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Hindi स्नातक हिंदी द्वितीय खंड तृतीय पत्र आधुनिक हिंदी काव्य अंधा युग कवि धर्मवीर भारती by Dr A Jha 11.04.20
Hindi स्नातक हिंदी द्वितीय खंड तृतीय पत्र आधुनिक हिंदी काव्य अंधा युग कवि धर्मवीर भारती by Dr A Jha 11.04.20
िं ी- द्वितीय खिंड- तत
ृ ीय पत्र- आधुननक ह द
िं ी काव्य
अिंधा युग- कवि धर्मिीर भारती
िब-िब युद्ध ोता ै, तब-तब र्ानिता त्रािद पररजस्र्नतयों िे िाक्षात्कार करता ै । प्रत्येक युद्धोपरािंत
र्नुष्य पुनविमचार करने के सलए प्रेररत ोता ै कक क्या िे र्ानिीय िीिन-र्ूल्य युद्ध की अिाधारण
पररजस्र्नतयों र्ें बचे र पाए, जिनकी रक्षा के सलए उिे युद्ध र्ें प्रित्त
ृ ोना पडा। द्वितीय विश्ि युद्ध
र्ानि-इनत ाि की इि िार्ान्य प्रिवृ त्त को दो राते ु ए भी व्यापक िन-विनाश एििं उििे प्रभावित लोगों
र्ें िीिन-र्ूल्यों के प्रनत उपिी अनास्र्ा के कारण अन्य युद्धों िे ग न प्रभाि डालता ै । द्वितीय विश्ि
युद्ध की इिी पष्ृ ठभूसर् र्ें अिंधा युग की रचना ु ई।
द्वितीय विश्ि युद्ध के अिंनतर् चरण र्ें िापान के दो श रों ह रोसशर्ा और नागािाकी पर परर्ाणु बर्-
विस्फोट के रूप र्ें िो अकल्पनीय र्ानि-त्रािदी घहटत ु ई, उिकी छाप अिंधा यग
ु र्ें हदखाई दे ती ै, िब
व्याि अश्ित्र्ार्ा को ब्रम् ास्त्र के प्रयोग के दष्ु पररणार्ों के प्रनत चेतािनी दे ते ैं-
ै अिब युद्ध य ,
न ीिं ककिी की भी िय दोनों पक्षों को खोना ी खोना ै
अिंधों िे शोसभत र्ा युग का सििं ािन दोनों ी पक्षों र्ें वििेक ी ारा दोनों ी पक्षों र्ें िीता अिंधापन
भय का अिंधापन, र्र्ता का अिंधापन,
इिका कारण य र्ा कक द्वितीय विश्ि युद्ध र्ें व्यापक िन- ानन तो ु ई ी, इिने व्यजक्त के विश्िाि,
आस्र्ा और र्ूल्यों को झकझोर कर रख हदया। युद्धरत िैननकों और िनता ने अनुभि ककया कक
राष्रीयता, लोकतिंत्र, स्ितिंत्रता, िर्ानता, जिनके नार् पर य युद्ध लडा गया, िे आदशम खोखले ैं। ित्ता
द्िारा िाम्राज्यिादी उद्दे श्यों को नछपाने का र्ुखौटा भर ैं। अिंधा युग का आरिं भ भी इिी विडिंबना के
िार् ोता ै-
इि प्रकार युद्ध के उपरािंत अिंधा युग अितररत ु आ, जििर्ें जस्र्नतयािं, र्नोिवृ त्तयािं, आत्र्ाएिं िभी विकृत
ैं। अश्ित्र्ार्ा, िो इि गीनतकाव्य का िबिे र् त्िपूणम पात्र ै, इिी जस्र्नत िे उपिा प्रतीक-पात्र ै,
जििका क ना ै
िध र्ेरे सलए न ीिं र ी नीनत
ििंिय, जििके पाि हदव्य दृजष्ट ै, ि आधुननक लेखक, पत्रकार या बुद्धधिीिी का प्रतीक ै। धृतराष्र
ित्ता का प्रतीक ैं। उनका अिंधापन, पुत्रर्ो और ित्ता लोलुपता प्रतीक को और अर्मिान बनाते ैं। गािंधारी
ित्ता की ननकटस्र् ि पात्र ै, जििके पाि वििेक रूपी आिंखें तो ैं, ककिं तु उन पर िान-बूझ कर पट्टी
बािंध रखी ै। विदरु उि चुके ु ए और अप्राििंधगक रािनेता के प्रतीक ैं, िो नीनतज्ञ तो ैं, ककिं तु उनकी
नीनत िाधारण स्तर की ै और युग की िारी जस्र्नतयािं अिाधारण ैं। कृष्ण, प्रत्येक र्नुष्य के भीतर
जस्र्त शुभत्ि का प्रतीक ैं। इिी कारण लेखक कृष्ण के र्ुख िे क लिाते ैं-
रचनाकार र्ानते ैं कक एकर्ात्र उन् ीिं र्ें ि शजक्त ै, िो इि अिंधे युग िे र्ानि िानत को बा र
ननकाल िके। अिंधा युग की त्रािदी य ै कक अश्ित्र्ार्ा, िो िबिे िकिय और गनतशील पात्र ै, ि
बबमर पशु ै, शब्दों का सशल्पी ििंिय हदव्य दृजष्ट ोते ु ए भी ननजष्िय, तटस्र् और कर्मलोक िे बह ष्कृत
ै।
ित्तािीन धत
ृ राष्र और गािंधारी अिंधे ैं या उन् ोंने अपनी आिंखों पर पट्टी बािंध रखी ै, दोनों प्र री,
दाििवृ त्त िे चासलत उि िार्ान्य िन के प्रतीक ैं, ककिी भी ित्ता-पररितमन िे जिनकी जस्र्नत र्ें कोई
िुधार न ीिं ोता।िे जस्र्नतयों के दशमक र्ात्र ैं। इि अिंधेरे र्ें कृष्ण ी िबकी एकर्ात्र उम्र्ीद ैं, ककिं तु िे
स्ियिं शापग्रस्त ैं। उनका यदि
ु िंश आपि र्ें लड सभड कर र्र र ा ै और िे उि धुरी की तर एकाकी
बच गए ैं, जििके िारे पह ए नीचे उतर चुके ैं। विडिंबना तब और ग री ो िाती ै, िब नरपशु
अश्ित्र्ार्ा बूढे भविष्य की त्या कर दे ता ै और ित्य का पक्ष लेने का िा ि करने िाला युयुत्यु अपनों
की घण
ृ ा िे आत्र् ीनता का सशकार ोकर आत्र् त्या कर लेता ै। कृपाचायम के र्ुख िे लेखक ने इि
त्रािदी के प्रनत चेतािनी दी ै-
विश्ियुद्धों के बाद की ठीक य ी जस्र्नत र्ी, िब अजस्तत्ििाद िैिे दशमन का प्रिार ु आ। कविता का
अिंत, िाह त्य का अिंत, इनत ाि का अिंत िैिी उत्तर-आधुननक भविष्यिाणणयािं की गईं।अिंधा युग द्वितीय
विश्ि युद्ध की पष्ृ ठभूसर् पर सलखा गया काव्य ै, लेककन इि पर लगभग उिी िर्य ु ए त्रािद भारत-
विभािन और भयिंकर िािंप्रदानयक दिं गों की भी छाया ै। गािंधारी के शाप के कारण यदि
ु िंसशयों का
र्हदरापान कर आपि र्ें लड-सभड कर विनष्ट ोना इन दिं गों को ध्िननत करता ै। इि अर्ानिीय
विभीवषका िे व्यजक्तगत प्रनतशोधकार्ी अश्ित्र्ार्ा िैिे न िाने ककतने नरपशु पैदा ो गए और ित्य का
पक्ष लेने िाले युयुत्िु अलग-र्लग पडकर आत्र् ीनता का सशकार ो गए।
ााँ, य दि
ू रा रर्/
रक्तरिं गी घण
ृ ा ै भयानक उिकी/ अदम्य/
अिंधा ििंशय ै,
र्यामहदत र्ुक्त आचरण र्ें उतना िो अिंश र्ारे र्न का ै ि अधमित्य िे,
धर्मिीर भारती (1926-1997) का अिंधा युग न केिल ऐिा गीनत-काव्य-नाट्य ै, िो र् ाभारत िैिी
ऐनत ासिक घटना और द्वित्तीय विश्ियुद्ध के िर्य की पररजस्र्नतयों का तकमिम्र्त वििेचन करता ै,
बजल्क र्ारे र्ौिूदा िर्य की परतें भी खोलता ै। युद्ध के दौरान और युद्ध के बाद की अकल्पनीय
त्रािदी के िररए नीनत और र्ानिीय गलनतयों की गूिंि इिर्ें पुरिोर ढिं ग िे िुनाई दे ती ै। अिंधा युग र्ें
धर्मिीर भारती ने विश्िाि और आस्र्ा के स्िरों के बीच विश्िािघात ि अनास्र्ा की पररजस्र्नतयों को
दशामया ै।