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कृ ष्ण की ओर

कृ ष्णकृ पामूर्तत
श्री श्रीमद् ए.सी. भिििेदान्त स्िामी प्रभुपाद
संस्थापक-अचायय : हरे कृ ष्ण मूिमेंट

पुस्तक-पररचय

1 ििषय-सूची
ििषय-सूची

ऄध्याय एक- सुख का सीधा मागय

ऄध्याय दो -कृ ष्ण-संकीतयन और कृ ष्ण को जानने

की िििध

ऄध्याय तीन - सियत्र और सदा कृ ष्ण-दर्यन

ऄध्याय चार -मूढ़ और ज्ञानी के मागय

2 ििषय-सूची
ऄध्याय पााँच - परम प्रभु की और गमन

लेखकपररचय

ऄध्याय एक

सुख का सीधा मागय


हममें से प्रत्येक व्यिि सुख की खोज में है , ककन्तु हम नहीं जानते कक सच्चा
सुख क्या है। हम ऄपने चारों ओर सुख का ििज्ञापन तो बहुत देखते हैं , ककन्तु
प्रत्यक्षतः सुखी लोग हम बहुत ही कम देखते हैं। आसका कारण है कक बहुत ही कम
लोग यह जानते हैं कक सच्चे सुख की िस्थित नश्वर पदाथों से परे है। यह िह सच्चा
सुख है िजसका िििेचन भगिद्गीता में भगिान् कृ ष्ण ने ऄजुयन को समझाया है।
सुख का ऄनुभि साधारणतया हमारी आिन्ियों के माध्यम से होता है।
ईदाहरण के िलए, एक पत्थर के पास कोइ आिन्ियााँ नहीं है , ऄतः िह सुख या दुःख
का ऄनुभि नहीं कर सकता। ििकिसत चेतना ऄििकिसत चेतना की ऄपेक्षा सुख
और दुःख का ऄनुभि ऄिधक गहराइ से कर सकती है। िृक्षों में चेतना होती है ,
ककन्तु िह ििकिसत नहीं होती है। िृक्ष सभी ॠतुओं में दीघयकाल तक खड़े रह सकते
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हैं, पर ईनके पास दु :खानुभि करने का कोइ साधन नहीं है। यकद ककसी मानि को
िृक्ष के समान के िल तीन कदन या आससे भी कम समय तक खड़ा रखा जाये, तो िह
यह सहन नहीं कर सके गा। सारांर् यह है कक प्रत्येक चेतन प्राणी सुख -दुःख का
ऄनुभि ऄपनी चेतना के ििकास के ऄनुसार ही करता है।
आस भौितक संसार में हम जो सुख ऄनुभि कर रहे हैं , िह सच्चा सुख नहीं है।
यकद कोइ व्यिि ककसी िृक्ष से पूछे , “क्या तुम सुखी हो ?” तो िृक्ष , यकद बोल
सकता, तो कदािचत यही कहता, “हााँ, मैं यहााँ िषय भर खड़े-खड़े सुखी हॅू।ं िायु और
िहमपात का बहुत ही अनन्द ले रहा हॅूं , अकद अकद। ” एक िृक्ष आस प्रकार की
िस्थित में अनन्द ऄनुभि कर सकता है , परन्तु मानि के िलए अनंदानुभि का यह
एक ऄत्यन्त िनम्न स्तर है। चेतन प्रािणयों के िििभन्न प्रकार और ईनकी िििभन्न
श्रेिणयााँ हैं , और ईनके सुख की पररकल्पनाएाँ और ऄनुभूितयााँ भी िििभन्न प्रकार
और श्रेिणयों की हैं। यद्यिप एक पर्ु यह देख सकता है कक दूसरे पर्ु की हत्या हो
रही है तथािप िह घास खाता रहेगा , क्योंकक ईसके पास यह समझने की कोइ
योग्यता नहीं है कक ऄगली बार िह मारा जा सकता है। िह सोचता है कक मैं सुखी
हॅू,ं पर दूसरे ही क्षण िह मारा जा सकता है।
आस प्रकार सुख की ऄलग -ऄलग श्रेिणयााँ होती हैं , ककन्तु आन सब में सिोच्च
सुख क्या है? श्रीकृ ष्ण ऄजुयन से कहते हैं :
सुखमात्यिन्तकं यत्तद् बुििग्राह्यमतीिन्ियम्।
िेित्त यत्र न चैिायं िस्थतश्चलित तत्त्ितः॥
“ईस परमानन्द की िस्थित (समािध-ऄिस्था) में साधक कदव्य आिन्ियों के द्वारा
ऄनन्त कदव्य सुख का ऄनुभि करता है। आस प्रकार िस्थत हुअ साधक सत्य से कभी
ििचिलत नहीं होता।” (भ.गी. 6.29)
यकद कोइ मानि सुख प्राप्त करना चाहता है , तो ईसे बुििमान होना अिश्यक
है। पर्ुओं के पास िस्तुतः ििकिसत बुिि नहीं होती , आसिलए िे जीिन का ऐसा
सुख नहीं ले सकते जैसा मानि ले सकते हैं। एक मृत व्यिि के भी हाथ , पैर, अाँख,

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नाक अकद ऄब आिन्ियााँ होती हैं , किर भी िह अनन्द नहीं लें सकता। ऐसा क्यों ?
ऐसा आसिलए होता है क्योंकक सुखानुभि करने िाली चेतन र्िि ईस र्रीर से लुप्त
हो चुकी होती है और र्रीर में कोइ र्िि नहीं बची होती। यकद हम थोड़ा
बुििपूियक आस ििषय पर और ऄिधक ििचार करें गे , तो पायेंगे कक जो िास्ति में
सुख का ऄनुभि कर रहा था , िह र्रीर नहीं था , ऄिपतु ईसके भीतर रहने िाली
सूक्ष्म चेतना थी। मनुष्य चाहे समझे कक िह र्ारीररक आिन्ियों के माध्यम से सुख
ईठा रहा है , ककन्तु िस्तुतः सुख भोिा तो अध्याित्मक -स्िु ललग है। ईस स्िु ललग में
सदा अनन्दोपभोग करने का सामर्थयय रहता है , ककन्तु भौितक अिरण के कारण िह
सामर्थयय हमेर्ा ऄिभव्यि नहीं होता है। हमें पता हो या नहीं , ईस चेतना स्िु ललग
की ईपिस्थित के िबना र्रीर के िलए अनन्द का ऄनुभि करना ऄसम्भि है। यकद
ककसी पुरुष को सुन्दर मृत स्त्री का र्रीर कदया जाएाँ , तो क्या िह ईसे स्िीकार
करे गा? कभी नहीं, क्योंकक ईस र्रीर से अध्याित्मक -स्िु ललग बाहर िनकल चुका
है। पहले अध्याित्मक -स्िु ललग ईसी स्त्री -र्रीर की देखभाल भी कर रहा था। जब
िह अत्म-स्िु ललग िनकल जाता है, तब र्रीर नष्ट हो जाता है।
आसका तात्पयय यह हुअ कक यकद अत्मा अनन्दोपभोग कर रहा है , तो ईसकी
आिन्ियााँ भी होनी चािहए , ऄन्यथा िह अनन्दोपभोग कर कै से सकता है ? िेद
आसकी पुिष्ट करते हैं कक यद्यिप अत्मा ऄणु के समान सूक्ष्म है , तथािप िही िास्ति
में अनन्द का भोिा है। अत्मा को नापना-तोलना सम्भि नहीं है, ककन्तु आसका ऄथय
यह नहीं है कक अत्मा का कोइ पररमाण ही नहीं है। जो पदाथय हमें एक िबन्दु से
ऄिधक न लगे और िजसकी कोइ लम्बाइ -चौड़ाइ भी कदखाइ न दे , ईसे भी यकद हम
ऄणुिीक्षण यंत्र से देखें तो ईसमें हमें लम्बाइ और चौड़ाइ दोनों कदखाइ देंगी। आसी
प्रकार अत्मा का भी ऄपना पररमाण होता है , पर हम ईसका ऄनुभि नहीं कर
सकते। जब हम कोइ िस्त्र खरीदते हैं , तो ईसे र्रीर के ऄनुरूप बनाया जाता है।
अध्याित्मक स्िु ललग का भी अकार होना चािहए , ऄन्यथा यह कै से हुअ कक ईसे
धारण करने के िलए भौितक र्रीर का ििकास हुअ ? िनष्कषय यह है कक कदव्य
अत्मा िनर्तिर्ेष नहीं है। यह यथाथय में एक व्यिि है। इश्वर एक िास्तििक पुरुष हैं
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और ईनका सूक्ष्म ऄंर् होने के कारण अत्मा भी एक व्यिित्ि है। यकद िपता में
िनजी स्िरूप और िििर्ष्टता है , तो पुत्र में भी ये ऄिश्य होंगे और यकद पुत्र में ये हैं ,
तो हम िनिश्चत रूप से कह सकते हैं कक िपता में भी ये होंगे। ऄतः यह कै से हो
सकता है कक भगिान् की सन्तान होकर हम ऄपने स्िरूप और िििर्ष्टता को तो
स्थािपत करें और ऄपने परम िपता भगिान् में ईनको नकारें?
„ऄतीिन्ियम्‟ र्ब्द का ऄथय यह है कक यथाथय अनन्द या सुख का ऄनुभि करने
के िलए हमें आन भौितक आिन्ियों के परे जाना होगा। “रमन्ते योिगयोऽनन्ते
सत्यानन्दिचदात्मिन”-जो योगी अध्याित्मक जीिन के ऄिभलाषी हैं , िे भी ऄपने
ऄन्तःकरण में िस्थत परमात्मा पर िचत्त को एकाग्र करके सुखानुभि करते हैं यकद
कोइ अनन्द न हो, कोइ सुख न हो, तो आिन्ियों को िनयंत्रण में रखने के िलए आतना
कष्ट ईठाने की क्या अिश्यकता है ? आतना कष्ट ईठाने में योगीजन ककस प्रकार अ
अनन्दानुभि करते हैं ? यह अनन्द ऄनन्त है। िह कै से ? अत्मा र्ाश्वत है और
परमेश्वर भी र्ाश्वत हैं , ऄतः ईनमें होने िाला परस्पर प्रेम का अदान -प्रदान भी
र्ाश्वत है। जो मनुष्य िास्ति में बुििमान है , िह ऄिस्थर , भौितक र्रीर -जिनत
आिन्िय सुख से दूर रहकर ऄपने सुख को अध्याित्मक जीिन में िस्थत करे गा।
परमेश्वर के साथ अध्याित्मक जीिन में यह सम्मेलन ही रासलीला कहलाता है।
हमने िृन्दािन में गोिपयों के साथ श्रीकृ ष्ण की रासलीला के ििषय में प्रायः
सुना है। यह लीला भौितक र्रीरधाररयों के बीच होने िाली साधारण िििनयम
जैसी नहीं है। यह िस्तुतः कदव्य देहों द्वारा व्यि होने िाले भािों का िििनमय है।
आस रहस्य को समझने के िलए मनुष्य को थोड़ा -सा बुििमान होना अिश्यकता है;
क्योंकक यथाथय सुख को न जानने िाला मूखय व्यिि आस भौितक जगत में ही सुख
खोजता है। भारत में एक कथा है कक एक व्यिि को यह भी नहीं पता था कक गन्ना
क्या होता है॥ ईसे के िल आतना बताया गया था कक गन्ना चूसने में बहुत मीठा होता
है। ईस व्यिि ने पूछा, “ऄरे , गन्ना देखने में कै सा होता है?” तो ककसी ने कहा, “गन्ना
देखने में बााँस के डण्डे के समान होता है। ” बस यह सुना ही था कक िह मूखय अदमी
हर प्रकार के बााँस के डण्डों को चूसने लगा परन्तु आससे ईसे गन्ने की िमठास का
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ऄनुभि कै से हो सकता था ? आसी प्रकार हम भी सुख और अनन्द प्राप्त करने का
प्रयत्न कर रहे हैं , पर हम मूखयतापूियक आस भौितक र्रीर को चूस कर ईन्हें प्राप्त
करने की कोिर्र् कर रहे हैं , आसिलए तिनक भी सुख और अनन्द नहीं िमलता।
कु छ क्षणों के िलए ईसमें ऄल्प सुख और अनन्द का अभास हो सकता है , परन्तु िह
अितर्बाजी के खेल जैसा है , जो अकार् में क्षणभर के िलए िबजली की तरह
कदखाइ दे सकता है , परन्तु िास्तििक िबजली तो आससे परे है। चूाँकक साधारण
मानि यह नहीं जानता कक सच्चा सुख क्या है, आसिलए िह सच्चे सुख से ििचिलत हो
जाता है।
ऄपने अप को िास्तििक अनन्द में स्थािपत करने की प्रकिया यह
कृ ष्णभािनामृत की प्रकिया है। कृ ष्णभािनामृत द्वारा हम र्नैः र्नैः ऄपनी
िास्तििक बुिि का ििकास करते हैं और जैसे जैसे हम अध्याित्मक ईन्नित करते हैं ,
िैसे ही अध्याित्मक अनन्द का ऄनुभि सहज रूप से करने लगते हैं। जैसे जैसे हमें
आस अध्याित्मक अनन्द का अस्िाद अने लगता है , िैसे ही हम भौितक अनन्द को
ईसी ऄनुपात में ििरि होने लगते हैं। जब हम परम सत्य को समझने में प्रगित
करते हैं , तो स्िाभाििक रूप से ही हम आस झूठे सुख से ििरि होने लगते हैं। कोइ
मानि ऄगर ककसी न ककसी प्रकार कृ ष्णभािनामृत की ईस िस्थित पर पहुाँच जाता
है, तब पररणाम क्या होता है?
यं लब्ध्िा चापरं लाभं मन्यते नािधकं ततः।
यिस्मन् िस्थतो न दुःखेन गुरुणािप ििचाल्यते॥
“आस सुख को प्राप्त करके साधक किर ककसी और सुख को बड़ा नहीं समझता
है। ईस िस्थत में िस्थर होने पर िह बड़े से बड़े दुःख में भी ििचिलत नहीं होता। ”
(भ.गी. 6.22)
जब मनुष्य ऐसे स्तर पर पहुाँच जाता है , तब ईसे ऄन्य ईपलिब्धयााँ तुच्छ
प्रतीत होने लगती हैं। आस भौितक जगत में हम धन , िस्त्रयााँ, यर्, सौन्दयय, ज्ञान
अकद बहुत से पदाथय प्राप्त करने का यत्न कर रहे हैं ककन्तु जैसे ही हम
कृ ष्णभािनामृत में िस्थत हो जाते है , िैसे ही तुरन्त हम सोचते हैं , “ओह! दूसरी
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कोइ भी ईपलिब्ध आससे बढ़कर नहीं है। ” कृ ष्णभािनामृत आतना र्ििर्ाली है कक
आसका ऄित ऄल्प ऄनुभि भी मनुष्य को महानतम संकट से रक्षा कर सकता है।
ज्योंही कोइ मनुष्य कृ ष्णभािनामृत का अस्िादन करना प्रारम्भ करता है , त्योंही
िह ऄन्य तथाकिथत सुखों और लाभों को िनरथयक और नीरस समझने लगता है।
और यकद कोइ कृ ष्णभािनामृत में दृढ़ता से िस्थत है , तो ईसे बड़े से बड़ा संकट भी
ईिद्वग्न नहीं कर सकता। जीिन में बहुत से संकट हैं क्योंकक यह भौितक जगत संकटों
का घर ही है। ककन्तु हम आस ओर से अाँखे मूाँद लेते हैं और मूखयतािर् हम आन संकटों
के साथ समझौते का प्रयत्न भी करते है। हमारे जीिन में संकट के ऄनेक क्षण अ
सकते हैं , ककन्तु यकद हम कृ ष्णभािनामृत का ऄभ्यास करते हुए भगििाम लौटने
की तैयारी करें , तो हमें संकटों की िचन्ता नहीं रहेगी। ईस समय हमारी मनः िस्थित
यह होगा, “संकट तो अते जाते ही रहते हैं ; कोइ िचन्ता नहीं , ईन्हें अने दो। ” जब
तक मनुष्य भौितक धरातल पर रहता है और ऄपनी पहचान नश्वर भौितक तत्िों से
िनर्तमत स्थूल र्रीर के साथ करता है, तब तक ऐसा समझौता कर पाना बड़ा करठन
है। ककन्तु मनुष्य कृ ष्णभािनामृत में िजतनी ऄिधक प्रगित करता है , िह र्ारीररक
ईपािधयों और भौितक बन्धनों से ईतना ही ऄिधक मुि होता चला जाता है।
श्रीमद्भागित में आस भौितक जगत की तुलना एक महासागर से की गइ है।
आस भौितक ब्रह्माण्ड के ऄंतररक्ष में लाखों -करोड़ों ग्रह-नक्षत्र तैर रहे हैं और हम यह
कल्पना कर सकते हैं कक आसमें ककतने अन्र (ऐटलांरटक) और प्रर्ान्त महासागर
होंगे। िास्ति में यह सारा भौितक ब्रह्माण्ड जन्म , मृत्यु, और दुःखों के एक
महासागर की तरह ही है। आस ऄज्ञान के महासागर को पार करने के िलए एक सुदढ़ृ
नौका की अिश्यकता है और िह सुदढ़ृ नौका है -श्रीकृ ष्ण के चरणकमल। हमें आस
नौका पर तुरन्त अरूढ़ हो जाना चािहए। हमें यह सोचकर संकोच नहीं करना
चािहए कक श्रीकृ ष्ण के चरण तो बहुत छोटे हैं। िास्ति में समस्त ब्रह्माण्ड ईनके
चरणों पर ही रटका हुअ है। कहा जाता है कक श्रीकृ ष्ण के चरणकमलों में र्रणागत
मनुष्य के िलए यह भौितक ब्रह्माण्ड , गाय के बछड़े के खुर-िचन्ह में भरे जल से

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ऄिधक नहीं रहता। ऐसे छोटे से गो -खुर को पार करना िनिश्चत रूप से करठन नहीं
है।
तं ििद्याददुःखसंयोगिियोगं योगसंिज्ञतम्।
“यही भौितक संयोग से ईत्पन्न समस्त क्लेर्ों से िास्तििक मुिि है। ” (भ.गी.
6.23)
हम आस भौितक जगत में ऄसंयिमत आिन्ियों के कारण ही िाँ से हुए हैं। योग
प्रकिया का लक्ष्य आन आिन्ियों का संयम करना है। यकद ककसी प्रकार हम आिन्ियों का
संयम कर सकें , तो िह िास्तििक अध्याित्मक अनन्द की ओर ईन्मुख हो सकते हैं
और ऄपना जीिन सिल बना सकते हैं

स िनश्चयेन योिव्यो योगोऽिनर्तिण्ण चेतसा।


संकल्प प्रभिान्कामांस्त्यक्त्िा सिायनर्ेषतः॥
मनसैिेिन्ियग्रामं िििनयम्य समन्ततः।
र्नैः र्नैरुपरमेद ् बुदध्या धृित-गृहीतया॥
अत्मसंस्थं मनः कृ त्िा न ककििदिप िचन्तयेत्।
यतोयतो िनश्चलित मनश्चिलम् ऄिस्थरम्॥
ततस्ततो िनयम्यैतद् अत्मन्येि िर्ं नयेत्॥
“साधक पुरुष को ऄििचल दृढ़ता और ििश्वास के साथ योगाभ्यास करना
चािहए। ईसे िमर्थया ऄहंकार से ईत्पन्न समस्त भौितक आच्छाओं को त्याग देना
चािहए और मन के द्वारा सब ओर से आिन्ियों का संयम करना चािहए। आस प्रकार
साधक को धीरे -धीरे िमर्ः पूणय ििश्वास के साथ , बुिि द्वारा समािध में िस्थर
रहना चािहए और ऄन्य ककसी का भी िचन्तन न करते हुए मन को अत्मा पर िस्थर
करना चािहए। यह चंचल और ऄिस्थर मन जहााँ -जहााँ भी चलायमान हो, िहााँ-िहााँ
से आसको िनिश्चत रूप से हटा कर ऄपने िर् में करना चािहए।”

9 ििषय-सूची
मन सदा ऄिस्थर रहता है ; यह कभी आधर जाता है , तो कभी ईधर।
योगाभ्यास से हम मन को यथाथय रूप में कृ ष्णभािनामृत की ओर खींचते हैं। ककन्तु
मन कृ ष्णभािनामृत से ऄनेक बाह्य ििषयों की ओर दौड़ता है , क्योंकक ऄनाकद काल
से और जन्म -जन्मांतर से आसकी यही प्रिृित्त रही है। िलतः साधक को प्रारम्भ में
ऄपने मन को कृ ष्णभािनामृत की ओर ईन्मुख करने में बड़ी करठनाइ हो सकती है ,
पर आन सभी करठनाआयों पर ििजय पाइ जा सकती है।
क्योंकक मन ऄर्ान्त है और श्रीकृ ष्ण की ओर ईन्मुख नहीं है , ऄतः यह एक
ििचार से दूसरे ििचार में चला जाता है। ईदाहरण के िलए , जब हम ककसी काम में
लगे होते हैं , तो मन में ऄचानक ऐसी घटनाओं की स्मृित िबना ककसी प्रत्यक्ष कारण
के जागृत हो ईठती है जो दस , बीस, तीस या चालीस िषय पहले घरटत हुइ थीं। ये
ििचार हमारे ईपचेतन मन से ही अते हैं और क्योंकक ये ििचार िनरन्तर ईठते रहते
हैं, आसिलए मन सदा ऄर्ान्त रहता है। यकद हम ककसी झील या तालाब के पानी
को िहलायें , तो ईसके तल से सारे िमट्टी उपर अ जाएगी। आसी प्रकार जब मन
ऄर्ान्त होता है , तो ईपचेतन मन से ऄनेक ििचार ईठ खड़े होते हैं , जो ईसमें िषाय
से संिचत हुए रहते हैं। „यकद हम तालाब को अन्दोिलत न करें , तो िमट्टी तल में बैठ
जाएगी। योग की यह प्रकिया मन को र्ांत करके आन सभी ििचारों को िस्थर करने
के िलए है। आसिलए मन को ईिद्वग्न और ऄर्ान्त होने से रोकने के िलए ऄनेक यम -
िनयम हैं। यकद आनका पालन ककया जाएाँ तो मन र्नैः र्नैः िर् में अ जाएगा। यकद
कोइ िास्ति में मन को िर् में करना चाहता है , तो ईसे ऄनेक प्रकार के िििध -
िनषेधों का पालन करना होगा। कोइ यकद के िल स्िेच्छा से कायय करे , तो मन को
संयिमत करने की क्या सम्भािना रहेगी ? जब मन ऄन्ततः ईस िबन्दु तक प्रिर्िक्षत
कर िलया जाता है , जहााँ िह श्रीकृ ष्ण के ऄितररि ककसी और ििषय का लचतन
नहीं करता, तब िह िनश्चल हो जाएगा और ईसे र्ािन्त प्राप्त हो जाएगी।
प्रर्ान्तमनसं ह्येनं योिनग सुखमुत्तमम्।
ईपैितर्ान्त-रजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥

10 ििषय-सूची
“िजस योगी का मन मुझ में िस्थर रहता है , िह िनश्चय ही सिोच्च सुख को
प्राप्त करता है। िह ब्रह्मभूत होकर जीिनमुि हो जाता है , ईसका मन र्ान्त हो
जाता है, ईसके मनोिेग िस्थर हो जाते हैं और िह पाप से मुि पा लेता है। ” (भ.गी.
6.27)
मनुष्य का मन िनरन्त र सुख के पदाथों के िलए योजना बनाता रहता है। िह
सदा यही सोचता रहता है , “मुझे यह सुखी बना ” देगा या “िह सुखी बना देगा। ”
सुख यहााँ है , सुख िहााँ है। ” आस प्रकार मन हमें यहााँ िहााँ भटकाता रहता है। यह
ऄिनयिन्त्रत घोड़े से युि रथ पर अरूढ़ होने जैसा ही है। हमारा आस बात पर कोइ
िनयंत्रण नहीं होता कक हम कहााँ जा रहे हैं। हम तो बस भयभीत हुए बैठे ही रह
सकते हैं और िनस्सहाय होकर देखते ही रह सकते हैं। ककन्तु ज्योंही मन
कृ ष्णभािनामृत की प्रकिया में लग जाता है -ििर्ेष रुप से „हरे कृ ष्ण , हरे कृ ष्ण ,
कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे ॥‟ के कीतयन द्वारा, त्योंही
मन के ऄिनयिन्त्रत घोड़े हमारे िर् में अ जाएाँगे। हमें ऄपने जीिन के प्रत्येक क्षण
को कृ ष्ण की सेिा में लगा देना चािहए , िजससे यह ईिद्वग्न और ऄर्ान्त मन हमें
व्यथय ही आस नार्िान् भौितक जगत में सुख की खोज में एक पदाथय से दूसरे पदाथय
की ओर खींच न ले जाएाँ।
युञ्जन्नेिं सदात्मानं योगी ििगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्म संस्पर्यमत्यन्तं सुखमश्नुते॥
“समस्त भौितक पापों से मुि होकर अत्मा में िस्थत हुअ योगी परम चेतना
में रहकर अनन्द की चरम िस्थत को प्राप्त कर लेता है।” (भ.गी. 6.28)
श्रीकृ ष्ण ऄपनी र्रण में अएाँ हुए भि के िलए सब प्रकार से अश्रयदाता बन
जाते हैं जब मनुष्य करठनाइ में होता है , तो ईसका संरक्षक ईसकी रक्षा करता है।
भगिद्गीता में कहा गया है कक श्रीकृ ष्ण प्रत्येक प्राणी के सच्चे सुहृद हैं और हमें तो
के िल ईनसे ऄपनी आस मैत्री को पुनजायिग्रत करना होता है। आस मैत्री को पुनः
जािग्रत करने का तरीका है , कृ ष्णभािनामृत की प्रकिया। कृ ष्णभािनामृत के
ऄभ्यास द्वारा भौितक सुखों की ऄन्धी कामना र्ान्त हो जाएगी। यह ऄन्धी असिि
11 ििषय-सूची
ही हमें कृ ष्ण से दूर ककए हुए है। श्रीकृ ष्ण हमारे हृदय में िनरन्तर ििराजमान हैं ,
और िे ऄपनी ओर ईन्मुख होने के िलए हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। परन्तु दुभायग्यिर्
हम भौितक आच्छाओं के पेड़ के िल खाने में ऄितर्य लीन हैं। भौितक सुखों को
भोगने की यह तामसी िििर्ता समाप्त होनी चािहए और हमें ऄपनी िास्तििक
पहचान ब्रह्म, याने र्ुि अत्मा में िस्थत होना चािहए।

ऄध्याय दो

कृ ष्ण-संकीतयन और कृ ष्ण को जानने की


िििध
हरे कृ ष्ण, हरे कृ ष्ण, कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे ।
हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे ॥
यह कदव्य ध्ििन-तरं ग है। हमारे मनरूपी दपयण पर पड़ी हुइ धूल को हटाने में
यह सहायक होगी। आस समय हमने ऄपने मनरूपी दपयण पर सांसाररकता की आतनी
धूल चढ़ा रखी है , जैसे न्यूयॉकय नगर के सैकण्ड एिेन्यू में ऄत्यिधक यातायात के
कारण प्रत्येक िस्तु पर धूल और कािलख जग जाती है। हमने भौितक काययकलापों
में जोड़-तोड़ करके ऄपने मन रूपी स्िच्छ दपयण पर आतनी धूल संिचत कर ली है कक

12 ििषय-सूची
ईसके कारण हमें ऄब कु छ भी ठीक -ठीक नहीं कदखाइ देता। हरे कृ ष्ण मन्त्र का यह
कदव्य र्ब्द-स्पन्दन हमारे मन-दपयण से यह धूल हटाकर हमें ऄपने िास्तििक स्िरूप
का दर्यन करने की क्षमता प्रदान करे गा। ज्योंही हमें यह बोध होगा कक , “मैं यह
र्रीर नहीं हॅूं , मैं अत्मा हॅूं और चैतन्य ही मेरा स्िरूप -लक्षण है ,” त्योंही हम सच्चे
सुख में स्थािपत हो सकें गे। जैसे -जैसे हरे कृ ष्ण मन्त्र के संकीतयन से हमारी चेतना
र्ुि होती जाएगी , िैसे-िैसे ही हमारे सारे भौितक दुःख लुप्त होते जाएाँगे। आस
भौितक जगत में सदा दुःखों की ज्िाला ईठती रहती है और प्रत्येक प्राणी ईसे
बुझाने की चेष्टा कर रहा है। ककन्तु भौितक दुःखों की आस ज्िाला के बुझने की तब
तक कोइ सम्भािना नहीं है , जब तक हम ऄपने अध्याित्मक जीिन में -र्ुि चेतना
में िस्थित नहीं हो जाते।
आस भौितक जगत में भगिान् श्रीकृ ष्ण के ऄितार का एक ईद्देश्य था -धमय-
संस्थापना के द्वारा समस्त प्रािणयों के सांसाररक क्लेर्ों की ज्िाला को बुझाना।
यदा यदा िह धमयस्य ग्लािनभयिित भारत।
ऄभ्युत्थानम् ऄधमयस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
पररत्राणाय साधूनां ििनार्य च दृष्कृ ताम्।
धमयसंस्थापनाथायय संभिािम युगे युगे॥
“हे ऄजुयन, जब-जब और जहााँ-जहााँ धमय की हािन और ऄधमय की िृिि होती है,
तब-तब मैं ऄितररत होता हॅू।ं साधु सज्जन पुरुषों की रक्षा , दुष्ट-दुजयनों के ििनार्
और धमय की पु नः संस्थापना के िलए मैं प्रत्येक युग में ऄितररत होता हॅू।ं ” (भ.गी.
4.7-8)
आन श्लोकों में „धमय‟ र्ब्द प्रयुि हुअ है। आस र्ब्द का ऄंग्रेजी भाषा में िििभन्न
प्रकार से रूपान्तर हुअ है। कभी -कभी आस र्ब्द का ऄनुिाद „िे थ‟ ऄथायत ििश्वास
के रूप में ककया जाता है। ककन्तु िै कदक सािहत्य के मतानुसार „धमय‟ एक ििश्वास-
मात्र नहीं है। ििश्वास बदल सकता है , ककन्तु धमय नहीं बदला जा सकता। जल की
तरलता को नहीं बदला जा सकता। िह ईसका स्िरूपभूत धमय है। ईदाहरण के
िलए, यकद जल बिय के रूप में ठोस बन जाता है , तो िस्तुतः िह ऄपने मूल स्िरूप
13 ििषय-सूची
में नहीं रहता। िह ककन्हीं ििर्ेष पररिस्थितयों में ईस दर्ा में परमब्रह्म के ऄंर् हैं।
और ऐसा होने के कारण हमें ऄपनी चेतना को परम ऄनुकूल या ईनके ऄधीन
बनाना होगा।
परम पूणय के प्रित हमारे आस कदव्य सेिा -भाि का भौितक सम्पकय के कारण
दुरुपयोग हो रहा है। हमारे मूल स्िरूप में सेिा -भाि ऄिनिायय रूप से िनिहत है।
प्रत्येक मनुष्य सेिक है और स्िामी कोइ नहीं। प्रत्येक व्यिि ककसी न ककसी की सेिा
कर रहा है। यद्यिप राष्ट्रपित देर् का प्रमुख काययकारी ऄध्यक्ष है , तथािप िह देर् की
सेिा कर रहा है , और जब ईसकी सेिाओं की अिश्यकता नहीं रहती , तो देर्
ईसको ऄिकार् दे देता है। ऄपने अप में यह समझना कक „मैं सब का स्िामी हॅूं ,‟
माया कहलाता है। आस प्रकार देहात्म -बुिि के कारण हमारी सेिा -िृित्त का िििभन्न
ईपािधयों में दुरुपयोग ककया जा रहा है। ज ब हम आन ईपािधयों से मुि हो सकते
हैं, ऄथायत् सब हमारे मनरूपी दपयण से ऄज्ञान की धूल हट जाएगी , तब हम ऄपने
अपको कृ ष्ण के र्ाश्वत सेिक के ऄपने मूल स्िरूप में देख सकें गे।
मनुष्य को यही नहीं समझना चािहए कक भौितक जगत में और अध्याित्मक
िातािरण में ईसकी सेिाएाँ एक-सी होंगी। हमें यह सोचने में कदािचत संकोच होगा
कक, “क्या मुि हो जाने के ईपरान्त भी मैं सेिक ही रहाँगा?” ऐसा आसिलए है
क्योंकक भौितक जगत में सेिक होने का हमारा ऄनुभि बहुत सुखमय नहीं रहा है ;
ककन्तु कदव्य-सेिा ऐसी नहीं होती है , जबकक भौितक जगत में आनमें ऄन्तर है। कदव्य
जगत में हर चीज एक -सी होती है। ईदाहरण के िलए , भगिद्गीता के प्रसंग में हम
देखते हैं कक श्रीकृ ष्ण ने ऄजुयन के सारथी रूप में एक सेिक की िस्थित ग्रहण की है।
ऄपनी िैधािनक िस्थित में ऄजुयन कृ ष्ण का सेिक है , ककन्तु व्यिहार में हम देख
सकते हैं कक कभी-कभी भगिान् सेिक के भी सेिक बन जाते हैं। आसिलए हमें ध्यान
रखना चािहए कक हम ऄपने लौककक ििचार अध्याित्मक क्षेत्र में न ले जाएाँ।
भौितक रूप में हमने जो ऄनुभि ककया है , िह अध्याित्मक जगत के जीिन का
ििकृ त प्रितिबम्ब ही है।

14 ििषय-सूची
जब हमारा मूलस्िरूप या धमय , भौितक पदाथय के दोषों से ऄधोगित को प्राप्त
हो जाता है , तो भगिान् स्ियं ऄितार के रूप में अते हैं या ऄपने िनजी ऄत्यन्त
ििश्वसनीय सेिक को भेजते हैं। इसा मसीह ऄपने अपको इश्वर का पुत्र कहते थे ,
आसिलए िे परम के प्रितिनिध हैं। आसी प्रकार मुहम्मद ने ऄपने अपको परमेश्वर का
एक सेिक कहा है। आस प्रकार हमारे मूल -स्िरूप या धमय में जब भी कोइ दोष अता
है, तब हमें िास्तििक िस्थित बताने के िलए या तो श्रीभगिान् स्ियं ऄितररत होते
हैं या ऄपने ककसी प्रितिनिध को भेजते हैं।
आसिलए ककसी को भी आस भ्रम में नहीं रहना चािहए कक „धमय‟ कोइ किल्पत
या िनर्तमत „ििश्वास‟ मात्र है। ऄपने िास्तििक ऄथय में „धमय‟ जीि से कभी भी पृथक्
नहीं ककया जा सकता। ईसके साथ धमय का सम्बन्ध ऐसा ही है , जैसे र्क्कर के साथ
िमठास का, नमक के साथ खारे पन का या पत्थर के साथ ठोसपन का। यह सम्बन्ध
ककसी भी प्रकार से दूर नहीं ककया जा सकता। जीि का धमय सेिा करना है और हम
स्पष्ट देख सकते हैं कक प्रत्येक जीि की िृित्त ऄपनी या दूसरों की सेिा करने की
होती है। श्रीकृ ष्ण की सेिा कै से की जाएाँ, भौितक दासता से ऄपने अप को कै से मुि
ककया जाएाँ , कृ ष्णभािनामृत कै से प्राप्त ककया जाएाँ और भौितक ईपािधयों से कै से
छू अ जाएाँ , ये सब बातें भगिान् श्रीकृ ष्ण ने भगिद्गीता में िैज्ञािनक िििध से
समझाइ हैं।
पररत्राणाय साधूनाम् श्लोक में अया हुअ „साधु‟ र्ब्द पिित्र अचरण से युि
सज्जन व्यिि का या संत पुरुष का बोध कराता है। संत पुरुष क्षमार्ील , प्रत्येक के
प्रित ऄत्यन्त दयालु , समस्त प्रािणयों का िमत्र , ककसी का भी र्त्रु नहीं और सदा
र्ान्त-िचत्त होता है। एक सदाचारी पुरुष के छब्बीस गुण होते हैं , और भगिद्गीता
में श्रीकृ ष्ण ने स्ियं िनम्निलिखत घोषणा की है-
ऄिपचेत् सुदरु ाचारो भजते माम् ऄनन्यभाक् ।
साधुरेि स मन्तव्यः सम्यग्व्यििसतो िह सः॥

15 ििषय-सूची
“यकद कोइ व्यिि जघन्य से जघन्य कमय करता है , ककन्तु यकद िह भिि में रत
रहता है , तो ईसे साधु ही समझना चािहए , क्योंकक िह ऄपने संकल्प में ऄिडग
रहता है।” (भ.गी. 9.30)
भौितक धरातल पर एक व्यिि के िलए जो नैितकता है , दूसरे के िलए िही
ऄनैितकता है और जो एक व्यिि के िलए ऄनैितकता है , िही दूस रे के के िलए
नैितकता है। िहन्दू ििचार -धारा के ऄनुसार मकदरा पान एक ऄनैितक कमय है ,
जबकक पाश्चातय जगत में यह एक सामान्य बात है और िहााँ ईसे ऄनैितक नहीं
माना जाता। ऄतः नैितकता समय, स्थान, पररिस्थित, सामािजक िस्थित, अकद पर
िनभयर है। ककन्तु प्रत्येक समाज में नैितकता और ऄनैितकता की कु छ न कु छ धारणा
ऄिश्य होती है। ईपयुयि श्लोक में श्रीकृ ष्ण कहते हैं कक चाहे कोइ व्यिि दुराचारी ही
क्यों न हो , ककन्तु यकद िह कृ ष्णभािना में िस्थत है , तो ईसे साधु ही मानना
चािहए। दूसरे र्ब्दों में , पूिय संस्कार के कारण यकद ककसी में कु छ ऄनैितक प्रिृित्तयााँ
हों भी, पर यकद िह पूणयतया कृ ष्णभािनामृत में िस्थत है , तो आन दुष्प्रिृित्तयों को
महत्ि नदीं कदया जाना चािहए। जो कु छ भी िस्थित हो , यकद कोइ
कृ ष्णभािनाभािित हो जाएाँ , तो िह धीरे -धीरे र्ुि जाएगा और „साधु‟ बन
जाएगा। ज्योंही कोइ व्यिि कृ ष्णभािनामृत की ओर ऄग्रसर होता है , ईसकी
दुष्प्रिृित्तयााँ कम होने लगती हैं और िह साधुता की पूणयता को प्राप्त हो जाता है।
आस के सम्बन्ध में एक चोर की कहानी अती है जो ककसी पिित्र तीथयस्थान की
यात्रा पर गया। मागय में िह ऄन्य तीथय याित्रयों के साथ राित्र ििश्राम के िलए एक
धमयर्ाला में ठहरा। चोरी करने का ऄभ्यस्त होने के कारण िह ऄन्य याित्रयों के
सामान की चोरी करने की योजना बनाने लगा। ककन्तु किर ईसने सोचा कक , “मैं
तीथय यात्रा के िलए जा रहा हॅूं , ऄतः यह ठीक नहीं होगा कक मैं याित्रयों का सामान
चुराउाँ। मैं ऐसा नहीं करूाँगा। ” आस पर भी ऄपनी सहज िृित्त के कारण िह ऄपने
हाथों को िर् में नहीं रख सका। ऄतः ईसने एक यात्री का सामान िलया और ईसे
दूसरे स्थान पर रख िलया ; आसी तरह दूसरे यात्री का सामान ईठाया और ईसे कहीं
और रख कदया। िह रात भर िििभन्न सामान को िििभन्न स्थानों पर रखता -ईठाता
16 ििषय-सूची
रहा, ककन्तु ऄन्तरात्मा द्वारा िधक्कारे जाने के कारण िह ईस सामान में से कु छ भी
नहीं ले सका। प्रातः काल जब ऄन्य यात्री जागे , तो ईन्होंने चारों ओर ऄपने -ऄपने
सामान को ढॅूंढ़ना र्ुरु ककया ककन्तु ईन्हें ऄपना सामान नहीं िमला। आसिलए िहााँ
बड़ा कोलाहल मच गया। और ऄन्त में एक -एक करके ईन्हें िििभन्न स्थानों से
ऄपना-ऄपना सामान िमलने लगा। जब सब को ऄपना -ऄपना सामान िमल गया ,
तो चोर न सही बात बताइ। “सज्जनों, मैं व्यिसाय में एक चोर हॅू।ं रात को चोरी
करने की मेरी अदत हो गइ है। अपके थैलों में से मैं कु छ चुराना चाहता था , ककन्तु
मैनें सोचा कक चूाँकक कक मैं एक पिित्र तीथय स्थान को जा रहा हाँ, ऄतः चोरी करना
ऄसम्भि है। आसिलए मैंने अप लोगों का सामान आधर से ईधर तो कर कदया है पर
चुराया कु छ नहीं है। कृ पया मुझे क्षमा करें । ” चोर की आस कहानी का ईद्देश्य
दुष्प्रिृित्त का स्िरूप कदखाना है। यद्यिप चोर ऄब चोरी नहीं करना चाहता , तथािप
पुरानी अदत के कारण कभी -कभी ऐसा कर बैठता है। आसिलए कृ ष्ण कहते हैं
िजसने ऄपनी दुष्प्रिृित्त से दूर रहकर कृ ष्णभािनामृत की ओर ऄग्रसर होने का
िनश्चय कर िलया है , ईसे साधु ही समझना चािहए , चाहे पुरानी अदत के कारण
या संयोगिर् िह कभी-कभी ऄपनी ऄसत् प्रिृित्तयों के सामने झुक जाता हो। ऄगले
श्लोक में श्रीकृ ष्ण कहते हैं :
िक्षप्र भिित धमायत्मा र्श्वच्छालन्त िनगच्छित।
कौन्तेय प्रितजानीिह न मे भिः प्रणश्यित॥
“िह र्ीघ्र ही धमायत्मा हो जाता है और स्थायी र्ािन्त प्राप्त करना है। हे
कु न्तीपुत्र! िनडर होकर घोषणा कर दो कक मेरा भि कभी नष्ट नहीं होता।” (भ. गी.
9.31)
क्योंकक ईस व्यिि ने ऄपने अपको कृ ष्णभािनामृत में समर्तपत ककया है ,
आसीिलए श्रीकृ ष्ण यहााँ घोषणा करते हैं कक िह र्ीघ्र ही सदाचारी हो जाएगा। जैसे
िबजली के पंखे का तार िनकाल देने पर भी पंखा कु छ देर तक चलता रहता है ,
ककन्तु यह िनिश्चत है कक पंखा थोड़ी देर में ऄिश्य रुक जाएगा। ज्योंही हम श्रीकृ ष्ण
के चरणकमलों की र्रण ले लेते हैं , त्योंही हम ऄपने सकाम कमों का बदन बंद कर
17 ििषय-सूची
देते हैं और यद्यिप िे कमय कु छ समय तक चलते रहते हैं तथािप यह िनिश्चत है कक िे
र्ीघ्र समाप्त हो जाएाँगे। यह िनतान्त सत्य है कक जो कोइ भी कृ ष्णभािनामृत का
अश्रय लेता है , ईसे सदाचारी बनने के िलए पृथक् रूप से कोइ पररश्रम नहीं करना
पड़ता। ईसमें समस्त सदगुण स्ितः अ जाएाँगे। श्रीमद्भागितम् में कहा गया है कक
जो व्यिि कृ ष्णभािनामृत को प्राप्त हो जाता है , िह साथ में सब सदगुण भी प्राप्त
कर लेता है। आसके ििपरीत ऄगर व्यिि इश्वर भािना से रिहत है , तो ईसमें चाहे
जो भी ईत्तम गुण हों, िे सब व्यथय हैं, क्योंकक ईसे ऄिांिछत कमों को करने से ककसी
प्रकार रोका नहीं जा सके गा। ऄगर कोइ व्यिि कृ ष्णभािनामृत से रिहत है , तो िह
आस भौितक जगत में दुष्कृ त्य ककए िबना नहीं रह सके गा, यह िनिश्चत है।
जन्म कमय च मे कदव्यम् एिं यो िेित्त तत्त्ितः।
त्यक्त्िा देहं पुनजयन्म नैित मामेित सोऽजुयन॥
“हे ऄजुयन ! जो व्यिि मेरे जन्म और कमों के कदव्य भाि को िस्तुतः जान लेता
है, िह देह -त्याग करने के ईपरान्त किर आस भौितक जगत में जन्म नहीं लेता ,
ऄिपतु मेरे सनातन धाम को प्राप्त करता है।” (भ. गी. 4.9)
श्रीकृ ष्ण का ऄितार िजस ईद्देश्य से होता है , िह यहााँ और भी स्पष्ट ककया
गया है। जब श्रीकृ ष्ण ककसी ििर्ेष ईद्देश्य की पूर्तत के िलए अते हैं , तो िे कु छ
ििर्ेष कमय भी करते हैं। िनस्सन्देह , कितपय दार्यिनक यह नहीं मानते कक भगिान्
स्ियं ऄितार के रूप में अते हैं। िे कहते हैं, “आस िनकृ ष्ट संसार में भगिान् क्यों अने
लगे?” ककन्तु भगिद्गीता से हमें कु छ और ही पता चलता है। हमें यह सदा स्मरण
रखना चािहए कक हम भगिद्गीता से हमें कु छ और ही पता चलता है। हमें यह सदा
स्मरण रखना चािहए कक हम भगिद्गीता को एक र्ास्त्र के रूप में पढ़ते हैं , ऄतः
गीता में जो कु छ भी कहा गया है , ईसे मानना ही चािहए। ऄन्यथा गीता पढ़ने का
कोइ ऄथय नहीं है। गीता में कृ ष्ण कहते हैं कक िे संसार में एक ििर्ेष ईद्देश्य से
ऄितररत होते हैं और ईसकी पूर्तत के िलए िे कु छ ििर्ेष कायय भी करते हैं।
ईदाहरणाथय, हम देखते हैं कक कृ ष्ण ऄजुयन के सारथी बनते हैं और कु रुक्षेत्र की
युिभूिम पर ऄनेक कायों में संलग्न होते हैं। जैसे जब युि िछड़ता है , तो कोइ व्यिि
18 ििषय-सूची
या राष्ट्र ककसी दूसरे व्यिि या राष्ट्र के पक्ष का समथयन करता है और पक्षपात ककसी
दूसरे व्यिि या राष्ट्र के पक्ष का समथयन करता है और पक्षपात कदखाता है , ईसी
प्रकार यहााँ कृ ष्ण भी युिभूिम में ऄजुयन के पक्ष का समथयन करते हैं। िास्ति में
श्रीकृ ष्ण ककसी का पक्षपात नहीं करते ककन्तु बाहर से ऐसा लगता है कक िे पक्षपात
करते हैं। हमें आस पक्षपात को साधारण दृिष्ट से नहीं देखना चािहए।
आस श्लोक में श्रीकृ ष्ण यह भी स्पष्ट करते हैं कक आस भौितक संसार में ईनका
ऄितरण कदव्य हैं। कदव्यम् र्ब्द का ऄथय है , ऄलौककक। ईनके कमय ककसी भी प्रकार
से साधारण नहीं हैं। अज भी समस्त भारतिासी , सम्प्रदाय के ककसी भेदभाि के
िबना, भािपद मास के कृ ष्ण पक्ष की ऄष्टमी को िैसे ही श्रीकृ ष्ण का जन्म -कदिस
मनाते हैं , जैसे पाश्चात्य जगत में किसमस के कदन इसा मसी ह का जन्म कदिस
मनाया जाता है। श्रीकृ ष्ण का जन्म -कदिस „जन्माष्टमी‟ कहलाता है , और आस श्लोक
में श्रीकृ ष्ण „ऄपने जन्म‟ के ििषय „जन्म‟ र्ब्द का प्रयोग करते हैं। जब „जन्म‟ होता
है, तो ईसके साथ कु छ कमय भी होते हैं। कृ ष्ण के जन्म और कमय „कदव्य‟ हैं, िजसका
ऄथय है कक िे साधारण मनुष्यों के जन्म और कमों के समान नहीं हैं। यहााँ कोइ यह
प्रश्न कर सकता है कक श्रीकृ ष्ण के कमय कदव्य क्यों हैं ? िे भी जन्म लेते हैं , युि में
ऄजुयन का पक्ष ले रहे हैं। ईनके „िसुदि
े ‟ नामक िपता और „देिकी‟ नामक माता ि
एक पररिार है। आसमें कदव्यता क्या है ? ककन्तु श्रीकृ ष्ण कहते हैं , एिं यो िेित्त
तत्त्ितः-कृ ष्ण के जन्म और कमय को तत्त्ि से जानना अिश्यक है। जब व्यिि
श्रीकृ ष्ण के जन्म और कमय को तत्त्ि से जानना अिश्यक है। जब व्यिि श्रीकृ ष्ण के
जन्म ि कमय को सही ढ़ंग से जान लेता है। तो पररणाम यह होता है -त्यक्त्िा देहं
पुनजयन्म नैित मामेित सोऽजुयन -ऄथायत „हे ऄजुयन ! िह व्यिि देह -त्याग करने के
ईपरान्त किर आस भौितक जगत में जन्म ग्रहण नहीं करता िरन् सीधे मुझे ही प्राप्त
करता है। आसका ऄथय यह हुअ कक िह एक मुिात्मा हो जाता है और र्ाश्वत
अध्याित्मक जगत में प्रििष्ट होकर ऄपने मूल सिच्चदानन्द स्िरूप को प्राप्त कर लेता
है। ऐसा के िल तभी हो सकता है , जब हम श्रीकृ ष्ण के जन्म तथा कमय की कदव्य
प्रकृ ित को तत्त्ि से समझ लें।
19 ििषय-सूची
साधारणतया जब कोइ व्यिि ऄपना देहत्याग कर देता है , तो ईसे दूसरी देह
धारण करनी पड़ती है। देहधारी जीि ऄपने कमों के ऄनुसार िनरन्तर जन्म -मृत्यु के
द्वारा एक देह का त्याग करके और दूसरी देह धारण करके -अत्मा का देहान्तरण -
ऄपना िेष पररितयन करते रहते हैं। आस समय हम सोच सकते हैं कक यह ितयमान
भौितक देह हमारा िास्तििक र्रीर है , ककन्तु यह तो एक पोर्ाक के समान है।
िास्ति में हमारा िास्तििक र्रीर भी होता है , और िह है हमारा अध्याित्मक
र्रीर। जीि का यह स्थूल भौितक र्रीर ईस ऄसली सूक्ष्म अध्याित्मक र्रीर के
सामने के िल उपरी कदखािा है। जब यह भौितक र्रीर िृि और जीणय -र्ीणय हो
जाता है या ककसी दुघयटना के कारण ऄर्ि हो जाता है , तो हम ईस र्रीर को एक
मैले या िटे पुराने िस्त्र की भााँित एक ओर छोड़कर दूसरे भौितक र्रीर को ग्रहण
कर लेते हैं-
िासांिस जीणायिन यथा ििहाय
निािन गृह्िाित नरोऽपरािण।
तथा र्रीरािण ििहाय जीणायन्य-
न्यािन संयाित निािन देही॥
“जैसे कोइ पुराने िस्त्रों का त्याग करके नए िस्त्र धारण करता है , ईसी प्रकार
यह अत्मा भी पुराने र्रीरों को त्याग कर नए भौितक र्रीरों में चली जाती हैं। ”
(भ.गी. 2.22)
प्रारम्भ में जीि का र्रीर एक मटर के दाने िजतना होता है। किर िह िमर्ः
िर्र्ु, बालक, ककर्ोर, तरुण, प्रौढ़ और िृि होता हुअ ऄन्त में ऄर्ि और व्यथय
होकर दूसरा र्रीर बदल लेता है। ऄतः र्रीर िनरन्तर पररिर्ततत होता रहता है
और मृत्यु तो हमारे ितयमान र्रीर का ऄंितम पररितयन मात्र ही है।
देिहनोऽिस्मन्यथा देहे कौमारं यौिनं जरा ।
तथा देहान्तरप्रािप्तधीरस्तत्र न मुह्यित ॥
“िजस प्रकार र्रीरधारी अत्मा आस (ितयमान) र्रीर में बाल्यािस्था से
तरुणािस्था में और किर िृिािस्था में िनरन्तर ऄग्रसर होता रहता है , ईसी प्रकार
20 ििषय-सूची
मृत्यु होने पर अत्मा दूसरे र्रीर में चला जाता है । धीर व्यिि ऐसे पररितयन से
मोह को प्राप्त नहीं होता ।”
र्रीर के बदल जाने पर भी र्रीर में रहने िाला जीि िही रहता है। यद्यिप
बालक युिक हो जाता है तथािप ईसके र्रीर में रहने िाला जीिात्मा नहीं
बदलता। ऐसा नहीं है कक िह जी िात्मा जो ईस र्रीर में बालक के रूप में था , िह
कहीं चला गया है। अधुिनक िचककत्सा -ििज्ञान भी स्िीकार करता है कक यह
भौितक र्रीर िनरन्तर बदलता रहता है। जैसे मनुष्य आस पररितयन से िचिन्तत नहीं
होते, िैसे ही ज्ञानी पुरुष आस र्रीर के ऄंितम पररितयन ऄथायत् मृत्यु के समय भी
ईिद्वग्न नहीं होते। परन्तु जो मनुष्य िस्तुिस्थित को यथाथय रूप में नहीं समझता ,
िह र्ोकाकु ल होता है। भौितक दर्ा में हम सदा देहान्तरण करते रहते हैं , यही
हमारी व्यािध हैं ऐसा नहीं है कक हम सदा मनुष्य र्रीर ही प्राप्त करते हैं। ऄपने
कमायनुसार कभी हम पर्ु -र्रीर या देि -र्रीर भी पा सकते हैं। पद्म पुरा ण के
मतानुसार जीिों की 84,00,000 योिनयााँ हैं। मृत्यु के ईपरान्त हमें आनमें से कोइ
भी योिन प्राप्त हो सकती है। ककन्तु श्रीकृ ष्ण अश्वासन देते हैं कक जो व्यिि ईनके
जन्म और कमय के रहस्य को तत्त्ितः जानता है , िह जन्म-मृत्यु के आस चि से छू ट
जाता है।
श्रीकृ ष्ण के जन्म और कमय को कोइ व्यिि तत्त्ि से ककस प्रकार समझ सकता
है? आसका ईपाय भगिद्गीता के 18 िे ऄध्याय में बताया गया हैः
भक्त्या माम् ऄिभजानाित यािान् यः च ऄिस्म तत्त्ितः।
ततो मां तत्त्ितो ज्ञात्िा ििर्ते तदनन्तरम्॥
“के िल भिि से मुझ भगिान् को यथारूप में जाना जा सकता है। जब मनुष्य
ऐसी भिि से मेरे पूणय भािनामृत में होता है , तो िह िैकुण्ठ जगत् में प्रिेर् कर
सकता है।” (भ.गी. 18.55)
यहााँ किर “तत्त्ित” र्ब्द प्रयुि हुअ है। श्रीकृ ष्ण के ििज्ञान को मनुष्य के िल
भि बन कर समझ सकता है। जो भि नहीं है , जो कृ ष्णभािनामृत प्राप्त करने के

21 ििषय-सूची
िलए प्रयत्नर्ील नहीं है , िह भगित् -रहस्य नहीं समझ सकता। गीता के चौथे
ऄध्याय (4.3) के अरम्भ में भी श्रीकृ ष्ण ऄजुयन से कहते है कक िे योग के प्राचीन
ििज्ञान को ईसे समझा रहे हैं , क्योंकक िह ईनका भि और िमत्र है। जो व्यिि
भगिद्गीता का ऄध्ययन के िल ििद्वत्ता के िलए करता है , ईसके िलए कृ ष्ण-तत्ि एक
रहस्य ही बना रहता है। भगिद्गीता कोइ ऐसी पुस्तक नहीं है , िजसे कोइ भंडार से
मोल लेकर के िल ऄपनी ििद्वत्ता द्वारा ही समझ सके । ऄजुयन न तो कोइ ईच्च ििद्वान
था, न िेदान्ती, न दार्यिनक, न ब्राह्मण, न त्यागी, बिल्क िह एक गृहस्थ और योिा
सैिनक था। किर भी कृ ष्ण ने ईसे गीता का ज्ञान देने के िलए चुना और ऄपनी
िर्ष्य-परम्परा में प्रथम स्थान कदया। ऐसा क्यों ? “क्योंकक तुम मेरे भि हो। ”
भगिद्गीता और श्रीकृ ष्ण को यथारूप समझने के िलए बस यही ऄिनिायय योग्यता
या पात्रता है कक मनुष्य कृ ष्णभािनाभािित बन जाएाँ।
यह कृ ष्णभािनाभािित क्या है ? यह मन के दपयण से दुष्प्रिृित्तयों की धूल को
महामंत्र के जप द्वारा साि करने की प्रकिया हैः
हरे कृ ष्ण, हरे कृ ष्ण, कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे ।
हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे ॥
आस मन्त्र के कीतयन और भगिद्गीता के श्रिण से हम धीरे -धीरे
कृ ष्णभािनाभािित हो सकते हैं। इश्वरः सियभूतानां -श्रीकृ ष्ण सदा हमारे हृदय में
ििराजमान है। आस र्रीर-िृक्ष पर व्यििगत जीिात्मा और परमात्मा रूपी दो पक्षी
बैठे हैं। जीिात्मा रूप पक्षी आस िृक्ष के िलों को खा रहा है , और परमात्मा रूपी
पक्षी के िल साक्षी के रूप में िस्थत है। जैसे ही व्यििगत जीिात्मा भििमय सेिा
र्ुरू करता है , और धीरे -धीरे कृ ष्णभािनामृत को ििकिसत करने लगता है िैसे ही
ऄन्तःकरण में िस्थत परमात्मा मन के दपयण पर पड़ी सभी प्रकार की धूल को साि
करने में ईसकी सहायता करता है। श्री कृ ष्ण साधु िृित्त िाले सभी व्यिियों के िमत्र
हैं, और कृ ष्णभािनामृत को जाग्रत करने का प्रयास साधु -िृित्त है। श्रिणम् कीतयनम्-
श्रिण और कीतयन से मनुष्य श्रीकृ ष्ण के ििज्ञान को समझने के स्तर पर अता है और
आस तरह कृ ष्ण के ििज्ञान को समझने के स्तर पर अता है और आस तरह कृ ष्ण को
22 ििषय-सूची
समझ सकता है। कृ ष्ण को समझ लेने पर मनुष्य मृत्यु के समय तुरन्त श्रीकृ ष्ण के
िैकुण्ठ धाम को जा सकता है। आस िैकुण्ठ जगत का िणयन भगिद्गीता में आस प्रकार
ककया गया हैः
न तत् भासयते सूययः न र्र्ाङ्कः न पािकः।
यत् गत्िा न िनितयन्ते तत् धाम परमम् मम॥
“िह मेरा परम धाम न तो सूयय या चन्ि के द्वारा प्रकािर्त होता है और न
ऄिग्न या िबजली से। जो लोग िहााँ पहुाँच जाते हैं , िे आस भौितक जगत् में किर से
लौट कर नहीं अते।” (भ.गी. 15.6)
यह भौितक जगत सदा ऄन्धकारमय है , आसिलए हमें यहााँ सूयय चन्िमा और
ििद्युत की अिश्यकता पड़ती है। िेद हमें आस ऄन्धकारमय जगत में न रहकर
ज्योितमयय अध्याित्मक जगत में चले जाने का अदेर् देते हैं। ऄंधकार र्ब्द के दो
ऄथय है-प्रकार्रिहत और ऄज्ञान।
परमेश्वर में ऄनेक र्िियााँ है। यह बात नहीं है कक िे आस भौितक जगत में
के िल कमय करने के िलए अते हैं। िेदों में कहा गया है कक इश्वर को कोइ कमय नहीं
करना पड़ता है। भगिद्गीता में श्री कृ ष्ण कहते हैं
न मे पाथायिस्त कतयव्यं ित्रषु लोके षु ककिन।
नानिाप्तमिाप्तव्यं ितय एि च कमयिण॥
“हे पृथापुत्र ! तीनों लोकों में मेरे िलए कोइ भी कमय िनयत नहीं हैं , न मुझे
ककसी िस्तु का ऄभाि है और न अिश्यकता हैं। तो भी मैं िनयतकमय करने में तत्पर
रहता हॅू।ं ” (भ.गी. 3.22)
आसिलए हमें ऐसा नहीं सोचना चािहए कक श्रीकृ ष्ण आस भौितक जगत में
ऄितार लेने और ऄनेक कमय करने के िलए बाध्य हैं। कोइ भी व्यिि श्रीकृ ष्ण से बड़ा
या ईनके समान नहीं हैं। श्रीकृ ष्ण में स्िाभाििक रूप से ही समस्त ज्ञान ििद्यमान
है। यह भी नहीं है कक ज्ञान प्राप्त करने के िलए ईन्हें तपस्या करनी पड़ती हो , या
ककसी समय ककसी से ज्ञान प्राप्त करना पड़ता हो। सभी देर् -काल में िे ज्ञान से पूणय
हैं। ईन्होंने ऄजुयन को गीता का ईपदेर् कदया , पर ईन्हें कभी गीता नहीं िसखाइ गइ।
23 ििषय-सूची
जो पुरुष श्रीकृ ष्ण के आस स्िरूप को समझ लेता है , ईसे आस भौितक जगत के जन्म
मरण के चि में िापस नहीं अना पड़ता। माया के प्रभाि के कारण हम लोग आस
भौितक-जगत के िातािरण में आस मानि -जीिन का यह ईद्देश्य नहीं है। आस मानि
जीिन का ईद्देश्य कृ ष्ण के तत्त्ि-ििज्ञान को समझना हैं।
हमारी भौितक अिश्यकताएाँ हैं -अहार, िनिा, मैथुन, अत्मरक्षा और आिन्ियों
द्वारा ििषय भोग में तृिप्त। ये अिश्यकताएाँ मनुष्यों और पर्ुओं के समान हैं। पर्ु -
जगत आन समस्याओं का समाधान करने के प्रयास में व्यस्त रहता है और यकद हम
भी के िल आन समस्याओं के समाधान करने में ही लगे रहें , तो पर्ु हम से ककस तरह
िभन्न होंगे ? परन्तु मनुष्य में एक ििर्ेष योग्यता भी है , िजस से िह कदव्य
कृ ष्णभािनामृत ििकिसत कर सकता है , परन्तु यकद िह ऐसा नहीं करता तो िह
पर्ु श्रेणी में ही रहता है। अधुिनक सभ्यता का यह एक महान दोष है कक ईसमें बल
कदया जाता है। अध्याित्मक जीि होने के कारण हमारा यह ऄिनिायय कतयव्य है कक
हम ऄपने अप को जन्म -मरण के बंधन से बाहर िनकालें। ऄतः हमें सािधान रहना
चािहए कक मनुष्य जीिन का जो ििर्ेष ऄिसर हमें िमला है , िह कहीं चूक न
जाएाँ। श्रीकृ ष्ण स्ियं गीता का ईपदेर् देने के िलए और कृ ष्णभािनाभािित बनने में
हमारी सहायता करने के िलए अते हैं। िास्ति में , यह नार्िान् भौितक सृिष्ट हमें
आसी भगिद् भािना को जगाने के िलए दी गइ है। यकद आस ऄिसर तथा दुलयभ
मनुष्य र्रीर को हम कृ ष्णभािनामृत को प्राप्त करने में नहीं लगाते , तो हम आस
दुलयभ ऄिसर को खो देंगे। आसके ऄनुर्ीलन की प्रकिया बड़ी सरल है -श्रिणं
कीतयनम्-भगिन्नाम का श्रिण और कीतयन। हमें सुनने के ऄितररि और कु छ नहीं
करना है। ध्यान से सुनने पर अत्म -ज्ञान की प्रािप्त िनिश्चत है। श्रीकृ ष्ण ऄिश्य ही
हमारी सहायता करें ग,े क्योंकक िे हमारे हृदय में ििराजमान हैं। हमें तो के िल थोड़ा
समय िनकाल कर प्रयत्न करना है। हमें ककसी के द्वारा यह पूछे जाने की अिश्यकता
नहीं पड़ेगी कक हम प्रगित कर रहे हैं या नहीं। हमें आसका पता ऄपने अप ही लग
जाएगा, जैसे एक भूखे व्यिि को पेट भर भोजन करने पर तृिप्त ऄनुभि हो जाती
है।
24 ििषय-सूची
कृ ष्णभािनामृत ऄथिा अत्म -साक्षात्कार की यह प्रकिया िस्तुतः करठन नहीं
है। श्रीकृ ष्ण ने गीता में आसे ऄजुयन को िसखाया था , और यकद हम गीता को िैसे ही
समझ लें जैसे ऄजुयन ने ईसे समझा था , तो हमें जीिन के लक्ष्य तक पहुाँचने में कोइ
करठनाइ नहीं होगी। परन्तु यकद हम भगिद्गीता की व्याख्या ऄपनी सांसाररक ,
र्ैक्षिणक ििद्वत्ता के ऄनुसार करने लगें, तो सब कु छ िबगड़ जाएगा।
जैसा पूिय में कहा जा चुका है , हरे कृ ष्ण महामंत्र का यह कीतयन ही िह ईपाय
है िजससे भौितक संसगों के कारण िचत्त के दपयण पर जमी दुष्प्रिृित्तयों की सारी
धूल दूर हो जाती है। हमें कृ ष्णभािनामृत जाग्रत करने के िलए बाह्य सहायता की
अिश्यकता नहीं है , क्योंकक कृ ष्णभािना हमारे हृदय में सुप्तािस्था में पहले से ही
ििद्यमान है। िास्तििकता तो यह है कक कृ ष्णभािना ही हमारा यथाथय गुण हैं हमें
के िल आस प्रकिया से ईसे ईद्भािित करना है। कृ ष्णभािना एक र्ाश्वत सत्य है। यह
कोइ मतिाद या ककसी संस्था द्वारा थोपे हुए ििश्वासों का संकलन नहीं है। यह
प्रत्येक प्राणी में ििद्यमान है , चाहे िह मनुष्य हो या पर्ु। लगभग 500िषय पूिय जब
श्री चैतन्य महा प्रभु दिक्षण भारत की यात्रा करते समय एक गहन िन में से होकर
िनकलते हुए हरे कृ ष्ण महामंत्र का कीतयन कर रहे थे , तो बाघ , हाथी, मृग अकद
सभी िन्य-पर्ु कृ ष्ण के पिित्र नामों की धुन पर ईनके संकीतयन नृत्य में सिम्मिलत
हो गए थे। िनस्सन्देह , यह संकीतयन की र्ुिता पर िनभयर है। जैसे -जैसे हम जप में
प्रगित करते हैं, िैसे-िैसे र्ुििकरणजरूर होगा।

25 ििषय-सूची
ऄध्याय तीन

सियत्र और सदा कृ ष्ण-दर्यन


हमारे व्यािहाररक जीिन में कृ ष्णभािनामृत कै से जाग्रत हो , आसकी िर्क्षा
श्रीकृ ष्ण ने हमें दी है। ऐसा नहीं कक हमें ऄपना कतयव्य करना छोड़ देना चािहए या
कोइ भी कमय करना बन्द कर देना चािहए। बिल्क , कमय कृ ष्णभािनामृत में रहते
हुए करते रहना चािहए। प्रत्येक व्यिि जीिन में कोइ न कोइ व्यिसाय करता है ,
ककन्तु प्रश्न यह है कक िह आसे ककसी भािना से करता है ? हर मनुष्य सोचता है ,
“ऄपने पररिार का पोषण करने के िलए मुझे कोइ न कोइ व्यिसाय चािहए। ” हमें
समाज, प्रर्ासन ऄथिा पररिार को संतुष्ट करना होता है और आस भािना से कोइ
भी व्यिि मुि नहीं है। ककसी भी कायय को भली भााँित करने के िलए मनुष्य में सही
भािना का होना ऄिनिायय है। िह व्यिि िजसकी भािना ऄर्ान्त है और जो पागल
जैसा है, िह कोइ कतयव्य पालन नही कर सकता। हमें ऄपना कतयव्य पालन समुिचत
रूप से करना चािहए, परन्तु आस ििचार के साथ कक यह श्रीकृ ष्ण की संतुिष्ट के िलए
है। ऐसा नहीं कक हमें ऄपना कायय -पिित बदलनी पड़े , परन्तु हमें यह समझना
अिश्यक है कक हम ककस के िलए कायय कर रहे हैं। हमें जो भी कायय करना है , िह
ऄिश्य करें पर काम भाि के िर्ीभूत होकर न करें । संस्कृ त का यह काम र्ब्द
लोलुपता, आच्छा, अकांक्षा और आिन्िय तुिष्ट का बोध कराता है। श्रीकृ ष्ण हमें िनदेर्
देते हैं कक हमें कोइ कायय ऄपने काम की तुिष्ट के िलए नहीं करना चािहए।
भगिद्गीता की सम्पूणय िर्क्षा आसी िसिान्त पर अधाररत हैं।

26 ििषय-सूची
ऄजुयन ऄपनी आिन्ियों की सन्तुिष्ट के िलए ऄपने बन्धुबांधिों से युि नहीं
करना चाहता था , ककन्तु श्रीकृ ष्ण ने समझाया कक ईसे परमेश्वर की तुिष्ट के िलए
ऄपना कतयव्य पालन करना चािहए। भौितक दृिष्ट से यह ििचार बड़ा पिित्र लग
सकता है कक ऄजुयन ऄपने राज्यािधकार को छोड़ रहा है और ऄपने सम्बिन्धयों को
मारने से आनकार कर रहा है। ककन्तु श्रीकृ ष्ण ने आस िसिान्त का ऄनुमोदन नहीं
ककया, क्योंकक ऄजुयन का िनणयय ऄपनी आिन्ियों को तुष्ट करना था। मनुष्य को ऄपने
कायय या व्यिसाय को बदलने की अिश्यकता नहीं है , जैसे ऄजुयन का कायय नहीं
बदला, पर ईसे ऄपनी भािना ऄिश्य ही बदलनी होगी ककन्तु आस भािना को
बदलने के िलए ज्ञान की अिश्यकता है। िह ज्ञान है यह जानना कक , “मैं कृ ष्ण का
ऄंर् हॅूं ; ईनकी परा र्िि हॅू।ं ” यही िास्तििक ज्ञान है। सापेक्ष्य ज्ञान एक यंत्र की
मरम्मत करना तो िसखा सकता है , ककन्तु िास्तििक ज्ञान श्रीकृ ष्ण के ऄंर्भूत होने
की िस्थित को जानना है। हम श्रीकृ ष्ण के ऄंर् हैं , आसीिलए हमारा सुख जो भी
अंिर्क है , िह परम पूणय पर ऄिलिम्बत है। ईदाहरण के िलए , मेरे हाथ को तब
तक सुख िमल सकता है। ईसे दूसरे के र्रीर की सेिा करने से सुख नहीं िमलता है।
चॅूंकक हम कृ ष्ण के ऄंर् है , ऄतः कृ ष्ण की सेिा करने से ही हमें सुख िमल सकता है।
प्रत्येक व्यिि सोचता है , “तुम्हारी सेिा करके मैं सुखी नहीं हो सकता। मैं तो के िल
ऄपनी सेिा करके सुखी हो सकता हॅू।ाँ ” परन्तु कोइ भी व्यिि नहीं जानता कक यह
„मैं‟ कौन हैं? िह „मैं‟ कृ ष्ण ही हैं।
ममैिांर्ो जीिलोके जीिभूतः सनातनः।
मनः-षष्ठानीिन्ियािण प्रकृ ित स्थािन कषयित॥
“आस बि जगत् में सारे जीि मेरे र्ाश्वत ऄंर् है। बि जीिन के कारण िे छहों
आिन्ियों से घोर संघषय कर रहे हैं, िजनमें मन भी सिम्मिलत है।” (भ.गी. 15.7)
जीिात्मा भौितक सम्पकय के कारण ऄब पूणय से पृथक् हो गया है। ऄतः हमारे
िलए यह अिश्यक है कक हम ऄपने अपको कृ ष्णभािनामृत के द्वारा जो हम में
पहले से ही सुप्तािस्था में ििद्यमान है , हम ऄपने अपको पुनः कृ ष्ण से जोड़ने का
प्रयत्न करें । हम कृ ित्रम रूप से श्रीकृ ष्ण को भूलने का और स्ितंत्र जीिन व्यतीत
27 ििषय-सूची
करने का प्रयास कर रहे हैं , पर यह सम्भि नहीं है। जब हम श्रीकृ ष्ण से स्ितंत्र रहने
का प्रयत्न करते हैं , तो तुरन्त हम भौितक प्रकृ ित के िनयमों के प्रभाि में अ जाते हैं।
यकद कोइ मनुष्य यह सोचता है कक िह श्रीकृ ष्ण से स्ितंत्र है तो िह कृ ष्ण ही माया-
र्िि के प्रभाि में अ जाता है , ठीक ईसी प्रकार जैसे यकद कोइ समझे कक िह
सरकार या प्रर्ासन और ईसके िििध -िनषेधों से मुि है , तो िह पुिलस िनयंत्रण में
अ जाता है। प्रत्येक व्यिि स्ितंत्र होने का प्रयत्न कर रहा है। और आसे माया कहते
हैं। व्यििगत रूप से , साम्प्रदाियक रूप में , सामािजक रूप से , राष्ट्रीय रूप से ऄथिा
साियजिनक रूप से , स्ितंत्र होना संभि नहीं है। जब हम यह समझने लगेंगे कक हम
अिश्रत हैं , तब हमें यथाथय ज्ञान हो जाएगा। अज ऄनेक लोग संसार में र्ांित के
िलए प्रयत्नर्ील हैं , ककन्तु ईन्हें र्ािन्त के िसिान्त का प्रयोग करना नहीं अता ।
संयुि राष्ट्र संघ ऄनेक िषों से र्ािन्त के िलए यत्न कर रहा है , ककन्तु युि ऄब भी
हो रहे हैंःः
यच्चािप सियभूतानां बीजं तदहमजुयन।
न तदिस्त ििना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥
“हे ऄजुयन ! समस्त प्रािणयों का मूल बीज में ही हाँ जगत में चर ऄथिा ऄचर
ऐसा कु छ भी नहीं है िजसका ऄिस्तत्ि मेरे िबना सम्भि हो सके ।” (भ.गी. 10.39)
आस प्रकार श्रीकृ ष्ण चराचर सम्पूणय जगत के स्िामी हैं प्रत्येक िल के ऄिन्तम
भोिा और लाभ पाने िाले हैं। हम ऄपने को ऄपने पररश्रम के िल का स्िामी मान
तो सकते हैं , ककन्तु यह एक भ्रम मात्र है। हमें यह समझ लेना चािहए कक श्रीकृ ष्ण
ही हमारे सारे कमों के िलों के ऄिन्तम स्िामी हैं। ककसी कायायलय में चाहे सैकड़ों
अदमी काम कर रहे हों , पर िे जानते हैं कक व्यापार में जो कु छ लाभ होता है , िह
सब ईसके मािलक का है। जैसे बैंक का खजांची यकद िह सोचने लगे , “ओह, मेरे
पास तो बहुत सा धन है , मैं आनका स्िामी हॅूं , आसे मैं घर ले जाउाँ। ” बस, तुरन्त ही
ईसके िलए ििपित्त की र्ुरूअत ही जाती है। यकद हम सोचते हैं कक जो धन हमने
एकत्र ककया है , िह हम ऄपनी आिन्ियों की तुिष्ट के िलए ईपयोग कर सकते हैं , तो
समझना चािहए हम काम भाि से कमय कर रहे हैं। ककन्तु यकद हम यह समझ लें कक
28 ििषय-सूची
हमारे पास जो कु छ है, िह सब श्रीकृ ष्ण का है, तो हम मुि हैं। िही धन हमारे हाथ
में हो सकता है , पर ऄपने को ईसका स्िामी समझते ही हम माया के िर् में चले
जाते हैं। जो मनुष्य आस भाि में िस्थत है कक सब पदाथय श्रीकृ ष्ण के हैं , िही यथाथय
पंिडत है।
इर्ािास्यिमदं सिं यित्कि जगत्यां जगत्।
तेन त्यिे न भुञ्जीथा मा गृधः कस्यिस्ििनम्॥
“आस ब्रह्माण्ड में जड़-चेतना जो कु छ है ईस सब पर परमेश्वर का िनयंत्रण और
अिधपत्य है। मनुष्य को िही िस्तु ग्रहण करनी चािहए जो इश्वर ने ईसकी
अिश्यकता के ऄनुसार ईसे दी है। दूसरी िस्तुओं को , यह भली-भााँित जानते हुए
कक िे ककस की हैं, स्िीकार नहीं करना चािहए।” (श्रीइर्ोपिनषद् मंत्र 1)
इर्ािास्य ऄथायत् „प्रत्येक िस्तु कृ ष्ण की है ‟-यह भािना किर से जागृत करनी
चािहए; के िल व्यििगत स्तर पर ही नहीं , ऄिपतु राष्ट्रीय और ऄिखल ब्रह्माण्ड के
स्तर पर भी तभी र्ािन्त स्थािपत होगी। हम प्रायः मानितािादी एिं परोपकारी
कायय करने की मनोिृित्त दर्ायते हैं , ऄपने पररिार, ऄपने देर्िािसयों और संसार के
सभी देर्िािसयों के साथ मैत्री भाि रखने का प्रयत्न करते हैं , ककन्तु यह म नोिृित्त
गलत सोच पर अधाररत है। हमारे िास्तििक िमत्र के िल श्रीकृ ष्ण ही हैं और यकद
हम ऄपने पररिार, राष्ट्र या समस्त ििश्व को लाभ पहुाँचाना चाहते हैं , तो हमें ईन्हीं
के िलए कायय करना होगा। यकद हम ऄपने पररिार की कु र्लता चाहते हैं तो हमें
ईसके प्रत्येक सदस्य को कृ ष्णभािनाभािित बनाने का प्रयत्न करना चािहए। संसार
में ऄनेक मनुष्य ऄपने पररिार को लाभ पहुाँचाने का प्रयत्न कर रहे हैं , ककन्तु दुभायग्य
से िे सिल नहीं हो पाते । िे नहीं जानते कक िास्तििक समस्या क्या हैं ? जैसाकक
श्रीमद्भागितम् कहता है मनुष्य को तब तक माता , िपता या गुरु बनने का प्रयत्न
नहीं करना चािहए , जब तक कक िह ऄपने अिश्रत को मृत्यु रूपी भौितक प्रकृ ित
बन्धन से छु ड़ाने की क्षमता न रखता हो। िपता को कृ ष्ण -तत्त्ि का ज्ञान होना
चािहए और ईसे दृढ़ता से संकल्प करना चािहए कक ईन्हें जन्म -मृत्यु के दुखदायक
चि में ऄब और नहीं िाँ सना होगा। ककन्तु ऐसा करने के पहले ईसे स्ियं दक्षता प्राप्त
29 ििषय-सूची
करनी होगी। यकद िह कृ ष्णभािनामृत में ऐसी दक्षता प्राप्त कर लेता हैं , तो िह न
के िल ऄपने बच्चों की ही सहायता करता है। , ऄिपतु ऄपने समाज और राष्ट्र की भी
सहायता कर सकता हैं। ककन्तु यकद िह स्ियं ऄज्ञान से बाँधा हुअ है , तो िह दूसरे
को कै से मुि करा सकता है, जो आसी तरह से बाँधे हुए हैं? मनुष्य दूसरे को मुि करा
सके , ईसके पूिय यह अिश्यक है कक यह स्ियं मुि हो। िास्ति में कोइ भी व्यिि
मुि नहीं है; प्रत्येक व्यिि भौितक प्रकृ ित के ऄधीन है। परन्तु जो श्रीकृ ष्ण की र्रण
में अ गया है, ईसे माया छू नहीं सकती। समस्त मनुष्यों में िही मुि मनुष्य है। यकद
कोइ व्यिि सूयय के प्रकार् में खड़ा है , तो ईसके ऄन्धकार में होने का प्रश्न ही नहीं
ईठता। ककन्तु यकद कोइ व्यिि कृ िम प्रकार् में है , तो िह प्रकार् रटमरटमा कर बुझ
भी सकता है। श्रीकृ ष्ण सूयय के समान हैं। िे जहााँ भी ििद्यमान रहते हैं , िहााँ
ऄन्धकार और ऄज्ञान के होने का प्रश्न ही नहीं ईठता। बुििमान महात्मा लोग आस
बात को समझते हैं।
ऄहं सियस्य प्रभिो मत्तः सिं प्रितयते।
आित मत्िा भजन्ते मां बुधा भािसमिन्िताः॥
“मैं समस्त अध्याित्मक तथा भौितक जगतों का कारण हाँ , प्रत्येक िस्तु मुझ से
ही ईदभूत है। जो बुििमान यह भलीभााँित जानते हैं , िे मेरी प्रेमाभिि में लगते हैं
तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते है।” (भ.गी. 10.8)
आस श्लोक में „बुध‟ र्ब्द प्रयुि हुअ है , जो बुििमान या ििद्वान मनुष्य का
िनदेर् करता है। ईसका लक्षण क्या है ? िह जानता है कक श्रीकृ ष्ण आस सम्पूणय सृिष्ट
के ईद्गम हैं। िह समझता है ? कक िह जो कु छ भी देखता है िह श्रीकृ ष्ण से ईत्पन्न
हुअ है। आस भौितक जगत में यौन जीिन सबसे महत्िपूणय तत्ि है। काम भाि सभी
जीिों में पाया जाता है। ऐसा प्रश्न हो सकता है कक यह काम भाि िस्तुतः कहााँ में
ििद्यमान है और यह व्रज की गोिपकाओं के साथ ईनके सम्बन्धों में प्रकट होती है।
आस भौितक जगत में जो कु छ भी पाया जाता है। ऄन्तर यह है कक आस भौितक
जगत में प्रत्येक िस्तु ििकृ त रूप में कदखाइ देती है। कृ ष्ण में यह सारी िृित्तयााँ एिं

30 ििषय-सूची
ईनका प्राकट्य ऄप ने र्ुि रूप में , ऄध्यात्म के सम्बन्ध में पाइ जाती हैं। जो आस
बात को तत्त्ितः पूणय ज्ञान में जानता है, िह श्रीकृ ष्ण का र्ुि भि बन जाता हैः
महात्मानस्तु मां पाथय दैिीं प्रकृ ितमािश्रताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्िा भूताकदमव्ययम्॥
सततं कीतययन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या िनत्ययुिा ईपासते॥
“हे पाथय ! मोहमुि महात्माजन कदव्य प्रकृ ित के संरक्षण में रहते हैं। िे पूणयतः
भिि में िनमग्न रहते हैं , क्योंकक िे मुझे अकद तथा ऄििनार्ी पूणय पुरुषोत्तम
परमेश्वर के रूप में जानते हैं। ये महात्मा सदा मेरी मिहमा का कीतयन करते हुए
दृढ़संकल्प के साथ प्रयास करते हुए मुझे नमस्कार करते हुए , भििभाि से िनरन्तर
मेरी पूजा करते हैं।” (भ.गी. 9.23-24)
महान अत्मा , महात्मा कौन है ? महात्मा िह है जो भगिान् की ईच्चतर
परार्िि के ऄधीन है। आस समय हम श्रीकृ ष्ण की िनकृ ष्ट माया र्िि के ऄधीन है।
जीिात्मा की िस्थित तटस्था र्िि जैसी है , हम ऄपने को आन दोनों में से ककसी
र्िि की ओर स्थानान्तररत कर सकते हैं। श्रीकृ ष्ण पूणयतया स्ितंत्र हैं , और ईनके
ऄंर् होने के कारण हम में भी स्ितंत्रता का यह गुण ििद्यमान है। आसिलए हम चुन
सकते हैं कक हमें ककस र्िि के ऄधीन रहना है। क्योंकक हम भगिान् की ईच्चतर
परा-र्िि को नहीं जानते , ऄतः ईनकी िनकृ ष्ट माया र्िि के ऄधीन रहने के
ऄितररि हमारे पास और कोइ चारा नहीं है।
कु छ दर्यन यह प्रस्तुत करते हैं कक हम िजस प्रकृ ित का ऄनुभि आस समय कर
रहे हैं, ईसके ऄितररि और कोइ प्रकृ ित नहीं है , और आससे मुि होने का एक मात्र
ईपाय है -आस प्रकृ ित को िनष्िल करके र्ून्यित् ररि हो जाना। ककन्तु हम र्ून्यित्
ररि नहीं हो सकते , क्योंकक हम देहधारी जीि हैं। आसका ऄथय यह नहीं है कक हम
ऄपना र्रीर पररितयन करते हैं आसिलए हम समाप्त हो गए हैं। भौितक प्रकृ ित के
प्रभाि से मुि होने के पूिय होने यह समझ लेना चािहए कक हमारा िास्तििक स्थान
कहााँ है और हमें जाना कहााँ है। यकद हमें यह मालूम नहीं कक हमें जाना कहााँ है , तो
31 ििषय-सूची
हम यही कहेंगे , “हाय, हम नहीं जानते कक बकढ़या क्या है और घरटया क्या है। हम
जो कु छ जानते हैं िह यही है ; ऄतः हमें यही रहने दो और सड़ने दो। ” ककन्तु
भगिद्गीता हमें ऄंतरं गा र्िि और परा-प्रकृ ित के ििषय में बताती है।
श्रीकृ ष्ण जो कु छ कहते हैं िह र्ाश्वत सत्य होता है। ईसमें पररितयन नहीं
होता। हमारा ितयमान व्यिसाय क्या है ऄथिा ऄजुयन का व्यिसाय क्या था आससे
कोइ ऄन्तर नहीं पड़ता ; हमें के िल ऄपनी भािना में बदलाि लाना है। आस समय
हम के िल स्िाथय -भािना से प्रेररत हैं ककन्तु हम यह नहीं जानते कक हमारा
िास्तििक स्िाथय क्या है। सच्चाइ तो यह है कक हममें „स्िाथय‟ नहीं, „आिन्ियाथय‟ है।
हम जो कु छ कर रहे हैं , िह आिन्ियों को तृप्त करने के िलए ही कर रहे हैं। यही
भािना है िजसे हमें बदलना है। आसके स्थान पर हमें ऄपने सच्चे स्िाथय ऄथायत्
कृ ष्णभािनामृत की स्थापना करनी चािहए।
यह कै से हो सकता है ? ऄपने जीिन के प्रत्येक पग पर हमारा
कृ ष्णभािनाभािित रहना कै से संभि हो सकता है ? िास्ति में आसे श्रीकृ ष्ण ने
हमारे िलए बहुत सरल बना कदया हैः
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभािस्म र्िर्सूयययोः।
प्रणिः सियिेदेषु र्ब्दः खे पौरुषं नृषु॥
“हे कु न्तीपुत्र ! मैं जल में स्िाद हॅूं , सूयय तथा चन्िमा में प्रकार् हॅूं , िैकदक मन्त्रों
में ॎकार हाँ, अकार् में ध्ििन हाँ तथा मनुष्य में सामर्थयय हाँ।”
आस श्लोक में श्रीकृ ष्ण बताते हैं कक हम ऄपने जीिन के प्रत्येक स्तर पर
कृ ष्णभािनाभािित कै से बन सकते हैं। सभी प्राणी जल पीते हैं जल का स्िाद आतना
ईत्तम होता है कक जब हम प्यासे होते हैं , तब जल के ऄलािा और कु छ नहीं काम
अता है। कोइ भी िनमायता र्ुि जल के स्िाद जैसी िस्तु का िनमायण नहीं कर
सकता। आस प्रकार जब हम पानी पीते हैं तो श्रीकृ ष्ण ऄथिा भगिान् का स्मरण कर
सकते हैं। ऄपने जीिन में प्रितकदन पानी पीए िबना कोइ नहीं रह सकता है। ऄतः
कृ ष्णभािनामृत तो प्रितक्षण ििद्यमान है-आसे हम भुला ही कै से सकते हैं?

32 ििषय-सूची
आसी प्रकार, जब कहीं थोड़ा प्रकार् होता है , िह भी श्रीकृ ष्ण ही है। परव्योम
में ब्रह्मज्योितः ऄथायत् मूलभूत तेज श्रीकृ ष्ण की कदव्य देह से ही िनकलता है। यह
भौितक अकार् अच्छाकदत है। भौितक जगत का मूलभूत स्िभाि ऄन्धकार है ,
िजसका ऄनुभि हम राित्र में करते हैं यह जगत कृ ित्रम रूप से सूयय से , चन्िमा के
परािर्ततत प्रकार् से और ििद्युत से प्रकािर्त ककया जा रहा है। कहााँ से अ रहा है
िह प्रकार्? सूयय ब्रह्मज्योित या अध्याित्मक जगत के तेज से प्रकािर्त हो रहा है।
अध्याित्मक जगत में सूयय , चन्िमा या ििद्युत की कोइ अिश्यकता नहीं होती है ,
क्योंकक िहााँ तो प्रत्येक िस्तु ब्रह्मज्योित से प्रकािर्त है। आस पृर्थिी पर हम जब भी
सूयय का प्रकार् देखते हैं, तब श्रीकृ ष्ण का स्मरण कर सकते हैं।
जब हम िेदमन्त्रोच्चारण करते हैं , जो ॎ से प्रारम्भ होते हैं , तब भी हम
श्रीकृ ष्ण का स्मरण कर सकते है। „हरे कृ ष्ण ‟ के समान ॎ भी इश्वर के िलए एक
सम्बोधन है और ॎ भी कृ ष्ण है। „र्ब्द‟ का ऄथय है नाद या ध्ििन , और जब कभी
हम कोइ ध्ििन सुनते हैं , तो हमें समझना चािहए कक यह ईसी मूलभूत र्ुि कदव्य
ध्ििन ॎ या „हरे कृ ष्ण‟ की प्रितध्ििन है। आस भौितक जगत में हम जो भी ध्ििन
सुनते हैं , िह सब के िल ईसी मूलभूत कदव्य नाद ॎ की प्रितध्ििन है। आस प्रकार
जब हम र्ब्द सुनते हैं , पानी पीते हैं, या कोइ प्रकार् देखते हैं , तब हम भगिान् का
स्मरण कर सकते हैं। यकद हम ऐसा कर सकें , तो िह कौन सा क्षण होगा , जब हम
भगिान् को भूल सकें गे ? कृ ष्णभािनामृत की यही प्रकिया है। आस प्रकार हम
चौबीस घण्टे श्रीकृ ष्ण का स्मरण कर सकते हैं , और आस तरह श्रीकृ ष्ण हमारे साथ
रहेंगे। िनस्सन्देह, श्रीकृ ष्ण सदा ही हमारे साथ होते हैं , ककन्तु ज्योंही हम यह स्मरण
करते हैं, त्योंही श्रीकृ ष्ण की ईपिस्थत प्रत्यक्ष ऄनुभि होने लगती है।
श्री भगिान् की संगित पाने के नौ ििििध प्रकियाएाँ हैं। आनमें प्रथम है „श्रिण‟-
सुनना। भगिद्गीता पढ़ने से हम श्रीकृ ष्ण के प्रिचन सुनते हैं , िजसका तात्पयय यह है
कक हम भगिान् कृ ष्ण या इश्वर का िास्तििक साथ प्राप्त कर रहे हैं। (हमें यह सदा
स्मरण रखना चािहए कक जब हम श्रीकृ ष्ण के ििष य में कु छ कहते हैं , तब हमारा
ऄिभप्राय भगिान् से होता है। ) िजतना हम भगिान् का संग करें गे तथा ईनके
33 ििषय-सूची
िचनों और नामों को सुनते रहेंगे , हमारा भौितक प्रकृ ितजन्य कल्मष ईतना ही धूल
जाता है। जब यह समझ में अने लगता है कक श्रीकृ ष्ण ही र्ब्द , प्रकार्, जल और
ऄनेक ऄन्य पदाथय हैं , तब कृ ष्ण से ििमुख होना ऄसम्भि हो जाता है। यकद हम
श्रीकृ ष्ण का आस प्रकार स्मरण कर सकते हैं , तो ईनसे हमारा सम्बन्ध स्थायी हो
जाता है।
श्रीकृ ष्ण से सम्बन्ध होना सूययप्रकार् से सम्बन्ध होने के समान है। जहााँ सूयय
का प्रकार् होता है , िहााँ कोइ संिामक रोग नहीं रहता। जब तक कोइ सूयय के
पराबैंगनी ककरणों में रहेगा , ईसे कोइ रोग नहीं लगेगा। पाश्चात्य िचककत्सा में सूयय
का प्रकार् सब प्रकार के रोगों के ईपचार में ईपयोगी बताया गया है। िेदों के
मतानुसार तो रोगी को अरोग्य के िलए सूयय की ईपासना करनी चािहए। आसी
प्रकार यकद हम श्रीकृ ष्ण के साथ कृ ष्णभािनामृत का सम्बन्ध स्थािपत कर लें , तो
हमारी अपित्तयााँ समाप्त हो जाएगी। „हरे कृ ष्ण ‟ के कीतयन -जप से हम श्रीकृ ष्ण के
साथ सम्बन्ध स्थािपत कर सकते हैं ; जल, सूयय, चन्ि को कृ ष्ण के रूप में देख सकते
हैं; र्ब्द में ईन्हें सुन सकते हैं और जल में ईनका स्िाद ले सकते हैं। दुभायग्य से
ऄपनी ितयमान िस्थित में हम श्रीकृ ष्ण को भूल चुके हैं। पर ऄब श्रीकृ ष्ण का स्मरण
करके ऄपने अध्याित्मक जीिन को हमें पुनः जाग्रत करना है।
भगिान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने आस श्रिण और कीतयन की पिित का ऄनुमोदन
ककया था। ऄपने िमत्र और महाभागित रामानन्दराय से श्री चैतन्य महाप्रभु ने
स्िरूप-साक्षात्कार की िििधयों के सम्बन्ध में जब िातायलाप के दौरान प्रश्न ककया ,
तो रामानन्दराय ने िणायश्रम धमय , संन्यास तथा ऄन्य ऄनेक साधनों की संस्तुित की,
ककन्तु चैतन्य महाप्रभु ने कहा , “नहीं, ये सभी आतने श्रेष्ठ साधन नहीं हैं। ” श्री
रामानन्दराय जब कोइ साधन बताते , तो हर बार श्री चैतन्य महाप्रभु ईसको
ऄमान्य कर देते और अध्याित्मक ईन्नित के िलए और कोइ श्रेष्ठतर साधन पूछते।
ऄन्त में श्री रामानन्दराय ने एक िैकदक सूिि का ईिरण कदया, िजसमें बताया गया
है कक इश्वर को समझने के िलए मनुष्य को ऄन्य सब ऄनािश्यक मानिसक तकय
छोड़ देने चािहए , क्योंकक तकय -िितकय से परम सत्य तक नहीं पहुाँचा जा सकता।
34 ििषय-सूची
ईदाहरण के िलए , िैज्ञािनक लोग दूर -िस्थत नाना प्रकार के नक्षत्रों तथा ग्रहों के
ििषय में ऄनुमान कर सकते हैं , ककन्तु िे ऄनुभि के िबना ककसी िनष्कषय पर नहीं
पहुाँच सकते हैं। कोइ व्यिि जीिन भर ऄनुमान लगाता रह सकता है , किर भी ऐसा
हो सकता है कक िह ककसी िनष्कषय पर पहुाँच पाए है।
इश्वर के ििषय में मनगढ़ंत िचन्तन करना और ऄनुमान लगाना ििर्ेष रूप से
िनरथयक है। आसिलए श्रीमद्भागित का मत है कक इश्वर के सम्बन्ध में सब प्रकार के
तकय -िितकय करना छोड़ देना चािहए। आसके स्थान पर यह संस्तुत ककया गया है कक
मनुष्य को ििनम्र होकर यह सोचना चािहए कक न के िल िह एक क्षुि प्राणी है ,
ऄिपतु आस ििर्ाल ब्रह्माण्ड में पृर्थिी भी एक िबन्दु मात्र है। न्यूयाकय नगर बहुत बड़ा
प्रतीत हो सकता है , ककन्तु जब एक व्यिि यह समझता है कक स्ियं पृर्थिी एक सूक्ष्म
िबन्दु है , और पृर्थिी पर ऄमरीका एक ऄन्य क्षुि िबन्दु है , और ईस ऄमेररका का
न्यूयाकय र्हर एक और छोटा सा िबन्दु है और न्यूयॉकय में हर एक व्यिि लाखों में से
एक है , तो किर िह भली -भााँित समझ सकता है कक िह ऄन्ततः ईतना महत्िपूणय
नहीं है। ब्रह्माण्ड और इश्वर के ऄनुपात में ऄपनी क्षुिता का ऄनुभि करते हुए हमें
कृ ित्रम ऄिभमान से िू लना नहीं चािहए ऄिपतु ििनम्र रहना चािहए। हमें आस बात
की सािधानी रखनी चािहए कक हम „मेंढ़क-दार्यिनकता‟ के िर्कार न बन जाएाँ।
एक बार ककसी कु एाँ में एक मेढक रहता था। ईसके ककसी िमत्र ने ईससे ऄटलांरटक
महासागर के ऄिस्तत्ि की चचाय की। ईसने िमत्र से पूछा , “ऄरे , यह ऄटलांरटक
महासागर क्या है?”
िमत्र ने बताया, “िह जल का महान भण्डार है।”
“ककतना बड़ा? क्या िह आस कु एाँ से दुगना बड़ा है?”
“ऄरे नहीं, आससे बहुत-बहुत बड़ा?” िमत्र ने ईत्तर कदया।
“ककतना बड़ा? क्या आस कु एाँ से दस गुना बड़ा ” आस प्रकार मेंढ़क गणना करता
रहा। ककन्तु मेंढ़क के िलए महासागर की गहराइ और ईसके ऄसीम ििस्तार को
समझने की सम्भािना ही क्या है ? हमारी र्िियााँ , ऄनुभि और िचन्तन का

35 ििषय-सूची
सामर्थयय सदा सीिमत रहते हैं। हम तो िसिय मेंढ़क जैसी दार्यिनकता को ही बढ़ािा दे
सकते हैं आसिलए श्रीमद्भागित में संस्तुत ककया गया है कक परम को समझने के
िलए िचन्तन और ऄनुमान के तरीके का पररत्याग कर देना चािहए , क्योंकक परम
को समझने के प्रयास में यह के िल समय नष्ट करना ही है।
तकय -िितकय छोड़कर हमें क्या करना चािहए ? श्रीमद्भागित संस्तुित करती है
कक हमें ििनम्र होकर भगित् संदर्
े सुनना चािहए। यह संदर्
े हमें भगिद्गीता , ऄन्य
िैकदक सािहत्य, बाइिबल, कु रान अकद ककसी भी प्रामािणक र्ास्त्र में से िमल सकता
है या ककसी अत्मज्ञानी पुरुष से सुना जा सकता है। मुख्य बात यह है कक मनुष्य को
भगिान् के ििषय में मात्र कल्पना नहीं करना चािहए िरन् भगिान् के ििषय में
सुनना चािहए। आस श्रिण का िल क्या होगा ? कोइ ककसी भी िस्थित में हो -धनी,
िनधयन, ऄमेररकन, यूरोिपयन, भारतीय, ब्राह्मण, र्ूि या और कु छ भी हो -यकद िह
के िल भगिान् की कदव्य िाणी सुने , तो जो भगिान् ककसी भी र्िि या सामर्थयय से
नहीं जीते जा सकते, िे के िल प्रेम से जीते जा सकते हैं। ऄजुयन श्रीकृ ष्ण का िमत्र था,
ककन्तु श्रीकृ ष्ण परब्रह्म परमेश्वर होते हुए भी ऄजुयन के िलए एक सेिक , रथ-सारथी
बन गए। ऄजुयन श्रीकृ ष्ण से प्रेम करता था और श्रीकृ ष्ण ने भी आस प्रकार ईससे प्रेम
का िििनमय ककया। ऐसे ही जब श्रीकृ ष्ण बालक थे , तब ईन्होंने खेल -खेल में ऄपने
िपता, नन्द महाराज के जूते ईठाकर ऄपने िसर पर रख िलए थे। कु छ लोग भगिान्
के साथ एक जो जाने के िलए ऄथक प्रयत्न करते हैं , ककन्तु हम तो आस िस्थित से भी
अगे िनकल सकते हैं-हम भगिान् के िपता बन सकते हैं। िनस्सन्देह, भगिान् ही सब
जीिों के िपता हैं , ईनका कोइ िपता नहीं है और न हो सकता है , ककन्तु िे ऄपने
भि, ऄपने प्रेमी को िपता के रूप में स्िीकार कर लेते हैं। प्रेमिर् तो श्रीकृ ष्ण ऄपने
भि से परािजत होना भी स्िीकार कर लेते हैं। बस व्यिि को तो के िल आतना ही
करना है कक िह भगित् संदर्
े को बहुत ध्यान से सुने।
भगिद्गीता के सत्रहिें ऄध्याय में श्रीकृ ष्ण ऄन्य ईपाय बताते हैं , िजनके द्वारा
हमें जीिन के पग पग पर ईनकी ऄनुभूित हो सकती है;

36 ििषय-सूची
पुण्योगंधः पृिथव्यां च तेजश्वािस्म ििभािसौ।
जीिनं सियभूतेषु तपश्वािस्म तपिस्िषु॥
“मैं पृर्थिी में मूलभूत सुगन्ध हॅू।ं ऄिग्न में ईसकी उष्मा हॅू।ं समस्त भूत प्रािणयों
में ईनका जीिन हॅू।ं और तपिस्ियों का मैं तप हाँ।” (भ.गी. 7.9)
पुण्योगंधः र्ब्द से तात्पयय है „मूलभूत सुगंध ‟। स्िाद और सुगंध के िल श्रीकृ ष्ण
ही ईत्पन्न कर सकते हैं। हम कृ ित्रम रूप से कु छ सुगंध या खुर्बू बना तो लेते हैं ,
ककन्तु यह प्राकृ ित क सुगन्ध जैसी ईत्तम नहीं होती है। जब हम ककसी ऄच्छी
प्राकृ ितक सुगन्ध को सूाँघें , तो सोच सकते हैं “ओह! आसमें प्रभु का िनिास है। आसमें
श्रीकृ ष्ण हैं। ” ऄथिा जब हम कोइ प्राकृ ितक सौन्दयय देखें , तो हम सोच सकते हैं ,
“ओह यहााँ श्रीकृ ष्ण हैं। ” ऄथिा जब हम कोइ ऄसाधारण , र्िि-सम्पन्न या
अश्चययजनक िस्तु देखते हैं , तो हम सोच सकते हैं , “यहााँ श्रीकृ ष्ण हैं। ” हो, पर्ु हो
या मानि प्राणी हो, तो हमें तुरन्त समझ लेना चािहए कक यह जीि श्रीकृ ष्ण का ही
एक ऄंर् है, क्योंकक ज्योंही ईस र्रीर से िचन्मय लचगारी, जो श्रीकृ ष्ण का एक ऄंर्
है, क्योंकक ज्योंही ईस र्रीर से िचन्मय लचगारी , जो श्रीकृ ष्ण का ऄंर् है , िनकल
जाती है त्योंही र्रीर िछन्न-िभन्न हो जाता है।
बीजं मां सियभूतानां िििि पाथय सनातनम्।
बुििबुयििमतामिस्म तेजस्तेजिस्िनामहम्॥
“हे ऄजुयन , यह जान ले कक सम्पूणय प्रािणयों का मूल बीज मैं ही हॅूं बुििर्ाली
व्यिियों की बुिि और तेजिस्ियों का तेज भी मैं ही हॅू।ं ” (भ.गी. 7.10)
यहााँ किर से यह स्पष्ट कहा गया है कक श्रीकृ ष्ण सभी प्रािणयों के जीिन -प्राण
हैं। आस प्रकार हम पग-पग पर भगिान् के दर्यन कर सकते हैं। लोग पूछ सकते हैं कक
क्या अप हमें भगिान् के दर्यन करा सकते हैं ? हााँ, ऄिश्य; भगिान् के दर्यन कइ
प्रकार से हो सकते हैं। ककन्तु यकद कोइ व्यिि ऄपनी अाँखे ही बंद कर ले और कहे
कक “मैं भगिान् को देखूाँगा ही नहीं” तो ईसे कै से कदखाया जा सकता है?
ईपयुयि श्लोक में बीजम् र्ब्द का ऄथय है , „बीज‟ और आसे सनातन घोिषत
ककया गया है। हम एक ििर्ाल िृक्ष देख सकते हैं , ककन्तु आस िृक्ष का मूल ईद्गम
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क्या है ? िह बीज ही है और िह सनातन है। ऄिस्तत्ि का कारण यह बीज हर एक
जीि में ििद्यमान है। र्रीर ऄनेक पररितयनों से गुजरता है-माता के गभय में ििकिसत
होता है, एक छोटे िर्र्ु के रूप में जन्म लेकर बालक और तरुण के रूप में बढ़ता है ,
ककन्तु ईस ऄिस्तत्ि का जो खोज ईसके भीतर है , िह स्थायी है। आसीिलए ईसे
„सनातन‟ कहा गया है। हमारी र्रीर ऄगोचर रूप से प्रितक्षण पररिर्ततत हो रहा
है। ककन्तु यह बीज, अध्याित्मक स्िु ललग, कभी नहीं बदलता। कृ ष्ण घोिषत करते हैं
कक िे ही सभी प्रािणयों में बसे हुए र्ाश्वत बीज हैं। श्रीकृ ष्ण ही बुििमान व्यिि की
बुिि हैं। श्रीकृ ष्ण की कृ पा के िबना कोइ भी व्यिि की बुिि हैं। श्रीकृ ष्ण की कृ पा के
िबना कोइ भी व्यिि ऄसाधारण रूप से बुििमान नहीं हो सकता। प्रत्येक व्यिि
एक दूसरे से ऄिधक बुििमान होने का प्रयत्न कर रहा है , ककन्तु श्रीकृ ष्ण की कृ पा के
िबना यह संभि नहीं है। ऄतः जब भी हमें कोइ ऄसाधारण बुििमान व्यिि िमलें ,
तो हमें समझना चािहए कक “यह ऄसाधारण बुिि श्रीकृ ष्ण ही है। आसी प्रकार
ऄत्यन्त प्रभािर्ाली पुरुष में जो प्रभाि कदखाइ देता है, िह भी श्रीकृ ष्ण ही हैं।”
बलं बलितां चाहं कामरागिििर्तजतम्।
धमायििरुिो भूतेषु कामोऽिस्म भरतषयभ॥
“मैं बलिानों का कामनाओं तथा आच्छा से रिहत बल हाँ। हे भरतश्रेष्ठ (ऄजयन)!
मैं िह काम हाँ, जो धमय के ििरुि नहीं है।” (भ.गी. 7.11)
हाथी और िनमानुष बड़े बलिान पर्ु हैं, और हमें समझना चािहए कक आसकी
र्िि का स्रोत भी श्रीकृ ष्ण ही हैं। कोइ भी मनुष्य ऄपने प्रयत्न से ऐसी र्िि प्राप्त
नहीं कर सकता। ककन्तु यकद श्रीकृ ष्ण की कृ पा हो जाएाँ , तो एक मनुष्य हाथी से
सहस्रों गुणों ऄिधक र्िि प्राप्त कर सकता है। कहा जाता है महान् योिा भीम , जो
कु रुक्षेत्र के युि में लड़ा था , दस हजार हािथयों का बल रखता था। आसी प्रकार
मनुष्य में जो काम भाि है , यकद िह धमय के प्रितकू ल नहीं है , तो ईसे भी श्रीकृ ष्ण
का रूप समझना चािहए। यह काम भा ि क्या है ? काम का सामान्य ऄथय मैथुन
िलया जाता है , ककन्तु यहााँ काम का ऄथय िह मैथुन है जो धार्तमक िसिान्तों के
प्रितकू ल नहीं है। ऄथायत् ऄच्छी सन्तान प्राप्त करने के िलए मैथुन। यकद कोइ पुरुष
38 ििषय-सूची
ऄच्छी कृ ष्णभािनाभािित सन्तान को जन्म दे सके , तो बह हजारों बार सम्भोग
कर सकता है। ककन्तु यकद िह कु त्ते -िबिल्लयों की मनोिृित्त िाली सन्तान ईत्पन्न
करता है , तो ईसका कामिासनापूणय जीिन धमय के प्रितकू ल समझना चािहए।
धार्तमक और सभ्य समाज में िििाह का ईद्देश्य यह है कक स्त्री -पुरष सत् सन्तान
ईत्पन्न करने के िलए मैथुन करें । आसिलए िििािहत जीिन में काम -सेिन धार्तमक
और ऄिििािहत जीिन में काम -सेिन ऄधार्तमक माना जाता है। िास्ति में यकद
गृहस्थाश्रम का कामजीिन धमायनुकूल हो , तो गृहस्थ और संन्यासी में कोइ ऄन्तर
नहीं है।
ये चैि साित्त्िकाभािा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एिेित तान् िििि न त्िहं तेषु ते मिय॥
“सत्िगुण, रजोगुण और तमोगुण से ईत्पन्न होने िाले सम्पूणय भाि मेरी र्िि
से ही प्रदर्तर्त होते हैं। ऐसा समझना चािहए कक एक दृिष्टकोण से मैं सब कु छ हाँ ,
ककन्तु मैं सियत्र हॅू।ं मैं आस भौितक प्रकृ ित के गुणों के ऄधीन नहीं हॅू।ं ” (भ.गी. 7.12)
कोइ श्रीकृ ष्ण से यह प्रश्न कर सकता हैः “अप कहते हैं , मैं र्ब्द, जल, प्रकार्,
सुगंध, सबका बीज , बल काम , आच्छा अकद हॅूं , तो क्या आसका तात्पयय यह है कक
अप के िल सत्िगुण में ही ििद्यमान रहते हैं ?” आस भौितक जगत में सतोगुण ,
रजोगुण और तमोगुण तीनों हैं। ऄभी तक श्रीकृ ष्ण ने ऄपने अपको सतोगुण से
ईत्पन्न भािों में व्यि ककया है (ईदाहरणाथय िििाहोपरान्त धमायनुकूल काम में )।
ककन्तु ऄन्य दो गुणों, राजस और तामस, के ििषय में क्या िस्थित है ? क्या श्रीकृ ष्ण
ईनमें िस्थत नहीं है ? आसके ईत्तर में श्रीकृ ष्ण कहते हैं कक आस भौितक जगत में जो
कु छ कदखाइ दे रहा है , िह प्रकृ ित के आन्हीं तीनों गुणों की ऄन्तःकिया का पररणाम
है। यहााँ जो कु छ भी ऄनुभि ककया जा सकता है , िह सत्िगुण , रजोगुण और
तमोगुण का ही समुच्चय है। तथा श्रीकृ ष्ण स्ियं कहते हैं , “सभी िस्थितयों में आन
तीन गुणों की ईत्पित्त मेरे द्वारा होती है। चॅूंकक श्रीकृ ष्ण आन तीनों गुणों के स्रष्टा हैं ,
आसिलए आन गुणों की िस्थित श्रीकृ ष्ण में है , ककन्तु श्रीकृ ष्ण ईनमें िस्थत होती हैं ,
क्योंकक श्रीकृ ष्ण आन तीन गुणों से परे हैं। आस प्रकार दूसरे ऄथय में तामसी ऄसदिृित
39 ििषय-सूची
या पदाथय भी , जो ऄज्ञान से ईत्पन्न होते हैं , जब कृ ष्णभािना में प्रयुि होते हैं तो
कृ ष्ण रूप ही हो जाते हैं। यह कै से ? ईदाहरणाथय, एक ििद्युत ऄिभयन्ता
(आं जीिनयर) िबजली िनमायण करता है। ऄपने घरों में हमें आस ििद्युत -र्िि का
ऄनुभि किज यंत्र में ठण्डक के रूप में और िबजली के चू ल्हे में गमी के रूप में होता
है, ककन्तु उजाय के ईत्पित्त -स्थल (िबजलीघर) में ििद्युत र्िि न ठण्डी है न गमय।
ऄन्य प्रािणयों के िलए आस र्िि की ऄिभव्यिि िभन्न -िभन्न प्रकार से हो सकती है ,
ककन्तु श्रीकृ ष्ण के िलए िह िभन्न नहीं है। आसीिलए हमें कभी -कभी ऐसा लगता है
कक श्रीकृ ष्ण रजोगुण और तमोगुण के िसिान्तों मे िलप्त होकर कायय कर रहे हैं ,
ककन्तु श्रीकृ ष्ण के िलए िह कृ ष्ण के ऄितररि और कु छ नहीं होता , जैसाकक ििद्युत
ऄिभयन्ता के िलए ििद्युत र्िि के िल ििद्युत र्िि है और कु छ नहीं। िह आस
प्रकार का भेद नहीं करता कक यह “ठं डी िबजली” है, और िह “गमय िबजली” है।
प्रत्येक पदाथय की ईत्पित्त श्रीकृ ष्ण से होती है। िास्ति में िेदान्तसूत्र पुिष्ट
करता है- “ऄथातो ब्रह्मिजज्ञासा, जनमाद्यस्य यतः।” प्रत्येक िस्तु का ईद्भि भगिान्
से होता है। जीि िजसे ऄच्छा या बुरा मानते हैं , िह िसिय ईसके िलए ऐसा होता है,
क्योंकक िे बिजीि है। ककन्तु कृ ष्ण बि नहीं है , ऄतः ईनके िलए ऄच्छे बुरे का प्रश्न
ही नहीं ईठता। हम जीि बिात्माएाँ हैं , ऄतः हम द्वन्द्व भािना से ग्रस्त हैं , पर कृ ष्ण
के िलए सब कु छ पररपूणय है।

40 ििषय-सूची
ऄध्याय चार

मूढ़ और ज्ञानी के मागय


आस प्रकार कृ ष्ण ऄपने यथाथय स्िरूप का िणयन कर रहे हैं ककन्तु हम किर भी
ईनकी ओर अकृ ष्ट नहीं होते। ऐसा क्यों? आसका कारण श्रीकृ ष्ण स्ियं बताते हैंःः
दैिी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेि ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरिन्त ते॥
“भौितक प्रकृ ित के तीन गुणों से बनी मेरी आस दैिी र्िि को पार कर पाना
करठन है। ककन्तु जो मेरे र्रणागत हो जाते हैं , िे सरलता से ईसे पार कर जाते हैं। ”
(भ.गी. 7.14)
यह भौितक जगत प्रकृ ित के तीन गुणों से अच्छाकदत है। प्रत्येक प्राणी आन
गुणों से प्रभािित है। जब िे प्रधानतया सतोगुण के ऄधीन होते हैं , तो िे ब्राह्मण
कहलाते हैं। यकद िे रजोगुण -प्रधान होते हैं तो क्षित्रय कहलाते हैं। यकद िे रजोगुण
और तमोगुण के ऄधीन होते हैं , तो िैश्य कहलाते हैं। और यकद िे के िल तमोगुण -
प्रधान होते हैं , तो िे र्ूि कहलाते हैं। यह के िल जन्म और सामािजक िस्थित के
ऄनुसार कृ ित्रम रूप से थोपा गया पद नहीं है , ऄिपतु ईस गुण के कारण है , िजसके
ऄधीन होकर प्राणी कमय करता हैः
चातुियण्यं मया सृष्टं गुण-कमयििभागर्ः।
तस्य कतायरमिप मां ििदध्यकतायरमव्ययम्॥
“भौितक प्रकृ ित के तीन गुणों और कतयव्य कमों के ििभाजन के ऄनुसार मैंने
मानि समाज के चार िणों की रचना की हैं यद्यिप आस प्रणाली का िनमायता मैं ही
हॅू,ं किर भी मुझ ऄििनार्ी को तुम आस िणय -ििभाग का ऄकताय ही समझो।” (भ.गी.
4.13)
41 ििषय-सूची
आस से यह नहीं समझना चािहए कक यह भारतिषय में ििद्यमान ििकृ त
जाितप्रथा का िनदेर् कराता है। श्रीकृ ष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा हैः गुणकमयििभागर्ः
मनुष्य जाित का िगीकरण ईन गुणों के ऄनुसार ककया गया है , िजनके ऄधीन िे
कमय करते हैं , और यहिसदान्त सारे ब्रह्माण्ड के मनुष्यों पर चररताथय होता है। जब
श्रीकृ ष्ण कु छ कहते हैं , तो हमें समझ लेना चािहए कक िे जो कु छ कहते हैं , िह
सीिमत स्थान के िलए नहीं होता, ऄिपतु ििश्वव्यापी सत्य होता है। िे स्ियं को सब
जीिों का िपता कहते हैं -पर्ु, पक्षी, जलचर, िृक्ष-पौधें, कीड़े, कीट, पतंग सभी
ईनकी सन्तित कहे जाते हैं। श्रीकृ ष्ण घोषणा करते हैं कक समस्त ब्रह्माण्ड भौितक
प्रकृ ित के तीन गुणों की ऄन्तःकिया से मोिहत है और हम भी ईसी माया के िर् में
हैंःः ऄतः हम यह नहीं समझ पाते कक भगिान् क्या हैं।
आस माया का स्िरूप क्या है , और आसे कै से पार ककया जा सकता है ? यह भी
भगिद्गीता में स्पष्ट कर कदया गया हैं।
दैिी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेि ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरिन्त ते॥
“प्रकृ ित के तीन गुणों िाली आस मेरी दैिी र्िि को पार कर पाना करठन है।
ककन्तु जो मेरे र्रणागत हो जाते हैं , िे सरलता से आसे पार कर जाते है। ” (भ.गी.
7.14)
कोइ मनुष्य र्ुष्क िचन्तन से भौितक प्रकृ ित के आन तीन गुणों के बन्धन से
छु टकारा नहीं पा सकता। ये तीनों गुण बड़े ही बलिान और दुजयय है। क्या हम
ऄनुभि नहीं करते कक हम बुरी तरह से भौितक प्रकृ ित के चंगुल में िाँ से हुए हैं ?
„गुण‟ र्ब्द का ऄथय रस्सी भी होता है। जब कोइ व्यिि तीन मजबूत रिस्सयों से
बाँधा हो , तो िह िनश्चय ही बहुत कस कर बाँधा होगा। हमारे हाथ पैर सतोगुण ,
रजोगुण और तमोगुण की सुदढ़ृ रिस्सयों से बाँधे हुए हैं। तो क्या हम अर्ा छोड़
बैठें? नहीं, क्योंकक यहााँ श्रीकृ ष्ण हमें अश्वासन देते हैं कक जो कोइ ईनकी र्रण में
अ जाता है , िह तुरन्त ही मुि हो जाता है। जब कोइ व्यिि ककसी तरह भी
कृ ष्णभािनाभािित हो जाता है, तो िह मुि हो जाता है।
42 ििषय-सूची
हम सब कृ ष्ण से सम्बिन्धत हैं , क्योंकक हम सब ईनकी सन्तान हैं। एक पुत्र
ऄपने िपता से ककसी बात पर ऄसहमत हो सकता है , ककन्तु ईसके िलए िह सम्बन्ध
तोड़ना सम्भि नहीं है। ऄपने जीिन में ईससे िनश्चय ही पूछा जाएगा कक िह कौन
है, और ईसे िनश्चय ही ईत्तर देना पड़ेगा कक “मैं ऄमूक का पुत्र हॅू।ं ” िह सम्बन्ध
तोड़ा नहीं जा सकता। आसी प्रकार हम सब भगिान् की सन्तान हैं , और ईनसे
हमारा यह सम्बन्ध सनातन है , ककन्तु हम के िल आसे भूल गए हैं। सबसे सुन्दर हैं ,
सियज्ञ हैं और ऄितर्यी िैराग्यिान् भी हैं। यद्यिप हम आतने महान् व्यिित्ि के िमत्र
हैं, तथािप हम आस बात को भूले हुए हैं। यकद एक धनी व्यिि का पुत्र ऄपने िपता
को भूल जाता है , ऄपना घर छोड़ देता है और पागल हो जाता है , तो सोने के िलए
भले ही िह सड़क पर लेट जाएाँ , भोजन के िलए िभक्षा मााँगें , लेककन यह सब ईसकी
ििस्मृित के कारण है। ककन्तु यकद कोइ व्यिि ईस भूले हुए व्यिि को यह बता दे कक
िह के िल आसिलए दुःख भोग रहा है कक ईसने ऄपने िपता का घर छोड़ कदया है
और यह कक ईसका िपता एक बहुत धनी व्यिि और ििर्ाल सम्पित्त का स्िामी है
और आस िबछड़े हुए पुत्र को किर से पाने के िलए ईत्सुक है , तो ईस पुत्र को बहुत
लाभ हो सकता है।
आस भौितक जगत में हम सदैि ित्रििध तापों से दुःखी होते रहते हैं -ऄपने मन
तथा र्रीर से ईत्पन्न होने िाले दुःख दूसरी जीिात्माओं से होने िाले दुःख और
भौितक प्रकोपों (जैसेः- बाढ़, भूकम्प आत्याकद) से प्राप्त दुःख। भौितक प्रकृ ित के तीन
गुणों के िर्ीभूत होने के कारण हम आन दुःखों से बेसुध हैं। ककन्तु हमें सदैि जानना
चािहए कक आस भौितक जगत में हम आतना दुःख भोग रहे हैं। िजस व्यिि की चेतना
पयायप्त रूप से ििकिसत है और जो बुििमान है, िह प्रश्न करता है कक िह क्यों दुःखी
है? “दुःख तो मैं चाहता नहीं, तो किर मैं क्यों दुःखी हाँ ? ”जब यह प्रश्न ईठता है , तो
मनुष्य के िलए कृ ष्णभािनाभािित होने का सुऄिसर अता है।
जैसे ही हम श्रीकृ ष्ण की र्रण में जाते हैं , कृ ष्ण हमारा हार्ददक स्िागत करते
हैं। ठीक एक खोये हुए बालक के समान जो ऄपने िपता के पास लौटने पर ईससे
कहता है - “मेरे िप्रय िपताजी , कु छ गलतिहिमयों के कारण मैंने अपकी छत्रछाया
43 ििषय-सूची
को छोड़ कदया था, पर मैंने बहुत दुःख ईठाया है। ऄब मैं अपके पास लौट अया हॅू।ं ”
िपता ऄपने पुत्र को गले से लगाकर कहता है - “मेरे िप्रय पुत्र ! अओ, जब से तुम
िबछड़े हो , मैं तुम्हारे िलए बहुत व्याकु ल था। ऄब तुम लौट अए हो तो मैं बहुत
प्रसन्न हॅू।ं ” िपता आतना कृ पालु है। हम भी ठीक आसी िस्थित में हैं। हमें भी कृ ष्ण के
र्रणागत होना है , और यह कोइ बहुत करठन कायय नहीं है। जब एक पुत्र ऄपने
िपता के प्रित अत्म -समपयण करता है , तब क्या यह एक बहुत करठन कायय है ? यह
एक िनतान्त स्िाभाििक बात है और िपता सदैि ऄपने पुत्र का स्िागत करने के
िलए तैयार रहता हैं आसमें ऄपमान का कोइ प्रश्न नहीं होता। यकद हम ऄपने परम
िपता के समक्ष नतमस्तक होकर ईसके चरणों को छू एाँ, तो न तो हमें कोइ हािन है ,
और न यह कु छ करठन है। िास्ति में , यह हमारे िलए गौरि की बात है। हम ऐसा
क्यों न करें ? कृ ष्ण की र्रण में जाने से हम तुरन्त ईनकी सुरक्षा में अ जाते हैं , और
समस्त तापों से छु टकारा पा जाते हैं। सारे र्ास्त्र आस बात का समथयन करते हैं।
गीता के ऄन्त में श्रीकृ ष्ण कहते हैं :
सिय-धमायन् पररत्यज्य मामेकं र्रणं व्रज।
ऄहं त्िां सियपापेभ्यो मोक्षियष्यािम मा र्ुचः॥
“समस्त प्रकार के धमों का पररत्याग करो और मेरी र्रण में अओ। मैं समस्त
पापों से तुम्हारा ईिार कर दूग
ाँ ा। डरो मत।” (भ.गी. 18.66)
जब हम ऄपने को भगिान् की र्रण में ऄर्तपत कर देते हैं , तो हम ईनके
संरक्षण में अ जाते हैं , और ईस समय से हमें ककसी प्रकार का भय नहीं रहता। जब
बालक ऄपने माता -िपता की सुरक्षा में होते हैं , तो िे िनभयय होते हैं क्योंकक िे
जानते है कक ईनके माता -िपता ईन्हें कोइ हािन नहीं पहुाँचने देंगे। मामेि ये
प्रपद्यन्ते-कृ ष्ण प्रितज्ञा करते हैं कक जो ईनकी र्रण में अ जाता है , ईसके िलए भय
को कोइ कारण नहीं रहता।
यकद कृ ष्ण की र्रण में अ जाना आतना सरल कायय है , तो लोग ऐसा करते
क्यों नहीं ? ईल्टे, ऄनेक लोग इश्वर के ऄिस्तत्ि को ही चुनौती देते हैं और दािा
करते हैं कक प्रकृ ित और ििज्ञान ही सब कु छ है , भगिान् कु छ नहीं। ज्ञान में सभ्यता
44 ििषय-सूची
की ऐसी तथाकिथत प्रगित का ऄथय यह है कक लोग ऄिधकािधक बढ़ता जा रहा है।
लोग इश्वर की िचन्ता नहीं कर रहे हैं , प्रकृ ित की िचन्ता कर रहे हैं ; और प्रकृ ित का
यही कायय है कक ित्रििध तापों के रूप में ईन्हें दुलती मारना। प्रकृ ित िनत्य चौबीसों
घण्टे ये अघात कर रही है। ककन्तु हम आन लातों के आतने ऄभ्यस्त हो गए हैं कक हम
समझते हैं कक यह ठीक है और ईसे घटनाओं का स्िाभाििक िम ही मानते हैं। हम
ऄपनी िर्क्षा पर बहुत गिय करते हैं ककन्तु हम भौितक प्रकृ ित से कहते हैं , “मुझ पर
लातें जमाने के िलए मैं तुम्हारा बहुत कृ तज्ञ हॅू।ं कृ पया आसे जारी रखो। ” आस प्रकार
भ्रांत होकर हम सोचते हैं कक हमने आस भौितक प्रकृ ित को भी जीत िलया है। ककन्तु
ऐसा क्यों है ? प्रकृ ित ऄब भी हम पर जन्म , मृत्यु, जरा और व्यािध के अघात कर
रही है। क्या ककसी ने आन समस्याओं को सुलझाया है ? तो बताआए हमने ज्ञान और
सभ्यता में क्या प्रगित की है ? हम भौितक प्रकृ ित के कठोर िनयमों के ऄधीन हैं ,
ककन्तु ऄब भी हम सोचते हैं कक हमने आसे जीत िलया है। यही माया कहलाती है।
आस र्रीर के िपता के र्रणागत होने में कु छ करठनाइयााँ हो भी सकती हैं ,
क्योंकक ईन का ज्ञान और र्िि सीिमत हैं , ककन्तु कृ ष्ण साधारण िपता के समान
नहीं हैं। कृ ष्ण ऄनन्त हैं और िे षड् ऐश्वयय से सम्पन्न है -ईनमें पूणय ज्ञान , पूणय र्िि,
पूणय ऐश्वयय, पूणय सौन्दयय, पूणय यर् और पूणय िैराग्य हैं। क्या हमें ऐसे महान् िपता की
र्रण में जाने और ईनके ऐश्वयय का अनन्द लेने पर स्ियं को भाग्यर्ाली नहीं
समझना चािहए? ककन्तु लगता है कक कोइ भी आस ओर ध्यान नहीं दे रहा है और
ऄब प्रत्येक व्यिि िही प्रचार कर रहा है कक इश्वर है ही नहीं। लोग इश्वर की खोज
क्यों नहीं करते? आसका ईत्तर गीता के आस श्लोक में कदया गया हैः
न मां दुष्कृ ितनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना असुरं भािमािश्रताः॥
“जो िनपट मूखय हैं, जो मनुष्यों में ऄधम हैं, िजनका ज्ञान माया द्वारा हर िलया
गया है तथा जो ऄसुरों की नािस्तक प्रकृ ित को धारण कदए हुए हैं , ऐसे दुष्ट मेरी
र्रण ग्रहण नहीं करते।” (भ.गी. 7.15)

45 ििषय-सूची
आस प्रकार मूढ़ लोगों का श्रेणी -ििभाजन ककया गया है। दुष्कृ ती व्यिि सदैि
र्ास्त्राज्ञा के ििपरीत अचरण करता है। ितयमान सभ्यता का एकमात्र कायय बस
र्ास्त्र-िनयमों को भंग करना है। पररभाषा के ऄनुसार सुकृित िह है जो र्ास्त्र -
िनयमों को भंग नहीं करता। दुष्कृ ती (दुष्ट कायय करने िाला ) और सुकृती (गुणिान्
मनुष्य) में ऄन्तर करने के िलए कु छ माप -दन्ड देना चािहए। प्रत्येक सभ्य देर् का
ऄपना कु छ र्ास्त्र होता है। यह र्ास्त्र चाहे इसाइ हो , िहन्दू हो , मुिस्लम हो , या
बौि, आससे कोइ ऄन्तर नहीं पड़ता। ििर्ेष बात यह है कक सभी धमों में र्ास्त्र की
पुस्तक ििद्यमान है। जो व्यिि र्ास्त्र के िसिान्तों पर नहीं चलता , ईसे ऄपराधी
समझा जाता है।
आस श्लोक में ईि एक ऄन्य श्रेणी है मूढ़ -प्रथम कोरट का मूखय। नराधम िह है
जो मनुष्यता से िगरा हुअ है। माययापहृतज्ञाना से तात्पयय ईस व्यिि से है िजसका
ज्ञान माया के द्वारा ऄपहृत कर िलया गया है। असुरं भािम् अिश्रताः से तात्पयय
ईन लोगों से है , जो पूणयतया नािस्तक हैं यद्यिप परम िपता की र्रण लेने में कभी
कोइ हािन नहीं है , ककन्तु जो लोग ईपयुयि िृित्त िाले हैं , िे ऐसा कभी नहीं करते।
िलतः िे परम िपता के सेिकों द्वारा िनरन्तर दिण्डत ककए जाते हैं। ईन्हें थप्पड़
चााँटे लगाने पड़ते हैं , बेंत लगाने पड़ते हैं , लातें जमानी पड़ती हैं और ईन्हें बहुत
दुःख ईठाना पड़ता है। जैसे एक िपता को ऄपने ईदण्ड बालक को दण्ड देना पड़ता
है, िैसे ही भौितक प्रकृ ित कु छ दण्ड का ििधान करना पड़ता है। साथ ही प्रकृ ित
ऄन्न और ऄन्य अिश्यक पदाथय देकर हमारा पालन पोषण भी कर रही है। ये दोनों
प्रकियाएाँ साथ-साथ चल रही हैं क्योंकक हम सबसे ऄिधक धनिान िपता के पुत्र हैं ,
और यद्यिप हम कृ ष्ण की र्रण नहीं लेते तब भी िे हम पर कृ पा करते हैं। परम
िपता द्वारा आतनी ईत्तम रीित से पररपािलत होने पर भी एक दुष्कृ ती िनयम ििरुि
कमय करता रहता है। िह व्यिि मूढ़ ही है जो दिण्डत होने पर तुला हुअ है और िह
नराधम ही है जो आस मनुष्य देह और जीिन को कृ ष्ण को समझने में प्रयुि नहीं
करता। यकद कोइ मानि ऄपने आस जीिन का ईपयोग ऄपने िास्तििक िपता के

46 ििषय-सूची
साथ सम्बन्ध को पुनः जाग्रत करने में नहीं करता तो ईसे मनुष्यता से िगरा हुअ ही
समझना चािहए।
पर्ुिगय के िल अहार, िनिा, अत्मरक्षा तथा मैथुन में संलग्न रहकर मर जाता
है। िे ईच्चतर चेतना से लाभ नहीं लेते , क्योंकक यह िनम्न प्रकार की जीि योिनयों में
संभि नहीं है। यकद एक मनुष्य पर्ु जाित के कमों में िलप्त रहें और ऄपनी योग्यता
का ईपयोग ईच्चतर चेतना को जाग्रत करने में न करें तो िह मनुष्य के मान -दण्ड से
िगर कर अगामी जीिन में पर्ु र्रीर धारण करने को ही ऄिभर्प्त हो जाता है।
श्रीकृ ष्ण की कृ पा से हमें एक ऄत्यन्त ििकिसत र्रीर और बुिि प्राप्त हुईं है , ककन्तु
यकद हम ईनका ईपयोग ही न करें तो िे हमें ईन्हें दुबारा क्यों देंगे ? हमें समझ लेना
चािहए कक यह मनुष्य र्रीर कइ लाख िषों के ििकास िम की देन है , और यह
ऄपने अप में जन्म-मृत्यु के चि से, िजसमें 80 लाख से ऄिधक योिनयााँ हैं, छू टने का
एक सुखद ऄिसर है। यह ऄिसर श्रीकृ ष्ण की कृ पा से कदया गया है और यकद हम
आस ऄिसर को न लें , तो क्या हम ऄधम नहीं है ? कोइ ककसी ििश्वििद्या लय से
ईपािध प्राप्त कर सकता है -एम.ए, पीएच.डी., आत्याकद-परन्तु यह माया र्िि आस
भौितक ज्ञान को हर लेती है। जो िास्ति में बुििमान है , िह ऄपनी बुिि को यह
जानने में लगाएगा कक िह कौन है , भगिान् कौन है , भौितक प्रकृ ित क्या हैं , िह
भौितक जगत में क्यों कष्ट भोग रहा है और आस कष्ट का ईपाय क्या है?
हम ऄपनी बुि से कार , रे िडयो या टे लीििजन बनाने में काम ले सकते हैं
िजससे हमारी आिन्ियतृिप्त हो , परन्तु में समझना चािहए कक यह ज्ञान नहीं है।
बिल्क, यह चुराइ हुइ बुिि है। मनुष्य को बुिि जीिन की समस्यों को समझने के
िलए दी गइ थी, परन्तु ईसका दुरुपयोग हो रहा है। लोग यह सोच रहे हैं कक ईन्होंने
कार बजाना ि चलाना सीख िलया है आसिलए ईन्होंने ज्ञान प्राप्त कर िलया है ,
परन्तु जब कार नहीं बनी थी तब भी लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर अते -जाते
थे। िसिय ईस सुििधा को और ऄच्छा कर कदया गया है , परन्तु ईस सुििधा के साथ
ऄितररि समस्याएाँ भी अ गइ है ,जैसे कक हिा प्रदूषण तथा रास्तों का खचाखच

47 ििषय-सूची
भरे होना। यह माया है ; हम कु छ सुििधाएाँ बना रहे हैं , लेककन यह सुििधाएाँ खुद
बाद में ऄनेक समस्याएाँ पैदा करती हैं।
हमारी र्िि को आतनी सारी सुििधाओं और अधुिनक सुख -साधन को पाने में
लगाने के बजाय हमें ऄपनी बुिि को यह समझने में लगाना चािहए कक हम कौन
और क्या हैं? हम कष्ट भोगना नहीं चाहते, परन्तु हमें समझना चािहए कक हम कौन
और क्या हैं ? हम कष्ट भोगना नहीं चाहते , परन्तु हमें समझना चािहए कक ये कष्ट
हमारे उपर क्यों थोपे जा रहे हैं। आस तथाकिथत ज्ञान से हम िसिय परमा णु बम
बनाने में सिल हुए हैं। आससे के िल लहसा की किया ही तीव्र हुइ है। हम बड़े
ऄिभमान के साथ सोचते हैं कक यह ज्ञान की प्रगित है , ककन्तु यकद हम ऐसा
अििष्कार कर सकें िजससे मृत्यु को रोका जा सकें , तो समझना चािहए कक हम
िास्ति में ज्ञान में अगे बढ़े हैं। मृत्यु तो भौितक प्रकृ ित में पहले से ही ईपिस्थत है ,
ककन्तु हम तो एक ही धमाके में सबका संहार करके मृत्यु को बढ़ािा देने को ईत्सुक
हैं। यही माययापहृतज्ञाना ऄथायत माया के द्वारा ऄपहृत ज्ञान कहलाता है।
ऄसुर और पक्के ऄनीश्वरिादी लोग इश्वर को िस्तुतः चुनौती देते हैं। यकद परम
िपता परमेश्वर की कृ पा न होती , तो हम कदन का प्रकार् भी न देख सकते। किर
इश्वर के ऄिस्तत्ि को चुनौती देने का औिचत्य क्या है ? िेदों में मानि समाज के दो
िगय बताएाँ गए हैं -देि और ऄसुर। देि कौन हैं ? परमेश्वर के भि देि कहलाते हैं
क्योंकक िे स्ियं इश्वर जैसे बन जाते हैं। आसके ििपरीत जो लोग इश्वर के ऄिधकार
को चुनौती देते हैं , िे ऄसुर कहलाते हैं। मानि समाज में ये दो िगय सदा से पाएाँ
जाते हैं।
िजस प्रकार चार प्रकार के दुष्ट जन होते हैं, जो कभी कृ ष्ण की र्रण नहीं लेते,
ईसी प्रकार चार प्रकार के भाग्यिान् जन होते हैं जो ईनकी पूजा करते हैं। ईनको
अगे के श्लोक में चार श्रेिणयों में ििभािजत ककया गया हैः
चतुर्तिधा भजन्ते मां जनाः सुकृितनोऽजुयन।
अतो िजज्ञासुरथायथीं ज्ञानी च भरतषयभ॥

48 ििषय-सूची
“हे भरतश्रेष्ठ (ऄजुयन), चार प्रकार के सुकृती जन मुझको भजते हैं-अतय (दुःखी),
िजज्ञासु (जानने की आच्छा िाला ), ऄथायथी ( सम्पित्त का आच्छु क ) और ज्ञानी ( जो
परम के ज्ञान की खोज में है)।” (भ.गी. 7.16)
यह भौितक जगत दुखपूणय है और पुण्यात्मा एिं पापी दोनों पर ही ईसका
प्रभाि रहता है। र्ीतॠतु की ठण्डक का प्रभाि सब पर समान होता है। िह
पुण्यात्मा या पापी और धनी या िनधयन में भेद नहीं करता। ककन्तु पुण्यात्मा और
पापी में बस यही ऄन्तर है कक पुण्यात्मा का ध्यान दुःख की िस्थित में इश्वर की ओर
जाता है। जब कोइ व्यिि दुःखी होता है , तो प्रायः िह िगरजाघर या मिन्दर में
जाता है और प्राथयना करता है - “हे प्रभो ! मैं संकट में हाँ, कृ पया मेरी सहायता
कीिजए।” यद्यिप िह ककसी भौितक अिश्यकता इश्वर का स्मरण करता है तथािप
ऐसे व्यिि को पुण्यात्मा ही समझना चािहए , क्येांकक दुःख में ही सही परन्तु ईसने
इश्वर को याद तो ककया। आसी प्रकार एक िनधयन व्यिि िगरजाघर या मिन्दर में
जाकर प्राथयना करता है - “मेरे प्रभो !! कृ पया मुझे कु छ धन दीिजए। ” दूसरी ओर
िजज्ञासु व्यिि प्रायः बुििमान होते हैं। िे चीजों को समझने के िलए हमेर्ा
िैज्ञािनक र्ोध करते रहते हैं। िे पूछते हैं , “इश्वर क्या है ?” और किर आसका ईत्तर
ढ़ूाँढ़ने के िलए िैज्ञािनक ऄनुसंधान करते हैं। ऐसे िजज्ञासु भी पुण्यात्मा माने जाते हैं ,
क्योंकक ईनका र्ोध ईिचत ईद्देश्य की ओर ईन्मुख है। िजसने ऄपनी स्िरूप िस्थित
को तत्त्ितः समझ िलया है , िह ज्ञानी कहलाता है। ऐसा ज्ञानी चाहे िनगुयण
िनराकार ब्रह्म की पररकल्पना करें , ककन्तु सिोच्च परम सत्य के र्रणागत होने के
कारण ईसे भी पुण्यात्मा ही मानना चािहए। आस प्रकार ईपयुयि चारों प्रकार के
व्यिि सुकृती ऄथायत पुण्यात्मा ही है, क्योंकक ये सब इश्वरिादी हैं।
तेषां ज्ञानी िनत्ययुि एक-भििर्तििर्ष्यते।
िप्रया िह ज्ञािननोऽत्यथयमहं स च मम िप्रयः॥
“आनमें से जो परम ज्ञानी है , और र्ुि भिि करता हुअ मुझसे जुड़ा रहता है ,
िह सियश्रेष्ठ है क्योंकक ईसे मैं बहुत िप्रय हॅूं और िह मुझे बहुत िप्रय है। ” (भ. गी.
7.17)
49 ििषय-सूची
इश्वर को भजने िाले ईि चारो श्रेणी के मनुष्यों में जो मनुष्य दार्यिनक दृिष्ट
से इश्वर का स्िभाि समझने का प्रयत्न करता है और साथ ही कृ ष्णभािनाभािित
होने के िलए भी प्रयत्नर्ील है -िििर्ष्यते-िही सियश्रेष्ठ है। श्रीकृ ष्ण कहते हैं कक
िास्ति में ऐसा व्यिि ईन्हें बहुत िप्रय है , क्योंकक ईसे इश्वर को जानने के ऄितररि
कोइ और कायय ही नहीं है। ऄन्य तीन ईस से िनम्न हैं। ककसी को इश्वर से कु छ मााँगने
के िलए प्राथयना नहीं करनी पड़ती है और जो ऐसा करता है िह मूखय है , क्योंकक िह
यह नहीं जानता कक ईनका भि कब संकट में है या कब ईसे धन की अिश्यकता
है। बुििमान व्यिि यह आस बात की ऄनुभूित करता है और भौितक दुःखों से
छु टकारा पाने के िलए प्रभु से प्राथयना नहीं करता। आसके ििपरीत िह प्रभु की
मिहमा का गान करने के िलए प्राथयना करता है और दूसरों को भी बताता है कक प्रभु
ककतने महान हैं। िह ऄपने व्यििगत स्िाथय ऄथायत् रोटी , कपड़ा और मकान के
िलए प्रभु से से प्राथयना नहीं करता। सच्चा भि जब दुःख में होता है , तब िह कहता
है, „हे प्रभों, यह अपकी कृ पा है। अपने के िल मुझे सुधारने के िलए दुःख कदया है।
िैसे तो मुझे आससे कहीं ऄिधक दुःख िमलना चािहए था , ककन्तु अपने ऄपनी ऄपनी
सहज कृ पा से आसे बहुत कम कर कदया है। ‟ यह एक ऐसे सच्चे भि की दृिष्ट है जो
ईिद्वग्न नहीं होता।
जो व्यिि कृ ष्णभािनाभािित होता है , िह भौितक कष्टों , ऄपमान ऄथिा
सम्मान की िचन्ता नहीं करता , क्योंकक िह आन सबसे परे होता हैं िह भली -भााँित
जानता है कक दुःख और मान-ऄपमान का सम्बन्ध के िल र्रीर से है, और िह र्रीर
नहीं है। ईदाहरण के िलए सुकरातसे , जो अत्मा की ऄमरता में ििश्वास रखता था ,
जब ईसे मृत्यु दण्ड की सजा घोिषत हुइ। और यह पूछा गया कक ईसे कै से दिनाया
जाएाँ, तो ईसने ईत्तर कदया “सबसे पहले तुम्हें मुझे पकड़ना होगा। ” ऄतः जो व्यिि
यह जानता है कक िह र्रीर नहीं है , िह ईिद्वग्न नहीं होता , क्योंकक िह जानता है
कक अत्मा को पकड़ा नहीं जा सकता , न ईसे कष्ट कदया जा सकता है , न मारा जा
सकता है और न दिनाया जा सकता है। जो व्यिि श्रीकृ ष्ण के ििज्ञान से पररिचत
है, िह पूणयतया जानता है कक िह र्रीर नहीं है और िह श्रीकृ ष्ण का ऄंर् है , और
50 ििषय-सूची
ईसका िास्तििक सम्बन्ध कृ ष्ण के साथ है , और यद्यिप ककसी कारणिर् ईसे यह
भौितक र्रीर िमल गया है , तथािप ईसे भौितक प्रकृ ित के तीनों गुणों से दूर रहना
है। ईसका सम्बन्ध सत्त्ि, रज और तम के गुणों से नहीं ऄिपतु श्रीकृ ष्ण से है। जो आस
रहस्य को समझता है , िही ज्ञानी है और िह कृ ष्ण को ऄित िप्रय है। एक दुःखी
व्यिि को यकद सम्पन्नता प्राप्त हो जाएाँ , तो िह र्ायद इश्वर को भूल जाएगा, ककन्तु
एक ज्ञानी, जो इश्वर के स्िरूप को जानता है, ईन्हें कभी नहीं भूलेगा।
ज्ञािनयों की एक श्रेणी िनराकारिाकदयों की है, जो कहते हैं कक िनगुयण ब्रह्म की
ईपासना करनी ऄित करठन है , ऄतः इश्वर के ककसी स्िरूप की कल्पना करना
ऄिनिायय है। ये िास्तििक ज्ञानी नहीं हैं -िे मूखय हैं। कोइ भी व्यिि इश्वर के स्िरूप
की कल्पना नहीं कर सकता है , क्योंकक इश्वर ऄत्यन्त महान हैं। कोइ व्यिि ककसी
स्ियंकी कल्पना तो कर सकता है , ककन्तु यह मनगढ़ंत होगा , यह िास्तििक स्िरूप
नहीं होगा। लोग दो प्रकार के हैं , एक िे जो इश्वर के स्िरूप की कल्पना करते हैं ,
दूसरे िे जो ईसके ककसी स्िरूप को स्िीकार नहीं करते हैं। आन दोनों में से कोइ
ज्ञानी नहीं है। जो लोग इश्वर के स्िरूप की कल्पना करते हैं , िे मूर्ततपूजा के ििरोधी
कहलाते हैं। भारत में िहन्दू -मुिस्लम दंगों के दौरान कु छ मुिस्लम लोग िहन्दू मंकदरों
में जाकर भगिान् की प्रितमाएाँ और मूर्ततयााँ तोड़ते थे। िहन्दू लोग भी ऐसी ही
प्रितकिया व्यि करते थे। आस प्रकार दोनों सोचते थे -“हमने िहन्दू इश्वर को मार
डाला, हमने मुिस्लम इश्वर को मार डाला अकद। ” आसी प्रकार िजस समय गााँधीजी
ऄपने सत्याग्रह अंदोलन का नेतृत्ि कर रहे थे , तब बहुत से भारतीय सड़कों पर
िनकल कर पत्र-पेरटयों (लैटरबॉक्स) को नष्ट कर देते थे , और आस प्रकार समझते थे
कक िे सरकार की डाक सेिा को नष्ट कर रहे हैं। आस प्रकार की मनोिृित्तयों िाले
लोग ज्ञानी नहीं हैं। िहन्दू -मुसलमानों और इसाआयों -गैर-इसाआयों के बीच हुए सब
धमय-युि ऄज्ञान से प्रेररत थे। जो व्यिि ज्ञानिान है, िह जानता है कक इश्वर तो एक
ही है; िह िहन्दू, मुिस्लम या इसाइ नहीं हो सकता।
यह हमारी कल्पना है कक इश्वर ऐसे हैं, िैसे हैं; यह सब कोरी कल्पना है। सच्चा
ज्ञानी जानता है कक इश्वर कदव्य हैं। जो यह जानता है कक इश्वर भौितक प्रकृ ित के
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तीनों गुणों से परे हैं , िही इश्वर को तत्त्ितः जानता है। इश्वर सदा हमारे पास ,
हमारे हृदय में ईपिस्थत हैं। जब हम र्रीर छोड़ते हैं , तब इश्वर भी हमारे साथ
जाते हैं और जब हम दूसरा र्रीर धारण करते हैं , तब भी इश्वर के िल यह देखने
के िलए हमारे साथ अते हैं कक हम क्या कर रहे हैं। हम अिखर कब ईनकी ओर
ईन्मुख होंगे? िे सदा यही प्रतीक्षा कर रहे हैं। ज्योंही हम इश्वर की ओर ईन्मुख होते
हैं, िे कहते हैं , “मेरे िप्रय पुत्र अओ , स च मम िप्रयः -तुम सदा से मुझे िप्रय हो। मुझे
प्रसन्नता है कक ऄब तुम मेरी ओर ईन्मुख हो रहे हो।”
ज्ञानी पुरुष इश्वर के ििज्ञान को यथाथय रूप से समझता है। जो व्यिि के िल
आतना समझता है कक , “इश्वर ऄच्छे हैं ” िह प्राथिमक स्तर पर है , ककन्तु जो व्यिि
िस्तुतः यह समझता है कक इश्वर ककतने महान् और ऄच्छे हैं , िह और अगे बढ़ता
है। िह ज्ञान श्रीमद्भागित और भगिद्गीता से प्राप्त हो सकता है। जो व्यिि सचमुच
इश्वर के ििषय में िजज्ञासु हो , ईसे इश्वर के ििज्ञान -भगिद्गीता-का ऄध्ययन करना
चािहए।
आदं तु ते गुह्यतमं प्रिक्ष्याम्यनसूयिे।
ज्ञानं ििज्ञानसिहतं यज्ज्ञात्िा मोक्ष्यसेऽर्ुभात्॥
“हे ऄजुयन ! चूाँकक तुम मुझसे कभी इष्याय नहीं करते , आसिलए मैं तुम्हें यह परम गुह्य
ज्ञान तथा ऄनुभूित बतलाउाँगा, िजसे जानकर तुम संसार के सारे क्लेर्ों से मुि हो
जाओगे।” (भ.गी. 9.1)
भगिद्गीता में कदया गया ज्ञान ऄत्यन्त सूक्ष्म ि गुह्य है। यह ज्ञान ताित्त्िक
ज्ञान और ििज्ञान से भरा हुअ है। और यह रहस्यमय भी है। कोइ आस ज्ञान को कै से
समझ सकता है ? यह ज्ञान स्ियं रहस्यमय भी है। कोइ आस ज्ञान को कै से समझ
सकता है ? यह ज्ञान स्ियं भगिान् द्वारा या किर ईनके ऄिधकृ त प्रितिनिध द्वारा
कदया जाना चािहए। आसिलए श्रीकृ ष्ण कहते हैं कक जब कभी -भी भगिान् के आस
ििज्ञान को समझने में चूक होती है, तो िे स्ियं ऄितररत होते हैं।

52 ििषय-सूची
ज्ञान भािुकता से भी प्राप्त नहीं होता है। भिि भािुकता नहीं, एक ििज्ञान है।
श्रील रूप गोस्िामी कहते हैं , “िैकदक ज्ञान के संदभय के िबना अध्याित्मकता का
कदखािा समाज के िलए एक गड़बड़ है। ” भििरसामृत का पान तकय , िििेक तथा
ज्ञान के साथ करना चािहए , और तब ईसे दूसरों तक पहुाँचना चािहए। ककसी को
यह नहीं सोचना चािहए कक कृ ष्णभािनामृत के िल भािुकता है। नृत्य और गान
सभी िैज्ञािनक हैं। यह ििज्ञान भी है एिं आसमें प्रेम का अदान -प्रदान भी है। कृ ष्ण
बुििमान व्यिि को ऄितिप्रय हैं और बुििमान व्यिि कृ ष्ण को ऄितिप्रय है। कृ ष्ण
हमें प्रेम का हजार गुना बदला देंगे। हम सीिमत प्रािणयों में कृ ष्ण को प्रेम करने की
ककतनी क्षमता है ? परन्तु कृ ष्ण में प्रेम करने की बहुत ऄिधक क्षमता -ऄसीिमत
क्षमता-है।

ऄध्याय पााँच

परम प्रभु की और गमन


ईदाराः सिय एिैते ज्ञानीत्िात्मैि मे मतम्।
अिस्थतः स िह युिात्मा मामेिानुतमां गितम्॥
“ये सभी भि िनःसन्देह ईदार अत्माएाँ हैं ककन्तु जो मनुष्य मेरे ज्ञान में िस्थत
है, िह िनिश्चत ही मेरे मे समाया हुअ है। मेरी कदव्य सेिा में लगा होने के कारण
िह मुझ तक पहुाँच जाता है” (भ. गी. 7.183)
यहााँ कृ ष्ण कह रहे हैं कक दुःखी , िजज्ञासु और ऄथायथी अकद जो भी व्यिि
ईनकी र्रण में अते हैं ईन सब का स्िागत है , ककन्तु ईन सब में से जो ज्ञानी है , िह
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ईन्हें बहुत िप्रय है। ऄन्यों का भी स्िागत है , क्योंकक यह समझा जाता है कक यकद िे
इश्वर के मागय पर चलते रहें , तो िमर्ः िे भी ज्ञानी के समान श्रेष्ठ हो जाएाँगे। ककन्तु
प्रायः ऐसा होता है कक जब कोइ व्यिि ककसी लाभ के िलए चचय में जाता है , और
ईसे धन नहीं िमलता , तो िह यह िनष्कषय िनकाल लेता है कक इश्वर की र्रण में
जाना व्यथय है , और िह चचय से सब सम्बन्ध तोड़ देता है। सकाम भाि से इश्वर की
र्रण में लेने में यही भय हे। ईदाहरण के िलए िद्वतीय ििश्व युि में यह सूचना दी
गइ थी कक ऄनेक जमयन सैिनकों की पित्नयााँ ऄपने -ऄपने पितयों की सकु र्ल िापसी
की कामना लेकर चचय में प्राथयना करने के िलए गइ थी , ककन्तु जब ईन्हें पता लगा
कक ईनके पित युि में मारे गए हैं, तो िे सब नािस्तक हो गईं। आस प्रकार हम चाहते
हैं कक इश्वर हमारी अिश्यकता पूर्तत करने िाले बन जाए और जब िे ऐसा नहीं
करते, तो हम कहने लगते हैं , इश्वर है ही नहीं। भौितक पदाथों की प्रािप्त के िलए
इश्वर से प्राथयना करने का यही प्रभाि है।
आस सम्बन्ध में राजपररिार के एक पंचिषीय छोटे बालक रुि को कथा अती
है। रुि के िपता राजा ईत्तानपाद ने रुि की माता , ऄपनी रानी सुमित से ििमुख
होकर ईसे पदच्युत करके एक ऄन्य स्त्री सुरुिच को रानी बना कदया। ऄब सुरुिच
रुि की सौतेली मााँ हो गइ। ऄतः िह रुि से बड़ा द्वेष करने लगी और एक कदन जब
रुि ऄपने िपता की गोद में बैठा हुअ था, तब सुरुिच ने यह कहकर ईसका ऄपमान
ककया, “ऄरे , तुम ऄपने िपता की गोद में नहीं बैठ सकते , क्योंकक तुम मेरे ईदर से
ईत्पन्न नहीं हुए हो।” ईसने रुि को राजा की गोद से खींचकर ईतार कदया। रुि को
आस से बड़ा िोध अया। िह एक क्षित्रय -पुत्र था, और क्षित्रय लोग ऄप ने अिेर् के
िलए प्रिसि हैं। को यह बड़ा ऄपमानजनक लगा , और िह ऄपनी मााँ सुमित के
पास पहुाँचा, िजसे राजा ने पदच्युत कर कदया था।
रुि ने ऄपनी मााँ से कहा -“प्यारी मााँ ”, मेरी सौतेली मााँ ने मुझे िपताजी की
गोद से खींच कर मेरा बड़ा ऄपमान ककया है।”

54 ििषय-सूची
मााँ ने ईत्तर कदया , “िप्रय ित्स, मैं क्या कर सकती हॅूं ? तुम्हारे िपता ऄब मेरी
कोइ परिाह नहीं करते, मैं स्ियं ऄसहाय हॅू।ाँ ”
रुि ने कहा -“ठीक है। तो यह बताआए कक मैं सौतेली मााँ से प्रितर्ोध कै से ले
सकता हॅू?
ं ”
मााँ ने ईत्तर कदया , “िप्रय ित्स! तुम ऄसहाय हो ! यकद इश्वर तुम्हारी सहायता करें ,
तभी तुम बदला ले सकते हो।”
रुि ने ईत्साहपूियक पूछा, “ऄच्छा, इश्वर कहााँ हैं?”
मााँ ने ईत्तर कदया, “मुझे पता लगा है, ऄनेक ॠिष-मुिन इश्वर को पाने के िलए
जंगल में जाते हैं। िहााँ भगिान् को पाने के िलए िे कठोर तपस्या करते हैं।”
यह सुनकर रुि तुरन्त ही तपोिन में चला गया और िहााँ व्याघ्र और हाथी
जैसे िन्य प्रािणयों से पूछने लगा , “ऄरे , क्या तुम इश्वर हो ? क्या तुम इश्वर हो ?”
आस प्रकार िह प्रत्येक प्राणी से प्रश्न करने लगा। इश्वर के सम्बन्ध में रुि की ऐसी
प्रबल िजज्ञासा देखकर भगिान् कृ ष्ण ने नारद मुिन को िस्थित जानने के िलए िहााँ
भेजा। नारद मुिन तुरन्त तपोिन में गए और रुि को ढ़ॅंढ़
ू िलया।
नारदजी ने कहा, “िप्रय ित्स, तुम एक राज पररिार से हो। तुम आस कठोर व्रत
और तपस्या का कष्ट नहीं ईठा सकते। कृ पा करके ऄपने घर लौट जाओ। तुम्हारे
माता-िपता तुम्हारे िलए बहुत िचिन्तत हैं।”
रुि ने कहा “मुिनिर! कृ पया आस प्रकार मेरा ध्यान हटाने का प्रयत्न न
कीिजए। यकद अप इश्वर के ििषय में कु छ जानते हैं , या अप कु छ बता सकते हैं कक
मैं इश्वर के दर्यन कै से कर सकता हाँ, तो बताआए, ऄन्यथा यहााँ से चले जाआए। और
मुझे ििचिलत न कीिजए।”
जब नारदजी ने देखा कक रुि इश्वर के दर्य न के िलए आतना दृढ़संकल्प है , तो
ईन्होंने ईसे िर्ष्य रूप में दीिक्षत ककया और ईसे “ॎ नमो भगिते िासुदि
े ाय ” मंत्र
कदया। आस मंत्र का जप करके रुि पररपूणय हो गया और भगिान् नारायण ईसके
समक्ष प्रकट हो गए।

55 ििषय-सूची
भगिान् ने रुि से पूछा , “िप्रय रुि , बोलो तुम क्या चाहते हो ? तुम जो कु छ
भी चाहते हो,िह मुझसे प्राप्त कर सकते हो।”
रुि ने ईत्तर कदया , “हे प्रभो , मैंने के िल ऄपने िपता के राज्य तथा भूिम के
िलए आतना कठोर तप ककया है , ककन्तु ऄब तो मुझे अपके दर्यन हो गए हैं। बड़े -बड़े
ॠिषमुिनयों को भी अपके दर्यन दुलयभ हें। मुझे तो बहुत बड़ा लाभ हुअ है। मैंने
कु छ तुच्छ पदाथों और कांच के टु कड़ों के िलए घर छोड़ा था , ककन्तु बदलते में मुझे
तो बहुत बड़ा लाभ हुअ है। मैनें कु छ तुच्छ पदाथो और कांच के टु कड़ो के िलए घर
छोड़ा था, ककन्तु बदले में मुझे तो एक महा मूल्यिान हीरा प्राप्त हो गया है। ऄब मैं
परम सन्तुष्ट हॅू।ं ऄब मुझे अपसे कु छ नहीं मााँगना है।
आस प्रकार कोइ व्यिि िनधयनता या घोर दुःख से पीिड़त होने पर भी ऄगर
िह रुि के समान िही दृढ़संकल्प लेकर इश्वर के दर्यन और िरदान के िलए ईनकी
र्रण में जाता है और यकद ईसे इश्वर के दर्यन हो जाते हैं , तो िह ईनसे ककसी
भौितक पदाथय की आच्छा नहीं रखेगा। िह भौितक पदाथों के स्िािमत्ि की मूखयता
को समझने लगता है और िास्तििक पदाथय की प्रािप्त के िलए भ्रम को एक ओर िें क
देता है। जब कोइ व्यिि रुि महाराज के समान कृ ष्णभािनामृत में िस्थत हो जाता
है, तो िह पूणयतया सन्तुष्ट होकर ककसी िस्तु की कामना नहीं करता।
ज्ञानी पुरुष जानता है कक भौितक पदाथय क्षिणक चकाचौंध िाले हैं। िह यह
भी जानता है कक सब प्रकार के भौितक लाभों के साथ तीन प्रकार की ईलझने होती
हैं-मनुष्य ऄपने कायय से कु छ िल चाहता है , ऄपनी समृिि के कारण दूसरों से
प्रर्ंसा चाहता है और ऄपनी सम्पित्त के कारण ख्याित चाहता है। िह यह भी
जानता है कक ये बातें के िल र्रीर पर ही लागू होती है। जब र्रीर समाप्त हो जाता
है, तो ये भी समाप्त हो जाती हैं। जब र्रीर मर जाता है , तो कोइ भी व्यिि
धनिान नहीं रहता; िह के िल अत्मा रह जाता है , और ऄपने कमों के ऄनुसार ईसे
दूसरे र्रीर में प्रिेर् करना पड़ता है। गीता कहती है कक ज्ञानी पुरुष आससे मोिहत
नहीं होता, क्योंकक िह जानता है कक िास्तििकता क्या है। तो किर भौितक सम्पित्त

56 ििषय-सूची
पाने के िलए ईसे आतनी िचन्ता क्यों करनी चािहए ? ईसकी मनोिृित्त यह होती हे ,
“मेरा परम भगिान् श्रीकृ ष्ण से र्ाश्वत सम्बन्ध है। ऄब मुझे आस सम्बन्ध को सुदढ़ृ
बनाना चािहए, िजससे कृ ष्ण पुनः मुझे ऄपने परम धाम में ले जाएाँ।”
ब्रह्माण्ड की िस्थित हमें पूरी सुििधाएाँ प्रदान कर रही है िजससे हम श्रीकृ ष्ण
के साथ यह सम्बन्ध पुनः स्थािपत कर सकें और भगििाम िापस लौट सकें । जीिन
में यही हमारा लक्ष्य होना चािहए। हमें िजन-िजन िस्तुओं की अिश्यकता है -भूिम,
ऄन्न, िल, दूध, गृह, िस्त्र-िे इश्वर द्वारा प्रदान की जा रही है। हमें के िल
र्ािन्तपूियक जीिनयापन करते हुए कृ ष्णभािनाभािित होना है। यही हमारे जीिन
का लक्ष्य होना चािहए। ऄतः ऄन्न , िस्त्र, गृह, सुरक्षा और काम -िासना के रूप में
इश्वर ने जो कु छ भी हमें कदया हैं , ईससे हमें सन्तुष्ट रहना चािहए तथा और ऄिधक,
और ऄिधक की कामना नहीं करनी चािहए। िही सभ्यता सियश्रेष्ठ हैं , जो “सादा
जीिन ईच्च ििचार” के िसिान्त का पालन करती है। भोजन ऄथिा कामिासना का
ककसी कारखाने में िनमायण करना सम्भि नहीं है। ये और जो भी ऄन्य पदाथय हमें
चािहए, िे इश्वर द्वारा ईपलब्ध होते हैं। हमारा कायय तो बस आतना है कक आन
पदाथों से लाभ ईठाएाँ और इश्वरभािनाभािित हो जाएाँ।
यद्यिप इश्वर ने आस पृर्थिी पर र्ािन्तपूियक रहने के िलए , कृ ष्णभािनामृत में
प्रगित करने के िलए और ऄन्त में ईनकी र्रण में अने की सब सुििधाएाँ हमें प्रदान
की हैं , ककन्तु आस किलयुग में हम बड़े ऄभागे हैं। हम ऄल्पायु हैं , और ऄनेक लोग
भोजन, अिास, िििािहत जीिन और प्रकृ ित के प्रहारों से सुरक्षा से िंिचत हैं। यह
िस्थित ितयमान किलयुग के प्रभाि के कारण है। आसीिलए आस युग की भयािह
िस्थित को देखकर चैतन्य महाप्रभु ने अध्याित्मक जीिन -पिित के ऄनुर्ीलन की
ऄिनिायय अिश्यकता पर बल कदया। यह हमें कै से करना चािहए ? चैतन्य महाप्रभु
ने आसका सूत्र बताया हैः
हरे नायम हरे नायम हरे नायमैि के िलम्।
कलौ नास्त्येि नास्त्येि गितरन्यथा॥

57 ििषय-सूची
ऄथायत् “के िल हरर का नाम, हरर का नाम, हरर का नाम ही रक्षक है। किलयुग
में और कोइ गित नहीं है , नहीं है , नहीं है। ” आस बात की िचन्ता मत कीिजए कक
अप कारखाने में , नरक में , झोंपड़ी में या ककसी गगनचुम्बी भिन में हैं के िल हरे
कृ ष्ण, हरे कृ ष्ण, कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे । हरे राम , हरे राम, राम राम, हरे हरे ॥ आस
महामन्त्र का जप करते रिहए। आसमें न कोइ व्यय है , न बाधा, न जाित-बन्धन है, न
धमय-बन्धन है, न िणय-भेद है। आसे कोइ भी कर सकता है। के िल कीतयन कीिजए और
सुिनए।
सौभाग्य से यकद कोइ मनुष्य कृ ष्णभािनामृत के संपकय में अता है और ककसी
प्रामािणक गुरु के संरक्षण में आसकी साधना करता है , तो िह िनश्चय ही भगििाम
लौटेगा।
बहुनां जन्मनामन्ते ज्ञानिान्मां प्रपद्यते।
िासुदेिः सियिमित स महात्मा सुदल ु यभः॥
“ऄनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद िजसे सचमुच ज्ञान होता है, िह मुझको समस्त
कारणों का कारण जानकर मेरी र्रण में अता है। ऐसा महात्मा ऄत्यन्त दुलयभ
होता है।” (भ.गी. 7.19)
इश्वर ििज्ञान के िलए दार्यिनक खोज ऄनेक जन्मों तक करनी होती है।
इश्वरानुमित बहुत सरल है ककन्तु साथ ही साथ बहुत करठन भी हैं जो व्यिि कृ ष्ण
के िचनों को सत्य के रूप में स्िीकार कर लेते हैं , ईनके िलए तो यह ऄनुमित बहुत
सरल है, ककन्तु जो लोग ऄपनी दार्यिनक या ज्ञान की प्रगित के बल पर खोज करने
की कोिर्र् करते हैं , ईन्हें ऄपना ििश्वास पैदा करने के िलए आस खोज की ििमक
ऄिस्थाओं में से गुजरना पड़ता है ओर यह प्रकिया कइ जन्मों का समय ले लेती है।
ऄध्यात्मिादी िभन्न-िभन्न प्रकार के होते है , जो तत्त्ििित् कहलाते हैं , ऄथायत् परम
सत्य को जानने िाले। ऄध्यात्म िादी परम सत्य ईसे कहते हैं, िजस में कोइ द्वैत नहीं
होता। परम सत्य में कोइ िििभन्नता नहीं होती। परम सत्य में प्रत्येक िस्तु एक ही
स्तर पर िस्थत है। जो आस सत्य को सहीं ढ़ंग से जानता है , िही तत्त्ििित् कहलाता
है।
58 ििषय-सूची
श्रीकृ ष्ण कहते हैं कक परम सत्य का साक्षात्कार तीन रूपों में होता है -ब्रह्म,
परमात्मा और भगिान् -िनर्तिर्ेष ब्रह्म ज्योित, स्थािनक परमात्मा ि पूणय पुरुषोत्तम
परमेश्वर। आस प्रकार ये तीन दृिष्टकोण हैं िजनसे परम सत्य का साक्षात्कार ककया जा
सकता है। कोइ व्यिि एक पहाड़ को बहुत दूर से देखकर एक दृिष्टकोण से आसका
ऄनुभि कर सकता है।जैसे ही िह िनकट अता है , िह पहाड़ के लता , िृक्ष ओर
पणयसमूह को भी देख सकता है , और यकद िह पहाड़ पर चढ़ने लगता है , तो ईसे
िहााँ िृक्षों, पौधों ओर पर्ुओं के रूप में बहुत ििििधता का पता चलेगा। लक्ष्य एक
ही है , ककन्तु दृिष्टकोणों की िभन्नता के कारण ॠिषयों द्वारा परम सत्य की िभन्न -
िभन्न संकल्पनाएाँ की गइ हैं। एक दूसरा ईदाहरण लीिजए -सूयय प्रकार् है , सूयय-ग्रह
है, और सूयय -देिता है।जो व्यिि सूययप्रकार् में है िह यह दािा नहीं कर सकता कक
िह स्ियं सूयय पर है और जो व्यिि सूयय ग्रह पर है , िह देखने के दृिष्टकोण से ऄच्छी
िस्थित में है। सूययप्रकार् की तुलना हम सियव्यािपनी ब्रह्मज्योित से कर सकते है।
स्थानीय सूयय -ग्रह की तुलना परमात्मा के स्थानीय रूप से की जा सकती है , और
सूयय देिता, जो सूयय-ग्रह में िनिास करते हैं , ईनकी तुलना भगिान् से की जा सकती
है। जैसे आस पृर्थिी ग्रह पर जीिों की ऄनेक श्रेिणयााँ हैं ; हम िैकदक सािहत्य से समझ
सकते हैं कक सूयय में भी जीिों की िििभन्न श्रेिणयााँ हैं , ककन्तु ईनके र्रीर ऄिग्नमय हैं ,
ठीक िैसे ही जैसे हमारे र्रीर पृर्थिी से बने हैं।
भौितक प्रकृ ित में पााँच स्थूल तत्त्ि हैं -पृर्थिी, जल, िायु, ऄिग्न और अकार्।
िभन्न-िभन्न ग्रहों में आन पााँच तत्त्िों में से ककसी एक की प्रधानता के कारण िभन्न -
िभन्न िातािरण है , और ईनमें जीिों के िभन्न -िभन्न र्रीर है , जो आस बात पर
िनभयर है कक ककसी ग्रह में कौन से तत्त्ि की प्रधानता है। हमें यह नहीं सोचना
चािहए कक सभी ग्रहों में एक ही प्रकार का जीिन है। तथािप आस ऄथय में आसमें
समानता है कक ये पााँच तत्त्ि ककसी न ककसी रूप में िहााँ ििद्यमान हैं। आस प्रकार
ककसी ग्रह में पृर्थिी तत्त्ि की प्रधानता है , ककसी में ऄिग्न तत्त्ि की , ककसी में जल
तत्त्ि की , ककसी में िायु तत्त्ि की ओर ककसी में अकार् तत्त्ि की प्रधानता है।
आसिलए हमें यह नहीं सोचना चािहए कक चॅूंकक कोइ ग्रह मुख्यतया पृर्थिी तत्त्ि से
59 ििषय-सूची
िनर्तमत नहीं हैं , और चूाँकक ईस ग्रह का िातािरण हमारे ग्रह जैसा नहीं हैं , तो िहााँ
जीिन ही नहीं है। िैकदक सािहत्य हमें बताते हैं कक ब्रह्माण्ड में िभन्न -िभन्न र्रीर
िाले जीिों से भरे हुए ऄसंख्य ग्रह हैं। िजस प्रकार कु छ भौितक समन्िय करके हम
िभन्न-िभन्न ऄसंख्य ग्रहों में प्रिेर् करने की क्षमता प्राप्त कर सकते हैं ईसी प्रकार हम
आस क्षमता के द्वारा भगििाम में भी प्रिेर् कर सकते हैं जहााँ परम प्रभु िनिास
करते हैं।
यािन्त देिव्रता देिान् िपतॄन यािन्त िपतॄ-व्रताः।
भूतािन यािन्त भूतेज्या यािन्त मद्यािजनोऽिप माम्॥
“जो देिताओं की पूजा करते हैं , िे देिताओं के बीच जन्म लेंगे , जो िपतरों को
पूजते हैं , िे िपतरों के पास जाते हैं , जो भूत -प्रेतों की ईपासना करते हैं , िे ईन्हीं के
बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं िे मेरे साथ िनिास करते हैं। ” (भ.गी.
9.25)
जो लोग ईच्चतर ग्रहों में प्रिेर् करने का प्रयत्न कर रहे हैं , िे ईनमें जा सकते हैं
और जो लोग कृ ष्ण के ग्रह , गोलोक िृन्दािन में प्रिेर् करने का प्रयत्न कर रहे हैं , िे
भी कृ ष्णभािनामृत की प्रकिया से ऐसा कर सकते हैं। भारत जाने से पूिय हमें ईसका
िणयन प्राप्त कर लेना चािहए कक िह देर् कै सा है , क्योंकक ककसी स्थान के ििषय में
सुनना, िही ईसका प्रथम ऄनुभि है। आसी प्रकार यकद हमें ईस ग्रह का पररचय
पाना है , जहााँ भगिान् का िनिास है , तो हमें पहले ईसके ििषय में सुनना होगा।
हम तत्काल कोइ प्रयोग करके िहााँ नहीं पहुाँच सकते। यह संभि नहीं हैं ककन्तु हमें
िैकदक सािहत्य में ईस कदव्यलोक के ऄनेक िििरण िमलते हैं। ईदाहरणाथय ब्रह्म -
संिहता कहती हैः
िचन्तामिणप्रकर सद्मसु कल्पिृक्ष-
आक्षािृतेषु सुरभीरिभपालयन्तम्।
लक्ष्मी-सहस्त्रर्त-सम्भि-सेव्यमानम्
गोििन्दमाकदपुरुषं तमहं भजािम॥

60 ििषय-सूची
“मैं ईन अकद पुरुष गोििन्द भगिान् को भजता हॅूं , जो लाखों कल्पिृक्षों से
िघरे कदव्य िचन्तामिण समूहों से बने भिनों में लाखों लिक्ष्मयों या गोिपयों से सादर
सप्रेम सेिित हैं और जो कामधेनु गौिों को चराते हैं। ” आसी प्रकार भगििाम के और
भी ििस्तृत िणयन हैं। ब्रह्म-संिहता में आनका ििर्ेष रूप से स्पष्ट ईल्लेख है।
जो िजज्ञासु परम सत्य की ऄनुभूित करने का प्रयत्न कर रहे हैं , ईन्हें परम सत्य
के िििभन्न पक्षों पर मन को के िन्ित करने के अधार पर िगीकृ त ककया जाता है। जो
िनराकार ब्रह्म को के न्ि मानकर साधना करते हैं , िे ब्रह्मिादी कहलाते हैं।
साधारणतया जो लोग परम सत्य की ऄनुभूित करने का प्रयत्न करते हैं , िे सियप्रथम
ब्रह्मज्योित का ऄनुभि करते हैं। जो लोग हृदय में िस्थत इश्वर ऄथायत् परमात्मा की
ऄनुभूित पर ध्यान के िन्ित करते हैं , िे परमात्मािादी कहलाते हैं। परम प्रभु ऄपने
पूणय ऄंर् के द्वारा प्रत्येक प्राणी के हृदय में िस्थत हैं और ध्यान एिं धारणा द्वारा
मनुष्य आस रूप का ऄनुभि कर सकता है। िे न के िल प्रत्येक िाणी के हृदय में
िस्थत हैं ऄिपतु सृिष्ट के प्रत्येक परमाणु में भी व्याप्त हैं। यह परमात्मा का
साक्षात्कार दूसरा स्तर है। तृतीय और ऄिन्तम स्तर है साक्षात् पूणय पुरुषोत्तम
भगिान् की ऄनुभूित। आस ऄनुभूित के तीन प्रमुख स्तर है ; ऄतः सिोच्च परम सत्य
की ऄनुभूित एक जन्म में नहीं हो पाती। आसिलए कहा गया है-बहनां जन्मनाम् ऄन्ते
ज्ञानिान्मां प्रपद्यते। यकद कोइ सौभाग्यर्ाली हो , तो परम सत्य के दर्यन एक क्षण
में ही पा सकता है। ककन्तु साधारणतया इश्वर -तत्त्ि का रहस्य जानने मे ऄनेक िषय
और ऄनेक जन्म लग जाते हैं।
ऄहं सियस्य प्रभिो मत्तः सिं प्रितयते।
आित मत्िा भजन्ते मां बुधा भािसमिन्िताः॥
“मैं समस्त अध्याित्मक तथा भौितक जगतों का कारण हाँ , प्रत्येक िस्तु मुझ से
ही ईदभूत है। जो बुििमान यह भलीभााँित जानते हैं , िे मेरी प्रेमाभिि में लगते हैं
तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते है।” (भ.गी. 10.8)
िेदान्त सूत्र भी पुिष्ट करता है कक परम सत्य िही है , िजससे सबका ईद्भि
हुअ है। यकद हम िस्तुतः मानने लगें कक कृ ष्ण ही सबके ईद्गम हैं , और हम ईनकी
61 ििषय-सूची
अराधना करें तो हमारे समस्त कमों का खाता एक क्षण में ही बन्द हो जाएाँ। ककन्तु
यकद कोइ व्यिि ऐसा ििश्वास न करके यह कहते कक , “ऄरे , मैं देखना चाहता हॅूाँ कक
इश्वर क्या है ” तो ईसे परम सत्य के साक्षात्कार के ििमक सोपानों से गुजरना
पड़ेगा। पहले िनर्तिर्ेष ब्रह्मज्योित की ऄनुभूित , किर स्थानीय परमात्मा की
ऄनुभूित और ऄन्त में भगिान् का साक्षात्कार, “अह! ये रहे पूणय पुरुषोत्तम परमेश्वर
यहााँ।” ककन्तु हमें यह समझ लेना चािहए कक आस प्रकिया में बहुत समय लगता है।
जब ऄनेक िषो की खोज के ईपरा न्त साधक को परम सत्य की ऄनुभूित हो जाती
है, तो िह आस िनष्कषय पर पहुाँचता है कक , “िासुदि
े ः सियम् आित” “िासुदि
े ही सब
कु छ हैं। ” िासुदि
े कृ ष्ण का एक नाम है , और आसका ऄथय है , िे प्रभु जो सियत्र व्याप्त
हैं। िासुदि
े ही सबका मूल हैं , यह ऄनुभि करके मनुष्य प्रभु की र्रण में जाता है -
„मां प्रपद्यते। ‟ र्रणागित ही चरम लक्ष्य है। चाहे आसे कोइ तुरन्त ऐसा करे ऄथायत
र्रणागत हों , या ऄनेक जन्मों की र्ोध के ईपरान्त। दोनों ही िस्थितयों में यह
ऄनुभि करके र्रणागित होनी अिश्यक है कक , “प्रभु महान हैं और मैं ईनका तुच्छ
सेिक हाँ।”
आस रहस्य को जानकर बुििमान पुरुष तुरन्त ही कृ ष्ण की र्रण ले लेता है
और ऄनेक जन्म लेने के िलए प्रतीक्षा नहीं करता। िह समझ लेता है कक िह रहस्य
प्रभु ने जीिों पर ऄपनी ऄनन्त कृ पा के कारण ही प्रकट ककया है। हम सभी भौितक
जगत के ित्रििध तापों को भोग रहे बिजीि हैं। ऄब प्रभु ऄपनी र्रणागित की
प्रकिया द्वारा हमें आन ित्रििध तापों से मुि होने का सुऄिसर दे रहे हैं।
यहााँ कोइ िजज्ञासु यह पूछ सकता है कक जब परम प्रभु का व्यिित्ि ही मनुष्य
का चरम लक्ष्य है और मनुष्य को प्रभु की र्रण में जाना ही पड़ेगा, तो आस संसार में
ईपासना की आतनी सारी पिितयााँ क्यों हैं ? आस प्रश्न का ईत्तर ऄगले श्लोक में कदया
गया है
कामै तै ज्ञानां प्रपद्यन्तेऽन्यदेिता।
तं तं िनयममास्थाय प्रकृ त्या िनयता स्िया॥

62 ििषय-सूची
“िजनकी बुिि भौितक आच्छाओं द्वारा मानी गइ है , िे देिताओं की र्रण में
जाते हैं , और िे ऄपने -ऄपने स्िभाि के ऄनुसार पूजा के ििर्ेष िििध -ििधानों का
पालन करते हैं।” (भ.गी. 7.20)
आस संसार में ििििध प्रकार के ऄनेक लोग हैं और िे भौितक प्रकृ ित ऄलग -
ऄलग गुणों ऄधीन होकर कमय करते रहते हैं। साधारणतया ऄिधकतर लोग मुिि के
िलए प्रयत्नर्ील नहीं होते। यकद िे ऄध्यात्म की ओर ईन्मुख होते भी हैं , तो िे
ऄपनी अध्याित्मक र्िि से कु छ प्राप्त करना चाहते हैं। भारतिषय में यह कोइ
ऄसाधारण बात नहीं है कक कोइ व्यिि ककसी स्िामी के पास जाकर कहे कक ,
“स्िामी जी, मैं ऄमुक रोग में पीिड़त हॅू।ाँ क्या अप मुझे कोइ औषिध दे सकते है ?”
िह सोचता है कक एक डॉक्टर तो बहुत महाँगा पड़ता है, तो िह एक स्िामी के पा स
क्यों न जाएाँ , जो चमत्कार कर सकते हैं। भारत में ऐसे स्िामी भी हैं जो लोगों के
घर जाते हैं और कहते हैं यकद अप मुझे एक तोला सोना दें तो मैं ईसे एक सौ तोले
बना सकता हॅू।ाँ लोग सोचते हैं “हमारे पास पााँच तोला सोना है। क्यों न हम आसे
स्िामी जी को देकर पााँच सौ तोले बनिालें। ” आस प्रकार स्िामी गााँि भर का सारा
सोना बटोर कर गायब हो जाता है। यही हमारी बीमारी है ; जब हम ककसी स्िामी
ने पास या मिन्दर, मिस्जद, चचय में जाते हैं , तो हमारे हृदय ककसी न ककसी भौितक
कामनाओं से भरे होते हैं। अध्याित्मक जीिन से भी कु छ -न-कु छ भौितक ला भ
चाहते हुए हम स्िास्र्थय को ठीक रखने के िलए योगाभ्यास करते हैं , ककन्तु स्िस्थ
रहने के िलए योग की र्रण लेने की क्या जरूरत है ? स्िस्थ तो हम िनयिमत
व्यायाम और संयिमत अहार से भी रह सकते हैं। किर योग का अश्रय क्यों लेते हैं ?
क्येांकक कामैस्तैस्तैहृत
य ज्ञाना। आसिलए कक हम में स्ियं को स्िस्थ रखने ि जीिन में
अनन्द की कामना है और यह हम चचय जाकर भगिान् को हमारे भोगों की पूर्तत के
माध्यम (अडयर सप्लायर) बना कर पाना चाहते हैं।
भौितक कामनाओं की पूर्तत के िलए मनुष्य िििभन्न देिताओं की ईपासना
करता है। िे भौितक पदाथय से बाहर िनकलने का कोइ ज्ञान ही नहीं रखते। िे तो
आस भौितक जगत का ऄिधक से ऄिधक ईपभोग करना चाहते हैं। िे तो आस भौितक
63 ििषय-सूची
जगत का ऄिधक से ऄिधक ईपभोग करना चाहते हैं। ईदाहरणाथय , िैकदक सािहत्य
में ऄनेक ईपाय बताए गए हैंःः यकद ककसी को ऄपने ककसी रोग से छु टकारा पाना
है, तो ईसे सूयय की ईपासना करनी चािहए। यकद ककसी कन्या का ईत्तम िर चािहए,
तो ईसे िर्िजी की ईपासना करनी चािहए। यकद ककसी को सौन्दयय चािहए तो िह
ऄमुक देिता को पूजता है और ककसी को ििद्या की कामना है तो िह देिी सरस्िती
की ईपासना करता है। आस प्रकार पाश्चात्य लोग प्रायः सोचते हैं कक िहन्दू लोग
बहुदेि-पूजक हैं , ककन्तु िास्ति में यह पूजा इश्वर की नहीं , ऄिपतु देिताओं की है।
हमें यह नहीं सोचना चािहए कक देिगण भगिान् हैं। इश्वर तो एक ही हैं , ककन्तु
देिता बहुत हैं जो हमारी भााँित जीि ही हैं। ऄन्तर के िल यह है कक ईनमें हमारी
ऄपेक्षा बहुत ऄिधक र्िि है। आस पृर्थिी पर कोइ राजा हो , या राष्ट्रपित , या
तानार्ाह-ये सब हमारी भााँित मनुष्य ही हैं , ककन्तु ईनमें कु छ ऄसाधारण र्िि
होती है, और ईनकी कृ पा प्राप्त करने के िलए, ईनकी र्िि का लाभ ईठाने के िलए,
हम ककसी न ककसी प्रकार ईनकी पूजा करते हैं ककन्तु भगिद्गीता देिताओं की पूजा
के पक्ष में नहीं हैं। आस श्लोक मे स्पष्ट कहा गया है कक लोग काम ऄथायत् भौितक
कामनाओं के िलए देिताओं की पूजा करते हैं।
यह भौितक जीिन के िल काम पर अधाररत है। हम आस भौितक संसार का
सुख भोगना चाहते हैं , और हम आसे प्रेम करते हैं , क्योंकक हम ऄपनी आिन्ियों को
तृप्त करना चाहते हैं। हमारी यह काम -भािना इश्वर के प्रित हमारे प्रेम का ििकृ त
प्रितिबम्ब है। ऄपने मूल स्िरूप में हमारा िनमायण इश्वर से प्रेम करने के िलए हुअ
है, ककन्तु चूाँकक हम भगिान् को भूल गए हैं , आसिलए हम भौितक पदाथय को प्यार
करने लगे हैं। ककन्तु प्रेम तो यहााँ भी ििद्यमान है ही। या तो हम भौितक पदाथय से
प्रेम करते हैं या भगिान् सें ककन्तु ककसी भी िस्थित में हम प्रेम करने की आस सहज
प्रिृित्त से बाहर नहीं जा सकते। िनस्सन्देह , प्रायः हम देखते हैं कक िजस व्यिि के
बच्चे नहीं होते , िह िबल्ली या कु त्ते से प्रेम करने लगता है। क्यों ? क्योंकक हम ककसी
न ककसी से प्रेम करना चाहते हैं , हमें आसकी ऄिनिायय अिश्यकता है। िास्तििकता
के ऄभाि में हम ऄपना प्रेम और ििश्वास कु त्तों और िबिल्लयों में लगा देते हैं। प्रेम
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सदैि ििद्यमान है , ककन्तु िह काम के रूप में ििकृ त हो जाता है। जब यह काम
ऄपूणय या ऄतृप्त रह जाता है , तो हम िु ि हो जाते हैं , िोध से संमोह होता है और
संमोिहत होने पर हमारा नार् हो जाता है। यही चि चलता रहता है , ककन्तु हमें
आस प्रकिया कदर्ा ईल्टी करनी होगी और काम को प्रेम मे पररिर्ततत करना होगा।
यकद हम इश्वर से प्रेम करते हैं , तो हम प्रत्येक िस्तु से प्रेम करते हैं। ककन्तु यकद हम
इश्वर से प्रेम नहीं करते , तो ककसी से भी प्रेम करना सम्भि नहीं है। हम सोच सकते
हैं कक यह प्रेम है , ककन्तु िह होता है के िल चमकता हुअ काम ही। जो लोग काम के
पीछे कु त्तों जैसे पागल हो गए है , ईनके िलए कहा जाता है कक ईनकी सारी
सदिृित्तयााँ मारी गइ हैं ऐसे ही लोगों के िलए गीता में कामैस्तैस्तैहृत
य ज्ञानाः कहा
जाता है।
र्ास्त्रों में देिताओं की पूजा के बहुत से िििधििधान है। कोइ व्यिि यह प्रश्न
कर सकता है कक िैकदक सािहत्य में ईनकी पूजा की संस्तुित क्यों की गइ है। आसकी
अिश्यकता है। जो लोग काम-प्रेररत हैं, िे ककसी न ककसी से प्रेम करने का सुऄिसर
चाहते हैं , और देिता लोग भगिान् के ऄिधकारी -सेिक माने गए हैं आसका ईद्देश्य
यह है कक कोइ व्यिि आन देिताओं की ईपासना करते हुए धीरे -धीरे स्ियं में
कृ ष्णभािनामृत का ििकास कर लेगा। ककन्तु यकद कोइ व्यिि ककसी भ सत्ता के
प्रित पूणयतया नािस्तक, ईदण्ड और िििोही है , तो ईससे क्या अर्ा की जा सकती
है? ऄतः ककसी व्यिि की ककसी ईच्चतर सत्ता के प्रित अस्था का अरम्भ देिताओं
की अराधना से हो सकता है।
ककन्तु यकद हम सीधे परम प्रभु कृ ष्ण की ईपासना करें , तो देिताओं की
अराधना की कोइ अिश्यकता नहीं है। जो लोग सीधे परम प्रभु की ईपासना करते
हैं, िे देिताओं के प्रित पूरा सम्मान का भाि रखते हैं , ककन्तु ईन्हें देिताओं की
अराधना करने की अिश्यकता नहीं है , क्योंकक िे जानते हैं कक देिताओं के पीछे
सिोच्च ऄिधकारी सियर्ििमान परम प्रभु भगिान् कृ ष्ण ही है ; और िे ईनकी
ईपासना में लग जाते हैं। प्रत्येक िस्थित में अस्था और सम्मान भाि तो रहता ही
है। कृ ष्ण का भि तो चींटी का भी अदर करता है , किर देिताओं के िलए तो कहना
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ही क्या हैं ? भि जानता है कक प्रत्येक जीि भगिान् का ही ऄंर् है और िह िभन्न -
िभन्न भूिमकाएाँ िनभा रहा है।
प्रभु के सम्बन्ध के दृिष्टकोण से सभी प्राणी सम्मान के पात्र हैं। आसिलए भि
दूसरों को „प्रभु‟ कहकर सम्बोिधत करता है। „प्रभु‟ का मतलब है, “मेरे िप्रय स्िामी।”
नम्रता प्रभु के भि की एक ििर्ेषता है। भि दयालु और अज्ञाकारी होते हैं और
ईनमें सभी सदगुण होते हैं। सारांर् यह है कक यकद कोइ व्यिि भगिान् का भि बन
जाता है , तो ईसमें समस्त सदगुण स्ितः ििकिसत हो जाएाँगे। जीि ऄपने मूल
स्िरूप में पूणय है, ककन्तु काम-दोष से िह दूिषत हो जाता है। सोने का छोटे से छोटा
खण्ड भी सोना ही होता है। आसी प्रकार पूणय ब्रह्म का ऄंर् जीि भी पूणय ही होता है।
ॎ पूणयमदः पूणयिमदं पूणायत्पूणयमुदच्यते।
पूणयस्य पूणयमादाय पूणयमेिाििर्ष्यते॥
“भगिान् पूणय हैं। िे पररपूणय हैं ऄतः ईनसे ईदभूत चीजें और यह दृश्यमान
जगत भी सब प्रकार से पूणय हैं। जो परम पूणय से ईत्पन्न होता है , िह भी स्ियं में पूणय
होता है। ईस पूणय से ऄनेक पूणय आकाआयााँ ईत्पन्न होने पर भी िे पूणय ही र्ेष रहते
हैं।” (श्रीइर्ोपिनषद्, मंगलाचरण)
भौितक पदाथय के संग -दोष से प्रभु का पूणांर् रूप यह जीि ऄधःपितत हो
जाता है , ककन्तु कृ ष्णभािनामृत की आस प्रकिया से िह पुनः पूणयत्ि को प्राप्त कर
लेगा। आस भािना से िह िास्ति में सुखी हो सकता है और आस भौितक र्रीर को
छोड़ने के पश्चात् ईस परम धाम में प्रिेर् करता है जहााँ र्ाश्वत जीिन , पूणय अनन्द
और पूणय ज्ञान हैं।

66 ििषय-सूची
लेखक पररचय
कृ ष्णकृ पामूर्ततश्रीश्रीमद्ए. सी. भिििेदान्तस्िामीप्रभुपादकाऄििभायिसन्
1896 इ.
मेंभारतके कलकत्तानगरमेंहुअथा।ऄपनेगुरुमहाराजश्रीलभिििसिान्तसरस्ितीगो
स्िामीमहाराजसेसन् 1922 इ.
मेंकलकत्तामेंईनकीप्रथमभेंटहुइ।एकसुप्रिसिधमयतत्त्ििेत्ता, ऄनुपमप्रचारक, ििद्वान-
भि,
अचाययएिंचौंसठगौड़ीयमठोंके संस्थापकश्रीलभिििसिान्तसरस्ितीकोयेसुिर्िक्षतन
ियुिकिप्रयलगेऔरईन्होंनेिैकदकज्ञानके प्रचारके िलएऄपनाजीिनईत्सगयकरनेकीआनको
प्रेरणादी।श्रीलप्रभुपादईनके छात्रबनेऔर 11 िषयबाद ( सन् 1993 इ.) प्रयाग
(आलाहाबाद) मेंईनके िििधित्दीक्षा-प्राप्तिर्ष्यहोगए।

ऄपनीप्रथमभेंट, सन् 1922 , इ.


मेंहीश्रीलभिििसिान्तसरस्ितीठाकु रनेश्रीलप्रभुपादसेिनिेदनककयाथाककिेऄंग्रेजीभा
षाके माध्यमसेिैकदकज्ञानकाप्रसारकरें ।अगामीिषोंमेंश्रीलप्रभुपादनेश्रीमद्-भगिद्-
गीतापरएकटीकािलखी, गौड़ीयमठके काययमेंसहयोगकदयातथासन् 1944 इ.
मेंिबनाककसीकीसहायतासेएकऄंग्रेजीपािक्षकपित्रका ( बैकटू गॉडहेड)
अरम्भकी।पित्रकाके सम्पादन,
67 ििषय-सूची
पाण्डु िलिपकाटंकणऔरमुकितसामग्रीके प्रूिर्ोधनकासाराकाययिेस्ियंकरतेथे।ईन्होंनेप्र
त्येकप्रितिनःर्ुल्कबााँटकरभीआसके प्रकार्नकोबनाएरखनेकेिलएसंघषयककया।एकबार
अरम्भहोकरकिरयहपित्रकाकभीबन्दनहींहुइ।ऄबयहईनके िर्ष्योंद्वारासम्पूणयििश्वमें
चलाइजारहीहैऔर 30
सेऄिधकभाषाओंमेंछपरहीहै।श्रीलप्रभुपादके दार्यिनकज्ञानएिंभििकीमहत्तापहचान
कर“गौड़ीयिैष्णिसमाज”नेसन् 1947 इ.
मेंईन्हें“भिििेदान्त”कीईपािधसेसम्मािनतककया।सन् 1950 इ. में 54
िषयकीऄिस्थामेंश्रीलप्रभुपादनेगृहस्थअश्रमकात्यागकरिानप्रस्थअश्रमस्िीकारककया,
ताककिेऄपनेऄध्ययनऔरलेखनके िलएऄिधकसमयदेसकें ।तदनन्तरश्रीलप्रभुपादनेश्रीिृ
न्दािनधामकीयात्राकी,
जहााँिेबड़ीहीसाित्िकपररिस्थितयोंमेंमध्यकालीनऐितहािसकश्रीराधादामोदरमिन्दर
मेंरहे।िहााँिेऄनेकिषोंतकगम्भीरऄध्ययनएिंलेखनमेंसंलग्नरहे।सन् 1959 इ.
मेंईन्होंनेसंन्यासग्रहणकरिलया।श्रीराधादामोदरमिन्दरमेंहीश्रीलप्रभुपादनेऄपनेजीि
नके सबसेश्रेष्ठऔरमहत्िपूणयग्रन्थ“भागितपुराण”काऄनेकखण्डोंमेंऄंग्रेजीमेंऄनुिादऔर
व्याख्याकरनाअरम्भककया।यहााँईन्होंने“ऄन्यग्रहोंकीसुगमयात्रा”नामकपुिस्तकाभीिल
खीथी।

भागितपुराणके प्रथमस्कन्धके तीनखण्डप्रकािर्तकरनेकेबादश्रीलप्रभुपादिसत


म्बरसन् 1965 इ.
मेंऄपनेगुरुदेिके अदेर्ानुसारकृ ष्णभािनामृतकाप्रचारकरनेकेिलएसंयुिराज्यऄमेरर
कागए।श्रीलप्रभुपादनेभारतिषयकेश्रेष्ठदार्यिनकऔरधार्तमकग्रन्थोंके प्रामािणकऄनुिाद,
टीकाएाँएिंसंिक्षप्तऄध्ययन-सारके रूपमें 80 सेऄिधकग्रन्थ-रत्नप्रस्तुतककए।

सन् 1965 इ.
मेंजबश्रीलप्रभुपादएकमालिाहकजलयानद्वाराप्रथमबारन्यूयॉकय नगरमेंगएतोईनके पा
सके िल 40 रुपएथे।ऄत्यन्तकरठनाइभरे लगभगएकिषयकेबादजुलाइ,1966 इ.
मेंईन्होंने“हरे कृष्णमूिमेंट” ( ऄन्तरायष्ट्रीयकृ ष्णभािनामृतसंघ) कीस्थापनाकी। 14
68 ििषय-सूची
निम्बर, 1977 इ. कोश्रीकृ ष्ण-बलराममिन्दर,
िृन्दािनधाममेंईनके ितरोभािसेपूियश्रीलप्रभुपादनेऄपनेकुर्लमागयदर्यनमेंआससंघको
ििश्वभरमेंसौसेऄिधकमिन्दरोंके रूपमेंअश्रमों, ििद्यालयों, मिन्दरों, संस्थाओंऔरकृ िष-
समुदायोंकाबृहदसंगठनबनाकदया।

सन् 1968 इ. मेंश्रीलप्रभुपादनेप्रयोगके रूपमेंनि-िृन्दािन ( िैकदकसमुदाय)


कीस्थापनापिश्चमीिजीिनया,
ऄमेररकाकीपहािड़योंमेंकी।दोहजारएकड़सेभीऄिधकक्षेत्रिलके आससमृिनि-
िृन्दािनके कृ िष-
क्षेत्रसेप्रोत्सािहतहोकरईनके िर्ष्योंनेसंयुिराज्यऄमेररकातथाऄन्यदेर्ोंमेंभीऐसेऄनेक
समुदायोंकीस्थापनाकी।

सन् 1972 इ. मेंश्रीलप्रभुपादनेडल्लास,


टेक्सासमेंगुरुकु लकीस्थापनाद्वारापिश्चमीदेर्ोंमेंप्राथिमकऔरमाध्यिमकिर्क्षाकीिैकद
कप्रणालीकासूत्रपादककया।तबसे,
ईनके िनदेर्नके ऄनुसारश्रीलप्रभुपादके िर्ष्योंनेसम्पूणयििश्वमेंदससेऄिधकगुरुकु लखोले
हैं।

श्रीलप्रभुपादनेश्रीधाम-मायापुर,
पिश्चमबंगालमेंएकििर्ालऄन्तरायष्ट्रीयके न्िके िनमायणकीप्रेरणादी।आसीप्रकारिृन्दािन
धाममेंभव्यश्रीकृ ष्ण-
बलराममिन्दरऔरऄन्तरायष्ट्रीयऄितिथभिनतथाश्रीलप्रभुपादस्मृितसंग्रहालयकािनमाय
णहुअहै।येिेकेन्िहैंजहााँपाश्चात्यलोगिैकदकसंस्कृ ितकामूलरूपसेप्रत्यक्षऄनुभिप्राप्तकर
सकतेह।ैं

श्रीलप्रभुपादकासबसेबड़ायोगदानईनके ग्रन्थ (80 सेऄिधक)


हैं।येग्रन्थििद्वानोंद्वाराईनकीप्रामािणकता,
गम्भीरताऔरस्पष्टताके कारणऄत्यन्तसम्मानप्राप्तऔरऄनेकमहाििद्यालयोंमेंईच्चस्तरी

69 ििषय-सूची
यपाठ्यग्रन्थोंके रूपमेंप्रयुिहोतेह।ैं श्रीलप्रभुपादकीरचनाएाँ 80
सेऄिधकभाषाओंमेंऄनूकदतहैं।सन् 1972 इ.
मेंकेिलश्रीलप्रभुपादके ग्रन्थोंके प्रकार्नके िलएस्थािपतभिििेदान्तबुकट्रस्ट,
भारतीयधमयऔरदर्यनके क्षेत्रमेंििश्वकासबसेबड़ाप्रकार्कहोगयाहै।श्रीलप्रभुपादद्वारा
िलिखत“श्रीमद्-भगिद्-गीतायथारूप”सम्पूणयििश्वमेंभगिद्-
गीताकासिायिधकपरठतसंस्करणहै।

12 िषोंमें, ऄपनीिृिािस्थाकीिचन्तानकरतेहुएपररव्राजक-
अचाययकेरूपमेंश्रीलप्रभुपादनेििश्वके 6 महाद्वीपोंकी 14
बारयात्राकी।आतनेव्यस्तकाययिमके रहतेहुएभीश्रीलप्रभुपादकीईियरालेखनीऄििरलच
लतीरहतीथी।ईनकीरचनाएाँिैकदकदर्यन, धमय,
सािहत्यऔरसंस्कृ ितके एकयथाथयपुस्तकालयकािनमायणकरतीहैं।

70 ििषय-सूची

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