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आचाय चतुरसेन शा ी का ज म 26 अग त 1891 म उ र देश के बुलंदशहर के पास चंदोख

नामक गांव म हआ था। िसकंदराबाद म कूल क पढ़ाई ख म करने के बाद उ ह ने सं कृत


कालेज, जयपुर म दािखला िलया और वह उ ह ने 1915 म आयुवद म ‘आयुवदाचाय’ और
सं कृत म ‘शा ी’ क उपािध ा क । आयुवदाचाय क एक अ य उपािध उ ह ने आयुवद
िव ापीठ से भी ा क । िफर 1917 म लाहौर म डी.ए.वी. कालेज म आयुवद के व र ोफेसर
बने। उसके बाद वे िद ली म बस गए और आयुवद िचिक सा क अपनी िड पसरी खोली। 1918
म उनक पहली पु तक दय क परख कािशत हई और उसके बाद पु तक िलखने का
िसलिसला बराबर चलता रहा। अपने जीवन म उ ह ने अनेक ऐितहािसक और सामािजक
उप यास, कहािनया क रचना करने के साथ आयुवद पर आधा रत वा य और यौन संबंधी
कई पु तक िलख । 2 फरवरी 1960 म 68 वष क उ म बहिवध ितभा के धनी लेखक का
देहांत हो गया, लेिकन उनक रचनाएं आज भी पाठक म बहत लोकि य ह।
धमपु

आचाय चतरु सेन


ISBN : 978-81-7028-842-8
सं करण : 2014 © राजपाल ए ड स ज़
DHARMPUTRA (Novel) by Acharya Chatursen

राजपाल ए ड स ज़
1590, मदरसा रोड, क मीरी गेट-िद ली-110006
फोन: 011-23869812, 23865483, फै स: 011-23867791
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e-mail : sales@rajpalpublishing.com
भूिमका

कृ च दर को एक पाट दी गई थी। पाट िद ली के एक िति त काशक ने दी थी।


िनम ण मुझे भी िमला। गो यह एक नई बात थी। आमतौर पर मुझे लोग पािटय म बुलाते-उलाते
नह । नई िद ली के एक शानदार होटल म पाट का आयोजन था। पाट म अनेक काशक,
सािहि यक, प कार और अ यापक भी थे। और म तो था ही। पाट क धम ू धाम और शान को मने
देखा। कृ च दर को देखा—िनपट बालक-सा त ण है। म सोच रहा था—इसे भला य पाट
दी गई? ऐसी शानदार पाट तो मुझे िमलनी चािहए थी। इसके बाद अक मात् मेरे मन म एक
िवचार पैदा हआ िक या कारण है अब तक मुझे िकसी ने ऐसी शानदार पाट नह दी। चालीस
साल कलम िघसी, पसठ क दहलीज़ पर पहँचा, ंथ क सं या एक सौ इ क स को पार कर
गई, िफर या लोग अ धे ह, बहरे ह, मख ू ह या सािह य को समझते नह ह? या बात है?
वा तव म पाट यिद िकसी को िमलनी चािहए थी, तो मुझी को िमलनी चािहए थी। मने एक बार
आँख और िसर उठाकर चार ओर देखा, तो मुझे ऐसा तीत हआ िक उस जमघट म मुझसे बड़ा
सािह यकार तो कोई नज़र नह आ रहा है। िफर भी पाट मुझे नह , कृ च दर को ही दी गई
थी। इसम तिनक भी शुबहा न था।
बड़ी देर तक म इस बात पर िवचार करता रहा। और अ त म मेरे मन ने मान िलया िक म
िसफ आयु म ही कृ च दर से बड़ा हँ, पर तु सािह यकार बड़ा कृ च दर ही है, गो है बालक
ही। अब मुझे इस बात का भी पछतावा हो रहा था िक म तो कृ च दर के स ब ध म कुछ
जानता ही नह हँ। खुदा क मार मुझ पर िक मने उनक कोई कहानी पढ़ी ही नह । िन दा और
तुित म सािह यकार क सुनने का आदी नह । अब म घबराने भी लगा िक थोड़ी देर म भाषण
ह गे—कृ च दर क और उनके सािह य क शंसा मक आलोचना करनी होगी। संभवत: यह
काम मुझे ही सबसे थम अंजाम देना होगा, य िक यहाँ सबसे बड़ा सािह यकार तो म ही हँ; गो
कृ च दर से छोटा ही सही। मगर कहाँ? शि तगान आर भ कराया गया देवे स याथ से।
मानता हँ िक उनक जैसी शानदार दाढ़ी िद ली-भर म नह िमल सकती, हालाँिक इस व
िद ली दािढ़य का सबसे बड़ा माकट है। मगर उस मजिलस म म तो था ही; उ थे, जैने थे
और भी अनेक थे। इन सबके िसर पर ल बी दाढ़ी क यह थानेदारी मुझे बहत नागवार तीत हई।
गो दाढ़ी बहत ही शानदार थी, और कला क ृि से वह भी सािह य के अ तगत आती है।
िनरालापन ही तो सािह य क जान है—और यह दाढ़ी ज़ र िनराली थी। िफर भी हम लोग के
रहते हए िसफ दाढ़ी ही के ज़ोर पर उसे सािहि यक मजिलस क नाक का बाल बनाना अ ल ै क
िसफ पहली तारीख को ही बदा त िकया जा सकता है। उ भी शायद गुनगुने हो रहे थे—म सोच
ही रहा था िक दाढ़ी के बाद अब मेरी बारी आएगी। पर तु कहाँ? उ एकदम उठ खड़े हए। अपना
प रचय िदया, जो कहना-सुनना था, कह गए। पर तु मेरी बारी तो िफर भी नह आई। बारी जैने
क । ध ेरे क ! अब मुझे वीकार करना पड़ा िक जैने भी मुझसे बड़े सािह यकार ह—य िप
उ म वे भी छोटे ह। जैने का भाषण आर भ हआ—और मने कुछ सोचना आर भ कर िदया।
पुरानी आदत है; जैने जब बोलने लगते ह तो म िकसी िवषय का िच तन करने लगता हँ।
यान से सुनने-समझने पर भी कुछ पता ही नह लगता िक वे या कह रहे ह। बस, यही
सोचकर स तोष कर लेता हँ िक कुछ दाशिनक बात कर रहे ह गे—िजससे म याज़ क बू क
तरह घबराता हँ। इसिलए, जैने के भाषण के साथ ही म अपने िकसी ि य को सोचने लगता हँ।
पर तु उस समय म जैने ही क बात सोचने लगा। ज़ र ही जैने मुझसे बड़े सािह यकार ह,
तभी तो सब लोग मेरे रहते भी उ ह ही आगे रखते ह—िजसम उ ह भी कभी संकोच नह हआ।
अव य ही वे भी ऐसा ही समझते ह। सोचते-सोचते मन ने कहा— येक सािह यकार का पथ ृ क-
पथ ृ क ा ड है। जैने जलेबी ा ड सािह यकार ह। उनके सािह य म जलेबी जैसा कुछ िचपिचप
िचपकता,कुछ टपकता, कुछ गोल-गोल उलझा, कुछ सुलझा—मीठा-मीठा सािह य-रस रहता है।
बासी होने पर साद कहकर बेचा जाता है। िफर मेरा यान सामने बैठे उ पर पड़ा। िन संदेह उ
डं डा ा ड सािह यकार ह—सीधा खोपड़ी पर ख च मारते ह। िफर वह िबलिबलाया करे ,
अ पताल जाए या चन ू ा-गुड़ का लेप करे । और म हँ लाठी ा ड सािह यकार—चोट क ँ गा तो
ठौर करके धर देना ही मेरा ल य है, साँस आने का काम नह । सामने नज़र उठी तो बनारसीदास
चतुवदी रसगु ल पर हाथ साफ कर रहे थे। भई वाह, ये ह ब ली ा ड सािह यकार। िजसका जी
चाहे नापकर देख ले। लीिजए साहे ब, म तो सोचता ही रहा और लोग उठ-उठकर घर चलने भी
लगे। हड़बड़ाकर देखा—पाट ख म हो चुक थी। भाषण और भी हए थे। कृ च दर ने जवाब म
भी कुछ कहा-सुनी क थी। पर मेरी िहमाकत देिखए—मुझे कुछ पता ही नह लगा। अब म समझ
गया िक य लोग मुझे बुलाते-वुलाते नह । पर तु अब या हो सकता था? पछताता-पछताता घर
चला आया।
बहत गु सा आ रहा था सब लोग पर। या नह लोग मुझे ऐसी पािटयां देते? पर तु कहँ
िकससे? मन ही मन खीझ रहा था िक मन ने एक ध का िदया, कहा—अपनी इतनी पज ू ा करता
है तो दुिनया से या? तू खुद अपनी ओर देख, अपना सािह य रचे जा, अपनी कलम चलाए जा,
अपने आँसू िबखेरे जा। अपनी रचना आप ही पढ़। अपनी स पदा से आप ही स प न रह। मगन
रह। पाट -वाट को गोली मार, और उठा अपना कलम। अभी उठा। इस व िदल चुटीला है—ऐसी
ही चोट खाकर सािहि यक वेदनाएँ मत ू होती ह। ख च तो एक ‘दद क त वीर’।
या कहा जाए, अपने ही मन क बात टाली नह जा सक । लो साहे ब, हद हो गई। हाथ
आप ही कलम पर आ पड़ा। कलम था फाउं टेन पैन। इसी साल मेरे च सठव ज म-न पर िद ली
क गितशील सािह य-प रषद् ने मुझे नेह-भट के प म िदया था। इस स ब ध म भी कुछ
कहना पड़ा। आज तक िकसी भी सािह यकार, सािह य-सं था या सािह य संघ ने कभी मेरे पास
आकर नह कहा—िक आ, तुझे हम स मािनत कर। तेरा ज म-न मनाएँ , तेरी कुछ धमू धाम
कर, पि लिसटी कर। न कभी िकसी स मेलन का सभापित ही मुझे बनाया गया।
आह-ब-ज़ारी बहत क । सभापित बनाना तो दूर—सािह य स मेलन के अिधवेशन म कभी
मुझे िनम ण तक नह िमला। िपछली बार मेरठ म िह दी सािह य स मेलन का अिधवेशन था।
वहाँ म िबना बुलाए ही चला गया—इसिलए िक पास तो है ही, बहत-से सािह य-ब धुआ के दश-
पश हो जाएँ गे। देखा सबने, पर िकसी ने भीतर मंच पर चलकर बैठने तक को नह कहा। दो िदन
बाहर ही बाहर घम ू कर चला आया। सो ऐसी हालत म हर साल म ही अपना ज म-न मना
िलया करता हँ। ब धु-बा धव, िम और कुछ सािह य-प रजन आ जाते ह—मेरे घर को जुठार
जाते ह, मेरे ाण को आन द दे जाते ह। पर भट-उपहार कभी कोई नह देता। इस बार न जाने
यह या एक बदपरहे ज़ी हो ही गई िक गितशील म डल ने ह रद भाई के हाथ मुझे एक कलम
भट दी। उसी समय मने यह वीकारोि क थी िक इस कलम से पहली बार एक उप यास
िलखँग ू ा। और यह भी िलख दँूगा िक—िक यह उप यास इस कलम से िलखा हआ है। सो हाथ इस
कलम पर आ पड़ा और वह वीकारोि भी याद पड़ गई। बस, एक प थ दो काज। उसी कलम से
‘दद क यह त वीर’ ख ची गई है। इस त वीर म दद िजतना है वह मेरे कलेजे का है, और यार
िजतना है वह गितशील सािह य-म डल के सद य का—जो उ ह ने अपने कलम म भरकर
मेरे ज म-न पर भेजा था।
26 अग त, 1954

—चतरु सेन
िवषयसूची

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मई के अि तम िदन। िद ली जैसे भाड़ म भुनी जा रही थी। पंखा आग के थपेड़े मार रहा था।
डा टर अमत ृ राय ने अपने अि तम रोगी को बेबाक िकया और कुस छोड़ी। पर तु इसी समय एक
कार िड पे सरी के सामने आकर क । डा टर ने घड़ी क ओर नज़र घुमाई, एक बज रहा था।
उसक भक ृ ु टी म बल पड़ गए—भुनभुनाकर उसने कहा, ‘नह , इस समय अब और कोई मरीज़
नह देखा जाएगा।’ पर तु उसने देखा—एक भ बढ़ ू ा मुसलमान कार से उतरकर हाथ क
क मती छड़ी के सहारे धीरे -धीरे िड पे सरी क सीिढ़य पर चढ़ रहा है।
कार िनहायत क मती और नई थी। व ृ क आयु अ सी के ऊपर होगी। ल बा, छरहरा और
कभी का सु दर कमनीय शरीर सख ू कर झु रय से भर गया था। कमर झुक गई थी। और अब,
जैसे व ृ क दोन टाँग उसके शरीर के भार को उठाने म असमथ हो रही थ , इसी से वह एक
क मती नाज़ुक मल का छड़ी के सहारे आगे बढ़ रहा था। बदन पर महीन तनजे़ब का िचकनदार
कुता, और उस पर अतलस क अ ी। िसर पर डे ढ़ माशे क लखनवी दुप ली टोपी, पुराने फै शन
के कटे बाल, ढीला पायजामा और वसली के सलीमशाही जत ू े। व ृ का उ वल गौर वण उसक
बगुले के पर जैसी सफ़ेद दाढ़ी-मँछ ू से प ा-सा कर रहा था। बड़ी-बड़ी आँख म लाल डोरे उसके
अतीत आबदार जीवन क सा ी दे रहे थे। उ नत ललाट और उभरी हई नाक तथा पतले
स पुिटत ह ठ उसके यि व को भावशाली बना रहे थे।
व ृ ने भीतर आकर मुि लम तरीके से दोन हाथ बढ़ाकर डा टर के हाथ अपने हाथ म
लेकर अिभवादन िकया। िफर कुछ काँपती-सी धीमी आवाज़ म कहा, ‘मुआफ क िजए, मने बेव
आपको तकलीफ दी। ओफ, िकस िश त क गम है, आग बरस रही है। यह आपके आराम करने
का व है, लेिकन म भीड़ से बचने और ति लये म आपसे िमलने क खाितर ही देर से आया।’
इतना कहकर जेब से पस िनकाला और ब ीस पय के नोट टेबल पर आिह ता से रखकर वह
डा टर के मँुह क ओर देखने लगा।
नकद फ स को देख तथा व ृ के अि त व से भािवत होकर डा टर ने न तापवू क कहा,
‘कोई बात नह । मुझे तो रोज़ ही इस व तक बैठना पड़ता है। फरमाइए, म आपक या सेवा
कर सकता हँ! लेिकन, आप कृपा कर बैिठए तो।’
‘अब इस व नह , िफर कभी, जब आपको फुसत हो। जबिक हम लोग इ मीनान से बात
कर सक।’
‘तो कल, इसी व ।’
‘बेहतर, लेिकन इस गम म तो मेरी जान ही िनकल जाएगी।’ बढ़ ू ा भुनभुनाया। और उसी
तरह डा टर के हाथ को अपने हाथ म लेकर उ ह आँख से लगाया और कहा, ‘खुदा हािफज़।’
वह चल िदया। डा टर ने बाहर आकर उसे सादर िवदा िकया। कार के जाने पर डा टर बड़ी
देर तक उसी क बात सोचता रहा—अव य ही यह बढ़ ू ा सनक रईस िकसी रह य से स बि धत
है।

2
दूसरे िदन ठीक समय पर बढ़ ू ा आ पहँचा। इस समय कार क िखड़िकय म दुहरे शीशे जड़े
थे और भीतर गहरे आसमानी साटन के पद लगे थे। डा टर बढ़ ू े के अिभ ाय को कुछ-कुछ समझ
गया था और उसने पहले से ही यहाँ एका त क सब स भव यव था कर रखी थी।
िड पे सरी म आकर बढ़ ू े ने उसी भाँित मुि लम प ित से डा टर का अिभवादन िकया; एक
बार िड पे सरी पर सतक ि डाली और ब ीस पए मेज़ पर रखकर कहा, ‘‘ या यहाँ हम
इ मीनान से बात कर सकते ह?’
‘यक नन’, डा टर ने जवाब िदया।
‘तो म उसे बुलाऊँ?’ उसने सािभ ाय ि से डा टर क ओर देखा।
डा टर क आँख कार क नीले साटन से ढक हई िखड़िकय क ओर उठ गई ं। उसने
आिह ता से कहा, ‘जैसा आप मुनािसब समझ।’
बढ़ू ा उसी भाँित छड़ी टेकता हआ कार तक गया। कार का दरवाज़ा खुला और क मती
काली िस क का बुका ओढ़े हए एक िकशोरी ने हाथ बढ़ाकर अपनी च पे क कली के समान
कोमल उँ गिलय से बढ़ ू े का हाथ पकड़ िलया। हाथ का सहारा लेकर वह नीचे उतरी और धीरे -धीरे
लाल मखमल के जत ू से सुशोिभत उसके चरण आगे बढ़कर िड पे सरी क सीिढ़य पर चढ़ने
लगे।
बाला का सवाग बुक से ढका था। केवल उन मखमली जत ू के बाहर उसके उ वल चरण
का जो भाग खुला िदख पड़ता था—तथा च पे क कली के समान जो दो उँ गिलयाँ बुक से बाहर
ू े के हाथ को पकड़े थ — उसी से उस अिन सु दरी क सुषमा का डा टर ने अनुमान कर
बढ़
िलया। वह भीता-चिकता ह रणी के समान कती-अटकती सीिढ़यां चढ़ रही थी। उसका सीधा-
ल बा और दुबला-पतला िकशोर शरीर और बहत संकोच सावधानी से िछपाया हआ छ न
यौवन डा टर को िवचिलत कर गया। उसक बोली ब द हो गई। उसके मँुह से बात ही नह
िनकली।
सबके यथा थान बैठ जाने पर व ृ ने एक बार िछपी नज़र से बाला क ओर, िफर डा टर
क ओर देखा, तब कहा :
‘‘शायद आपने मेरा नाम सुना हो, मेरा नाम मु ताक अहमद है।’’
‘‘आप रं गमहल वाले नवाब मु ताक अहमद सालार जंग बहादुर ह?’’ डा टर ने कुछ
िझझकते हए और आदर दिशत करते हए कहा।
‘‘जी हाँ, और आपके वािलद मरहम—खुदा उ ह ज नत दे—मेरे गहरे दो त थे। मेरी ही
सलाह से उ ह ने आपको िवलायत पढ़ने को भेजा था।’’
‘‘म अ छी तरह हज़रू के नाम से वािकफ हँ। िपताजी ने मुझसे अ सर आपका िज़ िकया
है, और यह भी बताया था िक आप ही ने मेरी िवलायत क तालीम का कुल सफा उठाया था। वे
मरते दम तक आपका नाम रटते रहे , लेिकन मुलाकात न हो सक । आप शायद यहाँ अरसे से
नह रहते ह?’’
‘‘जी हाँ, म अरसे से कराची म रह रहा हँ। कल ही हम लोग मंसरू ी से यहाँ आए ह। इधर कई
साल से म गम म मंसरू ी ही रहता हँ।’’
‘‘आपने दशन देकर कृताथ कर िदया। अब फरमाइए, आपक या सेवा म कर सकता
हँ?’’
“शुि या!” नवाब ने अजब अ दाज़ से िसर झुकाया, आँख ब द क और ण-भर कुछ
सोचा, िफर जैसे एकाएक साहस मन म लाकर कहा, ‘‘यह मेरी पोती शाहज़ादी ह नबानू है। माँ-
बाप इसके कोई नह ह। मेरी भी अब कोई दूसरी औलाद नह है। यही वा रस है। बात इसी के
मुति लक होगी।’’
“मज़ या है?’’ डा टर ने सहज वभाव से पछ ू ा।
“मज़? मज़ बेआब ई।’
डा टर कुछ भी न समझ सका। उसने अचकचाकर बाला क ओर देखा जो इस समय बुक
के भीतर पीपल के प े के समान काँप रही थी, िफर उसक ू क ि नवाब के चेहरे पर
सच
अटक गई।
बढ़ू े ने अब अकंिपत वाणी से कहा, ‘‘शायद इस नए मज़ का नाम आपने अभी न सुना हो।
आप बड़े डा टर तो ज़ र ह, पर नए ह, नौजवान ह। िज़ दगी सलामत रही तो आप देखगे िक
ऐसी बीमा रयाँ आम होती ह, खासकर बड़े घर म तो यह बेहद तकलीफदेह हो जाती ह।’’ एक
दाशिनक-सा भाव उसक आँख और ह ठ म खेल गया। डा टर उलझन म पड़ गया। उसने कहा,
‘‘मेहरबानी करके ज़रा साफ-साफ किहए, मामला या है?’’
‘‘यही मुनािसब भी है। लड़क हािमला है। उ इसक बाईस साल क है। और इसी नव बर
म इसक शादी नवाब वज़ीर अली खाँ से होना करार पा चुका है।’’
परे शानी क रे खाएँ डा टर के माथे पर िखंच गई ं। उसने कहा, ‘‘लेिकन, लेिकन इसम म
आपक या मदद कर सकता हँ। आप मेरे मुर बी ज़ र ह, पर आप मुझसे कोई गैरकानन ू ी काम
कराने क तो उ मीद ही न रखगे।’’
‘‘कतई नह , म तो आपसे महज़ एक इ सानी फज़ अदा कराना चाहता हँ। आपके वािलद
क दो ती के नाम पर, या उस सलक ू के बदले िजसका अभी आपने िज़ िकया है। इसके िसवा
म आपको इसका मुनािसब मुआवज़ा भी दँूगा।’’
‘‘लेिकन आप चाहते या ह? िकस तरह म अपना फज़ अदा कर सकता हँ।’’
‘‘बताता हँ। पहले आप मेरे कुछ सवाल का जवाब दीिजए।’’
‘‘पिू छए आप।’’
‘‘आपक शादी हो गई है?’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘आपको कोई बाल-ब चा है?’’
‘‘जी नह ।’’
‘‘बेहतर, तो आप इस ब चे के ‘धमिपता’ बन जाइए। मने िह दू आिलम से सुना है, भले
िह दू ‘धमिपता’ होना सवाब का काम समझते ह। म इ क स गाँव का समच ू ा इलाका इस ब चे
के नाम कर दँूगा। लेिकन बज़ािहरा आप ब चे के धमिपता नह , असल बाप ही कहलाएँ गे। यानी
यह ब चा मेरी लड़क का नह , आपका ज़ाती ब चा, आपका और आपक बीवी का पैदायशी
ब चा कहलाएगा। और म आपके इस ब चे का ‘धमिपता’ बनकर अपनी आधी जायदाद, यानी
इ क स मौज़ो का इलाका ब चे के नाम िलख दँूगा।’’
डा टर का िसर घम ू गया। उसने कहा—‘‘लेिकन यह हो कैसे सकता है?’’
‘‘आप मंज़रू कर लीिजए तो म यह भी अज़ क ँ गा।’’
‘‘आप परू ी बात कर लीिजए, तो म कुछ सोचं ू और अज़ क ं ।’
‘‘पहली बात तो यह िक आप और आपक बीवी दोन हमारे साथ मंसरू ी चल। और जब तक
ब चा पैदा होकर तीन महीने का न हो जाए, हमारे साथ वह रह। इस दौरान म म आपको बतौर
हजाने पाँच हज़ार पए माहवार दँूगा, इसके अलावा तमाम अखराज़ात भी म उठाऊँगा। िकसी
िक म क तकलीफ आपको न होगी। यह मई का महीना ख म हो रहा है, जुलाई या अग त म
िडलीवरी हो जाएगी। और अ ू बर के आिखर तक आप ढाई या तीन माह के ब चे को लेकर
बखुशी िद ली आ सकते ह। िकसी को कान -कान यह शक करने क गुंजाइश भी न रहे गी िक
ब चा आपका नह है। यहाँ आकर आप एक दावत अपने दो त को दे सकते ह, तभी म भी
आपको दावत देकर इलाका आपके ब चे को िलख दँूगा।’’
डा टर सोच म पड़ गए। िफर कहा, ‘‘मुझे आप सोचने का कुछ समय दीिजए। िफर मुझे
अपनी ी से भी सलाह करनी होगी।’’
‘‘सोचने-िवचारने का मौका म आपको नह दँूगा, और आपक बीवी से इस मामले म म ही
बात क ँ गा। और अगर मेरी यह आरज़ू नह मानगे तो म समझ लँग ू ा िक मेरे और आपके वािलद
के बीच पचास साल तक जो भाईचारा रहा, उसक क मत आप, गो िक बहत शरीफ और आिमल
ह, कानी कौड़ी के बराबर भी नह समझते।’’
बढ़ू ा नवाब तैश म आकर खड़ा हो गया। िफर उसने कहा, ‘‘और कुछ िमनट आपके बरबाद
ह गे—यहाँ तक जब बात हो चुक है तो आपको मुनािसब है िक आप बानू से भी दो-दो बात कर
ल। म तब तक बाहर जाता हँ।’’
इतना कहकर नवाब उसी भाँित छड़ी टेकता हआ बाहर आकर कार म बैठ गया।
िड पे सरी म रह गए—डा टर और ह नबानू शाहज़ादी। कुछ देर स नाटा रहा—इसके
बाद ह नबानू ने कहा, ‘ज़रा तकलीफ उठाकर िड पसरी का दरवाज़ा भीतर से ब द कर लीिजए
—बेआब ई का मज़ है—डा टर से परदा फज़ल ू है, मगर दीगर...।’’ वीणा क झंकार के समान
कुछ कोप के-से ये वर डा टर क चेतना को आहत-सा कर गए।
डा टर ने उठकर ार ब द कर िलया। दरवाज़ा ब द करके जब वह लौटा तो उसक आँख
च िधया गई ं। ह नबानू ने अपना बुका उतारकर रख िदया था— लेटी रं ग क यक ू ट जाजट क
साड़ी म छनकर उसका धवल कु दकली के समान नवल प आलोक िबखेर रहा था। आँख
उसक रोते-रोते सज ू कर फूल गई थ —वे लाल चोट हो रही थ —िफर उनम य ु िसंहनी
के समान तीखी ि डा टर पर केि त थी। हीरे के समच ू े टुकड़े से जैसे उसका मुख-च
िनिमत हआ था। वह उ वल गौरवण और सुडौल शरीर ऐसा था, जैसा डा टर ने अपने जीवन म
आज तक नह देखा था। उस प म माधुय के साथ ही एक तेज—गौरव और ताप य हो रहा
था, िजससे अिभभत ू होकर डा टर क वाणी जड़ हो गई। उसके मँुह से बोली न िनकली। उस तेज
को जैसे न सहकर उसक आँख नीचे को झुक गई ं।
बानू ने बात शु क । उसने कहा :
‘‘आपने इ कार तो िकया नह —िसफ सोचने का व माँगा है, उ मीद है, सौदा पट
जाएगा। सौदा तो बड़े अ बा ने कर ही िलया है, लेिकन म कुछ अखलाक सवाल आपसे
क ँ गी।’’
‘‘फरमाइए।’’
‘‘मेरा यह काम, िजसक वजह से म इस िज़ लत म फँस गई हँ—आप कैसा समझते ह?’’
‘‘म समझता हँ, आपके साथ धोखा और िव ासघात हआ है।’’
‘‘जी नह , म कोई अनपढ़—बेवकूफ और दहकानी, बेसमझ लड़क नह हँ। कैि ज
युिनविसटी क ेजुएट हँ, और इसी साल मने मनोिव ान म एम. ए. क िड ी ली है।’’
‘‘तब तो...’’
‘‘कहती हँ, मने अपने पस द का जीवन-साथी चुना और इ मीनान से अपने-आपको उसे
स प िदया। लेिकन बड़े अ बा को यह पस द नह हआ। य िक िजसे मने अपने को स पा, वह
महज़ एक ोफेसर है, नवाब नह है—नवाबज़ादा भी नह है। उसक कोई खानदानी िह ी भी
नह है। बड़े अ बा क बहत भारी टेट है—वे चाहते तो उ ह को सब टेट देकर नवाब बना
सकते थे। मगर उ हाने आपको आधी जायदाद देना कबल ू िकया—पर उ ह नह । वे नवाब वज़ीर
अली खाँ बहादुर से मेरी शादी कर रहे ह—िजनक तीन बीिवयाँ पहले से मौजदू ह, और िजनक
सरू त ठीक गडे के जैसी है, उ भी माशा अ लाह, पचास के ऊपर होगी।’’
‘‘आप या यह शादी पस द नह करत ?’’
‘‘कैसे कर सकती हँ—जबिक म अपने-आपको िकसी को दे चुक ; िफर कह कुछ तुक भी
तो हो!’’
‘‘तो िफर आप इ कार कर दीिजए। आप बािलग ह—और उ ह से शादी क िजए िज ह
आपने अपना शौहर चुना है।’’
‘‘मुझे कोई कानन ू ी िद कत नह है, उ ह ने भी यही कहा था। मगर म ऐसा नह कर
सकती?’’
‘‘ य नह कर सकत ?’’
‘‘इसिलए िक बड़े अ बा ने मुझे बचपन से अपना यार िदया है। जब अ बा न रहे तो मुझे
गोद म लेकर वे यही कहकर िदल क आग बुझाते रहे िक—तू उसी का नरू है। बडे ़ अ बा बड़े
शानदार आदमी ह। बड़े हौसलेम द ह, बडे ़ िदलवाले ह। वे अपनी नवाबी शान को नह छोड़
सकते। खानदानी इ ज़त का याल भी उ ह बहत है, इसी से उ ह ने मेरे इस मुकाम को
नापस द िकया और मेरी शादी नवाब वज़ीर अली खाँ बहादुर से तय कर दी। तब मेरा फज़ है िक
उनक बात पर हफ न लगाऊँ—मेरी ज़रा-सी िज़ दगी तबाह हो जाए तो परवाह नह , लेिकन म
उनक मज़ के िखलाफ कुछ नह कर सकती।’’
‘‘लेिकन इस तरह शादी करना तो सरासर एक-दूसरे को धोखा देना है। या आप नवाब
वज़ीर अली खाँ बहादुर पर यह राज़ जािहर कर दगी?’’
‘‘नह कर सकती।’’
‘‘और वह ोफेसर?’’
‘‘नह करगे।’’
‘‘लेिकन बड़े नवाब आपके आराम और तकलीफ का कुछ याल ही नह करगे? वे अगर
आपक शादी ोफेसर साहब से कर द तो कोई झगड़ा-झंझट ही नह है।’’
‘‘ये सब बात तो हो चुक । घर म न कोई दूसरी औरत है न मद, िसफ म और बडे ़ अ बा ह।
वे अपनी खानदानी इ ज़त के बाद मुझी को यार करते ह और म अपने से यादा उ ह यार
करती हँ। इसी से मने जब मँुह खोलकर अपनी िद कत उनके सामने पेश क तो वे गु सा नह
हए, उ हाने कहा—तब तो बान,ू तेरी शादी ोफेसर से ही होनी चािहए, मेरी बात जाए तो जाए।
—लेिकन मने यह मंजरू नह िकया और कहा—यह नह होगा बड़े अ बा, आपक बात और
खानदानी इ ज़त पहले है। मने पहले इसका कुछ खयाल नह िकया था; लेिकन अब तो आप
जैसा चाहगे। वैसा ही होगा।’’
डा टर के दय म कह जाकर दद उठा। उसने आँख उठाकर बानू के लाल-लाल फूले हए
ने को देखकर कहा, ‘‘तो िफर, आपक ये लाल-लाल फूली हई आँख...’’
‘‘अपने िलए नह , उनके िलए, िजनक िज़ दगी मने सन ू ी कर दी, लेिकन फज़ क िजए, म
मर ही जाती; तब भी तो उ ह स करना पड़ता।’’
एकाएक डा टर के मन म एक बात उठी। उसने कहा :
‘‘तब तो नवाब जो काम मेरे सुपुद करना चाहते ह, ोफेसर के सुपुद भी कर सकते ह। यह
यादा ठीक भी रहे गा।’’
‘‘बड़े अ बा ऐसा नह कर सकते। म कह चुक हँ। िफर म भी इसी म भलाई समझती हँ िक
मुझसे और ब चे से उनका कोई ता लुक ही न रहे ।’’
“िसफ बड़े नवाब साहब क एक सनक के िलए आप कई-कई िज़ दगी बबाद कर देना
पस द करती ह?’’
‘‘ऐसा तो दुिनया म होता ही है डा टर! लड़ाई म लाख जवान जो कट मरते ह, तो कुछ
अपने िकसी काम से नह —अपने जनरल के ह म से, मािलक के नाम और काम के िलए। य
एक-एक जान क क मत लेकर हम कहाँ तक दुिनया म आगे बढ़ सकते ह!’’
‘‘आपके िवचार पाक ह, आदश ऊँचे ह, म उ ह पस द भले ही न क ँ लेिकन म आपक
इ ज़त के िलए—आप जैसा कहगी—करने को राज़ी हँ।’’
‘‘लेिकन आपक बीवी?’’
‘‘वह तो नवाब साहब ने अपने िज़ मे ली है।’’
“शुि या, मेरी अपनी एक आरज़ू है।’’
‘‘फमाइए।’’
‘‘मेरे ब चे को, चाहे वह लड़का हो या लड़क —कभी भी उसक माँ का नाम न बताइए—
न बाप का। मुझे कभी-कभी उसे देख लेने और यार करने क इजाज़त दीिजए। अ लाह आपका
भला करे गा।’’
‘‘ऐसा ही होगा शाहज़ादी सािहबा।’’
‘‘तो बात ख म हई। दरवाज़ा खोल दीिजए और बड़े अ बा को बुला लीिजए।’’ उसने बुका
पहन िलया।
नवाब के भीतर आने पर डा टर ने कहा, ‘‘आपका ह म बजा लाऊँगा, लेिकन मेरी दो शत
ह—एक मेरी ी को आप राज़ी कर ल, दूसरे वह सौदा-सु फ रहने द। ज़मीन-ज़ायदाद क बात
छोड़ द।’’
‘‘खैर, तो ये दोन बात आप मुझी पर छोड़ दीिजए। म कल सुबह आपक बीवी से बात
करने आऊँगा।’’
वह उठा। उसी भाँित डा टर को अिभवादन िकया और बानू के क धे का सहारा लेकर धीरे -
धीरे िड पसरी से बाहर हो गया।

3
डा टर क प नी का नाम था अ णा, उसे राज़ी करने म नवाब को किठनाई नह हई—
स तान क छ न लालसा तथा ी-जाित पर दया-भावना से अिभभत ू होकर उसने वीकृित दे
दी। अतुल स पदा पर भी उसका यान गया। डा टर य िप कहते थे िक वे सौदा नह चाहते,
पर तु यह ऐसा सौदा न था जो आसानी से अपने लोभन का भाव जाने दे। िफर ह नबानू को
देखकर डा टर िजस कार भािवत हो गया था, उसी भाँित डा टर क प नी भी भािवत हई।
इस कार सब बात ठीक-ठीक तय हो गई ं और डा टर सप नीक नवाब के साथ मसरू ी
चले आए। यथा समय ह नबानू ने पु को ज म िदया—और यार और खन ू का सदमा खाकर
उसने उसे आँसुओ ं से आँख भरकर डा टर क प नी को िदया। सारे ही औपचा रक ब दोब त हो
गए और एक िदन ह नबानू के उस कलेजे के टुकडे ़ को अपनी िबना दूध क छाती से लगाकर
अ णादेवी िद ली चली आई ं। दु:ख व शोक से असहाय ह नबानू मिू छत हो गई।
िद ली म आकर डा टर अमत ृ राय ने धम
ू धाम से पु -ज मो सव मनाया। िह दू-सं कार
िकए और बालक का नाम रखा—िदलीपकुमार राय।
कुछ िदन बाद नवाब ने िद ली आकर अपने घर एक ज िकया। उसम सभी प रिचत
िह दू-मुसलमान िम -प रजन को बुला, सबके सामने डा टर, उनक प नी और पु का
अिभन दन िकया। नवाब ने कहा, ‘‘ये डा टर अमत ृ राय मेरे दो त बंसगोपालराय के पु ह।
बचपन ही से मने इ ह अपना पु समझा है। मेरे और बंसगोपालराय के बीच भेदभाव न था। हम
लंगोिटया यार थे। मने ही हठ करके इ ह िवलायत भेजा था। मने ही इनक िश ा का सारा खच
बदा त िकया। अब, जब डा टर अमत ृ राय को पु -लाभ हआ है, और इस खुशी म शािमल होने के
िलए बंसगोपाल िज़ दा नह रहे , म उनक जगह उनके िह से क खुशी ज़ािहर करता हँ और मेरी
यह खुशी िसफ ऊपरी ही नह है, िदली है। इसका अभी म एक सबत ू आपको दँूगा। बंसगोपाल
िज़ दा होते तो वे भी यही करते।’’
इतना कहकर नवाब ण-भर को के। एक नज़र उ ह ने उपि थत लोग पर डाली। शायद
अपने िखसकते हए दय को बल िदया। ह नबानू क मिृ त पर पदा डाला, आँख के उमड़ते
आँसुओ ं को भीतर ही ज ब िकया और आवाज़ क कँपकँपी को संभाला। िफर धीर ि थर वर म
कहा, ‘‘आप सब जानते ह, मेरी कोई औलाद नह । मेरी पोती ह नबानू ही एक मेरा सहारा है।
आज ह नबानू के बाप छोटे नवाब िज़ दा होते, तो वे भी अमत ृ राय के बराबर ही होते; मगर खुदा
ने उ ह अपनी िखदमत म ले िलया। शु है उसका। आप देखते ह, म सुबह का िचराग हँ। मेरा
िदल यार से भरपरू है, िज़ दगी-भर मने अपने फज़ को अ वल दजा िदया है; आज भी मेरा वही
याल है।
‘‘दुिनया के सामने दो ती क िमसाल पेश करने का इरादा नह रखता, न िह दू-मुि लम
भाईचारे का कोई िदखावा कर रहा हँ; म तो िसफ अपने िदली यार, ज़ बे और फज़ को देख रहा
हँ। और म आज अपनी तमाम जायदाद के दो िह से करता हँ। आधी जायदाद म अपनी पोती
शाहज़ादी ह नबानू को देता हँ और आधी दो त के लड़के, इस न हे -से फ र ते को। आप आमीन
किहए।’’
लोग सकते क हालत म आ गए। इतना बड़ा दान, दो ती का इतना बड़ा पुर कार उ ह ने
सुना भी न था। नवाब ने काँपते हाथ से दान-प जेब से िनकालकर ह नबानू क ओर देखा जो
वहाँ ि य के बीच बैठी थी। नवाब क आवाज़ काँपी। मगर उ ह ने कहा, ‘‘बेटी ह न, खड़ी हो
जाओ और दुिनया के एक पाक काम को अंजाम देने म अपने इस बढ़ ू े अ बा क मदद करो। यह
कवाला लो और अपने मुबारक हाथ से उस न ह फ र ते के हाथ म दे दो।’’
सैकड़ आँख उसी ओर उठ गई ं। ह नबानू उठी और उसने अकि पत हाथ से कवाला लेकर
अ णादेवी क गोद म लेटे हए बालक के हाथ म दे िदया। पर तु इसके बाद ही उसके पैर
लड़खड़ा गए। बढ़ ू े नवाब ने भाँपकर उसे संभाला, वे उसे भीतर ले गए। भीतर जाते ही ह नबानू
मिू छत होकर धरती पर िगर गई।
पर िकसी ने भी इस ममपीिड़ता, बाणिव ा ह रणी क वेदना को नह जाना। बाहर शहनाई
बज रही थी, डा टर पर मुबारकवािदय क वषा हो रही थी, हष माद म लोग भाँित-भाँित क
बात कह रहे थे। कोई आ यमु ा से कपार पर आँख चढ़ाकर कह रहे थे, ‘‘अभत ू पवू है, अ ुत!
ऐसी दो ती का िनभाव, ऐसा याग, ऐसा दान देखा नह , सुना भी नह !’’
खाने-पीने क धम ू धाम चली। इ -पान से स कृत होकर आगत-समागत सब अपने घर
गए। केवल डा टर द पती एक असहनीय भार-सा अपने पर लादकर चुपचाप अपने घर लौटे।

4
लेिकन इस सारी सु यवि थत यव था म डा टर अमत ृ राय अ यवि थत हो गए। ह नबानू
के ित गहरी आसि ने उ ह अिभभत ू कर िलया। डा टर अमत ृ राय एक च र वान्, बुि मान्
और िज़ मेदार आदमी थे। मयादा का उ ह बहत ान था। प नी अ णा के ित उनम गहरी
आ मीयता थी। इस घटना से थम दोन पित-प नी एक ाण दो शरीर रहते थे। अ णा को
छोड़कर कोई दूसरी ी भी संसार म है यह उ ह ने कभी जाना भी न था। पर तु इस असाधारण
संयोग म, एक िविश भावना के वातावरण के भंवर-जाल म फँसकर तथा ह नबानू के
असाधारण प-माधुय, सुषमा, तेज और िन ा से वे जैसे एकबारगी ही अपना आपा खो बैठे।
उ ह ने बहत समय तक मन क पीड़ा को बहलाया। जब पीड़ा अस हई और उसका असर उनके
शरीर और चे ाओं पर पड़ने लगा, तो वे असंयत हो गए। कभी एक आह और कभी गहरी
िन: ास िनकल जाती, हँसी उनक िव ूप और िन ाण हो गई। ि सन ू ी, ाण याकुल और
मन हाहाकार से भर गया। डा टर का यह भाव-प रवतन देखा और ने भी, पर सबसे अिधक
देखा ह नबानू ने और उसके बाद अ णा ने। पर तु समझा दोन ने िभ न-िभ न प म। अ णा
को स देह हआ िक कोई शरीर यािध है। उसने बहत बार पछ ू ा और डा टर ने वैसी ही िन भ
हँसी म उसे टाल िदया। पर तु वे महामेधािवनी ह नबानू को भुलावे म न रख सके और एक िदन
दोन म खुलकर बात हई ं।
ह नबानू ने कहा :
‘‘भाईजान, या आप मेरे इस तरह पुकारने पर नाराज़ ह गे?’’
‘‘जी नह !’’ डा टर ने घबराकर कहा।
‘‘तो िफर िसफ ‘नह ’ किहए, ‘जी नह ’ नह । और अगर म आपको ‘तुम’ कहकर
पुका ँ ?’’
‘‘तो—तो म समझँग ू ा, तुमने मुझे िनहाल कर िदया, जीवन-दान दे िदया!’’
“शुि या, पहल तु ह ने क । लेिकन मने सुना है, आप सात िवलायत घम ू आए ह?’’
‘‘य ही, आदतन घुम कड़ हँ। इं लड जब िड ी लेने गया तो एक िड ी अमे रका क भी ले
लँ,ू यह इ छा हई। इसी िसलिसले म दूसरे मु क क भी सैर हो गई।’’
‘‘तब तो मुझे समझना चािहए िक दुिनया क ऊँच-नीच, भलाई-बुराई और अपना नफा-
नुकसान आप बखबू ी समझ सकते ह।’’
‘‘लेिकन म कोई यादा समझदार आदमी नह हँ।’’
‘‘हो सकता है, लेिकन नासमझ होना कोई तारीफ क बात नह है भाईजान, खास कर
आप जैसे जहाँदीदा आदमी के िलए।’’
‘‘ या कह मुझसे कोई गलती हो गई बान?ू या मने तु ह नाराज़ कर िदया? कहो, यिद
ऐसा है तो कभी अपने को माफ न क ँ गा।’’
‘‘नाराज़ नह , मुझे तुमने तकलीफ दी है, और मेरी यह तकलीफ मेरे िलए नह , तु हारे
िलए है। तुम, मुमिकन है अपने को माफ न करो, कोई सज़ा ही अपने ऊपर लो, तो जानते हो, यह
म िकसी हालत म बदा त नह कर सकँ ू गी।’’
‘‘तो तुम, बान.ू ..’’ डा टर के मँुह से बात परू ी िनकली नह ।
‘‘हाँ, म तु ह यार करने लगी हँ, यह सच है। तुम मेरी आँख म यह न देख पाते तो शायद
अपनी यह हालत न बना लेते। मगर तुमने मेरी यह जुरत नह देखी िक म यार, और यार से भी
यादा ल ते-िजगर तक क परवाह नह करती। म पहले अपने फज़ को देखती हँ।’’
‘‘लेिकन...’’
‘‘तुम जो कुछ कहना चाहते हो वह म जानती हँ। जबान खोलने से या फायदा? म तो
तु हारे रोम-रोम क हरकत म, तु हारी नज़र म, तु हारी ल बी-ल बी साँस म, सख ू े हठ म
तु हारी सब बात पढ़ चुक । नादान नह हँ भाईजान, लेिकन हद से आगे कदम रखना अ छा न
होगा, िसफ तु हारी िज़ दगी बबाद हो जाएगी।’’
‘‘मुझे कुछ कह लेने दो बान।ू ’’
‘‘कहना चाहते हो तो कहो, लेिकन उससे फायदा कुछ न होगा। म जानती हं िक तुम जो
कुछ कहोगे, उसका सब िमलाकर सार यही होगा िक तुम मेरे िबना िज़ दा नह रह सकते। सो
इसका जवाब म तु ह वही देती हँ, जो मने हबीब साहब को िदया था : यानी, अगर िज़ दा रहोगे,
खुश रहोगे, मुझ पर अपनी बरकत क नज़र डालोगे, तो म तु ह फ र ता समझकर परि तश
क ँ गी। तु हारी मरू त मेरी आँख पर रहे गी। और अगर मर िमटोगे, तो म तु ह एक नाचीज़,
हक र, अदना इ सान समझँग ू ी। तब िसफ ज़रा-सी हमदद ही मेरे िदल म तु हारे िलए रह जाएगी,
और कुछ नह ।’’
‘‘तो बान,ू या यार क यही सज़ा है?’’
‘‘सज़ा है िक इनाम, यह तो समझने क बात है। मगर म तो यह समझने लगी हँ िक यार
क सही सरू त तो जुदाई ही है, िमलन नह —वह जुदाई, जहाँ यार क भख ू रोम-रोम म रमकर
िज म को यार से सराबोर कर देती है। इतने जतन से जो लज़ीज़ खाना तैयार िकया जाता है,
उसे भरपेट खा चुकने पर जो जठ ू न बच रहती है, उस पर तो नफरत और िहकारत क नज़र
डालना कोई पस द नह करता। उसे तो कु को िखलाकर बतन को ज द से ज द धोकर
साफ कर डालना ही सब सलीके-वाले लोग पस द करते ह। यार तो प थर का बुत है, िजसे
िह दू पजू ते ह। भीतर-बाहर वह सब तरफ प थर है—ठोस, वहाँ अहसास कहाँ? इसी से वह यार
सब भख ू यास से पाक-साफ होकर भि बन जाता है। इस भि से िकसी का पेट नह भरता।
कभी ऊब नह पैदा होती। वह इतना पाक हो जाता है िक िसवा पज ू ा करने के दूसरी िकसी बात
का याल िदमाग म लाया ही नह जा सकता।’’
डा टर क आँख से झर-झर आँसू झरने लगे। उसने कहा :
‘‘मानता हँ बान,ू म एक कमज़ोर आदमी हँ और तुम बेशक इ सान से परे कोई शय हो;
िफर भी म शायद बबाद हो चुका। दुिनया के िकसी काम का न रहा!’’
‘‘तब तो बड़े अ बा ने तु ह ऐसा नाज़ुक काम स पकर बड़ी गलती क । तुम न िसफ अपने
ही को, मेरे लड़के को, अ बा क इ ज़त को और अ णा बिहन क िज़ दगी को बबाद करोगे।
कहो, या तुम अपनी कमज़ोरी को दूर नह कर सकते? अब भी व है, म अ बा से कहकर
कुछ दूसरा ब दोब त क ँ ।’’
‘‘नह बान,ू ऐसा नह हो सकता। तुम जैसा कहोगी म वही क ँ गा, और कलेजे पर प थर
रखकर म तु ह भल ू जाऊँगा, म समझँग ू ा एक सपना देखा था—झठ ू ा सपना।’’
‘‘नह भाईजान, ऐसा तुम न कर पाओगे। म तो मुज सम तु हारे सामने हँ। और जब जो
ता लुकात मेरे-तु हारे बीच पैदा हए ह, ताज़ी त रहगे। और जब तक हम दोन िज़ दा ह, एक-
दूसरे को भल ू न सकगे। हम शायद बहत बार िमलगे, बहत बार हँसगे, बहत बार एक-दूसरे से
टकराकर एक-दूसरे को चोट पहँचाएँ गे—वह चोट हम चुपचाप सहनी पड़े गी। वह आग जो
िक मत ने हमारे कलेजे म जला दी है, भीतर ही जलती रहे गी। उसका धुआँ तक हम भीतर ही
भीतर िनगलना पड़े गा भाई जान!’’
बहत देर तक दोन चुप रहे । अ त म डा टर ने िसर उठाकर कहा, ‘‘तो बान,ू ऐसा ही हो।’’
‘‘लेिकन अब भी—बान?ू ’’
‘‘नह —बिहन!’’
डा टर ने झुककर ह नबानू के पैर छू िलए। आँख क पुतिलय को आँसुओ ं म तैराकर
ह नबानू ने कहा :
‘‘यह या िकया?’’
‘‘हम िह दू हमेशा बड़ी बिहन के पैर पज
ू ते ह, इसी से।’’
‘‘लेिकन म तो तुमसे उ म बहत छोटी हँ।’’
‘‘तो इससे या? तुम हर तरह मुझसे बहत बड़ी हो।’’
डा टर तेज़ी से चले गए। ह नबानू देर तक बैठी रोती रही।

5
अ णादेवी पर भी यह रह य कट हए िबना न रहा। उनका शरीर थरथराने लगा, और वे
बीमार हो गई ं। पर तु पित से उ ह ने एक श द भी नह कहा, न िशकायत क । वे घुलने लग ।
मंसरू ी के वा य द जलवायु ने उ ह कुछ भी लाभ न पहँचाया। ह नबानू ने िशशु को ज म
देकर अ णा के सुपुद कर िदया। इससे उन पर दुहरा भार पड़ गया। पहले िजस भावना से
अिभभत ू हो वे इस काम म योग देने को तैयार हो गई थ , अब उनम वह उ साह नह रहा। बालक
बहत सु दर, जैसे हीरे क कनी हो, ऐसा था। पर उस िनरीह िनद ष िशशु के ित भी उनके मन
म एक िवरि के भाव उदय हो गए। इन सब बात को उ ह ने बहत िछपाया, िफर भी वे िछपी न
रह —न ह नबानू क नज़र से, न डा टर क नज़र से। पर तु ह नबानू ने इस स ब ध म
उनसे कुछ बात न कही। न उ ह ने डा टर ही से इस स ब ध म एक श द कहा। जब नवाब ने
आधी जायदाद ब चे को दे दी, तब भी अ णा के मन का बोझ घटा नह । उनका वेदना वैक य
और भी बढ़ गया।
पर तु ह नबानू क भावशाली बातचीत से डा टर का मन एक नवीन बल ा करके
कुछ ह का हआ, और उ ह ने मु तैदी से इस दद को चुपचाप सहने का इरादा कर िलया। एक
िदन अवसर पाकर, वे प नी के पास आकर उसके पलंग के पायताने उसके पैर गोद म लेकर
चुपचाप बैठ गए।
अ णा ने ज दी से पैर िसकोड़कर कहा, ‘‘यह या करते हो! वहाँ य बैठ गए—यहाँ
बैठो।’’ उसने तिकया सरकाकर िसरहाने जगह क ।
डा टर ने कहा, ‘‘अ णा, अपनी शम तु ह कैसे िदखाऊँ? लेिकन तुम या मुझे माफ नह
कर सकत ?’’
‘‘ या बात है, साफ-साफ कहो।’’
‘‘कहने से या होगा, तुम सब जानती हो, तु हारी यह हालत हो गई है। यह सब मेरी ही तो
मखू ता से न! पर अब मेरी आँख खुल गई ं—बिहन ने मेरी आँख खोल द !’’
‘‘बिहन! कौन बिहन?’’
‘‘ह नबान।ू मेरा मन मोह और पाप म फँस गया था। उसका वह प, शील, तेज और सबके
साथ इस प रि थित ने मेरे मन म मैल पैदा कर िदया था। म उसके ेम म िवकल हो गया था। वह
भी शायद लाचार होगी। पर उसने मुझे सीधी राह िदखा दी।’’
‘‘सीधी राह?’’
‘‘हाँ ेम, और भि का भेद। और उसी समय मने उसके पैर क पज ू ा भि -भाव से क ।
वह ी नह देवी है, यार क नह भि क पा है। वह महान् है, देवताआ क जाित क है। तुम
तो मुझे नाि तक कहती और मेरा मज़ाक उड़ाती रहती थ , पर मुझे आज तक अपने ठाकुर का
पुजारी न बना सक । पर उसने बना िदया। उसक मने पज ू ा कर ली। अब तु हारी क ँ गा—और
तु हारे इन राधा-कृ ण क युगल जोड़ी क ! ा और भि से मेरा रोम-रोम पुलकायमान हो
रहा है। लाओ दोन पैर मेरी गोद म रख दो िक म समझँ ू िक म पाक-साफ हो चुका, अपनी गलती
सुधार चुका, तु हारा हो चुका!’’ अ णा चुपचाप आँसू बहाती रही। और डा टर ने जब िफर उसके
पैर पर हाथ डाला, तो उसने पैर को ख चकर पित के दोना हाथ पकड़कर उ ह व पर िगरा
िलया।
वह मक ू दन बहत कुछ कह गया—दु:ख-दद क कहानी। बहत कुछ बहाकर ले गया—
दु:ख-दद क ग दगी। अ त म अ णा ने िससकते हए कहा :
‘‘तुम जानते ही हो िक धरती-आसमान पर मेरे िलए एक तु हारा ही आसरा है। मने अपनी
यह अधम नारी-देह तु ह दी है। अब तु ह यिद मुझे धोखा दो—सोचो तो ज़रा।’’
पर तु अ णा अिधक न कह सक ; डा टर का मँुह देखकर उसने िसर नीचा कर िलया।
बड़ी देर तक दोन मक ू बने बैठे रहे । िफर धीरे से अ णा ने हाथ बढ़ाकर पित का हाथ पकड़
िलया। उसने आँख म आँसू भरकर कहा, ‘‘ या मने तु ह बहत दु:खी कर िदया?’’
डा टर िफर चुप रहे । अ णा एकबारगी ही असंयत हो उठी। उसने कहा, ‘‘मुझे तुम जो चाहो
सज़ा दे लो पर ऐसा मँुह न बनाओ। यह म नह देख सकती।’’
डा टर ने कहा, ‘‘अ णा, तु हारे इस ेम का तो ओर-छोर ही नह है। पर अब तुम अपने
पित पर िव ास करो। म तु हारा हँ—िसफ तु हारा। ह नबानू ने मेरे-तु हारे बीच एक अटूट
स ब ध पैदा कर िदया है। स ब ध या ब धन, जो भी तुम कहो—वह ऐसा नह िक एकाएक भंग
हो जाए। म उसका िचरकृत हँ, अ णा! पर िजस तरह पैर पकड़कर म उससे मा माँग सका,
तुमसे न माँग सकँ ू गा।’’
‘‘कैसे माँग सकोगे भला! मेरे-तु हारे बीच इतना अ तर है, इतना ि भाव है िक तुम
अपराधी बनो और म मा क ँ ? न, न, इस नाटक क ज़ रत नह है। तुम अपराध करोगे तो
भी, पाप करोगे तो भी, पु य करोगे तो भी सबम मेरा िह सा है। हम-तुम दो थोड़े ही ह।’’
‘‘नह ह, न रह सकते ह।’’
इतना कहकर डा टर ने अ णा को आिलंगन-पाश म बाँध िलया, और पित-प नी दोन का
मन जैसे नानपत ू हो उठा।
नवाब मु ताक अहमद सालारजंग बहादुर ने सारी योजना अ यिधक सावधानी और
दूरदिशता से तैयार क थी। डा टर क इस ब चेवाली घटना म कुछ रह य है, इसका िकसी को
सानो-गुमान भी नह हआ। इसका ेय वा तव म ह नबानू के असाधारण ढ़ वभाव को था।
उसने िकसी भी चे ा से यह कट नह होने िदया िक इस क ण नाटक म उसका भी कुछ भाग
है। िन स देह डा टर को वह यार करने लगी थी। कुछ उ और कृित के तकाजे़ क ही बात
नह , डा टर का यि व ही ऐसा था। पर तु उसने िजस दाशिनक ढं ग से डा टर को उस ेम-
साद से िवरत िकया, उससे वह वयं िवरत न हो सक । डा टर के ित उसका असाधारण
िवमोह उसक स पण ू चेतना को आहत कर गया था। वह घाव उसका न भरना था, न भरा। पर
उसने अपने संकेत से, यंजना से यह बात कट न होने दी। वह जैसे डा टर से िवशेष प रिचत
ही नह है, यही भाव कट करती रही। बहत कम एकाध श द, डा टर से िमलने पर वह बोलती।
मुलाकात के येक सुयोग को टाल जाती। िपता के एक आ मीय के पु के ित मयादा से
िजतनी आ मीयता कट करनी चािहए उतनी ही वह कट करती थी। और डा टर का भी यही
हाल था। डा टर ने अपनी प नी से तथा बानू से और अपने-आपसे भी कह-सुन तो बहत कुछ
िलया था, पर बाँधकर रखने से यासे क नदी के तीर तक जाने क विृ रोक नह जा
सकती। िफर भी डा टर ने शालीनता का प रचय िदया था। अ णा इस अवश शि को जानती
थी। ी होने के नाते उसे भुलावे म रखना स भव न था, पर तु उसने भी अपने पित और बानू
दोन ही के ित अित उदार भाव धारण कर िलया था। इन सब कारण से एक अस कड़वाहट
होते-होते रह गई थी। और सब काम ठीक-ठीक आगे बढ़ रहा था।
िन स देह नवाब मु ताक अहमद क बुजुग ़ और बुि तथा धैय ने बहत काम िकया था।
य िप खानदानी ित ा के नाम पर पु ी को इतने संकट म डालने क उनक भावना का
शायद आप अनुमोदन न कर। पर तु आप यह भी तो सोच िक आप पुराने ज़माने के खानदानी
रईस ह , आपका यापक सुनाम, याित हो, आप आधी शता दी तक अपने समाज के
शीष थानीय रहे ह , आपक पु ी-पौ ी आपसे अ ात िकसी पु ष के स पक म आकर गभवती
हो जाए—िववाह से पवू , तो आप या करगे? स भव है आप िदमाग का स तुलन खो द और आप
उस पु ी का वध कर द, घर से िनकाल द, उसका मँुह देखना पस द न कर। या आप कोई गु
पाप करके कुकृ य पर परदा डाल द। पर नवाब ने यह सब कुछ नह िकया। वह एक बढ़ ू ा
महापु ष था, और उसक पौ ी ह नबानू एक असाधारण बािलका। इसी से यह सब यव था
िनद ष और िविच रीित पर हो गई—जैसािक नवाब ने चाहा अपने सं कार के अनुसार।
ोफेसर हबीब को भी नवाब ने अपनी नज़र से दूर नह िकया। उ ह ने उसे ह नबानू से सब
स ब ध तक कर देने को ही राज़ी न कर िलया, िवदेश जाने को भी राज़ी कर िलया; और एक
भारी रकम देकर पाँच साल के िलए िवदेश भेज िदया। इसके बाद ही उसने डा टर क ओर ख
िकया था। अलब ा इस काम म भी सब कहना-सुनना ह नबानू ही ने िकया। अपने अप रसीम
यार के नाम पर जीवन के येक ास को पीड़ामय बनाकर हबीब चुपचाप जहाज़ म जा बैठा।
यथासमय बानू क शादी नवाब वज़ीर अली खाँ बहादुर से हो गई। पुराना नवाबी घर था।
दू हा भी साधारण न था। रईस का इस िववाह म जमघट लग गया। रं गमहल के ार पर उस
समय समच ू ी िद ली उमड़ आई। भाँड-भंड़ले, रोशन चौक , कटोरे वाले, क वाल, रं डी-भड़वे,
रईस-अमीर—सभी के िलए उस समय रं गमहल का ार खुल गया। दावत का तम ू ार बंध गया।
उस समय तक न पािक तान बना था, न िह दू-मुि लम झगडे ़ खड़े हए थे। िद ली म
ज़फर, ग़ािलब, ज़ौक़ और मीर के कलाम गली-गली घम ू ते रहते थे। बडे ़-बड़े मुसलमान, यापारी
अपनी कोठीनुमा दुकान म बैठे, अतलस का कुता पहने, पान कचरते, लचकती िद ली क भाषा
म अपने को ‘देहलवी’ कहकर अपनी सुमई आँख म लाल डोरे सजाए रहते थे। चाँदनी चौक उन
िदन आज क भीड़भाड़ से भरा आदिमय का जंगल न था। वह एक बाज़ार था, ऐसा बाज़ार जहाँ
रईस क सात बादशाहत क येक ह क -भारी िज स एक ही जगह िमल जाती थी। जौहरी
नु केदार पगड़ी बाँधे, महीन तनज़ेब से अपने भारी-भरकम देह ढाँके, हीरा, मोती, प ना, जवाहर
का मोल-भाव करते, िगि नय और अशिफय को परखते थे। नोट का िगनना लोग को पस द
न था। नफासत और फसाहत िद ली क जान थी। पे ी और टो ट तब कौन खाता था! सोहन
हलवा और दालमोठ िद ली क सबसे बढ़कर िनयामत थी। आज तो पए सेर स जी-तरका रयाँ
आला-अदना खरीद खाते ह, पर तु तब पए सेर क सि ज़याँ रईस खाते थे। रईस के कहार-
मह रयाँ सौदा-सु फ करते थे। िह दू प के िह दू थे, और मुसलमान प के मुसलमान। पर तु
इससे उनके आपसी भाईचारे म अ तर न पड़ता था। पर पर एक-दूसरे के घर आना-जाना,
खाना-पीना होता था। मुसलमान के घर जब िह दू दो त जाता तो वह नौकर को य नपवू क
सावधान करके कहता, ‘‘ब न,ू ज़रा संभालकर एहितयात से तमोली क दुकान से पान बँधवा
ला।’’ और पान आते थे ढाक-पलाश के हरे -कोमल प म खबू अ छी तरह बँधे, डोरे म हाथ-भर
नीचे लटकते हए—मुसलमान नौकर से अछूते।
याह-शादी म िह दू हलवाई, िह दू नौकर खाना बनाते-िखलाते और मुसलमान मािलक
दूर खड़ा अदब और बेचन ै ी से देखता रहता, सब ठीक तो है। इसे वह अपनी तौहीन नह , अपना-
अपना अक दा, अपना-अपना रवाज समझता था। नवाब मु ताक अहमद के िह दू-मुसलमान से
यापक स ब ध थे। बड़े -बड़े रईस से लेकर छोटे लोग तक क भरमार थी। िह दू भी और
मुसलमान भी। पर सबके खाने-पीने, िवनोद-िवहार करने के अलग इ तज़ाम। या मजाल िक
कह कुछ िशकायत सुनने को िमल जाए!
शादी ख म हो गई और खसत क तैयारी हई। नवाब वज़ीर अली खाँ ने पाँच लाख का
मेहर बाँधा और नवाब मु ताक अहमद ने अपनी अविश समच ू ी जायदाद दहे ज़ म दे दी। िसफ
रं गमहल अपने िलए रख िलया।
मेहमान िवदा होने लगे। डा टर और उनक प नी शादी म सि मिलत होते रहे । य - य
िवदाई क घड़ी नज़दीक आती जाती, ह नबानू क बेचन ै ी बढ़ती जाती थी। उसे ऐसा तीत होने
लगा िक कह मेरा धैय जवाब न दे जाए, मेरी छाती दु:ख से न फट जाए।
िजस िदन उसे जाना था उससे एक िदन पवू उसने अ णा को एक पुज़ा िलखा। पुजे़ म िसफ
एक वा य था, ‘‘बिहन, आज तु हारे यहाँ मेरा यौता है, मु तिज़र बैठी हँ, कब बुलाओगी?’’
पुज़ा पढ़कर अ णा को हँसी आ गई, पर डा टर का मँुह सख ू गया। अ णा ने कहा, ‘‘यह
या, बानू माँगकर दावत ले रही है?’’ डा टर ने भराए वर म कहा, ‘‘चलो, हम लोग कह बाहर
चल, कहला द िक घर पर नह ह।’’
‘‘वाह, ऐसा भी कह होता है! हम खुद ही उ ह दावत देनी चािहए थी।’’ और वह य त भाव
से दावत क यव था म जुट गई। डा टर सख ू ा मँुह, सख
ू ा कंठ, सख ू ा ाण िलए बाहर चले आए।

6
अ णा ने बहत-से यंजन बना डाले थे। िफर भी वह य त भाव से और बनाए चली जा रही
थी। ह नबानू चौके से बाहर एक कालीन पर बैठी अ णा का ह त कौशल देख रही थी और बात
भी कर रही थी। अ त म उसने कहा, ‘‘अब बहत बना चुक भाभी, और िकतना बनाओगी, उठो।
म अब भख ू बदा त नह कर सकती। उठो, उठो, नह तो म आकर छूती हँ; तु हारा सब चौका
खराब कर दँूगी!’’
अ णा ने हँसती आँख उठाकर देखा। आँख तो इस व बानू क भी हँस रही थ —पर वे
फूली हई अव य थ । अ णा ने उसके ‘भाभी’ स बोधन से आ याियत होकर कहा, ‘बस, ज़रा-सा
और है।’’
‘‘नह , नह , बस उठो।’’
‘‘अ छा, एक यह चीज़ और, मेरी रानी, ज़रा ठहरो!’’
बानू ने हँसकर कहा :
‘‘तु हारा ‘रानी’ कहना मुझे बहत भाया भाभी!’’
‘‘और तु हारे ‘भाभी’ कहने से तो म िनहाल हो गई!’’
अ णा चौका छोड़कर उठी, ह नबानू के िलए उसने खाना परोसा और कहा, ‘‘खाओ
रानीजी, गरीब का खा-सख ू ा।’’
‘‘ऐसे कैसे खाऊँ भाभी, तुम भी बैठो। लाओ अपनी थाली।’’
‘‘म ज़रा ठहरकर खा लँग ू ी।’’
‘‘यह न होगा।’’
‘‘नह रानीजी।’’
‘‘नह भाभीजी।’’
‘‘िज़द मत करो, हाथ जोड़ती हँ।’’
‘‘िफर तो िज़द करने कभी आऊँगी नह ।’’
‘‘तो मानोगी नह ?’’
‘‘न, िकसी तरह नह ।’’
‘‘तो िफर म भी तु हारे साथ ही खाऊँगी, एक ही थाल म।’’
और वह ह नबानू के सामने बैठ गई, थाली से एक ास उठाया। बानू ने कहा, ‘‘ह, ह, यह
या करती हो भाभी!’’
‘‘बिहन, ननद बनना इतना आसान नह है। तु हारा िजगर का टुकड़ा अब मेरी गोद म है।
अब भी भेदभाव रह सकता है? अब भी या हम-तुम दो ह? चलो शु करो।’’
‘‘लेिकन भाभी...’’
‘‘दुलखो मत, यह एक पिव काम है, पु य है। जब तक म तु हारे साथ नह खाऊँगी,
तु हारे बेटे को अपनाऊँगी कैसे?’’
‘‘लेिकन भाईजान या कहगे सुनकर?’’
“खुश ह गे।’’
‘‘तो भाभी, जैसा तु हारा ह म!’’ उसने ास मँुह म डाला। और आँख से गंगा-जमुना क
धार बह चली।
अ णा ने कहा, ‘‘यह या करती हो रानीजी! िफर कब मुझे यह नसीब होगा तु हारे साथ
खाने का अवसर! हँस-बोलकर खाओ, नह तो ठ जाऊँगी।’’
‘‘तुम न ठना बिहन, खुदा भले ही ठ जाए।’’
बानू ने आँसू प छ िलए।
‘‘तो हँस दो बस अब!’’
बानू हँस दी।
अ णा ने एक बड़ा-सा कौर बानू के मँुह म ठूँस िदया। बानू ने कहा, ‘‘अब मेरा कसरू नह
भाभी, ईमान अपना तु ह ने िबगाड़ा है!’’ यह कहकर उसने भी हाथ का कौर अ णा के मँुह म
ठूँस िदया।
खाना ख म होने पर जब ह नबानू पान खा चुक तो कहा, ‘‘बिहन, म तो िकसी अपने ही
मतलब से ज़बद ती दावत माँगकर आई थी, लेिकन तुमने अपने साथ खाना िखलाकर मुझे या
कुछ न दे िदया? अब इस बदनसीब बानू क एक आरजू परू ी कर दो बिहन, एक बार मेरे लाल को
मुझे िदखा दो!’’
ह नबानू क आँख िफर गंगा-जमुना क धार बहाने लगी। अ णा ने कहा, ‘‘म तो कहने
ही वाली थी तुमसे बिहन, लेिकन ण-भर ठहरो।’’ वह तेज़ी से भीतर चली गई। उसने दासी को
पुकारकर कहा :
‘‘िदलीप या सो रहा है राधा?’’
‘‘नह , जग रहा है।’’
‘‘अ छा, तो म यहाँ हँ, तू नीचे जाकर खा-पीकर आराम कर।’’
दासी के जाने पर उसने संकेत से बानू को बुलाकर कहा, ‘‘इस कमरे म है, जाओ न
बिहन, म यहाँ पहरे पर हँ, कोई आ न पाएगा।’’
ह नबानू लड़खड़ाते पैर से िक तु आँधी क भाँित कमरे म घुस गई। बालक को उसने
उठाकर छाती से लगा िलया—‘‘अरे मेरे लाल, अरे मेरे ल ते िजगर, ओ रे मेरे कलेजे के टुकड़े !
अब तो तुझे अपनी माँ को देखने-पहचानने का हक नह है। या अ लाह, यह भी कैसी दुिनया है!
मगर खैर, तू सलामत रहे , लाख ज़ंजीर म बँधी रहकर भी तुझे देखती रहँगी। अपना न कह
सकँ ू गी, तो भी तू मेरा है, मेरा है, मेरा है?...’’
उसने बालक के सैकड़ चु बन ले डाले। उसे ज़ोर से छाती से लगा िलया। बालक ज़ोर से रो
पड़ा।
अ णा ने देखा, ह नबानू बेहोश होने लगी है। उसने उसक गोद से बालक को लेकर, बानू
को पलंग पर िलटाकर उसक गोद म बालक को िलटा िदया; और उसके िसरहाने बैठ, जांघ पर
उसका िसर रख अँगुिलय से बाल सहलाने लगी।

7
नवाब वज़ीर अली खाँ माशाअ लाह एक िदलच प ‘िफगर’ थे व िदलफक रईस। पुराने
टाइप म नए फै शन का एडीशन | उ पचपन साल, लीनशे ड, कद छ: फुट दो इंच, रं ग म डूबी
ब ीसी, खास पे रस म तैयार क हई, समच ू ी। उ दा िखज़ाब से ज़रा नीली झलक िलए हए बाल।
ल बी शेरवानी, ढीला पायजामा, प प शू और िसर पर फै ज़ टोपी।
वयं ाइव करते थे। र तार पाँच मील ित घ टा। ाइवर बगल म बैठता। नवाब पछ ू ते,
‘‘अब?’’
‘‘सरकार सीधे, िफर पचास कदम बाएँ , सीधे।’’ और गाड़ी चलती रहती। मोटर िकसी
ज़माने क खरीद थी। एक बडे ़ छपरखट के बराबर बहत ऊँची सीट, बारह सवारी और उनका सब
सामान मज़े म उसम समा सकता था। उस ज़माने म टेशन वैगन ईजाद नह हई क , रईस क
कार य ही ा डील हआ करती थ । और इसी म त चाल से झम ू ती चलती थ ।
नवाब क तीन महल पहले थ । चौथी यह ह नबान।ू पहली थी एक बुिढ़या, दायमुल-
मरीज़ा। नवाब जब-तब िसफ ‘खैरस ला’ पछ ू ने उसके पास जाते। घंटा, आध घंटा बैठकर चले
आते, बस। रहती थ सब अलग-अलग।
दूसरी थी ज़रा ठाठदार। नाम था ज़ीनतुि नसा बेगम। बडे ़ बाप क बेटी थी, इकलौती। लाख
क स पि , कोठी और नकदी बाप के उ रािधकार म िमली थी। बाप िज़ दा नह थे, बढ़ ू ी माँ थी।
माँ के पास ही बाप क कोठी म रहती थी। उ थी कोई पतीस के अनकरीब। रं ग खबू गोरा,
दुबली-पतली, िमज़ाज़ क तेज़, ज़बान क तीखी। आजकल नवाब से झड़प चल रही थी। नवाब ने
तलाक दे िदया था और बेगम ने दो लाख पए के मेहर क िड ी ले ली थी। बोलचाल ब द थी,
यह नह कहा जा सकता। नवाब साहब ऐन ज़ रत के व उनके महल म जाते—खासकर जब
कुछ पय क ज़ रत होती। तब थोड़ी झड़प होती। मान मनौवल होता, और नवाब अपना
मतलब हल करके तशरीफ ले आते। मगर बेगम रहती थी खबू चाक-चौब द, चौकस, पहरे -चौक
से मु तैद।
तीसरी थी एक य ही। कोई तवायफ थी। कमिसन और खबू सरू त भी। लेिकन रज़ील,
तबीयत से भी और खसलत से भी। नवाब वहाँ रोज़ रात को जाते, शाम का खाना भी वह खाते,
शरब पीते, गाते-बजाते और कोई दो बजे तक चक लसबाजी करके वापस दरे -दौलत चले आते
थे।
सोते थे मुक ररा अपनी कोठी म अकेले। कमरे म ताला लगाकर, जबिक दो संगीनधारी
िसपाही रात-भर पहरा लगाते रहते थे। गरज़, बेखबरी म अपना क मती िज म कभी िकसी बेगम
के रहमोकरम पर छोड़ते न थे।
नवाब म बहत गुण थे। कुछ हॉबी थी; कुछ सनक थी—सनक या, परू े सनक थे! पहली
बात तो यह िक आपका याल था िक वे िह दु तान के सव े गायक ह। िह दु तान का कोई
गवैया उनका मुकाबला नह कर सकता। वे हारमोिनयम भी बजाते थे और गाते भी थे; यिद आप
उनके गाने क तारीफ कर द तो िफर कोई चीज़ नह जो आप नवाब से न वसल ू सक। आप गाते
थे गला भ चकर—िबलकुल बारीक बांसुरी जैसी आवाज़ गले से िनकालकर, और हारमोिनयम
के वर म िमलाकर, और इसे आप एक कमाल कहते थे, दूसर से भी कहलाना चाहते थे। जो
ऐसा नह कहते थे नवाब उनसे स त नफरत करने लगते थे।
दूसरी हॉबी थी उनक —फाउ टेनपैन इक े करना। कबाड़ी क दुकान पर पुराने
फाउ टेनपैन क तलाश म आप च कर काटते, मौका पाते ही खरीद लाते, और िफर िदन-भर
उनक मर मत करते रहते। दजन, दो दजन फाउ टेनपैन उनक जेब म भरे रहते। और आप
दो त म बड़े शौक से उन मर मतशुदा कलम को बाँट देते थे। उनक मर मत का गुर भी वे
दो त को बड़े शौक से िसखाते थे।
तीसरी सनक थी उनक िसनेमा- टार बनने क । वे चाहते थे िक वे िसनेमा- टार बन।
उनके याल म आला दजे़ के टार बनने के सब गुण उनम थे। वे अस से एक िफ म- ोड्यस ू र
बनने क धुन म थे पर तु कामयाब नह हो रहे थे।
खच ले एक न बर थे, मगर रयासत बुरी तरह कजे़ से लदी थी। तहवील का पया इधर-
उधर उड़ जाता था, जेब हर व खाली रहती थी। यार लोग खबू खाते-उड़ाते थे। नवाब को बार-
बार ज़ीनतमहल के सामने हाथ पसारना पड़ता था।
नवाब के दो त लोग बहत थे। वे सब दो त-मुलाकाती नवाब-रईस ही न थे। जो-जो उनके
गाने के मु ताक थे वे सब उनके प के दो त थे। नवाब बेतक लुफ दो त के घर जाते, बैठते —
िसफ घ ट नह —िदन-िदन भर। कभी-कभी नवाब क एक-एक मुलाकात बाहर से अ ारह घ ट
तक क मुलाकात हो जाती थी। मुलाकात के िलए दो त के घर जाकर आप वह जो खा-सख ू ा
िमलता, खा लेते, झपिकयाँ लेते—या िफर बाज़ार से खाना मँगाकर उ ह भी िखलाते, आप भी
खाते। िसनेमा ले जाते और एक-एक िदन म तीन-तीन शो देखते। रात को एक बजे आिखरी शो
देख-िदखाकर, दो त को अपनी उसी छपरखटनुमा कार म उनके घर छोड़कर, कोई दो बजे
अपने घर आकर सो जाते थे। यह ाय: नवाब क िदनचया थी।
नवाब का कोई लड़का-बाला न था। बदनाम करने वाले कहते थे िक नवाब िकसी कािबल
ही नह ह—बेगम से हँसी-िद लगी, गाने-बजाने, िसनेमा िदखाने, खाने-िपलाने तक ही
ता लुक रखते ह। मगर नवाब, जब कभी बात सामने आती तो अपनी कू वते-मदानगी का खबू
बढ़-चढ़कर िज़ िकया करते थे। आज़माइश करने के िलए लोग को चैलज करते थे।
ऐसे ही थे हमारे लायक-फायक रईस नवाब वज़ीर अलीखाँ बहादुर, जो ह नबानू के शौहर
हए। रोज़ा-नमाज़ क मज़हबी इ लत से पाक-साफ थे। हाँ, दान-खैरात फराखिदली से करते थे।
दो त को दावत देने म भी कोताही न करते थे।
इस उ म शादी करने पर भी नवाब ने धम ू धाम म कोई कसर न रखी। ह त तक दावत ,
मजिलस और नज़रान -तोहफ का दौर चलता रहा। खबू ज से हए, गाने-बजाने हए, बोतल
खाली हई ं। नवाब ने दो लाख पया शादी पर खच कर िदया। ह न बानू को एक नया महल
िमला और अब ‘नर’, नवाब क चहे ती छोटी बेगम के व के दो िह से हो गए। नवाब एक िदन
यहाँ और दूसरे िदन वहाँ आने-जाने लगे, लेिकन यह आना-जाना-भर ही रहा। नवाब रात को
सोते थे अपनी ही कोठी म अकेले। कमरे म ताला ब द करके, संगीन के पहरे म। आप पछ ू गे—
यह य ? जनाब, यह इसिलए िक वे नवाब ह—कुछ आप जैसे मामल ू ी िमयाँ-जो नह । नवाब
के तो सब ठाठ ही िनराले होते ह।
सुबह ही नवाब ने चाय-पानी से फा रग होकर बाग उठाई। घोड़ी क नह , मोटर क ! चाल
वही पाँच मील फ घ टा। साथ म ाइवर, िखदमतगार और एक िसपाही ब दूक-सिहत। सबसे
पहले पहँचे महकमे-इि तमरारदारी के हािकम के बंगले पर। हािकम ने उठकर वागत िकया,
खैरािफयत पछ ू ी, नई शादी क मुबारकबािदयाँ द और इस व सुबह-सुबह आने का कारण पछ ू ा।
नवाब ने कहा, ‘‘म यह कसद करके आया हँ िक आपक ड्योिढ़य पर ज़हर खाकर जान
हलाक कर लँ!ू ’’
हािकम ने हँसकर पछ ू ा, ‘‘ य - य , खैर तो है?’’
‘‘खैर कहाँ? कहर बरसा िदया आपने?’’
‘‘अयं! मने?’’
‘‘जी हाँ, आपने उस ससुरी हरामज़ादी ज़ीनत क ब ची को िड ी दे दी दो लाख पय क ,
और ह म भी दे िदया िक जायदाद कुक करके वसल ू कर ले।’’
‘‘तो म या कर सकता था, नवाब साहब! म तो महज़ कानन ू का क ड़ा हँ, बेगम का मेहर
तो आपने ही बाँधा था, िड ी तो उ ह िमलनी ही थी।’’
‘‘तो वह तो अब मज़े म दो लाख पया वसल ू करके मज़ा उड़ाएगी और म तबाह हो
जाऊँगा! आप तो जानते ही ह इस व रयासत क हालत या हो रही है।’’
मने तो कई बार आपको दो ताना सलाह दी िक खच कम क िजए और एकाध इलाका
िनकालकर कजे़ को पाक-साफ कर दीिजए। मगर आप ह िक सुनते ही नह ।’’
‘‘तो इसिलए आप मुझे लटू लगे, मेरे ऊपर डाका डालगे? वाह साहब, वाह, यह आपने मेरे
साथ अ छा सलक ू िकया!’’
हािकम साहब हँस पड़े । उ ह ने कहा, ‘‘मुझे आपसे हमदद है नवाब साहब, लेिकन म कर
भी या सकता था? िड ी तो मुझे देनी ही पड़ी।’’
‘‘तो मुझे भी ज़हर दे दीिजए।’’
‘‘कमाल, यह या फरमाते ह, आप नवाब साहब! अभी तो आपने नई शादी क है!’’
‘‘मगर यह पुरानी इ लत जो गले म हड्डी क तरह अटक रही है, इसका भी तो कुछ
हैसने त होना चािहए।’’
‘‘इसके िलए कानन ू न तो कुछ नह हो सकता। मगर देिखए, यह िमयाँ-बीवी का मामला है।
बेगम भी अब ब ची नह ह। चालीस के छोर पर पहँच रही ह। अब तलाक पाकर इस उ म वे कहाँ
जाएँ गी? बेआब ही ह गी। और आपसे अ छा शौहर उ ह कहाँ िमलेगा? मेरे याल म आप बेगम
से सुलह कर ल। िमज़ाज़ उनका तीखा ज़ र है,मगर फौलाद को भी नम करने क िहकमत
जानते ह।’’
‘‘जी हाँ, जानता सब कुछ हँ, लेिकन आप भी तो कुछ क िजए।’’
‘‘म या क ँ ?’’
‘‘तलवार तो आपने चलाई है, अब मरहम भी आप ही रिखए।’’
‘‘किहए, म या क ँ ?’’
‘‘बस, आपने जो इस व मुबारक बात कही ह, वही चलकर बेगम से कह दीिजए। यह
हक कत ही है िक उस जैसी मथचढ़ी औरत को मेरे जैसा आदमी िमल नह सकता। िचराग लेकर
ढूँढ़े, तो भी नह !’’
‘‘तो यह तो िमयाँ-बीवी का मामला ठहरा, म या क ँ ?’’
‘‘कहना आप ही को होगा। वह भी ज़रा नमक-िमच लगाकर।’’
‘‘लेिकन आप भी तो उ ह रझाइए, बहलाइए, मनाइए।’’
‘‘बखुदा, आप एक बार चल भी, म सब बानक बना लँग ू ा।’’
हािकम ने वीकृित दी तो नवाब ने कहा, ‘‘देर क सनद नह , अभी चिलए। कचहरी क
तो आज छु ी ही है।’’
‘‘हाँ, छु ी तो है, लेिकन...’’
‘‘अब यह आपक यादती है हजरू , उिठए, अभी चिलए।’’
नवाब क बात हािकम साहब न टाल सके। कपड़े पहनकर मोटर म आ जमे। मोटर चली
उसी तरह पाँच मील फ घ टे क र तार से। ाइवर राह िदखाता चला। नवाब ने हील हाथ म
लेकर कहा, ‘‘खबरदार रहो, देखो सामने कौन है?’’ उ ह ने च मे से घरू कर सड़क पर नज़र
फक ।
‘‘गधा था हज़रू , िखसक गया एक ओर।’’
‘‘लेिकन अब?’’
‘‘बस, ज़रा और बढ़कर बाई ं ओर।’’ मोटर आिह ता से बाई ं सड़क पर मुड़ गई। नवाब ने
कहा, ‘‘अब, लेिकन वह नामाकूल साइकल-वाला...’’
“ हान दीिजए हजरू , ेक य लगा िदया? हाँ,अब दािहनी ओर मोड़ लेकर।‘
नवाब ने कहा, ‘‘अब?’’
‘‘बस सीधे।’’
नवाब ने स तोष क साँस ली। नवाब अ त म ज़ीनतमहल क ड्योढ़ी पर जा पहँचे। गाड़ी
सदर फाटक पार कर बाग म घुसी। बहत पुरानी आलीशान कोठी। ल बा-चौड़ा िव तार। आिखर
ड्योढ़ी पर कार क । ड्योढ़ी पर दस-बारह िसपाही हिथयारब द, मु तैद। सबने ज दी-ज दी
पेटी कसी, ब दूक संभाली और नवाब को सलामी दी।
लेिकन फाटक म ताला जड़ा हआ। बाहर से भी और भीतर से भी। नवाब ने कहा, ‘‘इि ला
करो।’’
िसपािहय के जमादार ने आगे बढ़कर सलाम िकया और कहा, ‘‘जो ह म।’’
वह पीछे हटा और एक िसपाही को संकेत िकया। िसपाही ने छे द म मँुह लगाकर ज़ोर से
आवाज़ लगाई, ‘हजरू , नवाब साहब तशरीफ लाए ह—इि ला हो!’’
तीन बार आवाज़ लगाई गई। उधर से आई महरी। हिथनी-सी काली मोटी, भारी-भरकम,
उसी तरह झम ू ती झुमके िहलाती। िखड़क म ताली घुमाई, िखड़क खोलकर झाँककर देखा,
नवाब को अ छी तरह पहचानकर ब दगी क । कमर से चािबय का गु छा िनकालकर भीतर से
फाटक का ताला खोला और िसपाही को ह म िकया, ‘‘खोल दो फाटक।’’
जमादार ने भी ताला खोला और मोटर भीतर ज़नाने नज़रबाग म दािखल हई। सामने हरे -
भरे सघन व ृ के झुरमुट म बेगम का सफेद झकाझक महल। चोरदरवाज़े पर मोटर आ लगी।
महरी ने सीने पर हाथ रखकर ज़मीन तक िसर झुकाकर कहा, ‘उ दराज़, इि ला करती हँ
सरकार!’’
और वह भीतर घुस गई। पाँच, दस, प ह िमनट बीत गए। तब महरी ने आकर कहा,
“तशरीफ ले चिलए, हजरू ।’’
नवाब ने पायजामे का पाँयचा मोटर से बाहर िनकाला। िफर कदम ज़मीन पर रखे, हािकम
साहब को उतारा, और महरी के पीछे -पीछे चोर दरवाज़े म घुसे। कमर के बाद कमरे , दालान के
बाद दालान, सेहन के बाद सेहन पार करते हए, नौकर , बाँिदय , ल िडय और गुलाम क
सलाम लेते हए आिखर बेगम के खास कमरे म पहँचे। सफेद चाँदनी का फश, चाँदी का
त तपोश और कोच, छत म झाड़ और हज़ारा फानस ू , चाँदी क एक पलंगड़ी, क मती िब लौर
क गोल मेज़ कमरे के बीच बीच।
नवाब ऐन दरवाज़े के सामने कुस पर जा बैठे। हािकम कोच पर। िखदमतगार क फौज
आई—एक के बाद एक कतार बाँधे। सबके हाथ म िकि तयाँ—मेवे के पकौड़े , पे ी, िमठाइयाँ,
भुने कबाब, तले हए मेवे, ताज़ा फल और न जाने या- या। साथ म चाँदी के सैट म चाय।
यह सब कुछ, मगर बेगम नदारद। नवाब ने हािकम से कहा, ‘करम फरमाकर चाय
पीिजए।’’
‘‘लेिकन बेगम साहबा से मेरा सलाम तो कह दीिजए।’’
‘‘ये बैठी तो ह सामने कोने म। ब च के िलए दुआ माँगती ह।’’
“शुि या, िमज़ाज तो अ छे ह हज़रू के?’’
अब उधर से, दूसरे कमरे के कोने से साफ महीन आवाज़ आई, ‘‘अ छी हँ, मगर आप कह
इनक बात म तो नह बहक गए?’’
‘‘म तो महज़ सलाम करने और यह अज़ करने हािज़र हआ था िक हज़रू , अब इस उ म
नवाब साहब को दुिनया के जंगल म अकेला न छोड़। य चार बतन होते ह तो खटकते ही ह।
बेहतर हो सुलह हो जाए। पुराना र ता य का य रहे , खानदानी इ ज़त बच जाए।’’
‘‘जी, तो यह नसीहत आप मुझ ही को देना चाहते ह। य नह , आप मद जो ह। लेिकन
मद क गुलामी करने क म आदी नह । इसके अलावा म नवाब का वज़ीफा भी नह खा रही हँ।’’
नवाब िसगरे ट म एक गहरा कश ख चते हए बीच म ही बोले, ‘‘खुदा के िलए ऐसी बड़ी-
बड़ी तोहमत तो न लगाओ! म तो हमेशा ही तु हारे तलुए सहलाने का पेशा करता रहा हँ, बि क
िकसी हद तक तो बदनाम भी हो चुका हँ—हािकम साहब ही गवाह ह।’’
नवाब ने आँख से हािकम साहब को एक इशारा िकया। हािकम साहब ने पे ी दाँत से
काटते हए कहा, ‘‘हाँ, इसका तो गवाह म भी हँ, यह बात शहर म आम मशहर है।’’
‘‘समझ गई, तो आप लोग सांठगांठ करके तशरीफ लाए ह। खैर, पान या अभी पहँचे
नह ?’’
‘‘जी आ रहे ह। अभी तो चाय ही ख म नह हो रही है। यह तो इस नाचीज़ क आपने शाही
दावत ही कर दी।’’
‘‘ यादा बनाइएगा नह , कभी बेगम को भी तो नह भेजते। म हई बीमार, आने-जाने से
लाचार। अ मी फरमा रही ह एक िदन ब च और बेगम को भेिजए।’’
‘‘अ मी से मेरा आदाबअज़ कह दीिजए। ह म क तामील क ँ गा—मगर उस िदन, जब
हज़रू और नवाब साहब म मेल होने क खुशी म दावतनामा पहँचेगा, साथ म भी आऊँगा।’’
‘‘घमू -िफरकर आप मतलब ही पर पहँचते ह, लेिकन आप लाख िसफा रश कर, मेहर के
पए तो म छोड़ने क नह ।’’
‘‘अकेले मेहर ही क रकम पर या मौकूफ है, नवाब साहब क जानोमाल क भी आप
मािलक ह।’’
‘‘अ लाह का नाम लीिजए साहब, इनके जान-माल क मािलक वह मालज़ादी मुई बे वा
है! जाने कहाँ से कूड़ा उठा लाए ह! बस बगन है ताज़ा!’’
हािकम साहब और नवाब िखलिखलाकर हँस पड़े । ना ते से हाथ ख चकर हािकम साहब
ने दो बीड़े पान मँुह म ठूँसे। हँसते-हँसते कहा :
‘‘बगन का यह खबू चु त िफकरा रहा!’’
‘‘तो और या कहँ—टमाटर, िभ डी, करे ला, क ू सभी तो बगन से महँगे ह। यह मुई
बे वा, पाखाने क ई ंट चौबारे पर, और लु फ यह िक मेरी ही छाती पर मँग ू दले। अब एक बछे री
लाए ह। दावत तो आपने भी उड़ाई होगी!’’
‘‘अब यह तो घर ही ऐसा है जहाँ रोज़ दावत ही का सीगा बँधा रहता है। यह आज क दावत
या कुछ कम है?’’
‘‘जाइए, शिम दा करते ह आप।’’
हािकम साहब ने और दो बीड़े पान मँुह म ठूँसे और कहा, ‘‘रं ग-ढं ग से तो ऐसा िदख रहा है
िक दावत ज दी ही होगी।’’ उ ह ने नवाब से आँख िमलाई ं।
‘‘जी, मँुह धो रिखए।’’
नवाब ने अब मँुह खोला। बोले, “िसफ मेहर के उन दो लाख पय ही का मामला है न?’’
‘‘जी, दो लाख पय क िड ी का!’’ बेगम ने िड ी पर ज़ोर िदया।
‘‘एक ही बात है।’’ नवाब ने िसगरे ट का कश ख चते हए कहा, ‘‘अ छा य करो, वे पए
न तु हारे रहे न मेरे।’’
‘‘यानी उ ह कुएँ म फक िदया जाए!’’
‘‘यह य ? य न उनसे एक उ दा िफ म बनाई जाए? दो के दस हो जाएँ और िद लगी
रहे वाते म।’’
हािकम साहब ने कहा, ‘‘तजवीज़ बुरी नह ।’’
नवाब ने जोश म भरकर कहा, ‘‘आप तो जानते ही ह, गाने म िह दु तान क सब टार
मेरा लोहा मानती ह। यक न क िजए—बा बे जाता हँ तो ज क क तरह िचपटती ह। खाने-सोने
क फुसत नह देत —बस, नवाब, वह नई ट्यन ू ज़रा...।—और रही एि टंग—आप दीिजए मुझे
नवाब का पाट। इसम मुझे सीखना या? म खुद नवाब—खानदानी नवाब! और डाइरे शन?
व लाह, आप देख मेरी करामात! बा बे म अ छे -अ छे पानी भरते ह, साहब!’’
हािकम साहब ने तो चुप ही रहना मुनािसब समझा। मगर बेगम से चुप न रहा गया, बोल ,
‘‘अब यही कसर रह गई, नािचए-गाइए, गोया आप रईस नह िमरासी ह!’’
‘‘लाहौल िवला कूवत! बेगम, तुम यह या कह रही हो! यह आट है— वह आट िजसक
क दुिनया करती है। िवलायत म बडे ़-बड़े लाड एि टंग करते ह।’’
‘‘तो हज या है, बनाइए िफ म-क पनी।’’
हािकम साहब ने कहा, ‘‘िफ म क पनी लाख, दो लाख म तो बनती नह । दस-बीस लाख
चािहए। और से भी पया लीिजए।’’
‘‘न, और िकसी का या काम! पया िजस कदर चािहए म दँूगी। लेिकन इन पर भरोसा
नह करती। आप हाथ म लीिजए।’’
नवाब िभ ना उठे । हाथ क िसगरे ट फक दी। गु सा होकर बोले, ‘‘इ ह से गाना भी
गवाइए!’’
हािकम साहब ने हँसकर कहा, ‘‘मगर म तो हँ सरकारी नौकर! पशन िमल जाए तब देखँ।ू
अभी तो दस बरस गुलामी के बाक ह।’’
‘‘तो बस आदाबअज़ है।’’
हािकम उठ खड़े हए। बोले, “आदाबअज़ करता हँ; और इि तजा भी िक अपना नफा-
नुकसान सोचकर जैसा मुनािसब हो वही क िजए, ऐसा न हो िक लोग को हँसने का मौका
िमले।’’
बेगम ने जवाब नह िदया। िखदमतगार ने इ पेश िकया। पान-इलायची दी। हािकम साहब
ने दरवाज़े क ओर मँुह करके आदाब बजाया और नवाब को लेकर बाहर आए।
दोपहर हो गई थी और नवाब साहब हािकम साहब को उनक कोठी पर छोड़ने गए तो
द तरखान म शरीक हो गए। खाना खा चुके तो आराम-कुस पर ऊँघने लगे। हािकम साहब ने
माफ माँगकर कहा, ‘‘आप आराम फमाइए। म ज़रा-सा कार-सरकार िनपटा लँ।ू ’’ और वे चले
गए। िखदमतगार सुगि धत िसगरे ट का िड बा और पान क त त रयाँ रख गया।
नवाब साहब कभी ऊँघते, कभी आँख खोलकर िसगरे ट का कश ख चते। िखदमतगार
वापस जा रहा था। नवाब ने कहा, ‘‘िमयाँ ज़रा इधर आना।’’ नौकर हाथ बाँधकर पास आ खड़ा
हआ। नवाब ने एक दस पए का नोट िनकालकर उसक हथेली पर रखते हए कहा, ‘‘िमयाँ,
बाहर हमारी मोटर खड़ी है। ाइवर और िसपाही दोन बेवकूफ ह, ज़रा आते-जाते नज़र रखो।
लड़के-ब चे शरारती होते ह; मोटर से छे ड़छाड़ न कर।’’
‘‘बहत अ छा, हज़रू ।’’ नौकर ने झुककर सलाम िकया, नोट जेब म ख सा और ल बा हआ।
नवाब िफर पीनक लेने लगे!
एक दूसरा नौकर िफर उधर आ िनकला। पैर क आहट पाकर आपने आँख खोल , पुकारा,
‘‘िमयाँ!’’
नौकर ने सलाम िकया। एक दस पए का नोट उसक ओर बढ़ाकर कहा, “िसगरे ट लाना
ज़रा।’’
‘‘हज़रू , िसगरे ट तो हािज़र है।’’ उसने नोट हाथ म लेते हए एक िसगरे ट िड बे से
िनकालकर िदयासलाई जलाते हए कहा।
‘‘तो इसे तुम रख लो। हाँ, ज़रा देखो, हमारा ाइवर सो तो नह गया।’’
‘‘बहत अ छा, हज़रू ।’’ िखदमतगार चला गया। नवाब िसगरे ट फँ ू कते और राख क ढे री
करते रहे । झपक लेते रहे । शेरवानी कसे, और नवाबी शान रखते हए।
नवाब साहब क मुलाकात ऐसी ही ा डील होती थ —ल बी और ठ डी। जो उनक
तबीयत को जानते थे, उनके सोने-ऊँघने, चाय-ना ता, पान-िसगरे ट का परू ा ब दोब त करके
अपने काम म लगते थे। यह ज़ री न था िक वे तमाम िदन नवाब साहब के पास बैठे रह। नवाब
को भी इसक िशकायत न थी।
शाम हई और नवाब हािकम साहब से िवदा हए। िसनेमा चलने का इशारा िकया। मान िलया
जाता तो बारह बज जाते, िबना डबल शो देखे नवाब का िदल भरता न था। मगर हािकम साहब ने
चाय िपला-िपलक ू र उ ह िवदा िकया। और अब बारी आई नई दुलिहन ह नबानू के महल म जाने
क।
िचराग जल चुके थे जब नवाब ने ह नबानू क ड्योढ़ी लाँघी। पहरे के िसपािहय ने सलामी
दी।
नवाब ने मोटर म बैठे ही बैठे कहा, ‘‘इि ला करो।’’
‘‘इि ला ही है हज़रू । सरकार का ह म है िक हज़रू को आने िदया जाए—इि ला क
मुतलक ज़ रत नह ।’’
‘‘ताहम, तुम लोग होिशयार रहो।’’
वह से मोटर से उतरकर नवाब पैदल ही रौश पार करते हए महल तक आ पहँचे। ार पर
िमली महरी। पुरानी थी। ह नबानू क िखदमत म लगा दी गई थी। नवाब ने कहा, ‘‘इि ला
करो।’’
“तशरीफ लाइए हज़रू , सरकार का ह म है, इि ला क मनाही है।’’
‘‘अजब नािदरशाही ह म है!’’ नवाब ह ठ म ही बड़बड़ाए और ड्योढ़ी म कदम रखा।

8
धमू -धड़ क म अभी तक नवाब ह नबानू से एका त म मुलाकात कर ही न पाए थे। यह
उनक उससे पहली ही मुलाकात थी। दीवानखाने म कदम रखते ही उ हाने देखा—ह न धानी
प रधान म, बीच कमरे म एक कुस का सहारा िलए खड़ी है। कमरे का भी एकदम कायापलट हो
गया है, उसक तड़क-भड़क क सारी सजावट हटा दी गई है और वह िनहायत सफाई, नफासत
और सादगी से सजाया गया है। नवाब क नज़र ह न से रपटकर पहले कमरे ही पर गई। ह न ने
मु कराकर नवाब का वागत िकया। ब दगी क । ताज़ीम क । लेिकन नवाब ने इस ओर िवशेष
यान नह िदया। उ ह ने कहा, ‘‘फुसत अब िमली। इतने मुलाकाती ह! आज ही को लो—हािकम
साहब ने अब छोड़ा। मज़ ू ी ने िदन-भर मगज़ चाटा। लेिकन ह न, तुमने यह या िकया! कमरे क
सारी ही सजावट...’’
‘‘जी मुझे यही पस द है।’’
‘‘और बदन पर एक भी ज़ेवर नह ! यह तो यादती है।’’
‘‘ या कहँ! आदी नह । खाना तैयार है, आप या अभी खाएँ गे?’’
‘‘ज दी या है! हाँ, गाड़ी म मेरा हारमोिनयम है, ज़रा िकसी से कहो, ले आए।’’
ह न ने मु कराकर कहा, ‘‘सुना है, हज़रू इ म-मौसीक के एक मािहर कािमल ह।’’
‘‘तो य कहो सब सुन चुक हो। लेिकन य ही कुछ गुनगुना लेता हँ। आज तु ह गाना
सुनाऊँगा। पस द ज़ र करोगी। मँगाओ हारमोिनयम।’’
बानू ने दासी को संकेत िकया। दासी के जाने पर नवाब ने कहा, ‘‘तु हारी खबू सरू ती क
तारीफ सुनी थी, मु त से इि तयाक था, आज देख िलया।’’
‘‘िक जो सुना था, झठ ू था।’’
‘‘नह , िजतना सुना उससे यादा देखा।’’
“शुि या,लेिकन कपड़े खोलकर हलके होकर बैिठए। या एक याला कॉफ मँगाऊँ?’’
‘‘ या हज है, और िसगरे ट भी।’’
ह न कमरे से बाहर गई और िफर आकर पास बैठ गई।
‘‘यहाँ तो तु ह सब कुछ नया-नया लगता होगा?’’
‘‘जी नह , ऐसा मालम ू होता है जैसे हमेशा यह रहती रही हँ।’’
‘‘खबू , तो य कहो तु हारे िदलो-िदमाग यह थे।’’
‘‘जी!’’ ह नबानू ज़रा मु कराकर रह गई।
नौकर ने हारमोिनयम लाकर रख िदया। दासी कॉफ और िसगरे ट ले आई। कॉफ पीकर
नवाब ने हारमोिनयम पर हाथ डाला। ह न ने बाधा देकर कहा, ‘‘छोिड़ए भी, बात ही क िजए।’’
‘‘कोई िक सा सुनाऊँ या लतीफा? एक से बढ़कर एक याद है, सुनाना शु क ँ तो िदन
िनकाल दँू!’’ नवाब ने एक खास अ दाज़ म हँसते हए कहा।
‘‘हज़रू म इतने गुण ह, तभी लाली बेगम आपको इतना चाहती ह।’’
‘‘चाहती ह! एक रात न जाऊँ तो बेचन ै हो जाती ह, खाना-पीना तक कर देती ह।’’
‘‘आज तो वे मछली क तरह तड़फ रही ह गी?’’
‘‘तो म या क ँ , या तु हारे पास न आऊँ?’’
‘‘हक तो उनका है।’’
‘‘तु हारा भी है।’’ नवाब ने िफर हारमोिनयम पर हाथ डाला। पर तु ह न ने िफर बाधा
देकर कहा, ‘‘गाना या लाली बेगम पस द नह करत ?’’
‘‘खबू करती ह।’’
‘‘और ज़ीनतमहल?’’
‘‘वह बदतमीज है, मग र और कूढ़म ज़!’’
‘‘सुना है, आिलम ह, शेर कह लेती ह, अं ेज़ी भी जानती ह।’’
‘‘तो इस तोते क तरह पढ़ने से या? िदमाग तो है नह ।’’
ह नबानू हँस दी। उसने कहा, ‘‘समझ गई, उन पर आप रं ग चढ़ा ही न सके, आपके सब
इ म वहाँ फेल हो गए।’’
‘‘नह , नह , गाना सुनती है तो सकते क हालत म हो जाती है। मगर िदमाग म क ड़ा है।’’
‘‘तो िकसी िदन िज़यारत कर आऊँ, इजाज़त है।’’
‘‘जाओ, मगर खुश न होगी।’’
“ बड़ी ह,सलाम कर आऊँगी। बड़ी बेगम को भी सलाम करना लािज़मी है।’’
‘‘कौन चीज़ पस द है तु ह, याल, ट पा या गज़ल?’’
‘‘सभी।’’
‘‘कुछ शौक भी रखती हो?’’
“िसफ सुनने का।’’
‘‘तो सुनो’’, नवाब ने एकबारगी ही गाना शु कर िदया। और अब इस ख ती और सनक
नवाब का चुपचाप गाना सुनने को छोड़ दूसरा चारा न था। ह न बैठकर कान को चीरने वाला
गाना सुनने लगी। वह उनक नई दुलिहन थी, आज यह उसक नवाब से पहली मुलाकात थी जो
अजब ठं डी, बासी और िबखरी-सी हो रही थी। ह न एक कोच पर मसनद का सहारा लेकर उठं ग
गई। नवाब त मय होकर हारमोिनयम के सुर म िमलाकर चीखते-िच लाते रहे । एक के बाद
दूसरा गीत, ठुमरी, ट पा। कभी भी इसका अ त न होता यिद ह न ज़बद ती उनका हाथ
हारमोिनयम से न ख च लेती। नवाब ने कहा, ‘‘तमाम रात इसी तरह गाता रहँ और ज़रा न
थकँ ू ।’’
‘‘कमाल हािसल है आपको। मगर अब खाना िनकालने का ह म दीिजए।’’
‘‘मंगा लो, लेिकन तुमने सुना, म ज द एक िफ म ोड्यस ू करने क सोच रहा हँ।’’
‘‘सच?’’
‘‘और म उसम एि टंग क ँ गा, समझ लो इस कदर सही एि टंग िक...’’
ह न अब अपनी हँसी न रोक सक । उसने कहा, ‘‘ या हज है, यह तो अब बड़ी इ ज़त का
पेशा समझा जाने लगा है।’’
‘‘यह आट है, आट। बान,ू मगर ये बेवकूफ ऐ टर नवाब का पाट करते ह, गलत। ये या
जान नवाब कैसे रहते ह। और म तो खुद नवाब हँ। मुझे तो कुछ सीखना ही नह है।’’
ह नबानू ने एक ठ डी साँस ली। वह सोच रही थी, तमाम िज़ दगी इसी जािहल, ख ती
आदमी के साथ िबतानी है। जब यह आदमी साथ होगा तो अपनी िहमाकत और बेवकूफ से
परे शान करे गा, और जब अकेले होऊँगी तो पुरानी याद आ-आकर िदल क चगी। वाह, खबू
िज़ दगी रही। बड़ी देर तक ह नबानू यही सोचती रही।
नवाब ने कहा, ‘‘ या सोच रही हो बान?ू ’’
‘‘यही िक म नाचीज़ या आपके लायक हँ।’’
‘‘वाह, यह भी कोई बात है! मुझे तुम खबू पस द हो, और म रोज़ तु हारे यहाँ आऊँगा।
बखुदा हमारी-तु हारी मुह बत िदन-िदन बढ़ती जाएगी।’’
‘‘खुदा ऐसा ही करे ।’’ धीरे से ह न ने कहा और द तक दी। दासी के आने पर उसने कहा

‘‘द तरखान लगाओ।’’
द तखान िबछा, नवाब और बानू ने खाना खाया। िफर बात हई ं। बात के अनेक िवषय थे।
रात गलती गई। मगर नवाब ने कपडे ़ तक नह खोले। बारह बजने पर नवाब ने घड़ी क ओर
देखा, और कहा, ‘‘अ छा, अब चलता हँ।’’
और वे चल िदए, अपनी पुरानी जेल म, ताला ब द करके सोने के िलए। इस अनोखी रीित
के रह य को न समझकर ह नबानू हैरान होकर प थर हो गई।

9
दूसरे ही िदन ह नबानू ने ज़ीनतमहल से मुलाकात क । ज़ीनत पहले तो ज़रा िखंची-
िखंची-सी रही, िफर दोन म खबू मेल हो गया और दोन िदल खोलकर बात करनी लग । ज़ीनत
ने कहा, ‘‘पस द आए दू हा िमयाँ?’’
‘‘उ ह कौन न पस द करे गा? उनम इतने गुण ह िक वे उ ह िदखाते जाएँ गे और इ सान
को उ ह पस द करने को मजबरू होना पड़े गा।’’ ह नबानू ने मु कराकर कहा।
ज़ीनत भी मु कराई। उसने कहा, ‘‘तो तुमने एक ही िदन म उनक सनक समझ ली।’’
‘‘समझ ही नह ली बिहन, मुझे उन पर तरस भी आया।’’
‘‘अरे , यहाँ तक?’’ ज़ीनत ने आँख उठाकर ह नबानू क ओर देखा। अब पहली ही बार
उसक आँख म िछपी वेदना को उसने देखा—वह देखती ही रह गई। ‘‘िकतनी देर रहे ?’’
‘‘बारह बजे तक।’’
ज़ीनत चुपचाप मु कराती रही। एक रह य उसके ह ठ म खेल गया। ह नबानू ने कुछ
आशंिकत होकर पछ ू ा, ‘‘बिहन, या इसम कुछ राज़ है?’’
‘‘िकसम?’’
‘‘िक वे रात मेरे यहाँ रहे नह । कपड़े तक नह खोले, इस तरह बैठे रहे जैसे गैर,
मुलाकाती।’’
‘‘बिहन, नवाब ह, रईस ह, कोई ऐरे -गैरे िमयाँ नह ह। या तुम नह जानत , रईस के सब
ठाठ िनराले होते ह!’’
‘‘लेिकन मेरा िदल कहता है, कुछ भेद ज़ र है, और तु हारी आँख भी यही कह रही ह
बिहन।’’
‘‘भेद ही कुछ होगा तो या तुमसे िछपा रहे गा? आज नह तो कल वह खुलेगा ही।’’
‘‘आज ही वह खुल जाए तो या हज है।’’
‘‘सौदा तो खरीद चुक हो, अब खोटा होने पर या अदल-बदल करोगी?’’
‘‘अदल-बदल य क ँ गी?’’
‘‘खोटे को भी सहे जकर उठा रखोगी?’’
‘‘नह तो या क ँ गी, फक दँूगी? खोटा िस का बाज़ार म तो चलेगा नह । िफर बड़ी
बिहन को भी तो देख रही हँ।’’
‘‘बड़ी बिहन कौन?’’
‘‘तुम।’’
‘‘मुझम या देखा बिहन?’’
‘‘िक तुमने भी उसे फका नह , सहे जकर रखा है।’’
“कमिसन तो हो बान,ू अ लाह र खे, पर ज़हीन हो। लेिकन यह ज़हन, यह ह न, यह िदल
लेकर आई य ? मने सुना है िक ेजुएट हो। इतना पढ़कर भी अपने को न रख सक ?’’
‘‘ ेजुएट होने ही से या होता है बिहन! औरत जो हँ, िफर बड़े अ बा!’’
‘‘उ ह ने इस च पे क कली को ऊँट क दुम से बाँध िदया।’’
‘‘ऐसा न कहो बिहन, बड़े अ बा मामल ू ी आदमी नह ।’’
‘‘लेिकन बिहन, तु ह यहाँ देखकर तो छाती फटती है।’’
‘‘ या सौितया डाह है?’’ ह न ने हँसकर कहा।
‘‘तुमसे सौितया डाह क ँ गी? ऐसी सुहािगन नह हँ बिहन।’’
‘‘खुदा जाने तुम या कहना चाहती हो, अब कह ही दो।’’
‘‘सुन सकोगी?’’
‘‘बखबू ी।’’
‘‘और िदल जो पाश-पाश हो जाएगा।’’
‘‘नह होगा बिहन।’’
‘‘ऐसा प थर का िदल लेकर आई हो?’’
‘‘िदल साथ लाई ही नह हँ, िहफाज़त से वह छोड़ आई हँ।’’
‘‘अयं, तो तुम भी कोई राज़ िलए िफरती हो।’’
‘‘म भी तो नवाबजादी हँ बिहन, कोई मामल ू ी औरत नह ।’’
‘‘तो मुझे बताओ।’’
‘‘तुम बड़ी बिहन हो। तुमसे कुछ न िछपाऊँगी, िछपाकर या क ँ गी? अब जीना भी तो
तु हारे ही सहारे है।’’
‘‘जीती रहो बिहन, तु हारी बदनसीबी पर तो मुझे बहत रोना आता है।’’
‘‘मेरी बदनसीबी अभी तुमने देखी ही कहाँ है!’’
‘‘ऐसे शौहर क बीवी होना ही या तुम जैसी हीरे क कनी के िलए कम बदनसीबी है?
लंगरू के हाथ म अंगरू क डाली।’’
ह न क आँख से टपाटप आँसू टपकने लगे। उ ह आँचल से प छकर उसने िससकते हए
कहा, ‘‘यह तक होता बिहन, तो म तो अपने को खुशिक मत ही मानती।’’
‘‘ओह, तो मालम ू होता है तु हारी नस म लह नह भरा है, दद ही दद भरा है।’’
‘‘दद? नह , शम।”
ज़ीनत ने भेद-भरी नज़र से ह न क ओर देखा। पर मँुह से कुछ नह कहा। वह िवचार म
पड़ गई। ह न ने भी यह देखा पर उसने संभलकर कहा, ‘‘कहो अब बिहन।’’
‘‘सुनो, मेरी शादी को इ क स साल हो गए। शादी के व तुमसे कह यादा कमिसन थी।
लोग कहते ह खबू सरू त भी थी, गो तुम-सी नह । इन इ क स साल के बाद भी म आज वैसी ही
कँु वारी हँ, जैसी शादी क दुलिहन होने क बेला म थी।’’
‘‘ या कहती हो बिहन!’’ ह नबानू क आँख फट गई ं। लेिकन ज़ीनतमहल कहती गई,
‘‘इन इ क स साल म म एक बार भी नवाब क ड्योढ़ी म गई नह और नवाब कभी िकसी एक
िदन तमाम रात मेरे पास रहे नह ।’’
ह नबानू भय से पीली पड़ गई। उसने कहा, ‘‘तो...तो...’’
लेिकन ज़ीनत कहती गई, “शु -शु म मने इन बात पर यादा गौर नह िकया। म एक
बदिमज़ाज़ लड़क थी, माँ क लाडली थी। अ बा क इकलौती थी। वा रस थी। अ मी को सबसे
यादा यार करती थी। अ बा तो बचपन ही म नह रहे थे। अ मी ने ही मुझे पाला था। हम दोन ,
अ मी और म, एक ल हे को भी जुदा न हए थे। नवाब का यह रवैया मुझे कुछ भी न खला। म
अ मी के पास खुश-खुश रहती रही। नवाब आते, हँस-बोलकर चले जाते। लेिकन धीरे -धीरे उनके
गुण िदखने लगे, म सब कुछ जान गई। बहत रोई, सब आँसू बह गए, कलेजा, पानी होकर वह भी
बह गया। अब तो रोना चाहँ तो भी रो नह सकती हँ। रोने से नफरत भी करती हँ। समझ गई,
शौहर नाम क एक शय है, ठोस प थर क बनी हई। जब-तब उसम ठोकर लग जाती है, चोट
खाती हँ, एक ज़ म हो जाता है। खुदा रखे, म भी एक नवाबज़ादी हँ, कोई मामल ू ी औरत नह ।’’
इतना कहकर ज़ीनतमहल ने खी-सख ू ी मु कराहट ह नबानू पर डाली।
पर इससे ह न का डर कुछ कम न हआ। उसने सहमते-सहमते काँपती आवाज़ म कहा
—‘‘तो या नवाब...’’
‘‘नाकािबले-मद ह,’’ ज़ीनत ने धीरे से कहा और आँख नीची कर ल ।
‘‘या अ लाह!’’ ह नबानू दोन हाथ मलने लगी। िफर उसने पछ ू ा, ‘‘बस?’’
‘‘नह , यह तो िसफ एक बात हई, िजसक वजह से वह अपनी शादीशुदा बीिवय के साथ
रात को नह रहते। लेिकन तुमने देखा ही है, वे िकसी व िकसी के सामने कपड़े भी नह
खोलते।’’
‘‘अरे , इसम भी कोई राज़ है?’’
‘‘उ ह कोढ़ क बीमारी है। उनका तमाम िज म िघनौने सफेद दाग से भरा है।’’
ह नबानू का िसर चकराने लगा। उसे ऐसा तीत हआ िक वह बेहोश हो जाएगी। उसका
मँुह सख ू गया और आँख पथरा गई ं।
ज़ीनत ने उसक यह हालत देखकर कहा, ‘‘ या तबीयत खराब हो गई। ज़रा लेट जाओ
बिहन।’’
‘‘नह , ज़रा-सा पानी—बिहन!’’
ज़ीनत खुद दौड़कर गई और चाँदी के िगलास म बफ का पानी ले आई। ह न को गोद म
भरकर उसने िगलास उसके सफेद ह ठ से लगा िदया।
पानी पीकर ह न ने कहा, “शु है खुदा का!’’
‘‘खुदा का शु ?”
‘‘हाँ बिहन, मेरे गुनाहा क मुनािसब सज़ा यह िमल गई। अब शायद दोज़ख क आग से
बच जाऊँ।’’
‘‘तुम और गुनाह? कौन इस बात पर यक न करे गा? तुम तो सीरत म फ र ता हो, काश
तुम मेरी बेटी होत !’’
‘‘तु हारी छोटी बिहन हँ, कनीज़ हँ—लेिकन यह काफ नह तो बेटी ही समझ लो। मने माँ
का यार तो िज़ दगी म पाया ही नह , आज भी वह पाऊँ तो िनहाल हो जाऊँ।’’
और उसने अपने को ज़ीनतमहल क गोदी म डाल िदया। वह फफक-फफककर रोती रही।
ज़ीनत ने उसे छाती से लगाकर कहा, ‘‘तु ह कलेजे से लगाकर िकतनी राहत िमलती है! आज
पहली ही बार िमल और मुझे ठग िलया बिहन। अब मेरे कलेजे का टुकड़ा होकर रहना। मुझे तो
ऐसा मालम ू होता है जैसे कह से िज़ दगी िज म म पनपती चली आ रही है, जैसे सख ू ा खेत िफर
ह रयाली से लहलहा रहा है। खुदा ने तु ह मेरे पास भेजा है िक म अपने जले-भुने िदन अब राहत
और खुशी म िबता दँू।’’
‘‘लेिकन—लेिकन बिहन, इस बदनसीब क भी दा तान सुन लो। सुनकर न ठुकराओ तो
जानँ।ू ’’
‘‘ओह, शायद िदल वह कह छोड़ आने क बात है। कहाँ िकसके पास छोड़ आई हो?’’
‘‘एक न ह-मु ने के पास’’, ह नबानू अब िबखरकर फूट-फूटकर रोने लगी। जैसे उसका
बाँध टूट गया हो। जैसे उसका रोम-रोम रो उठा हो। सुनकर ज़ीनत च क उठी।
‘‘यह या कहती हो बिहन?’’ ज़ीनत ने उसे उठाकर छाती से लगाकर कहा। और तब धीरे -
धीरे एक-एक करके अपने दु:ख-दद, बदनसीबी क सारी दा तान उसने सुना दी। सब सुनकर
ज़ीनत ने धीरे से पछ ू ा—
‘‘ब चा अब कहाँ है?’’
‘‘बस इसे राज़ ही रहने दो बिहन, यह मत पछू ो। कभी बहत ही ज़ री हो गया तो तु ह से
कह दँूगी।’’
ज़ीनत बड़ी देर तक उसे छाती से लगाए रही। िफर उसने आँसू प छकर कहा—
‘‘बड़ी हौसले वाली हो बान,ू आफर । तो अब से हम-तुम एक ह। मुसीबत का िमलकर
सामना करगी। अभी एक बात गाँठ बाँध लेना। बड़े अ बा ने जो जायदाद तु हारे नाम क है उस
पर नवाब का हाथ न लगने पाए, इसका यान रखना।’’
‘‘जायदाद का अब म या क ँ गी?’’
‘‘बस नादानी न करो, बड़ी बिहन जैसा कहे , वही करना।’’
‘‘वही क ँ गी बिहन, अब तो तु ह बिहन और तु ह माँ हो, और कह मेरी गत कहाँ है?’’
उसने ज़ीनतमहल के दोन हाथ आँख से लगाकर चम ू िलए। ज़ीनत ने उसे कसकर छाती से
लगा िलया।

10
कालच घम ू ता ही गया और घटनाएँ जीवन को धकेलती रह । डा टर अमत ृ राय के तीन
ब चे हए—दो लड़के और एक लड़क । िदलीप कुमार राय अब तेरह वष का था। भाइय और
बिहन क नज़र म वह उनका बड़ा भाई था। पर तु उसक सरू त-श ल, बुि और िवचार-स ा
सब कुछ उनसे नया िनराला था। उसका रं ग अ य त गोरा, आँख ज़रा भरू ी, नाक उभरी हई,
पेशानी चौड़ी, बाल ज़रा लाली िलए हए। िज म पतला-दुबला, ल बा, िमज़ाज तेज़ और गु सैल,
तबीयत िज़ ी और हाथ खुला था। अनुशासन उसे पस द न था। वह हर बात को मौिलक रीित पर
सोचता-समझता था। भाइय और बिहन को वह तु छ समझता, उनसे दूर रहता, हर चीज़ म वह
अपना एक पथ ृ क् अि त व कायम रखना चाहता था। स भव है डा टर अमत ृ राय और उनक
प नी अ णादेवी के दय म जो एक छ न भावना थी—िक वह उनका अपना पु नह है, और
वह िवजातीय मुसलमान बालक है, और वह बहत भारी स पि का वामी है—इससे उनके
यवहार का कोई अ ात भाव उस पर पड़ा हो। पर तु यह तो िन य था िक माता-िपता और पु
के बीच जो एक गहरी आ मीयता होती है वह उनम न थी, पर तु यह बात खबू पैनी ि से
देखने पर ही िदख पड़ती थी। य वह िपता का अदब और माँ को यार करता था।
डा टर के दोन पु के नाम मश: सुशीलकुमार राय और िशिशरकुमार राय थे। क या
का नाम था क णा। िशिशर और क णा म खबू मेल-जोल था। िशिशरकुमार क तबीयत कुछ
अनोखी थी। वह एक म त कृित का बालक था। खेलने और पढ़ने म तेज़, मगर िमज़ाज का
तीखा—हाँ, िदलीप जैसा नह । िदलीप के ठने, गु सा करने पर उसे मनाकर राज़ी करने का
काम िशिशर को ही करना पड़ता था। लेिकन िदलीप िशिशर पर शासन करता था। यार कह
उसक आ मा के कोने म था या नह , यह नह कहा जा सकता था। उसे यार करते, हँसते-
बोलते, िहल-िमलकर रहते बहत कम देखा गया था।
डा टर-द पती िन स देह सब ब च को समान यार करते थे। िफर भी कह एक िछपी हई
परायेपन क ग ध थी जो जाती न थी। या जाने इसी का कोई मनोवै ािनक भाव बालक
िदलीप पर पड़ा हो।
डा टर क आय अ छी थी। पर खच भी कम न था। रहन-सहन उसका भले आदिमय जैसा
था। एक कार भी थी, एक घोड़ागाड़ी, तीन-चार नौकर भी। इस कारण वे कुछ यादा बचा न पाते
थे। िफर ब च क िश ा का खच। िदलीपकुमार क ए टेट क आमदनी को उ ह ने अभी तक
छुआ न था। िदलीप को कभी-कभी कागजात पर ह ता र करने पड़ते थे, और डा टर उसक
जायदाद के शु से ही वली थे। नवाब ने बालक क िश ा और परव रश के िलए एक अ छी
रकम क थम ही पथ ृ क् यव था कर दी थी। पर तु डा टर ने अभी यह बात भी िदलीप को नह
बताई थी। वे यह भी सोचते थे िक ऐसा करने से सब ब च से उसे पथृ क करना पडे ़गा। पथ
ृ क् तो
वह बालक वभाव से ही हो गया था—होता जा रहा था।
अब, जब वह तेरह वष क दहलीज को पार करके शैशव से िकशोराव था को पहँचा तो
डा टर-द पती के मन म अनेक संघष ने ज म िलया। थम तो यह िक बालक क ए टेट या
उसे अकेले ही को दी जाए? य न और बालक भी उसके समान भागी बन। जब डा टर-द पती
ने उसे छाती से लगाकर अपने पु क भाँित ही लालन-पालन िकया है तो वही अकेला य उस
स पि का अिधकारी बने? िन स देह वह स पि उसके नाना क थी, माँ क थी उसक अपनी
थी; पर उसक इस अिधकार-भावना पर डा टर-द पती जब-जब िवचार करते, तब-तब उनका
मन िवरि से भर उठता। कहना चािहए, एक हद तक यह िवरि बालक के ित एक ई यापण ू
उपे ा म बदल गई थी, य िप वह अभी बहत ही अिवकिसत और छ न थी।
पर तु बालक को इन सब बात का पता न था। उसे यह शानो-गुमान भी न था िक डा टर-
द पती उसके सही असल माता-िपता नह ह। बालक को लेने के समय ही डा टर ने नवाब से यह
तय कर िलया था िक बालक सवथा िह दू सं कृित म, िह दू क भाँित उनके असल पु क तरह
पाला जाएगा। इस बात को वीकार करने के िसवा नवाब क कोई गित थी भी नह ।
नवाब मु ताक अहमद अब मर चुके थे। पर तु जब तक िज़ दा रहे उ हाने कभी बालक को
देखने या डा टर से िमलने क चे ा नह क । एक कार से उ ह ने िद ली छोड़ ही दी थी और
वे कराची ही म बस गए थे। बालक का कुशल-मंगल पछ ू ने को कभी उ ह ने एक खत भी नह
िलखा। नह कह सकते िक उ ह ने ऐसा य िकया। डा टर को सुपुद करने के बाद बालक को
वे एक कार से भल ू ही गए। यह उ ह ने शायद इसिलए िकया हो िक वे नह चाहते थे िक डा टर
के मन म यह अंकुर कायम रहे िक वह पराया बालक है, या मुसलमान बालक है। माता-िपता क
गहरी एकता बालक के ित डा टर-द पती म उ प न हो जाए, इसी भावना से एकबारगी ही
बालक से िवमुख हो गए थे। नवाब के मरने क खबर भी बहत देर म िमली। डा टर ने भी अपनी
तरफ से नवाब से कोई स पक जारी रखने क चे ा नह क । उ ह भेद खुलने का भय था।
अपनी िबरादरी का भय भी था। नवाब के मर जाने से वे एक कार से िनि त हो गए।
ह नबानू इस बीच कभी एक बार भी िद ली नह आई। उसक कोई खोज-खबर भी डा टर
को न लगी। बालक क भी कोई खबर नह ली। बानू का प, तेज और भाव डा टर को आहत
कर गया था और डा टर कभी भी बानू को न भल ू सके। बानू क हीरे क कनी के समान
उ वल अमल-धवल वह मिू त सदैव डा टर के मानस-ने म यार क पीर क एक बाँक झाँक
बनी रखी रही, िजसे अ णा ने ही जाना। पर इसके िलए उसने डा टर को कभी लानत-मलानत
नह दी। सहानुभिू त और उदारता से उसने सहन िकया। स भव है, बानू के ित यह नेहाकषण
होने के कारण डा टर का मन बालक िदलीप के ित ममता से अिधक ओत- ोत रहता था।
िदन बीतते चले गए, युग करवट बदलता चला गया। जनजीवन भी िनयित क िनयत चाल
पर िथरकता चला गया। डा टर-द पती यौवन क देहरी पार कर वाध य पर बढ़े ; और उनके
बालक यौवन के रा य म िव हए। िव क रं गभिू म पर िहटलर आया, मुसोिलनी आया,
टािलन आया, स म लाल िसतारा चमका, अमरीका के उड़निकले उड़े , िहटलर के चम कार से
िव चम कृत हआ। महारा य के राजमुकुट उड़-उड़कर हवा म िबखर गए। समच ू ा मानव-िव
र - नान म जुट गया। देश, रा , पँज
ू ी, स ा-अिधकार, स ा अपनी-अपनी सीमाएँ बदलने लगे।
आकाश म वायुयान अनेक करतब िदखाने लगे। जापान का आतंक आया और अणु महा ने
जादू के ज़ोर पर उसे िवलय कर िदया। सोना और खन ू दुिनया म अपनी होड़ लगाने लगे। संसार
का सािह य, संसार क वाणी, संसार क िवचार-स ा, संसार का मि त क सब कुछ ‘सोना और
खनू ’ क मह ा को समझने म जुट गए। सोना मनु य के शरीर पर लदा था और खन ू उसक
नस म बह रहा था। सोने म उसका संसार था। और खन ू म उसका जीवन था। मनु य खन ू बहाता
था, पर सोना देना न चाहता था। इससे मनु य का खन ू एक करामात बन गया। ान-िव ान,
शि , स ा, सभी मनु य का खन ू उसक नस से बाहर िनकाल बहाने म जुट गए।
बहत लोग मर-खप गए। जो रह गए उनके सामने नई दुिनया थी—भख ू ी- यासी, भयभीत,
कंगाल और अिव त; िच ता और वैक य से प रपण ू ; अभाव और अ धकार से लथपथ। इसने
लोग के रहन-सहन सोचने-िवचारने के ढं ग बदल िदए थे।
डा टर-प रवार पर भी उसका असर था। ब चे अब कािलज म उ च िश ा पा रहे थे।
िदलीपकुमार एम. ए., एल-एल. बी. कर रा ीय संघ म नाम िलखा चुका था। वह क रपंथी िह दू
था। मुसलमान का घोर िवरोधी, िह दू सं कृित का परम िहमायती। सुशील था क युिन ट,
असिह णु और मज़दूर का नेता। बी.ए. पास करके उसने अथशा म एम. ए. पास िकया था।
िशिशर था कां ेसी, ख रपोश। वह बी. ए.फाइनल म था। क णा अ ययन कर रही थी िचिक सा-
शा , लेडी हािडग म। वह थी मानववािदनी, अ पभािषणी, भावुक, सरल-तरल, जनिहत से
ओत- ोत, सब भेदभाव से दूर मनु य के यार से ओत- ोत।

11
डा टर अमत ृ राय क जैसी मान- ित ा थी वैसा ही उनका खानदान भी था। खि य के
ऊँचे खानदान म वे िगने जाते थे। य - य वे ौढ़ होते गए, उनक मयादा बढ़ती ही गई। धन भी
उ ह ने काफ कमा िलया था। िै टस भी धड़ ले से चल रही थी। मोटर, घोड़ागाड़ी, बाग, ज़मीन,
मकान सब कुछ था। िमलनसार आदमी थे—इससे िम क भी उ ह कभी कमी न रही।
िदलीपकुमार कानन ू पढ़ चुका था। डा टर चाहते थे िक िकसी िति त वक ल के साथ
िै टस करे । पर तु उसका मन िै टस म न था। वह रा ीय संघ का जनरल से े टरी था। वह
चाहता था िक िह दू सभा का एक ज़ोरदार नेता बने। नेता बनने के सभी गुण उसम थे। वह सचोट
व ा, फुत ला और मु तैद युवक, िनराल य और किठन मी, हँसमुख, िम का सहायक था।
रा ीय संघ म तो उसका अपना एक दल था ही। यि गत िम म भी एक समथ दल था। अपनी
कायिसि के िलए ऊँच-नीच,भला-बुरा वह कुछ भी सोचता-समझता नह था। अवसर के मह व
को वह जानता था, उससे कभी वह चक ू ता न था। उसके िवचार तीखे, भावना ती और आलोचना
यं यपणू होती थी। उसके भाषण से उसक िम म डली स न होती थी। वह वा तव म
ज मजात नेता था।
पर तु डा टर अमत ृ राय पर अब एक भारी और अस भार आ पड़ा। ब चे सब िववाह-यो य
हो गए थे। िदलीपकुमार क आयु छ बीस वष क हो गई थी। और चार ओर से उसके िलए
स ब ध आ रहे थे। अब उसका स ब ध कहाँ और कैसे िकया जाए–एक िदन पित प नी म इसी
िवषय पर चचा िछड़ी।
अ णादेवी ने कहा, ‘‘िववाह तो करना ही होगा। चाहे जो भी हो, िबरादरी को तो हम नह
छोड़ सकते। ब चे और भी ह। उसके ज म का रह य िकसी पर कट नह है। अब वह हमारा ही
लड़का है, इसिलए िबरादरी म ही होगा।’’
‘‘पर म जीती म खी कैसे िनगलँग ू ा? म तो जानता हँ िक वह हमारा लड़का नह है, एक
मुसलमान माता-िपता का पु है। म कैसे िकसी िह दू लड़क को इस धमसंकट म डाल सकता
हँ! इतना बड़ा छल तो म िबरादरी के साथ कर नह सकता।’’
‘‘तो या अब इतने िदन बाद दुिनया को यह बताओगे िक एक मुसलमान के लड़के को
तुमने घर म रखा, पाला-पोसा, साथ खाया-िपया? िफर िबरादरी म तुम रह सकते हो? बाक
ब च का याह-शािदयाँ या िबरादरी म हो सकती ह?’’
‘‘ य नह हो सकत , साँच को आँच कहाँ!’’
‘‘पर यह तु हारा साँच अब तक कहाँ था? नाहक एक झमेला खड़ा हो जाएगा। य दबी
आग कुरे दते हो?’’
‘‘पर इतना बड़ा झठ ू कैसे अपने मँुह से कहँ। िफर अ णा यह र का स ब ध है, धम का
ब धन है, हम िह दू ह। जानती हो, िववाह म कुलगो -उ चारण होता है, गो ावली और वंशावली
का बखान होता है। माता के चार कुल और िपता क चार पीिढ़याँ बचाई जाती ह, यह सब
इसीिलए तो िक गैर र आय के र म न िव होने पाए। अब हम एकदम ले छ र को
कैसे अपने म खपा सकते ह? कैसे एक आय कुमारी को धोखा देकर झठ ू बोलकर ले छ के
बालक से िववाह कर सकते ह! हमारे तो लोक-परलोक दोन ही िबगड़ जाएँ गे।’’
‘‘तो यह बात पहले सोचनी थी।’’
‘‘ज़ र सोचनी थी। पर तब तो इन बात का याल ही नह आया। और उस समय
ह नबानू को देखकर तो मने जैसे आपा ही खो िदया।’’
‘‘अभी शायद कह चीस-चसक बाक है, य न?’’
‘‘तुमसे तो झठ
ू न बोलँगू ा अ णा, है तो, जड़मल ू से तो कभी िमटी ही नह ।’’
‘‘तो अभी तो वह भी दुिनया म जीती-जागती है। य न उसका बेटा उसे दे िदया जाए?
उसक ज़मीन-जायदाद तो हमने छुई भी नह है।’’
‘‘नह छुई है। पर या यह स भव हो सकता है? जानती हो, अपने कलेजे के टुकड़े को
हमारी गोद म डालकर उस ी ने िकतनी वेदना प ले बाँधी है! िफर तब से एक बार भी हमारी
ओर उसने देखा ही नह , बेटे को याद िकया नह । अब हम वचन भंग कर, उसक ित ा का
भ डाफोड़ कर? ना यह हमसे न होगा।’’
‘‘तो िदलीप भी अब नासमझ नह । उसी से सब खोलकर कह दो।’’
‘‘अरे , वह प का िह दुसभाई मुसलमान को तेल म होकर देखता है। रा ीय संघ का
जनरल से े टरी, िह दू धम का नेता है। वह सुनेगा तो शायद उसके दय क धड़कन ही ब द हो
जाएगी, या अजब नह वह ोध करके हमारा खन ू कर डाले।’’
‘‘ऐसा भी कह हो सकता है! अ छा, तुम नह तो म कहँगी।’’
‘‘ये बात सब फालतू ह अ णा, हम यह ज़हर का घँटू पीना ही होगा। हम यह भेद जीते जी
खोल नह सकते। भेद खोलने म हमारा सवनाश होगा। िदलीप का तो जीवन न ही हो जाएगा,
साथ हम भी लोग क नज़र म िगर जाएँ गे।’’
‘‘तो िफर होने दो िह दू कुमारी का बिलदान। िह दू क बेटी तो बिल के िलए ही पैदा होती
है। िह दू ही दू हा होता–लु चा और बदमाश–तो वह िकतना दु:ख देता! घर-घर तो मने आँसुओ ं
से गीले चेहरे देखे ह। िदलीप कम-से-कम ऐसा पशु तो नह है। कोई भी ी उसे पाकर स तु
होगी। िफर मुगल के ज़माने म मुगल बादशाह ने तो िह दू कुमा रय से शादी क थी। अब इतना
सोच-िवचार न करो। याह कर डालो। पानी िजतना उलीचा जाएगा, ग दा होगा।’’
‘‘इधर एक सुिवधाजनक बात भी है।’’ डा टर ने जैसे अचानक याद करके कहा।
‘‘ या?’’
‘‘राय राधाकृ ण बै र टर ह।’’ क या उनक बाईस साल क है। एम.ए. है। िवलायत- रटन
है, लड़क ने भी िवलायत पास िकया है। सु दरी है। जात-पाँत, िबरादरी को ये नह मानते। य ह
हमारी िबरादरी ही के, पर मु त से िबरादरी से बाहर ह, माडन िवचार के ह। धन-दौलत खबू है। वे
बड़ा ज़ोर दे रहे ह, य न र ता ले लँ!ू ’’
‘‘लड़क तो मने देखी है, पस द है। यही ठीक होगा। तु हारे मन क लािन भी अिधक न
होगी। यही करो। पर उससे र ता करके पीछे हमारे ब च के र त म तो िव न न होगा?’’
‘‘शायद हो, पर तु ज़माना बदल गया है। अब पुराने िवचार ख म हो रहे ह। म समझता हँ म
सब ठीक कर लँग ू ा। िफर म इस मामले म िबरादरी के पंच-चौध रय को भी घसीटूँगा। यह काम
उ ह क राय से तो होगा।’’
‘‘यह अ छा है। लेिकन िदलीप से पछ ू िलया जाए।’’
‘‘वह या इ कार करे गा? अभी इतना एडवांस नह हो गया।’’
डा टर ज़रा मु करा िदए।
‘‘पछू लेना अ छा है।’’
“खैर, पछ ू लँगू ा, तो म राय राधाकृ ण को खत िलखकर मंजरू ी दे देता हँ।’’
‘‘जैसा ठीक समझो।’’
‘‘िफर िकसी िदन तुम जाकर लड़क क गोद भर आना।’’
‘‘देखा जाएगा। पर िदलीप से ज़रा पछ ू लेते तो।’’
‘‘पछ ू लँग
ू ा, िच ता न करो।’’ डा टर कपड़े पहनकर बाहर चले गए। अ णा कुछ देर इ ह
बात पर सोचती रही।

12
पर तु िदलीप ने इस र ते को िबलकुल अ वीकार कर िदया। उसने कहा, ‘‘वे लोग
िबलकुल ह। सबके साथ उनका खानपान है। उनक लड़क भी अं ेज़ी फै शन क गुलाम है।
ऐसे लोग के साथ स ब ध नह कर सकता। न म िवलायती बीवी पस द करता हँ।’’
िदलीपकुमार क प बात सुनकर डा टर बड़े असमंजस म पड़े । िदलीप क बात म कुछ
अनौिच य न था। डा टर अपनी गहृ वधू को वयं उसी प म देखना चाहते थे िजसम िदलीप। वे
एकाएक कुछ न कह सके। पर तु उ ह ने िदलीप से िबना ही पछ ू े राय साहब को वीकृित का प
िलख िदया था–इसका उ ह बहत मलाल हआ। उ ह ने कहा, ‘‘िदलीप, मुझसे बड़ी गलती हो गई।
मने तुमसे िबना पछ ू े ही रायसाहब को प िलख िदया। अब या होगा भला?’’
‘‘बहत बुरा हआ बाबज ू ी! उनसे अब भी सब बात साफ-साफ कही जा सकती ह। वे बडे ़
आदमी ह, स जन ह, सब बात समझते ह। नाराज़ न ह गे, स न ही ह गे।’’
‘‘लेिकन बेटे, एक बार िफर सोच लो। यह तो तु ह कह चुके हो िक वे स जन ह, ऐसे
स ब ध िमलने सुलभ नह ।’’
‘‘पर तु बाबज ू ी, मेरे िवचार आपको मालम ू ह। म सीता-सािव ी का आदश पस द करता हँ।
म चाहता हँ िक सीता-सािव ी के वंश क ही कोई लड़क आपके चरण का आशीवाद ा करे ।’’
िवन ता और ढ़ता िदलीप का वभाव था। डा टर उसक िवनय और ढ़ता से िन र हो
गए। उ ह ने धीरे से कहा, ‘‘एक बार अपनी माँ से भी तो सलाह कर लो।’’
‘‘माँ को जानता हँ बाबज ू ी, वे तो मेरे ही धम को मानती ह। मेम को बह बनाना कभी पस द
नह करगी।’’
‘‘पर बेटे, वेशभषू ा ही से या, रायसाहब क पु ी प, गुण और शील म अि तीय है।
देखोगे तो पस द करोगे।’’
‘‘लेिकन प, गुण और शील से या–आदश और िवचार भी तो उसके हमारे ही समान होने
चािहए, आचरण और भावना भी तो हमारे ही अनुकूल होनी चािहए।’’
‘‘लेिकन भैया, आज के वत ता और समानता के युग म जो तुम इतनी क रता के
िवचार को िलए िफरते हो सो या ठीक है?’’
‘‘म आपके समान िव ान् नह बाबज ू ी। पर देखता हँ िक म कोरा क र ही नह हँ, कुछ
िवचार भी सकता हँ, और आदश और सं कृित म तो क रता कायम रहनी ही चािहए। नह तो
िफर जातीयता कहाँ रह सकती है।’’
‘‘जातीयता न रहने पर भी तो काम चल सकता है िदलीप।’’
‘‘कहाँ, आपने िहटलर को देखा, मुसोिलनी को देखा, िकस तरह जातीयता के नाम पर ही
वे मर िमटे। अं ेज़ ह, च ह, यरू ोप के अ य रा ह, एक जातीयता के नाम पर, एक जातीयता
के बल पर ही दुिनया म जीते ह। हम िह दू द र ह, गुलाम ह। हमारी आिथक और राजनीितक
दासता ने शताि दय से हम पंगु बना कर रखा है, इसी से गुणवान्, िव ान्, धमा मा धीर-वीर
रहते हए भी हम दास-भाव से मु नह हो पाते; परािजत ही रहते ह। अब एक जातीयता ही तो
है–िजसके बल पर हम सब एक हो सकते ह, संगिठत होकर अपनी दासता क बेड़ी काट सकते
ह।’’
‘‘सो तो है, पर तु इससे िह दू लोग के बीच तो दीवार खड़ी हो जाएगी। िह दू तो पहले ही
से छुआछूत के कारण दूसरी जाितय से अलग-अलग रहते आए ह–अब तु हारे इन िवचार ने
उनके मन म घर कर िलया तो वे अपने पड़ोस के येक उस आदमी के श ु और गैर हो जाएँ गे
जो िह दू नह है। यह या अ छा होगा िदलीप?’’
‘‘बहत अ छा होगा, हम संगिठत ह गे, सबल ह गे, व थ ह गे, स प न ह गे तो दुिनया
के लोग िम ता का हाथ हमारे सामने फै लाएँ गे।’’
‘‘भला ऐसा कैसे हो सकता है?’’
‘‘ य नह हो सकता? देखा नह आपने, इस यु म अं ेज़ और अमे रकन ने लाल स
से कैसी दो ती गाँठी थी? किहए, इन तीन का कह भी मेल खाता है? बाबज ू ी, शि ही सब
कुछ है। हम शि ा करना चाहते ह, और यह काम संगिठत होने से होगा। और संगठन
सं कृित के ारा ही हो सकता है। इसी से बाबजू ी, म िह दू सं कृित का इतना प लेता हँ।’’
‘‘तो कदािचत् तु ह ठीक होगे भाई। पर म तो समझता हँ, अब तो दुिनया के सब मनु य
को पर पर समान भाव से रहना चािहए।’’
‘‘समान होने ही के िलए हम दासता क बेिड़य को काटना चाहते ह। जो िगरे हए ह, उ ह
तो समान होने के िलए ज़रा उठना ही होगा, बाबज ू ी!’’
डा टर ने हँसकर िदलीप क पीठ ठोक । हँसते-हँसते कहा–‘‘तुमसे बहस करना मेरे बत ू े
क बात नह , िदलीप! लेिकन जा, इस मामले म अपनी माँ से और बात कर ले। तभी तो अि तम
िनणय होगा–उसी क सच ू ना म रायसाहब को दँूगा।’’
‘‘बहत अ छा,’’ कहकर िदलीप चला गया। डा टर देर तक इस गु थी को सुलझाने म
उलझे रहे । िजसक नस म शत- ितशत मुि लम र बह रहा है, वह ऐसा क र िह दूधम का
समथक है–यह सोचकर डा टर को हँसी आ गई।

13
उसी रात को िदलीप ने अ णा से बात क । माता के सोने के कमरे म जाकर वह माँ के
दोन पैर गोद म रखकर पलंग पर बैठ गया। अ णा लेटी हई थी, एकदम पाँव ख चकर उसने
कहा, ‘‘यह या करता है रे पाजी!’’
िदलीप ने हँसकर कहा—“खुशामद कर रहा हँ, िजससे माँ मेरे अनुकूल हो जाए!’’
‘‘लेिकन बात या है?’’
‘‘बाबज ू ी ने कहा है िक जाकर माँ से बात कर ले।’’
‘‘ याह के िवषय म। बाबज ू ी रायसाहब क उस मोम क पुतली से मेरा याह करना चाहते
ह, माँ!’’
‘‘अ छा तो है, िवलायती बीवी िमलेगी।’’
‘‘िवलायती कहाँ, िवलायतनुमा िह दु तानी। एकदम इमीटेशन।’’
‘‘तनू े कोई असल हीरे क कनी ढूँढ़ ली है या?’’
‘‘मुझे या ज़ रत है, मां, हम-तुम दोन या काफ नह है?’’
‘‘सो तुझे तो ज़ रत नह है। पर तेरे और भी भाई ह, बिहन ह, उ ह भी कह कुछ ज़ रत
नह रहे गी?’’
“वाह ’,िदलीप ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। उसने दोन हाथ जोड़कर अिभनय-सा करते हए
कहा, ‘‘व दे मातरम्।’’
अ णा नाराज़ हो उठी। उसने कहा, ‘‘ये सब बात मुझे पस द नह ह। िदलीप, इ ह ने जब
सब बात कर ली ह तो तू बीच म मत दुलख। तेरी लाभ-हािन क सब बात उ ह ने सोच ली ह। वह
लड़क मने देखी है–बहत सुशील है, म उसे खबू अ छी तरह अपनी बह बना लँग ू ी। तू बेिफकर
रह।’’
‘‘तो यही प क रही। कह दँू सुशील से जाकर?’’
‘‘िफर गधापन करता है, बड़े भाई को छोड़कर कह छोटे का याह पहले होता है!’’
‘‘ य नह होता? भी म चारी रहे थे, और उ ह ने अपने हाथ से अपने भाइय का याह
िकया था।’’
‘‘सो तू भी म क तरह चारी रहना चाहता है!’’
‘‘ज़ र रहना चाहता हँ। जब तक मेरा देश वत न हो जाए, िह दू रा का उ थान न
हो जाए तब तक याह करके गुलाम स तान पैदा करने से या फायदा है, माँ! िफर कौन जाने
हम िकस मुसीबत म फँसना पड़े –जेल जाना पडे ़, फाँसी पर लटकना पड़े । नह , याह-शादी क
अभी कोई गुंजाइश नह है। पहले िह दी, िह दू, िह दु तान है। पीछे याह-शादी। बाबज ू ी से कह दो
माँ, वे इस झमेले म िदमाग खराब न कर– थम तो म अभी याह करना ही नह चाहता–िफर
क ँ गा तो सीता और सािव ी के आदश पर चलनेवाली िह दू-कुल-ललना के साथ। िजससे मेरे
सब सपने स य हो जाएँ ।’’
‘‘सपने कैसे रे ?’’
‘‘िक तु हारी बह बैठकर तु ह रामायण का पाठ सुनाए। सय ू ादय से थम उठकर नान
करे , देवपजू न करे , गु चरण क व दना करे , गहृ थधम का सांगोपांग पालन करे , यह नह
िक उठते ही टो ट-चाय। िफर पािटय म जाना, उप यास पढ़ना और िसनेमा देखना।”
‘‘सांगोपांग गहृ थपालन कैसा रे ?’’
‘‘जैसा धमशा म िलखा है–सोलह सं कार, पंचमहाय , तीथ, त, उपवास, कथा-
वाता, दान-धम, यही सब कुछ तो िह दूधम है, इसी क बदौलत तो िह दूधम जीिवत है। अब तक
ि याँ यह धमपालन करती रह । तभी तो वे देवी कहाती ह, अब वे भी च मा चढ़ा और ऊँची एड़ी
के जत ू े पहनकर बन जाएँ मेम साहब, और पितदेव के साथ बैठकर टो ट-चाय उड़ाकर सास-
ससुर, गु जन क सब लाज-शम वे बहाएँ –तो िह दूधम और िह दूजाित कहाँ रहे गी! रसातल म
डूब जाएगी, माँ! म अपने घर म ऐसी औरत को घुसने भी न दँूगा।’’
‘‘और घुस जाए तो?’’
‘‘तो मार डं डे िनकाल बाहर क ँ गा।’’
‘‘अभी तो तू सुशील के िलए वह मेम ले आने क बात कह रहा था। उसे लाकर उसके डं डे
लगाएगा?’’
िदलीप थोड़ा हत भ हआ। उसने खबू ज़ोर से माँ के पैर को गोद म दबाकर कहा, ‘‘नह ,
नह –माँ, तुम बाबज ू ी को समझा देना–हमारे घर म ा और वे छाचा रणी कोई बह न आने
पाएगी। हमारे घर म आएँ गी गहृ लि मयाँ—जो सदा से िह दूधम क सां कृितक ितमाएँ रहती
आई ह, िजनक पिव ता क कहािनयाँ हम ा और आदर से कहते-सुनते ह।’’
‘‘बड़ा पि डत हो गया है तू िदलीप, पर देख, यह सब आदशवाद अ छा नह है। देश-काल
का भी तो िवचार करना पड़ता है–तू तो इतना पढ़ा-िलखा है...िफर भी यह बात नह समझता।
अब जब नई दुिनया म नए ान का, नए जीवन का काश आया है–तू कैसे हज़ार वष पुराने
आदश को कायम रख सकता है! बेटे, हम आज के युग म रहना है आज के युग का आदमी
बनकर। सब बात म पुरानी बात क लीक पीटने से नह चलेगा।’’
‘‘म या पुरानी बात क लीक पीटता हँ, माँ?’’
‘‘नह तो या! तू सं कृित और स यता क बात तो करता है। तुझे पुराने िह दूधम के गुण
ही गुण िदखते ह। पर ि य ही क बात है। िह दूधम म ि य को िकस कार दासी क भाँित
रखा जाता रहा। िकसी ज़माने म तो मुद पित के साथ िज़ दा उ ह फँ ू क िदया जाता था। इसे सती-
धम कहा जाता था। जब आठ बरस क िवधवा का दूसरा याह करना ही अधम माना जाता था–
तब पु ष दस-दस याह करते थे। अपनी औरत को भेड़-बकरी क तरह बाज़ार म बेचते थे, जुए
के दाँव पर लगाते थे, दूसर को दे डालते थे। या तन ू े युिधि र-ह र और पांडुराज क
कथाएँ नह पढ़ ?’’
‘‘पढ़ी ह, माँ, पर तु धमब धन भी तो होते ह?’’
‘‘खाक होते ह धमब धन! आदमी को िवचारशील होना चािहए। और उसे जीवन म–अपने
युग के साथ चलना चािहए, बेटे! तू इतना बड़ा िव ान् है–सो इतना भी नह समझता!’’
िदलीप ने और कसकर माँ के चरण को दय से लगा िलया। और वह कुछ देर चुप बैठा
रहा। िफर उन चरण म म तक रख तेज़ी से वहाँ से चल िदया।

14
िव महायु ने संसार को दो भाग म िवभ कर िदया था। एक भाग था जनवादी देश
का, िजनका नेत ृ व त ण पीढ़ी कर रही थी।–दूसरा था पँज ू ीवादी देश का, िजनका नेत ृ व
दिकयानस ू ी पुराने मोटे पेटवाले कर रहे थे। जनवादी देश का मलू म था– म, और पँज ू ीवादी
देश का अथ। यह म-शा इस युग क सबसे बड़ी िवरोिधनी शि याँ बन रही थ और य िप
संसार अभी तक गत िव यु के घावा से भरपरू कराह रहा था–पर उसके िसर पर तीसरा
महायु मंडराता आता िदख रहा था। दुिनया के आदश बदल गए थे। जीवन के येय बदल गए थे।
िव िसमटकर जैसे येक यि क इकाई म समा गया था।
जनवादी देश के त ण मानव- ित ा के िलए चरम संघष कर रहे थे। ऐसे त ण जो जहाँ
थे, सारे संसार के वैसे ही त ण से उनके स पक थािपत होते जाते थे। रा ीयता, जातीयता
और देश क दीवार को तोड़-फोड़कर, िकसी भी बाधा क आन न मानकर िव के त ण
मानव- ित ा के िलए एक भत ू होते जा रहे थे। उनका संगठन िव यापी था। और िव जैसे
एक भत ू हो उनके िनकट आ रहा था। निदय ने, पवत ने, समु ने, देश क सीमा-रे खाओं ने
य िप उ ह पथ ृ क् कर रखा था–पर वे एक थे। साहस और िनभ कता से, जनवाद क िवजय म
अटल िव ास रखकर वे ती ता से एक होते जा रहे थे।
िव यु म सारे संसार के नौजवान के भा य का िनणय स क यु -भिू म म हआ था।
सोिवयत नौजवान यह समझते थे िक हमने फािस म को परा त करके सारे संसार के मनु य
को गुलामी से बचा िलया है। संसार-भर के त ण सोिवयत त ण के इस काय को ाक ि
से देखते थे। दुिनया के करोड़ युवक के दय म उनके नाम आग के अ र क भाँित धधक रहे
थे। इधर आं ल-अमे रकन गुट दुिनया को खन ू क नदी म िफर एक बार डुबा देना चाहता था।
अमे रका के डालर शाह अब वही नारे बुल द कर रहे थे जो कल तक जमन फािस ट लगाते थे।
और अब ठीक संसार के मनु य के भा य-िनणय का काल उपि थत हआ था। उनके सामने िसफ
दो ही माग थे–वे वत ह या आं ल-अमे रकन सा ा यवाद के गुलाम।
सोिवयत संघ जनवाद के क र िहमायती उ प न कर रहा था। रा ीयता को वे भयानक
और घण ृ ा पद समझते थे। सोिवयत संघ त ण को अ तरा ीयता क दी ा दे रहा था। वह िव
के जनवादी युवक-संघ के साथ स ब ध थािपत करने के िलए उ मुख था। सोिवयत त ण हर
तरह यह उ ोग कर रहे थे िक संसार के जनवादी त ण एक ह और उनक एकता फौलादी
एकता है।
सम त संसार म गितशील आ दोलन पर सोिवयत त ण के जीवन और संघष का भारी
भाव पड़ रहा था–उनके उ कृ गुण, त लीनता, उ े य क पिव ता सभी देश के त ण के
िलए आदश बनती जा रही थी। उनका सहयोग और ा त स मुख रखकर संसार के
गितशील त ण जनवाद के ित स मान तथा सा ा यवाद के ित ती घण ृ ा करना सीख रहे
थे।
भारत म भी, येक शहर म ऐसे सा यवादी दल बनते जा रहे थे। सरकार क उन पर कड़ी
नज़र थी। सा यवादी होना अ य अपराध–राज ोह जैसी व तु मानी जा रही थी। पर तु संसार-
भर म राज ोह क प रपाटी ही चल गई थी। और गितशील त ण अपनी मनमानी करते ही थे–
न फाँसी से डरते थे, न जेल से। वा तव म वे अब सरकार के भय क व तु बन चुके थे।
सुशील डा टर का दूसरा बेटा था, और स चे अथ म सबसे बड़ा बेटा। क र सा यवादी था।
राजनीित और अथशा म एम. ए. करके वह अब कह कोई नौकरी या यवसाय करने क
अपे ा मज़दूर के संघ म भाषण देने, उ ह हड़ताल के िलए उ ेिजत करने और पँज ू ीपितय का
िवरोध- दशन करने म ही अिधक समय यतीत करता था। उनके संगी-सािथय म अनेक त ण
और त िणयाँ थ पर तु वह सबका नेता था–वह एक स प न और िति त घराने का त ण
था। उ चिश ा ा था। मेधावी,सिह णु तथा ि याशील था। उसका पतला-दुबला शरीर, पतले
संपुिटत ओ , छोटे िक तु योितमय ने , बढ़ा हआ म तक, िबखरे हए बाल, लापरवाही से पहने
हए कपड़े सब िमलाकर उसके यि व म आकषण उ प न कर देते थे। उसे देखते ही भान होने
लगता था िक यह एक ऐसा त ण है िजसे अपने ऊपर गहरा िव ास हो।
िशिशरकुमार क विृ सबसे िनराली थी। वह अभी केवल इ क स वष का त ण था, पर
अ य त ग भीर, एका ति य और अ पभाषी। वह बहत कम कहते देखा जाता था–पर ऐसा
मालम ू होता था जैसे घर-भर म सब कोई उससे डरते थे, यहाँ तक िक िपता भी। वह कभी सारे
िदन दरवाज़ा ब द करके अपनी कोठरी म पड़ा रहता था। कुछ िलखता-पढ़ता रहता। कभी-कभी
किवता भी करता। गाँधी-दशन उसके अ ययन क ि य व तु थी। गाँधीजी से वह ाय: प -
यवहार करता। एक बार तो उसका इरादा गांधीजी के आ म म जाकर रहने का भी हो गया था।
पर अ णादेवी क आँख के आँसू देखकर क गया। वह इस समय एम. ए. फाइनल म पढ़ रहा
था। शरीर का वह भी दुबला-पतला था। चेहरा वैसा सु दर न था, पर आकषण था। बिहन क णा
से उसक बहत पटती थी। दोन बहधा बहस करते-करते ती हो जाते। पर िफर क णा के हँसते
ही िशिशर के ह ठ पर भी हा य फै ल जाता। क णा को उसका बहत याल रहता। वही य न से
उसके खाने-पीने का यान रखती। िशिशर अपने म बहत ही लापरवाह था–कपड़े -ल क भी
कुछ परवाह न करता। उसका कमरा सदैव अ त- य त रहता; पर क णा सदैव य न से उसे
यवि थत करती थी। िशिशर भी क णा को बहत यार करता था। जब कभी भी वह बाहर से
आता, क णा के िलए कुछ न कुछ अव य ही लाता था।
बहधा वह उपवास करता। कभी-कभी मौन भी। कभी वह केवल नमक डालकर मोटी रोटी
खाता–कभी उबली तरकारी वा य और संयम के नाम पर। वह अपने िपता क राय से भी
बढ़कर गाँधीजी को ही माण मानता था। डा. अमत ृ राय उसे गाँधी बाबा कहते और हँसी उड़ाते थे,
पर वह इस बात से नाराज़ नह होता था। तब डा टर के अनुरोध से उसने एक बात अव य क थी
िक उसने कां ेस म सि य भाग नह िलया था। उसने िपता को वचन िदया था िक िव ाथ
जीवन म राजनीित म नह पडे ़गा। राजनीित का वह िव ाथ था और िव राजनीित म वह गहरी
िदलच पी ले रहा था।
वह महायु क वालाओं से धधकते हए संसार को देख चुका था। उसका भावुक कोमल
दय उससे भािवत था। और अब िकस तरह रा टूट-फूट रहे थे, देश-देशा तर क रे खाएँ
उलट-पुलट हो रही थ । भारत म समाज, धम, राजनीित और सं कृित म जो ाि तकारी प रवतन
हो रहे थे, उ ह वह देख और समझ रहा था। गाँधीजी के िवचार का वह मनन करता था, और
चुपचाप संयम और तप के जीवन को अपनाता जा रहा था। वह चाहता था िक िश ा समा करके
वह िकसी प का स पादन करे । प का रता क ओर उसक अिभ िच बहत थी। उसका लगभग
सारा ही फालतू समय सामियक प के पठन-पाठन म जाता था। बीच-बीच म वह कुछ लेख भी
िलखता था। उसके लेख और किवताओं क सव थम शंसक और समथक थी क णा। क णा
को सुनाकर ही वह लेख प म भेजा करता था। पर ऐसा बहत कम होता था। वा तव म उसके
बहत-से लेख तो उसी क फाइल म पड़े रहते थे। किवताओं का भी यह हाल था। एका त म वह
गुनगुनाता, पर तु दूसरे के सामने पढ़ने से झपता था। क णा उसक किवताओं को बडे ़ चाव से
स वर पढ़ती, तो वह बहत खुश होता था। क णा के मँुह से अपनी किवता क शंसा सुनकर
वह गव म फूल उठता। कभी-कभी वह ना-ना करता ही रहता और क णा उसक किवता क
कापी लेकर उसक नई किवता माँ को सुनाने के िलए माँ के पास भाग जाती।
क णा उ नीस को पार कर गई थी। वह िचिक सा-िव ान पढ़ रही थी। वह बहत
स निच , फुत ली और चैत य लड़क थी। यार तो वह य सभी भाइय को करती थी, पर
िशिशर पर उसक अिभ िच थी। उसे वह एक िनरीह-असहाय-सा समझकर जैसे कह से क णा
क छोर उस पर डालती थी। िदलीप से वह डरती थी, पर बहस डटकर करती थी। िदलीप क
क रता क वह बहधा िख ली उड़ाती थी। उसक आलोचना बहधा तीखी हो जाती थी। वह कहती,
डूबने दो इस िह दूधम क नैया, इसका तो बेड़ा ही गक होगा। न जाने इसने िकतने पाप िकए ह।
और सब एक ओर रह–केवल ि य के आँसुओ ं के समु म ही वह डूब जाएगा। वह िदलीप को
िचढ़ाती भी थी। यं य भी कसती थी। स ची बात तो यह थी िक िदलीप क कोई बात भी उसे
पस द न थी। उसे वह ढ गी, प गाप थी कहती थी। कभी कहती, ‘‘भैया, तुम घोड़े पर सवार तो
हो, पर मँुह तु हारा उसक दुम क ओर है। तुम िढ़वादी हो, गितशील नह हो।’’ इस पर िदलीप
कहता, ‘‘जा, जा, अपने मढक और खरगोश को चीर। मेरे मँुह न लग। वा मीिक और यास को
तू या समझेगी! िह दूधम क िफलासफ –’’ पर इस पर क णा कहती, रहने दो भैया अपनी
िफलासफ , मुझे गुलाम क िफलासफ से नफरत है। िफर, म िफलासफ पर िव ास नह करती
—िव ान पर करती हँ, तु हारी यह िफलासफ कोरा ढकोसला है, महज़ याली पुलाव।’’
िदलीप गु से हो जाता, क णा हँस देती और मैदान छोड़कर भाग जाती। िफर माँ से आ ह
करके कुछ िमठाई लाकर भाई को देती। िदलीप कहता, ‘‘ले जा, नह चािहए मुझे।’’ तो क णा
कहती, ‘‘ज़रा-सी खा लो भैया, बहत कड़आ हो गया है तु हारा मुंह—खट से मीठा हो जाएगा।’’
और साथ ही उसक मादक मु कान,उ वल ि देखकर िदलीप हँस पड़ता। बिहन-भाई म
सुलह हो जाती थी।
सुशील के साथ बहस करने म िशिशर भी बिहन के दल म आ िमलता। पर तु सुशील शी
ही आवेश म आकर नाटक य ढं ग से मेज पर घँस ू ा मार-मारकर और ज़ोर-ज़ोर से िच लाकर
अपने क युिन ट िवचार को कट करता। बुजुग को कोसता। मज़दूर के अितरं िजत िच
ख चता। पँज ू ीपितय क िम ी पलीत करता। उसे उ ेिजत करने म क णा को मज़ा आता था।
उ ेिजत होकर बहस करते-करते सुशील तेज़ी से बाहर भाग खड़ा होता था। तब मैदान िशिशर
और क णा के हाथ रहता। दोन िखल-िखलाकर हँसते और िफर या तो िशिशर एक किवता
सुनाता था, या क णा कोई गीत गाती, बहधा इसी समय कोई िप चर देखने का भी ो ाम बन
जाता था।
यह तो मानना ही पड़े गा िक डा टर अमत ृ राय ने ब च को बहत वाधीनता दे रखी थी।
इसी से उनके मौिलक िवचार पनप गए थे और डा टर का घर अ तरा ीय िवचारधाराओं का एक
अखाड़ा हो गया था। डा टर एक शा त कृित के यवसायी पु ष थे। उ ह अपने यवसाय से ही
फुसत नह िमलती थी। िफर ब च क िवचारधारा नैसिगक प से िवकिसत हो, इसम वे बाधा
देना पस द भी नह करते थे। इसी से इस त ण पीढ़ी म ये िभ न-िभ न रं ग िखले। िफर भी एक
बात थी। सभी भाई-बिहन आपस म ेम से रहते थे। िवचार क िभ नता ने उनके िदल म अ तर
नह डाला था।
अ णादेवी रात-िदन एक तपि वनी कमठ गिृ हणी क भाँित घर-गहृ थी म लगी रहत ।
ब च से वे यार करत । डाँट-डपट करना उनके वभाव म न था। सभी ब चे त ण हो गए थे,
समझदार हो गए थे–पर अ णा का यवहार तो उनसे वैसा ही था। और सुिशि त त ण बालक
भी माँ क गोद म बैठकर छोटे िशशु के समान ही उनक आ ाका रता और अधीनता म स न
होते थे। इस कार इस प रवार क गाड़ी आगे बढ़ी चली जा रही थी। यह एक नए युग का नया
प रवार था, िजसका सारा ढाँचा ही पुराने युग से िभ न, एक नए प म िवकिसत हआ था।

15
कोई एक योिगराज शहर म आए हए थे। शहर म उनक चचा खबू धम
ू धाम से थी। बहत-से
पढ़े -िलखे मख ू उनके च कर म फँसे थे। उनके िवषय म अनेक बात िस हो गई थ –उनक
आयु कई सौ वष क है; केवल पवन-भ ण करते ह; चाहे जो िवष खा लेते ह, उनका कुछ नह
िबगड़ता; कभी-कभी महीन सोते नह । एक समय म अनेक थान म देखे जा सकते ह; सव
ह; बात करते-करते लोप हो जाते ह, चाहे जब बालकृ ण का प धारण करके लोग को दशन
देते ह, आिद-आिद। पर तु इन सब गुण का तो केवल बखान ही होता था–उसम और एक गुण था
िजसके िलए लोग उनके पीछे िचपके रहते थे। वह गुण था क िमयािगरी का। आमतौर पर िस
था िक वे तुर त सोना बना लेते ह और लोग को सोने क डिलयाँ बाँटते ह। य िप ऐसा कोई
गवाह न था िजसे कोई डली दी गई हो।
योिगराज ने जमना-तट पर िनगमबोध पर आसन जमाया था। पर नगर म आने, सवा रय
का शौक करने म कोई उ न था। लोग क मनोकामना क पिू त करना उनका त था। इसी
त को पालन करने के िलए वे िकसी क मनोकामना िवफल नह करते थे। य िप योिगराज
केवल पवन-भ ण करके ही रह सकते थे–महीन , वष , पर लोग मेवा, रबड़ी, खोया, िमठाई,
फल, दूध, पकवान ले आते थे। उनक मनोकामना ही यह होती थी िक भगवान् भोग लगाएँ । इसी
से योिगराज, ‘‘भ , तेरी ऐसी ही मनोकामना है तो ला’’, कहकर हँसते-हँसते सब माल चट कर
जाते–जो बच रहता उसे चेले-चाँटे साफ करते थे, जो हरदम उ ह घेरे रहते थे।
म दी का ज़माना था। हज़ार -लाख लोग बेकार िफरते थे। उन सबके िलए योिगराज एक
िदलच प आ य बन गए थे। जब वे नगर म आते, दस-बीस जन उ ह घेरे ही रहते थे। ये जन कोरे
िभखमंगे—भु कड़, मख ू और आवारा ही न होते थे–वक ल, बै र टर, ोफेसर और अ य
ग यमा य पु ष भी होते थे। अिधकांश को क िमयािगरी क ही चाट होती थी। वे आशा करते थे
िक शायद कोई लटका हाथ आ जाए।
िदलीप भी उनम एक था। कहना चािहए, भ म उसी का न बर थम था। बहत थम से
वह िन य ात:काल ज द उठकर िनगमबोध पर जाता, कसरत करता, नान-पज ू ा करता,
रा ीय संघ के दल म िमलकर समाज जुड़ाता, कभी-कभी मीिटंग होती। पव- यौहार पर
वयंसेवक दल को लेकर वह जनसेवा करता, वह वयंसेवक दल का क ान था। बहधा वह
आधा िदन बीत जाने पर घाट से घर आता। पर तु अब तो वह रातभर योिगराज क सेवा म रहने
लगा।
इन िदन अ णादेवी कुछ अ व थ रहती थ । काफ कमज़ोर हो गई थ । एक िदन अचानक
ात:काल िदलीप योिगराज को घर ले आया। सारे घर म धम ू मच गई। योिगराज को बैठक म
बैठाकर वह माँ के पास आकर बोला, ‘‘माँ, योिगराज आए ह। वे तु ह ि मा से अ छा कर दगे।
बुलाता हँ। ज़रा ठीक-ठाक होकर बैठो।’’ उसने कमरे म इधर-उधर ि डाली।
अ णा को यह सब पाख ड पस द नह था। उसने कहा, ‘‘उ ह य ले आया तू पागल!
जा, जा, कुछ िखला-िपलाकर िवदा कर; यहाँ लाने का कोई काम नह है।’’
‘‘काम य नह है, माँ, वे एक ि से तु ह चंगा कर दगे।’’
‘‘चल रहने दे, ऐसे पाख ड बहत देखे ह मने, एक ि से रोग चंगा कर दगे! और तेरे
िपता जो इतने बड़े डा टर ह, सो य ही।
‘‘डा टरी क बात दूसरी है माँ, योगिव ा तो चम कार है।’’
‘‘तो तू ही उस चम कार से लाभ उठा।’’
‘‘नह , माँ, एक िमनट के िलए उ ह ले आने दो, देखो तो, अभी तुम चंगी हो जाओगी।’’
‘‘पागल हो गया है तू िदलीप!’’
‘‘पागल ही सही। अब तो म उ ह ले ही आया हँ।’’
‘‘तू एक ही िज़ ी है। िकसी क सुनेगा थोड़े ही। जो तेरे जी म आए सो कर।’’ अ णा करवट
बदलकर पड़ रही।
िदलीप ने क णा को पुकारकर कहा–
‘‘क णा, तिनक यहाँ आकर बैठो, माँ के पास, योिगराज को लाता हँ।’’
योिगराज ने कमरे म पदापण िकया। आयु कोई तीस साल। काली घँुघराली बलदार लटकती
लट सुगि धत तेल से तर, रे शमी धोती और िस क कुता, कैनवास का जत ू ा, चाँदी क मँठ
ू का
बत। आँख म सुरमा, लीनशे ड, फूल के गजरे से लदे हए।
िदलीप के संग सुशील भी था। क णा पहले ही वहाँ थी। योिगराज ने एक ि म
अ णादेवी को आरो य िकया या नह –यह तो नह कहा जा सकता, पर तु अ णादेवी ने एक ही
ि म योिगराज को पहचान िलया। वे बड़ी देर तक आँख फाड़कर योिगराज को कुछ देर देखती
रह । पर तु मँुह से कुछ बोली नह ।
सुशील ने अब योिगराज को बनाना शु िकया। वह इन पाखंिडय का बल िवरोधी था।
पहले ही वह इनक मिहमा सुन चुका था। अब उनके यह ठाठ देखकर तो वह जैसे जल-भुनकर
खाक हो गया। उसने नाटक य ढं ग से महा माजी को अ य त झुककर णाम िकया। उसका यह
ढं ग देख क णा मँुह फेरकर हँसने लगी।
सुशील ने बड़ी शालीनता से हाथ जोड़कर पछ ू ा, ‘‘कहाँ से आगमन हो रहा है महाराज?’’
‘‘हम तो मानसरोवर से आ रहे ह।’’
‘‘अहा हा! मानसरोवर, भला हम-से जीव को कहाँ नसीब! िकतने िदन िनवास रहा वहाँ
महाराज का?’’
‘‘कैसे कह? कुछ िहसाब तो रखा नह । डे ढ़ सौ बरस भी हो सकता है, कुछ कम भी,
अिधक भी।’’
सुशील ने अब आ य से आँख फाड़कर आ य और भि क भावना-भंगी िदखाते हए
कहा, ‘‘ध य ह, महाराज क आयु अब या होगी?’’
योिगराज हँस िदए। बोले, ‘‘आयु क बात योिगराज नह बताते ह ब चा!’’
सुशील ने कहा, ‘‘ब चा हँ आपका, मुझे तो बता ही दीिजए।’’
‘‘अ छा, अ छा, िफर कभी पछ ू ना। तु ह बता दगे। सबके सामने कहने क बात नह है।’’
‘‘जैसी आ ा–बाल म आप कौन-सा हे अर अॉयल काम म लाते ह? बड़ी ही यारी ग ध
है!’’
‘‘हमने इधर तो पचास-साठ साल से बाल म तेल िदया ही नह ।’’
‘‘पर तु महाराज, बाल तो तेल से एकदम तर-ब-तर ह।
‘‘हाँ आँ, यह रह य, भैया, तुम समझ न सकोगे। हम जब ाणायाम कर ाण को ऊ व
आवाहन कर र म करते ह, तो उससे बाल वयं मि त क क चब ख चने लगते ह–
उसी से तु ह हमारे बाल िचकने-िचकने िदखते ह।’’
‘‘चम कार है महाराज! और इनम जैसोिमन, वरबीना, िसटरन के एसे स क लपट उठ-
उठकर जो बरबस नाक म घुसी आ रही है सो?’’
योिगराज तिनक हत भ हए। अब तक अ णादेवी चुपचाप यह तमाशा देख रही थ –क णा
सब देख-सुनकर मु करा रही थी।
अब एकाएक अ णा ने कहा, ‘‘ यादा तंग न कर सुशील’’, िफर योिगराज को स बोधन
करके कहा, ‘‘घर म तो सब कुशल है भैया, माताजी ह न, बहत िदन से देखा नह ।’’
योिगराज क बोलती ब द हो गई। वे एकटक अ णादेवी को देखते हए बोले, ‘‘तो या
आप...’’
‘‘तु ह म भल ू जाऊँगी भैया? गोद म मने ही न तु ह िखलाया था। भल ू गए–राय
माधोदास...तु हारे कान कौन ऐंठता था–बताओ भला।’’ अ णा सरल भाव से हँस दी। योिगराज
ने तुर त उठकर अ णादेवी के चरण को पश कर णाम िकया।
‘‘पहचान गया दीदी, माँ तो आपको िन य ही याद करती रहती ह। पर, आप जो वहाँ से आई ं
तो िफर उधर का ख ही नह िकया। आपके कान ख चने को म कैसे भल ू सकता हँ। म भी तो
आपक नाक ख चता था।’’ योिगराज खुलकर हँस िदए।
‘‘अ छी तो ह माताजी?’’
‘‘कहाँ, दमे क बीमारी ने खोखला कर िदया है। उ भी तो िखंच गई है।’’
‘‘मकान वही है?’’
‘‘न, वह तो िपताजी रहन रख गए थे। तभी िबक गया था। िकराए के मकान म ह।’’
‘‘लिलता तो अब बहत बड़ी हो गई होगी।’’
‘‘बी. ए. फाइनल िकया है।’’
‘‘ याह हआ?’’
‘‘कहाँ? उसी क िच ता म तो माँ घुल रही है। खच का ब दोब त ही नह होता–इसी से तो
यह पाख ड करना पड़ा।’’
‘‘भला इतना पाख ड य िकया? भले घर के लड़के होकर?’’
‘‘तो ये भले घर के लड़के िबना पाख ड थोड़े ही बस म आते ह।’’
िदलीप हैरान था। वह कुछ समझ ही नह पा रहा था। उसे योिगराज पर गु सा भी कम न
था। सुशील मु करा रहा था। अब उसने और भी बनकर कहा, ‘‘तो महा माजी, आजकल आप
पवन ही भ ण करते ह या और भी कुछ?’’ योिगराज ने िबना झपे और भी बनकर कहा, ‘‘नह
ब चा, हम तो भ क मनोकामना पण ू करने को सब कुछ पा लेते ह। सबके मन क जानते ह।
घट-घट यापक ह हम ब चा!’’
‘‘स य वचन महाराज, तो बताइए–इस समय हमारी या मनोकामना है?’’
‘‘यही िक तुम हम टो ट, म खन, चाय, दालमोठ, नमक न, िमठाई का भोग लगाना
चाहते हो; सो ब चा शा म िलखा है, शुभ य शी म्, अब िवल ब य ?’’ क णा
िखलिखलाकर हँस पड़ी।
सुशील ने कहा, ‘‘ले आ क णा, महा माजी आज मनोकामना पण ू करने पर तुले बैठे ह।
देर करे गी तो मार बैठगे।’’
क णा ने हँसते-हँसते कहा, “लेिकन एक बात बतलाइए।” िक तु अ णादेवी ने बाधा
देकर कहा, ‘‘पहले चाय ले आ तब बात पछ ू ना।’’
‘‘नह , पहले पछ ू ू ँ गी।’’
‘‘पछू बिहन’’, योिगराज ने नेह-िमि त वर म कहा।
‘‘मैने सुना था िक आप बालकृ ण का प धारण करते ह। बहत ने आपके बालकृ ण प
म दशन िकए ह–सो या बात है भला, बताइए, आप पर काश भी नह पड़ता।’’
‘‘बहत साधारण बात है। म एक गैस का हंडा मँगाकर बीच म रख लेता हँ। भ गण
चम कार देखने उसके चार ओर बैठ जाते ह। सबक नज़र मेरे ऊपर रहती है। बालकृ ण का वेष
म धारण पहले ही कर लेता हँ। लोग से रोशनी तेज़ करने को कहता हँ। एक-दो आदमी ह डे म
हवा प प करते ह। रोशनी तेज़ होती है। सबक आँख वाभािवकतया ही ह डे पर जम जाती ह। म
बराबर तेज़-तेज़ और तेज़ कहता रहता हँ। वे हवा प प करते रहते ह। एकाएक म कहता हँ—
देखो। तेज काश के बाद आँख मुझ पर उठ जाती ह। काश के बाद एकदम देखने से वे मुझे
कुछ छोटा तथा अँधेरे म देखते ह। ऐसा होना वाभािवक ही है। बस, यही वह चम कार है।’’
‘‘बड़ी चालाक करते ह आप!’’ क णा ने कहा।
‘‘लेिकन यह इतनी-सी बात ये पढ़े -िलखे भ दू नह समझ सकते।’’
माता का संकेत पाकर क णा चाय लेने चली गई। अ णा ने हँसकर िदलीप से कहा–
‘‘िदलीप, तेरे योिगराज ने एक ही ि म मुझे अ छा कर िदया भैया!’’
िदलीप बहत झप रहा था। योिगराज पर उसे गु सा आ रहा था। पर योिगराज ने उसे
ख चकर छाती से लगा िलया। इसके बाद उस प रवार म िमलकर खबू चाय-टो ट उड़ाकर
योिगराज अपने आ म को गए।

16
राय राधाकृ ण कानपुर म िै टस करते थे। म त जीव थे। दबंग भी परू े थे। अदालत म
उनक धाक थी। उ ह पहले तो डा टर अमत ृ राय का िववाह क वीकृित का प िमला, पीछे
इ कारी का। उसम केवल इतना ही िलखा था–‘‘म मजबरू हो गया–और शिम दा भी हँ–पर तु
आप मा कर दगे ऐसी आशा है।’’ प पढ़कर रायसाहब ज़रा िच ता म पड़ गए। पर तु उ ह ने
तुर त ही अपना मन ि थर कर िलया। उसी शाम को उ ह ने अपनी पु ी माया को बुलाकर कहा,
‘‘कल शिनवार है, कोट आधे ही िदन का है। मुझे कुछ ऐसा काम भी नह है–बस एक घ टे म आ
जाऊँगा। हम लोग दो बजे क गाड़ी से ज़रा िद ली चलगे। सब ठीक-ठाक कर रखना।‘
‘‘हम लोग कौन?’’ माया ने हँसकर कहा।
‘‘म और त।ू ’’ रायसाहब ने भी हँसकर जवाब िदया।
‘‘ममी नह ?’’
‘‘न, जानती है तीन िटकट खरीदने पड़गे उसके िलए।’’
‘‘तीन य ?’’
‘‘देखती नह , तीन आदिमय के बराबर वज़न है उसका। आजकल चैिकंग िकतना स त
है।’’
‘‘और मेरा शायद आधा िटकट लगेगा।’’
‘‘तभी तो तुझे ले जा रहा हँ, तेरा कह कोई एं गेजमट तो नह है इस इतवार को?’’
‘‘है य नह , इसी इतवार को हम लोग लखनऊ जा रहे थे।’’
‘‘हम लोग, कौन?’’
‘‘मेरी सहे िलयाँ ह कॉलेज क ।’’
‘‘कुछ खास मतलब था?’’
‘‘य ही, अमीनाबाद म एक चाटवाला बैठता है बाबज ू ी, बहत बिढ़या मटर क चाट बनाता
है। मटर म न बू िनचोड़ता जाता है–और ऐसा मँुह बनाता है जैसे अपने मँुह म नीबू िनचोड़ रहा हो।
बस, ज़रा उसक मटर क चाट खानी थी।’’
‘‘बस?’’
‘‘एक िप चर भी बिढ़या लग रही है।’’
‘‘जाने दे उसे, अगले इतवार देखना। अभी िद ली चल, तुझे बहत बिढ़या कचालू क चाट
िखलाऊँगा।”
‘‘िद ली कोई काम है या बाबज ू ी?’’
‘‘काम कुछ ऐसा नह है, ज़रा डा टर साहब से िमलना चाहता था, खत आया है उनका।’’
उ ह ने पतलन ू क दोन जेब टटोल और खत माया के सामने फक िदया।
खत पर सरसरी नज़र डालकर माया ने कहा, ‘‘डा टर साहब क अब खुशामद करनी
होगी हम बाबज ू ी?’’ उसके तेवर पर बल पड़ गए।
रायसाहब हँस िदए। उ ह ने कहा, ‘‘बेटी का बाप हँ बेटी, िबना खुशामद िकए तो इस घर से
तुझे धकेलना मुि कल है।’’
‘‘तो आप जाइए, मुझसे यह न होगा।’’
‘‘तुझे कुछ नह करना पड़े गा। बस तमाशा देखना होगा।’’
‘‘मुझे तमाशा भी नह देखना।”
रायसाहब हँस िदए। उ हाने कहा, ‘‘असल बात यह है बेटी, म ज़रा साहबज़ादे का िमज़ाज
तोलना चाहता हँ। हाँ कहकर उ ह ने न कह दी। डा टर बहत भले ह—देखँ ू तो मामला या है।
िफर एक बार िदलीप से तू भी बात कर, उसका रं ग-ढं ग तो देख। बड़ा भारी ‘आथ डा स‘
(धमपरायण) है। मगर उसक बहस बड़ी यारी होती है।’’
‘‘ममी को ले जाइए बाबज ू ी।’’
‘‘ममी को ले जाकर या क ँ गा, बोल? राह म कह िदल का दौरा हो गया तो? िफर मेरी
खटपट तेरे िबना कौन करे गा–बता। तेरे बाबज ू ी का काम तो तेरे िबना एक िमनट नह चल
सकता।’’
‘‘तो िफर मुझे धकेलकर िनकाल बाहर करने के िलए आप काहे को दुिनया क खुशामद
करते ह?’’
‘‘राशन का ज़माना है बेटी, पुराने ज़माने म जब सब चीज़ स ती थ तब भी बेटी िकसी बाप
के घर नह खपी—और अब तो पए का पौने दो सेर गेहँ िमलता है। देखती है न?’’
“देखती हँ, पहले क बेिटयाँ खाती भी तो थ मन-भर, म तो ज़रा-सा खाती हँ!’’
‘‘वह भी मेरे बत ू े का नह बेटी, तुझे तो धकेलकर िनकाल बाहर करना ही होगा।’’
रायसाहब हँसते-हँसते रो पडे ़। बेटी को ख चकर उ ह ने छाती से लगा िलया। िवरोध सारा ख म
हो गया। माया ने कहा–
‘‘म सब ठीक कर लँग ू ी बाबज ू ी। लेिकन लौटगे कब?’’
‘‘बस, इतवार क रात को।’’
‘‘तो चाय ले आऊँ?’’
‘‘ले आ।’’ लेिकन ज़रा एक तार िलखकर केशव को टेशन भेज दे। तार म इतना ही
िलखना—हम लोग आ रहे ह। एक नया टाइम-टेिबल भी ले आएगा।
‘‘अ छा।’’
माया क ममी का नाम था कुमुदे रीदेवी। सीधे िमज़ाज क सरमना ी थी। मोटी बहत थी
और राय साहब सदैव उसका मज़ाक उड़ाया करते थे। इस िवलायती प रवार म वही एक आदश
िह दू रमणी थी। पित-पु ी के साथ िवलायत जाकर भी उ ह ने अपनी िन ा को छोड़ा नह था।
तीथ, त, उपवास, दान, कथा–सभी चलता था। पुजारी रोज़ आकर उ ह जब तक ठाकुर का
चरणामत ृ नह दे जाता था, वे अ न हण नह करती थ । पु ी उनक इकलौती ही थी। माया के
बाद पु हआ। िक तु वह नौ वष का होकर दगा दे गया। तब से मु नी माया पर उसका दूना मोह
हो गया था। माया के याह क बड़ी िच ता थी। पुराने िवचार क होने पर भी उसने कभी भी बेटी
के वत जीवन, नए िवचार का िवरोध नह िकया। जब सुना िक िपता-पु ी िद ली जा रहे ह
तो उसे स नता भी हई, स तोष भी हआ। उसने हँसती आँख से बेटी को देखकर कहा, ‘‘बेटी,
नादान नह हो तुम, समझदारी से बात करना। याह से पहले ससुराल जाना हमारे खानदान म
नई बात ह, पर खैर, नए ज़माने म सभी नई बात हो रही ह। िदलीप अ छा लड़का है, परू ा
धमा मा। म देख चुक हँ उसे। यह घड़ी मेरी ओर से देना उसे। और मेरा बहत-बहत आशीवाद
कहना।’’
उसने बेटी को बहत-बहत आशीवाद िदया। लाड़ िकया, जैसे वह छोटी-सी ब ची ससुराल जा
रही हो।
डा टर तार पाकर घबरा गए। अब या कर? कैसे रायसाहब के सामने जाएँ ? पर तु
रायसाहब के सामने आते ही उनका सब संकोच दूर हो गया। रायसाहब ने उनका हँसकर
आिलंगन िकया। माया ने झुककर चरण-रज ली। िफर रायसाहब ने हँसते-हँसते कहा, “देखता
हँ–साहबज़ादे पर कुछ गहरा रं ग चढ़ा है।’’
‘‘ या कहँ, आपके सामने शिम दा होना पड़ा। एक ही िज़ ी लड़का है।’’
‘‘यही तो देखने आया हँ। पर इसम शिम दा होने क या बात है! मने सोचा, माया भी चले
तो अ छा है।’’
‘‘िबिटया को ले आए बहत अ छा िकया।’’ उ ह ने पा रजात पु प क भाँित शोभायमान
माया पर एक नज़र डाली। उसके मन म एक ची कार उठा– या कैसे प-गुण क खान सुशीला
प नी को िदलीप इ कार कर देगा? िफर तुर त ही िदलीप के ज म का रह य उनके पटल पर
अंिकत हो गया। भय से उनका दय काँप गया। वे सोचने लगे–यह तो इतनी बड़ी वंचना है
िक...पर तु संभवत: वह याह तो होगा ही नह ।
सब लोग घर आए। अ णादेवी ने माया को उठाकर गोद म िबठा िलया। क णा तो खुशी से
नाचने लगी। घर-भर म उ सव-सा मच गया। क णा दौड़ी-दौड़ी गई िदलीप के कमरे म। वह कह
बाहर से आकर कपडे ़ उतार रहा था। उसने कहा–‘‘भैया, भाभी आई ह, पता है तु ह?’’
‘‘कौन भाभी?’’
‘‘अरे वही कानपुरवाली, और कौन–बड़ी भाभी।’’
‘‘जा भाग, बकवास न कर।’’
क णा ने हँसते-हँसते कहा, ‘‘अ छा चलो, देखना चाहो तो म अभी िदखला सकती हँ–माँ
के पास बैठी ह।’’
िदलीप ने क णा को बाहर धकेलकर कमरा भीतर से ब द कर िलया। पर क णा का
उ साह म द न पड़ा। वह सुशील के पास जाकर बोली–‘‘सुशील भैया, भाभी आई ह, देखोगे?”
सुशील मु कराकर रह गया। उसने कहा, ‘‘बड़े भैया को िदखा। म देखकर या क ँ गा?’’
‘‘बडे ़ भैया ने तो सुनकर मुझे ध का देकर कमरे से िनकाल िदया और कमरा भीतर से
ब द कर िलया।’’
सुशील हँसने लगा। उसने कहा–‘‘महा माजी जो ठहरे , पर िफ न कर, कमरा िफर खुल
जाएगा। तब तक तू जाकर भाभी क खबू खाितरतवाज़ो कर। वे लोग इं लड- रटन ह–तुझे कह
गँवार का िखताब न दे बैठ।’’
‘‘तो हज या है–भाभी जब मेरे पास रहगी, तब म गँवार थोडे ़ ही रहँगी। क चड बन
जाऊँगी।’’
वह हँसती हई भाग गई।

17
डा टर ने सब बात साफ-साफ प श द म रायसाहब को कह द । उ ह ने यह भी कहा,
‘‘माया जैसी बह को पाकर हम दोन –म और मेरी प नी–ध य ह गे। पर तु जब तक िदलीप
िवरोध करता है, म लाचार हँ। ज़बद ती तो करना ठीक नह है।’’
रायसाहब ने वयं िदलीप से बात क । िपता क आ ा से आकर िदलीप ने रायसाहब को
माण िकया। रायसाहब ने उठकर उसे छाती से लगाकर कहा–
‘‘आओ, बेटे, म तुमसे साफ-साफ बात करना चाहता हँ। िदल खोलकर बात करो। मेरा
अिभ ाय तो तु ह मालम ू ही है–अब कहो, तु ह आपि या है?’’
‘‘बाबज
ू ी, यह िस ा त का है।’’
‘‘कैसे िस ा त का?’’
‘‘म िह दू स यता का क र प पाती हँ। इसिलए म ऐसा कोई काम करना नह चाहता जो
मुझे िह दू आदश से िवचिलत करे ।’’
यह तो अ छा ही है, हम लोग िह दू ही तो ह। माया क माँ का तो कहना ही या? बड़ी
आथ डा स (धमा मा) ह। अपने धम, वंश और र का तो हम अिभमान होना ही चािहए।’’
‘‘बस यही बात है बाबजू ी, म साध-ू महा मा का जीवन यतीत करना नह चाहता, पर तु म
ऐसी प नी भी नह पस द करता िजसक िश ा-दी ा िह दू आदश के िवपरीत पि मी स यता
म हई हो।’’
‘‘पि मी स यता का भाव सवदा खराब ही रहता है, ऐसा तु हारा मत है?’’
“खराब-अ छा म कुछ नह कहता; पर दोन म परू ब-पि म का अ तर है?’’
‘‘तो इससे या! तुम सुबह पवू म मँुह करके सं या करते हो, शाम को पि म म।’’
‘‘पवू और पि म के िवचार, सं कृित, आचरण सभी म अ तर है। म पा ा य सं कृित से
घणृ ा करता हँ। म उन सब लोग से घण ृ ा करता हँ जो अपने धम, सं कृित और सामािजक जीवन
को छोड़कर पा ा य लोग क नकल करते ह।’’
‘‘इस कार घण ृ ा करना तो अ छी चीज़ नह है िदलीप, खासकर तुम जैसे सुिशि त युवक
को ऐसा नह करना चािहए। तुम जानते ही हो–मानव-जीवन के गुण-दोष, जो सामािजक
प रि थितय से उ प न होते ह। सभी जगह ह। िह दू सं कृित भी उससे मु नह ।’’
‘‘म तो बाबज ू ी, आपसे बहस करना ही नह चाहता हँ।’’
‘‘तुम यिद अपनी िह दू सं कृित को केवल यार करते हो तब तक तो बहस क बात नह
थी, पर जब तुम दूसर से घण ृ ा करते हो तब तो बहस करनी होगी। खासकर उस हालत म जबिक
िज ह तुम घण ृ ा करते हो वे तु ह यार कर।’’
‘‘बहस से कुछ लाभ न होगा।’’
‘‘ य नह होगा? या तुम िववेक युवक नह हो? गितशील नह हो? औिच य को
समझते ही नह ।’’
‘‘मने तो सभी बात पर िवचार कर िलया है।’’
‘‘तो भैया, जो लोग पा ा य सं कृित म रहते ह वे भी अपनी सं कृित का आदर करते ह।
मनु य का ऊपरी प ही तो सब कुछ नह है।’’
िदलीप ने अिव ास क हँसी हँसकर कहा, ‘‘हो सकता है। मने तो पहले ही कह िदया था
िक म बहस नह करता।’’
‘‘तुम चाहते या हो आिखर? िववाह तो तुम करोगे ही।’’
‘‘ज़ र क ँ गा, पर मेरा आदश सीता और सािव ी है। पा ा य जीवन म डूबी हई िकसी
लड़क से मेरी पटरी नह बैठ सकती। मेरा भी जीवन दु:खी होगा, उसका भी जीवन न होगा।
इस स ब ध म ज़ोर-जु म यथ है।’’
ज़ोर-जु म क बात म नह कहता। पर तुम यिद कहते हो िक शील, गुण, ेम और याग
क भावना उन लड़िकय म होती ही नह जो पा ा य जीवन म रहती ह, तो तु हारी भल ू है–
पहाड़ जैसी भल ू । या पा ा य जीवन मानवीय त व से एकदम रिहत है?’’
‘‘म तो ऐसा ही समझता हँ, बाबज ू ी!’’
‘‘और यह भी समझते हो िक तु हारे िह दू धम म सारी ही ि याँ सीता-सािव ी ह, जबिक
पा ा य समाज म सभी सपू नखा ह?’’
िदलीप ने जवाब नह िदया। उसने देखा–रायसाहब ु हो रहे ह। वह रायसाहब के सामने
अिवनय नह कर सकता था। वह देर तक मँुह नीचा िकए बैठा रहा। रायसाहब ने कहा, ‘‘जवाब
दो।’’
‘‘बाबजू ी, मुझे आप मा क िजए। म अिवनय नह कर सकता। पर म अपने िवचार से
लाचार हँ।’’
‘‘तो यह तु हारा अि तम िनणय है या कुछ सोच-िवचार भी करना चाहते हो?’’
‘‘जी सोचने जैसी तो कोई बात नह है।’’
‘‘ यि गत बात भी कुछ मह व रखती ह। मेरी माया पा ा य वातावरण म पली ज़ र है,
पर उसका जैसा शील, सदाचार है उस पर मुझे गव है।’’
‘‘हो सकता है, पर और तो कुछ बात ह बाबजू ी!’’
‘‘और या बात है?’’
‘‘सामािजक मयादा क । जात-िबरादरी क । म उन सबसे बाहर नह हो सकता।’’
‘‘ओफ, यहाँ तक?’’ राय साहब का चेहरा ोध से लाल हो गया। कुछ ठहरकर उ ह ने
उठते हए कहा, ‘‘अ छा, खुश रहो।’’ और वे कमरे से बाहर चले गए।

18
िदलीप को ऐसे तीत हआ जैसे िकसी ने बडे ़ ज़ोर से उसक पीठ पर चाबुक दे मारा। वह
ह का-ब का-सा खड़ा रह गया। जो बात उसके मँुह से िनकल गई उसको पीछे लौटाने का कोई
उपाय न था। उसने प ही देखा–बहत खराब, बहत ओछी बात वह कह गया है। एक भ पु ष
का उसने अपमान–घोर अपमान कर डाला है। राय राधाकृ ण साधारण आदमी न थे, बडे ़ भारी
िति त पु ष और नामी बै र टर थे; बुजुग थे। आकर उ ह ने िदलीप से बडे ़ ेम और ममता से
बात क थ । उनके साथ ऐसा अभ यवहार? िफर वे तो इस समय उसके िपता के थानाप न
स मा य अितिथ थे। िदलीप जैसे सुिशि त त ण को तो ऐसा न करना चािहए था। अपनी इतनी
बड़ी भल ू उसे न िदखे ऐसा अ धा तो वह था नह । वह एक गितशील त ण है। िवचार अव य
उसके ाचीनता के पोषक ह पर वह मढ़ ू नह है। और सब बात ठीक, पर जात-िबरादरी क बात
ऐसे भ े ढं ग से कह जाना–जबिक वह जानता था िक िवलायत जाने के कारण रायसाहब को
बहत िदन से िबरादरी ने युत िकया हआ है–बहत ही खराब बात हई। रायसाहब को सचमुच यह
बात आहत कर गई। उ ह िदलीप से इतनी संकुिचत विृ क आशा न थी।
पर तीर तो हाथ से छूट चुका था। अब या िकया जाए? बार-बार उसका मन होता था िक
वह दौड़कर जाए और रायसाहब से माफ माँग ले। पर यह भी उससे न बन पड़ा। वह सोचने लगा–
यह भी एक भ ा नाटक-सा हो जाएगा। वह य देखने लगा िक कैसे रायसाहब, जो ऐसे यार
और ममता से बात कर रहे थे, घण ृ ा से भरे हए उसके पास से लौट गए। चलती बार जो वे ‘खुश
रहो’ कह गए, वह उसे अपने िलए शुभाशीवाद नह , ऐसा तीत हआ िक यार करते-करते लात
उसक पीठ पर मारकर वे चले गए ह। उसी लात से पीिड़त-ममाहत वह त ण मेधावी युवक
िदलीप अपने उस सन ू े कमरे म बड़ी देर तक जड़ बना खड़ा रहा।
रायसाहब ने सं ेप म माया को प प से अपनी बातचीत का िन कष बता िदया। सदैव
का समु क भाँित हँसमुख उनका मँुह भरे हए बादल के समान ग भीर और भारी हो गया था,
यह माया से िछपा न रहा। मु कराकर बि क हँसते-हँसते ही उ हाने बेटी से िदलीप क बातचीत
का सारांश कहा, पर माया को यह साफ-साफ भास गया िक िदलीप ने उसके िपता का घोर
अपमान कर डाला है। और वह िवचार का चाहे जैसा है तथा िशि त भी चाहे िजतना है, पर स य
नह । िपता क सब बात सुनकर उसने अपना कुछ भी मत य नह िकया। सख ू े क ठ से उसने
कहा, ‘‘िकस गाड़ी से चलना होगा बाबज ू े क ठ से य ? इसिलए िक उसके आते ही
ू ी?’’ सख
िजस सरल-तरल मुख ने उसे ‘भाभी’ का ि य स बोधन िकया था, िजस सुखद मधुर विन ने उसे
यामोिहत िकया था, वह ‘भाभी’ स बोधन उसके अ तर म िव ूप करके हा-हा करके हँस उठा।
छी, छी! कैसी ल जा क बात है! अब वह कैसे क णा को आँख उठाकर देखेगी। और उसने यिद
िफर स बोिधत िकया तब?
पर तु इतना ही नह , अ णादेवी ने जो उसे माँ क ममता से अपनी छाती से लगाया था
सो? आज ही तो वह ितमा एक िसंहासन पर आ ढ़ हई, और आज ही युत हो गई। वाह री
िवड बना! वह सोचने लगी। उसका यहाँ इस भाँित आना–िकतनी खराब बात हई! पुराने िवचार
के लोग, जो र ते-स ब ध के मामला म आन मानते थे, वारे मढे ़ लड़िकयाँ ससुराल नह जा
पाती थ सो ही ठीक था। यह सब या हो गया भला! एक वा य, एक भाव, एक मिू त, एक
स ब ध, एक स बोधन, एक यार–उसके र -िब दुओ ं ने जो उसक चेतना पर अंिकत िकया
उसे वह अभी इसी ण कैसे धो-प छकर साफ कर दे! यह तो उसके बत ू े क बात ही नह है, अब
कैसे वह उस यार को, आदर को, ममता को, आ मीयता को सहन कर सकती है! उसका मन
हआ–इसी समय, इसी ण वह िकसी जादू के बल पर यहाँ से लोप हो जाए चुपचाप, िबना िकसी
के जाने चली जाए–सो ही अ छा है। और उसक अ तरा मा पर उस यार और मम व का जो भार
लद रहा था उसे वह वह िकसी तरह उतार फके। यह भी उसके बत ू े क बात नह है–इसी से
उसका क ठ- वर सख ू गया।
पर तु जीवन म पहली बार रायसाहब ने बेटी का वह सख ू ा क ठ- वर सुना। राय राधाकृ ण
क वह साधारण बेटी न थी। उनके ाण का स पण ू आवाहन उस कोमल, अमल, धवल, उ वल
आलोक- ितमा म था। वे जानते थे िक माया िकतनी स दय, भावुक और ितभा-स प न है।
आ मस मान भी उसका िकतना है। वे वयं भी बडे ़ मानधनी थे। अब जो मख ू िदलीप ने छोटे मँुह
बड़ी बात कह डाली सो इसम उनका अपना जो इतना अपमान हआ िजसके कारण रायसाहब एक
आहत यो ा क भाँित कराहकर िदलीप के पास से उठ आए, उसे तो वे िबलकुल ही भल ू गए। इस
समय तो उनक अपनी स पण ू चेतना माया के दु:ख से ओत- ोत हो गई। माया का वह सख ू ा
क ठ- वर सुनकर उ ह ने एक िनरीह असहाय-से होकर बेटी क ओर देखा, िफर कहा,‘‘गाड़ी
तो अब तीन बजे िमलेगी।‘ उ ह ने जेब से घड़ी िनकालकर देखी, िफर कहा, ‘‘अभी तो बारह ही
बजे ह।’’
‘‘ या अभी, इसी ण नह चला जा सकता बाबज ू ी?’’ माया ने खोखले वर म कहा।
‘‘नह बेटा, ऐसा कभी नह हो सकता। या कहगे डा टर? हम या उनसे नाराज़ होकर
यहाँ से जा सकते ह? नह , नह , ऐसा तो होना ही नह चािहए।’’
पर तु पु ी को िपता का दद िदख गया। उसने सख ू े ह ठ म हँसी भरकर-जैसे सारी वेदना,
सारे अपमान को एक ओर धकेलकर कहा, ‘‘आपने मुझे कचालू िखलाने का वादा िकया था।
चिलए, ज़रा देखँ ू कैसी होती है कचालू क चाट।’’
िपता तो पहले ही पु ी का सख ू ा क ठ- वर देख चुके थे। अब सख ू े ह ठ पर हँसी देखकर
उ हाने कहा, ‘‘हाँ, हाँ–लेिकन अभी नह , भोजन से िनबटकर, तीसरे पहर। अभी तू जा, क णा
से ग प उड़ा। म तब तक डा टर से थोड़ी बात कर लँ।ू ’’ वे मुड़कर जाने लगे।
माया ने कहा, ‘‘तो िफर आप शायद वह गाड़ी न पकड़ सकगे।’’
‘‘देखा जाएगा, म ज़रा बात तो कर लँ!ू ’’
और वह कभी न हारने वाला अजेय यो ा जैसे लड़खड़ाता हआ, बाहर िनकल गया। बेटी
का बाप होना भी कैसा दु सह है, वह उसने य देख िलया।

19
उसी िदन तीसरे पहर, िदलीप बाहर जाने को तैयार था िक माया ने अयािचत प से उसके
कमरे म आकर कहा, ‘‘आप या ज दी म ह?’’
ण-भर के िलए िदलीप ति भत रह गया। उसे देख ऐसा तीत हआ िक जैसे आज पहली
बार उसने एक ी-मिू त देखी है, जो अलौिकक है, अद्भुत है। उसे ऐसा तीत हआ जैसे उसके
दय के गहन अ धकार म एकबारगी ही सय ू िकरण फूट उठी। जीवन म कभी न अनुभव म आई
हई भावना ने उसे जकड़ िदया। जैसे उस मिू त के दशन-मा से ही उसका सारा धैय, पौ ष,
स पणू ढ़ता गलकर बह गई। वह जैसे अब तक एक च ान था, और अब ण-भर ही म उस
दशन का पश पाकर रजकण हो गया।
उसने हकलाते हए कहा, ‘‘हाँ, नह –आप-आप आइए!’’
माया ने दो कदम आगे बढ़कर िबना ही िकसी भिू मका के कहा, ‘‘ममी ने आपको देने के
िलए यह घड़ी मुझे दी थी।’’ उसने वह घड़ी सामने टेबल पर रख दी।
िदलीप को ऐसा तीत हआ, जैसे ाणवायु का एक झ का आकर उसे आ याियत कर गया।
उस शारदीय शोभा क मिू त के साि न य म वह खो गया। उसक समझ ही म नह आया िक या
जवाब दे। वह घबराया-सा एकटक माया के मुख को ताकता रहा।
ण-भर माया क रही और िफर वह मँुह फेरकर चल दी। िदलीप ने कहा, ‘‘ठह रए,
सुिनए!’’
‘‘किहए।’’
‘‘यह घड़ी आप–आप ले जाइए।’’
‘‘ममी ने आपके िलए भेजी है। इसे आप वापस कर रहे ह?’’
‘‘ममी से किहए...’’
‘‘...िक घड़ी आपको पस द नह है, ज़रा और बिढ़या-सी...’’ माया एक कटा फककर
मु करा दी। इस समय भी उसका वर सख ू ा था–आँख सन ू ी थ । पर िदलीप ने इतना रस, इतना
माधुय अब तक जीवन म कभी देखा ही न था। िदलीप ने जवाब क राह न पाकर कहा, ‘‘नह ,
नह , यह बात नह है।’’
‘‘तो म ममी से या कहँ?’’
‘‘मेरा णाम किहए, चरण- पश कर दीिजए।’’
माया ने हँसी रोककर कहा, ‘‘मेरे चरण- पश करने से या होगा भला! आप ही कभी
आकर चरण- पश कर लीिजए, णाम म कह दँूगी। अ छा नम कार।’’
वह मुड़ी। पर तु िदलीप ने िफर बाधा देकर कहा, ‘‘सुिनए तो!’’
‘‘किहए भी, आपका समय न हो रहा है।’’
‘‘ममी को मेरा णाम कहकर और चरण- पश करके किहए–यह घड़ी म नह रख
सकता।’’
‘‘ममी पछू गी, य नह रख सकते, तो या जवाब दँू?’’
‘‘जैसा ठीक समिझए।’’
‘‘तो कह दँू िक घड़ी पस द नह है और बिढ़या मँगाई है?’’
‘‘नह , नह ।’’
‘‘तब?’’
‘‘म रख नह सकता।’’
‘‘िक तु कारण या?’’
‘‘कारण कुछ नह ।’’
‘‘तब आप वयं ही कभी उ ह िमलकर लौटा दीिजए। अकारण तो म लौटाकर ले नह
जाऊँगी।’’
वह िफर चलने लगी। िदलीप ने िफर बाधा देकर कहा–
‘‘आप समझती नह ह।’’
‘‘यानी म कूढ़म ज़ हँ।’’
‘‘वाह, यह भी कोई बात है!’’
‘‘तो आप समझाना नह चाहते।’’
‘‘नह , नह , पर यह अनुिचत है।’’
‘‘ या? ममी ने यार से आपको एक उपहार भेजा है–उसे आदरपवू क हण करना अनुिचत
है, यही शायद आपक िह दू सं कृित है?’’
‘‘पर तु...’’
‘‘म अपना काम कर चुक । एक फालतू काम ममी ने झठ ू मेरे िसर मढ़ िदया। अब
ू मठ
आपको रखना हो रिखए–वापस करना हो, जाकर उ ह वापस कर आइए,फक दीिजए या जो चाहे
क िजए। म तो इसे वापस नह ले जा सकती।“
इतना कहकर माया तेज़ी से कमरे से बाहर हो गई। उसके बाहर जाते ही िदलीप को ऐसा
तीत हआ–जैसे सय ू अ त हो गया, या उसके ाण ही िनकल गए, या जीवन उलट-पुलट हो
गया, या संसार अस य हो गया। जीवन क यह अनुभिू त उसके िलए असहनीय हो गई। वह बड़ी
देर तक चुपचाप खुले ार क ओर मँुह िकए खड़ा रहा। ार सन ू ा था, कमरा सन ू ा था, दय सन ू ा
था, आँख सन ू ा था। उसने वह घड़ी उठाकर छाती से लगा दी। आँख म उसके
ू ी थ , संसार सन
आँसू छलक आए। वह ज़ोर-ज़ोर से आह भरता, गहरी साँस लेता हआ कमरे म इधर से उधर घम ू ने
लगा। एकाएक उसने सोचा–मने उसे बैठाया भी नह , कुछ बात भी नह क । मने उसे पाकर खो
िदया। जैसे सीता-सािव ी नया अिभनव प धारण करके अभी-अभी उसे दशन दे गई। उसके दय
को आ ा त कर गई।
या वह िफर आएगी? एक बार म उससे बात करना चाहता हँ। पर तु िकस िवषय पर?
या उससे बहस क ँ ? पा ा य जीवन के गिहत वातावरण पर, िजसक खरता के िलए वह
िस हो चुका है। अ छा, कदािचत् वह िफर आए तो या बात क ँ गा? िदलीप बहत देर तक
िवचारने के बाद भी कुछ िनणय नह कर सका। उसे ऐसा तीत हआ जैसे कहने यो य कुछ रहा
ही नह । उसने एकाएक अनुभव िकया िक वह अपना आपा खो चुका। अब उसके जीवन का
येक जीवकोष मायामय हो चुका था और उसका वह आदशवाद अतल पाताल म डूब गया था।

20
ेमालाप तो कुछ हआ नह , पर ेम का अप रसीम आदान- दान हो गया। िदलीप का वह
अ प ृ यौवन आहत सांड क भाँित कराहने और ची कार करने लगा। वह बड़ी देर तक तो उस
कमरे म ेत-आिव क भाँित च कर काटता रहा, िफर श या पर िगरकर छटपटाने लगा। जैसे
जलती हई, दहकती हई कोयल क अँगीठी पर वह भन ू ा जा रहा हो–जीिवत। एक अस वेदना,
एक अिनवचनीय आकां ा, एक दुद य भख ू - यास उसे आ ा त कर गई। आज तक के जीवन म
सवथा अनुभत ू पीड़ा से उसके ाण याकुल हो गए। उसका सारा आदशवाद, िह दू सं कृित, धम-
िवचार, तक, बुि वाद न जाने िकस अतल भत ू ल म जाकर लोप हो गए। रह गई माया–केवल
माया। उसके मानस-पटल पर, ने और आ मा के अणु-अणु म माया शत-सह मत ू प धारण
करके आन द-न ृ य करने लगी। उस आन द को–शोभा क सुषमा को आ मसात् करने, अपने
िनकट लाने, अपने म ओत ोत करने को वह िजतना ही य होने लगा, उतना ही वह उससे दूर,
अिधक दूर, उसक पहँच क सीमा के बाहर िदख पड़ने लगी।
िक तु एक बार भी उसके मन म यह बात न आई िक िजस माया के िलए वह इतना
याकुल हो रहा है, िजस माया का इतना अभाव वह अपने जीवन म अनुभव कर रहा है, वह तो
सांगोपांग उसे अपना आ मापण करने ही आई थी। संभवत: वह आ मापण कर भी गई है।
रायसाहब और डा टर दोन ही उसके ित सानुनय हो चुके ह। माया क ाि म तो वह वयं ही
अपनी माया है। एक बार भी उसके मन म यह ान न हआ िक वह अभी अ णा से, क णा से,
माया से, िपता से, माया के िपता से–िकसी से भी जाकर कह दे िक मेरे मन क सारी बाधाएँ हट
गई ह, सब यवधान दूर हो गए ह। हवाई िकले सब ढह चुके ह। अब माया मेरे ाण म आ बसी है।
लाओ–माया को मुझे दो! ाण म उसका लय होने दो! य िप उसक वह धममढ़ ू ता, अित तु छ,
नग य बन चुक थी–पर वह जो उसका दप था–अहं-त व था–वह उसके आहत आत दय पर
तिनक भी सदय न था। न, न, वह अब ‘हाँ’ कह भी सकता है, यह भावना भी उसके ाण क
चेतना म नह थी। जैसे करोड़ बिल हाथ ने आकर उसका मँुह ब द कर िदया था।
अँधेरा हो गया, िदए-ब ी जल गए, पर िदलीप को इसका कुछ भी भान नह हआ। वह उसी
भाँित अँधेरे म पड़ा रहा। िकस नए रोग म वह आज इस समय एकाएक त हो गया था–उसका
िनदान वह नह जानता था। पर तु जब घर के नौकर ने कमरे म आकर ब ी जलाई और देखा–
बाबू सो रहे ह, तब उसने पास आकर नेह से पछ ू ा, ‘‘तबीयत खराब है या बाब,ू माँजी से कह
दँू?’’ तब िदलीप कुछ भी जवाब नह दे सका। नौकर ने कुछ कहा है, यह तो उसने सुना। पर या
कहा, यह नह सुना। वह नौकर को कुछ जवाब न देकर करवट बदलकर सो रहा।
पर अब वह सो भी न सका। नौकर के जाते ही वह तड़पकर उठा और एकदम घर से बाहर
हो िलया। वरा ा त क भाँित उसके पैर लड़खड़ा रहे थे। पर वह बढ़ा जा रहा था। आप ही आप।
वह अपने पवू ा यासवश जमुना-तीर पर जा पहँचा। एक-दो प रिचत ने उसे टोका भी, पर उसने
सुना ही नह । वह िकनारे ही िकनारे दूर तक चला गया। गहरी अँधेरी रात थी। आकाश म तारे
िटमिटमा रहे थे। जमुना-िकनारे ऊँची-ऊँची घास म झ गुर बोल रहे थे। दूर नगर क िबजली क
बि यां िटमिटमा रही थ , और स नाटे के आलम म वह एक उ म , मदम , िववश आदमी क
भाँित बढ़ा जा रहा था। वा तव म उसे अपने तन-बदन क सुध न थी।
िक तु आगे राह न थी। गहन अ धकार म जमुना-तीर का वह सघन जंगल जैसे और भी
सघन हो उठा था। उसे कना पड़ा। अपने चार ओर उसने देखा, यि कंिचत् उसने सोचा–वह
कहाँ आ गया है। ज़रा-सी चेतना उसे हई–वह लौटा। पर चेतना के उस ीण आलोक के सहारे से
वह सोच सका िक उसका जीवन अब समा हो गया है। और जैसे, वह अपने-आपका एक
भ मीभत ू पुतला है। िफर घाट आ गए थे। घाट के िकनारे -िकनारे वह धीरे -धीरे चलता रहा। जमुना
का याम जल धीरे -धीरे बहा जा रहा था। आकाश म वही तारे िटमिटमा रहे थे–कह -कह उनक
काँपती हई परछाई ं जल म िदख रही थी। एकाध बादल का टुकड़ा आकाश म घम ू रहा था।
वह एक सुप रिचत घाट पर बैठ गया। वह सोचने लगा–यह हो या गया। माया तो उसक
कुछ भी नह । उसका उस पर कुछ अिधकार भी न था। िफर य वह ऐसा समझ रहा है िक वह लुट
गया। जब उसक गाँठ म कुछ था ही नह तो लुटा या है? नह लुटा है तो वह आज इस समय
ऐसा िनरीह, असहाय, एकाक कैसे हो गया है? अब तक या था उसके पास–जो अब नह रहा?
उसने बहत सोचा, पर कोई भी तो कूल-िकनारा उसे नह िमला। वह कुछ भी तो नह समझ पाया
िक उसक या ि थित है और वह या करे ।
बहत देर तक वह वह चुपचाप बैठा रहा। एकाएक उसे योिगराज का मरण हो आया। कैसा
झठू ा, म कार और धत ू था वह! उसक ाभावना पर कैसा करारा आघात कर गया वह! धम,
कम, योग, त, उपवास, िनयम–सबक एक परे खा-सी जैसे उसे छू गई। उसे ऐसा तीत हआ
मानो अब तक वह यथ के बोझ को ढोता िफर रहा था, आज उसे अनायास एक िनिध िमली, और
िमलते ही िछन गई। वह गुन-गुना उठा–‘‘आज ही तो था िमलन- ण, आज ही हो गई िवदाई!’’
झर-झर, झर-झर आँसू उसक आँख से झरने लगे। जीवन म थम बार इन अ ुकण ने
उसके ने को सजाया था। उन आँसुओ ं से नातपत ू माया का िद य शरीर जैसे उसे उसके
िबलकुल ही िनकट िदखने लगा। उसने दोन हाथ उ मु आकाश क ओर फै लाकर अ फुट वर
से कहा–‘‘आओ, आओ, आओ माया, तुम मेरी हो, म तु हारे िबना नह रह सकता।’’ और उसका
मुख प ृ वी पर झुक गया। उसे ऐसा तीत हआ जैसे उसक न द म ताज़ा फूल का सुरिभत ढे र
कह से आ पड़ा है–और उ ह फूल के ढे र म माया के चरण ह, उन फूल से भी अिधक सुरिभत
कोमल और ि य! और उसके िवद ध ह ठ उन चरण को चम ू रहे ह, स प न हो रहे ह, आ याियत
हो रहे ह, प रपण
ू हो रहे ह!

21
और माया? उसने यह सोचा भी न था िक जो कुछ हो गया वही हो जाएगा। िपता का िदलीप
ने मढ़ ू क भाँित अपमान िकया था। इसिलए वह िदलीप का अपमान करने ही उसके पास गई थी।
िदलीप को उसने इससे थम कभी देखा भी न था। उससे उसक िववाह क चचा चल रही है, यही
वह जानती थी। डा टर-प रवार क ग रमा से वह प रिचत थी। एक बार वह अ णादेवी क
नेहमयी गोद म यार पा चुक थी। पर वह बहत पुरानी बचपन क बात थी। िदलीप क बाबत
उसने इतना ही सुना था िक वह बड़ा ही क र िह दू है। पर तु मन से माया को यह बात ि य थी।
वह अपनी आँख से यरू ोप के जीवन को देख आई थी; उसे जीवन म पश कर आई थी। वह उसके
गुण-दोष से भी प रिचत थी। इसी से आय-स यता, िह दू सं कृित पर उसक ा थी। अपनी
ामयी माता का उस पर बहत भाव था। पर वह गित क श ु न थी। नए िवचार, ान-
िव ान क िवरोिधनी न थी। न वह कुरीितय क समथक थी। िढ़वाद से उसे घण ृ ा थी। िदलीप
इतना उ चकोिट का िव ान्, दशनशा का ेजुएट होने पर भी अपनी िह दू सं कृित पर
आ था रखता था। इससे वह मन ही मन िदलीप के ित ाभाव रखने लगी थी। िद ली को जब
वह चली थी तो उसके मन म एक गुदगुदी हो रही थी। वह सोच रही थी– या हज है, ममी क
घड़ी जब दँूगी तो ज़रा नोक-झ क भी होगी। देखँग ू ी बाबू साहे ब क िफलासफ । ज़रा यं य क ँ ,
जलाऊँगी, िचकोटी काटूँगी, सईू चुभाऊँगी! िफर उस तड़प का मज़ा लँग ू ी।
पर यहाँ तो यह यं य-िवनोद कुछ हआ नह । रायसाहब से िजस ढं ग पर िदलीप ने बात
ख म क , उससे रायसाहब बेहद नाराज़ हो गए। वे िबरादरी से खा रज ह। उनक बेटी को याहने
से िबरादरी नाराज़ होगी। यहाँ तक दिकयानस ू ी िवचार िदलीप के मँुह से सुनने क उ ह आशा न
थी। वे अपनी बेटी को भीतर से बाहर तक जानते थे, इसी से वे साथ म माया को लाए थे। उ ह
िव ास था–माया को देख-समझकर सब ठीक हो जाएगा। िदलीप ऐसा मढ़ ू न होगा।
माया ने जब यह सुना–तो दप और आ मस मान दोन ही ने उसे िदलीप के पास जाने को
े रत िकया। माँ क घड़ी देने का बहाना था। वह िपता के अपमान का बदला लेना चाहती थी–
कुछ तीखा यं य भी करना चाहती थी। यिद उसे मालम ू होता िक वह असल मुसलमान माता-
िपता का बालक है तब तो वह िपता के अपमान का परू ा ही बदला चुका लेती। असल म वह िबना
ही हिथयार श ु जीतने चली थी।
पर तु वहाँ कुछ और ही हो गया। माया ने देखा–एक गौरवण, तेज वी, छरहरे बदन का
ल बा-दुबला त ण, नोकदार नाक और पानीदार, तेज, गहरी काली आँख, सुख पतले हाठ,
मज़बत ू ठोड़ी और मांसल गदन, िवशाल व और मु ी भर कमर, सीधा-सरल वेश–तो माया ने
आपा खो िदया।
माया इस त ण क िवभिू त को अपने आँचल म भर ले जाने को आई है–पर उसे सख ू ा
लौटना पड़ रहा है। िकतना दुभा य है! िकतना अपमान है! पहले भी भला कभी कोई िह दू
कुमारी इस भाँित लांछना क पा बनती थी? भला कभी वह इस कार िनराश होकर लौटने के
िलए पित-घर म आती थी? िह दू वधू तो गाजे-बाजे के साथ, हीरे -मोितय से सुसि जत, ससुराल
क आँख पर पैर रखकर सुरगहृ म वेश करती है। नई स यता और नए आलोक ने ही उसे
इस भाँित अपमािनत िकया। वह िदलीप को न यं यबाण से िव कर सक , न उसके दय म
सईू चुभा सक , न िचकोटी काट सक । माता क दी हई घड़ी वहाँ रख और आँख म एक चुभन
भर वहाँ से भाग आई।
भाग आई, यह तो ठीक, पर अपने र क येक बँदू म िदलीप क यह मिू त भर लाई। ेम
और दद अब सं ाम करने लगे, और माया उनक चपेट म घाव खाने लगी। वह और राह न पाकर
सीधे अपनी श या पर पड़ गई।
उसी समय क णा ने आकर कहा, ‘‘उठो, भाभी, हम िसनेमा चल रहे ह। माँ तैयार है। ज दी
करो।’’ हाय रे भाभी! यह अबोध बािलका नह जानती िक यह मधुर स बोधन उसे कहाँ घायल
कर रहा है। उसने उसे भाभी ही बना िलया है। जीवन के घात- ितघात से इस सरल-तरल यि
को या सरोकार है!
माया ने आँख प छते हए कहा, ‘‘इस समय न जा सकँ ू गी, माँ से कह दो।’’
‘‘अरे , तु हारी तो आँख सज ू रही ह, लाल चोट हो रही ह, या तबीयत खराब है?’’
‘‘हाँ, बहत खराब है, ज़रा सोने से ठीक हो जाएगी।’’
‘‘तो म माँ को बुलाती हँ।’’ माया का तिनक भी अनुरोध न मान क णा अ णादेवी को
बुला लाई। अ णा के साथ आए डा टर भी, रायसाहब भी। और कोई न समझे, पर रायसाहब ने
पु ी क चोट को समझ िलया। डा टर भी कुछ-कुछ समझ गए, वे मौन ठगे-से खड़े रहे । केवल
अ णादेवी माया का िसर गोद म लेकर य त भाव से बैठ गई ं। क णा और भी परे शान होकर
दौड़-धपू करने लगी। यड ू ी लोन ले आई। और भी उपचार हए। अ णादेवी ने सभी को िवदा कर
िदया। िक तु क णा िकसी तरह नह गई। अब कैसा जी है, भाभी? वह बार-बार पछ ू ती रही। कोई
भी िकसी तरह उसका ‘भाभी’ कहना न रोक सका। और अब, न जाने िकस सू म अनुब धन के
सहारे यह श द िकन-िकन भाव -अनुभाव से घुल-िमलकर माया के तिृ षत कण म सुधा बरसाने
लगा–र क येक बँदू से िसहरन पैदा करने लगा।
बहत रात बीतने पर माया ने बड़ी किठनाई से अ णादेवी को िवदा िकया। पर तु क णा
िकसी तरह न गई। वह वह –माया के पास, उसी पलंग पर, माया के गले म अपने कोमल भुज-
मणृ ाल का ब धन डालकर सो रही। दो ी- दय पास-पास धड़क रहे थे–दोन अ लान,
अना ात, कौमाय के पुनीत त व से ओत- ोत–शु सरल ेम से लबालब। िक तु एक ात
दूसरा अ ात। केवल एक ही पौरे आगे बढ़ने से दोन म इतना अ तर पड़ गया था — इ ह कुछ
ण म।

22
माया क वह ममपीड़ा, और िदलीप का औ य सभी ने देख-समझ िलया। इससे डा टर
अ य त ममाहत हए। अ णादेवी भी िवचिलत हई ं। उसी रात पित-प नी म बात हई ं।
अ णा ने कहा, ‘‘तुम तो शायद कुछ भी नह समझते।’’
‘‘ या?’’
‘‘लड़क को िकतना दु:ख हआ है! म ी ज़ात हँ–उसका दु:ख समझ गई हँ। मानती हँ,
उसे हमारे ार पर इस तरह न आना चािहए था–पुरानी प रपाटी अ छी थी। पर तु उसके इस आने
को म िन भी नह समझती। एक ही ि म मने उस र न का मू य समझ िलया, यिद वह
ितल-भर भी यह स देह मन म करती िक वह र ता होगा ही नह –तो वह इधर कदम भी नह
रखती। वह जैसी सरल है वैसी ही मानवती भी है। वह वयं ही िवदुषी है, समझदार है। िफर उसके
िपता साथ ह। िकतने स पु ष ह, िकतने महापु ष ह! मने तो ऐसे साधु-स जन कोई देखे नह ।
अब या हमारे ार से हमारी ल मी सन ू ी लौट जाएगी? यिद ऐसा हआ तो हमारी मयादा गई
समझो। म तो इस शम को ढोकर िज़ दा न रह सकँ ू गी।’’
‘‘लेिकन म क ँ या? तु ह कहो। िदलीप से म सब कुछ कह-सुन चुका, तुम भी कह
चुक । वह अपने मन का है–देखती ही हो। या म उसके साथ ज़बद ती क ँ । ज़बद ती करने
पर...वह घर से भाग न जाएगा, इसक या गारं टी है? िफर इस तरह भसा-बैल क अनमेल
जोड़ी, र सी से ज़बद ती बाँध देने से कह गहृ थी क गाड़ी चलती है? तु ह कहो।’’
‘‘नह चलती, िदलीप से ज़बद ती करने क हम ज़ रत नह । वह हमारा लड़का नह है।
पराया है, िवधम है। दूसरे वह या है? उ ह उसका स चा प रचय दे दीिजए–उसक सब ज़मीन-
जायदाद उसे दे-िदवाकर यहाँ से उसका काला मँुह क िजए। हमसे उसका कुछ सरोकार नह है।’’
‘‘ज़रा धीरे बोलो। यह तुम या कह रही हो! दुिनया पर जब यह बात खुलेगी तो दुिनया
या कहे गी! सोचो तो। और वयं िदलीप क या हालत होगी! देखती हो–िविच ढं ग से वह
सा दाियक आदमी बन गया है–एक क र िह दू क तरह रहने म वह अपनी शान समझता है–
अब जो उसे यह पता लगेगा तो अजब नह पागल हो जाए या जान दे दे। िफर माया का इससे या
भला होगा! उसका दु:ख तो और भी बढ़ जाएगा। उसका उपाय या है?’’
‘‘उसका भी उपाय है–मने सोच-समझ िलया है।’’
‘‘कौन उपाय?’’
‘‘म अपने सुशील से माया का याह क ँ गी। तुम रायसाहब से कह दो। लड़क मेरे घर से
सनू ी न जाएगी।’’
डा टर कुछ देर चुप रहकर बोले, ‘‘यह या ठीक होगा? और सुशील ही या राज़ी हो
जाएगा?’’
‘‘सुशील तो मेरे पेट का पैदा हआ लड़का है!’’
‘‘तुमने या उससे बात क ह।’’
‘‘नह क । पर इससे या? वह ‘ना’ न कहे गा।’’
डा टर ने िसर खुजाकर कहा, ‘‘अ छा, िबरादरी म जो एक बवंडर खड़ा होगा?’’
‘‘िदलीप से याह करते तो या न होता?’’
‘‘शायद होता।’’
‘‘तो अब भी होने दो। या होती है िबरादरी! म परवाह नह करती!’’
डा टर ने स तोष कट िकया। प नी के ताव से सहमत होते हए उ ह ने कहा :
‘‘अ छी बात है, म रायसाहब से सुबह बात क ँ गा।’’
‘‘बात करके ही रह जाना न होगा। सगाई और गोद क र म भी कल ही को करनी होगी।
अब म क ची बात थोड़े ही क ँ गी।’’
‘‘सुशील से ज़रा पछ ू तो लो।’’
‘‘सुशील को मेरे ऊपर छोड़ दो।’’
‘‘तो तुम जानो।’’
‘‘डा टर एक कार से आ त होकर सो गए। सुबह जब रायसाहब ने चलने का उप म
िकया तो डा टर ने न तापवू क कहा, ‘‘जाना तो आज न हो सकेगा आपका, सुशील क माँ क
यही इ छा है।’’ डा टर जैसे इस बार िदलीप क माँ कहना ही भल ू गए।
रायसाहब ने अचकचाकर कहा, ‘‘ य , या बात है? जाना तो अव य होगा, मेरे कोट म
केस ह।’’
‘‘यहाँ के केस को पहले िनबटाना ज़ री है!’’ डा टर ने रिसकता से कहा।
‘‘ज़रा साफ-साफ किहए, तो समझँ।ू ’’
‘‘सुशील क माँ चाहती है, सगाई क र म आज ही के शुभ मुहत म हो जाए। वह िबिटया
को िबना गोद भरे सन ू ा जाने देना नह चाहती।’’
‘‘लेिकन िदलीप क तो इ छा...’’
‘‘िदलीप क इ छा न हो। म सुशील के िलए र ता वीकार करता हँ।’’
‘‘सुशील के िलए?’’ हठात् रायसाहब को िदलीप का वह वा य याद आ गया, ‘‘िबरादरी का
भी सवाल है।’’ उनका खन ू गम हो गया। पर उ ह ने संयत होकर कहा, ‘‘यह तो बात ही दूसरी
है, इस पर मुझे िवचार करना होगा–म िवचारकर आपको िलखंग ू ा।”
डा टर को व न म भी गुमान न था िक रायसाहब इस ताव को अ वीकार कर दगे।
रायसाहब क बात सुनकर वे भ चक-से उनका मँुह ताकते रह गए। ण-भर उनके मँुह से बोली
न िनकली। िफर कुछ संभलकर उ ह ने कहा, ‘‘पर तु आपका इस तरह जाना तो ठीक नह है।’’
‘‘जो ठीक नह है, उसे आप इस तरह ठीक करना चाहते ह? म उसे ठीक नह समझता।’’
रायसाहब एक फ क हँसी हँस िदए। िफर डा टर के क धे पर हाथ रखकर कहा, ‘‘आप मेरे
पुराने दो त ह। हम दोन म फारमेिलटी क ज़ रत नह । आप िदल म ज़रा भी मलाल न लाइए।
सच पिू छए तो मुझे िदलीप क ि ट पस द है, और म उसक क करता हँ। इसिलए आप
िबलकुल संकोच न कर। हमारे -आपके पुराने स ब ध वैसे ही कायम रहगे जैसे अब तक रहते
आए ह। इतनी-सी बात पर कुछ अ तर थोड़े ही पड़ जाएगा!’’
उ हाने डा टर का गाढ़ आिलंगन िकया। डा टर ने सख ू े मँुह से प नी के पास जाकर
कहा, ‘‘रायसाहब तो कने को राज़ी नह होते–जा रहे ह।’’
‘‘वाह, जा कैसे सकते ह, म जाने दँूगी तब न!’’
‘‘तो तुम उनसे कहो।’’
‘‘चलो, कहती हँ’’, अ णा चािभय के झ बेवाला साड़ी का प ला क धे पर डालकर, िजस
कमरे म रायसाहब सामान बाँध-बंध ू रहे थे, उसक बगल म िकवाड़ क ओट म आ खड़ी हई।
डा टर ने कहा, ‘‘सुशील क माँ आपसे कुछ कहने आई ह।’’ इस समय भी डा टर प नी को
िदलीप क माँ न कह सके। रायसाहब ने आदर दिशत करते हए खड़े होकर कहा, ‘‘किहए,
किहए, मुझे य न बुला िलया!’’
‘‘आप य न जाने पाएँ गे। िबिटया मेरे घर से सनू ी न जाएगी।’’
‘‘आप बड़ी उदार ह, कभी भी आपका यह अनु ह नह भल ू ँग
ू ा। पर अभी तो हम जाने ही
दीिजए। डा टर साहब ने जो ताव उपि थत िकया है, उस पर हम नए िसरे से िवचार करना
होगा। िवचार-परामश करके म आपको िलखँग ू ा। अभी ऐसी ज दी या है? िफर आपको भी
भलीभाँित सब बात पर िवचार कर लेना चािहए। इन मामल म ज दी करने से धोखा ही होता
है।’’ इतना कहकर रायसाहब ने माया को ल य करके कहा, ‘‘ज दी करो, बेटी, गाड़ी का समय
हो गया है।’’
रायसाहब के वर म एक ऐसी ढ़ता थी िक िफर अ णादेवी को कुछ कहने का साहस ही
न हआ। िफर वह बेटे क माँ थी। बेटी के बाप के इस उ र से उसके अहंकार पर करारी चोट लगी।
वह सख ू े मँुह से भीतर लौट गई।
जब गाड़ी पर सब सामान लद गया तो सारा प रवार अपने स मा य अितिथ को िवदा करने
एक हआ। इस समय िदलीप भी आ गया। एक ही रात म उसक आकृित कुछ क कुछ हो गई
थी। वह सबके पीछे , सबसे िछपकर चोर क भाँित खड़ा था। इसके िव सुशील ने आज अपनी
सदा क असावधान और लापरवाह आदत जैसे छोड़ ही दी थी। उसने िस क का कुता पहना था।
बाल को भी सँवारा था। वह सकुचाया-सा, लजाया-सा माँ के पास खड़ा था। माँ का ताव उसने
सुन िलया था।
माया और क णा एक-दूसरे से आिलंगनब थ । क णा माया को छोड़ती ही न थी। वह
बार-बार ‘भाभी-भाभी’ कहकर उसे जकड़ रही थी। ‘‘अब कब आओगी, भाभी?’’ बार-बार पछ ू
चुक थी और बार-बार पछ ू रही थी। माया जैसे रात-भर रोती ही रही थी, आँख उसक फूलकर
गु लाला हो रही थ । अ त म क णा को अलग िकया, और अपने गले का नैकलैस उतारकर
उसके क ठ म डाल िदया। अ णादेवी के िवरोध पर वह िससकने लगी। पैर पर िगर पड़ी। उस
मकू दन के िवरोध का साम य िकसम था भला? अ णादेवी ने कराहकर छाती पर हाथ रखा।
और जब वह अ णादेवी के अंकपाश म ब , बाणिव आहत हंिसनी क भाँित लड़खड़ाती हई
गाड़ी म बैठ रही थी, उसने एक बार अपनी सज ू ी हई लाल-लाल आँख उठाकर सबसे पीछे अपराधी
क भाँित मँुह िछपाए खड़े िदलीप क ओर देखा। उसक सन ू ी-सन
ू ी, उ म ि उसक फूली हई
आँख म बरछी क नोक क भाँित घुस गई। वह झपटकर गाड़ी म घुस गई। आँख के इस नए
घाव को देखा िसफ िदलीप ने।
माया चली गई। पर तु इस प रवार के येक आदमी को आहत कर गई। िदलीप तो तीर
क भाँित सीधा जमुना-तट क ओर चला गया, सुशील कोई गीत गुनगुनाता अपने कमरे म घुस
गया। डा टर अपराधी-से चुपचाप नीचा िसर िकए घर म लौट आए। क णा रोती रही, और अ णा
जैसे अपनी ममपीड़ा को भुलाकर बेटी को भुलावा देती अपने शयनगहृ म लौट आई ं। इस समय
केवल एक यि इस घर म व थिच और आन दम न था। वह था िशिशर। उसने माँ से,
क णा से, िपता से, िदलीप से, सुशील से–सभी से पछ ू ा, ‘‘भाभी आई थी तो चली य गई?’’
िकसी ने कोई जवाब न िदया, िसफ सुशील ने हँसकर कहा, ‘‘धत्!’’

23
माया का वह वैक य और िदलीप का उ माद देखकर भी िकसी ने यह नह समझा िक दो
त ण दय यार का घाव खा गए ह। माया के वैक य म सभी ने अपमान क वेदना देखी; पर
िदलीप क ओर िकसी का यान नह गया। इस घटना के बाद िदलीप एकबारगी ही माता-िपता
के िवराग और उपे ा का पा बन गया। िपता ने उससे बातचीत ही ब द कर दी। और माँ ने उसे
कह िदया, ‘‘तू मेरा लड़का नह है, जा, चला जा जहाँ तेरा जी चाहे और वही कर जो तू चाहे !’’
वह तो चाहता था िक एक बार िफर उसके सामने याह का ताव आए। पर तु वह संग आया
ही नह । िदलीप अपने िदल क बात खोलकर िकसी से कह नह सका। मन ही मन घुटता रहा।
अब उस घर-भर म सव सन ू ा लग रहा था। माता-िपता उससे नाराज़ थे। पर अभी तक उसे यह
पता न था िक अ णादेवी ने गु से म आकर जो बात कही है, वह यथाथ म स य है। ऐसा होता या
स ची बात का उसे पता लग जाता तो शायद वह इस प रि थित म आ मघात ही कर लेता।
अब वह बहधा िन य ही बहत ज द सुबह उठकर जमुना-िकनारे चला जाता, और कभी-
कभी तमाम िदन वह पड़ा रहता। रा ीय संघ के नाम म भी अब उसे िच नह थी। संगी-साथी
उसे क चते। वह गुमसुम सभी के उलाहने सुनता। अपनी िवरह-वेदना िकसी पर कट करना
उसके िलए श य न था। वह िकसी को िदल क बात कहे , ऐसा कोई उसका िहतू िम न था। यह
उसने अब जाना।
माया के ित मन ही मन सुशील के मन म भारी मोह उ प न हो गया था। उसे आशा बँध
गई िक उसका िववाह माया से हो जाएगा। वह य िप बडे ़ ही उ छृंखल वभाव का था, पर तु इस
करण से क चा था। वह अभी से मन म बड़े -बडे ़ म सबू े बाँधने लगा। माया फावड लड़क है। वह
पद क रानी बनकर तो बैठने क नह । हम लोग क धे से क धा िभड़ाकर आ दोलन करगे;
बढ़-बढ़कर भाषण करगे। माया का चम का रक यि व हम नेत ृ व क चोटी पर ख च ले
जाएगा। सुशील इस कार अपने अ त- य त जीवन को माया क क पना के सहारे यवि थत
करने लगा।
क णा घपले म पड़ी थी। उसे भीतरी बात का कुछ भी पता न था। जात-िबरादरी के झमेल
से वह दूर थी। िदलीप के ज म-के स ब ध म भी वह कुछ नह जानती थी। माया उसक भाभी
बनकर आई है, बस यही उसके िलए काफ था। उसने यही सुना था–बडे ़ भैया से नह , सुशील
भैया से उसका याह होगा। यह सब अदला-बदली य हो रही है, यह वह समझ नह पा रही थी;
पर उसे स तोष था िक याह चाहे िजस भैया से हो–वह भाभी तो रहे गी ही। उसके िलए यही यथे
था। क णा से ही बात फूटकर िदलीप के कान म पहँची। िदलीप के िलए यह ममा तक था। य िप
यह बात न िदलीप जानता था न सुशील िक रायसाहब ने अभी यह र ता वीकार नह िकया है।
पर तु सुशील म य - य इस र ते के स ब ध म उ सुकता और उ ेग के िच ह आते गए, य -
य िदलीप का ु ध मन हाहाकार से भरता गया, जो शी ही सुशील के ित ती ित-िहंसा
और िव ेष का प धारण कर गया।
अ णादेवी को िदलीप क ‘न’ ने तो आहत िकया ही था, रायसाहब क ‘न’ ने उ ह और
भी ममाहत िकया। वे बार बार अपने को िध कारने लग िक यो उ ह ने यह ताव िकया। या
िफजल ू सुशील के मन म एक नई आशा, नई भावना क जड़ जमाई। वे आ म लािन से भरी जा
रही थ । उ हाने उस सुबह जब सुशील को बुलाकर कहा था, ‘‘म तेरा याह माया से प का कर
रही हँ रे ’’, तो उसने कुछ हँसकर, कुछ लजाकर िनरीह बालक क भाँित कहा था, ‘‘जैसा तुम
ठीक समझो वही करो माँ।’’ अब वे सोच रही थ –यह ठीक नह हआ। इतनी उतावली क या
ज़ रत थी! अब वे जब टालकर चले गए, अब ‘न’ कह द तो या होगा? और यह भी ‘न’ ही है।
पर तु, वे अपनी ओर से अब इस स ब ध म रायसाहब को कुछ िलखना नह चाहती थ । और
रायसाहब ने घर जाकर एकदम चु पी साध ली थी। तैश म आकर वे अब रायसाहब को नीचा
िदखाने या बदला लेने के िवचार से कह सुशील का याह तय कर डालना चाह रही थ । पर
डा टर रायसाहब के उ र क ती ा कर रहे थे। उ ह बहत कुछ आशा भी थी। अब या होगा,
इसी सोच-संकोच म अ णादेवी घुल रही थ –माया क ममता, शील और स मान उ ह सब ओर से
आहत कर रहे थे।
रायसाहब ने घर जाकर इस नए ताव पर प नी के साथ िवचार-िवमश िकया। िबरादरी
क बात पर वे भी िचढ़ गई ं। पर तु रायसाहब ने कहा, ‘‘ये वा य डा टर साहब के तो ह नह । वे
तो हाथ पसारकर माया को माँग रहे ह।’’
गिृ हणी ने कहा, ‘‘पर तु माया हमारी बेटी है, कोई िब का सौदा नह है िक एक ाहक
से सौदा न पटा तो दूसरे से पटा िदया। बड़े भाई को जत ू ा ओछा पड़ा तो छोटे ने पहन िलया। नह ,
अब इस स ब ध म उस प रवार से बात करने क ज़ रत नह है।’’
रायसाहब ने माया से भी बात क । माया ने ढ़तापवू क इ कार कर िदया। पर तु माया क
इ कारी म माया के दय का जो छ न िनगढ़ ू ेमभाव िदलीप के ित था, उस पर उनक ि
नह गई। उ ह ने वही सोचा िक िदलीप के िति या व प ही माया िवरोध कर रही है। उ ह यह
युि संगत और आ मस मानमल ू क ही तीत हआ िक वे उस प रवार म अब याह क बात ही न
कर।
पर तु शी ही माया के वैक य का सही कारण उ ह ने जान िलया। जानकर वे बहत
िचि तत हए। उ ह या करना चािहए, यह िनणय वे न कर सके। बहत सोच-िवचारकर उ ह ने
इस स ब ध म मौन ही धारण करना ठीक समझा। उ ह ने सोचा–समय के साथ प रि थितयाँ
बदलगी, तब देखा जाएगा। उ ह ने डा टर को भी कोई जवाब नह िदया। डा टर ने भी उ ह नह
िलखा। दो साल बीत गए। सुशील और िदलीप के िलए अनेक र ते आए, पर उ ह ने नह िलए।
उनके मन म जहाँ माया का शलू बनकर चुभ रहा था, वहाँ िदलीप का अि त व एक बड़ी
बाधा बना हआ था। िदलीप के मन म जो एक गहरी वेदना थी उस पर िकसी ने यान ही नह
िदया।
रायसाहब ने भी माया के याह क चचा नह क ।

24
कालच अपनी गित पर घम ू ता चला जा रहा था। यरू ोप यु क वाला म जल-भुनकर
खाक हो रहा था। िहटलर थल, जल और वायु म सव ासी महाकाल बना नर-र म नान कर
रहा था। महारा य और महारा के गव ले राजमुकुट भल ू ुंिठत हो रहे थे। ि िटश सा ा य
महासंकट से गुज़र रहा था। यरू ोप का वह महा मेध िखसकता हआ एिशया और शांत े को छू
रहा था। भारत म अशा त वातावरण भरा था। हरएक चीज़ महँगी हो रही थी। आिडने स और
ज़ोर-ज़ु म क भरमार हो रही था। कां ेस का नेत ृ व बढू े ़ और ठ डे िदल नेता कर रहे थे–वे कह
रहे थे िक ठहरो और ती ा करो। पर सुभाष का गम र ती ा करने का धैय न रख
चम का रक ढं ग से भारत से गायब हो चुका था। और अब उनक जमनी और िसंगापुर या बमा से
िनर तर होनेवाली रे िडयो- पीच ने देश को िहला डाला था। अं ेज़ ने गुलाम भारत को और भी
कसकर भारत-र ा के नाम पर आिडने स क ज़ंजीरो म जकड़कर ज़बद ती यु -साधन बना
िलया था। उ ेजना और अस तोष से भारत क धमिनय का र खौल रहा था। िव ोह क च ड
बवंडर क सच ू ना भारत के येक युवक के गम िन: ास म िमल रही थी। जमन नाज़ी सेनाएँ
एक के बाद दूसरे देश को आ ा त करती अबाध गित से बढ़ती जा रही थ । ांस क म कराह
रहा था। और ि टेन क आँख पथरा रही थ और नाड़ी छूट रही थी। पवू म जापान ने भी यु का
शंख फँ ू क िदया था। अं ेज़ के सु ढ़ पवू -िसंह ार िसंगापुर पर जापानी सेना वज फहरा चुक थी।
िव ोही आ दोलन भारत म अं ेज़ का रहना हराम कर रहे थे। सर टैफोड ि स जो भानमती
का िपटारा लाए थे, उसे ठुकरा िदया गया था। चिचल सरकार क िसरदद का अ त न था। लोग
कहने लगे थे–‘‘ि टेन भारत के हाथ-पाँव बाँधकर जापान के आगे डाल देगा।’’
उन िदन भारत म धड़ाधड़ िवदेशी सेनाएँ आ रही थ –अमे रकन,आ ेिलयन, अ कन
सभी सेनाएँ थ । इस सेना का आगमन भारत क वत ता क र ा के िलए नह , बि क ि िटश
सा ा य क सुर ा के िलए था। देश का सारा उ म खा -पदाथ इन गोरे सैिनक को िमल रहा
था। देश भख ू ा मर रहा था। देश-भर म दुधा गाय और भस तराजू पर तुलकर िबक रही थ ।
उनका ताज़ा माँस खाकर और आक ठ म पान करके ये सैिनक भारत म अनैितकता का नंगा
नाच नाच रहे थे। भारत के ब च को एक-एक बँदू दूध के लाले पडे ़ थे।
अ त म सातव अग त का िचर मरणीय िदन भी आया। ब बई से अिखल भारतवष य
कां ेस कमेटी के अिधवेशन म गाँधीजी क यह वाणी फूटी :
‘‘यिद म भारत, ि टेन, अमे रका तथा धुरी रा -समेत शेष संसार को अिहंसा क ओर ले
जा सकता, तो म ऐसा कर डालता। पर यह चम कार तो केवल परमा मा के हाथ म है। अब मेरे
हाथ तो केवल यही है िक क ँ या म ँ । आपको प नी-प रजन का मोह याग देना होगा। संसार
म सब कुछ छोड़ देना होगा। म चाहता हँ िक अब िवरोधी अंग िमलकर भारत को िवदेशी शासन से
मु कर ल, चाहे इसके िलए उ ह िकतना भी मू य य न चुकाना पडे ़। उनका एक ही उ े य
होगा-ि िटश स ा को पद करना। म एक अ वाभािवक भु व का र हीन अ त करके एक
नवीन युग का आर भ करना चाहता हँ। यह हमारा अि तम सं ाम है, और इसम दो महीने से
अिधक समय न लगेगा। पर तु लाख मनु य को एकसाथ आगे बढ़ना होगा और भारत दासता
क िजन ज़ंजीर से बँधा है उ ह तोड़ना होगा। हमारे संघष म वे सभी काय सि मिलत ह गे िजनसे
वह शी एक दुदमनीय शि का प धारण कर ले। सं ेप म म कहँगा–करो या मरो।
‘‘हम ि िटश शासन का पण ू अ त चाहते ह। यह वह ज़हर है िजसे छूते ही सब चीज़ दूिषत
हो जाती ह। यह भावना बारह वष से मेरे मि त क म काम कर रही है। म अब ठहर नह सकता।
हमारे खतरे प ह, पर तु हम उनसे डर नह है। भले ही देश म अराजकता या जाए। म
कहँगा, रा के पास म जो कुछ है वह उसक बाज़ी लगाने से भी न चक ू े । यह मेरे जीवन का
अि तम संघष है। म अं ेज़ से कहँगा िक वे समय रहते भारत छोड़ द। और आपसे कहँगा िक
आज से अपने को वत यि समझ। और उसके िलए मर-िमटने को तैयार हो जाएँ ।’’
उसी िदन गाँधीजी-सिहत सब चोटी के नेता कैद कर िलए गए। नौ अग त के भात ही से
देश म िव ोह फै लने लगा। आकार, िव तार, याग-बिलदान, संगठन-शि , जनो साह, येय,
नीितिनपुणता सभी ि य से।
वह महान् था। इसम लगभग छ:-सात हज़ार आदमी मरे । एक लाख से अिधक जेल गए।
एक करोड़ से भी अिधक पया जुमाना हआ। गाँव के गाँव वीरान हो गए। लगभग चार करोड़
आदिमय ने खुले प से इस िव ोह म भाग िलया। यह खुला िव ोह गोिलय क बौछार के साये
म खड़ा हआ। एक हज़ार से ऊपर जगह पर गोली चली। िव ािथय ने लाख क सं या म इस
आ दोलन म योग िदया। देशी रा य तक इस िव ोह क आग फै ली। सारी दुिनया म दबे-िपसे व
लुटे लोग पर इसका गहरा असर पड़ा। नई फूित और आशा का संचार हआ। भारत के इस
अभत ू पवू सं ाम का प रणाम गव नत जापान और जमनी के आ मसमपण के प रणाम से कुछ
िभ न और िविच ही हआ।

25
डा टर-प रवार के सभी ब चे जाग रत वलंत वभाव के थे। हमने बताया है िक
िशिशरकुमार कां ेसी था। य िप उसका िव ाथ -जीवन था, पर तु इस आ दोलन के नेता–बडे ़
नेताओं के जेल जाने पर–िव ाथ ही रह गए थे। अब तक उसने कां ेस म कभी सि य भाग नह
िलया था। पर तु अब वह िद ली के जाग रत जन का नेता था। नेह जब ब बई गए थे तो
उ ह ने एक भाषण िदया था; उसम का एक वा य िशिशर के कलेजे को बेध गया था। नेह ने
कहा था–‘‘हम समु म डुबक लगाने जा रहे ह–इस पार या उस पार!’’ बस, ‘‘इस पार या उस
पार’’–इस वा य को िशिशर नह भल ू ा। उसने हज़ार -लाख बार इस वा य को दुहाराया।
और जब उसने सुना िक गाँधी और जवाहर दोन ही, और उनके सैकड़ साथी जेल म ब द
हो गए तो उसने मन-ही-मन कहा–डुबक तो लग गई। अब इस पार या उस पार!
इस पार या उस पार–उसने ह ठ म गुनगुनाया। कालेज क पु तक उठाकर ताक पर रख
द । उसने िदलीप के पास जाकर कहा, ‘‘भैया, जा रहा हँ म, भारतमाता क पुकार हई है। अब इस
पार या उस पार!’’ िदलीप िशिशर को यार करता था। और इस समय उसका दय यार पीर से
ओत ोत होकर अिधक कोमल हो रहा था। वह य िप कां ेस से घण ृ ा करता तथा गाँधीजी को
‘िह दू-मु ला’ कहता था, पर िशिशर के सामने कुछ नह कहता था। उसने कहा, ‘‘िशिशर, आग
म न कूद। अभी िड ी ले ले। कािलज का सब कै रयर तेरा िबगड़ जाएगा।’’
पर िशिशर ने सुना नह । नौ अग त को िद ली म मुकि मल हड़ताल थी। दुपहर के बाद
पचास हज़ार यि य का भारी जुलस ू िनकाला। घंटाघर से कोतवाली तक नरमु ड ही नरमु ड
नज़र आते थे। भीड़ म िशिशर ने भाषण िदया। यह उसका पहला ही भाषण था। पर वह भाषण न
था, अि नबाण थे, जो िकसी दैवी ेरणा से उस बालक के मँुह से िनकल रहे थे। उसने कहा :
‘‘भाइयो, जनता ने वत ता क ओर अपनी िव ोह-या ा के िलए कदम उठा िदया है। अब
तो हमम से येक को कुछ करना है, बस करना या मरना। शासनस ा दमन पर उता है।
किठन परी ा क घड़ी है। वह हम दमन के ारा दबाने का य न कर रही है। कायर दय काँप रहे
ह लेिकन यह ाि त इस युग का तकाज़ा है। यह टाली नह जा सकती। स या ह और असहयोग
से कानन ू क अव ा करके अब हम सवाङ्गीण ाि त के ार पर पहँच गए ह। अब हम िवदेशी
स ा के िकसी कानन ू का नह –स पण ू स ा का िवरोध कर रहे ह। हमारी माँग अब िकसी िवशेष
िवधान के िलए नह है, बि क यह है िक अं ेज़ यहाँ से चले जाएँ । इसिलए आज हम शपथ लेनी
होगी इस बात क िक यह वष हमारी दासता का अि तम वष है। पर तु हमारा श ु अभी तक
हमारे बीच म बसा हआ है। और हमारे ढ़ संक प को तानाशाही तरीके पर कुचलना चाहता है।
उसने हमारे पू य नेताओं को कैद कर िलया है, पर अब हम नेता क या ज़ रत है? अपना काम
हम जानते ह। अब हम इस वत रा के नाग रक ह। बस, हम िद ली के सरकारी भवन पर
से तथा लालिकले से यिू नयन जैक को उतार ितरं गा रा वज फहराना है। आओ, आज हम
सब अपने काम बाँट ल...
‘‘तुमम जो िकसान ह, वे उन ज़म दार को लगान न द जो अं ेज़ को मालगुजारी देते ह।
गाँव म अपनी पंचायत खड़ी करो, अदालत का बिह कार करो। फसल या पशु मत बेचो।
सरकारी नोट काम म मत लो। अदल-बदल से यापार करो। लुक-िछपकर लड़ाई के िलए तैयार
रहो।
‘‘तुमम जो मज़दूर ह, वे कारखान , रे ल , खान और जहां वे काम कर रहे ह वहां काम
क गित धीमी कर द। गु रीित से कारखान को हािन पहँचाएं । मज़दूरी, खा और कपड़े के
िलए लड़, हड़ताल कर। लुक-िछपकर लड़ाई के िलए तैयार रह। तुमम जो िव ाथ ह, वे कूल-
कालेज छोड़ द, लुक-िछपकर लड़ाई के दल तैयार कर। जो यापारी ह, बक से पया िनकाल
ल, अं ेज़ से यापार ब द कर ल। जो सैिनक ह वे भारतीय रा यत क भि क शपथ ल।
देश के िव हिथयार न उठाएँ ।’’
‘‘पुिलसवाले ाि त के िव कारवाई करने से इ कार कर द।
‘‘ येक यि अनिधकारी स ा को न करने पर तुल जाए।
‘‘इ कलाब िज़ दाबाद! करगे या मरगे!! अं ेज़ो, िनकल जाओ!!!’’
सह क ठ ने गजना करके इन नार का साथ िदया। पर तु इस व -गजना म िमल गई
ब दूक क गड़गड़ाहट। िड टी किम र ने पुिलस और सवार का दल लेकर सभा को घेर िलया
और गोली बरसाना शु कर िदया। कुछ मरकर िगर गए। कुछ भाग चले, कुछ तड़पने लगे। कुछ
हारकर बैठे, और कुछ ने िफर गज़ना क –इ कलाब िज़ दाबाद! करगे या मरगे!! अं ेज़ो,
िनकल जाओ!!!
और इसी समय धुएँ क काली-सी रे खा युिनिसपैिलटी क संगीन इमारत से उठती नज़र
आई। साथ ही दीपिशखा-सी लौ उठी जो देखते ही देखते िवकराल वाला क लपट म बदल गई।
िद ली का युिनिसपल भवन धाँय-धाँय जल रहा था। उधर भीड़ ने पुिलस-लारी म आग लगा दी
थी। गोिलयाँ बरस रही थ , पर तार के ख भे पटापट िगरते जा रहे थे। दमकल आग बुझाने आई,
मगर उसे भी जलाकर सबने खाक कर िदया।
फतेहपुरी पर गोरी फौज दनादन गोिलयाँ चला रही थी। भीड़ गली-कूच म घुसकर पीली
कोठी पहँची, जो रे लवे एकाउ ट लीय रं ग हाउस था। वह एक थानेदार कुछ िसपािहय के साथ
भीड़ पर िप तौल से गोली-वषा कर रहा था। भीड़ उस पर टूट पड़ी–पीली कोठी म आग लगा दी
गई और थानेदार को उसम झ क िदया गया। उधर पहाड़गंज म गोर के बैरक सुलगने लगे। एक
ही िदन म अनेक इमारत जलाकर छार कर डाली गई ं।
26
िशिशर िगर तार हो गया।
डा टर अमत ृ राय के घर म िवषाद का यह दूसरा चरण खुला। िदलीप का िनषेध थम चरण
था। उस चरण ने इस सुखी प रवार के जीवन म िच ता और उदासीनता क छाया उ प न कर दी
थी । डा टर अमत ृ राय और अ णा दोन के ही िलए यह िच ता थी। एक पोिषत मुि लम बालक
को अपना पु घोिषत करने पर िकन सामािजक बाधाओं का सामना करना पड़ता है–इस पर
अभी तक िवचार करने का उ ह अवसर ही न िमला था। अब एकाएक जैसे पहाड़ के समान कोई
बाधा उनके सरल जीवन म आ गई। िदलीप का याह म िकस धमिन िह दू लड़क से क ँ ?
कहाँ उसके आदश पर पली लड़क को पाऊँ? पाऊँ भी तो कैसे उसे और उसके प रवार को इस
वंचना म रखँ ू िक वह ज मजात मुसलमान का बालक नह है–हमारा औरस पु है? और यह
बात कट करने पर कौन िन ावान् िह दू उससे अपनी क या का िववाह करना पस द करे गा?
और यिद िदलीप का याह न हआ तो छोटे लड़क क याह-शादी िफर कैसे होगी? या कहकर
इस अपवाद का िनराकरण िकया जा सकता है िक बड़ा बेटा कँु आरा रहते हए छोट का याह हो
सकता है? छोट का याह न होगा तो िफर या होगा? लड़क का या होगा?’’...डा टर-द पती
को गहरी िच ता और याकुलता ने या कर िलया।
पर तु अभी तक यही िच ता पुरानी न पड़ी थी िक िशिशर क िगर तारी और जेल-या ा ने
उ ह ममा तक क िदया। िशिशर उनका सबसे छोटा बेटा था। सभी का यार उस पर था। उसका
इस कार जेल जाना इस प रवार पर व पात-सा हआ। एक गहरे शोक क छाया घर-भर म या
हो गई। अ णा और क णा ने रो-रोकर घर भर िदया। डा टर समझाते-बुझाते वयं भी रोने लगे।
सुशील क युिन ट था। उन िदन अं ेज़ से स िमल गया था। इसिलए क युिन ट अं ेज़
के समथक बन गए थे। वे कां ेस के िवरोध म आवाज़ उठा रहे थे। समानता और समाजवाद क
बात पीछे रह गई थ और कूटनीित ने उ ह पथ कर िदया था। देश म इस समय क युिन ट
के ित गहरा रोष छाया हआ था। हाल ही म यह अफवाह उड़ी थी िक सुभाषच बोस के भारत से
पलायन म क युिन ट ने सहायता क थी। पर तु इसके बाद ही स यु े म उतर आया था
और एं लो-अमे रकन गुट म सि मिलत हो गया था। इसिलए उ ह ने सुभाष के पलायन का सारा
भेद ि िटश सरकार को बता िदया था। इससे देश-भर म क युिन ट के ित अव ा और ोध क
भावना फै ल गई थी; य िप क युिन ट चीख-चीखकर चार कर रहे थे और अपने को िनद ष
मािणत करने क चे ा कर रहे थे। पर तु इसी समय क युिन ट के प ‘पीप स वार’ म
क युिन ट ने एक लेख छपाकर त कालीन यिू नयिन ट सरकार क िन दा क थी। िजससे
जगह-जगह क युिन ट का बिह कार हो रहा था, और उ ह पीठ म छुरा भ कनेवाला दगाबाज़
कहा जा रहा था। इसी समय एक और बात का भी भ डाफोड़ हआ था िक क युिन ट ने जमन
दूतावास से एक भारी रकम चुपचाप वसल ू कर ली है। ि िटश सरकार भी इनका िव ास नह कर
रही थी। और इनक दशा इस समय धोबी के कु े क भाँित हो रही थी। अं ेज़ जैसे बुि मान् जाित
के लोग यह बात अनायास ही समझ गए िक जो अपने देश के साथ िव ासघात करता है वह
हमारे साथ भी िव ासघात िकया करे गा। िफर भी क युिन ट इस समय सी. आई. डी. का काम
कर रहे थे।
सुशील िद ली क क युिन ट पाट का जनरल से े टरी था। िद ली राजधानी थी,अतः वह
बहत-सी गहरी कायवािहय म संल न था। वह बहधा दो-दो,तीन-तीन िदन तक घर से गैरहािज़र
रहता। इसी समय एक और बात हो गई थी–दो अप रिचत और रह यमय पु ष िछपकर समय-
समय पर उसके पास आने लगे थे। उनम एक का नाम अ छरिसंह था, दूसरे का हरनामिसंह।
वा तव म यही वे दोन गढ़ ू पु ष थे िज ह ने सुभाषच बोस को भारत से पलायन म मदद दी थी
तथा काबुल म सी दूतावास म उ ह ले गए थे। पर तु अब इ ह ने िद ली के क माफत सारे
भेद खोल िदए थे। और अब वे सी. आई. डी. क भाँित काम कर रहे थे।
सुशील य िप बहत सावधान आदमी था। य वह देश का श ु न था, पाट क नीित से वह
िववश था। और अब तो चाल बहत गहरी हो गई थ । िशिशर क िगर तारी से वह भी काफ चंचल
हआ। उधर सभी का यह स देह था िक इस िगर तारी म सुशील का हाथ है। डा टर और
अ णादेवी ने उससे बोलचाल और बातचीत भी ब द कर दी थी।
िदलीप िशिशर को खास तौर पर यार करता था और उसक िगर तारी से उसे बहत गु सा
चढ़ आया था। उसका वभाव ही तीखा था। माता-िपता का दु:ख देखकर वह और भी अि थर हो
गया। अं ेज़ी हकूमत का तो वह िवरोधी था ही। उसने अपने रा ीय संघ के त वावधान म एक
िवराट् सभा का आयोजन िकया और उस सभा म उसने जो भाषण िदया, वह भाषण न था
वालामुखी का िव फोट था। उसने कहा :
‘‘भाइयो, गत चालीस साल से हम यह अनुभव कर रहे ह िक अ धकार म डूबी हई जाित के
भीतर एक नवीन जाित ज म ले रही है। ाचीन िह दू जाित धम लािन के कारण ु ाशय हो गई
थी। िजसे अनेक महा माओं ने अपनी शि और ितभा को खच करके िवप काल से उभारा,
उ ह के अमोघ भाव से आज नवीन जातीयता के बीज उगते िदख रहे ह। किलयुग, अ धकार
का जो युग था, आज वह ख म हो रहा है। देश का त ण-म डल अि न फुिलंग के समान पुराने
झ पड़े को ढहाकर नए महल का िनमाण कर रहा है। इस नवीन स तित ने िजस काम का बीड़ा
उठाया है उसे वह िबना परू ा िकए शा त न होगी। हमारा रा ीय संघ वही अजेय संगठन है। हमारी
इस नवीनता म भी ाचीनता का भाव है। म डं के क चोट पर कहता हँ िक भारत जब वत
होगा उसक यही िवशेषता उसे संसार के रा का िशरोमिण बनाएगी।’’
सभा म ममर- विन उठी। िदलीप ने कुछ ककर कहा, ‘‘अं ेजो, तुमने भारत को पराधीन
िकया है। पर िकस उ े य से? िक तुम उसके बदले म गहरा हाथ मारो? तुम हम धम- वता य
देने क बात कहते हो, पर अपने धम पर तु ह खुद आ था नह है; न तु हारे भाव धम को छू गए
ह। तुम धम को एक यथ ढ ग समझकर तु छ जानते हो। भारत के िवशाल मैदान म धम के
झगड़ म पड़ने से तुम डरते भी थे। इन झगड़ के किठन प रणाम से तुम सावधान थे। इसी से
धम म आड़ न लगाई। मगर तुमने धम को उ ेजन िदया। िकसिलए तुमने िमशन रय को
अपना सगा समझा था? तु हारे रा य म िह दू लड़क को और लड़िकय को य बाइबल
ज़बद ती पढ़ाई जाती है? इन सब चाल को हम समझते ह। िफर दाशिनक िह दुओ ं और क र
मुसलमान को धम िसखाना टेढ़ी खीर था। तु ह बैर भड़क उठने का भय था। तुमने मैसरू और
वािलयर वत िकए, इसिलए िक इन टुकड़ को डालकर दूसर का भ कना ब द कर।’’
सारी सभा उ म हो उठी। लोग हाथ उठा-उठाकर कहने लगे, ‘‘चले जाओ अं ेज़ ,
िह दु तान छोड़ दो! तुम खन
ू ी हो–डाकू हो!’’
िदलीप ने शा त होकर कहा :
‘‘और आज? समय का च घम ू गया है। यरू ोप क लाश िससक रही है।ढह गया तु हारा
सा ा य! अं ेज़ ,अपनी खैर मनाओ और यहाँ से चले जाओ!” अभी िदलीप के मँुह से ये श द
िनकले ही थे िक धड़ाम-धड़ाम चार ओर ‘ ािह- ािह’ होने लगी। सैकड़ आदमी घायल होकर
तड़पने लगे। खन ू के फ वारे चलने लगे। सभा-भवन म भगदड़, हाहाकार मच गया। सारा ही
सभा थल पुिलस और सेना ने घेर िलया था। जो मर गए थे, वे औंधे मँुह पड़े थे। जो िज़ दा थे वे
िससक रहे थे। जो घायल होने से बचे थे उ ह पुिलस के यमदूत पकड़ रहे थे, पकड़े हए लोग का
अ दूत बनकर िदलीप पुिलस क लारी म जा बैठा।

27
िशिशर को पाकर िदलीप को स नता हई। उन िदन जेल अ धाधु ध भरी हई थ । छोटे-बडे ़
नेता चार ओर से जेल म ठूँसे जा रहे थे। दमन और अ याचार के दौर से जेल भी मु न थ ।
पर तु ऐसा तीत होता था िक जैसे देश का ता य जाग उठा हो। उन वेदनाओं और क क
िकसी को िच ता ही न थी।
िदलीप ने आते ही जेल म रार ठान ली। उसने कहा, ‘‘म िन ावान् िह दू हँ। मुझे
िन यकम, पज ू ा करने क सुिवधा दी जानी चािहए। मेरा भोजन भी वत होना चािहए। म िजस-
ितसके हाथ का छुआ भोजन न क ँ गा। िजन बात से मेरी धािमक भावना को ठे स पहँचेगी उनके
िव म आमरण अनशन क ँ गा।’’
पर तु िदलीप क सभी माँग अ यवहाय थ । जेल के ब धक उ ह कैसे मान सकते थे?
िफर िदलीप एक ‘सी’ ेणी का कैदी था। कोई ग यमा य लीडर भी न था। य िप उसका वह
पहला तीखा भाषण इतना ज़बद त हआ था िक उसी से धाक बंध गई थी। प रणाम यह हआ िक
जेल म आने के दूसरे िदन उसने भख ू -हड़ताल शु कर दी, उसक सहानुभिू त म िशिशर ने भी
हड़ताल क । साथ ही कुछ कां ेसी और कुछ रा ीय संघी कैिदय ने भी। शी ही जेल के
वातावरण म इस हड़ताल ने एक नई उ ेजना क लहर उ प न कर दी। कैदी झम ू -झमू कर
‘भखू हड़ताली िज़ दाबाद’ के नारे लगाने लगे। एकाध छोटा-मोटा दंगा भी हो गया। जेल के
िनयम म कड़ाई बरती गई, पर भख ू -हड़तािलय क सं या बढ़ती ही गई और बढ़ते-बढ़ते अब
कुल सौ त ण ाणदान देने अकड़कर बैठ गए।
य - य िदन बीतने लगे, जेल अिधका रय क िच ताएँ बढ़ने लग । इसी समय आगा खाँ
महल म ब दी महादेव देसाई क अक मात् म ृ यु क खबर हवा म तैरती आ गई। जेल क दीवार
को भी उसने लाँघ िलया। इससे वातावरण बहत ु ध हो गया। इन त ण को समझाने-बुझाने के
िलए नेताओं का योग भी िकया गया, पर प रणाम कुछ न िनकला। िदलीप ने कहा, ‘‘अपना
धािमक िव ास म ाण रहते नह छोडूँगा। म सं या-व दन, िन यकम करके अपने हाथ से बना
भोजन ही खाऊँगा। नह तो म ाण दँूगा।’’
िववश अिधका रय को झुकना पड़ा। उसे कुछ सुिवधाएँ दे दी गई ं। पर तु इसके बाद ही उन
उप वी त ण को िभ न-िभ न जेल म िबखेर िदया गया। िदलीप को मु तान भेज िदया गया,
पर तु िशिशर को िद ली ही म रखा गया। दोन भाई आँसू बहाते अलग हए।
िशिशर एक आदशवादी कां ेसी था। अत: उसने जेल म िफर कोई उप व नह िकया। य िप
उसे वहाँ कुछ काम-धाम न करना पड़ता था, पर तु वह उदास और अनमना रहता था। जेल-
जीवन उसे पस द न था, वह रह-रहकर राजिव ोह क बात सोचता रहता। पढ़ने-िलखने को भी
उसे यहाँ कुछ सुिवधाएँ िमली थ –इससे उसके ान क विृ तो यहाँ खबू हई, पर उसका वज़न
बहत घट गया। उसका वा य भी िगर गया।
जब क णा के साथ डा टर और अ णादेवी उससे िमलने आए तो बातचीत क अपे ा चार
आदिमय ने मौन दन ही अिधक िकया।
पर तु िदलीप एक जलता हआ आग का अंगारा था। जहाँ जाता था, आग लगा देता था।
ह क कारवाई उसे पस द न थी। मु तान जेल म जाने पर रात के ग भीर वातावरण म उसने
सुना जैसे सुदूर अ त र म कोई देव, ग धव, िक नर स वर वीणा, मदृ ंग, मुरज बजाकर गान
कर रहे ह। इस कुि सत जेल के वातावरणा म उसे यह संगीत- विन िविच -सी लगी। कौन यहाँ
गाता है? या अ त र के देवता हम पीिड़त को आन द-स देश देते ह? वह ालु तो था ही–
ऐसे ही िवचार उसके उ प न हए। पर उसे अिधक देर इस रह य के जानने म न लगी। उसे
एका त-यातना भोगने के िलए आ ा िमल गई और वह हथकिड़य और डं डे-बेिड़य से जकड़कर
एक अ धकूप म ला डाल िदया गया।
यह एक िवशाल तहखाना था इसम सय ू का काश भी न जा पाता था। रात-िदन घोर
अ धकार रहता था। ात:काल शौच आिद से िनव ृ होने को आधे घ टे के िलए जब कैदी िनकाले
जाते तब उ ह सय ू के काश और खुली वायु क ाि होती थी। इसके बाद डं डे-बेड़ी और
हथकिड़य म कसे उ ह उसी अ धकूप म पड़ा रहना पड़ता था। भोजन भी उ ह वह िमल जाता
था। इस अ धकूप म जाकर उसने देखा, कुल बाइस कैदी ह, िजनम दो को छोड़कर सभी त ण
थे। उन दोन म एक िकसी यिू नविसटी के ोफेसर थे। दूसरे पंजाब के िस डा टर थे। रात को
य , ग धव, िक नर जो अ त र -गान करते थे उसका भी भेद खुल गया। वह नाद- विन यह ,
इसी तहखाने से उठती थी। वीणा, मुरज, मदृ ंग के थान पर अपनी हथकड़ी-बेिड़याँ बजाते थे।
वे सब के सब एक ाण थे। सभी राजनीितक ब दी थे। तोड़-फोड़ के, लटू और ह या के,
अि नदाह के ग भीर आरोप उन पर थे। पर तु जैसे वे दुिनया-भर के बेिफकरे थे। िच ता और
शोक उनसे कोस दूर थे। वे हँसते, मज़ाक करते, कहकहे उड़ाते, किवता करते, तान-अलाप
उड़ाते और िकसी भी बाधा को न मान शाही तरीके से रहते थे। दोन बुजुग ़ को वे अपना मुर बी
मान रहे थे। हँसना तो उनके साथ उ ह भी पड़ता था, पर तु वे ज़रा ग भीर थे। पर इन त ण के
ित उनके ेम क थाह न थी। िदलीप के पहँचते ही येक ने उसे छाती से लगाया, पेशानी चम ू ी
और कहा, ‘‘आज हमारा और एक भाई पैदा हआ। इस खुशी म अभी एक जलसा होना चािहए।’’
और जलसे का जब रं ग जमा तो उस म ती, बेिफकरी और आन द क लहर म िदलीप िवभोर हो
गया। उसक आँख से आँसू िनकल आए, और जब उसका भोजन आया तब िजस भोजन के
को उसने अपनी धमिन ा समझा था, ड डा-बेड़ी सह , यातनाएँ भोग , भख ू -हड़ताल क , उसे
यहाँ ि थर न रख सका। उसने नेह-ग द क ठ से कहा, ‘‘भाइयो, म एक िन ावान् िह दू हँ।
और अपने िव ास के अनुसार छुआछूत का यान रखता हँ। यह मेरे ज मजात सं कार ह। इनके
िलए िद ली जेल म मने ाण क बाज़ी लगा दी थी। यहाँ भी तो आते ही इसी बात पर अड़ गया
था, पर तु अब म आपसे अलग नह हो सकता। मेरी अब अलग िबरादरी-जातपाँत नह कायम रह
सकती। अब म तो आपके साथ हँ। आपका छोटा भाई हँ।’’
सब लोग ‘हरा-हरा‘ कहकर िच ला उठे । और एक बार बेिड़य से डं ड पर हथकिड़य क
नपी-तुली चोट पड़ने लगी। कैिदय म एक त ण का नाम था– काशच । ल बा, दुबला-पतला,
िनरीह-सा आदमी–ि य जैसी भी आँख, सु दर लाल ह ठ, मदृ ु और कोमल ठोड़ी; क ठ- वर
म वह माधुरी और लोच था िक वाह! उसने अलाप िलया, ‘‘आज मोरे अँगना म खेलते लाल! न-
झुन, न-झुन...’’ िदलीप क आँख से आँसू बरस उठे –झर-झर, झर-झर। बेिड़य पर सचोट ताल
बैठ रही थी। यार और म ती झम ू रही थी। िदलीप िवभोर हो बैठा रहा, देर तक अपने ही आँसुओ ं
के मँुह म भीगा, सराबोर।
और इस कार यह दा ण यातना क घिड़याँ उन त ण के साथ कोमलतम प धारण
करके बीतती चली जा रही थ । पर तु िदलीप का एक वैिश ् य तो था ही, वह िछपा न रहा। दो ही
िदन म वह उस म त त णम डली का नेता बन गया। धीरे -धीरे उसने उनके मन म िह दू,
िह दी, िह दु तान क आग सुलगा दी। सभी त ण देशभ थे। कुछ कां ेसी अव य थे, पर
अिधक रा ीय संघी ही थे। वे भी एक ही वर से िदलीप को अपना नेता बना बैठे। अब िन य ित
उनक मीिटंग होती। उसम िभ न-िभ न राजनीितक और धािमक मसल का िववेचन होता।
िदलीप क ितभा ने इस समय मानवता का स पुट लगाकर एक नवीनतम भ य प धारण कर
िलया था। वह उस म डली का एकमा व ा था।
ोफेसर का नाम था िसयारामशरण। वे गु दासपुर म दशनशा के धाना यापक थे।
इं लड और जमनी क डा टरे ट ा थे। िव दश और बहपंिडत थे। ग भीर, मन वी और शा त
थे। दंगाई िव ािथय को िछपाने का य देने का उन पर आरोप था। ब च के समान सरल
आदमी थे। वे एक कार से मौन ही रहते थे। त णम डली के सारे उप व िनरीह भाव से सहते।
जब वे सब हँसते तो साथ देने को वे भी मु करा उठते थे। बहधा वे घंट चुपचाप समािध थ-से बैठे
रहते। य वे सभी के ाभाजन थे। इसके िवपरीत डा टर साहब बड़े वाचाल थे। अमत ृ सर म
हो योपैथी क िै टस करते थे। एफ. ए. फेल थे। पर बड़े भारी िव ान् और भारी डा टर का ढ ग
रचते थे–त णम डली उ ह बनाती भी खबू थी। पर वे बनकर भी न बनते थे। लतीफे सुनाने तथा
बामुहावरा ग प लड़ाने क उनम अ ुत मता थी। इससे सभी लोग उनसे स न रहते थे।
‘बरखुरदार’ उनका तिकयाकलाम था। बात-बात म वे कहा करते, ‘बरखुरदार, ये बाल मने धपू
म सुखाकर सफेद नह िकए! बहत-कुछ खोकर कुछ पाया है। मेरी नेक नसीहत सुनो।’’ आिद-
आिद। ये दोन भ पु ष हठी और आ मािभमानी होने के कारण जेल-िनयम क अव ा करके
इस अ धकूप म इन त ण के साथी आ बने थे। जो हो, सबक मजे़ म गुज़र रही थी, और जब उस
दल का नेता िदलीप बना तो इन दोन िनरीह भ पु ष ने भी चुपचाप उसे वीकार कर िलया।
ोफेसर तो मु कराकर ही चुप रह गए पर डा टर ने कहा, ‘बरखुरदार, हो तो तुम बहत
होिशयार, बात भी पते क कहते हो, पर तजुबा कम है। हमारी तरह जब तु हारी दाढ़ी सफेद होने
लगेगी तब कुछ समझोगे!’’
िदलीप जवाब न देता। यार लोग िखलिखलाकर हँस देते। काश तभी एक तान छोड़ देता।
और वह मनहस वायुम डल मुख रत हो उठता।

28
िशिशर का जेल-जीवन िबलकुल एक दूसरे ही ढं ग का था। िद ली जेल म कुछ िवशेष बात
थ । िवशेष म िवशेष यह िक वहाँ एक आज म कैदी थे–मह तजी। पंजाब म वे िकसी भारी
गु ारे के मह त थे। िजस गाँव म गु ारा था, वहाँ हआ एक भारी िह दू-मुि लम िव ोह। उसी
म मह तजी पर सात आदिमय के क ल का केस चला था। फाँसी से वे बच गए थे, पर सारी
जायदाद, जो लाख क थी, ज़ त हो गई। और आज म कैद क सज़ा काट रहे थे। पर तु वे कहने
ही को कैदी थे। जेल के सुप रं टडट से लेकर साधारण कैदी तक उनका आदर करते थे। जेल के
बाहर-भीतर आने का भी उन पर ितब ध न था। एक कार से जेल के वे सहायक ब धकता
थे। बाज़ार जाना, सौदा सुलफ खरीदना, जेल क बनी व तुएँ बाज़ार म बेचना सभी काम
मह तजी करते थे।
जेल के कैिदय के वे आधारभत ू पु ष थे। कहना चािहए–वे कैिदय के क पव ृ थे। कैिदय
को अिधक से अिधक आराम पहँचाना उनका ध धा था। उ ह एक वत कोठरी रहने को दी
हई थी। वह कोठरी सविसि क दाता थी। मह तजी ने कोठरी म एक गु गढ़ा खोद रखा था।
उस गढे ़ म एक बड़ा-सा ब स ज़म दोज़ रखा था। यह बात नह िक उस ब स का जेल-
अिधका रय को पता ही न हो। जानते सब कोई सब कुछ थे–पर तु न जानने का ही ढ ग रचते
थे। उस ब स म सब कुछ समाया था। जो कैदी िजस व तु क इ छा करता, वही उसे उस खज़ाने
से ा होती थी। अफ म और च डू से लेकर तेल-फुलेल, बीड़ी-िसगरे ट तक सभी व तुएँ मह तजी
स न होने पर कैिदय को देते रहते थे। इससे कैदी जेल म मह तजी को अपना परम िहतकता
और सहायक मानते थे। गलती और अपराध करने पर भी कैदी मह तजी क शरण जाकर द ड
से बचे रहते थे। योहार-पव पर िमठाइयाँ-पकवान सभी कैिदय को उनक बदौलत िमल जाते थे।
मह तजी का यि व भी भावशाली था। सफेद उ वल नािभ तक लटकती दाढ़ी, भरा
हआ शरीर, खबू ल बा-चौड़ा कद, बड़ी-बड़ी जटाएँ , भगवा व । आँख म िनभयता और ेम,
ह ठ पर हँसी। वाणी म यं य और क ठ म माधुय। संगीत के उ ताद। मािमक किव। सैकड़
कथाओं के जानकार। ऐसे ही मह त िग रराजपुरी थे। उनके मँुह से मीठी गािलयाँ खाकर जेलर
और कैदी दोन ही हँस पड़ते थे। मह तजी िजसे गािलयाँ दे देते उनका काम िस हआ माना
जाता था।
सन् ’42 के भ भड़ म िशिशर जैसे न जाने िकतने दुधमँुहे बालक जेल म आ गए थे। उन
सब पर मह तजी क ि और संर ण था। ये सब क ची बुि के लड़के ज़रा-ज़रा-सी बात पर
जेल का िनयम भंग करके कड़ी सज़ाएँ पाते थे, पर मह त इनक र ा करनेवाली ढाल बन जाते
थे।
िशिशर के जेल म पहँचते ही मह तजी क नज़र उस पर पड़ गई। िशिशर अनुभवहीन
बालक था। जाते ही उसने जोश म आकर कुछ ऐसी गड़बड़ क िक उसे बत क सज़ा दे दी गई।
पर य ही मह तजी को मालम ू हआ, वे उसे उठाकर अपनी कोठरी म ले गए और बत क सज़ा से
उसे बचा िलया।
िद ली जेल म इस समय बहत भीड़-भाड़ हो गई थी। यह सब भीड़ कुछ ऐसी बेकसी, बेतुक
थी िक जेल अिधकारी भी उस पर यादती करते घबराते थे। िफर बाहर चार ओर से भयंकर
समाचार आ रहे थे। तोड़-फोड़ और दमन दोन ही धम ू धाम से चलते जा रहे थे।
एक िदन डा टर और अ णादेवी जेल म िशिशर से मुलाकात के िलए आए। िशिशर ने एक
िच ी माता अ णादेवी को देने क चे ा क पर तु वह जेल अिधकारी ने छीन ली। दोन म काफ
हाथापाई और िलपटा-िलपटी हई। मुलाकात तुर त ब द कर दी गई, और िशिशर को जेल
सुप रं टडट के सामने पेश िकया गया। सुिप रं टडट ने कहा, ‘‘ या कारण है िक तु हारी सब
सुिवधाएं न छीन ली जाएँ , और तु ह काल-कोठरी क सज़ा न दी जाए?’’
‘‘मने तो आपसे सुिवधाओं को देने तथा कालकोठरी म न भेजने का अनुरोध नह िकया।’’
‘‘लेिकन तुम जेल के िनयम को य तोड़ते हो?’’
‘‘वह तो मेरा पेशा ही है। म जो चाहँगा वह क ँ गा और आप जो चाह वह क िजए।’’
पर तु इसी समय मह तजी वहाँ आ उपि थत हए। उ ह ने सुप रं टडट को कुछ िझड़कते हए
कहा, ‘साहब, आप भी या दुधमँुहे ब च के मँुह लगते ह। चार िदन क हवा है, ख म हो जाएगी।
नाहक आप जेल म झगडे ़ खड़े करने के कारण पैदा कर रहे ह। जाइए, म िज़ मा लेता हँ, यह
लड़का अब कोई काम जेल के िनयम के िव न करे गा।’’
और वे िशिशर का हाथ पकड़कर ख चते हए ले गए। ऐसा ही भाव मह तजी का िद ली
जेल म था।

29
य िप देश के चोटी के नेता इस समय जेल म ब द थे, िफर भी देश म जो इतनी बड़ी
ाि त हो गई उसका एक मल ू कारण था। इस समय दो यि य का भाव देश पर था। एक
जवाहरलाल नेह , दूसरे सुभाषच बोस। जवाहरलाल जेल म थे और सुभाष देश से बाहर। पर तु
दोन ही के काय-कलाप हवा म तैरते हए आते और लाख -करोड़ त ण को एक मक ू स देश दे
जाते थे। ये दोन ही नेता जैसे देश क त ण-म डली क भावना म अशरीरी होकर या हो गए
थे।
सुभाष बाबू उ तम दल के एकिन नेता थे। इस स ब ध म दूसरी बात नह कही जा
सकती थी। जवाहरलाल भी देश-िवदेश म उ वादी कहे जाते थे। प ही वे सा ा य-िवरोधी तो
थे ही, समाजवादी िवचारधारा भी उनके दय म वािहत हो रही थी। कहना चािहए िक
जवाहरलाल गाँधीजी के अिहंसा-िस ा त को नीित के प म मानते थे, िस ा त के प म नह ।
उनम उ साह था, जोश था, तेज था और ि याशीलता थी। देश के युवक पर उनका भाव था।
जब वे बोलने खडे ़ होते थे, तो ऐसा तीत होता था मानो एक सेनापित अपने सैिनक को उनके
क य-पालन क िश ा दे रहा है।
पर सुभाष क बात ल छे दार नह होती थ । वे तो सीधी चोट करते थे। आदश उनका भी
समाजवादी था। ि याशील भी वे नेह से िकसी हालत म कम न थे। पर तु उनका अपना
यि व था और उनक अपनी आकषण-शि बड़ी िविच थी।
िफर भी इन दोन नेताओं म एक गहरा अ तर था। देश के ित और अपनी सेना के ित
िकसी सेनापित का क त य होता है िक वह यि य के भाव से परे रहे । पर तु जवाहरलाल
कां ेस के अनुशासन और गाँधीजी के नेत ृ व के आगे सदैव िसर झुकाते रहे । यहाँ तक िक कभी-
कभी उ ह ने अनुशासन के नाम पर अपने िस ा त तक क बिल दे दी। सन् 1936 म जब
लखनऊ म कां ेस के वे अ य थे, तब अ य -पद से कां ेस के ारा पद हण करने का
उ ह ने ती िवरोध िकया। साथ ही िकसान के पथ ृ क् संघटन पर ज़ोर ही नह िदया बि क यहाँ
तक कहा था िक ेणी-सं थाओं को कां ेस म सामिू हक ितिनिध व देना चािहए। वे उन िदन
अपने भाषण म समाजवादी िस ा त का चार करते थे और मि म डल बनाने के िवचार का
मज़ाक उड़ाया करते थे। पर तु जब सन् 1937 म मि म डल बना तो वे मि म डल के क र
समथक हो गए।
लाल झ डे के स ब ध म भी नेह के िवचार मह वपण ू थे। उन िदन िकसान-सभाओं म
लाल झ डा फहराया जाता था। कुछ कां ेसी,जो िकसान-सभाओं के िवरोधी थे, लाल झ डे के
योग का िवरोध करते थे। उ ह ने जब जवाहरलाल से यह बात कही तो उ ह ने गरजते हए कहा,
‘‘लाल झ डा िकसान का है। वह आएगा और ज़ र आएगा!’’ पर तु उसी साल जब अयो या म
ा तीय राजनीितक स मेलन हआ तो वे लाल झ डे के बड़े िवरोधी बन गए। िकसान-सभाओं का
भी िवरोध करने लग गए। जो जवाहरलाल कभी कां ेस के भीतर उ िवचारवाल क एकता के
क र समथक थे, उ ह ने अपनी आ मकथा म उ िवचारवाल क िन दा क ।
इसी कार सुभाषच बोस ने सन् 1939 म जब देश के वामप ीय दल के ितिनिधय
क उ एकता-सिमित बनाई तो उसे जवाहरलाल ने पस द नह िकया।
सुभाष बाबू का ि कोण दूसरा था। वे इन पर िस ा त क ि से िवचार करते थे।
उनका कहना था िक यवहार के स ब ध म िकसी से समझौता िकया जा सकता है, पर
िस ा त क बिल नह दी जा सकती। उनका याल था िक अनुशासन और एकता क र ा
तभी हो सकती है जब लोग क िस ा त-नीित और काय णाली एक हो। िविभ न िवचार के
माननेवाल म नीित और िस ा त -स ब धी संघष होगा ही। और िजसके िस ा त और नीित
समयानुकूल होगी उसक िवजय होगी। वे अपने िस ा त पर ढ़ थे। पर तु वे कां ेस म अनै य
और अनुशासनहीनता उ प न करना नह चाहते थे। वे यह भी समझते थे िक कां ेस के सभी
जन सा ा य-िवरोधी ह इसिलए उनम काय और नीित-स ब धी एकता क बड़ी आव यकता है।
पर वे समझते थे िक कां ेस क नीित और काय प ित समयानुकूल नह है; उसम प रवतन
होना चािहए। वे देश क वत ता के पर ि िटश सा ा यवाद से कोई भी समझौता करने
के क र िवरोधी थे। जवाहरलाल भी यह जानते तथा मानते थे, पर वे अनुशासन के नाम पर
पुराने ि कोण के थान पर नए ि कोण को थािपत करके संघष पैदा करना नह चाहते थे।
वे अनुकूल समय क ताक म थे।
भारत के त ण के इन दोन ितिनिधय म ये िवचार-िभ नताएँ थ । पर तु यु क
समाि पर तो वह अ तर और साफ हो गया। जवाहरलाल यु को लोकत वािदय और
फािस ट के बीच का यु समझते थे। इसी से तथाकिथत लोकत -समथक ि टेन और
अमे रका को िकसी कार का आ दोलन करके परे शान नह करना चाहते थे। और, जब याग
म हई कां ेस कायसिमित म गाँधीजी ने ‘भारत छोड़ो’ ताव रखा तो जवाहरलाल ने उसका
िवरोध करते हए कहा, ‘‘इससे अमे रका और अं ेज़ हमारे िवषय म या सोचगे?’’ और ब बई म
‘भारत छोड़ो’ का ताव पास होने के कुछ पहले ही उ ह ने प -संवाददाताओं से सुभाष क चचा
चलने पर कहा, ‘‘हम अपने देश क वत ता के िलए ऐसे िकसी देश क सहायता का वागत
करगे जो हमारी वत ता के अिधकार को वीकार करे । पर तु हम अपने श ु क दुबलता से
लाभ नह उठाना चाहते। और न उसे संकटकाल म परे शान ही करना चाहते ह। जहाँ तक सुभाष
बाबू का स ब ध है–उनसे हमारा मतभेद रहा है; और अब तो हमने एक-दूसरे के िवपरीत माग
हण कर िलया है। मेरा िव ास है िक सुभाष धुरी रा से िमल गए ह, और यिद उ ह ने भारत
पर जापानी सेना लेकर आ मण िकया तो म तलवार लेकर उनका मुकाबला क ँ गा!’’
सुभाष बाबू का याल था िक ि टेन यु -संकट म फँसा है। यही अवसर है जब उस पर
हमला करके उसे धल ू म िमलाया जा सकता है। सा ा यवाद के दय-प रवतन म उ ह तिनक भी
िव ास न था। वे तो इस नीित पर चल रहे थे िक श ु का श ु िम और श ु का िम श ु।
यही िवचार थे, िजनके कारण उ ह ने यु शु होते ही इस बात पर ज़ोर िदया था िक अब
देश अपनी वत ता क घोषणा कर दे। वे गाँधीजी क ‘ठहरो और ती ा करो’ क नीित
पस द नह करते थे। वे समझते थे िक यिद हम इस अवसर को हाथ से िनकल जाने दगे तो यु
के बाद सा ा यवाद हमारी गुलामी क ज़ंजीर को और भी ज़ोर से जकड़ देगा।
इसी से उ ह ने गाँधीजी को एक प भी िलखा था :
‘‘हम लोग यहाँ िह दु तान क आज़ादी के िलए िह दु तान क ज़मीन पर लड़ रहे ह। हम
मौत को पीछे धकेलकर आगे बढ़ रहे ह। हमारा यह सं ाम तब तक चलता रहे गा जब तक िक
आिखरी अं ेज़ वेज़ के पार नह धकेल िदया जाता।’’
और वह िदन भी आया जब गाँधीजी ने ‘भारत छोड़ो’ का अि नबाण छोड़ा। और जैसे िकसी
जादूगर के जादू से िवमोिहत हो अं ेज़ भारत को छोड़ चले।
िदलीप और िशिशर जब छूटकर घर आए, तो दोन म ग भीर प रवतन हो गए थे। िशिशर
अिधक ग भीर और िदलीप अिधक उ हो गया था। उसके भीतर और बाहर जैसे आग जल रही
थी। वह बहत कम घर म रहता, बहत कम िकसी से बोलता था। केवल क णा उसका यान
रखती थी।
िदलीप और िशिशर घर आए तो, पर घर म से िवषाद का वातावरण दूर नह हआ। ऐसा
तीत होता था जैसे घर का येक पु ष िच ता के भार से दबा हआ है। िदलीप िजतना ही संयत
होना चाहता, उतना ही वह असंयत होता जाता। िजतना ही वह अपने को माया से िवमुख करना
चाहता, उतना ही माया के ित उसका िखंचाव बढ़ता जाता। वह येक ण अब केवल माया को
भलू ने के िलए राजनीितक और सा दाियक दल-बि दय के ताने-बाने बुनता, पर येक ण
जैसे उसक िवचारधारा कुि ठत होकर उसके स पण ू चैत य को माया क ओर ले दौड़ती। जेल-
जीवन म वह कुछ उदार हआ था और माया के ित िनमम यवहार अब उसे और भी खल रहा था,
िफर भी वह मन ही मन घुटा जा रहा था। वह िकसी से मन क यथा कह न पाता था। माँ से वह
कभी-कभी कहना चाहता था, पर तु कह नह सकता था। सुशील सबके स देह और अ ा का
भाजन बना, अपने आ मस मान क र ा के िलए अब खीजा रहता। घर के सभी लोग से वह
कटुभाव रखता। घर के लोग भी कुछ उससे डरते, कुछ िवरि कट करते। िशिशर अिधक
ग भीर हो गया। जेल-जीवन ने उसके मन म आ म ाघा के भाव भर िदए और वह देश और रा
के िलए बडे ़-बड़े काम करने क योजना बनाने लगा। थानीय कां ेस कमेटी म भी उसका वेश
हो गया। पढ़ना-िलखना छोड़ िदया। क णा अपना मेिडकल कर रही थी। घर म अब उसे कोई
साथी ढूँढ़े न िमलता था। वह सन ू ी-सन
ू ी-सी रहती। माता को उदास देखकर वह चाहती, माँ को
खुश रखे, पर कोई उपाय सझ ू न पड़ता था। उसने संगीत म मन लगाना चाहा। िशिशर को उसने
अपना साथी बनाना चाहा, पर यह भी न हआ। जब-तब वह िसतार को छे ड़ती या कभी कोई
सखी-सहे ली कॉलेज क आ जाती तो उसका मन बहल जाता। अ णादेवी को अब अपने ब च क
याह-शादी क िच ता सता रही थी। िदलीप क बाधा अब पहाड़ होकर उसके सामने अड़ गई थी।
कैसे वह इस बाधा को पार करे , यह तय नह कर पाती थी। पित से भी अब उसक बातचीत का
यही मु य िवषय थी। जीवन, दा प य, गहृ थी–सबसे ऊपर यह बोझ उ ह मारे डाल रहा था।
डा टर पर भी यह िच ता-भार था; इसके अित र वे यह भी सोचते थे िक लड़के पढ़-िलखकर
कुछ काम-ध धा नह करते, उनका जीवन अ यवि थत हो रहा है। केवल इसीिलए नह िक इसम
जीिवका का था। डा टर को पए-पैसे क कमी न थी–मु य उसके सामने यह था िक
कह लोग इन लड़क को आवारागद न समझ ल, उनक पा रवा रक साख न डूब जाए। डा टर
क इस िच ता पर जब िदलीप के ज म-रह य और उसके िवचार क िच ता का भाव होता था,
तब डा टर इस उ म भी िवचिलत हो जाते थे।
क णा ने एक िदन एका त रात म बैठकर माया को एक खत िलखा। खत बहत ल बा
था। खत का ार भ हआ था ‘भाभी’ से। और अ त हआ था, ‘ज दी आओ भाभी’ से। बीच म बहत-
सी बात थ । अिधकांश म भैया क । बड़े भैया जेल गए। जेल से आ गए; अब वे गुमसुम अकेले बैठे
रहते ह। न उ ह खाने क सुध है, न कपड़ क । वे कभी नह हँसते। पहले जब वे हँसते थे, तो
मालमू होता था पहाड़ फट पड़ा। पर अब वह हँसी गायब हो गई है। वे रात-रात-भर छत पर चटाई
पर पड़े तार म कुछ देखते रहते ह। िकसे देखते ह भला भाभी? बताओ तो। अ छा, म ही बताती
हँ–तु ह देखते ह। तुम आओ तो वे तुर त हँस पड़। और म भी इतना हँसं ू भाभी, िक बस समेटे से
न िसमटूँ। और म तो बैठी-बैठी च क पड़ती हँ। ऐसा मालम ू होता है, तुम आ रही हो। ज़रा आहट
पाई, समझ िलया, तुम आई हो। अ माँ जब तु हारी याद करती ह, आँख भर लाती ह। मेरी अ छी
भाभी, तुम अ माँ को लाती हो। तुम आओ तो हम सब हँसगे। बोलो कब आओगी?
प म इसी तरह क बहत बात थ । कुछ इधर-उधर क कहकर िफर ‘कब आओगी, कहो’
यही रट थी। खत भेज िदया गया। उसक चचा क णा ने िकसी से नह क । खत का जवाब
आया। माया ने केवल एक पंि जवाब म िलखी थी–‘‘अपने भैया से कहो–आकर ले जाएँ ।’’
क णा के मन क कली िखल गई। उमंग म दौड़ी-दौड़ी िदलीप के पास पहँची। अबोध
बािलका क तरह खत को कपड़ म िछपाकर कहा, ‘‘बताओ तो बडे ़ भैया, मेरे हाथ म या है?’’
‘‘म या जानं?ू ’’
‘‘वाह, जानना पड़े गा!’’
‘‘ज़बद ती है कुछ।’’
‘‘है ही, बताओ या है?’’
‘‘िब ली का ब चा है।’’
‘‘वाह!’’
‘‘बागड़िब ला है।’’
‘‘ठीक बताओ, नह तो हार मानो।’’
‘‘मान ली हार, अब जा त।ू ’’
‘‘देखोगे नह ?’’
‘‘ या?’’
‘‘वह चीज़।’’
‘‘ले जा, तू देख-भाल ले।’’
‘‘पीछे माँगोगे तो नह दँूगी।’’
‘‘पर है या?’’
‘‘म नह बताती।’’
‘‘मार खाएगी त।ू ’’
‘‘कौन मारे गा?’’
‘‘म मा ँ गा।’’
‘‘नह , तुम नह ।’’
‘‘तब कौन?’’
‘‘भाभी?’’ क णा ने आँख म हँसते हए कहा।
िदलीप ने मारने को उठते हए कहा, ‘‘जा, भाग, शैतान।’’ लेिकन क णा ने हाथ पसारकर
खत िदखा िदया।
‘‘िकसका खत है?’’
‘‘तुम बताओ।’’
‘‘मुझे या मालम ू ?’’
‘‘तो जाने दो।’’ वह चल दी। िदलीप ने कौतहू ला ा त होकर कहा, ‘‘बता िकसक िच ी
है?’’
‘‘बताऊँ?’’
‘‘बता।’’
‘‘भाभी क ।’’
‘‘दुत!’’ िदलीप ने जैसे िझड़कना चाहा पर उसक आँख फै ल गई ं। उसने कहा :
‘‘देखँ!ू ’’
‘‘नह िदखाती, जाओ।’’
‘‘अ छा, चल सुलह कर ले। ला िदखा िकसक िच ी है?’’
‘‘भाभी क है।’’
‘‘झठू ।’’
‘‘तो देख लो।’’
क णा ने िच ी िदलीप के हाथ म दे दी। िदलीप ने एक ि उस एक पंि क िच ी पर
डालकर कहा, ‘‘तन ू े या उसे खत िलखा था?’’
क णा ने वीकार िकया। िदलीप ने कहा :
‘‘ या िलखा था?’’
‘‘सब बात िलखी थ । तुम रात को तार म ‘भाभी’ को देखते रहते हो, यह भी िलख िदया
था। कभी हँसते नह हो, यह भी िलखा था–मने भाभी को ज द आने को िलखा था।’’
‘‘ य िलखा था तन ू े?’’
‘‘ठीक िलखा था। अब तुम जाओ भैया, झट भाभी को लेकर आओ। मेरा मन उनसे िमलने
को बहत करता है।’’
िदलीप ने ोध करना चाहा, िझड़कना चाहा। ‘‘तन ू े ठीक नह िकया,’’ कहना चाहा। पर
यह सब उससे कुछ न हआ। कुछ देर बाद उसने कहा, ‘‘अ छा, अब तू जा।’’
‘‘तो तुम कब जाओगे भैया?’’
‘‘बस, अब जा ही रहा हँ।’’
‘‘तो म माँ से जाकर कहती हँ!’’ यह कहती हई क णा भाग गई। िच ी क उस पंि को
मु ी म ज़ोर से भ चकर िदलीप एक अिनवचनीय सुख-समु म डूब गया।

30
बहत िदन बाद ह नबानू िद ली आई। रं गमहल ब द पड़ा था। वह बेमर मत और वीरान हो
गया था। ह नबानू ने बहत-से मज़दूर लगाकर उसे साफ कराया। नौकर-चाकर कोई साथ न था,
केवल एक बढ़ ू ी दासी थी, जो उसक सवािधक िव ासपा ी और उसके दु:ख-दद क सािथन थी।
इस दुिखया ी क दुभा य-कहानी हमने कही ही नह । वह कही जाने के यो य भी नह ।
अ ाईस वष बाद ह न िद ली आई थी। जब वह नविववािहत दुलिहन बनकर अपनी सब आशा,
उ साह, उमंग और असामा य दय-धन गँवाकर, केवल च पक-कुसुम-सम कमनीय प-सुषमा
लेकर, उस पागल, नपुंसक, कोढ़ी नवाब क प नी बन, तीन-तीन सौत क िवष ि क
िशकार बन पितगहृ गई थी तो जैसे उसका कुसुम कोमल गात स ताप क वाला से ध-ू धू जल
रहा था। उसने अपने बडे ़ अ बा के ित अतुल यार और स मान मन म रख, वे छा से, साहस
से, धैय से–और एक हद तक दबंगता से भी–अपने को जीिवत ही िचता म झ क िदया था, जहाँ
वह जलती रही–अ ाईस वष तक। और य िप अब भी वह जल रही थी उसी िचता म, जबिक जीवन
ही उसक िचता बन गया था, तो भी इस अनोखी आग म जल-भुनकर वह राख न बनी थी,
कोयला बनी थी–सफेद कोयला। एक अप रसीम शीतलता ने जैसे उसके अ तदाह को चार ओर
से लपेट िलया था। अब उसक उ पचास को पार कर रही थी। कोढ़ी और नामद पित का सुहाग
उसे केवल आठ वष उपल ध हआ। पित से थम ही उसक सौत और सखी ज़ीनत वग िसधार
गई थ , िजसका उसे उस पित-गहृ म एकमा सहारा था। बड़ी बेगम तो उससे पहले ही मर चुक
थी। रह गई थी तीसरी महल; नवाब के मरते ही वह एक ेमी के साथ अपने ज़ेवरात को लेकर
भाग गई थी। उसक िकसी ने खोज-खबर नह ली। बस नवाब के खानदान म अकेली रह गई थी
बेगम ह नबान–ू अपनी और पित क सारी टेट क वािमनी। रं ग अब भी उसका वैसा ही च पे
क कली के समान गोरा था–पर वह कुछ मोटी हो गई थी। माथे क सु दर अलकाविलयाँ अब
चाँदी-सोने के तार बन चुके थे। बड़ी-बड़ी कजरारी आँख के चार ओर याही का एक बड़ा-सा
घेरा बन गया था। नुक ली नाक और गोल ठोड़ी उसक च र ता और धैय का प रचय देते थे।
उसके ह ठ म ढ़ता और कोमलता का सि म ण था। आवाज़ उसक जैसे दद से भरी हई थी। वह
बहत धीमे बोलती थी। ोध करना, ज़ोर से बोलना, स त बात कहना जैसे उसने कभी सीखा ही
नह था। उसक ि म एक दाशिनक भावना य होती थी। उसके स मुख आकर बड़े से बड़े
आदमी को अवनत होना पड़ता था।
बढ़ू ी दासी ने बेगम के पास आकर बड़बड़ाते हए कहा, ‘‘मने कहा था बेगम िक दो-चार
नौकर ले चलो, पर तुमने एक न सुनी। अ लाह रखे, दजन नौकर-चाकर हराम के टुकड़े तोड़
रहे ह, जब यहाँ इतनी बड़ी हवेली जंगल हो रही है–म मरी बुड्ढी-ठुड्ढी कहाँ जाऊँ; या क ँ ?’’
बेगम ने आिह ता से कहा, ‘‘बुआ, िद ली शहर है देहात नह । झ लीवाल को बुला लो या
मज़दूर लगा लो। वे सब सफाई कर डालगे; परे शान य होती हो?’’
‘‘पर िकसे भेजँ?ू अब म मज़दूर लेने जाऊँ?’’
‘‘चली जाओ ज़रा, बुआ। काम तो करना ही पड़े गा। लेिकन रहमत िमयाँ या अभी नह
आए?’’
‘‘कहाँ, वे आ जाते तो रोना या था, कुछ तो सहारा िमलता!’’
‘‘ह तो िद ली ही म?’’
‘‘ह तो।’’
‘‘तो बुआ, र शा ले लो; कूचा चेलान म वह जो नु कड़वाला मकान है, वह उनका घर है।
एक बार चली जाओ। उनके आने से तु ह बहत सहारा िमलेगा।’’
‘‘ र शे पर तो बेगम मुझसे चढ़ा न जाएगा। दौडे ़गा मुआ हड़दंग घोडे ़ क तरह। डोली-
कहार िद ली से न जाने कहाँ गायब हो गए? कैसा ज़माना आ गया बेगम, इ ज़तवािलयाँ तो अब
ज़हर ही खाकर मर जाएँ गी!’’
‘‘ र शे पर भी पदा हो जाएगा, बुआ। जाओ, अभी चली जाओ।’’
बढ़ ू ी दासी बड़बड़ाती हई चली गई। उस बडे ़ महल म रह गई अकेली ह नबान।ू बालपन क
मिृ तयाँ उसक आँख म एक-एक करके नाचने लग । यह रं गमहल जब बड़े अ बा के ज़माने म
नौकर -चाकर , मुगलािनय , उ तािनय , उदू बेगम से भरा रहता था–एक आता था, एक जाता
था। बाहर दीवानखाने म दरबार लगता था–बड़े अ बा का। दीवानजी सफेद दाढ़ी िहलाते बात-बात
पर सलाम झुकाते थे और म उ ह देख-देखकर हँसती थी। उनक दाढ़ी के बाल िगनती थी,
पछू ती थी–दीवानजी, मेरी दाढ़ी कब िनकलेगी? दीवानजी गोद म लेकर कहते–िनकलेगी बेटी,
जब तुम दुलिहन बनकर डोली म बैठोगी।
दुलिहन बनना, डोली म बैठना–सभी कुछ तो हो गया। जीवन म िजतने अरमान होते ह,
सभी का तो अब िहसाब बेबाक हो गया। अब तो न कोई अरमान रहा, न उनके परू े होने क
उ मीद रही। जैसे बड़े अ बा का यह रं गमहल सन ू ा, उजाड़ और वीरान है, वैसा ही सन ू ा, वीरान
और उजाड़ उसका मन है, तन है और दय है–सन ू ा...सन ू ा। जैसे वह अकेली या ी अपने
ू ा...सन
देह क गठरी संभाले उस पार जाने के िलए गाड़ी क ती ा कर रही है, जहाँ िकसी भी ि य के
िमलन क आशा नह है–जो सबसे बड़ा परदेस है।
बानू कब से हँसी नह है, इसका िहसाब कौन दे सकता है? पर तु िफर भी सब िमलाकर
उसक सुषमा उस शरद से दी जा सकती है, जो िवशाल नील गगन म चाँदी के महल क भाँित
दूर तक फै ला हो और िजसम एक बँदू भी जल शेष न रह गया हो। जलरिहत शरद क यह
रजत-सुषमा, सख ू े, उ पवत को त ृ नह कर सकती, झुलसे हए त-प लव को हरा-भरा नह
कर सकती, पर ने को आन द तो दे ही सकती है। उसम आन द िनिहत नह , पर आन द
उसम से वािहत तो होता है।
रहमत िमयाँ ने आकर बेगम को सलाम िकया। स र साल क उ , ल बे, दुबले, छोटी-सी
सफेद दाढ़ी। आँख पर मोटे शीश का पुराना च मा। िसर पर पुरानी मखमली टोपी, बदन पर
अचकन, पैर म रबर का स ता जत ू ा।
बेगम ने मु कराकर कहा, ‘‘रहमत िमयाँ, घर म सब अ छे तो ह? मु त म िमलना हआ।’’
‘‘खैर-स लाह ही है सब। हज़रू , जब से बड़े नवाब ज नतनशीन हए, म घर म जा बैठा।
िकसी क नौकरी नह क । हज़रू क ड्योढ़ी पर मने खड़े होकर हकूमत क है, अब िकसके
सामने हाथ फै लाता! हसैन तो जवानी ही म दगा दे गया–और उसक माँ उसके गम म मर गई।
अकेला ही हँ हज़रू । खुदा का शु है, इतने िदन बाद हज़रू ने रहमत क । िद ली को याद फमाया,
और गुलाम को तलब िकया। खुदा गवाह है, आँख हरी हो गई ं। मगर यह या देखता हँ! सुना,
अकेली ही तशरीफ लाई ह। बुआ कह रही थी–नौकर-चाकर कोई साथ नह िलया; अब तो हज़रू
को िद ली कुछ िदन रहना ही होगा?’’
‘‘रहँगी, िमयाँ रहमत। नौकर-चाकर क फौज साथ रखने से या फायदा? बुआ साथ है।
यहाँ उ मीद थी, रहमत िमयाँ ह ही।’’
‘‘गुलाम को याद रखा, बड़ी बात क हजर।’’ ू ़
‘‘मगर हसैन क सुनकर गमगीन हँ, यह तो बुढ़ापे म दाग लग गया।’’
‘‘खुदा क मज़ है हजर, ू ़ अब आप ही को लो, म सुनता रहा हँ।’’
‘‘खैर, तो रहमत िमयाँ! अब तुम यह रहो। बुआ अकेली ह, घर पर सफाई करानी है–
ज़ रत समझो, एकाध नौकर और रख लो। हाँ, जब से बड़े अ बा ज नतनशीन हए और तुम घर
बैठे हो, तभी से तु हारा मुशाहरा इस सरकार से िमलेगा। इ मीनान रखो।’’
‘‘तो आिखर, हज़रू , पोती िकस बाप क ह, िजनक सखावत का डं का िवलायत तक बजा,
उ ह नवाबु ौला मु ताक अहमद बहादुर का लह इन नस म है। आप तो ऐसा कहगी ही। मगर
हज़रू , अब और कै िदन िजऊँगा? िफर मेरा दुिनया म कौन है? या क ँ गा मुशाहरा लेकर
सरकार? अब कदम म रिखए, जठ ू न िमलेगा तो पेट भर जाएगा। बस।’’
बढ़ू ा िखदमतगार टपकती हई आँख पर दोन हाथ रखकर दुज़ानू बैठ गया।
ह नबानू क भी आँख भीग आई ं। उसके मँुह से बोली न िनकली।

31
आिखरी मरीज़ को भुगताकर डा टर कुस से उठे , इसी समय तक मोटर उनक िड पसरी
के सामने आकर क । डा टर ने आँख उठाकर मोटर क ओर देखा–और िफर घड़ी क ओर।
एक बज रहा था–और एक बढ़ ू ा मुसलमान धीरे -धीरे िड पसरी क सीिढ़य पर चढ़ रहा था।
डा टर को सहसा अ ाईस वष पहले क घटना याद हो आई।... वही काला रे शमी बुरका, वही बढ़ ू ा
नवाब, और च पे क कली के समान उ वल दो उँ गिलयाँ...जीवन म वे कभी भल ू ी तो थ ही
नह । मिृ तय के बवंडर म दबी पड़ी रहती थ –िदन-रात म हज़ार बार उभर आती थ । आज इस
ण जैसे वे मत ू हो उठ ।
वे खडे ़ होकर बढ़ ू े क ओर देखने लगे। बढ़ ू ा रहमत था। रहमत ने आकर झुककर सलाम
िकया। और कहा, ‘‘हज़रू , रं गमहल से मोटर आई है; बेगम ने आपको याद फरमाया है।’’
डा टर के दय क धड़कन जैसे एक ण के िलए ब द हो गई। उसने काँपते कंठ से
कहा, ‘‘रं गमहल? बेगम? कौन बेगम।’’
‘‘हज़रू , ह नबानू बेगम।’’
‘‘ या वे िद ली म आई ह?’’
‘‘जी हाँ, हजर।’’
ू ़
‘‘कब?’’
‘‘एक ह ता हो गया।’’
‘‘...एक ह ता,’’ डा टर सोच रहे थे, ‘‘एक ह ते बाद बुलाया है! नह , नह , अ ाईस वष
बाद...’’
डा टर के मानस म एक भच ू ाल-सा आ गया। उ ह ने हकलाते हए कहा :
‘‘ या... या अभी चलना होगा?’’
‘‘जी, ह म तो यही है।’’
‘‘तु हारा नाम या है?’’
‘‘रहमत है–हज़रू ।’’
‘‘तो रहमत िमयाँ, बेगम के साथ और कौन है?’’
‘‘वे अकेली ह हज़रू ।’’
‘‘नवाब नह ह?’’
‘‘नवाब, कौन नवाब?’’
‘‘बेगम के शौहर।’’
‘‘उनका तो हज़रू , अब से बीस साल पहले ही इ तकाल हो गया था!’’
‘‘बीस साल पहले?’’
‘‘जी हाँ।’’
डा टर ण-भर चुप रहे । िवचार क आँधी का एक झ का उ ह िहला गया। उ ह ने
संभलकर कहा, ‘‘चलता हँ रहमत।’’
वे धम से गाड़ी म जा बैठे। इस समय डा टर को ऐसा तीत हो रहा था, मानो हवा म उडे ़
जा रहे ह ।
संगमरमर क िद य ितमा के समान भ य ीधा रणी ह नबानू को ताज़ीम दी। बैठने पर
हँसकर कहा, ‘‘इतनी मु त के बाद, आिखर िफर मुलाकात हई भाईजान, पहचानते तो ह?’’
डा टर का कंठ सख ू गया। उ हाने भराए क ठ से कहा :
‘‘मुझे तो ऐसा मालम
ू होता है जैसे म सपना देख रहा हँ।’’
‘‘मगर म तो ह नबानू हँ।’’ बानू ने हँसकर कहा।
‘‘शायद।’’
इस बार बानू िखलिखलाकर हँस पड़ी। उसने कहा, ‘‘शु है, आपने आज मुझे हँसाया
तो!’’
‘‘इसके या माने?’’
‘‘अब इतने िदन बाद बीती बात के माने पछ ू कर या क िजएगा?’’
‘‘लेिकन नवाब साहब क बाबत...’’
‘‘ या अभी सुना?’’
‘‘कैसे सुनता, तुमने तो कभी िलखा ही नह ।’’
‘‘िलख-िलखकर िदल म रखती रही। भेजा नह ।’’
डा टर ने देखा–मु कान जो बानू के ह ठ पर फै ल रही थी, वह सख ू ती जा रही है। उ हाने
कहा, ‘‘तु हारा इतना बड़ा िदल है, जो रखती गई ं, समाता गया!’’
‘‘और आप भाईजान, िलख-िलखकर शायद फाड़कर फकते रहे !’’ बेगम िफर मु करा उठ ।
‘‘िलख ही न सका।’’
‘‘यह य ? िलखने क चाह ही शायद न रही।’’
‘‘नह , ताब न रही।’’
‘‘खैर, अब सब खैरािफयत है?’’
‘‘दुिनया कदम-कदम चल रही है, लेिकन मुझे कुछ पछ ू लेने दो।’’
‘‘ या?’’
‘‘नवाब क बाबत!’’
‘‘ या क िजएगा पछ ू कर?’’
‘‘सुना मु त हई वे न रहे ; तुमने इसक खबर भी न भेजी?’’
‘‘ या करते खबर पाकर आप, शायद खत भेजकर मातमपुस करते।’’
डा टर क आँख बहने लग । उ ह ने जवाब नह िदया। बानू ने कहा :
‘‘अब यह या िहमाकत है भाईजान, बढ़ ू े हो गए आप।’’
‘‘कौन कहता है?’’ डा टर ने चमककर कहा, ‘‘साठ को ज़ र पार कर गया हँ–लेिकन
ह न, म जब तु ह याद करता हँ तो अपने को वैसा ही जवान पाता हँ जैसा तब था, जब मने
पहली नज़र िसफ तु हारी दो उँ गिलयाँ-भर देखी थ ।’’
‘‘याद रह वे उँ गिलयाँ?’’
‘‘वे भल
ू ी जा सकती ह? चलकर देखो–च पा लगाया है मने। उसम हर साल किलयाँ आती
ह और उनम वे उँ गिलयाँ झाँक उठती ह। िफर रात-भर उनक भीनी महक मेरी हर एक साँस को
खुशबू से तरबतर कर देती है।’’
‘‘पागल तो आप नह हो गए भाईजान!’’
‘‘हो जाता, मेरी याद मर जाती, सब कुछ भल ू जाता तो अ छा था।’’
‘‘बिहन को ये सब बात बताई ं य नह ?’’
‘‘ये बात बताई ं नह जात । जानने वाले जान जाते ह।’’
कुछ देर बानू चुपचाप शू य आकाश क ओर ताकती रही। िफर धीरे से बोली, ‘‘आपने
दुिनया का इलाज िकया–लेिकन अपना न कर सके।’’
‘‘कुछ बीमा रय म आराम होता ही नह ।’’
‘‘खैर पिू छए–जो पछ ू ना चाहते ह।’’
‘‘मुझे तुम िसफ एक बात कह दो बान,ू कम से कम जब तक नवाब िज़ दा रहे –तुम खुश
रह ?’’
‘‘मुझे देखकर आप कैसा समझते ह?’’
‘‘िब कुल प थर, ठोस, िजसम कह जान नह –साँस भी नह ।’’
‘‘तो बस, इसी म समझ लीिजए।’’
‘‘समझ िलया है–तभी तो पछ ू ता हँ।’’
‘‘पछ ू ने से फायदा?’’
‘‘िहसाब-िकताब लगाकर देखँग ू ा बान।ू ’’
‘‘काहे का िहसाब-िकताब भाईजान?’’
‘‘एक औरत क ताकत का। जानना चाहता हँ िक आिखर एक औरत म िकतनी ताकत
होती है।’’
‘‘डा टरी िकताब म यह सब नह िलखा?’’
‘‘िलखा होता तो अपना इलाज न कर लेता? मज़ को कलेजे म िछपाए य िफरता?’’
‘‘तो समझ लीिजए–जैसी अ ाईस साल पहले गई थी–वैसी ही हँ।’’
‘‘मेरा भी यही याल था बान।ू लेिकन य ? तु ह पाकर कोई कैसे इस तरह रह सकता है!
नवाब या एकदम जानवर थे?’’
‘‘नह भाईजान, म खुश होती यिद एक जानवर के प ले बँधती–वह काटता, नोचता,
खाता, बखेरता, िझंझोड़ता, दु:ख-दद कुछ तो देता–अहसास का आिखर कुछ तो इ तेमाल हो
जाता।’’
‘‘जानवर नह थे नवाब, तब?’’
‘‘वहाँ जाने पर दो िदन म ही पता चल गया िक मेरी शादी एक मुद से हई है।’’
डा टर के कलेजे म जैसे िकसी ने प थर दे मारा। वे आह करके रह गए। िफर उ ह ने
पागल क भाँित चीखकर कहा :
‘‘उस मुद को मरने म आठ साल लग गए–आठ साल तु ह वह लाश ढोनी पड़ी बान?ू ’’
‘‘गु सा करने से या होगा भाईजान! अकेली म ही तो न थी। हम चार थ ।’’
‘‘छी, छी!’’
‘‘िफर भी, म कहँगी, नवाब शरीफ आदमी था। आिखर व म तो म उनक बदनसीबी पर
कराह उठी। मुझसे जो बना उनक िखदमत क , उन पर रहम िकया।’’
‘‘और यार?’’
‘‘ यार िकया होता तो तुम या आज मुझे प थर, ठोस प थर समझते?’’
‘‘माफ िकया तुमने उ ह मरने से पे तर?’’,
‘‘ओह, यह मत पछ ू ो। माफ तो मने उ ह उसी िदन कर िदया था िजस िदन उ ह पहली बार
देखा था। उसके बाद तो म समझती ही गई िक यह आदमी तरस के कािबल है, िफर म औरत क
ज़ात–अपनी आँख से एक आदमी को इस कदर लाचार, सन ू ा, बेआसरे कैसे देख सकती थी! राह
चलते िभखारी को भी तो म नह देख सकती; िफर वे तो मेरे शौहर थे।’’
‘‘एक बार भी तुमने कभी उन पर गु सा नह िकया बान?ू ’’
‘‘गु सा? उन भख ू ी, अछताती-पछताती चोर क तरह नज़र िछपाती, गुनाह क त लीम
करती हई आँख को देखकर भी भला कोई गु सा कर सकता है! प थर ज़ र हँ भाईजान, मगर
औरत हँ, यह भी तो सोचो।’’
‘‘लेिकन उसके बाद?’’
‘‘मेरा एक सहारा था–ज़ीनत।’’
‘‘तु हारी सौत?’’
‘‘लेिकन बड़ी बहन और माँ क तरह उ ह ने मुझे अपनी गोद म ढाँप िलया। इसी से वह
आग िजसम मेरी जैसी बदनसीब औरत जला करती ह, मुझे यादा तकलीफ न दे सक –िफर, म
तो जलने क आदी हो गई थी। अफसोस यही रहा िक वह गोद भी कायम न रही, िछन गई। और
ज़ीनत बहन भी चली गई ं।’’
‘‘िकतने िदन जल वे?’’
‘‘अड़तीस बरस, म तो िसफ आठ ही बरस; वह भी ज़ीनत बहन क गोद म।’’
‘‘आठ बरस य ?’’
‘‘उसके बाद तो आग बुझ ही गई। राख म बैठे रहने म या िद कत थी!’’
‘‘तो बान,ू आठ बरस मुद के साथ और बीस बरस िचता क ठ डी राख म बैठी रहकर यहाँ
आई हो? लेिकन दूध क धोई-सी, उजली, पाक-साफ, फ र ते-सी, अछूती, िनराली देवी...’’
डा टर दोन हाथ फै लाकर दौड़ पड़े और ह नबानू के पैर म लोट गए।
ह नबानू घबराकर पीछे हट गई। डा टर ने खडे ़ होकर कहा, ‘‘हम िह दू देवी के पुजारी
होते ह। हमारी देवी भी प थर क होती है। हम उसके सामने हँसते-रोते ह, भट देते ह, मानता
मानते ह, पर वह वैसी ही अचल रहती है। सुनते ह, देखा नह िक िकसी भ पर स न होकर
वह कट होकर वर देती है–सो आज मेरा जीवन सफल हो गया–देवी का य - कट दशन हो
गया। इज़ाज़त दो, इन चरण पर अपनी ा के फूल चढ़ाऊं। अपने गुनाह क माफ मांगं।ू ’
‘‘गुनाह या?’’
‘‘म अभी तक ईमानदार नह हँ बान।ू ’’
‘‘जाने दीिजए भाईजान! अ छा मुझे घर क खैरािफयत सुनाइए–सुनने को बेचन ै हँ। अ णा
बहन कैसी ह?’’
‘‘चलकर देख लो, और िदलीप को भी।’’
बानू को ऐसा तीत हआ मानो उसके दय क धड़कन क गई हो। उसने हाथ से सीने
को दबा िलया। ‘िदलीप’–उसने कहना चाहा पर कंठ वर नह फूटा, केवल ह ठ म ज़रा-सी
फड़कन होकर रह गई। वह पलक मारना भी भल ू गई। एकटक डा टर को देखने लगी। िज़ दगी
म पहली बार आज वह अपने बेटे का नाम सुन रही थी। डा टर भी ण-भर को िवचिलत हए। िफर
उ ह ने कहा, ‘‘एम. ए. करके एल. एल. बी. भी कर िलया है, लेिकन अजब ख ती लड़का है।’’
‘‘ख ती?’’
उसी भाँित ह ठ म ही बानू ने कहा, लेिकन डा टर ने सुन िलया।
‘‘तब या? आथ डा स िह दू। आधा िदन पज ू ा-पाठ और धम- थ पढ़ने म और बाक संघ
के झगड़े -झंझट म िबताता है।’’
‘‘त दु त है?’’
‘‘खबू है।’’ डा टर ज़रा हँसे, “देखोगी नह ?’’
‘‘नह ।’’ बानू चुप हो गई। डा टर अवाक् होकर बानू का मँुह देखने लगे, जो इस समय
वष मुख, भरे हए बादल के समान हो रहा था। डा टर भी कुछ कह न सके। बहत देर स नाटा
रहा। डा टर को ऐसा तीत हआ, जैसे बानू के ह ठ उसके दयगत वर को भीतर ही दबा सकने
म असमथ हो फड़ककर रह गए। बहत देर बाद बानू ने कहा, ‘‘ या उसे कुछ मालम ू ह?’’
‘‘नह , कुछ भी नह । और हम लोग उलझन म ह।’’
‘‘उलझन?’’
‘‘हाँ, शादी क । बहत गहरी िद कत ह। लोग क नज म वह हमारा ही लड़का है, लेिकन
हम अगर सही बात ज़ािहर न करके िकसी घराने म उसक शादी कर देते ह, तो यह एक भारी
धोखाधड़ी होगी। तुम तो जानती ही हो िक हम लोग म जात-िबरादरी क िकतनी बंिदश ह।’’
‘‘ या ऐसा कोई घर नह िमल सकता, जो इन बात क परवाह न करे ?’’
‘‘ऐसा ही कुछ हआ था। मेरे एक दो त थे, बडे ़ भारी बै र टर। लड़क उनक एम. ए.
सु दरी, हम लोग को िबलकुल पस द। पर उसने नह माना, इ कार कर िदया। वे लोग अपना-
सा मँुह लेकर चले गए। अब दूसरे लड़क के र ते भी के हए ह, समझ नह रहा हँ या क ँ ।’’
‘‘बेहतर है आप उससे सब कुछ साफ-साफ कह द। िसफ उसक माँ कौन है यह न बताएँ ।
या कुछ िक सा घड़ द, और उसे उसके हाल पर छोड़ द। उसक कुछ जायदाद बची होगी। इधर म
भी दे सकती हँ, लेिकन यह बात उसे मालम ू न होने पाए।’’
‘‘जायदाद, पया तो सब हमने छुआ नह है, बढ़ा ही है। हमने तो अपने ही लड़के क तरह
उसे पाला है। न उसे न मेरे और ब च को यह सानो-गुमान है िक वे सब आपस म सगे भाई-बिहन
नह ह। सबके िवचार अलग ह, पर आपस म ेम बहत है। िदलीप तेजिमज़ाज है ज़ र, पर अपनी
माँ को बहत यार करता है। और क णा तो उसे बहत मानती है। िफर, वह बड़ा ही आथ डा स है,
यह सब सुनेगा तो उसक छाती न फट जाएगी। न, म तो उससे यह सब न कह सकँ ू गा। वह कैसे
बदा त करे गा। और उसके भाई, क णा, दूसरे लोग? उसक सारी दुिनया अँधरी हो जाएगी। वह
संसार म अकेला रह जाएगा।’’
‘‘ऐसा तो म उसे न होने दँूगी। अकेला रह जाना दुिनया म कैसा होता है, यह म जानती हँ।
लेिकन भाईजान, यह या िबलकुल ही नामुमिकन है िक आप ही अब इस बात को कतई भल ू
जाएँ िक वह आपका बेटा नह है।’’
“मने तो कभी यह सोचा ही नह ,पर दूसर को धोखा देने म जी काँपता है।’’
‘‘धोखा...’’ बानू के ह ठ काँपकर रह गए। वह बहत कुछ कहना चाह रही थी, पर कह न
सक ।
डा टर ने साहस करके कहा–‘‘इसी से तो कहता था, तुम उसे एक बार िमल लेत तो...’’
‘‘यह तो हो नह सकता, भाईजान! आप भी तो सोिचए, वह या बदा त कर सकेगा?’’
‘‘न, नह कर सकेगा।’’
‘‘तो वह जैसा है रहने दीिजए। अपने ब च क शादी कर लीिजए।’’
‘‘यह भी नह हो सकता बान,ू ऐसा ही होगा तो म वही क ँ गा जो तुमने कहा। जो हो वह
हो, लेिकन तुम उसक माँ से तो िमल लो।’’
‘‘उ ह यह भेज दीिजए भाईजान, और एक बात का यान रिखए, आपक यह बिहन बहत
दुिखया है, और अब उसे दुिनया म खुदा के बाद िसफ आपका ही आसरा है। उसी आसरे से म यहाँ
आई हँ–आपने मेरी इ ज़त बचाई है, अब आप मेरे दद को िजतनी राहत पहँचा सकगे, आपको
सवाब होगा। खुदा के िलए आप अब यही समझ िलिजए—वह आप ही का बेटा है।’’
इतना कहकर बानू ने िजन क णा-भरे नयन से उ ह देखा–उस ि से िवचिलत होकर
डा टर ने कहा :
‘‘मेरी कमज़ोरी को माफ करना बान,ू तु हारी बात ही ठीक है। िदलीप आज से मेरा ही बेटा
है। मेरे मन क दुिवधा दूर हो गई। अब कहो–तु हारे िलए और या क ँ ?’’
‘‘बस, कभी-कभी िमलते रह।’’
‘‘अब रहोगी तो िद ली ही म?’’
‘‘हाँ, यह रहँगी।’’
‘‘अ णा से या कहँ?’’
‘‘कहना–िदलीप क माँ को बानू याद कर रही है। दशन दे जाएँ , आँख तरस रही ह।’’
‘‘कह दँूगा, लेिकन िहसाब नह समझगी आप?’’
‘‘कैसा िहसाब?’’
‘‘अपनी जायदाद का।’’
‘‘मेरी कौन सी जायदाद है?’’
‘‘जो िदलीप को दी गई थी।’’
‘‘उसम मेरा या? और िदलीप का भी या? वह तो सभी भाई-बिहन क है भाईजान! अब
यह चचा मेरे सामने कभी न करना। साथ ही उससे भी मत कहना।’’
‘‘लेिकन बड़े नवाब ने दी तो थी उसी को।’’
‘‘तो अब म सब भाई-बिहन को देती हँ। इसके अलावा मेरी और भी तो जायदाद है, वहाँ और
यहाँ। यह सब भी तो इ ह ब च क है। दुिनया म मेरा और कौन है?’’ ह नबानू क आँख से
छल-छल आँसू बह चले। डा टर के मँुह से भी बात नह िनकली। िसफ आँख बहती रह । बहत देर
तक स नाटा रहा। कुछ देर बाद डा टर ने कहा, ‘‘िकसी चीज़ क तकलीफ न पाना। ज़ रत हो
तो फौरन खबर देना।’’
‘‘ज़ र दँूगी। लेिकन रहमत िमयाँ आ गए ह। िफर मेरी ऐसी ज़ रत ही या है?’’
रहमत ने चाय लाकर रख दी। बानू ने खुद उठकर एक याला बनाया और डा टर क ओर
बढ़ाया। डा टर याला लेकर खड़े हो गए। अदब और यार से ह न को वह याला देते हए कहा,
‘‘यह एक याला मेरे हाथ का तुम िपयो ह न, मेरे ऊपर इतना एहसान तो कर दो!’’ डा टर
भीतर से बाहर तक िवचिलत हो उठे ।
ह न ने हँसकर कहा, ‘‘लाइए, लाइए–मेरे िलए तो यह पाक तब क है, िजसके िलए इतनी
ल बी िज़ दगी तरसते ही बीत गई।’’ उसने दोन हाथ फै ला िदए। डा टर ने याला बानू के काँपते
हाथ म दे िदया िफर दूसरा याला वयं बनाकर चुपचाप पीकर उठ खड़े हए। दोन ही इस समय
भाव-समु म डूब-उतरा रहे थे–इसी से िकसी ने भी बात न क । जैसे उन ण म दोन एक-दूसरे
म खो गए ह ।
डा टर के खड़े होते ही बानू ने उठकर कहा, ‘‘कल सवारी भेज दँूगी। अ णा बिहन को
भेज दीिजए।’’
‘‘अ छा।’’ कहकर डा टर आँख प छते हए उठ खड़े हए।

32
अ णा और बानू का िमलन गाय और बाछी का िमलन था। बहत देर तक दोन एक-दूसरे
क गोद म िसर िदए मक ू दन करती रह । बानू जो अपना पु – दयधन, ेम, आशा और
उ लास का थम और एकमा िच अ णा को स पकर िनम ही क भाँित मँुह मोड़कर चली गई,
और िनराशा, दु:ख-दद के झाड़-झ कड़, वन-पवत पार करती हई, यौवन क देहरी पार करने से
लेकर वाध य के ांगण म जा खड़ी हई–सो या उसने दुख-दद, िनराशा और ोभ से भरे अपने
ल बे उबा देने वाले जीवन म एक ण को भी उस गोद क मिृ त को भल ू ी िजसम वह अपने
कलेजे के टुकड़े को डाल गई थी? िफर बात केवल इतनी ही नह थी, अ णा भी बानू से एकरस
हो चुक थी–एक ही थाल म उसके साथ खाना खाकर जो उसने अपनी गहरी एकता का प रचय
िदया था–उसे भी बानू भल ू न सक थी।
सो आज, जब यह पहली मुलाकात हई तो बहत देर तक वे दोन यह भल ू ही गई ं िक वे दो
ह। अ णा इस नारी क िववशता पर पहले ही िवत थी। वह भी उसके मँुह को एक ण को भी न
भलू ी थी। अपने पु को क णा क गोद म डालकर जब बानू चली गई थी, उसका नवल, अमल-
धवल गात, च पक के समान सुवण और सुशोिभत कोमल, कमनीय कलेवर, िकशोर वय, उठता
यौवन, जीवन का जैसे सरल भात था! पर तु अब? जल-रिहत शारदीय बादल के समान
िव तार म फै ला हआ, थिकत, परािजत, निभत देह। रस-भरे उन उ फु ल ह ठ के थान पर
सख ू े-फ के खाली-खाली-से ह ठ, सफेद ई के गोले के समान लटके हए कपोल, जल-रिहत गढे ़
म छटपटाती मछली-सी आँख। और वषाॠतु क उपल बखेरती-सी ि –यह सब या साधारण
प रवतन था? प रवतन तो अ णा म भी हए थे। वह तो आयु म बानू से भी बड़ी थी–पचास को पार
कर गई थी। पर वह माँ भी तो रही, प नी भी तो रही, गिृ हणी भी तो रही। बानू न माँ, न प नी, न
गिृ हणी। तब उसने नारी-ज म या पाया! नारी-ज म पाकर भी, इतना प, ी, िव ा, धन,
स पि –सब कुछ पाकर केवल जीवन ही नह पाया पर जीिवत रही अब तक। िबना जीवन का
वह जीवन भी भला कैसी िवड बना क व तु थी! यह सब देख-समझकर ही अ णा चौधारे आँसू
बहाती रही। और बानू ने तो इन आँसुओ ं क धार ही म अपनी तीन दशाि दय क सारी िदनचया
अ णा को बता दी।
जब दोन खबू रो चुक तो अ त म बानू के आँसू सख ू े। उसने हँसने क चे ा क । उसके
ह ठ पर हँसी देखकर भी अ णा के आँसू न सख ू े।
बानू ने कहा, ‘‘रोती कब तक रहोगी बिहन? बैठो, कुछ अपनी कहो, कुछ मेरी सुनो।’’
‘‘सुन नह सकती हँ बिहन, मेरी छाती फट जाएगी। तु हारे इस प और इन आँसुओ ं ने ही
सब कुछ कह िदया। लेिकन ऐसी प थर कलेजेवाली हो गई ं िक इस अपनी बिहन को िबलकुल ही
भलू गई ं?’’
‘‘भल ू जाती तो यहाँ आती ही य ?’’
‘‘ या मेरे ही िलए आई हो?’’
‘‘खुदा गवाह है, िसफ तु हारे िलए। अब और कह मेरा ठौर-िठकाना भी कहाँ है? मेरी
साँस-साँस म तु ह तो रम रही थ –एक पल को भी म तु ह भल ू ी नह हँ भाभी।’’
‘‘िफर खत य नह भेजा, आई ं य नह ? युग बीत गए। दुिनया बदल गई।’’
‘‘बदल जाए। तु हारी यह बानू तो वही है, और मने तु ह देखते ही जान िलया–तुम भी वही
हो। ज माने ने हम नह बदला। खुदा का शु है। लेिक खत तो कभी तुमने भी न िलखा।’’
‘‘इसी डर से िक कह तुम नाराज़ न हो जाओ। तु ह यह पस द हो या नह , बात ही कुछ
ऐसी थी। हमने समझा िक तुम हर तरह हमसे दूर ही रहना चाहती हो।’’
‘‘चाहा तो यही बिहन, य िक ऐसा न करती तो यह पहाड़-सी िज़ दगी शायद कटती भी
नह ।’’
‘‘इसी से, लेिकन तु हारे यार से तो मेरा रोम-रोम भरा है।’’
‘‘सो, या म जानती नह भाभी! तो अब यह िम ी तु हारे कदम म है।’’
‘‘ऐसी बात य कहती हो बिहन, अब तुम खुश रहो। बहत भोगा। म सब सुन चुक हँ। अब
तु हारी एक न मानँग ू ी–चाहे जो भी कुछ हो जाए, तु हारी गोद म तु हारी दौलत डाल दँूगी।
तु हारी िज़ दगी को अब म य सन ू ी न रहने दँूगी।’’
‘‘यह या कहती हो बिहन, यह तो कभी होने का नह ।’’
‘‘ य नह होने का?’’
‘‘बस बिहन, मुझे परदे म ही रहने दो–मेरे ही लड़के के सामने मुझे नंगा मत करो, म
हरिगज़ यह बदा त नह कर सकती।’’
‘‘लेिकन बान.ू ..’’
“ बिहन,ज़ म को मत नोचो। तु हारे पाँव पड़ती हँ। तुमने उसे पढ़ा-िलखाकर लायक कर
िदया। अब उसे िज़ दगी से भरपरू भी कर दो। म इतने ही से खुश हँ।’’
‘‘सब कुछ तो तुमने सुन िलया।’’
‘‘सुन िलया बिहन, पर मुझे तुम पर भरोसा है। तु हारी जैसी िजसक माँ हो, उस बेटे के
या कहने!’’
‘‘तो तुम उससे िमलोगी भी नह ?’’
‘‘नह , म कौन हँ–यह वह न जान पाएगा।’’
‘‘म तु ह दु:खी नह कर सकती, पर बिहन, तुम सहारा पाकर भी बेसहारा रहोगी?’’
‘‘अब तो आदी हो गई हँ। जब आदी न थी, तब भी तो आिखर रही ही। अब तो यह बेसहारा
रहना ही मेरा सहारा है।’’ बानू हँस दी। पर अ णा ने िफर मोती िबखेरे। बानू ने अ णा के गले म
बाँह डाल द और उसक छाती म मँुह िछपा िलया।
बढ़ू ी दासी ने चाय और ना ता सामने ला धरा। बानू ने हँसकर कहा, ‘‘तुम कहो तो भाभी,
म इसे छू लँ।ू जी करता है एक टुकड़ा तु हारे मँुह म ठूँस दँू।’’
‘‘ऐसा गज़ब न कर बैठना कह । तुमने इसे छुआ और यह ज़हर हआ। म खाते ही जैसे मर
ही जाऊँगी।’’ अ णा ने यो रय म बल डालकर िमठाई का एक टुकड़ा उठाकर बानू के मँुह म
ठूँस िदया। और इसके बाद तो बानू सब कुछ भल ू गई और वह िज़द करके अ णा को अपने हाथ
से िखलाने लगी। अ णा ने भी उसी तरह उसे िखलाया।
बहत देर तक दोन अिभ न दय एक-दूसरे को समझते रहे , समझाते रहे , साँझ होने पर
अ णा ने कहा, ‘‘अब जाऊँगी बिहन, तो तु ह म अब अपने यहाँ आने को कहँ नह ?’’
‘‘बिहन इस बदनसीब से नाराज़ न हो जाना। तु ह मुझसे िमलने हर बार यह आना पड़े गा,
म न जा सकँ ू गी। और तु ह अपने ह ठ सीने भी पड़गे।’’
‘‘ह ठ तो िसले ही पड़े ह बिहन।’’ अ णा ने उदासी से कहा। कुछ ठहरकर िफर कहा :
‘‘न हो तो िछपकर उसे देख लो एक बार।’’
‘‘नह बिहन, नह ।’’ बानू ने दोन हाथ से छाती दबा ली। वह आँख ब द करके बैठ गई।
अ णा को और कुछ न सझ ू ा–वह उसे समझा-बुझाकर चली गई।

33
क णा के खत ने माया को जैसे आ मसात् कर िलया। क णा और माया दोन ही िशि त
बािलकाएँ थ । पर तु ेम के अभाव से दोन ही अ ात थ । माया अिधक समझदार थी सही, पर
क णा का यह प तो ऐसा था िजसका आिद-अ त ही न था। एक सरल-तरल बािलका ने अपनी
ि य भाभी का आवाहन िकया था। उसका अपना मन उससे िमलने को य है, पर वह इसे गौण
करके भैया के वैक य का ही वणन करती है। वह इतना जानती है, भाभी पर तो भैया का ही
अिधक अिधकार है। पर वह यह िवचारने का अवकाश ही नह पा रही है िक वह भाभी है ही नह ।
भैया का उससे िववाह हआ ही नह है। भैया ने उसे अ वीकार कर िदया है। इन सब बात के िलए
उसके मन म थान है ही नह । और अब, जब भैया ने माया का आ ान वीकार कर िलया, भाभी
को लेने जाने को कह िदया तो बस, अब क णा को सोचने-िवचारने क कौन-सी बात रह गई!
क णा के प म िकतनी गहरी आ त रक आ मीयता थी। माया से यह िछपा न रहा। माया
ने भी एक ि ही म क णा पर अपने को यौछावर कर िदया था। िफर िदलीप को तो वह अपना
मन दे ही आई है। िदलीप ने याह नह िकया। वह उसी क मिू त का दशन एका त रात म तार
क िटमिटमाहट म करता है। यह स य है या अस य, माया को इस पर िवचारना नह पड़ा। उसे
वह सब स य ही तीत हआ। और माया ने जैसे अवश होकर, आवेिशत होकर यह पंि िलखकर
भेज दी।
पंि भेजकर भी माया ि थर न रह सक । िपता के ित वह साहसी थी। दूसरे ही िदन उसने
िपता से बातचीत क । उसने चाय याले म उं डेलते हए कहा, ‘‘बाबजू ी, चिलए, एक बार िद ली घम

आएँ ।’’
रायसाहब च क उठे । उ ह ने कहा, ‘‘ य ? या बात है, िद ली य जाना चाहती है?’’
माया ने िबना इधर-उधर िकए कहा, ‘‘क णा का खत आया है। उसने बुलाया है–मेरा भी
जी उससे िमलने को चाह रहा है। िलखा है, माताजी का वा य ठीक नह है। चिलए देख आएँ ।’’
रायसाहब ने िसर खुजाते हए कहा, ‘‘लेिकन, यह या ठीक होगा बेटी, यह बात चलकर
ख म हो गई–अब उसके बाद?’’
‘‘तो उससे या? हम लोग तो पहले भी गए ह। कुछ उसी बात पर िनभर थोडे ़ ही ह!’’ माया
ने यह कहने को तो कह िदया, पर उसका मँुह लाल हो गया। बेटी का यह भाव रायसाहब से िछपा
नह रहा।
उ ह ने कहा, ‘‘नह , नह , यह ठीक नह होगा माया! नह , तुम क णा को एक खत
िलख दो–यह आकर िमल जाए।’’
लेिकन माया ने िज़द करके कहा, ‘‘नह बाबज ू ी, चिलए हम चल! मेरा मन िद ली देखने
को बहत करता है। उस बार तो देख ही न सक ! इस बार तो एक ह ता रहँगी।’’
िपता ने बेटी का मन रखने को कहा, ‘‘अ छा देखा जाएगा। तेरी माँ से सलाह लेनी होगी।
कचहरी के काम से भी छु ी का मौका देखना होगा। अभी तो दो भारी-भारी केस ह। दम मारने क
भी फुसत नह है।’’
‘‘आठ िदन बाद मुहरम क छु याँ ह, तभी चल तो कैसा?’’
‘‘देखँग
ू ा, तेरी माँ से भी तो सलाह करनी होगी।’’
पर तु माया क माँ बेटी को िद ली भेजने के िलए िकसी तरह राज़ी न हो सक । माया का
िद ली जाना न हआ। अब वह धड़कते कलेजे से अपने उस छोटे-से प क या िति या होती
है, इसी क ित ा करने लगी। उस छोटे-से प म उसने अपना स पण ू यं य,साहस, ेम,
वैक य, अवशता कूट-कूटकर भर दी थी। उसक आँख म क णा क मधुर मिू त थी, पर र क
येक बँदू म वह िन र, कठोर अिभमान-भरा िदलीप या हो गया।

34
िदलीप ने उस प को मु ी म कस िलया और इतनी ज़ोर से मु ी भ च ली िक उसके नाखनू
उसके माँस म घुस गए। उसके ह ठ संपुिटत हो गए। मन से कहने लगा–चल, और जाकर कह, म
आ गया, चलो। पर तु उसका मन िजतना चंचल हो रहा था उतना ही जड़ उसका शरीर हो रहा
था। उसम न इतना साहस था, न बल, िक माता से, िपता से, क णा से मन क बात कह सके।
माया को प िलखना तो बहत दूर क बात थी।
िदलीप आहत पशु क भाँित कराहता हआ इधर-उधर िफरने लगा। उसका मन िकसी भी
काम म न लगता था। बहधा वह बहत ही ज दी सुबह उठकर जंगल म िनकल जाता, और िदन-
िदन-भर घम ू ता रहता।
य िप डा टर और अ णादेवी उससे उदासीन हो गए थे, पर तु उनक ममता ने उ ह िववश
कर िदया। डा टर ने प नी से कहा :
‘‘िदलीप क हालत िदन-िदन िबगड़ती जा रही है, देखती हो?’’
‘‘तु ह देखो–िदलीप ही या और बेट क ओर भी देखो।’’
‘‘खैर, अभी तो िदलीप का हल करो। यह तो हम पर एक भारी पा रवा रक िवपि आई
िदखती है।’’
‘‘म कहती हँ, अब मन क दुबलता से या होगा? म वीकार करती हँ, वह मेरे पेट का
बेटा है। तुम भी यही वीकार कर लो। सब झंझट और दुिवधाएँ ख म ह, मनचाही जगह उसका
याह कर दो। इसके बाद दूसर के भी याह कर दो। उनक उ है। समय पर लड़क क याह-
शादी न होगी तो वे आवारा ह गे ही। तुम सब बात समझकर भी नह समझ रहे हो।’’
‘‘ऐसा ही करो िफर, तुम आज िदलीप से बात करो।’’
पर तु िदलीप से अ णादेवी बात कर इससे थम ही क णा ने हँसते-हँसते माँ के गले म
बाँह डालकर कहा, ‘‘माँ, भाभी आ रही ह।’’
‘‘कौन भाभी?’’
‘‘वही कानपुरवाली।’’
‘‘पागल हो गई है, कैसे आ रही ह?’’
‘‘वाह, भैया जा रहे ह लेने को।’’
‘‘कौन भैया?’’
‘‘बड़े भैया, और कौन!’’
‘‘उसने तुझसे कुछ कहा है?’’
‘‘कहा है, भाभी ने बुलाया है उ ह।’’
‘‘बुलाया है, यह या कहती है?’’
‘‘भाभी का खत आया है िक मुझे लेने को अपने भैया को भेज दो।’’
‘‘उसने या वहाँ कोई खत िलखा था?’’
‘‘मने िलखा था।’’
‘‘तन ू े या िलखा था?’’
‘‘िलखा था, भाभी तुम आओ, भैया और अ माँ तु ह बहत याद करते ह।’’
‘‘पगली, मुझे य नह बताया?’’
‘‘भल ू गई अ माँ।’’
‘‘कहाँ है खत? देखँ!ू ’’
‘‘भैया के पास है।’’
कुछ देर अ णादेवी चुप रही। िफर बोली, ‘‘जा, तू अपना काम कर।’’
रात को अ णादेवी ने िदलीप से बात क । अ णा ने कहा, ‘‘बेटा िदलीप, कहो, अब तु हारा
या इरादा है? मुझसे िदल क बात कहो।’’
‘‘ या बात, माँ?’’
‘‘ या म तु हारे याह क बात दूसरी जगह प क क ँ ?’’
‘‘इसक या ज़ रत है माँ!’’
‘‘तु ह ज़ रत नह है–मुझे तो है। िफर तु हारे दूसरे भाई-बिहन भी तो ह, यह भी तो
सोचो।’’
‘‘तो उनका याह कर दो।’’
‘‘तुम बड़े भैया हो, हमारे बड़े बेटे हो, सो तुमसे पहले उनका याह कैसे हो सकता है?’’
‘‘वाह, नह कैसे हो सकता है? भी म ने अपना िववाह नह िकया–अपने छोटे भाइय का
िकया या नह ?’’ िदलीप ने हँसकर कहा।
िदलीप क उस सन ू ी-सी हँसी म एक िविच खोखलापन देखकर अ णादेवी कुछ देर
चुपचाप िदलीप का मँुह ताकती रही। िफर उसने िदलीप को पास ख चा, उसके िसर पर हाथ फेरते
हए कहा, ‘‘िदलीप, तू माँ से भी मन क बात नह कह सकता पगले?’’
‘‘मन क बात कौन-सी है माँ?’’
‘‘माया का खत आया है न?’’
‘‘हाँ।’’ िदलीप ने िसर नीचा कर िलया।
‘‘तो तू उसे लाने कानपुर जा रहा है?’’
‘‘यह तुमसे िकतने कहा?’’
‘‘तू ही कह, िकसी के कहने से या?’’
‘‘म या कहँ?’’
‘तनू े क णा से कहा था?’’
‘‘वह हँसी क बात, उसने तुमसे जड़ दी, और तुमने सच मान ली, भ दू हो तुम माँ!’’
‘‘हाँ, म भ दँू हँ। पर तेरा मन हो तो म उनसे कहँ–रायसाहब को वे प िलख?’’
िदलीप बहत चाहकर भी ‘हाँ’ न कह सका। जैसे एक समच ू ा पहाड़ ही उसक छाती पर आ
िगरा हो। वह लड़खड़ाता हआ बाहर को चला गया। िबना ही जवाब िदए।

35
इसी समय भारत म महान युगा तरकारी प रवतन का समय आ पहँचा। यु ने ि िटश
सा ा य का ढाँचा िहला डाला। और अब अं ेज़ िपटकर भारत से भागने क अपे ा राज़ी-खुशी
भारत को छोड़ देने को तैयार हो गए। पर तु इस काम म भी उनके मन म कुिटलता थी। िजस
कूटनीित का आ य लेकर उ हाने भारत क रा ीयता को खि डत िकया था, उसके अब भारत
के तीन मु य दल थे। एक कां ेस का, िजसके नेता नेह थे; दूसरा अछूत का, िजसके नेता
अ बेडकर थे; तीसरे मुसलमान का, िजनके नेता िज ना थे।
िन स देह कां ेस म मुसलमान का अ पमत था। िज ना ने कां ेस से पथ ृ क् होकर
मुि लम लीग अपना ली थी। और वही उनके मत से मुसलमान क ितिनिध सं था थी। सरकार
ने यह बात अपने गढ़ ू म त य के आधार पर वीकार कर ली थी। अछूत के नेता अ बेडकर
अपना राग अलाप रहे थे। िह दू सभा इस समय भी एक लुंज-पुंज सं था थी। उसम जैसे कोई दम
ही न था। कां ेस को नेह और पटेल जैस का ही नह –गाँधीजी का भी बल िमला था। उनक
यातना-कथाआ ने कां ेस के ित देश-भर को कां ेस का भ बना िदया था। गाँधीजी ही नह ,
जवाहरलाल भी इस समय देवता क भाँित पज ू े जा रहे थे।
इसी समय अं ेज़ ने भारत छोड़ना वीकार कर िलया और भारत के नेताओं के सामने
रहा िक अं ेज़ अब भारत छोड़कर जाएँ तो भारत को िकसे स पकर जाएँ । अछूत क बात
पीछे रहे –मु य तनाव कां ेस और मुि लम लीग म था। पर तु मुि लम लीग जैसे मुसलमान क
ितिनिध सं था थी, वैसे कां ेस िह दुओ ं क सं था न थी। िह दुओ ं का उसम बहमत तो था,
पर तु वह एक रा ीय सं था थी। और उसम मुसलमान भी थे। इस समय अबुलकलाम आज़ाद ही
कां ेस के अ य थे। कहने को कां ेस रा ीय सभा थी और वह िह दू, मुसलमान, ईसाई,
पारसी सभी को एक रा समसझती थी, पर तु वा तव म ये सब जाितय के ितिनिध एक रा
के ितिनिध न थे। खास कर मुसलमान, जो अब से कुछ साल पहले अ पसं यक माने जाते थे,
बराबर के िह सेदार बन रहे थे। वा तव म इ लाम केवल एक धम ही न था, धम क न व पर
खड़ा िकया हआ एक राजनीितक और सामािजक संगठन भी था। िह दूधम और िह दू भावनाओं
से उसम बड़ा भेद था। ार भ म गाँधीजी के उ ोग से ‘िह दू-मुि लम भाई-भाई’ क आवाज़ कुछ
िदन भारत म सुनाई दी। पर पीछे िज ना के कां ेस से पथृ क् होने पर यह आवाज़ गायब हो गई।
वे कहने लगे–न हम िह दुओ ं के भाई ह और न उनके साथी। हमारा अपना एक पथ ृ क् रा है
और उसके पथ ृ क् ही वाथ भी ह। इस पथ ृ क् रा का पथ ृ क् वाथ था तो केवल िह दुओ ं के
मुकाबले, पर उसे ओट िलया कां ेस ने अपने िसर। इसिलए अब एक तरफ कां ेस थी िजसम
मुसलमान का भी िह सा था; दूसरी तरफ मुि लम लीग जो केवल मुसलमान ही क थी। उसका
यह अथ था िक हमारा माल तो हमारा है ही, तु हारे म भी हमारा िह सा है। कां ेस िह दुओ ं का
समथन न कर सकती थी। वह तो अपने को असा दाियक सं था कहती थी और गाँधीजी अपनी
साधुतावश सादा चेक मुसलमान को देने को राज़ी थे। जब तक अं ेज़ क अमलदारी थी तब
तक तो मामला थोड़ी-सी नौक रय तथा कुिसय ही का था। पर तु अब उसने भारत के बँटवारे
का प धारण कर िलया था। अब मुसलमान िज ना के नेत ृ व म पािक तान क माँग कर रहे थे।
इन दल के अलावा राजे-महाराजे थे, जो चाहते थे िक अं ेज़ के जाने पर वे वे छाचारी हो जाएँ ।
जवाहरलाल ने उसके स ब ध म यह य िकया था िक आज के भारत म राजा-महाराजाआ क
कोई िगनती नह है–संिध के अिधकार जो प थर क भाँित िनज व पड़े ह, या रा यवंश के
अिधकार, िजनका जनता क आँख म कोई मू य नह है, िनरथक ह। त य केवल मानवीय
अिधकार म है। उसी मापदंड को सामने रखकर हम सम याओं पर िवचार और िनणय कर सकते
ह। समाजवादी लोग कह रहे थे िक भारतवष म एक समाजवादी ढं ग क शासन- यव था होनी
चािहए, िजसम सभी यि य को उ नित का परू ा-परू ा अवसर िमले तथा सारा अिधकार जनता
का हो। अ बेडकर अपने को छ: करोड़ ह रजन का नेता कहते थे। वे रा ीय िहत से भी धान
अपने वग को समझते थे। वे ह रजन को िह दुओ ं से पथृ क् मानना चाहते थे।
इं लड से मि य का एक मि म डल योजना लेकर आया। योजना पर बहत वाद-िववाद
हआ। अ त म, भारत का िवभाजन हो गया। पािक तान पथ ृ क कर िदया गया। पािक तान के
थम गवनर जनरल िज ना बनाए गए। भारत के गवनर-जनरल लाड माउं टबेटन बने। संयु
र ा कौि सल के अ य भी माउं टबेटन बने। पर तु भारत का गवनर-जनरल के िलए भारत क
राय नह ली गई। पािक तान के गवनर-जनरल तो लीग क सहमित से हआ, पर पािक तान ने
व छ द आचरण ार भ कर िदया और देखते ही देखते पि म पंजाब और पवू बंगाल म मार-
काट, लटू , आग, बला कार, ह या का बाज़ार गम हो गया। चार तरफ से मारकाट, लटू मार के
समाचार आने लगे, और देखते ही देखते यह ह याका ड ऐसा िवराट प धारण कर गया जो
मानव-जाित के इितहास म अपना सानी नह रखता था। इस समय क िपशाच-लीलाओं का
वणन लेखनी नह कर सकती। लायलपुर, िम टागुमरी, शेखपू ुरा, लाहौर और गुजराँवाला
िस ख के गढ़ थे। वहाँ से उ ह बुरी तरह भागना और मरना पड़ा। लाहौर और कलक ा के
बाज़ार म भयंकर अि न क गगनचु बी लपट उठ । िनरीह औरत , ब च , बढ़ ू , जवान के
आतनाद; घर , कूच बाज़ार म, अ पताल म दम तोड़नेवाल क िहचिकयाँ सुनाई पड़ ।
कलक ा से आग क भयंकर लपट नोआखाली, िबहार, इलाहाबाद, ब बई और िद ली आ पहँच ।

36
शराब म डूबे हए और ऐयाशी क आग म झुलसे हए मुगल त त को िफर से वीरान
लालिकले म आबाद करने के िद ली के मुसलमान के मनसबू े जैसे पर लगाकर उड़ चले।
िवभाजन क बात चल रही थ , तभी िज ना का डाइरे ट ऐ शन िद ली म बड़ी-बड़ी तैयारी कर
रहा था। ब दूक, गोले-गोली, तोप, िप तौल, बम, ा समीटर सब कुछ िद ली क गु हवेिलय म
तैयार था। और िद ली को फतह करने क एक तारीख भी मुकरर हो चुक थी–इ क स अग त।
द रयागंज के एक मुि लम ेस म ी ख ना, एक युवक, कई महीने से क पोज़ीटर क
नौकरी बजा रहा था। वह िदलीप का गोइ दा था। रा ीय संघ सिमित क आ ा से वह इस ड्यटू ी
पर तैनात हआ था। नाम यहाँ उसने अपना बताया था ‘शकूर’ और रहने वाला शाहाबाद िज़ले के
िकसी देहात का। सभी उसे बदू म समझते थे। बनाते थे। वह घु ना बना अपना काम करता रहता
था–वा तव म रहने वाला था वह कटरा नील का। यह मुह ला िह दू रईस का मुह ला है। इसके
ारा ित ण मुि लम षाड्य क सचू नाएँ िदलीप को िमलती रहती थ । एक िदन शकूर ने
देखा, उसके पड़ोसी क पोज़ीटर के सामने एक पचा पड़ा है। पच म इ क स अग त के डाइरे ट
ऐ शन का ो ाम था। उस पर अजट िलखा था–और पास वाला युवक ज दी-ज दी इसे क पोज़
कर रहा था। ख ना ने कहा, ‘‘यार, इस कदर बेतहाशा िकस काम म मशगल ू हो?’’
साथी ने कहा, ‘‘अरे शकूर, अजट पचा है, ज़रा मदद कर, कुछ लाइन क पोज़ कर दे।’’
शकूर ने नखरे से कहा, ‘‘वाह, मेरे पास अपना ही काम या कम है? फोरमैन दोपहर को
कान ऐंठ देगा।’’
‘‘नह यार, दस िमनट ही का तो काम है। ले, ज़रा झपाके से हाथ चला।’’ परचा उसने
उसके सामने सरका िदया। शकूर अपने हाथ का काम छोड़ साथी क मदद करने लगा।
पज को पढ़ते-पढ़ते शकूर को पसीना आ गया। तब या इ क स अग त को िद ली उलट-
पलट हो जाएगी? उँ गिलयाँ उसक केस म िबखरे हए टाइप को ढूँढ़ रही थ , और मन उसका
मचल रहा था दूसरी ही जगह। उसे एक अवसर भी िमल गया। पेशाब करने के बहाने वह उठा।
परचा उसने जेब म डाला। साथी का यान दूसरी ओर था। पेशाबघर म घुसकर वह दूसरी ओर
दीवार कूद गया, िफर वह भागा िदलीप के पास। कुछ दूर ाम ली, िफर पैदल।
थोड़ी ही देर म साथी का उधर यान लगा। कहाँ गया शकूर का ब चा, और पचा कहाँ है?
सामने िबखरे कागज़ म उसने बहत टटोला। उसका चेहरा फक हो गया। ण-भर बाद ही ेस म
हलचल मच गई। शकूर क तलाश म गोइ दे दौड़े ।
परचा पढ़कर िदलीप सकते क हालत म हो गया। वह सोचने लगा। इ क स अग त को
िद ली म भी लाहौर क वाला उठे गी। चाँदनी चौक अनारकली क भाँित धाँय-धाँय जलेगा।
केिबनट के िह दू वज़ीर मार डाले जाएँ गे। यहाँ भी िह दू बालाओं पर बला कार होगा। नह , नह ,
मेरे रहते यह नह होगा।
िदलीप ने तुर त कहा, ‘‘ख ना, तु ह को सब भुगतना पड़े गा भाई। जो कुछ करना है
आज, अभी कर दो कल तो िफर इ क स है ही।’’ वह उठा ब स के कागज़ म लपेटा हआ एक
ब डल िनकाला। उसे देते हए कहा, ‘‘खबू होिशयारी रखना। और अपने दाँव का कोई मौका
चकू ना नह । बस फतेहपुरी क मि जद पर, अँधेरा होते ही।’’ ख ना ने ब डल िलया और चुपचाप
एक ओर चल िदया। िदलीप ने भी साइिकल पकड़ी। ढाई बज रहा था। तीन बजे उसे शरणािथय
क िवराट सभा म भाषण देना था। वह तीर क तरह सभा- थल क ओर भागा।
बहत आदमी जमा हो चुके ह। पर अभी मीिटंग का समय नह हआ था। खबर थी, पुिलस
मीिटंग न होने देगी। िदलीप ने समय क ती ा न क । मंच पर खड़े होकर वह गरजा। वही पुज़ा
उसके हाथ म था। भारतीय ाि त के इितहास म यह पहला ही भाषण था जब िदलीप ने िह दुओ ं
को डाइरे ट ऐ शन का मम समझाकर इस समय त ण ‘करने और मरने’ का स देश िदया।
िदलीप का येक श द आग का शोला था। सभा के ी-पु ष, त ण-व ृ सभी का खन ू खौल
उठा–संयम, धैय, यव था, कायदा कुछ भी नह सोचा गया। दाँत के बदले दाँत और नाक के
बदले नाक, बस यही नारा बुल द हआ। लोग पीिड़त थे, लुट चुके थे। िकसी क आँख के सामने
उसक बहओं-बेिटय क लाज लटू ी गई थी–िक ह को अपनी बेिटय को आग म भ म करना
पड़ा था। पीिढ़य क कमाई, बाप-दाद का घर- ार, देश, कारबार वे छोड़कर खानाबदोश क
भाँित यहाँ आकर पड़े थे। उ ह ाण का भला या मोह! जीवन क भला या िच ता! भले-बुरे का
भला या ान! च ड लय क वाला उनके दय म जल उठी। िकसी कार क बाधा-
यव था क आन मानने का वह वातावरण ही न था। शताि दय बाद खुले मंच पर मँुह खोलकर
एक िह दू ने ललकारा था–‘‘मारो!’’ जब तक पुिलस सतक हो तब तक तो लोग िबखर गए,
जनन ू म भरे हए। िदलीप सीधा टेशन पहँचा। इस समय एक बलच ू ी फौज क एक टुकड़ी
शरणािथय क गाड़ी को लेकर जं शन पर पहँची थी। सभा थल से भागे हए त ण ने समझा,
िद ली पर हमला करने वह नई सेना आई है। आमना-सामना होते ही छुरे बाज़ी होने तथा गोिलयाँ
चलने लग । देखते-देखते लाश तड़पने लग । इस समय िद ली टेशन एक भिटयारखाना बना
हआ था। िवशाल टेशन के लेटफाम पर ितल धरने क जगह न थी। अनेक शरणाथ अपना
चौका-चू हा, चखा, खाट, पीढ़ी िलए जहाँ-तहाँ पड़े थे। िदलीप ने य ही गोली क आवाज़ सुनी,
वह दो-दो, चार-चार छलाँग भरता हआ उधर जा पहँचा। इसी समय सामने एक रे ल-िड बे म ज़ोर
का भड़ाका हआ। ऐसा मालम ू हआ जैसे अभी टेशन फट पड़ा। टेशन पर थोड़ी-सी हिथयारब द
फौज तैनात थी। वह अभी बलिू चय क ओर जा ही रही थी िक इस धड़ाके क ओर दौड़ पड़ी।
िड बे को उसने घेर िलया। िड बे म ‘अमरोहा-मुरादाबाद’ जाने वाले मुसलमान का एक गुट था।
गुट के सामान से ढे र-छुरे , बम, िप तौल और िव वंसक साम ी िमली। सभी को िगर तार कर
िलया गया। पर तु बहतेरे आँख बचाकर भीड़ म िमल गए। इस समय तक टेशन पर छुरे बाज़ी
और तलवार के खुले हाथ चल रहे थे। बीस लाश तड़प रही थ । लोग िजधर िजसका मँुह उठता था
भाग रहे थे।
सदर बाज़ार, हौज़काज़ी, फतेहपुरी, ब लीमारान म कोई िह दू सही-सलामत नह आ-जा
रहा था। ख ना इस समय फतेहपुरी म बंडल बगल म दबाए घम ू रहा था, अब उसम अ धकार होने
तक कने का धैय न रहा। भीड़भाड़ क वजह से माल से लदी बहत-सी क वहाँ अड़ी खड़ी थ ।
एक पर चढ़कर उसने खबू जोर से वह बंडल फतहपुरी मि जद के ार पर फक िदया। ब डल का
बम फटते ही बड़ा भारी धड़ाका हआ और भगदड़ मच गई। मुसलमान को पहली बार भय का
सामना करना पड़ा। चार ओर से शरणिथय और मुसलमान ने अपनी-अपनी घात पाकर छुरे
चलाने आर भ कर िदए।
शु वार का िदन था और जामा मि जद म जुमे क नमाज़ अदा करने को कोई साठ हज़ार
मुसलमान जमा हो गए थे। स भवत: यहाँ से डाइरे ट ऐ शन होने वाला था। िदलीप ने ज दी-
ज दी इसक सच ू ना िड टी किम र को दी। िड टी किम र ने िजतनी सेना और पुिलस वे ला
सके, लाकर जामा मि जद को घेर िलया। नमाज़ अदा होने के बाद उ ह ने दस-दस आदिमय को
बाहर आने का आदेश िदया। तनी हई संगीन देखकर मुसलमान घबरा गए। दस-दस क सं या
म वे आने लगे। तलाशी लेने पर उनके पास छुरे , बम, िप तौल बरामद होने लग । देखते ही देखते
छुर और िप तौल के ढे र हो गए। बहत आदमी ला रय म भरकर जेल भेज िदए गए।
दुभा य से इस समय िद ली म सेना बहत कम थी। सेना तथा पुिलस म अिधकांश
मुसलमान भरे थे, िजन पर भरोसा नह िकया जा सकता था। िड टी किम र ने मेरठ से सहायता
माँगी थी, िजसक ण- ण आशा क जा रही थी। जामा मि जद क तलाशी से िनबटकर िड टी
किम र ने एक टुकड़ी सेना के साथ िद ली के संिद ध मुह ल म ग त लगाना आर भ िकया।
िचतली क के पास होकर वे एक गली म घुसे। इसी गली म एक मकान म िव ोिहय का अड्डा
था। उ हाने समझा िक हमारा भेद पाकर पुिलस ने हम पर रे ड क है। असंयत होकर उ ह ने गोली
दागना शु कर िदया। सेना ने भी मोचा गांठा। दोन ओर से गोिलय क बौछार चलने लगी।
सेना के िसपाही और गोली-बा द चुकने लगा। िच ता क िसकुड़न िड टी किम र के माथे पर
पड़ी–इसी समय मेरठ से सहायता आ गई। आठ घ टे क अि नवषा के बाद सब लोग पकड़ िलए
गए। बहत से ांसमीटर हाथ लगे। यह पर स ज़ीम डी के एक ज़म दोज़ खतरनाक अड्डे का
पता चला। पर तु िमिलटरी क सहायता िमलने से थम ही स जीम डी के मोच से बम और
गोिलयाँ राह चलत को भन ू ने लग । िदलीप ने सुना। कुल इ क स त ण को लेकर उस मोच पर
पहँचा, िजसके सामने लाश का ढे र लगा हआ था। इन इ क स त ण के पास िसफ तीन ब दूक
थ । उनसे कोई काम नह िनकल सकता था। िमिलटरी क सहायता भी समय पर नह पहँच रही
थी। यिद उस रात अड्डे को िनयि त नह िकया जाता तो शहर क खैर नह है। अब तक
पचास मकान जला डाले गए थे िजनम जलती हई आग क लपट उस रात म बड़ी भयानक लग
रही थ । िदलीप को सच ू ना िमली, मुह ले के कुछ रईस के पास ब दूक ह, िज ह उ ह ने
मखमली खोल म सजाकर रख छोड़ा है। इस समय भी वे उनसे काम लेना नह चाहते थे। सब
घर म िछपे बैठे थे। िदलीप ने तय िकया, पहले उन ब दूक को ही क ज़े म लेना चािहए। तीन
ब दूक को ताने हए वे, एक-एक करके उन रईस के बंगल म घुस गए और ज़बरद ती उनक
ब दूक छीन लाए। इनम बहतेर ने पुिलस को फोन िकए िक डाकू हमारी ब दूक छीन ले गए ह।
पर पुिलस िकसक सुनती थी! अब स ह ब दूक से लैस होकर िदलीप ने अपने त ण को ह म
िदया िक येक युवक पड़ोस के घर से एक-एक तवा उठा लाकर छाती से बाँध ले। आनन-
फानन म तवे छाितय पर बँध गए। छाती पर बाँधकर ये इ क स त ण अपनी ब दूक को ले,
िजतना जहाँ गोला-बा द िमला, क ज़ा कर पेड़ और मकान क आड़ म मोच बनाकर फायर
करने लगे। वह एक ऐसा जबद त ितरोध था िजसने आतताियय को बाहर िनकलने से रोक
िदया। रात-भर दोन ओर से गोिलयाँ चलती रह । चार बजे सुबह िमिलटरी ने आकर अड्डे और
बम और मशीनगन से आ मण िकया। और पहर िदन चढ़ते-चढ़ते अड्डे पर अिधकार कर
िलया।
िद ली के िव ोिहय के ये दो बल अड्डे थे। य तीन िदन तक िद ली क गली-गली,
कूचे-कूचे से मारकाट होती रही। पर मुसलमान का बल टूट गया और वे भयभीत होकर भागने
लगे। िह दु तान क िवजय सपना हो गई। पािक तान पहँचना दूभर हो गया। गली-कूच म लाश
सड़ने लग । सारा शहर दुग ध से भर उठा। सब यव था िछ न-िभ न हो गई। मुसलमान अपने
बाल-ब च , प रजन को तांग पर, ठे ल पर, मोटर पर, घोड़ पर लादकर पंि -पंि उदास और
भयभीत ि से िद ली और लालिकले पर हसरत क नज़र डालते हए घर-बार छोड़कर हमायँ ू
के मकबरे क ओर जा रहे थे। शहर म िस ख शरणाथ और रा ीय संघ के त ण िबफरे बाघ क
भाँित सीना ऊँचा करके घम ू रहे थे। िद ली ने सात सौ वष के बाद ये िदन देखे थे। यह िद ली तो
वा तव म मुसलमान क ही नगरी थी। यहाँ क भाषा, रं गत, अमीरी, नज़ाकत, शह रयत सभी
कुछ मुसलमान का था। सात सौ वष तक िह दू अध-दासता भोगते रहकर िद ली क चौखट पर
माथा टेकते रहे थे। उसी िद ली को, वैसा ही भरा-परू ा गुलज़ार छोड़, उस पर हसरत क नज़र
डालते हए, उसक स प न सड़क पर सदा के गुलाम िह दुओ ं को शेर क तरह घम ू ते देखते हए
वे चले जा रहे थे। यह कालच का प रवतन था, जो अभत ू पवू था।

37
डा टर ने सख ू े मँुह घबराए आकर अ णा से कहा, ‘‘िदलीप रं गमहल म आग लगाने गया
है, बहत-से संघी गु डे उसके साथ ह।’’
अ णादेवी का मँुह भय से सफेद हो गया। उ हाने कहा, ‘‘तो अब बानू का या होगा?’’
‘‘मेरी समझ म नह आता, या िकया जाए।’’
‘‘तु ह खुद जाकर उ ह यहाँ ले आना चािहए था।’’
‘‘मने बहत कहा, पर उ ह ने िकसी तरह आना वीकार नह िकया।’’
‘‘िदलीप को तुम समझाओ।’’
‘‘बेकार है, उस पर खन ू सवार है। या मने उसे कम समझाया है? समझाने-बुझाने का यह
नतीजा हआ िक आज आठ िदन से उसक सरू त तक नह िदखाई दी।’’
‘‘लेिकन बानू क सुर ा तो करनी ही होगी, चाहे जो भी हो।’’
‘‘पर हम कर भी या सकते ह?’’
‘‘मुझे जाना होगा, या कोई सवारी िमलेगी?’’
‘‘पागल तो नह हो गई हो, देखती हो शहर का या हाल है!’’
‘‘जो भी हो।’’ अ णादेवी ने एक ण भी खोना खतरनाक समझा, अंग पर दुप ा डाल
जैसी खड़ी थी चल खड़ी हई ं।
‘‘यह या कर रही हो, सुनो तो!’’
‘‘तुम समझते नह हो, बानू क जान पर आ बनी है।’’
‘‘तो िफर सुशील को साथ लेकर म जाता हँ।’’
‘‘नह , और िकसी का काम नह है। बानू के िबना ह म, म िकसी से उनके स ब ध म
कुछ नह कह सकती।’’
‘‘तब ठहरो, म भी चलता हँ।’’ डा टर भी अ णादेवी के साथ हो िलए। चलती बार सुशील
को उ ह ने सावधान करके कहा, ‘‘हम देर लग सकती है। स भव है रात को भी न आ सक, पर
तुम िच ता न करना।’’
सुशील, िशिशर और क णा भय और उ ेग से देखते रह गए और ये दोन कमठ पित-प नी
पैर बढ़ाते हए मुसलमान के मुह ले म घुसे।
चलते-चलते डा टर ने कहा, ‘सुनती हो, हम लोग बड़े ही खतरे म जा रहे ह। कोई भी
मुसलमान अपने घर से हम गोली मार सकता है।’’
‘‘कोई सवारी िमल जाती तो ठीक था।’’
‘‘स भव नह है।’’ उ ह ने चार ओर याकुल ि से देखा। पर तु अ णादेवी ु तगित से
कदम बढ़ाती चली जा रही थ । फराशखाना आ गया। वे गली म घुसे। िविच श द, शोरगुल और
भय का वातावरण जैसे उ ह िनगले जा रहा था, पर तु वे दोन मिू तयां तो आगे बढ़ती जा रही थ ।
गली सन ू ी थी–एकाध कु ा भ क रहा था। दोन रं गमहल के िनकट सही-सलामत पहँचे। सामने
कोई पचास कदम पर रं गमहल था। रं गमहल क ओर से बड़ा भारी शोर आ रहा था। िदलीप का
दल वहाँ पहँच चुका था। दल म बहस हो रही थी। दल के लोग कह रहे थे–पहले रं गमहल को लटू
लो, उसके रहनेवाल को मार डालो, पीछे उसम आग लगा दो। िदलीप कह रहा था–नह , आग
लगा दो। सब कुछ भ म हो जाने दो।
इसी समय डा टर और अ णादेवी वहाँ पहँच गए। भीड़ म उ ह ने एक श द भी न कहा, न
उ हाने िदलीप क ओर आँख उठाकर देखा। वे दोन भीड़ को धकेलते हए भीतर घुस गए। भीड़ म
कुछ लोग डा टर को पहचानते थे, कुछ नह ।जो पहचानते थे वे ज़रा दुिवधा म पड़े िक इस समय
िदलीप के माता-िपता को यहाँ आने का या काम था?
वे िदलीप का मँुह ताकने लगे। उनक बहस ब द हो गई। जो नह जानते थे वे भी जान गए,
िदलीप के माता और िपता आए ह। उन लोग का वहाँ आने का उ े य या है–यही िज ासा
सबक आँख म फै ल गई। उनका िववाद भी जहाँ का तहाँ क गया।
डा टर और अ णा देवी वहाँ के नह , भीतर क पौर पर चढ़ते चले गए। िदलीप ने आगे
बढ़कर कहा, ‘‘बाबज ू ी, आप वहाँ कहाँ आ रहे ह, ज़रा ठह रए।’’ डा टर ने ककर पीछे को
देखा।
िदलीप ने पास पहँचकर कहा, ‘‘इस समय आप यहाँ य आए ह? कृपा कर घर चले
जाइए।’’
डा टर ने कहा, ‘‘िदलीप, म बाप होकर बेटे से यह नह पछ ू ता िक वह इतनी भीड़ को
लेकर यहाँ य आया है, िफर बेटा बाप से य जवाब तलब करता है? हर एक आदमी का जुदा-
जुदा मतलब होता है, जुदा-जुदा उ े य होता है। तु हारा उ े य कुछ और है और मेरा कुछ और।
हम दोन के दो िभ न माग ह। वह मने जान िलया है, तुमसे कुछ कहना बेकार है; और अब तुम
यह जान लो, मुझसे भी कुछ कहना बेकार है।’’
‘‘आप समझते नह ह बाबज ू ी, हम इस रं गमहल म आग लगाने जा रहे ह। आप यहाँ से चले
जाइए।’’
‘‘म खबू समझता हँ। शैतान तुम पर सवार है। पर तु बेटे के पाप म माँ-बाप का भी िह सा
है। यहाँ रं गमहल म एक बानू रहती ह। वे अकेली मिहला ह। उनक ाण-र ा करने या उ ह के
साथ जल मरने के िलए हम लोग आए ह। तुम भी यह समझ लो।’’
‘‘आप गलती कर रहे ह बाबज ू ी।’’
‘‘गलती तो हमने तभी क जब तु ह हम लोग ने छाती से लगाकर दूध िपलाकर पाला।
अब तो उस गलती का प रमाजन कर रहे ह, िदलीप!’’
अभी बाप-बेटे क ये बात हो रही थ , अ णादेवी भीतरी आँगन लाँघ चुक थ । िदलीप
दौड़कर उनके पास पहँचा और माँ के पैर पकड़कर कहा, ‘‘माँ, यहाँ से चली जाओ, चली जाओ
माँ!’’
अ णा का चेहरा प थर क भाँित कठोर हो गया। उ ह ने कहा, ‘‘िदलीप, मुझे तू मत छू,
अधम , दूर हो मेरी आँख से!’’
िदलीप ने आज तक अ णा क वह मिू त न देखी थी। वह सकते क हालत म हो गया।
अ णा आगे बढ़कर भीतरी दालान म चली गई। इसी समय उ ह सामने बानू खड़ी िदखाई दी।
बानू का मँुह सफेद हो रहा था, र क एक बँदू भी उसके मँुह पर न थी। वह दौड़कर
अ णादेवी के पास आकर बोली, ‘‘इस समय तुम यहाँ य आई ं? तुमने यह या िकया बिहन?’’
िक तु अ णा ने लपककर बानू को छाती से लगा िलया। इसी समय लपकते हए डा टर
अमत ृ राय पहँच गए। उ हाने कहा, ‘‘ब दूक कहाँ है बान?ू ’’
‘‘भाईजान, आप बिहन को लेकर अभी चले जाइए। मुझ पर जो बीतेगा म देख लँग ू ी। हाथ
जोड़ती हँ भाईजान!’’
लेिकन डा टर लपककर भीतर घुस गए। ब दूक उ ह ने उठा ली और ज दी-ज दी
कारतस ू डालकर उसक नाल िदलीप क ओर सीधी क ।
‘‘यह या?’’ बानू ने ब दूक क नाल काँपते हए दोन हाथ म पकड़कर कहा, ‘‘वे सैकड़
ह, एक ब दूक से िकसे-िकसे मारगे आप?’’
‘‘और से मुझे सरोकार नह , म िदलीप को–इस शैतान बेटे को गोली मार दँू तो बस।’’
उ ह ने ब दूक सीधी क । िदलीप सामने सीधा तना खड़ा था। उसका नाम सुनते ही बानू क
पलक फै ल गई ं। उसने आँख उठाकर िदलीप क ओर देखा। ह ठ फड़के। उनम से एक अ फुट
विन िनकली, ‘िद-ली-प!’’
‘‘िदलीप ही है बिहन, देख लो इसे आिखरी बार, और पहली बार। अ णा ने बानू क आँख
म आँख डालकर कहा। िफर पित को संकेत िकया, ‘‘मार दो गोली।’’
लेिकन बानू उनके अंकपाश से िनकलकर तेज़ी से झपटते हए ब दूक क नाल के आगे आ
खड़ी हई। उसने कहा, ‘‘खुदा के िलए भाईजान, ब दूक मुझे दे दीिजए। उसे जो जी चाहे करने
दीिजए।’’ और उसने एक तौर से ब दूक उनके हाथ से छीन ली।
िदलीप ने कहा, ‘‘आप चाह तो घर से बाहर जा सकती ह। हम लोग आपको चले जाने दगे–
मगर हम रं गमहल म ज़ र आग लगाएँ गे।’’ बानू ने एक बार िदलीप क ओर आँख उठाकर
देखा। पर जवाब कुछ नह िदया। जवाब िदया डा टर ने, जैसे बानू क आ मा म िव होकर
उ ह ने बानू के मन म बात जान ली। उ हाने कहा, ‘‘हम लोग बाहर नह जाएँ गे। जाओ, तुम
अपना काम करो। उ हाने उसक ओर से पीठ फेर ली और कहा, ‘‘अब हम तीन के अित र घर
म दो आदमी केवल और ह, एक बढ़ ू ी दासी, दूसरे रहमत िमयाँ।’’
बानू अब साहस करके कदम बढ़ाकर िदलीप के सामने जा खड़ी हई। उसने ि थर-शा त
वर से कहा, ‘‘िदलीप, रहमत िमयाँ और बुआ को तुम चला जाने दो। खुदा तु हारा भला करे ।’’
लेिकन रहमत िमयाँ और बढ़ ू ी दासी ने जाने से इ कार कर िदया। उ ह ने कहा, ‘‘यह नह
होगा। आपके कदम म हम भी सदके।’’ रहमत ने एक करारी आवाज़ लगाकर िदलीप से कहा,
‘‘जाओ िमयाँ, तुम अपना काम करो।’’
पर तु िदलीप के िनणय तक अधीर भीड़ ने स नह िकया। उसने रं गमहल म आग लगा
दी। देखते-देखते आग ने फाटक को पकड़ िलया। और घर का आँगन धुएँ से भर गया। बानू और
डा टर-द पती भीतर चले गए। िदलीप िकंकत यिवमढ़ ू खड़ा रहा।
आग ने रं गमहल को स िलया। दरवाजे़ और िखड़िकयाँ धाँय-धाँय जलने लग । आग क
लाल-लाल लपट हवा म लहराने लग । स भवत: इसी समय पुिलस या िमलीटरी क एक टुकड़ी
उधर जा िनकली। यह देख आतताितय क भीड़ भाग गई, डा टर-द पती और बानू के साथ
िदलीप भी आग म िघर गया।
िक तु आग अभी तक यहाँ भीतरी क म नह पहँची थी। िदलीप अब एक ण को भी देर
न कर भीतर क ओर लपका। उसने इधर-उधर देख एक बड़ी-सी र सी उठा िपछवाडे ़ क
िखड़क म बाँधी और अ णा के पास आकर कहा, ‘‘अ माँ, ई र के िलए इस िखड़क क राह
तुम बाहर िनकलो।’’
अ णा ने कहा, ‘‘तु ह जो कुछ कहना हो, बानू से कहो। हमारा जो कुछ होगा, उ ह के
साथ।’’
िदलीप ने बानू के पास जाकर कहा, ‘‘माँ को आप समझाइए–जो होना था हो चुका। कृपा
कर आप इस िखड़क क राह िनकल जाइए, आग अभी यहाँ नह पहँची है।’’
िक तु बानू ने इसका कोई जवाब नह िदया। िदलीप ने कहा, ‘‘आप लोग यिद मेरी बात
नह सुनते ह तो म भी यह जल म ँ गा।’’
िदलीप भी उनके साथ आग म िघर गया है, इस पर बानू का यान ही नह गया था। अब
उसक यह बात सुनते ही उ ह ने घबराकर कहा, ‘‘िदलीप, तुम इस िखड़क क राह िनकल
जाओ, खुदा के िलए ज दी करो!’’ मात-ृ दय जैसे आकुल- याकुल होकर बानू क वाणी म याप
गया। इसी समय पहली बार िदलीप ने बानू के मँुह क ओर देखा। पहली बार दोन क आँख चार
हई ं, और िकसी अ ात ेरणा ने उसे बानू के पैर म झुका िदया। उसने कहा, ‘‘आपके हाथ सभी
क जान है। आप न जाएँ गी तो माँ और बाबज ू ी भी नह जाएँ गे। म भी न जाऊँगा। आप ही हम
सबको बचा लीिजए। आपके खुदा के नाम पर!’’ न जाने अ तरा मा क िकस गहराई से िदलीप
क आँख म आँसू भर आए।
बानू का मन बदल गया। उसने अ णा से कहा, ‘‘चलो बिहन, िदलीप क बात ही रहे ।’’
उ ह ने डा टर क ओर देखकर पुकारा, ‘‘भाईजान, ज दी क िजए।’’
‘‘आप चलगी?’’
‘‘चलँग
ू ी भाईजान।’’
फुत से डा टर िखड़क पर आ गए। र सी को जाँचा। िफर कहा, ‘‘म आपक कमर म
र सी बाँधता हँ। आप धीरे -धीरे उत रए।’’
‘‘नह , पहले अ णा बिहन।’’
अ णा ने कहा, ‘‘यह नह हो सकता।’’
‘‘आप समय बबाद कर रही ह।’’ िदलीप ने अधीर होकर कहा, ‘‘बाबज ू ी, आप नीचे जाकर
र सी सािधए। म एक-एक करके सबको उतारता हँ।’’
डा टर चुपचाप र सी के सहारे नीचे उतर गए। नीचे पहँच र सी तानकर उ हाने कहा,
‘‘पहले बान।ू ’’
बानू ने कहा, ‘‘नह बुआ।’’
िदलीप ने गद क भाँित बढ़ ू ी दासी को उठाकर र से पर लटका िदया। बुिढ़या सही-सलामत
रोती-चीखती नीचे पहँच गई।
‘‘अब बिहन, तुम।’’ बानू ने अ णा से कहा। िक तु अ णा ने कहा, ‘‘यह नह होगा–तुम
जाओ पहले।’’
आग ने अब कमरे को छू िलया। िदलीप ने गु सा करके कहा, ‘‘आप सुनती नह ह, या
आपको भी उसी तरह उठाना होगा।’’ वह बानू क ओर बढ़ा। िनरीह क भाँित बानू आगे बढ़ी।
िदलीप ने उसे सावधानी से नीचे उतार िदया, इसके बाद अ णा और रहमत िमयाँ को भी । यह
सब करते-कराते आग िखड़क तक आ पहँची और य ही िदलीप ने र सी पर हाथ डाला, र सी
का वह िसरा जल उठा। र सी िदलीप के भारी बोझ को िलए नीचे आ रही। िदलीप िसर के बल
िगरा, िसर फट गया। िदलीप बेहोश हो गया। बानू दौड़कर उसके ऊपर िगर गई।
इस समय वहाँ बहत आदमी एकि त हो गए थे। वा तिवक घटना का िकसी को पता न था।
आग बुझानेवाले, पुिलसवाले, िमिलटरी भी आ पहँची थी। सारा महल धाँय-धाँय जल रहा था। लोग
इस समय इस त णा िदलीप क तारीफ कर रहे थे। िजसने वीरतापवू क इतने आदिमय क जान
बचाई थी।

38
होश आने पर िदलीप ने आँख खोल । उसने इधर-उधर नज़र घुमाई। एक चेहरे पर उसक
नज़र अटक गई। पलंग के पास एक ी कुस पर बैठी थी। वह झुककर उस समय यान से उसे
देख रही थी। चेहरा उसने पहचाना नह । ‘तुम कौन हो?’’ यही शायद वह कहना चाहता था,
पर तु ह ठ से बोली नह फूट रही थी। ह ठ केवल िहलकर रह गए। उसने आँख ब द कर ल । जो
ी पास बैठी थी उसने दो-तीन च मच जल उसके मँुह म डाल िदया।
जल पीकर उसने िफर आँख खोल । अब वह परू े होश म था। उसने धीरे से कहा, ‘‘आप
कौन ह?’’
ी मु करा दी। उसने जवाब नह िदया। िदलीप एकटक उस मुख को देखता रहा। उसने
अपनी मिृ त पर बहत जोर िदया, िसर दद करने लगा। उसने िफर आँख ब द कर ल । पास बैठी
ी ने धीरे -धीरे उसके माथे पर हाथ फेरा। उस कोमल-ि न ध हाथ का पश पाकर िदलीप म
जैसे नए ाण का संचार हो गया। उसने आँख खोलकर उसे देखा और पछ ू ा, ‘‘आप...आप कौन
ह?’’
‘‘ या पहचानते नह ?’’
‘‘न।’’ िदलीप ने िसर िहला िदया। ी ने कहा :
‘‘तब जाने दीिजए। पहचानने क या ज़ रत है। जाऊँ, बाबज ू ी को खबर कर देती हँ। और
ी तेज़ी से उठकर चली गई। उसे रोकने के िलए िदलीप का हाथ उठा का उठा रह गया। थोड़ी ही
देर म उस कमरे म डा टर, अ णा, िशिशर, सुशील, क णा–घर के सभी आदमी आ गए। सबके
पीछे बान।ू
अ णा ने आँख म आँसू भरकर कहा, ‘‘कैसा है िदलीप?’’
िदलीप ने माँ का हाथ पकड़ िलया। उसने कहा, ‘‘म या बहत बीमार हो गया था माँ?’’
‘‘आज चौथा िदन है, तभी से बेहोश पड़े हो।’’
‘‘म कहाँ हँ?’’
‘‘ य , अपने घर ही म तो हो!’’
‘‘क णा कहां है?’’
‘‘म यह हँ भैया।’’ क णा आगे आई। उसे यान से देखकर वह ‘अ छा’ कहकर चुप हो
गया। कुछ देर बाद उसने अपनी मिृ त पर ज़ोर देकर कहा, ‘‘उस घटना म सब बच गए न, सब
लोग कहाँ ह?’’
‘‘यह ह सब।’’
िदलीप ने अपनी आँख घुमाई। बानू सबसे पीछे खड़ी थी। उसक ओर देखकर िदलीप ने
आँख नीची कर ली। अ णा ने कहा, ‘‘यहाँ आओ बिहन, यहाँ बैठो।’’
बानू आकर िदलीप के िसरहाने खड़ी हो गई। िदलीप ने िफर उसक ओर देखकर कहा,
‘‘आप तो मुझसे नाराज़ नह ह?’’
उ र म बानू तिकए के सहारे बैठ िदलीप के िसर पर हाथ फेरने लगी।
िदलीप ने कहा, ‘‘समझ गया, आपने माफ कर िदया।’’ पर इसी समय उसे िफर उस मुख
क याद आ गई, िजसे उसने होश म आने पर पहली बार देखा था। उसने आँख उठाकर चार ओर
देखा था। अनेक चेहरे थे, पर वह नह था। उसने िफर आँख ब द कर ल । वह उसी मुख का यान
करने लगा। वह कौन था? इसी समय दो गम बँदू उसके माथे पर िगर । िदलीप ने आँख खोलकर
देखा। बानू के आँसू ढरक रहे थे।
उन आँसुओ ं को देख िदलीप क अ तरा मा जैसे कराह उठी। अपने कुकृ य पर जैसे वह
ल जा और लािन से दब गया। पर उसके मँुह से श द न िनकले। िक तु न जाने कहाँ से आँसू
उसक आँख से भी ढरकने लगे।
इतनी देर बाद डा टर ने कहा, ‘‘अब इसके पास भीड़भाड़ न करो। फोन कर िदया है।
डा टर भटनागर आ रहे ह। चोपड़ा भी ह। वे देख ल तो ेि पशन िलखा जाए।’’
िफर उ ह ने िदलीप को ल य करके कहा, ‘‘कुछ तकलीफ तो नह है िदलीप?’’
“िसर म बहत दद है।’’
‘‘ठीक है, अ छा अब सब कोई यहाँ से जाओ, इसे आराम क बहत ज़ रत है। अब खतरे
क कोई बात नह है।’’
इसी समय डा टर लोग आ गए। सब लोग कमरे से बाहर चले गए। सलाह-मशवरा करके
नु खा िलखा। डा टर के जाने पर अ णा और डा टर ने उसका हाथ-मँुह साफ िकया, थोड़ी गम
कॉफ दी। ज़ म पर मरहम-प ी क , और उसे आराम करने को कहकर चले गए। थोड़ी देर बाद
िदलीप सो गया।
बहत देर तक सोता रहा। आँख खुली तो देखा–वही मुख।
उसी मुख ने कहा, ‘‘अब तबीयत कैसी है?’’
‘‘अ छी है।’’ िदलीप देर तक एकटक उसी मुख को देखता रहा, िफर एकाएक िबजली-सी
उसक आँख म क ध गई। उसने काँपते क ठ से कहा, ‘‘तुम!’’
मुख ने हँसकर कहा, ‘‘पहचान िलया?’’
‘‘हँ!’’ िदलीप ने हाथ बढ़ाकर उसका हाथ पकड़ िलया। उस मुख क वािमनी ने हाथ नह
ख चा–िक तु कोमल-ि न ध वर से कहा, ‘‘कुछ चािहए?’’
‘‘नह ।’’ िदलीप चुपचाप आँख ब द िकए बहत देर तक उन कोमल च पे क कली के
समान उँ गिलय को अपनी मु ी म कसे चुपचाप पड़ा रहा। िफर उसने आिह ता से हाथ छोड़ िदया।
आँख खोल । पछ ू ा, ‘‘कब आई ं?’’
‘‘आज पाँचवाँ िदन है।’’
‘‘बाबज ू ी भी ह?’’
‘‘नह । आए थे–पर चले गए। एक-दो ज़ री खन ू के मुकदमे थे।’’
‘‘तुम नह गई ं?’’
‘‘क णा ने नह जाने िदया।’’
कुछ देर िदलीप चुपचाप नीचे ताकता रहा। िफर बोला, ‘‘तु ह या मेरी बीमारी क खबर दी
गई थी?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘क णा ने खत िलखा था?’’
‘‘नह , तार िदया था।’’
‘‘बाबज ू ी ने आपि नह क , तु ह लेकर चले आए?’’
‘‘आपि क थी, पर म हठ करके चली आई।’’
‘‘और अब?’’
‘‘अब भी, वे तो छोड़ना नह चाहते थे, लेिकन म रह गई।’’
‘‘ य ?’’
‘‘क णा ने िज़ क , नह जाने िदया।’’
‘‘बस, या और कुछ?’’
‘‘और कुछ या?’’
िदलीप ने िफर उसक कोमल उँ गिलयाँ मु ी म कस ल । िफर उसक आँख से आँख
िमलाकर कहा, ‘‘अपने मन से नह रह ?’’
‘‘मेरा भी मन था।’’
‘‘अ छा!’’ िदलीप ने िफर उसका मँुह देखा। मँुह से हँसी फूटी पड़ रही थी। कुछ ककर
िदलीप ने कहा, ‘‘तु हारा मन य था भला?’’
‘‘मेरा एक काम था–सोचा, उसे िनपटाती चलँ।ू ’’
‘‘कौन काम था?’’
‘‘जब म िपछली बार आई थी, मने एक आदमी को एक घड़ी दी थी, उसी घड़ी क बात
पछू नी थी।’’
‘‘ या बात पछू नी थी?’’
‘‘िक घड़ी ठीक-ठीक चल भी रही है या ठ प पड़ी है।’’
िदलीप ने जवाब नह िदया। आिह ता से उसका हाथ ख चकर अपने व थल पर रख
िलया। व पर उस हाथ को अपने हाथ से दबाकर कहा, ‘‘देखो ज़रा, घड़ी चल रही है या ठ प
पड़ी है।’’
और उस मुखर मुख क बोलती ब द हो गई। उसक फूटती हँसी भी गायब हो गई। उस पर
भात क अ ण आभा क भाँित लाली फै ल गई। उन च पक उँ गिलय म भी क पन होने लगा।
उसने आिह ता से हाथ ख च िलया, और वह चुपचाप उठकर वहाँ से चली गई। और िदलीप जैसे
िव क स पदा को अपने व म भरकर आन द और ऐ य म म न हो गया।

39
भरपरू न द सो लेने पर िदलीप का मन बहत ह का हो गया। जब उसक आँख खुली तो वह
बहत खुश था। वह उ फु ल मुख और कोमल उँ गिलयाँ उसके अ त तल म प दन कर रही थ ।
इसी समय दरवाजे़ पर खटका सुनकर उसने उधर आँख उठाई, आशा और उ लास से उसके ने
फ त हो गए। ार खुला और क णा चाय क े लेकर भीतर आई। िदलीप का मन बुझ गया।
उसने मँुह फेर िलया। क णा ने चाय क े टूल पर रखकर कंधे पकड़कर िदलीप को तिकये के
सहारे उकसाया। िफर पलंग पर बैठ एक टो ट पर म खन लगाने लगी। िदलीप ने कुढ़कर कहा,
‘‘म चाय नह पीऊँगा।’’
‘‘ य ?’’
‘‘मेरा मन।’’
‘‘लेिकन मेरा मन है, पी लो। फ ट लास चाय बनी है।
‘‘मुझे नह पीनी, कह िदया।’’
‘‘तो म जाकर अ माँ से कहती हँ।’’
‘‘तू लाटसाहब से कह दे।’’
‘‘अ छा, लाटसाहब को भेजती हँ।’’
िदलीप ने घँस
ू ा तानकर कहा, ‘‘मार खाएगी त।ू ’’ क णा हँसती हई भाग गई।
थोड़ी देर म दरवाज़ा िफर खुला। िदलीप मँुह फेरकर सो रहा था। िक तु उसके कान ने
सुना–कोई कह रहा है, ‘‘मुझे बुलाया था?’’
िदलीप ने मँुह फेरकर देखा। वही मँुह, वही उँ गिलयाँ। उसने कहा, ‘‘ या?’’
‘‘मुझे बुलाया था?’’
‘‘नह तो।’’
‘‘तब जाती हँ।’’ वह मुड़ी, तो िदलीप ने हाथ बढ़ाकर उँ गिलय क पोर का पश िकया।
जानेवाली क गई। ककर पछ ू ा, ‘‘ या चाय बना दँू?’’
‘‘बना दो।’’
वे ही उँ गिलयाँ चाय बनाने लग । तब उसने कहा, ‘‘क णा चाय बना रही थी उसे भगा य
िदया?’’
‘‘मने कहाँ भगाया?’’
‘‘िकसने कहा?’’
‘‘क णा ने।’’
‘‘ या?’’
‘‘कहा, तु ह बुलाते ह।’’
िदलीप के ह ठ पर मु कान फै ल गई। उसने कहा :
‘‘समझा, लाटसाहब आप ही का नाम है।’’
‘‘लाटसाहब?’’
‘‘वह कह गई थी–लाटसाहब को भेजती हँ।’’
उस मुख पर भी मु कान फै ल गई। जब वे उँ गिलयाँ याला देने लग , तो उँ गिलय -सिहत
याला िदलीप ने अपने हाथ म ले िलया। याले से उँ गिलयाँ पथ ृ क् न हो सक । एक ह का-सा
झटका पाकर वह पलंग पर बैठ गई। लाज से वह मुखर मुख एक बार िफर लाल हो उठा।
िदलीप ने उसे ख चकर अंक म भर िलया। उसने कहा, ‘‘ या सचमुच माया, तुमने मुझे
मा कर िदया? मेरा अपराध तो छोटा न था। मने बाबज ू ी का अपमान िकया था।’’
‘‘लेिकन...’’
‘‘लेिकन या?’’
‘‘अब जाने भी दीिजए।’’
‘‘कहो माया, िदल क घुंडी खोल दो, जो मन म है कह दो, अब दुिवधा म न रखो, यह
जीवन अब तु हारे हाथ है, कह दो तुमने मुझे अपना िलया।’’
‘‘अपने मन से ही य नह पछ ू लेते?’’
‘‘मन से भी पछ ू लँग
ू ा। पहले...’’
‘‘लेिकन...’’
‘‘कहो, लेिकन या?’’
‘‘आपक आँख आपक बात का उपहास कर रही थ उस िदन, इसी से...’’
‘‘ओह, तो तुमने िसफ मेरी बेवकूफ को ही नह , दद को भी जान िलया था!’’
‘‘जान िलया था–तभी तो।’’
‘‘लेिकन बाबज ू ी?’’
‘‘वे समु ह, उनक सहन-शि क थाह नह है, िफर एक और बात भी तो है।’’
‘‘ या?’’
‘‘अब उसे मत कहलाइए।’’
‘‘कहना तो पड़े गा।’’
‘‘तब सुिनए। वे बेटी के बाप ह, िह दू बेटी के। मान-अपमान का िवचार करगे, तो बेटी को
घर से धकेलगे कैसे? आप तो िह दू धम वजी ह, इतना तो ज़ र जानते ह गे िक िह दू क बेटी
बाप क छाती पर िसल होती है।’’
िदलीप हताश भाव से तिकये पर िगर गया। माया ने कहा, ‘‘ या बहत बुरा लगा?’’
‘‘ओह, समझ गया तु हारा गु सा। लेिकन माया, तु हारे गु से का तो म मू य चुका दँूगा,
िक तु बाबज ू ी से भी माफ िदला दो।’’
‘‘मेरे गु से का या मू य चुकाओगे भला?’’
‘‘अ छी तरह चुका सकँ ू गा, उतनी पँज ू ी मेरे पास है!’’
‘‘तो बाबज ू ी से भी आप ही िहसाब बेबाक कर लेना।’’
‘‘नह , नह । उ ह तो म मँुह नह िदखा सकता।’’
‘‘मँुह तो वे अ छी तरह देख गए ह। तीन िदन तक रात-रात-भर बैठे रहे ह तु हारे िसराहने।
िकसी क न सुनी–न िपता क , न अ माँ क , न मेरी।’’
िदलीप आँख फाड़कर माया को देखने लगा। उसने दोन हाथ से अपने िसर के बाल नोच
डाले। ‘‘हाय, हाय, और मने उनका अपमान िकया था! म अपने को मा नह क ँ गा–िकसी
तरह नह क ँ गा!’’
‘‘अब यह कैसा पागलपन है!’’
‘‘माया, म जान दे दँूगा।’’
‘‘खैर, अब ज़रा सो रहो।’’ वह उठी और क बल अ छी तरह िदलीप क छाती पर सरका
िदया। िक तु िदलीप ने माया को ख चकर अपने ऊपर िगरा िलया। उसने कहा :
‘‘माया, तुमने मेरी बेवकूफ और दद को देखा, और कुछ नह ?’’
‘‘और भी कुछ है?’’
‘‘यह द भ।’’
‘‘द भ?’’
ू ी मेरे पास है।’’
‘‘मने अभी कहा न था–तु हारे गु से का मू य चुका दँूगा। उतनी पँज
‘‘तो िफर?’’
‘‘यह द भ ही तो है, कोरा द भ!’’
‘‘तो इससे या? मने तो मू य चुकता करने क माँग क नह । अभी मुझे ज दी भी नह है,
चुकाइए धीरे -धीरे या टाट उलट दीिजए।’’
‘‘टाट उलटा ही समझो माया, मू य म न चुका सकँ ू गा।’’
‘‘जाने दीिजए। म बेबाक क रसीद देती हँ, अब ज़रा सो जाइए।’’
‘‘तुम सब कुछ कर सकती हो। इतना बड़ा ऋण िबना ही चुकाए बेबाक क रसीद दे सकती
हो, अपमािनत होकर भी मेरे दद पर अपना वरदह त रख सकती हो, रात-रात-भर इस अधम के
पास बैठी रह सकती हो। िन स देह माया, म मू य नह चुका सकता हँ, लेिकन मेरी एक
अज़दा त ह।’’
‘‘वह भी कह डािलए।’’
‘‘मुझे मौका तो दो अब जो भी ण जीवन के ह उ ह िसफ तु हारे इन चरण क पज ू ा
करके िबता दँू।’’
िदलीप ने सचमुच माया के दोन पैर उठाकर अपने व पर रख िलए।
‘‘यह या, यह या!’’ माया घबराकर उठ खड़ी हई। िदलीप ने िफर उसे व पर कसकर
कहा, “िसफ एक बार कह दो िक तुमने मुझे अपना िलया–बस एक बार।’’
माया ने आिह ता से िदलीप के अंकपाश से छूटकर अपने व को ठीक िकया। िफर उसने
तिनक मु कराकर कहा, ‘‘सब कुछ तो क णा कर चुक ।’’
‘‘कसकर मुझे बाँध िदया, तु हारे प ले म। अब छुटकारे क तो कोई राह ही नह िदखती।’’
‘‘तुम छूटने को छटपटा तो नह रह न?’’
‘‘तुम या देख नह रहे ?’’
‘‘तु हारे इस ‘तुम’ ने सब कुछ िसखा िदया। माया, म जी गया। तुम कैसे जान सकोगी िक
उसी िदन एक ण-भर देखने के बाद मेरे र क येक बँदू म तुम बस गई थ । तब से अब तक
एक ण को भी मने तु ह भुलाया नह और उस िदन जो होश म आने पर अपने पास तु ह बैठे
देखा तो मुझे ऐसा तीत हआ िक तुम जैसे मेरी आँख म से ही बाहर िनकल आकर बैठ गई हो।’’
माया क आँख म एक नशा-सा छा गया। उसने आिह ता से कहा, ‘‘उस िदन तु हारी
आँख म मने या देखा था, जानते हो?’’
‘‘िकस िदन?’’
‘‘जब हम लोग जा रहे थे और तुम बाल बखेरे पागल क तरह ार पकडे ़ सबसे पीछे खडे ़
थे।’’
‘‘तब या देखा था तुमने मेरी आँख म?’’
‘‘तु हारी आँख म मने अपने को ही बैठे देखा था।’’
‘‘सच कहती हो ि ये, सच कहती हो। जब तुमने माँ क वह सौगात घड़ी मेरे हाथ पर रखी
और उस समय जो तु हारी उँ गली क पोर ने ज़रा-सा मेरा पश िकया, तभी, उस ण तुम बरबस
मेरी आँख म बस गई ं। और म उन आँख म आँसुओ ं से तु ह अ य देता हआ आज तक भटकता
रहा हँ।’’ उसने िफर ख चकर माया को अपने व पर डाल िलया।
माया ने िदलीप के व को आँसुओ ं से िभगो िदया। उसने काँपते वर से कहा, ‘‘म भी तभी
से यह –तु हारी आँख म आब रह गई। केवल मेरी देह वहाँ जलती-भुनती रही।’’
‘‘ओह, यह देह का पाथ य भी िकतना दुखदायी था!’’ कह िदलीप ने माया को इस कार
अपने म समेट िलया, जैसे अब वह देह के पाथ य को वीकार ही नह करना चाहता। दोन के
ने से बहत देर तक मक ू -िनवाक् अ ुकण बहते रहे । बड़ी देर बाद िदलीप ने याकुल होकर
कहा, ‘‘अब बाबज ू ी को म कैसे मँुह िदखाऊँगा, कहो तो माया?’’
‘‘परस वे आ रहे ह।’’
‘‘सच?’’
‘‘उ ह जाने म बहत क हआ। बहत ज़ री केस था–जाना पड़ा। पर चलते-चलते कह गए
थे मुझे िक म तु ह एक पल को भी अकेला न छोड़ं । और जब वे जा रहे थे, उनक आँख आँसुओ ं
से धुंधली हो रही थ , मने तो बाबज ू ी क आँख म अपने आज तक के जीवन म िसफ उसी िदन
आँसू देखे थे।’’
‘‘मुझ अधम को वे इतना यार करते ह! मुझे तुम बताओ माया, म या क ँ ? म तो उनक
तरफ आँख उठाकर भी न देख सकँ ू गा।’’
कुछ देर माया िन प द रही। िफर उसने कहा, ‘‘अब आराम करो। इन पागलपन क बात
को िदमाग से िनकाल दो। जो अपने ह, वे दो नह होते। उनके िलए उि न होने क ज़ रत नह ।
बाबजू ी ने तो उसी िदन तु ह माफ कर िदया था, जब तु हारी चचा चलने पर मेरी आँख नीचे को
झुक गई थ । वे सब कुछ समझ गए थे। सब कुछ!’’ माया देर तक िदलीप के बाल म उँ गिलयाँ
घुमाती रही। और िदलीप आँख ब द कर तन-मन से सुख-सागर म डूब गया।

40
अबोध िशशु क भाँित यार के अंक म भरकर, गीले पलक से उसे िनहारती हई और अपना
वरदह त उसके म तक पर फेरती हई अ णादेवी ने धीरे -धीरे सब कुछ िदलीप को बता िदया।
उसके जीवन का इितहास। कुछ भी िछपाकर न रखा। सब कुछ सुनकर िदलीप प थर क भाँित
भावहीन, िन ल, िन े होकर माँ क गोद म िगर गया। सब कुछ कह चुकने पर जब
अ णादेवी क वाणी मक ू हो गई तो भी उसने कोई जवाब नह िदया। न वह रोया, न उ ेिजत
हआ, न िहला, न डुला। अ णादेवी चाहती थी वह रो पड़े । आँसू बहाकर मन ह का कर ले, पर
ऐसा हआ नह । िफर भी अ णादेवी बहत देर तक वयं भी मक ू , मौन, िन प द उसे उसी भाँित
अंक म भरे बैठी उसके म तक पर हाथ फेरती रही बहत देर तक। िफर आिह ता से उसका िसर
तिकये पर रखकर चुपचाप उठकर कमरे से बाहर िनकल गई ं।
िदलीप उसी भाँित पड़ा रहा, िन ल, िनवाक्, िन प द, एक िशलाख ड के समान।
अ णादेवी िफर आई ं। डा टर आए, सुशील आया, िशिशर आया, क णा आई, माया आई,
रायसाहब आए और चले गए। िकसी का कोई श द उसने हण नह िकया। िदन बीता, रात बीती।
िफर िदन और रात, िफर िदन और रात। लेिकन िदलीप उसी तरह नीरव, िन प द, मक ू , मौन,
प थर क िशला क भाँित पड़ा रहा।
घर म अब सब कोई स ची बात जान गया था। सबके मन िच ता और उ ेग से भरे हए, दद
से कराहते-से हो रहे थे। या िकया जाए, िदलीप या ाण दे देगा? वह तेज वी, मेधावी, उद् ीव
त ण है, भावुक है, र उसका गम है–यह चोट या ाणा त कर देगी। रोते-रोते माया क आँख
फूलकर गुड़हल का फूल हो गई थ । क णा उसे अंक म भरे , ‘‘भाभी-भाभी’’–बीच म इस कार
भरे वर म पुकार उठती जैसे उसका गला काटा जा रहा हो। पर तु माया भी वैसी ही मकू , मौन,
िन प द पड़ी थी।
डा टर और रायसाहब परे शान कभी इधर और कभी उधर घर म च कर लगा रहे थे। बहत
बार वह िदलीप के कमरे म जा चुके थे, बहत कुछ उससे कह चुके थे, मगर बेकार।
िसफ बानू िदलीप के पास नह गई। उसक आँख म आँसू भी नह आए। अ णा ने बहत
बार उसक िम नत क , बहत कहा, िफर एक बार वह िदलीप के पास जाए–पर तु बानू ने हर
बार ‘नह ’ कह िदया। वह नह गई। अपने कमरे म अवाक् बैठी रही।
तीन िदन बीत गए। एक िविच िवषादपण ू स नाटा घर म छाया था। भात का समय।
अ णादेवी बानू के कमरे म जाकर चुपचाप उसके िनकट खड़ी हो गई ं। बहत देर तक खड़ी रह ।
बानू ने उनक ओर आँख उठाकर देखा भी नह , कुछ कहा भी नह । अ णादेवी चुपचाप बानू का
सफेद बफ के समान र हीन चेहरा, िजस पर झुक हई पलक और स पुिटत ओ वेदना और
िनराशा क चरम घोषणा कर रहे थे–ताकती खड़ी रह । एक श द भी उनके मँुह म नह िनकला।
एकाएक उ हाने देखा, एक छायामिू त ने कमरे म वेश िकया। िदलीप ही था। शराबी क तरह
लड़खड़ाता, डग भरता हआ वह ‘माँ’ कहकर बानू के सामने आ धरती पर िगर गया। बानू के
दोन चरण पर उसने अपने सख ू े, शीतल ह ठ रख िदए।
बानू ने अपने दुबले-पतले काँपते हाथ से उसका िसर उठाकर छाती से लगा िलया। अब
माता और पु एक थे–नीरव, िन प द, मक ू , िन ल, प थर क िशला क भाँित।
अ णादेवी चुपचाप कमरे से बाहर हो गई ं।
बहत देर तक दोन इसी कार बैठे रहे । बानू के श द जैसे ह ठ से िनकलते-िनकलते ह ठ
ही म समा गए। बड़ी किठनाई से वह कह पाई ‘‘िदलीप!’’
‘‘माँ’’ कहकर िदलीप ने बानू को अपने अंकपाश म बाँध िलया। अब उसक आँख का ोत
फूटा और गंगा-जमुना क धार वहाँ से बह चली। यह एक त ण का दन था। जीवन और तेज से
भरपरू त ण का। िजसक दुिनया ही बदल चुक थी, मनसबू े ढह चुके थे, आदश िछ न-िभ न हो
चुके थे। जो अब अपने ही िलए पराया था। पर तु बानू क आँख तो अभी भी सन ू ी थी। एक परम
वीतराग िजता मा योगी क भाँित वह अपने ही म गढ़ ू बनी इस पाथ य म पु वती होने का जैसे
मल ू म पा रही थी िक तु हषिवषाद से दूर–बहत दूर। इस बार उसने ि थर क ठ म कहा,
‘‘िदलीप!’’
िदलीप ने कहा, ‘‘माँ!’’
‘‘िदलीप’’–इस एक ‘िदलीप’ के उ चारण ही म बानू ने सारा मात-ृ भाव उं ड़ेल िदया।
िदलीप ने पहली बार आँख उठाकर बानू का मँुह देखा। उ मािदनी ि से। और उसक वह
ि उलझ गई बानू क पलक पर, जहाँ वेदना के सात समु म वार आ रहा था। उसके दोन
काँपते हए हाथ ऊपर को उठे । बानू के मँुह को उसने जैसे अपनी अंजली म भर िलया, जैसे शतदल
ेत कमल झरझर झरते हए जल सिहत वह अंजिल म भर लाया हो।
उसने उसी भाँित बानू क आँख म आँख उलझाकर, उसी भाँित उस मुख को अंजिल म भरे
हए कहा, ‘‘माँ!’’
‘‘बेटे’’, बानू के ह ठ फूट पड़े , ‘‘तन
ू े अपनी बदनसीब गुनहगार माँ क सन ू ी गोद भर दी,
बड़ा सवाब का काम िकया बेटे, खुदा तेरी उ दराज़ करे !’’
‘‘लेिकन माँ, या तुमने इस अधम को माफ कर िदया? इसे अपना िलया?’’
‘‘मने कभी यह उ मीद न क थी िक तू मुझे माँ क इ ज़त और िज़ दगी देगा। म मरते दम
तक तुझसे दूर–अनजान रहने क ठान चुक थी।’’
‘‘ य , इस अधम पर इतना अिव ास िकया माँ, एक बार मुझे बुलाया य नह ?’’
‘‘ या म तेरे साथ माँ क तरह पेश आई? या मने तेरे साथ संगिदली म कोई कसर रखी?
दुिनया क कौन-सी माँ इस तरह अपने कलेजे के टुकडे ़ को दूसरे के हाथ देकर मँुह फेर सकती
है?’’
‘‘लेिकन माँ, मने तु हारा तप भी देख िलया। तु हारी माँ क आ मा भी देख ली। अब आओ
चल, दुिनया से दूर, जहाँ कोई हमारी जान-पहचान का न हो।’’
‘‘यह य बेटे?’’
‘‘तो तु ह कहो, इस दुिनया म मेरे खड़े होने क जगह अब कहाँ है?’’
‘‘यह बात तो अ णा बिहन बता सकती ह।’’
‘‘अब म या उ ह मँुह िदखा सकता हँ?’’
‘‘ य , या वे तेरी माँ नह ह बेटे?’’
‘‘माँ ह, लेिकन...’’
‘‘माँ ह तो लेिकन या?’’
‘‘कैसे कहँ, अब म बहत-सी बात समझ गया हँ माँ। उन सबक भलाई भी इसी म है िक हम
लोग यहाँ से चुपचाप चले जाएँ । उन सब बात को आप नह समझ सकत , म समझता हँ, माँ हम
यहाँ से जाना होगा।’’
‘‘लेिकन िदलीप, तुझे म एक गोद से छीनकर ले जाने क ताब नह रखती, मुझसे यह न
हो सकेगा।’’
‘‘तब?’’
‘‘अ णा बिहन ही क हम पनाह लेनी होगी, वही हम राह िदखा सकती ह।’’
‘‘माँ, वे तो जीते-जी हम छोड़गी नह ।’’
‘‘तब िफर बेटे, हमारा भी अब और िठकाना कहाँ है! म तो सब कुछ छोड़कर अब उ ह के
आसरे पर हँ।’’
‘‘पर तु आप माँ समझती नह ह। उनके ब चे ह, उनक याह-शादी म बडे ़ झंझट उठ खड़े
ह गे, उनका खानदान तबाह हो जाएगा। हम यह भी तो सोचना चािहए। िह दुओ ं क रीित-र म
जात-पाँत के मामले बडे ़ टेढे़ ह, हम उनक राह का रोड़ा नह होना चािहए।’’
‘‘तो तू जो ठीक समझे वही कर, लेिकन सब कुछ उ ह के ह म से।’’
‘‘अ छा, म उनसे बात क ँ गा।’’

41
जब िदलीप ने अ णादेवी का एक भी अनुरोध-िनषेध नह वीकार िकया, तो अ णादेवी ने
िहचिकयाँ लेते हए रोष-भरे वर से कहा, ‘‘िदलीप, तू ऐसा ही िनदय होना चाहता है तो अपने माँ-
बाप क भले ही िम ी वार करके चला जा–लेिकन माया क बात कुछ सोच। उस पर तो रहम
कर।’’
‘‘उसे तुम समझा देना माँ, वह सब बात अभी कहाँ समझती है? कुछ िदन म यह सब कुछ
भलू जाएगी।’’
‘‘तू या उससे एक बात भी न करे गा?’’
‘‘न।’’
वह पागल क भाँित उड़कर तेज़ी से बाहर चला गया। गाड़ी आ गई। अ णा पछाड़ खाकर
िगर पड़ी। अ णादेवी ने बानू को कसकर अंक म भर िलया–हौले-हौले कहा, ‘‘बिहन, गरीब का
धन लटू ले चल तुम!’’
रायसाहब और डा टर सकते क हालत म खड़े थे। सुशील और िशिशर जार-जार आँसू बहा
रहे थे। ‘‘भैया, भैया’’ कहकर िदलीप के पैर म िलपट पड़े थे।
िदलीप ने ल बे-ल बे डग भरते हए बानू से कहा, ‘‘आओ, देर हो रही है।’’ और वह गाड़ी म
घुसा। पर तु यह या? माया वहाँ चुपचाप, ि थर, िन ल बैठी थी। िदलीप को अपनी आँख पर
िव ास नह हआ। उसने हकलाते हए, ‘‘यहाँ य ?’’
‘‘मेरी मज़ ।“
‘‘लेिकन हम दूर जा रहे ह माया।’’
‘‘चलो िफर, रोकता कौन है तु ह?’’
‘‘लेिकन...लेिकन तु हारा जाना तो नह हो सकेगा।’’
‘‘खबू अ छी तरह हो सकेगा, मेरी अपनी आँख ह, अपना मन है, अपने पैर ह।’’
‘‘माया, या म इस कािबल हँ िक तुम अब इस समय मुझ पर गु सा करो? मानता हँ िक
मा के यो य नह , लेिकन रहम...’’
िदलीप क ज़बान लड़खड़ा गई।
माया ने कहा, ‘‘अब सब बात या यह सड़क पर खड़े होकर ह गी? गाड़ी म बैठो।’’
‘‘नह ।’’
‘‘तो घर म चलो–वहाँ चलकर जो कहना हो कहो।’’
‘‘चलो िफर।’’ िदलीप ने भरे हए वर म कहा। माया चुपचाप गाड़ी से उतरकर घर म चली
गई। उसके पीछे िदलीप भी। सब चुपचाप देख रहे थे।
कमरे का दरवाज़ा भीतर से ब द करके िदलीप ने कहा, ‘‘माया!’’
‘‘ठहरो, पहले यह बताओ िक सब बात तय करने से पहले तुम मुझसे य नह िमले?
मुझसे य नह पछ ू ा?’’
‘‘म, म...माया... या इस यो य रह गया, तुमने तो सब बात जान ही ल ।’’
‘‘तो?’’
‘‘अब भला म तुमसे कैसे आशा कर सकता था! िफर इतना वाथ भी नह हँ िक तुमसे
िकसी कुबानी क दर वा त क ँ ।’’
‘‘तुम िकतने वाथ हो, इसका सबत ू तो तुमने सदा से ही िदया है। और सबसे ताज़ा सबत

तु हारा य मँुह मोड़कर भागना है।’’
‘‘मँुह मोड़कर भागने को छोड़ दूसरा चारा नह है माया।’’
‘‘सबसे मँुह मोड़ सकते हो, लेिकन मुझसे भी मँुह मोड़ चले। सो मने प थर के देवता को
रोम-रोम म बसाकर उसक पज ू ा क । सुनते तो ह िक प थर के देवता भी स ची उपासना से
स न हो जाते ह, अभी वर देते ह, पर तुम प थर से भी िन र िनकले। और य न िनकलते,
िह दू तो तुम हो नह , िफर िह दू देवता का बड़ पन तुमम कैसे आ सकता था!’’ माया क आँख
से झरना बह चला।
िदलीप ने कहा, ‘‘तु हारा इतना गु सा म बदा त नह कर सकँ ू गा माया! मेरी छाती फट
जाएगी। मने कुछ और ही सोचा था, पर तु तुम तो...’’
‘‘हाँ, अपने ही जैसा िनमम, िन र, मढ़ू तुम दूसर को भी समझते हो।’’
िदलीप ने दोन हाथ फै लाकर कहा, ‘‘माया, ह म दो िक या क ँ ।’’ िक तु माया अध-
मिू छत-सी होकर झम ू ने लगी। िदलीप ने लपककर उसे अपने अंक म भर िलया। माया ने
िससकते-िससकते कहा, ‘‘तुमने मुझे छोड़कर चला जाना इतना आसान समझ िलया था?’’
‘‘वाह माया, म िहमालय का उ लंघन कर रहा था। तु हारे मन क म समझ गया। सच पछ ू ो
तो म केवल तुमसे ही भाग रहा था–केवल तुमसे; इसी से मने माँ का, बाबज ू ी का, िपताजी का,
िकसी का भी अनुरोध नह माना। म या जानता था िक तुम मेरी हो, िक तु एक बार अपने मँुह
से कह दो तो।’’
‘‘म तो यह भी नह जानती िक तुम तुम हो और म म हँ। पर तु अंत म तुमने मुझे िनल ज
बनाकर ही छोड़ा।’’
िदलीप ने दोन बिल हाथ म माया को अधर आकाश म उठा िलया। उसने कहा, ‘‘माया,
लो इन ाण को संभालो, ये तु हारे ह। चलो, माँ को णाम कर आएँ ।’’
और जब दोन ने आकर दोन माताओं के चरण म, जो अभी पर पर ब खड़ी थ , अपने
को डाल िदया, तो बानू ने माया को उठाकर छाती से लगा िलया और िदलीप ने िफर रायसाहब
क चरण-धिू ल ली, डा टर के चरण म माथा टेका।
एक चम का रक नाटक देखते-देखते हो गया। बानू और अ णा के अंकपाश म बँधी हई
माया घर म चली गई। डा टर िदलीप को छाती से लगाए ाइंग म म घुस गए। गाड़ी म लदा
सामान उतार िलया गया। रायसाहब कुछ ण त ध खड़े रहे । िफर उ ह ने आँख क कोर से
आँसू प छकर पास खड़े सुशील से कहा, “देखो बेटा, एक अ छा-सा बड तो अभी लेकर आओ,
और तुम िशिशर, ज़रा मेरे साथ चलो।’’ वे क धा पकड़कर एक कार से उसे घसीटते हए, उसी
गाड़ी म जा बैठे। कोचवान को ह म िदया, ‘‘चलो, ज़रा चाँदनी चौक।’’

42
और उस िदन क सं या उस िदन के भात से कुछ दूसरे ही ढं ग क थी। सारा घर रं ग-
िबरं गी वजा-पताकाओं से सज रहा था। रं गीन बि य के काश से कोठी जगमगा रही थी। बड
बज रहा था, शहनाई तान अलाप रही थी, आगत मेहमान भड़क ली पोशाक पहने हँसते-हँसते जा
रहे थे, मु य ार पर डा टर अमत ृ राय और अ णादेवी आगत-समागत का वागत कर रहे थे।
लोग बधाइयाँ दे रहे थे; िमठाइय के, मेव के थाल घर म आते जा रहे थे। रायसाहब एक
आरामकुस पर पडे ़ िसगार का धुआँ उड़ा रहे थे, और सामने य देवी पर वेदपाठ और मंगलगान
के साथ िदलीप कुमार का मायादेवी के साथ शुभ िववाह हो रहा था। बानू आगत मेहमान के बीच
बैठी, वर-वधू क जोड़ी क बड़ाई क चचा म भाग ले रही थी।

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