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देवांगना आचार्य चतुरसेन
देवांगना आचार्य चतुरसेन
राजपाल ए ड स ज़
1590, मदरसा रोड, क मीरी गेट-िद ली-110006
फोन: 011-23869812, 23865483, फै स: 011-23867791
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e-mail : sales@rajpalpublishing.com
आमख
ु
आजकल जहाँ भागलपुर नगर बसा है, वहाँ ईसा क बारहव शता दी म िव मिशला
नाम का सम ृ नगर था। नगर के साथ ही वहाँ िव िव ुत बौ िव ापीठ था। िव मिशला के
नगरसेठ धनंजय का िहमधौत धवल महालय आज िविवध रं ग क पताकाओं, ब दनवार और
मांगिलक िच से सजाया जा रहा था। िसंह ार का तोरण फूल से बनाया गया था। बड़े -बड़े
हािथय -घोड़ -रथ -पालिकय पर और दूसरे वाहन पर नगर के धनी-मानी नर-नारी, सेठ-
साहकार और राजवग य पु ष आज धनंजय सेिट्ठ के महालय म आ रहे थे। रं गीन कु क और
जड़ाऊ उ णीष पिहने िवनयधर और द डधर सोने-चाँदी के द ड हाथ म िलए दौड़-दौड़कर
समागत अितिथय क अ यथना कर रहते थे। दास-दासी, ारपाल सब अपनी-अपनी यव था म
य त रहे थे। महालय का वातावरण अितिथय और उनके वाहन क धम ू धाम और कोलाहल से
मुख रत हो रहा था।
नगर से धनंजय क आयु साठ को पार कर गई थी। उनका शरीर थल ू और रं ग मोती
के समान उ वल था। उनके ि न ध मुखम डल पर सफेद मँछ ू का गलमु छा उनक ग भीरता
का दशन कर रहा था। वह शु प रधान पिहने, क ठ म र नहार धारण िकए, म तक पर
बहमू य उ णीष पिहने समागत अितिथय का वागत कर रहे थे। उनके ह ठ अव य मु करा रहे
थे, पर उनका दय रो रहा था। उनका मुख भरे हए बादल के समान ग भीर और ने आ थे।
आज उनका इकलौता पु या लेकर िभ ुविृ हण कर रहा था। यह असाधारण समारोह
इसी के उपल य म था।
एक हजार िभ ुसंघ सिहत, आचाय भद त व िसि ांगण म पहँच चुके थे। िभ ुगण
पीत चीवर पिहने, िसर मंुडाए, म द वर से पिव का य का उ चारण कर रहे थे। उनका
सि मिलत कंठ वर वातावरण म एक अ ुत क पन उ प न कर रहा था। महालय म जो ग ध
य जल रहा था उसके सुवािसत धमू से सुरिभत वायु दूर-दूर तक फै ल रही थी। िविवध वा बज
रहे थे। स मािनत अितिथ आपस म धीरे -धीरे भाँित-भाँित क जो बातचीत म द वर से कर रहे थे
उससे सारी ही अ ािलका मुख रत हो रही थी।
धनंजय से ने य त भाव से इधर-उधर देखा। सामने ही उनका अ तेवासी िव त
सेवक सुखदास उदास मँुह चुपचाप िन े खड़ा था। सेठ ने कहा–‘‘भणे सुखदास, तिनक देख
तो, पु के तैयार होने म अब िकतना िवल ब है। िभ ुगण तो आ ही गए ह। अब परम भ ारक
महाराजािधराज और आचाय के आने म िवल ब नह है।’’
सुखदास ने मािलक क िवषादपण ू ि और कि पत वर को दयंगम िकया और
िबना ही उ र िदए वामी के स मुख म तक नत कर भीतर चला गया।
सुखदास सेठ का पुराना नौकर था। उसका इस महाजन के घर म प रवार के पु ष क
भाँित आदर-मान था। वह अधेड़ आयु का एक िठगना, मोटा और गौरवण का पु ष था। चाँद
उसक गंजी थी, चेहरा सदा हा य से भरा रहता था पर इस समारोह म उसका मँुह भी भरे हए
बादल के समान हो रहा था। वह सेठ के दु:ख और िववशता को जानता था। उसके पु क
मनोदशा भी समझता था। जो काय हो रहा था वह उसका क र िवरोधी था। पर तु वह िववश था।
बौ के पाख ड, दुराचार और दु विृ को वह जानता था। इन ढ गी िभ ुओ ं क
धषणा करने का वह कोई अवसर चक ू ता नह था।
महा ेि के पु का नाम िदवोदास था। वह बाईस वष का दशनीय युवक था। रं ग
उसका मोती के समान था। उ वल हीरक पंि -सी उसक धवल द ताविल थी। उ फु ल
कमलदल-से उसके ने थे और सघन घन गजन-सा उसका क ठ वर था। वह नवीन वषृ भ क
भाँित चलता था। उसका हा य जैसे फूल िबखेरता था।
सुखदास ने से पु को गोद िखलाया था। उसक अपनी कोई स तान न थी। इस
िनरीह द पित ने से पु म ही अपना वा स य समिपत िकया था। बालक िदवोदास सेवक
सुखदास के घर जाकर उसक गोद म बैठकर उसके हाथ से उसके घर का खा-सख ू ा भोजन
करता और उसी क गोद म सुखदास क कहािनयाँ सुनते-सुनते सो जाता था। ेि और उनक
गिृ हणी को इसम आपि न थी। पु के ित सुखदास के ेम से वे प रिचत थे। इसम उ ह
सुखोपलि ध होती थी।
इसी कार िदवोदास युवा हो गया। युवा होने पर भी सुखदास के ित उसक आसि
गई नह । वह उसे िपत ृ य कहकर पुकारता था। सुखदास िदवोदास के िववाह क िकतनी ही
रं गीन क पनाएँ करता। पित-प नी झठ ू को ही िदवोदास के िववाह क िकसी का पिनक बात
ू मठ
को लेकर लड़ पड़ते, और जब दोन िनणय के िलए ेि द पित के पास जाते, ेि द पित
िखलिखलाकर हँस पड़ते थे।
आज इन सब सुखद भावनाओं पर जैसे तुषारपात हो गया। सुखदास क ममकथा को
कौन जान सकता था! वह अपने हाहाकार करते हए दय क पीड़ा को िछपाकर अ त:पुर क
ओर चला गया।
अ त:पुर म प रचा रकाएँ िदवोदास को म पत ू जल से नान करा रही थ । पाँच िभ ु
म पाठ कर रहे थे। िदवोदास ग भीर थे।
उनके वणगात पर केसर का उबटन िकया गया था। सुग ध से क भर रहा था। चेरी
और सुहािगन मंगल गीत गा रही थ । प रचा रकाओं ने नान के बाद िदवोदास को बहमू य व
और आभषू ण पहनाए। यह देख गहृ प नी ने आँख म आँसू भरकर कहा–‘‘पु का यह कुछ ही
ण का ंग ृ ार है, िफर तो पीत चीवर और िभ ापा !’’ उसक आँख से झर-झर अ ुधार बह
चली।
सुखदास ने गिृ हणी का यह िवषादपण ू वा य सुन िलया। उसने ठ डी साँस लेकर
कहा–‘‘हाय, आज का यह िदन देखने ही को म जीिवत रहा!’’ पर तु शी ही उसने अपने को
स हाला। आँख क कोर म आए आँसू प छ डाले और आगे बढ़कर कहा–‘‘कुमार, मािलक क
आ ा है िक महाराजािधराज और आचाय के पधारने म अब देर नह है, तिनक ज दी करो।’’
कुमार ने ि थर वर म कहा–‘‘िपत ृ य, िपतच
ृ रण म िनवेदन कर दो िक यह दास तैयार
है।’’
सुखदास ने ण-भर ओस से भीगे हए शतदल कमल क भाँित सुषमा स प न कुमार
के मुख क ओर देखा—और ‘अ छा’ कहकर वहाँ से चला गया।
इसी समय ेि ने आकर दोन हाथ फै लाकर कहा–‘‘पु , यारे पु !’’
िदवोदास ने स मुख खड़े होकर कहा—‘‘िपतच ृ रण म अिभवादन करता हँ।’’
“आयु मान् हो, यश वी हो, पु ।’’
‘‘अनुगहृ ीत हआ।’’
‘‘तो पु , तुम तैयार हो?’’ ेि ने कि पत क ठ से कहा।
‘‘हाँ िपता।’’
‘‘पु , मेरा दय बैठा जा रहा है।’’
‘‘िपताजी, यह तो आन द का अवसर है।’’
‘‘अरे पु , तेरे िबना म रहँगा कैसे? यह सारी प ृ वी त तवे क भाँित अभी से जलती
दीख रही है। अब यह सुख-वैभव, धनरािश... हाय, मने सोचा था. .. िक तु महाराज क आ ा...’’
सेठ के ह ठ काँपे और ने से आँसू टपक पड़े ।
सुखदास ने य त भाव से आकर कहा—‘‘ वािमन्, महाराजािधराज ी गोिव दपाल
देव तथा िभ ु े आचाय ब धुगु पधार रहे ह।’’
धनंजय सेठ ने आँख पोछ और उनक अ यथना को दौड़ चले। उ ह ने महाराज और
िभ ु े क अ यथना क और क म ले आए।
िदवोदास ने भपू ात करके सा ांग णाम िकया।
ब धुगु ने दोन हाथ ऊँचे कर कहा—‘‘क याण, क याण!’’ िफर आगे बढ़कर सेठ से
कहा—‘‘ ेि राज, महासंघ थिवर व िसि ने आपका मंगल पछ ू ा है, तथा मंजु ी व तारा देवी
का यह ग धमा य िदया है।’’
धनंजय सेठ ने ग धमा य लेकर म तक पर र खा। और कहा–‘‘भला महासंघ थिवर
स न तो ह?’’
‘‘वे सदा सबक क याण-कामना म लगे रहते ह, वे सव यागी िस महापु ष ह, उ ह
सुख-दु:ख नह यापता।’’ िफर उ ह ने आगे बढ़कर कुमार के म तक पर हाथ धर कहा–‘‘ध य
कुमार! तुमने वही िकया जो तथागत ने िकया था, तु हारा जीवन ध य हआ।’’
िदवोदास ने मौनभाव से आचाय के चरण म म तक नवा िदया।
सेठ ने कहा–‘‘आचाय मने अपना कुल-दीपक धम के िलए िदया।’’
‘‘ ेि राज, यह संसार का दीपक बनेगा।’’
इस समय महाराज ने आगे बढ़कर सेठ के क धे पर हाथ धरके कहा–‘‘ या तुम बहत
दुखी हो ेि ।’’
‘‘नह देव, िक तु अब यही इ छा है िक ये महल-अटारी, धन- वण, सभी संघ क शरण
हो जाय, और वह अधम भी संघ के एक कोने म थान ा करे ।’’
आचाय ने स न मु ा म कहा–‘‘यह बहत अ छा िवचार है। ेि राज, धम म आपक
मित बनी रहे । अ छा, अब देर य ? अनु ान का मुहत तो सि नकट है।’’
‘‘सब कुछ तैयार है आचाय।’
‘‘तो चिलए।’’
सब लोग चले। आगे-आगे सुखदास माग बताता हआ। पीछे राजा, आचाय और धनंजय
ेि , उनके पीछे कुमार, कुमार के पीछे ि याँ मंगल गान करती हई और उनके पीछे मेहमान।
बाहर आने पर कुमार को सुखपाल पर सवार कराया गया। 16 द डधर सुखदास क
अ य ता म आगे-आगे चले। उनके पीछे ि याँ मंगल गान करती हई चल । उनके पीछे 100
दािसयाँ हाथ म पजू न साम ी लेकर चल । उनके पीछे 100 िभ ु नमोबु ाय’, ‘नमो अ रह ताय’
का उ चारण करते चले। पीछे हािथय , घोड़ , पालिकय पर समागत भ जन और पैदल।
राह म पुर-ि य ने अपने िसर के केश से माग क धल ू साफ क , नाग रक ने पथ पर
बहमू य दुशाले िबछाये। कुलवधुओ ं ने झरोख से िखले फूल बखेरे।
िविवध वा बज रहे थे, िभ ु मं पाठ करते चल रहे थे।
समारोह संघाराम के िवशाल ार के स मुख आ िव ततृ मैदान म क गया। सब कोई
पंि ब हो, त ध भाव से खड़े हो गये। सबक ि संघाराम के िवशाल िसंह ार पर थी,
िजसके पट ब द थे। उ ह को खोलकर महासंघ थिवर आने वाले थे।
या
संघारमा का िसंह ार बड़ा िवशाल था। वह गगनचु बी सात ख ड क इमारत थी। समारोह के
पहँचते ही संघाराम क बुिजय पर से भेरीनाद होने लगा।
संघाराम दुग क भाँित सुरि त था। उसका ार ब द था। सभी क ि उस ब द ार
पर लगी थी। यह ार कभी नह खुलता था। केवल उसी समय यह खोला जाता था जब कोई
राजा, राजकुमार या वैसी ही कोिट का यि दी ा हण कर िभ ु बनता था। ेि पु को इसी
ार से वेश होने का स मान िदया गया था।
बाजे बज रहे थे। िभ ुगण म द वर म ‘नमो अ रह ताय’, ‘नमो बु ाय’ का पाठ कर
रहे थे।
भेरीनाद के साथ ही िसंह ार खुला। सोलह िभ ु पिव पा लेकर वेदी के दोन ओर आ
खड़े हए। धीरे -धीरे आचाय व िसि वणद ड हाथ म ले ि थर ि स मुख िकए आगे बढ़े ।
उनके पीछे पाँच महािभ ु पिव जल का माजन करते तथा ग धमा य िलए प ृ वी पर ि गड़ाए
चले। उ ह देखते ही सब कोई प ृ वी पर घुटने टेककर झुक गए। आचाय सीढ़ी उतर िश य सिहत
कुमार के पास पहँचे। उ ह ने मंगल पाठ करके पिव जल कुमार के म तक पर िछड़का तथा
वि तपाठ करके–‘नमोबु ाय’, ‘नमोअ रह ताय’ कहा। कुमार िसर झुकाए उकड़ँ उनके चरण
म बैठे थे। आचाय ने कहा–‘‘उठो व स, और वेदी पर चलो।’’
वेदी पर बु क िवशाल ितमा थी। उसी के नीचे कुशासन पर महासंघ थिवर बैठे।
स मुख कुमार नतजानु बैठे। दी ा का ार भ हआ।
आचाय ने िभ ुसंघ को स बोिधत करके कहा–‘‘भ ते संघ सुने। यह से पु आयु मान्
िदवोदास उपस पदापे ी है। यिद संघ उिचत समझे तो आयु मान् िदवोदास को उपाचाय ब धुगु
के उपा याय व म उपस प न करे ।’’
इस पर संघ ने मौन स मित दी। तब आचाय ने दुबारा पछ ू ा–‘‘भ ते संघ सुने। संघ
आयु मान िदवोदास को उपाचाय ब धुगु के उपा याय व म उपस प न करता है। िजसे
आयु मान् िदवोदास क उपस पदा आचाय ब धुगु के उपा याय व म वीकार है, वह चुप रह।
िजसे वीकार नह वह बोले।’’
उ ह ने दूसरी बार भी, और िफर तीसरी बार भी यह घोषणा ािपत क । और संघ के
चुप रहने पर घोिषत िकया गया िक संघ को वीकार है।
‘‘अब उपाचाय आयु मान् को उपस पदा द– या द।’’
इस पर उपाचाय ब धुगु ने िदवोदास से कहा–‘‘आयु मान्, या उपस पदा दँू?’’
तब िदवोदास ने उठकर वीकृित दी। उसने सब व ालंकार याग िदया और पीत चीवर
पिहन, संघ के िनकट जा दािहना क धा खोलकर एक क धे पर उ रासंग रख िभ ु चरण म
व दना क -िफर उकड़ँ बैठकर हाथ जोड़कर कहा :
‘‘भ ते संघ से उपस पदा पाने क याचना करता हँ। भ ते संघ दया करके मेरा उ ार
करे ।’’
उसने िफर दूसरी बार भी और तीसरी बार भी यही याचना क ।
तब संघ क अनुमित से आचाय ब धुगु ने तीन शरण गमन से उसे उपस प न िकया।
िदवोदास ने उकड़ँ बैठकर–‘बु ं शरणं ग छािम।’ ‘संघं शरणं ग छािम।’ ‘ध मं शरणं
ग छािम’ कहा।
आचाय ने पुकारकर कहा–‘‘िभ ुओ! अब यह िभ ु धमानुज प म िजत और
उपस प न होकर सि मिलत हो गया है। तुम सब इसका वागत करो।’’ इस पर िभ ु संघ ने
जयघोष ारा िभ ु धमानुज का वागत िकया।
इसके बाद आचाय ने कहा–‘‘आयु मान्, अब तू अपने क याण के िलए और जगत् का
क याण करने के िलए गु ान अजन कर। ार पंिडत क शरण म जा और िवहार वेश कर।’’
ार वेश
महासि धक व िसि िदवोदास को या और उपस पदा देकर िवहार म लौट गए। िसंह ार
ब द हो गया। नगर से धनंजय ने आँख म आँसू भरकर अव क ठ से कहा–‘‘धम के िलए,
वग के िलए, क याण के िलए मने तुझे िवसिजत िकया। जा पु , अमर व ा कर।’’
उ ह ने पु क प रजन सिहत दि णा क और चौधारे आँसू बहाते घर को लौट गए।
शेष ब धु-बा धव भी चले गए। अकेला सुखदास िदवोदास के पास खड़ा रह गया। िदवोदास ने भरे
हए बादल के वर म कहा–‘‘िपत ृ य, अब तुम भी जाओ। मेरा माग तो अब सबसे ही पथ ृ क् है।’’
पर तु सुखदास ने कहा–‘‘पु , तेरे िबना म कैसे जीऊँगा। वामी के पास धन-र न है,
मेरे पास तो वह भी नह । तुम जैसे र न को गँवाकर भला अब म कैसे लौट जाऊँ? म भी मड़ ू
मुड़ाकर िभ ु बन साथ ही रहँगा। िबना मेरी सहायता के तो तुम पानी भी नह पी सकते पु ।’’
िदवोदास ने कहा–‘‘िपत ृ य, तब बात और थी। और अब बात दूसरी है। अब तो मने याग
का त िलया है। उन सब बात से अब या योजन है भला।’’
‘‘तो पु , तू इस अिकंचन दास को भी याग देगा? ऐसा तू िनमम और कठोर कैसे बन
सकता है पु , िफर मेरी व ृ ाव था को तो देख तिनक।’’
सुखदास ने िदवोदास को अंक म भर िलया। िदवोदास ने कहा–‘‘िपत ृ य, सबसे थम
हम माया-मोह-ममता ही को तो यागना है। इसका याग नह हआ तो िफर भला स म क शरण
जाकर या िकया!’’
‘‘िक तु पु , तु हारे इस स म म मेरी तिनक भी ा नह है। इन पाख डी िभ ुओ ं को
म भलीभाँित जानता हँ। यह सब तु हारे िपता क स पदा को हरण करने के ढ ग ह। तु ह इस
माग म क टक थे, सो उ ह ने इस कार तु ह उखाड़ फका। पर तु म अपने जीते जी उनक नह
चलने दँूगा। तु ह भी म अपनी आँख से ओझल नह होने दँूगा।’’
‘‘िपत ृ य, अब यह समय इन बात पर िवचार करने का नह है। म तो शु बुि ही से
धम क शरण आया हँ। िकसी षड्य का िशकार म नह बनँग ू ा। तुम िनि त रहो, िपत ृ य।’’
‘‘तो पु , म तु हारे साथ हँ। आज से इस धम-पाख ड का उ मल ू न करना मेरा धम
हआ।’’
‘‘और म भी स म क शुि के य न म कुछ उठा न रखँग ू ा। अब तुम जाओ िपत ृ य।
अभी मुझे ार पि डत क किठन परी ाओं म उ ीण होना है। ऐसा न हो- ार पि डत मुझे
अयो य घोिषत कर द और मेरा कुल दूिषत हो। जाओ तुम, िपता जी और माता को सा वना
देना।’’
‘‘जाता हँ पु , पर शी ही िमलँगू ा।’’
सुखदास ने आँख प छी और चल िदया। अब िदवोदास पवू ार क ओर बढ़े —र नाकर
शाि त पवू ार का ारपि डत था। यह महावैयाकरण था। ार पर पहँचकर उसने घ टघोष
िकया। घोष सुनकर ारपि डत ने गवा से झाँककर कहा—‘‘कौन हो?’’
‘‘अिकंचन िभ ु।’’
‘‘ या चाहते हो?’’
‘‘ वेश।’’
‘‘तो यह पवू ार है। इसका स ब ध श दशा िव ालय से है। या तन ू े श द शा
का अ ययन िकया है? तू मेरे साथ शा ाथ करने को उ त है?’’
‘‘म ाना वेषी हँ, म धम क शरण आया हँ। म धमत व सीखना चाहता हँ।’’
‘‘तो भ , तू दूसरे ार पर जा। इस ार से तेरा वेश नह होगा। तब िदवोदास दि ण
ार पर गया। यहाँ का ारपि डत ाकर यित था। या तू हे तु-िव ा सीखना चाहता है, या
तनू े अिभधम कोष पढ़ा है?’’
‘‘नह आचाय, म ाना वेषी हँ। म धम क शरण आया हँ। म धमत व सीखना चाहता
हँ।’’
‘‘तो भ , तू तीसरे ार पर जा। इस ार से तेरा वेश नह होगा।’’
िदवोदास ने तब पि छम ार पर पहँचकर घ टघोष िकया। पि छम ार का ारपि डत
ान ी िम था। घ टघोष सुनकर उसने कहा–‘‘भ , या तू सां य और वेद पढ़ना चाहता है,
या तन ू े िन और षडं ग पाठ िकया?’’
िदवोदास ने कहा–‘‘म ाना वेषी हँ, म धम क शरण आया हँ, म धमत व सीखना
चाहता हँ।’’
‘‘तो भ , तू अ य ार पर जा।’’
तब िदवोदास उ र ार पर पहँचा और घ टघोष िकया। वहाँ का ार पि डत नरोप न
था। उसने पछ ू ा–‘‘ या चाहता है भ !’’
‘‘म ाना वेषी हँ। म धम क शरण आया हँ। म धमत व सीखना चाहता हँ।’’
तब ारपि डत ने पछ ू ा–‘‘ या तू िभ ु-पाितिभ ख का पाठ करता है?’’
‘‘करता हँ भ ते।’’
‘‘ या तू पवू करण और उपोसथ कम करता है?’’
‘‘करता हँ भ ते।’’
‘‘तू अ तराियक कम नह करता है?’’
‘नह करता हँ भ ते।’’
‘‘तो भ , तू भीतर आ और थम के ीय ारपि डत र नव क शरण म जा।’’
िदवोदास ने िवहार के भीतर वेश िकया। तब वह के ीय ारपि डत र नव के स मुख आ
ब ांजिल खड़ा हआ।
र नव कठोर और शु क कृित के पु ष थे। व यान म -त और िसि य के
ाता िस थे। रं ग उनका काला और आकृित बेडौल थी। उ ह ने भाँित-भाँित के िदवोदास
से पछ ू े । अनेक म -त , जादू-टोन से उसक परी ा ली, और अ त म उ ह ने उसे अ तेवासी
बना िवहार का ार खोल िदया। िदवोदास िवहार म वेश पा गए। िनयमानुसार उनके िनवास
आिद क यव था हो गई। यह एक असाधारण किठनाई थी, िजस पर उ ह ने िवजय पाई।
िवहार
ात:काल का समय था। िवहार का िसि ार अभी खुला ही था। इस ार से नाग रक ालु
जन, ावक और बाहरी िभ ु िवहार के बिहर तरायण म आ-जा सकते थे, िक तु िवहार के भीतर
नह िव हो सकते थे। इस समय बहत-से गहृ थ नाग रक देवी व तारा के दशन को आ-जा
रहे थे। िभ ु गण इधर-उधर घम ू रहे थे। कोई सू घोख रहा था। कोई चीवर धो रहा था। कोई
नान-शुि म लगा था। सुखदास िभ ु वेश म ध मपद गुनगुनाता िदवोदास क खोज म इधर-
उधर घम ू रहा था। िदवोदास का कह पता नह लग रहा था।
एक िभ ु ने उसे टोककर कहा–‘‘मख ू , िवहार म गाता है? नह जानता, गाना िवलास
है, िभ ु को म -पाठ करना चािहए।’’
सुखदास ने आँख कपार पर चढ़ाकर कहा–‘‘मुझे मख ू कहने वाला ही मखू है। अरे , म
ि गुण सू का पाठ कर रहा हँ, जानता है?’’
“ि गुण सू ?’’
‘‘हाँ-हाँ, पर वह क ठ से उतरता नह है। जानते हो ि गुण सू ?’’
‘‘नह जानता भद त, तुम कौन यान म हो?’’
‘‘बात मत करो, सू भल ू ा जा रहा है।’’ सुखदास गुनगुनाता िफर एक ओर को चल
िदया। कुछ दूर जाकर उसने आप ही आप भुनभुनाते हए कहा–‘‘वाह, या- या सफाचट
खोपिड़याँ यहाँ जमा ह, जी चाहता है िदन-भर इ ह चपितयाता रहँ। पर अपने राम को कुमार को
टटोलना है। पता नह इस समु से कैसे वह मोती ढूँढ़ा जाएगा। वह एक बढ़ ू ा िभ ु जा रहा है,
पुराना पापी दीख पड़ता है। इसी से पछ ू ू ँ ।’’ सुखदास ने आगे बढ़कर कहा–‘‘भद त, नमो
बु ाय।’’
‘‘नमो बु ाय।’’
‘‘भद त, कह सकते हो, िभ ु धमानुज कहाँ है?’’
‘‘तुम मख ू तीत होते हो। नह जानते वह महातामस म आचाय क आ ा से ायि
कर रहा है!’’
‘‘यह महातामस कहाँ है भद त?’’
‘‘शा तं पापं, अरे , महातामस म तुम जाओगे? जानते हो वहाँ जो जाता है उसका िसर
कटकर िगर पड़ता है। वहाँ च सठ सह डािकिनय का पहरा है।’’
‘‘ओहो हो, तो भद त, िकस अपराध म िभ ु धमानुज को महातामस िदया गया है?’’
इतने म दो-तीन िभ ु वहाँ और आ गए। उ ह ने सुखदास क अि तम बात सुन ली।
सुनकर वे बोल उठे –‘‘मत कहो, मत कहो, कहने से पाप लगेगा।’’
उसी समय आचाय भी उधर आ िनकले। आचाय ने कहा :
‘‘तुम लोग यहाँ या गो ी कर रहे हो?’’
‘‘आचाय, यह िभ खु कहता है...।’’
‘‘ या?’’
‘‘समझ गया, तुम लोग ने महािनवाण सु घोखा नह ।’’
‘‘आचाय, यह िभ खु पछ ू ता है...।’’
‘‘ या?’’
‘‘पाप, पाप, भारी पाप।’’
‘‘अरे कुछ कहोगे भी या य ही पाप-पाप?’’
‘‘कैसे कह, पाप लगेगा आचाय।’’
‘‘कहो, मने पिव वचन से तु ह पापमु िकया।’’
‘‘तब सुिनये, वह जो नया िभ ु िदवोदास...।’’
‘‘धमानुज कहो। वह तो महातामस म है?’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘महातामस म, वह चार मास म दोषमु होगा।’’
‘‘िक तु यह िभ खु कहता है िक म वहाँ जाऊँगा।’’
‘‘ य रे ?’’ आचाय ने आँख िनकालकर सुखदास क ओर देखा।
सुखदास ने ब ांजिल होकर कहा–‘‘िक तु आचाय, िभ ु धमानुज ने या अपराध
िकया?’’
‘‘अपराध? अरे तू उसे केवल अपराध ही कहता है।’’
‘‘आचाय, मेरा अिभ ाय पाप से है।’’
‘‘महापाप िकया है उसने, उसका मन भोग-वासना म िल है, वह कहता है, उस पर
बला कार हआ है। मन क शुि के िलए संघ थिवर ने उसे चार मास के महातामस का आदेश
िदया है।’’
‘‘कैसी मन क शुि आचाय?’’
‘‘अरे ! तू कैसा िभ ु है िवहार के साधारण धम को भी नह जानता?’’
‘‘िक तु इसी बात म इतना दोष?’’
‘‘बु ं शरणं। तू िनरा मख ू है। तुझे भी ायि करना होगा?’’
‘‘ या गरम सीसा पीना होगा?’’
‘‘ठीक नह कह सकता, िवधान िपटक म तेरे िलए दस हजार ायि ह।’’
‘‘बाप रे , दस हजार?’’
‘‘जाता हँ, अभी मुझे सू पाठ करना है। देखता हँ िवहार अनाचार का के बनता जा
रहा है।’’
आचाय बड़बड़ाते एक ओर चल िदए। सुखदास मँुह बाए खड़ा रह गया।
व तारा का मि दर
बड़ा मनोहर भात था। शीतल-म द समीर झकोरे ले रहा था। मंजुघोषा ात:कालीन पज ू ा के िलए
संिगनी देवदािसय के साथ फूल तोड़ती-तोड़ती कुछ गुनगुना रही थी। उसका दय आन द से
उ लिसत था। कोई भीतर से उसके दय को गुदगुदा रहा था। एक सखी ने पास आकर कहा :
‘‘बहत खुश दीख पड़ती हो, कहो, कह लड्डू िमला है या?’’
मंजु ने हँसकर कहा–‘‘िमला तो तु ह या?’’
‘‘बिहन, हम भी िह सा दो।’’
‘‘वाह, बड़ी िह से वाली आई।’’
‘‘इतने म एक और आ जुटी। उसने कहा–‘‘यह काहे का िह सा है बिहन!’’
पिहली देवदासी ने कहा :
‘‘अरे हाँ, या बहत मीठा लगा बिहन?’’
मंजु ने खीजकर कहा–‘‘जाओ, म तुमसे नह बोलती।’’
सबने कहा–‘‘हाँ बिहन, यह उिचत भी है। बोलने वाले नये जो पैदा हो गए।’’
‘‘तुम बहत दु हो गई हो।’’
‘‘हमने तो केवल नजर पहचानी थ ।’’
‘‘और हमने देन-लेन भी देखा था।’’
‘‘पर केवल आँख -आँख ही म।’’
‘‘ह ठ म नह ?’’
‘‘अरे वाह, इसी से सखी के ह ठ म आन द क रे ख फूटी पड़ती है।’’
‘‘और ने से रसधार बह रही है।’’
मंजु ने कहा–‘‘तुम न मानोगी?’’
एक ने कहा–‘‘अरी, सखी को तंग न करो। िह सा नह िमलेगा।’’
दूसरी ने कहा–‘‘कैसे नह िमलेगा, हम उससे माँगगी।’’
तीसरी बोली—‘‘िकससे?’’
‘‘िभ ु से।’’
मंजु ने कोप से कहा–‘‘लो म जाती हँ।’’
‘‘हाँ-हाँ, जाओ बिहन, बेचारा िभ ु...’’
‘‘कौन िभ ु? कैसा िभ ु?’’
‘‘अजी वही, िजससे रात म फूल-माला लेकर चुपचाप कुछ दे िदया था।’’
‘‘और हमसे पछ ू ा भी नह !’’
‘‘तुम सब दीवानी हो गई हो।’’
‘‘सच है बिहन, हमारी बिहन खड़े -खड़े लुट गई तो हम दीवानी भी न ह ।’’
मंजु उठकर खड़ी हई। इस पर उसे सबने पकड़कर कहा :
‘‘ ठ गई रानी, भला हमसे या परदा? हम तो एक ही थैली के च े-ब े ह।’’
‘‘और देवताओं क दािसयाँ ह।’’
‘‘अजी देवताओं क य ? देवताओं के दास क भी।’’
‘‘पर सखी, िभ ु है एक ही छैला।’’
‘‘वाह, कैसी बाँक िचतवन कैसा प!’’
‘‘िभ ु है तो या है? सैकड़ नागर से बढ़-चढ़कर है।’’
‘‘चल रहने दे, दुिनया म एक से एक बढ़कर भरे पड़े ह।’’
‘‘अरी जा, हमने देखा है तेरा वह छैला, गधे क तरह रकता है।’’
‘‘अपने उस भसे को देख, स ग भी नापे ह उसके?’’
‘‘अरी लड़ती य हो, िभ ु है िकसी बड़े घर का लड़का।’’
‘‘सुना है बड़े सेठ का बेटा है।’’
‘‘होगा, अब तो िभ ु है।’’
मंजु ने कहा–‘‘िभ ु है तो या, दय का तो वह राजा है!’’
सखी ने कहा–‘‘अरे , हमारी सखी मंजु उसके दय क रानी है।’’
‘‘अ छा, तो िफर?’’
‘‘बस तो िफर, िह सा।’’
‘‘जाओ-जाओ, मँुह धो रखो।’’ मंजु भागकर दूसरी ओर चली गई। सिखयाँ
िखलिखलाकर हँसने लग । मंजु एक गीत क कड़ी गुनगुनाती िफर फूल चुनने लगी। चुनते-
चुनते वह सिखय से दूर जा पड़ी। उधर उ ान म एक तालाब था। उसी तालाब के िकनारे हरी-हरी
घास पर िदवोदास और सुखान द बैठे बातचीत कर रहे थे। फूल तोड़ते-तोड़ते मंजु वह जा पहँची।
िदवोदास को देखा तो वह धक् से रह गई। िदवोदास ने भी उसे देखा। उसने कहा–‘‘िपत ृ य, यह
तो वही देवदासी आ रही है।’’
‘‘तो भैया, यहाँ से भगा चलो, नह फँस जाओगे।’’
पर तु िदवोदास ने सुखदास क बात नह सुनी। वह उठकर मंजु के िनकट पहँचा और
कहा :
‘‘यह तो अयािचत दशन हआ।’’
‘‘िकसका?’’
‘‘आपका।’’
‘‘नह , आपका।’’
‘‘िक तु आप देवी ह।’’
‘‘नह , म देवदासी हँ।’’
‘‘भा यशािलनी देवी।’’
‘‘अभािगनी देवदासी।’’
अब सुखदास भी उठकर वहाँ आ गया। उसने िपछली बात सुनकर कहा :
‘‘नह , नह , ऐसा न कहो देवी।’’
िदवोदास ने कहा–‘‘तुम भात क पिहली िकरण के समान उ वल और पिव हो।’’
‘‘म िम ी के ढे ले के समान िन सार और िनरथक हँ।’’
‘‘अरे , आँख म आँस?ू िपत ृ य, यह इतना दु:खी य ?’’
सुखदास ने कहा–‘‘जो कली अभी िखली भी नह , सुग ध और पराग अभी फूटा भी
नह , उसम क ड़ा लग गया है?’’
िदवोदास ने कहा–‘‘बोलो, तु ह या दु:ख है?’’
‘‘म अ ातकुलशीला अकेली, असहाया, अभािगनी देवदासी हँ, इसम मेरा सारा दु:ख-
सुख है।’’
‘‘तो मेरे ये ाण और शरीर तु हारे िलए अिपत ह।’’
‘‘म कृताथ हई, िक तु अब जाती हँ।’’
‘‘इस तरह न जा सकोगी, तुमने अपने आँसुओ ं म मुझे बहा िदया है, कहो या करने से
तु हारा दु:ख दूर होगा। तु हारे दु:ख दूर करने म मेरे ाण भी जाएँ , तो यह मेरा अहोभा य
होगा।’’
सुखदास ने कहा–‘‘अपने िदल क गाँठ खोल दो देवी, भैया बात के बड़े धनी ह।’’
‘‘ या कहँ, मेरा भा य ही मेरा सबसे बड़ा दु:ख है। िवधाता ने जब देवदासी होना मेरे
ललाट म िलख िदया, तो समझ लो िक सब दु:ख मेरे ही िलए िसरजे गए ह। िजस ी का अपने
शरीर और ाण पर अिधकार नह , िजसक आ मा िबक चुक है, िजसके दय पर दासता क
मुहर है, ित ा, सती व, पिव ता िजसके जीवन को छू नह सकते, िजसका प-यौवन सबके
िलए खुला हआ है, जो िदखाने को देवता के िलए ंग ृ ार करती है, पर तु िजसका ंग ृ ार वा तव
म देवदशन के िलए नह , ंग ृ ार को देखने आए हए ल पट कु के रझाने के िलए ह, ऐसी
अभािगनी देवदासी के िलए अपने पिव बहमू य ाण को दे डालने का संक प न करो िभ ु।’’
उसने चलने को कदम बढ़ाया। पर तु िदवोदास ने आगे आकर और राह रोककर
कहा–‘‘समझ गया, पर तु ठहरो। मुझे एक बात का उ र दो। तुम इस न हे -से दय म इतना
दु:ख िलए िफरती हो, िफर तुम उस िदन िकस तरह न ृ य करती हई उ लास क मिू त बनी हई
थ ?’’
‘‘इसके िलए हम िववश ह, यह हमारी कला है, उसका हमने वष अ यास िकया है।’’
उसने हँसने क चे ा क । पर उसक आँख से झर-झर आँसू िगरने लगे।
िदवोदास ने उसका हाथ थामकर ढ़ वर म कहा–‘‘देवी, म तु ह येक मू य पर इस
दासता से मु क ँ गा, म तु हारे दय को आन द और उमंग से भर दँूगा।’’
िदवोदास ने उसके िब कुल िनकट आ नेहिस वर म कहा–‘‘म तु हारे जीवन क
कली-कली िखला दँूगा।’’
उसने एक बड़ा-सा फूल उसक डोलची म से उठाकर, उसके जुड़े म ख स िदया। और
उसके क धे पर हाथ धरकर कहा :
‘‘तु हारा नाम?’’
‘‘मंजुघोषा, पर तुम ‘मंजु’ याद रखना, और तु हारा ि य?”
‘‘म िभ ु धमानुज हँ।’’
‘‘धमानुज?’’
एक हा यरे खा उसके ह ठ पर आई और एक कटा िदवोदास पर छोड़ती हई वह वहाँ से
भाग गई।
सुखदास ने कहा–‘‘भैया, यह बड़ी अ छी लड़क है।’’
‘‘िपत ृ य, तुम सदा उस पर नजर रखना, उसक र ा करना, उसे कभी आँख से
ओझल नह होने देना, मुझे उसक खबर देते रहना।’’
सुखदास ने हँसकर कहा–‘‘िफकर मत करो भैया, इसी से तु हारी सगाई कराऊँगा।’’
सुखदास एक गीत क कड़ी गुनगुनाने लगा।
अिभसि ध
वैसा ही मनोरम भात था। िदवोदास उसी पु क रणी के तीर पर उसी व ृ क छाया म बैठा,
िनमल जल म खेलती लहर को देख रहा था। वह कोई गीत गा रहा था। और उसका मन फु ल
था। उसने ेमिवभोर हो आप ही आप कहा– ेम- ेम- ेम, ेम के मरण से ही आ मा कैसी हरी हो
जाती है! दय म िहलोर उठती ह, जैसे नये ाण शरीर म आ गए ह । वह जैसे य मंजु क
प-माधुरी को देखने लगा। उसके मँुह से िनकला–‘‘वाह, कैसी प-माधुरी है, कैसी िचतवन है,
वीणा झंकार के समान उसक वरलहरी र क बँदू को उ म कर डालती है। पर तु खेद है,
मुझे और कदािचत् उसे भी इस िवषय पर िच तन करने का अिधकार नह है। म िभ ु हँ और वह
देवदासी। मेरे िलए संसार िम ी का ढे ला है और उसके िलए अ धेरा कुआँ। वह कुछ देर चुपचाप
एकटक लहर को देखता रहा। िफर उसने आप ही आप असंयत होकर कहा–‘‘ या यही धम है?
पर तु इस धम का तो जीवन के साथ कुछ भी सहयोग नह दीखता? वह धम कैसा? जो जीवन
से दूर है-जीवन का िवरोधी है, जो जीवन का पातक है। नह , नह , वह धम नह है—पाख ड है।
यार ही सब धम से बढ़कर धम है।’’
उसे दूर से मंजु क वर-लहरी सुनाई दी। वह उठकर इधर-उधर देखने लगा। मंजु फूल
से भरी टोकरी िलए उसी ओर गुनगुनाती आ रही थी। िदवोदास ने कहा–‘‘आहा, वही वग क
सु दरी है। कैसी अपािथव इसक सुषमा है! वन सज गया, संसार सु दर हो गया।’’ उसने आगे
बढ़कर कहा...
‘‘मंजु!’’
‘‘ या तुम? िभ ु धमानुज!’’
‘‘हाँ मंजु! िकस शि ने मुझसे तु ह इस समय यहाँ िमला िदया, कहो तो?’’
‘‘ ेम क शि ने ि य िभ ु, या तुम ेम के िवषय म कुछ जानते हो?’’
‘‘ओह, कुछ-कुछ, िक तु तु हारा वह गान कैसा दय को उ म करने वाला था।’’
‘‘तु ह ि य लगा?’’
‘‘बहत-बहत, उसने मेरे दय क वीणा के तार को छे ड़ िदया है, वे अब िमलना ही
चाहते ह। देवी, कैसा सु दर यह संसार है, कैसा मनोहर यह भात है, और उनसे अिधक तुम,
केवल तुम।’’
‘‘ या तुमसे भी अिधक िभ ुराज?’’
‘म या तु ह सु दर दीख पड़ता हँ?’’
‘‘तुम बहत ही सु दर हो ि य,” मंजु ने िनकट आकर उसका उ रीय छू िलया।
िदवोदास ने उसका आँचल पकड़कर कहा–‘‘मंजु, म तु ह यार करता हँ— ाण से भी
अिधक- या तुम जानती हो!’’
मंजु का क ठ सख ू गया—उसने भयभीत वर म कहा–‘‘ यार, नह -नह , यह अस भव
है।’’
‘‘नह ि ये, यह खबू स भव है।’’
मंजु ने िदवोदास का चीवर छूकर कहा–‘‘िभ ुराज, अपना यह चीवर देखो और मेरे
क ठ का यह गल ह!’’ उसने क ठ म लटकती देवता क मिू त क ओर संकेत िकया। िफर उसने
टूटते वर म कहा–‘‘हम दोन न जीव ह ि य, ेम के अिधकारी नह ।’’
िदवोदास ने आवेश म आकर कहा–‘‘मेरा यह वेश और तु हारा गल ह झठ ू ा आड बर है।
स ची व तु हमारा दय है, और वह ेम से प रपण ू है। यिद दय- दय को ख चता है तो म
कहँगा, मेरी तरह तुम भी ेम का घाव खा गई हो।’’
मंजु िसर नीचा िकए खड़ी रही–िदवोदास ने कहा–‘‘बोलो, या तुम भी मुझसे ेम
करती हो?’’
‘‘यह तो िभ ु के पछू ने यो य नह है ि य, और...।’’
‘‘और या?’’
‘‘अभािगनी देवदासी के सुनने यो य भी नह । इसी से कहती हँ, मुझे जाने दो-म जाती
हँ।’’
‘‘जाना नह । मेरे का उ र दो।’’
पर तु मंजु ने उ र नह िदया। वह भिू म पर ि गड़ाए खड़ी रही। िदवोदास ने आवेिशत
होकर कहा–‘‘कहो, कहो, सच बात कहो।’’
‘‘कहती हँ।’’ इन श द के साथ ही मंजु क आँख से टप-टप आँसू टपक पड़े । उसने
कुछ कहना चाहा, पर उसके मँुह से बोल नह फूटा। वह वहाँ से चलने लगी। िदवोदास ने बाधा
देकर कहा–‘‘तब जाती कहाँ हो ि ये, इस प ृ वी पर कोई शि नह , जो हम पथ ृ क् कर सके।
आओ हम पित-प नी के पिव सू म बँध जायँ। यह उ व मुख सय ू और यह पितत पावनी गंगा
हमारी सा ी रहगे।’’ उसने कसकर मंजु को आिलंगन-पाश म बाँध िलया।
मंजु ने छटपटाकर कहा–‘‘िभ ुराज!’’
‘‘कौन िभ ुराज, म िव मिशला के महा से धनंजय का इकलौता पु िदवोदास हँ,’’
उसने अपना चीवर चीर-चारकर फक िदया।
मंजु ह क -ब क खड़ी देखती रह गई। उसके मँुह से बड़ी देर तक बोली न िनकली।
िफर उसने कहा–‘‘ यारे , जानते हो इस अपराध का द ड केवल म ृ यु है।’’
‘‘ या म ृ यु से तुम डरती हो ि ये?”
‘‘मुझे म ृ यु से भय नह । म तु हारे िलए डरती हँ, ि ये।”
‘‘म िनभय हँ। और सारे संसार के सामने म ेि राज धनंजय का पु , आज से धमत:
तु हारा पित हआ।’’
मंजु ने पुलिकत गात होकर अ त- य त वर म कहा–‘‘और ेि पु , म िल छिवराज
कुमारी भगवती मंजुघोषा आज से धमपवू क तु हारी प नी हई।’’
िदवोदास ने आ य से उछलकर कहा–‘‘ या कहा? िफर कहो? राजकुमारी भगवती
मंजुघोषा?’’
‘‘िक तु तु हारी िचरिकंकरी ि यतमा।” उसने िदवोदास क छाती म िसर िछपा िलया।
िदवोदास ने उसे कसकर छाती से लगा उसके मुख पर थम चु बन अंिकत िकया।
मंजुघोषा ने अपने आँचल से एक भ य माला िनकालकर कहा–‘‘इसे मने िन य क
भाँित अपने देवता के िलए बनाई थी, सो उसे अपनी हािदक अिभलाषाओं के साथ दय के देवता
को अपण करती हँ।’’
माला उसने िदवोदास के क ठ म डाल दी। िदवोदास ने माला को चमू कर और हँसकर
कहा–‘‘यह देव साद तो भगवान् ही पा सकता है। देखो, यह माला ही हमको एक कर देगी।’’
उसने वही माला क ठ से उतारकर मंजुघोषा के गले म डाल दी। दोन िखल-िखलाकर
हँस पड़े , और गाढ़ािलंगन म ब हो गए।
गु के स मख
ु
उन िदन राजा के साल का भी बहत मह व था। िवलासी राजा लोग नीच-ऊँच, जात-पाँत का
िबना िवचार िकए सब जाित क लड़िकय को अपनी रानी बना लेते थे। िववाह करके और िबना
िववाह के भी। आय के धम म पुरानी मयादा चली आई है िक उ च जाित के लोग नीच जाित क
लड़क से िववाह कर सकते थे। यह मयादा अ य जाित वाल ने इस काल म बहत कुछ याग दी
थी और वे अपनी ही जाित म िववाह करने लगे थे। पर राजा अभी तक जात-पाँत क परवाह न
करते थे। छोटी जाित क सु दरी लड़िकय को खोज-खोजकर अपनी अंकशाियनी बनाते थे।
बहत लोग अपना मतलब साधने के िलए अपनी लड़िकयाँ घस ू दे-देकर राजा के रं ग महल म
भेजते थे। खास कर धानम ी क लड़क तो राजा क एक रानी बनती ही थी, जो उसके िलए
चतुर जासस ू और आलोचक का काम देती थी। इस था का एक प रणाम यह होता था िक राजा
के साल क एक फौज तैयार हो जाती थी। नीच जाित के दु र लोग िकसी भी ऐसी लड़क से
स ब ध जोड़कर—जो िकसी भी प म रं ग-महल म राजा क अंकशाियनी हो चुक हो-उसके
भाई बन जाते और अपने को बड़ी अकड़ से राजा का साला घोिषत करते थे। इन राजा के साल
क कह कोई दाद-फ रयाद न थी। ये चाहे िजस भले आदमी के घर म घुस जाते, उसक कोई भी
व तु उठा ले जाते, हाट-बाजार से दूकानदार का माल उठाकर च पत हो जाते। इन पर कोई
मामला मुकदमा नह चला सकता था। ‘म राजा का साला’, इतना ही कह देने भर से यायालय
के यायाधीश भी उनके िलए कुस छोड़ देते थे। बहधा इन साल का वेश राजदरबार म हो जाता
था। और यो यता क िच ता न करके इ ह रा य म बड़े -बड़े पद िमल जाते थे। वहाँ बैठकर ये
लोग अ धेर-गिदयाँ िकया करते थे। ऐसा ही वह साम ती काल था, जब बारहव शता दी समा
हो रही थी।
काशी के बाजार म कािशराज का साला श भुदेव मुसािहब सिहत नगर मण को
िनकला। हाट-बाजार सुनसान था। दूकान ब द थ । पहर रात बीत चुक थी। सड़क पर धँुधला
काश छा रहा था। राजा का यह साला नगर कोतवाल भी था।
चलते-चलते उसने मुसािहब से कहा–‘‘खेद है िक कामदेव के बाण से घायल होकर
रात-िदन सुरा-सु द रय म मन फँस जाने से नगर का कुछ हाल-चाल महीन से नह िमल रहा
है।’’
मुसािहब ने हाथ बाँधकर कहा–‘‘धन-धम-मिू त, आपको नगर क इतनी िच ता है!’’
श भुदेव ने कपाल पर आँख चढ़ाकर कहा–‘‘नगर क िच ता मुझे न होगी तो या
राजा को होगी! अरे , आिखर नगर कोतवाल म हँ या राजा?’’
सब मुसािहब ने हाथ बाँधकर कहा–‘‘हाँ, महाराज, हाँ, आप ही नगर कोटपाल ह
धमावतार।’’
‘‘तब हम ही राजा समझो। राजा के बाद बस...’’ उसने एक िवशेष कार का संकेत
िकया और हँस िदया।
सब मुसािहब ने िबना आपि कोटपाल के मत म सहमित दे दी। इस पर स न होकर
श भुदेव ने कहा–‘‘तब मुझे नगर क ब ती क िच ता तो रखनी ही चािहए। अरे चर िम यान द,
नगर का हाल-चाल कह।’’
िम यान द ने हाथ बाँधकर िवनयावनत हो कहा–‘‘जैसी आ ा महाराज, पर तु
अभयदान िमले तो स य-स य कहँ।’’
‘‘कह, स य-स य कह। तुझे हमने अभयदान िदया। हम नगर कोटपाल ह िक नह !’’
‘‘ह, महाराज। आप ही नगर कोटपाल ह।’’
‘‘तब कह, डर मत।’’
‘‘सुिनए महाराज! नगर म बड़ा गड़बड़झाला फै ला हआ है। वे याय और उनके अनुचर
भखू मर रहे ह। लोग अपनी-अपनी सड़ी-गली धम-पि नय से ही स तोष करने लगे। धुिनयाँ-
जुलाहे , चमार खुलकर म पीते ह, कोई कुछ नह कहता, पर ा ण को सब टोकते ह। म क
िब बहत कम हो गई है, लोग रात-भर जागते रहते ह, चोर बेचार क घात नह लगती। वे घर
से िनकले–िक फँसे। सड़क पर रात-भर रोशनी रहती है। भले घर क बह-बेिटयाँ अब िछपकर
अिभसार को जाँय तो कैसे? और महाराज, अब तो ा ण भी प र म करने लगे।’’
चर क यह सच ू ना सुनकर कोटपाल को बहत ोध आया। उसने कहा–‘‘समझा-
समझा, बहत िदन से हमने जो नगर के ब ध पर यान नह िदया, इसी से ऐसा हो रहा है। म
सबको कठोर द ड दँूगा।’’
सब मुसािहब ने हाथ बाँधकर कहा–‘‘ध य है धममिू त, आप सा ात् यायमिू त ह।’’
कोटपाल ने उपा य कुमितच क ओर मँुह करके कहा–‘‘तुम या कहते हो
कुमितच ?’’
कुमितच ने हाथ बाँधकर कहा–‘‘ ीमान् का कहना िब कुल ठीक है।’’
पर तु कोटपाल ने ु वर म कहा–‘‘ ब ध करना होगा, ब ध। सुना तुमने, नगर
म बड़ा गड़बड़ हो रहा है!’’
कोटपाल क डाँट खाने का उपा य अ य त था। उसने कुछ भी िवचिलत न होकर
कहा–‘‘हाँ, महाराज, हाँ।’’
‘‘तब करो ब ध।’’
उपा य ने िनिवकार प से हाथ बाँधकर कहा–‘‘जो आ ा महाराज। म अभी ब ध
करता हँ।’’
कोटपाल उपा य के वचन से स न और स तु हो गया। ‘‘तु ह पुर कार दँूगा–
कुमित, तुम मेरे सबसे अ छे सहयोगी हो। पर तु देखो-वह गोरख ा ण इधर ही आ रहा है।’’
कोटपाल ने ा ण के िनकट आने पर कहा–‘‘ णाम ा ण देवता।’’
गोरख आदश ा ण था। घुटा हआ िसर और दाड़ी-मँछ ू , िसर के बीचोबीच मोटी चोटी।
क ठ म जनेऊ। शीशे क भाँित दमकता शरीर, मोटी थल-थल त द। छोटी-छोटी आँख, पीता बर
कमर म बाँधे और शाल क धे पर डाले, चार िश य सिहत वह नगर चारण को िनकला था।
कोटपाल क ओर देख तथा उसके णाम क कुछ अवहे लना से उपे ा करते हए उसने
कहा–‘‘अहा, नगर कोटपाल है?’’ िफर िश य क ओर देखकर कहा–‘‘अरे कलहकूट, शी
कोटपाल को आशीवाद दे।’’
कोटपाल जाित का शू था। राजा का साला अव य था-कोटपाल भी था—पर था तो
शू । इसी से ोि य ा ण उसे आशीवाद नह दे सकता था। ोि य ा ण तो राजा ही को
आशीवाद दे सकता है। इसी से उसने िश य को आशीवाद देने क आ ा दी।
िश य ने दूब जल म डुबोकर कोटपाल के िसर पर माजन िकया। और आशीवाद िदया–
श ु बढ़े भय रोग बढ़े, कलवार क हाट प ै ठाठ जड़ ु े।
भड़ए र डी रस रङ्ग कर, िनभय त कर िदन रात िफरे ।
आशीवाद हण कर कोटपाल स न हो गया। उसने कहा–‘‘आज िकधर सवारी चली?
आजकल तो महाराज य कर रहे ह, नगर म बड़ी चहल-पहल है। ा ण क तो चाँदी ही चाँदी
है।’’
गोरख ने अस तु होकर कहा–‘‘पर इस बार राजा मुझे भल ू गया है। उसने मुझे इस
स मान से वंिचत करके अ छा नह िकया।’’
‘‘अरे ऐसा अनथ? तुम काशी के महामहोपा याय, ोि य ा ण! और तु ह ही राजा ने
भुला िदया!’’
‘‘तभी तो कािशराज का नाश होगा। कोटपाल, म उसे ाप दँूगा।’’
कोटपाल हँस पड़ा। हँसकर उसने कहा–‘‘शाप, केवल इतनी-सी बात पर? पर मुझ पर
कृपा ि रखना देवता। और कभी इन चरण क रज मेरे घर पर भी डालकर पिव क िजए।’’
िफर उसने ा ण का क धा पकड़कर कान के पास मँुह ले जाकर कहा–‘‘बहत बिढ़या
पुराना म गौड़ से आया है।’’
गोरख ोि य ा ण स न हो गया। उसने हँसकर कहा–‘‘अ छा, अ छा, कभी देखा
जायगा।’’
पर तु कोटपाल ने आ ह करके कहा–‘‘कभी य , कल ही रही।’’ िफर कान के पास
मँुह लगाकर कहा–‘‘हाँ उस सु दरी देवदासी का या रहा? या नाम था उसका?’’
ा ण हँस पड़ा। उसने कहा–‘‘उसे भल ू े नह कोटपाल, मालम ू होता है—िदल म घर
कर गई है। उसका नाम मंजुघोषा है।’’
‘‘वाह या सु दर नाम है। हाँ, तो मेरा काम कब होगा?’’
‘‘महाराज, सब काम समय पर ही होते ह। ज दी करना ठीक नह है।’’
‘‘िफर भी, कब तक आशा क ँ ?’’
इसी समय ेि जयमंगल ने आकर थम ा ण को द डवत् क िफर कोटपाल को
अिभवादन िकया और हँसकर कहा–‘‘मेरे िम महाराज श भुपाल देव ह, और मेरे िम गोरख
महाराज भी ह।’’
गोरख ने मँुह बनाकर कहा–‘‘सावधान से , ा ण िकसी का िम नह , वह भदू ेव ह,
जग पू य है।’’
जयमंगल ने हँसकर कहा–‘‘ ा ण देवता णाम करता हँ।’’
गोरख ने शु क वाणी से िश य को स बोधन करके कहा–‘‘दे रे आशीवाद।’’
िश य ने घास के ितनके से, जलपा से जल लेकर सेठ के िसर पर िछड़ककर
आशीवाद िदया।
कोटपाल का इस ओर यान न था। उसने सेठ के िनकट जाकर कहा-‘‘कहो िम , कल
तो तुम जुए म इतना पया हार गए पर चेहरे पर अभी भी मौज-बहार है।’’
जयमंगल ने कहा-‘‘वाह, पया-पैसा हाथ का मैल है िम , उसके िलए सोच या। जब
तक भोगा जाय, भोिगए।’’
गोरख ा ण ने बीच म बात काटकर कहा-‘‘इसम या स देह। संयम और धम के
िलए तो सारी ही उ पड़ी है, जब इि याँ थक जायगी तब वह काम भी कर िलया जायेगा।’’
कोटपाल ने जोर से हँसकर कहा-‘‘बस धम क बात तो गोरख महाराज कहते ह। बावन
तोला पाव र ी। अ छा, भाई हम जाते ह। नगर का ब ध करना है। पर तु कल का िनम ण मत
भलू जाना।’’
‘‘नह भल ू ँग
ू ा कोटपाल महाराज।’’
कोटपाल के चले जाने पर उसने ह ठ िबचकाकर कहा-‘‘देखा तुमने से , कैसा नीच
आदमी है। मख ू धन और अिधकार के घम ड म ा ण को िनम ण का लोभ िदखाकर अपने
नीच वंश को भल ू रहा है। हम ोि मय ा ण ह। जानते हो से , इसक जाित या है?’’
सेठ ने इस बात म रस लेकर कहा-‘‘नह जानता। या जाित है भला?’’
‘‘साला चमार है िक जुलाहा, याद नह आ रहा है।’’
इसी समय सामने से च ावली को आते देखकर वह स न हो गया। उसने सेठ के
क धे को झकझोरकर कहा-‘‘देखो से , िबना बादल के िबजली, पिहचानते हो?’’
‘‘कोई गिणका तीत होती है।’’
‘‘अरे नह , च ावली देवदासी है।’’
से ने हँसकर आगे बढ़कर कहा–‘‘आह, च ावली, अ छी तो हो?’’
च ावली ने हँसकर नखरे से कहा–‘‘आपक बला से। आप तो एकबारगी ही अपने
िम को भल ू गए।’’
सेठ ने ख से िनपोर कर कहा–‘‘वाह, ऐसा भी कह हो सकता है! यह मुख भी भला
कह भुलाया जा सकता है।’’
‘‘आपसे बात म कौन जीत सकता है!’’
च ावली ने घातक कटा पात िकया। सेठ ने अिधक रिसकता कट करते हए कहा-
‘‘इस मुख को देखकर तो गँग ू ा भी बोल उठे ।’’
च ावली ने हँसकर सेठ से कहा–‘‘किहए, अब कब ीमान् मेरे घर पधार रहे ह?’’
‘‘कहो तो अभी-’’
‘‘अभी नह , कल।’’
‘‘अ छा’’ सेठ ने हँसकर उ र िदया। च ावली ने गोरख क ओर मँुह करके
कहा–‘‘आप भी ा ण ह?’’
गोरख खुश हो गया। उसने कहा-“िसर केवल ा ण है।’’
च ावली हा य बखेरती हई चली गई। गोरख कुछ देर उसी ओर देखता रहा। िफर उसने
कहा–‘‘बहत सु दर है, य से - या कहते हो?’’
‘‘है तो, पर तु-’’
‘‘पर तु या?’’
‘‘कहने यो य नह ।’’
‘‘कहो, कहो, या िकसी ने तु हारा मन हरण िकया है?’’
‘‘िकया तो है।’’
‘‘वह कौन है?’’
‘‘है कोई अि तीय बाला।’’
‘‘वह है कहाँ भला?’’
‘‘मि दर म ही!’’
‘‘मि दर म?’’
जयमंगल ने आन द म िवभोर होकर कहा–‘‘है, एक सं या समय म मि दर म गया
था। आरती नह हई थी। वहाँ स नाटा था। महा भु भी नह आए थे। म भीतर चला गया। सहसा
मुझे एक आहट सुनाई दी। देखा, एक फूल-सी सुकुमारी बैठी देवता का फूल से ंग ृ ार कर रही है।
हम लोग क आँख चार हई ं। तभी से मेरे दय म वह बस गई। वाह, या सौ दय था! िवधाता ने
सु दरता के कण सारे िव से समेटकर उसे रचा होगा। उसक आँख म आँसू थे, और उसके ओठ
फड़क रहे थे।’’
‘‘ या तुमने उसका नाम पछ ू ा था?’’
‘‘जब मने उसके िनकट जाकर पछ ू ा–‘सु दरी, तेरा नाम या है, और तुझे या दु:ख
है,’ तो वह िबना उ र िदये चली गई। पर तु मुझे उस मोिहनी के नाम का पता चल गया था-वह
मंजुघोषा थी।’’
गोरख कुिटलतापवू क हँस िदया। उसने कहा–‘‘समझा। िजसे देखो वही मंजुघोषा क रट
लगा रहा है। से ी, उसक आशा छोड़ दो।’’
‘‘यह तो न होगा िम , ाण रहते नह होगा। भले ही ाण भी देना पड़े ।’’
‘‘ओ हो, यहाँ तक? तब तो मामला ग भीर है। खैर, तो म तु हारी सहायता क ँ गा।’’
जयमंगल स न हो गया। उसने मुहर क एक छोटी-सी थैली ा ण के हाथ म
थमाकर कहा :
‘‘म तु ह मँुह माँगा य दँूगा देवता।’’
गोरख ने थैली अपनी टट म खोसते हए हँसकर कहा–‘‘तब आओ मि दर म।’’
जयमंगल ने ा ण का हाथ पकड़ िलया। और दोन आगे बढ़कर एक गली म घुस गए।
सारी ही बात सुखदास ने िछपकर सुन ली थी। उसने समझ िलया िक अव य ही
मंजुघोषा पर कोई नई िवपि आने वाली है। वह सावधानी से अपने को िछपाता हआ उनके पीछे
चला।
अँधरे ी रात म
िनरापद थान पर आकर सुखदास ने कहा–‘‘अब यहाँ ठहरकर थोड़ा िवचार कर लो भैया।’’
पर तु िदवोदास ने उ र िदया–‘‘हम यहाँ से भगा चलना चािहए।’’
‘‘नह , अभी नह , देवी सुनयना का उ ार भी हम करना है?’’
मंजु ने घबराकर पछ ू ा–‘‘ या वे िकसी िवपि म है?’’
‘‘उ ह िस े र ने अ धकूप म डाल िदया है।’’
‘‘िकसिलए?’’
‘‘गु र नकोष के बीजक क ाि के िलए।’’
‘‘िक तु वह तो मेरे पास है।’’
‘‘कहाँ पाया?’’
‘‘देवी सुनयना ने िदया था।’’
‘‘तो तुम उसका सब भेद जानती हो?’’
‘‘हाँ, उ ह ने बताया है िक म िल छिव महाराज ीनिृ संह देव क पु ी हँ।’’
‘‘और देवी सुनयना कौन ह? यह भी उ ह ने बताया?’’
‘‘वे मेरी माता क दासी और मेरी धाय माँ ह।’’
‘‘देवी सुनयना तु हारी ज मदा ी माँ और िल छिवराज क प राज मिहषी सुक ित देवी
ह।’’
मंजु ने आ य और आन द से काँपते हए कहा–‘‘सच?’’
‘‘वे तु हारे ही कारण अपनी मयादा और ित ा को लात मारकर यहाँ पर गिहत जीवन
यतीत कर रही ह।’’
मंजु क आँख म झर-झर मोती झरने लगे। उसके फूल-से ह ठ से माँ-माँ क विन
िनकली।
िदवोदास ने उसे धैय बँधाते हए कहा–‘‘घबराओ मत! तुम अभी आवास म जाओ, अब
सयू दय म िवल ब नह है, िदन म वह पािप तु हारा कुछ अिन न कर सकेगा। तथा तुम
अकेली मत रहना, सबके साथ रहना। हम महारानी का उ ार करके तथा उ ह सुरि त थान
पर पहँचाकर तुमसे िमलगे। िफर कह भाग चलने पर िवचार होगा।
‘‘म भी तु हारे साथ चलँ ू तो?’’
‘‘ठीक नह होगा। काय म बाधा होगी। तुम जाकर वाभािवक प से अपनी िन यचया
करो, मानो कुछ हआ ही नह ।’’
मंजु ने वीकार िकया। वह अपने आवास क ओर आई। सुखदास और िदवोदास ने
परामश िकया।
सुखदास ने कहा–‘‘मने ह रय को िमला िलया है, वे महारानी को छोड़ दगे। अब उ ह
लेकर कहाँ िछपाया जाय, यही सोचना है।’’
‘‘तो यह भी उ ह से परामश करके सोचा जायेगा। वही इसका ठीक समाधान कर
सकगी।’’
‘‘तो िफर िवल ब य !’’ दोन ने अपने हाथ के श को सावधानी से पकड़ा और
अ धकार म एक ओर बढ़े । िदवोदास ने कहा–‘‘वे दोन कु े या हए?’’
‘‘वह धत ू ा ण तो मेरे हाथ से बचकर भाग िनकला-पर तु सेठ को मने बाँधकर एक
खबू सुरि त थान पर डाल िदया है।’’
‘‘तो यही अ धकूप का ार है। तुम हरी से बात करो।’’ सुखदास ने हरी से संकेत
िकया। उसने चुपके से ार खोल िदया। दोन अ धकूप म िव हए। दुग ध और सील के मारे
वहाँ साँस लेना भी दुलभ था।
सुखदास ने कहा–‘‘ या महारानी जाग रही ह?’’
‘‘कौन है?’’
‘‘म सुखदास हँ। मेरे साथ ेि पु िदवोदास भी ह।’’
‘‘शुभ है िक आप लोग सुरि त ह। िक तु मेरी मंजु?’’
‘‘वह सकुशल है। आप उसक िच ता न कर महारानी। आप यहाँ से िनकिलए।’’
‘‘िनकलकर कहाँ जाऊँ?’’
‘‘यह हम परामश करके ठीक कर लगे।’’
‘‘यह ठीक न होगा। मेरी ित ा है िक कािशराज और इस धत ू िस े र से िबना अपने
पित का बदला िलए यहाँ से न जाऊँगी। पर तु तुम मंजु को लेकर भाग जाओ। गु थान म
बताती हँ।’’
‘‘कौन-सा?’’
‘‘ या कोई और भी इस गु बात को जानता है?’’
‘‘नह महारानी।’’
‘‘तो मंजु के पास गु राजकोष का बीजक और ताली है। वहाँ पहँचने पर आप लोग को
कोई न पा सकेगा।’’
‘‘उसका माग?’’
‘‘वह बीजक बताएगा।’’
‘‘िक तु आप?’’
‘‘मेरी िच ता मत करो, मुझम अपनी र ा करने क परू ी शि है। तुम मंजु को यहाँ से
ले जाओ।’’
‘‘जैसी राजमाता क आ ा।’’
‘‘तु ह आशीवाद देती हँ पु , म तु ह शी ही िमलँग
ू ी।’’
दोन पु ष ने िफर अिधक बात नह क । वे अ धकूप से िनकलकर िछपते हए टेढ़ी-मेढ़ी
राह को पार करते हए चले। पवू म लाली फै ल रही थी।
मि दर म
मि दर म पज ू न क तैयारी हो रही थी। ािभषेक हो रहा था। िविवध वा बज रहे थे। कािशराज
और िस े र यथा थान खड़े थे। देवदािसयाँ देवता का ंग ृ ार कर रही थ -मंजु आरती क माला
सजाती हई मन ही मन कह रही थ –‘‘देव! जीवन-भर िजस काय का अ यास िकया, आज वह
नीरस हो गया। तुम यिद सचमुच अ तयामी हो तो तुमने मेरे मन क दशा समझ ली होगी, और
तु ह मुझ पर दया आई होगी। मने जीवनभर तु हारी तन-मन-धन से सेवा क है, अब तुम मेरी
इ छा परू ी करो देव!’’
उसने अ ुपण ू ने से देवता क ओर देखा, और पज ू ा का थाल उठाया। वह दो कदम
आगे बढ़ी। देखा, स मुख िदवोदास खड़ा है। मंजु के दय म आन द क लहर दौड़ गई। उसने
एक बार घण ृ ापवू क िस े र क ओर देखा, और वह उलटकर िदवोदास के स मुख जा पहँची।
उसने िदवोदास क आरती उतारकर देवता क माला भी उसके गले म डाल दी। यह देख सब
लोग ‘पज ू ा हो गई’, ‘पजू ा हो गई’, िच ला उठे । बाजे एकदम ब द हो गए। िस े र
आपे से बाहर होकर चीख उठे । काशीराज ने ु वर म कहा :
‘‘मख ू ! पजू ा कर दी।’’
िक तु मंजु ने उधर देखा ही नह । उसने आन द िवभोर होकर िदवोदास के िनकट
आकर कहा–‘‘पितदेव, पज ू ा साथक हई न?’’
‘‘हाँ ि ये।”
कािशराज ने ु होकर कहा–‘‘दोन को बाँध लो।’’
राजा ा का तुर त पालन हआ।
मंजु को उसी के कमरे म ब द कर िदया गया और िदवोदास को नदी के उस पार दुगम
दुग म ब दी कर िदया गया।
मंजु क सखी लता उसके िलए भोजन लेकर आई तो मंजु ने कहा, ‘सखी, या तू
उनका कुछ समाचार जानती है?’’
‘‘जानती हँ-पर सुनकर तु ह दु:ख होगा।’’
‘‘िफर भी कह दे सखी।’’
‘‘मंजु, इस ेम म अपने को न न कर।’’
‘‘आह सखी, म यार का घाव खा बैठी हँ।’’
‘‘िक तु वह अ ात कुलशील िभ ु है।’’
‘‘अ ात कुलशील नह वह धनंजय ेि का पु है।’’
‘‘पर तु उसे तो महाराज ने का तार दुग म ब दी कर िदया है।’’
‘‘हे भगवान्-का तार दुग म?’’
‘‘वहाँ उसे ाणा त ायि करने का आदेश िदया गया है। दोन धतू आचाय उसक
जान के ाहक बन बैठे ह।’’
मंजु ने कहा–‘‘सखी, मेरी सहायता कर!’’
‘‘जो तू कहे ।’’
‘‘मुझे वहाँ जाने द।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘तू मेरे िलए याग कर।’’
‘‘तेरे िलए मेरे ाण भी उपि थत ह।’’
‘‘तो तू यहाँ मेरे थान म रह, म तेरे व पहनकर िनकल जाऊँगी।’’
‘‘तो तू जा।’’
‘‘पर जानती है, तेरी या गत बनेगी।’’
‘‘वे मेरा वध करगे, म सह लँगू ी।’’
‘‘हाय सखी-कैसे कहँ।’’
‘‘मेरी िच ता न कर।’’
मंजु ने ज दी-ज दी सखी के व पहने। अपने उसे पहनाए। भोजन क साम ी हाथ म
ली और ब धन से बाहर हो गई। हरी कुछ भी न जान सका।
मंजु चल दी। िकसी ने उसे ल य नह िकया। वह पागल क भाँित भागी चली जा रही थी।
भखू , यास और थकान ने उसके कोमल गा को ला त कर िदया। उसके पैर म घाव हो गये
और वह बार बार लड़खड़ाकर िगरने लगी। वह िगरती, उठती-और िफर भागती। घोर वन था। बड़ी
तेज धपू थी। सामने भयानक िव तार वाली नदी के उस पार, सख ू ी नंगी पहाड़ी पर ऊँचा िसर
उठाए वह एका त दुग था। वह साहस करके नदी म कूद पड़ी। लहर के साथ डूबती-उतराती वह
उस पार जा पहँची।
उसक शि ने जवाब दे िदया। पर तु वह चलती ही चली गई। दुगम पहाड़ पर चढ़ना-
बड़ा दु साहस का काय था पर तु ेम का बल उसे िमलता गया-वह दुग ार पर पहँच गई। दुग
का ार ब द था। उसक भारी लौह ंख ृ लाओं म मजबतू ताला पड़ा था। उसने याकुल ि से
चार ओर देखा-उस दुगम का तार दुग म िचिड़या का पत ू भी न था। उसने एक बार दुग के चार
ओर च कर लगाया। अ त म िनराश हो थककर वह एक िशलाख ड पर पड़ गई। उसे न द आ
गई। न जाने वह कब तक सोती रही। जब उसक आँख खुल तो देखा-सय ू अ त हो रहा है, और
एक व ृ चरवाहा उसके िनकट खड़ा है।
वह हड़बड़ाकर उठ बैठी। व ृ चरवाहे ने कहा–‘‘तुम कौन हो और यहाँ कैसे आई ं?’’
‘‘म िवपि क मारी दुिखत ी हँ बाबा, भा य-दोष से यहाँ आ फँसी हँ।’’
‘‘पर तु यहाँ िसंह रहता है, तुझे खा जायेगा। ब ती दूर है, तू रात कहाँ यतीत
करे गी?’’
‘‘म चाहती हँ िसंह मुझे खा जाय?’’
‘‘पर तु तेरे यहाँ आने का कारण या है?’’
‘‘एक पु ष इस दुग म ब द भख ू ा मर रहा है।’’
‘‘तुझे िकसने कहा?’’
‘‘म जानती हँ। उसी के िलए म यहाँ आई थी। िक तु भीतर जाऊँ कैसे?’’
‘‘भीतर ही जाना है तो म पहँचा सकता हँ, पर तु वहाँ कोई मनु य नह है।’’
‘‘ या तुम जानते हो बाबा?’’
‘‘म तो वहाँ िन य आता-जाता हँ।’’
‘‘ या भीतर जाने क कोई और भी राह है।’’
‘‘वह मने अपने िलए बनाई है।’’ बढ़ ू ा चरवाहा हँस िदया।
‘‘तो बाबा, मुझे वहाँ पहँचा दो।’’
‘‘पर तु रात होने म देर नह है, िफर मेरा भी गाँव लौटना कैसे होगा।’’
‘‘वहाँ एक मनु य भख ू ा मर रहा है बाबा।’’
‘‘तब चल, म चलता हँ।’’
दोन टेढ़े-मेढ़े रा ते से चलने लगे। मंजु म चलने क शि नह रही थी। पर तु वह
चलती ही गई। अ त म एक खोह म घुसकर चरवाहे ने एक प थर िखसकाकर कहा–‘‘इसी म
चलना होगा।’’ वह थम वयं ही भीतर गया। पीछे मंजु भी घुस गई। थोड़ा चलने पर एक िव ततृ
मैदान दीख पड़ा। दूर िकसी अ ािलका के भ न अवशेष थे।
‘‘वहाँ चले बाबा’’ मंजु ने उधर संकेत करके कहा। चरवाहे ने आपि नह क । खंडहर
के पास पहँचकर मंजु जोर से िदवोदास को पुकारने लगी। उसक विन गँज ू कर उसके िनकट
आने लगी। पर तु वहाँ कह िकसी जीिवत मनु य का िच भी न था।
बढ़ू े ने कहा–‘‘मने तो तुमसे कहा था-यहाँ कोई मनु य नह है, अब रात को गाँव
पहँचना भी दूभर है, राह म िसंह के िमलने का भय है, पर म जा सकता हँ। या तू यहाँ अकेली
रहे गी? या गाँव तक चल सकती है?’’
‘‘बाबा, म यह ाण दँूगी। आपका उपकार नह भल ू ँग
ू ी। आप जाइए।’’
‘‘यहाँ तुझे अकेला छोड़ जाऊँ?’’
‘‘मेरी िच ता न कर-मेरा जीवन अब िनरथक ही है।’’
इसी समय उसे ऐसा भान हआ, जैसे िकसी ने जोर से साँस ली हो।
मंजु ने च ककर कहा–‘‘आपने कुछ सुना; यहाँ िकसी ने साँस ली है।’’
वह लपककर खोह म घुस गई। उसने देखा-एक िशलाख ड पर िदवोदास मिू छत पड़ा
है। चरवाहा भी पहँच गया। उसने दूर ही से पछ ू ा–‘‘मर गया या जीिवत है?’’
मंजु ने रोते हए कहा–‘‘बाबा, यहाँ कह पानी है?’’
‘‘उधर है,’’ और वह िनकट पहँच गया।
उसने िदवोदास को यान से देखा और कहा–‘‘आओ, इसे उधर ही ले चल। बच
जायगा।’’
दोन ने िदवोदास क मिू छत देह को उठा िलया, और जहाँ जल क पु क रणी थी वहाँ
ले गए। यहाँ बाँधकर वषा का जल रोका गया था। थोड़ा जल पीने तथा मँुह और आँख पर
िछड़कने से थोड़ी देर म िदवोदास को होश आ गया। उसने आँख खोलकर मंजु को देखा-उसके
ह ठ से िनकला–‘‘मंजु ि ये।”
मंजु उसके व पर िगरकर फफक-फफक कर रोने लगी।
िदवोदास ने धीमे वर से कहा–‘‘म जानता था िक तुम आओगी, सो तुम आ गई ं।’’
उसने मंजु को दय से लगा िलया। कुछ देर बाद कहा–
‘‘अब म सुख से मर सकँ ू गा।’’
‘‘मरगे तु हारे श ु।’’ उसने ढ़ता से उठकर िदवोदास का िसर अपनी गोद म रख
िलया।
‘‘ यारी, तुमने मुझे िजला िदया।’’ िदवोदास ने कहा।
‘‘मने नह ि य, इस देव पु ष ने’’, मंजु ने उस चरवाहे क ओर संकेत िकया। िदवोदास
ने अब तक उसे नह देखा था। अब उसक ओर देखकर कहा :
‘‘तुम कौन हो भाई।’’
‘‘म चरवाहा हँ, पास ही गाँव म रहता हँ, यहाँ िन य बकरी चराता हँ। भीतर आने-जाने
क राह यह मने अपने िलए बना ली थी। सं या को जब म घर लोट रहा था इ ह मिू छत पड़ा
देखा। इसी से क गया। लड़के को बकरी लेकर घर भेज िदया। सो अ छा ही हआ-दो-दो ाणी
बच गए।’’ बढ़ ू ा बहत खुश था।
िदवोदास ने कहा–‘‘बचा िलया तुमने बाबा, तुम उस ज म के मेरे िपता हो। अब यहाँ मेरे
पास आकर बैठो।’’ बढ़ ू ा भी वह बैठ गया। उसने कहा–‘‘अब तो रात यह काटनी होगी। पर तु
खाने को तो कुछ भी नह िमल सकता। देखता हँ, तुम दोन भख ू े हो।’’
मंजु ने कहा–‘‘मेरे साथ थोड़ा भोजन है, उससे हम तीन का आधार हो जायगा।’’ उसने
पोटली खोली। तीन ने थोड़ा-थोड़ा खाकर पानी िपया। भोजन करने से िदवोदास म कुछ शि
आई। वह एक प थर के सहारे बैठ गया। चरवाहे ने कहा–‘‘थोड़ी आग जलानी होगी, नह तो वन
पशु का भय है। म ई ंधन लाता हँ।’’ और वह उठकर चला गया।
मंजु ने उसके गले म बाँहे डालकर कहा–‘‘अब तुम तिनक हँस दो।’’
‘‘ या म िफर कभी हँस भी सकँ ू गा?’’
‘‘हम सदैव हँसगे, गाएँ गे, मौज करगे।’’ और वह िदवोदास से िलपट गई। िदवोदास ने
कहा–‘‘ यारी, तु हारी इस नेह दान ने मेरे बुझते हए जीवन-दीपक को बुझने से बचा िलया।
और तु हारी मधुर वाणी ने मेरे सखू े हए जीवन को हरा-भरा कर िदया।’’ उसने उसे अपने बाहपाश
म कसकर अगिणत चु बन ले डाले।
चरवाहे ने एक ग र लकड़ी लाकर उसम आग लगा दी। और तीन आदमी वह प ृ वी पर
लेट गए। मंजु पड़ते ही गहरी न द म सो गई। वह बहत थक थी। िदवोदास भी दुबल था। वह भी सो
गया। पर तु चरवाहा बड़ी देर तक जागता रहा।
ात:काल होते ही िन यकम से िनव ृ होकर तीन ने सलाह क । िदवोदास ने व ृ का
हाथ पकड़कर कहा–‘‘िम , तुम मेरे आज से िपत ृ य हए। अब हम-तुम कभी पथ ृ क् न ह गे। मेरे
दुख-सुख म तु हारा साझा रहे गा।’’
बढ़ू े ने हँसकर कहा–‘‘तुम िच ता न करो भाई। तु हारे बराबर ही मेरा लड़का है, और
ऐसी ही लड़क भी है। तुम भी मेरे लड़के-लड़क रहे । गाँव चलो, बहत जमीन है, धा य है, दूध है।
खाओ-िपओ मौज करो। तु ह या िच ता!’’
‘‘िक तु िपत ृ य, हमारा कुछ कत य भी है। तु ह उसम सहायता देनी होगी।’’
‘‘कहो, या करना होगा?’’
‘‘हमारे श ु ह।’’
‘‘तो मेरे लड़के को बता दो, वह उनक खोपड़ी तोड़ देगा।’’
‘‘पर तु वे बड़े बलवान् ह, काम युि से लेना होगा।’’
‘‘िफर जैसे तुम कहो।’’
‘‘हम िछपकर रहना होगा।’’
‘‘तो हमारे गाँव म रहो।’’
‘‘वहाँ नह िछप सकगे, राजसैिनक को पता चल जायगा।’’
‘‘तब या िकया जाय?’’ मंजु ने िकया।
‘‘राजमाता ने जो आदेश िदया है वही।’’
‘‘ठीक है, तो मुझे एक बार मि दर म जाना होगा।’’
‘‘िकसिलए?’’
‘‘ताली और बीजक लेने, पर तु एक बात है।’’
‘‘ या?’’
‘‘मेरे पास आधा ही बीजक है। शेष आधा िस े र के पास है। वह भी लेना होगा। िबना
उसके हम उस कोषागार म नह पहँच सकगे।’’
‘‘तब हम एक बार काशी चलना होगा। तुम अपनी व तु लेना और म िस े र से वह
बीजक लँग
ू ा।’’
बढ़ू े ने कहा–‘‘म भी तु हारे साथ चलँग
ू ा।’’
‘‘तु ह अब हम नह छोड़गे िपत ृ य।’’
‘‘तो पिहले गाँव चलो। खा पीकर, टंच होकर रात को काशी चलगे।’’
‘‘यही सलाह ठीक है।’’
तीन यि उसी खोह क राह िनकलकर गाँव क ओर चल िदए।
िस े र का कोप
गहन अँधेरी रता म मंजु और िदवोदास ने िनिवड़ वन म वेश िकया। मंजु ने कहा–‘‘माँ का
कहना है िक वह जो सुदूर ि ितज म दो पवत के ंग ृ पर पर िमलते दीखते ह, उनक छाया
जहाँ एक भत ू हो हाथी क आकृित बनाती है, वह िनकट ही उस गु कोष का मुख ार है।
इसिलए हम उ रािभमुख चलते जाना चािहये। िव य-गुहा को पार करते ही हम कौशा बी-
कानन म वेश कर जाएँ गे।’’
‘‘पर तु ि ये, यह तो बड़ा ही दुगम वन है, रात बहत अँधेरी है। हाथ को हाथ नह
सझू ता। बादल मँडरा रहे ह। एक भी तारा ि गोचर नह होता। वषा होने लगी तो राह चलना
एकबारगी ही अस भव हो जायेगा।’’
‘‘चाहे जो भी हो ि य, हम चलते ही जाना होगा। जानते हो, उस बाघ ने अपने िशकारी
कु े हमारे िलए अव य छोड़े ह गे। चले जाने के िसवा और िकसी तरह िन तार नह है।’’
‘‘यह तो ठीक है, पर मुझे केवल तु हारी िच ता है यारी, तु हारे कोमल पाद-प तो
कल ही त-िव त हो चुके थे। तुम कैसे चल सकोगी?’’
‘‘ यारे ! तु हारे साथ रहने से तो शि और साहस का दय म संचार होता है। तुम चले
चलो।’’
और वे दोन िनिवड़ दुगम गहन वन म घुसते चले गये। घनघोर वषा होने लगी। िबजली
चमकने लगी। वन-पशु इधर-उधर भागने लगे, आँधी से बड़े -बड़े व ृ उखड़कर िगरने लगे।
कँटीली झाड़ी म फँसकर दोन के व फटकर िचथड़े -िचथड़े हो गये। शरीर तिव त हो गया।
िफर भी वे दोन एक-दूसरे को सहारा िदए चलते चले गए।
अ तत: मंजु िगर पड़ी। उसने कहा–‘‘अब नह चल सकती।’’
‘‘थोड़ा और ि ये, वह देखो उस उप यका म आग जल रही है। वहाँ मनु य ह गे। आ य
िमलेगा।’’
मंजु साहस करके उठी, पर तु लड़खड़ाकर िगर पड़ी। उसने असहाय ि से िदवोदास
को देखा।
िदवोदास ने हाथ क तलवार मंजु के हाथ म देकर कहा–‘‘इसे मजबत ू ी से पकड़े रहना
ि ये,” और उसे उठाकर पीठ पर लाद ले चला।
काश धीरे -धीरे िनकट आने लगा। िनकट आकर देखा-एक जीण कुटी है। कुटी के
बाहर मनु य मिू त भी घम ू ती दीख पड़ी। पर तु और िनकट आकर जो देखा तो भय से िदवोदास
का र जम गया। मंजु चीख मारकर मिू छत हो गई।
उ ह ने देखा-कुटी के बाहर छ पर के नीचे एक कापािलक मुद क छाती पर प ासन म
बैठा है। उसक बड़ी-बड़ी भयानक लाल-लाल आँख ह। उसका रं ग कोयले के समान काला है।
उसक जटाएँ और दाढ़ी ल बी लटक रही है तथा धल ू -िम ी से भरी है। कमर म एक या चम
बँधा है। गले म मु डमाला है। सामने म पा धरा है, आग जल रही है, लपट उठ रही ह,
कापािलक अधोर म पढ़-पढ़कर माँस क आहित डाल रहा है। माँस के अि न म िगरने से
लाल-पीली लपट उठती ह।
िदवोदास ने साहस करके मंजु को नीचे प ृ वी पर उतार िदया और शंिकत ि से
कापािलक को देखने लगा।
कापािलक ने कहा–
‘‘क वं?’’
‘‘शरणागत?’’
‘‘अ ता सा?’’
इसी बीच मंजु क मू छा जागी। उसने देखा-कापािलक भयानक आँख से उसी क ओर
देख रहा है। वह चीख मारकर िदवोदास से िलपट गई।
कापािलक ने अ हास करके कहा–‘‘माभै: बाले!’’ और िफर पुकारा :
‘‘शारं् गरव, शारं् गरव?’’
एक नंग-धड़ं ग, काला बिल युवक लंगोटी कसे, गले म जनेऊ पहने, िसर मुड़ा हआ,
हाथ म भारी खड्ग िलए आ खड़ा हआ। उसने िसर झुकाकर कहा :
‘‘आ ा भु।’’
‘‘इ ह महामाया के पास ले जाकर साद दे, हम म िस करके आते ह।’’ शारं् गरव
ने खोखली वाणी से कहा–‘‘चलो।’’
िदवोदास चुपचाप उसके पीछै-पीछे चल िदया! मंजु उससे िचपककर साथ-साथ चली।
मि दर बहत जीण और ग दा था। उसम िवशालाकार महामाया क काले प थर क
न न मिू त थी। जो महादेव के शव पर खड़ी थी। हाथ म खांडा, लाल जीभ बाहर िनकली थी। आठ
भुजाओं म श , गले म मु डमाल स मुख पा म र पु प तथा म से भरे घड़े धरे थे। एक पा
म र भरा था। सामने बिलदान का ख भा था। पास ही एक खांडा भी र खा था।
दोन ने देखा, वहाँ शारं् गरव के समान ही चार और दै य उसी वेश म खड़े ह। मिू त के
स मुख पहँच शारं् गरव ने ककश वर म कहा–‘‘अरे मढ़ ू ! महामाया को िणपात कर।’’
िदवोदास ने देवी को णाम िकया। मंजु ने भी वैसा ही िकया। एक यमदूत ने तब बड़ा-सा
पा िदवोदास के ह ठ से लगाते हए कहा–‘‘पी जा अधम , महामाया का साद है।’’
‘‘म म नह पीता।’’
‘‘अरे अधम , यह म नह है, देवी का साद है, पी।’’ दो यमदूत ने जबद ती वह सारा
म िदवोदास के पेट म उड़े ल िदया। भय से अिभभत ू हो मंजु ने भी म पी ली। तब उन यमदूत ने
उन दोन को बिलयथ ू से कसकर बाँध िदया। िफर बड़बड़ाकर म पाठ करने लगे।
मंजू ने लड़खड़ाती वाणी से कहा–‘‘ यारे , मेरे कारण तु ह यह िदन देखना पड़ा।’’
‘‘ यारी, इस कार मरने म मुझे कोई दु:ख नह ।’’
‘‘पर तु वामी, हम िफर िमलगे।’’
‘‘ज म-ज म म हम िमलगे, ि ये- ाणािधके।”
इसी समय कापािलक ने आकर कहा–‘‘ ािणयो, आज तु हारा अहोभा य है, तु हारा
शरीर देवापण होता है।’’ उसने र से भरा पा उठाकर थोड़ा र उनके म तक पर िछड़का िफर
उनके माथे पर र का टीका लगाया। एक दै य ने झटका देकर उनक गदन झुकाय । उन पर
कापािलक ने वि त का िच बना िदया। उसके बाद उन दै य ने िस दूर से व य-भिू म पर
भैवरी-च क रचना क । एक दै य भारी खांडा ले िदवोदास के पीछे जा खड़ा हआ।
मंजु ने साहस करके िच लाकर कहा–‘‘अरे पातिकयो, पिहले मेरा वध करो, म अपनी
आँख से पित का कटा िसर नह देख सकती।’’
कालािपक ने एक बड़ा-सा म पा मँुह से लगाया और गटागट पी गया। िफर उसने
गरजकर वार करने क आ ा दी।
पर तु इसी ण एक चम कार हआ। रा स का खांडा हवा म लहराता ही रहा, और
उसका िसर कटकर प ृ वी पर आ िगरा।
कापािलक ोध और भय से थरथरा उठा। उसने कहा–‘‘अरे , िकसने महामाया क पज ू ा
भंग क ?’’
सुखदास ने र -भरा खड्ग हवा म नचाते हए कहा–‘‘मने, रे पातक ! अभी तेरा धड़
भी शरीर से जुदा करता हँ।’’
इसी बीच व ृ वाले ने िदवोदास और मंजु के ब धन खोल िदए। मु होते ही िदवोदास
ने झपटकर खांडा उठा िलया। उसने कापािलक पर तफ ू ानी आ मण िकया। पर तु कापािलक म
बड़ा बल था। उसने खांडे सिहत िदवोदास को उठाकर दूर पटक िदया। इसी समय सुखदास का
खड्ग उसक गदन पर पड़ा। और वह वह लड़खड़ाकर िगर गया। व ृ ने भी एक यमदूत को
भिू मशायी िकया। शेष दो ाण लेकर भाग गए। िदवोदास घाव खा गये थे। सुखदास ने हाथ का
सहारा दे िदवोदास को उठाया। और बोला–‘‘साहस करो भैया, यहाँ से भाग चलो।’’
िदवोदास ने क धे पर मंजु को लाद िलया। दोन यि नंगी तलवार िलये साथ चले।
वषा अब ब द हो गई थी। आकाश व छ हो गया था। वे बराबर उ रािभमुख होते जा रहे थे। म
के भाव से मंजु मिू छत हो गई थी। िदवोदास के भी पाँव लड़खड़ा रहे थे। पर तु वह सािथय के
साथ भागा जा रहा था। मंजु उसक पीठ से िखसक पड़ती थी। सुखदास उ ह सहारा दे रहा था।
इसी समय एक ओर से दल अ ारोही सैिनक ने उ ह घेरकर ब दी बना िलया। सारा उ ोग
िवफल गया। बेचारे को बाँधकर ले चले। कहने क आव यकता नह िक ये िस े र के सैिनक
थे।
ब दी गहृ म
कई मास तक कािशराज का य ानु ान चलता रहा। इस बीच मंजु और देवी सुनयना अ धकूप
म पड़ी रह । उ ह बाहर िनकालने का सुयोग सुखदास को नह िमला। पर तु य ही य समा
हआ तथा आचाय व िसि काशी से िवदा हए, सुखदास क युि और उ ोग से मंजु और देवी
सुनयना अ धकूप से मु होकर भाग िनकल । पर तु इस िवपि म एक दूसरी िवपि आ खड़ी
हई। मंजु को सव वेदना होने लगी। देवी सुनयना ने सुखदास से कहा–‘‘अब तो कह आ य
खोजना होगा। चलना स भव ही नह है।’’ िन पाय मंजु को एक व ृ के नीचे आ य दे सुखदास
और व ृ चरवाहा दोन ही आहार और आ य क खोज म िनकले।
पर तु इस बीच ही म मंजु िशशु- सव करके मिू छत हो गई। यह दशा देख देवी सुनयना
घबरा गई ं। उ ह ने साहस करके िशशु क प रचया क तथा मंजु क जो भी स भव सु षू ा हो
सकती थी, करने लगी। मंजु क दशा बहत खराब हो रही थी। थकान, भख ू और शोक से वह पले
ही जजर हो चुक थी, अब इतना र िनकल जाने से उसके मँुह पर जीवन का िच ही न रहा।
सुनयना यह देख डर गई। उसने य न से उसक मू छा दूर क । होश म आकर मंजु एकटक माँ
का मँुह देखने लगी। िफर बोली–‘‘माँ, अब उनके दशन तो न हो सकगे?’’
‘‘ य नह बेटी!’’
‘‘उ ह ने कहा था–‘जब पु का ज म होगा, म आऊँगा।’ ’’
कुछ ककर पुन: बोली–‘‘पर उनके आने के पहले तो हम वहाँ चल रहे ह।’’
‘‘नह जानती माँ, म कहाँ जा रही हँ, िक तु मेरा एक अनुरोध रखो माँ।’’
‘‘कह बेटी।’’
‘‘यिद मेरी म ृ यु हो जाय, और वे न आय तो, जैसे बने, ब चे को उनके पास अव य
पहँचा देना। और यह स देश भी िक तु हारे आने क आशा म मंजु अब तक जीिवत रही। तु हारे
िनराश ेम का फल तु हारे िलए छोड़ गई।’’
‘‘बेटी, इतना धीरज न छोड़ो।’’
‘‘माँ! कदािचत् यह अ तगत सय ू क वण-िकरण मेरी मुि का स देश लाई है।’’
‘‘अरी बेटी, ऐसी अशुभ बात मत कहो, तुम फलो-फूलो। और म इन आँख से तु ह देखँ।ू
इसिलए न मने अब तक अपने जीवन का भार ढोया है।’’
‘‘माँ, म बहत जी चुक , बहत फली-फूली, और मने संसार को अ छी तरह देखभाल
िलया। मेरा जीवन उस फूल क भाँित रहा, जो सय ू क िकरण को छूकर िखल उठा, और उसी के
तेज म झुलसकर सख ू गया।’’
सुनयना रोने लगी।
मंजु ने कहा–‘‘माँ, दुखी न हो, इस फूल क पंखुिड़याँ झर जायगी, और झंझा वायु उ ह
उड़ाकर कहाँ क कहाँ ले जाएगी। आह! सय ू आज भी अ त हो गया। वे न आए, न आए। अ धकार
बढ़ा चला आ रहा है। यह जैसे मेरे जीवन पर पदा डाल देगा। कदािचत् मेरे जीवन-दीपक के बुझने
का समय आ गया।’’ वह मिू छत होकर िनबल हो गई। सुनयना ने घबरा कर कहा–‘‘मंजु, आँख
खोलो बेटी, इस फूल से सुकुमार ब चे को देखो।’’
मंजु ने आँख खोलकर टूटे-फूटे वर म कहा–‘‘नह आए, इस अपने न हे को देखने भी
नह आये! आह! कैसा यारा है न हा, आन द क थायी मिू त, माँ उसे मेरे और पास लाओ।’’
‘‘वह तो तु हारे पास ही है बेटी।’’
‘‘और पास, और पास, और, और...’’ वह बेसुध हो गई। िफर उसने आँख खोलकर ब चे
को देखकर कहा–‘‘वैसी ही आँख ह, वैसे ही ह ठ,’’ उसने ब चे का मँुह चम ू िलया, और दय से
लगा िलया।
इसके बाद ही उसक आँख पथरा गई। और चेहरा सफेद हो गया। ास क गित भी क
गई। सुनयना देवी धाड़ मारकर रो उठ । उ ह ने कहा–‘‘आह, मेरी बेटी, तू तो बीच माग म ही
चली-मेरी सारी तप या िवफल हो गई।’’
पर तु देवी सुनयना को इस िवप काल म रोकर जी हलका करने का अवसर भी न
िमला। उ ह िनकट ही अ ारोिहय के आने का श द सुनाई िदया। अब वे या कर? उनका यान
ब चे पर गया। उसे उठाकर उ ह ने अपनी छाती से लगा िलया। एक बार उ ह ने मंजु के िनमीिलत
ने क ओर देखा। घोड़ क पद विन िनकट आ रही थी।
उ ह मंजु का अनुरोध याद आया और दय म साहस कर उ ह ने अपना संक प ि थर
िकया।
उ ह ने कहा–‘‘िवदा बेटी तुझे म माता वसु धरा को स पती हँ, और तेरा अनुरोध पालन
करने जा रही हँ।’’ उ ह ने व से मंजु का मँुह ढाँप िदया और बालक को छाती से लगाकर एक
ओर चलकर अ धकार म िवलीन हो गई।
दु सह स वाद
िदवोदास पागल हो गया है। यह स देश पाकर आचाय ने उसे ब दी गहृ से मु कर िदया। अब
वह िनरीह भाव से संघाराम म घम ू ने लगा। कोई उससे घण
ृ ा करता, कोई उस पर दया करता।
उसके व और शरीर ग दे और मिलन हो गए थे। दाढ़ी बढ़कर उलझ गई थी। िभ ु उसक
िख ली उड़ाते थे। कुछ उसे िचढ़ा देते थे। पर तु िदवोदास इन सब बात पर यान ही नह देता था।
वह जैसे िकसी अतीत काल म जीिवत रह रहा था।
िदवोदास अित उदास, गहरी िच ता म पागल जैसा एक िशलाख ड पर बैठा था। वह
कभी हँसता, कभी गुनगुनाता था। उसके हाथ म एक गे का टुकड़ा था, उससे वह ज दी-ज दी
मंजुघोषा का चेहरा बना रहा था, चेहरा बनाकर हँसता था, उसे यार करता था, उससे बात करता
था, एक व ृ को ल य करके उ म भाव से देखता था। वहाँ उस व ृ म उसे मंजुघोषा ि पड़
रही थी।
िदवोदास-हाथ फै लाकर दीन भाव से बोल उठा–‘‘आओ देखो, यारी, आओ, मुझे मा
करो, म नह आ सका।’’ उसने देखा-मिू त मु कराने लगी। उसके ह ठ िहलने लगे और दो बँदू
आँसू उसक आँख से टपक पड़े । उसने उँ गली उठाकर कहा–‘‘झठ ू े ।’’ पागल िदवोदास उससे
िलपटने को दौड़ा और टकराकर िगर पड़ा। मिू त गायब हो गई। उसने उठकर कहा–‘‘आह! झठ ू ा,
झठू ा, सचमुच म झठ ू ा हँ।’’ उसने सामने एक िशलाख ड क ओर देखा। वहाँ मंजु बैठी मु करा
रही थी। वह दौड़ा, मिू त उसी भाव से वही श द कहती हई गायब हो गई। िदवोदास प थर से
टकराकर िफर िगर पड़ा। िफर उठकर ‘मंजु-मंजु’ िच लाने लगा। िजस व तु पर उसक नजर
जाती, वह उसे मंजु क मिू त वही संकेत करके, वही श द कहकर गायब हो जाती। वह पागल
क तरह दौड़ता और ट कर खाकर िगरकर घायल हो जाता। वह त-िव त और जजर हो गया।
उसी समय आचाय व िसि उसके िनकट आए।
व िसि कुछ देर उसक दुदशा देख बोले–‘‘पु , यह तुम या कर रहे हो?’’
िदवोदास ने आँख फाड़कर बड़ी देर तक व िसि को देखा और व िसि के िनकट
आकर कहा-“ि य मंजु, या तुमने मुझे मा कर िदया!’’ और वह व िसि से िलपट गया।
व िसि ने उसे पीछे धकेलकर कहा–‘‘िभ ु, सावधान! देखो, म संघ थिवर आचाय
व िसि हँ।’’
िदवोदास आचाय को देखकर, काँपता हआ हटकर खड़ा हो गया और कहा–‘‘आचाय
व िसि या तुम मंजु का स देश लाए हो? या वह आ रही है?’’
‘‘िभ ु, तुम पागल हो गए हो।’’
‘‘पागल, ेम का पागल, म पागल हो गया हँ!’’
(कठोर वाणी से) ‘‘मेरे साथ आओ।’’
‘‘ या तुम मुझे मंजु के पास ले जा रहे हो?’’
‘‘आओ।’’
व िसि ने उसे अपने पीछे आने का संकेत िकया। और चल िदया। िदवोदास भी पीछे -
पीछे चल िदया। वह व तारा के मि दर म जा पहँचे।
व िसि ने व तारा क ितमा के आगे पहँच, िदवोदास क ओर कड़ी ि से देखा
और कहा–‘‘िभ ु, व तारा को णाम करो।’’
िदवोदास ने ितमा म भी मंजु क वही मिू त देखी और कहा–‘‘ यारी, तुम आ गई?
आओ। म नह आ सका। इससे या तुम नाराज हो?’’ वह दौड़कर मिू त से िलपट गया।
‘‘सुनो! सुनो!!’’
‘‘सब सुन रहा हँ। वह कुछ कह रही है। वह कुछ कहना चाहती है।’’ वह यान से िफर
ितमा को देखने लगा। उसे तीत हआ, मंजु कुछ संकेत कर रही है, िदवोदास ने उधर हाथ फै ला
िदए।
व िसि ने िदवोदास को झकझोरकर कहा–‘‘सुनो, तु ह व तारा क मिू त बनानी
होगी। हम मालमू हआ है, तुम कुशल िच कार हो गए हो।’’
िदवोदास ने भाव िनम न-सा होकर कहा–‘‘म अभी यारी क मिू त बनाता हँ।’’
उसने झट ण-भर म गे से दीवार पर मंजु क ठीक सरू त बना दी। और िफर रो-रोकर
कहने लगा–‘‘ मा करो, मंजु, ि ये, मा करो।’’
व िसि ने ु होकर कहा–‘‘तु ह व तारा क मिू त बनानी होगी। इसके िलए दो
मास तक तु ह एका त म रहना होगा।’’
उ ह ने एक िभ ु से कहा–‘‘गोपे र, तुम इसको सब यव था समझाकर, सब ब ध
कर दो।’’ इतना कह आचाय चले गए।
ितमा
िदवोदास क छे नी खटाखट चल रही थी। भख ू - यास और शीत-ताप उसे नह याप रहा था।
अपने शरीर क उसे सुध नह थी। वह िनर तर अपना काम कर रहा था। छे नी पर हथौड़े क चोट
पड़ रही थ , और िशलाख ड म से मंजु क मिू त िवकिसत होती जा रही थी। वह सवथा एका त
थल था। वहाँ िकसी को भी आने क अनुमित न थी। वह कभी गाता, कभी गुनगुनाता, कभी
हँसता और कभी रोता था। कभी क ण वर म मा माँगता, कभी मिू त से िलपट जाता। उसक
त मयता, त मयता क सीमा को पार कर गई थी। जैसे वह मिू त म मिू तमय हो चुका हो।
मिू त बनकर तैयार हो गई। िदवोदास के शरीर म केवल हड्िडय का ढाँचा मा रह गया
था। उसके दाढ़ी और िसर के बाल ने उलझकर उसक सरू त भत ू के समान बना डाली थी। पर तु
उस एका त अनु ान म कोई उसके पास नह आ पाता था।
वह बड़ी देर तक मिू त के मुख को एकटक देखता रहा। वह मँुह हबह मंजु का मँुह था।
उसे ऐसा तीत हआ िक वह मँुह मु करा रहा है। उसे उसके ओठ िहलते दीख पड़े । उसने
जैसे सुना िक उन ओठ म से एक श द बाहर हआ, ‘झठ ू े ’। उसक आँख म आँसू भर आए। उसने
मिू त के पैर म िगरकर कहा–‘‘मुझे मा करो मंजु, म नह आ सका।’’ पर तुमने मेरा पु भी तो
खो िदया, िदवोदास कोप कर धरती पर िगर पड़ा। और अ त म ार तोड़ िच लाता हआ गहन
वन म भाग गया!
व तारा पज ू ा महो सव पव था। सह िभ ु एकि त थे। संघाराम िविवध भाँित सजाया
गया था। दूर-दूर से ालु ावक, गहृ थ और ेि जन आए थे। बीच ांगण म वण-मि डत रथ
था। उस पर व म आवेि त व तारा क मिू त थी। आचाय व िसि बड़े य त थे। उ ह ने
य भाव से कहा–‘ या अभी तक धमानुज का कोई पता नह लगा?’’
‘‘नह आचाय, चार ओर गु चर उसे खोजने गए ह।’’
‘‘पर तु पज
ू न तो िनयमानुसार वही कर सकता है िजसने मिू त बनाई है-अत: उसका
अनुस धान करो। मुहत म अब देर नह है।’’ आ ा होने पर और भी चर भेज िदए गए।
िदवोदास अित दयनीय अव था म भख ू - यास से याकुल, अधमत ृ -सा हो एक
िशलाख ड पर अचेत पड़ा था। उसी समय चर ने वहाँ पहँचकर उसे देखा। उसे चेत म लाने क
बहत चे ा क , पर तु उसक मू छा भंग न हई। िन पाय हो चर उसे पीठ पर लादकर संघाराम म
ले आए। संघाराम के िचिक सक ने उसका उपचार िकया। उपचार से तथा थोड़ा दूध पीने से वह
कुछ चैत य हआ। पर तु उसक सं ा नह लौटी।
बाहर बहत कोलाहल हो रहा था। सह िभ ु और भावुक भ िच ला रहे थे। डफ-
मदृ ंग-मीरज बज रहे थे। सारा ांगण मनु य से भरा था। महाराज ी गोिव द पालदेव आ चुके थे।
उ ह ने अधीर होकर कहा–‘‘आचाय, अब पज ू न-अनु ान ार भ हो।’’
आचाय ने िचि तत वर म कहा–‘‘िभ ु धमानुज को यहाँ लाओ। वह िविधवत् पज ू न
करे ।’’
कुछ िभ ु उसे पकड़कर ले आए। वह िगरता-पड़ता आकर मिू त के स मुख खड़ा होकर
हँसने लगा। इसी समय मिू त का आवरण उठाया गया। मिू त के मुख पर िदवोदास ने ि डाली।
उसे तीत हआ जैसे मिू त मु करा रही है। उसने िफर देखा, मिू त ने दो उँ गली ऊपर उठा कर
कहा-‘‘झठ ू े ।’’ उसने वयं वह श द सुना, प तया। उसने मिू त के ओठ को िहलते देखा। यह
देखते ही िदवोदास मिू छत होकर मिू त के चरण म िगर गया। अनु ान खि डत हो गया। आचाय
व िसि असंयत होकर उठ खड़े हए। सह -सह िभ ु–‘नमो अ रह ताय नमो बु ाय’ िच ला
उठे । आचाय ने उ च वर से कहा–‘‘इस िवि िभ ु को भीतर ले जाओ। म वयं अनु ान
स पण ू क ँ गा।’’
पर तु इसी समय मेघ गजन के समान एक आवाज आई–‘‘ठहरो।’’
सह ने देखा। एक भ य शा त मिू त धीर ि थर गित से चली आ रही है। उसके पीछे
सुनयना व म कुछ लपेटे हए आयी ह। उनके पीछे सुखदास और वही व ृ वाला है। लोग ने
देखा, उसी सौ य मिू त के साथ महा ेि धनंजय भी ह।
सौ य मिू त सबके देखते-देखते वेदी पर चढ़ गई। उसने ितमा के िसर पर हाथ रखा।
हाथ रखते ही ितमा सजीव हो गई। वह िहलने लगी। ितमा म सजीवता के ल ण देख सह
क ठ ‘भगवती व तारा क जय’ िच ला उठे । ितमा ने हाथ उठाकर सबको शा त और चुप रहने
का संकेत िकया।
ण-भर ही म स नाटा छा गया। मिू त ने वीणा क झंकार के समान मोहक वर म
कहा–‘‘मढ़ ू िभ ुओ, तुम जानते हो िक धम या है?’’
सह क ठ ने िवि मत होकर कहा–‘‘माता, आप हम धम क दी ा दीिजए।’’
मिू त ने कहा–‘‘मनु य के ित मनु यता का यवहार करना सबसे बड़ा धम है, संसार
को संसार समझना धम का माग है।’’
सह क ठ से िनकला–‘‘माते री व तारा क जय हो।’’
मिू त ने िफर व िसि क ओर उँ गली से संकेत करके कहा–‘‘यह धमढ गी पु ष,
लाख मनु य को धम से दूर िकए जा रहा है। म इस पाख डी का वध क ँ गी।’’ मिू त ने सहसा
खड्ग ऊँचा िकया। जनपद त ध रह गया। िभ ु गण िच ला उठे -
‘‘र ा करो, देिव, र ा करो।’’
व िसि अब तक िवमढ़ ू बना खड़ा था। अब उसने मिू त के प म मंजु को पहचानकर
कहा–‘‘यह देवी व तारा नह है। यह पािप ा धत ू पापे र के मि दर क अधम देवदासी
मंजुघोषा है, इसे बाँध लो।’’
मंजु ने कहा–‘‘वही हँ, और तुमसे पछू ती हँ, िक तुम मनु य को मनु य क भाँित य
नह रहने देना चाहते?’’
व िसि ने िफर गरज कर कहा–‘‘बाँधो, इस पािप ा को।’’
जनता म कोलाहल उठ खड़ा हआ। सह िभ ु रथ पर टूट पड़े ।
अब उस भ य सौ य पु ष-मिू त ने हाथ उठाकर कहा–‘‘सब कोई जहाँ हो-वह शा त
खड़े रहो।’’
इस बार िफर स नाटा हो गया। उसी भ य मिू त ने उ च वर से पुन: कहा–‘‘म ान ी
िम हँ। तु ह शा त रहने को कहता हँ।’’
आचाय ान ी िम का नाम सुनते ही-सह -सह िसर प ृ वी पर झुक गये। महाराज
गोिव दपाल देव ने उठकर सा ांग द डवत् िकया। लोग आ य िवमु ध उस महापु ष को देखने
लगे िजसका दशन पाना दुलभ था तथा जो ि कालदश िस था।
आचाय ने देवी सुनयना को संकेत िकया। उ ह ने व म आवेि त बालक को मंजु क
गोद म दे िदया। मंजु ने खड्ग रखकर बालक को छाती से लगाकर कहा–‘‘यह मेरा पु है, िजसे
वे अभागे धम-पाख डी पाप का फल कहते ह, िजनके अपने पाप ही अगिणत ह।’’
िभ ुओ ं म िफर ोभ उठ खड़ा हआ।
आचाय ान ने मेघ गजन के वर म कहा–‘‘िभ ुओ, शा त रहो। िफर उ ह ने िदवोदास
के म तक पर हाथ रखकर कहा–‘‘उठो ेि पु ।’’
िदवोदास जैसे गहरी न द से जग गया हो। उसने इधर-उधर आ य से देखा-िफर पु को
गोद म िलए मंजु को स मुख मु कराती खड़ी देखकर बार बार आँख मलकर कहा–‘‘यह म
या देख रहा हँ- व न है या स य।’’
‘‘सब स य है, ाणािधक, यह तु हारा पु है, इसका च मुख देखो।’’
िदवोदास का लु ान पीछे लौट रहा था-उसने भुन-भुनाकर कहा–‘‘कैसी मीठी भाषा
है, कैसे ठ डे श द ह, अहा, कैसा सुख िमला, जैसे कलेजे म ठ डक पड़ गई।’’
मंजु ने कहा–‘‘ यारे , ाणे र, इधर देखो।’’
उसने िदवोदास का हाथ पकड़ िलया। िदवोदास का उस पश से चैत य हो जाग उठा-
उसने कहा–‘‘ या, या, तुम हो-सचमुच? तो यह व न नह है?’’ वह िफर आँख मलने लगा।
मंजु ने कहा–‘‘ वािमन्, आय पु , यह तु हारा पु है, लो।’’
‘‘मेरा पु ?’’ उसने दोन हाथ फै ला िदए। पु को लेकर उसने छाती से लगा िलया।
व िसि ने एक बार िफर अपना भाव कट करना चाहा। उसने ललकारकर
कहा–‘‘िभ ुओ, इन धम-िव ोिहय को बाँध लो।’’
िभ ुओ ं ने एक बार िफर शोर मचाया। वे रथ पर टूट पड़े । िदवोदास ने रोकना चाहा-
पर तु वह ध का खाकर िगर गया।
सहसा महाराज गोिव दपाल देव ने खड़े होकर कहा–‘‘जो जहाँ है, वह खड़ा रहे ।’’
महाराज क घोषणा सुनते ही एक बार त धता छा गई। महाराज ने सेनापित को आ ा
दी–‘‘सेनापित, इन उ म िभ ुओ ं को घेर लो।’’
ण-भर ही म सेना ने सम त िभ ु म डली को तलवार क छाया म ले िलया।
आतंिकत होकर िभ ु म पाठ भल ू गए। जनता भयभीत हो भागने क जुगत सोचने लगी।
व िसि ने ु होकर कहा–‘‘महाराज, यह आप अधम कर रहे है।’’
महाराज ने कहा–‘‘म यह जानना चाहता हँ आचाय, यह कैसा धम-काय हो रहा है?’’
‘‘देव, आप धम यव था म बाधा मत डािलए।’’
‘‘पर तु म पछ ू ता हँ िक यह कैसी धम यव था है!’’
‘‘आप अपने गु का अपमान कर रहे ह।’’
‘‘मेरी बात का उ र द आचाय, या आपने कािशराज से िमलकर मेरे िव षड्य
नह िकया? ेि राज धनंजय के धन को हड़पने के िलए उनके पु को अिन छा से िभ ु
बनाकर उसे गु य णाएँ नह दी ह? या आप िल छिवराज के गु धन को पाने का षड्य
नह रच रहे ह?’’
‘‘देव, इन अपमानजनक का म उ र नह दँूगा।’’
‘‘तो आचाय व िसि , इन आरोप के आधार पर म आपको आचाय पद से युत करता
हँ और ब दी करता हँ।’’ उ ह ने सेनापित से ललकार कहा :
‘‘सेनापित इ सेन, व ाचाय और इनके सब सािथय को अपनी र ा म ले लो। तथा
संघाराम और उसके कोष पर रा य का पहरा बैठा दो। तु हारे काम म जो भी िव न डाले उसे िबना
िवल ब खड्ग से चार टुकड़े करके संघाराम के चार ार पर फक दो!’’ सेनापित ने अपनी नंगी
तलवार आचाय के क धे पर रखी।
व िसि ने कहा–‘‘िभ ुओ, यह राजा पितत हो गया है। इसे अभी मार डालो।’’
िभ ुओ ं म ोभ उ प न हआ; सैिनक श लेकर आगे बढ़े ।
अब ी ान ने दोन हाथ ऊँचे करके कहा–‘‘सावधान, िभ ुओ! यह ी ान िम
तु हारे स मुख खड़ा है। तुमने तथागत के वचन का अनादर िकया है। ब धु ेम के थान पर
र पात, अिहंसा के थान पर माँसाहार, संयम के थान पर यिभचार और याग के थान पर
लोभ हण िकया है िजससे तु हारे चार त भंग हो गये ह। तुमने िभ ु वेश को कलंिकत िकया
है, और तथागत के पिव नाम को कलुिषत िकया है। म तु ह आदेश देता हँ िक अपने आचरण
को सुधारो, या िभ ुवेश याग दो।’’
सह -सह िभ ु ी ान के स मुख घुटन के बल बैठ गए। महाराज ने
कहा–‘‘िभ ुओ, तु हारे अनाचार क बहत बात मने सुनी ह। जा तु हारे अ याचार से तंग है।
तु हारे गु घ टाल का भ डाफोड़ हो गया है। म चाहता हँ, भगवान् ी ान के आदेश का पालन
करो। अपने-अपने थान को लौट जाओ।’’
िभ ुओ ं ने एक वर से महाराज और ान ी िम का जय-जयकार िकया।
महारजा ने कहा–‘‘ ेि धनंजय, आओ अपने पु -पौ और पु -वधू को आशीवाद दो।’’
धनंजय दौड़कर पु से िलपट गया। िदवोदास ने िपता के चरण म िगरकर अिभवादन
िकया। मंजु ने भी सबको णाम िकया और ब चे को सुर क गोद म दे िदया।
महाराज ने कहा–‘‘ ेि राज, यह सौभा य तु ह भगवान् ी ान क कृपा से िमला है।
उ ह ने मंजुघोषा और उसके पु क ाण र ा क । और बड़े कौशल से मिू त के थान पर उसे
कट िकया।’’
सुनयना ने करब होकर कहा–‘‘तो भगवान्, आप ही मेरे ब चे के चोर ह?’’
‘‘यह काय भी मुझ वीतराग पु ष को करना पड़ा। जब मंजु को मने जंगल म असहाय
व ृ के नीचे मिू छताव था म पड़ा देखा, तो उसे म अपने आ म म उठा लाया। उपचार से वह
व थ हई तो ब चे के िलए उसने बहत आफत मचाई। म जानता था िक तुम राजी से ब चा मुझे न
दोगी। मंजु का जीिवत रहना म तुम पर कट करना नह चाहता था-इसी से चौयकाय मुझे करना
पड़ा। अब बु शरणं।’’
‘‘भगवान्, म तो ऐसी अ धी हो गई िक पु ी को अरि त छोड़कर भाग िनकली, पर तु
मुझे बालक क र ा का िवचार था।’’
‘‘यह सब भिवत य था जो अक मात् हो गया।’’
‘‘िक तु भगवन्, यहाँ मिू त के थान पर मंजु कैसे आ गई?’’
‘‘यह हमसे पिू छए,’’ सुखदास ने आगे बढ़कर कहा–‘‘हम लोग जब थान आिद क
सु यव था करके व ृ के िनकट पहँचे, तो वहाँ कोई न था। इससे हम बहत याकुल हए। सारा
जंगल छान मारा। तब भगवान् के हम दशन हए। और जब मंजु को हमारी देख-रे ख म छोड़कर
भगवान् ब चा चुराने के िलए गये, तो हमने िमलकर यह योजना बना ली। िफर तो मिू त को अपने
थान से हटाकर वहाँ मंजु को बैठा देना आसान था। पर तु चम कार खबू हआ!’’
यह कहकर सुखदास हँसने लगा। सभी लोग हँस िदए।
सुखदास ने व ृ वाले क ओर संकेत करके कहा–‘‘इन महा मा ने ाणपण से मंजु
क सेवा करके ाण बचाये। हमारी योजना न सफल होती यिद यह मदद न करते।’’
वाले ने चुपचाप सबको हाथ जोड़ िदए। आचाय ी ान ने कहा–‘‘यह सब िविध का
िवधान है िल छिव-राजमिहषी?’’
राजा ने अकचकाकर कहा–‘‘यह आपने या श द कहा! िल छिव राजमिहषी कौन!’’
‘‘महाराज, यह देवी सुनयना िल छिवराज ी निृ संहदेव क प राजमिहषी क ितदेवी ह,
िज ह कािशराज ने छल से मारकर उनके रा य को िव वंस िकया था। मंजुघोषा इ ह क पु ी
ह।’’
महाराज ने कहा–‘‘महारानी, इस रा य म म आपका वागत करता हँ। और
राजकुमारी, आपका भी तथा कुमार को म वैशाली का राजा घोिषत करता हँ, और उनके िलए यह
तलवार अिपत करता हँ जो शी कािशराज से उनका बदला लेगी।’’
रानी ने कहा–‘‘हम दोन -माता पु ी-कृताथ हई ं। महाराज, आपक जय हो। अब इस शुभ
अवसर पर यह तु छ भट म िदवोदास को अपण करती हँ।’’
उसने अपने क ठ से एक तावीज िनकालकर िदवोदास के हाथ म देते हए कहा–‘‘इसम
उस गु र नकोष का बीजक है, िजसका धन सात करोड़ वण मु ा है।’’
‘‘पु , मुझ अभािगन िवधवा का यह तु छ दहे ज वीकार करो।’’
ेि धनंजय ने आगे बढ़कर कहा–‘‘महारानी, आपने मुझे और मेरे पु को ध य कर
िदया।’’
आचाय ी ान ने हाथ उठाकर कहा–‘‘आप सबका क याण हो। आज से म आचाय
शा य ीभ को इस महािवहार का कुलपित िनयु करता हँ।’’ महाराज ने वीकार िकया। और
सबने आचाय को णाम िकया और अपने ग त य थान क ओर चले गए।
व गु
ेि धनंजय का रं गमहल आज िफर सज रहा था। कमरे के झरोख से रं गीन काश छन-
छनकर आ रहा था। भाँित-भाँित के फूल के गु छे ताख पर लटक रहे थे। मंजु उ ान म लगी एक
फिटक पीठ पर बैठी थी; स मुख पालने म बालक सुख से पड़ा अँगठ ू ा चसू रहा था। िदवोदास
पास खड़ा यासी िचतवन से बालक को देख रहा था।
मंजु ने कहा–‘‘इस तरह या देख रहे हो ि यतम?”
‘‘देख रहा हँ िक इन न ह -न ह आँख म तुम हो या म?’’
‘‘और इन लाल-लाल ओठ म?’’
‘‘तुम।’’
‘‘नह तुम।’’
‘‘नह ि यतम।‘
‘‘नह ाणसखी।’’
‘‘अ छा हम तुम दोन ।’’
पित-प नी िखलिखलाकर हँस पड़े । िदवोदास ने मंजु को अंक म भरकर झकझोर डाला।