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श क्क र के पााँ च दा नेेः मा न व कौ ल

अब मैं एक तरीके से मुस्कु राता हूँ


और एक तरीके से हंस दे ता हूँ
जी हाूँ मैंने जजन्दा रहना सीख लिया है
अब जो जैसा ददखता है, मैं उसे वैसा ही दे खता हूँ
जो नहीं ददखता वो मेरे लिए है ही नहीं
अब मुझे कोई फकक नहीं पड़ता
मैं एक सफि मध्यमवर्गीय रास्ता हूँ
रोज घर से जाता हूँ, रोज घर को आता हूँ
अब मुझ पर कु छ असर नहीं होता
या यं समझ िीजजये मेरी जीभ का स्वाद छीन र्गया है.
अब मुझे हर चीज एक जैसी सफे द ददखती है.
अब मुझे कु छ पता नहीं होता
पर सब जानता हूँ
का भाव मैं अपने चेहरे पर िे आता हूँ.
हर ककस्से पर हंसना आह भरना मैं जानता हूँ
अब मैं खुश हूँ – नहीं, नहीं खुश नहीं अब मैं सुखी हूँ – सुखी.
क्योंकक अब मैं बस जजन्दा रहना चाहता हूँ.
अब ना तो मैं उड़ता हूँ, ना बहता हूँ, मैं रूक र्गया हूँ.
आप चाहे कु छ भी समझे, मैं अब तटस्थ हो र्गया हूँ
अब मैं यथाथक हूँ, यथाथक सा हूँ
“मुझे अपनी कल्पना की र्गोद में सर रखकर सो जाने दो
मैं उस संसार को दे खना चाहता हूँ, जजसका ये संसार प्रततबबम्ब है”
अब ये सब बेमानी िर्गता है. अब तो मेरा यथाथक
मेरी ही पुरानी कल्पनाओं पे हंसता है.
अरे हाूँ, आजकि मैं भी बहुत हंसता हूँ
कभी कभी िर्गता है यह हंसना बीमारी है
पर ये सोच कर कफर हंसी आ जाती है
अब सब चीज जजस जर्गह पर होनी चादहए उस जर्गह पर है
ये सब काफी अच्छा िर्गता है
अच्छा नहीं ठीक — हाूँ — ठीक िर्गता है.
पर …….. एक परे शानी है अजीब सी अधरी …………. क्या बताऊं
आजकि मुझे रोना नहीं आता, अजीब िर्गता है ना
मुझे अब सुख या दुख से कोई, फकक नहीं पड़ता.
क्योंकक वो जब भी आते हैं
एक झुंझिाहट या एक हंसी से तृप्त हो जाते हैं
अजीब बात है ना ……… नहीं नहीं …………. ये अजीब बात नहीं है
ये एक अजीब एहसास है
जैसा कक आप मर चुके हो और कोई यकीन न करे
रोज की तरह िोर्ग आपसे बातें करें ,
चाय पपिायें, आपके साथ घमने जाऐं
और लसफक आपको ये पता हो कक आप अब जजन्दा नहीं है
मैं जानता हूँ, ये एक रूिा दे ने वािा एहसास है
पर आप आश्चयक करें र्गे.
कफर भी, मुझे आजकि रोना नहीं आता है.

………….. नहीं नहीं नहीं …….. ये कपवता मैंने नहीं लिखी ……… अपने बस की बात है ही नहीं मतिब ऐसे भारी शब्दों को एक दसरे से िड़ाना उनकी आपस में कु श्ती कराना और उस भीषण दहंसा से ककसी एक बात को बाहर
तनकािना. ये अपने आप में आश्चयक है. मुझे तो पढ़ने और सुनने में ही पसीना आ जाता है. क्योंकक भाई मेरे लिए कु श्ती और कपवता में कोई खास अन्तर नहीं है, मुझे तो आज तक ये समझ में नहीं आया कक कु श्ती क्यों िड़ी
जाती है और कपवता क्यों लिखी जाती है. मैंने जब पुंडलिक से पछा कक ये कै से होता है ? तो उसने जवाब ददया कक ‘कु श्ती दरअसि बाहर से िड़ी जाती है और कपवता अपने भीतर से िड़कर लिखी जाती है. मुझे उसकी बात कु छ
समझ में नहीं आई और मेरे मुूँह से बस – हं – ततकिा. पुंडलिक समझ र्गया. उसने कहा राजकु मार समस्य ये नहीं है कक तुम ना समझ हो. समस्या ये है कक तुममें समझ की काफी कमी है.

( चींदटया ददखती हैं, वो चींदटयों के साथ खेिता है , और कफर उठता है.)


समस्या – मैं समस्या के पहाड़ पर घम रहा हूँ – क्या भाई क्या …………. समस्या क्या है ? यही तो समस्या है …………. समस्या जब आती है तो अपने साथ अपना हि भी िाती है और हि के चिते ही समस्या कफर उर्ग आती
है. कहते हैं जजसके जीवन में समस्या नहीं उसने समझो जीवन जीया ही नहीं. इसका मतिब मैंने अभी तक जीवन जीया ही नहीं था. क्योंकक मेरे जीवन में कोई समस्या कभी रही नहीं. जबकक समस्या – इस शब्द को मैं बहुत पसंद
करता हूँ और हमेशा चाहता था कक मैं समस्याओं से तघरा रहूँ. चारों तरफ समस्याओं के पहाड़ हो जजनको चीरता हुआ मैं उन्हें पार कर सकं . पर मेरी ऐसी ककस्मत कहाूँ कक मुझे कोई समस्या नसीब हो. कु छ ददक्कतें आई पर आप
उसे समस्या जैसा खुबसरत शब्द नहीं दे सकते. पर आजकि मैं बहुत खुश हूँ. क्योंकक इस चचट्ठी के रूप में पहिी बार मेरे पास वो चीज आई हैं जजसे मैं समस्या कह सकता हूँ. आज मैं वो सारे वाक्य बोि सकता हूँ, जो मैं हमेशा
से बोिना चाहता था, पर थोड़ा र्गम्भीर होकर ……….. मैं आज …………. वैसे ये र्गम्भीर शब्द भी मुझे बहुत पसंद है. र्गंभीर क्या शब्द है …………… नहीं ……………. पर पहिे समस्या ……………. आज मैं समस्या में हूँ
………….. दुखी हूँ ……… क्योंकक आज मैं एक भयानक समस्या से तघरा हूँ ………… क्या होर्गा मेरा ……………… कहीं मैं आत्महत्या करने की तो नहीं सोच रहा हूँ ………… ओह ये समस्या है. कहाूँ है मेरा चाक.

हो र्गया ……………. अब समस्या, नहीं ……… नहीं ………… समस्या को अभी जाने दो. आपको मेरी समस्या अभी समझ में नहीं आयेर्गी. आप कहें र्गे ये भी कोई समस्या हैं ? पर भैया मेरे लिए समस्या है. इसलिए अभी समस्या
नहीं पहिे पहिी वािी बात. िड़नेवािी. आजकि मैं िड़ रहा हूँ. मैं अभी भी िड़ रहा हूँ. पपछिे कई ददनों से िड़ रहा हूँ. तो मुझे समझ में आया ये िड़ना मतिब अपने से िड़ना हो तो मैं बहुत पहिे शुरू कर चुका हूँ. असि में
मैंने िड़ना तब शुरू ककया था जब मेरी अकि दाड तनकिी थी. वैसे तो अकि दाड़ जजस उम्र में तनकिनी चादहए मेरी समझो कक ये दस साि बाद ही तनकिी. उसी वक्त मुझे समझ में आने िर्गा मैं एक ऐसा व्यजक्त हूँ जजसे कम
ही िोर्ग पसंद करते हैं. कम याने दो चार िोर्ग ही. उनमें से एक है मेरी माूँ. क्योंकक उसको मुझे डांटने और मुझ पर खीजने की ऐसी आदत पड़ है कक वो मेरे बर्गैर रह ही नहीं सकती. मैं जब भी कु छ करता हूँ ……………….
मतिब कु छ काम …………… उसके बाद मैं तैयार हो जाता हूँ. माूँ के अजीब से चेहरे की बनावट दे खने को, वो झुरीदार चेहरे पर और र्गाढ़ी होती झुरीयां और हाथ ऊपर करके अपने छोटे कद को पवकाि ददखाने जैसे सारे माूँ के
नृत्यों का मैं आदद हो चुका हूँ. हम दोनों एक दसरे को बहुत पसंद करते हैं.

वैसे मैं एक मामिी कद का आदमी हूँ. पर चाहूँ तो थोड़ा िम्बा ददख सकता हूँ, थोड़े कसे हुए कपड़े और रघु के हीि वािे जते पहनकर. कु छ िोर्ग कहते हैं कक मैं रघु के जते और िाि वािी चुस्त टी शटक पहनकर जब तनकिता हूँ
तो ठीक ही ददखता हूँ. मैं हमेशा हर काम ठीक ही करता हूँ, और ये सब जानते हैं. जब स्कि में ररजल्ट आता था तो माूँ से पछो तो कहती थी हाूँ ठीक ही रहा उसका ररजल्ट. मैं ठीक ठाक पैदा हुआ- ठीक ठाक पिा बढ़ा, असि में
मैं हमेशा एक बबद है उसी पे रहता हूँ. जो अच्छे और बरे के एकदम ठीक बीच में होता है. जजसे आप शन्य और मैं ठीक कहता हूँ. एक बार तो स्कि की किके ट टीम के चयन के लिए मुझे टीम में िे या ना िे इस पर दो घंटे की
बहस हुई. पर पहिी बार मैंने अपने आप को महत्वपणक समझा. बहस में आधे िोर्ग कह रहे थे कक इसे िे सकते हैं ये बुरा नहीं खेिता. आधे िोर्ग कह रहे थे कक इसे ना िें क्योंकक ये अच्छा भी नहीं खेि ता. मैंने अन्त में जवाब
ददया – सर सर मैं ठीक ही खेिता हूँ. ककसी के समझ में नहीं आया अरे उनको शब्द नहीं लमि रहा था कक मैं कै सा खेिता हूँ. जब मैंने बताया कक वो शब्द ठीक है – मैं ठीक ही खेिता हूँ. तो सब मुझपर बरस पड़े कहने िर्गे ठीक
क्या होता है – ठीक क्या होता है – ठीक कु छ नहीं होता है. तब से आज तक मैंने लसफक किके ट खेिते हुए ही िोर्गों को दखा है. मेरे शरीर को दे खकर बड़े से बड़ा आदमी धोखा खा सकता है. कई तो ये भी सोचते होर्गें कक ये तो दौड़
भी नहीं सकता. तब मैं सबको आश्चयक में डाि दे ता हूँ – जब कोई भी खेि चाहे वो नया हो या पुंराना – मैं ठीक खेि के ददखा दे ता हूँ. पर समस्या यहीं से शुरू होती है. मैं उस बबन्दु के आर्गे बढ़ ही नहीं पाता हूँ. मैं पहिे ददन ही
ठीक पे पहुंच जाता हूँ और सािों खेिने के बाद भी ठीक पर ही रहता हूँ.

माूँ बताती है कक जब मैं छोटा था तो बहु त मोटा था. िोर्ग कहते थे कक पैदा होते ही अपने बाप को खा र्गया इसलिए मोटा है. मुझे जब भी ये बात याद आती है तो मैं बहुत हंसता हूँ. अपने बाप को खािं – र्गपर ………. र्गपर
……….. और हुप्प ………. मोटा हो जाउं ………………. कफर अचानक मैं दुबिा होता र्गया उसका कारण भी माूँ बताती है ………….. छोटे में मैंने ररन साबुन खा लिया था – बबस्कु ट समझकर. चाट र्गया था ……… चप्पड
…………… चप्पड़ ………. जब थोड़ी ही दर चिा था और चधप्प चर्गर पड़ा. तब माूँ की समझ में आया कक मैं बेहोश हो र्गया हूँ. माूँ बताती है. उसी समय उन्होंने मदर इजडडया कफल्म दे खी थी . उन्होंने मुझे र्गोद में उठाया और
अस्पताि की ओर भार्ग िी. मैंने मदर इजडडया कफल्म नहीं दे खी पर माूँ भार्गी क्यों …….. असि में मेरी माूँ …… माूँ की भलमका एक बार जी भर के तनभाना चाहती थी सो उन्होंने तनभाई. १.५ ककिोमीटर मुझ जैसे ताजे मोटे बच्चे
को िेकर भार्गना. माूँ पसीने पसीने हो र्गई. डॉक्टर के पास पहुंची तो डॉक्टर ने माूँ को डांट ददया. डॉक्टर ने कहा – भार्गने की वजह से आपके बेटे ने जो ररन साबुन खाया था, वो अब झार्ग बनके चारों तरफ से तनकि रहा है. माूँ
बताती है कक डॉक्टर ने दो मग्र्गे पानी तनकािा था पीठ में से. कफर डॉक्टर ने बताया कक एहततयात बरतना – बहुत कमजोर हो र्गया है. कई सािों तक इसका ख्याि रखना होर्गा. जब तक १० साि का न हो जाए सर पर चोट नहीं
आनी चादहए – वर्गैरह.

शायद कपडे धोने के साबुन से ही मेरी अकि दाड़ दे र से तनकिी. अच्छा ककसी को कै से पता चिता है कक उसमें अकि आ र्गई ? क्योंकक ये कोई बल्ब तो है नहीं कक बटन दबाओ और कह दो कक अरे िाईट आ र्गई – अरे अकि
आ र्गई. कै से पता चिता है ?? ये प्रश्न एक ददन पुडलिक ने मुझे पछा. मुझे िर्गा वो मेरी अकि दे खना चाहता है मैं डर र्गया. मैंने ज्यदा सोचा नहीं, सोचत तो उसे िर्गता कक मेरे पास अकि ही नहीं है. बस थोड़ी दे र में मैंने कहा
अर्गर आपको पुराना ककया चततयापा िर्गने िर्गे ना तो समझो आपको अकि आ र्गई. वो हंस ददया. मुझे िर्गा मैंने कु छ र्गित कहा. मैंने जल्दी में आर्गे जोड़ ददया और उसका एहसास आपको दाढ के यहाूँ कहीं पीछे कोने मे होता है
– ओह ! मैंने अपने जीवन में इतना शमकनाक पहिे कभी महसस नहीं ककया था. पर वो हंसा – और हंसा …… इतना हंसा कक मैं पसीने पसीने हो र्गया और कफर उसने अपना जवाब सुनाया – बाप रे बाप क्या जवाब था. एक-एक
शब्द पहिवान का घस
ं ा था जो मेरे मख्र ददमार्ग पे पड़ रहा था – धम धम धम.

वो करीब दो घंटे िर्गातार बोिता रहा अब मैं दो घंटे तो नहीं बोि सकता सो मैं आपको मुख्य बातें बता दे त ा हूँ उसने कहा था

(कपवता)

फि ने जुजम्बश को तेरी
तेरी मेरी यहीं कहानी
समझ की भंवरा आया
समझ कक दाड़ में था ददक
दाूँत से हाथ तनकिते ही
ददक के मारे पैर बजे
छन छन छन छन छन
छन छन छन छन छन
िेककन तेरे ददि ने मेरे
साइककि के पदहये पर बैठा
पदहया पंक्चर, अकि लसकन्दर
घुटना ददमार्ग जब भी चिता
पंखे सी आवाजें करता
खर खर खर खर खर
धरती का बोझ
मेंढ़क का नाती
ओंस की बंद
हाथी का दांत
अकि की दाड़
मुूँह का तनवािा
रात का चाूँ द
सुबह का सरज
जैसा तनकिा,
सारी की सारी चचड़ड़या
फर फर फर फर फर
फर फर फर फर फर

उस ददन पुंडलिक मेरे सामने से कब उठा, कब रात हुई, कब सुबह हुई मुझे कु छ पता नहीं चिा. अब मेरी जजंदर्गी का एक ही उद्देश्य रह र्गया था कक पुडलिक को कु छ ऐसा कह दं कक वो हतप्रभ रह जाए. मैं उसके माथे पर पसीना
दे खना चाहता था.

वैसे पुंडलिक भी अजीब आदमी था वो अपना जन्म ददन नहीं बनाता था. कहता था मैं पैदा नहीं प्रकट हुआ हूँ. मेरे लिए वो प्रकट ही हुआ था. वो मेरी माूँ का भाई था और एक ददन अचानक मेरे घर रहने आ र्गया. मुझे पवश्वास ही
नहीं हुआ. अरे मैं इतने सािो से अपनी माूँ को जानता हूँ क्या मेरे अिावा भी माूँ का कोई अपना हो सकता हैं? पता नहीं?? वो अपने को महान कपव कहता था और मुझे महान श्रोता. क्योकक मैं अके िा ही था पर मैं बहुत खुश था
क्योंकक उसने जब मुझे अपनी पहिी कपवता सुनाई, तब से ही उसका तो पता नहीं पर मैं महान होता र्गया. पर कपव और श्रोता का हमारा सम्बन्ध थोड़ा उल्टा था, हर कपवता सुनाने के बाद पुंडलिक मेरी तारीफ़ करने िर्गता था.
क्योंकक उसको मेरे चेहरे का हतप्रभ भाव बहुत पसंद था. मेरे पास तो वैसे भी भावों की काफी क़मी थी पर ये ऐसा भाव था जजसे मैं पुंड़लिक के सामने सबसे ज्यादा चचपका दे ता था. क्योंकक उसकी सौ में से नब्बे बातें मेरी समझ में
आती नहीं थी और जों थोड़ी बहुत समझ में आती थी, उसे बोिने में मैं डर जाता था.

पुंडलिक वैसे तो कई बार मेरे सामने रोया था. उसको कु छ दुख था पता नहीं क्या पर कु छ था. िेककन जब भी वो मेरे सामने रोता था ना तो मुझे बड़ी हूँसी आती थी. मुझे िर्गता था कक पुंडलिक को अपना रोना बहुत शमकनाक
िर्गता है वो अपने रोने को अजीब तरीके से दबाता था. पुरे शरीर को पवशेष मुद्रा में कड़क करके अपने मुंह को बंदरों जैसा बबचकाता रहता था और एक अजीब सी तीखी आवाज तनकािता था ………….. ई …………. ई …… ई
…….. वो अपनी माूँ को बहुत चाहता था कहता था मैं अन्त तक उसके साथ रहा. मेरी माूँ शायद अपनी माूँ को नहीं चाहती थी. पता नहीं पर पुडलिक ने मुझे ऐसा कहा था. माूँ को चाहना – मैं आज तक नहीं समझ पाया कक माूँ
को चाहना क्या होता है. जब मैं मेरी माूँ को दे खता था तो वो तो मुझे एक सखी िकड़ी के समान औरत ददखती थी जो चुपचान घर में ढं ढ़-ढं ढ़ के काम तनकािती थी. अजीब िर्गता है ना कई सािों से एक ही घर में िर्गातार काम
करते जाना मुझे तो कभी कभी िर्गता था कक ये घर- घर नहीं है – एक नांव है ….. जजसमें जर्गह जर्गह पर र्गड्ढ़े हैं मेरी माूँ उस नाव के बीच में मग्र्गा िेके बैठी है. जजससे वो िर्गातार पानी को बाहर फेंक रही है.

(चींदटयां ददखती है, वो चीदटयों के साथ खेिता है, और कफर उठता है)

पुंडलिक कहता था कक तेरी माूँ बहुत आिसी है रे ! अरे ये क्या कह ददया उसने. वो हमेशा ही ऐसा कु छ बोि के चिा जाता था. मैं सोचता रहता था. धीरे -धीरे मुझे समझ में आया …. मदर इंड़डया वािी घटना को छोड़ के मुझे िर्गा
कक मेरी माूँ सचमुच आिसी है. ये बात मेरे नामकरण से लसद्ध होती है. अब बोलिये उन्होंने मेरा नाम राज रखा जो भारत में हर दसरे आदमी का होता है. और ऊपर से स्कि में दाखखिा ददिाते वक्त माूँ का वात्सल्य जार्गा और
उन्होंने राज को आर्गे बढ़ाकर राजकु मार कर ददया. माूँ बताती है कक दाखखिे को फामक भरते वक्त वो स्कि क्िकक मेरी तरफ देखकर बहुत हंस रहा था. माूँ को िर्गा दोष मेरी शकि का है. वैसे मेरे ख्याि से हर आदमी को अपना
नाम खुद रखने की आजादी होनी चादहए.

वैसे मेरी माूँ बड़ी रहस्यमय थी इस बात का मेरे अिावा ककसी को पता नहीं है जब मेरी माूँ अिमारी से अपना िाि ररबन तनकािती थी तब समझो की समय हो र्गया और वो उस ररबन को पहन के तनकि जाती थी. असि में
उन्हें शौक था उन्हें अके िे कफल्म दे खना बहुत अच्छा िर्गता था. कोई धालमकक कफल्म नहीं सारी रोमाूँस और मारधाड़ वािी. अब रोमाूँस का तो पता नहीं पर शायद मारधाड़ का काफी असर पड़ र्गया था उन पर. क्योंकक उम्र के साथ
साथ उनका चेहरा मदाकना होता जा रहा था. उनकी दाढ़ी मंछें तनकिने िर्गी थी और बाद बाद में वो मुझे डांटते वक्त कहती थीं – कु ते मैं तेरा खन पी जाऊंर्गी.

तभी पुंडलिक ने मुझे एक ककताब दी – मदर मैजक्सम र्गोकी की. मेरे आश्चयक का दठकाना नहीं रहा. मुझे तो अभी तक िर्गता था कक सारी माूँए ककसी तनयम के तहत एक जैसा बताकव करती हैं. पर ये – ये क्या था. पुंडलिक ने
बताया कक ये कहानी सच्ची है. मैंने सोचा ऐसी माूँ भी हो सकती है. मुझे याद आया पुंडलिक ने मुझसे कहा था कक वो अपनी माूँ को बहुत चाहता था अब बस मैं एक और माूँ के बारे में जानना चाहता था – पुंडलिक की. मैंने पछा
पुंडलिक क्या तुम्हारी माूँ भी र्गोकी की मदर जैसी है. मुझे िर्गा पुंडलिक के अदं र एक ज्वािामुखी था जो मेरे इस प्रश्न के जाते ही फ ट पड़ा. वो बोिा बोिा बोिता रहा. ऐसे ऐसे उदाहरण दे ता रहा, ऐसे ऐसे शब्दो का इस्तेमाि करता
रहा कक कहानी मुझे रोचक िर्गने िर्गी पर मेरी समझ में कु छ नहीं आया और मैंने उसी वक्त अपने ब्रह्मास्र का इस्तेमाि कर ददया ……….. हतप्रभ भाव और ये दे खकर वो कु छ धीमा हुआ और भारी आवाज में धीरे धीरे बोिा
जो मुझे समझ में आने िर्गा. उसने कहा था – माूँ के अजन्तम ददनों में मैंने पड़ना, लिखना घर से तनकिना सब बंद कर ददया. मॅं लसफक माूँ के साथ रहता था उन्हें र्गीता सुनाता था, सािों तक मैं घर से नहीं तनकिा. र्गीता सुनते
सुनते ही उनकी मृत्यु हो र्गई. वो अचानक मर र्गई. मुझे बहुत अजीब िर्गा मैं खािी हो र्गया थां मुझे कु छ समझ में नहीं आया. तभी अचानक मेरी आूँखों के सामने उनका मुस्कराता हुआ चेहरा घमने िर्गा और वो चेहरा पेड़ बन
र्गया और मैंने पेड़ के नीचे बैठकर लिखना शुरू ककया.

धप चेहरा जिा रही है


परछाई जता खा रही है
शरीर पानी फेंक रहा है
एक दरख्त पास आ रहा है
उसकी आंचि में मैं पिा हूँ
उसकी वात्सल्य की सांस पीकर
आज मैं भी हरा हूँ
आप पवश्वास नहीं करें र्गे
पर इस जंर्गि में एक पेड़ ने मुझे सींचा है
मैं इसे माूँ कहता हूँ
जब रात शोर ख चुकी होती है
जब हमारी घबराहट नींद को रात से छोटा कर दे ती है
जब हमारी कायरता सपनों में दखि दे ने िर्गती है
तब माथे पर उसकी उं र्गलियां हरकत करती हैं
और मैं सो जाता हूँ

और वो सो र्गया …………….. मैं अवाक सा बैठा रहा. अच्छा हुआ वो सो र्गया. क्योंकक मैं उसके सामने रोना नहीं चाहता था. मैं भार्ग कर उसके कमरे से बाहर तनकि आया और मुझे वो ददखी. सखी-सी िकड़ी के समान औरत
जजसका चेहरा मदाकना होता जा रहा था जो हाथ में मग्र्गा लिये पानी बाहर फेंक रही थी. मैं उपर से नीचे तक काूँपने िर्गा. मुझे िर्गा पहिी बार मुझे मेरी माूँ ददखी. मैं तुंरत भार्ग के उसके र्गिे िर्ग र्गया और बरबस मेरे मुूँह से
तनकि पड़ा – पेिार्गेया तनिोबना माई मदर चटाक एक आवाज हुई. मेरा सर घमने िर्गा. कई ददनों तक उसके वात्सल्य से भरे हुए उूँर्गलियों के तनशान मैं अपने र्गािों पर महसस करता रहा. पर इस घटना से मैं हारा नहीं. मैंने माूँ
को मदर कहना नहीं छोड़ा. ये अिर्ग बात हैं कक मैं मदर मन में बोिता था और उपर से माूँ बोिता था. मदर मा मदर माूँ ऐसे वैसे माूँ और मेरे बीच सारे संवाद सािों पहिे तय हो र्गये थे. ककसी भी घटना का उन संवादों पर कु छ
असर नहीं हुआ था.

पुंडलिक ने एक बार कहा था कक तुझमें और तेरे र्गाूँव में कोई अंतर नहीं है. ये कहकर वो चि ददया. मेरी समझ में नहीं आया ये क्या कह ददया उसने ? मैं सोचता रहा काफी समय बाद मेरी समझ में आया ये तो सच है. दरअसि
मेरा र्गाूँव र्गाूँव ही नहीं था और ना ही परी तरह शहर था. यहाूँ के िोर्ग ना तो बहुत अमीर थे और ना ही भखे मर रहे थे. ये इतना महत्वपणक नहीं था कक दे श के नक्शे में इसका जजि हो और ऐसा भी नहीं है कक ये है ही नहीं यहाूँ
के िोर्ग कु छ करना नहीं चाहते पर सभी अन्त में कु छ ना कु छ कर ही िेते हैं. यहाूँ सब कु छ ठीक ठीक चिता है मेरी तरह – ठीक! पुंडलिक कहता है कक ये र्गाूँव ऐसा िर्गता है कक छटे हुए िोर्गों से बसा है जैसे रे त का ट्रक चिते
हुए काफी रे त पीछे छोड़ जाता है ना वैसे ही रे त के समान छटे हुए िोर्ग इकट्ठे होकर ये र्गाूँव बन र्गए.

मेरा र्गाूँव हाईवे और जंर्गि के ठीक बीच में था. पर मेरा घर हाईवे के ककनारे था. सड़क के उस तरफ एक ढाबा था. जहाूँ अजीब सी शक्ि के िोर्ग हंसते और चचल्िाते हुए खाना खाते थे. िर्गता था कक आदलमयों की आवाजें उनकी
ना होकर र्गाड़ड़यों की आवाजें हो र्गई है. वैसे मैं ददन में सड़क के उस तरफ कम ही जाता था. मेरा तो काम सुबह ५ बजे का होता था. मैं मैं असि में ट्रक के पीछे कु छ लिखने जाता था. मुझे बस इतना पता है कक ये सारे ट्रक परे
दे श में हर र्गाूँव हर शहर में जर्गह जर्गह जाते हैं. मैं ट्रकों के पीछे छोटे छोटे अक्षरों में चॉक से कु छ लिख दे ता था. ककसके लिए पता नहीं. पर मेरे लिये ये अंतररक्ष में संदेश भेजने जैसा था. मुझे परा पवश्वास था कोई राज
राजकु मार छोट, बंटी, चचंटं , राके श जैसा साधारण नाम वािा साधारण आदमी मेरी तरह सुबह पाूँच बजे उठकर मेरा संदेश पढ़ रहा हे. क्योंकक मेरा सारा लिखा हुआ मेरे पास कभी वापस नहीं आता था. इसका मतिब कोई है जो मेरी
बातों को पढ़कर लमटा दे त ा है जजससे कोई दसरा ना पड़ सके . हमारी दोस्ती काफी बढ़ र्गई थी. मैं अब अपनी सारी बातें उसे कह दे ता था पर संक्षेप में – घुमा कफरा कर चािाकी से. कहीं कोई दसरा इसे पढ़कर हंसे ना और कहीं
पुलिस घर पे आ र्गई तो – क्योंकक मैंने तो इसमें रघु, माूँ, पुंडलिक राधे सभी की र्गोपनीय बातें लिख दी थीं. िेककन मैं बहुत चािाक था पुलिस को कु छ पता नहीं चिता क्योंकक बहुत पहिे मैंने ट्रक पर लिख ददया था. दोस्त अब से
पुंडलिक = कपव, रघु = हीरो, राधे = र्गाूँधी की िाठी, माूँ = मग्र्गेवािी औरत.

वैसे पाूँच बजे उठने के मेरे दो मकसद होते थे. पहिा ट्रक पर संदेश और दसरा राधे से मुिाकात क्योंकक राधे रोज सुबह पाूँच बजे मेरे घर के सामने आता था उसका नाम राधे है भी कक नहीं ये भी मुझे मािम नहीं. क्योंकक जब भी
वो मुझे दे खता था तो राधे-राधे कहताथा और मैं भी जवाब में उसे राधे राधे कहता था. असि में हम दोनों एक दसरे के लिए राधे थे. राधे को मैं सोने वािा बढ़ा कहता था. क्योंकक वो सोना बीनने का काम करता था असि में
हमारे घर में दो सोने चांदी की छोटी सी दुकानें थी. जजसका ककराया हमें लमिता था. राधे रोज अपनी छोटी सी िोहे के दाूँतवािी झाडं िेकर आता था और सोना बीनता था. सोना बीनते वक्त वो एक सफे द पोटिी जैसा हो जाता
था. जो मेरी आूँखों के सामने िुढ़कती रहती थी .काम करते वक्त वो एकदम चुप रहता था. लसफक उसकी सांसें िेने की आवाजें मुझे सुनाई दे ती थी.

राधे को मैं सािों से जानता था मुझे िर्गता था कक वो ककसी एक उम्र पर अटक र्गया है शायद उसके आर्गे बढ़ने की र्गुंजाईश ही नहीं होती. वो सािों से बढ़ा था मुझे पवश्वास ही नहीं होता है कक राधे कभी बच्चा भी होर्गा. वो र्गाूँव
से बाहर एक ही बार र्गया था और वो उसकी पहिी और अंततम यारा थी. वो र्गाूँधीजी को दे खने – लसफक दे खने ने साबरमती आश्रम र्गया था – यह उसके जीवन की एकमार उपिजब्ध थी जजसे वो अब तक ५० से ज्यादा बार सुना
चुका है. हर बार जब वो र्गाूँधीजी से मुिाकात कीघटिना सुनाता है तो र्गाूँधीजी हर कहानी में राधेअस अिर्ग अिर्ग बात कहते थे – कई बार र्गाूँधी जी ने लसफर्ग गक नमस्ते कहा और राधे िौट आया. और कठक बार राधे र्गाूँधीजी के साथ
खाना खा चुका है …. कई बार र्गाूँधीजी उससे कु छ कहना चाहते थे पर रराधे को र्गाूँव वापस आने की की जल्दी थी ….. और एक बार तो र्गाूँधीजी ने राधे से कहा कक राधे – मैं बहुत थक चुका हूँ राधे अब तुम र्गाूँधी बन जाओ.

सोना बीनते वक्त मैं राधे से कम ही बोिता था पर एक बार मैंने कहा राधे तुम सोना क्यों बीनते हो, तो राधे ने जवाब ददया कक वो मरने के पहिे एक बार वैष्णोदे वी माूँ के दशकन करना चाहता है. मैंने पछा ककतने पैसे चादहए तुम्हें
वैष्णोदे वी जाने के लिए. उसने कहा कम से कम हजार तो िर्गें र्गे ही. मैंने कहा तो तुम्हारे पास हजार रूपये नहीं है. राधे ने कहा है ना ………… अरे ये क्या बात थी मुझे बड़ा अजीब िर्गा. मैंने कहा जब तुम माूँ के दशकन करना
चाहते हो और तु म्हारे पास पैसे भी है तो जाते क्यों नहीं ……………… राधे चुप हो र्गया …………… ये चुप्पी अजीब थी सो मैंने भी टोका नहीं ……………….. राधे ने धीरे से कहा …………………

र्गाूँधीजी से लमिने के कु छ समय बाद र्गाूँधीजी की मृत्यु हो र्गई थीतब मुझे बहुत दुख हुआ . हमारे र्गाूँव में र्गाूँधी पाकक और उनकी पत्थर की मततक स्थापना हुई, मुझे िर्गा र्गाूँधीजी ने जरूर मरते वक्त कहा हो कक मेरी मततक राधे के
र्गाूँव
में जरूर िर्गाना ….. मैं घंटों उनकी मततक के सामने खड़ा रहता था, र्गाूँधीजी भी मेरी तरफ घंटों दे खते रहते थे. मुझे िर्गा वो मुझसे कु छ कहना चाहते हैं …………. पर चंकक पाकक में बहुत भीड़ होती है इसलिए कु छ कह नहीं
पा रहे हैं. ……. कफर एक रात वो मेरे सपने में आए . ……… असि में वो नहीं आये, उन्होंने ही मुझे अपने आश्रम में बुिा लिया ………. मैंने दे खा र्गाूँधीजी और बहुत सारी भीड़ है उन्होंने मुझे दे खा और बोिा राधे …………. मैंने
प्रणाम ककया उन्होंने मुझे सीने से िर्गा लिया और धीरे से कान में बोिे ……… बेटा मैं नहीं जा पाया पर त एक बार वैष्णो दे वी जी चिा जा माूँ से लमि आ मैं दं र्ग रह र्गया ये र्गाूँधीजी मुझसे क्या कह रहे हैं? मैंने र्गाूँधीजी की
तरफ दे खा तो दे खता क्या हूँ ? र्गाूँधीजी कबतर बन र्गये और उड़ने िर्गे ……… अचानक नींद खुि र्गई सुबह होते ही मैं तुरत र्गाूँधीजी से लमिने र्गाूँधी पाकक र्गया तो दे खा वही कबतर र्गाूँधीजी के सर पर बैठा है
………………………. सपना सच्चा था ………………. एकदम सच्चा …………. उस वक्त तक मैं एक बार ही र्गाूँव के बाहर र्गया था सो बहुत डरा हुआ था. बहुत कोलशश की पर उस वक्त मैं जा नहीं पाया और अब जाना भी
नहीं चाहता …….. क्योंकक मैंने अपना परा जीवन चाहे जैसा भी हो एक ही आशा में जजया है कक एक ददन मैं वैष्णव दे वी जाउंर्गा ………… जरूर जाउं र्गा और अब अर्गर मैं चिा र्गया तो कफर मैं ये सारे ददन कै से बबताउं र्गा. जजस
आशा में मैं जजया हूँ. वो आशा पिते-पिते बड़ी हो र्गई है मेरे बेटे जैसी. अब इस उम्र में मैं अपने बेटे की हत्या तो नहीं कर सकता ना.

चींदटयां ददखती है, वो चींदटयां के साथ खेिता है और कफर उठता है.

मुझे याद है कक र्गाूँधीजी के बारे में मैंने अपने स्कि में पढ़ा था हमारे मा-साब. र्गाूँव में टीचर को मा-साब कहते हैं. बड़े नीरस ढं र्ग से र्गाूँधीजी के बारे में बताते थे. ना मा-साब को र्गाूँधीजी के बारे में बताने में और ना ही हमको
र्गाूँधीजी के बारे में सुनने में मजा आता था और मुझे तो बबल्कु ि भी नहीं .क्योंकक तब तक मैं रघु के पवशाि और चमकदार संसार में प्रवेश कर चुका था. रघु…. रघु ……… रघु ………… रघु नहीं था वो एक चमत्कार था. वो
बहुत खबसरत था उससे सब डरते थे क्योंकक पहिे तो उसके पपताजी पुलिस थे जो तबादिे की वजह से हमारे र्गाूँव में आ र्गये और दसरा परे र्गाूँव में रघु ही था जो अंर्गेगरजी में थोड़ा बहुत बोि िेता था. हमारे स्कि के मा-साब
भी उससे डरते थे. क्योंकक उसकी अंग्रज
े ी का हमारे दहंदी के मास्टरों के पास कोई जवाब नहीं था. मेरे लिए रघु कक्षा ९ से कक्षा ११ तक कृ ष्ण था जजसकी बांसुरी पर मेरे जैसी कई र्गायें रघु के आर्गे पीछे मंडराती थी मेरे लिए वो
दहरण, बब्बर शेर और घोड़े का अजीब लमश्रण था. वो हमेशा क्िास में िेट आता था और उसके आने के पहिे वो नहीं उसकी आवाज आती थी. घोड़े जैसी टप ……….. टप …………. टप………….. ये उसके हीि वािे िम्बे जते थे.
जैसे ही वो क्िास के दरवाजे पर प्रकट होता था तो उसके बब्बर शेर जैसे बािों को दे खकर मा-साब अपनी कु सी छोड़ दे ते थे. वो एकदम चुस्त कपड़े पहनता था. वो बहुत अिर्ग था परा र्गाूँव एक तरफ औश्र रघु एक तरफ वो बहुत
रं र्गीन था. और वो भारतीय नहीं ककसी पवदे शी भर्गवान को मानता था, जजसकी तस्वीर उसने अपने घर मेंंं चारों तरफ िर्गा के रखी थी. बार -बार वो कहता था “वो भर्गवान है, वो भर्गवान है, वो भर्गवान है! एक बार वो कह रहा था
उसके भर्गवान में फु ती है कक वो जब सोने जाते हैं ना तो जैसे ही बटन बंद करते हैं तो बल्ब बाद में बुझता है पहिे वो सो जाते हैं. एक ददन भीड़ में र्गाय जैसी आवाज तनकािकर मैंने रघु से पछा – रघु कौनसा धमक चिाते हैं
तुम्हारे भर्गवान. वो हंसा बहुत हंसा काफी दे र हंसने के बाद उसने अंग्रेजी में एक शब्द कहा मेरी समझ में नहीं आया. मेरा और रघु का ररश्ता कृ ष्ण और उसकी र्गाय जैसा ही था. हम दोनों ने कभी सीधे एक दसरे से बात नहीं की
थी. मेरी दहम्मत ही नहीं होती थी. मैंने अपने ट्रक वािे दोस्त से रघु के बारे में बहुत सारी लिखी थीं. मैं उस वक्त घर लसफक सोने जाता था. खाना पीना भि चुका था. मैं बस मैं बस रघु का पीछा ककया करता था. उसके पास एक
अजीब सी खबसरत िाि रं र्ग की साइककि थी. जब वो अपने हीि वािे जते और िाि चुस्त टी शटक पहनकर साइककि चिाता था क्या ददखता था. मैं उसके पीछे भार्गता रहता था. उसकी साइककि की घंटी की आवाज सुनने. जब
वो अपनी साइककि खड़ी करके कहीं जाता था तो मैं धीरे से उसकी साइककि की घंटी बजा दे ता था. क्या आवाज थी उसकी घंटी की. हमारे र्गाूँव की साइककिों जैसी नहीं जो टन टन बजती थी. उसकी घंटी तो दट्रंर्ग दट्रंर्ग बजती थी.
पर एक ददन उसने स्कि में घोषणा कर दी कक वो र्गाूँव छोड़कर जा रहा है. क्योंकक उसके पपताजी का तबादिा शहर हो र्गया है. मैं उसी वक्त क्िास में रो ददया और धीरे से नहीं जोर से चचल्िा चच ल्िा कर और कहता रहा – नहीं
रघु नहीं तुम मुझे छोड़ के नहीं जा सकते. तुम मेरे साथ ऐसा कै से कर सकते हो ? नहीं – नहीं जब मैं चुप हुआ तो परी क्िास मेरे उपर हंस रही थी. मैं बदाकश् त नहीं कर पाया. मैं उठा और क्िास से तनकि र्गया. पर जाते वक्त
एक बार मैं रघु का चेहरा दे खना चाहता था – कहीं वो भी मेरे उपर नहीं हंस रहा है. पर मेरी दहम्मत नहीं हुई मुझे अपना ककया बहुत बुरा और शमकनाक िर्गने िर्गा. सुबह-सुबह उठा तो राधे से लिपटकर खब रोया. राधे ने मुझे
समझाया और कहा – कोई बात नहीं ऐसा तो होता है रोते नहीं. जब मैं भी र्गाूँधीजी से पवदा िे रहा था तो वो भी मेरा जाना बदाकश्त नहीं कर पाये. उनकी आूँखों में आंस थे. मतिब वो समझ ही नहीं रहा है कक मैं क्या कहना चाह
रहा हूँ. तब पहिी बार मैं राधे पर नाराज हुआ और उठकर सड़क के उस तरफ चिा र्गया और एक ट्रक के पास घंटों खड़ा रहा.

मैंने स्कि जाना छोड़ ददया. कु छ ददनों बाद एक हविदार घर पर आया. मैं घबरा र्गया उसने माूँ से पछा राजकु मार है. मेरे ददमार्ग में सीधे अपनी ट्रक वािी र्गिती याद आई. मैंने सोचा पकड़ा र्गया. अब सबको पता िर्ग जाएर्गा कक
मैं उन सबके बारे में क्या सोचता हूँ. मुझे जेि में जाने का डर नहीं था िेककन ये कल्पना ही अपने आप में बहुत डरावनी है कक सबको पता िर्ग जाए कक आप सब के बारे में क्या सोचते हैं? ये सबके सामने नंर्गा होने जैसा है. मैं
डरते हुए उस हविदार के सामने र्गया. मैंने कहा – जी मैं ही राजकु मार हूँ. वो हंसा – उसने मुझे एक बैर्ग ददया और कहा – ये रघु साहब जाने से पहिे आपको दे ने को कह र्गये थे – अच्छा नमस्ते. चिा र्गया. मैंने बैर्ग खोिा तो
दे खता क्या हूँ उसमें रघु के हीि वािे जते थे और उसके भर्गवान की फोटो.

राजकुमार ब्रस िी की फोटो तनकािता है उसे दडडवत प्रणाम करता है.


रघु के जते मैं ज्यादा पहन नहीं पाया क्योंकक वो मुझे काटते थे. िेककन जब तक मेरा पैर सज नहीं र्गया मैंने उन्हें पहनना नहीं छोड़ा एक ददन पुंडलिक ने मेरा सजा हुआ पैर दे खा मुझे िर्गा उसे बहुत दुख होर्गा – पछेर्गा क्या हुआ,
पर नहीं उसने कु छ नहीं पछा लसफक मेरे पैर की तरफ दे खा मुस्कु राया और पिट कर खखड़की की तरफ दे खने िर्गा. कफर धीरे से पिटा मुस्कु राया और बोिा -

जता जब काटता है तो जजं दर्गी काटना मुजश्कि हो जाता है.

और जता काटना जब बंद कर दे तो वक्त काटना मुजश्कि हो जाता है.

उस ददन पहिी बार मैंने अके िापन महसस ककया. क्योंकक यहाूँ कोई मेरे साथ नहीं रहता था. ऐसा वक्त मुझे याद नहीं जब मैं बोि रहा हूँ कोई और सुन रहा हो. ये अिर्ग बात है कक मेरे पास बोिने के लिए कु छ था ही नहीं. पर
पुंडलिक भी कभी मेरे साथ नहीं रहा हमेशा मैं ही उसके साथ रहा हूँ. राधे की र्गाूँधी की बातें अभी तक खत्म नहीं हुई थी. वहाूँ भी मैं चुप रहता था. माूँ की नाव में अभी तक पानी खत्म नहीं हुआ था. ट्रक वािा दोस्त था जजससे मैं
अपनी सारी बातें कह दे ता था. पर वहाूँ उस तरफ वो इसे पढ़ रहा है इस बात पर मुझे पहिी बार संदेह हुआ.

जते घर के कोने में कई ददनों तक पड़े रहे वो कतई घर का दहस्सा नहीं िर्गते थे. बाद में घर ने उन्हें अपना दहस्सा बना लिया और ये नेक काम मेरी माूँ ने ही ककया. उन्होंने उन िम्बे हीि वािे जतों को दो र्गमिे का रूप दे
ददया. मैं दे खता रहा. मुझे बहुत बुरा िर्गा. वो रघु के जते थे. मेरे रघु के . पर मैंने कु छ नहीं कहा. क्योंकक जो संवाद हमारे बीच पहिे ही तय हो चुके थे. मैं उन्हें अब तोड़ना नहीं चाहता था.

( चींदटयां ददखती हैं. वो चचंदटयों के साथ खेिता है और कफर उठता है )


आप को िर्ग रहा होर्गा कक मैं क्या कर रहा हूँ. मैं खेि रहा हूँ हाूँ, सच में खेि रहा हूँ एक ददन क्या हुआ कक अचानक घर पे बैठे बैठे मैंने एक रे ि दे खी चींदटयों की रे ि जो एक के पीछे एक ररद्म में चिी जा रही थी. मैं उनका
पीछा करता र्गया कु छ समझ में नहीं आया कक वो कहाूँ से आयी है और कहाूँ को जा रही है. पर वो सब एक ही िाईन में चि रही थी. मैं शक्कर के पाूँच दाने िे आया. कफर वो खेि शुरू हुआ. मैंने घर का दरवाजा बंद करके परे
बाहर को बंद कर ददया तो भीतर की दुतनया मुझे साफ़ ददखने िर्गी. अब मैंने उस रे ि के बर्गि में शक्कर के दाने जमाने शुरू ककये पहिे दो दाने पास पास तीसरा दर चौथा और दर पाूँचवा सबसे आखखर में. दो तीन चींदटयां उन
शक्कर के दानों की ओर मुड़ने िर्गी रे ि घम चुकी थी जैसे ही चींदटयां पाूँचवे दाने पर पहुंचती थी मैं शुरू के दो दाने उठा िेता था और वो पाूँचवे दाने के आर्गे रख दे ता था इस तरह मैं उन चींदटयों की रे ि को ककसी भी तरफ घुमा
दे ता था. बड़ा मजा आता था कक कोई है जो आपके इशारे पर घुम रहा है. लसफक शक्कर के पाूँच दानों पर. ये मेरा सबसे पसंदीदा खेि था जो मैं रोज खेिता था.

पुंडलिक जबसे हमारे यहाूँ आया था बहुत कम ही कहीं जाता था. कभी कभी शहर में अपने दोस्त ताराचंद जैसवाि को लमिने जाता था और एक ददन में िौट आता था. मैं उसके सामने अपना चींदटयों वािा खेि नहीं खेि पाता था
ना, मैं कभी र्गाूँव से बाहर नहीं र्गया. क्योंकक राधे ने मुझे बताया था कक र्गाूँव के बाहर बहुत खतरा है. बाहर जाकर खाना भाषा िोर्ग सब बदि जाते हैं. दे खते नहीं हमारे र्गाूँव के दोनों तरफ शहर है और उन शहरों की भीड़ कै से
हमारे र्गाूँव की सड़क पे दौड़ती रहती है. पुंडलिक जब मेरे साथ बात करता था तो मुझे िर्गता था वो राजु मेरा नाम िेकर अपने से ही बात करता है. क्योंकक मैं कभी-कभी उठकर चिा जाता था और जब वापपस आता था तो
दे खता था पुंडलिक अभी भी राज नाम िे िेकर बात कर रहा है. वो अजीब से अके िेपन का लशकार था. ये मैंने नहीं सोचा उसी को खुद से कहते हुए सुना है. एक बार वो एक अजीब सी चीज खुद को पढ़कर सुना रहा था – एक
कु ता अपनी ही दुम को काटने की कोलशश करता है. तब एक तरह का कु ता – चिवात शुरू होता है. जो तभी खत्म होता हैजब इस तफान से कु ता कु ते के रूप में तनकि आता है. खािीपन – ये कु ता मेरी और मैं उसकी आूँखों में
दे खता हूँ.

पुंडलिक बताता है कक वो घोपषत कपव हुआ करता था. उसने हर तरह की कपवता लिखने की कोलशश की ददक भरी रोमाूँस वािी, बच्चों पर, पयाकवरण पर, पत्थर पर, फि पर पर ककसी ने कौडी तक को नहीं पछा. बाद बाद में तो िोर्ग
उसे दे खकर भार्गने िर्गते थे. पुंडलिक चचल्िाकर कहता था. नहीं भाई अब मैं कोई कपवता नहीं सुनाउंर्गा. पर कोई भी नहीं रूकता था. जो िोर्ग रूक जाते थे पुंडलिक उन्हें घुमाररफराकर एक कपवता सुना दे ता था. पुंडलिक बताता है
कक िोर्ग उसका मजाब उडड़ाने िर्गत थे. जजस घर में वो घुसता था. वहाूँ से ची,ंा पुकार की आवाजें िोर्गों को बाहर तक सुनाई दे ती थीं पुंडलिक ने बच्चों पर भी कपवताएं लिखही थसाी. सो मोहल्िे में बचें ने खेिना बंद कर ददया
था. हर बच्चा पुंडलिक नाम से डरता थ .िोर्ग उसके घर पर सब्जी, ककराना सब पहुंचा दे ते थो क्योंकक कोई भी आदमी ककसी भी बहाने से पुंडलिक की कोई भी कपवता नहीं सुनना चाहता था छापना तो दर की बात. आजकि
पुंडलिक की कोई भी कपवता नहीं सुनना चाहता था. छापना तो दर की बात. आजकि पुंडलिक अपनी कपवताएूँ सुना कर मेरी तारीफ नहीं करता था बजल्क र्गुस्सा हो जाता था. एक बार कपवता सुनाने के बाद उसने पछा – क्यों
कपवता अच्छी नहीं िर्गी तुम्हें ? मैंने कहा – नहीं अच्छी थी. उसने कहा – तो कफर र्गुस्से में क्यों दे ख रहे हो ………. अरे अजीब बात है. उसी ने मुझसे कहा था कक मैं तुझे र्गम्भीर श्रोता बनाना चाहता हूँ. वैसे भी आपको पता ही है
कक र्गम्भीर शब्द मुझे ककतना पसंद है. र्गम्भीर क्या शब्द है. पर भैय्या जब आप हतप्रभ भाव पर थोड़ा र्गम्भीर भाव िाने की कोलशश करते हैं तो आपका चेहरा थोड़ा ऐसा ददखने िर्गता है. पर मैं र्गम्भीर होने की परी कोलशश करता
था.

( चींदटयां ददखती हैं, वो चींदटयां के साथ खेिता है और कफर उठता है )


एक ददन जब मैं अपना चींदटयों वािा खेि खेि रहा था. तब अचानक मुझे िर्गना िर्गा कक मैं चींटी हो र्गया हूँ. मुझे अजीब िर्गने िर्गा. मुझे िर्गा कक कहीं खेिते खेिते मेरी अकि भी चींदटंयों जैसी तो नहीं हो र्गई. तभी मेरी
नजर शक्कर के दानों पर पड़ी. तो दे खता क्या हूँ, कक वो शक्कर के दाने, दाने ना होकर रघु, पुंडलिक, राधे, माूँ और मेरा ट्रक वािा दोस्त हो र्गये हैं. और मैं उनके पीछे भार्गने िर्गा. इसका मतिब ये हुआ कक कोई है जो कोई है जो
मेरे साथ खेि रहा है. जबकक मैं खेि नहीं रहा हूँ. जैसा कक मै चींदटयों के साथ खेिता हूँ, जबकक चींदटयां मेरे साथ नहीं खेि रही होती है. क्या पता शायद चींदटयां भी ककसी के साथ खेि रही हो, जबकक वो चींदटयों के साथ नहीं खेि
रहा हो. मतिब सभी, सभी के साथ खेि रहे हैं. इसका मतिब पुंडलिक भी मेरे साथ खेि रहा है.

अब आपको मेरी समस्या समझ में आयेर्गी ………….. समस्या ……… मेरे लिये बहुत बड़ी समस्या है जजसके लिए मैं ये सब कर रहा हूँ. ये समस्या पुंडलिक के रूप में मेरे पास आई. दरअसि पुंडलिक अपना कपवता संग्रह
छपवाना चाहता था. शहर में कोई ताराचंद जैसवाि उसका दोस्त था जो संग्रह छपवाने में पुंडलिक की मदद कर रहा था. वैसे मैंने तो उसकी सारी कपवताएूँ सुनी थी. कु छ तो इत्ती बार कक आज भी मुझे जबानी याद है. समस्या की
शुरूआत तब हुई जब पुंडलिक घर छोड़ के जा रहा था. जाते वक्त मैंने दे खा उसके एक हाथ में उसकी डायरी जजसमें वो कपवताएूँ लिखता था और एक खत और दसरे हाथ में मेरी माूँ की फोटो और र्गीता थी. वो ये सब िेकर मेरे
पास आया. मुझसे कहा अपने दोनों हाथ इस पर रखो और कसम खाओ …………… कसम खाओ ……… अपनी माूँ की इस र्गीता की मेरी कपवताओं की कक तुम मेरा कपवता संग्रह जरूर छपवाओर्गे. मैं कसम खाउं. इससे पहिे मैंने
दे खा कक उसने अपना सामान भी बांध लिया था. मैंने कहा – कहाूँ जा रहे हो पुंडलिक? हमारे र्गाूँव से शहर वैसे भी बहुत दर नहीं था मतिब सामान बांधने जजतना दर तो बबिकु ि भी नहीं था. मेरे सवाि का पुंडलिक ने कोई जवाब
नहीं ददया. उसकी आवाज अजीब-सी होती जा रही थी. और वो कसम खाने पर जोर दे ता रहा सो मैंने कसम खा िी. पवद्या माता की, धरती माता की, कपवताओं की कसम, र्गीता की कसम ….. और भी दो तीन कसमें मैंने जोश में
अपनी तरफ से और खा िी. मेरा क्या जाता था. कपवता संग्रह पुंडलिक का था, ताराचंद जैसवाि उसे छापने वािा था. मैं कौन था? असि में मैं कोई भी नहीं था पर मेरी एक बात समझ में नहीं आई कक पुंडलिक मुझे कसम खाने
की क्यों कह रहा है कक तुम मेरा कपवता संग्रह छपवाना. असि में कसम खा कर मैं इस चक्कर में परी तरह से फं स चुका था. कसम की रसम परी होते ही पुंडलिक का चेहरा खखि उठा. उसने माूँ की फोटो और र्गीता एक कोने में
फेंक दी. और अपना सामान उठाकर तनकि र्गया. दरवाजे पर पहुंचकार उसे ध्यान आया कक मैंने उससे कु छ पछा था – कहाूँ जा रहे हो पुंडलिक ? वो पिटा और बोिा – पहिे शहर जाकर तारचंद जैसवाि को ये कपवताएूँ और ये
चचट्ठी दं र्गा जजसमें मैंने इन कपवताओं और तुम्हारे बारे में सब कु छ लिख ददया है. उसके बाद वहीं से सीधे तीथकयारा और कफर सन्यास ये कहकर वो मेरे र्गिे िर्ग र्गया और कान में धीरे से बोिा – मै तुम्हें कु छ दे ना चाहता था,मेरे
जाने के बाद वो तुम्हें लमि जाएर्गा. धन्यवाद. नमस्ते. और वो चिा र्गया.

कपवताओं के बारे में तो ठीक है पर मेरे बारे में चचठ्ठी में क्यों लिखा है ? मुझे वो क्या दे ना चाहता है और क्यों ?? मैने तो लसफक उसकी कपवताऐं सुनी थी और आधी से ज्यादा तो समझ में भी नहीं आई. अर्गर सुनने वािे का
चचठ्ठी पवठ्ठी में जजि होता तो मुझे कोई आपपत्त नहीं थी, पर एैसा नहीं था मैं परी तरह फं स चुका था। कै से पुंडलिक ने मुझे इस समस्या में फं साया इसका पता कु छ ददन पहिे आई ताराचंद जैसवाि की चचठ्ठी से िर्गा. मतिब
पुंडलिक मेरे साथ ऐसा कै से कर सकता है, मुझे यकीन नहीं हुआ. मैं मानता हूँ मैं बहुत उपयोर्गी आदमी नहीं हंंं, पर मेरा उपयोर्ग कोई ऐसे कर सकता है इसका पवश्रवास मुझे नहीं हुआ. पता है पुंडलिक ने मेरे साथ क्या ककया?
ताराचं द जैसवाि की चचठ्ठी में क्या लिखा था? ? ये रही उनकी चचठ्ठी. वैसे चचठ्ठी तो काफी बड़ी है. पर मुख्य बातें आपको सुना दे ता हूँ। (पढ़ता है ) राजकु मार ……….. कपव हृदय महान कपव को मेरा नमस्कार. आपकी कपवताएं
पढ़कर काफी खुशी हुई. पुंडलिक आपकी कपवताओं के बारे में पहिे भी मुझे बता चुके हैं. सारे िोर्ग आपकी कपवताओं की तारीफ कर रहे हैं. अर्गिे महीने तक संग्रह छप जाएर्गा पर एक परे शानी है, संग्रह में एक कपवता कम पड़ रही
है ऐसा मैं नहीं हमारे संपादक महोदय सोचते हैं. आप तो बड़े कपव हैं इस संग्रह के बाद तो आपका नाम बड़े बड़े कपवयों के साथ लिया जाएर्गा. कृ पया कर एक कपवता जल्द से जल्द भेजने का कष्ट करें . मेरी बेटी आपकी कपवताओं
की दीवानी है. शादी करने के बारे में क्या पवचार है आपका ? पुंडलिक आपकी काफी तारीफ़ करता था दशकन कब होंर्गे. संग्रह में आप अपना नाम राजकु मार ही लिखेंर्गे या कोई उपनाम भी जोड़ेंर्गे. बता दीजजएर्गा. आपका अपना
ताराचं द जैसवाि.

मतिब अब समस्या एक भयानक रूप िे चुकी है मैंने कसम क्यों खाई. अब पछता रहा हूँ कसम की छोड़ो मैं तो खुद चाहता हूँ कक पुंडलिक का कपवता संग्रह छपे. मर्गर इस तरह से ……….. नहीं … मैंने क्या क्या नहीं ककया, मैं
कई ददनों से पुंडलिक की ककताबों की तिाशी िे रहा हूँ. कक कहीं वो चार िाईन – दो िाईन – एक िाईन लिखी छोड़ र्गया हो. पर कहीं कु छ नहीं लमिा. कफर मैंने पेन उठा लिया और पुंडलिक की तरह सोचते हुए लिखना शुरू ककया
…………….. खर-खर, फर-फर, छर-छर ……… मैं इसके आर्गे बढ़ ही नहीं पाया ……………. असि में मेरे जीवन में ऐसा कु छ हुआ ही नहीं ……… जजसके बारे में मैं लिखं या जजससे िडं. मुझे सब कु छ याद है जो अभी तक हुआ
है पर यकीन मातनये – वो कु छ नहीं हुआ जैसा है. जैसा कक पुंडलिक कहता था कक कपवता लिखने के लिए जरूरी है अपने जीवन अपने अनुभवों को याद करके , उनसे िड़के , उनका सामना करके जो बात कही या लिखी जाए वही
कपवता है. वाह ………. वाह ……….. ना तो ये बात मुझे तब समझ आयी थी ना अब समझ में आती है. मतिब कु श्ती अब समझ में आ जाती है पर कपवता अभी भी मेरे लिए आश्चयक है. क्या िड़ना ……………. ककससे िड़ना
…………….. भीतर की खुदाई ये मेरे समझ के परे की बात तब भी थी अब भी है. पर अब मेरे पास दसरा कोई चारा नहीं. मुझे ये काम अब करना ही है. पर ऐसा नहीं है मैं लिखना शुरू कर चुका हूँ. चार ददन पहिे ही मैंने वो
खत जो ताराचं द जैसवाि को मुझे भेजना है उसकी शुरूआत और अन्त लिख ददया है. (पढ़ता है)

शुरूआत – नमस्कार ताराचंद जी. नमस्ते. कै से हैं आप ? मैं ठीक हूँ. आप अच्छे होंर्गे. मेरी कपवता तनम्नानुसार है -

अंत – उपयुकक्त कपवता ठीक है. मैं भी ठीक ह.ूँ र्गिती माफ़ ये कपवता भेजने के बाद मैं ये घर, ये र्गाूँव , ये शहर, ये दे श छोड़कर जा रहा हूँ. मेरा पीछा करने की कोलशश मत करना. कपवता संग्रह जरूर छापना, आपको कसम है.
आपका आज्ञाकारी कपव राजकु मार “र्गम्भीर”.

र्गम्भीर ……………….. र्गम्भीर ………………… शब्द मैंने जोड़ ददया वैसे तो मुझे समस्या शब्द भी अच्छा िर्गता है पर कपव राजकु मार समस्या र्गम्भीर ये नाम शायद अच्छा नहीं होर्गा. सो मैंने समस्या तनकाि ददया. कपव
राजकु मार र्गम्भीर नाम ठीक है. इतना काम मैंने तो कर ददया – कपवता कै से लिखं ? लिखना ही है सभी रास्ते बंद है सीधी िम्बी सड़क है. छु पने के लिए कोई पर्गडंडी, र्गिी, कु चा कु छ भी नही है. सो मुझे आर्गे बढ़ना है और
लिखना है. अर्गर एक कसम खाई होती तो कसम से मैं वो कसम शायद तोड़ भी दे ता. पर जोश में खाई हुई सारी कसमें अब भत बनकर मेरे ही पीछे पड़ र्गईं. अरे र्गाूँधीजी मेरी रक्षा करो, ओ भर्गवान मेरी रक्षा करो ……… नहीं
नहीं मेरी रक्षा ये नहीं कर सकते. एक कपव ही कपव की रक्षा कर सकता है. अब लसफक पुंडलिक ही मुझे बचा सकता है. उसने कहा थज्ञा कक अपने से िड़ो सो मैं िड़ रहा हूँ.

पुंडलिक ने जब मुझे अपनी माूँ के बारे में बताया कक कै से उनके अंततम ददनों में उसने उनकी सेवा की तो मैं भी कल्पना करने िर्गा कक मैं माूँ के अंततम ददनों में माूँ के लिए क्या क्या करूंर्गा. सबसे पहिे तो मैं उनका मग्र्गा उनके
हाथ से छीनकर कहीं दर फेंक आऊंर्गा. और एक बार अपने हाथों से उन्हें िाि ररबन पहना कर कफल्म ददखाने िे जाउंर्गा. क्योंकक मेरी बड़ी इच्छा थी ये दे खने की कक माूँ कफल्म कै से दे खती होंर्गी. कै से दटकट की िाईन में िर्गती
होर्गी. इन्टरवि में क्या करती होर्गी और उनके िाि ररबन का कफल्म दे खने से क्या ताल्िुक है. पर मेरी ये सारी इच्छाएूँ, इच्छाएूँ ही रह र्गई. क्योंकक एक सुबह जब मैं उठा तो दे खा माूँ अपने पिंर्ग पर नहीं थी वो दरवाजे के पास
जमीन पर औंधी पड़ी थी और उनके बािों में िाि ररबन बंधा हुआ था. मैंने कहा माूँ – माूँ पर वो उठी नहीं कफर मैंने मदर भी बोिा पर वो दहिी भी नहीं. मैं डर र्गया. मैं पुंडलिक को उठाने र्गया पर उसके पहिे मैंने माूँ के बािों से
िाि ररबन तनकािकर अपनी जेब में रख लिया. मैं नहीं चाहता था कक उनकी कफल्म दे खनेवािी बात ककसी और को पता चिे. पुंडलिक आया. उसने घोषणा कर दी कक तैयारी कर िो तेरी माूँ मर र्गई. ऐसा कै से हो र्गया – कौनसी
तैयारी और ये संभव कै से हो सकता है. मुझे दुख नहीं आश्चयक हो रहा था क्योंकक मुझे अपनी नहीं चचन्ता इस घर की थी. क्या ये घर कु छ नहीं कहेर्गा. क्योंकक माूँ हमारे साथ नहीं इस घर के साथ रहती थी. शायद घर को पहिे
खत्म होना चादहए था. शायद इसलिए माूँ पिंर्ग पे नहीं नीचे जमीन पर घर की र्गोद में मरी थी. तैयारी कर िो कहकर पुंडलिक चिा र्गया. मुझे अके िा माूँ के साथ छोड़ के . मैं क्या करता ? मैंने उन्हें पिटाया उनके सर के नीचे
एक तककया रखा और उनकी सखी कड़क दे ह को दे खने िर्गा ………………. इसी ने मुझे पैदा ककया है – अजीब िर्गता है ना. पुंडलिक अथी का सामान और कु छ िोर्गों को िेकर आया. मैं रो नहीं रहा था पर सभी िोर्ग मुझसे कह
रहे थे. घबराओं नहीं ऐसा होता है – सब ठीक हो जाएर्गा वर्गैरह वर्गैरह. कफर मेरा लसर मुंडवाया र्गया और मैंने माूँ को अजग्न दी. मैं अपनी माूँ को जिते हुए दे ख रहा था. अचानक िकड़ड़यों के बीच मुझे उनका हाथ ददखा. मुझे िर्गा
वो अपना मग्र्गा माूँर्ग रही है. मेरी इच्छा हुई कक उनका मग्र्गा िाकर उनके हाथों में पकड़ा दं या कम से कम अपनी जेब से िाि ररबन तनकािकर उनकी चचता में ही डाि दं . पर मेरी दहम्मत नहीं हुई. मैं चुपचाप उनका जिना
दे खता रहा. वो जिती हुई िकड़ड़यों के बीच मेरी माूँ है जो जि रही है. जब मैं घर िौट रहा था तो िर्गा शायद घर नहीं होर्गा. वो चर्गर चुका होर्गा या कहीं न कहीं कोई दरार तो जरूर पड़ी होर्गी. पर ऐसा कु छ नहीं था. सब कु छ
सामान्य था.

धप चेहरा जिा रही है


परछाई जता खा रही है
शरीर पानी फेंक रहा है
एक दरख्त पास आ रहा है
उसकी आंचि में मैं पिा हूँ
उसकी वात्सल्य की साूँस पीकर
आज मैं भी हरा हूँ.
आप पवश्वास नहीं करें र्गे
पर इस जंर्गि में एक पेड़ ने मुझे सींचा है.
मैं इसे माूँ कहता हूँ.

आजकि राधे काफी उदास रहता था. वो अपना काफी समय र्गाूँधी पाकक में र्गाूँधीजी के साथ बबताता था. कहता था आजकि वो और र्गाूँधीजी काफी बातें करते हैं. पर र्गाूँधीजी ने मेरी बात समझकर मुझे माफ भी कर ददया अब
र्गाूँधीजी वैष्णोदे वी जाने की जजद कम ही करते हैं. पर वो उदास था क्योंकक आजकि इस र्गाूँव में वैष्णोदे वी जाने का मौसम था. िोर्ग वैष्णोदे वी जा रहे थे वहाूँ से िौट के आ रहे थे पर िोर्ग राधे को भर्गा दे ते थे. राधे का भी
एकददन अचानक आना बंद हो र्गया था. घर के सामने धि ही धि जमा हो र्गई थी. राधे आ नहीं रहा था मुझे िर्गा इस धि में राधे का ककतना सारा सोना बबखरा पड़ा होर्गा. मैंने झाड िर्गाकर वो सारी धि इक्ट्ठी कर िी सोचा
जब राधे आयेर्गा तो ये सारी धि उसे दे दर्गा. वो बहु त खुश होर्गा. पर राधे नहीं आया. कफर अचानक एक ददन वो आ र्गया मैंने पछा राधे कहाूँ थे इतने ददनों? वो कु छ नहीं बोिा – चुपचाप बैठा रहा. मैंने कहा मैं र्गाूँधी पाकक भी र्गया
था. तुमको दे खने पर तुम वहाूँ भी नहीं ददखे तब भी वो चुप रहा. शायद वो जवाब नहीं दे ना चाहता था. सो मैं भी चुपचाप बैठा रहा. और मैंने जो इतने ददनों से धि जमा करके रखी थी उसे िेने से भी राधे ने मना कर ददया.
उसने कहा कक अब ये मेरे ककसी काम की नहीं है. ये कहते ही वो एक सफे द पोटिी बन र्गया और मेरे सामने िुढ़कने िर्गा. जब राधे इतने ददनों नहीं आया था तब मैंने पहिी बार अपने जीवन में ककसी का ना होना महसस ककया
था. वैसे तो पुंडलिक भी चिा र्गया था माूँ भी नहीं रही. पर उनके जाने के बाद उनका ना होना मैंने कभी महसस नहीं ककया. जब तक राधे नहीं आया था मुझे ऐसा िर्ग रहा था मानो मेरे अंदर इतनी खािी जर्गह छट र्गई है कक
मुझे अपनी ही आवाज र्गंजती हुई सुनाई दे रही थी.

बस यही है जो है. इसके अिावा मेरे जीवन में ऐसा कु छ नहीं हुआ है. जजसका जजि ककया जा सके . कु छ छु टपुट बातें और है जैसे एक कु ता घर के पपछवाड़े रोज मुझसे लमिने आने िर्गा. मैं भी शाम को उसके साथ समय बबताने
िर्गा. अभी कु छ ही ददन हुए थे. मैं अभी उसका नाम रखने की सोच ही रहा था कक उसने अचानक आना बंद कर ददया.

बस अब राधे है. मेरा ट्रक वािा दोस्त है और मैं हूँ. हम तीनों है और खुश हैं. िड़ाई खत्म. बस इतना ही मेरे साथ हुआ है. मतिब इतना ही हुआ है जो मुझे याद है जजसे सुनाया जा सके . पर इतने के बाद भी मेरी समझ में ये
नहीं आया इसमें ऐसा क्या है जो कपवता है . पुंडलिक कपव है कपवता नहीं है. मेरी माूँ भी मेरी माूँ ही है. वो र्गोकी की या पुंडलिक की माूँ जैसी नहीं है. मेरी माूँ के साथ घटनाएं हैं कपवता नहीं है. राधे राधे है. जो र्गाूँधी पाकक में
िर्गी र्गाूँधीजी की मततक की िाठी है. उससे ज्यादा राधे कु छ नही है. ट्रक वािा दोस्त के बारे में मैं चुप रहना ही पसंद करता हूँ . रघु मेरे लिए चमत्कार था, चमत्कार है और चमत्कार रहेर्गा वो मेरा रघु है. पर कपवता, वो तो कही नहीं
है. मैं अपने से जजतना िड़ सकता था िड़ा. ये कपवता कहाूँ छु पी है. इतनी सारी कसमें खा चुका ह.ूँ क्या होर्गा उनका ? ताराचंद जैसवाि वहाूँ इंतजार कर रहा है. मैं यहाूँ एक शब्द भी नहीं लिख पा रहा हूँ. पुंडलिक मुझे माफ कर
दे ना. मुझसे नहीं होर्गा. कसम वसम चल्हे में भसम ……………. सड़ी सुपारी बन में डािी सीताजी ने कसम उतारी. नहीं नहीं ये कु छ काम नहीं करे र्गा ये सब मैं अपने आपको बहिाने के लिए कर रहा हूँ. मैं एक तरह का खेि
अपने साथ खेि रहा हूँ. ये खेि कब तक चिेर्गा. मुझे लिखना है और मैं अभी लिखकर रहूँर्गा.

तैयार ………… अब ताराचंद जैसवाि ये रही आपकी चचट्ठी परी तरह परी. अब आपको जो समझना हो समझो.

(पढ़ता है)

शुरूआत – नमस्कार ताराचंद जी. नमस्ते. कै से हैं आप ? आप अच्छे होंर्गे. मेरी कपवता तनम्नानुसार है ……………

शक्कर के पाूँच दानें जाद है


जजनके पीछे चींदटयां भार्गती है दो दानों पर पहुंचती है
तीन आर्गे ददखती हैं. सारी चीं दटयों को बुिा िेती हैं.
पाूँचवे दाने पर पहुंच जाती है पर पीछे के दो दानों को भि जाती है
कफर वही दो दाने आर्गे लमिते हैं. वो जाद में फं स जाती है.
और घमती रहती है. ये खेि कभी खत्म नहीं होता.
क्योंकक चींदटयां तिाश रही हैं खेि नहीं रही हैं.
जादर्गर एक है जो खेि रहा है.

अंत -

उपयुकक्त कपवता ठीक है. मैं भी ठीक हूँ. र्गिती माफ, ये कपवता भेजन के बाद मैं ये घर, ये र्गाूँव , ये शहर, ये दे श छोड़कर जा रहा हूँ. मेरा पीछा करने की कोलशश मत करना. कपवता संग्रह जरूर छापना – आपको कसम है.

आपका आज्ञाकारी

कपव राजकु मार र्गम्भीर.

ठीक है न ………….. ?

( चींदटयों का खेि खेिना शुरू करता है)


ब्िैक आऊट

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