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ॐ तसत ्

ी परमामने नम:
ी पचदशी
थकार : ी वारय वामी
यायाकार : वामी शंकरानद

!तावना

मानव मा" के #लए क&याणकार( जीवन जीने का वधान वेद मे संह(त है । वेद क.
ह( अितम #श1ा वेदात है । उसे उप3नषद भी कहते ह6। उसका परम पव" 7ान
मन8य
ु ु कर आनद, शाित और पण?
को सब क&मष से म< ु ता !दान कर दे ता है ।
!ब@द
ु लोग !ाBचन काल से ह( उसका आदर करते आ रहे ह6। पहले यह 7ान भारत
मC ह( केिDत था, Eकतु अब संसार क. सभी भाषाओं मC यह 7ान उपलGध है ।
वै7ा3नक वकास के साथ आवागमन और सHपक? के साधन बढे और उसी के साथ
यह 7ान भी दरु-दरु फैला। अय दे शL मC इसका आदर होते दे खकर हम भारतवा#सयL
ने भी अपने पव?
ू जL के Pारा आिज?त ् इस सHपQ का म&य
ू समझा और इसका
अ@ययन कर इसे अपने जीवन मC लाने का !यास कर रहे ह6।

वेद और उप3नषदL क. भाषा तथा उनक. शैल( कछ


ु जTटल है अथवा यह कहC Eक
आध3नक
ु भाषाओं का !योग कर रहे मन8यL
ु के #लए उनक. भाषा अVयास से बाहर
होने के कारण कTठन !तीत होती है । इस समया का 3नवारण करने का !यास
पहले भी हआ
ु है और अब भी हो रहा है । इसी कारण वेदात के नये-नये थL क.
रचना होती रहती है । शंकराचाय? जी ने उप3नषX आTद आष? थL पर भा8य #लखकर
उनका तापय? पY Eकया है और उहLने वेदात-दश?न पर अनेक थ भी #लखे ह6।
उनके बाद उनके #श8यL और अनया3ययL
ु ने भी इस Tदशा मे !यास जार( रखा।

उनक. रचनाओं मC ी वारय वामी के कई थ बडे महवपण?
ु और् या3त!ा]
ह6। वे भगवान ् शंकराचाय? Pारा थापत ंग
ृ े_रमठ के आचाय? पद पर सन ् १३७७ से
१३८६ तक आसीन रहे । वे वेद-भा8य रच3यता ी सायण के भाई थे और वयं भी बडे
वPान थे। उहोने पचदशी, सव?दश?न ्-संह, ी शंकर Tदिeवजय, जीवन-मf<
ु ववेक,
अनभ3त
ु ू !काश, ववरण !मेय संह, उप3नषX द(पका आTद कई थ #लखे ह6।
geghय ववेक पतक
ु के रच3यता भगवान ् शंकराचाय? ह6 अथवा वारय वामी, इस
वषय मे ववाद है ।

ी वारय वामी क. अय सभी रचनाओं क. अपे1ा 'पचदशी' अBधक लोक!य


हई
ु है । इसमे अPै त वेदात का 3नiपण jमबk, पY और सवतार हआ
ु है । यप
इसमे वरोधी मतL के खडन का !यास नह(ं Eकया गया है Eफर भी !3तपा वषय
को पY करने के #लए उनमC दोष अवhय Tदखाये गये ह6। थ का मय
ु उmेhय
वेदात मC iBच रखने वाले यf<यL को उसका सखपव?
ु ू क सHयक् 7ान कराना ह( है ।
लेखक ने इस वषय का !माण उप3नषX माना है , इस#लए म"L को उnृत करने मे
कोई संकोच नह(ं Eकया गया है । तक? उप3नषX !3तपाTदत सय का अनगामी
ु रहा है ।
तदनoप
ु अनभव
ु !ा] करना उसका अितम !माण है । उसके साथ वेदात 7ान का
फल जड़ा
ु हआु है । qr और आमा के एकव 7ान के अनभव
ु मC ह( ककयता
ृ ृ , मf<

और् परमानद क. उपलिGध है ।

हमारे समत द:ु खL का अितम कारण अ7ान है । अ7ान के कारण ह( हम अपने


सवiप को भलकर
ु असत ् शर(र आTद को ह( अपना oप मान बैठे ह6। दे हामबि@द

के कारण हम वकार(, मरणधमा? और 1ुD बन गये। जगत ् के वषयL को सय,
सखदायी
ु और म&यवान
ू समझ कर उनमC आस< हो गये। यह sां3त बने रहने तक
द:ु ख से छटकारा
ु नह(ं हो सकता।

वेदात-दश?न sां3त और द:ु ख से म<


ु होने के #लए वचार और ववेक का माग?
!शत करता है । ववेक बि@द
ु सत ्-असत ् का वtेषण करती है । यवहार के छोटे से
दायरे मC हम सब ववेकवान ह6, Eकतु द:ु खLEक आयितक 3नवQ
ृ के #लए इतना
ववेक पया?] नह(ं है । घर के भीतर एक बा#लका सफाई करते समय इतना ववेक
रखती है Eक अनपयोगी
ु कड़ा
ू vया है िजसे घर के बाहर फCक दे ना चाTहए। उपयोगी
वतओं
ु को वह संभाल कर घर मे रखती है। Eकतु जब उसक. माँ उसे पडोसी के घर
खेलने नह(ं जाने दे ती तो उसे यह समझना कTठन हो जाता है Eक इसमC माँ का vया

ववेक है । बडे होने पर वह जान जाती है Eक उसका vया रहय था। वयं माँ बनने
पर वह अपनी प"ी
ु को उसी !कार क. #श1ा दे ती है । वेदात-दश?न हमC ववेकवान
बनने के #लए इसके आगे ले जाता है । वह समत वx को अपने वचार का वषय
बनाकर सत ्-असत ् का ववेक करने के #लए !े_रत करता है । यह ववेक का अितम
oप है ।

सभी वेदात थL मC सत ् और असत ् क. प_रभाषायC दे कर अपने बाहर-भीतर उनEक


पहचान करने Eक !Ejया बताई गयी है । यहां अपनी सQा से वत" iप मC वमान,
3नय और 3नव?कार् वतु को सत ् वीकार Eकया जाता है। इन ल1णL वाल( वतु
एक ह( है , उसे आमा कहते ह6। वह( परमामा या qr है । इसके अ3त_र< जो कछ

नाम ्-oपामक भा#सत होता है, वह असत ् या #मyया है । हमार( समया यह है Eक हम
असत ् नामoपामक वकारL को ह( सत ् समझते ह6 और उह(ं को अपनी सQा
समझते ह6।
इस असत ् के मायाजाल से 3नकल कर अपने वातवक आम-वoप को
खोजना और पहचानना ह( वेदात के अनसार
ु हमारे जीवन का चरम लzय है । इसके
#लए अनेक उपाय बताये जाते ह6। उनमC से कछ
ु अवथा"य ववेक, पचकोश ववेक,
DYाg8य ववेक, महाभत
ू ववेक आTद ह6। इन उपायL से अपना वह वoप #मल जाता
है िजसे जानकर हम अपने को अमर, पण?
ु , अभय और आनदमय पाते ह6।

@यान दे ने क. बात यह है Eक ववेक वचार क. यह !Ejया हम वत" oप से


अपना कर कभी सफल नह(ं हो सकते। इस माग? पर सफलतापव?
ू क आगे बढे लोगL का
अनभव
ु है Eक अयBधक वल1ण पiष
ु भी अपने आप वचार कर आम7ान नह(ं
!ा] कर सकते। उहC पव?
ू सफलता !ा] आम7ानी पiषL
ू के मख
ु से वेदात 7ान
का वण करते हए
ु उप3नषX आTद थL का अ@ययन और उनके महावाvयL के अथ?
का Bचतन करना चाTहए। वण के Pारा 7ान होता है Eक हमार( पव?
ू धारणायC
#मyया थीं। उनका याग कर अब नयी धारणायC बनानी चाTहए। यह काय? करने के
#लए मनन करने क. !Ejया उपयोगी है । इस !कार वण और मनन के अVयास से
आम7ान होने पर उसक. 3न{ा बनाये रखने का !यास 3नTद@यासन है । योग-दश?न
मC !यय एकतानता को @यान कहते ह6 और वेदात मC वह( 3नTद@यासन है।

उQम अBधका_रयL को वण मा" से ह( आम7ान हो सकता है Eकतु अय साधकL


को मनन और 3नTद@यासन का अVयास करना अपे|1त होता है । !ारिHभक साधक
को आम-Bचतन एक क&पना मा" !तीत होती है, Eकतु उसे शा} सHमत मान कर
3नरतर करते रहने से वतत
ु : आमा Eक उपलिGध होती है । साधना के फलवoप
आम-सा1ाकार होना और उसमC त3]
ृ का अनभव
ु केवल क&पना या #मyया धारणा
नह(ं है । उसका !माण यह( है Eक Eकसी अय 7ान के Pारा उसका बाध नह(ं होता।

आम7ानी पoषु ह( जीवनम<ु है । वह शर(र मC रहते हए


ु मf<
ु का आनद अनभव ु
करता है । यप उसे अपने #लए शर(र क. अपे1ा नह(ं रहती, Eकतु वह शर(र क.
सहायता से अय लोगL को अपनी अनभ3तयL
ु ू के Pारा माग?-दश?न दे सकता है ।
इस#लए जीवम<
ु पiषु अपने आप मC परqr परमामावoप ह6 और समाज के #लए

बीच समD
ु मC खडे द(प तHभ के समान उ~वल आदश? ह6। उह(ं के Pारा मानवता
का वकास होता है और यह जगत ् सव?साधारण के #लए रहने योeय बनता है ।

'पचदशी' थ के पDह अ@यायL मC ी वारय वामी ने इस वेदात


वा का वतत
ृ ववेचन Eकया है । सभी अ@याय अपने आप मC पण?
ु होते हए
ु भी वे
सब #मलकर थ को सब !कार से उपयोगी बना दे ते ह6। सHपण?
ु थ तीन भाग मC
वभ< है । !थम पाँच अ@याय 'ववेक' नाम से, दसरे
ु पाँच अ@याय 'द(प' नाम से और
अितम पाँच अ@याय 'आनद' नाम से अ#भTहत Eकए गए ह6। इससे 7ात होता है
Eक ववेक नामक अ@याओं मC सत ् वतु क. खोज क. गयी है , द(प नामक अ@याओं
मC उस सत ् का अनभव
ु कराया गया है और आनद नामक अ@याओं मC उस वतु के
आनद का 3नoपण है । हम यह भी कह सकते ह6 Eक समत थ मC परमामा का
ह( !3तपादन Eकया गया है । ववेक नामक !थम पंचक मC उसके सत ् वoप ् का, द(प
नामक दसरे
ू पंचक मC उसके Bचत ् वoप का और अितम आनद नामक पंचक मC
उसके आनद वoप का !3तपादन Eकया गया है । इसी jम से हम ववेक Pारा
असत ् वतु का याग कर सत ् वiप आमा को पहचानने का !यास करते ह6, Eफर
उसके Bचत ् वoप का अनभव
ु कर उसके आनदवoप तक पहच ु ँ जाते ह6। अपने
आमा मC ह( परमानद का अनभव
ु कर पण?
ु ता !ा] हो जाती है ।

!यक् -तव-ववेक नामक पहले अ@याय मC सHपण?


ू थ का सार !तत
ु कर Tदया
गया है । उसी का वतार शेष समत अ@यायL मC हआ ु है। दसरा
ू अ@याय
पंचमहाभतू -ववेक है । इसमC परमामा क. शf< माया से समत पांचभौ3तक सृ Y क.
उपQ Tदखा कर सवoप परमामा और असत ् या #मyयाoप सृ Y के बीच ववेक
Eकया गया है । इस ववेक से उपन 7ान-gY मC एक सवoप परमामा ह(
सव?" Tदखाई दे ने लगता है । मायामय जगत ् 3तरोTहत हो जाता है । इसी के साथ
समत भौ3तक vलेश भी समा] हो जाते ह6 और जीवभाव का भी अत हो जाता है
(२.१०४)।

पंचकोश-ववेक के Pारा भी हम इसी 3नण?य पर पहचते


ुँ ह6। उसका वतत
ृ वण?न
तीसरे अ@याय मC है । अनमय आTद पाँच कोश हमारे सवoप आमा पर एक !कार
के आवरण ह6। मंुज क. घास से उसक. पQयां हटाकर जैसे अदर क. सींक 3नकाल
ल( जाती है अथवा सTद? यL मC पहने हएु अनेक व}L को एक-एक कर उतार दे ते ह6
और अपने शर(र तक पहंु च जाते ह6, उसी !कार अनमय, !ाणमय, मनोमय, व7ानमय,
और आनदमय कोशL को अनामा समझ कर जब हम अपनी gY अपने 3नय
अितव क. और फेरते ह6 तो हमC अपने आमा का अनभव
ु होता है ।

चौथे अ@याय मC ईxरकत


ृ और जीवकत
ृ दो !कार क. सYयL
ृ का वण?न Eकया गया है ।
पहल( सY
ृ 'जगत ्' और दसर(
ू सY
ृ 'संसार'। जीव ने वयं संसार क. रचना कर अपने
#लये समया उपन क. है । यTद शा} 7ान से वह अपना संसार 3नरत कर दे तो
उसे म<
ु होने मC दे र नह(ं। यहां संसार का वण?न बडे पY oप मC हआ
ु है ।

पांचवा अ@याय चार महावाvयL का ववेचन कर आमा और परमामा क. एकता का


3नoपण करता है ।
छठा अ@याय 'Bच"द(प' है । उसमे व} पर बने Bच" का gYात दे कर कटथ
ु पर नाम-
oपामक जगत ् क. रचना बताई गयी है। व} पर रं गो के Pारा जड़ भू#म, जल, पव?त
क. रचना और पश,ु प1ी, मन8य
ु आTद चेतन !†णयL क. रचना Tदखाई जाती ह6। इसी
!कार कटथ
ू परमामा पर आBत होकर समत जगत ् का वतार हआ ु है । जगत ्
तो कभी है कभी नह(ं भी है Eकतु कटथ
ु सदा वमान है । उसका 3नषेध नह(ं हो
सकता। यह कटथ
ू ह( सबका आमा है । इस सवoप आमाका 7ान ह( पण?
ु ता है ।

'त3]द(प' नामक सातवC अ@याय मC इसी पण?
ु ता का वण?न है । इसी मC परम त3]
ृ है ।
बह
ृ दारयक उप3नषX का एक tोक "आमानं चेTPजानीयात......" (४.४.१२) 7ानी क.
इस िथ3त का वण?न करता है और यह २९८ tोकL का अ@याय उसी एक tोक क.
याया करता है ।


'कटथद(प ' नामक आठवC अ@याय मC कटथ
ू आमा का पन
ु : 3नoपण Eकया है और
उसके सवा?Bध{ान, 3नव?कार, 3नलप
‰ और अवनाशी ल1णL क. तक? के Pारा थापना
क. है । उQम अBधकार( पiष
ु वचार Pारा ह( उसका 7ान !ा] कर लेते ह6 Eकतु
म@यम अBधकार( Bचतन Pारा अपना BचQ उसमC थापत करते ह6। इस Bचतन
!कया
ृ का वण?न '@यानद(प' नामक नवC अ@याय मC Eकया गया है । उसमC सHवाद( और
वसHवाद( sम का अतर बता कर यह Tदखाया गया है क. @यान-साधना सHवाद(
sम का एक !कार है और उससे सत ् क. !ा3] होना सहज वाभवक है । 3नग?ुण qr
का Bचतन करने पर Bचतनीय वतु यप मन क. क&पना है , Eकतु उसके
फलवoप सवoप qr क. उपलिGध होती है ।

दसवC अ@याय मC 3नया3नय और DYा-g8य का ववेक करने मC द(प के !काश मC हो


रहे नाटक का उदाहरण Tदया गया है । राज-सभा मC द(पक जल रहा है । राजा तथा
अय सभासद आकर अपने आसनL पर बैठते ह6। नय
ृ करने वाला समाज और वादक
आकर अपना नाटक !ारHभ करते ह6। राजसभा मC उपिथत ये सभी लोग द(पक के
!काश से !का#शत होते ह6। सभा समा] होती है और सब लोग चले जाते ह6। क1
खाल( हो जाता है । उसे भी द(पक !का#शत करता है । इसी !कार सा1ी चैतय
अत:करण क. सभी वQयL
ृ को !का#शत करता है और सष]ावथा
ु ु या तर(यावथा

मC उनके न होने को भी !का#शत करता है । वह सा1ी चैतय वQयL
ृ के होने या न
होने से Eकसी !कार !भावत नह(ं होता। वह सदा 3नलप
‰ ह( रहता है ।

आमा आनदवoप भी है । इसके आनद का अनभव


ु करना ह( आम7ान है । तक?
Pारा भी #स@द Eकया जा सकता है क. आमा परम !ेमवoप होने के कारण
आनदवoप है । इस वषय का ववेचन अितम पाँच अ@यायL मC Eकया गया है । इस
!कार समत थ वेदात के सभी प1L का गहराई से वतत
ृ ववेचन करता है ।
इससे साधकL को वचार और Bचतन कर अपने लzय तक पहंु चने मे बड़ी सवधाु
ु !च#लत, उपयोगी और !#सk
होती है । इस#लए वेदात-साधकL के बीच यह थ बहत
हआ
ु है ।

-वामी शंकरानद

मंधना,
कानपरु २०९२१७
१० #सतHबर - १९९४

ॐ तसत।
ी परमामने नम:।

अ@याय १

!यक् -तŠव-ववेक

मंगलाचरण

थकार ी वारय वामी ने थ क. रचना !ारHभ करने के पव?


ू दो tोकL मC
परमामवoप गi
ु क. वदना क. है । इसे मंगलाचरण कहते ह6। इसका उmेhय थ
का 3नव?‹न समा] होना और अ@ययन करने वालL के #लए क&याणकार( होना है ।
यह #शYजन परHपरा भी है ।

नम:
नम: ीशंकरानद गiपादाHबजमने
ु ु ।
सवलास महामोह ाहासैक कम?णे।।

वलास सTहत महामोह oपी ाह का ास कर जाना ह( िजसका मय


ु काम है ऐसे
शंकरानद गi
ु पादाHबजL
ु को म6 नमकार करता हंू ।

याया - ी वारय वामी के गi


ु ह6 ी शंकरानद महाराज। उनका मरण कर
और उनके चरण कमलL क. वदना कर थ !ारHभ Eकया जाता है । गi
ु -वदना मC
उनक. मTहमा भी गाई गयी है । साथ ह( उनके !3त अपनी भिvQ भी !jट क. गयी
है । इससे यह सBचत
ू होता है Eक गi
ु का मय
ु काय? #श8य के मोह का नाश करना है
और #श8य को इसका अBधकार( बनने के #लए गi
ु -चरणL मC gढ भf< रखनी चाTहए।

कोई भी वा गi
ु -कपा
ृ से ह( !ा] होती है । वेदात 7ान तो गi
ु से ह( !ा] होता है ।
गi
ु क. कपा
ृ से ह( अ7ान नY होकर दय मC श@द
ु 7ान और आनद का !काश
होता ह6 इस#लए अ@याम वा के िज7ासु #श8य को अपने गi
ु मC ईxर भाव रखकर
भf< करनी चाTहए।

यय दे वे परा भf<य?था दे वे तथा गरौ।



तयैते कBथता Žथा?: !काशते महामन:।।

'िजस महामा के दय मC परमामा के !3त परम भf< हो और वैसी ह( भf< गi


ु मC
भी हो उसे शा} मC कहे गये धम?, अथ?, काम और मो1 oप अथ? अथवा 3त
ु मC
कBथत वचनL का अथ? !का#शत होता है ।'

3तयाँ
ु आमा और परमामा क. एकता का 7ान कराती है । गi
ु -कपा
ृ से वह 7ान
दय मC !कट होता है । 3तयL
ु ने वयं इस बात पर बल Tदया है । छादोeय
उप3नषX के अनसार
ु 'आचाय?वान ् पiषो
ु वेद'-अथा?त आचाय? (गi
ु ) क. सेवा करने वाले
को ह( यह 7ान !ा] होता है । मडक
ु उप3नषX मC कहा गया है Eक तव 7ान क.
िज7ासा होने पर गi
ु के पास जाना चाTहए। 'तTP7ानाथ स
ु वा#भग‘छे स#मपा†ण: ो’"यं qr3न{म ्'-अथा?त िज7ासु को हाथ मC स#मधा
गiमे
लेकर ो’"य और qr3न{ गi ु क. शरण मे जाना चाTहए। इस 3त
ु -वचन मC स“i
ु के
ल1ण भी बता Tदये गये ह6।

जो वतु िजसके पास होती है उसी से #मल सकती है । द_रD( मन8य


ु धनवान से ह(
धन !ा] कर सकता है । बंधे हये
ु मन8य
ु को वह( छडा
ु सकता है जो वयं छटाू हो।
यTद दो यf< दो खHभL मC रसी से बंधे हL तो वे म<
ु होने मC एक दसरे
ू क.
सहायता नह(ं कर सकते। उनके अ3त_र< जब कोई तीसरा म<
ु मन8य
ु उनके पास
आये और उन पर कपा
ृ करे तभी वे म<
ु हो सकते ह6। इसी !कार गi
ु होने का वह(
अBधकार( है जो वयं मोहम<
ु है । िजसने शाh" का अ@ययन Eकया है, वह( दसरे
ू को
उसका अ@ययन करने मC सहायता कर सकता है । मडक
ु और कठोप3नषX मC बंधे हये

मन8य
ु का gYात दे कर यह tोक कहा गया है -

अवायमतरे वत?माना:
वयं धीरा: पिडHमयमाना:।
दDHयमाणा: प_रयित मढा

अधेनैव नीयमाना यथाधा:।।

'अवा के भीतर रहते हये


ु भी अपने आपको बk ु मान और वPान ् मानने वाले वे
मख?
ू लोग नाना यो3नयL मC चारL ओर भटकते हए ु ठ”क उसी !कार ठोकरC खाते ह6,
जैसे अधे मन8य
ु के Pारा चलाये जाने वाले अधे अपने लzय तक नह(ं पहचते
ु ँ ।'

तापय? यह है Eक मन8य
ु को ऐसे गi
ु के पास जाना चाTहए िजसके 7ान के ने" खले

हL और वयं मोहम<
ु होकर आमानद मC रमण कर रहा हो। ी शंकरानद महाराज
ऐसे ह( गi
ु ह6। उनके चरण कमलL क. कपा
ृ से मोह और उसके प_रणामवoप होने
वाले द:ु ख आTद सब #मट जाते ह6। वारय वामी को इसका यf<गत अनभव
ु है ।

संसार-सागर के जल मC कमल भी उपन होते ह6 और मगर भी। मगर सभी जल-


जतओं
ु को खा जाता है , Eकतु कमल को नह(ं खाता। कमल जल मC रहते हए ु भी
उससे असंग रहता है । इसी !कार गi
ु और #श8य दोनL संसार मC पडे !तीत होते ह6।
Eकतु #श8य तो मछल( बन कर मोहoपी मगर के मख
ु मC दब जाता है , Eकतु गi

कमल बन कर जल के ऊपर †खला !सन रहता है । वह अपनी सगध
ु और शोभा
सब और वक.ण? करता है । वह अपना आदश? !तत
ु कर #श8य को असंग और
7ानवान बनने क. !ेरणा दे ता है । आ–य? क. बात यह है Eक ाह जैसे भयंकर मोह
को अ3त कोमल चरण-कमल भी स जाने मC समथ? ह6। तापय? यह है Eक इस
भयंकर, jर
ु संसार पर वजय पाने के #लए उससे भी अBधक दध?
ु ष? बनने क. न
आवhयकता है, और उBचत ह( है । कोमल सिŠवक भाव आिज?त कर दया, 1मा और
भf< Pारा ह( उस पर वजय पायी जा सकती है । एक छोटे अ7ान को नY करने के
#लए एक बडा अ7ान समथ? नह(ं होता। अ7ान को 7ान ह( नY कर सकता है ।

कमल और ाह के oपक गi


ु -कपा
ृ क. मTहमा भी सBचत
ू करते ह6। ऐसा !#सk है Eक
भगवान ् शंकरचाय? ने अपने मंदम3त #श8य तोटक को अपनी कपा
ृ से 7ानवान बना
Tदया। अय #श8य िजसे उपे1ा क. gY से दे खते थे, वह तोटक छद का रच3यता
बन गया। उसके मख
ु से सहसा tोकL का शk
ु उ‘चारण सनकर
ु सभी लोग आ–य? मC
रह गये। अत: गi
ु -कपा
ृ से असंभव भी संभव बन जाता है ।

इस tोक क. रचना इतनी कशलता


ु से हई
ु है Eक इसके Pारा थ का अनबं
ु ध चतYयु
भी सBचत
ू हो जाता है। थ क. रचना के !ारHभ मC थकार अपनी क3तृ के वषय
मC चार सचनायC
ू दे ता है, उहे अनबं
ु ध चतYय
ु कहते ह6। वषय, सHबध, !योजन और
अBधकार(-इन चारL का सHबध ह( अनबं
ु ध है । वेदात थL का !3तपा 'वषय'
आमा और qr क. एकता होती है । इस tोक मC 'शंकर' qr है और 'आनद' आमा
है । दोनL क. एकता शंकरानद है । वषय और थ का सHबध !3तपा-!3तपादक
'संबध' है । थ का '!योजन' उसक. रचना का उmेhय होता है। महामोह का नाश और
आम7ान के Pारा परमानद क. !3] कराना ह( इसका !योजन सBचत
ू होता है । यTद
कहो Eक इस !योजन से तो पहले ह( अनेक थL क. रचना हो चक.
ु है , तो अगले
tोक मC कहC गे 'सखबोधाय
ु ' अथा?त सरलता से आम7ान होना ह( इसका वशेष
!योजन है । 'अBधकार(' वह( है िजसका दय मC गi
ु -चरणL क. भf< है । अितम दो
!योजनL का वतत
ृ उ&लेख अगले tोक मC Eकया गया है ।

तपादाHबoह
ु PP सेवा3नम?ल चेतसाम।्
सखबोधाय
ु तŠवय ववेकोsयं वधीयते।।२।।

'उन दोनL पाद-प—L क. सेवा से िजनका BचQ 3नम?ल हो गया है उहC सखपव?
ु ु क तŠव
का 7ान कराने के #लए इस ववेक क. रचना क. जा रह( है ।'

याया-'तपाद'-उन ी शंकरानद महाराज के चरण िजनका उ&लेख पछले tोक मC


हो चका
ु है । वहां 'गi
ु -पादाHबजमने
ु ' पद एक वचन मC रखा गया था। याकरण के
'जा3तवादे कवचनम ्' 3नयम से एक जा3त क. अनेक वतओं
ु के #लए एक वचन का
!योग हो सकता है। यहां 'PP' कहकर गi
ु के दोनL पदL क. ओर @यान Tदलाया गया
है । वे दोनL चरण 7ान और वैराeय ह6। उनक. सेवा करने से BचQ 3नम?ल होता है और
आम-सख
ु का अनभव
ु होता है । BचQ वषयL के मल से मल(न होता है । उसे साफ
Eकये ’बना उस पर आम-7ान का रं ग नह(ं चढता। वषयL मC राग न रहने से BचQ
3नम?ल हो जाता है, और उसमC परमामा का !काश !कट हो जाने से आनद छा जात
है ।

ववेक, वैराeय, ष˜सHपQ और मम1व


ु ु साधन चत8˜य
ु कहलाते ह6। इन गणL
ु से
सHपन पiष
ु तŠव7ान का अBधकार( होता है । अत: इह(ं गणL
ु को अBधकार( पiष

का ल1ण भी मानते ह6। 3नय और अ3नय वतु क. पहचान करने वाल( बि@द
ु का
नाम है ववेक। वषय सख
ु क. अ3नयता समझ कर उनका राग याग दे ना वैराeय
है । शम, दम, उपर3त, 3त3त1ा, @दा और समाधान ये ष˜सHपQयां ह6। अ@याम पथ
पर इह(ं के बल पर !ग3त होती है । इस#लए इहC आ@यािमक सHपQ कहते ह6।
कम?-बंधन और उससे !ा] होने वाले जम-मय
ृ ु के द:ु खL को हे य समझकर उनसे
छटकारा
ु पाने क. !बल इ‘छा का नाम मम1ा
ु ु है ।

ऐसे BचQ-श@द
ु अBधकार( को तŠवबोध कराने के #लए थकार '!यक् -तŠव-ववेक'
नामक इस !करण क. रचना करते है । उपाBध रTहत 3नम?ल श@द
ु वतु को तŠव
कहते ह6। यहां तŠव का तापय? सि‘चदानद घन परqr है । वह( अपना सवoप है ।
शर(र आTद उपाBधयL से पथक
ृ ् कर उसका अनभव
ु !ा] करना तŠव-ववेक है ।

आम चेतना क. 3नयता

जीव का श@द
ु वoप आमा है । सत ्, Bचत ्, और आनद उसके ल1ण ह6। यिvQ
ु और
अनभव
ु के Pारा इनका बोध कराने के #लए पहले आमा क. सयता #स@द करते ह6।
इस पक?ृ या से 7ात से अ7ात क. ओर जाते ह6।

शGदपशा?दयो वेा वैBच™या~जागरे पथक।


ृ ्
ततो वभ<ातसंवदै कošयान #भते।।३।।

'पY यवहार वाल( जात अवथा मC 7ान के वषयभत


ू शGद, पश? आTद वषय
अलग-अलग धम? वाले होने से वे एक दसरे
ू से अलग-अलग ह6 Eकतु उनसे पथक
ृ ्
रहने वाला उनका संवत ् एकoप होने के कारण भेद वाला नह(ं होता है ।'

याया--जीव क. तीन अवथायC ह6-जात, वšन और सष3]।


ु ु जब शर(र मC िथत
होकर इंTDयL से बाŽ जगत ् का 7ान हो तो वह जादावथा है । जब इंTDयां मन मे
लय हो जाती ह6 और मन से वषयL का 7ान होता है तो उसे वšनावथा कहते ह6।
मन के भी ल(न होने पर जब वषयL का 7ान नह(ं होता तो वह सष3]
ु ु अवथा है ।

पहले जात ् अवथा मC हो रहे 7ान का वचार करC । इस समय ो", वक् , ने", िजहा
और ना#सका से jमश: शGद, पश?, oप, रस और गंध पाँच वषयL का 7ान होता है ।
जगत ् क. सभी वतओं
ु का 7ान इह(ं पाँच oपL मे होता है । वषयL के पाँच oप होने
के कारण 7ान भी पाँच !कार का होता है, जैसे शGद7ान, पश? 7ान आTद। Eकतु
श@द
ु 7ान एक ह( है । वह( एक 7ान शGद हण करने पर शGद7ान है और पश?
हण करने पर पश?7ान है । हम अपने अनभव
ु से जानते ह6 Eक हमारे एक 7ान मC
ह( शGद आTद वषय एक के बाद एक आते ह6। वषय बदलते रहते ह6, Eकतु उनको
हण करने वाला एक ह( रहता है । वषय के बदलने के साथ 7ान नह(ं बदलता। जैसे
एक Eकलो बाँट से एक Eकलो गेहूँ तौलने के बाद, एक Eकलो चीनी और Eफर एक
Eकलो दाल तौलते ह6, तो तौल( हईु वतु बदलती जाती है Eकतु एक Eकलो का बाँट
वह( रहता है, वैसे ह( एक ह( 7ान से सब वषय जाने जाते ह6। वषयL के बदलने पर
7ान नह(ं बदलता।

इस !कार वषयL क. अनेकता दे खकर हम कह सकते ह6 Eक वषय वभ< ह6, उनमC


भेद है , Eकतु 7ान अवभ< है उसमे भेद नह(ं है । नाना oप वषय, 7ान क. उपाBध
ह6, जैसे घट, मठ आTद आकाश क. उपाBधयाँ ह6। एक अवभ< आकाश घट क. उपाBध
से घटाकाश और मठ क. उपाBध से मठाकाश कहलाता है । इसी !कार एक ह(
अवभ< 7ान शGद क. उपाBध से शGद7ान और oप क. उपाBध से oप7ान समझा
जाता है । तापय? यह है Eक जात ् अवथा मC वषयL का अनभव
ु करते समय वषयL
क. अनेकता, प_रवत?नशीलता और उनके गतागत वभाव को पहचान कर 7ान क.
एकता, अप_रवत?नशीलता और 3नयता को समझने का !यास करना चाTहये। इसी
7ान क. डोर को पकडकर हम आगे आम7ान क. ओर बढC गे। इस 7ान के श@द

वoप का 7ान ह( आम7ान है ।

जात ् अवथा मC 7ान के एकव को पहचान कर वšनावथा मC भी उसी 7ान क.


एकता दे खनी चाTहए-

तथा वšनेS" वें तु न िथरं जागरे िथरम ् ।


तX भेदोSततयो: संवत ् एकoपा न #भते।।४।।

'वšन मC भी तPत ् है । यहाँ वे वषय िथर नह(ं होते Eकतु जात ् अवथा मC
िथर होते ह6। इस#लये दोनL अवथाओं मC भेद है । Eकतु दोनL अवथाओं का संवत ्
(7ान)एक oप है । उसमC भेद नह(ं है ।'

याया-वšनावथा मC भी वषयL क. अनकेता और 7ान क. एकता उसी !कार है


जैसे जात ् अवथा मC -'तथा वšने'। वšन मC जात ् के समान शGद, पश? आTद
वषयL का 7ान होता है । वषयL क. उपाBध से वह नाना !कार का भा#सत होने पर
भी 7ान तŠवत: एक ह( है । !येक वषय के साथ 7ान प_रव3त?त या वकत
ृ नTहं
होता।

यTद दोनL अवथाओं मC वषयL क. #भनता और 7ान क. एकता है तो उन


अवथाओं मC अतर vया है ? अतर यह( है Eक जात ् अवथा के वषय िथर ह6।
सोकर उठने पर हम 3नय अपना वह( कमरा, वह( मेज, वह( कस›
ु पाते ह6 जो हमने
सोने के पहले छोड़ी थी। इनमC िथरता Tदखाई दे ती है , ऐसी िथरता वšन क.
वतओं
ु मC नह(ं है । हर बार वšन मC वे वतयC
ु बदल( हई
ु Tदखाई दे ती ह6। हम वहाँ
यह अनभव
ु नह(ं करते Eक हमने जो वतु कल यहां वšन मC दे खी थी वह( आज
Eफर दे ख रहे ह6। यप हम कभी-कभी एक ह( समान दो बार वšन दे ख सकते ह6,
Eफर भी उससे वšन क. वतओं
ु क. िथरता #स@द नह(ं हो जाती। इसके अ3त_र<
वšन क. वतयC
ु दे खते-दे खते गायब हो जाती ह6 और नई-नई !कट भी होती रहती
ह6। यTद कह(ं पडा हआ
ु एक iपया Tदखाई दे ता है तो हम सोचते ह6 Eक शायद आस-
पास और भी iपये पडे हL। इतना सोचते ह( अय अनेक iपये Tदखाई दे ने लगते ह6।
यप वहां नह(ं थे तो भी !कट हो जाते ह6। यद( शंका होती है Eक हमार( जेब से ये
iपये Bगर न जायC तो सचमच
ु हमC अपनी जेब खाल( #मलती है । तापय? यह है Eक
वšनावथा के वषय जात ् क. अपे1ा अिथर और 1†णक होते ह6। यह( दोनL
अवथाओं के अनभव
ु का अतर है ।

वšन क. वतओं
ु का अिथर वभाव दे खकर ह( हम वšन को #मyया कहते ह6।
जात ् क. वतयC
ु उसक. अपे1ा अBधक िथर ह6 इस#लये हम इसे सय समझते ह6।
vया इन दोनL अवथाओं का 7ान एक दसरे
ू से #भन है? vया वšन का 7ान दसरा

है और जात ् का 7ान दस
ू रा है ? vया वšन का 7ान भी वšन क. वतओं
ु के
समान अिथर और नxर है ? यप वšन के वषय #भन-#भन !कार के और
अिथर ह6, तो भी उनका 7ान एकoप और िथर है । इस#लए यप वšन #मyया
समझा जाता है Eकतु वšन का 7ान #मyया नह(ं होता। वšन का 7ान भी वह( है
जो जात ् मC हम वषय से पथक
ृ ् कर श@द
ु oप मC अनभव
ु करते ह6। एक ह( 7ान
से हम वšन और जात ् क. पथक
ृ ् अवथाओं का अनभव
ु करते ह6। जो जात ् का
DYा है वह( वšन का DYा है । अपने एक ह( 7ान मC हम दोनL अवथाओं को आते-
जाते दे खते ह6। इस#लए 7ान क. एकता जात ् से वšन तक एक समान है ।

यह( 7ान सष3]


ु ु अवथा मC भी या] है , यह Tदखाने के #लए पहले सष3]
ु ु अवथा के
वषय मC बताते ह6-

स]ोिथतय
ु सौष]
ु तमबोधो भवेम3त
ृ : ।
सा चावब@द
ु वषयाSव ब@दं
ु तQदा तम: ।।५।।

'सोकर उठे पiष


ु को सष3]
ु ु अवथा के अ7ान का बोध होता है , उसे म3त
ृ कहते ह6।
वह म3त
ृ अनभव
ु Eकये गये वषय क. है , vयLEक वह अ7ान उस अवथा मC अनभव

हआ
ु था।'

याया--भारतीय दाश?3नकL ने !य1 आTद 7ान के छ: साधन माने ह6। वे छ:


!माण !य1, अनमान
ु , उपमान, शGद, अथा?पQ और अनपलिGध
ु ह6। म3त
ृ 7ान का
सा1ात ् साधन नह(ं है । वह Eकसी !माण से !ा] पव?
ू 7ान क. पनरावQ
ु ृ है । पहले
कभी दे खी हई
ु वतु यTद कालातर मC पन
ु : बि@द
ु मC आती है तो उसे 'म3त
ृ ' कहते
ह6। म3त
ृ 7ान यह #स@द करता है क. हमने वह 7ान पहले कभी !माण से !ा]
Eकया था।

सोकर जागने पर हमC म3त


ृ होती है Eक अभी कछ
ु दे र पहले इतनी नींद मC सोते रहे
Eक कछ
ु भी पता न चला। कोई वšन भी नह(ं Tदखाई Tदया। सोते समय कछ
ु भी न
जान पाने क. म3त
ृ यह #स@द करती है Eक कछ
ु काल पहले यह( हमारा अनभवजय

7ान था। इससे #स@द होता है Eक सष3]
ु ु मC कछ
ु न 7ात होने का 7ान रहता है ।
वहां 7ान का अभाव नह(ं है । केवल 7ान के वषय का अभाव है । वषय का अभाव
तम oप मC भा#सत होता है ।

सष3]
ु ु अवथा मC रहने वाला श@द
ु 7ान वह( है जो जात ् और वšन अवथाओं मC
था-
स बोधो वषयाX #भनो न बोधावšनबोधवत।्
एवं थान"यSšयेका संवQPTmनांतरे ।।६।।

'वह बोध वषय से #भन है , Eकतु जैसे वšन का बोध #भन नTहं है वैसे ह( जात ्
के 7ान से यह #भन नह(ं है । इन तीनL अवथाओं मC 7ान एक ह( है । उसी !कार
दसरे
ू Tदन भी वह( एक 7ान रहता है ।'

याया--सष3]ु ु अवथा का उ&लेख करते हये


ु कहते ह6 Eक वह बोध वषय से #भन
है । वहाँ वषय 'कछ
ु भी भा#सत न होना' अथा?त ् वषय का अभाव है । वह भी 7ान से
जान जाता है । 7ान और वषय का अभाव दोनL पथक
ृ ् ह6, जैसे शGद और उसका 7ान
पथक
ृ ् है । अत: 7ान सष3]
ु ु मC भी है Eकतु वह वषय के अभाव मा" को !का#शत
करता है । यह 7ान जात ् और वšन अवथाओं के 7ान से पथ
ृ क् नह(ं है । 7ान
तीनL अवथाओं मC एक ह( है ।

वषय भेद से हमार( तीन अवथायC ह6। जब हमC िथर वषयL का 7ान होता है तो
वह जात ् अवथा है, जब अिथर वषयL का 7ान होता है तो वह वšन अवथा है ।
जब िथर-अिथर Eकसी वषय का बोध नह(ं होता तो वह सष3]
ु ु अवथा है । इन
तीनL क. जानकार( 7ान मC ह( होती है । इससे #स@द होता है Eक एक ह( 7ान तीनL
अवथाओ मC वमान रहता है। उसमC भेद और पथकता
ृ कभी नह(ं होती। वह
3नरतर, शावत और 3नय है ।

चौ’बस घटे अथा?त ् एक Tदन-रात मC तीन ह( अवथायC होती ह6। उन तीनL अवथाओं
मC 7ान सतत ् बना रहता है । इस श@द
ु 7ान क. 3नरतरता पहचाननी चाTहए। जैसे
यह एक Tदन-रात मC अखड और सतत ् बना रहता है वैसे ह( वह दसरे
ू Tदन-रात भी
बना रहता है । उसका न अभाव होता है और न वह बदलता ह( है ।
आमा क. वयं!काशoपता
काशoपता

मासाGदयगक&पे
ु षु गतागHये8वनेकधा।
नोदे 3त नातमेयेका संवदे षा वयं!भा।।७।।

'अनेक बार आने-जाने वाले मास, वष?, यग


ु और क&प तक ’बना उTदत और अत हए

यह 7ान एक ह( रहता है और वह वयं !काश वoप है ।'

याया--पछले tोकL मC यह Tदखाया गया है Eक एक Tदन क. जात ् आTद तीन


अवथाओं मC 7ान एक ह( है । वह दसरे
ू Tदन भी उसी !कार एक है । इसी jम से यह
समझा जा सकता है Eक 7ान मास पय?त एक ह( रहता है । ऐसा कोई कारण नह(ं
Tदखाई दे ता िजससे एक या दो मास बाद 7ान क. 3नरतरता नY हो जाय। इस#लए
यह( समझना चाTहये Eक एक के बाद एक आने वाले चै", वैशाख आTद मासL मC
!भव, वभाव आTद चौसठ संवसरL मC , सतयग
ु आTद चारL यगL
ु मC तथा qाr, वाराह
आTद क&पL मे 7ान एक ह( बना रहता है । वह न कभी उपन होता Tदखाई दे ता है
और न कभी लय होता हआ। ु इस#लए 7ान 3नय है । 7ान का यह ल1ण वयं 7ान
से ह( जाना जाता है , vयLEक 7ान वयं !काश वoप है ।

यTद कहो Eक शGद 7ान के बाद पश? या oप का 7ान होता है अथा?त ् एक 7ान नY
होकर दसरा
ू 7ान उपन होता है तो ऐसा कहना उBचत नह(ं है । हम पहले ह( दे ख
चक
ु े ह6 Eक वषय (शGद आTद) आते जाते ह6, उनका उदय-अत होता है Eकतु 7ान
एक ह( रहता है । वह बार-बार नY होकर उTदत नह(ं होता।

यTद 7ान को उTदत और नY होने वाला मानो तो यह बताना होगा Eक उसके उदय-
अत का 7ाता कौन है? यTद कहो Eक 7ान ह( 7ान के उदय-अत का 7ाता है तो
यह मानना उBचत नह(ं है । 7ान का उदय होने से पव?
ु और उसके नY होने के बाद
उसका जानने वाला उससे पथक
ृ ् होना चाTहये तभी वह 7ान सHभव होगा। इस
समया से बचने के #लए यTद कहो Eक एक 7ान के उदय-अत का जानने वाला
दसरा
ू 7ान हो सकता है, तो यह भी उBचत वचार नह(ं है। हम दे खते ह6 Eक 7ान और
उसके Pारा !का#शत होने वाले वषय तो पथक
ृ ् ह6, Eकतु 7ान मC न भेद है और न
उसक. दो पथक
ृ ् सQायC ह6। यह अनभव
ु से #सn ह( है , तक? से भी #सn हो सकता है।
यTद 7ान का 7ाता दस
ू रा 7ान मानC तो उसका 7ाता भी उससे पथक
ृ ् अय 7ान
मानना आवhयक हो जायेगा। इस jम का कह(ं अत न होगा और अनावथा नामक
दोष उपिथत होगा। इस#लये 7ान को एक ह( मानना तक?संगत है ।
7ान के एक होने और उसके अप_रवत?नीय होने का बोध उसी 7ान से होता है । 7ान
एक !कार का Tदय !काश है । जैसे सय?
ू का !काश वयं अपने को !का#शत करता
है , उसे !का#शत करने के #लए द(पक आTद Eकसी अय !काश क. आवhयकता नह(ं
होती वैसे ह( 7ान वत: अपने को !का#शत करता है, उसे !का#शत करने के #लए
Eकसी अय 7ान क. आवhयकता नह(ं है । इस#लए 7ान को वयं !काशवoप
समझना चाTहए।

आमा क. परमानदता

इयमामा परानंद: पर!ेमापदं यत:।


मा न भवं
ू Tह भयास#म3त
ू !ेमामनीzयते।।8।।

'यह 7ान आमा है । परम!ेमापद होने के कारण यह परमानद वoप है । ऐसा


कभी न हो Eक मै न रहूँ, म6 सदा रहूँ इस !कार आमा मC !ेम Tदखाई दे ता है ।'

याया--वह 7ान िजसमC ववध वषयL और तीनL अवथाओं का बोध होता है , 3नय
और वयं !काश है । हम उसे अपने आप से अपथक
ृ ् अनभव
ु करते ह6, इस#लये यह
आमा है । यTद म6 अपने को 7ान से पथक
ृ ् मानंू तो मझे
ु वीकार करना पड़ेगा Eक
म6 या तो जड़ हूँ या Eफर उस 7ान से पथक
ृ दसरा
ू कोई 7ान हंू । अपने को जड़
मानकर म6 Eकसी 7ान को अपना 7ान वीकर नह(ं कर सकता। 7ान से पथक
ृ ् अपने
को जड़ मानना भी 'वदतो याघात' दोष है । यह कहना उसी !कार है जैसे म6 कहूँ Eक
मेरे मह
ँु मC िजहा नह(ं है। इसी#लये म6 अपने को 7ान से पथक
ृ ् मान ह( नह(ं सकता।
यTद म6 कहूँ Eक म6 वषयL को हण करने वाले 7ान से पथक
ृ ् कोइ दसरा
ू 7ान हूँ तो
यह मानना पड़ेगा Eक इन दोनL 7ानL मC वभाजक रे खा vया है? यह हम दे ख चक
ु े ह6
Eक 7ान का ल1ण अवभ< रहना है, जो यिकंBचत ् वभाजन !तीत होते ह6 वे 7ेय
क. उपाBध के कारण भा#सत होते ह6, 7ान वत: अवभा~य है । इस#लए यह( मानना
उBचत है Eक 7ान मझसे
ु अ#भन है और वयं !का#शत होने के कारण 7ान से ह(
7ान का अनभव
ु हो रहा है । एक शGद मC कह सकते है Eक 7ान आमा है ।

हम सब िजस 7ान का आमभाव से अनभव


ु कर रहे ह6 इसका एक महवपण?
ू ल1ण
आनद भी है । आमा को परम आनदवoप #सn करने के #लए इस tोक मC
आचाय? एक तक? !तत
ु करते ह6। वे कते ह6 Eक आमा परम !ी3त का पा" होने के
कारण परमानदवoप है । हम सबसे अBधक !ेम अपने आप से करते ह6, इससे यह
#सn होता है Eक सबसे अBधक सख
ु आमा मे ह( है । हमC 3नव?वाद oप से वीकार
करना होगा Eक सख
ु और !ी3त का 3नय सHबध है । आमा का ल1ण आनद है
और मन मC आमा का !3त’बHब !ी3त बनकर अनभत
ु ू होता है । इस#लए सभी पiषL

को सख
ु से !ी3त होती है ।

आमा क. परम!यता #सn करने के #लए इस tोक मC आचाय? यह तक? दे ते ह6--


ू Tह भयासम
'मानभवं ू ्'-- ऐसा न हो Eक म6 न होऊँ वरन ् सव?दा रहूँ--हमार( यह कामना
#सn करती है Eक म6 अपने से सवा?Bधक !ेम करता हंू । यप शर(र आमा नह(ं है
Eफर भी उसमC sाितजय आमभाव के कारण उसे भी नY नह(ं होने दे ना चाहते।
शर(र तो मलभाड के समान हे य है Eकतु आमभाव के कारण ह( उसमC !यता
लगती है । वतत
ु : शn
ु 7ान ह( आमा है और उसी मC परम !यता होने के कारण
वह परम आनद भी है ।

कभी लोगL मC अपने !3त घणा


ृ भी दे खी जाती है । वे आमeला3न के कारण अपना
वनाश ह( करने को उत हो जाते ह6। उनक. यह घणा
ृ अपने शर(र, मन, बn
ु के #लए
होती है अथवा उनसे Eकये गये कमž के #लए होती है, 7ानवoप आमा के #लए नह(ं
होती। इस#लए वे शर(र को नY कर अपनी eला3न से छटकारा
ु चहते ह6। शर(र और
त~जय eला3न से म<
ु होकर वे अपने श@द
ु आमा का वनाश नह(ं करना चाहते।
इस#लए यह 3नण?य पvका है Eक आमा परम !ेमवoप और परम आनदवoप है ।

आमा मC परम !ेम होने के कारण उसके आनदवoप होने का !माण 3त
ु भी दे ती
है । उसे उnृत करते हए
ु आचाय? कहते ह6-

त!ेमामाथ?मय" नैवमयाथ?माम3न।
अततपरमं तेन परमानंदताSSमन:।।9।।

'वह !ेम अय" भी आमा के #लए ह( है, Eकतु आमा मC जो !ेम है वह अय के
#लए नह(ं है । इस#लए आमा का !ेम परम !ेम है । इस कारण आमा क.
परमानदता #सn होती है ।'

याया--हम दे ख चक
ु े ह6 Eक सख
ु और !ी3त का 3नय सHबध है । जहां कह(ं सख

का अनभव
ु होता है उसी के !3त हमार( !ी3त भी होती है। इस#लए िजस वतु या
यf< मC सख
ु पाने क. आशा होती है उसी से !ेम Eकया जाता है । द:ु ख से !ीती
Eकसी को नह( है । न कोई द:ु ख चाहता है और न कोई द:ु ख दे ने वाले वतु चाहता है ।
इस 3नयम से हम अपनी !ी3त को दे खकर सख
ु का ोत खोज सकते ह6। वह ोत
हमC चाहे सख
ु कभी न दे Eकतु उसमC सख
ु क. क&पना ह( हमारे मन मC उसके !3त
!ी3त उपन कर दे ती है । यTद हमारे मन मC Eकसी वतु या यf< के !3त !ी3त है
तो यह 3न–य मान लेना चाTहए Eक उसमC सख
ु !ा] करने क. आशा करते ह6।
मान लो, हमC धन मC !ी3त है । हम अपने मन मC उस !ी3त का अनभव
ु करते ह6।
इससे यह संकेत #मलता है Eक हम धन मे सख
ु दे ने क. सामyय? समझते ह6। इसी
!कार यTद हम मकान या फन›चर मे !ी3त करते ह6 या गाय, घोडे आTद पशु मे !ी3त
रखते ह6 तो वहां भी सख
ु क. आशा करते है । यTद माता-पता या प3त-पŸी या प"
ु -
पौ" मC हमार( !ी3त है तो वहां भी हम सख
ु पाने क. आशा रखते ह6। यह मनोव7ान
का एक सरल #सnात है ।

इस #सnात को समझना कTठन नह(ं है । Eकतु इसी के साथ एक #सnात यह भी


है Eक िजस वतु को सखदायी
ु समझ कर !ी3त करते ह6 वह !ी3त उसी वतु के हे तु
नह(ं होती वरन ् अतत: अपने #लए होती है । हमC धन मC जो !ी3त है वह केवल धन
के #लए नह(ं है, वरन ् वह धन हमC सख
ु दे तभी उसमे !ी3त है । इसका अथ? यह है Eक
पहले मझे
ु अपने मे !ी3त है, तब अपने #लए अय वतओं
ु या यf<यL मC !ी3त है।
हमार( !ी3त सैकडL वतओं
ु और सैकडL Tदशाओं मC बट( हो सकती है Eकतु वह सब
अत मC अपने #लए ह( है । इससे यह #सn होता है Eक सबसे अBधक !ेम हमे अपने
से है । यTद ऐसा है तो सबसे अBधक सख
ु भी अपने आप मC ह( होना चाTहए।

अपने आप मC सबसे अBधक सख


ु और !ी3त शा} से भी !मा†णत होती है।
बहदारयक
ृ उपनषX मC या7व&vय ऋष अपनी पŸी मै"य
े ी को आम7ान क. #श1ा
दे ते हए
ु कहते ह6--

'सहोवाच न वा अरे पय:ु कामाय प3त: !यो भव3त। आमनतु कामाय प3त: !यो
भव3त। न वा अरे जायायै कामाय जाया !या भव3त। आमनतु कामाय जाया !या
भव3त। न वा अरे प"ाणां
ु कामाय प"
ु : !या भवित। आमनतु कामाय प"ा
ु : !या
भवित। न वा अरे वQय कामाय वQं !यं भव3त। आमतु कामाय वQं !यं
भव3त। न वा अरे पशनां
ु कामाय पशव: !या भवयामनतु कामाय पशव: !या
भवित।'

उहोने कहा-अर( मै"3े य! यह 3न–य है Eक प3त के !योजन के #लए प3त !य नTहं
होता, अपने ह( !योजन #लए प3त !य होता है ; पŸी के !योजन के #लए पŸी !य
नह(ं होती, अपने ह( !योजन के #लए पŸी !य होती है; प"L
ु के !योजन के #लए प"

!य नTहं होते, अपने ह( !योजन के #लए प"
ु !य होते है; धन के !योजन के #लए
धन !य नह( होता, अपने ह( !योजन के #लए धन !य होता है, पशओं
ु के #लए पशु
!य नह(ं होते, अपने ह( !योजन के #लए पशु !य होते ह6।
या7व&vय आगे कहते ह6 Eक सबके !योजन के #लए सब !य नTहं होते, अपने ह(
!योजन के #लए सब !य होते ह6। यह आमा परम !ेमवoप है । यह( दश?नीय,
वणीय, मन3नय और @यान करने योeय है ।

इस पर भा8य #लखते हए ु भगवान शंकराचाय? कहते ह6--"तमा&लोक !#स@दमेतत ्-


आमैव !य: नायत ्"-अत: इस लोक मC !#सn है Eक आमा ह( !य है अय कछु
नह(ं। आमा परम !ेमवoप है , इस#लए यह परमानदवoप भी है ।

इसके अ3त_र< आचाय? यह भी कहते है Eक हमे अपने आमा मC जो !ेम है वह


अपने #लए ह( है , उसका !योजन कोई अय वतु या यf< नह( है । हमारे आम!ेम
या आमर1ा का !योजन यह नह( है Eक इसका लzय Eकसी अय यf< को सख

पहचाना
ुँ हो। यTद कदाBचत ् ऐसा होता तो हम उसी को परम!ेमापद मानते। जब हम
दे खते ह6 Eक अपना !ेम सबके !3त होते हए ु भी अतत: वह अपने #लए ह( है और
अपना !ेम भी अपने #लए ह( है तो यह 3न–य हो जाता है Eक आमा परम
!ेमवoप है ।

!ेम और सख
ु का 3नय सHबध होने के कारण यह भी #सn हो जाता है Eक परम
!ेमवoप आमा ह( परम आनदवoप है ।

इस !कार हम अपनी िजस चेतना का सहज oप मC अनभव


ु कर रहे ह6 यह( हमार(
आमा है और सत ्-Bचत ् तथा आनद इसके ल1ण ह6।

आमा और qr क. एकता

पछले सात tोकL मC आमा को सि‘चदानदवoप #सn करने के बाद अब आमा


और qr क. एकता !3तपादन करते ह6-

इथं सि‘चपरानंद आमा यvया


ु तथावधम ् ।
परं qr तयो–ैvयं यं
ु तेषूपTदhयते ।।10।।

'इस !कार यf< ु Pारा आमा सत ्-Bचत ् और परानदoप (#सn हआ ु )।' उसी वBध
परqr भी है । इस#लए उन दोनL क. एकता का उपदे श उप3नषदL मC Eकया गया है । '

याया--पछले सत tोकL मC आचाय? ने यf<


ु Pारा #सn कर Tदया Eक हम अपनी
िजस चेतना का अनभव
ु करते ह6 यह( हमरा वoप है । हमारा यह आमवoप सX,
Bचत ् और परमानद वoप है । आमा 3नय, अवनाशी और अवकार( होने के कारण
बाध रTहत है । ये उसके सत ् होने के ल1ण ह6। यह 7ान वoप, बोधवoप और
अपने आप से अनभव
ु मC आनेवाला है, इस#लए यह Bचवoप है । हमC अपने इस
वoप से सबसे अBधक !ेम है , इस#लए यह आनद वoप है । आमा मC हमC ये तीन
ल1ण #मलते ह6। इन तीन ल1णL से य<
ु अपने वoप को पहचान लेना ह(
आमा7ान है । (दे †खये भगवान शंकराचाय? के आमबोध आTद !करण थ)
3तयL
ू मC यह( तीन ल1ण qहम के बताये गये ह6। तैQर(य उप3नषX क. 3त
ू इस
!कार है --""सयं 7ानमनतं qr.....
qr.....रसो
.....रसो वै स:"--qr
:" सय, 7ान वoप और अनत
है , वह( रस (आनद) है । अय उप3नषदL मC भी qr के यह( ल1ण बताये गये ह6।

इस !कार जब आमा के वह( ल1ण #सn होते ह6 जो qr के ह6 तो आमा और qr


एक ह( वतु होना चाTहये। आचाय? इस सय का !3तपादन करते ह6। अत: हमC यह(
समझना चाTहये Eक हम िजस अशर(र( आमा का अनभ
ु व सत ्, Bचत ् और आनद
वoप अनभव
ु करते ह6 वह( सवा?मा और अनत होने के कारण qr है । यहां यह
शंका न करनी चाTहये Eक qr तो qहQर है, परमामा है , भला वह म6 कैसे हो सकता
हंू ? जैसे घटाकाश और महाकाश मC भेद नह(ं है वैसे ह( आमा और qr मC भेद नह(ं
है ।

आचाय? अपने मत क. पY


ु करने के #लए उसे उप3नषदL मC भी उपTदY कहते ह6।
समत उप3नषदL मC आमा और qr का एकता का !3तपादन Eकया गया है ।
'तŠवम#स' (छादो० 6-8-7) 'अहं qHहािम' (ब०ृ 1-4-10) 'अयमामा qr' (व०ृ 2-5-19)
'qr वेद qrैव भव3त' (मड
ु ० 3-2-9) 'सव ŽेतX qr अयमामा qr' (माडू० 1-2)
इयाTद ऐसे अग†णत उnरण Tदये जा सकते ह6। ये 3त
ू वचन ह( एक मा" ऐसे
साधन ह6 िजनसे qr 7ान होता है और !ा] हए
ु 7ान मे gढता आती है । कैव&य
उप3नषX का एक म" इस !कार है -

यपरं qr सवा?मा वxयायतनं महत।्


सzमासzमतरं
ु ू 3नयं तŠवमेव वमेव तत।।

'जो पर qr है , सब का आमा है , वx का आधार है , सzम


ु से अBधक सzम
ु है और
शाxत है, वह( तम
ु हो और तुम ह( वह है'

इस म" मC कहा गया है Eक िजस qr को सवा?मा, सवा?धार और सव?यापी बताया


जाता है वह तम
ू से कह(ं दरू नह(ं है । वह सवा?मा है तो तHहारा
ु भी आमा है । तम

अपने आप को जो 3नय चेतन तŠव अनभव
ु करते हो वह( qr है । तम
ु अपने को
उससे अलग समझे हए ु हो, यह तHहारा
ु sम है । यTद कोई कहे Eक 'तŠवम#स' का अथ?
'तय वम ् अ#स'--तम
ु उसके हो जो तमसेु #भन है, तमु वह नह(ं हो बि&क उसके
अंश हो, तो उससे सावधान करने के #लए ह( 'तत ् और वम ्' को उलट पलट कर
आमा और qr क. एकता gढ कर द( गयी है । qहQर होने से जो qr है वह( अपने
मC वयं oप से अनभत
ु ू होने के कारण आमा है और सHपण?
ू जगत ् का आधार होने
से परमामा है ।

वतत
ू : हर यf< अपने आप को जानता है vयLEक वह चेतन है, 7ान वoप है ।
Eकतु उसे यह 7ात नह(ं होता Eक वह तो अपने शn
ु oप मC परमामा है । यह 7ान
ू , यf<
3त ु और अनभव
ु !माण से !ा] होता है । अगले tोक मC बताते ह6 Eक अपने
आमा Eक यथाथ? 7ान मC बाधा vया है ।

अभाने न परं !ेम भाने न वषये पहा।



अतो भानेsšयभाताsसौ परमानदतामन:।।11।।

'यTद आमा क. परमानदता का भान न हो तो आमा के #लए परम !ेम नह(ं हो


सकता और यTद उसका भान हो तो वषयL क. इ‘छा नह(ं होगी। इस#लए आमा क.
परमानदता का भान होते हए
ु भी (उसका पY) भान नह(ं होता है ।'

याया--यf<
ु !माण और शा} !माण से यह तो #सn हो गया Eक हम अपने
सवoप मC परqr परमामा ह6, इस#लए 3नय म<
ु और आनद वoप ह6, Eकतु
अब दे खना चाTहए Eक हम अपने अनभव
ु मे vया पाते ह6। vया हम अपने अतत?म
मC परमानद का रस ले रहे ह6? vया हमे कोई अभाव और द:ु ख पीड़ा नह(ं दे रहा है?
यTद हमे अपने आप से परम !ेम है ,यह वाभावक और सय है , तो हमे वयं
आनद वoप होना ह( चाTहए अयथा !ेम और सख
ु के 3नय सHबध का 3नयम
वि‘छन होता है । Eकतु अनभव
ु से यह #स@द नह(ं होता। यTद हम आमानद का
अनभव
ु करते तो वषयL क. कामना होने का !¢ ह( नह(ं था। हमC जो 1ुD वषय
सखL
ु क. कामना होते है , उससे #सn होता है Eक हमC आम के आनद का पY 7ान
नह(ं है ।

आमा के आनद-#सधु मC वास करने वाला कभी वषय सखL


ु क. ओस चाटने क.
इ‘छा नह(ं कर सकता। वषय सख
ु 1†णक ह6 और उनके साथ द:ु ख भी #मला रहता
है । इहC तो कएं
ु का खारा जल समझना चाTहए। उसे !ा] करने मे कY और पीने मे
बेवाद लगता है । ऐसे सखक.
ु कामना तो वह( करे गा िजसे अमत
ृ का मधरु सागर
उमडता और लहराता हआ
ु नह(ं #मला है । हमार( यह वषयासf< vयL है?

इस !¢ के समाधान मे आचाय? कहते ह6 Eक वतत


ु : हमे अपने आमा का भान होते
हए
ु उसक. परमानदता का अनभव
ु नह(ं होता। हम अपनी सQा का, अपनी चेतना का
अनभव
ु तो करते ह6 Eकतु उसक. अनतता, पण?
ु ता और आनदता का अनभव
ु नह(ं
करते।

ऐसा vयL है?

अ@येतवग?
ृ म@यथ प"ा@ययन
ु शGदवत।्
भानेšयभानं भान8य !3तबंधेनयु~यते।।12।।

'अ@ययन करने वाले वाBथ?यL के वग? मC वमान प"


ु के अ@ययन के शGद के
समान भान होते हए
ु भी अभान होता है । भान का !3तबंध होने पर अभान होना
उBचत ह( है ।'

याया--7ान सदा पY oप मC ह( होता है ऐसा 3नयम नह(ं है । अपY 7ान भी हो


सकता है । इस !कार के अनेक gYात हो सकते ह6 जहां वतु का 7ान पY oप से
नह(ं होता। मेघा‘छाTदत सय?
ू का कछ
ु !काश रहता है । उसी से 7ात होता है क. यह
Tदन का समय है , रा’" नह(ं है । Eकतु यह 7ात नह(ं होता Eक सय?
ू इस समय आकाश
मC कहाँ िथत है । मेघ हटने पर उसे पY दे खा जा सकता है ।

यहाँ आचाय? वाथ› वग? मC बैठे अपने प"


ु क. अपY @व3न का gYात दे ते ह6। मान
लC, Eकसी वालय मC कछ
ु छा" एक साथ वेद पाठ कर रहे ह6। उनक. सबक. #मल(-
जल(
ु @व3नयां उपन हो रह( ह6। उसी समय एक वाथ› का पता अपने प"
ु से
#मलने आता है । वह Pार पर खडा वाBथ?यL क. @व3न @यान से सनकर
ु यह 3न–य
करता है Eक इस वग? मे मेरे प"
ु के भी @व3न हो रह( है । वह अपने प"
ु के शGद
सनते
ु हए
ु भी पY oप से नह(ं सन
ु पाता, vयLEक अय बालकL क. @व3नयाँ उसे
!3तबंBधत कर दे ती ह6।

इसी !कार अपने आमा का आनद अपने आपमे परम !ेम होने के कारण भा#सत
तो होता है Eकतु वह पY अनभव
ु मे नह(ं आता। इससे 7ात होता है Eक उसके
साथ कोई !3तबंध अवhय है । !3तबंध रहने तक हमC अपने आनद पY अनभव
ु नह(ं
होता और हम सांसा_रक सख
ु पाकर अपने को सखी
ु बनाना चाहते ह6।

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