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चौरासी

( उप यास )
ड लेमर:
इस उप यास क घटनाएँ, पा इ या द पूणतया का प नक ह। कुछ वा त वक य एवं थान के नाम सफ़ क पना को
वा त वकता का पुट दे ने के लए इ तेमाल कए गए ह। इनका अ य कोई अंत न हत उद् दे य नह है।
कसी भी कार क समानता मा एक संयोग होगा।
चौरासी

स य ास
ISBN : 978-93-87464-25-4

काशक :
ह द-यु म
201 बी, पॉकेट ए, मयूर वहार फ़ेस-2, द ली-110091
मो.- 9873734046, 9968755908

आवरण डजाइन : राजेश


कला- नदशन : वज एस वज

पहला सं करण : सत बर 2018

स य ास

Chaurasi
A novel by Satya Vyas

Published By
Hind Yugm
201 B, Pocket A, Mayur Vihar Phase 2, Delhi-110091
Mob : 9873734046, 9968755908
Email : sampadak@hindyugm.com
Website : www.hindyugm.com

First Edition : Sep 2018


“…Whosoever saves the life of one; it shall be as if he has
saved the life of all mankind…”
-Qur’an, Al-Maeda / 5:32

“…वो जसने एक भी ज़दगी बचाई है, तो समझ लो क उसने संपूण मानवता क र ा क


है…”
-करान, अल-मायेदाह / 5:32
मुआफ़

यंका से: जसका व त अब उसका नह है।


सा य से: जसके पापा ख़ुद को लेखक कहते ह और महज़ दो कताब ही लख पाए ह।
माँ-पापा से: जनका बेटा दे श घूमता है और घर आना ही भूल जाता है।
दो त से: जो जानते ह क मुझे फ़ोन न उठाने क बीमारी है।
वाज़ा ग़लाम फ़रीद से: जनके जोग मने बना इजाज़त लए।
अनुपम च कारा और बॉबी सग से: जनक गु द णा म चाहकर भी नह दे सकता।
मनीष वंदेमातरम् से: जनक बात मानता तो अब तक लखना सीख गया होता।
और अंत म……
पूरी सख क़ौम से: इस उ मीद के साथ क हम मुआफ़ न मले।
News of death of Smt. Indira Gandhi reached Bokaro in the
evening of 31st October… Inspite of imposition of curfew in the
morning, several incidents have taken place. There is no dispute
that 69 sikhs were killed within a few hours. Several houses were
looted and burnt and a lot of persons were also assaulted and
received injuries.
Misra Commision Report, Chapter 12

ीमती इं दरा गाँधी क मृ यु का समाचार 31 अ टू बर क शाम को बोकारो प ँचा… सुबह


म क यू लगाए जाने के बावजूद कई घटनाएँ । यह न ववाद है क महज़ कुछ घंट के अंदर
69 सख क ह या ई। कई घर लूटे और जलाए गए तथा अनेक लोग हताहत एवं ज़ मी ए।
म ा कमीशन रपोट, अ याय 12
खवा सुनावे नग रया सखी री

कहा नय को गंभीर और अलग बनाने के ब त सारे तरीक़े हो सकते ह। एक तरीक़ा तो यह है क


कहानी कह बीच के अ याय से शु कर द जाए। आप आठव-नव प े पर जाएँ तो आपको
कहानी का सू मले। आप वशद पाठक ए तो आगे बढ़े वना चौथे-पाँचव प े पर ही कहानी र
और कताब दराज़ म चली जाए।
म ऐसा नह क ँ गा। इसके चार कारण ह। पहला तो यह क म चाहता ँ क आप यह
कहानी पढ़, दराज़ म न सजाएँ।
सरा यह क म क़ सागो नह ँ। सो, वैसी ल फ़ा ज़याँ मुझे नह आत । म एक शहर ँ
जो उसी ज़बान और उसी शैली म कहानी सुना पाएगा जो ज़बान उसके लोग ने उसे सखाई है।
तीसरा यह क ेम वयं ही पचीदा वषय है। तस पर ेम कहानी डे ढ़ पचीदा। ेम क गूढ़
और कूट बात ऐसी क य द एक भी सरा छू ट जाए या समझ न आए तो मानी ही बदल जाए।
और आ ख़री कारण यह क इस कहानी के करदार ख़ुद ही ऐसा चाहते ह क उ ह सादा
दली से पढ़ा जाए। इस लए यह ज़ री हो जाता है क इसे सादा ज़बान लखा भी जाए।
करदार के नाम पर भी कहानी म कुल जमा चार लोग ही ह। यहाँ यह बताना भी ज़ री
समझता ँ क कहानी जतनी ही सरल है, करदार उतने ही ज टल। अब मु य करदार ऋ ष को
ही ल। ऋ ष जो क पहला करदार है। 23 साल का लड़का है। बचपन म ही माँ साँप काटने से
मर गई और दो साल पहले पता बोकारो ट ल लांट म तार काटने म जाया हो गए। अपने पीछे
ऋ ष के लए एक मोटरसाइ कल और एलआईसी के कुछ काग़ज़ छोड़ गए। ऋ ष ने काग़ज़ फक
दया और मोटरसाइ कल रख ली। पछले दो साल से बला नागा बोकारो ट ल लांट के
शास नक भवन के बाहर पता क जगह अनुकंपा पर नौकरी के लए धरने पर बैठता है। मेधावी
है तो ब च को ट् यूशन पढ़ाकर ख़च नकाल लेता है। मुह ले के सारे काम म अ णी है। आप
को शश करके भी कसी काम से थक गए ह तो ऋ ष ही उसका इलाज है। मोटर, बजली बल,
चालान, जलावन क लकड़ी, कोयला, मट् ट -तेल, बजली- म ी, राज म ी इ या द सबका
पता सबका समाधान ऋ ष के पास है।
आप सोच रहे ह गे क इतना अ छा तो लड़का है। सरल, सीधा, मेधावी और कामकाजी।
फर मने इसे पचीदा य कहा? य क उसका यह चेहरा बस मोह ले के मोड़ तक ही है। मोड़
से नकलते ही ऋ ष उ छृ ं खल है। उ मु है। नबाध है। उद् दंड है। शास नक भवन पर धरने के
व त बाहर नकलते अ धका रय को जब घेर लेता है तब रोबीली आवाज़ का यह मा लक उ ह
म मयाने पर मजबूर कर दे ता है। धरने- दशन के कारण ही थानीय नेता से नकटता भी हा सल
है जसका ज़ोम न चाहते ए भी अब उसके च र का ह सा है। वह पल म तोला और पल म
माशा है। मगर इन सबके उलट बाहर महज़ आँख तरेरकर बात समझा दे ने वाले ऋ ष को अपने
मोह ले म, अपनी ग लय म भूगभ व ानी का नाम दया गया है; य क अपने मोह ले म वह
ज़मीन से नज़र ही नह उठाता। वहार का यही अंत वरोध ऋ ष को पचीदा बनाता है।
सरे करदार छाबड़ा साहब ह। छाबड़ा साहब सख ह। पता क ओर से अमृतधारी सख
और माता क ओर से पंजाबी ह । अपने घर म सबसे पढ़े - लखे भी। मसाल का ख़ानदानी
वसाय था मोगा म। अगर भाइय से खटपट नह ई होती तो कौन आना चाहता है इन पठार म
अपना ह रयाला पड छोड़कर! अपने गाँव, अपने लोग छोड़कर! याह औरत से आँगन छ नता
है और ापार मद से गाँव। बहरहाल, कमठ इंसान को या दे श या परदे स! वह हर जगह
ज़मीन बना लेता है। बोकारो शहर के बसते-बसते ही छाबड़ा साहब ने अवसर भाँप लया था और
यहाँ चले आए। थोड़ी ब त जान-पहचान से कट न का काम मल गया। पहले काम जमाया फर
भरोसा। काम अ छा चल पड़ा तो एक बना-बनाया घर ही ख़रीद लया। ऋ ष ने इनके कुछ
अटके ए पैसे नकलवा दए थे; इस लए ऋ ष को जब कमरे क ज़ रत पड़ी तो छाबड़ा साहब
ने अपना नीचे का टोरनुमा कमरा उसे रहने को दे दया। बस शत यह रखी क कराये म दे र-सबेर
भले हो जाए; घर सराय न होने पाए। अथात् बैठकबाजी और शराबनोशी बदा त नह क
जाएगी। उ ह ने अपने घर के एक कमरे म गु ंथ साहब जी का ‘परकाश’ भी कराया। बाद म
गाँव से प नी को भी ले आए। उनक बेट मनु हालाँ क तब गाँव म ही थी। वह एक साल बाद
आई।

एक साल बाद आई ‘मनु’ ही इस कहानी क धुरी है। मनजीत छाबड़ा। मनु जो मुह ले म
प-रंग का पैमाना है। मुह ले म रंग दो ही तरह का होता है- मनु से कम या मनु से यादा। आँख
भी दो तरह क - मनु से बड़ी या मनु से छोट । मु कुराहट मगर एक तरह क ही होती है- मनु जैसी
यारी। ‘आए बड़े ’ उसका त कया-कलाम है जसके ज़ रये वह वतः ही सामने वाले को अपने
तर पर ले आती है। भोली इतनी क रा ते म मरे जानवर क गध पर छाबड़ा साहब अगर साँस
बंद करने को कह तो तबतक नह खोलती जबतक वह साँस छोड़ने को न कह द। बी.ए. थम
वष क छा ा है और तयोगी परी ा क तैयारी सफ़ इस भरोसे से करती है क एक दन
ऋ ष उसे भी पढ़ाएगा। ऋ ष एक-दो बार इसके लए यह कहकर मना कर चुका है क वह कूल
के ब च को पढ़ाता है, कॉलेज के ब च को नह ।
चौथा और सबसे मह वपूण करदार यह साल है, 1984। साल जो क द तावेज़ है। साल
जो मेरी छाती पर कसी शलालेख क भाँ त खुदा है। म न भी चा ँ तो भी तारीख़ मुझे इसी साल
क बदौलत ही याद करेगी; यह म जानता ँ।
बाक़ , इसके अलावा जो भी नाम इस कताब म आएँ वे महज़ नाम ह जो कहानी के कसी
चरण म ही खो जाने ह।
अब मेरा प रचय? म शहर ँ- बोकारो। मेरे इ तहास म न जाएँ तो व त बचेगा। वैसे भी
इ तहास तो मैदानी इलाक़ का होता है जहाँ ह कुश क दरार के बरा ते परदे शी आते गए और
कभी इबारत तो कभी इमारत बनाते गए। उनके मुक़ा बल हम पठारी, लल-म टयाई ज़मीन को
कौन पूछता है? हमारी कहा नयाँ कसी दोहरे, कसी मा हये या तवारीख़ म भी नह आत ।
इसी लए हम अपनी कहानी ख़ुद ही सुनाने को अ भश त ह।
अ भश त यूँ क आज़ाद के 25 साल बाद भी 3 अ टू बर 1972 को पहला फावड़ा चलने
से पहले तक मुझे कौन जानता था! उ ोग म वकास खोजते इस दे श को मेरी सुध आई। दे श क
धानमं ी ने मेरी छाती पर पहला फावड़ा चलाया और म जंगल से औ ो गक नगर हो गया। नाम
दया गया- ‘बोकारो इ पात नगर।’ पहली दफ़ा दे श ने मेरा नाम तभी सुना।
मगर सरी दफ़ा जब दे श ने मेरा नाम सुना तो धानमं ी क ह या हो चुक थी और म
शमसार हो चुका था। म आपको अपनी कहानी सुना तो रहा ँ; ले कन मने जानबूझकर कहानी
से ख़ुद को अलग कर लया है। इसके लए मेरी कोई मजबूरी नह है। पूरे होशो-हवास म कया
गया फ़ैसला है। बस म चाहता ँ क मुझे और मेरे ःख को आप ख़ुद ढूँ ढ़ और य द ढूँ ढ़ पाएँ तो
समझ क आप के कए क सज़ा शहर को भुगतनी पड़ती है। तारीख़ कसी शहर को सरा मौक़ा
नह दे ती।
अब ख़ुद को बीच से हटाता ँ। आप करदार के हवाले ए। ब म लाह क हए!
सखी री! पया दखे कल भोर

शहर नया बसा था। शहर जो आ दवा सय को व था पत कर बसा था और इसी लए व था पत


क ‘आह’ लए बसा था। शहर जो पहले धानमं ी के सपन का भारत बना रहा था और
इस लए लोहे उगाते ए कसान को नौकरी करना सखा रहा था। चूँ क, शहर नया बसा था
इस लए सड़के कह -कह इतनी सँकरी हो गई थ क सड़क के मुहाने पर गाड़ी वाले क एक
ग़लती लंबे जाम लगा दे ती थी।
कॉलेज जाते ए ऐसी ही एक सड़क जाम म मनु का र शा भी फँसा था। उमस और
त पश से परेशान मनु ने पट् टे से मुँह बाँध रखा था य क धूल उसे उमस और गम से यादा
परेशान कर रही थी। यूँ बैठे-बैठे अचानक उसे अपनी मूखता का एहसास आ। न जाने कतनी
ही दे र से वह र शा क छतरी गराए बैठ थी और सीधी धूप को अपने शरीर पर आने दे रही थी।
ख़ुद को कोसते ए उसने छतरी जैसे ही उठानी चाही उसे ऋ ष क मोटरसाइ कल क आवाज़
सुनाई द । उसक धड़कन अचानक तेज़ हो गई। मनु ने छतरी गरी ही रहने द और तेज़ धड़कन
को संभालती ई सीधी होकर बैठ गई। ऋ ष गा ड़य के बीच से जगह बनाता आ आगे नकल
ही रहा था क मनु के र शावाले ने अगला च का दा हनी ओर घुमा दया। ऋ ष के आगे का
रा ता बंद हो गया। अचानक ेक लगने से ऋ ष असंतु लत हो गया। उसने मोटरसाइ कल रोक
और ग़ से से तमतमाते ए र शावाले क तरफ़ हाथ चला दया। र शावाला थोड़ा पीछे हट
गया जससे ऋ ष का वार ख़ाली गया। उसका ोध और बढ़ गया। उसने उतरकर र शावाले को
गरेबान से पकड़कर मारने को फर हाथ बढ़ाया ही था क मनु से रहा न गया और वह बीच म
बोल पड़ी,
“अरे! इसे य मार रहे ह! इसक या ग़लती है?” कहते ए मनु का मन ख हो गया।
सरे मोह ले क उसक दो त ने बताया था क उसका करायेदार फ़साद है। झगड़े करता रहता
है। मगर मनु कभी मानने को तैयार नह ई थी। आज जब उसने ऋ ष को ग़लत करते दे खा तो
उसके मुँह से अनायास ही नकल गया।
ऋ ष आवाज़ से पहचान तो गया क पट् टे के पीछे का यह चेहरा मनु का ही है; मगर चूँ क
वह गरेबान पकड़ चुका था इस लए अपनी ग़लती मानना भी उसे नावा जब लगा। उसने गरेबान
छोड़ते ए अहमकाना-सा तक दया,
“ र शा ऐसे खड़ी करते ह या?”
“नह जी! वैसे खड़ी करते ह जैसे उन साहब ने कार खड़ी कर रखी है और जाम लगा रखा
है।” मनु ने सामने खड़ी कार क तरफ़ इशारा कया जसने सँकरी गली म कार घुसाकर जाम
लगा दया था। मनु ने ऋ ष क ओर दे खा और फर चुप बैठ गई।
“ फर भी, ये को शश करता तो रा ता नकल जाता।” ऋ ष ने शम चबाते ए कहा।
“आप ही को शश कर द जए ना! रा ता दख रहा हो तो! कार वाल को दे खकर तो
आवाज़ नह खुलती, ग़रीब पर जाने कैसे हाथ खुल जाते ह। आए बड़े !” मनु ख़ुद म ही
भुनभुनाई; मगर उसका वर इतना तेज़ तो था ही क ऋ ष सुन सके।
ऋ ष ने सुना। तंज़ नागवार गुज़रा था। उसने मोटरसाइकल वह सड़क के बीचोबीच टड
पर खड़ी क । अपने क़त क बाँह चढ़ाई और र शे का हडल थाम लया। मनु इस एहसास से भी
कोस र थी क ऋ ष उसके तंज़ पर र शा ही ख च लेगा। उसने जैसे ही एक हाथ से हडल
और सरे हाथ से सीट पकड़कर र शा आगे बढ़ाया मनु असुंत लत होकर हचकोले खा गई और
फर र शे पर ही संयत हो गई। ऋ ष ने र शा आगे बढ़ाया। र शावाले को इशारे से ही अपनी
मोटरसाइ कल का यान रखने को कहा और आवाज़ क हाँक से जगह बनाते ए आगे बढ़ने
लगा। मनु जब तक कुछ समझ पाती तब तक ऋ ष र शे को आधी री तक ख च चुका था। मनु
के मन के कसी कोने म डर बैठ गया। उसे पता था क आज कॉलेज म कहानी बन जाएगी।
सहे लयाँ चुहल करगी और शोहदे तंज़ मारगे; मगर वह पहली दफ़ा ऋ ष को इतने नज़द क से
दे ख रही थी। वह ख़ुश थी और इस ण र शे क सीट पर जमे ऋ ष के हाथ क अँगू ठय के
नग पहचानने म म न थी। यह लालवाला प थर कौन-सा है? मूंगा या गोमेद! मूंगा तो काफ़
महँगा होता है न! और इ ह ने बीच क उँगली म पहना है, मतलब ज़ र गोमेद है। मनु सोचती
रही। उसक सोच पर वराम तब लगा जब उसने एक थ पड़ क ज़ोरदार आवाज़ सुनी। उसक
तं ा टू ट और उसने दे खा क कार क चालक सीट पर बैठा लड़का अपने गाल पकड़े बैठा है।
“ जस उ म कार मली न, उस उ म मार मली होती तो तुम साले गाड़ी पाक करना सीख
गए होते! भाग, नह तो यह नील-डाउन करवाएँगे!” मनु ने कार के आगे बढ़ते व त ऋ ष के
मुँह से यही सुना। जाम एक थ पड़ का ही मेहमान था। फ़ौरन छँ ट गया।
“दे खो, जाम खुल गया।” आगे बढ़ने के बाद ऋ ष र शा ख चते ए बोला।
“जी, तो अब या कॉलेज तक छोड़गे?” मनु ने पट् टे के पीछे से छलक आई मु कुराहट
रोकते ए कहा।
मनु क यह बात सुनकर ऋ ष झप गया। उसे दरअसल अब एहसास आ क उसने तैश म
आकर या कर दया है। उसने फ़ौरन र शे का हडल छोड़ दया। हाथ झाड़े और हाथ के ही
इशारे से र शेवाले को बुलाया जो बेचारा उसक मोटरसाइ कल क नगरानी कर रहा था।
र शेवाले ने आकर र शा थाम लया। ऋ ष ने मोड़ी ई आ तीन खोलते ए जाने से पहले एक
नज़र मनु को दे खा और अपनी मोटरसाइ कल क ओर बढ़ गया। र शा भी आगे क ओर बढ़
चली। मनु राह भर ही नह , रात भर मु कुराती रही।
मनु ने जाना क ेम साइत दे खकर ारंभ नह होता।

* साइत- मंगल-बेला
सखी री, पयु नह जानत ेम

सुबह का व त ऋ ष के बाहर नकल जाने का होता था। वह सुबह-सुबह ही अपनी


मोटरसाइ कल से नकल जाता था और लगातार के तीन-चार ट् यूशन ख़ म कर क़रीब बारह बजे
कमरे पर आता था। यह उसका रोज़ का ही नयम था जो इतवार को छोड़कर शायद ही कभी टू टा
हो।
नयम तो दन भर बजली के रहने का भी था। मगर उस रोज़ न जाने कौन-सी वप
ांसफामर पर टू ट थी क दन भर बजली नह आनी थी। जब बजली ही नह आनी थी तो
मोटर से पानी ऊपर नह चढ़ना था। पीने के पानी क द क़त तो नह थी, मगर बतन-बासन के
लए पानी नह था। मनु इस बात से परेशान होकर कई दफ़ा बजली वभाग क नाश को पीट
और करम को जला चुक थी; मगर गा लय से पानी का कोई संबंध नह था। वह तो उसे नीचे से
ही लाना था।
ऋ ष के बाथ म म चापाकल लगा आ था। उसी चापाकल से बतन-बासन के लए पानी
लाने क बात मनु ने सोची और छोट वाली बा ट म चापाकल से पानी भर लाई। मगर दो बार
बा ट से पानी ऊपर-नीचे प ँचाने म मनु थककर टू ट गई। चैत क उमस और बा ट लेकर
सी ढ़याँ चढ़ने के कारण वह पसीने से सराबोर हो गई। उसे नहाने क ज़ रत महसूस ई ले कन
पानी क क़ लत ने उसे दो-चार गा लयाँ और याद करने पर मजबूर कया।
इसी कुढ़न के बीच अचानक ही उसे ख़याल आया क वह नीचे भी तो नहा सकती है। समय
ही कतना लगेगा? हद से यादा पाँच-सात मनट। फर अभी तो 10 ही बजे ह; ऋ ष के लौटने
म अभी तो दो घंटे ह।
मनु ने फ़ौरन अपने कपड़े उठाए और नीचे चली आई। उसने ग़सलख़ाने का क ड़य वाला
साँकल लगा दया और तेज़ी से चापाकल चलाकर बा ट भरने लगी। ज दबाज़ी म नहाते ए दो
मग पानी डालते ही उसे यान आया क वह साबुन तो ले आई है, मगर शपू लाना भूल गई। पहले
उसने सोचा क आज वह बग़ैर शपू ही नहा ले। फर जाने या सूझा, उसने उठकर बाथ म म
लकड़ी के त ते पर रखे सामान पर एक सरसरी नगाह डाली। हरे साबुन क ट कया, लेड के
टु कड़े , दाढ़ बनाने का श, आँवला तेल क शीशी और पीले शपू क बोतल। त ते पर कुल जमा
यही सामान थे। मगर उसके काम का सामान तो शपू ही था। शपू म से अगर दस बूँद नकाल ही
ली जाए तो या फ़क़ पड़े गा! यही सोचकर उसने शपू का ढ कन खोल दया और एक झटके से
ही शपू क बोतल अपने हाथ म उड़े ल ली। उसे उ मीद थी क गाढ़ा शपू बूँद-बूँदकर उसक
हथे लय पर गरेगा। मगर यह या! उसके शपू उलटते ही सारा-का-सारा उसके हाथ पर गर
गया। वह डर गई। उसे लगा क शपू क बोतल म पानी मलाकर रखा गया था जैसा क वह भी
शपू ख़ म हो जाने क थ त म करती है। मगर अचानक फैली गंध ने यह बताया क यह पानी
नह था। यह शराब थी। सारी-क -सारी शराब ज़मीन पर गरकर मोरी क ओर चली गई थी।
उ सुकतावश मनु अपने हाथ को अपनी नाक के पास ले गई और फर भय से काँप गई। शराब!
यह तो शराब है! तो या ऋ ष शराब पीता है? पीता ही होगा! ऐसे-ऐसे दो त ह उसके। मगर इस
तरह छु पाकर य ? उसे टोकने वाला कौन है? पापाजी के डर से शायद। पापाजी को पता चल
जावे तो घर से न नकाल द। वह सोचती गई। कहा नयाँ, क़ से, बात और अफ़वाह जो कुछ भी
वह ऋ ष के बारे म सुनती रही है; सोचती गई और इसी सोच म वह यह बात भूल गई क वह
अपने घर म नह ब क ऋ ष के ग़सलख़ाने म नहा रही है। समय ेम लख रहा था।
समय जब ेम लखता है तो होनी बदलती जाती ह और अवसर बनते जाते ह। होनी के
अनुसार बजली रहनी थी और मनु को ऊपर नहाना था। अवसर यह बना क बजली नह थी
और मनु नीचे नहा रही थी। होना यह था क मनु को शपू लेकर आना था और अवसर यह बना
क मनु अपना शपू भूल गई। होना यह भी था क मनु को अब फ़ौरन नहाकर नकल जाना था।
अवसर यह बना क वह शराब क कहानी अंजुरी म बची शराब लए जड़वत खड़ी सोचती रही।
और होना यह भी था क ऋ ष को 10 बजे वाली ट् यूशन पढ़ाने के लए उकरीद मुह ले क
ओर जाना था; मगर अवसर यह बना क दस बजे के ट् यूशन के बरा ते ही ऋ ष क
मोटरसाइ कल पंचर हो गई। वह गाड़ी मैके नक को दे कर पैसे लेने घर लौटा। धूप और दे र तक
पैदल चलने क वजह से वह पसीने से सराबोर था। इस लए उसने कमरा खोलने से पहले हाथ-
मुँह धोना उ चत समझा और इसी म म ग़सलख़ाने के दरवाज़े को एक ज़ोरदार ध का दया।
क ड़य वाला साँकल ज़ोर का ध का सह नह पाया और…
दरवाज़ा खुल गया। ऋ ष को अपने सोच क सीमा तक ऐसी कसी घटना का अंदाज़ा नह
था। मनु को अंदाज़ा था; मगर वह इस ण म तैयार नह थी। वह तो शराब के व ेषण म खोई
थी। एक ण को दोन अवाक् रहे और सरे ण से भी कम समय म कुछ बात एकसाथ -
“म मी जी!” मनु भय से च लाई।
ऋ ष ने महज़ आवाज़ सुनकर चेहरा सरी ओर घुमा लया और मनु ने भीतर से दरवाज़ा
अपनी पीठ क ओट से बंद कर दया।
अगले ही ण एक और बात ई। ऊपर से मनु क माँ च लाई, “क होया?”
ऋ ष तो जैसे महीन बफ़ म गड़ा हो; वैसे सु हो गया था। उसक तरफ़ से कोई आवाज
आनी भी नह थी। अगली आवाज़ मनु क ही आई,
“कुछ नह म मी जी, छछू ं दर सी।”
“ते तू थ ले क करद प ए? छे ती उ े आ। मुंडे नु आन दा व होन वाला ए।” माँ क र
जाती आवाज़ सुनाई द । माँ नीचे नह आ रही थ । ऋ ष को राहत क साँस मली। उसे लगा क
बला टल गई। मगर असली बला तो भीतर थी और कपड़े पहनने के साथ-साथ मु कुरा भी रही
थी।
“आपको शम नह आती!” जबरन ग़ से का अ भनय करती एक आवाज़ भीतर से आई।
“दे खो, मतलब दे खए। नह -नह , मतलब सु नए। मुझे ब कुल भी मालूम नह था क
कोई…।” ऋ ष ने अधूरी बात म ही अपनी पूरी बात क । जब भीतर से कोई जवाब नह आया तो
ऋ ष को लगा क उसे ग़लत मान लया गया है। उसने सफ़ाइयाँ दे नी शु कर द ।
“म ऐसा ँ नह जैसा तुम समझ रही होगी।”
“वो टायर पं चर… हो… गया… था।”
“साँकल भी तो ठ क से… लगाना… चा हए… था।”
“वैसे मने कुछ नह दे खा।”
“मेरी कोई ग़लती नह है।” ऋ ष ने भया ांत होकर बे सर-पैर क बात क ।
“ग़लती तो आपक शपू क बोतल म बंद है।” आवाज़ फर चंचल ई। ऋ ष अब र र हत
हो गया। वह कुछ ण सकते म रहा और जब बोला तो बस इतना ही बोल पाया,
“दे खो, कसी से कुछ कहना नह ।”
“एक शत है जी।” भीतर से आवाज़ फर बदमाश ई।
“ या?” ऋ ष ने पूछा।
“आप मुझे भी पढ़ाएँगे।” मनु ने सवाल नह कया था; सीधी शत रखी थी। शत भी ऐसे
व त जसे मानने के सवा ऋ ष के पास कोई चारा नह था।
“ठ क है।” ऋ ष ने कहा और चुप हो गया।
मोह ले म और दो त म भी ऐसा कोई नह था जो ऋ ष को शत दे सके और चुप भी करा
सके। मनु ने यह दोन काम एक साथ कर दए थे। ऋ ष बहरहाल चुपचाप खड़ा था।
“आप पहरेदारी करते रहगे तो म बाहर नह नकल पाऊँगी।” चुहल भरी आवाज़ फर
ऋ ष के कान म आई। वह फर श मदा आ।
“जाता ँ।” कहता आ वह पीछे मुड़कर कमरे का ताला खोलने लगा। ऋ ष के आँख का
‘शम’ चुपके से अपने कमरे म दा ख़ल हो गया। मनु के आँख का ‘ ेम’ कुछ ण बाद ही ह ठ
पर मु कुराहट और हाथ म कपड़े क गठ रयाँ लए ए दबे पाँव सी ढ़याँ चढ़ गया।
मनु ने महसूस कया क ेम दबे पाँव ही सर चढ़ता है।
म कर आई ठठोल सखी री

ट् यूशन का आज पहला दन था। ऋ ष आया। उसने च पल बाहर पाँवपोश पर उतारे और क़रीने


से सोफ़े पर बैठ गया। मनु क माँ आ । उ ह ने एक गलास पानी और चार ब कट एक लेट म
रख दए। पढ़ाई से उ ह कुछ ख़ास जुड़ाव न था। इस लए वह सरे कमरे म चली ग । ऋ ष ने
एक ब कट उठाई ही थी क सीने पर कताब और मुँह म पेन दबाए मनु आती दखाई द । ऋ ष
ने उसे दे खते ही ब कट वापस लेट म रख द । मनु को यह दे खकर फर हँसी आ गई। उसने
अपनी मु कुराहट छपाई और टे बल के सरी ओर बाँस क बनी कुस पर बैठ गई।
“ कस…?” ऋ ष ने थूक घ टते ए बात शु ही क थी क इतने पर ही मनु ने टोक दया।
“ कस? म मी जी!” मनु ने बनावट डर दखाते ए माँ को पुकारा। अथ का अनथ
नकलते दे ख और म मी जी क पुकार से ऋ ष और घबरा गया।
“क होया?” सरे कमरे से आवाज़ माँ क आई।
“पानी मैनँ ू वी।” मनु को बात बदलनी ही थी; बदल द और सवा लया नज़र से ऋ ष को
दे खने लगी।
“ले-ले उठ के।” माँ क आवाज़ आई जससे मनु को कोई मतलब ही नह था। उसे तो
मतलब ऋ ष के जवाब से था।
“मेरा मतलब है कस अ याय से शु कर?” ऋ ष ने ब त ही दबी ज़बान म कहा।
“ कस अ याय। इसका भी कोई अ याय होता है या ट चर सर? मुझे तो लगा क आप
हद पढ़ाएँगे।” मनु ने बंद मुट् ठ क टे क पर अपनी ठोढ़ ठहराते ए कहा।
“मेरे कहने का अथ है क कहाँ से शु कर?” कहते ही ऋ ष को फर अपनी बात के ग़लत
होने का अंदाज़ हो गया। वह भी झप से उबर ही पाता क मु कुराहट दबाते ए मनु ने कहा,
“आप ब कट से शु क जए, ट चर सर।” कहते ए मनु ने ब कट क लेट आगे
खसका द ।
“आपको पढ़ना या है?” ऋ ष ने अब ढ ठाई से सीधा मुद द् े क बात क ।
“हाँ, अब पूछ सही बात। तब से जाने या- या कह रहे थे। सब कुछ पढ़ना है ट चर सर।
सामा य ान क तो हालत गंभीर है।” मनु ने चेहरे पर चता लाते ए कहा।
“जैसे?”
“जैसे अब आप रोग को ही ले लो। कतने तो रोग ह। दस दफ़ा रट गई। मगर जब सेट
लगाने बैठती ँ तो क टाणु, जीवाणु, वषाणु सब गड् ड-मड् ड हो जाता है।” मनु ने कहा।
मनु क चता सही थी। वह क टाणु और वषाणु वाले रोग म मत हो जाती थी।
“यह तो सचमुच बड़ी सम या है। यह तब भी नह सुलझ पाई थी जब ‘नीटा’ ने ‘अ य’
को काट लया था।” ऋ ष ने सोफ़े पर ज़रा पीछे हटते ए कहा।
“मतलब?” मनु ने पेन का पछला कोना चबाते ए पूछा।
“मतलब ये क पछले साल ही तीन साल क ब ची ‘नीटा’ ने अपने भाई ‘अ य’ को दाँत
से काट लया तो उसके चाचा उसे डॉ टर के पास ले जाने क जगह च लाने लगे,
“नीटा काट है अ य को, मे ड सन लाओ! नीटा काट है अ य को, मे ड सन लाओ! या
च लाने लगे?” ऋ ष ने पूछा।
“नीटा काट है अ य को, मे ड सन लाओ।” मनु ने असमंजस म घरते ए भी हराया।
“ब त अ छे ।” ऋ ष ने कहा।
“ फर या आ!” मनु को कहानी म च आ रही थी।
“ फर? फर तु ह जीवाणु वाले रोग याद हो गए।”
“कैसे?” मनु ने आ य से पूछा।
“एक बार फर से हराओ।” ऋ ष ने कहा।
“ या हराऊँ?” मनु व मत ई।
“वही जो चाचा ने कहा था।” ऋ ष ने एक भेद भरी मु कान बखेरते ए कहा।
“चाचा ने कहा क नीटा काट है अ य को, मे ड सन लाओ।” मनु ने हरा दया।
“ब ढ़या! अब दे खो-
नी से नमो नया।
टा से टायफाइड
का से कालाजार
ट से टटनस
है से हैजा
अ य से य रोग
को से कोलेरा
मे से मे ननजाइ टस
डी से ड थी रया
सी से सफ लस।
ये सारे बै ट रया वाले रोग ह जो तु ह याद हो गए।” ऋ ष ने इस आ त से कहा जैसे
कोई ब चे को जा क तरक ब बताता है।
“ओ तेरी क !” मनु का मुँह अ व ास से खुल गया जसपर उसने हथेली रख ली। उसके
लए यह सचमुच ही कसी चम कार सरीखा था। उसने इस तरह से पढ़ाई के बारे म सोचा ही नह
था। उसने दो-तीन बार ख़ुद म ही वह लाइन हराई और आ त हो गई क उसे याद हो गया है।
इसी बीच बैठे-बैठे ऋ ष ने जब उसक कॉपी पलटनी शु क तो उसके चेहरे पर मु कान
तैरती गई। उसने दे खा क कॉपी म दो-चार प के बाद नय मत अंतराल पर फ़ मी गीत, मा हये
और पंजाबी लोकगीत लखे ए ह। फ़ मी गीत म जहाँ लाइन के हराव ह वहाँ 2 लखा है।
गीत के ारंभ के आलाप क जगह आ-आ-आ-आ भी लखा दे ख उससे हँसी नह क ।
उसको मु कुराते दे ख मनु को एहसास आ क ऋ ष ने उसक पढ़ाई दे ख ली है। मनु ने कॉपी
छ नते ए फ़ौरन ही कहा,
“ये तो बै टे रया वाले हो गए। अब वायरस वाले कैसे याद ह गे?”
“उसके लए एक लेखक का नाम याद करो- पो े चेखव।”
“पो े चेखव, पो े चेखव, पो े चेखव।” मनु ने तीन बार रटते ए कहा-
“याद हो आया। अब?”
“अब सुनो-
पो से पो लयो
े से े कोमा
चे से चेचक
और ख से खसरा
ये सारे तु हारे वषाणु वाले रोग हो गए।” ऋ ष ने क़लम के पछले भाग को मेज़ पर
खटखटाते ए बताया।
“वाहेगु ! इ ा आसान! और म इ े साल से रटती-भूलती आ रही थी।” कहते ए मनु के
भाव ऐसे थे जैसे वह बात को लेकर कतनी गंभीर हो। ऋ ष भी यही समझ रहा था। तबतक
जबतक मनु ने अगला सवाल नह कर दया,
“ट चर सर, शराब पीने से कौन-सा रोग होता है?”
सवाल ऋ ष को थोड़ा वच लत तो कर गया। मगर फर भी वह अभी तक मनु के अ भ ाय
को नह समझ पाया था। उसने कहा,
“लीवर संबंधी रोग। गुद ख़राब हो जाते ह।”
“ओह! हाँ अ छा। और शपू पीने से?” कहते व त मनु ने गंभीर रहने क को शश तो क
मगर उसक आँख मु कुरा उठ । ऋ ष असहज हो गया। वह अब उसक बात का मतलब समझा।
मनु क बदमा शयाँ समझने म उसे थोड़ा व त तो लगना था। वह दो त म उ छृ ं खल ज़ र था;
मगर लड़ कय से बात करने क मुखरता उसम नह थी। पढ़ाई भी उसने लड़क के कूल से पाई
थी और फर मनु से मनु के घर म जीत पाना असंभव से ज़रा भी कम नह था। इस लए ऐसी
थ त म महज़ मु कुराकर उठ जाना उसके लए सबसे आसान रा ता था।
“कल आएँगे न ट चर सर?” मनु ने क़लम का ढ कन मुँह म दबाए ए ही कहा। ऋ ष
जवाब म बस मु कुरा दया। ऋ ष बना जवाब दए घूम गया। मनु बना जवाब सुने भी झूम गई।
मनु ने सीखा क मु कुराहट सीधी याददा त म घर बना लेती ह। उ ह रटकर ज़ेहन म
बठाना नह पड़ता।

ऋ ष को ट् यूशन पढ़ाते लगभग एक महीना हो गया था। उसे एहसास तो था क मनु क पढ़ाई म
नह ब क उसके सामी य म च है और यह ट् यूशन उसी सामी य का बहाना भर है। ऋ ष
वषय ही मनु का था। उसक छे ड़ म ही मनु को आनंद आता था। वह उसके साथ होने मा से ही
पूण हो जाती थी। ऋ ष पढ़ाता रहता और वह कॉपी पर मछ लयाँ, तत लयाँ, प याँ, बादल,
आकाश इ या द बनाती रहती। कभी-कभी तो पेन चबाते ए खल खला उठती। पूछने पर ‘कुछ
नह ’ के अलावा कुछ नह कहती। कभी वह क़लम क न क टू ट जाने का बहाना करती तो कभी
र तेदार क शा दय क कहा नयाँ सुनाने लगती। बौ ंथ के नाम याद करते व त आ पाली
से लेकर वैजयंतीमाला बाली तक प ँच जाती। ऋ ष ने उसे पढ़ने पर दो-एक बार स ती से कहा
था; मगर ऐसा करने पर वह या तो ठे ठ पंजाबी म कुछ भुनभुना जाती जो ऋ ष के समझ से बाहर
क चीज़ होती या फर शपू-शपू क रट लगा दे ती। ऋ ष से गाँव-घर क बात पूछती। झड़के जाने
पर बुरा-सा मुँह बनाकर फर कॉपी म सर घुसा लेती।
ऋ ष को असहज करने वाले सवाल क पूरी सूची उसके पास रहती थी। आज भी उसका
सवाल पहले से तैयार था जस कारण वह मन-ही-मन हँसे जाती थी। उसे पता था क ऋ ष ऐसे
सवाल पर वच लत हो ही जाता है और उसके चेहरे क हवाइयाँ दे खकर मनु को एक अजीब-सा
सुकून आता था। वह केवल उस चेहरे के भाव के सहारे पूरी रात आँख म काट सकती थी।
“ट चर सर, ये र तेदारी वाले सवाल भी परेशान करते ह मुझे। समझ ही नी दे ।”
“कौन से, दखाओ?” ऋ ष ने कताब लेने के लए हाथ आगे बढ़ाते ए कहा।
“ये वाले। सोनू क माँ के इकलौते भाई क इकलौती बहन का बेटा सोनू का या लगेगा?
अब मैनँ ू क पता या लगेगा? ये इतनी बार इकलौते-इकलौते, माँ, भाई, बहन करते ह क दमाग़
का फूफा हो जाता है।” मनु ने कताब आगे बढ़ाते ए कहा।
“ये तो ब त आसान है। ऐसे सवाल म कुछ नह करना, बस सोनू क जगह ख़ुद को रख
लो। फ़ौरन बन जाएँगे। कर के दे खो।” ऋ ष ने कहा।
“मेरी माँ के इकलौते भाई मतलब बरनाले वाले मामा। उनक इकलौती बहन मतलब मेरी
माँ। माँ का बेटा यानी क मेरा भाई। मेरा भाई! मेरा भाई लगेगा न ट चर सर?” मनु ने चहकते ए
कहा।
“हाँ। बलकुल सही। मगर भाई तु हारा नह , सवाल वाले सोनू का।” मनु ने मु कुराते ए
कहा।
“हाँ हाँ वही। यह तो ब त ही आसान जंतर रहा। ऐसे ही जंतर दे दया क जए ट चर सर;
प का पास हो जाऊँगी।” मनु ने ख़ुशी से लगभग कूदते ए कहा।
“कोई जंतर नह है। र ते वाले सवाल ऐसे ही हल होते ह।” ऋ ष ने कताब को पलटते
ए कहा। मनु एक ण ख़ामोश रही और फर अपने असली मुद द् े पर आई।
“अ छा, र ते से याद आया। आपने कभी बताया नह क आपके घर म कौन-कौन है?”
“कोई नह ।” ऋ ष ने सपाट-सा जवाब दया।
“कोई नह मतलब। आपने अवतार लया था या?” मनु ने तंज़ म कहा।
“माँ ज म दे ते व त गुजर ग और पताजी लांट म काम करते व त मशीन क नज़र हो
गए।” ऋ ष ने ब त ही नीरस भाव से कहा। उसके चेहरे के भाव को दे खते ए मनु एक ण
क और फर कहा,
“ह म! तो मतलब बलकुल अनाथ ह।” मनु ने ‘ह’ को इस कदर लंबा ख चा क ऋ ष को
उसके भोलेपन पर ग़ से क जगह हँसी आ गई।
“ फ़ म कम दे खा करो!” ऋ ष ने मु कुराते ए ही कहा।
“मने कुछ ग़लत कह दया या ट चर सर?” मनु ने घबराकर पूछा।
“हाँ।” ऋ ष ने हँसते ए ही जवाब दया।
“कोई गल नी। कह दया सो कह दया। फाँसी थोड़े न दोगे जी आप? अ छा, एक होर गल
दस । फ़ म दे खते हो आप?” मनु ने कते-ठहरते अपनी बात कही।
“नह ।” ऋ ष ने सीधा-सा जवाब दया।
“ य ?” मनु ने तनकर ऐसे कहा जैसे फ़ म न दे खकर ऋ ष कोई बड़ा पाप कर रहा हो।
कसी मौ लक आव यकता से वं चत रह गया हो।
“ य क फ़ म दे खने वाले कॉ पय म भी वासू-सपना और जय कशन-राधा लखने लगते
ह। यह एक आदत है। जसे यह आदत लग जाए उसक ज़दगी पर बबाद हो जाती है।” ऋ ष ने
मनु क कॉ पय म लखी बात पर ही तंज़ करते ए कहा। मनु तंज़ समझ गई। उसने एक ण
को बुरा-सा चेहरा बनाया और सरे ही ण जवाब दया,
“ ँ। ठ क कह रहे हो जी आप। बुरी आदत है ब त। मुझे भी ना…शपू ही पीनी चा हए थी।
ज़दगी आबाद रहती।”
मनु के इस हमले पर ऋ ष को फर भी ग़ सा नह आया। उसे उसक हा ज़र जवाबी पर
फर हँसी आई। उसे हँसते दे ख मनु का ग़ सा और भड़क गया उसने ‘ ंह’ कहते ए ह ठ फर से
दा ओर बचकाए। अभी ऋ ष कोई और बात कहता तबतक दरवाज़े पर द तक ई। मनु ने
उठकर दरवाज़ा खोला। माँ बाज़ार से आ गई थ । उनके हाथ से स ज़ी क थैली लेकर मनु कचन
म रखने चली गई। मनु क माँ को दे खकर ऋ ष ने बैठे ए ही सर झुकाकर णाम कया। मनु
क माँ भी एक वा स यपूण मु कान दे कर कचन म चली ग , कचन म जाकर उ ह ने मनु को
दस-दस के पाँच नोट दए और ऋ ष को दे ने को कहा। मनु पैसे लेकर ऋ ष के पास आई। उसने
ऋ ष के ठ क सामने बैठकर दस के पाँच नोट को पाँच बार गना और फर उसम से दस का एक
नोट मोड़कर रख लया। बाक़ के चार नोट ऋ ष को दे ते ए मनु ने धीमे से कहा,
“लो जी। मेहनाताना। हाँ, मगर दस पए कट गए।”
“ कस बात के?” ऋ ष ने चेहरे पर मु कुराहट बनाए ए ही कहा।
“आप पढ़ाते कम ह; बात ब त करते ह।” मनु ने सीने पर हाथ बाँधे ए डोलते ए कहा।
मु कुराते ए ही ऋ ष ने उससे चालीस पए लए और बाहर नकल गया।
मनु ने दस पए यूँ ही नह लए थे। आने वाले शु वार को उसे अपनी सहे लय के साथ
‘बेताब’ फ़ म दे खने जाना था। छाबड़ा साहब ने रज़ामंद तो दे द थी। मगर टकट के साथ-साथ
सहे लय पर ख़च के लए वे तैयार नह ए थे। ऋ ष का दस पया उसी क भरपाई थी।
पयु का भेद न पाऊँ सखी री

थान कुलद प टॉक ज़, चास के सनेमा हाल का टकट काउंटर। मनु जो फ़ म ‘बेताब’ दे खने
को न जाने कतने दन से इंतज़ार कर रही थी; जसे सारे गाने, गीतकार और गायक के नाम के
साथ कंठ थ थे अब अपनी चार दो त के साथ उदास खड़ी थी। काउंटर पर क भीड़ और भीड़
क ध का-मु क दे खकर वह क़दम-दर-क़दम पीछे हटती जाती थी। लोग ह क लुटेरे! मरने-
मारने पर उता । लड़ कय को दे खकर भी जगह नह दे ते। उसने सोचा क लड़ कय के लए
अलग कतार क व था होनी चा हए। वह भीड़ क चीख़, च लाहट, शोर और गा लयाँ सुनकर
हतो सा हत हो गई थी। छोटे शहर म फ़ म काफ़ दे र से प ँचती ह और जबतक प ँचती ह
उससे काफ़ पहले उनके सफल या असफल होने क सूचना तैर जाती है। यह फ़ म सफल थी
और कोई आ य नह क लोग टकट खड़क पर मरने-मारने को उता थे। जो भी हो, मनु ने
मान लया था क जस फ़ म के गाने ‘गीतमाला’ पर सुनते-सुनते उसने रे डयो क घुंडी तोड़ द
है, वह फ़ म वह अब नह दे ख पाएगी। आ ख़र रोज़-रोज़ न दो त को छु ट् टयाँ मलगी और न
ही पापा जी उसे रोज़ फ़ म दे खने जाने क इजाज़त दगे। उसके हाथ म पड़ा 10 पए का नोट
पसीने और उसक खीझ क वजह से मसलकर गोल हो गया था। मनु उदासमना लौटने को मुड़ी
ही थी क ा ने उसे चकोट काट और आँख के इशारे से सामने क ओर कुछ दखाया। ा
ने जो दखाया था वह दे खकर मनु कुछ दे र को ठठक गई। उसे अपनी आँख पर भरोसा नह
आ। वह भ चक खड़ी रही।
सामने अपने आवारा, लापरवाह और उद् दंड दो त के साथ ऋ ष चला आ रहा था। ऋ ष
जसक बु शट क काली बाँह के नीचे से सफ़ेद सगरेट र से ही नुमाया हो रही थी। मनु को लगा
क वह शायद कुछ ग़लत दे ख रही है मगर रहा-सहा शक ऋ ष ने अगले ही ण सगरेट को ह ठ
के बीच दबाकर ख़ म कर दया था।
मनु व मय से भर उठ । ऋ ष जसने अभी दो दन पहले ही तो बताया है क वह फ़ म
नह दे खता। अकड़ रहे थे क उ ह यह शग़ल नह है। ट् यूशन म तो आँख उठाकर चेहरा तक नह
दे खते और यहाँ दे खो, कैसे पो टर म झुक ना यका पर टकटक लगाए है। शपू तो पीते ही थे;
यहाँ धुआँ भी नगल रहे ह। आये बड़े !
ऋ ष मनु क उप थ त से सवथा बेख़बर टकट काउंटर पर लगी भीड़ का सरसरी मुआयना
कर रहा था। एक लंबी कश लगाने के बाद उसने सगरेट अपने उस दो त क तरफ़ बढ़ाई जस
दो त क सम या फ़ म क टकट है ही नह । उसे पता है टकट का इंतज़ाम ऋ ष कर ही लेगा।
उसक सम या यह थी क धम ने तो अभी कुछ साल पहले ‘शोले’ क हरोइन से शाद क है;
फर उसका लड़का इतनी ज द फ़ म म कैसे आ रहा है? ऋ ष ने उसे इस अहमकाना सवाल
के लए झड़क दया। उसने एक बार फर टकट के लए मरती-मारती भीड़ पर नज़र दौड़ाई।
अपनी कलाई घड़ी खोलकर साथ के दो त को दे द । बु शट क बाँह मोड़ी और एक छोट दौड़
लगाकर काउंटर पर लगी भीड़ के ऊपर कूद गया। ठ क उनके सर पर। गा लयाँ दे ती,
कसमसाती, पसीने से सराबोर भीड़ अपने सर पर चढ़े ऋ ष का बोझ बदा त नह कर पाई और
उसे नीचे गरा दया। ऋ ष यही चाहता भी था। वह सीधे टकट काउंटर के आगे गरा। खड़ा आ
और जद् दोजहद के बीच महज़ कलाई घुस पाने लायक़ टकट काउंटर म हाथ घुसेड़ द । काउंटर
के भीतर उसक मुट् ठ खुली। खुली मुट् ठ से पैसे छू टने के साथ ही उसने उँग लय से चार का
इशारा कया। टकटवाले ने उसके हाथ म लाल रंग के चार टकट पकड़ा दए। लोग क गा लय ,
शरीर क रगड़ और ध का-मु क के बीच ऋ ष टकट वाला हाथ आसमान क ओर कए
वजयी भाव से बाहर नकल आया।
बाहर आकर ऋ ष ने अपनी कलाई पर घड़ी बाँधी। शट क बाँह को खोलकर पूरा कया
और छाती के दो बटन खोलकर गाय के कान जतने बड़े अपने शट के कॉलर से हवा करने लगा।
ऋ ष के दो त ने उसके हाथ से टकट ली और सनेमा हाल क ओर बढ़े । ऋ ष थोड़ी दे र खड़ा
पसीने सुखाता रहा। मनु ने यह पूरा माजरा व मय से मुँह खोले ए ही दे खा। कान सुनी को
आँख दे खी म श दशः प रव तत होते दे खना अचं भत कर ही दे ता है। वह कुछ ण तो काठ ई
खड़ी रही मगर अचानक कुछ सोचकर उसक आँख चहक उठ । उसे आस दखी। उसे लगा क
अब वह ख़ाली हाथ नह लौटे गी। वह आगे बढ़ ; फर कुछ सोचकर क गई। वह ा क ओर
मुड़ी और ा के पट् टे म लगे से ट पन नकालकर अपने पट् टे म लगा लया। कपड़े को
हाथ से ही इ ी कया और तेज़ कदम से चलती ई सीधा ऋ ष के पीछे आकर खड़ी हो गई।
“सु नए।” उसने ऋ ष के ठ क पीछे से बड़ी ही कण य आवाज़ म कहा। ऋ ष पीछे से
आती आवाज़ का चेहरा दे खकर अवाक् रह गया।
“तुम! तुम यहाँ या कर रही हो?” ऋ ष जैसे-तैसे यही कह पाया।
“ प चर दे खने आई ँ।” मनु ने जवाब दया और जवाब दे ते ही उसे ऋ ष क आँख म
सरा सवाल दखाई दया।
“पापा से पूछकर आई ँ। कॉलेज से भागकर नह आई। ले कन यहाँ तो टकट ही नह
मल रही।” उसने फ़ौरन सरा जवाब और अपनी सम या बता द । ऋ ष उसक सम या समझ
गया; मगर उसक भी अपनी एक सम या थी। वह यहाँ यादा दे र उसके साथ खड़ा नह रह
सकता। उसे दो त के दे ख लेने और दो त के बीच बतंगड़ बन जाने का डर था। इस लए उसने
मनु को टालने के लहाज़ से ही कहा,
“अभी तो है यह सनेमा। कल दे ख लेना।”
“कल कहाँ छु ट् ट मलेगी और पापा ही कहाँ रोज़-रोज़ आने दगे?” मनु क आवाज़
आँसी हो आई।
“आज भीड़ ब त है और सरी कोई लड़क भी नह है। घर जाओ।” ऋ ष ने फर भी उसे
टाला।
“ह ना! मेरी तीन दो त और ह। मनु लगभग चहक उठ ।” उसे लगा क तीन-चार दो त
होने से टकट क संभावना बन जाएगी। मगर फर वह ऋ ष क आँख दे खकर सहम गई। कुछ
दे र क और धीमी आवाज़ म कहा,
“म तो घर ही जा रही थी क ा ने कहा क ऋ ष भैया के होते भी अगर टकट नह
मली तो या फ़ायदा!” कहकर मनु ज़मीन दे खते ए क़दम-क़दम पीछे हटती गई। यह हालाँ क
सोच-समझकर, जानबूझकर कही ई बात थी। यह पौ ष पर हार था, मदानगी को चुनौती।
जसका अनुकूल असर आ।
ऋ ष ने दो ण को अपने दो त क ओर दे खा जो कब के सनेमा हाल म व हो गए थे।
उसने पाँव पटककर जूते क धूल नकाली। अपनी कलाई घड़ी खोलकर मनु को थमाया। क़त क
बाँह चढ़ाई और थोड़ी ही दे र म फर भीड़ का ह सा हो गया। भीड़ के सर पर सवार और फर
अचानक भीड़ म अ य।
दो मनट के शोर के बाद जब वह फर दखा तो उसक मुट् ठ फर बंद थी और बंद मुट् ठ म
चार लाल टकट बंद थे।
हाथ से टकट झपटते ए मनु ब च -सी ख़ुश हो गई। उसक सा थन दौड़ती ई उसके पास
चली आ । चार लड़ कयाँ ज द-अज-ज द सनेमा हाल म व हो जाना चाहती थ । मनु ने
एक हाथ से टकट लेते व त सरे हाथ क मुट् ठ खोलकर ऋ ष को चार टकट के पैसे दए।
ऋ ष ने उसे आँख तो दखाई मगर उसक सहे लय के बीच मुद द् ा बनने से बचने के लए चुपचाप
पैसे उठा लए। चहकते ए मनु अपने दो त के साथ सनेमा हाल क ओर बढ़ चली। वह यह भी
भूल चली थी क उसे क़ायदन ऋ ष को शु या कहना चा हए था। हाँ, मगर ऋ ष को याद रही।
ऋ ष को याद रही वह बात जो जाते व त मनु अपने दो त से कह रही थी। मनु कह रही थी क
काश! बादल यूँ गरजता है, गाना फ़ म म दो-तीन बार हो तो मज़ा ही आ जाए। ऋ ष यह भी
याद रखता है क आज पहली दफ़ा उसने कुछ अजीब महसूस कया है। कुछ-कुछ वैसा जसे
अगर वह य दे तो सनेमाई पद के भाव जैसा ही कुछ होगा। यार जैसा कुछ। भाव का असर
यह है क सनेमा हाल म गीत ‘बादल यूँ गरजता है’ तीन बार ही चलाया जाता है। सनेमाहॉल म
भी ऋ ष क आँख परदे से यादा सीट क ओर भटकती ह।
ऋ ष यह जान पाता है क आँख अँधेर म आवाज़ से दे खती ह।
सखी री, द न न जानूँ

रमाकांत ठाकुर का सैलून मोह ले के शॉ पग सटर म हर कार क गो य का अड् डा था। यही


एक जगह थी जहाँ कम-से-कम चार लोग आधे घंटे बैठे ए केवल मुँह चला सकते थे। अपनी
बारी का इंतज़ार करते लोग कसी भी तरह क बहस म शा मल हो जाते थे। क पल-गाव कर
मनमुटाव हो, सयुं रा संघ का दबाव हो या वधानसभा चुनाव हो। राजनी त हो या र ानी त।
सारे बहस-मुबा हस का क रमाकांत ठाकुर का सैलून ही था। बहस जब कभी गम हो जाती तो
रमाकांत ठाकुर और उनके तीन का रदे ‘ ह लए मत! कान कट जाएगा’ कहकर संतुलन बनाए
रखते। बुजगवार रमाकांत ठाकुर क कान पर इस लए जमे रहते य क रमाकांत ठाकुर
अख़बार मँगवाते थे और युवा उनक कान पर इस लए जुटे रहते य क उनका एक का रदा
मुंबई होकर आया था और पूरे शहर म एकमा वही मुंबईया नायक क तरह केश काट सकता
था। इस लए रमाकांत ठाकुर क कान पर भीड़ बनी रहती।
शहर बढ़ता जा रहा था और रमाकांत ठाकुर क कमाई भी। कमी थी तो जगह क ।
रमाकांत ठाकुर के पास बमु कल चार लोग के बैठने क जगह थी। वह और जगह भाड़े पर
लेना चाहते थे; मगर उनसे लगी ‘सैनी इले ॉ न स’ क कान थी जसके मा लक सतनाम सैनी
उनक पूरी कमाई जतने लोग को कान पर नौकर रखते थे। रमाकांत ठाकुर के पास इ छा को
दबा लेने के अलावा कोई चारा नह था। इस लए उ ह ने मन मसोसकर कान के आगे ही बच
डालकर इंतज़ारी वाल क व था क थी।
आज जब ऋ ष कान पर बैठा अख़बार पढ़ते ए ही अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था
तो उसने दे खा क सतनाम सैनी क कान के बाहर छाबड़ा साहब मोढ़े पर बैठकर धूप सकते ए
सतनाम सैनी से ही बात कर रहे ह।
“नम ते अंकल।” ऋ ष ने बीच म टोका।
“नम ते बेटा। कैसे हो?” छाबड़ा साहब ने पूछा।
“अ छा ँ अंकल। मगर यह पंजाब को या आ है?” ऋ ष ने अख़बार दे खते ए बात
बढ़ाई।
“ य । या आ पंजाब को?” छाबड़ा साहब से पहले सैनी जी बोल पड़े ।
“रमेश चंदर क ह या हो गई। पंजाब केशरी वाले। दन दहाड़े ! इनके पता को भी तो पहले
मारा गया था ना! लाला जगतनारायण को?” ऋ ष ने अख़बार म नज़र गड़ाते ए कहा।
“हाँ, तो जो बोएगा वही तो काटे गा।” सैनी साहब ने थोड़े तैश म ही कहा। जसपर छाबड़ा
जी ने उनक जाँघ पर थपक दे कर शांत होने का इशारा कया।
“और नुशेरा म बस से उतारकर जन 6 लोग को काट दया, उ ह ने या बोया था सरदार
जी?” ऋ ष के साथ अपनी बारी के इंतज़ार म बैठे एक सरे आदमी ने कहा। जसके जवाब म
सैनी जी दाँत पीसकर रह गए। उनक कलाई छाबड़ा साहब ने पकड़ रखी थी।
“ ढलवाँ म भी बस से उतारकर 4 लोग को काट दया।” एक और आवाज़ आई।
“यह तो रोज़ क ख़बर है अब। बाहरी मज़ र केश बढ़ाकर सख दखने को मजबूर ह
वहाँ।” कसी ने कहा।
“नरक बना रखा है पंजाब को इन आतंकवा दय ने।” दोन को कुछ कहता न दे खकर
कसी ने फर कहा।
“जुझा ।” अबक बार छाबड़ा साहब गला साफ़ करते ए कहा।
“जी। समझा नह ।” ऋ ष ने छाबड़ा साहब क ओर दे खते ए कहा।
“ ज ह तुम आतंकवाद कहते हो न। उ ह पंजाब म जुझा कहते ह। क़ौम के सपाही।
जानकारी अ छ चीज़ है बेटे, मगर पूरी। अख़बार पढ़कर राय नह बनाते। तु ह ढलवाँ, नुशेरा,
लु धयाना लए पूरे पंजाब क ख़बर है बेटे। मगर बेगस ू राय म मज़ र क ह या क ख़बर पढ़
या? नह न। दरअसल, वह पंजाब के अख़बार म होगी और तु हारे अख़बार म पंजाब क ।
धनबाद म कोयला खदान म काम करने वाले मज़ र म नए तरह का रोग हो रहा है। मगर चचा
हम यहाँ के लोग क नह ब क वहाँ के ‘ल गोवाल’ क करगे। य क वे नह चाहते क वहाँ के
लोग उनका सच जाने। ठ क उसी तरह जैसे हम अपना सच नह जानना चाहते। तुमने पंजाब क
बात यह द तार दे खकर छे ड़ी थी शायद। हम पंजाब क बात य कर रहे ह? हम जहाँ ह, वहाँ
क बात य नह करते? य क सर के घाव दखाकर हम अपने घाव छपाना चाहते ह।”
छाबड़ा साहब समझाते ए एक साँस म कह गए। एक ण को ही के और फर कहा,
“और हाँ! खालसा का सवाल तारीख़ी है बेटे। समझे जाने क ज़ रत है इसे। यह पान क
कान और चायख़ान म हल नह होने क ।”
रमाकांत क कान पर मुदा-ख़ामोशी छा गई। इतनी जानकारी कसी को थी भी नह । सब
सुनी-सुनाई बात पर बतकही बढ़ाने वाले लोग थे। कुछ लोग जो सहमत नह भी थे वे भी बात न
बढ़ाने के गरज से चुप ही रहे। जब कुछ ण तक कोई कुछ नह बोला तो छाबड़ा साहब माहौल
को ह का करने के लए ख़ुद ही बोल पड़े -
“अरे पंजाबी से याद आया। बेटे, वो लालाजी का पु र क तान बनेगा या नह ?”
“कौन, मो हदर अमरनाथ?” ऋ ष ने सवाल के जवाब म सवाल कया।
“हाँ-हाँ वही।” छाबड़ा साहब ने कहा।
“ट म म रह जाए वही ब त है अंकल। फ़ॉम ख़राब है आजकल। लाला जी कमटरी कर रहे
ह। यह भी वही करे तो अ छा है।” ऋ ष ने जवाब दया।
“अरे नह । अभी पा क तान का दौरा है। तेज़ गद उससे बेहतर कौन खेलता है दे शभर म!
तू दे खना, एक दन क तान बनेगा मेरा शेर।” कहकर घुटन पर हाथ रखकर छाबड़ा साहब उठे
और सैनी के कंधे पर हाथ रखने के बाद घर क ओर चल दए।
रमाकांत ठाकुर ने आज पहली बार जाना क सख, ह नह होते।

* ल गोवाल- हरचरण सह ल गोवाल


सखी री, मोहन ठे

ऋ ष इतवार को छोड़कर रोज़ ही ट् यूशन पढ़ाने आता था। ऋ ष जान तो गया था क मनु क
पढ़ने म नह ब क उसके साथ बैठने म दलच पी है। फर भी वह ट् यूशन पढ़ाने आता था। उसे
भी मनु के चुहल क आदत-सी हो गई थी और फर ऋ ष को यहाँ क चाय ब त अ छ लगती
थी। उसे खाना बनाने से आलस था और पता के जाने के बाद से ही वह दोपहर क भूख को चाय
से मारता आया था। वह शहर भर के सारे चायख़ाने नाप चुका था; मगर यहाँ जैसी चाय उसने
शहर भर म नह पी थी और फर वह पढ़ाई संबंधी काय को ईमानदारी से करने म ही व ास
रखता रहा था। इस लए ऋ ष मनु को पढ़ाने इतवार के अलावा रोज़ ही आता था। आज फर
ऋ ष ठ क तीन बजे ट् यूशन पढ़ाने ऊपर आया। उसके हाथ म राजनी त क कताब और सं वधान
क कुं जका थी। उसने दरवाज़े क कुंडी खटखटाई। दरवाज़ा मनु ने ही खोला। उसे दे खकर हँसी
और उसी ण हाथ म कताब दे खकर ह ठ दा ओर बचका दए। ऋ ष समझ गया क इसे आज
पढ़ने का मन नह है। च पल खोलकर भीतर दा ख़ल होते ए उसने फर सोचा क इसका पढ़ने
का मन होता ही कब है! वह आकर बाँस के सोफ़े पर बैठ गया। सोफ़े पर मनु क नयी कॉपी रखी
ई थी। उसने कॉपी उठाई और यूँ ही पलटना शु कया। मनु ने पहले ही प े पर गीत बगाड़
कर लखा था,
“हर मुलाक़ात का अंजाम पढ़ाई य है।”
ऋ ष अभी यह पढ़कर मु कुरा ही पाया था क मनु कचन से चार ब कट और पानी का
गलास लए ए आई।
“आंट नह ह या?” ऋ ष ने वा जब सवाल पूछा। य क चाय ब कट दे ने का काम
वही कया करती थ ।
“नह । बाज़ार गई ह।” मनु ने क़रीने से बैठकर पाँव पर के क़त को सहेजते ए कहा।
“अ छा, तभी पढ़ने का मन नह है। आंट के डर से पढ़ने बैठती हो?” ऋ ष ने हँसते ए
कहा।
“म कसी कोल नी डरद । आए बड़े !” मारे खीझ के मनु ने ह ठ बचकाते ए कहा।
“अ छा, तो बताओ या करने का मन है?” ऋ ष ने हँसते ए पूछा।
“बुझारताँ सुलझाओगे आप?” मनु ने फ़ौरन आँख चमकाते ए कहा।
“ये या होता है?” ऋ ष ने अचरज से पूछा।
“अरे पहेली! पहेली सुलझाओगे? मैनँ ू ते बोत सा रयाँ दयाँ ने।” मनु ने ब च -से
कौतुहल से कहा।
“पढ़ाई पहले।” ऋ ष ने थोड़ी कड़ी आवाज़ म कहा।
“ ंह! सीधे-सीधे नह कह सकते क मनु तुझसे हार गया। आए बड़े !” मनु भुनभुनाई।
“अ छा पूछो।” ऋ ष ने मनु का मन रखते ए कहा। मनु तो जैसे इसी का इंतज़ार कर रही
थी। वह ऋ ष के छू टते ही बोल पड़ी,
“एहो मुँह काले। झु रयाँ वाले। बताओ या?”
ऋ ष ने कुछ दे र सोचा; मगर जवाब तक नह प ँच पाया। उसने नाक चढ़ाकर कहा,
“पता नह ।”
“तो बोलो, हार गए।” कहते ए मनु ने अपनी हथेली ऋ ष क तरफ़ बढ़ा द । ऋ ष ने भी
उसका अथ समझते ए उसके हथेली पर ताली दे ते ए कहा,
“हार गया। अब बताओ।”
“काली मच ट चर सर! काली मच! इ ा तो आसान था। अ छा अब सरा।” मनु ने
शोख़ी से कहा,
“राजा रानी सुनो कहानी। इक घड़े वच दो रंग पानी?”
कहकर मनु गाल पर हाथ रखकर भ हे उचकाकर जवाब माँगने लगी। ऋ ष जसे वैसे ही
जवाब पता नह था, वह मनु के इस तरह दे खे जाने से असहज हो गया। उसने फर ज द से
कहा,
“पता नह ।” और मनु के कहने से पहले ही उसके हाथ पर ताली दे द ।
“अंडा ट चर सर। अंडा। आप तो कुछ भी नह जानते। केवल पोथी पढ़ने से कुछ नह
होता। दे श- नया क जानकारी भी रखनी पड़ती है।” मनु ने कहा।
“मुझे पंजाबी क पहे लयाँ कहाँ से मालूम ह गी भला!” ऋ ष ने बचाव लया।
“अ छा तो फर अगली पहेली हद म ही पूछती ँ। ज़रा बताइए वह कौन-सी जगह है
जहाँ 100 आदमी जाते ह मगर 99 आदमी ही वापस आते ह?”
मनु ने ऋ ष को मौक़ा दए बग़ैर अगला सवाल दाग दया। ऋ ष को इसका जवाब भी नह
पता था; मगर चूँ क उसे भी इस खेल म च आ रही थी इस लए उसने फर हाथ पर ताली दे द ।
जसका अथ था क वह हार चुका है और अब जवाब मनु दे गी।
“ मशान घाट ट चर सर। वहाँ जाते 100 लोग ह मगर आते 99 ही ह।” मनु ने ब त
समझदारी भरे लहज़े म कहा।
“तुम तो ब त समझदार हो। इतने जवाब पता ह तु ह!” ऋ ष ने कहा।
“वो तो ह। माँ ने बताए ह। आपक माँ नह ह ना, नह तो आप भी समझदार होते।” मनु ने
नासमझी म आहत करने वाली बात कह द । ऋ ष को बुरा तो लगा; मगर वह चुप रहा और चेहरे
पर आ गए ःख को ज़ त करते ए बात पलटनी चाही।
“अब कताब खोलो। पढ़ाई कर।” ऋ ष ने त नक कठोर वर म कहा मगर मनु तो अपने
ज़ोम म थी; उसने ऋ ष क बात अनसुनी करते ए अगला सवाल दाग दया,
“वह कौन-सी जगह है जहाँ 100 आदमी जाते ह और 101 आदमी आते ह?”
ऋ ष अबतक मनु के सवाल क सीमा जान चुका था। उसे जवाब दे ने का मन तो नह था
मगर यह सोचकर क यह शायद अं तम सवाल हो उसने अनमने ही उ र दया,
“अ पताल।”
“ग़लत जवाब। आप बलकुल ही नरे ह।” मनु ने कहा। ऋ ष को फर चोट लगी ले कन
उसने रोष पर क़ाबू पाते ए पूछा,
“तो सही जवाब या है?”
“सही जवाब है, शाद । जहाँ 100 लोग जाते ह और 101 आते ह।” मनु ने कसी श क-
सा समझाते ए जवाब दया।
“तु हारा सवाल ही ग़लत है!” ऋ ष ने अबक तैश म कहा।
“कैसे? कैसे ग़लत है सवाल?” मनु अब और भी चढ़ बैठ ।
“अगर अ पताल म ब चे का ज म हो तब भी तो 100 लोग जाएँ तो 101 लोग वापस
आएँगे?” ऋ ष ने कहा।
“अरे ट चर सर! आपको कुछ नह मालूम। पहले शाद होगी तभी तो ब चा…।” कहते-
कहते मनु क गई। उसे अपनी वाचालता का एहसास आ; मगर तब तक दे री हो चुक थी। ऋ ष
जो कसी और वजह से नाराज़ था उसने इस बात को अपनी नाराज़गी क वजह बना ली।
“पढ़ाई- लखाई से तो नाता रहा नह । यही फ़ालतू क बात दमाग़ म घूमती रहती ह। फ़ म
दे खो और बना समझे उल-जलूल बोलो।” कहते ए ऋ ष उठकर खड़ा आ और मनु जबतक
अपनी ग़लती समझ पाती तबतक वह बाहर नकल गया।
मनु ने सीखा क मन से उठकर नयन तक जाते ःख को गले म ही घोटना पड़ता है और
यह तकलीफ़ गला घोटने से अ धक ही होती है।
पयु बन बैरी रैन सखी री

तकरार बहाने ढूँ ढ़ता है। कभी जवाब दे ना तो कभी जवाब न दे ना। कभी दे खते जाना तो कभी
अनदे खा कर जाना। कभी आने म दे री तो कभी जाने क ज द । कभी मनुहार क चाह तो कभी
कंध पर फसलती बाँह। कारण कुछ भी हो सकता है। ेमी कसी बात पर ठ सकते ह और
बेबात मान भी जाते ह। ेम कोई मेय नह जो न त साँचे म ही स होता है। ेम अप रमेय
है।
ऋ ष नाराज़ था। इस लए मनु पर भी एक उदासी तारी थी। ऐसा लगता था क उसके छाती
के बीचोबीच एक क-सी अटक पड़ी है। ऐसे जैसे कसी ने सोए के सामने अचानक
नगाड़े क धौल दे द हो। आज छु ट् ट के दन यूँ भी ऋ ष को पढ़ाने नह आना था। फर भी
कसी भी खटके पर वह दौड़कर बालकनी म आ जाती और ऋ ष को न पाकर मायूस भीतर चली
जाती। माँ ने यान नह दया। अगर यान दे ती तो पाती क मनु सुबह से दस दफ़े दरवाज़ा खोल
चुक है और खीझकर बंद कर चुक थी।
व त गुजरने के साथ मनु क खीझ बढ़ती ही जा रही थी। वह पहले तो धवाले पर पानी
मलाने का इ ज़ाम धरकर बेतरह झ लाई। बाद म ध को टोव पर चढ़ाकर भूल बैठ । आधा ध
गर जाने पर आँसी ई। ज द -ज द प छा लगाकर नहाने गई तो झरने के नीचे दे र तक रोती
रही। नहाकर बाल सुखाते व त जब वह बालकनी म खड़ी ई तब भी ऋ ष नज़र नह आया।
आई तो माँ क डाँट। उसे लगा क उसे ‘जप’ म शां त मलेगी। उसे लगा क उसके सवाल के
जवाब ‘गुरबानी’ म मल जाएँगे। छाबड़ा साहब ने घर म ही गु ंथ साहब का ‘परकाश’ कया
था। वह बैठ गई। सवाल मन म सोचकर उसने गु ंथ सा हब खोला। 175वाँ प ा खुल गया।
उसने अंग पढ़ा-
“मेरे म न त न ेम लगा हरी बाणु जऊ
मेरा ीतम म ु ह र पुरखु सुजाण जऊ।”
पढ़ते ही उसका जी फर भटकने लगा। उसे लगा क अब उसक थ त कसी से बेपदा
नह है। गु जी साहब से तो ब कुल भी नह । ‘वाहेगु ब शे’ कहकर उसने कान पकड़े और
फर थोड़ी लंबी साँस लेकर सोचा क उसे ‘आज का वाक’ ही जप लेना चा हए। उसने फर प े
पलट दए। अबक बार गु ंथ साहब का अंग था-
“मू लालन सउ ीत बनी
तोरी न तुटे, छोरी न छू टे
ऐसी माधो ख च त न”
वह एक बार फर सहम गई। उसे लगा गु ंथ साहब उसका ही हाल बता रहे ह। उसे लगा
क हो-न-हो कोई उसका मन पढ़ रहा है। उसने झट पहला प ा खोल लया। मूल मंतर पढ़ लेना
ही उसे ेय कर लगा-
“एक कार सतनाम, कतापुरख, नम ह, नवर,
अकाल मूरत, अजूनी सैभं गुर साद”
‘मूल मंतर’ के पाठ के साथ ही उसने म था टे का और उठ खड़ी ई। उसने फर घड़ी क
ओर टकटक लगाई। घड़ी उसे आज धीमी चलती मालूम हो रही थी। उसने उसका समय चाभी
वाले अलाम घड़ी से मलाया। जब दोन म एक ही व त दखा तो ग़ से से अलाम वाली घड़ी क
चाभी घुमाने लगी।
दल दलासे दे ने म मा हर होता है। वह हर सम या का मनोनुकूल समाधान दे ही दे ता है।
इसी लए वयं को ठगना सर के ठगने से कह अ छा होता है। मनु को लगा क वह नाहक ही
परेशान हो रही है। आज एक ही दन क तो छु ट् ट मलती है ऋ ष को भी। कताब ख़रीदने चला
गया होगा। इतनी सारी कताब भी तो ख़रीदता है। जाने इतना पढ़कर भी या करेगा! एक लड़क
के मन क बात तो समझ नह सकता! मनु ने सोचा।
नया का सम त ान थ है य द आप एक ी मन को नह पढ़ पाते।
ी मन। जो एक पल कताब क ख़रीद के लए कोसता है वही सरे ण उ ह कताब
को क़रीने से सजाने के सपने भी पोसता है। मनु भी ऋ ष के घर को; नह -नह , अपने घर को
सजाने के सपने दे खते ए कब सो गई उसे ख़ुद भी पता नह चला। पता चला तो बस यह क न द
ब त गहरी आई।
जतनी गहरी न द आई थी, उठने पर उतनी ही गहरी उदासी फर तारी हो गई। वह उठ
और बालकनी म दे र तक खड़ी रही। मगर ऋ ष नह दखा। बालकनी से दखता आसमान
पघलकर लाल आ और फर साँवला हो गया; मगर ऋ ष नह दखा। मनु क सोच अब संशय
क ओर जाने लगी। ऐसा कौन-सा काम आ गया जो अब तक नह लौटे । खाना कहाँ खाएँगे?
शायद खाकर आएँ। कह ऐसा तो नह क आ ही गए ह और उसी ने न दे खा हो। यही सोचकर
वह आधी सीढ़ नीचे उतरी और झाँककर दे खा। दरवाज़े पर ताला नह लगा था। चलो, आ गए
ह। घर म ही ह। सोचकर उसे सुकून आया। अब कल पढ़ाने आएँगे तो दे खती ँ कतने दे र नाराज़
रहते ह। मनु ने ख़ुद से ही सवाल-जवाब कए और ख़ुश होकर ऊपर चली आई। थोड़ी दे र
कताब म मुँह छु पाए बेबात मु कुराती रही। आठ बजते ही माँ ने खाने के लए आवाज़ द । मनु
रे डयो उठाए खाना खाने चली। खाने क मेज़ पर उसने खाना और डाँट साथ म खाए। पानी और
ग़ सा साथ म पी लया और ब तर पर आकर लेट गई।
ेम का वाद और तासीर दोन कपूर क तरह होते ह। ेमी जब ेम चख रहे होते ह तब
वह दरअसल अपनी जबान पर चलता कपूर रख रहे होते ह। इसका स धापन तबतक नीमहोश
कए रहता है जबतक कपूर जलकर जबान पर न आ जाए। ेम का अ तरेक जलने म ही है।
मनु ने महसूस कया क ेम क तासीर आ नेय होती है।

अगली सुबह भी कुछ अलग न थी। मनु व त पर ही उठ और उठते ही बालकनी क तरफ़


भागी। यह ऋ ष के सरे मोह ले के ब च को पढ़ाने जाने का व त होता था। वह दे र तक राह
दे खती रही; ऋ ष फर भी नह दखा। उसे दल ने पहली बार यह अंदेशा दया क कुछ बुरा है।
मगर उसके दमाग़ ने मानने से इनकार कया और वह भीतर आ गई। छाबड़ा साहब जाग चुके थे
और वह ध लाने के लए नकल चुके थे।
मनु ने श-टू थपे ट उठाया और वाश-बे सन क तरफ़ जाने से पहले रे डयो चालू दया।
मगर कल से वह महसूस कर रही है क सब उसका मज़ाक़ उड़ा रहे ह। यह नामुराद रे डयो भी
उसी पर हँस रहा है,
“बोल दो मीठे बोल सो णये, मट् ट है अनमोल सो णये।”
पहले तो वह गाने के बोल पर चढ़ गई; मगर फर यह गाना ही उसे अपना अहवाल सुनाता
लगा। उसे लगा क गीत के आगे के बोल से उसे कुछ उ मीद मलेगी। बाक़ गाना सुनने के लए
वह झट से श कर भागी-भागी आई और रे डयो म कान लगा लया; मगर फर भी पूरा सुन नह
पाई। उसने ग़ से म रे डयो ज़मीन पर पटक दया।
“ ण क तोड् या तु सी?” कचन से माँ क आवाज़ आई।
“कुछ नह म मी जी। रे डयो गर गया।” उसने कहा और सोचने लगी क आवाज़ तो नीचे
भी गई होगी तो शायद ऋ ष भी आवाज़ दे कर पूछे, ण क तोड़या तु सी और मनु दौड़कर
बालकनी से कहे, कुछ नह जी। रे डयो गर गया।
मगर जब ऐसा कुछ नह आ तो मनु फर आँसी हो गई और तौ लए से मुँह पोछने के बाद
त कये म अपना चेहरा छपा लया। अब उसे यह एहसास घर कर गया था क बात कुछ यादा
ही बगड़ गई है। ऋ ष उससे अबतक नाराज़ है। उसे माफ़ माँग लेनी चा हए। वह तो माफ़ भी
माँग ले। ले कन ऋ ष दखे तो! सामने दखते ए इंसान से बात क जा सकती है ना। हवा को
माफ़ नामे नह लखे जाते।
बार-बार उसके मन ने कहा क वह ख़ुद ही जाकर पूछ ले क इतनी या बड़ी ग़लती हो गई
जो बैर ठाने बैठे हो और जो हो भी गई तो कह दो क आगे से न कहना। मनु ने जो कोई बात
तु हारी काट हो तो कहो! उस रोज़ छत के मुंडेर पर खड़ी थी वह। तुमने ट् यूशन म आकर कह
दया क छत पर खड़ी मत रहा करो। मनु ने तुमसे पूछा, य ? य न खड़ी रहे वो? तब से आज
तक अपनी ही मुंडेर नह दे खी मनु ने। बाद म मालूम चला ब ती के लड़क को पीट आए हो। ख़ुद
तो झगड़ा करते चलो और फर नाराज़गी भी ख़ुद ही। आए बड़े !
सोचते-सोचते ही उसका गला भर आया। गले ने जब ःख को ज़ त करने से इनकार कर
दया तो उसक आँख छलछला ग । बार-बार उसक इ छा ई क वह नीचे उतर जाए। बार-बार
उसके मन ने हलोरे मारे क बस जाकर बैठ जाए उसके आगे और पूछ ही ले क हाँ जी, कहो
या गला है? और जो है तो हलफ़ उठवा लो मनु से। पर बात तो करो।
दोपहर म भी वह छाबड़ा साहब का खाना ख़ुद ही प ँचाने कट न गई। नीचे उतरते व त
उसने जानबूझकर ट फन बॉ स से ऋ ष के दरवाज़े पर ट कर मारी ता क कम-से-कम ऋ ष क
आवाज़ ही सुन ले जो शायद पूछ ही ले क कौन है?
मगर फर भी कोई आवाज़ नह आई तो मनु पट् टे से अपने आँख का कोना पोछती ई
कट न क तरफ़ बढ़ गई।
रा ते भर वह ख़ुद को कोसती गई क आ ख़र यूँ उसने ऋ ष से ऐसा मज़ाक़ कया जब
वह मज़ाक़ समझता ही नह है। ले कन पंजा बय म तो ऐसे मज़ाक़ आम ह। मगर ऋ ष तो
पंजाबी नह है। उसे यह बात समझनी चा हए थी। ले कन ऋ ष को भी तो यह बात समझनी
चा हए क वह सफ़ एक मज़ाक़ था।
ऐसी ही न जाने कतनी अबूझ-ऊटपटाँग बात सोचती ई वह अब ख़ाली ट फन लेकर
कट न से घर लौट । लौटते व त उसके ज़ेहन म वही ख़याल आ रहे थे क उसक पायल क
आवाज़ सुनकर ऋ ष ज़ र पुकारेगा, “मनु कैसी हो? वड मी नग याद कए या फर कोई नया
बहाना बनाओगी? कमधारय समास कहते ह करम धारा समास नह ?” मगर फर वो अपने दल
को मना लेती क जब जसने आज तक कमरे से बाहर टोका तक नह , वह फर अब कैसे कहेगा।
इ ह याल के बीच वह जब वह बो झल क़दम से सी ढ़याँ चढ़ने लगी तो उसे लगा कसी
ने उसे पुकारा,
“मनु।”
आवाज़ इतनी ीण थी क मनु को लगा यह उसका म है और फर ऐसी आवाज़ तो ऋ ष
क है ही नह । ज़ र उसके कान बज रहे ह। आजकल सब तो उसके साथ खेल ही रहे ह। मगर
उसका यान तब टू टा जब आवाज़ फर से आई,
“मनु।”
अबक बार आवाज़ थोड़ी साफ़ थी।
इस दफ़ा मनु के सहरन दौड़ गई। इस आवाज़ को मनु शोर म भी पहचान सकती थी।
य क कुछ दे र पहले तक यही आवाज़ सुनने के लए उसक साँस क रह थी। यह ऋ ष क ही
आवाज़ थी। उसक समझ म कुछ नह आया। वह ऋ ष के दरवाज़े क ओर दौड़ पड़ी। दरवाज़े
पर प ँचकर उसे ख़याल आया क उसक साँस अ थर हो रही ह। वह दरवाज़े के बाहर क ।
उसने सात लंबी-लंबी साँस लेकर अपनी धड़कन थर क और फर दरवाज़े पर धीमे से द तक
द । वह चाहती तो थी क झटके से दरवाज़ा खोलकर भीतर घुस जाए मगर उसे माँ के झाँककर
दे खने का डर भी था और अपनी नज़र का शम भी। वह यह नह कर सकती थी; इस लए उसने
दरवाज़ा खटखटाया।
“कौन?” एक बीमार आवाज़ बाहर तक आई।
“जी म, मनु।” उसने इतने ही धीमे से कहा जससे आवाज़ ऋ ष तक ही जाए ऊपर माँ तक
न प ँचे।
“दरवाजा खुला है।” ऋ ष क फर से धीमी आवाज़ आई।
आवाज़ म अलालत, आवाज़ क श थलता और आवाज़ क कंपकपाहट मनु को बेचैन
करने के लए काफ़ थी। वह ध के से दरवाज़ा खोलकर भीतर दा ख़ल ई और ऋ ष क थ त
दे खकर अवाक् रह गई।
ऋ ष इस गम म भी दो कंबल ओढ़ने के बावजूद काँप रहा था। नीचे सुराही गर के टू ट गई
थी और उसके नोट् स फैले पानी क नाव बन चुके थे। कमरा सरदद के मलहम से भभक रहा था।
मनु लगभग दौड़ते ए ऋ ष के पास प ँची और बोली-
“क होया?”
जवाब म ऋ ष कुछ बोल नह पाया बस अपनी अधखुली आँख बंद कर ली।
“बुख़ार है?” मनु ने सकुचाहट के साथ ही ऋ ष के माथे पर अपनी हथेली रखकर ताप
जाँचते ए कहा।
ऋ ष ने कोई जवाब नह दया।
“ कसी नू द या यूँ नी?” मनु के आँसू संभलते-संभलते छलक आए। इस बार भी ऋ ष
कुछ बोल नह पाया। ऋ ष त या करने क थ त से भी कमज़ोर हो चुका था। मनु ने इधर-
उधर नज़र दौड़ाई फर भी उसे एक साफ़ कपड़ा नज़र नह आया। कुस पर फैले कपड़े , मोज़े
और अख़बार दे खकर वह ख हो गई।
“कपड़े तक तो ठ क से रख नह सकते; ख़ुद को या रखगे!” ग़ से और परेशानी म
बुदबुदाते ए मनु ने पूछा-
“तौ लया क थे है?” मनु ने फर पूछा। इशारे म ऋ ष ने जो अंगोछा दखाया उसे दे खकर
मनु क आँख म ग़ सा और आँसू एक साथ दख गए।
“अब म समझी क ये बीमारी कहाँ से आई!” उसने अंगोछे को हकारत से दे खते ए कहा
और रोने लगी। फर अचानक ही उठ , आँसू पोछे और लकड़ी क आलमारी म रखी एकमा
धुली शट उठाकर बाहर ले आई। मोटर क पाइप को नकालते ए उसके पानी से उसे पूरा गीला
कर नचोड़ा और भागकर भीतर आई।
“बुख़ार कब से है?” मनु ने ऋ ष के तलव म गीला शट लपेटते ए कहा।
“परस से।” ऋ ष ने अबक बार म म आवाज़ आई।
“वाहेगु ! होर मैनँ ू द या यूँ नह ?” जवाब म फर ऋ ष ने कुछ नह कहा। तलवे क गम
से क़त का पानी गम हो गया। मनु पानी बदलने को उठ और पीछे मुड़ते ए ही कहा-
“इतना ग़ सा! अब कभी मज़ाक़ नह क ँ गी। तुसी पंजा बय वाले मज़ाक़ समझते ही
नह । आई एम सॉरी।”
“तू पंजाबी ही बोला कर।” ऋ ष ने अधमुँद आँख से ही कहा। जवाब सुनना था क मनु
क मन-पंखु ड़याँ खल गई। वह अगर और दे र कती तो शायद उसक ख़ुशी ऋ ष पर नुमायाँ
भी हो जाती। वह इसी तरह ऋ ष के पाँव क प ट् टयाँ बदलते बैठ रहना चाहती थी। वह इसी
तरह ऋ ष से बात करते रहना चाहती थी। वह चाहती थी क पछले तीन दन क सारे शकवे
सुना दे ; मगर फर उसे यह भी महसूस आ क जतनी दे र एक अंजान लड़के के कमरे म उसे
होना चा हए वह मयाद ख़ म हो चुक थी। माँ आ ग तो जान को अज़ाब और कसी ग़ैर ने दे ख
लया तो सवाई का सामान तैयार। यही सोचकर उसने फ़ौरन ऋ ष के पाँव म फर गीला कपड़ा
लपेटा और बोली-
“अ छा अब जाती ँ। पापा जी को बोल के डॉ टर को बुलवा दे ती ँ। अपना ख़याल रख ।
फकर ना कर ।”
“अंकल को परेशान करने क या ज़ रत है। तु ह भी इस लए कहा क ब च को
ट् यूशन….” ऋ ष ने बुदबुदाते ए भी अभी आधी ही बात कही थी क मनु बोल पड़ी-
“तैनं ु पुछ् या कोई। आए बड़े !” कहते ए मनु ने रखे ए अंगोछे से घर म बखरा आ पानी
सोखा, पोछा और बाहर आ गई।
घर म घुसते ही उसने दे खा क माँ सो गई ह। दोपहर म अ सर वो दो-तीन घंटे सो ही जाती
ह। मनु अपने कमरे म गई और वहाँ रखा दवाइय का ड बा टटोलने लगी। दवाइय का ड बा वह
अपने पास ही रखती है। वैसे भी पूरे मोह ले का छोटा-मोटा इलाज तो वो ही करती है। मनु पेट म
दद है। मनु सर फट रहा है। मनु गैस इच कोण सी ा लेनी हो द ऐ। आम तौर पर मनु पेट के लए
तो अ वाईन ही बोल दे ती है पर उसे पता है क सर दद म ो सन और बुख़ार म पारा सटामोल
दे ते ह। ऋ ष के लए भी उसने धीरे से पारा सटामोल क चार ट कया नकाली। पावरोट के चार
टु कड़ पर म खन और चीनी लगाए और फर दबे पाँव सी ढ़य से उतरकर ऋ ष के कमरे म
दा ख़ल ई। ऋ ष उसे दे खकर थोड़ा च का; मगर लेटा ही रहा। कमरे म घुसते ही उसने दवा क
एक ट कया नकाली और ऋ ष से पूछा- “पानी क थे है?”
ऋ ष ने जवाब म टू ट ई सुराही दखाई।
“उ फ़!” मनु ने सर पर हाथ रखते उए कहा। झुंझलाकर उठ और बड़ा वाला जग लेकर
बाहर गई। उसने फर से मोटर क पाइप नकाली, एक जग पानी भरा और वापस भीतर आ गई।
“खा ली जए।” मनु ने पाव रोट आगे रखते ए कहा।
“ये या है?” ऋ ष ने पूछा
“पावरोट है।” मनु ने कहा। जवाब सुनने के बाद ऋ ष ने पावरोट उसके हाथ से लेकर
धीमे-धीमे ही सही, दो टु कड़े खा लए। अब मनु ने दवा क ट कया आगे करते ए कहा-
“ये भी ली जए!”
“ये या है?” ऋ ष ने पूछा। बीमार इंसान के पास सवाल का अशेष कोश होता है।
“ज़हर!” मनु झुंझला गई थी। ऋ ष ने कुछ नह कहा। चुपचाप दवा उठाकर मुँह म रख ली
और उसे जड़वत दे खता रहा। बीमार आँख वैसे भी एक जगह ठहर जाती ह।
“ ण क होया?” मनु ने उसक आँख म दे खते ए असहज ई।
“कुछ नह । बस बना पानी के ज़हर थोड़ा कड़वा लग रहा है।” ऋ ष ने ट कया मुँह म
रखे ए ही धीमे-से कहा।
“ओह!” कहते ए मनु ने ज द से पानी का गलास ऋ ष के मुँह से लगाया। ऋ ष दो घूँट
पानी के साथ दवा खाकर फर लेट गया”।
अभी बुख़ार उतर जाएगा!” मनु ने कसी डॉ टर क तरह कहा। जवाब म ऋ ष ने एक
बीमार मु कान द ।
“अ छा अब चलती ँ। शाम को पापा जी को कह ँ गी, डॉ टर लेते आएँगे। रात म जब
गेट बंद करने आऊँगी तब कुछ खाने के लए ले आऊँगी। तब तक ऐसे ही लेटे रहना। यादा
हलना-डु लना नह ।” मनु ने उठते ए कहा।
“उसक ज़ रत या है। म…।” ऋ ष अभी बात पूरी भी नह कर पाया था।
“तैनं ू पुछ् या कोई? आए बड़े !” मनु ने उठते ए कहा।
कमरे ने दे खा क नकलते व त मनु क उँग लयाँ ऋ ष के हाथ क उँग लय के अं तम
सरे को छू ते ए बाहर नकल ।
डॉ टर दो दन बाद आया। मगर ऋ ष के लए नह ; मनु के लए। ऋ ष तो मनु के पश से
ही ठ क हो गया था या य द इ क़ के मोजज़े म आपका यक़ न न हो तो यूँ कह ल क ऋ ष के
बुख़ार क मयाद ख़ म हो गई थी। डॉ टर मनु के लए आया था। दो दन बाद जब ऋ ष ट् यूशन
पढ़ाने प ँचा तो दे खा क डॉ टर दरवाज़े से नकल रहा है। डॉ टर को दरवाज़े तक छोड़ने आए
छाबड़ा साहब ने बताया क मनु पछले दो दन से बुख़ार से गरी पड़ी है। उ ह ने यह भी बताया
क यह बुख़ार आजकल हवा म है। ऋ ष ने दरवाज़े पर खड़े डॉ टर और छाबड़ा साहब के
बीच के दरार से सरसरी नज़र से भीतर झाँकने क को शश क ; मगर कुछ नह दखा। ेम ऐसी
मूखताएँ करा ही दे ता है। जब इंसान यह भी भूल जाता है क दरवाज़े के ठ क सामने ब तर नह
लगा करते। ऋ ष लौट आया। उसके पास मनु क तरह चोरी-छु पे ही सही, पास बैठ पाने क
सला हयत नह थी। वह नह जान पाया क उसके हाथ म भी कोई मसीहाई है या नह ।
हाँ, मगर ऋ ष ने इतना ज़ र जाना क ेम म शरीर को जोग ही नह ; रोग भी लग जाते
ह। ेम बेख़ुद ही नह ; बीमा रयाँ भी साझा कर जाता है। अदला-बदली प क ही नह ,
पीड़ा क भी होती है।
लग बैठ पयु अंग सखी री

साल अपने पाँचवे महीने म था। अनुकंपा के आधार पर ऋ ष ने जो नौकरी का आवेदन कर रखा
था उसको लेकर बंधन से उसक झड़प तीखी हो गई थी। यू नयन के दशन क अगुआई के
कारण भी वह वैसे ही नज़र पर था। बंधन इस कारण भी उसक नयु म अड़चने पैदा कर
रहा था। उधर मनु क भी कुछ परी ाएँ नज़द क आ गई थ । छाबड़ा साहब मनु क नौकरी के
प म थे। वह मानते थे क लड़ कय क सही आज़ाद आ थक आज़ाद ही है। इस लए वह
ढूँ ढ़-ढूँ ढ़कर मनु से नौक रय के आवेदन भरवाते रहते थे।
सुबह के पहले ट् यूशन के बाद ऋ ष जब घर लौटा तो उसने दे खा क छाबड़ा जी बड़ी
ता से टहल रहे ह। उसे ख़ुद भी इस बात क चता ई, य क उसे पता था क आज मनु क
परी ा है जसका परी ा क राँची म है। इस व त तक तो उ ह नकल जाना चा हए था। वह
अपनी मोटरसाइ कल खड़ी कर भीतर घुसा ही था क छाबड़ा साहब ने उसे दरवाज़े पर ही घेर
लया-
“भले समय से आया तू पु र।” छाबड़ा साहब ने कहा।
“नम ते अंकल।” ऋ ष ने कहा।
“नम ते बेटा। एक मुसीबत से बचा बेटे। पार लगा मैनं।ु ” छाबड़ा साहब ने कहा।
“क हए ना अंकल।” ऋ ष ने कहा।
“तुझे तो पता ही है क आज मनु का कोई पतरा है राँची म।”
“हाँ अंकल, तो आपलोग अभी तक नकले य नह ?”
“वही तो परेशानी है पु र। अभी-अभी ख़बर आई है क कोई फ़ूड इं पे टर आ रहा है, वो
या कहते ह; हाँ, नरी ण करने। अब बता। कोई भला मानस र ववार को नरी ण करने आता है
या? एक तो ये तेरी हद बोलने म जबान उलट जाती है।” छाबड़ा जी ने एक साँस म अपनी
सारी परेशा नयाँ समझा द ।
“हाँ, तो कल के लए टलवा ँ उसका नरी ण?” ऋ ष ने ब त आ म व ास से कहा।
“अरे नह बेटा। सरकारी लोग को य नाराज़ करना। या पता कस बात पर खार खा
जाए। आज ही करना होगा। तू तो बस मनु को परी ा दवा ला।” छाबड़ा साहब ने ज दबाजी म
कहा।
“ या?” आ ख़री वा य सुनते ही ऋ ष का गला सूख गया। गले क हड् डी ऊपर नीचे होते
ए उसक परेशानी बयान करने लगी। उसने सपने म भी ऐसे कसी काम क उ मीद नह क थी।
“हाँ पु र। और कोई राह सूझ भी नह रही।”
“अंकल, ले कन मेरे तीन-चार ट् यूशन होते ह।” ऋ ष ने बहाना कया।
“तुझे नह जाना तो कोई गल नह पु र। पर ऐसी छोट बात तो न कर। सातव -आठव के
ब चे एक दन नह पढ़गे तो कौन-सी सरकार गर जानी है?”
“ऐसी बात नह अंकल। बस ये है क ब च के माँ-बाप टोक दे ते ह। अ छा ठ क है। आप
आंट को साथ भेज द जए। म साथ चला जाऊँगा।” ऋ ष ने कहा।
“जे वो होती तो गल ही कोई ना थी पु र। परस ही तो लु धयाने गई इसक माँ।” छाबड़ा
साहब ने अपनी परेशानी बताई। ऋ ष के पास अब कोई चारा नह था। उसे मनु को परी ा दलाने
म कोई द क़त नह थी। उसे बस मनु को घर से टे शन तक लेकर जाने क द क़त थी। मोह ले
के बाहर उसका तबा एक ठे ठ लड़के का था जसका लड़ कय से कोई वा ता नह था। आज
जब वह नकलेगा तो बाहर के लोग दे खकर या सोचगे! उसके दो त या कहगे! इसी चता से
वह टाल रहा था; मगर अब कोई चारा नह था।
वह भीतर अपने कमरे म गया। उसने अपने ब से म से कुछ पैसे नकालकर अपने बटु ए म
रखे और बाहर आ गया। बाहर आते ही उसने दे खा क मनु एक बड़ा-सा बैग लए मोटरसाइ कल
के पास उसका इंतज़ार कर रही है। ऋ ष ने गाड़ी टाट क और मनु के बैठने का इंतज़ार करने
लगा। मनु पीछे बैठने को ई क छाबड़ा साहब ने कह दया-
“झोला बीच म रख ले बेट !” छाबड़ा साहब ने वही कहा जो एक पता कहता। मनु ने
फ़ौरन दोन के बीच म झोला रख लया। मोटरसाइ कल सुबह वाली े न पकड़ने के लए टे शन
क तरफ़ चल पड़ी। ताज़ा हवा क एक झ क मनु ने अपने चेहरे पर महसूस क । वह ख़ुश थी,
ब त ख़ुश। लड़ कयाँ हर तरह से आज़ाद होते ए भी एक बंधन-एक भार महसूस करती ही ह।
मगर आज मनु के पंख खुल रहे थे। वह शहर से बाहर ऋ ष के साथ होने के ख़याल से ही
रोमां चत थी। मगर वह यह जता नह सकती थी। वह थोड़ी दे र शांत रही। उसे लगा क बात
ऋ ष को ही शु करनी चा हए। उसे लगा क ऋ ष कुछ नह तो कम-अज-कम परी ा के बारे म
ही पूछे। मगर जब ऋ ष ने कुछ नह पूछा तो अंततः मनु ने ख़ुद ही कहा-
“म तो परी ा छोड़ ही दे ने वाली थी। पापाजी ने ही ज़द ठान द ।”
ऋ ष ने उसक इस बात का जवाब नह दया। दरअसल, वह तेज़ हवा के झ के से सुन ही
नह पाया। मनु थोड़ी झुंझलाई; मगर फर त नक ज़ोर से ही कहा-
“पापाजी तो यूँ ही परेशान होते रहते ह। म तो अकेली भी जा सकती थी।” अबक बार
आवाज़ ऋ ष के कान म पड़ी।
“अ छा। कहाँ-कहाँ गई हो अकेली?” ऋ ष ने गाड़ी चलाते व त ही पूछा।
“मोगा म घर से को चग तक और यहाँ घर से कॉलेज तक।” मनु ने जस शेख़ी से कहा
उससे ऋ ष को हँसी आ गई। मनु ने उसे गाड़ी के शीशे म हँसता आ दे ख लया।
“हाँ, तो या आ! काम होता है तो इंसान रा ता नकाल ही लेता है। तूतनख़ामेन ने तो
भारत का रा ता दे खा नह था; ले कन जब ज़ रत पड़ी तो भारत क खोज कर द ना?” मनु ने
ऋ ष के हँसी के जवाब म कहा।
“तूतनख़ामेन नह वा को डगामा। वा को डगामा।” ऋ ष ने जरा ज़ोर से ही कहा। मनु को
अपनी ग़लती का एहसास तो आ, उसने पीछे बैठ ए ही ख़ुद को सर पर एक चपत भी मारी;
मगर अब हार मानना हार होती इस लए उसने कहा-
“हाँ हाँ। सब याद है मुझे। वा को डगामा- भारत और कोलंबस- अमे रका।”
ऋ ष मोटरसाइ कल दौड़ाने म त रहा। दोन के बीच दो मनट क चु पी फर छाई रही।
बस गा ड़य का शोर कोलाहल करता रहा। दो मनट क शां त के बाद मनु ने फर कुरेदा-
“और म मी को लाने के लए य कह रहे थे? अकेली लड़क से डर लगता है?”
“हाँ।” ऋ ष ने मु कुराते ए कहा।
“दाँत ह मेरे! चुड़ैल ँ म! काट खाऊँगी?” मनु ने ग़ साते ए कहा।
“हाँ।” ऋ ष ने हामी भरकर उसके ग़ से को और हवा द ।
“आए बड़े ! सूरमा बनते ह। छड़ को पीटते चलते ह। एक लड़क को परी ा दलाने म तो
हकलाने लगते ह। ये लो!” कहते ए मनु ने ऋ ष क मोटरसाइ कल क सीट म अपने नाखून
धँसा दए। ग़ सा नकालने का उसे यही सबसे कारगर उपाय सूझा। ऋ ष उसक बात नह सुन
पाया। उसे अचानक कुछ याद आया और उसने पूछा-
“एड मट काड तो रख लया है ना?”
“वाहेगु ! एड मट काड तो छू ट ही गया!” मनु ने अक मात् कहा।
“अरे यार!” ऋ ष ने गाड़ी रोक द ।
“वो मतलब, पता नह था न। कैसे जाना है। कसके साथ जाना है। जाना भी है या नह ।
तो ज द बाजी म मेज़ पर ही रह गया लगता है।” मनु ने मारे डर के क- ककर कहा। ऋ ष ने
अचानक गाड़ी मोड़ी; ख़ुश क़ मती से वे अभी यादा र नह गए थे। ऋ ष ने गाड़ी वा पस घर
क ओर ले ली। घर लौटकर उसने गाड़ी खड़ी क । मनु सरपट दौड़ कर ऊपर गई और एड मट
काड लेकर वापस आ गई। छाबड़ा साहब को दौड़ते ए ही उसने सारी बात भी बता द । नीचे
आई। ऋ ष गाड़ी पर ही बैठा आ था।
“ ण चलो।” मनु ने पीछे बैठते ए कहा।
“ फर से दे ख लो; कह पेन-प सल भी न छू ट गया हो।” ऋ ष ने तंज़ कया।
“आए बड़े !” ह ठ दा ओर बचकाते ए मनु ने कहा।
“और सुनो, गाड़ी तेज़ चलाऊँगा। चुपचाप बैठ रहना। डर लगे तो भी। कुछ बोलना नह ।
एक़दम चुप।” कहते ए ऋ ष ने गाड़ी तेज़ कर द । रा ते भर फर मनु ने कुछ नह कहा। ऋ ष
दो त -यार क नज़र से बचता आ क चे रा त से होते ए टे शन प ँच गया। टे शन प ँचकर
ऋ ष ने गाड़ी पा कग क ओर रोक मनु को पैसे दे ते ए कहा-
“दे र हो गई है। जब तक गाड़ी पा कग म लगाता ँ, तबतक तुम काउंटर से टकट ले लो।
ज द करो।” कहकर वह पा कग म चला गया। उधर मनु आगे तो बढ़ गई; पर काउंटर क भीड़
दे खकर सहर गई। उसे कभी इन सब काम क ज़ रत ही नह पड़ी थी। इस लए इन
प र थ तय से वो कभी दो-चार नह ई थी। वह टकट काउंटर के सामने अचं भत-सी खड़ी
रही। ऋ ष जब पा कग म गाड़ी लगाकर आया तो मनु को वह खड़ा पाया।
ऋ ष समझ गया क मनु टकट ले पाने म असमथ है। े न आकर लग चुक थी। ऋ ष
ज दबाज़ी म भया ांत आ। उसे े न छू ट जाने का डर हो गया। उसने उससे लगभग छ नते ए
पैसे लए और पछले दरवाज़े से सीधा टकट काउंटर के भीतर घुस गया। एक प र चत को
पकड़कर उसने दो टकट नकलवाए और बाहर आ गया। े न आकर लग चुक थी। मनु का बैग
उठाए ऋ ष तेज़ी से आगे-आगे चला और मनु उसके पीछे -पीछे । े न म भीड़ कम ही थी। एक
ख़ाली बोगी दे खकर ऋ ष उसम चढ़ा तो मनु भी उसके पीछे -पीछे चढ़ गई।
ऋ ष को े न क चलती हवा से परेशानी होती थी इस लए वह इंजन क उ ट दशा वाली
खड़क क सीट पर बैठा और उसने मनु को ठ क अपने सामने क खड़क वाली सीट द ता क
उसे खुली हवा मल सके। दोन कनारे क सीट पर बलकुल आमने-सामने तो बैठे मगर
चुपचाप। ऋ ष थोड़ा ख था और मनु यह बात समझ चुक थी। वह चुपचाप बैठ रही। कहाँ तो
उसके लए यह आज़ाद के दो पल थे। सपन के। उड़ने के और कहाँ यह बेपरवाह इसे चु पय
म जयाँ कर रहा है। बेचारगी म उसने चुपचाप कताब म आँख गाड़ ली। कताब से ऊब ई तो
खड़क से बाहर तेज़ी से भागते पेड़ गनने लगी। बीच-बीच म नज़र उठाकर ऋ ष क ओर दे ख
लेती जो अब ऊँघ रहा था। उसे ऊँघते ऋ ष क सूरत बड़ी यारी लग रही थी। कभी-कभी ऋ ष
का सर एक ओर लुढ़क भी जाता। मनु का मन होता क वह ऋ ष क बग़ल म जाकर बैठ जाए
और उसके गरते सर को अपना कंधा दे दे । मगर वह ऐसा नह कर सकती। ऊपर से वह ऋ ष
क बदतमीज़ी पर नाराज़ भी थी। या समझते ह अपने-आप को! चार कताब यादा या पढ़
ली, कुछ भी बोल दगे? लड़क का मन तो पढ़ नह सकते। आए बड़े ! कहते ह- कुछ न बोलना।
जैसे मनु इनसे बोलने को मरी जा रही है। अरे ज दबाज़ी म एड मट काड छू ट ही सकता है।
कौन-सी बड़ी बात हो गई? और पापाजी होते तो मुझे टकट लेने को कहते? कभी नह । आए
बड़े !
इ ह बात म डू बते-उतराते गाड़ी राँची टे शन पर लग गई। ऋ ष ने जब-जब आँख खोली
मनु को पढ़ता आ ही पाया। कारण यह भी था क मनु तो अपलक उसपर ही नज़रे गड़ाए थी
जब भी उसके उठने का आभास होता वह कताब म चेहरा गड़ा लेती। टे शन पर गाड़ी कते ही
ऋ ष ने बैग अपने कंधे पर लया और बाहर नकल गया। मनु भी पीछे -पीछे टे शन से बाहर
आई।
बाहर आकर दोन ने र शा लया और परी ा क पर प ँचे। ऋ ष रा ते म उसे “ या
करना- या नह करना” बताता रहा। जसम से कुछ बात मनु के प ले पड़ी और कुछ उसने
सुनना ज़ री नह समझा।
परी ा क प ँचकर मनु ने बैग म से वेश प और अ य ज़ री काग़ज़ नकाले और एक
फ क -सी मु कान दे कर परी ा क के दरवाज़े से भीतर वेश कर गई। ऋ ष हालाँ क उससे कुछ
कहना चाहता था; मगर तब तक मनु मुड़कर भीतर दा ख़ल हो चुक थी।
परी ा दो पाली म थी। ऋ ष तब तक शहर घूम आया था। शाम को ठ क परी ा समा त
होने से पहले वह क पर प ँच गया। शाम के पाँच बज गए थे। परी ा थय क भीड़ म से
नकलते ए मनु बाहर दखी। दोन क नज़र मली तो मनु ने एक थक ई मु कान द । ऋ ष को
लगा क उसक परी ा ठ क नह ई है; मगर कारण कुछ और ही था। मनु ने सुबह से कुछ खाया
नह था। ऊपर से गम और परी ा के दबाव ने उसके शरीर का पानी कम कर दया था। ऋ ष को
इस बात का भान नह था। उसने बाहर नकलते ही सीधा सवाल कया-
“कैसी ई परी ा?”
“अ छ ।” मनु ने बे खी से जवाब दया।
“वा को डगामा क जगह तूतनख़ामेन तो नह लख दया?” ऋ ष ने ह का मज़ाक़ कया।
मनु एक तो पहले से भूखी थी और उसे इस तरह के मज़ाक़ क उ मीद ऋ ष से ब कुल नह थी।
मनु ने कोई जवाब नह दया; बस -प ऋ ष के आगे कर दया। ऋ ष ने -प दे खा और
एक सवाल कया-
“काय का मा क या लखा?”
“एं पयर।” मनु ने चलते-चलते ही खा जवाब दया।
“ या? हे भगवान! पागल हो या!! काय का मा क एं पयर होता है? सब पढ़ना- लखना
बेकार है तु हारा!” ऋ ष ने ोध से कहा और फर कहता ही गया-
“एड मट काड संभाल नह सकती! टकट के लए लाइन म खड़ी हो नह सकती! दस
दफ़ा बताया था और फर भी, काय का मा क एं पयर लख आई! और यह बैग इतना भारी ले
रखा है, ट-प थर है या इसम?” ऋ ष ने खीझते ए कहा।
मनु; जो सुबह से सुनती ही आ रही थी। जो पहले से ही तप रही थी अब उबल पड़ी। वह
ऋ ष क ओर मुड़ी और दोन हाथ को सीने पर बाँधते ए तेज़ आवाज़ म ही कहा-
“आप अपने-आपको समझते या ह? आप मुझे पढ़ाते ह, इसका मतलब यह नह क
आपको मेरी बेइ ज़ती करने का अ धकार है। आप मुझे यहाँ तक ले आए, शु या आपका। म
चली जाऊँगी।” कहकर मनु ने ऋ ष के हाथ से बैग जबरन छ न लया। सामने से आते एक
र शा को रोका और उस पर बैठ कर चल द । वह इतनी भी बेवक़ूफ़ नह जो काय का मा क
ग़लत लखे। वह इस बात से चढ़ ई थी क ऋ ष को उसका ज़रा भी ख़याल नह था। उसे
चता थी तो बस परी ा क । इस लए उसने जानबूझकर जवाब ग़लत बताया था। उसने पीछे
मुड़कर भी नह दे खा। रा ते भर आँख प छती रही।
लड़क जब अपने सपन के साथ नकलती है तो सबसे यादा सुर ा अपने सपन क ही
करती है। उसके सपने एक सुबह से ही मार खा रहे थे। मोटरसाइ कल पर बैठने से लेकर टे शन
प ँचने तक उसने कई सपने दे ख लए थे। मगर उसे उनके इस तरह टू टने का अंदेशा नह था।
उसक आँख रोकते-रोकते भी छलछला उठ । र शावाले से आँसू छु पाते ए ही उसने पैसे अदा
कए और टे शन पर उतर गई। टे शन प ँचने पर ही मनु ने दे खा क उसके नंबर क गाड़ी
लेटफाम पर ही लगी ई है।
टे शन पर भीड़ ज़रा भी नह थी। उसने दे र नह क । टकट लए और े न म बैठ गई।
खड़क क सीट उसने जानबूझकर इस लए चुनी थी ता क अगर टे शन छू टते व त तक ऋ ष
आ ही जाए तो वह दे ख सके क मनु मोहताज नह है कसी क । ऋ ष जो क पछले र शे से
आ ही रहा था; जबतक वह टे शन पर प ँचा गाड़ी टे शन छोड़ रही थी। खड़क पर बैठ मनु ने
ऋ ष को टे शन म घुसते तो दे खा था; मगर ग़ सा इतना था क मनु ने मुँह फेर लया। गाड़ी
आउटर पार कर रही थी। उसके ख़याल क पतंग ने एक बार फर ढ ल ले ली।
“सोचते ह क म टकट ही नह ले पाऊँगी! अब कैसे ले लया टकट मने! सोचते ह मुझे
बैठने क जगह नह मलेगी। पूरा-का-पूरा ड बा ख़ाली पड़ा है। बैठकर जाऊँ, सोकर जाऊँ या
लेटकर जाऊँ; कोई दे खने वाला नह । पापाजी को ज़ री काम नह होता तो ऐसे आदमी का मुँह
दे खते या? घर प ँच जाऊँ पहले; फर पापा जी को बताती ँ। ऐसे आदमी के भरोसे भेजा था
मुझे! आए बड़े !”
ख़याल क पतंग समेटते-समेटते सूरज डू ब गया। वह े न म खानेवाल का इंतज़ार करती
रही। मगर जस े न म बैठने वाले ही न ह उस े न म बेचने वाले भला य फरगे। सूरज के
डू बते ही कंपाटमट का ख़ाली होना मनु को वच लत करने लगा। उसक बोगी म रोशनी भी नह
थी। ब ब क व था तो थी मगर जाली के भीतर से ब ब नदारद था। इसी लए अब वह सरी
सीट पर जाकर बैठ गई जहाँ रोशनी थी। एक बूढ़ा वहाँ पहले से बैठा आ था।
मनु फर खड़ कय के बाहर आँख गड़ाकर अँधेरे म ही पेड़ गनने लगी; मगर इस दफ़ा उसे
यह पेड़ अजनबी से लगे। उसे लगा क वह जस रा ते आई है यह उसके पेड़ नह है। उसे लगा
यह गुज़रते-भागते घर भी वो नह है जसे उसने आते व त दे खा था। उसे डर-सा लगा। उसने
फ़ौरन नज़र भीतर कर ली। उसे लगा क ऋ ष उसके साथ नह है इस लए उसे ऐसा म हो रहा
है। बस थोड़ी दे र म वह घर प ँच जाएगी और सब ठ क हो जाएगा। यही सोचकर उसने कलाई
घड़ी दे खी। उसक कलाई घड़ी ने शाम के सात बजाए थे। े न अगले टे शन पर लगी तो मनु ने
बाहर झाँककर दे खा। उसने दे खा क े न कसी ‘ह टया’ नाम के टे शन पर लगी है। उसने फर
मुँह भीतर कर लया। बूढ़े आदमी ने अपना सामान उठाया और उठकर जाते व त मनु से पूछा-
“उतरोगी नह ब टया?”
मनु ने इस बात का कोई जवाब नह दया। उसे अजन बय से बात न करने क हदायत
बचपन से याद थी। बूढ़े ने बहरहाल अपने ह से का परोपकार कया और कहा-
“यह गाड़ी आगे नह जाती ब टया!”
आगे नह जाती? मनु के कान म जैसे न तर-सा ख च गया। य नह जाती? उसे तो
बोकारो जाना है और वह तो े न नंबर दे खकर ही चढ़ थी। फर य नह जाएगी यह े न? वह
एक पल को ज़द हो गई। ऐसा लगा जैसे मुगाबी के सारे पंख ज़दा ही नोच लए गए ह ।
“यह आ ख़री टे शन है।” बूढ़े ने अपने ह से का सरा उपकार कया और कहा-
“बेट लगता है तुम डाउन े न म चढ़ गई हो। तु ह अप े न म जाना था।”
अप े न! डाउन े न! यह या नई आफ़त है? उसने नंबर दे खा था। दो नंबर म से एक
उसक गाड़ी का ही नंबर था। फर यह या हो गया है? मनु व मृत-सी बैठ रही।
“अगली गाड़ी सुबह पाँच बजे मलेगी।” कहकर बूढ़ा भी े न ख़ाली कर गया। मनु उससे
यह भी नह कह पाई क हाँ, म ग़लत े न म चढ़ गई ँ। हाँ, मुझे तो बोकारो जाना है। हाँ, अब
कोई रा ता सुझाइए। अकेली लड़क सबसे पहले ख़ुद को ही जान का अज़ाब समझती है। वह
यादा चौक ी हो जाती है। उसे आने वाला हर एक बंदा संभा वत ख़तरा ही दखता है। मनु को
लगा क य द वह इस बूढ़े को बता दे क उसने ग़लत े न पकड़ ली है तो शायद यही बूढ़ा उसके
जी का जंजाल बन जाए। मगर अब वह करे भी तो या? इसी कशाकश म उसने दे खा क बूढ़ा
भी उतरकर टे शन पार कर गया।
मनु का मन यह मानने को तैयार ही नह था क उससे ग़लती हो गई है। वह बैठ -बैठ े न
के चलने का इंतज़ार करती रही। मगर े न को न आगे जाना था, न गई। मनु कुछ दे र सुबक । फर
रोई। ले कन जब चुप कराने वाला कोई न हो तो ख़ुद ही चुप हो जाना आँख भलीभाँ त जानती ह।
मनु भी कुछ दे र बाद चुप हो गई और फर एक असंभव से इंतज़ार म मु तला हो गई क शायद
ऋ ष आ जाए और कुछ सोचकर अपनी ही मूखता पर फर रो पड़ी। टे शन ने भी उसे लाने म
कोई कसर नह छोड़ी थी। अमावस से काले अंधकार से घरे टे शन म स ाटा इस तरह पसरा था
जैसे यह टे शन न होकर क़ तान हो और घरवाले मुदा फूँककर वापस लौट गए ह । आवाज़ के
नाम पर झ गुर का शोर ही कान तक आता था। मनु अब यह भी भूल चुक थी क उसे भूख भी
लगी है। डर ने भूख और यास दोन को मार दया था।
मनु घुटन म सर घुसाकर दे र तक बैठ रही। उसे ऋ ष क ब त याद आ रही थी। याद से
यादा उसे उसपर ग़ सा आ रहा था। ऐसा भी या कर दया था उसने। पीछे -पीछे नह आ सकते
थे। ख़ुद तो कतनी बात बोलते ह, उसने तो कभी जवाब नह दया। मुझे बाहर लेकर आए।
पापाजी ने कसके भरोसे छोड़ा था। खाने का नह पूछ सकते थे? जानते ह एक अकेली लड़क
है; पहली बार घर से नकली है। उसका डर नह दे ख रहे। दे ख या रहे ह तो उसके झोले का
वजन। लड़ कय के बैग म या है कोई पूछता है भला? बनते समझदार ह! आए बड़े ! मनु
बुदबुदाई।
मनु अभी ऋ ष को कोसने म ही व त बता रही थी क उसे र से े न के खड़ कय के
लोहे पर डं डे के घसटने क आवाज़ सुनाई द । उसे लगा क कोई यह जाँच रहा है क कोई भीतर
बैठा तो नह है। भय क अ तरेक से उसके पाँव कांपने लगे। वह भागकर गई और ख़ुद को े न के
बाथ म म बंद कर लया। थोड़ी दे र म डं डे के घसटने क आवाज़ थम गई। नतांत डर के इस
व त म उसे लीपर ेणी का वह दयनीय बाथ म ही व त गुजारने का सबसे सुर त जगह
लगा।
कुछ दे र बाद फर मरघट सी शां त छा गई। उसे थोड़ी शां त तो मली; मगर यह यादा दे र
नह क । उसने बाथ म क खड़क से ही कुछ लोग को गुज़रते दे खा जो उसक ही बोगी म
सवार हो गए। वह चरसी थे ज ह पीने क जगह चा हए थी। भयानक सं ास म मनु भीतर ही
बैठ सु मरन करती रही। चर सय को न यादा दे र कना था; न ही वह के। हाँ, मगर उतने ही
व त क उनक ग़लीज़ बात जो मनु के कान म पड़ी तो उसका हौसला थोड़ा और टू टा। हौसला
टू टा तो स क द वार भी गरी। वह रोने को ई तो उसके आँसू ही न नकले। उसने महसूस कया
क उसके पास रोने को अब आँसू भी नह बचे थे; इसी लए उसका यान सरदद क ओर गया।
उसका सर, दद के कारण फटा जा रहा था। उसने बाथ म के ही दरवाज़े पर टे क लगाई और
आँख बंद कर ली। उसके पास सोचने-समझने क श नह रह गई थी। उसे यह भी नह पता
था क गाड़ी कुछ दे र बाद इस सुनसान लेटफाम से नकलकर धुलने के लए वा शग याड म चली
जाएगी। वह इतनी थक गई थी क उसक आँखे बंद होने लग ।
थोड़ा व त और बीता तो मनु उन द हो गई। उन दे ही अचानक उसे आभास आ क
कसी ने उसका नाम पुकारा है। उसक न द खुल गई। उसका मन फर अनजाने डर से भर गया।
उसने घड़ी दे खी। रात के नौ बज चुके थे। उसे लगा क उसका दल और दमाग़ भी उसके साथ
मज़ाक़ कर रहे ह। सुनसान जगह पर उसे कौन पुकारेगा? वह फर रोने को हो आई।
मगर फर उसे आभास आ क कोई उसका नाम पुकार रहा है। अबक बार उसे लगा क
उसका दमाग़ उसके साथ मज़ाक़ नह कर रहा है। उसे धड़का-सा लगा। वह इस आवाज़ को
शोर म भी पहचान सकती है। यह ऋ ष क आवाज़ थी। तो या ऋ ष उसे ढूँ ढ़ता आ यहाँ तक
आ गया है? उसके मन ने कहा क वह दरवाज़ा खोलकर बाहर नकल जाए और दौड़कर ऋ ष
के पास प ँच जाए; मगर अगले ही पल उसे ख़याल आया क वह आज सबेरे से ही कई ग़ल तयाँ
कर चुक है। हो सकता है यह भी कोई वहम हो, कोई ग़लती हो। वह ऐसा नह करेगी। वह उस
आवाज़ के और नज़द क आने का इंतज़ार करेगी।
आवाज़ बोगी-दर-बोगी नज़द क होती गई। और नज़द क। जब आवाज़ बलकुल ही मनु के
बोगी से आई तो उसने धड़ाक से दरवाज़ा खोल दया। सामने ऋ ष ही था। ऋ ष जबतक पीछे
मुड़कर मनु को ठ क से दे ख पाता; तबतक मनु उसके सीने म समा चुक थी। भावावेश म वो न तो
ख़ुद को रोक पाई; न अपने आँसु को। मनु और आँसू दोन ही ऋ ष के सीने से लग गए थे।
कंधे क ऋ ष क शट को मु ट् ठय से भ चते ही स टू ट गया था। मनु जार-ओ-कतार आँसु म
थी।
ऋ ष ऐसी कसी भी थ त के लए तैयार नह था। वह कसी और थ त के लए ख़ुद को
तैयार कर आया था। उसे लगा था क मनु मलेगी ही नह । य द मली भी तो उसपर च लाएगी,
कोसेगी या बात ही नह करेगी। उसने य क टे शन पर ही मनु को ग़लत े न पर बैठते दे ख लया
था इस लए वह अगली ही े न पकड़कर यहाँ तक आ गया था। वह तो यह भी तय करके आया
था क वह ख़ुद ही उससे पहले ही माफ़ माँग लेगा। मगर उसे यह सपने म भी नह लगा था क
मनु उस से इस क़दर लपट जाएगी। मनु अपने दोन हाथ से उसके पीठ पर के बु शट को भ चे
ए खड़ी थी। ऋ ष जसने अबतक अपने हाथ को खुला छोड़ा आ था; उसने भी धीरे-धीरे
अपने बाँह का घेरा मनु पर कस दया। बाँह के कसाव के साथ ही मनु का वार और फूट पड़ा।
वह और भी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।
“चुप हो जाओ। आ गया ँ ना।” ऋ ष ने भी फँसती-सी आवाज़ म ही कहा।
“आये बड़े !” मनु ने सीने म मुँह छपाए ए ही कहा। ऋ ष ने भी उसे ख़ुद से अलग नह
कया। वह असहज ज़ र आ था। उसे एक पल को छाबड़ा साहब क याद भी आई थी। उसे
सरे ही पल को यह ग़लत भी लगा। मगर फर भीतर क कसी आवाज़ ने उसक इस सोच को
कमज़ोर कर दया। उसने जाना क भीतर क इसी सोच को मान क पहली कताब म इ क़ का
नाम दया गया होगा। उसने मनु के बाल म हाथ फराते ए कहा-
“जान नकाल द थी तुमने। ऐसे कोई नाराज़ होता है या?”
“ऐसे कोई डाँटता है या? खाने तक को नह पूछा।” मनु ने पहला वा य ज़ोर से और
सरा वा य धीमे से कहा; मगर दोन ही बात ऋ ष के कान तक ग । उसने मनु को कंधे से पकड़
कर ख़ुद से अलग करते ए व मय से पूछा-
“तुमने सबेरे से कुछ नह खाया?”
मनु ने सर नीचे कए ए ही इनकार म सर हलाया।
“हे भगवान!” ऋ ष ने पेशानी पर हाथ रखते ए ख़ुद से ही ख होते ए कहा। मनु चुप
ही रही। ऋ ष ने ही फर कहा-
“तो कहा य नह ?”
“मौक़ा कहाँ दया आपने!” सुबह-सुबह परी ा हाल म धकेल आए और शाम म नकलते
ही…। मनु ने आँख म दे खते ए ही आँसू प छे ।
“अ छा चलो। पहले कुछ खा लेते ह।” ऋ ष ने उसे हाथ से ख चते ए कहा।
“नह , अब भूख नह है।” मनु ने फर ख़ुद को ऋ ष के सीने म छपाते ए कहा। दोन ही
दे र तक मू तवत खड़े रहे। बे हस। वह अपना चेहरा उसक शट पर गड़ाए रही। वह अपनी
उँग लयाँ उसके बाल म फराता रहा। ऋ ष के पास कहने को आकाश भर क बात थ । मनु के
पास सुनने को समंदर भर क उ सुकता; ले कन फर भी कमी दोन ही तरफ़ थी। ऋ ष के पास
श द नह थे और मनु के पास धैय। श द से जब जवाब नह आए तो धैय ने ही जवाब दे दया।
आ ख़रकार मनु ने कह ही दया-
“कुछ कहगे?”
“ या क ँ? ऐसा तो कुछ भी नह जो तुम नह समझती।” ऋ ष ने कहा।
“ फर भी, ऐसा तो ब त कुछ होगा जो कहना ही होता है।” मनु ने ऋ ष क छोट उँगली
चटकाते ए कहा। ऋ ष सुनकर दो ण को चुप हो गया। फर एक साँस भरी और कहा-
“पता है। आज जब तुम वहाँ से चली आई ना, तो मुझे लगा क म दे र से कसी अँधेरे कुएँ
के भीतर से आवाज़ लगा रहा ँ। मेरी आवाज़ लौटकर बस मुझ तक प ँच रही ह। मुझे लगा क
म दे र से कसी खोह म दौड़ता जाता ँ; मगर अँधेरा है क ख़ म ही नह होता। मुझे लगा क मेरी
माँ को जस साँप ने काटा था उसका चेहरा मेरी तरह ही था।” कहते-कहते ऋ ष का गला भर
आया। वह ण भर को ख़ामोश हो गया। कुछ पल तक ख़ामो शय का एहतराम मनु ने भी
कया; मगर उसे जो सुनना था वह ऋ ष ने अभी तक कहा नह था। उसने मु ट् ठय म भची
क़मीज़ पर उँग लयाँ चलाते ए कहा-
“और?”
“ फर मुझे लगा क मेरा इंटर ू है और मेरी आ ख़री े न छू ट गई है।”
“और या लगा?”
“मुझे लगा क मेरी माँ जाते व त रोई नह होगी; ग़ साई होगी। मुझे अचानक ही लगा क
यह जो लड़क अभी-अभी ग़ साकर चली गई है ना, यही ेम है।” कहकर ऋ ष ख़ामोश हो
गया। मनु मगर एकटक उसका चेहरा नहारे जा रही थी। आज वह सब सुन लेना चाहती थी।
अबक बार आवाज़ म एक ठहराव था; एक कंपकंपाहट थी; मगर सवाल वही था।
“और या लगा?” मनु के तीसरे बार पूछते ही ऋ ष को एहसास हो गया क उसके सवाल
ख़ म नह ह गे। उसने हँसते ए कहा-
“और भूख लगी है। खाना खाना है ना?”
इस सवाल का कोई जवाब दए बग़ैर मनु उससे लपट ही रही मानो जवाब लेकर ही जवाब
दे गी। ऋ ष कुछ ण मनु के ह ठ के ऊपर बन रहे पसीने क छोट -छोट बूँद का मोती दे खता
रहा और फर अचानक ही बोल पड़ा-
“कहना ही अगर ज़ री है तो सुनो, म तुमसे ब त यार करता ँ।” कहकर ऋ ष चुप हो
गया। दरअसल, चुप तो व त ही हो गया था। दे र तक एक शू य वातावरण म तैरता रहा।
बेआवाज़ आलम इस थ त क ज़ रत होती है। उनके पूरक। कोई भी व न, कोई भी अ त र
बोल इस मौन क सुंदरता म व न ही डालते ह। ेम म श द क आव यकता यून होती है। वैसे
भी ऋ ष न इससे यादा बोल सकता था; न इससे यादा सुनने क दरकार मनु को थी। उसे जो
व णम श द सुनने थे वह सुन चुक थी। उसके सारे सवाल के जवाब मल गए थे। मनु अपने
कंचे जैसी आँख से अपलक ऋ ष को दे खती रही और एक बार फर उससे लपटकर धीमे से
कहा-
“घर चल?”
“हाँ।” ऋ ष जैसे तं ा से जागा। उसने मनु के गद अपनी बाँह हटाई। मनु ने उससे अलग
होकर अपने कपड़े ठ क कए और फर खड़ी रही। ख़ुद को मनु से अलग करते व त ऋ ष ने
दे खा क उसक शट मनु के आँसु से भीग चुक है। ऋ ष ने दे खा क उसक शट वह भीगी है
जहाँ छठ पसली होती है।
ऋ ष ने जाना क छठ पसली के नीचे, ठ क नीचे दल होता है।
ऋ ष ने टे शन से बाहर नकलकर सरकारी तारघर से फ़ोन कर घर पर दे री क बाबत
सू चत कर दया। छाबड़ा साहब थोड़े परेशान थे; मगर मनु क आवाज़ सुनकर आ त ए।
टे शन के बाहर ही टै सी वाले ने रात और जवान जोड़े को दे खकर भाड़ा चार गुना बताया। ऋ ष
बना कसी हील- जत के मान गया। टै सी गंत क ओर चल द ।
“अ छा, जो अगर म आज न मलती तो घर कैसे जाते?” मनु ने साथ बैठे ऋ ष से कहा।
“घर कहाँ जाता! यह कह मर जाता।” ऋ ष ने बना एक भी ण गँवाए जवाब दया।
मनु ने फ़ौरन उसके ह ठ पर अपनी हथेली रख द । टै सी वाले ने यह दे खते ए दो पये टोल
टै स के नाम पर बढ़ा दए। ेम-पतंग को पैसे क फ़ कब रही है! गाड़ी चलती रही। रात,
चाँद, तारे, पेड़, खूट, मील के प थर, गले, शकवे सब पीछे छू टते रहे।
ेम वघन नह आए सखी री

जून का महीना वैसे ही गम होता है और अय क भरे इस पठारी शहर म तो यह तपकर भट् ठ हो


जाता है। सूरज पठार को गम करता है और पठार संपक म आने वाली हवा को। मगर जो हवा
माहौल को गम कर रही थी वह भौगो लक नह थी, राजनी तक थी और यह पंजाब से आ रही
थी। पंथ पर जान तक क़बान करने को तैयार खाड़कू लड़ाके वण मं दर म डे रा जमाए थे और
सरकार उ ह वहाँ से कसी हाल म बाहर नकाल लाने पर आमादा थी। सुनने म तो यह भी आया
था क पंजाब सरकार क क को द गई इस सूचना के बाद क थ त अब उनके नयं ण म नह
है, फौज़ बुलाई गई थी।
सम या भले ही पंजाब क हो मगर च तत दे श- वदे श के सख थे। एक तो सरकार जसे
ख़तरा मान रही है, आम जन का एक बड़ा समूह उ ह संत मान रहा है। सरी बात, अपने पूजा
थल पर फौजी कारवाई कसी भी धमावल बी क खती रग होगी। सख भी अलग नह थे और
इसी लए च तत थे।
छाबड़ा साहब ावहा रक ब त थे मगर अपने काम से काम रखते थे। सं ात थे तो बोलने
से पहले सोचते थे। ऋ ष क राजनै तक और शै णक समझ से वह भा वत थे। उसका एक
कारण यह भी था क उसक कमठता म उ ह अपनी परछा दखती थी। वह दे श- नया के
अहवाल पर ऋ ष से तमाम बात कया करते थे। ऋ ष इन बात के अलावा पंजाब क राजनी त
का ज़ भी छे ड़ दे ता था, जससे अ सर छाबड़ा साहब बचते रहना चाहते थे। दोन के ही अपने
वा जब कारण थे। ऋ ष को चूँ क परी ा के लए हर वलंत मुद द् पर पकड़ रखनी थी
इस लए वह इन पर बात करता था। छाबड़ा साहब बेकार क त ख़ी नह लाना चाहते थे जो क
बहस म ला ज़मी तौर पर आ ही जाती है इस लए वह इसका ज़ नह करते थे।
जून के महीने म मगर ऋ ष ने एक बड़ा बदलाव दे खा था। उसने ग़ौर कया था क छाबड़ा
साहब अब काफ़ गंभीर रहने लगे थे। वह उससे अब पंजाब पर ही बात यादा कर रहे थे। शायद
इस लए भी क अपना ःख बाँटने को उ ह कोई सरा मला भी नह ।
“पता है, आज वण मं दर को फौज़ ने घेर रखा है।” उ ह ने बताया क सरकार क भाषा
अलग होती है। ज ह सरकार आतंकवाद कहती है वह शहीद को तैयार पंथ के खाड़कू ह।
आगे कुछ ठहरकर बोले क हर मदर साहब के चार ओर फौज़ का क़ ज़ा है और भीतर
बैठे खाड़कु को बाहर नकालने का यास जारी है।
“जब लग सा हब मन वसायी, तब लग वघन न होय” सु मरते ए वह बुदबुदाए क
हर मदर साहब से बड़ा सख-तीरथ भारत म कोई नह । यह भी क ‘ननकाना साहब’ के
पा क तान म चले जाने का ःख आज तक सालता है सख को।
इन सब भू मका के बाद उ ह ने दरअसल असली बात बताई। अपना डर। डर इस बात
का क फौज़ अगर हर मदर साहब म वेश कर गई तो अनथ होगा। इसी डर के पशोपेश से ही
वह उठे और कट न क ओर नकल गए। ऋ ष क थ त महज़ एक ोता क रही। दन इस
उ मीद के साथ जैसे-तैसे बीता क अगला दन कोई अ छ ख़बर लए आएगा।
मगर अगले दन का भी अहवाल जुदा नह था। चाय हाथ म लए छाबड़ा साहब ने ऋ ष
को ऊपर बुला लया था। चाय दे ने आई मनु पता और ऋ ष को एक साथ खड़े दे खकर ही जुड़ा
गई। छाबड़ा साहब क बात म मशग़ूल ऋ ष ने चाय दे ते मनु के हाथ का पश महसूस कर
लया। ेमी ेम के इस चोर-बाज़ारी से स थे। खी बस छाबड़ा साहब थे। ब च के इस
नयावी खेल से अछू ते, कसी अंजाने डर से खी। रे डयो बंद करते ए उ ह ने फर तज़ करा
छे ड़ दया-
फौज़ ने आज ‘गु रामदास लंगर’ पर गो लयाँ चला ह। उ ह ने बताया।
राम दास लंगर। 300 साल से जा त, धम और तबे से ऊपर उठकर लोग को साथ बैठाने
का तथा साथ खलाने का उप म। गु क ‘पहले पंगत फर संगत’ का थान। वह बुदबुदाये-
“दे ग तेग फतेह।” अथात भूख के लए भोजन और कमज़ोर के लए सुर ा। यही तो इस क़ौम
का आधार है। उदास आँख म पानी जैसा कुछ आते ही वह बीते दन म चले गए। जस जगह
उ ह ने सेवादारी क थी। जस जगह वह खेलते-झूलते बड़े ए थे। जस जगह का आधार ही
तृ त हो। जस जगह हजार लोग का लंगर चलता हो वह आज गो लयाँ चली ह? अनथ कुछ
और नह होता। वह बुदबुदाए। चुप ए। हवा म ही हथे लयाँ घुमाकर मायूसी बयान क और फर
ख़ुद से ही कहा, “नह यह तो कुछ नह । अभी तो और अनथ दे खना बाक़ है।”
ऋ ष उनके ःख के संचार का मा यम भर है। बोल दे ने से और कुछ हो न हो सर क नस
के फटने का ख़तरा कम हो जाता है। ऋ ष इस संचार का सं ाहक है जसे बस सुन लेना है।
राजनी त क समझ उसे नह और धम तो आज तक कोई भी नह समझ पाया; मगर वह यह
समझता था क कसी भी धम थल म कारवाई ठ क नह है। अबक दफ़ा उठते ए उसने कहा-
“ चता न कर अंकल। आप दे खएगा। कल तक ही सब ठ क हो जाएगा। पहली बार
म य थ को लगाया गया है। नतीजा नकलकर रहेगा। बस आज भर ही अंधेर है।”
“रब करे ऐसा ही हो।” छाबड़ा साहब को सां वना के बोल जँचे।
सां वना के बोल हारते ए को जँचते ह राजनी त को नह । वह तो अपने फ़ायदे -
नु सान के तहत ही नणय लेती है। इस लए अगला दन, अगली सुबह भी अगर कुछ लेकर आई
है तो महज़ बूढ़ पेशा नय म शकन। छाबड़ा साहब आज सतनाम सैनी क कान क ओर टहल
लए। सतनाम सैनी ने अपने नौकर को मोढ़े नकालने को कहकर छाबड़ा साहब से बैठने को
कहा। दोन बैठ तो गए मगर अजीब-सी चुप दोन ओर डोल रही थी। हाल दोन से छपी नह थी
ले कन बुरी बात शु करने म हच कचाहट तो होती ही है। आ ख़रकार छाबड़ा साहब ने ही मुँह
खोला-
“आज पाँच इनफ़ै बटा लयन, दो पारा- म लटरी कंपनी और छह टक लगाए गए ह। जैसे
बाहरी हमला आ हो। वण मं दर क पूरी घेरेबंद कर द गई है। सरकार है क मारने को तैयार
है। भीतर घरे खाडकू ह जो मानने को तैयार नह । समझौते क जगह शहीद को तैयार ह।
वाहेगु जी क मज़ या है?” उ ह ने हथेली को के अंदाज़ म घुमाते ए कहा।
“डरा रही है सरकार। अरे! ऐसे कैसे हमला कर दे गी? हर मदर साहब ह; इनके यु
अ यास क जगह थोड़ी ना है।” सतनाम ने तैश म कहा।
“यही तो डर है सतनाम। सरकार को पता है क यह क़ौम डरने वाली नह है। अमृतसर म
पानी और बजली दोन काट द गई है। आम जनता को अलग-थलग कया जा रहा है। सरकार
मौक़ा और जगह दे ख रही है बस।” छाबड़ा साहब ने सर थामते ए कहा।
“वाहेगु सब ठ क करांगे। तु सी बेवजह ही फकर कर रए ओ।” सतनाम ने कहा। वैसे भी
वह ापारी आदमी था; यादा दे र तक ग़लत ख़याल नह पाल सकता। छाबड़ा साहब ने घुटन
पर हथेली रखकर खड़े होते ए कहा-
“हाँ, अगले 24 घंटे ठ क नकल जावे तो कुछ चंगी गल हो।”
इंसान जब भ व य को लेकर सशं कत होता है तो मयाद बढ़ाता जाता है। छाबड़ा साहब
भी वही कर रहे थे। अगले चौबीस घंटे जब कुछ अ न नह आ तो उ ह थोड़ा सुकून मला।
हालाँ क, कोई बात अख़बार म य नह आई इसको लेकर उनका मन च तत आ। मगर ख़ुशी
क एक ख़बर भी शंका के सौ वष को मंसूख कर दे ती है।
अगला दन यानी चार जून 1984 अ न लेकर आया है। ख़बर आई क वण मं दर क
पहचान, वण मं दर का बुज ‘रामग ढ़या बंगा’ गरा दया गया है। ख़बर यह भी आई क बातचीत
क आ ख़री को शश असफल होने के बाद यह आ। रामग ढ़या बंगा यानी वण मं दर का
ारपाल। सीधा खड़ा बुज जसे आतताइय और लुटेर के आ मण से मुक़ाबला करने के लए
बनाया गया था। वह कसी बाहरी हमले से तो नह , वरन् अपनी ही सरकार के गोल से गरा दया
गया। छाबड़ा साहब नज व पुतले क तरह पलंग पर गर गए। मनु जसे अब तक मसले का पता
लग चुका था और जसे छाबड़ा साहब के दमे क चता लग गई थी, वह छाबड़ा साहब के तलवे
रगड़ने लगी। छाबड़ा साहब आज कट न भी नह गए। बाएँ करवट दमे का आ मण तेज़ हो
जाता था इस लए दा हने करवट लए ही लेटे रहे।
इन बात से अन भ ऋ ष शास नक भवन पर नारेबाजी करने के बाद घर को लौटा।
आज उसने कोई ट् यूशन नह लया। आज बंध- नदे शक का घेराव करना था। शास नक भवन
से उसने मालूम करवाया था क फाइल बंध- नदे शक तक प ँच गई है; मगर अनुकंपा के आधार
पर वह केवल चतुथ ेणी पद म नयु के प धर ह। ऋ ष स हत धरने पर पाँच लोग और थे
जो नातक थे और ज ह यह पद मंजूर नह । आधार भले ही अनुकंपा हो मगर पा ता भी तो
कोई चीज़ है। यही कारण है क ऋ ष बाहरी परी ाएँ भी दे ता रहता था। बंगाल क साजट क
परी ा से उसे उ मीद भी थी; मगर वह कोई मौक़ा छोड़ना नह चाहता। इस लए उसने आज
बंध- नदे शक का घेराव करने का भी न य कया था। बंध नदे शक को इसक भनक पहले ही
लग गई थी इस लए उ ह ने आज का अपना काय म ही रद् द कर दया था।
पसीने और खीझ से सराबोर ऋ ष घर लौट आया। नहाकर उसने खचड़ी बैठाई और
खाकर सो भी गया। उसक न द तीन बजे खुली। उसे याद आया क मनु क परी ा के दन भी
नज़द क आ रहे ह। वह फ़ौरन तैयार होकर ऊपर आ गया। दरवाज़ा खटखटाकर अभी उसने
च पल उतारी ही थी क छाबड़ा साहब ने दरवाज़ा खोल दया।
ऋ ष के लए यह च कने क बात थी। यह व त छाबड़ा साहब के कट न म रहने का होता
था। मनु के बीमार होने का दन छोड़ द तो उसने आजतक उ ह इस व त घर पर नह दे खा था।
वह अभी हाथ से च पल उतारता सोच ही रहा था क छाबड़ा साहब ने कहा-
“बेटे, आज इसक छु ट् ट कर दे ।”
“ले कन अंकल, मनु क परी ा…।” ऋ ष बात पूरी भी नह कर पाया था क छाबड़ा
साहब ने बात रोक ली,
“आज शोक है बेटे।”
“जी अंकल।” इसके आगे ऋ ष का कुछ कहना बनता भी नह । शोक क बात के आगे
कहा भी या जाए। वह यह भी जान रहा था क शोक कस बात का है। उसके सख दो त म भी
इस बात का रोष था। वहाँ वह इस सम या के लए खाड़कु को ग़लत ठहरा कर लड़ जाता था।
उ ह अपनी समझ के मुता बक उ पंथी बता सकता था; मगर वह वही बहस छाबड़ा साहब से
नह कर सकता। जरह करते व त जगह, व त, उ और मसले दे खने होते ह; वह यह जानता
था।
“अ छा ठ क है अंकल, म कल…।” चुपचाप च पल पहनते ए उसने इतना ही तो कहा था
क छाबड़ा साहब ने पीछे से कहा,
“बेटे, कल से बंद कर दे इसक ट् यूशन।” छाबड़ा साहब ने अपने तहमद से 50 का नोट
नकालकर ऋ ष को थमा दया। ऋ ष के लए अज़ाब क थ त बन गई। उसे ण भर को बात
समझ ही नह आई। उसे लगा क कह छाबड़ा साहब को उसके और मनु के बारे म कुछ पता तो
नह चल गया? उसने फर भी ह मत करके पूछ लया-
“मुझसे कुछ ग़लती हो गई या अंकल?”
“नह पु र। ग़लती तो हमसे हो गई-सी लगती है।” छाबड़ा साहब ने भी बाहर नकलकर
च पल डालते ए ऋ ष के कंधे पर हाथ रखते ए कहा और चुपचाप कट न को नकल गए।
ऋ ष अजीब-सी उलझन म आ गया। उसने दन याद कए तो आ ख़री बार चाय दे ने के बाद
से उसने मनु को नह दे खा है। उसने पहले इसे अपनी यू नयन क तता को कारण मानकर
तव जो नह द थी। मगर अब उसे लगा क कारण कुछ गंभीर है। शंका से उसका मन घर
गया। मु कल घड़ी म आशंकाएँ चाहे नरथक ही सही, घेर ही लेती ह।
कह घरवाल को पता तो नह लग गया? नह । ऐसा नह होगा। अगर ऐसा होता तो कमरा
ख़ाली करने को कहा जाता। कह मनु ने कुछ बता तो नह दया? नह , ऐसा भी होता तो मनु
पहले मुझसे पूछती। कह उ ह ने कॉ पयाँ तो नह दे ख ली? नह , उसम ऐसा कुछ लखा भी या
है। कह पड़ो सय ने शकायत तो नह कर द ? नह , उसे ही जब कुछ दन पहले यह बात मालूम
ई है तो पड़ो सय को या पता होगी। फर कौन-सी वजह है क मुझे ट् यूशन छोड़ने को कहा
गया? कौन-सी वजह है क मनु भी कल से नह दखी। ऋ ष ख़ुद से ही सवाल करता रहा।
जो भी हो जवाब तो लेना ही होगा। वह फ़ौरन भागकर तार वभाग चला गया। उसे अपनी
अबतक क उ म एकमा फ़ोन नंबर जो याद था वह छाबड़ा साहब का ही था। 2042। उसने
चार बार उँग लयाँ घुमाकर फ़ोन लगाया। दो-तीन घनघनाहट के बाद फ़ोन मनु ने ही उठाया।
“अब नह पढ़ना या?” ऋ ष ने सीधा सवाल कया। मनु इस आवाज़ को शोर म भी
पहचान सकती थी। यह ऋ ष क आवाज़ थी। वह कान पर रसीवर रखे ए ही ब तर पर लेट
गई। आँसु को रोकने के यास म कुछ भी नह बोल पाई। ऋ ष ने मगर उसके साँस क
वचलन महसूस क । वह कुछ कहता; इससे पहले मनु ने ही कहा-
“म मी जी, सरस नु कबूतर लग रहे ने। म छत त णे आइयाँ।”
मनु जानती थी क उसके पास करने को जतनी बात ह उतने पैसा ऋ ष के पास नह ह गे।
इसी लए उसने कबूतर के बहाने ऋ ष को छत पर आने का इशारा दया था। ऋ ष जानता था क
यह इशारा है। छत पर कबूतर नह ह और य द कबूतर कोई है तो वही है। वह फ़ौरन पैसे अदा कर
घर क ओर दौड़ पड़ा।
सावधानी से छत क सी ढ़याँ चढ़ते ए ऋ ष ने दे खा क मनु पहले ही से ऊपर मौजूद थी
और छत से लगी पहली सीढ़ पर बैठ ई थी। उसने काली क़त पहन रखी थी। मनु यह जानती
थी क ऋ ष को काला रंग पसंद नह । उसे ख़ुद भी यह उदास रंग पसंद नह ; मगर फर भी उसने
यही रंग ओढ़ रखा था। ऋ ष के आने के आभास के बावजूद वह आँख नीचे कए बैठ रही। ऋ ष
के पास करने को कई बाते थ । छाबड़ा साहब, ट् यूशन, मनु, आँसू। वह कह से भी शु कर
सकता था। मगर उसने पूछा-
“यह य ?”
“शोक है आज।” मनु ने कहा।
ऋ ष ने यान कया क आज छाबड़ा साहब ने भी काली द तार ही बाँध रखी थी। रा ते म
मले दो-तीन और स ख के सर पर भी काली पगड़ी ही थी। यह शोक का च है। यह वरोध
का तीक है। तीका मक और शांत वरोध। कुछ ण चुप रहकर उसने मनु से कहा-
“ या बचपना है भाई! इससे या हा सल?”
“मैनँ ू क पता!” मनु ने भी कुढ़ते ए ही जवाब दया।
“ फर?”
“पापा जी ने कहा। पापा जी ग़लत नह कहते।”
“और म?” ऋ ष का सवाल था।
“मैनँ ू क पता!” मनु का जवाब था। इस जवाब के आगे सारे सवाल बेमानी थे।
“अ छा ठ क है। सब ठ क है। सब सही है। बस यह बताओ हमारे बारे म अंकल को कुछ
पता है?” ऋ ष ने पूछा
“नह ।” पाँव के नाख़ून से सी ढ़य क सीमट कुरेदते ए मनु का जवाब था।
“तूने कुछ कहा है?” ऋ ष ने फर पूछा।
“म य क ँगी। जब कहना होगा आप कहोगे। और ये तूने-तूने पंजा बय के लए ही छोड़
दो। अ छा नह लगता आप पर।” मनु ने फ़ौरन जवाब दया।
“तो उ ह ने मुझे ट् यूशन छोड़ने को य कहा?” ऋ ष ने मनु क बात को अनसुना करते
ए कहा।
मनु चुप रही। ख़ुद को रोके रखा; बस आँख से दो आँसू क नह पाए। उसने समीज क
बाँह से आँख प छ ली। ऋ ष भी दे र तक चुप रहा। फर उसने कहा-
“हरमं दर साहब पर हमले का मुझे भी ःख है। ग़लत आ है; ले कन मने तो नह कया।
इसम मेरी या ग़लती है?”
“कोई ग़लती नह ।” सुबकती ई मनु ने कहा।
“ फर?”
“पापा जी को पैसे क तंगी है। कट न पर भी उधारी चढ़ गई है।” मनु ने सर नीचे गाड़े ही
जवाब दया।
“अरे तो मुझसे कहते।” ऋ ष ने फ़ौरन कहा।
“आपसे य ? आए बड़े !” मनु फ़ौरन से भी पे तर ही जवाब दया।
“अरे! मेरे कहने का मतलब है कराया बढ़ा द। म दे ँ गा। मगर ट् यूशन न बंद कर।”
“म यह बात उनसे नह कह सकती।” मनु ने फर धीमे से कहा।
“तो फर कैसे मलगे?” ऋ ष ने अब असली सम या बताई।
मनु ने इसका कोई जवाब नह दया। दरअसल, उसके पास कोई जवाब था ही नह । जवाब
तो ऋ ष के पास भी नह था। इस लए उसने खीझ म कहा,
“ठ क बात है। लगा लो पहरेदारी। खड़क कूद के आ जाऊँगा।”
मनु ने घुटन के बीच दबे अपने सर को उठाया तो ऋ ष ने दे खा क उसक कंचे-सी आँख
म ऋ ष के लए धमक भरी थी। उसके आँसू ग़ायब थे। उसके चेहरे पर ेम और ेमपगी
मु कुराहट आ गई थी। जसे उसने बनावट ग़ से से ढक लया था।
“जपजी साहब का पाठ सीखने आ जाऊँगा। तब तो आने दगे?” ऋ ष ने मनु के ग़ से को
दे खते ए अगला उपाय बताया।
“उ ँ!” मनु ने इनकार म सर हलाते ए बेचारगी से ऋ ष को दे खा। न मल पाने का ःख
उसे भी था; मगर इस ण म वह ऋ ष के स क परी ा ले रही थी।
“तुम तो बाहर मलने से रही।” ऋ ष ने पूछा।
“ ँ।” मनु ने ऊपर से नीचे क ओर सर हलाया।
“ या ँ? मलोगी बाहर?”
“नह जी। बाहर कैसे?” मनु ने ब त भोलेपन से कहा।
“अ छा, बाप-बेट दोन मले ए ह?” ऋ ष ने कहा। उसने दे खा क कोई भी त या
दे ने से पहले मनु ने फर घुटन म सर छु पा लया।
“ठ क है। मत मलो। जा रहा ँ।” ऋ ष ने सी ढ़याँ उतरते ए कहा।
“ ँ।” मनु ने उसे फर छे ड़ा।
“अ छा सुनो, कबूतर भगाने के बहाने आ जाया करना।” ऋ ष ने फर दो सी ढ़याँ ऊपर
आकर धीमे से कहा।
“ ँ।” मनु ने अपने घुटने हाथ के बीच मुँह दबाकर ही कहा। उसने दरअसल अपनी
मु कुराहट छु पाई। ऋ ष सी ढ़याँ उतरने लगा। वह जब आया था तब अकुलाया आ था और जब
वह जा रहा था तो ग़ साया आ था।
“और सुनो, दार जी से कह दो क जो पैसे इतने ही बचाने है ना, तो फ़ोन कटवा द। तीस
पए महीने के यूँ ही ले जाता है साला।” भुनभुनाता आ ऋ ष नीचे उतर गया।
दे र तक मु कुराती ई मनु सी ढ़य पर बैठ रही।
ेम के मसले दरअसल, ेम तक ही सी मत होते ह। नयावी बवाल , सयासती अहवाल
और मज़हबी सवाल से ेमी अछू ते ही रहते ह। ह रयाणा, पंजाब को जल दे , न दे यह इनक
सम या नह होती। इ ह एकांत जगह नह मले तो यह इनक सम या है। अलग रा य बने न बने
यह सयासतदाँ जाने। यह तो बस इतना जानते ह क इलाही इ ह अलग न कर। ासद यह है क
ेम हर मज़हब का एक अंग है जब क इसे ख़ुद ही एक मज़हब होना था।
सखी री, सुख कर आई पयु संग

छठ पूजा। बहार का पव। उगते और डू बते ए सूय क आराधना का पव। तय के लए


उपवास का पव, े मय के लए उ लास का पव। तमाम ढ़य से जकड़े इस समाज म भी यह
दो दन ऐसे होते ह जहाँ एक पूरा वग, एक पूरा समाज बहती नद , पोखर, तालाब इ या द के
कनारे जमा होकर सूय क उपासना करता है। म त माँगता है। एकमा ऐसा पव जसम कसी
पां ड य-कम क ज़ रत नह होती। कहते तो यह भी ह क ौपद ने पांडव के वजय क म त
सूयदे व से ही माँगी थी।
तय के म त क आड़ म छठ पव े मय के लए ज त भी है। साथी क एक झलक
पाने को पानवाल , सड़क , चायख़ान और कैसेट क कान पर दन नकाल दे ने वाले े मय के
लए यह दन कसी मुराद के पूरे होने जैसा ही होता है। खड़ कय , छत , आँख के तरछे कोर ,
कॉलेज गेट क दरार या र शा के फटे पद के बीच से झाँकत काजल भरी आँख के लए भी
यह दो दन व छं दता के ही होते ह।
ेम दरअसल उन दो दन म धूप और हवन-साम ी के साथ हवा म तैरता है। ेम
दरअसल उन दो दन म पूजा क ड लया के ठ क पीछे चलता है। ेम दरअसल उन दो दन नंगे
पैर के आबल म फूटता है और पैर को नहारती आँख से बह नकलता है। ेम दरअसल उन
दन सूय क नगहबानी म फलता है।
पड़ोस के घर क ड लया ऋ ष को उठानी थी। मनु गाँव से आने के बाद से लगभग हर साल
छठ घाट जाती रही थी। मगर इस साल का उ लास कुछ और ही था। इस साल ड लया ऋ ष
उठाएगा; य क पड़ोस वाले का लड़का द ली गया है। जब से गया है तब से एक चट् ठ तक
नह लखी। मगर उससे मनु को या मतलब! मनु को तो इससे मतलब है क ड लया ऋ ष
उठाएगा।
आज डू बते सूय क पूजा होनी है। तय क टोली नकलने लगी। ऋ ष सर पर फल
और अ य पूजा साम ी से भरी ड लया लए खड़ा था। वह य खड़ा था? य क सारी टोली को
साथ चलना है। मगर सारी टोली य खड़ी है? चाची, भाभी, ब चे, बुआ सब तो आ गए ह। बस
मनु नह आई।
“इस नगोड़ी का सगार ही नह ख़ म होता!”
अभी-अभी यह एक फ़करा औरत क टोली से नकलकर ऋ ष के कान से गुजरा।
“जाने कौन घर बसेगी!” यह सरा फ़करा था। औरत सरे फ़करे के बाद छठ मइया को
याद करने म मगन हो ग ।
“काँचऽ ही बाँसऽ के बहं गया
बहंगी लचकतऽ जाए”

ऋ ष ने इस लोकगीत का अथ जानने को यान लगाया ही था क तभी बात बदल गई।


अचानक आवाज़ कान तक आई-
“आ ग राजकुमारी!” आवाज़ के साथ ही ऋ ष का यान राजकुमारी क ओर गया। उसे
अचानक याद आया क उसक गदन पर भारी वज़न रखा है। उसने फर भी गदन घुमाकर
‘राजकुमारी’ को दे खा। लंबे गरारे म मनु राजकुमारी ही लग रही थी। ज़मीन पर नज़र गड़ाए वह
इंतज़ार कर रही टोली क ओर चली आ रही थी। ऋ ष उसे दे खकर जड़ हो गया। उसे लगा क
शरीर का सारा ल पलटकर दल क ओर ही जा रहा है। वह अभी कुछ और दे र मू त बना रहता
क अचानक उसक पीठ पर एक जनाना मगर बुजग हाथ ने थाप दे ते ए कहा-
“ए बबुआ, च लए। नह तो यह अ य दे ना पड़ जाएगा।”
ऋ ष ठठककर मशीन क भाँ त चलने लगा। मनु उसके भटकाव पर खल खला पड़ी।
दो त के बीच क कसी खल खलाहट का कोई एक मतलब नकाल पाना अनुभव के बस म भी
नह । मनु क हँसी छठ के गीत म खो गई।
राह चलते ही मनु ने दे खा क ऋ ष नंगे पाँव चल रहा था। उसने हँसकर साथ चल रही ा
को कोहनी के इशारे से दखाते ए कहा,
“लगता है साहब ज द म जूता भूल गए ह।”
ा ने मगर मुँह पर उँगली रखकर चुप रहने का इशारा करते ए ड लया उठाए ए बाक़
लोग के पैर क ओर इशारा कया। मनु ने दे खा क सभी नंगे पाँव ह। उसने बीते साल म कभी
इस बात पर यान ही नह दया था। उसने समझा क ड लया उठाने वाले को इस त म जूता
नह पहनना होता। जैसे ही उसने इस बात को समझा वैसे ही उसे राह म प थर, काँटे, क ल और
रोड़े यादा नज़र आने लगे। उसका जी कैसा तो हो आया। उसके मन म आया क वह ऋ ष के
आगे चले और राह के सारे प थर हटाती जाए। मगर वह ऐसा नह कर सकती। वह अपनी
मजबूरी पर डबडबा गई।
फर उसे जाने या सूझा क उसने अपनी एड़ी ख़ुद ही मोड़ ली। चोट का बहाना कर थोड़ी
दे र क गई और फर सडल के हील को कोसते ए सडल उतारकर हाथ म ले लया। यह या है,
य है मनु इस सोच म थी ही नह । वह तो बस इस ण म थी।
मनु नह जान पाई क मूखता क एक प रण त ेम और ेम क एक प रण त मूखता भी
है।

तय क टोली छठ घाट पर प ँच चुक थी। ऋ ष ने घाट पहचान कर ड लया रख दया।


औरत -ब च क टोली ड लया के ठ क पीछे थान बनाकर बैठ गई। ऋ ष को ड लया उठाने के
कारण अपनी पीठ म जकड़न का एहसास आ। उसने कमर पर हाथ टकाकर अंगड़ाई तोड़ने
क को शश क । ऐसा करने क को शश म ही अचानक उसे अपनी पीठ पर सैकड़ सुइयाँ चुभती
ई महसूस ई। उसने अंगड़ाई बीच म ही छोड़कर पीठ क ओर हाथ लगाया। उसने पाया क
उसक शट बनैले ‘संखाहोली’ के काँट भरे बीज से भरी ई थी। वह हरे रंग के कँट ले इस बीज
को जानता था जो वह बचपन म ख़ुद भी दो त के बाल और कपड़ पर फकता रहा था। मगर
इस बार वह ख़ुद ही शकार आ था। उसे मनु पर शक था जो लड़ कय क ओट म घुसकर
उसक परेशानी पर मु कुरा रही थी।
ऋ ष क मजबूरी यह थी क वह इतने लोग के बीच शट नह उतार सकता था। उसने
अपने हाथ पीछे कर तमाम को शश क । जहाँ तक उसके हाथ प ँचे वहाँ तक के सारे कँट ले
बीज उसने नकाल लए; मगर अब भी कुछ काँटे ऐसी जगह पर थे जहाँ उसका हाथ नह प ँच
रहा था। नद के तलहट पर एक छोटे से चट् टान पर बैठा वह को शश कर ही रहा था क उसके
कान म एक यारी-सी आवाज़ आई-
“अंकल, म नकाल ँ ?”
आवाज़ 6 साल क ेया क थी जो पड़ोस के ा के घर क ब ची थी।
“अरे! तू यहाँ या कर रही है?” ऋ ष ने उसके लए च तत होते ए कहा।
“द द ने भेजा है।” ेया ने र तय क टोली क ओर इशारा करते ए कहा, जहाँ अब
केवल सर ही सर थे। ऋ ष मगर समझ गया क इस ब ची को मनु ने ही भेजा था।
“अ छा नकाल। मगर संभल के।” ऋ ष ने ब ची को ताक द क ।
“मुझे या संभलना। मने ही तो फक थी।” ेया ने मासू मयत से कहा।
“अ छा! ले कन य ?” ऋ ष ने जानबूझकर सवाल कया।
“ य क द द ने कहा था।” ेया ने उसी मासू मयत से फर जवाब दया। ऋ ष समझ
गया; मगर उसने द द के नाम के लए नह कुरेदा। बजाय नाम पूछने के उसने सीधा सवाल
कया-
“द द जो कहेगी वही करेगी तू?”
“नह , बस जब पॉ पस दे गी तब।” ेया ने शट म से आ ख़री काँटा नकालते ए कहा।
ऋ ष हँस पड़ा। वह ख़ूब जान रहा था क मनु क दो जोड़ी आँख लगातार उसे दे ख रही
ह गी। उसने ेया को गोद म उठाया और उसके दा हने गाल पर यार जड़ दया। फर उसे नीचे
उतारते ए ऋ ष ने कहा,
“जा, द द से कहना क अंकल को जवाब चा हए।” ेया गोद से उतरकर धीरे से उधर चल
पड़ी जधर मनु और मोह ले के तय क टोली थी। वह पहले से इंतज़ार कर रही मनु के पास
प ँची और जवाब क बाबत कह दया। गीत के शोर म मनु के अलावा कोई इस बात को सुन
पाए यह संभव नह था। या यूँ कह ल क कसी और का यह वषय भी नह था इस लए कसी
का यान भी नह था।
ेम क भाषा ेमी ही गढ़ते ह। यह श द, चे ा, शोर, चीख़, मौन, आहट, इशारा, शंसा,
अवहेलना इ या द कुछ भी हो सकता है। कूट का अथ वह ा कर ही लेता है जसके लए वह
भेजी गई है।
ऋ ष ने दरअसल ब ची के गाल पर यार जड़ते ए मनु से ख़ुद के लए यही यार माँगा
था; जसे सैकड़ क भीड़ म मनु ने ही समझा। अब गद मनु के पाले म थी। जवाब उसके पास
तैयार थे बस उसे सं े षत करने क व ध उसे नह सूझ रही। वह अभी सोच म ही थी क उसका
यान एक- सरे को स र लगाती ती औरत पर गया। मनु क ख़ुशी उसके चेहरे पर उतर आई।
उसने झट से घाट पर पड़ी अगरब ी का ख़ाली पैकेट उठा लया और उसे खोलकर काग़ज़नुमा
बना लया। फर आधी बुझी अगरब ी क एक सलाई से उसपर तीन श द टाँक दये-
मुँह, मसूर, दाल। यह लखते ए भी उसने अ त र सतकता बरती क कोई उसे ऐसा
करते न दे ख ले। अब मनु को बहती नद के पानी म उतरना था। जाने से पहले उसने अपने दो त
से मनुहार कया; मगर कोई पानी म उतरने को तैयार नह था। एक तो कपड़े भीग जाने का डर
और सरे यह डर क डै म के पानी का जल तर कभी भी बढ़ सकता था।
मनु को ऐसा कोई डर नह था। वह दोन हाथ से गरारा संभाले पानी क ओर बढ़ । ऋ ष ने
उसे धीरे-धीरे पानी म उतरता दे खा। उसे लगा क सूरज पानी म उतर रहा है; अ य अब ही दे दे ना
चा हए। उसके सीने म कह एक क अटक गई। वह पानी म ही सरे कनारे पर खड़ा मनु का
इस कनारे पानी म उतरना दे खता रहा।
मनु कनारे से दो क़दम भीतर आई। सूयदे व को दे खते ए आँख बंद कर कुछ फूल के साथ
काग़ज़ का वह टु कड़ा पानी म छोड़ दया। फूल तो फ़ौरन ही जलम न हो गए, मगर अगरब ी के
ग े पर लखा वह ेम-संदेश गगा नद के बहाव के साथ अपने गंत क ओर बढ़ चला। इसी
बीच लोग क नजर से बचकर दोन आँख एक बार मल जसने यह इशारा कया क वह
काग़ज़ तु हारे नाम क है, उठा लो।
असीम उ कंठा के बीच भावना को ज़ त करने क जो मजबूरी होती है, ऋ ष फ़लहाल
उसी से गुज़र रहा था। वह चाहता तो था क भागकर, दौड़कर, झपटकर उस काग़ज़ को उठा ले।
मगर उसे यह भय भी था क उसक यह ज द , उसक यह बेस ी मौजूद लोग क नज़र से बच
नह पाएगी। ेम य द है तो वह बदनाम होना गँवारा कर सकता है, बदनाम करना नह ।
ऋ ष इ ह मजबू रय से बँधा काग़ज़ के अपने समीप आने का इंतज़ार करता रहा। मनु
घुटने तक पानी म खड़ी अपने दो त से बात करते ए भी काग़ज़ का ऋ ष तक प ँचने का
इंतज़ार करती रही। काग़ज़ अंततः ऋ ष के हाथ म आ ही गया। पढ़ने के साथ उसके चेहरे पर
बनते- बगड़ते भाव मनु के चेहरे पर बज़ा हर मु कुराहट लाते रहे। पढ़ने के बाद वह काग़ज़
मसलकर फकना चाहता था; मगर फर उसे मोड़कर ऊपरी जेब म रख लया। ेम ख़ुशी-ग़म,
र ते-नाते, चट् ठ -प ी, याद-वादे सबकुछ सहेजना सखा ही दे ता है। वह ण भर को नभाव-
सा मनु को दे खता रहा जसके चेहरे पर हँसी, बदमाशी, चुहल और वजय के म त भाव तैर रहे
थे।
फर अचानक ऋ ष कुछ सोचकर आगे बढ़ा। मनु उसे आगे आता दे ख डर गई। वह धीरे से
पानी से नकलकर घाट के कनारे सबसे आगे खड़ी हो गई। ऋ ष ने पानी म ही आगे बढ़ते व त
जो योजना बनाई थी वह मनु के नकल जाने से अधूरी रह गई।
नराशा का एक ण वह अभी पूण भी नह कर पाया था क एक आवाज़ ने ऋ ष क तं ा
भंग कर द -
“बबुआ जी, अ य का व त हो गया है। आ जाइए।” यह आवाज़ ऋ ष के लए थी।
उसे अब सूयदे व को अ य दे कर लौटने क तैयारी करनी थी। वह अ य दे ने के लए आगे
बढ़ा।
कृ त े मय क सहा य रही है। वह समय के साथ मलकर संभावनाएँ रचती रहती है।
यहाँ भी कृ त ने एक अजीब संभावना रची थी। ऋ ष ने दे खा क वह जहाँ खड़ा है उसके ठ क
आगे पानी म मनु का साफ़ पारदश अ स बन रहा था। उसके अ स ने ऋ ष के मन क संभा वत
शैता नयाँ जगाई। उसने एक दफ़ा चोर नज़र से मनु क ओर दे खा और फर पानी म बन रही मनु
क परछा क ओर।
अब मनु क जगह ऋ ष के चेहरे पर कु टल और वजयी मु कान थी। मनु पानी म बनते
अपने अ स को दे ख तो चुक थी; मगर फर भी वह ऋ ष का मन पढ़ पाने से कोस र थी। उसे
ऋ ष से ऐसी कसी उद् दंडता क उ मीद ही नह थी; जो वह अब करने वाला था।
ठ क मनु के अ स के पास वह का। फर आँख बंदकर सूय को णाम कर अ य का पा
लए नीचे पानी क ओर झुका और पानी म बन रही मनु क परछा के ह ठ पर अपने ह ठ रख
दए।
अ य से उसने जब सर उठाया तो दे खा क मनु ेम और शम क दोहरी मार के कारण ठ क
डू बते सूरज के रंग क हो गई है। गुलाबी। ऋ ष क नज़र उससे मली मगर आँख कुछ बात कर
पात उससे पहले ही ऋ ष ने मनु के ठ क पीछे से आती ा को दे ख लया और अपनी आँख बंद
कर ल । ा मनु को कुछ दखाने के बहाने ख च ले गई।
सूया त हो चुका था। हवा म शीत घुल गई थी। ा ने अपनी वेटर तक नकाल ली
मगर मनु वैसी ही जड़वत खड़ी रही। इस व त-इस ल हा वह काठ क -सी हो गई थी। उसके
चेहरे पर ा क बात को सुनकर एक बनावट मु कान तो थी मगर वह इस व त कुछ सोच-
समझ पाने से परे थी। वह उस ल हे से नह नकल पाई थी जो अभी-अभी होकर गुजरा था। घाट
से चलने का व त हो गया था। ऋ ष को ड लया उठाने का मनुहार फर आ। ड लया उठाए ए
वह जाना तो मनु के पास से होकर ही चाहता था; मगर मनु औरत म घरी थी और उधर जाना
ख़तरे से ख़ाली नह । बात फैलते दे र नह लगती और अब तो दोन क हावभाव से भी ेम टपकने
लगा था। कसी भाभी ने अगर ज़रा-सा यान दे दया तो ेम का पकड़ा जाना तय था। यह
जानकर उसने सरी ओर से आकर ड लया उठाई। तय क टोली ड लया उठाए ऋ ष के पीछे -
पीछे घर क ओर चल पड़ी। मनु अबक छठ मइया क गीत के बोल हराने क को शश कर रही
थी-
“उहवे जे बाड़ी छठ मइया
बहँगी उनुका के जाये।”
गीत याद हो जाना ज़ री था। कल फर यही गाते ए सूय दय के अ य के लए आना भी
तो था।

लौटते-लौटते शाम ढल गई। अगला अ य चूँ क उगते सूय का होता है इस लए मुँह अँधेरे ही
नकलना पड़ता है ता क सूय दय से पहले घाट पर प ँचा जा सके। शाम से रात तक का व त
तय क झपकही, लड़ कय क बतकही का और लड़क के रतजगे का होता है। लड़क को
फर भोर के तीन बजे से ही ड लया लेकर घाट क ओर चलना था; इस लए लड़के आज सोएँगे
नह । उ ह ने मुह ले म ही बजली के पोल से ख चकर पीली वाली ब ब लगाकर रोशनी क और
रात भर जागने के लए बैड मटन, ताश, शतरंज और कैरम क बसात तैयार कर ली थी।
और लड़ कयाँ? लड़ कय के पास न काम क कमी थी न बात क । भा भय क चुहल,
ननद क ख च और सास के नदश जारी थे। मनु को चूँ क सुबह भी घाट जाना था और उसे
ा को साड़ी भी पहनानी थी इस लए वह आज रात ा के घर ही क । मनु हर साल ही छठ
म शा मल होती रही थी और बात पड़ो सय क थी, इस लए छाबड़ा साहब ने भी इंकार नह
कया। दे र रात तक औरत जलसा करगी। बंद दरवाज़ के पीछे ऐसे जलसे औरत को बं दश से
आज़ाद करने के अवसर होते ह।
गीत, संगीत, ढोलक, थाप, छे ड़, तंज़-ओ-मज़ाक़ के साथ जलसा ख़ म आ। मुह ले क
औरत अपने-अपने घर को नकल पड़ । तीन-चार घंटे क न द लेनी भी ज़ री थी य क फर
सुबह ही घाट को नकलना भी था। कमरे म ा और मनु ही रह ग । ा भी थकान के मारे
एक ओर लुढ़क गई।
मगर मनु क आँख म न द नह थी। उसे भी अगले तीन-चार घंट म उठना ही था; मगर
उसक न द उचाट होने का कारण कुछ और था। वह कमरे से नकलकर छत पर टहलने लगी।
घाट पर क गई ऋ ष क बदमाशी उसके शरीर म अब भी हरारत पैदा कर रही थी। लगातार
नाचते ए भी उसके ज़ेहन म बस ऋ ष का झुककर उसक परछा को चूम लेना ही घूमता जाता
था।
हवा म शीत थोड़ी और बढ़ गई थी। लड़क ने बाहर ही खचड़ी बनाने का समाधान कर
लया था। बात-बेबात मुँह से धुआँ नकलता जा रहा था। मुँह से नकलते धुए ँ का फ़ायदा उठाकर
ऋ ष ने सगरेट का एक कश छपाकर ख च लया। हथेली के पीछे से सगरेट छु पाते ए ऋ ष ने
सगरेट साथी को बढ़ाई जो उसके साथ शतरंज खेल रहा था। ऋ ष इस बात से अन भ था क
ब ब क पीली रोशनी से छानकर कोई उसे अपलक दे ख रहा है। इतना और इस क़दर क य द
कोई उसे दे खते ए दे ख ले तो कल ही ऋ ष के नाम से बदनाम कर दे । वैसे भी अब दोन ेम के
उस पड़ाव पर थे जहाँ ेम चेहरे पर ककहरे क तरह च पा हो जाता है जसे कोई भी पढ़ सकता
है।
मगर दे खने वाले को इसक परवाह कहाँ थी! मनु को इसक परवाह कहाँ थी! उसे तो
परवाह उस इंसान क थी जो हथे लय के पीछे छपाए सगरेट पए जा रहा था। उसने बारा जब
ऋ ष का हाथ मुँह क ओर जाता दे खा तो बनावट खाँसी नकाली। ऋ ष के मुँह म भरा धुआँ डर
से सरक गया और उसे असली खाँसी आ गई। मनु यह दे खकर मु कुरा पड़ी और फर बारा
खाँसने का अ भनय कया। खाँसी क यह लय-ताल ऋ ष समझ गया। वह बारा खाँसते ए
अपने दो त से ठं ड का बहाना कर वेटर लाने क बात कहता आ उठ गया। उठते व त ही उसने
दे खा क ा क छत पर टहलता वह साया उसी का मुंत ज़र था। इशार म जो बात ई वह ऋ ष
समझ गया। इस लए वह वेटर लाने के बहाने अपने घर के गेट म घुसा तो; मगर पछले रा ते से
चार फ़ ट क बाउं ी लाँघकर ा के घर म प ँच गया।
ती थककर ऊँघ-से गए थे। ब चे और लड़ कयाँ भी। न द तो बस ेम-आकुल को नह
आती। लगन हर वह काम कराती है जो वष बाद सोचने पर पागलपन लगे। ऋ ष इसी लगन म
पाँव दबाकर सी ढ़याँ चढ़ रहा था। हाँ, मगर चोर भाव से भी नह जा रहा था। उसके चोरी-चोरी
जाने म भी एक ग रमा थी। एक आ म व ास था। वह पहला माला पार कर गया। सरे माले पर
भी कोई सम या उसे नह दखी। दखी तो छत क ओट म खड़ी मनु। जसक आँख को दे खकर
ऋ ष ठठक-सा गया। य द वह सही पढ़ पा रहा था तो उसक आँख म आज शैतानी नह ;
वीकायता थी। समपण। यह भी क वह उसक बाँह म ख़ुद को नढाल छोड़ दे ना चाहती थी।
ग़लत या सही मगर यही ऋ ष पढ़ पा रहा था। ऋ ष और मनु के बीच दो हाथ क री रह गई
थी। मनु ने अपने हाथ क री ख़ म कर द । छत के दरवाज़े क ओट से ही उसने अपना हाथ
बढ़ा दया। ऋ ष को अपना हाथ बढ़ाकर उसे थाम लेना था। सीढ़ का आ ख़री पायदान शेष था।
मगर े मय क क़ मत म सी ढ़याँ नह होती। पहाड़ होते ह, द रया होता है। टू टे तीर होते
ह, मु कल होती ह।
ऋ ष ने अभी हाथ बढ़ाने का सोचा ही था क एक आवाज़ ने उसे ठठक जाने पर मजबूर
कर दया।
“बबुआ जी, यहाँ या कर रहे ह?”
आवाज़ ा क भाभी क थी। वह सबकुछ व थत कर सोने जाने क तैयारी म थ ।
मनु ने आवाज़ सुनते ही अपना हाथ वापस ख च लया। वह अब वहाँ खड़ी भी नह थी; जहाँ
अभी कुछ दे र पहले तक थी। मगर यह सम या मनु को नह ऋ ष को झेलनी थी। उसने
अ वच लत भाव से कंधे पर से गमछा उतारते ए कहा-
“भाभी जी, यह पूजा का अँगौछा रह गया था। सर पर रखे थे। वही ड लया के पास रखने
आए थे। अभी खाना खाने जाएँगे तो जूठा हो जाएगा।”
“उसक चता मत क जए। कल आपको सरा अँगौछा दया जाएगा। यह आपका आ।
जाइए आप भी थोड़ा आराम कर ली जए। थक गए ह गे और क हए तो हम ही हाथ-पैर दबा द।”
भाभी ने अपने पद के अनुकूल मज़ाक़ कया।
“भइया के रहते तो नह कहती ह ऐसा! भइया के रहते क हए तो हम भी लगे क आप
गंभीर ह।” ऋ ष ने हँसते ए कहा।
“कह दगे, हमको या डर लगा है आपके भइया से।” भाभी ने भी हँसते ए ही जवाब
दया।
“ठ क है। आने द जए उनको भी। दोन भाई सेवा का मौक़ा दगे आपको।” कहते ए
ऋ ष नीचे उतर गया। ऋ ष क साँस संयत हो ग क बात नह बढ़ । मनु क साँसे उ न हो ग
क बात नह बनी। दो ह ठ फर अछू ते ही रहे।

ऋ ष जब वेटर लेकर बाहर आया तो दे खा क लड़के चाय पीने बस टड क ओर नकल गए


थे। मटके म उसके ह से क खचड़ी य ही रखी ई थी। उसने दोने म खचड़ी नकाली और
चबूतरे पर बैठ गया। खाते ए उसने आदतन छत क ओर दे खा। उसने दे खा क मनु अब भी वह
खड़ी थी। उसे हैरानी ई। उसने झूठा ग़ सा दखाते ए मनु को सो जाने का इशारा कया। मनु
को उसके इशारे पर हँसी आ गई। मनु ने ऋ ष को सो जाने का इशारा कया। खाना ख़ म करते
ही बोकारो ट ल लांट से आती सायरन क आवाज़ ने यह जा हर कया क रात के एक बज गए
ह और अब बस दो घंटे के बाद घाट को चलना है। दो घंटे के लए या सोना! सो ऋ ष चबूतरे पर
बैठकर इशार म घर बनाता गया। मनु छत पर बैठ इशार म ही घर सजाती गई। ेमी एकाध
स दयाँ तो इशार म ही जी लेते ह।
ऋ ष के दो त के चाय पीकर लौटने तक तीन बज चुके थे। मनु उसके दो त को आते दे ख
छत पर से हट चुक थी। घर क ब याँ जलने लगी थ । छठ मैया के गीत कान तक आने लगे
थे।
लगभग एक घंटे के बाद य फर वही था। ऋ ष समेत सारे लड़के सर पर ड लया लए
ए घाट को चल पड़े । तय स हत पूरा प रवार उनके पीछे छठ गीत गाते घाट क ओर चल
पड़ा। घाट के रा ते म अँधेरा भी था और ऋ ष के हाथ भी ड लया पकड़े ए थे। यह मनु के लए
सुनहरा मौक़ा था। मगर मनु अब ऋ ष को तंग करना नह चाहती। मनु ने महसूस कया कल से
आज सुबह तक म ब त कुछ बदल चुका था।
घाट पर प ँचकर ड लया रख दे ने के बाद ऋ ष ने मनु को दे खा। हरे रंग क साड़ी म वह र
से ही दख रही थी। अपने दो त से बात करते व त वह बेबात हँस रही थी। ऋ ष अपने दो त के
कैमरे म रील भरकर लाया था। वह भा भय के बहाने सफ़ मनु क त वीर उतारता गया। मनु
उसक चाला कयाँ समझकर हँसती रही और दो त के पीछे छु पकर उसे परेशान भी करती जा
रही थी। ऋ ष ने अ य होते-होते पूरी रील क छ ीस त वीर उतार ली थी।
अ य पूरा हो गया। ऋ ष ने फर पानी म उतरकर सूय आराधना क और जल अपण करने
के बाद ड लया उठा लया। छठ मैया से सबक मुरादे पूरी करने क ाथना के साथ लोग घाट से
वा पस ए। ऋ ष ने कुछ मुराद माँगी। छठ मैया जानती ह क मनु ने भी वही मुराद माँगी थी।
लोग ड लया उठाए घर को लौट चले थे।

घाट से लौटकर ऋ ष पर बे- हसाब थकान तारी थी। 5-6 कलोमीटर पैदल चलने से उसके पाँव
जवाब दे चुके थे। दो दन से न द पूरी न होने के कारण वह घर आकर नहाकर ब तर पर लेटते
ही बेसुध हो गया। नढाल। इसी बेसुध अव था म उसे लगा क वह सपना दे ख रहा है और सपने
म उसके खुले दरवाज़े से ‘चाँद’ घुस आया है। चाँद ने ही दरवाज़े क साँकल भी चढ़ा द है। नापते
क़दम से चलता आ उसका चाँद अचानक ही उसके चेहरे के ऊपर झुक गया है; उसे महसूस
होता है। उसे यह भी महसूस होता है क चाँद क ज फ़ उसके गदन और सीने पर बखरी ई ह।
उसे फर लगता है क वह सपना दे ख रहा है और वह इसे सपना ही समझता आ करवट भी
बदल लेता अगर उस झुके ए बाल म से कुछ बाल ने उसके नाक म खुजली न उठाई होती। उसे
छ क आने ही वाली है क उसके चेहरे पर झुका आ चाँद अपने ह ठ से उसके ह ठ बंद कर दे ता
है।
तवील ख़ामोशी है। लंबी। बेसुध से दो ज म के बस ह ठ म ही लर ज़श है। कँपकँपाहट
है। हरकत है। बाक़ सारा ज म बे हस है। बे-हरकत।
उन दे ही ऋ ष को लगा क उसने गुलाब का अक़ पी लया है। बावजूद इसके वह बेजान ही
पड़ा रहा। न े । चाँद गुलाबी अक़ उड़े लकर हट गया। हटते ए ही उसने दे खा क ऋ ष यूँ ही
मख़मूर पड़ा है। उसे ऋ ष क इस बेहोशी पर हँसी आई। उसने ऋ ष क पेशानी पर आए बाल
को हटाकर उसका माथा चूम लया और चुपके से नकलकर छत क जा नब चली गई।
ऋ ष क बेहोशी अचानक टू ट । उसे आभास आ क कुछ आ है! और जो कुछ आ है,
कह वह हक़ क़त तो नह है! मगर वह तो सोया था। यह सपना भी हो सकता है। उसने अपने
ह ठ पर हाथ रखा। वही गुलाब क ख़ुशबू अभी तक बाक़ थी। यह मोजज़ा है! चम कार! ऐसा
कैसे हो सकता है? उसे लगा क वह पागल हो जाएगा। आ या है! यह कौन बताएगा? वह
दौड़कर छत क जा नब भागा; जहाँ चाँद सड़क क ओर दे खते ए भी उसी के इंतज़ार म था।
उसे पता था मख़मू रयाँ टू टगी और शराबी भागता आएगा।
“एक बात पूछूँ?” ऋ ष ने प ँचते ही सीधा कहा।
“ ँ।” मनु ने भी उसे बना दे खे ए ही सड़क क ओर ताकते ए कहा।
“अभी कुछ आ या?” ऋ ष ने एक ण ककर कहा।
“ ँ।” मनु ने फर हामी भरी।
“ या?” ऋ ष सुनना चाहता था।
जवाब जानने क ज द ऋ ष को थी; जवाब दे ने क ज द मनु को नह थी और फर वह
जवाब दे भी तो या? आ मीय ण बोलकर ह के नह कए जाते। वह फर भी ऋ ष क ओर
मुड़ी और उसे हाथ से पकड़कर सी ढ़य क तरफ़ लाई। सी ढ़य क ओट म। जहाँ उ ह दे खने
वाला कोई नह । उसने फर ऋ ष क आँख म आँख डाली और पूछा-
“कुछ नह याद?”
“नह । याद तो है मगर…।” ऋ ष ने कते-ठहरते ए कहा।
“शपू कम पया करो सरदार मेरे। कुछ तो होश रहा करे।” कहते ए मनु ने ऋ ष के दोन
हाथ को पकड़कर अपने गद समेट लया। ऋ ष अब आ त था क वह सपना नह दे ख रहा
था। वह ख़ुश था। दोन ही ख़ुश थे। उसने बाँह का घेरा तोड़ा और मनु को ठोड़ी से उठाया।
भावा तरेक म फर चाँद क आँख बंद हो ग । दो जोड़ी ह ठ एक दफ़ा फर से लरज़े। अबक
दफ़ा पुरहोश। साँस का वार चढ़ता चढ़ता ही रहा। व त मूक गवाह बना रहा।
वार का ण बीतते ही ऋ ष मनु से अलग आ। वार के बाद क थ त दोन क ही एक
जैसी थी। मनु को चुप-सी लगी थी और ऋ ष बदहवास-सा था। उसे समझ ही नह आ रहा था
क या कहे। उसने इसी बदहवासी म हवा के साथ होकर गुज़री एक महक क बाबत कहा-
“ये चंदन क ख़ुशबू आई ना!” ऋ ष के इतना कहते ही मनु ने उसके ह ठ पर अपनी
तजनी रख द ।
ऋ ष ने कुछ कहा तो नह मगर भँव उठाकर कारण पूछा।
“ श! म मी कहती ह जब कोई बे-साया ख़ुशबू हवा म तैरे तो उसे टोकना नह
चा हए।”
“ य !” ऋ ष ने पूछा।
“कोई नज़र लगा रहा होता है।” मनु ने ऋ ष क आँख म दे खते ए कहा।
“अ छा! तु हारे अलावा और कौन लगाएगा! इतनी बड़ी आँख को भी नजर लगती ह
या?” कहते ए ऋ ष ने मनु क उँगली अपने ह ठ से हटाई। दो जोड़ी आँख और दो जोड़ी ह ठ
एक बार फर एक साथ बंद ए।
ऋ ष ने महसूस कया शराब थ चीज़ है। उसने महसूस कया क गरम साँस से यादा
म दर, यादा मोहक कुछ नह । उसने महसूस कया क काँपते ह ठ से यादा न ध कुछ नह ।
उसने महसूस कया क साँस चढ़ती जा रही ह और व त कता जा रहा है।
‘व त।’ सबसे बल। सबसे समथ। व त अगर मेहरबानी पर आए तो छठ के दन यानी
29 अ टू बर को माँगी मुराद घर प ँचते-प ँचते मुँह को लग जाती है। मगर व त अगर
नामेहरबान हो तो अगले 48 घंटे बाद क तारीख़ होती है-
31 अ टू बर 1984

* गगा – एक पहाड़ी नद
कौन जनम के पाप सखी री

छाबड़ा साहब आज सुबह से ब त ख़ुश थे। सयालकोट म भारत और पा क तान के बीच सरा
एक दवसीय मैच था। वेटा म आ पहला मैच भारत अपने ब लेबाज क नाकामी और
पा क तानी अंपायर क कामयाबी क वजह से हार गया था।
तो ख़ुशी क वजह या थी? ख़ुशी क वजह थी ‘लाला अमरनाथ’ का लड़का। अपना
पंजाबी पु र ‘मो हदर अमरनाथ’ आज क तानी करने वाला था। दौरे के क तान सुनील गाव कर
ने कसी कारणवश सरा मैच नह खेलना था और इसी कारण अमरनाथ को क तानी का मौक़ा
मला था।
छाबड़ा साहब ने सुबह से ही रे डयो अपने क़ ज़े म लया आ था। आती-जाती रे डयो
वसी म भी छाबड़ा साहब ने सुन लया था क सयालकोट के ज ा टे डयम म मो हदर
अमरनाथ ने टॉस जीतकर ब लेबाजी का फ़ैसला कया है। वह लड़के क रद शता से ख़ुश ए
थे। मुद सर नज़र, ता हर न क़ाश, तौ सफ़ अहमद के होते ए पा क तान को पा क तान म रन
का पीछा कर हराना नामुम कन ही है। मो हदर को पहले ही क तान बनाना था। उ ह ने सोचा
और कान को रे डय के और नज़द क ले गए।
11 बजे के आसपास सारण एक अजीब-सी व न के साथ कट गया। उ ह लगा क
रे डयो क वसी म गड़बड़ी है। उ ह ने रे डयो का ए टे ना बाहर नकाला ही था क तभी
रे डयो चलने लगा। रे डयो मगर अब उसी टे शन पर केट सारण क जगह यह खद
समाचार दे रहा था क धानमं ी ीमती इं दरा गाँधी को आज तड़के गोली मार द गई है। कहा
जा रहा है क धानमं ी जी पर हमला उ ह के दो ‘ सख’ बॉडीगाड ने कया है। बार-बार,
लगातार इस ‘ सख’ श द पर ज़ोर दया जा रहा है। यह भूलकर क श य श द का यह अप ंश
महज़ एक श द न होकर ओज, वीरता और वा भमान का पयाय भी है।
छाबड़ा साहब जड़ हो गए। उ ह ने चलती ई रे डयो वैसे ही रख द । वह यह भी भूल गए
क लाला जी का बेटा आज जस मैच म क तानी कर रहा है वह भी पूरा ही नह हो पाएगा।
लाला जी का बेटा फर कभी क तान नह बन पाएगा। उ ह सरी बड़ी चता ने घेर लया। चता
अपने क़ौम क । अपने लोग क । अपनी बीवी क । अपनी बेट क । उनक चता जायज़ थी।
चता यह क दे श के धानमं ी पर हमला आ था और हमलावर सख ही थे।
शाम होते-होते धानमं ी क मौत के साथ-साथ द ली के ए स इलाक़े म दं गे भड़कने क
ख़बर अब रे डयो से यादा लोग के ज़बान पर आ गई। छाबड़ा साहब ने कट न से लौटते ए
सख होने का, गद् दार होने का तंज़ सुना और यह भी क रा प त जो क ख़ुद सख है वह भी
सुर त नह है। उनक कार म भी टायर फकने क को शश क ख़बर भी उ ह ने सुनी।
मगर उ ह रा प त क चता नह थी। उनक चता करने को रा था। उ ह चता इस शहर
म अपने और अपने लोग क थी। चता यह थी क या यह तनाव सैकड़ मील र मेरे ‘बोकारो’
तक भी प ँचेगा? या हम अपने घर म भी महफ़ूज़ नह ? बोकारो तो मेरा शहर है, मेरे अपने
लोग ह, मेरे भाई-बंध ह। त सीमी सयासत से मह म। या ये भी वैसा ही करगे जैसा वह रा ते
भर सुनते आए ह? या वह सुनते आए ह या उ ह सुनाया गया है।
इ ह उधेड़बुन म डू बे-बुझे मन से जब छाबड़ा साहब अपने घर म घुसने लगे तो उ ह ने
ऋ ष के कमरे के बाहर चार जोड़ी च पल दे ख । यह असामा य बात इस लए भी थी क इतने
दन म ऋ ष ने कसी को अपने घर पर नह बुलाया था। छाबड़ा साहब को एक बार ख़याल
आया क बाहर तक आने वाली फु फुसाहट अचानक बंद य हो गई। पर कुछ सोचकर वह धीरे-
धीरे सी ढ़य से ऊपर अपने घर म दा ख़ल हो गए।
नीचे ऋ ष के कमरे म बंद फु फुसाहट फर तेज़ हो गई।
“नेता भइया बुलाए ह।” चार लोग म से ‘पहले’ ने कहा।
“अभी?” ऋ ष ने पूछा!
“हाँ अभी।” पहले ने ही जवाब दया।
“ या बात है?” ऋ ष अचं भत है वह बेव त बुलाए जाने का कारण जानना चाहता है।
“हमको या पता? जैसे तुम वैसे हम। अब चलो।” पहले ने कठोर-सा जवाब दया। ऋ ष
ने सवाल के जवाब के लए ‘ सरे’ क तरफ़ दे खा मगर ‘ सरे’ ने भी कंधा उचकाकर अन भ ता
ही ज़ा हर क ।
“कल शोक सभा के लए आदमी जुटाना होगा। चलो।” कहकर ऋ ष ने पाँव म च पल
डाले और बाहर नकल गया। सड़क और बाज़ार म माहौल भारी है। लोग खी थे और ु भी।
आम धारणा यह थी क सख क ग़लती है। उनका मन बढ़ गया है। नह थी औरत पर गोली
चलाना कहाँ क बहा री है इ या द। रा ते भर क सवाल-ओ-दलील समेटे ऋ ष चार समेत वहाँ
प ँचा, जहाँ उसे बुलाया गया था। हॉल ठ क-ठाक ही बड़ा था और वहाँ उसके अलावा तीस-
चालीस लोग और थे ज ह वह नह पहचानता था। वह दे र से ही प ँचा था और जो पहली बात
उसके कान म प ँची, वह सीधे मम पर चोट थी-
“घर म अगर औरत ह; तो मेरे भाई एक काम करो; उ ह ज़हर चटा दो। य क र ा अब
तुमसे हो नह पाएगी और सरेआम नंगा होते दे ख नह पाओगे।” कहने वाला गरजा।
मौजूद लोग अब भी बात को पूरी तरह समझ नह पाए। दे श क धानमं ी क ह या ई है।
शोक क बात है और ोध क भी। वह समझ रहे ह ले कन इससे उनके घर क औरत , ब चय
का या सरोकार? वह नभाव खड़े रहे। गरजने वाले ने फर सर उठाया-
“भरोसे से बड़ा कुछ नह होता। भरोसा था तभी मैडम जी ने अपनी सुर ा म इ ह रखा था,
यह जानते ए क उ ह ख़तरा है। लोग ने ब त समझाया था क भरोसे लायक़ नह ह ये। मगर
धानमं ी जी नह मानी। आ ख़र कर ही दया व ासघात इ ह ने। इकतीस गो लयाँ दागी है उस
नह था औरत पर! पता है आप लोग को?” कहते ए उस श स ने अपने माल से अपना
चेहरा छपा लया। वह रो रहा था या रोने का अ भनय कर रहा था यह अंतर कर पाना मु कल
तो था; मगर इस ःख या ःख क अदाकारी ने अबक दफ़ा असर कया। लोग अब अ भ ाय
समझने लगे थे। उनक नस फूलने लगी। हाथ भ चने लगे। नफ़रत का छड़काव लोग पर
अनुकूल असर करने लगा। ऋ ष भी अब इस बुलावे का अथ समझ पाया और मन-ही-मन डर
गया। उसे लगा क कुछ बुरा होने वाला है। संग ठत प से। उसे धानमं ी क ह या का ःख तो
था और अगर वह अपना मन टटोले तो रोष भी। मगर यह रोष सफ़ चंद लोग से था ज ह ने यह
अपराध कया था। ल ह क ग़ल तय के लए स दय को सज़ा नह द जानी चा हए, वह यह
मानता था। अचानक ही उसके आँख के सामने मनु का भोला चेहरा घूम आया। बात के
घुमावदार होने से ही ऋ ष समझ गया था क नेता भइया सख से बदले क बात अब-तब कहने
ही वाले ह। उसे आने वाले व त क नृशंसता का भान तो नह था; फर भी वह अपने घर को
बचाने क जुगत सोचने लगा। अपना घर। डी-चार बटे तेरह। जसम मनु थी और मनु के होने से
ही उसके माता और पता भी थे। वह सोचता जाता था। उधर नेता आँख साफ़ करता आ मुद द् े
पर आ ही गया-
“दे खो भाई, इस दे श म तो धानमं ी ही सुर त नह है। फर हम अपनी सुर ा क
ज़ मेदारी ख़ुद ही लेनी होगी। लेनी होगी क नह ?” वह फर गरजा।
“हाँ-हाँ। लेनी ही होगी।” उ म हो चुके लोग च लाए। नेता ख़ुश आ; मगर ज़ा हर
करना ज दबाज़ी होती। वह गंभीर बना रहा और कहा-
“मालूम भी है। यह पंजाब म कसी और को नह चाहते। कहते ह ‘धोती-टोपी जमना
पार’। मतलब हम लोग। हम धोती-टोपी पहने वाले लोग वहाँ नह रह सकते। ख़ा लस कहते ह
ख़ुद को। तो हम कौन ए? मलावट । मलावट लोग के लए पंजाब म जगह नह । उ ह जमना
पार खदे ड़ दया जाए। पंजाब से बाहर। समझे?”
नेता एक ण का। उसने लोग के मम का परी ण कया और फर मम पर ही वार कया-
“और एक तुम हो! सालो, धोती-टोपी वालो! सरदार जी-सरदार जी करते ए जी- ज़ूरी
करते फरते हो। पंजाब तो छोड़ो, यह जगह। यह अपनी जगह भी तु हारी नह रहेगी! ठे कदार
कौन? न ला। तज़ारत कसक ? सैनी क । गा ड़याँ कसक ? दशमेश क । तु हारा या? धोती
और टोपी!” वह एक साँस म च लाया। उसक आवाज़ ने पहले से ही उबलती शरा म सीधे
नफ़रत धकेली। वह अब बात ख़ म करना चाहता था-
“दे खो, अगर एक-एक आदमी ने चार-चार नह मारे तो मान लेना क ध नही पेशाब
पलाया था तु हारी माँ ने। और पेशाब बह जाने के लए ही होता है। कही ई यह बात पूरे क
को अवाक् कर गई। बात ने वह चोट क थी जहाँ येय कर यह बात कही गई थी। कमरे का
माहौल उबाल पर था। कमरे के भीतर घुसे लोग उ मा दय म त द ल हो चुके थे। उ ह अब अं तम
आदे श क ती ा थी। अं तम आदे श आया-
“जो सरदार मले; जहाँ मले मारो। ख च के मारो। नकाल कर मारो। दौड़ा के मारो।
घसीट के मारो। कसी से डरने क ज़ रत नह है। फ़ैसला कर दो। कोई बीच म नह आएगा।
पे ोल पंप से, मट् ट तेल के डपो से, जो चा हए, जतना चा हए ले लो। बग़ल क मेज़ से अपने
मुह ले के गद् दार क ल ट उठाओ और साफ़ कर दो इस शहर को। फर कह रहा ँ जो चा हए
लो; मगर काम पूरा करो।” वह दहाड़ा।
शराएँ उ माद से फट पड़ने क हद तक ाकुल थ । उ माद नकलने को तैयार थे। तभी
नेता ने पूछा-
“तो शु आत कहाँ से होगी?”
इस सवाल के जवाब म मुदई छा गई। रोष और आ ोश चरम पर था और उसे बस तीली
भर क चगारी क दे र थी; मगर सब यूँ खड़े थे मानो नेता ने कोई सवाल न पूछकर मंतर पढ़ दया
था और सब बुत हो गए थे। सब को चुप दे ख नेता एक ण को हताश हो गया और फर गा लय
से उ ेजना भरने क को शश करते ए बारा सवाल हरा दया-
“शु आत कहाँ से होगी?”
“चार बटे तेरह से!” अबक दफ़ा पीछे से आती एक ठहरी ई आवाज़ ने सबका यान
ख च लया। कमरे म मौजूद लगभग सभी लोग पीछे मुड़कर दे खने पड़े ।
आवाज़ ऋ ष क थी। उसने अपने घर का पता दया था। बीच के व त म उसने कुछ सोचा
था और उस सोच के बाद ही यह जवाब दया था।
नेता ने छाती म साँस भरकर उसे दे खा और कहा-
“खोल के रख दो। बाहर ख चकर मारो। ज़लील कर के मारो। घमंड टू टना यादा ज़ री
है। घर से, टै सय से, क से, कान से, मकान से, कारख़ान से जहाँ मल जाएँ वह मारो।
सड़क पर ख चो और मारो। ठ क है?”
“हाँ। एक साथ आवाज़ आई।” शोर के साथ ही कुछ वशेष लोग के हाथ म पच बाँट दए
गए जसम सरदार के घर क पहचान दज थी। उ माद अपनी-अपनी राह नकल गए।
ऋ ष भी बाहर आ गया। बाहर आकर उसे व तु थ त क गंभीरता का एहसास दरअसल
अब आ। वह लोग का आ ोश तो दे खता आया ही था; मगर अब इसम राजनी तक ह त ेप
भी शा मल था। वह नकट भ व य क उस भयावहता को दे ख पा रहा था जो आने ही वाली थी।
बा द और भावनाएँ महज़ ताप से भड़क जाती ह। ताप मल चुका था, और वह इतना था
क अब इसे कोई शां त त भी शायद ही बुझा पाता। ऋ ष यह बात समझ गया था। इस लए उसने
ख़ुद पर ही भरोसा कया था। उसे अपने घर को बचाना था जो इस व त वह इन लोग के व
जाकर नह बचा सकता था। उसे इन लोग के साथ रहते ए ही अपने प रवार को बचाना था।
इसी लए उसने सबसे पहले अपने घर का नाम लया ता क लोग उसक तब ता पर शक न
कर। बाहर आते ही उसने अपनी टोली के सबसे बड़े आदमी से कहा,
“भाई, रात दस बजे। ठ क?”
“ह थयार है कोई सरदार के पास?” पहले ने पूछा।
“नह , कृपाण हो सकती है। मगर दे खा नह कभी।” ऋ ष ने जवाब दया।
“मौका न दगे कृपाण नकालने का। दस बजे। ठ क दस बजे।” पहले ने कहा और बाक़ के
तीन लड़क के साथ नकल गया। ऋ ष ने उ ह हर तरह से आ त कर दया था क अपने
घरवाल को मारने क यादा ज द उसे ही है। जब क इसके उलट वह समय लेकर कुछ सोचना
चाह रहा था। मगर सम या यह थी क उसके पास व त नह था। बलवा, दं गा और आपदाएँ
व त नह दे ती। उसने अपने घर पर हमले का व त मुक़रर तो कर दया था मगर वह जानता था
क वभी षका के कोई व त न त नह होते। वह तेज़ कदम से चलते ए घर प ँचा और
घर प ँचते ही गेट पर ही ठठक गया। उसके शरीर म झुरझुरी-सी दौड़ गई।
ऋ ष ने दे खा क मकान पर ट के टु कड़े से ‘एस’ का नशान उकेर दया गया था। वह
जानता था क इस ‘S’ का अथ ‘ सख’ था। उसके घर क नशानदे ही कर द गई थी जसक
सूची अबतक बँट चुक थी। जीवन म सरी बार उसे डर लगा। उसने याद कया क ऐसा ही डर
उसने मनु के खो जाने के व त महसूस कया था। उसे महसूस आ क मनु उसके डर क वजह
ई जा रही है। उसक ह काँप गई। उसने भीतर आकर फ़ौरन अपने कमरे का दरवाज़ा बंद
कया और बैठकर सोचने लगा। इस थ त म भी उसका दमाग़ तेज़ी से काम कर रहा था।
इ स लए उसने तपाक से उ मा दय का साथ दे ने क हामी भर द थी। उसने सोचा था क वह
ऊपर जाकर छाबड़ा साहब को सारी बात बता दे गा और उनसे इसी व त घर छोड़कर जाने के
लए कहेगा। छाबड़ा साहब के नकल जाने के बाद वह जाकर उन लड़क को बताएगा क उसके
मा लक मकान तो नकल रहे ह। जो करना है अभी करो। ले कन उनक तैयारी तो रात क है।
दन होने क वजह से वो कुछ कर नह पाएँगे और इस तरह उसपर कोई शक भी नह करेगा।
यही सोचते ए ऋ ष तेज़ कदम से सी ढ़याँ चढ़ने लगा क तभी उसे छाबड़ा साहब नीचे
उतरते दखाई दए।
“इस व त कहाँ जा रहे ह अंकल?” ऋ ष ने उ ह लगभग रोकते ए पूछा।
“गेट म ताला लगाने।” छाबड़ा साहब ने कहा।
“लाइए, म लगा दे ता ँ।” ऋ ष ने ताला लेते ए कहा।
“माहौल ठ क नह है। तुम भी घर से बाहर मत नकलो।” छाबड़ा साहब ने ताला ख चकर
दे खते ए कहा।
“अंकल। मुझे इसी बारे म आपसे कुछ बात करनी है।” ऋ ष ने चा भयाँ थमाते ए अपनी
बात रखी।
“कहो।” छाबड़ा साहब को अशुभ का भान हो गया था।
ऋ ष जानता था क छाबड़ा साहब अ थमा के मरीज़ ह और इतनी गंभीर बात उनपर या
असर कर सकती है; फर भी उसने सारी बात और योजनाएँ व तार म बता द । यह भी उनके घर
के बाहर भी नशान लगा दया गया है।
“और तुम भी उनके साथ हो?” सब सुनकर छाबड़ा साहब ने बस एक सवाल पूछा।
जसका जवाब फ़ौरन ऋ ष को नह सूझा। एक पल क गहरी साँस लेकर उसने कहा,
“मुझे मेरा घर बचाना है।”
“और तु हारे अपने लोग?” छाबड़ा साहब ने पूछा।
“जो मेरे अपने ह उ ह के साथ ँ।” ऋ ष को लगा क यह बहस नरथक है और व तखोर
भी। बहस तो वह घंट कर सकता है मगर व त ही उसके पास नह है। इस लए उसने फ़ौरन मुद द् े
क बात क ,
“आप बस इतना कर क आंट , मनु और क मती माल-असबाब लेकर अभी-के-अभी कसी
र तेदार के यहाँ चले जाएँ या से टर 2-सी वाले गु ारे चले जाएँ। नह -नह ! र तेदार भी कहाँ
सुर त ह गे! ऐसा कर ‘गु गो वद सह कूल’ चले जाएँ। मने सुना है क सख वह जमा हो रहे
ह। मामला शांत होने पर फर वा पस आ जाइएगा।” ऋ ष ने ज दबाज़ी म ही सही मगर समझाने
क को शश क ।
“और जब वा पस आए तो घर पर सरे का क़ ज़ा पाएँ! अपने ही घर के लए पु लस और
कोट के दरवाज़े खटखटाएँ! उ ह एक ह ते के भीतर ही अपने ज़दा होने का सबूत दखाएँ या
फर एक बार फर र यूज़ी के स ट फकेट के लए गड़ गड़ाएँ और फर कह बदबूदार नाले या
सड़ांध के पास बसाए जाएँ! नह बेटाजी, नह ! इस दफ़ा ये नह होने का। इस दफ़ा यह मरगे।
अपने लोग के बीच और चाहे तो तू ही मार दे ।” छाबड़ा साहब बोलते ए ँ ध गए। ऋ ष के पास
समय यादा नह था और छाबड़ा साहब मानने को तैयार नह थे। उसे ज द ही कुछ और
सोचना था।
उसे सोचना था सबसे सुर त जगह के बारे म। उसे सोचना था आने वाली काली सुबह के
बारे म। उसे सोचना था अपन के बारे म और सबसे ऊपर; उसे सोचना था मनु के सपन के बारे
म। वह तेज़ी से सोच रहा था। कुछ सोचते ए ही उसने अचानक सी ढ़य पर बैठे छाबड़ा साहब
को ऊपर चलने को कहा।
“ या आ?” छाबड़ा साहब ने सर उठा कर पूछा।
“बस च लए।” ऋ ष ने उ ह हाथ से लगभग ख चते ए कहा। ऊपर कमरे म मसेज
छाबड़ा और मनु दरवाज़े से सटकर नीचे क बात सुनने क को शश ही कर रह थ । माहौल क
नज़ाकत और मनु क रे डयो क आदत ने इतना तो बता ही दया था क सब कुछ ठ क नह है
और रही-सही आशंका छाबड़ा साहब ने शाम म गेट बंद कर पूरी कर द थी। ऊपर प ँचते ही
ऋ ष ने सबसे पहले दरवाज़ा बंद कया और हालात फर से तीन को बता द । यह भी क ख़तरा
जान-ओ-माल का भी है और यही थ त कमोबेश पूरे दे श क होने वाली है। बखरकर रह रहे
सख को यादा खतरा है; यह बात छाबड़ा प रवार ऋ ष क बात से समझ गया। छाबड़ा
प रवार तो पूरी कॉलोनी म ही अकेला सख प रवार था।
“अब या करगे?” मनु ने आँसी आवाज़ म कहा।
“आपलोग मेरे कमरे म रहगे।” ऋ ष ने लगभग आदे श दया।
“हम अपना घर छोड़कर कह नह जाएँगे! ये घर, ये मकान यूँ ही छोड़कर भाग जाने के
लए नह लया था।” छाबड़ा साहब ज़द पर अड़े थे।
“आप अपना घर छोड़कर कह नह जा रहे अंकल। बस यहाँ ख़तरा यादा है; इस लए
आप नीचे वाले कमरे म जा रहे ह। दे खए, वे जानते ह क नीचे वाला कमरा मेरा है और उसम
ताला भी इस वजह से लगा है य क म उनके साथ बाहर ँ। उनके पास समय नह होगा
छानबीन का। एक बार दे खगे क ऊपर कोई नह है तो हो सकता है क चले जाएँ और फर नीचे
वाला कमरा भी तो आप ही का है। म तो करायेदार ठहरा। आज ँ, कल नह ।” ऋ ष ने छाबड़ा
साहब का हाथ अपने हाथ म लेते ए कहा।
इस बार जब छाबड़ा साहब ने कुछ नह कहा तो ऋ ष को व ास आ क वह आगे बात
कर सकता है। उसने आगे बात छे ड़ी-
“आंट , आप रोइए नह और मेरी कुछ बात यान से सुन ली जए। घर म जतना भी आलू
या कंद है; पका ली जए। न जाने ये बलवा कतना लंबा चले। पीने का पानी मेरी सुराही म है।
यहाँ से ले जाना ख़तरनाक होगा। उससे ही काम चलाना होगा। घर से बस सोने-चाँद जैसे
क़ मती सामान और कुछ कपड़े ही लेकर च लए। कुछ कपड़े बखरा द जए और आलमारी खुली
छोड़ द जए।” ऋ ष ने जब कहना बंद कया तो उसने दे खा क मनु क माँ क जगह मनु रो रही
है।
“बेटा जी, सब ठ क तो होगा ना?” मनु क माँ ने आलू भगोने म डालते ए कहा।
“जी आंट । म ँ न। आप फ़ न कर। ऋ ष ने छाबड़ा साहब क दवाइयाँ सहेजते ए
कहा,
“वाहेगु ! कने इ तेहान लोगे तु सी।” मनु क माँ ने नाक पोछते ए ख़ुद से ही सवाल
कया।
ऋ ष ने अचानक यह महसूस कया क उसक मौजूदगी से मनु क माँ को शायद अपना
क़ मती सामान नकालने म झझक हो रही है।
“आप लोग सामान बाँध ल। म ज़रा नीचे से होकर आता ँ।” उसने छाबड़ा साहब से गेट
क चाभी लेते ए कहा।
नीचे आते ही ऋ ष ने सबसे पहले बाहर से जाकर अपनी खड़क क दरार से झाँककर
ख़ुद को आ त कया क बाहर से कुछ दखता तो नह है। य क उसे पता था क भीतर से
बाहर दखता है। कमरा छोटा होने के कारण तीन लोग खड़क के तरफ़ ही बैठ पाएँगे। दरवाज़े
के पास बैठना तो यूँ भी ख़तरे से ख़ाली नह है। आ त होने साथ ही के उसने सुराही म पानी भर
दया। वह थोड़ा सु ताना चाह रहा था मगर उसे पता था क अगले कुछ घंटे उसपर ब त भारी
गुज़रने वाले ह। इस लए वह उठा और फर ऊपर क ओर चल दया।
ऊपर प ँचते ही उसने दरवाज़े पर खड़ी मनु को दे खा। मनु। मनजीत छाबड़ा। जसे कभी
उसने इतना शांत नह दे खा था। इतनी उजाड़। इतनी शीतर । इतनी चुप। आज लगता है जैसे
सब जान गई है। नवाण क थ त है। घर के भीतरी दरवाज़े पर टे क लगाए शू य तक रही है।
उसे ऐसे दे ख ऋ ष थोड़ा डर गया; फर भी ख़ुद को संभालकर मनु क माँ से मुख़ा तब आ-
“तैयारी हो गई आंट ?”
“उजड़ने के लए या तैयारी करनी है बेटा जी। बस आपने जो कहा था वो रख लया है।”
मनु क माँ ने कहा।
“आइए फर, नीचे चलते ह।” उसने असहाय से पड़े छाबड़ा साहब को उठाते ए कहा।
धीरे-धीरे सी ढ़याँ उतरकर चार ऋ ष के कमरे म प ँच गए। छाबड़ा साहब को ज़मीन पर बठाते
ए ऋ ष ने कहना शु कया-
“आपलोग ज़मीन पर ही रहना और ज़मीन पर ही सोना। ख टया आवाज़ ब त करती है।
उसपर बैठना ठ क नह होगा। और हाँ, कोई कतना भी धमकाए, दरवाज़ा कतना भी पीटे या
चाहे कतना भी गड़ गडाए; दरवाज़ा मत खो लएगा। हो सकता है क वे लोग कई-कई बार आएँ;
तो एक बार के बाद ही न त मत हो जाइएगा।” ऋ ष ने एक साँस म कहा।
“तुम भी मारोगे?” छाबड़ा साहब ने अचानक ही पूछा।
“ या?” ऋ ष अचानक ए सवाल से सकपका गया।
“मने पूछा तुम भी मारोगे न उन लोग के साथ मलकर?” छाबड़ा साहब ने ढ़ आवाज़ म
पूछा। ऋ ष ने कोई जवाब नह दया। दरअसल, इस सवाल का जवाब उसे ख़ुद भी नह पता।
उसका मक़सद को इस प रवार क सुर ा है और वह अभी उसी बारे म सोच रहा है; मगर फर
प र थ त कससे या करवाए कोई नह जानता।
“समय काफ़ कम है। आप लोग अपना ख़याल र खएगा। इससे पहले वे लोग आ जाएँ
मुझे यहाँ से नकलना होगा। ऋ ष ने सवाल टालते ए कहा और कमरे से बाहर नकल गया।
कमरे से बाहर नकलकर उसने बाहर से ताला लगा दया।
कमरे से नकलकर ऋ ष फर ऊपर वाले कमरे म गया। उसके मुता बक कुछ काम अब भी
बाक़ थे। उसने ज द से टोव जलाई और उसक आँच ब कुल धीमी कर द । स जय म उसे
कुछ आलू मले। उसने एक छोटे भगोने म ख़ूब सारा पानी लया और उसम आलू डालकर धीमी
आँच कर टोव पर रख दया। इसके बाद उसने दरवाज़े के सामने भारी सोफ़ा ख चकर लगा
दया। सोफ़े के ऊपर दो पुराने ब से भी दरवाज़े से सटाकर लगा दए। जससे दरवाज़ा खुलने म
दे री हो। एक बार उसने घर क थ त दे खी। सब कुछ त- व त था। उसने घड़ी दे खी जो रात के
लगभग 9 बजा रही थी। समय कम था। उसने ज द से पीछे का दरवाज़ा खोला और सीवर पाइप
के सहारे नीचे कूद गया; हालाँ क कूदने म उसे थोड़ी चोट भी लगी; पर उसे अनदे खा कर वह
चौक क जा नब दौड़ पड़ा।
सखी री, यह जग बैरी

दं गे क रात का अपना ही स ाटा होता है। बाक़ सारी ख़ामोशी से अलहदा। ब कुल अलग। यह
आपको डराता नह , मरने से पहले क ख़ामोशी सुनाता है। सब कुछ सामा य रहते ए भी कतना
असामा य! यह स ाटा न जाने य झगुर को सबसे पहले सुनाई दे ता है। यह स ाटा तब टू टता
है जब बलवाई च लाते ह और झगुर चुप हो जाते ह। ऐसा ही शोर जब चौक क ओर से आना
शु आ तबतक ऋ ष चौक प ँच ही गया था। उसने दे खा क लगभग दस क झुंड म कुछ लोग
एक जीप फूँक रहे ह। उसके प ँचते ही ‘पहले’ ने उसे पहचाना।
“ या पाट ! बड़ी ज द मचा है तुमको? ‘समान’ पे नज़र है क ‘सामान’ पे? अरे हम लोग
तो आ ही रहे थे अनु ान शु करने।” पहले ने बेशम हँसी हँसते ए ऋ ष के कंधे पर हाथ
रखकर बे द बात क ; जसे समझकर भी अनजान बनना आज ऋ ष क मजबूरी थी।
“वही तो बताने आया ँ भाई। मुझे लगता है क उ ह शक हो गया है और वे कह नकलने
वाले ह। मुझे मकान-मा लक ने टै सी बुलाने को कहा है। बस वही दौड़ा-दौड़ा आया ँ।” ऋ ष
ने हाँफते ए कहा।
“अभी नकले तो नह ! जब तक तुम टै सी लेकर प ँचेगा नह तब तक वे नकलगे नह
और नकल गए तो और भी अ छा है तस ली से लूटगे पूरा घर।” सरे ने बीच म कूदते ए कहा।
ऋ ष उनक बात सुनकर सकते म आ गया; ले कन उसे यह बात इस लए भली भी लगी क इस
टोली का पहला मक़सद लूटपाट है।
“ले कन पु लस?” ऋ ष ने अपना डर ज़ा हर कया।
“पु लस! वो दे खो पीली पतलून म। जीप पर पानी डाल रहा है सब। तुम शासन का चता
मत करो। ये बताओ रॉड लोगे क रामपुरी?” पहले ने हाथ म छु रा चमकाते ए पूछा।
ऋ ष ने झगड़े , मारपीट, गुंडई ख़ूब क थी मगर वह सारी चीज़ कलेजे के बल पर क ग
थी। उसे कभी ह थयार क ज़ रत न महसूस ई थी न उसने इस बारे म सोचा था। मारपीट और
मारकाट के अंतर को वो समझता था; मगर अभी मनु का था और वह सं द ध होने का ख़तरा
नह उठा सकता था; इसी लए उसने ख़ुद पर ज़ त डालते ए कहा,
“जो भी मल जाए।”
“अ छा, ऐसा करो। तुम ये रॉड रखो। असलहा वैसे भी कम है।” पहले ने रॉड ऋ ष के
हाथो म थमाते ए कहा। अभी बात चल ही रही थी क ‘मार मार! पकड़ पकड़!’ के शोर के
साथ बा तरफ़ से भी एक टोली एक लड़के को दौड़ाती ई इस टोली म मल गई। सारे लोग
मलकर ‘मुह ला वशेष’ क तरफ़ आगे बढ़े । ‘ख़ून का बदला ख़ून’ और ‘एक के बदले चार
मरगे, गन- गन के सरदार मरगे’ च लाती उ माद भीड़ छाबड़ा साहब के दरवाज़े पर प ँची ही
थी क लै पपो ट क लाइट म ‘पागल गुरनाम’ दख गया।
‘पागल गुरनाम’ इस मुह ले का नह था। कह से भटककर आया था। वह सरदार भी नह
था। बस उसके बेतरतीब बढ़े बाल दे खकर कसी ने एक बार उसका जूड़ा बना दया था। ‘पागल
गुरनाम’ को वह जूड़ा और व मुह ला इतना पसंद आया क वह इस मुह ले से गया ही नह । इसी
मुह ले के ब च से चढ़ता- चढ़ाता वह गुमनाम, ‘गुरनाम’ हो गया था।
दं गाइय म से अ धकांश ‘गुरनाम’ क तरफ़ दौड़े । ‘यही है। यही है। सबेरे मठाइयाँ खा रहा
था।’ च लाते ए उ मा दय ने उसे घेर लया। ‘पागल गुरनाम’ यह समझ ही नह पाया क
पागल तो वो है फर ये लोग य द वाने ए जा रहे ह! और पागल भी या ही समझ पाता क
पागल ने उसे य घेर लया है। ख़ैर, द रद ने उसपर यादा व त ख़राब नह कया। लोहे के
स रये के एक सधे वार से गुरनाम छटककर एक ओर लुढ़क गया। वही स रया उसक छाती म
घुसाकर उलट दया गया। स रया जब छाती क पस लय और ह ड् डय के बीच फँसा तो उसे
छाती म कसी ू क भाँ त पेव त कया गया। गुरनाम दद से चीखा ज़ र मगर वह ची कार भी
वह शय के शोर म दब गई। गम ख़ून जब सड़क पर बह चुका तो गुरनाम ठं डा पड़ गया। दं गाइय
ने ख़ून का बदला ख़ून से ले लया था।
इधर बच गए कुछ लोग छाबड़ा साहब के घर क ओर दौड़ पड़े ; जनके पीछे -पीछे ऋ ष भी
था। बाहरी लोहे का गेट बंद था जसके बाद ही घर म वेश कर सकते थे। उ माद भीड़ को इतना
भी स न था क इसक चाभी क बाबत ऋ ष से पूछ लेते। गेट तक प ँचते ही पहला चीखा,
तोड़ तोड़! साला ताला बंद कया है! ताला भीतर से बंद है! अभी ऊपर ही ह! ऊपर ही ह
साले! उ माद अधीर हो रहे थे। हट बहनचो! रॉड लगा! अरे मोड़। ऐसे, हाँ मोड़-मोड़! शाबाश!
बाहरी गेट का ताला तोड़ दया गया था।
“ऊपर से! ऊपर से! ख च के नीचे लाओ सालो को! मारो इन सरदार को! दे श के गद् दार
को।”
“ना ना! ऊपर ही ऊपर ही मार दे ते ह! एक के बदले चार लगे आज!”
शोर करते ए बलवाई जब भीतर घुसे तो ऋ ष उनम सबसे आगे था। उसने सावधानी से
अपने दरवाज़े को घेरते ए बलवाइय के लए ऊपर जाने का रा ता दया। जब दस से भी ऊपर
क सं या म बलवाई सी ढ़य से ऊपर चले गए तो वह भी तेज़ी से दौड़ता आ ऊपर जा प ँचा
और दरवाज़ा तोड़ते लोग के साथ दरवाज़े पर कंधे के ध के दे ने लगा।
दरवाजा तोड़ दे ! तोड़! तोड़! तोड़ दरवाजा! आवाज़ का शोर उठा।
हट ब हनचो! ध के से नह टू टेगा। बीच म रॉड घुसा के तरछा घुमा। हाँ ऐसे। भीतर ही ह!
भीतर ही ह! भीतर से दरवाज़े पर कुछ लगा दया है माधर…! सरे ने दरवाज़े पर ज़ोर का ध का
मारते ए कहा।
“रोड़ पे खीच के मारना है इसको। नेता बनता है साला ये! तीसरे क आवाज़ आई।
“तोड़। तोड़। टू ट गया। टू ट गया।” दरवाज़ा जो भीतर से सोफ़े के कारण थोड़ी दे र तरोध
कर पाया था आ ख़रकार टू ट गया। बलवाई धड़धड़ाकर अंदर घुस गए।
“कहाँ ह? कहाँ है? अरे, अरे बाथ म म दे ख!”
“उस कमरे म। उस कमरे म।”
वह कमरा! खाली कमरा नह था। वह गु ंथ साहब का परकाश क था। इतने शोर-
इतनी आ ांत प र थ त म भी अलौ कक शांत क । बलवाइय ने क को दे खा। मगर घुसने क
ह मत नह कर पाए। पीछे मुड़े और फर लूट म मु तला हो गए।
“खाना बना रहे थे साले”! या है दे ख तो! आलू!”
“अरे रे रे! ये पीछे का दरवाज़ा खुला है। भाग गए। लगता है यही से भागे ह। हाँ, अभी-
अभी भागे ह। आलमारी खुली है।”
“लड़क भी साथ म है। यादा र नह भागे ह गे।” ऋ ष ने यह बात जानबूझकर कही;
मगर उसके इतना कहने से पहले ही बलवाई दो भाग म बँट गए थे। जो लोग सामान लूटकर
भागने क ज द म थे वो हाथ आए सामान के साथ ही भागने लगे। बाक़ बचे लोग को
र पपासा थी। उ ह लेकर ऋ ष बाहर क ओर भागा।
हाथ म रॉड लए ऋ ष सबसे पहले बाहर नकला; ता क वह दखा सके क उ ह ढूँ ढ़ने क
सबसे यादा ज द उसे ही है। सब को साथ लेकर भड़काऊ नारे च लाता वह मुह ले से र
नकल गया।

ऋ ष जब नकला तो वह बस इतना जानता था क उसे इन लोग को अपने मुह ले से र ले


जाना है। इतनी र क वह सबेरे से पहले यहाँ लौट ही न सक। ले कन वह यह भूल गया था क
वह जस रात म नकला है वह सामा य रात नह थी। वभी षका थी। वह जस राह पर नकला
है वह सामा य राह नह थी। मरी चका थी जो उसे कहाँ ले जाकर छोड़े गी वह नह जानता। वह
तो यह भी नह जानता क अब वह महज़ एक यादा था। रात का मसौदा तो दरअसल उनके पास
था जो साथ नकल आए थे और मसौदा भी या था; कुछ घर क नशानदे ही थी। उ माद था।
र पपासा थी। अफ़वाह थ और अफ़वाह भी ऐसी जो नस म उ ेजना घोल दे -
- इं दरा जी क ह या के बाद मठाइयाँ बाँट ग ।
- कहा गया ‘ मठाइयाँ खाइए, नानी मर ग ।’
- गु ार म रात रोशनी क सजावट क गई।
- कल सारे सरदार ने ख़ुशी म नारंगी पग ड़याँ पहनी थी।
- धानमं ी के हमलावर ने कहा है क सफ़ वही प व ह। ‘खा लस।’
- उनके ख़ा ल तान म सख के अलावा सब चुनचुन के मारे जाएँगे।
- पा क तान से े नग लेकर क भर-भर के आतंकवाद दे श के हर ज़ले म घुस आए ह।
इ ह लोग ने उ ह पनाह द ई है।
ह मत तो दे खो! दे श का मु खया ही सुर त नह तो अपनी सुर ा ख़ुद ही तो करनी होगी।
आज इं दरा जी ह। कल हमारी माएँ उठा ली जाएँगी। परस हमारी बहन। धनबाद म तो दशमेश
सरदार के एक क म चौदह लड़ कयाँ भी मली ह। और-तो-और त ता पलट भी न हो जाए
कह ! ह थयार भी इनके पास प ँचने ही वाले ह। े न चल ही चुक ह पंजाब से। पा क तान से
सहायता मल रही है।
छाबड़ा साहब और उसके प रवार को खोजती भीड़ को सरा काम मलने म यादा व त
नह लगा। ऋ ष और उसके सा थय ने र से आते एक शोर पर कान लगाया। अचानक ए शोर
ने ऋ ष और उसके साथी लड़क का यान ख चा। तब पाँच-सात लड़के एक बले-पतले लड़के
को से टर-2 क ओर से दौड़ाते ला रहे थे। भागने वाला लड़का दे खकर कह से सरदार नह लग
रहा था। लड़का तेज़ दौड़ रहा था और इतना तेज़ क पीछा करने वाले गली के मुहाने तक ही
थककर क गए थे।
पीछा करने वाल को ओझल होता दे खकर लड़का थोड़ा धीमा तो आ मगर खाँसते-
खाँसते आगे ही लड़खड़ाकर गर भी पड़ा। उसक बद क़ मती यह थी क ऋ ष क टोली वह
खड़ी थी। ‘ सरे’ ने उसे कॉलर से पकड़कर उठाया ही था क पीछे खड़ा ऋ ष कुछ दे खकर
सहर गया। लड़के के गदन पर पसीने से चपके बाल थे। लड़का सख ही था और ऐसा लगता था
क बचने के लए उसने कुछ दे र पहले ही केश कटवाए थे। पसीने से कटे ए कुछ बाल गदन पर
चपक गए थे।
“माल लूटकर भागा है। सरदार नह है।” इससे पहले क सरा कुछ पूछ पाता ऋ ष ने
लड़के के जेब म हाथ डालते ए कह दया।
तो छोड़ो उसको। पैसे नकालो और ज द करो। यारह बजने को आए, अभी तक एक
ज़बह नह आ। पहले ने कहा। ऋ ष ने फ़ौरन उसके दोन जेब को बाहर क ओर नकाल दया
और पैसे नकालकर उसे सरी ओर ध का दे दया। लड़का सरी बार बच गया था। उसे अब
व ास हो चला था क वह ज़दा बच पाएगा। मगर यह उससे ग़लती हो गई। ऋ ष ने उसे जधर
धकेला था उधर सँकरी गली का स ाटा था। ऋ ष चाहता था क लड़का उस सँकरी गली से होता
आ नकल जाए; मगर शायद लड़के का घर आगे क ओर था या शायद उसक मौत आगे क
ओर थी। वह उठा और हाथ-पाँव झाड़ते ए सामने से ही गुज़रने लगा। जैसे ही वह लपपो ट के
नीचे से गुजरा, उसके पगड़ी के कारण बने दाग ‘पहले’ को नुमाया हो गए। पहला चीख उठा,
ऐ धर! धर! दबोच! दबोच! साला को! गदन से! हाँ, ऐसे। दे खो तो! साला सरदार ही है।
इतना सुनते ही लड़के ने फर भागने क को शश क ; मगर वह पहले ही अपनी ऊजा खपा चुका
था। सरे ने उसे बीच सड़क पर ही दबोच लया। सामने से दं गाइय का एक सरा ज था दो-तीन
मोटर साइ कल पर गुज़रा और शोर मचाता आगे बढ़ गया।
दे ख, पगड़ी का नशान दे ख! ‘पहले’ ने लड़के को बाल से पकड़कर उसक नाक बंद कर
द । लड़का छटपटाया और उसी को शश म वह ‘ सरे’ के हाथ के बंध से छू ट गया। वह फर
भागा। मगर अबक दफ़ा पीछे से चले एक प थर, जो सीधे उसके सर के बीचोबीच लगा, ने
उसका संतुलन बगाड़ दया। वह फर सड़क पर गर पड़ा। ‘पहले’ ने उसे फर बाल से पकड़कर
उठाया।
“मुझे छोड़ द जए। मने या कया है?” लड़का सूखे कंठ से बस यही बोल पाया।
“तैन नह कया, तेरी क़ौम ने कया है माधरचोद? और जो मौक़ा मला तो तू भी करेगा। ऐ
छोकड़ा! ज द से र सी लाओ।” पहले ने ऋ ष से कहा।
ऋ ष ने सोचा क यह लोग इसे बाँधकर, मार-पीटकर छोड़ दगे। इसी बदगुमानी म वह ज द
ही आसपास र सी ढूँ ढ़ने लगा। उसे लगा क वह जतनी ज द र सी ढूँ ढ़ पाएगा उतना बेहतर
होगा। उसे यान आया क पछली ही गली म ‘साड़ी क ’ का चार करता बैनर गरकर झूल रहा
था। वह तेज़ी से उस जा नब दौड़ पड़ा। मगर इस ज दबाज़ी म वह यह दे खना भूल गया क
‘ सरा’ भी सड़क के उस पार कुछ ढूँ ढ़ ही रहा था।
“इतना मन बढ़ गया है तुमलोग का? आयं। गद् दार साल ! कल तो तुम लोग घर म घुस
जाओगे?” पहले ने लड़के का मुँह दबोचकर झंझोड़ते ए कहा।
‘पहला’ अभी नफ़रत नकाल ही रहा था क ‘ सरा’ एक गैरेज के बाहर क़रीने से एक के
ऊपर एक सजा कर रखी मोटरसाइ कल के टायर म से एक टायर लुढ़काता लाया। ‘पहला’ कुछ
समझ पाता उससे पहले ही ‘ सरे’ ने लड़के क बाँह पीछे क ओर इस क़दर मरोड़ी क दद क
मार से लड़के का मुँह खुल गया। ‘ सरा’ यही चाहता था। उसने फ़ौरन एक कपड़े का टु कड़ा
उसके मुँह म डालकर मुँह बंद कर दया। लड़का संभल पाता उससे पे तर ही ‘ सरे’ ने ‘पहले’ से
कहा-
“भांगड़ा दे खेगा?”
‘पहला’ सवाल नह समझा इस लए कोई जवाब नह दे सका।
‘ सरे’ ने ‘पहले’ के जवाब का इंतज़ार कए बग़ैर ही वह टायर लड़के के सर से होते ए
छाती म इस तरह डाली जससे उसके दोन हाथ फँसकर बँध गए। ‘ सरे’ ने फर तेज़ी से अपने
कमर म छु पी बोतल नकाली और टायर को उससे नहला दया। वह मट् ट तेल थी। ‘पहले’ का
भी दल यह य दे खकर दहल गया। उसके कुछ कह पाने से पहले ही ‘ सरा’ मट् ट तेल से
सराबोर ए टायर म तीली मार चुका था। लड़का आग क लपट म घरकर ज़मीन पर गर गया।
उसने उलटकर आग बुझाने क तमाम को शश क मगर को शश नाकाम ही रह ।
ऋ ष ने आने म ब त दे र कर द थी। वह र से लड़के को चलता दे खकर उसक ओर
भागा। मगर उसके प ँचने तक लड़का न ाण हो चुका था। आग लड़के के माँस को कोयला
कर चुक थी। अब वहाँ खड़े रहने का कोई मतलब नह था।
ज था आगे बढ़ा तो पहले ने सरे से कहा;
“दा है? बना दा ये सब हो नह पाएगा।”
“है ना।” सरे ने कमर म से एक ओर बोतल नकालते ए कहा।
“साले, करासन तेल तो नह ?” पहले ने हँसते ए पूछा और बोतल उसके हाथ से ले
लया।
“नाह।” सरे ने सं त-सा जवाब दया।
“अ छा एक बात बता, इतनी रात म तुझे तेल कहाँ से मल गया?” पहले ने पूछा और सीधी
बोतल मुँह को लगा ली।
“मुसीबत म सभी साथ दे ते ह।” सरे का जवाब था। ऋ ष के पास बस सवाल थे।
सखी, यह रैन ही डायन

नशानदे ही के हसाब से अभी तक कोई काम नह आ था। सरे मकान क शना त भु लर


साहब के मकान के प म ई थी। शना त करवाने वाला उनका पुराना नौकर ही था। बक़ौल
नौकर, भु लर साहब क बेट ने उससे ही मठाइयाँ मँगवाई थी और कहा था क नानी तो ग !
नानी यानी बक़ौल नौकर- धानमं ी इं दरा गाँधी।
यह बात ख़ून म उबाल लाने के लए काफ़ थी और उबलते ख़ून म यह बात भला कहाँ पैठ
कर पाती क भु लर साहब क बेट गूँगी थी। वह तो ह ते भर पहले ही अपने चार साल के बेटे
के साथ वधुर बाप से मलने आई थी। नौकर ने बताया था तो ग़लत य कहेगा! इस ग़लती क
क़ मत भु लर साहब को चुकानी ही थी। कारण पया त था।
मगर या यही एक कारण था? नह । यह कोई कारण नह था। भु लर साहब तो उसी दन
से नशाने पर थे जस दन उ ह ने अपने घर म लगाने के लए प थर सीधे मकराना से मँगवाए थे।
बीमा एजट के प म उ ह ने न सफ़ अकूत संप कमाई थी; ब क दखाई भी थी। पाँच दन
पहले ही तो सबसे बड़ा रे जरेटर सफ़ इस लए मँगवाया था य क नाती ने स दय म भी ठं डे
पानी क ज़द कर द थी। यही संप आँख का बाल हो गई थी।

दं गाई जब शोर करते ह, गा लयाँ नकालते ह, नफ़रती नारे लगाते ह तब इसका असर
पी ड़त और दं गाइय से यादा बाहरी लोग पर पड़ता है। उनका मनोबल टू ट जाता है और ‘हम
या मतलब’ का अवरोधी हॉरमोन उ ह पचड़े से बाहर ही रहने क सलाह दे ता है। यही कारण था
क भीड़ जब भु लर साहब का बाहरी दरवाज़ा तोड़ने लगी तब पड़ोस के एक-दो घर क ब याँ
जल मगर फर ज द ही ब याँ बुझ ग । सद यूँ भी बढ़ने लगी थी। पड़ोसी ‘हम या मतलब’
क रज़ाई ओढ़कर सो गए।
रॉड ऋ ष के हाथ म था और वह बाहरी गेट के ताले म उसे फँसाकर तोड़ने म व त ज़ाया
कर ही रहा था क बेक़ाबू उ माद फर से लोहे का वह गेट फाँद गए। ऋ ष को गाली दे ता छोड़
उसके साथी भी उसी तरह भीतर दा ख़ल ए। सब को भीतर जाने क ज द थी। आ ख़री द वार
जो लकड़ी क थी यादा दे र न टक सक और अपने क़ ज़े स हत बाहर नकल आई। पहले
कमरे म कोई नह था। मगर भीड़ के असल मक़सद के सारे सामान वह थे। ऐसा लगता था क
भु लर साहब और उनक बेट ने जानबूझकर सारे सामान अगले कमरे म ही कर दए ह जससे
क भीड़ लूटपाट कर नकल जाए। ट वी, वीसीआर, प ट स, कु सयाँ इ या द लेकर उ माद बाहर
क ओर भागने भी लगे थे।
मगर भु लर प रवार क क़ मत इतनी अ छ नह थी। कुछे क लोग का मक़सद लूटपाट
नह था। वो जानते थे क दो कमरे के घर म तीसरा कमरा नह होता; इस लए अगर आगे के कमरे
म कोई नह मला तो यहाँ तो मल ही जाएगा। वे लोग आगे बढ़कर सरे कमरे म भी प ँच गए।
सरे कमरे म शकार मल ही गया। ऋ ष स हत भीतर घुस आए लोग ने दे खा क भु लर साहब
क बेट हाथ म छोटा-सा कृपाण लए अपने चार साल के बेटे को थामे द वार से लगी खड़ी थी।
‘पहले’ ने जब घर म कसी मद को नह दे खा तो ब त नराश आ। उसने चार ओर नज़र
दौड़ाई। रे जरेटर खोलकर दे खा। ब तर के नीचे झाँककर नराश आ। सरदार हाथ न लगने
क हताशा म वह ऋ ष के हाथ से रॉड छ नकर ज़ पर मारने लगा। भु लर साहब क बेट से
वहशत म ब चे का हाथ छू ट गया। इसी ण, ठ क इसी ण ‘ सरे’ ने ब चे को दबोच लया।
भु लर साहब क बेट ब चे को छ नने के लए झपट ; मगर ‘ सरे’ ने बंद मुट् ठ से उसके नाक
पर वार कया। उसक नकसीर फूट गई। वह र जा गरी। सरे ने ब चे को छोड़ दया और
भु लर साहब क बेट क ओर झपटा। मगर तभी ‘पहले’ ने रॉड ऋ ष को दे ते ए ‘ सरे’ को
रोका।
“व त नह है। ब त काम बाक़ है। क़ मत ही नरी है साली आज!” ‘पहले’ ने ‘ सरे’ से
कहा और ब चे क ओर बढ़ा। ऋ ष कुछ सोचकर सहर गया। उसने र से ही कहा-
“भाई, ब चा है।”
“पता है मुझे, ब चा है। मार नह रहा; लार रहा ँ।” पहले ने कहा और लड़के का गाल
ख चते ए पूछा,
“लाले, नाना क थे?” ब चे ने एक ण उसक आँख म दे खा। फर तजनी उठाई और
ब त ही मासू मयत ने ज़ के ग े के खोल क तरफ़ इशारा कर दया। नई ज़ का वो
आदमक़द कवर द वार के सहारे ही लगा था। पहला आ य से भर उठा।
“अरे रे रे रे! ये कैसे छू ट गया था? छोकड़े , जरा ग े के पीछे तो दे ख?” पहले ने आ य
करते ए सरे से कहा जो वह खड़ा अब भी भु लर साहब क बेट पर नज़र गड़ाए खड़ा
था।
“अरे यार! तुम भी ब चे क बात पर व ास कर रहे हो! कुछ नह है वहाँ। ये लो।” कहते
ए ‘ सरे’ ने रॉड का सरा ज़ के ग े म दे मारा। कोई आवाज़ नह ई। मगर ‘ सरे’ को लगा
क रॉड का सरा द वार से टकराने से पहले कसी मुलायम चीज से टकराया। उधर ऋ ष ण भर
त ध खड़ा रहा। उसने दे खा क अचानक ही फटे ए ग े के पास से ख़ून क एक धार नकल
आई। भु लर साहब को बेट ने अपनी क़सम दे कर आदमक़द ज़ के ग े के पीछे छपा दया
था। रॉड भु लर साहब के ठ क गदन म लगी थी। वह चीख़ भी नह पाए थे। गूँगी लड़क कब क
बेहोश हो चुक थी। ऋ ष जड़ हो चुका था। ब चा अपनी माँ को सोया जानकर उसके पास ही
लेट गया था। सरे ने ब चे को परे हटाकर, भु लर साहब क बेट के गले से चेन ख चकर जेब के
हवाले कर लया। तीसरे के हाथ कुछ महँगी शराब क बोतल लगी थी जसे उसने तहमद के नीचे
छु पा लया।
पहले को ऋ ष को लगभग ख चकर ले जाना पड़ा था। काम ब त था और यह नामाकूल
लाश हो गया था। रोड पर घसटते वज़नी क़दम से ऋ ष बाहर तो आया। मगर वह न ाण ही
चल रहा था। अचानक उसे लगा क रॉड से उसके हाथ जल रहे ह; उसने घबराकर रॉड छोड़
दया। पहले ने उसे संभाला।
“ हलने का मौक़ा तक नह दए बुड् ढे को। ब ढ़या! अब गनना नह ।” पहले ने ख खयाते
ए सरे से कहा। सरे ने बाहरी गेट के टू टे ए ताले को फककर गेट बंद कया और ऊँची
आवाज़ म गाया,
“सरदार जी के खोपड़ी म बारह अंडे थे। एक अंडा फुट गया, सरदार जी घुलट गए।”
बे द -सी इस दो लाइन के साथ उनक हँसी भी र जाती सुनाई द । पड़ो सय क लाइट
एक दफ़ा फर जली और फर बुझ गई। स दयाँ कड़ाके क जो थ । सब को रज़ाई म घुसने क
ज द थी।

अफ़वाह क सबसे वनाशकारी बात यह होती है क यह नस म ल क जगह नफ़रत दौड़ाती है


और वह नफरत महज़ दल तक जाती है। अफ़वाह दमाग़ तक कसी भी संकेत के जाने के सारे
रा ते बंद कर दे ती है। घृणा जूम का सबसे मारक ह थयार है। महज़ दो मुह ले बदल लेने से
आप बशीर, रौनक़, कमल, जत या ऋ ष न होकर भीड़ होते ह। भीड़ जसके सर पर ख़ून
सवार है। भीड़ जो भे ड़य का समूह है। भीड़ जो उ माद है। भीड़ जसे बदला लेना है। भीड़
जसे तु ह तु हारी औक़ात दखानी है। भीड़ जसे अप ॉन क ट वी चा हए। भीड़ जसे कुकर
चा हए, भीड़ जसे ज़ेवर चा हए। भीड़ जसे लड़क चा हए। भीड़ जसे पगड़ी चा हए। भीड़
जसे ख़ून चा हए। सरदार का ख़ून और ख़ून तो गुरनाम के साथ ही मुँह लग गया था।
रात का सरा पहर लग गया था। टायर से उठता वषैला धुआँ, गा ड़य क धू-धू, मट् ट
तेल क बदबू और ठे ले-खोमच क बढ़ती आग से भी यादा और कोई चीज़ फैल रही थी तो वह
था उ माद और यही उ माद उ मा दय के लए नए-नए नारे भी गढ़ रहा था।
‘ गन गन कर सरदार मरगे, एक के बदले चार मरगे।’
‘सरदार का ब चा कभी न स चा।’ और
‘ख़ून के बदले ख़ून ही लगे’ के पैशा चक शोर के बीच एक शोर और मचा। शोर यह क बस
टड के पास एक सरदार दखा है। ‘सरदार दखा है’ यह वाक़ई ही उस रात क ू रता क
ा या के लए काफ़ था। सरदार अथात शकार और उ माद भीड़, शकारी।
सरदार दखा नह था। वह बजा ता आया था। रोहतास से सवा रय को कुशलपूवक लेकर
बस ाइवर ‘सु खा’ अभी-अभी बस- टड प ँचा ही था। मारने क तैयारी तो बस म ही कर ली
गई थी; मगर फर कुछ ‘समझदार’ लोग ने बस म सवार युवा को समझाया था क य द यह
मार दगे तो गंत तक प ँचाएगा कौन? बुजग ने बताया क जवानी के जोश म होश नह खोते;
ऐसा करते ह पहले प ँच लेते ह फर दे खगे। इंतज़ार तो वहाँ भी हो ही रहा होगा। मार तो वहाँ भी
लगे। सु खा ने बना षड् यं सूँघे सबको गंत तक प ँचा दया था। नया मोड़ बस टड पर
गाड़ी लगते ही या य म अजीब-सी हलचल शु ई। वह अभी कुछ हरकत करते इससे पहले
ही उतरते ए उ ह ने दे खा क उ माद इंतज़ार म ही खड़े है। सफ़र के जो लोग थके ए थे उ ह
घर प ँचने क ज द थी। उ ह ने उ माद भीड़ को इशारा कर अपना काम अंजाम दया और घर
क ओर नकल गए।
ऋ ष के पाँव म चोट आ गई थी इस लए वह पीछे छू ट जा रहा था। टोली को अब उसके
साथ क ज़ रत भी नह थी। वह अगले सरदार क तलाश म थे। ले कन वे जबतक प ँचते तब
तक सु खा अधमरा हो चुका था। बस टड पर मौजूद अलग टोली ने ही सु खा को शकार बना
लया था और आगे बढ़ गए थे। फर भी ‘ सरे’ ने झुककर उसक साँस दे खी जो अभी चल रही
थी; मगर उसके बंद हो जाने के आसार थे। ‘चौथे’ ने उसक घड़ी दे खी थी जो अभी बंद थी मगर
उसके चलने क संभावना थी। तीसरे ने अँधेरे म पडा उसका बटु आ उठाया जसम पैसे नह
मले। मली तो गु साहब क त वीर; जसपर लखा था- ‘राज करेगा खालसा’। बटु ए म पैसे का
न मलना आग था और त वीर का मलना घी। तीसरा लहक उठा-
साले गद् दार! राज करगे। सुन बे! पगड़ी खोल साले क । चीखते ए तीसरे ने सु खा क
पगड़ी खोलनी शु कर द । सु खा म तरोध करने क श भी नह बची थी। उसने सु खा
क पगड़ी उसके गले म ही बाँध द और सरा सरा बस के पीछे बाँधकर बस चला द । दस
फ़लाग चलने के बाद बस पीपल के एक पेड़ से टकराकर क गई। सु खा मर गया। वह घसटने
के पहले मरा या बाद म मरा; यह जानने म कसी क दलच पी नह थी। न ही फ़ायदा। फ़ायदा
बटु ए म था जसका नुक़सान हो चुका था।
ऋ ष अपने पैर घसटता आ जबतक प ँचता तबतक चौथे और सरे ने सु खे को
उठाकर बस म ही फक दया। बस के ाइवर सीट पर लटाकर ही गाड़ी म आराम से आग लगाई
गई। धन वाले टक म कु हाड़ी मारकर मा चस मार द गई। आग का छ ा उठा और बस को
लपेट ले गया।
अनपढ़ ने ‘राज करेगा खालसा’ जैसे ओज वा य का र ता खा ल तान से जोड़ दया था।

औरत। औरत क सबसे बड़ी मु कल उसका औरत होना ही है। दं गे के दन म जब मद अपनी


जान को लेकर च तत होते ह तब वह औरत क जान को लेकर नह ब क उसक आब को
लेकर च तत होते ह। औरत को भी अपनी जान से यादा चता अपने भीतर क औरत को बचाने
क होती है। यह ू र अ भशाप ही है क समाज म पलते-बढ़ते वह ख़ुद भी इसे ही सच मान लेती
है।
अगली नशानदे ही हर ीत सह के घर क ई थी। हर ीत सह सरकारी अनाज गोदाम के
पयवे क थे। 40 साला हर ीत सह क कोई 35 साला ख़ूबसूरत प नी और 14 साल क
परीजाद बेट थी। तीसरे क नीयत बेट पर क़ाफ़ दन से ख़राब थी। मौक़ा इस दं गे ने दे दया था;
वरना इतने बयाबान म अनाज गोदाम तक आने का हा सल सरा कुछ नह था।
दं गाइय का जूम जब अनाज गोदाम तक प ँचा तो पता चला क यहाँ गेट तोड़ने क कोई
ज़ रत नह है। तैनात सुर ा-गाड ख़ुद ही गेट खोल दे ने को त पर था। लगभग 15-20 लोग क
भीड़ गोदाम म ही बने कमचारी आवास पर हमला कर बैठ थी। हर ीत सह के घर पर ताला था।
भीड़ दरवाज़ा तोड़कर लूटपाट करने म त लीन हो गई। तीसरे को तलाश लड़क क थी। वह उसे
तलाशता आ छत तक हो आया; मगर कुछ न मला। वह हताश होकर नीचे आया ही था क
गोदाम क ओर शोर बढ़ गया। ऋ ष और उसके साथी जब अनाज गोदाम तक प ँचे तब हर ीत
सह गोदाम म घुस आए बलवाइय पर तमंचा ताने खड़े थे। उनके ठ क पीछे प नी और बेट ने
गोदाम से ही क टनाशक क शीशी हथेली म छु पा ली थी। हर ीत सह ने उन दोन से पंजाबी म
कुछ कहा। माँ-बेट दोन अनचाहे ही पीछे क ओर पैर बढ़ाने लग । भीड़ ने जैसे ही यह दे खा
उसने आगे बढ़ने क को शश क । हर ीत सह ने तमंचा दबा दया। गोली कसी को नह लगी।
बस दहशत कायम कर गई; ले कन हर ीत सह क यही ग़लती भी थी। उ ह ने यह गोली बंद
गोदाम म चलाई थी। य द यही गोली खुले म चली होती तो ब त संभव था क भीड़ भाग गई
होती। मगर यहाँ भीड़ के पास भी एक ही रा ता बचा था। हर ीत सह को क़ाबू करने का।
लकड़ब घ के झुंड ने हर ीत सह पर क़ाबू कर लया था। उ ह ख चकर बाहर लाया गया।
दं गाइय के पास ह थयार नह होते। ू रता होती है। नफ़रत और आवेग होता है। इसी
कारण वह राह चलते ही अपने ह थयार खोज या बना लेती है। गोदाम म अनाज क ख़ाली
बो रयाँ हर ीत सह क लकड़ी, कफ़न सब बने। मट् ट तेल का काम तीसरे क महँगी शराब ने
कया। हर ीत सह ू र अट् टाहास के बीच धुआँ हो रहे थे। दो जोड़ी आँख ने अनाज क
बो रय के पीछे से ही अपने रखवाले को धुआँ होते दे खा। धुआँ कम आ तो बलवाइय क भीड़
भी अपने ह से का अनाज लूटकर कम हो गई।
ऋ ष अबतक तीन दफ़ा उ टयाँ कर चुका था। रात अपने सरे पहर म वेश कर चुक थी।
ह ड् डय को पघला दे ने वाली सद म हर ीत सह क आग पर दं गाइय ने आ ख़री दफ़ा हाथ
सके और गेट से बाहर नकलने लगे।
अनाज के बोरे पर बैठ ‘तीसरा’ अभी बाक़ बची शराब ख़ म करने क को शश ही कर रहा
था क ‘ सरे’ को अचानक कसी के दाँत के बजने क आवाज़ सुनाई दे गई। जो ज़ त, पता क
जलती लाश दे खकर न टू ट थी वो ज़ त कमब त स दय के ज़ोर ने तोड़ दए। छोट ब ची ने
जानलेवा ग़लती कर द थी।
अरे साला! हट तो। एक मनट हट तो। कहते ए तीसरे ने गे ँ क एक बोरी जैसे ही
खसकाई, ओट म छपी दोन माँ-बे टय के चेहरे नुमाया हो गए। ऋ ष अभी कुछ समझ ही पाता
तब तक ‘तीसरा’ बो रय के पीछे झपटा। लड़क ने मगर पहले ही क टनाशक का ढ कन खोल
लया था। बना वच लत ए वह ‘तीसरे’ के प ँचने से पहले पूरा गरल हलक म उतार गई।
छटपटाई और एक बोरे पर ही ढे र हो गई। लड़क क माँ बोतल खोलने क ह मत नह कर पाई।
वह या तो यादा नया दे ख चुक थी या फर यादा लाश। वह लाश नह बनना चाहती थी।
उसे गो त बनाया गया। उसी अनाज के बोरे के पीछे ।
अब वहाँ दो तरह क लाश थी। बाप-बेट क मुदा लाश। औरत और ऋ ष क ज़दा लाश।
वह शयाना गो तख़ोरी के बाद जब ‘तीसरा’ उठा तो उसने ‘पहले’ से कहा-
“बेटा! दे ख तो! लड़क ज़दा है या?”
पहले ने लड़क क नाक के आगे अपनी हथेली रखी और कहा- “मर गई है।”
“हटो साले! अभी ज़दा-मुदा दे खने का समय नह है। कहते ए तीसरा, लड़क के मुदा
ज म पर झुक गया। लड़क पहले मरी, इंसा नयत थोड़ी दे र बाद। तीसरे ने जब उठते ए
अंगड़ाई तोड़ी तो पाश वकता भी टू टकर रो रही थी।
“चल-चल। ं द बाग चल। अभी वहाँ वाला काम बाक़ है।” ‘ सरे’ ने याद दलाया।

लाले को माहौल बगड़ने का एहसास हो चला था। हालाँ क, तब तक कोई घटना नह ई थी


मगर दो त के अचानक प रव तत वभाव से उसे यह भान हो गया था क आने वाला व त
सामा य नह है। वह जब घर प ँचा तो उसक माँ के साथ पड़ोसी भुदयाल जी बैठे थे।
भुदयाल जी पड़ोसी थे और लाले के दवंगत पता के दो त भी। लाले के पता ने ही साथ क
ज़मीन भुदयाल जी को दलवाई थी।
लाले जब घर प ँचा तो उसने माँ को ाकुल दे खा। भु दयाल जी ने यह बात उ ह समझा
दया था क व त नाजक है। इस लए माँ-बेटे को त काल गु ारा, ‘गु सह सभा’ म शरण लेनी
चा हए। य क आसपास के सख भी वह प ँच रहे ह। अगर सब एक साथ रहगे तो कोई
अनहोनी शायद ही हो। बात ठ क भी थी और लाले भी अपने बचपन के दो त का बदलता
वहार महज़ कुछ घंट म ही महसूस कर चुका था। आज तीन दो त ने मलकर फ़टबॉल क
जगह उसके पाँव पर चोट क थी। आज उसे कसी ने पास भी नह द और जब उससे एक गोल
न हो पाया तो तंज़ आया-
“नया या है? हम ही बेवक़ूफ़ ह जो भरोसा कर लेते ह।”
लाले का मन ख था। उसने कूटर उठाया। हेलमेट लगाया। जूड़े क वजह से हेलमेट का
बे ट लग नह पाया। इससे पहले उसे हेलमेट पहनने क ज़ रत ही नह आन पड़ी थी। उसने
वैसे ही हेलमेट बस सर पर रख लया। माँ को बठाया और चलने को ही आ क भु दयाल जी
ने कहा-
“ सरे पहर म नकलना और ं द बाग बाज़ार होकर ही नकलना बेटा, आराम से प ँचोगे।”

ं द बाग बाजार। नए बसे शहर का नया बसा हाट। हाट ख़ म होने के बाद यहाँ मरघट क
शां त होती है। इंसान तो र, कु क भी आवाज़ यहाँ ऐसी सुनाई दे ती है मानो डरे-सहमे ए
ह । क चे रा त पर अभी तक सरकारी वकास क नज़र नह प ँची थी।
लाले को उनक बात सही लगी। रा ता क चा ज़ र था, मगर छोटा भी था और अपे ाकृत
कम ख़तरनाक भी। सरे पहर म ही लाले अपनी माँ के साथ नकला। लाले ने अपने पुराने कूटर
क कक मारी और कूटर ं द बाग के रा ते पर डाल दया।
भुदयाल जी क बात सही थी मगर उनका इरादा नह । वह अपने इलाक़े म ज़मीन क
क़ मत जानते थे और फर यह तो पूरा बना बनाया मकान था। अफ़वाह ने नफ़रत द थ और
नफ़रत ने मौका। लाले क माँ ने चाभी भुदयाल जी के हाथ म द थी और भुदयाल जी ने
बदले म बलवाइय को दो सख दए थे।
लाले जब क चे रा ते पर आया तो उसने एह तयातन कूटर क लाइट बंद कर द । मगर
वह चाहकर भी पुराने कूटर क आवाज़ नह दबा पाया। दं गाई इस सड़क पर भी घात लगाए
खड़े थे और पग ड़य से शना त कर रहे थे। लाले भी जब सामने पड़ा तो नारे लगाती भीड़ को
सामने पाकर वह भयभीत हो गया। फर भी उसने यह सोचकर गाड़ी क र तार बढ़ा द क
हेलमेट उसे बचा ले जाएगी।
हेलमेट उसे बचा ले जाती अगर उसने हेलमेट क बे ट लगा ली होती। मगर आह! जूड़े के
ऊपर बेतरतीबी से रखे हेलमेट ने ही उसक शना त करा द ।
चौथे ने बीच सड़क पर ही रॉड से कूटर रोकने क को शश क तो लाले ने कूटर क
र तार बढ़ा द । मगर कूटर म पीछे बैठ माँ के हलने और रॉड क चोट से कूटर अ नयं त
होकर गर गई।
लाले क माँ पेशानी के बल ही गरी। गरते ही उनका सर खुल गया और लाले क हेलमेट।
लाले उठते ही माँ क ओर लपका। मगर तबतक ‘ सरे’ ने उसे गदन से पकड़ लया। लाले ने
बचाव के लए ‘ सरे’ के पेट पर लात मारी। ‘ सरे’ ने बल बलाकर गदन छोड़ द । लाले फर
धी पड़ी ई माँ क ओर बढ़ा; मगर अब क बार पीठ पर पड़े रॉड के एक वार से उसक रीढ़ क
हड् डी झूल गई।
साला! चालाक बन रहा था। कहते ए पहले ने लाले को पलट दया। लाले अभी ज़दा
था और कुछ कह रहा था। आवाज़ गले के बाहर बमु कल आ रही थी। ऋ ष उसके चेहरे पर
झुका मगर कुछ सुन नह पाया।
“ या कह रहा है?” ‘पहले’ ने पूछा।
माँ को गु ारा प ँचाने को कह रहा है। ऋ ष ने अपनी ओर से झूठ कहा। कहकर वह पीछे
क ओर मुड़ा ही था क ‘ सरे’ क जघ यता दे खकर च ला पड़ा। ‘ सरा’ अपने दोन हाथ म
एक बड़ा-सा प थर लए खड़ा था। ऋ ष के च लाते- च लाते भी उसने वह प थर लाले के मुँह
पर पटक दया। चीख़ ऋ ष क नकली। लाले तो चीख़ भी नह पाया।
ऋ ष च कार के साथ र छटक गया था। वह सं ा-शू य हो चुका था। उसके कान म
सी टयाँ बजने लगी थी। वह भय और ास से ‘तीसरे’ क ओर दे खता रहा। वह भाग जाना चाहता
था। मगर यह संभव अब न था। दलदल से नकालने को पाँव चलाता आदमी दलदल का काम
आसान ही करता है। वह धँसता ही चला जाता है। उसने ख़ुद को इसी बहाने से समझाया आ था
क मनु और उसका प रवार उसक ाथ मकता ह और उ ह बचाने क लए अभी उसे और गरना
है। वह उठा और लाले क माँ क ओर दौड़ा। वह बेचारी ख़ुश क़ मत थी। बेटे क लाश दे खने से
पहले ही नया छोड़ चुक थी।
पहले ने उसक नाक के पास हाथ घुमाया और कहा-
“खेला खतम।” उसके इतना कहते ही ‘ सरा’ गरे ए कूटर को उठा लाया और फर से
बूढ़ औरत के मृत शरीर पर गरा दया। पे ोल रस ही रहा था। चौथे ने फर मा चस मारने म दे र
नह क ।
तीसरे ने मन मसोसते ए कहा-
“नुकसान कर दए। 100 सीसी का कूटर था। जनेरेटर आराम से बन जाता!”
काम ख़ म हो गया था। बलवाइय को बदला मल गया था और भु दयाल जी को बंगला।
बलवाइय क टोली रेलवे टे शन क तरफ़ बढ़ चली।

धनबाद से चलते व त ही सु रदर सह को इस बात का एहसास था क ख़तरा कुछ यादा है।


धनबाद के र तेदार जो ख़ुद ही छु पने क जगह तलाश रहे थे, ने सु रदर सह को रोका भी; मगर
सु रदर सह अपनी सरदारनी को अकेला छोड़ आए थे और ऐसे व त पर उसे और अकेला
छोड़ना इस सख को गँवारा नह आ। े न पकड़ी और बोकारो के लए रवाना हो गए।
सु रदर सह को तो महज़ आभास था क कस टे शन पर ख़तरा होगा; मगर बलवाइय को
इसक पूरी जानकारी थी क कस टे शन पर बकरा होगा। रजवशन चाट के आधार पर यह
पहले ही पता कर लया गया था क कस बोगी म कतने सरदार ह।
पछले टे शन पर ही बलवाइय ने बाहर से दरवाज़ा पीटना शु कया तो सु रदर सह को
बाथ म म बंद कर बचाया गया; मगर बचाने वाल को भी यह यक़ न हो गया के अगले टे शन
पर सु रदर सह शायद न बच पाएँ। इस लए उ ह ने बोकारो टे शन आने से थोड़ी र पहले ही चेन
ख चकर सु रदर सह को उतार दया।
74 वष य सु रदर सह उतर तो गए मगर उस भा यहीन रात म भी उ ह जाना तो टे शन क
तरफ़ ही था। े न तीन सी टयाँ दे ती ई गुज़र गई। सु रदर सह के पास दो रा ते थे। या तो वह वह
कह झा ड़य म रात गुजार द या फर धीरे-धीरे ही सही घर क ओर रवाना हो। मगर सु रदर सह
को झा ड़य म ही रात गुज़ारनी थी तो तो धनबाद ही या बुरा था! उ ह कसी हाल घर प ँचना
था। सरदारनी को उ ह ने मु कल समय म अकेला नह छोड़ा था। फर यह तो ब त ही बुरा दौर
था।
वह चलते रहे मगर साथ ही साथ उनक बदनसीबी उस रात उनसे दो क़दम आगे चलती
रही। उ ह ने अपनी को हापुरी च पल क आवाज़ तो दबा ली थी; मगर अपनी छड़ी क आवाज़
नह दबा पाए थे।
े न नयत समय पर बोकारो टे शन प ँची। ‘पहले’ को जब आर त ड बे म कोई सरदार
नह मला तो वह खीझ उठा। उसने लोग को झझोड़कर पूछताछ शु क । लोग को घर जाने
क ज द भी थी और उसे कुछ न बताने क हड़बड़ाहट भी। लोग अनजान बने े न से बाहर
नकलते रहे।
मगर जब सब भगवान होने लग तो शैतान बीच म कूदता ही है।
ऐसे ही एक शैतान ने ऋ ष को इशारा कर दया। इशारा ऋ ष समझ गया और इससे पहले
क कोई और समझ पाता; ऋ ष ने वह बात ख़ुद तक ही दबा द । उसके साथी नराश होकर उतर
गए थे। ऋ ष उन सबको ज द-से-ज द टे शन से बाहर ले जाने के लए आगे बढ़ा ही था क
तभी ‘पहले’ को याद आया क टे शन के पीछे ही मोटर मैके नक बल वदर का घर है। उसे लगा
क ख़ाली हाथ लौटने से तो ग़रीब का झोपड़ा फूँकना ही ठ क रहेगा। बा क़य को साथ लेकर
उधर ही नकल पड़ा। पहले ने अगुवाई करते ए केवल पटरी क लकड़ी क स लय पर पैर
रखकर आगे बढने को कहा ता क आवाज़ न हो। वह रेलवे ै क से सटे झु गय म बल वदर के घर
क ओर मुड़ने ही वाला था क उसने र से आती ई एक आवाज़ सुनी। यह सु रदर सह क
छड़ी क आवाज़ थी जो अपनी मौत क ओर ही बढ़े आ रहे थे।
पहले ने मुँह पर उँगली रख कर सबको शांत रहने का इशारा कया। जैसे ही वह आवाज़
नज़द क ई तो पहले ने आवाज़ क दशा म टॉच मारी। राज़ सीधा खुल गया क शकार सरदार
है। आ म व ास तोड़ दे ने वाले एक शोर ने सु रदर सह का पीछा कया। वह अचानक ए हमले
से घबराए और पीछे क ओर मुड़कर भागने लगे। जज़र शरीर, तस पर रात और उस पर भी
पट रय के उबड़-खाबड़ प थर। वह कहाँ और कतनी र भाग पाते! सु रदर सह गर पड़े और
पाँच वह शय ारा दबोच लए गए।
“साला, सब सरदार म खा सह बनता है।” ‘ सरे’ ने सु रदर सह को उठाकर पट रय के
बल बठाते ए कहा।
“पगड़ी का रंग दे खो, टकसाली लगता है।” पहले ने कहा।
“पगड़ी उतार। पगड़ी उतार।” ‘तीसरा’ च लाया। ‘तीसरा’ दरअसल पगड़ी से बाँधकर
सु रदर सह को पटरी पर फक दे ना चाहता था।
“पु र जी, जो पैहे चाहते हो तो कुछ ह मेरे पास।” सु रदर सह ने तहमद टटोलते ए
कहा।
“पगड़ी उतारता है क गदन उतार ँ साले।” अबक पहला चीखा। सु रदर सह अपनी उ
जी चुके थे। चला-चली क इस बेला म वह पंथ क अवमानना जान के लए भी नह कर सकते
थे। अतः उ ह ने शांत वर म ही कहा,
“पु र जी। अब दो-चार साल क ज़दगी के लए धरम नह दे सकदा। तुसी बेशक जान ले
लेयो। हाँ, बस एक क म कर । मेरी पहचान छु पा ले । सरदारनी कुज होर दण जी ले बचारी।”
कहकर सु रदर सह ख़ामोश हो गए। ठ क वही ख़ामोशी जो जबह से पहले क़साईख़ाने म तारी
हो जाती है। ठ क वही वीरानी जो फ़सल कट जाने के बाद खेत म र- र तक फैल जाती ह। कुछ
ण ऐसी ही मुदई छाई रही।
इसी मौक़े का फ़ायदा उठाकर ऋ ष ने कहा-
“भइया उ तो दे खए। बुजग है। या फ़ायदा?”
“इनलोग ने दे खी थी उ । वो बुजग नह थ ? नह था थ ! उसने गोली मारी; इ ह ने ज
मनाया। लड् डू बाँटे। गु ारे सजाए। हसाब एक के बदले चार से ही बराबर होगा।” पहले ने
लगभग च लाते ए कहा।
पहले के जोश से अबक चौथे का आवेश हद पार कर गया। उसने पट रय पर बखरे
प थर म से एक प थर उठाकर सु रदर सह के सर और गदन के पछले ह से पर वार कया।
वार ऐसी जगह कया गया था क सु रदर सह का शरीर एक वार म ही बेजान हो गया। नज व
शरीर एक ओर लुढ़क गया। सरे हार क ज़ रत नह पड़ी। क़त और तहमद म से बटु आ
नकालकर उनके सर को पटरी पर रख दया गया। सु रदर सह क अं तम इ छा आने वाली
अगली लोकल े न ने पूरी कर द । सरदारनी कभी जान ही नह पाई क सरदार जी उसे छोड़ गए
ह।
रात का तीसरा पहर भी बुढ़ाने लगा था। टोली अपने ह से का वृताकर च कर लगाकर अब
वह प ँचने वाली थी जहाँ से यह सब शु आ था। ऋ ष का मुह ला। मुह ला जसके बारे म
सीधा नदश था क अपने मुह ले को छोड़कर सरे मुह ले म काम अंजाम दे ना है। इसी लए
ऋ ष अपने मुह ले से र सरे मुह ले म घूमता फर रहा था।

सरा मुह ला। ऋ ष का माथा अचानक ठनका। वहशत म उससे भारी चूक हो गई थी। उसे
यान आया क जैसे वह अपने साथी बलवाइय को लेकर सरे मुह ले म है; ठ क वैसे ही सरे
मुह ले के बलवाई भी तो उसके मुह ले म हो सकते ह। एक टोली को वह बरगलाकर र नकल
तो चुका है; मगर इस बात का या भरोसा क कसी सरे मुह ले क सरी टोली उसके घर तक
न प ँची हो।
ऐसा सोचते ही उस कड़ाके क सद म भी उसका ललाट पसीने से भर आया। वह बदहवास
ही घर क ओर भागा। नाले, ट ले, गड् ढे और लाश पार करता आ जब वह घर तक प ँचा तो
उसने ऊपर छाबड़ा साहब के कमरे से शोर का आभास आ और उसने कुछ हलचल दे खी।
उसका दल बैठ गया। उसे एहसास हो गया क घर म अभी भी लूटपाट जारी है। वह अभी कुछ
सोच पाता तब तक कमरे के खड़क म से मनु का रे डयो धड़ाम क आवाज़ के साथ नीचे गरा
या शायद झगड़े के बाद फक दया गया। उसका मन थोड़ा और बैठ गया। उसक ह मत जवाब
दे ने लगी। उसे लगा क अ न घट चुका है। उसके पाँव श थल होने लगे। मगर उ ह श थल
पाँव को बढ़ाते ए वह अपने कमरे के दरवाज़े तक प ँचा। उसक जान म जान आई जब उसने
दे खा क दरवाज़े पर ताला ठ क वैसे ही लगा है जैसे वह छोड़कर गया था। वह जानता था क
बलवाइय को वशेष प से सरदार के घर का पता है जसके अलावा वह सरी कसी जगह
अपना व त ख़राब नही करगे। वह अभी इसी सोच म था क उसे सी ढ़य से कुछ लोग के उतरने
क आवाज़ सुनाई पड़ी। वह बड़ी चतुराई से अपने दरवाज़े के ठ क आगे दरवाज़े को ढँ ककर
खड़ा हो गया। सामने से जो लोग उतरे वह घर के सामान से लैश थे। ऋ ष ने उ ह दे खा। वह
उनम से कुछ चेहर को पहचानता था। उसने फ़ौरन उ ह बात म फँसाते ए कहा-
“सब समान उठ गया न। कुछ छू टा तो नह ?”
“है कहाँ कुछ! सब सरदार ले भागा है। फर भी जो मला झाड़ लए ह। तुमको भी
कुछ…।” ऊपर से उतरते आदमी ने आधे म ही पूरी बात क ।
“नह -नह , बस आपलोग ज द नक लए। भोर होने वाली है।” ऋ ष ने उ ह फ़ौरन
नकालने क गरज से कहा।
“हाँ भाई, तुम सामान य लेगा? तुमको तो पूरा घर मल रहा है। ऐश करो अब।” बलवाई
उतरते ए बोला। ऋ ष इसके जवाब म बस मु कुरा दया। बलवाई क इस बात को दो लोग ने
सुना। छाबड़ा साहब को थोड़ा और व ास आ क ऋ ष उनका घर हड़पने क ताक म है और
बलवाइय ने जब यह बात सुनी तो उ ह लगा क लड़का लूट म ह सा नह चाहता पूरा घर ही
चाहता है। वह इस बात पर मौन ही रहे।
जतने बलवाई भीतर घुसे थे, अपने-अपने ह से क लूट लए सूय दय ने पहले नकल गए।
बच गया ऋ ष। वह अपने ही दरवाज़े के बाहर उदास-सा, कातर-सा खड़ा। कई बार उसक इ छा
ई क वह दरवाज़े पर द तक कर अपने आने का संकेत दे दे । मगर भोर अभी ई नह थी।
ख़तरा अभी टला नह था। आकाश काले से जामुनी भर हो गया था। वह मन मसोसकर बाहर क
ओर नकल गया। उसे अब घर के आसपास ही रहना था।
सखी री, भोर लुटेरी

पूरी रात ऋ ष जो करता रहा था उसक थकान अब उसपर तारी हो रही थी। उसक आँख और
शरीर दोन बो झल हो रहे थे। फर भी वह घर का ताला जाँचकर बाहर नकला और सड़क के
सरी छोर पर जाकर बैठ गया। रोशनी का छटपुटा आते ही उसने रा ते म पड़ी ‘पागल गुरनाम’
क लाश सबसे पहले दे खी। मट् ट के तेल ने उसके ख़ून को धो दया था। उसे शायद जलाने क
को शश भी क गई थी। मगर वह पहले ही मर चुका था। इस लए मरे ए पर मट् ट तेल बबाद
करना उ मा दय को फ़ज़ूल लगा और मट् ट तेल कसी ज़दा के लए बचा लया गया। ऋ ष
थोड़ी दे र न े खड़ा रहा। उसने दे खा क पस लय म धँसा लोहे का स रया सीधा खड़ा है।
उसने गुरनाम क पस लय म धँसे स रया को झटके से नकाल दया। फर उसने गुरनाम क लाश
को कंधे से पकड़कर बीच रा ते से हटाकर बरगद कनारे लटा दया।
ऐसा करते ए उसे यह नह मालूम था क एक जोड़ी आँख उसे खड़क के बीच क दरार
से दे ख रही थ । उसक ख़ून से सनी शट, हाथ क रॉड और बरगद तले पड़ी ‘पागल गुरनाम’ क
लाश जो त वीर बना रही थी, छाबड़ा साहब भी वही त वीर दे ख और समझ पाए। छाबड़ा साहब
उसके बारे म ग़लत राय क़ायम कर चुके थे। पौ फट चुक थी।
पौ फट तो ट ल लांट क ओर से धुआँ उठाती आई। प य और सख क हालत एक-
सी होते ए भी एक-सी नह थी। प य के आ शयाने जन पेड़ पर थे, वे धू-धू कर रहे थे।
सख के आ शयाने जन मोह ल म थे, तबाह हो गए थे। प ी मगर फर भी अपने आ शयाने के
उजड़ने पर शोर कर रहे थे। मगर आह! बचे ए सख तो वो भी कर पाने से मजबूर थे।
रोशनी का छटपुटा फैलने लगा था। ‘हर रात के बाद नया सवेरा होता है’ बड़ा ही
आशावाद और सकारा मक श द है। मगर कुछ भा यहीन रात ऐसी भी होती ह जसक सुबह
महज़ भयावहता रोशन करने ही आती है। यह भी एक ऐसी ही सुबह थी। अपनी समझ के
अनुसार ऋ ष को लगा था क यह णक आ ोश से पनपा दं गा है जसे सुबह तक ख़ म हो
जाना है। इसी कारण उसने यह सोचा था क रात का पशाच दन होते ही ग़ायब हो जाएगा। फर
शासन भी तो हरकत म आ ही जाएगा। मगर सूरज नकला और भयावह नकला।
रात मारकाट के लए तय थी तो दन लूटपाट के लए। ऋ ष अभी ताले के पास प ँचा ही
था क बाहर से पहले ने आवाज़ द -
“ओए ऋ ष, कहाँ रह गया था साले?”
“रेलवे फाटक क ओर से नकल आया था।” ऋ ष ने पसीना प छते ए कहा। ऋ ष ने
हड़बड़ाहट म ताला छोड़ते ए कहा; मगर तबतक ‘पहला’ उसके पास आ चुका था।
“ मट् ट का शेर है तू। बात ही बड़ी-बड़ी ह तेरी बस।” पहले ने ऋ ष को दे खते ए पूछा।
ऋ ष ने इसका कोई जवाब नह दया; बस उसे लेकर बाहर आ गया।
“नेता भइया नाराज़ ह।” पहले ने बात बढ़ते ए कहा। ऋ ष ख़ामोश ही चलता रहा।
चलते-चलते भी जब ऋ ष ने नाराज़गी का कारण नह पूछा तो पहले ने फर ख़ुद ही कहा-
“कह रहे थे क इतना व त उ ह दया होता तो वो हमारी न ल ख़ म कर दे ते। हमसे कुछ
भी न हो पाया।”
“औरत , बूढ़ , नह थ को मारकर कौन-सा बदला लया जा रहा है?” ऋ ष ने घर क
सीमा से बाहर नकलते ए सवाल कया।
“बदला नह लया जा रहा। सफ़ाया कया जा रहा है। नमूलन। ज़ री है ब त। नेता भैया
कह रहे थे क ‘ वष य वषमौषधम।’ नरक मचा रखा है। ठे के इनके, कान इनक , कारख़ाने
इनके। क़ ज़ा कर रखा है इन लोग ने हर जगह। नौकर हो गए ह हम इनके।” पहले ने जवाब
दया।
“तो सीधे कहो न क नेता भइया को अब पूरा शहर चा हए।” ऋ ष ने तंज़ म कहा।
“उ ह या चा हए मुझे नह पता। मुझे या चा हए यह पता है। अब चल।” पहले ने कहा।
“कहाँ?” ऋ ष च का।
अरे, अब तो असल काम शु होना है। बाज़ार ख़ाली पड़ा है। पहले ने कहा और ऋ ष को
बाँह से लगभग ख चता आ अपने साथ ले चला। ख़तरा अभी तक पूरी तरह टला नह था।
ऋ ष को अब भी सब को घर से र ही रखना था। इस लए वह उसके साथ साथ बाज़ार क ओर
चल पड़ा।
बाजार। सारे आ थक, राजनै तक, सामा जक और औ ो गक कायकलाप को नयं त
करने वाला कारक। आग लग सकती है; लगाई जा सकती है। भावनाएँ भड़क सकती ह; भड़काई
जा सकती ह। मगर यह कतनी दे र तक काम करगी यह बाज़ार ही नधा रत करता है।
बाजार, जो कमठ के आगे नतम तक होता है। मेहनतकश के पाँव धोता है और फर
सख से कमठ कौन? तो ज़ा हर है बाज़ार का सरमौर कौन? सख। बाज़ार उनका था। तज़ारत
उनक थी। कान उनक थी। कारख़ाने उनके थे। इस लए लुटना भी उ ह ही था।
शु आत शॉ पग सटर से ई। तेरहव नंबर क कान पर जब अचानक शोर बढ़ा तो बात
समझ म आ गई क अब बारी सख क़ौम क तज़ारती कमर तोड़ने क है।
पहली लूट ‘लु धयाना लॉथ मच ट’ से शु ई। मुँह पर गमछा बाँधे एक ने रॉड
डालकर कान क शटर म लगा ताला तोड़ दया। मुँह पर कपड़ा बाँधने क ज़ रत भी महज़
इसी लए थी क वह ख़ुद उसी कान का मुला ज़म था। लुटेरे शोर करते ए कान म घुसे।
कान म रेशम, सूती, खाद आ द कपड़े थान म रखे ए थे। लोग ने कपड़े लूटने शु
कए। जसे जो हाथ आया वही समेटने लगा। मगर एक आदमी भला थान से कतने ही कपड़े ले
जा पाता। कची से काट कर कुछ लोग अपने ह से क लूट लेकर दौड़े । कची क कमी होने के
कारण अ धकतर लोग उस कान से कुछ नह लूट पाए। सर के ह से माल जाता दे ख ई या
फूट पड़ी और कसी एक ने रेशम क थान म मा चस मार द । कान मय सामान धू-धूकर लहक
उठा। लुटेरे भागे। ऋ ष ने दे खा क उनम कुछ ऐसे चेहरे भी थे जो नह होने चा हए थे। कुछ ऐसे
हाथ थे जो नह उठने चा हए थे। कुछ ऐसे ह ठ थे जो नह मु कुराने चा हए थे। मगर कह या?
चाहने से या होता है!
वह ख़ुद भी तो यह था, इ ह लुटेर के बीच। उनके साथ। मौन भी तो समथन ही है। यह
ख़ूँरेजी उसे कचोट ज़ र रही थी मगर वह ख़ुद को बहला रहा था क इस व त मनु और उसका
प रवार ही उसक ाथ मकता है। और भलाई इसी म है क वह यहाँ रहे। उसका मन जानता था
क वह ग़लत है; मगर म त क उसे असहाय होने का एहसास कराता रह रहा था।
उसक टोली जब आगे बढ़ तो उसने आ ख़री बार कान से उठता धुआँ दे खा। उस धुए ँ क
सघनता, उसक ऊँचाई और दन म भी बलवाइय क साहस ने बचे ए सख के मनोबल को
तोड़ दया। रात क बात और थी। दन-दहाड़े ई इस लूट और आगजनी ने यह बात गहरी पैठ
कर द क उनके साथ शासन या पड़ोसी भी नह है। जो जहाँ छपा था, बैठा था वह रहा,
नह नकला।
सैनी साहब का अपने मेहनत से कमाए पसीन का मोह नह छू ट रहा था। उ ह ने कल रात
के बाद ही सोच लया था क य द बच पाया तो शहर छोड़ ँ गा। अपने शहर अपने लोग के बीच
ही कुछ कर लूँगा। इसी लए आज मुँह अँधेरे ही सतनाम सैनी कान से पैसे नकालने आए।
उनका गाँव से आया र का भांजा कान म ही सोता था। पैसे यादा थे तो उ ह ने एक झोले म
भरकर पैसा अपने घर भजवा दया था। ख़ुद वह सरा झोला भर ही रहे थे क बलवाइय क
आवाज़ उनके कान म पड़ी। कान पर सात लीवर का ताला लगता था जसे भांजा बाहर से
लगाकर गया था इस लए सैनी साहब बे फ़ थे। मगर फर जब शोर तेज़ी से पास आता आ
उनके कान पर ककर तेज़ हो गया तो उनका दल बैठ गया। शोर तेज़ होता गया। वषबोल
फैलता आ उनक कान के ठ क सामने आकर उ माद म बदल गया।
कहते ह सधमार को द वार म नम ह सा दख ही जाता है। सात लीवर का ताला शरीफ़
के लए था। उ ताद के लए सात सेकंड का भी नह था। जूम म शा मल कसी उ ताद ने महज़
पेचकश क मदद से ताला खोल दया। भीड़ नार और नफ़रत के बीच कान म दा ख़ल ई।
इले ॉ नक सामान क कान म छपने क कोई जगह नह थी और सतनाम सैनी ने उसक
को शश भी नह क । दरवाज़ा टू टते ही भीड़ दो भाग म टू ट गई। कुछ लोग सतनाम पर टू टे तो
कुछ लोग सामान पर टू ट पड़े ।
सतनाम सैनी दोहरे शरीर के मा लक थे। कसरती शरीर और भारी वजन के सतनाम सैनी
को संभाल पाना आठ-दस लोग के बस क भी बात नह थी। उ ह ने कृपाण नकालकर जब
ंकार भरी तो लोग छटक गए। लोग पहले भयभीत ए; मगर उनक सं या यादा थी और फर
आतता तय के पास बल का वक प छल था। वह कृपाण लहराते ए बाहर नकलने ही वाले थे
क ताला तोड़ने वाले ने उनक गदन पर पेचकश से ही पीछे से वार कर दया। न क ास नली म
ही लगी थी। सतनाम सैनी कुछ ही पल म ख़ून क कमी से नढाल हो गए। भद् द गा लयाँ और
पैशा चक नार के बीच उ ह ख चकर कान से बाहर लाया गया और आग लगा द गई।
आग हरे-सूखे का भेद करती है। आग नम और खु क का भी भेद करती है। आग मा यम
और नवात का भी भेद करती है; मगर आग ज़दा और मुद का भेद नह करती। वह यह नह
दे खती क जो आदमी जससे वह लपटकर धू-धू हो रही है उसक साँस भी बाक़ है। या शायद
बाक़ थी अब नह रही।
“ ज़दा आदमी ज़दा ही जलकर अकड़ गया था। बाँह अकड़कर आकाश को गले लगाने
क दशा म कोयला हो गई थी।”
रमाकांत ठाकुर भीड़ का ह सा तो नह थे। मगर उ ह डर था क कह सख के म म कोई
उ ह क कान न फूँक दे ; इस लए वह अपनी बंद कान के सामने ही खड़े रहे।
रमाकांत ठाकुर ने दे खा क सतनाम सैनी को उनक आँख के सामने ज़दा ही जला दया
गया। रमाकांत ठाकुर ने यह भी दे खा था क जब भीड़ कान म घुस रही थी ठ क उसी व त
सतनाम का भांजा लौटकर कान आ रहा था, मगर कान के पास बेक़ाबू भीड़ को दे खकर
उसक ह मत जाती रही, वह फ़ौरन ही सामने खड़ी एक पुरानी कार के नीचे हो लया। उसे
उ मीद थी क इस तरह वह बच जाएगा। मगर ऐसा नह आ। रमाकांत को पता था क सतनाम
तो ख़ म हो गए। अं तम फाँस यह भांजा ही है। रमाकांत ठाकुर ने कार के नचले ह से म घुसकर
छु पते ए भांजे को दे ख लया था।
बलवाई जब सतनाम सैनी का क़ ल कर बाहर नकले तो रमाकांत ठाकुर ने एक बड़ा ही
प -सा इशारा बलवाइय को दया। मगर बलवाई ख़ून और लूट क मद म चूर थे। उ ह कुछ
प समझ म नह आया। उ ह लगा क यह गाड़ी भी सरदार क है जसके लए इशारा कया
जा रहा है। बलवाइय ने कु हाड़ी से गाड़ी के अगले च के पर दो वार कए। गाड़ी बैठ गई। नीचे
छपे भांजे के मुँह से चीख़ के बजाय ख़ून नकला जो बलुई मट् ट म सनकर ख़ामोश हो गया।
बलवाई अपनी ज़ रत क सारी चीज़ लूटकर आगे बढ़ गए थे। रमाकांत ठाकुर का रा ता भी
साफ़ हो गया था। अब उ ह कान फैलाने से कोई नह रोक सकता था।
ऋ ष ने महसूस कया क कल से आज तक म मुद द् ा बदल गया है। अब मुद द् ा क़ ल-ओ-
गारत नह ब क लूट-ओ-खसोट रह गया है। इस लए अब वह घर लौट सकता है। उसने लूट म
मौजूद अपने सा थय को लूट म ही मस फ़ छोड़ा और घर क तरफ़ लौट आया।
सखी री, माथ का ल खा

घर प ँचते ही ऋ ष पहले ग़सलख़ाने म गया। हाथ मुँह धोकर बा ट म रखे पानी म अपना सर
डु बा दया। साँस टू टने तक उसने सर पानी म डाले रखा। जब शरीर साँस के बग़ैर फड़फड़ाने
लगा तब उसने अपना सर बा ट के बाहर नकाला। अपनी शट खोलकर ग़सलख़ाने म ही छोड़
द और ग़सलख़ाने म रखी वेटर पहनकर नकल आया। दरवाज़े पर द तक दे ने से पहले उसने
यह ताक़ द कर द क बाहर खड़ा आदमी ऋ ष ही है। बाहर से उसने जो ताला लगाया था उसक
चाभी उसी के पास थी। ताला खोलकर उसने फर मनु के नाम से दरवाज़े पर द तक द । दरवाज़ा
मनु ने ही खोला। भीतर घुसते ही उसने दे खा क छाबड़ा साहब पीठ के बल लेटे ह और मनु क
माँ उनके पैर दबा रही है। भीतर घुसकर वह अभी साँस भी नह ले पाया था क एक अजीब-सी
सायरन क आवाज़ ने सबको फर से वहशत म डाल दया। सायरन ठ क छाबड़ा साहब के घर
के पास आकर का और लाउड पीकर से एक ककश मगर रोबदार आवाज़ गूंजीः
“कृपया यान द। इस इलाक़े म थ त तनावपूण होने के कारण क यू लगा द गई है।
आपको आदे श दया जाता है क आप अपने घर म ही रहे। खड़क दरवाज़े बंद कर ल और
झाँकने क को शश न कर। हम कसी भी को दे खते ही गोली मार दे ने का आदे श है।
इस लए अगली सूचना तक कृपया घर से बाहर न नकल।”
यह आदे श कसी और व त म जी का अज़ाब हो सकता था। अ धकार क न ष ता के
रोष का कारण हो सकता था; मगर इस व त यह सबसे बड़ी ख़ुशी का बायस था। यह थ त
नयं ण क माँग थी। ऋ ष ने बाहर झाँककर दे खा। फौज़ी गा ड़य क ग त शु हो चुक थी।
वह लगभग ख़ुशी से चीख़ ही पड़ा-
“अब घबराने क कोई बात नह है। ख़तरा टल गया है!”
“सच कह रहे हो बेटा जी! या अब वे लोग बारा नह आएँगे?” मनु क माँ पूरी तरह
आ त होना चाहती थ ।
“नह आंट जी। सारा इलाक़ा अब नयं ण म आ जाएगा। जतना बुरा होना था हो चुका।
अब सब ठ क होगा।” ऋ ष ने कहा।
“वाहे गु तेरे ते मेहर करे पु र। अज तू जो क ा ऐ ओ कोई अपना वी नह कर सकदा।”
मनु क माँ ने अपने आँचल से अपने आँसू प छते ए कहा।
ऋ ष शायद छाबड़ा साहब से कुछ सुनना चाह रहा था। मगर छाबड़ा साहब सु हो चुके
थे। ऐसा लगता था जैसे वह इन बात को समझ ही नह पा रहे। जैसे वह कसी सरी नया के ह
और यहाँ लोग म अज़ाब अनुभव कर रहे ह। वह बना कहे उठे और बाहर नकलकर सी ढ़याँ
चढ़ने लगे। मनु क माँ को यह अजीब तो लगा मगर उ ह ने इसे वभी षका का असर समझा और
वह भी चुपचाप छाबड़ा साहब के पीछे -पीछे बाहर दरवाज़े से बाहर नकलकर अपने घर क
सी ढ़याँ चढ़ने लग ।
जाने से पहले उ ह ने ऋ ष के सर पर हाथ फेरा। मनु जसक समझ म पता का यह
आचरण नह आया, कुछ दे र तक उनके सामान बटोरती रही।
“मनु, चे ी आ पु र!” माँ ने दरवाज़े पर खड़े होकर कहा तो मनु भी बना कुछ कहे ही
कमरे से नकल गई।
कमरे म ऋ ष अकेला रह गया।

उ माद का; मगर इ मत और तज़ारत लूट लेने के बाद। कल तक का सामा य आदमी आज का


लुटेरा था जसे परस फर सामा य आदमी होकर, ठे ल , खोमच , कान , द तर , बस गा ड़य
म खो जाना था। लूट दं ग क नाजायज़ औलाद है। अवसर कभी बन जाते ह कभी बना लए
जाते ह। मगर हर दं ग म लूट का ज म होता ही है। नाजायज़ इस लए भी क लुटेरे महज़ लूट
और नाश से मतलब रखते ह। व तु उसके काम क है भी या नह इस सोच से भी लापरवाह लुटेरे
बस लूटते चले जाते ह।
सो, लूटकर लाई गई ट वी कुएँ म छु पाई गई। बाक़ायदा र सय से बाँधकर। नोट मट् ट के
गमल म यह सोचकर गाड़ दए गए क आड़े व त नकाले जाएँगे। लूट का माल लेकर भागने म
जब बीच म पड़ा नाला सम या बना तो नाले को दो नए ज़ एक के बाद एक रखकर पु लया
बना लया गया और उसपर से गुजरकर लूट के सामान नपटाए गए। बजली से चलने वाले
सामान उन ब तय तक म भर लए गए जन ब तय म बजली नह थी और न ही आनी थी।
ऑ डयो कैसेट लूटने के लए अपने पाजामे को खोलकर उसके पायच म गाँठ लगाकर
झोलानुमा बना दया गया। दस-दस पये क चीज़ के लए लोग सरे-बाज़ार अधनंगे हो गए।
कैसेट लूटने के बाद जब पता चला क टे प रकॉडर के बना यह कसी काम क नह है तो लुटेरे
टे प रकॉडर क कान क तरफ़ दौड़े । मगर वहाँ मुदई छाई ई थी। वह तो पहले ही लुट- पट
चुक थी। कान के बाहर भगदड़ म उखड़ी-टू ट च पल और का लख के नशान के अलावा कुछ
नह था। झुंझलाकर लुटेर ने कैसेट कूड़े दान म फक दए और पाजामे से इ ज़त ढाँप ली। जूत
क कान से लोग पैर के साथ हाथ म भी जूते डालकर भागे। जूते के ड ब को कान जलाने
के लए इ तेमाल कया। कताब से कसी को कोई ेम नह था। कताब से ेम ही होता तो दं गे
ही य होते! सो, कताब को आग का क चा माल मानकर उसी तरह उपयोग कया गया।
उ माद का। सेना ने शहर को छावनी म त द ल कर दया। क यू त काल भाव से लगा
दया गया। दे खते ही गोली मारने के आदे श ए। सायरन, टर और सेना के लाउड पीकर क
आवाज़ जो कसी अ य व त म खीझ उ प करती इस व त सबसे अ धक राहत दे रही थी।
क यू के कारण खाने-पीने के द कत थ मगर स यह था क जान क क़ मत पर भूख मारना
स ता सौदा था; या फर यह सौदा था भी नह । एकमा वक प था। भय के इस दौर म एकमा
वक प।
भय का ज़ोर ख़ म आ तो भूख ने ज़ोर मारी। अ थमा क दवा के लए छाबड़ा साहब का
कुछ खाना भी ज़ री था। मनु क माँ उनक पीठ क ओर बैठ हर खाँसी पर पीठ सहला रही
थ । आँसी मनु ने जब घर का हाल दे खा तो वह ज़ोर-ज़ोर से रो ही पड़ी; मगर फर फ़ौरन ही
उसे पता क तबीयत का ख़याल आया। वो मुँह म पट् टा ठूँ सकर रोने क आवाज़ छु पा बैठ और
खाने के लए कुछ ढूँ ढ़ने लगी। घर म खाने को कुछ नह था। दाल-चावल भी लूट लए गए थे।
उसने दे खा क दो दन पुराने वही उबले ए आलू पड़े थे जो ऋ ष टोव पर रख गया था। आलू
ठं डे हो चुके थे। सरा कोई चारा नह था। उसने आलू छ ल दए और उसपर थोड़ा-सा नमक
डालकर छाबड़ा साहब और माँ के आगे रख दया। छाबड़ा साहब ने दो टु कड़े खाकर दवा खा ली
और बाएँ करवट लेट गए। दा हने करवट म उनका दमा बढ़ जाता था। दवा ने असर कया। थोड़ा
आराम आया तो रात भर के जागे छाबड़ा साहब सो गए।
माँ को खलाकर मनु ने जैसे ही अपने मुँह म आलू का एक टु कड़ा रखा उसे ऋ ष क याद
आई। कैसी न ु र है वह। ख़ुदग़ज़! उसे वह याद य नह आया? वह भी तो कल से भूखा ही
होगा। सोचते ए उसके हाथ फ़ौरन क गए और वह कचन क ओर चली गई। अपने पट् टे म
दो उबले ए आलू छपाकर वह नीचे उतर गई।
मनु के आने का आभास ऋ ष को नह आ। मनु ने दे खा क ऋ ष अपने दोन पाँव के
बीच त कया फँसाये शू य म कुछ दे ख रहा है। पहले तो दो ण उसने ऋ ष के दे खने का इंतज़ार
कया; मगर जब ऋ ष अपलक ही शू य को ताकता रहा तो उसने ऋ ष के कंधे पर अपनी हथेली
रख द । ऋ ष च ँक गया। दरअसल वह डर गया और ब त तेज़ी से पीछे खसक गया। उसे इस
तरह डरता दे खकर मनु भी वच लत हो गई। उसने अपने पट् टे म से नकालकर आलू अख़बार
पर रख दए और कहा-
“क होया? तुसी डर रये हो। डरना ते साणु चा हदा ए ना!”
ऋ ष जस थ त म था उसे इस व त समझना मनु के बस म नह था। एक व त तक
आदमी ख़ुद को मजबूत दखाते ए भावना को ज़ त कर सकता है। मगर सफ़ एक व त
तक! व त पूरा होने पर ज ब का बाँध टू ट जाता है। प थर फर से इंसान हो जाता है। ऋ ष के
लए इंसान होने का व त आ गया था। वह अपने गले म अटके ए फाँस को रोक नह पाया और
मनु को ज़ोर से भ चकर फूट पड़ा। उसने अपना चेहरा मनु क छाती म गड़ा लया और रोने क
आवाज़ को उसके सीने से दबाकर छपा लया। मनु के लए यह थ त आक मक थी; मगर
आक मक थ तय के लए े मका , माँ और प नय को तैयारी क ज़ रत नह होती,
वह उनम नैस गक होता है। ब च को संभालना वो माँ बनने से पहले से जानती ह।
मनु ने ऋ ष क बाल म अपनी उँग लयाँ फेर । उसके पीठ पर हाथ रखा और कहा-
“रो ना! रोना तो हम है!”
“मुझे माफ़ कर दो।” ऋ ष ने रोते ए ही हच कयाँ लेते ए ही कहा।
“ कस वा ते?” मनु ने पूछा।
ऋ ष ने कोई जवाब नह दया। बस रोता रहा। ऋ ष के रोने से मनु का मन बैठने लगा। उसे
लगा क कह छाबड़ा साहब जो अभी माँ से बता रहे थे वह सच तो नह था। कह सचमुच ऋ ष
ने भी कसी का ख़ून तो नह कया है। उसने फ़ौरन पूछा,
“तु वी कसे नू मारया ए?”
ऋ ष ने इस बार भी कोई जवाब नह दया। मनु ने फर पूछा। पूछते व त उसक उँग लय
क हरकत ऋ ष के बाल म क गई। उसक साँस थम ग । उसने फर पूछा-
“मारया ए?”
ऋ ष ने उसके सीने म ही सर को ना क मु ा म रगड़ते ए कहा-
“बचा नह पाया!”
“को शश क -सी क ?” मनु ने पूछा।
ऋ ष ने अबक बार मुँह से कुछ नह कहा बस अबक बार ‘हाँ’ क मु ा म सर हलाया।
“बस, फेर कोई गल नी।” मनु ने चैन क साँस लेते ए कहा और उसे अपने सीने से और
गहरे चपका लया।
घ ड़य और साँस को क़ायदे से ऐसे व त म क जाना चा हए; मगर वह नामुराद ऐसे
व त और तेज़ चलने लगती ह। घड़ी क टक- टक और साँसो क धक-धक इतनी तेज़ होती है
क नीरवता टू ट ही जाती है; मगर थोड़ी दे र म ही दोन को एहसास हो गया क दोन कुछ यादा
ही क़रीब हो गए ह। ऋ ष फ़ौरन ही पीछे खसक गया। मनु भी पीछे ई और फर संभलकर बैठ
गई। बाहम ख़ामोशी छाई रही। फर मनु ने ही ख़ामोशी तोड़ते ए पूछा-
“कुछ खाया?”
ऋ ष ने इनकार म सर हला दया। मनु उसका इनकार दे खने से पहले ही उठकर स ज़ी
काटने का चाकू ले आई। उसने चाकू से आलू के चार टु कड़े कए। ऋ ष के टोव के पास पड़े
ड बे म से भुना जीरा और नमक नकालकर आलू के बीच रखकर मला दए और ऋ ष के ठ क
सामने आकर बैठ गई। ऋ ष भी अपने क़त के बाँह से आँख प छकर पाँव को पीछे मोड़कर
आसन क थ त म बैठा रहा। मनु ने अपने हाथ म आलू क एक फाँक ऋ ष के मुँह म डाली।
ऋ ष ने चुपचाप खा लया। खाते व त ही उसे ख़याल लगा क शायद घर म खाने को कुछ नह
है; फर भी उसने पूछा-
“खाने को कुछ नह है या?”
“नह , दाल-चावल तक उठा ले गए कमबख़तमारे।” मनु ने सरा नवाला ऋ ष को दे ते ए
कहा।
“अंकल ने कुछ खाया?” ऋ ष ने मुँह चलाते ए ही पूछा।
“हाँ।” मनु ने जवाब दया।
“और तुमने?” ऋ ष ने फर पूछा।
“हाँ। मने भी।” मनु ने नीचे दे खते ए ही झूठ कहा।
“पाँच आलू म पूरे प रवार ने खा लया?” ऋ ष ने कहा जसके जवाब म मनु चुप ही रही।
ऋ ष ने मनु के हाथ से बचे ए आलू लए और एक टु कड़ा मनु क ओर बढ़ाया। मनु को क़ायदन
मुँह खोलना था; मगर उसक आँख का द रया खुल गया। इतना क वह उ ह संभाल नह पाई
और रोते ए ही कमरे से बाहर चली गई।
ेम दरअसल तरह-तरह के आँसु का समु चय है। ख़ुशी, ग़म, ग़ सा, ख़ला, डर और
बछोह। यह सारी भावनाएँ एक ही गुण को संतु करती ह और वही गुण ेम है।
छू टत है पयु क नग रया सखी री

नुक़सान जब हो चुका होता है तब उसके बाद क जाने वाली हर को शश महज़ भरपाई होती ह।
नुक़सान हो चुका था। पया-पैसा, गहने-ज़ेवर, कपड़े -ल े तो भौ तक चीज़ थ जो सख को
आज छोड़कर कल कमा लेनी थ । मेहनत से नसीब लखने वाली क़ौम को मेहनत करने से कौन-
सा दं गा, कौन-सा दमन, कौन-सा वभाजन रोक पाया है। असली नुक़सान व ास टू टने का आ
था जसे जोड़ने का गारा ऊपरवाले ने अबतक नह बनाया।
नुक़सान हो चुका था; भरपाई बाक़ थी। शासन नुक़सान करा लेता है तो भरपाई को त पर
होता है। शहर अब फौज़ के हवाले था और फ़ौ जय ने राहत काय शु कर द थी। जगह-जगह
घूमती फौज़ क गा ड़य ने थ त नयं ण म कर द थी। शासन को भी जब यह व ास हो
गया क थ त अब नयं ण म आ चुक है तो क यू म ढ ल ई। फौज़ क लॉ रयाँ ज़दा,
हताहत और घायल सख को ढूँ ढ़कर गु ारे तथा कूल जैसे सुर त थान पर प ँचा रही थ ।
क यू हटते ही ऋ ष को घर म राशन न होने का ख़याल आया। उसे पता था क बाज़ार म लूट क
थ त होगी य क सभी लोग खाने के सामान के लए टू ट पड़गे। यही सोचकर फ़ौरन वह
बाज़ार क ओर दौड़ा। मगर बाज़ार क थ त दं गे से भी ख़राब थी। खाने के सामान के लए भी
लोग ख़ून करने को आमादा नज़र आए। वह लड़कर केवल व त ज़ाया कर सकता था। जो उसे
इस व त सही नह लगा। अचानक उसे उकरीद ब ती क छोट बेकरी का यान आया उसे लगा
क फ़लहाल के लए वहाँ से कुछ पावरोट ही लेकर घर म रख ले। उसे उ मीद थी क वहाँ भीड़
कम होगी। वह दौड़ता आ उकरीद प ँचा। बेकरी म भीड़ सचमुच कम थी। उसने छह बड़े पाव
लए और फ़ौरन लौटा। वह इस बात से संतु था क मु कल भरी इस थ त म कुछ दन का
गुज़ारा हो जाएगा। दौड़ता-दौड़ता वह इतना थक गया था क लौटते व त उसने र तार धीमी कर
द । वह नह जानता था क यह जो धीमी र तार का उसका नणय है; इसी नणय के लए वह
ख़ुद को तमाम उ माफ़ नह कर पाएगा।
ऋ ष जब मुह ले के मुहाने पर प ँचा तो उसने दे खा क एक काली लॉरी उसके घर के आगे
खड़ी है। वह हो उठा। उसे अचानक ही एहसास आ क अभी-अभी कोई लड़क घर से
नकलकर लॉरी म जा बैठ है। उसका दल बैठ गया। उसे लगा क वह लड़क मनु है। नह -नह
वह लड़क मनु ही है। उसके पैर जम गए। उसे ऐसा महसूस आ क उसका दय उसके पाँव
तक ख़ून नह प ँचा रहा है। वह दौड़ तो या खड़ा भी नह रह पाएगा। वह फर भी दौड़ा।
उसके नज़द क आते ही उसने दे खा क छाबड़ा जी, मनु और मनु क माँ लॉरी म बैठ चुके थे।
उसने फर र तार तेज़ क । तमाशाई पड़ोसी अपने घर से बाहर आकर तमाशा दे ख रहे थे। ऋ ष
उनके बीच से जगह बनाता लॉरी तक प ँचा। उसे अभी कतनी बात करनी थी। उसे अभी छाबड़ा
जी से माफ़ माँगनी थी। उनक नाराज़गी का कारण जानना था। अपनी सफ़ाई दे नी थी। मनु का
हाथ माँगना था। अभी कुछ भी तो नह हो पाया था। उसने लॉरी म चढ़ने क को शश क मगर
एक गुरखा सपाही ारा रोक दया गया।
“तुम सख हो?” गुरखा ने पूछा। ऋ ष ने ‘हाँ’ कहना ही चाहा क तमाशाइय ने ‘ना’ कह
दया।
“ फर तुझे कौन-सा ख़तरा?” कहते ए गुरखा ने ऋ ष को परे कर दया। गाड़ी के इंजन के
चालू होने क आवाज़ जैसे ही घनघना उठ ऋ ष के भय ने क का प ले लया। उसने एक बार
सफ़ एक बार मनु को दे खना चाहा; पर संकोचवश आँख छाबड़ा साहब से हटा ही नह पाया।
छाबड़ा साहब ज ह क़ायदन ऋ ष को दे खना था, शू य को अपलक दे ख रहे थे। मनु भीतर क
सीट म दबी तमाशाइय के बीच ऋ ष क आँख खोज रही थी जसे वह वदा भी नह कह पाई
थी। आँख कसी हाल नह मल ।
लॉरी धूल और धुए ँ छोड़ती आगे बढ़ गई। ऋ ष रोड के सटे शव मं दर के चबूतरे पर
न ाण-सा बैठ गया।
“इसी क वजह से बचा है यह प रवार। वरना लॉरी यहाँ से भी लाश ही उठाती।”
“ जसका व त नह आया उसे कोई नह ले जा सकता।”
“ क़ मत के धनी नकले छाबड़ा जी।”
ऋ ष तमाशाइय के बीच से आती आवाज़ सुनता रहा। ेड कह गर गई या उसके हाथ से
कोई ज़ रतमंद ले गया है उसे एहसास भी नह आ।
भीड़ छट गई। भीड़ अपने काम म लग गई। भीड़ जो क कल पहला, सरा, तीसरा या
चौथा थी; कौन जाने आज चने भगो रहा छोले वाला, बकरे ख चता क़साई, राँदा तेज़ करता
का तकार या फर कॉलेज जा रहा वह लड़का ही हो। ोध और लोभ का जहर उतरा तो लोग
फर अपने काम म लग गए। शहर फर मस फ़ हो गया।

म यानी शहर बोकारो इस बदकार दाग़ के साथ जीने को मजबूर ँ। कई कमीशन आए, कई
रपोट आ , कई वृत च बने। मगर कोई कमीशन, कोई रपोट, कोई वृ च कतनी स चाइयाँ
समेट सकता है! कतनी कहा नयाँ उघाड़ सकता है! उन कहा नय का या जसे उसके च र
बताना ही न चाह! ऐसी ही कई कहा नयाँ मुझम दफ़न ह। जसे कोई भी कमीशन, कोई भी रपोट
या नकाल पाएगी! जसे कोई भी धम कोई भी प ाताप, कोई भी दान मुआफ़ नह कर पाएगा!
सख का एक दफ़ा फर पलायन आ। बच गए सख म से अ धकांश ने अपने प रवार के
साथ शहर छोड़ दया। कुछ कमठ फर भी के और अपने हौसल क बदौलत फर उठ खड़े
ए। मगर व ास जो एक दफ़ा टू टा तो अ धकांश सख मुझे छोड़ ही गए। छाबड़ा साहब ने
अपना घर औने-पौने दाम पर बेच दया और मुझे छोड़कर अपने पैतृक नवास मोगा जा बसे। मनु
को वह एक कॉलेज म दा ख़ला दलाया गया। ऋ ष कुछ और दन मेरे पास रहा और फर
उसक बंगाल पु लस सेवा म नौकरी हो गई। वह भी नए मकान मा लक से उसक च ट् ठयाँ नए
पते पर भेज दे ने क दर वा त के साथ शहर छोड़कर कूच कर गया।
लीनी न बालम मोरी सु धया

शहर छोड़ने के बाद भी ेम कहाँ छू टता है! करदार के मुक़द् दर म शहर बदलना लखा होता है।
कहानी का एक सरा कसी एक शहर म बाँधने के बाद य द करदार शहर बदल भी ल तो शहर
कहा नयाँ नह भूलता। वह एक सरे को पकड़े ए ही सरा सरा खोजता ज़ र रहता है।
करदार शहर बदल लेते ह और सोचते ह सब ख़ म हो गया; मगर शहर उ ह याद रखता है। वह
याद रखता है उनक अठखे लयाँ, उनक शो खयाँ, उनके झगड़े , उनका लड़कपन और उनका
ेम।
छाबड़ा साहब को मोगा से आए उसके र तेदार राहत श वर से ही सीधा मोगा ले गए। वह
दो-तीन महीने बाद आए भी तो महज़ मकान बेचने के लए। कौ ड़य के भाव मकान बेचकर वह
हमेशा के लए मोगा लौट गए। मनु फर इस शहर नह आई। मगर उसक च ट् ठयाँ बराबर आती
रह । हर बार कुछ नई तो कुछ पुरानी ही बात से पगी च ट् ठयाँ। च ट् ठय का मज़मून एक-सा
ही होता। मगर फर भी हर बार करने को कुछ नयी बात रहती ही थ ।
जैसे क-
पापा जी ब त चड़ चड़े हो गए ह। अब तो गा लयाँ भी नकाल दे ते ह। अकेले रात भर
टहलते और खाँसते रहते ह। र तेदार भी मतलबी। सब मकान के पैसे के लए चपके रहते ह।
अब इनके पास बचा ही या है?
जैसे क-
गाँव के कॉलेज म ही उसका नाम लखा दया गया है। रोज़ नह जाना। बस परी ा दे ने
जाना है। मगर अब उसका मन पढ़ाई म नह लगता। कताब खोलते ही ऋ ष का चेहरा उसके
आगे घूमने लगता है और वह रो पड़ती है। वह रोना नह चाहती।
जैसे क-
‘ वाजा ग़लाम फ़रीद’ ने मा हये उसके लए ही लखे ह। नह तो मेरा हाल वो कैसे जान
जाते! जान भी सकते ह। पीर-फक र, मु शद लोग ब त प ँचे ए होते ह।
“रोज अजल द , दर दलबर द , क मत इशक गुलामे
तांग तंगेद , काग उडद , रोवां सुबह-ओ-शाम
ना कोई खत दलदार दा आया, ना का सद पैगामे
आख फ़रीद दल दरद मांद ण मुट् ठड़ी बेआरामे!”

भा भयाँ उसे काग-उड़ावन वा लयाँ कहती है। ठ क ही तो कहती ह।


जैसे क-
यहाँ क हालत दन-ब- दन ख़राब होती जा रही है। ममेरा भाई खाड् कु म शा मल हो
गया है। हर आता दन बुरी ख़बर ही लाता है। सही-ग़लत नह जानती। मगर यह जानती ँ क
पु लस ब त परेशान कर रही है। एक दन तो घर म घुस आई और उसके सोते पर से कंबल ख च
दया। भाइय ने फर झगड़कर बाहर नकाला तो दे ख लेने का कहकर चले गए।
जैसे क-
यह च ट् ठयाँ वह कॉलेज जाते व त ही डाल पाती है और कॉलेज जाने का कोई न त
समय नह है इस लए दे र-सबेर हो जाती है और यह चट् ठ वह इस लए लख रही है य क
उसने रात एक सपना दे खा है जसम ऋ ष पीली द तार बाँधे हाथ म तलवार लए उसे याहने
आया है और उस का मेल खाता पीले रंग का लहंगा द ए से जल गया है। वह ब त उदास है और
यह ख़त इसी उदासी म लख रही है।
जैसे क-
ऋ ष उसे याद तो करता है न? वह उसे इस एक साल म भूल तो नह गया। ऋ ष य द उसे
दे खने उसके गाँव आता हो तो मत आए। यहाँ ख़ून-ख़राबा बढ़ गया है। अब बस अगली बार तभी
आए जब हाथ माँगना हो। यह भी क पापा जी अभी तक ऋ ष को दोषी मानते ह। हालाँ क, मनु
ने उ ह बताया है क गुरनामे तो रात गए ही चल बसा था; मगर वह उसे झड़क दे ते ह। कहते ह
आँख दे खी ग़लत नह होती। वह उ ह यह भी समझा नह पाती क ऋ ष उस से झूठ नह
बोलता और जो उसने कहा है तो सच ही कहा होगा।
जैसे क-
एक दन एक साई आया था। आटा माँगने लगा। आटा दे कर जब लौटने लगी तो उसने कहा
क आटे के बदले या चा हए? मने कहा, आस दे दो। साई हँस पड़ा। कहने लगा, “आस क तुझे
या कमी? तू साँस पर नह आस पर ही तो जीती है।” साई कतनी स ची बात कहते ह।
जैसे क-
घरवाले अब उसके लए लड़का दे ख रहे ह। पछले र ते क बात पर उसने घर म कोहराम
कर दया था। भाइय ने हाथ भी चला दया। पापा जी यहाँ आकर असहाय हो गए ह। उ ह ने
आज तक मुझपर हाथ नह उठाया। मगर नातेदार के दबाव म कुछ नह बोलते। फर भी वह
फ़ न करे। मनु ठ क है।

ऐसा नह था क मनु एकतरफा ही परेशान थी। ऐसा नह क ऋ ष उ न नह होता। ऐसा


नह क उसे मनु क याद नह आती। ऋ ष तो ब क यादा ज़ त करता था; य क वह तो
अपना अहवाल भी कसी को नह बता सकता। वह दरअसल मजबूर था। आ म ला न से भरा
आ। वह ख़ुद को क़सूरवार मान चुका था। मनु क उसे सबसे यादा ज़ रत जब थी तब मनु
उसके पास नह थी। उसे इस ला न बोध से नकलना था जसम वह ख़ुद को ह यारा मान चुका
था। मनु ने ही उसे अब तक ज़दा रखा था वरना उसे लगता था क वह उसी रात से लाश हो गया
है।
इ ह कशाकश के दन म एक दन ऋ ष का चयन बंगाल पु लस सेवा म साजट के पद पर
हो गया जसक परी ा उसने पहले ही द थी। पता क जगह नौकरी क न उसे अब ज़ रत थी
न इ छा। उसे अब यह शहर भी अ छा नह लगता। शहर छोड़कर नौकरी के लए वह कलक ा
तलब आ था।
मगर शहर छोड़ने के बाद वह सीधा नौकरी करने नह गया। वह मनु के दए पते पर मोगा
जा प ँचा। उसने छाबड़ा साहब के पाँव छू ए और मनु का हाथ माँग लया। संयु प रवार का
माहौल था और चूँ क मनु याह के लए इनकार करती रही थी इस लए ऋ ष का आना छाबड़ा
साहब के र तेदार खटका तो ज र; मगर छाबड़ा साहब ने बात को घर म उठने ही नह दया।
उ ह ने र तेदार को बताया क यह लड़का छाबड़ा साहब के बके ए घर के बकाया पैसे दे ने
आया है। पैसे के नाम से र तेदार भी ख़ुश ए। बात आगे नह बढ़ ।
घर से बाहर गाँव घूमते ए ही कसी ट ले पर बैठकर छाबड़ा साहब ने ऋ ष को यह बताया
क यह पंजाब है और ऋ ष यहाँ मेहमान। सो य द यहाँ के लोग को इस बात क भनक भी लग
गई क वह उस दन रात भर घर से बाहर बलवे म था तो ऋ ष पंजाब क मट् ट क खाद बन
जाएगा। वह ब त मु कल से कुछ-कुछ भूल पाएँ है; मगर सब कुछ नह । इस लए बेहतर यही
रहे क ऋ ष लौट जाए। ऋ ष जो ख़ाली हाथ ही आया था, ठ क वह से ख़ाली हाथ ही लौटा।
मनु को कुछ बताने क ज़ रत नह समझी गई; फर भी मनु तक ख़बर यह प ँची क ऋ ष पैसे
दे कर लौट गया। मनु इस बचकाने झूठ पर हँस पड़ी और फर दे र तक रोती रही।
लौटना ऋ ष क मजबूरी थी। हाँ, मगर लौटते ए वह मनु को यह भी नह बता पाया क
अब वह भी उस शहर म नह रहता। सरकार क चाकरी के लए अब उसे दन-रात सरे शहर क
ग त म रहना होगा। ऋ ष लौटते व त मनु से मलना चाहता था; एक आ ख़री दफ़ा। मगर नह
मल पाया। वह उसी के इंतज़ार म सारी रात टे शन पर बैठा रहा। उसे यह आस थी क मनु उससे
मलने कसी तौर ही सही; आएगी ज र। मनु नह आई। े न आ गई। अमूमन दे री से चलने वाली
वह े न उस दन ठ क समय पर आई। ऋ ष अपनी बद क़ मती पर हँसा और े न म चढ़ते ए यह
बात समझ गया क छत से उतरकर कमरे म आने और घर से नकलकर टे शन आने म फ़क़
होता है।
ऋ ष अब नौकरी म त था और एकतरफ़ा संवाद के प म महीने-दो महीने म आने
वाली एक चट् ठ के इंतज़ार म दन काटता था। वह अब इस शहर महज़ अपनी च ट् ठयाँ लेने
आता था; जसे संभालकर रखने क गुज़ा रश उसने मकान मा लक को कमरा छोड़ने से पहले ही
कर द थी। पहली बड़ी छु ट् ट म ही ऋ ष मनु के गाँव के ढाले तक गया था। र से ही दो त ले
मकान को नहारते ए चाय क कान पर ही उसने छाबड़ा साहब क बाबत कुछ जानकारी लेनी
चाही। जानकारी यह मली क छाबड़ा क बेट ‘ख़राब’ हो चुक है और ख़राब या हो चुक है
वह तो ख़राब ही आई थी। छाबड़ा ने शहर दं गे क वजह से नह ; लड़क क वजह से ही बदला
था। दो बार अ छे -ख़ासे र ते तोड़ चुक है। एक बार तो सरे क छत पर कूदते ए भी दे खा गया
था उसे। शहर के ब च का चलन ही ख़राब है। जवानी गारत कर आई है। इधर तो कुछ ऐसा आ
क उसे अपनी फुआ के यहाँ भेज दया गया। ऋ ष ने पूछना चाहा क फुआ का घर कहाँ है?
मगर वह पूछ नह पाया। उसे लगा क यह सवाल उसे संदेह म डाल दे गा और पंजाबी न बोल
पाने के कारण वह सं द ध तो पहले से ही है। वह चुप ही रहा और रात म फर घर का एक ग त
लगा लेने के बाद लौट आया।
दन बीतते रहे। ख़त आने कम तो ए मगर बंद न ए। ऋ ष के लए यही संबल बड़ा था
क ख़त बराबर आते रहे। इस दफ़ा जब दो महीने च ट् ठयाँ नह आ तो ऋ ष का मन उदास
आ। वह छु ट् टयाँ लेकर मनु के गाँव जाने क सोच ही रहा था क तभी अचानक ही एक दन
नए मकान मा लक ने उसे फ़ोन करके बताया क उसक एक चट् ठ काफ़ दन बाद आई है।
च ट् ठयाँ े मय क ाणवायु होती ह। उतनी ही ज़ री जतनी ास अवरोध से मरते
इंसान के लए ऑ सीज़न। इतनी ज़ री क ऋ ष रातवाली पैसजर से अगले ही दन बोकारो
प ँच गया था। चट् ठ मनु क ही थी। लखा था-
सरदार मेरे,
बुआ का अब-तब लगा है। उ ह गंगा सागर क आस है। 14 को एक आ ख़री बार नकल
रही ँ। अगर भूला न हो तो हाथ थाम लेना और जो भूल चुका हो तो वह उसी समंदर से मुझे
छान लेना। य क लौटकर म फर नह आने क ।
तेरी ही…
ऋ ष ने चट् ठ बारा पढ़ । फर पढ़ । बार-बार पढ़ और यह जान पाया क मनु क बुआ
क तबीयत ख़राब है और मरने से पहले वह गंगासागर नान करना चाहती ह। इसी योजन से
मनु भी आएगी। उसने चट् ठ एक दफ़ा और पढ़ और आ ख़री लाइन पढ़कर सहर गया।
उसने ज़ेहन म गंगा सागर क त थ बैठाई।
सखी, अब वदा क बेला

गंगा सागर।
लोको कहती है क सब तीरथ बार-बार, गंगा सागर एक बार। लोको कहती है तो
कारण भी होगा। कारण यह क यह सागर प का बड़ा ह सा चार साल म एक दफ़ा ही नज़र
आता है। कारण यह भी क मकर सं ां त के दन यहाँ नान से हज़ार गाय के दान के समक
पु य मलता है; ऐसी मा यता है। कारण यह भी क यह तीथ इतना ह है क बार-बार इसे कर
पाना संभव भी नह । जमीन, नद , ज़मीन और फर सागर नापते ए यहाँ तक प ँचना ही तप या
जैसा है। मकर सं ां त के दन यहाँ नान से जो पु य क मा यता है वह र-दराज से लोग को
ख च लाती है।
छाबड़ा साहब अपनी बहन, प नी और बेट के साथ-साथ गाँव के एक भतीजे को भी लेकर
आए थे। सं ां त से पहले वाली रात को वह काक प म डे रा डाल चुके थे। लोग क भीड़ और
च टय क कतार म कोई अंतर न था। एक बारगी तो बुजुग छाबड़ा साहब भीड़ दे खकर घबरा
गए। बुढ़ापे का सबसे पहला वार आ म व ास पर ही होता है। उ ह बहन क इस नजी मा यता
पर खीझ भी आई; ले कन फर उ ह याद आया क बहन ने आज तक कुछ नह माँगा था। पहली
और शायद आ ख़री इ छा इसी नान क जताई थी। वह ना नह कर पाए।
क मट से बातकर छाबड़ा साहब ने अलग टट और खाने का इंतज़ाम करवा लया था। मगर
जनवरी क ठं ड, गरते ओस और उ के इस पड़ाव ने थ त असामा य कर ही द थी। रात म
कपड़े के एक टट म पुआल पर चादर बछाकर सारा प रवार सोया। नीचे क मट् ट गीली होने के
कारण मनु को न द नह आई। ठं ड ह ड् डय को गला दे ने वाली थी। हवाएँ ज म को बेधकर समा
जाना चाहती थी। उसने अपने झोले से ब कुट का छोटा पैकेट नकाला और उठकर टट से बाहर
नकल आई।
आदमी को जब उ मीद का सहारा ही आ ख़री होता है तो वह असंभव से मुग़ालते भी पाल
लेता है। मसलन, मनु इस उ मीद से भी बाहर नकली थी क शायद ऋ ष यह कह हो और वह
उसके बाहर नकलने का इंतज़ार कर रहा हो या शायद उसने कसी के हाथ संदेशा ही भजवाया
हो। रा ते भर तो वह हर मफ़लर और शाल से मुँह ढके इंसान को पुर-उ मीद दे खती आई थी।
बाहर नकलकर भी उसने ठं ड से हाथ मल रहे लोग और मफ़लर से मुँह छु पाए लोग को बड़े
यान से दे खा। जब लोग भी उसे उतने ही यान से दे खने लगे तो वो श मदा ई। उसने फ़ौरन
आँख घुमा ल और भीतर टट म आ गई।
ेम अंध व ास का पहला पाठ है। इतनी नाउ मीद के बाद भी उसे इस बात का पूरा
व ास था क उसने य द ऋ ष को नह दे खा तो कोई बात नह , ऋ ष ने ज़ र उसे कह से दे ख
लया होगा। उसने एक ण म ख़ुद को सां वना द और सरे ही ण डर गई। उसे लगा क अगर
ऋ ष नह आया तो या होगा? अगर उसे वह चट् ठ ही नह मली होगी तो या होगा! उसक
नौकरी हो गई हो और वह शहर ही छोड़ चुका हो तो या होगा? या पता छु ट् टयाँ न मली ह ।
वह डर गई। उसे लगा क उसे सब ग़लत ख़याल आ रहे ह। उसने कुछ सबद हराए और फटे टट
म से चाँद को दे खने लगी। उसे लगा क चाँद उसक बात ऋ ष तक प ँचा रहा है। उसने म त
हराई और चुपचाप आकर लेट गई।
सुबह का तवील सफ़र तड़के ही शु हो गया। ध का-मु क , झगड़े -रगड़े , शोर-ओ-गुल।
पाँच लोग का क़ा फ़ला काक प से सागर प क ओर बढ़ा। दो मील क सप ली मानव रेखा म
धीमे-धीमे खसकते ए सब लोग घाट तक आए जहाँ से ट मर ारा आगे क या ा करनी थी।
ट मर म कुल चालीस लोग सवार ए। ट मर सागर प क ओर तैर चली। रात भर न सो पाने
और ट मर क ठं डी हवा लगने के कारण मनु को न द आ गई। ट मर से गली पार करते व त
वार का अंदेशा आ। ट मर थोड़ी हली मगर फर थर हो गई। ख़ुद को संयत करते व त ही
मनु क माँ को यह अंदेशा आ क ट मर पर सवार कोने म खड़ा एक लड़का कद-काठ से
ऋ ष जैसा है। वह थोड़ी संश कत ई। फर इसे अपना वहम मानकर रह ग । हालाँ क, उ ह ने
लड़के पर अपनी नज़र लगाए रखी जो चलती ट मर म समु प य को पावरोट के टु कड़े
फकने म त था। अ न क आशंका से उ ह ने मनु के हाथ पर अपना दबाव बढ़ा दया।
ट मर से उतरकर भी सागर प आना अभी बाक़ था। वहाँ से सरकारी बस जो क इसी
सेवा के लए बड़े जहाज़ से लाई जाती है, से गंत तक क री तय करनी थी। छाबड़ा साब के
साथ आए लड़के ने पाँच टकट ली और सारे लोग बस पर सवार हो गए। बस म भी सशं कत बैठ
मनु क माँ ने जब आसपास लड़के को न पाया तो उ ह ने ख़ुद के वहम को कोसा। इतनी दे र से
ख वह अब थोड़ी खली नज़र आ ।
मगर जस बात ने उ ह सुकून दया वही बात मनु को उदास कर गई। हर बीतते पल के
उसका मन उचाट होता रहा। उसे लगा क ऋ ष उसे बसार बैठा है। मनु ने खड़क वाली सीट
ली थी और उसी पर ठोढ़ टकाये जाते पेड़ गनती रही। उसे बरबस ही मा हये याद आते रहे। वह
बुदबुदाती रही-
वे आ वे माह रब तकू आणे
ते गयाँ मुद द् ताँ गन- गन घ ड़याँ
ह तेरे वच अ खयाँ रोवण
जव सावन मीह दयाँ झ ड़याँ

वछोह अब असहनीय था। वरह अब अवणनीय। मनु जोग म थी। अपने आसपास से भी
मब त। खोई ई।
अंततः सागर प भी आ ही गया। छोटे से भू-भाग म हजार ालु ठ क च टय के तरह
लग रहे थे। शासन क ओर से यथो चत सु वधा उपल ध थी। खोया-पाया वाले लगातार लोग
के गुम हो जाने, सामान क चोरी, सामान क हफ़ाज़त आ द क सूचना तेज़ आवाज़ म दे रहे थे।
नान क ओर जाते व त मनु के मन म ख़याल आया क कतना अ छा हो क वह इसी भीड़ म
खो जाए और कभी कसी को न मले। उसक पाँच उँग लय म अपनी पाँच उँग लयाँ फँसाए
उसक माँ बाँस से बने अवरोध के बीच से चली जा रही थी। छाबड़ा साहब अपनी वृ बहन क
हफ़ाज़त म लगे थे।
तार एवं न ने नान का व त 9 बजकर 06 मनट मुक़रर कया था। साथ आए लड़के
को कपड़े इ या द के पास खड़ा कर छाबड़ा साहब ठ क व त पर नान को उतर गए। बहन और
प नी ने व धवत पु य कमाए। छाबड़ा साहब बस पाँव लहर म डाले खड़े रहे। मनु ने आती
लहर से अपने मुँह और सर पर पानी डाला मगर अ यंत खारा होने के कारण पानी पी नह पाई।
संश कत माँ क नज़र नहाते व त भी मनु पर ही जमी रह ।
पु या थय के नान के बाद कपड़े बदलने के लए सब उसी थान पर इकट् ठा हो गए।
साथ आया लड़का अब नान के लए आगे बढ़ा। छाबड़ा साहब मुँह फेरे खड़े ए तो औरत ने
साड़ी से घेरा बनाकर कपड़े बदल लए। गंगासागर का नान पूरा हो चुका था। मनु का मन डू ब
चुका था। वह बेमन से ही माँ क भीगी साड़ी नचोड़ रही थी क अचानक उसने शोर सुना।
यह दरअसल शोर नह था। यह भगदड़ थी। समु का वार अचानक ही बढ़ गया था और
भयावह लहर का प ले रहा था। शासन ने जैसे ही समु से र सुर त नान पर जाने क
घोषणा क ठ क वैसे ही भगदड़ मच गई। नान करने वाले वार के ख़तरेवाले े म आ रहे थे।
घोषणा ई तो लोग-बाग बना सोचे समझे ही भागने लगे। भगदड़ मच गई। तीन ओर समु और
एक ओर ज़मीन म भागने का रा ता भी एक ही था। छाबड़ा साहब ने अपने प रवार को एक तरफ़
से घेरा मगर तीन भाग तो फर भी ख़ाली रहा। लोग बदहवास भागने लगे। गरने-मरने लगे।
चीख-ओ-पुकार के बीच हाथ छू टने लगे। अचानक भगदड़ के बीच ही मनु क माँ को लगा क
उ ह ने फर उसी लड़के को दे खा है और अबक दफ़ा ब कुल पास से। उ ह फर लगा क वह
लड़का ऋ ष ही है। उनके सारे शरीर म सहरन-सी दौड़ गई। उँग लय म फँसी उँग लयाँ भगदड़
म एक ण को छू ट , मगर सरे ही ण उ ह ने उँग लय पर अपना दबाव बढ़ा दया। भगदड़ म
गरते-उठते भागते-संभलते लोग के बीच ख़ुद को खड़े रखना भी क ठन था। रा ते के लए बाँधे
गए एक बाँस को पकड़कर वह खड़ी हो ग । वार का पानी नीचे उतरा तो थोड़ी ही दे र म भगदड़
थम गया। चैन क लंबी साँस लेते ए मनु क माँ ने हाथ म फँसी ई उँग लयाँ दे ख । वह काँप
उठ । उनके हाथ म फँस ई उँग लयाँ मनु क नह थ । वह हाथ छाबड़ा साहब क बहन का था।
उ ह ने महसूस कया क मनु वहाँ नह थी। मनु कह नह थी।
वार शांत आ, भगदड़ ख़ म ई। रेड ॉस वाले अपने काम म लगे। खोया-पाया वाले
अपने काम म।
दे र तक मुनाद होती रही-
एक लड़क । जसका रंग गोरा, कद मँझोला और नाम मनजीत छाबड़ा है; खो गई है।
लड़क ने हरे फुलकारी क क़मीज़ पहन रखी है। हद और पंजाबी बोल सकती है। जस कसी
स जन को मले वह कृपा कर उसक सूचना खोया-पाया क द। सूचना दे ने वाले को उ चत
इनाम दया जाएगा।

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