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वेद में ग्रह

-अरुण कु मार उपाध्याय


१. ग्रह के अर्थ- ५ तारा ग्रहों को पञ्चोक्षण कहा गया है-अमी ये पञ्चोक्षणो मध्ये तस्युर्महो दिवः।
देवत्रा नु प्रवाच्यं सध्रीचीना नि वावृतुवित्तं मे अस्य रोदसी॥ (ऋक् वेद १/१०५/१०)
जो ग्रहण कर सके वह ग्रह है। सबसे बड़े जबड़े वाले पशु को भी ग्राह कहते हैं। आकाश में फै ला हुआ पदार्थ (या ऊर्जा) सोम है, वह जहां ग्रहण
होता है वह ग्रह है। पृथ्वी ने भी लोगों, वन, समुद्र आदि को ग्रहण किया है, अतः यह ग्रह है।
यद् गृह्णाति तस्माद् ग्रहः (शतपथ ब्राह्मण १/३/१/१६)
अथ ग्रहान् गृह्णाति (शतपथ ब्राह्मण ४/५/९/३)
तं (सोमं) अघ्नन्। तस्य यशो व्यगृहत। ते ग्रहा अभवन्। तद् ग्रहाणां ग्रहत्वम् (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/८/६)
तद् यद् एनं पात्रैः व्यगृह्णत तस्माद् ग्रहा नाम। (शतपथ ब्राह्मण ४/१/३/५)
(प्रजापतिः) तौ (दर्शपूर्णमासौ) ग्रहेण अगृह्णात्। तद् ग्रहस्य ग्रहत्वम्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/२/१)
यद् वित्तं (यज्ञं) ग्रहैः व्यगृह्णत तद् ग्रहाणां ग्रहत्वम्। (ऐतरेय ब्राह्मण ३/९)
तान् पुरस्तात् पवित्रस्य व्यगृह्णात् ते ग्रहा अभवन्। तद् ग्रहाणां ग्रहत्वम्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण १/४/१/१)
ते (देवाः) सोमं अन्वविन्दन्। तं अघ्नन्। तस्य यथा अभिज्ञायं तनूः व्यगृह्णत। ते ग्रहा अभवन् तद् ग्रहाणां ग्रहत्वम्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण १/३//१/२)
सूर्य ने अपने ताप से सभी प्रजा (ग्रहों का भी) ग्रहण किया है, अतः यह ग्रह है-
एष वै ग्रहः। य एष (सूर्यः) तपतियेनेमाः सर्वाः प्रजाः गृहीताः। (शतपथ ब्राह्मण ४/६/५/१)
शरीर के अंग जो मस्तिष्क का निर्देश या बाहरी अनुभव, अन्न ग्रहण करते हैं, ८ प्रकार के ग्रह हैं-अष्टौ ग्रहाः (प्राणः, जिह्वा, वाक् , चक्षुः, श्रोत्रम्,
मनः, हस्तौ, त्वक् )। (शतपथ ब्राह्मण १४/६/२/१)
प्राण, अन्न, वाक् , नाम, साम अंग आदि सभी ग्रह हैं-
प्राणा वै ग्रहाः। (शतपथ ब्राह्मण ४/२/४/१३, ४/५/९/३)
अन्नमेव ग्रहः। अन्नेन हीदं सर्वं गृहीतम्। (शतपथ ब्राह्मण ४/६/५/४)
नामैव ग्रहः। नाम्ना हीदं सर्वं गृहीतम्। (शतपथ ब्राह्मण ४/६/५/३)
वागेव ग्रहः। वाचा हीदं सर्वं गृहीतम्। (शतपथ ब्राह्मण ४/६/५/२)
अङ्गानि वै ग्रहाः। (शतपथ ब्राह्मण ४/५/९/११)
साम ग्रहः। (शतपथ ब्राह्मण ४/२/३/७)
४० और १२ ग्रह-षट् त्रिंशाश्च चतुरः कल्पयन्तश्छन्दांसि च दधत आद्वादशम्।
यज्ञं विमाय कवयो मनीषा ऋक् सामाभ्यां प्र रथं वर्तयन्ति। (ऋक् १०/११४/६)
= ३६ और ४ ग्रह (सोम ग्रहण के पात्र) बने या रखे गये। ग्रहों के १२ छन्द (माप) यज्ञों की माप (विमा) करते हैं। मनीषी कवि (स्रष्टा) ऋक् -
साम से रथ (शरीर, विश्व की रचना) चलाते हैं।
२. ग्रहों के वैदिक मन्त्र-
(१) सूर्य - ॐ आ कृ ष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् (ऋग्वेद १/३५/२,
वाजसनेयि यजु. ३३/४३, ३४/३१, तैत्तिरीय संहिता ३/४/११/२, मैत्रायणी संहिता ४/१२/६)
रजसा = गतिशील, जगत्, लोक। सभी लोक परस्पर आकर्षण के कारण वर्तमान या स्थित हैं। हमारा लोक सूर्य अनुसार दो प्रकार का है-ब्रह्माण्ड
(आकाशगंगा) के के न्द्र के आकर्षक बल के कारण उसके प्रायः १०० अरब तारा कक्षा में स्थित हैं। ब्रह्माण्ड इसी मूल से बड़ा है अतः इसके
नक्षत्र को मूल बर्हणि कहते हैं। यह सभी पदार्थों को आकर्षित करता है, निकट का प्रकाश भी इससे नहीं निकल पाता अतः यह कृ ष्ण (रंग हीन,
अदृश्य) है जिसे ब्लैक होल (कृ ष्ण विवर कहते हैं)। यह अपेक्षाकृ त अस्धिक स्थायी है अतः इसे अमृत कहते हैं। सूर्य इसके १०० अरब कण
रूप ताराओं में एक है। जितने तारा हैं, उतने ही मनुष्य मस्तिष्क में लोमगर्त्त हैं। शतपथ ब्राह्मण (१२/३/२/५) के अनुसार १ मुहूर्त्त को ७ बार
१५ से विभाजित करने पर लोमगर्त्त होता है-१ सेकण्ड का प्रायः ७५,००० भाग। १ वर्ष में जितने लोमगर्त्त हैं उतने ही आकाश में तारा या
मस्तिष्क में कोषिका (कलिल) हैं। यह प्रायः १००० अरब की संख्या है। पुरुष विश्व से १० गुणा बड़ा है अतः ब्रह्माण्ड की कण संख्या १००
अरब है। सौर मण्डल अपेक्षाकृ त अस्थायी है अतः इसे मर्त्य कहा है। इसका के न्द्र सूर्य है। विष्णु पुराण (२/७/१९-२०) में सूर्य के अधीन भूः,
भुवः, स्वः लोकों को कृ तक (मर्त्य) तथा इससे बड़े लोकों महं, जनः, तपः, सत्य को अकृ तक (अमृत) कहा है। अतः सूर्य अमृत का एक कण है
तथा मर्त्य का मुख्य आधार है। इस प्रकार वह सभी भुवनों को अपनी गति और क्रिया से देख रहा है।
(२) चन्द्र - ॐ इमं देवा असपत्नं सुवध्वं महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठ्याय महते जानराज्यायेन्द्रस्येन्द्रियाय। इमममुष्य पुत्रममुष्यै पुत्रमस्यै विशऽएष
वोऽमी राजा सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा।।
(वाजसनेयि काण्व ११/३/२, ११/६/२, वाजसनेयि यजु. ९/४०, १०/१८, शतपथ ब्राह्मण ५/३/३/१२)
= ये देव असपत्न (शत्रु या प्रतिद्वन्द्वी रहित) परस्पर सहयोग से बड़े होते हैं, बड़ा प्रभाव पाते हैं तथा ज्ञान पाते हैं। (पुरुष सूक्त १६-यज्ञेन
यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्तः यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ = एक यज्ञ से अन्य यज्ञों को
सम्पादित करने से ही देव उन्नति के शिखर पर पहुंचे। ज्ञान के लिये भी शास्त्रों का समन्वय चाहिये-शास्त्रयोनित्वात्। तत् तु समन्वयात्-ब्रह्मसूत्र
१/१/३-४)। चन्द्र आआश के बिखरे सोम को एकत्र कर उनका समन्वय करता है। मस्तिष्क में समन्वय से ज्ञान और शान्ति शक्ति होती है।
परिवार में समन्वय सहयोग से समृद्धि, प्रभाव तथा सन्तान की वृद्धि होती है। यहां सपत्न = सपत्नी, उसके नहीं रहने पर वधू अच्छी तरह
परिवार को बान्धती है, इसी से उसे वधू कहते हैं। समाज में सोम अर्थात् साधनों को एकत्र कर राजा विश (समाज, जहां सभी एक साथ वास
करते हैं) के मनुष्यों को सुखी सम्पन्न रखता है। समाज में एकत्व रखना ब्राह्मणों का दायित्व है। वह जो सिद्धान्त प्रतिपादित करता है उसी से
समाज की दिशा निर्धारित होती है। इस अर्थ में उसे मुख (स्रोत) कहा गया है। यदि आर्य-द्रविड़, सवर्ण-निम्न का भेद का सिद्धान्त बनायेंगे तो
समाज धीरे धीरे टू ट जायेगा। शरीर, परिवार, समाज, और विश्व की उन्नति सोम के समन्वित संग्रह से है जिसका अधिपति चन्द्र है जो हमारे
लिये सौरमण्डल में सोम का मुख्य स्रोत है।
(३) मंगल - ॐ अग्निमूर्धा दिव: ककु त्पति: पृथिव्याऽअयम्। अपां रेतांसि जिन्वति।। (ऋग्वेद ८/४४/१६, सामवेद १/२७, २/८८२, वाजसनेयि
यजु. ३/१२, १३/१४, १५/२०, तैत्तिरीय संहिता १/५/५/१, १/५/७/१, ४/४/४/१, मैत्रायणी संहिता १/५/१ या ६५/८ १/५/५ या ७३/७-
८, १/७/४, ११३/४, काण्व संहिता ६/९, ७/४, ९/२, शतपथ ब्राह्मण २/३/४/११, ७/४/१/४१, १३/४/१/१३, तैत्तिरीय ब्राह्मण
३/५/७/१,१२/३/४)
अग्नि = सघन पिण्ड या सघन ऊर्जा। आकाश में सीमाहीन विस्तार का पदार्थ या ऊर्जा सोम है। ऊर्जा के न्द्र के रूप में सूर्य को भी अग्नि कह
सकते हैं। पर ठोस पिण्ड बुध से मंगल तक अग्नि ग्रह हैं। उसके बाद बृहस्पति आदि वायवीय ग्रह हैं। अग्नि ग्रहों में पृथ्वी सबसे बड़ा है, इसकी
सीमा पर मंगल है। मनुष्य के कर्म जीवन की सीमा पर उसके पुत्र का काम आरम्भ होता है। इसी प्रकार अग्नि ग्रहों की सीमा पर मंगल सबसे बड़े
अग्नि ग्रह पृथ्वी का पुत्र अर्थात् भौम है। अग्नि की सीमा पर या सूर्य से सबसे दूर या ऊपर है अतः इसे अग्नि मूर्धा कहा है। इसी अर्थ में इसे
आकाश का ककु त् (शिखर) पति कहा है। यह पृथ्वी की सन्तान (पार्थिव ग्रहों में अन्तिम) रूप में है (पृथिव्या अयम्)।
(४) बुध - ॐ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्त्ते सं सृजेधामयं च। अस्मिन्त्सधस्‍थेऽअध्‍युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत।। ( वाजसनेयि
यजु. १५/५४, १८/६१, तैत्तिरीय संहिता ४/७/१३/५, मैत्रायणी संहिता २/१२/४ या १४८/६, काण्व संहिता १८/१८, शतपथ ब्राह्मण
८/६/३/२३, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ६/१३)
अग्नि (ठोस) ग्रहों में मंगल सबसे दूर या ऊपर होने से मूर्धा, ककु त् कहा गया है। बुध सूर्य के सबसे निकट या नीचे होने से सधस्थ कहा है। यह सूर्य से
ऊपर प्रथम उत्पत्ति है अतः बुद्धि का स्रोत (उद् बुध्य) है। नीचे से उन्नति (अध्युत्तरस्मिन्) है।
(५) गुरु - ॐ बृहस्पतेऽअति यदर्योऽअर्हाद् द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु। यद्दीदयच्छवसऽऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्।। (ऋग्वेद २/२३/१५,
वाजसनेयि यजु. २६/३, तैत्तिरीय संहिता १/८/२२/२, मैत्रायणी संहिता ४/१४/४, २२०/३, काण्व संहिता ४/१६, ४०/११)
बृहस्पति गैसीय ग्रहों में दबसे बड़ा होने के कारण बृहस्पति है। हमारे लिये ब्रह्माण्ड जैसा होने के कारण ब्रह्मणस्पति है। सूर्य किरणों से जहां तक निर्माण
या यज्ञ सम्भव है वह क्रतु क्षेत्र है। उसकी सीमा पर छोटे ग्रह (बालखिल्य) हैं जो इसकी सन्तति कहे जाते हैं (क्रतोश्च सन्ततिरार्या बालखिल्यानसूयत।
षष्टिपुत्र सहस्राणि मुनीनामूर्ध्वरेतसाम्। अङ्गुष्ठ पर्वमात्राणां ज्वलद् भास्करतेजसाम्॥-विष्णु पुराण १/१०/११) यह सूर्य से ६० ज्योतिषीय इकाई दूरी
तक हैं जो नक्षत्र कक्षा के जैसा है। इनका आकार १ अंगुष्ठ = पृथ्वी का ९६ भाग (पुरुष = ९६ अंगुल) = १३५ किमी व्यास है। क्रतु क्ष्रेत्र के के न्द्र में
सबसे बड़ा पिण्ड होने से यह क्रतु या यज्ञ द्वारा सम्पत्ति देता है। ब्रह्माण्ड की विविधता को चित्र (विचित्र) कहते हैं। विविध प्रकार के उत्पादन बृहस्पति
से हैं।
(६) शुक्र - ॐ अन्नात् परिस्त्रुतो रसं ब्रह्मणा व्यपिबत् क्षत्रं पय: सोमं प्रजापति:। ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानं शुक्रमन्धसऽइन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं
मधु।। (वाजसनेयि यजु. १९/७५, मैत्रायणी संहिता ३/११/६, या १४९/१, काण्व संहिता ३८/१, तैत्तिरीय ब्राह्मण २/६/२/२)
शुक्र सबसे तेजस्वी होने से शुक्र कहा जाता है। यह सौर वायुमण्डल का रस पान करता है। यहां से सूर्य किरणों का मधु भाग (शरीर के मधु जैसा
निर्माण स्रोत) आरम्भ होता है।
(७) शनि - ॐ शं नो देवीरभिष्टय ऽआपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु न:।। (ऋग्वेद १०/९/४, ऋग्वेद खिल १०/१२७/१३, अथर्व वेद
१/६/१, सामवेद १/३३, वाजसनेयि यजु. ३६/१२, काण्व संहिता १३/१५, ३८/१३, गोपथ ब्राह्मण १/१/२९, तैत्तिरीय ब्राह्मण १/२/१/१,
२/५/८/५, तैत्तिरीय आरण्यक ४/४२/४, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ५/४/१, १६/१४/१)
शनि ग्रह प्रभाव की सीमा पर है अतः सूर्य पुत्र कहलाता है। इससे बाद के ग्रहों का प्रभाव पृथ्वी की गति पर या मनुष्य मन पर नहीं पड़ता है। अतः
इसका शान्त या धीमा प्रभाव है जिसे शं कहा गया है। तेज विकिरण करने वाया वृषा (पुरुष) है, ग्रहण करने वाला योषा है। शनि के बाद विकिरण बहुत
कम है, वह देवी क्षेत्र हुआ। शनि इनकी सीमा पर होने से नपुंसक ग्रह कहलाता है। बुध भी सूर्य के अति निकट होने के कारण उसके तेज का उपयोग
नहीं कर पाता अतः नपुंसक है। यह आप् (सौर क्षेत्र के जल के निकट है) अतः आप् तत्त्व का स्वामी है।
(८) राहु - ॐ कया नश्चित्रऽ आ भुवदूती सदावृध: सखा। कया शचिष्ठया वृता।। (ऋग्वेद ४/३१/१, अथर्व वेद २०/१२४/१, सामवेद १/१६९,
२/३२, वाजसनेयि यजु. २७/३९, ३६/४, तैत्तिरीय संहिता ४/२/११/२, ४/१२/५, मैत्रायणी संहिता २/१३/९ या १५९/४, ४/९/२७ या
१३९/११, काण्व संहिता २१/१३, ३९/१२, कौषीतकि ब्राह्मण २७/२, गोपथ ब्राह्मण २/४/१, पञ्चविंश ब्राह्मण १/४/२, १५/१०/१, तैत्तिरीय
आरण्यक ४/४२/३, अथर्वशीर्ष २/१७/१५, ५/१६/१, ७/४/२, ८/१२/१८, वैतान श्रौत सूत्र ४२/९, लाट्यायन श्रौत सूत्र ५/२/१२,
आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १२/८/५, १७/७/८)
(९) के तु - ॐ के तुं कृ ण्वन्नके तवे पेशो मर्याऽ अपेशसे। समुषद्भिरजायथा:।। (ऋग्वेद १/६/३, अथर्व वेद २०/२६/६, २०/४७/१२, २०/६९/११,
सामवेद २/८/२०, वाजसनेयि यजु. २९/३७, तैत्तिरीय संहिता ७/४/२०/१, मैत्रायणी संहिता ३/१६/३ या १८५/८, तैत्तिरीय ब्राह्मण
३/९/४/३, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र २०/१६/३)
चन्द्र कक्षा पृथ्वी कक्षा (क्रान्ति वृत्त) को जिन दो विन्दुओं पर काटती है उसे राहु-के तु कहते हैं। जिस विन्दु पर चन्द्र पृथ्वी कक्षा से ऊपर उठता है
उसे राहु और विपरीत विन्दु को के तु कहते हैं। राहु विन्दु से नीचे शरीर र्हु और उसके ऊपर सिर के तु कहते हैं। पुच्छल त्रा को भी के तु कहते हैं। उनका
ग्रह रूप में कोई प्रभाव नहीं है। चन्द्र की स्थिति इन ग्रहों के निकट होने से ग्रहण होते हैं। इनका मनुष्य पर क्या प्रभाव हो सकता है, इसका अनुमान
कठिन है।
३. ग्रहों का मनुष्य पर प्रभाव-मन मस्तिष्क में अनियमित तरङ्ग की तरह गति या स्पन्द है। वह विचार रूप में व्यवस्थित होने पर बुद्धि है जो
शब्द-वाक्य रूप में प्रकट होता है। जिस बुद्धि से वस्तुओं को व्यवस्थित रूप से सजाया जा सके वह चित्त है। जो चिति (आरूप, डिजाइन) कर
सके वह चेतना, उसका निवास चित्त है। शरीर के सभी अंगों को एक ही व्यवस्था में मानना और चलाना अहंकार है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार-
ये अन्तःकरण चतुष्टय हैं।
मनः सम्पद्यते लोलं कलनाऽऽकलनोन्मुखम्।कलयन्ती मनःशक्तिरादौ भावयतिक्षणात्॥ (महोपनिषद्, ५/१४६)
बुद्धयो वै धियस्ता योऽस्माकं प्रचोदयादित्याहुर्मनीषिणः। (मैत्रायणी उपनिषद् ६/७)
बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपञ्चकै र्मनसाधिया। शरीरं सप्तदशभिः सुसूक्ष्मं लिङ्गमुच्यते। (शारीरकोपनिषद् ११)
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेके ह कु रुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥ (गीता, २/४१)
अपरिमिततरमिव हि मनः परिमिततरमेव हि वाक् । (शतपथ ब्राह्मण १/४/४/७)
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥ (ऋग्वेद १/१६४/४५)
यच्चेतयमाना अपश्यंस्तस्माच्चितयः। (शतपथ ब्राह्मण ६/२/२/९)
तद्यत् पञ्च चितीश्चिनोत्येताभिरेवैनं तत्तनूभिश्चिनोति यच्चिनोति तस्माच्चितयः। (शतपथ ब्राह्मण ६/१/२/१७)
चेतव्यो ह्यासीत्तस्माच्चित्यः। (शतपथ ब्राह्मण ६/१/२/१६)
बुद्ध्या बुध्यति, चित्तेन चेतयत्यहङ्कारेणाहङ्करोति (नारद परिव्राजक उपनिषद् ६/४)
दुर्गा-सप्तशती, अध्याय ५-इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या। भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः॥७७॥
चितिरूपेण याकृ त्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत्। नमस्तस्यै ॥७८॥ नमस्तस्यै ॥७९॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥८०॥
प्रजापतिर्वै चित्पतिः। (शतपथ ब्राह्मण ३/१/३/२२) चेतव्यो ह्यासीत्तस्माच्चित्यः।(शतपथ ब्राह्मण ६/१/२/१६)
इष्टकर्त्तारमध्वरस्य प्रचेतसमिति। अध्वरो वै यज्ञः। प्रकल्पयितारं यज्ञस्य प्रचेतसमित्येतत्।(शतपथ ब्राह्मण ७/३/१/३३)
तद्यदिष्टात् समभवंस्तस्माद् इष्टकाः। (शतपथ ब्राह्मण ६/१/२/२२)
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। (योग सूत्र १/२) देशबन्धश्चित्तस्यधारणा। (योगसूत्र३/१)
हृदये चित्तसंवित् । (योग सूत्र ३/३४), प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम्। (योग सूत्र ३/१९)
बन्ध कारणशैथिल्यात् प्रचार संवेदनाच्च चित्तस्य परकाया प्रवेशः। (योग सूत्र ३/३८)
यदा विनियतं चित्तम् आत्मन्येवा-वतिष्ठते। (गीता६/१८) योगिनो यत चित्तस्य युञ्जतो योगमात्मना (गीता ६/१९)
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योग सेवया। (गीता६/२०) अथ चितं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्। (गीता१२/९)
अहङ्कार कलायुक्तं बुद्धिबीजसमन्वितम्। तत्पुर्यष्टकमित्युक्तं भूतहृत्पद्मषट्पदम् ॥(महोपनिषद्, ५/१५३)
प्रकृ तेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥ (गीता ३/२७)
मनोबुद्धिरहङ्कारश्चित्तमित्यन्तःकरणचतुष्टयम्। (शारीरकोपनिषद् २)
मनोबुद्धिरहङ्कारश्चित्त चेति चतुष्टयम्। (वराहोपनिषद् १/४)
मनोबुद्ध्योश्चित्ताहङ्कारौ चान्तर्भूतौ।(त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद् १/४)
मन को प्रज्ञान आत्मा कहा गया है-यत् प्रज्ञानं उत चेतो धृतिश्च यज् ज्योतिरन्तरममृतं प्रजासु। यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु। (वाजसनेयि संहिता ३४/४)। बुद्धि विज्ञान आत्मा है।
एव हि द्रष्टा, स्प्रष्टा, श्रोता, घ्राता, रसयिता, मन्ता, योद्धा, कर्त्ता, विज्ञानात्मा पुरुषः।
स परेऽक्षरे आत्मनि सम्प्रतिष्ठते। (प्रश्नोपनिषत् ४/९)
विज्ञानात्मा सह देवैश्च सर्वैः प्राणा भूतानि सम्प्रतिष्ठनि यत्र।
तदक्षरं वेदयते यस्त् सोम्य! स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेश॥ (प्रश्नोपनिषत् ४/११)
प्रज्ञान आत्मा (मन) का चन्द्र के साथ और विज्ञान आत्मा (बुद्धि) का सूर्य से सम्बन्ध है। इसी से हम देख कर समझते हैं, अतः सूर्य चक्षु है-चन्द्रमा
मनसो जातः चक्षोः सूर्यो अजायत।
चन्द्र के २ प्रकार के प्रभाव हैं। आकाशगंगा की प्रतिमा रूप में मन के कण हैं जो महान् आत्मा है। इस रूप में चन्द्र मन से उत्पन्न हुआ है। मन के कणों
पर या मस्तिष्क के द्रव पर चन्द्र के आकर्षण तथा गति से अन्तर होता है। गुरुत्व प्रभाव भी प्रकाश गति से जाता है जिसे १.७ सेकण्ड या प्रायः १
निमेष लगता है। मनुष्य हृदय में विज्ञान आत्मा है। वहां से आज्ञा चक्र तक सुषुम्ना मार्ग से चेतना जाती है, वहां तक हर मनुष्य के अलग अलग मार्ग हैं
जिसे अणु-पथ (छोटी गली) कहते हैं। ब्रह्म रन्ध्र के बाद पृथ्वी के सभी मनुष्यों का सूर्य से सम्पर्क एक ही है, जिसे महापथ कहते हैं। सूर्य से यह
सम्बन्ध रश्मि अनुसार कहा है जो प्रकाश की गति से १५ करोड़ किलोमीटर प्रायः ५०० सेकण्ड = ८ मिनट में पहुंचता है। जाकर लौटने में १६ मिनट
लगेगा, अतः कहा गया है कि यह १ मुहूर्त्त (४८ मिनट) में ३ बार जा कर लौटता है।

सूर्य आत्मा जगतस्तथुषश्च (वाजसनेयी यजुर्वेद ७/४२)


तदेते श्लोका भवन्ति-अणुः पन्था विततः पुराणो मां स्पृष्टोऽनुवित्तो मयैव। तेन धीरा अपियन्ति ब्रह्मविदः स्वर्गं लोकमिव ऊर्ध्वं विमुक्ताः।८।
तस्मिञ्छु क्लमुत नीलमाहुः पिङ्गलं हरितं लोहितं च। एष पन्था ब्रह्मणा ह्यानुवित्तस्तेनैति ब्रह्मवित्पुण्यकृ त्तैजसश्च॥ (बृहदारण्यक उपनिषद् ४/४/८,९)
अथ या एता हृदयस्य नाड्यस्ताः पिङ्गलाणिम्नस्तिष्ठन्ति शुक्लस्य नीलस्य पीतस्य लोहितस्येत्यसौ वा आदित्यः पिङ्गल एष शुक्ल एष नील एष लोहितः॥
१॥ तद्यथा महापथ आतत उभौ ग्रामौ गच्छन्तीमं चामुं चामुष्मादित्यात्प्रतायन्ते ता आसु नाडीषु सृप्ता आभ्यो नाडीभ्यः प्रतायन्ते तेऽमुष्मिन्नादित्ये सृप्ताः॥
२॥ ..... अथ यत्रैतदस्माच्छरीरादुत्क्रामति अथैतैरेव रश्मिभिरूर्ध्वमाक्रामते सओमिति वा होद्वामीयते स यावत्क्षिप्येन्मनस्तावदादित्यं गच्छत्यतद्वै खलु
लोकद्वारं विदुषा प्रपदनं निरोधोऽवदुषाम् ॥५॥ (छान्दोग्य उपनिषद् ८/६/१,२,५)
ब्रह्मसूत्र (४/२/१७-२०)-१-तदोकोऽग्रज्वलनं तत्प्रकाशितद्वारो विद्यासामर्थ्यात्तच्छेषगत्यनुस्मृतियोगाच्च हार्दानुगृहीतः शताधिकया।
२. रश्म्यनुसारी। ३. निशि नेति चेन सम्बन्धस्य यावद्देहभावित्वाद्दर्शयति च। ४. अतश्चायनेऽपि दक्षिणे।
रूपं रूपं मघवाबोभवीति मायाः कृ ण्वानस्तन्वं परि स्वाम्।
त्रिर्यद्दिवः परिमुहूर्त्तमागात् स्वैर्मन्त्रैरनृतुपा ऋतावा॥(ऋग्वेद ३/५३/८)
त्रिर्ह वा एष (मघवा=इन्द्रः, आदित्यः = सौर प्राणः) एतस्या मुहूर्त्तस्येमां पृथिवीं समन्तः पर्य्येति। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद् १/४४/९)
ब्रह्माण्ड (परमेष्ठी) तथा विश्व से हमारा सम्बन्ध मन की गति से है जिसे मनोजव कहते हैं। ये सभी सम्बन्ध आते जाते रहते हैं। मरने के बाद शरीर से
चेतना निकल जाती है, वापस नहीं लौटती।
ऋत सूतर्
यज्ञात्मा परमे ष्ठी

सत्य सूतर्
अव्यक्तात्मा स्वयम्भू तत्का

ग्रहों से सम्बन्ध-मन का चन्द्र से सम्बन्ध शरीर क्रियाओं को संचालित करता है। सूर्य से सम्बन्ध आत्मा-परमात्मा का सम्बन्ध है। सूर्य से पृथ्वी-चन्द्र
तक का मार्ग सुषुम्ना है। यह अन्य ग्रहों के गुरुत्व प्रभाव से थोड़ा बदलता है जिनके बारे में वाजसनेयि संहिता (१५/१५-१९, १७/५८, १८/४०),
कू र्म पुराण (खण्ड १, ४१/२-८), मत्स्य पुराण (१२८/२९-३३), वायु पुराण (५३/४४-५०), विष्णु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२४/६५-७२)
आदि में दिया है। ग्रहों द्वारा मनुष्य-सूर्य के रश्मि सम्बन्ध पर प्रभाव को कै रंग और दिशा आदि कहा है।

ग्रह बुध शुक्र पृथ्वी-चन्द्र मंगल बृहस्पति शनि नक्षत्र


नाड़ी विश्वकर्मा विश्वव्यचा(विश् सुषुम्ना संयद्वसु अर्वाग्वसु स्वर हरिके श
वश्रवा)
दिशा दक्षिण पश्चिम -- उत्तर ऊपर -- पूर्व
वाजसनेयी यजुर्वेद, अध्याय १५-अयं पुरो हरिके शः सूर्यरश्मिस्तस्य रथगृत्सश्च रथौजाश्च सेनानीग्रामण्यौ। पुञ्जिकस्थला च क्रतुस्थला चाप्सरसौ
दृङ्क्ष्णवः पशवो हेतिः पौरुषेयो वधः प्रहेतिस्तेभ्यो नमो अस्तु ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः॥१५॥ अयं
दक्षिणा विश्वकर्मा तस्य रथस्वनश्च रथेचित्रश्च सेनानी ग्रामण्यौ। मेनका च सहजन्या चाप्सरसौ यातुधाना हेती रक्षांसि प्रहेतिस्तेभ्यो नमो अस्तु ते
नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः॥१६॥ अयं पश्चाद्विश्वव्यचास्तस्य रथप्रोतश्चासमरथश्च सेनानी ग्रामण्यौ।
प्रम्लोचन्ती चानुम्लोचन्ती चाप्सरसौ व्याघ्रा हेतिः सर्पाः प्रहेतिस्तेभ्यो नमो अस्तु ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे
दध्मः॥१७॥ अयमुत्तरात् संयद्वसुस्तस्य तार्क्ष्यश्चारिष्टनेमिश्च सेनानी ग्रामण्यौ। विश्वाची च घृताची चाप्सरसावापो हेतिर्वातः प्रहेतिस्तेभ्यो नमो अस्तु
ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः॥१८॥ अयमुपर्यर्वाग्वसुस्तस्य सेनजिच्च सुषेणश्च सेनानी ग्रामण्यौ। उर्वशी च
पूर्वचित्तिश्चाप्सरसाववस्फू र्जन् हेतिर्विद्युत् प्रहेतिस्तेभ्यो नमो अस्तु ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः॥१९॥
अध्याय १७-सूर्यरश्मिर्हरिके शः पुरस्तात् सविता ज्योतिरुदयाँ अजस्रम्। तस्य पूषा प्रसवे याति विद्वान्त्सम्पश्यन्विश्वा भुवनानि गोपाः॥५८॥
अध्याय १८-सुषुम्णः सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वस्तस्य नक्षत्राण्यप्सरसो भेकु रयो नाम। स न इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट् ताभ्यः स्वाहा॥४०॥
कू र्म पुराण, पूर्वविभाग, अध्याय ४१-
तस्य ये रश्मयो विप्राः सर्वलोक प्रदीपकाः। तेषां श्रेष्ठाः पुनः सप्त रश्मयो ग्रहयोनयः॥२॥
सुषुम्नो हरिके शश्च विश्वकर्मा तथैव च। विश्वव्यचाः पुनश्चान्यः संयद्वसुरतः परः॥३॥
अर्वावसुरिति ख्यातः स्वराडन्यः प्रकीर्तितः। सुषुम्नः सूर्यरश्मिस्तु पुष्णाति शिशिरद्युतिम्॥४॥
तिर्यगूर्ध्वप्रचारोऽसौ सुषुम्नः परिपठ्यते। हरिके शस्तु यः प्रोक्तो रश्मिर्नक्षत्र पोषकः॥५॥
विश्वकर्मा तथा रश्मिर्बुधं पुष्णाति सर्वदा। विश्वव्यचास्तु यो रश्मिः शुक्रं पुष्णाति नित्यदा॥६॥
संयद्वसुरिति ख्यातः स पुष्णाति च लोहितम्। बृहस्पतिं प्रपुष्णाति रश्मिरर्वावसुः प्रभोः।
शनैश्चरं प्रपुष्णाति सप्तमस्तु सुराट् तथा॥७॥
एवं सूर्य प्रभावेण सर्वा नक्षत्रतारकाः। वर्धन्ते वर्धिता नित्यं नित्यमाप्याययन्ति च॥८॥
मत्स्य पुराण, अध्याय १२८-सुषुम्ना सूर्यरश्मिर्या क्षीणम् शशिनमेधते। हरिके शः पुरस्तात्तु यो वै नक्षत्रयोनिकृ त्॥२९॥
दक्षिणे विश्वकर्मा तु रश्मिराप्याययद् बुधम्। विश्वावसुश्च यः पश्चाच्छु क्रयोनिश्च स स्मृतः॥३०॥
संवर्धनस्तु यो रश्मिः स योनिर्लोहितस्य च। षष्ठस्तु ह्यश्वभू रश्मिर्योनिः सा हि बृहस्पतेः॥३१॥
शनैश्चरं पुनश्चापि रश्मिराप्यायते सुराट् । न क्षीयन्ते यतस्तानि तस्मान्नक्षत्रता स्मृता॥३२॥
क्षेत्राण्येतानि वै सूर्यमातपन्ति गभस्तिभिः। क्षेत्राणि तेषामादत्ते सूर्यो नक्षत्रता ततः॥३३॥
ब्रह्माण्ड पुराण, पूर्व भाग, अध्याय२४-
रवे रश्मि सहस्रं यत् प्राङ् मया समुदाहृतम्। तेषां श्रेष्ठाः पुनः सप्त रश्मयो ग्रह-योनयः॥६५॥
सुषुम्णो-हरिके शश्च-विश्वकर्मा तथैव च। विश्वश्रवाः पुनश्चान्यः संपद्-वसुरतः परः॥६६॥
अर्वावसुः पुनश्चान्यः स्वराडन्यः प्रकीर्त्तितः। सुषुम्णः सूर्य-रश्मिस्तु क्षीण शशिन-मेधयेत्॥६७॥
तिर्यगूर्ध्व प्रचारोऽसौ सुषुम्णः परिकीर्त्तितः। हरिके शः पुरस्ताद्य ऋक्ष-योनिः स कीर्त्यते॥६८॥
दक्षिणे विश्वकर्मा तु रश्मिन् वर्द्धयते बुधम्। विश्वश्रवास्तु यः पश्चाच्छु क्र-योनिः स्मृतो बुधैः॥६९॥
सम्पद् वसुस्तु यो रश्मिः स योनि-र्लोहितस्य तु। षष्ठ-स्त्वर्व्वावसू रश्मि-र्योनिस्तु स बृहस्पतेः॥७०॥
शनैश्चरं पुनश्चापि रश्मि-राप्यायते स्वराट् । एवं सूर्य प्रभावेण ग्रह-नक्षत्र-तारकाः॥७१॥
वर्त्तन्ते दिविताः सर्वा विश्वं चेदं पुन-र्जगत्। न क्षीयन्ते यतस्तानि तस्मा-न्नक्षत्र संज्ञिताः॥७२॥
क्षेत्राण्येतानि वै पूर्व-मातपन्ति गभस्तिभिः। तेषां क्षेत्राण्य-थादत्ते सूर्यो नक्षत्र कारकाः॥७३॥

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