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क ण एक रह य

ईशान महश
ऋिष व को उपल ध
िहमालय क वामी राम क िश य
वामी वेदभारतीजी क ी चरण म समिपत
तथा
अपनी अधािगनी िच कार िबंदु पोपली क ित
हािदक ेम सिहत।
सबकछ लागे, नया-नया
नए ज म क नई या ा म मेरा नाम ईशान महश ह। 11 अ ैल, 1968 को नई िद ी, भारत म मेरा ज म आ।
िश ा क प म िद ी िव िव ालय से िहदी म एम.ए.। एक लेखक क प म वष 2009 तक चौदह पु तक
कािशत हो चुक ह। अपने आ या मक अनुभव को मने हाल ही म कािशत रामकथा पर आधृत अपने
महाका या मक आ या मक उप यास- ंखला ‘वनवास’ और ‘अनहोनी’ म समािव िकया ह। अनुभव क इस
गंगा से जनमा एक जल- पात भगवा ीक ण क जीवन-दशन पर िलखे आ या मक उप यास ‘क ण : एक
रह य’ म िगर रहा ह। मेरा िववाह िबंदु पोपली से आ। िबंदु िच कार ह और उसक पिट स म दूसरी दुिनया का
रह य झाँकता िदखाई देता ह। यान क गहर ण उसे जो िद य-दशन कराते ह, वह उनको अपने िच म
उ ािटत करती ह। पु ी का नाम व री शमा ह और पु का नाम अनाहत शमा।
कछ अलौिकक पाने क उ कट यास ने मुझे ब त भटकाया। मुझे िकसी न का उ र नह चािहए था। मुझे तो
अनुभव का वह जल चािहए था, जो वा तव म मेरी यास को शांत कर सक। मने ब त खोजा और जब खोज-
खोजकर थक गया तब अनेक िस -पु ष क प म वह मेर सम कट आ।
मेरी कठोर परी ाएँ ई और तब जाकर मुझे िहमालय क पावन नील गगन क नीचे वह शांत झील िदखाई दी,
िजसम अपनी यास बुझाते ए मने अपना ितिबंब भी देखा। दय म सं यास उतरा और इसक रग ने मेर संसार
को, मेर गृह थ को सँवारा-िनखारा और इस सारी या ा म मेरी अ ािगनी िबंदु पोपली ने मुझे अपना अनमोल
सहयोग िदया। यिद दूसर श द म क तो आज मेर पास जो भी अ ात और रह यमयी जग क संपदा ह, उसका
मूलभूत ेय मेरी प नी को ही जाता ह। अंतया ा म िबंदु का जो उ मु सहयोग मुझे िमला, उस सहयोग ने मुझे
बंधन क गु वाकषण से वतं होने का मं िदया। तब मने जाना िक यह संसार तो रा ते का प थर ह। चाह इस
प थर से ठोकर खाओ अथवा इसक सीढ़ी बनाकर पवत को लाँघ जाओ।
नए ज म क नई या ा,
अनंत को जाते ये सोपान,
डब अंतस क गहराइय म,
यह माग बड़ा ही अगम-अजान।
—ईशान महश
संपक : बी-324, शांत िवहार,
रोिहणी, िद ी-110085
eeshaanmahesh@yahoo.co.in
एक
‘‘तुम भी नाची हो क हया क साथ?’’ शारदा क वर म उ साह क लहर उठी और उसका अिभभूत मन पूछ

बैठा। ‘‘नाची? अर, हमने उसे ऐसा नचाया िक पूछो मत!’’ मीनू बोली, ‘‘हम उसक मुरली छपा िलया करती थ ।
वह हमसे पूछता िक या मेरी मुरली तुमने ली ह? हम उसे सताने क िलए कह देती थ िक नह , हमने नह ली और
वह मान जाता था। िफर हम उसे िकसी का भी नाम लेकर कहत िक उसक पास तु हारी मुरली ह। इस कार उसे
दौड़ाकर सताती रहती थ । िफर थककर वह कदंब क पड़ क नीचे बैठ जाता और कहता िक म सो रहा । यिद
मेर जागने से पहले मुरली तुम लोग ने मुझे नह दी तो िफर म तु ह कभी मुरली नह सुनाऊगा। हम उसक लेटते ही
चुपक से उसक दय पर प गरी रख िदया करती थ । उसक बाद तो बाजी रिसया क हाथ होती थी। ऐसा रस बहाता
था िक जी चाहता था िक अभी ाण यागकर मु क इस संगीत म समा जाऊ।’’ उसने ककर कएँ पर बैठी
गाँव क य क ओर देखा, ‘‘िजस िदन अ रजी का हा और बलराम को कस क बुलावे पर मथुरा लेकर गए
थे, उसी िदन मेरा याह था।’’ मीनू क अधर काँपने लगे। उसक आँख से आँसु क अिवरल धारा बह चली,
‘‘ या बताऊ, सिखयो! ऐसा काला िदन हमने कभी नह देखा। कई िदन तक गोकल म चू हा नह जला। गौ ने
अपने बछड़ को दूध िपलाना छोड़ िदया। बैल तो चार से मुँह ही मोड़ चुक थे। खिलहान म अ पड़ा था, पर
कोई प ी उसे चुग नह रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे गोकल क ाण-पखे ही उड़ गए ह । ऐसा कोई घर नह
था, िजसम दीपक जला हो। मंिदर म सं या-वंदन, आरती इ यािद न होने क कारण वे नीरव और िनजन पड़ थे।
घर क बड़-बूढ़ बताते थे िक ऐसा काला िदन आज तक उ ह ने न देखा और न सुना। पवनदेव भी जैसे दुःखी
होकर िकसी गुफा म जा िछपे थे। चं मा धूिमल था और तार क आभा को रणु से भर मेघ ने मिलन कर िदया
था।’’
‘‘िफर कब लौटकर आए यामसुंदर?’’ रजनी ने पूछा।
‘‘ याह क बाद पहले सावन म जब मेरा भाई लेने आया तो उसने बताया िक क हया अभी तक लौटकर नह
आया।’’ मीनू का गला भर आया, ‘‘आज बीस बरस से ऊपर हो गए, पर वह िनम ही एक बार गया तो िफर उसने
मुड़कर उन गिलय और चौराह को एक बार भी नह देखा जहाँ उसने अपनी इतनी लीलाएँ क । मने सुना िक
उसने गोिपय क दुःख को बढ़ाने क िलए ऊधो महाराज को भेज िदया। उन िदन म पीहर गई ई थी। मने सब
देखा। बड़ा ान बघारा उसने; पर गोिपय ने भी उसे ेम क झा से ऐसे पीटा िक उसका सारा ान ही बुहार िदया
और कगला करक मथुरा का रा ता िदखाया। लुटा-िपटा ऊधो अपने क ण महाराज से जाकर खूब लड़ा और बोला
िक ‘अब पता लगा िक महाराज वयं य नह गए। िपटवाने क िलए अपने सेवक को भेज िदया।’ ’’ मीनू आवेश
म आ गई, ‘‘पंिडत कहते ह िक ान को कोई चुरा नह सकता। हमने तो ािनय क ानी ऊधो क ान को जमना
मैया क घाट पर ऐसा धोया, ऐसा धोया िक अब वह ान से कोस दूर रहगा। उसक सारी चतुराई ही हर ली।’’
‘‘तुम सबने िमलकर याम को रोक य नह िलया? य जाने िदया कस क पास?’’ गंगा ने पूछा।
‘‘जब राजा का बुलावा आ जाए तो िकसम बल िक कोई िकसी को रोक सक।...और रोक िकसे? वह का हा ही
आगे बढ़-बढ़ जाने को तैयार था। वह तो भला हो हमारी आँख का, िजसने उसक मोिहनी मूरत को बसा िलया।
अब तो जब हमारा मन करता ह, हम आँख मूँदती ह और नंदलाल को उसी प म देख लेती ह।’’
‘‘कसा प?’’ मं -मु ध दशा म सुमित क मुँह से िनकला।
‘‘िसर पर मोर-मुकट, मछली जैसे कडल, माथे पर लाल ितलक, याम सलोने गात पर पीतांबर और मोिहनी
मुसकान पर मुरली धर नंदलाल! अहा, कछ कहा न जाइ!’’
‘‘चलो री, चलो!’’ लाली बोली, ‘‘अगर यही बैठी रह तो िफर घर क काम कौन करगा? इसक इन कथा का
कभी अंत होगा ही नह ।’’
लाली क इस वर ने य को अपनी-अपनी गग रयाँ उठाने क िलए सि य कर िदया। सभी ने अपने-अपने घर
क राह ली।
सुमित ने चार कलश िसर पर रखे और मीनू क साथ-साथ चल दी।
‘‘बहन, तुम जो भी क ण-कथा कहती हो, उसे म अपने पित और ब को अव य सुनाती । घर जाती तो
ब े वयं ही पूछ बैठते ह िक माँ, आज कौन सी क ण-कथा कहोगे? यिद म कह दूँ िक आज तु हारी मौसी ने
कोई कथा नह सुनाई तो वे कहते ह, कोई बात नह । क ण-कथा क गठरी म से कोई भी कथा िनकालकर सुना
दो।’’ सुमित ने मीनू क ओर देखा और भाविव ल होकर बोली, ‘‘पहले पुजारीजी क गोधन क सेवा करती थी तो
मन उस चाकरी म सकचाया रहता था। यह बात और ह िक पुजारीजी क गोधन क सेवा क कारण मंिदर क ओर
से समय-समय पर अ -िम ा िमल जाया करता था—पर वहाँ संतोष और सुख नह था।’’
‘‘शारदा ने मुझे तु हार बार म बताया था िक पुजारीजी क गोधन क सेवा करनेवाली सुमित यिद मुझे िमल जाए तो
म िचंता-मु हो जाऊगी। मने तब तु हार बार म उससे पूछा।’’ मीनू ने सुमित क ओर देखा, ‘‘सच क तो तुमसे
भी अिधक तु हार पित क बार म पूछा था।’’
‘‘तो शारदा ने या बताया?’’ सुमित का वर िन तेज-सा हो चला था।
‘‘उसने बताया िक सुमित का पित जीिवका क िलए कछ पु षाथ नह करता ह और इसीिलए तु ह अपने प रवार
का और अपने पित का भरण-पोषण करने क िलए चाकरी करनी पड़ती ह।’’ मीनू बोली, ‘‘बुरा मत मानना।
उसक बात सुनकर मने तब यही मान िलया था िक तु हार पित... या नाम बताया था उसने?’’
‘‘सुदामा।’’ सुमित बोली।
‘‘हाँ, सुदामा। तो मने यह मान िलया िक तु हारा पित मिदरापान कर ूत खेलनेवाला कोई यसनी पु ष होगा, जो
अपने कत य का िनवाह नह करता। पर जब एक िदन शारदा ने हाथ म पोिथयाँ पकड़ एक य क ओर संकत
करक कहा िक यह ह सुमित का घरवाला। म तेर पित को देखकर चिकत रह गई। एक म प क मुख पर ऐसी
कांित नह होती। मने शारदा से पूछा िक या सुमित का पित मिदरापान करता ह? तब उसने बताया िक तु हार पित
को तो ान क मिदरा का ऐसा यसन ह िक उसम वह अपनी सारी सुध-बुध भूला बैठा ह। तब मने कहा िक मेरी
गौ क सेवा करने क िलए यिद तू सुमित को ला दे तो म कछ सुख पाऊ। सुमित, म तो अिहरन । मेर प रवार
क िलए तो मेरी गौएँ ही सबकछ ह। म सदा यही चाहती थी िक उनक सेवा करनेवाला जो भी हो, उसमे गौ क
ित पूजा का भाव हो।’’
‘‘सच तो यह ह िक तु हार नंदलाला क कथा ने मुझे तु हारी गौ क सेवा म आने का यौता िदया। तु हार
पास आती तो तिनक भी यह नह लगता िक चाकरी क िलए आई ।’’
‘‘तो या लगता ह?’’
‘‘यही िक िजनक कथाएँ सुना-सुनाकर तुमने मुझे भी क हया क गोपी बना िदया ह—म उनक ही गौ क सेवा
का सौभा य पा रही ।’’
‘‘सच भी यही ह, सुमित।’’ मीनू बोली, ‘‘म तो अपनी गौ क साथ ित ण अपने का हा को ही देखा करती
। अ छा ह, जो तू भी देखती ह। म तुझसे सच कहती िक एक िदन ऐसा आएगा िक उनको देखते-देखते तू वही
हो जाएगी। वह भाव का ह री!’’
‘‘क ण क िबना कसा लगता ह तुमको?’’ सुमित ने मीनू क पीड़ा जाननी चाही।
‘‘उसक िबना तो यह देह चले ही ना। वह हमारी साँस म ह। उसे हम घोलकर पी गई ह। वह हमार दय म रह
रहा ह। इसिलए िवरह जैसी कोई बात ह ही नह । वैसे एक बात बता ही दूँ। तू समझेगी तो ह ही नह । तू या, क ण
क अित र कोई समझ ही नह सकता। िफर भी कह देती तुझे; य िक अपने का हा क ेम म पड़ ए तुझे
देख रही । हम तो उसक साथ रास रचाने आई थ । उसने अपनी रास-लीला समेटी तो हम भी िफर अपने-अपने
रा ते लग ल । हमारा अिभनय ऊधो को पे्रम का पाठ पढ़ाने क बाद ही पूरा हो गया था। अब तो हम क ण क
ारा संसार म हो रही लीला का वण-सुख उठा रही ह। तुम उस पा क गहराई नाप नह सकत , िजसे क ण
ने छकर अपना कह िदया हो। उस घर म िफर पहलेवाला जीव नह रहता। िफर तो वहाँ क ण ही रहा करता ह।’’
‘‘मेर पित क िवषय म िफर तुमने या धारणा बनाई?’’ सुमित क कान सुदामा क शंसा सुनने क िलए याकल
थे।
‘‘बुरा मत मानना, सुमित! पर िनधन का ान भी िनरथक होता ह। म यह नह कह रही िक तु हार पित िव ा नह
ह। पर यिद िव ा िनधन हो तो यह संसार उसक ान को भी दो कौड़ी का मानता ह और यिद वह समथ हो तो
उसक अ ान या अपूण ान को भी मह व देता ह।’’ मीनू बोली, ‘‘अब मेरा पित ह, दूध बेचता ह। ानी नह ह,
पर सभी उसका स मान करते ह। उसक पास धन ह। गृह थ को धमपूवक धन कमाने क िलए यास करना
चािहए। क ण ने आलसी वाल को पु षाथ बनाया। जो वाले घर पड़ रहते थे, उनको िध ारा और कहा िक
तु हार पास गोधन ह और भूिम ह, उसक बाद भी तुम िनधन हो तो िध ार ह तुम पर। अब देख न तू िक नंदबाबा
क पास िकस बात का अभाव था। सेवक थे, धन-धा य था। िफर भी का हा वयं गौए चराने जाया करता था। शेष
गोप-समाज क जो धनी वाले थे, उनक ब े पहले बैठ खाया करते थे और मोटापा बढ़ाते थे। का हा ने सबको
अपने साथ ख चा और काम को खेल बनाकर सबको खूब नचाया। वह कहता था िक जैसा आचरण बड़ करगे,
वैसा ही ब े करगे। जब म नंद बाबा का पु होकर गइया चराऊगा तो शेष गोप क माता-िपता अपने आलसी
ब से यही कहगे िक जब गोप- मुख नंदजी क दोन लाल गइयाँ चराने को जा सक ह तो तुम का हो?’’ मीनू
मुसकराई, ‘‘और आ भी वही, क हया ने पु षाथ क ऐसी मुरली बजाई िक जमना मैया म पानी कम था और
हमारी गइया मैया म उससे यादा दूध बहता था। जी भरकर नहाओ, खाओ, लगाओ और बहाओ। फसल क होते
ही उसको चरनेवाले पशु भी कट हो जाते ह। वही आ। हमार गौरस को लूटने लगे कस क सैिनक। सारा दूध
छीनकर कस क दोन रािनय क ानागार म भरा जाने लगा और वहाँ से बहकर नािलय म जाने लगा। क हया
कहता था िक अभी तो म मथुरा जाती दूध-म खन क मटिकयाँ फोड़ रहा , कछ ही िदन म कस क पाप का
घड़ा भर जाएगा तो उसे भी जाकर फोड़ आऊगा।’’
‘‘एक िनःश वाला िकसी श शाली राजा को उसक सभा म उसक सैिनक क सामने पटक-पटककर मार दे,
यह तो अनहोनी लगती ह।’’ सुमित क वर म िव मय था।
‘‘परमा मा ही अनहोनी को होनी और होनी को अनहोनी करने क श रखते ह और तु ह बता दूँ, यह जो क ण
िनत यु म िघरा शंख और बाँसुरी बजा रहा ह, यह ‘वही’ ह।’’ मीनू मुसकराई, ‘‘िकसी को कह मत देना, नह
तो सब कहगे िक सुदामा क साथ-साथ िनधनता ने सुमित क मित भी हर ली ह। यह दय क बात ह। मन-ही-मन
इसका रस ले।’’
××××
‘‘भाई सुदामा!’’ े ी धनीराम ने सुदामा को अपने गले से लगाते ए कहा, ‘‘तुम तो ानी हो, पंिडत हो। परमा मा
क वाणी का िनत अ ययन-मनन करते हो। मेरी तुमसे ाथना ह िक मेर िलए परमा मा से यह िनवेदन कर दो िक
वह मुझे अपनी भ दे। मुझे िव ास ह िक तुम मेर िलए कहोगे तो वह अव य सुनेगा। वह सुने िबना रह ही नह
सकगा।’’
‘‘तु हारी दुदशा देखकर भी सेठ को यह समझ नह आता िक तु हार ारा क गई ाथना तो मंिदर क ार पर
खड़ा िभखारी भी न सुन।े ’’ सुदामा क मन म कोई हसा।
‘‘ ाथना का आिथक दुदशा से या संबंध।’’ सुदामा ने एक व ि उस वर पर डाली, ‘‘तुम अपनी तुला को
ठीक करो। वह कवल धन को तौलना जानती ह। मुझे परमा मा से कोई असंतोष नह । मुझे उसने वह सब िदया, जो
मुझे चािहए था। उससे भी कह अिधक िदया। मेरी पा ता से ब त अिधक िदया।’’
‘‘हाँ, मुझे बहलाने क िलए तो यह सब ठीक ह। पर उसने तु ह कछ नह िदया।’’ वर ने सहानुभूित जताई।
‘‘यह तुम िकस आधार पर कह सकते हो?’’ सुदामा ने आपि क ।
‘‘अपना तो एक ही आधार ह—धन। उसने धन क नाम पर एक फटी कौड़ी तक का बंध तु हार िलए नह
िकया।’’
‘‘इसम परमा मा का कोई दोष नह । मने धन चाहा ही नह । मने ान को अपना धन माना। परमा मा ने मुझे मेरी
अपे ा से अिधक ान िदया। उस ान का म मनन कर सक, उस िदशा म और िचंतन कर सक, इसक िलए संतोष
धन से संप प नी दी और वैसी ही धैयवा संतान दी।’’ सुदामा ने अपने मन क वर से अपना मुख मोड़कर
धनीराम क ओर िकया और बोले, ‘‘सेठजी, आपका ऐसा कहना परमा मा को दोष देने जैसा ह। वह सुन रहा होगा
तो या कहगा िक सेठजी को इतना िदया, िफर भी ये कह रह ह िक मुझे कछ नह िदया। संसार म ऐसे असं य
लोग ह, िज ह न माया िमलती ह और न राम; िकतु आप तो मायाराम ह। आपको उसने माया भी दी और राम क
ओर अ सर भी कर रह ह। आप पर परमा मा कपालु ह। मने देखा ह िक आपक िज ासा संत क सेवा-शु ूषा
और उनक ीचरण म बैठकर ह रनाम जपने म ह। सुंदर ह यह अव था। उसका नाम सुनकर आपक मन म उमंग
क लहर उठने लगती ह। कित का स दय देखकर आपको उसका मरण आ जाता ह। इससे अिधक और माण
या होगा िक उसक पे्रम म आप बहने लगे ह। यह बहना ही उसक कपा से िमलता ह।’’
‘‘तुम स य कहते हो सुदामा, उसक कपा से ही तुम मुझे िमले हो। वह मेर पास मेर आ मक िवकास क िलए संत
को भेज रहा ह। तुम कब से मेर पड़ोस क इस गाँव म हो। इसे गाँव भी नह कहा जा सकता, यह तो बीस-तीस घर
का एक िबखरा आ एक उपेि त थान ह, िजसका नाम इस भूिम क वामीय क पूवज ने अपने प रवार क
‘माया’ नाम क िकसी ी क नाम पर रख िदया था और इस मायापुरी म सुदामा जैसा महा ानी रहता ह, इसका
िकसी को पता भी नह ।’’ धनीराम ने आनंद क लहर म भरकर अपनी गरदन िहलाई, ‘‘वह तो भला हो उस सा वी
का, िजसक दशन को म गया था और वहाँ तुम भी उनसे ान-चचा करने आए थे। मुझे तो लगता ह िक वह माँ
कवल हम िमलाने ही आई थी। परमा मा ने उनको इसी काम क िलए भेजा था। अब मेरी तो यह दशा ह िक यिद
तुमसे िमलकर ह र-चचा न क तो लगता ह िक जीवन यथ जा रहा ह।’’
‘‘उसक भेद अनूठ ह। उनको तो वह वयं ही जान सकता ह। म आपसे इतना ही क गा िक आप िफर कभी यह न
किहएगा िक वह आपको देख नह रहा। म देख रहा िक वह आप पर बरस रहा ह।’’ सुदामा ने प पर िलखी
पांडिलिप को व म लपेटते ए कहा।
‘‘म सदा यह सोचता िक उसने मुझे इतना िदया ह िक मुझसे सँभाले नह सँभलता। पता नह वह मेर िकस गुण
पर रीझा िक मुझे अप रिमत धन-संपदा दे डाली। म उससे कहता िक अब बस भी कर और िकतना देगा। पर वह
ह िक िदए चला जा रहा ह। म उसका कसे ध यवाद क ?’’ धनीराम ने सुदामा क आँख म झाँकते ए पूछा।
‘‘सेठजी, येक य का आभार कट करने का अपना वभाव होता ह। आपक बात तो म नह जानता, पर
अपनी बात बता सकता । म तो उसको ध यवाद देने का एक ही माग जानता ...‘जानता ’ श द उपयु नह
ह। कहना यह चािहए िक ध यवाद क ण म आनंदपूण अ ु िलये मेरा दय अ त व क ित नतम तक हो जाता
ह। कहने जैसा कछ भी नह रहता।’’
सुदामा मंद-मंद मुसकराए।
‘‘अहा, िकतनी सुंदर बात कही ह!’’ धनीराम का वर नाच उठा और आँख बह उठ । उ ह ने सुदामा का हाथ
अपने हाथ म ले िलया और भावपूण ग द वर म बोले, ‘‘सुदामा, तु हार पास आते ही मन शांित से भर उठता
ह। तु हार पास ान और ेम क ऐसी संपदा ह जो िकसी अ य क पास नह ह। मेरा मन जब भी यापार क मारा-
मारी से थक और ऊब जाता ह तो वह यही पुकार उठता ह िक सुदामा क पास चलकर ान-चचा कर म अपनी
आ मा को आनंिदत क ...और भाई सुदामा, तुम भी अ ुत हो। अपने दस काम छोड़कर हर समय मेर िलए
उपल ध हो जाते हो। आज तक कभी तुमने यह नह कहा िक सेठजी, मेर पास समय नह ह। सच बात तो यह ह
िक समय-असमय िजस कार म तु हार पास आ जाता और तु हार साथ बौ क यायाम कर जाता ; इस
कार यिद कोई मेर पास आ जाए तो म उसे राम-राम करक क गा िक भैया, य धंधा खराब कर रह हो हमारा।
कछ कमाने-धमाने दो हम।’’
‘‘पर आप तो मेरी कमाई कराने ही आते ह।’’ सुदामा ने हसकर कहा।
‘‘वह कसे?’’ धनीराम ने चिकत होकर पूछा।
‘‘ ान ही तो मेरी कमाई ह। आपने मुझे सदा शा का अ ययन-मनन और लेखन करते ही पाया होगा। आपक
आने पर उनक कछ चचा हो जाती ह। अ यथा िकसक िच ह ान-चचा म। आप धनी होने क साथ-साथ
अ या म क ओर भी अपना पग बढ़ा रह ह, यह तो सौभा य क बात ह। आपक इस सौभा य म यिद मेरा कण
मा का सहयोग भी हो रहा ह तो यह अनुकपा ह माँ सर वती क िक वह अपने इस सुदामा पी यं का कछ
उपयोग कर रही ह।’’
‘‘सुदामा भाई, म तो तु हारी सरलता और सहजता देखकर ब त भािवत । सदा मेर वागत क िलए त पर रहते
हो। देखा जाए तो म तु ह ितदान म दे ही या रहा ! यापार क मारा-मारी ने मेरी िन ा खा ली थी। म अिन ा
का रोगी होकर क पा रहा था। ोधी हो गया था। तब म िकसी मनोिचिक सक क पास उपचार हतु जाने लगा।
उसने तो मेरी गाँठ म ही सध लगा दी।’’ धनीराम ने ठहाका लगाया, ‘‘और जानते हो, उसक बाद भी मुझे शांित तो
िमली नह , ब क िचिक सक को दी गई धनरािश देखकर रही-सही न द उड़ी सो अलग; मन और दुःखी आ, सो
अलग।’’
‘‘हमार शा म यही विणत ह िक परमा मा का आकषण जब होता ह तो िफर शेष कछ आकिषत नह करता।
एक बार वाद िमल जाए, उसक बाद वादरिहत यंजन नह भाते।’’ सुदामा बोले।
‘‘ वािद यंजन क तुम तो इस कार उदाहरण दे रह हो, जैसे तुमने न जाने िकतने कार क यंजन का
आ वादन िलया ह। खी-सूखी रोटी और छाछ क अित र िकसी यंजन का नाम बताओगे?’’ सुदामा क मन क
वर ने उसे िचढ़ाया।
सुदामा उस वर क ओर पीठ िकए बैठ रह।
‘‘यह परमा मा और माया का खेल या ह और कसा ह, यह समझ ही नह आता।’’ धनीराम ने अपना माथा ठोका,
‘‘कई बार मने सोचा िक इसका भेद पाऊ। अनेक साधु-सं यािसय से भी पूछा, पर कोई ऐसा नह िमला जो यह
कह सक िक मने इसका भेद पा िलया।’’
‘‘कछ िदन पहले म ह रहर आ म म पुराण क ह तिलिखत ित देखने गया था। वहाँ एक कथावाचक पधार थे।
वे माया और परमा मा क संबंध म एक कथा कह रह थे। कथा यारी थी। उस कथा क मा यम से माया-परमा मा
का भेद पाया जा सकता ह, ऐसा तो म नह कहता; िकतु उसम कथा का रस अव य था। कछ अनकहा, उसम
कछ कह रहा था।’’ सुदामा क वर म उस रस क झलक िदखाई दे रही थी।
‘‘सुदामा, मुझे भी उस कथा का रसपान कराओ।’’ धनीराम क आँख म वह चमक थी, जो साद पानेवाले भ
म होती ह।
‘‘इसीिलए आप मेर ि य ह; य िक आपने धन क साथ-साथ ह रनाम को चुना। उसक मरण म आपका मन
लगता ह, अ यथा आपको िकस व तु का अभाव ह। आप चाह तो अ य धिनय क समान भोग-िवलास म अपना
समय न कर सकते ह। िकतु आप िव ाम क ण को परमा मा क या ा म यय करते ह। वहाँ क लाभांश क
तो बात ही कछ और ह।’’ सुदामा हसे, ‘‘ यापारी ह न, इसिलए अपना लाभ खोज ही लेते ह।’’
‘‘सुदामा, अब तुम मुझे और याकल न करो। वह कथा सुनाओ।’’ धनीराम आलथी-पालथी मारकर बैठ गए।
‘‘अ छा, तो सुिनए।’’ सुदामा भी कथा सुनाने क मु ा म आ गए, ‘‘बात उस समय क ह, जब सृि बनी थी।
उस समय परमा मा ने धरती पर अनेक ािणय क रचना क । जब ािणय क रचना क तो उनको नचाने क
िलए माया का भी सृजन िकया। कथा कहती ह िक एक िदन ीह र िव ाम क मु ा म बैठ थे तो उनक योगमाया
उनक पास मनोदशा म आई और उनसे कहने लगी िक भगवन, आपने मुझे िकस नरक म धकल िदया। ीह र
ने माया से होने का कारण पूछा तो माया बोली िक आपने िजन ािणय क रचना क ह वे न कवल दीघाकार
ह, वर ब त ही क प भी ह। अतः उनक आहार, िन ा, भय और काम- ोध क म य डोलते-डोलते मेरी दुदशा
हो गई ह। तब ीह र बोले िक आओ, म तु ह एक नई रचना िदखाता और वे माया को अपने सृजन-क म ले
गए। वहाँ एक मंच पर व से कछ ढका आ था। माया ने पूछा िक भु, यह या ह? ीह र ने उ र क प म
वह व हटा िदया। उस पदाथ क अनावृत होते ही माया ठगी-सी रह गई। उसने आज तक ऐसी सुंदर रचना नह
देखी थी। उसने चिकत होकर पूछा, ‘यह या ह, भु? इसका नाम या ह? और आज तक िजतने भी लोक क
रचना आपने क ह, उनम इस कार क सुदशन जीवधारी का मने दशन ही नह िकया ह। तब ीह र ने हसकर
कहा िक ‘माया, यह एक नवीन रचना ह। इसे तुम सा ा मेर िच मय अंश से सृिजत ही जानो। इस जीवधारी को
तुम ‘मनु य’ क नाम से जानोगी।’ माया बोली, ‘ भु, यह आपका कसा याय ह िक अपने खेलने क िलए तो इतनी
सुंदर रचना और मेर िलए वे क प पशु । आप इसे मुझे दे दीिजए। इससे तो म खेलूँगी। तब ीह र ने माया को
ब त समझाया िक यह मनु य तो उनको अित ि य ह, अतः वे उसको कसे दे सकते ह। पर माया कब हार
माननेवाली थी। वह भी हठ पकड़ रही। अंततः ीह र ने कहा िक अ छा, एक काय करते ह िक दोन इसक साथ,
एक-साथ खेलते ह। हम दोन अपने-अपने अनुसार इसे अपनी ओर आकिषत करगे। जो इसे ले जाए, यह उसका।
तो ऐसा करो िक पचास भाग तु हार और पचास मेर। तब माया बोली िक भु, तब तो यह मनु य िन त प से
आपका ही होगा। यह तो खेल समानांतर श का नह आ। आपक पचास भाग क सम मेरा तो वश नह
चलेगा। तब ब त देर तक कौन िकतने भाग से मनु य को अपना बनाने क िलए आकिषत करगा, इस िवषय को
लेकर तक-िवतक होता रहा। अंततः यह िन त आ िक माया क ारा ख चने का भाग िन यानबे अंश और
ीह र एक अंश से मनु य को अपनी ओर ख चगे। तब माया शंिकत वर म बोली िक भु, इतना सब होने पर भी
आपको एक ित ा और पूरी करनी होगी िक म िन यानबे अंश से जब ख चूँगी तो अपने पूर वैभव और ऐ य क
साथ मनु य को िदखाई दूँगी—अथा म मनु य को सामने से ख चूँगी और आप िजस एक अंश से भी उसे ख चगे
तो वह अ य होगा। आप अगोचर, अ य होकर ख चगे—अथा आप िछपकर ख चगे और म सामने से। कहते
ह िक तब से मनु य क साथ माया-परमा मा खेल रह ह। माया साधन क मा यम से मनु य को िदखती ई और
उसक मन को बाँधकर अपनी और ख चती जा रही ह। वह दूसरी ओर ीह र अ य प से मनु य को अपनी
ओर ख च रह ह। पर िजस मनु य पर ीह र रीझ गए, उसक स मुख माया िसर पटक-पटककर मर गई; िकतु
उसने उसक ओर देखा तक नह । माया का कोई पाश ीह र क उस ेह पा को छ नह पाया, िजसे ीह र ने
चुन िलया। जो भी उनक ारा चुन िलये गए वे माया से अ भािवत रह।’’ सुदामा ने धनीराम क ओर देखा।
धनीराम अ ुपू रत ने से अपने सामने बैठ सुदामा क ओर देख रह थे मानो वे उससे ीह र क चरण म भ क
याचना कर रह ह । कथा क आनंद वषा म भीगे ए वे हाथ जोड़कर बोले, ‘‘जय हो! ीह र क जय हो! भाई
सुदामा, िकसी ने स य ही कहा ह िक नाम म डबने क अपनी ही मिहमा ह, उसका अपना ही आनंद ह। पर कोई
डबना चाह तब न। म तो कहता िक हम तो यापारी ह। यिद कोई हमसे कछ लेकर जाता ह तो हम उसे कछ
िदन प ा उसक व तु क मू य का भुगतान करते ह। परतु परमा मा क यहाँ तो इस हाथ दे और उस हाथ ले का
िस ांत ह। इधर उसका नाम िलया और उधर आनंद क अज धारा दय म बहने लगी। परमा मा क बड़ी कपा
ह सुदामा, िक वे मेरा प रचय संत वभाव क मनु य से कराते जा रह ह। उनक कपा क िबना िकसे स संग िमला
ह। िमल ही नह सकता। िमल भी जाए तो उसका लाभ कोई उठा नह सकता। मछली गंगा म ही रहती ह, परतु
इससे वह मो तो नह पा लेती।’’
‘‘आपका कथन उिचत ह, सेठजी!’’ सुदामा का वर भी भावुक हो चला था, ‘‘इसीिलए तो ीह र ने कहा िक इस
मनु य पी जीव म मने अपना वह अंश थािपत िकया ह, िजससे यह मुझ तक प चने क या ा कर सकता ह।
एक कार से आप मानव देह को उस तक प चने क सीढ़ी ही समिझए। परमा मा ने उसे सीढ़ी देकर भेजा ह। जो
यह समझ गया िक यह सीढ़ी उसक पास ह, िफर उसने चढ़ने म िवलंब नह िकया।’’
‘‘अ छा, चलता , नह तो मुझे िवलंब हो जाएगा। िफर आऊगा।’’ धनीराम उठ गए। उनक उठते ही दूर खड़ा
सारिथ समझ गया और सुंदर अ से जुता रथ लेकर उप थत हो गया। वे रथ म बैठ और रथ अपने पीछ उड़ाई
धूल म ओझल हो गया।
रथ क जाते ही सुदामा ने लेखनी उठा ली। वे उसे मिसपा म डबोने ही जा रह थे िक चौक क पास पड़ मानव
ितिबंब को देखकर ठहर गए। उ ह ने िसर उठाकर देखा। उनक प नी सुमित हाथ म थाली िलये खड़ी थी, िजसम
रखा लोटा वे देख पा रह थे।
‘‘तुमने भोजन कर िलया?’’ सुदामा ने सुमित क भाव-भंिगमा देखकर उसक मनोदशा क िदशा को प रवितत
करने क उ े य से पूछा।
‘‘हाँ, कर िलया।’’ सुमित का वर आ ोश िलये था, ‘‘और भोजन म राजभोग छका ह।’’
‘‘और ब ?े ’’ सुदामा ने ंथ क बीच म पीपल का सूखा प ा रखकर उसे बंद करते ए पूछा।
‘‘ब को इस रा य क महामं ी ने अपने घर भोजन पर िनमंि त िकया ह। कछ ही देर म वे राजक य रथ पर
आ ढ़ होकर आते ही ह गे।’’ सुमित क अधर काँप रह थे। नयन िकसी पवतीय बदली क समान बरसने लगे।
उनक बूँदाबांदी से सुदामा बच नह पाए।
‘‘ि ये! मेर पास बैठो।’’ सुदामा ने अपना दायाँ हाथ सुमित क ओर बढ़ाया।
सुमित दाएँ हाथ से थाली पकड़ रही और उसने अपना बायाँ हाथ सुदामा क ओर झुला िदया। सुदामा ने उसका
हाथ सपे्रम पकड़ा और अपनी ओर दबाव बनाते ए ब त ही कोमलता से ख चते ए बोले, ‘‘अब बैठ भी जाओ
ि ये, एक तुम ही तो हो िजसक बल पर म थर हो ान-साधना कर रहा । यिद मुझे तु हारा अमू य सहयोग
ा न हो तो म या कर सकता । मुझे तो इस शरीर का यान रखने क भी सुध नह ह।’’
‘‘म कवल एक बात जानती िक धनीराम जैसे अनेक धनी लोग आपक पास तब आते ह, जब वे अपने वाथ
और बोिझल जीवन से याकल हो जाते ह। आपक पास आकर वे शांित ा करते ह। येक यिथत आपक पास
आकर शांित पाएगा, यह म जानती ।’’
‘‘ य , मुझम ऐसी या िवशेषता ह?’’ सुदामा मंद-मंद मुसकराए। उ ह इस बात का संतोष आ िक सुमित का
आ ोश कछ कम आ ह।
‘‘ य िक आप पूर अ त व क ित पे्रमपूण ह। आप ेम क िलए पे्रम करते ह। सदा संसार क मंगल का ही
िवचार करते ह। सदा शुभ का िवचार करते रहने क कारण आपक आभा-मंडल म शांित क परमाणु वृ ाकार घूमते
रहते ह और जो भी उसक संपक म आता ह, वह तृ ए िबना नह रहता।’’
‘‘मेर संपक म सबसे अिधक तुम हो और तुम ही सबसे अिधक अतृ हो।’’ सुदामा कह तो गए, िकतु कहने क
बाद पछताए िक अब उनक इस यं यो से आहत होकर उनक प नी का शांत आ मन िव फोटक हो जाएगा।
‘‘नह , म सबसे अिधक तृ । आपको ान-साधना करते देख तृ ।’’
सुदामा को आ य आ िक उनक बात से सुमित किपत नह ई।
‘‘तो िफर यदा-कदा य हो जाती हो?’’
‘‘इसिलए िक संसार आपक ितभा का मह व नह समझ रहा। अभी वयं सेठजी यह वीकार करक गए ह िक
आपक उप थित म वे ऊचाइय का अनुभव करते ह। उ ह आपक सरलता और सहजता तो िदखाई देती ह, िकतु
आपक प िनधनता और उनसे कछ माँगने क आड़ आता आपका वािभमान उनको िदखाई नह पड़ता।’’
‘‘अरी भाभी, जब आपको म ही िदखाई नह दे रहा, जो िक आपक इतने िनकट खड़ा तो िकसी को सुदामा क
िनधनता कहाँ िदखेगी!’’ रामदास हसा।
‘‘ओह! राम भैया, मा करना। इनसे तिनक शा ाथ करने बैठ गई थी। आप कब आए, यह तो म देख ही नह
पाई। म आपक िलए जल लाती ।’’ सुमित हड़बड़ाई।
‘‘बैठी रहो भाभी! जलपान करात तो बात भी थी। जल तो म कह भी पी लूँगा। म ायः यह सोचता िक आपक
गाँव का नाम मायापुरी य रखा गया। इसका नाम िनधनपुरी होना चािहए। यहाँ सभी िनधन ह। िजनक पास धन ह,
वे कपण ह और िजनक पास धन नह ह, उनक तो बात ही या करनी। वे अितिथ को दाल-भात भी नह िखला
सकते।’’ रामदास ने ठहाका लगाया।
सुमित सुबक पड़ी।
‘‘अर भाभी, आप तो...म तो प रहास कर रहा था।’’ रामदास हकलाया।
‘‘प रहास या देवी अ पूणा का अपमान!’’ सुदामा सुमित क आहत दय को स करने क उ े य से हसे।
‘‘म मा चाहता , भाभी! यास तो मुझे लगी ही ह। वह तो म चचा क म य आपको उठाना नह चाहता था।’’
रामदास ने सुदामा क बात पर यान नह िदया और वह सुमित से संबोिधत आ। वह यह अनुभव कर रहा था िक
उसने सुमित को आहत कर िदया ह। आँख वाले को अंधा कहो तो उसे ठस नह प चती, परतु यिद अंधे को अंधा
कहा जाए तो वह पीड़ा घाव पर पैर रख देने जैसी होती ह।
‘‘म आपक कथन क कारण दुःखी नह ।’’ सुमित ने अपने अ ु प छ, ‘‘ ी को अ पूणा कहा जाता ह। इस
अ पूणा का दुभा य देिखए, यह अपूणा बनी ई ह। अितिथ स कार क िलए घर म यथोिचत यूनतम अ भी नह
ह। थोड़ा सा िभंडी-कचरी का साग ह और थोड़ा सा ही भात। अभी ब े खेलकर आएँगे तो यही साद पाकर
उनको तृ होना पड़गा।’’
‘‘मने अभी देखा िक सेठ धनीराम का रथ मुझ पर धूल उड़ाता िनकला। उसक धूल तो ब त पीछ छट गई, पर
भाव यहाँ पर अभी भी िदखाई पड़ रहा ह। वही झगड़ा चल रहा ह न?’’ रामदास ने सुमित का मन दुखाने क
ाय - व प उसका प िलया और सुदामा क ओर देखकर बोला, ‘‘एक बात बताओ, सुदामा! भाभी इसम
या अनुिचत कहती ह? धनीराम से कह दो िक म आपको शांित देता , आप मुझे धन क प म संतोष िदया कर।
यह तो वाभािवक आदान- दान ह। िजसक पास जो ह, वह उससे एक-दूसर का सहयोग कर। वे यापारी ह। व तु
िविनमय णाली से प रिचत ह गे ही।’’
‘‘सुमित क हठ क कारण मने एक बार ब त किठनाई से प रहास क प म कहा था िक आप मुझे धन- ा का
सू दीिजए।’’
‘‘तो जानते ह, सेठजी ने इनसे या कहा?’’ सुमित ने सुदामा को और बोलने नह िदया, ‘‘वे बोले िक भैया सुदामा,
धन तो ई रीय देन ह। रामजी ही द तो द। मेर पास ऐसा कोई सू नह ह, िजससे म धन कमाने का माग तु ह बता
सक।...वे अनेक धािमक सं था को वण-मु ा क थैिलयाँ देते ह तो िजससे इतना ेम करते ह, उनको कछ
वण-मु ाएँ देने का भाव उनक मन म कभी य नह आता? उनको यह भाव होना चािहए िक िम सुदामा, तुम
ानाजन का सुंदर काय कर रह हो। तुम िन त रहो और मेरी ओर से सहयोग-रािश क प म ित माह कछ भट
वीकार करो। इसे मेरा उपकार नह अिपतु तु हार ारा िकए जा रह ान पी य म मेरी भी आ ित मानना।’’
‘‘ह तो यह अित सुंदर भाव। और अनेक कला ेमी धिनय ने इस कार क सहयोग-रािश का चलन भी िकया
आ ह।’’ रामदास तपाक से बोला। उसे इस बात का संतोष था िक उसने सुमित क घाव पर औषिध लगा दी ह
और उसका वह घाव भर गया ह, जो उसक वाणी से आ था। उसने सुदामा क ओर देखा और बोला, ‘‘मने
सुदामा से यह भी कहा िक तू मेर साथ चल। एक सेठजी क बालक का म िश क । वे अनेक िव ान को
येक अमाव या को एक िन त वृि देते ह। उनसे कहकर म सुदामा क िलए कछ धनरािश बँधवा दूँगा। उससे
कम-से-कम तुम लोग क मूलभूत आव यकता क पूित तो हो ही जाएगी।’’ उसने सुमित क ओर देखा, ‘‘पर
यह हठी ह। कहता ह िक म ान का उपासक , िभ ुक नह । इसे कौन समझाए िक वह िभ ा नह ह। ा ण
यिद समाज क क याणाथ ान-साधना म संल न ह तो उसका यान रखना तो समाज का ही धम ह।’’
‘‘आप उिचत कह रह ह, भैया! पर िकसी सेठ क ारा जाकर अपने प रवार क भरण-पोषण क याचना करना
तु हार ानी िम क ि म िभ ा पाना ही ह।’’ सुमित धीर से बोली।
‘‘और तु हारी ि म?’’ रामदास ने अपनी ि सुमित पर िटका द ।
सुदामा भी सुमित क ओर देखते रह, पर सुमित अपनी अँगुली से क ी भूिम पर ‘ऊ’ िलखती रही। एक मौन छा
गया।
‘‘मेरी ि म भी यह िभ ा पाना ही ह। िकतु जब घर क दुदशा देखती तो लगता ह िक जब रामजी ने हमार
िलए िभ ा माँगना ही िनयत कर रखा ह तो िफर कसा संकोच? कसा आ मािभमान? कसा वािभमान?’’ आंिशक
मौन को भंग कर सुमित बोली, ‘‘यह राम क ही इ छा ह िक हम भीख माँग। हम अ , व और आवास का
अभाव सालता रह। हम दुिदन से िघर रह और अभाव म आकठ डबे रह।’’
‘‘मने तो ऐसा कभी नह चाहा, भाभी!’’ रामदास ने प रवेश क गंभीरता को कम करने क उ े य से कहा, ‘‘म तो
पहले से ही रामदास । आपक िलए जाने ‘राम’ ऐसा य कर रह ह?’’
‘‘आज आपक िम जैसा गुणवा , िव ा और सदाचारी पु ष सौ-सौ योजन तक खोजे नह िमलेगा।’’ सुमित ने
रामदास क िवनोद पर यान नह िदया और अपने वाह म बोलती गई, ‘‘अ ानी जन बड़-बड़ गु कल म आचाय
क पद पर शोिभत होकर चुर धन अिजत कर रह ह। वे सुदामा से शा का मम पूछने आते ह। अपनी सम या
का समाधान पाएँगे और िवदा हो जाएँग।े या उन अ प को सुदामा का दा र य िदखाई नह देता? या शासन
चलानेवाल का यह धम नह ह िक वे अपने वैभवपूण ासाद से िनकलकर स े ािनय को खोज और उनक
िनयु गु कल म कर। गु कल म बड़ी-बड़ी उपािधयाँ िलये ान क द यु भर पड़ ह और िजस कार रावण
ऋिषय को खा जाता था, इसी कार ये ऋिषय को खा रह ह। रावण का एक ही येय था िक आय-सं कित िजस
मानवता क गुण क उपासक ह, वह न - हो जाए और उसने पूर यास भी िकए।’’
‘‘रावण िकस कार ऋिषय को खाता था?’’ रामदास ने िज ासा क ।
‘‘ ानी य को काय करने का अवसर न देना और उन सभी संभावना को समा कर देना, िजनसे वह
िवकास पाए—यही ऋिष को खा जाना कहते ह। आज ान क े म रावण ही बैठ ह। ाचीन ऋिषय क वाणी
को पा य म से हटाकर उ ह ने अपनी अनगल लाप करती रचना को पा य म म थान दे िदया ह। िव ाथ
को िन ाण सािह य पढ़ाया जा रहा ह।’’ पुनः सुमित क आँख भर आई, ‘‘आ य! महा आ य िक िजस
सुदामा को ान- े क सव पद पर होना चािहए था, उसे जीवन-यापन करने क िलए अ भी उपल ध नह हो
पाता। अनेक बार रात को खगोल म तार को देखकर सोचती िक या हमार भा य का कोई तारा इनक आँगन म
नह ह? या हम बनाते समय परमा मा हमारा सौभा य रचना ही भूल गया? वह इतना र कसे हो सकता ह?’’
सुमित क । उसने अपनी डबडबाई आँख प छ और बोली, ‘‘परतु वह र ह। म य मानूँ िक वह दया का सागर
ह? उनक िलए होगा वह दया का सागर, िजनको वह सबकछ देता ह। िजनका वह सबकछ छीन लेता ह या
िजनको वह कछ भी देता नह , वे कहकर िदखाएँ िक वह दया का सागर ह तो म मानू।ँ संसार म ऐसा एक भी जीव
तु ह नह िमलेगा।’’
‘‘ऐसे अनेक मनु य ह भाभी, िजनका रामजी ने सबकछ हर िलया—धन, वैभव, मान-स मान। दूसर श द म कहा
जाए तो उनका सबकछ ले िलया—सबकछ। कह का उनको नह छोड़ा। स ा थे—दास का भी दास बनाकर
अनाथ क समान भटकने को छोड़ िदया। दास बनाकर भी उसे संतोष नह आ। दास व म भी अपार क िदया;
िकतु उनक मुख से वेदना क प म ‘आह’ तक न िनकली। उलाहने क प म उ ह ने कभी रामजी को यह नह
कहा िक र ह। वे तो सदा यही कहते रह िक तू ेम और क णा का महासागर ह। इस संसार म एकमा वे ही
मनु य ह, जो वा तव म िजस कार राम उनको रख रहा ह, उसी प र थित से राजी होकर वे आनंिदत हो उसक
गीत गा रह ह।’’
‘‘ऐसा कौन हो सकता ह?’’ सुमित क मुख पर अिव ास क साथ लािन का भाव कट आ।
‘‘पांडव!’’ रामदास बोला, ‘‘कछ ही िदन पहले उ ह ने अपना अ ातवास पूरा िकया ह और देखो, वह दु
दुय धन कहता ह िक समय से पूव उसक ारा खोज िलये गए ह। जबिक भी म िपतामह, ोणाचाय, महा मा िवदुर
और ीक ण भी इस बात को मािणत कर चुक ह िक िनयत ितिथ से पूव नह खोजे गए ह। उन पांडव क ओर
देखोगी तो भाभी, तुम पाओगी िक क भोगने म तुम उनक तुलना म कह पर भी नह हो। महारानी ौपदी को
अपने ही घर म कल-वृ क स मुख भरी सभा म अपमािनत होना पड़ा। राजा िवराट क यहाँ रानी क दासी का
काय करना पड़ा। स ा धमराज युिधि र को राजा का दास बनना पड़ा। महाबली भीम को रसोइया और नकल
तथा सहदेव को पशु का र क बनना पड़ा। तु ह जानकर आ य होगा िक िव क महा धनुधर स यसाची
अजुन को नपुंसक क प म राजा िवराट क पु ी का नृ य-िश क बनना पड़ा और तुम कहती हो िक रामजी र
ह? उन लोग से पूछो तो वे बताएँगे िक रता या होती ह, अपमान या होता ह और हरण या होता ह? और
घोरतम दुदशा या होती ह?’’
रामदास चुप हो गया। सुदामा और सुमित यह सुनकर त ध रह गए थे।
‘‘देखो सुमित!’’ सुदामा ने वातावरण क त धता को भंग िकया, ‘‘अपनी बात पर िटक रहना। अभी तुमने वयं
कहा ह िक मेर जैसा गुणवा , िव ा और सदाचारी पु ष सौ-सौ योजन तक खोजे नह िमलेगा।...यिद परमा मा
र होता तो वह यह ान क अमू य िनिध मेरी झोली म डालता या? उसने हम िनधन नह , वर धनवा बनाया
ह। उसने ान-धन क संपदा हम दी ह। अभी िजन तथाकिथत ािनय को कोस रही थ , तिनक सोचो िक उसक
िकतनी बड़ी कपा ह िक उसने तु हार सुदामा को धन-िपशाच न बनाकर ान-िपपासु बनाया ह और तुम कह रही हो
िक वह र ह। हमार समान अनेक अ य िनधन प रवार का मुिखया जो कछ अिजत करता ह, सं या समय उसक
मिदरा पीकर घर आता ह, प नी और संतान को पीटता ह, अपश द कहता ह। परमा मा दयालु ह िक उसने तु हार
सुदामा को यह सब मल नह िदया। तुम देखने क ि बदलो। हम जो देखना चाहते ह, वही देख लेते ह। अभी
तुम यह देखना आरभ करो िक परमा मा ने तु ह या- या िदया ह तो तुम पाओगी िक ब त कछ िदया ह। दूसर
श द म क तो सबकछ िदया ह—कवल उस धन को छोड़कर, िजसको पाने क िलए हमने ही कोई पु षाथ नह
िकया।’’
‘‘और भाभी, यह भी नह ह िक सुदामा भाई धन नह कमा सकते। म तो देखता िक इनक जैसा ितभाशाली
पु ष यिद अपनी ऊजा को धन कमाने म लगाए तो वह अकत धन-संपदा का भंडार खड़ा कर दे।’’ रामदास बोला,
‘‘परतु सुदामा भाई क अंतमुखी कित उ ह वह सब करने नह देती। यिद वे कछ समय क िलए अपने
आ मस मान को एक ओर रख द तो िफर देिखए, सुदामा क आँगन म धन क वषा।’’ उसने सुदामा क ओर
देखा, ‘‘देखो बंधु! म तु हार समान ान का सागर नह , अ यथा मेर घर क चौखट वण क होत । तुम यिद
‘हाँ’ कहो तो िफर देखो, म तु हार ार पर धनवान क पं याँ लगवा दूँगा। तुम उनको उनक यापार और
प रवार क कशल- ेम क शा -स मत उपाय बताते रहा करना और म तु हार नाम पर दि णा बटोर कर अपना
और तु हारा ज म सफल करता र गा।’’
‘‘धनवान क पं क कोई आव यकता नह ह। यिद ये चाह तो इनक िलए तो सेठ धनीराम ही पया ह। वे
धनवान क भी धनवान ह।’’ सुमित बोली, ‘‘पर कभी उनक मन म भी परमा मा ने यह नह डाला िक धनीराम तूने
न जाने िकतने आ म और धमशालाएँ बनवाई, एक सुदामा का घर भी बना दे तो तेरा या जाएगा। तेर पास जो
कछ ह, वह मेरा ही तो िदया ह।’’
‘‘एक बात बताओ सुदामा, िक तुम तो धनवान को अहकारी मानकर उनक िनकट ही नह जाना चाहते हो। िफर
सेठ धनीराम म या बात ह?’’ रामदास ने पूछा।
‘‘धनीराम का मन परमा मा क ओर ह। धनीराम म धन क नह , ान क यास ह और इसीिलए वह मुझे ि य ह।
मने धनीराम क तर क अनेक धनी देखे ह, जो सूया त होते ही मिदरालय , वे यालय और ूतालय म पड़ होते
ह। धन उनको िवकितय क गत म धकल देता ह।’’ सहसा सुदामा का वर शंसा मक हो गया, ‘‘पर सेठ धनीराम
को देखो। वह अपने अवकाश क समय को परमा मा क ओर लगाते ह। इससे उनक वभाव का पता चलता ह।
यिद मनु य का वभाव जानना हो तो यह देखो िक वह अपने िनतांत अवकाश क समय को िकस उपयोग म ले रहा
ह।...िफर हमारी िम ता का आधार यापार नह ह, ान ह। अब तुम भी मेर िम हो। तुम मेर पास आते हो—हम
तु ह कभी भोजन भी नह करा पाए। यिद कभी कहा भी तो तुमने या तो यह सोचकर अ वीकार कर िदया होगा िक
हमार भोजन म से कछ भाग हण करक तुम हम पर अ याय करोगे या िफर खा-सूखा भोजन जानकर तुमने
अपनी अ िच कट कर दी होगी। अभी तुमने कहा भी िक तुम लोग कवल जल ही िपलाते हो, जलपान नह
कराते। इन सबक बाद भी तु हारा यह सोचकर हमार पास आना बंद तो नह आ िक सुदामा क यहाँ तो खाने को
भी नह िमलेगा। हमारी िम ता ेम और ान क सू म िपरोई ई ह। उसम अ य व तु का सहयोग वतः हो
जाए तो वह अलग बात ह। पर हम उस सहायता पर आि त नह रहना चािहए।’’
‘‘ या यह स य नह ह िक धनी क िम ता धनी से ही होती ह?’’ रामदास ने िज ासा क , ‘‘म तो आज तक यही
मानता आया िक िनधन क धनी से िम ता हो ही नह सकती। इस िवषय को कछ िव तार से समझाओ। मुझे
बताओ िक स य या ह?’’
‘‘स य यह ह िक धन अनेक कार का होता ह। ऐसा कभी नह होता िक परमा मा िकसी को सवथा िनधन बनाकर
भेजे। यह बात अलग ह िक उस धन क प अलग ह । िकसी को उसने बल पी धन िदया, िकसी को स दय
पी, िकसी को वा य पी, िकसी को ान पी, िकसी को भ और ेम पी धन िदया, िकसी को कवल
वण िदया और उसी को सारा संसार एकमा धन मान बैठा ह। इसिलए यह बात मरण रखो िक परमा मा ने
िकसी को भी िनधन नह बनाया। यहाँ सभी धनवा ह। जैसे ऊजा कवल अपना प बदल रही ह, वैसे ही धन भी
अपना प बदल रहा ह।’’ सुदामा क वर से यह विनत हो रहा था िक वे सुमित को यह समझाना चाह रह ह।
उ ह ने सुमित क ओर देखा और बोले, ‘‘तु ह िकसी भी िन कष तक प चने म शी ता नह करनी चािहए और
ऐसा कत नतापूण कथन भी नह कहना चािहए िक रामजी र ह। कभी माँगना होगा तो रामजी से ही माँगगे। िफर
सोचता िक रामजी से धन जैसी तु छ व तु या माँगनी। उनसे ान माँगूँगा।’’
‘‘अथा वह माँगोगे जो तु हारी िच का ह। यह भी तो लोभ ह, सुदामा!’’ रामदास क वर म आवेश था, ‘‘ ान
क साथ यिद तुम वण भी अिजत कर लोगे तो न तो अपिव हो जाओगे और न क प। वैसे िनधनता से बड़ी
क पता कछ नह ह। िनधनता पाप ह, सुदामा! और तुम यह पाप िन य म क भाँित करते हो। तु ह िनधन रखने
क पीछ परमा मा का कोई ष यं नह ह। यह सब तु हारा ही आल य ह।’’
‘‘तुम उिचत कहते हो। यह दोष परमा मा का नह , मेरा ह। म ही अपने को िकसी क चाकरी करने क यो य नह
पाता । मने कभी िकसी क ार पर कछ भौितक उपल ध पाने क िलए उसक घर क प र मा नह क ।
अयो य तो म ही।’’ सुदामा ने दुःखी मन से सुमित क ओर देखा और धीर से बोले, ‘‘म तु हारा भता होने क
िलए आ था, िकतु तु हार सुख का हता हो गया।’’
‘‘यिद आप माँ क दय से देख, गृिहणी क बोध से सोच तो पाएँगे िक मने कछ भी अनुिचत नह कहा ह। हाथ
जोड़ हम रामजी को और लड़ने-कोसने जाएँ पड़ोिसय को। य ? हमारा दािय व रामजी पर ह। वे चाह तो या
नह कर सकते। जब उ ह ने आपको ऐसी कित दी ह तो वैसी ही वृि का बंध भी उनको आपक िलए करना
होगा। जब वे अजगर और मकड़ी तक का यान रख सकते ह तो उ ह एक सुदामा ही िदखाई नह देता। उ ह नह
सुनाएँगे तो या रामदास भैया को सुनाएँगे। ये तो पहले से ही राम क दास ह।’’ सुमित को लगा िक उसने अपने
मनोभाव को कट करक सुदामा को आहत िकया ह, इसिलए उसने अपने वर को सहज बनाने का यास िकया
और रामदास क ओर देखकर बोली, ‘‘एक बात बताइए भैया! म इनसे कहती िक यिद आप िकसी अहकारी से
कछ याचना नह करना चाहते तो यादव कल िशरोमिण ीक ण से ही जाकर कछ माँग आइए। वे यिद अपने कठ
से मोितय क एक माला भी उतारकर दे दगे तो हमारा जीवन सुधर जाएगा। मने सुना ह िक एक ब त बड़ा वग
उनको सा ा नारायण का अवतार मानने लगा ह। उनक भ उनको भगवा कहते ह। अब जब िक भगवा वयं
देहधारी होकर आए ह और आप उनक िम भी ह, उनको अ छी तरह जानते भी ह तो य नह उनको अपनी
व तु थित बता आते।’’
‘‘तुम ऐसी ओछी बात सोच भी कसे लेती हो, सुमित? तुम वािभमानी सुदामा क प नी हो। यह तो मेरा अंतरग
िम रामदास ह। यिद कोई और होता तो या सोचता? नह , तु ह ऐसी बात नह कहनी चािहए।’’ सुदामा ने अपनी
आँख मूँद ल और अपनी दोन हथेिलय को िसर क पीछ फसाकर, पीठ क पीछ रखी गुदड़ी का सहारा ले
आकाश क ओर गरदन उठा ली।
‘‘सुदामा, ीक ण को जानता ह?’’ रामदास क वर से यह पता नह लगा िक वह इस बात को सुनकर
आ यचिकत आ ह या इस कथन पर अपना अिव ास य कर रहा ह।
‘‘तुम भी रामदास!’’ सुदामा ने अपनी आँख खोल और सीधे बैठ गए, ‘‘तुम अपनी भाभी क बात पर कान मत
दो। इसका या ह, कछ भी कह देती ह।’’
‘‘ य , या आप ीक ण को नह जानते?’’ सुमित ने वर म कहा।
सुदामा हसने लगे।
‘‘हस य रह हो, भाई! इसम हसने जैसी या बात ह?’’ रामदास को कछ समझ नह आ रहा था िक ये पित-प नी
कसी बात कर रह ह और इनका कसा यवहार हो गया ह। स य ही ह िक िनधनता म बु िफर जाती ह।
‘‘इसम हसने जैसी कोई बात नह ; िकतु इस बात को सुनकर िवनोदपूण बात मरण हो आई। तुम भी सुनो। नह तो
कहोगे िक सुदामा ने दाल-भात तक िखलाना तो दूर रहा, एक हसी क बात उसक पास थी और उससे भी उसने
मुझे वंिचत रखा। िनधन क साथ-साथ म कपण होने का िवशेषण नह ढोना चाहता ।’’ सुदामा अभी भी हस रह
थे। पर उनक हसी कह रही थी िक वह िकसी पीड़ा को ढाँपने का आवरण मा ह। हसी को थामकर सुदामा ने
कहा, ‘‘एक बार मेर जैसा एक िनधन अपने से थोड़ कम िनधन क पास गया और बोला िक िम , मने सुना ह िक
तुम यहाँ क राजा को जानते हो। िकतु वािभमानी होने क कारण तुम उससे सहायता माँगने कभी नह जाते। यिद
तुम राजा क नाम एक पाती िलख दो तो हो सकता ह िक राजा मुझे िकसी राजक य सेवा म थान दान कर दे।
अपने िलए न सही, पर परोपकार क भावना से मेर िलए तो यह काम कर दो। उसक िम ने कहा िक उसे कोई
आपि नह और उसने राजा क नाम एक पाती िलख दी िक वह अपने िम को आपक सेवा म भेज रहा ह। आशा
ह िक आप इसे राजक य सेवा म थान देकर अनुगृहीत करगे।...जब वह राजा क यहाँ प चा तो ऐसे खदेड़ा गया
जैसे जंगल का िसयार यिद भूल से नगर म वेश कर जाए और वहाँ क क े उसक जो दुगत बनाते ह।’’ सुदामा
हसने लगे और िफर अपनी हसी को संयत कर बोले, ‘‘लौटकर आने क प ा उसक िम ने कहा िक भाई, तुम
तो कहते थे िक तुम राजा को जानते हो। पर मेर साथ जो बनी उसको देखकर तो यह कहा नह जा सकता िक तुम
राजा को जानते हो।... उसक िम ने कहा िक देखो भाई, मने अस य नह कहा था िक म राजा को नह जानता। म
अब भी यही कहता िक म राजा को जानता । पर राजा मुझे जानता ह या नह , यह दूसरी बात ह। राजा मुझे नह
जानता, म राजा को जानता ।’’
‘‘िकतु यहाँ ऐसी बात नह ह। ीक ण आपको जानते ह और आप ीक ण को। दोन ने गु संदीपिन क आ म म
एक-साथ समय िबताया ह। और आप कह रह ह...’’
‘‘...शांित...शांित...शांित!’’ रामदास चीखा, ‘‘कह ऐसा तो नह िक मुझे बावला बनाने क िलए तुम पित-प नी
िमलकर यह वाँग भर रह हो? आप कह रही ह िक ीक ण सुदामा क सहपाठी थे!’’
‘‘यहाँ हमारा जीवन धूिमल पड़ा ह और आप कह रह ह िक हम आपको बावला बनाने क िलए यह वाँग भरते ह।
वाँग वह भर िजसका पेट भरा हो। भूखे को तो भु का भजन भी नह सुहाता और वह आपको सताने क िलए
वाँग भरगा।’’ सुमित ने जैसे आवेश म आकर रामदास को िध ारा।
‘‘ मा करना, भाभी!’’ रामदास ने हाथ जोड़, ‘‘यह बात ही कछ ऐसी ह िक कोई भी सरलता से इस पर िव ास
नह करगा। आप वयं देख िक दोन क म य िकतना बड़ा अंतर ह। एक स ाट का स ा ह तो दूसरा...’’
रामदास ने ककर सुदामा क ओर देखा और बोला, ‘‘...अ यथा न लेना िम , कवल अपनी बात को प करने
क िलए ही कह रहा िक एक तो स ाट का स ा ह और दूसरा िनधन िशरोमिण।’’ रामदास हसा, ‘‘म िफर कह
रहा िक मेरी बात को अ यथा न लेना। आप वयं सोच िक एक सामा य तर क राजपु ष क साथ भी यिद
िकसी िव ा क िम ता हो तो वह कहाँ-से-कहाँ गित कर लेता ह।’’
‘‘वही तो म कह रही िक यिद ये एक बार ीक ण से िमल आएँ तो...’’
‘‘...तो मेरा भी उ ार हो जाएगा।’’ रामदास बोला, ‘‘आज तक इसने मुझे कभी यह बात नह बताई और कहता
मुझे अपना अंतरग िम ह। मुझे तो यह बात ही गले नह उतर रही िक यिद सुदामा ीक ण से इतना प रिचत ह तो
इसने अभी तक उस प रचय का लाभ य नह उठाया? यिद कोई िकसी राजपु ष क ारपाल को भी जानता ह
तो वह उस तक का भरपूर लाभ उठाता ह और अपना भाव जमाने क िलए उसक चचा करता ह।’’ रामदास
बोला।
‘‘पहली बात तो यह िक प रचय का उपयोग लाभ उठाने क िलए नह होना चािहए।’’
‘‘तो या उसका उपयोग हािन उठाने क िलए होना चािहए?’’ रामदास ने सुदामा को आगे बोलने नह िदया,
‘‘सुदामा, तुम िकस संसार म रहते हो? कसी यथ क मा यता को तुम ढो रह हो? प रचय होता ही इसीिलए ह
िक तुम उसका उपयोग अपने लाभ क िलए करो और प रचय से लाभ उठाना वाभािवक ह। इसम कछ भी
अनैितक नह ह।’’
‘‘म तुमसे सहमत नह ।’’ सुदामा क वर म हठ था।
‘‘तो सहमत होना पड़गा।’’ रामदास ने अपनी बाई हथेली पर दाएँ हाथ का मु ा बनाकर मारा।
‘‘ य ?’’
‘‘ य िक म सही और म अपने सही होने को अभी मािणत करता िक प रचय का उपयोग लाभ क िलए होना
कछ अनैितक नह ह। हाँ, अनैितक काय करवाने क िलए प रचय का लाभ उठाना अनुिचत ह। ये दोन बात अलग
ह और तुमने उन दोन को िमला िलया ह।’’ रामदास आवेश म आ गया, ‘‘मानकर चलो िक तुम नगर से गाँव क
ओर आ रह हो और सेठ धनीराम का रथ माग से जाता हो। ऐसे म दो थितयाँ हो सकती ह। पहली यह िक
धनीरामजी सुदामा को अपना प रिचत जानकर रथ रोक ल और कह िक आइए सुदामाजी, म आपको ाम तक
छोड़ दूँ। दूसरी थित यह ह िक तुम धनीरामजी का रथ आते देखकर उनसे गाँव तक क या ा क िलए रथ का
सहयोग लो। दोन ही थितय म प रचय का लाभ िमलना वाभािवक ह। माग म अनेक पिथक जा रह ह और
सभी क िलए धनीराम अपना रथ रोकनेवाले नह ह। दूसर प से देख तो अनेक रथ जा रह ह, पर सुदामा धनीराम
क अित र िकसी अप रिचत को अपने रथ पर िबठाने क िलए नह कह रहा। जहाँ प रचय होता ह, वह सहायता
क अपे ा क जाती ह।’’
‘‘राम भैया, आपने तो ब त ही सुंदर बात कही ह।’’ सुमित ने भािवत होकर कहा।
‘‘ध यवाद भाभी! वैसे म सदा सुंदर बात ही कहता । यह बात दूसरी ह िक मेरी सुंदरता यह सुदामा देख नह
पाता।’’
‘‘तो बताइए िक मेरा यह आ ह िक ये ीक ण से भट करने जाएँ, या अनुिचत ह?’’ सुमित ने सुदामा क ओर
देखते ए रामदास से कहा।
‘‘अनुिचत इसका न जाना होगा। ीक ण तो पु षाथ करने क इतने अिधक प धर ह िक उनक इस िचंतन क
कारण वे यादव, जो कल तक कछ नह थे, सव श का गौरव पाए ए ह। इस समय यादव का वच व
अपूव ह। ऐसे यादव िशरोमिण हमार सुदामा क िम ह, यह तो व न जैसी बात ह।’’
‘‘और म चाहती िक ये इस व न को साकार कर।’’ सुमित ने जैसे अपना िनणय सुनाया, ‘‘इ ह ने आज तक
िकसी क आगे अपना हाथ नह फलाया। म ही गाँव क मुिखया क गौ क सेवा करक जो थोड़ा-ब त अ ले
आती , उससे िकसी कार घर का भरण-पोषण हो जाता ह। यिद कोई योहार आ जाए या मीनू अहीरन क घर
का कोई पा रवा रक उ सव हो तो कछ िम ा और व भी िमल जाता ह। मेर िपता ने इनक साथ इनक िव ा
को देखकर ही िववाह िकया था। उनका यह मानना था िक सुदामा संदीपिन गु क िश य ह। एक िदन इनका अपना
गु कल होगा। यिद यह भी नह आ तो ये कलपित तो अव य बनगे।’’
‘‘वे संभवतः यह नह जानते थे िक सुदामा एक साधारण पित भी नह बन सकगा। यिद वे जानते िक सुदामा उनक
बेटी क म पर परजीवी क समान जीवन यतीत करगा तो वे िन त प से अपनी बेटी मुझे न देते।’’ सुदामा का
वर यिथत था।
‘‘देिखए, यह उिचत नह ह। म कह देती िक यह उिचत नह ह।’’ सुमित क आँख डबडबा आई, ‘‘आप न तो
मेर िपता क िलए यह असंगत िट पणी देकर उनका अपमान कर सकते ह और न वयं को अयो य पित कहकर
अपना।’’
रामदास अवाक हो सुमित क ओर देखता रहा। यह कसी िविच प नी ह िक अपने पित को अ य प से
िध ारती भी ह और उसक मान-स मान पर आँच भी नह आने देती।
‘‘मेर िपता को यिद यह सब ात होता तो भी वे मुझे आपको ही याहते। इसका माण यह ह िक आज तक एक
बार भी उ ह ने आपको कभी यह उलाहना िदया िक य आपने उनक बेटी को दासी से भी गई-बीती बना रखा ह?
आपक भावना का स मान करते ए उ ह ने हमार िलए वह भट भी भेजनी बंद कर दी, जो एक िपता का आनंद
और एक पु ी का सुख होता ह। मेरी अ य दो बहन क पित धनपित ह, पर कभी भी मेर िपता ने उनक साथ इनक
तुलना नह क । वे तो सदा यही कहते रह ह िक सुदामा तो सर वती-पु ह। वह हस क सवारी करता ह। ल मी
ढोनेवाले तो ायः उलूक सवार होते ह। अपनी दोन बहन क पितय क धन म आस को देखकर मने ही अपने
िपता ये यह इ छा कट क थी िक वे यिद मुझे सुखी देखना चाहते ह तो िकसी ान-उपासक को मेर वामी क
प म खोज। मेरी इ छा उ ह ने पूरी क ।’’ सुमित ने सुदामा क ओर देखा और बोली, ‘‘इसिलए आप मेर िपता
को दोष न द। साथ-ही-साथ वयं को अयो य पित भी न कह। यह आपका वभाव ह या कछ और, पर आप
चाकरी नह कर सकते। आपका वभाव ानाजन ह, शोध ह और उसक अनुकल आपको अभी तक कोई पद नह
िमला। आप मूख क अधीन रहकर उनक अदूरदश िनणय क शंसा म करतल- विन नह कर सकते। मने
आपको कभी अयो य पित नह कहा और आप भी ऐसा कहकर हम सब का अपमान न कर तो सुंदर होगा। आपक
कारण म भी वष से अपने मायक नह गई।’’
‘‘सुदामा क कारण! य ? या यह मना करता ह?’’ रामदास ने पूछा।
‘‘इ ह ने कभी मना नह िकया।’’
‘‘तो?’’
‘‘जब ये ही अपनी ससुराल नह जाएँगे तो म जाकर या क गी? यिद वहाँ गई तो सब एक ही बात पूछगी िक
उनक जामाता य नह आए? तब म या उ र दूँगी और यिद इनको अकला छोड़कर गई तो इनका कोई िव ास
नह िक ये एक प तक उपवास म ही रह।’’ सुमित ने सुदामा क ओर देखा।
‘‘उपवास म रहने क बात कहाँ से आ गई? इससे अ छा तो यही ह िक आपक साथ ससुराल जाएँ। ससुराल क
आित य क मिहमा ही कछ और ह। ससुराल जाकर ही समझ म आता ह िक हम भी कछ ह। म तो ायः ससुराल
जाता रहता ।’’ रामदास सुदामा क ओर मुड़ा, िकसी वाँग करनेवाले क वर म आँख मटकाते ए बोला, ‘‘ य
भाई सुदामा! तुम ससुराल काह नह जाते हो? हम समझ गए। अपनी दुदशा िदखाने से उ म ह िक िछपकर रहो।’’
‘‘इसीिलए तो कई बार कह चुक िक एक बार, बस एक बार ीक ण क पास हो आएँ। यिद वहाँ से भी
मनोकामना पूण नह ई तो िफर मुझे सौगंध ह मेरी संतान क जो मने कभी इनसे िकसी काय को करने क िलए
कहा।’’ सुमित फफककर रो पड़ी।
‘‘भाभी, रोकर य सुदामा का और अपना मन दुखाती हो। आपक आँसू देखकर म भी भारी मन से यहाँ से िवदा
होऊगा। आप िचंता न कर। सुदामा आपक यह इ छा अव य पूरी करगा।’’ रामदास ने जैसे वचन िदया।
‘‘रोओ मत। म क ण क पास चला जाऊगा। पर मेर एकमा न का उ र दे दो। यिद तुम मेरी उस बात से
सहमत हो गई तो म वचन देता िक म क ण से िमलने अव य जाऊगा।’’ सुदामा ने एक गहरी ि सुमित पर
डाली और बोले, ‘‘यिद म क ण क ार से ारपाल क ारा अपमािनत होकर िकसी अवांछनीय पशु क समान
भगाया गया या क ण ने ही मुझे पहचानने से मना कर िदया और मुझे दु कार िदया तो या तुमको अ छा लगेगा?
कवल मेर इस न का उ र दे दो।’’
सुमित कछ नह बोली। उसक आँख से झर-झर अ ु बहने लगे। उसने अपनी आँख मूँद ल । रामदास भी मन-
ही-मन यह सोच रहा था िक आज वह भी कसी िविच थित म पड़ गया ह। वह देख रहा था िक ानी सुदामा ने
अपनी प नी को ऐसी दुिवधा म फसा िदया ह िक यिद वह ‘हाँ’ कहती ह तो इसका अथ यह आ िक उसे अपने
पित क स मान से अिधक धन ि य ह और यिद वह ‘नह ’ कहती ह तो सुदामा का क ण क पास जाने से बचने का
तक जीत गया। वह देख रहा था िक सरल वभाव क सुमित को सुदामा ने गहर धम-संकट म फसा िदया ह।
कशल-से-कशल दाशिनक भी ऐसे भावना मक शोषण से बच नह सकता। उसक मन म आया िक वह सुदामा को
डाँट दे और उससे कह िक यिद तु ह क ण क पास नह जाना तो सीधे मना कर दो। पर यह या आ िक इ छा
अपनी और दोषारोपण का ष यं अपनी प नी क िलए रच रह हो।
‘‘बताओ। अब बोलती य नह ? या तु ह अ छा लगेगा, यिद म क ण क ार से दु कारा जाऊ?’’
‘‘यिद ऐसा आ तो भी मुझे संतोष होगा िक आप िकसी साधारण संसारी क ार से न दु कार जाकर परमा मा क
महा ार से दु कार गए ह। यिद ऐसा आ तो म सहष यह वीकार कर लूँगी िक िजसे राम ने दु कार िदया, उसे
अब िकसी से कोई आशा नह रखनी चािहए।’’ सुमित को जैसे आवेश हो आया था, ‘‘यह हमारी भी परी ा ह और
रामजी क भी। एक बार सीता को खोजते-खोजते जब ीराम अपने अनुज ल मण क साथ पंपा सरोवर प चे तो
ल मण ने उनसे उस पिव सरोवर म ान करने क इ छा कट क । वे दोन उस सरोवर म ान करने उतर।
उससे पहले उ ह ने अपने धनुष को वहाँ क गीली िम ी म गाड़ िदया। ान क उपरांत उ ह ने अपने-अपने धनुष
अपने कध पर रखे और आगे बढ़ गए। ीराम को अपने दािहने पैर पर जल क बूँद टपकने का आभास आ।
उ ह ने ककर अपने पैर क ओर देखा। ल मण चिकत रह गए िक ीराम का पैर र -रिजत था। उ ह ने ीराम
क चरण को अपने उ रीय से प छा और घाव खोजना चाहा। परतु कह कोई घाव नह था। तभी ीराम ने देखा िक
र क एक बूँद उनक धनुष क िसर से उनक पैर पर टपक । उ ह ने अपने धनुष का िनरी ण िकया तो पाया िक
उसका वह भाग, जो उ ह ने गीली भूिम म गाड़ा था, र से सना आ ह। वे ल मण से बोले, ‘ल मण, जहाँ हमने
ये धनुष गाड़ थे, हम वापस उस थान पर लौटकर इसका कारण खोजना होगा।’ वहाँ जाकर ीराम ने देखा िक
जहाँ उ ह ने अपना धनुष गाड़ा था, वहाँ एक र -रिजत मेढक अपनी अंितम साँस ले रहा था। ीराम ने उस मेढक
को उठाया और क णा भर वर म बोले, ‘भाई, जब मने धनुष गाड़ा, तब तुमने मुझे य नह पुकारा?’
‘ भु!’ मेढक दयनीय प से मुसकराकर बोला, ‘जब मुझे साँप खाने आता ह तो म िच ाता िक ह राम! र ा
करो। अब जब राम ही मुझे मारने पर आ गए ह तो म िकसे र ा क िलए पुका ? िजसे राम मारने क ठान ल,
उसक िलए तो िफर िकसी लोक म कोई ठौर नह ह।’ तो यिद भगवा ीक ण ने भी हम ठकरा िदया तो हमारी
दशा उस मेढक क -सी ही होगी। हम मौन साध लगे।’’
रामदास को कछ हो रहा था। वह होना या था, उसक समझ म नह आ रहा था। य िक जो कछ उसे हो रहा था
वह होना उसक जीवन म पहली बार ही हो रहा था। उसे लग रहा था िक उसका कोई अ त व ही नह ह। वह जैसे
िबना म त क का होता जा रहा था। उसक सोचने-समझने क मता न होती जा रही थी। उसने िच ाना चाहा,
पर उसक गले पर जैसे िकसी ने पैर रख िदया था। वह चाह रहा था िक सामने बैठा सुदामा उसे ध ा दे, उस पर
अपने पैर से हार कर िजसक आघात से उसक लु होती चेतना लौटने लगे। वह सुमित को भी देख रहा था और
सुदामा को भी। वे दोन उसे िकसी ितमा क समान िनज व िदखाई दे रह थे। उसका शरीर जड़ होता जा रहा था।
उसने अनुभव िकया िक कोई अ य ऊजा उसक चार ओर िकसी सप क समान गित करती जा रही ह और
अक मा उसने अनुभव िकया िक जैसे वह सपाकार गित करती ऊजा उसक शरीर से उतरकर भूिम म समा गई ह।
वह कित थ होने लगा। सुदामा ारा सुमित को कहा जा रहा संवाद अब वह सुन पा रहा था।
‘‘तो तु हारी इ छा पूण करने क िलए म परमा मा क ार पर जाऊगा। िकतु यह तो बताओ िक राम को तो संसार
परमा मा मानता ह, पर क ण क संबंध म ऐसी कोई चिलत मा यता नह ह।’’ सुदामा ने कहा, ‘‘ऐसा न हो िक म
अपने बाल-सखा को भगवा ीक ण क और उसक राजकमचारी तथा प रजन समझ िक सुदामा चाटका रता
करक क ण से धन ा करना चाहता ह।’’
‘‘भी म िपतामह ने धमराज युिधि र से अ पूजा क िलए ीक ण का ही नाम सुझाया था। उनसे अिधक धम को
जाननेवाला कौन ह? जब वे ीक ण को परमा मा मानते ह तो अ य िकसी माण क आव यकता ही या! वे
ीक ण, जो अव था म उनक पौ क समान ह। अनुप थत रहते ए ौपदी क उ ह ने िजस कार र ा क ,
ऐसी र ा तो परमा मा क अित र कोई मनु य कर ही नह सकता।’’
‘‘ठीक ह। म तु हारी भावना का स मान करता । पर अपने बाल-सखा को भगवा मानने म मेरी कोई िन ा
नह ह। क ण एक कशल राजपु ष ह। राजनीित म जाकर साधु भी असाधु हो जाते ह। राजनीित िकसी को रा स
बनने क संभावनाएँ तो दे सकती ह, िकतु भगवा बनने क नह । रा स बनने क िलए मनु य को कछ अित र
करने क आव यकता नह । उसे कवल राजनीित म वेश करना ह और राजनीितक प रवेश उसे वयं रा स बना
देगा।’’
‘‘ ीराम भी तो राजपु थे।’’ सुमित ने सुदामा क मत का खंडन िकया।
‘‘पर उनका जीवन वन म बीता। वे राजनीित से कोस दूर थे।’’ सुदामा बोला।
‘‘आपको यह या हो गया ह? आप कतक कब से करने लगे? ीराम िपता क इ छा मा से सारा सा ा य एक
ण म यागकर चले गए। िनषादराज गुह ने अपना राजपाट उनको देना चाहा, सु ीव क रा य पर भी उनका ही
अिधकार हो सकता था, लंका तो उनक ही जय क ई थी; िकतु उस राजपु को माया तो छ ही नह पाई। काल
ने अपना िनणय दे िदया और यह िस हो गया िक ीराम अ य कोई नह , वयं मायापित ही थे। यही सब आप
ीक ण क िवषय म देख ल। कस जैसे अनेक अ याचा रय का अंत िकया, िकतु िकसी क सा ा य पर ि भी
नह डाली। मुझे तो लगता ह िक वे ही मयादा पु षो म ीराम जैसे सवकला संपूण ीक ण क प म अवत रत
हो गए ह।’’
रामदास ने यह अनुभव िकया िक ऊजा पी वह सप, जो भूिम म समा गया था, वह उसक एि़डय से होता आ
उसक दय से कट आ ह। उसने एक क ण सप देखा। वह उसक भृकिट क म य फन काढ़ खड़ा था। उसने
अपने फन को लहराया और अपना दंश उसक -ू म य म गड़ा िदया। रामदास लहराया और िकसी पक फल क
समान भूिम पर िगर गया।
‘‘रामदास!’’ उसक िगरने क थित ऐसी थी िक सुदामा चीख उठ। सुदामा ने रामदास का नाड़ी परी ण िकया।
वह बंद थी।
‘‘ह राम! यह या हो गया?’’ सुमित भी घबरा गई।
रामदास क आँख चढ़ी ई थ । वह सं ाशू य था। सुदामा ने लोट म रखा जल अनेक बार रामदास क मुँह पर
िछड़का। उसे जोर से िहलाया और उसका नाम लेकर अनेक बार चीखे।
अचानक रामदास क नाक से एक ती ास ऐसे बाहर िनकला जैसे कोई सप फफकारा हो। उसने आँख खोल ।
‘‘रामदास, या हो गया था? हम तो घबरा ही गए थे। तुम कसा अनुभव कर रह हो?’’ सुदामा हड़बड़ाहट म
बोलते ही जा रह थे।
रामदास ने सुदामा और सुमित क ओर फटी-फटी आँख से ऐसे देखा जैसे वे उसक िलए अप रिचत ह । सुदामा
और सुमित यह अनुभव कर रह थे िक वे रामदास क वा य क संबंध म जो कछ पूछ रह ह, वह उन श द को
सुन नह पा रहा ह। रामदास सुदामा और सुमित को फटी-फटी िव मयपूण आँख से देखता आ उठा और पगडडी
पर आगे बढ़ता चला गया और उनक आँख से ओझल हो गया।
‘‘रामदास! रामदास!’’ सुदामा पुकारते रह गए।
q
दो
सुदामा क पद-या ा का यह तीसरा िदन था। उ ह ने अनुभव िकया िक उनका सारा शरीर पूरी तरह थक चुका ह।
भगवा सूय उनक िसर पर सवार थे। उनका ताप क दे रहा था। या ा क िलए जो गुड़-चना लेकर वे चले थे,
वह कल ही समा हो गया था। उ ह ने कधे पर लटक अपनी पोटली पर ि डाली। उसम क े चावल थे, जो
उ ह ने संकट क समय क िलए बचाकर रखे ए थे। उ ह ने देखा िक कछ िमक ने एक कएँ क पास वृ क
झुरमुट म चू हा जलाया आ ह। उनक मन म आया िक उनसे कह िक वे उसक एक मु ी चावल उबाल द तो
उनक कपा होगी।
‘तो सुदामा याचना का अ यास आरभ कर रहा ह।’
सुदामा ने इधर-उधर देखा।
‘भीतर...भीतर देखो सुदामा! म तु हारी चेतना । तु हार आ मस मान क घर म रह रही ।’ चेतना बोली।
‘इसम याचना जैसी या बात ह?’ सुदामा तमककर बोले।
‘चावल मेर ह। म उनसे भीख नह माँग रहा। कवल सहायता माँग रहा । उनक पास अ न जल ही रही ह।’
सुदामा ने अपना तक तुत िकया।
‘उस अ न को िलत करने क िलए उ ह ने अपने पु षाथ का घषण िकया ह। तुम कवल िज ा घषण करोगे
और तु हार चावल पक जाएँग।े ’ चेतना बरसी, ‘इतने ही वािभमानी हो तो मत माँगो अ न भी। यिद इन साधारण
संसा रय ने तु ह दु कार िदया तो तु हार मन म बैठी सुमित को िकतना दुःख होगा। अब तो कवल क ण क ार
पर ही याचना करना और वह से दु कार जाने का सुख ा करना।’
‘म क ण क पास याचना करने नह जा रहा। अपने बाल-सखा से िमलने जा रहा ।’ सुदामा का मुँह कड़वा हो
गया।
‘ओह! बाल-सखा!’’ चेतना ने सुदामा को िचढ़ाया, ‘प नी क उपालंभ सहने क प ा बाल-सखा क मृित ने
सुदामा को आ घेरा ह। अित उ म! या अ ुत स यभाव ह।’
‘तुम चाहती या हो?’ सुदामा का वर जैसे डटकर खड़ा हो गया।
‘ वीकार।’
‘ वीकार?’
‘हाँ, यह वीकार िक तुम क ण से धन क याचना करने जा रह हो।’ चेतना बोली, ‘मुझसे या िछपाते हो?’
‘तुमसे कछ िछपा नह ह तो तुम यह भी भली कार से जानती होगी िक भले ही म क ण क पास अपनी प नी क
आ ह क कारण जा रहा ; परतु मेर मन म यह संक प ह िक म य प से क ण से कछ माँगूँगा नह ।’
‘ य प से यिद क ण कछ दगे तो तुम उसे वीकार कर लोगे। य ?’ चेतना ने क चा।
‘हाँ।’ सुदामा बुदबुदाए।
‘तो ठीक ह िफर संक प करो िक शेष या ा म िकसी से कोई सहायता नह माँगोगे।’ चेतना बोली।
‘म संक प करता ।’ सुदामा ने चावल क पोटली बाँधी, उसे अपने कधे पर लटकाया और चल िदए।
××××
भोरकाल म अपने िनयत समय पर उठने और िदन भर चलने क उपरांत भगवा सूय अब थक गए थे, अतः अपनी
सखी सं या क गोद म िसर रखकर िव ाम करने जा रह थे। कछ देर प ा इनक यही सखी इनक िनशा पी
प नी बन इ ह राि -सुख देगी।
‘‘ य भाई, यह ारका अभी िकतनी दूर ह?’’ सुदामा ने चाक पर चढ़ िम ी क ल दे से एक सकोर को कट
करते क हार से पूछा।
क हार चाक को उसी दशा म घूमता छोड़कर खड़ा हो गया। उसने अँगोछ से पसीना प छा और सुदामा क ओर
देखा।
सुदामा सहम गए। उ ह लगा िक इस परदेस म अब यह क हार काम म बाधा प चाने क दंड व प उनको
िझड़कगा। सुदामा यह सोचकर ही भूिम म गड़ जाते ह िक कोई उनको िध ार अथवा दोषी ठहराए।
‘‘ णाम!’’ क हार ने हाथ जोड़ िदए, ‘‘मेरा सौभा य िक देवता ने मेरी किटया म चरन धर। महाराज, ब त दूर क
या ा करक आ रह िदखाई देते ह। लगता ह, आपने कह भी न िव ाम िकया ह और न भोजन पाया ह। पता नह
मने िपछले ज म कौन से पु य िकए थे जो भु क राह म बढ़ते साधु-महा मा को मेरी किटया म भेज देते ह।
तप या म तपी आपक दुबल देह म से भी तेज बरस रहा ह, महाराज! िबराज!’’
सुदामा क मन म आया िक उस क हार को बताएँ िक वे न तो कोई साधु ह, न तप वी और न महा मा। वे तो एक
अ यंत साधारण िनधन बा्र ण ह, जो धन पाने क आस म क ण क ार जा रहा ह। पर सुदामा ने वह सब नह
कहा।
‘‘तुम ब त भले हो, भाई! भगवा तुम पर कपा बनाए रखे। तु ह सुख-समृ दे। तु हारी संतान ान ा कर।’’
सुदामा चिकत थे िक आज तक उनक मुँह से सं यािसय क समान ऐसे आशीवाद क वषा कभी नह ई। या यह
उनक सं यािसय क समान क जा रही या ा का भाव ह?
सुदामा क हार क पास बैठ गए।
‘‘ओ कमली! महाराज पधार ह। एक लोट म दूध और िम सी रोटी खाने को ला।’’
दूध और िम सी रोटी का नाम सुनते ही सुदामा क भूख िकसी असंयिमत बालक क समान याकल हो उठी। यह
सुनते ही सुदामा संतोष से भर गए िक िबना माँगे उनक िलए भोजन क यव था हो रही ह। दूध, िजसका वाद
चखे उनको िकतना समय हो गया, उ ह मरण नह । यदा-कदा सुमित दूध ले आती थी तो वह उसे ब क िलए
ही रहने देने का आ ह करते थे और अब उनक िलए लोटा भर दूध आ रहा ह। दूध पीकर उनक थकान भी िमटगी
और वह श से भी भर जाएँगे।
कछ ही देर म एक ी थाली िलये आई। उसने आदर सिहत सुदामा को णाम िकया और थाली एक पीढ़ पर
रख दी। अब सुदामा क स मुख एक थाली म वण क समान पीले रग से चमकती िमि त आट क दो रोिटयाँ रखी
थ और एक लोटा दूध का भरा था। दूध और रोटी क सुगंध उनक वािद , पिव और पौि क होने का माण दे
रही थी।
सुदामा ने क हार क ओर देखा।
‘हम ध य कर, िव देव!’ क हार ने हाथ जोड़ िदए।
‘तो सुदामा अपना त भंग कर रहा ह।’ चेतना भरी थाली क बीच आ कदी।
‘कौन सा त?’ सुदामा च का।
‘अर! इतनी ज दी यह भी भूल गए िक ‘कौन सा त’ कहने लगे। अभी तो तुमने यह संक प िकया था िक कवल
क ण क ार से ही कछ पाओगे और यह या हो रहा ह। दूध-रोटी देखकर िवचिलत हो गए?’
‘मने कछ भी माँगा नह ह। यह मुझे अपना अितिथ वीकार कर वयं अपनी भावना क कारण मेरा स कार कर रहा
ह।’ सुदामा ने अपना प प िकया।
‘यिद यही दूध का लोटा तु हार घर पर होता तो या तुम इसे पी लेत?े एक घूँट दूध जब सुमित तु ह िपलाना चाहती
ह तो तुम कहते हो िक इसे बालक को दे दो। हमसे अिधक आव यकता उनको ह। इस समय तु हारी प नी पेट
बाँधकर, तु हार ब क साथ सोने क तैयारी कर रही होगी और इधर तुम दूध-रोटी का आनंद उठाने क तैयारी
कर रह हो?’’
सुदामा ने एक आघात अनुभव िकया : स य तो कहा ह उसक चेतना ने। वे यह या कर रह ह। उ ह ने अपनी भूख
क ओर देखा।
‘मेरी ओर या देख रहा ह िनरभाग!’ भूख जैसे सुदामा क ओर देखकर कटख ी िब ी क समान गुराई, ‘तू तो
भरी थाली पर पद- हार करने म कशल ह। अब जब भा य ने तुझ पर कछ दया क ह तो तू भावना म मरकर मुझे
भी मारगा और वयं भी मरगा। अभी ारका जाना ह। वहाँ से तुझे खदेड़ा जाना ह और िफर पुनः कई िदन क
या ा कर वापस मरणास अव था म अपने गाँव मायापुरी प चना ह।’
सुदामा ने भरी थाली को नम कार िकया और उसे क हार क ओर सरका िदया।
‘‘मुझसे कछ भूल ई या, िव देव?’’ क हार ने अपने जुड़ हाथ को माथे से लगाकर कहा।
‘‘नह भाई! मने कोई त धारण िकया ह। जब तक वह पूरा नह होगा, तब तक म कछ भी हण नह क गा।’’
सुदामा आ मलीन-से हो गए।
‘‘महाराज! वचन द िक त पूरा होने क बाद आप यिद इस माग पर पधारगे तो इस अधम क किटया पर िफर से
अपने चरन धरगे। यिद आप उस समय भी िकसी ऐसे त म ह गे िक िजसम कछ हण नह कर सकते ह गे तो भी
आप एक लोटा जल पीकर मुझे कताथ करगे।’’
‘‘अर...अर, यह या कर रह हो?’’ सुदामा ने अपने पैर म पड़ क हार को हटाया। उनक जीवन का यह पहला
अवसर था, जब िकसी ने भ -भाव से उनक पैर म अपना िसर रखा था। उ ह ऐसा लगा जैसे िकसी ने उनक
दय पी पवत से िकसी बड़ प थर को हटा िदया हो और उसक पीछ िछपा आशीवाद पी झरना फट पड़ा हो।
उस झरने म वे उस क हार को जी भरकर नहाते ए देख रह थे। उ ह तो अपने चय जीवन का कवल वह
काल ही मरण ह, जब वे गु जन इ यािद क चरण-वंदना िकया करते थे।
‘‘नह देव! जब तक आप वचन नह दगे तब तक म आपक चरन नह छो ँगा।’’ क हार क आँख भर आई।
‘सोच या रह हो सुदामा?’ चेतना हसी, ‘तुम घर से बाहर या िनकले, तु हारा सौभा य भी तु हार साथ-साथ चल
रहा ह और तुम हो िक उसे दु कार जा रह हो। अर हठबु , जब तू क ण क यहाँ से दु कारा जाएगा तो तेरी
वापसी-या ा का बंध इस क हार क यहाँ िन त आ। तब तेर पास न त होगा और न खाने क िलए अ ।
तब यही क हार तेरा आ य बनेगा और तू इस समय परदेस म ह। यहाँ िकसी से कछ िभ ा भी पा लेगा तो कौन
तुझे देख रहा ह।’
‘पर म िकसी लोभ क कारण वचन देनेवाला नह । म तो इसक भावना क स मान क कारण वचन दूँगा।’
सुदामा बुदबुदाए।
‘‘ठीक ह, उसका िनणय बाद म होगा। अभी तुम वचन दो।’’
‘‘अ छा भाई! म वचन देता ।’’ सुदामा ने अपने पैर पर िबछ क हार क िसर पर अपने दोन हाथ रख िदए,
‘‘अब म चलता ।’’ सुदामा उठ खड़ ए, ‘‘तुम मुझे यह बताओ िक ारका अभी िकतनी दूर ह?’’
‘‘थोड़ी देर म सूरज िछप जाएगा। यिद आप चलते रहगे तो आधी रात तक ारका प च जाएँग।े पर उससे अ छा
यही होगा िक आप आज रात यह िव ाम कर और भोर होने पर या ा कर।’’
‘‘नह , म ठहर नह सकता।’’ सुदामा ने अपने थक-हार मुख पर य नपूवक मुसकान कट क ।
‘‘यिद देवता मुझे साद प म कछ दे जाएँ तो ध य होऊगा।’’ क हार ने पुनः हाथ जोड़ िदए।
सुदामा को लगा िक वे वयं अिकचन ह। ऐसे म वे उसे या द।
‘‘मेर पास तु ह देने क िलए कछ भी नह ह।’’ सुदामा ने िनराश वर म कहा।
‘‘आपक पोटली म तुलसी का प ा, फल, फल या साद का एक दाना भी हो तो हमार िलए वही ब त होगा।
‘‘ओह!’’ सुदामा को यान आया िक उनक पोटली म आधा सेर क े चावल ह, िज ह वह संकट क समय क
िलए बचाकर रखे ए थे। उ ह ने पोटली म हाथ डाला और एक मु ी मोटा चावल झोली फलाए खड़ी उसक
ी क आँचल म डाल िदया।
‘‘ध य आ महाराज! अब ये चावल उसी िदन पकाऊगा, जब आप पधारगे। तब तक ये हमार घर क मंिदर म
िम ी क क हड़ म रखे रहगे।’’ क हार बोला, ‘‘कछ िदन पहले एक प चे ए महा माजी पधार थे। स होकर
उ ह ने मुझे यह आशीवाद िदया िक क ू क हार, जा, ब त ज द तेर पास इतना धन आनेवाला ह िक िजसका
अनुमान तू व न म भी नह लगा सकता।’’ क हार का वर आ ािदत था, ‘‘आप भी आशीवाद दे जाएँ तो...’’
‘‘...आशीवाद!’’ सुदामा क जी म आया िक वह ठहाका लगाएँ। जो वयं एक कौड़ी नह कमा सकता, वह उसे
धनी होने का आशीवाद कसे देगा और यह क हार भी या साधु-सं यािसय क सेवा इसिलए कर रहा ह िक वे उसे
धनी होने का आशीवाद द। सुदामा अपने ं से बाहर आए। उनका वर हलक -सी खीज से भर गया था,
‘‘क ू क हार, तुम या आशीवाद चाहते हो? या तुम यह चाहते हो िक म तु ह धनी होने का आशीवाद दूँ?’’
‘‘नह महाराज, नह ।’’ क ू ने अपने दोन हाथ फला िदए और दीन वर म बोला, ‘‘कहते ह िक धन आने पर
मित मारी जाती ह। म तो यह आशीवाद चाहता िक यिद उन महा मा का आशीवाद फले और मेर पास धन आ
जाए तो भी मेरी ीित संत क सेवा से न हट।’’
सुदामा को लगा िक यिद उ ह ने अपने ास पर िनयं ण नह िकया तो उनक आँख से अ ु और कठ से दन
बह उठगा। वे पछता रह थे िक उ ह ने इस पिव आ मा क िलए अपने मन म अशु िवचार उपजाए।
‘‘म तु ह दय से यह आशीवाद देता ।’’ सुदामा ने पहली बार आशीवाद क मु ा म सं यािसय क समान अपने
दोन हाथ उठा िदए और बोले, ‘‘कछ और माँगते हो तो माँगो।’’
‘आओ, आओ देवताओ! देखो, सुदामा भी दाता हो गया ह। वह आशीवाद बाँट रहा ह। इसने ान क साधना कर
इतना तप अिजत कर िलया ह िक...’
‘...शांत रहो।’ सुदामा ने उनक मन को यिथत करनेवाले वर को डाँटा, ‘म दाता होने का दंभ नह भर रहा । म
तो उसक भावना का स मान कर रहा । उसक मन को सुख दे रहा ।’
‘वही तो म कह रहा सुदामाजी!’ सुदामा क मन म उठनेवाला वर नाटक यता पर उतर आया, ‘‘आप देवता
व प बनकर उसे आशीवाद तो दे रह ह; पर यिद यह क हार आशीवाद म कछ ऐसा माँग बैठा जो असंभव आ
तब?’
‘तुम भी समझ लो िक म आशीवाद दे रहा , वरदान नह ।’ सुदामा ने भी उस वर को िचढ़ाया।
‘कछ और माँगते हो तो माँगो, यह भाषा आशीवाद क ह या वरदान क ?’ वर जैसे चीखकर सुदामा पर कदा।
सुदामा ने कोई उ र नह िदया।
‘दोष पकड़ा गया तो चु पी मार खड़ा ह। अब देख, यह चतुर क हार चुनकर ऐसा वर माँगने जा रहा ह िक िदवस
म तुझे न िदखाई देने लग जाएँग।े ’ वर ने सुदामा को अपमािनत िकया।
‘‘बरस से हम कोई संतान नह ह। यिद उिचत समझ तो...’’
सुदामा चुपचाप क ू को देखते रह। उसक प नी िसर झुकाए उनक पैर को िनहार रही थी।
‘‘हम जानते ह िक हम अभागे ह। हमने अनेक साधु-सं यािसय से संतान क िलए आशीवाद माँगा ह। िकसी ने नह
िदया। एक साधु तो यह कह गए िक क ू क हार, राम का नाम भज। संतान तेर भा य म ही नह ह।’’ क ू का
वर दयनीय हो गया, ‘‘जब आपने कहा िक माँगो जो माँगते हो, तो िफर से यह सोई साध जाग गई। लगा, जब
भगवा ही वरदान देने आ गए ह तो म भी संकोच य क ।’’
सुदामा ने अनुभव िकया िक उ ह भावना क आवेश म ऐसा नह कहना चािहए था। अब यिद वे अपने कथन से
पलटते ह तो इससे क ू क मन को ठस तो प चेगी ही, साथ-ही-साथ ा ण क ग रमा भी िन भ होगी और वे
तो वयं को दोषमु कभी कर ही नह पाएँगे। इसिलए उनको कोई म यम माग खोजना होगा, िजसम सबक लाज
रह जाए।
‘‘...म तु हारी बात परमा मा तक प चा दूँगा।’’ सुदामा धीर से बोले।
‘‘इतना ही ब त ह, महाराज!’’ क ू का वर स ता से नाच उठा, ‘‘आप परमा मा से कहगे तो वे ‘ना’ कर ही
न सकगे। अपने भ क लाज वे नह रखगे तो कौन रखेगा?’’
सुदामा यह अनुभव कर रह थे िक जैसे-जैसे क ू उनक तुित करता जाएगा, वैस-े वैसे उनका अपराध-बोध भी
बढ़ता जाएगा। अतः वे व रत गित से क ू क हार क आँगन से िनकल गए।
‘तुमने क हार को ‘तथा तु’ य नह कहा?’ कछ दूर चलने क प ा जब सुदामा ने अपनी चाल धीमी क तो
उनक चेतना ने पूछा।
‘मुझे ऐसे अस य आशीवाद देने का कोई अिधकार नह ह। मने उससे जो कहा, वह सहज था। परमा मा से तो म
उसक बात कह सकता ।’ सुदामा ने अपनी स ाई कट क ।
‘अ छा! तु ह परमा मा का पता ह? तुम परमा मा से बात करते हो? यह बात तो मुझे भी आज तक ात न थी?’
चेतना हसी।
‘मुझे परमा मा का पता नह ह और न ही म उससे बात कर सकता ।’ सुदामा ने आवेश म अपनी चाल और तेज
कर दी।
‘तो िफर उससे अस य य कहा?’’ चेतना जैसे सुदामा का माग छककर खड़ी हो गई।
सुदामा क गए। उनक पास चेतना क बात का कोई उ र नह था। वे सोचने लगे िक स य ही तो कह रही ह
उनक चेतना िक न उ ह परमा मा का पता ह और न ही उसक स ा का...िफर उसने यह अस य बात य कही?
सुदामा ल ा से गड़ जा रह थे। वे अपनी चेतना से मा माँगने ही जा रह थे िक उसक आड़ जैसे उनक प नी
सुमित आ खड़ी ई और बोली, ‘मेर वामी ने एक श द भी आज तक अस य नह बोला ह। उनको परमा मा का
पता ह। वे परमा मा से बात ही नह कर चुक ह अिपतु उनक साथ रह भी ह, खेले भी ह, खाए भी ह और उनसे
लड़ भी ह और इस समय वे परमा मा से िमलने ही जा रह ह। इस समय िजस देह को धारण कर परमा मा आए ह,
उनका नाम ह योगे र भगवा ीक ण!’
सुदामा ने सुना िक दूर मंिदर म िकसी ने शंख फका ह और घंट-घि़डयाल क साथ आरती आरभ हो गई ह।
उनक सामने अब कोई नह था। न चेतना और न अचेतन मन। उनक पग मंिदर से आती शंख विन क ओर
िं ◌चते चले गए।
वह िशवालय था। सं या ने अपना काला दुशाला ओढ़ िलया था और उसम उस िशवालय क भ ने घी क दीय
क प म तार लगा िदए थे। मंिदर म अिधक चहल-पहल नह थी। उसक सीि़ढय क पास कछ साधु खड़ थे,
िजनको अपने साथ ले जाने क िलए कछ गृह थ आए ए थे। सुदामा सीि़ढयाँ चढ़ गए।
‘‘कहाँ से पधार हो महाराज?’’ पुजारी ने सुदामा क ओर देखा। उसका वर यह प कह रहा था िक उसक
िच सुदामा म नह ह और उसे एक िभखारी ा ण क उप थित भी स नह ह।
‘‘मायापुरी से।’’ सुदामा का वर भी शु क था। वह अपने ऊपर ही खीज रह थे िक उ ह िशवालय क सीि़ढयाँ
चढ़ने क आव यकता ही या थी। उ ह तो ारका का माग नापना ह, न िक इस िशवालय क सीि़ढयाँ िगननी ह।
‘‘यह सारा संसार ही मायापुरी ह। लगता ह, उस मायानगरी ने तु हारी सारी माया ही हर ली ह।’’ पुजारी ने सुदामा
क दुदशा देखकर उनका उपहास उड़ाया।
‘‘पंिडतजी! हरण तो उसक माया का हो िजसक पास माया हो।’’ सुदामा मुसकराए, ‘‘मेर पास तो ान पी माया
ह, िजसका हरण नह िकया जा सकता। कवल ान-िपपासु होकर उसका वरण िकया जा सकता ह।’’
‘‘मुझे िकसी गु क आव यकता नह ह ऋिष े !’’ पुजारी ने सुदामा को िचढ़ाया, ‘‘मेर पास ब त ान ह। आप
अपना ान कह और जाकर बाँट। भूख लगी हो तो कह। थोड़ा-ब त साद बचा होगा। आज याचक भी कम आए
ह। वह तु हार िलए दया करक दे दूँगा। नीचे सीि़ढय क पास ती ा करो।’’
‘‘म यहाँ िभ ा माँगने नह आया ।’’ सुदामा क मन म पहली बार िकसी को पीटने का भाव उठा। पर वह भाव ही
था। वे जानते थे िक वे िकसी को न पीट सकने म समथ ह और न पीटने का अवसर िमलने पर पीट ही सकते ह।
वे तो बस सोच सकते ह। वे सोचने लगे िक मंिदर क यव थापक ने ऐसे अहकारी और लोभी को पुजारी क पद
पर य रखा आ ह? पुजारी को तो सरल-िच और सबको समभाव से देखनेवाला होना चािहए।
‘‘तो िफर िकसिलए आए हो?’’
‘‘िशव को णाम करने।’’
‘‘वह तुम नीचे सीि़ढय क पास से भी कर सकते हो।’’
‘‘यहाँ से य नह ?’’
‘‘यहाँ से कलीन वग क िवशेष पूजा का आयोजन होता ह।’’
‘‘म ा ण ।’’
‘‘िदख रहा ह, िकस कार क ा ण हो।’’ पुजारी ने िवतृ णा से सुदामा क ओर देखा, ‘‘तुमसे अ छी दशा म तो
हमार यहाँ शू रहते ह।’’
‘‘ओह! तो तुम िनधन को ‘शू ’ कहते हो!’’ सुदामा ने पुजारी पर कटा िकया।
‘‘मेर मंिदर म िनधन का वेश विजत ह। िनधन का अथ होता ह चोर।’’ पुजारी ने िन कष क प म कठोर वर क
साथ आँख भी िदखाई।
‘‘िशव-मंिदर म चुराने को ह ही या? िशव क कठ म पड़ा साँप, उनक शरीर पर लगी मशान क भ म या उनका
बाघंबर? यहाँ चुराने जैसा कछ भी नह ।’’
‘‘तो िफर यहाँ आए य ?’’ पुजारी क नथने ोध म फलने लगे थे।
‘‘िकसी ने मुझसे कहा था िक िशव को िकसी ने अपनी बपौती बनाकर कारागार म डाल िदया ह। मने भगवा
ीक ण को तो कारागार म नह देखा, िकतु िशव को कारागार म देखने का सौभा य ा अव य हो गया ह।’’
‘‘ये भगवा ीक ण कौन ह?’’ सुदामा ने सीि़ढयाँ उतरने क िलए पलटना ही चाहा था िक पुजारी ने उ ह टोका।
‘‘ ारकानाथ भगवा ीक ण!’’ सुदामा को वयं पर आ य हो रहा था िक वे क ण क िलए यह सब या कह
रह ह। उ ह ने पहचाना िक यह वर तो उनक प नी सुमित का ह।
‘‘वह भगवा कब से हो गया? म उसे भगवा नह मानता। रणछोड़दास को तुम भगवा कह रह हो?’’ पुजारी
हसा, ‘‘ठीक कह रह हो। तुम भी तो रण छोड़कर भागे िदखाई दे रह हो? ठीक ह वह, तु हार जैस क िलए तो
भगवा ही ह।’’
सुदामा ने इस अंतहीन यथ क चचा को और चलाना उिचत नह समझा और िशवालय क ओर मुख करने क
अपराध- व प वयं को कोसते ए ारका-माग क ओर बढ़ने क िलए पग उठा िदया। िशवालय क बाहर
पीपल क िवशाल वृ क नीचे बने चबूतर से िकसी का वर सुनाई िदया, ‘‘भगवा ीक ण-भ ! मायापुरी
िनवासी ा णदेव को अघोरी का णाम!’’
सुदामा ने देखा िक लंबे और काले कश वाला एक बिल मनु य काले व म उस चबूतर पर बैठा ह। उसक
आँख लाल थ और उसक पास उससे भी भयानक एक काला क ा बैठा था। सुदामा अवाक रह गए िक िबना
उसका प रचय पाए उसने उसे भगवा ीक ण-भ और मायापुरी िनवासी कसे कहा। यह भी संभव नह िक
उसने यहाँ बैठ उसका और पुजारी का संवाद सुन िलया हो; य िक मंिदर म जहाँ पुजारी खड़ा था और जहाँ यह
अघोरी बैठा ह, उतनी दूरी से बात सुनी ही नह जा सकती। सुदामा ने उसक उपे ा कर आगे बढ़ना चाहा, पर जैसे
उनक पैर जम गए थे। उ ह ने क े क ओर देखा।
‘‘आ जाओ ा ण! यह क ा ह, इस िशवालय का पुजारी नह । यह िनधन को नह काटता। चले आओ।’’
अघोरी हसा।
क े ने भी अपने दाँत चमकाए, जैसे वह अपने वामी क बात का यं य समझकर हसा हो।
कौतूहलवश सुदामा क पग अघोरी क ओर बढ़ गए।
‘‘यहाँ बैठो!’’ उसने अपने कधे पर रखा कबल चबूतर पर िबछा िदया।
सुदामा को लगा िक उ ह भयभीत नह होना चािहए। उनक पास ऐसा कछ नह ह, िजसे यह अघोरी चुरा सक।
उसक पास बैठकर वह कछ िव ाम कर और अपनी िज ासा शांत कर आगे बढ़ जाएँग।े
‘‘ या तुमने मेरी और पुजारी क बात सुन ?’’ सुदामा को लगा िक वे अपनी बात का आरभ यह से कर।
‘‘हाँ सुन ।’’ अघोरी ने अपने सफद दाँत चमकाए।
‘‘पर तुम तो दूर बैठ हो।’’
‘‘उससे या अंतर पड़ता ह?’’
‘‘अंतर य नह पड़ता। एक िन त दूरी क बाद न हम देख सकते ह और न सुन सकते ह।’’ सुदामा ने सामा य
िव ान पर काश डाला।
‘‘ ‘म’ नह , तुम, कवल ‘तुम’। ‘हम’ म मुझे य िगन रह हो? म तो कह भी कछ भी देख-सुन लेता ।’’
‘‘अ छा!’’ सुदामा क माथे पर िवनोदपूण यो रयाँ चढ़ गई।
‘‘हाँ! तुम कछ भी पूछकर देख लो। पर म सावधान करता िक ऐसी बात ही पूछना िजनका उ र िमलने क बाद
तुम यह अनुभव करो िक इन बात को तो कोई भी बता सकता था।’’ अघोरी हसा।
‘‘इसक मा यम से तुम अपनी अयो यता कट करना चाह रह हो या मुझे मूख समझ रह हो?’’ सुदामा उसे िचढ़ाने
क िलए हसे, ‘‘तु हार अनुसार म तुमसे वही पूछ, िजसे कोई भी बता सक। जैसे कल कौन सा वार था या आगामी
मास कौन सा होगा अथवा मेर मेर ाम म जो क े ह, उनक िकतने पैर ह इ यािद।’’
उ ह ने अघोरी क क े क ओर देखा। वह सुदामा को देखकर गुरा रहा था।
‘‘म तो कवल यह कहना चाह रहा था िक ऐसा न हो िक तुम कछ ऐसा पूछ बैठो िक मुझसे न का चाम का रक
उ र पाकर तु हारा सारा ान ही किठत हो जाए या तु हारा ान सागर-तट पर बने बालू क घर क समान मेर उ र
क लहर म िवलीन हो जाए।’’ अघोरी ने आकाश क ओर जाती पीपल क शाखा क ओर देखकर पुकारा,
‘‘जय महाकाल!’’ िफर सुदामा क ओर देखकर उनक कान क पास अपना मुँह लाकर इस कार बोला जैसे कोई
गोपनीय बात बता रहा हो, ‘‘दूसरी मह वपूण बात यह िक यिद तुम कछ गड़बड़ पूछ लोगे और म सही उ र दूँगा
तो तुम अपने उपल ध शा ीय ान को आधार बनाकर ारका तक यही सोचते रहोगे िक मुझे यह सब ात कसे
आ।... य िक जहाँ तक तु हारी इि य क प च ह, उससे अनंत गुना मेरी पकड़ ह।’’
‘‘तुम िचंता न करो, अघोरी। म चम कार म िव ास नह करता और न ही मुझे कोई स मोिहत कर सकता ह। यह
स मोहन तो गँवार पर चलता ह। मुझे तो तु हारी िचंता हो रही ह िक म तुमसे कछ ऐसा पूछने जा रहा िक िजसे
सुनकर तुम अपने क े क साथ पूँछ दबाकर भागते िदखाई दोगे।’’ सुदामा को लगा िक अपना जो आ ोश वे
पुजारी पर य नह कर सक, उसे वे इस अघोरी पर कर रह ह।
‘‘पूछो!’’ उसने अपने क े को अपनी गोद म िबठाया और उससे बोला, ‘‘कालू बाबा! अभी तुझे वािद मांस
िखलाऊगा। पहले थोड़ा रस लेने दे। ब त िदन बाद कोई खेलने क िलए िमला ह।’’ वह सुदामा क ओर मुड़ा,
‘‘पूछ ा ण, या पूछता ह?’’
‘‘इस समय मेरी प नी या कर रही ह?’’ सुदामा ने मुसकराकर पूछा।
अघोरी ने आँख बंद क और कछ बुदबुदाने लगा। क ा उसक काले चोगे को चबा रहा था। अघोरी ने आँख
खोल ।
‘‘हाँ, अब तुम कहोगे िक तु हारी प नी भोजन कर रही ह, अपनी सखी क साथ हसी कर रही ह या ब क साथ
खेल रही ह। य , इ ह िवक प म से कोई एक िवक प कहोगे?’’ सुदामा मुसकराए।
‘‘नह । पर अ छा होगा िक तुम कछ और अित सामा य न पूछ लो। तुम िजस घर से हो, म उसे िवचिलत नह
करना चाहता। रहने दो। तुम अपनी या ा पर जाओ। कह ऐसा न हो िक मेरा उ र तु हारा सारा ान ही हर ले।
सोचा था िक तुमसे खेलूँगा। पर कोई कह रहा ह िक रहने दे, यह मेर घर से ह। अभी इसका ान मत हर। पर मने
भी उसे कह िदया ह िक तू सँभाल लेना। मुझे खेल का रस लेने दे न!’’
‘‘ ान कोई नह हर सकता।’’ सुदामा बोले, ‘‘तुम लोग ऐसी बात करक लोग को डराते रहते हो। म तु ह चुनौती
देता िक तु हारी िव ा म यिद साहस ह तो मेरा ान हरकर िदखाओ। यिद यो यता ह तो बताओ िक इस समय
मेरी प नी या कर रही ह? तु हार उ र से ही म बता दूँगा िक वह िकतना ामािणक ह।’’
‘‘महाकाल मुझे मा करना! म तेर घर क सद य क साथ खेल कर रहा । पर तू जानता ह िक म इसे कोई हािन
नह प चाना चाहता।’’ अघोरी ने आकाश क ओर ाथना करने क प ा सुदामा क ओर देखा और बोला,
‘‘इस समय तु हारी प नी सुमित यह ाथना कर रही ह िक ह क ण! तुमने सदा अपने भ क लाज रखी ह।
तुमने ौपदी का चीर बढ़ाकर उसक लाज बचाई थी। आज अपने सहपाठी िम क प नी को तन ढकने क िलए
कछ सुंदर व , पेट भरने क िलए वािद अ , रहने क िलए िवशाल भवन और अपने िम को उनक अनुकल
यश दान कर हमारी अतृ इ छा क पूित करो। तुम सवसमथ हो गोिवंद! तु हार अित र म और िकसे
पुका । म आस म भरकर तु हार ार अपने वामी को भेज रही । यिद उनको कछ नह देना हो तो न देना, पर
उनका अनादर न करना। ऐसा न हो िक वे जब लौट तो यह सोचकर लािन से भर ह िक उनक प नी ने उ ह
ितर कत और अपमािनत होने आपक ार पर भेज िदया। मेरी लाज रखना ौपदी क सखा!’’
सुदामा को लगा िक जैसे उ ह काठ मार गया हो। उनका सारा ान, सारी ितभा, सारा पांिड य जैसे तवे पर िगरी
बूँद क समान वा पत हो गया ह। वे यह िव ास नह कर पा रह थे िक जो कछ अघोरी ने कहा ह वह उनक
सामने घट रहा ह। वे तो यह अनुभव कर रह थे िक वे िकसी िकसी वृ क नीचे सोए ए ह और यह व न चल
रहा ह। िशव-मंिदर, पुजारी और यह अघोरी इ यािद उसी व न क पा ह। कछ ही देर बाद वे जागगे और ारका
क राह हो लगे।...पर वे जानते ह िक यह व न नह ह, यथाथ ह। जो कछ अघोरी ने बताया ह, वह तिनक भी
अिव सनीय नह ह। पर यह सब उसने जाना कसे? यह कौन सा िव ान ह, िजससे इतनी दूर थत िकसी भी
अ ात त व क िवषय म इतनी ामािणक जानकारी ा क जा सकती ह!
‘‘गया न सारा ान! लो, थोड़ा दूध पीओ।’’ उसने हाथ म पकड़ मानव-कपाल क ऊपर कपड़ा रखा और बोला,
‘‘सुदामा क िलए, योगीराज ीक ण क सहपाठी क िलए वािद दूध।’’ उसने कपड़ा हटाया तो कपाल दूध से
भरा था।
‘‘नह चािहए।’’ सुदामा पथराई आँख से बोले।
‘‘ले बाबा! तू पी ले।’’ अघोरी ने कपाल क े क आगे कर िदया और बोला, ‘‘यह ा ण तो क ण क घर का ही
खाएगा। अब िजसे क ण क घर क भोजन क आस हो, वह हमार जैसे अघोरी का िदया य खाए।’’
सुदामा ने देखा िक वह क ा देखते-ही-देखते उस दूध को चट कर गया और अघोरी क ओर देखने लगा।
‘‘तू जानता ह िक म झूठ नह बोलता। जब कहा ह तो मांस िखलाऊगा।’’ अघोरी ने उस कपाल को पुनः कपड़ से
ढका और बोला, ‘‘कालू क िलए वािद मांस।’’ उसने कपड़ा हटाया और वह मांस से भरा था। उसने कपाल
क े क आगे रख िदया। क े ने मांस को अपने मुँह म भरा और चबूतर से नीचे कद गया।
‘‘चतुर ह ब त।’’ अघोरी हसा और सुदामा क ओर देखकर बोला, ‘‘कल इसक िलए मँगाए मांस म से मने भी
कछ खा िलया था। इसिलए आज यह भाग गया ह। पर कपाल तो मेर पास ह।’’ उसने कपाल को ढका और
बोला, ‘‘गरम-गरम जलेबी और ठडा दूध।’’ उसने कपाल से कपड़ा हटाया। उसम दूध म तैरती सुगंिधत जलेबी
थी। अघोरी ने जलेबी उठाई और उसे अपने मुँह म घुसा िदया। जलेबी चबाते-चबाते दूध से भर कपाल को अपने
मुँह से लगा िलया।
‘‘यह कपाल क े का जूठा ह!’’ सुदामा िच ाए।
‘‘यही अ ैत ह।’’ अघोरी ने डकार ली। अपनी लंबी काली दाढ़ी और अपने पेट पर हाथ फरा। िफर कछ ण
सुदामा को देखता रहा और बोला, ‘‘यह कपाल, म, तुम, वह इ यािद सब एक ही ह। पर ान यह देख नह
सकता। िव ान भी यह नह देख सकता। कवल और कवल अ या म ही इसे अनुभव कर सकता ह।’’ वह का
और िफर जैसे िकसी िनणय पर प चकर बोला, ‘‘म तु हार िलए कछ करता ।’’ उसने कपाल पर कपड़ा ढका
और बोला, ‘‘एक सह वण-मु ाएँ।’’ उसने कपड़ा हटाया, कपाल वण-मु ा से भरा था। उसने अपनी गठरी
म से एक मोटा कपड़ा िनकाला। उसे सुदामा क सामने िबछाया और उस पर कपाल को उलट िदया। जैसे झरने म
से जल झरता ह, इसी कार उस कपाल म से वण-मु ाएँ िगरने लग । उसने उसक पोटली बनाई और सुदामा क
गोद म रखते ए बोला, ‘‘तु हार िम ने मुझे ब त कछ िदया ह। मेरा ऐसा साम य कहाँ िक म उ ह कछ दे सक।
पर उनक िम को तो कछ दे ही सकता । मेरी ओर से यह भट वीकार करो और अपने घर क राह लो। इस
वण से तुम वह सब पा लोगे, जो तु हारी प नी चाहती ह। य यथ म ारका तक क या ा करते हो? जो
चािहए था, उसने तु ह यह दे िदया।’’
सुदामा ने अपने गोद म पड़ी पोटली क ओर देखा।
‘‘संकोच न करो। म तुम पर कोई उपकार नह कर रहा और न तुमने मुझसे याचना ही क ह। यह तो म तु ह
अपनी ओर से भट- व प दे रहा ।
एक सह वण-मु ाएँ उनक गोद म ह और उनक ह। वे अपनी गोद म उन मु ा का भार भी अनुभव कर
रह थे। सुदामा क क पनाशील मन ने उड़ान भरी—वे हाट से अभी सुंदर व और अपने िलए सारिथ सिहत एक
रथ य कर। रथ पर आ ढ़ होकर वे जब मायानगरी म प चगे तो समूचा गाँव उनको णाम करगा। जब सुमित
उ ह िकसी राजकमार क समान आता देखेगी तो उसक मुख पर जो सुख और तृ वे देखगे, वह अक पनीय
होगी। उनक ब े उ ह छ-छकर देखगे।...तभी उ ह लगा िक य कछ बदल रहा ह। उनक प नी रथ क िनकट
आती ह और उनसे पूछती ह िक या यह सब उनको क ण ने िदया ह? तो सुदामा धीर से कहते ह िक नह , िकसी
अघोरी ने उनको भट दी ह। तो किपत होकर सुमित उनको िध ारते ए उनक ब को उठाकर यह कहते ए
उनका साथ छोड़कर चली जा रही ह िक मने आपसे कहा था िक िकसी अ य से स मािनत होने क अपे ा क ण
से अपमािनत होकर लौटना। जाइए, म आपका मुख नह देखना चाहती।
सुदामा का क पनाशील मन झटका खाकर धे मुँह िगरा। सुदामा ने देखा िक वण-मु ा क पोटली उनक
गोद म पड़ी ह। उ ह ने उसे अघोरी क ओर इस कार झटक िदया जैसे अघोरी ने उनक गोद म कोई िवषा सप
रख िदया हो और सुदामा ने घबराकर वह सप वापस उसक ओर उछाल िदया हो।
‘‘ या आ?’’ अघोरी हसा।
‘‘मुझे यह धन नह चािहए।’’ सुदामा का ास असंतुिलत हो गया।
‘‘इस धन म दोष या ह?’’ अघोरी का वर था।
‘‘यह मेरी प नी क अपे ा पर पूरा नह उतरता। उसे कवल क ण से िमला धन चािहए। म यह या ा उसक
इ छापूित क िलए कर रहा ; इसिलए जो उसे वचन िदया ह, पूरा क गा।’’
‘‘यह धन क ण ने ही भेजा ह।’’
‘‘ य नह ।’’
‘‘ य तु ह वहाँ से कछ नह िमलनेवाला। इससे भी जाओगे।’’
‘‘ वीकार ह।’’
‘‘क ण क यहाँ से य ही लौटा िदए जाओगे।’’
‘‘ वीकार ह।’’
‘‘घोर नरक म पड़ोगे।’’
‘‘ वीकार ह।’’
‘‘मेरी बात मान लो। म सबकछ देख सकता । अभी मने तु ह इस बात का माण भी िदया ह।’’
‘‘तुम कवल लीला देखो, म चला।’’ सुदामा ने उठने क िलए चबूतर से नीचे अपने पैर लटकाए।
‘‘सुनो! म तु ह अनमोल िस याँ दे सकता । तुम मेरा भाव देख भी चुक हो। म अपने क े तक से तो अस य
बोलता नह । स य कह रहा । म अपनी सारी तप या का फल तु ह दे सकता । उसको पाकर तुम धन-कबेर बन
जाओगे।’’
‘‘मुझे धन-िपशाच नह बनना।’’ सुदामा ने उस कपाल क ओर देखकर पूछा, ‘‘यह िकसका ह?’’
‘‘एक अहकारी और अ याचारी मं ी का।’’
‘‘ या क ण भी तु हारी तरह इस कार क िव ा जानता ह?’’ सुदामा क खोजी ि ने अघोरी क ओर देखा।
अघोरी जैसे िकसी अ य लोक म खो गया।
‘‘बोलती य बंद हो गई?’’ सुदामा स ए िक उ ह ने भी अघोरी क बु को चकरा िदया।
‘‘म एक बार क ण से िमला था। उ ह ने मुझे िदखाया िक ये िव ाएँ तो उनक चरण क नख का मैल भी नह ह।
वे ीह र ह, हरण करनेवाले।’’ सहसा अघोरी अपने पुराने औघड़ प म आ गया और बोला, ‘‘इस समय वह
तु हारा धन हरण कर रहा ह। अभी भी कहो तो म तु हार िलए धन का भंडार लगा दू।ँ ’’
‘‘तु हारा ध यवाद! तुम मुझे मा करो।’’
‘‘तुम ा ण क पास इसीिलए ल मी नह आती। उसक आने से पहले तुम उसका ितर कार करने को त पर रहते
हो। चलो, म यह धन िकसी अ य को दे देता ।’’ वह पिथक को पुकारने लगा, ‘‘अर, िकसी को एक सह
वण-मु ाएँ चािहए तो ले जाओ। मने तो ये सुदामा क िलए मँगवाई थ ; पर लगता ह, इसक भा य म द र ता ही
ह। ये मेर िकसी काम क नह । अर, ले जाओ कोई!’’ वह उस पोटली को बजाकर पिथक को पुकार रहा था;
िकतु उसक पुकार सुनकर सामा य गित से चलते पिथक उससे बचने क िलए अपने पग क गित को बढ़ा रह थे।
सुदामा क मन म आया िक वह लोग को िच ाकर कह िक यह अघोरी स य कह रहा ह। आओ। पर उ ह यह
समझ म आ गया िक कोई उ ह बोलने से रोक रहा ह।
‘‘सुन र कालू बाबा!’’ अघोरी ने अपने क े को पुकारा।
क ा खड़ा होकर अघोरी क ओर देखने लगा।
‘‘कल क भोजन म तुझे मांस नह अिपतु वण-मु ाएँ खाने को िमलगी।’’
‘‘तुम मेर एक न का उ र दोगे?’’ सुदामा ने अघोरी क ओर गंभीर ि से देखा।
‘‘िजतनी इ छा हो उतने न पूछो। म तो यहाँ तु हार िलए ही बैठा ।’’ अघोरी हसा।
‘‘तुम मेरी बात को अ यथा ले गए। मेरा अिभ ाय यह नह था िक तुम मेर दास हो और मेर येक न का उ र
देने को बा य हो।’’ सुदामा ने िवन वर म कहा, ‘‘म अपने मन क दुिवधा तु हार सामने रखना चाह रहा । तुम
उसका रह य मुझे बता सकते हो, ऐसा मेरा िव ास ह।’’
‘‘अभी तो तुम कह रह थे िक म...’’
‘‘...वह सब मने अपने अ ान म कहा। उसक िलए म मा- ाथ ।’’ सुदामा ने अपने हाथ जोड़ िदए।
‘‘पूछो!’’ अघोरी जैसे वरदान देने को त पर था।
‘‘रामदास को या आ था?’’ सुदामा को लगा िक इस िस अघोरी को रामदास क कथा सुनाना यथ होगा।
इसिलए उ ह ने सीधी बात पूछी।
अघोरी ने अपनी आँख मूँद । कछ देर आनंिदत हो मुसकराता रहा। कभी हाथ जोड़ता और कभी अपनी गरदन को
घुमाते ए अपनी देह को झुमाता। सुदामा शांत बैठ उसक िविभ मु ाएँ देखते रह। िफर अघोरी सहज आ।
‘‘रामदास गया काम से।’’ अघोरी मुसकराकर बोला।
‘‘मुझसे पहिलय म बात मत करो। कपा कर प श द म कहो।’’ सुदामा का वर याकल था।
‘‘तुमने भी तो रामदास को कथा सुनाई थी। अब मुझसे भी एक कथा सुनकर उ र खोजो।’’ अघोरी बोला, ‘‘एक
बार दो साधक श क साधना कर रह थे। स होकर दोन को माँ भगवती ने दशन िदए। पहला साधक स
होकर उनका गुणगान करने लगा और दूसरा पागल होकर म खी क समान िभनिभनाने लगा। तब पहले साधक ने
माँ भगवती से पूछा िक इस भेदभाव का अथ या ह? हम दोन ने एक साथ आपक साधना आरभ क थी। मुझे
आपने संतुिलत रखा और उसे पागल कर िदया? तब माँ भगवती रह यमयी मुसकान क साथ बोल िक पु , पूव
ज म म यह ण उप थत होने पर तू भी न जाने िकतनी बार इसक भाँित िवि होकर भटका ह। अभी इसका
समय नह आया ह और तेरी उप थित क भाव क कारण इसने समय से पहले वह देख िलया ह, जो इसे नह
देखना चािहए था।’’
‘‘तो तु हार अनुसार रामदास ने कछ ऐसा देख िलया ह, जो उसे नह देखना चािहए था और वह यह सब हमार
भाव क कारण ही देख पाया।’’ सुदामा ने अपने अनुमान क पुि क िलए अघोरी क ओर देखा।
‘‘तुम ठीक समझे।’’ अघोरी सुदामा क ओर देखता रहा।
‘‘तो इसका अथ ह िक इसका दोष हमारी उप थित ई। उसका दंड वह य भुगते?’’ सुदामा क वर म याचना
भर आई, ‘‘तुम यिद रामदास क सामा य होने का उपाय बता दो तो म तु हारा आभारी होऊगा।’’
‘‘उसे इस ज म म य ही भटकने दो। यह भटकना उसक िलए शुभ होगा।’’ अघोरी बोला।
‘‘तुम मुझे उपाय बताओ।’’ सुदामा ने अघोरी को जैसे आदेश िदया।
अघोरी ने पुनः अपनी आँख बंद क । सुदामा ने देखा िक इस बार उसक मुख पर कोई भाव नह था। वह जैसे
यान थ था।
‘‘एक वष बाद।’’ अघोरी उसी यान थ अव था म बोला, ‘‘ठीक एक वष बाद रामदास भटकता आ तु हार
ार आएगा। तुम किठनाई से उसे पहचान पाओगे। उस समय जो अितिथ तु हार यहाँ ठहरा हो, उसक हाथ से उसे
अपने घर म बने क ण-मंिदर म रखा चरणामृत िपलवा देना। वह सामा य हो जाएगा। जहाँ से तुमने उसे छोड़ा था,
वह से उसक या ा िफर आरभ हो जाएगी। यिद यह ण तुम चूक गए तो िफर उपाय नह ह।’’ अघोरी ने अपने
क े क ओर देखा और उसे िचढ़ाया, ‘‘ य र! कह तू ही तो वह दूसरा साधक नह ह, जो मेर साथ कालू बाबा
क प म भटक रहा ह?’’
अघोरी अपने क े से बात करता रहा और सुदामा म य राि तक ारका प चने का संक प लेकर पथ पर
अ सर हो गए।
q
तीन
चलते-चलते सुदामा का यान इस ओर गया िक वे संतुिलत होकर नह चल रह ह। यिद उ ह ने तुरत ही िकसी
व तु का आ य नह िलया तो वे िगर जाएँगे। यिद िगर गए तो इस परदेस म कौन उनक सहायता करगा? ऐसा न
हो िक वे अपने और अपने प रवार को संकट से उबारनेवाली इस या ा को ही उनक जीवन क यातनापूण या ा
बना द। यिद ऐसा आ तो िफर यह उनक िलए भी अित दयनीय होगा। सुदामा को माग पर एक छोटी सी पुिलया
िदखाई दी। वे उसका आ य ले, उस पर अपनी पीठ िटका कर बैठ गए। बैठते ही जैसे िन ा ने उ ह घेरना आरभ
कर िदया। उ ह लगा िक यिद वे िन ा क साथ चल रह संघष म कोई रणनीित नह बनाते ह तो वह उन पर छा
जाएगी। यिद एक बार वे िन ा क भाव म आ गए तो िफर न जाने कब उनक आँख खुले। अभी तक क या ा म
वे यह अनुभव तो कर ही चुक थे िक पथ पर जब वे चलते ह तो उनक जैसा अभाव त वहाँ अ य कोई िदखाई ही
नह देता और लोग उनको आ य से देखते ह। सुदामा को प िदखाई दे रहा था िक ारका भािवत े म
एक भी य ऐसा िदखाई नह दे रहा था, िजसक पास जीिवका का संतोषजनक साधन न हो। इसिलए वे राि क
सुखद शीतलता म ही अपनी शेष या ा अिवराम करना चाहते थे। सुदामा का यान बहते ए जल क विन पर
गया। सामा यतः माग म बनी ये पुिलयाँ अिधकांश तीन-चार हाथ चौड़ी और दो-ढाई हाथ गहर कि म जल-माग
क िलए बनाई गई थ । इन जल-माग को निदय से जोड़ा आ था और इनका उपयोग किष-कम क िलए होता
था। इनम सुदामा को न वयं बह जाने का भय था और न डबने का। उनको जल का यह उथला संसार ि य था।
इस कार क बहती जलधारा म उतरकर िवशाल नदी म उतरने जैसा सुख ा कर िलया करते थे। उनको
लगा िक नीचे बहता जल उनको सुदामा-सुदामा कहकर पुकार रहा ह। वे सोचने लगे िक पुिलया क नीचे उतरती
ढलान से वे बहती जलधारा क िनकट जाकर अपने मुँह पर छ ट मार सकते ह। शीतल जल का पश उनक िन ा
को कछ समय क िलए तो उनसे दूर ले ही जाएगा। उ ह ने नीचे झाँका। यो ा म जल का रजत वण िदखा। वे
उठ। ढलान क ओर बढ़। नीचे उतरने क िलए पैर रखा ही था िक ढलान क क चड़ ने उनको िगरा िदया। उनको
पता नह िक कब िगरने क भय और बचने क हड़बड़ाहट म उनक हाथ ने ढलान पर उगी झाड़ी क मोटी टहनी
पकड़ ली। वे घुटन क बल ऊपर क ओर चढ़ और पुनः पुिलया का आ य लेकर बैठ गए। उनक ास-गित
असंतुिलत हो गई। वे अनुभव कर रह थे िक उनक घुटने िछल गए ह और पहले से ही मैली और पुरानी धोती इस
घषण को सहन नह कर पाई ह। उ ह अपनी इस दुगित पर हसी आ रही थी। उनसे कम िशि त भी उनसे े
जीवन जी रहा ह। कम िशि त य , एक अिशि त य का जीवन तर भी उनसे कह े ह। वह छोटा-मोटा
यापार करता ह और अपनी आव यकता से कह अिधक धन लाता ह। उसे ान से कछ लेना-देना नह । उसक
पास सुिवधापूण आवास ह, सुंदर व ह, सुखी प रवार ह।...और सुदामा क पास या ह? घास-फस और गारा क
किटया, अभाव त दुःखी प रवार। धूल खाते उनक ारा िलिपब ानपूण ताड़प , िजनको उ ह ने धनाजन का
मा यम नह बनाया। वे यह अनुभव कर रह थे िक यिद उ ह ने िकसी बड़ पदािधकारी क सामने अपनी रीढ़ झुकाई
होती तो आज वे िकसी महा पद पर िति त होते, आय का साधन होता, गोधन होता, सेवक होते, रथ और
सारिथ होते। रशमी व म िलपटी उनक प नी सुमित िकसी अ सरा क समान शोिभत हो रही होती। उनक संतान
क मुख पर भर-पूर प रवार का गौरव होता।
सुदामा को हसी आ गई और बढ़ती गई। वे पेट पकड़कर हसने लगे। वे सोचने लगे िक क पना करने म वे िकतने
कशल ह। ण भर म वे धनपित हो जाते ह। अपने और अपने प रवार क ित अपने दािय व का पालन कर लेते
ह। उनको अभाव त जीवन से िनकालकर सुख-वैभव क आँगन म ला खड़ा कर देते ह। वे अ ुत ह। सुदामा क
हसी थम ही नह रही थी।
‘‘ऐ िम ! या बात ह? या दुःख ह तु ह? रो य रह हो?’’ सुदामा का यान उनक कान क पास गूँजे वर क
ओर गया।
उ ह ने अपनी ओर देखा। वे िजसे हसी समझ रह थे, वह कब उनको दन क गुफा म ले गई, उनको इसका
बोध ही नह आ। उ ह ने देखा िक उनक आँख से अ ु बह रह ह और अधर भूख, दुःख, क , ांित और
आ म लािन से काँप रह ह।
उ ह ने मुँह उठाकर देखा तो वणाभूषण से लदा आ एक धनी य उनक िनकट बैठा था। उसक मुँह और
व से उठती गंध से उ ह यह समझने म िवलंब नह आ िक उस य ने चुर मा ा म मिदरापान िकया ह
और अब वह उस मद क भाव म ह। माग क िकनार एक सुंदर रथ खड़ा था और उसका सारिथ िकसी भयभीत
सेवक क समान हाथ बाँधे आ ा क ती ा म खड़ा था।
‘‘पीओगे?’’ उसने वण िनिमत पा सुदामा क ओर बढ़ाया और बोला, ‘‘ये वे याएँ कवल धन क पुजा रन होती
ह। मने वसंतबेला को िजतना ेम िदया, उतना कोई न तो अपनी प नी को देगा और न ेयसी को।...और धन
िकतना िदया, उसक तो म चचा ही नह करना चाहता। उसक िलए िवशाल भवन, रथ, दास-दािसयाँ और जो कछ
धन से य िकया जा सकता था, सब िदया। सब िदया, सबकछ िदया उसे।’’ उसने सुदामा क ओर देखा और
मिदरा पा को अपने मुँह से लगा िलया, ‘‘परतु वह इतनी कत न िनकली िक नगर- े ी क नविववािहत पु को
अपने ेमपाश म बाँधकर उसक साथ या ा पर चली गई। लो, तुम भी पीओ।’’ उसने पुनः सुदामा क ओर मिदरा
पा बढ़ा िदया और बोला, ‘‘तुम अपनी वे या को कभी भी सबकछ मत दे डालना, नह तो वह तुमको भोगा आ
आ फल जानकर याग जाएगी।’’
‘‘म वे या क पीछ नह भागता।’’ सुदामा ने जैसे उस य को डाँटा।
‘‘तुम ऐसे भी नह हो िक वे याएँ तु हार पीछ भागगी।’’ उसने मद से भारी ई आँख को बलपूवक खोलते ए
सुदामा क दुदशा को देखा और बोला, ‘‘हाँ, यह हो सकता ह िक न तो तुम वे या क पीछ भागते होगे और न
वे तु हार; परतु तुम िकसी भांड क समान उनक आगे भागनेवाल म से होगे।’’ वह अपनी बात पर स होकर
हसा और सुदामा क ओर देखता रहा। सुदामा क ओर से कोई िति या न पाकर बोला, ‘‘ मा करना। म नह
बोल रहा, यह दु ा मिदरा और वसंतबेला का िवयोग बोल रहा ह। भगवा न कर िक कभी तु ह तु हारी पे्रिमका
छोड़कर जाए।’’
‘‘ ीम ! आपको यह शोभा नह देता। आपका अपने प रवार क िलए कछ दािय व ह। आपक िवचार को जानकर
मुझे लग रहा ह िक आपक प नी ब त ही सुशील और सरल होगी; िकतु आप उसका और अपनी संतान का
ितर कार कर मल क ढर म िकसी शूकर क भाँित मुँह मार रह ह। भाषा से आप िशि त और सं ांत कल क लग
रह ह; िकतु आपका आचरण ले छ जैसा ह। या आपक आ मा आपको तिनक भी नह िध ारती?’’ सुदामा
को आवेश हो आया, ‘‘िजतना धन तुमने वे या पर लुटाया, उतने धन से यिद तुमने एक बड़ा आ म बनवाकर,
उसम ानी ा ण को शोध करने का संर ण िदया होता तो उनक आशीवाद और साहचय से आपक उस आ मा
का िवकास आ होता, िजसको आपने मिदरा क मद म मार िदया ह।’’
‘‘आ म बनवाना शासन का काय ह।’’ म प क वर म आवेश था।
‘‘आपक प नी और ब को ेम देना तथा आपक माता-िपता को यश देना यह भी शासन का काय ह या?’’
सुदामा जैसे उस पर झपटा, ‘‘और आपका काय ह मिदरा का वण पा लेकर वे या क पीछ िकसी कामांध
साँड़ क समान भागना।’’
‘‘ऐ वाचाल! तुझे ात नह ह िक तू िकससे संवाद कर रहा ह?’’ म प चीखा, ‘‘म राजपु ष । यादव राजसभा
का स मािनत सद य।’’
‘‘अित उ म! सुंदर यही होगा िक आप भिव य म िकसी को अपना प रचय ही न देना। यह प रचय जानकर लोग
आपसे और अिधक घृणा करगे। आपको शाप दगे। या आपक राजसभा क महानायक योग-योगे र ीक ण भी
आपक तरह ह? लगता ह, यह सब तुम उनसे ही सीखे हो। य ?’’
‘‘क ण मिदरा नह पीते और उनक िवषय म कछ न ही कहो तो अ छा होगा। तु ह ा ण जानकर अब तक शांत
।’’ उस म प का सारा मद जैसे उतर गया।
‘‘जानकर स ता ई िक आप शांत ह। तो उसी शांत मन से यहाँ बैठ-बैठ अपनी तुलना ीक ण से कर।’’
सुदामा क आवेश ने उस राजपु ष का तल उनक ि म और नीचे िगरा िदया। वे बोले, ‘‘उन यादव े
ीक ण से, िजनक स मान क र ा क ित तुम म अव था म भी सजग हो। उनक राजसभा क सद य होने क
कारण तो तु ह अपने यवहार को सदा सुसं कत और मयािदत रखना चािहए। एक काम करो। अपनी आ मा क
तुला क एक पलड़ म वयं बैठ जाओ और दूसर म ीक ण को िबठा दो। माँ शारदा क स गंध लेकर कहता
िक यिद तुमने पिव ता क साथ यह िव ेषण िकया तो तुमको अव य अपने तर क िवषय म सब ात हो जाएगा।
यिद कण मा भी ल ा शेष ह तो इसी ण संक प लो िक मिदरा का याग कर, अपने प रवार और समाज का
िहत संपादन कर, अपने अब से पूव िकए कक य का ाय करोगे। वह करक देख िलया, अब यह करक
देखो जो म कह रहा । शेष तु हारी इ छा। तुम सोचो िक मुझे तुमको यह सब सुनाकर या िमला? तुम मुझसे
ही हो गए न! यिद तु हार आ ह पर म मिदरा पीता तो हो सकता ह, तुम यह वणपा मुझे देकर आगे बढ़ जाते।
परतु ये सभी पदाथ गौरव का हरण करनेवाले ह, क ित को न करनेवाले ह। तभी तो मने न कवल इनका
ितर कार िकया वर तुमको भी कठोर श द कह। इन कट श द म िछपे अमृत को अनुभव करना।’’ सुदामा तेजी
से उठ और पथ पर बढ़ गए। उनक सारी वेदना, ांित, भूख इ यािद िनराश करनेवाली सभी दशाएँ न जाने िकस
िदशा म ितरोिहत हो गई थ ।
सुदामा ने मुड़कर देखा। वह म प उनक ओर ही देख रहा था। उसका सारिथ उसे सहारा देकर रथ पर चढ़ाने
का यास कर रहा था।
सुदामा अपने इस प को देखकर चम कत थे। वे कभी क पना भी नह कर सकते थे िक पथ पर चलते िकसी
प रिचत य को भी वे माग देने क िलए, संकोचवश िनवेदन भी न कर पानेवाला सुदामा, िकसी राजपु ष को
इस कार िध ार सकता ह। वे अपने भीतर उस अ ात श को खोज रह थे, िजसने यह सब िकया। िकतु उनक
हाथ िनराशा ही लगी। वे अब कछ भयभीत होने लगे थे। उ ह ने देखा िक वह रथ तेजी से उनक ओर बढ़ा चला
आ रहा ह। वे अपने आप पर खीजे, ‘सुदामा, तुझे या आव यकता थी उस राजपु ष को िध ारने क ? अ छा तो
यही होता िक तू उसे णाम कर अपनी राह लेता। अब यिद उसक सारिथ ने तुझे अपने रथ से बाँधकर ारका क
सैिनक क सुपुद कर िदया तो तू या करगा?’
‘म उनको बताऊगा िक म तु हार महानायक ीक ण का सहपाठी ।’ सुदामा को अपने भय को दबाने का इससे
भावशाली उपाय नह सूझा।
‘और वे तेरी बात सुनकर अपने पद- हार से तेरी आरती उतारगे।... अब शी ता कर और इस वृ क िवशाल तने
क पीछ िछप जा।’
सुदामा ने अपनी बु़ क परामश का त काल पालन िकया। रथ तेजी से उनक सामने से धूल उड़ाता और
घरघराता आ िनकल गया। सुदामा ने अपनी बु क ित आभार कट िकया। वे वृ क तने क ओट से पथ
पर आ गए। रथ तब तक ब त दूर जा चुका था।
सुदामा ने मन-ही-मन यह संक प िकया िक वे भिव य म ऐसे संग क ित सजग रहगे। यिद उनको ऐसा
तेज वी प िदखाना भी होगा तो वे उसक िलए सािह य-लेखन का आ य लगे। उपयु अवसर पाकर सुदामा क
भूख, ांित, आ म लािन, वेदना इ यािद भाव ने कपकपी का प ले िलया।
चं मा उनक िसर पर था। उसक यो ा म माग पर वृ क पि य और शाखा क ितिबंब बन रह थे।
अधराि होने को थी और िनजन पथ पर वे मं -जाप करते ए बढ़ रह थे। माग ने एक घुमाव िलया और उसक
बाद उनको दीपमाला से नहाई एक सुंदर नगरी िदखाई दी। लगा जैसे वहाँ िदन ही िनकला हो। उनक ि
नगर- ार पर बनी र ा-चौक क ओर गई। वहाँ अनेक सैिनक स थे। सुदामा क शरीर पर फरफरी दौड़ गई
: आधी रात को वे अित सुरि त ारकापुरी म वेश कर रह ह। या वे यह काय सूय दय क बाद नह कर सकते
थे? उस समय जनसमूह क म य वे सुिवधापूवक इस सैिनक-बाधा को पार कर सकते थे। पर अब वे र क क
ि म आ गए थे। एक र क उनक ओर अँगुली से संकत कर रहा था।
‘यह मेरी ओर संकत य कर रहा ह?’ सुदामा ने भयभीत होकर अपनी बु से पूछा।
‘चलते रहो। अभी कछ ही समय प ा सब ात हो जाएगा।’ बु ने जैसे अपना माथा ठोका हो।
‘िकतु अभी तुम तो बताओ।’ सुदामा अपनी बु पर खीजे।
‘म या बताऊ? अभी वह राजपु ष इन ार-र क को अपना वह वण-पा देकर यह बता गया होगा िक अभी
एक महा ा ण देव पधारगे। उनको श ु-गु चर का स मान देकर काल-कोठरी म उनक आित य क यव था
करना।’
‘ओह, यह मने या बो िदया?’ सुदामा ने अपने माथे पर मु ा मारा, ‘अ छा भला अपनी किटया म था। उस
सुमित क मित मारी गई थी और उसने इस संकट म झ क िदया।’
‘सुमित ने तुमसे कहा था िक तुम उस िवलासी राजपु ष क राजगु बनो?’ उनक मन से उठ िकसी वर ने उनको
आड़ हाथ िलया, ‘दोष अपना और आरोप िकसी और पर! वह अघोरी एक सह मु ाएँ दे रहा था। य नह ली?
वैभव पर पद- हार करक यथ क संकट को गले लगाने क या आव यकता थी?’
सुदामा को उपाय सूझा िक वे पथ क िकनार िकसी वृ क तने क पीछ िछप जाएँ और ातः होने पर ही
ारकापुरी म वेश कर। नह , वे ारकापुरी म नह जाएँग।े उस राजपु ष का पे्रत उनको ारका म खोज ही
लेगा। वे अपनी मायापुरी ही लौट जाएँग।े सुदामा ि◌छपने क िलए वृ क ओर बढ़।
‘‘ऐ, उधर कहाँ जा रह हो?’’ ार-र क तेजी से उनक ओर भागा।
‘‘ह राम! र ा करो।’’ सुदामा क ाण सूख गए। उनका पूरा शरीर सूखे प े क समान काँपने लगा।
‘‘कौन हो तुम? वहाँ कहाँ जा रह हो?’’ र क सुदामा क िनकट आ गया।
‘‘जाना कहाँ ह, भाई?’’ सुदामा ने अपने वर को दयनीय बनाया, ‘‘ त क कारण कल से भोजन नह िकया ह तो
उदर म पीड़ा हो रही ह। एक पग नह चला जा रहा । सोचा िक थोड़ा िव ाम कर लू।ँ ’’
‘‘ओ श िसंह! इधर ले आ इसे।’’ अवरोध क पास बैठ य का कड़कदार वर गूँजा।
‘‘आओ महाराज! हमार नायक से पेट का चूरन पाना।’’ सैिनक हसा।
सुदामा को लगा िक अब वे फस चुक ह। उनसे बचने का साम य उनम नह ह। रामदास उ ह ायः बताता था
िक नगर-र क उ कोच लेकर अपराधी को छोड़ देते ह। पर न तो वे अपराधी ह और न ही उनक पास उ कोच देने
क िलए ही कछ ह। ह तो आध सेर मोटा चावल, िजसे इनक घर म बँधा घोड़ा भी खाने से मना कर देगा।
नायक ने सुदामा का अपनी आँख से िनरी ण िकया।
‘‘लग तो ा ण रह हो?’’ नायक क वर म टटोलने का भाव था।
अ य ार-र क भी अपने मनोरजन क िलए सुदामा क चार ओर िघर आए।
‘‘ ीम , यिद कोई आपको आकर कह िक आप लग तो सेनानायक रह ह तो आप या कहगे?’’ सुदामा वयं पर
चिकत थे िक उनक घबराए ए िच से यह सधा आ और आ मिव ास से पूण वर कसे कट आ, ‘‘आप
यही कहगे न िक जब सेनानायक तो वही तो लगूँगा। इसी कार जब म ा ण तो आपने िबना िकसी ुिट क
जान िलया और कह िदया। आपक ि जाँचने क ऐसी मता रखती ह, तभी तो आपको इस मह वपूण पद पर
शोिभत िकया गया ह।’’
‘‘मेरा वह अथ नह था, ा ण देव!’’ नायक का वर सहसा प रवितत हो गया, ‘‘मेरी िज ासा यह थी िक यह
समय तो िनशाचर क िवचरने का ह। ा ण क दशन तो ा -मु त म होते ह।’’
सुदामा क मन से कोई पुकार कर कहनेवाला था िक वह जो रथ अभी गया, या उसको रोककर भी तुमने कहा िक
यह समय िनशाचर का ह, न िक राजपु ष का? पर सुदामा ने उस वर का मुँह कसकर दबा िदया।
‘‘आपका कहना उिचत ही ह। पर म तीथ-या ा पर िनकला । ल य तक प चे िबना कछ भी हण न करने का
संक प िलये । पूिणमा क शीतलता से प रपूण राि म या ा सुखद रहती ह, इसिलए अिवराम चल रहा ।’’
सुदामा अपने नए प को देख रह थे।
‘‘कहाँ से पधार ह, देव?’’ सैिनक ने िज ासा क ।
‘‘तेरा बीच म बोलना आव यक ह या? तुझे कब से कह रहा िक घामड़ क घर से कठ को तर करने क िलए
कछ ले आ। पर...’’ उसने सुदामा क ओर देखा और बोला, ‘‘आप अपनी या ा पर पधार, महाराज!’’
सुदामा ने आशीवाद क प म हाथ उठाया और तेजी से आगे बढ़ गए। वे सुन रह थे िक नायक अपने अधीन थ
सैिनक को कह से मिदरा लाने का िनदश दे रहा था।
सुदामा ने धैय क साँस ली। वे अपने को देख रह थे िक वे िकस कार जो नह घटा ह, उसक घटने क
क पना करक असंतुिलत हो गए थे। वे यह भी अनुभव कर रह थे िक प र थित क सम यिद आ मिव ास से
खड़ा आ जाए तो कछ-न-कछ उपाय िनकल ही आता ह। वे घर से बाहर िनकले तो तीन ही िदन म उनको जीवन
ने वे अनुभव दे िदए, जो संभवतः वे ंथ म आजीवन अनुभव न कर पाते। उ ह ने यह अनुभव िकया िक शा
कवल सूचनाएँ दे सकते ह और जीवन अनुभव देता ह। यिद दोन ही ह तो सोने पर सुहागे जैसी बात हो जाए। वे
अब ारकापुरी क सुंदर और सु ढ़ पथ पर थे। धूल नाम क कोई व तु वहाँ न थी। कह पर कछ भी ऐसा नह
पड़ा था, िजसे वे कड़ क सं ा दे सक। वायुमंडल म जैसे धुएँ का वेश िनषेध था। पवनदेव को कवल पु प क
सुगंध को वहन करने क अनुमित थी। जो कछ भी उनको िदखाई दे रहा था, वह यव थत था। पथ क दोन ओर
काश- तंभ थे। सुदामा क ि िकसी ऐसे ामीण बालक क समान िव मय से फल गई थी, िजसक सामने
जीवन म पहली बार हाथी आया हो और वह उतने िवशाल तथा श शाली जीव को देखकर ठगा-सा रह गया हो।
रात क समय भी ारका काश म ऐसे नहाई ई थी जैसे शीतकाल क सुबह म कह अवसर पाकर मेघ क म य
से कछ समय क िलए सूय झाँक रहा हो। जहाँ भी सुदामा क ि गई, वहाँ काश- तंभ ही थे। भवन का
आकार- कार, उनका िश प, उनक स ा जैसे कथा म विणत वग क आभा को भी धूिमल कर रही थी। वे
सोच रह थे िक हो न हो, िकसी ऐसी ही पुरी को देखकर उसक क पना वग पर आरोिपत कर दी होगी। या संपूण
वैभव क उप थित को ही वग कहा गया होगा। वे माग क चौड़ाई देखकर चिकत थे। माग क दोन ओर पचास
हाथ क चौड़ाई क बराबर उ ान थे और जहाँ भी माग जाता, उसक समानांतर गितमान थे। पथ और वीिथय क
व छता व सुंदरता को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वे िकसी िवशाल िच क ऊपर मण कर रह ह।
उ ह ने अपने गाँव क थित देखी ह। वह तो जैसे सा ा नरक का ार ह। वग और नरक क प रक पना
उनको प हो गई थी। जहाँ कह भी राजपु ष यव था क ित सजग ह, वहाँ वग ह और जहाँ वे कवल अपने
भोग-िवलास म डबे ह, वहाँ िन त नरक ह। तभी दो अ ारोही र क आते िदखाई िदए। सुदामा ने अनुभव िकया
िक उनक मन म भय तो ह ही नह , अिपतु उनसे कछ जानकारी ा करने क इ छा ह।
‘‘असमय इस दशा म िवचरण कर रह ह, सब कशल तो ह िव वर?’’ इससे पहले िक सुदामा कछ कहते, एक
र क ने उनसे पूछा।
‘‘ भु तु हारा मंगल कर। म ब त दूर से भगवा ीक ण क दशनाथ आया । मेरा मागदशन कर।’’ सुदामा ने
सीधी बात क ।
‘‘दशन करने यो य तो ीक ण ही ह। परतु इस समय तो वे शयन कर रह ह गे। यह समय उनक दशन का नह
ह।’’ दूसर र क क वर म िनिहत विन यह कह रही थी िक वह इस बात को सुनकर अ हास करना चाहता ह;
िकतु अभी इतनी ज दी नह । वह उसक साथ चोर-र क संवाद का कछ नाटक तो खेल ले। वह बोला, ‘‘हम
वा तिवकता बताओ।’’
‘‘ या स य वचन को आप वा तिवकता नह मानते? जो जैसा था, मने कह िदया।’’ सुदामा बोले।
‘‘मुझे एक बात बताइए िव वर, िक यिद अधराि क प ा धूल-धूस रत दशा म, नंगे पैर फट, व धारण िकए
कोई कह िक वह यादव क सवसवा क दशन करने आया ह तो उसका या अथ िलया जाएगा?’’ पहला र क
अ से नीचे उतर आया।
‘‘इस समय ारका का सारा संसार गहरी न द म सोया ह और आप िजनक पास दशनाथ जाने क बात कर रह ह,
वह बात संदेह को ज म य न दे? या यह यावहा रक ह? उनक दशन क िलए आया य व छ और सुंदर
व को धारण कर आता ह। अपने साम य से अिधक वयं को दिशत करता ह और आपक ओर देखकर कोई
भी यही कहगा िक िकसी ने िभ ा क िलए अथवा चौय-कम क िलए यह प धारण िकया ह।’’ दूसरा र क भी
अ से नीचे उतर गया।
सुदामा हत भ रह गए। आज तक उनको िनधन तो अनेक लोग ने कहा, िकतु उनक िनधनता को िभखारी
अथवा चोर क सं ा िकसी ने नह दी थी। सुदामा ने वयं को अपमािनत अनुभव िकया। उनक मन म आया िक वे
उन र क से कह िक वे उसको बाँधकर अपने सवसवा ीक ण क पास ले जाएँ और कह िक हम यह िनधन
ा ण िभखारी और चोर िदखाई देता ह। यह कहता ह िक ब त दूर से आपक दशनाथ आया ह। आपका या
िवचार ह?
सुदामा ने देखा िक उन दोन र क क ि सुदामा म चोर होने का माण खोज रही ह।
‘‘ ा ण देव, पोटली म या ह?’’ पहले ने पूछा।
सुदामा क मन म आया िक कह, िद या ह। पर वे भली कार जानते ह िक मन म आई बात मन म ही बोल लेते
ह।
‘सुदामा, तुम इतने याकल य हो रह हो? तुम संसार क कोई िति त य हो नह िक िदगंबर भी चलोगे तो
लोग तु ह णाम करगे।’ सुदामा का िववेक उनसे बोला, ‘अपनी थित को वीकार करो। ध यवाद दो इन र क
को िक जब तक इ ह तु हार चोर होने का माण नह िमल रहा, तब तक ये तुमसे संवाद तो स मानजनक प से
कर रह ह। यह ीक ण क सु यव था का ही प रणाम ह। यिद कोई अ य रा य होता तो इस प-स ा क चलते
तुम अभी तक कह बँधे पड़ होते। इनक साथ सहयोग करो।’
‘‘पोटली म चावल ह, साद- प चावल।’’ सुदामा ने पोटली खोल दी, ‘‘यह स य ह िक िनधन को संसार चोर
क ि से देखता ह। उसे तप वी भी चोर िदखाई देता ह, सं यासी भी और ान क साधना म अपना सबकछ
योछावर कर देनेवाला ा ण भी। म कोई त धारण कर चला । मुझे नह पता, आपको त क मिहमा का
िकतना ान ह; परतु म आपको बता दूँ िक तधारी क िलए उसक तप या ही मुख होती ह—शेष सामािजकता
गौण।’’
दोन र क ने एक-दूसर क ओर देखा।
‘‘ ीक ण से आपको या काम ह?’’ पहले ने पूछा।
‘‘कहा न दशनाथ आया ।’’ सुदामा समझ गए थे िक ये लोग उनका पूरा शोध करक ही मानगे।
‘‘हम काम पूछ रह ह।’’
‘‘वही तो बता रहा —दशनाथ। या दशन करना काम नह ह? या यह कम नह कहलाता?’’
दूसरा र क कछ अि य बोलने जा रहा था, पर पहले ने उसक मन को भाँपकर, उसे रोक िदया।
‘‘ या आप पहले भी उनक दशनाथ आ चुक ह?’’
‘‘नह , पहली बार आया ।’’
‘‘उनसे िमलने क िलए शासन क उन उ ािधक रय और यापा रय को भी ती ा करनी पड़ती ह, जो उनसे यदा-
कदा िमलते ही रहते ह और आप तो उनसे िमलने ऐसे जा रह ह जैसे आप उनक िपता ह ।’’ दूसर र क का वर
बता रहा था िक उसक मुँह का वाद भयंकर प से कसैला हो गया ह, ‘‘तो अव य ही ीक ण आपक दशनाथ
आपक घर आते रहते ह गे?’’
‘‘नह ।’’
‘‘पूव ज म क संबंध क कारण तो ीक ण आपको जानते ही ह गे? उनका-आपका तो ब त पुराना साथ होगा?
आप दोन ने तो एक ही थाली म भोजन पाया होगा? आप दोन पूव ज म क िबछड़ संबंधी ह गे और तब वे
ारकाधीश नह आ करते ह गे। य ?’’
‘‘तुम इतनी ज दी याकल य हो जाते हो?’’ पहले र क ने दूसर को टोका, ‘‘बात पूरी हो जाए, उसक बाद भी
यिद लगेगा िक कछ उिचत नह जान पड़ रहा तो िफर देखगे। अभी से...’’
‘‘...इसे कछ मत कहो। यह तो दूरदश ह।’’ सुदामा को लगा िक वे अपने अपमान का कछ तो ितशोध ले ही ल।
अब जब उ ह ने ओखली म िसर दे ही िदया ह तो अब या डरना, ‘‘आप तो कछ जान ही न पाए और इ ह ने
अपनी कशा बु से सब जान िलया।’’ सुदामा ने दूसर र क क ओर देखा और उनक भीतर से ऐसा वर
िनकला, िजसक दशन उ ह ने पहली बार िकए। वे बोले, ‘‘आपने जो कहा वह स य ह। ीक ण मुझे जानते ह।
मेरा और उनका ब त पुराना साथ ह। कस को आशीवाद देने क बाद वे अपने अ ज बलरामजी क साथ हमार गु
संदीपिनजी क आ म म च सठ िदन रह थे। म एकांति य था। िजस किटया म म रहता था, उसम गु देव ने
ीक ण को रहने का िनदश िदया। इसिलए िववश हो हम एक-दूसर क साथ एक ही थाली म साद पाना पड़ा।
मने धन क पूजा नह क , ान क पूजा क । ल मी क अपने घर आने क मनुहार मने कभी नह क । अब अपने
िम ल मीपित ीक ण क पास ल मी को स करने क िव ा सीखने जा रहा । आप एक काम कर िक मुझे
बाँधकर ीक ण क िनकट ले जाएँ और कह िक एक ब िपया वयं को आपका िम बताकर ारका म चोरी
करने आया ह। तो चल?’’ सुदामा ने पहले र क को कठोर ि से देखा, ‘‘मेर संबंध म आपक जो बात अपूण
रह गई ह, वे उनक िवषय म ीक ण से पूछ लीिजएगा।’’
दोन र क ने एक-दूसर को भ चक ि से देखा और अवाक हो देखते ही रह गए।
‘‘आप किपत न ह , देव! हम तो अपने कत य का िनवाह कर रह ह। आप कछ ण क, हम कछ औपचा रक
चचा कर ल। िफर आपको अपेि त थान तक प चा दगे।’’ पहले र क ने हाथ जोड़कर सुदामा से कहा और
तुरत ही अपने साथी को बाँह से ख चकर सुदामा से इतनी दूरी पर ले गया िक सुदामा उनक चचा न सुन पाएँ।
उनक अ भी चिकत ने से इस संग को देख रह थे।
‘‘हाथ जोड़ने क या आव यकता थी?’’ दूसरा र क आग उगलते ए बोला, ‘‘अभी इसे अपने अ क पैर म
िगराता । तब इसका यह सारा आडबर घरा-का-धरा रह जाएगा।’’
‘‘यिद यह वही आ जो कह रहा ह तो तेरा िसर अभी जहाँ ह, वह धरा-का-धरा नह रह जाएगा। हो सकता ह िक
तुझे ीक ण उतना बड़ा दंड न द; परतु बलराम तो तुझे अपने हल से चीर ही दगे। तू मर, मेरा या? परतु एक बात
का यान रख िक अभी म भी तेर साथ रात क पहर पर । तेर िकए म म भी सहभागी माना जाऊगा, तो एक बात
भली कार समझ ले िक म तुझे यह सब नह करने दूँगा।’’
‘‘तो िफर या कर?’’ पहला र क सहम गया।
‘‘ऐसा करते ह। इसे अभी लेकर महामिहम ीक ण क महल क ओर चलते ह। वहाँ क सुर ा अिधकारी को सारी
बात बताकर इसे स प दगे। यिद यह वह नह आ जो यह कह रहा ह तो हम सजग होकर अपने कत य का पालन
करने का पुर कार िमलेगा।’’
‘‘और यिद यह वही िनकला, जो यह कह रहा ह तो...?’’ दूसर र क ने अपना थूक सटका।
‘‘तो तू जाने, तेरा काम जाने। अब चल।’’ पहले ने अब क बार दूसर क बाँह नह ख ची। वह वयं ही उसक
पीछ िखंचा चला गया।
‘‘िव देव!’’ पहले र क ने सुदामा से िवन वर म कहा, ‘‘यिद मुझसे कछ अनुिचत कहा गया हो तो मा
क िजएगा। हमारा काय ही कछ ऐसा ह। आप मेर पीछ अ पर बैठ। हम आपको ीक ण क महल तक ले चलते
ह।’’
‘‘मने ीक ण क अित र िकसी क भी सहायता न लेने का त िलया ह, इसिलए ध यवाद। म अ पर नह
बैठ सकता।’’
‘‘बैठ जाइए न!’’ पहले ने जैसे धमकाया, ‘‘नह तो हम भी पैदल चलना पड़गा।’’
‘‘आप मुझे माग बता दीिजए। म वयं चला जाऊगा। आपको साथ चलने क भी कोई आव यकता नह । िफर भी,
यिद आप दोन क िच मेरी सुर ा करने क ह तो आप अ पर रिहए। म पैदल चलता र गा।’’
‘‘यह कोई िवि ह और तुम यथ म अपने साथ मेरी शोभा-या ा िनकलवाना चाहते हो।’’ दूसर र क ने कहा
तो पहलेवाले क कान म, पर कहा इस ढग से िक सुदामा सुन ले।
‘‘आपका नाम या ह?’’ सुदामा का वर यह प कह रहा था िक वे उसक दु यवहार क िवषय म उसक
उ ािधका रय से कहगे।
‘‘ य ?’’ दूसर र क क मुख पर भय और ोध क दोन भाव एक साथ कट ए।
‘‘ध यवाद ीमान ‘ य ।’ मेरा नाम सुदामा ह। अब चल?’’ सुदामा उन दोन र क क उपे ा कर पथ पर आगे
बढ़ गए। उ ह ने पीछ मुड़कर देखा तो दोन र क उनसे एक दूरी बना कर उनक पीछ-पीछ आ रह ह। उनका मन
कर रहा था िक वे नए जनमे इस सुदामा क पीठ ठ क, उसे स मािनत कर। वे तो सदा संकोच और भय क कारण
अपनी किटया म ही बंद रह।
‘‘तू तो गया ‘ ीमान य ’ काम से। मेरा मन कह रहा ह िक यह स य कह रहा ह। यह बताएगा ीक ण को िक
उसक र क ‘ ीमान य ’ ने उसका अपमान िकया, उस पर पैर से हार िकया। इतना ही ब त रहगा कहना।
आगे ीक ण उससे जानना ही नह चाहगे। वे बलराम को बुलाकर शेष या करना ह समझा दगे।’’ पहले र क ने
मुँह बनाया, ‘‘समझा भी या दगे, बलराम ऐसे िवषय म वयं चतुर ह। वे तो ऐसे अवसर क खोज म रहते ह।’’
‘‘वैसे तो यह ा ण नह , पाखंडी ह। ब त आ तो यह संदीपिन क आ म म जूठ पा धोनेवाला कोई सेवक
होगा और हमसे बचने क िलए यह वाँग रचने लगा ह। यिद यह भूल से वह िनकल भी गया तो मेर साथ तू भी
गया काम से।’’
‘‘म बु म तेरा िपता । म तो गया देख वाँग करने।’’ पहला र क तेजी से सुदामा क ओर बढ़ा और उससे
बोला, ‘‘िव देव, या आप हाथ देखकर भिव य बता देते ह?’’
‘‘म आ मा देखकर च र बता सकता । वह जानना ह या?’’ सुदामा को खेल म आनंद आने लगा।
‘‘आप अपना रोष याग, देव! म धमलाभ अपने यवहार क िलए आपसे मा चाहता ।’’ धमलाभ ने हाथ जोड़
िदए।
‘‘यथा नाम तथा गुण रहने का यास करोगे तो धम भी पाओगे और लाभ भी।’’ सुदामा ने चेतावनी-िमि त
आशीवाद िदया।
‘‘म भिव य म आपक आ ा का पालन क गा।’’ धमलाभ ने अपने वर को अनु हपूण बनाने का यास िकया।
‘‘अब जाओ ीमा ‘ य ’ क साथ रहो। मुझे एकांत चािहए।’’ सुदामा ने स ाट क समान संकत प म हाथ उठा
िदया। र क ने तुरत सुदामा से पूवव दूरी बना ली। आदेश देने का गव सुदामा पहली बार अनुभव कर रह थे।
‘‘मुझे तो आशीवाद इस पाखंडी से ही िमल गया, तुझे ीक ण दे दगे।’’ धमलाभ ने स तापूवक अपने अ क
गरदन को थपथपाया।
‘‘तू या कहता ह िक म भी जाकर मा माँग लूँ?’’ दूसर क मुख पर भय कट आ।
‘‘वह पाखंडी अभी ोध म ह। मुझे ही भगा िदया। कहता ह, एकांत चािहए। मेरा काय तो िस हो ही गया।’’
धमलाभ अपने सहयोगी को भयभीत देख स हो रहा था।
‘‘तेर जैसा वाथ सहयोगी मने आज तक नह देखा।’’ दूसरा र क बोला।
‘‘और अब देखेगा भी नह । तेरा शेष जीवन कहाँ बीतनेवाला ह, इसका आभास तुझे हो ही गया ह। पर यह भी
मरण रखना िक यह सब तेर अहकार क देन ह। म तो अपना िसर इसक आगे झुकाकर अपने अहकार को समझा
आया िक तेर िकए का दंड म नह भुगतनेवाला।’’
‘‘ठीक ह, म भी इससे मा माँग लेता । परतु यिद यह पाखंडी िनकला तो िफर देखना, म इसका या करता
।’’ दूसरा बोला और सुदामा क ओर बढ़ने ही वाला था िक धमलाभ ने उसे संकत से अपनी ओर बुलाया।
‘‘ या ह?’’ दूसर र क ने धीर से पूछा।
‘‘यह िस ह। मन क बात जानता ह। इसे ात ह िक तू नाटक करने आ रहा ह।’’ धमलाभ ने उसे डराया।
दूसर र क ने िचढ़कर धमलाभ को अ ील संकत िकया और सुदामा क ओर बढ़ गया। वह सुदामा क िनकट
प चकर कछ बोलना ही चाह रहा था िक सुदामा ने न कवल उसे चुप रहने का संकत िकया अिपतु उससे पूवव
दूरी बनाए रखने का सांकितक आदेश भी दे डाला। वह लौटकर धमलाभ क पास आ गया।
‘‘मने अपने को इतना असहाय कभी नह पाया। यह िभखारी हम अपने संकत पर नचाता जा रहा ह और हम
नाचते जा रह ह।’’ दूसर र क का वर घृणा और ोध से भरा था।
‘‘हम नह , तुम। तुम इसक संकत पर नाच रह हो। इस पर बल- योग य नह करते? इसे अपने अ क नीचे
िगराकर सताओ। म दूर से ही मना करता र गा और तु ह रोकने नह आऊगा।’’ धमलाभ धीर से हसा।
‘‘और जब मुझे मृ युदंड िदया जा रहा होगा, तब भी दूर से देखकर आनंिदत होगा।’’
‘‘एक चोर को पीटने पर कसा मृ युदंड!’’ धमलाभ क हसी थम नह रही थी।
‘‘यह चोर ीक ण का िम ह।’’ दूसर र क ने िचढ़कर कहा।
‘‘इस ि से तो ीक ण को तुमने चोर कहा।’’ पहले ने यो रयाँ चढ़ाई, ‘‘देखो, ब त आ। अपनी भाषा पर
यान दो। अपने अहकार म तुम ब त कछ न कहने यो य भी कह गए हो और सुनो, अब मौन रहो। इसी म तु हारा
िहत ह।
सुदामा अपने आ मिव ास पर इतराकर चल रह थे।
‘अपने बल पर इतरा रह ह!’ उनको लगा िक सुमित उनक सामने ह।
‘मुझे लग रहा ह िक म हनुमान , िजसम सागर संतरण क मता तो ह, पर उसे उसका बोध नह था। ान क
बल का परी ण आज हो ही गया।’ सुदामा क आँख चमक उठ ।
‘िकतु हनुमान क पास जो बल था, वह तो ीराम का ही था। हनुमान ने िसंधु क मयादा तोड़ी, लंका भ म क ,
िसया क सुिध लाए; िकतु गिवत तो तिनक भी नह ए।...और आप...अभी आपने कछ ा भी नह िकया ह।
सबकछ वायवीय ह। और आपका अहकार िहमालय क िशखर पर जा बैठा। यह बल, यह आ मिव ास—िजस
पर आप इतरा रह ह—भगवा ीक ण का ही तो ह।’
‘क ण का कसे ह?’ सुदामा तुनककर खड़ हो गए।
‘जब राजपु ष का रथ आ रहा था और आपको ार-र क ने पुकारा था, तब अपनी अव था देखी थी न! उस
समय तक क ण आपक मन म नह थे। क ण क अभाव म आप भय त थे। अब आप जो भी कर रह ह, क ण
क उप थित को अनुभव करक कर रह ह। यिद इस ारका म आपको यह आ मिव ास न हो िक क ण आपक
ह तो बताइए, या िफर भी आपका यह आ मिव ास होगा?’
मन म सुमित को अपने सामने खड़ा देख सुदामा ल त ए और उनका वह मन, जो आ मबल से भरा था, अब
आ म लािन से भर गया।
‘ल त न ह , कवल मन क श ु क ित सजग रह, वािम!’ सुमित जैसे उनक दय म गंगा बनकर बही और
उनका अहकार पी बाघ उनक मन क आँगन म क चड़ क जो पैर भर कर ले आया था, गंगा क वह पावन ऊिम
उन पद-िच को धो गई।
उ ह ने अनुभव िकया िक स य ही तो कह रही ह सुमित। वे िजस बल पर इतरा रह ह वह ीक ण का ही तो
ताप ह, अ यथा उनसे तो िहरण भी न डर। क ण क नाम क उप थित ही उनको उ साह और साहस से भर देती
ह। यही तब भी आ था, जब वे आ म म उनक किटया म आए थे। उन िदन सुदामा िकतने एकांत- ेमी और
संकोची वभाव क थे। कोई दूसरा उ ह बात करते तो तब देख,े जब उ ह ने ही वयं को बात करते देखा हो। वे
सदा मौन रहा करते थे। आ मवासी भी उनक वभाव को जानकर उ ह आ म क सामािजकता का िनवाह करने
क िलए भी नह कहते थे। िकतु क ण क आते ही जैसे उनक उदासीन जीवन म उ सव क लहर आ गई। वे चंचल
हो गए और क ण क साथ रहकर जी भरकर खेल-े कदे। वे देख रह थे िक यिद क ण उनक जीवन म न आते तो वे
यह जान ही नह पाते िक िम ता या होती ह और मै ी म खेलना-कदना, ठना-मनाना या होता ह! जीवन क
एक मह वपूण घटना से वे वंिचत रह जाते। िफर आ भी यही। क ण-बलराम गु दि णा देने क प ा जब लौट
तो सुदामा िफर से अमाव या क चं मा बन गए। वह क ण का काश ही था िजसने उनको पूिणमा का चं मा बना
िदया था। उसक बाद का सारा जीवन उनक पूवव वभाव क अनुसार चलने लगा। इतना अंतर अव य आ िक
वे पुनः पहले जैसे िनतांत एकांतजीवी नह रह। यदा-कदा िकसी से ान-चचा भी करने लगे थे।
वे उस समय को मरण करने लगे। िकतनी शी ता से वह समय बीता। वे च सठ िदन ऐसे लगे जैसे च सठ ण
ह । क ण तो िकसी सुखद व न क समान कट ए और कब उनक आँख खुली, इसका उनको पता ही नह
चला। यह समय क गित भी अ ुत ह। सुख क बरस भी िदन क समान बीत जाते ह और दुःख का िदन भी बीतने
म बरस का समय ले लेता ह। उ ह ने अपने शरीर पर ि डाली। दुबली-पतली काया। उनक वृ ाव था का
वागत करने क िलए समय उनक देह क दहलीज पर पहले ही अपना डरा डाल चुका ह। या उनम इतना भी
साम य नह िक उसका डरा उखाड़ फक? वे भी सुदशन पु ष न सही, िकतु समथ तो िदखने लग। और िकतनी
ान क साधना करगे वे। बस हो चुक पया ान-साधना। अब वे अपने प रवार इ यािद को और नह िबसराएँग।े
उस राजपु ष को तो वे उपदेश िपला गए। पर वे उससे कहाँ कम ह। उसम और उनम इतना ही भेद ह िक वह
कवल मिदरापान कर रहा ह और सुदामा ान क मिदरा पी रह ह। उस मिदरा क मद म वे अपने प रवार क ित
अपना दािय व भूल गए ह। ये पोिथयाँ उनक मिदरा-पा ही तो ह। सुदामा क आ ममंथन ने उनको कछ मथ कर
िदया।
‘तो या ान भी मिदरा ह?’ सुदामा जैसे पूछ उठ।
‘जब धन को तुम िविभ ेिणय म िवभािजत कर सकते हो तो ान को य नह ? या यह उससे िभ ह?’
मंथन से उपजा वर बोला, ‘ ान-मिदरा, पे्रम-मिदरा, प-मिदरा, बल-मिदरा, पद-मिदरा, कल-मिदरा—कहाँ
तक िगनाऊ?’
‘िगनाने क आव यकता नह । तु हार अनुसार इस संसार म मिदरा क अित कछ ह ही नह ।’ सुदामा जैसे उस
वर से असहमत थे।
‘तुम ठीक समझे सुदामा! यहाँ सबकछ मद से भरा ह।’ वर बोला।
‘तो इसका अथ ह िक मनु य जीए ही न।’ सुदामा ने मुँह बनाया।
‘ऐसा िकसने कहा? ओह! तुमने ही तो कहा!’ वर सुदामा क सहजता पर हसा और पे्रमपूण वर म बोला, ‘तुम
मिदरा नह पीते?...मेरी ओर टकर-टकर या देख रह हो? म जो पूछ रहा , उसका उ र दो।’
‘हाँ, नह पीता।’
‘तो या तुम जी नह रह?’
‘मिदरा पीनेवाल से कह े जीवन जी रहा ।’ सुदामा ने अपनी बात पर बल िदया।
‘तो िजस कार तुम मिदरा नह पीकर े जीवन जी रह हो, ठीक इसी कार ान, धन, प, बल इ यािद से
उपजे मद को वीकार न कर तुम इनक भाव पी मिदरापान से बचकर े जीवन जी सकते हो। तु हार पास
ान तो हो, पर उसका मद न हो; तुम धनवा तो बनो, पर ल मी क मद को अपने पर चढ़ने न दो; तुम ऊचे-से-
ऊचे पद पर तो बैठो, पर पद पर बैठा अहकार का ेत तु हारी मित को न कर दे। यिद इनसे मनु य बच सक
तो वह े जीवन जीने का अिधकारी होता ह।’ वर ने जैसे सुदामा क गहराई म झाँका, ‘यह तिनक भी
आव यक नह था िक तुम कवल ान क एकांगी या ा करते। तुम धनाजन भी करते और िव ाजन भी। िकतु तुम
दोन को साध नह सक।’
‘दोन को कोई कसे साध सकता ह?’ सुदामा का मुँह अकबकाकर खुला।
‘जैसे क ण ने सभी कछ साधा।’ वर बोला।
‘सभी क ण तो नह हो सकते।’ सुदामा ने ितकार िकया।
‘उिचत कहा।’ वर ने सुदामा को घेरा, ‘पर सभी सामा य बैलगाड़ी तो हो ही सकते ह।’
‘हाँ, वह हो सकते ह।’ सुदामा ने सहज प से वीकार िकया।
‘तो बैलगाड़ी भी दो च से सधती और गितशील होती ह। इसी कार जीवन पी गाड़ी को सुचा प से चलाने
क िलए पु षाथ और भा य दोन ही अिनवाय ह।’
‘भा य पु षाथ से अलग ह या?’
‘पु षाथ का प रणाम ही भा य ह।’ वर ने सार कहा।
‘ठहरो, ठहरो। अभी तुम जाओ और मुझे इन बात को चबाने दो। इनको पचाने क िलए मुझे कछ समय एकाक
छोड़ दो।’
‘जैसी तु हारी इ छा।’ वर ने वयं को समेट िलया।
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चार
ा मु त होने म अभी ब त समय शेष था। वे लोग क ण क महल क वेश- ार पर प च गए। वहाँ खड़
सश सैिनक को देखकर सुदामा ने अपने दाँत तले अँगुली दबा ली। इतने दीघकाय, व थ और बिल सैिनक
उ ह ने जीवन म नह देखे थे। वे सोचने लगे िक इनको सैिनक कहना उिचत न होगा। ये तो यो ा ह। सैिनक क
एक िवशेष जाित। उनको देखने मा से ही श ु क ाण िनकल जाएँ। महल वयं अपने वैभव और सु ढ़ होने क
गाथा कह रहा था।
सुदामा समझ नह पा रह थे िक यहाँ उनक साथ कसा यवहार होने जा रहा ह। उनक सारी आशा तो क ण पर
ही िटक ह और यिद क ण ही ारका म न आ तब?...उस िवक प क थित म उनक बु माग खोजने
लगी। उसे सूझा िक यिद क ण न आ तो या आ, बलराम भी तो उनको जानते ह और बलराम भी न ए तो
अिधक-से-अिधक उनको क ण क आने तक कारागार म डाल िदया जाएगा। ब त संभव ह िक उस कारागार का
नाम अितिथशाला हो। तभी उसे दूसर र क क बात यान आई िक क ण से िमलने क िलए अित िविश य य
को भी समय लेना पड़ता ह। तब जाकर कह वे ीक ण से िणक भट कर पाते ह। वे तो अपने अ ान म यह
समझे बैठ थे िक क ण अपने भवन म होगा। वे ार खटखटाएँगे और क ण कपाट खोलेगा। कोई य इतना
अित मह वपूण और अित य त भी हो सकता ह, इसक क पना तो उ ह ने कभी व न म भी नह क थी। वे
समझ नह पा रह थे िक कोई इतना अिधक य त कसे हो सकता ह िक उससे िमलने क िलए समय लेना पड़ और
उसक बाद उससे पल भर क भट ही हो पाए। उनक बु इस संग का अपने जीवन से तुलना मक अ ययन
करने क उपरांत इसे राज-समाज क पाखंड क प म ही वीकार कर रही ह।
धमलाभ ने सुदामा को दूसर र क क साथ कछ दूरी पर कने का िनदश िदया और उन यो ा क िनकट
जाकर उनको सैिनक अिभवादन िकया। उसने उनसे कछ बात क और संकत से आने क िलए कहा। एक यो ा
ने अपने िनकट खड़ सेवक क ओर देखा। उसने आगे बढ़कर दोन अ क रास थाम ली और उनको
अ शाला म ले गया। या़ ा माग से हट गया। धमलाभ सुदामा को लेकर र ा- मुख क क क ओर बढ़ा। क
से पहले ही उसने दोन को कने क िलए कहा और वयं सीि़ढयाँ चढ़ता आ र ा- मुख क क म चला गया।
कछ ही पल म एक र क उस क से िनकला और सुदामा क साथ क र क को संकत से आने क अनुमित
दी।
र ा- मुख ने सुदामा क ओर देखा। वह जैसे उनका मू यांकन कर रहा था।
‘‘िव वर को र ा- मुख का णाम!’’
‘‘ मुख वागत अिधकारी तथा ीक ण क िनजी सहायक सुभाष का भी णाम वीकार कर, देव!’’
‘‘ स रह।’’ सुदामा ने दोन क ओर आशीवाद देते ए हाथ उठा िदए।
सुदामा ने देखा िक र ा- मुख का य व उसक कम क सवथा अनुकल था। इस समय भी वह इतनी फित से
भरा था िक िमलनेवाले को लगे जैसे रात उस पर अपना भाव छोड़ने म असफल रही ह। उसने धमलाभ और
उसक सहयोगी र क को भी देखा। उनक मुख पर थकान, अपने काय क ित सामा य औपचा रकता और
िशिथलता थी। जबिक ये लोग तो अक पनीय फित और सावधानी से पूण ह। उसने सुभाष क ओर देखा। उसका
य व उसक वागत अिधकारी होने को मािणत कर रहा था। िवकार-रिहत स वदन। म तक पर ितलक।
िसर पर पगड़ी और ेत व ।
‘‘ मा चाहता देव, हमार पास आपक शुभागमन क कोई सूचना नह ह।’’ र ा- मुख क अ वेषणा मक ि
सुदामा क य व म कछ संदेहा पद खोज रही थी।
‘‘संभवतः र क धमलाभ ने आपको मेरी थित, मेर आने का उ े य और क ण क साथ मेर संबंध क
प रचया मक भूिमका प कर दी होगी। यिद ऐसा नह ह तो मुझे पुनः वे सभी बात कहनी ह गी, जो मुझे या ा म
अनेक बार कहनी पड़ ।’’ सुदामा ने र ा- मुख क आँख म आँख डालकर कहा और मुड़कर उन दोन र क
क ओर देखा, ‘‘धमलाभ म तो कछ धम ह भी, िकतु यह दूसरा र क इस यो य नह िक इसे र क क मयादा का
बोध भी हो। वैसे यह देखकर मुझे ब त आ य आ िक संसार म य का मू यांकन उसक वेशभूषा से िकया
जाता ह। ारका पथ पर तो मने इस त य को...त य क अपे ा स य कहना उिचत होगा, अनुभव िकया िक एक
भी य ऐसा न था जो मुझे अवांछनीय पदाथ क समान नह देख रहा हो। च र क मू यांकन का आधार जब
ान न होकर धन, प और पद हो जाए तो समाज क सां कितक पतन म िवलंब नह होता।’’ सुदामा ने र ा-
मुख क ओर देखा, ‘‘आप यिद धमलाभ क जानकारी से संतु नह ह अथवा उनको मेर ही ारा सुनना चाहते
ह तो कह।’’
‘‘र क ने मुझे बताया...बताया...’’ र ा- मुख को दीन-हीन सुदामा से ऐसे उ र क अपे ा नह थी। सुदामा क
ओर से ए इस आक मक वािचक आ मण से वह हत भ हो गया। यिद कोई श ु उसक सुर ा-च म वेश
कर जाता तो वह तिनक भी हतो सािहत न होता; िकतु जो उसक सम था, वह न तो अभी तक श ु घोिषत आ
था और न िम ही मािणत आ था।
सुदामा यह अनुभव कर रह थे िक उ ह ने आव यकता से अिधक ही कह िदया ह। अब उनको उप थत
अिधका रय क िति या देखनी चािहए।
‘‘िव वर! आप कपा कर आसन हण कर और मुझे इस संबंध म भावी काररवाई करने क िलए कछ समय
दीिजए।’’
र ा- मुख ने बैठने क िलए िजस सुखद और सुंदर आसन क ओर संकत िकया था, सुदामा उस पर बैठ गए।
र ा- मुख सुभाष को लेकर क से बाहर आ गया।
‘‘आपका या कहना ह, सुभाषजी?’’
‘‘अथा ?’’ सुभाष ने अपनी ठोड़ी पर िचंितत होने क अिभनय- व प अपने दािहने हाथ क अँगुिलय को िफराना
आरभ कर िदया।
‘‘अथा या !’’ र ा- मुख क वर म खीज कट ई, ‘‘यह य वा तव म महाराज ीक ण का िम ह
अथवा...’’
‘‘आपको या लगता ह?’’ सुभाष र ा- मुख क ओर देखकर मुसकराया।
‘‘जो आप कहगे मुझे तो वही लगेगा। आप इस प र थित का आनंद िफर उठा लीिजएगा। अभी तो मुझे इस संकट
से उबार।’’ र ा- मुख का वर िचंितत था।
‘‘इसम संकट कसा? यह कशकाय, अित िनधन, दीन-हीन ा ण कोई द यु का रवड़ लेकर थोड़ आया ह!’’
सुभाष हसा।
‘‘वह लेकर आता तो आनंद ही न आ जाता। हमार श और भुजा का वा तिवक यायाम हो जाता।’’ र ा-
मुख का वर पुनः िचंितत हो गया, ‘‘पहले ही ा ण देव इन र क क शा दक कट-बाण से आहत हो चुक
ह। म नह चाहता िक जो वयं को भगवा का िम बता रहा ह, उसको उसक ग रमा क अनुकल यवहार न
िमले। तुम नीित-कशल हो भाई! अब मुझे समझ म आया िक परमा मा ने इस समय तु ह यहाँ य रोक रखा ह,
अ यथा तुम तो अपने घर जा रह थे। अपना मत कट करो न!’’
‘‘तुमने ा ण क भाषा देखी। प रमािजत, अलंकत और ान क आ मबल से प रपूण। यह तो िन त ह िक ये
िव हमार महाराज से घिन संबंध रखते ह। यिद ऐसा न होता तो इतने आ मिव ास, इतनी सहजता और इतने
आ मीय अिधकार क साथ ये संवाद नह करते। अब यह एक िभ िवषय ह िक हमार भु इनक साथ संबंध क
िकतनी घिन ता को अनुभव करते ह। हमार भु तो ह ही पे्रम क सागर। हो सकता ह, वे कह बरसे ह और भु
क पे्रम क वाित न क वषा क एक बूँद इस िनरीह ा ण क मुख म िगर गई हो और इसक भ क
भाव से वह बूँद आ मीयता का मोती बन गई हो। उसी मोती क बल पर यह िवपदा का मारा भगवा से भट करने
चला आया हो और हो सकता ह िक भगवा इसको जानते भी न ह अथवा पहचान भी न पाएँ।’’
‘‘आप यह सब कसे जान लेते ह?’’ र ा- मुख ने चिकत होकर पूछा।
‘‘जैसे तुम य क शारी रक गठन और उसक श को देखकर उसक यो ा होने क तर का मू यांकन करते
हो, वैसे ही हम मनु य क वाणी अनुभव कर उसका च र पढ़ लेते ह।’’ सुभाष बोला, ‘‘परतु मुझे एक बात का
आ य हो रहा ह।’’
‘‘शी किहए!’’ र ा- मुख क याकलता बोली।
‘‘आप उस ि से िवचार न कर।’’
‘‘िकस ि से?’’ र ा- मुख चिकत था िक अभी तो उसने अपने मनोभाव को कट भी नह िकया, िफर...
‘‘आपक उ सुकता इस बात म ह िक म िव वर सुदामा क िकस बात से आ यचिकत और आप िफर उस
आ य म से संदेह का सृजन करगे और उस संदेह से इस पा को पाखंडी िस करने का माण जुटाएँ।’’
र ा- मुख ने ल त होकर िसर झुका िलया।
‘‘म इस बात से चिकत िक िवगत चौदह वष से म भगवा क सेवा म और उनक येक प रिचत को जानता
। यहाँ तक िक संदीपिन आ म क िलए भी सदा मानाथ कछ-न-कछ जाता ही रहता ह; परतु उस सूची म सुदामा
जैसा कोई नाम नह ह और र क धमलाभ ने सुदामा क िजस ाम का नाम बताया ह, वह बीस-पचास घर का
कोई ब त ही छोटा उपेि त ाम लगता ह।’’
‘‘यह य भी तो उपेि त ही लगता ह। यिद इसने जनेऊ और िशखा धारण न क हो तो या तो यह िवि लगे
या कोई ब िपया। आपने इसक व देख।े ...’’ र ा- मुख ने जैसे असंगत श द चयन क िनवारण- व प
अपना िसर िहलाया, ‘‘...कहना तो नह चािहए, पर व हो तो देख। एक पतली धोती ह, वह भी पुरानी और
मैली। कोई य न इनक ओर िव मय से देख?े मने ारका म एक भी य इस दशा म नह देखा। याचक तो
यहाँ ह ही नह । सब िमक ह। वे भी ऐसी दीन दशा को ा नह ह। साधु तो ब त ही अ छी अव था म ह’’
‘‘कह तो आप उिचत रह ह।’’ सुभाष मुसकराया।
‘‘ न यह ह िक अब कर या? मेरी इस थित पर आप बाद म मुसकरा लीिजएगा। अभी मुझे इस संकट...’’
‘‘आइए।’’ सुभाष ने र ा- मुख क बात काटी और उसे अपने पीछ आने का संकत कर क क ओर बढ़ गया।
‘‘िव वर सुदामाजी, आप हमार महाराज क िम ह। अतः हमारा यह धम ह िक हम आपक स कार क स यक
यव था कर। हमारा आपसे िनवेदन ह िक आप अितिथ-गृह म िव ाम कर। ान- यान करक भोजन पाएँ।
भगवा क आने पर हम उनको आपक शुभागमन क सूचना दे दगे।’’ सुभाष क वर म स मान था।
‘‘ या क ण ारका म नह ह?’’ सुदामा का वर ऐसा था िक उ ह लगा िक यिद उ ह ने संयम नह रखा तो वे रो
ही पड़गे। वे सोचने लगे िक इतने क और अपमान सहकर वे यहाँ तक आए। अब जाने कब क ण का आगमन
होगा और ये उसको घेर ए सुर ा-च क उपकरण पता नह क ण तक उसका संदेश प चाएँगे भी या नह । यह
भी तो हो सकता ह िक ये उसको ातः यह कह द िक इनक महाराज ने कहलवाया ह िक वे िकसी सुदामा को नह
जानते या वे कछ िदन य त ह। सुदामा को कहा जाए िक वह िफर कभी पधार। ऐसे म वे यह हठ तो कर ही नह
सकगे िक क ण को उनक सामने तुत करो। यिद क ण अपने मुख से उनको पहचानने से या िमलने से मना
करगे तो वे चले जाएँग।े उनको लगा िक यिद ऐसा आ तो वे दोन र क भी उससे ितशोध लगे। सुदामा ने एक
ि वहाँ उप थत सभी लोग पर डाली। सुभाष उनक सामनेवाली चौक पर उनक उ र क ती ा म उनका मुँह
ताक रहा था और शेष लोग तो सुदामा को उस पर घात लगाए िहसक जीव ही िदख रह थे। उसे लगा िक ये
अिधकारी गण उसको यहाँ से स मानपूवक खदेड़ने का ष यं रच रह ह।
‘‘वे ारका म ही ह। परतु एक िन त समय पर म उनक सेवा म उप थत होता और उनक स मुख िदन भर
क परखा तुत करता । मेरा कहने का आशय यही था िक सभा-क म उनक आने पर आपक आगमन क
सूचना...’’
‘‘ओह!’’ सुदामा ने अपना माथा पकड़ा।
‘‘आपका वा य तो ठीक ह िव वर, ’’ सुभाष ने सुदामा का हाथ छआ।
‘‘म पूणतः व थ ।’’ सुदामा ने अनुभव िकया िक अब ये लोग उसको ण घोिषत कर िचिक सालय भेजना
चाहते ह। हो सकता ह िक वह िचिक सालय मानिसक हो। नह , वे िकसी भी मू य पर इन राजक य चाकर को
सफल नह होने दगे। सुदामा बोले तो उनका वर संक पपूण था, ‘‘ ीमान सुभाषजी! इस समय ीक ण को
सूचना देना य संभव नह ह? जब म उससे भट करने तीन िदन भूखा- यासा चलता आया और मेरी प नी ने
मुझसे यह ित ा करवा ली थी िक म कवल क ण का ही आित य वीकार क गा और वह भी सा ा क ण क
हाथ तो मुझे नह लगता िक दो िम क म य बाधा- व प आपको उप थत होना चािहए। आपको दूत क प म
आपात संदेश ीक ण तक प चाना चािहए।’’
र ा- मुख क भीतर बैठा अिधकारी जागने लगा। उसे लगा िक यह ा ण वा तव म कोई मनोरोगी ह और उन
सभी को मूख बना रहा ह। यिद इसक कहने पर वे इस समय महामिहम ीक ण को जाकर यह सूचना दगे और वे
इसे आपात सूचना जानकर यहाँ आकर यह कहगे िक वे इसे नह जानते तो उसका िसर तो अपनी अयो यता म ही
झुक जाएगा। उससे पूछा जाएगा िक या उसको य क भी पहचान नह रही? या उसे राजक य आचार-
िवचार और अनुशासन का भी िवचार नह ह? उसक िलए यह आदेश ह िक वह इस समूचे े को सुरि त रखे
तथा येक आगंतुक क सुर ा संबंधी जाँच कर और िजसने िमलने का जो समय िलया हो, उसे उसी समय वेश
क अनुमित दे उसक जीवन म न कभी ऐसा अवसर आया और न ही िनयमावली म ऐसी प र थित क चचा ही
क गई ह िक यिद राज मुख क प रवार क िकसी सद य का कोई अप रिचत दीन-हीन िम उससे भट करने
अधराि क प ा अक मा कट हो जाए तो उस समय उसका या कत य होना चािहए। यिद हठ करने पर वे
उसे बलपूवक यहाँ से हटा देते ह और यह वा तव म वही िनकला जो यह अपने िवषय म बता रहा ह, तब तो...
वह महाराज क घिन िम क प म अपना प रचय देनेवाले िकसी भी य क संबंध म वयं कोई अदूरदश
िनणय लेकर अपने िलए संकट खड़ा नह करगा। वह सुभाष पर ही इसका सारा दािय व डाल देगा। यिद कछ
असंगत आ तो सुभाष से न करने का कोई साहस नह करगा। वह महाराज का ि य ह और उनका िनजी
सहायक ह।
‘‘आपक इ छा िशरोधाय ह, सुदामाजी! म आपक भावदशा समझ रहा ; िकतु इतना िनवेदन करना चा गा िक
इन िदन राजनीितक उथल-पुथल ब त अिधक ह। भगवा ीक ण को तो तीन िदन प ा लौटना था। परतु जाने
कल उनको ारका का कौन सा काय मरण हो आया िक अ याव यक संगो ी को छोड़कर अिवराम या ा
करक म य राि से कछ देर पहले ही ारका प चे ह। उनक सेवक क प म मेरा यह धम ह िक म उनक
िव ाम म सहायक बनूँ और िजतना भी हो सक, उनको अनाव यक काय से बचाकर रखूँ। एक स े िम क प
म आशा ह, आप भी यही चाहगे िक इस असमय उनक िव ाम म बाधा उ प न क जाए।’’
र ा- मुख सुभाष क सिह णुता देखकर चिकत था। वह सोचने लगा िक कोई सुभाष क स मुख ीक ण क
स मान म एक श द भी अनुपयु योग कर जाए तो वह उसक ऐसी दशा कर देता ह िक भिव य म वह य
उसक सामने ीक ण क संबंध म मौन ही रहता ह। वह दय से उनको भगवा मानता ह और उनका भ ह।
परतु आज उसको यह या हो गया? एक दो कौड़ी का साधारण से भी िन न तर का िवि उनक सवसवा क
संबंध म इस कार चचा कर रहा ह जैसे...जैसे...र ा- मुख का िसर चकरा गया। उसे अपने ‘जैसे’ क िलए उपमा
नह िमल रही थी।
‘‘सुभाषजी!’’ सुदामा मुसकराया, ‘‘िम ता का मू य चुकाना होता ह। िम वही ह, जो संकट म काम आए। मुझ
पर संकट गहराया ह, इसीिलए म अपने िम से िमलने आया ।’’
‘‘आप हम आदेश कर िक िकसने आपक साथ अ याचार िकया? हम अभी उसको...’’
‘‘...शांत!’’ सुदामा ने र ा- मुख को वह रोक िदया और उससे बोले, ‘‘संवाद वही होता ह, जो दो क म य हो।
तीन क बीच वह लाप बन जाता ह।’’
र ा- मुख ने अपने अधीन थ सहयोिगय क ओर देखा। उसने अनुभव िकया िक वे उसक इस दुगत पर मन-ही-
मन हस रह ह गे। आज तक ऐसा कभी नह आ िक उसको िकसी ने इस कार डाँटा हो। वह िजस पद पर ह,
वहाँ तो येक उससे स मानजनक प से बात करता ह। आगंतुक उसक सामने हड़बड़ाने लगते ह और यह
श हीन ा ण उनसे इस कार बात कर रहा ह जैसे वे ारपाल ह और वह सेनापित। उसने सोचा िक वह
कछ कठोर होकर इस ा ण से बात कर परतु कछ सोचकर उसने मौन रहना ही उिचत समझा।
‘‘यिद आप इस समय क ण को मेर आने क सूचना नह दे सकते तो...’’ सुदामा उठ खड़ ए, ‘‘...तो जब वे
उठ सभागार म आएँ तो उनसे किहएगा िक गु संदीपिन का िश य और उनका सहपाठी सुदामा उनसे िमलने आया
था और हमने उनको लौटा िदया। यिद वे आप लोग को मुझे िलवा लाने क िलए भेज तो कह दीिजएगा िक यह
सुदामा क ित ा ह िक वह अब मुड़कर ारका नह आएगा।’’
र ा- मुख ने सुना था िक ऋिषय म शाप और वरदान देने क श होती ह। यह ा ण तो जैसे शाप दे रहा ह।
‘‘आप सेवक को मा कर, सुदामाजी! यह सब कहना हमारी िदनचया और अनुशासन का अंग ह। उस
औपचा रकता का िनवाह भर करना था, वह हो गया। आप उिचत कहते ह िक िम ता का मू य तो चुकाना होगा।
अब यह तो भिव य बताएगा िक िकसने िकतना मू य चुकाया। आप आसन हण कर। म त काल भगवा को
आपक शुभागमन क सूचना देने जा रहा ।’’
‘‘मेरी स मित इसम नह ह, सुभाषजी!’’ र ा- मुख क वर म आदेश का नह वर िगड़िगड़ाने का भाव था।
‘‘सब दािय व मेरा रहा।’’ सुभाष ने जैसे र ा- मुख को अभयदान िदया।
र ा- मुख ने अपने कान पकड़, माथे पर आया पसीना प छा और छत क ओर हाथ जोड़कर परमा मा को
ध यवाद िदया। उसने चौक पर रखा जल का पा उठाया। उसे पीया और धैय क साँस ली।
सुदामा ने अपनी आँख मूँद ल और चौक क पृ भाग पर अपने िसर को िव ाम क मु ा म िटका िदया।
सुदामा सोचने लगे िक या सुभाष वा तव म क ण क पास जाएगा या िफर य ही कछ समय यतीत कर उनको
यह सूचना देगा िक ीक ण से उनका संपक नह हो पा रहा, या वे उनसे कल सभागार म िमलगे, या वे इन िदन
उनसे िमल नह सकते?
सुदामा का िसर िकसी च वात क ारा घुमाए प े क समान घूम रहा था। उनक िसर म एक भंभीरी-सी बज
रही थी।
तभी उ ह सुभाष क साथ आवेश क अव था म ीक ण आते िदखाई िदए।
‘‘क ण!’’ सुदामा पुकार उठ।
‘‘तु ह मयादा का कछ िवचार ह िक नह , सुदामा!’’ क ण का वर किपत था, ‘‘यह अधराि का समय...इस
समय कोई स न पु ष िकसी क ार नह जाता। तु हार ान को या आ?’’
‘‘म तो मै ी का आधार...’’ सुदामा ने अनुभव िकया िक उनक दशा काटो तो र नह जैसी हो गई ह।
‘‘...मै ी! कसी मै ी? तुम ा ण अपने को समझते या हो? एक वे ोण थे, जो तु हार समान मै ी-मै ी पुकारते
ुपद क सभा म वेश कर गए और उनक साथ समक जैसा यवहार करने लगे। मयादा भी कछ होती ह!’’
सुदामा को लगा िकसी ने उनक ाण ही ले िलये ह।
‘‘आप बताइए! इसका या कर, भु? इसने तो हम भी ब त सताया ह। सताया या अपमािनत भी ब त िकया।
आपका नाम लेकर हम भयभीत भी ब त िकया। यिद आप कह तो इसे कारागार...’’
‘‘...नह ! या ुपद ने अपने िम ोण को कारागार म डाला था?’’ क ण ने दया ि से सुदामा क ओर देखा
और सुभाष से कहा, ‘‘हमारी िम ता क नाम पर िव को कछ व , धन और भोजन देकर िवदा करो।’’
ीक ण िजस आवेश म आए थे, उसी आवेश म पैर पटकते चले भी गए। सुदामा यही सोचते रह गए िक वे
सुमित क स मुख िकस मुख से जाएँग?े यह सब सुनकर तो उस िनरीह अबला का दय ही फट जाएगा। वह
अघोरी ठीक ही कह रहा था िक उसे सब ात ह िक उनक साथ या होनेवाला ह। िकतु उ ह ने उस िस क बात
भी नह मानी। सुदामा हताश मन से मुड़। वे सीि़ढय क पास प चे। उनका पैर असंतुिलत आ और वे िगर गए।
उनको उठाने क िलए अनेक लोग दौड़। उ ह सुभाष का वर सुनाई दे रहा था। वह अपने अधीन थ कमचा रय से
कह रहा था िक एक ती गामी रथ पर इस ा ण का शव रखकर मायापुरी ाम म इसक प नी को स प आओ।
यह सुनकर सुदामा भयभीत हो गए िक वे मर गए ह। उनको लगा िक यिद क ण ने उनको दु कार भी िदया था तो
इस बात को दय पर लेकर ाण यागने क या आव यकता थी? उनको लौटकर अपनी प नी और ब क
पास जाना चािहए था और इस ान को चू ह म भ म करक अपनी सारी ऊजा को धन कमाने म लगा देना चािहए
था। वे रो पड़, ‘‘ह भगवा ! यिद तू ह तो मुझे ाणदान दे। म अपने प रवार क ित िजस कत य का िनवाह नह
कर पाया, उसक िलए मुझे एक अवसर दे। अ यथा मेरी आ मा सदा भटकती ही रहगी। मुझ पर दया करो ीह र!’’
सुदामा को लगा िक सुमित उनक पास खड़ी उनसे कह रही ह िक जाने भी द वामी! जब राम ही चाहता ह िक हम
न हो जाएँ तो िफर इस जीवन का या लाभ? और इतना कहते ही सुमित ने भी अपने ाण याग िदए। तभी उ ह
संदीपिन गु आते िदखाई िदए। वे उनक ब को अपने आ म म ले जाने क िलए आए ह। सुदामा ने पुकारकर
संदीपिन से कहा, ‘गु देव, इनका यान रिखएगा और जैसे मुझे माता-िपता का पे्रम िदया था, वैसा ही इनको भी
दीिजएगा और यिद भिव य म कोई क ण आपक आ म म आए तो उससे मेर ब क र ा क िजएगा। सुदामा
सुमित क शव को पड़ा देखकर चीख उठ।
‘‘अर, कोई इस ा ण को उठाओ।’’ र ा- मुख का वर गूँजा।
सुदामा ने देखा िक दो यो ा उ ह उठाने क िलए आगे बढ़। उ ह ने उनको उठाया और पुनः आसन पर िबठा
िदया। सुदामा ने चार ओर देखा। न सुमित का शव पड़ा था और न ही वे मर थे। न द क झ क ने उनको व न
लोक म िगरा िदया था और व न लोक उनको अशुभ जग क सैर पर ले गया था। सुदामा ने हाथ जोड़कर
आकाश क ओर मुँह िकया और बोले, ‘‘तेरी अपार कपा ह राम! िक तूने मेर ाण नह िलये। मुझे चेताकर ही
छोड़ िदया। तेरी कपा अपार ह। म अपने प रवार क ित अपने कत य का भली-भाँित िनवाह क गा और तेर यान
म भी अपना मन लगाऊगा।’’
र ा- मुख क ि आकाश क ओर हाथ जोड़कर बड़बड़ाते सुदामा पर िटक गई। र ा- मुख जान नह पा
रहा था िक ऐसा इस अनाकषक सुदामा म या ह, जो सुभाष उसक उपे ा नह कर सका ऐसी बात नह ह िक
येक आगंतुक को महाराज से िमलने का समय दे देता ह। संभवतः उसक इसी िवशेष गुण क कारण महाराज उसे
हर समय अपने साथ रखते ह। वह िकसी भी अनाव यक य को उनक पास प चने नह देता और ऐसा नह ह
िक वह उनको िनराश लौटाता ह। वह उनको संतु ही नह , स करक िवदा करता ह। परतु आज इसे या हो
गया? तभी उसे यान आया िक सुभाष को तो कछ नह आ, पर इस सुदामा को हो गया ह। यह परम असंतु
जीव टलने का नाम ही नह ले रहा था। टलने को राजी आ तो किपत होकर। आज तक उसक सामने एक भी
ऐसा हठी आगंतुक नह आया। इस थान पर आकर तो अ छ-अ छ अपनी हठ याग देते ह। बड़-से-बड़ा अिश
भी यहाँ िश ता और िवन ता क ितमूित बना होता ह। अपने साम य से अिधक ंगार करक आता ह। अपने
येक हाव-भाव से यही िस करता ह िक वह धनी और आिभजा य प रवार से ह।...और यह सुदामा...यिद यह
भगवा क उतना ही िनकट रहा ह िजतना यह कह रहा ह तो अब तक तो इसक गणना अित िति त जन म हो
चुक होती और यह गाजे-बाजे क साथ ारका आता—ऐसे समय म नह िक जब इसको ही संदेह क ि से
देखा जाता।
र ा- मुख का यान सुभाष क ओर गया। वह उसक इस दुःसाहस क कारण िककत यिवमूढ़ हो चुका था। वह
यही समझ नह पा रहा था िक सुभाष ने यह यथ का संकट य मोल ले िलया और अब वह महाराज को िकस
मुँह से उठाएगा?
उसने सोचा िक ती ा क समय को िचंता म न न करक मनोरजन म यतीत िकया जाए।
‘‘धमलाभ!’’ र ा- मुख ने पुकारा, ‘‘अपने सहयोगी र क को इधर लाओ।’’
सुदामा क आँख खुल गई। उ ह ने देखा िक दूसरा र क उनक ओर देखता आ र ा- मुख क ओर बढ़ रहा था।
‘‘ य र, महाराज क िम का अपमान करता ह!’’ र ा- मुख ने उसे डाँटा और अपने अधीन थ सहयोिगय से
बोला, ‘‘यह दु िजन उ ािधका रय क अधीन ह, उनको संदेश भेजो िक वे त काल यहाँ उप थत ह ।’’
‘‘परतु र ा- मुखजी यह महाराज का िम नह ह। यह हम सबको मूख बना रहा ह।’’ दूसरा र क बोला, ‘‘इस
कार तो चोर का साहस और बढ़ जाएगा। मने इसक साथ जो यवहार िकया, इसे चोर जानकर िकया।’’
‘‘और धमलाभ, तुमने सुदामाजी को या समझा?’’ र ा- मुख ने चुहल क ।
‘‘ भुजी, जब आप जैसे गुणीजन ही सुदामा क संबंध म िकसी ामािणक िन कष पर नह प च पाए तो यह सेवक
िकस कोिट म आता ह। मने यिद इनको समुिचत स मान नह िदया तो इनका अपमान भी नह िकया।’’ धमलाभ ने
िसर झुका कर कहा।
र ा- मुख उसका अंितम वा य सुनकर िठठक गया। एक साधारण र क यह कह रहा ह िक उसने ामािणक
िन कष क अभाव म सुदामा को यथोिचत स मान नह िदया तो उनका अपमान भी नह िकया और वह या कर
रहा ह? एक कार से सुदामा को अपमािनत करने क िलए यह वाँग रच रहा ह। उसे अपने क य पर ल ा आई।
उसक मन म आया िक वह उठ और सुदामा से अ ान म ई ुिट क िलए मा माँग ले। वह महाराज का िम ह
और ा ण ह। यिद वह सुदामा क चरण भी पकड़ लेगा तो कछ हािन तो होने से रही। वह उठने को आ ही था
िक उसक बु ने उसे िध ारते ए कहा, ‘तुझसे बु मान तो वह साधारण र क ही ह, िजसने िबना जाने न
उसे स मान िदया और न उसका अपमान ही िकया। और तू या करने जा रहा ह? िकसक चरण पकड़ने जा रहा
ह? तेर अधीन सह यो ा ह और तू इस असहाय क चरण म िगरकर अपनी सारी ित ा, पद, मान-मयादा,
आ मस मान को धूल म िमला लेना चाहता ह?’
‘धूल म तो एक िदन सबकछ िमलना ही ह, उससे पहले अपने िकए का ाय हो जाए तो सुंदर बात ह।’ र ा-
मुख क दय ने अपना प रखते ए कहा, ‘यह तो स य ह िक तुमने अपने मन म इस िनद ष ा ण को ब त
अपमािनत िकया ह। मन से क गई उस िहसा का ाय मा माँगकर कर लो। ा ण तुरत मादान भी दे देते
ह। आगे बढ़ो और अपनी आ मा पर चढ़ाए बोझ को उतार फको। िफर जाने अवसर िमले या न िमले।’
‘अवसर! य , ऐसा या होने जा रहा ह?’ र ा- मुख क बु िबदक और उसने उसक दय को एक दुल ी
मारी, ‘चल यहाँ से! इतने कमचा रय क म य पहले ही यह अिश ा ण र ा- मुख को नीचा िदखा चुका ह
और अब तू इस पद क शेष ित ा को धूल म िमलाने को त पर ह। तू चाहता ह िक महामिहम र ा- मुख इस
िवि क चरण छएँ और बाद म जब यह मािणत होगा िक यह एक मनोरोगी ह, न िक भगवा ीक ण का
िम , तब अपने अधीन थ कमचा रय क म य या आ मस मान रह जाएगा।’
र ा- मुख ने बु क बात मान ली। मानता भी य न। सौ म से िन यानब अवसर पर तो उसी का आ य
लेकर उसे चलना ह। दय का या ह? न उसक जाित, न पद, न ित ा और न अनुशासन।
धमलाभ क उ र क स मुख र ा- मुख को िसर झुकाए िचंतन करते देख वातावरण म एक त धता छा गई। जो
जहाँ था, वह िच व हो गया। पता नह उस क म ऐसा या आ घुसा था, िजसने सबको िनःश द कर िदया था।
र ा- मुख ने देखा क का ार खुला। ीक ण क साथ सदा गोपनीय प से रहनेवाले दो अंगर क कट ए।
ये वे दो र क थे, जो िकसी भी प र थित से िनबटने म वीण थे और ीक ण क साथ छाया क समान रहते थे।
इनको वहाँ क अ य यो ा भी कहा जाता ह। थितयाँ तिनक भी असामा य ई और ये न जाने कहाँ से कट हो
जाते ह। परतु ये यहाँ या करने आए ह? या सुभाष को असमय वहाँ देखकर इन यो ा ने उनको इस समय
महाराज क शयन-क म वेश क अनुमित नह दी और वयं इस िवषय क स यता का शोध करने चले आए ह?
तभी उनक पीछ से सुभाष िसर झुकाए और ऐसा िन तेज मुख िलये चला आ रहा था, जैसे महाराज ने उसे उसक
इस मूखता क िलए िध ारा हो और उसे मूख िशरोमिण कहकर स मािनत िकया हो।
‘‘पधार सुभाषजी! या बनी?’’ र ा- मुख क अंधी गुफा म बैठा अहकार का नाग उसक संयम को धता बताते
ए बाहर िनकल आया। सुभाष क यह दशा देखकर वह फ त हो अपना फन लहरा रहा था।
सुभाष सुदामा क ओर िसर झुकाए बढ़ा।
‘‘ या आ, सुभाष?’’ सुदामा चौक से उठ गए।
‘‘मने असमय भु को उठाया और आपक िवषय म बताया िक कोई िव सुदामा आए ह। वयं को आपका
सहपाठी बता रह ह और त काल िमलने का हठ पकड़ ह।’’ सुभाष का वर दुःखी था, ‘‘जानते ह, महाराज ने या
कहा?’’ उसने सभी क ओर देखा। वातावरण क त धता और भी घनीभूत हो गई थी। िफर वह िनराश वर म
बोला, ‘‘महाराज ने मुझे चिकत होकर देखा और उ वर म बोले, ‘कौन सुदामा?’ मने उनका ऐसा वर कभी
नह सुना।’’
‘‘म न कहता था िक यह चोर ह।’’ दूसरा र क उ साह म चीखा, ‘‘इस चोर को यहाँ तक लाने क िलए अब मुझे
पुर कत िकया जाना चािहए। इस चोर को मुझे स पा जाए। म इसे अपने अ क कठोर पैर म िगराकर अपने
अपमान का ितशोध लूँगा।’’
‘‘तुम अब या कहते हो, धमलाभ?’’ र ा- मुख क अहकार ने अपने पैने दाँत चमकाए और इठलाते ए कहा,
‘‘तुम इस मानिसक रोगी को भाव दे रह थे। तब स मान नह कर पाए, अब अपमान कर लेना। अ छा आ, मने
वयं को संयत रखा। मेरा पागल दय तो यह कह रहा था िक इस ा ण क चरण म लोट जा। पर वह तो भला
हो मेरी बु का, अ यथा म वयं अपनी ि म इस नट क कारण जीवन भर आ म लािन म भरा रहता। इस
ब िपए को इसक िकए का दंड तो िदया ही जाएगा। साथ-ही-साथ यह शोध भी िकया जाएगा िक यह िकसका
गु चर ह। इस समय भगवा क अनंत अ ात श ु उनका अिन करने क िलए सि य ह। लगता ह, यह उनम से
ही एक ह।’’ र ा- मुख ने धमलाभ क ओर देखा और कठोर और अपमानजनक वर म बोला, ‘‘धमलाभ, यिद
तु हार जैसे धमभी र क ारका म ह गे तो उसम सध लगने म देर नह लगनेवाली।’’
सुदामा ने अपने अंतस म झाँका। वयं को न पहचाने जाने क प रणाम- व प वे िजस आशंका और भय क
क पना कर रह थे, इस समय उनक िच म ऐसा कोई भाव ही नह था। उ ह ने अपने िच म और गहराई से गोता
लगाया। िकतु वहाँ तो कोई भाव था ही नह । वहाँ भयभीत होनेवाला कोई था ही नह । यह या हो गया ह उ ह?
ऐसी थित म तो उनको मन-ही-मन क ण को कोसना चािहए था; िकतु उनक मन म भाव क कोई तरग ही नह
थी। वे सोच रह थे िक ऐसा कसे हो सकता ह िक भाव ही ितरोिहत हो जाए? वे िकसी भी भाव क सू को पकड़
ही नह पा रह थे। उनको सुमित क श द सुनाई दे रह थे िक यिद भु क ार से वे ितर कत ए तो भी वह वयं
को सौभा यशाली समझेगी। वे मन-ही-मन बोले, ‘जैसी तेरी इ छा क ण! मेरा और मेर प रवार का यह जीवन तुझ
पर समिपत। तू जो कर।’
तभी ार पर सभी को छका देनेवाली खनखनाती हसी और नयन म छलने से उपल ध स ता क चमक िलये
ीक ण कट ए। उ ह ने पीतांबर लपेटा आ था। कध तक लंबे और काले कश िबखर ए थे।
‘‘सुदामा!’’ उ ह ने अपनी भुजाएँ फलाई और बाल-सुलभ वरा क साथ आगे बढ़कर सुदामा क घुटन तक झुक
और उ ह पकड़कर उठा िदया।
सुदामा को लगा िक वे अभी भी चौक पर बैठ व न देख रह ह। जाने उनको िकतनी देर यहाँ बैठ-बैठ िकतने
व न देखने ह गे। उ ह ने देखा िक दूसरा र क यह य देखकर चीख मारकर अचेत हो िगर गया ह और अ य
र क उसे उठाकर तुरत बाहर ले गए। र ा- मुख िनकट रखी अपनी पगड़ी िसर पर लगाने क यास म धड़ाम से
िगरा। सुदामा ने मन-ही-मन ाथना क िक ह क ण! यह व न न हो।
‘‘अर, बस भी कर िगरधारी! पहले ही तू मेर ाण ले चुका ह।’’ सुदामा िच ाए, ‘‘िनम ही! तूने तो मुझे मार ही
डाला था।’’
सुभाष और अ य उप थत यह देखकर िककत यिवमूढ़ थे िक आज तक िकसी ने भी ीक ण को इस कार क
श दावली से संबोिधत नह िकया, उनक परम आ मीय जन ने भी नह । वे भी उनक िलए अित स मानजनक श द
का योग करते ह। ऐसा नह ह िक सुदामा ने िकसी अपमानजनक श द का उपयोग िकया ह, परतु बात करने क
यह शैली तो ऐसी ह जैसे िक कोई दो िकशोर िम एक-दूसर को संबोिधत कर रह ह ।...और भगवा ! इनको या
हो गया? इ ह न सुदामा क मकण क दुगध आई, न उसका धूल-धूस रत शरीर िदखाई िदया और न उसक
अधन न व दीन-हीन देह ही िदखाई दी। उनको वह सब य नह िदखा, जो उनको िदखाई िदया? ारका-पथ क
याि य को िदखाई िदया और इन र क को िदखाई िदया। सुभाष वयं यह अनुभव कर रह थे िक चाह कोई
उनका िकतना भी घिन िम य न हो, वह यिद उनसे िमलने असमय और इस दुदशा म आए तो वे उसे यही
परामश दगे िक पहले वह ान इ यािद से िनवृ हो ले, उसक बाद वे उससे िमल लगे। सुभाष ने अपना माथा
ठोका और मन-ही-मन वयं से बोला िक सुभाष, िध ार ह तुझ पर भी, जो चौदह वष रहकर भी तू ीक ण क
थाह न ले पाया। कछ गहरा गोता तो मारा होता क ण-सागर म। यह या चौदह वष उथले जल म हाथ-पैर मारता
रहा। डबने से डरता था या? तेरी ि अभी भी देह देखती ह और देख अपने परमा मा क ओर—वे आ मा को
देखते ह—उसक आवरण को नह ।
‘‘तुम भयभीत होना कब छोड़ोगे, सुदामा?’’ ीक ण ने ऐसा ठहाका लगाया िक सारा प रवेश गूँज उठा, ‘‘पवनदेव
बह और पीपल क प े तािलयाँ बजाएँ तो तुम डर जाओ। कह सूय क िकरण क चुंबन से किलयाँ चटखकर
फल बन तो तुम डर जाओ। कोई कएँ म जल लेने क िलए पा िगराए तो उस विन को सुनकर तुम डर जाओ।
इससे अिधक कछ हो जाए तो तुम मर ही जाओ।...तु ह मरण ह न, एक बार जब मने तुमसे पूछा था िक तुम
िकस-िकससे डरते हो, तो तुमने यही बताया था न!’’ क ण ने सुदामा क पैर भूिम पर िटकाए। उनक कध पर
अपने दोन हाथ रखकर उसे िनहारते रह और िफर इससे पहले िक सुदामा कछ और समझते, उ ह अपने दय से
लगा िलया। सुदामा ने अनुभव िकया िक उनक भूख, यास, पीड़ा, दुःख और ांित सब ऐसे लु हो गए जैसे
सूय क िनकलने पर चं मा।
र ा- मुख का मन कर रहा था िक वह अपने पद- ाण को िनकालकर उससे अपना मुँह पीट ले। उससे तिनक भी
धैय न रखा गया और वह अपने अहकार क हाथ िववश हो महाराज क िम को मनोरोगी ही नह कह गया, अिपतु
जो य उनक िम का स मान कर रहा था, वह उसे उसका अपमान करने क िलए े रत कर रहा था। उसने
अपने भीतर झाँका। वह स न पु ष ह। िकतु वष से दिमत उसक अहकार ने िकस संवेदनशील अवसर पर घात
लगाकर आ मण िकया। उसका पिव दय बार-बार कह रहा था िक ा ण क चरण पकड़कर मा माँग ले।
परतु यह किटल बु कब चाहती ह िक मनु य माया का आवरण तोड़। वह उसक माग म कतक क ऐसे काँट
बोती ह िक दय क कोमल देह वहाँ चाहकर भी पग नह धरती। उसे लगा िक अब वह अवसर जा चुका ह, जब
सुदामा से मा माँगी जाती। अब तो जो मा होगी, वह हािदक मा नह अिपतु शासन क भय क ओढ़ी ई मा
मानी जाएगी। उसे लगा िक र ा- मुख तो धमलाभ को होना चािहए। उसम उससे अिधक संयम ह। उसक कान म
धमलाभ का कथन गूँज रहा था िक ‘मने यिद इनको समुिचत स मान नह िदया तो इनका अपमान भी नह िकया।’
िकतना सधा आ यवहार था उसका। और एक वह ह िक अपने अहकार क हाथ िववश हो बुर वभाव का न
होने क प ा भी बुरा यवहार कर गया। परमा मा ने उसे धमलाभ क िट पणी क ारा चेताया भी, परतु उसका
अहकार अपनी चाल चल गया और वह ठगा गया। उसने मन-ही-मन संक प िकया िक वह ातः होते ही अपना
यागप देकर चला जाएगा। अब वह अपने भगवा को अपना यह क प मुँह नह िदखाएगा। उसने अपने दय
क ओर देखा। उसका दय बोला, ‘देख अभागे! भगवा िबना िकसी संकोच क िकसी िशशु क समान अपने सखा
क साथ कसे खेल रह ह। तू अपनी ित ा को रो रहा था। अपने पद क अहकार म मरा जा रहा था। देख और
बता, तेरा पद भगवा ीक ण से बड़ा ह या? इनको देखकर कोई यह कह सकता ह िक यह यादव िशरोमिण
योगे र पु षो म भगवा ीक ण ह। नह , इनम से एक भी िवशेषण इस समय इनक साथ नह ह। ये तो वे ही
गोपाल हो गए ह, जो गौ को अपनी मधुर वंशी क धुन सुनाया करते थे और गोप क टोली क साथ ड़ा
िकया करते थे। तभी तो संसार इ ह भ -व सल कहता ह। यिद यह सुदामा तेरा िम होता तो तेर र क ने तो
इसको मरणास कर कारागार म डाल िदया होता और िन ा से जागने क अपराध म तू इसे यमपुरी प चा चुका
होता।’
‘बस करो!’ र ा- मुख मन-ही-मन चीखा, ‘बस करो, नह तो मेर ाण ही िनकल जाएँगे।’
सुदामा को िविच लग रहा था िक वह इस कार मिलन देह िलये और मकण क दुगध क रहते क ण क दय
से लगे ह। उ ह ने अपने को क ण क भुजा से ख चकर बाहर िकया।
‘‘इतने वष प ा अपने मयूरपंखी का मरण हो ही आया।’’ क ण ने सुदामा क गले म अपना दािहना हाथ
िकसी हार क समान झुला िदया और उसे अपने साथ ले जाने क िलए चल िदए।
‘‘तु ह आज भी वह मरण ह!’’ सुदामा क आँख आ य से भरी थ , ‘‘कोई इतनी छोटी बात कसे मरण रख
सकता ह। जब पहली बार तुम मेरी किटया म आए थे और मने तु हार आने को अपने एकांत का ह त ेप समझा
था। तब मने तु ह िचढ़ाने क िलए या य कहो, तु हारा अपमान करने क िलए ही तु हार िसर पर मोरपंख देखकर
तु ह ‘मयूरपंखी’ कहा था।’’
‘‘मुझे तो वह स मान पाकर इतना आनंद आ था िक जब कभी मुझे अ हास करना होता तो म तु ह कट करक
तुमसे मयूरपंखी कहलवा लेता था।’’ क ण ने ठहाका लगाया।
वे क क ार से बाहर िनकलकर गिलयार म वेश करने ही वाले थे िक सुदामा क। उ ह ने धमलाभ क ओर
देखा और बोले, ‘‘म तु हार सहयोग क ित आभारी , धमलाभ! भु तु हारा क याण कर।’’
‘‘िव सुदामा का कथन वा य ह, र क! तुम तो तर गए।’’ क ण ने मुसकराकर धमलाभ क ओर देखा और
आशीवाद क प म पलक झपकाकर अपना शीश िहला िदया।
धमलाभ को लगा जैसे उसे संसार क सबसे अनमोल िनिध िमल गई ह। वह चाह रहा था िक कोई उसका
सबकछ हर ले और उसे कवल क ण-नाम म डबने क िलए जभूिम म छोड़ दे। उसे लगा िक वह दूर से क ण-
दशन करने क िद य ि पा गया ह।
क ण सुदामा को लेकर गिलयार म बात करते और हसते जा रह थे।
र ा- मुख धमलाभ क िनकट आया। उसक आँख म अ ु थे।
धमलाभ ने उसक ओर देखा।
‘‘भाई धमलाभ, तुम र ा- मुख होने क यो य हो।’’ र ा- मुख का वर थका आ था।
‘‘जो महा पद आपक िलए मो का महा ार बन सकता था, उसे आपने अपने अहकार क कारण नरक का
ार बना िलया।’’ र ा- मुख से यह कहकर धमलाभ क से बाहर िनकल आया।
बाहर आकर उसने अनुभव िकया िक वह तो कछ बोल सकने क थित म ही नह था, िफर उसक िज ा से
यह कौन बोल गया?
q
पाँच
सुमित ने करवट ली। उसे लगा िक वह अब और नह सो सकगी, य िक उसक आँख म न द ही नह थी।
उसने उठकर देखा। चाँदनी उसक छ पर से वषा क बूँद क समान य -त टपक रही थी। उसक ि अपने
तीन ब पर गई। उनक चादर एक ओर िगरी पड़ी थी और वे एक-दूसर पर अपनी टाँग उलझाए पड़ थे। वह
उठी और उसने उनको चादर ओढ़ाई और सभी को ममतापूण होकर पुचकारा। वह किटया से बाहर आ गई। चाँद
िकसी झुक ई शाखा क अंितम िसर पर लगे फल क समान धरती पर पूरा झुका आ था।
उनक किटया गाँव क प मी भाग म गाँव से बाहर थी। यह भूिम का वह छोटा टकड़ा था, जो सुदामा क
पूवज को िकसी जम दार ने भूदान-य म िदया था। इस भूखंड क साथ ही उसे सुदामा क ारा सुनाई आ मकथा
मरण हो आई। वह घर से बीस हाथ क दूरी पर बनी सुदामा क ान-कटीर क बाहर िबछी एक ढीली खाट पर
लेट गई। उसे वह सं या मरण हो आई जब वह पहली बार गभवती ई थी और उसने सुदामा से कोई कहानी
सुनाने क िलए कहा था। तब यही लेट-लेट और तार को देखते ए सुदामा ने अपनी कहानी सुनाई थी। सुदामा क
िपता ायः गु संदीपिन क आ म म उनसे ान और आशीवाद ा करने जाया करते थे। सुदामा भी िपता क
साथ जाते थे। एक िदन उनक िपता ने संदीपिन को बताया िक उनका पु ब त ही संकोची वभाव का ह। घर म
भी यिद इसक माँ इसे कछ दे देगी तो खा लेगा, नह तो भूखा रहगा; परतु माँगेगा कछ नह । वे िचंितत थे िक यिद
उसका वभाव ऐसा ही रहा तो ऐसा वह जब संसार करगा तो उसका या होगा?
...तब संदीपिन ने सुदामा क िश ा-दी ा का दािय व अपने ऊपर लेकर उनको िचंता-मु कर िदया था। गु
संदीपिन ने सुदामा को आ म म वेदपाठी चा रय क समूह क साथ थान दे िदया था। कछ समय बाद जब
उसक िपता संदीपिन क चरण म णाम करने आए तो उनको यान आया िक उ ह ने उनक बालक का दािय व
िलया था। तब याकल होकर उ ह ने एक आचाय को बुलाकर उनक वतमान थित क जानकारी ली। उनको
बताया गया िक सुदामा इतना एकांति य ह िक राि को कटीर म न सोकर आ म म वृ क नीचे िकसी चबूतर पर
ही सो जाता ह। ातः उठकर िबना िकसी क आदेश क ती ा म गौ क सेवा करता ह और उनको वन म
चराने ले जाता ह। त प ा ान- यान कर अ ययन क िलए संबंिधत आचाय क क ा म चला जाता ह। उ ह
बताया गया िक उससे संवाद करने को कछ ह ही नह । उसक यो य जो काय िनयत िकया जाता ह, वह उसे बताया
जाता ह और उसक बाद वह अपने काय को तब तक िनयत समय पर ुिटरिहत संप करता रहता ह, जब तक
िक उसे अ य िनदश न िदया जाए।
सुदामा क िपता एक िदन क िलए घर ले जाने क िलए आए थे। संदीपिन ने कहा िक अब यह यहाँ रम गया ह,
इसिलए अ छा यही होगा िक वे उसक िवकास म बाधा न बन। तब उनक िपता ने कहा था िक सुदामा उनक
एकमा संतान ह। वे तो िकसी कार धैय भी धारण कर ल, पर वे उसक अित संवेदनशील माँ को िकस िविध
समझाएँ। उसने तो सुदामा क िवरह म रो-रोकर अपना शरीर ही सुखा िलया ह। यह सुनकर संदीपिन कछ देर
यान थ होने क बाद बोले थे िक उनको येक पूिणमा को अपने पु को ले जाने क अनुमित होगी और तीसर
िदन वे उसे यहाँ छोड़ जाएँग।े उ ह ने यह आदेश िदया था िक उनक इस िनयम म माद न हो। दो वष तक ऐसा
चला। िफर सुदामा क िपता का देहांत हो गया। उ ह िदन ितिम नामक रा स संदीपिन क एकमा पु का
अपहरण करक ले गया । तब उ ह ने अनुभव िकया था िक वा तव म संतान का िवयोग या होता ह। उनको
सुदामा क माता क दुःख से सहानुभूित हो रही थी। उ ह ने सुदामा को एक माह तक अपनी माँ क िनकट रहने का
िनदश िदया था। उ ह ने एक चारी क हाथ कछ अ तथा व िभजवा िदए थे और उसे यह िनदश था िक वह
सुदामा क गितिविधय और आव यकता क जानकारी उन तक प चाता रह। उ ह पता लगा िक सुदामा क घर
चू हा यदा-कदा ही जलता ह। सुदामा तो जैसे िपता क दुःख म अ ही याग चुका ह। उसको िकसी ने कभी रोते
नह देखा; परतु उनक दुःख क गहराई इतनी िदखाई देती थी िक िकसी म उसम गोता लगाकर उसक थाह लेने का
साहस न था। सुदामा क माँ िदन भर उनको कछ िखलाने क िलए उनक आगे बैठी रोती रहती, पर सुदामा क मौन
और उपवास का उन पर इतना ही भाव पड़ता िक वे अपनी हथेली पर थोड़ा सा नमक न सूखा भात रखकर
उसका एक-एक दाना आ मलीन अव था म अपने मुँह म घोलते रहते। वे बताते थे िक िपता क मृ यु से उनक मन
को गहरा आघात प चा था। उ ह अपने सरल और ानी िपता का साथ ब त ि य था। उनको यह तिनक भी नह
भाया था िक उनक िपता उनको अपने से दूर िकसी आ म म छोड़ रह ह। उनको तो अपने िपता का ान-कटीर ही
भाता था। वह उनक पास रखे ह तिलिखत ंथ का अ ययन करता रहता था और िपता क सहायक क प म
दौड़-दौड़कर उनका काय िकया करता था। उसक िपता वे ंथ िविभ आ म क आचाय से अ ययन हतु लाते
थे और उनम अनेक सू को वे सूखे प पर िलिपब कर िलये करते थे। अिधकांश ंथ तो उ ह ने अपने दय
म ही िलिपब कर िलए थे। वे िदन भर अ ययन म डबे रहते थे और सं या होते ही उसको लेकर नदी म ान
क िलए जाते थे। वहाँ सुदामा लहर को देखता-देखता उनम खो जाता था और वे तब हसकर उसे यही कहा करते
थे िक ये छोटी-छोटी लहर हम ह। जब एक िवरा लहर आती ह तो अनेक लहर को अपने म समा लेती ह। यिद
तू य ही बैठा रहा तो एक िदन परमा मा को वयं लहर बनकर आना पड़गा और तब तुझे कछ समझ नह आएगा
िक या आ। इसिलए एक-आध गोता लगा िलया कर, िजससे बड़ी लहर का कछ अनुभव तो होगा। तब उसक
िपता अपने साथ लाए पा म जल भर कर उसको ान कराया करते थे।
सुदामा को वही सुखद लगता था। नदी म उतरना उनको कपाता था। एक बार उनक िपता ने उनक इस भय को
मन से िनकालने का यास भी िकया । वे अक मा उनको उठाकर नदी म ले गए और उ ह तेज बहती जलधारा म
खड़ा कर िदया। तभी सुदामा क पैर म एक शैवाल िलपट गया। सुदामा को लगा िक िकसी जलचर ने उनका पैर
पकड़ िलया ह। वे चीखे और भय से काँपते ए अपने िपता से िचपट गए। किटया तक प चते-प चते वे काँपते ही
रह। किटया पर प चकर माँ ने देखा िक उनका शरीर र से तप रहा ह। वे स ाह भर तक भय से उ प उस
र से त रह। उसक प ा उनक िपता ने कभी उनक कित को प रवितत करने का यास नह िकया।
उ ह ने उ ह सहज रहने िदया। वे िनधन थे, इसिलए वे उसे सेवाभाव ारा िश य भाव क साथ गु क सा य म
िश ा ा करने क िलए गु कल भेजना चाहते थे। परतु गु कल जाने क बात सुनते ही वे अपने िपता से
िलपटकर रोते ए उनको गु कल न भेजने क िलए कहने लगे। िपता ने नाममा को उ ह समझाया और जब यह
जान िलया िक उनक िच उनसे दूर जाने क नह ह तो उ ह ने इस िवचार को ही याग िदया और िफर वयं ही
उसक िश ा-दी ा क िलए थम गु बन गए। जब सुदामा बारह वष क ए तो वे उनको अपने साथ िविभ
आ म और गु कल म ले जाने लगे। वे देखते थे िक उनक िपता उन आ म म जाकर ऋिषय क ंथ क
ितिलिपयाँ तैयार िकया करते थे। यह काय उनक िलए एक पंथ दो काज क समान था। एक तो इससे उनक ान-
िपपासा शांत हो रही थी और दूसर पेट क ुधा क िलए आ म और गु कल से कछ सीधा भी िमल जाया करता
था। सुदामा अपने िपता क िनकट बैठ उनको ितिलिपयाँ तैयार करते देखते थे। उनका लेखनी उठाना, उसे मिसपा
म डबोना, अनाव यक मिस को मिसपा से सटाकर उसम वापस जाने देना और िफर उनक सधी ई अँगुिलय म
लेखनी का मंथर गित से नृ य करते िकसी नतक क समान अित सुंदर अ र को कट करना। सुदामा को इस काय
म िच थी। िपता स ए िक उनका पु ान-माग क ओर बढ़ रहा ह। कछ ही िदन म वे अपने िपता क साथ
िमलकर सुंदर-सुंदर ितिलिपयाँ तैयार करने लगे। उनक काय-कशलता और मौन वभाव को देखकर आ म म
उनक िपता का गौरव और बढ़ने लगा था। वान थी आ मवासी सुदामा क शंसा करते ए, उनक िपता को
बधाइयाँ देते थे। उस समय उनक िपता को लगता था िक वे संसार क सबसे धनवा य ह। िफर एक िदन एक
आ मवासी ने बताया िक गु संदीपिन ने उनको िवशेष काय से बुलाया ह। संदीपिन गु कल उ क गु कल क
ंखला म िशखर पर था। वहाँ वेश पाना ही दु कर काय था। कवल उ कोिट क साधक और िस ही उस
गु कल म ान-िपपासु को िश ा देते थे। यह आ म ान-िव ान क एक मह वपूण क और योगशाला क
प म िव यात था। जब वे गु संदीपिन से भट करने गए तो उनक चौक पर उसक िपता क तैयार क ई
ितिलिप रखी थी। वे उनक िपता क सुलेख से ब त भािवत थे। जब उ ह ने उनक िपता से चचा क तो यही कहा
िक उ ह ने अपने को कवल िलिपकार ही नह रहने िदया, वर उन पु तक को दय थ भी िकया ह। उ ह ने उनक
िपता को ितिलिप तैयार करने का काय स पा। िपता िजस ंथ क ितिलिप तैयार करनी होती, उसे घर ले आते थे
और िनधा रत समय क प ा उसक ितिलिप क साथ उप थत होते थे। अपने ान-कटीर म काय करना उनक
िलए सुखद और सुिवधाजनक था। उनको काय क म य अनेक व तु क आव यकता होती रहती। एक कार से
एक सहयोगी क । वे यह नह चाहते थे, वे गु संदीपिन से एक सहायक क माँग कर अपने मह वपूण होने का
संदेश द जो िक उनका भाव नह था अिपतु िववशता थी। ... और सुदामा क माँ से अ छा उनका सहायक कौन
हो सकता था। इससे उनक माँ को भी संतोष था िक उनका प रवार उनक िनकट ह। पहली भट म गु संदीपिन ने
सुदामा से पूछा था िक वह िकस गु कल म िश ा पा रहा ह। सुदामा तो मौन रह, पर उनक िपता ने उनक थित
प कर दी। तब गु संदीपिन ने हसते ए पूछा था, ‘ या मेर िनकट रहकर िश ा पाएगा?’ तब सुदामा ने अपने
िपता क कान म अपनी वीकित दे दी। तब गु संदीपिन ने पूछा था िक या उसे इस आ म म डर नह लगेगा?
उसक उ र म सुदामा ने पुनः अपने िपता क कान म कछ कहा। उसक िपता ने बताया िक सुदामा कह रहा ह िक
वह आप म अपने बाबा को देख रहा ह, इसिलए वयं को सुरि त अनुभव कर रहा ह। एक ही वष म सुदामा क
िपता ने और सुदामा ने संदीपिन क दय म िवशेष थान पा िलया। एक िदन गु संदीपिन ने मेर िपता से मेर िवषय
म अ य जानकारी ा क । िपता ने उनको िव तार से मेर संकोची और आ मलीन वभाव क िवषय म बताया।
यह सुनकर वे कछ देर मौन रह और िफर सुदामा क दािय व को अपने ऊपर ले िलया। उनक िपता को लगा िक
जैसे उनक सेवा से स होकर माँ शारदा ने उनको वरदान दे िदया।
िपता क मृ यु क प ा उनक माँ का भी मन धरती पर नह लगा। सुदामा िनतांत एकाक हो गए। वे अपने
िपता क ान-कटीर म ही पड़ रहते थे। तब उनक सुध लेने अनेक आ मवािसय क साथ वयं गु संदीपिन आए।
आ मवािसय म से िकसी ने कभी सुदामा को न हसते देखा था, न मुसकराते और न ही रोते ए। वे तो िनिवकार
शू य म िदखते रहते थे। परतु आज पहली बार सभी ने सुदामा को गु संदीपिन से िलपटकर दन करते देखा था।
सभी ने यह भी देखा िक सदा लीन रहनेवाले गु संदीपिन क नयन भी सजल ह। उ ह ने अपना ेहािस
वरदह त सुदामा क िसर पर रखते ए यह वरदान िदया था िक तू अपने िपता को मुझम समाया जान।
आ मवासी यह भली-भाँित जानते थे िक यह ऐसे अवसर पर कहा जानेवाला औपचा रक वा य नह था। यह
गु संदीपिन क ीमुख से उ रत श द था। उनका येक श द - प होता ह और उन श द का जोड़ -
वा य। उ ह िदन गु संदीपिन क एकमा पु का अपहरण ितिम नाम क एक रा स ारा कर िलया गया था।
संदीपिन सुदामा को अपने साथ आ म ले गए और उनको एक अलग कटीर दे िदया। सुदामा अपने िपता को स ी
ांजिल देने क िलए ान क उपासना म लीन हो गए। वे येक पूिणमा क िदन अपने िपता क ान-कटीर
प चते और िदन भर वहाँ महीने भर से एकि त ई धूल-धँवास को साफ करते और िफर रात भर ान-कटीर क
भीतर बैठ आ मलीन हो जाते।
आ म म भी उनक एकांत म बाधा देने उनक किटया क पास कोई न आता था। आ मवासी उ ह स मान क
ि से देखते थे। एक िदन सुदामा ने देखा िक दो िकशोर अपने सामान क साथ उनक किटया म आ धमक ह।
एक यामवण था और दूसरा गौरवण । यामवण क िकशोर ने अपने िसर पर मोरपंख लगाया आ था और कधे
पर पीतांबर था। वह न मोटा था और न पतला। गौर वण का िकशोर कछ मोटा था, िकतु उसका शारी रक गठन यह
बता रहा था िक उसम अपार बल ह। सुदामा ने उसको वह संग संवाद सिहत सुनाया था।
‘‘ऐ मोरपंखी! तुम कौन हो?’’ सुदामा ने अपनी अ िच को दिशत करते ए कहा था।
सुदामा क बात सुनकर यामवण ब त हसा था।
‘‘तुम िवि हो या?’’ सुदामा को उसका हसना जैसे अपना अपमान लगा।
सुदामा क इस बात को सुनकर तो वह पेट पकड़कर हसने लगा।
‘‘अर ओ क ण! ओ याम!’’ क ण क बाद िफर सुदामा ने गौरवण िकशोर क ओर देखा, ‘‘और तुम जो हो अित
बलवा और -पु ! तुम दोन हो कौन? तुम तो इस कटीर म ऐसे वेश कर गए जैसे बैल क कोई जोड़ी मटर
क खेत म घुस गई हो।’’
अब क बार तो दोन ही पेट पकड़कर हसे।
‘‘दाऊ! म तो इस महा मा सुदामा क किटया से जानेवाला नह ।’’ क ण बोला।
‘‘तो यह नंदी बैल अब कहाँ िकसी दूसर खेत म चरने जानेवाला ह, क ण!’’ दाऊ भूिम पर लेटकर अपनी हसी को
थामने क िलए मु मारने लगे।
सुदामा ने अपने जीवन म ऐसे मनमौजी जीव कभी नह देखे थे। उसने अनुभव िकया िक इन दोन िकशोर क
यवहार म उ ंडता का भाव न होकर िकसी सरल और िनद ष िहरण का-सा भाव ह। िहरण जो अपनी स ता म
कलाँच भरता ह और उसक मौज को देखकर चिकत होनेवाले को िव मय से देखता ह।
‘‘म मा चाहता िक मने तु ह याम तथा क ण कहा।’’ सुदामा ने क ण से कहा और िफर दाऊ क ओर
देखकर कहा, ‘‘तुम भी मुझे मा करना दाऊ भैया! आपको अभी इसी नाम से तु हार इस भाई या िम ने पुकारा
था। आशा ह, यही तु हारा नाम होगा। मने तुम पर कटा करते ए तु ह ‘अित बलवा और -पु ’ कहा। मुझे
ऐसा नह कहना चािहए था। मुझे तु हारा वागत करने क बाद प रचय पूछना चािहए था।’’
‘‘िम सुदामा!’’ क ण तुरत सहज हो गए। उनका वर आ मीयता से भर उठा, ‘‘हम तु हारा यह औपचा रक प
ि य नह लगा। पहले तुमने िकतने अिधकार और पे्रम से हमसे बात क थी और अब तुम अप रिचत जैसा शु क
यवहार कर रह हो।’’
सुदामा का मुँह खुला-का-खुला रह गया—कसे जीव ह ये। म जब इनका अपमान कर रहा था तो उसे ये अपना
स मान मान रह थे। अब स मान कर रहा तो ये उसे अपना अपमान मान रह ह।
‘‘तुम या सोच रह हो िक जो तु हारा पहला यवहार था, वह हमारा अपमान था और जो तुम अब हमार साथ कर
रह हो, वह स मान ह!’’ क ण ने संकिचत सुदामा का हाथ अपने हाथ म लेकर तथा उसक आँख म आँख
डालकर कहा, ‘‘हम तो जो पे्रम म भरकर अिधकारपूवक डाँट, हम उसक और जो यासपीठ पर बैठ िकसी व ा
क समान हमार साथ औपचा रक हो उसे हमारी राम-राम!’’
‘‘ या तुम अंतयामी हो?’’ सुदामा क मुँह से अक मा िनकला।
‘‘नह तो।’’ क ण ने भौह ितरछी कर गरदन िहलाते ए कहा।
‘‘तो िफर तुमने वह सब कसे जाना, जो म अपने मन म सोच रहा था?’’
‘‘ या सोच रह थे तुम?’’ दाऊ ने सुदामा क कधे पर हाथ रख ऐसे पूछा जैसे वे उसे अभी धमकानेवाला हो।
‘‘वही मान-अपमानवाली बात।’’ सुदामा ने थूक सटका।
‘‘वह तो हमार पर पर संवाद से उपजी सहज िति या थी। वा तव म अंतयामी होने म तुम तो हमार गु हो।’’
क ण ने चिकत होने का अिभनय िकया।
‘‘म और अंतयामी! य मेर साथ प रहास कर रह हो’’ सुदामा सकचाए।
‘‘तुमने मुझे मोरपंखी कहा, क ण कहा, याम कहा। कहा या नह कहा, बोलो?’’ क ण ने अपनी ि सुदामा पर
िटका दी, ‘‘तो कहो, अंतयामी तुम ए या हम?’’
‘‘म िफर मा माँगता िक मने तुमको वह सब कहा। मुझसे जाने ऐसी भूल य हो गई। अब तु हार याम या
क ण होने म तु हारा या दोष। वैसे मुझे तु ह तु हार रग क संबोधन से पुकारकर तु हारा दय नह दुखाना चािहए
था। मुझसे भूल ई।’’ सुदामा का वर प ा ाप से भरा था।
‘‘सुदामा!’’ क ण का वर ेम से पूण था, ‘‘उ ह ने सुदामा क मायाचना म जुड़ हाथ को अपनी दोन हथेिलय
म समेट िलया और कहा, ‘‘इस ि से तो हम भी तुमसे मा माँगनी चािहए िक हमने तु ह ‘सुदामा’ कहा।’’
‘‘सुदामा तो मेरा नाम ह।’’
‘‘तो तुमने भी तो हमारा नाम ही िलया ह, िबना हम अब से पूव जाने।’’ दाऊ बोला।
‘‘तु हार िसर पर मोर पंख देखकर मने तु ह िचढ़ाने क िलए मोरपंखी कहा था और तु हार काले रग क कारण तु ह
याम या क ण कहा था।...वैसे तुम पर काले रग क झलक ह। तुम काले नह हो। तु हार यामल वण म गहराई
ह, सुंदरता ह।’’
‘‘और मुझे तुमने सीधे-सीधे मोटा कहकर तो नह िचढ़ाया, पर मुझे अित बलवा और -पु कहने क पीछ
तु हारा वही उ े य था। य ?’’ दाऊ ने मुसकराते ए आँख िदखाई।
‘‘ये मेर अ ज बलराम ह। इनको म दाऊ कहकर बुलाता । क ण और याम मेर वा तिवक नाम ह। वैसे मेर िम
और बंध-ु बांधव मुझे इतने अिधक नाम से पुकारते ह िक मुझे ही समझ नह आता िक म कौन? और अब तुमने
एक नाम और दे िदया—मयूरपंखी। अ छा लगा।’’ क ण ने अपनी आँख मटकाई।
‘‘ या तु ह स य ही मेरा इस कार का यवहार बुरा नह लगा अथवा तुम मेरा मन रखने क िलए यह सब कह रह
हो?’’ सुदामा ने िज ासा क ।
‘‘सुदामा! म कवल श द को नह पकड़ता। श द क आ मा को देखता । वे श द िकस भाव क ऊजा से
अनु ािणत होकर कट ए ह, म उस रस को चखता । तु हार श द चाह कसे भी रह ह , िकतु वे िजस क से
उठ थे, वहाँ सरलता और सहजता ही थी।’’ क ण ने अपनी हथेिलय म थामे सुदामा क मा-याचना म जुड़ हाथ
छोड़ते ए कहा, ‘‘गु संदीपिन क इ छा से ही हम तु हार कटीर पर अिधकार करने आए ह। अब यिद तुम अपने
पर अिधकार नह करने दोगे तो हम अपनी पराजय वीकार करक चले जाएँगे। गु देव ने बताया था िक सुदामा से
बचकर रहना। वह ानवीर यो ा ह।’’
‘‘मेरा अपना तो कछ भी नह ह, क ण। म तो वयं गु देव क कपा और ेह का पा । तुम इस किटया क
साथ-साथ मुझे भी वीकार कर लो। मने आज तक िकसी से कोई वा ालाप नह िकया। िकतु आज न जाने य
मेरा दय तु हारा होना चाह रहा ह।’’
‘‘तो ए तुम मेर। मने तु ह अपना कहा। तथा तु !’’ क ण ने रगमंच क िकसी पा क समान अपनी वाणी को
नाटक य प देते ए कहा और अपनी भुजाएँ सुदामा क ओर बढ़ा द । सुदामा आगे बढ़कर क ण क दय से
लग गए।
अपने माता-िपता और गु संदीपिन क अित र वे िकसी क दय से नह लगे थे। क ण क दय से वे अपने दय
म वािहत होती, उन तरग को अनुभव कर रह थे, जो उनक िलए अ ात थ । उ ह लग रहा था िक जैसे उनक
भीतर ब त जैसे कोई हल चला रहा ह और िफर बीज फक रहा ह।
‘‘वैसे कछ माह पूव गु देव ने तु हार नामधारी यो ा क चचा आ म म क थी।’’ सुदामा ने क ण क दय से
अलग होते ए िवषयांतर िकया।
‘‘कौन था वह यो ा?’’ क ण ने आ यचिकत होने का अिभनय िकया।
‘‘उसका नाम भी क ण था और उसने मथुरा क अ याचारी राजा कस का वध कर िदया। िकसी राजा क रगशाला
म जाकर उसको मारनेवाला यो ा िकतना अपूव साहसी होगा। म तो िकसी क ट को मारने क बात भी नह सोच
सकता। या वह क ण भी तु हारी तरह यामवण ह?’’ सुदामा मुसकराए, ‘‘या बल भैया क तरह गोरा ह?
अ छा, एक बात बताओ िक यिद तुम दोन भाई हो तो बल भैया गोर य ह और तुम काले य हो?’’
‘‘बताओ क ण, तुमसे सुदामा कछ पूछ रहा ह?’’ बलराम क आँख म चमक थी।
‘‘बात यह ह िक मुझे तो अपने िवषय म कछ ात नह था। बालक ही तो था। िकतु बड़ भैया होने क कारण दाऊ
भैया ने ज क सब गोप- वाल को यह बताया था िक माता यशोदा मुझे हाट से य करक लाई ह और इन दाऊ
महाराज को उ ह ने जना ह। परतु इसम सारा दोष दाऊ का भी ह। ऐसा तो हो नह सकता िक मैया हाट पर जाएँ
और दाऊ साथ न ह । तब इ ह ने िकसी ेत क ण को य करना था। दाऊ को दूसर को सताने म रस आता ह,
इसिलए इ ह ने ही मैया से कहा होगा िक वे िकसी क ण वण क बालक को य कर ल। इस सार ष यं म दाऊ
क मुख भूिमका ह। िफर इन बात को कह-कहकर इ ह ने मुझे ब त िखजाया ह।’’ क ण ने अपने वर को
उदास-सा बनाते ए कहा।
‘‘तुमने अभी या कहा िक तुम ज क हो? वह क ण भी ज का ही था।’’ सुदामा उछला, ‘‘मुझे उस क ण क
िवषय म और कछ बताओ न?’’
‘‘उसक िवषय म तो तुम िकसी से भी पूछ लो।’’ बलराम बोला।
‘‘िकससे?’’
‘‘िकसी भी आ मवासी से।’’
‘‘िकतु म या क , मेर कठ से वर ही नह फटता। म तो वयं पर चिकत िक म आज इतना वाचाल कसे हो
रहा ।’’
‘‘तुमने वाचाल जैसा तो कछ भी नह कहा ह।’’ बलराम बोले।
‘‘सदा मौन रहनेवाले का एक वा य भी वाचाल समान होता ह। िकतु तुमसे इतनी बात करक भी वयं को अबोला
ही पा रहा ।’’ सुदामा क ण क ओर मुड़, ‘‘अपने ाम क क ण क िवषय म कछ बताओ न!’’
‘‘यही ह वह क ण।’’ बलराम हसे।
‘‘नह । यह वह क ण हो ही नह सकता।’’ सुदामा िन या मक वर म बोला।
‘‘ य नह हो सकता?’’ बलराम क भ ह ितरछी ई।
‘‘यह बालक क समान ड़ा करनेवाला िवनोदी वभाव का क ण िकसी राजा का वध कसे कर सकता ह?
उसक िलए तो एक भयंकर मुखवाला र कम करने क कार भरनेवाला मनु य चािहए। यह तो हसमुख और
सुंदर कम करनेवाला गोप क ण ह।’’ सुदामा ने बात को समा करने क उ े य से कहा, ‘‘अ छा, जब मन हो
तब बता देना अभी तो मुझे ितिलिप तैयार करनी ह। तुम चाहो तो िव ाम करो अथवा आ म का मण कर
आओ।’’
‘‘ या तुम हम आ म नह िदखाओगे?’’ क ण क वर म सुदामा क िलए आ ह था।
‘‘नह , मुझे ितिलिप का काय पूरा करना ह। तुम िकसी अ य को इस काय क िलए खोज लो।’’ सुदामा ने
मिसपा म लेखनी डबो दी ।
‘‘आओ दाऊ, हम तो सुदामा क भरोसे थे।’’ क ण ने दाऊ का हाथ पकड़ा और कटीर से बाहर हो गए।
दोन क जाते ही सुदामा को ऐसे लगा जैसे उनक भीतर जो उ साह का दीपक जला था, वह किटया से बाहर हो
गया और उनक दय पटल पर पुनः अंधकार छा गया ह। वह अपनी सारी लेखन-साम ी को य -का- य छोड़कर
बाहर आ गए। उ ह न देखा बाहर वे दोन नह थे। वह चिकत था िक गए कहाँ?
‘‘क ण! क ण!! याम !!!’’ उ ह न और आगे बढ़कर देखा और याकलता व रोष क साथ पुकारा, ‘‘ओ
मयूरपंखी! इतनी शी ता से कहाँ चला गया र?’’
‘‘हो!’’ क ण किटया क पीछ से िनकले और सुदामा को उनक घुटन से पकड़कर आकाश म उठा िदया।
‘‘िपताजी!’’ सुदामा चीखा।
‘‘अर, उतार उसे नीचे!’’ दाऊ ने क ण को डाँटा, ‘‘तू अब बालक नह रहा।’’
‘‘ या आ, सुदामा?’’ क ण ने उ ह नीचे उतारा।
सुदामा भयभीत हो काँप रह थे। वह क ण से इस कार िचपट गए थे, जैसे वानर-िशशु अपनी माँ से। सुदामा को
चीखते देख आ मवािसय क भीड़ एक हो गई। सभी क ण क ओर संकत करक बात कर रह थे।
सुदामा भय से काँप रह थे।
‘‘सुनो क ण!’’ तभी चं ाचाय ने व तु थित को समझते ए िचंितत वर म कहा, ‘‘यह सुदामा छईमुई का पौधा ह
और तुमने तो इसे जड़ से ही उखाड़ िदया।’’
क ण ने मुसकराकर भय से काँपते ए सुदामा को देखा। सभी को उसक कप से यह प िदखाई दे रहा था िक
कछ ही पल म सुदामा अचेत होकर िगर जाएगा और िफर अनेक िदवस तक र त रहगा। गु संदीपिन का
आ मवािसय को यह िनदश था िक वे सुदामा क साथ कोमलता का यवहार रख।
‘‘क ण, तु ह आचाय ने यह पहले ही बता िदया था िक सुदामा अित संवेदनशील ह। िफर भी तुम अपनी बाल-
सुलभ ड़ा करने से नह माने।’’ चं ाचाय क वर म खेद था, ‘‘यह सुदामा ह और तु हार श शाली हाथ ने
कस को जो गित दी ह, उसे ये आ मवासी भी जानते ह।’’
‘‘िसंहनी अपने िजन श शाली नख और दाँत से हािथय क देह को त-िव त कर देती ह, उ ह नख और
दाँत से वह अपने शावक से भी खेलती ह। आप िन त रह, सुदामा को कछ नह होगा।’’ क ण ने काँपते सुदामा
क दय पर हाथ रखते ए कहा, ‘‘आप सभी ने सुदामा क कित क साथ सहयोग िकया तथा उसे और दुबल
बनाते गए।’’
सुदामा ने अनुभव िकया िक जैसे उनक मन म श का संचार हो रहा ह। उनका मन जैसे एक छलांग लगाकर
अपनी दुबल मनः थित से बाहर आ गया।
‘‘तुम ठीक तो हो, सुदामा?’’ चं ाचाय का वर िचंितत था।
‘‘म व थ आचाय! िकतु आप यह य पूछ रह ह?’’ सुदामा आ मवािसय भी भीड़ क ओर देखकर बोला,
‘‘यहाँ इतना समाज य आ जुटा ह?’’
‘‘क ण-बलराम को देखने क िलए।’’ चं ाचाय का मुँह खुला-का-खुला रह गया।
‘‘ये दोन भाई ह ही दशनीय।’’ सुदामा हसा, ‘‘परतु अभी बाल-बु ह।’’
चं ाचाय और आ मवासी चिकत थे िक यह सुदामा तो बोल भी रहा ह और हस भी रहा ह।
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क ण सुदामा को अपने साथ धकलते िलये जा रह थे। सुदामा क तो कवल पग उठ रह थे, ेग म भर ए क ण
उसे जैसे ख च रह थे। उ ह ने सुदामा क आने पर ऐसा कोलाहल मचाया िक सभी को लगा िक कछ िविच घटा
ह। क ण क ारा कछ भी लीलापूण करना सामा य बात थी; िकतु इधर ब त समय से उनक ारा कोई लीला
नह ई थी तो सभी ने यह मान िलया था िक बढ़ती ई राजनीितक गितिविधय क कारण अब क ण क भीतर बैठा
बालक ण उदासीन हो गया ह। कछ ही पल म सारा भवन कािशत हो गया। वहाँ उप थत प रवार क सभी सद य
समझ नह पा रह थे िक क ण से िमलने इतनी रात जो पधारा ह, वह कौन ह? उसक िवशेषता या ह? और क ण
इससे िमलकर इतने फ त य ह?
‘‘ णाम िपताजी!’’ एक सुदशन युवक अित मधुर वर क साथ नतम तक आ। उसक ि सुदामा पर गई।
उसने देखा िक उसक िपता एक दीन-हीन ा ण क साथ हस-हसकर बात कर रह ह।
‘‘सुदामा, यह ह मेरा सबसे बड़ा पु चा दे ण और चा दे ण, ये ह िव वर ानदेव मेर िकशोर सखा सुदामा।’’
क ण हसे, ‘‘मेरी बाल-सखा क सूची तो समा ही नह होती; िकतु िकशोर सखा क सूची म एकमा नाम
तु हारा ही ह।’’
‘‘ णाम!’’ चा दे ण ने सुदामा क स मुख हाथ जोड़ िदए, िकतु समझ कछ नह पाया।
‘‘जाओ और अपनी माँ से कहो िक सुदामाजी क पद- ालन क िलए एक कलश म उ ण जल लेकर आएँ।’’
चा दे ण को मुड़ते देख क ण बोले, ‘‘िविभ फल क मधुर रस क िलए भी कहना और हाँ, अपनी अ य माता
को भी संदेश प चाओ िक कल सुदामा क स मान म राि भोज नह होगा।’’
‘‘मेर आने पर सबको उपवास करवाओगे? कह तुम यह तो कहना नह चाह रह हो िक सुदामा क आने क शोक
म कल राि भोज नह होगा!’’ सुदामा ने हसने का यास िकया।
‘‘म जानता था िक तुम बोले िबना नह रहोगे, तभी मने यह कहा। पर मने यह तो नह कहा िक भोजन नह होगा।’’
‘‘अभी तुमने कहा िक कल राि भोज नह होगा।’’
‘‘हाँ, कहा। परतु तुमने वा य पूरा होने ही कहाँ िदया!’’
‘‘तुम अपनी बात को िवराम दे चुक थे, तब म बोला।’’
‘‘वह िवराम इसीिलए तो िदया था िक तुम बीच म बोलो।’’
‘‘अ छा, समझो, म बोला ही नह । अब पूरा करो वा य।’’ सुदामा ने जैसे बचने क चुनौती दी।
‘‘...सुदामा क स मान म राि भोज नह होगा अिपतु ीितभोज होगा।’’ क ण ताली बजाकर हस िदए, ‘‘तुम तो
िचंितत हो गए थे िक कल राि तु ह उपवास करना पड़गा।’’
‘‘तुम मुझे इतना सताते य हो?’’
‘‘यही तो मेरा खेल ह। मेर इतना सताने क बाद भी जो मेर ेमी ह, वे मुझसे न तो ेष रखते ह और न ई या। मेरा
यह सताना उनक धैय और ेम क परी ा क प म ही होता ह।’’ सहसा क ण िकसी अ य िशखर पर प च गए।
‘‘अनेक बार जैसा तुम आचरण करते हो, उससे तो यह लगता ह िक जैसे तुम ब त...’’
‘‘...िपताजी, मेर िलए कोई अ य आदेश ह तो कह।’’ चा दे ण ने अपनी उप थित से अवगत कराने क उ े य
से सुदामा क बात काटी।
‘‘अभी इतना ही।’’ क ण क ि ने यह भी कहा िक वह इस काय म िवलंब न कर।
‘‘हाथ-मुँह तो म धो लूँगा, परतु अभी कछ हण नह क गा।’’ सुदामा सकचाए। वह अनुभव कर रह थे िक
उ ह ने इस असमय उप व खड़ा करक यथ ही क ण क िलए, उसक प रवार क िलए और उसक अधीन थ
सेवक क िलए यवधान खड़ा कर िदया। यही क ण सुबह भी होते। वे सुभाष का परामश मानकर धैयपूवक
अितिथगृह म ठहरते, ान इ यािद करते और िफर ातः क ण से भट करते। य उ ह ने इतनी य ता िदखाई?
अब उनक कारण सभी को क उठाना पड़ रहा ह। कवल क ण को छोड़कर जो भी उनको देख रहा ह, उसका
सारा य व जैसे सुदामा से चीख-चीख कर कह रहा ह िक अर ओ अवांछनीय जीव! तुमने यहाँ पधारने से पहले
अपनी दशा दपण म तो देख ली होती और िफर भी यिद आए िबना रहा नह जा रहा था तो समय का तो िवचार
िकया होता।
‘‘ य ?’’ क ण क वर म न कम और आ ह अिधक था।
‘‘ ान करने से पहले म कछ नह खाता।’’ सुदामा ने अपना तक िदया।
‘‘मेर पास आ गए न! हो गया ान। अब ान क कमकांड को या ढोना?’’ क ण मुसकराए।
‘‘तु हार अनुसार या िनयिमत प से ान नह करना चािहए?’’ सुदामा को ान क ित क ण का ि कोण
उिचत नह लगा।
‘‘मेरा आशय ान क मिहमा को कम करना नह ह। आप धम म िनयम का पालन अिनवाय नह रह जाता।
वैसे एक लेखक क प म तु हारा बल श द क आ मा को पकड़ने म होना चािहए, वा य का मम जानने म होना
चािहए।’’ क ण ने अपने कधे से सुदामा क धीर से ट र लगाई, ‘‘कल ातः तो ान िकया ही होगा?’’
‘‘आज तीन िदन हो गए ान िकए। घर से ही करक चला था।’’
‘‘तो इसका अथ ह िक तीन िदन से तुमने भोजन भी नह िकया?’’
‘‘इ छा नह ई।’’ सुदामा ने देखा िक क ण ने िकस कार उसक उदर क वतमान थित को जान िलया।
‘‘िकसक इ छा नह ई—भोजन क अथवा ान क ?’’ क ण ने घेरा।
‘‘दोन क ही।’’ सुदामा ने धीर से कहा।
‘‘तु हार अनुसार तो िनयिमत ान होना चािहए, िफर...? जब सार रा ते िनयम भंग करते आए हो तो मेर पास
प चकर ही िनयम को य पाल रह हो?’’
सुदामा प देख रह थे िक यह वही-का-वही क ण ह। सबकछ बदल गया, पर उनक सामने अभी भी वही क ण
ह, जो उनक गु कल म आया था। वही क ण जो बात को इतना सरल बनाकर तुत करगा िक सामनेवाला िबना
सोचे-समझे उनक त काल उ र देता चलेगा। सुननेवाले को यह लगता ह िक क ण ने जो पूछा ह वह इतना सरल
ह िक उसक िवषय म म त क से या पूछना; िकतु उ र देने क बाद वह अनुभव करता ह िक वह क ण क पाश
म फस चुका ह। ठीक ही तो कह रहा ह क ण। या ा म उसक िनयम कहाँ गए थे? अब जब मार भूख क उसक
ाण िनकलने को ह, और अपनी प नी को िदए वचन क अनुसार वे कवल क ण क हाथ से ही भोजन हण कर
रह ह तो अब यह यथ का कमकांड य पाल रह ह?
‘‘हाँ, तुम उिचत कह रह हो।’’ सुदामा सकचाए।
‘‘यह ई न बात।’’ क ण ने सुदामा क पीठ पर एक धौल जमाते ए कहा, ‘‘पर एक बात बताओ सुदामा, िक
िनयमानुसार तो तु ह भूख लगी ही होगी; िफर शरीर को इतना य सताया? यह शरीर तु हारा ही तो ह। यिद दूसर
का भी हो तो भी शरीर को सताना िहसा ह। तु ह चािहए था िक तुम धैयपूवक या ा करते आते। थान- थान पर
कते। िविभ भोजनालय म वािद भोजन करते और िबना अपने शरीर को सताए या ा करते।’’
सुदामा क मन म आया िक वे क ण से कह िक या उनक दशा देखकर उ ह उनक आिथक थित का बोध नह
आ? या उ ह य को देखकर उसका आिथक मू यांकन करना नह आता? या वह कवल श द क आ मा
और वा य का मम ही जानते ह? मनु य क आ मा नह देख पाते? उ ह लगा िक क ण को वह लघुकथा सुना
देनी चािहए, िजसम सदा ऐ य म रहनेवाला एक राजकमार अकाल त े म जाकर ककालव मानव देह को
देखकर अपने मंि य से कहता ह िक इनक देह ऐसी य ह? तो मं ी कहता ह िक कमार इनको खाने को रोटी
नह िमलती। तो कमार कहता ह िक तो ये रोटी क आि त न रह। इनको दूध, दही, घी, मांस एवं िविभ कार क
श दायी आसव का सेवन करना चािहए।... सुदामा को लगा िक वे क ण क समान कछ भी कहने म समथ नह
ह। ान क पंिडत वे कह जाते ह, िकतु क ण तो जैसे उनका सारा ान एक ही वार म काट डालते ह। हो सकता ह
िक यह बात भी क ण उ ह सताने क िलए कहना चाहते ह ।
‘‘मन म भाव ही नह उठा िक या ा को सुखद बनाऊ। सोचा, इस या ा को तीथ-या ा ही होने दूँ। िफर मेरी प नी
ने यह आदेश देकर भेजा था िक कवल ीक ण से पहले कछ नह । अब प नी क बात तो माननी ही पड़ती ह।’’
सुदामा ने बला मुसकराकर अपने वर को सहज बनाने का असफल यास िकया।
‘‘तु हारा िववाह हो गया! बधाई हो िम ! तु हार संकोची वभाव को देखते ए तो मुझे लगता था िक तुम जीवन म
िववाह क क पना भी नह कर सकते।’’ क ण मुसकराए।
‘‘ऐसा तुमसे िकसने कहा?’’
‘‘तुमने ही। मरण करो, तुम कहा करते थे िक म तो आजीवन चारी र गा। मेरा िववाह तो िव ा से हो गया ह।
या मेरी भाभी का नाम िव ा ह?’’ क ण ने झूमते वर म पूछा।
‘‘म समझ गया िक इतने वष से तु ह सताने को कोई नह िमला। आज तुम इतने वष क ितपूित कर रह हो।
करो, जी भरकर करो।’’
‘‘अपने िववाह क कथा तो सुनाओ। सुदामा का िववाह जग क असाधारण घटना ह।’’ क ण क मुसकराहट थम
नह रही थी।
‘‘तुम इतना मुसकराते य हो?’’ सुदामा भी मुसकरा िदए।
‘‘मुसकराना मानिसक और शारी रक दोन वा य क िलए अ छा होता ह।’’ क ण हसे।
‘‘तु हार िववाह क संबंध म तो मने सुना था िक तु ह अपनी इ छत प नी को पाने क िलए भयंकर यु करना
पड़ा।’’
‘‘हाँ, मणी क संदभ म। अ य पटरािनय को ा करने क िलए मुझे यो ा का वेश धारण नह करना पड़ा।’’
क ण सहज होकर बोले।
‘‘तु हारी अनेक रािनयाँ ह?’’ सुदामा ने आ यचिकत होकर पूछा और िफर अपने वर को सहज करते तथा कछ
मरण करते आ बोले, ‘‘हाँ, अभी तुमने चा दे ण को कहा भी था िक अपनी अ य माता को भी सूचना देना।
चा दे ण मणी से ह?’’
‘‘ मणी से मेर दस पु और एक पु ी ह तथा शेष पटरािनय से...’’
‘‘...ठहरो, क ण! म तो िकसी भी े म तु हार समक नह हो सकता। म अव था म तुमसे बड़ा और मेरी
संतान अभी बालक क कोिट म ह। न कवल बालक ह वर ...’’ सुदामा क गए। वे कहने जा रह थे िक उनक
बालक तो ऐसे कशकाय ह िक यिद चा दे ण चाह तो उन तीन को अपनी हथेली पर बैठाकर इस महल क
प र मा कर आए। पर वे यह सोचकर क गए िक यह कहकर वे यह कहना चाहगे िक क ण क संतान े ह
और सुदामा क िनक ।
‘‘वर ’’
‘‘वर ...’’ सुदामा क और सोचने लगे िक यह क ण भी उस बात पर अव य कगा, जहाँ से य बचना
चाहगा, ‘‘अब वर क आगे जोड़ने क िलए कछ सूझ नह रहा।’’
‘‘अ छा, अपने िववाह का संग सुनाओ।’’ क ण ने बात का सू बदला।
‘‘तुमने अपने िववाह का सुना िदया या?’’ सुदामा ने टोका।
‘‘तुमने सुन तो िलया न! तु ह तो यह भी ात ह िक मुझे मणी को ा करने क िलए यु करना पड़ा और
इधर मुझे यह भी ात नह िक तु हारा िववाह हो गया।’’ सहसा क ण ने च ककर सुदामा को देखा, ‘‘तुम अभी
अपनी संतान क िवषय म बता रह थे। बताओ।’’
‘‘बड़ी पु ी ह और िफर जुड़वाँ पु -पु ी ह—तीन ब े ह।’’ सुदामा सोच रह थे िक क ण को जो जानना ह, वह
यह जानकर ही रहगा।
‘‘ ...’’ कछ सोचते ए क ण ने िसर िहलाया और बोले, ‘‘अब िववाह क कथा सुनाओ।’’
तभी मणी सेिवका तथा अ य पा रवा रक सद य क साथ कलश म जल लेकर आई।
‘‘आओ मणी!’’ क ण उ साह म भरकर उठ, ‘‘देखो, मुझसे पे्रम करनेवाले मुझे कभी भूलते नह । सुदामा का
ेम देखो। अनेक वष बाद भी यह मुझसे िमलने आया ह। इसक आने पर मुझे लग रहा ह िक जैसे म िफर से बीस
वष पूव का युवा क ण हो गया । ऐसा लग रहा ह जैसे हम गु संदीपिन क आ म म बैठ ह ।’’
‘‘ णाम!’’ मणी ने हाथ जोड़कर सुदामा का वागत िकया।
सुदामा को समझ नह आ रहा था िक वह या आशीवाद दे। तभी उसे यान आया िक वह तो अभी तक बैठा ही
आ ह, जबिक शेष लोग खड़ ह। सुदामा व रत गित से उठ खड़ ए।
‘‘हमारा सौभा य िक िजनक शुभागमन से हमार समािध थ वामी क चंचलता लौटी।’’ मणी क वाणी क
मधुरता अपूव थी।
‘‘ भु आपको सदा स रख।’’ आशीवाद क प म सुदामा का काँपता हाथ आधा ही उठा।
‘‘यह आपक िलए कहा जा रहा ह। आप सुन रह ह न, भु?’’ स यभामा ने क ण को सुनाया।
‘‘सुदामा, यह स यभामा ह। मेर सुर स ािज क पु ी।’’ क ण हसे।
‘‘यह प रचय देने क कौन सी शैली ह िक मेर सुर क पु ी!’’ स यभामा क भ ह ितरछी हो गई।
‘‘शैली को छोड़ो, यह बताओ िक इसम अस य या ह?’’ क ण ने जैसे स यभामा को िचढ़ाया।
‘‘आपक इस ड़ा म जल शीतल हो जाएगा।’’ मणी बोली, ‘‘अब शेष चचा सुदामाजी क चरण पखारने क
प ा ।’’
मणी का संकत पाते ही प रचा रकाएँ एक िवशाल परात और कलश लेकर सुदामा क ओर बढ़ । सुदामा अित
संकिचत भाव से एक पग पीछ हट गए। वे सोच रह थे िक यहाँ आकर वे भी िकस संकट म फस गए। वे तो इस
राज समाज क ार पर भी बैठने यो य नह ह और सुदामा न कवल उनक म य बैठा ह, वर स मािनत भी हो
रहा ह। क ण क सेवक और सेिवकाएँ भी उसक यहाँ क धिनय क य से अिधक सुंदर और वैभवशािलनी ह।
सुदामा तो इनक शोभा को धूिमल करने आ गए ह।
‘‘भाभी, आप पा यह रखवा दीिजए। म वयं धो लूँगा।’’ सुदामा क माथे पर पसीने आ गए।
‘‘यहाँ बैठो।’’ क ण ने सुदामा को आगे बढ़कर जैसे उठा ही िलया और उस बैठक म एक अलग तथा ऊचे थान
पर बैठा िदया। वह िसंहासन संभवतः क ण क बैठने क िलए ही रहा होगा।
संकत पाते ही आसन क नीचे पैर रखने क चौक पर प रचा रका ने परात रख दी। क ण, सुदामा क पैर क पास
भूिम पर बैठ गए। उ ह ने उनक पैर थाम िलये।
‘‘क ण! यह या कर रह हो? यह तु ह शोभा नह देता।’’ सुदामा को पलक झपकते ही सब समझ आ गया।
उ ह ने रामदास से सुना था िक युिधि र क राजसूय -य म क ण ने आगंतुक ऋिष-मुिनय और ा ण क चरण
पखार थे। परतु वे तो उस कोिट क नह ह। उ ह ने अपने पैर ख चने चाह, पर वे तो जैसे क ण क गु वाकषण म
िखंच चुक थे।
‘‘मुझे यही शोभा देता ह।’’ क ण ने असीम पे्रम म भरकर सुदामा क ओर देखा और िफर अपने हाथ क पश से
सुदामा क पैर सहलाने लगे। सुदामा क पैर म िबवाई पड़ गई थ , अनेक थान से र बहकर काला पड़ चुका
था, थान- थान पर छाले पड़ थे। क ण ने अनुभव िकया िक कोई उनक िनकट आया ह। क ण ने ि उठाकर
देखा। प रचा रका जल डालने क िलए कलश को ऊपर उठा रही थी। क ण ने संकत से उसे मना िकया और
उनक ि मणी पर जा िटक । मणी ने आगे बढ़कर प रचा रका से कलश थाम िलया। वह कलश से
सुदामा क चरण पखारने ही वाली थ िक उनक ि सुदामा क पैर पर िगरी जलधारा पर जा िटक । वे िव मय
से भर गई िक अभी उ ह ने जल तो छोड़ा ही नह , िफर यह जल कहाँ से आया? वे यह सोच ही रही थ िक जल
क अनेक बूँद सुदामा क चरण पर उनक सामने टपक । उनक हाथ जैसे जड़ हो गए। वे अंतरतम तक काँप उठ ।
जल िबंदु सुदामा क पैर पर िगरते जा रह थे। क ण क हथेिलय म सुदामा क पैर थे और उनका िसर उन पर एक
कार से झुका आ था।
‘‘ भु!’’ मणी क आ मा जैसे िवरिहणी नाियका क समान दिमत वर म ची कार उठी।
मणी क पुकार सुनकर क ण ने धीर से अपना मुख उसक ओर िकया। मणी ने अपने अधर को अपने
दाँत क नीचे कसकर भ च िलया। उसे लगा िक यिद उसने एक ण का भी िवलंब िकया तो कह उसक चीख ही
न िनकल जाए। क ण क आँख ण भर म ही इतनी लाल हो गई, मानो वे सारी रात से रो ही रह ह । उनक आँख
से झर-झर अ ु बह रह थे। उसने कभी क ण को कण मा भी दुःखी नह देखा था। दुःख क छाया भी क ण से
सह कोस दूर चलती थी—क ण क नयन म अ ु क तो क पना ही नह क जा सकती। उसने क ण का अपूव
साहस देखा था। उसका भाई मी, िजसक कोप से देवता भी काँपते थे, वह जब क ण क वध क ित ा करक
चला था तो क ण ने कसी अ ुत वीरता से अनेक घाव को सहकर न कवल उसका सामना िकया अिपतु उसे
मरणास कर िदया। यिद उस समय बीच म आकर मणी ने उसक ाण क िलए याचना न क होती तो क ण
ने उसका वध ही कर िदया होता। ऐसे महावीर क ण क आँख म अ ु भर ह! िजसे मृ यु का भी भय नह ह-ऐसे
क ण क आँख म अ ु भर ह! िजसे िकसी से मोह नह ह, ऐसे क ण क नयन अ ुपू रत ह। क ण का मुख पुनः
सुदामा क पैर पर झुक गया और वे अ ु से सुदामा क चरण पखारते रह। मणी अपने व न से बाहर आई।
उसक िवलंब क कारण ही भु का अ ुपात हो रहा ह। यिद वह जल िगराए तो भु का यान बँट। मणी ने जल
क धार छोड़ दी। क ण सुदामा क चरण पखारने म आ मलीन हो गए।... जल क धार थम गई। स यभामा ने आगे
बढ़ पैर प छने क िलए व बढ़ाया। क ण स यभामा को देखकर मुसकराए और अपने पीतांबर से सुदामा क पैर
प छने लगे। सुदामा ने फल क रस से भर पा क ओर देखा और िफर मणी क ओर। उप थत सभी
पा रवा रक सद य और अ य सेवक-सेिवका ने देखा िक भगवा क ने सजल ह और वे भावपूण होने क
कारण बोल नह पा रह ह। प रवेश म महामौन छा गया। ऐसा कोई नह था, िजसक आँख म आँसू न ह ।
q
पि य का कलरव सुन सुमित क न द भंग ई। उसने देखा िक उसक आँख भीगी ई थ । कपोल भीगे ए थे।
उसने आस-पास देखा। वह सुदामा क ान-कटीर क बाहर उनक ढीली खाट पर पड़ी थी और कछ कौए उस
कटीर पर अपना राग अलाप रह थे।
‘‘ओह!’’ प फटते य को नम कार कर वह बोली, ‘‘िन त ही यह व न था। पर कसा व न! जो यथाथ से
भी अिधक सजीव था, ाणवा था। उसने जीवन भर व न देखने क अित र और िकया ही या ह। व न से
वा तिवकता म आने पर ही उसे यह पता चलता था िक अब से पहले देखा या अनुभव िकया गया य व न ही
था। पर अब उसे लग रहा था िक उसका सो जाना तो व न था, परतु उसने जो देखा उसे उसक आ मा व न
वीकार नह करना चाह रही थी। कसे करती? ऐसा व न भी यिद आए तो मनु य उसे व न भी माने तो िकस मुँह
से? या सचमुच भगवा ने सुदामा क पग अपने नैन क जल से धोए? या भगवा ने उनको आगे बढ़ अपनी
भुजाएँ फलाकर दय से लगा िलया? या भगवा ने मुझ अपा क भी लाज रखी? ह आिददेव सूय! यह स य हो
भु! यह स य हो! आपक ित ेमपूण होकर गए मेर वामी आपक ारा ितर कार को ा न ह । यिद ऐसा
आ भु, तो पे्रम का सू ही टट जाएगा।’’ सुमित क आँख भगवा उिदत नारायण को अ य अिपत करने क
िलए बह उठ ।
q
छह
मणी ने िविभ फल क रस से पू रत पा को सुदामा क स मुख तुत िकया। सुदामा ने देखा िक िविभ
रग का रस पा म था।
‘‘यह सब तु हार िलए ह सुदामा!’’ क ण ने उठते ए कहा। सेवक तुरत उनक िनकट एक चौक ले आए। क ण
उस पर िवराजे और उ ह ने मणी क ारा पकड़ थाल म से एक पा उठाया और उसे सुदामा क मुख क पास
ले जाकर बोले, ‘‘अपने हाथ से िपलाऊ या वयं ही पी लोगे?’’
सुदामा क ण क पे्रम क सागर म डब चुक थे। उनक वाणी उनका साथ नह दे रही थी। बु को तो जैसे काठ
मार गया था। उ ह ने अपनी डबडबाई आँख से अ प िदखते उस पा को थाम िलया और उसे पी गए।
‘‘यह बात ई न! अब यह दूसर गे ए रगवाला।’’
सुदामा मना करते रह, िकतु क ण कहाँ माननेवाले थे।
वे फल क रस को अपने शरीर म उतरता अनुभव कर रह थे। वह िकस-िकस माग से उनक उदर तक क या ा
कर रहा ह और उनका उदर तुरत उसको ऊजा म प रवितत कर िव ु क समान उनक अंग को पोिषत कर रहा
ह।
‘‘सुदामाजी का सामान कहाँ रखवाना ह?’’ स यभामा ने पूछा।
‘‘यह भी कोई पूछने क बात ह?’’ क ण बोले, ‘‘मेर क म।’’
‘‘क ण, म अितिथ-गृह म ठहर जाऊगा।’’ सुदामा का वर हड़बड़ाया आ था।
‘‘तो माग म िकसी अितिथ-गृह का आ य न लेकर अिवराम चलते य आए? तुम मेर साथ मेर क म ठहरोगे।
मेर क म तु ह कछ असुिवधा ह या?’’ क ण क वर म सोया बाल-क ण पूरी तरह उठ चुका था।
‘‘यहाँ?’’ सुदामा को कछ उ र सूझ नह रहा था।
‘‘हाँ, यहाँ।’’
‘‘मुझे लगता ह िक म यहाँ संकोच म तुमसे उ मु होकर वा ालाप नह कर पाऊगा। म यह अनुभव कर रहा
िक मने असमय आकर सबक िव ाम को बािधत िकया। तु हारा इतना िवशाल प रवार ह, उसक दािय व ह। म
अितिथ-गृह म र गा तो तुम अपने राजकाज क समय म से कछ समय िनकालकर मुझसे चचा करने आ जाना।’’
‘‘ओह, अब समझा तु हारा संकोच। तो चलो, सबसे पहले तु हारा संकोच िमटाया जाए।’’ क ण ने एक सेवक क
ओर देखा। वह आ ा पाने क उ े य से क ण क िनकट आया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। क ण बोले,
‘‘सुनो, सुभाष से कह दो िक म अिन त काल क िलए सुदामा क साथ । एक कार से म अवकाश पर ,
पूण अवकाश।’’ क ण सुदामा क ओर मुड़, ‘‘म कब से िव ाम म जाने क सोच रहा था, परतु कोई कारण हो तो
जाऊ। ये सब मुझे घेर रहते ह। जो भी काम हो, मुझसे परामश लगे। यह नह िक िनणय लेने म आ मिनभर ह ।
अब तु हार आने से मेर पास एक महा अवसर ह—इन सभी को आ मिनभर होने का िश ण देने का और वयं
भी िव ाम करने का।’’
‘‘म तीसर िदन िवदा हो जाऊगा। तुम मेर कारण अपने काय य रोकते हो?’’ सुदामा को लगा िक वे क ण क
िलए िकतनी बड़ी बाधा क प म उप थत हो गए ह। उनको सुभाष ने बताया था िक क ण िकतना य त ह।
उसने यह भी बताया था िक वह िकसी अ ात अिनवाय काय क कारण पूव िनधा रत काय म को छोड़कर लंबी
या ा करक ारका आए ह।
‘‘अथा तुम वयं को मेर ारा सताए जाने क सभी बात का ितशोध ज दी लौटकर लोगे। तुम नह चाहते िक
राजकाज क मारा-मारी म फसा तु हारा िम कछ अिधक िदन िव ाम पा ले। जहाँ तक बात रही काय क तो
काय कभी का नह करते। मने कमवीर क सेना तैयार क ह। यिद एक कमवीर िकसी कारण से िव ाम म चला
जाता ह तो दूसर पु षाथ क पास वह काय वतः ह तांत रत हो जाता ह।’’ क ण ने सेवक को िवदा िकया।
सुदामा क ण क िन छल मुख को िनहारते रह। कसे सरल प से वह उनको छल रहा ह। सुदामा को यह अपराध-
बोध न हो िक उ ह ने असमय आकर अित य त क ण का समय न िकया ह, इसक िलए बात को इतने सुंदर प
से कह रह ह िक सुदामा को लगे िक जैसे उ ह ने ारका आकर क ण पर उपकार िकया हो।
‘‘मने पता करवा िलया ह, सुदामाजी मु ह त आए ह।’’ स यभामा ने क ण क िनकट आकर कहा।
‘‘एक बात बताओ, सुदामा! तुम इतने वष बाद आए, िम क िलए कछ लेकर तो आते। गु कल म तो जब भी
तुम वन म जाते थे, तब मेर िलए कछ-न-कछ वन से लेकर आते थे। कभी बेर, कभी कद-मूल, कभी रसभरी,
कभी अमरक, कभी आँवला, कभी आम, कभी कला—और आज आए हो हाथ िहलाते। कछ तो...’’ क ण िकसी
शोधकता क समान सुदामा क कधे पर लटक पोटली क ओर देखने लगे, ‘‘यह या ह?’’
सुदामा का यान अपनी पोटली पर गया। वे पछताने लगे। टकड़-टकड़ यह मोटा क ा चावल— या वे इसे बाहर
ही फककर नह आ सकते थे? उस क हार को ही सारा दे डालते या माग म पि य को चुगा आते। अब क ण
उसे देखे िबना नह रहगा। सबक सामने जब यह इस पोटली को खोलेगा तो पोटली क साथ उसक द र ता क
गाँठ भी खुल जाएगी। इससे पहले िक वे कछ कहते, क ण ने उनक कधे से पोटली िनकालकर खोल दी। सबसे
िन न ेणी का चावल सबक सामने था।
‘‘एक युग हो गया ऐसा चावल खाए।’’ क ण ने एक मु ी चावल उठाया, उसे सूँघा । उनक मुख का भाव बता
रहा था िक जैसे उ ह ने िकसी सुग धत पु प को सूँघा हो। उ ह ने उस मु ी का मुख खोला और थोड़ा-सा चावल
अपनी बाई हथेली पर डाला और उसे अपने मुख क सुपुद कर िदया। उस चावल को चबाते ए बोले, ‘‘कठोर
साधना करनेवाले प र ाजक इस कार का दैवी अ खाते ह।’’
‘‘ या आप जेठजी का और हमारा भाग भी वयं खा जाएँग?े ’’ मणी बोली।
‘‘ओह!’’ क ण ने अपनी मु ी पोटली पर खोल दी और बोले, ‘‘दाऊ को ात आ िक मने अकले ही सब
चटकर डाला ह तो वे तो उ पात मचा दगे। एक काम करो, अ कट तैयार करो। उसम ये चावल िमला देना। पूरा
प रवार इस साद को पाए। अब हम िम को एकांत म छोड़ दो। हम िनयत समय पर अ े म िमलगे।’’
यह क ण भी कछ सोचता ही नह िक कोई उसक िवषय म या सोचता होगा या सोचेगा। उसक उस िनक कोिट
क चावल को खाने क या आव यकता थी? िकतना सहज होता िक यिद वह उन चावल को देखकर कहता िक
इनको पि य क िलए डाल दो। अब सुदामा क इन चावल का उसक महल म कोई उपयोग नह । परतु यह तो
उससे भी सौ हाथ आगे बढ़कर अपने प रवार क सभी सद य को इन चावल का ‘रसपान’ कराएगा। सुदामा देख
रह थे िक क ण येक प र थित म िकतना सहज रह लेता ह। प र थितयाँ उससे उसका व प नह छीन पात ।
वह जैसे काल क ऊपर शासन करता ह। क ण ने सेवक को कछ कहा और वह भी िसर झुकाकर आ ा-पालन हतु
चला गया।
‘‘आओ सुदामा!’’ क ण ने सुदामा को बाँह पकड़कर उठाया और अपने साथ लेकर गिलयार म बढ़ गए, ‘‘एक
िदन हम तु हारी किटया म घुस आए थे, आज तुम हमारी किटया म आए हो। तुमने मुझे उऋण होने का अवसर दे
िदया।’’
‘‘वह किटया मेरी नह थी। वह आ म क संपि थी।’’ सुदामा ने प िकया।
‘‘और तु हारा वह ेम? वह भी आ म क संपि था या?’’ क ण ने ककर सुदामा क ओर देखा, ‘‘तुम तो
िकसी से बात ही न करते थे। हमारा सौभा य िक तुमने हम अपनी मै ी क यो य समझा।’’
‘‘हम कोई और बात कर।’’ सुदामा मुसकराए।
‘‘पहले किटया म तो चरण धरो, िव देव!’’ क ण ने सुदामा को एक क म धिकयाते ए कहा।
उस िवशाल क को देखकर सुदामा क आँख िव मय से फटी-क -फटी रह गई। जैसे पु तक म विणत इ का
सारा ऐ य वहाँ पुंजीभूत हो गया हो। क म िवशाल पलंग था और अनेक सुंदर आसन। िविभ कला मक
व तुएँ। वहाँ जो भी था, भ य था और सव क था। संपूण क म एक अपूव सुगंध थी। पचास हाथ ऊची सुंदर
और गोल कला मक छत देखकर तो सुदामा का िसर ही चकराने लगा।
‘‘तुम ान इ यािद से िनवृ होकर िव ाम करो, तब तक म दाऊ से िमल आऊ। सेवक आता ही होगा। वह जो
कह, उसे वीकार कर मुझे अनुगृहीत करना।’’ क ण बोले।
‘‘म भी चलता तु हार साथ।’’ सुदामा जैसे इस वैभव से बचने का अवसर पा गए थे।
‘‘सुदामा, तुम दाऊ को जानते तो हो। वे मुझ पर किपत हो जाएँगे िक मने न सुदामा का सेवा-स कार िकया और न
ही उनको िव ाम करने िदया और आते ही दौड़ाना आरभ कर िदया। िफर वे साद पाने अ े म आएँगे ही।
वहाँ म तु हारा प रचय प रवार क सभी सद य से भी कराऊगा। अभी तुम कछ देर िव ाम कर लो।’’ क ण का
वर कह रहा था िक सुदामा कछ तो समझो।
सुदामा क िववेक ने कहा िक कछ तो समझाकर सुदामा। हो सकता ह, क ण को कछ गोपनीय राजनीितक चचा
करनी हो। अपनी अनुप थित म दाऊ को काम समझाना हो या िफर वह बात, जो क ण य प से नह कहना
चाह रहा, उसे समझो। नहा-धोकर ितलक इ यािद लगाकर, ग रमामयी प धारण करो। इस समय तुम ारकाधीश
ीक ण क अितिथ हो। सुंदर यही होगा िक तुम इस समय क ण क इ छानुसार चलो। अपने हठ को यहाँ से िवदा
करो।
‘‘जैसा तुम उिचत समझो।’’ सुदामा क वर म जैसे अपनी भूल का ाय था।
क ण चले गए।
सुदामा अभी क क अवलोकन म ही खोए ए थे। सेवक ने आकर सुदामा को णाम िकया और उनको क क
साथ से जाते गिलयार से एक अ य थान पर ले गया। वहाँ क सुंदर गवा से सूय क लािलमा क दशन हो रह
थे। ारका म मंिदर म बजते घंट-घि़डयाल और शंख क मंगल विन यह घोषणा कर रही थी िक ा मु त
बीत चुका ह और िदवस क या ा आरभ हो गई ह।
‘‘ ा ण देव! यह ानागार ह। आप ान इ यािद से िनवृ होकर इन व को धारण कर पधार। म यह आपक
वागत क ती ा म । अपने व आप वह छोड़ दीिजएगा। वे धो िदए जाएँग।े ’’ उसने एक िवशाल थाल चौक
पर रख िदया।
उसम अनेक सुंदर धोितय , उ रीय और अँगरख क भरमार थी।
‘‘म ये सब धारण कसे क गा?’’ सुदामा ने हसने का य न िकया।
‘‘जो व आपको िचकर हो, आप वही धारण कर।’’ सेवक सुदामा क हसी से अनछआ रहा और आदरपूवक
िसर झुकाकर बोला, ‘‘म बाहर आपक ती ा म ।’’
सुदामा यह समझ नह पा रह थे िक उनक कौन से पु य का उदय आ, जो उनको सदेह वग क ा हो
गई। उनको तो कोई व न म भी ऐसे वैभव-संप थान म वेश न करने दे। यह क ण का अप रिमत पे्रम ही ह,
अ यथा इस वाथ भर संसार म सब उसका ही स कार कर रह ह, िजससे उनको कछ लाभ होने क संभावना होती
ह। संसा रय क आपसी मेल-िमलाप का आधार लोभ, भय अथवा सामािजक औपचा रकता ही अिधक ह। स य
कहता ह क ण, सांसा रक जन अिधकतर संबंध िववश होकर िनभाते ह, इसिलए उनक संबंध उनक िलए बंधन हो
जाते ह। पे्रम म जो िनभे, वह ह संबंध। शेष तो बंधन ह।
सुदामा जब ान इ यािद क उपरांत नूतन व धारण कर जब मानवाकार दपण क सम खड़ ए तो वे दपण
म थत य को देखकर ऐसे डर जैसे वह उनका मायावी पे्रत हो। वे एक ओज वी मठाधीश या िकसी
िति त गु कल क कलपित लग रह थे। आज उनको पहली बार लगा िक आिथक प से आ मिनभर होना
िकतना सुखद ह। यह क ण परम ऐ य म रहता ह, िकतु इसे वह ऐ य छ य नह पाता?
वे क म आ गए। सेवक ने चौक पर ढक रखी थाली उघाड़ी। उसम िविभ कार क िमठाइयाँ और जलपान
क सुंदर सामि याँ थ ।
‘‘यह सब...’’ सुदामा ने सेवक क ओर देखा।
‘‘महाराज क इ छा ह िक आप अ पाहार लेकर उनक आने तक िव ाम कर ल। उसक बाद वे आपको लेकर
कह जाएँग।े यिद आपक अनुमित हो तो म िवदा लूँ?’’
सुदामा ने वीकित म िसर िहला िदया।
‘‘यिद आपको िकसी भी व तु क आव यकता हो तो लकड़ी क इस गदा से एक बार इस धातु क पूण चं मा पर
हार क िजएगा। इसक अनुरणन विन क शांत होने से पहले सेवक आपक सामने उप थत होगा।’’
सेवक क जाने पर वे आ त ए। उसक उप थित म वे कछ खा ही नह सकते थे। अब वे धैयपूव जलपान
करगे। यिद इस समय यहाँ क ण होता तो भी वे सहज होकर जलपान नह कर पाते।
जलपान क सुगंध से क पूणतः सुवािसत हो उठा था। वह सुवास सुदामा क नािसका से होकर उनक म त क म
गई और रसना सि य हो उठी। वह भोजन हण करने क िलए कभी सुदामा क अधर को चाटती तो कभी उनक
तालु को छती। सुदामा जलपान से सुस त थाल क िनकट आए। उन खा पदाथ क सुगंध, तुित और
मौिलक आकितयाँ यह मािणत कर रही थ िक वे यंजन असाधारण प से वािद ह गे। सुदामा ने पीले रग का
एक यंजन उठाया। वे उसे मुँह तक ही लेकर गए थे िक क गए। उ ह ने अनुभव िकया िक कोई उनको पुकार
रहा ह।
‘कौन ह?’ सुदामा बुदबुदाए।
‘और कौन होगा? वही तु हार मन का अ ात वर।’
‘कहो।’
‘कल भी तुम फल का रसपान कर गए और आज जलपान पर झुक हो।’
‘तो?’ सुदामा क भ ह तन गई, ‘अपने िम क आित य को हण कर रहा ।’
‘अ छा, यह बताओ िक कल फल का रस पीने से पहले तुम िठठक य गए थे?’ वर ने दूसर न क प म
अपना पाँसा फका, ‘वह तो क ण ने इतनी वरा से तु हार ीमुख पर रस भरा पा लगा िदया िक तु ह इतना समय
ही नह िमला िक तुम मुझे सुन पाते। म तु हारी वह थित समझ सकता ।’
सुदामा िसर झुकाकर चुप बैठ गए। उ ह ने वह यंजन थाली म यथा थान रख िदया।
‘कोई बात नह । तुम इस समय वयं पर इतने ल त हो िक कछ कहने क थित म नह हो। म ही बता देता ।’
वर मुसकराया, ‘उस समय भी तुम यही सोच रह थे िक तुम तो वािद और पौि क रस पी रह हो और उधर
तु हारी प नी व ब े पेट बाँधकर सो रह ह गे। इधर सुबह होते ही तु हार िलए अनेक यंजन से सजा थाल आ
प चा। सुंदर व िमले, सुगंिधत जलकड म ान िकया और नए प-रग क साथ ीमान सुदामाजी महाराज
बनकर बाहर आए।... या अब तु ह अपनी उस प नी का यान नह आ रहा, िजसक ब त आ ह करने पर तुम
ीक ण से भट करने आए और इतने वैभव को भोगने को त पर हो? बताओ, या तु ह अपने प रवार का यान
नह आ रहा? तुम इस वैभव म आते ही इतने िनम न हो गए िक उनक सुध ही न रही।’
‘यह तुम भी जानते हो िक ऐसी बात नह ह। वयं सुमित ने कहा था िक कवल क ण का िदया खाना। वही कर
रहा । उसक इ छा-पूित कर रहा ।’ सहसा सुदामा का वर आवेशमय हो उठा, ‘तुम चाहते या हो, अपनी
बात कहो? या म शेष तीन िदन भोजन न क ? या क ण से क िक वह अपने प रवार क अभाव म यह सुख
नह भोग सकता, इसिलए वह तुरत एक शी गामी रथ भेजे और उसक प रवार को भी यहाँ बुलवा ले। म पहले ही
क ण क िलए ब त असुिवधा खड़ी कर चुका , अब और नह । यह भी मरण रखो िक म संवेदनशील तो
इसका यह अथ नह िक तुम जब देखो तब मुझे सताने चले आओगे। अब तुम जाओ और मुझे जलपान करने दो।’
‘जैसी तु हारी इ छा।’ वर अपना-सा मुँह लेकर चला गया।
सुदामा ने छककर जलपान िकया। जलपान करते ही उनको कोमल शै या ने पुकारा। सुदामा ने अपनी देह उस
पलंग पर िगरा दी। वे भय से चीखनेवाले थे; िकतु उ ह ने वयं को साधा। शै या का िबछौना इतना कोमल था िक
सुदामा को लगा िक वे पाताल म धँसते जा रह ह। या जैसे िकसी ने उनको अपनी िवशाल अंजुिल म समेट िलया
हो, या िफर जैसे वे िकसी कमल क पु प क म य भाग म जा िगर ह और कमल क पँखु रय ने उनको दुशाला-
सा ओढ़ा िदया हो।
िन ा तो जैसे सुदामा क चार ओर घात लगाए बैठी थी। वह तो क ण क उप थित म आने का साहस नह कर
पाई थी। िन ा क सलोने व न पी यो ा ने सुदामा को चार ओर से घेर िलया। सुदामा ने देखा िक क ण
उनको िविधव प से िवदा कर रह ह। उनक एवं उनक प रवार क िलए अलग रथ म व ाभूषण ह और वे
उनक सैिनक क संर ण म उस रथ पर आगे चल रह ह। वे भी िकसी नगर सेठ क समान अपने कधे पर रशमी
उ रीय डाले, अपने व को फलाए बैठ ह। उनका रथ जहाँ से भी िनकलता ह, उनक िलए माग साफ होता जाता
ह। वे साधारण नह रह थे। वे िवशेष हो गए थे। क ण ने उनसे अस य नह कहा था िक तुम मेर ए सुदामा। क ण
ने जो कहा, वह िकया। यह तो उनका ही दोष ह िक वे आज तक क ण क पास ही नह गए। उ ह ने ही क ण से
असंपक रखा। क ण ने तो उनको कभी िव मृत िकया ही नह । अ यथा इतने वष क अंतराल क प ा कोई अ य
होता तो सुदामा क वह दीन दशा देखकर कहता िक हाँ, कछ मरण तो आ रहा ह िक कोई सुदामा आ करता
था। ऐसा ह िक इन िदन म अित य त । तुम िफर कभी आना। उसका वह ‘िफर कभी आने’ का अथ होता िक
अब कभी न आना। वह सेवक को यह िनदश देता िक वे सुदामा को कछ जलपान इ यािद कराकर, ब त आ तो
थोड़ी दान-दि णा देकर िवदा कर। परतु क ण ने उनको कण मा भी यह अनुभव नह होने िदया िक उनको उनक
उप थित भाई नह । अिपतु वे तो उनको देखकर ऐसे आ ािदत ए जैसे िकसी िशशु को ब त समय से खोया
अपना कोई िखलौना िमल गया हो। तभी इसक पे्रमी इसको पे्रम का सागर कहते ह। वे स य कहते ह। जो इसक
पे्रम पी सागर क अथाह गहराइय म गोता लगा लेता ह, वा तव म वही इसक पे्रम क मिहमा को अनुभव कर
सकता ह। इसको ऊपर से देखकर समझा नह जा सकता। इसम तो डबा ही जा सकता ह। अहकार तो यहाँ िदखता
ही नह । इतना असाधारण होते ए भी िकतना सरल और सहज ह क ण, बाहरी िति या से अ भािवत। उसे
तिनक भी यह नह लगा िक वह एक महाश का महानायक ह, सवसवा ह और अपने सब सेवक व
प रवारवाल क स मुख न कवल उसे अपने दय से लगाया वर अपने अ ु से उसक पैर धोए। ऐसी उसने
या करनी क थी, जो इस अपा पर क ण रीझा? एक भी तो गुण उसम ऐसा नह ह िक वह क ण क समक
हो। ह तो कवल च सठ िदन का पुराना प रचय। वह भी एक सहपाठी क प म। यह अलग बात ह िक उस काल
म वे एक-दूसर क ब त आ मीय हो गए थे। िकतु वह काल तो होता ही ऐसा ह। उसक बाद सब भुला िदया जाता
ह। िफर एक नया संसार होता ह, उसक संबंध होते ह। वे अनुभव कर रह थे िक संसार म एकमा क ण क
अित र और कोई हो ही नह सकता, जो इस कार अपने िकसी दीन-हीन पूव प रिचत को अपने गले से लगा
ले। उ ह लगा िक उनक प नी ने उिचत ही कहा था िक क ण मनु य नह ह, भगवा ह।
उनक िनकट रहनेवाले सेवक जब क ण को भगवा कह रह थे तो उस समय उ ह लगा था िक वे चाटकार ह।
िकतु उसने तब उनक झुकने म भ का त व नह देखा था। वे चाकर अव य ह, िकतु भ ह और भगवा क
चाकरी अपने ाण से कर रह ह। क ण को उ ह श द नह कहने पड़ते, वे कवल उनक ओर देखते भर ह और
उनक भ उनका मंत य जान लेते ह।
सुदामा ने देखा िक उनका रथ मायापुरी क सीमा म प च चुका ह। वे कछ और तनकर बैठ गए ह। माग म
पैदल चलते लोग उनक एक छिव देखने क िलए उनक रथ क ओर देखते ए थम जाते ह और उनका रथ उनको
पीछ छोड़ता आ तेजी से आगे बढ़ता जाता ह। उनका रथ उनक गाँव म वेश करता ह। उनको देखने क िलए
मेला लग जाता ह। वे एक दशनीय पु ष हो गए ह। उनक उपे ा करनेवाले पछता रह ह। वे उन सभी को पीछ
छोड़कर गाँव क अंितम छोर पर अपने प रवार क ओर बढ़ते ह। सुमित उनक तीन ब क साथ उनक ान-
कटीर क बाहर खड़ी ह। वे रथ से उतर कर उनक ओर बढ़ते ह। सुमित उनको पहचान नह पाती और ब े भी।
िफर जैसे उनका स मोहन टटता ह और उनक प नी एवं उनक ब े दौड़कर उनसे िचपट जाते ह। वे आ त ह
िक अब उनक दुःख भर िदन बीत गए ह। सुदामा मन म अपार तृ का अनुभव कर रह ह और उनक आ मा
परमा मा पी ीक ण म िवलीन होती जा रही ह।
सुदामा का मन िविभ क पना को साकार करक उ ह व न म िदखाता जा रहा था।
q
मणी अपनी जेठानी रवती तथा प रवार क अ य य और छोट बालक क साथ अपनी देखरख म
अ कट तैयार करवा रही थ । क ण राजसी भोजन क थान पर आ म म िनत बननेवाले सहज भंडार का अपने
प रवार म आयोजन करवाते ह। प रवार और िनकट क बंधु-बांधव क घर से कछ-न-कछ आता ह। सबकछ एक
पा म डालकर उसे पकाया जाता ह। वह एक कढ़ी का प ले लेता ह। उसक साथ फ क उबले चावल होते ह।
वह भात और वह कढ़ी का संगम सभी को िकसी िद य लोक म ले जाता ह। उसको पाते समय राजभोग भी
िन सार जान पड़ता ह।
क ण ने देखा िक आज बलराम भंडारा तैयार करवा रह ह।
‘‘तुम आ गए, याम! हम तो समझ बैठ थे िक अब तुम गए बीस वष पीछ।’’ बलराम हसे, ‘‘ऐसा कर, ये शाक-
पात इस महापा म डालकर तू जा और सुदामा क साथ खेल-कद।’’
‘‘दाऊ, म जानबूझकर उसे एकाक छोड़ आया ।’’ क ण ने शाक का थाल उठाया। उसे िनहारा। नयन मूँदे।
उनक अधर मुसकराए और उ ह ने अ न पर चढ़ महापा पर वह थाल उलट िदया।
‘‘ य ?’’
‘‘दाऊ, तीन िदन क अिवराम पद-या ा कर सुदामा हमसे भट करने आया ह। उसे िव ाम क आव यकता ह।
यिद म उसक साथ रहता तो वह मार संकोच क न तो कछ खा पाता और न ही सो पाता। इस समय का उपयोग
वह िव ाम करने और अपने संकोच को तोड़ने म लगा लेगा।’’ क ण ने अनेक बड़ी मूिलयाँ उठाई और उनक
बड़-बड़ टकड़ महापा म डाल िदए।
‘‘मने सुना ह िक उसक ब त ही दीन-दशा ह।’’ बलराम उस महापा म कड़छी घुमाते ए बोले। उनका वर
कोमल और सहानुभूितपूण था।
क ण कछ नह बोले। अनमने-से कड़छी घुमाते बलराम को देखते रह। उनक प नयाँ शेष काय का िनरी ण
करते ए उनक ओर िच लगाए ए थ । छोट ब े इस अ कट क समारोह म आनंिदत हो एक अलग चबूतर
पर खेल रह थे। उ ह और उनक माता को संतोष था िक वे सभी एक-दूसर क ि म ह।
‘‘तुझे यह हो या जाता ह र? मने जो पूछा वह तूने सुन िलया या पुनः बोलू?ँ ’’ बलराम ऊचे वर म बोले।
‘‘दाऊ!’’ क ण शू य म देखते रह। उनका वर यह बता रहा था िक उ ह ने बलराम क बात पहली ही बार म भली
कार से सुन ली थी और उ ह ने उनक ारा ऊचे वर म बोले जाने पर यान भी नह िदया ह। उनक वर म
रह य था, ‘‘दीन-हीन यहाँ कौन नह ह?’’
‘‘म तो यह जानता िक तू िनम ही दीन-हीन नह ह।’’ बलराम ने ठहाका लगाया।
‘‘देखा जाए तो सुदामा कवल आिथक प से दीन-हीन ह। परतु सामा य ि कवल बाहरी आवरण ही देखती ह।
यिद एक धनी ान से दीन-हीन ह तो संसार को उसक दीनता और हीनता कह िदखाई ही नह देती, अिपतु संसार
उसक उस हीनता को गौरवा वत करता ह। कहता ह िक देखो, उसे ह ता र तक करने नह आते और िकतना
धनवा ह। परतु सुदामा जैसे को देखकर कोई यह नह कहता िक देखो, पंक म पंकज िखला ह। पंकज क िनकट
भी इसिलए नह जाना चाहते, य िक कमल क स दय और सुगंध क आकषण से कह अिधक वे क चड़ म सन
जाने से त ह। सुदामा आ मा का धनी ह, सरलता का ितिनिध ह और ान का भंडार ह।’’
‘‘तो यह भंडार इतने समय तक कहाँ था? पहले तु हार पास य नह आया? तो इस भंडार क शुभागमन पर तुमने
भंडार का आयोजन िकया ह।’’ बलराम बोले, ‘‘ यथ इतने िदन क सहता रहा। पहले आता।’’
‘‘समय से पहले कोई कसे आ सकता ह, दाऊ?’’ क ण ने बलराम क हाथ से कड़छी ले ली और उसे वयं
घुमाने लगे।
‘‘देखो याम, तु हारी इन बात से मुझे ब त याकलता होती ह। ये बात समझ तो आत नह , ऊपर से एक
निच और छोड़ जाती ह। तुम हमसे सीधी-सपाट बात िकया करो।’’ बलराम ने कड़छी ले ली, ‘‘मुरली सुनानी
ह तो सुनाओ, इतना समय हो गया। कभी उस िनरीह मुरिलया क भी सुध ले ली होती।
‘‘ऐ जामवंती! जा इसक मुरली तो ला।’’ बलराम ने सपे्रम आदेश िदया।
‘‘मुरली तो आ जाएगी, पर गोिपयाँ कहाँ से आएँगी?’’ स यभामा ने िचकोटी काटी।
‘‘ब त बोलती हो। तुम गोिपयाँ कम हो या?’’ बलराम ने डाँटा।
‘‘हम नह नाचगी।’’ स यभामा मान करती ई बोली।
‘‘अपनी बात पर िटक रहना।’’ बलराम ने आँख िदखाई।
‘‘आप देख लीिजएगा, हम नह नाचनेवाली। ये कड़छी ही नाचेगी।’’ स या क कहते ही सभी याँ हस द ।
‘‘अब तुम इसक मुरली लाओगी या यहाँ कवल शा ाथ करती रहोगी!’’ बलराम हसे और क ण क ओर मुड़,
‘‘मुझे सूचना िमली िक मेर िनम ही याम क मन म सुदामा क दीन-दशा देखकर इतना मोह उमड़ा िक उसक
अ ु से बरस पड़ा।’’
‘‘उसे मोह नह कहते, दाऊ! आपक सामने जो श द आता ह, आप उसी का योग कर बैठते ह।’’ क ण क
अधर पर तीया क चं मा क समान मुसकान क रखा िखंची।
‘‘तो या कहते ह?’’
‘‘उसे क णा कहते ह।’’ क ण बोले।
‘‘क णा और मोह म अंतर ही या ह?’’ बलराम ने अपने कधे उचकाए।
‘‘अंतर तो आकाश और पाताल का ह; परतु म आपको बताने नह जा रहा।’’ क ण भंडार क रसोई से नीचे उतर
आए।
‘‘ य नह बताने जा रह? या तुम सुदामा क पास जा रह हो?’’ बलराम ने कड़छी क ण क सबसे छोट पु चा
को थमा दी। वह आनंिदत हो उसे महापा म घुमाने लगा।
‘‘म अभी कह नह जा रहा। यह सबक िनकट। सुदामा क कारण पूण अवकाश पर , इसिलए सभी क साथ
। अ यथा राजकाज और अ य गितिविधयाँ प रवार क साथ समय यतीत करने का अवकाश ही नह देत ।’’
‘‘पर तुम मुझे क णा और मोह का अंतर य नह बता रह?’’ बलराम क वर म िज ासा कम थी, आदेश व हठ
क विन अिधक।
‘‘इसिलए, य िक आप पहले ही यह मानकर चल रह ह िक आप दोन को एक ही मानते ह। जब आपने िकसी भी
त व क िन पि पहले ही िनकाल रखी ह तो िफर म कछ भी कह लूँ, आप उससे असहमत ही ह गे। िफर या
लाभ अनाव यक प से ऊजा यय करने का?’’ क ण ने अपनी प वािदता कट क ।
‘‘मने ऐसा कब कहा?’’
‘‘आप अपने न क भाषा देिखए। आपने कहा िक क णा और मोह म अंतर ही या ह? अथा आप पहले से
ही यह धारणा कर चुक ह िक दोन एक ही त व ह। यिद ऐसा नह होता तो आपक न क भाषा दूसरी होती।
आप कहते िक म तो क णा और मोह को आज तक एक ही समझता था। यिद इनम कोई भेद ह तो तुम मुझे
बताओ।...’’ क ण मुसकराए, ‘‘यह भाषा िज ासु क होती ह। िज ासु क िलए ान क ार अ त व वयं
खोलता चलता ह।’’
‘‘अब तु हारी तरह हमारी पकड़ श द पर तो नह ही ह। हम तो बस काय िस हो जाए, ऐसी भाषा बोलते ह।’’
बलराम ने क ण क बात को गंभीरता से नह िलया और कछ खीजकर बोले, ‘‘तुम श द पर इतना य ठहर जाते
हो?’’
‘‘म िनःश द पर भी तो ठहर जाता , आपने उसे य नह रखांिकत िकया? इसीिलए कहता िक स य को खंड
म देखने से जो िनिमत होता ह, वह अधस य होता ह।’’ क ण ने अ े म आनंिदत हो काय कर रही प रवार क
य और ब क ओर देखते ए कहा और उनक ओर ही देखते रह। जैसे-जैसे उनक ि घूमती गई, वे
िकसी बालक क समान आ ािदत होते गए। उ ह ने एक दीघ ास ख चा और एक चंचल बालक को अ न क
िनकट न जाने क चेतावनी देती रवती से संबोिधत ए, ‘‘भाभी, कढ़ी क सुगंध कह रही ह िक वह पक गई ह।
अब भात पकने रख दीिजए और अपनी सभी देवरािनय से िजतना अिधक काम ले सक, उतना अ छा ह।’’
‘‘और तुम दोन बैठ राजनीित करते रहो।’’ रवती ऊचे वर म बोली।
‘‘राजनीित नह , धम-चचा हो रही ह, भाभी!’’ क ण हसे।
‘‘काय से बचने का अ छा अवलंब ह। करो धम-चचा। देखना, क तन म हम सब तुमको ही नचाएँगी।’’ रवती ने
अपनी सभी देवरािनय और ब क ओर देखकर कहा।
‘‘क ण को ही नचाती रहोगी तो शेष जन नाचने क िलए कसे उ सािहत ह गे। म ब त नाच चुका, भाभी! तुम
समतल देश से होकर बहती नदी से यह अपे ा मत करो िक अब वह अपने वे पवतीय खेल िदखाए, िज ह वह
या ा म ब त पीछ छोड़ आई ह। अब तुम नाचो, अपनी देवरािनय को नचाओ, ब को नचाओ और दाऊ को
नचाओ।’’ क ण ताली दे-देकर एक-एक का नाम बताते जा रह थे।
‘‘मुझे य नचाओ?’’ बलराम ने व ि से क ण क ओर देखा।
‘‘ मा करना, भाभी!’’ क ण ने अपने कान पकड़ और अपने दाँत क म य अपनी िज ा दबाते ए बोले, ‘‘दाऊ
भैया को मत नचाना।’’
‘‘ य न नचाऊ?’’
‘‘वे वैसे ही आपक संकत पर अहिनश नाचते ह।’’ क ण हसे।
सभी िखलिखलाकर हस िदए। ब े देखकर चिकत ए िक सब य हसे और सभी का हसते देख वे भी हस िदए।
‘‘ठीक ह, तुम अपनी धम-चचा ही करो। हम िजसे नचाना होगा, उसे नचा लगी। हमसे न तुम बच सकते हो और
न तु हार भैया।’’ रवती ने कढ़ी का महापा अ न से उतारते सेवक क ओर देखते ए कहा।
‘‘मेरा नाम बीच म य ले रही हो? मने अपने को बचाने जैसी कोई बात कही या?’’ बलराम ने सभी क ओर
देखा, जैसे वे याय माँग रह ह ।
‘‘मने भी आपसे कछ कहा? हम देवर-भाभी क बात हो रही ह। म याम को समझा रही ।’’ रवती जैसे लड़ने क
िलए उनक िनकट आ गई।
‘‘तब तो ठीक ह। याम को समझाया ही जाना चािहए। यह ब त ही अबोध ह। य र याम! तू समझता य नह ।
जब देखो तब कछ-न-कछ ऐसा कह देगा िक उससे उ पात खड़ा हो जाए। कभी तो गंभीर आ...’’
‘‘भाभी जा चुक ह।’’ क ण ने बलराम क बात काट दी।
‘‘वैसे यह तुमने ब त ही अ छा काय आरभ करवाया ह।’’ बलराम ने अ य काय का िनरी ण करती रवती क
ओर देखकर कहा, ‘‘िकतना िद य हो जाता ह, जब अ े म साद बनता ह। ये सभी हमार राजसमाज क
याँ, जो वयं को े समझती ह, आ मवािसनी ऋिष-प नय और ऋिष-क या क समान व कल धारण
कर भु नाम क रसोई करती ह तो इनको एक प र कत वाद िमलता ह।’’
‘‘सारा खेल भाव जग का ह, दाऊ! भाव मनु य क काय करने क मता म गुणा मक प रवतन कर देता ह। एक
धाय होती ह, जो िशशु का लालन-पालन काय क समान करती ह। वह दूसरी ओर माँ होती ह, जो उसी िशशु का
लालन-पालन अलौिकक सुख पाते ए करती ह। उस िशशु क िलए िकया गया काय उसक िलए कवल काय नह
होता। वह उसक िलए उ सव हो जाता ह। उसम से वह आनंद का सृजन करती ह।’’ क ण क वर म िव ु का
संचार हो रहा था, ‘‘कम को जब हम अपना आनंद बना लेते ह तो वह रसपूण हो जाता ह। अिधक होता ह और
उसका तर भी उ क होता ह।’’
‘‘धाय तो धाय रहगी । वह माँ कसे बन सकती ह? अपनी संतान क िलए वह माँ हो सकती ह परतु िजस िशशु क
पालना क िलए वह िनयु क गई ह, उसक तो वह धाय ही रहगी।’’ बलराम ने जैसे क ण को समझाया।
‘‘आप ठीक कह रह ह िक वह धाय धाय ही रहगी; परतु यिद वह अपने काय क साथ अपनी ममता को भी संयु
कर लेगी तो वह वही सुख पाएगी, जो अपनी संतान से पाती ह। जब वह धाय होकर पराई संतान से पे्रम करगी तो
वह उसका तिनक भी अिहत नह सोच पाएगी। तब वह उसे भूिम पर िगरा दूिषत अ नह िखला पाएगी। वह उसे
न अिधक त दूध िपलाने क बात सोचेगी, न अिधक शीतल और न ही उसक भाग का दूध वयं पी जाने क
क पना ही करगी। वह उसक र ा क ित अित र प से सावधान रहगी। उसे अपनी छाती से लगाकर रखेगी
और ितदान म वेतन से ब त पहले आनंद भी पाएगी। यही आनंद आ मा का भोजन ह।’’ क ण ने आकाश क
ओर देखा, ‘‘माँ यिद धाय का अिभनय कर और धाय माँ का तो जीवन मोह त नह होगा, ेमपूण हो जाएगा।’’
‘‘पर ऐसा करता कौन ह?’’ बलराम क वर म िनराशा थी।
‘‘वह, िजसे आनंद चािहए, जो अपनी आ मा का िवकास चाहता ह।’’ क ण बोले।
‘‘आ मा का िवकास तो कोई तब चाह न, जब उनको आ मा का कछ ान भी हो। संसारी तो आ मा जैसी बात को
कपोल क पना मानते ह और कवल देह को ही स य मानते ह। उनक ि म जो कछ भी देह से संबंिधत ह, वही
स य ह।’’
‘‘तो उनका कवल दैिहक िवकास ही होता ह। उनक जीवन म आ मा का िवकास अछता रह जाता ह। आ मा को
जाननेवाला तो...’’
‘‘आ मा क बात से पहले तुम मुझे अधस यवाली बात बताओ। वह बात रह गई तो िफर कछ अधूरा रह जाएगा
और आजकल तु हारी य तताएँ कछ इतनी अिधक बढ़ गई ह िक तुम कब आते हो, कब जाते हो—इसका िकसी
को कछ ान नह होता। अभी यहाँ हो और अगले पल कहाँ होओगे—मुझे तो लगता ह िक यह तुमको वयं भी
ात नह होता।’’
‘‘आपने उिचत कहा दाऊ!’’
‘‘वह तो भला हो सुदामा का, जो उसक कारण तुमने अपनी सभी गितिविधयाँ थिगत कर द ।’’ सहसा बलराम को
कछ मरण हो आया, ‘‘यह तो बताओ िक तुम सुदामा क दीन-दशा देखकर य रोए थे? मेर पास ये ही श द ह,
इसिलए इन श द को लेकर िवतंडावाद खड़ा मत करना। तुम अ छी तरह समझते हो िक सामनेवाला या कहना
चाह रहा ह।’’ बलराम ने जैसे क ण को डाँटा, ‘‘मुझे उलझाया मत करो। अ यथा उसम उलझकर मुझसे ब त
कछ िव मृत हो जाता ह।’’
‘‘पहले आप मेर अ ु क िवषय म जानना चाहगे या अधस य क िवषय म या श द-चयन और उसका भाव
िवषय पर या यान चाहगे? जो आप कह।’’ क ण मुसकराए।
‘‘तुम िफर वही सब घालमेल करने लगे। म सभी िवषय पर तु हार िवचार जानना चा गा। और इन तीन िवषय
को मरण भी तुमको ही रखना ह। म तो कवल तीन क सं या मरण रखूँगा। पहली बात तुम अपने अ ु क ही
बताओ िक बड़-से-बड़ा दुःख भी तु हार ने से अ ु का एक कण भी नह िगरवा पाया और वहाँ झरने बह रह
थे।’’ बलराम ने जैसे क ण क दुबलता को पकड़ने क िवजयी मुसकान क साथ कहा।
‘‘लगभग बीस वष प ा सुदामा मुझसे िमलने आया ह, कवल िमलने। वह आया भी िकस थित और भावदशा
म ह। उसक पास अपना कछ भी नह ह। वह िनधनता क पराका ा पर ह। और उस थित म सहज होकर मुझ
तक आया ह। उसने जैसा ह, जहाँ ह—वैसा ही वयं को मेर सम लाकर खड़ा कर िदया। उसने अपने म कछ भी
कि म नह जोड़ा, कछ भी आरोिपत नह िकया। अपने को िछपाने क िलए कछ भी नह ओढ़ा। एक कार से वह
िनव मेर स मुख उप थत आ ह। वह देहातीत होकर या ा करता रहा। न उसे भूख ही घेर पाई और न यास ही
सता पाई। वह एकिन हो मेरी ओर बढ़ता ही रहा—अिवराम। माग ने उसक िलए अनेक लोभन िबछाए ह गे। पर
वह िकसी िबछावन पर नह बैठा। वह तो कवल मुझको पाने क अभी सा म चलता रहा। उसने उस या ा म अपने
िनयम-तप- त भी याग िदए। वह दीन-हीन होकर मेरी शरण म आया ह। इसी को भ कहते ह, दाऊ। यही ेम
ह, यही ा ह। वह अ ात क या ा पर िनकला। उसक िलए मेरा िमलना या न िमलना, मेरा उसे पहचाना जाना
या िबसराया जाना, दय से लगा लेना या ितर कत कर लौटा देना—यह सब अ ात था। वह येक थित को
वीकार कर चला था। परतु मुझे येक अ ात या ा ात होती ह। ऐसा अपूव पे्रम पाकर तो मेर आनंदा ु क
नह सकते। आपको मरण ही होगा िक मने सुदामा से कहा था िक तु ह मने अपना कहा। तुम मेर ए।’’ क ण ने
अपनी ि शू य से हटाकर बलराम पर िटका दी, ‘‘दाऊ, म सभी को िनव भेजता और जो भी मेर स मुख
िनव आता ह, वह मुझम ही समाता ह। िजस पर म स होता , उसक व तक हर लेता । िजसने वयं को
ढक कर बचाना चाहा, उसने समझो िक मुझसे वयं को बचाया ह। िजसने यह मान िलया िक उसक पास ढकने
जैसा कछ नह , िछपाने जैसा कछ नह , िकससे वह िछपाएगा? िकससे वह वयं को बचाएगा? जो अपना सव व
मुझे समिपत कर देगा, वही मेर रा य म वेश करगा। उसी दशा म सुदामा मेर पास आया ह। उसक सरलता और
सहजता को देखकर पहली बार मेरी स ता ने मेर अधर क अपे ा मेर ने का अवलंब िलया।’’
‘‘शेष दो बात िफर कभी।’’ बलराम उठ गए।
क ण ने देखा िक वे कधे पर डाले अपने अँगोछ से अपने सजल ने को प छते जा रह ह।
q
सात
क ण ने सुदामा को ा मु त म ही उठा िदया था। वे सुदामा को वह छोड़कर तैयार होने क िलए दूसर ासाद
म चले गए थे और सुदामा को भी यथाशी तैयार होने क िलए कह गए थे।
सुदामा क तो इ छा यही थी िक वे एक माह क ण क साथ रह। िकतु क ण क अित य त िदनचया और
सम त यदुवंश क उन पर िनभरता को देखते ए वे यह सोच-सोचकर मार संकोच क गड़ जा रह थे िक वे क ण
का अमू य समय यथ म न कर रह ह। उनको या अिधकार ह िक वे रा क महानायक क साथ अपने
मनोरजन क िलए समय यतीत कर रह ह। उनको क ण क पास भेजने का उनक प नी का एक ही उ े य था िक
वे ीक ण से कछ आिथक सहायता माँग। िकतु सुदामा ने सुमित को कह िदया था िक उसका मान रखने क िलए
क ण से िमलने जा रह ह। उनसे माँगना न हो सकगा। तब सुमित ने कहा था िक मत माँगना; िकतु यिद ीक ण
उनक प रवार क िलए कछ भट द तो उसको अ वीकार भी न करना।... उनको चािहए था िक वे पहले ही िदन
ीक ण से कछ चचा करक िवदा हो जाते। िकतु सुदामा को तो जैसे क ण से िमलकर जीवन को देखने क एक
नूतन ि िमल रही थी। उनको यह अनुभव हो रहा था िक उनक पास शा ीय ान ह और क ण क पास
शा ातीत। जो क ण कहते ह, वह अनेक बार तो शा ीय सीमा का अित मण कर जाते। वे समझ नह पा रह थे
िक शा सही ह अथवा क ण का अनेक अवसर पर शा ातीत हो जाना।
उ ह ने पलंग से उतरते ए ापूवक भूिम का पश कर उस हाथ को अपने म तक से लगाते ए कहा, ‘‘हम
सभी को धारण करनेवाली धरती माँ! ह माँ शारदा! जो स य ह, उसका मुझे वर दो, उसका मुझे सा ा कार
कराओ।’’
सुदामा नह चाहते थे िक जब क ण तैयार होकर आएँ तो उ ह ती ा करनी पड़। इस ल य को याम म रखते ए
वे पलक झपकते ही तैयार होकर आसन पर आ बैठ। क ण क ती ा म आ मलीन हो उ ह ने आँख मूँद ली थ ।
उ ह ने पहले िदन ही सोच िलया था िक वे तीन िदन ही क ण क साथ रहगे। तब तो उ ह ने ऐसा संकिचत होकर
कहा था; िकतु बाद म उ ह ने जब यह अनुभव िकया िक उनक जैसा अनुपयोगी और िन य य क ण जैसे
सि य राजपु ष क तीन िदन लेकर सभी पर एक कार से अ याचार कर रहा ह तो यह सोचते ही वे और भी
अिधक संकोच से गड़ गए थे। औपचा रकतावश उ ह ने क ण से कहा भी था िक वे अगले िदन ही जाना चाहते ह।
तो क ण ने उनक बाँह पकड़कर उनको अपनी आँख म देखने क िलए िववश करते ए कहा था िक वे अपने
तीन िदन ठहरने क वचन पर तो अिडग रह। जब तक आप म न हो तब तक वचन-भंग उिचत नह । वे तब यह
भी पूछना चाह आप म म वचन भंग होना उिचत ह। कसे? वे आज उससे इसका उ र भी चाहगे। इन बीते दो
िदन म क ण से चचा कर उ ह ने यह जाना िक क ण क पास येक न का न कवल उ र ह, वर अनुभव भी
ह। वे तो जीवन भर पु तक और आ म क िव ान म डबे रह। वे िकसी ग म भर ान पी जल को ही
महासागर मानते रह और आज उनको परम पावन गंगोतरी क दशन ए ह, जहाँ से ान पी िवशु जल सतत
झर रहा ह। िनत नया ान आ रहा ह। पहलेवाला जल कहाँ बह गया, उसका कोई लेखा-जोखा नह ह।
‘‘तुम तो इस वेश म ान क सूय लग रह हो, सुदामा।’’ क ण का वर गूँजा।
सुदामा ने आँख खोल । सामने क ण मुसकरा रह थे, उनक सहपाठी क ण।
‘‘ ान क सूय तो तुम हो, क ण!’’ सुदामा मुसकराए।
‘‘तु हारी बात ही रही। म ान का सूय और तुम महासूय।’’ क ण हसे।
‘‘नह ।’’ सुदामा का वर गंभीर हो गया, ‘‘हम तो ानी होने का दंभ भरते ह। हम तु हार सामने राि म
चमकनेवाले क ट क अित र कछ नह ह। तुम सम हो क ण, और हम खंड क खंड क भी कण ह।’’
‘‘तुमसे अपना प रचय पाकर मुझे अपने व प का बोध आ। मुझे नह ात था िक म इतना िवशेष । िकतु जब
सुदामा जैसा ानी इस बात को मािणत कर रहा ह तो यह बात िन त प से मानने जैसी ह।’’ क ण क नयन
लीलामयी हो उठ, ‘‘यिद तु हारा पे्रम-व य पूरा हो गया हो तो हम थान कर?’’
‘‘ओह!’’ सुदामा उठ खड़ ए। उ ह ने अपने िलए आए कोमल पद ाण को पहना और क ण क साथ हो िलये।
बाहर ांगण म अनेक रथ और अ ारोही अंगर क तैयार थे। सुदामा ने देखा िक क ण क रथ पर उनका
सारिथ, िम , आ मीय, िव सनीय और सु दय दा क स िच उनक ती ा म खड़ा ह। उसक साथ सुभाष
भी ह। वे रथ क ओर बढ़। क ण क आगमन पर सभी चौक े हो गए।
दा क और सुभाष क ण क स मुख िबना िकसी शा दक अिभवादन क नतम तक ए। क ण ने मुसकराकर
उनका अिभवादन वीकार िकया। वे अपने रथ क अ क पास गए।
‘‘कसे हो, सु ीव?’’ पहले अ क पास जाकर उ ह ने उसक माथे को चूमा और उसे पुचकारते ए पूछा।
‘‘मेघपु प, तुम कल कछ अिधक थक गए थे या?’’ क ण हसे।
‘‘शै य, तुम तो अजुन क समान ब त ही कम बोलते हो।’’
‘‘और तुम बलाहक, तु ह मेरी तरह सभी को सताने म आनंद आता ह, य ? कल राि तुमने अपने िम को सोने
भी नह िदया।’’ क ण क बात सुनकर जैसे चौथा अ ल त हो गया, मानो कह रहा हो िक िकसी बाहरी
य क सामने तो उसक लाज रख लो।
यह प िदख रहा था िक क ण का पे्रम पाकर वे अ िकसी अपूव श से भर गए थे।
‘‘दा क!’’ क ण बोले, ‘‘हमार साथ दो अ ारोही और एक रथ ही रखो। दूसर रथ पर तुम दोन अपने सहयोिगय
क साथ रहना।’’ उ ह ने सुदामा को कधे से पकड़कर अपने दय क िनकट सटाते ए कहा, ‘‘आज म सुदामा का
सारिथ बनूँगा।’’ उ ह ने सुभाष क ओर देखा, ‘‘सा यिक को सब समझा िदया न?’’
‘‘आप आ त रह, भु!’’ सुभाष ने हाथ जोड़कर कहा।
‘‘सुदामा, स य तो यह ह िक म कछ नह करता। सुभाष, दा क, सा यिक जैसे मेर सहायक ही मेरा फला आ
प ह। इनक कपा से म कछ िव ाम पा लेता ।’’
‘‘हमार पास जो बल ह, वह सब आपका िदया ह। आप सार काय वयं करते ह और ेय को भ क आनंद क
िलए बाँटते चलते ह।’’ दा क का वर भाव-िवभोर था।
‘‘तुम कछ याकल हो, सुभाष? लगता ह, कछ कहना चाह रह हो; िकतु संकोचवश मौन हो। भय और संकोच का
तो यहाँ वेश-िनषेध ह।’’ क ण मुसकराए, ‘‘कहो।’’
‘‘कल संगीत पं. हनुमान सादजी आए थे। आप थे नह , इसिलए हमने उनसे िनवेदन िकया िक वे आपक
अनुप थित म काय देख रह ीमान सा यिकजी को अपना मंत य कह द। परतु वे आपक दशन क इ छक थे।’’
क ण क आँख ने जैसे कछ पूछा।
‘‘हमने उनको अितिथ-गृह म यह कहकर ठहराया ह िक हम उनका संदेश आप तक प चा रह ह।’’ सुभाष ने
कहा।
‘‘सुदामा, यह संयोग ह िक पं. हनुमान सादजी वयं यहाँ पधार ह। वे सामवेद क ऋिष का प ह।’’ क ण ने
सुभाष क ओर देखा, ‘‘पं. हनुमान सादजी क ीचरण म मेरा णाम िनवेिदत कर उनको एक िवशेष रथ से
सागर-तट पर ले आओ। कहना िक यह हमारा सौभा य ह िक हमारा सागर-तट का एकांता म उनक शुभागमन से
और ऊजावा होगा। हम सभी वह जलपान करगे।’’
सुभाष ने आ ा-पालन व प अपना िसर झुका िदया।
क ण ने सुदामा को रथ पर चढ़ाया और िफर वयं चढ़कर सारिथ क थान पर बैठ गए। सुदामा उठकर उनक
िनकट आ गए। क ण ने रास को ऐसे थामा आ था जैसे वे पु प-गु छ िलये ह ।
‘‘चलो!’’ क ण धीर से बोले।
रथ चल िदया। सुदामा भ चक रह गए। उ ह ने अपने ाम म या उसक आस-पास घोड़ागाड़ी अथवा रथ देखे ह।
उनक सारिथ तो अपने अ को चलाने क िलए या तो कशा से पीटते ह या िफर अपश द से पुकारकर उनक
पूँछ ख चकर उनका अपमान करते ह। तब जाकर कह उनका रथ चलता ह। या ा म िमले उस राजपु ष क सारिथ
ने भी जब रथ को चलाने क िलए अ को पुकारा था तो उसे भी वे श द सुनकर ल ा आ गई थी। जैसे ही
उनका रथ चला, उनसे आगे पचास पग क दूरी पर वे दोन अ ारोही प च गए। उनक पीछ आ रह रथ पर
दा क अ य सहयोिगय क साथ था।
‘‘सुनो िम ो! आज सुदामाजी को सागर-तट पर अपने एकांता म का दशन कराना ह।’’ क ण ने वह रास एक
अितसुंदर कला मक खँ◌ूटी से कोमलता से बाँध दी।
‘आप म म वचन-भंग होना उिचत ह। कसे? मेर इस न का उ र अभी देना ह। यह म इसिलए कह रहा िक
तु हारी बात म डबकर म वह सब भूल जाता , जो पूछना चाहता । यह न तुम अभी अपनी गाँठ म बाँध लो।
इसक गाँठ तब खोलना, जब म अभी अपने मन म ती ता से उठता न पूछ लूँ।’ सुदामा क मन म आया िक वे
अपने न क कभी न समा होनेवाली सूची क ण को थमा द। पर वे जानते ह िक ऐसा संभव नह । उनक पास
कवल आज का ही िदन ह।
‘तो य नह सदा क िलए ारका म बस जाते? तु हार एक संकत भर करने का िवलंब ह और क ण तु हार
आवास व जीिवका का सुंदर बंध कर देगा। िफर ितिदन क ण से चचा करना।’ सुदामा क मन से कोई वर
उनको िचढ़ाने क िलए उठा।
सुदामा ने उस वर से मुँह फर िलया और अपना मुख क ण क ओर िकया ही था िक वह िबना उनक आ ा से
उनक मन क वर क इ छा से खुल गया।
‘‘क ण, या ऐसा संभव नह िक हम-तुम सदा साथ रह?’’ सुदामा अपना हाथ मलते रह गए—उफ, यह वर!
यिद वे उसका अपमान न करते तो िन त ही वह उनको नीचा िदखाने क िलए उनक िज ा पर न आ बैठता।
इस समय क ण उसे लोभी समझ रहा होगा। सोच रहा होगा िक दो िदन म ही इस िनधन सुदामा को िवलास का रस
लग गया। अब उ ह ही बात सँभालनी होगी।
‘‘हाँ, इसम तो असंभव कछ भी नह ह। यह तो ारका का सौभा य होगा िक तुम यहाँ सप रवार रहो। म तो यह
चाहता , परतु तुम आज ही जाने क बात कह रह हो। यहाँ सब बंध हो जाएगा।’’
इससे पहले िक सुदामा कछ कहते, क ण क श द सुदामा क कान से होते ए उनक मम तक जा प चे।
सुदामा को इन दो िदन म यह िव ास हो गया था िक क ण को मन क बात पढ़ने क िस ा ह। िकसी
एक-आध अवसर पर ऐसा आ होता तो वे इसे सांयोिगक घटना मान लेत,े िकतु वे जो मन म सोच रह होते ह,
उससे ही संबंिधत अगला वा य क ण बोल रह होते ह। यह संयोग नह ह, यह तो अलौिकक िव ा ह।
‘‘मेरा अिभ ाय यह कदािप नह था, क ण! ’’ सुदामा ने अपनी पूरी श लगा कर क ण का यान उस अिभ ाय
से हटाने का यास िकया, ‘‘म यह जानना चाह रहा था िक गोप-गोिपयाँ आज भी यह कहती ह िक जो ारका म
रहता ह, वह क ण कोई और ह। आज भी हमार साथ वही गोपाल गौ को चराता, वंशी बजाता यमुना तट पर
िवचरता ह। इसिलए उनको क हया का अभाव नह सालता।’’ सुदामा ने ककर भ भाव से क ण क ओर
देखा, ‘‘यह या माया ह, क ण?’’
‘‘यही तु हारा ती गित से उठता न ह?’’ क ण ने ठहाका लगाया।
‘‘नह , यह वह न नह ह।’’ सुदामा बोले।
‘‘तो वह न या ह?’’
‘‘वह न?’’ सुदामा चकरा गए, ‘‘अभी तो मरण था।’’ उ ह ने अपना माथा ठोका, ‘‘मेर म त क क सारी
यव था तु हार सामने आते ही िबखर जाती ह और उसक खंड इतनी दूर जा-जाकर िगरते ह िक खोजे नह
िमलते।’’ सुदामा ने मुसकराने का यास करते ए कहा, ‘‘इस समय तुम मुझे अपनी यारी गोिपय का रह य
बताओ िक तुम ारका म होते ए भी उनक साथ कसे हो?’’
‘‘सुदामा, न तो मुझे कोई मुझे ि य ह और न अि य। न म िकसी से ेष करता और न ही प पात। म सभी क
दय म समान प से रहता ; परतु जो मुझे पे्रमपूवक मरण करते ह, भजते ह—म उनक दय म िच मय प
म वास करता । उनक पे्रम-समािध मुझे उनक िच म कट कर देती ह। तुम जब भी पे्रमपूण होकर मुझे
पुकारोगे, म तुमसे संवाद करने उप थत हो जाऊगा। थान और काल क दूरी का मेर िलए कोई मह व नह
ह।...’’ सहसा क ण अपनी उस समािध थ अव था से एकदम नीचे अपनी लीलामयी मु ा म आ गए, ‘‘तुम
ानमाग हो। यह कहोगे िक क ण कसे अहकार क भाषा बोल रहा ह। यहाँ ‘म’ का अिभ ाय उस सवश मा
परमिपता परमे र से ह। सभी न उस परमा मा म जाकर िगर जाते ह। यिद तुम समािध क अव था म प च
सको तो पाओगे िक तु हार अंतहीन न क सूची वहाँ ह ही नह ।’’
‘‘ओह! क ण ने यह भी पढ़ िलया।’’ सुदामा बुदबुदाए।
‘और यह भी सुन िलया, जो तुमने बुदबुदाया।’ उनक मन का वह वर उ ह जीभ िचढ़ाकर भाग गया।
‘‘तुम उस दशा क ब त िनकट हो। तु हारी ऊजा श द पर आकर अटक गई ह। तुमने आज तक कवल श द ही
जाना ह। िजस िदन िनःश द को जानोगे तो पाओगे िक तुम भी िकन श द पी ककड़-प थर से िसर मारते रह।
िनःश द ह मिणयाँ— फिटक मिणयाँ। और िफर वह अव था भी ह, जहाँ िनःश द भी नह ह।’’ क ण क मोिहनी
मुसकान फल गई।
सुदामा क मन म आया िक वे अपना िसर पीट ल। वे अपने को महा ानी समझते रह और आज उनको पता लग
रहा ह िक वे कछ भी नह जानते। क ण िजन अव था क िवषय म बता रह ह, उस त व क चचा तो ायः
महायोिगय क शा म होती ह। इसका अथ ह िक क ण इन अव था से होकर आए ह और वह इनम रमण
करते ह!
‘‘यह िनःश द या ह?’’ सुदामा का मुँह उनक इ छा से खुला।
सुदामा क बात सुनकर क ण ने ठहाका लगाया और उनक ठहाक लगते ही गए। दौड़ते ए रथ क अ भी जोर
से िहनिहनाए।
‘‘हसो, तुम भी हसो! बात ही हसने क ह।’’ क ण अ से संबोिधत ए।
‘‘यही था मेरा वह ती गित से उठनेवाला न, जो मुझसे िव मृत हो गया था िक या ये पशु तु हारी भाषा समझते
ह?’’
‘‘ को!’’ क ण क इतना कहते ही अ िहनिहनाए। उ ह ने अपने अगले दोन पैर भूिम से ऊपर उठाकर ती गित
से जा रह रथ को रोक िदया और शांत खड़ हो गए। आगे जा रह अ ारोही भी क गए और क ण क रथ क
आक मक प से कने का कारण जानने क िलए उस ओर देखने लगे। ीक ण को आ त हो सुदामा से
बातचीत करते देख वे संतु ए िक संकट क कोई बात नह ह। पीछ आ रहा रथ भी संभवतः आगे चल रह
अ ारोिहय को संतु देखकर अपनी िन त दूरी पर खड़ा रहा।
‘‘सुनो सु ीव, शै य, मेघपु प और बलाहक! सुदामा ानमाग ह। ये यह नह जानते िक तुम अ प होते ए भी
पशु नह हो, मेर िम हो। इनक बात को अ यथा न लेना। म इनक ओर से तुमसे मा माँगता । यह इनक
सामा य िज ासा ह। यिद तुम स हो तो हम आगे क या ा कर।’’
क ण क इतना कहते ही अ िबना कछ श द िकए चल िदए, जैसे क ण ने उनसे मा माँगकर उनको ल त
कर िदया हो।
सुदामा क ण क मधुरता और िश ाचार देखकर अिभभूत हो उठ। वे सोचने लगे िक क ण ने उनसे नह कहा िक
वे उनक ि य अ ...अथा िम को ‘पशु’ कहकर अपमािनत न कर। या यह सब क ण ने उ ह टोकने क िलए
कहा था या सचमुच उनक अ उनक भाषा समझते ह?
‘सबकछ अपनी आँख से देख रहा ह और कान से सुन रहा ह। िफर भी वीकार नह करना चाहता। ध
जड़बु !’ उनक मन क आस-पास मंडराता वह वर जैसे उन पर अपने श द का ढला मारकर भाग गया।
‘‘तुम यही सोच रह होगे िक म और मेर िम य हसे!’’ क ण ने अपने वर को सुदामा क संतोष क िलए गंभीर
करने का अिभनय िकया, ‘‘सुदामा, तुम िनःश द को भी श द क मा यम से जानना चाहते हो। या तु ह नह
लगता िक तुमको भी इस बात पर हसकर आनंिदत होना चािहए? िकतनी िवनोदपूण बात ह यह।’’
‘‘हम जैसे लोग िववश ह, क ण! हमार पास यही श द पी हलदी क गाँठ ह और हम इनक बल पर ही पंसारी
बनने का म पाले ए ह। तु हार िलए यह सरल ह िक तुम हमार तल पर आकर हम समझाओ। हमार िलए यह
असंभव ह िक हम तु हार िशखर पर चढ़कर वह हण कर, जो तुम कह रह हो।’’ सुदामा का वर दीन-हीन था।
‘‘इसे तुम इस कार समझ सकते हो िक एक भ , जो साकार पर यान लगा रहा ह, वह श द ह। िफर एक
अव था ऐसी आती ह िक उसका िनयम, त, तप, ान, िव ान इ यािद उसका जो भी बाहरी जानना ह, वह सब
िगर जाता ह। उसक कम क बंधन भी िगर जाते ह। यिद कछ कम शेष रह भी जाते ह तो वे कम-फल क िनयम से
पार होते ह। िफर उसक कम से न पाप सृिजत होता ह और न पु य। दूसर श द म कह तो वे ऊसर-कम हो जाते
ह। वे कम कवल ह। बस, इससे अिधक कछ नह ।’’
‘‘क ण, म आज तक नह जान पाया िक ई र ने मेरा माग श द क मा यम से बनाया ह या श द मेरी बाधा ह।
वैसे िस पु ष ने भी श द का आ य िलया ह और साधक ने भी, य िक हमार श़ा म श द- क भी
मा यता ह।’’ सुदामा का शा ीय ान बोल उठा।
‘‘एक बात भली कार से जान लो सुदामा िक श द कवल साधन मा ह, सा य नह । स य सदा अ य ह,
श दातीत ह। श द कवल उस स ा क ित संकत मा ह। तु ह श द का उपयोग भर करना ह और िफर उनको
िगराकर आगे क या ा करनी ह। श द...’’
‘‘...श द को कोई कसे िगरा सकता ह?’’ सुदामा ने क ण क बात पूरी नह होने दी और बीच म अपनी िज ासा
रख दी।
‘‘जैसे फल खाने क प ा तुम उसक आवरण को िगरा देते हो। आवरण क कवल इतनी ही उपयोिगता होती ह
िक वह फल को संरि त रखता ह। उसे इस यो य बनने देता ह िक व थ आहार बनने म बीज क सहायता कर।
जब तुम फल को खा लेते हो तो िछलक को ढोते नह हो। उसी कार जब तुम श दातीत क सुवास पा लेते हो तो
श द का म तु ह स मोिहत नह कर पाता।’’
‘‘और श द- कब बनता ह?’’ स मोिहत सुदामा का मुँह खुला।
‘‘जब वह ऋिष क वाणी का आ य पाता ह। श द वही ह। उसी श द का उपयोग सुषु जन कर रह ह और
उसी श द का उपयोग बु पु ष कर रह ह। जो श द बु क ीमुख से झरगा, वह होगा। उसम उस बु
क ऊजा संचरण कर रही होगी। वह मं बन जाएगा। िनःश द को िजस िदन तुम अनुभव करोगे, तब अपने इस
न पर ब त हसोगे।’’ क ण मंद-मंद मुसकराए।
‘‘तुम तो जानते हो िक िनःश द म वेश कसे हो। मुझे भी वह सू दे दो।’’ सुदामा क वर म याचना थी, ‘‘इन
श द क भार से मेरी आ मा दबी जा रही ह। मेरी छाती और बु पर श द क शु क िशलाएँ िगरी पड़ी ह। मुझे
ऐसा वरदान दो िक मेरी अनुभव पी गंगा इन िशला को चूण-चूण नह भी कर दे तो कम-से-कम उनको
िघसकर छोट-छोट सुंदर ध प थर म तो बदल दे।’’
‘‘तुम मुझसे...’’ क ण एक ण क िलए क। उ ह ने सुदामा क ओर देखा और मुसकराए, ‘‘सुदामा, तुम जैसा
होना चाहोगे, अ त व तु हार साथ वैसा ही सहयोग करगा। तुम उससे जो माँगोगे, वह देगा। वह उस िदशा म
तु हारा माग श त करगा।’’
‘‘म उस गु को कसे खोजूँ, जो मुझे उस िदशा का दशन करा सक?’’ सुदामा ने िज ासा क ।
‘‘तुम कवल खोज भर हो जाओ। कोई तुमसे तु हारा नाम भी पूछ तो तु हार मुख से िनकले िक म खोज । शोधाथ
हो जाओ, खोजो और यह बात भी मरण रखो िक वह तु हार खोजने से नह िमलेगा।’’ क ण क रह यमयी वाणी
गूँजी।
‘‘तो?’’ सुदामा क बु च र खाकर ऐसे िगरी जैसे एक बार सुदामा चलती बैलगाड़ी क िवपरीत िदशा म मुँह
करक उतरने क कारण िगर थे। वे बोले, ‘‘यह कसा िनयम ह िक तुम खोजो और उस खोज का प रणाम यह रहगा
िक तुम खोज से कछ नह पा पाओगे। तो िफर न यह उठता ह िक जब खोजने से हम उसे पा नह सकगे तो
िफर उसे खोजा ही य जाए?’’
‘‘खोजते-खोजते एक िदन ऐसा समय आएगा िक स ु तु ह खोज लेगा। इस अहकार को कभी न पालना िक
तुमने गु खोज िलया। गु ही तुमको खोजता आ आता ह। अनेक अवसर पर तो तुम पहचान ही नह पाते हो िक
तुम िजससे ई या कर रह हो, िजसक िनकट शा ाथ कर रह हो, िजसक बात से असहमत हो रह हो, उसे
अ त व ने तु हारी या ा क िलए भेजा ह। स ु को पहचानने क िलए आँख चािहए।’’ क ण ने सुदामा का कधा
थपथपाते ए कहा, ‘‘ ित ण सजग रहना। वह कभी भी तु हार पास आ जाएगा और तु हारी झोली भर जाएगा। हो
सकता ह, तुम उसे पहचान ही न पाओ। वह तु ह अपना प रचय देगा। तब भी तुम उसे नह पहचानोगे तो वह तुमसे
प कहगा। वह तुमसे तु हार ही श द म कहगा िक वह वही ह, जो िनःश द म रहता ह। सुदामा, वह तु हार
पास आएगा।’’ क ण ण भर को आ मलीन ए और बोले, ‘‘िकतु दुभा य, तुम उसक ित ई या से भर जाओगे।
तुम वयं को उससे े मानोगे। उसक स मुख िनवेदन करने म तुम वयं को अपमािनत अनुभव करोगे। उसक
तुित करने क क पना करक तो तु हार ाण िनकलने को याकल हो उठगे। तु हारा अहकार तु हार िसर पर
श द का ऐसा िवतान बना देगा िक तुम न तो आकाश क दशन कर पाओगे और न सूय क।’’ क ण जैसे भिव य
क गभ म झाँक रह थे, ‘‘तु हारा यह ान ही तु हारी सबसे बड़ी बाधा बन जाएगा। तु हारा यह जानना, जो िक
तु हारा अपना भी नह ह। शा ीय िसखावन ह, यही तु ह झुकने से रोकगा। तुम झुकना भूल जाओगे।’’
‘‘क ण, तुम शाप तो न दो।’’ सुदामा का मुख भय से पीला पड़ गया था।
‘‘तुम चाहो तो शाप को वरदान म बदल सकते हो।’’
‘‘कसे?’’
‘‘ ित ण सजग रहकर। तुम पंिडत हो सुदामा, और वह शू का प धारण कर पंिडत क पास अमृत-कलश
लेकर आता ह। कवल भ ही उस अमृत का पान कर पाते ह। भ क ि म भेद नह होता। वे उसे येक
प म पहचान लेते ह। िफर चाह वह िकतने ही प धरकर य न आए। जब वह मनु य क देह धरकर आता ह
तो मूढ़ जन उस अजनमे, अिवनाशी को तु छ जानकर उसका ितर कार करते ह। वह दुःख म आकठ डबे
संसा रय क िलए उनक जैसा प धर क आता ह, उनक जैसी भाषा बोलता ह; िकतु क णा और उ ारक प
उस परमा मा को संसारी साधारण मनु य ही मानते ह। इसिलए न ानी बनने क या ा करो, न िव ा बनने क —
भ बनो, सुदामा!’’ क ण ने संकत िदया।
‘‘उसे पहचाना कसे जाए? तुम कह रह हो िक वह रग- प बदलकर आता ह। ऐसे म कोई कसे पहचाने?’’
‘‘ यासे जल को सूँघ लेते ह।’’
‘‘यह अ याय ह।’’ सुदामा क वर म िवरोध था।
‘‘नह , यह अ याय नह , वर परी ा ह। तभी तो तु ह बार-बार चेता रहा िक उसक श द को तौलना। वह तु ह
प श द म अपने आने क सूचना देगा। उसक पदचाप म भी तुम श द क नूपुर बजते पाओगे। तुम अपने
कान पर हाथ मत रख लेना।’’ क ण क श द जैसे िकसी िश पी क उपकरण का काम कर सुदामा क बु को
छील रह थे।
‘‘ब िपए को पहचानना किठन ह, क ण! तुम कह रह हो िक वह वेश बदलकर आएगा। ऐसे म उसे कोई कसे
पहचाने?’’
‘‘मने साथ म यह भी कहा ह िक वह तुमसे प श द म कहगा िक तुम िद य आ मा हो। मुझम समाकर यह
जान लो िक तुम कौन हो। म तु हार िलए ही यहाँ आया । िफर भी तुम उसक िनमं ण का ितर कार करोगे। यान
रखना सुदामा, िक जब कोई तु हारी आ मा क व प को जानने क या ा पर तु ह ले जाने का िनमं ण दे तो तुम
उसे िबसरा मत देना। पता नह िफर िकस ज म म वैसा संयोग बैठ।’’ क ण ने अवाक सुदामा क ओर देखा,
‘‘कहाँ लीन हो गए?’’
‘‘मुझे लगता ह िक जो मेर उ ार क िलए आएगा, यिद मने उसक उपे ा क और उसक पे्रम-िनमं ण को
िबसरा िदया तो म तो अपने हाथ ही छला जाऊगा।’’ सुदामा क वर म भिव य म होनेवाले अिन क आशंका
थी।
‘‘जो त व को जानते ह, वे छले नह जाते।’’ क ण मुसकराए।
‘‘त व या ह?’’
‘‘िम ी।’’
‘‘िम ी?’’ सुदामा ने थूक सटका, ‘‘म समझा नह ।’’
‘‘क हार कवल िम ी को जानता ह। िम ी त व ह। िफर तुम उसक पास चाह घट ले जाओ, चाह सकोरा, चाह
क ड और चाह फल या पशु-पि य क पाकितयाँ। वह देखते ही कह देगा िक सब िम ी ह। वह त व को
जानता ह। वैसे ही जो स य को जानता ह, स य िकसी भी प म उसक पास आए, वह पहचान लेगा; य िक वह
त व को जाननेवाला ह।’’ सहसा क ण धीर से बोले, ‘‘मने तो तु हार न क गाँठ बाँधी ई ह, तुम भी मेरी एक
बात गाँठ बाँध लो। मुझे अनेक बार अपनी बात क पुनरावृि करनी पड़ती ह; य िक सुननेवाले चूकने म अित
कशल ह। जब म कह रहा होता तो उनका मन कह और होता ह और वे मन म चलनेवाले झंझावात का
कोलाहल ही सुन रह होते ह।’’
‘‘तुम स य कह रह हो, क ण! मेरा अनंत िवचार वाला मन इस कार भाग रहा ह, जैसे िहरण क दल म कोई िसंह
घुस आए तो वहाँ अराजकता फल जाती ह।’’ सुदामा बोले, ‘‘तुम अपनी बात को पुनः कहो। म उसे मन म
सँजोकर रखूँगा।’’
‘‘जब भी कोई आकर यह कह िक उसने वह जान िलया ह, िजसे जानने क प ा िफर कछ जानना शेष नह रह
जाता तो समझना िक वहाँ ‘म’ । ‘म’ उस घर म रहने आया । मेरा ‘म’ तो तुम समझ ही गए होगे।’’ क ण ने
सुदामा को ऐसे देखा जैसे वे उसे वरदान दे चुक ह और पानेवाले को अपनी मुसकान क मा यम से कह रह ह िक
इसक मह व को समझना।
अ ने अपनी गित धीमी कर ली थी। ना रयल क वन से पटा पड़ा था वह सागर-तट। ना रयल वन से होता आ
उनका रथ एक दुगम वन म वेश कर गया। उस वन का एक-एक वृ जैसे िविभ कार क भयानक आकितय
का िनमाण कर रहा था। उसम एक िविच कार क शांित थी। लगता था िक उस वन म कोई ऐसी श ह, जो
यह नह चाहती िक कोई उस वन म वेश कर। सुदामा ने ि उठाकर ऊपर क ओर देखा तो लगा िक उनक
ऊपर झुक वृ क शाखाएँ उनसे कह रही ह िक जा बच गया। यिद ीक ण तेर साथ न होते तो हमने कब का
तुझे खा िलया होता।
‘‘वन क भयावह थित पर िवचार कर रह हो या?’’
सुदामा क मन म आया िक कह िक ‘ या’ लगाने क या आव यकता। जब तु ह ात ही ह तो सीधे श द म
कहो। पर वे बोले नह । उ ह ने अपनी आँख मूँद ल ...श द...श द... या ‘श द’ अब मेरी बाधा बन गए ह?
सहसा उ ह लगा िक उनक मन म क ण क आकित कट ई। उ ह ने प प से उसको सुना। क ण जैसे वन
म िकसी पवत क समान खड़ ह और उससे कह रह ह िक सुदामा, तु हारी ऊजा श द क खूँटी से ही बँधी पड़ी
ह। तु हार पास श द-िवलास क अित र और ह ही या! न कोई िद य अनुभव ह और न आ मबल। न तु ह
आ मा का पता, न परमा मा का। एक श द सुन िलया—आ मा। कवल श द। पर श द तो आ मा नह ह! जैसे िक
िलखो आम या रग से आम का एक सुंदर िच बना दो। जो िक वा तिवक आम से कह अिधक व थ, आकषक
और सुंदर िदखाई देगा। पर उस िलिपब श द म या िच ण म न आम ह, न सुगंध और न ही ुधा को शांत
करनेवाला मधुर रस। वह दूसरी ओर आम का वृ ह। वहाँ न श द ह, न िलिप ह, न रग ह। ह तो कवल सुगंध
और रस। तो सुदामा, रस को खोजो, य िक म रस प ।
सुदामा ने आँख खोल । क ण उनको वायु म लहराते िकसी व क समान िदखाई िदए।
‘‘क ण! यह वन तो िनःश द का ित प लगता ह। वन का अथ ही होता ह, िजसम अनेक जीव-जंतु का श द
हो। िकतु यह तो अपवाद ह।’’ सुदामा ने सामा य होने क िलए चचा को नूतन िदशा दी।
‘‘इस थान पर अनेक िवषा सरीसृप क होने का लोकापवाद चिलत ह। कछ लोग ने इस थान का नामकरण
ेत-वन क नाम से कर िदया। यही दु चार उस े क िलए वरदान िस आ। अतः इस ओर कोई मुँह भी नह
करता। कवल दुलभ औषिध क खोजी और साधक को ही यह वन वेश क अनुमित देता ह।’’ क ण ने अंधकार
से पूण वन को िनहारते ए सुदामा से कहा।
‘‘तुम तो ऐसे कह रह हो जैसे यह वन कोई जीिवत और बु मान य हो।’’
‘‘यह जीिवत से कह अिधक ह।’’ क ण ने अपना िकरीट उतार िदया। उनक घुँघराले कश उनक कध पर फल
गए। ऐसा लग रहा था जैसे उस वन क भयानक क ण सप इस क ण क कतल बन गए ह और उनक फन वायु म
लहरा रह ह ।
‘‘ये वैसे ही जीिवत ह जैसे...’’
‘‘कहो, क य गए श द क साधक? ‘जैसे’ को पूरा तो करो।’’ क ण वन क वृ को ऐसे देख रह थे जैसे वे
ारका क राजपथ से जा रह ह और उनको चाहनेवाली जा उनका अिभवादन करने क िलए माग क दोन ओर
खड़ी हो।
‘‘...जैसे का उदाहरण िकसी का दय आहत कर देगा।’’
‘‘म तो अनाहत । शेष बचे मेर अ पी िम , तो तुम उनक िचंता मत करो। वे तु ह अपना िम मान चुक
ह।’’
सुदामा यह प अनुभव कर रह थे िक क ण उनको वह िदखा रह ह, जो दुलभ ह। वे यही कहना-पूछना चाह
रह थे िक या ये वन वैसे ही जीिवत ह जैसे उनक अ । और क ण ने अ का ही नाम िलया। या ऐसी भी
कोई स ा ह, कोई जग ह जो इन आँख से देखा नह जा सकता? या ऐसी कोई ऊजा ह, जो सतत बह रही ह
और हम उसको अनुभव नह कर पा रह? या ऐसी कोई थित ह, जहाँ सब थम जाता ह? वे संसार को देखते ह
और अपने ान को देखते ह तो लगता ह िक ऐसा कछ भी नह ह। वे क ण क ओर देखते ह तो उ ह प
िदखता ह िक वह तो जी ही कह और रहा ह। वह ह यहाँ का, भाषा भी यह क बोलता ह; िकतु उनम िनिहत अथ
इस जग क नह ह।
अ ने रथ को एक ओर मोड़ िदया। गुफा क िवशाल मुख क समान सामने भगवा सूय सागर म से ान कर
आते िकसी सं यासी क समान िदखाई दे रह थे। उनक िकरण उस थान पर िकसी सोपान क समान िदखाई दे रही
थ । उनको देखकर सुदामा का मन आ िक उन पर चढ़कर वे दौड़ते ए कछ ही देर म भगवा सूय क चरण-
पश कर सकते ह। वे सागर क अथाह जलरािश को देखकर मं मु ध हो गए। उ ह ने सागर क िवषय म सुना था,
पढ़ा था और िवचार िकया था। वे िवचार म सागर क क पना नदी से दस गुना प म करते थे। पर आज जब
सागर से उनका सा ा कार आ तो उनक क पना लु हो गई। जब त व य हो तो क पना का या
औिच य? स य ही तो कह रहा था क ण िक िकसी भी त व का िलिपब या िचि त होना वह नह ह, जो वह ह।
वह तो उसक िवषय म एक सूचना मा ह। सूचना अनुभव हो ही कसे सकती ह। उ ह ने ‘सागर’ श द पढ़ा था,
सागर का िच भी देखा था; पर उन दोन ही सूचना से उनका दय आ ािदत नह आ था। इस समय वे
सागर क स मुख ह। न कवल स मुख ह वर अिभभूत ह। उनका दय सागर क िवरा ता को बारबार नमन कर
रहा ह। उनका मन सागर क गोद म लोट-लोट जाने का कर रहा ह। वे सागर क व पर पदाित चलना चाह रह ह।
‘सागर’ श द को पढ़कर या उसक िच को देखकर तो उनक मन म ये तरग नह उठी थ । ओह! क ण, तुम
सागर क समान ान का अ त भंडार हो। तुम मुझे अपने सा य म वह दे रह हो, जो म ज म -ज म क ान-
साधना क प ा भी ा नह कर सकता था। पर ऐसा य होता ह िक हम अपना िवकास वयं नह कर पाते?
यिद क ण मुझे यह सब ान नह देता तो म इससे वंिचत ही रहता। क ण क िबना म इसे य नह पा सकता? तभी
सुदामा को लगा िक उनक अंतस म क ण क वाणी गूँजी ह—‘िबन गु ान कहाँ से पाओगे, सुदामा? गु तो
चािहए ही न!’
‘‘तु हारा गु कौन ह?’’ सुदामा क वर ने त काल क ण क वाणी से पूछ िलया।
‘‘आ मा म सारा ान िनिहत ह। यिद तुम अपनी आ मा को जा कर सको और उसे अपना गु बना सको तो
िफर मानो तुमने क पत पा िलया।’’ क ण क वाणी सुदामा क मन म गूँज उठी, ‘‘परतु आ मा का जागरण भी
समािध घटने पर होता ह। समािध म सब समाधान िछपे ह।’’
‘‘और समािध कसे घट?’’ सुदामा ने पूछा।
‘‘समािध घटने का कोई थायी िनयम नह ह। वह कभी भी और कह भी घट सकती ह। समािध घटने का अथ ह
िवराट क साथ एक प हो जाना, उसम िवलीन हो जाना, उसम समा जाना।’’
सुदामा यह अनुभव कर रह थे िक इतना तो िन त ह िक ये उ र उनक मन का क पत क ण नह दे रहा ह।
तो या क ण क पास ऐसी भी कोई श ह िजसक मा यम से वह िबना अपने अधर को िहलाए िकसी क भी मन
म उठते न क बीच जाकर संवाद कर सक। अभी तक उ ह ने क ण को िजतना अनुभव िकया, उसक अनुसार
तो क ण एक िवराट पु ष ह िजनम न जाने िकतना कछ समाया आ ह।...सुदामा को अघोरी का कथन भी मरण
हो आया । उसने बताया था िक वह जो जानता ह, वह तो क ण क चरण क नख क रज भी नह ह। तो क ण
िकतना िवराट ह! क ण क िवराट प क िवषय म सोचते ही उनका िसर भ ाने लगा। एक भंभीरी उनक म त क
म बजने लगी, जो संभवतः इस बात क चेतावनी दे रही थी िक यिद इस िवषय पर और सोचा तो हो सकता ह,
तनाव क भार क अितरक क कारण उनक म त क क कोिशका म िव फोट ही हो जाए।
रथ क गया। क ण नीचे उतर और िफर उ ह ने सुदामा को रथ से उतरने म सहयोग करने हतु अपना हाथ बढ़ा
िदया। सुदामा उतरने क यास म लड़खड़ाए। उनको लगा िक वे इतने असंतुिलत हो गए ह िक अब िगरना िन त
ही ह। पर क ण ने उनको आगे बढ़ इतनी कोमलता से थाम िलया िक सुदामा का िगरना उनका आनंद बन गया।
‘‘ यान से िगरो, सुदामा!’’ क ण ने सुदामा को भूिम पर खड़ा करते ए कहा।
‘‘यिद यान ही रहा तो मनु य िगरगा ही य ?’’ सुदामा को लगा िक उ ह ने ब त समय बाद कछ ऐसा कहा ह,
जो अका य ह। अब क बार क ण उनक इस बात को काट नह सकते।
‘‘ये दोन सवथा िभ बात ह—िगरना अलग ह और यान अलग ह।’’ क ण बाई ओर िदखाई दे रह एक िवशाल
कटीर क ओर बढ़ गए। कटीर क चार ओर एक घेरा बना आ था। वेश- ार मोट बाँस का बना था। बाहर
बैठने क िलए बाँस क कला मक ितपाइयाँ और चौपाइया बनी ई थ । उन पर बाँस का ही बना छ था। ऐसा
लगता था जैसे िकसी िच कार ने इस िनजन और भयावह वन म एक मनमोहक िच बना िदया हो।
‘‘भयानक वन क और िसंह क समान गजन करते सागर क म य ऐसा सुंदर थान भी हो सकता ह, यह क पना से
पर क बात ह।’’ सुदामा उस थान क स दय से भािवत होकर बोले।
‘‘जो लोग म भूिम म या ा करते ह, उनका कहना ह िक जब कभी उनक सामने म ान कट होता ह तो वे यही
सोचते रह जाते ह िक सवथा िवपरीत प र थितय म यह यहाँ ह कसे? वे उसका उ स नह खोज पाते। वे उसका
रह य नह जान पाते। वे तो बस िव मय से भर जाते ह इस अनहोनी को देखकर। जहाँ सूय का ताप सबकछ
भ मीभूत करने को उ त ह वहाँ सुगंिधत सुकोमल सुंदर पु प ह, रसीले श वधक मधुर फल ह और ांित को
हर लेनेवाला सुशीतल जलाशय ह। कसे ह? यही िव मय ह, यही रह य ह। पर वह ह।’’ क ण एक बड़ी चौपाई
पर िव ाम क मु ा म लेट गए।
सुदामा भी एक चौक पर बैठ गए।
मौन िघर आया।
‘‘वह यान और िगरना सवथा िभ बात कसे ह?’’ सुदामा ने उस अ पकािलक मौन को भंग िकया।
क ण कछ नह बोले, सागर क ओर देखते रह। सुदामा को लगा िक हो सकता ह, अपनी आ मलीनता क कारण
क ण ने उनका न सुना ही न हो। उ ह ने क ण क ओर देखा। क ण क ि सागर पर िटक थी, पर लग रहा
था िक वे सागर से पार कह कछ और देख रही ह। सुदामा ने उनक त ीनता को भंग करना उिचत नह समझा।
‘‘िगरना और यान को इस कार समझो।’’ िणक मौन क प ा क ण बोले।
सुदामा को समझ नह आया िक क ण क िकतने प ह। ये उनक साथ ह, वन क साथ ह, सागर क साथ ह,
अ क साथ ह या अपने साथ ह।
‘‘म सबक साथ , सुदामा! य िक सब मुझम ह।’’ सुदामा क मन म क ण मुसकराते ए कट ए।
सुदामा समझ नह पाए िक क ण का का पिनक वर उनक मन म उठा था या उनक मन क बात जानकर क ण
ही कट हो गए थे। सुदामा ने क ण क ओर देखा। वह िकसी समािध थ योगी क समान अधलेटी मु ा म लीला
कर रह थे। वह उसक न क उ र अनेक कला क मा यम से दे रह ह। कभी य बोलकर तो कभी उसक
मन म कट होकर। यह तो छिलया ही ह। ऐसे छलता ह िक मित मारी जाए। सुदामा को क ण का वह वचन भी
मरण हो आया, िजसम उ ह ने कहा था िक जो मुझे पे्रमपूवक मरण करते ह, भजते ह, म उनक िलए दय म
िच मय प म वास करता । उनक पे्रम-समािध मुझे उनक िच म कट कर देती ह। काल का अंतराल उसम
कोई बाधा नह डालता।
‘‘यिद यान से युत ए तो यह नह जान पाओगे िक जो घटा वह स य था अथवा म।’’ क ण अपनी उसी
आ मलीन अव था से बोल रह थे, ‘‘ यान से चूकना अचेत अव था म मण करना ह। यिद म तुमसे क िक
सुदामा जब भी मरना, यान से मरना तो तुम इससे या समझोगे?’’ उ ह ने सुदामा क ओर देखा। सुदामा को कोई
उ र न देता देख वे बोले, ‘‘ या तुम तब यह कहोगे िक यिद यान ही रहा तो मनु य मरगा य ?’’
‘‘नह ।’’ सुदामा बोल उठ।
‘‘परतु अभी तो तुमने कहा िक यिद यान ही रहा तो मनु य िगरगा य ? तु हार इस समीकरण क अनुसार तो यिद
यान ही रहा तो मनु य मरगा य होना चािहए।’’ क ण ने अधलेटी थित म अपने बाएँ पैर को मोड़ा और उसक
घुटने क पास अपना दायाँ पैर मोड़कर िटका िदया। इस समय वे परम िव ाम क -सी मु ा म आ गए थे।
‘‘पर ऐसा ह नह । मनु य लाख यान म रह, पर वह मरता ह।’’ सुदामा बोले, ‘‘इसी कार यह आ िक चाह
िकतना भी यान म रहो, िफर भी मनु य िगरता ह। िकतु उसे यान से िगरना चािहए।...पर यान से कसे िगर?
यान से कसे मर?’’ सुदामा जैसे खीज उठ, ‘‘तुम जाने या कह देते हो िक कछ समझ नह आता। यह समझ
नह आता िक स य ह या? वह स य जो तुम समझ रह हो, म य नह समझ पा रहा ?’’
‘‘अभी तुमको समझा देता ।’’ क ण हसे, ‘‘मेरी बात क उ र देते चलना।...यह बताओ िक जब म कछ
समझाता तो उसे समझने का काय कौन करता ह?’’
‘‘बु़ ।’’ सुदामा ने आ मिव ास क साथ कहा।
‘‘िकसक बु ?’’
‘‘मेरी बु , सुदामा क बु !’’ सुदामा क वर का आ य कह रहा था िक क ण, तुम भी कसे बचकाने न
पूछ रह हो।
‘‘और सुदामा क बु िकतना जानती ह?’’
‘‘िजतना सुदामा जानता ह।’’
‘‘तो यह तय आ िक तु हारा जानना तु हारी बु का जानना ह अथवा तु हारी बु का जानना तु हारा जानना
ह।’’ क ण ने कनिखय से सुदामा क ओर देखा और मुसकराकर बोले, ‘‘जो तु हारी बु़ नह जानती या जो तुम
नह जानते, उसे तु हारी बु कसे जानेगी? िजस भाषा से तु हारी बु का प रचय ह, उसक श द क आते ही
वह तु हार सामने उसक अथ उघाड़ती चलती ह और िजस भाषा को तुम नह जानते, यिद उस भाषा का एक भी
श द तुमसे कहा जाए तो तु हारी बु तु ह कछ भी जानकारी नह दे पाएगी। तो तुम िजतने हो, उससे बड़ कसे
हो सकते हो? जाननेवाले तो तुम ही हो न? अपने होने से अिधक तुम कसे जान सकते हो? तु हारी उपल ध
अिधकतम जानकारी से अिधक जो कछ भी तु ह िदया जाएगा; तु हारी बु उसका वमन कर देगी। वह उसक
भार तले दबने लगेगी। एक बालक एक म क समान भार कसे उठा सकता ह? खूँट से बँधा पशु एक प रिध म
ही चर सकता ह। उसम और राजहस क िवचरने म आकाश-पाताल का भेद ह।’’
‘देख ले सुदामा! क ण तुझे खूँट से बँधा पशु कह गया और वयं को राजहस। तुझ पंिडत को ब पशु कह रहा ह
और अपने अ को पशु भी नह कहने देता।’ सुदामा क अहकार क बांबी से एक सप फफकारता आ िनकला।
‘क ण यह सब मुझे समझाने क िलए उदाहरण- व प कर रहा ह। और यिद वह मुझे खूँट से बँधा पशु कह रहा ह
और वयं को राजहस तो इसम वह अस य तो कछ भी नह कह रहा। आज म वयं यह अनुभव कर रहा िक म
िनपट ान से भर एक खूँट से ही तो बँधा आ और यह क ण राजहस क समान सभी िद य लोक म िवहरता
ह।’’ सुदामा ने देखा िक वह सप ची कारता आ भागकर उसी बांबी म ऐसे घुस गया जैसे सुदामा ने उसे कछ
श द न कहकर लाठी से खूब पीट िदया हो और वह ल लुहान हो अपने ाण बचाकर भागा हो।
‘‘अपने वामन प को िवराट कसे बनाया जाए?’’ सुदामा ने िज ासा क ।
‘‘अपने ‘ व’ का िव तार करक।’’
‘‘ ‘ व’ का िव तार कसे हो?’’
‘‘ यान से।’’
‘‘ यान कसे हो?’’
‘‘ यानी क संग से।’’
‘‘ यानी कहाँ िमलेगा?’’
‘‘ यान क खोज से।’’ क ण मुसकराए।
‘‘तुम इतना उलझाते य हो?’’ सुदामा क बु खीज उठी।
‘‘तुम इतना उलझते य हो?’’ क ण हसे। उ ह ने सुदामा क ओर देखा।
सुदामा का मुख प प से कह रहा था िक क ण, तुमसे तो बात करना ही अपनी बु का सवनाश करना ह।
‘‘अ छा, मत होओ और एक बात बताओ िक तुमने अपने ान का िव तार कसे िकया? तुमने छोड़ो, तु हार
िपता ने अपने ान का िव तार कसे िकया?’’ सुदामा क ओर से उ र न िमलने पर क ण समझ गए िक वह अभी
भी ठ ए ह। वे वयं ही उस बात का उ र देते ए बोले, ‘‘वे ान पाने क िलए ािनय क खोज म भटकते
रह। तु ह भी इस या ा म साथ-साथ भटकाते रह। प रणाम या आ? तुम गु संदीपिन क ारा वीकत ए और
तुमने ान पाया। ािनय को खोजा, ान पाया। यािनय को खोजो, यान पाओगे। यान क प ा जो ान
पाओगे, वह तु हारा अनुभवज य ान होगा। श द वही ह गे, पर उनक आ मा िभ होगी, उनका संगीत िभ
होगा। वा -यं वही होता ह, िकतु उसको छनेवाले हाथ यिद अप रिचत ह तो उसम से कवल असंगत विनयाँ ही
िनकलगी और यिद उसे कोई िस छएगा तो उन विनय म एक संगित होगी, उसम से जो झरगा वह संगीत कहा
जाएगा। इसिलए सुदामा, अपने जीवन म यान का संगीत पैदा करो। अपनी बात क पुनरावृि करता िक
यािनय का संग करो।’’
तभी क ण कछ देखते ए उठ गए। सुदामा क भी िज ासा ने उनको उठा िदया। वे जानना चाह रह थे िक क ण
या देखकर उठ ह। उ ह ने देखा िक सागर म एक िवशाल नौका कट ई और उसम से एक छोटी नौका उतरी।
वह नौका उनक िदशा म बढ़ने लगी। कछ ही देर म वह नौका उनक िनकट से होती ई सागर क भीतर तक जाते
ए काठ क एक कि म घाट पर जाकर क गई।
‘‘आओ, सागर क दय म समा जाएँ।’’ क ण ने सुदामा का हाथ थामा और िकसी बालक क समान उ ह ख चते
ए दौड़ने लगे। नाव म दो बिल सश नािवक थे। उ ह ने ापूवक क ण को नम कार िकया। क ण ने
सुदामा का हाथ पकड़कर उनको नौका म उतारा। नौका चल दी। सुदामा ने अनेक नौकाएँ देखी थ । सब साधारण
और एक जैसी। क ण क साथ रहकर सुदामा जो कछ भी देख रह ह, वह अनूठा ह। सहसा उनक मन को एक
क ण क ारा िदए एक सू का उ र िसरा िमला, िजसम वे बैठ ह। उसका नाम भी नौका ह और उ ह ने अपने
आस-पास क िजन निदय म चलते देखा ह, वे भी नौका होती ह। दोन क िलए एक ही श द ह—नौका। परतु
दोन क आ मा िकतनी िभ ह। यह नौका अपने होने म एक ग रमा, वैभव और ितरा ले जाने का आ ासन िलये
ह। श द एक ही ह, परतु दोन का गुणा मक भेद अपार ह।
सागर क उ ाल तरग को चीरती वह नौका सागर क व पर चढ़ती जा रही थी। सुदामा ने तो व न म भी नह
सोचा था िक वे कभी सागर पर भी चलगे। यह सब तो उनको िबन माँगे, िबन सोचे िमल रहा ह। परमा मा उन पर
बड़ा कपालु ह। इसका प अथ ह िक वह उनको देख रहा ह, उनको थामे ए ह। सुदामा ने एक िवहगम ि
अपने िवगत जीवन क या ा पर डाली। उ ह ने अनुभव िकया िक येक ण परमा मा उनक साथ रहा ह। यह
बात अलग ह िक उ ह ने कभी उसक उप थित को अनुभव करने का यास नह िकया।
उनक नौका एक िवशाल जलपोत क िनकट क । जलपोत से लकड़ी का एक सोपान उनक नौका से आकर
सट गया और वे उस पर चढ़ते चले गए।
जलपोत पर आकर सुदामा को लगा िक वे जो देख रह ह वह सृजन-श का चम कार ही ह। जलपोत पर भूिम
क समान आ म थािपत था। ऐसा लगता था मानो यह जलयान न होकर कोई तैरता आ ीप हो और उस पर
अनेक कटीर बने ए थे तथा फल क या रय से वे कटीर िघर ए थे। सबकछ था वहाँ—ह रयाली, कटीर,
िहरण, मोर, िब ी, क ,े िगलहरी और व कल व को धारण िकए तथा अपने-अपने काय म लीन चारी
एवं आचाय।
सुदामा ने क ण क ओर देखा। क ण ने सुदामा को कशा क बनी एक छतरी क नीचे लगी चौिकय पर बैठने
क िलए कहा। उ ह ने चा रय को कछ कहा और चले गए।
सुदामा देखते रह िक क ण ऊचे थान पर बनी एक िवशाल किटया क बाहर बैठ एक सं यासी क पास जाकर क
गए।
‘‘योगे र ीक ण अभी आते ह। तब तक आप फलाहार हण कर।’’ चा रय ने अनेक कार क फल
सुदामा क स मुख रख िदए। फल अपने रसीले, मधुर और पौि क होने क कथा वयं कह रह थे। सुदामा ने पेट
और मन भरकर फलाहार िकया। उ ह ने इस बात क िचंता नह क िक उनको ताकते ये चारी उनक िवषय म
या सोच रह ह गे।
‘‘ या आप मुझे यह बताएँगे िक ीक ण योिगय क ई र िकस कार ह?’’ सुदामा ने िबना िकसी चेतावनी क
आ मण कर िदया।
अनपेि त न को सुनकर सुदामा क आस-पास खड़ पाँच चारी एक-दूसर का मुख देखने लगे। संभवतः
उनको यह अपे ा नह थी िक क ण क साथ इस गोपनीय या ा म उनक साथ आनेवाला य ीक ण क मह व
से अनिभ होगा।
‘‘म आप सभी से ही पूछ रहा ।’’ सुदामा ने जैसे उनको उ र देने क िलए बा य िकया।
‘‘सुदामाजी, पृ वी पर ऐसा कोई प ी नह आ िजसने आकाश का छोर छने का यास िकया हो।’’ मुख िदख
रह चारी ने नतम तक हो कहा, ‘‘प ी इसी म संतु होते ह िक आकाश उनको अपने व पर िवचरने क
अनुमित दे रहा ह।’’
सुदामा अपने ान क बल पर इन सरल चा रय पर अपना भाव थािपत करना चाह रह थे। परतु उनक उ र
क एक ही बाण से उनका ान पी प ी िबंध गया और मुँह क बल उस जलयान पर आ िगरा।
‘‘सुदामा!’’ क ण ने त ध ए सुदामा को पुकारा।
सुदामा ने देखा िक क ण उनक सामने स मुख मु ा सिहत खड़ ह।
‘‘जाओ और उन महा मा से जाकर जो माँगना हो, माँग लो।’’
सुदामा ने देखा िक क ण ने उसी महा मा क ओर संकत िकया, िजससे अभी वह िमलकर आए ह। इतना तो वे
समझ ही चुक थे िक वे कोई असाधारण महा मा ह।
‘‘म तुमसे स य ित ा करक कहता सुदामा, िक तुम उनसे जो माँगोगे, वह िमलेगा। जाओ और समय न मत
करो।’’
क ण क वाणी म िछपे आदेश अथवा ध क उपे ा वे नह कर पाए। उनक थित तो ऐसी हो गई थी िक
जैसे क ण ने उनको िकसी वरदान पी सरोवर म ध ा दे िदया हो। अब उस जल म उनको हाथ-पैर मारने ही
ह गे।
सुदामा िकसी स मोहन म बँधे उन महा मा क स मुख प चे। वे ऐसे थे जैसे िक कोई िवशाल वट वृ । उनक िसर
से घुटन तक आते लंबे कश, व थल पर लहराती लंबी दाढ़ी, मुख का काला रग—इन सभी िबंब को देखकर
कोई भी भय से अपनी आँख भ च सकता ह और उनक इसी प से बरसते अमृत का जो वाद अनुभव कर ले,
उसक भी परमानंद म आँख मुँद जाएँ। उन पर लहराते ेत व ऐसे लग रह थे जैसे िहमालय पर उड़ते ेत
मेघ।
‘‘माँगो, या माँगते हो?’’
सुदामा ने अनुभव क उन श द म बहती िव ु धारा। वह साधारण व य नह था, वह तो जैसे आकाशवाणी थी।
उ ह ने भी कहा था क हार को िक माँगो, या माँगते हो; िकतु िकतना थोथा और िन ाण था उनका वह कहना।
‘‘म क ण क थाह पाना चाहता ।’’ सुदामा ने न कछ सोचा और न समझा। वे तो बस क ण को नापना चाह रह
थे।
महा मा मुसकराते ए सुदामा क ओर देखते रह। सुदामा भी स ए िक ऐसा न पूछा िक महा मा चार
िदशा िचत।
‘मूख! वरदान को न म खो रहा ह। यहाँ भी ान-िवलास म उलझ गया। धन नह माँग सकता था। माँग लेता
इतना िक िफर द र ता का मुख देखना ही न पड़ता।’ सुदामा क मन म कोई वर चीखता आ उनको क च गया।
‘ओह, यह मने या िकया? म सुनहर अवसर से सदा चूक य जाता ?’ सुदामा ने मन-ही-मन वयं को
िध ारा।
‘अब पुनः जीवन म ऐसा अवसर नह आएगा।’ सुदामा को क चनेवाला वर कट आ, ‘ब त आ तो यह
महा मा दशन बघारते ए यह कह देगा िक क ण अथाह ह। बस हो गई बात समा । जो वर तुमको धनवा बना
सकता था, उससे तुम और द र होकर लौटोगे। स य ह िक द र होना तो कोई तुमसे सीखे। तुम एक काम करो
िक एक िव िव ालय क थापना करो और उसका मूल वर रखो—द र होना सीख।’
‘‘ या आप यह वर नह दे सकते? यह आपक साम य से बाहर ह या?’’ महा मा को मौन देख सुदामा ने जैसे
उनक असमथता पर यं य िकया।
‘‘दे तो सकता , पर तु हारी पा ता से अनंत गुना देना हो जाएगा वह। यह पाते ही तुम िमट जाओगे। िफर तुम नह
रहोगे। तुम खो जाओगे अनंत म, समा जाओगे िवराट म और िफर वही िवराट हो जाओगे। ठीक वैसे जैसे बूँद
सागर क थाह लेने चले और वयं को सागर म िगरा दे। एक बार वह सागर म िगरी तो िफर बूँद उस सागर म
कहाँ खो जाएगी, यह उसको पता ही नह चलेगा। यिद तुम वयं को िमटा देने को त पर हो तो कहो। म तु ह क ण
क थाह दे दूँगा।’’
महा मा क बात सुनकर सुदामा डर गए। उनको रामदास क गित पता ह और वह भी सुनाई दे रहा ह, जो अघोरी
ने कहा था िक उसने कछ ऐसा देख िलया ह, जो उसे नह देखना चािहए था।
‘‘नह , म अपने को िबना िमटाए क ण क थाह चाहता ।’’ सुदामा धीर से बोले।
‘‘तो िफर अ य वर माँग लो।’’ महा मा मुसकराए।
‘र नाकर क व पर डोल रहा ह। माँग ले मूख र न का अंबार!’ सुदामा क मन म क चनेवाला वर कट हो
गया।
‘‘तो िफर मुझे यह वर दीिजए िक क ण का पे्रम, उनक कपा- ि मुझ पर सदा बनी रह। क ण मुझे कभी न
िबसराएँ।’’ सुदामा ने जैसे अपने मन म उठते वासना क ेत क वर क ित वयं को बहरा कर िलया।
‘‘तथा तु!’’ महा मा ने आशीवाद क प म सुदामा क िसर पर अपना हाथ रख िदया।
q
आठ
बा य-काल म बलराम क ण को ब त सताते थे। उस सताने क पृ भूिम म ई या या ेष का त व नह था।
वह तो बाल-सुलभ मनोिव ान का एक भाग था। बलराम ने सदा क ण क ित बड़ भाई क प म अिभभावक क
भूिमका िनभाई। वे क ण को देखे िबना याकल हो जाते थे, क ण क सुर ा क िलए सदा िचंितत रहते थे। जैसे-
जैसे क ण बड़ होते गए, वैसे-वैसे उनको एक बात समझ आने लगी िक क ण उनसे ब त अिधक बु मान और
ितभा-संप ह। नैसिगक प से उ ह वह ा ह, िजसे पाने क िलए मनु य क अनंत ज म यय हो जाते ह और
तब जाकर उसक आ मा का कण मा िवकास होता ह। पर उसका क ण तो जैसे िवकिसत आ मा क साथ
अवत रत आ था। शी ही बलराम को यह बात समझ आ गई िक उनम शारी रक श तो अपार ह, परतु िकसी
गंभीर थित को लेकर िनणय लेने का आ मिव ास उनम नह ह। इसक िलए वे ायः क ण पर ही िनभर रहने
लगे थे। कभी अपने मन क करते और क ण उनका िवरोध नह करते तो वे मान लेते थे िक वे सही ह। यिद कोई
काय उनको ि य होता और क ण उससे असहमत होते थे तो वे उससे तक-िवतक करते थे और िफर ब त ज द
ही वाद-िववाद म क ण क सामने उनक पैर उखड़ जाते थे। िफर वे िववश हो क ण क बात मान लेते थे। बाद म
उ ह ने क ण से तक-िवतक करना भी एक कार से छोड़ ही िदया। उनको अपने िववाह का वह संग जब भी
मरण आता ह तो वे अपने का हा क चंचलता पर मुसकराए िबना और बु का लोहा माने िबना नह रहते। उ ह
मरण ह वह िदन। इस छिलया ने चुपक से आकर उनक आँख को अपनी अँगुिलय से ढक िदया था।
‘बताओ, म कौन ?’ क ण ने अपने वर को भयानक बनाते ए पूछा था।
‘आँख से हाथ हटाओ तो बताऊ। यह या बात ई िक आँख पर हाथ रख दो और िफर पूछो िक कौन ह?’
बलराम बोले, ‘तुम जो भी हो, सामने आओ और यिद म तु ह जानता होऊगा तो बता दूँगा िक तुम कौन हो और
यिद नह जानता होऊगा तो तुमसे तु हारा प रचय जानकर तु ह बता दूँगा िक तुम कौन हो?’
‘हम तु हार होनेवाले सुर ह।’ क ण ने अपनी हसी रोकते ए कहा।
‘तो अपने सुर को हम पटकनी देते ह।’ बलराम ने फित से पलटकर क ण को पटका और उनक छाती पर
चढ़ बैठ। उसने मु ी- हार क िलए हाथ उठाया।
‘ या करते हो, दाऊ! म तु हारा याम।’ क ण ने बलराम का हार क िलए उठा हाथ रोकते ए कहा।
‘म जानता िक मेरा होनेवाला सुर मेर याम का वेश धारण कर आया ह और अब उसक भाषा भी बोल रहा
ह। अब तो मुझे अपने सुर क सेवा-शु ूषा करनी ही पड़गी।’ बलराम ने दो-तीन मु क ण क जमाए।
‘देख लो, यिद और मारा तो जीवन भर चारी का जीवन िबताना पड़गा। रवती भाभी नह िमलगी।’ क ण ने जैसे
बलराम को चेतावनी दी।
रवती का नाम सुनते ही बलराम ल ा से आर आ अपना मुख िछपाने क िलए क ण क छाती से उठकर
झाँक से बाहर क ओर देखते ए बोले, ‘जो मुँह म आए, सब बोलता रहता ह।’
‘मुँह म नह , जो दय म आए, वही बोलता ।’ क ण उछलकर बलराम क स मुख आ गए। बलराम ने दूसरी
िदशा म अपना मुख मोड़ िलया।
‘पता नह तू िकस रवती क बात कर रहा ह?’ बलराम हकलाए।
‘उसक , िजसक ित आप उसक स दय और बलवती होने क क ित सुनकर अनुर हो गए ह—राजा रवत क
पु ी।’
‘तुमसे यह सब िकसने कहा?’ बलराम का मुख बता रहा था िक उनक गोपनीयता पकड़ी गई ह।
‘यह यथ का न ह।’ क ण ने टोका।
‘तो साथक न या ह?’
‘यही िक यह बात स य ह या अस य?’
‘मने...मेरी िच...तुम ये िनराधार बात कहाँ से ले आते हो?’ बलराम को समझ नह आ रहा था िक वे क ण को
या उ र द।
‘ठीक ह, म जा रहा आपक कभी न होनेवाले सुर राजा रवत क पास और उनको कह दूँगा िक मेर अ ज
बलराम क भरोसे न रह। वे अपनी रवती का िववाह कह और कर द; य िक रवती क साथ उनका संयोग होना
िनराधार बात ह। म जा रहा । तब तक आप ारका का िनमाण काय देख। आप जानते ह िक म न तो प रहास म
ऐसी बात करता और न ही िकसी कार का संकोच करता । बाद म मुझसे मत कहना िक यह या कर आए,
याम!’
बलराम ने देखा िक क ण तेजी से मुड़ और ार क ओर बढ़ गए।
‘ यामसुंदर को।’ बलराम का वर याकल था। वे जानते ह क ण को। इसक िलए कछ भी असहज नह ह। कोई
अ य हो तो वे यह मान भी ले िक य ही कह गया। पर यह क ण तो...
‘हम आपक वे सुर ह, िजनको आपने पीटा था, अतः हम यामसुंदरजी कह।’ क ण ने अपनी हसी रोक ।
‘ क जाओ, हमार यामसुंदरजी!’ बलराम ने पुकारा।
‘अब ठीक ह।’ क ण बलराम क ओर बढ़, ‘अब बताइए, यह स य ह या लोकापवाद?’
‘तुम जब िकसी बात को कहते हो तो उसम बताने जैसा कछ नह होता, कवल वीकार करना होता ह।’
‘तो आप वीकार करते ह?’ क ण ने अपनी तजनी बलराम क ओर करक पूछा।
‘मेरा मन याकल हो रहा ह, याम।’ बलराम गंभीर हो गए।
‘यह सोचकर िक कह रवती को कोई और हर कर न ले जाए।’
‘नह , यह सोचकर िक कह मेर जीवन म कोई ऐसी ी न आ जाए, जो हम भाइय क पे्रम म बाधा उ प कर।
हमम वैर और ेष पैदा कर दे। म यही सब सोचकर रह जाता ।’
‘तो म जाकर पूछ आता िक ह रवत-पु ी रवती! तुम मुझे बताओ िक यिद बलराम तुमसे िववाह कर तो या तुम
मुझसे ई या कर हम भाइय म वैर तो नह ठनवा दोगी; य िक दाऊ अपने याम से ब त पे्रम करते ह। आपको
यह न लगे िक आपका पित प रवार क अ य सद य को ेम य बाँट रहा ह। उसका ेम तो आपक बपौती ह।’
‘तुमसे कोई कसे बात कर याम!’ बलराम खीजे, ‘िकसी भी बात को गंभीरता से नह लेते हो।’
‘गंभीरता हताश लोग क िलए घाव ह और शु क लोग क िलए आभूषण। परतु म तो सदा उ सव म रहता ।
उ सव म कसी गंभीरता!’ क ण क मुख पर स ता नाच रही थी।
‘मेरी सम या का हल या हो सकता ह?’ बलराम का वर िचंितत था।
‘हलधर क सम या का हल खोजो िदशाओ!’ क ण ने आकाश क ओर अपने हाथ उठा िदए।
‘देख याम, मुझे तो ना रय क समझ ह ही नह । तू तो रहा ही सदा गोिपय क साथ ह। तूने उनको अपने संकत
पर नचाया ह। मुझसे तो कोई ी माग भी पूछ ले तो मेर हाथ-पैर फल जाते ह। यो ा चाह पचास आ जाएँ, सभी
को धूल म िमला दू।ँ ’
‘शांित...शांित...शांित।’ क ण ने गंभीर होने का अिभनय िकया, ‘आप या चाहते ह? अपने मन को मेर सामने
प कर।’
‘म चाहता िक तुम िकसी कार एक बार रवती से िमलने का योग बनाओ। तु हारी पारखी ि से कछ भी िछपा
नह रह सकता। तुम यिद अनुमित दोगे तो ही म इस िवषय म सोचूँगा।’
‘अथा यिद कल को रवती क कारण कछ कलह आ तो आप मुझ पर सारा दािय व डालने क िलए वतं ह गे
िक मेर ह ता र क बाद ही आपने रवती से िववाह िकया।’ क ण ने ितरछी भौह करक बलराम क ओर देखा,
‘िववाह आप कर और िशव क समान िवषपान म क ।’
‘यही तो म चाहता िक यिद भिव य म कोई पा रवा रक कलह हो तो संकट म तुम पड़ो। म बौ क यायाम नह
कर सकता। यिद कछ अनुिचत आ तो म क गा िक याम से बात करो। मने तो उसक अनुमित से िववाह िकया
था। आप जान और याम जाने।’ बलराम मुसकराए।
‘तो सब मुझ पर छोड़ते ह?’ क ण ने जैसे सावधान िकया।
‘अब तक सब तुझ पर ही तो छोड़ा ह। तेरी ही तो सारी बात मानता आया । कभी अपने मन क करनी भी चाही
तो तूने उसे धमस मत न कहकर करने नह िदया। अब जो तू उिचत समझे, कर।’ बलराम ने क ण को जैसे डाँटा।
बलराम तो समझे थे िक क ण माता-िपता से इस बात क चचा करगा और उनक िपता राजा रवत तक अपना
संदेश िभजवाएँगे। पर क ण तो माता-िपता को सूचना मा देकर तुरत राजा रवत से िमलने चल िदया और जब लौट
तो उनक हाथ म िम ा क टोकरी थी। वह सभी का मुँह मीठा कर रह थे। अनेक यादव महानुभाव जब बलराम
को बधाई देने आए तो उ ह ात आ िक क ण रवती से उनक िववाह क बात प भी कर आए ह।
‘‘तू यह कसी लीला करता ह, याम?’’ बलराम समझ नह पा रह थे िक वे ल ाए ए थे अथवा घबराए ए।
‘‘आप िन ंत रह, दाऊ! इस धरा धाम म रवती आपक िलए ही अवत रत ई ह।’’ यह कहते ही क ण ने एक
पूरा मोदक बलराम क मुँह म डाल िदया। बलराम ... करते रह और क ण ने िम ा का टोकरा उनको थमाते
ए कहा, ‘‘जाइए, मैया और बाबा से आशीवाद लीिजए।’’
वे क ण क आ मिव ास से चिकत थे। माँ-बाबा भी क ण क परामश का अनुकरण करते थे। लगता था िक
क ण क होते िकसी को अपनी बु का भरोसा ही नह रह गया था। वह कलवृ हो गए थे और कलवृ जैसे
अपने दािय व से मु होकर पुनः बाल प हो गए थे।
ब त समय से क ण ने बलराम को वतं छोड़ िदया था। उनको ात होता था िक उनक िकस काय का
अनुमोदन क ण नह करगे, इसिलए वे उन काय को क ण से िछपाकर करने लगे थे। अनेक बार उ ह यह पता भी
लग गया िक क ण को उनक िछपा कर िकए गए काय क सूचना िमल गई ह। वे क ण से उसक संबंध म लंबा
उपदेश सुनने और उन काय को याग देने क िलए तैयार भी रह। परतु िमलने पर क ण ने उनसे उस संबंध म कोई
चचा नह क ।...और आज क ण ने प कह िदया िक उसने उनक िनणय म ह त ेप करना बंद कर िदया ह।
या क ण को उ ह ने अपने यवहार से िनराश िकया ह? बलराम का मन याकल हो गया। उनक िलए क ण क
ारा उनक उपे ा असहनीय पीड़ा क जननी थी। उनको यह स नह था िक क ण उनको िनणय क वतं ता
देने क आवरण म उनसे अपना मुख मोड़ ल। वे ब त समय से यह अनुभव कर रह ह िक चाह क ण ने उनक
स मान म िकसी कार का कोई माद नह िकया ह, परतु उनका यवहार उनक ित उदासीन हो गया ह। उ ह तो
अपना वही यामसुंदर चािहए था, जो उनक असंगत बात पर उनसे िभड़ जाता था और जब तक उनक
प र थितय से सही संगत नह िबठा देता था तब तक धैय से नह बैठता था। वे यह समझ रह थे िक क ण उनसे
ह। वे चाहते थे िक वह पहले िक भाँित उनसे तक-िवतक कर, पे्रम म कठोर होकर उनको अनुशािसत कर।
उ ह ने सेवा म स अिधकारी को बुलाया।
‘‘क ण क या सूचना ह?’’ बलराम ने याकल होकर पूछा।
‘‘सूचना ह िक दोपहर से वे अपने िम सुदामाजी क साथ अपनी बैठक म ह। िकसी को वेश क अनुमित नह
ह।’’ अिधकारी ने स वर म कहा।
‘‘मने अित र प से कछ जोड़ने क िलए तो नह कहा। तुम मुझे अपने अंितम वा य से सूचना दे रह हो या
चेतावनी?’’ बलराम क यौ रयाँ चढ़ गई।
‘‘म मा चाहता ।’’ अिधकारी सहम गया और उसने अपना िसर झुका िदया।
‘‘क ण को संदेश िभजवाओ िक मने उनको त काल बुलाया ह।’’ बलराम अिधकारी क मा-याचना से संतु थे।
उनक वर म अिधकारी क ित होने का भाव ितरोिहत हो चुका था।
अिधकारी णाम कर आ ा-पालन क िलए मुड़ा।
तभी सुदामा को यान आया िक क ण आ तो जाएँगे, परतु सुदामा को इस कार छोड़कर आना और सुदामा को भी
लगेगा िक वह उनक काय म बाधा- व प उप थत हो गए ह। पहले ही वह हम असमय आकर िमलने क
अपराध-बोध से पीि़डत ह। नह , वे सुदामा जैसे कोमल िम क साथ ऐसी िहसा नह करगे। वे अपनी याकलता
और अधीरता का दंड सुदामा को य द?
‘‘ठहरो!’’ बलराम ने चौखट तक प च गए अिधकारी को पुकारा।
अिधकारी बलराम क ओर मुड़ गया।
‘‘क ण को संदेश िभजवाओ िक वे सुदामाजी को अपने साथ अव य लाएँ।’’ बलराम क वर म स ता क छ ट
थे।
‘‘जी, म तुरत संदेश िभजवाता ।’’ बलराम को स होता देख अिधकारी को संतोष आ। वह तेजी से ार क
ओर बढ़ा। वह चौखट पार करने ही वाला था िक बलराम ने पुनः उसे पुकारा। वह बलराम क पास जाकर खड़ा हो
गया। बलराम ने उससे कछ कहा नह । वे कछ सोचते ए इधर-उधर टहलते रह और अिधकारी उनक आदेश क
ती ा म हाथ जोड़ खड़ा रहा।
‘‘सारिथ से कहो, रथ ले आए। म वयं ही क ण क पास जाऊगा।’’ बलराम ने कछ पल िवचार करने क उपरांत
अपना िन कष सुनाया।
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क ण ने देखा िक वा ालाप करते-करते ांत सुदामा गहरी िन ा म वेश कर गए ह।
वे उनक ओर इस कार देख रह थे जैसे यशोदा माता उनको देखा करती थ ।
‘‘क ण, जब तु हार मन म ेम जागता ह तो तुम सबकछ भूल जाते हो।’’
क ण ने मुड़कर देखा। बलराम मुख-मु ा म खड़ थे।
‘‘दाऊ, म तो सदा पे्रमपूण । मुझम थत ेम तो कभी सोता ही नह । ‘क ण ने मुसकराकर धीर से कहा।
‘‘तीन िदन से तुम अपने सभी काय थिगत िकए जा रह हो और इधर िदन- ितिदन यदुवंिशय म आपसी कलह
बढ़ती जा रही ह।’’ बलराम का वर कछ ऊचा आ।
‘‘दाऊ!’’ क ण ने सुदामा क ओर देखते ए धीमे वर म सपे्रम पुकारा। उनक पुकार जाने म बलराम क िलए
यह चेतावनी थी िक उनको यह यान रखना ह िक सुदामा सोए ए ह। वे अपनी शै या से उठ और बलराम को
अपनी भुजा म भर कर ेमपूवक एक ओर ले गए और बोले, ‘‘यहाँ बैिठए और िफर धैयपूवक अपनी बात
किहए।’’
‘‘जब प र थितयाँ अधीर करनेवाली ह तो धैयपूवक बात कसे क जाए?’’ बलराम भड़क।
क ण ने सुदामा क ओर देखा। वे आ त ए िक सुदामा क गाढ़ िन ा पर बलराम क उ वर क नगाड़
बाधा नह डाल पा रह ह।
क ण मुसकराते ए बलराम क ओर देखते रह।
‘‘अब या हो गया तुमको?’’ बलराम का धैय जैसे चुकता जा रहा था, ‘‘तुम तो मेरी बात का ऐसे आ वादन कर
रह हो जैसे मने िकसी ंगा रक का य क कोई पं कही हो।’’ बलराम चौक पर बैठ गए।
‘‘दाऊ!’’ क ण बलराम क चरण म बैठ गए, ‘‘आपने अभी कहा िक जब प र थितयाँ अधीर करनेवाली ह तो
धैयपूवक बात कसे क जाए?’’
‘‘कहा और अपनी बात क पुनरावृि करता , कछ असंगत नह कहा।’’ बलराम ने अपनी हथेली पर मु ा
मारा।
‘‘तो मुझे यह बताइए िक धैय होता िकसिलए ह? अधीर प र थित म साधने क िलए ही तो। जब शांत प रवेश ह
तब कोई य अधीर होगा? िजतनी िवकट प र थित हो, उतने ही धैयपूण होकर चचा करनी चािहए।’’ क ण क
वाणी म माधुय था, ‘‘आपको, हलधर बलराम को प र थित याकल कर जाए और आप अधीर होकर बात कर,
यह तो हो ही नह सकता। यह सब आप मुझे परम िव ाम म देखकर ई या क वशीभूत हो कह रह ह। इस समय म
तो िकसी से िमल नह रहा तो आगंतुक आपको ही अपना सबकछ सुना रह ह गे। ऐसे म आपका होना तो
वाभािवक ही ह। काय का इतना अिधक भार मने आप पर डाल िदया ह। यिद आप कह तो म सुदामा से मा
माँगकर इ ह िवदा कर दूँ।’’
‘‘नह ...नह ...मेरा यह आशय नह था।’’ बलराम का वर कोमल हो गया। उ ह ने भी सुदामा क ओर देखा और
अपनी ुिट का ाय करते ए बोले, ‘‘सुदामा तो हम दोन क आ मीय ह और तुम ही उ ह घेर बैठ हो। यह
भी नह आ िक सुदामा को एक िदन मेर ासाद म अितिथ क प म भेज देत।े हम भी उनसे कछ ान पा लेत।े ’’
‘‘ ान पाने क दि णा- व प आप सुदामा को सोमरस तुत करते तो सुदामा का सारा ान धरा-का-धरा रह
जाता । वह आपको ही अपना गु धारण कर लेते।’’ क ण धीर से हसे।
‘‘वैसे म ािनय क संगत से दूर ही रहता । वे बु का ऐसा यायाम करवाते ह िक शरीर ऐसे थक जाता ह,
जैसा िक पूर िदन गदा का अ यास करने पर भी न थकता हो। मुझे तो म ि य ह।’’ बलराम बोले।
‘‘तो सुदामा को गदा ही िसखा दीिजए।’’ क ण क नयन म बाल-सुलभ योित कट ई।
‘‘िजतना भार सुदामा का ह, उससे कह अिधक तो हमारी गदा का होता ह। तुम कसे िम हो सुदामा क सुदामा
गदा सीखकर या अपने ानी ित ं य को गदा से पीटगे?’’ बलराम हसे, ‘‘क पना करता िक सुदामा क
िलए जो गदा बनाई जाएगी, वह धातु क न होकर व क होगी।’’
‘‘व क नह , कपास क ।’’ क ण ने अपनी उठती हसी को रोकने का यास िकया।
‘‘िकतना मनोरजक लगगे सुदामा कपास क गदा पकड़।’’ बलराम भी अपनी हसी को रोकते-रोकते भी ब त हस
िदए।
‘‘दाऊ, आप िकसी अधीर कर देनेवाली प र थित क चचा कर रह थे?’’ क ण ने अबोध भाव से बलराम क
ओर देखा।
बलराम को यान आया िक वे तो गहन-गंभीर चचा करने आए थे। वे हसने कसे लग गए। जब वे आए तो िवषय
क तनाव से भर ए थे और इस मनभावन मनमोहन ने उनको अपने पाश म बाँधकर कब हसाना आरभ कर िदया,
इसका उनको पता ही नह चला । उ ह ने पुनः वयं को तनाव त कर िलया।
‘‘हमार िलए संकट खड़ा होने जा रहा ह।’’ बलराम का वर िचंितत था।
‘‘हम दोन क िलए?’’ क ण ने िचंितत होने का अिभनय िकया।
‘‘हम अथा सभी यादव क िलए।’’ बलराम क माथे पर िचंता क रखाएँ उभर ।
‘‘दाऊ!’’ क ण बलराम क घुटने पर मु ा मारते ए रगमंच क अिभनेता क समान बोले, ‘‘इस समय यादव सेना
सागर, पवत और भंजन का भी माग रोकने म समथ ह। हमने एक-एक रा स को खोज-खोजकर मार डाला ह।
और आप कह रह ह िक...’’
‘‘...वह बात नह ह। म िकसी सैिनक आ मण क संकट क बात नह कर रहा।’’ बलराम ने क ण क बात
काटते ए कहा, ‘‘इस समय कौरव और पांडव क म य पर पर बढ़ते तनाव को देखते ए और उनक ओर से
िविभ राजा को अपने-अपने प म करने क तैयारी को देखते ए लग रहा ह िक यु अव य होगा।’’
बलराम ने क ण क ओर देखा। उनक गंभीर मु ा को देखकर वे बोले, ‘‘देखा, हो गए न तुम भी िचंितत।’’
‘‘म तो आपको लेकर िचंितत , दाऊ िक आप िकसी अ य क यु क िलए य िचंितत ह? िजसका यु होगा,
वह लड़गा। इससे यादव पर संकट कहाँ से आ गया?’’ क ण ने अपने वर म उपे ा का भाव कट िकया।
‘‘क ण, िजनका यु होगा वे हमार संबंधी ह।’’ बलराम ने अपनी बात को रखांिकत िकया।
‘‘तो या आ? वे हमसे नह लड़ रह।’’ क ण ने सहज वर म कहा।
‘‘पर हम इस यु से वयं को अलग भी तो नह रख पाएँगे। मने सुना ह िक मेरा िश य दुय धन यह अपे ा कर
रहा ह िक यिद यु आ तो म उसक प से यु क गा।’’ बलराम क वर म असहाय और ं त होने
का क था।
‘‘यह िनणय तो आपका ह। या उसने आपक पास इस कार का संदेश भेजा ह?’’ क ण ने पूछा।
‘‘नह ।’’
‘‘तो िफर िचंता िकस बात क ह?’’
‘‘िव त सू से ात तो हो ही जाता ह िक आगे या होगा। वह अपने प म अनेक राजा को करने का
अिभयान चला चुका ह।’’ बलराम ने बताया।
‘‘तो आपने या सोचा ह?’’ क ण ने पूछा।
‘‘वही पूछने तो तेर पास आया िक या सोचूँ?’’ बलराम झ ाए।
‘‘मुझसे ‘ या’ पूछकर आप ‘ या’ सोचगे?’’ क ण ने िसर को चकरानेवाला एक घुमावदार न बलराम से कर
डाला।
‘‘वह सब मुझे नह पता। मुझे तो तुम इतना बताओ िक तुम िकसक प म हो?’’ बलराम ने जैसे क ण का िनणय
जानना चाहा।
‘‘यिद आपको िकसी का प लेना हो तो आप िकसका प लगे?’’ क ण ने अपनी ि बलराम पर िटका दी।
‘‘म अपना िनणय तु हारा मत जानने क बाद लूँगा।’’ बलराम ने अपना िनणय सुनाया और क ण को एक कार से
आदेश देते ए कहा, ‘‘अब तुम मुझे अपना प बताओ। यु क ऐसी िवकट तावना तैयार हो रही ह। हम भी
इस ंथ का एक पृ बनना ही पड़गा। ऐसे म तुम िकसका प लोगे?’’
‘‘दाऊ, यिद आप न क भाषा थोड़ी बदल ल तो मुझे सुिवधा होगी।’’ क ण ने पे्रम-भाव क साथ बलराम क
पैर दबाने आरभ कर िदए।
‘‘तु ह भाषा से या असुिवधा? मेर कहने का अथ तुम समझ ही रह हो। तु ह कछ न कहा जाए तो भी तुम सब
समझ लेते हो। िफर इस सीधी-सपाट भाषा को य नह समझ पा रह?’’ बलराम ने व ि से क ण क ओर
देखा और चेतावनी देते ए बोले, ‘‘देखो, मेर साथ ड़ा करने क आव यकता नह ह।’’
‘‘बालपन म आपने मुझे ब त िखजाया ह, दाऊ! तब मने आपको एक बार भी यह नह कहा िक आप मेर साथ
ड़ा न कर। अब यिद म आपक साथ ड़ा नह क गा तो िकसक साथ क गा?’’ क ण मुसकराए।
‘‘अ छा, कर ड़ा। म भी देखूँ िक तू उ र देने से कसे बचता ह।’’ बलराम क वर म जैसे चुनौती थी।
‘‘बच कौन रहा ह और यहाँ बचना चाहता ही कौन ह? म तो साथक उ र देना चाहता । इस न को दूसर कोण
से पूछा जा सकता ह।’’ क ण ने बलराम क ओर देखा।
‘‘म सुन रहा , तुम कहते रहो।’’ बलराम जैसे होने क तैयारी कर रह थे।
‘‘म आपसे यह नह पूछता िक आप िकसक प म ह। आप यह बताइए िक आपको िकसका प यायसंगत
लगता ह? या यिद आपको िकसी का प लेना पड़ तो आप अ याचारी का प लगे या सदाचारी का?’’ क ण ने
बलराम को घेरना आरभ िकया।
‘‘यह न कहाँ से आ गया?’’ बलराम ने िवरोध िकया।
‘‘दाऊ, जब हम जल म ककड़ डालते ह तो उसक क से एक लहर उठती ह। िफर वह लहर अनेक लहर को
ज म देती ह। यह न भी आपक फक ककड़ से उ प एक लहर ही ह।’’
‘‘म सदाचारी का ही प लूँगा।’’ बलराम ने धीर से कहा। वे समझ रह थे िक क ण उ ह घेर चुका ह।
‘‘आप पहले न से बचकर िनकल आए। पांडव और कौरव म से िकसका प यायसंगत ह?’’
‘‘हम याय-अ याय से या लेना? वे हमार अपने ह। हम तो समानता का यवहार करना ह और यह भी देखना ह
िक हम धम-संकट से बचे रह।’’ बलराम का वर प तः यह कह रहा था िक वे इस न का उ र देने से
बचना चाह रह ह।
‘‘आप यह कसी बात कह रह ह, दाऊ!’’ क ण क वर म तेज था, ‘‘यिद हम याय-अ याय से लेना-देना नह था
तो हमने अपने मामा कस को दंिडत य िकया? जरासंध, कालयवन, िशशुपाल, मी इ यािद अ याचा रय का
वध य िकया? म देख रहा िक कल तक जब हम संघषरत थे तो धम और याय क थापना क िलए रा स
को खोज-खोजकर मारते थे। हमने लगभग सभी मुख अ याचा रय को मार िदया तो आज यादव वीर उ ड और
अनुशासनहीन होते जा रह ह। अपनी श क मद म वे िशशुपाल, जरासंध और कस बनते जा रह ह। बकासुर क
समान अब उनक अधािमक क य िनयिमत होते जा रह ह। श का मद उनका पतन कर रहा ह। यिद सा ा य
श शाली हो तो उसका लाभ आ मा क िवकास म लगाकर एक ऐसी िवकिसत जाित तैयार क जा सकती ह,
िजसक गभ से ज म लेनेवाली संतान नाम मा क यास से बु व को उपल ध हो जाएँ और वही श शाली
समाज यिद उस श का दु पयोग करगा तो वह िवकत संतान को ज म देगा और िवकत पीढ़ी को तैयार करगा।
इस समय यादव सा ा य को जीवन क मूलभूत आव यकता क कोई िचंता नह । ारका म अ , व और
आवास का कोई अभाव नह ह। सबक पास समय ह। पर उस समय का उपयोग जीवन-ऊजा को ऊ वगित देने क
थान पर उसको अधोगित म सहज प से बहने क िलए वतं छोड़ िदया गया ह।’’ सहसा क ण क तेज वी
वर का ताप कट आ, ‘‘और आप कह रह ह िक हम याय-अ याय से या लेना? वे हमार अपने ह! म स य
कहता दाऊ, िक यिद हमारा वंश रा स क पद-िच पर और आगे तक गया तो म उनको याय क ित ा
म, धम क य म आ ित क समान छोड़ दूँगा।’’
बलराम कछ नह बोले, चुप रह।
‘‘म जानता िक यह आप असावधानीवश कह गए ह। आप याय-अ याय क उपे ा कर ही नह सकते। पर
असावधानी म भी यिद सावधानी का बोध रखा जाए तो असावधानी हो ही न। साथ-ही-साथ आप यह भी मरण
रख दाऊ, िक आप ऐसी कोई भी िट पणी सावजिनक प से न द, जो वाथ और दु लोग क िलए उदाहरण क
प म यु होकर उनका सहयोग कर। जनमानस आपका उदाहरण देकर यह न कह िक जब बलराम जैसे नीित-
कशल और धािमक महापु ष को याय-अ याय से कछ लेना-देना नह ह तो हम ही स य को ढोने क या
आव यकता ह।’’
‘‘यिद देखा जाए तो पांडव ने भी दुय धन को आहत िकया ह।’’ बलराम को जैसे कछ नह सूझा तो उनक मुँह से
िनकल गया। वे समझ रह थे िक उनको यह नह कहना चािहए था। अभी क ण ने उनको समझाया ह िक कोई भी
िट पणी देने से पूव वे उसका मू यांकन कर ल।
‘‘आहत! पांडव ने दुय धन को आहत िकया? पांडव ने! ओह दाऊ, यह आप कह रह ह—पांडव ने! अब यिद म
कछ कह दूँगा तो आप आहत हो जाएँग।े ’’ क ण जैसे अपने आवेश को पी रह थे, ‘‘वे पांडव िजनक आ मा सदा
धम म वास करती ह, उ ह ने दुय धन को आहत िकया? वे पांडव िजनको ैतवन म सताने, अपमािनत करने,
अपना वैभव दिशत करने तथा उनक क को देखकर आनंिदत होने क िलए वह दुरा मा दुय धन अपने राजसी
वैभव क साथ गया और गंधव क राजा िच सेन ारा बंदी बना िलया गया। वे उसे दंिडत करनेवाले थे, परतु
धमा मा युिधि र क आ ा से अजुन ने उस अधम दुय धन क ाण क र ा क । िजन पांडव क ह या क िलए
दुय धन सदा य नशील रहा, उन पांडव ने कभी उसका अिहत नह सोचा। पांडव क ओर से एक भी कच नह
रचा गया और दुय धन क ओर से सदा ष यं क पटकथाएँ िलखी जाती रह और आप कह रह ह िक पांडव ने
दुय धन को आहत िकया? ओह, दाऊ!’’ क ण झटक क साथ उठ खड ए और बलराम क सम आवेश म
टहलने लगे। सहसा वे क गए । उनक वर क विन जैसे बलराम को ल त करना चाह रही थी, ‘‘भीमसेन को
िवष देना और िफर उसक हाथ-पैर बाँधकर गंगा म िन त ह या क िलए डबो देना, वारणावत क ला ागृह म
हमारी बुआ सिहत पाँच भाइय क ह या का आयोजन, ूत ड़ा ारा छले जाना—म कहाँ-कहाँ तक दुय धन क
पाप िगनाऊ? और आपने उसक स कार एवं उसक चाटका रता से स होकर उसे अपने प िश य का स मान
दे डाला। ऐसे अवगुणी, दु और अधम िश य क गु होने का आप या यश पाएँगे, दाऊ?’’
‘‘पांडव ने नह , ौपदी ने दुय धन को आहत िकया ह।’’ बलराम ने जैसे अपनी बात सँभाली और दुय धन का
समथन िकया।
‘‘इसीिलए...इसीिलए...इसीिलए कहता दाऊ, िक पापी का अ नह खाना चािहए। इसीिलए बार-बार चेताता
िक पापी का अ नह खाना चािहए।’’ क ण क वर म बलराम क िचंतन को लेकर पीड़ा कट ई, ‘‘अ
हमारी ाण-ऊजा बनता ह। उसका पाप अथवा पु य हमारी िज ा से बोलता ह और बु उस पाप अथवा पु य
क अ से उ प ई नकारा मक और सकारा मक ऊजा से हमार म त क को वशीभूत कर प रचािलत करती ह।
पर आप इस िव ान को समझ तब न।’’ क ण बलराम को जैसे िध ार रह थे, ‘‘दुय धन क मिदरा म पाप िमला
ह, दाऊ! पाप! उसम जो लािलमा ह, वह धमा मा क र क ह। वह आपको चषक-पा म ऋिषय का र
िपलाता ह।’’
‘‘उस राजा दुय धन को ौपदी ने ‘धृतरा पु ’ कहा। िकतने ल ा क बात ह िकसी क नैसिगक र ता क िलए
उसका प रहास करना! वह भी तब, जब िक वह अभाव त पा कहनेवाली ी का सुर हो। वह अपने देवर
को अंधे बाप क संतान कहकर उसे भी अंधा कह रही ह।’’ बलराम क कहने म यह विन थी िक क ण िजनका
प ले रहा ह, वे भी कछ कम नह ह, ‘‘पूरा कौरव-समाज इस बात से आहत ह।’’
‘‘ ौपदी ने?’’ क ण पीड़ा म हसे, ‘‘आपको यह हो या गया ह, दाऊ? ौपदी एक सुसं कत िवदुषी ह। वह
िकसी का अपमान करने का िवचार भी नह कर सकती। दुय धन ने इतने अ याचार िकए। ौपदी का जो अपमान
िकया, वह तो अ य ह। आपने कभी उन क य क भ सना नह क । क णा का चीर-हरण करने म कौरव-समाज
आहत य नह आ?’’
‘‘तो या मने उन क सत काय क शंसा क ?’’ बलराम को जैसे अपना प रखने का अवसर िमला।
‘‘नह , आपने उनक शंसा नह क ; परतु आप मौन रह। आप चाहते तो दुय धन को उसक इन क य क िलए
िध ार सकते थे, उसे दंिडत कर सकते थे; पर आपने वह सब नह िकया। आप मौन रह।’’ क ण का वर
बलराम को भी दोषी िस कर रहा था, ‘‘दुय धन ने आपको अपना गु धारण िकया और आपक सेवा म सारा
क सा ा य िबछा िदया। आप उसक स कार क कारण उसक ित उदार रह। उसने आपका स कार िश य व भाव
से नह िकया ह, वर वह एक कार से आपको वश म रखने क िलए, अपने प म रखने क िलए स कार क
प म उ कोच देता रहा और आपको यह सब िदखाई नह िदया या आपने उसको देखने क आव यकता नह
समझी। उसक चांडाल चौकड़ी यह भली कार जानती ह िक म उनक अधम और अ याचार को कभी वीकार
नह कर सकता। इसिलए म उनक कक य क प म मौन रहना तो दूर उनका िवरोध ही क गा; इसिलए उ ह ने
आपको घेरा। मेर िव आपको अपने प म करने का यह एक सुिनयोिजत ष यं रहा उनका और म देख रहा
िक वे आपको मुझसे दूर करने क अिभयान म सफल हो रह ह।’’ क ण क वर का तेज शांत आ। उनका वर
जैसे उदासीन हो गया था, ‘‘मने भी आपक वतं ता म कोई बाधा नह दी। म चाहता था िक आप वयं देख िक
कोई अपने उपयोग म लेने क िलए आपको छल रहा ह। इसीिलए म क सत भाव रखनेवाल का भोग वीकार नह
करता। िफर चाह वे मेर स कार हतु छ पन भोग लगाएँ। पिव और भ पूण भाव से अिपत सूखी रोटी मुझे
अमृतमयी लगती ह।’’
‘‘तुम बात क िदशा मत बदलो। मुझे यह बताओ िक ौपदी का यह कथन या उिचत ह?’’ बलराम ने अपने वर
म आवेश का समावेश िकया।
‘‘कब कहा ौपदी ने ऐसा?’’ क ण क नयन म आवेश क लाली आ य िलए ए थी।
‘‘राजसूय य क प ा जब दुय धन मय दानव िनिमत युिधि र का महल देखते ए जल म थल का म, थल
म जल का और भीत म ार का और ार म भीत का म पाकर िगरता-पड़ता रहा था। उस समय ौपदी ने
अपनी सिखय क साथ हसते ए दुय धन को अपमािनत करने क उ े य से ये कथन कह थे।’’
क ण मुसकराते ए दयनीय भाव से बलराम क ओर देखते रह।
‘‘ऐसे या देख रह हो?’’ बलराम कछ झपे।
‘‘यही देख रहा िक यिद एक मेघ का छोटा सा टकड़ा या घनीभूत कहरा तेज वी सूय क आगे आ जाए तो वह
उसका सारा तेज ही जैसे हर लेता ह। आप इतने बु मान और धािमक य ह, िकतु उस नराधम दुय धन क
अ का य भाव आपम देख रहा । उसी िवषा अ क दंश को िमटाने क िलए म अ े म भंडार का
आयोजन करता । वयं उस भोजन म अपने को रस- प म पका देता िक मेरी ऊजा भंडार क साद क प म
जाकर मेर बंध-ु बांधव म ाणवा र का िनमाण कर, िजससे वह संजीवन र , दूिषत र को पिव और
रोगाणु-मु कर दे।’’ क ण क वर म जैसे शंख विन ई, ‘‘दुय धन िम याभाषी ह, दाऊ! उसने आप जैसे लोग
से सहानुभूित पाने क िलए तथा ौपदी क चीर-हरण को उिचत ठहराने क िलए यह दु चार िकया ह। अपने
पापकम को ढकने क िलए वह सदा ौपदी पर एक व य को आरोिपत कर अपने पाप-बु भाइय और लोभी
िम क आवेश को सदा सि य रखना चाहता था। पु -मोह म तथा ने से अंधे धृतरा और वे छा से नयन
ढक लेनेवाली अपनी माता गांधारी को यह बताकर वह उनको यह अनुभूित कराकर पीि़डत करना चाहता था िक
देखो, तुम अंध क कारण एक ी भी मुझ ने वाले को अंधा कहकर अपमािनत कर रही ह। वह बार-बार उनक
दुःखद नाड़ी को इसिलए दबाता रहा िक वे उसक पाप कम क सम बाधा- व प यिद आना भी चाह तो उनको
यह अपमािनत िट पणी रोक ले।...और आ भी यही। इस समय आप भी उस िम या व य क िवषाणु से त
हो गए ह। आप मुझे यह बताइए िक िजस समय दुय धन फिटक महल म भीत से ट र मार रहा था उस समय
या ौपदी वहाँ थी?’’
‘‘होगी ही, तभी तो यह बात उठी।’’ बलराम ने अपने कधे उचकाते ए कहा।
‘‘ िमत व य मत दीिजए, ामािणक त य किहए। आपक पास इस बात का आधार या ह िक यह िट पणी
ौपदी ने क थी?’’ क ण का वर कठोर हो चला था।
‘‘दुय धन वयं आधार ह। वही माण ह।’’
‘‘िम या माण ह वह। ेषपूण आधार ह वह।’’ क ण क मु याँ िभंच गई। वे बोले, ‘‘म आपको सारी बात
बताता , सारा संग दोहराता । उस समय वहाँ अजुन, भीम, नकल, सहदेव और अनेक दास-दािसयाँ थ । यह
बात भीमसेन ने कही थी, िजसे सुनकर दािसयाँ हसी थ । बाद म ह तनापुर आकर दुय धन ने अपने िपता को अपने
भावी ष यं म उनक मौन सहमित को ढ़ करने तथा उनक मन म पांडव और िवशेष प से ौपदी क ित
िवष भरने क उ े य से यह िम या वचन कहा। वह पांडव क वैभव को देखकर ई या से भ म हो चुका था। वह
पांडव क गित को देखकर इतना उ ेिलत आ िक आ मह या करने जा रहा था; िकतु शकिन क मागदशन क
अंतगत उसने इस िम या भाषण क पाँसे को अपने िपता क व क चौसर पर फका और िवजयी आ।’’ क ण ने
एक दीघ ास िलया और धीर से बोले, ‘‘दाऊ, यिद आपक यही नीित रही तो आप अपने याम को वयं से
ब त दूर पाएँगे। हो सकता ह, आपका याम ल त हो आपको अपना मुख ही न िदखाए।’’
क ण का यह वचन सुनकर बलराम का समूचा य व काँप उठा। िकतना पे्रम करता ह क ण उनसे। यह
नह कह रहा िक उनक ारा पाप का समथन करने क कारण वह उनका मुख नह देखेगा। कह रहा ह िक वह
उनको कभी भी अपना मुख न िदखा कर ऐसा दंड देगा िक वे न तो शेष जीवन म वयं को कभी मा ही कर
पाएँगे, अिपतु जीिवत रहते ए भी प ाघात से पीि़डत िकसी रोगी क समान िन ाण जीवन जीएँग।े बलराम क वह
कपकपी उनक दय को भयंकर प से कपाने लगी थी। उनको शी ही कछ िनणय लेना होगा। कह ऐसा न हो
िक क ण आवेश म कोई ित ा कर बैठ और िफर वे जीवन भर कभी पूण न हो सकनेवाला ाय करते रह।
इस क ण का कछ िव ास नह । एक बार जो कह िदया, िफर उसे उलटना असंभव ह। वह वयं ही अपनी मौज
म उसे उलट दे तो बात अलग ह।...तो वे या कर? या अपने उस िश य दुय धन का प न ल, जो सदा उनक
चरण म बैठा रहा? उ ह ने सदा दुय धन को िवन ता क ितमूित क प म ही देखा ह। उनक आने पर वह पूर
क सा ा य को िसर पर उठा लेता था। उनक स कार म तिनक भी माद न हो, इसक िलए वह वयं उनक सेवा
म उप थत रहता था। थित यह हो जाती थी िक बलराम को कहना पड़ता था िक उनक आगे से सभी खा और
पेय पदाथ हटा िदए जाएँ। उनका पेट इतना भर चुका ह िक वे अब िकसी भी भो य पदाथ को देख भी नह सकते।
इतना स कार तो अजुन भी क ण का नह करता होगा। इतना या, वे तो उसे बात म ही घेर लेते ह। उसक आड़
म वे यह कट करते ह िक वे क ण क आकषण म बँधे होने क कारण उनका यथोिचत स कार करना ही भूल गए
ह और यह भाव का भूखा- यासा उनका यामसुंदर ठगा जाता ह।
उनको दुय धन का सारा यवहार कटनीित का एक अंग लगा। रा य पाने क िलए राजा तो करते ही ह। ऐसे
म दुय धन ने यिद छल पी बल का आ य िलया तो या अनुिचत िकया? पर क ण ने जाने कहाँ से दुय धन म
अधम खोज िलया ह।
बलराम ने अनुभव िकया िक उनक मन म क ण कट प से हस रहा ह। उसक हसते ए मुख से अ न बरस
रही ह और िसंह क समान िवकराल व ती ण दाँत िदखाई दे रह ह। लगा, क ण क ओज वी वाणी क अनुगूँज
उनको अपने रोएँ-रोएँ म सुनाई दे रही थी—इसीिलए म पािपय का अ नह खाता। पाप का अ िववेक क िलए
दीमक का काम करता ह। िजस भाव का भोजन पाओगे, उसी भाव क ऊजा को पोिषत करोगे। भाव क ऊजा ही
सत, रज और तम गुण को पोषण देती ह।
‘‘यिद दुय धन या उसका कोई दूत आए तो म या क ?’’ बलराम ने बुझे वर म पूछा।
‘‘यह आपको सोचना ह दाऊ, ’’ क ण ने तट थ वर म कहा।
‘‘कसे सोचू?ँ ’’
‘‘अपनी आ मा को सा ी बनाकर।’’ क ण मुसकराए।
‘‘मेरी आ मा तो तू ही ह।’’ बलराम क वर म ेह था।
‘‘कभी-कभी आ मा िव मृत भी हो जाती ह।’’ क ण ने सुदामा क ओर देखते ए कहा। सुदामा गहरी िन ा म थे।
बलराम समझ रह थे िक क ण या कहना चाह रह ह। यह जानते ए िक क ण ने दुय धन क अनेक िनमं ण क
प ा भी उसक अ का एक दाना तक वीकार नह िकया, उ ह ने दुय धन क यहाँ जी भरकर राजभोग का
सुख उठाया। या उनको यह सब िदखाई नह िदया? वे अनुभव कर रह थे िक उ ह ने इन सब बात को जानकर
अनदेखा कर िदया था। वे यह भी नह देख पाए िक यिद पांडव म दोष होता तो क ण एक ण भी उनक साथ
नह रहते। क ण सदा िनद ष, िन पाप, सरल और सहज जन क साथ ही रहते ह। क ण का पांडव क साथ होना
ही यह मािणत करता ह िक वे िन पाप ह। उनको पांडव क दय पर ए क ण क ह ता र भी िदखाई नह िदए।
कौरव उनक सामने सदा पांडव का उपहास उड़ाते रह। उन पांडव का िजनका आवास वन नह वर क ण का
दय ह। ओह! इसका अथ ह िक वे अपने कशव का ही उपहास अपने सम उड़वाते रह। उनसे यह कसा
अपराध हो गया? वे यह सोचकर ही लािन से भर गए िक वे यह सब या करते रह। वे जानते थे िक क ण को यह
ि य नह ह, िफर भी वे दुय धन से िनकटता बढ़ाते गए। क ण क ि से सोच तो दुय धन उनसे िनकटता बढ़ाता
गया और आज उनको अपनी आ मा क स मुख धम-संकट म लाकर छोड़ िदया। िकतना दूरदश ह क ण! या
क ण पहले से ही जानता था िक ऐसी थित उ प होगी? या उनको क ण का ित ं ी बनना होगा? नह ,
चाह कछ भी हो जाए, वे क ण क स मुख एक िवरोधी क प म कभी खड़ नह ह गे। परतु क ण ने तो सदा
उनका पथ- दशन िकया ह। इस बार वह य चूक गए?
‘‘यिद भिव य म ऐसी िवकट थित आनी थी तो तुमने मुझे टोका य नह ?’’ बलराम ने जैसे क ण पर दोषारोपण
िकया।
‘‘म तो होने म सहयोग करता । जो जैसा होना चाहगा, मेरा सहयोग पाएगा। म पापी को उसक पाप म सहयोग
करता । उसको पाप क िशखर तक प चने देता । धमा मा को म परमा मा तक प चने म सहयोग करता ।
मुझे जो िजस भाव से याता ह, म उसको उसी प म सहयोग करता ।’’ क ण का वर सुदूर अंत र से आता
तीत हो रहा था, ‘‘म िकसी क भी वतं ता म बाधक क प म नह आता। जीव जैसा होना चाहता ह, उसको
वैसा होने म म उसक सहयोगी क भूिमका िनभाता ।’’
बलराम सोचने लगे िक इससे प और या कहगा क ण। उनक ित स मान से भरा होने क कारण य प
से उनका नाम लेकर नह कह रहा। उसने उनक वतं ता म बाधक क भूिमका नह िनभाई वर मौन रहकर,
उनको न टोककर उनक इ छा म सहयोग ही िकया। उनको दुय धन का साथ ि य लगने लगा था। इस समय वे
उसे कह तो रह ह िक क ण ने उनको टोका य नह ; पर वे यह भी जानते ह िक यिद क ण ने उनको रोका होता
तो वे कने से तो रहते अिपतु क ण से तक-िवतक अथवा कतक करने लग जाते। स य कह रहा ह क ण। जो
जैसा होना चाहता ह, उसक होने म वह सहयोग ही करता ह। यह तो िन त ह िक वे क ण क िवरोध म खड़ नह
ह गे और यह भी िन त ह िक क ण पांडव को कभी नह यागेगा और दुय धन व उसक भाइय को उनक पाप
का दंड भी िदलवाएगा। इसका एक ही अथ ह िक यु होगा ही। तो यादव िकसक प म जाएँग?े आज नह तो
कल, कौरव क ओर से उनक पास भी यह संदेश आ जाएगा िक वे भावी यु म िकसका साथ दगे। उनको लगा
िक दुय धन उनक स मुख खड़ा मुसकरा रहा ह और उसका फला आ हाथ जैसे कह रहा ह िक गु देव, सोच या
रह ह? इसी िदन क िलए तो आपको अपने पाले म रखा आ था, अ यथा दुय धन ने कब िकसक आगे झुकना
सीखा ह। अब आप पीछ नह हट सकते। बलराम ने अनुभव िकया िक वे पीछ नह हट सकते तो या आ, अब
और आगे भी नह बढ़गे। वे दुय धन को कह दगे िक वह संबंध क ि से क ण क अिधक िनकट ह, इसिलए
वह क ण क स मुख ही यह राजनीितक ताव रखे। ऐसा न हो िक वे िकसी बात को लेकर अपनी सहमित दे द
और क ण उस बात से असहमत हो। तब उस बात का संभव होना तो होगा ही नह अिपतु वे िम यावादी और
कहलाए जाएँग।े नह , वे इस संकट म वयं को नह डालगे। कवल क ण ही इस राजनीितक और धािमक संकट
से खेलने का साहस रखता ह।
‘‘बलराम, तुम कब आए?’’ सुदामा ने न द से उठने क बाद बालक क समान अपनी आँख मलते ए और
अँगड़ाई लेते ए पुकारकर पूछा।
‘‘जब तुम सो गए थे।’’ क ण ने हसकर कहा और बलराम क ओर देखकर अपनी उसी बाल-सुलभ चपलता म
बोले, ‘‘आओ दाऊ, ा ण उठ गया ह। इसे भूख लगी होगी। भोजन क यव था क जाए।’’
‘‘तु ह आज भी इतनी छोटी-छोटी बात मरण ह। म जब सोकर उठता था तो तुम यही कहा करते थे और मेर िलए
किटया म कछ बचाकर रख भी िलया करते थे।’’ सुदामा का वर उ िसत था।
‘‘हम ात ह िक तुम जब उठते हो तो अपनी सारी ऊजा व न म झ क आते हो और िफर वही भूखे पेट। तुमसे
िकतनी बार कहा ह िक ऐसे व न मत देखा करो, िजनम अिधक ऊजा का यय हो।’’ क ण ने ठहाका लगाया,
‘‘अ छा, बताओ िक अभी कौन सा व न देख रह थे?’’
‘‘ब त ही असंभव। तुम उिचत कह रह हो उसे देखने म मेरी सारी ऊजा ही समा हो गई।’’ सुदामा ने भी ठहाका
लगाया, ‘‘तुम भी कसी-कसी मौिलक बात कहते हो, क ण! व न देखने म ऊजा का यय!’’
‘‘यह स य ह, सुदामा!’’ क ण का वर बाल-सुलभ चपलता से तुरत शू यव हो उठा, ‘‘ व न यिद तनावपूण ह
तो उसम हमार मन क असीम ऊजा का यय होता ह। जैसे अिधक भार उठाने पर शरीर क ऊजा का यय उसी
अनुपात म होता ह और िनभार िवहार करने म ऊजा क वृ होती ह। मन को बैल क समान मानो। वह िवचार
का भार ढोता ह। िजतने अिधक िवचार उसक गाड़ी म लादोगे, वह उतना ही क पाएगा। उसक गाड़ी म यिद
नाममा क िवचार क पोटली रखी होगी तो वह वयं भी स रहगा और तु ह भी आनंिदत रखेगा। एक अव था
और ह िक व न ही न आए या आए तो तु ह बोध हो िक जो चल रहा ह, वह व न ह। तो मन थर होने लगता
ह।’’
सुदामा का मुख खुला-का-खुला रह गया। वे सोचते ही रह िक यह क ण कवल दाशिनक ही नह , अिपतु महा
वै ािनक भी ह, ाण-ऊजा का वै ािनक।
‘‘तो तु हार िलए पकवान परोसते ह।’’ बलराम ने क ण से ेरणा पाकर अपना मुख खोला। उ ह ने देखा िक क ण
तो इतनी गंभीर चचा से ऐसे िनकलकर बाहर आ गए ह, जैसे िक कछ आ ही न हो और वे अभी भी वह अटक
पड़ ह। उ ह ने सहज होने क िलए एक पग और आगे बढ़ाया, ‘‘बताओ तो या व न देख रह थे? यह तो नह
देख रह थे िक तुम अपने ंथ िलख रह हो और अ सराएँ तुम पर चँवर डला रही ह?’’
‘‘नह , नह । म यह नह देख रहा था।’’ सुदामा सकचा गए।
‘‘तु हारी नह -नह तो यह कह रही ह िक तुम इससे भी आगे का कछ देख रह थे।’’ बलराम ने ठहाका लगाया,
‘‘तु ह वैसी अव था म देखकर ही हसी आ जाती ह।’’
‘‘कसी अव था?’’ सुदामा हसते ए बलराम का मुँह ताकते रह।
‘‘छोड़ो। यह बताओ िक व न या था?’’ बलराम ने गंभीर होने का अिभनय िकया। पर उनक दिमत हसी उनक
आँख से झाँक रही थी।
‘‘मने देखा िक मेरी किटया एक सुंदर भवन म प रवितत हो गई ह। मुझे िकसी व तु का अभाव नह रह गया ह
और म शांत मन से ान-समािध क ओर उ मुख हो रहा ।’’ सहसा सुदामा व नलोक से यथाथ म आ गए।
उनक वर म उदासी िघर आई, ‘‘पर दाऊ, मुझे यह समझ नह आया िक मेरी किटया िवशाल भवन म कसे
प रवितत हो गई? मने चाकरी तो कह क नह ! यापार मुझे आता नह ! पद मेर पास कोई ह नह ! पैितक संपि
क प म िपता ंथ क व-ह तिलिखत ितय क साथ एक पण कटीर दे गए थे, वह उनक मृित- व प आज
भी ह।’’ सहसा सुदामा भावुक हो गए। उनक नयन क कोर से जल-िबंदु िगरने लगे।
‘‘ या आ, सुदामा?’’ क ण ने सुदामा क दोन कध पर अपने हाथ रखे और िफर उसका हाथ अपने हाथ म
लेकर बोले, ‘‘कह डालो, जो सोच रह हो।’’
‘‘मेर माता-िपता समय से ब त पहले वग िसधार गए। यिद वे आज होते तो म अपने िपता क छाया म ान पा
रहा होता और मेर ब े अपने दादा-दादी से कथाएँ सुन रह होते। म अपने िपता क िलखे िवचार पढ़ता तो पाता
िक वे महा ानी थे। उनक ान का लाभ म कहाँ उठा पाया! उनका पूरा ेम म कहाँ पा पाया!’’
‘‘इस ि से तो मुझे तुमसे कह अिधक शोक त होना चािहए।’’ क ण का वर गहराई िलए था।
‘‘ य ?’’ सुदामा ने अपने अ ु प छ।
‘‘ य िक मुझसे पहले मेर सात भाई-बहन को कस ने असमय काल क मुख म भेज िदया। उनक शोक म तो मुझे
िवि हो जाना चािहए था। तु हार पास तो अपने माता-िपता क ेह- मृितयाँ शेष ह।’’ सुदामा ने पलंग पर रखे
उपधान पर अपनी कहनी िटकाई और अधलेट से होकर सुखद मु ा म आकर बोले, ‘‘समय क धारा म सब बहा
जा रहा ह। िकसका शोक मनाएँ और िकसका हष! इस सुख-दुःख क झूले पर बैठकर मनु य जीवन को जीना ही
भूल जाता ह। जीवन जीने का नाम ह। इसे पूणता क साथ जीना ह। जो भी जीवन को पूण होकर जीएगा, उसे मृ यु
छ भी नह पाएगी।’’
‘‘ या वह अमर हो जाएगा?’’ सुदामा का मुख आ य से खुला।
‘‘उस प म नह िजस प म तुम समझ रह हो। देह तो सबक िमटगी, पर वह पूण पु ष मृ यु आने पर अपनी
देह वैसे ही सुिवधा और हषपूवक छोड़ देगा जैसे सप अपनी कचुली। हमारी सारी तैयारी ऐसी होनी चािहए िक जब
मृ यु आए तो हम उससे कह सक िक ठहरो, हम आते ह। और वह हमारी दासी बने, हम िबना छए चले।’’
जीवन को पूणता से भोगने का या अथ ह, क ण?’’ सुदामा का वर यह कह रहा था िक वह तो आज तक
िनधनता ही भोगता आया ह—जीवन तो उसने भोगा ही नह ।
‘‘वह नह जो तुम समझ रह हो? जीवन...’’
‘‘... याम! एक अ ानी इधर भी बैठा ह। उसका भी यान करो।’’ बलराम क याकल वर ने क ण क बात पूरी
ही नह होने दी, ‘‘पहले तुमने सुदामा से कहा िक उस प म नह िजस प म तुम समझ रह हो और अब तुमने
कहा िक वह नह जो तुम समझ रह हो; पर सुदामा या समझ रह ह, यह तो प ही नह आ और तुम अपने
आप समझकर आगे बढ़ते जा रह हो।’’
‘‘सुदामा यिद नह समझे होते तो बोल देते। वह ानी ह। संकत को पकड़ते ह। आप म ह, यो ा क
कौशल और चतुराई समझ लेते ह। िफर यह या यान आपक िलए ह भी नह । िजसक िलए ह, वह समझ रहा ह
और आप उसक समझने म बाधा व प समझानेवाले क बात ही पूरी नह होने दे रह।’’ क ण ने सुदामा क ओर
देखा, ‘‘ य सुदामा, दाऊ को यिद ान िपला िदया जाए तो ये सबकछ छोड़कर भास- े म तीथ-या ा को चले
जाएँग।े ’’ क ण ने बलराम क ओर देखा, ‘‘दाऊ, ान क फर से बच। यिद आपको ान हो गया तो आपको
वैरा य घेर लेगा। म तो परम वैरागी होकर भी संसार म । आप न रह पाएँगे। भोग क साथ संसार म िटकने म
सुिवधा-ही-सुिवधा ह; परतु वैरा य क रहते भवसागर म तैरना संसार का सबसे महा और दुःसा य काय ह।’’
‘‘तुम सुदामा क न का उ र दो। मेरा म त क तो तु हारी रह यमयी बात को सुनकर चकराने लगता ह।’’
बलराम हसे, ‘‘पता नह तु ह कौन आकर ये नई-नई बात िसखा जाता ह!’’
‘‘म उसका नाम बता सकता । पर होगा, या आप उसक पीछ अपना हल लेकर दौड़गे और उसे खोदकर ानी
होने का उपाय करगे।’’ क ण हसे।
‘‘म इतना अ ानी भी नह ।’’ बलराम ने अपने उ रीय को अपने कधे पर पटका और सुदामा से बोले, ‘‘तु हारा
या कहना ह सुदामा?’’
‘‘तुम वयं ही कह चुक हो िक तुम ‘इतने भी अ ानी’ नह हो।’’ सुदामा धीर से बोले।
‘‘अब तो सुदामा ने भी मािणत कर िदया िक तुम अ ानी हो, दाऊ! िव देव ने तु ह माण-प दे िदया ह।’’ क ण
ताली बजाकर हसे।
सुदामा ने भी क ण का साथ िदया।
‘‘ !’’ बलराम ने ठने का-सा मुँह बनाया और जाने क िलए उठ गए।
‘‘ या आ?’’ सुदामा असहज हो गए।
‘‘तुम दोन ानी अपने पाट म पीसकर इस म को मारने क योजना बना चुक हो। ान क तलवार से कटने से
अ छा ह िक अपने श क सेवा क ।’’ बलराम ार क ओर बढ़ गए। सहसा क और चेतावनी देते ए
बोले, ‘‘कल ातः यिद रवती क हाथ का बना भोजन पाने नह आए तो िफर देखना ा ण, तु ह कधे पर
िबठाकर राजनतक क नृ यशाला म ले जाऊगा।’’
बलराम चले गए तो प रवेश म मौन छा गया। न सुदामा ही कछ बोले, न क ण ने ही अपनी अधूरी छटी बात आगे
बढ़ाई।
‘‘मने तीन िदन तु हार साथ यतीत करने का संक प िलया था। अब मेर चलने का समय हो गया ह।’’ सुदामा का
वर िवयोग क पीड़ा से भर गया था।
‘‘ या भाभी क साथ ऐसा कछ अनुबंध तय करक आए थे?’’ क ण बोले, ‘‘िफर सं या होने को ह। कछ देर म
रात िघर आएगी। रात म कहाँ जाओगे?’’
‘‘रात म आया भी तो था।’’ सुदामा क वर म िचड़िचड़ाहट-सी थी, ‘‘अब घर क मृित सता रही ह। म जैसे
वयं को अपराध-बोध से िघरा आ अनुभव कर रहा । इधर म भोग का आ वादन ले रहा और उधर...’’
‘‘...यह ह अपूण होकर जीना।’’ क ण बोले, ‘‘भूत और भिव य म जीना ही अपूण होकर जीना ह। जो वतमान म
जीता ह, वही पूण होकर जीता ह। वतमान पूणता का पयाय ह।’’ सहसा क ण ने अपनी बात क धारा मोड़ दी,
‘‘िफर ऐसा सोचना य ? तुम तो भाभी क कहने पर आए हो। तु ह तो आ त होना चािहए।’’
‘‘क ण, म धनाजन हतु िवदेश-या ा पर नह । तीन िदन क पद-या ा क बाद म घर प चूँगा और िफर...’’
सहसा सुदामा च क िक वे क ण से यह सब या कह रह ह। उनक इन बात का क ण या अिभ ाय हण
करगा। यह क ण ह, बलराम नह , जो उसक स मुख िकसी कही और अनकही बात का आशय प न हो।
‘‘...और िफर?’’ क ण मुसकराए, ‘‘तुम तीन िदन क या ा क प ा अपनी पुरी म प चोगे तो या देखोगे?’’
‘‘मेरी पुरी कहाँ से हो गई वह? िनधन क कोई पुरी आ करती ह!’’ सुदामा ने अपना माथा ठोका—उफ , उ ह
यह या होता जा रहा ह? जो वे नह कहना चाहते, वही कोई उनसे कहलवाता जा रहा ह। जो वे िछपाना चाहते ह,
उसे कोई उघाड़ता जा रहा ह। वे सँभले, ‘‘पुरा काल म िकसी े ी ने अपनी माया का कछ अंश ा ण को भू-
दान म िदया था। उसी क माया क मिहमा हमारा गाँव गा रहा ह। ान क मिहमा कौन गाता ह क ण! यह संसार
तो माया क ही मिहमा गाता ह। उस मायापुरी क अंितम छोर पर मेरी एक छोटी सी किटया को तुम मेरी पुरी कहना
चाहो तो यह मेर मन को स करने का अ छा उपाय होगा। म अपनी किटया म जाते ही सबसे पहले एक काय
यह क गा िक उसक बाहर तु हार स मान म काठ क एक प का तैयार क गा और उस पर िलख दूँगा—क ण
द सुदामापुरी। मायापुरी से िभ रा , जहाँ क स ा का नाम ह सुदामा और उसक पटरानी ह सुमित। िफर तुम
मेर रा म राजक य या ा पर आना।’’
‘‘दाऊ को भेजूँगा।’’ क ण हसे, ‘‘ ारकापुरी म तुम मेर साथ रह। सुदामापुरी म बलराम भैया तु हार साथ रहगे तो
उनक तु हार साथ समय यतीत करने क साध भी पूरी हो जाएगी और वे तुमसे कछ ान भी पा लगे।’’
सुदामा ने परम संतोष क साँस ली िक क ण ने उनक िकसी बात को अ यथा नह िलया।
उ ह अपने कथन पर ल ा आ रही थी। कहाँ तो वे अिन त या ा पर िनकले थे िक क ण से भट होगी भी या
नह , वह पहचानगे भी या नह ...और न जाने िकतनी आशंकाएँ थ । पर क ण ने उनको जैसे अपने पे्रम क अथाह
सागर क तलहटी म ले जाकर आ मीयता क र न िदखाए और वे अपने व य क ारा या संकत दे रह ह।
सुदामा का मुख ल ा से झुक गया। उनक आँख भर आई।
‘‘देख लो, सुदामा! कछ िदन और क जाते तो मुझे कछ और िव ाम िमल जाता। तु हार जाते ही सब मुझे घेर
लगे।’’ वे मुसकराए, ‘‘तुम मेरा कवच बनकर आए हो। तुम पास हो तो कोई मुझे छ भी नह पा रहा।’’
सुदामा क टपकते अ ु कह रह थे िक अब बस भी करो, क ण! मुझ िनधन क झीनी झोली म इतना पे्रम मत
उड़लो िक झोली ही फट जाए। उ ह ने क ण क ओर देखा। लगा जैसे क ण क स ता से चमकती आँख कह
रही ह िक यही तो मेर पे्रम क िवशेषता ह िक यह पे्रम िनभार ह। उसका पे्रम तो यो ा क भाँित ह। झोली को
िकतना ही भर लो, झोली फटने से तो रही अिपतु कािशत और हो जाएगी।
‘‘नह क ण, म म य राि ही तु हार पास आया था और म य राि ही जाऊगा।’’ सुदामा क वर म ढ़ता थी।
‘‘तो म तु हार िलए रथ क यव था...’’
‘‘...नह क ण!’’ सुदामा ने क ण का हाथ अपने हाथ म थामा और उसे अपने माथे से लगाते ए बोले, ‘‘मुझे
वतमान म जीने का जो मं तुमने िदया ह, उसे जपने दो। म तीन िदन क पद-या ा म तु हार ारा िदए अपूव ान
क जुगाली करते जाना चाहता । म इसे अपनी मौन-या ा बनाऊगा और सबसे पहले तु हारी भाभी से ही संबोिधत
होकर पूछगा िक कसी हो, सुमित? देखो, तु हारा सुदामा क ण का पे्रम पाकर मोटा होकर लौटा ह। तुम उसे
पहचान तो रही हो न!’’
क ण ने एक अ हास िकया। लगा जैसे पूरा भवन ही हस रहा ह।
‘‘तुम हस य रह हो?’’ सुदामा यह अ छी तरह जानते थे िक उ ह ने ऐसी कोई बात नह कही ह, िजसे सुनकर
हसी अपने सभी बंधन तोड़कर िदशा को गुंजा दे।
‘‘म यह अनुभव करक हस रहा िक यिद इससे िवपरीत आ िक तुम घर जाकर भाभी से पूछो िक बहन, तुम
कौन हो? य िक म इन िदन इतनी सुंदर ना रय क दशन करक आया िक तुम भी मुझे उनम से एक िदखाई दे
रही हो। उनसे भी कह अिधक सुंदर और ग रमामयी।’’
‘‘कछ समझ नह आ रहा िक या यथाथ ह और या व न। पर यथाथ यही ह िक मेर िवदा लेने का समय आ
गया ह। यिद तु ह बुरा न लगे तो म तु हार सेवक ारा िदए राजसी व यागकर पं. हनुमान सादजी क ारा
भट म िदए व धारण करना चा गा।’’ सुदामा ने अपने मन क बात प प से कही।
‘‘तुम सौभा यशाली हो, जो शा ीय संगीत क ऋिष पं. हनुमान सादजी क ारा दी भट को धारण करोगे।’’
क ण सुदामा को देखकर मुसकरा रह थे।
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नौ
बलराम ने देखा िक िव ाम-क म सा यिक, िवक ु, दा क और सुभाष बैठ ठहाक लगा रह थे। उनका मन उस
ओर मुड़ गया। जमघट बलराम को ि य लगता ह। वे क म घुस गए।
‘‘आइए, बल भैया!’’ दा क स वर म बोला।
सभी बलराम क वागत म खड़ हो गए।
‘‘बैठ रहो!’’ बलराम ने उनक वागत पर यान नह िदया और सुभाष क िनकट रखी चौक पर बैठते ए बोले,
‘‘आजकल तुम लोग परम िव ाम म हो, इसिलए खड़ होने का भी क मत करो।’’
‘‘बल भैया! हम िव ाम म ह, आल य म नह ।’’ सा यिक हसा, ‘‘आपक ि म तो गदभ और अ म कोई
अंतर ह ही नह ।’’
‘‘देखो इसे!’’ बलराम ने दा क, िवक ु और सुभाष क ओर देखकर कहा, ‘‘यह सा यिक तो हर समय मुझसे
लड़ने का मन बनाए रहता ह। अभी मने इसे कछ कहा या? एक सीधी-सी बात बोली थी और यह उस बात को
कहाँ-से-कहाँ ले गया। म जानता िक इसे ये सब बात कौन िसखाता ह।’’
‘‘बलदेव!’’ िवक ु क वर क विन बलराम से यह कह रही थी िक वे अपने आवेश को संयत कर। िवक ,ू
बलराम से बड़ थे और बलराम उनका बड़ भाई क समान स मान करते थे।
‘‘आप उिचत श द का योग तक तो करना जानते नह , शेष कछ जानगे, इसम मुझे संदेह ह।’’ सा यिक ने
िवक ु को और बोलने का अवकाश नह िदया। उसका वर कह रहा था िक उसको बलराम क बात बुरी लगी ह।
बलराम ने भी यह अनुभव िकया िक बात तो अनुिचत ही कह गए ह। वे सा यिक को िचढ़ाने क िलए यह कहना
चाह रह थे िक क ण उनको यह सब बात िसखाता ह।
‘‘अ छा, तुम ही बताओ िक मुझे या कहना चािहए था?’’ बलराम ने अपने पहले कह वा य क कठोरता को
कम करने क िलए अपने वर को कोमल बनाया।
‘‘आपको पूछना चािहए था िक हम िकससे ये बात सीखकर आते ह। िफर हम आपको उ र देते िक ये बात सीखी
नह जात । जो भगवा ीक ण क साथ हर समय ा और भ क साथ रहगा, उसम ये त व वतः ही आ
जाएँग।े ’’ सा यिक बोला।
‘‘वैसे, मने यह अनुभव िकया ह िक राजा िवराट क सभा म िदए गए मेर भाषण क बाद तुम मुझसे ब त हो
गए हो। वहाँ तो तुमने सभी क सामने मुझे खरी-खोटी सुनाई थी। उसक बाद से तो तुम मुझे देखते ही असामा य हो
जाते हो। तु हारी ि कहती ह िक तुम मुझे एक ऐसे अपराधी क तरह देख रह हो, िजसे तुम न दंिडत कर सकते
हो और न मा।’’
‘‘आपने इस समय उिचत श द का उपयोग िकया ह।’’ सा यिक का मुँह जैसे कड़वा हो गया था।
‘‘सा यिक !’’ दा क ने टोका, ‘‘तुम बल भैया से बात कर रह हो!’’
‘‘उसे कहने दो, दा क!’’ बलराम ने दा क को रोक िदया, ‘‘अपना मत रखने का सभी को अिधकार ह।’’
‘‘परतु सा यिक अपने िकसी ित ं ी से बात तो नह कर रहा न!’’ दा क चिकत था िक सा यिक अक मा
भड़क य गया।
‘‘वह मुझे ‘बल भैया’ कहता ह, अब लड़ने िकसी और क पास जाएगा या? मेर िलए तो जैसे याम वैसे ही यह
ह। या य कहना चािहए िक याम से भी अिधक ह।’’ बलराम हसे।
‘‘बल भैया तो आपको यहाँ सभी कहते ह।’’ दा क बोला।
‘‘हाँ, रवती भाभी भी।’’ सा यिक मुसकराते ए बोला।
दा क चिकत था िक सा यिक बलराम से यं यो म बात य कर रहा ह। यह बात भी नह ह िक वह
अप रप अथवा अहकारी ह। भगवा ने जब यादव क सुधमा सभा का िनमाण करवाया तो उसक अनु प ही
उ ह ने सभासद को उनक पद िदए। उ सेन को ारका का राजा बनाया, काशी क महा िव ा और शा क
मम संदीपिन मुिन को राजपुरोिहत क पद से अलंकत कर ारका का गौरव बढ़ाया। अनाधृि को सेनापित तथा
िवक ु को धानमं ी िनयु िकया। उनको अपने सारिथ क प म अपनी ग रमामयी उप थित म रहने का
सौभा य दान िकया और सा यिक को सम त यादव यो ा का धान िनयु िकया। सा यिक सुधमा सभा क
दस यादव वंशधर क प ा सवािधक स मािनत और मह वपूण य ह। वे दस गणधर सुधमा सभा को अपना
मागदशन देते ह।
उ व, वसुदेव, कक, िवपृथु, दूवफ क, िच क, गद, स यक, बलभ और पृथु जैसे कल वृ का एक ही
काय ह िक वे यादव पर अपनी अनुशासन ि बनाए रख। उन वंशधर को भी यह सा यिक अित ि य ह । परतु
इसने इतना मह वपूण पद पाकर भी कभी ऐसा कोई अनुिचत काय नह िकया, जो उसक अहकारी होने को
मािणत कर। अहकार तो जैसे ीक ण अपने ि य क दय म रहने ही नह देते ह। उनक भ क अनेक
िवशेषता म से एक िवशेषता उसक िनरहका रता ह। वह तेज वी होगा। हो सकता ह, उसक वर से लगे िक वह
अहकार क भाषा बोल रहा ह; परतु उसका वर आकाश से आ रहा होता ह तो पाताल म पड़ जीव को यही लगता
ह िक जो उससे संबोिधत हो रहा ह, वह अहकारी ह। िफर अक मा सा यिक क मन म बलराम क ित िवरोधी
वर य उठने लगे ह? या दोन का कोई वैचा रक मतभेद हो गया ह? यिद ऐसा ह तो उसका िनराकरण होना
चािहए, अ यथा वह कलह का प ले लेगा।
दा क ने िवक ु क कान म कछ कहा। िवक ु ने संकत से दा क को धैय धरने क िलए कहा।
‘‘पर रवती तु हारी तरह मुझ पर कटा नह करती। जो भी बात होती ह, उसे सीधे-सीधे कह देती ह।’’ बलराम ने
सहज होने क िलए हसते ए कहा।
‘‘हम आपको यिद कछ सीधे-सीधे कहगे तो आप उसे अपना िवरोध या अपनी वतं ता म बाधा मान लेते ह।
आपको कछ कहने से अ छा तो यही ह िक आपको अपने िनणय लेने क िलए वतं छोड़ िदया जाए।’’ सा यिक,
क वर म आवेश था।
बलराम ने यान से सा यिक क ओर देखा। सभी चिकत थे िक बलराम उसे ऐसे य देख रह ह। बलराम को लगा
िक यह ह तो सा यिक, परतु बोल इसक भीतर से क ण रहा ह। यह क ण भी कब िकसक मुख से बोल पड़ता ह,
कछ पता नह चलता और पूछो तो हसकर यही कहता ह िक सार संसार क मुख मेर ही तो ह। पर सा यिक ने अभी
उनक और क ण क बातचीत नह सुनी ह। िफर यह उ ह श द का योग कसे कर रहा ह, िजनका क ण ने
अभी कछ पल पूव िकया ह। या क ण ने सा यिक से यह कहा होगा िक जब बलराम आएँ तो वह उनसे यह बात
कह?...नह , नह । उ ह ने अपने म त क को एक झटका िदया। ऐसा हो ही नह सकता। य िक वे जब आए तब
यहाँ न सा यिक था और न िवक ु ही थे। संभवतः वे बाद म आए ह और िफर सा यिक ने उनको पुकारकर अपने
पास कछ सुनाने क िलए नह बुलाया ह। वे ही वे छा से उनक मंडली का आनंद लेने चले आए ह। उ ह ने
संक प िकया िक वे सा यिक क िकसी भी बात का बुरा न मानकर कवल उसक बात सुनगे। हो सकता ह, इस
समय क ण अपने बोलने क िलए िजस मुख का उपयोग कर रह ह, उसम उनक काम का कछ हो। क ण ने उनसे
कहा था िक वे अब अपने िनणय लेने क मता का िवकास कर और उसक िलए आव यक ह िक शांत मन से
शुभ वचन को सुनना, िफर चाह वे िकतने भी कट अथवा ित य न ह ।
‘‘िवक ुजी!’’ दा क ने अपना मुँह िवक ु क कान क िनकट ले जाकर धीर से कहा, ‘‘यिद आपने ह त ेप नह
िकया तो यहाँ कोलाहल हो जाएगा और आपको पता ही ह िक भगवा भीतर सुदामा क साथ चचा म लीन ह। ऐसे
म यहाँ एक नाटक का मंचन हो जाएगा और दशक ह गे सुदामा। आशा ह िक न आप ऐसा चाहगे और न यह
भगवा को चेगा।’’
‘‘तुम िचंता मत करो। म ऐसा कछ नह होने दूँगा। यिद ऐसा आ तो तब म दोन को त काल अनुशािसत कर दूँगा।
अभी इनम उ मु संवाद होने दो।’’
‘‘तुम सीधे ही कहो, सा यिक!’’ बलराम ने जल पा मुँह से लगाते ए कहा। जल पीया और िफर पा को रखते
ए कछ सोचने लगे। उ ह ने सा यिक क ओर देखा। सा यिक भी उनक ओर देख रहा था। उसक देखने म
स मान का वह भाव नह था, जो ायः आ करता था। बलराम बोले, ‘‘कहो सा यिक! जो कछ तु हार मन म मेर
ित ह, उसे आँख से न कहकर सीधे सपाट श द म कहो। वह जैसा भी ह, म सुनने को तुत । यिद तुम मेर
ित मन-ही-मन िवष पालते रहोगे तो वह हम दोन क िलए ही नह , वर सार यादव क िलए अिहतकर होगा। मेर
श द पर अिधक यान मत देना। म अपनी बात को कहने क िलए अनेक बार अनुपयु श द का भी उपयोग कर
लेता ।’’
‘‘दाऊ!’’ सा यिक का संबोधन बता रहा था िक उस पर बलराम क इस बात का ब त भाव पड़ा ह। अब क
बार उसक वर म अस मान नह था, ‘‘जब धम क थापना म आप ही भगवा क साथ नह रहगे तो शेष संसार
को हम या कह पाएँगे। यह स य ह िक िवराट क सभा म आपक संबोधन क प ा मेर मन म आपक ित
स मान नह रहा। आप पहली बार बोले और बोलते ही आपने अधम का प लेना आरभ कर िदया। आप न तो
छली ह या अ याचारी और न अ याचा रय क प धर, िफर आपने इस कार का अनगल लाप य िकया? उस
समय कवल मने वहाँ भरी सभा क म य आपक बात का न कवल खंडन िकया अिपतु मुझे आपक ित उस भाषा
का उपयोग करना पड़ा, जो न तो मुझे शोभा देती थी और न ही आप उसक यो य थे। म जानता िक जो कछ उस
समय आपने कहा, वह आपक गहराइय से नह आया था। आपको कछ बोलना था। या बोलना ह, यह आपको
प नह था। आपने वयं कहा ह िक आपक भाषा पर पकड़ नह ह; परतु म क गा िक भाषा क साथ-साथ
िवचार पर भी आपक पकड़ नह ह। यिद आपने वे बात सभा क स मुख न कही होत तो मुझे उनका उतना खेद
न होता।’’
‘‘परतु बात तो वही रहती।’’ बलराम धीर से बोले, ‘‘इससे या अंतर पड़ता िक यिद वही बात म एकांत म तुमसे
कहता?’’
‘‘आकाश-पाताल का अंतर पड़ता ह, दाऊ!’’ सा यिक एक-एक श द को चबा-चबाकर बोल रहा था, ‘‘सभा म
सभी स य और याय का प लेनेवाले गुणीजन बैठ थे। वहाँ पर आपने अस य का प लेकर अपना व य
िदया। िजस स य को, िजस धम को, िजस त य को भगवा वहाँ ितपािदत कर रह ह, उसक थापना म
य नशील ह, वहाँ आपने अ यायी प क समथन म गीत गाए। उप थत समाज या सोच रहा होगा िक ये वही
बलराम ह जो स य और धम क पुन थान क िलए ाणपण से य नशील योगे र भगवा ीक ण क अ ज ह!
या संदेश गया सभी क पास? सावजिनक प से असंगत िट पणी करने से अशुभ संदेश तेजी से सा रत हो जाता
ह।’’
‘‘परतु बल भैया ने ऐसा या कह िदया, जो आप इतना किपत हो गए?’’ सुभाष का वर यह कह रहा था िक उसे
िव ास नह हो रहा िक बलराम कछ ऐसा आपि - जनक कह सकते ह।
‘‘लो, सुन िलया आपने बल भैया!’’ सा यिक ने अपनी पगड़ी उतारकर चौक पर रख दी और बोले, ‘‘अभी म
सुभाषजी को वह बात बताऊगा तो ये भी सोचगे िक बल भैया ऐसा कसे बोल सकते ह। वे सोचगे िक म िम या
भाषण कर रहा । परतु सौभा य से इस समय दा क और िवक ु भी यहाँ उप थत ह, जो िक उस सभा म भी
थे।’’ सा यिक ने सुभाष क ओर देखा और बोला, ‘‘अब यिद तुम को वह बात बताई जाएगी तो तु हार मन म भी
बल भैया क ित स मान कम हो जाएगा।’’
‘‘होने दो स मान कम। तुम से तो कहा नह जाएगा, म ही बता देता ।’’ बलराम ने सुभाष क ओर देखा और
बोले, ‘‘वहाँ ीक ण पांडव का प लेकर...’’
‘‘...पांडव का नह , धम का प लेकर।’’ सा यिक ने टोका।
‘‘...धम क प धर पांडव का प लेकर उनक सहायता क िलए सभी को संबोिधत कर रह थे। ऐसे म मने वहाँ
दुय धन का प िलया और पांडव को बुरा-भला कहा। यह सुनकर तुम या कहना चाहोगे, सुभाष? म तुमसे
तट थ मत क अपे ा करता ।’’
सुभाष फटी-फटी आँख से और खुले मुँह से बलराम क ओर देखता रहा।
‘‘म तु ह अभय देता । तु हार मन म जो आ रहा ह, उसको कह दो। अब सा यिक भी तो जो इसक मन म आ
रहा ह—कह रहा ह न! म इसक बात का बुरा कहाँ मान रहा । इस समय व थ चचा हो रही ह।’’ बलराम ने
सुभाष को बोलने क िलए ो सािहत िकया।
‘‘बल भैया, म सा यिक नह ।’’ सुभाष ने धीर से कहा और अपना िसर झुका िलया।
‘‘इसका या अथ ह िक तुम सा यिक क समान अस य नह हो सकते या िफर मने जो िकया उसक िलए तुम िजन
श द का उपयोग करना चाह रह हो, उनको कहने क िलए तु हार पास सा यिक जैसा साहस नह , ह या तु हारी
मयादा क आड़ आ रह ह?’’ बलराम का वर गंभीर हो गया था।
सुभाष पूवव मौन साधे रहा।
‘‘तु ह मौन रहने क अनुमित नह ह, सुभाष! तुम क ण क िनजी सहायक हो। तु हार पास तुला ह। तुम उस तुला
म अब तक सब तौल चुक होगे। मुझे उसका भार बताओ िक मेरा प िकस ओर झुका आ ह? स य क ओर
अथवा...’’
‘‘बल भैया! कछ बात का कहने से स दय और मह व खो जाता ह। एक िदन हम उषाःकाल म सागर तट पर
भगवा क साथ थे। दा क भी वह पर थे। भगवा सूय सागर क सुदूर भाग म सुंदर आकितय क मेघ क म य
अक मा कट ए। उस य को देखकर मेर मुँह से यह िनकल गया िक अहा, िकतना सुंदर य ह! तो भगवा
बोले—तुम वाचाल हो, सुभाष! उ ह ने यह पे्रम से हसकर कहा था। पर म काँप उठा। मुझे लगा िक जैसे मने ब त
ही अधािमक बात कह दी हो। तब मने हाथ जोड़कर उनसे ाथना क िक भु, आप मेरा मागदशन कर, िजससे म
अपना िवकास कर सक। तब भगवा ने मुझे कपा- ि से देखा और बोले, ‘तुम वाचाल क साथ-साथ सुभाष भी
हो, इसिलए तुम मुझे ि य हो। तुमम िज ासा ह, इसिलए तुम मुझे ि य हो। तुम अपनी आ मा क िवकास क िलए
सजग हो, इसिलए तुम मुझे ि य हो।’ उनक श द क इस पे्रमपूण अवलेह ने मेर दय क घाव को तुरत भर िदया।
वे बोले, ‘यिद स दय को देखकर कछ कहना हो पाया तो उसक दो ही अथ ह िक या तो वह स दय साधारण कोिट
का ह या िफर वह ा। स दय म डबी चेतना क िलए कछ कहने जैसा रहता ही नह । मन जब लीन हो जाए तो
या बोलेगा। समािध म श द कहाँ!’’
‘‘पर इस समय तुम समािध म तो नह हो न! और यह भी तय ही ह िक उस समय मने जो कहा वह कोई स दय-
संप तो था नह िक उप थत सभासद क समान तुम भी अवाक हो गए हो। कवल एक वाचाल सा यिक को
छोड़कर।’’ बलराम ने सा यिक क ओर हसते ए देखा। उनक हसी कह रही थी िक मेर पास तो यही श दावली
ह। अब तू बुरा मानता हो तो मान।
‘‘म पुनः िनवेदन करता िक आप मुझे इस धम-संकट म न धकल।’’ सुभाष ने हाथ जोड़ िदए।
‘‘अित आ ह ठीक नह , बलदेव!’’ िवक ु ने बलराम को बोलने नह िदया।
‘‘ या तुमको नह लगता िक उस सभा म तु हार अित र िकसी ने मेरी बात का खंडन नह िकया’’ िवक ु क
इतना कहते ही बलराम सा यिक क ओर मुड़ गए। वे ण भर म यह भूल गए िक वे सुभाष को बोलने क िलए
बा य कर रह थे।
दा क ने िवक ु क ओर देखा—िकतने आ त होकर उ ह ने कहा था िक यिद कोई असामा य थित उ प ई
तो वे एक ण म दोन को अनुशािसत कर दगे। तभी वे इन दोन क संवाद का ऐसे आनंद ले रह ह जैसे गु कल
म िनणायक मंडल का कोई सद य वाद-िववाद ितयोिगता का आनंद ले रहा होता ह। िकतना मह वपूण और सुंदर
होता ह िकसी व र य का होना। दा क ने अपने तनाव को िछटक िदया और दशक क समान चौक पर
आलथी-पालथी मारकर बैठ गए।
‘‘मेर उस भाषण क बाद तुम कछ अिधक ही भावुक नह हो गए हो।’’ बलराम ने अपनी बात पूरी क ।
‘‘म यह नह क गा िक सभा म सभी िन तेज लोग बैठ थे और म उनम सवािधक तेज वी था। पर मेर कहने क
बाद सभी को यही लगा िक वे जो कहना चाहते थे, वह मने कह िदया ह। िफर आपक ित अस मान कट करने
क िलए या आपक अनुिचत बात से असहमत होने क िलए कछ िवशेष अिधकार तो होने चािहए न। आपक मेर
ित पे्रम ने मुझे यह अिधकार िदया िक म आपका िवरोध क । शा का कथन ह िक यिद माता-िपता अथवा
गु जन अस य क पथ पर बढ़ते ह तो संतान और िश य का यह धम ह िक वे उनको अनुशािसत कर।’’ सा यिक
ने ककर सभी क ओर देखा और बोला, ‘‘मने भगवा से जब इस संबंध म चचा क तो वे अपनी रह यमयी
मुसकान क साथ मुझसे इतना ही बोले िक सा यिक, स य सदा एकाक चलता ह। उसक साथ कोई चल पड़ तो भी
वह एकाक होता ह और कोई न चले तो भी। वहाँ ैत तो ह ही नह ।’’
बलराम को यह सुनकर आघात लगा िक क ण ने उनक होते ए वयं को एकाक कहा। वे यह क पना करने लगे
िक यिद िकसी सभा म उनक मत क िवरोध म बाहरी लोग क सामने यिद क ण उनक बात का िवरोध कर तो
उनको कसा लगेगा? लगना या, वे तो वह उ पात मचा देत।े परतु क ण ने उनको एक श द नह कहा। उ ह ने
बाद म भी उनसे यह नह कहा िक उ ह ने उनक िवरोध म जो कहा, वह सुनकर उनको अ छा नह लगा। वे तो
इसे ब त ही सामा य बात मानकर भूल भी चुक थे; परतु अपनी असावधानी म वे क ण से िकतनी दूर िनकल आए,
इसका बोध उ ह अभी आ ह। वे य नह देख पाए िक बाहरी ि उनको िमत कर कहाँ िलये जा रही ह? इस
समय वे ऐसा अनुभव कर रह ह िक जैसे जीवन-या ा म उ ह ने ब त दीघकाल क प ा मुड़कर देखा ह और
क ण कह ब त दूर एक िबंदु क समान उनको खड़ा िदखाई दे रहा ह। या वे इतनी दूर िनकल आए क ण से,
अपने यामसुंदर से, अपने क हया से, अपने बाँक िबहारी से? आज क ण ने तो उनको प प से कह ही िदया
ह िक वे अपने िनणय वयं लेने का अ यास कर। उनका मन रोने को हो रहा था। पर वे रो भी नह सकते थे। रोने
जैसा साधारण ाय करक वे इस टीस से मु नह हो सकगे।
‘‘म अपने िकए पर ल त , सा यिक! मेरी असावधानी ने तुम सभी को आहत िकया ह। यामसुंदर से मा
माँगूँगा तो उसको और आहत ही क गा, इसिलए म तुमसे मा माँगता । तुम मेरी ओर से मेर याम से मा माँग
लेना और उससे कहना िक वह मुझसे इतनी दूर न खड़ा हो िक म उसे देख ही न पाऊ।’’ बलराम का वर भावुक
हो चला था।
‘‘दाऊ, मा तो आप मुझे कर। आप मेर िपता समान ह और मुझे आपको अशोभनीय बात कहनी पड़ ।’’
यो ा का िशरोमिण सा यिक बालक क समान रोता आ उठा और बलराम क चरण म िगर गया।
बलराम ने उसे उठाया और अपने दय से लगाकर रोने लगे। दा क, सुभाष और िवक ु क हाथ भी अपने
अ ु क कारण अ प ई आँख को प छने क िलए उठ गए।
तभी क ण ने सुदामा क साथ उधर झाँका और बलराम तथा सा यिक को एक-दूसर क दय से लगकर रोते देख
सुदामा से हसकर बोले, ‘‘देखो सुदामा, भरत-िमलाप हो रहा ह। ीराम इतने वष बाद अयो या लौट ह तो भरत ने
अपना दय उनक सामने खोल िदया ह।’’
बलराम ने अपने अंतस म देखा। वहाँ ाय तथा क ण को पीड़ा देनेवाला भाव वा पत हो चुका था। क ण क
मोिहनी मुसकान कह रही थी िक दाऊ, मने आपको मा िकया।
‘‘पर आ या?’’ सुदामा क मुँह से घबराहट म िनकला।
‘‘होना या ह। कर रह ह गे धम-चचा। धम का आनंद ही दूसरा ह। िबना आनंदा ु क उसका उ सव पूरा ही नह
होता।’’ क ण हसते ही जा रह थे, ‘‘दाऊ, सुदामा गृह- मृित क र से त हो रह ह इसिलए अभी जाना चाहते
ह। अब कल आपक यहाँ तो यह आने से रह। तो मने यह तय िकया ह िक आप सुदामापुरी म जाकर इनक साथ
कछ िदन धम-चचा क िजएगा। इनक ान का कछ भार आप उठाकर इ ह भार-मु भी क िजएगा।’’
बलराम ने क ण क ओर देखा—ओह, तुम हो कौन याम? तु ह समझने क िलए तो ब त ितभा क आव यकता
ह। तुम तो अ य संकत छोड़ देते हो। तुम सदा िशखर से बोलते हो। पवत क अंधकारपूण गुफा म
रहनेवाला यिद तु हारी बात न सुन पाए तो उसका एक ही दोष ह िक वह ऊचाई पर नह ह। तु ह अनुभव करने क
िलए तो य को अपनी आ मा को िवकिसत करना होगा। तब जाकर भी वह तु हारी िणक छिव का दशन कर
पाएगा। तुम मुझे सीधे-सीधे नह कह रह िक म सुदामा क घर जाकर कछ िदन उनसे ान ा क । तुम मेरा
काय िस करने क िलए भी उसका ेय अपने पे्रमी को दे रह हो। तु हारा पार पाना मेर वश का तो नह ह,
याम!
‘‘यह सुदामापुरी या ह? या आप िकसी पुरी क वामी ह?’’ सुभाष ने चिकत होकर पूछा।
‘‘क ण क परामश से म घर जाकर अपनी पण-कटीर क बाहर सुदामापुरी क प का लगानेवाला ।’’ सुदामा
समझ नह पा रह थे िक उनक वर म हसने क विन ह अथवा रोने क , ‘‘सुभाषजी! आप िमत न ह । म वही
दीन-हीन सुदामा , िजसे आपने थम भट म देखा था। आप मेर इन सुंदर व को देखकर भी िमत मत
होइएगा। ये तो मुझे पं. हनुमान सादजी ने भट म िदए ह। ारका से िमली भट को धारण करना तो मेरा सौभा य
ह।’’ सुदामा ने अपने मन क उस वर को देखा और उससे मन-ही-मन बोले, ‘तू बड़ा पितत ह र! अवसर िमलते
ही कछ भी कहलवा लेता ह। इस मा यम से तू या कहना चाहता ह? मेरी कछ तो लाज रखा कर।’
‘‘दाऊ, िवदा करने से पहले म सुदामा को प रवार क सभी सद य से िमलवाने जा रहा । आप भी आ रह ह
न?’’
‘‘म सा यिक क साथ आ रहा , तुम चलो।’’ बलराम ने सा यिक का हाथ पकड़ते ए कहा, ‘‘मुझे सा यिक से
िव ाम और आल य का अंतर जानना ह।’’
‘‘ऐसे न का उठना शुभ ल ण ह, दाऊ! आप अपने हल से अपनी बु म दबे न को कद-मूल क समान
खोद-खोदकर सा यिक और सुदामा क नाम िलख दो। अभी सा यिक को थकाओ, िफर सुदामा को।’’ क ण
सुदामा को लेकर आगे बढ़ गए।
‘‘यह तु हारी उप थित का ही चम कार ह िक ऐसे मौिलक न उभरकर सामने आते ह। लगता ह, िजनको हमने
आज तक जीवन क न बनने क यो य नह समझा था, उनक तु हार पास महा चचा होती ह। ‘‘सुदामा सोच
रह थे िक िकतना अ छा होता िक वे तीन ही िदन म लौटने क अपनी घोषणा नह करते तो कछ और िदन क ण
क सा य म िबताकर अपने को नूतन ान से समृ करते। पर वे जानते ह िक ान अपार ह और उनक पास
समय सीिमत। तो वे अपने सीिमत समय का ही लाभ उठाएँ। उ ह ने क ण क ओर देखा। लगा जैसे कोई याम
वण मेघ धरती का पश करता आ ितरता जा रहा ह। तभी उनको यान आया िक उनको चाहनेवाले उसे
घन याम य कहते ह। िकतने नाम ह क ण क! िजसको जो चे, वह उसी को जप ले। सुदामा ने न चाहते ए भी
क ण को अपनी ओर आकिषत िकया और बोले, ‘‘क ण, यह आल य और िव ाम म या भेद ह?’’
‘‘आओ, उ ान से होते ए चलते ह।’’ क ण गिलयार क सीि़ढय से उतरते ए बोले, ‘‘कछ पल यहाँ बैठते
ह।’’
वे उ ान क म य एक िवशाल अ थ वृ क नीचे बने भ य तथा कला मक चबूतर पर जा बैठ। क ण ने वृ
का आिलंगन िकया। उसको ऐसे पुचकारा जैसे वह उसका अ हो और िफर उसक सहार अपनी पीठ लगाकर
स वदन बैठ गए।
‘‘आल य ह कम से पलायन, पु षाथ को टालना। िकसान को बीज बोना ह और वह समय पर बीज न बोकर उसे
टालता रह तो बुआई का उपयु समय उसक आल य क कारण िनकल जाएगा। समय पर बीज न बोना आल य
ह।’’ क ण ने एक दीघ ास िलया मानो उ ान क सुगंध को अपने दय म समाना चाह रह ह ।
‘‘और िव ाम या ह?’’ सुदामा ने अिभभूत हो पूछा।
‘‘जो म कर रहा ।’’ क ण हसे।
‘‘िकसी और उदाहरण क ारा समझाओ।’’ सुदामा का वर कह रहा था िक प रहास मत करो और मुझे
समझाओ।
‘‘आ य ह, सुदामा! जो तु हार सम उदाहरण ह, उसे छोड़कर तुम दूर क उदाहरण ारा अपनी बु को
तु करना चाहते हो? सामने गंगा बह रही ह और तुम कहते हो िक कएँ का जल लाकर मेरी यास बुझाओ, तो
जैसी तु हारी इ छा। तु ह कएँ का जल ि य ह तो म वह िपला देता ।’’ क ण मुसकराए और बोले, ‘‘तु ह
िकसान क ारा समय पर बीज न बोने क उदाहरण से आल य का व प प हो गया?’’
‘‘हाँ, हो गया।’’ सुदामा ने िसर िहलाया।
‘‘तो आगे सुनो!’’ क ण ने प ासन लगाया और बोले, ‘‘छह माह बाद हमार सुदामाजी ऐसे िकसान क पास
प चे, िजसने समय पर बीज बो िदए थे। वह िकसान खेत क बीच म आनंिदत होकर बाँसुरी बजा रहा था। तो हमार
सुदामाजी ने उससे पूछा िक भाई, तुम या कर रह हो? तो वह बोला िक म करने यो य सभी कम कर चुका ,
इसिलए अब िव ाम कर रहा । तो सुदामाजी ने पूछा िक तु ह छह माह प ा िव ाम िमला ह? तो वह बोला िक
नह , म तो ितिदन िव ाम करता । पु षाथ से उ प ांित को िमटाने क िलए आनंदपूवक बाँसुरी बजाता ।
यही िव ाम ह। िव ाम का अथ ह पुनः पु षाथ करने क िलए श अिजत करना।’’
‘‘ या वह िकसान कवल मुरली बजाता ह?’’ सुदामा मुसकराए।
‘‘देखो सुदामा, तु ह मुझसे ई या हो रही ह।’’ क ण ने कनिखय से सुदामा क ओर देखा और मुसकराए।
‘‘आपा थित म वचन भंग करना या ह? मेरा यह मह वपूण न मेर मन म ही रह जाता। अ छा आ िक
अभी मरण आ गया। हमारी िपछली चचा क भीड़ म यह खो ही गया था।’’ सुदामा सुनने क मु ा म क ण क
स मुख बैठ गए।
‘‘तुम कोई वचन भंग करना चाह रह हो या? और उससे बचने क िलए मुझसे माग पूछ रह हो?’’ क ण ने चुहल
क।
‘‘अब तुम जो भी समझो। पर तु हारी यह बात मुझे शा -स मत नह लगी। इसिलए इसका प रहार अिनवाय ह।’’
‘‘शा ऐसे ह जैसे पगडिडयाँ या क -े प माग। तुम यिद यह कहो िक म पि य क उड़ान को शा -स मत
नह मानता, य िक वे पगडिडय और मानव-िनिमत माग पर नह चलते तो तुम इसे या कहोगे?’’ क ण ने
अपनी ि सुदामा पर कि त क ।
‘‘इसम कहने जैसा या ह, क ण? पगडिडयाँ तो भूिम पर सुरि त चलनेवाल ने बनाई ह।’’ सुदामा ने िन
भाव से कहा।
‘‘तुमने उिचत कहा।’’ क ण बोले, ‘‘शा भी भूिम पर एक लीक पर चलनेवाले वग क िलए ह। कछ ऐसे साहसी
भी होते ह, जो बँधे माग से न चलकर चलने क िलए एक नया माग बनाते ह। आरभ म उनको अनेक चुनौितय
और लोकापवाद का सामना करना पड़ता ह। िकतु कालांतर म उनका वही माग शा का प ले लेता ह। शा
व तुतः ह या? शा िकसी अनुभवी क ारा जीवन को सुचा प से जीने क शैली को कट करता ंथ ह,
एक मागदशन ह। तो या संसार म अनुभवी समा हो गए? या काल क अनुसार नवीन शा का िनमाण ठहर
जाना चािहए? जीवन सतत वाह का नाम ह। उसम जब तक नए शा नह आएँग,े नए अनुभव क नए अवतार
नह ह गे तब तक मनु यता अनुपयु और अनाव यक हो गई परपरा क मल म िगरकर क प और दुगधपूण
होती रहगी।’’
‘‘तो या हमारी परपराएँ िवकत ह?’’ सुदामा क वर म आपि थी।
‘‘सुदामा!’’ क ण ने अित पे्रमपूण वर म ऐसे पुकारा जैसे कोई गु अपने जड़बु िश य पर बार-बार समझाने
पर भी समझ न आने क प रणाम व प उसे कठोर श द म डाँटना चाहता हो, िकतु िफर उसक अ ान से
सहानुभूित रखते ए और अपने ोध को पीकर उसे सपे्रम पुकारता हो। क ण आगे नह बोले और सुदामा क
ओर देखते रह।
‘‘तुम ऐसे या देख रह हो?’’ सुदामा ने संकिचत वर म पूछा।
‘‘सुदामा! तुम श द-साधक हो। श द से भी चूकने लगे?’’ क ण ने जैसे चेताया।
‘‘कहाँ चूका?’’ सुदामा जैसे अपनी चूक को टटोलने लगे।
‘‘इधर मने अपनी बात पूरी क और तुमने उसे िबना समझे, िबना पचाए एक तीर छोड़ िदया िक तो या हमारी
परपराएँ िवकत ह? मने ऐसा कब कहा?’’
‘‘अभी तो कहा!’’ सुदामा ने चिकत होकर कहा।
‘‘मने कहा िक ‘अनुपयु और अनाव यक हो गई परपराएँ’, न िक परपराएँ। यिद म क िक दूिषत हो चुका
िवषा साद फक देना चािहए तो तुम या यह कहोगे िक साद फकने क शा -िवरोधी बात म य कह रहा
? बात क मम को जानने का यास करना चािहए, सुदामा! मम को न जाननेवाला त व को नह जान पाता।’’
क ण उठते ए बोले, ‘‘अब चल? शेष न क उ र जब म तु ह कछ दूर तक िवदा करने जाऊगा तब।’’
‘‘तब क िलए कवल एक ही न पया रहगा और वह ह िक िकस कार क आपातकालीन थित म संक प,
त या वचन को भंग िकया जा सकता ह।’’ सुदामा भी उठ गए।
‘‘यह ‘िकस कार’ या होता ह? आपातकालीन थित का एक ही कार होता ह िक उसे टालना असंभव हो।
यिद म तु ह िकसी एक कार क आपात थित का उदाहरण दे दूँगा और जब तुम िकसी दूसर कार क आपात
थित म िगरोगे तो कहोगे िक यह तो शा -स मत नह ह। शा एक सीमा पर जाकर थम जाते ह। जीवन शा
से ब त बड़ा ह, सुदामा!’’ क ण ने ककर सुदामा क ओर देखा, ‘‘शा तो जीवन क अनुभव क ब त छोटी,
िकतु मह वपूण इकाई ह, जैसे िक अ र- ान। शा अ र- ान से अिधक नह ह और अ र- ान का मह व तुम
समझते हो तथा एक थित क बाद उनक िनरथकता भी समझ म आ जाती ह।’’
सुदामा चुपचाप चलते रह।
‘‘मौन य साध िलया, ानदेव?’’ क ण ने छड़ा।
‘‘तुम इतना सब कसे सोच लेते हो, क ण?’’ सुदामा ने क ण क प रहास पर यान ही नह िदया।
‘‘मुझसे कछ सोचकर कहाँ बोला जाता ह।’’ क ण ने सहज वर म कहा।
‘‘तो िबना सोचे इतने जिटल न क उ र कसे दे देते हो?’’ सुदामा क वर म अिव ास था।
‘‘म न को अनंत अ त व क क ण-िववर म समिपत कर खड़ा हो जाता और वहाँ से वह न उ र म
परावितत होकर लौटता ह।’’ क ण ने एक दीघ ास िलया।
‘‘ओह, क ण! तुम अलौिकक हो।’’ सुदामा क वर म तुित थी। वे सहज होकर बोले, ‘‘तुमसे मन क बात कह
रहा । म तो यह समझता था िक तुमने कह िविधव िश ा तो पाई ह नह तो तुम जानते ही िकतना होगे। िकतु म
यह देख रहा िक तुम जो भी कह रह हो, उससे तो एक नवीन शा रचा जा सकता ह, ऐसा शा जो अपने
आप म अनूठा होगा, अपूव होगा, अ तीय होगा, अनुपम होगा और...और...अपने अंक म संपूण वेद एवं शा
को समािहत िकए होगा।’’
क ण कछ नह बोले। उनक आ मलीन होकर चलने क शैली से सुदामा को यह लगा जैसे क ण ने उनक यह
बात सुनी ही नह ।
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दस
दा क ने ारका क पूव वेश- ार पर रथ रोक िदया। वहाँ स र क चौकस हो गए। चूँिक रात का
समय था, इसिलए आवागमन था ही नह । ारका क पथ पर भी शांित पसरी पड़ी थी। क ण क सारिथ क
आक मक आगमन से वहाँ का नायक हत भ हो गया था। वह क ण क साथ बैठ सुदामा म प रचय क संकत
खोज रहा था।
क ण ने सुदामा क ओर देखा। सुदामा अ यमन क-से बैठ थे।
‘‘अभी भी सोच लो, दा क तु ह तु हारी पुरी तक छोड़ आएँग।े ’’ क ण मुसकराए।
क ण का वर सुनकर सुदामा क तं ा भंग ई। सुदामा ने देखा िक क ण उनक ओर देखकर इस कार मुसकरा
रह थे जैसे कोई माँ अपने ब े को देखकर उस पर मु ध होती ह।
‘‘नह , क ण! अपनी पुरी को म पद-या ा क ारा ही नापूँगा।’’ सुदामा उठने क यास म लड़खड़ाए और क ण
क आगे बढ़कर सँभालने से पहले ही सँभल गए। उ ह ने सीि़ढय क पास लगे डड को पकड़ा और रथ से नीचे
उतर गए।
‘‘िकस िचंतन म हो, सुदामा?’’ क ण भी नीचे उतर आए।
सुदामा मौन रह । वे दोन पैदल चलने लगे।
‘‘सोच रहा िक यिद सुमित मुझे तु हार पास भेजने का इतना आ ह न करती तो म संकोच क कारण तु हार पास
कभी आ ही नह पाता।’’ सुदामा ने मौन भंग िकया।
‘‘तु ह संकोच िकस बात का था?’’ क ण ने पूछा।
‘‘यह बात नह ह िक तु हार पास आने म ही संकोच था। संकोच मेरी कित का एक अंग बन चुका था।’’ सुदामा
जैसे आ मिव ेषण करते जा रह थे।
‘‘सुदामा, मेर पास आने म जो संकोच, भय, ई या, ेष, लोभ और अहकार लेकर आता ह, वह अपने िलए वयं
ही बाधा खड़ी करता ह। मेर पास तो जो जैसा ह वैसा ही चला आए, जैसे िक तुम आए। तुम मुझसे िमलने आए थे,
कवल मुझसे। तुमने बीच क सारी सामािजक मा यता व औपचा रकता क भीत को ढहा िदया और तुम
यथाव मेर पास आए।’’ क ण ने अपनी बाँह सुदामा क कधे पर रख दी।
‘‘म नह आया, तु हारी भाभी ने भेजा।’’ सुदामा हसे। उनक हसी म भावुकता थी और वर म उसक अनुरणन
विन, ‘‘वह पगली तो तु हारी भ ह।’’
‘‘मेर भ तथाकिथत सामा य जन को पागल ही लगते ह। िकतु उनका पागलपन िद य होता ह। उनक पागलपन
म बु का नाश तो होता ही नह वर वह सा वक हो जाती ह तथा उस पागल क आ मा िवकासो मुख होती
ह।’’
‘‘वह कहती ह िक तुम इस धरा धाम म ीनारायण का अवतार हो।’’ सुदामा ने जैसे क ण क बात सुनी ही नह ।
क ण बीच म बोल पड़ थे, इसिलए सुदामा क गए थे और क ण क बात पूरी होते ही वे अपने वाह म बोलने
लगे, ‘‘तु हार िवषय म...िवषय या, तु हारी लीला क , तु हार पे्रिमय से जाने कसी-कसी कथाएँ सुनकर
आती ह। िजसक यहाँ वह काम करने...’’ सुदामा ने त काल अपनी बात म संशोधन िकया, ‘‘...उसक एक सखी
ह, िजसका नाम मीनू ह। वह तु हार रास क गोिपय म से एक रही होगी। उससे वह तु हारी लीला क इतनी
कथाएँ सुनकर आती ह िक तुम भी सुनो तो कहो िक अ छा, यह म ! मने सुमित से पूछा िक तुम कभी क ण से
िमली नह , कभी उसका िच नह देखा-मा उसक कथाएँ सुनी ह।’’ सुदामा ने मुसकराकर क ण क ओर देखा,
‘‘अ यथा न लेना िम ! पता नह उन कथा म िकतना स य ह और िकतना तु हार भ ने क पना का समावेश
िकया ह; पर वह उन कथा से ही तु हारी अन या भ बनी ई ह। कहती ह िक म इसे संसार का सबसे
सौभा य मानती िक म उन सुदामा क प नी , जो भगवा ीक ण क साथ खेले ह। वह कहती ह िक कवल
इसी एक भाव क रहते उसे न िनधनता सताती ह और न भिव य क िचंता ही यापती ह। उसका कहना ह िक तुम
सव हो, अंतयामी हो। तुमने अपनी भौितक अनुप थित म भी ौपदी क लाज रखी। तुमने क जा पर कपा क ।
ऐसी करनी परमा मा क अित र कोई कर ही नह सकता। तु हारी कपा क कथाएँ उसक पास भरी पड़ी ह।
वह कहती ह िक तुम वही हो िजसने ाह से गज क ाण बचाए। तुम वही हो िजसने ाद को अपनी गोद म
िबठाया और वह तो कई पग आगे बढ़कर यह भी कहती ह िक तुम वही ीराम हो और इस समय ीक ण क प
म सवकलासंप होकर अवत रत ए हो। तुमने ही शबरी क जूठ बेर खाए थे और िनषादराज गुह तथा िनवािसत
सु ीव को अपना िम कहकर गले से लगाया था। वह तुम ही थे, िजसने...’’
‘‘...सावधान सुदामा !’’ क ण ने ठहाका लगाया, ‘‘यह सं मण का रोग ह। कह ऐसा न हो िक सुदामापुरी तक
प चते-प चते तुम मेर भ हो जाओ। भाभी ारा कही मेरी इन कथा से अपनी र ा करो। ऐसा न हो िक एक
िदन तुम अपना दय खँगालना आरभ करो तो पाओ िक वहाँ तु हार ान क बदले भगवा ीक ण बैठ ह।’’
‘‘बैठ तो तुम अब भी मेर दय म हो, परतु भगवा क प म नह , ान क अ य और मौिलक भंडार क ाता क
प म। मेर अनुसार तु हार समान ानी इस धरती पर न कोई दूसरा आ ह और न कभी होगा।’’
‘‘यह तो अितशयो हो गई।’’ क ण बोले।
‘‘अितशयो वह ह, जो मेरी प नी तु हार िवषय म कहती ह— ीह र का अवतार।’’ सुदामा हसे।
‘‘वह अितशयो नह ह, वह भावदशा ह। उसे ा भी कह सकते हो। ा म असंभव कछ ह ही नह । म
तु ह एक लघु-कथा सुनाता । उससे तुम समझ जाओगे िक भाव या होता ह। एक बार दो साधक तप या कर रह
थे। नारद उधर से िनकले तो पहले साधक ने पूछा िक आपका तो िनबाध प से ीह र क पास आना-जाना ह, तो
हम बताइए िक जब आप उनक पास िमलने गए तो वे या कर रह थे?’’
सुदामा ने पुिलया देखी। वे उसक ओर आकिषत ए और उस पर बैठ गए। क ण भी सुदामा क साथ बैठ गए।
‘‘आगे कहो।’’ क ण को मौन देख सुदामा बोले।
‘‘नारद बोले िक मने वह देखा, जो अपूव था। ीह र सूई क छद म से कभी हाथी को िनकाल रह थे तो कभी ऊट
को। यह सुनकर पहला भ बोला िक नारदजी, आप यथ क बात करक य मेरी साधना का समय न कर रह
ह। नारद ने दूसर साधक क ओर देखा। वह तो स मुख िलये आकाश क ओर देख रहा था। उसने जैसे कछ
सुना ही नह था। नारद ने उससे पूछा िक तु ह या आ, भाई? तो वह बोला, ‘मेर भु क िलए कछ भी असंभव
नह ह। अभी आपने जो बताया, म उस य को अनुभव कर रहा ।’ तो सुदामा, इसे कहते ह ालु िच । वहाँ
तक तो ह ही नह ।’’
‘‘ ा क एक कथा मुझे भी मरण हो आई। बाद म सुनाऊगा। पहले यह बताओ िक ा का जो उदाहरण
तुमने िदया, या वह अंधिव ास नह ह?’’
‘‘िजस भाव अथवा क य म आ मा का िवकास हो, वह अंधिव ास नह होता। हम गंगा और गऊ को माता मानते
ह, तब तो यह भी अंधिव ास होना चािहए। िकतु यह ा ह। इस भाव क कारण हमारी आ मा ऊ वलोक क
या ा करती ह। वह अपने िवकास और आ मजागरण क या ा म एक पग और आगे बढ़ती ह। गंगा और गाय को
माँ का स मान देना इस बात का माण ह िक हम कत न नह ह। कित ने जो हम िदया, हम उसक ित अपना
आभार कट कर रह ह और उस अहोभाव को कट करने क िलए जो हमार पास अिधकतम ा-संप श द
ह, वह माँ ह और िपता ह; तो हमारी ा ने, हमारी कत ता क भावदशा ने हम संवेदनशील बनाया और एक
संवेदनशील िच ही परमा मा को अनुभव कर सकता ह। ये हमारी सनातन परपराएँ ह। इन परपरा से ही हम ह
और ये ही हमारी अ मता ह। म इन परपरा को ढहाने क िलए नह कहता।’’ क ण ने शू य से ि हटाकर
सुदामा क ओर देखा और बोले, ‘‘तुम अपनी भाव-कथा भी सुनाओ। िफर हम िवदा लगे। तु हारी म य राि
तु हारी बाट जोह रही ह।’’
‘‘हाँ...’’ सुदामा जैसे िकसी दूसर लोक से लौट और बोले, ‘‘मेरी कथा वहाँ से आरभ होती ह, जहाँ से तु हारी
समा होती ह।...नारद आगे बढ़। वहाँ दो भ ीह र का जाप कर रह थे। नारद उनसे बचकर जाना ही चाह रह
थे िक पहले भ ने उनको पुकारा, ‘अर नारदजी! इस कार मुख फरकर कहाँ जा रह ह? इधर आइए! आपसे
कछ पूछना ह।’ जब नारद उसक पास प चे तो वह बोला, ‘आप जब िपछली बार आए थे तो मने आपसे कहा था
िक आप ीह र से पूछकर आइएगा िक मुझे उनक दशन ा होने म िकतना समय लगेगा? तो आपने पूछा या?’
नारदजी बोले, ‘पूछा भाई! और उ ह ने कहा िक िजस वृ क नीचे बैठकर तुम जाप कर रह हो, िजतने प े उस
वृ म ह, तु हार उतने ज म अभी शेष ह।’ यह सुनकर वह भ तो अपने साधन-पूजन का सामान फक, किपत
हो यह कहकर चलता बना िक जब इतने ज म ती ा करनी ह तो इस ज म को तो सुख का भोग करक िबताऊ।’
तब नारदजी दूसर भ क पास गए और बोले िक भाई, तुमने कछ पूछा तो नह था। पर म तु हार िलए भी पूछ
आया और बताते ए भय लग रहा ह, य िक िजस वृ क नीचे तुम बैठ हो वह तु हार साथी क वृ से ब त
िवशाल ह। उसक प े ब त छोट होने क कारण सं या म भी अिधक ह...और ीह र ने कहा ह िक िजतनी पि याँ
इस िवशाल वृ म ह, उतने ज म क बाद तु ह दशन ह गे।’ यह सुनकर वह भ आनंद से नाचता आ बोला िक
मेर भु िकतने दयालु ह। इतने ज म तो उनका भजन-क तन करते ए देखते-ही-देखते कट जाएँगे...और कथा
कहती ह िक वह त काल ही वयं को उपल ध हो गया।’’
‘‘कथा स य कहती ह।’’ क ण ने िन पि क प म कहा।
सुदामा पुिलया से उठ। उ ह ने क ण क ओर अपने दोन हाथ बढ़ा िदए। क ण ने उनको अपनी भुजा म भर
दय से लगा िलया।
‘‘क ण, तुम हो तो आकषण का क ।’’ क ण से अलग होते ए सुदामा सजल ने सिहत हसते ए बोले,
‘‘कभी-कभी लगता ह िक कह मेरी प नी स य ही तो नह कहती िक तुम ीराम का पुनरावतरण हो।’’
क ण कछ नह बोले, अपने नयन से सुदामा को क णापूवक देखते रह।
‘‘एक अंितम बात और बता दो। ब त बार सोचा िक पूछ। िजन महा मा से मने जलपोत पर कछ माँगा था, वे कौन
थे?’’ सुदामा ने सहज प से िज ासा क ।
‘‘पराशर, पु क ण ैपायन भगवा वेद यास!’’
सुदामा पर जैसे िकसी िव ु का आघात लगा। क ण का वर जैसे उनक कान नह वर उनक आ मा ने सुना ।
‘‘और घर तक क तु हारी मौन-या ा आनंदपूण हो। भाभी को मेरा णाम िनवेिदत करना और ब को मेरी ओर
से पुचकारना।’’
सुदामा देखते रह िक क ण मुड़ गए ह और कछ ही ण म वह ती ा म खड़ अपने रथ पर आ ढ़ थे।
क ण क जाते ही सुदामा को घर तक का एक लंबा माग िदखाई दे रहा था। भगवा वेद यास से वे िमलकर
आए ह, उनसे कछ माँगकर आए ह। वे अपनी मूखता पर खीजे। या वे क ण से उन महा मा का पूव प रचय नह
पा सकते थे? अपने अ ान म उ ह ने यासजी क अ यथना भी नह क । वे एक साधारण साधु से भी िमलते ह तो
उनम िश ाचार होता ह और ऋिषय क िशरोमिण भगवा वेद यास से वे खे-सूखे होकर िमले। वे तो उनसे एक
अप रिचत पिथक क भाँित संवाद कर आए।
उ ह ने आकाश क ओर हाथ उठा िदए और मन-ही-मन बोले, ‘िपताजी, क ण क कपा से आपका सुदामा
भगवा क ण ैपायन वेद यासजी क न कवल दशन करक आया ह अिपतु उनक पावन हाथ क पश सिहत
वरदान ा कर लौटा ह। यिद आप आज भौितक प से हमार बीच होते तो म अनुभव कर रहा िक आपक
आ मा यह सुनकर आपक देह को िकतना आनंिदत करती। इस समय आप िजस लोक म भी ह, वह क ण-कपा
से आपको इस आनंद क ा हो। ह र ओ3 त स ।
उनका मन अपनी प नी क ित हािदक आभार से प रपूण था और सहसा उनक पग आ म लािन का भार िलये
उठने लगे। वे सोचने लगे—सुमित ने उनको इतनी सुंदर या ा क िलए पे्र रत िकया। उसने उनक आिथक थित
जानते ए भी उनको अपने पित क प म चुना। उसने कवल उनका ान देखा, उनक िव ा क ित भ देखी,
उनका कल देखा। उसने वह नह देखा जो येक क या अपने भावी पित म देखती ह—धन। उसने धन नह देखा।
संतान क ज म से पूव तो उसको द र ता छ भी नह गई थी। पर अब...उसका कहना उिचत ह िक वह ‘माँ’ भी ह।
तो या सुदामा ‘िपता’ नह ह?
‘नह सुदामा, तुम िपता कहाँ हो?’ सुदामा से चचा करने उनका आ मक वर कट हो गया।
‘ य , म िपता कसे नह ?’ सुदामा क अकड़ बोली।
‘तुम जनक हो अपने ब क, सुदामा। तुम उनक ज म का आधार मा बने हो। िपता वह होता ह, जो अपनी
संतान क पालना करता ह। तुम पालक तो कभी बन ही नह पाए। जनक तो पशु भी बन जाते ह।’ वर ने ब त ही
पे्रमपूवक होकर सुदामा को िध ारा, ‘तुम वयं सोचो िक तु हार ान क भूख ने तु ह अपने प रवार क भूखे पेट
क ओर कभी देखने ही नह िदया। तुम यो य थे, पर तुमने िकसी क चाकरी को वीकार ही नह िकया। तु ह सदा
यही लगा िक तुम जहाँ चाकरी करोगे, वहाँ तु हार शीष पद पर अ ानी व जड़बु जन बैठ ह गे और तु ह उनक
अ ान से भरी आ ा का पालन करना होगा। तु ह वह सदा िदखा, परतु अपने प रवार क दुदशा कभी नह
िदखी। क ण ने तु ह तु हारी िनधनता का सार समझा िदया, न िक तुमने जीवन म संतुलन नह बनाया। तुम एक ही
िदशा म बढ़ते गए।’’
सुदामा का यान क ण क अंितम संदेश क ओर गया : घर तक क तु हारी मौन-या ा आनंदपूण हो। भाभी को
मेरा णाम िनवेिदत करना और ब को मेरी ओर से पुचकारना।...
वे तो यह भूल ही चुक थे िक उ ह ने यह संक प िकया ह िक वे अपनी वापसी या ा को मौन म करगे। यिद क ण
उनको न चेताते तो आव यकता पड़ने पर वे राहगीर से संवाद भी कर लेते। इसका अथ ह िक यह अंतयामी क ण
जान चुक थे िक वे अपना संक प भूल चुक ह। क ण का दूसरा संदेश ह िक वे सुमित को उनका णाम िनवेिदत
कर। तो यह तय रहा िक वे अपना मौन क ण क णाम से ही खोलगे। तीसर म उ ह ने ब को पुचकारने क
बात कही।...िकतना सुंदर होता िक क ण उनको चलते समय थोड़ा धन देते ए यह कहते िक यह म ब क िलए
दे रहा , इसिलए तुम मना मत करना और ब को पुचकारना। क ण, तुमने मुझे र ह त ही िवदा कर िदया।
तुम चाहते तो तु हार एक संकत मा से ही मेरी सारी िनधनता समा हो जाती। माना िक संसार पारखी नह ह। पर
तुम तो सब जानते हो िक िकसका िकतना मह व ह। तुम तो मेरी यो यता का मू यांकन कर सकते हो। तुमसे कछ
भी देते न बना!
‘िछ! िछ! िछ! िध ार ह सुदामा, तुम पर। तुम वयं को ानी सुदामा कहते हो! मेरी ि म तो तुम कत न सुदामा
हो।’ सुदामा क आ मक वर ने सुदामा को हय ि से देखा और िख होकर बोला, ‘क ण ने तु ह पे्रम िदया,
ान िदया, आदर िदया, अपना सा य िदया और तुम कहते हो िक उसने तु ह र ह त िवदा िकया। क ण ने
तु ह माँगने का अवसर िदया। तु ह भगवा वेद यास क िनकट कछ भी माँगने क िलए भेजा। भगवा ने तुमसे कहा
भी था िक ऐ य माँग लो। पर तुम...और अब तुम कहते हो िक क ण ने तु ह कछ िदया नह । जहाँ तक मेरी
जानकारी ह िक क ण ने तु ह जो िदया, वह जग म आज तक िकसी को नह िमला। क ण ने अपने अ ु से
तु हार चरण पखार। क ण क क णा का सागर तुम पर पूरा आ िगरा। तु हारा अ त व एक बूँद का भी नह ह
और उस बूँद पर नाचता आ महासागर आ िगरा। और बूँद कहती ह िक सागर ने मुझे िदया ही या? िध ार ह
बूँद पर!’
सुदामा ल त हो गए। उसका िसर झुक गया। सुदामा को अपनी सोच क मल से दुगध आ रही थी।
‘ह क ण! मुझे मा करना। म तु हार ित उलाहने से भरा। तुम तो सव हो, अंतयामी हो। जानते हो िक म यह
नह कहना चाहता था। यह कोई और कह गया, क ण। मेर ही मन का मल कह गया। तुम सब जानते हो। तु ह
मुझे सँभालो, क ण! म तु हार शरणागत । म इन िदन तु हार साथ िम व यवहार करता रहा। अपने अहकार म
म तु हारी मिहमा को जानने का यास ही नह कर पाया।’
सुदामा ने अनुभव िकया िक उसक स मुख भगवा वेद यास खड़ ह और उनक पावन ने उनको आशीवाद देते
ए कह रह ह—सुदामा, तुम क ण का रह य तो जान ही नह पाओगे; य िक यह त व जानने से पर ह। हाँ, तुम
क ण म एक प होकर क ण ही हो सकते हो। िफर जानने जैसा कछ रह नह जाएगा। तुम पर क ण-कपा उस िदन
से ही बरसनी आरभ हो गई थी, िजस िदन उ ह ने तु ह अपना कह िदया था।’
‘क ण को अनुभव करने क िलए म या क , भगव ? आपने मुझे क णमय होने का आशीवाद िदया ह।’ सुदामा
का दय बोला।
‘तुम ानी हो। ान क पराका ा भ ह। येक अव था क पराका ा ही भ ह। तुम ान क ऊजा को
भ क ऊजा म प रवितत कर दो। शेष क ण सँभाल लगे।’
सुदामा ने देखा िक भगवा वेद यास अंतधान हो गए थे। सुदामा क बु तुरत आ धमक और यह शोध करने
लगी िक यह उनका म था या कछ और...।
सुदामा ने अपने आनंद का स टा उठाया और रसोई क ओर बढ़ रह क े को हड़काने क समान अपनी बु
को दूर तक खदेड़ते ले गए। बु को दु कारने और खदेड़ने क अपूव आनंद को सुदामा ने जीवन म पहली बार
अनुभव िकया था। वे अनुभव कर रह थे िक वे कछ साहसी हो गए ह। उ ह ने जाना िक अपनी बु क अनुिचत
ह त ेप को रोकनेवाला ही तो सबसे बड़ा साहसी होता ह। उनक चेतना ने कछ गाया—ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय।... और वह इसका जाप ही करती चली गई और आनंद म नाच उठी।
सुदामा च क िक यह उ ह ने कहाँ सुना? तभी उनको मरण हो आया िक उस जलपोत पर अपने अहोभाव को
कट करने क िलए उन चा रय ने इस मं का उ ारण िकया था। तो या वे क ण को ीह र का अवतार
वीकार करक उनक तुित करते ह? वे भगवा वेद यास क िश य क ण को भगवा मानते ह और वयं यासजी
ने भी क ण क िवषय म जो कहा था, वह अलौिकक था। सहसा सुदामा क मन क सरोवर क गहराइय म िवचार
क प थर क नीचे दबी असमंजस क एक लकड़ी उठती ई उनक बु पर तैरने लगी—उन चा रय को मेरा
नाम कसे ात आ?
‘ह क ण! तुम एक हल नह होनेवाली पहली क समान मेर समूचे य व पर छा गए हो।’ सुदामा क बु
कराह रही थी।
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ातःकाल सुदामा उस चबूतर क सामने खड़ थे, जहाँ उनक भट अघोरी से ई थी। वे उस थान को देख रह
थे, जहाँ अघोरी बैठा था और उसक साथ वे। अघोरी ने क ण क िवषय म जो कहा था, वह असाधारण व य
था। सुदामा ने उसे अघोरी का लाप मान िलया था। वे अनुभव कर रह थे िक वे येक उस थान पर चूकते रह,
जहाँ से वे अपार पा सकते थे। वे चाहते तो अघोरी क पास बैठकर क ण को जानने क या ा पर कछ पग बढ़ा
सकते थे। उनक मन म यह भी य न आया िक उनको एक ऐसा पा िमला ह, जो िक उनक उस िम को जानता
ह, िजससे िमलने वे लगभग बीस वष क बाद जा रह ह और इतने वष क अंतराल म य म िकतना कछ बदल
जाता ह। मृितयाँ या तो िमट जाती ह या धुँधली पड़ जाती ह।...और वह अघोरी तो क ण को गहराई से जानता था।
वह क ण पी सागर म गोता लगानेवाला िस था । उनका सौभा य उ ह िस क पास ले जाता रहा और
उनका अहकार उनसे चार पग आगे बढ़ उ ह िस से चुकाता रहा। उनका अहकार! उनक ान का अहकार!
उनक श द का अहकार! उनको सदा यही लगा िक वे सामनेवाले से अिधक जानते ह। कहनेवाला अनुभवी हो तो
सुदामा को और पीड़ा होती थी िक वे परम ानी ह। शा क ाता और मम ह तो िकसी अनगढ़ य को
अनुभव क संपदा कसे िमल सकती ह! ाथिमकता क सूची म तो उनका नाम ही होना चािहए। परमा मा अपना
अनुभव देते समय उनक शैि क यो यता और शा ीय ान को तो देखेगा ही। वे इस बात को कभी वीकार ही
नह कर सकते थे िक एक अस य अघोरी आँख देखी कह रहा ह और वे कान सुनी कह रह ह। वह कथन, िज ह
सुदामा ने कह से पढ़ िलया ह, कह से सुन िलया ह और उसे अपना ान मान िलया ह। उनक श द क कोलाहल
ने उ ह अनुभवी जन का संगीत सुनने नह िदया। वे अनुभव कर रह थे िक अहकारी य क पास शा क
ाणवा सू भी िन ाण हो जाते ह। उनम ाण-ऊजा तो य का अनुभव ही भरगा। उ ह ने अपने अंतर को
टटोला तो अनुभव क नाम पर वे अपने धन क िनधनता से भी अिधक िनधन ह।...सहसा उनक मन म उ साह क
एक लहर उठी। उनको लगा िक वे इन िदन अनुभवी और िच मय महापु ष से िमले ह। उनका िमलना, उनका
सं पश, उनका आशीवाद, उनका सा य यथ नह जाएगा। वे अव य उस अनुभव को ा करगे, जो जीवा मा
का का य ह।
चलते-चलते सुदामा क ू क हार क किटया क िनकट आ गए। उ ह अपना वचन मरण हो आया िक वे वापसी
म उसका आित य वीकार करगे।
‘य ही चबूतर , पुिलया और क ू क हार क किटया पर कते चलोगे तो प च िलये घर।’ उनक बु
िकसी म खी क समान िफर उनक मन पर आ बैठी, ‘इस समय तु ह अपने घर प चने क शी ता करनी चािहए।’
‘मेरा वह वचन?’ सुदामा ने उस म खी को हाथ से उड़ाया।
‘इस कार क औपचा रक वचन देना तो संसा रय क रीित ह।’ वह म खी िफर आ बैठी।
‘िकतु भ क नह ।’ सुदामा ने उस म खी पर अपने भाव का एक थपेड़ा मारा।
‘तुम भ हो या?’ हठी म खी ने उसे िचढ़ाया।
‘हाँ!’ सुदामा ने आवेश म म खी को उड़ाया।
‘िकसक भ हो?’ म खी ने जैसे न पकड़ जाने पर सुदामा को िचढ़ाया।
‘अपने भ से पे्रम करनेवाले क णािनिध भगवा ीक ण का।’ सुदामा क वर म आनंद का िहलोरा था।
‘पर वे तो तु हार िम ह।’ उस िहलोर म डबती, हाथ-पैर मारती और अंितम ास लेती म खी धीर से िभनिभनाई।
‘थे। अब वे मेर भु ह। उनका भाव धरते ही म पांत रत होने लगता । मुझे ान नह , पांतरण चािहए।’ सुदामा
ने अपना पैर क ू क किटया म रखा।
बु क मल से जनमी उस म खी क ाण िनकल चुक थे।
सुदामा ने देखा िक क ू िम ी क ल दे से खेलते ए कछ गुनगुना रहा था। उसक गुनगुनाने का भाव बता रहा था
िक वह कोई भजन गा रहा ह। अपने गुनगुनाने म वह इतना मगन था िक उसे यह पता ही नह चला िक कोई
उसक किटया क भीतर उसक िनकट आ खड़़ा आ ह। उसक प नी उसक ओर पीठ िकए दूध िबलो रही थी।
सुदामा ने अपने कान उन श द को समझने म लगाए, िज ह क ू गा रहा था। वे उस भजन क ुव पं सुन पा
रह थे, िजसे वह दोहरा रहा था—
‘‘जब तुम हो कपािनधान,
तब म य हा नाथ!’’
सुदामा ने अनुभव िकया जैसे क ण ने उनको छकर जीवन देखने क नूतन ि दे दी ह। वे अपने ऊपर सतत कछ
बरसता आ अनुभव कर रह ह। लग रहा ह जैसे उनका नया ज म हो रहा ह। क ण तो पारस ह, िजसे छ ल वही
सोना हो जाए।
‘पर सोना िमला कहाँ?’ सुदामा क मन म कोई वर पुकार उठा।
‘ या सोना इतना मह वपूण ह?’’ सुदामा ने उस वर को दया ि से देखा।
‘हाँ, अित मह वपूण ह; अिपतु म तो क गा िक सवािधक मह वपूण ह।’ वर ने जैसे और भी दयनीय ि से
सुदामा को देखा और बोला, ‘मुझम झाँको। म लालसा। मेरी ओर देखकर बात करो। या क ण क पास तुम
ान पाने गए थे? अ या म क रह य जानने गए थे? या ेम क याकल क तु हार मन म उठ रही थी और वह
तु ह अपने वाह म ारका पटक आई? नह ना! तुम गए तो इसिलए थे िक क ण तु ह याचना म थोड़ा धन दान
कर द और तु हारी गृह थी क डबती नौका को िकनारा िमल जाए। बोलो, इसीिलए गए थे न? वह तो तु हारा
अहकार आड़ आता रहा और तुम कछ माँग नह पाए। िकतु यिद क ण कछ देते तो तुम लपककर ले लेत।े ’
सुदामा का िसर झुका तो िफर झुका ही रहा।
‘अब बोलते य नह !’ लालसा ने लताड़ा।
‘तुम य मेर पीछ पड़ी हो। मने धन क कोई याचना क या?’ सुदामा जैसे झ ाए।
‘परतु संकत देने म भी कोई कमी नह छोड़ी।’ लालसा हसी।
‘पर क ण ने धन िदया या!’
‘िफर िदया न उलाहना!’ लालसा अपनी िवजय पर िखलिखलाकर हसी, ‘तुम कछ ही समय पूव यह सोच रह थे
िक म भु क ित कोई उलाहने का भाव नह रखूँगा और...’
‘मूख! यह उलाहना नह ह। इसका अिभ ाय यह ह िक मने ऐसा कछ संकत िदया ही नह । यिद ऐसी बात होती तो
क ण मुझे र ह त िवदा न करते।’
‘िफर िदया उलाहना।’ लालसा ने ताली बजाई, ‘चलो, छोड़ो उलाहनेवाली बात। यह बताओ िक अब या करोगे?’
‘वही जो क ण करवाएँगे।’ सुदामा समपण क भाव म बोले।
‘क ण या करवाएँगे?’ लालसा ने चुटक काटी।
‘यह तो क ण ही जाव!’
‘तो पूछो न क ण से!’ लालसा ने िचढ़ाया।
आहत सुदामा ने दुःखी मन से आँख बंद क और क ण पर अपनी चेतना को कि त िकया। उ ह ने देखा िक क ण
सा ा उनक िचदाकाश म कट हो गए ह। वे मुसकराकर सुदामा क ओर देख रह ह। वे चतुभुज भगवा
ीिव णु क प म िदखाई दे रह ह।
‘सुमित ही सही कहती थी िक आप तो वही नारायण ह।’ सुदामा िव मय से भर गए।
‘यह तु हार िशिथल और िनधन मन क क पना ह, सुदामा! और इस क पना क अ न म तु हारी प नी घी डाल
रही ह। इन वायवीय म से बचो।’ लालसा अपने साथ अपने पे्रमी तक को ले आई। तक बोला, ‘क ण एक
साधारण वाला था। अब एक श शाली सा ा य का सवसवा ह। इतना ही मानो। तु हारी प नी तो भावुक ह।
उसका रोग दूर करना तो दूर रहा, तुम वयं ही उससे सं िमत होते जा रह हो।’
‘ह दुःखभंजन!’ सुदामा क चेतना क हाथ जुड़ गए, ‘ ान का कछ लाभ मुझे आ हो, इसका तो मुझे ान नह ,
िकतु इस ान से मेरी हािन अपार ई ह। इस ान ने मुझे ऐसा भरमाया िक अनुभव क या ा ही नह करने दी। यिद
िकसी ने मुझसे आँख देखी बात भी कही तो मने उसक उपे ा करते ए यही कहा िक म तुमसे अिधक जानता ।
आज म इस बात को अनुभव कर रहा िक मेरा वह जानना आरोिपत था, मेरी ओढ़न थी।’
सुदामा ने देखा िक नारायण प भगवा ीक ण क मुसकान और फल गई ह। मानो वह पूछ रही हो िक और
या हािन ई, सुदामा?
‘ह क ण! ये िवचार मुझे सताते ह। िवचार क कौए मेर दय क कोयल को ककने ही नह देत।े एक कौआ हो तो
उसे उड़ा भी दूँ। यहाँ तो कौ क सेना ह। एक कौए क ककश विन मेरी कोयल क ाण ही कपा देती ह, तो
जब ये समूह म कोलाहल करते ह गे तो मेरी कसी दुगित होती होगी, यह तुम ही जान सकते हो।’ सुदामा का वर
जैसे हताश होकर नतम तक हो गया।
‘िवचार को सहयोग मत करो। उनको उ र देना उनको पोषण देना ह। तुम अपने दय क सुनो। सारा यान अपनी
कोयल क कक पर लगा दो। कछ समय बाद एक थित ऐसी आएगी िक ये कौए िच ाएँगे और इनका
कोलाहल तु हार दय जग म वेश नह कर पाएगा। तुम अपने दय पी वृ पर यान पी ग ड़ का आ ान
करो। उसक रहते न िवषधर आएँगे और न कौए।’
सुदामा ने सुना। क ण क छिव अंतधान हो चुक थी। सुदामा ने देखा िक लालसा और तक अपनी सश सेना
क साथ खड़ ह। सुदामा क मन म सुमित कट ई और करतल विन क साथ गाते ए नाच उठी, ‘गोिवंद मेरो ह,
गोपाल मेरो ह। ीबाँक िबहारी नंदलाल मेरो ह।’
सुदामा क मन म सुमित क तािलय को सुनकर िवचार क कौ क सेना म जैसे भगदड़ मच गई। वे सुदामा
क दय पी वृ से उड़-उड़कर जाने लगे। चीखते-िच ाते अपने ाण बचाने क यास म अनेक क पंख टट
और वे धराशायी होकर भूिम पर िबछ गए। शेष त-िव त दशा म भागने लगे। सुदामा का साहस बढ़ा और उसी
अनुपात म सुमित का क तन भी।
सुदामा क आँख अपने पैर पर िकसी पश को पाकर खुल । उ ह ने सबसे पहले वयं को देखा। वे अ ुपू रत
ने से ताली बजा-बजाकर झूम रह ह और क ू एवं उसक प नी उनक पैर म अपना िसर िगराए सा ांग लेट
ह।
ओह! वे तो समझ रह थे िक उनक मन म सुमित यह क तन कर रही ह।
‘अर क ,ू उठो!’ सुदामा क नािभ से उठा वर या ा करता आ उनक कठ तक आया और वहाँ क ण ने अपना
पैर रख िदया और बोले, ‘मौन का संक प लेकर चले हो। भूल गए। वैसे तुम मौन म नह हो। िवचार से संवाद तो
चल ही रहा ह। परतु कोई बात नह । बाहर क मौन को साधते-साधते भीतर क मौन का भी अ यास हो जाएगा।’
‘ओह, क ण! तुमने बचा िलया, अ यथा त भंग हो जाता।’ सुदामा िसहर उठ।
‘इतना भी मत कहो। कछ कहो ही मत। इसे अनकहा रहने दो। अ ान म त भंग हो जाए तो अपराध-बोध से मत
भरना। िहमालय चढ़ने म िगरना तो वाभािवक ही ह। िगरोगे, उठोगे, बढ़ोगे और पवत क िशखर पर प चोगे।’
क ण ने अपना पैर सुदामा क कठ से हटा िलया। वर क ऊजा नािभ- देश म लौट गई।
‘‘आपने अपार कपा क देव, जो आपने अपने चरण िफर से हमारी किटया म धर।’’ क ू बार-बार अपने हाथ से
उनक पैर का पश कर अपने माथे से लगाता जा रहा था।
सुदामा पीछ हट गए और संकत से उसे उठने क िलए कहा। क ू उठ गया। उसक प नी सुदामा क बैठने क
िलए एक पीढ़ा लाई। सुदामा उस पर बैठ गए। वे दोन भी उसक स मुख बैठ गए।
‘महाराज, आप मेरी घरवाली क िसर पर अपना हाथ रख द तो दया हो।’’ क ू ने अपनी प नी क ओर देखा। वह
सरककर सुदामा क िनकट आ गई। सुदामा ने अपना दायाँ हाथ उसक िसर पर रख िदया और बायाँ क ू क। वे
अनुभव कर रह थे िक उनक हाथ से कछ बहता आ जा रहा ह और उन दोन पा को भरता जा रहा ह। सुदामा
को लगा जैसे उनक मा यम से जो बह रहा था, वह बह चुका ह तो उ ह ने अपने हाथ हटा िलये।
‘‘जा, देवता क िलए दूध ले आ!’’ क ू ने अपनी प नी से कहा। वह उठ गई।
‘‘आप देवता ह, महाराज! ा ण क प म भगवा ह। आपक ही कपा से मेर भाग जग गए ह।’’ क ू कहता
ही जा रहा था और सुदामा कछ समझ नह पा रह थे िक वह य उनक गुण गा रहा ह। जबिक उ ह ने तो उसको
एक मु ी चावल क अित र और कछ िदया ही नह । उ ह ने मान िलया िक कोमल और धािमक वभाव का
होने क कारण वह उनक पुनः आने से वयं को ध य मान रहा ह। यह उसका ही गुण ह, अ यथा सुदामा म ऐसा
कछ नह ।...तभी उनका यान सुमित क ओर गया। वह तो क ण क भ म डबी ह। क ण ही यो य ह। उसक
मन म आया िक वे िकसी कार क ू को बता पाएँ िक क ण ही सबकछ ह, वे कछ भी नह ह। इसिलए वह
क ण क शरण गह। वे आज कछ बोलना चाह रह थे, क ण क गीत गाना चाह रह थे; परतु जैसे क ण ने ही उ ह
क िलत कर िदया था। क ू उनक गुण गाता जा रहा था और उनका सम अ त व जैसे चीख रहा था िक ये गीत
क ण क िलए होने चािहए, मुझ अपा क िलए नह । सुदामा क याकलता बढ़ती ही जा रही थी। उनको लगा िक
अब चाह उनका त भंग हो, वे चुप नह रहगे। पहले ही वे अपनी गृह थी का स यक प से पालन न कर पाप
कर चुक ह, इसिलए वे इस पाप क भागी नह बनगे।
उनका वर उठा ही था िक क ण ने पुनः कट होकर उनक कठ पर अपना पैर रख िदया और बोले, ‘तु ह िकस
बात का क हो रहा ह? सुदामा’
‘ भु, आपक गुण क तुित वह मुझे अिपत कर रहा ह। म इस यो य कहाँ ! आप तो सब जानते ह। म अपा ।
यह अबोध िजन िद य गुण को मुझम बता रहा ह, वे मुझम ह ही नह ।’
‘तु हार मा यम से वह मुझे ही गा रहा ह, सुदामा! तुम उन तुितय को मुझ तक प चाने म मा यम नह अिपतु
बाधक बन रह हो। तुम उनको मुझे अिपत कर दो। म तु हार अंतस म ही िवराजमान । तुम मुझम हो सुदामा, और
म तुमम । मुझसे अित र कछ ह ही नह । तु ह तो आनंिदत होना चािहए िक तुम िकसी क ा क पा बन
रह हो। यहाँ कौन िकस पर ा रखना चाह रहा ह? कौन िकसे पे्रम करना चाह रहा ह? तु ह कोई चाह रहा ह।
तु ह िद य ेम दे रहा ह, तुम पर ा कर रहा ह और तुम उसका ितर कार कर रह हो! तुम बीच म आ ही य
रह हो?’
‘तो भु म या क ?’ सुदामा दीन होकर िगड़गड़ाए।
‘अपनी तु छ ‘म’ को हटाओ और अपने व का िव तार कर िवराट ‘म’ को ज म दो। ऐसी ‘म’ िजसम पूरी वसुधा
ही तु हारा कटब हो जाए। क ण ने सुदामा क कठ से अपना पैर हटा िलया।
‘‘...आप िस ह। आप समथ ह।’’ क ू ने हाथ जोड़कर अपने माथे से लगा िलये।
‘‘क ण, तुम िस हो, समथ हो।’’ सुदामा क दय क कोयल कहक और उनक समपण का अ यास वतः
आरभ हो गया।
‘‘जानते ह महाराज, कल या आ? कल सुबह एक अघोरी हमारी किटया पर पधारा। ब त भयंकर काला क ा
उसक साथ था। मेरी घरवाली तो डर क मार काँपने लगी। मने उसे नम कार िकया।’’ क ू बीते कल क सुबह
म जा प चा। शू य म गड़ी उसक आँख िकसी घटना का आँख देखा हाल कह रही थ —
‘‘जय महाकाल!’’ अघोरी ने अपना िचमटा बजाया।
‘‘बाबा को णाम!’’ क ू ने िसर झुकाया और सोचने लगा िक इस कार क साधक, जो ायः शमशान म ही
साधना िकया करते ह, ये संसार म कम ही आते ह। अपनी या ा भी ये रात को ही िकया करते ह। यिद िकसी
कारण िदन म भी चलना पड़ तो िकसी को बाधा नह प चाते। ये िकसी को कछ नह कहते। िफर भी इनक प
और यवहार को देखकर लोग इनसे भयभीत होते ह। उसने एक बार एक सं यासी से अघो रय क िवषय म पूछा
था तो उसने बताया था िक ‘अघोरी’ ब त ही यार लोग आ करते थे। ये वे थे जो घोर नह थे। सरल थे, कोमल
थे। िकतु कालांतर म यह श द अपनी या ा करता आ कछ ऐसे हाथ म चला गया िक गृह थ इस श द से और
उसक वाहक से डरने लगे।
‘‘अंदर आने को नह कहगा, क ू!’’ अघोरी गरजा और अपने क े क ओर देखकर मुसकराया और बोला,
‘‘तेरा भाई कालू दरवाजे पर खड़ा ह।’’
क ू ने उस क े क ओर देखा, िजसे अघोरी ‘कालू’ कहकर पुकार रहा था। क ू ने देखा िक वह क ा उसक
ओर मुसकराकर देख रहा ह। वह डर गया। क ा कसे मुसकरा सकता ह! उसे लगा िक कह उसक दुिवधा से हो
रही देरी क कारण अघोरी अ स न हो जाए, इसिलए वह उसक चरण म िगर गया।
‘‘चल उठ क याण हो तेरा! बता, म कहाँ बैठ?’’ अघोरी किटया म आ गया।
क ू ने हड़बड़ाहट म खटोला सरकाया और उस पर गुदड़ी िबछाकर हाथ जोड़ एक ओर खड़ा हो गया।
‘‘ ...’’ अघोरी क ू क वागत से संतु आ और िचमटा बजाते ए खटोले पर बैठ गया।
‘‘अरी सुनती हो भा यवा , बाबा पधार ह। बाबाजी क िलए दूध ला।’’
क ा क ू क ओर देखकर गुराया।
‘‘कालू भाई क िलए भी दूध लाना।’’ क ू क हाथ-पैर फल रह थे।
क ा अभी भी क ू क ओर देखकर गुराता रहा।
‘‘अधम!’’ अघोरी ने कालू क े क िचमटा मारा और चीखा, ‘‘अब य घरघरा रहा ह? तुझे अपने साथ भ को
डराने क िलए रखा ह या? दु को देखकर पूँछ दबाएगा और भ को देखकर घरघराएगा। इधर आ!’’
िकसी आ ाकारी सेवक क समान कालू अघोरी क सामने आ गया। अघोरी ने उसक िसर पर िचमटा मारा। िचमट
क मार खाकर वह खटोले क नीचे जा िछपा।
‘‘ ... क ...’’ अघोरी क े क समान साँस ख च-ख चकर कछ सूँघने लगा। िफर आ त होकर बोला, ‘‘तेर ही
घर से वह गंध आ रही ह। उसी से बँधा िखंचा चला आया ।’’
‘‘कसी गंध, बाबाजी?’’ क ू ने हाथ जोड़ िदए।
‘‘जाने दे, तू नह समझेगा।’’ अघोरी क लाल आँख किटया म कछ खोज रही थ । िफर उसक ि एक आले
पर जाकर ठहर गई। वह बोला, ‘‘वहाँ िम ी क गणेशजी क पास उस क हड़ म या ह?’’
‘‘कल रात एक ा ण देव आए थे। मने उनक ारा दी गई चावल क भट को रख छोड़ा ह। जब वे लौटगे तब
पकाकर उनको भोग लगाऊगा।’’
‘‘इनका भोग तो लग चुका, ब ा!’’ अघोरी बोला।
‘‘नह बाबाजी, अभी तो ये सु े ह।’’ क ू ने हाथ जोड़कर कहा।
‘‘ये सदा सु े ही रहगे पर इनका भोग लग चुका।’’
‘‘हमने तो इ ह छआ भी नह , िफर...’’
‘‘...कहा ना िक तू नह समझेगा, िफर य लाप कर रहा ह?’’ अघोरी गरजा, ‘‘जा, क हड़ मेर पास ला।’’
क ू को एकमा उपाय यही सूझा िक वह उस क हड़ को अघोरी को स प कर उसे ज द-से-ज द िवदा कर।
वह तेजी से आगे बढ़ा, क हड़ उठाया और नतम तक हो अघोरी क हाथ क ओर बढ़ा िदया। उसे देखकर अघोरी
मुसकराया।
‘‘डर मत, बैठ जा।’’ अघोरी क वर म ेह था, पर उस ेह म भी भय क अनुगूँज थी।
क ू अघोरी क आगे हाथ बाँधकर उक ँ बैठ गया।
अघोरी ने अपने साथ रखे कपाल म क हड़ उलट िदया। चावल क टकड़ झरते ए उसम िगर गए। उसने
उनको सूँघा और एक परम तृ का भाव उसक आँख म तैरने लगा।
क ू क प नी आई। उसने अपनी ओढ़नी क सहायता से एक हाथ म लोटा पकड़ा आ था और दूसर म हाथ
पि य को जल िपलाने क िलए बनाया गया िम ी का कटोरा। वे दोन ही गरम दूध से भर थे। िम ी का कटोरा
उसने धरती पर रख िदया और लोटा क ू क ओर बढ़ा िदया।
‘‘ह भगवा !’’ क ू लोट को पकड़ते ही उछला, ‘‘बाबाजी का मुँह जलाएगी? िनवाया करक नह ला सकती
थी?’’
‘‘इधर ला लोटा!’’ अघोरी ने हाथ बढ़ाया और क ू क हाथ से लोटा लेकर मुँह से लगा िलया। लोटा खाली
करक उसने मुँह प छा और गरजा, ‘‘जय महाकाल!’’
क ू और उसक प नी ने यह देखकर दाँत तले अपनी अँगुिलयाँ दबा ल िक वह अघोरी तो उस तपते दूध को
ऐसे सटक गया जैसे वह शीतल छाछ हो।
‘‘कहा ना, तू नह समझेगा।’’ अघोरी क ू क ओर देखकर हसा और खटोले क नीचे बैठ क े को खड़काते ए
बोला, ‘‘चल, िनकल बाहर और पा ले महाकाल का साद!’’
क ा धीर से खटोले क नीचे से िनकला और दूध क कटोर क ओर बढ़ा। उसने टढ़ी ि से क ू क ओर
देखा, मानो कह रहा हो िक तेर कारण मुझे िपटना पड़ा।
‘‘देख!’’ अघोरी ने हथेली उसक सामने फलाई और िफर उसे बंद कर मु ी म बदल िदया और उसक प नी क
ओर देखकर बोला, ‘‘इधर आ, मेर पास।’’
ी ने क ू क ओर देखा। क ू क आँख ने कहा िक जैसे अघोरी कहता जा रहा ह वैसे करती जा। वह अघोरी
क स मुख बैठ गई।
‘‘अपनी झोली फला।’’
उसने अपनी झोली फला दी।
अघोरी ने अपनी बंद मु ी खोल दी। उसम से सोने क चावल झरकर क ू क प नी क झोली म जा िगर।
अघोरी ने दस बार उसक झोली क ऊपर अपनी मु ी खोलकर बंद क और हर बार उसम से मु ी भर सोने क
चावल झरकर झोली म िगरते गए।
‘‘एक मु ी चावल क बदले दस मु ी सोने क चावल। बोल, यापार करता ह?’’ अघोरी ने अपनी ि क ू
पर गड़ा दी।
एक मु ी चावल क टकड़ क बदले दस मु ी सोने क चावल पा कर क ू क आँख फटी रह गई। उसक
कान म उस साधु का वर गूँज उठा, िजसने उसे ब त ही शी उसक पास क पना से अिधक धन आने का
वरदान िदया था। क ू क बु क घोड़ सरपट दौड़। वे जान गए िक जो अघोरी उनक सामने बैठा ह, वह
असाधारण ह। तभी तो वह गोपनीय बात को भी जानता ह और बार-बार उससे कहता जा रहा ह िक तू नह
समझेगा। तो उसे ही समझकर या करना ह। उसे तो अपना काय िस करना ह।
‘‘बाबाजी, ये चावल इस सोने क बदले म आपको दे देता। पर बाबाजी, इनको मने एक मनौती क िलए रख छोड़ा
था। आप इनको ले जाएँगे तो वह मनौती पूरी नह हो पाएगी।’’ उसने देखा िक उसक बात से अघोरी अ स
होता जा रहा ह। वह चुप हो गया।
‘‘मेरी गोद म आ, माँ!’’ अघोरी ने क ू क प नी क ओर देखा। अब क बार उसक प नी ने अनुमित लेने क
िलए क ू क ओर नह देखा। वह तो स मोिहत हो अघोरी क गोद म जा बैठी। अघोरी ने उसे अपने दय से ऐसे
लगा िलया जैसे वह कोई नवजात िशशु हो और िफर उसक मुख पर अपना मुख झुका िदया। उसक लंबे बाल ने
क ू क प नी का मुख ढक िदया। क ू क प नी ने अनुभव िकया िक जैसे सप क लपलपाती दो पतली जीभ
ने उसक िबंदी लगानेवाले थान को चूमा ह। उस चुंबन से उसक भीतर जैसे ब त से गुंजल खुलते जा रह ह।
‘‘जा, नीचे बैठ जा।’’ अघोरी ने उसे गोद से उतार िदया। उसने कपाल म से चावल क दस दाने िनकाले और
बोला, ‘‘ये दस संतान ह। िजतनी तुझे चािहए हो माँ, उतनी रखना और शेष बाँट देना।’’ उसने क ू क ओर
देखा, ‘‘बोल, अब चावल मेर ए?’’
‘‘बाबाजी!’’ क ू अघोरी क चरण म िगर गया और भाव-िव ल हो बोला, ‘‘हम भी आपक ही ए, हमार ब े
भी आपक ए।’’
अघोरी ने अपना पैर क ू क िसर पर रख िदया।
सुदामा िव फा रत ने से क ू क ओर देख रह थे। उनक मन म न और िवचार क कौए काँव-काँव करते
झुंड म कट हो गए।
‘ न और िवचार क इतने कौए तो कभी नह आए। इनको कसे समझूँगा?’ सुदामा मन-ही-मन हाँफने लगे।
‘तू नह समझेगा।’ उनक मन म वह अघोरी िकसी िबजली क समान क धा, ‘रस ले, रस और कौ को मरने दे।’
सुदामा ब त कछ कहना-पूछना चाह रह थे। पर अब उनको समझ आ गया था िक वे बाहरी मौन का संक प
धारण िकए ए ह। क ू उनक उनक ओर इस आशा से देख रहा था िक वे कछ बोलगे। पर सुदामा ने अपने
हाथ जोड़कर आकाश क ओर उठा िदए।
‘‘ओह! महाराज मौन म ह।’’ क ू बोला।
सुदामा ने मुसकराकर वीकित म िसर अपना िहला िदया।
‘‘अरी ओ भा यवान...’’ क ू ने अपनी प नी को पुकारते ए अपनी गरदन घुमाई ही थी िक उसे अपने िसर क
पास वह खड़ी िदखाई दी। उसक हाथ म थाली थी। थाली म चार सुनहरी िम सी रोटी और लोट म दूध।
‘‘जा कम वाली, जल ले आ। महाराज क हाथ-पैर धुलवाने ह।’’ क ू का वर आनंिदत हो नाच रहा था।
q
यारह
गोधूिल वेला म सुदामा अपने गाँव से दस कोस क दूरी पर थे। वे देख रह थे िक उनक गाँव क ओर जानेवाले
तथा सदा नीरव रहनेवाले माग पर अनेक मालवाहक बैलगाि़डय का आवागमन लगा आ ह। माग पर धूल क मेघ
गोधूिल वेला को और सहयोग कर रह थे। धूल अनेक आकितय का िनमाण करती और िफर माग पर िगर जाती।
कोई बैल उससे िकसी कदुक क समान खेलता और वह िफर वायु म उठ जाती।
सुदामा ने तय िकया िक वे माग म धूल म नहाते ए न जाकर खेत से होते ए जाएँग।े खेत से होकर जाने म
उनक दस कोस क दूरी सात कोस क रह जाएगी। सुदामा माग से उतरकर खेत क राह हो िलये। उ ह ने कछ
गुनगुनाना आरभ ही िकया था िक उनक पैर को छता आ एक भयानक और लगभग दो हाथ लंबा साँप खेत म
खो गया। सुदामा िठठक गए।
‘ऐसा न हो सुदामा, िक धूल से बचने क यास म तुम धूल म ही िमल जाओ। रात को इस सप ब ल ़े म
तु हार ारा खेत से होकर जाना तो मृ यु का आ ान करना ह।’ सुदामा क बु बोली।
सुदामा तुरत खेत क राह छोड़कर मु य माग पर आए।
‘मृ यु का भय सारा ान भुला देता ह।’ बु हसी, ‘और उससे बचने क िलए सारा ान मरण भी हो आता ह।
देह को बचाने क िलए तो तुमने यास िकया सुदामा! मुझे अ छा लगा िक तुमने मेरी यह बात मानी। पर इस देह
को सँवारने क िलए मेरी कोई बात नह मानी। कह जीिवका खोजी होती तो तु हारी जीवनचया सँवर गई होती और
उस अव था म तुम अपने प रवार क साथ स मानजनक जीवन जी रह होते।’
‘अब या अपमानजनक ह?’ सुदामा शा ाथ करने को तैयार हो गए। उ ह ने सोचा िक चलो, गाँव तक इस बु
क साथ ही वैचा रक म -यु िकया जाए।
‘म जानती थी िक बात को समझने क थान पर तुम ऐसा ही कछ अनाव यक बोलोगे। यही तु हारा रोग ह िक धन
क मह व को समझते ही नह हो। तुमने ल मी क उपे ा क और ल मी ने तुरत तुमसे मुँह फर िलया। ‘बु ने
सुदामा को समझाया, ‘सुदामा महाराज! ल मी को तो ब त जतन से रखना पड़ता ह। उसका आ ान करने क
िलए बड़ी मान-मनौती करनी पड़ती ह। उसका प रणाम देख रह हो न िक धूल खाते और उसम नहाते जा रह हो।
घर जाकर िकस मुँह से अपनी संतान और प नी से िमलोगे? या वे यह आस लगाए ए नह ह गे िक उनक िपता
उनक क को काटने क िलए अपने िम , राजा क भी राजा भगवा ीक ण क पास गए ए ह? या तु हारी
प नी ने तु ह कवल कछ वायवीय चचाएँ करने क िलए क ण क पास भेजा था? वह भी या सोचेगी िक कसा मूढ़
पित पाया ह, जो इस बात का भी आशय नह समझता िक उसक प नी उससे या अपे ा कर रही ह।’
बु क िवषा श द-बाण से सुदामा को मू छा घेरने लगी। वे सहार क िलए इधर-उधर देखने लगे। माग क
िकनार कछ दूरी पर पुिलया को देखकर वे ऐसे दौड़ जैसे मेले म खोया ब ा अपनी माँ को देखकर दौड़ता ह।
उनको इस कार दौड़ता देखकर अनेक गाड़ीवान और बैल का यान उनक ओर गया। वे चिकत थे िक एक
य क पीछ न कोई पशु पड़ा आ ह और न ही कोई चोर तो िफर वह िकससे भयभीत होकर भाग रहा ह? वे
पुिलया का सहारा लेकर बैठ गए। उनक ास-गित असंतुिलत हो गई थी। पुिलया उनको सदा माँ क गोद जैसी
ही लगी ह। बचपन म जब सुदामा अपने िपता क साथ कह जाया करते थे तो वे माग क इन छोटी-छोटी
पुिलया पर बैठ जाया करते थे और उनक िपता उ ह पुकारते रहते । अंततः उनको उनक पास आकर उ ह गोद
म उठाकर ले जाना पड़ता था। पर अब वे यिद वयं यहाँ से नह उठगे तो कोई उनको यहाँ से गोद म भरकर ले
जाने आनेवाला नह ह। सुदामा का दय भर आया और उनक दय ने तुरत उनक आँख भर द । वे सोचने लगे िक
स य ही तो कह रही ह उनक बु ! वे गए या करने थे ीक ण क पास? या वहाँ ान का कोई स मेलन चल
रहा था? या वे क ण से कछ माँग नह सकते थे?
‘पर क ण से मेरी दशा िछपी थी या? वे चाहते तो मुझे...’ सहसा वे क गए। उनको लगा िक वे अपनी बु क
भड़कावे म आकर ीक ण क ित अपना अस मान कट करने जा रह ह, नह उनको सावधान रहना होगा इस
बु से। यह उनको िमत कर अ ा से भरना चाहती ह। वे आ मलीन हो दय से पुकार उठ, ‘ह क ण! मुझे
मा करना िक म अपनी किटल बु क बहाव म तु हार ित अनुिचत िचंतन करने जा रहा था। मुझे तो ऐसा लग
रहा ह जैसे मेरा ज म तु हारा अलौिकक ेम पाने क िलए ही आ था। म ऐसा अनुभव कर रहा , जैसे म देहमु
हो गया । मेर मन म अब अ य िकसी पदाथ क आकां ा नह ह। उस ान क भी नह , िजसे मने अपना सबसे
बड़ा धन मानकर पाला-पोसा था। मुझे तो तुम भ क या ा पर अ सर करो। मुझे यह कण मा भी समझ नह
आ रहा िक म अपने प रवार क स मुख िकस मुँह से जाऊगा। मेरी समझ म कछ नह आ रहा। बु का कहना
अपने थान पर उिचत ह, परतु म अपने वभाव का या क ? मुझसे चाहकर भी तुमसे माँगना नह हो पाया। या
माँगता? तुमने जो िदया उसक स मुख सारी पृ वी का सा ा य भी तु छ लग रहा था। अब तुम वैसी ही मनोदशा
मेर प रवार क भी कर दो। वे भी यही अनुभव करक परम संतोष को ा ह िक म उनक िलए ेम क संपदा
लेकर लौटा । तुम मेरी दशा को समझ सकते हो क ण, तुम ही मुझे इस संकट से पार करो। यह अित दुःखदायी
ह। तुमने तो जीवन भर अपने भ क उन पर आए संकट से आगे बढ़-बढ़कर र ा क ह। मेरी बारी ही हार
जाओगे या? या तुम मेरा हाथ पकड़कर मुझे क क इस गत से न िनकालोगे? सुदामा क मन म शांित छा गई
और िफर वे बोले िक यिद तुम नह िनकालोगे तो भी म उसी गत म पड़ा-पड़ा तुमको पुकारता र गा। तु ह पुकारने
म मुझे कोई संकोच या लाज नह ।...सुदामा को पता ही नह लगा िक कब उनको न द ने आ घेरा। ब त देर बाद
एक बैलगाड़ी सुदामा क पास क । बूढ़ा गाड़ीवान उतरा और उसने सुदामा को िहलाया।
सुदामा ने आँख खोल और अपने सामने एक अप रिचत य को पाकर इधर-उधर देखने लगे। उ ह समझ नह
आ रहा था िक वे कहाँ ह और य ह? एक ण क िलए वे यह भी भूल गए िक वे वयं कौन ह। सहसा उनक
मृित लौट आई। उनको सबकछ ात हो गया।
‘‘तु हारा जी तो ठीक ह, भाई?’’ बूढ़ ने पूछा, ‘‘तु ह इस कार यहाँ पड़ा देखकर मेरा मन याकल हो गया। यिद
भूख क कारण तुम अचेत हो गए हो तो मेर पास दो रोिटयाँ ह। तु ह दे देता ।’’
सुदामा उसका ध यवाद करक, उसे अपने व थ होने क िवषय म बताने ही जा रह थे िक िफर क ण ने आकर
उनक कठ पर अपना चरण रख िदया और बोले, ‘अ यास से वयं को साधो, सुदामा! भूल गए, तुम मौन का
संक प लेकर चले हो।’
ओह! सुदामा को लगा िक अब वे इस दयालु य का िकस िविध ध यवाद कर। वे तेजी से उठ और उ ह ने
गाड़ी से रोटी लाने क िलए मुड़ बूढ़ का माग छक िलया। वे उसक स मुख हाथ जोड़कर खड़ हो गए और उसक
आगे अपना म तक झुका िदया तथा िबना उस बूढ़ क िति या जाने वे अपने माग पर बढ़ गए। उ ह ने तार क
थित देखकर अनुमान लगाया िक रात ब त हो गई ह। वे तेजी से अपने गाँव क ओर बढ़ने लगे। उ ह ने संक प
िकया िक अब िकसी भी पुिलया क ेह म मोिहत नह ह गे। वे वयं पर मुसकरा रह थे। कहाँ तो वे िववाह ही
नह करना चाहते थे और कहाँ अब अपने प रवार क िलए िकतने याकल ह। यही तो भु क माया ह। यिद यह
माया-ममता न हो तो यह संसार ही न चले। उनक िववाह क पीछ गु संदीपिन क ही कपा थी। बाद म उनको ात
आ था िक सुमित क िपता ने अपनी पु ी क ित ा गु संदीपिन को बताई थी। उ ह ने बताया था िक प और
बु़ म उनक यह पु ी उनक सभी संतान म सव े ह; परतु उसका यह हठ िक वह िकसी ानी को ही अपना
वर चुनेगी, उनक िलए सम या बन गया ह। जो धनी ह, उसम से अिधकांश को तो शा ीय ान से कछ लेना-देना
नह । सां कितक आधार ंथ का तो उसे कण मा भी ान नह । कछ ान क माग पर ह भी तो उनम अप रप
ान ह और कछ जो स े ानी ह गे, उनको वे खोज ही रह ह। िजनको ान ह, वे साधु-सं यासी और ऋिष-मुिन ह
तो या वे िकसी सं यासी से अपनी पु ी याह द? याह तो द, पर कोई सं यासी इसक िलए कहाँ तैयार होगा।
सुदामा, संदीपिन क पास तैयार क ई ितिलिपयाँ रखने आए थे । उ ह ने सुदामा से कहा िक इन आगंतुक स न
क साथ इनक घर जाएँ और इनक पु ी क कछ शा ीय सम या का िनवारण करक आएँ। सुदामा ने आ ा-
पालन िकया। सुमित ने सुदामा से इतने न िकए थे िक वे यह मान गए थे िक सुमित पर माँ सर वती िवशेष प
से कपालु ह। सुमित का प सुंदर था। उसक सरलता ही उसक सुंदरता थी। उसक मुख पर ान क कांित थी।
आँख िहरनी क समान िज ासा का िनद ष कौतूहल िलये थी। सुदामा क मन म एक मीठी टीस उठी। वे सोचने लगे
िक यिद उनको यह ात होता िक परमा मा ने उनक िलए भी िकसी नारी क रचना क ह तो वे आजीवन चारी
रहने क अपनी ित ा को अपने आचाय क स मुख न कहते। आचाय ने अपने अ य िश य क बीच यह चा रत
कर िदया और यह बात पूर आ म म फल गई िक सुदामा चारी रहगे। सुदामा को अपने संबंध म चा रत यह
बात सुनकर मन म आ ोश जगा था िक यह उनका िनजी िवषय ह िक वे िववाह कर अथवा नह । िकसी को उनक
िववािहत अथवा अिववािहत होने का चार करने का या अिधकार ह। परतु वे िकससे या कह, इसी असमंजस म
वे चुप रह गए। आज उनक मन म सुमित को देखकर उसक साथ जीवन-या ा करने का भाव उिदत आ था।
सुमित क घर से आ म लौटते समय वे क पना कर रह थे िक िकतना अ छा हो िक सुमित उनक धमप नी हो
और वे दोन िमलकर ान क े म श द का किष-कम करगे। आ म म उनको धनाजन क िचंता होगी ही नह ।
संदीपिन कछ समय बाद उनक िनयु अपने ही आ म म आचाय क प म कर दगे और सब सुंदर हो जाएगा।
तभी सुदामा िकसी क हसी सुनकर च क थे। वह भयभीत करनेवाली हसी उनक बु क थी। वह सुदामा से
कह रही थी िक वह तो सुमित से िववाह क साकार होने क क पना ऐसे कर रहा ह जैसे कोई राजकमार हो और
उसका यह मत कट करते ही सुमित क िपता आनंद से नृ य कर उठगे। कहाँ सुमित का िवशाल घर और कहाँ वे
आ म पर आि त एक अनाथ चारी।
सुदामा को सदा यही लगा िक वे बालक ही ह। उनक ओर से कछ बात कहने क िलए कोई तो होना चािहए
था। परमा मा ने उनको अनाथ करक छोड़ िदया ह। उनको संतान क प म संदीपिन देखते ह और वे उनको िपता
क प म; तो या वे संदीपिन से अपने मन क बात कह? यह सोचकर वे ल ा से गड़ गए िक गु संदीपिन
उनक िवषय म या सोचगे। वे सोचगे िक चय का पालन करनेवाले सुदामा का मन काम-मोिहत हो गया ह।
सुदामा अपने आ यदाता, अपने िपता और अपने गु क उस ि क साथ कसे अपनी आँख िमलाएँगे?...उनका
आशा म िलत दीप असंभव सोच क झ क ने बुझा िदया।...और इधर सुमित क छिव उनक मन म िबना रग
और तूिलका क िचि त होती जा रही थी। उनका मन कर रहा था िक वे लौटकर आ म न जाएँ; य िक अब
उनका मन उनक वश म नह रहा ह। वह उनको कोई काय नह करने देगा। पर वे इस कार आ म से पलायन
नह कर सकते थे। वे आ म म गए तो अपनी किटया म मुँह ढाँपकर पड़ गए। उनक सामने अधूरी ितिलिपयाँ
रखी थ ; परतु उनका मन उनको देखना भी नह चाह रहा था। सं या समय आ म म सभी चा रय को पीने क
िलए दूध और कछ अ पाहार िदया जाता था। पहली बार वे उसे लेने नह गए। भोजन क यव था देखनेवाले
भंडारी को गु संदीपिन ने उनका यान रखने का िवशेष िनदश िदया आ था। उसे भी सुदामा क शांत वभाव क
कारण उनसे िवशेष पे्रम हो गया था। वह भंडारी सुदामा क पा म सदा कछ अिधक ही डाल िदया करता था। उस
िदन जब सुदामा दूध लेने नह गए तो वह उनको देखने किटया म आया और उनको र म तपता देख गु संदीपिन
को सूिचत कर आ म क वै को ले आया।
उधर सुमित ने अपने िपता को कह िदया था िक उसे सुदामा पसंद ह, शेष आपको जो उिचत लगे। उसक िपता ने
संदीपिन को कहा िक सुदामा को मेरी पु ी ने अपना वर होने क उपयु पाया ह। तब सुदामा क िवषय म
जानकारी पाकर सुमित क िपता का मन हताश हो गया था। इधर पु ी क बढ़ी अव था भी उनक िचंता का कारण
बनती जा रही थी। यिद वे सुदामा क आिथक पृ भूिम न देख तो वह सुमित क उपयु वर था।
वह रात सुदामा को आज भी मरण ह। रात या थी, जागरण था। पूरी रात सुदामा ने जागकर मरण िकया था
अपने कल क देवी-देवता को। वे यह भलीभाँित जानते थे िक कोई भी समृ िपता अपनी पु ी अनाथ याचक
को य देगा। वे वहाँ एक आचाय क समान सुमित क िक ह िज ासा क समाधान- व प गए थे। ऐसे म वे
यह कसे सोच सकते ह िक सुमित क साथ उनका िववाह हो जाए। वे सोच रह थे िक ऋिषय क साथ अपनी
क या क िववाह का चलन तो अभी भी ह। सुदामा का मन उन सभी तक और माण को खोजता रहा, िजनक
मा यम से वह सुमित क साथ अपने िववाह होने क साथक क पना कर अपने मन म कभी आशा का दीया जला
सकता था। सुदामा अपने मन को िजतना सुमित से दूर करने क िलए मयादा और संयम क उदाहरण देते, उनका
मन उतना ही सुमित क मन से जा-जाकर लग जाता ह। वह सुमित क साथ गीत गाता, झूल क प ग भरता,
रथा ढ़ होता, गौ-सेवा करता और न जाने िकन-िकन लोक का मण करता।
सुबह संदीपिन का बुलावा आया। सुदामा संदीपिन क कटीर म गए। वहाँ सुमित क िपता भी बैठ थे। सुदामा को
लगा िक हो सकता ह, वे आज भी उनको लेने आए ह । उनका मन यह सोचकर सुखी आ िक वह आज भी
सुमित क दशन करगा।
‘‘इधर आओ!’’ संदीपिन ने सुदामा को अपने िनकट आने क िलए कहा। िनकट आने पर सुदामा का माथा छकर
देखा और बोले, ‘‘लगता ह, िचिक सक क औषिध का भाव नह आ। तु हारा म तक अभी भी तप रहा ह।’’
सुदामा का मन चीख-चीखकर कहना चाह रहा था िक गु देव, यह ताप पे्रम क िवरह क पीड़ा से उपजा ह।
इसक औषिध िकसी ध वंत र क पास नह ह। सुदामा क ास-गित ती हो गई थी। उनको अपना शेष जीवन
िन सार लग रहा था। सुमित क िबना उनको अपना जीवन िबना नमक क भोजन जैसा जान पड़ रहा था। उनका मन
कह रहा था िक यिद वह सुमित को नह पा पाया तो वह योगी होकर सदा-सदा क िलए वन म चला जाएगा।
अनेक-अनेक कार से सुदामा का मन उनको संत कर रहा था। वह िकसी शुक क समान सतत जाप कर रहा था
—सुदामा क सुमित, सुदामा क सुमित, सुदामा क सुमित, सुदामा...
‘‘सुदामा!’’ संदीपिन ने धीर से पुकारा।
सुदामा अनमने-से िसर झुकाए बैठ रह।
‘‘पु !’’ संदीपिन क वर म ेह उमड़ आया।
सुदामा ने अपने सजल ने से उनक ओर देखा।
‘‘मने आजीवन चारी रहने क तु हारी ित ा क िवषय म सुना ह।’’ संदीपिन बोले।
सुदामा का मन ऐसे चीखा जैसे िकसी ने उसक घाव पर पैर रख िदया हो। वह सुदामा से बोला िक वे त काल
अस य का अवलंब ल और संदीपिन से कह िक उ ह ने ऐसी कोई ित ा नह क ह। सुदामा ने अपने मन को बता
िदया िक वे अस य का अवलंब नह लगे।
‘‘िकतु पु , मने तु हार िपता से कहा था िक म तु हारा यान रखूँगा और जहाँ तक मेरी ि जाती ह वहाँ तक म
यह पाता िक कवल सं यासी जीवन तु हार िलए नह ह। तुम गृह थ-सं यासी होने क िलए उपयु हो। कवल
सं यास धम अित कठोर ह और गृह थ सं यास उससे भी दुःसा य। िकतु भु-कपा से तुम उसे साध लोगे। यिद
तु हार िपता इस समय होते तो वे भी यही कह रह होते, जो म कह रहा । वे भी िववािहत थे। अब म तु हारा िपता
।’’ उ ह ने सुदामा क ओर मुसकराकर ेहपूवक देखा और बोले, ‘‘पु , मने तु हार िलए तथा अपने
अिभभावक होने क दािय व को अनुभव करते ए इनक पु ी सुमित का संबंध तु हार साथ िन त कर िदया ह। म
यह जानना चाहता िक या तुम अपनी ित ा पर अटल रहना चाहते हो अथवा...’’
सुदामा का मन कह रहा था िक वे उसको कछ ण क िलए मु छोड़ द तो वह पूर आ म म यह चीख-
चीखकर कहना चाहगा िक उसने उस अ ात महाश को काम करते अनुभव िकया ह, जो हमारी ाथनाएँ सुनती
ह।
सुदामा ने सा ांग मु ा म अपना िसर संदीपिन क चरण म रख िदया और धीर से बोले, ‘‘गु देव, मेरी बु
अित तु छ ह। जो आप मेर िलए िन त करगे, वह मुझे सहष िशरोधाय ह।’’
संदीपिन सुदामा से कछ नह बोले। उ ह ने अपना ेह-ह त सुदामा क िसर पर रख िदया और सुमित क िपता से
बोले, ‘‘इस शर पूिणमा को तुम क यादान क तैयारी करो। िव सुदामा को अपनी क या दान म देकर इसे
अनुगृहीत करो। म तु ह यह िव ास िदलाता िक सुमित सुदामा क साथ सुखी रहगी।’’
सुदामा क मृित का व न टटा।
मार ल ा क सुदामा क गरदन अभी भी झुक ई थी।
‘दुःखी य होता ह, र सुदामा?’ उनक मन से कटा क गुफा से कट आ वर उनक सामने आकर कदा और
बोला, ‘तूने िनधनता का भरपूर सुख सुमित को िदया ह।’
िववाह क प ा संदीपिन क इ छा से वे अपनी पैतृक भूिम पर आकर रहने लगे। उ ह ने िववाह क प ा
कभी अपनी ससुराल क ओर मुँह नह िकया। एक बार सुमित उनक िबना पीहर गई और जब दस िदन बाद
लौटकर आई तो सुदामा क दशा देखकर उनक िबना पीहर न जाने का संक प कर बैठी। उन दस िदन तक
सुदामा एक कार से उपवास पर ही रह। वे िकसी क ार पर माँगने जानेवाले तो थे ही नह , न िकसी पंसारी से
कछ लाए। एक आ म क ितिलिपयाँ लौटाने गए थे तो वहाँ से कछ मुरमुर और गुड़-चना साद प म पा गए
थे तो उनक और जल क आ य से दस िदन िबता िदए। सुमित िजस जम दार क गोधन क सेवा करती थी, उसक
पा र िमक क प म वह यह कहकर गई थी िक वे अपने वाले क हाथ एक लोटा दूध ितिदन सुदामा क िलए
िभजवा िदया कर। पर वहाँ से कोई नह आया। उसक बाद सुमित को गाँव क पुजारी क गोधन क सेवा का काय
िमला। उसने देखा िक सुदामा ब त ही ज दी आहत हो जाते ह। इसिलए यिद ये कह चाकरी भी करगे तो क भी
पाएँगे और दुःख भी। साथ-ही-साथ ऋिषय क वाणी क अनुसंधान क काय को भी वे नह कर पाएँगे। उसने तय
कर िलया था िक वह अपने पित क ान-या ा म उनक बाधक क प म नह अिपतु साधक क प म अपनी
भूिमका िनभाएगी।...आज वे इस बात को अनुभव कर रह ह िक सुमित ने पूरी िन ा क साथ अपनी वह भूिमका
िनभाई, जो कदािच कोई भी ी िनभा पाए। सुमित अपवाद ह। वे अपनी अकम यता पर मुसकराए। वे भी तो
अपवाद ह। अपनी संतान क िलए वे जनक ही बने रह, िपता कभी नह बन पाए। प नी क िलए वे उसक वामी न
बनकर उसक आि त रह और उनक प नी ने उ ह सदा वामी का स मान िदया। ओह सुदामा! तुम...तुम या दे
पाए? तुम वयं को कसे मा कर सकते हो? सुदामा को लगा िक उनको अपराध-बोध से पीि़डत करनेवाला वर
उनको घेरने लगा ह। सहसा उनक चेतना पुकार उठी, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ और वह पुकारती ही चली गई।
भगवा वेद यास क िश य क गुनगुनाहट को उनक उनक चेतना ने तब कछ सुना था और उसे सहजकर रख
िलया था। इस समय वह वतः कट आ। वे िजसका जाप कर रह थे, वह अब उनक िलए उनका िम नह रह
गया था। वे तो जैसे सवश मन क अवतरण को सा ा जप रह थे। सुदामा ने अनुभव िकया िक कछ ही देर म
उनका सारा अपराध-बोध, क और दुःख खो गया ह। वे वयं को िनभार अनुभव कर रह थे।
वे अब अपने गाँव क सीमा म वेश कर चुक थे। गाँव क बाहर एक िवशाल प का व से ढक ई थी और
उन व को वायु से रि त करने क उ े य से र सय से बाँधा आ था। वे यह देखकर चिकत रह गए िक गाँव
क सभी घर ढहा िदए गए ह। गाँववाल क साथ गाँव क क े भी कह चले गए थे। सुदामा का दय जोर से
धड़का। आस-पास ब तायत म िबखरी िनमाण-साम ी और िमक क अ थायी कटीर बने देखकर उनक सामने
यह प हो गया िक उनका यह गाँव िकसी श शाली य क ारा अिधकत कर िलया गया ह। सबकछ
जैसे िकसी ने प छ िदया हो। मार दुःख और िचंता क सुदामा क अ ु बह उठ। पता नह उनक प रवार क या
दुगित ई होगी। उनक पोिथय को उनक प रवार क साथ इन दु ने न जाने कहाँ फक िदया होगा। सुदामा मन-
ही-मन चीख उठ िक वे वयं को कभी मा नह कर पाएँगे। यह सब उनक अकम य और आलसी होने का
प रणाम ह। तभी उ ह एक िमक कटीर से िनकलता िदखाई िदया। संभवतः वह शौच इ यािद क िलए उठा होगा।
वे उससे यहाँ ई उथल-पुथल क िवषय म पूछने क िलए बढ़ ही थे िक क ण ने उनक कठ पर पैर रख िदया।
‘क ण, तुम देख रह हो सब! इसक बाद भी मुझे मेरा संक प मरण करा रह हो। यिद म अपने प रवार क िवषय म
नह पूछगा तो उनको खोजूँगा कसे? यहाँ तो लय ही हो गई ह।’ सुदामा मन म कट ए क ण से बोले।
‘ या होगा इससे बात करक? संभावना तो यही ह िक यह तुमसे कहगा िक उसे कछ ात नह । िफर तुम कोई
िव यात या गाँव क भावशाली य तो हो नह िक यह िमक तुरत तु ह तु हार प रवार क िवषय म बता देगा।
ऐसे म तुम यथ अपना संक प भंग करोगे।’ क ण मुसकराए।
‘पर म अपने प रवार को खोजूँ कहाँ?’ सुदामा अपना िसर पकड़कर बैठ गए।
‘जहाँ तुम उनको छोड़कर गए थे, वह जाकर देखो।’ क ण अंतधान हो गए।
सुदामा क ण-जाप करते-करते गाँव क अंितम छोर क ओर बढ़ गए। वहाँ का य देखकर उनक हाथ-पैर फल
गए। शरीर मार भय क सूखे प े क समान थर-थर काँपने लगा। उनको लगा िक यिद उ ह ने शी ही वयं को नह
सँभाला तो वे भूिम पर िगर जाएँग।े उनक किटया क थान पर एक भ य तंबू लगा था। उसक बाहर दो हरी थे।
सुदामा अनुभव कर रह थे िक िकस कार उनक प नी इन दु क स मुख नतम तक होकर िगड़िगड़ाई होगी िक
वे उनक भूिम का अिध हण न कर और उ ह ने उनक प रवार को न जाने कहाँ िफकवा िदया होगा।
वे लड़खड़ाते पग से उस ओर बढ़। पहरी चौकस हो गए।
‘‘कौन हो तुम?’’ एक हरी का कठोर वर उठा।
‘‘वह ठहर जाओ और अपना प रचय दो।’’ दूसरा बोला।
सुदामा क मन म आया िक वे बोले िक क ण ने उनको ऐसी ित ा म फसाकर भेजा ह िक वे तड़पगे भी और रो
भी नह पाएँगे।
‘‘बोलता य नह र? बीती रात महामिहम क िशिवर क पास य मँडरा रहा ह?’’ पहले हरी ने सुदामा को
धमकाया।
‘‘हम ात ह िक ाम बस रहा ह तो याचक तो आएँगे ही। पर पहले ाम बस तो जाने दे।’’ दूसरा हरी बोला,
‘‘अब जाओ!’’
सुदामा ने अपने मन म क ण का आ ान िकया।
‘कहो सुदामा!’ क ण कट ए।
‘मने तेरी बात मानी छिलये! मने तेरी ही सहायता से अपना मौन यहाँ तक साधा। अब तू ही बता िक म अपना थम
संबोधन सुमित से कसे क ? कोई मेरा सबकछ हरकर ले गया।’ सुदामा रो पड़।
‘सबकछ हरने का साम य तो ीह र म ही ह। वे ही ह र ह।’ क ण क हसी नूपुर क समान झनझनाई।
‘मोहन! तुम ही हो ह र, तुम ही हो ह र मोहन।’ सुदामा का िन ाण वर लड़खड़ाया, ‘‘म यह बैठा । अब जो
तेरा जी चाह, कर। म तेरी शरणागत । म अपना सव व हार चुका । म सव ि य से अिकचन और दीन-हीन हो
तेरी शरण । अब तु ह यिद मेरी लाज रखनी हो तो रखो, ह र!’
‘‘अर, यह याचक तो बैठ गया। उठता ह यहाँ से या क पद- हार!’’ पहले ने अपना पैर सुदामा क ओर उठा
िदया।
सुदामा िन कप बैठ रह—मेरा सबकछ तुझी को समिपत क ण! अब यह देह भी तेरी, मन भी तेरा, चेतना भी तेरी
और यह आ मा भी तेरी। तू चाह इस पर पद- हार करवा या इसक पूजा करवा। सब तुझे अपण। मुझे कछ न
लगे।
‘‘नरक म पड़गा पापी!’’ दूसर हरी ने पहले को जैसे ध ा िदया और उस पर िबगड़ा, ‘‘अभी यिद द यु आ
जाएँ तो भाग खड़ा होगा और िनरीह ा ण पर पद- हार करक वीरता िदखा रहा ह। नरक म पड़गा पापी! चाह
यह चोर हो, परतु ा ण क वेश म ह। इस वेश पर पद- हार म अपनी उप थित म तो होने नह दूँगा।’’
‘‘ या हो रहा ह? यह कसा कोलाहल ह?’’
भ य िशिवर क भीतर से एक नारी वर उठा।
‘‘ले, अब वाद चखना!’’ दूसरा हरी भड़का, ‘‘ वािमनी उठ गई ह।’’
सुदामा ने वर पहचान िलया। यह तो सुमित का वर ह। वे सोचने लगे िक आ यह होगा िक सुमित को यह
थान न छोड़ते देख इस धनपित क ी को दया आ गई होगी और उसने सुमित को अपनी दासी क प म यहाँ
रहने क अनुमित दे दी होगी। उनका मन सुमित क ित ध यवाद से भर उठा। इस अिधभौितक आपदा क प ा
भी तुम मेरी ती ा म यह थान यागकर नह गई। अब म आ गया । म भी इस धनपित का दास बनकर उसक
सेवा म र गा; य िक अब यह देह मेरी नह , इसम रह रहा मन मेरा नह , इसको संचािलत करनेवाली चेतना अब
मेरी नह और इसे श देनेवाली आ मा का तो मुझे बोध ही नह —अब यह सब क ण का आ। यह सुदामा
क णदास आ और अब वही क ण इस धनपित का दास बनेगा और समय-असमय उसक ह रय क पद- हार
सहगा।
सुदामा ने देखा िक रशमी व और अलंकार से सुस त एक ी िशिवर क ार पर लटक आवरण को
हटाकर कट ई। सुदामा का मन आ िक वे उससे कह िक बहन!...नह ...नह बहन, नह वािमनी। वे कह िक
ह वािमनी! दास सुदामा का णाम वीकार कर और अपनी दासी से कह िक उसका िपछले ज म का पित आया
ह। वह सुदामा अब क णदास हो गया ह।...उस ी को अपनी ओर आते देखकर उनक कठ से वर ही नह
फटा। सहसा उनको यान आया िक वे सुमित को पुकारने क िलए तो वतं ह। उ ह ने िशिवर क ओर मुख
करक आ वर म पुकारा, ‘‘सुमित तु ह क ण का णाम! तुम कहाँ हो?’’ सुदामा ने उस धनवा ी क ओर
देखा ही नह । वे तो िशिवर क ओर ही ताकते रह िक अभी उनक सुमित भीतर से दौड़ी आएगी। वहाँ से न कोई
वर उठा और न सुमित ही आई। उ ह ने उ वर म पुकारा, ‘‘सुमित, तुम कहाँ हो?’’
‘‘नाथ! म आपक स मुख ही तो खड़ी । आप उस ओर िकसे पुकार रह ह?’’ वह धनवा ी सुदामा क चरण-
पश करने क िलए झुक ।
सुदामा को लगा िक जैसे उ ह ने िकसी पे्रत को देख िलया हो। वे उनक चरण- पश करती उस ी को सुमित क
म म अपने अंक म भरना तो दूर, उसे पश करने का िवचार भी न ला सक।
‘‘ वामी, म आपक सुमित । सुदामा क सुमित।’’ उसने सुदामा का हाथ थामा और उनको िशिवर म ले गई।
सुदामा क किपत देह गा रही थी—
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
सुमित ने सुदामा क ओर एक प बढ़ा िदया। एक कला मक धातु क छड़ म िलपटा व पर िलखा वह एक
राजक य प था। सुदामा ने उसे खोला। उस पर िलखा था—
िनवेदन-प
सर वती-पु िव वर ी सुदामाजी!
सबसे पहले शासन इस बात क िलए आपसे मा माँगता ह िक उसक माद क कारण ान क स े उपासक
क उपे ा ई। वा तव म यह शासन का धम ह िक वह अपनी भूिम पर गुणीजन को खोजे और उनका यथोिचत
स मान कर। इसिलए शासन ान का स मान करते ए और अपनी ुिट क मायाचना सिहत िव वर सुदामा को
गु कल ान-कटीर का कलपित पद वीकार करने का िनवेदन करता ह। शासन ने इस े का नाम ‘सुदामापुरी’
कर िदया ह। इसे ान क ित शासन क उपासना क प म वीकार िकया जाए। आपक ग रमामयी उप थित
और मागदशन म िश ा-जग नए क ितमान थािपत करगा, ऐसा हमारा िव ास ह।
िनवेदक
महाराज उ सेन
‘‘सुमित!’’ प पढ़कर सुदामा धीर से बोले, ‘‘इस सुदामापुरी से, जो िक वा तव म भगवा जग ाथ क ही पुरी ह
—इस पुरी म कोई िकसी का न अपमान करगा, न ितर कार और न िकसी क िलए कठोर श द का उपयोग ही
करगा; य िक न जाने वह िकसका प धरकर उनक परी ा लेने आ जाए।’’
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