने तपोबल से हार नह कया। तप वी लोग अ य
कोई उपाय न होने पर ही शाप देने म तप का य करते ह । राम ने उ ह र ा का
आ ासन दे दया। भगवान पृ वी पर धम क र ा के िलए शरीर धारण करते ह।
मुिनय ने राम को लवण को मारने का उपाय बतलाते ए कहा क शूलधारी लवण को
जीतना क ठन है, ऐसे समय उसपर आ मण करना चािहए, जब उसके पास शूल न हो।
महाराज ने मानो नाम साथक करने के िलए श ु को श ु का नाश करने क आ ा दे
दी। बड़े भाई से आशीवाद ा करके श ु माग के रमणीक वन- थल को देखता आ
लवण पर िवजय के िलए चला। राम ने पीछे से सहायता के िलए जो सेना भेजी, वह
ऐसे साथक ई जैसे धातु के साथ लगा आ सहायक उपसग। श ु का नाश करने के
िलए जाते ए उसे ॠिष लोग माग-दशन कर सहायता देते थे। रा ते म ॠिष वा मी क
का आ म पड़ा। शु ने एक रात वहां िनवास कया। तप के भाव से जुटाई ई अनेक
कार क िचकर व तु से ॠिष ने उसका वागत कया। िजस रात श ु ने ॠिष
के आ म म िव ाम कया, उसी रात सीता ने दो राजकु मार को ज म दया।
दूसरे दन ात:काल राजकु मार के ज म से स मन होकर श ु ने िवजय-
या ा के िलए याण कया। अ त म वह रावण क बिहन कु भीनसी के पु लवण क
मधुप नाम क नगरी के समीप जा प च ं ा, जहां लवण ने कर क भांित भोजन के िलए
वन से लाकर तरह-तरह के ािणय को इक ा कर रखा था। लवण का धुएं जैसी
कािलमा िमला आ लाल रं ग था, उसके शरीर से चब क ग ध आ रही थी, उसके आग
क तरह लाल-लाल बाल थे, और वह मांस खाने वाले रा स से िघरा आ था–मानो
चलती- फरती िचता क आग हो। श ु ने जब उसे शूलरिहत पाया, तभी उसपर
आ मण कर दया। यु म उ ह को जय ा होती है, जो श ु क िनबलता के समय
उसपर हार करते ह। ‘आज मुझे भरपेट भोजन नह िमला था, इससे डरकर मानो
िवधाता ने तुझे मेरे पास भेजा है’–इस कार ललकारकर रा स ने उस पर फकने के
िलए एक बड़े पेड़ को ऐसी सुगमता से उखाड़ िलया जैसे घास को उखाड़ लेते ह। श ु
के बाण ने रा ते म ही वृ को काट दया–फलत: वृ तो उस तक न प च ं ा, के वल
उसके फू ल का रज उड़कर उसके अंग को सुशोिभत करने लगा। वृ के िन फल होने
पर लवण ने यमराज क मुि के समान एक बड़ी िशला उठाकर राजपु पर फक ।
श ु ने उसपर इं ा का हार कया, िजससे वह िशला बालू से भी अिधक सू म
परमाणु म बंट गई। तब रा स अपनी दािहनी भुजा को उठाकर राजपु क ओर
लपका–उस समय रा स आंधी से े रत कए ए ऐसे पवत क भांित तीत हो रहा
था, िजस पर ताल का एक ही पेड़ लगा आ हो। श ु ने रा स के दय पर वै णवा
का हार कया, िजससे िन ाण होकर पृ वी को कं पाता और तपि वय के दयक पन
को िमटाता आ लवण नीचे िगर गया। उस समय रा स के शरीर पर कौए मंडराने लगे
और श ु के िसर पर आकाश से पु प-वषा होने लगी। लवण का नाश करके श ु ने
ऐसा अनुभव कया क मानो अब उसने इ िजत् को मारनेवाले ल मण भैया का भाई
बनने क यो यता ा कर ली हो।
तप या म िव उ प करने वाले रा स के नाश से संतु होकर ॠिष लोग श ु
क शंसा करने लगे तो िवजयी ि य का िसर ल ा से नीचे झुककर अिधक
शोभायमान होने लगा। िवजय के उपल य म श ु ने कािल दी के तट पर मधुरा नाम
के नगर क थापना क । सुखकारी रा य के आकषण से खंचे ए पौरजन के ऐ य के
कारण वह नगरी ऐसी तीत होने लगी मानो वग से छलककर िगरी ई िवभूित से
सजाई गई हो। नये राजमहल क ऊँची अ ािलका म बैठकर जब श ु च वाक वाली
यमुना क धारा को देखता था तो वह भूिम क सोने के ृंगार से यु वेणी-सी दखाई
देती थी।
उधर वा मी क मुिन ने दशरथ और जनक दोन क िम ता को िनभाते ए राम
के पु के िविधवत् सं कार कए। उनक उ पि के समय गभ के लेश को दूर करने के
िलए कु श और लव (गौ क पूंछ के बाल) से सहायता ली गई थी, इस कारण िशशु के
नाम कु श और लव रखे गए। ॠिष ने उ ह वेद-वेदांत क िश ा से प र कृ त और श -
िव ा से शि स प बनाकर, िपता-तु य राजकु मार बना दया।
उ ह दन ॠिष ने रामायण क रचना क , और वह कु श और लव को याद करा
दी। वर-सिहत गाए ए रामायण के ोक म अपने पित का मधुर वृ ा त सुनकर
सीता अपने िवयोग-दु:ख को भूल जाती थी।
राम के अ य तीन भाइय के भी दो-दो पु उ प ए। श ु ने अपने सुबा
और ब ुत नाम के पु को मधुरा म ित ािपत कर दया, और वयं अयो या को
लौट गया। उसने लौटते ए इस भय से क वा मी क के तप म िव न हो, उनके आ म
म डेरा न डाला, और इस कारण कु श और लव के गाए ए ोक को शा त भाव से
सुनते ए मृग वाले आ म का आन द न ले सका ।
अयो या प च ं कर श ु ने सभासद से िघरे ए ीराम को सादर णाम कया।
राम ने भी उसक पीठ पर हाथ रखकर आशीवाद दया। श ु ने राम को िवजय-या ा
के और तो सब समाचार सुना दए, के वल स तानो पि का वृ ांत न सुनाया, य क
वा मी क मुिन ने आदेश दे दया था क उ ह म यथासमय राम के अपण क ं गा, तुम
उनके िवषय म कु छ न कहना।
एक दन नगरिनवासी एक ा ण बा याव था म ही मरे ए अपने पु क लाश
को गोद म लेकर राम के ार पर इस कार दन करने लगा क हे धरती माता, तेरी
शोचनीय दशा है। तू जब से दशरथ से छू टकर राम के हाथ म आई है, िनर तर दीन से
दीन दशा को ा होती जा रही है। इससे पहले इ वाकु वंशज के रा य म कभी
अकाल-मृ यु तो नह होती थी। इस कार ा ण के क का कारण सुनकर जापालक
राम को ब त ल ा आई, और ा ण से थोड़ी ती ा के िलए मा मांगकर उ ह ने
पु पक िवमान का मरण कया। त काल िवमान सेवा म उपि थत हो गया। महाराज
सश हो उसम बैठकर यह देखने चले क इस अकालमृ यु का कारण या है! उस समय
उ ह आकाशवाणी सुनाई दी–‘‘हे राजन्, तु हारे रा य म कोई मयादा-िवरोधी काय हो
रहा है, उसे ढू ंढ़कर शा त करो। तभी तुम कृ तकृ य हो सकोगे ।’ आकाशवाणी से े रत
होकर राम ने िवमान ारा चार ओर दौरा लगाया। उ ह ने देखा क एक वृ क
शाखा से उलटा लटका आ धुएं क भांित धुंधली लाल आंख वाला कोई पु ष तप या
कर रहा है। पूछने पर उसने अपना प रचय दया क वह श बूक नाम का शु है और
देवपद क ाि के िलए तप कर रहा है। जो-जो िव ा ययना द ारा ि ज पद का
अिधकारी नह आ, उसे तप या का अनािधकारी मानकर राम ने द ड देने के िलए
श हाथ म िलया और उसके िहम से कु हलाए ए कमल जैसे िसर को गदन पी नाल
से काटकर अलग कर दया। कठोर तप से भी श बूक को जो पु य ा न होता, वह
महाराज के हाथ से मरने से ा हो गया ।
समया तर म अग य मुिन ने कट होकर समु से ा कया आ द अलंकार
राम को भट कया, िजसे सीता क अनुपि थित म राम उदास मन से हण करके
राजधानी म लौटे, तो उससे पहले ा ण का वह िशशु, िजसे वह मृत समझे ए था,
सचेत हो चुका था। जो ा ण राम क िन दा करता आ अयो या आया था, वह
यमराज से भी र ा करने वाले द पु ष क तुित गाता आ घर को लौटा।
अन तर राम ने अ मेध य करने का िन य कया। जब उ ह ने य के अ को
देश-देशा तर म िवचरण के िलए छोड़ दया, तब िवभीषण, सु ीव तथा अ य
भूपितय क ओर से ब मू य भट क वषा होने लगी। िनमि त ॠिष लोग अपने
तपोवन और द थान को छोड़कर अयो या म एक होने लगे। अ यागत के ठहरने
क व था राजधानी के भीतर और उसके चार मु य ार के बाहर भी क गई। उस
समय अयो या ऐसे तीत होती थी, मानो अपनी बनाई सृि से िगरी ई चतुमुख ा
क मू त हो । एक प ी ती राम ने य -म डप म यजमान-प ी के थान पर सीता क
वणमयी ितमा क थापना क थी–यह भी इ वाकु वंश के यश के यो य ही
शंसनीय काय था। राम के य क यह िवशेषता थी क रा स लोग भी उसके र क
बन गए थे।
उसी अवसर पर ाचेतस मुिन वा मी क क रचना रामायण के ोक म गाते ए
कु श और लव अयो या म घूम रहे थे। राम का पावन च रत, वा मी क जैसा किव, और
क र के समान मधुर वर वाले गायक, सुननेवाल को मु ध करने के िलए और कौन-
सी व तु शेष थी! राम को जब समाचार िमला तो उ सुक होकर भाइय के साथ उसने
उ ह सभा म बुलाया, और रामायण सुनी। जैसे शीत ॠतु के भात म वन-वृ के प
से ओस क बूंद झरने लगती ह, कु श और लव के क णाभरे संगीत को सुनकर सभासद
के ने क वही दशा हो गई। कोई आंख नह थी, िजसम पानी न हो। आंसू और वेश
िभ थे पर तु मुखमु ा वही थी, जो राम क । यह देखकर जनता क आंख क टकटक
नह टू टती थी। लोग को उतना आ य कु मार क संगीत म वीणता से नह आ था,
िजतना उनके ित राम क उपे ा से आ। जब राम ने उनसे वयं पूछा क यह कस
किव क कृ ित है, और तु ह संगीत क िश ा कसने दी है, तो उ ह ने वा मी क मुिन का
नाम िलया। तब राम अपने भाइय को साथ लेकर मुिन के पास गए और सारा रा य
उनक सेवा म भट कर दया। वा मी क मुिन ने राम को कु श और लव के स ब ध म सब
कु छ बताकर रा य के बदले म राम ारा सीता के हण क मांग पेश क । राम ने उ र
दया–
भगवन्, आपक बेटी तो हम सबके सामने अि -परी ा ारा शु िस हो चुक
है। पर तु या कया जाए! यहां क जा उसपर िव ास नह करती। अत: जानक इन
सबके सामने अपने-आपको पिव िस करे तब म आपक आ ा से उसे अंगीकार कर
लूंगा।
राम के ऐसा आ ासन देने पर वा मी क ने अपने िश य ारा सीता को अयो या
म बुला िलया ।
एक दन राम ने राजधानी के नाग रक को एक करके आ दकिव को स देश भेज
दया। ॠिष सीता और बालक के साथ वहां उपि थत हो गये। सीता ने गे ए रं ग के
कपड़े पहने ए थे, उसक आंख अपने चरण क ओर झुक ई थ , और मू त शा त थी।
यह सब कु छ देखकर अनायास ही यह अनुमान होता था क वह देवी सवथा िनद ष है।
जब सीता जी सामने आ तब लोग फल के बोझ से लदे ए धान के पौध क तरह,
दूसरी दशा को मुंह करके , नीचे क ओर देखने लगे। योगासन म बैठे ए वा मी क मुिन
ने राम के सामने आदेश दया क ‘बेटी, जा के संशय को दूर करो!’ मुिन के िश य
ारा दये ए जल से आचमन करके सती सीता ने स े दल से इस कार ाथना क –
‘हे माता वसु धरे , य द मने कभी मन, वाणी या कम से अपने पित के अित र
अ य कसी से स पक नह कया तो मुझे अपनी गोद म िछपा ले।’
सती का वचन पूरा होते ही पृ वी फट गई, और उसम से िबजली क तरह
चमकता आ योित का एक िप ड कट हो गया। लोग ने आ यच कत ने से देखा
क योित के उस म डल म नाग-फण ारा उठाए ए संहासन पर समु -मेखला
पृ वी वयं िवराजमान है। उसने आकर सीता को अपनी गोद म ले िलया, सीता भाव-
भरे ने से अपने पित क ओर देख रही थी, और राम ‘ठहरो ठहरो’ िच ला रहे थे क
पृ वी माता सीता को गोद म लेकर िवलीन हो गई। उस समय राम को पृ वी पर ब त
ोध आया और उसने अपने धनुष क ओर हाथ बढ़ाया। ॠिष ने उसे समझाकर शा त
कर दया क दैव क यही इ छा थी और दैव क इ छा टल नह सकती। अत: ोध
करना थ है।
य क समाि पर राम ने ॠिष और राजा को आदर सिहत िवदा कर
दया, और उसके दय म सीता के ित जो ेम था, सीता के पु म उसे के ि त कर
दया। भरत के मामा युधािजत् के आदेश से राम ने िस धु देश भरत को स प दया, जहां
प च ं कर भरत ने वहां के ग धव को जीत िलया और उनके हाथ म हिथयार के थान
पर वीणा पकड़ा दी। भरत अपने त और पु फल नाम के पु को उनके नाम से बनाई
ई ‘त ’ और ‘पु कल’ नाम क राजधािनय म अिभिष करके वयं अपने बड़े भाई
के पास लौट आया। महाराज क आ ा से ल मण ने अपने अंगद और च के तु नाम के
पु को कारापथ का रा य स प दया। इसी बीच राम क माता का वगवास हो
गया। सबने उनका यथायो य तपण कया।
एक समय शरीरधारी मृ यु ने राम से एका त म बातचीत करने क इ छा कट
करते ए यह शत लगाई क जो कोई हमको एका त म बात करते देखेगा तु ह उसका
प र याग कर देना होगा। राम के वीकार कर लेने पर काल ने एका त म अपना असली
प द शत करके ा का यह स देश सुनाया क आप वग म िवराजमान ह । उसी
समय ोधी मुिन दुवासा ने ार पर आकर रामच से भट करने क इ छा कट क ।
इसे काल क गित ही समझना चािहए क सब कु छ जानते ए भी ार क र ा के िलए
िनयु ल मण ने वयं ही दुवासा के ोध से डरकर िनयम को भंग कर दया। वह
महाराज से आ ा लेने अ दर चला गया। फल यह आ क ल मण को द ड देना राम के
िलए आव यक हो गया। बड़े भाई को भावना के संकट से बचाने के िलए ल मण ने
सरयू-तट पर योगसमािध ारा अपने शरीर का याग कर दया। राम ने भी िवधाता के
आदेश को िसर नवाकर वीकार कर िलया, और वह कु शावती म कु श और शरावती म
लव को थािपत करके भाइय के साथ य ाि के पीछे-पीछे, उ र दशा क ओर
ि थत हो गया। अपने वामी के ेम से खंचे ए पुरवासी भी घर को छोड़कर साथ
हो िलए। जब वानर और रा स को मालूम आ क महाराज रा य को यागकर वन
क ओर जा रहे ह तो वे कद ब क कली जैसे बड़े-बड़े आंसु को बहाते ए उसी माग
पर चल पड़े। इतने म राम को लेने के िलए पु पक िवमान आ गया। पुरवािसय ने सरयू
म ान करके पु य-लाभ कया। उस समय ान करनेवाल क भीड़ के कारण नदी का
जल ऐसा तीत होता था, मानो गौ के झु ड उसम तैर रहे ह । तभी से वह तीथ
गो तर नाम से पुकारा जाने लगा।
राम ने आततायी रावण का वध, और तपि वय क र ा का काय पूरा करके
शाि त-र ा के िलए उ र म हनुमान और दि ण म िवभीषण को अपने दो
क त त भ के समान थािपत कर दया, और वयं वग िसधार गए। उनक भि म
िजन वानर , रा स तथा पौरजन ने शरीर याग कया, उनके िलए भगवान ने एक
वग क रचना कर दी।
उ रािधकारी कु श

महाराज रामच के परलोक-गमन के प ात् लव आ द अ य सात रघुवंशी राजकु मार


अ ज होने और गुणवान् होने के कारण कु श को अपना बड़ा मानने और उ कृ व तु
से उसका अिभन दन करने लगे। इस िवषय म उ ह ने अपनी कु ल था का ही अनुकरण
कया। वे अपने-अपने अिधकार े म दुग तथा सेतु बनाने, कृ िष, गोर या द क उ ित
करने और गज आ द व य पशु के बांधने और अ य आ त रक ब ध म स रहते थे,
जैसे समु क लहर सीमा उ लंघन नह करत । वे भी अिधकार े क सीमा का
उ लंघन नह करते थे।
आधी रात का समय था। दीपक बुझे ए थे। शयनागार म सोए ए कु श क न द
टू टी तो उसने या देखा क एक ऐसी ी सामने खड़ी है, िजसे उसने पहले कभी नह
देखा था, और िजसक वेश-भूषा िवयोिगनी जैसी थी। स न शासक को ा होने
वाली वाभािवक समृि से यु , इ के समान तेज वी, िवजेता राजा कु श के ित
जय का आशीवाद देकर वह मिहला हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। भवन क कु ि डयां ब द
ह, फर भी जैसे दपण म छाया अनायास ही िव हो जाती है, वैसे ही यह शयनागार
म कै से आ गई? इसपर आ याि वत होते ए कु श ने िब तर पर बैठे ए ही पूछा–
तू ब द ार वाले घर म प चं गई, पर तु देखने से योिगनी तीत नह होती।
साथ ही तूने वेश ऐसा बनाया आ है, मानो पाले से मुरझाई ई कमिलनी हो। बता, तू
कौन है? कसक प ी है? यहां कस उ े य से आई है? इन का उ र साफ-साफ दे।
तू समझ ले क रघुवंिशय का मन कभी पर ी क ओर नह झुकता।
उस ी ने उ र दया।
वगलोक को याण करने क इ छा से जब तु हारे िपता ने िनद ष राजधानी को
छोड़ा था, तब नगरवासी उनके पीछे-पीछे चले गए, और नगरी को खाली कर गए थे। हे
राजन्, तुम मुझे उस अनाथ अयो यापुरी क अिधदेवता जानो। रघुकुल-रा य क
राजधानी होने के कारण जो एक दन इ पुरी को मात दे रही थी, वह म तुम जैसे
सवशि स प सूयवंशी शासक के िव मान रहते अ य त दयनीय दशा को ा हो
गई ।ं मेरी िवशाल और आकाश का छू नेवाली अटा रय ने ख डहर का प धारण
कर िलया है तथा संगीतशालाएं टू ट-फू ट गई ह। मेरा ऐसा प हो गया है जैसे उस
स याकाल का होता है, िजसम सूय अ त हो गया हो, और च ड वायु ने बादल को
िछ -िभ कर दया हो। िजस राजमाग पर कसी दन अिभसा रका क चमकदार
पायल क मधुर विन सुनाई दया करती थी, वहां आज चीखते ए गीदड़ मुंह म मांस
के टु कड़े िलए फरते ह। िजन बाविड़य म और ि य के घड़ म पानी भरने के समय
मृदग ं जैसी मनोहर विन सुनाई दया करती थी, जंगली भैस के स ग से चोट खाया
आ उनका जल आज मानो ची कार कर रहा है। वे ड़ा-मयूर, िजनके नृ य से मेरे
उपवन शोभायमान होते थे, आज वृ पर सोते ह, य क उनके िलए बनाए ए घर
न हो गए ह, मृदग ं का श द लु हो जाने से उनका नृ य ब द है, जंगल क आग ने
उनक कलिगय को जला दया है, और वे िब कु ल जंगली मोर बन गए ह। िजन
सोपान-माग को सु दर ि य के ला ा के रं ग से रं गे ए चरण अलंकृत करते थे,
उनपर, अब ह रण को मारकर र से सने ए पैर वाले ा घूमा करते ह। प वन
म पौरजन के थान पर संह के नखांकुश से घायल हाथी िवचरण करते ह, और
उ ान म लगे ए पु प को ना रय के कोमल हाथ क जगह ब दर न च-न चकर
फकते ह । भवन क सफे दी काली पड़ गई है, इस कारण चांद क मोितय के समान
सफे द चांदनी भी घर पर िति नह होती। िजन गवा म सु दर रमिणय क
आंख चमका करती थ , उनम रात के समय दीपक के अभाव से, और दन म क ड़ के
बनाए ए जाल के कारण अंधकार रहता है। जब म सरयू क रे ती को और ान के
समय काम आनेवाले चूण आ द सुगि धत पदाथ से शू य और वानीर आ द वन पितय
से भरा आ देखती ,ं तो मेरा दय जलने लगता है। हे राजन्, म यह कहने आई ं क
जैसे तु हारे पू य िपता ने मानव-शरीर को इ छापूवक यागकर द शरीर म वेश
कर िलया था, वैसे ही तुम भी इस कु शावती को छोड़कर अपने कु ल क राजधानी म आ
जाओ।
रघुवंश के अ णी कु श ने स मन से अयो या क अिधदेवता क ाथना को
वीकार कर िलया। अिधदेवता भी मुख से स ता कट करती ई अ त हत हो गई।
ात:काल राजसभा म राजा ने रात का सब वृ ा त सुनाया। मा य सभासद ने यह
कहकर उसका अिभन दन कया क राजधानी ने वयं आपको अपना वामी वर िलया
है। कु श ने कु शावती वेद का अ ययन करनेवाले ेि य को स प दी और वयं अनुकूल
दन देखकर प रवार-सिहत अयो या क ओर याण कया।
जैसे बरसाती वायु के पीछे बादल चलते ह, वैसे ही उसके पीछे-पीछे सेना ने भी
थान कया। रा ते म सेना क छावनी ही कु श क राजधानी बन जाती थी। वजा
क पंि यां उपवन के समान शोभायमान होती थ । िवशाल हाथी ड़ा-फू ल के
समान दखाई देते थे, और रथ भवन के थानाप थे। आगे-आगे नरे श क महती
वजा और पीछे-पीछे कोलाहल करती ई सेनाएं – ऐसा तीत होता था, मानो पूण
च मा के भाव से उमड़ता आ समु उनका अनुगमन कर रहा हो। सेना के रथ,
हाथी, घोड़े और पदाितय के उठाए ए रथ को आकाश म उठते ए देखकर भान होता
था, मानो सेना के बोझ को सहन करने म अश होकर, वसु धरा िव णुलोक म
अपनी िशकायत लेकर जा रही हो। या ा क तैयारी म, या ा के समय आगे और पीछे
और उपिनवेश म, जहां भी देखो वहां सेना भरपूर दखाई देती थी। माग म जो धूिल
थी, वह हािथय के मद-वा र से पंक के प म, और जो पंक था वह घोड़ के खुर से
उठाए ए रज के कारण धूिल के प म प रणत हो गया। िव य पवत क घा टय म
अनेक भाग म बंटकर माग ढू ंढ़ती ई और कोलाहल करती ई वह सेना रे वा नदी के
समान तीत होती थी, िजसके कलकल क विन गुफा से ित विनत हो रही थी।
या ा के समय रं गदार प थर के संघष से कु श के रथ के पिहये रं गीन हो जाते थे। याण
के श द म राजक य वा के िमि त हो जाने से तुमुल और मधुर विन आकाश म फै ल
जाती थी और थान- थान पर वनवासी करात िविवध उपहार लेकर उपि थत होते
थे, िज ह कु श आदरपूवक हण कर लेता था। माग म ि वेणी तीथ पर पड़ाव करके
ल बी या ा के प ात् कु श जब सरयू के तट पर प च ँ ा, तब उसे रघुंवशी राजा के
महान् य के िच व प सैकड़ तूप दखाई दए। राजधानी प च ं ने पर फू ल वाले
वृ के पश से सुगि धत, और सरयू क तरं ग से शीतल वायु राजा और उसक थक
ई सेना पर मानो पंखा झलने लगा। नगरी के िभ -िभ भाग म सैिनक के ठहरने
क व था कर दी गई। जैसे गम से तपी ई भूिम को जल से स चकर मेघ नया कर
देते ह, वैसे ही वामी ारा िनयु कारीगर के संघ ने थोड़े समय म सारी नगरी को
नई नगरी का प दे दया।
कु श ने नगरी म वेश करने से पूव देवालय म देवता क िविधपूवक अचना
कराई। वयं मु य राजभवन म ेिमका के दय म ेमी क भांित वेश करके , अ य
अमा य तथा अनुजीिवय के िलए भी िनवास थान क व था कर दी। घुड़शाला
म घोड़े िहनिहनाने लगे, हि तगृह म ख भे से बंधे ए हाथी झूमने लगे और दूकान म
िब क ब मू य साम ी भर गई। उस समय वह पुरी ऐसे शोभायमान हो गई, जैसे
िविवध आभूषण से सुशोिभत सु दर नारी। रघुवंश क पुरानी शोभा से यु राजधानी
म िनवास करते ए राजा कु श को न वग के वामी इ से प ा रही, और न
अलकापुरी के शासक कु बेर से। उसके अयो या म सुखपूवक शासन करते ए ी मॠतु
का आगमन आ। ऐसी ी मॠतु जो पितय क यारी ि य को र से जड़े ए
उ रीय, अ य त ेत छाितय पर हार और सांस से उड़ जाने वाले दुप े पहनना िसखा
देती है। सूय ने दि ण दशा का प र याग करके उ र दशा क ओर याण कया,
मानो इससे स होकर उ र दशा पवत क िपघलती ई बफ ारा हष के आंसू
बहाने लगी। बाविड़य का पानी शैवालवाली सी ढ़य को छोड़कर ित दन नीचे जाने
लगा, िजससे उनक ऊंचाई ान करने वाली रमिणय क कमर तक रह गई। धनी लोग
जलधारा ारा शीतल घर म च दन के जल से धुले ए मिणमय आसन पर सोकर
धूप के समय को काटने लगे। ऐसे ती िनदाघ के आने पर कु श क इ छा हई क लहर
क ेिणय म म त होकर घूमते ए राजहंस वाली, लता से बने ए पु पगृह ारा
सुशोिभत और गम के दु:ख को हरनेवाली सरयू के जल म प रवार-सिहत िवहार करे ।
सरयू के तट पर ान और िव ाम के उपयु थान तैयार कए गए और जाल डालने
वाले तैराक ारा सब न को िनकालकर जल को सुरि त बना दया गया। तब उसम
राजा और रािनय ने िचरकाल तक नौका ारा नदी का आन द लेने के िलए सैर क ।
जल के अवगाहन के प ात् गले म धारण कए ए ब मू य हार से शोभायमान कु श,
नौका से उतरकर रािनय के साथ िवहार के िलए जल म िव आ। उस समय वह
ऐसे सज रहा था मानो उखाड़ी ई कमिलनी को क धे पर लटकाए ए गजराज
हिथिनय सिहत नदी म िव आ हो।
राम को अग य मुिन ने स होकर एक मांगिलक कं कण दया था। राम ने उसे
रा य के साथ ही कु श को अपण कर दया था। ान करते ए अनजाने वह कं कण पानी
म डू ब गया। जब ान से िनवृ होकर राजा कपड़े पहनने लगा तो उसे िव दत आ क
हाथ कं कण से शू य है। िनल भ होने के कारण कसी आभरण-िवशेष म कु श क ममता
नह थ , तो भी वह कं कण िवजय का तीक था, और िपता ारा धारण कया जा चुका
था, इस कारण उसके खो जाने को राजा न सह सका। नदी म गोता लगाने वाले सब
तैराक को बुलाकर आ ा दी गई क वे जल म घुसकर कं कण क तलाश कर। उ ह ने
ब त य कया, पर तु सफलता न ई। तब उ ह ने कु श से िव ासपूवक कहा–
हे देव, हमने पूरा य कया, पर तु उसम आपका ब मू य आभूषण नह िमला।
हम समझते ह क जल म रहनेवाले कसी नाग ने उसे जीवन समझकर खा िलया।
यह सुनकर ोध से कु श क आंख लाल हो ग , और उसने नाग के नाश के िलए
ग ड़ा को हाथ म िलया। ग ड़ा के दशनमा से भयभीत नागराज तुर त ही अपनी
क या को साथ लेकर जल से िनकल आया, और राजा के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो
गया। उसके िनकलने के समय वह जलाशय म थन के समय के समु क भांित खौल
रहा था। उसम रहनेवाले न आ द सं त हो गए थे, और घोर कोलाहल हो रहा था।
सपराज के हाथ म कं कण को और उसक िवनीत मु ा को देखकर कु श को दया आ गई,
और उसने ग ड़ा का योग नह कया। स न लोग मा चाहनेवाल पर ोध नह
करते।
नाग के राजा कु मु ने ि लोकनाथ ीराम के वंशज कु श को िसर झुकाकर णाम
करके िनवेदन कया–
म जानता ं क आप संसार के उपकार के िलए शरीरधारी िव णु के पु - पी
दूसरी मू त ह। भला म आपको अ स कै से कर सकता ?ं आपके आभरण क ओर जब
गद खेलती ई मेरी बाला ने कौतूहल से देखा तो अ त र से िगरनेवाली योित क
तरह सु दर पाकर इसे िखलौना समझा और ले िलया। सो यह लीिजए, यह फर आपके
उसी घुटन तक प च ं ने वाली, धनुष क यंचा के िनर तर ख चने के िच से
सुशोिभत, भूिम के र ा- त भ के समान ओज वी और -पृ भुजा क शोभा
बढ़ानेवाला बन जाए। म आपक मा के ितकार म अपनी कु मु ती नाम क इस छोटी
क या को आपक भट करता ।ं आशा है आप अ वीकार न करगे।
इस कार आभरण भट करके ; अ य त िवनयपूवक ाथना करने पर राजा ने
कु मु ती को अपनाना वीकार कर िलया। कु मुद ने सब बांधव क उपि थित म
िविधपूवक राजा से कु मु ती का िववाह कर दया। उस पु य पािण हण के समय
द गज के द तूय क विन ा हो गई, और आ यजनक मेघ ने सुगि धत पु प
बरसाए। रघुवंश और वासु क क स तान के उस गठजोड़ से दोन ही प िन:शंक हो
गए। कु मुद िव णु के वाहन के हार से िन:शंक हो गया और कु श नाग के उ पात क
िच ता छोड़कर सुखपूवक शासन करने लगा ।
राजा अितिथ

जैसे रात के अि तम हर से काश का ज म होता है, कु मु ती से काकु थ वंश को


बढ़ानेवाला अितिथ नाम का पु उ प आ। सूय उ र-दि ण दोन दशा को
पिव कर देता है, अितिथ ने भी अपने गुण क ग रमा से िपतृवंश और मातृवंश दोन
को पिव कर दया। िपता ने उसे पहले कु ल के यो य शा तथा श िव ा का
अ ययन करवाया, और उसके प ात् उसका राजक या से िववाह कर दया। अितिथ
अपने िपता के समान ही कु लीन, शूर और संयमी था–इस कारण एक होता आ भी
अपने अनेक होने का अनुभव कराने लगा। जब वग पर संकट आया, तब इ के
िनम ण पर कु श वहां गया जहां उसने दुजय नाम के दै य को मार दया, और वयं भी
दै य ारा मारा गया। जैसे च मा के साथ चांदनी िवलीन हो जाती है, कु मु ती ने भी
राजा के प ात् ाण छोड़ दए।
सं ाम के िलए जाते ए कु श ने आ ा दी थी क य द मेरी मृ यु हो जाए तो मेरे
पु अितिथ को राजग ी पर िबठा देना। तदनुसार मि य ने राजकु मार का
रा यािभषेक कर दया। उसके अिभषेक के िलए कु शल-कारीगर ारा, ऊंची वेदी से
यु , चार ख भ पर खड़ा आ नया म डप तैयार करवाया गया। वहां सु दर आसन
पर िबठाकर सोने के घड़ म लाए गए िविवध तीथ के जल ारा, मि य ने अितिथ
का अिभषेक कया। उस समय मधुर और ग भीर नाद करने वाले तूय क विन ने
संसार को अितिथ के भावी अ य क याण क सूचना दी। पहले पुरोिहत और उनके
अनुगामी ा ण ने अथववेद के म से अिभषेक कया। जैसे िशव के िसर पर गंगा
का वाह धारावाही प से अवतीण होता है, अिभषेक क ल मी मंगल- विन के साथ
उसके म तक पर बह गई। उस समय ब दी लोग ऊंचे वर से तुित-गान गा रहे थे। जैसे
वषा के जल म बादल म चमकने वाली िबजली का तेज िनखर उठता है, उसी कार
तीथ के पिव जल से अिभिष होने पर अितिथ क योित भी दस गुना हो गई।
य के अ त म राजा ने ातक को इतना पया दान दया क वे अपने-अपने
य को सुिवधा से पूरा कर सक। स होकर ातक ने उसे जो आशीवाद दया, उसे
राजा के पहले से कए ए कम ने दूर से ही थ करके रोक दया। अिभषेक क
स ता से अितिथ ने कै दय को मु कर दया, मृ युद ड वाल का द ड माफ कर
दया, बैल पर अिधक बोझ न लादने क आ ा दे दी, और यह भी आदेश दया क इस
अवसर पर गौ को न दुहकर उनका सारा दूध बछड़ को पीने दया जाए। राजा क
आ ा से पंजर म ब द शुक आ द प ी छोड़ दए गए।
तब अितिथ राजसी व पहनने के िलए भवन के दूसरे भाग म गया, वह वहां
हाथी-दांत के ऐसे आसन पर आसीन आ, िजसपर ब मू य चादर िबछी ई थी।
साधक लोग ने पहले जल से हाथ धोए, फर उसके के श के अ भाग को धूप से
सुगि धत करके वेश-िव यास क साम ी लेकर उपि थत ए। उ ह ने मोितय क लड़ी
म प राग मिण को सजा दया। क तूरी क ग ध से सुगि धत च दन के लेप से शरीर के
साधन को समा करके उस पर गोरोचन ारा प -रचना क । उस समय आभूषण
और हंस के िच वाले दुकूल को धारण करके वह रा य ी- पी ब का वर अ य त
शोभायमान तीत होता था।
जब अितिथ ने राजवेश से सुसि त होकर अपनी आकृ ित दपण म देखी तो वह
ऐसी तेजि वनी तीत ई जैसे सूय के उ दत हो जाने पर मे पवत पर क पत क
छाया। इस कार वेशभूषा से सवथा तैयार होकर, राजपद के छ -चामर आ द िच
को वहन करने वाले जयकारी राजपु ष के साथ वह देवसभा के समान सुशोिभत
राजसभा म िव आ। वहां जाकर नरे श के राजमुकुट के संघष से िघसे ए पादपीठ
और िवतान से शोिभत िपतृ-िपतामह के आसन पर आ ढ़ आ। वह ीव स ल ण से
यु उस सभा म इस कार सुशोिभत था मानो िव णु के व पर कौ तुभमिण हो।
अितिथ िविधपूवक युवराज पद पर िनयु न होकर भी बा याव था म ही स ाट-पद
को ा हो गया। मानो दूज का चांद अधच ए िबना ही पूण च बन गया।
अितिथ का मुखड़ा सदा स रहता था। वह बात करता था तो मु कराकर। वह
जाजन के िव ास क सा ात् मू त के सदृश था। जब ऐरावत के समान भ हाथी
पर आ ढ़ होकर उसने वजा और तोरण से सजी ई अयो यापुरी म मण कया,
तब वह वगपुरी के समान दखाई देती थी।
छ के वल अितिथ के िसर पर छाया आ था, पर तु उससे सारी जा के मन म
पुराने राजा के िवयोग से उ प ई सारी गम दूर हो गई।
अितिथ प, वीरता और दूरद शता आ द गुण म रघुकुल के सवथा अनु प था।
अिभषेक-जल म गीली वेदी भी अभी सूखने न पाई थी क उस का दु:सह ताप
समु तट के अ त तक प च ं गया। विस क नीित और धनुधारी अितिथ के तीर–दोन
क सि मिलत शि के िलए कु छ भी असा य नह था। द डशा के जानने वाले
अिधका रय क सहायता से अितिथ श ु के अिभयोग का िनणय करता था। उ म
काय करने वाले भृ य के ित चेहरे क मु ा से स ता कट करके वह उ ह अभी
पा रतोिषक देता था। कु श पी ावण मास ने िजन जा पी न दया को बढ़ा दया
था, अितिथ पी भा पद मास ने अपनी जाव सलता से उनम बाढ़-सी ला दी। वह जो
बात कहता था, वह कभी िम या नह होती थी। जो दे देता था, उसे वािपस नह लेता
था। हां, एक िनयम भंग करता था, क श ु को उखाड़ कर फर उसी देश म लगा देता
था। जवानी, प और ऐ य–तीन म से एक भी हो, तो मद उ प करने के िलए काफ
है। उसम तीन थे, फर भी उसके मन म अिभमान नह था। इस कार जा के ेम से
संिचत वह नया वृ भी पुराने वृ क भांित दृढ़मूल हो गया। बाहर के सम त श ु
को जीतने से पूव उसने अ दर के काम, ोध आ द सब श ु पर िवजय ा कर ली।
जैसे प थर पर पड़ी ई वण क रे खा अिमट होती है, वैसे ही उसके पास आकर चंचला
ल मी भी ि थर हो गई थी। के वल नीित कायरता का िच है, और के वल शौय पशुवृि
का सूचक है, अत: काय-िसि के िलए अितिथ दोन का ही उपयोग करता था। जैसे
मेघ से शू य आकाश म सब कु छ सूय क रि मय के सामने रहता है, वैसे ही उसके ान
से दूर कु छ नह था। शा और गु के आदेश के अनुसार वह दन और रात का
िनि त समय-िवभाग बनाकर उसके अनुसार काय करता था–उसम िवक प नह होने
देता था। वह मि य से ित दन म णा कया करता था, पर तु भेद सुरि त होने के
कारण उसक म णा गु ही रहती थी। िम और श ु म उसके दूत ऐसे छ
प म घूमते थे क वे एक-दूसरे को भी नह जानते थे। उसके कारण वह सोता आ भी
जागता था। वह श ु के देश पर आ मण करके उ ह जीत लेता था, तो भी अपने देश
के दुग को िनबल नह होने देता था। के सरी हािथय के झुंड का वंस कर देता है,
पर तु वयं पवत क गुफा म सुरि त होकर जो सोता है, उसका कारण डर नह , अिपतु
आ मर ा क सामियक भावना है।
जैसे धान के दाने बाल म रहकर ही प रप होते ह, वैसे ही उसक
क याणका रणी योजनाएं भी परामश और उ ोग क दशा म अ य त गु रहने के
कारण तभी कट होती थ जब सफल हो जाती थ । अ य त बढ़कर भी वह माग
नह होता था। वारभाटे के समय भी समु का जल नदी के मुख से ही बाहर िनकलता
है–तट क मयादा को नह तोड़ता य िप उसम जा म उ प ए अस तोष को दबाने
क पया शि थी, तो भी वह अस तोष उ प करने वाले काय से बचता था। रोग
का इलाज करने क अपे ा रोग को रोकना उिचत समझता था। वह धम, अथ और काम
तीन को पर पर एक-दूसरे का सहायक बनाकर िन काम भाव से उनका योग करता
था। य द िम िनबल रह तो कु छ भला नह कर सकते, और य द अ य त बल हो जाएं
तो िवरोधी बन जाते ह। इस कारण वह िम को म यम दशा म रखता था। उसके
रा य म मिहलाएं तथा ापारी जैसे र णीय ि भी न दय म िवहार करते थे,
बिगय म, वन म घूमते थे। वे वा टका और पहाड़ म ऐसे िवचरण करते थे, जैसे
घर म। सब लोग आतताियय से िनि त होकर अपने-अपने काय म लगे रहते थे।
वह पृ वी क र ा करता था, और इसके बदले म पृ वी उसे भरपूर पा रतोिषक देती
थी। वह खान से र , खेती से अ और जंगल से हाथी देती थी।
च बढ़कर ीण हो जाता है, पर तु वह जो एक बार बढ़ने लगा तो अपने
शासन-काल म उतार पर नह आया। समु से जल पाकर बादल म पानी बरसाने क
शि उ प हो जाती है, उसी कार उसके दए ए दान से समृ होकर िव ान और
द र लोग दानी बन गए थे। मुंह पर क गई तुित से अितिथ लि त होता था, और
तोता को बुरा समझता था, तो भी उसका यश िनर तर बढ़ता ही जाता था। साधारण
प म अ य देश पर आ मण करना नंदा के यो य है, पर तु य क उसने अ मेध य
क पू त के िलए दि वजय कया था, अतः वह धमानुकूल ही था। इस कार शा
ारा िविध से अ मेध य करके , कोश और सै य क शि के कारण उसने देवता के
राजा इ के समान राजािधराज पदवी को ा कर िलया। दूर से दूर देश के रहनेवाले
राजा ने भी स ाट् अितिथ के भेजे ए आ ाप को सुनने के समय अपने रा य
को हटाकर, आ ा को िशरोधाय कया। अितिथ ने अ मेध य म ॠि वज को
इतनी दि णा दी क उसे जनता कु बेर के समान मानने लगी।
अितिथ के वंशज

अितिथ का िनषध देश क राजक या से िववाह आ। उससे जो पु -र उ प आ,


उसका नाम िनषध ही रखा गया। जैसे समय पर अ छी वृि हो जाने के कारण अ क
सफल फसल क आशा से जीवलोक आन द-िवभोर हो जाता है, वैसे ही बिल
उ रािधकारी के ज म के कारण जा के क याण क आशा हो जाने से राजा अ य त
बल हो गया। िचरकाल तक रा य के सुख का उपभोग करके , अितिथ ने िनषद् को
ग ी पर िबठा दया, और वयं अपने े कम से ा कए वगलोक को थान
कया। शतप के समान आंख वाले, कु श के पौ , वीर िनषध ने ब त काल तक समु -
मेखला पृ वी पर िन व शासन कया। त प ात् उसका पु नल संहासन पर बैठा।
उसने श ु का ऐसे मदन कर दया जैसे गज वन के झुरमुट को मसल देता है। उससे
शु नभ क भांित नीले रं ग वाला पु उ प आ, िजसका नाम नभ रखा गया। पु के
वय क होने पर नल ने उ र कोसल देश के रा य का अिधकार उसे दे दया और अपने
आप संसार के ब धन से मुि पाने के िलए तपोवन को चला गया। नभ के पु का नाम
पु डरीक रखा गया, और पु डरीक का पु ेमध वा कहलाया। ेमध वा के पु ने
अपने शौय आ द गुण के कारण यश वी होकर देवता क सेना के नेता बनने क
यो यता ा कर ली थी। उसके पु का नाम देवानीक था। जैसा वीर िपता था, वैसा ही
वीर पु आ। दोन एक-दूसरे के सवथा अनु प और एक-दूसरे के यो य थे। ेमध वा
भी अपनी कु ल था के अनुसार चार वण क र ा का भार देवानीक पर डालकर वयं
मो के माग पर चला गया। देवानीक के पु का नाम अहीनगु रखा गया। य क वह
सारी पृ वी का एकछ रा य करने वाला था। अहीनगु ब त मधुर कृ ित का नृप था।
श ु भी उससे ेम करते थे। वह सिनय से िब कु ल अलग रहता था, इसीिलए उसे
कोई भी सन नह छू गया था। वह अपने पूवपु ष राम क भांित मनु य क
कृ ितय का िवशेष और चतुर शासक था। वह साम, दाम, द ड और भेद इन चार
उपाय का सफल योग करके िचरकाल तक दशा का शासन करता रहा।
अहीनगु के परलोक चले जाने पर रा यल मी ने, महानता म पा रया पवत को
जीतनेवाले उसके पा रया नाम के पु को वर िलया। पा रया का पु उदारशील
बालक था, उसक िशला के समान िवशाल दृढ़ छाती थी। वह अपने भयंकर बाण से
श ुआ का िवनाश कर देता था। उसक शालीनता इतनी बढ़ी ई थी क वह अपनी
शंसा सुनकर लि त हो जाता था। अत: उसका ‘िशल’ नाम गुण के अनु प ही था।
पा रया ने वय क होने पर िशल को युवराज बनाकर सारा राज-काज उसे स प दया
और वयं व छ द होकर सांसा रक सुख का उपभोग करने लगा। िवषाय-भोग म
अ य त आसि का प रणाम यह आ क रागरं ग से पूरी तरह तृ होने से पहले ही
पा रया क रानी को बुढ़ापे ने घेर िलया। िशल के नािभ नाम का पु उ प आ।
अ य त ग भीर नािभ होने से उसका ‘नािभ’ नाम रखा गया था और उसके िपता क
भावना थी क वह स पूण राजम डल क नािभ अथात् के हो। नािभ के पु का नाम
व नाभ रखा गया। वह व धर इ के समान ओज वी आ। सं ाम म व के समान
उसक ललकार गूंजती थी, वह हीरक क खान, पृ वी का यो य पा था। व नाभ क
मृ यु पर खिनज र से प रपूण सागरा मा पृ वी उसके शंखण नाम के पु क सेवा म
उपि थत हो गई। शंखण के पीछे उसका पु ह रद संहासन पर बैठा। ह र के पु का
नाम िव सह रखा गया। िव सह के िहर यनाभ नाम का पु उ प आ। वृ ाव था
आने पर िपतृॠण से उॠण ए िव सह ने आजानुबा वीर पु िहर यनाभ को रा य
का अिधकार दे दया और वयं व कल धारण करके तपोवन म चला गया।
िहर यनाभ के शा त कृ ित वाला और सु दर पु उ प आ, िजसका कौस य
नाम रखा गया। गुण ारा सारे ांड म यश फै लाकर कौस य ने संहासन पर ि
नाम के पु को िबठाकर वयं धाम क या ा क । कु लिशरोमिण ि के उ म
शासन-काल म सुखी जाएं आंख से आनंद के आंसू बरसाती थ । गु क सेवा करने
वाले, िव णु के सदृश तेज वी ‘पु ’ नाम के आ मज को ा करके राजा ि स तान
वाल म अ य त आदरणीय बन गया। पु के जा क र ा के यो य होने पर वंश क
ि थित से िनि त होकर, वह इ का िम अपने शुभ कम से वग को िसधार गया।
पु के यहां पौष पू णमा के दन पु य नाम का पु उ प आ। पु य के शासन-यो य
होने पर पु मह ष जैिमनी का िश य बन योग-साधना म िनरत होकर मो का
अिधकारी बन गया। िपता के अक मात् मर जाने पर अमा य लोग ने जा को
अनाथता से बचाने के िलए बालक सुदशन को ही साके त का वामी घोिषत कर दया।
लोगा ने उस बालक को भी मुकुट धारण करने के कारण िपता के समान ही तेज वी होने
वाला राजा मानकर णाम कया। हाथी के ब े के समान छोटा-सा बादल का टु कड़ा
पुरवा हवा के संयोग से शी ही दशा म ा हो जाता है। वह के वल छह वष का
था। उसे हाथी पर आ ढ़ होकर राजमाग पर जाते ए देखकर जा ने उसका
ुवसि ध के सदृश ही आदर कया। बालक होने के कारण वह पूरे संहासन को नह भर
सकता था, पर उसके सुनहरे तेज म डल से संहासन भरा आ तीत होता था। उसके
पांव संहासन क पाद-पीठ को नह छू ते थे, तो भी अ य नरे श ने उस रघुवंश के अंकुर
के सामने अपने उ त मुकुट झुकाकर णाम कया। नीलमिण छोटा हो तो भी वह मिण
ही कहलाता है। सुदशन क आयु कम थी, तो भी उसम महाराज-पद का योग उपयु
ही तीत होता था। अभी उसके कपोल पर काक प झूम रहे थे, पर तु उसक आ ा
का पालन समु क वेला तक अबािधत प से होता था। अभी उसने पूरी तरह
अ र का िलखना भी नह सीखा था क िव ान् गु क कृ पा से द डनीित का
सांगोपांग योग जान गया था। पूव-पु ष के ताप और उसक अपनी असाधारण
तेजि वता के कारण तलवार क मूठ पर हाथ रखे िबना ही उसक भुजाएं पृ वी क
र ा करती थ । समय के साथ-साथ के वल सुदशन का शरीर ही नह , रघु के वंशजा के
यो य गुण भी पूणता को ा होते गए। पूवज म के सं कार क सहायता से उसने
गु से धम, अथ और काम तीन के िलए उपयु वाता, द डनीित और आ वीि क ,
इन तीन िव ा को और रा य क जा को अनायास ही वश म कर िलया। शरीर
भर आया, वह शा तथा श ा -िव ा म वीण हो गया। इस कार उसम ल मी
और पृ वी दोन स प ी भाव रखती ई भी अनुकूलता से िनवास करने लग ।
पतन क ओर

वृ ाव था आने पर राजा सुदशन ने अपने पु अि वण को राजग ी पर िबठा दया,


और वयं तप या करने के िलए मैिथलार य को चला गया। वहां तीथ के जल म ान,
तथा झ पड़ी म बनी ई कु शा क श या पर िव ाम करके उसने महल और बावड़ी को
सवथा भुला दया और फल क इ छा यागकर तप करने लगा। अि वण को रा य के
भली कार से चलाने म िवशेष क ठनाई नह ई, य क उसके श ुजयी िपता ने
पृ वी का शासन भिव य क सुर ा को ल य बनाकर ही कया था, के वल शौक पूरा
करने के िलए नह । रा य क र ा से िनि त होकर वह िवषयभोग म वृ हो गया।
ि य के साथ उ सव और रागरं ग का ऐसा तांता बंधा क येक उ सव अपने से पहले
उ सव पर बाजी मारने लगा। इि य-सुख को एक ण के िलए यागना भी उसे दूभर
होने लगा। महल म इतना िनरत रहने लगा क दशन के िलए उ सुक जाजन को
दशन तक देना ब द कर दया। जब कभी वृ मि य के जोर देने से जा को दखाई
देता भी था तो के वल झरोखे से चरण सामने कर देता था, चेहरा परो ही रहता था।
जाजन नख क योित से रं गे ए, सूय क करण से िवकिसत कमल के सदृश
शोभायमान चरण को णाम करके ही कृ तकृ य हो जाते थे।
उसक िवलािसता दन - दन बढ़ती ही गई। सुरा के दौर ल बे और गहरे होते
गए। ि यां उसके मुंह से लगा आ मधु पीना पस द करती थ , और वह उनके हाथ
सुरा के पान म आन द मानता था। मधुर वर वाली वीणा और गाियका उसक दन-
रात क संिगनी बन गई। नृ य के प र म से नतक के मुंह पर जो पसीना आता था,
उसके पश से सुगि धत वायु को सूंघकर वह मानता था क यह सुख देवता को भी
दुलभ है। वह गाियका और नत कय म इतना म रहने लगा क रािनया को उसे
अपने पास ले जाने के िलए ‘आज यह उ सव है’ और ‘आज यह िविध पूण करनी है’ इस
कार के बहाने बनाने पड़ते थे। धीरे -धीरे उसक िगरावट इतनी बढ़ गई क वह
दािसय से भी स भोग करने लगा। उसक बुि इतनी िवचिलत हो गई क एक ी से
बात करते ए दूसरी का नाम ले देता था। तब वह ी कहती थी क जैसे तुमने मुझे
उसका नाम दया है, वैसे ही उसका भा य भी दे दो। वह सारी रात संभोग म तीत
करता था, और दन म सोता था। इस कार वह च करण से िवकिसत होनेवाले और
सूय के काश म मुरझाने वाले कु मुद-समुदाय का अनुकरण करता था। एका त म
नत कय से नृ य क आंिगक, साि वक और संगीत स ब धी िश ा को हण करके ,
वह िम -म डली म बैठकर बड़े-बड़े उ ताद से ट र लेता था। बरसात के मौसम म
कृ ि म पवत बनाकर, और उ ह मयूर से सजाकर बरसाती फू ल क माला से सजा
आ वह िवलासी िवहार करता था। अ य सब ॠतु म, उनके अनु प रचनाएं करके
वह कामवासना क तृि म दन और रात तीत करने लगा और रा य के सब काय
को ितलांजिल देकर, के वल इि य-सुख म लीन हो गया। के श-िव यास म उसने इतनी
कु शलता ा कर ली थी क उसक माला आ द क सजावट देखकर ही ॠतु का
अनुमान लगाया जा सकता था।
राघव के परा म का इतना आतंक जमा आ था क य िप अि वण िवषय-
भोग म रत रहता था, तो भी ा श ु साके त क ओर आंख न उठा सके , पर तु
अ य त उपभोग से उ प होने वाला यरोग अ दर ही अ दर उसे खाने लगा, जैसे द
का शाप च मा को ीण कर देता है। वह वै ारा िनवारण करने पर भी सुरा और
नारी के अित सेवन को न छोड़ सका। इि यां जब िवषय-सुख के पीछे भागने लगती
ह, तब उनका रोकना अ य त क ठन हो जाता है। मुंह का रं ग पीला पड़ गया, आभूषण
कम हो गए, सहारा लेकर चलने क आव यकता अनुभव होने लगी, और क ठ वर
ीण हो गया। राजय मा ने अि वण क ऐसी दशा कर दी जैसी कामातुर अव था म
कामी लोग क होती है। उस य-रोगी राजा के कारण रघु के तेज वी कु ल क अव था
डू बते ए च मा से यु आकाश, गम से सूखे ए पंकावशेष तालाब और बुझते ए
दीपक-सी हो गई। जब राजा के दशन न होने से जा के दय म तरह-तरह क
आशंकाएं उ प होने लग , तब स तोष देने के िलए म ी यह उ र देने लगे क राजा
पु लाभ के िलए जप आ द साधन कर रहा है। एक ओर रोग का कोप, और दूसरी ओर
िच ता क अनेक रािनय के होते ए भी िपतृॠण से मु कराने वाला कोई पु उ प
नह आ। वै के अनेक य को लांघकर अि वण मर गया। जा म ोभ न हो, इस
िवचार से मि य ने अ येि क िविध जाननेवाले पुरोिहत से घर के उपवन म ही
उसक अि तम या करा दी।
उसके प ात् देश के मुख पौरजन से परामश करके मि य ने एकमत हो गभ
के शुभ िच से यु रानी को राजग ी पर िबठा दया। पित के िवयोग से दु:खी होकर
रानी ने जो गम आंसू बहाए, गभगत ब े का पहला ान उनसे ही आ, तदन तर
अिभषेक के शीतल जल से आ। बोए ए बीज को जैसे पृ वी तब तक सुरि त दशा
म अपने गभ म रखती है, जब तक अंकुर उ प न हो, वैसे ही वण के संहासन पर
िवराजमान रानी रा य के उ रािधकारी क गभ म र ा करती ई, मि य क
सहायता से भली कार रा य का शासन करती रही।

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