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आचाय चतुरसेन शा ी का ज म 26 अग त 1891 म उ र देश के बुलंदशहर के पास चंदोख

नामक गाँव म हआ था। िसकंदराबाद म कूल क पढ़ाई ख म करने के बाद उ ह ने सं कृत


कालेज, जयपुर म दािखला िलया और वह उ ह ने 1915 म आयुवद म ‘आयुवदाचाय और
सं कृत म ‘शा ी’ क उपािध ा क । आयुवदाचाय क एक अ य उपािध उ ह ने आयुवद
िव ापीठ से भी ा क । िफर 1917 म लाहौर म डी.ए.वी. कॉलेज म आयुवद के व र ोफेसर
बने। उसके बाद वे िद ली म बस गए और आयुवद िचिक सा क अपनी िड पसरी खोली। 1918
म उनक पहली पु तक दय क परख कािशत हई और उसके बाद पु तक िलखने का
िसलिसला बराबर चलता रहा। अपने जीवन म उ ह ने अनेक ऐितहािसक और सामािजक
उप यास, कहािनय क रचना करने के साथ आयुवद पर आधा रत वा य और यौन संबंधी
कई पु तक िलख । 2 फरवरी, 1960 म 68 वष क उ म बहिवध ितभा के धनी लेखक का
देहांत हो गया, लेिकन उनक रचनाएँ आज भी पाठक म बहत लोकि य ह।
देवांगना

आचाय चतरु सेन


ISBN : 978-93-5064-270-2

सं करण : 2014 © आचाय चतुरसेन


DEVANGNA (Novel) by Acharya Chatursen

राजपाल ए ड स ज़
1590, मदरसा रोड, क मीरी गेट-िद ली-110006
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आमख

आज से ढाई हज़ार वष पवू गौतम बु ने अपने िश य को चय और सदाचार क


िश ा देकर—बहत जन के िहत के िलए, बहत जन के सुख के िलए, लोक पर दया करने के
िलए, देव-मनु य के योजन-िहत सुख के िलए संसार म िवचरण करने का आदेश िदया। वह 44
वष तक, बरसात के तीन मास को छोड़कर िवचरण करते और लोग को धम पदेश देते रहे ।
उनका यह िवचरण ाय: सारे उ र देश और सारे िबहार तक ही सीिमत था। इससे बाहर वे नह
गए। पर तु उनके जीवनकाल म ही उनके िश य भारत के अनेक भाग म पहँच गये थे।
ई. प.ू 253 म अशोक ने अपने धमगु आचाय मो गिलपु ित य के नेत ृ व म भारत से
बाहर बौ धमदूत को भेजा। भारत के बाहर बौ धम का चार भारतीय इितहास क एक
मह वपण ू घटना थी। इस समय ाय: सारा भारत, काबुल के उस ओर िह दुकुश पवतमाला तक,
अशोक के शासन म था।
बु के जीवनकाल म पेशावर और िस धु नदी तक, पारसीक शासानुशास दारयोश का
रा य था। त िशला भी उसी के अधीन था। उन िदन यापा रय के साथ पवू और पि मी समु
तट तक ही नह , त िशला तक जाते-आते रहते थे। उनके ारा दारयोश के पि मी पड़ोसी
यवन का नाम बु के कान तक पहँच चुका था। पर तु उस काल का मानव संसार बहत छोटा
था। च गु के काल म िसक दर ने पंजाब तक पहँचकर मानव संसार क सीमा बढ़ाई। अशोक
काल म भारत का ीस के रा य से घिन स ब ध थािपत हआ, जो केवल राजनैितक और
यापा रक ही न था, सां कृितक भी था। इसी से अशोक को यवि थत प म धम-िवजय म
सफलता िमली और बौ धम िव धम का प धारण कर गया। इतना ही नह ; जब बौ धम का
स पक स य-सुसं कृत ीक से हआ जहाँ अफलातन ू और अर तू जैसे दाशिनक हो चुके थे तो
बौ धम महायान का प धारण कर अित शि शाली बन गया। महायान ने बौ धम जीवन का
एक ऐसा उ च आदश सामने रखा िजसम ािणमा क सेवा के िलए कुछ भी अदेय नह माना
गया तथा इस आदश ने शताि दय तक अफगािन तान से जापान और साइबे रया से जावा तक
स दय मानव को अपनी ओर आकृ िकया। महायान ने ही शू यवाद के आचाय नागाजुन-
असंग-वसुब धु, िदङ्नाग, धमक ित जैसे दाशिनक उ प न िकए िज ह ने िणक िव ानवाद
का िस ा त ि थर िकया। िजसने गौड़पाद और शंकराचाय के दशन को आगे ज म िदया। मसीह
क चौथी शता दी तक महायान पण ू पेण िवकिसत हआ और उसके बाद अगली तीन शताि दय
म उसने भारत और भारत क उ र िदशा के बौ जगत् को आ मसात् कर िलया।
इसी समय से व यान उसम से अंकु रत होने लगा। और आठव शता दी म चौरासी
िस क पर परा के ादुभाव के साथ व यान भारत का मुख धम बन गया। बौ धम का यह
अि तम प था, जो अपने पीछे वाममाग को छोड़कर तेरहव शता दी म तुक क तलवार से
िछ न-िभ न हो गया।
भारतीय जीवन को बौ धम ने एक नया ाण िदया। बौ -सं कृित भारतीय सं कृित
का एक अभंग और मह वपण ू अंग थी। उसने भारतीय-सं कृित के येक अंग को सम ृ िकया।
याय-दशन और याकरण म जैसे चोटी के िह दू िव ान् अ पाद, वा यायन, वाच पित,
उदयनाचाय थे उससे कह बढ़े -चढ़े बौ दाशिनक नागाजुन, वसुब धु, िदङ्नाग, धमक ित,
ाकर गु और ान ी थे। पािणिन, का यायन और पतंजिल जैसे िद गज िह दू वैयाकरण के
मुकािबले म बौ पि डत कािशकाकार जयािद य, यासकार िजने बुि तथा पािणिन सू पर
भाषा विृ बनाने वाले पु षो मदेव कम न थे। कािलदास के सम अ घोष को हीन किव नह
माना जा सकता। िस नागाजुन तो भारतीय रसायन के एक आचाय ह। आरि भक िह दी
का िवकास भी बौ ने िकया। उनके अप ंश का य क परू ी छाप उ र कालीन स त क
िनगुण धारा पर पड़ी।
इतना ही नह , कला का िवकास भी बौ ने अि तीय प से िकया। साँची, भरहत,
गा धार, मथुरा, धा य क टक, अज ता, अलची-सुभरा क िच कला एवं ऐलोरा-अज ता, कोली-
भाजा के गुहा ासाद बौ क अमर देन है। इस कार सािह य-सं कृित-मिू तकला-िच कला
और वा तुकला के िवकास म बौ सं कृित ने भारत को असाधारण देन दी।
आठव शता दी म जब शंकर और कुमा रल नये िह दू धम का िशला-रोपण कर रहे थे
नाल दा और िव मिशला के बौ िवहार परम उ कष पर थे। नाल दा म तब शाि तरि त
धम र जैसे का ड दाशिनक िवराजमान थे। नव शता दी म व यान का उ कट प कट
हआ। तब सरहपा, शबरपा, लुहण, क हपा जैसे महािस का अख ड ताप भारत म चार ओर
छाया हआ था।
खेद क बात है िक भारत के जीवन म नये ाण का संचार कर बौ धम भारत से लु
हो गया। बारहव शता दी के अि तम चरण म गहड़वार क रा यस ा क समाि हई और उसके
साथ ही भारतीय वत ता का सय ू अ त हआ। उसी के साथ ही साथ बौ धम का भी भारत से
लोप हो गया।
ागैितहािसक काल का अफगािन तान भारत का अंग रहा है। अफगािन तान क जड़
भारतीय सं कृित से बँधी हई ह। वैिदक काल म अफगािन तान म कई ‘जन’ थे, िजनके नाम
अब भी अफगािन तान के कबील म िमलते ह। बु के काल म यह भभ ू ाग दारदोशशासानुशास
के अधीन था। तब वह गा धार देश कहलाता था। गा धार नगर अब भी अफगािन तान म है।
काबुल के पास क उप यका किपशा िव यात थी िजसे आज कोह दामन कहते ह। पािणनीय
काल म वहाँ क अंगरू ी शराब कािपशाियनी िव यात थी। आज भी वहाँ के अंगरू क समता नह
है। त िशला पवू गा धार क राजधानी थी। इस कार गा धार का रा य कभी रावलिप डी से
िह दुकुश तक फै ला हआ था। बु के काल म त िशला िव ा और वािण य का के था तथा
उ री भारत से उसका घिन स ब ध था। वहाँ के पो कसाित राजा ने बु का यश सुनकर
रा य छोड़ िदया था, और वह त िशला से बु के पास मगध म जाकर िभ ु बना था। अशोक ने
एक धम सारक तपू त िशला म ही बनवाया था। मौय वंश के बाद तो का मीर और गा धार
बौ धम के के बन गए थे। और यह कहा जा सकता है िक ीक और शक जाितय को
भारतीय सं कृित क िश ा देने का सबसे बड़ा ेय गा धार के बौ िभ ुओ ं को ही है।
महावैयाकरण पािणिन, महादाशिनक असंग और वसुब धु पठान ही थे। कहना चािहए िक ईसा
पवू दूसरी शता दी से ईसा क दसव शता दी तक, बारह सौ वष का गा धार-अफगािन तान
बौ धम, सं कृित और सािह य का के रहा। म य एिशया और चीन म बौ धम के सार का
ेय भी अफगािन तान को ही है। उन िदन चीन और म य एिशया का माग किपशा (कोहे दामन)
होकर ही था। इस कारण अफगािन तान के लोग म य एिशया म केवल वािण य- यापार का ही
िव तार न करते थे, धम और सं कृित क देन भी म य एिशया को देते थे।
आज के अफगािन तान म बुतपर ती एक जघ य काम समझा जाता है। पर तु कला
और सं कृित का वही वणयुग अफगािन तान का था जब सारा ही अफगािन तान बुतपर त
था। बुतपर त वा तव म फारसी श द ‘बु -पर त‘ (बु पज ू क) का िवकृत प है।
चीनी तुिक तान और सोिवयत तुिक तान दोन ही िमलकर म य एिशया कहाते ह।
पि मी म य एिशया का बुखारा नगर बौ धम का कभी मुख के था। मंगोल लोग आज भी
िवहार को बुखारा कहते ह। तुक और त कालीन दूसरी जाितयाँ भी अपनी भाषा म िवहार को
बुखाटे कहती थ । इ लाम के वहाँ आने से थम इस थान पर एक बहत भारी िवहार था, िजसके
कारण नगर का यह नाम िस हो गया। अरब के शासन के ारि भक िदन म इस नगर म
छोटी-बड़ी अनेक बु क मिू तयाँ िबका करती थ िज ह बुत कहा जाता था। िकपिचक म भिू म
के िनवासी और अ य देश के या ी ये मिू तयाँ खरीद ले जाते थे। उन िदन तुसार देश म (तुषार),
जो व ुनदी के दोन पार िह दुकुश और दरब द क पहािड़य के बीच म था, बौ िवहार का
जाल िबछा था।
दि णी चीन म पाँचव शता दी म बौ धम का भारी सार हआ। इस समय यहाँ 21
अनुवादक काम कर रहे थे। इस समय तीथया ा क भाँित भारत आने का चीन म रवाज हो गया
था। इस समय अनेक भारतीय बौ िव ान् चीन म और चीनी िव ान् भारत म आकर सां कृितक
आदान- दान कर रहे थे। भारतीय िव ान म बु जीव, गुणवमा और गुणभ परमाथ मुख थे।
स ाट् ऊ-ती के पु युवान-ची के िनजी पु तकालय म 40 हज़ार पु तक का सं ह था।
सातव शता दी के आर भ ही से चीन म बौ धम का िवरोध आर भ हआ। काङ स ाट
ने सातव शता दी का अ त होते-होते बारह हज़ार िभ ु-िभ ुिणय को जबद ती गहृ थ बना
िदया। काङ स ाट् के दरबार म इितहासकार फू-ही ने बहस करते हए कहा था िक इस समय एक
लाख से अिधक िभ ु-िभ ुिणयाँ ह। मेरी सलाह है िक परम भ ारक आ ा घोिषत कर िक इन
सभी िभ ु-िभ ुिणय को याह करना होगा। इससे एक लाख प रवार तैयार हो जायगे, जो दस
साल के भीतर दस लाख लड़के-लड़िकयाँ पैदा करगे, जो स ाट् के िलए सैिनक बनगे। ि तीय
काङ स ाट् ने घोिषत कर िदया था िक नये िवहार का बनाना, मिू त थापना तथा बौ थ
का िलखना अपराध माना जाए। पर तु इस समय म भी चीन म 4600 मठ-िवहार, 40 हज़ार
मि दर और ढाई लाख से ऊपर बौ िभ ु थे। नव शता दी के म य म बौ िव ान क सब
स पि ज त कर ली गई। पीतल क मिू तयाँ गलाकर िस के ढाले गए, लोहे क मिू तयाँ तोड़कर
िकसान के हिथयार बनाए गए। सोने-चाँदी क मिू तयाँ तोड़कर, सोना-चाँदी राजकोष म जमा
कर िलया गया।
स ाट् क आ ा से 4600 िवहार न कर िदये गये। दो लाख 60 हज़ार िभ ु-िभ ुिणय
को गहृ थ बना िदया गया। 40 हज़ार मि दर ढहा िदए गए। दस लाख एकड़ जमीन ज त कर ली
गई और 1 लाख दास को मु कर िदया गया।
इस कार चीन म बौ धम पर थम हार हआ, जो िफर म य एिशया म फै लता हआ
भारत तक आ पहँचा।
नव शता दी के म य म जब चीन म ये घटनाएँ घिटत हो रही थ , तब भारत म नाल दा
और िव मिशला के िव िव ालय म व यान क धम ू मची हई थी।
दसव शता दी के उषाकाल ही म काङ वंश समा हो गया। और चीन म अराजकता,
लटू -मार और अ यव था फै ल गई। इस काल म िवलास भी चरम सीमा को पहँच चुका था। काङ
दरबार म 10 लाख नतिकयाँ थ । न ृ य म माधुय लाने के िलए उनके पैर बाँधकर छोटे कर िदए
जाते थे। चीन म ि य के पैर बाँधकर उ ह छोटे करने क रीित इसी काल म चली। इसी समय
चीन म छापने के य का आिव कार हआ, जो स भवत: बौ ने ही िकया।
तेरहव शता दी म चीन पर मंगोल का अिधकार हआ। मंगोल घुम कड़ जाित के
भयंकर पु ष थे। केवल चीन ही को नह —सारे स य संसार को इस महा लय का सामना
करना पड़ा। यह िवनाश का अ दूत था मंगोल स ाट् ते-म-ू िचन् िजसे चंगेज खाँ भी कहा गया है।
शा त सागर से भम ू यसागर, साइबे रया, िहमालय तक के िवशाल भभ ू ाग का वह अ ितम
िवजेता था। उसने अपने काल के सभी घुम कड़ कबील को एक सू म संगिठत िकया और वह
खान का खान कहाया। मंगोल के अनेक स ाट् हए। अ त म तेरहव शता दी म कुबलै खान ने
बौ धम वीकार कर उसे राजधम घोिषत िकया। 14व शता दी म ही मंगोल शासन का चीन म
अ त हआ, पर तु मंगोल म बौ धम का िव तार वैसा ही बढ़ता गया।
सातव शता दी के आर भ म जब भारत म महानपृ हष का अबाध शासन चल रहा था
उस समय सारा ित बत घुम तू जीवन यतीत कर रहा था। इसी समय ित बत म सातव शता दी
का सबसे बड़ा िवजेता ोङगचन-सान-यो का ज म हआ। उसने सब घुम कड़ सरदा रय को
तोड़कर भोट जाित का एक करण िकया और उनक सेना का संगठन कर, उसने आसाम से
का मीर तक के सारे िहमालय और चीन के तीन देश को जीत िलया। उसके रा य क सीमा
िहमालय क तराई से पवू म य एिशया के भीतर शान-सान क पहािड़य तक िव ततृ थी।
ित बत से बाहर आते ही उ र-दि ण, पवू -पि म िजधर भी उसने पैर बढ़ाया सव बौ स पक म
आना पड़ा। उसके रा य के दि णी अंचल नेपाल और का मीर थे, जो भारत के भाग होने के
कारण बु क ज मभिू म समझे जाते थे। उ र और पवू म तुक और चीन के सम ृ बौ रा य थे।
इन सबके स पक म आकर इस नये िवजेता के नेत ृ व म ित बत ने नये सां कृितक प को
धारण िकया। उसने चीन और नेपाल क राकुमा रय से िववाह िकया। लासा को राजधानी बनाया।
पड़ोसी देश क तड़क-भड़क के अनु प ही इस असं कृत स ाट् ने अपने नगर को सां कृितक
प िदया। नेपाल और चीन क रािनय ने बु मिू त क राजधानी म थापना क और उसके चतुर
म ी स मोटा ने भोट भाषा को िलिपब कर, िलखा-पढ़ी के ारा राज-काज चलाना आर भ
िकया। स ाट् ने वयं िलखने-पढ़ने का अ यास िकया। िफर बौ थ का, वै क थ का
और गिणत क पु तक का भोट भाषा म अनुवाद हआ। और इस कार नये स ाट् क नयी
जनता िशि त होने लगी। और जन-जागरण के साथ-साथ ही भोट जाित म बौ धम के सं कार
का उदय हआ।
इस स ाट् के 100 वष बाद नाल दा के महान् दाशिनक शाि तरि त ित बत म
आमि त िकए गए। उ ह ने वहाँ पिहला मठ थािपत िकया और मगधे र महाराज धमपाल के
बनवाए उद तपुरी के महािवहार के अनु प िवहार क न व डाली गई। नाल दा से आचाय
शाि तरि त ने बारह िभ ु बुलाए और सात भोटदेशीय कुलपु को िभ ु बनाया। इस कार िभ ु
संघ और िभ ु िवहार क ित बत म थापना हई। 100 वष क आयु म आचाय का शरीरपात हआ
और उनका शरीर िवहार क पहाड़ी पर एक तपू म रखा गया। उ ह ने जीवन के 25 वष ित बत
म यतीत िकए और अब तक वे वहाँ बोिधस व क भाँित पज ू े जाते ह। इसके बाद आचाय
कमलशील ित बत गए। अब ित बत का सा ा य और िव ततृ हो गया था। वहाँ बहत-से बौ
िव ान् पहँच चुके थे। वयं ित बत म भी अनेक आचाय उ प न हो गए थे। पर तु नव शता दी म
स ाट् दटम ने बौ पर अ याचार आर भ कर बौ धम को ित बत से बिह कृत करने क चे ा
क । यारहव शता दी म आचाय दीपंकर ी ान अितश ित बत गए और उ ह ने नये िसरे से वहाँ
बौ धम क ित ा क ।
वे केवल तेरह वष ही वहाँ जीिवत रहे । पर इस बीच उ ह ने बहत काम िकया। इसके बाद
ही भारत से बौ धम का लोप हो गया और भारत का धम ोत सख ू गया।
इस समय भी भारत म बौ धम के बड़े के थे, जहाँ िव व आचाय रहते थे।
आजकल िजसे िबहार शरीफ कहते ह, तब यह उद तपुरी कहाता था तथा यहाँ एक महािवहार था।
इस िवहार क थापना मगधे र महाराज धमपाल ने क थी। गंगा तट, िजला भागलपुर, म
िव मिशला िवहार बहत भारी िव ापीठ था। यह सु तानगंज क दोन टेक रय पर अवि थत था।
इसक थापना भी पालवंशी महाराज धमपाल ने 8व शता दी म क थी। उद तपुरी के िनकट
िव िव यात नाल दा िव िव ालय था। बु गया उस काल म व ासन कहाता था। दीपंकर
ी ान का ज म भागलपुर के िनकटवत िकसी साम त के घर हआ था। पीछे उ ह ने नाल दा,
व ासन, िव मिशला, राजगहृ तथा सुदूर च पा म जाकर ानाजन िकया था। और पीछे उनक
गणना िव मिशला के आठ महापि डत म क गई थी। उ ह ने अपने अि तम िदन ित बत को
ान-दान देने म यतीत िकए।
दसव - यारहव शता दी का अ त होते-होते उ र भारत म पाल , गहरवार , चालु य ,
च देल और चौहान के अित र सोलंक और परमार के रा य थािपत हो गए थे। यारहव -
बारहव शता दी म भारत क शि 7 दरबार म िवभािजत थी, जो सब वत थे। पवू भारत म
बौ के व यानी िस का डं का बज रहा था, िजनके के नाल दा, िव मिशला, उद तपुरी
और व ासन थे। पाल राजा िस के भ थे और उनके के उ ह के ारा पनप रहे थे।
ईसा के पिहली दो-तीन शताि दय म यवन, शक, आभीर, गुजर आिद जाितयाँ भारत म
घुस , उस समय बौ क िवजय-वैजय ती देश म फहरा रही थी। उ ह ने िवदेिशय को समाज म
समानता के अिधकार िदए। ा ण ने थम तो ले कहकर ितर कार िकया पर तु पीछे जब
इन ले म किन क और िमिन दर जैसे ालुओ ं को उ ह ने देखा, िज ह ने मठ और मि दर
म सोने के ढे र लगा िदए थे, तो उ ह ने भी इन आग तुक का वागत करना आर भ कर िदया।
बौ ने उ ह जहाँ समानता का अिधकार िदया था, वहाँ उ ह ा ण ने अ य त ऊँचा केवल
अपने से एक दज नीचा ि य का थान िदया। उ ह ि य बना िदया और इन िवदेशाी
नविनिमत ि य के िलए अपना ाचीन दाशिनक धम छोड़ नया मोटा धम िनमाण कर िलया,
िजसे समझने और उस पर आचरण करने म उन िवदेिशय को कोई िद कत नह हई। इन
िवदेिशय क टोिलयाँ साम त राजाओं के प म संगिठत हो गई ं और वे ा ण उनके पुरोिहत,
धमगु और राजनैितक म ी हो गए। इस कार इस नये िह दू धम म थम पुरोिहत, उसके बाद
ये साम त राजा रहे । राजनीित म थम राजा और उसके बाद ा ण रहे ।
ईसा क तीसरी-चौथी शता दी म जब ये साम त और उनके पुरोिहत सुगिठत हो चुके
थे, बौ धम िन तेज होने लगा था। साम त के हाथा म देश क स पण ू स ा थी और वे
स पण ू तया ा ण के अधीन थे।
बौ तो अभी भी िदङ्नाग और धमक ित के दशन पर गव करते थे। कभी-कभी वे
योग-समािध, त -म , भत ू - ेत-डािकनी के चम कार िदखाने लगते थे। िस के िविच
जीवन और लोकभाषा क उनक अटपटी रह यपण ू किवताएँ , कुछ लोग को आकिषत करती
थ । पर तु सामािजक जीवन म उनका कुछ भी हाथ न रह गया था। चय और िभ ु जीवन, जो
बौ धम क सबसे बड़ी स पदा थी, अब केवल एक ढ ग रह गया था।
‘व यान’ जो बौ धम का सबसे िवकृत प था, सातव शता दी के पवू ही देश के पवू
भाग म फै ल गया था। नाल दा-िव मिशला-उद तपुरी-व ासन इसके अड्डे थे और इनका
सार िबहार से आसाम तक था। ये बौ िभ ु अब तांि क िस कहलाते थे और वामाचारी होते थे।
ऐसे ‘चौरासी िस ‘ िस ह, िजनक अलौिकक शि य और िसि य पर सवसाधारण का
िव ास था। इन िस म जहाँ बड़े -बड़े आचाय-िव ान् थे वहाँ थोड़े पढ़े -िलखे नीच जाित के डोम,
चमार, चा डाल, कहार, दज , शू तथा अ य ऐसे ही आदमी अिधक होते थे। कुछ तो अनपढ़ होने
के कारण और कुछ इसिलए भी िक वे जनता पर अपना भाव कायम रख सक, वे चिलत
लोकभाषा म गढ़ ू सांकेितक किवताएँ करते थे।
इसी व यान का एक अिधक िवकृत प सहजयान स दाय था। इसका धम प महा
सुखद था। इसके वतक ‘सरहपा’ थे। इ ह ने गहृ थ समाज क थापना क थी, िजसम गु
रीित पर मु यौन स ब ध पोषक च , स बर आिद देवता, उनके म और पज ू ा-अनु ान क
ित ा हई। शि य सिहत देवताओं क ‘युगन ’ मिू तयाँ अ ील मु ाओं म पज ू ी जाने लग ।
साथ ही म -त , िम या िव ास और ढ ग का भी काफ सार हआ।
पर तु जब मुह मद-िबन-िखलजी ने इन धमके को वंस कर सैकड़ वष से संिचत
वणर न क अपार स पदा को तारा, कु कु ला, लोके र मंजु ी के मि दर और मठ से लटू
िलया और वहाँ के पुजा रय , िभ ुओ ं और िस का एक िसरे से क लेआम िकया, तब ये सारी
िद य शि याँ दुिनया से अ तधान हो गई ं। इस क लेआम म बौ का ऐसा िबनाश हआ िक
उसके बाद बौ धम का नाम लेने वाला भी कोई पु ष भारत म ढूँढ़े न िमला। मुसलमान को,
भारत से बाहर भी म य एिशया म जरफश और व ु क उप यकाओं, फगाना और वा हीक क
भिू मय म बौ का मुकािबला करना पड़ता था। घुटे चेहरे और रं गे कपड़े वाले इन बुतपर त
(बु पज ू क) िभ ुओ ं से वे थम ही से प रिचत थे। इसी से भारत म जब उनसे मुठभेड़ हई तो
उ ह ने उन पर दया नह िदखाई। उ ह ने खोज-खोजकर बौ के सारे छोटे-बड़े िवहार न कर
िदए। बौ को अब खड़े होने का थान न रह गया। भारतीय बौ धम संघ के धान शा य ीभ
िव मिशला िव ालय के व त होने के बाद भागकर पवू बंगाल के ‘जग ला’ िवहार म पहँचे।
जब वहाँ भी तुक क तलवार पहँची, तब नेपाल जाकर वे शरणाप न हए। पीछे वे ित बत चले
गए। शा य ीभ क भाँित न जाने िकतने बौ िस िवदेश को भाग गए। भारत म तो रं गे
कपड़े पहनना मौत का वारं ट था। अब न उनके खड़े होने का भारत म थान था, न उनका कोई
संर क था और न जनता का ही उन पर िव ास रह गया था। इसिलए वे ित बत, चीन, बमा और
लंका क ओर भाग गये। उनके इस कार अ तधान होने पर बौ गहृ थ भी अपने धमकृ य भल ू
गए। और इस कार नाल दा, िव मिशला और उद तपुरी के वंस के कुछ ही पीढ़ी बाद, बु क
ज मभिू म भारत म बौ धम का सवथा लोप हो गया।
हमारा यह उप यास बारहव शता दी के अि तम चरण क घटनाओं पर आधा रत है। इस
समय िव मिशला-उद तपुरी व ासन और नाल दा िव िव ालय व यान और सहजयान
स दाय के के थली हो रहे थे, तथा उनके भाव से भारतीय िह दू-शैव-शा भी वाममाग
म फँस रहे थे। इस कार धम के नाम पर अधम और नीित के नाम पर अनीित का ही बोलबाला
था। हम इस उप यास म उसी काल क पवू भारतीय जीवन क कथा उपि थत करते ह।
–चतरु सेन

समारोह
या
ार वेश
िवहार
सुखान द
गु –िश य
महातामस
सुखान द का आगमन
व तारा का मि दर
टेढ़ी चाल
गढ़ू योजना
वाराणसी
मनोहर भात
अिभसि ध
एका त िमलन
गु के स मुख
राजा का साला
अँधेरी रात म
रं ग म भंग
रह यो ाटन
मि दर म
िस े र का कोप
कापािलक के चंगुल म
ब दी गहृ म
सव
दु सह स वाद
ेमो माद
ितमा
व गु
तलवार
धनंजय ेि का प रवार
समारोह

आजकल जहाँ भागलपुर नगर बसा है, वहाँ ईसा क बारहव शता दी म िव मिशला
नाम का सम ृ नगर था। नगर के साथ ही वहाँ िव िव ुत बौ िव ापीठ था। िव मिशला के
नगरसेठ धनंजय का िहमधौत धवल महालय आज िविवध रं ग क पताकाओं, ब दनवार और
मांगिलक िच से सजाया जा रहा था। िसंह ार का तोरण फूल से बनाया गया था। बड़े -बड़े
हािथय -घोड़ -रथ -पालिकय पर और दूसरे वाहन पर नगर के धनी-मानी नर-नारी, सेठ-
साहकार और राजवग य पु ष आज धनंजय सेिट्ठ के महालय म आ रहे थे। रं गीन कु क और
जड़ाऊ उ णीष पिहने िवनयधर और द डधर सोने-चाँदी के द ड हाथ म िलए दौड़-दौड़कर
समागत अितिथय क अ यथना कर रहते थे। दास-दासी, ारपाल सब अपनी-अपनी यव था म
य त रहे थे। महालय का वातावरण अितिथय और उनके वाहन क धम ू धाम और कोलाहल से
मुख रत हो रहा था।
नगर से धनंजय क आयु साठ को पार कर गई थी। उनका शरीर थल ू और रं ग मोती
के समान उ वल था। उनके ि न ध मुखम डल पर सफेद मँछ ू का गलमु छा उनक ग भीरता
का दशन कर रहा था। वह शु प रधान पिहने, क ठ म र नहार धारण िकए, म तक पर
बहमू य उ णीष पिहने समागत अितिथय का वागत कर रहे थे। उनके ह ठ अव य मु करा रहे
थे, पर उनका दय रो रहा था। उनका मुख भरे हए बादल के समान ग भीर और ने आ थे।
आज उनका इकलौता पु या लेकर िभ ुविृ हण कर रहा था। यह असाधारण समारोह
इसी के उपल य म था।
एक हजार िभ ुसंघ सिहत, आचाय भद त व िसि ांगण म पहँच चुके थे। िभ ुगण
पीत चीवर पिहने, िसर मंुडाए, म द वर से पिव का य का उ चारण कर रहे थे। उनका
सि मिलत कंठ वर वातावरण म एक अ ुत क पन उ प न कर रहा था। महालय म जो ग ध
य जल रहा था उसके सुवािसत धमू से सुरिभत वायु दूर-दूर तक फै ल रही थी। िविवध वा बज
रहे थे। स मािनत अितिथ आपस म धीरे -धीरे भाँित-भाँित क जो बातचीत म द वर से कर रहे थे
उससे सारी ही अ ािलका मुख रत हो रही थी।
धनंजय से ने य त भाव से इधर-उधर देखा। सामने ही उनका अ तेवासी िव त
सेवक सुखदास उदास मँुह चुपचाप िन े खड़ा था। सेठ ने कहा–‘‘भणे सुखदास, तिनक देख
तो, पु के तैयार होने म अब िकतना िवल ब है। िभ ुगण तो आ ही गए ह। अब परम भ ारक
महाराजािधराज और आचाय के आने म िवल ब नह है।’’
सुखदास ने मािलक क िवषादपण ू ि और कि पत वर को दयंगम िकया और
िबना ही उ र िदए वामी के स मुख म तक नत कर भीतर चला गया।
सुखदास सेठ का पुराना नौकर था। उसका इस महाजन के घर म प रवार के पु ष क
भाँित आदर-मान था। वह अधेड़ आयु का एक िठगना, मोटा और गौरवण का पु ष था। चाँद
उसक गंजी थी, चेहरा सदा हा य से भरा रहता था पर इस समारोह म उसका मँुह भी भरे हए
बादल के समान हो रहा था। वह सेठ के दु:ख और िववशता को जानता था। उसके पु क
मनोदशा भी समझता था। जो काय हो रहा था वह उसका क र िवरोधी था। पर तु वह िववश था।
बौ के पाख ड, दुराचार और दु विृ को वह जानता था। इन ढ गी िभ ुओ ं क
धषणा करने का वह कोई अवसर चक ू ता नह था।
महा ेि के पु का नाम िदवोदास था। वह बाईस वष का दशनीय युवक था। रं ग
उसका मोती के समान था। उ वल हीरक पंि -सी उसक धवल द ताविल थी। उ फु ल
कमलदल-से उसके ने थे और सघन घन गजन-सा उसका क ठ वर था। वह नवीन वषृ भ क
भाँित चलता था। उसका हा य जैसे फूल िबखेरता था।
सुखदास ने से पु को गोद िखलाया था। उसक अपनी कोई स तान न थी। इस
िनरीह द पित ने से पु म ही अपना वा स य समिपत िकया था। बालक िदवोदास सेवक
सुखदास के घर जाकर उसक गोद म बैठकर उसके हाथ से उसके घर का खा-सख ू ा भोजन
करता और उसी क गोद म सुखदास क कहािनयाँ सुनते-सुनते सो जाता था। ेि और उनक
गिृ हणी को इसम आपि न थी। पु के ित सुखदास के ेम से वे प रिचत थे। इसम उ ह
सुखोपलि ध होती थी।
इसी कार िदवोदास युवा हो गया। युवा होने पर भी सुखदास के ित उसक आसि
गई नह । वह उसे िपत ृ य कहकर पुकारता था। सुखदास िदवोदास के िववाह क िकतनी ही
रं गीन क पनाएँ करता। पित-प नी झठ ू को ही िदवोदास के िववाह क िकसी का पिनक बात
ू मठ
को लेकर लड़ पड़ते, और जब दोन िनणय के िलए ेि द पित के पास जाते, ेि द पित
िखलिखलाकर हँस पड़ते थे।
आज इन सब सुखद भावनाओं पर जैसे तुषारपात हो गया। सुखदास क ममकथा को
कौन जान सकता था! वह अपने हाहाकार करते हए दय क पीड़ा को िछपाकर अ त:पुर क
ओर चला गया।
अ त:पुर म प रचा रकाएँ िदवोदास को म पत ू जल से नान करा रही थ । पाँच िभ ु
म पाठ कर रहे थे। िदवोदास ग भीर थे।
उनके वणगात पर केसर का उबटन िकया गया था। सुग ध से क भर रहा था। चेरी
और सुहािगन मंगल गीत गा रही थ । प रचा रकाओं ने नान के बाद िदवोदास को बहमू य व
और आभषू ण पहनाए। यह देख गहृ प नी ने आँख म आँसू भरकर कहा–‘‘पु का यह कुछ ही
ण का ंग ृ ार है, िफर तो पीत चीवर और िभ ापा !’’ उसक आँख से झर-झर अ ुधार बह
चली।
सुखदास ने गिृ हणी का यह िवषादपण ू वा य सुन िलया। उसने ठ डी साँस लेकर
कहा–‘‘हाय, आज का यह िदन देखने ही को म जीिवत रहा!’’ पर तु शी ही उसने अपने को
स हाला। आँख क कोर म आए आँसू प छ डाले और आगे बढ़कर कहा–‘‘कुमार, मािलक क
आ ा है िक महाराजािधराज और आचाय के पधारने म अब देर नह है, तिनक ज दी करो।’’
कुमार ने ि थर वर म कहा–‘‘िपत ृ य, िपतच
ृ रण म िनवेदन कर दो िक यह दास तैयार
है।’’
सुखदास ने ण-भर ओस से भीगे हए शतदल कमल क भाँित सुषमा स प न कुमार
के मुख क ओर देखा—और ‘अ छा’ कहकर वहाँ से चला गया।
इसी समय ेि ने आकर दोन हाथ फै लाकर कहा–‘‘पु , यारे पु !’’
िदवोदास ने स मुख खड़े होकर कहा—‘‘िपतच ृ रण म अिभवादन करता हँ।’’
“आयु मान् हो, यश वी हो, पु ।’’
‘‘अनुगहृ ीत हआ।’’
‘‘तो पु , तुम तैयार हो?’’ ेि ने कि पत क ठ से कहा।
‘‘हाँ िपता।’’
‘‘पु , मेरा दय बैठा जा रहा है।’’
‘‘िपताजी, यह तो आन द का अवसर है।’’
‘‘अरे पु , तेरे िबना म रहँगा कैसे? यह सारी प ृ वी त तवे क भाँित अभी से जलती
दीख रही है। अब यह सुख-वैभव, धनरािश... हाय, मने सोचा था. .. िक तु महाराज क आ ा...’’
सेठ के ह ठ काँपे और ने से आँसू टपक पड़े ।
सुखदास ने य त भाव से आकर कहा—‘‘ वािमन्, महाराजािधराज ी गोिव दपाल
देव तथा िभ ु े आचाय ब धुगु पधार रहे ह।’’
धनंजय सेठ ने आँख पोछ और उनक अ यथना को दौड़ चले। उ ह ने महाराज और
िभ ु े क अ यथना क और क म ले आए।
िदवोदास ने भपू ात करके सा ांग णाम िकया।
ब धुगु ने दोन हाथ ऊँचे कर कहा—‘‘क याण, क याण!’’ िफर आगे बढ़कर सेठ से
कहा—‘‘ ेि राज, महासंघ थिवर व िसि ने आपका मंगल पछ ू ा है, तथा मंजु ी व तारा देवी
का यह ग धमा य िदया है।’’
धनंजय सेठ ने ग धमा य लेकर म तक पर र खा। और कहा–‘‘भला महासंघ थिवर
स न तो ह?’’
‘‘वे सदा सबक क याण-कामना म लगे रहते ह, वे सव यागी िस महापु ष ह, उ ह
सुख-दु:ख नह यापता।’’ िफर उ ह ने आगे बढ़कर कुमार के म तक पर हाथ धर कहा–‘‘ध य
कुमार! तुमने वही िकया जो तथागत ने िकया था, तु हारा जीवन ध य हआ।’’
िदवोदास ने मौनभाव से आचाय के चरण म म तक नवा िदया।
सेठ ने कहा–‘‘आचाय मने अपना कुल-दीपक धम के िलए िदया।’’
‘‘ ेि राज, यह संसार का दीपक बनेगा।’’
इस समय महाराज ने आगे बढ़कर सेठ के क धे पर हाथ धरके कहा–‘‘ या तुम बहत
दुखी हो ेि ।’’
‘‘नह देव, िक तु अब यही इ छा है िक ये महल-अटारी, धन- वण, सभी संघ क शरण
हो जाय, और वह अधम भी संघ के एक कोने म थान ा करे ।’’
आचाय ने स न मु ा म कहा–‘‘यह बहत अ छा िवचार है। ेि राज, धम म आपक
मित बनी रहे । अ छा, अब देर य ? अनु ान का मुहत तो सि नकट है।’’
‘‘सब कुछ तैयार है आचाय।’
‘‘तो चिलए।’’
सब लोग चले। आगे-आगे सुखदास माग बताता हआ। पीछे राजा, आचाय और धनंजय
ेि , उनके पीछे कुमार, कुमार के पीछे ि याँ मंगल गान करती हई और उनके पीछे मेहमान।
बाहर आने पर कुमार को सुखपाल पर सवार कराया गया। 16 द डधर सुखदास क
अ य ता म आगे-आगे चले। उनके पीछे ि याँ मंगल गान करती हई चल । उनके पीछे 100
दािसयाँ हाथ म पजू न साम ी लेकर चल । उनके पीछे 100 िभ ु नमोबु ाय’, ‘नमो अ रह ताय’
का उ चारण करते चले। पीछे हािथय , घोड़ , पालिकय पर समागत भ जन और पैदल।
राह म पुर-ि य ने अपने िसर के केश से माग क धल ू साफ क , नाग रक ने पथ पर
बहमू य दुशाले िबछाये। कुलवधुओ ं ने झरोख से िखले फूल बखेरे।
िविवध वा बज रहे थे, िभ ु मं पाठ करते चल रहे थे।
समारोह संघाराम के िवशाल ार के स मुख आ िव ततृ मैदान म क गया। सब कोई
पंि ब हो, त ध भाव से खड़े हो गये। सबक ि संघाराम के िवशाल िसंह ार पर थी,
िजसके पट ब द थे। उ ह को खोलकर महासंघ थिवर आने वाले थे।
या

संघारमा का िसंह ार बड़ा िवशाल था। वह गगनचु बी सात ख ड क इमारत थी। समारोह के
पहँचते ही संघाराम क बुिजय पर से भेरीनाद होने लगा।
संघाराम दुग क भाँित सुरि त था। उसका ार ब द था। सभी क ि उस ब द ार
पर लगी थी। यह ार कभी नह खुलता था। केवल उसी समय यह खोला जाता था जब कोई
राजा, राजकुमार या वैसी ही कोिट का यि दी ा हण कर िभ ु बनता था। ेि पु को इसी
ार से वेश होने का स मान िदया गया था।
बाजे बज रहे थे। िभ ुगण म द वर म ‘नमो अ रह ताय’, ‘नमो बु ाय’ का पाठ कर
रहे थे।
भेरीनाद के साथ ही िसंह ार खुला। सोलह िभ ु पिव पा लेकर वेदी के दोन ओर आ
खड़े हए। धीरे -धीरे आचाय व िसि वणद ड हाथ म ले ि थर ि स मुख िकए आगे बढ़े ।
उनके पीछे पाँच महािभ ु पिव जल का माजन करते तथा ग धमा य िलए प ृ वी पर ि गड़ाए
चले। उ ह देखते ही सब कोई प ृ वी पर घुटने टेककर झुक गए। आचाय सीढ़ी उतर िश य सिहत
कुमार के पास पहँचे। उ ह ने मंगल पाठ करके पिव जल कुमार के म तक पर िछड़का तथा
वि तपाठ करके–‘नमोबु ाय’, ‘नमोअ रह ताय’ कहा। कुमार िसर झुकाए उकड़ँ उनके चरण
म बैठे थे। आचाय ने कहा–‘‘उठो व स, और वेदी पर चलो।’’
वेदी पर बु क िवशाल ितमा थी। उसी के नीचे कुशासन पर महासंघ थिवर बैठे।
स मुख कुमार नतजानु बैठे। दी ा का ार भ हआ।
आचाय ने िभ ुसंघ को स बोिधत करके कहा–‘‘भ ते संघ सुने। यह से पु आयु मान्
िदवोदास उपस पदापे ी है। यिद संघ उिचत समझे तो आयु मान् िदवोदास को उपाचाय ब धुगु
के उपा याय व म उपस प न करे ।’’
इस पर संघ ने मौन स मित दी। तब आचाय ने दुबारा पछ ू ा–‘‘भ ते संघ सुने। संघ
आयु मान िदवोदास को उपाचाय ब धुगु के उपा याय व म उपस प न करता है। िजसे
आयु मान् िदवोदास क उपस पदा आचाय ब धुगु के उपा याय व म वीकार है, वह चुप रह।
िजसे वीकार नह वह बोले।’’
उ ह ने दूसरी बार भी, और िफर तीसरी बार भी यह घोषणा ािपत क । और संघ के
चुप रहने पर घोिषत िकया गया िक संघ को वीकार है।
‘‘अब उपाचाय आयु मान् को उपस पदा द– या द।’’
इस पर उपाचाय ब धुगु ने िदवोदास से कहा–‘‘आयु मान्, या उपस पदा दँू?’’
तब िदवोदास ने उठकर वीकृित दी। उसने सब व ालंकार याग िदया और पीत चीवर
पिहन, संघ के िनकट जा दािहना क धा खोलकर एक क धे पर उ रासंग रख िभ ु चरण म
व दना क -िफर उकड़ँ बैठकर हाथ जोड़कर कहा :
‘‘भ ते संघ से उपस पदा पाने क याचना करता हँ। भ ते संघ दया करके मेरा उ ार
करे ।’’
उसने िफर दूसरी बार भी और तीसरी बार भी यही याचना क ।
तब संघ क अनुमित से आचाय ब धुगु ने तीन शरण गमन से उसे उपस प न िकया।
िदवोदास ने उकड़ँ बैठकर–‘बु ं शरणं ग छािम।’ ‘संघं शरणं ग छािम।’ ‘ध मं शरणं
ग छािम’ कहा।
आचाय ने पुकारकर कहा–‘‘िभ ुओ! अब यह िभ ु धमानुज प म िजत और
उपस प न होकर सि मिलत हो गया है। तुम सब इसका वागत करो।’’ इस पर िभ ु संघ ने
जयघोष ारा िभ ु धमानुज का वागत िकया।
इसके बाद आचाय ने कहा–‘‘आयु मान्, अब तू अपने क याण के िलए और जगत् का
क याण करने के िलए गु ान अजन कर। ार पंिडत क शरण म जा और िवहार वेश कर।’’
ार वेश

महासि धक व िसि िदवोदास को या और उपस पदा देकर िवहार म लौट गए। िसंह ार
ब द हो गया। नगर से धनंजय ने आँख म आँसू भरकर अव क ठ से कहा–‘‘धम के िलए,
वग के िलए, क याण के िलए मने तुझे िवसिजत िकया। जा पु , अमर व ा कर।’’
उ ह ने पु क प रजन सिहत दि णा क और चौधारे आँसू बहाते घर को लौट गए।
शेष ब धु-बा धव भी चले गए। अकेला सुखदास िदवोदास के पास खड़ा रह गया। िदवोदास ने भरे
हए बादल के वर म कहा–‘‘िपत ृ य, अब तुम भी जाओ। मेरा माग तो अब सबसे ही पथ ृ क् है।’’
पर तु सुखदास ने कहा–‘‘पु , तेरे िबना म कैसे जीऊँगा। वामी के पास धन-र न है,
मेरे पास तो वह भी नह । तुम जैसे र न को गँवाकर भला अब म कैसे लौट जाऊँ? म भी मड़ ू
मुड़ाकर िभ ु बन साथ ही रहँगा। िबना मेरी सहायता के तो तुम पानी भी नह पी सकते पु ।’’
िदवोदास ने कहा–‘‘िपत ृ य, तब बात और थी। और अब बात दूसरी है। अब तो मने याग
का त िलया है। उन सब बात से अब या योजन है भला।’’
‘‘तो पु , तू इस अिकंचन दास को भी याग देगा? ऐसा तू िनमम और कठोर कैसे बन
सकता है पु , िफर मेरी व ृ ाव था को तो देख तिनक।’’
सुखदास ने िदवोदास को अंक म भर िलया। िदवोदास ने कहा–‘‘िपत ृ य, सबसे थम
हम माया-मोह-ममता ही को तो यागना है। इसका याग नह हआ तो िफर भला स म क शरण
जाकर या िकया!’’
‘‘िक तु पु , तु हारे इस स म म मेरी तिनक भी ा नह है। इन पाख डी िभ ुओ ं को
म भलीभाँित जानता हँ। यह सब तु हारे िपता क स पदा को हरण करने के ढ ग ह। तु ह इस
माग म क टक थे, सो उ ह ने इस कार तु ह उखाड़ फका। पर तु म अपने जीते जी उनक नह
चलने दँूगा। तु ह भी म अपनी आँख से ओझल नह होने दँूगा।’’
‘‘िपत ृ य, अब यह समय इन बात पर िवचार करने का नह है। म तो शु बुि ही से
धम क शरण आया हँ। िकसी षड्य का िशकार म नह बनँग ू ा। तुम िनि त रहो, िपत ृ य।’’
‘‘तो पु , म तु हारे साथ हँ। आज से इस धम-पाख ड का उ मल ू न करना मेरा धम
हआ।’’
‘‘और म भी स म क शुि के य न म कुछ उठा न रखँग ू ा। अब तुम जाओ िपत ृ य।
अभी मुझे ार पि डत क किठन परी ाओं म उ ीण होना है। ऐसा न हो- ार पि डत मुझे
अयो य घोिषत कर द और मेरा कुल दूिषत हो। जाओ तुम, िपता जी और माता को सा वना
देना।’’
‘‘जाता हँ पु , पर शी ही िमलँगू ा।’’
सुखदास ने आँख प छी और चल िदया। अब िदवोदास पवू ार क ओर बढ़े —र नाकर
शाि त पवू ार का ारपि डत था। यह महावैयाकरण था। ार पर पहँचकर उसने घ टघोष
िकया। घोष सुनकर ारपि डत ने गवा से झाँककर कहा—‘‘कौन हो?’’
‘‘अिकंचन िभ ु।’’
‘‘ या चाहते हो?’’
‘‘ वेश।’’
‘‘तो यह पवू ार है। इसका स ब ध श दशा िव ालय से है। या तन ू े श द शा
का अ ययन िकया है? तू मेरे साथ शा ाथ करने को उ त है?’’
‘‘म ाना वेषी हँ, म धम क शरण आया हँ। म धमत व सीखना चाहता हँ।’’
‘‘तो भ , तू दूसरे ार पर जा। इस ार से तेरा वेश नह होगा। तब िदवोदास दि ण
ार पर गया। यहाँ का ारपि डत ाकर यित था। या तू हे तु-िव ा सीखना चाहता है, या
तनू े अिभधम कोष पढ़ा है?’’
‘‘नह आचाय, म ाना वेषी हँ। म धम क शरण आया हँ। म धमत व सीखना चाहता
हँ।’’
‘‘तो भ , तू तीसरे ार पर जा। इस ार से तेरा वेश नह होगा।’’
िदवोदास ने तब पि छम ार पर पहँचकर घ टघोष िकया। पि छम ार का ारपि डत
ान ी िम था। घ टघोष सुनकर उसने कहा–‘‘भ , या तू सां य और वेद पढ़ना चाहता है,
या तन ू े िन और षडं ग पाठ िकया?’’
िदवोदास ने कहा–‘‘म ाना वेषी हँ, म धम क शरण आया हँ, म धमत व सीखना
चाहता हँ।’’
‘‘तो भ , तू अ य ार पर जा।’’
तब िदवोदास उ र ार पर पहँचा और घ टघोष िकया। वहाँ का ार पि डत नरोप न
था। उसने पछ ू ा–‘‘ या चाहता है भ !’’
‘‘म ाना वेषी हँ। म धम क शरण आया हँ। म धमत व सीखना चाहता हँ।’’
तब ारपि डत ने पछ ू ा–‘‘ या तू िभ ु-पाितिभ ख का पाठ करता है?’’
‘‘करता हँ भ ते।’’
‘‘ या तू पवू करण और उपोसथ कम करता है?’’
‘‘करता हँ भ ते।’’
‘‘तू अ तराियक कम नह करता है?’’
‘नह करता हँ भ ते।’’
‘‘तो भ , तू भीतर आ और थम के ीय ारपि डत र नव क शरण म जा।’’
िदवोदास ने िवहार के भीतर वेश िकया। तब वह के ीय ारपि डत र नव के स मुख आ
ब ांजिल खड़ा हआ।
र नव कठोर और शु क कृित के पु ष थे। व यान म -त और िसि य के
ाता िस थे। रं ग उनका काला और आकृित बेडौल थी। उ ह ने भाँित-भाँित के िदवोदास
से पछ ू े । अनेक म -त , जादू-टोन से उसक परी ा ली, और अ त म उ ह ने उसे अ तेवासी
बना िवहार का ार खोल िदया। िदवोदास िवहार म वेश पा गए। िनयमानुसार उनके िनवास
आिद क यव था हो गई। यह एक असाधारण किठनाई थी, िजस पर उ ह ने िवजय पाई।
िवहार

िव मिशला महािवहार क थापना पालवंशी राजा धमपाल ने नव शता दी म क थी। धमपाल


बौ धम का अनुयायी था। वह अपने को परम भ ारक-परम परमे र महाराजािधराज कहता था।
इस महािवहार म छै महािव ालय थे िजनम से येक का पथ ृ क्-पथृ क् ारपि डत होता था।
येक महािव ालय म 100 आचाय रहते थे। इस कार िव मिशला महािवहार म कुल 648
आचाय थे। िजनम अनेक िव िव ुत पि डत थे। महािव ालय का सभा भवन इतना िवशाल था
िक उसम 8 हज़ार िभ ु एक साथ बैठ सकते थे।
िव मिशला म बौ ि िपटक सािह य के अित र वेद-दशन तथा अ य ान-िव ान
क िश ा तो होती ही थी, पर यह िवहार व यान का सबसे बड़ा के समझा जाता था। यह युग
त -म , जादू-टोने का था। बौ और पौरािणक दोन धम म ताि क मह व बहत था। इस
युग म त वाद का जो इतना बड़ा मह व था, उसका ेय इसी महािवहार को था।
इस समय यहाँ के धान कुलपित आचाय व िसि थे, जो व यान म माण माने जाते
थे।
िव मिशला म िश ा पाए हए िव ािथय म भी अनेक िस िव ान् िनकले। र नव ,
र नक ित, ान ी िम , र नाकर शाि त और दीपंकर अितशा यह के छा थे। अितशा को
ित बत म बौ धम क पुन: थापना के िलए बुलाया गया था, उ ह ने वहाँ वह यव था और
मयादा थािपत क , जो अब तक लामाओं म चली आती है। र नक ित अितशा के गु थे। और
ान ी िम अितशा के उ रािधकारी। जब अितशा ित बत चले गए तब ान ी िम िव मिशला
िवहार के धान आचाय बने थे। पर तु इस समय उ ह ने आचाय व िसि को महासंघ थिवर
धमिन ाता बना िदया था और वयं गु वास करते थे।
िजस समय हमारा उप यास आर भ होता है, बारहव शता दी का उ राध बीत रहा था।
इस समय पालवंश का राजा गोिव दपाल पवू िबहार पर शासन कर रहा था। िव मिशला िवहार
के कुलपित आचाय व िसि और नाल दा के कुलपित सरहभ के उ रािधकारी महामित थे।
सरहभ ने सहजयान स दाय क थापना क थी। यह नया यान पण ू तया वाममाग ही था और
इसम यु म मिू त क पज ू ा होती थी। तथा िकसी नीच जाित क सु दरी युवती क मु ा बनाकर
साधना क जाती थी। यह नवीन धम समच ू े पवू िबहार और बंगाल म तेजी से फै ल रहा था।
थान- थान पर गु समाज क थापना हो गई थी। िव मिशला िव ाके भी इससे अछूता न
था। इसके अित र काशी, नव ीप व लभी तथा धारानगरी तक इस स दाय के के थािपत
हो गए थे। िह दू धम पर भी इस वाममाग का भाव पड़ चुका था।
इस समय व ृ दावन म िन बाकाचाय कृ ण का प ितपादन कर रहे थे–जो िनर तर
गोिपय से िघरा रहता था। तथा भाँित-भाँित क रासलीला का चार बढ़ता जाता था िजसम
परक या भावना ही मु य रहती थी। िन बाकाचाय य िप सुदूर दि ण के िनवासी थे, पर
व ृ दावन म उ ह ने अपना अड्डा बनाया था। उ र भारत के बहत-से नर-नारी उनके िश य बनते
जा रहे थे।
शैवधम क जड़ तो छठी शता दी म ही काफ मजबत ू हो चुक थी। कािलदास, भवभिू त,
सुब ध और बाणभ जैसे महािव ा-िद गज शैव कहे जाते थे। भारत के बाहर क बोज आिद देश
म भी इस धम का बड़ा चार था। इसके अित र दि ण पवू एिशया के े , बहृ र भारत के
अनेक देश इस धम से भािवत हो चुके थे। िजस कार बौ म व यान स दाय पनपा था, उसी
कार शैव म पाशुपत और कापािलक स दाय का जोर था। व यान के समान शैवधम के ये
दोन माग भी िसि य और म शि म िव ास रखते थे तथा िसि ाि के िलए अनेक,
रह यमय और गु अनु ान करते थे। सातव शता दी म जब चीनी या ी हएनसांग भारत म
आया था तब िबलोिच तान तक म पाशुपत स दाय क स ा थी। काशी म उस समय माहे र
क सौ फुट ऊँची ता बे क ठोस मिू त थी। इस समय वाराणसी पाशुपत आ नाय का के बन रही
थी। वहाँ इस समय सैकड़ मि दर थे िजनम पाशुपत धम क िविध से पज ू ा होती थी।
व यानी क भाँित पाशुपत स दाय वाले भी यह मानते थे िक साधक को जान-बझ ू कर
भी वे सब काम करने चािहए, िज ह लोग गिहत समझते ह। इसम उनका यह तक होता था िक
इससे साधक कत य और अकत य के िववेक से ऊँचा उठ जाता था।
इ ह म कापािलक लोग का एक दल था जो िसि ा करने के िलए और भी उ और
बीभ स काय करता था। ये कापािलक िचताभ म अंग पर लगाए, नर-मु डमाल गले म पिहने
नर-कपाल म मिदरा पानकर म बने िन ू ते, िजसका जो चाहे उठा लेते, िजसे चाहे मार
घम
बैठते, इनक कह कोई दाद-फ रयाद न थी। ाय: ये घोर दुराचारी होते थे। गहृ थ इनके नाम से
डरते थे। मारण-मोहन-उ चाटन का ये परू ा ढ ग रचते थे और सदैव कुि सत प म घम ू ा करते थे।
गु िसि य के िलए ये मशान म रहते, मुद क पीठ पर बैठकर म जाप करते, और
िचताि न पर िट कड़ सक खाते थे।
ऐसा ही उन िदन शा धम था, िजसका पवू बंगाल और आसाम म परू ा जोर था। ये
त -म और गु िसि य के नाम पर म -माँस सेवन करते,नर-बिल तक देते और
आिदशि देवी क उपासना र से करते थे। बिल का इनके िवधान म ाधा य था। ये शाि क
जंजाल म लपेटकर व यािनय क भाँित बड़े ही आड बर से अपने अनैितक और कुि सत कम
का ितपादन करते थे।
भागवत धम, िजसक उ नित गु के रा य म हई थी, अब वै णव धम बन चुका था।
समु गु और च गु ि तीय जैसे परम तापी गु स ाट् अपने को परम भागवत कहते थे।
वा तव म उ ह के समय म बौ का ास होकर वै णव और शैवधम क ित ा हई थी। गु युग
के बाद तेरहव शता दी तक यह िति या जारी रही। बौ धम का य िप गु काल ही म ास
होना आर भ हो चुका था पर म ययुग म वही भारत का मु य धम था। क नौज का तापी महान्
हष य िप बौ न था, पर बड़ा भारी बौ का समथक था। उसके रा यकाल म सातव शता दी
म जो चीनी पयटक िभ ु े नसांग भारत म आया था उसी ने सा ी दी है िक उसके काल म ही
बौ िभ ु आलसी, मादी और पितत हो चुके थे। और सवसाधारण के दय म अब उनके िलए
ाचीन ा न रह गई थी। न उनम वह लोकिहत स पादन क भावना रह गई थी, िजसके कारण
वह देश-िवदेश म सा रत हो गया था।
अब तो अलौिकक िसि य और गु उपासनाओं ही का बोलबाला था। इस युग म भी
शंकर, रामानुज और कुमा रल भ ने उ ह जबद त ट कर दी थी। वै णव धम आर भ म यितधम
था और शंुगकाल म ही वै णव के मि दर क थापना हो चुक थी, पर म ययुग म वह सीधी-
सादी भि आड बर यु होने लगी। मि दर मिू तय म साज, ंग ृ ार, न ृ य, गान का ाधा य बढ़
गया और अब मि दर म थािपत मिू तयाँ केवल उपल ण व तीक मा ही नह रह गई थ , वे
अब जा त् देवता बन गई थ । िजनको नान, भोग, साज, ंग ृ ार, व आिद के ारा स कृत
करने क था बढ़ती जाती थी, और इस काल म, जैसा िक हम थम कह चुके ह, गोिपय के
साथ रास- ड़ा, और प रि या िवलास का एकदम वाममाग व प वै णव धम बन चुका था,
िजसका न न-अ ील वणन हम िस गीत गोिव द का य म पढ़ते ह।
ऐसा ही यह धम का अ धकारमय काल था। एक ओर ये धम के अनाचार के अड्डे
बनते जा रहे थे-दूसरी ओर उनम अथाह स पदा भरती जा रही थी। राजा-रईस-सेठ साहकार से
लेकर सवसाधारण तक ा, भय तथा अ य कारणो से िनर तर दान देते रहते थे। इससे
मि दर -मठ म सैकड़ वष क स पदा संिचत हो गई थी। रा य न होते थे, बदलते थे पर ये
धमके ि थर थे। इसिलए धमके के मठाधीश और पुजारी महाधनवान् बन गए थे। जा का
धन हड़पने के वे िनर तर षड्य करते रहते थे। बहधा रा य को भी उलट-पलट करने के
षड्य वे करते थे। अपने सहायक रा य का सार और िवरोधी का पराभव करना इनके बाय
हाथ का खेल था। इन धमाचाय क यह मता देख बहत-से खटपटी राजा इनके हाथ क
कठपुतली बन गए थे। वे इ ह पण ू छूट देते थे, और रा य के ारा लगाम ढीली होने पर ये सव-
साधारण पर मनमाना अ याचार करते थे। बहधा वे जबद ती ीम त के उ रािधका रय को
िभ ु बना लेते िजससे उनक सारी स पदा मठ को ा हो जाय।
बौ िवहार म एक पर परा आसिमक क थी। ये आसिमक एक कार से बौ िवहार
क जा अथवा तदास ही थे। िवहार के दान ा ाम म इ ह माफ क जमीन िमलती थी।
उसे ये जोतते-बोते तथा िवहार को कर देते थे। िवहार के मठाधीश इनके साथ तदास क
भाँित यवहार करते थे—उनसे मनमानी बेगार लेते, उनके त ण पु और पुि य को िभ ु-
िभ ुणी और देवदासी बना लेते, जो उनके िवलास और िल सा का भोग बनते थे। बहधा ये
आसिमक िव ोह करते थे। इ ह जबद ती दबाया जाता था। उस समय इन पर रोमांचकारी
अ याचार िकए जाते थे।
जहाँ छोटे-छोटे राजा-साम त पर पर लड़ते और सारे देश के वातावरण को अशा त और
अराजक रखते थे—वहाँ देश-भर म यह धमा धकार सारे समाज को अिव ा, अ धिव ास और
अनाचार म धकेलता जा रहा था। ऐसा ही वह युग था। तब ईसा क बारहव शता दी बीत रही थी।
उसी काल क घटना का वणन हम इस उप यास म कर रहे ह।
सख
ु ान द

सुखदास क ी का नाम सु दरी था। वह य तो भली ी थी पर िमजाज क जरा िचड़िचड़ी थी।


सुखदास घर-बार से बेपरवाह था। उसे अपने वेतन क भी िच ता न थी। वह नौकरी नह बजाता
था, सेठ के घर को अपना घर समझता था।
िजस िदन कुमार िदवोदास क दी ा हई, उससे एक िदन थम सुखदास और उसक
प नी म खबू वा यु हआ था। वा यु का मल ू कारण यह था िक सुखदास ने तेईस वष पवू
सु दरी से उसके िलए एक जोड़ा नपू ुर बनवा देने का वादा िकया था। वे नपू ुर उसने अभी तक
बनवाकर नह िदए थे। तेईस वष के इस अ तर ने सु दरी को अधेड़ बना िदया था, ाय:
ितिदन ही वह सुखदास से नपू ुर का तकाजा करती थी और ितिदन सुखदास उसे कल पर
टाल देता था। इसी कार कल करते-करते तेईस वष बीत चुके थे। कल रात इस मामले ने बहत
गहरा रं ग पकड़ा था। सु दरी को इसके िलए आँसू िगराने पड़े थे। और सुखदास ने णब होकर
वचन िदया था िक कल नपू ुर नह बनवा दँू तो घर-बार छोड़कर िभ ु हो जाऊँगा। सु दरी को
नपू ुर पहनने क बड़ी अिभलाषा थी, वाध य आने से भी वह कम नह हई थी। उसने कहा ‘‘िभ ु
हो जाओगे तो स तोष कर लँग ू ी। पर यिद कल नपू ुर न लाए तो देखना म कुएँ -तालाब म डूब
म ँ गी।’’ सुखदास ‘‘अ छा, समझ गया।’’ कहकर घर से बाहर चला गया था।
आज सुखदास को एक साहस करना पड़ा। िदवोदास का िभ ु होना वह सहन न कर
सका। बौ के पाख ड से वह खबू प रिचत था। उसने चुपचाप िदवोदास क सहायता करने के
िलए िभ ु वेश धारण कर िलया। दाढ़ी-मँछ ू का सफाया कर िलया और पीत कफनी पहन ली।
उसने चुपचाप संघाराम म िदवोदास के पास रहने क ठान ली थी।
सु दरी आज बहत ोध म थी। उसने िन य िकया था, आज जैसे भी हो वह नपू ुर िबना
मँगाये न रहे गी। जब देखो झठू ा बहाना। बहाने ही बहाने म खाने-पहनने के िदन बीत गए। आज
वह नह या म नह ।
वह बड़बड़ाती हई बाहरी क म आई। उसका इरादा कल के यु को िफर से जारी करके
पित को परा त कर डालने का था। क म देखा—वहाँ सुखदास के थान पर कोई िभ ु पीत
कफनी पिहने बैठा है। सुखदास क भाँित सु दरी भी िभ ुओ ं को एक आँख नह देख सकती थी।
उसने िभ ु को देखते ही आग बबल ू ा होकर कहा :
‘‘यह कौन मड़ू ीकाटा बैठा है, अरे तू कौन है?’’
‘‘यह म हँ ेम यारी जी, तु हारा दास सुखदास। पर अब तुम इसे िभ ु सुखान द
कहना।’’
सु दरी का कलेजा धक से रह गया। उसने घबड़ाकर कहा :
‘‘ या भाँग खा गए हो? मछ ू का एकदम सफाया कर िदया?’’
‘‘तु ह तो इ ह कोसा करती थी? कहो अब यह मँुह कैसा लगता है?’’
‘‘आग लगे इस मँुह म, यह िभ ु का बाना य पहना है?’’
‘‘तु ह ने तो कहा था िक साधु होकर घर से िनकल जाओ, म स तोष कर लँग ू ी। लो
अब जाता हँ।’’
सुखदास ने जाने का उप म िकया तो सु दरी ने बढ़कर उसके पीत व का प ला
पकड़ िलया। रोते-रोते कहा–‘‘हाय-हाय, यह या करते हो, अरे ठहरो, कहाँ जाते हो?’’
‘‘जाता हँ।’’
‘‘अरे मुझे भरी जवानी म छोड़ जाते हो िनदयी।’’
‘‘अरे , वाह रे भरी जवानी! कब तक जवान रहे गी!’’
‘‘जाने दो, म नपू ुर नह मागँग ू ी।’’
‘‘अब तुम नपू ुर लेकर ही रहना। मुझसे तु हारा या वा ता! म चला।’’
‘‘अरे लोगो, देखो। म लुट गई। नह , म नह जाने दँूगी।’’ वह रोती हई सुखदास से
िलपट गई।
‘‘तब य कहा था?’’
‘‘वह तो झठ ू मठू कहा था।’’
‘‘तो ेम यारी जी, म भी झठ ू मठ ू का िभ ु बना हँ, कोई सचमुच थोड़े ही!’’
‘‘अरे , यह या बात है!’’
‘‘िकसी से कहना नह , गुपचुप क बात है।’’
‘‘अरे , तो तुम झठ ू मठ
ू य मँड़ ू मुड़ा बैठे?’’
‘‘तब या करता, मािलक क अिकल तो िपलिपली हो गई है। जवान बेटे को बैठे-िबठाए
मँड़
ू मुड़ाकर घर से िनकाल िदया। िभ ु बड़े पाजी होते ह। और वह सबका गु घंटाल परू ा भेिड़या
है। उसके दाँत सेठ क दौलत पर ह। भैया पर न जाने कैसी बीते; मेरा उनके साथ रहना बहत
ज री है, समझी ेम- यारी जी!’’
‘‘पर मेरी या गत होगी यह कभी सोचा, नपू ुर नह थे तो या तुम तो थे। इसी से
स तोष था, अब तो तुम भी दूर हो जाओगे। आज झठ ू के साधु बने हो, कल सचमुच के बनने
ू मठ
म या देर लगेगी।’’
‘‘नह ेम यारी जी, कह ऐसा भी हो सकता है? तु ह छोड़कर भला सुखदास क गत
कहाँ है। पर भैया क सेवा करना भी मेरा धम है। लो अब म जाता हँ।’’
‘‘तो िफर मुझे या कहते हो?’’
‘‘बस, इस झमेले से बेबाक हआ िक मुझे नपू ुर बनवाने ह।’’
‘‘भाड़ म जाए नपू ुर! मेरे िलए तुम बने रहो।’’
‘‘म तो प का बना-बनाया हँ, िच ता मत करो।’’
‘‘िफर कब आओगे?’’
‘‘रोज ही आएँ गे, आने म या है! सभी िभ ु िभ ा के िलए आते ह। हम यह िमला
करगे। अ छा सा वी, तेरा क याण हो, यह िभ ु सुखान द चला।’’
‘‘हाय-हाय, िनम ही न बनो!’’
‘‘सब झठू मठ ू का ध धा है। यारी, झठ ू मठ
ू का ध धा!’’
‘‘पर तिनक तो ठहरो!’’
‘‘अब नह , देखँ ू भैया को वहाँ कैसे र खा गया है।’’
‘‘तो जाओ िफर।’’
‘‘जाता हँ।’’
सुखदास धीरे -धीरे घर से बाहर चला गया। सु दरी आँख म आँसू भरे एकटक देखती
रही।
गु -िश य

आचाय का रं ग अ य त काला था। डील-डौल के भी वे खबू ल बे थे पर शरीर उनका कृश था।


हड्िडय के ढाँचे पर चमड़ी का खोल मढ़ा था। गोल-गोल आँख गढ़े म धँसी थ । गाल पर उभरी
हई हड्डी एक िवशेष भयानक आकृित बनाती थी। उनका लोकनाम शबर िस था। वे भत ू - े त-
वैताल के वामी कहे जाते थे। मारण-मोहन-उ चाटन त -म के वे रह यमय ाता थे। वे
नीच कुलो प न थे। कोई कहता—वे जात के डोम ह, कोई उ ह धोबी बताता था। वे ाय: अटपटी
भाषा म बात िकया करते थे। लोग उनसे भय खाते थे। पर उ ह परम िस समझकर उनक पज ू ा
भी करते थे। व यान स दाय के वे माने हए आचाय थे।
िभ ु धमानुज को उ ह का अ तेवासी बनाया गया। धमानुज को एक कोठरी रहने को,
दो चीवर और दो सा रकाएँ दी गई थ । एका त मनन करने के साथ ही वह आचाय व िसि से
व यान के गढ़ ू िस ा त भी समझता था, पर तु शी ही गु -िश य म खटपट हो गई। िभ ु
धमानुज एक सीधा, सदाचारी िक तु ढ़ िच का पु ष था। वह त -म और उनके गढ़ ू भव
पर िव ास नह करता था। अिभचार योग से भी उसने िवरि कट क । इसी से एक िदन
गु -िश य म ठन गई।
गु ने कहा–सौ य धमानुज, िव ास से लाभ होता है। पर धमानुज ने कहा–‘‘आचाय,
मने सुना था— ान से लाभ होता है।’’
‘‘पर तु ान गु क भि से ा होता है।’’
‘‘इसक अपे ा सू म िववेक-शि अिधक सहायक है।’’
‘‘तू मढ़ू है आयु मान्।’’
‘इसी से म आपक शरण म आया हँ।’’
‘‘तो यह म िस कर-िकिल, िकिल, िघ र, िघ र, हर, हर वैरोचन गभ संिचत
ग थ रयकस गभ महाका िणक, ओम् तारे ओम तुमतारे तुरे वाहा।’’
‘‘यह कैसा म है आचाय।’’
‘‘यह र नकूट सू है। घोख इसे।’’
‘‘पर यह तो बु वा य नह है।’’
‘‘अरे मढ़ ू ! यह गु वा य है।’’
‘‘पर इसका या अथ है आचाय?’’
‘‘अथ से तुझे या योजन है, इसे िस कर।’’
‘‘िस करने से या होगा?’’
‘‘डािकनी िस होगी। खेचर मु ा ा होगी।’’
‘‘आपको खेचर मु ा ा है आचाय?’’
‘‘है।’’
‘‘तो मुझे कृपा कर िदखाइए।’’
‘‘अरे अभ , गु पर स देह करता है, तुझे सौ योिन तक िव ाक ट बनना पड़े गा।’’
‘‘देखा जाएगा। पर म आपका खेचर मु ा देखना चाहता हँ।’’
‘‘िकसिलए देखना चाहता है?’’
‘‘इसिलए िक यह केवल ढ ग है। इसम स य नह है।’’
‘‘स य िकसम है?’’
‘‘बु वा य म।’’
‘‘कौन से बु वा य रे मढ़ ू !’’
‘‘स यक् ि , स यक् संक प, स यक् वचन, स यक् कम, स यक् आजीिवका,
स यक् य न, स यक् िवचार और स यक् यान, ये आठ आष स य है। जो भगवान् बु ने कहे
ह।’’
‘‘िक तु, आचाय तू क म?’’
‘‘आप ही आचाय, भ ते!’’
‘‘तो तू मुझे िसखाता है, या तू सीखता है?’’
‘‘म ही सीखता हँ भ ते!’’
‘‘तो जो म िसखाता हँ सीख।’’
‘‘नह , जो कुछ भगवान् बु ने कहा, वही िसखाइए आचाय।’’
‘‘तू कुतक है’’
‘‘म स या वेषी हँ, आचाय।’’
‘‘तू िकसिलए िजत हआ है रे !’’
‘‘स य के पथ पर पिव जीवन क खोज म।’’
‘‘तू या देव-दुलभ िसि याँ नह चाहता?’’
‘‘नह आचाय?’’
‘‘ य नह ?’’
‘‘ य िक वे स य नह ह, पाख ड ह।’’
‘‘तब स य या तेरा गहृ -कम है?’’
‘‘गहृ -कम भी एक स य है। इन िसि य से तो वही अ छा है।’’
‘‘ या?’’
‘‘पित- ाणा सा वी प नी, र न-मिण-सा सुकुमार कुमार आन दहा य और सुखपण ू
गहृ थ जीवन।’’
‘‘शा तं पापं, शा तं पापं!’’
‘‘पाप या हआ भ ते!’’
‘‘अरे , तू िभ ु होकर अभी तक मन म भोग-वासनाओं को बनाए है?’’
‘‘तो आचाय, म अपनी इ छा से तो िभ ु बना नह , मेरे ऊपर बला कार हआ है।’’
‘‘िकसका बला कार रे पाख डी!’’
‘‘आप िजसे कम कहते ह उस अकम का, आप िजसे पु य कहते ह उस पाप कम का,
आप िजसे िसि याँ कहते ह उस पाख ड कम का।’’
‘‘तू वंचक है, ल ठ है, तू द डनीय है, तुझे मनःशुि के िलए चार मास महातामस म
रहना होगा।’’
‘‘मेरा मन शु है आचाय।’’
‘‘म तेरा शा ता हँ, तुझसे अिधक म स य को जानता हँ। या तू नह जानता, म
ि कालदश िस हँ!’’
‘‘म िव ास नह करता आचाय।’’
‘‘तो चार मास महातामस म रह। वहाँ रहकर तेरी मनःशुि होगी। तब तू िसि याँ
सीखने और मेरा िश य होने का अिधकारी होगा।’’
उ ह ने पुकारकर कहा–‘‘अरे िकसी आसिमक को बुलाओ।’’
बहत-से िश य-बटुक-िभ ु इस िव ोही िभ ु का गु -िश य स वाद सुन रहे थे। उनम से
एक सामने से दौड़कर दो आसिमक को बुला लाया।
आचाय ने कहा–‘‘ले जाओ इस ा त मित को, चार मास के िलए महातामस म डाल दो,
िजससे इसक आ मशुि हो और स म के मम को यह समझ सके।’’
आसिमक उसे ले चले।
महातामस

यह एक अँधेरा तहखाना था, जो भग ू भ म बनाया गया था। एक कार से िवहार क यह काल


कोठरी थी जहाँ िदन को भी कभी सय ू के काश क एक िकरण नह पहँच पाती थी। वहाँ िदन-
रात सचू ी-भे अ धकार रहता था। यहाँ अनेक छोटी-छोटी कोठ रयाँ थ । िजनम अनेक ऐसे
अभागे ब द थे जो इन आचाय क वे छाचा रता म बाधा डालते या उनक राह म रोड़े अटकाते
थे। बहत-से तो वहाँ से जीिवत िनकल नह पाते थे। जो िनकल पाते थे, उनम अनेक पागल हो
जाते या असा य रोग के िशकार बन जाते थे। कोठ रय म अ धकार ही नह , सील भी बहत
रहती थी। ये काल-कोठ रयाँ भग ू भ म नदी के साथ सटी हई थ । बहत-से जीिवत तथा मत
ृ अभागे
ब दी यह से जल- वाह म फक िदए जाते थे।
िभ ु धमानुज को एक कोठरी म धकेलकर आसिमक ने ार पर ताला जड़ िदया। बड़ी
देर तक तो उसे कुछ सझ ू ा ही नह । िफर धीरे -धीरे उसक आँख अ धकार को सहन कर गई ं।
उसने देखा–कोठरी अ य त ग दी, सील-भरी और दुगि धत है। उनम अनेक क ड़े रग रहे ह। जो
उसके शरीर को छू जाने लगे पर धमानुज ने धैयपवू क अपने को इस िवपि के सहने के यो य
बना िलया। वह कोठरी के एक कोने म पड़े का फलक पर जाकर बैठ गया और अपने भत ू -
भिव य का िवचार करने लगा। कभी तो वह अपने राजसी ठाट-बाट से यु घर के जीवन को याद
करता और कभी इन व यािनय के पाख ड क क पना करता। अब तक उसने बहत-सी बात
केवल सुनी ही थ । पर अब तो वह य ही देख रहा था। वह जानता था िक उसे िबना ही
अपराध के ऐसा भयानक द ड िदया गया है। उसके िपता क स पि हरण करने का यह सारा
आयोजन है—यह वह जानता था। अब उसे स देह होने लगा िक वे लोग उसे जान से मारकर
अपनी राह का कंटक दूर करना चाहते ह, न जाने ऐसे िकतने कंटक वे िन य दूर करते ह। बौ
िस क यह कुि सत िहंसक विृ देख वह आतंक से काँप उठा।
सख
ु ान द का आगमन

ात:काल का समय था। िवहार का िसि ार अभी खुला ही था। इस ार से नाग रक ालु
जन, ावक और बाहरी िभ ु िवहार के बिहर तरायण म आ-जा सकते थे, िक तु िवहार के भीतर
नह िव हो सकते थे। इस समय बहत-से गहृ थ नाग रक देवी व तारा के दशन को आ-जा
रहे थे। िभ ु गण इधर-उधर घम ू रहे थे। कोई सू घोख रहा था। कोई चीवर धो रहा था। कोई
नान-शुि म लगा था। सुखदास िभ ु वेश म ध मपद गुनगुनाता िदवोदास क खोज म इधर-
उधर घम ू रहा था। िदवोदास का कह पता नह लग रहा था।
एक िभ ु ने उसे टोककर कहा–‘‘मख ू , िवहार म गाता है? नह जानता, गाना िवलास
है, िभ ु को म -पाठ करना चािहए।’’
सुखदास ने आँख कपार पर चढ़ाकर कहा–‘‘मुझे मख ू कहने वाला ही मखू है। अरे , म
ि गुण सू का पाठ कर रहा हँ, जानता है?’’
“ि गुण सू ?’’
‘‘हाँ-हाँ, पर वह क ठ से उतरता नह है। जानते हो ि गुण सू ?’’
‘‘नह जानता भद त, तुम कौन यान म हो?’’
‘‘बात मत करो, सू भल ू ा जा रहा है।’’ सुखदास गुनगुनाता िफर एक ओर को चल
िदया। कुछ दूर जाकर उसने आप ही आप भुनभुनाते हए कहा–‘‘वाह, या- या सफाचट
खोपिड़याँ यहाँ जमा ह, जी चाहता है िदन-भर इ ह चपितयाता रहँ। पर अपने राम को कुमार को
टटोलना है। पता नह इस समु से कैसे वह मोती ढूँढ़ा जाएगा। वह एक बढ़ ू ा िभ ु जा रहा है,
पुराना पापी दीख पड़ता है। इसी से पछ ू ू ँ ।’’ सुखदास ने आगे बढ़कर कहा–‘‘भद त, नमो
बु ाय।’’
‘‘नमो बु ाय।’’
‘‘भद त, कह सकते हो, िभ ु धमानुज कहाँ है?’’
‘‘तुम मख ू तीत होते हो। नह जानते वह महातामस म आचाय क आ ा से ायि
कर रहा है!’’
‘‘यह महातामस कहाँ है भद त?’’
‘‘शा तं पापं, अरे , महातामस म तुम जाओगे? जानते हो वहाँ जो जाता है उसका िसर
कटकर िगर पड़ता है। वहाँ च सठ सह डािकिनय का पहरा है।’’
‘‘ओहो हो, तो भद त, िकस अपराध म िभ ु धमानुज को महातामस िदया गया है?’’
इतने म दो-तीन िभ ु वहाँ और आ गए। उ ह ने सुखदास क अि तम बात सुन ली।
सुनकर वे बोल उठे –‘‘मत कहो, मत कहो, कहने से पाप लगेगा।’’
उसी समय आचाय भी उधर आ िनकले। आचाय ने कहा :
‘‘तुम लोग यहाँ या गो ी कर रहे हो?’’
‘‘आचाय, यह िभ खु कहता है...।’’
‘‘ या?’’
‘‘समझ गया, तुम लोग ने महािनवाण सु घोखा नह ।’’
‘‘आचाय, यह िभ खु पछ ू ता है...।’’
‘‘ या?’’
‘‘पाप, पाप, भारी पाप।’’
‘‘अरे कुछ कहोगे भी या य ही पाप-पाप?’’
‘‘कैसे कह, पाप लगेगा आचाय।’’
‘‘कहो, मने पिव वचन से तु ह पापमु िकया।’’
‘‘तब सुिनये, वह जो नया िभ ु िदवोदास...।’’
‘‘धमानुज कहो। वह तो महातामस म है?’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘महातामस म, वह चार मास म दोषमु होगा।’’
‘‘िक तु यह िभ खु कहता है िक म वहाँ जाऊँगा।’’
‘‘ य रे ?’’ आचाय ने आँख िनकालकर सुखदास क ओर देखा।
सुखदास ने ब ांजिल होकर कहा–‘‘िक तु आचाय, िभ ु धमानुज ने या अपराध
िकया?’’
‘‘अपराध? अरे तू उसे केवल अपराध ही कहता है।’’
‘‘आचाय, मेरा अिभ ाय पाप से है।’’
‘‘महापाप िकया है उसने, उसका मन भोग-वासना म िल है, वह कहता है, उस पर
बला कार हआ है। मन क शुि के िलए संघ थिवर ने उसे चार मास के महातामस का आदेश
िदया है।’’
‘‘कैसी मन क शुि आचाय?’’
‘‘अरे ! तू कैसा िभ ु है िवहार के साधारण धम को भी नह जानता?’’
‘‘िक तु इसी बात म इतना दोष?’’
‘‘बु ं शरणं। तू िनरा मख ू है। तुझे भी ायि करना होगा?’’
‘‘ या गरम सीसा पीना होगा?’’
‘‘ठीक नह कह सकता, िवधान िपटक म तेरे िलए दस हजार ायि ह।’’
‘‘बाप रे , दस हजार?’’
‘‘जाता हँ, अभी मुझे सू पाठ करना है। देखता हँ िवहार अनाचार का के बनता जा
रहा है।’’
आचाय बड़बड़ाते एक ओर चल िदए। सुखदास मँुह बाए खड़ा रह गया।
व तारा का मि दर

व तारादेवी के मि दर के भीतरी आिल द मं महासंघ थिवर व िसि कुशासन पर बैठे थे।


स मुख व तारा क वण- ितमा थी। ितमा परू े कद क थी। उसके िसर पर र न-जिड़त मुकुट
था। हाथ म हीरक द ड था। मिू त सोने के अठपहलू िसंहासन पर प ासन से बैठी थी। मिू त के पीछे
पाँच कोण का य था। िजस पर नामाचार के अंक अंिकत थे। मिू त सवथा िदग बर थी।
व िसि के आगे िवधान क पु तक खुली पड़ी थी। वे उसम से म पढ़ते जाते तथा
पज
ू ा-िविध बोलते जाते थे। बारह िभ ु, िभ न-िभ न पा हाथ म िलए पज
ू ा-िविध स प न कर रहे
थे। बहत-से नाग रक भि भाव से करब पीछे बैठे थे। मि दर का घ टा िनर तर बज रहा था।
आचाय पज ू ा-िविध तो कर रहे थे पर तु उनका मन वहाँ नह था। वे बीच-बीच म य भाव से
इधर-उधर देख लेते थे।

इसी समय महान द ने मि दर म वेश िकया। वह चौक ना हो इधर-उधर देखता हआ,


धीरे -धीरे भीतर क ओर अ सर हआ। और संघ थिवर के पीछे वाली िखड़क म जा खड़ा हआ।
िकसी का यान उधर नह गया। पर तु व िसि को उसका आभास िमल गया। िफर भी उ ह ने
आँख फेरकर उधर देखा नह । हाँ, कुछ स तोष क भावना उनके िच म अव य उ प न हो गई।
महान द ने देखा–पजू ा म सब सफेद फूल काम म लाये जा रहे ह। उसने अवसर पा एक
लाल फूल व िसि के आगे फक िदया। महान द क ओर िकसी क ि न थी। उसके इस काम
को भी िकसी ने नह देखा। ऐसी ही उसक मा यता भी थी। पर तु वा तव म एक पु ष क
आँख से वह ओझल नह हो सका। और वह था सुखदास।
सुखदास ने उसक चाल और रं ग-ढं ग देखकर ही पहचान िलया था िक वह कोई
रह यपण ू पु ष है, इस कार अपने को िछपाकर तथा चौक ने होकर चलने का दूसरा कारण हो
भी या सकता था! अत: सुखदास ने िछपकर उसका पीछा िकया। और अब यहाँ ख भे क ओट
म खड़ा हो उसक गितिविध देखने लगा।
लाल फूल देखते ही आचाय च क उठे । म पाठ के थान पर उनके मँुह से िनकल
पड़ा–‘‘अरे ! यह तो यु का संकेत है!’’ उ ह ने नजर बचाकर एक बार महान द क ओर देखा।
एक कुिटल हा य उनके ओठ पर खेल गया। उसने फूल के चार टुकड़े कर उ र िदशा म फक
िदए। उनके िहलते हए ओठ से लोग ने समझा, यह भी पज ू ािविध ही होगी।
थोड़ी ही देर म एक िभ ु कुछ व तु उठाने के बहाने उनके कान के पास झुक गया।
आचाय ने उसके कान म कहा–‘‘देख एक आदमी उ र तोरण के चतुथ ार पर खड़ा है। उसे गु
राह से पीछे वाली गुफा म ले जा।’’
िभ ु नमन करके चला गया। संघ थिवर ने आचाय बु गु को संकेत से पास बुलाकर
कहा–‘‘तुम यहाँ पज ू ा िविध स प न करो। म अभी जाकर जाप म बैठता हँ। देखना मेरे जाप म
िव न न हो।’’
बु गु ने सहमित संकेत िकया। संघ थिवर उठकर एक ओर चल िदए। बु गु आसन
पर बैठकर पज ू न िविध स प न करने लगे।
लोग ने सस म आचायपाद को माग िदया। वे भिू म म झुक गए। आचाय ने
मु कराकर, सबको दोन हाथ उठाकर, क याण-क याण का आशीवाद िदया।
िजस िभ ु को आचाय ने महान द को ले आने का आदेश िदया था—उसका सुखदास
ने पीछा िकया। जब वह महान द को गु राह से ले चला तो सुखान द अ य त सावधानी से
उनके पीछे ही पीछे चला। अ त म वे एक छोटे-से ार को पार कर एक अ धेरे अिल द म जा
पहँचे। वहाँ घतृ के दीपक जल रहे थे। ार को पीछे से ब द करने क सावधानी नह क गई,
इससे सुखदास को अनुगमन करने म बाधा नह हई।
व िसि ने आते ही कहा–‘‘ या समाचार है, महान द! तुमने तो बड़ी ती ा कराई।’’
‘‘आचाय, मने एक ण भी यथ नह खोया।’’
‘‘तो समाचार कहो।’’
‘‘कािशराज के दरबार म हमारी चाल चल गई।’’ उसने आँख से संकेत करके कहा।
‘‘तो तुम सीधे वाराणसी से ही आ रहे हो।’’
‘‘महाराज कािशराज जो य कर रहे ह, उसम आपको िनमि त करने दूत आ रहा
है।’’
‘‘वह तो है, पर तु महाराज ने भी कुछ कहा?’’
‘‘जी हाँ, महाराज ने कहा है िक वे आचाय क कृपा पर िनभर है।’’
व िसि हँस पड़े । हँसकर बोले–‘‘समझा, समझा, अरे दया तो हमारा धम ही है, पर तु
धत ू पापे र का वह पाख डी पुजारी–?’’
“िस े र?–वह आचायपाद से िवमुख नह है।’’
‘‘तब आसानी से कािशराज का नाश िकया जा सकता है। और इन ा ण के मि दर
को भी लटू ा जा सकता है। जानते हो िकतनी स पदा है उस मि दर म? अरे , शत-शत वष क
संिचत स पदा है।’’
‘‘तो भु, िस े र महा भु आपसे बाहर नह ह।’’
‘‘तो वाराणसी पर स िमय का अिधकार करने का जो म व न देख रहा हँ वह अब
पणू होगा? इधर ेि धनंजय के पु िदवोदास के िभ ु हो जाने से सेठ क अटूट स पदा हमारे
हाथ म आई समझो। इतने से तो हम पचास हजार सै य दल और श जुटाना सहज हो
जाएगा?’’
‘‘अरे , तो या सेठ के पु ने दी ा ले ली?’’
‘‘नह तो या?’’
‘‘िक तु आचाय, वह धोखा दे सकता है, म भली भाँित जानता हँ, उसे स म पर तिनक
भी ा नह है!’’
‘‘यह या म नह जानता? इसी से मने उसे चार मास के िलए महातामस म डाल िदया
है। तब तक तो कािशराज और उद तपुरी के महाराज ही न रहगे।’’
‘‘पर तु आचाय, सेठ यह सुनेगा तो वह महाराज को अव य उभारे गा। यह ठीक नह
हआ।’’
‘‘बहत ठीक हआ।’’
इसी समय एक िभ ु ने आकर ब ांजिल हो आचाय से कहा–‘‘ भु, कािशराज के म ी
ी चरण के दशन क ाथना करते ह।’’
व िसि ने स न मु ा से महान द क ओर देखते हए कहा–‘‘भ महान द, तुम
महाम ी को आदरपवू क तीसरे अिल द म बैठाओ। और कहो िक आचाय पाद ि िपटक सू का
पाठ कर रहे ह, िनव ृ होते ही दशन दगे।’’
महान द ‘‘जो आ ा आचाय’’ कहकर चला गया।
व िसि स न मु ा से क म टहलते हए आप ही आप कहने लगा, ‘‘बहत अ छा
हआ, सब कुछ आप ही आप ठीक होता जा रहा है। यिद कािशराज िल छिवराज से सि ध कर ले
और स म हो जाय तथा धत ू पापे र क सब स पि संघ को िमल जाय तो ठीक है, नह तो
इसका सवनाश हो। यिद मेरी अिभलाषा पण ू हो जाय तो िफर एक बार स पण
ू उ राख ड म
व यान का सा ा य हो जाय।’’
टेढ़ी चाल

काशी के महामा य का नाम िशवशमा था। वे एक व ृ िव ान् शैव ा ण थे। राजनीित और


धमनीित म बड़े पि डत थे। काशी राजवंश तक क इ ह ने अपनी िवल ण बुि तथा नीित से
बहत बार र ा क थी। इनका वैभव भी राजा से कम न था। वह समय ही ऐसा था। राजा और
म ी का गुट, ि य और ा ण का गुट था। ये ा ण ही इन राजाओं क स ा को अख ड
बनाए रखते थे। वे राजा को ई र का आंिशक अवतार बताते और उनक सभी उिचत-अनुिचत
आ ा को ई रीय िवधान के समान िसर झुकाकर मानना सब जा का धम बताते थे। इसके
बदले इ ह पुरोिहताई तथा म ी के अिधकार ा हए थे। राजा लोग इन ा ण मि य पर
अपने भाई-ब धु से भी अिधक िव ास रखते थे। इनका वैभव, महल, ऊपरी ठाट-बाट राजा से
िकसी अंश म कम न होता था। ये ही म ी राजा क धमनीित और राजनीित के संचालक थे।
काशी के महामा य आचाय के िलए बहत-सी भट-साम ी साथ लाए थे। उसे देखकर
व िसि ने स न मु ा से कहा :
‘‘अमा यवर, काशीराज कुशल से तो ह?’’
‘‘आचाय के अनु ह से कुशल है।’’
‘‘म िन य देवी व तारा से उनक मंगल कामना करता हँ। हाँ, महाराज य कर रहे
ह?’’
‘‘उसी म पधारने के िलए म आपको आमि त करने आया हँ। महाराज ने सांजिल
ाथना क है िक आचाय िभ ुसंघ सिहत पधार।’’
‘‘पर तु महामा य, य म पशुवध होगा, गवाल भन होगा, यह सब तो स म के
िवपरीत है।’’
‘‘आचाय, येक धम क एक प रपाटी है। उसक आलोचना से या लाभ? कािशराज
आप पर ा रखते ह, इसी से उ ह ने आपको समरण िकया है। िफर पर पर धािमक सिह णुता
तो उसी कार बढ़ सकती है।’’
‘‘यह तो ठीक है, पर तु कािशराज तो कभी इधर आए ही नह ।’’
‘‘तो या हआ, म उनका ितिनिध देवी व तारा का साद लेने आया हँ।’’
‘‘साधु-साधु, मि वर, देवी व तारा का साद लो’’, आचाय ने य भाव से इधर-उधर
देखा। महान द अिभ ाय समझ ब ांजिल पास आया।
आचाय ने कहा–‘‘भ महान द! अमा यराज को देवी का साद दो।’’
महान द ने ‘‘जो आ ा’’ कह, एक िभ ु को संकेत िकया। िभ ु ने साद म ी को
अिपत िकया।
साद लेकर म ी ने कहा–‘‘अनुगहृ ीत हआ आचाय।’’
‘‘मि वर, आपक स म म ऐसी ही ा बनी रहे ।’’
‘‘आचाय कािशराज आप ही के अनु ह पर िनभर ह।’’
‘‘तो अमा यराज, म उनक क याण कामना से बाहर नह हँ।’’
‘‘ऐसी ही हमारी भावना है, या म कुछ िनवेदन क ँ ?’’
‘‘ य नह ?’’
‘‘ या िल छिवराज काशी पर अिभयान करना चाहते ह?’’
‘‘ऐसा य कहते ह मि वर?”
‘‘मुझे िव त सू से पता लगा है।’’
‘‘तो उस राजनीित को म या जानँ?ू ’’
‘‘िल छिवराज तो आपके अनुगत ह आचाय!’’
“मि वर, म केवल अपने संघ का आचाय हँ, िल छिवराज का म ी नह ।’’
‘‘पर तु आचाय, वे आपक बात नह टालगे।’’
‘‘ या आप यह चाहते ह िक म िल छिवराज से कािशराज के िलए अनुरोध क ँ ?’’
‘‘म नह आचाय, कािशराज का यह अनुरोध है।’’
‘‘ या कािशराज ने ऐसा कोई लेख आपके ारा भेजा है?’’
‘‘यह है आचाय।’’
लेख पढ़कर कुछ देर बाद व िसि ने ग भीर मु ा से कहा :
‘‘तो म कािशराज का अितिथ बनँग ू ा।’’
“कािशराज अनुगहृ ीत ह गे आचाय...’’
‘‘म य म आऊँगा।’’
‘‘अनु ह हआ आचाय।’’
‘‘तो महामा य, एक बात है, िल छिवराज का आ मण रोक िदया जायेगा, पर
िल छिवराज का अनुरोध कािशराज को मानना पड़े गा।’’
‘‘वह या?’’
‘‘यह म अभी कैसे कहँ?’’
‘‘तब?’’
‘‘ या कािशराज मुझ पर िनभर नह है?’’
‘‘ य नह आचाय?’’
‘‘तब उनक क याण-कामना से म जैसा ठीक समझँग ू ा क ँ गा?’’
‘‘ऐसा ही सही आचाय, कािशराज तो आपके शरण ह।’’
“कािशराज का क याण हो।’’
म ी ने अिभवादन िकया और चले गए। आचाय व िसि बड़ी देर तक कुछ सोचते रहे ।
इससे स देह नह िक सुखदास ने यह सब बात अ रशः सुन ल ।
गूढ़ योजना

म ी के जाते ही महान द ने स मुख आकर कहा :


‘‘अब आचाय क मुझे या आ ा है?’’
‘‘वाराणसी चलना होगा भ , साथ कौन जायेगा?’’
‘‘ य , म?’’
‘‘नह , तु ह मेरा स देश लेकर अभी िल छिवराज के पास जाना होगा।’’
‘‘तब?’’
‘‘धमानुज, और यारह िभ ु और, कुल बारह।’’
‘‘धमानुज य ?’’
‘‘उसम कारण है, उसे म यहाँ अकेला नह छोड़ँ गा। स भव है य ही यु े हो जाय।’
‘‘यह भी ठीक है, पर तु उसका ायि ।’’
‘‘उसे म अपने पिव वचन से अभी दोषमु कर दँूगा।’’
महान द ने हँसकर कहा–‘‘आप सवशि मान् पु ष ह।’’
व िसि भी हँस िदए। उ ह ने कहा–‘‘ यारह िश य छाँटो, म धमानुज को देखता हँ।’’
‘‘जैसी आचाय क आ ा।’’
अँधेरे और ग दे तलगहृ म धमानुज का फलक पर बैठा कुछ सोच रहा था। वह सोच
रहा था–‘‘जीवन के भात म महल-अटारी, सुख-साज याग कर या पाया? यह ग दी, घिृ णत
और अँधेरी कोठरी? बाहर कैसा सु दर संसार है, धपू िखल रही है। म द पवन के झ के चल रहे
ह। प ी भाँित-भाँित के गीत गा रहे ह। पर तु धम के िलए इन सबको यागना पड़ता है। यह धम
या व तु है? यहाँ जो कुछ है-यिद यही धम है, तब तो वह मनु य का क र श ु दीख पड़ता है।’’
इसी समय सुखदास ने वहाँ पहँचकर झरोखे से झाँककर देखा। भीतर अँधेरे म वह सब
कुछ देख न सका। पर तु उसे िदवोदास के उ ार कुछ सुनाई िदए। उसका दय ोध और दु:ख
से भर गया।
उसने बाहर से खटका िकया।
धमानुज ने िखड़क क ओर मँुह करके कहा–‘‘कौन है भाई?’’
‘‘भैयाजी, या हाल है? अभी आ मा पिव हई या नह ?’’
‘‘धीरे -धीरे हो रही है, िक तु तुम कौन हो?’’
‘‘म...म! सुखदास?’’
‘‘िपत ृ य? अरे , तुम यहाँ कहाँ?’’
‘‘चुप! म सुखान द िभ ु हँ, तु हारी क याण कामना से यहाँ आया हँ।’’
‘‘उसके िलए तो संघ थिवर ही यथे थे, इस अ ध नरक म मेरी यथे क याण
कामना हो रही है।’’
‘‘आज इस नरक से तु हारा उ ार होगा, आशीवाद देता हँ।’’
‘‘िक तु अभी तो ायि क अविध भी परू ी नह हई है।’’
‘‘तो इससे या? िभ ु सुखान द का आशीवाद है यह?’’
‘‘पहे ली मत बुझाओ यहाँ, बात जो है वह कहो।’’
‘‘तो सुनो, संघ थिवर जा रहे ह काशी, उनके साथ 12 िभ ु जाएँ गे। उनम तु ह भी चुना
गया है।’’
“काशी य जा रहे ह आचाय?’’
‘‘समझ सकोगे? कािशराज और अपने महाराज का सवनाश करने का षड्य
रचने।’’
सव यागी िभ ुओ ं को इससे या मतलब?’’
‘‘महासंघ थिवर व िसि यागी िभ ु नह ह। वे राज मुकुट के िमटाने और बनाने
वाले ह।’’
‘‘िफर यह धम का ढ ग य ?’
‘‘यही उनका हिथयार है, इसी से उनक िवजय होती है।’’
‘‘और पिव धम का िव तार!’’
‘‘वह सब पाख ड है।’’
‘‘तुम यहाँ य आए िपत ृ य?’’
‘‘तब कहाँ जाता? जहाँ बछड़ा वहाँ गाय।’’
‘‘समय या है? इस अ धकार म तो िदन-रात का पता ही नह चलता।’’
‘‘पवू िदशा म लाली आ गई है, सय ू दय होने ही वाला है। संघ थिवर आ रहे ह। म चलता
हँ।’’
‘‘संघ थिवर इस समय य आ रहे ह?’’
‘‘तु ह पाप-मु करने, आज का मनोरम सय ू दय तुम देख सकोगे—यह िभ ु
सुखान द का आशीवाद है।’’
सुखान द का मँुह िखड़क पर से लु हो गया। इसी समय एक ची कार के साथ भग ू भ
का मु य ार खुला। आचाय व िसि ने भीतर वेश िकया। उनके पीछे नंगी तलवार हाथ म
िलए महान द था। आचाय ने कहा :
‘‘व स धमानुज, या तुम जाग रहे हो?’’
‘‘हाँ आचाय, अिभवादन करता हँ।’’
‘‘तु हारा क याण हो, धम म तु हारी स ित रहे । आओ, म तु ह पापमु क ँ ।’’
उ ह ने म पाठकर पिव जल उसके म तक पर िछड़का, और कहा–‘‘तुम पाप मु
हो गए, अब बाहर जाओ।’’
‘‘यह या आचाय, अभी तो ायि काल परू ा भी नह हआ?’’
‘‘मने तु ह पिव वचन से शु कर िदया। ायि क आव यकता नह रही।’’
‘‘नह आचाय, म परू ा ायि क ँ गा।’’
‘‘व स, तु ह मेरी आ ा का पालन करना चािहए।’’
‘‘आपक आ ा से धम क आ ा बढ़कर है।’’
‘‘हम धम को बनाने वाले ह धमानुज, हमारी आ ा ही सबसे बढ़कर है।’’
‘‘आचाय, मने बड़ा पातक िकया है।’’
‘‘कौन-सा पातक व स?’’
‘‘मने सु दर संसार को याग िदया, यौवन का ितर कार िकया, ऐ य को ठोकर मारी,
उस सौभा य को कुचल िदया जो लाख मनु य म एक पु ष को िमलता है।’’
‘‘शा तं पापं। यह अधम नह धम िकया। तथागत ने भी यही िकया था पु ।’’
‘‘उनके दय म याग था। वे महापु ष थे। िक तु म तो एक साधारण जन हँ। म यागी
नह हँ।’’
‘‘संयम और अ यास से तुम वैसे बन जाओगे।’’
‘‘यह बलात् संयम तो बलात् यिभचार से भी अिधक भयानक है!’’
‘‘यह तु हारे िवकृत मि त क का भाव है, व स!’’
‘‘आपके इन धम सू म, इन िवधान म, इस पज ू ा-पाठ के पाख ड म, इन आड बर म
मुझे तो कह भी संयम-शाि त नह दीखती और न धम दीखता है। धम का एक कण भी नह
दीखता।’’
‘‘पु , सद्धम से िव ोह मत करो, बुरा मत कहो।’’
‘‘आचाय, आप यिद जीवन को वाभािवक गित नह दे सकते तो संसार को स म का
स देश कैसे दे सकते ह?’’
‘‘पु , अभी तुम इन सब धम क जिटल बात को न समझ सकोगे। मेरी आ ा का
पालन करो। इस महातामस से बाहर आओ। और नान कर पिव हो देवी व तारा का पज ू न
करो, तु ह मने अपने बारह धान िश य का मुख बनाया है। हम वाराणसी चल रहे ह।’’
आचाय ने उ र क ती ा नह क । वे बाहर िनकले। स मुख होकर सुखान द ने
सा ांग द डवत् िकया।
आचाय ने कहा–‘‘अरे िभ ु!’’ जा उस धमानुज को महा अ ध तामस के बाहर कर, उसे
नान करा, शु व दे और देवी के मि दर म ले आ।’’
सुखदास ने मन क हँसी रोककर कहा–‘‘जो आ ा आचाय।’’
उसने तामस म िव होकर कहा–‘‘भैया, जो कुछ करना-धरना हो पीछे करना। अभी
इस नरक से बाहर िनकलो। और इन पाखि डय के भ डाफोड़ क यव था करो।’’
िदवोदास ने और िवरोध नह िकया। वह सुखदास क बाँह का सहारा ले धीरे -धीरे
महातामस से बाहर आया। एक बार िफर सु दर संसार से उसका स पक थािपत हआ।
वाराणसी

वाराणसी शैवधम का पुरातन मल ू थान है। यहाँ धत


ू पापे र का मि दर बड़ा िवशाल था। उसका
वण कलश गगनचु बी था। स पण ू मि दर ेत ममर का बना था। मि दर म बहत पाषद,
पुजारी, देवदासी और वेदपाठी ा ण रहते थे। सौ फुट ऊँची िशवमिू त ता डव मु ा म थी। वह ठोस
ता बे क थी। िवशाल न दी क मिू त काले कसौटी के प थर क थी। पाशुपित आ नाय म मि दर
का माहा य अिधक था, वहाँ देश-देश के याि य का ताँता-सा लगा रहता था।
एक बार कािशराज ने य क घोषणा क थी, इससे देश-देश के भावुक जन बुलाए और
िबना बुलाए काशी म आ जुटे थे। अनेक नरपितय को आमि त िकया गया था। और अनेक सेठ-
साहकार अपनी बहमू य व तुओ ं को बेचने के िलए आ जुटे थे।
मि दर म भ य समारोह था। सह घतृ दीप जल रहे थे। महाघ ट के घोष से कान के
पद फटे जाते थे। जनरव भी उसी म िमल गया था। वीणा, मदृ ंग आिद वा बज रहे थे।
मि दर के धान पुजारी का नमा िसद्धे र था। वह कद म िठगना, कृ णकाय, अधेड़
वय का पु ष था। उसका मँुह िखचड़ी दाढ़ी से ढका था। शरीर बिल था, वह सदैव भगवा
कौशेय धारण िकए रहता था। वह आचाय व िसि और कािशराज के साथ वण िसंहासन पर
बैठा था। बड़े -बड़े पा म धपू जल रहा था, िजससे सारा ही वातावरण सुरिभत हो रहा था। जड़ाऊ
मशाल के काश म मि दर के ख भ पर जड़े हए र नमिण चमक रहे थे।
पजू ा-िविध ार भ हई। सोलह पुजा रय ने पज ू ा-आरती िलए म -पाठ करते हए आवेश
िकया। सब नंगे पैर, नंगे िसर, नंगे शरीर, कमर म पीता बर क धे पर ेत जनेऊ, िसर पर बड़ी
चोटी। चार के हाथ म जगमगाते आरती के थाल थे। चार के हाथ म गंगाजल के वणपा थे। चार
के हाथ म धपू , दीप और चार के हाथ म नाना िवध फूल से भरे थाल थे। आक-धतरू ा और
िब वप भी उनम थे।
उ च वर म म पाठ होने लगा।
कुछ काल तक म पाठ उ च नाद के साथ हआ। सैकड़ क ठ वर ने िमलकर
पाठ को गौरव िदया। म पाठ समा होते ही देवदािसय ने न ृ य ार भ िकया। सब रं ग-िबरं गी
पोशाक पहने थ । िसर पर मोितय क माँग, कान म जड़ाऊ ाटक, छाती पर जड़ाऊ हार, किट
देश पर र प , पीठ पर लहराता हआ उ रीय। हाथ म ढम और झाँझ।
सैकड़ देवदािसय के न ृ य से, दशक िवमु ध हो गए। आचाय व िसि भी यह िनिष
य देखकर स न हो रहे थे। एकाएक न ृ य क गया। सब नतिकयाँ दो भाग म िवभ हो
गई ं। मंजुघोषा धीरे -धीरे मंच पर आई। उसके िसर पर उ कृ जड़ाऊ मुकुट था। शरीर पर मोितय
का ंग ृ ार था। अब केवल डम वादन होने लगा और मंजुघोषा ने ता डव न ृ य िब कुल शैव
प ित पर करना ार भ िकया। वातावरण एक िविभ न क प न से भर गया। मंजुघोषा क न ृ य
गित बढ़ती ही गई—वह ती से ती तर होती गई। उपि थत समुदाय त ध रह गया। उस षोडशी
बाला का भ य प, अ ितम कला, िद य न ृ य, और उसका भावावेश इन सबने उपि थत जन
क भाविवमोिहत कर िदया। न ृ य के अ त म मंजुघोषा िशवमिू त के सम प ृ वी म िणपात
करने को लेट गई। िस े र ने कहा–“उठो मंजु, साद हण करो।’’
मंजु धीरे -धीरे उठी। उसने पुजारी से साद हण िकया।
व िसि अब तक जड़ बैठे थे। अब वे बोल उठे –‘‘यह लड़क सा ात् व तारा तीत
होती है। अरे धमानुज, यह देवी व तारा का ग धमा य इस दासी को देकर कृताथ कर।’’
उ ह ने क ठ के लाल फूल क माला उतारकर आगे बढ़ाई, पर तु धमानुज भी इस
देवदासी के प सागर म डूब रहा था। उसने आचाय क बात नह सुनी। दुबारा पुकारने पर वह
च ककर उठा-उसने माला दोन हाथ म ले ली। मंजुघोषा के िनकट पहँचकर उसने काँपते हाथ
से वह माला उस देवदासी के क ठ म डालना चाहा। पर मंजु ने अपने दोन हाथ उसके िलए फै ला
िदए। दोन के ने िमले। दोन बाहर क सुध भल ू कर वैसे के वैसे ही खड़े रह गए। दोन के ने
चमक उठे , उनम एक लाज याप गई, ह ठ काँपने लगे और शरीर कंटिकत हो गया। िदवोदास ने
साहस करके माला मंजु के क ठ म डाल दी। मंजु ठगी-सी खड़ी रह गई। िदवोदास अपने थान
पर लौट आया। धीरे -धीरे मंजुघोषा अपने आवास को लौट गई। िदवोदास यासी आँख से उसक
मनोहर मिू त को देखता रहा। महाराज महाआचाय और पुजारी तथा सब लोग उठकर अपने-अपने
थान को चल िदए। िदवोदास भी घायल प ी क भाँित लड़खड़ाता हआ अपने आवास पर पहँचा।
उसक भख ू - यास जाती रही।
मनोहर भात

बड़ा मनोहर भात था। शीतल-म द समीर झकोरे ले रहा था। मंजुघोषा ात:कालीन पज ू ा के िलए
संिगनी देवदािसय के साथ फूल तोड़ती-तोड़ती कुछ गुनगुना रही थी। उसका दय आन द से
उ लिसत था। कोई भीतर से उसके दय को गुदगुदा रहा था। एक सखी ने पास आकर कहा :
‘‘बहत खुश दीख पड़ती हो, कहो, कह लड्डू िमला है या?’’
मंजु ने हँसकर कहा–‘‘िमला तो तु ह या?’’
‘‘बिहन, हम भी िह सा दो।’’
‘‘वाह, बड़ी िह से वाली आई।’’
‘‘इतने म एक और आ जुटी। उसने कहा–‘‘यह काहे का िह सा है बिहन!’’
पिहली देवदासी ने कहा :
‘‘अरे हाँ, या बहत मीठा लगा बिहन?’’
मंजु ने खीजकर कहा–‘‘जाओ, म तुमसे नह बोलती।’’
सबने कहा–‘‘हाँ बिहन, यह उिचत भी है। बोलने वाले नये जो पैदा हो गए।’’
‘‘तुम बहत दु हो गई हो।’’
‘‘हमने तो केवल नजर पहचानी थ ।’’
‘‘और हमने देन-लेन भी देखा था।’’
‘‘पर केवल आँख -आँख ही म।’’
‘‘ह ठ म नह ?’’
‘‘अरे वाह, इसी से सखी के ह ठ म आन द क रे ख फूटी पड़ती है।’’
‘‘और ने से रसधार बह रही है।’’
मंजु ने कहा–‘‘तुम न मानोगी?’’
एक ने कहा–‘‘अरी, सखी को तंग न करो। िह सा नह िमलेगा।’’
दूसरी ने कहा–‘‘कैसे नह िमलेगा, हम उससे माँगगी।’’
तीसरी बोली—‘‘िकससे?’’
‘‘िभ ु से।’’
मंजु ने कोप से कहा–‘‘लो म जाती हँ।’’
‘‘हाँ-हाँ, जाओ बिहन, बेचारा िभ ु...’’
‘‘कौन िभ ु? कैसा िभ ु?’’
‘‘अजी वही, िजससे रात म फूल-माला लेकर चुपचाप कुछ दे िदया था।’’
‘‘और हमसे पछ ू ा भी नह !’’
‘‘तुम सब दीवानी हो गई हो।’’
‘‘सच है बिहन, हमारी बिहन खड़े -खड़े लुट गई तो हम दीवानी भी न ह ।’’
मंजु उठकर खड़ी हई। इस पर उसे सबने पकड़कर कहा :
‘‘ ठ गई रानी, भला हमसे या परदा? हम तो एक ही थैली के च े-ब े ह।’’
‘‘और देवताओं क दािसयाँ ह।’’
‘‘अजी देवताओं क य ? देवताओं के दास क भी।’’
‘‘पर सखी, िभ ु है एक ही छैला।’’
‘‘वाह, कैसी बाँक िचतवन कैसा प!’’
‘‘िभ ु है तो या है? सैकड़ नागर से बढ़-चढ़कर है।’’
‘‘चल रहने दे, दुिनया म एक से एक बढ़कर भरे पड़े ह।’’
‘‘अरी जा, हमने देखा है तेरा वह छैला, गधे क तरह रकता है।’’
‘‘अपने उस भसे को देख, स ग भी नापे ह उसके?’’
‘‘अरी लड़ती य हो, िभ ु है िकसी बड़े घर का लड़का।’’
‘‘सुना है बड़े सेठ का बेटा है।’’
‘‘होगा, अब तो िभ ु है।’’
मंजु ने कहा–‘‘िभ ु है तो या, दय का तो वह राजा है!’’
सखी ने कहा–‘‘अरे , हमारी सखी मंजु उसके दय क रानी है।’’
‘‘अ छा, तो िफर?’’
‘‘बस तो िफर, िह सा।’’
‘‘जाओ-जाओ, मँुह धो रखो।’’ मंजु भागकर दूसरी ओर चली गई। सिखयाँ
िखलिखलाकर हँसने लग । मंजु एक गीत क कड़ी गुनगुनाती िफर फूल चुनने लगी। चुनते-
चुनते वह सिखय से दूर जा पड़ी। उधर उ ान म एक तालाब था। उसी तालाब के िकनारे हरी-हरी
घास पर िदवोदास और सुखान द बैठे बातचीत कर रहे थे। फूल तोड़ते-तोड़ते मंजु वह जा पहँची।
िदवोदास को देखा तो वह धक् से रह गई। िदवोदास ने भी उसे देखा। उसने कहा–‘‘िपत ृ य, यह
तो वही देवदासी आ रही है।’’
‘‘तो भैया, यहाँ से भगा चलो, नह फँस जाओगे।’’
पर तु िदवोदास ने सुखदास क बात नह सुनी। वह उठकर मंजु के िनकट पहँचा और
कहा :
‘‘यह तो अयािचत दशन हआ।’’
‘‘िकसका?’’
‘‘आपका।’’
‘‘नह , आपका।’’
‘‘िक तु आप देवी ह।’’
‘‘नह , म देवदासी हँ।’’
‘‘भा यशािलनी देवी।’’
‘‘अभािगनी देवदासी।’’
अब सुखदास भी उठकर वहाँ आ गया। उसने िपछली बात सुनकर कहा :
‘‘नह , नह , ऐसा न कहो देवी।’’
िदवोदास ने कहा–‘‘तुम भात क पिहली िकरण के समान उ वल और पिव हो।’’
‘‘म िम ी के ढे ले के समान िन सार और िनरथक हँ।’’
‘‘अरे , आँख म आँस?ू िपत ृ य, यह इतना दु:खी य ?’’
सुखदास ने कहा–‘‘जो कली अभी िखली भी नह , सुग ध और पराग अभी फूटा भी
नह , उसम क ड़ा लग गया है?’’
िदवोदास ने कहा–‘‘बोलो, तु ह या दु:ख है?’’
‘‘म अ ातकुलशीला अकेली, असहाया, अभािगनी देवदासी हँ, इसम मेरा सारा दु:ख-
सुख है।’’
‘‘तो मेरे ये ाण और शरीर तु हारे िलए अिपत ह।’’
‘‘म कृताथ हई, िक तु अब जाती हँ।’’
‘‘इस तरह न जा सकोगी, तुमने अपने आँसुओ ं म मुझे बहा िदया है, कहो या करने से
तु हारा दु:ख दूर होगा। तु हारे दु:ख दूर करने म मेरे ाण भी जाएँ , तो यह मेरा अहोभा य
होगा।’’
सुखदास ने कहा–‘‘अपने िदल क गाँठ खोल दो देवी, भैया बात के बड़े धनी ह।’’
‘‘ या कहँ, मेरा भा य ही मेरा सबसे बड़ा दु:ख है। िवधाता ने जब देवदासी होना मेरे
ललाट म िलख िदया, तो समझ लो िक सब दु:ख मेरे ही िलए िसरजे गए ह। िजस ी का अपने
शरीर और ाण पर अिधकार नह , िजसक आ मा िबक चुक है, िजसके दय पर दासता क
मुहर है, ित ा, सती व, पिव ता िजसके जीवन को छू नह सकते, िजसका प-यौवन सबके
िलए खुला हआ है, जो िदखाने को देवता के िलए ंग ृ ार करती है, पर तु िजसका ंग ृ ार वा तव
म देवदशन के िलए नह , ंग ृ ार को देखने आए हए ल पट कु के रझाने के िलए ह, ऐसी
अभािगनी देवदासी के िलए अपने पिव बहमू य ाण को दे डालने का संक प न करो िभ ु।’’
उसने चलने को कदम बढ़ाया। पर तु िदवोदास ने आगे आकर और राह रोककर
कहा–‘‘समझ गया, पर तु ठहरो। मुझे एक बात का उ र दो। तुम इस न हे -से दय म इतना
दु:ख िलए िफरती हो, िफर तुम उस िदन िकस तरह न ृ य करती हई उ लास क मिू त बनी हई
थ ?’’
‘‘इसके िलए हम िववश ह, यह हमारी कला है, उसका हमने वष अ यास िकया है।’’
उसने हँसने क चे ा क । पर उसक आँख से झर-झर आँसू िगरने लगे।
िदवोदास ने उसका हाथ थामकर ढ़ वर म कहा–‘‘देवी, म तु ह येक मू य पर इस
दासता से मु क ँ गा, म तु हारे दय को आन द और उमंग से भर दँूगा।’’
िदवोदास ने उसके िब कुल िनकट आ नेहिस वर म कहा–‘‘म तु हारे जीवन क
कली-कली िखला दँूगा।’’
उसने एक बड़ा-सा फूल उसक डोलची म से उठाकर, उसके जुड़े म ख स िदया। और
उसके क धे पर हाथ धरकर कहा :
‘‘तु हारा नाम?’’
‘‘मंजुघोषा, पर तुम ‘मंजु’ याद रखना, और तु हारा ि य?”
‘‘म िभ ु धमानुज हँ।’’
‘‘धमानुज?’’
एक हा यरे खा उसके ह ठ पर आई और एक कटा िदवोदास पर छोड़ती हई वह वहाँ से
भाग गई।
सुखदास ने कहा–‘‘भैया, यह बड़ी अ छी लड़क है।’’
‘‘िपत ृ य, तुम सदा उस पर नजर रखना, उसक र ा करना, उसे कभी आँख से
ओझल नह होने देना, मुझे उसक खबर देते रहना।’’
सुखदास ने हँसकर कहा–‘‘िफकर मत करो भैया, इसी से तु हारी सगाई कराऊँगा।’’
सुखदास एक गीत क कड़ी गुनगुनाने लगा।
अिभसि ध

महा संघ थिवर व िसि और मह त िस े र एका त क म बैठे गु म णा कर रहे थे। दोन


दो पथृ क् आसन पर बैठे थे। व िसि ने कहा–‘‘अ छा, उसके बाद?’’
‘‘उसके बाद या? िल छिवराज ने कािशराज क ाथना वीकार नह क । इस पर
कािशराज ने सै य लेकर िल छिवराज क राजधानी वैशाली को घेर िलया। िल छिवराज भी दुबल
न था। वह भी सै य लेकर स मुख आया। घनघोर यु हआ। पर तु मेरी अिभसि ध से िल छिवराज
का िछ िमल गया। कािशराज ने उनके ासाद म घुसकर िल छिवराज को मार डाला और महल
तथा नगर लटू िलया। पीछे उसम आग लगा दी। सारा नगर जलकर खाक हो गया।
‘‘पर तु आपका काम?’’
‘‘वह नह हआ। बहत िसर मारने पर भी वह गु धनकोष नह िमला। मेरी इ छा
िल छिवराज को जीिवत पकड़ने क थी—ऐसी ही मने कािशराज को सलाह भी दी थी। पर तु
कािशराज ने मेरी बात नह रखी, ोध म आ िल छिवराज को तलवार के घाट उतार िदया। इससे
उस गु राजकोष का भेद भी िल छिवराज के साथ चला गया।’’
‘‘िफर?’’
‘‘उस मार-काट और लटू -पाट म गु राजकोष को ढूँढ़ते हए एक गु थान म िछपी
एक दासी के साथ तीन वष क बािलका िमली। दासी ने उस बािलका को छीन ले जाने से रोकने
के िलए मेरे सेवक को बहत वण-धन देना चाहा, पर तु उ ह ने नह माना। वे उसे मेरे पास ले
आए। बािलका के साथ उसक धाय भी रोती-पीटती आई और बहत कुछ अनुनय-िवनय उस
बािलका को छोड़ देने के िलए करने लगी। पर तु जब मने उस बािलका को काशी ले जाने का
संक प नह छोड़ा तो उसने रो-पीटकर उसके साथ वयं भी चलने क ाथना क । बािलका बड़ी
सु दर थी तथा वह उसक दासी-धाय थी, इससे मने उसे भी बािलका के साथ रहने क अनुमित
दे दी।’’
‘‘तो वह क या?’’
‘‘मि दर म लाकर मने उसे देवापण कर िदया और वह देवदासी बना ली गई। उसक
धाय को भी देवदािसय म रख िलया।’’
‘‘तो यही वह क या है? या नाम है इसका?’’
‘‘मंजुघोषा, यह नाम उस दासी ही ने रखा था।’’
‘‘और वह दासी अब कहाँ है?’’
‘‘वह अभी तक उसी क या के साथ देवदािसय म रहती है। उसका शील और नैपु य
देख मने उसे सब देवदािसय का धान बना िदया है।’’
‘उसका नाम या है?’’
‘‘सुनयना।’’
‘‘ठीक है। तो आपको यह भेद कैसे मालम ू हआ िक मंजुघोषा िल छिवराज निृ संहदेव क
पु ी है?’’
‘‘क या के क ठ म एक गुिटका थी, उसी से। उसम उसक ज म-ितिथ तथा वंशप रचय
था। पीछे उस दासी ने भी यह बात वीकार कर ली। इसी से उन दोन के रहने क उ म यव था
मने कर दी। तथा यह भेद भी मने अपने पेट म रखा।’’
‘‘तो महा मन्, म आपको अब और एक भेद बताता हँ िक यह सुनयना दासी वा तव म
िल छिवराज निृ संहदेव क राजमिहषी है। और मंजुघोषा क असल ज मदा ी माता है।’’
‘‘अरे ! यह कैसी बात?’’
‘‘यह स य बात है।’’
‘‘िक तु इसका माण?’’
‘‘म वयं उसे जानता हँ। इसी से मने उसे बुलवाया है। या वह आई है?’’
‘‘बाहर उपि थत है।’’
‘‘तो उसे बुलवाइये। वही एक यि इस समय जीिवत है, जो िल छिवराज के उस गु
कोष का ठीक पता जानता है।’’
महा भु ने ताली बजाई। माधव क म आ उपि थत हआ। महा भु ने कहा :
‘‘सुनयना दासी को यहाँ ले आओ।’’
सुनयना ने आकर प ृ वी पर िगरकर दोन महा माओं को णाम िकया। सुनयना क
आयु कोई 40 वष क होगी। कभी वह अ ितम प लाव यवती रही होगी, इस समय भी प ने
उसे छोड़ा नह था। वह िनरवल ब थी—पर तु उसका उ वल-शु - श त ललाट और बड़ी-बड़ी
आँख उसक मह ा का दशन कर रही थ ।
सुनयना ने ब ांजिल होकर कहा–‘‘महा भु ने दासी को िकसिलए बुलाया है?’’
व िसि ने कुिटल हा य करके कहा–‘‘िल छिवराज क मिहषी सुक ित देवी, तु हारा
क याण हो! म तु ह आशीवाद देता हँ।’’
राजमिहषी ने घबराकर आचाय क ओर देखा, िफर कहा–‘‘आचाय! म अभािगनी
सुनयना दासी हँ।’’
व िसि जोर से हँस िदए। उ ह ने कहा–‘‘अभी व िसि क आँख इतनी कमजोर
नह हई ह। पर तु महारानी, तुम ध य हो, तुमने िवपि म अपनी पु ी क खबू र ा क ।’’
रानी ने िवनयावनत होकर कहा–‘‘आचाय, आप यिद सचमुच ही मुझे पहचान गए ह,
तो इस अभािगनी िवधवा नारी क ित ा का िवचार क िजए।’’
‘महारानी, म तु ह और तु हारी क या को वत कराने ही काशी आया हँ। महा भु ने
य ही मेरे मँुह से तु हारा प रचय सुना—वे तु ह वत करने को तैयार हो गए।’’
‘‘इस अभािगनी के भा य आपके हाथ म ह।’’
‘‘म तुम दोन को अपने साथ ले जाऊँगा, तथा िल छिवराज को स प दँूगा। माता और
भिगनी को पाकर िल छिवराज स न ह गे।’’
‘‘यह तो अस भािवत-सा भा योदय है, िजस पर एकाएक िव ास ही नह होता।’’
महा भु ने धीमी तथा ढ़ वाणी से कहा–‘‘म तु ह छोड़ दँूगा, महारानी!’’
‘‘मेरी पु ी सिहत?’’
‘‘हाँ।’’
‘आप ध य ह महा भु!’’
‘‘पर तु एक शत है।’’
“शत कैसी?’’
‘‘मुझे गु र नागार का बीजक दे दो।’’
‘‘कैसा बीजक?’’
‘‘इतनी नादान न बनो महारानी। बस, बीजक दे दो और तुम तथा तु हारी क या
वत हो।’’
‘‘ भु, म इस स ब ध म कुछ नह जानती, म िल छिवराज क प राजमिहषी सुक ित
देवी नह हँ, सुनयना दासी हँ, म कुछ नह जानती।’’
‘‘तु ह बीजक देना होगा महारानी!’’
‘‘म कुछ नह जानती।’’
‘‘सो अभी जान जाओगी।’’ उ ह ने ु वर म माधव को पुकारा। माधव आ खड़ा हआ।
महा भु ने कहा–‘‘इस ी को अभी अ धकूप म डाल दो।’’
माधव ने रानी का हाथ पकड़कर कहा–‘‘चलो।’’
व िसि ने कहा–‘‘ठहरो माधव।’’ िफर रानी क ओर देखकर मदृ ु वर से कहा–‘‘बता
दो महारानी, इसी म क याण है, म तु हारा शुभ िच तक हँ!’’
‘‘तुम दोन लोलुप ग ृ को म पहचानती हँ,’’ रानी ने िसंिहनी क भाँित वालामय
ने से उनक ओर देखा—िफर सीना तानकर कहा–‘‘जाओ, म कुछ नह जानती।’’
िस े र ने गरजकर कहा–‘‘तब ले जाओ माधव?’’
पर तु व िसि ने माधव को िफर ठहरने का संकेत करके िस े र के कान म
कहा–‘अ धकूप म डालने को बहत समय है, अभी उसे समय क ढील दो।’’ िफर उ च वर से
कहा–‘‘जाओ महारानी, अ छी तरह सोच-समझ लो। अ धकूप कह दूर थोड़े ही है।’’
उसने कुिटल हा य करके िस े र क ओर देखा। सुनयना चली गई। और दोन
महापु ष भी अ तधान हए। कहने क आव यकता नह , िक सुखदास ने िछपकर सारी बात सुन
ली थ । उसने खबू सतक रहकर, माता-पु ी क ाण रहते र ा करने क मन ही मन ित ा
क।
एका त िमलन

वैसा ही मनोरम भात था। िदवोदास उसी पु क रणी के तीर पर उसी व ृ क छाया म बैठा,
िनमल जल म खेलती लहर को देख रहा था। वह कोई गीत गा रहा था। और उसका मन फु ल
था। उसने ेमिवभोर हो आप ही आप कहा– ेम- ेम- ेम, ेम के मरण से ही आ मा कैसी हरी हो
जाती है! दय म िहलोर उठती ह, जैसे नये ाण शरीर म आ गए ह । वह जैसे य मंजु क
प-माधुरी को देखने लगा। उसके मँुह से िनकला–‘‘वाह, कैसी प-माधुरी है, कैसी िचतवन है,
वीणा झंकार के समान उसक वरलहरी र क बँदू को उ म कर डालती है। पर तु खेद है,
मुझे और कदािचत् उसे भी इस िवषय पर िच तन करने का अिधकार नह है। म िभ ु हँ और वह
देवदासी। मेरे िलए संसार िम ी का ढे ला है और उसके िलए अ धेरा कुआँ। वह कुछ देर चुपचाप
एकटक लहर को देखता रहा। िफर उसने आप ही आप असंयत होकर कहा–‘‘ या यही धम है?
पर तु इस धम का तो जीवन के साथ कुछ भी सहयोग नह दीखता? वह धम कैसा? जो जीवन
से दूर है-जीवन का िवरोधी है, जो जीवन का पातक है। नह , नह , वह धम नह है—पाख ड है।
यार ही सब धम से बढ़कर धम है।’’
उसे दूर से मंजु क वर-लहरी सुनाई दी। वह उठकर इधर-उधर देखने लगा। मंजु फूल
से भरी टोकरी िलए उसी ओर गुनगुनाती आ रही थी। िदवोदास ने कहा–‘‘आहा, वही वग क
सु दरी है। कैसी अपािथव इसक सुषमा है! वन सज गया, संसार सु दर हो गया।’’ उसने आगे
बढ़कर कहा...
‘‘मंजु!’’
‘‘ या तुम? िभ ु धमानुज!’’
‘‘हाँ मंजु! िकस शि ने मुझसे तु ह इस समय यहाँ िमला िदया, कहो तो?’’
‘‘ ेम क शि ने ि य िभ ु, या तुम ेम के िवषय म कुछ जानते हो?’’
‘‘ओह, कुछ-कुछ, िक तु तु हारा वह गान कैसा दय को उ म करने वाला था।’’
‘‘तु ह ि य लगा?’’
‘‘बहत-बहत, उसने मेरे दय क वीणा के तार को छे ड़ िदया है, वे अब िमलना ही
चाहते ह। देवी, कैसा सु दर यह संसार है, कैसा मनोहर यह भात है, और उनसे अिधक तुम,
केवल तुम।’’
‘‘ या तुमसे भी अिधक िभ ुराज?’’
‘म या तु ह सु दर दीख पड़ता हँ?’’
‘‘तुम बहत ही सु दर हो ि य,” मंजु ने िनकट आकर उसका उ रीय छू िलया।
िदवोदास ने उसका आँचल पकड़कर कहा–‘‘मंजु, म तु ह यार करता हँ— ाण से भी
अिधक- या तुम जानती हो!’’
मंजु का क ठ सख ू गया—उसने भयभीत वर म कहा–‘‘ यार, नह -नह , यह अस भव
है।’’
‘‘नह ि ये, यह खबू स भव है।’’
मंजु ने िदवोदास का चीवर छूकर कहा–‘‘िभ ुराज, अपना यह चीवर देखो और मेरे
क ठ का यह गल ह!’’ उसने क ठ म लटकती देवता क मिू त क ओर संकेत िकया। िफर उसने
टूटते वर म कहा–‘‘हम दोन न जीव ह ि य, ेम के अिधकारी नह ।’’
िदवोदास ने आवेश म आकर कहा–‘‘मेरा यह वेश और तु हारा गल ह झठ ू ा आड बर है।
स ची व तु हमारा दय है, और वह ेम से प रपण ू है। यिद दय- दय को ख चता है तो म
कहँगा, मेरी तरह तुम भी ेम का घाव खा गई हो।’’
मंजु िसर नीचा िकए खड़ी रही–िदवोदास ने कहा–‘‘बोलो, या तुम भी मुझसे ेम
करती हो?’’
‘‘यह तो िभ ु के पछू ने यो य नह है ि य, और...।’’
‘‘और या?’’
‘‘अभािगनी देवदासी के सुनने यो य भी नह । इसी से कहती हँ, मुझे जाने दो-म जाती
हँ।’’
‘‘जाना नह । मेरे का उ र दो।’’
पर तु मंजु ने उ र नह िदया। वह भिू म पर ि गड़ाए खड़ी रही। िदवोदास ने आवेिशत
होकर कहा–‘‘कहो, कहो, सच बात कहो।’’
‘‘कहती हँ।’’ इन श द के साथ ही मंजु क आँख से टप-टप आँसू टपक पड़े । उसने
कुछ कहना चाहा, पर उसके मँुह से बोल नह फूटा। वह वहाँ से चलने लगी। िदवोदास ने बाधा
देकर कहा–‘‘तब जाती कहाँ हो ि ये, इस प ृ वी पर कोई शि नह , जो हम पथ ृ क् कर सके।
आओ हम पित-प नी के पिव सू म बँध जायँ। यह उ व मुख सय ू और यह पितत पावनी गंगा
हमारी सा ी रहगे।’’ उसने कसकर मंजु को आिलंगन-पाश म बाँध िलया।
मंजु ने छटपटाकर कहा–‘‘िभ ुराज!’’
‘‘कौन िभ ुराज, म िव मिशला के महा से धनंजय का इकलौता पु िदवोदास हँ,’’
उसने अपना चीवर चीर-चारकर फक िदया।
मंजु ह क -ब क खड़ी देखती रह गई। उसके मँुह से बड़ी देर तक बोली न िनकली।
िफर उसने कहा–‘‘ यारे , जानते हो इस अपराध का द ड केवल म ृ यु है।’’
‘‘ या म ृ यु से तुम डरती हो ि ये?”
‘‘मुझे म ृ यु से भय नह । म तु हारे िलए डरती हँ, ि ये।”
‘‘म िनभय हँ। और सारे संसार के सामने म ेि राज धनंजय का पु , आज से धमत:
तु हारा पित हआ।’’
मंजु ने पुलिकत गात होकर अ त- य त वर म कहा–‘‘और ेि पु , म िल छिवराज
कुमारी भगवती मंजुघोषा आज से धमपवू क तु हारी प नी हई।’’
िदवोदास ने आ य से उछलकर कहा–‘‘ या कहा? िफर कहो? राजकुमारी भगवती
मंजुघोषा?’’
‘‘िक तु तु हारी िचरिकंकरी ि यतमा।” उसने िदवोदास क छाती म िसर िछपा िलया।
िदवोदास ने उसे कसकर छाती से लगा उसके मुख पर थम चु बन अंिकत िकया।
मंजुघोषा ने अपने आँचल से एक भ य माला िनकालकर कहा–‘‘इसे मने िन य क
भाँित अपने देवता के िलए बनाई थी, सो उसे अपनी हािदक अिभलाषाओं के साथ दय के देवता
को अपण करती हँ।’’
माला उसने िदवोदास के क ठ म डाल दी। िदवोदास ने माला को चमू कर और हँसकर
कहा–‘‘यह देव साद तो भगवान् ही पा सकता है। देखो, यह माला ही हमको एक कर देगी।’’
उसने वही माला क ठ से उतारकर मंजुघोषा के गले म डाल दी। दोन िखल-िखलाकर
हँस पड़े , और गाढ़ािलंगन म ब हो गए।
गु के स मख

आचाय व िसि ने एका त क म िदवोदास को बुलाकर कहा–‘‘यह या व स, मने सुना है


िक तुमने चीवर याग िदया–िभ ु-मयादा भंग कर दी?’’
‘‘आपने स य ही सुना आचाय।’’
‘‘िक तु यह तो गिहत पापकम है!’’
‘‘आप तो मुझे थम ही पाप मु कर चुके ह आचाय, अब भला पाप मुझे कहाँ पश कर
सकता है!’’
‘‘पु , तुम अपने आचाय का उपहास कर रहे हो?’’
‘‘आचाय जैसा समझ।’’
‘‘पु , या बात है िक तुम मुझसे भयशंिकत हो दूर-दूर हो। तु ह तो अपने धान बारह
िश य का धान बनाया है। तु ह या िच ता है! मन क बात मुझसे कहो। म तु हारा गु हँ।’’
‘‘आचाय, मुझे आपसे कुछ कहना नह है।’’
‘‘ य ?’’
‘‘म कुछ कह नह सकता।’’
‘‘तु ह कहना होगा पु !’’
‘‘तब सुिनए िक म िभ ु नह हँ-िववािहत स हृ थ हँ।’’
‘‘ऐं, यह कैसी बात?’’
‘‘जैसा आचाय समझ।’’
‘‘ या तुम स म पर ा नह रखते?’’
‘‘नह ।’’
‘‘कारण?’’
‘‘कारण बताऊँगा तो आचाय, अिवनय होगा।’’
‘म आ ा देता हँ, कहो।’’
‘‘तो सुिनए, आप धम क आड़ म धोखा और वाथ का खेल खेल रहे ह। बाहर कुछ और
भीतर कुछ। सब काय पाख डमय ह।’’
‘‘बस, या और कुछ?’’
‘‘आचाय, आपने य मेरा सवनाश िकया? मुझे इस कपट धम म दीि त िकया? आपने
संयम, याग, वैरा य और ान क िकतनी ड ग मारी थी, वह सब तो झठ ू था न?’’
‘‘पु , तुम जानते हो िक िकससे बात कर रहे हो?’’
िदवोदास ने आचाय क बात नह सुनी। वह आवेश म कहता गया–‘‘मने देख िलया िक
ये लोभी-कामी-दु और ह यारे िभ ु िकतने पितत ह। अब साफ-साफ किहए, िकसिलए आपने
मुझे इस अ धे कुएँ म ला पटका है? आपक या दुरिभसि ध है?’’
आचाय ने कुिटल हा य हँसते हए कहा–‘‘तु ह स य ही पस द है तो स य ही सुनो-
तु हारे िपता क अटूट स पदा को हड़पने के िलए।’’
‘‘यह मेरे जीते-जी आप न कर पाएँ गे आचाय।’’
‘‘तो तुम जीिवत ही न रहने पाओगे।’’
‘‘आपने मुझे िनवाण का माग िदखाने को कहा था?’’
‘‘ ोध न करो ब चे, वह माग म तु ह बताऊँगा। सुनो राजनीित क भाँित धमनीित भी
टेढ़ी चाल चलती है। तुम जानते हो, िह दू धम जीव-ह या का धम है। य और धम के नाम पर
बेचारे िनरीह पशुओ ं का वध िकया जाता है। य के पिव कृ य के नाम पर म पान िकया जाता
है। इस िह दू धम म ि य और मद पर भी, उ च जाित वाल ने परू े अंकुश रख उ ह पराधीन
बनाया है। अछूत के ित तथा छोटी जाित के ित तो अ यायाचरण का अ त ही नह है। वे
देवदािसयाँ जो धम ब धन म बँधी ह, पाप का जीवन यतीत करती ह।’’
िदवोदास सुनकर और मंजुघोषा का मरण करके अधीर हो उठा। पर तु आचाय कहते
गए–‘‘पु , आ य मत करो, बौ धम का ज म इसी अधम के नाश के िलए हआ है, िक तु मख ू
जनता को युि से ही सीधा रा ता बताया जा सकता है, उसी युि को तुम छल कहते हो।’’
‘‘आचाय, आपका मतलब या है?’’
‘‘यही िक मुझ पर िव ास करो और देखो िक तु ह सू म त व का ान िकस भाँित
ा होता है।’’
‘‘सू म त व का या िम या त व का?’’
‘‘अिवनय मत करो पु ।’’
‘‘आप चाहते या ह?’’
‘‘एक अ छे काम म सहायता।’’
‘‘वह या है?’’
‘‘उस िदन उस देवदासी को तुमने देवी का गंधमा य िदया था न?’’
‘‘िफर?’’
‘‘जानते हो वह कौन है?’’
‘‘आप किहए।’’
‘‘वह िल छिवराज कुमारी मंजुघोषा है।’’
‘‘तब िफर?’’
‘‘उसक माता िल छिव प राजमिहषी निृ संह देव क प नी, छ वेश म यहाँ अपनी पु ी
के साथ, सुनयना नाम धारण करके देवदािसय म रहती थी। उसे िस े र ने अ धकूप म डलवा
िदया है।’’
‘‘िकसिलए?’’ िदवोदास ने उ ेिजत होकर कहा।
‘‘िल छिवराज का गु र नागार का पता पछ ू ने के िलए।’’
‘‘िध कार है इस लालच पर।’’
‘‘ब चा, उसे बचाना होगा। परोपकार िभ ु का पहला धम है।’’
‘‘मुझे या करना होगा?’’
‘‘आज रात को मेरा एक स देश लेकर ब दी गहृ म जाना होगा।’’
‘‘ या िछपकर?’’
‘‘हाँ!’’
‘‘नह ।’’
‘‘सुन लड़के, िस े र उस बािलका पर भी पाप ि रखता है। उसक र ा के िलए
उसक माता का उ ार करना आव यक है।
‘‘म अभी उस पाख डी िस े र का िसर धड़ से पथ ृ क् करता हँ।’’
‘‘िक तु, पु , बल योग पशु करते ह। िफर हम अपने बलाबल का भी िवचार करना
है।’’
‘‘आपक या योजना है?’’
‘‘युि ।’’
‘‘किहए।’’
‘‘कर सकोगे?’’
‘‘अव य।’’
व िसि ने एक गु प देकर कहा :
‘‘पहले, इसे चुपचाप सुनयना को पहँचा दो। लेखन साम ी भी ले जाना-इसके उ र
आने पर सब कुछ िनभर है।’’
‘‘ या िनभर है?’’
‘‘सुनयना का स देश पाकर िल छिवराज काशी पर अिभयान करे गा।’’
‘‘समझ गया, िक तु हरी?’’
‘‘लो, यह सबका मँुह ब द कर देगी।’’ आचाय ने मुहर से भरी एक थैली िदवोदास के
हाथ म पकड़ा दी। साथ ही एक ती ण कटार भी।
‘‘इसका या होगा?’’
‘‘आ म-र ा के िलए।’’
‘‘ठीक है।’’
यह सुनकर व थ हो आचाय ने कहा-‘‘तो पु , तुम जाओ। तु हारा क याण हो।’’
बाहर आकर िदवोदास ने देखा, सुखदास खड़ा है। उसने उसे देखकर स न होकर
कहा–‘‘सुना?’’
‘‘सुना।’’
‘‘यह देखो, उसने मुहर क थैली दी है।’’
‘‘देखी, और यह छुरी भी देखी।’’ सुखदास ने हँस िदया।
‘‘मतलब समझे?’’
‘‘पहले ही से समझे बैठा हँ। तुम िच ता न करो, चलो मेरे साथ।’’ दोन एक ओर को
चल िदए।
राजा का साला

उन िदन राजा के साल का भी बहत मह व था। िवलासी राजा लोग नीच-ऊँच, जात-पाँत का
िबना िवचार िकए सब जाित क लड़िकय को अपनी रानी बना लेते थे। िववाह करके और िबना
िववाह के भी। आय के धम म पुरानी मयादा चली आई है िक उ च जाित के लोग नीच जाित क
लड़क से िववाह कर सकते थे। यह मयादा अ य जाित वाल ने इस काल म बहत कुछ याग दी
थी और वे अपनी ही जाित म िववाह करने लगे थे। पर राजा अभी तक जात-पाँत क परवाह न
करते थे। छोटी जाित क सु दरी लड़िकय को खोज-खोजकर अपनी अंकशाियनी बनाते थे।
बहत लोग अपना मतलब साधने के िलए अपनी लड़िकयाँ घस ू दे-देकर राजा के रं ग महल म
भेजते थे। खास कर धानम ी क लड़क तो राजा क एक रानी बनती ही थी, जो उसके िलए
चतुर जासस ू और आलोचक का काम देती थी। इस था का एक प रणाम यह होता था िक राजा
के साल क एक फौज तैयार हो जाती थी। नीच जाित के दु र लोग िकसी भी ऐसी लड़क से
स ब ध जोड़कर—जो िकसी भी प म रं ग-महल म राजा क अंकशाियनी हो चुक हो-उसके
भाई बन जाते और अपने को बड़ी अकड़ से राजा का साला घोिषत करते थे। इन राजा के साल
क कह कोई दाद-फ रयाद न थी। ये चाहे िजस भले आदमी के घर म घुस जाते, उसक कोई भी
व तु उठा ले जाते, हाट-बाजार से दूकानदार का माल उठाकर च पत हो जाते। इन पर कोई
मामला मुकदमा नह चला सकता था। ‘म राजा का साला’, इतना ही कह देने भर से यायालय
के यायाधीश भी उनके िलए कुस छोड़ देते थे। बहधा इन साल का वेश राजदरबार म हो जाता
था। और यो यता क िच ता न करके इ ह रा य म बड़े -बड़े पद िमल जाते थे। वहाँ बैठकर ये
लोग अ धेर-गिदयाँ िकया करते थे। ऐसा ही वह साम ती काल था, जब बारहव शता दी समा
हो रही थी।
काशी के बाजार म कािशराज का साला श भुदेव मुसािहब सिहत नगर मण को
िनकला। हाट-बाजार सुनसान था। दूकान ब द थ । पहर रात बीत चुक थी। सड़क पर धँुधला
काश छा रहा था। राजा का यह साला नगर कोतवाल भी था।
चलते-चलते उसने मुसािहब से कहा–‘‘खेद है िक कामदेव के बाण से घायल होकर
रात-िदन सुरा-सु द रय म मन फँस जाने से नगर का कुछ हाल-चाल महीन से नह िमल रहा
है।’’
मुसािहब ने हाथ बाँधकर कहा–‘‘धन-धम-मिू त, आपको नगर क इतनी िच ता है!’’
श भुदेव ने कपाल पर आँख चढ़ाकर कहा–‘‘नगर क िच ता मुझे न होगी तो या
राजा को होगी! अरे , आिखर नगर कोतवाल म हँ या राजा?’’
सब मुसािहब ने हाथ बाँधकर कहा–‘‘हाँ, महाराज, हाँ, आप ही नगर कोटपाल ह
धमावतार।’’
‘‘तब हम ही राजा समझो। राजा के बाद बस...’’ उसने एक िवशेष कार का संकेत
िकया और हँस िदया।
सब मुसािहब ने िबना आपि कोटपाल के मत म सहमित दे दी। इस पर स न होकर
श भुदेव ने कहा–‘‘तब मुझे नगर क ब ती क िच ता तो रखनी ही चािहए। अरे चर िम यान द,
नगर का हाल-चाल कह।’’
िम यान द ने हाथ बाँधकर िवनयावनत हो कहा–‘‘जैसी आ ा महाराज, पर तु
अभयदान िमले तो स य-स य कहँ।’’
‘‘कह, स य-स य कह। तुझे हमने अभयदान िदया। हम नगर कोटपाल ह िक नह !’’
‘‘ह, महाराज। आप ही नगर कोटपाल ह।’’
‘‘तब कह, डर मत।’’
‘‘सुिनए महाराज! नगर म बड़ा गड़बड़झाला फै ला हआ है। वे याय और उनके अनुचर
भखू मर रहे ह। लोग अपनी-अपनी सड़ी-गली धम-पि नय से ही स तोष करने लगे। धुिनयाँ-
जुलाहे , चमार खुलकर म पीते ह, कोई कुछ नह कहता, पर ा ण को सब टोकते ह। म क
िब बहत कम हो गई है, लोग रात-भर जागते रहते ह, चोर बेचार क घात नह लगती। वे घर
से िनकले–िक फँसे। सड़क पर रात-भर रोशनी रहती है। भले घर क बह-बेिटयाँ अब िछपकर
अिभसार को जाँय तो कैसे? और महाराज, अब तो ा ण भी प र म करने लगे।’’
चर क यह सच ू ना सुनकर कोटपाल को बहत ोध आया। उसने कहा–‘‘समझा-
समझा, बहत िदन से हमने जो नगर के ब ध पर यान नह िदया, इसी से ऐसा हो रहा है। म
सबको कठोर द ड दँूगा।’’
सब मुसािहब ने हाथ बाँधकर कहा–‘‘ध य है धममिू त, आप सा ात् यायमिू त ह।’’
कोटपाल ने उपा य कुमितच क ओर मँुह करके कहा–‘‘तुम या कहते हो
कुमितच ?’’
कुमितच ने हाथ बाँधकर कहा–‘‘ ीमान् का कहना िब कुल ठीक है।’’
पर तु कोटपाल ने ु वर म कहा–‘‘ ब ध करना होगा, ब ध। सुना तुमने, नगर
म बड़ा गड़बड़ हो रहा है!’’
कोटपाल क डाँट खाने का उपा य अ य त था। उसने कुछ भी िवचिलत न होकर
कहा–‘‘हाँ, महाराज, हाँ।’’
‘‘तब करो ब ध।’’
उपा य ने िनिवकार प से हाथ बाँधकर कहा–‘‘जो आ ा महाराज। म अभी ब ध
करता हँ।’’
कोटपाल उपा य के वचन से स न और स तु हो गया। ‘‘तु ह पुर कार दँूगा–
कुमित, तुम मेरे सबसे अ छे सहयोगी हो। पर तु देखो-वह गोरख ा ण इधर ही आ रहा है।’’
कोटपाल ने ा ण के िनकट आने पर कहा–‘‘ णाम ा ण देवता।’’
गोरख आदश ा ण था। घुटा हआ िसर और दाड़ी-मँछ ू , िसर के बीचोबीच मोटी चोटी।
क ठ म जनेऊ। शीशे क भाँित दमकता शरीर, मोटी थल-थल त द। छोटी-छोटी आँख, पीता बर
कमर म बाँधे और शाल क धे पर डाले, चार िश य सिहत वह नगर चारण को िनकला था।
कोटपाल क ओर देख तथा उसके णाम क कुछ अवहे लना से उपे ा करते हए उसने
कहा–‘‘अहा, नगर कोटपाल है?’’ िफर िश य क ओर देखकर कहा–‘‘अरे कलहकूट, शी
कोटपाल को आशीवाद दे।’’
कोटपाल जाित का शू था। राजा का साला अव य था-कोटपाल भी था—पर था तो
शू । इसी से ोि य ा ण उसे आशीवाद नह दे सकता था। ोि य ा ण तो राजा ही को
आशीवाद दे सकता है। इसी से उसने िश य को आशीवाद देने क आ ा दी।
िश य ने दूब जल म डुबोकर कोटपाल के िसर पर माजन िकया। और आशीवाद िदया–
श ु बढ़े भय रोग बढ़े, कलवार क हाट प ै ठाठ जड़ ु े।
भड़ए र डी रस रङ्ग कर, िनभय त कर िदन रात िफरे ।
आशीवाद हण कर कोटपाल स न हो गया। उसने कहा–‘‘आज िकधर सवारी चली?
आजकल तो महाराज य कर रहे ह, नगर म बड़ी चहल-पहल है। ा ण क तो चाँदी ही चाँदी
है।’’
गोरख ने अस तु होकर कहा–‘‘पर इस बार राजा मुझे भल ू गया है। उसने मुझे इस
स मान से वंिचत करके अ छा नह िकया।’’
‘‘अरे ऐसा अनथ? तुम काशी के महामहोपा याय, ोि य ा ण! और तु ह ही राजा ने
भुला िदया!’’
‘‘तभी तो कािशराज का नाश होगा। कोटपाल, म उसे ाप दँूगा।’’
कोटपाल हँस पड़ा। हँसकर उसने कहा–‘‘शाप, केवल इतनी-सी बात पर? पर मुझ पर
कृपा ि रखना देवता। और कभी इन चरण क रज मेरे घर पर भी डालकर पिव क िजए।’’
िफर उसने ा ण का क धा पकड़कर कान के पास मँुह ले जाकर कहा–‘‘बहत बिढ़या
पुराना म गौड़ से आया है।’’
गोरख ोि य ा ण स न हो गया। उसने हँसकर कहा–‘‘अ छा, अ छा, कभी देखा
जायगा।’’
पर तु कोटपाल ने आ ह करके कहा–‘‘कभी य , कल ही रही।’’ िफर कान के पास
मँुह लगाकर कहा–‘‘हाँ उस सु दरी देवदासी का या रहा? या नाम था उसका?’’
ा ण हँस पड़ा। उसने कहा–‘‘उसे भल ू े नह कोटपाल, मालम ू होता है—िदल म घर
कर गई है। उसका नाम मंजुघोषा है।’’
‘‘वाह या सु दर नाम है। हाँ, तो मेरा काम कब होगा?’’
‘‘महाराज, सब काम समय पर ही होते ह। ज दी करना ठीक नह है।’’
‘‘िफर भी, कब तक आशा क ँ ?’’
इसी समय ेि जयमंगल ने आकर थम ा ण को द डवत् क िफर कोटपाल को
अिभवादन िकया और हँसकर कहा–‘‘मेरे िम महाराज श भुपाल देव ह, और मेरे िम गोरख
महाराज भी ह।’’
गोरख ने मँुह बनाकर कहा–‘‘सावधान से , ा ण िकसी का िम नह , वह भदू ेव ह,
जग पू य है।’’
जयमंगल ने हँसकर कहा–‘‘ ा ण देवता णाम करता हँ।’’
गोरख ने शु क वाणी से िश य को स बोधन करके कहा–‘‘दे रे आशीवाद।’’
िश य ने घास के ितनके से, जलपा से जल लेकर सेठ के िसर पर िछड़ककर
आशीवाद िदया।
कोटपाल का इस ओर यान न था। उसने सेठ के िनकट जाकर कहा-‘‘कहो िम , कल
तो तुम जुए म इतना पया हार गए पर चेहरे पर अभी भी मौज-बहार है।’’
जयमंगल ने कहा-‘‘वाह, पया-पैसा हाथ का मैल है िम , उसके िलए सोच या। जब
तक भोगा जाय, भोिगए।’’
गोरख ा ण ने बीच म बात काटकर कहा-‘‘इसम या स देह। संयम और धम के
िलए तो सारी ही उ पड़ी है, जब इि याँ थक जायगी तब वह काम भी कर िलया जायेगा।’’
कोटपाल ने जोर से हँसकर कहा-‘‘बस धम क बात तो गोरख महाराज कहते ह। बावन
तोला पाव र ी। अ छा, भाई हम जाते ह। नगर का ब ध करना है। पर तु कल का िनम ण मत
भलू जाना।’’
‘‘नह भल ू ँग
ू ा कोटपाल महाराज।’’
कोटपाल के चले जाने पर उसने ह ठ िबचकाकर कहा-‘‘देखा तुमने से , कैसा नीच
आदमी है। मख ू धन और अिधकार के घम ड म ा ण को िनम ण का लोभ िदखाकर अपने
नीच वंश को भल ू रहा है। हम ोि मय ा ण ह। जानते हो से , इसक जाित या है?’’
सेठ ने इस बात म रस लेकर कहा-‘‘नह जानता। या जाित है भला?’’
‘‘साला चमार है िक जुलाहा, याद नह आ रहा है।’’
इसी समय सामने से च ावली को आते देखकर वह स न हो गया। उसने सेठ के
क धे को झकझोरकर कहा-‘‘देखो से , िबना बादल के िबजली, पिहचानते हो?’’
‘‘कोई गिणका तीत होती है।’’
‘‘अरे नह , च ावली देवदासी है।’’
से ने हँसकर आगे बढ़कर कहा–‘‘आह, च ावली, अ छी तो हो?’’
च ावली ने हँसकर नखरे से कहा–‘‘आपक बला से। आप तो एकबारगी ही अपने
िम को भल ू गए।’’
सेठ ने ख से िनपोर कर कहा–‘‘वाह, ऐसा भी कह हो सकता है! यह मुख भी भला
कह भुलाया जा सकता है।’’
‘‘आपसे बात म कौन जीत सकता है!’’
च ावली ने घातक कटा पात िकया। सेठ ने अिधक रिसकता कट करते हए कहा-
‘‘इस मुख को देखकर तो गँग ू ा भी बोल उठे ।’’
च ावली ने हँसकर सेठ से कहा–‘‘किहए, अब कब ीमान् मेरे घर पधार रहे ह?’’
‘‘कहो तो अभी-’’
‘‘अभी नह , कल।’’
‘‘अ छा’’ सेठ ने हँसकर उ र िदया। च ावली ने गोरख क ओर मँुह करके
कहा–‘‘आप भी ा ण ह?’’
गोरख खुश हो गया। उसने कहा-“िसर केवल ा ण है।’’
च ावली हा य बखेरती हई चली गई। गोरख कुछ देर उसी ओर देखता रहा। िफर उसने
कहा–‘‘बहत सु दर है, य से - या कहते हो?’’
‘‘है तो, पर तु-’’
‘‘पर तु या?’’
‘‘कहने यो य नह ।’’
‘‘कहो, कहो, या िकसी ने तु हारा मन हरण िकया है?’’
‘‘िकया तो है।’’
‘‘वह कौन है?’’
‘‘है कोई अि तीय बाला।’’
‘‘वह है कहाँ भला?’’
‘‘मि दर म ही!’’
‘‘मि दर म?’’
जयमंगल ने आन द म िवभोर होकर कहा–‘‘है, एक सं या समय म मि दर म गया
था। आरती नह हई थी। वहाँ स नाटा था। महा भु भी नह आए थे। म भीतर चला गया। सहसा
मुझे एक आहट सुनाई दी। देखा, एक फूल-सी सुकुमारी बैठी देवता का फूल से ंग ृ ार कर रही है।
हम लोग क आँख चार हई ं। तभी से मेरे दय म वह बस गई। वाह, या सौ दय था! िवधाता ने
सु दरता के कण सारे िव से समेटकर उसे रचा होगा। उसक आँख म आँसू थे, और उसके ओठ
फड़क रहे थे।’’
‘‘ या तुमने उसका नाम पछ ू ा था?’’
‘‘जब मने उसके िनकट जाकर पछ ू ा–‘सु दरी, तेरा नाम या है, और तुझे या दु:ख
है,’ तो वह िबना उ र िदये चली गई। पर तु मुझे उस मोिहनी के नाम का पता चल गया था-वह
मंजुघोषा थी।’’
गोरख कुिटलतापवू क हँस िदया। उसने कहा–‘‘समझा। िजसे देखो वही मंजुघोषा क रट
लगा रहा है। से ी, उसक आशा छोड़ दो।’’
‘‘यह तो न होगा िम , ाण रहते नह होगा। भले ही ाण भी देना पड़े ।’’
‘‘ओ हो, यहाँ तक? तब तो मामला ग भीर है। खैर, तो म तु हारी सहायता क ँ गा।’’
जयमंगल स न हो गया। उसने मुहर क एक छोटी-सी थैली ा ण के हाथ म
थमाकर कहा :
‘‘म तु ह मँुह माँगा य दँूगा देवता।’’
गोरख ने थैली अपनी टट म खोसते हए हँसकर कहा–‘‘तब आओ मि दर म।’’
जयमंगल ने ा ण का हाथ पकड़ िलया। और दोन आगे बढ़कर एक गली म घुस गए।
सारी ही बात सुखदास ने िछपकर सुन ली थी। उसने समझ िलया िक अव य ही
मंजुघोषा पर कोई नई िवपि आने वाली है। वह सावधानी से अपने को िछपाता हआ उनके पीछे
चला।
अँधरे ी रात म

शयन-आरती हो रही थी। मि दर म बहत-से ी-पु ष एक थे। संगीत-न ृ य हो रहा था। भ


गण भाव-िवभोर होकर नितकाओं क प माधुरी का मधुपान कर रहे थे। िदवोदास एक अँधेरे
कोने म िछपा खड़ा था। वह सोच रहा था, शयन-िविध समा होते ही मेरा काय िस होगा। कैसी
दु:ख क बात है िक इन पाखंिडय के िलए मुझे भी छल-कपट करना पड़ रहा है। उसने देखा-दो
अप रिचत पु ष आकर उसके िनकट ही िछपकर खड़े हो गये ह। िदवोदास ने सोचा-ये लोग कौन
ह? और इस कार िछपकर खड़े होने म इनक या दुरिभसि ध है। वह इतना सोच ही रहा था
िक आग तुक म से एक ने कहा-
‘‘िक तु मंजुघोषा तो यहाँ िदखाई नह दे रही है?’’
मंजु का नमा सुनकर िदवोदास के कान खड़े हो गये। उसने सोचा-यह कोई नया
षड्य है। वह यान से उनक बात सुनने लगा।
आग तुक म एक गोरख ा ण था, दूसरा जयमंगल सेठ।
सेठ ने कहा–‘‘ या यह सच है िक महा भु भी उस छोकरी पर मु ध ह?’’
गोरख ने उसका हाथ दबाकर कहा–‘‘चुप-चुप, महा भु इधर ही आ रहे ह।
दोन अ धकार से िनकलकर बाहर काश म आ खड़े हए। िस े र को देखकर दोन
ने णाम िकया। िस े र ने हँसकर आशीवाद देते हए कहा–‘‘आज नगर क चहल-पहल
छोड़कर ेि इस समय यहाँ कैसे?’’
‘‘महाराज, या यहाँ सब कुछ नीरस ही है?’’
‘‘िजसने कंचन-कािमनी का वाद ले िलया, उसे देव साद म या वाद िमलेगा?’’
‘‘गु देव, जैसे िबना िवरह के ेम का वाद नही िमलता, उसी कार िबन िवलास िकए,
शाि त का अनुभव नह होता।’’
‘‘यह तो तु हारी भावुकता है ेि , जो कामना के अि नकु ड म ई ंधन डालगे शाि त
कहाँ िमलेगी?’’ उसने गोरख क ओर तीखी ि से देखा।
जयमंगल ने कहा–‘‘महाराज, िवधाता ने भोगिवलास के िलए जवानी और याग के
िलए बुढ़ापा िदया है।’’
िस े र ने हँसकर कहा–‘‘हो सकता है ेि , जब तक समय है भोग लो। फूल सख ू
जायेगा। ग ध हवा म िमल जायेगी। जगत् म दो ही माग ह। भोग और योग। तुम भोग के माग पर
हो, म योग के। अ छा, अब जाता हँ। िचरं जीव रहो।’’
िस े र के जाने पर गोरख ने िसर उठाया। अब तक वह िसर नीचा िकए खड़ा था। अब
उसने कहा-ये सा ात् किलयुग के अवतार ह, ेि ।’’
जयमंगल ने हँसकर कहा–‘‘मालम ू तो यही होता है। पर तु इनके तप और वैरा य क
तो बड़ी-बड़ी बात सुनी ह, वे या सब झठ ू ी ह?’’
‘‘आओ देखो।’’
उसने संकेत से सेठ को पीछे आने को कहा। और एक पेचीदा तंग गली म घुस गया। उन
दोन के पीछे िदवोदास भी िछपता हआ चला। इसी समय सुखदास भी उससे आ िमला।
एक कुंज के िनकट पहँच कर िस े र ने पुकारा :
‘‘माधव!’’
माधव ने स मुख आ णाम िकया। िस े र ने कहा :
‘‘माधव, अभागे बौ को धोखा देने और मेरी सभी गु आ ाओं क त परता से पालन
करने के बदले, मने तु ह भ डार का धान अिधकारी बनाने का िन य कर िलया है।’’
‘‘यह तो भु क दास पर भारी कृपा है।’’
‘‘तुम जानते ही हो िक सु द रय का कोमल आिलंगन, मेरी योग साधना है?’’
‘‘हाँ भु।’’
‘‘मुझे कोई कुछ समझे, पर तु तुमसे कुछ िछपाना नह चाहता। म अपनी िच विृ के
देवता को सु द रय क बिल से स तु करता हँ। तु ह मालम ू है िक िल छिव राजकुमारी
मंजुघोषा इस समय मेरी आँख म है, म उसका र क हँ।’’
माधव ने हँसकर कहा-‘‘समझ गया भु। अब र ण काल समा हो गया। वह फल
सावधानी से पाला गया है, अब पक गया है, महा भु अब उसे भ ण िकया चाहते ह।’’
‘‘ठीक समझे माधव, िजस तरह भात क वायु फूल क कली को िखलाकर उसक
सुग ध ले उड़ती है, उसी तरह यौवन के भात ने उस कली को िखला िदया है। अब उसक
सुग ध मेरे उपयोग म आनी चािहए।’’
गोरख ने जयमंगल का हाथ दबाया। और िदवोदास ने व म िछपी छुरी को स भाला।
सुखदास ने पीछे से उसके कान म कहा ‘‘चुपचाप सब कृ य देखो, ज दी मत करो।’’
माधव ने कहा–‘‘तो इसम या किठनाई है भु?’’
‘‘वह अभागा उस पर मोिहत तीत होता है। यान रखना, ये भा यहीन िम यावादी
लोग, मि दर के भेद को न जानने पाएँ ।’’
‘‘ऐसा ही होगा भु, और या आ ा है?’’
‘‘आज आधी रात को, मने मंजुघोषा को महाम दी ा देने के िलए गभगहृ म बुलाया
है। इसी के िलए वह तीन िदन से त और उपासना कर रही है। तुम उसे दो पहर रात बीते मेरे
सोने के कमरे म ले आना समझे।’’
‘‘समझ गया भु।’’
‘‘एक बात और।’’
‘‘ या?’’
‘‘अ धकूप पर कड़ा पहरा लगा दो। िजससे यह खबर सुनयना के कान म न पड़ने
पाए।’’
‘‘बहत अ छा।’’
माधव एक ओर को चल िदया। और िस े र दूसरी ओर को।
गोरख ने कहा–‘‘अब कहो।’’
जयमंगल ने तलवार व से िनकालकर कहा–‘‘र ा करनी होगी।’’
िदवोदास ने आड़ से बाहर आकर कहा–‘‘म तु हारी सहायता क ँ गा।’’
सुखान द ने बढ़कर कहा–‘‘और म भी।’’
जयमंगल ने कहा–‘‘वाह, तब तो हमारा दल िवजयी होगा।’’
चार जन कुछ सोच-सलाह कर, एक अँधेरी गली म घुस गए।
रं ग म भंग

िस े र कमरे म ग ी के ऊपर बैठा समाने िखड़क से चमकते हए बहत-से तार और च मा


को देख रहा था। चौक पर सामने एक ताँबे क त ती रखी थी। ऊपर कुछ अंक िलखे थे–उ ह
देख-देखकर वह एक भोजप पर कुछ लक र ख च रहा था, िफर कुछ उँ गिलय पर िगनता था।
बीच-बीच म उसक भक ृ ु िट म बल पड़ जाते थे। आकाश म च मा पर एक बादल का टुकड़ा छा
गया। िस े र ने एका होकर उस ता प पर ि गड़ा दी। अ त म याकुल होकर लेखनी
फक दी। उसने आप ही बड़बड़ाते हए कहा–
‘‘वही एक फल। दुभा य, असफलता, दुघटना, र पात। सब दु ह िमल गए ह।
मंगल, बुध, शु और शिन तथा च मा चौथे थान म ह। गु -केतु के म, राह अ म म है।
ज म से राह पंचम है। पर तु चाहे जो हो, मेरी शि बड़ी है, मेरा म बल ऊँचा है। म आशा नह
छोड़ँ गा। सात अरब क स पदा और अिन सु दरी मंजुघोषा यागने क व तु नह । मंजु मेरे
अधीन है, पर तु स पि ? (ताँबे क त ती पर ि डालकर) यह आधा बीजक है, आधा सुनयना
ने कह िछपा रखा है।’’ वह उठकर बेचन ै होकर टहलने लगा।
उसने िफर कहा–‘‘चाहे जो हो, छल से या बल से, म उसे वश म क ँ गा! पर तु इतना
िवल ब य हो रहा है? माधव उसे अभी तक लाया य नह ? कह उस पर मेरा कौशल तो कट
नह हो गया? नह , यह स भव नह ।’’
इसी समय एक िव त दासी ने आकर सच ू ना दी िक माधव और दासी मंजुघोषा चरण
सेवा म आ रहे ह।
िस े र ने स न होकर कहा–‘‘उ ह आने दो।’’
आगे मंजु, पीछे माधव ने आकर णाम िकया।
िस े र ने कहा–‘‘माधव! इसे पिव देवी के क म ले जाओ, और पज ू ा का ब ध
करो। म अभी आकर इसे महाम क दी ा दँूगा। (मंजु से) मंजु, आज तु हारा जीवन सफल
होगा।’’
माधव झुककर चल िदया, मंजु भी िसर झुकाकर चुपचाप पीछे –पीछे चली गई।
िस े र ने हाथ मलते हए कहा–‘‘अब कहाँ जाती है।’’
वह अपने हाथ से ढाल-ढालकर म पीने लगा।
माधव मंजु को लेकर गु ार से उस अँधेरी टेढ़ी-मेढ़ी राह से चला। मंजु भयभीत हई।
उसने कहा–‘‘यहाँ कहाँ िलए जाते हो?’’
‘‘पिव देवी तो वह है।’’
‘‘पर यहाँ तो घोर अ धकार है।’’
‘‘तु हारे जाते ही वह आलौिकक हो जाएगा।’’
‘‘मुझे मेरे आवास म पहँचा दो माधव।’’
‘‘आज नह , कल।’’
‘‘कल य ?’’
‘‘कल म तु हारी आ ा का पालन क ँ गा।’’
‘‘इसका या मतलब है?’’
‘‘कल तुमम वह शि आ जाएगी।’’
‘‘म नह समझी, माधव।’’
‘‘न समझना ही अ छा है।’’
‘‘ य ?’’
‘‘सेवक का धम समझाना नह , आ ा का पालन करना है।’’
मंजु– या?
वे एक एका त क म पहँचे, वहाँ बड़ी-बड़ी िवशाल-िवकराल मिू तयाँ र खी हई थ ।
माधव ने उँ गली से िदखाकर कहा–‘‘वह देवी है... वह रहो। और जो कुछ पछ ू ना हो आचाय से
पछू ना।’’ मंजु कुछ देर चुपचाप खड़ी माधव को एकटक देखती रही!
माधव मंजु को वह खड़ी छोड़कर चला गया। मंजु वहाँ क भयानक मिू तय को देखकर
भय से काँपने लगी। एकाएक गु ार से िस े र ने वेश िकया।
िस े र ने मंजु के िनकट आकर कहा–‘‘सु दरी मंजुघोषा, तु हारे आने से इस पिव
थान के सभी दीपक म द पड़ गए, समझती हो य ?’’
मंजु ने नीची ि से कहा–‘‘नह भु।’’
‘‘तु हारी सु दरता से। तु हारे कोमल अंग के सुग ध ने यहाँ के सभी फूल क सुग ध
को मात कर िदया है।’’
मंजु िवर भाव से चुप खड़ी रही। उसने ल जा और संकोच से िसर झुका िलया।
िस े र ने मंजु का हाथ पकड़कर कहा–‘‘मंजु, तुम मेरी बात नह समझ ?’’
‘‘नह भु!’’ उसने हाथ ख चकर छुड़ा िलया।
‘‘तुम भोली जो ठहरी, पहले इस पिव साद को िपओ।’’
उसने म डालकर पा मंजु के मँुह के पास लगा िदया, िफर बोला–‘‘िपओ मंजु, यह
देवता का साद है।’’
मंजु ने िनषेध िकया। पर तु िस े र ने उसे जबद ती िपला िदया।
पीछे वंय भी पी। मंजु भयभीत हो एक ख भे के सहारे िटक गई।
िस े र ने कहा–‘‘तु हारे सौ दय का मद इस मद से बहत अिधक है। समझ मंजु!’’
उसने मंजु क ठोढ़ी छूकर कहा।
‘‘ भो! आप गु ह, ऐसी बात न क िजए।’’
िस े र ने हँसकर कहा–‘‘ठीक है, आओ अब महाम क दी ा दँू।’’ उसने उसका
हाथ पकड़ा और एक ओर को ले चला।
िदवोदास, जयमंगल, सुखान द और गोरख भी िछपते हए पीछे -पीछे चले। िजस कमरे म
वे पहँचे, उस कमरे म िवलास क सब साम ी उपि थत थी। गुदगुदा पलंग था, बड़ी-बड़ी वीणाएँ ,
म के वणपा आिद साम ी उपि थित थी। कमरा खबू सजा था। फूल क मालाएँ जगह-जगह
टँगी थ । िस ेव र मंजु का हाथ पकड़े आया और पलंग क ओर संकेत करके कहा–‘‘यहाँ बैठो
यारी!’’
मंजु यह स बोधन सुनकर चमक उठी। उसने अधीर होकर कहा–‘‘ भु मुझे जाने
दीिजए।’’ वह उठ खड़ी हई।
िस े र ने हाथ पकड़कर कहा–‘‘जाती कहाँ हो यारी, मेरे दय म आकर बैठो।’’
उसने ख चकर उसे आिलंगनपाश म बाँध िलया।
मंजु ने बलपवू क अलग होने क चे ा करते हए कहा–‘‘ भु, म आपक पाली हई पु ी
हँ, छोिड़ए! छोिड़ए!!’’
‘‘बुि मान जन अपने लगाए पेड़ का फल वंय खाते ह, मने तु ह स च स चकर उसी
ण के िलए बड़ा िकया है।’’ उसने बलपवू क ख चकर उसे छाती से लगा िलया।
मंजु ने बल योग करते हए चीखकर कहा–‘‘छोिड़ए, छोिड़ए, भु, छोिड़ए!’’
‘‘डरो मत मंजु, म तु ह यार करता हँ।’’
‘‘जाने दीिजए, छोिड़ए।’’
िस े र ने अब जरा कड़े वर म कहा–‘‘पगली लड़क जानती है िस े र का म तक
भतू े र भगवान के साम से झुकता है। वही अब तेरे सामने झुक रहा है। मंजु, मुझे अपने यौवन
का साद दे।’’ वह मंजु को छोड़कर उसके पैर के पास घुटने टेककर बैठ गया।
मंजु ने घबराकर लजाते हए कहा–‘‘उिठए भु, यह आप या कर रहे ह?’’
‘‘मुझे अपना यार दो, मंजु!’’
‘‘नह भु, यह कभी नह हो सकता, मुझे जाने दीिजए।’’
‘‘तुम मेरे दय म बसी हो, जा कहाँ सकती हो ि ये! कहो, तुम मेरी हो।’’
उसने बलपवू क ख चकर उसे पुन: छाती से लगा िलया। मंजु ने ोध म भरकर जोर से
उसे ढकेल िदया, वह िगरकर घायल हो गया। िसर से खन ू बहने लगा। उसने ोिधत हो उठकर
मंजु पर चोट करनी चाही, तभी अक मात् गु ार खुल गया। िदवोदास और जयमंगल तलवार
िलए घुस आए। और पीछे -पीछे सुखान द भी। इन सबको देखकर िस े र िवमढ़ ू हो गया।
िस े र-तुम कौन हो? (पहचान कर) पािप बौ िभ ु और तुम अभागे युवक?
िदवोदास-म तु हारा काल हँ। पािप ! पाख डी!
यह कहकर िदवोदास तलवार फककर िस े र से िभड़ गया। म ल यु होने लगा।
लड़ते-लड़ते एक प थर के ख भे के पास दोन जा पहँचे। बीच-बीच म जयमंगल भी एकाध घँस ू ा
िस े र को जमा देता था। मंजु खड़ी भयभीत देख रही थी।
उस ख भे पर भयानक काली क मिू त थी। वहाँ पहँचकर िस े र ने िच लाकर
कहा–‘‘अब माँ च डी, लो नरबिल।’’ मिू त भयानक रीित से अ हास कर उठी। एक बार सब
भयभीत हो गए। मंजु अिधक भयभीत हई। िदवोदास भी डर गया। प ृ वी काँपने लगी और सैकड़
िबजिलयाँ चमकती और गजती दीख पड़ने लग । देखते ही देखते वह मिू त धरती म धँसने लगी।
और क म अि न क वाला भभक उठी। मंजु मिू छत हो गई। सुखान द ने साहस कर आगे बढ़
और पतरा सँभाल कर िस े र पर चोट क । िस दे र मिू छत होकर िगर पड़ा। िदवोदास ने
उसके पंजे से छूटकर फुत से मिू छत मंजुघोषा को उठा िलया तथा एक ओर ले भागा। सुखदास ने
भी नंगी तलवार ले उसका अनुगमन िकया।
रह यो ाटन

िनरापद थान पर आकर सुखदास ने कहा–‘‘अब यहाँ ठहरकर थोड़ा िवचार कर लो भैया।’’
पर तु िदवोदास ने उ र िदया–‘‘हम यहाँ से भगा चलना चािहए।’’
‘‘नह , अभी नह , देवी सुनयना का उ ार भी हम करना है?’’
मंजु ने घबराकर पछ ू ा–‘‘ या वे िकसी िवपि म है?’’
‘‘उ ह िस े र ने अ धकूप म डाल िदया है।’’
‘‘िकसिलए?’’
‘‘गु र नकोष के बीजक क ाि के िलए।’’
‘‘िक तु वह तो मेरे पास है।’’
‘‘कहाँ पाया?’’
‘‘देवी सुनयना ने िदया था।’’
‘‘तो तुम उसका सब भेद जानती हो?’’
‘‘हाँ, उ ह ने बताया है िक म िल छिव महाराज ीनिृ संह देव क पु ी हँ।’’
‘‘और देवी सुनयना कौन ह? यह भी उ ह ने बताया?’’
‘‘वे मेरी माता क दासी और मेरी धाय माँ ह।’’
‘‘देवी सुनयना तु हारी ज मदा ी माँ और िल छिवराज क प राज मिहषी सुक ित देवी
ह।’’
मंजु ने आ य और आन द से काँपते हए कहा–‘‘सच?’’
‘‘वे तु हारे ही कारण अपनी मयादा और ित ा को लात मारकर यहाँ पर गिहत जीवन
यतीत कर रही ह।’’
मंजु क आँख म झर-झर मोती झरने लगे। उसके फूल-से ह ठ से माँ-माँ क विन
िनकली।
िदवोदास ने उसे धैय बँधाते हए कहा–‘‘घबराओ मत! तुम अभी आवास म जाओ, अब
सयू दय म िवल ब नह है, िदन म वह पािप तु हारा कुछ अिन न कर सकेगा। तथा तुम
अकेली मत रहना, सबके साथ रहना। हम महारानी का उ ार करके तथा उ ह सुरि त थान
पर पहँचाकर तुमसे िमलगे। िफर कह भाग चलने पर िवचार होगा।
‘‘म भी तु हारे साथ चलँ ू तो?’’
‘‘ठीक नह होगा। काय म बाधा होगी। तुम जाकर वाभािवक प से अपनी िन यचया
करो, मानो कुछ हआ ही नह ।’’
मंजु ने वीकार िकया। वह अपने आवास क ओर आई। सुखदास और िदवोदास ने
परामश िकया।
सुखदास ने कहा–‘‘मने ह रय को िमला िलया है, वे महारानी को छोड़ दगे। अब उ ह
लेकर कहाँ िछपाया जाय, यही सोचना है।’’
‘‘तो यह भी उ ह से परामश करके सोचा जायेगा। वही इसका ठीक समाधान कर
सकगी।’’
‘‘तो िफर िवल ब य !’’ दोन ने अपने हाथ के श को सावधानी से पकड़ा और
अ धकार म एक ओर बढ़े । िदवोदास ने कहा–‘‘वे दोन कु े या हए?’’
‘‘वह धत ू ा ण तो मेरे हाथ से बचकर भाग िनकला-पर तु सेठ को मने बाँधकर एक
खबू सुरि त थान पर डाल िदया है।’’
‘‘तो यही अ धकूप का ार है। तुम हरी से बात करो।’’ सुखदास ने हरी से संकेत
िकया। उसने चुपके से ार खोल िदया। दोन अ धकूप म िव हए। दुग ध और सील के मारे
वहाँ साँस लेना भी दुलभ था।
सुखदास ने कहा–‘‘ या महारानी जाग रही ह?’’
‘‘कौन है?’’
‘‘म सुखदास हँ। मेरे साथ ेि पु िदवोदास भी ह।’’
‘‘शुभ है िक आप लोग सुरि त ह। िक तु मेरी मंजु?’’
‘‘वह सकुशल है। आप उसक िच ता न कर महारानी। आप यहाँ से िनकिलए।’’
‘‘िनकलकर कहाँ जाऊँ?’’
‘‘यह हम परामश करके ठीक कर लगे।’’
‘‘यह ठीक न होगा। मेरी ित ा है िक कािशराज और इस धत ू िस े र से िबना अपने
पित का बदला िलए यहाँ से न जाऊँगी। पर तु तुम मंजु को लेकर भाग जाओ। गु थान म
बताती हँ।’’
‘‘कौन-सा?’’
‘‘ या कोई और भी इस गु बात को जानता है?’’
‘‘नह महारानी।’’
‘‘तो मंजु के पास गु राजकोष का बीजक और ताली है। वहाँ पहँचने पर आप लोग को
कोई न पा सकेगा।’’
‘‘उसका माग?’’
‘‘वह बीजक बताएगा।’’
‘‘िक तु आप?’’
‘‘मेरी िच ता मत करो, मुझम अपनी र ा करने क परू ी शि है। तुम मंजु को यहाँ से
ले जाओ।’’
‘‘जैसी राजमाता क आ ा।’’
‘‘तु ह आशीवाद देती हँ पु , म तु ह शी ही िमलँग
ू ी।’’
दोन पु ष ने िफर अिधक बात नह क । वे अ धकूप से िनकलकर िछपते हए टेढ़ी-मेढ़ी
राह को पार करते हए चले। पवू म लाली फै ल रही थी।
मि दर म

मि दर म पज ू न क तैयारी हो रही थी। ािभषेक हो रहा था। िविवध वा बज रहे थे। कािशराज
और िस े र यथा थान खड़े थे। देवदािसयाँ देवता का ंग ृ ार कर रही थ -मंजु आरती क माला
सजाती हई मन ही मन कह रही थ –‘‘देव! जीवन-भर िजस काय का अ यास िकया, आज वह
नीरस हो गया। तुम यिद सचमुच अ तयामी हो तो तुमने मेरे मन क दशा समझ ली होगी, और
तु ह मुझ पर दया आई होगी। मने जीवनभर तु हारी तन-मन-धन से सेवा क है, अब तुम मेरी
इ छा परू ी करो देव!’’
उसने अ ुपण ू ने से देवता क ओर देखा, और पज ू ा का थाल उठाया। वह दो कदम
आगे बढ़ी। देखा, स मुख िदवोदास खड़ा है। मंजु के दय म आन द क लहर दौड़ गई। उसने
एक बार घण ृ ापवू क िस े र क ओर देखा, और वह उलटकर िदवोदास के स मुख जा पहँची।
उसने िदवोदास क आरती उतारकर देवता क माला भी उसके गले म डाल दी। यह देख सब
लोग ‘पज ू ा हो गई’, ‘पजू ा हो गई’, िच ला उठे । बाजे एकदम ब द हो गए। िस े र
आपे से बाहर होकर चीख उठे । काशीराज ने ु वर म कहा :
‘‘मख ू ! पजू ा कर दी।’’
िक तु मंजु ने उधर देखा ही नह । उसने आन द िवभोर होकर िदवोदास के िनकट
आकर कहा–‘‘पितदेव, पज ू ा साथक हई न?’’
‘‘हाँ ि ये।”
कािशराज ने ु होकर कहा–‘‘दोन को बाँध लो।’’
राजा ा का तुर त पालन हआ।
मंजु को उसी के कमरे म ब द कर िदया गया और िदवोदास को नदी के उस पार दुगम
दुग म ब दी कर िदया गया।
मंजु क सखी लता उसके िलए भोजन लेकर आई तो मंजु ने कहा, ‘सखी, या तू
उनका कुछ समाचार जानती है?’’
‘‘जानती हँ-पर सुनकर तु ह दु:ख होगा।’’
‘‘िफर भी कह दे सखी।’’
‘‘मंजु, इस ेम म अपने को न न कर।’’
‘‘आह सखी, म यार का घाव खा बैठी हँ।’’
‘‘िक तु वह अ ात कुलशील िभ ु है।’’
‘‘अ ात कुलशील नह वह धनंजय ेि का पु है।’’
‘‘पर तु उसे तो महाराज ने का तार दुग म ब दी कर िदया है।’’
‘‘हे भगवान्-का तार दुग म?’’
‘‘वहाँ उसे ाणा त ायि करने का आदेश िदया गया है। दोन धतू आचाय उसक
जान के ाहक बन बैठे ह।’’
मंजु ने कहा–‘‘सखी, मेरी सहायता कर!’’
‘‘जो तू कहे ।’’
‘‘मुझे वहाँ जाने द।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘तू मेरे िलए याग कर।’’
‘‘तेरे िलए मेरे ाण भी उपि थत ह।’’
‘‘तो तू यहाँ मेरे थान म रह, म तेरे व पहनकर िनकल जाऊँगी।’’
‘‘तो तू जा।’’
‘‘पर जानती है, तेरी या गत बनेगी।’’
‘‘वे मेरा वध करगे, म सह लँगू ी।’’
‘‘हाय सखी-कैसे कहँ।’’
‘‘मेरी िच ता न कर।’’
मंजु ने ज दी-ज दी सखी के व पहने। अपने उसे पहनाए। भोजन क साम ी हाथ म
ली और ब धन से बाहर हो गई। हरी कुछ भी न जान सका।
मंजु चल दी। िकसी ने उसे ल य नह िकया। वह पागल क भाँित भागी चली जा रही थी।
भखू , यास और थकान ने उसके कोमल गा को ला त कर िदया। उसके पैर म घाव हो गये
और वह बार बार लड़खड़ाकर िगरने लगी। वह िगरती, उठती-और िफर भागती। घोर वन था। बड़ी
तेज धपू थी। सामने भयानक िव तार वाली नदी के उस पार, सख ू ी नंगी पहाड़ी पर ऊँचा िसर
उठाए वह एका त दुग था। वह साहस करके नदी म कूद पड़ी। लहर के साथ डूबती-उतराती वह
उस पार जा पहँची।
उसक शि ने जवाब दे िदया। पर तु वह चलती ही चली गई। दुगम पहाड़ पर चढ़ना-
बड़ा दु साहस का काय था पर तु ेम का बल उसे िमलता गया-वह दुग ार पर पहँच गई। दुग
का ार ब द था। उसक भारी लौह ंख ृ लाओं म मजबतू ताला पड़ा था। उसने याकुल ि से
चार ओर देखा-उस दुगम का तार दुग म िचिड़या का पत ू भी न था। उसने एक बार दुग के चार
ओर च कर लगाया। अ त म िनराश हो थककर वह एक िशलाख ड पर पड़ गई। उसे न द आ
गई। न जाने वह कब तक सोती रही। जब उसक आँख खुल तो देखा-सय ू अ त हो रहा है, और
एक व ृ चरवाहा उसके िनकट खड़ा है।
वह हड़बड़ाकर उठ बैठी। व ृ चरवाहे ने कहा–‘‘तुम कौन हो और यहाँ कैसे आई ं?’’
‘‘म िवपि क मारी दुिखत ी हँ बाबा, भा य-दोष से यहाँ आ फँसी हँ।’’
‘‘पर तु यहाँ िसंह रहता है, तुझे खा जायेगा। ब ती दूर है, तू रात कहाँ यतीत
करे गी?’’
‘‘म चाहती हँ िसंह मुझे खा जाय?’’
‘‘पर तु तेरे यहाँ आने का कारण या है?’’
‘‘एक पु ष इस दुग म ब द भख ू ा मर रहा है।’’
‘‘तुझे िकसने कहा?’’
‘‘म जानती हँ। उसी के िलए म यहाँ आई थी। िक तु भीतर जाऊँ कैसे?’’
‘‘भीतर ही जाना है तो म पहँचा सकता हँ, पर तु वहाँ कोई मनु य नह है।’’
‘‘ या तुम जानते हो बाबा?’’
‘‘म तो वहाँ िन य आता-जाता हँ।’’
‘‘ या भीतर जाने क कोई और भी राह है।’’
‘‘वह मने अपने िलए बनाई है।’’ बढ़ ू ा चरवाहा हँस िदया।
‘‘तो बाबा, मुझे वहाँ पहँचा दो।’’
‘‘पर तु रात होने म देर नह है, िफर मेरा भी गाँव लौटना कैसे होगा।’’
‘‘वहाँ एक मनु य भख ू ा मर रहा है बाबा।’’
‘‘तब चल, म चलता हँ।’’
दोन टेढ़े-मेढ़े रा ते से चलने लगे। मंजु म चलने क शि नह रही थी। पर तु वह
चलती ही गई। अ त म एक खोह म घुसकर चरवाहे ने एक प थर िखसकाकर कहा–‘‘इसी म
चलना होगा।’’ वह थम वयं ही भीतर गया। पीछे मंजु भी घुस गई। थोड़ा चलने पर एक िव ततृ
मैदान दीख पड़ा। दूर िकसी अ ािलका के भ न अवशेष थे।
‘‘वहाँ चले बाबा’’ मंजु ने उधर संकेत करके कहा। चरवाहे ने आपि नह क । खंडहर
के पास पहँचकर मंजु जोर से िदवोदास को पुकारने लगी। उसक विन गँज ू कर उसके िनकट
आने लगी। पर तु वहाँ कह िकसी जीिवत मनु य का िच भी न था।
बढ़ू े ने कहा–‘‘मने तो तुमसे कहा था-यहाँ कोई मनु य नह है, अब रात को गाँव
पहँचना भी दूभर है, राह म िसंह के िमलने का भय है, पर म जा सकता हँ। या तू यहाँ अकेली
रहे गी? या गाँव तक चल सकती है?’’
‘‘बाबा, म यह ाण दँूगी। आपका उपकार नह भल ू ँग
ू ी। आप जाइए।’’
‘‘यहाँ तुझे अकेला छोड़ जाऊँ?’’
‘‘मेरी िच ता न कर-मेरा जीवन अब िनरथक ही है।’’
इसी समय उसे ऐसा भान हआ, जैसे िकसी ने जोर से साँस ली हो।
मंजु ने च ककर कहा–‘‘आपने कुछ सुना; यहाँ िकसी ने साँस ली है।’’
वह लपककर खोह म घुस गई। उसने देखा-एक िशलाख ड पर िदवोदास मिू छत पड़ा
है। चरवाहा भी पहँच गया। उसने दूर ही से पछ ू ा–‘‘मर गया या जीिवत है?’’
मंजु ने रोते हए कहा–‘‘बाबा, यहाँ कह पानी है?’’
‘‘उधर है,’’ और वह िनकट पहँच गया।
उसने िदवोदास को यान से देखा और कहा–‘‘आओ, इसे उधर ही ले चल। बच
जायगा।’’
दोन ने िदवोदास क मिू छत देह को उठा िलया, और जहाँ जल क पु क रणी थी वहाँ
ले गए। यहाँ बाँधकर वषा का जल रोका गया था। थोड़ा जल पीने तथा मँुह और आँख पर
िछड़कने से थोड़ी देर म िदवोदास को होश आ गया। उसने आँख खोलकर मंजु को देखा-उसके
ह ठ से िनकला–‘‘मंजु ि ये।”
मंजु उसके व पर िगरकर फफक-फफक कर रोने लगी।
िदवोदास ने धीमे वर से कहा–‘‘म जानता था िक तुम आओगी, सो तुम आ गई ं।’’
उसने मंजु को दय से लगा िलया। कुछ देर बाद कहा–
‘‘अब म सुख से मर सकँ ू गा।’’
‘‘मरगे तु हारे श ु।’’ उसने ढ़ता से उठकर िदवोदास का िसर अपनी गोद म रख
िलया।
‘‘ यारी, तुमने मुझे िजला िदया।’’ िदवोदास ने कहा।
‘‘मने नह ि य, इस देव पु ष ने’’, मंजु ने उस चरवाहे क ओर संकेत िकया। िदवोदास
ने अब तक उसे नह देखा था। अब उसक ओर देखकर कहा :
‘‘तुम कौन हो भाई।’’
‘‘म चरवाहा हँ, पास ही गाँव म रहता हँ, यहाँ िन य बकरी चराता हँ। भीतर आने-जाने
क राह यह मने अपने िलए बना ली थी। सं या को जब म घर लोट रहा था इ ह मिू छत पड़ा
देखा। इसी से क गया। लड़के को बकरी लेकर घर भेज िदया। सो अ छा ही हआ-दो-दो ाणी
बच गए।’’ बढ़ ू ा बहत खुश था।
िदवोदास ने कहा–‘‘बचा िलया तुमने बाबा, तुम उस ज म के मेरे िपता हो। अब यहाँ मेरे
पास आकर बैठो।’’ बढ़ ू ा भी वह बैठ गया। उसने कहा–‘‘अब तो रात यह काटनी होगी। पर तु
खाने को तो कुछ भी नह िमल सकता। देखता हँ, तुम दोन भख ू े हो।’’
मंजु ने कहा–‘‘मेरे साथ थोड़ा भोजन है, उससे हम तीन का आधार हो जायगा।’’ उसने
पोटली खोली। तीन ने थोड़ा-थोड़ा खाकर पानी िपया। भोजन करने से िदवोदास म कुछ शि
आई। वह एक प थर के सहारे बैठ गया। चरवाहे ने कहा–‘‘थोड़ी आग जलानी होगी, नह तो वन
पशु का भय है। म ई ंधन लाता हँ।’’ और वह उठकर चला गया।
मंजु ने उसके गले म बाँहे डालकर कहा–‘‘अब तुम तिनक हँस दो।’’
‘‘ या म िफर कभी हँस भी सकँ ू गा?’’
‘‘हम सदैव हँसगे, गाएँ गे, मौज करगे।’’ और वह िदवोदास से िलपट गई। िदवोदास ने
कहा–‘‘ यारी, तु हारी इस नेह दान ने मेरे बुझते हए जीवन-दीपक को बुझने से बचा िलया।
और तु हारी मधुर वाणी ने मेरे सखू े हए जीवन को हरा-भरा कर िदया।’’ उसने उसे अपने बाहपाश
म कसकर अगिणत चु बन ले डाले।
चरवाहे ने एक ग र लकड़ी लाकर उसम आग लगा दी। और तीन आदमी वह प ृ वी पर
लेट गए। मंजु पड़ते ही गहरी न द म सो गई। वह बहत थक थी। िदवोदास भी दुबल था। वह भी सो
गया। पर तु चरवाहा बड़ी देर तक जागता रहा।
ात:काल होते ही िन यकम से िनव ृ होकर तीन ने सलाह क । िदवोदास ने व ृ का
हाथ पकड़कर कहा–‘‘िम , तुम मेरे आज से िपत ृ य हए। अब हम-तुम कभी पथ ृ क् न ह गे। मेरे
दुख-सुख म तु हारा साझा रहे गा।’’
बढ़ू े ने हँसकर कहा–‘‘तुम िच ता न करो भाई। तु हारे बराबर ही मेरा लड़का है, और
ऐसी ही लड़क भी है। तुम भी मेरे लड़के-लड़क रहे । गाँव चलो, बहत जमीन है, धा य है, दूध है।
खाओ-िपओ मौज करो। तु ह या िच ता!’’
‘‘िक तु िपत ृ य, हमारा कुछ कत य भी है। तु ह उसम सहायता देनी होगी।’’
‘‘कहो, या करना होगा?’’
‘‘हमारे श ु ह।’’
‘‘तो मेरे लड़के को बता दो, वह उनक खोपड़ी तोड़ देगा।’’
‘‘पर तु वे बड़े बलवान् ह, काम युि से लेना होगा।’’
‘‘िफर जैसे तुम कहो।’’
‘‘हम िछपकर रहना होगा।’’
‘‘तो हमारे गाँव म रहो।’’
‘‘वहाँ नह िछप सकगे, राजसैिनक को पता चल जायगा।’’
‘‘तब या िकया जाय?’’ मंजु ने िकया।
‘‘राजमाता ने जो आदेश िदया है वही।’’
‘‘ठीक है, तो मुझे एक बार मि दर म जाना होगा।’’
‘‘िकसिलए?’’
‘‘ताली और बीजक लेने, पर तु एक बात है।’’
‘‘ या?’’
‘‘मेरे पास आधा ही बीजक है। शेष आधा िस े र के पास है। वह भी लेना होगा। िबना
उसके हम उस कोषागार म नह पहँच सकगे।’’
‘‘तब हम एक बार काशी चलना होगा। तुम अपनी व तु लेना और म िस े र से वह
बीजक लँग
ू ा।’’
बढ़ू े ने कहा–‘‘म भी तु हारे साथ चलँग
ू ा।’’
‘‘तु ह अब हम नह छोड़गे िपत ृ य।’’
‘‘तो पिहले गाँव चलो। खा पीकर, टंच होकर रात को काशी चलगे।’’
‘‘यही सलाह ठीक है।’’
तीन यि उसी खोह क राह िनकलकर गाँव क ओर चल िदए।
िस े र का कोप

िस े र ोधपण ू मु ा म अपने गु क म बैठे थे। इसी समय माधव ने रि सय से बाँधकर


िल छिव राजमिहषी सुक ित देवी को उनके सामने उपि थत िकया। स मुख आते ही िस े र ने
कहा–‘‘तु ह मालम ू है देवी सुनयना, िक मंजु भाग गई है?’’
‘‘तो या हआ, मि दर म अभी बहत पािप ा ह?’’
‘‘पर तु या तुमने उसके भागने म सहायता दी है?’’
‘‘दी, तो िफर?’’
‘‘म तु ह और उसे दोन को ाणा त द ड दँूगा।’’
‘‘बड़ी सु दर बात है। िजसे राजरानी पद से युत कर िवधवा और पितता देवदासी
बनाया-िजसक ब ची को पितत जीवन यतीत करने के िलए बा य िकया और िजसे वासना क
साम ी बनाना चाहते थे-उसी को अब ाणद ड भी दो।’’
‘‘चुप रहो सुनयना देवी!’’
‘‘ य चुप रहँ? म ढोल पीटकर संसार को बताऊँगी िक म कौन हँ, और तुमने मेरे साथ
िकया है!’’
‘‘तुम जो चाहो कहो। कौन तुम पर िव ास करे गा?’’
सुनयना ने चोली से एक छोटी-सी व तु िनकालकर उसे िदखाई और कहा, ‘‘इसे तो
तुम पहचानते हो िस े र, जानते हो, इसम िकसका खन ू लगा है? इसे देखकर तो लोग िव ास
कर लगे?’’
उन व तु को देखकर िस े र भयभीत हआ। उसने कहा :
‘‘देवी सुनयना, इस कार आपस म लड़ने-झगड़ने से या लाभ होगा! तुम मुझे उस
खजाने का शेष आधा बीजक दे दो, म तुम दोन को मु कर दँूगा—बस।’’
‘‘ ाण रहते यह कभी नह होगा।’’
‘‘तो तु होर ाण रहने ही न पावगे।’’
‘‘िजसने ाण िदया है-वही उसक र ा भी करे गा, तुम जैसे ग ृ ाल से म नह डरती।’’
‘‘मने उसे पकड़ने के िलए सैिनक चर भेजे ह। वह जहाँ होगी-वहाँ से पकड़ ली जायेगी
और म तेरे स मुख ही उसे अपनी अंकशाियनी बनाऊँगा।’’
िस े र ने आपे से बाहर होकर कहा–‘‘माधव, ले जा इस सिपणी को और डाल दे
अंधकूप म।’’
माधव उसे लेकर चला गया। कुछ देर तक िस े र भख ू े या क भाँित अपने क म
टहलता रहा। िफर उसने बड़ी सावधानी से एक ताली अपनी जटा से िनकाल लोहे क स दूक
खोली और उसम से एक ता -प िनकालकर उसे यान से देखा तथा फलक पर लक र ख चता
रहा। कभी-कभी उसके ह ठ िहल जाते और भक ृ ु िट संकुिचत हो जाती। पर तु वह िफर उसे यान
से देखने लगता।
इसी समय उसे कुछ खटका तीत हआ। उसने आँख उठाकर देखा तो िदवोदास नंगी
तलवार िलए स मुख खड़ा था। िस े र उछलकर दूर जा खड़ा हआ। उसने कहा–‘‘तू यहाँ कैसे
आया रे धत ू िभ ु?’’
‘‘इससे तुझे या?’’
‘‘ या ऐसी बात?’’ उसने खँटू ी से तलवार उठाकर िदवोदास पर आ मण िकया।
िदवोदास ने पैतरा बदलकर कहा–‘‘मेरी इ छा तेरा हनन करने क नह है।’’
‘‘पर तु म तो तुझे अभी टुकड़े -टुकड़े करके भगवती च डी को बिल देता हँ।’’
िस े र ने िफर वार िकया। पर तु िदवोदास ने वार बचाकर एक लात िस े र को
जमाई। िस े र औंधे मँुह भिू म पर जा िगरा। िदवोदास ने ता प उठाया और अपने व म रख
िलया।
िस े र ने गरजकर कहा–‘‘अभागे, वह प मुझे दे!’’
‘‘वह तेरे बाप क स पि नह है रे धत ू ।’’
‘‘तब ले मर’’, उसने अ धाधु ध तलवार चलाना ार भ िकया। िदवोदास केवल बचाव
कर रहा था, इसी से वह एक घाव खा गया। इस पर खीझकर उसने एक हाथ िस े र के मोढ़े
पर िदया। िस े र चीखकर घुटन के बल िगर गया।
इसी समय माधव तलवार लेकर क म कूद पड़ा। उसने पीछे से वार करने को तलवार
उठाई ही थी, िक सुखदास ने उसका हाथ कलाई से काट डाला। माधव वेदना से मिू छत हो गया।
इसी समय सुयोग पाकर दोन भाग िनकले। भागते-भागते सुखदास ने कहा–‘‘वहाँ-कंु ज म
िबिटया िछपी बैठी है। तुम उसे लेकर और दीवार फाँदकर वाम तोरण के पीछे आओ, वहाँ अ
तैयार है। म उधर यव था करता हँ।’’
यह कहकर सुखदास एक ओर जाकर अ धकार म िवलीन हो गया। िदवोदास उसके
बताए थान क ओर दौड़ चला।
संकेत पाते ही मंजु िनकल आई। िदवोदास ने कहा :
‘‘तु हारा काय हआ?’’
‘‘हाँ! और तु हारा?’’
‘‘हो गया?’’
‘‘तब चलो।’’
‘‘िक तु वह व ृ ?’’
‘‘उ ह मने आगे भेज िदया है।’’
‘‘तब चलो।’’ दोन काम तोरण के प ृ भाग क ओर व ृ क छाया म िछपते हए चले।
िदवोदास एक व ृ पर चढ़ गया। उसने मंजु को भी चढ़ा िलया और दोन दीवार फाँद गये।
िदवोदास ने कहा–‘‘यहाँ, अ तो नह है!’’
‘‘पर कना िनरापद नह , हम चलना चािहए।’’
‘‘चलो िफर, अ आगे िमलगे।’’
दोन अ धकार म िवलीन हो गए।
कापािलक के चंगल
ु म

गहन अँधेरी रता म मंजु और िदवोदास ने िनिवड़ वन म वेश िकया। मंजु ने कहा–‘‘माँ का
कहना है िक वह जो सुदूर ि ितज म दो पवत के ंग ृ पर पर िमलते दीखते ह, उनक छाया
जहाँ एक भत ू हो हाथी क आकृित बनाती है, वह िनकट ही उस गु कोष का मुख ार है।
इसिलए हम उ रािभमुख चलते जाना चािहये। िव य-गुहा को पार करते ही हम कौशा बी-
कानन म वेश कर जाएँ गे।’’
‘‘पर तु ि ये, यह तो बड़ा ही दुगम वन है, रात बहत अँधेरी है। हाथ को हाथ नह
सझू ता। बादल मँडरा रहे ह। एक भी तारा ि गोचर नह होता। वषा होने लगी तो राह चलना
एकबारगी ही अस भव हो जायेगा।’’
‘‘चाहे जो भी हो ि य, हम चलते ही जाना होगा। जानते हो, उस बाघ ने अपने िशकारी
कु े हमारे िलए अव य छोड़े ह गे। चले जाने के िसवा और िकसी तरह िन तार नह है।’’
‘‘यह तो ठीक है, पर मुझे केवल तु हारी िच ता है यारी, तु हारे कोमल पाद-प तो
कल ही त-िव त हो चुके थे। तुम कैसे चल सकोगी?’’
‘‘ यारे ! तु हारे साथ रहने से तो शि और साहस का दय म संचार होता है। तुम चले
चलो।’’
और वे दोन िनिवड़ दुगम गहन वन म घुसते चले गये। घनघोर वषा होने लगी। िबजली
चमकने लगी। वन-पशु इधर-उधर भागने लगे, आँधी से बड़े -बड़े व ृ उखड़कर िगरने लगे।
कँटीली झाड़ी म फँसकर दोन के व फटकर िचथड़े -िचथड़े हो गये। शरीर तिव त हो गया।
िफर भी वे दोन एक-दूसरे को सहारा िदए चलते चले गए।
अ तत: मंजु िगर पड़ी। उसने कहा–‘‘अब नह चल सकती।’’
‘‘थोड़ा और ि ये, वह देखो उस उप यका म आग जल रही है। वहाँ मनु य ह गे। आ य
िमलेगा।’’
मंजु साहस करके उठी, पर तु लड़खड़ाकर िगर पड़ी। उसने असहाय ि से िदवोदास
को देखा।
िदवोदास ने हाथ क तलवार मंजु के हाथ म देकर कहा–‘‘इसे मजबत ू ी से पकड़े रहना
ि ये,” और उसे उठाकर पीठ पर लाद ले चला।
काश धीरे -धीरे िनकट आने लगा। िनकट आकर देखा-एक जीण कुटी है। कुटी के
बाहर मनु य मिू त भी घम ू ती दीख पड़ी। पर तु और िनकट आकर जो देखा तो भय से िदवोदास
का र जम गया। मंजु चीख मारकर मिू छत हो गई।
उ ह ने देखा-कुटी के बाहर छ पर के नीचे एक कापािलक मुद क छाती पर प ासन म
बैठा है। उसक बड़ी-बड़ी भयानक लाल-लाल आँख ह। उसका रं ग कोयले के समान काला है।
उसक जटाएँ और दाढ़ी ल बी लटक रही है तथा धल ू -िम ी से भरी है। कमर म एक या चम
बँधा है। गले म मु डमाला है। सामने म पा धरा है, आग जल रही है, लपट उठ रही ह,
कापािलक अधोर म पढ़-पढ़कर माँस क आहित डाल रहा है। माँस के अि न म िगरने से
लाल-पीली लपट उठती ह।
िदवोदास ने साहस करके मंजु को नीचे प ृ वी पर उतार िदया और शंिकत ि से
कापािलक को देखने लगा।
कापािलक ने कहा–
‘‘क वं?’’
‘‘शरणागत?’’
‘‘अ ता सा?’’
इसी बीच मंजु क मू छा जागी। उसने देखा-कापािलक भयानक आँख से उसी क ओर
देख रहा है। वह चीख मारकर िदवोदास से िलपट गई।
कापािलक ने अ हास करके कहा–‘‘माभै: बाले!’’ और िफर पुकारा :
‘‘शारं् गरव, शारं् गरव?’’
एक नंग-धड़ं ग, काला बिल युवक लंगोटी कसे, गले म जनेऊ पहने, िसर मुड़ा हआ,
हाथ म भारी खड्ग िलए आ खड़ा हआ। उसने िसर झुकाकर कहा :
‘‘आ ा भु।’’
‘‘इ ह महामाया के पास ले जाकर साद दे, हम म िस करके आते ह।’’ शारं् गरव
ने खोखली वाणी से कहा–‘‘चलो।’’
िदवोदास चुपचाप उसके पीछै-पीछे चल िदया! मंजु उससे िचपककर साथ-साथ चली।
मि दर बहत जीण और ग दा था। उसम िवशालाकार महामाया क काले प थर क
न न मिू त थी। जो महादेव के शव पर खड़ी थी। हाथ म खांडा, लाल जीभ बाहर िनकली थी। आठ
भुजाओं म श , गले म मु डमाल स मुख पा म र पु प तथा म से भरे घड़े धरे थे। एक पा
म र भरा था। सामने बिलदान का ख भा था। पास ही एक खांडा भी र खा था।
दोन ने देखा, वहाँ शारं् गरव के समान ही चार और दै य उसी वेश म खड़े ह। मिू त के
स मुख पहँच शारं् गरव ने ककश वर म कहा–‘‘अरे मढ़ ू ! महामाया को िणपात कर।’’
िदवोदास ने देवी को णाम िकया। मंजु ने भी वैसा ही िकया। एक यमदूत ने तब बड़ा-सा
पा िदवोदास के ह ठ से लगाते हए कहा–‘‘पी जा अधम , महामाया का साद है।’’
‘‘म म नह पीता।’’
‘‘अरे अधम , यह म नह है, देवी का साद है, पी।’’ दो यमदूत ने जबद ती वह सारा
म िदवोदास के पेट म उड़े ल िदया। भय से अिभभत ू हो मंजु ने भी म पी ली। तब उन यमदूत ने
उन दोन को बिलयथ ू से कसकर बाँध िदया। िफर बड़बड़ाकर म पाठ करने लगे।
मंजू ने लड़खड़ाती वाणी से कहा–‘‘ यारे , मेरे कारण तु ह यह िदन देखना पड़ा।’’
‘‘ यारी, इस कार मरने म मुझे कोई दु:ख नह ।’’
‘‘पर तु वामी, हम िफर िमलगे।’’
‘‘ज म-ज म म हम िमलगे, ि ये- ाणािधके।”
इसी समय कापािलक ने आकर कहा–‘‘ ािणयो, आज तु हारा अहोभा य है, तु हारा
शरीर देवापण होता है।’’ उसने र से भरा पा उठाकर थोड़ा र उनके म तक पर िछड़का िफर
उनके माथे पर र का टीका लगाया। एक दै य ने झटका देकर उनक गदन झुकाय । उन पर
कापािलक ने वि त का िच बना िदया। उसके बाद उन दै य ने िस दूर से व य-भिू म पर
भैवरी-च क रचना क । एक दै य भारी खांडा ले िदवोदास के पीछे जा खड़ा हआ।
मंजु ने साहस करके िच लाकर कहा–‘‘अरे पातिकयो, पिहले मेरा वध करो, म अपनी
आँख से पित का कटा िसर नह देख सकती।’’
कालािपक ने एक बड़ा-सा म पा मँुह से लगाया और गटागट पी गया। िफर उसने
गरजकर वार करने क आ ा दी।
पर तु इसी ण एक चम कार हआ। रा स का खांडा हवा म लहराता ही रहा, और
उसका िसर कटकर प ृ वी पर आ िगरा।
कापािलक ोध और भय से थरथरा उठा। उसने कहा–‘‘अरे , िकसने महामाया क पज ू ा
भंग क ?’’
सुखदास ने र -भरा खड्ग हवा म नचाते हए कहा–‘‘मने, रे पातक ! अभी तेरा धड़
भी शरीर से जुदा करता हँ।’’
इसी बीच व ृ वाले ने िदवोदास और मंजु के ब धन खोल िदए। मु होते ही िदवोदास
ने झपटकर खांडा उठा िलया। उसने कापािलक पर तफ ू ानी आ मण िकया। पर तु कापािलक म
बड़ा बल था। उसने खांडे सिहत िदवोदास को उठाकर दूर पटक िदया। इसी समय सुखदास का
खड्ग उसक गदन पर पड़ा। और वह वह लड़खड़ाकर िगर गया। व ृ ने भी एक यमदूत को
भिू मशायी िकया। शेष दो ाण लेकर भाग गए। िदवोदास घाव खा गये थे। सुखदास ने हाथ का
सहारा दे िदवोदास को उठाया। और बोला–‘‘साहस करो भैया, यहाँ से भाग चलो।’’
िदवोदास ने क धे पर मंजु को लाद िलया। दोन यि नंगी तलवार िलये साथ चले।
वषा अब ब द हो गई थी। आकाश व छ हो गया था। वे बराबर उ रािभमुख होते जा रहे थे। म
के भाव से मंजु मिू छत हो गई थी। िदवोदास के भी पाँव लड़खड़ा रहे थे। पर तु वह सािथय के
साथ भागा जा रहा था। मंजु उसक पीठ से िखसक पड़ती थी। सुखदास उ ह सहारा दे रहा था।
इसी समय एक ओर से दल अ ारोही सैिनक ने उ ह घेरकर ब दी बना िलया। सारा उ ोग
िवफल गया। बेचारे को बाँधकर ले चले। कहने क आव यकता नह िक ये िस े र के सैिनक
थे।
ब दी गहृ म

चार अपरािधय का िवचार हो रहा था। उ च वण-पीठ पर आचाय व िसि , िस े र और


कािशराज उपि थत थे। स मुख चार अपराधी रि सय से बँधे खड़े थे। पीछे तलवार िलए सैिनक
खड़े थे। दशक क बड़ी भारी भीड़ एक थी।
मंजुघोषा ने क ण वर म िच लाकर कहा :
‘‘आयपु , इनसे कह दो िक हम धमत: पित-प नी ह। हमने देवता क सा ी म िववाह
िकया है।’’
“ि ये, अधीर मत हो। देखो तो ये भ ड पाख डी या िनणय करते ह।’’
कािशराज ने कहा ‘‘िभ ु, तुम या कहना चाहते हो।’’
‘‘महाराज, यह मेरी िववािहता प नी है और म ेि धनंजय का पु िदवोदास हँ। मेरी
यह प नी िल छिव राजनि दिन मंजुघोषा है।’’
व िसि ने कहा–‘‘शातं पापं, तन ू े मुझसे या ली है, तू ऐसा कहकर िभ ु धम से
युत होता है।’’
मंजु ने कहा-“ि यतम, इनसे कह दो िक म तु हारे भावी पु क माता हँ, जो मेरे उदर म
पोषण पा रहा है।’’
िस े र-तू देवािपत देवादासी है। या तन ू े ऐसा पातक िकया है? इससे तो देवािध ान
ही कलंिकत हो गया।
मंजु-कलंिकत िकया मने या तुम जैसे धम ढ िगय ने, जो जंगली पशु क भाँित खन ू के
यासे ह। तुम गाय क खाल ओढ़कर धम के ठे केदार बने बैठे हो। धम क आड़ म आखेट करने
वाले पेशेवर अपराधी हो, या सब खोलकर कह दँू?
िस े र—महाराज, ये धमापराधी ह। इनका िवचार धमानुमोिदत होना चािहए,
राजिनयमानुसार नह । आप इसम िव ेप मत क िजए, म इस दासी का ायि िवधान क ँ गा।
िफर उसने सैिनक से कहा–‘‘अरे सैिनको, इस दासी को अभी ले जाओ, म इसके पाप
के ायि क समुिचत यव था क ँ गा।’’
िदवोदास ने ोध से पैर पटककर कहा–‘‘कदािप नह महाराज, म आपको सावधान
करता हँ िक िल छिवराज नि दनी का यिद बाल भी बाँका हो गया तो आपके रा य का ख ड-
ख ड हो जायेगा।’’
कािशराज-युवक, तुम बड़े उ तीत होते हो, काशीराज क मयादा को यिद तुम नह
जानते तो चुप रहो।
िफर उ ह ने व िसि क ओर ि करके कहा–‘‘आचाय, आपके िभ ु ऐसा ही िवनय
सीखते ह?’’
व िसि ने कहा–‘‘महाराज, म उसका धमानुशासन क ँ गा, अरे िभ ुओ! उस उ म
िभ ु को ले जाओ।’’
िफर उसने कािशराज से कहा–‘‘महाराज, अब आप य स पण ू क िजए। कामना करता
हँ िक उसम बाधा न उपि थत हो।’’
िदवोदास को िभ ुगण बाँधकर एक ओर तथा मंजु को सैिनक दूसरी ओर ले चले। मंजु
ने कहा–‘‘ ाणनाथ, नदी तीर क वह ित ा याद रखना।’’
िदवोदास ने कहा–‘‘उसे जीते जी नह भल ू ँग
ू ा।’’
‘‘तु ह आना होगा, कहो आओगे?’’
‘‘आऊँगा ि ये, आऊँगा।’’
‘‘तो म तु हारी ती ा क ँ गी।’’
‘‘म ाण पर खेलकर भी आऊँगा।’’
दोन को दो िभ न-िभ न िदशाओं म ख चकर ले जाया गया। सुखदास और व ृ वाला
रह गए। सुखदास ने कहा–‘‘म भी िभ ु हँ, मेरा धमानुशासन आचाय करगे।’’
आचाय ने कहा–‘‘इन दोन अपरािधय को भी महाराज मेरे ही सुपुद कर द।’’
कािशराज ने वीकार िकया। आचाय उठकर चल िदए। आवास पर आने पर सुखान द
ने कहा–‘‘म एक आव यक िनवेदन एका त म करना चाहता हँ।’’
आचाय ने एका त म ले जाकर कहा–‘‘ या करना चाहते हो तुम?’’
‘‘आचाय, म िनरपराध हँ, और यह व ृ भी।’’
‘‘तू िनरपराध कैसे है?’’
‘‘आचाय के िव िस े र महाराज ने जो षड्य रचा था-म उसी क छानबीन कर
रहा था, आचाय? मुझे अपना काय करने दीिजए।’’
‘‘कौन-सा काय।’’
‘‘आचाय उस देवदासी को यहाँ से ले जाना चाहते ह न!’’
‘‘चाहता तो हँ।’’
‘‘पर िस े र क उस पर कु ि है।’’
‘‘यह म देख चुका हँ।’’
‘‘पर तु म उसे यहाँ से उड़ा ले चलँग
ू ा।’’
‘‘िकस कार?’’
‘‘यह मुझ पर छोड़ दीिजए आचाय।’’
‘‘िक तु धमानुज जो है।’’
‘‘वह तो आपके अधीन है आचाय, वह कर या सकता है!’’
‘‘और यह बढ़ ू ा मखू कौन है?’’
‘‘एक गँवार है आचाय, लोभ-लालच देकर अपनी सहायता के िलए रख िलया है।’’
‘‘तो तुम दोन को मु करता हँ, काय करो।’’
‘‘िक तु आचाय, केवल मुि ही नह । वण भी चािहए।’’
‘‘ वण भी ले भ , पर उस दासी को िनकाल ले चल।’’
‘‘यह कौन-सी बड़ी बात है। कह दँूगा, म उस िभ ु का स देशवाहक हँ, उसी ने तुझे
बुलाया है। हँसती-खेलती चली आएगी। उसने मुझे उसके साथ देखा भी है।’’
‘‘इसके बाद?’’
‘‘इसके बाद जैसा आचाय चाह।’’
‘‘तो भ , तू चे ा कर।’’
‘‘आचाय, मुझे इस मखू धमानुज से भी िमलते रहने क अनुमित दी जाय।’’
‘‘िकसिलए?’’
‘‘उसे बहका-फुसलाकर एक प उस दासी के नाम िलखा सकँ ू तो काय ज द िस
होगा।’’
‘‘तो तुझे वत ता है।’’
‘‘आचाय, िफर तो काम िस हआ रखा है।’’ वह िसर िहलाता हआ व ृ चरवाहे के साथ
एक ओर को रवाना हो गया।
सव

कई मास तक कािशराज का य ानु ान चलता रहा। इस बीच मंजु और देवी सुनयना अ धकूप
म पड़ी रह । उ ह बाहर िनकालने का सुयोग सुखदास को नह िमला। पर तु य ही य समा
हआ तथा आचाय व िसि काशी से िवदा हए, सुखदास क युि और उ ोग से मंजु और देवी
सुनयना अ धकूप से मु होकर भाग िनकल । पर तु इस िवपि म एक दूसरी िवपि आ खड़ी
हई। मंजु को सव वेदना होने लगी। देवी सुनयना ने सुखदास से कहा–‘‘अब तो कह आ य
खोजना होगा। चलना स भव ही नह है।’’ िन पाय मंजु को एक व ृ के नीचे आ य दे सुखदास
और व ृ चरवाहा दोन ही आहार और आ य क खोज म िनकले।
पर तु इस बीच ही म मंजु िशशु- सव करके मिू छत हो गई। यह दशा देख देवी सुनयना
घबरा गई ं। उ ह ने साहस करके िशशु क प रचया क तथा मंजु क जो भी स भव सु षू ा हो
सकती थी, करने लगी। मंजु क दशा बहत खराब हो रही थी। थकान, भख ू और शोक से वह पले
ही जजर हो चुक थी, अब इतना र िनकल जाने से उसके मँुह पर जीवन का िच ही न रहा।
सुनयना यह देख डर गई। उसने य न से उसक मू छा दूर क । होश म आकर मंजु एकटक माँ
का मँुह देखने लगी। िफर बोली–‘‘माँ, अब उनके दशन तो न हो सकगे?’’
‘‘ य नह बेटी!’’
‘‘उ ह ने कहा था–‘जब पु का ज म होगा, म आऊँगा।’ ’’
कुछ ककर पुन: बोली–‘‘पर उनके आने के पहले तो हम वहाँ चल रहे ह।’’
‘‘नह जानती माँ, म कहाँ जा रही हँ, िक तु मेरा एक अनुरोध रखो माँ।’’
‘‘कह बेटी।’’
‘‘यिद मेरी म ृ यु हो जाय, और वे न आय तो, जैसे बने, ब चे को उनके पास अव य
पहँचा देना। और यह स देश भी िक तु हारे आने क आशा म मंजु अब तक जीिवत रही। तु हारे
िनराश ेम का फल तु हारे िलए छोड़ गई।’’
‘‘बेटी, इतना धीरज न छोड़ो।’’
‘‘माँ! कदािचत् यह अ तगत सय ू क वण-िकरण मेरी मुि का स देश लाई है।’’
‘‘अरी बेटी, ऐसी अशुभ बात मत कहो, तुम फलो-फूलो। और म इन आँख से तु ह देखँ।ू
इसिलए न मने अब तक अपने जीवन का भार ढोया है।’’
‘‘माँ, म बहत जी चुक , बहत फली-फूली, और मने संसार को अ छी तरह देखभाल
िलया। मेरा जीवन उस फूल क भाँित रहा, जो सय ू क िकरण को छूकर िखल उठा, और उसी के
तेज म झुलसकर सख ू गया।’’
सुनयना रोने लगी।
मंजु ने कहा–‘‘माँ, दुखी न हो, इस फूल क पंखुिड़याँ झर जायगी, और झंझा वायु उ ह
उड़ाकर कहाँ क कहाँ ले जाएगी। आह! सय ू आज भी अ त हो गया। वे न आए, न आए। अ धकार
बढ़ा चला आ रहा है। यह जैसे मेरे जीवन पर पदा डाल देगा। कदािचत् मेरे जीवन-दीपक के बुझने
का समय आ गया।’’ वह मिू छत होकर िनबल हो गई। सुनयना ने घबरा कर कहा–‘‘मंजु, आँख
खोलो बेटी, इस फूल से सुकुमार ब चे को देखो।’’
मंजु ने आँख खोलकर टूटे-फूटे वर म कहा–‘‘नह आए, इस अपने न हे को देखने भी
नह आये! आह! कैसा यारा है न हा, आन द क थायी मिू त, माँ उसे मेरे और पास लाओ।’’
‘‘वह तो तु हारे पास ही है बेटी।’’
‘‘और पास, और पास, और, और...’’ वह बेसुध हो गई। िफर उसने आँख खोलकर ब चे
को देखकर कहा–‘‘वैसी ही आँख ह, वैसे ही ह ठ,’’ उसने ब चे का मँुह चम ू िलया, और दय से
लगा िलया।
इसके बाद ही उसक आँख पथरा गई। और चेहरा सफेद हो गया। ास क गित भी क
गई। सुनयना देवी धाड़ मारकर रो उठ । उ ह ने कहा–‘‘आह, मेरी बेटी, तू तो बीच माग म ही
चली-मेरी सारी तप या िवफल हो गई।’’
पर तु देवी सुनयना को इस िवप काल म रोकर जी हलका करने का अवसर भी न
िमला। उ ह िनकट ही अ ारोिहय के आने का श द सुनाई िदया। अब वे या कर? उनका यान
ब चे पर गया। उसे उठाकर उ ह ने अपनी छाती से लगा िलया। एक बार उ ह ने मंजु के िनमीिलत
ने क ओर देखा। घोड़ क पद विन िनकट आ रही थी।
उ ह मंजु का अनुरोध याद आया और दय म साहस कर उ ह ने अपना संक प ि थर
िकया।
उ ह ने कहा–‘‘िवदा बेटी तुझे म माता वसु धरा को स पती हँ, और तेरा अनुरोध पालन
करने जा रही हँ।’’ उ ह ने व से मंजु का मँुह ढाँप िदया और बालक को छाती से लगाकर एक
ओर चलकर अ धकार म िवलीन हो गई।
दु सह स वाद

िदवोदास को संघाराम के गु ब दी गहृ म लाकर र खा गया। उस ब दीगहृ म ऊपर छत के पास


केवल एक छे द था, िजसके ारा भोजन और जल ब दी को पहँचा िदया जाता था। उसी छे द ारा
च मा क उ वल िकरण ब दीगहृ म आ रही थ । उसी को देखकर िदवोदास कह रहा
था–‘‘आह, कैसी यारी है यह च िकरण, यारी क मु कान क भाँित उ वल और शीतल?’’
उसने प ृ वी पर झुककर वह थल चम ू िलया–‘‘बाहर चाँदनी िछटक रही होगी। रात दूध
म नहा रही होगी। पर तु मेरा दय इस ब दीगहृ के समान अ धकार से प रपण ू है।’’
वह दोन हाथ से िसर थामकर बैठ गया। इसी समय एक खटका सुनकर वह च क
उठा। ब दीगहृ का ार खोलकर पहरे दार ने आकर कहा–‘‘यह ी तुमसे िमलना चाहती है,
पर तु ज दी करना। भ ते, म अिधक ती ा नह क ँ गा।’’
काले व म आवेि त एक ी उसके पीछे थी, उसे भीतर करके हरी ने ब दीगहृ
का ार ब द कर िलया।
िदवोदास ने कहा–‘‘कौन है?’’
‘‘यह अभािगनी सुनयना है।’’
‘‘माँ, तुम आई हो?’’
‘‘बड़ी किठनाई से आ पाई हँ िदवोदास, तुम न आ सके न!’’
‘‘न आ सका, िक तु मेरा पु ?’’
‘‘पु सव हआ, िक तु तुम झठ ू े हए बेटे।’’
‘‘हाँ माँ, मंजु से कहो, वह मुझे द ड दे।’’
‘‘उसने द ड दे िदया, ब चे।’’
‘‘तो माँ, म हँसकर सह लँग ू ा, कहो या द ड िदया है?’’
‘‘सह न सकोगे।’’
‘‘ऐसा द ड है?’’
‘‘हाँ पु ।’’
‘‘नह , ऐसा हो नह सकता, मंजु मुझे द ड दे और म सह न सकँ ू ? सहकर हँस न सकँ ू
तो मेरे यार पर भारी कलंक होगा माँ।’’
‘‘कैसे कहँ?’’
‘‘कहो माँ?’’
‘‘सुन न सकोगे।’’
‘‘कहो-कहो।’’
‘‘उसने अपने ाण दे िदए।’’
‘‘ ाण दे िदए?’’ िदवोदास ने पागल क भाँित ची कार िकया।
‘‘हाँ, पु , हम ब दीगहृ से मु होकर भागे जा रहे थे। माग ही म उसने एक व ृ के
नीचे पु को ज म िदया, और िफर मुझसे एक अनुरोध करके वह िवदा हई।’’
‘‘ या अनुरोध था माँ।’’
‘‘यही, िक यिद मेरी म ृ यु हो जाय तो मेरे पु को उन तक पहँचा देना।’’
‘‘तो मेरा पु ?’’
‘‘वह मने खो िदया।’’
‘‘खो िदया?’’
‘‘राह म म भख ू और यास से जजर हो सो गई। जब आँख खुली तो िशशु न था, कौन
जाने उसे कोई वनपशु उठा ले गया था...’’ सुनयना आगे कुछ न कहकर फूट-फूटकर रो उठी।
‘‘मेरे पु को तुमने खो िदया माँ, और उसने ाण दे िदए!! खबू हआ।’’ िदवोदास
अ हास करके हँसने लगा। ‘‘हा, हा, हा, ाण दे िदए, खो िदया।’’ उसने िफर अ हास िकया और
का के कु दे क भाँित अचेत होकर भिू म पर िगर गया।
इसी समय हरी ने भीतर आकर कहा–‘‘बस, अब समय हो गया। बाहर आओ।’’ देवी
सुनयना सं ाहीन-सी बाहर आई ं और एक व ृ के नीचे भिू म पर पड़ गई।
े ो माद

िदवोदास पागल हो गया है। यह स देश पाकर आचाय ने उसे ब दी गहृ से मु कर िदया। अब
वह िनरीह भाव से संघाराम म घम ू ने लगा। कोई उससे घण
ृ ा करता, कोई उस पर दया करता।
उसके व और शरीर ग दे और मिलन हो गए थे। दाढ़ी बढ़कर उलझ गई थी। िभ ु उसक
िख ली उड़ाते थे। कुछ उसे िचढ़ा देते थे। पर तु िदवोदास इन सब बात पर यान ही नह देता था।
वह जैसे िकसी अतीत काल म जीिवत रह रहा था।
िदवोदास अित उदास, गहरी िच ता म पागल जैसा एक िशलाख ड पर बैठा था। वह
कभी हँसता, कभी गुनगुनाता था। उसके हाथ म एक गे का टुकड़ा था, उससे वह ज दी-ज दी
मंजुघोषा का चेहरा बना रहा था, चेहरा बनाकर हँसता था, उसे यार करता था, उससे बात करता
था, एक व ृ को ल य करके उ म भाव से देखता था। वहाँ उस व ृ म उसे मंजुघोषा ि पड़
रही थी।
िदवोदास-हाथ फै लाकर दीन भाव से बोल उठा–‘‘आओ देखो, यारी, आओ, मुझे मा
करो, म नह आ सका।’’ उसने देखा-मिू त मु कराने लगी। उसके ह ठ िहलने लगे और दो बँदू
आँसू उसक आँख से टपक पड़े । उसने उँ गली उठाकर कहा–‘‘झठ ू े ।’’ पागल िदवोदास उससे
िलपटने को दौड़ा और टकराकर िगर पड़ा। मिू त गायब हो गई। उसने उठकर कहा–‘‘आह! झठ ू ा,
झठू ा, सचमुच म झठ ू ा हँ।’’ उसने सामने एक िशलाख ड क ओर देखा। वहाँ मंजु बैठी मु करा
रही थी। वह दौड़ा, मिू त उसी भाव से वही श द कहती हई गायब हो गई। िदवोदास प थर से
टकराकर िफर िगर पड़ा। िफर उठकर ‘मंजु-मंजु’ िच लाने लगा। िजस व तु पर उसक नजर
जाती, वह उसे मंजु क मिू त वही संकेत करके, वही श द कहकर गायब हो जाती। वह पागल
क तरह दौड़ता और ट कर खाकर िगरकर घायल हो जाता। वह त-िव त और जजर हो गया।
उसी समय आचाय व िसि उसके िनकट आए।
व िसि कुछ देर उसक दुदशा देख बोले–‘‘पु , यह तुम या कर रहे हो?’’
िदवोदास ने आँख फाड़कर बड़ी देर तक व िसि को देखा और व िसि के िनकट
आकर कहा-“ि य मंजु, या तुमने मुझे मा कर िदया!’’ और वह व िसि से िलपट गया।
व िसि ने उसे पीछे धकेलकर कहा–‘‘िभ ु, सावधान! देखो, म संघ थिवर आचाय
व िसि हँ।’’
िदवोदास आचाय को देखकर, काँपता हआ हटकर खड़ा हो गया और कहा–‘‘आचाय
व िसि या तुम मंजु का स देश लाए हो? या वह आ रही है?’’
‘‘िभ ु, तुम पागल हो गए हो।’’
‘‘पागल, ेम का पागल, म पागल हो गया हँ!’’
(कठोर वाणी से) ‘‘मेरे साथ आओ।’’
‘‘ या तुम मुझे मंजु के पास ले जा रहे हो?’’
‘‘आओ।’’
व िसि ने उसे अपने पीछे आने का संकेत िकया। और चल िदया। िदवोदास भी पीछे -
पीछे चल िदया। वह व तारा के मि दर म जा पहँचे।
व िसि ने व तारा क ितमा के आगे पहँच, िदवोदास क ओर कड़ी ि से देखा
और कहा–‘‘िभ ु, व तारा को णाम करो।’’
िदवोदास ने ितमा म भी मंजु क वही मिू त देखी और कहा–‘‘ यारी, तुम आ गई?
आओ। म नह आ सका। इससे या तुम नाराज हो?’’ वह दौड़कर मिू त से िलपट गया।
‘‘सुनो! सुनो!!’’
‘‘सब सुन रहा हँ। वह कुछ कह रही है। वह कुछ कहना चाहती है।’’ वह यान से िफर
ितमा को देखने लगा। उसे तीत हआ, मंजु कुछ संकेत कर रही है, िदवोदास ने उधर हाथ फै ला
िदए।
व िसि ने िदवोदास को झकझोरकर कहा–‘‘सुनो, तु ह व तारा क मिू त बनानी
होगी। हम मालमू हआ है, तुम कुशल िच कार हो गए हो।’’
िदवोदास ने भाव िनम न-सा होकर कहा–‘‘म अभी यारी क मिू त बनाता हँ।’’
उसने झट ण-भर म गे से दीवार पर मंजु क ठीक सरू त बना दी। और िफर रो-रोकर
कहने लगा–‘‘ मा करो, मंजु, ि ये, मा करो।’’
व िसि ने ु होकर कहा–‘‘तु ह व तारा क मिू त बनानी होगी। इसके िलए दो
मास तक तु ह एका त म रहना होगा।’’
उ ह ने एक िभ ु से कहा–‘‘गोपे र, तुम इसको सब यव था समझाकर, सब ब ध
कर दो।’’ इतना कह आचाय चले गए।
ितमा

िदवोदास क छे नी खटाखट चल रही थी। भख ू - यास और शीत-ताप उसे नह याप रहा था।
अपने शरीर क उसे सुध नह थी। वह िनर तर अपना काम कर रहा था। छे नी पर हथौड़े क चोट
पड़ रही थ , और िशलाख ड म से मंजु क मिू त िवकिसत होती जा रही थी। वह सवथा एका त
थल था। वहाँ िकसी को भी आने क अनुमित न थी। वह कभी गाता, कभी गुनगुनाता, कभी
हँसता और कभी रोता था। कभी क ण वर म मा माँगता, कभी मिू त से िलपट जाता। उसक
त मयता, त मयता क सीमा को पार कर गई थी। जैसे वह मिू त म मिू तमय हो चुका हो।
मिू त बनकर तैयार हो गई। िदवोदास के शरीर म केवल हड्िडय का ढाँचा मा रह गया
था। उसके दाढ़ी और िसर के बाल ने उलझकर उसक सरू त भत ू के समान बना डाली थी। पर तु
उस एका त अनु ान म कोई उसके पास नह आ पाता था।
वह बड़ी देर तक मिू त के मुख को एकटक देखता रहा। वह मँुह हबह मंजु का मँुह था।
उसे ऐसा तीत हआ िक वह मँुह मु करा रहा है। उसे उसके ओठ िहलते दीख पड़े । उसने
जैसे सुना िक उन ओठ म से एक श द बाहर हआ, ‘झठ ू े ’। उसक आँख म आँसू भर आए। उसने
मिू त के पैर म िगरकर कहा–‘‘मुझे मा करो मंजु, म नह आ सका।’’ पर तुमने मेरा पु भी तो
खो िदया, िदवोदास कोप कर धरती पर िगर पड़ा। और अ त म ार तोड़ िच लाता हआ गहन
वन म भाग गया!
व तारा पज ू ा महो सव पव था। सह िभ ु एकि त थे। संघाराम िविवध भाँित सजाया
गया था। दूर-दूर से ालु ावक, गहृ थ और ेि जन आए थे। बीच ांगण म वण-मि डत रथ
था। उस पर व म आवेि त व तारा क मिू त थी। आचाय व िसि बड़े य त थे। उ ह ने
य भाव से कहा–‘ या अभी तक धमानुज का कोई पता नह लगा?’’
‘‘नह आचाय, चार ओर गु चर उसे खोजने गए ह।’’
‘‘पर तु पज
ू न तो िनयमानुसार वही कर सकता है िजसने मिू त बनाई है-अत: उसका
अनुस धान करो। मुहत म अब देर नह है।’’ आ ा होने पर और भी चर भेज िदए गए।
िदवोदास अित दयनीय अव था म भख ू - यास से याकुल, अधमत ृ -सा हो एक
िशलाख ड पर अचेत पड़ा था। उसी समय चर ने वहाँ पहँचकर उसे देखा। उसे चेत म लाने क
बहत चे ा क , पर तु उसक मू छा भंग न हई। िन पाय हो चर उसे पीठ पर लादकर संघाराम म
ले आए। संघाराम के िचिक सक ने उसका उपचार िकया। उपचार से तथा थोड़ा दूध पीने से वह
कुछ चैत य हआ। पर तु उसक सं ा नह लौटी।
बाहर बहत कोलाहल हो रहा था। सह िभ ु और भावुक भ िच ला रहे थे। डफ-
मदृ ंग-मीरज बज रहे थे। सारा ांगण मनु य से भरा था। महाराज ी गोिव द पालदेव आ चुके थे।
उ ह ने अधीर होकर कहा–‘‘आचाय, अब पज ू न-अनु ान ार भ हो।’’
आचाय ने िचि तत वर म कहा–‘‘िभ ु धमानुज को यहाँ लाओ। वह िविधवत् पज ू न
करे ।’’
कुछ िभ ु उसे पकड़कर ले आए। वह िगरता-पड़ता आकर मिू त के स मुख खड़ा होकर
हँसने लगा। इसी समय मिू त का आवरण उठाया गया। मिू त के मुख पर िदवोदास ने ि डाली।
उसे तीत हआ जैसे मिू त मु करा रही है। उसने िफर देखा, मिू त ने दो उँ गली ऊपर उठा कर
कहा-‘‘झठ ू े ।’’ उसने वयं वह श द सुना, प तया। उसने मिू त के ओठ को िहलते देखा। यह
देखते ही िदवोदास मिू छत होकर मिू त के चरण म िगर गया। अनु ान खि डत हो गया। आचाय
व िसि असंयत होकर उठ खड़े हए। सह -सह िभ ु–‘नमो अ रह ताय नमो बु ाय’ िच ला
उठे । आचाय ने उ च वर से कहा–‘‘इस िवि िभ ु को भीतर ले जाओ। म वयं अनु ान
स पण ू क ँ गा।’’
पर तु इसी समय मेघ गजन के समान एक आवाज आई–‘‘ठहरो।’’
सह ने देखा। एक भ य शा त मिू त धीर ि थर गित से चली आ रही है। उसके पीछे
सुनयना व म कुछ लपेटे हए आयी ह। उनके पीछे सुखदास और वही व ृ वाला है। लोग ने
देखा, उसी सौ य मिू त के साथ महा ेि धनंजय भी ह।
सौ य मिू त सबके देखते-देखते वेदी पर चढ़ गई। उसने ितमा के िसर पर हाथ रखा।
हाथ रखते ही ितमा सजीव हो गई। वह िहलने लगी। ितमा म सजीवता के ल ण देख सह
क ठ ‘भगवती व तारा क जय’ िच ला उठे । ितमा ने हाथ उठाकर सबको शा त और चुप रहने
का संकेत िकया।
ण-भर ही म स नाटा छा गया। मिू त ने वीणा क झंकार के समान मोहक वर म
कहा–‘‘मढ़ ू िभ ुओ, तुम जानते हो िक धम या है?’’
सह क ठ ने िवि मत होकर कहा–‘‘माता, आप हम धम क दी ा दीिजए।’’
मिू त ने कहा–‘‘मनु य के ित मनु यता का यवहार करना सबसे बड़ा धम है, संसार
को संसार समझना धम का माग है।’’
सह क ठ से िनकला–‘‘माते री व तारा क जय हो।’’
मिू त ने िफर व िसि क ओर उँ गली से संकेत करके कहा–‘‘यह धमढ गी पु ष,
लाख मनु य को धम से दूर िकए जा रहा है। म इस पाख डी का वध क ँ गी।’’ मिू त ने सहसा
खड्ग ऊँचा िकया। जनपद त ध रह गया। िभ ु गण िच ला उठे -
‘‘र ा करो, देिव, र ा करो।’’
व िसि अब तक िवमढ़ ू बना खड़ा था। अब उसने मिू त के प म मंजु को पहचानकर
कहा–‘‘यह देवी व तारा नह है। यह पािप ा धत ू पापे र के मि दर क अधम देवदासी
मंजुघोषा है, इसे बाँध लो।’’
मंजु ने कहा–‘‘वही हँ, और तुमसे पछू ती हँ, िक तुम मनु य को मनु य क भाँित य
नह रहने देना चाहते?’’
व िसि ने िफर गरज कर कहा–‘‘बाँधो, इस पािप ा को।’’
जनता म कोलाहल उठ खड़ा हआ। सह िभ ु रथ पर टूट पड़े ।
अब उस भ य सौ य पु ष-मिू त ने हाथ उठाकर कहा–‘‘सब कोई जहाँ हो-वह शा त
खड़े रहो।’’
इस बार िफर स नाटा हो गया। उसी भ य मिू त ने उ च वर से पुन: कहा–‘‘म ान ी
िम हँ। तु ह शा त रहने को कहता हँ।’’
आचाय ान ी िम का नाम सुनते ही-सह -सह िसर प ृ वी पर झुक गये। महाराज
गोिव दपाल देव ने उठकर सा ांग द डवत् िकया। लोग आ य िवमु ध उस महापु ष को देखने
लगे िजसका दशन पाना दुलभ था तथा जो ि कालदश िस था।
आचाय ने देवी सुनयना को संकेत िकया। उ ह ने व म आवेि त बालक को मंजु क
गोद म दे िदया। मंजु ने खड्ग रखकर बालक को छाती से लगाकर कहा–‘‘यह मेरा पु है, िजसे
वे अभागे धम-पाख डी पाप का फल कहते ह, िजनके अपने पाप ही अगिणत ह।’’
िभ ुओ ं म िफर ोभ उठ खड़ा हआ।
आचाय ान ने मेघ गजन के वर म कहा–‘‘िभ ुओ, शा त रहो। िफर उ ह ने िदवोदास
के म तक पर हाथ रखकर कहा–‘‘उठो ेि पु ।’’
िदवोदास जैसे गहरी न द से जग गया हो। उसने इधर-उधर आ य से देखा-िफर पु को
गोद म िलए मंजु को स मुख मु कराती खड़ी देखकर बार बार आँख मलकर कहा–‘‘यह म
या देख रहा हँ- व न है या स य।’’
‘‘सब स य है, ाणािधक, यह तु हारा पु है, इसका च मुख देखो।’’
िदवोदास का लु ान पीछे लौट रहा था-उसने भुन-भुनाकर कहा–‘‘कैसी मीठी भाषा
है, कैसे ठ डे श द ह, अहा, कैसा सुख िमला, जैसे कलेजे म ठ डक पड़ गई।’’
मंजु ने कहा–‘‘ यारे , ाणे र, इधर देखो।’’
उसने िदवोदास का हाथ पकड़ िलया। िदवोदास का उस पश से चैत य हो जाग उठा-
उसने कहा–‘‘ या, या, तुम हो-सचमुच? तो यह व न नह है?’’ वह िफर आँख मलने लगा।
मंजु ने कहा–‘‘ वािमन्, आय पु , यह तु हारा पु है, लो।’’
‘‘मेरा पु ?’’ उसने दोन हाथ फै ला िदए। पु को लेकर उसने छाती से लगा िलया।
व िसि ने एक बार िफर अपना भाव कट करना चाहा। उसने ललकारकर
कहा–‘‘िभ ुओ, इन धम-िव ोिहय को बाँध लो।’’
िभ ुओ ं ने एक बार िफर शोर मचाया। वे रथ पर टूट पड़े । िदवोदास ने रोकना चाहा-
पर तु वह ध का खाकर िगर गया।
सहसा महाराज गोिव दपाल देव ने खड़े होकर कहा–‘‘जो जहाँ है, वह खड़ा रहे ।’’
महाराज क घोषणा सुनते ही एक बार त धता छा गई। महाराज ने सेनापित को आ ा
दी–‘‘सेनापित, इन उ म िभ ुओ ं को घेर लो।’’
ण-भर ही म सेना ने सम त िभ ु म डली को तलवार क छाया म ले िलया।
आतंिकत होकर िभ ु म पाठ भल ू गए। जनता भयभीत हो भागने क जुगत सोचने लगी।
व िसि ने ु होकर कहा–‘‘महाराज, यह आप अधम कर रहे है।’’
महाराज ने कहा–‘‘म यह जानना चाहता हँ आचाय, यह कैसा धम-काय हो रहा है?’’
‘‘देव, आप धम यव था म बाधा मत डािलए।’’
‘‘पर तु म पछ ू ता हँ िक यह कैसी धम यव था है!’’
‘‘आप अपने गु का अपमान कर रहे ह।’’
‘‘मेरी बात का उ र द आचाय, या आपने कािशराज से िमलकर मेरे िव षड्य
नह िकया? ेि राज धनंजय के धन को हड़पने के िलए उनके पु को अिन छा से िभ ु
बनाकर उसे गु य णाएँ नह दी ह? या आप िल छिवराज के गु धन को पाने का षड्य
नह रच रहे ह?’’
‘‘देव, इन अपमानजनक का म उ र नह दँूगा।’’
‘‘तो आचाय व िसि , इन आरोप के आधार पर म आपको आचाय पद से युत करता
हँ और ब दी करता हँ।’’ उ ह ने सेनापित से ललकार कहा :
‘‘सेनापित इ सेन, व ाचाय और इनके सब सािथय को अपनी र ा म ले लो। तथा
संघाराम और उसके कोष पर रा य का पहरा बैठा दो। तु हारे काम म जो भी िव न डाले उसे िबना
िवल ब खड्ग से चार टुकड़े करके संघाराम के चार ार पर फक दो!’’ सेनापित ने अपनी नंगी
तलवार आचाय के क धे पर रखी।
व िसि ने कहा–‘‘िभ ुओ, यह राजा पितत हो गया है। इसे अभी मार डालो।’’
िभ ुओ ं म ोभ उ प न हआ; सैिनक श लेकर आगे बढ़े ।
अब ी ान ने दोन हाथ ऊँचे करके कहा–‘‘सावधान, िभ ुओ! यह ी ान िम
तु हारे स मुख खड़ा है। तुमने तथागत के वचन का अनादर िकया है। ब धु ेम के थान पर
र पात, अिहंसा के थान पर माँसाहार, संयम के थान पर यिभचार और याग के थान पर
लोभ हण िकया है िजससे तु हारे चार त भंग हो गये ह। तुमने िभ ु वेश को कलंिकत िकया
है, और तथागत के पिव नाम को कलुिषत िकया है। म तु ह आदेश देता हँ िक अपने आचरण
को सुधारो, या िभ ुवेश याग दो।’’
सह -सह िभ ु ी ान के स मुख घुटन के बल बैठ गए। महाराज ने
कहा–‘‘िभ ुओ, तु हारे अनाचार क बहत बात मने सुनी ह। जा तु हारे अ याचार से तंग है।
तु हारे गु घ टाल का भ डाफोड़ हो गया है। म चाहता हँ, भगवान् ी ान के आदेश का पालन
करो। अपने-अपने थान को लौट जाओ।’’
िभ ुओ ं ने एक वर से महाराज और ान ी िम का जय-जयकार िकया।
महारजा ने कहा–‘‘ ेि धनंजय, आओ अपने पु -पौ और पु -वधू को आशीवाद दो।’’
धनंजय दौड़कर पु से िलपट गया। िदवोदास ने िपता के चरण म िगरकर अिभवादन
िकया। मंजु ने भी सबको णाम िकया और ब चे को सुर क गोद म दे िदया।
महाराज ने कहा–‘‘ ेि राज, यह सौभा य तु ह भगवान् ी ान क कृपा से िमला है।
उ ह ने मंजुघोषा और उसके पु क ाण र ा क । और बड़े कौशल से मिू त के थान पर उसे
कट िकया।’’
सुनयना ने करब होकर कहा–‘‘तो भगवान्, आप ही मेरे ब चे के चोर ह?’’
‘‘यह काय भी मुझ वीतराग पु ष को करना पड़ा। जब मंजु को मने जंगल म असहाय
व ृ के नीचे मिू छताव था म पड़ा देखा, तो उसे म अपने आ म म उठा लाया। उपचार से वह
व थ हई तो ब चे के िलए उसने बहत आफत मचाई। म जानता था िक तुम राजी से ब चा मुझे न
दोगी। मंजु का जीिवत रहना म तुम पर कट करना नह चाहता था-इसी से चौयकाय मुझे करना
पड़ा। अब बु शरणं।’’
‘‘भगवान्, म तो ऐसी अ धी हो गई िक पु ी को अरि त छोड़कर भाग िनकली, पर तु
मुझे बालक क र ा का िवचार था।’’
‘‘यह सब भिवत य था जो अक मात् हो गया।’’
‘‘िक तु भगवन्, यहाँ मिू त के थान पर मंजु कैसे आ गई?’’
‘‘यह हमसे पिू छए,’’ सुखदास ने आगे बढ़कर कहा–‘‘हम लोग जब थान आिद क
सु यव था करके व ृ के िनकट पहँचे, तो वहाँ कोई न था। इससे हम बहत याकुल हए। सारा
जंगल छान मारा। तब भगवान् के हम दशन हए। और जब मंजु को हमारी देख-रे ख म छोड़कर
भगवान् ब चा चुराने के िलए गये, तो हमने िमलकर यह योजना बना ली। िफर तो मिू त को अपने
थान से हटाकर वहाँ मंजु को बैठा देना आसान था। पर तु चम कार खबू हआ!’’
यह कहकर सुखदास हँसने लगा। सभी लोग हँस िदए।
सुखदास ने व ृ वाले क ओर संकेत करके कहा–‘‘इन महा मा ने ाणपण से मंजु
क सेवा करके ाण बचाये। हमारी योजना न सफल होती यिद यह मदद न करते।’’
वाले ने चुपचाप सबको हाथ जोड़ िदए। आचाय ी ान ने कहा–‘‘यह सब िविध का
िवधान है िल छिव-राजमिहषी?’’
राजा ने अकचकाकर कहा–‘‘यह आपने या श द कहा! िल छिव राजमिहषी कौन!’’
‘‘महाराज, यह देवी सुनयना िल छिवराज ी निृ संहदेव क प राजमिहषी क ितदेवी ह,
िज ह कािशराज ने छल से मारकर उनके रा य को िव वंस िकया था। मंजुघोषा इ ह क पु ी
ह।’’
महाराज ने कहा–‘‘महारानी, इस रा य म म आपका वागत करता हँ। और
राजकुमारी, आपका भी तथा कुमार को म वैशाली का राजा घोिषत करता हँ, और उनके िलए यह
तलवार अिपत करता हँ जो शी कािशराज से उनका बदला लेगी।’’
रानी ने कहा–‘‘हम दोन -माता पु ी-कृताथ हई ं। महाराज, आपक जय हो। अब इस शुभ
अवसर पर यह तु छ भट म िदवोदास को अपण करती हँ।’’
उसने अपने क ठ से एक तावीज िनकालकर िदवोदास के हाथ म देते हए कहा–‘‘इसम
उस गु र नकोष का बीजक है, िजसका धन सात करोड़ वण मु ा है।’’
‘‘पु , मुझ अभािगन िवधवा का यह तु छ दहे ज वीकार करो।’’
ेि धनंजय ने आगे बढ़कर कहा–‘‘महारानी, आपने मुझे और मेरे पु को ध य कर
िदया।’’
आचाय ी ान ने हाथ उठाकर कहा–‘‘आप सबका क याण हो। आज से म आचाय
शा य ीभ को इस महािवहार का कुलपित िनयु करता हँ।’’ महाराज ने वीकार िकया। और
सबने आचाय को णाम िकया और अपने ग त य थान क ओर चले गए।
व गु

आचाय शा य ीभ महायान के आचाय थे। वे शू यवाद के परम पि डत थे। उसके नाम और


पाि ड य क बड़ी धम ू थी। िव मिशला िव िव ालय के पीठाधी र हो जाने पर भी व गु ओं
का गुट िव मिशला से टूटा नह । य िप आचाय व िसि अब कुलपित नही रहे थे, पर वे व
गु ओं के िशरोमिण थे। ये व गु वैपु यवादी थे और उनका संगठन साधारण न था। उनके
सामने आचाय शा य ीभ क चलती नह थी। जो हजार -लाख त ण-त िणयाँ पीत-कफनी
पिहन क ची उ म ही िभ ु-िभ ुणी हो जाते थे, उनक कामवासना तो कायम ही रहती थी।
िकसी भी ान और उपदेश से वह दबती न थी। वह तो व थ शरीर का नैसिगक धम था।
वैपु यवादी एकािभ ायेण ी-गमन कर सकते थे। वे गहृ थ क भाँित मानव शरीर क
ाकृितक आव यकता को गहृ था म के सीधे-सादे सरल माग ारा पण ू नही करते थे-वे तो
‘एकािभ ाय’ क आड़ लेकर रह यपण ू श दजाल ारा स भोग ि या का ‘स यक्-स बु ’
बनने के िलए व गु क सहमित से ी-सेवन कर सकते थे। वे िकसी नीच जाित क युवती
को मु ा बनाकर गु के िनकट जाते और गु क आ ा से िमथुन योग करते थे। व गु क
आ ा से यह मैथुन सेवन कामवासना क तिृ के िलए नह होता था; स यक्-स बु और िस
बनने के िलए होता था। ये सब िनयम गु थे। और उसी से भैरवीच का ज म हआ।
बौ के ाचीन सु बहत ल बे-ल बे होते थे। उ ह घोखने और याद करने म बहत
समय लगता था इसिलए वैपु यवािदय ने छोटी-छोटी धारिणयाँ बनाई थ । उनके पाठ से भी वही
ा होता था जो सू के पाठ से होता था। पर धारिणय को क ठ करने म भी िद कत पड़ती थी।
इसिलए अब उसके थान पर म को रचा गया था। िजनम अ त- य त श द ही थे। जैसे ‘ओं
मुने-मुने महामुने वाहा,’ अथवा ‘ओं, आहँ।’ लोग का िव ास था िक इस म के जाप से
अिभलिषत फल ापत होता है। म -शि के इस िव ास के साथ-साथ वे कुछ भोग क
ि याओं को भी सीखते थे। वे समझते थे िक इन ि याओं ारा शारी रक और मानिसक शि य
का िवकास होता है। इस समय बु को भी अलौिकक या अमानव माना जाता था। ये व गु
खान-पान, रहन-सहन म आचार-िवचार का कोई यान नह करते थे। उिचत-अनुिचत, क य-
अकत य का भेद िस पु ष म नह होता-यही लोग समझते थे। ी मा से स भोग करना वे
अपनी साधना म सहायक मानते थे। साथ ही म -माँस का सवेन भी योग ि याओं के िलए
आव यक था। ऐसा ही यह युग था िजसका के िव मिशला-नाल दा और उद तपुरी के िवहार
बने हए थे। एक ओर इन िव ाके म भाँित-भाँित के शा और िव ाएँ पढ़ाई जाती थ , िजसक
याित देश-देशा तर म थी, तो दूसरी ओर ये धमपाख ड और अ याचार चल रहे थे।
इस काल म सद् गहृ थ ा ण और बौ िभ ुओ ं का समान आदर स कार करते थे।
शैव -शा और वाममािगय के कई अघोरी प थ भी थे िजनसे गहृ थ भयभीत रहते थे।
पौरािणक धम के पुन थान के साथ िजन देवी-देवताओं क उपासना का आर भ हआ, बौ
उनक उपे ा नह कर सके। उ ह ने उ ह नये नाम से अपने धम म सि मिलत कर िलया। मंजु ी
तारा, अवलोिकते र आिद नाम से अनेक देवी-देवताओं ने बौ धम म भी वेश कर िलया था।
कुछ तो इस कारण से और कुछ त वाद के वेश ने शि के उपासक पौरािणक और व यानी
बौ को पर पर िनकट ला िदया था। पौरािणक ने बु को दस अवतार म िगन िलया था।
पालदेशी बौ राजा थे-पर ा ण को भी मानते थे। सातव शता दी ही म अनेक ऐसे पौरािणक
पि डत ने ज म िलया, िज ह ने अपनी तकशि और िव ा के भाव से सबको चकाच ध कर
िदया। कुमा रल भ और भाकर के नाम इनम िवशेष प से उ लेखनीय ह। शंकर भी एक
असाधारण पु ष थे। इनके कारण बौ िभ ुओ ं का ताप कम अव य पड़ गया था पर बौ संघ
को थािपत हए हजार साल से भी ऊपर हो चुके थे। उनके मठ म अतोल स पदा जमा हो गई थी।
और मगध के िवहार म हजार िभ ु िनि ंत होकर आन द के साथ जीवन यतीत करते थे। वे
केवल अब नाम के िभ ु थे। िभ ा माँगने िभ ा पा लेकर उ ह अब लोग के घर जाना नह
पड़ता था। इधर आ म और मठ के रहने वाले स यािसय म भी फूित उदय हई थी। इससे भारत
म उस समय बौ के ित उदासीनता बढ़ती जाती थी। पर तु आठव शता दी से बारहव
शता दी तक पाँच सौ वष म व यान ने एक कार से सारी ही भारतीय जनता को कामी,
यसनी, शराबी और अ धिव ासी बना िदया था। राजा लोग तो अब भी िकसी िस ाचाय और
उनके तांि क िश य क पलटन साथ रखते थे िजन पर भारी खच िकया जाता था।
तलवार

ई. स. 1192 म तराइन क रण थली म चौहान कुल-कमल िदवाकर प ृ वीराज का सौभा य सय ू


अ त हआ। इसके दो वष बाद च दोवर क भिू म म क नौज के जयच को भी मुि लम तलवार
का पानी पी खेत रहना पड़ा। इसके बाद िह दू सं कृित के एकमा गढ़ बनारस पर मुि लम
तलवार जा धमक ।
इसके तीन बरस बाद ही मुह मद गोरी का एक गुलाम सेनानायक मोह मद-िबन-
वाखपू ार केवल पाँच हजार सवार लेकर िवहार म जा धमका। जहाँ इस समय बौ िवहार और
िव ाके क भरमार थी, वहाँ तुक ने अपने िचरश ु पीत कफनी पहने और िसर मुड़ाए ‘बुत-
पर त ’ को देखा, िजनका उ ह कटु अनुभव था। जब तुक ने म य एिशया पर आ मण िकए थे
तब वहाँ के िभ ुओ ं ने उनसे किठन लोहा िलया था। वे अपने इन िचरश ुओ ं पर टूट पड़े , िजनके
धम क जड़ अनाचार से खोखली हो चली थी। उ ह ने गाजर-मल ू ी क भाँित सबको काट डाला।
एक भी घुटे िसर वाले को जीिवत न छोड़ा। पालवंशी दुबल राजा अनायास ही परा त हो गए।
नाल दा िव मिशला और उद तपुरी के िवहार को लटू कर और जलाकर उ ह ने खाक याह कर
िदया। वहाँ के दुलभ पु तकालय भी उ ह ने जलाकर भ म के ढे र कर िदए और वहाँ से असं य
धन-र न लेकर वह आगे बढ़े । बंगाल क राजधानी निदया म मोह मद ने केवल बारह सवार के
साथ वेश िकया। लोग ने उ ह घोड़ का सौदागर समझा। पर जब उ ह ने राज ार पर जाकर
मारकाट मचाई तो भगदड़ मच गई। बंगाल का राजा परम माहे र ल मणसेन उस समय भोजन
कर रहा था। वह शोर सुनकर बदहवास हो गया; उससे कुछ भी करते न बन पड़ा। और महल के
िपछले ार से िनकल भागा।
केवल बारह मुि लम तलवार ने बंगाल को िवजय कर िलया।

शा य ीभ िव मिशला िव िव ालय के व त होने के बाद भागकर पवू बंगाल के


‘जग ला’ िवहार म पहँचे। जब वहाँ भी तुक क तलवार गई तो वे अपने िश य के साथ भागकर
नेपाल चले गए। उनके आने क खबर सुनकर ित बत के साम त क ित वज ने उ ह अपने यहाँ
िनमि त िकया। वहाँ वे बहत वष तक रहे । शा य ीभ क भाँित अनेक बौ िभ ुओ ं तथा
िस ने जाकर बाहर के देश म शरण ली। इस कार भारत से बौ धम का लोप हो गया।
धनंजय िे का प रवार

ेि धनंजय का रं गमहल आज िफर सज रहा था। कमरे के झरोख से रं गीन काश छन-
छनकर आ रहा था। भाँित-भाँित के फूल के गु छे ताख पर लटक रहे थे। मंजु उ ान म लगी एक
फिटक पीठ पर बैठी थी; स मुख पालने म बालक सुख से पड़ा अँगठ ू ा चसू रहा था। िदवोदास
पास खड़ा यासी िचतवन से बालक को देख रहा था।
मंजु ने कहा–‘‘इस तरह या देख रहे हो ि यतम?”
‘‘देख रहा हँ िक इन न ह -न ह आँख म तुम हो या म?’’
‘‘और इन लाल-लाल ओठ म?’’
‘‘तुम।’’
‘‘नह तुम।’’
‘‘नह ि यतम।‘
‘‘नह ाणसखी।’’
‘‘अ छा हम तुम दोन ।’’
पित-प नी िखलिखलाकर हँस पड़े । िदवोदास ने मंजु को अंक म भरकर झकझोर डाला।

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