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लेख सूचना

तंत्र साहित्य तंत्र साहित्य

गण भू वि क सा संस ् शब्द पस्


ु तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
इति पर्य ध विश्व भारत
राज ् गो ज्ञा ल हित ् कृ ाव पष्ृ ठ संख्या
हास टन र्म कोश कोश 278
य ल न ा य ति ली
भाषा हिन्दी दे वनागरी

तंत्र साहित्य (भारतीय) तंत्र साहित्य विशाल और संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी

प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी


वैचित्र्यमय साहित्य है । यह प्राचीन भी है तथा व्यापक
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
भी। वैदिक वाड्मय से भी किसी किसी अंश में इसकी
संस्करण सन ्‌1973 ईसवी
विशालता अधिक है । ,चरणाव्यह
ू , नामक ग्रंथ से उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय

वैदिक साहित्य का किं चित ्‌परिचय मिलता है , परं तु


कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
इसकी अपेक्षा हम लोगों को उपलब्ध वैदिक साहित्य
लेख सम्पादक म. म. गोपीनाथ कविराज
एक प्रकार से साधारण मालम
ू पड़ता है । तांत्रिक

साहित्य का अति प्राचीन रूप लप्ु त हो गया है । परं तु

उसके विस्तार का जो परिचय मिलता है उससे अनम


ु ान किया जा सकता है कि प्राचीन काल में वैदिक साहित्य से भी

इसकी विशालता अधिक थी और वैचित्र्यमय भी।

'तंत्र' तथा 'आगम' दोनों समानार्थक शब्द हैं। किसी स्थान में आगम शब्द के स्थान में 'निगम' शब्द का भी प्रयोग

दिखाई दे ता है । फिर भी यह सच है कि तंत्र समझने के लिये आगम शब्द का ,शब्दप्रमाण, रूप में अर्थात ्‌आप्तवचन रूप

में व्यवहार करते थे। अंग्रेजी में जिसे ,रिविलेशन, (Revelation) कहते हैं, ये आगम प्राय: वही हैं। लौकिक आप्तपुरूषों

से अलौकिक आप्तपुरूषों का महत्व अधिक है , इसमें संदेह नहीं। वेद जैसे हिरणयगर्भ अथवा ब्रह्म के साथ संश्लिष्ट है

उसी प्रकार तंत्र भी ममूल में शिव और शक्ति के साथ संश्लिष्ट है । जैसे शिव के, वैसे ही शक्तिके भिन्न रूप हैं। भिन्न

रूपों से विभिन्न प्रस्थानों के तंत्रो का आविर्भाव हुआ था। इसी प्रकार शैव तथा शाक्त तंत्र के अनुरूप वैष्णव तंत्र भी है ।

,पांचरात्र, अथवा, सात्वत, आगम इसी का नामांतर है । (दे खिय ,पांचरात्र संप्रदाय,) वैष्ण्णव के सद्यश गणपति, और

सौर आदि संप्रदायों में भी अपनी धारा के अनुसार आगम का प्रमार है । डॉ0 श्रेडर ने ,अहिर्बुध्न्य संहिता, की भमि
ू का में

पांचरात्र आगम के विषय में एक उत्कृष्ट निबंध प्रकाशित किया था। जिससे पता चलता है कि वैष्णव आगम का भी

अति विशाल साहित्य है । परं तु यहाँ वैष्णव तंत्र के विषय में कुछ विस्तत
ृ आलाचना न कर शैव और शाक्त आगमों की

आलोचना ही प्रस्तुत है ।
विषय सूची

 [छिपाएं]

1 तंत्र साहित्य का

वर्गीकरण

2 प्राचीन आगम

3 अष्टादश रूद्रागम का

विवरण

4 'चतु:षष्टि भैरवागम'

5 शुभागम पंचक

6 टीका टिप्पणी और संदर्भ

तंत्र साहित्य का वर्गीकरण

मूल तंत्र साहित्य सामान्यत: तीन भागों में विभक्त हो सकता है । सबसे पहले आदि आगम, अथवा उपागम विभाग,।

उसके बाद आगमों का एक द्वितीय विभाग जिसका प्रामाणय प्रायस्स:्‌ प्रथम विभाग के ही अनुरूप है । इस प्रकार के

अंथों की संख्या अति विशाल है । इसके अनंतर विभिन्न ऋषियों आदि के द्वारा उपदिष्ट भिन्न भिन्न ग्रंथ भी हैं, ये सब

प्रामाणिक ज्ञानधारा का आश्रय लेकर ज्ञान, योग, चर्या तथा क्रिया के विषय में बहुसंख्यक प्रकरण ग्रंथ रचित हुए हैं।

केवल इतना ही नहीं, तत्संबंधी उपासना, कर्मकांड और यहाँ तक कि लौकिक प्रयोग साधन और प्रयोग विज्ञान के विषय

में अनेक ग्रंथ तंत्र साहित्य के अंतर्गत हैं।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि परम अद्वय विज्ञान का सूक्षातिसूक्ष्म विश्लेषण और विवरण जैसा तंत्र ग्रंथों में है वैसा

किसी शासत्र के ग्रंथों में नहीं है । साथ ही साथ यह भी सच है कि उच्चाटन, वशीकरण प्रभति
ृ क्षुद्र विद्याओं का प्रयोग

विषयक विवरण भी तंत्र में मिलता है । स्पष्टतं: वर्तमान हिंद ू समाज वेदाश्रित होने पर भी व्यवहार-भूभि में विशेष रूप से

तंत्र द्वारा ही नियंत्रित है ।

प्राचीन आगम

प्राचीन आगमों का विभाग इस प्रकार हो सकता है : क . शैवागम (संख्या में दस ), ख. रूद्रागम (संख्या में अष्टादश )।
ये अष्टाविंशति आगम ,सिद्धांत आगम, के यप में विख्यात हैं। ,भैरव आगम, संख्या में चौंसठ सभी मल
ू त: शैत्रागम हैं।

इन ग्रंथों में शाक्त आगम आंशिक यप में मिले हुए हैं। इनमें द्वैत भाव से लेकर परम अद्वैत भाव तक की चर्चा है ।

सबसे पहले दस शैवागमकों का विवरण दे रहे हैं। स्मरण रखना होगा कि आगम ग्रंथ में साधारणतया चार पाद होते है

ा-ज्ञान, योग, चर्या और क्रिया। इन पादों में इस समय कोई कोई पाद लप्ु त हो गया है , ऐसा प्रतीत होता है और मल

आगम भी सर्वांश में पर्ण


ू तया उपलब्ध नहीं होता, परं तु जितना भी उपलब्ध होता है वही अत्यंत विशाल है , इसमें संदेह

नहीं।

किरणागम, में लिखा है कि, विश्वसष्टि


ृ के अनंतर परमेश्वर ने सबसे पहले महाज्ञान का संचार करने के लिये दस शिवों

का प्रकट करके उनमें से प्रत्येक हो उनके अविभक्त महाज्ञान का एक एक अंश प्रदान किया। इस अविभक्त महाज्ञान को

ही शैवागम कहा जाता है । वेद जैसे वास्तव में एक है और अखंड महाज्ञान स्वरूप है , परं तु विभक्त होकर तीन अथवा चार

रूपों में प्रकट हुआ है , उसी प्रकार मूल शिवागम भी वस्तुत: एक होने पर भी विभक्त होकर दस आगमों के रूप में प्रसिद्व

हुआ है । इन समस्त आगमधाराओं में प्रत्येक की परं परा है ।

दस शिवों में पहले ,प्रणव, खिव हैं। उन्होंने साक्षात ्‌परमें श्वर से जिस आगम को प्राप्त किया था उसका नाम ,कामिक,

आगम है । प्रसिद्वि है कि उसकी श्लोकसंख्या एक परार्ध थी। प्रणव शिव से त्रिकाल को और त्रिकाल से हर को क्रमश: यह

आगम प्राप्त हुआ। इस कामिक आगम का नामांतर है , कामज, त्रिलोक, की जयरथकृत टीका में कही नाम मिलता है ।

द्वितीय शिवागम का नाम है , योग इसकी श्लोक संख्या एक लक्ष है , ऐसी प्रसिद्वि है । इस आगम के पाँच अवांतर भेद

हैं।

पहले सुधा नामक शिव ने इसे प्राप्त किया था। उनसे इसका संचार भस्म में ; फिर भस्म से प्रभु में हुआ। तत
ृ ीय आगम

चित्य है । इसका भी परिमाण एक लक्ष श्लोक था। इसके छ: अवांतर भेद हैं। इसे प्राप्त करनेवाले शिव का नाम है दीप्त।

दीप्त से गोपति ने, फिर गोपति से अंबिका ने प्राप्त किया। चौथा शिवागम कारण है । इसका परिमाण एक कोटि श्लोक

हे । इसमें सात भेद हैं। इसे प्राप्त करनेवाले क्रमश: कारण, कारण से शर्व, शर्व से प्रजापति हैं। पाँचवाँ आगम अजित है ।

इसका परिमाण एक लक्ष श्लोक है । इसके चार अवांतर भेद हें । इसे प्राप्त करनेवालों के नाम हैं सशि
ु व, सुशिव से उमेश,

उमेश से अच्युत। षष्ठ आगम का नाम सुदीप्तक (परिमाण में ए लक्ष एवं अवांतर भेद नौ ) हैं। इसे प्राप्त करनेवालों के

नाम क्रमश: ईश, ईश से त्रिमूर्ति, त्रिमूर्ति से हुताशन। सप्तम आगम का नाम सूक्ष्म (परिमाण में एक पद्म) हैं। इसके कोई

अवांतर भेद नहीं हैं। इसे प्राप्त करनेवालों के नाम क्रमश: सूक्ष्म, भव और प्रभंजन हैं। अष्टम आगम का नाम सहस्र है ।

अवांतर भेद दस हैं। इसे प्राप्त करनेवालों में काल, भीम, और खग हैं। नवम आगम सुप्रभेद है । इसे पहले धनेश ने प्राप्त

किया, धनेश से विघनेश और विघनेश से शशि ने। दशम आगम अंशम


ु ान है जिसके अबांतर भेद 12 हैं। इसे प्राप्त
करनेवालों के नाम क्रमश: अंशु अब्र और रवि हैं। दस अगमों की उपर्युक्त सच
ू ी किरणागम के आधार पर है । श्रीकंठी

संहिता में दी गई सच
ू ी में सप्र
ु भेद का नाम नहीं है । उसके स्थान में कुकुट या मक
ु ु टागम का उल्लेख है ।

अष्टादश रूद्रागम का विवरण

इन आगमों के नाम और प्रत्येक आगम के पहले और दस


ू रे श्रोता के नाम दिए जा रहे हैं:

1. विजय (पहले श्रोता अनादि रूद्र, दस


ू रे स्रोता परमेश्वर),

2. नि:श्वास (पहले श्रोता दशार्ण, दस


ू रे श्रोता शैलजा),

3. पारमेश्वर (पहले श्रोता रूप, दस


ू रे श्रोता उशना:),

4. प्रोद्गीत (पहले श्रोता शल


ू ी , दस
ू रे श्रोता कच),

5. मुखबिंब (पहले श्रोता प्रशांत, दस


ू रे श्रोता दघीचि),

6. सिद्ध (पहले बिंद,ु दस


ू रे श्रोता चंडश्े वर),

7. संतान (पहले श्रोता शिवलिंग, दस


ू रे श्रोता हंसवाहन),

8. नारसिंह (पहले श्रोता सौम्य, दस


ू रे नसि
ृ हं ),

9. चंद्रांशु या चंद्रहास (पहले श्रोता अनंत दस


ू रे श्रोता वहृ स्पति),

10. वीरभद्र (पहले श्रोता सर्वात्मा, दस


ू रे श्रोता वीरभद्र महागण),

11. स्वायंभुव (पहले श्रोता निधन, दस


ू रे पद्यजा),

12. विरक्त (पहले तेज, दस


ू रे प्रजापति),

13. कौरव्य (पहले ब्राह्मणेश, दस


ू रे नंदिकेश्चर),

14. मामट
ु या मक
ु ु ट (पहले शिवाख्य या ईशान, दस
ू रे महादे व ध्वजाश्रय),

15. किरण (पहले दे वपिता, दस


ू रे रूद्रभैरव),

16. गलित (पहले आलय, दस


ू रे हुताशन),

17. अग्नेय (पहले श्रोता व्योम शिव, दस


ू रे श्रोता ?)

18.  ?
'श्रीकंठी संहिता' में रूद्रागमों की जो सच
ू ी है उसमें रौरव, विमल, विसर, और सौरभेद ये चार नाम अधिक हैं। और उसमें

विरक्त, कौरव्य, माकुट एवं आग्नेय ये चार नाम नहीं है । कोई कोई ऐसा अनम
ु ान करते हैं कि ये कौरव्य ही रौरव हैं।

बाकी तीन इनसे भिन्न हैं। अष्टादश अगम का नाम कहीं नहीं मिलता। इसमें किरण, पारमेश्वर और रौरव का नाम है ।

नेपाल में आठवीं शताब्दी का गुप्त लिपि में लिखा हुआ नि:श्वास तंत्र संहिता नामक ग्रंथ है । इसमें लौकिक धर्म, मूल

सूत्र, उत्तर सूत्र, नय सूत्र, गुह्य सूत्र ये पाँच विभाग हैं। लौकिक सूत्र प्राय: उपेक्षित हो गया है । बाकी चारों के भीतर

उत्तरसूत्र कहा जाता है । इस उत्तर सूत्र में 18 प्राचीन शिव सूत्रों का नामोल्लेख है । ये सब नाम वास्तव में उसी नाम से

प्रसिद्ध शिवागम के ही नाम हैं, यथा

नि:ष्श्वास ज्ञान स्वायंभुव मुखबिंब मुकुट या माकुट प्रोद्गीत


वातुल ललित वीरभद्र सिद्ध विरस (वीरे श?) संतान
रौरव सर्वोद्गीत चंद्रहास किरण पारमेश्वर

इसमें 10 शिवतंत्रों के नाम है यथा - कार्मिक, योगज, दिव्य (अथवा चिंतय


्‌ ), कारण, अजित, दीप्त सूक्ष्म, साहस्र

अंशुमान और सुप्रभेद।

ब्रह्मयामल (लिपिकाल 1052 ईसवी) 39 अध्याय में ये नाम पाए जाते हैं, यथा-विजय, नि:श्वास, स्वायंभव
ु , बाबल
ु ,

वीरभद्र, रौरव, मक
ु ु ट, वीरे श, चंद्रज्ञान, प्रोद्गीत ललित, सिद्ध संतानक, सर्वोद्गीत, किरण और परमेश्वर [1]। 'कामिक

आगम' में भी 18 तंत्रो का नामोल्लेख है ।

हरप्रसाद शास्त्री ने अष्टादश आगम की प्रति नेपाल में दे खी थी जिसका लिपिकाल 624 ई 0 में था। बेंडल (Bendall)

साहब का कथन है कि केंब्रिज यूनवर्सिटी लायब्रेरी में 'परमेश्वर' आगम नामक एक 895 ईसवी की हाथ की लिखी पोथी

है । डॉ0 प्रबोधचंद्र बागची कहते हैं कि पूर्ववर्णित 'नयोत्तर सूत्र' का रचनाकाल छठीं से सातवीं ईसवी हो सकता है ।

'ब्रह्मयामल' के अनुसार नि:श्वास आदि तंत्र शिव के मध्य स्रोत से उद्भत


ू हुए थे और ऊर्घ्व वक्ष से निकले हैं। ब्रह्मयामल

के मतानुसार नयोत्तर संमोह अथवा शिरश्छे द वामस्रोत से उद्भत


ू हैं। जयद्रथयामल में भी है कि शिरच्छे द से नयोत्तर

और महासंमोहन -ये तीन तंत्र शिव के बाम स्रोत से उद्भत


ू हैं।

द्वैत और द्वैताद्वैत शैव आगम अति प्राचीन है , इसमें संदेह नहीं। परं तु जिस रूप में वे मिलते हैं और मध्य यग
ु में भी

जिस प्रकार उनका वर्णन मिलता है , उससे ज्ञात होता है कि उसका यह रूप अति प्राचीन नहीं है । काल भेद से विभिन्न

ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण ऐसा परिवर्तन हो गया है । फिर भी ऐसा माना जा सकता है कि मध्य यग
ु में प्रचलित

पंचरात्र आगम का अति प्राचीन रूप जैसा महाभारत शांति पर्व में दिखाई दे ता है उसी प्रकार शैवागम के विषय मे भी
संभावित है । 'महाभारत' के मोक्ष पर्व के अनस
ु ार स्वयं श्रीकृष्ण ने द्वैत और द्वैताद्वैत शैवागम का अध्ययन उपमन्यु

से किया था।

'कामिक आगम' में है कि सदाशिव के पंचमख


ू ों में से पांचरात्र स्रोतों का संबंध है । इसीलिये कुल स्रोत 25 हैं। पाँच मुखों के

पाँच स्रोतों के नाम हैं-1. लौकिक, 2. वैदिक 3. आध्यात्मिक, 4. अतिमार्ग, 5. मंत्र। पाँच मुख इस प्रकार हैं-1 सद्योजात,

2 बामदे व, 3 अघोर 4 तत्पुरूष, 5 ईशान।

'सोम सिद्धांत' के अनस


ु ार लौकिक तंत्र पाँच प्रकार के हैं और वैदिक भी पाँच प्रकार के हैं।

इन सब तंत्रों में परस्पर उत्कर्ष या अपकर्ष का विचार पाया जाता है । तदनुसार ऊर्ध्वादि पांच दिशाओं के भेद के कारण

तंत्रों के विषय में तारतम्य होता है । इसका तात्पर्य यह है कि ऊर्ध्व दिशा से निकले हुए तंत्र सर्वश्रेष्ठ हैं। उसके बाद पूर्व,

फिर उत्तर, पश्चिम, फिर दक्षिण। इस क्रम के अनुसार सिद्धांतविद् पंडित लोग कहा करते हैं कि सिद्धांतज्ञान मुक्तिप्रद

होने के कारण सर्वश्रेष्ठ है । उसके अनंतर क्रमानुसार सर्पविष नाशक गरूड़ज्ञान, सर्ववशीकरण प्रतिपादक कामज्ञान, भूतों

का निवारक 'भूततंत्र' और शत्रद


ु मन के लिये उपयोगी 'भैरव तंत्र' का स्थान जानना चाहिए।

इस प्रसंग में और भी एक बात जानना आवश्यक है कि वैदिक दृष्टि से जैसे स्थल


ू त: ज्ञान के दो प्रकार दिखाई दे ते हैं-

प्रथम 'बोध रूप ' और द्वितीय 'शब्द रूप,' उसी प्रकार तंत्र साहित्य में भी ज्ञान के दो रूप पाए जाते हैं। यह कहना

अनावश्यक है कि बोधात्मक ज्ञान शब्दात्मक ज्ञान से श्रेष्ठ है , इस बोध रूप ज्ञान के विभिन्न प्रकार हैं क्योंकि प्रतिपाद्य

विषय के भेद के अनस


ु ार ज्ञान का भेदाभेद होता है । जो ज्ञान शिव का प्रतिपादक है उससे पशु और माया का प्रतिपादक

ज्ञान निकृष्ट है । इसी लिये शद्ध


ु मार्ग, अशद्ध
ु मार्ग, मिश्र मार्ग आदि भेदों से ज्ञान भेदों की कल्पना की गई है । शब्दात्मक

ज्ञान को 'शास्त्र ' कहते हैं। इसमें भी परापर भेद हैं। सिद्धांतियों के मतानस
ु ार वेदादिक ज्ञान से सिद्धांत ज्ञान विशद्ध
ु है ,

इसलिये श्रेष्ठ है परं तु सिद्धांत ज्ञान में भी परापर भेद हैं। इसी प्रकार दीक्षारूप ज्ञान के भी कई अवांतर भेद पाए जाते हैं-

नैष्ठिक, भौतिक, निर्बीज, सबीज, लौकिक इत्यादि। इससे प्रतीत होता है कि मल


ू में ज्ञान एक होने पर भी प्रतिपाद्य

विषय के कारण परापर भेद रूपों में प्रकट होता है ।

'स्वायंभुव आगम' में कहा गया है -

तदे कमप्यनेकम्त्वं शिव वक्ताम्बु जोम्हवंल।

परापरे णा भेदेन गच्त्यर्थ प्रतिश्रयात ्‌।


कामिक आगम में भी हैं कि परापर भेद से ज्ञान के अधिकारी भेद होते हैं । इसमें प्रतिपाद्य विषय के अनस
ु ार मतिज्ञान

परज्ञान और पशज्ञ
ु ान अथवा अपर ज्ञान हैं । शिव प्रकाशन ज्ञान श्रेष्ठ हैं । पशप
ु ाशादि अर्थ प्रकाशन अपर ज्ञान हैं। इसी

प्रकार विविध कल्पनाएँ हैं परं तु शिव और रूद्र दोनों सिद्धांत ज्ञाप हैं।

पाशुपत संप्रदाय के आचार्य अष्टादश रूद्रागमों का प्रामाणाश्य मानते थे, परं तु दश शिव ज्ञान का प्रामाणाय नहीं मानते

थे । इसका कारणा यह है कि रूद्रागम में द्वैत दष्टि और अद्वत दष्टि का मिश्रण पाया जाता हैं। परं तु शिवागम में

अद्वैत दृष्टि मानी जाती इसलिये आचार्य अभिनय गुप्त ने कहा है कि पाशुपत दर्शन सर्वथा हे य नहीं हैं। किसी किसी

ग्रंथ में स्पष्ट रूप से दिखया गया है कि शिव के किन मुखों से किन आगमों का निर्गम हुआ हैं। उससे यह प्रतित होता हैं

कि कामिक, योगज, चित्य, कारणा और अजित ये पाँच शिवागम शिव के सधोजात मुख से निर्गत हुए थे। दीत्प,सूक्ष्म,

सहरूत्र, अंशम
ु त या अंशमान संप्रभेद ये पाँच शिवागम शिव के बामदे व नामक मुख से निर्गत हुए हैं। विजय, नि:श्वास,

स्वाभुव, आग्नेय और वीर ये पाँच रूद्रागम शिव के अघोर मुख से निर्गत हुए थे। रौरव, मुकुट, विमल ज्ञान, चंद्रकांत और

बिब, ये पाँच रूद्रागम शिव के ईशान मुख से निसत


ृ हुए थे। प्रोद्गीत, ललित, सिद्ध, संतान, वातुल, किरणा, सर्वोच्च और

परमेश्वर ये आठ रूद्रागम शिव के तत्पुरूष मुख से निर्गत हुए थे। इस प्रकार अष्टाविशति आगम के 198 विभगों में

आगमों की चर्चा दिखाई दे ती हैं।

'चत:ु षष्टि भैरवागम'

शिवागम तथा रुदागम के विषय में संक्षेप में कुछ कहा गया है । अब भैरवागम के विषय में कुछ कहा जा रहा है । 'श्रीकंठी

संहिता' में 64 भैरवागमों का निर्देश मिलता है । ये सब आगम अद्धैव सिद्धांत के प्रतिपादक हैं। इनके नाम इस प्रकार है :

1. भैरवाष्टक (स्वच्छं द भैरव, चंड भैरव, क्रोध भैरव, उन्मत्त भैरव, असितांग

भैरव, महोछ्‌वास भैरव, कपालीश भैरव। अष्टम भैरव का नाम नहीं मिलता)।

2. यामलाष्टक (इसमें आठ यामलों का नाम है यथा-ब्रह्म यामल, विष्णु यामल,

स्वच्छं द यामल, रुरुयामल, अथर्वन ्‌यामल, रुद्र यामल और वेताल यामल।

अष्टम यामल अज्ञात है )।

3. मत्ताष्टक (रक्त, लंपट, लक्ष्मी, चालिका, पिंगला, उत्फुल्लक, बिंबाद्यमत, ये

सात मत हैं। अष्टम का पता नहीं)।

4. मंगलाष्टक (इसमें आठ मंगल नामक ग्रंथ निविष्ट हैं, यथ-पीचु भैरवी, तंत्र

भैरवी, ब्राह्मी कला, विजया, चंद्रा, मंगला तथा सर्वमंगला)


5. शक्राष्टक (इसमें मंत्रचक्र, वर्णचक्र, शक्ति चक्र, कलाचक्र, बिंदच
ु क्र, नादचक्र,

गह्
ु मचक्र और पर्ण
ू चक्र ये आठ चक्र हैं।)

6. बहुरूपाष्टक (इसमें भी आठ ग्रंथ हैं: अंधक, रुरुभेद, अज, वर्णभेद, यम, विडंग,

मातरृ ोदन, जालिम)

7. वाणीशष्टक (भैरवी, चित्रिका, हिंसा, कदं बिका, ्ह्रल्लेखा, चंद्रलेखा,

विद्युल्लेखा, विद्वत्मत ये आठ हैं)

8. शिखाष्टक (भैरवी शिखा; विनाशिखा, विनामनि, संमोह, डामर, आथवक,

कबंध, शिरच्छे द)

802 ई 0 में चार तंत्रग्रंथ भारत से कंबोज गए थे। उनमें विनाशिखा, शिरच्छे द और संमोह ये तीन ग्रथ पर्वे
ू क्त सच
ू ी में

विद्यमान हैं। 'विनाशिखा' शद्ध


ु नयग्रंथ है । डॉ0 प्रबोधचंद्र बागची ने विनाशिक के नाम से इसे निर्दिष्ट किया है । यह

विनाशिखा का ही अपभ्रंश प्रतीत होता है । चतर्थ


ु पस्
ु तक का नाम न्यायोत्तर है । [2]। डॉ0 बागची समझते हैं कि नेपाल में

नि:ष्वास तत्व-संहिता की जो हस्तलिखित पस्


ु तक है और जिसका विवरण नेपाल दरबार कैटलाग के प्रथम खंड में पष्ृ ठ

137 में दिया गया है वह अष्टादश रुद्रागम के अंतर्गत नि:श्वास तंत्र का ही नामांतर है । इसके चार भाग या सत्र
ू है । सब

मिलाकर नयोत्तर तंत्र नाम से ये जाने जाते हैं।[3] 'कुलमार्गिका चत:ु षष्टीतंत्र:'

भगवान ्‌शंकराचार्य ने 'आनंद लहरी' स्तोत्र में लिखा है -

चतष्ु टठ्या तंत्र:ै सकल मनस


ु ंघायमव
ु नं,

स्थित्वास्तत्त ्‌सिद्धि प्रसवपरतंत्रं पशुपते:।

पन
ु :स्तवन्निर्वंधादखिलपरु
ु षाथैक घटना,

स्वतंत्रं ते तंत्रं क्षितितलमवातीतरदिदम।्‌ । (श्लोक संख्या-31)।

इसमें कहा गया है कि पशप


ु ति ने समग्र विश्व को तत्तत ्‌सिद्धिप्रदर्शक 64 तंत्र में किसी न किसी परु
ु षार्थ को प्राप्त

करनेवाली उपासना का विवरण है ।

अंत में उन्होंने जगदं बा के अनुरोध से यावत ्‌पुरुषार्थो को एक साथ प्राप्त करानेवाले एकमात्र महाशक्ति के

शक्तिप्रतिपादक तंत्र को प्रकाट किया था। एंसा कहा गया है कि सौभाग्यवर्धिनी टीका में इस श्लोक का भावार्थ निरूपण

इस प्रकार किया गया है - दे वी ने शंकर से कहा कि तम


ु ऐसे तंत्र की रचना करो जो एक होने पर भी सब प्रकार के पुरुषार्थो
का सिद्धिदायक हो। दे वी का अनरु ोध सन
ु कर शंकर ने 'कादिमताख्या' स्वतंत्र तंत्र का प्रकाश किया। और तंत्र परस्पर

सापेक्ष हैं परं तु यह तंत्र अन्यनिरपेक्ष होने के कारण स्वतंत्र तंत्र के रूप में प्रसिद्ध है । तांत्रिक समाज में इसी कारण इसी

को 'अनादि तंत्र' माना जाता है । टीकाकार लक्ष्मीधर ने कहा है कि इस श्लोक की पहली पंक्ति में 'अनस
ु ंधाय' पाठ

मानकर विचार किया गया है । परं तु यह उचित नहीं प्रतीत होता। उनके मतानस
ु ार इसका शद्ध
ु पाठ 'अति संधाय' है । इस

पद का तात्पर्य है - 'वंचना' (धोखा दे ते हुए)। ऐसा माने पर इस श्लोक का तात्पर्य यह होगा कि महामाया ने शंबर प्रभति

64 तंत्रों के द्वारा विश्वप्रपंच को धोखा दिया है । इनमें प्रत्येक में किसी न किसी सिद्धि का विवरण है । इसीलिये शंकर से

दे वी का विशेष अनरु ोध यह था कि वे सब परु


ु षार्थो के साधक एक तंत्र का निर्माण करें । यह मख्
ु य रूप से 'भगवती तंत्र' है ।

'चत:ु षष्ठीतंत्र' का नाम 'चत:ु शती' में है । (आनंद आश्रम से प्रकाशित नित्याषोडशार्णव नामक ग्रंथ में इन नामों की

सविस्तार व्याख्या दी गई है । इसके लिये भास्कर राय की 'सेतब


ु ंध टीका' दे खनी चाहिए) इन तंत्रों के वक्ता शंकर हैं और

श्रोता पार्वती। ये सब जगत ्‌का विनाश करनेवाले और वैदिक मार्ग से दरू स्थ तंत्र हैं। यह लक्ष्मीधर की व्याख्या का

तात्पर्य है । 'अरुणामोदिनी' टीका लक्ष्मीधर की ही अनग


ु त है । इस मत में 65 वें तंत्र के संबंध में कहा गया है कि वह

भगवान ्‌का 'मंत्ररहस्य है ' जो शिवशक्ति दोनों वर्ण के संमिश्रण से उपहतमख


ु है । चत:ु शती में 64 तंत्रों में 64 तंत्रों के

नाम और उनके ऊपर 'सौंदर्यलहरी टीका' में प्रदत्त लक्ष्मीधर की व्याख्या इस प्रकार है -

1-2 - महामाया तंत्र और शंबर तंत्र: इसमें माया, प्रपंच, निर्माण का विवरण है । इसके प्रभाव से द्रष्टा की इंद्रियाँ तदनुरूप

विषय को ग्रहण न कर अन्याथा ग्रहण करती हैं। जैसा वस्तु - जगत ्‌में घट है यह द्रष्टा के निकट प्रतिभात होता है - 'पट'

रूप में । यह किसी न किसी अंश में वर्तमान युग में प्रचलित हिपनॉटिज्म (Hypnotism) प्रभति
ृ 'मोहिनी विद्या' के

अनुरूप है ।

3 - योगिनी जाल शंबर : मायाप्रधान तंत्र को शंबर कहा जाता है । इसमें योगिनियों का जाल दिखाई दे ता है । इसकी

साधना करनेवाले के लिये श्मशान प्रभति


ृ स्थानों में उपदिष्ट नियामें का अनस
ु रण करना पड़ता है ।

4 - तत्वशंबर- यह 'महें द्र जाल विद्या' है । इसके द्वारा एक तत्व को दस


ू रे तत्व के रूप में भासमान किया जा सकता है ;

जैसे पथ्ृ वी त्तत्व में जल त व का या जल त व में पथ्ृ वी तत्व का।

5-12 - सिद्ध भैरव, बटुक भैरव, कंकाल भैरव, काल भैरव, कालाग्नि भैरव, योगिनी भैरव, महा भैरव तथा शक्ति भैरव

(भैरवाष्टक)। इन ग्रंथों में निधि विद्या का र्णन है और ऐहक फलदायक कापालिक मत का विवरण है । ये सब तंत्र

अवैदिक हैं।
13-20 - बहुरूपाष्टक, ब्राह्मी, माहे श्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, चामड
ु ा, श्विदत
ू ी, (?)। ये सभी शक्ति से उद्भत

मातक
ृ ा रूप हैं। इन आठ मातक
ृ ाओं के विषय में आठ तंत्र लिखे गए थे। लक्ष्मीधर के अनस
ु ार ये सब अवैदिक हैं। इनमें

आनष
ु ंगिक रूप से श्री विद्या का प्रसंग रहने से यह वैदिक साधकों के लिये उपादे य नहीं है ।

21-28 - यामलाष्टक : यामला शब्द का तात्पर्य है कायासिद्ध अंबा। आठ तंत्रों में यामलासिद्धि का वर्णन मिलता है । यह

भी अवैदिक तंत्र है ।

29 - चंद्रज्ञान : इस तंत्र में 16 विद्याओं का प्रतिपादन किया गया है । फिर भी यह कापालिक मत होने के कारण हे य है ।

चंद्रज्ञान नाम से वैदिक-विद्या-ग्रंथ भी है परं तु वह चत:ु षष्ठी तंत्र से बाहर है ।

30 - मालिनी विद्या: इसमें समुद्रयान का विवरण है । यह भी अवैदिक है ।

31 - महासंमोहन: जाग्रत मनष्ु य को सप्ु त यक अचेतन करने की विद्या। यह बाल जिह्यभेद आदि उपायों से सिद्ध होता

है , अत: हे य है ।

32-36 - वामयुष्ट तंत्र : महादे व तंत्र, वातुल तंत्र, वातुलोतर तंत्र, कामिक तंत्र, ये सब मिश्र तंत्र हैं। इनमें किसी न किसी

अंश में वैदिक बातें पाई जाती हैं परं तु अधिकांश में अवैदिक हैं।

37 - हृद्भे द तंत्र: और गह्


ु यतंत्र: इसमें गप्ु त रूप से प्रकृति तंत्र का भेद वर्णित हुआ है । इस विद्या के अनष्ु ठान में नाना

प्रकार से हिंसादि का प्रसंग है अत: यह अवैदिक है ।

40 - कलावाद: इसमें चंद्रकलाओं के प्रतिपादक विषय हैं (वात्स्यायन कृत 'कामसूत्र' आदि ग्रंथ इसी के अंतर्गत हैं।) काम,

पुरूषार्थ होने पर भीकला ग्रहण और मोक्ष दस स्थान का ग्रहण और चंद्रकला सौरभ प्रभति
ृ का उपयोग पुरूषार्थ रूप में

काम्य नहीं है । इसे छोड़कर निषिद्ध आचारों का उपदे श इस ग्रंथ में है । इसका निषिद्धांश कापालिक न होने पर भी हे य है ।

41 - कलासार: इसमें करर्णौं के उत्कर्षसाधन का उपाय वर्णित है । इस तंत्र में वामाचार का प्राधान्य है ।

42 - कंु डिका मत: इसमें गुटिकासिद्धि का वर्णन है । इसमें भी वामाचार का प्राधान्य है ।

43 - मत्तोत्तर मत: इसमें रससिद्धि (पारा आदि, आलकेमी, Alchemy) का विवेचन है ।

44 - विनयाख्यतंत्र : विनया एक विशेष योगिनी का नाम है । इस ग्रंथ में इस यागिनी को सिद्ध करने का उपाय बतलाया

गया है । किसी किसी के मत से विनया योगिनी नहीं हैं; संभोगयक्षिणी का ही नाम विंनया है ।

45 - त्रोतल तंत्र: इसमें घटि


ु का (पान पत्र, अंजन) और पादक
ु ासिद्धि का विवरण है ।
46 - त्रोतलोत्तर तंत्र: इसमें 64,000 यक्षिणियों के दर्शन का उपाय वर्णित है ।

47 - पंचामत
ृ : पथ्ृ वी प्रभति
ृ पंचभूतों का मरणभाव पिंड, अड़ में कैसे संभव हो सकता है , इसका विषय इसमें है । यह भी

कापालिक ग्रंथ है ।

48-52 - रूपभेद, भत
ू डामर, कुलसार, कुलोड्डिश, कुलचड
ू ामणि, इन पाँच तंत्रों में मंत्रादि प्रयोग से शत्रु को मारने का

उपाय वर्णित है । यह भी अवैदिक ग्रंथ है ।

53-57 - सर्वज्ञानोत्तर, महाकाली मत, अअरूणोश, मदनीश, विकंु ठे श्वर, ये पाँच तंत्र 'दिगंबर' संप्रदाय के ग्रंथ हैं। यह

संप्रदाय कापालिक संप्रदाय का भेद है ।

58-64 - पर्व
ू , पश्चिम, उतर, दक्षिण, निरूतर, विमल, विमलोतर और दे वीमत ये छपणक संप्रदाय' के ग्रंथ हैं।

पूर्वाक्त संक्षिप्त विवरण से पता चलता है कि ये 64 तंत्र ही जागतिक सिद्धि अथवा फललाभ के लिये हैं। पारमार्थिक

कल्याण का किसी प्रकार संधान इनमें नहीं मिल सकता। लक्ष्मीधर के मतानुसार ये सभी अवैदिक हैं। इस प्रसंग में

लक्ष्मीधर ने कहा है कि परमकायणिक परमेश्वर ने इस प्रकार के तंत्रों की अवतारणा की, यह एक प्रश्न है । इसका

समाधान करने के लिये उन्होंने कहा है कि पशुपति ने ब्राह्मणा आदि चार वर्ण और ममूर्धाभिषिक्त प्रभति
ृ अनुलोम,

प्रतिलोम सब मनुष्यों के लिये तंत्रशास्त्र की रचना की थी। इसमें भी सबका अधिकार सब तंत्रों में नहीं है । ब्राह्मण आदि

तीन वर्णों का अधिकार दिया गया है ।

अधिकारभेद से ही व्यवस्थाभेद है । पहले जो चंद्रकला विद्या की बात कही गई है वह ' चंद्रकला विज्ञान' से भिन्न है । '

चंद्रकला विद्या' के अंतर्गत चंद्रकला, जयोत्सनावती, कुलार्णव, कुलश्री, भव


ु नेश्वरी, बार्हस्पत्य दर्वा
ु सामत, और (?) इन

सब तंत्रों का समावेश हुआ है जिनमें तीन वर्णों का अधिकार है , परं तु त्रिवर्ण विषय में अनष्ु ठान का विधान दक्षिण मार्ग

से ही है । शद्र
ू ों का भी अधिकार है परं तु उनके अनष्ु ठानका विधान वाम मार्ग में है । इस विद्या में मल
ु मार्ग, समय मार्ग

का समन्वय दे ख पड़ता है ।

शुभागम पंचक

ये पाँच आगम समय मार्ग के अंतर्गत हैं। इनमें नाम हैं-वसिष्ठ संहिता, सनक संहिता, सनंदन संहिता, शुकसंहिता

सनतकुमार संहिता। ये सब वैदिक मार्गाश्वयी है । वसिष्ठादि पाँच मुनि इस मार्ग के प्रदर्शक हैं। इसका प्रवर्तन '

समयाचार' के आधार पर हुआ था। लक्ष्मीधर का कथन है कि शंकराचार्य स्वयं समयाचार का अनुरण करते थे। शुभागम

पंचक शुद्ध समय मार्ग का प्रतिपादन करते हैं। दसमें षोडश नित्याओं का प्रतिपादन मूल विद्या के अंतर्गत स्वीकार
करते हुए किया गया है । इसलिये इसे 'अंग विद्या' के रूप में ग्रहण किया जाता है । परं तु चत:ु षष्ठी विद्या के अंतर्भुक्त

चंद्रज्ञान विद्या में षोडश लित्याओं का प्राधान्य माना गया है । इसलिये इसे 'कौलमार्ग' कहा जाता है । पहले जो स्वतंत्र

तंत्र की बात कही गई है -जिसका उल्लेख ' सौंदर्यलहरी' में मिलता है - उसके विषय में भास्कर राय के 'सेतब
ु ंध' में कहा

गया है कि वह 'वामकेशतंत्र' हो सकता है । नित्याषेडशार्णव इस तंत्र के ही अंतर्भुक्त है । सौंदर्यलहरी के टीकाकार

गौरीकॉत ने कहा है कि 64 तंत्र के अतिरिक्त एक मित्र है वह 'ज्ञानार्णाव' हो सकता है परं तु दस


ू रे संप्रदाय के मतानस
ु ार

सवतंत्र विशेषण से प्रतीत होता है कि वह 'तंत्रराज' नामक विशिष्ट तंत्र का द्योतक है ।

नवचततु:षष्ठी तंत्र : 'तोडलतंत्र' में 64 तंत्रों के नाम दिएगए हैं। इस नामसूची को आधुलिक मानना समीचीन है । सर्वानंद

ने अपरे 'सर्वोल्लास तंत्र' में 'तोडल तंत्र के ये नाम दिए हैं। इस सूची की आलोचना से जान पड़ता है कि यह चतु:शती की

सूची से विलक्षण है ही, ' श्रीकंठी' सूची से भी विलक्षण है । सर्वोल्लासोद्धृत ताडलतंत्र में जो सूची मिलती है वह इस प्रकार

है - काली, मुंडमाला, तारा, तनर्वाण, शिवसार, वीर निदर्श्न, लतार्चन, ताउल, नील, राधा, विद्यासार, भैरव, भैरवी,

सिद्धेश्वर, मातभ
ृ ेद, समया, गुप्तसाधक, माया, महामाया, अक्षया, कुमारी, कुलार्णव, कालिकाकुलसर्वस्व, कालिकाकला,

वाराही, योगिनी, योगिनीहृदय, सनतकूमार, त्रिपुरासार, योगिनीनिजय, मालिनी, कुक्कुट, श्रीगणेश, भूत, उड्डीश,

कामधेन,ु उतर, वीरभद्र, वामकेश्वर, कुलचूडाभणि, भावचूड़ामणि, ज्ञानार्णव, वरदा, तंत्रचिंतामणि, विरूणीविलास,

हंसतुत्र, चिदं बरतंत्र, श्वेतवारिध, नित्या, उतरा, नारायणी, ज्ञानदीप, गौतमीय, तनरूतर, गर्जन, कुब्जिका,

तत्रमुंक्तावली, बहृ दश्रीक्रम, स्वतंत्रयोनि, मायाख्या।

'दाशरथी तंत्र' के द्वितीय अध्याय में 64 तंत्रों का नामोल्लेख पाया जाता है । यह सच


ू ी पहली से कुछ भिन्न है । इंडिया

अॅफिस लाइब्रेरी, लंदन में दाशरथी तंत्र की हस्तलिखित पस्


ु तक (मैनस्क्रि
ु प्ट) है जिसका लिपिकाल 1676 शकाब्द अर्थात ्‌

1754 ईसवी है । हरिवंश में लिखा है कि श्रीकृष्ण ने 64 अद्वैततंत्रों का दर्वा


ु सा के निकट अध्ययन किया था। (दे खिए

अभिनव गप्ु त : के0 सी0 पांडय


े द्वारा प्रकाशित, पष्ृ ठ 55)। ऐसी प्रसिद्धि है कि दर्वा
ु सा ही कलियग
ु में अद्वैत तंत्र नामक

ग्रंथ तंत्रसाहित्य के विषय में काफी सच


ू नाएँ दे ता है । इसके 41 वें अध्याय में कहा गया है कि यामल आठ प्रकार के हैं-

इन आठों का मल
ू ब्रह्म यामल है । और यामलों में रूद्र यामल, यम यामल, स्कंद यामल, वायु यामल, और इंद्र यामल क

नाम मिलता है  [4]

इनके नाम निश्वास तंत्र में नहीं हैं, ब्रह्मयामल में हैं। यामलाष्टक के अनुसार मंगलाष्टक, चक्राष्टक, शिखाष्टक प्रभति

तंत्रों का नाम जयद्रथयामल में दिखाई पड़ता है । उसमें सद्भाव मंगला, का नाम भी है । मंगलाष्टक में भैरव, चंद्रगर्भ,

सुमंगला, सर्वमंगला, विजया, उग्रमंगला, और सद्भाव मंगला के नाम हैं। चक्राष्टक में षट्चक्र का वर्णन, वर्णनाड़ी,
गह्
ु यक, कालचक्र, सौरचक्र, प्रभति
ृ के नाम हैं। शिखाष्टक में शौंज्यि, महाशष
ु मा, भैरवी, शाब्री, प्रपंचकी, मातभ
ृ ेदी,

रूद्रकाली प्रभति
ृ का नाम आता है ।  ।
[5]

'जयद्रथ यामल' के 36 वें अध्याय में विद्यापीठ के तंत्रों के नाम दिए गए हैं- सर्ववीर, (समायोग) सिद्धयोगीश्वरी मत,

पंचामत
ृ , विषाद, योगिनी जाल शंबर, विद्याभेद, शिरच्छे द, महासंमोहन, महारौद्र, रूद्रयामल, विष्णुयामल, रूद्रभेद,

हरियामल, स्कंद गौतमी, इत्यादि।

जयद्रथ यामल की एक पस्


ु तक नैपाल दरबार के ग्रंथगार में रखी हुई है । उक्त ग्रंथागार में ' पिंगलामत' की 1175 ई 0 की

लिखी हुई एक पस्


ु तक है । इसे ब्रह्मयामल का ' परिशिष्ट' मानते हैं। इसमें जयद्रथ यामल के विषय में लिखा है ।

माध्यमिक तंत्र-साहित्य: प्राचीन आगमों या तंत्रों का नामनिर्देश पहले किया गया है । दे वताओं के उपासनासंबंध से तंत्र

का भेदनिरूपण संक्षेप में कुछ इस प्रकार होगा-

1. काली (भैरव; महाकाल) के नाना प्रकार के भेद हैं, जैसे, दक्षिणाकाली, भद्रकाली। काली दक्षिणान्वय की दे वता हैं।

श्यमशान काली उत्तरान्वय की दे वता हैं। इसके अतिरिक्त कामकला काली, धन-काली, सिद्धकाली, चंडीकाली प्रभति

काली के भेद भी हैं।

महाकाली के कई नाम प्रसिद्ध हैं। 'नारद' , 'पांचरात्र' , आदि ग्रंथों से पता चलता है कि विश्वामित्र ने काली के अनुग्रह से

ही 'ब्रह्मणय' लाभ किया था। काली के विषय में ' शक्तिसंगम तंत्र' के अनुसार काली और त्रिपुरा विद्या का साद्दश्य

दिखाई दे ता है -

काली त्रिपुरा
एकाक्षरी बाला
सिद्धकाली पंचदशी
दक्षिणाकाली षोडशी
कामकला काली पराप्रसाद
हंसकाली चरणदीक्षा
गुह्मकाली षट्संभव परमें श्वरी

दस महाविद्यायों में 'संमोहन तंत्र' के अनुसार ये भेद हैं। -

 वाममार्गी दक्षिणमार्गी

 छित्रा बाला, कमला

 सुमख
ु ी भुवनेश्वरी, लक्ष्मी, तारा, बगला, सुंदरी, तथा राजमातंगी।
काली के विषय में कुछ प्रसिद्ध तंत्र ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं-

1. महाकाल संहिता, (50 सहस्रश्लोकात्मक अथवा अधिक) 2. परातंत्र (यह काली विष्यक प्राचीन तंत्र ग्रंथ है । इसमें चार

पटल हैं, एक ही महाशक्ति पट्सिंहानारूढा षडान्वया दे वी हैं। इस ग्रंथ के अनुसार पूर्वान्वय की अधिष्ठात ृ दे वी पूर्णोश्वरी,

दक्षिणान्वय की विश्वेश्वरी, पूर्वान्य की कुब्जिका, उत्तरान्वय की काली, ऊर्द्धान्वय की श्रीविद्या।) 3. काली यामल; 4.

कुमारी तंत्र; 5. काली सुधानिध; 6. कालिका मत; 9. काली कल्पलता; 8. काली कुलार्णव; 5. काली सार; 10 कालीतंत्र;

11. कालिका कुलसद्भाव; 13. कालीतंत्र; 14. । 15. कालज्ञान और कालज्ञान के परिशिष्टरूप में कालोत्तर; 16. काली

सूक्त; 17. कालिकोपनिषद्; 18. काली तत्व (रामभटटकृत); 19. भद्रकाली चितामणि; 20. कालीतत्व रहस्य; 21.

कालीक्रम कालीकल्प या श्यामाकल्प; 22. कालीऊर्ध्वान्वय; 23. कालीकुल; 24. कालीक्रम; 25. कालिकोद्भव; 26.

कालीविलास तंत्र; 27. कालीकुलावलि; 28. वामकेशसंहिता; 29. काली तत्वामत


ृ ; 30. कालिकार्चामुकुर; 31. काली या

श्यामारहस्य (श्रीनिवास कृत); 33. कालिकाक्रम; 34. कालिका ्ह्रदय; 35. काली खंड (शक्तिसंगम तंत्र का);36. काली-

कुलामत
ृ ; 37. कालिकोपनिषद् सार; 38. काली कुल क्रमार्चन (विमल बोध कृत); 39. काली सपर्याविधि (काशीनाथ

तर्कालंकार भट्टाचार्य कृत); 40. काली तंत्र सुधसिंधु (काली प्रसाद कृत); 41. कुलमुक्ति कल्लोलिनी (अव्दानंद कृत); 24.

काली शाबर; 43. कौलावली; 44. कालीसार; 45. कालिकार्चन दीपिका (लगदानंद कृत); 46. श्यामर्चन तरं गिणी

(विश्वनाथ कृत); 47. कुल प्रकाश; 48. काली तत्वामत


ृ (बलभद्र कृत); 49. काली भक्ति रसायन (काशीनाथ भट्ट कृत);

50. कालीकुल सर्वस्व; 51. काली सुधानिधि; 52. कालिकोद्रव (?); 53. कालीकुलार्णव; 54. कालिकाकुल सर्वस्व; 56.

कालोपरा; 57. कालिकार्चन चंद्रिका (केशवकृत) इत्यादि।

2- तारा: तारा के विषय में निम्नलिखित तंत्र ग्रथ विशेष उल्लेखनीय हैं; 1 तारणीतंत्र; 2. तोडलतंत्र; 3- तारार्णव; 4-

नील-तंत्र; 5- महानीलतंत्र; 6- नील सरस्वतीतंत्र; 7- चीलाचार; 8- तंत्ररत्न; 9- ताराशाबर तंत्र; 10- तारासध
ु ा; 11-

तारमक्ति
ु सध
ु ार्णव (नरसिंह ठाकुर कृत); 12- तारकल्पलता; - (श्रीनिवास कृत) ; 13- ताराप्रदीप (लक्ष्मणभट्ट कृत) ;

14- तारासक्
ू त; 15- एक जटीतंत्र; 16- एकजटीकल्प; 17- महाचीनाचार क्रम (ब्रह्म यामल स्थित) 18- तारारहस्य वति
ृ ;

19- तारामक्ति
ु तरं गिणी (काशीनाथ कृत); 20- तारामक्ति
ु तरं गिणी (प्रकाशनंद कृत); 21- तारामक्ति
ु तरं गिणी

(विमलानंद कृत); 22- महाग्रतारातंत्र; 23- एकवीरतंत्र; 24- तारणीनिर्णय; 25- ताराकल्पलता पद्धति (नित्यानंद कृत);

26- तारिणीपारिजात (विद्वत ्‌उपाध्याय कृत); 27- तारासहस्स्र नाम (अभेदचिंतामणिनामक टीका सहित); 28-

ताराकुलपरु
ु ष; 29- तारोपनिषद्; 30- ताराविलासोदय (वासद
ु े वकृत)।

'तारारहस्यवत्ति
ृ ' में शंकराचार्य ने कहा है कि वामाचार, दक्षिणाचार तथा सिद्धांताचार में सालोक्यमक्ति
ु संभव है । परं तु

सायुज्य मक्ति
ु केवल कुलागम से ही प्राप्य है । इसमें और भी लिखा गया है कि तारा ही परा वग्रूपा, पूर्णाहं तामयी है ।
शक्तिसंगमतंत्र में भी तारा का विषय वर्णित है । रूद्रयामल के अनस
ु ार प्रलय के अनंतर सष्टि
ृ के पहले एक वहृ द् अंड का

आविर्भाव होता है । उसमें चतर्भु


ु ज विष्णु प्रकट होते हैं जिनकी नाभि में ब्रह्मा ने विष्णु से पछ
ू ा- किसी आराधना से

चतर्भ्वे
ु द का ज्ञान होता है । विष्णु ने कहा रूद्र से पछ
ू ो- रूद्र ने कहा मेरू के पश्चिम कुल में चोलह्द में वेदमाता नील

सरस्वती का आविर्भाव हुआ। इनका निर्गम रूद्र के ऊर्ध्व वस्त्र से है । यह तेजरूप से निकलकर चौल्ह्रद में गिर पड़ीं और

नीलवर्ण धारण किया। ्ह्रद के भीतर अक्षोभ्य ऋषि विद्यमान थे। यह रूद्रयामल की कथा है ।

3. षोडशी (श्रीविद्या) : श्रीविद्या का नामांकर है षोडशी। त्रिपुरसुंदरी, त्रिपुरा, ललिता, आदि भी उन्हीं के नाम है । इनके

भैरव हैं- त्रिपुर भैरव (दे व शक्ति संगमतंत्र)। महाशक्ति के अनंत नाम और अनंत रूप हैं। इनका परमरूप एक तथा

अभिन्न हैं। त्रिपुरा उपासकों के सतानुसार ब्रह्म आदि दे वगण त्रिपुरा के उपासक हैं। उनका परमरूप इंद्रियों तथा मन के

अगोचर है । एकमात्र मुक्त पुरूष ही इनका रहस्य समझ पाते हैं। यह पूर्णाहं तारूप तथा तुरीय हैं। दे वी का परमरूप

वासनात्मक है , सूक्ष्मरूप मंत्रात्मक है , स्थूलरूप कर-चरणादि-विशिष्ट है । उनके उपासकों में प्रथम स्थान काम (मन्मथ)

का है । यह दे वी गुहय विद्या प्रवर्तक होने के कारण विश्वेश्वरी नाम से प्रसिद्ध हैं। दे वी के बारह मुख और नाम प्रसिद्ध हैं। -

यथा, मनु, चंद्र, कुबेर, लोपामुद्रा, मन्मथ, अगस्त्य, अग्नि, सूर्य, इंद्र, स्कंद, शिव, क्रोध भट्टारक (या दर्वा
ु सा)। इन लोगों

ने श्रीविद्याि की साधना से अपने अधिकार के अनुसार पथ


ृ क् ‌फल प्राप्त किया था।

श्रीविद्या के मख्
ु य 12 संप्रदाय हैं। इनमें से बहुत से संप्रदाय लप्ु त हो गए है , केवल मन्मथ और कुछ अंश में लोपामद्र
ु ा

का संप्रदाय अभी जीवित है । कामराज विद्या (कादी) और पंचदशवर्णात्मक तंत्र राज, और त्रिपरु उपनिषद के समान

लोपामद्र
ु ा विद्या आदि भी पंचदशवर्णात्मक हैं। कामेश्वर अंकस्थित कामेश्वरी की पज
ू ा के अवसर पर इस विद्या का

उपयोग होता है द्य लोपामद्र


ु ा अगस्त की धर्मपत्नी थीं। वह विदर्भराज की कन्या थीं। पिता के घर में रहने के समय

पराशक्ति के प्रति भक्तिसंपन्न हुई थीं। त्रिपरु ा की मख्


ु य शक्ति भगमालिनी है । लोपामद्र
ु ा के पिता भगमालिनी के

उपासक थे। लोपामद्र


ु ा बाल्यकाल से पिता की सेवा करती थी। उन्होंने पिता की उपासना दे खकर भगमालिनी की

उपासना प्रारं भ कर दी। दे वी ने प्रसन्न होकर जगन्माता की पदसेवा का अधिकार उन्हें दिया थाद्य त्रिपरु ा विद्या का

उद्धार करने पर उनके नाम से लोपामद्र


ु ा ने ऋषित्व प्राप्त कियाद्। अगस्त्य वैदिक ऋषि थे। बाद में अपनी भार्या से

उन्होंने दीक्षा ली।

दर्वा
ु सा का संप्रदाय भी प्राय: लुप्त ही है । श्रीविद्या, शक्ति चक्र सम्राज्ञी है और ब्रह्मविद्या स्वरूपा है । यही आत्मशक्ति

है । ऐसी प्रसिद्धि है कि -

यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोझो;


यत्रास्ति भोगे न च तत्र भोग:।

श्रीसुंदरीसेवनतत्परानां,

भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।,

अगस्त्य केवल तंत्र में ही सिद्ध नहीं थें, वे प्रसिद्ध वैदिक मंत्रों के द्रष्टा थे। श्री शंकरमठ में भी बराबर श्रीविद्या की

उपासना और पूजा होती चली आ रही है ।

त्रिपरु ा की स्थल
ू मर्ति
ू का नाम ललिता है । ऐसी किवदं ती है कि अगस्त्य तीर्थयात्रा के लिये घम
ू ते समय जीवों के द:ु ख

दे खकर अत्यंत द्रवित हुए थे। उन्होंने कांचीपरु में तपस्या द्वारा महाविष्णु को तष्ु ट किया था। उस समय महाविष्णु ने

प्रसन्न होकर उनके सामने त्रिपरु ा की स्थल


ू मर्ति
ू ललिता का माहात्म्य वर्णित किरण जिस प्रसंग में भंडासरु वध प्रभति

का वर्णन था, इसका सविस्तर विवरण उनके स्वांश हयग्रीव मनि


ु से श्रवण करें । इसके अनंतर हयग्रीव मनि
ु ने अगस्त्य

को भंडासरु का वत्ृ तांत बतलाया। इस भंडासरु ने तपस्या के प्रभाव से शिव से वर पाकर 105 ब्रह्मांडों का अधिपत्य लाभ

किया था। श्रीविद्या का एक भेद कादी है , एक हे हादी और एक कहादी।

श्रीविद्या गायत्री का अत्यंत गुप्त रूप है । यह चार वेदों में भी अत्यंत गुप्त है । प्रचलित गायत्री के स्पष्ट और अस्पष्ट

दोनों प्रकार हैं। इसके तीन पाद स्पष्ट है , चतर्थ


ु पाद अस्पष्ट है । गायत्री वेद का सार है । वेद चतुर्द श विद्याओं का सार है ।

इन विद्याओं से शक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है । कादी विद्या अत्यंत गोपनीय है । इसका रहस्य गुरू के मुख से ग्रहण

योग्य है । संमोहन तंत्र के अनुसार तारा, तारा का साधक, कादी तथा हादी दोनों मत से संश्लिष्ट है । हं स तारा, महा

विद्या, योगेश्वरी कादियों की दृष्टि से काली, हादियों की दृष्टि से शिवसुदरी और कहादी उपासकों की दृष्टि से हंस है । श्री

विद्यार्णव के अनुसार कादी मत मधुमती है । यह त्रिपुरा उपासना का प्रथम भेद है । दस


ू रा मत मालिनी मत (काली मत)

है । कादी मत का तात्पर्य है जगत चैतन्य रूपिणी मधुमती महादे वी के साथ अभेदप्राप्ति। काली मत का स्वरूप है

विश्वविग्रह मालिनी महादे वी के साथ तादात्म्य होना । दोनों मतों का विस्तत


ृ विवरण श्रीविद्यार्णव में है ।

गोड़ संप्रदाय के अनस


ु ार श्रेष्ठ मत कादी है , परं तु कश्मीर और केरल में प्रचलित शाक्त मतों के अनस
ु ार श्रेष्ठ मत त्रिपरु ा

और तारा के हैं। कादी दे वता काली है । हादी उपासकों की त्रिपरु संदरी हैं और कहादी की दे वता तारा या नील सरस्वती हैं।

त्रिपरु ा उपनिषद् और भावनोपनिषद् कादी मत के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। किसी किसी के मतानस
ु ार कौल उपनिषद् भी इसी

प्रकार का है , त्रिपरु ा उपनिषद् के व्याख्याकार भास्कर के अनस


ु ार यह उपविद्या सांख्यायन आरणयक के अंतर्गत है ।

हादी विद्या का प्रतिपादन त्रिपुरातापिनी उपनिषदद्य में है । प्रसिद्धि है कि दर्वा


ु सा मुनि त्रयोदशाक्षरवाली हादी विद्या के

उपासक थे। दर्वा


ु सा रचित ललितास्तव रत्न नामक ग्रंथ बंबई से प्रकाशित हुआ है ।
मैंने एक ग्रंथ दर्वा
ु साकृत परशंमस्
ु तति
ु दे खा था, जिसका महाविभति
ू के बाद का प्रकरण है अंतर्जा विशेष उपचार परामर्श।

दर्वा
ु सा का एक और स्तोत्र है त्रिपरु ा महिम्न स्तोत्र। उसके ऊपर नित्यानंदनाथ की टीका है । सौभाग्यहृदय स्तोत्र नाम से

एक प्रसिद्ध स्तोत्र है जिसके रचयिता महार्थमंजरीकार गोरक्ष के परमगरू


ु हैं। योगिनी हृदय या उत्त्र चत:ु शती सर्वत्र

प्रसिद्ध है । पर्व
ू चत:ु शती रामेश्वर कृत परशरु ाम कल्पसत्र
ू की वति
ृ में है । ब्रह्मांड परु ाण के उत्तरखंड में श्री विद्या के

विषय में एक प्रकरण है द्य यह अनंत, दर्ल


ु भ, उत्तर खंड में त्रिशति अथवा ललितात्रिशति नाम से प्रसिद्ध स्तव है जिसपर

शंकराच्य्राा की एक टीका भी है । इसका प्रकाशन हा चक


ु ा है । नवशक्ति हृदयशास्त्र के विषय में योगिनी की दीपिका टीका

में उल्लेख है ।

इस प्रस्थान में सूत्रग्रंथ दो प्रसिद्ध हैं: एक अगस्त्य कृत, शक्ति सूत्र और दस


ू रा प्रत्यभिज्ञाहृदय नामक शक्तिसूत्र।

परशुराम कृतकल्पसूत्र भी सूत्रसाहित्य के अंतर्गत है । यह त्रिपुरा उपनिषद का उपबह


ं ृ ण है । ऐसी प्रसिद्धि है कि इसपर

रामेश्वर की एक वत्ति
ृ है जिसका नाम सौभाग्योदय है एवं जिसकी रचना 1753 शकाब्द में हुई थी। इसका भी प्रकाशन

हो चुका है । इस कल्पसूत्र के ऊपर भास्कर राय ने रत्नालोक नाम की टीका बनाई थी। अभी यह प्रकाशित नहीं हुई है ।

गौड़पाद के नाम से श्रीविष्णुरत्न सूत्र प्रसिद्ध है । इसपर प्रसिद्ध शंकरारणय का व्याख्यान है । यह टीका सहित प्रकाशित

हुआ है । सौभग्य भास्कर में त्रैपुर सूक्त नाम से एक सूक्त का पता चलता है । इसके अतिरिक्त एक और भी सूत्रग्रंथ बिंद ु

सूत्र है । भास्कर ने भावनोपनिषद भाष्य में इसका उल्लेख किया है । किसी प्राचीन गंथागार में कौल सूत्र, का एक

हस्तलिखित ग्रंथ दिखाई पड़ा था जो अभी तक मुद्रित नहीं हुआ है ।

स्तोत्र ग्रंथें में दर्वा


ु सा का ललितास्तव ग्रंथ प्रसिद्ध है । इसका उल्लेख ऊपर किया गया है । गौड़पाद कृत सौभाग्योदय

स्तति
ु आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं जिनपर शंकराचार्य की टीकाएँ मिलती हैं। ऐसा कहा जाता है कि सौभाग्योदय के ऊपर

लक्ष्मीधर ने भी एक टीका लिखी थी। सौभाग्योदय स्तति


ु की रचना के अनंतर शंकरार्चा ने सौंदर्य लहरी का निर्माण

किया जो आनंदलहरी नाम से भी प्रसिद्ध है । इनके अतिरिक्त ललिता सहस्र नाम एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसपर भास्कर की

टीका सौभाग्य भास्कर (रचनाकाल 1729 ई 0) है । ललिता सहस्रनाम के ऊपर काशीवासी पं0 काशीनाथ भट्ट की भी एक

टीका थी। काशीनाथ भट्ट दीक्षा लेने पर शिवानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी टीका का नाम नामार्थ संदीपनी है ।

श्री विद्यार्णव के अनुसार कादी या मधुमती मत के मुख्य चार ग्रंथ हैं- तंत्रराज, मातक
ृ ार्षव, योगिनीहृदय

नित्याषोडशार्णव और वामकेश्वर वस्तुत: पथ


ृ क ग्रंथ नहीं हैं, एक ग्रंथ के ही अंशगत भेद हैं। इसी प्रकार बहुरूपाष्टक एक

पुस्तक नहीं है । यह आठ पुस्तकों की एक पुस्तक है ।


तंत्रराज के पर्वा
ू र्ध और उत्तरार्ध दो भाग हैं। 64 तंत्रों के विषय जहाँ सौंदर्यलहरी में आए हैं उस स्थल में इस विषय में चर्चा

की गई है जिससे पता चलता है कि (विशेषत: लक्ष्मीघर की टीका में ) मतांतर तंत्र राजटीका मनोरमा का मत प्रतीत होता

है ।

भास्कर राय ने सेतुबंध में भी आलोचना प्रस्तुत की है । तंत्र राज में जो नित्याहृदय की बात कही गयी है वह वस्तुत:

योगिनीहृदय का ही नामांतर है । यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तरार्ध है । नित्याहृदय इत्येतत ्‌तंत्रोत्तरार्धस्य योगिनी

हृदयस्य संज्ञा।

ऐसा प्रतीत होता है कि दो मतों के कारण दो विभाग हैं। वर्णसम और मंत्रसम के नाम पर ये नाम है । क, ह, ये महामंत्र

उत्त्रान्वय के हैं। ककार से ब्रह्मरूपता है । यह कादी मत है । हकार से शिवरूपता, हादी मत है । कादी मत, काली मत और

हादी मत संद
ु री मत हैं। दोनों मिलकर कहादी मत होता है । संद
ु री में प्रपंच है । जो संद
ु री से भिन्न है उसमें प्रपंच नहीं है ।

सौंदर्य सवदर्शन है । ब्रह्मसंदर्शन का अर्थ है असौंदर्य का दर्शन। 58 पटल में है कि भगवती संद
ु री कहती हैं- अहं

प्रपंचभत
ू ाऽस्मि, सा तु निर्णुणारूपिणी (शक्ति संगमतंत्र, अध्याय 58)। कोई कोई कहते हैं कि कादी, हादी और कहादी

आदि भेदों से तंत्रराज के कई भेद हैं। योगिनीहृदय सप्र


ु सिद्ध ग्रंथ है । यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तर चत:ु शती है । भास्कर

राय ने भावनोपनिषद के भाष्य में कहा है कि यह कादी मतानय


ु ायी ग्रंथ है । तंत्रराज की टीका मनोरमा में भी यही बात

मिलती है परं तु बरिबास्य रहस्य में है कि इसकी हादी मतानक


ु ृ ल व्याख्या भी वर्तमान है । योगिनी हृदय ही ' नित्याहृदय'

के नाम से प्रसिद्ध है । श्रीविद्या विषयक कुछ ग्रंथ ये हैं-

1. तंत्रराज- इसकी बहुत टीकाएँ हैं। सुभगानंदनाथ कृत मनोरमा मुख्य है । इसपर प्रेमनिधि की सुदर्शिनी नामक टीका भी

है । भाष्स्कर की और शिवराम की टीकाएँ भी मिलती हैं। 2. तंत्रराजोत्तर 3. परानंद या परमानंद तंत्र - किसी किसी के

अनुसार यह श्रीविद्या का मुख्य उपासनाग्रंथ है । इसपर सुभगानंद की सुभगानंद संदोह नाम्नी टीका थ। कल्पसूत्र वत्ति

से मालम
ू होता है कि इसपर और भी टीकाएँ थी। 4. सौभाग्य कल्पद्रम
ु परमानंद के अनुसार यह श्रेक्ष्ठ ग्रंथ है । 5.

सौभाग्य कल्पलतिका क्षेमानंद कृत। 6. वामकेश्वर तंत्र (पूर्वचतु:शती और उत्तर चतु:शती) इसपर भास्कर की सेतुबंध

टीका प्रसिद्ध है । जयद्रथ कृत वामकेश्वर विवरण भी है । 7. ज्ञानार्णव- यह 26 पटल में है । 8-9. श्री क्रम संहिता तथा वहृ द

श्री क्रम संहिता। दक्षिणामूर्त्ति संहिता - यह 66 पटल में है । 11. स्वच्छं द तंत्र अथवा स्वच्छं द संग्रह। 12. कालात्तर

वासना सौभाग्य कल्पद्रप


ु में इसकी चर्चा आई है । 13. त्रिपुरार्णव। 14. श्रीपराक्रम: इसका उल्लेख योगिनी-हृदय-दीपका

में है । 15. ललितार्चन चंद्रिका - यह 17 अध्याय में है । 16. सौभाग्य तंत्रोत्तर। 17. मातक
ृ ार्णव 18. सौभाग्य रत्नाकर:

(विद्यानंदनाथ कृत) 19. सौभाग्य सुभगोदय - (अमत


ृ ानंदनाथ कृत) 20. शक्तिसंगम तंत्र- (सुंदरी खंड) 21. त्रिपुरा

रहस्य - (ज्ञान तथा माहात्म्य खंड) 22. श्रीक्रमात्तम - (निजपकाशानंद मल्लिकार्जुन योगींद्र कृत) 23. अज्ञात अवतार -
इसका उल्लेख योगिनी हृदय दीपिका में हैं। 24-25. सभ
ु गार्चापारिजात, सभ
ु गार्चारत्न: सौभाग्य भास्कर में इनका

उल्लेख है । 26. चंद्रपीठ 27. 27. संकेतपादक


ु ा 28. संद
ु रीमहोदय - शंकरानंदनाथा कृत 29. हृदयामत
ृ - (उमानंदनाथ

कृत) 30. लक्ष्मीतंत्र: इसें त्रिपरु ा माहात्म्य है । 31. ललितोपाख्यान - यह ब्रह्मांड परु ाण के उत्तरखंड में है । 32.

त्रिपरु ासार समच्


ु चय (लालभ
ू ट्ट कृत) 33. श्री तत्वचिंतामणि (पर्णा
ू नंदकृत) 34. विरूपाक्ष पंचाशिका 35. कामकला विलास

36. श्री विद्यार्णव 37. शाक्त क्रम (पर्णा


ू नंदकृत) 38. ललिता स्वच्छं द 39. ललिताविलास 40. प्रपंचसार (शंकराचार्य

कृत) 41. सौभाग्यचंद्रोदय (भास्कर कृत) 42. बरिबास्य रहस्य: (भास्कर कृत) 43. बरिबास्य प्रकाश (भास्कर कृत) 44.

त्रिपरु ासार 45. सौभाग्य सभ


ु गोदय: विद्यानंद नाथ कृत 46. संकेत पद्धति 47. परापज
ू ाक्रम 48. चिदं बर नट।

'तंत्रराज' (कादीमत) में एक श्लोक इस प्रकार है - नित्यानां शोडषानां च नवतंत्राणिकृत्स्नस:। सुभगानंद नाथ ने अपनी

मनोरमा टीका में कहा है - इस प्रसंग में नवतंत्र का अर्थ है - सुंदरीहृदय। चंद्रज्ञान, मातक
ृ ातंत्र, संमोहनतंत्र, मावकेश्वर तंत्र,

बहुरूपाष्टक, प्रस्तारचिंतामणि के समान इसे समझना चाहिए। इस स्थल में सुंदरीहृदय का योगिन्ह्रीदय से तादात्म्य है ।

वामकेश्वर आदि तंत्रग्रंथों का पथ


ृ क् ‌पथ
ृ क् ‌उल्लेख भी हुआ है । नित्याषोडशार्णव में पथ
ृ क् ‌रूप से इसका उल्लेख किया गा

है , परं तु अन्य नित्यातंत्रों के भीतर प्रसिद्ध श्रीक्रमसंहिता और ज्ञानार्णव के उल्लेख नहीं है ।

दस महाविद्या: इस महाविद्याओं में पहली त्रिशक्तियों का प्रतिष्ठान जिन ग्रंथों में है उनमें से संक्षेप में कुछ ग्रंथों के

नाम ऊपर दिए गए हैं। भव


ु नेश्वरी के विषय में 'भव
ु नेश्वरी रहस्य' मख्
ु य ग्रंथ है । यह 26 पटलों में पर्ण
ू है । पथ्ृ वीधराचार्य

का 'भव
ु नेश्वरी अर्चन पद्धति' एक उत्कृष्ट ग्रंथ है । ये पश्र
ृ वीधर गांविदं पाद के शिष्य शंकराचार्य के शिष्य रूप से परिचित

हैं। भव
ु नेश्वरीतंत्र नाम से एक मल
ू तंत्रग्रंथ भी मिलता हैं। इसी प्रकार 'राजस्थान परु ात्तत्व ग्रथमाला' में पथ्ृ वीधर का

'भव
ु नेश्वरी महास्तोत्र' मद्रि
ु त हुआ है ।

भैरवी के विषय में 'भैरवीतंत्र' प्रधान ग्रंथ है । यह प्राचीन ग्रंथ है । इसके अतिरिक्त 'भैरवीरहस्य' , 'भैरवी सपयाविधि'

आदि ग्रंथ भी मिलते हैं। 'पुरश्चर्यार्णव' नामक ग्रंथ में 'भैरवी यामल' का उल्लेख है ।

भैरवी के नाना प्रकार के भेद हैं- जैसे, सिद्ध भैरवी, त्रिपरु ा भैरवी, चैतन्य भैरवी, भव
ु नेश्वर भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी,

संपदाप्रद भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, षटकुटा भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी, इत्यादि। ' सिद्ध

भैरवी' उत्तरान्वय पीठ की दे वता है । त्रिपरु ा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की दे वता है । नित्या भैरवी पश्चिमान्वय की दे वता है । भद्र

भैरवी महाविष्णु उपासिका और दक्षिणासिंहासनारूढा है । त्रिपरु ाभैरवी चतर्भु


ु जा है । भैरवी के भैरव का नाम बटुक है । इस

महाविद्या और दशावतार की तल
ु ना करने पर भैरवी एवं नसि
ृ हं को अभिन्न माना जाता है ।
'बगला' का मख्
ु य ग्रंथ है 'सांख्यायन तंत्र' । यह 30 पटलों में पर्ण
ू है । यह ईश्वर और क्रौंच भेदन का संबंद्ध रूप है । इस तंत्र

को ' षट् विद्यागम' कहा जाता है । ' बगलाक्रम कल्पवल्ली' नाम से यह ग्रंथ मिलता है जिसमें दे वी के उद्भव का वर्णन

हुआ है । प्रसिद्धि है कि सतयग


ु में चारचर जगत ्‌के विनाश के लिये जब वातीक्षीम हुआ था उस समय भगवान ्‌तपस्या

करते हुए त्रिपरु ा दे वी की स्तति


ु करने लगे। दे वी प्रसन्न होकर सौराष्ट्र दे श में वीर रात्रि के दिन माघ मास में चतर्द
ु शी

तिथि की प्रकट हुई थीं। इस वगलादे वी को ' त्रैलोक्य स्तंभिनी विद्या जाता है ।

'घूमवती' के विषय में विशेष व्यापक साहित्य नहीं है । इनके भैरव का नाम कालभैरव है । किसी किसी मत में घूमवती के

विधवा होने के कारण उनका कोई भैरव नहीं है । वे अक्ष्य तत


ृ ीया को प्रदीप काल में प्रकट हुई थीं। वे उत्तरान्वय की दे वता

हैं। अवतारों में वामन का धूमवती से तादात्म्य है । धम


ू वती के ध्यान से पता चलता है कि वे काकध्वज रथ में आरूढ़ हैं।

हस्त में शुल्प (सूप) हैं। मुख सूत पिपासाकातर है । उच्चाटन के समय दे वी का आवाहन किया जाता है । ' प्राणातोषिनी'

ग्रंथ में धूवती का आविर्भाव दर्णित हुआ है ।

'मातंगी' का नामांतर सम
ु ख
ु ी है । मातंगी को उच्छिष्टचांडालिनी या महापिशाचिनी कहा जाता है । मातंगी के विभिन्न

प्रकार के भेद हैं- उच्छिष्टमातंगी, राजमांतगी, सम


ु ख
ु ी, वैश्यमातंगी, कर्णमातंगी, आदि। ये दक्षिण तथा पश्चिम अन्वय

की दे वता हैं। ' ब्रह्मयामल' के अनस


ु ार मातंग मनि
ु ने दीर्घकालीन तपस्या द्वारा दे वी को कन्यारूप में प्राप्त किया था।

यह भी प्रसिद्धि है कि धने वन में मातंग ऋषि तपस्या करते थे। क्रूर विभति
ू यों के दमन के लिये उस स्थान में त्रिपरु संद
ु री

के चक्षु से एक तेज निकल पड़ा। काली उसी तेज के द्वारा श्यामल रूप धारण करके राजमातंगी रूप में प्रकट हुईं। मातंगी

के भैरव का नाम सदाशिव है । मातंगी के विषय में ' मातंगी सपर्या' , रामभट्ट का ' मातंगीपद्धति' शिवानंद का ' मंत्रपद्धति'

है । मंत्रपद्धति ' सिद्धांतसिध'ु का एक अध्याय है । काशीवासी शंकर नामक एक सिद्ध उपासक सम


ु ख
ु ी पज
ू ापद्धति के

रचयिता थे। शंकर संद


ु रानंद नाथ के शिष्य (छठी पीढ़ी में ) प्रसिद्ध विद्यारणय स्वामी की शिष्यपरं परा में थे।

तंत्रसाहित्य के विशिष्ट आचार्य: मध्युग में तांत्रिक साधना एवं साहित्यरचना में जितने विद्वानों का प्रवेश हुआ था।

उनमें से कुछ विशिष्ट आचार्यो का संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जा रहा हैं।

प्राचीन समय के दर्वा


ु सा, अगस्त्य, विश्वामित्र, परशरु ाम, बहृ स्पति, वसिष्ठ, नंदिकेश्वर, दत्तात्रेय प्रभति
ृ ऋषियों का

विवरण दे ना यहाँ अनावश्यक हैं।

ऐतिहासिक युग में श्रीमर्च्छकराचार्य के परम गुरु गौडपादाचार्य का नाम उल्लेखयोय है । उनके द्वारा रचित 'सुभगादय

स्तुति' एवं 'श्रीविद्यारन्त्नसूत्र' प्रसिद्ध हैं। इस विषय में पहले उल्लेख किया जा चुका है ।
लक्ष्मणदे शिक: ये 'शादातिलक' , 'ताराप्रदीप' आदि ग्रथोंं के रचयिता थे। इनके विषय में यह परिचय मिलता है कि ये

उत्पल के शिष्य थे।

शंकराचार्य: वेदांगमार्ग के संस्थापक सुप्रसिद्ध भगवान ्‌शंकराचार्य वैदिक संप्रदाय के अनुरूप तांत्रिक संप्रदाय के भी

उपदे शक थे। ऐतिहासिक दृष्टि से पंडितों ने तांत्रिक शंकर के विषय में नाना प्रकार की आलोंचनाएँ की हैं। कोई दोनों को

अभिन्न मानते हैं और कोई नहीं मानते है । उसकी आलोचना यहाँ अनावश्यक है । परं परा से प्रसिद्ध तांत्रिक शंकराचार्य के

रचित ग्रंथ इस प्रकार हैं-

1-प्रपंचसार, 2-परमगरु
ु गौडपाद की 'सभ
ु गोदय स्तति
ु ' की टीका, 3-ललितात्रिंशति भाष्य, 4- 'आनंदलहरी' अथवा '

सौंदर्यलहरी' नामक स्तोत्र 5-'क्रमस्तति


ु ' । किसी किसी के मत में ' कालीकर्पूरस्तव' की टीका भी शंकराचार्य ने बनाई थी।

पश्र
ृ वीधराचार्य: यह शंकर के शिष्कोटि में थे। इन्होंने ' भुवनेश्वरी स्तोत्र' तथा ' भुवनेश्वरी रहस्य' की रचना की थी। '

भुवनेश्वरी स्तोत्र' लाइपजिंग (्ख्रड्ढत्द्रन्न्त्ढ़) में है । वेबर ने अपने कैलाग में इसका उल्लेख किया है । भुवनेश्वरी रहस्य

वाराणसी में भी उपलब्ध है और उसका प्रकाशन भी हुआ है । ' भुवनेश्वरी-अर्चन-पद्धति' नाम से एक तीसरा ग्रंथ भी

पथ्ृ वीधर आचार्य का प्रसिद्ध है ।

चरणस्वामी: येदांत के इतिहास में एक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। तंत्र में इन्होंने ' श्रीविद्यार्थदीपिका' की रचना की है । '

श्रीविद्यारत्न-सत्र
ू -दीपिका' नामक इनका ग्रंथ पद्रास लाइब्रेरी में उपलब्ध है । इनका ' प्रपंच-सार-संग्रह' भी अति प्रसिद्ध

ग्रंथ है ।

सरस्वती तीर्थ: परमहं स परिब्राजकाचार्य वेदांतिक थे। यह संन्यासी थे। इन्होंने भी ' प्रपंचसार' की विशिष्ट टीका की

रचना की।

राधव भट्ट: 'शादातिलक' की ' पदार्थ आदर्श' नाम्री टीका बनाकर प्रसिद्ध हुए थे। इस टीका का रचनाकाल सं0 1550 है ।

यह ग्रंथ प्रकाशित है । राधव ने ' कालीतत्व' नाम से एक और ग्रंथ लिखा था। परं तु उसका अभी प्रकाशन नहीं हुआ।

पुणयानंद:हादी विद्या के उपासक आचार्य पुण्यानंद ने ' कामकला' विलास' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी। उसकी

टीका ' कृतवल्ली' नाम से नटानंद ने बनाई। पुण्यानंद का दस


ू रा ग्रंथ ' तत्वविमर्शिनी' है । यह अभी तक प्रकाशित नहीं

हुआ है ।

अमत
ृ ानंदनाथ: अमत
ृ ानदनाथ ने ' योगिन्ह्रीदय' के ऊपर दीपिका नाम से टीकारचना की थी। इनका दस
ू रा ग्रंथ ' सौभाग्य

सभ
ु गोदय' विख्यात है । यह अमत
ृ ानंद पर्व
ू वर्णित पण
ु यानंद के शिष्य थे।
त्रिपरु ानंद नाथ: इस नाम से एक तांत्रिक आचार्य हुए थे जो ब्रह्मानंद परमहं स के गरु
ु थे। त्रिपरु ानंद की व्यक्तिगत रचना

का पता नहीं चलता। परं तु ब्रह्मानंद तथा उनके शिष्य पर्णा


ू नंद के ग्रंथ प्रसिद्ध हैं।

सुंदराचार्य या सच्चिदानंद: इस नाम से एक महापुरुष का आविर्भाव हुआ था। यह जालंधर में रहते थे। इनके शिष्य थे

विद्यानंदनाथ। सुंदराचार्य अर्थात ्‌सचिच्दानंदनाथ की ' ललितार्चन चंद्रिका' एवं ' लधुचंद्रिका पद्धति' प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।

विद्यानंदनाथ का पर्व
ू नाम श्रीनिवास भट्ट गोस्वामी था। यह कांची (दक्षिण भारत) के निवासी थे। इनके पर्व
ू परु
ु ष

समरपंग
ु व दीक्षित अत्यंत विख्यात महापरु
ु ष थे। श्रीनिवास तीर्थयात्रा के निमित जालंधर गए थे और उन्होंने

सच्चिदानंदनाथ से दीक्षा ग्रहण कर विद्यानंद का नाम धारण किया। गरु


ु के आदे श से काशी आकर रहने लगे। उन्होंने

बहुत से ग्रंथों की रचना की जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं- ' शिवार्चन चंद्रिका' , ' क्रमरत्नावली' , '

भैरवार्चापारिजात' , ' द्वितीयार्चन कल्पवल्ली' , ' काली-सपर्या-क्रम-कल्पवल्ली,' 'पंचमेय क्रमकल्पलता' , ' सौभाग्य

रत्नाकर' (36 तरं ग में ), ' सौभग्य सभ


ु गोदय' , ' ज्ञानदीपिका' और ' चत:ु शती टीका अर्थरत्नावली' ।

नित्यानंदनाथ: इनका पूर्वनाम नाराणय भट्ट है । उन्होंने दर्वा


ु सा के ' दे वीमहिम्र स्तोत्र' की टीका की थी। उनका '

ताराकल्पलता पद्धति' नामक ग्रंथ भी मिलता है ।

सर्वानंदनाथ: इनका नाम उल्लेखनीय है । यह ' सर्वोल्लासतंत्र' के रचयिता थे। इनका जन्मस्थान मेहर प्रदे श (पर्व

पाकिस्तान) था। ये सर्वविद्या (दस महाविद्याओं) के एक ही समय में साक्षात ्‌करने वाले थे। इनका जीवनचरित ्‌इनके

पत्र
ु के लिखे ' सर्वानंद तरं गिणी' में मिलता है । जीवन के अंतिम काल में ये काशी आकर रहने लगे थे। प्रसित्र है कि यह

बंगाली टोला के गणेश मोहल्ला के राजगरु


ु मठ में रहे। यह असाधरण सिद्धिसंपन्न महात्मा थे।

निजानंद प्रकाशानंद मल्लिकार्जुन योगीभद्र: इस नाम से एक महान ्‌सिद्ध पुरुष का पता चलता है । यह श्रीक्रमोत्तम

नामक एक चार उल्लास से पूर्ण प्रसिद्ध ग्रंथ के रचयिता थे। श्रीक्रमोत्तम श्रीविद्या की प्रासादपरा पद्धति है ।

ब्रह्मानंद: इनका नाम पहले आ चक


ु ा है । प्रसिद्ध है कि यह पर्ण
ू नंद परमहंस के पालक पिता थे। शिक्ष एवं दीक्षागरु
ु भी थे।

' शाक्तानंद तरं गिणी' और ' तारा रहस्य' इनकी कतियाँ हैं।

पूर्णानंद : 'श्रीतत्तवचिंतामणि' प्रभति
ृ कई ग्रंथों के रचयिता थे। श्रीतत्व का रचनाकाल 1577 ई 0 है । ' श्यामा अथवा

कालिका रहस्य' शाक्त क्रम ' तत्वानंद तरं गिणी' 'षटकर्मील्लास' प्रभति
ृ इनकी रचनाएँ हैं। प्रसिद्ध ' षट्चक्र निरूपण'

'श्रीतत्वचितामणि' का षष्ठ अध्याय है ।

दे वनाथ ठाकुर तर्क पंचानन : ये 16 वीं शताब्दी के प्रसिद्ध ग्रंथकार थे। इन्होंने ' कौमद
ु ी' नाम से सात ग्रंथों की रचना की

थी। ये पहले नैयायिक थे और इन्होंने ' तत्वचिंतामणि' की टीका ' आलोक' पर परिशिष्ट लिखा था। यह कूचविहार के
राजा मल्लदे व नारायण के सभापंडित थे। इनके रचित ' सप्तकौमद
ु ी' में ' मंत्रकौमद
ु ी' एवं ' तंत्र कौमद
ु ी' तंत्रशास्त्र के ग्रंथ

हैं। इन्होंने ' भव


ु नेश्वरी' कल्पलता नामक ग्रंथ की भी रचना की थी।

गोरक्ष: प्रसिद्ध विद्वान ्‌एवं सिद्ध महापुरुष थे। ' महार्थमंजरी' नामक ग्रंथरचना से इनकी ख्याति बढ़ गई थी। इनके ग्रंथों

के नाम इस प्रकार हैं-' महार्थमंजरी' और उसकी टीका ' परिमल' , ' संविदउल्लास' , ' परास्तोत्र' , ' पादक
ु ोदय' , '

महार्थोदय' इत्यादि।

संविद स्तोत्र के नाम से गोरक्ष के गरु


ु का भी एक ग्रंथ था। गोरक्ष के गरु
ु ने ' ऋजु विमर्शिनी' और ' क्रमवासना' नामक

ग्रंथों की भी रचना की थी।

सुभगानंद नाथ ओर प्रकाशानंद नाथ: सुभगांनंद केरलीय थे। इनका पूर्वनाम श्रीकंठे श था। यह कश्मीर में जाकर वहाँ के

राजगुरु बन गए थे। तीर्थ करने के लिये इन्होंने सेतुबंध की यात्रा भी की जहाँ कुछ समय नसि
ृ हं राज्य के निकट तंत्र का

अध्ययन किया। उसके बाद कादी मत का ' षोडशनित्या' अर्थात ्‌तंत्रराज की मनोरमा टीका की रचना इन्होंने गुरु के

आदे श से की। बाईस पटल तक रचना हो चुकी थी, बाकी चौदह पटल की टीका उनके शिष्य प्रकाशानंद नाथ ने पूरी की।

यह सुभगानंद काशी में गंगातट पर वेद तथा तंत्र का अध्यापन करते थे। प्रकाशानंद का पहला ग्रंथ '

विद्योपास्तेमहानिधि' था। इसका रचनाकाल 1705 ई 0 है । इनका द्वितीय ग्रंथ गुरु कृत मनोरमा टीका की पर्ति
ू है ।

उसका काल 1730 ई 0 है । प्रकाशानंद का पूर्वनाम शिवराम था। उनका गोत्र ' कौशिक' था। पिता का नाम भट्टगोपाल था।

ये त्रयंबकेश्वर महादे व के मंदिर में प्राय: जाया करते थे। इन्होंने सुभगानंद से दीक्षा लेकर प्रकाशानंद नाम ग्रहण किया

था।

कृष्णानंद आगमबागीश : यह बंग दे श के सप्र


ु सिद्ध तंत्र के विद्वान ्‌थे जिनका प्रसिद्ध ग्रंथ ' तंत्रसार' है । किसी किसी के

मतानस
ु ार ये पर्ण
ू नंद के शिष्य थे परं तु यह सर्वथा उचित नहीं प्रतीत होता। ये पश्वाश्रयी तांत्रिक थे। कृष्णानंद का

तंत्रसार आचार एवं उपासना की दृष्टि से तंत्र का श्रेष्ठ ग्रंथ है ।

महीधर: काशी में वेदभाष्यकार महीधर तंत्रशास्त्र के प्रख्यात पंडित हुए हैं। उनके ग्रंथ ' पंचमहोदधि' और उसकी टीका

अतिप्रसिद्ध हैं (रचनाकाल 1588 ई 0)।

नीलकंठ: महाभारत के टीकाकार रूप से महाराष्ट्र के सिद्ध ब्रह्मण ग्रंथकार। ये तांत्रिक भी थे। इनकी बनाई

'शिवतत्वामत
ृ ' टीका प्रसिद्ध हैं। इसका रचनाकाल 1680 ई 0 है ।

आगमाचार्य गौड़ीय शंकर: आगमाचार्य गौड़ीय शंकर का नाम भी इस प्रसंग में उल्लेखनीय है । इनके पिता का नाम

कमलाकर और पितामह का लंबोदर था। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ ' तारा-रहस्य-वत्ति


ृ ' और ' शिवार्धन माहात्म्य' (सात अध्याय
में ) हैं। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा रचित और भी दो तीन ग्रंथों का पता चलता है जिनकी प्रसिद्धि कम है । भास्कर

राय : 18 वीं शती में भास्कर राय एक सिद्ध परु


ु ष काशी में हो गए हैं जो सर्वतंत्र स्वतंत्र थे। इनकी अलौकिक शक्तियाँ थी।

इनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं-' सौभाग्य भास्कर' (यह ललिता सहस्र-नाम की टीका है , रचनाकाल 1729 ई 0) ' सौभाग्य

चंद्रोदय' (यह ' सौभाग्यरत्नाकर' की टीका है । ' बरिबास्य रहस्य' , ' बरिबास्य प्रकाश' ; ' संभवानंद कल्पलता' 'सेतब
ु ंध

टीका' (यह नित्याश्षोडषार्णव पर टीका है , रचनाकाल 1733 ई 0); ' गप्ु तवती टीका' (यह दर्गा
ु सप्तशती पर व्याख्यान है ,

रचनाकाल 1740 ई 0); ' रत्नालोक' (यह परशरु ाम ' कल्पसत्र


ू ' पर टीका है ); ' भावनोपनिषद्

पर भाष्य प्रसिद्व है कि ' तंत्रराज ' पर भी टीका लिखी थी। इसी प्रकार 'त्रिपुर उपनिषद् पर भी उनकी टीका थी । भास्कर

राय ने विभिन्न शास्त्रोंं पर अनेक ग्रंथ लिखे थे। प्रेमनिधि पंथ : इनका निवास कूर्माचल (कूमायूँ) था। यह घर छोड़कर

काशी में बस गए थे। ये कार्तवीर्य के उपासक थे। थोड़ी अवस्था में उनकी स्त्री का दे हांत हुआ। काशी आकर उन्होंने

बराबर विधासाधना की। उनकी ' शिवतांडव तंत्र' की टीका काशी में समाप्त हुई। इस ग्रंथ से उन्हें बहुत अर्थलाभ हुआ।

उन्होने तीन विवाह किए थे। तीसरी पत्नी प्राणमंजरी थीं। प्रसिद्व है कि प्राणमंजरी ने ' सुदर्शना' नाम से अपने पुत्र

सुदर्शन के दे हांत के स्मरणरूप से तंत्रग्रंथ लिखा था। यह तंत्रराज की टीका है ।

प्रेमनिधि पैथ: इनका निवास कूमार्रू चल (कुमायँ)ू था। यह घर छोउकर काशी में बस गए थे। ये कार्तवीर्य के अपासक थे।

थोडी अवस्था में अनकी स्त्री का दे हांत हुआ। काशी आकर उन्होंने बराबर विद्यासाधना की। उनकी ' शिवतांडव तंत्र' की

टीका काशी में समाप्त हुई। इस ग्रंथ से उन्हें बहुत अर्थलाभ हुआ। उन्होंने तीन विवाह किए थे। तीसरी पत्नी प्राणमंजरी

थीं। प्रसिद्ध है कि प्राणमंजरी ने ' संदर्शना' नाम से अपने पत्र


ु सदु र्शन के दे हांत के स्मरणरूप से तंत्रग्रंथ लिखा था। यह

तंत्रराज की टीका है ।

प्रेमनिधि ने ' शिवतांडव' टीका ' मल्लादर्श' 'पथ्ृ वीचंद्रोदय' और ' शारदातिलक' की टीकाएँ लिखी थीं। उनके नाम से '

भक्तितरं गिणी,' 'दीक्षाप्रकाश' (सटीक) प्रसिद्ध है । कार्तवीर्य उपासना के विशय में उन्होंने ' दीपप्रकाश नामक' ग्रथ लिखा

था। उनके ' पथ्ृ वीचंद्रादय' का रचनाकाल 1736 ई 0 है । कार्तवीर्य पर ' प्रयोग रत्नाकर' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ है ।

' श्रीविद्या-नित्य-कर्मपद्धति-कमला' तंद्त्रराज से संबंध रखता है । वस्तत


ु : यह ग्रंथ भी प्राणमंजरी रचित है ।

उमानंद नाथ: यह भासकर राय के शिष्य थे और चाीलदे श के महाराष्ट्र राजा के सभापंडित थे। इनके दो ग्रंथ प्रसिद्ध हैं- 1.

हृदयामत
ृ (रचनाकाल 1742 ई 0), 2- नित्योत्सवनिबंध (रचनाकाल 1745 ई 0)।

रामेश्वर: तांत्रिक ग्रंथकार। इन्होंने ' परशरु ाम-कल्पसत्र


ू -वति
ृ ' की रचना की थी जिसका नाम ' सौभागयोदय' है । यह

नवीन ग्रंथ है जिसका रचनाकाल 1831 ई 0 है ।


शंकरानंद नाथ: 'संद
ु रीमहोदय' के रचयिता थे। यह प्रसिद्ध मीमांसक थे। सप्र
ु सिद्ध पंडित भट्ठ दीपिकादिकर्ता खंडदे व के

शिष्य थे। इनका नाम पहले कविमंडन था। इनके मीमांसाशास्त्र का ग्रंथ भी प्रसिद्ध हैं। इन्होंने धर्मशास्त्र में भी अच्छी

गति प्राप्त की थी। यह त्रिपरु ा के उपासक थे। शाक्त दीक्षा लेने के अनंतर यह शंकरानंद नाथ नाम से प्रसिद्ध हुए।

अप्पय दीक्षित: शैव मत में अप्पय दीक्षित के बहुत से ग्रंथ हैं। समष्टि में शतादिक ग्रंथों की दन्होंने विभिन्न षियों से

संबंधित रचनाएँ की थी। ' शिवाद्वैत निर्णाय' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ इन्हीं का है ।

माधवानंद नाथ: इस नाम से एक तंत्राचार्य लगभग 100 वर्ष पर्व


ू काशी में प्रकट हुए थे इनके गरू
ु यादवानंद नाथ थे।

इन्होंने ' सौभागय कल्पद्रम


ु ' की रचना की थी जो ' परमानंद तंत्र' के अनक
ु ू ल ग्रंथ है । यह ग्रंथ काशी में लिखा गया था।

क्षेमानंद: इन्होंने पूर्वोक्त ' सौभाग्य कल्पद्रम


ु ' के ऊपर ' कल्पलतिका' नाम की टीका लिखी थी। इनका ' कल्पद्रम
ु सौरभ'

टीका रूप से प्रसिद्ध है ।

ग्रीवानेंद्र सरसवती और शिवानंद योगींद्र: ये दोनों संन्यासौ ' प्रपंचसार' के टीकाकार के रूप में प्रसिसद्ध हुए हैं। ग्रीवानेंद्र

के ग्रंथ का नाम ' प्रपंचसार संग्रह' और शिवानंद के ग्रंथ का नाम ' द्म ' प्रपंच उद्योतारूण' है ।

रघुनाथ तर्क वाशीग: वंग दे श में इस नाम के तंत्र के एक प्रसिद्ध आचाययर्य थे। ये पूर्व बंगाल में नपादी स्थान के थे।

इनका ग्रंथ है ' आगम-तर्क -विलास' जो पाँच अध्यायों में विभक्त है । इसका रचनाकाल 1609 शकाब्द (1687) है ।

महादे व विद्यावागीश: प्रसिद्ध वगीय आचायर्य जिन्होंने ' आनंदलहरी' पर ' तत्वबोधिनी' शीर्षक टीका की रचना की।

(रचनाकाल 1605 ई 0)।

यदन
ु ाथ चक्रवर्ती: बंगीय विद्वान ्‌यदन
ु ाथ चक्रवर्ती के ' पंचरत्नाकर' और ' आगम कल्पलता' किसी समय पूर्व भारत में

अति प्रसिद्ध ग्रंथ माने जाते थे।

नरसिंह ठाकुर: मिथिला के नरसिंह ठाकुर ' तारामक्ति


ु सध
ु ार्णाव' लिखकर जगद्विख्यात हुए यह प्राय: तीन सौ वर्ष पर्व

मिथिला में तंत्रविद्या की साधना करते थे।

गोविद न्यायवागीश: यह ' मंत्रार्थ दीपिका' नामक ग्रंथ के लिये प्रसिद्ध हैं।

काशीनाथ तर्कालंकार: इनका ' श्यामा सपर्याविधि' प्रसिद्ध ग्रंथ है । यह काशी में रहे और एक महाराष्ट्रीय तांत्रिक ब्राह्मण

विद्वान ्‌थे। उनका दीक्षांत नाम शिवानंद नाथ है । ये दक्षिणाचारावलंबी थे और वामाचार का उन्होंने घोर विशेध किया।

अनके ग्रंथों में ' ज्ञानार्णाव' की टीका (23 पटल में ) गढ


ू ार्थ आदर्श हौर दक्षिणाचार की ' तंत्रराज टीका' प्रसिद्ध हैं। इनका '

चक्रसंकेत चंद्रिका' 'योगिनीहृदय दीपिका' का संक्षिप्त विवरण है । इन्होंने छोटे बड़े बहुसंख्यक ग्रंथ लिखे थे जिनमें से '
तंत्रसिद्धांत कौमद
ु ी' , ' मंत्रसिद्धांत मंजरी, ' तंत्रभष
ू ा,' 'त्रिपरु संद
ु री अर्चाक्रम' , 'कर्पूंरं स्तवदीपिका,' श्रीविद्यामंत्रदीपिका,'

'वामाचारमत-खंडन' 'मंत्रचंद्रिका' (11 उल्लास में ), ' संभवाचार्य कौमद


ु ी' (पाँच प्रकाश में ), ' शिवभक्ति रसायन,'

' शिवाद्वैत प्रकाशिका' (तीन उल्लास में ), ' शिवपूजा तरं गिणी,' 'कौलगजमर्दन,' 'मंत्रराज समुच्चय,' इत्यादि प्रसिद्ध है ।

काशीनाथ ने अपने ' वैदिक अधिकार निर्णाय' के विषय में कहा है कि तंत्रोपासना के चार भेदों के अनस
ु ार चार प्रकार के

तांत्रिक उल्लेखयोगय हैं-

 शुद्ध वैदिक (यह तंत्र की गंध भी सहन नहीं कर सकते),

 तांत्रिक वैदिक,

 शुद्ध तांत्रिक (यह तंत्र में अधिक विशिष्टता रखते हैं और वेद की गंध सहन नही कर

सकते; यथा ' पाशुपत' मतावलंबी),

 वैदिक तांत्रिक (यह वेदांग के पोषक और तंत्र को उसका ' अंगी' मानते हैं)।

तंत्रसाहित्य और उसके साधकों का यह अत्यंत संक्षिप्त विवरण है । इसमें बहुत से ग्रंथों के नाम दट
ू े हुए हैं, परं तु मुख्य

एवं विशिष्ट नाम दे दिए गए हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संदर्भ ग्रंथ-

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ू वर्सिटी पब्लिकेशन); सर जॉन वड
ु रॉफ (Sir

John Woodroffe): शक्ति ऐंड शाक्त वर्शिप, कलकता, 1929 ; दि वर्ल्ड ऐज पावर-1. पावर ऐज रियालिटी

(1921,कलकता); 2-पावर ऐज लाइफ (1622); 3- पावर ऐज माइंड (1922); 4- पावर मैटर (1921); (पी0 मख
ु र्जी के

सहयोग से); 5- पावर ऐज काजल्टी ऐंड कंटीन्यइ


ू टी (1923) (पी0 एन 0 मख
ु र्जी के सहयोग से); 6 - महामाया (प्रथम

सं01621; द्वि0 सं0 1919 कलकता) (पी0 एन 0 मख


ु ोपाध्यय के सहयोग से); कैटलाग ऑव मैनस्क्रि
ु प्टस ्‌इन दि

वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय: तंत्र सेक्शन (सरसवती भवन कैटलाग); दि शारदा तिलक तंत्र (ए 0 एच 0 ईविंग

द्वारा संपादित): दि अमरीकन आरियंटल सोसायटी, 1902; इंट्रोडक्शन टुदि इंगलिश ट्रांसलेशन ऑव ' प्रत्यभिज्ञा
विमर्शिनी' : के0 सी0 पांडय
े ; अभिनव गप्ु त (के0 सी0 पांडय
े द्वारा संपादित); एम 0 आर 0 सखार: हिस्ट्री ऑव दि

लिंगायत रिलीजन; चिंताहरण चक्रवर्ती: रिलीजन ऐंड लिटरे चर ऑव दि तंत्राज; कुलार्णव तंत्र; एज एंड आथरशिप ऑव

दि तंत्राज; जे0 सी0 चटर्जी: कश्मीर शैविज्म; एनल्स ऑव दि भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंससटीच्यरू
ू ट, पन
ू ा; डा0 बी0

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दिनेशचंद्र भट्टाचार्य: सर्वानंद ऐंड हिज सर्वोल्लासतंत्र; म 0 म 0 गोपीनाथ कविराज: तांत्रिक वाड्मय में शाक्त द्यष्श्टि,

बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना द्वारा प्रकाशित, 1965; तंत्र ओ आगमशास्त्रेर दिगदर्शन गवर्नमें ट संसकृत कालेज,

कलकता द्वारा प्रकाशित, 1963 ।

1. ↑ (द्रष्टव्य हरप्रसाद शास्त्री द्वारा संपादित' नेपाल दरबार का कैटलाग खंड 2,

पष्ृ ठ 60)

2. ↑ (द्रष्टव्य: स्टडीज इन तंत्राज खंड, 1, पष्ृ ठ 2, प्रबोधचंद्र बागची)

3. ↑ [ द्रष्टव्य, वही, पष्ृ ठ 5]

4. ↑ (जयद्रथ यामल के 30 वें अध्याय में ; दे खिए- विद्यापिठ की तंत्रसूची)

5. ↑ (दे खिए- बागची: पूर्वोद्घत


ृ ग्रंथ प0
ृ 112)

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