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कबीर बीजक

(स पूण कबीर वाणी)


(दोहे, श द, साखी, रमैनी, कहरा, पद)

eISBN: 978-93-5261-116-4
© काशकाधीन
काशक : डायमंड पॉके ट बु स ा. िल.
X-30, ओखला इं डि यल ए रया,
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सं करण : 2014
Kabir-Bijak
Edited By : Swami Anand Kulshresth
जीवन प रचय
कबीर ेम का नाम है। कबीर दशन, एकता और स ाव का भी नाम है। कबीर का संगम याग के संगम से
यादा गहरा है। वहां कु रान और वेद ऐसे खो गए ह क कोई अंतर ही नह रह गया है। कबीर का माग सीधा और
साफ है। पंिडत नह चल पाएगा इस माग पर। िनद ष और कोरा कागज जैसा मन ही चल पाएगा उस पर।
कबीर का ज म कहां आ? उनके माता-िपता कौन थे? उनके गु का नाम या था? इस िवषय म ा
ऐितहािसक त य म एक पता नह है। कबीर के संबंध म यह िनि त नह क वे िह दू थे या मुसलमान। िह दु
का मानना है क कबीर िह दू थे। मुसलमान का कहना है क वह मुसलमान थे।
कबीर के ज म को लेकर कई तरह क कथाएं िस ह। लगभग छः सौ वष पहले क बात है। काशी का
जुलाहा नी अपनी प ी नीमा के साथ काशी क तरफ आ रहा था। उसी दन उसका गौना आ था। रा ते म
तालाब पड़ता था। हाथ-पैर धोने के िलए वह तालाब के पास प च ं ा तो उसने कसी बालक के रोने क आवाज
सुनी। नी को िज ासा ई। चार तरफ देखा। आवाज एक झाड़ी क तरफ से आ रही थी। उसी ओर वह बढ़
गया। देखा, वहां एक न हा-सा बालक पड़ा है। इतना छोटा जैसे कु छ देर पहले ही पैदा आ हो। नीमा डरी क
कु छ झंझट होगा। लोग या सोचगे। अपवाद होगा। बदनामी होगी। ले कन जब नीमा ने ब े को यान से देखा तो
उसका मन उस पर मोिहत हो गया। फर उन दोन ने लोक-लाज क परवाह न क । वे ब े को अपने साथ ले
आए। काशी म जो मुह ला कबीर चौरा के नाम से आज मश र है, वह पर नी का घर था।
वे ब े को लेकर घर आ गए। ब े का नामकरण करने के िलए उ ह ने काजी को बुलाया। काजी ने कु रान
खोला। कहा जाता है क उसम हर जगह कबीर, कु ा, अकबर आ द श द िमले। अरबी म ये श द महान परमा मा
के िलए आते ह। काजी अचंिभत था। साधारण जुलाहे के ब े को कै से इतना बड़ा नाम दया जाए। काजी ने कई
बार कु रान उलटा-पलटा, पर हर बार वही श द उसे नजर आए।
फर या था, इस खबर को सुनकर कई काजी नी के घर आ गए और उ ह ने नी से कहा क इस ब े का
क ल कर दे, वना इस बालक क वजह से कोई अनहोनी हो सकती है। नी -नीमा इतने बेरहम नह थे। उ ह ने
कािजय क सलाह नह मानी और बालक का नाम कबीर रख दया।
कबीर के ज म को लेकर एक दूसरी लोक-कथा भी चिलत है‒एक रोज एक ा ण अपनी िवधवा बेटी के
साथ वामी रामानंद के दशन के िलए गया। िपता के साथ ही बेटी ने भी रामानंद के चरण पश कए। रामानंद
ने यान नह दया और अचानक उनके मुंह से िनकल गया क पु वती भव। वामी रामानंद का आशीवाद भला
कै से झूठा होता। कु छ महीन के बाद उसने एक पु को ज म दया। िवधवा के िलए यह शुभ घटना नह थी।
लोक-लाज के कारण उस ा ण क या ने बालक को लहरतारा तालाब के कनारे छोड़ दया।
इसी बालक को नी और नीमा ने लहरतारा के कनारे से पाया था। इस तरह से कबीर िह दू प रवार म पैदा
ए और मुसलमान घर म पले।
एक तीसरी लोक-कथा भी कबीर के ज म को लेकर है‒शुकदेवजी ने कबीर के प म अवतार िलया था। पूव
ज म म उ ह ने बारह वष तक गभावास का क भोगा था। इसिलए इस बार गभावास से बचने के िलए उ ह ने
अपने-आपको एक सीपी म बंद कर िलया और उसे गंगा के कनारे छोड़ दया। यही सीपी बहतेे-बहते लहरतारा
तालाब म प च ं गई और एक कमल के प े पर खुल गई। इस सीपी से एक िशशु का ज म आ। यही िशशु कबीर
के नाम से मश र आ।
उपरो सारी कथा से यही िस होता है क कबीर का ज म कै से आ कु छ भी िनि त प से कहना
मुि कल है।
कबीर कस ितिथ, तारीख और सन् म पैदा ए यह भी िनि त करना क ठन ही है।
कबीर के ज म के िवषय म यह छंद मश र है‒
चौदह सौ पचपन साल गए
च वार इक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत क
पूरनमासी कट भए।

इस छ द का अथ है‒िब म के 1455 साल बीतने पर सोमवार को जेठ क पूणमासी, वट सािव ी के पव पर


कबीर पैदा ए थे। वट सािव ी के शुभ अवसर पर आज भी कबीरपंथी महा मा कबीर का ज मो सव मनाते ह।
कु छ िव ान कबीर का ज म-काल 1456 मानते ह और यह सही भी लगता है य क छ द म भी है क 1455 वां
संवत बीत जाने पर यानी सं. 1456 म महा मा कबीर का ज म आ।
कबीर के ज म थान के बारे म भी तीन मत ह‒
मगहर, काशी, आजमगढ़ म बेलहरा गांव। कबीर ने िलखा भी है‒
‘पिहले दरसन मगहर पायो पुिन कासी बसे आई।’ अथात काशी म रहने से पहले कबीर ने मगहर देखा।
मगहर म कबीर का मकबरा भी है।
कबीर का अिधकांश समय काशी म बीता। वे ‘काशी के जुलाहे’ के प म ही जाने जाते ह। कबीरपंथी भी
काशी को कबीर का ज म थान मानते ह।
कबीर मगहर, काशी, आजमगढ़ म से कहां पैदा ए थे, इस संबंध म िव ान के अलग-अलग मत ह। कसी एक
जगह पर मुहर लगाना मुि कल है।
कबीर के माता-िपता िनधन थे। कबीर के पढ़ाई पर कोई यान नह दया गया। कबीर कताबी िव ा ा न
कर सके । उ ह ने वयं इस बात को वीकार भी कया है‒‘मिस कागद छु यो नह , कलम गही नह हाथ।’
ले कन कताबी िव ा ही सब कु छ नह होती। कबीर कताबी ान से भी ऊपर िनकले। वह तो ान के भंडार
थे। उनम भावुकता, ितभा कू ट-कू टकर भरी थी।
वह बचपन म ही राम-भि म डू ब गए। जुलाहा प रवार म पलने-बढ़ने के बाद भी उन पर मुसलमानी रहन-
सहन का भाव नह पड़ा। वे िह दु क तरह कं ठी-माला धारण करते, ितलक लगाते और राम-नाम का सुिमरन
करते।
कबीर को एक स े गु क तलाश थी। काशी म उन दन सबसे िस वै णव आचाय वामी रामानंद थे।
कबीर के मन म उ ह से दी ा लेने क इ छा जागी। ले कन वै णव आचाय एक जुलाहे को कै से दी ा दे सकता
था। कबीर ने इस बाधा को दूर करने के िलए एक उपाय िनकाला।
कबीर सुबह के चार बजे से पहले ही गंगा क सी ढ़य पर जाकर लेट गए। वामी रामानंद गंगा म ान करके
सी ढ़यां चढ़ रहे थे, तभी उनका पैर कसी से टकराया। ‘राम-राम’ कहकर वामी जी ने पैर हटा िलया। कबीर ने
इसी ‘राम राम’ को गु मं मान िलया। इस तरह से कबीर ने रामानंद को अपना गु वीकार कर िलया।
कबीर के समय म भारत पर मुसलमान का रा य था। िह दु पर तरह-तरह के अ याचार आ करते थे। ऐसे
म दोन जाितय म ेम के थान पर घृणा ही अिधक थी।
कबीर परम वैरागी थे। सांसा रक मोह-माया से उनका कोई सरोकार नह था। धन-दौलत उनके िलए थ
था, फर भी वह गृह थ-सं यासी के प म ही जीवन िबताते रहे। वे कपड़ा बुनकर उसे बाजार म बेचने जाते और
उससे जो भी लाभ होता, उससे अपना और अपने प रवार का जीवन-िनवाह कया करते थे।
कबीर एक सफल गृह थ, सफल इं सान और महान संत ही नह थे बि क एक समाज सुधारक भी थे। कबीर को
जब लगने लगा क उनका अवसान-काल समीप है, अब इस शरीर को यागना होगा तो उ ह ने काशी नगरी को
छोड़ने का मन बनाया।
वह इस बात से सहमत नह थे क काशी मो क नगरी है। कबीर ने घोषणा क ‒‘वह अब मगहर म जाकर
रहगे।’
मगहर के िवषय म यह अंधिव ास था क वहां मरने पर मुि नह िमलती। कबीर तो जीवन-भर
अंधिव ास के िव लड़ते रहे थे। मगहर के माथे पर लगे इस कलंक को धोना ज री था। अंधिव ास का
िवरोध आव यक था।
इस घोषणा से कबीर के िश य को बड़ा क आ। कबीर ने उ ह समझाया‒‘मो के िलए थान नह कम
धान होते ह। ‘भावभि ’ के भरोसे वे मगहर म ाण छोड़ने पर भी अपने राम म इस कार घुल-िमल जाएंगे
जैसे पानी म पानी िमल जाता है। िजसके दय म राम का वास है, उसके िलए काशी और मगहर म कोई भी तो
अंतर नह । अगर काशी म मृ यु होने पर ही मो िमलता है तो फर राम क कौन-सी बड़ाई समझी जाए?’
अंततः कबीर मगहर प चं गए। वहां प च
ं ने पर उनके भ का मेला-सा लग गया।
हर कोई उनके दशन क साध लेकर आता था। अंितम दन उ ह ने सबको एक कया। कबीर ने सबक ओर
देखा। तभी लोग ने देखा क एक योित कबीर के शरीर से बाहर आई और आसमान क ओर चली गई। सबको
ही िव ास हो गया क कबीर का महा याण हो गया।
उनके िनधन का समाचार िमलते ही िववाद खड़ा हो गया। काशी नरे श वीर संह और उनके िह दू-भ चाहते
थे क कबीर का अंितम सं कार अि म जलाकर िह दू-प ित से कया जाए। मुि लम समाज का कहना था क
उनका सं कार मुि लम मजहब के अनुसार दफनाकर होना चािहए।
बात इतनी बढ़ी क दोन ओर से तलवार खंच ग । फर लोग ने जब कु टी का ार खोला तो वे सब दंग रह
गए। वहां कबीर का शव नह था। उसके थान पर फू ल का एक छोटा-सा ढेर पड़ा था।
अब झगड़ा ख म हो गया था। दोन धम के लोग ने अपनी-अपनी आ था के अनुसार कबीर का सं कार
कया।
कबीर क रचनाएं
दोहा‒यह किवता क वह िवधा है िजसम दो पंि य म 24 मा ा का योग कया जाता है। अनेक िह दी
किवय ने दोहे क श ल म का रचनाएं क ह।
रमैनी‒इसम कु ल िमलाकर चौरासी प ह और साथ ही िछह र साखी भी ह। रमैनी चौपाई और साखी दोहे
म है। इस िवशाल पु तक म चौरासी लाख योिनय क क पना क गई है।
श द‒इसम कु ल िमलाकर एक सौ प ह प ह। कबीर का कहना था क िनणायक श द के ज रए ही सारी
ांितयां समा हो सकती ह और जीव अना दकाल से ही वाणी के श द जाल म उलझकर रह गया है। ‘श द’ क
रचना कबीर ने इसी बंधन को सुलझाने के िलए क है।
साखी‒इसम कु ल तीन सौ ितरपन दोहे ह। साखी का अथ होता है ‘गवाह’।
ान च तीसा‒इसम कु ल िमलाकर 34 चौपाइयां ह। पहली चौपाई म ॐ क ा या क गई है।
िव मतीसी‒इसम ा ण क बुि का ही तीस चौपाइय म वणन कया गया है। अंत म एक साखी भी दी
गई है।
कहरा‒इसम 12 प ह। कहरा श द कहर से बना है, िजसका अथ दुःख भी है और जीव को मोटी तथा झीनी
माया से कहर ही िमलता है। इ ह से मुि का माग ‘कहरा’ बताता है।
बसंत‒इसम 12 प ह। बसंत छह ऋतु म े माना जाता है। स गु कबीर ने इसी िवषय म बताया है
क जीव के िलए तो बारह महीने ही बसंत ह यानी ज म-मृ यु का च र तो हर समय लगा रहता है।
चाचर‒चाचर होली के मौके पर गाया जाने वाला एक तरह का गीत है।
बेिल : इसम भी दो प ह। बेिल का मतलब लता होता है अथात मोह पी लता म दुख के फू ल िखलते ह,
िज ह खाकर जीव ज म-मरण के फे र म पड़ा रहता है।
िवषय सूची
1. दोहे
2. साखी
3. श द
4. ान च तीसा
5. िव मतीसी
6. कहरा
7. बसंत
8. चाचर
9. बेिल
10. िबर ली
11. िह डोला
दोहे
गु गोिव द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बिलहारी गु आपने गोिव द दयो बताय।।

गु और गोिव द दोन खड़े ह, समझ म नह आता पहले कसे नम कार कया जाए? पहले गु को ही
नम कार करना उिचत है य क गु ने ही तो ई र का ान करवाया है।
गु गोिव द दोउ एक ह, दूजा सब आकार।
आपा मेट ह र भज, तब पाव दीदार।।

गु और ई र म कोई अंतर नह है। दोन एक ही ह। बाहर से उन दोन म भले ही अंतर है, पर अंदर से वे एक
ही ह। मन से ‘म’ क भावना िनकालकर ह र को भजने से मन का सारा दोष िमट जाता है और तब ह र का दशन
हो जाता है।
गु िबन ान न उपजै, गु िबन िमलै न मोष।
गु िबन लखै न स य को, गु िबन िमटै न दोष।।

गु के िबना ान नह िमलता है और गु के िबना मो भी नह िमलता है। गु के िबना स य क पहचान


नह होती है और गु के िबना मन का म भी दूर नह होता है।
गु समान दाता नह , याचक सीष समान।
तीन-लोक क स पदा, सो गु दी ही दान।।

गु के समान इस संसार म दाता नह है। िश य के समान कोई मांगने वाला भी नह है। गु तो ऐसा होता है
क तीन लोक का ान िश य को एक इशारे पर ही दे देता है।
गु स ान जु लीिजए, सीस दीिजए दान।
ब तक भ दू बिह गये, रािख जीव अिभमान।।

गु से ान लेते समय अपना िसर उसके चरण म झुका दीिजए। गु के सामने अकड़ दखाने वाले ब त से
अ ानी बह गए और उनका कभी क याण नह हो सका।
गु पारस को अ तरो, जानत ह सब संत।
वह लोहा कं चन करे , ये क र लेय महंत।।

सभी ानी ि गु और पारस प थर के अ तर को समझते ह। पारस प थर लोहा को सोना करता है और


गु ान का बोध कराकर िश य को महान बना देता है।
गु शरणगित छािड़ के , करै भरोसा और।
सुख स पि को कह चली, नह नरक म ठौर।।

गु का साथ छोड़कर जो ि दूसर पर िव ास करता है, उसको सुख-शांित तो िमलती नह , ऊपर से नरक
के ार भी उसके िलए ब द हो जाते ह।
गु कु हार िशष कुं भ है, ग ढ़ ग ढ़ काढ़ै खोट।
अ तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

गु कु हार है और िश य एक क ा घड़ा है। कु हार घड़े को टकाउ और अ छा बनाने के िलए उसके अंदर
हाथ डालकर बाहर से थपथपाता है। गु भी िश य को कु हार क तरह ठोक-पीटकर संसार म उसे एक
आदरणीय ि बना देता है। गु क ताड़ना वाभािवक है और वह िश य के िहत म है।
गु को िसर पर रािखये चिलये आ ा मािह।
कह कबीर ता दास को, तीन लोक भय ना हं।।

गु को अपनो िसर का ताज समिझए। गु क आ ा का पालन करने वाले को तीन लोक म कसी भी कार
का भय नह रहता।
कबीर ह र के ठते, गु के शरणै जाय।
कहै कबीर गु ठते, ह र निह होत सहाय।।

ह र के ठने पर गु क शरण म जाने पर बात बन जाती है ले कन गु ठ जाता है तो ह र कोई मदद नह


करता है। गु को स रखना ज री है।
कबीर ते नर अंध ह, गु को कहते और।
ह र के ठे ठौर है, गु ठे न हं ठौर।।

वे लोग अंधे ह, जो गु को कोई मह व नह देते। ह र के ठने पर थान िमल सकता है, ले कन गु के नाराज
होने पर कह भी जगह नह िमल सकती है।
भि पदारथ तब िमले, जब गु होय सहाय।
ेम ीित क भि जो, पूरण भाग िमलाय।।

ई र क भि तभी िमल पाती है, जब गु क कृ पा होती है। गु क अनुक पा के िबना भि को ा करना


िब कु ल ही असंभव है।
ितिमर गया रिव देखते, कु मित गयी गु ान।
सुमित गयी अित लोभते, भि गयी अिभमान।।

सूय को देखते ही अंधकार गायब हो जाता है और गु - ान से दुबुि चली जाती है। कबीर कहते ह क अित
लोभ से स बुि चली जाती है और अिभमान से भि का नाश हो जाता है।
भाव िबना न हं भ जग, भि िबना न हं भाव।
भि -भाव इक प है, दोऊ एक सुभाव।।

िबना भाव के संसार म कसी को भि नह िमलती है। भि के िबना मन म भाव नह उपजता है। भि और
भाव दोन एक-दूसरे के पूरक ह और दोन का ही वभाव एक जैसा है।
कामी ोधी लालची, इनते भि ना होय।
भि करै कोई सूरमा, जा द बरन कु ल खोय।

कबीर कहते ह‒कामी, ोधी और लालची वृि के ि से भि नह होती है। भि तो वही कर सकता है,
जो अपने खानदान, प रवार, जाित तथा अहंकार को याग देता है और यह हर कसी के वश क बात नह है।
देखा देखी भि का, कब न चढ़सी रं ग।
िवपि पड़े य छाड़िस, के चुिल तजिस भुजंग।।

दूसर को भि करते ए देखकर भि नह हो सकती। ऐसी भि करने वाले मुसीबत पड़ने पर उसी तरह से
भि का याग कर देते ह जैसे सप कचुल का याग कर देता है।
भि भि सब कोई कहै, भि न जाने भेद।
पूरण भि जब िमलै, कृ पा करै गु देव।।

भि -भि तो हर कोई कहता है ले कन भि का अथ कोई नह जानता। पूण प से भि तभी ा होती है


जब गु देव क कृ पा होती है।
कबीर या संसार क , झूठी माया मोह।
िजिह घर िजता बधावना, ितिह घर तेता दोह।।

यह सांसा रक मोह-माया सब झूठ है। िजस घर म िजतनी ही दौलत और सुख-सुिवधा है, वहां पर उतना ही
दुःख है।
कबीर माया मोिहनी, जैसी मीठी खंड।
सदगु क करपा भई, नातर करती भांड।।

माया ब त ही मोिहनी है और वह भी मीठी खांड क तरह मोिहनी है, जो इसम उलझ गया, वह ज दी बाहर
नह आ पाता। वह तो स गु क कृ पा ई क हम माया के मोहपाश म नह बंध।े
माया छाया एक सी, िबरला जानै कोय।
भगता के पीछे फरै , सनमुख भाजै सोय।।

माया और छाया दोन एकसमान ह। इस बात से कम लोग ही वा कफ ह। ये दोन ही भ जन के पीछे-पीछे


और कं जूसजन के आगे-आगे भागती फरती ह। इ ह कोई छू तक भी नह सकता।
माया दोय कार क , जो कोय जानै खाय।
एक िमलावै राम को, एक नरक ले जाय।।

माया के दो प ह। जब ि इसका इ तेमाल देव काय के िलए करता है तो उसका भला होता है और माया
के दूसरे प यानी आसुरी वृि का सहारा लेता है तो उसका जीवन नरक बन जाता है।
मोटी माया सब तज, झीनी तजी न जाय।
पीर पैग बर औिलया, झीनी सबको खाय।।

मोटी माया यानी धन, पु , ी, घर आ द का याग तो आदमी कर देता है, पर झीनी माया यानी प, यश,
स मान आ द का याग नह कर पाता है और यह झीनी यानी छोटी माया ही सारे दुख क जननी है।
माया दीपक नर पतंग, िम िम मािह पर त।
कोई एक गु ानते, उबरे साधु स त।।

माया दीपक क लौ है और मनु य पतंग क तरह है, जो बार-बार उस पर आकर मंडराता है। माया के इस
मजाल से कोई िबरला ही वयं को मु करा पाता है।
काल हमारे संग है, कस जीवन क आस।
दस दन नाम संभार ले, जब लग पंजर सांस।।

कबीर कहते ह क जब काल आठ पहर हमारे साथ है तो फर जीने क यह उ मीद कै सी? यह जीवन िम या
है। जब तक शरीर म ाण है, अपना इहलोक-परलोक संवार लो। जब काल आ जाएगा तब यह मौका नह
िमलेगा।
जंगल ढेरी राख क , उप र उप र ह रयाय।
ते भी होते मानवी, करते रं ग रिलयाय।।

जब िनधन हो जाता है तब मरे ए शरीर को जला दया जाता है। बस मृत शरीर के थान पर राख क ढेरी
रह जाती है, िजस पर समय के साथ हरी घास उग जाती है। वे भी तो कभी मनु य ही थे, जो हास-प रहास और
रं ग-िवलास म डू बे रहते थे, आज उनके मृत शरीर क राख पर घास उग आई है। जीवन के इस मम को जानो।
ह रजन आवत देिख के , मोहड़े सूख गयो।
भाव भि समुझयो नह , मूरख चू क गयो।।

भगवान के भ को सामने देखकर िजसके मुंह सूख गए अथात् उसके मन म कोई खुशी उ प नह ई, ऐसे
ि को तो मूख ही कहा जाएगा। समझो उसने एक अ छा मौका हाथ से जाने दया।
दीपक सु दर देिख क र, ज र ज र मरे पतंग।
बढ़ी लहर जो िवषय क , जरत न मारै अंग।।

दीपक क सु दर लौ को देखकर क ट-पतंग जल-जलकर मर जाते ह। यही ि थित कामी पु ष क है। िवषय-
वासना क लौ क खूबसूरती म उलझकर वह भी नाना कार के दुःख को भोगता है और एक दन वह भी
वासना क लौ म जल मरता है।
कबीर गु के देश म, बिस जानै जो कोय।
कागा ते हंसा बनै, जाित वरन कु ल खोय।।

गु के देश म जो रहता है यानी गु क कृ पा िजस पर बरसती है और जो गु का कहना मानता है, वह कौआ


से हंस बन जाता है यानी उसके मन के सारे मैल धुल जाते ह और यश वी बन जाता है।
गु आ ा मानै नह , चलै अटपटी चाल।
लोक वेद दोन गये, आये िसर पर काल।।

जो ि गु क आ ा को नह मानता है और मनमानी करता है, लोक-परलोक दोन ही उसके िबगड़ जाते


ह और वह सदा ही दुःख से िघरा रहता है।
गु आ ा लै आवही, गु आ ा लै जाय।
कह कबीर सो स त ि य, ब िविध अमृत पाय।।

जो ि गु क आ ा लेकर आता है और गु क आ ा लेकर जाता है, उससे गु ब त ही ेम करते ह और


सुख-समृि पी अमृत रस का हमेशा वह पान करता है।
ीित पुरानी न होत है, जो उ म से लाग।
सो बरसां जल म रहै, पथर न छोड़े आग।
उ म वभाव वाले ि से ेम हो जाए तो वह कतना भी पुराना हो जाए ेम म कोई कमी नह आती है
जैसे प थर सैकड़ साल पानी म रहने पर भी आग उ प करने क मता को नह छोड़ता है।
ीित ब त संसार म, नाना िविध क सोय।
उ म ीित सो जािनयो, सतगु से जो होय।।

संसार म मे के कई रं ग- प ह और वह नाना कार का होता है ले कन उ म ेम वही है, जो स गु से होता


है। इस ेम के प रणाम सदा अ छे ही होते ह।
साधु संगत प रहरै , करै िवषय को संग।
कू प खनी जल बावरे , याग दया जल गंग।।

जो ि बुि मान का साथ छोड़कर दुजन यानी मूख क सोहबत म रहता है, वह उन मूख क ही ेणी म
आ जाता है, जो गंगाजल को छोड़कर कु आं खुदवाते ह।
कामी का गु कािमनी, लोभी का गु दाम।
कबीर का गु स त है, संतन का गु राम।।

जो लोग कामी होते ह, उनका सब कु छ सु दर ी होती है, जो लोभी होते ह, उनका सब कु छ दाम यानी धन
होता है ले कन अ छे लोग का गु स न ि होते ह और संत का गु ई र होता है।
परार ध पिहले बना, पीछे बना शरीर।
कबीर अच भा है यही, मन न हं बांधे धीर।।

कबीर कहते ह क ार ध पहले बना, उसके बाद यह शरीर बना ले कन आ य है क मन को थोड़ा-सा भी


धैय नह है। वह सब कु छ जानता है, फर भी उसे संतोष नह है।
जहां काम तहां नाम न हं, जहां नाम न हं काम।
दोन कब ना िमलै, रिव रजनी इक ठाम।।

जहां काम पी वासना होती है, वहां ान और ई र दोन ही नह होते और जहां ान होता है, वहां
काम पी वासना का वास नह होता। काम और स गु जैसे एक साथ नह हो सकते वैसे ही सूय और रात एक
थान पर नह िमल सकते।
कबीर कमाई आपनी, कब ं न िन फल जाय।
सात समु आड़ा पड़े, िमलै अगाड़ी आय।।

कबीर कहते ह क मेहनत क कमाई कभी भी बेकार नह जाती, चाहे सात समु उसके सामने य न आ जाएं
अथात् प र म का फल सदा ही मीठा ही होता है।
दीन गरीबी बंदगी, साधुन स आधीन।
ताके संग म यौ र ं, य पानी संग मीन।।

िजसम सहनशीलता, सेवाभाव, ेमभाव तथा साधु के साथ रहने क आदत है, उसके साथ हम वैसे रहना
चािहए जैसे पानी के साथ मछली रहती है।
दया धम का मूल है, पाप मूल संताप।
जहां मा वहां धम है, जहां दया वहां आप।।

कबीर कहते ह‒दया धम क जड़ है और पाप दुःख क जड़ है। जहां पर माभाव है, वह पर धम है, जहां
दया है, वह पर ई र का वास है।
धरती फाटै मेघ िमलै, कपड़ा फाटै डौर।
तन फाटै को औषिध, मन फाटै न हं ठौर।

धरती म अगर दरार पड़ जाती ह तो बा रश होने पर वे दरार िमट जाती ह। कपड़ा फट जाता है तो िसलाई
करने पर जुड़ जाता है। तन फाटे यानी शरीर बीमार पड़ जाता है तो दवा से व थ हो जाता है ले कन मन फट
जाता है तो कोई भी उपाय काम नह करता है।
माली आवत देिख के , किलयां करे पुकार।
फू ली फू ली चुन लई, काल हमारी बार।।

कबीर कहते ह‒माली के आते ए देखकर किलयां पुकारने लग । जो किलयां िखली ई थ , उ ह माली ने तोड़
िलए और जो िखलने वाली ह, उनक कल बारी है। जीवन क भी गित यही है, िजसक उ पूरी हो गयी है, वह
काल के मुंह म समा जाता है और िजसक उ पूरी नह होती उसक बारी अगले दन होती है।
जरा कु ा जोबन ससा, काल अहेरी िन ।
दो बैरी िबच झ पड़ा, कु शल कहां सो िम ।।

कबीर कहते ह‒बुढ़ापा कु ा के समान तथा जवानी खरगोश के समान है। जवानी पी खरगोश पर बुढ़ापा
पी कु ा घात लगाए बैठा है। हे ाणी! बुढ़ापा और काल इन दो दु मन के बीच तु हारा झ पड़ा है, तु हारा
कु शल नह है। तुम चाहकर भी अपनी र ा नह कर सकते।
कबीर माया बेसवा, दोनूं क इक जात।
आंवत को आदर कर, जात न बूझै बात।।

कबीर कहते ह‒माया और वे या इन दोन क एक जाित है। आने वाल का वागत करती ह और जाने वाल
से बात भी नह करती ह।
कामी अमी न भावई, िवष को लेवै सोध।
कु बुिध न भाजै जीव क , भावै य परमोध।।

कामी पु ष को उपदेश अ छा नह लगता। वह हमेशा काम पी जहर क तलाश म रहता है। मन क


चंचलता उसक बुि कर देती है, िजससे वह अ छी बात को अपना नह पाता है।
जाका गु है आंधरा, चेला खरा िनरं ध।
अनेधे को अ धा िमला, पड़ा काल के फं द।।

अगर गु अ ानी है तो िश य ानी कै से हो सकता ह। अ धे को माग दखाने वाला अगर अंधा िमल जाए तो
सही माग कै से दखाएगा? ऐसे गु -चेले समय के फं दे म फं सकर अपना जीवन बबाद कर लेते ह।
माला ितलक लगाय के , भि न आई हाथ।
दाड़ी मूंछ मुंडाय के चले चुनी के साथ।।

माला गले म डाल ली और माथे पर ितलक भी लगा िलया ले कन भि ा नह ई। मूंछ-दाढ़ी मुड़वा ली


और दुिनया के संग चल दए, फर भी कोई लाभ नह अथात् आडंबर से भि नह िमलती। यह तो दुिनया को
धोखा देना है। भि तो मन से पैदा होती है।
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग।
तास तो कौवा भला, तन मन एक हं अंग।।

कबीर कहते ह क मन मैला है और तन उजला है तो वह बगुले के समान कपटी है, इससे अ छा तो कौवा ही
है, उसका तन-मन दोन ही एक ही रं ग म रं गा है।
ेम न बाड़ी ऊपजै, ेम न हाट िबकाय।
राजा परजा सो चै, शीश देय ले जाय।।

कबीर कहते ह क ेम खेत म पैदा नह होता और न ेम बाजार म िबकता है। राजा, जा िजस कसी को भी
अ छा लगे, वह अपनी िसर देकर ले जाए। ेम कोई व तु नह क इसका ापार कया जाए।
तन को जोगी सब करै , मन को करै न कोय।
सहजै सब िविध पाइये, जो मन जोगी होय।।

नाना कार से शरीर को सजाकर कोई भी योगी बन सकता है ले कन मन क चंचलता को अपनी मु ी म कर


कोई भी योगी नह बनता। मन पर संयम पाकर अगर कोई योगी बन जाए तो प बदलने क ज रत नह है।
उसे सारी िसि यां आसानी से ही िमल जाएंगी।
मांग गये सो मर रहे, मरै जु मांगन जा हं।
ितनत पहले वे मरे , होत करत ह ना हं।।

कबीर कहते ह क जो कसी से कु छ मांगने गया, समझो वह जंदा ही मर गया और िजसने रहते ए भी मना
कर दया वह मांगने वाले से भी पहले मर गया।
प ढ़ प ढ़ के प थर भये, िलिख भये जु ट।
कबीर अ तर ेम का लागी नेक न छ ट।।

कबीर कहते ह क पढ़-पढ़कर प थर बन गए और िलख-िलखकर ट के समान स त हो गए ले कन दय म


ेम क छ ट भी न लगी अथात् इस पढ़ने और िलखने से या लाभ जब ेम का अथ भी नह जान सके ।
श द जु ऐसा बोिलये, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे , आपन को सुख होय।।

कबीर कहते ह‒ऐसा वचन बोिलए, िजसम जरा-सा भी अहं भाव न हो और सामने वाला फु ि लत हो जाए
तथा वयं को भी सुख दे।
जं मं सब झूठ है, मित भरमो जग कोय।
सार श द जाने िबना, कागा हंस न होय।।

यं -मं सब झूठ है। संसार का कोई भी आदमी इनके च र म न आए। स े ान के िबना कौआ कभी हंस नह
बन सकता अथात् नीम हक म से बच। वह कभी भी ानी नह हो सकता।
मन मोटा मन पातरा, मन पानी मन लाय।
मन के जैसी ऊपजै, तैसी ही हवै जाय।।

कबीर कहते ह‒मन क गित िनराली है। मन कभी ब त शि शाली हो जाता है, कभी पानी क तरह शीतल
बन जाता है और कभी आग के समान तपती भ ी बन जाता है। जैसे हालात होते ह, मन वैसा ही बन जाता है।
मन से बड़ा ब िपया कोई नह है।
झूठा सब संसार है, कोऊ न अपना मीत।
राम नाम को जािन ले, चलै सो भौजल जीत।।

कबीर कहते ह‒यह संसार झूठा है और यहां पर कोई भी अपना नह और न कोई दो त है। राम के नाम के
मह व को जो जान लेता है, वह भवसागर को पार कर जाता है। यहां बस राम का नाम ही ‘स य’ है।
िबरछा कब ं न फल भखै, नदी न अंचवै नीर।
परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर।।

पेड़ कभी भी अपना फल नह खाते ह और न नदी कभी अपना पानी पीती है। ये दोन ही सदा दूसर क सेवा
करते ह, वैसे ही जैसे परमाथ के िलए साधु ने शरीर धारण कया आ है। जो संत होते ह, उनका जीवन दूसर के
िलए होता है।
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह।
यह तीन तबही गये, ज ब हं कहा कछु देह।।

कबीर कहते ह क इ त चली गई, आदर चला गया और आंख से ेह भाव चले गए। ये तीन तब ही चले
गए जब कहा क कु छ दो। अथात् भीख मांगना सब से िनकृ काय है।
कबीर संगत साधु क , िनत ित क जै जाय।
दुरमित दूर बहावसी, देसी सुमित बताय।।

स न लोग के साथ रोजाना ही उ ठए-बै ठए। उनक सोहबत म रहने से दुगुण चले जाते ह और स गुण आ
जाते ह।
कागा काको धन हरै , कोयल काको देत।
मीठा श द सुनाय के , जग अपनो क र लेत।।

कबीर कहते ह क कौआ कसी का धन नह छीनता और कोयल कसी को कु छ देती नह है; ले कन मीठी
आवाज म कू क कर सारे संसार को अपना बना लेती है। हमेशा मीठी आवाज म बोल।
राजपाट धन पायके , य करता अिभमान।
पड़ोसी क जो दशा, भई सो अपनी जान।।

कबीर कहते ह क राजपाट और धन ा कर अिभमान य करता है। तेरे पड़ोसी क जो दुगित ई, वही तेरी
भी होगी, तू इतना जान ल। कहने का भाव है क तेरी भी मौत िनि त है।
सांच क ं तो मा र ह, झूठै जग पितयाय।।
यह जगकाली कू तरी, जो छे ड़ै तो खाय।।

कबीर कहते ह क स य बोलने पर लोग काट खाने को दौड़ते ह और झूठ बोलने पर िव ास कर लेते ह। यह
संसार काटने वाली कु ितया क तरह ही है, जो उसे छेड़ता है, उसे ही काट लेती है। कबीर संसार को काली कु ितया
मानते ह। मनु य को सांसा रक चीज से बचना चािहए।
ानी अिभमानी नह , सब का सो हेत।
स यवान परमार थी, आदर भाव हेत।।

कबीर कहते ह क जो ानी होते ह, वे घमंडी नह होते ह। उनके मन म सबके िहत के भाव होते ह। वे सदा
स य के माग पर चलते ह और दूसर का भला सोचते ह।
ेम िपयाला सो िपये, शीश दि छना देय।
लोभी शीश न दे सकै , नाम ेम का लेय।।

कबीर कहते ह क ेम-अमृत का पान वही कर सकता है, जो दि णा के प म अपना शीश काटकर भट करने
क शि रखता है। लोभी ि शीश काटकर नह देता ले कन नाम ेम का लेता है।
कबीर ुधा है कू तरी, करत भजन म भंग।
वांकू टु कड़ा डा र के , सुिमरन क ं सुरंग।।

कबीर कहते ह क भूख कु ितया क तरह ही है, जो भजन म िव डालती है। उसके सामने रोटी का टु कड़ा
फककर तब ई र वंदना करो।
ह रजन तो हारा भला, जीतन दे संसार।
हारा तो ह र स िमले, जीता जम के ार।।

गृह थी लोग िजस जीत को जीत और िजस हार को हार समझते ह, भगवान के भ उनसे अलग सोचते ह।
स य क राह पर चलने वाले उस पराजय को उस जीत से अ छा मानते ह, जो बुराई क तरफ ले जाती है। इस
संसार म िवन ता म ही जीत है।
जो जल बाढ़े नाव म, घर म बाढ़ै दाम।
दोन हाथ उलीिचये, यही सयान काम।।

कबीर कहते ह क नाव म पानी भर जाए और घर म धन आ जाए तो दोन हाथ से उलीच अथात् खुले दल से
दान-पु य का काय कर। बुि मान लोग क यही पहचान है।
बेटा जाये या आ, कहा बजावै थाल।
आवन जावन होय रहा, य क ड़ी क नाल।।

कबीर कहते ह क बेटा के ज म लेने पर तूने थाल बजाया, खुिशयां मनाई। यह स ता कसिलए? यह आना-
जाना तो लगा आ ही है जैसे ची टय क कतार आती-जाती रहती है।
सहज िमलै सो दूध है, मांिग िमलै सो पािन।
कह कबीर वह र है, जाम चातािन।।

कबीर कहते ह क जो सहजता से ा हो जाए वह दूध के समान है, जो मांगने पर िमले, वह पानी के समान
है और जो जोर-जबद ती से कसी को दुःख प च
ं ाकर ा हो, वह खून के समान है।
श द स हारे बोिलये, श द के हाथ न पांव।
एक श द औषिध करे , एक श द करे घाव।।
मुंह से जो भी श द िनकालो सोच-समझकर िनकालो य क श द के हाथ-पांव नह होते। यही श द कह दवा
बन जाता है और कह पर ज म पैदा कर देता है।
यह तन कांचा कुं भ है, िलया फरै थे साथ।
टपका लागा फु ट गया, कछू न आया हाथ।।

कबीर कहते ह‒यह शरीर िम ी के क े घड़े के समान है, िजसे बड़े शौक से आप अपने साथ िलए फरते ह।
काल का एक ही प थर लगने पर यह िम ी का शरीर पी घड़ा फू ट जाता है और हाथ म कु छ भी नह लगता है।
कहने का आशय है क इस शरीर पर गुमान करने क कोई ज रत नह है।
िज या िजन बस म करी, ितन बस कयो जहान।
न हं तो औगुन उपजे, किह सब संत सुजान।।

िजसने जीभ को अपने वश म कर िलया, उसने सारा संसार अपने वश म कर िलया। िजसक जीभ वश म नह
होती है, उसके शरीर व मन म हजार दोष उ प हो जाते ह, ानी जन का ऐसा कहना है।
ब त जतन क र क िजए, सब फल जाय न साय।
कबीर संचै सूम धन, अ त चोर लै जाय।।

कबीर कहते ह क सं ह कया गया धन अंत म न हो जाता है। धन क यही गित है जैसे कं जूस का सं ह
कया आ धन अ त म चोर चुरा ले जाते ह यानी वह धन उसके कसी काम नह आता है।
कबीर धी खोपड़ी, कब ं धापै ना हं।
तीन लोक क स पदा कब आवै घर मा हं।।

कबीर कहते ह क मनु य क धी खोपड़ी यानी अतृ मन कभी भी धन से तृ नह होता है, लोभी ि
यही चाहता है क तीन लोक का धन उसके घर म आ जाए। कहने का भाव है क िजसके पास िजतना ही धन है
उतना ही धन और चाहता है।
माला ितलक तो भेष है, राम भि कु छ और।
कह कबीर िजन पिह रया, पांच राखै ठौर।।

कबीर कहते ह क माला धारण करना और ितलक लगाना तो महज एक प बदलना है, इसे बाहरी आडंबर
ही कहा जाएगा। राम भि तो कु छ और है। िजसने राम नाम क माला पहन ली, वह अपनी इं य को वश म
कर लेता है और राम मय उसका पूरा जीवन हो जाता है।
करता था तो य रहा, अब क र य पछताय।
बोवै पेड़ बबूल का, आम कहां ते खाय।।

जब तू बुरे कम को करता था और समझाने पर भी नह समझता था तो अब य अफसोस कर रहा है? बबूल


का पेड़ जब तूने बोया है तो आम के फल का मीठा वाद कहां से पाएगा अथात् कम के अनुसार ही फल िमलता
है।
जब म था तब गु नह , अब गु ह म ना हं।
ेम गली अित सांकरी, ताम दो न समा हं।।

जब मेरे अंदर अहंकार था तब मुझे गु नह िमले और अब गु िमल गए ह तो मेरे अंदर अहंकार नह है।
कबीर कहते ह क ेम क गली इतनी छोटी और संकरी होती है क उसम एक साथ दो नह रह सकते यानी ान
और अहंकार एक साथ नह रह सकते।
कबीर सुिमरन सार है, और सकल जंजाल।
आ द अंत मिध सोिधया, दूजा देखा काल।।

कबीर कहते ह क ई र का भजन, क तन ही सार है और बाक सब झूठा है। आ द, अंत और म य के बारे म


सब सोच-िवचार िलया है। भजन, क तन के अलावा शेष सब समय के च म उलझे ए ह।
तन मन ताको दीिजए, जाको िवषया ना हं।
आपा सब ही डा र के , राखै सािहब मा हं।।

अपना तन-मन उस गु को दो, जो िवषय-िवकार से दूर हो। िजसम जरा-सा भी अहं भाव न हो और ई र का
पूण ान हो अथात् जो सांसा रकता से दूर और ई र के करीब हो।
अिधक सनेही माछरी, दूजा अलप सनेह।
जबिह जलते बीछु रै , तब ही यागै देह।।

कबीर कहते ह क मछली का पानी से ेम सबसे अिधक होता है। उसके जैसा ेम दुिनया म ब त कम ही
देखने को िमलता है। मछली जल से अलग होते ही अपनी देह का याग कर देती है।
ऊजल पिहनै कापड़ा, पान सुपारी खाय।
कबीर गु क भि िबन, बांधा जमपुर जाय।।

सफे द कपड़े धारण करना और पान-सुपारी खाना, यह दखावा और बेकार है। संत कबीर कहते ह क सदगु
क भि के िबना, वह बंधा आ यमपुर जाता है अथात् ई र क भि ही मनु य का असली पहनावा है।
बालपन भोले गया, और जुवा महमंत।
वृ पने आलस गयो, चला जर ते अ त।।

कबीर कहते ह क बालपन खेलने-कू दने म बीत गया और जवानी आई तो वासना म िल हो गया, फर
बुढ़ापा आया तो आलस म ही बीत गया, अचानक ही मृ यु हो गई और शरीर िचता पर जला दया गया अथात्
जीवन का अंत यही है। हे ाणी! जीवन के इस मम को जानो।
चाल बकु ल क चलत ह, ब र कहावै हंस।
ते मु ा कै से चुंगे, पड़े काल के फं स।।

चाल बगुले क है और खुद को हंस कहते ह। ऐसा मूख भला कै से मोती को चुग सकता है। ऐसे ाणी जीवन-
मरण के च म फं से ही रहते ह। उ ह मो कभी नह िमलता।
कहता ं किह जात ं, क ं बजाये ढोल।
ासा खाली जात है, तीन लोक का मोल।।

कबीर ढोल पीट-पीट कर कह रहे ह क भजन के िबना एक-एक सांस खाली जा रही है। भजन करो। भजन के
िबना जीवन बेकार है। जो सांस ले ल , वे वापस नह आएंगी। अब भी समय है। भु का भजन करो।
मांगन को भल बोलनो, चोर न को भल चूप।
माली को भल बरसनो, धोबी को भल धूप।।
िभ ुक के िलए बोलना अ छा है, बोलने पर ही उसे भीख िमलेगी। चोर के िलए चुप रहना अ छा है। माली के
िलए बा रश अ छी है और धोबी के िलए धूप अ छी है।
कबीर मि दर लाख का, जिड़या हीरा लाल।
दवस चा र का पेखना, िवनिश जायेगा काल।।

यह शरीर लाख के बने मं दर के समान है, िजसम स दय पी हीरे , प े और लाल जड़े ए ह ले कन यह


स दय िणक है। इसे समय के साथ एक दन न होना ही है।
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा ना हं।
धन का भूखा जो फरै , सो तो साधू ना हं।।

कबीर कहते ह क साधु भाव का भूखा होता है, उसे धन क इ छा नह होती ले कन जो साधु धन का भूखा
होता है, वह वा तव म साधु नह है।
कु लवंता को टक िमले, पंिडत को ट पचीस।
सुपच भ क पनिह म, तुलै न का शीश।।

कबीर कहते ह क उ म कु ल के करोड़ लोग िमल, शा ान रखने वाले चाहे पचीस करोड़ िमल ले कन
भ चाहे िन कु ल का ही य न हो, उसके पांव के जूते म कसी का िसर नह तोला जा सकता अथात् भ
सबसे बड़ा है। उसके सामने सब झूठे ह।
मथुरा काशी ा रका, ह र ार जग ाथ।
साधु संगित ह रभजन िबन, कछु न आवै हाथ।।

मथुरा, काशी, ा रका, ह र ार, जग ाथ आ द तीथ का तीथाटन करने से कु छ नह िमलता। अ छे लोग के


साथ और ई र के भजन के िबना कु छ भी हाथ न लगने वाला। कहने का आशय है क तीथाटन म कु छ नह रखा,
स न क संगित और ह रभजन ही मुि का साधन है।
कबीर संगित साधु क , जो क र जाने कोय।
सकल िवरछ च दन भये, बांस न च दन होय।।

कबीर कहते ह क जो स न के साथ रहते ह, और जो स संग करते ह, वे ही उनके गुण से वा कफ होते ह।


जैसे चंदन के साथ रहने वाले सारे पेड़-पौधे च दन का वभाव हण तो कर लेते ह, पर बांस बांस ही रहता है
य क वह अंदर से खोखला और ऊपर से स त होता है अथात् अिभमानी ि पर स संग का कोई असर नह
होता।
माला फे रत युग गया, िमटा न मन का फे र।
कर का मनका डा र दे, मन का मनका फे र।।

माला फे रते ए युग बीत गया ले कन मन का फे र नह िमटा यानी सांसा रक िवषय से मोह भंग नह आ।
कबीर कहते ह क हाथ क माला छोड़ दो और मन का मनका फे रो अथात् अपने मन को शु करो और अ छा
सोचो। मन अशु है और माला फे र रहे हो, भला इससे या ा होने वाला है? कु छ भी तो नह ।
यह तन कांचा कुं भ है, चोट चहं दस खाय।
एक हं गु के नाम िबन, ज द त द परलय जाय।।

कबीर कहते ह क यह शरीर िम ी के बने क े घड़े के समान है, जो चार तरफ से चोट (दुःख, रोग, तनाव)
खाता है। बस स गु के नाम का सुिमरन न करने के कारण यह लाख क पा रहा है। भजन करो, इस शरीर को
एक दन तो िम ी म िमल जाना ही है।
कबीर चंदन पर जला, तीतर बैठा मा हं।
हम तो दाझत पंख िबन, तुम दा जत हो कािह।।

कबीर कहते ह क चंदन का पेड़ आग म जल रहा था, तभी एक तीतर उस पर आकर बैठ गया। पेड़ से चुप रहा
न गया। वह बोला‒हे तीतर, हम तो पंखहीन ह, इसिलए जल रहे ह, ले कन तुम तो पंखवाले हो, उड़ सकते हो,
फर य जल रहे हो? दुिनया म ऐसे लोग भी ह, जो समथवान होकर भी क भोग रहे ह।
गु लोभी िशष लालची, दोन खेले दांव।
दोन बूड़े बापुरे, च ढ़ पाथर क नांव।।

गु लोभी है और िश य लालची है, दोन अपने वाथ क पू त के िलए दांव खेल रहे ह, भला ऐसे गु -िश य
का क याण कै से हो सकता है। उ ह तो अ ान पी प थर क नाव पर सवार होकर डू ब मरना ही है। वे भवसागर
को पार नह कर सकते।
सब धरती कागद क ं , िलखनी सब बनराय।
सात समु का मिस क ं , गु गुण िलखा न जाय।।

सारी धरती को कागज मान ल, जंगल क लकिड़य क कलम बना ल और सात समु के जल क याही
बना ल, फर भी गु के गुण को िलखा नह जा सकता है। गु का ान अप रिमत है और अवणनीय है।
गु गु म भेद है, गु गु म भाव।
सोइ गु िनत बि दये, श द बतावे दाव।।

कबीर गु का भेद बताते ए कह रहे ह क गु गु म अंतर है और िवचार म भी अंतर है। सब के अलग-


अलग िवचार होते ह। वही गु वंदनीय है, जो सार-श द का ान करवाए और परमा मा के नजदीक ले जाए।
माया मरी न मन मरा, मर मर गये शरीर।
आशा तृ णा न मरी, कह गये दास कबीर।।

कबीर कहते ह क समय के साथ-साथ शरीर, मन, माया सब मर जाते ह ले कन मन म उ प होने वाली
आशा और तृ णा कभी नह मरत । मोह और तृ णा को मारना ही स ान को ा करने के बराबर है।
दस ारे का प जरा, तामे पंछी मौन।
रहे को अचरज भयौ, गये अच भा कौन।।

दस ार के शरीर पी पंजरा म ाणवायु पी प ी चुपचाप रहता है और सारे सुख का आनंद लेता है।
य द वह ाण वायु पी प ी दस ार म से कसी एक ार से िनकल जाए तो इसम अचरज क या बात है?
आ य क बात तो यह है क वह दस ार वाले पंजरे म कै से रहा, उड़ा य नह ?
न द िनशानी मौत क , उठो कबीरा जाग।
और रसायन छोड़ के , नाम रसायन लाग।।

न द मौत क िनशानी है। कबीर कहते ह क हे मन, जाग और न द का प र याग कर ह रभजन कर। तू यहां
सोने के िलए नह आया है।
किबरा संगित साधु क , जौ क भूसी खाय।
खीर खांड़ भोजन िमले, ताकर संग न जाय।।

कबीर कहते ह क अ छे लोग के साथ जौ क भूसी खाकर भी रहना पड़े तो रहना चािहए ले कन दुजन ि
के साथ खीर-पकवान भी खाने को िमले तो नह रहना चािहए।
आए ह सो जायगे, राजा रं क फक र।
एक संहासन च ढ़ चले, एक बांिध जंजीर।।

कबीर कहते ह क जो इस संसार म आया है, उसे तो एक दन जाना ही है चाहे वह राजा हो, िभखारी हो या
फक र हो। जो अ छा कम करता है, वह संहासन पर चढ़कर जाता है और िजसका कम बुरा है, वह जंजीर म
बंधकर जाता है। इस संसार म तो कम ही धान है। हे ाणी! कम क मिहमा को समझो।
चलती च देख के , दया कबीरा रोय।
दुइ पट भीतर आइके , साबुत गया न कोय।।

चलती ई च देखकर कबीर ने रो दया। च के दोन पाट के बीच आकर साबुत कोई न बचा अथात् इस
संसार पी च म सबको िपसना ही है।
सांई ते सब होत है, ब दे से कु छ ना हं।
राई से पवत करे , पवत राई मा हं।।

कबीर कहते ह क ई र कु छ भी करने म स म है। मनु य के वश म कु छ भी नह है। वह सवशि मान ई र


राई को पवत बना सकता और पवत को राई के समान छोटा बना सकता है।
मोर तोर क जेवरी, गल बंधा संसार।
दास कबीर य बंधै, जाके नाम आधार।।

मेरा-तेरा, अपना-पराया आ द भाव पी र सी से इस संसार के लोग का गला बंधा आ है ले कन कबीर


जैसे ानी पु ष इस र सी से य बंध?े उसे तो स गु के नाम का सहारा िमल गया है।
कबीर गव न क िजए, रं क न हंिसये कोय।
अज ं नाव समु म, ना जान या होय।।

कबीर कहते ह क अपने सुख-संपदा पर घमंड न करो और कसी गरीब क गरीबी पर न हंसो। तु ह नह पता
तु हारी नाव भवसागर म डोल रही है। या पता कब या हो जाए, समय का कु छ पता नह । कहने का ता पय है
क दूसर क बेबसी पर हंसने से पहले यह देख ल क आप या ह। आप भी तो एक इं सान ही ह। हादसा तो
आपके साथ भी हो सकता है।
हाये धोये या आ, जो मन का मैल न जाय।
मीन सदा जल म रहे, धोये बास न जाय।

कबीर कहते ह क नहाने-धोने से या आ, जब मन का मैल ही न धुला। मछली हमेशा जल म रहती है और


लाख धोने पर भी उसक दुगध नह जाती है।
रात गंवाई सोय कर, दवस गंवाया खाय।
हीरा जनम अमोल सा, कौड़ी बदले जाय।
कबीर कहते ह क रात िबता दी सोकर और पूरा दन िबता दया खाने-पीने म। हे ाणी! यह हीरा ज म
अनमोल, िवषय-वासना म ही उलझकर कौड़ी के भाव बेच दया अथात् यह अनमोल जीवन यूं ही गंवा दया।
जाित न पूछो साधु क , पूिछ लीिजए ान।
मोल करो तलवार क , पड़ा रहन दो यान।।

कबीर कहते ह क साधु क जाित न पूछो, उसका ान पूछो। तलवार का मोल करो, यान को यूं ही पड़े रहने
दो। यान का या करना। कहने का अथ है क जो तु हारे मतलब का है, उसको मह व दो।
दुरबल को न सताइये, जाक मोटी हाय।
मुई खाल क सांस से, सार भसम होई जाय।।

कबीर कहते ह क दुबल को मत सताओ, उसक हाय ब त ही मोटी होती है यानी उसक ‘हाय’ तु ह लग
जायेगी जैसे मरी खाल क सांस से यानी चमड़े क धौकनी से लोहा जैसी कठोर धातु भी भ म हो जाती है। कहने
का भाव है क दुबल क हाय मत लो। वह कमजोर है, पर उसक ‘हाय’ कमजोर नह है।
कामी ल ा न करै , मन मांही अहलाद।
न द न मांगै साथरा, भूख न मांगै वाद।।

कबीर कहते ह क काम-वासना के वशीभूत कामी ि ल ा का अनुभव नह करता है। न द के आने पर


िब तर क ज रत नह होती और भूखा वाद क परवाह नह करता। कहने का भाव है क आव यकता पड़ने पर
आदमी को समझौता करना आ जाता है।
साधु ऐसा चािहए, जैसा सूप सुभाय।
सार सार को गिह रहे, थोथा देय उड़ाय।।

कबीर कहते ह क साधु का वभाव ऐसा होना चािहए जैसा सूप का वभाव होता है, वह अ को रख लेता है
और िम ी-कं कड़ को उड़ा फकता है। साधुजन को भी सूप क तरह ही मूल त व को रख लेना चािहए और बेकार
क चीज को छोड़ देना चािहए।
सांई इतना दीिजए, जामे कु टु म समाय।
म भी भूखा न र ं, साधु न भूखा जाय।।

कबीर कहते ह क हे ई र! मुझे इतना दो, िजसम मेरा पूरा प रवार समा जाए यानी उसका पालन-पोषण हो
जाए। म भी भूखा न र ं और अितिथ भी भूखा न जाए। कहने का भाव है क इतना धन दो िजससे ज रत पूरी हो
जाए।
ऐसी वाणी बोिलए मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे , आप शीतल होय।।

मन का अहं भाव यागकर ऐसी वाणी बोल क दूसर को अ छी लगे और आपको भी अ छी लगे।
गोता मारा संधु म, मोती लाये पै ठ।
वह या मोती पायगे, रहे कनारे पै ठ।।

िजसने सागर क गहराइय म गोता लगाया, वह मोती ढू ंढ़कर ले आया। वे या मोती पाएंग,े जो कनारे ही
बैठे रह गए। कहने का भाव है क कु छ पाने के िलए कठोर प र म क आव यकता है।
मौत िबसारी बावरी, अचरज क या कौन।
तन माटी म िमल गया, य आटा म लौन।।

कबीर कहते ह क हे बावरी! तू मौत को य भूल गई। मौत क होने वाली दशा पर तुझे कसने अचरज म
डाल दया। माटी का शरीर माटी म िमल गया जैसे आटे म नमक। कहने का भाव है क मृ यु स ाई है। इसको
देखकर आ य करने क ज रत नह है।
लेने को ह रनाम है, देने को अनदान।
तरने को है दीनता, बूड़न को अिभमान।।

कबीर कहते ह क संसार म जपने के िलए ह रनाम सबसे उ म है और देने के िलए अ दान सव म है।
भवसागर से पार उतरने के िलए न ता है और डू बने के िलए अिभमान है।
गु क जै जािन के , पानी पीजै छािन।
िबना िवचारे गु करै , परै चौरासी खािन।।

कबीर कहते ह क गु का चुनाव अ छी तरह से जान-समझकर कर और पानी को छानकर पीिजए। जो िबना


िवचारे गु का चुनाव करता है, वह चौरासी लाख योिनय म भटकता है अथात् उसे मुि नह िमलती है।
माला तो कर म फरै , जीभ फरै मुख मा हं।
मनवा तो च दश फरै , यह तो सुिमरन ना हं।।

माला हाथ म फर रही है और जीभ मुंह म फर रही है ले कन मन तो चार दशा म घूम रहा है, फर यह
सुिमरन कहां आ? यह तो ह रनाम लेना नह आ न। यह तो मा एक दखावा है।
गु को चेला बीष दे, जो गांठी होय दाम।
पूत िपता को मारसी, ये माया का काम।।

कबीर माया के वा तिवक प का वणन करते ए कहते ह क धनवान गु को लालची िश य जहर देकर मार
डालते ह और लोभ म आकर पु अपने िपता क ह या कर डालते ह। यही माया का असली व प है अथात् यहां
अपना कोई नह है। सब वाथवश र ता बनाए ए ह।
माया माया सब कह, माया लखै न कोय।
जो मन से ना ऊतरे , माया किहए सोय।।

कबीर कहते ह क माया-माया सब कहते ह ले कन माया क पहचान कसी को भी नह है। जो मन से न उतरे


यानी जो मन पर हावी हो वही माया है। वह मन को अपने अनुसार नचाती रहती है।
सूम थैली अ ान भग दोन एकसमान।
घालत म सुख ऊपजै, काढ़ िनकसै ान।।

कबीर कहते ह क कं जूस क थैली और कु े के िश को एकसमान समझो। कं जूस क थैली म धन डालते समय
खुशी होती है, पर जब िनकालने क बारी आती है तब ऐसा जान पड़ता है क उसका ाण ही िनकल जाएगा।
जहां दया वहां धम है, जहां लोभ तहं पाप।
जहां ोध वहां काल है, जहां मा वहां आप।।
कबीर कहते ह क जहां पर दया है वह पर धम है और जहां पर लोभ है वह पर पाप है। जहां पर ोध है वह
पर काल है और जहां पर मा है वह पर ई र है।
पाहन पूजे ह र िमल, तो म पूज पहार।
याते ये च भली, पीस खाय संसार।।

कबीर कहते ह क प थर पूजने से ह र िमल तो म पहाड़ पूजूं। सबसे भली तो च है, िजसका िपसा पूरा
संसार खाता है।
कबीर ह र ह र सुिम र ले, ाण जायगे छू ट।
घर के यारे आदमी, चलते लगे लूट।।

कबीर कहते ह क हे बावरे ! ई र का सुिमरन कर ले; नह तो ाण जायेगा छू ट। फर तेरे अपने ही घर के


लोग तु हारे शरीर से गहने, कपड़े उतारकर मशान म ले जाकर जला दगे। तुझे तेरे अपने ही लूट लगे।
भय िबन न ऊपजै, भय िबनु होय न ीित।
जब िहरदे से भय गया, िमटी सकत रसरीित।।

कबीर कहते ह क िबना भय के जीव के दय म ई र के ित ेम नह उपजता और जब दय से भय िनकल


जाता है तब वह ेम, मयादा, मान सब जगत क रीित भूल जाता है।
हाथ परबत फाड़ते, समु दर घूट भराय।
ते मुिनवर धरती गले, का कोई गरब कराय।।

जो हाथ से पवत उखाड़ देते थे, जो एक घूंट म ही समुंदर का पानी पी गए, वे सब जब धरती से चले गए तो
फर यहां कसी के अहंकार क या क मत है। काल कसी को भी नह छोड़ता।
माया तो ठगनी भई, ठगत फरै सब देस।
जा ठग ने ठगनी ठगी, ता ठग को आदेस।।

कबीर कहते ह क यह माया महाठगनी है। सबको ही ठगती फरती है। िजस ठग ने इस माया पी ठगनी को
ठग िलया, वह कसी महापु ष से कम नह है।
सांच बराबर तप नह , झूठ बराबर पाप।
जाके िहरदे सांच है, ताके िहरदे आप।।

कबीर कहते ह क सच के समान कोई तप नह है और झूठ के समान कोई पाप नह है। िजसके दय म स य है,
उसके दय म ई र का वास है।
कं चन दीया करन ने, ौपदी दीया चीर।
जो दीया सो पाइया, ऐसे कह कबीर।।

कबीर कहते ह क कण ने सोना दान कया था और ौपदी ने व दान कया था, िजससे उसक लाज क र ा
ई। दान करना थ नह जाता है। ि को उसका सुफल अव य ही िमलता है।
वारथ का सबको सगा, सारा ही जग जान।
िबन वारथ आदर करै , सो नर चतुर सुजान।।
इस संसार म सब वाथवश ही ेम करते ह ले कन जो लोग िबना वाथ के आदर करते ह, वही ानी ह और
वही स े साथी या ेमी ह।
ऐसे सांच न मानई, ितलक देखो जोय।
जा र बा र कोयला करै , जमता देखा सोय।।

कबीर कहते ह क ऐसे स य पर िव ास न हो तो ितल क लकड़ी को देखो, उसे जलाकर कोयला कर देने पर
भी वह अंकु रत हो जाती है अथात् मोह के अंधकार म पड़ा जीव बार-बार ज म लेता है और सांसा रक दुःख को
भोगता आ मृ यु को ा करता है। यह िसलिसला चलता ही रहता है।
अ िसि नन िनि ल , सबही मोह क खान।
याग मोह क वासना, कह कबीर सुजान।।

कबीर कहते ह क अ िसि यां और नौ िनिधयां या ह, माया-मोह क खान ही तो ह। इनका प र याग करने
म ही बुि मानी है।
साधुन के सत संग से, थर थर कांपै देह।
कब भाव-कु भाव त, मन िमट जाय सनेह।

कबीर कहते ह क साधु-संत के स संग से पापी का शरीर थर-थर कांपता है। यह कं पन पाप के कारण होता
है। साधु संगित के कारण बुरी भावनाएं वतः ही मन से िमट जाती ह और मन म ई या भाव न होकर ेम भाव
उ प हो जाता है।
छीर प सतनाम है, नीर प वहार।
हंस प कोई साधु है, तत का छानन हार।।

कबीर कहते ह क ई र का प दूध के समान है और यह दुिनयादारी पानी के समान है तथा जो महा मा है वे


हंस के समान ह, जो दूध को पानी से अलग करके हण कर लेते ह अथात् ई र को ा कर लेते ह।
गु िवचारा या करै , श द न लागा अंग।
कह कबीर मैली गजी, कै से लागै रं ग।।

कबीर कहते ह क गु कर ही या सकता है, अगर िश य कु पा है। मैली चादर पर काला रं ग कहां चढ़ता है
अथात् िश य का सुपा होना ज री है। जैसे मैली चादर पर काला रं ग नह चढ़ता, वैसे ही कु पा िश य पर ान
का कोई भाव नह होता है।
चौसठ दीवा जोय के , चौदह च दा मा हं।
तेिह घर कसका चांदना, िजिह घर सतगु ना हं।।

कबीर कहते ह क चौसठ कला और चौदह िव ा का ान रखना भी थ है जब स गु का ान नह है।


िबना सदगु के ानी ि भी अंधेरे म ही रहता है।
जौन भाव ऊपर रहै, भीतर बसावै सोय।
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय।।

जो भाव ऊपर हो वही भाव अंदर भी होना चािहए। अंदर कु छ और तथा ऊपर कु छ और भाव नह होना
चािहए।
गुरवा तो स ता भया, पैसा के र पचास।
राम नाम धन बेिच के , िश य करन क आस।।

कबीर कहते ह क धन-दौलत के लोभी गु आजकल ब तेरे ह। राम के नाम पर लोग को ठगने के तरीके ढू ंढ़ते
रहते ह और वयं को महा ानी बताते ह। ऐसे गु से िश य को बचना चािहए।
जब तू आया जगत म, लोग हंसे तू रोय।
ऐसी करनी ना करो, पीछे हंस सब कोय।।

कबीर कहते ह क जब तेरा ज म आ तब लोग हंसने लगे और तेरे सगे-संबंधी खुिशयां मनाने लगे और तू तो
बस रोये जा रहा था। अब ऐसा कोई काय न करना क तेरी मृ यु के बाद तुझ पर लोग हंस अथात् जो भी करना
अ छा करना ता क लोग तेरे जाने के बाद तुझे याद कर।
कबीर सोई पीर है, जो जानै पर पीर।
जो पर पीर न जानई, सो का फर बेपीर।।

कबीर कहते ह क अपनी पीड़ा क तरह जो दूसर क पीड़ा को समझता है, वही सही अथ म इं सान है। जो
दूसर के दुःख-दद को नह जानता, वह िनदयी और बेदद है।
िनज वारथ के कारनै, सेव करै संसार।
िबन वारथ भि करै , सो भावै करतार।।

कबीर कहते ह क अपने वाथ के कारण संसार के लोग सेवा करते ह। िबना वाथ के जो मनु य भि करता
है या सेवा करता है, वह ई र को अ यंत ही ि य होता है।
एक क तो है नह , दूजा क ं तो गार।
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर िवचार।।

कबीर कहते ह क म उस परम को एक क ं तो वह एक नह है य क वह तो चार तरफ है। य द उसे दो


क ं तो भी ठीक नह है। यही जानकर म कहता ं क वह जैसा है, वैसा ही रहे।
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने म है फे र।
ताही का बखतर बने, ताही क शमशीर।

कबीर कहते ह क लोहा एक है, ले कन उसे गलाकर अनेक तरह क चीज बनती ह। लोहे का ब तर बनता है,
िजसे यो ा पहनकर रण े म तलवार के वार से वयं को बचाता है और लोहे क ही तलवार भी बनती है। ठीक
इसी कार ही परमा मा के अनेक प ह।
क तूरी कु डल बसे, मृग ढू ढे बन मा हं।
ऐसे घट घट राम ह, दुिनयां देखे ना हं।।

कबीर कहते ह क क तूरी मृग क नािभ म होती है और वह जंगल म उसे ढू ंढ़ता है। इसी तरह से रोम-रोम म
राम ह और दुिनया देख नह पाती है।
माटी कहे कु हार से, तू य र दे मोय।
एक दन ऐसा आयेगा, म र दूंगी तोय।।
माटी कु हार से कहती है क तू मुझे य र दता है। एक दन ऐसा आएगा म तुझे र दूग
ं ी अथात् तू िम ी म
दफन कर दया जाएगा।
किल खोत जग आंधरा, श द न माने कोय।
चाहे क ं सत आईना, सो जग बैरी होय।।

यह किलयुग गधे के समान है और संसार के लोग अंधे ह। इसीिलए तो कोई मेरी बात नह सुनता। िजससे भी
ान- यान क बात करता ,ं वही मेरा दु मन बन जाता है। अ छी बात कोई सुनना पसंद नह करता।
पानी िमलै न आपको, और न बकसत छीर।
आपने मन िनहचल नह , और बंधावत धीर।।

खुद को तो पानी नह िमलता और दूसर को दूध देता है। अपना मन तो वश म नह और दूसर को धैय
बंधाता है अथात् जो वयं दुःखी है, वह दूसर क या सहायता कर सकता है।
जहां आपा तहां आपदा, जहां संसै तहां सोग।
कह कबीर कै से िमटै , चारो दीरघ रोग।।

कबीर कहते ह क जहां पर अहंकार होता है, वहां पर अनेक कार के रोग और परे शािनयां होती ह और जहां
पर संशय होता है वहां पर शोक होता है। समझ म नह आता ये चार रोग (अिभमान, आपदा, संशय, शोक) कै से
दूर ह गे।
दीप कू झोला पवन है, नर को झोला ना र।
ानी झोला गव है, कह कबीर पुका र।।

कबीर कहते ह क दीपक को बुझाता पवन है, पु ष को पतन के माग पर ी ले जाती है। ानी के ान का
नाश घमंड करता है अथात् अिभमान ान का श ु है।
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीिजए, तैसी बानी होय।।

कबीर कहते ह क आदमी जैसा भोजन करता है वैसा ही उसका मन हो जाता है। जैसा पानी पीता है, वैसी ही
उसक आवाज भी हो जाती है।
कहने का भाव है क शाकाहारी और मांसाहारी दोन के ही िवचार म अंतर होता है।
मूंड़ मुड़ाये ह र िमले, सब कोय लेय मुड़ाय।
बार बार के मूड़ते, भेड़ न बैकु ड जाय।।

कबीर कहते ह क िसर मुड़वाने से अगर ह र िमल तो फर सभी अपना िसर मुड़वा लेते जैसे क बार-बार बाल
कटवाने से भेड़ बैकु ठ नह जाती है। कहने का आशय है क यह एक अंधिव ास है। मूंडन करवाने से कोई ई र
को ा नह करता।
राम नाम जाना न हं, पाला सकल कु टु ब।
ध धाही म पिच मरा, बार भई न हं बु ब।।

कबीर कहते ह क राम के नाम को कभी याद कया नह और प रवार को पालने-पोसने म ही दन-रात लगा
रहा और मर गया। हे ाणी! न तो तुझे यश िमला और न ही ई र के धाम को ही ा कया।
पक खेती देिख के , गरब कया कसान।
अज ं झोला ब त है, घर आवै तब जान।।

खेत म तैयार फसल को देखकर कसान को ब त खुशी ई। अभी तो आगे ब त मुि कल ह। फसल घर आ
जाए तब उसे अपना समझना चािहए। कहने का भाव है क यादा खुश होना ठीक नह , ण भर म ही कु छ भी
हो सकता है।
मेरा मुझम कु छ नह , जो कु छ है सब तोर।
तेरा तुझ को स पते, या लागेगा मोर।।

कबीर कहते ह क हे भु! मेरा अपना कु छ भी नह है, जो कु छ भी है, वह सब तेरा ही है। मुझे तेरा तुझको
स पते ए या लगना है।
राम बुलावा भेिजया, दया कबीर रोय।
जो सुख साधु संग म, सो बैकु ठ न होय।।

कबीर कहते ह क राम का जब बुलावा आया तो मुझे रोना आ गया। जो सुख साधु क संगित म है, वह सुख
बैकु ठ म कहां है।
कहने का भाव है क स न क संगित बैकु ठ से भी अिधक सुखदायक है।
पांच पहर ध धे गया, तीन पहर गया सोय।
एक पहर भी नाम िबन, मु कै से होय।।

कबीर कहते ह क पांच पहर धंधे म बीत गये और तीन पहर सोने म गुजर गए। हे ाणी! एक पहर भी तूने
ई र का नाम नह िलया, फर तेरी मु कै से संभव है।
स त स तोषी सवदा, श दिह भेद िवचार।
सतगु के परताप ते, सहज मील मतसार।।

कबीर कहते ह क स य को याद कर संतपु ष हमेशा संतोष धारण कये रहते ह। उ ह ई र क कृ पा से यह


शि हमेशा ही ा होती रहती है। धैय धारण करना सबके वश क बात नह है।
लौ लागी िवष भािगया, कालख डारी धोय।
कह कबीर गु साबुन स , कोई इक ऊजल होय।।

सदगु से ेम हो जाने पर सारे िवकार दूर भाग जाते ह और मन क सारी कािलख सदगु के ान पी
साबुन से धुल जाती है। ले कन यह भी सच है क गु के ान पी साबुन से कोई स ा भ ही उजला यानी
िनमल हो पाता है।
िचत चोखा मन िनरमला, बुिध उ म मित धीर।
सो धोखा न हं िबरह हं, सतगु िमले कबीर।।

ई र का ान िजसे हो जाता है, उसका मन िनमल और बुि खर हो जाती है और वह स गु के ताप से


कभी धोखा नह खाता।
जा गु ते म न िमटे , ाि त न िजव क जाय।
सो गु झूठा जािनये, यागत देर न लाय।।

िजस गु से मन का अ ान न दूर हो और मन क शंका दूर न हो, उस गु को झूठा और पाखंडी ही समिझए।


उसको छोड़ने म एक पल क देर न कर।
ेमी ढू ंढ़त म फ ं , ेमी िमलै न कोय।
ेमी सो ेमी िमलै, िवष से अमृत होय।।

कबीर कहते ह क मुझे इस संसार के लोग से या काम। म तो ेमी को ढू ंढ़ रहा ,ं जो अभी तक मुझे कह
नह दखा। स े म े ी के िमलने से जहर भी अमृत तु य बन जाता है तथा खािमयां खूिबय म त दील हो जाती
ह।
कबीर हम गु रस िपया, बाक रही न छाक।
पाका कलश कु हार का, ब र न चढ़सी चाक।।

कबीर कहते ह क हमने स गु का ान रस खूब छककर पी िलया है, अब शेष कु छ भी पीने क इ छा नह


रही। कु हार का घड़ा आग म पकने के बाद दोबारा चाक पर थोड़े ही चढ़ता है।
पाव पलक क सुिध नह , करै काल का साज।
काल अचानक मारसी, य तीतर को बाज।।

एक पल के चौथे िह से का भी कु छ पता नह और तू कल के िलए साज- शृंगार कर रहा है। काल कब अचानक


मार देगा कसी को पता नह जैसे तीतर को बाज एक ही झप े म दबोच लेता है। काल भी बाज क तरह ही
आता है।
आगे दन पाछे गये, गु स कया न हेत।
अब पिछतावा या करै , जब िचिड़या चुग गई खेत।

अ छे दन पीछे गए। तुमने न तो ई र-भजन ही कया और न स गु से ान ही िलया। अब पछताने से या


होता है, जब िचिड़या चुग गई खेत अथात् अ छे दन जब हाथ से िनकल गए तो बुरे दन म पछतावा करने से
या लाभ।
जब लग मरने से डरै , तब लिग ेमी ना हं।
बड़ी दूर है ेम घर, समझ ले मन मा हं।।

जब तक तुम मृ यु से डरे ए हो तब तक तुम म


े नह कर सकते। ेम का घर ब त दूर है। अ छी तरह से इस
बात को समझ लो। डर ेम का श ु है। यह मन म मे को उपजने ही नह देता है।
ऊंचे कु ल म जनिमया, करनी ऊंच न होय।
सुबरन कलस सुराभरा, साधू िन दा सोय।।

कबीर कहते ह क ऊंचे कु ल म ज म लेने से या लाभ जब तु हारे कम ऊंचे नह ह। जैसे सोने के कलश म
शराब भरी ई हो तो भी स न के िलए वह नंदनीय ही है।
किबरा संगत साधु क , य ग धी क बास।
जो कु छ ग धी दे नह , तो भी बास सुबास।।

कबीर कहते ह क साधु क संगित इ बेचने वाले गंधी क सुगंध क तरह है। गंधी कु छ देता नह है, फर भी
मोहक महक से मन खुश हो जाता है। संत से भले ही सीधे तौर पर कु छ लाभ न हो, फर भी मन और शरीर को
सुकून िमलता है।
भूखा भूखा या करे , या सुनावे लोग।
भांडा घड़ा िनज मुख दया। सोई पूरण जोग।।

कबीर कहते ह क सब से तू यह या कहता फर रहा है क तू भूखा है। या लोग तेरा पेट भर दगे। अरे , िजस
ई र ने तुझे मुंह दया है, वही तेरा पेट भरे गा। उस पर िव ास कर।
पूंजी मेरी राम है, जाते सदा िनहाल।
कबीर गरजे पु ष बल, चोरी करै न काल।।

कबीर कहते ह क मेरी एकमा पूंजी मेरे राम ह, िजन के नाम को याद कर म सदा सुखी रहता ।ं उनक ही
अनुकंपा से मुझे आ म ान आ है। इसे न चोर चुरा सकता है और न काल ही मार सकता है।
काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल म परलय होयगी, ब र करे गा कब।।

जो कल करना है, उसे आज करो और जो आज करना है, उसे अभी तुरंत करो। ण भर म ही लय हो जाएगा
तो अधूरे काय कब पूरे करोगे।
म मेरी तू जिन करै , मेरी मूल िवनािस।
मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल क फांिस।।

कबीर कहते ह क मन म ‘म’ और ‘मेरी’ क भावना उ प न होने दो। ये मेरी, म, तू िवनाश क जड़ है।
‘मेरी’ ही ि को ई र से या इं सान से दूर ले जाता है। ‘मेरी’ गले का फं दा है। इसे गले से िनकालकर फक दो।
ीत रीत सब अथ क , परमारथ क ना हं।
कह कबीर परमारथी, िबरला कोई किल मा हं।।

कबीर कहते ह क इस संसार म ेम वहार लोग अपना वाथ साधने के िलए करते ह, परमाथ के िलए नह ।
इस किलयुग म दूसर का भला करने वाला कोई िवरला ही होगा।
चाक चली गुपाल क , सब जाग पीसा झार।
ड़ा श द कबीर का, डारा पाट उधार।।

कबीर कहते ह क संसार के िनयम क च लगातार चल रही है और सब जग इसने पीस डाला। ले कन राम
पी रोड़े को यह च नह पीस पाती, उसका पाट ही उखड़ जाता है। कहने का भाव है क ई र-भजन जगत के
िनयम से परे है। काल इसका कु छ नह िबगाड़ सकता है।
किबरा लहर समु क , िन फल कभी न जाय।
बगुला परखन जानई, हंसा चुग चुग खाय।

कबीर कहते ह क समु क लहर कभी िन फल नह जात । बगुला परख करना नह जानता ले कन बुि मान
हंस ान पी मोती को चुग-चुग कर खाता है, अथात् जो बुि मान होते ह, वे अ छाई को पहचान कर हण कर
लेते ह।
कु टल बचन सबसे बुरा, जासे होत न छार।
साधु बचन जल प है, बरसे अमृत धार।।

कबीर कहते ह क कु टल वचन सबसे बुरा है, जो मनु य को जला डालता है। स न का वचन जल के समान
ठं डा होता है, िजससे अमृत क धार बरसती है।
किबरा आप ठगाइये, और न ठिगये कोय।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय।।

कबीर कहते ह क वयं को ठगाना अ छा है, पर दूसर को ठगना ठीक नह है। अपने-आपको ठगाने से सुख
िमलता है और दूसर को ठगने से दुःख होता है।
पित ता मैली भली, काली कु चल कु प।
पित ता के प पर, वारौ कोित स प।।

कबीर कहते ह क पित ता ी मैली-कु प ही भली चाहे वह काली-कु प ही य न हो। पित ता के प पर


करोड़ प यौछावर कया जा सकता है।
भय से भि सब करै , भय से पूजा होय।
भय पारस है जीव को, िनरभय होय न कोय।।

कबीर कहते ह क दुःख से डरकर भि सभी करते ह और भय के कारण ही ि ई र क पूजा करता है।
ाणी के िलए भय पारसमिण के समान है और भय से ही उसका उ ार होता है।
कबीर कहते ह क भयमु कोई भी न हो अ यथा वह सही माग पर चल नह पायेगा।
बुरा जो देखन म चला, बुरा न िमिलया कोय।
जो दल खो यो आपना, मुझसा बुरा न कोय।।

कबीर कहते ह क बुरा देखने के िलए म चला ले कन कोई भी बुरा नह िमला। जब मने अपने दल म झांक
कर देखा तो मुझसे बुरा कोई नजर ही नह आया।
पानी के रा बुदबुदा, अस मानस क जात।
देखत ही िछप जायेगा, य सारा परभात।।

कबीर कहते ह क मनु य क जंदगी पानी के बुलबुले क तरह है, जो ण भर म ही समा हो जाता है, जैसे
सवेरा होते ही तारे गायब हो जाते ह।
जूआ चोरी मुखिबरी, याज िबरानी ना र।
जो चाहे दीदार को, इतनी व तु िनवा र।।

कबीर कहते ह क जुआ, चोरी, मुखिबरी करना, याज लेना और दूसरे क ी के मोह म पड़ना‒ये सब बुरी
आदत ह। य द तुम ई र का दशन करना चाहते हो तो इन दुगुण का प र याग कर दो।
म अपराधी ज म का, नखिशख भरा िबकार।
तुम दाता दुख भंजना, मेरा करो स हार।

कबीर कहते ह क हे ई र! म ज म का अपराधी ।ं मेरे नख से िशख तक िवकार भरा है। तुम दाता हो और
दुख भंजन हो, मुझे अपनी शरण म ले लो।
वै मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार।
एक कबीरा ना मुआ, जेिह के राम अधार।।

कबीर कहते ह क इलाज करने वाला वै मर गया। रोगी मर गया। सारा संसार भी मर गया। एक वह नह
मरा, िजसके राम आधार ह अथात् ई र का नाम लेने वाला कभी नह मरता। वह अजर-अमर हो जाता है।
लघुता से भुता िमले, भुता से भु दू र।
च टी ले श र चली, हाथी के िसर धू र।।

कबीर कहते ह क छोटा बनकर यानी झुककर रहने से ई र क अनुकंपा ा हो जाती है और वह बड़ा बन
जाता है तथा बड़ा बनने से भु दूर चले जाते ह। एक न ही-सी च टी लघुता के कारण ही श र पाती है और
भुता क वजह से ही हाथी के िसर पर धूल पड़ती है। बड़ा बनना है तो पहले छोटा बनने क कोिशश करो।
पंख होत परबस पय , सूआ के बुिध ना हं।
अ कल िब ना आदमी, य ब धा जग मा हं।।

कबीर कहते ह क बुि हीन होने के कारण ही तोता पंख होते ए भी पंजरे म कै द हो जाता है, वैसे ही
बुि हीन आदमी जग के बंधन म जकड़ा रहता है।
पांच त व का पूतरा, रज बीरज क बूंद।
एकै घाटी नीसरी, ा ण ी सूद।।

कबीर कहते ह क रज-वीय क बूंद से बने पंच त व के ाणी को या पता क ा ण, ि य, शू ये तीन


जाितयां एक ही ह और सबम ही ई र का वास है। उनम कोई भी अंतर नह है। ये तो हमने जाितयां बनाई ह।
िचउं टी चावल ले चली, िबच म िमल गई दाल।
कह कबीर दो ना िमलै, इकले दूजी डाल।।

च टी चावल लेकर चली और बीच रा ते म ही उसे दाल भी िमल गई। कबीर कहते ह क वह एक साथ दोन
को नह ले जा सकती। उसे कसी एक को ही ले जाना पड़ेगा अथात् दूसर का भला सोचने वाल को वाथ का
याग करना ही पड़ेगा।
िलखा पढ़ी म सब पड़े, यह गुन तजै न कोय।
सबै पड़ै म जाल म, डारा यह िजय खोय।।

कबीर कहते ह क धम, शा सबके अलग-अलग ह। अलग-अलग सं दाय ह। सभी शा क बात को


िलखने-पढ़ने म उलझे ए ह। अपनी इस आदत को कोई भी छोड़ने के िलए तैयार नह है। सभी मजाल म पड़े ह
और वयं को इस मोह-माया म भटका दया है।
दान दये धन ना घटे , नदी ना घटे नीर।
अपनी आंख देख लो, य या कहे कबीर।।

कबीर कहते ह क दान देने से धन घटता नह है और बढ़ता ही है। नदी का पानी पीने से कम नह होता है।
िव ास न हो तो अपनी आंख से देख लो अथात् ज रतमंद को अगर आपके पास धन है तो दो।
दया कौन पर क िजए, कापर िनदय होय।
सांई के सब जीव ह, क री कुं जर दोय।।
कबीर कहते ह क दया कस पर करनी चािहए और कस पर दया नह करनी चािहए। हाथी और क ड़ा दोन
जीव ई र के बनाए ए ह अथात् सब जीव को एक नजर से ही देखना चािहए।
दुलभ मानुष ज म है, देह न बार बार।
त वर य प ी झड़े, ब र न लागे डार।।

कबीर कहते ह क मनु य का ज म ब त ही दुलभ है। कतने ही ज म के पु य के बाद मनु य योिन म ज म


होता है। यह देह बार-बार नह िमलती। िजस कार पेड़ से प ी झड़ने के बाद पुनः डाल से नह लगती है उसी
कार मनु य ज म दोबारा नह िमलता है।
आगा पीछा दल करै , सहजै िमलै न आय।
सो बासी जमलोक का, बांधा जमपुर जाय।।

कबीर कहते ह क अ छा कम करने म िजसका मन आगे-पीछे होता है, वह अपार दुःख भोगकर जंजीर म
बंधकर यमपुर जाता है और उसे दोबारा मानुष तन ा नह होता है।
राम नाम िनज मूल है, कहै कबीर समुझाय।
दोई दीन खोजत फरै , परम पु ष न हं पाय।।

कबीर कहते ह क राम का नाम ही मुि का आधार है। िह दू राम को ढू ंढ़ते ह और मुसलमान अ लाह को याद
करते ह जब क अ लाह और राम दोन एक ही ह।
चहै आकाश पताल जा, फोिड़ जा ांड।
कह कबीर िम टहै नह , देह धरे का द ड।।

कबीर कहते ह क चाहे आकाश-पाताल म चले जाओ या चाहे ा ड को फोड़कर िनकल जाओ अगर तूने
शरीर धारण कया है तो द ड भुगतना ही पड़ेगा अथात् कमफल चखना ही पड़ेगा।
बखत कहो या करम क , निसब कहो िनर धार।
सहस नाम ह करम के , मन ही िसरजनहार।।

कबीर कहते ह क व कहो या कम कहो या भा य कहो या चाहे िजस नाम से पुकारो। कम के हजार नाम ह
और मन से ये सब पैदा होते ह।
कबीर गव न क िजए, इस जोबन क आस।
टे सू फू ला दवस दस, खंखर भया पलस।।

कबीर कहते ह क इस यौवन और इस शरीर का या भरोसा। यह टेसू के फू ल के समान दस दन के िलए ही


िखला आ है, इसके बाद झड़कर ठूं ठ ही रह जाएगा। जवानी क यही गित है, अपनी खूबसूरती और जवानी पर
अिभमान न करो।
संसारी से ीतड़ी, सरै न एकौ काम।
दुिवधा म दोन गये, माया िमली न राम।।

कबीर कहते ह क दुिनया के लोग से ेम करने से शुभ काय नह होता। दुिवधा म पड़कर खाली हाथ ही रह
जाना पड़ता है। न तो माया ही िमलती है और न ही राम िमलते ह। अथात् माया तो महा ठगनी है, वह तो िमलने
से रही। उससे ेम करोगे तो वह तो िमलेगी नह , उसके च र म राम भी नह िमलगे।
मेरा मन मकर द था, करता ब त िबगार।
सुधा होय मारग चला, ह र आगे हम लाय।।

कबीर कहते ह क मेरा मन मतवाले हाथी क तरह म त था। वह मेरे वश म था ही नह । वह ब त िबगड़


गया था। स संगित का दामन जब पकड़ा तो सुधर गया और अ छे रा ते पर चलने लगा और ई र से मेरा संबंध
हो गया।
कबीर हमारा कोई न हं, हम का ं के ना हं।
पारै प ंची नाव य , िमिल के िबछु री जा हं।।

कबीर कहते ह क हमारा कोई नह है और हम कसी के भी नह ह। हमारी तो ि थित वही है क एक नाव पर


ढेर सारे या ी चढ़ते ह और उस पार प चं ते ही अपने-अपने रा ते क ओर बढ़ जाते ह। िमलकर िबछड़ना इस
दुिनया क रीित है। कसी को अपना कह तो कै से।
साधु कहावन क ठन है, ल बा पेड़ खजूर।
चढ़ै तो चाखै ेम रस, िगरै तो चकनाचूर।।

साधु कहलाना आसान नह है, ब त मुि कल है जैसे खजूर का पेड़। उस पर चढ़ गए तो मीठे खजूर खाने को
िमलेगा और य द िगर गए तो ह ी-पसली का भी कह पता नह चलेगा अथात् साधु कहलाने का शौक है तो स ा
साधु बनो। दखावा करोगे तो चकनाचूर हो जाओगे।
आया था कस काम को, तू सोया चादर तान।
सुरत संभाल ए का फला, अपना आप पहचान।।

कबीर कहते ह क हे ाणी! तूने यह शरीर धारण कया है ई र-भजन के िलए और तू चादर तानकर सो रहा
है तथा मोह-माया म उलझकर सब कु छ भूल गया है। अभी भी समय है, अपने-आपको पहचान और स गु का
यान लगा। तुझे मुि अव य ही िमल जाएगी।
च दन जैसा साधु है, सपिह सम संसार।
वाके अंग लपटा रहे, मन म नािह िवकार।।

कबीर कहते ह क चंदन क तरह साधु होता है और सप के समान यह संसार है। मोह-माया या है, सप ही तो
है। साधु पी चंदन के पेड़ से मोह-माया पी सप िलपटे रहते ह, पर साधु अपनी स नता नह छोड़ता है। जैसे
चंदन के वृ से सप िलपटे रहते ह, पर वह अपनी शीतलता का याग नह करता है।
दुख म सुिमरन सब करै , सुख म करै न कोय।
जो सुख म सुिमरन करै , दुख काहे को होय।।

कबीर कहते ह क दुःख म ई र को सभी याद करते ह, पर सुख म उ ह कोई याद नह करता है। ि अगर
सुख म सुिमरन करे तो दुःख य हो अथात् ई र का सुिमरन सुख-दुःख दोन म ही समान प से करना चािहए।
काची माया मन अिथर, िथर िथर करम कर त।
य य नर िनधड़क फरै , य य काल हस त।

यह शरीर णभंगुर है और इसम जो मन है वह ब त ही चंचल है। अपने लाभ के िलए या फर अपनी सुर ा
के िलए आदमी मन से थायी काय कर रहा है और बड़े गव के साथ बेधड़क होकर घूम रहा है ले कन काल उनक
इस गलतफहमी पर हंस रहा है अथात् काल के आगे शरीर व मन क कोई चालाक काम नह करने वाली। जब
मृ यु का समय आ जाएगा, वह नह छोड़ेगा।
जाय झरोखे सोवता, फु लना सेज िबछाय।
सो अब क ं दीखै नह , िछन म गयो िबलाय।।

फू ल क सेज िबछाकर जो महल क अटा रय पर सुख क न द लेते थे, वे अब कह भी नजर नह आ रहे।


काल ने उन सबको ही न कर दया अथात् हे ाणी! अतीत से कु छ भी तो िश ा लो और स गु से नेह लगाकर
इस ज म को सुधारो।
मनुवा तू य बावरा, तेरी सुध य खोय।
मौत आय िसर पर खड़ी , ढलते बेर न होय।।

हे मन! तू बावला य हो गया है। तेरी मित य मारी गई है, जो तुझे होश नह है। मौत िसर पर आकर खड़ी
है। यह शरीर थोड़ी ही देर म न होने वाला है।
ोध अगिन घर घर बढ़ी, जलै सकल संसार।
दीन लीन िनज भ जो, ितनके िनकट उबार।।

ोध क आग हर घर म लगी है। सारा संसार ोध क आग म जल रहा है। जो भि म लीन ह, उनके िनकट


यह आग नह आने वाली। स संग उ ह ोध क आग से बचा लेगा।
दास कहावन क ठन है, म दासन का दास।
अब तो ऐसा होय र ं, पांव तले क घास।।

कबीर कहते ह क दास यानी भ कहलाना ब त क ठन है य क इसके िलए ब त ही सहनशील होना


पड़ता है और म तो भ का भ ।ं अब तो म ऐसा बनकर र ग
ं ा जैसे पांव के नीचे घास रहती है।
कहने का भाव है क बड़ा आदमी बनने के िलए िवन , सुशील व सहनशील बनना आव यक है।
काल करै सो आज कर, सब है साज तुव साथ।
काल काल तू या करै , काल काल के हाथ।।

कबीर कहते ह क जो कल करना है, उसे आज करो य क शरीर तेरे साथ है। कल-कल तू या कर रहा है।
कल तो काल के हाथ म होता है।
कै खाना खै सोवना, और न कोई चीत।
सतगु श द िबसा रया, आ द अ त का मीत।।

कबीर कहते ह क पूरी जंदगी खाने और सोने म ही गुजार दी। इसके अलावा तेरे मन म कु छ रहा ही नह ।
तूने उस स े गु को भुला दया, जो ज म-ज म के िम ह।
तन मन ल ा ना रहे, काम बान उर साल।
एक काम सब वश कए, सुर नर मुिन बेहाल।

कबीर कहते ह क िजसका दय काम-बाण से घायल होता है, उसके तन-मन म शम नाम क कोई चीज नह
रहती। इस एक काम ने सुर, नर, मुिन सबको ही अपने वश म करके बेहाल कर दया है।
चोर चुराई टूं बरी, गाड़ै पानी मा हं।
वह गाड़ै ते ऊछलै, करनी छानी ना हं।।

चोर ने एक तुमड़ी चुराई और उसे पानी म गाड़ने लगा ले कन वह उछलकर पानी के ऊपर आ गई। कबीर
कहते ह क यही ि थित कम क है। पाप कम लाख छु पाने पर भी नह छु पता।
जैसी मुख ते नीकसे, तैसी चालै ना हं।
मनु य नह वे ान गित, बांधे जमपुर जा हं।।

कबीर कहते ह क मुख से भि और ान क जैसी वाणी िनकलती है, वह आदमी अपनी कथनी के अनुसार
अगर आचरण नह करता है तो बांधकर यमपुर जाता है और नरक म भी उसका बास नह होता।
ितनका कब ं न नं दये, जो पांव तले भी होय।
कब ं उड़ आंख पड़े, पीर घनेरी होय।।

कबीर कहते ह क ितनके क कभी भी नंदा न करो, भले ही वह तु हारे पांव तले य न हो। वह कभी भी उड़
कर तु हारी आंख म पड़ सकता है और तु ह ब त दुःख दे सकता है। ऐसे ही वयं से छोटे ि का अनादर न
करो। सबको एक नजर से देखो।
लूट सके तो लूट ले, स त नाम क लूट।
पीछे फर पछताओगे, ान जा हं जब छू ट।।

कबीर कहते ह क भगवान का नाम जप सकते हो तो जप लो नह तो बाद म पछताओगे, जब ाण-पखे


शरीर से िनकल जायेगा।
शीलव त सबसे बड़ा, सब रतनन क खान।
तीन लोक क स पदा, रही शील म आन।।

कबीर कहते ह क शीलवान पु ष सबसे बड़ा होता है। शील सभी र क खान है। तीन लोक क संपदा
शील म ही समािहत है। शीलवान ि क पूजा हर जगह होती है।
सािहब तेरी सािहबी, सब घट रही समाय।
य महदी के पात म, लाली लखी न जाय।।

कबीर कहते ह हे ई र! तेरी सािहबी सब म समायी ई है यानी तुम घट-घट म वैसे ा हो जैसे महदी के
प म बसी लाली नजर नह आती है। तुम को देखना इस अधम शरीर से संभव नह है।
या क रये या जोिड़ये, थोड़े जीवन काज।
छािड़ छािड़ सब जात ह, देह गेह धन राज।।

कबीर कहते ह क या कर और या जोड़, यह जीवन थोड़े समय के िलए है। धन, देह, घर सब कु छ यहां पर
छोड़कर लोग जा रहे ह। उनके साथ तो कु छ भी नह जा रहा है।
आंिख न देखे बावरा, श द सुनै निह कान।
िसर के के स ऊजल भये, अब ं िनपट अजान।।

कबीर कहते ह क इस संसार के लोग कतने बावले ह। आंख ह, पर नजर नह आ रहा है और कान है, पर श द
सुनाई नह दे रहा है। िसर के बाल सफे द हो गए, फर भी महा अ ानी ही ह और सब-के -सब अ ानता के अंधेरे
म भटक रहे ह।
मूरख शबद न मानई, धम न सुनै िवचार।
स य श द न हं खोजई, जावै जम के ार।।

कबीर कहते ह क मूख ान- यान क बात नह मानता और न ही धम, पूजा-पाठ पर भी िव ास नह करता
है। वह स य क खोज भूलवश भी कभी नह करता और फर एक दन उसे यमपुर जाना ही पड़ जाता है
एक दन ऐसा होयगा, कोय का का ना हं।
घर क नारी को कहै, तन क नारी जा हं।।

कबीर कहते ह क एक दन ऐसा भी आएगा क यहां कोई कसी का नह रहेगा। घर क ी को कौन कहे
अपने शरीर क नाड़ी भी अपने साथ नह रहेगी। हे मन! तू स गु से नेह लगा। माया के भंवर म मत पड़।
सोना, स न, साधुजन, टू ट जुड़ै सौ बार।
दुजन कु भ कु हार के , एके धका दरार।।

कबीर कहते ह क सोना, स न, साधुजन सौ बार टू टकर भी जुड़ जाते ह ले कन जो दुजन ह, वे कु हार के घड़े
के समान एक ही ध े म टू टकर िबखर जाते ह और फर लाख उपाय करने के बाद भी जुड़ते नह ह।
कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह।
देह खेह हो जायेगी, कौन कहेगा देह।।

कबीर कहते ह क जब तक तेरी देह है तू दोन हाथ से दान कए जा। जब देह से ाण िनकल जाएगा तब न
तो यह सु दर देह रह जाएगी और न तू, फर तेरी देह िम ी क िम ी म िमल जाएगी। तेरी देह को कोई देह न
कहकर शव कहेगा।
उदर समाता अ ले, तनिह समाता चीर।
अिधक हं सं ह ना करै , ितसका नाम फक र।।

कबीर कहते ह‒जो के वल पेट भरने के िलए भोजन ले और शरीर ढकने के िलए व ले तथा सं ह करने क
कोिशश न कर, उसी का नाम फक र है।
थोड़ा सुिमरन ब त सुख, जो क र जानै कोय।
हरदी लगै न फटकरी, चोखा ही रं ग होय।।

कबीर कहते ह क थोड़ा ही सुिमरन करो, पर स े मन से करो, उसी म ब त सुख ा होगा। जो सुिमरन
करता है, वह इस बात को जानता है। इसम कोई पूंजी नह लगती यानी न ह दी लगे और न फटकरी, फर भी
रं ग गहरा ही चढ़ता है। भि का रं ग ही ऐसा होता है।
म ही ते सब कु छ बने, िबन म िमले न कािह।
सीधी अंगुली घी ज मो, कब ं िनकसै नािह।।

कबीर कहते ह क प र म से ही सारी सम याएं हल होती ह और सब बात बनती ह। िबना प र म के कु छ


नह ा होता िजस कार जमा आ घी सीधी उं गली से नह िनकलता। संसार म सारे सुख का मूल कठोर म
ही है।
अब तो हम कं चन भये, तब हम होते कांच।
सतगु क करपा भई, दल अपने का सांच।।
स गु से या िमले हम कं चन बन गए, नह तो हम कांच के कांच ही होते। अब तो मेरा दल उनके ान को
पाकर सोने जैसा बन गया।
दीन लखै मुख सबन को, दीनिह लखै न कोय।
भली िवचारी दीनता, नर देवता होय।।

कबीर कहते ह क गरीब ि सब के मुख को देखता है ले कन गरीब को कोई नह देखता है। यह गरीबी
ब त भली है, जो आदमी को देवता तु य बना देती है और उसे अ छे-बुरे क पहचान करना आ जाता है।
इक बानी सो दीनता, सब कु छ गु दरबार।
यही भट गु देव क , संतन कयो िवचार।।

कबीर कहते ह क एक बार जो अपनी गरीबी को वीकार कर अ छे गुण को हण कर लेता है, उसके िलए
ई र का दरबार सदा के िलए खुल जाता है। संत का मानना है क दीनता ही स गु के िलए सबसे े भट है।
कहने का भाव है क गरीबी म ही इं सान ई र के िनकट आता है और उसक पहचान कर पाता है।
मु ला च ढ़ कलका रया, अलहन बिहरा होय।
जेिह कारन तू बांग दे, दल ही अंदर सोय।।

कबीर कहते ह क मि जद पर चढ़कर मु ला बांग देता है यानी िच लाता है। या खुदा बहरा आ है।
कबीर समझाते ह क िजसको तू िच लाकर पुकार रहा है, वह तो दल के अंदर ही िवराजमान है।
तू मित जाने बावरे , मेरा है सब कोय।
ान िप ड सो बंिध रहा, सो न हं अपना होय।।

कबीर कहते ह क अरे बावले! तू यह मत समझ क दुिनया म सब तेरे ह। शरीर म जो ाण है, वह तो तेरा
अपना है नह , फर तू दूसर क बात या कर रहा है।
खलक िमला खाली आ, ब त कया बरबाद।
बांझ िहलावै पालना, ताम कौन सवाद।।

कबीर कहते ह क िवषय-वासना म िल मनु य िमले और स य वचन का मजाक उड़ाए तो उसे वैसा ही
समझो जैसे खाली पालना िहलाती बांझ ी ह षत होती है। इसम कोई सुख तो होता है नह , बस मन को मनाने
वाली बात होती है। बांझ ी को खाली पालना िहलाने म ही सुख िमलता है जब क अंदर से वह आहत होती है,
उसी तरह से िवषय-वासना म िल पु ष अंदर से खाली होता है, बस िणक सुख क खाितर स य का माखौल
बनाता है।
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी म पुिन आध।
कबीर संगत साधु क , कटै को ट अपराध।।

एक घड़ी, आधी घड़ी या आधी म भी आधी घड़ी स न क संगित म ज र रहो। इससे करोड़ अपराध जाने-
अनजाने म ही कट जाते ह।
िनगुरा ा ण न हं भला, गु मुख भला चमार।
देवतन से कु ा भला, िनत उ ठ भूंके ार।।

कबीर कहते ह क िनगुण अ ानी ा ण से ानवान गु मुख चमार भला होता है। इसी कार प थर पी
देव मू तय से भला कु ा होता है, जो रोजाना भ क-भ क कर घर क रखवाली करता है।
पाहन को या पूिजये, जो न हं देय जवाब।
अंधा नर आशा मुखी, य ही खोवै आब।।

कबीर कहते ह क प थर को या पूजना, जो कोई जवाब ही नह देता। अंधिव ासी मनु य इस झूठी आशा म
क प थर पी देवता उसक मनोकामना पूरी करे गा, अपना पूरा जीवन थ ही तबाह कर लेता है। कहने का
आशय है क कम करो, प र म करो, यही स ी पूजा है।
कबीर सब सुख राम ह, और िह दुख क रािस।
सुर नर मुिन अ असुर, पड़े काल क फांिस।।

कबीर कहते ह क राम क भि म ही सब सुख ह और बाक सब दुख क खान है। सुर, नर, मुिन और असुर
सब अपने कमफल के अनुसार काल के फं दे म उलझे ए ह। राम ही जगत के उ ारक ह।
धरती करते एक पग, समु दर करते फाल।
हाथ परबत तौलते, ते भी खाये काल।।

कबीर कहते ह क िजस वामन भगवान ने एक पग म पृ वी को नाप दया, िजस हनुमान ने एक ही छलांग म
समुंदर पार कर िलया, िजस ी कृ ण ने हाथ पर पवत उठा िलया, जब ऐसी िवल ण शि वाले द लोग को
काल ने अपना ास बना िलया तो फर हम-तुम या ह? काल सव शि मान है।
सुिमरन स मन लाइये, जैसे दीप पतंग।
ाण तजे िछन एक म, जरत न मोरै अंग।।

कबीर कहते ह क ई र का सुिमरन इस कार से करो जैसे पतंगा दीपक से ेम करता है। वह पल भर म ही
दीपक क लौ पर िगरकर अपनी जान दे देता है ले कन न तो जलने का भय उसे होता है और न मरने का।
कहने का भाव है क ई र से ेम तुम भी पतंगे क तरह िनडर होकर करो।
िग रये परबत िसखर तो, प रये धरिन मंझार।
मूरख िम न क िजए, बूड़ो काली धार।।

कबीर कहते ह क पवत के िशखर से िगर पड़ो चाहे धरती म धंस जाओ ले कन मूख से िम ता न करो य क
मूख िम क मूखता तु ह ले डू बेगी।
तटै बरत अकास स , कौन सकत है झेल।
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल।।

कबीर कहते ह क नट के बांस क र सी अगर करतब दखाते समय टू ट जाए तो उसे िगरना ही है। उसक र ा
कोई भी नह कर सकता है।
इसी कार से साधु, सती और शूरवीर क िज दगी भाले क न क पर टक होती है। उनक र ा उनक
आ मशि ही करती है।
पाहन पािन न पूिजए, सेवा जासी बाद।
सेवा क जै साधु क , राम नाम कर याद।।

अपने िहत के िलए प थर और पानी को भूलकर भी न पूज य क ऐसी पूजा फिलत नह होती है। सेवा या
पूजा करनी है तो साधु क कर। उससे राम नाम का ान ा होगा अथात् पूजना ही है तो साधु, संत और
ज रतमंद को पूज।
मन म ा दल ा रका, काया काशी जान।
दस ारे का चेहरा, ताम जोित िपछान।।

अपने मन को ही म ा समझो तथा दय को ा रका धाम और शरीर को काशी समझो। दस ार वाले मनु य
का शरीर ही पिव मं दर है, िजसम योित व प ई र का वास है।
कहने का भाव है क मनु य का शरीर ही सभी तीथ के समान है।
कांकर पाथर जो र के , मसिजद लई चुनाय।
ता च ढ़ मु ला बांग दे, बिहरा आ खुदाय।।

कं कड़, प थर जोड़कर मि जद चुनवा ली और उस पर चढ़कर मु ला ऊंची आवाज म बांग देता है। या खुदा
बहरा है, जो िच लाने पर ही वह सुनता है।
कहने का भाव है क ई र न तो बहरा है और न ही शि हीन है। वह तो मन म ही है। बस ा से उसे याद
करने क ज रत है।
मूरित ध र ध धा रचा, पाहन का जगदीश।
मोल िलया बोलै नह , खोता िबसवा बीस।।

कबीर कहते ह क भगवान क मू त रखकर पूजा-पाठ करवाने लगा, ध धा धन कमाने का शु हो गया।


खरीदा आ वह प थर का भगवान बोलता नह है, इसका मतलब यह आ क वह भगवान नह है, िसफ धंधा
करने का साधन ही है।
कहने का भाव है क ऐसे ढ गी पंिडत से बच।
पाहन ले देवल चुना, मोटी मूरत मा हं।
पंट फू ट परबस रहै, सो लै तारै कािह।।

कबीर कहते ह क प थर लेकर मं दर का िनमाण करवाया और उसम बड़ी प थर क मू त रख दी। कु छ ही


समय म वह प थर क शि हीन मू त टू ट-फू ट गई। जब वह मू त अपनी र ा नह कर सकती तो दूसर को या
खाक तारे गी।
तन का बैरी कोई नह , जो मन शीतल होय।
तू आपा को डा र दे, दया करे सब कोय।।

कबीर कहते ह क इस शरीर का दु मन कोई नह है अगर मन पिव है। तू अिभमान को छोड़ दे तो सभी तुझ
पर दया करगे और तुझसे ेम भी करगे।
सुख के संगी वारथी, दुख म रहते दूर।
कहै कबीर परमारथी, दुख सुख सदा हजूर।।

कबीर कहते ह क सुख के संगी वाथ लोग होते ह और ऐसे लोग दुःख म दूर-दूर ही रहते ह। जो लोग
परमाथ होते ह, वे सुख-दुःख दोन ही अव था म हािजर रहते ह।
परदै रहती परिमनी, करती कु ल क कान।
घड़ी जु प ंची काल क , छोड़ गई मैदान।।

कबीर कहते ह क सुशील, च र वान एवं सुल णा ी आजीवन कु ल क मयादा म रही और जब मृ यु क


घड़ी आयी तो सबके सामने हो गई। अथात् मरने के बाद ि बेपदा हो जाता है।
तन िथर मन िथर वचन िथर, सुरित िनरित िथर होय।
कह कबीर उस पलक को, क प न पावै कोय।।

शरीर ि थर है, मन ि थर है और वाणी ि थर है तो अपने-आप को ि थर करके जो ि ई र को याद करता


है, उस बेशक मती पल का सामना क प भी नह कर सकते अथात् आ म चंतन से ि महान बनता है।
आज कहै म काल भजूं, काल कहै फर काल।
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल।।

आज कहता है क म कल से ई र का नाम लूंगा और कल को कहता है क कल से ई र का यान क ं गा। इस


आज-कल के फे र म अवसर यूं ही बीत गया। कल पर कोई भी काय मत टालो वरना हाथ कु छ भी नह लगेगा।
सूता साधु जगाइये, करै को जाप।
ये तीन न जगाइये, साकट संह सांप।।

कबीर कहते ह क सो रहे साधु को जगाना पड़ जाए तो िनःसंकोच भाव से जगा द। वह उठने के बाद भगवान
का ही नाम लेगा। कसी का नुकसान नह करे गा ले कन अ ानी ि , संह और सांप सो रहे ह तो उ ह न
जगाइए। वे आप पर हमला करने क ही सोचगे।
साकट सूकर कू करा, तीन क गित एक।
को ट जतन परमोिधये, तऊ न छाड़ै टे क।।

अ ानी ि , सूअर, कु ा इन तीन क गित एकसमान होती है। करोड़ उपाय कर उ ह ान भरा उपदेश
द, फर भी ये हािन प च
ं ाने से बाज नह आते अथात् दु से दूर ही रिहए।
सुख देवै दुःख को हरै , दूर करै अपराध।
कह कबीर वह कब िमलै, परम सनेही साध।।

सुख दे और दुःख को दूर करे तथा अपराध को मा कर द, ऐसे िहतैषी लोग का साथ कब िमलेगा अथात् ऐसे
अ छे लोग कहां िमलते ह। ार ध म िलखा होने पर ही ऐसे ेही ि का साथ िमलता है।
अज ं तेरा सब िमटै , जो मानै गु सीख।
जब लग तू घर म रहे, मित क ं, मांगे भीख।

कबीर कहते ह क आज भी तेरी सारी सम याएं दूर हो सकती ह अगर तू अपने सदगु क बात मान ले। जब
तक तू गृह थ आ म म है कसी से भीख मत मांग। कम कर। यही ई र क आ ा है।
गां ठ न दाम हं बांधही, न हं नारी सो नेह।
कह कबीरवा साधु क , हम चरनन क खेह।।

कबीर कहते ह क जो धन का सं ह नह करते और न नारी के ित आस होते ह, ऐसे भ जन के चरण क


धूल के समान हम अपने जीवन को मानते ह।
खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे को दल मांह।
आशा जीवन मरण क , मन म राखे नांह।।

कबीर कहते ह क जो शूरवीर होते ह, वे यु के मैदान म सैिनक के बीच भी लड़ते रहते ह। यु के मैदान को
वे छोड़कर नह भागते ह। वे जीवन-मरण का यान नह रखते ह। वे तो बस अपनी िवजय के बारे म सोचते ह।
ेम िछपाया ना िछपै, जा घट परगट होय।
जो पै मुख बोलै नह , नैन देत ह रोय।।

कबीर कहते ह क म े िछपाने पर भी नह िछपता है, वह दय से कट हो ही जाता है। जो मुंह से नह


बोलते ह तो ेम आंसु के प म नैन से बाहर िनकलने लगता है अथात् ेम के भाव को आंख कट कर देती
ह।
जब लग नाता जगत का, तब तक भि न होय।
नाता तोड़े ह र भजे, भ कहावै सोय।।

कबीर कहते ह क जब तक संसार से ि नाता नह तोड़ लेता तब तक उसका मन भि म नह लगता।


सांसा रक काय से नाता तोड़कर ही ह र भजन कया जा सकता है और वही असली भ कहलाता है।
बाजीगर का बांदरा, ऐसा मन जीव के साथ।
नाना नाच दखाय कर, राखे अपने हाथ।।

कबीर कहते ह क मदारी के बंदर क तरह ही शरीर म रहने वाला जीव है। मदारी के इशारे पर बंदर तरह-
तरह के खेल दखाता है और जब खेल समा हो जाता है तो अपने साथ लेकर चला जाता है। ई र भी संसार म
खेल दखाने के िलए जीव को भेजता है और जब खेल समा हो जाता है तो अपने पास बुला लेता है।
कथा क तन कु ल िवशे, भवसागर क नाव।
कहत कबीरा या जगत, नाह और उपाय।।

कबीर कहते ह क कथा-क तन पी नौका क ज रत इस भवसागर से पार उतरने के िलए है। कथा-क तन के
अित र पार उतरने के िलए दूसरा कोई उपाय नह है।
कबीरा यह जगत कु छ नह , िखन खारा िखनमीठ।
का ह जो बैठा म डपे, आज मसाने दीठ।।

कबीर कहते ह क यह संसार कु छ नह है, न र है। पल भर म ही कड़वा और पल भर म ही मीठा लगता है।


कल जो म डप म बैठा है, हो सकता है आज उसे मशान देखना पड़ जाए।
कं चन मे अरपह , अरप कनक भ डार।
कह कबीर गु बेमुखी, कब ं न पावै पार।।

कबीर कहते ह क भले ही तुम पवत के बराबर सोना दान कर दो ले कन गु क कृ पा तुम पर नह है तो


भवसागर से कभी भी पार नह हो पाओगे अथात् स गु क कृ पा के िबना मुि संभव नह है।
सरवर तरवर संतजन, और चौथा बरसे मेह।
परमारथ के कारने, चार धारी देह।।
कबीर कहते ह क तालाब, वृ , साधु और बरसता आ बादल‒ये चार दूसर का भला करते ह। परमाथ के
िलए ही इन चार का पृ वी पर आगमन आ है अथात् संतजन परमाथ के िलए ही शरीर धारण करते ह।
आिग आंिच सहना सुगम, सुगम ख ग क धार
नेह िनबाह न एक रस, महा क ठन यौहार।।
कबीर कहते ह क आग क गम को सहना सहज है, तलवार क धार को भी बदा त करना आसान है ले कन
ेम को िनभाना आसान नह है अथात् ेम म इतनी सहजता होनी चािहए क कोई अंतर न आए।
गुणवै ा औ को, ीित करै कब कोय।
कबीर ीित सो जािनये, इनते यारी होय।।

कबीर कहते ह क बुि मान और धनवान से सभी ेम करते ह ले कन स ाई तो यह है क लोग उनसे नह ,


उनके धन से ेम करते ह। ेम तो वह है, िजसम कोई वाथ के भाव न ह ।
किबरा जपना काठ क , या दखलावे मोय।
िहरदय नाम न जपेगा, यह जपनी या होय।।

कबीर कहते ह क यह काठ क माला मुझे या दखला रहा है। जब दय से ह र को नह जपेगा तो यह काठ
क माला या करे गी। दय पी माला को जपना आव यक है। काठ क माला फे रने से ह र नह िमलने वाले।
नेह िनबाहै ही बनै, सोचै बनै न आन।
तन दे मन दे शीश दे, नेह नदी जै जान।।

कबीर कहते ह क ेम को िनभाने म ही आनंद है। सोचने-िवचारने से इस क मह ा घट जाती है। ेम म


शरीर, मन, िसर जो भी देना पड़े खुशी-खुशी दो। ेम एक ऐसा खजाना है, जो इस दुिनया म सबसे अिधक
मू यवान है अथात् ेम जीवन का आधार है। भला आधार के िबना जीवन कै से जंदा रह सकता है।
कहा चुनावै भेिड़या, चूना माटी लाय।
मीच सुनैगी पािपनी, दौ र के लेगी आय।।

कबीर कहते ह क चूना, िम ी लाकर इतना आलीशान भवन बनवा रहे हो कसिलए? मौत को पता चलेगा
तो वह दौड़ी चली आएगी और पल भर म ही सब वाहा कर देगी। मौत ब त ही िन ु र और पािपनी है।
हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलावन हार।
कौितक हारा भी जले, कास क ं पुकार।।

कबीर कहते ह क मशान घाट पर लकिड़यां जलती ह, ह ी जलती है और शव जलाने वाला भी एक दन


जल जाता है। दाह-कम करने वाला भी एक रोज जल जाता है, फर म कसे आवाज दू।ं यहां तो सबक ही गित
एक जैसी है।
माया करक कदीम है, यह भवसागर मा हं।
जंबुक पी जीव है, खचत ही म हं जा हं।।

इस भवसागर म माया या है एक सूखी हि य क ढेर ही तो है और यह जो जीव है वह गीदड़ क तरह ही तो


है, जो माया पी हि य क ढेर को ख चते-ख चते दम तोड़ देता है।
कहने का भाव है क जीव क दुगित िवषय-वासना म अिधक िल ता के कारण ही है।
कबीर माया मोिहनी, मोहै जान सुजान।
भागै छू टै नह , भ र भ र मारै बान।।

कबीर कहते ह क माया ब त ही बड़ी मोिहनी है। पूरे संसार को अपने आकषण म बांध रखी है। अपने वासना
पी बाण को यह ख च-ख च कर मार रही है। इस से लाख दूर भागने पर भी इं सान बच नह पाता है।
कबीर माया जात है, सुनी श द िनज मोर।
सुिखय के घर साधजन, सूम के घर चोर।।

माया कहती है क जो लोग स न ह, उनके घर साधु-संत आते ह और उनक सेवा मुझ माया से ही होती है।
म साधु-संत क सेवा करने वाल को दुःखी नह करती ले कन जो कृ पण होते ह यानी जो साधु-संत पर धन खच
नह करते ह, उनका धन चोर चुराकर ले जाते ह।
मान बड़ाई जगत म, कू कर क पिहचान।
यार कये मुख चाटई, बैर कये तन हािन।।

संसार म कु े क पहचान उसके वभाव से होती है। कु े से अ यिधक ह े करने पर वह मुख चाटता है और
दु मनी करने पर शरीर को काट खाता है। जो दु कृ ित के लोग होते ह, वे कु े क कृ ित वाले ही होते ह‒
स मान दो तो िसर पर बैठ जाते ह और स मान न दो तो दु मन बन जाते ह।
बड़ा बड़ाई ना करै , बड़ा न बोलै बोल।
हीरा मुख से ना कहै, लाख हमारा मोल।।

बड़े लोग यह कभी नह कहते क, वे बड़े ह और न ही वे अपनी शंसा अपने मुख से करते ह, जैसे हीरा यह
नह कहता क हमारी क मत लाख क है।
ोता तो घर ह नह , व ा बकै सो बाद।
ोता व ा एक घर, तब कथनी का वाद।।

ोता यान से कहने वाले क बात को न सुने तो व ा का बोलना बेकार ह। ोता और व ा जब एक ह


तभी ान का सार होता है।
म ही ते सब होत है, जो मन राखै धीर।
म ते खोदत कू प य , थल म गटै नीर।।

कबीर कहते ह क प र म से ही सारे काय िस होते ह ले कन इसके िलए धैयवान बनना ज री है। प र म
से ही कु आं खोदा जाता है और जमीन के नीचे से पानी िनकाला जाता है। प र म ही सारे सुख का आधार है।
झूठ बात न हं बोिलये, जब लग पार बसाय।
अहो कबीरा सांच ग , आवागवन नसाय।।

कबीर कहते ह क झूठ मत बोिलए। जब तक संभव हो सच बोिलए य क स यवाणी से ही जनम-मरण से


मुि ि को िमलती है। झूठ सारे पाप क जड़ है।
कबीर नवै सो आपको, पर को नवै न कोय।
घािल तराजू तोिलये, नवै सो भरी होय।।

कबीर कहते ह क जो वयं को झुकाता है, वह दूसर के िलए नह झुकता है बि क वयं के िलए ऐसा करता है
जैसे क तराजू म कोई सामान तौलते समय वह झुक जाता है।
कहने का भाव है क झुकना िवन ता क िनशानी है और इससे ि क ित ा म वृि होती है और लोग
उसक शंसा ही करते ह।
दीन गरीबी बंदगी, सबस आदर भाव।
कह कबीर सोई बड़ा, जाम बड़ा सुभाव।।

कबीर कहते ह क िजसका वभाव अ छा होता है, वही सबसे बड़ा होता है। गरीब, गरीबी, सेवा तथा सबके
िलए ेम का भाव िजसके दल म होता है, वह सवि य होता है और ई र क कृ पा सदा उस पर बरसती रहती
है।
सजन सनेही ब त ह, सुख म िमले अनेक।
िबपित पड़े दुख बां टये, सो लाखन म एक।।

सुख के पल म सगे-संबंधी और चाहने वाले ब त होते ह ले कन मुि कल क घिड़य म दुःख को बांटने वाला
लाख म कोई एक होता है।

कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार।


पापी का पापी गु , य बूड़ा संसार।

कबीर कहते ह क लोहे क नाव पर लोहा लदा है, भला वह पार जाए तो कै से जाए। उसे डू बना तो है ही, वैसे
ही अगर पापी का गु पापी हो तो भवसागर के म य म उसे तो डू बना ही है।
आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक।
कह कबीर न हं उल टये, वही एक क एक।।

कोई गाली दे रहा है तो तुम गाली के जवाब म गाली मत दो य क आती गाली एक होती है, पर जब दूसरा
भी गाली देता है तो वह अनेक हो जाती है।
कबीर कहते ह क गाली के बदले गाली मत दो, उसे एक क रहने दो।
कहने का भाव है क ऐसा करने से झगड़ा वह पर समा हो जाता है।
माया तजी तो या भया, मान तजा न हं जाय।
मान बड़े मुिनवर गले, मान सबन को खाय।।

कबीर कहते ह क धन, पु , ी का याग कर दया तो या आ। मान-स मान पाने क इ छा तो अभी भी


तेरे मन म बसी ई है। तुझे नह पता बड़े-बड़े मुिन-ऋिष इसी मान यानी अिभमान के कारण गल गए। मान तो
ऐसा है, जो छोटे-बड़े सबको ही खाता है।
मन पंखी िबन पंख का, जहां तहां उिड़ जाय।
मन भावे ताको िमले, घट म आन समाय।।

कबीर कहते ह क मन पी प ी िबना पंख के ही जहां-तहां उड़ता रहता है। िजससे िमलना होता है, उससे
िमलकर मन पुनः अपने शरीर म वेश कर जाता है।
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग।
य साधु संसार म, कबीर पड़त न फं द।।

कबीर कहते ह क तार और चं मा का ित बंब जल म दखता है और वह पर मछिलयां भी होती ह। ये


तीन एक ही थान पर होते ह, पर जाल डालने पर िसफ मछिलयां ही फं सती ह, तारे और चं मा नह फं सते,
इसी तरह से इस माया पी संसार म साधु-सं यासी रहते ए भी माया के मोहपाश म कभी नह फं सते य क
वे मोह-माया को पहचानते ह। माया उ ह ठग नह पाती है।
नर नारायण प है, तू मित जानै देह।
जो समझे तो समझ ले, खलक पलक म खेह।।

हे ाणी! जो नर (मनु य) है, वह नारायण का व प है। तूने शरीर पाया है, वयं को जड़ मत जान। तू वयं
को शरीर से अलग, चैत य और आ म व प जान। यह शरीर णभंगुर है, जो पलक झपकते ही माटी हो जाना
है।
कहने का भाव है क मनु य के पास शरीर है तो यह मत समझ क वह नारायण नह है, वह जो आ मा उसके
अंदर है, वह ई र तु य है। वह उसे नारायण से जोड़ती है। नर सेवा नारायण सेवा से कम नह ।
बानी से पिहचािनये, साम चोर क घात।
अ दर क करनी से सब, िनकले मुंह क बात।।

कबीर कहते ह क वाणी से पता चल जाता है क कौन अ छा इं सान है और कौन दु इं सान। अंदर से वे या
ह, उनक बात से महसूस हो ही जाता है अथात् वभाव व वहार से चोर व स न क पहचान एक रोज हो ही
जाती है।
लीख पुरानी को ना तज, कायर कु टल कपूत।
लीख पुरानी पर रह, शायर संह सपूत।।

पुराने रा ते को कायर, धूत और कपूत नह छोड़ते अथात् ये लोग अपनी आदत लाख मना करने पर भी नह
छोड़ते ह और रा ता कतना भी उबड़-खाबड़ य न हो सपूत, शायर और संह अपनी वाभािवक आदत नह
यागते।
िज या म अमृत बसै, जो जानै कोई बोल।
िवष वािसक का डर तेरे, िज या के एक मोल।।

कबीर कहते ह क जीभ म अमृत व िवष दोन होते ह। जब आदमी मधुर वचन बोलता है तो अमृत-सा झड़ता
है और अशांत मन भी शांत हो जाता है ले कन जब आदमी कड़वे वचन बोलता है तो जहर-सा बरसता है और
वही वाणी लगती है‒शांत मन को भी उ िे लत कर अशांत कर देती है अथात् मीठे वचन ही बोिलए। इसी म
आपका भला है।
किबरा धीरज के धरे , हाथी मन भर खाय।
टू क टू क के कारणै, वार घरै घर जाय।।

कबीर कहते ह क हाथी धैयवान होने के कारण मन भर भोजन करता है ले कन कु ा ु वभाव का होने के
कारण एक-एक टु कड़े भोजन के िलए ार- ार घूमता फरता है।
कहने का अथ है क धैयवान ही संसा रक सुख का आनंद लेता है और अलौ कक सुख का भी।
म ं म ं सब कोई कहै, मेरी मरै बलाय।
मरना था सो म र चुका, अबको मरने जाय।।

सभी लोग कहते ह क म मर जाऊंगा-मर जाऊंगा, ले कन म ऐसा नह कहता य क मेरे अंदर क जो गंदी
आदत थ ‒ममता, घमंड, लोभ, वासना आ द कब क मर गयी ह। अब मरने के िलए बाक कु छ भी नह है। शरीर
का मरना कोई मरना थोड़े ही है। यह तो न र है, इसे तो मरना ही है ले कन आदत जो आसानी से नह मरत ,
उ ह जो मने मार कर भयमु जीवन कर िलया है।
सब कु छ गु के पास है, पाइये अपने भाग।
सेवक मन स या रहै, रहै चरण म लाग।।

कबीर कहते ह क गु के पास ान का भ डार है ले कन िजसके भा य म िजतना िलखा होता है, उतना ही
ान िमलता है। गु क सेवा करने वाले सेवक को ही गु - ान िमलता है। ान ा करना है तो स ा िश य
बनो।
कबीरा खािलक जािगया, और ना जागे कोय।
जाके िवषय िवष भरा, दास ब दगी होय।।

कबीर कहते ह क इस संसार म ई र जागता है या फर भ जागता है या िवषय-वासना म िल पापी


जागता है। इनके अित र दूसरा कोई नह जागता है।
दया आप दय नह , ान कथे वे हद।
ते नर नरक ही जायगे, सुन सुन साखी श द।।

कबीर कहते ह क िजस ि के दय म दया नह है और वह करता ान- यान क बात है तो ऐसे ि


नरक म ही जाते ह, वे भले ही सौ ान के श द य न सुन ल। दय म जीव मा के ित दया भाव ज री है।
या दुिनया म आयकर, छआंिड़ देय तू ठ।
लेना हो तो लेइले, उठी जात है पठ।।

कबीर कहते ह क हे ाणी! इस दुिनया म आये हो तो घमंड का प र याग कर दो, जो भी ान लेना है, उसे ले
लो, नह तो कब ाण िनकल जाएगा, यह ठीक नह ।
सुख के सागर शील है, कोई न पावै थाह।
शु िबना साधू नह , िबना न हं शाह।।

कबीर कहते ह क सुख का सागर शील है, कोई भी इसक थाह नह पा सकता। ई र-भजन के िबना कोई भी
आदमी साधु का वभाव ा नह कर सकता है और धन के िबना कोई सा कार नह कहला सकता।
समझाये समझे नह , तू पर हाथ िबकाय।
म ख चत ण आपको, चला तू यमपुर जाय।।

कबीर कहते ह क समझाने पर बात समझ म तेरे आती नह और तू ान भी ा करने क कोिशश नह


करता। तू दूसरे के हाथ िबक रहा है और म तुझे अपनी तरफ ख च रहा ,ं फर भी तेरी समझ म नह आ रहा। तू
जाने य यमपुरी क तरफ बढ़ता चला जा रहा है।
मन चलता तन भी चलै, ताते मन को घेर।
तन मन दोउं बिस करै , होय राई सुमेर।।

कबीर कहते ह क मन जब कसी व तु क तरफ चलता है तब शरीर के सम त अंग उसी ओर खंचे चले जाते
ह। तन-मन दोन को वश म करके ही कसी भी काय को िस कया जा सकता है और बेपनाह सुख भी ा
कया जा सकता है।
मनुवा तू फू ला फरै , कहै जो क ं धरम।
को ट करम िसर पर चढ़ै, चेित न देकै मरम।।
हे मन! तू फू ला फरता है क तू ब त अिधक धम-कम कर रहा है ले कन तुझे नह पता क करोड़ कम िसर
पर सवार ह, थोड़े से कम कर खुश होने क ज रत नह है अथात् दुिनया म जो भी करो, वह कम ही है।
कबीर या संसार म, घना मानुष मितहीन।
राम नाम जाना न हं, आये टापा दीन।।

कबीर कहते ह क इस दुिनया म ब तेरे मनु य बुि हीन ह। राम नाम को अभी तक वे जान न पाए और
उ े य हीन भटकते फर रहे ह।
कबीर तहां न जाइये, जहं जो कु ल क हेत।
साधुपनो जानै नह , नाम बाप को लेत।।

कबीर िश ा देते ह क वहां न जाओ, जहां तु हारे कु ल-जाित का संबंध हो। वहां के लोग तु हारे साधुपन या
स नता को पहचानगे नह और न ही तु हारी इ त करगे बि क तु हारे िपता का नाम लेकर तु ह आवाज दगे
अथात् कसी भी ि को स मान उसके पैतृक थान म नह िमलता।
सेवक सेवा म रहै, सेवक किहये सोय।
कह कबीर सेवा िबना, सेवक कभी न होय।।

कबीर कहते ह क सेवक वही है जो सेवा करना जानता हो। सेवा कए िबना कोई सेवक हो ही नह सकता।
कहने का भाव है क सेवक म सेवा भाव होना चािहए।
स गु श द उलंिघ के , जो सेवक क ं जाय।
जहां जाय तहं काल है, कह कबीर समझाय।।

िश य गु क आ ा का उ लंघन करके जहां कह भी जाता है, वहां उसे क -ही-क ा होता है।
जहां ेम तहं नेम नह , तहां न बुिध वहार।
ेम मगन जब मन भया, कौन िगनौ ितिथ वार।।

जहां ेम होता है, वहां कोई बंधन नह होता। वहां बुि भरा वहार नह होता य क जब ेम म म
ि को कु छ पता ही नह होता क आज कौन-सी ितिथ है और कौन-सा दन।
जा घट ेम न संचरै , सो घट जानु मसान।
जौसे खाल लुहार क , सांस लेत िबन ान।।

कबीर कहते ह क िजसके दय म स ा यार नह , उस बेदद के दय को मशान ही जानो जैसे लुहार क


मरी ई खाल क ध कनी िन ाण होकर भी सांस लेती है अथात् ध कनी सांस लेती है तो उसे जंदा नह कहा
जाएगा। ेमहीन दय वाला भी तो सांस लेता ही है ले कन उसका दय भावहीन होता है।
सेव सािलगराम को, माया सेती होत।
पिहरै काली कामरी, नाम धरावै सेत।।

कबीर कहते ह क तू शाली ाम (भगवान) क पूजा करता है और माया के आकषण म भटक रहा है। काली
कमली ओढ़कर सं यासी व भ कहलाता है। वा तव म ही तुम महा अ ानी हो। तुझसे दूर रहने म ही भलाई है।
कहने का भाव है क पूजा करने या व धारण करने से ई र क ाि नह होती।
जाके िज या ब धन नह , दय म नाह सांच।
वाके संग न लािगये, खाले व टया कांच।।

कबीर कहते ह क िजसक जीभ वश म नह अथात् िजसका अपनी जीभ पर िनयं ण नह है और दय म


स य का वास नह है, उसके साथ न रहो। तुझे के वल अपयश ही ा होगा।
सांई आगे सांच है, सांई सांच सुहाय।
चाहे बोले के स रख, चाहे घ ट मु डाय।।

ई र को स य से ेम है यानी सच बोलने वाला ई र को यारा है। तुम बाल बढ़ा लो या िसर मु डवा लो,
उससे कोई फक नह पड़ता। ई र तो उसी को चाहता है, जो स यवादी होता है।
काया काढ़ा काल घुन, जतन जतन से खाय।
काया ब य ईश बस, मम न का ं पाय।।

कबीर कहते ह क लकड़ी पी शरीर को काल पी घुन धीरे -धीरे खा रहा है। शरीर म जो दय है, उसम ही
ई र का वास है। यह रह य सबको मालूम नह है।
दाता दाता चिल गये, रिह गये म खी चूस।
दान मान समझे नह , लड़ने को मजबूत।।

कबीर कहते ह क जो बड़े-बड़े महादानी थे, वे सब तो चले गए और म खीचूस यानी कृ पण ही रह गए ह। ये


कं जूस लोग न तो दान करना जानते ह और न ही दान के मह व को ही जानते ह, ऊपर से लड़ने के िलए हमेशा
तैयार रहते ह।
पाहन पानी पूिज के , पिच मुआ संसार।
भेद अहहदा रिह गयो, भेदवंत सो पार।।

कबीर कहते ह क प थर और पानी को पूज-पूज कर दुिनया के लोग मर गए, फर भी ई रीय शि को जान


नह सके । इस ई रीय शि का ान तो िसफ स गु को है, वही भवसागर से पार उतार सकते ह अथात् स गु
क शरण म जाने क ज रत है। प थर को पूजने से कोई लाभ नह होने वाला है।
धम कये धन ना घटै , नदी न घ ै नीर।
अपनी आंख देिख ले, य किथ कहा हं कबीर।।

धम-कम म धन देने से धन कम नह होता है जैसे नदी से जल िनकालने से उसका जल कम नह होता, वह


फर भी बहती ही रहती है। िव ास नह है तो करके देख लो या खुद अपनी आंख से देख लो अथात् अ छे काय
म धन लगाने से धन का सदुपयोग होता है और कसी-न- कसी प म वह धन वापस ज र िमलता है।
खाय पकाय लुटाय के , क र ले अपना काम।
चलती िब रया रे नरा, संग न चलै छदाम।।

कबीर कहते ह क खा लो, पका लो और शौक तथा अपने सारे मनोरथ पूरे कर लो। इस दुिनया से थान
करते समय तु हारे संग एक पैसा भी नह जाएगा। सब कु छ यह रह जाएगा अथात् जो भी इ छा है कर लो,
तु हारे साथ कु छ भी नह जाने वाला।
काल काल त काल है, बुरा न क रये कोय।
अनबोवे लुनता नह , बोवे लुनता होय।।

कबीर कहते ह क काल कब आ जाए कोई ठीक नह अथात् मृ यु का समय िनि त नह है। इसिलए कोई भी
बुरा काय न करो। जो बीज खेत म नह बोया जाता, वह उगता नह । जो बोया जाता है, वही उगता है अथात् जो
तुम करोगे वही तु ह ा होगा। मृ यु का कोई समय नह है, अ छे कम करो।
ेम पांवरी पिहरी के , धीरज क ल देय।
शील संदरू भराय के , तब िपय का सुख लेय।।

कबीर कहते ह क ेम पी पायल पांव म पहनकर, धीरज पी काजल आंख म लगाकर और मांग म
िवन ता पी संदरू को भरकर ही अपने िपया का यार पाया जा सकता है अथात् ई रीय शि क कृ पा तभी
ा हो सकती है।
आरत है गु भि क ं , सब कारज िसध होय।
करम जाल भौजाल म, भ फं सै न हं कोय।।

तुम अनाव यक इ छा के कारण परे शान हो, तु हारा मन अशांत है तो स गु क शरण म आकर भि
करो। तु हारे मन के सारे संताप दूर हो जाएंगे तथा सब िबगड़े काम सीधे हो जाएंगे। स गु तु ह भवसागर से
िनकलने का माग बताएंग।े गु क शरण म गया कोई भी ि मोह-माया के भौजाल म नह उलझता।
सुख दुख िसर ऊपर सहै, कब ं न छाड़ै संग।
रं ग न लागै और का, ापै सतगु रं ग।।

कबीर कहते ह क सुख-दुख कतना भी आए उसे बदा त करो और इनसे कभी भी िवचिलत न होओ। िवषय-
वासना का रं ग वयं के ऊपर कभी न चढ़ने दो और हमेशा स गु के रं ग म ही रं गे रहो।
साकट का मुख बंब है, िनकसत बचन भुवंग।
ताक औषिध मौन है, िवष न हं ापै अंग।।

कबीर कहते ह क दु कृ ित वाले ि का मुंह सप के िबल क तरह है तथा उसक बोली सप क तरह है,
इसक दवा यह है क ऐसे लोग के सामने चुप रहो, फर उनके वचन पी िवष का भाव शरीर पर नह पड़ेगा
अथात् दु के सामने खामोश रहने म ही वयं का िहत है।
गगन मंडल के बीच म, तहवां झलकै नूर।
िनगुरा महल न पावई, प ंचेगा गु पूर।।

कबीर कहते ह क हर ि के मन म ई रीय काश क आभा नजर आ रही है, पर अ ानी लोग को यह
आभा दखाई नह देती। ानी ही इस आभा क पहचान कर पाते ह। दूसरे लोग तो तरसते ही रह जाते ह।
ऐसा कोई ना िमला, हम को दे उपदेश।
भवसागर म डू बते, कर गिह काढ़े के श।।

कबीर कहते ह क हम ऐसा एक भी ि न िमला जो हम भटके ए को ान का उपदेश देकर सही माग पर


ले आएं या हम भवसागर म डू बे असहाय को बाल पकड़कर बाहर ख च ल।
कहने का भाव है क भटके ए असहाय लोग को कोई भी स ाग नह दखाता।
जल परमानै माछली, कु ल परमानै शुि ।
जाको जैसा गु िमला, ताको तैसी बुि ।।

जैसे सरोवर म जल क मा ा के अनुसार छोटी-बड़ी मछिलयां होती ह, वैसे ही अपने कु ल के अनुसार ि म


अ छाई-बुराई होती है। कबीर कहते ह क िजसको जैसा गु िमलता है वैसी ही उसक बुि होती है अथात् वैसा
ही उसे ान ा होता है।
ह रया जानै खड़ा, उस पानी का नेह।
सूखा काठ न जािन है, कत ं बूड़ा मेह।।

कबीर कहते ह क पेड़ पानी के उ म गुण के कारण हरा-भरा रहता है। ले कन सूखी लकड़ी पानी के गुण को
नह जानती, भले ही उसे कतना ही पानी म डू बो दो अथात् स गु के ान को वही लोग हण कर पाते ह, जो
ान ा करना चाहते ह।
च ं दस पाका कोट था, मि दर नगर मझार।
िखरक िखरक पाह , गज बंधा दरबार।।

चार दशा म प े भवन बने थे, उसके म य म आवास था। हर िखड़क पर पहरे दार खड़े थे। मु य ार पर
हाथी बंधा आ था, फर भी मृ यु ने नह ब शा। चुपके से वह आयी और आ मा को िलए चली गई।
हम जाने थे खायगे, ब त िजम ब माल।
य का य ही रह गया, पकिड़ ले गया काल।।

आदमी सोचता है क हमारे पास धन-संपि और सारे सुख के साधन ह। हम इसका पूरा आनंद लगे और मौज
से रहगे ले कन उसका यह सोचना धरा-का-धरा रह गया, जब मौत उसे लेकर चली गई। उसका धन, दौलत,
जमीन, माल सब यह रह गया। सोचना थ है।
करनी िबन कथनी कथै, अ ानी दन रात।
कू कर सम भूकत फरै , सुनी सुनाई बात।।

कबीर कहते ह क जो लोग भि करते नह ले कन उपदेश देते फरते ह क फलां काय ठीक है, अमुक काय
खराब है, उनक बात म कोई स ाई नह होती है। वे िसफ सुनी-सुनाई बात को कु क तरह भ कते फरते ह।
उनक बात म कोई दम नह होता है।
नह दीन न हं दीनता, संत नह िमहमान।
ता घर जम डेरा कया, जीवत भया मसान।।

कबीर कहते ह क जो ि सुशील नह है और न उसम िवन ता है, िजसके घर साधु-संत का स कार नह


होता है, ऐसे ि का घर मशान क तरह होता है। वहां कभी भी बरकत नह होती। खुिशयां उस घर से सदा
के िलए ठ जाती ह।
सुिमरन तू घट म करै , घट म ही करतार।
घट भीतर ही पाइये, सुरित श द भ डार।।

कबीर कहते ह क हे ाणी! तू अपने दय के अंदर भगवान सुिमरन कर। दय म ही भगवान है, हर ि के
दय म ही स े ान का भ डार है। अथात् ई र हर ि के दय म ही है।
अपने अपने साख क , सब ही लीनी मान।
ह र क बात दुरनतरा, पूरी ना क ं जान।।

कबीर कहते ह क ई र को समझना आसान नह ह। िजस कसी ने भी यह मान िलया क उसने ई र के


रह य को जान िलया और उसके समान कोई ानी नह है, तो वह परमा मा को कभी जान नह पाता है। उसे
ान से नह बि क भि से ा कया जा सकता है।
आहार करे मन भावता, इं ी क ए वाद।
नाक तलक पूरन भरे , तो किहए कौन साद।।

कबीर कहते ह क जो इं य को तृ करने के िलए ठूं स-ठूं सकर भोजन करता है तो उसे साद कै से कहा जा
सकता है। इं य को वश म रखकर थोड़ा भोजन करना ही वा य के िलए े है।
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर।
तब लग जीव जग कमवश, जब लग ान न पूर।।

जब तक सूरज उदय नह होता है, तब तक तारे आसमान म नजर आते ह, उसी कार जब तक जीव को ान
क ाि नह हो जाती तब तक वह कम के वशीभूत रहता है और मोह-माया म िल होकर तरह-तरह के क
को झेलता आ जीवन-मरण के च ूह म मण करता रहता है।
सुिमरन सुरत लगाय कर, मुख से कछू न बोल।
बाहर का पट ब द कर, अ दर का पट खोल।।

अपना यान ई र म लगाओ। भु को याद करो ले कन मुंह से कु छ न कहो। बाहर क दुिनया से कोई संबंध न
रखो और अंदर के ानच ु को खोल दो। ई र से जुड़ने का यही एकमा माग है।
कहा कया हम आय के , कहा करगे जाय।
इतके भये न ऊत के , चाले मूल गवाय।।

कबीर कहते ह क हमने दुिनया म आकर या कया और हम जाकर या करगे। हमने न तो दुिनयादारी का
ही आनंद िलया और न ही स गु का ही सुिमरन कया। हम न तो इधर के रहे और न उधर के रहे। बड़े भा य से
तो यह मानुष तन िमला और उसे यूं ही गंवा दया।
सब जग डरपै काल से, ा िव णु महेश।
सुर मुिन औ लोक सब, सात रसातल सेस।।

कबीर कहते ह क पूरा संसार काल से डरता है। ा, िव णु, महेश भी काल क गित से डरते ह। देवता और
मुिन भी तथा सात लोक के नीचे रहने वाले शेषनाग भी काल क गित से डरते ह।
मन दाता मन लालची, मन राजा रं क।
जो यह मन गु सो िमलै, तो गु िमले िनसंक।।

कबीर समझाते ए कहते ह क मन दाता है, मन लालची है, मन राजा है और मन िभखारी भी है। अगर इस
मन को स गु िमल जाए तो ि भवसागर से पार हो जाए।
कबीर माया खड़ी, दो फल क दातार।
खावत खरचत मुि भय, संचत नरक दुआर।।

कबीर कहते ह क यह माया दो फल (नरक- वग) को देने वाला वह पेड़ है, िजसे सावधानीपूवक खाने और
खच करने से मो के दरवाजे खुल जाते ह तथा सं ह करने पर ि नरक को ा करता है।
कहने का भाव है क माया यानी धन को सं ह न कर उसे दान, पु य, परोपकार, पूजा आ द म य करना
आव यक है।
कं चन तजना सहज है, सहज ित रया का नेह।
मान बड़ाई ईरषा, दुरलभ तजनी येह।।

कबीर कहते ह क कं चन यानी वण को छोड़ना सहज है। ी के मोह को छोड़ना भी सहज है, ले कन मान,
शंसा, ई या आ द का याग करना इतना सहज नह है। ब त क ठन है। इनका याग तभी कर सकते हो जब
स ा गु िमल जाए।
जौन िमला सो गु िमला, चेला िमला न कोय।
चेला को चेला िमलै, तब कछु होय तो होय।।

कबीर कहते ह क मुझसे अब तक जो भी िमला, वह गु ही िमला। िश य के तौर पर कोई नह िमला।


बुि मान व ानी िश य को अगर ानी िश य िमल जाए तो कु छ बात बन सकती है अथात् तभी वे एक दूजे को
ान बांट सकते ह।
दुख लेने जावै नह , आवै आचा बूच।
सुख का पहरा होएगा, दुख करे गा कू च।।

कबीर कहते ह क दुःख लेने कोई नह जाता, वह तो अचानक ही अपने-आप आ जाता है। जब सुख आएगा तो
दुःख अपने-आप ही चला जाएगा अथात् सुख-दुःख दोन मनु य के साथ रहते ह। दुःख के बाद सुख अव य ही
आता है। दुःख से घबराना नह चािहए।
िलखा िमटै न हं करम का, गु कर भज ह रनाम।
सीधे मारग िनत चलै, दया धम िवसराम।।

कबीर कहते ह क भा य म जो िलखा है, वह िमटता नह है चाहे तुम कोई भी उपाय कर लो। स गु क शरण
म जाओ और अ छे माग पर चलो तथा दया, धम अपनाकर मो का रा ता ढू ंढ़ो। इसी म तु हारा क याण है।
जग म बैरी कोई नह , जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।

कबीर कहते ह क इस संसार म दु मन कोई नह हो सकता अगर तु हारा मन शीतल है। जो अिभमान है उसे
छोड़ दो तो तुम पर सभी दया करगे अथात् मन से अिभमान िनकाल दो और मन को ि थर रखो। फर सारा
संसार तु हारा है।
राम नाम ची हा नह , क ना पंजर बास।
नैन न आवे नीदर , अलग न आवे मास।।

कबीर कहते ह क राम के नाम का सुिमरन कया नह और के वल शरीर को सजाया-संवारा। ऐसे अ ानी
ि को न तो न द आती है और न ही चैन िमलता है अथात् अ ान क न द उ ह ही अपने वश म करती है, जो
ई र को नह जानते ह।
ऋि िसि मांगौ नह , मांगौ तुम पै येह।
िनिस दन दरशन साधु को, भु कबीर क ं देह।।
हे ई र! म तुमसे ऋि -िसि नह मांग रहा और न ही मुझे इन सब क इ छा ही है। ित दन मुझ साधु
को हे भु दशन देते रहो। यही मेरी अिभलाषा है और आपसे बस इतनी ही िवनती है।
जाके मुख माथा नह , नाह प कु प।
पु प बास ते पामरा, ऐसा त व अनूप।।

तो िनराकार है‒न उनका कोई मुख है, न माया है और न वह सु दर है न कु प ह। वह िनराकार तो


फू ल क खुशबू क तरह है, िजनको देखा तो नह जा सकता, पर अपने आस-पास महसूस कया जा सकता है।
जा कारण घट ढू ं ढया, सो तो घट ही मा हं।
परदा क या भरम का, ताते सूझे ना हं।।

तुम िजस ई र को सारी दुिनया म तलाश रहे हो, वह तो तु हारे दय म ही है, म के पदा के कारण वह
तु ह नजर नह आ रहा है। अपने मन से अ ान का पदा हटाकर भीतर क आंख से देखो। ई र तु हारे अंदर ही
बैठा नजर आएगा।
जल य यारा माछरी, लोभी यारो दाम।
माता यारा बालका, भ न यारा नाम।।

मछली को जल से ेम होता है। लोभी धन-दौलत से ेम करता है, माता अपने बालक से ेम करती है और
भ जन जो ह, वे ई र के नाम से ेम करते ह। ेम का व प एक है ले कन पा जो ह, उनका ेम करने का
मकसद िभ -िभ है।
साधु तो हीरा भया, न फू टै घन खाय।
न वह िबनसै कु भ य , ना वह आवै जाय।।

कबीर कहते ह क जो साधु कृ ित के ि होते ह, वे हीरा के समान होते ह। िजस तरह से हीरा हथौड़े क
चोट खाने के बाद भी नह फू टता है, उसी तरह से साधु-सं यासी भी िवषम से िवषम हालात म िवचिलत नह
होते ह। वे क े घड़े क तरह नह होते ह, इसी कारण वे ज म-मृ यु के बंधन से मु हो जाते ह।
दोय बखत न हं क र सके , दन म क इक बार।
कबीर साधु दरशते, उतरे भौजल पार।।

कबीर कहते ह क दन म दो बार नह तो दन म एक बार साधु-सं यािसय का दशन ज र करो। ई र का


भजन-क तन करने वाल का दशन करने से पाप तो धुलते ही ह, साथ ही भवसागर से भी नैया पार हो जाती है।
कबीर मुख सोई भला, जा मुख िनकसै राम।
जा मुख राम न नीकसै, ता मुख है कस काम।।

कबीर कहते ह क वह मुंह भा यशाली है, िजस मुंह से राम के नाम का उ ारण आ करता है। िजस मुंह से
राम का नाम नह िनकलता है, वह मुंह कसी काम का नह है।
कबीर ह र के िमलन क , बात सुनी हम दोय।
कै कछु ह र को नाम ले, कै कर ऊंचा होय।।

कबीर कहते ह क ह र के िमलन क हमने दो बात सुनी ह। एक तो ह र के नाम का सुिमरन करो। दूसरा
साधना करो या परोपकार करो। ह र को ा करने के ये दो आसान उपाय ह।
कोई न जम से बांिचया, राम िबना ध र खाय।
जो जन िबरही राम के , ताको देिख डराय।।

कबीर कहते ह क इस दुिनया म जम यानी मृ यु से कोई नह बच सकता। िजसने भी राम नाम का सुिमरन
नह कया है, उसको यम पकड़कर खा जाता है। ले कन जो ि राम का भ है, उसको देखकर वह डर जाता
है अथात् ई र क शरण म जो चले गए ह, उनका काल भी कु छ नह िबगाड़ सकता।
िमलना जग म क ठन है िमिल िबछरौ जिन कोय।
िबछु रा साजन ितिह िमलै, िजिह माथै मिन होय।।

कबीर कहते ह, िमलना क ठन है और िबछु ड़ना आसान है। अगर स गु िमल जाए तो उससे िबछड़ना नह
य क िबछड़े ए वे ेमी स गु से िमल पाते ह, िजनके माथे पर मिण होती है अथात् िजनम भगवान को मनाने
क मता होती है।
जीवन जोबन राज मद, अिवचल रहै न कोय।
जु दन जाय स संग म, जीवन का फल सोय।।

कबीर कहते ह क जीवन, जवानी और रा य का गव‒ये ि थर नह ह। ये कु छ समय तक ही रहते ह, फर


वापस चले जाते ह। जो दन स न के संग-साथ म बीत जाएं, वही असली जीवन क पूंजी ह।
कबीर कु संग न क िजए, पाथर जल न ितराय।
कदली सीप भुजंग मुख, एक बूंद ितर भाय।।

कबीर कहते ह क बुरे लोग क सोहबत म न रिहए य क प थर कभी जल पर नह तैरता, जैसे वाित
न के जल क बूंद के ले म पड़ती है तो कपूर बनता है, सीप म पड़ती है तो मोती बनता है और सांप के मुख म
पड़ती है तो जहर बनता है। कहने का भाव है क जैसे लोग के साथ रहोगे, वैसा ही फल भी िमलेगा।
ानी को ानी िमलै, रसक लूटम लूट।
ानी अ ानी िमलै, होवै माथा फू ट।।

कबीर कहते ह क एक ानी से दूसरा ानी िमलता है तो उनक बात से अमृत पी ान क वषा होती है
ले कन ानी ि अ ानी से िमलता है तो वैचा रक मतभेद के कारण झगड़ा जैसी ि थित पैदा हो जाती है।
माया मुई न मन मुआ, म र म र गया शरीर।
आशा तृ णा ना मुई, य किथ कह कबीर।।

कबीर कहते ह क न तो मन से माया गई और न मन यानी इ छाएं ही मर अथात् धन जमा करने क भूख


नह गई भले ही शरीर ने बार-बार इस धरती पर ज म िलया।
कहने का भाव है क माया का प र याग करो तभी स ित होगी।
भग भोगै भग ऊपजै, भगतै बचै न कोय।
कह कबीर भगते बचै, भ कहावै सोय।।

कबीर कहते ह क िवषय-वासना का भोग िजतना ही अिधक होता है इ छाएं और अिधक बल होती चली
जाती ह और इससे बचा कोई नह है। जो इससे बच जाता है, वही स ा भ कहलाता है।
कहने का भाव है क स ा भ वही है, जो िवषय-वासना से मु है।
काम कहर असवार है, सबको मारै धाय।
कोई एक ह रजन ऊबरा, जाके नाम सहाय।।

कबीर कहते ह क िवषय भोग यानी काम-भावनाएं सब पर ही सवार ह, िजसने सबको िमत कर रा ते से
भटका दया है। कोई एक ह र भ ही इससे बचा रह पाता है, िजसे ई र के नाम का सहारा ा है।
सब बन तो तुलसी भई, परबत सािलगराम।
सब न दयां गंगा भई, जाना आतम राम।।

कबीर कहते ह क सभी वन तुलसी हो गए और सारे पवत शािल ाम बन गए। सब न दयां गंगा बन ग । यह
सब तब आ जब स ा ान ा हो गया।
कहने का भाव है क स ा- ान ि के मन को िनमल कर देता है और सारा संसार उसे अ छा ही दखता
है। स ान ा कर अपना िवचार शु करो।
ेम िबकांता म सुना, माथा साटै हाट।
पूछत िबलम न क िजए, तन िछन दीजै काट।।

कबीर कहते ह क मने सुना है क ेम िबकता है ले कन वह पये-पैसे से नह िबकता है। ेम पाने के िलए
पहले शीश काटकर देना होता है। ेम बेशक मती है और इसका कोई मोल नह है। यह तो ेम से ही खरीदा जा
सकता है।
फल कारण सेवा करे , करे न मन से काम।
कह कबीर सेवक नह , चहै चौगुना दाम।।

कबीर कहते ह क वाथवश जो ि सेवा करता है, िनः वाथ सेवा नह करता है, वह सेवक नह । जो
मांगता हो चौगुना दाम वह सेवक हो ही नह सकता, वह तो िब कु ल ही वाथ है।
पानी फे रा बुदबुदा, अस मानस क जात।
देखत ही िछप जायेगा, य सारा परभात।।

कबीर कहते ह क मनु य का जीवन पानी के बुलबुले क भांित है, जो देखते-ही-देखते बुझ जाता है, जैसे सुबह
होते ही आकाश म चमकते तारे कह िछप जाते ह और लाख देखने पर भी कह नजर नह आते ह। इस शरीर पर
गुमान या करना।
गु नाम है ग य का, शीष सीदा ले सोय।
िबनु पद िबनु मरजाद नर, गु शीष न हं कोय।।

कबीर कहते ह क जो स य का ान करवाए वही गु है और िश य वही है, जो गु का कहना माने। गु और


िश य के पद-मयादा के िबना न तो कोई गु है और न ही कोई िश य है।
बिलहारी गु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार।
मानुष से देवत कया करत न लागी बार।।

वे गु ध य ह, िज ह ने थोड़े से यास से ही मानव से देवता बना दया।


नह शीतल है च मा, िहम नह शीतल होय।
कबीरा शीतल स त जन, नाम सनेही सोय।।

कबीर कहते ह क न तो ठं डक चं मा म है और न ही बफ म ठं डक है। शीतलता तो संत म है, जो ई र को


परमि य ह। कहने का भाव है क ई र-भजन म स ा सुख है।
सुमरण क सुबय करो य गागर प रहार।
होलेे-होले सुरत म, कह कबीर िवचार।।

कबीर कहते ह क पिनहारी क नजर गागर पर से एक पल के िलए भी नह हटती है, उसी तरह से तुम भी हर
पल ई र क भि म ही लीन रहो। खाते-पीते, उठते-बैठते सोते-जागते बस ई र के नाम का ही सुिमरन करो।
सब आए इस एक म, डाल-पात फल-फू ल।
किबरा पीछा या रहा, गह पकड़ी जब मूल।।

कबीर कहते ह क डाल, प ,े फल-फू ल जड़ के कारण ही लगते ह। तुमने जड़ को अपने वश म कर िलया तब


रह ही या जाता है। भगवान पर यक न करो।
यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा क जो।
बाप-पूत उरभाय कै , संग ना काहो के हो।।

कबीर कहते ह क यह माया ब त ही चूहड़ी है अथात् नीच कृ ित क है। बाप-पूत ( -जीव) दोन को अपने
मोहपाश म फं सा रखा है। ले कन यह कसी क भी सगी नह है। इस नीच कृ ित वाली माया से बचो और इसके
मोिहनी प म न आओ।
जहर को जम म है रोपा, अभी ख चे सौ बार।
किबरा खलक न तजे, जामे कौन िवचार।।

कबीर कहते ह क जब तूने धरती म जहर को बोया है तो सागर से अमृत ख चने से कोई लाभ नह होने
वाला। दु अपनी दु ता कहां छोड़ता है। उसम सोचने-िवचारने क शि कहां होती है।
कबीर जात पुकाया, चढ़ च दन क डार।
बाट लगाए ना लगे फर या लेत हमार।।

कबीर कहते ह क मने चंदन क डाल पर चढ़कर जाते ए राही को सही रा ता दखाया, पर जो सही रा ते
पर नह जाता तो मत जाए। वह हमारा या लेता है?
लोग भरोसे कौन के , बैठे रह उरगाय।
जीय रही लूटत जम फरे , मढ़ा लूटे कसाय।।

कबीर कहते ह क समझ म नह आता लोग कसके भरोसे बैठे ए ह, वे यान-पूजन कर अपने जीवन को य
नह सुधारते। जैसे बकरे को कसाई मारता है, वैसे ही जीव को यम मारने के िलए अवसर क ताक म बैठा है। हे
ाणी! मृ यु कभी भी आ सकती है। भु क शरण म आ जाओ।
मूख मूढ़ कु क मय , िनख िसख पाखर आही।
ब धन कारा का कर, जब बांध न लागे ताही।।

कबीर कहते ह क िजस ि को लाख समझाने पर भी कोई ान न हो, उसको ान देना थ है य क वह


तो मूख और जड़ के समान है, उस पर क ह भी बात का असर नह होने वाला।
ेमभाव एक चािहये, भेष अनेक बनाय।
चाहे घर म वास कर, चाहे बन को जाय।।

कबीर कहते ह क मनु य को बस ेम-भाव क ज रत है। अनेक भेष धरो, घर म रहो या जंगल म चले जाओ।
तुमम बस ेम-भाव चािहए अथात् तुम कह पर भी जाओ तु हारे दय म ेम-भाव चािहए। ेम-भाव के िबना
मनु य का जीवन थ है।
एक ते अन त अ त एक हो जाय।
एक से परचे भया, एक मोह समाय।।

कबीर कहते ह क एक अनेक है और अनेक एक है। ई र भी एक है। ई र से जब तु हारा प रचय हो जायेगा


तब तुम उस एक ई र म ही समा जाओगे।
आशा का धन करो, मनशा करो बभूत।
जोगी फे री य फरो, तब वन आवे सूत।।

कबीर कहते ह क तु ह ई र को ा करना है तो आशा और तृ णा को फूं ककर बभूत यानी राख बना के
जोगी क तरह फे री करो तब तु ह ई र का स ा ान होगा।
आग जो लगी समु म, धुआ ना कट होय।
सो जाने जो जरमुआ, जाक लाई होय।।

कबीर कहते ह क जब समु म आग लगती है तो धुआं भी नजर नह आता। िजसके दल म आग लगती है या


तो वह जानता है या जो आग लगा है, वह जानता है। दल क आग का ान तीसरे को नह होता।
अटक भाल शरीर म, तीर रहा है टू ट।
चु बक िबना िनकले नह , को ट पठन को फू ट।।

कबीर कहते ह क यो ा के शरीर म भाले क न क टू टकर अटक गई है और वह चु बक के िबना नह िनकलने


वाली वैसे ही मन म जो बुराई है, वह स गु पी चु बक के िबना नह िनकलने वाली।
अ तरयामी एक तुम, आतम के आधार।
जो तुम छोड़ो हाथ तौ, कौन उतारे पार।।

कबीर कहते ह क हे ई र, तुम अ तयामी यानी मन क बात जानने वाले हो तथा आ मा का पोषण करने
वाले हो। अगर तुम मेरा हाथ छोड़ दोगे तो मुझे भवसागर से कौन पार उतारे गा।
आस पराई राखता, खाया घर का खेत।
औरन को पथ बोधता, मुख म डारे रे त।।

कबीर कहते ह क तुम दूसर क देखभाल करते हो और अपना यान तिनक भी नह रखते हो। दूसर को ान
का रा ता दखाते हो और खुद रे तीले रा ते क तरफ बढ़ते जा रहे हो। अथात् दूसर को परमा मा का ान करा
रहे हो और खुद ई र-भजन से दूर य हो। वयं का भी यान रखो।
य नैनन म पूतली, य मािलक घर मा हं।
मुख लोग न जािनए, बाहर ढू ंढ़त जा हं।।
कबीर कहते ह क जैसे आंख म पुतली रहती है और भु के संसार को देखती है, ले कन वयं को नह , वैसे ही
मूख लोग ई र को अपने भीतर देख नह पाते और बाहर उसे ढू ंढ़ते फरते ह।
जहां आप तहां आपदा, जहां संशय तहां रोग।
कह कबीर यह य िमट, चार बाधक रोग।।

कबीर कहते ह क जहां पर अिभमान है, वह पर मुसीबत ह, जहां संशय है, वह पर रोग है। ये चार घातक
रोग भु भजन से ही िमट सकते ह।
तीरथ गए से एक फल, स त िमलै फल चार।
सतगु िमले अिधक फल, कहै कबीर िवचार।।

कबीर कहते ह क आदमी तीथ पर जाता है तो उसे एक फल क ाि होती है। वह संत से िमलता है तो उसे
चार फल क ाि होती है ले कन जब स गु िमलता है तो अिधक फल क ाि होती है अथात् स गु से
आ मा का िमलन आव यक है।
ते दन गए अकारथी, संगत भई न संत।
ेम िबना पशु जीवना, भि िबना भगवंत।।

कबीर कहते ह क स संग के िबना िजतना जीवन बीत गया वह थ ही गया। ई र के ेम व भि के िबना
यह जीवन पशु के समान ही है। ई र से जीव का लगाव ज री है।
राम िपयारा छािड़ क र, कै र आन का जाप।
बे या के रा पूंत यूूं, कहै कौन सू बाप।।

कबीर कहते ह क पूण को छोड़कर जो दूसरे देवी-देवता क पूजा करता है, उसको या कहा जाए?
अब वे या का पु कस को अपना िपता माने अथात् दुिवधा म रहने पर मनु य को गित नह िमलती है। मो के
िलए पूण को पहचानना आव यक है।
अंखिड़यां झाई पड़ी, पंथ िनहारी-िनहारी।
जीभिड़यां छाला प या, राम पुका र-पुका र।।

कबीर कहते ह क रा ता देखते-देखते आंख म झाई पड़ गयी और राम को पुकार-पुकारकर जीभ पर छाला
पड़ गया, फर भी भु दशन नह हो सका। ई र दशन भला कै से हो जब अ ान का अंधेरा दय पर छाया है।
सब रग तंत रबाब तन, िबरह बजावै िन ।
और न कोई सुिण सकै , कै सांई के िच ।।

कबीर कहते ह क एक-एक नस तांत हो गई है और सारा शरीर सरोद बन गया है तथा इसे बजाने वाला
िवरह है। इसे दूसरा कोई नह सुनता है या तो परमा मा सुनता है या वह िवरही मन।
जो रोऊँ तो बल घटै , हँसूं तो राम रसाइ।
मन ही मा हं िबसूरणा, यूँ घुँण काठ हं खाइ।।

कबीर कहते ह क म रोता ं तो शि कम होती है और हंसता ं तो राम नाराज होते ह। मन-ही-मन म


सुबकना अ छा है जैसे घुन लकड़ी को अंदर-ही-अंदर खाता रहता है और एक दन उसे खोखला कर देता है।
कबीर ने यहां जीव क िववशता का वणन कया है।
‘कबीर’ हसँणां दू र क र, क र रोवण सौ िच ।
िबन रोयाँ यूँ पाइये, ेम िपयारा िम व।।

कबीर कहते ह क हंसना छोड़ो और रोने म ही मन लगाओ। िबना रोए यारा िम भला कसी को कै से िमल
सकता है अथात् भु के िवरह म रोओ तभी वह तरस खाकर अपनी कृ पा क बा रश करगे।
सुिखया सब संसार है, खावै और सौवे।
दुिखया दास कबीर है, जागै अ रौवे।।

कबीर कहते ह क यह संसार सुखी है खाता है और सोता है ले कन दास कबीर तो दुःखी है, रात भर जागता है
और दन भर रोता है।
परबित परबित म फया, नैन गँवाए राइ।
सो बूटी पाऊँ नह , जात जीविन होइ।।

कबीर कहते ह क पवत-पवत म फरता रहता ं और रो-रोकर आंख को भी गंवा दया है ले कन वह बूटी
मुझे िमलती नह , िजससे मेरा जीवन सफल हो जाए।
पूत िपयारी िपता क , गौहिन लागो घाइ।
लोभ-िमठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाइ।।

कबीर कहते ह क िपता का यारा पु दौड़ते ए उसके पीछे लग गया। िपता ने लोभ क िमठाई उसके हाथ
म दे दी। पु िमठाई के वाद म इतना मशगूल हो गया क वयं म ही रम गया और नतीजा यह आ क िपता का
साथ छू ट गया।
कहने का भाव है क इस संसार म माया क िमठाई सब के ही हाथ म है। सभी इस िमठाई के वाद म इतने
रम गए ह क परमा मा का साथ छू ट गया है।
जािन बुिझ सँच हं तज, करै झूठ सूँ ने ।
ता क संगित राम जी, सुिपने ही िपिन दे ।।

कबीर कहते ह क जो ि जान-बूझकर सच का याग कर देता है और झूठ से ेम संबंध बना लेता है, उसका
साथ हे भु, व म भी कभी न देना।
‘कबीर’ तास िमलाइ, जास िहयाली तू बसै।
न हंतर बेिग उठाइ, िनत का गंजर को सहै।।

कबीर कहते ह क मेरे भु, तुम मुझे कसी ऐसे ि से िमला दो िजसके दय म तुम रहते हो। ऐसा नह कर
सकते तो मुझे आज ही इस दुिनया से उठा ले। रोज-रोज का यह क अब मुझसे सहा नह जाता है।
‘कबीर’ बन-बन म फरा, कारिण आपणै राम।
राम सरीखे जन िमले, ितन सारे सवेरे काम।।

कबीर कहते ह क म अपने राम क तलाश करते-करते एक जंगल म आ गया वहां मेरे राम के समान एक भ
िमल गए, उ ह ने मेरे सारे िबगड़े काम बना दए।
‘कबीर’ तन पंषो भया, जहाँ मन वह उिड़ जाइ।
जो जैसी संगित करै , सो तैसे फल खाइ।।

कबीर कहते ह क यह शरीर जैसे िचिड़या बन गया है जहां इ छा करे वहां उड़ा ले जाता है। जो जैसे लोग के
साथ रहता है उसी के अनुसार उसे फल भी िमलता है।
‘कबीरा’ खाई कोट क , पानी िपवै न कोई।
जाइ िमलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ।।

कबीर कहते ह क चार तरफ से कले से िघरी खाई का पानी कोई नह पीता और जब वही खाई गंगा से जा
िमलती है तब उसका जल सब पीते ह और उसको गंगोदक कहकर उसका स मान बढ़ाते ह।
माषी गुड़ म गिड़ रही, पंख रही लपटाई।
ताली पीटै िस र धुनै, मीठै बोई माइ।।

कबीर कहते ह क म खी गुड़ म गड़ी ई है और पंख उसके गुड़ से िचपके ह। वह अब उड़ नह पा रही। बेचारी
गुड़ क िमठास के लोभ म वह अपनी जान ही गंवा बैठी। लाख कोिशश करने के बाद गुड़ क िचपिचपाहट से
वयं को मु नह करा सक । यह गुड़ पी दुिनया भी ऐसी ही है।
‘कबीर’ मा ं मन कूँ , टू क-टू क है जाइ।
िबव क यारी बोइ क र, लुणत कहा पिछताइ।।

कबीर कहते ह क यह मन ही सारे फसाद क जड़ है। म इस को ऐसा मा ं गा क टु कड़े-टु कड़े हो जाएगा। यह


मन का ही कया-धरा है क जीवन पी उपवन म जहर बो दया। अब अफसोस करने से कु छ नह होता, उन
कम क सजा अब भुगतनी ही पड़ेगी।
कागद के री नाव री, पािण के री संग।
कहै कबीर कै से ित ँ , पंच कु संगी संग।।

कबीर कहते ह क कागज क यह नाव है तथा चार तरफ पानी-ही-पानी है। फर पांच कु संिगय (पांच
इं य ) का साथ है। समझ म नह आता म कस तरह से इस भवसागर को पार कर सकूं गा।
म म ता मन मा र रे , घट ही माह घे र।
जबह चालै पी ठ दे, अंकुस दै-दै फे र।।

कबीर कहते ह क मन पी मदम त हाथी को घर म ही घेरकर काबू म कर लो। वह जब भी पैर उठाए, उसे
अंकुश दे-देकर मोड़ दो। तभी यह ि थर रहेगा।
मनह मनोरथ छाँिड़ये, तेरा कया न होइ।
पािण म घीव नीकसै, तो खा खाइ न कोइ।।

कबीर कहते ह क हे ाणी! तू अपनी इ छा का याग कर दे य क तेरा सोचा आ नह होगा। य द पानी


म घी िनकलता तो खी रोटी को कोई नह खाता अथात् जो कु छ भी है, वह परमा मा के हाथ म है, आदमी के
वश म कु छ भी नह है।
इक दन ऐसा होइगा, सब सूँ पड़े िबछोइ।
राजा राणा छ पित, सावधान कन होइ।।

कबीर कहते ह क एक दन ऐसा होगा क सबसे िबछड़ जाना ही होगा। फर बड़े-बड़े राजा और छ धारी
राजा सावधान य नह हो जाते? यही तो कसी के वश म नह है। मौत से भला कोई कै से सावधान हो सकता
है।
िबन रखवाले बािहरा, िचिड़या खाया खेत।
आधा-परधा ऊबरै , चेित सकै तो चैित।।

कबीर कहते ह क खेत का रखवाला कोई नह है। िचिड़य ने खेत को काफ कु छ हद तक चुग िलया है। अभी
से भी समय है। सावधान हो जा, जो आधा बचा है, वह तो कम-से-कम बच जाए।
ना हा कातौ िच दे, महँगे मोल िबलाइ।
गाहक राजा राम है, और न नेडा आइ।।

कबीर कहते ह क मन लगाकर महीन सूत चरखे पर कातो, वह महंगे दाम पर िबके गा। उसके ाहक तो राजा
राम ह, दूसरा तो इसके पास भी नह आने वाला।
‘कबीर’ के वल राम क , तू िजिन छाँडै ओट।
घण-अहरिन िबिच लौह यूँ, घणी सहै िसर चोट।।

कबीर कहते ह क राम क ओट को तुम कभी मत छोड़ो। इसे छोड़ दया तो तु हारी वही हालत होगी जो
हथौड़े और िनहाई के बीच आकर लोहे क होती है। उसे चोट-पर-चोट सहनी पड़ती है अथात् हालात के हथौड़
क मार से राम क ओट ही तु हारी र ा कर सकती है।
कै सो कहा िबगािड़या, जो मुँडै सौ बार।
मन को काहे न मूँिड़ये, जामै िवषम-िवकार।।

कबीर कहते ह क इन बाल ने या िबगाड़ा है क सकड़ बार ही उ ह मुंड़वा दया। अरे बाबले, अपने मन को
मुंड़ो, िजसम दोष-ही-दोष भरे ह।
चतुराई ह र ना िमलै, ए बाताँ क बात।
एक िनस ेही िनरधार का गाहक गोपीनाथ।।

कबीर कहते ह क ान के मा य से ई र को ा नह कया जा सकता। गोपीनाथ तो ेम का भूखा है। उसे


ा करने के िलए बस एक ेम ही आधार है और वह परम िपता बस ेम का ही ाहक है। उसके आगे चालाक
काम नह करती। सारा ान धरा-का-धरा ही रह जाता है।
ेममय भि से ही गोपीनाथ को रीझाया जा सकता है।
संह के लेहँड नह , हंस क नह पांत।
लाल क निह बो रयाँ, साथ न चलै जमात।।
कबीर कहते ह क संह का कोई झुंड नह होता और हंस क कोई कतार नह होती। लाल बो रय म नह
रखे जाते और साधु मंडली को लेकर कभी नह चलते।
िज हं िहरदै ह र आइया, सो यूँ छानाँ होइ।
जतन-जतन क र दािबये, तऊ उजाला सोइ।।

कबीर कहते ह क िजसके दय म ई र आ गया है, फर वह उसे कै से िछपा सकता है। दीपक को कतने ही
उपाय करके िछपाओ, फर भी उसक रोशनी से उजाला तो हो ही जाता है।
कबीर ह र सब कूँ भजै, ह र कूँ भजै न कोइ।
जब लग आस सरीर क , तब लग दास न होइ।।

कबीर कहते ह क ह र तो सब को याद करता है ले कन ह र को कोई नह याद करता। जब तक शरीर से नेह


है और िवषय-वासना के ित मोह है, कोई ह र का स ा भ हो ही नह सकता है।
रोड़ा है रहा बाट का, तिज पाखंड अिभमान।
ऐसा जे जन वै रहै, तािह िमलै भगवान।।

पाखंड और अिभमान को मन से िनकालकर तू रा ते का कं कड़ बन जा। इस तरह से जो आदमी रहता है, उसे


ही भगवान क भि ा होती है।
सांई मेरा वािणयाँ, सहित करै ौपार ।
िबन डाँडी िबन पालड़ै, तौले सब संसार।।

कबीर कहते ह क मेरा सांई बिनया है, जो सहज प से ापार करता है। िबना डांडी, पलड़े के ही तराजू पर
सारे संसार को तौलता है और अ याय कसी के साथ भी नह करता है।
‘कबीर’ ह र कग नाव सू,ँ ीित रहै इकवार।
तौ मुख त मोती झड़ै, हीरे अ त न पार।।

कबीर कहते ह क अगर ई र के ित ेम लगातार बना रहे तो उस भ के मुख से मोती ही मोती झड़गे और
हीर क इतनी बरसात होगी क िजनक िगनती नह क जा सकती।
बैरागी िबरकत भला, िगरही िच उदार।
दु ँ चुका रीता पड़ै, वाकूँ वार न पार।।

कबीर कहते ह क बैरागी वही भला, िजसम स ी वैरा य भावना हो, गृह थ ि वही भला, िजसका मन
उदार हो। वैरागी म वैरा य-भाव नह , गृह थ म उदार-भाव नह तो इन दोन का ही िवनाश िनि त है और
इतना िवनाश क उसक कोई हद नह ।
बारी-बारी आपण , चले िपयारे यंत।
तेरी बारी रे िजया, नेड़ी आवै नंत।।

कबीर कहते ह क अपने संगी-साथी एक-एक करके िवदा होते जा रहे ह। हे मन! अब तेरी बारी धीरे -धीरे
करके आती जा रही है। अब तो तू सावधान हो जा। ह र चरण म यान लगा।
नंदक नेड़ा रािखये, आँगिण कु ट बँधाइ।
िबन सावण पािण िबना, िनरमल करै सुभाइ।।

कबीर कहते ह क अपनी आलोचना करने वाले को अपने नजदीक ही रिखए और वह भी आंगन म उसके िलए
कु टया भी बना द य क नंदक यानी आलोचक िबना साबुन-पानी के मन को धोकर सहज व िनमल बना देता
है।
गो यंद के गुण ब त ह, िलखै जु िहरदै माँिह।
डरता पािण जा पीऊँ, मित वै धोये जािह।।

कबीर कहते ह क गो वंद के न जाने कतने ही गुण मेरे दय म अं कत ह। म तो पानी पीते व भी डरता ं
क कह वे गुण धुल या िमट न जाएं।
जो ऊ या सो आँथवै, फू या सो कु िमलाइ।
जो िचिणयाँ सो ढिह पड़ै, जो आया सो जाइ।।

कबीर कहते ह क िजसका उदय होता है उसका अ त भी होता है। जो फू ल िखलता है वह मुरझाता भी है। जो
घर बनता है, वह एक दन िगरता भी और जो ज म लेता है, वह मरता भी है। इस दुिनया के यही िनयम है।
राजा क चोरी करे , रहै रं क क ओट।
कह कबीर य उबरै , काल क ठन क चोट।।

कबीर कहते ह क कोई राजा के घर से चोरी करके िनधन का नाटक कर बचना चाहे तो यह संभव नह है।
इसी कार से गु से नजर चुराकर जीव मृ यु क कठोर चोट से कै से बचा रह सकता है।
हीरा परा बजार म, रहा छार लिपटाइ।
बतक मूरख चिल गये, पारिख िलया उठाइ।।

कबीर कहते ह क हीरा बाजार म पड़ा था, वह भी धूल-िम ी से ढका आ, िजतने भी मूख थे वे उसे देखकर
भी चले गए और जो पारखी ह, उसने उस हीरे को उठा िलया।
हीरा तहाँ न खोिलये, जहँ खोटी है हा ट।
कसक र बाँधो गाठरी, उ ठ क र चालौ बा ट।।

कबीर कहते ह क हीरा वहां गांठ खोलकर मत दखाओ जहां छोटा बाजार लगा हो। बुि मानी तो इसी म है
क अपनी पोटली बांध और आगे बढ़ जाओ।
या मुख लै िबनती कर , लाज आवत है मोिह।
तुम देखत ओगुन कर , कै से भाव तोिह।।

कबीर कहते ह क म कस मुंह से तु हारी िवनती क ं , भु! मुझे शम आती है। तु हारी आंख के सामने ही म
पाप कम करता ।ं भला म तुझे कै से पसंद आ सकता ।ं
सब का का लीिजये, साँचा सबद िनहार।
प छपात ना क िजये, कहै ‘कबीर’ िबचार।।

कबीर कहते ह क स य वाणी हर कसी क अपनाइए। प -िवप का यान न रखकर स ी बात को दय म


बैठा लीिजए।
जो गु बसै बनारसी, सीष समान समु दर तीर।
एक पलक िबसरै नह , जो गुण होय शरीर।।

अगर गु बनारस म रहते ह और िश य समु दर के तीर पर वास करता हो तो इससे कोई फक नह पड़ता
य द िश य म गु का ान है अथात् गु के ित िश य के मन म थोड़ी-सी भी आ था कम नह होगी।
पुरपाटण सुवस बसा, आन द ठाँय ठाँइ।
राम-सनेही बािहरा, उलजेड़ मेरे भाइ।।

कबीर कहते ह क िजस गांव व शहर म राम के भ नह रहते, वे गांव-शहर वीरान ही होते ह, भले ही वे
गांव-शहर कतने ही सुंदर ढंग से य न बसाए गये ह ।
काबा फर कासी भया, राम भया रे रहीम।
मोट चून मैदा भया, बै ठ कबीरा जीम।।

कबीर कहते ह क काबा अब काशी बन गया है और मेरा राम ही रहीम हो गया है। जो आटा मोटा था वह
मैदा बन गया है। संत कबीर जो है वाद ले-लेकर खा रहा है। सां दाियकता क आग को शांत करने के िलए
कबीर ने राम-रहीम को एक ही सू म िपरो दया है और वा तिवकता भी यही है। राम-रहीम म कोई अंतर नह
है।
दुिखया भूखा दुःख क , सुिखया सुख क झू र।
सदा अजंदी राम के , िजिन सुख-दुःख गे हे दू र।।

कबीर कहते ह क यह संसार ब त ही िवल ण है‒दुिखया दुःख से परे शान है और सुिखया अ यािधक दुःख के
कारण परे शान है ले कन जो राम के भ ह वे हमेशा मजे म रहते ह य क दुःख-सुख दोन से वे परे ह। न तो
उ ह दुःख क चंता है और न ही सुख क परवाह है।
‘कबीर’ का तू चंतवे, का तेरा यं या होइ।
अण यं या ह र जी करै , जो तोिह यंत न होइ।।

कबीर कहते ह क य तू चंता कर रहा है। तेरे चंता करने से या होता है। मेरे ह र तो ऐसे ह, िजस बात क
तुझे चंता नह है, उसे भी वह पूरा कर देता है।
कायर ब त एभांव ही, बह क न बोले सूर।
काम ष याँ ही जािणये, कस मुख प र है नूर।।

कबीर कहते ह क कायर ही ल बी-ल बी ड गे मारते ह, जो शूरवीर होते ह, वे तो कभी बड़ बोल बोलते ही
नह ह। यह तो रण े म ही पता चलता है क कौन शूरवीर है और कसके चेहरे पर शूरवीरता क चमक है।
‘कबीर’ कू ता राम का, मुितया मेरा नाउँ ।
गले राम क जेवड़ी, िजत खवे ितत जाउँ ।।

कबीर कहते ह क म तो राम का कु ा ं और मेरा नाम मोती है। मेरे गले म राम के नाम का ही प ा है। वह
िजधर ख चते ह, म उधर ही जाता ं अथात् राम ही सबको नचा रहे ह।
जब लग भगिहत सकामता, तब लग िनफल सेव।
कहै ‘कबीर’ वै यूँ िमले िनहकामी िनज देव।।
कबीर कहते ह क आराधना जब तक वाथ से भरी ह भगवान क पूजा तब तक िन फल है। िनः वाथ भाव से
क गई पूजा ही वीकार क जाती है।
परनारी का राच णौ, िजसक लहसण क खािन।
खूण बेसीर खाइय, परगट होइ दवािन।।

कबीर कहते ह क पराई ी का संग-साथ लहसुन खाने के बराबर है, कोई कतना भी िछपकर लहसुन खाए
उसक गंध सबके सामने आ ही जाती है।
परनारी राता फर, चोरी िब ढ़ता खा हं।
दवस चा र सरसा रहै, अित समूला जा हं।।

कबीर कहते ह क पराई नारी से जो नेह लगाते ह और गलत धंधे क कमाई खाते ह, भले ही वे कु छ दन तक
हरे -भरे रह ले कन अंत म उनका पूरी तरह से िवनाश हो जाता है। इसम कोई संशय नह है। पर ी और चोरी
का धन सदा ही दुःख दायक होता है। स न लोग इनसे दूर ही रहते ह।
यािन मूल गँवाइया, आपण भये करना।
ताथ संसारी भला, मन म रहै डरना।।

कबीर कहते ह क ानी जो ह, उ ह ने ान के अहंकार म पड़कर अपना सब कु छ ही गंवा दया। वह वयं को


ही ई र तु य मानने लगा। तथा सबका भा य िवधाता मानने लगा। ऐसे ािनय से गृह थी जो ह, वे अ छे ह। वे
कम-से-कम डर कर तो कोई भी काय करते ह क कह कु छ गलत न हो जाए। ानी होने का लाभ तभी है जब मन
म अहंकार भाव न पैदा हो।
इिह उदर कै कारणे, जग पा यो िनस जाम।
वामी-पणौ जो िस र चढयो, िसर यो न एको काम।।

कबीर कहते ह क इस पेट के कारण ही साधु के प म आदमी दन-रात मांगता फरता है और उसके िसर पर
वामी होने का नशा चढ़ जाता है। ले कन वह वा तव म तो वामी बना नह , िजससे वह कु छ भी नह पा सका -
न तो साधु बना और न वामी और न पेट ही भर सका।
ा ण गु जगत् का, साधू का गु ना हं।
उरिझ-पुरिझ क र भ र र ा, चा रउँ बेदा माँिह।।

कबीर कहते ह क ा ण जगत का गु भले ही हो ले कन साधु का गु नह हो सकता भले ही साधु िन वग


का य न हो। ा ण साधु का गु भला कै से हो सकता है वह तो चार वेद म ही उलझा आ होता है।
‘कबीर’ किल खोटी भई, मुिनयर िमलै न कोइ।
लालच लोभी मसकरा, ितनकूँ आदर होइ।।

कबीर कहते ह क इस किलयुग म ब त बुरा हो गया है, आज कह भी साधु-सं यासी नह दखते। इस


किलयुग म मसखर , लालची, लोभी लोग को स मान िमल रहा है।
किल का वामी लोिभया, मनसा धरी बधाई।
दिह पईसा याज को, लेखाँ करता जाई।।

कबीर कहते ह क किलयुग म जो वामी या साधु ह, वे सब लोभी हो गए ह। इ छा से सब बंधे ए ह।


सारा समय लोग का याज का पैसा वसूलने और िगनने म ही बीत जाता है।
‘कबीर’ इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार।
पूँछ जो पकड़ै भेड़ क उतर या चाहे पार।।

कबीर कहते ह क मने इस संसार के लोग को कई बार समझाया क वे भेड़ क पूंछ पकड़कर भवसागर पार
उतर नह सकते ह। ान पी नाव क ज रत है भवसागर को पार करने के िलए। ले कन ढ़वादी िवचारधारा
के लोग कहां समझते ह।
‘कबीर’ सो धन संिचये, जो आगै कू होइ।
सीस चढ़ाये पोटली, ले जात न दे या कोइ।।

कबीर कहते ह क वह धन इक ा करो, जो आगे काम आए। तुमने जो यह धन जोड़ा है, इसम कु छ नह रखा
है। या आपने कसी को िसर पर गठरी ले जाते ए देखा है। सभी यहां से खाली हाथ, वह भी नंगे ही तो जाते ह।
बुगली नीर िबटािलया, सागर चढ़या कलंक।
और पखे पी गये, हँस न बौवे चंच।।

कबीर कहते ह क बगुली ने च च मारकर सागर का पानी जूठा कर दया। इससे सागर कलं कत हो गया।
दूसरे प ी तो जल पी-पी चले गए ले कन हंस ने उस जूठे पानी म अपनी च च न डु बोई।
कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह।
िजिह ध र िजता बाधावणा, ितह ध र ितता अंदोह।।

कबीर कहते ह क इस संसार का सारा मोह-माया झूठा है। इसका कोई मोल नह है। यह मू यहीन है। िजस
घर म िजतनी ही बधाइयां बजती ह उस घर म उतनी ही सम याएं और आपदाएं पैदा होती ह।
कहने का भाव है क दखावा से अिधक हक कत क ज रत है। सुखी रहने के िलए ढ़गत मा यता क
नह ान क ज रत होती है।
करती दीसै क रतन, ऊँचा क र तुंड।
जाने-बुझै कु छ नह , य ही अंधा ं ड।।

कबीर कहते ह क मने उन लोग को देखा है, जो मुंह को उठा कर ऊंची आवाज म क तन करते ह। जानते-
समझते तो कु छ भी नह , या अ छा है या बुरा। ऐसे लोग को अंधा कहा जाए या िबना िसर का के वल धड़?
‘कबीर’ प ढ़यो दू र क र, पु तक देइ बहाइ।
बावन आिषर सेिध क र, ‘ररै ’ ‘ममै’ िच लाइ।।

कबीर कहते ह क िलखना-पढ़ना बंद करो और पु तक को एक तरफ कर दो। इ ह बहा दो पानी म। बावन
अ र म से ‘रकार’ और ‘मकार’ बस तुम ये दो अ र ही ढू ंढ़ कर ले लो और इ ह को जपना शु कर दो। सारी
कताब का सार इन अ र म ही है।
काजी-मु ला ंिमयाँ, च या युन कै साथ।
दल थे दीन िबसा रयाँ, करद लई जब हाथ।।

कबीर कहते ह क काजी-मु ला सभी खुदा के रा ते से भटक गए ह और अपने िहसाब से चलने लगे ह। रोजी-
रोटी और अ लाह के नाम पर इ ह ने िजबह करने के िलए हाथ म छु री भी पकड़ ली है।
ेम- ीित का चोलना, पिह र कबीरा नाच।
तन-मन तापर वार ँ, जो कोई बौलै साँच।।

े - ीित का चोला पहन कर कबीर अपनी ही धुन म नाच रहा है और उस पर अपना तन-मन वार रहा है,

जो कोई सच बोलता है।
कहने का भाव है क स य ही ई र का दूसरा प है।
तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मे या छाइ।
कबीर मूल िनकं दया, कौण हलाहल खाइ।।

कबीर कहते ह क तीथ एक ऐसी अमर बेल है, िजसने संसार को बुरी तरह से अपनी लता म जकड़ िलया
है। ले कन कबीर ने इस अमर बेल क जड़ को ही काट दया है, यह सोचकर क कौन िवषपान करे ।
कबीर ने तीथ थल को अमर बेल बताकर यह समझाने का यास कया है क ई र तीथ थल म नह
ि के दय म है। भटकने क या ज रत है।
बूँद पड़ी जो समु म, तािह जाने सब कोय।
समु समाना बूँद म, बूझै िबरला कोय।।

यह सबको पता है क समु म जो बा रश क बूंद पड़ती है, वह उसम ही सदा के िलए िमल जाती है। ले कन
कोई-कोई ही यह समझ पाता है क बंद ु पी जीवा मा कै से ई र पी समु म िवलीन हो जाती है।
हद से चले सो मानव, बेहद चले सो साध।
हद बेहद दोन तजे, ताको भता अगाध।।

कबीर कहते ह क जो अपनी शि के अनुसार काय करता है, वह मनु य है, जो शि से अिधक काय करता है,
वह साधु है और जो शि और हद से भी बढ़कर काय करता है उसको अ यिधक ान ा होता है।
ान रतन का जतन कर, माटी का संसार।
आय कबीर फर गया, फ का है संसार।।

कबीर कहते ह क यह दुिनयादारी पी वैभव तो िम ी है और ई र का ान र है। कबीर ने इस संसार म


जो कु छ भी देखा उसे छोड़ दया य क संसार के सारे पदाथ को मने ई र- ान से कम ही क मती पाया।
मा बड़े न को उिचत है, छोटे को उ पात।
कहा िव णु का घ ट गया, जो भृगु मारी लात।।

कबीर कहते ह क छोटे अगर गलती करते ह तो बड़ को चािहए क वे उ ह मा कर द। भगवान िव णु का


या घट गया जो भृगु मुिन ने उनके दय पर लात मार दया।
‘कबीर’ सतगुर ना िम या, रही अधूरी सीष।
वाँग जती का पह र क र, ध र-ध र माँगे भीष।।

कबीर कहते ह क िज ह स ा गु नह िमला उनक िश ा अधूरी ही रह गई। साधु का ढ ग कर वे घर-घर


भीख मांगते फरते ह। उनका जीवन थ म ही गुजर गया।
को छू टौ इ हं जाल प र, कत फु रं ग अकु लाय।
य - य सुरिभ भजौ चहै, य - य उरझत जाय।।
कबीर कहते ह क इस सांसा रक मोह-माया के बंधन से कोई नह मु हो सकता। प ी पी जीव जैसे-जैसे
छु ड़ा कर भागना चाहता है वैसे-वैसे वह उलझता ही जाता है।
जो तोकू कांटा बुवे, तािह बोय तू फू ल।
तोकू फू ल के फू ल है, बाकू है ि शूल।।

कबीर कहते ह क जो तु हारे िलए कांटा बोता है, उसके िलए तुम फू ल बोओ। तु ह फू ल के बदले फू ल ही
िमलगे और िजसने कांटा बोया है, उसे ि शूल के समान तेज कांटे ही िमलगे अथात् सब का भला करो। दूसर के
िलए बुरा न करो।
कु टल वचन सबसे बुरा, जा र कर तन छार।
साधु वचन जल प, बरसे अमृत धार।।

कबीर कहते ह क कड़वे वचन सबसे बुरे होते ह। शरीर को जलाकर राख कर देते ह। मीठे वचन जल के समान
शीतल होते ह, िजनसे अमृत क धार बरसती है।
धीरे -धीरे रे मना, धीरे सब कु छ होय।
माली स चे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।।

कबीर कहते ह क हे मन! धीरे -धीरे सब कु छ ा होता है। माली सैकड़ घड़े पानी से पेड़-पौध को स चता है
ले कन फल ऋतु आने पर ही लगता है। धैय से ही सब काम बनता है।
जेिह खोजत ा थके , सुर नर मुिन अ देव।
कहै कबीर सुन साधवा, क सतगु क सेव।।

कबीर कहते ह क िजसको खोजते-खोजते ा, देवता, मनु य और महादेव थक गए। ऐ स न ! उसे ा


करने के िलए िसफ स गु क आराधना करो। वह उस से सा ा कार करवा सकते ह।
मन हं दया िनज सब दया, मन से संग शरीर।
अब देवे को या रहा, य किय कह हं कबीर।।

तूने अपना मन गु को दे दया तो सब कु छ दे दया य क मन के साथ ही शरीर है। अब देने के िलए कु छ भी


नह रहा। मन दे दया तो शरीर अपने-आप स गु क शरण म आ जाता है।
सतगु को माने नह , अपनी कहै बनाय।
कहै कबीर या क िजये, और मता मन माय।।

तू सदगु क ान भरी बात को मानता नह और अपनी उ टी-सीधी बात बनाकर कहता है। कबीर कहते ह
क ऐसे ि य का कु छ नह हो सकता। वे तो अपनी ही बात को मानते ह।
िबन सतगु उपदेश, सुर नर मुिन न हं िन तरे ।
ा-िव णु, महेश और सकल िजव को िगनै।।

कबीर कहते ह क िबना स गु के उपदेश के सुर, मनु य, मुिन को भी स ित नह िमलने वाली। ा, िव णु,
महेश और सकल जीव क िगनती कौन करे । स गु ही ई र से िमला सकता है और सारे देव क अनुकंपा का
भागी बना सकता है।
सतगु खोजो स त, जीव काज को चाह ।
मेटो भव को अंक, आवा गवन िनवार ।।

कबीर कहते ह क हे ाणी! अगर तुम मो चाहते हो तो अपने िलए स गु क खोज करो और स ा ान
ा कर जीवन-मरण से मुि पा लो।
िश य पुजै गु आपना, गु पूजै सब साध।
कह कबीर गु शीष को, मत है अगम अगाध।।

कबीर कहते ह क िश य गु को पूजता है और गु सब साधु को पूजता है। गु -िश य का मन अगम अपार


है।
िहरदे ान न उपजै, मन परतीत न होय।
ताके स गु कहा कर, घनघिस कु हरन होय।।

कबीर कहते ह क िजस मनु य के दय म ान नह उपजता और मन म आ था भाव भी उ प नह होता,


ऐसे ि को स गु भी ान देकर या करगे। हथौड़े को िघसकर कु हाड़ी नह बनाई जा सकती।
िशष करिपन गु वारथी, कले योग यह आय।
क च-क च के दाग को, कै से सके छु ड़ाय।।

कबीर कहते ह क िश य कं जूस है और गु वाथ है तो फर क चड़ के दाग को क चड़ कै से छु ड़ा सकता है।


देश-देशा तर म फ ँ , मानुष बड़ा सुकाल ।
जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल।।

कबीर कहते ह क मने देश-देशा तर का देशाटन कया, मुझे मनु य क कोई कमी नजर नह आई ले कन
िजसको देखकर मन ह षत हो, वैसा कोई नह दखा मानो ऐसे लोग का अकाल पड़ गया हो।
कबीर गु क भि िबन, नारी कू करी होय।
गली-गली भूंकत फरै , टू क न डारै कोय।।

कबीर कहते ह क गु क भि के िबना ि यां कु ितया का शरीर धारण कर गली-गली भ कती फरती ह
और उ ह एक रोटी का टु कड़ा भी कोई नह देता है।
जो कािमिन परदै रहै, सुनै न गु गुण बात।
सो तो होगी कू करी, फरै उघारे गात।

कबीर कहते ह क जो ि यां परदे म रहती ह और स गु के ान से वंिचत रहती ह वे कु ितया का शरीर


धारण कर शरीर उघारे भटका करती ह। कहने का भाव है क परदा म रहने वाली ि य को भी ान क बात
सुननी चािहए।
िझरिमर िझरिमर बरिसया, पाहन ऊपर मेह।
माटी गिल पानी भई, पाहन वाही नेह।।

कबीर कहते ह क प थर के ऊपर रमिझम- रमिझम पानी बरसा। िम ी गलकर पानी के साथ घुल-िमल गई
ले कन प थर जैसा था वैसा ही रहा। अपनी कठोरता के कारण पानी के साथ वह नह घुल-िमल सका।
जो लोग कठोर वभाव के होते ह, वे ज दी कसी के साथ घुल-िमल नह पाते ह।
कबीर दय कठोर के , श द न लागे सार।
सुिध-बुिध के िहरदे िवधे, उपजै ान िवचार।।

कबीर कहते ह क कठोर दय वाले ि को ान क बात नह बेधत । जो ानी होते ह और स दय होते


ह, उनके दय को ही ान- यान क बात भािवत करती ह और वही ान को हण करते ह।
पशुआ स पालो परो, र -र िहया न खीज।
ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज।।

कबीर कहते ह क जो ि पशु वृि वाले होते ह, उनसे ानी लोग नाराज उसी कार नह होते िजस
कार दुगुना बीज बोने पर भी बंजर जमीन म वह नह उगता अथात् ानी लोग मूख क बात का बुरा नह
मानते।
साकट कहा न किह चलै, सुनहा कहा न खाय।
जो कौवा मठ हिग भरै , तो मठ को कहा नशाय।।

कबीर कहते ह क अ ानी लोग या नह कह देत,े कु ा या नह खा लेता है। अगर कौवा मं दर म बीट कर
दे तो मं दर अपिव थोड़े ही हो जाता है।
कबीर साकट क सभा, तू मित बैठे जाय।
एक गुवाड़े क द बड़ै, रोज गदहरा गाय।।

कबीर कहते ह क तुम मूख और दु क मंडली म भूलकर भी मत जाओ य क एक गौशाला म नीलगाय,


गधा तथा गाय के रहने से आपस म झगड़ा तो होना ही है।
टे क न क जै बावरे , टे क मािह है हािन।
टे क छािड़ मािनक िमलै, सत गु वचन मािन।।

कबीर कहते ह क हे ाणी! कभी भी हट न करो। हठ करने से तेरा ही नुकसान है। हठ का प र याग जो कर
देता है, उसे सदगु के ान के समान मािणक र क ाि होती है।
खसम कहावै बैरनव, घर म साकट जोय।
एक घरा म दो मता, भि कहा ते होय।।

कबीर कहते ह क एक ही घर म दो िवचार के लोग होने से घर म सुख-शांित का अभाव हो जाता है। भला
पित ता और दु ी एक ही घर म ह तो या घर म भि -भाव उ प हो सके गा। दो अलग-अलग मत के
लोग कभी भी शांित से नह रहते।
घर म साकट ी, आप कहावे दास।
वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास।।

कबीर कहते ह क घर म दु ी है तो ी शूकरी होगी और पित उसक ही िनगरानी म रहेगा। अब इसे प ी


क भि कह लो या मजबूरी म उपजी भि कह लो।
आंख देखा घी भला, न मुख मेला तेल।
साधु सो झगड़ा भला, ना साकट स मेल।।
कबीर कहते ह क आंख से घी को देखना अ छा है, पर मुंह म तेल डालना ठीक नह है। इस कार साधु से
झगड़ पड़ना ठीक है, पर दु से दो ती अ छी नह है।
कबीर सोई दन भला, जा दन साधु िमलाय।
अंक भरे भा र भे टये, पाप शरीर जाय।।

कबीर कहते ह क वह दन सबसे अ छा है, िजस दन साधु से भट हो जाए। दल खोलकर उससे िमलो। दल
के सारे मैल दूर हो जाएंगे।
कबीर दशन साधु के , करत न क जै कािन।
य उ म से ल मी, आलस मन से हािन।।

कबीर कहते ह क साधु से िमलते समय मन म कसी भी तरह का संशय या अिभमान न लाओ। जैसे प र म
करने से ल मी ा होती है और मन म आलस लाने से हािन होती है।
खाली साधु न िबदा क ं , सुन लीजै सब कोय।
कहै कबीर कछु भट ध ं , जो तेरे घर होय।।

कबीर कहते ह क अपने घर से साधु को खाली हाथ िवदा मत करो। इस बात का मन म गांठ बांध लो।
कु छ-न-कु छ भट व प दो, जो भी तु हारे पास हो।
टू का माही टू क दे, चीर मािह सो चीर।
साधु देत न सकु िचये, य किश कह हं कबीर।।

कबीर कहते ह क रोटी के टु कड़े म से टु कड़ा और कपड़े म से कपड़ा फाड़कर साधु को देने म कं जूसी न करो।
कबीर ल ग-इलायची दातुन, माटी पािन।
कहै कबीर स तन को, देत न क जै कािन।।

कबीर कहते ह क ल ग, इलायची, दातून, िम ी, पानी लेकर संत को दो। इसम शरमाने क आव यकता नह
है य क संत सेवा से िबगड़े काय भी िस हो जाते ह।
साधु आवत देिखकर, हंसी हमारी देह।
माथा का ह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह।।

कबीर कहते ह क साधु को आते ए देखकर हमारी सारी देह ही खुशी के मारे उमंिगत हो उठी। माथे का ह
उतर गया और आंख म ेम उमड़ पड़ा।
साधु श द समु है, जाम र भराय।
म द भाग म ी भरे , कं कर हाथ लगाय।।

कबीर कहते ह क साधु का जो नाम है, वह समु क तरह गहरा है, िजसम बेशुमार र ह। जो भा यहीन होते
ह उ ह साधु के पास जाकर भी मु ी भर कं कड़ ही िमलता है य क वे गुण हण न कर साधु म अवगुण क ही
तलाश करते ह।
साधु िबरछ सत ान फल, शीतल श द िवचार।
जग म होते साधु न हं, जर मरता संसार।।
कबीर कहते ह क साधु वृ ह और स ान का फल उनम लगा है और उनके िवचार शीतल छाया है। य द
संसार म साधु नह होते तो इस संसार के अिववेक लोग जल मरते। उ ह बचाने वाला कोई नह होता। इन
संतजन के कारण ही तो यह संसार बचा आ है। संत क सेवा अवसर िनकालकर अव य करो।
साधु बड़े परमारथी, शीतल िजनके अंग।
तपन बुझावै और क , देदे अपनो रं ग।।

कबीर कहते ह क जो साधु लोग होते ह वे ब त परमाथ होते ह और उनका वभाव ब त ही क याणकारी
होता है, िजससे वे दूसर का भला करते ह।
साधुन क झुपड़ी भली, न साकट के गांव।
चंदन क कु टक भली, ना बबूल बनराव।

कबीर कहते ह क साधु क कु टया भली है ले कन दु का गांव भला नह है। चंदन का टु कड़ा अ छा है
ले कन बबूल का जंगल ठीक नह है।
वेद थके , ा थके , याके सेस महेस।
गीता ं क गत नह , स त कया परवेस।।

कबीर कहते ह क वेद थक गए, ा थक गये तथा शेष, महेश सब थक गए, और गीता भी नह बता सक
िजस का भेद उस को साधु-संत भेद बताने म समथ ह य क उ ह भि करने आती है। भि करो।
इससे बड़ी कोई शि नह ।
स त िमले जािन बीछु र , िबछु र यह मम ान।
श द सनेही ना िमले, ाण देह म आन।।

कबीर कहते ह क हे ाण! तुम भले ही मुझसे अलग हो जाओ, मंजूर है ले कन ानी संत लोग क संगित से म
दूर न र ।ं या पता आ म ानी संत से फर िमलना हो या नह । ाण का या, वह तो मरने के बाद पुनः शरीर
धारण करने पर मेरे पास आ ही जाएगा।
साधु िस ब अ तरा, साधु मता परच ड।
िस जु वारे आपको, साधु ता र नौ ख ड।।

साधु और िस म अ तर है। साधु का िवचार ही सव म होता है और िस तो के वल अपना ही भला करते ह।


िस से साधु बड़ा है और साधु जगत का हमेशा क याण ही चाहता है।
मानपमाप न िचत धरै , औरन को सनमान।
जो कोई आशा करै , उपदेशै तेिह ान।।

कबीर कहते ह क साधु लोग मान-अपमान को मन म नह रखते यानी बुरा नह मानते। दूसर का स मान
करते ह। जो कोई भी उनसे उ मीद रखता है, उ ह वे ान देकर स माग क ओर ले जाते ह।
जौन चाल संसार क जौ साधु क ना हं।
डंभ चाल करनी करे , साधु कहो मत ता हं।।

कबीर कहते ह क जो चाल यानी वहार संसार के लोग का होता है, वह वहार साधु का नह होता है।
जो साधु अपने ान व साधु व पर अिभमान करता है, उसे साधु मत मानना।
इि य मन िन ह करन, िहरदा कोमल होय।
सदा शु आचरण म, रह िवचार म सोय।।

कबीर कहते ह क इं य मन का िन ह करना, दय कोमल होना, हमेशा शु आचरण- वहार म रहना स े


संत क पहचान है। संत लोग इं य िवकार से मु होते ह और उनका दय स ा होता है और उनका वहार
सबके अनुकूल होता है। वे संसार का क याण करने म इसका इ तेमाल करते ह।
कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव।
साधु दोऊ को पोषते, भाव न िगनै अभाव।।

कबीर कहते ह क कोई भाव लेकर आता है और कोई अभाव लेकर आता है। साधु दोन का ही क याण करते
ह। वे भाव-अभाव क िगनती नह करते ह और न ही कसी से ई या करते ह।
स त न छाडै स तता, को टक िमलै असंत।
मलय भुवंगय बेिधया, शीतलता न तज त।।

कबीर कहते ह क जो संत है, वह स नता नह छोड़ता है चाहे करोड़ दु य न िमल जाएं जैसे चंदन के
तने से सप िलपटे रहते ह, पर वह अपनी शीतलता नह छोड़ता है।
कमल प ह साधु जन, बस जगत के मा हं।
बालक के र धाय य , अपना जानत ना हं।।

कबीर कहते ह क संसार म रहकर भी साधुजन मैथुन, नशा, नाच, रं ग आ द से मु रहते ह। जैसे ब े को दूध
िपलाने वाली दाई ब े को अपना मानकर मातृ व नह देती, वैसे ही साधुजन संसार म रहकर भी सांसा रक
चीज से कोई लगाव नह रखते।
एक छािड़ पय को गह, य रे गऊ का ब छ।
अवगुण छाड़ै गुण गह, ऐसा साधु ल छ।।

कबीर कहते ह क जैसे गाय का बछड़ा खून को छोड़कर दूध को ही पीता है, वैसे ही साधु का वभाव होता है।
वह अवगुण को छोड़कर िसफ स गुण को ही हण करता है।
जौन भाव ऊपर रहै, िभतर बसावै सोय।
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय।।

कबीर कहते ह क जैसा भाव दय म हो, वही भाव ऊपर होना चािहए। दय म कु छ और तथा बाहर कु छ
और भाव नह होना चािहए।
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर।
तीन िनकिस न बा र, साधु सती औ सूर।।

कबीर कहते ह क ढोल, डु गी, नगाड़ा, शहनाई और तुरही से िनकले श द जैसे वापस नह होते वैसे ही साधु,
सती, वीर यु के मैदान क तरफ बढ़ जाते ह तो वापस नह लौटते। हार या जीत का फै सला होने के बाद ही वे
वापस घर को लौटते ह।
स त समागम परम सुख, जान अ प सुख और।
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर।।
कबीर कहते ह क स त समागम परम सुखदायक होता है और दूसरे सुख इसके सामने कम ही है। हंस तो
मानसरोवर म िमलते ह तथा बगुले जगह-जगह घूमते ह।
सो दन गया इकारथे, संगत भई न स त।
ान िबना पशु जीवना, भि िबना भटक त।।

कबीर कहते ह क वह दन बेकार है, िजस दन संत से भट नह ई। ान के िबना यह जीवन पशु के समान
है और भि के िबना चार ओर भटकता फरता है।
आशा तिज माया तजै, मोह तजै अ मान।
हरष शोक िन दा तजै, कह कबीर स त जान।।

कबीर कहते ह क संत वही है, िजसने आशा, माया, मोह, मान, हष, शोक, पर िन दा आ द याग दया है।
आसन तो इका त कर, कािमनी संगत दूर।
शीतल स त िशरोमनी, उनका ऐसा नूर।।

कबीर कहते ह क जो संत एकांत म आसन करते ह और ी के संग-साथ से दूर रहते ह, ऐसे िवन संत का
काश इतना भावी होता क वह संत म िशरोमिण होता है।
साधु दरश को जाइये, जेता ध रये पांय।
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय।।

कबीर कहते ह क साधु से िमलने के िलए ि जाता है तो िजतने ही पांव रखता है अ मेघ य का उतना
ही फल िमलता है। संत वचन व संत-दशन दोन ही मुि का ार खोलते ह।
स त होत ह, हेतु के , तहां चिल जाय।
कह कबीर के हेत िबन, गरज कहा पितयाय।।

साधु-संत यार के भूखे होते ह। जहां पर लोग का ेम रहता है, वहां बरबस ही चले जाते ह। कबीर कहते ह
क म े के िबना कसी पर िव ास करने का उनका कोई योजन नह है।
कहने का भाव है क साधुजन ेम के वश म होते ह और जहां ेम-भाव होता है, वह पर उनका आगमन होता
है। ेम के अित र कोई ऐसा कारण नह , िजसके चलते वे वहां जाएं।
स त सेव गु ब दगी, गु सुिमरन वैराग।
ये ता तबही पाइये, पूरन म तक भाग।

कबीर कहते ह क संत क सेवा, गु क पूजा, गु सुिमरन तथा वैरा य ये सब भा यशाली लोग को ही ा
होते ह। कमहीन लोग को इतने अ छे अवसर नसीब नह होते।
साधु भौरा जग कली, िनिश दन फरै उदास।
टु क-टु क तहां िवलि बया, जहं शीतल श द िनवास।।

कबीर कहते ह क साधु पी भौरे संसार पी फू ल पर िन वकार प से मंडराते फरते ह। थोड़ा-ब त वह


कते ह, जहां स न लोग रहते ह।
साधु जन सब म रम, दुःख न का देिह।
अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येिह।।

कबीर कहते ह क साधु लोग सबके साथ ेमपूवक रहते ह। वे अमीर-गरीब, ऊंच-नीच का यान नह रखते ह
तथा कसी को भी क नह प च ं ाते ह। अपने िवचार व िनणय पर अटल रहते ह, साधु का वभाव ऐसा ही होता
है।
साधु-साधु सब एक ह, जस अफ म का खेत।
कोई िववेक लाल है, और सेत का सेत।।

कबीर कहते ह क साधु-साधु सब एक ह यानी सभी साधु एक ही ह जैसे सभी खेत क तरह अफ म का खेत
होता है। जो साधु िववेकवान है, वह लाल र के समान है तथा दूसरे सफे द का सफे द पधारी है।
बाना पिहरे संह का, चलै भेड़ क चाल।
बोली बोले िसयार क कु ा खावै फाल।।

कबीर कहते ह क शेर का प बनाकर जो भेड़ क चाल चले और िसयार क बोली बोले तो उसे एक दन
कु ा अव य ही फाड़कर खाता है।
िगरही सेवै साधु को, भाव भि आन द।
कह कबीर बैरागी को, िनरबानी िनरदु द।।

जो ि साधु क सेवा करता है और भाव-भि म आनं दत रहता है, वही स ा गृह थ है। कबीर कहते ह
क वैरा य धारण करने वाले संत का धम है क ष
े भाव रिहत वहार करे और खुशी-गम से मु िनभय होकर
िजए।
पांच-सात सुमता भरी, गु सेवा िचत लाय।
तब गु आ ा लेय के , रहे देशा तर जाय।।

कबीर कहते ह क पांच-सात साल तक िववेकपूण ढंग से गु क सेवा म मन लगाओ। इसके बाद गु से आ ा
लेकर दूसरे शहर म कमाने जाओ।
गु के स मुख जो रहै, सहै कसौटी दुख।
कह कबीर ता दुःख पर वार , को टक सुख।।

कबीर कहते ह क गु के सामने जो रहता है और उसक कसौटी पर खरा उतरता है, लाख दुःख सहने के बाद
भी ऐसे दुःख पर करोड़ सुख यौछावर ह। गु क अनुकंपा उस पर इतना बरसती है क वह ध य हो जाता है।
बोली ठोली म करी, हंसी खेल हराम।
मद माया और इ तरी, न हं स तन के काम।।

कबीर कहते ह क बोली-ठोली, मजाक, हंसी-खेल सब हराम है। मद, माया और ी-संग यह संत का काम
नह है।
मांगन मरण समान है, तोिह दई म सीख।
कह कबीर समझाय के , मित कोई मांगे भीख।।

कबीर कहते ह क मांगना मौत के समान है। म तु ह सीख देता ं और समझा भी रहा ं क कोई भी कसी से
हाथ फै लाकर भीख न मांगे। मांगने से आदमी का मह व ख म हो जाता है।
अज ं तेरा सब िमट, जो मानै गु सीख।
जब लग घर म रहै, मित क मांगे भीख।।

कबीर कहते ह क अभी भी समय है। आज भी तेरा सारा दुःख-दद दूर हो सकता है अगर तू स गु क सीख
को मान ले। जब तक घर म रहो कह पर भी भीख मत मांगो।
िग रये परबत िसखर ते, प रये धरिन मंझार।
मूरख िम न क िजये, बूड़ो काली धार।।

कबीर कहते ह क पहाड़ से िगरकर मर जाना ठीक है, धरती म समा जाना अ छा है तथा गहरे कु एं म डू ब
मरना अ छा है ले कन मूख िम अ छा नह है य क वह मझधार म ही ले डू बता है।
स न स स न िमले, होवे दो-दो बात।
गदहा सो गदहा िमले, खावे दो-दो लात।।

कबीर कहते ह क स न ि क स न ि से बनती है और वे आपस म अ छी बात करते ह। ले कन


गधे से गधा िमलता है तो अ छी बात न होकर दो-दो लात वे एक दूसरे को मारते ह।
कबीर िवषधर ब िमले, मिणधर िमला न कोय।
िवषधर को मिणधर िमले, िवष तिज अमृत होय।।

कबीर कहते ह क िवषधर सप तो ब त िमलते ह पर मिणधर कोई नह िमला। अगर िवषधर को मिणधर
िमल जाए तो िवष िमटकर अमृत हो जाता है अथात् स न लोग दु को अपने ान से स न बना देते ह।
ीित कर सुख लेन को, सो सुख गया िहराय।
जैसे पाइ छछू दरी, पकिड़ सांप पिछताय।।

कबीर कहते ह क मनु य आनंद क ाि के िलए कु संगितय से ेम करता है ले कन कु संगित के कारण उसे
वह सुख नह िमल पाता है फर उस मनु य क वही हालत हो जाती है जैसे छछू ंदर को मुंह म लेने के बाद सप
अफसोस करता है। उसे न तो खाते बनता है और न ही िनगलते बनता है।
जो छोड़े तो आंधरा, खाये तो म र जाय।
ऐसे संग छछू दरी, दोऊ भांित पिछताय।।

कबीर कहते ह क सप ने छछू ंदर को मुंह म तो ले िलया ले कन दुिवधा म है क अगर छछू ंदर को छोड़ देगा तो
अंधा हो जाएगा और खा लेगा तो मर जाएगा। आिखर वह करे तो या करे । कबीर कहते ह क ऐसे ही इं सान क
संगित कु संगित से हो जाती है तो वह सप क तरह पछताता है। कु संगित को छोड़ता है तो वे दु मन बन जाते ह
और नह छोड़ता है तो मरता-िपसता रहता है।
त वर जड़ सो का टया, जबै स हारो जहाज।
तारै पर बोरे नह , बाह गहे क लाज।।

कबीर कहते ह क आदमी पेड़ को जड़ से काट डालता है और जब पेड़ क लकड़ी से जहाज बनता है तब वह
काटने वाले को भी नदी से पार करता है, बदले क भावना उसम नह रहती है। वह काटने वाले को डु बोता नह
है। यह सच है क जो स न लोग होते ह, वे बांह पकड़ने पर पार लगा ही देते ह।
कहने का भाव है क बड़े लोग अपनी मयादा को जानते ह और बदले क भावना उनके मन म नह होती है।
स त सुरसरी गंग जल, आिन पखारा अंग।
मैले से िनरमल भये, साधु जन के संग।।

कबीर कहते ह क संत जगतारन गंगाजल ह, िजसम आकर लोग अपना अंग धोते ह और अपने सारे िवकार
धोकर िनमल हो जाते ह। साधु संगित पापी को भी पु यवान बना देती है।
साधु संग गु भि अ , बढ़त-बढ़त ब ढ़ जाय।
ओछी संगत खर श द अ , घटत-घटत घ ट जाय।।

कबीर कहते ह क साधु क संगित और गु -भि बढ़ते-बढ़ते बढ़ जाती है। ओछे लोग क संगित और गधे क
आवाज बढ़ते-बढ़ते घटकर न हो जाती है। संगित करना ही है तो साधु क कर।
दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय।
को ट जतन परमोिधये, कागा हंस न होय।।

कबीर कहते ह क नील का दाग लग जाने पर सौ मन साबुन से धोने पर भी नह धुलता है। इसी कार से
करोड़ उपाय करने पर भी दु कभी स नता हण नह करते ह जैसे कौआ कभी हंस नह बनता।
ा ण के री बे टया, मांस शराब न खाय।
संगित भई कलाल क , मद िबन रहा न जाय।।

कबीर कहते ह क ा ण क क या मांस-शराब का सेवन नह करती ले कन उसक िम ता शराब बनाने


वाले कलार से हो जाती है तो वह भी शराब पीने लगती है अथात् संगित का भाव ि पर अव य ही पड़ता
है।
मूरख को समुझावते, ाप गां ठ का जाय।
कोयल होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय।।

कबीर कहते ह क मूख को समझाने पर अपने पास का ान थ म ही चला जाता है, जैसे सौ मन साबुन से
मल-मलकर धोने पर भी कोयल कभी उजली नह होती है।
कोयला भी हो ऊजला, ज र ब र है जो सेत।
मूरख होय न ऊजला, य कालर का खेत।।

कबीर कहते ह क कोयला जब अ छी तरह से जलकर राख हो जाता है तो वह सफे द हो जाता है ले कन मूख
को लाख ान देने पर भी वह अपनी मूखता नह छोड़ता है।
तोिह पीर जो ेम क , पाका सेती खेल।
काची सरस पे रकै , खरी भया न तेल।।

कबीर कहते ह क अगर स ान से ेम करने के िलए तेरे दल म पीड़ा यानी िवरह है तो पका स ान के
िलए साधना कर, क ी सरस क पेराई करने से न तेल िनकलता है और न ही खली।
कहने का भाव है क स ान क ाि ही करनी है तो पहले मन म उसके ित स ी आ था पैदा करो।
तेल ितली सो ऊपजै, सदा तेल को तेल।
संगित को बेरो भयो, ताते नाम फु लेल।।
कबीर कहते ह क तेल ितल से िनकलता है और सदा तेल का तेल ही रहता है। उसम कोई बदलाव नह होता
है। ले कन जब उस तेल म फू ल का अक पड़ जाता है तो उसका नाम तेल से बदलकर फु लेल हो जाता है अथात्
संगित से कसी भी चीज का पूरा अि त व व व प ही बदल जाता है। स न ि क संगित म दु स न बन
सकता है और दु क संगित म स न भी दु बन सकता है।
सेवक वामी एक मत, मन म मत िमिल जाय।
चतुराई रीझै नह , रीझै मन के भाय।।

कबीर कहते ह क सेवक व वामी का मत ऐसा होना चािहए क दोन के मत िमलकर एक हो जाएं। चालाक
से वामी खुश नह होता है। वह तो सेवा भि से सेवक पर स होता है।
कहने का भाव है क सेवक अपने काय व ईमानदारी से ही वामी को स कर सकता है।
तू तू क ं तो िनकट है, दुर दुर क ं हो जाय।
य गु राखै य रहै, जो देवै सो खाय।।

कबीर कहते ह क गु तू-तू करके िश य को बुलाए तो नजदीक आए, दूर-दूर करके दूर भागए तो दूर भागे।
जैसे गु रखे वैसे रहे और जो भी दे वह खाए अथात् गु के आदेश का पालन होना चािहए।
आशा करै बैकु ठ क , दुरमित तीन काल।
शुक कही बिल ना कर , ताते गयो पताल।।

कबीर कहते ह क गु आशा तो बैकु ठ क करता है, पर तीन समय मन म बुरे िवचार ही रहते ह। गु
शु ाचाय का कहना राजा बिल ने नह माना और तब, उ ह रा य को छोड़कर पाताल जाना पड़ा।
कबीर गु सबको चहै, गु को चहै न कोय।।
जब लग आश शरीर क , तब लग दास न होय।।

कबीर कहते ह क गु सभी को चाहता है यानी सब को एक दृि से देखता है। ले कन गु को कोई नह


चाहता है। जब तक अिभमान है और शरीर सबल है तब तक कोई गु क शरण म नह जाता। गु तब याद आता
है जब बात िबगड़ जाती है।
कबीर गु के भावते, दूरिह ते दीस त।
तन छीना मन अनमना, जग से ठ फर त।।

कबीर कहते ह क गु के ित मन म कतनी िन ा है, यह तो दूर से ही नजर आ जाती है। उसका शरीर दुबल
तथा मन ाकु ल रहता है तथा संसार से िनराश व उदास होकर घूमता फरता है।
दासातन िहरदै नह , नाम धरावै दास।
पानी के पीये िबना, कै से िमटै िपयास।।

कबीर कहते ह क मन म दीनता का भाव नह है ले कन वयं को दास कहलवाने का शौक है फर क याण


कै से हो सकता है। यास भला शीतल जल को िपये िबना कै से बुझ सकती है।
लगा रहै सत ान सो, सबही ब धन तोड़।
कह कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़।।

कबीर कहते ह क जो हमेशा स ान क ाि म लगा रहे और सारे बंधन से मु हो, उसके आगे काल भी
हाथ जोड़कर िसर झुकाता है।
भि भाव भाद नदी, सबै चली घहराय।
स रता सोई सरािहये, जेठ मास ठहराय।।

कबीर कहते ह क भादो के महीने म सभी न दय का जल बढ़ जाता है ले कन वह नदी शंसनीय है, जो ये


माह म जल से भरी रहती है। इसी कार दूसर को देखकर कसी म भि -भाव उमड़ पड़ना कोई मह व नह
रखता है, यही ि थित जब हर समय और मुि कल क घिड़य म भी बनी रहती है तो कािबले तारीफ है।
भि बीज पलटै नह , जो जुग जाय अन त।
ऊंच नीच घर अवतरै , होय स त न स त।।

कबीर कहते ह क भि पी बीज का कभी नाश नह होता है चाहे कतने ही युग य न बीत जाएं। भि
करने वाला ाणी ऊंची-नीची कसी भी जाित म य न पैदा हो, वह भ का भ ही रहता है। उसका मह व
कम नह होता।
भि क ठन अित दुलभ, भेष सुगम िनत सोय।
भि जु यारी भेष से, यह जानै सब कोय।।

कबीर कहते ह क भि ब त क ठन व दुलभ है और रोजाना वेश बना लेना तो ब त सुगम है। भि वेश से
िभ है और वेश बनाने वाली भि स ी भि से अलग है, यह सभी को पता है।
भि नसेनी मुि क , संत चढ़े सब धाय।
िजन िजन मन आलस कया, जनम-जनम पिछताय।।

कबीर कहते ह क भि ही मुि यानी मो का पायदान है। जो भ भि पी पायदान पर चढ़ते ह, वे


ई र को ा कर लेते ह और जो आल य करते ह वे ज म-ज म तक अफसोस करते ह।
भि दुवारा साकरा, राई दशव भाय।
मन तो मैगल होय रहा, कै से आवै जाय।।

कबीर कहते ह क भि का जो ार है वह ब त ही संकरा है और वह भी राई के दाने के दसव भाग के बराबर


है और अिभमान वश तु हारा मन तो म तमौला हो रहा है, बताओ उस दरवाजे म उसका आना-जाना कै से होगा।
भि गद चौगान क , भावै कोइ लै लाय।
कह कबीर कु छ भेद न हं, कहा रं क कहं राय।।

कबीर कहते ह क भि तो मैदान म पड़ी गद के समान पड़ी है, िजसे अ छी लगे वह ले जाए। धनी-गरीब,
ऊंच-नीच का कोई भी भेद-भाव इसम नह है। िजसके मन म भु- ेम है, उसके िलए ही भि का माग है।
कबीर गु क भि क ं , तज िवषया रस च ज।
बार-बार न हं पाइये, मानुष ज म क मौज।।

कबीर कहते ह क हे ाणी! स गु क भि कर और िवषय-वासना का रस लेना छोड़। बार-बार मानुष


तन नह िमलने वाला और न ही यह सौभा य ही ा होने वाला है।
कबीर गु क भि का, मन म ब त लास।
मन मनसा माजै नह , होन चहत है दास।।

कबीर कहते ह क स गु क भि का मन म ब त ा है ले कन वासना का याग कए िबना गु क


शरण म जगह नह िमलने वाली। तुम उनका दास नह बन सकते।
जब लग नाता जाित का, तब लग भि न होय।
नाता तोड़े गु भजै, भ कहावै सोय।।

कबीर कहते ह क जब तक मन म जाित-कु ल का अिभमान है तथा ऊंच-नीच का म है, तब तक भि तुमसे


नह हो सकती है। अिभमान से नाता तोड़ने के बाद स गु का ान हो सकता है और उनक भि म मन लग
सकता है।
ेम िबना जो भि है, सो िनत दंभ िबचार।
उदर भरत के कारन, ज म गंवाये सार।।

कबीर कहते ह क िजस भि म ेम नह है, वह भि नह मा दखावा है। पेट भरने क खाितर ऐसे भ
अपनी सारी उ यूं ही िबता देते ह।
टोटे म भ करै , ताका नाम सपूत।
मायाधारी मसखर, के ते गये अऊत।।

कबीर कहते ह क जो घाटे म भी ई र क भि करता है, वह स ा भ है। छ वेशधारी कतने ही मसखरे


झूठी भि के गुमान म समा हो गए। भि मजाक क चीज नह है। भि करो तो स े मन से करो।
खेत िबगारे उ खरतुआ, सभा िबगारी कू र।
भि िबगारी लालची, य के सर म धूर।।

कबीर कहते ह क घास खेत क फसल को िबगाड़ देती है, मह फल को दु कृ ित के लोग खराब कर देते ह।
लोभी कृ ित के लोग भि को बदनाम कर देते ह और के सर को धूल खराब कर देती है।
ितिमर गया रिव देखते, कु मित गयी गु ान।
सुमित गयी अित लोभ ते, भि गयी अिभमान।।

कबीर कहते ह क सूय के िनकलते ही अंधकार चला जाता है और गु - ान से कु मित चली जाती है। अित
लोभ से सुमित चली जाती है तथा अिभमान करने से भि न हो जाती है।
भि महल ब ऊंच है, दूरिह ते दरशाय।
जो कोई जन भि करे , शोभा बरिन न जाय।।

कबीर कहते ह क भि का मं दर ब त ऊंचा है और दूर से ही दखता है। जो कोई ि भि करता है


उसके स दय का कोई वणन नह ।
भि िनसेनी मुि क , संत चढ़े सब आय।
नीचे बािघिन लु क रही, कु चल पड़े कू खाय।।

कबीर कहते ह क भि जो है मो का सोपान है। सभी संत उस पर आकर चढ़ते ह और सीढ़ी के नीचे माया
पी बािघन छु पकर घात लगाए बैठी है, जो जरा-सी भी गलती करे गा वह उसको अपने पंज म दबोचकर खा
जाएगी।
कहने का भाव है क जो भ जन ह, उ ह माया से बचना चािहए।
कबीर गब न क िजये, काल गहे कर के स।
ना जानो कत मा र ह, या घर या परदेस।।

कबीर कहते ह क वयं पर गव न करो। काल ने तु हारे के श को पकड़ रखा है। न जाने कहां मार दे‒घर म या
परे दश म। जीवन का कोई भरोसा नह ।
कबीर गब न क िजये, ऊंचा देिख अवास।
काल पर भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास।।

कबीर कहते ह क ऊंचा महल देखकर अिभमान न करो। कल-परस कभी तो जमीन पर लेटना ही है और
तु हारी देह पर घास उगनी ही है।
कबीर गब न क िजये, चाम लपेटी हाड़।
हयबर ऊपर छ तट, तो भी देव गाड़।।
कबीर कहते ह क चाम लपेटी हाड़-मांस क देह पर घमंड न करो। अ छे घोड़े क सवारी करो या राजग ी
पर बैठो तु हारे मृत पड़े शरीर को पलक झपकते ही लोग माटी म गाड़ दगे।
कबीर नौबत आपनी, दन दस ले बजाय।
यह पुर प न यह गली, ब र न देख आय।।

कबीर कहते ह क धन-संपदा के नशे म म त होकर दस दन ढोल-नगाड़े भले ही बजवा लो। इसके बाद तो
यह गली, यह गांव दुबारा देखने को नह िमलगे।
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै ब त मढ़ान।
सबही ऊभा प थ िसर, राव रं क सु तान।।

कबीर कहते ह क जीवन तो थोड़ा-सा है और दुिनया भर क सुख-सुिवधाएं जमा कर रखा है। राजा-रं क
सबको ही आना-जाना है। जीवन-मृ यु का यह खेल सब खेल रहे ह। कोई भी इससे मु नह है, फर इतनी सुख-
सुिवधाएं कसिलए?
कबीर धूल सके िल के , पुड़ी जो बाधी येह।
दवस चार का पेखना, अ त खेह क खेह।।

कबीर कहते ह क जीव ने िम ी को इक ा कर यह शरीर खड़ा कर िलया है। ले कन यह तो बस चार रोज के


िलए ही है। अंततः इसे िम ी म िमल जाना ही है।
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फू ल।
दन दस के वहार म, झूठे रं ग न भूल।।

कबीर कहते ह क यह संसार सेमर के फू ल क तरह के वल देखने म ही िखला आ दखता है। दस दन के इस


जीवन च म संसार क चहल-पहल म यह मत भूलो क तु ह मरकर यहां से जाना भी है।
कबीर जो दन आज है, सो दन नाह काल।
चेित सकै तो चेत ले, मीच परी है याल।।

कबीर कहते ह क जो दन आज है, वह कल भी रहेगा, कोई ठीक नह । समझ सके तो समझ ले, मौत तेरे िसर
पर सवार है।
कबीर बेड़ा जरजरा, कू ड़ा खेवनहार।
ह ये ह ये त र गये, बूड़े िजन िसर भार।।

कबीर कहते ह क बेड़ा (जहाज) जजर अव था म है और खेने वाला नािवक मूख है। जो अिभमानी नह ह, वे
तो भवसागर पार कर गए और िजनके शरीर पर अहंकार का बोझ है, वे मझधार म ही डू ब गए।
कबीर नाव तो झांझरी, भरी िबराने भार।
के वट सो परचै नह , य कर उतरे पार।।

कबीर कहते ह क शरीर पी नाव तो झांझरी है यानी उसम अनेक छेद ह और वह भी मायावी भार िसर पर
रख िलया है तथा पार लगाने वाला के वट यानी सदगु है उससे कोई प रचय नह है। प रचय हो तो कै से, कभी
भजन-क तन कया ही नह । फर वह पार कै से ले जा सकता है।
कबीर ज न बाजई, टू ट गये सब तार।
ज िबचारा या करे , गया बजावन हार।।

कबीर कहते ह क शरीर पी यं कै से बजेगा, जब सारे तार टू ट गए ह। यं बेचारा कर ही या सकता है जब


बजाने वाला सांस पी तार ही नह है अथात् तब शरीर म जीव ही नह है तो फर यह शरीर कै से कोई हरकत
करे गा। अब तो यह जीव िबना माटी है।
पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय।
ना जानो या होयगा, पाव के चाथै भाय।।

कबीर कहते ह क पल भर क बात कौन करे । मुझसे तो इतना भी कहा नह जाता क न मालूम पल के
चौथाई के चौथाई पल म या होगा। यहां तो भिव य का ान कसी को भी नह है।
ऊचा दीसे धौरहा, माड़ी चीती पोल।
एक गु के नीम बीन, जम मारगे रोज।।

कबीर कहते ह क ऊंची अटारी नजर आ रही है और रं ग से तरह-तरह क िच कारी क गई है ले कन सब


बेकार है। एक गु के ान िबना काल पल-भर म ही यह जीवन न कर देगा।
कहा चुनावै मेिड़या, ल बी भीत उसा र।
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चा र।।

कबीर कहते ह क तू ल बी दीवार व बरामदा सिहत महल बनवाने म त है। तेरा घर तो बस साढ़े तीन
हाथ का ही है। ब त आ तो पौने चार हाथ, इससे अिधक तो होने से रहा। तू सावधान हो जा।
मौत िबसा र बाबरी, अचरज क या कौन।
मन माटी म िमल गया, जय आटा म लौन।।

कबीर कहते ह क ऐ बावली! तू मौत को कै से भूल गई। तुझे इस गलत-फहमी म कसने रखा क वह नह
आएगी। मुझे तो तुझे देखकर हैरत हो रही है। एक रोज यह शरीर माटी म उस तरह ही िमल जाना है, जैसे आटा
म नमक िमल जाता है।
जनमै मरन िवचार के , कू रे काम िनवा र।
िजन पंथा तोिह चालना, सांई पंथ संवा र।।

कबीर कहते ह क कमफल भोगने के िलए आ मा ज म-मरण के च ूह म घूमता रहता है‒इस च ूह से


बाहर कै से आया जाए यह सोचकर बुरे कम को छोड़ने क कोिशश करो। िजस रा ते पर तु ह चलना है, बस उसी
रा ते को संवारो।
लकड़ी कहै लुहार से, तू मित जारे मो हं।
एक दन ऐसा होयगा, म जार गी तोिह।।

कबीर कहते ह क लकड़ी लोहार से कहती है‒तू मुझे मत जला। एक रोज ऐसा भी होगा क म तुझे जलाऊंगी
और इतना जलाऊंगी क तू राख हो जाएगा।
यह जन काचा कुं भ है, िलया फरै थे साथ।
टपका लागा फु ट गया, कछु न आया हाथ।।
कबीर कहते ह क यह शरीर क े घड़े के समान है, हम इसको साथ िलए घूम रहे ह। अचानक ही समय का
एक झटका लगा और फू टकर िबखर गया। हमारे हाथ कु छ भी न लगा। हम तो यूं ही गलतफहमी के िशकार हो
गए।
कबीर पानी हौज का, देखत गया िबलाय।
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु प ंचा आय।।

कबीर कहते ह क हौज के पानी का या देखते-ही-देखते सारा पानी नाली के रा ते बह गया। जीव क भी
गित ऐसी ही है। उसे भी ऐसे ही एक दन जाना है। शरीर पी हौज से ास नाक पी नाली से िनकलते-
िनकलते एक दन अचानक ही गायब हो जाएगा और यह शरीर यूं ही िम ी क तरह जमीन पर पड़ा रह जाएगा।
बस काल के प च
ं ने क देर है।
मरगे म र जायगे, कोई न लेगा नाम।
ऊजड़ जाय बसायगे, छोिड़ बस ता गाम।।

जो लोग ह उ ह मरना ही ह और िनि त प से मरना है, इसम कोई शक नह है। मरने के बाद उ ह कोई याद
नह करे गा। फर अपना गांव छोड़कर पशु आ द योिन म ज म लगे और जंगल म अपना घर बनाएंगे अथात् जो
मरगे, उनका दोबारा ज म अव य ही होगा।
ऊजड़ खेड़े टे करी, घिड़ गये कु हार।
रावन जैसा चिल गया, लंका का सरदार।।

कबीर कहते ह क जंगल क जमीन को खेत बनाकर फसल उगाने वाले कसान और भूिम को खोद-खोद कर
ग ा बनाने वाले कु हार क या िबसात जब रावण जैसा महाबली वीर व िव ान लंकापित भी मृ यु से नह बच
पाया।
आज काल के बीच म, जंगल होगा वास।
ऊपर ऊपर हल फरै , ढोर चरगे घास।।

कबीर कहते ह क स गु क शरण म जाओ। आजकल करते-करते यह शरीर जंगल म फूं क दया जाएगा, फर
इसके ऊपर हल से जुताई होगी और पशु घास चरगे।
हाड़ जरै जस लाकड़ी, के स जरै य घास।
सब जग जरता देिख क र, भये कबीर उदास।।

ह ी ऐसे जले जैसे लकड़ी जलती है और के श ऐसे जले जैसे घास जलती है। सारे संसार को जलता आ देखकर
यह कबीर वा तव म ही उदास हो गया क लोग ह र भजन य नह करते।
या मन गिह जो िथर रहै, गहरी धूनी गािड़।
चलती िब रयां उ ठ चला, ह ती घोड़ा छािड़।।

कबीर कहते ह क इस मन को पकड़कर जो ि थर रहता है और यान म म रहता है, वही ानी है। संसार से
जाते समय लोग हाथी, घोड़ा सब छोड़ जाते ह। कु छ भी साथ नह जाता है।
म भ रा तोिह बरिजया, बन बन बास न लेय।
अटके गा क बेिल म, तड़ फ तड़ फ िजय देय।।

कबीर कहते ह क हे चंचल मन! मने तुझसे मना कया था क भ रा बनकर िवषय के उपवन म मत अपना
घर बना। कह खूबसूरत बेिल यानी ी आ द म उलझ जाएगा तो यूं ही तड़प-तड़प कर दम तोड़ देगा। तूने मेरा
कहा नह माना, अब सजा भुगत।
डर करनी डर परम गु , डर पारस डर सार।
डरत रहै सो ऊबरे , गा फल खाई मार।।

कबीर कहते ह क यह डर बड़े काम क चीज है। बुरे कम से डरने के कारण ही आदमी बुरे कम नह करता है,
डर के कारण ही गु के ित आ था उ प होती है, डर ही पारस प थर है, डर ही जगत का सार है। जो संसार म
डर-डरकर काय करता है यानी सावधान रहता है, वह सागर को पार कर जाता है और जो डरता नह और
असावधान रहता है, वही मार खा जाता है। डर सारे पाप से दूर रखने वाला एक ऐसा अमोघ मं है, जो बुरा
कम करने से हर पल रोकता है।
हे मितहीनी मािछरी, रािख न सक शरीर।
सो सरवर सेवा नह , जाल काल न हं क र।।

कबीर कहते ह क हे बुि हीन मछली! तू अपने-आपको सुरि त नह रख सकती य क तूने ऐसे िवशाल व
बड़े तलाब म अपना घर नह बनाया है, िजसम जाल न डाला जा सके । तेरी मौत िनि त है।
दुिनया सेती दोसती, मुआ, होत भजन म भंग।
एकाएक राम स , कै साधुन के संग।।

कबीर कहते ह क कु संगित करने से या सांसा रक लोग से मेल-जोल बढ़ाने पर भजन-क तन म बाधा ही
उ प होती है। सि दानंद भगवान राम से नेह लगाओ या साधु के साथ बैठकर स संग का लाभ उठाओ।
कु ल खोये कु ल ऊबरै , कु ल राखे कु ल जाय।
राम िनकु ल कु ल भे टया, सब कु ल गया िबलाय।।

कबीर कहते ह क कु ल को खोने से कु ल का मान बढ़ता है। कु ल को रखने से कु ल जाता है। सब कु ल-जाित से
मु राम क भि ा हो जाने पर जाित, धम, कु ल का नाश हो जाता है।
कु ल करनी के कारने, हंसा गया िबगोय।
तब कु ल काको लािज है, चा र पांव का होय।

कबीर कहते ह क तुमने कु ल, खानदान व जाित क मयादा म पड़कर जाने या- या नीच कम कए और इस
ज म को िबगाड़ िलया। या तब भी कु ल क मयादा बची रहेगी जब भि भाव न होने के कारण अगले ज म म
चार टांग वाला पशु बनोगे? अरे समय है, सुधर जाओ।
मलमल खासा पिहनते, खाते नागर पान।
टे ढ़ा होकर चलते, करते ब त गुमान।।

महलन माही पौढ़ते, प रमल अंग लगाय।


ते सपने दीसै नह , देखत गये िबलाय।।

कबीर कहते ह क मलमल के व धारण करते थे, नागर-पान खाते थे। गव से चूर तनकर चलते थे और वयं
पर ब त उ ह नाज था। आलीशान महल म वह रहते थे और सुगंिधत को अंग पर मलते थे। वह अब सपने
म भी कह नजर नह आते। देखते-ही-देखते वह अपने अि त व के साथ गायब हो गए। कहने का भाव है क इस
जीवन का कोई अि त व नह है।
य कोरी रे जा बुन,ै नीरा आवै छौर।
ऐसा लेखा मीच का, दौ र सकै तो दौर।।

कबीर कहते ह क जैसे जुलाहा नरी चलाकर एक-एक धागा िपरोते ए कपड़ा बुनता है और उसका छोर पास
आता जाता है, वैसे ही मौत भी रोजाना आती-जाती है, अभी भी समय है, दम है तो दौड़ लगाओ और मो के
िलए सदगु क शरण म जाकर यान लगाओ।
कबीर संगत साधु क , िनत ित क जै जाय।
दुरमित दूर बहावसी, देशी सुमित बताय।।

कबीर कहते ह क ित दन साधु संगित करो यानी साधु-संत के साथ उठो-बैठो, इससे मन िनमल होकर
स बुि ा करगी तथा दुबुि जाएगी।
एक बु द के कारने, रोता सब संसार।
अनेक बु द खाली गये, ितनका नह िबचार।।

कबीर कहते ह क संतान का शरीर वीय क एक बूंद होता है, उसक मृ यु हो जाने पर संसारी लोग रोते-
िबलखते ह और जब अनेक बूंद यूं ही सहवास के व खराब हो जाती ह तो कोई नह रोता। यह संसार और इस
संसार क माया जाने कै सी है।
कबीर कलह अ क पना, संतसंगित से जाय।
दुख वासो भागा फरै , सुख म रहै समाय।।

कबीर कहते ह क कलह और क पना स संग से ही दूर होती है। इससे दुःख गायब हो जाता है और सुख क
िनिध ा हो जाती है। स संग म अपार शि होती है।
जो तू परा है फं द म िनकसेगा कब अंध।
माया मद तोकूं चढ़ा मत भूले मितमंद।।

कबीर कहते ह क तू िजस मोह-माया के फं दे म पड़ा है अंधे, उससे कब मु होगा? तेरे मन म तो माया का रं ग
चढ़ा है। ले कन हे मंदबुि ! तू इसम उलझकर अपना जीवन मत गंवा।
कबीर काया पा नी, हंस बटाऊ मा हं।
ना जानूं कब जायगा, मोिह भरोसा ना हं।।

कबीर कहते ह क यह शरीर एक सवारी है और यह जीव एक या ी है, जो शरीर पी सवारी पर चढ़ गया है।
यह कसी को भी नह पता क यह या ी कब चल देगा। मुझे तो इस पर जरा-सा भी िव ास नह है।
िजन घर नौबत बाजती, होत छतीस राग।
सो घर खाली पड़े, बैठन लागे काग।।

कबीर कहते ह क िजन घर म रोजाना नगाड़े बजते थे, खुिशयां मनाई जाती थी, सारं गी बजा करती थी और
तरह-तरह के राग अलापे जाते थे, वे घर भी खाली पड़े ह और उन पर कौ ने अपना बसेरा बना िलया है। काल
के साथ-साथ सब कु छ समा हो जाता है।
या क रये या जोिड़ये, थोड़े जीवन काज।
छािड़ छािड़ सब जात ह, देह गेह धन राज।।
कबीर कहते ह क या करना या जोड़ना यह जीवन बस थोड़ा-सा ही है। छोड़-छोड़कर सब जा रहे ह देह,
घर, धन और राजपाट। कु छ भी तो कोई यहां से लेकर नह जा रहा है।
जागो लोग मत सुवो, ना क ं न द से यार।
जैसा सपना रै न का, ऐसा यह संसार।।

कबीर कहते ह क ऐ ाणी! जाओ सोओ मत। न द से इतना यार न करो। जैसा सपना रात का ऐसा यह
संसार है। सपना कभी भी अपना नह होता है। आज जो देखा वह सुबह नह दखेगा।
गु मूरित आगे खड़ी, दुितया भेद कछु नािह।
उ ह को फरमान क र, सकल ितिमर िमट जािह।।

कबीर कहते ह क गु क मूरत और गु म कोई अ तर नह है। गु नह है तो या आ, उनक मूरत से ही


आ ा लो और उनक मूरत को ही णाम करो। तु हारे मन के सारे अंधकार िमट जाएंगे।
गु नाम है ग भ का, शीष सीख ले सोय।
िबनु पद िबनु भरजाद नर, गु शीष निह कोय।।

कबीर कहते ह क मो का रा ता दखाने वाला गु ही है और िश य वह है जो गु क िस ांत को हण कर


ले। गु ान दे और िश य उस ान को हण करे , यही गु -िश य क मयादा है।
गु वा तो सरता भया, कौड़ी अथ पचास।
अपने तन क सुिध नह , िश य करन क आस।।

कबीर कहते ह क आजकल लोभी गु ब त ह। उ ह इस बात का भी बोध नह क उनका वहार कै सा है।


भला िश य उनसे ान ा करने क आशा करते ह तो कै से यह संभव हो सकता है।
बंधे को ब धा िमला, छू टे कान उपाय।
कर सेवा िनरबंध क , पल म लेय छु ड़ाय।।

कबीर कहते ह क बंधे यानी अ ानी को बंधा यानी अ ानी िमल जाए तो वह कसी भी बंधन से छू ट नह
सकता है। िनरबंध यानी ानी क सेवा करने पर वह तुरंत ही यम के बंधन से भी मु करा लेगा। इसिलए सेवा
करनी हो तो ानी क सेवा करो।
कहता किह जात , देता हेला।
गु क करनी गु जाने चेला क चेला।।

कबीर कहते ह क सबको ऊंची आवाज म कहकर सुनाता ‒ं गु जो करगे उसक सजा भुगतगे और िश य
जैसा कम करे गा वैसा फल वह भुगतेगा। अपने-अपने कम क सजा दोन ही भुगतगे।
आगे अ धा कू प म, दूज िलया बुलाय।
दोन बूड़े बापुरे, िनकसे कौन उपाय।।

कबीर कहते ह क अ ानी गु गलती से कु एं म िगर पड़ा है और िश य को भी बुलाकर उसी कु एं म डाल दया
है। अंततः उ ह डू बना ही था, दोन ही डू ब गए। अ ानी अपनी अ ानता के कारण ऐसे ही डू ब मरते ह और साथ
वाल को भी डु बो देते ह।
अहं अि िनिश दन जरै , गु सौ चाहे मान।
ताको जम योता दया, होड़ हमार मेहमान।।

कबीर कहते ह क जो ि दन-रात घमंड क आग म जलते रहते ह, और गु से आदर और ान क कामना


करते ह, उनको यम यौता दे देता है क तुम हमारे यहां आओ। गु के पास तु हारे िलए कोई जगह नह है। कहने
का भाव है क अिभमानी क जगह िसफ और िसफ यमपुरी म ही है।
मूल यान गु प है, मूल पूजा गु पांव।
मूल नाम गु वचन है, मूल स य सतभाव।।

कबीर कहते ह क गु ही यान का मूल प है और पूजा का मूल प गु चरण क वंदना है। मूल नाम गु
के उपदेश ह और स य को हण करने क लालसा ही स य का मूल है।
जैसी ीित कु टु ब क , तैसी गु सो होय।
कहै कबीर ता दास का, पग न पकड़े कोय।।

कबीर कहते ह क जैसी ीित अपने प रजन से है वैसी ीित गु से भी हो जाए तो िश य का उ ार हो जाए
ले कन कोई िश य गु से इतना गहरा लगाव नह रख पाता है और जान-बूझकर नरक क पीड़ा सहता है। गु
ान का प है।
जो गु पूरा होय तो, शीषिह लेय िनबािह।
शीष भाव सु जािनये, सुत ते े िशष आिह आिह।।

कबीर कहते ह क जो गु पूरी तरह से ानी होता है, वह िश य को स ाग पर ले जाता है। िश य-भाव और
पु -भाव एक जैसा ही होता है, फर भी पु से िश य हर मामले म े होता है य क बेटा से संबंध वाथवश है
और िश य ान- ाि का इ छु क होता है, वह गु को ई र तक प च ं ने का मा यम मानकर उसक वंदना करता
है।
साबुन िबचारा या करे , गांठे राखे मोय।
जल स अरसा परस न हं, य कर ऊजल होय।।

कबीर कहते ह क बेचारा साबुन या कर सकता है जब उसे गांठ म बांधकर रखा है अथात् उसका इ तेमाल
ही नह कया जा रहा है। पानी से जब उसका कोई संबंध ही नह , तो फर सूखे रगड़ने से व कै से साफ हो
सकता है।
अबुध सुबुध सुत, मातु िपतु, सब हं करे ीितपाल।
अपनी ओर िनबािहये, िसख सुत गिह िनज चाल।।

कबीर कहते ह क माता-िपता िनबुि ह या बुि मान ह अपने पु का पालन-पोषण अव य ही करते ह


वैसे ही गु भी पु के समान अपने िश य को ान के मा यम से स ाग क राह दखाते ह।
सोइ सोइ नाच नचाइये, जेिह िनबहे गु ेम।
कहै कबीर गु ेम िबन, कतु ं कु शल न हं ेम।।

कबीर कहते ह क अपने मन व इं य को इतना याशील करो क गु के मन म तु हारे ित ेम पैदा हो


जाए य क गु के ेम के िबना कह भी तु हारा क याण या कु शल ेम नह है।
स गु सम कोई नह , सात दीप नौ ख ड।
तीन लोक न पाइये, अ इकइस ा ड।।

कबीर कहते ह क स गु के समान कोई नह है। सात ीप, नौ ख ड, तीन लोक और इ स ा ड म


स गु क तरह तु हारा भला चाहने वाला कोई नह है, वयं तुम भी नह । स गु क शरण म जाओ। वह
तु हारी र ा करगे।
डू बा औधर न तरै , मोिह अ देशा होय।
लोभ नदी क धार म, कहा पड़ो नर सोय।।

कबीर कहते ह क नदी के चकोह (कु धार) म डू ब रहा इं सान चाहकर भी बच नह पाता है। मुझे तो भय है क
लोभ पी नदी के चकोह म तुम सदा के िलए डू ब न जाओ। लोभ क नदी के चकोह से बाहर िनकलो।
स गु िमलै जु सब िमलै, न तो िमला न कोय।
मात-िपता सुत बौधवा, ये तो घर-घर होय।।

कबीर कहते ह क सदगु अगर तु ह िमल गए तो समझो सब कु छ िमल गया। स गु नह िमला तो तु ह कु छ


भी नह िमला। माता-िपता, भाई-बहन तो घर-घर होते ह।
संगत सोई िबगुचई, जो है साकट साथ।
कं चन कटोरा छािड़ के , सनहक ली ही हाथ।।

कबीर कहते ह क जो लोग दु के साथ रहते ह, वे संकट म पड़ जाते ह। बुि मान लोग सोने का कटोरा
छोड़कर िम ी के बतन से काम चलाते ह ले कन दु से बतन नह लेते ह।
कहने का भाव है क दु क संगित म न तो रिहए और न ही उनसे कोई लेन-देन क िजए।
शुकदेव सरीखा फे रया, तो को पावे पार।
िबन गु िनगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार।।

कबीर कहते ह क शुकदेव जैसा महा ानी भी िनगुरा होने पर भगवान िव णु क सभा से िनकाल दया गया,
फर और क या औकात है। गु मुख ए िबना मनु य क गित नह है। उसे तो चौरासी लाख योिनय म यूं ही
जीवन-मरण क धारा म बहते ही रहना है।
कबीर गु क भि िबन, राजा रासभ होय।
माटी लदै कु हार क , घास न डारै कोय।।

कबीर कहते ह क गु भि के िबना राजा भी मरकर गधा बन जाता है, जो सारा दन कु हार क िम ी
लादता है और कु हार उसके आगे घास भी डालने क ज रत नह समझता है।
ह र संगत शीतल भया, िमटी मोह क ताप।
िनिश वासर सुख िनिध लहा, आन के गटा आप।।

कबीर कहते ह क भगवान का सुिमरन करने से जीव को शांित िमलती है और मन शीतल होता है। मोह-माया
से ेम करने से दुःख-क बढ़ता है। रात- दन ि सुख से दूर रहता है। यही सब दुिनया क मू यवान िनिध है
और यह िनिध ई र भि से ही िमलती है।
वृ बोला पात से, सुन प े मेरी बात।
इस घर क यह रीित है, एक आवत एक जात।।
कबीर जीवन-मरण के संदभ म समझाते ए कहते ह क पेड़ अपने प को िगरता आ देखकर कहता है क
इस संसार क तो यही रीित है। पुराने प े टू टकर िगरते ह और नये प े आते ह। एक आता है और एक जाता है।
इसी तरह से बूढ़े मरते ह और नए लोग ज म लेते ह। जीवन-मरण का यह खेल अनवरत यूं ही चलता रहेगा। इसम
बुरा मानने क ज रत नह है।
आन देव क आश क र, मुख मेले मद मास।
जाके जन भोजन कर, िन य नरक िनवास।।

कबीर सांसा रक लोग को समझाते ह क िजन देवी-देवता को लोग नह जानते, उनसे चम कार क आशा
करके उन पर म दरा-मांस चढ़ाते ह और उसे साद मानकर हण करते ह, ऐसे लोग िनि त प से नरक म
जाते ह और घोर क सहते ह।
सौ बरस हं गु भि क ं , एक दन पूजै आन।
सो अपराधी आतमा, परै चौरासी खान।।

कोई सौ वष तक गु क भि करके अगर एक रोज भी कि पत देवी-देवता क पूजा करता है, वह जीवन-


मरण से कभी छु टकारा नह पाता है।
क या वर अ कारने, आनदेव को खाय।
सो नर ढोल बाजते, िन य नरके जाय।।

कबीर कहते ह क वर-क या क चाह म या दूसरे कसी कारण से जो लोग कसी कि पत देवता के नाम पर
जीव क बिल चढ़ा के उस मरे ए जीव को खाता है, वह ढोल-बाजे के साथ अव य ही नरक म जाता है। उसे कोई
नरक जाने से रोक नह सकता है।
होम कनामत कारने, साकु ट रांधा खाय।
जीव िव ा खान क , मूआ नरके जाय।।

कबीर कहते ह क हवन- ा म भोजन करने क इ छा से जो लोग महापा लोग का बनाया आ भोजन
करते ह, वे िज दा ही कु े का मल-मू खाने के समान वहार करते ह और मरने पर उ ह िनि त प से नरक
क ाि होती है।
कामी तरै कोधी तरै , लोभी क गित होय।
सिलल भ संसार म, तरत न देखा कोय।।

कबीर कहते ह क कामी तर जाता है, ोधी तर जाता है, लोभी भी तर जाता है ले कन शराब पीने वाल को
तरते ए हमने नह देखा है। म दरा सेवन सबसे िनक कम है, जो ि से सारे पाप करवाता है।
तन मन ल ा ना कर, काम बान उर साल।
एक काम सब बस कये, सुन नर मुिन बेहाल।।

काम भावना जब बल होती है तब ि अपने तनमन का यान नह रखता। लोक-लाज का भी उसे यान
नह रहता। एक कामदेव ने सबको ही अपने वश म कर िलया है तथा इस काम क आग म सुर-नर बेहाल ह।
बु द िखरी नर ना र क , जैसी आतमघात।
अ ानी मानै नह , मेिह बात उ पात।।

कबीर कहते ह क वीयपात हो जाने के बाद ी-पु ष दोन क ही कामाि शांत हो जाती है और वे
आ मह या क तरह अफसोस करने लगते ह ले कन फर अगले ही पल वही गलती दोहराते ह। अ ानता के कारण
लोग मानते नह ह, यही तो आ य क बात है।
कहता ं किह जात ं मानै नह गंवार।
बैरागी िगरही कहा, कामी वार न पार।।

कबीर समझाते ह‒कहता ं और कहकर जाता ं ले कन गंवार नह मानते ह। संत ह या गृह थी कामी वृि
के लोग का उ ार नह होता। काम-वासना ान ाि के सारे रा त को सदा के िलए बंद कर देती है।
कामी तो िनरभय भया, करै न का संथ।
इ ी के रे बिस पड़ा, भुगते नरक िनसंक।।

कबीर कहते ह क कामी िनल व िनभय हो जाता है और कसी से भी डरता नह है। वह इं य के वशीभूत
होकर लोक-परलोक िबगाड़कर नरक म वास करता है।
कामी कु ा तीस दन, अ तर होय उदास।
कामी नर कु ा सदा, छह रतु बारह मास।।

कबीर कहते ह क कु ा काम के वश म महीने म के वल एक दन समागम करता है, फर वह काम के वश म


नह रहता है ले कन कामी पु ष छह ऋतु और बारह माह सदा कु ा ही बना रहता है। वह िवषय-वासना से
कभी उदासीन नह होता है।
भग भोगे भग उपजै, भग ते बचे न कोय।
कहै कबीर भगते बचै, भ कहावै सोय।।

कबीर समझाते ह क िवषय को भोगने पर िवषय ारा ज म लेना पड़ता है। ऐसे ि ज म-मरण से
छु टकारा नह पाते। जो लोग िवषय-वासना से दूर रहते ह, वही सही अथ म भ होते ह।
काम ोध मद लोभ क , जब लग घाट म खान।
कबीर मूरख पि डता, दोन एकसमान।

कबीर कहते ह क काम, ोध, मद, लोभ जब तक मन म वास करते ह तब तक मूख और पंिडत म कोई फक
नह होता है। दोन एक जैसे ही होते ह। जो इन दुगुण से दूर रहते ह, वही स े पंिडत ह।
कामी अमी न भावई, िवष को लेवै शोध।
कु बुि न भाजै जीव क , भावै य परमोघ।।

कबीर कहते ह क कामी पु ष को चय पी अमृत अ छा नह लगता है। उसे िवष पी िवषय-वासना ही


भाती है। कामी पु ष के मन से कामे छा नह िनकाली जा सकती; चाहे िजतना ही ान क बात कर ल।
िन दक एक मित िमलै, पापी िमलै हजार।
इस िन दक के शिश पर, लाख पाप का भार।।

कबीर कहते ह क पापी हजार िमल जाएं, कोई बात नह , पर एक भी नंदक से मुलाकात न हो य क एक
नंदक के िसर पर लाख पाप का बोझ होता है। संत कबीर ने नंदक को सबसे बड़ा पापी माना है।
िन दक तो है नाक िबन, िनस दन िव ा खाय।
गुन छाड़ै अवगुन गहै, ितसका यही सुभाय।।

कबीर कहते ह क नंदक क तो नाक होती ही नह है। वह नाक के िबना होता है, जो ित दन दूसर क नंदा
कर िब ा खाने जैसा दु कम करता है। नंदक गुण को छोड़कर अवगुण को हण करता है, उसका तो ऐसा वभाव
ही है। उसे सुधारा नह जा सकता।
िन दक तो है नाक िबन, सोहै नकट मािह।
साधु जन गु भ जो,ितन म सोहै नािह।।

नंदक जो होता है वह िबना नाक का होता है और वह उ ह के बीच शोभा देता है, जो न टे होते ह। स न
और संत के बीच म वह शोभा नह देता है।
िन दक से कु ा भला, हटकर माड़ै रार।
कु े से ोधी बुरा, गु दलावै गार।।

कबीर कहते ह क नंदक से अ छा कु ा होता है, जो दूर से भ कता है। कु े से ोधी बुरा होता है, जो अपने
गु को भी गाली दलवा सकता है।
जो कोई िन दै साधु को, संकट आवै सोय।
नरक जाय ज मै मरै , मुि कब ं निह होय।।

कबीर कहते ह क जो साधु क नंदा करता है, उसका कभी उ ार नह होता है। वह नरक को ा करता है
और ज म-मरण के फे र म पड़कर अपार क सहता है। उसे मो कभी नह िमलता है।
कबीर िन दक म र गया, अब या किहय जाय।
ऐसा कोई ना िमला, बीड़ा लेय उठाय।।

कबीर कहते ह क मेरा नंदक मर गया। अब या कहा जाए? ऐसा कोई नह िमला जो फर से मेरी नंदा
करने का बीड़ा उठा सके ।
कं चन को तजबो सहल, सहल ि या को नेह।
िन दा के रो याग बो, बड़ा क ठन है येह।।

सोना, धन और ी का याग कर साधु का चोला पहन लेना आसान है, पर दूसर क बुराई करने क आदत
को छोड़ना आसान नह है।
का को निह िनि दये, चाहे जैसा होय।
फर फर ताको बि दये, साधु ल छ है सोय।।

कबीर कहते ह क कोई कै सा भी हो, उसक नंदा करने क ज रत नह है। इसके िवपरीत उसक बार-बार
शंसा ही करनी चािहए। यही एक संत क पहचान है।
अड़सठ तीरथ िन दक हाई, देह पल से मैल न जाई।
छ पन को ट धरती फ र आवै, तो भी िन दक नरकिह जावै।।

कबीर कहते ह क अड़सठ तीरथ म नंदक ान करता है तो भी उसके शरीर का मैल नह धुलता है। वह
पृ वी क अनेक बार प र मा कर ले, तब भी नंदक नरक म ही जाता है।
सात सागर म फरा, ज बू दीप दै पीठ।
पर िन दा नािह करे , सो कोइ िबरला दीठ।।

म सात सागर से िघरी पृ वी पर घूमा। ज बू ीप से आगे गया ले कन एक भी ऐसा आदमी नह िमला, जो


दूसरे क नंदा न करता हो। नंदक हर जगह ह।
आपन को न सरािहये पर िनि दये न कोय।
चढ़ना ल बा धौहरा, ना जाने या होय।।

कबीर कहते ह क अपनी शंसा तथा दूसरे क नंदा कोई न करे य क अभी ब त आगे जाना है, पता नह
आने वाले समय म या हो?
माखी गहै कु वास को, फू ल वास निह लैय।
मधुमा खी ह साधु जन, पु प बास िचत दैय।।

कबीर कहते ह क म खी दुगध को ही हण करती है और फू ल क सुगंध को नह लेती है। ये जो नंदक ह, वे


म खी के समान है। मधुम खी हमेशा फू ल क सुगंध ही हण करती है। मधुम खी जैसा वभाव साधुजन का
होता है, वे सदा गुण को ही हण करते ह।
यह जग कोठी काठ क , च ं दिस लागी आग।
भीतर रह सो जिल मुये, साधु उबरे भाग।।

यह संसार काठ का महल है और चार तरफ आग लगी है, जो भीतर रहते ह या मोहमाया के बंधन म ह, उ ह
जलना ही है। िसफ साधु और भ ही इस आग से बच पाते ह।
को ट करम लागे रहै, एक कोध क लार।
कया कराया सब गया, जब आया हंकार।।

कबीर कहते ह क एक ोध के साथ म करोड़ पापकम होते ह। जैसे ही अहंकार मन म पैदा होता है, सब
कया-कराया न हो जाता है। धम-कम सब बेकार हो जाता है।
जोगी जंगम सेवड़ा, ानी गुनी अपार।
षट् दशन से या बने, एक लोभी क लार।।

कबीर कहते ह क जोगी, जंगम,जैनी, ानी, अपार गुणी और षट् दशन के सब लोग अगर लालच म पड़ जाएं
तो उनका सारा तप- ान न हो जाता है। उनका कोई क याण नह होता है।
एक मोह के कारने, भरत धरी दुइ देह।
ते नर कै से छु ट है, िजनके ब त सनेह।।

कबीर कहते ह क यह मोह बड़ा ही कु टल है। एक िहरण के ब े से ेह हो जाने के कारण भरत को दो शरीर
धारण करना पड़ गया। फर हे ाणी! तुम भवसागर से कै से पार होओगे, तु हारे मन म जाने कतने ही लोग का
ेह समाया आ है। मोह- ेम दुःख के कारण ह।
सुर नर ऋिष मुिन सब फं से, मृग ि ता जगमोह।
मोह प संसार है, िगरे मोह िनिध जोह।।
कबीर कहते ह क सुर, नर, मुिन सब मोह क मृगतृ णा म उलझे ए ह। यह पूरी दुिनया ही माया से बनी है।
सभी मोह-िनिध यानी मोह के समु म डू ब-उतर रहे ह। उ ह कु छ सूझ नह रहा है। ह र भजन का खयाल कसी
को भी नह है।
तद अिभमान न क िजये, कहै कबीर समुझाय।
जा िसर अहं सु संचरे , पड़ै चौरासी जाय।।

कबीर कहते ह क अिभमान करना ठीक नह । िजसके िसर पर अिभमान होता है, वह चौरासी लाख योिनय
म भटकता फरता है। उसे मुि कभी नह िमलती है।
फकर सबी को खा गयी, फकरिह सबका पीर।
फकर का फाका कौ, ताका नाम कबीर।।

फ , तनाव, अवसाद आ द सब ऐसे िवकार ह, जो िज दा मनु य को खा जाते ह और फ ही सब दुःख का


कारण है। जो चंता नह करता है वही स ा संत है।
ब त गयी थोरी रही, ाकु ल मन मत होय।
धीरज सबको िम है, करी कमाई न खोय।।

कबीर कहते ह क काफ समय गुजर गया। अब थोड़ा ही रह गया है। परे शान होकर धैय मत खोओ। धैय ही
सबका स ा िम है। जो इतने दन से कमाया है, उसे ख म न करो।
धीरज बुिध तब जािनये, समझे सबक रीत।
उनका अवगुन आप म, कब ं न लावै मीत।।

कबीर कहते ह क धैय, बुि तुमम है, तभी यह समझो, जब सबके मनोभाव को पढ़ सको तथा कसी क गंदी
लत को हण न कर सको।
बड़ी बड़ाई ऊंट क , लादै जह लग सांस।
मुहकम सिलता ला द के , ऊपर चढ़ै परास।।

कबीर कहते ह क ऊंट क बड़ी बड़ाई है, वह िसर उठाकर चलता है, िजससे जीवन भर बोझ ढोता है। उसक
पीठ पर कठोर काठी कसकर चरवाहा उस पर बैठ जाता है।
कहने का भाव है क अिभमानी और तनकर चलने वाल का ह यही होता है।
बड़ी िवपि बड़ाई है, न हा करम से दूर।
तारे सब यारे रह, गहै चांद अ सूर।।

कबीर कहते ह क बड़ाई यानी शंसा म ब त िवपि है और बड़ाई के मोह से दूर लघुता म खुिशयां-ही-
खुिशयां ह। तार पर कोई मुसीबत नह आती है, ले कन सूय और च मा को हण क पीड़ा झेलनी पड़ती है।
कहने का भाव है क अपनी शंसा खुद न करो और कम छोटा ही य न हो स े मन से करो। कोई भी कम
छोटा नह होता है।
आस आस जग फं दया, गले करम क फांस।
जनम जनम भरमत फरै , तब न छू टे आस।।

कबीर कहते ह क आशा-ही-आशा म मनु य मोह-माया क फांसी गले म डालकर बंध जाता है और ज म-ज म
तक भटकता फरता है, फर भी आशा का साथ नह छोड़ता है। िवषय-वासना के कारण ही वह बार-बार ज म
लेता है और बार-बार मरता है।
आसा ि ा दो नदी, तहां न मन ठहराय।
इन दोन को लंघ क र, चौड़े बैठे जाय।।

कबीर कहते ह क आशा और तृ णा ये दो न दयां ह, इन न दय म जीव वेश कर जाता है तो असीिमत


इ छाएं उसका पीछा करने लगती ह। आशा और तृ णा पी न दय को जो पार कर जाता है, वह चौड़े बैठकर
जाता है अथात् उसे मो ा हो जाता है।
तृ ा स ची न बुझै, दन- दन बढ़ती जाय।
जाबासा का ख य , घन मेघा कु ि हलाय।।

कबीर कहते ह क तृ णा को शा त करने पर वह और बढ़ती ही जाती है जैसे यादा वषा होने पर जाबासा का
पेड़ सूख जाता है। मन क तृ णा गु क भि से ही बुझती है। स गु क शरण म जाओ।
आसा ि ा िस धुगित, तहां न मन ठहराय।
जो कोई आसा म फं सा, लहर तमाचा खाय।।

कबीर कहते ह क आशा और तृ णा ये दोन ही सागर क लहरे ह, उसम वेश जब जीव करता है तब मन
अशांत हो जाता है। इसम जो जीव फं सता है, उसे िमलता तो कु छ नह है, हां उसक लहर के चाटे खाता है।
आसा जीवै जग मरै , लोग मरै म र जाय।
धन संचै तै भी मरे , उबरै सो धन खाय।।

कबीर कहते ह क आशा के पीछे भागते-भागते जीव मर जाता है ले कन आशा का कु छ नह िबगड़ता है। जो
एक-एक पैसा जोड़कर मोटी रकम जमा कर लेते ह, वे भी मर जाते ह और जो जंदा रहते ह, वे उस धन का
उपभोग करते ह।
कहने का भाव है क धन का अनाव यक सं ह खतरनाक है।
ब त पसारा जािनक रे , कर थोड़े क आस।
ब त पसारा िनज कया, तेई गमे िनरास।।

कबीर कहते ह क अिधक धन का सं ह न करो और इ छा को सीिमत ही रखो। बस थोड़े क ही इ छा


रखो। िज ह ने ब त अिधक सं ह कया या इ छा को असीिमत कर दया, उ ह यहां से हताश और िनराश ही
जाना पड़ा।
जोगी है जग जीतता, िवहरत है संसार।
एक अंदेशा रिह गया, पीछे पड़ा अहार।।

कबीर कहते ह क मोह-माया का याग कर, जो संसार म अपना कम करता है, य द उसे संदह े है क वह
सांसा रक मोह-माया से उबर नह सकता तो इसका मतलब वह स ा जोगी नह है। वह िवषय-वासना से पूरी
तरह से मु नह हो पाया है। साधु तो वही है, जो हर चीज से िवर होकर अपना काय करता रहे और पीछे
मुड़कर न देख।े
भू दुखी अवधूत दुखी, दुखी रं क िवपरीत।
कहै कबीर ये सब दुखी, दुखी स त मन जीत।।
कबीर कहते ह क राजा दुःखी है, अवधूत भी दुःखी है, िनधन भी दुःखी है और धनी भी दुःखी है अथात् यहां
सभी को कोई-न-कोई दुःख है। सब ह र भि म लीन सु दर िवचार वाले संत ही यहां सुखी ह।
जाके आगे इक क ं, सो कहवै इ स।
एक-एक ते धािझया, कहां से काढू बीस।।

कबीर कहते ह क िजसके आगे एक दुःख को बताता ,ं वह 21 दुःख बताने लगता है। एक दुःख से तो ि
उबर सकता है, फर 21 दुख वाल का या हाल होगा और उसे कै से इतने दुख से बचाया जा सकता है।
कबीर सुख को जाय था, िबच म िमिल गया दुख।
सुख जा घर आपने, म अ मेरा दुःख।।

कबीर कहते ह क सुख क तलाश म घूम रहा था, तभी दुःख से मुलाकात हो गई। फर वह कहने लगा क ऐ
िवषय-सुख! अपने घर जाओ। म और मेरे दुःख का ही िमलन उ म है। कहने का भाव है क िवषय-सुख से कह
अ छा वैरा य-दुःख है।
जा दन ते िजब जनिमया, कब ं न पाया सुख।
डालै डालै म फरा, पातै पातै दैख।।

कबीर कहते ह क िजस दन से संसार म जीव आया है। कभी भी उसने सुख नह ा कया। मने संसार क
हर डाली और हर प पर जाकर यह देख िलया है क जीव को कह पर भी आराम नह है।
फू टी आंख िववेक क , लखे ना स त अस त।
जाके संग दस-बीस ह, ताको नाम मह त।।

कबीर कहते ह क ान व िववेक पी आंख अगर फू ट गई ह तो वह संत-असंत क पहचान भला कै से कर


सकता है। ऐसे लोग का हाल तो यह है क िजस कसी के साथ दस-बारह िश य दखे, उसे ही मह त मान िलया।
ऐसे महंत सदा ही दुख के कारण होते ह।
रे मन भा यिह भूल मत, जो आया मन भाग।
सो तेरा टलता नह , िन य संसै याग।।

कबीर कहते ह क हे मन! भा य को मत भूलो। जो िमल जाए उसे ही अपना भा य समझो। उससे अिधक के
च र म अपने पास का भी न गंवाओ। भा य म जो िलखा है, वह टल नह सकता, इसिलए मन से संशय को
िनकालकर कम करो। भा य से यादा और समय से पहले तुझे कु छ भी नह िमलने वाला।
जहं यह िजयरा पगु धरे , बखत बराबर साथ।
जो है िलखा नसीब म, चलै न अिवचल बात।।

कबीर कहते ह क आदमी जहां-जहां जाता है, भा य भी वहां-वहां उसके साथ जाता है, जो नसीब म िलखा है,
उसे भोगना ही है। वह टालने पर भी नह टल सकता।
काला मुख कर करम का, आदर लाओ आग।
लोभ बड़ाई छािड़के , रांचो गु के राग।।

कबीर कहते ह क कम का मुख काला कर दो और मान-स मान को जाकर भ म कर दो। लोभ, बड़ाई सब
िवकार छोड़कर गु क शरण म आ जाओ। तु हारा क याण िनि त है।
क है िबना उपाये के , देव कब न हं देत।
खेत बीज बोवै नह , तो य जामे खेत।।

कबीर कहते ह क कम करने पर ही फल ा होता है, ई र कु छ नह देता। खेत म बीज नह डालोगे तो


फसल नह होगी। खेत बीज डालने पर ही तु ह फसल देगा।
आधी औ खी भली, सारी साग स ताप।
जो चाहेगा चूपड़ी, ब त करे गा पाप।।

कबीर कहते ह क आधी और सूखी रोटी भली है, पेट भर खाने से दुःख-संताप ही बढ़ेगा। जो तू घी लगी रोटी
क इ छा करे गा तो ब त पाप करे गा। सेहत और शरीर दोन का ही नाश करे गा आधी और सूखी रोटी ही तुझको
सदा व थ रखेगी।
खा सूखा खाये के , ठ डा पानी पीव।
देिख पराई चूपड़ी, मत ललचावै जीव।।

खा-सूखा खाकर ठं डा पानी िपयो। दूसर क घी लगी ई रोटी देखकर अपना जी मत ललचाओ। इससे
तु हारा शरीर और मन दोन का ही नाश होगा।
ख ा मीठा देिख के , रसना मे ले नीर।
जब लग मन पाको नह , काचो िनपट कथीर।।

कबीर कहते ह क ख ा-मीठा देखकर जीभ म पानी आ जाए तो समझो मन प ा नह है, ाणी क ा है और
कांच क तरह दरक जाने वाला है। जीभ पर संयम रखने वाला ही दीघायु होता है।
मूड़ मुड़ाया मुि का, सालन को पिछताय।
गोड़ा टु टै जोग िबन, लोगन सो िसिथलाय।।

कबीर कहते ह क मो को पाने के िलए मुंडन करवाया और मसालेदार स जी खाने के िलए पछता रहा है।
तेरा मन तो वश म है नह , य झूठे आसन लगाकर अपने पांव को दुखी कर रहा है। सं यास जब िलया है तो मन
पर संयम रख।
ख ा मीठा चपरा, िज या सब रस लेय।
चोर कु ितया िमिल गयी, को अब पहरा देय।।

कबीर कहते ह क जीभ ख ा, मीठा, चटपटा हर तरह का वाद ले रही है। चोर से कु ितया अब िमल गई है,
पहरा भला कौन दे? जीभ को कबीर ने कु ितया कहा है और िवषय को चोर बताया है। ख ा, मीठा, चटपटा ये
चोर ही तो ह, जो जीभ पी कु ितया से िमल जाते ह तो देह का स यानाश करके ही दम लेते ह।
मानुष सोई जािनये, जािह िववेक िवचार।
जािह िववेक िवचार, सो नर ढोर गंवार।।

मनु य वही है, जो िववेकवान व िवचारवान है, िजसके पास िववेक, िवचार नह है वह जानवर और गंवार क
तरह ही है।
सोइ अ छर सोई भनै, सोई जन जीवंत।
अ कलम द कोई िमलै, महारस अिम पीवंत।।
कबीर कहते ह क जो अ र को जानने वाला, जीिवत और अ लमंद है तथा ान को हण करने वाला है,
वही पु ष संत व ानी है। ले कन ऐसे ानी व संत पु ष कहां ह।
आचारी सब जग िमला, िबचारी िमला न कोय।
को ट अचारी बा रये, एक िबचारी होय।।

कबीर कहते ह क अचारी हर जगह िमल जाते ह ले कन िवचारी नह िमलते ह। एक िवचारवान ि पर


करोड़ अचारवान ि वारे जा सकते ह। जो िवचारवान है, वही पु यवान है और वही स ा धमा मा है।
राम-राम सब कोई कहै, कहने मािह िबचार।
सोइ राम जो सित कहै, सोइ कौितक हार।।

सभी राम-राम का नाम सुिमरते ह ले कन ‘राम-राम’ बोलने म अ तर है। वही राम का नाम बोलकर सती-
ी देह का याग कर देती है और वही राम का नाम लेकर ढ गी लोग तमाशा दखाते ह। जब राम का नाम दय
से िनकलता है तब बात बनती है।
कहै कबीर पुका र के , स त िववेक होय।
जाम श द िववेक ह, छ धनी है सोय।।

कबीर कहते ह क संत िववेकवान होता है। िजसम अ छे-बुरे श द का िववेक है, वही धनवान और सबसे
ऊपर है। िजसम िववेक नह है, वह संत नह है।
गु पशु नर पशु ना र पशु, वेद पशु संसार।
मानुष ताको जािनये, जािह िववेक िवचार।।

गु का प जो लेता है, वह गु -पशु, बड़े लोग का जो प लेता है, वह नर-पशु, ी का प जो लेता है, वह
नारी-पशु, शा -वेद का प जो लेता है, वह वेद-पशु है। संसार म ये सभी पशु ह। मनु य तो वही है, जो कसी
का भी प न लेते ए अपने िववेक व िवचार से वहार करता है।
गटै ेम िववेक दल, अभय-िनसान बजाय।
उ ान उर आवतै, जग का मोह नशाय।।

कबीर कहते ह क ेम-भि के भाव म जब मन म िववेक क सेना कट होती है तब मन म उ म ान क


उ पि खुद-ब-खुद ही होने लगती है, फर अभय का नगाड़ा बजाकर िववेक क सेना मोहमाया क सेना पर
िवजय ी हािसल कर ही लेती है।
कहने का भाव है क िववेकवान ि जीवन म कभी न तो हारते ह और न ही धोखा खाते ह। भवसागर से
सहज प से ही पार हो जाते ह।
मुख म थूकन दे निह, गुहर कोई सन देही।
कहै कबीर या िचलम को, मांगी िचलम निह लीन।।

यह संसार व संसार के लोग अजीब है। अगर कोई सोने क िग ी देकर मुंह म थूकना चाहे तो कोई इसके िलए
तैयार नह होगा ले कन सैकड़ लोग का जूठा ा सब बड़े शौक से पीते ह।
राखे बरत एकादशी, करै अ को याग।
मांग तमाखू न तजै, कहै कबीर अभाग।।
कबीर कहते ह क लोग एकादशी का त रखते ह और अ हण नह करते ह ले कन भांग-त बाकू का याग
नह करते ह। यह कै सा त है। ऐसे लोग अभागे ही तो ह।
िव ा मद औ गुिह मद, राज मछ उनम ।
इतने मद को रद करे , तब पावै अनहार।।

िव ा-मद, गुण-मद तथा राज-मद ये सभी उ माद बढ़ाते ह। इन मद का याग कर देने पर परमा मा क
ाि हो जाती है। अिभमान ही ि को सदमाग पर चलने नह देता है।
औगुन क ं शराब का, ानवंत सुिन लेय।
मानुष सो पशुवा करै , गा ठ का देय।।

हे मनु य! अब से भी चेतो, शराब का अवगुण बता रहा ।ं सुनो, यह शराब मनु य को पशु बना देती है और
पास म जो धन होता है उसका भी नाश करवा देती है। शराब से दूर रहकर ही सदगित है।
भौड़ी आवै बास मुख, िहरदा होय मलीन।
कहै कबीर ऐ रामजन, मांिग िचलम निह लीन।।

कबीर कहते ह क तंबाकू -गांजा आ द का सेवन जो लोग करते ह, समझ म नह आता य करते ह‒मुख से
दुगध आती है, आ मा मिलन होती है। ऐ रामजनो, कसी से िचलम या ा मांग कर मत लो। नशा आ मा व
शरीर दोन का नाश करता है।
सुरापान अचवन करै , िपवै तमाखू भंग।
कह कबीर ऐ रामजन, ितनको करो न संग।।

जो शराब पीते ह और भांग-तंबाकू खाते-पीते ह। कबीर कहते ह क ऐ रामजनो, ऐसे लोग के साथ न रहो।
तु हारे लोक-परलोक दोन ही िबगड़ जाएंग।े
भांग भरवै बल बुि को, आफू अहमक होय।
दोय अमल औगुन कहा, ानवुंत न जोय।।

संत ने अफ म और भांग को दुगुण माना है। भांग का सेवन जो करते ह उनका बल-बुि घटता है और अफ म
का नशा करने वाल क बुि हो जाती है। वे अ ानी और िववेकहीन हो जाते ह।
भांग तमाखू छू तरा, पर िन दा पर नार।
कहै कबीर इनको तजै, तब पावै दीदार।।

कबीर कहते ह क भांग, त बाकू , पर नंदा तथा पराई ी‒इनका याग करने पर ही स ान क ाि होती
है।
गऊ जो िब ा भ छई, िव तमाखू भंग।
साधु स तर बांधई, यह किलयुग का रं ग।।

कबीर कहते ह क गाय िव ा खाती है, ा ण तंबाकू -भांग का सेवन करता है, साधु हिथयार लेता है तो यह
किलयुग का ही भाव है और यह महापाप का ल ण है।
अजामेध गोमेध जग, अ मेध नरमेध।
कहै कबीर अधम को, धम बतावै बेद।।

कबीर कहते ह क अजामेध, गोमेध, अ मेध, नरमेध य , िजनम जीव ह या होती है। वेद इस अधम काय को
धम काय बताता है। भला जीव ह या िजस य म हो, वह धम-कम कै से हो सकता है।
आठ बाट बकरी गयी, मोस मु ला गये खाय।
अज खाल खटीक घर, िभ त कहां ते जाय।।

कबीर समझाते ह क बकरी क ह या का पाप आठ रा ते से आठ लोग पर चला गया, और मु ला साहब ऐसे


मांस को गटक गये। बिधक के घर पर उसक चमड़ी आज भी है, जो बकरी क ह या करने का जीता-जागता सबूत
है, फर तुम ही कहो, मु ला वग भला कै से जा सकगे?
मुसिलम मारे करद स , िह दू मारे तलवार।
कहै कबीर दोन िमिल, जैह जम के ार।।

कबीर कहते ह क मुि लम छु री से रे तकर जीव ह या करते ह और िह दू लोग तलवार से झटका मारकर जीव-
ह या करते ह। ये दोन नरक नह जाएंगे तो कहां जाएंग।े
कबीर तेई पीर है, जे जाने पर पीर।
जे पर पीर न जानई, ते का फर के पीर।।

कबीर कहते ह क पीर वही है, जो दूसरे क पीड़ा को भी जानता है। जो दूसर क पीड़ा को नह जानता है,
वह शैतान है। उसे पीर नह कहा जा सकता है। पर पीड़ा को समझने वाला ही भगवान है।
काजी तुझे करीम का, कब आया फरमान।
घट फोड़ा घर-घर कया, सािहब का नीसान।।

कबीर मुि लम समाज से पूछते ह क हे काजी! तु हारे पास खुदा का फरमान कब आया क तुम जीव ह या
करो। तु ह तो कहते ह क सभी जीव के शरीर खुदा क अमानत ह, फर य जीव ह या को कु बानी का नाम
देकर घर-घर जीव हंसा का चार करते हो।
िह दू के दाया निह, मेहर तुरक के ना हं।
कहै कबीर दोन गये, लख चौरासी मा हं।।

कबीर कहते ह क िजन िह दू-मुसलमान म दया नह है, वे जीव ह या करते ह, वे दोन अव य ही नरक म
जाएंगे य क ई र को हंसा पसंद नह है।
गला का ट कलमा करै , क या कहै हलाल।
सािहब लेखा मांगसी, तबह कौन हवाल।।

ह या करके कलमा पढ़ते ह और कहते ह क यह उिचत है, ले कन इनका खुदा जब इनसे िहसाब मांगेगा, फर
इसका जवाब कौन देगा। इनक तो बोलती ही बंद हो जाएगी। जीव ह या जैसे पाप कम करके भला पु य कै से
संचय कया जा सकता है।
ितल भर मछरी खाय के , को ट गऊ दे दान।
कासी करवट लै मरै , तो भी नरक िनदान।।

कबीर कहते ह क जीव ह या का कोई ायि त नह है। ितल भर मछली खाकर कोई उससे मुि पाने के
िलए करोड़ गाय दान कर दे, काशी म जाकर मरे , फर भी अंत म नरक म ही जाना पड़ेगा। उसका उ ार नह
हो सकता।
जोर कया तो जुलुम ह, मांगे जवाब खुदाय।
खािलक दर खूनी पड़ा, मार मुंही मुंह खाय।।

कबीर कहते ह क जोर-जबद ती अगर तुमने कसी पर कया तो वह जुम है, कयामत के दन खुदा इसका
जवाब अव य ही तुमसे मांगेगा। फर खुदा के दरबार म तू पड़ा-पड़ा मुंह-ही-मुंह मार खायेगा और तेरी र ा कोई
नह करे गा।
जीन हने हंसा करै , गट पाप िसर होय।
पाप सबन को देिखया, पु य न देखा कोय।।

कबीर कहते ह क जो जीव को मारता है, ह या करता है, वह अपने िसर पर पाप को धारण करता है। ये खूनी
सभी पापी ह। कोई भी पु या मा नह है। हंसा का माग अपनाकर कोई मो ा ही नह कर सकता।
पीर सबन क एक-सी, मूरख जानै नािह।
अपना गला कटाय के , क त बसै य नािह।।

कबीर कहते ह क सभी का दद एक-सा ही होता है, जो मूख लोग ह, वे इस बात को जानते नह ह। य म
अपना गला कटवाकर जीव वग म जाते ह या कु बानी से ज त िमलता है तो जीव क बिल देने वाला अपना
गला कटवाकर ज त म य नह जाता।
कांचे को या ताइये, होत जतन म भंग।
साधु स न ताइये, चढ़ै सवाया रं ग।।

कबीर कहते ह क अनुभवहीन और क े मनु य को कसौटी पर या कसना, वह तो देखभाल करते-करते ही


न हो जाता है। साधु और स न पु ष को कसौटी पर कसो। वे परी ा क घड़ी म और भी अिधक िनखर जाते
ह।
घायल ऊपर घाव लै, टोटै यागी सोय।
भर जीवन म शीलवंत, िवरला होय तो हाय।।

कबीर कहते ह क घाव के ऊपर घाव को लेना, घाटे म दान देना तथा आजीवन शीलवान बने रहना‒ऐसे
ि ब त कम ही होते ह यानी न के बराबर ही होते ह।
ानी यानी संयमी, दाता सूर अनेक।
जिपया तिपया ब त ह, सीलवंत कोई एक।।

कबीर कहते ह क ानी, यानी, संयमी, दाता, वीर अनेक धरती पर ह और जप-तप करने वाले भी ब त ह,
ले कन शीलवान ि धरती पर िगने-चुने ही ह।
कबीरा संगित साधु क , हरे और क ािध।
संगित बुरी असाधु क , आठो पहर उपािध।।

कबीर कहते ह क साधु क संगित सबसे भली, जो दूसर क ािध को दूर करती है। असाधु क संगित सब से
बुरी, जो आठ हर ािध-ही- ािध फै लाती है।
िच ता ऐसी डा कनी, का र करे जा खाय।
बैद िबचारा या करै , कहं तक दबा लगाय।।

कबीर कहते ह क िच ता ऐसी डा कनी है, जो कलेजा ही िनकालकर खाती है। वै भी कु छ नह कर पाता।
वह बेचारा भला कहां तक इलाज करे या कहां तक दवा िखलाए।
गो धन गज धन बािज धन और रतन धन खान।
जब आवै स तोष धन, सब धन धू र समान।।

कबीर कहते ह क गोधन, गजधन, अ धन और र धन खान, ये सब तब बेकार हो जाते ह जब मनु य के पास


संतोष धन आ जाता है। संतोष धन के सामने सारे धन धूल के समान हो जाते ह अथात् सबसे बड़ा धन संतोष धन
ही है।
झूठ बात निह बोिलये, जब लग पार बसाय।
अहो कबीरा सांच ग , आवागमन नशाय।।

कबीर कहते ह क जान-बूझकर झूठ न बोलो। हमेशा स य बोलो। झूठ बोलने से जीवन-मरण के फं दे से जीव
कभी मु नह हो पाता है।
सांच क ं तो मा र है, झूठै जग पितयाय।
यह जग काली कू तरी, जो छे ड़ै तेिह खाय।।

कबीर कहते ह क स य बोलने पर लोग मारते ह और झूठ पर िव ास करते ह। यह संसार तो काली कु ितया
है, िजसे छेड़ोगे तो काट खाएगी।
काया काढ़ा काल धुन, जतन-जतन सो खाय।
काया ईश बस, मम न का ं पाय।।

कबीर कहते ह क इस शरीर को समय पी घुन अंदर-ही-अंदर खा रहा है। शरीर म ई र का वास है, ले कन
इस बात को ब त कम लोग ही जानते ह। जो इस सच को जान जाता है, उसके मन म वैरा य उ प हो जाता है।
अपने-अपने साख क , सब ही लीनी भान।
ह र क बात दुर तरा, पूरी ना क जान।।

कबीर कहते ह क ई र को जानना आसान नह है, उसे पूरी तरह से कसी ने भी नह जाना। िजस कसी के
भी मन म यह बात आ गई क मने ई र को पूरी तरह से जान िलया तो फर वह ई र को थोड़ा-सा भी जान
नह पाता है। ई र को जानने का घमंड िजसे भी आ उसे ई र नह िमला य क अहंकार से ई र को जाना
नह जा सकता। ई र को तो भि -भाव से समझा जा सकता है।
नमन मन अ दीनता, सबकूं आदर भाव।
कहै कबीर सोई बड़े, जामे बड़ा वभाव।।

कबीर कहते ह क बड़ा वही है, िजसका वभाव बड़ा है और न ता, मा, दीनता तथा आदर भाव सबके ित
है। धन से कोई बड़ा नह हो जाता है।
कबीर सबते हम बुरे, हमसे भले सब कोय।
िजन ऐसा क र बुिझया, मीत हमारा सोय।।
कबीर कहते ह क सबसे बुरे हम ह और हमसे अ छे सब ह। जो भी ि ऐसा सोचता है, वही ि साधु
के समाज म रहने लायक है। जो ऐसा नह सोचता, उसक ज रत नह है।
इकबानी सो दीनता, सब कछु गु दरबार।
यही भट गु देव क , संतन कयो िबचार।।

कबीर कहते ह क दीनता म अपार शि है। यह ई र का प है। एक दीनता को धारण कर लेने से स गु


का दरबार उसके िलए खुल जाता है। दीनता ही सदगु के िलए सबसे उ म पुर कार है।
आज काल दन पांच म, बरस पांच जुग पंच।
जब तक साधु तारसी, और सकल परपंच।।

कबीर कहते ह क आज, कल म, दन, पांच दन म, पांच साल या पांच युग म उ ार कोई करे गा तो कोई संत
ही करे गा। दूसरे सब तो मन वाणी के पंच ह।
स त मता गज राज का, चालै ब धन छोड़।
जग कु ा पीछे फरै , सुनै न वाको सोर।।

कबीर कहते ह क हाथी क तरह संत क सोच होती है। वे सभी बंधन को तोड़कर हाथी के समान चलते
चले जाते ह। संसार के कु े पीछे पड़े भ कते रहते ह, पर संत हाथी क तरह ही शोर-गुल से परे होते ह। उ ह
कसी क भी परवाह नह होती है।
साधु ऐसा चािहए, जहा रहै तह गैब।
बानी के िव तार म, ताकूं को टक ऐब।।

कबीर कहते ह क साधु ऐसा हो क वह जहां रहे वहां कसी भी तरह क चमक-दमक क चीज न ह और वहां
का वातावरण िब कु ल शांत हो। चमक-दमक क चीज होने पर साधु क वाणी म सांसा रक चीज के ित
िव तार हो सकता है। उसक साधना म िव -बाधा उ प हो सकती है और उसम करोड़ दोष आ सकते ह।
कह आकाश को फे र है, कह धरती को तोल।
कहा साधु क जाित है, कह पारस का मोल।।

कबीर कहते ह क आसमान क कोई हद नह है। धरती क कोई तोल नह है। साधु क कोई जाित नह है और
पारस प थर का कोई मोल नह है। ये सब अमू य और अतुलनीय ह।
साधु आया पा ना, मागे चार रतन।
धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अ ।।

कबीर कहते ह क साधु अितिथ आये ह और वे चार र मांगते ह। धूप-दीप, पानी, आसन और भोजन। कहने
का भाव है क मेहमान को ये चार चीज देकर उसका स कार कर। इसका ब त बड़ा महा य है।
आज काल के लोग ह, िमिल कै िबछु री जािह।
लाहा कारण आपने, सौगंध राम क खािह।।

आजकल के िजतने भी सगे-संबंधी ह, िहत-िम ह और जान-पहचान के ह, वे सब िमलने के बाद िबछु ड़ जाएंगे


ले कन आदमी है क दो दन के जीवन म अपने वाथवश राम क कसम खा लेता है। यह मनु य क अ ानता ही
तो है, जो राम क कसम खाकर लोक-परलोक िबगाड़ता है।
मानपमान न िचत धरै , औरन को सनमान।
जो कोई आशा करै , उपदेशै तेिह ान।।

कबीर कहते ह क साधु या संतजन अपने मान-अपमान का यान नह रखते और दूसर को पूरा स मान देते
ह। जो कोई ि उनसे ान ा करना चाहता है तो उसे उपदेश भी देते ह। साधु के मन म कोई भी ई या- ष

भाव नह रहता।
धारा तो दोन भली, िबरही कै बैराग।
िगरही दासातन करे , बैरागी अनुराग।।

कबीर कहते ह क दोन ही आ म गृह थ व वैरा य भले ह। गृह थ आ म म रहने वाल को संत-सं यािसय
क सेवा करनी चािहए तथा वैरागी को वैरा य धारण करना चािहए।
बैरागी िबरकत भला, िगरही िच उदार।
दोऊ चू क खाली पड़े, ताको वार न पार।।

कबीर कहते ह क वैरागी म िवर ता तथा गृह थ म उदारता के गुण अ छे होते ह। अगर दोन अपने-अपने
गुण से चूक गए तो उनका उ ार नह होता है।
घर म रहै तो भि क , नात क बैराग।
बैरागी ब धन करै , ताका बड़ा अभाग।।

कबीर कहते ह क घर म रहो तो भि करो और साधु-गु क इ त करो और नह तो घर को छोड़कर


वैरा य धारण कर लो। वैरा य छोड़कर अगर पुनः घर आने क कामना करते हो तो यह तु हारा दुभा य है। तु ह
नरक म भी जगह नह िमलेगी।
भेष देख मत भूिलये बूिझ लीिजये ान।
िबना कसौटी होत निह, कं चन क पिहचान।।

कबीर कहते ह क वेश देखकर मत भूलो क यह साधु के वेश म ढ गी भी हो सकता है, उससे ान क बात
पूछो। िबना कसौटी के तो सोना क भी पहचान नह होती है।
अज ं तेरा सब िमटै , जो मानै गु सीख।
जब लग तू घर म रहै मित क ं मांगे भीख।।

कबीर कहते ह क आज भी तेरा सारा दुःख िमट सकता है अगर तू गु क िश ा हण कर ले। जब तक तू घर


म रह कभी भी िभ ा न मांग। गृह थ आ म म रहने वाले के िलए भीख मांगना पाप है।
िजिह घ ट ीित न ेम-रस, फु िन रसना निह राम।
ते नर इस संसार म उपिज खये बेकाम।।

कबीर कहते ह क िजसके दय म ेम-रस नह है और िजसक जीभ पर राम नह है‒वह इस संसार म थ


ही उ प आ तथा उसका जीवन कसी काम का नह ।
काचा सेती मित िमलै, पाका सेती बान।
काचा सेती िमलत ही, वै तन धन क हान।।
कबीर कहते ह क दुराचारी लोग से मत िमलो, स न ि य से ही बात करो और िमलो। दुराचारी और
आचरणहीन लोग से बात करने या उनके साथ रहने से शरीर, मन और धन क हािन होती है। आचरणहीन और
दु कृ ित के लोग से दूर रहना ही ठीक है।
ीित कर सुख लेने को, सो सुख गया िहराय।
जैसे पाई छछु दरी, पकिड़ सांप पिछताय।।

कबीर कहते ह क आदमी ेम करता है सुखानंद ा करने के िलए ले कन जो उसके पास वा तिवक सुख
होता है, वह भी ेम करने के बाद गायब हो जाता है, फर उसक हालत उस सांप क तरह हो जाती है, जो
छछू ंदर को पकड़कर पछताता है।
लकड़ी जल डू बै निह, कहो कहा क ीित।
अपनी सीची जािन के , यही बड़न क रीित।।

कबीर कहते ह क लकड़ी जल म डू बे नह य क जल से लकड़ी क गहरी ीित है। जल को पता है क लकड़ी


को उसने ही कभी स चा था। यही ि थित बड़ यानी स न क है। वे भी ीित करते ह तो अंितम समय तक
िनभाते ह।
भुवगंम बास न बेधई, च दन दोष न लाय।
सब अंग तो िवष सो भरा, अमृत कहा समाय।।

कबीर कहते ह क च दन के तने से िलपटे रहने पर भी सांप के शरीर म चंदन क गंध नह बसती तो इसम
चंदन का या दोष? सांप का तो सारा शरीर जहर से भरा है, भला चंदन क खुशबू उसके शरीर म कै से समाए।
जीवन जोबन राज मद, अिवचल रहै न कोय।
जु दन जाय स संग म, जीवन का फल सोय।।

कबीर कहते ह क जीवन, जवानी, राजमद‒ये तीन हमेशा नह रहते ह। िजस दन ि स संग म जाना
शु कर देता है, उसी दन से जीवन का फल िमलना शु हो जाता है।
िनप ी क भि है, िनम ही को ान।
िनर ंदी क मुि है, िनल भी िनवान।।

कबीर कहते ह क जो िनरप ी ह वही भि कर सकते ह तथा जो मोह का याग कर चुके ह, वही ान ा
करते ह। जो हष-शोक से परे िन रहने वाले ह, वही मुि ा करते ह तथा जो िनल भी ह, वही सारे बंधन से
मु होते ह।
कबीर गु क भि क ं , तज िवषया रस च ज।
बार-बार न हं पाइये, मानुष ज म क मौज।।

कबीर कहते ह क िवषय-वासना का रस छोड़कर गु क भि करना क ठन है। यह मानव शरीर और मानव


शरीर का आनंद बार-बार नह िमलता है। अगले ज म को इससे बेहतर बनाने के िलए गु भि करना ज री है।
आरत वै गु भि क ं , सब कारज िसध होय।
करम जाल भौ साल म, भ फं से न हं कोय।।

कबीर कहते ह क मोह के बंधन से मु होकर गु क भि करो। तु हारे सारे मनोरथ पूरे हो जाएंग।े जो
भ है वह भवजाल म नह फं सता और मो उसे ा हो जाता है।
भि भेष ब अ तरा, जैसे धरिन आकाश।
भि लीन गु चरण म, भेष जगत क आश।।

कबीर कहते ह क भि म और वेश म ब त अंतर है जैसे आकाश और धरती म है। भ तो गु के चरण म


लीन रहता है पर वेशधारी संत िवषय-वासना के मोह म िवचरण करता रहता है।
भि िबना न हं िन तेर, लाख करे जो कोय।
श द सनेही होय रहे घर को प ंचे सोय।।

कबीर कहते ह क भि के िबना मुि नह है। जो गु के स ान का आकां ी होता है, वही स संग का लाभ
उठाता है।
ानी होय सो मान ही, बुझे श द हमार।
कह कबीर स बांिच ह, और सकल जमधार।।

कबीर कहते ह क जो िववेकवान होगा, वह संत क भाषा को समझ सके गा और उनके श द पर िव ास भी


करे गा। गु - ान को मानने वाले ही भवसागर को पार करगे। अ ानी तो जमधार यानी मोह-माया क धार म
बह कर न हो जाएंग।े
कबीर पगरा दू र है, आय प ंची सांझ।
जन जन को मन राखता, वे या रिह गयी बांझ।।

कबीर कहते ह क हे ाणी! मो का रा ता ब त ल बा है और शाम होने वाली है। जैसे लोग का मन रखते-
रखते वे या संतानहीन ही रह गई, वैसे ही मोह-माया के बंधन म पड़कर सबको खुश करते-करते ि
भि हीन ही रह गया। सदगित नह िमली।
काल पाय जग ऊपजो काल पाय सब जाय।
काल पाय सब िबनिश ह, काल काल कह खाय।।

कबीर कहते ह क समय के भाव से जीव पैदा होता है और समय के भाव से सब िमटते भी रहते ह। समय
के भाव से सबका िवनाश भी होता है और कसी समय म बनी व तु को समय ही खाता है, अथात् यहां काल
यानी समय का ही बोल-बाला है। वही पैदा करता है और खा भी जाता है।
खुिल खेलो संसार म, बांिध न स ै कोय।
घाट जगाती या करै , िसर पर पोट न होय।।

कबीर कहते ह क मोह-बंधन को छोड़कर खुले मन से संसार म िवचरण करो, फर तु ह कोई भी बांध नह
सकता। घाट जगाती यानी चुंगी वसूलने वाला या करे गा जब िसर पर मोह-माया क गठरी ही नह है।
आस पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल।
मंझ महल से ले चला, ऐसा परबल काल।।

कबीर कहते ह क आस-पास यो ा खड़े ह और सभी बड़ी-बड़ी बात कर रहे ह। बीच महल से काल पकड़कर
ले चला, काल इतना धीठ और बल है।
काल फरै िसर ऊपरै , हाथ धरी कमान।
कहै कबीर अ ान को, छोड़ सकल अिभमान।।
कबीर कहते ह क काल िसर के ऊपर च र काट रहा है और हाथ म कमान ले रखा है। सारा अिभमान
छोड़कर ान का सार त व हण करो।
अिज हठ मत कर बावरे , हठ से बात न होय।।
यूं यूं भी जै कामरी, यूं यूं भारी होय।।

कबीर कहते ह क हे ाणी! यादा िजद ठीक नह । िजद करने से बात नह बनती। जैस-े जैसे कं बल भीगता
रहता है वैसे-वैसे भारी होता जाता है। िजद करते-करते मनु य भी जड़ बन जाता है।
िहय हीरा क कोठरी, बार-बार मत खोल।
िमलै हीरा का जौहरी, तब हीर क मोल।।

कबीर कहते ह क ान पी हीर से भरी मन क कोठरी को बार-बार सबके सामने न खोलो। जब ान पी


हीर का कोई जौहरी िमल जाए तब ान पी हीर का मोल-भाव करो।
पढ़ना गुनना चातुरी, यह तो बात सह ल।
काम दहन मन बस करन, गगन चढ़न मुसक ल।।

कबीर कहते ह‒पढ़ना, िलखना, समझना और चालाक यह सब तो सहज है। ले कन िवषय-वासना को जड़


से समा कर मन को पूरी तरह से अपने वश म कर लेना ब त क ठन है।
िजिह िजवरी से जग बंधा, तू जिन बंधै कबीर।
जासी आटा लौन य , सोन समान शरीर।।

कबीर कहते ह क िजस र सी से संसार के लोग बंधे ह, ऐ मुि चाहने वाल , तुम सब उस र सी से मत बंधो।
जैसे आटा नमक के िबना फ का पड़ जाता है वैसे ही सोने जैसा तु हारा शरीर भजन के िबना मू यहीन हो जाता
है।
खोद खाद धरती सहै, काट कू ट बन राय।
कु टल वचन साधु सह, और से सहा न जाय।।

खोद-खाद धरती बदा त करती है और काट-कू ट जंगल बदा त करता है। कड़वे वचन साधुजन बदा त करते
ह। इनके अलावा और से ये सब बदा त नह होता।
कु बुि कमानी च ढ़ रही, कु टल वचन के तीर।
भ र मारे कान म, सालै सकल सरीर।।

कबीर कहते ह क कु बुि पी धनुष पर कु टल वचन पी तीर हमेशा चढ़ा ही रहता है और अ ानी लोग
ख च-ख चकर सबके कान म मारते रहते ह, फर इनक मार से सारे शरीर म अपार पीड़ा होती है।
शीतल श द उचा टये, अहं आिनये ना हं।
तेरा ीतम तुझिह म, दुसमन भी तुम मा हं।।

कबीर कहते ह क हमेशा मीठे और ठं डे श द िनकालो। अहंकार को मन म आने न दो। तेरा ि यतम तुझम ही
है और दु मन भी तुमम ही है।
साखी
दंडवत गो वंद गु , व दौ अब जन सोय।
पिहले भये नाम ितन, नमो जु आगे होय।।

गो वंद यानी ई र के कमल-चरण म द डवत णाम है। इस समय िजतने भी स गु ह, उन सबके चरण म
भी सादर वंदना है। जो संत गु ए ह, उनके भी चरण म णाम है और जो भिव य म स गु ह गे उनके भी
चरण म स ेम नम कार है।
कहने का भाव है क जो गु ह, वे हर समय म पूजनीय और आदरणीय ह। उनका एकमा ल य होता है
अंधकार से काश क ओर ले जाना और पर का ान कराना।
गु ह बड़े गो वंद ते, मन म देखु िवचार।
ह र िसरजे ते वार ह, गु िसरजे ते पार।।

गु महाराज, गो वंद या परमा मा से बड़े ह। मन म जरा िवचार कर देखो तो सही - गोिव द का बनाया आ
जो कु छ भी है, वह इस दुिनया म ही है। सब कु छ हम नजर आता है। यह दगर बात है क हम अ ानता वश
देखते नह ह, ले कन गु अपने ानामृत से जो भि भाव का वातावरण तैयार करता है, उससे िश य के
ानच ु खुल जाते ह और वह गोिव द क माया नगरी को सहजता से पहचान जाता है, फर आसानी से इस
संसार सागर को पार कर जाता है। इसिलए गु बड़ा है, वह हम भव सागर से पार जाने का माग बताता है।
बिलहारी गु आपक , घरी घरी सौ बार।
मानुष ते देवता कया, करत न लागी वार।।

हे स गु महाराज! आप पर म अपना सब कु छ योछावर क ं , आप पर म बिलहारी जाऊं, हर घड़ी म सौ


बार म अपना तन-मन योछावर करता ।ं मुझे आपने मनु य से देवतु य कर देवता बनाने म एक पल का भी
समय नह लगाया। चुट कय म ही अपने ानामृत से मेरा काया क प कर दया।
तन मन दया जु या आ, िनज मन दया न जाय।
कह कबीर ता दास स , कै से मन पितयाय।।

गु क सेवा म तन-मन दे दया तो या हो गया। यह कोई बड़ी बात नह है। अपना अ तमन तो तुमने गु -
भि म लगाया ही नह । ब त कम भ ही अपना अ तमन गु सेवा म लगा पाते ह। बड़ी बात तब होगी जब
अ तमन भी गु भि म लगा हो। कबीर कहते ह क अ तमन से भि न करने वाले िश य पर भला गु िव ास
करे तो कै से करे ? गु के ित एक िन ता आव यक है।
जो दीसै सो िवनिस है, नाम धरा सो जाय।
कबीर सोई तत ग ो, सतगु दी ह बताय।।

जो इस जगत म नजर आता है, उसका िवनाश हो जाता है। वह कसी भी ि थित म रहता नह है। य क यह
संसार न र है। बड़ी धूमधाम के साथ िजसका नाम रखा जाता है, वह यहां नह रहता, एक दन चला ही जाता
है। कबीर कहते ह क स गु ने यही देखकर तो बताया है क वही त व हण करो जो अिवनाशी है अथात् गु -
ान हणकर ई र से अपना नाता जोड़ लो। बस वही एक अिवनाशी अजर और अमर है।
श दै मारा खिच क र, तब हम पाया ान।
लगी चोट जो श द क , रही कलेजे छान।।
स गु ने ान पी श द के बाण को चलाकर मारा तब हमने जगत के मोह-माया के बंधन से मु होकर
ानामृत पाया। श द के बाण से ऐसी चोट लगी क वह अभी तक दय म साल रही है अथात् स य का ान हो
गया है और अंधकार िमट गया है। अस य के जाने से सार त व का भी बोध हो गया है।
सतगु बड़े सराफ ह, परखे खरा- -खोट।
भौसागर ते का ढ़के , राखे अपनी ओट।।

स गु ब त बड़े जौहरी ह, जो खरे और खोटे क पहचान करते ह। स य-अस य को परखने म उ ह समय नह


लगता है। जो खरा है और उसम कोई खोट नह है, उसे भव सागर से िनकालकर अपनी शरण म ले लेते ह अथात्
उसक सांसा रक मोह-माया से र ा करते ह और स ित के माग क तरफ ख चकर ले जाते ह।
सतगु मेरा सूरमा, बेधा सकल शरीर।
श द बाण से मीर रहा, य जीये दास कबीर।।

स गु जैसा महान यो ा कोई नह है। उ ह ने मेरे सारे शरीर को भीतर और बाहर से बेध दया है। िवषय-
वासना म िल रहने वाला यह शरीर गु के श द पी बाण से घायल होकर मर रहा है। कबीर कहते ह क फर
भौितक सुख के िलए िश य यानी भ य जीिवत रहे। ान का अमृत पीकर वह य न मरे ।
लौ लागी तब जािनये, छू ट न कब ं जाय।
जीवन लौ लागी रहे, मूये तहां समाय।।

अपने गोिव द से दल लग जाए तो जािनए आपने मुि का माग ढू ंढ िलया। अब यान यह रहे क कभी
उसका साथ छू ट न सके । इसम कोई कमी न आने पाए और यह अनवरत चलता रहे, जब तक जीवन रहे। जब
सांस िनकले तो वह गोिव द म ही िवलीन हो जाए। अपने गोिव द से ऐसा ेम होना चािहए।
लौ लागी तो डर कसा, आप िबसरजन देह।
अमृत पीवै आतमा, गुण स जुडै सनेह।।

जब गोिव द से ेम हो गया, तुम उनक साधना म जी-जान से लग गए तो फर भय कै सा? अब तो िनभय हो


जाओ। शरीर को लेकर न डरो। यह तो तु ह भी पता है क शरीर ण-भंगुर है। कोई भी जतन कर ल, ले कन इसे
तो न होना ही है। जो स े भ होते ह, वे तो स ान से ेम संबंध जोड़ते ह और मो दलाने वाले गु - ान
का अमृत-पान करते रहते ह। उ ह शरीर के रहने-न-रहने क चंता नह रहती है।
लौ लागी तब लौ लगू,ं क ं न आऊं नांव।
लै बूड़ंू तो लै त ं , लै लै तेरा नांव।।

जब से गोिव द से यार हो गया, म उसी म हर पल म रहने लगा ।ं न तो कह जाता ं और न कह से


वापस आता ं अथात् सांसा रक बंधन से मने नाता तोड़ िलया है। हे मेरे गोिव द! म अब भव सागर म डू बूं या
तै ं , बस अब तो तु हारे ही नाम का सहारा है। मुझे मालूम है, तू मुझे डू बने नह देगा।
सोऊं तो सुपनै िमलूं, जागूं तो मन मांिह।
लोचन राता सुिध हरी, िबछु रत कब ं नांिह।।

म गहरी न द म र ं तो हे गोिव द! व म तुमसे िमलूं और जा त अव था म र ं तो मन-ही-मन तु हारे नाम


का सुिमरन करता र ं अथात् मन-ही-मन तुमसे िमलता र ।ं तु ह देखने-िमलने क इस ाकु लता म आंख लाल
हो गई ह तथा बुि ऐसी हरण हो गई है क तुम पर से कभी यान हटता ही नह । हे गोिव द! अब तो दन-
ित दन तुमम ही म समाता जा रहा ,ं तु हारे ित ेम ही इतना गहरा हो गया है।
िजिह बन संह न संचरै , पंछी उिड न जाय।
रै न दवस क गम नह , तहं कबीर लौ लाय।।

िजस जंगल म संह मण नह करता और न प ी उड़ान भरते ह, जहां रात- दन नह होते यानी न तो
च मा क शीतल करण प च ं पाती ह और न ही सूय क तपती करण, ऐसे िनजन और अग य जंगल म जो
ानी- यानी होते ह, गोिव द से अपना संबंध बनाते ह। कहने का भाव है क साधना के िलए या गोिव द से नाता
जोड़ने के िलए एका ता क आव यकता है।
काया कमंडल भ र िलया, ऊजल िनरमल नीर।
पीवत तृषा न भाजई, ितरषावंत कबीर।।

िज ासु भ ने अपना शरीर पी कमंडल इ - ेम पी जल से भर िलया, जो जल पिव है और िनमल है।


कबीर कहते ह क वे पी-पीकर छक गए ह, ले कन यास है क बुझने का नाम नह ले रही अथात् ई र-भजन क
ऐसी लत लग गई है क यास बुझ ही नह रही, बढ़ती ही जा रही है।
सुपना म सा िमला, सोवत िलया जगाय।
आंिख न मीच डरपता, मित सुपना वै जाय।।

मुझे व म सा यानी स गु िमले। म सो रहा था, ले कन उ ह ने मुझे जगा दया। म इतना डर गया क
आंख भी नह म च सका क कह वही व दोबारा न आ जाए। कहने का भाव है क स गु ने मुझे अंधकार से
ख चकर काश म अचानक ही ला दया, िजससे म डर गया य क म तो काश का अ य त ं ही नह ।
लौ लागी िनरभय भया, भरम भया सब दूर।
बन बन म कहं ढू ंढता, राम इहां भरपूर।।

गोिव द से ेम क लगन लग गई। म िनडर हो गया। सारे मोह-माया के बंधन से मु हो गया, मन के सारे
म दूर हो गए। म वन-वन यानी बाहर-ही-बाहर कहां अपने राम को ढू ंढता फरता था जब क मेरे दय म ही
पूण राम िवराजमान ह।
कहने का भाव है क ई र हर जीव के अंदर ही ह। उ ह और कह ढू ंढने क ज रत नह है।
जाके मन िव ास है, सदा गु ह संग।
को ट काल झक सोलह , तऊ न ही मन भंग।।

िजस ि के मन म िव ास है यानी स गु के ित आ था है, उसके साथ गु सदा ही होते ह, इसम कोई


भी शक क गुंजाइश नह । करोड़ काल कतनी भी िव -बाधा के साथ हमला य न बोल, ले कन स गु क
भि म लीन भ को उसके माग से हटा नह सकते।
राम नाम क लौ लगी, जग से दूर रहाय।
मोिह भरोसा नाम का, बंदा नरक न जाय।।

पूण राम से ेम हो गया तो फर संसार और िवषय-वासना से भ का कै सा र ता। वह संसार व


सारी तृ णा से सदा के िलए ही दूर हो जाता है। भ तो बस यही कहता है क मुझे तो राम के नाम पर भरोसा
है। राम के नाम पर भरोसा करने वाला ि गलती से भी दुिनया के मोह-बंधन म नह पड़ता है और राम उसे
सांसा रक दुःख से सदा दूर ही रखते ह। देह यागने के बाद वह सीधे राम के धाम प च
ं ता है।
रचनहार को चीि ह ले, खाने को या रोय।
मन मि दर म पै ठ के , तान िपछोरी सोय।।

खाने को लेकर तू या रोता है अथात् शारी रक भूख- यास क चंता म य रोता फर रहा है। रचनहार
यानी सृजन-कता को पहचान ले, फर मन-मं दर म शांत िच होकर उसक सुिमरन पी चादर ओढ़कर सो जा
अथात् ई र पर अपना सब कु छ छोड़ दे। तेरा क याण हो जाएगा।
ह रजन गां ठ न बाधह , उदर समाना लेय।
आगे पीछे ह र खड़े, जो मांगै सो देय।।

जो ह र भ होते ह, वे धन-संपि का संचय नह करते ह और न ही वयं तक ही उसे रखते ह। वे तो बस भूख


िमटाने के िलए धन का उपयोग करते ह य क उ ह यह अ छी तरह से मालूम होता है क आगे-पीछे ह र खड़े
ह। वे मांगने पर उनक ज रत पूरी कर ही देते ह तो धन का सं ह करने से या लाभ?
कबीर िच ता या करे , िच ता स या होय।
िच ता तो ह र ही करे , िच ता करो न कोय।।

कबीर कहते ह क तुझे चंता करने क ज रत नह है। तु हारे चंता करने से कोई फक नह पड़ता है। चंता
करने का काय तो के वल परमा मा का है। उनके िसवा दूसरा कोई भी चंता न करे ।
िच तामिन िचत म बसै, सोइ िच म आिन।
िबना भु िच ता करै , यह मूरख का बािन।।

िच तामिण यानी भगवान का वास तो मन म है। अपने मन म उसका यान करो, उसका सुिमरन करो। वह
ि तो मूख ही है, जो ई र का िच तन न कर दूसर क या अ य िवषय क िच ता करता है।
सा दीया सहज म, सोई रजक हलाल।
हैवां सबै हराम है, तिज संसै िजव साल।।

तु हारी मेहनत व भा य के अनुसार सा ने खुशी मन से जो तु ह दया है, वही तु हारे िहत म है और वही
ईमानदारी का है। बाक सब ईमानदारी का नह है। ऐसी कमाई से तु ह हािन ही होगी। बेईमानी का धन हण न
करो। तु ह यह धन दुःख ही देगा।
करम करीमा िलिख रहा, अब कछु िलखा न होय।
मासा घटै न ितल बढ़ै, जो िसर पटके कोय।।

भा य म जो िलखा है, उसम अब बदलाव नह होने वाला है। उसे वैसा ही रहना है। अब कु छ भी िलखने-करने
का साहस कसी म भी नह है। न तो एक माशा घट सकता है और न ही एक ितल बढ़ सकता है अथात् ार ध म
जो है वही रहेगा, कतना भी जोर लगा लो कु छ भी नह होने वाला।
जाके दल म ह र बसै, सो जन कलपै कािह।
एकै लहर समु क , दुःख दा र बिह जािह।।

िजसके दय म ह र का वास है, वह ि दुखी य है। परमा मा पी समु क एक ही लहर से उसका


सारा दुःख पलक झपकते ही बह जाता है और द र ता का नामोिनशान भी नह रहता है।
कहने का भाव है क जब ई र पर िव ास है तो फर दुःखी होने क आव यकता ही नह है। वह तो ऐसा है,
जो पलक झपकते ही सारी पीड़ा दूर कर देता है।
भ भरोसे राम के , िनधड़क ऊंची दीठ।
ितनकूं करम न लागई, राम ठकोरी पीठ।।

भ जो होते ह, वे हमेशा राम के भरोसे रहते ह और राम के बल पर ही वे अपनी नजर हमेशा ऊंची रखते ह।
उनक पीठ पर सदा ही राम का कृ पा भरा हाथ होता है और उ ह कम नह बांधते अथात् वे भव सागर म डू बते
नह ह। उ ह राम का सहारा जो िमला होता है।
जो सांचा िबसवास है, तौ दुःख य ना जाय।
कह कबीर िवचा र के , तन मन देिह जराय।।

जब ई र पर पूरा िव ास है तब दुःख य नह जाएगा। कबीर कहते ह क ई र क ेमाि के हवन म


अपना तन-मन जला दो ता क िवषय-वासना का जो यह उफान बार-बार उठ रहा है, वह न उठे और अलौ कक
आनंद क ाि तु ह होने लगे।
राम कया सोई आ, राम करै सो होय।
राम करै सो होयगा, काहे क यो कोय।।

राम ने जो कया वही आ, राम जो करते ह वही होता है और राम जो करगे वही होगा। तीन काल (भूत,
भिव य, वतमान) म अ तयामी ई र राम क ही स ा है, दूजा कोई नह है। उस पर िव ास करो।
पीछे चाहै चाकरी, पिहले महीना देय।
ता सािहब िसर स पते, यूं कसकाता देह।।

राम दुिनया के कता-धता ह, ले कन उनका िनयम इस दुिनया से िभ है। वह नौकरी बाद म करवाते ह और
पहले वेतन देते ह अथात् वह ज म से पहले ही भरण-पोषण का इं तजाम कर देते ह, इसके बाद नौकरी-चाकरी
करवाते ह। उस भगवान राम को अपना सब कु छ स पने से य दुिवधा म है? वह तेरे एक-एक कम का याज
सिहत फल देने के िलए तैयार ह।
चकवी िबछु री रै न क , आय िमली परभात।
जो जन िबछु रे नाम सो, दवस िमले न हं रात।।

रात-भर क िबछु ड़ी चकवी सुबह होते ही अपने ेमी चकवा से आ िमली, ले कन जो लोग अपने राम से
िबछु ड़े ए ह, वे न दन म िमल सकते ह और न रात म ही िमल सकते ह।
वासर सुख न हं रै न सुख, ना सुख सपना मांिह।
जो नर िबछु रे राम स , ितनको धूप न छांिह।।

जो ि ई र को भूल गए ह या ई र को याद नह करते ह, उ ह न दन म सुख ा हो सकता है और न


रात म ही सुख नसीब हो सकता है। यहां तक क व म भी उ ह सुख क अनुभूित नह हो सकती है। जो लोग
राम से िबछु ड़ गए ह, उनको धूप-छांव म भी आराम नह िमलने वाला।
ब त दनन क जोहती, बाट तु हारी राम।
िजय तरसै तुव िमलन को, मन नाह िबसराम।।

हे राम! ब त दन से म तु हारी राह देख रही ।ं मेरा दय तुमसे िमलने के िलए तरस रहा है। एक पल भी
मेरे मन को िव ाम नह है। कहने का भाव है क हे मेरे भु राम! भव बाधा से उबार कर मुझे अपनी शरण म ले
लो, मुझे मो दान कर दो।
िबरिहिन देय संदेसरा, सुनो हमारे पीव।
जल िबन मछली य िजये, पानी म का जीव।।

भु राम के िवरह म जल रही िवरिहणी कह रही है‒ हे मेरे िपया राम! सुनो अज हमारी। जल के िबना मछली
कै से िज दा रह सकती है। वह तो पानी म रहने वाली है अथात् म तो तुमसे ेम करती ।ं तु हारे िवरह म तड़प
रही ,ं भला म तु हारी कृ पा और दशन के िबना कै से जीिवत रह सकती ।ं
िबरिहिन जलती देिख के , सा आये धाय।
ेम बूंद सो िछर क के , जलती लेय बुझाय।।

अपनी िवरिहणी को िवरह क अि म जलते-तड़फड़ाते ए देखकर सा यानी पूण परमे र नंगे पांव ही
दौड़कर चले आए। अपनी िवयोिगनी पर शीतल-िनमल ेम बूंद को िछड़क, जलती ई आग बुझा दी अथात्
अपनी भि न को दशन देकर ज म-ज म के पाप को धो दया। वह शांत और िनमल िच वाली हो गई। सारा
शोक-संताप दूर हो गया।
िबरिहिन थी तो य रही, जरी न िपव के साथ।
रिह रिह मूढ़ गहेलरी, अब य मीजै हाथ।।

तू सचमुच ही िवरिहनी थी तो जंदा य रही? अपने िपया के साथ जल, य न मरी? तू तो मूख क मूख ही
रह गई। अब जब भु चले गए तो हाथ मल-मलकर पछता य रही है अथात् जब भु ही चले गए तो फर तू
य िज दा रह गई। भि क साथकता तो भु क भि म लीन हो, वयं को िमटाने म ही है।
िवरह तेज तन म तपै, अंग सबै अकु लाय।
घट सूना िजव पीव म, मौत ढू ं ढ़ फ र जाय।।

िवरह क अि िवरिहणी के सारे बदन को तपा रही है और सभी अंग म आकु लता ा है। उसका जीव यानी
ाण भु-िपया क याद म खोया आ है, िजससे दय खाली पड़ गया है। उस िवयोिगनी को भु म इस तरह से
म देखकर उसक तलाश करते ए मौत भी वापस लौट गई। कहने का भाव है क ई र क साधना म भि न
इस कदर लीन है या ई र के िवरह म इस कदर जल रही है क मृ यु भी उसके ाण लेने से घबरा रही है।
िबरह कमंडल कर िलये, वैरागी दो नैन।
मांगै दरस मधूकरी, छके रहै दन रै न।।

ई र क भि को ा करने क लालसा म िवरिहणी ने अपने हाथ म कमंडल ले िलया और सांसा रक मोह-


माया से मु उसके दोन ने वैरागी हो गए। ऐसी दशा म उसक बस यही इ छा है क भु का दशन हो जाए
ता क वह दन-रात तृ और संतु रहे। उसका मन कह भटके नह ।
िबरह िबथा वैराग क , कही न का जाय।
गूंगा सपना देिखया, समिझ समिझ पछताय।।

िवरह और वैरा य क जो था है वह अलौ कक है, िजसका वणन कसी से चाहकर भी नह कया जा सकता।
यह तो गूंगे के सपना देखने के समान है, मन-ही-मन समझ-समझकर पछताता है। वाणी तो उसके पास होती नह
क वह कु छ बोल सके अथात् वैरागी वैरा य को महसूस तो कर सकता है, पर श द म उसे बयां नह कर सकता,
य क वैरा य क मिहमा अपरं पार है।
िबरह बड़ो बैरी भयो, िहरदा धरै न धीर।
सूरत सनेही ना िमलै, िमटै न मन क पीर।।
यह िवरह तो ब त ही बड़ा दु मन हो गया, थोड़ा-सा भी धीरज धारण नह करता। जब तक अपने मनानुकूल
ेह नह िमल जाता तब तक मन क पीड़ा नह िमटती। कहने का भाव है क वैरागी - मन तभी जाकर शांत हो
पाता है, जब वह अपने उ े य क ाि कर लेता है। यहां पर तो वैरागी का उ े य ई र को ा करना है।
िबरह बल दल सािजके , घे र िलयो मोिह आय।
निह मारै छाड़ै नह , तल फ तल फ िजय जाय।।

िवरह- था से पीिड़त िवयोिगनी कहती है - िवरह ने अपनी शि शाली सेना के साथ मुझे घेर िलया है। अब
तो यह न मुझे मार रहा है और न ही छोड़ रहा है, तड़प-तड़पकर मेरी जान िनकल रही है।
िबरह कु हाड़ी तन बहै, घाव न बांधै रोह।
मरने को संशै नह , छू ट गया म मोह।।

िवरह क कु हाड़ी जब शरीर पर चलती है तब शरीर बहता है और उससे पैदा आ घाव भी भरता नह है,
फर भी मौत का डर नह है। भला मौत का डर य सताए जब म-मोह सब पीछे छू ट गए ह और स ान का
बोध हो गया है।
िबरह क जलाई म जलू,ं जलती जलहर जाऊं।
मो देखा जलहर जलै, स तो कहं बुझाऊं।।

िवरिहणी कहती है - हे भु! म तु हारी िवरह क अि म जल रही ं और इस आग को बुझाने के िलए जलधर


यानी सरोवर जा रही ,ं ले कन म या क ं , मुझे िवरहाि म जलता आ देखकर सरोवर भी जलने लगा है। हे
स न ! अब तु ह कहो, म इस िवरहाि को कहां बुझाऊं? यह िवरह क आग तो तभी बुझेगी जब भु-िपया से
िमलन होगा।
िबरहा मोस य कहै, गाढ़ा पकड़ो मोिह।
चरण कमल क मौज म, ले प ंचावौ तोिह।।

िवरही कहता है - िवरह तो मुझसे ऐसा कहता है क मुझे पूरी मजबूती के साथ पकड़ लो यानी अपनी पकड़
थोड़ी-सी भी ढीली मत रखो। म तुझे तेरे भु राम के चरण-कमल के परम धाम म फौरन ही प च ं ा दूग
ं ा अथात्
भु के ित मन म स ी िवरह- था होने पर उनक कृ पा अव य ही ा हो जाती है।
कबीर हंसना दूर क , रोने से क चीत।
िबन राय य पाइये, ेम िपयारा मीत।।

कबीर कहते ह - हंसना छोड़ दो और रोने क आदत डालो, य क िबना मीत क याद म रोए, उसको पाया
नह जा सकता। कहने का भाव है क भु को पाने के िलए उसक िवरह- था म खुद को तपाना आव यक है।
कबीर वैद बुलाइया, जो भाव सो लेय।
िज हं िज हं औषध ह र िमलै, सो सो औषध देय।।

कबीर कहते ह - िवरहाि के ताप से िनजात पाने के िलए िवरही ने वै को बुलाया। वै ने दशा देखकर कहा
क जो पसंद हो वही ले लो। िवरही को मन मांगी मुराद िमल गयी। बोला - िजस-िजस औषिध के लेने से मेरे
वामी मुझे िमल जाएं, वही औषिध दे दो। कहने का भाव है क ह र को पाने के िलए वह सब करना आव यक है,
िजससे उनक अनुकंपा ा हो जाए।
आय न स कह तोिह पै, सकूं न तुझे बुलाय।
िजयश य ही ले गे, िबरह तपाय तपाय।।

िवरह ज य ताप म जल रहा िवरही अपने भु से कहता है - हे नाथ! म तु हारे पास आ नह सकता ं और न
ही तु ह अपने पास बुलाने क मता ही रखता ।ं लगता है मुझे साम य हीन जानकर तुम िवरहज य अि म ही
मुझे तपा-तपाकर मार दोगे। कहने का भाव है क या तुम आकर मुझसे नह िमल सकते?
कै िवरिहनी को मीच दे, कै आप आ दखाय।
आठ पहर का दाझना, मो पै सहा न जाय।।

िवरिहणी भु से िशकायत के लहजे म कह रही है - हे मेरे भु! या तो तुम मुझ िवरिहणी को मार दो या आप
खुद चलकर मुझे दशन दो। आठ हर का जलना-तपना अब मुझसे बदा त नह हो रहा है, म इस जीवन से ऊब
गई ।ं
कहने का भाव है क िवरह एक तप या ही है और भ गण भगवान के िवरह म जलने-तपने के बाद ही ई र
को ा करते ह या उसके ही िवरह म जान दे देते ह। यह हठ योग या है, िवरह का ही तो एक प है।
लकड़ी जल कु इला भये, मो मन अज ं आग।
िबरह क ओ द लाकड़ी, िसलग िसलग उठ जाग।।

भगवान क िवरह- था म जल-तप रहा एक भ कहता है - यह लकड़ी जलकर कोयला हो गई है, ले कन


मेरे शरीर म िवरह-अि आज तक लगी ई है। क ी या भीगी ई लकड़ी क तरह ही यह िवरह क आग सुलग-
सुलगकर उठती-जलती रहती है। कहने का भाव है क गीली लकड़ी क तरह ही यह िवरहाि है, जो अंदर-ही-
अंदर सुलगती-जलती रहती है।
तन मन जोबन ज र गया, िबरह अिगिन घट लाग।
िबरिहन जानै पीर को, या जानेगी आग।।

िवरहाि से तन, मन, यौवन सब कु छ ही जल गया। इस िवरहाि क पीड़ा को तो के वल िवरिहणी ही जान


पाती है। उस आग को उसक पीड़ा का या अनुमान, जो उसम लगी है।
कहने का भाव है क िवरह- था क अनुभूित, िजसके तन-मन म आग लगती है, वही करता है, सामने वाले
को उसक पीड़ा का अनुमान भला कै से हो सकता है।
अंिखयन तो झांई परी, पंथ िनहार िनहार।
िज या तो छाला पड़या, नाम पुकार पुकार।।

ई र क भि म ऐसा ही होता है - अपने भु राम क राह देखते-देखते आंख म झांई पड़ गई अथात् आंख
से दखना बंद हो गया। उस परम िपता भु का सुिमरन करते-करते जीभ पर छाले पड़ गए अथात् अब सुिमरन
भी नह हो पा रहा है। वह िवरही िब कु ल ही मजबूर हो गया है। ई र को उस पर तरस खाकर दशन देना ही
चािहए।
नैनन तो झिड़ लाइया, रहट बहे िनसुवास।
पिपहा य िपव िपव रटै , िपया िमलन क आस।।

चलते ए रहट से जैसे जल िगरता है वैसे ही आंख से आंसु क झड़ी-सी लगी ई है। भु के दशन पाने क
आस म वह िवरिहणी पपीहे क तरह िपया-िपया रट रही है। कहने का भाव है क वह दन-रात बस ई र के
काम का जप कए जा रही है, बस इस आस म क कभी तो वह िमलगे। आशा ही तो जीवन है।
हंसु तो दुःख न िबस ं , रोऊं बल घ ट जाय।
मनही मांिह िबसूरना, य घुन काठिह खाय।।

िवरही कह रहा है - हसूं तब भी यह िवरह-वेदना भूल नह पाता तथा रोऊं तो शरीर क शि घटती है। अब
तो बस मन-ही-मन िबसूरना यानी घुटना है जैसे दीमक अंदर-ही-अंदर लकड़ी को खाता रहता है और लकड़ी
खोखली हो जाती है, पर कु छ कर नह पाती है। कोई उसके दद को समझ नह पाता, ऐसी ही हालत एक िवरही
क भी है।
नैना अ तर आव तू, िनश दन िनरखूं तोिह।
कब ह र दरशन दे गे, सो दन आवै मोिह।।

िवरही भ ई र से याचना करता है - ‘हे मेरे वामी! तुम मेरे नयन म आ जाओ, ता क म ित दन तु ह
देख सकूं अथात् हर पल तु हारी छिव का दशन करता र ।ं हे ह र! तु ह बताओ, कब दशन दोगे, वह दन कब
आयेगा?
गल तु हारे नाम पर, य पानी म लौन।
ऐसा िबरहा मेिल के , िनत दुःख पावै कौन।।

भ क यह इ छा है - हे भु! म तु हारे नाम पर ऐसे गल जाऊं जैसे पानी म नमक गल जाता है। ऐसे िवरह
के िमलने से भला कोई कब तक दुःख-दद पाता रहे। तु हारे नाम पर गल जाना ही अ छा है, गल जाने के बाद तो
तुम आओगे ही खबर लेने।
भली भई जो िपव मुवा, िनत उ ठ करता रार।
छू टी गल क फांसरी, सोऊं पांव पसार।।

अ छा ही आ, जो पित यानी मोह-इ छा का िनधन हो गया। वह रोजाना सुबह उठकर झगड़ा करता था।
उसके िनधन के बाद मेरे गले से फांसी का फं दा िनकल गया है और म अब पैर फै लाकर सुख क न द लेती ।ं
कहने का भाव है क मोह-माया-इ छा का शमन हो जाने के बाद ि भयमु होकर सुख क िज दगी जीता है।
उसका सीधा संबंध ई रीय शि से हो जाता है। स े अथ म ऐसे ि ही संत होते ह।
मांस गया पंजर रहा, तमकन लागे काग।
सािहब अज ं न आइया, म द हमारे भाग।।

भु क भि करते-करते शरीर का मांस ख म हो गया, बस हि य का ढांचा ही रह गया और अब मृ यु पी


कौआ मंडराने लगा है, ले कन मेरे भु अभी तक नह आए। म कतना भा यहीन ।ं
कहने का भाव है क मनु य तन पाने के बाद भी ई र का दशन मुझे नह हो सका।
म तुमको ढू ंढत फ ं , क ं न िमिलया राम।
िहरदा मांिह उ ठ िमलै, कु सल तु हारे काम।।

हे राम! म तु ह चार तरफ खोजता फरा, ले कन तुम कह पर भी नह िमले। तुम िवल ण हो और तु हारे
काम अनुपम ह, तुम तो मेरे दय म ही कट होकर मुझे िमल गए।
कहने का भाव है क राम घट-घट म ह, उ ह बाहर ढू ंढने क ज रत नह है।
अिवनाशी क सेज का, कै सा है उनमान।
किहबे को शोभा नह , देखे ही परमान।।

ई र क अनुकंपा ा भि न से दूसरी भि न ने पूछा - उस अिवनाशी, अगम, अगोचर परमा मा क सेज


का तु ह कै सा अनुभव आ? वह भि न आंख म आंसु को भरकर भाव िव वल होकर बोली - उसक शोभा
अवणनीय है, श द म बयां नह क जा सकती। उसक सेज क अनुभूित तो करने से ही हो सकती है। उसे अनुभव
करने वाला मुख से बता नह सकता है। वह तो अगम और अगोचर है।
खरी कसौटी राम क , काचा टकै न कोय।
राम कसौटी जे सहै, जीवत िमरतक होय।।

राम क कसौटी ही खरी है अथात् राम क भि ही स य है, इसके सामने कोई भी म जाल टकने वाला नह
है। राम भि क कसौटी पर जो खरा उतरता है, वह िज दा ही मृतक हो जाता है अथात् सारे मोह के बंधन से
मु होकर राम के धाम को ा कर लेता है। वह जीिवत ही मो ा कर लेता है।
सोने प धाह दइ, उ म हमारी जात।
वन ही म क घूंघची, तोली हमरे साथ।।

सोने और चांदी को जब आग क भ ी म डाला गया तब उ ह ने बता दया क हमम कोई खोट नह है, ले कन
यह ठीक नह कया, जंगल म पैदा ई घुंघची को हमारे साथ तोल दया।
कहने का भाव है क सोने का मुकाबला घुंघची नह कर सकती। इसी तरह से स न व दुजन एक ही साथ नह
तोले जा सकते।
तोल बराबर घूंघची, मोल बराबर नांिह।
मेरा तेरा पटतरा, दीजै आगी मांिह।।

सोना कहता है क घुंघची तोल म मेरे बराबर हो सकती है, पर मू य म मेरा मुकाबला नह कर सकती। मेरी-
तेरी बराबरी का पता तब चलेगा जब हम दोन को ही आग म डालकर जलाया जाएगा। घुंघची तो राख हो
जाएगी , पर सोने पर और चमक आ जाएगी। स न और दुजन क पहचान भी ऐसे ही क जाती है।
लाली मेरे लाल क , िजत देखूं ितत लाल।
लाली देखन म गई, म भी हो गई लाल।।

मेरे भु क शोभा अनुपम है, िजधर भी देखूं, उधर ही उसक शोभा नजर आ रही है। जब अपने भु क शोभा
देखने गई तो म भी उसक स दय-आभा म खो गई और उसक तरह ही हो गई।
कहने का भाव है क ई र क शोभा अनुपम है। भ जब उसक शोभा म डू ब जाता है तो उस जैसा ही हो
जाता है। भ का अपना कु छ रह ही नह जाता।
हम वासी वा देश के , जहां पु ष क आन।
दुख सुख कोई ापै नह , सब दन एक समान।।

हम उस देश के रहने वाले ह, जहां संत क मयादा है। कोई भी दुःख-सुख वहां पर नह ापता। सभी दन
एक समान होते ह।
कहने का भाव है क जहां परमा मा होता है, जहां संत होते ह, वहां सुख-दुःख नह होते ह।
हम वासी वा देश के , जहां का कू प।
अिवनासी िवनसै नह , आवै जाय स प।।

हम उस देश के रहने वाले ह, जहां ई रीय ान का िवशाल कुं आ है। वहां पर जो अिवनाशी है यानी ई रीय-
त व है, उसका तो कभी नाश होता ही नह है, ले कन जो शरीर है, उसका नाश होता रहता है। वह ज म-मरण के
च से मु नह हो पाता है। ज म लेता है, फर मरता है। यह म चलता ही रहता है।
कहने का भाव है क आ मा ई रीय-त व है और शरीर ण-भंगुर है।
हम वासी वा देश के , बारह मास िवलास।
ेम झरै िवगसै कमल, तेज पुंज परकास।।

हम उस देश के रहने वाले ह जहां पर हमेशा हष लास ही बरसता रहता है। रोग, शोक, भय कह नह
ा ा। वहां पर हमेशा ेम बरसता रहता है और दय-कमल हर पल िखलता रहता है यानी िबहंसता रहता है
तथा चार तरफ ई रीय काश के पुंज से उजाला-ही-उजाला फै ला रहता है।
हम वासी वा देश के , जाित वरन कु ल नांिह।
श द िमलावा वै रहा, देह िमलावा ना हं।।

हम उस देश के वासी ह, जहां पर जाित, रं ग, कु ल का झमेला नह है। वहां पर ान-से- ान का िमलन तो हो


रहा है, पर देह-का-देह से िमलन नह हो रहा।
िबन पावन का पंथ है, िबन ब ती का देश।
िबना देह का पु ष है, कह कबीर स देश।।

जहां पर जाना है, वह देश अनोखा है। वह देश िबना गांव-नगर का है और रा ता ऐसा है क चलने के िलए
पैर क ज रत ही नह है। कबीर कहते ह क जो ऐसे देश का मािलक है, वह िनराकार है। वह िबना देह का है,
ले कन वह है स य पु ष।
न न गला पानी िमला, ब िन न भ रह गौन।
सुरित श द मेला भया, काल रहा गिह मौन।।

नमक जब गलकर पानी म एकदम घुलिमल जाता है, तब उसे लाख चाहने के बाद भी बोरी म नह भरा जा
सकता। ऐसे ही जब मनु य का मन ई रीय- व प म िमल जाता है, तब काल भी मौन धारण कर लेता है वह भी
उस ि का कु छ नह िबगाड़ पाता।
कहने का भाव है क जब मृ यु का भय ही न रहा तो फर काल या डरा सकता है, काल तो उसे ही डरा
सकता है जो मृ यु से डरता है और जीवन से असीम ेम करता है।
पंजर ेम कािशया, जागी जोित अनंत।
संशै छू टा भय िमटा, िमला िपयारा क त।।

ई र का ान होने से शरीर पी मं दर म ेम क योित चार तरफ फै ल गई है। अब सारा संशय दूर हो


गया है और भय भी दमाग से छंट गया है, जब से जगदी र का दशन हो गए ह।
मेरी िम ट मु ा भया, पाया अगम िनवास।
अब मेरे दूजा नह , एक तु हारी आस।।

अहम् के दूर हो जाने से म, अब पूरी तरह से मु हो गया ं और शांत िच होकर ठहर गया ।ं हे स गु !
तु हारे िसवा अब मेरा दूसरा कोई नह । बस एक तु हारी ही आस है, तु हारे िसवा म अब कसी को भी नह
जानता।
पवन नह पानी नह , न हं धरती आकास।
तहां कबीरा संत जन, सािहब पास खवास।।
भु के धाम का वणन करते ए कबीर कहते ह क वहां पर न तो हवा है, न पानी है, न ही धरती-आकाश ही
ह। वहां पर स त- ानी जन ई र के यान म डू बे ए, उनक भि करते ह अथात् ई र का धाम शू य म है और
अगम है। कोई उसका भेद नह पा सकता है।
अगुवानी तो आइया, ान िवचार िववेक।
पीछे ह र भी आएंग,े सारे स ज समेत।।

ई र क अनुकंपा जब होती है तो ि म सबसे पहले ान, िवचार, िववेक आते ह, इसके बाद सारे सुख-
आनंद, हष-उ लास समेत परमा मा भी आ जाते ह। कहने का भाव है क ान, िवचार, िववेक आ द िजसम होते
ह, वही ई र क अनुकंपा ा कर पाता है।
कबीर देखा एक अंग, मिहमा कही न जाय।
तेज पुंज परसा धनी, नैन रहा समाय।।

कबीर कहते ह क िजसके एक अंग को देखकर उसक मिहमा का बखान नह कया जा सकता, उस परमा मा
के तेज योित-पुंज को छू कर या देखकर उसे िबसराया नह जा सकता। वह तो बस आंख म ही समाया रहता है,
िजसने भी एक बार दशन कर िलया, समझो उसका क याण हो गया।
सुरित उड़ानी गगन को, चरन िवलंबी जाय।
सुख पाया साहेब िमला, आनंद उर न समाय।

पिव व िनमल मनोवृि ने आकाश म एक ल बी उड़ान भरी और परमे र के चरण म जा पड़ी। परमानंद
क अनुभूित ई और हरी का दशन हो गया। अब तो यह अथाह आनंद दय म समा ही नह रहा।
कहने का भाव है क ई र क भि म लवलीन जीव हर पल परमानंद क ही अनुभूित करता है।
सीप नह सागर नह , वाित बूंद भी नांिह।
कबीर मोती नीपजै, सुन सरवर घट मांिह।।

सीप नह , सागर नह , वाित न क बूंद भी नह है। कबीर कहते ह क वह मोती तो भु क भि म


लवलीन दय के अनुपम शू य सरोवर म उपजता है अथात् कसी सीप या सागर म नह बि क भ जन के
दय सरोवर म वह अनमोल मोती ( ान-पुंज) उपजता है।
ममता मेरा या करै , ेम उदारी पोल।
दरशन भया दयाल का, शूल भई सुख सोल।।

ममता मेरा अब या िबगाड़ेगी? अब तो दीनदयाल का दशन मुझे हो गया है और मने अपने दय म भु-
भि को बसा िलया है, य क भि पी ेम का ार मेरे दय म खुल गया है। अब तो जो कांटे ह वे भी फू ल
जैसे कोमल व आनंददायक हो गए ह।
ऐसा अिवगित अलख है, अलख लखा नह जाय।
जोित स पी राम है, सब म र ौ समाय।।

जो राम है, वह योित व प है और वह सब म ही समाया आ है। वह इतना अगम और अलख है क सामा य


जन उसे देख या पहचान नह सकता।
खाला नाला हीम जल, सो फर पानी होय।
जो पानी मोती भया, सो फर नीर न होय।।
खाला, नाला तथा बफ का पानी फर से पानी हो जाता है अथात् पानी कसी भी प म होने के बाद भी पानी
ही हो जाता है, ले कन जो पानी सीप म जाकर मोती बन जाता है, वह दुबारा पानी नह बनता है।
कहने का भाव है क जो आ मा परमा मा म िवलीन हो जाती है, वह पुनः कसी शरीर म नह जाती। उसे
ज म-मरण के बंधन से मुि िमल जाती है।
फे र पड़ा न हं अंग म, न हं इि यन के मांिह।
फे र पड़ा कछु बूझ म, सो िन वारै नांिह।।

कसी के भी शरीर के अंग म कोई अंतर नह है और न ही इं य म कोई अंतर है। जो अ तर है, वह समझ-
बूझ का है, िजसे मूढ़ और अ ानी लोग कभी सुधारने का यास तक भी नह करते।
कहने का भाव है क समझ-बूझ म ही अंतर होता है। मनु य को इसके िलए अ छे लोग के साथ रहना चािहए,
ता क यह अंतर भी न रहे।
शीतल कोमल दीनता, संतन के अधीन।
वास सािहब य िमले, य जल भीतर मीन।।

जो लोग शांत, कोमल, िवन कृ ित के होते ह, वे संत के अधीन होते ह। ऐसे लोग से ई र ऐसे िमलता है
जैसे मछली जल से िमलती है।
कहने का भाव है क भ -भगवान का िमलन तभी होता है, जब दुजनता क सारी क पल न हो जाती ह।
कबीर आदू एक है, कहन सुनन कूं दोय।
जल से पाला होत है, पाला से जल होय।।

कबीर कहते ह क आ द - अंत सबका आनंद व प परमा मा ही है। बस कहने-सुनने को दो ह, जैसे पानी से
पाला (बफ) बनता है और पाला से पानी हो जाता है, ले कन जल तो एक ही होता है। परमा मा का व प भी
जल के समान है। जल के समान वह भी समय-समय पर प बदलता रहता है, पर है वह एक ही।
राम नाम ितरलोक म, सकल रहा भरपूर।
लाजै ान शरीर का, दखावै सािहब दूर।।

तीन लोक म राम का नाम खूब िलया जाता है। हर ि के दय म राम है। उस राम को, जो ि ब त
दूर का बताता है, उसका शारी रक- ान तो कु छ भी नह है। उसे ऐसे ान पर ल ा आनी चािहए य क उसे
इतना भी नह मालूम क िजसे वह दूर बताता है, वह तो शरीर के अंदर ही है।
िजन जेता भु पाइया, ताकूं तेता लाभ।
ओसे यास न भागई, जब लग धसै न आभ।।

िजस ि ने िजतना ई रीय ान ा कर िलया, उसको उतना ही लाभ आ। ओस-बूंद से भला कभी
यास बुझती है, जब तक जल म जाकर भरपूर जलपान न कया जाए ऐसे ही के वल ई र का ान ा करने का
ढ ग करने से आ मा को शांित नह िमलती और कोई लाभ भी नह होता।
कबीर देखी परिख ले, परखी के मुंह खोल।
साधु असाधु जािन ले, सुिन सुिन मुख का बोल।।

कबीर कहते ह क पहले देख-परख लो, फर कसी के िवषय म कोई बात कहो। साधु-असाधु क पहचान
उसके मुख के बोल से करो, उसके बाद ही कोई ित या करो।
कहने का भाव है क िबना कसी को जाने कोई बात मुंह से न िनकालो।
कबीर देखी परिख ले, प रख के मुखा बलाय।
जैसी अ तर होयेगी, मुख िनकसैगी आय।।

कबीर कहते ह क आगुंतक को पहले अ छी तरह से जान-समझ लो, फर उसके मुख से बुलवाओ। उसके दय
म जो भी होगा, अपने आप उसके मुख से बाहर िनकल आएगा।
पिहले श द िपछािनये, पीछे क जै मोल।
पारख परखै रतन को, श द का मोल न तोल।।

कसी से िमलने पर पहले उसक बात को यान से सुनो फर उसको पहचानो, इसके बाद उसके अनुकूल
बातचीत करो। जौहरी र को परखता है, पर स य-अस य का मोल-तोल नह है। इसे तो कोई ानी ही बड़ी
मुि कल से परख सकता है।
जब गुन को गाहक िमलै, तब गुन लाख िबकाय।
जब गुन को गाहक नह , कौड़ी बदले जाय।।

गुण का स ा खरीददार जब िमलता है, तब वह गुण लाख पये म िबक जाता है, ले कन जब गुण का कोई
स ा खरीददार नह िमलता है तब वह कौड़ी के भाव िबकता है अथात् गुण क क दान न होने पर गुण क कोई
क मत नह होती।
एक ही बार परिखए, ना वा बार बार।
बालू तौ कर करी, जो छान सौ बार।

कसी भी आदमी को अ छी तरह से एक ही बार परखो। बार-बार कसी को परखने क ज रत नह है। बालू
यानी रे त को सौ बार भी छानने पर उसक कर करी नह जाती। कहने का भाव है क अ ािनय को परखना
बेकार है य क वे हरबार एक नई कर कराहट के साथ ही दखते ह और ि के साथ छल कर ही जाते ह।
ानी जन ह जौहरी, करमी सकल मजूर।
देह भार को टोकरा, िलए सीस भरपूर।।

जो ानी लोग ह, वे जौहरी ह और जो सांसा रक काय म िल ह, वे सब मजदूर ह, शरीर पी बोझ का


टोकरा िसर पर िलए फरते ह, यानी अ ानी जन अपनी असीम इ छा के बोझ तले हमेशा दुःखी ही रहते ह।
कबीर जग के जौहरी, घट क आंखी खोल।
तुला स हा र िववेक क , तोलै श द अमोल।।

कबीर कहते ह क संसार क समझ रखने वाले जौहरी संत अ तमन क आंख खोल देते ह। वे िववेक क तुला
पर अनमोल सार-श द को सावधानीपूवक तोल लेते ह।
गाहक िमलै तो कु छ क ं, ना तर झगड़ा होय।
अ ध आगे रोइये, अपना दीदा खोय।।

ान को हण करने क इ छा रखने वाला ाहक िमले तो म कु छ क ,ं नह तो अिववेक के सामने कु छ कहने


पर झगड़ा ही तो होगा, जैसे अंधे के आगे रोकर अपनी आंख को खोना ही है, य क अंधे को या मालूम क म
रो रहा ।ं
मोती है िबन सीप का, जगत मगर उं िजयार।
कह कबीर जब पावई, भोजन िमले हमार।।

मोती ऐसा है जो िबना सीप का है, िजससे चार तरफ उजाला हो रहा है। कबीर कहते ह क इस उजाले पी
स संग म स ान का साद िमले तो संत जन पी हंस सादर हण करते ह। कबीर ने ई री- व प को मोती क
सं ा व उपमा दी है।
हंसा बगुला एक सा, मानसरोवर मा हं।
बगा ढंढौरे माछरी, हंसा मोती खांिह।।

हंस और बगुला दोन एक जैसे ही दखते ह। उनका रं ग भी एक-सा ही होता है और दोन ही मानसरोवर म
होते ह। बगुला मछली ढू ंढकर खाता है और हंस मोती चुगकर खाता है।
कहने का भाव है क संसार म स न व दुजन दोन ही रहते ह और प-रं ग म कोई भेद नह है। स न ान
को हण करते ह और दुजन अ ान के पीछे भागते ह।
चंदन गया िवदेसरे , सब कोय कहै पलास।
य य चू है झ कया, य य अिधक सुवास।

च दन क लकड़ी िवदेश प च ं ी, वहां सबने उसे पलाश कहा, ले कन जैस-े जैसे चू हे म वह जलती गई वैसे-वैसे
उसक महक हवा म फै लती गई। सुगंध क अनुभूित होने के बाद लोग ने िव ास कया क यह लकड़ी चंदन क
है, पलाश क नह ।
कहने का भाव है क गुणवान अप रिचत ि को लोग तब गुणवान मानते ह, जब उसे नजदीक से जान-
समझ जाते ह।
कबीर गुदरी बीखरी, सौदा गया िबकाय।
खोटा बांधा गांठरी, खरा िलया न हं जाय।।

कबीर कहते ह क स संग के मेले म ान क गठरी खोल दी। स न ने पलक झपकते ही ान पी सौदा
खरीद िलया, ले कन िजनक गठरी म खोटा (अस य) िस ा है, उ ह ने ान पी सौदा नह खरीदा।
कहने का भाव है क िजसके मन म मैल पी अ ानता है, वे भला ान को कै से हण करगे।
कबीर खांडिह छांिड़ के , कांकर चुिन चुिन खाय।
रतन गंवाया रे त म, फर पाछै पिछताय।।

कबीर कहते ह क खांड को छोड़कर कं कड़ चुन-चुनकर जो खाते ह, वे अ ानी ही तो होते ह। वे लोग रतन
पी ान को िवषय-वासना क रे त म खोकर आजीवन पछताते ह क हमने यह या कर डाला।
कहने का भाव है क समय बीत जाने के बाद पछताने से कु छ नह होता।
म जानूं ह र दूर है, ह र है िहरदे मांिह।
आड़ी टाटी कपट क , तासे दीसत नांिह।।

म अ ानी तो जानता था क ह र दूर ह, ले कन वह तो मेरे दय म ही ह। बस, कपट क टाट क आड़ होने से,


वह नजर नह आते थे।
कहने का भाव है क छल-कपट क आड़ ने ह र से अलग कर दया था। वा तव म वह तो मेरे दय म ही ह।
ान जीव को धम है, भम ास जो मेट।
सांच पंथ पावै परिख, जब ितिह सतगु भेट।।

ान जीव का धम है, यह समझकर उसे चािहए क वह डर, म सब मन से िनकाल दे। जब ाणी क स गु


से भट हो जाती है तब स े रा ते क परख कर वह स य के माग पर चल पड़ता है।
अ धे औघट जात ह, चार लोचन नांिह।
संत उपकारी ना िमला, छोड़े ब ती मांिह।।

वे लोग िजनके चार ने (दो अंदर के और दो बाहर के ) नह ह, कु माग पर जा रहे ह, उ ह कोई उपकारी संत
नह िमला, जो उ ह स े लोग क ब ती म ख चकर ले जाए।
कहने का भाव है क उनको स ान देने वाला कोई नह िमला, िजससे बेचारे ने का इ तेमाल कर सक।
सांझ पड़ी दन ढल गया, बाघन घेरी गाय।
गाय िबचारी ना मरै , बाघ न भूखा जाय।।

सांझ हो गई, दन ढल गया अथात् जीवन ढल गया, बुढ़ापा आ गया और बाघ ने गाय को घेर िलया अथात्
मृ यु ने जीव को आकर घेर िलया, फर भी वह आ मा पी गाय नह मरी, ले कन मृ यु पी बाघ भी भूखा नह
रहा। आ मा तो अिवनाशी ठहरी, वह देह छोड़कर चलती बनी और बाघ ने शरीर को खा िलया। अंततः देह और
आ मा का संबंध-िव छेद हो गया।
आपा मेटै ह र िमलै, ह र मेटै सब जाय।
अकथ कहानी ेम क , कोई न हं पितताय।।

अहंकार के िमटते ही ह र िमल जाते ह और ह र के िमटते यानी भुलाते ही सब कु छ चला जाता है। इस ेम क
कहानी अकथनीय है, इस पर कोई नह यक न करता।
झाल उठी झोली जली, खपरा फू टम फू त।
जोगी था सो रिम गया, आसन रही भभूत।।

मृ यु क वाला उठी, झोली पी मृत शरीर जल गया और खोपड़ी, हि यां जल-फू टकर िबखर ग । जो
आ मा थी वह तो ई र म िवलीन हो गई और शव जलकर राख हो गया।
आग जु लागी नीर म, काद ज रया झार।
उ र दिस का पंिडता, रहा िवचार िवचार।।

दय के सरोवर म ान क अि लगते ही काम, ोध, मद, मोह, लोभ सब जलकर खाक हो गए, पर सूय के
उ रायण म शरीर रखकर मो पाने क उ मीद म पंिडत जन अपनी पोथी-प ा लेकर सोचते-िवचारते ही रह
गए अथात् इसका कोई लाभ नह आ।
न दया जिल कोइला भई, समुंदर लागी आिग।
म छी िबरछा च ढ़ गई, ऊठ कबीरा जािग।।

ान क इ छा रखने वाले भ के दय पी समु म ऐसी ान क अि लगी क जीवन क आशा पी


नदी जलकर राख हो गई, मनोवृि पी मछली अिवनाशी परमा मा पी पेड़ पर चढ़ गई। कबीर कहते ह क
उठो और जाग जाओ। यह सोने का समय नह है।
पंिछ उड़ानी गगन को, पंड रहा परदेस।
पानी पीया च च िबन, भूिल गया वह देस।।

मन पी पंछी ने आकाश म उड़ान भरी। न र शरीर उसके िलए परदेश क तरह हो गया। ऐसे म शरीर और
इं य के िबना ही ऐसे सुख का अनुभव कया क शरीर पी देश को ही भुला दया अथात् आ मा को मो ा
हो गया।
माता मूये एक फल, िपता मुये फल चार।
भाई मूये हािन है, कहै कबीर िवचार।।

माता यानी ममता के मरने से आदमी सांसा रक बंधन से मु हो जाता है और उसे इसका एक फल िमलता
है। िपता यानी अिभमान के मरने से फल ही फल ा होते ह। ि सवि य हो जाता है, ले कन भाई यानी
भाव के मरने से हािन है। कबीर ने ब त ही सोच-िवचारकर इन बात को कहा है।
घटी बढ़ी जानै नह , मन म राखै जीत।
गाड़र लड़ै गय द स , देखी उलटी रीत।।

कु छ ि ऐसे भी होते ह, जो यादा-कम यानी गलत-सही का यान नह रखते ह और हमेशा अपनी िवजय
क ही इ छा मन म रखते ह। ऐसे अहंकारी भेड़ पी ि , हाथी जैसे धीर-गंभीर ि से लड़कर अपना सब
कु छ गंवा बैठते ह। कबीर कहते ह क इन उलटी खोपड़ी वाले ि य को या कहा जाए।
माता का िसर मूंिड़ये, िपता कुं दीजै मार।
ब धु मा र डारै कु आं, पंिडत करो िवचार।।

माता यानी ममता का िसर मूंड दीिजए अथात् उसे मार दीिजए। अहंकार पी िपता को भी मार दीिजए।
ब धु यानी िवषय-वासना क अिभलाषी इं य को भी मारकर कुं ए म डाल दीिजए, इसके बाद आ म- चंतन म
यान लगाइए, क याणकारी रा ता यही है।
हम जाये ते भी मुआ, हम भी चालनहार।
हमरे पीछे पूंगरा, ितन भी बांधा भार।।

िजसने मुझे ज म दया, वे भी मर गए और अब म भी गुजरने वाला ।ं मेरे जो पु -पौ ह, वे भी अपने-अपने


कम के साथ चलने क तैयारी म ह। यह मृ यु लोक है। यहां जो भी है, उसे न हो जाना है।
कबीर ह र रस िजन िपया, अ तर गित लौ लाय।
रोम रोम म रिम रहे, और अमल या खाय।।

कबीर कहते ह क िज ह ने ह र रस यानी गहराइय म डू बकर परमा मा का सुिमरन कया और भि रस को


िपया, परमा मा उनके रोम-रोम म बसा आ है। इसम ही इतना आनंद ा हो रहा है क अब कोई दूसरा अमल
यानी आनंद-रस पान करने का इरादा ही नह रहा।
ह र रस महंगा पीिजये, छांिड़ जीव क बािन।
िसर के साटै ह र िमले, तब लग सुहंगा जािन।।

हे भ ! पहले मन व शरीर म मौजूद सारी गंदी आदत को छोड़ दो, फर ई र के बेशक मती अमृत-रस का
पान करो। अगर तु हारे िसर के एवज म ह र िमलता है तो उसे महंगा नह बि क स ता ही समझो यानी ई र
तभी ा होता है, जब अपना सब कु छ उस पर वार दया जाता है।
सती जरन को नीकसी, िचत ध र एक िववेक।
तन मन स पा पीव को, अ तर रही न रे ख।

अपने मन म एक दृढ़-िववेक धरकर सती अपने सती व के िलए जलने को चल दी। तन-मन अपने वामी को
स प दया ता क इसम कोई भी संशय न हो क उसक ेम पी भि म जरा-सा भी अंतर है।
सती िडगै तो नीच घर, सूर िडगै तो कू र।
साधु िडगै तो िसखरते, िग र भय चकनाचूर।।
अपने सती व से अगर सती िडग जाती है तो वह नीच ेणी के वहारहीन प रवार म जाती है, शूरवीर जंग
के मैदान म पीठ दखाता है तो खूंखार व ू र योिन म जाता है, साधु अपने क माग से िडगता है तो उसे कोई
योिन नसीब नह होती है, वह रसातल को चला जाता है। इसिलए संत को अपनी ग रमा व मयादा का सदा
यान रखना चािहए।
सती िबचारी सत कया, ले अपना वे भेष।
एक एक जब वै िमली, अंतर रही न रे ख।।

सती व क ग रमा को बनाए रखने के िलए सती ने वेश बनाया तथा पूरी िन ा के साथ सती व धम को
िनभाया और अपने िपया के साथ घुल-िमल गई। अब एक रे खा के बराबर भी अंतर नह रह गया।
सती चमाकै अगिन सू,ं सूरा सीस डु लाय।
साधु जु चूकै टे कस , तीन लोक अथड़ाय।।

अगर सती िचता क अि क लपट को देखकर देह चमकाए यानी अि से बचने क कोिशश करे , शूरवीर
लड़ाई के मैदान म अपना िसर िहलाए, साधु परोपकार के िनयम-संयम म चूक जाए तो तीन लोक म इनक
हंसी होती है और पितत कहलाते ह। अतः अपने पद क मयादा का यान होना चािहए।
पितबरता को एक है, ािभचा रन के दोय।
पितबरता ािभचा रनी, क य मेला होय।।

पित ता का िसफ एक पित होता है और िभचा रन के दो या दो से भी अिधक पु ष होते ह, वह भी पित


नह । फर भला पित ता और िभचा रन का मेल कै से हो सकता है।
पितबरता मैली भली, गले कांच क पोत।
सब सिखयन म य दपै, य सूरज क जोत।।

पित ता तन से मैली होने पर अ छी होती है, भले ही उसके गले म कांच क माला ही य न हो। वह सिखय
के बीच सूय के तेज क तरह तेज वी दखती है।
कहने का भाव है क वह पित ता है, उसका कम अ छा है। उसका मू यांकन आभूषण और व से नह
बि क अ छे कम से होता है।
पितबरता पित को भजै, पितभज धर िव ास।
आन दसा िचतवै नह , सदा पीव क आस।।

पित ता हमेशा पित क ही सेवा म रहती है और उसक पूरी िन ा पित के ित ही होती है। वह के वल उस
पर ही िव ास करती है। वह व म भी पर-पु ष को अपने मन म नह लाती है और सदा अपने ि यतम क
आस म ही बैठी रहती है।
पितबरता तब जािनये, रती न ख डै नैन।
अ तर सो सूची रहै, बोलै मीठा बैन।।

असली पित ता तो वह है, िजसक आंख अपने पित के िसवा दूसरे कसी पर न जाएं। वह हमेशा मन, कम,
वचन से पिव रहे और पित से मीठे वचन ही बोले।
पितबरता के एक तू, और न दूजा कोय।
आठ पहर िनरखत रहै, सोइ सुहािगन होय।।

पित ता के मन म बस ि यतम ही होता है और दूसरा कोई नह होता। आठ पहर उसे अपने ि यतम का ही
यान रहता है। ऐसी पित ता ही हमेशा सुहािगन रहती है।
पितबरता तो िपव भजै, िपया िपया रट लाय।
जीवत जस है जगत म, अ त परम पद पाय।।

पित ता िपया-िपया का सुिमरन हर पल करती है और उसके ह ठ पर बस ‘िपया’ श द ही रहता है। इस


तरह से संसार म जीते ए उसे पित का यार तो िमलता ही है, साथ ही वह परम पद को ा कर ई र म
समािहत हो जाती है।
नैना अंतर आव तूं, नैन झांिप तुिह लेव।
ना म देख और को, ना तुिह देखन देव।।

पित ता अपने पित से कहती है - हे ाणनाथ! तुम मेरे नयन म आ जाओ और म तु ह पलक म बंद कर लूं। न
म दूसर को देखूं और न तु ह दूसर को देखने दू।ं
कहने का भाव है क बस हम दोन ही एक-दूसरे म रह। तीसरे के िलए कोई जगह ही न रहे।
कबीर सीप समु क , रटै िपयास िपयास।
और बूंद को न गहे, वाित बूंद क आस।।

कबीर कहते ह क समु म रहने वाली सीप को देखो, हर पल ‘ यास- यास’ क रट लगाए रहती है, पर तु
समु के जल क एक बूंद को भी हण नह करती है, बस उसे वाित न क बूंद क आस होती है।
कहने का भाव है क साधुजन स य को ही हण करते ह और अस य के बीच म रहने के बाद भी उसक ओर
कोई यान नह देते।
कबीर सीप समु क , खारा जल न हं लेय।
पानी पीवै वाित का, सोभा सागर देय।।

कबीर कहते ह क समु म ही पैदा ई सीप को देखो, समु का खारा पानी एक बूंद भी नह पीती है। वह
वाित न का पानी पीती है और ब मू य मोती को पैदाकर समु क मह ा और शोभा को दोगुना कर देती
है।
नाम न रटा तो या आ, जो अ तर है हेत।
पितबरता िपव को भजै, मुख से नाम न लेत।।

अपने इ देव के नाम का सुिमरन नह कया तो या आ, मन म उसके ित स ा ेम तो है। पित ता ी भी


मुख से पित का नाम कहां लेती है, बस स े मन से अपने पित क सेवा-पूजन करती रहती है। मन-ही-मन ई र-
पूजन करना े है, ह ला मचाने से भु स नह हो जाते। उ ह तो भाव भरा ेम चािहए।
सा मोर सुल छना, म पितबरता ना र।
दे दीदार दया करो, मेरे िनज भरतार।।

पित ता आ ह भाव से कहती है - हे सु दर गुण वाले मेरे ि यवर! तुम मेरे सा यानी परमे र हो और म
तु हारी पित ता नारी ।ं इसिलए हे ि यवर! दशन देकर मुझ पर दया करो।
सा मेरा एक तू, और न दूजा कोय।
दूजा सा या क ं , तुझ सम और न कोय।।

पित ता नारी िवनय भाव से कहती है - मेरा सा यानी वामी तो बस एक तुम ही हो, दूसरा कोई नह है।
दूसरे वामी का म क ं गी भी या? तु हारे समान सवस प कोई और नह । म तो बस तुमसे ही ेम करती ।ं
आठ पहर च सठ घड़ी, मेरे और न कोय।
नैना मांह तूं बसै, न द ठौर न हं होय।।

पित ता नारी भाव िव वल होकर कहती है - आठ पहर और च सठ घड़ी तु हारे अित र मेरा दूसरा कोई
नह है। आंख म बस तुम ही बसते हो और न द के िलए भी आंख म कोई जगह नह है। हर पल तेरा ही यान
रहता है।
बार बार या आिखये, मेरे मन क सोय।
किल तो ऊखल होयगी, सा और न होय।।

पित ता समझाते ए कहती है - मेरे मन म तुम को लेकर जो नेह क बात ह, उ ह बार-बार या सुनोगे-
जानोगे? तु ह तो इसका बोध है ही। यह समय भले ही बदल जाएगा, पर म कह देती ,ं मेरा ि यवर कोई और
नह तुम ही होओगे...तुम ही।
जो यह एक न जािनया, ब जाने या होय।
एकै ते सब होत है, सब ते एक न होय।।

जो इस एक को ठीक से जान न सका अथात् जो एक ई र को समझ न सका, उसके भला अिधक जानने से
या होगा। एक से सब होता है और सब से एक कभी नह होता है अथात् अके ला ई र ब त है, पर ब त ई र
तु य नह है।
एकै साधै सब सधै, सब साधै सब जाय।
माली स चै मूल को, फू लै फलै अघाय।।

उस एक ई र को साधने से सब अपने आप ही सध जाता है। सब साधने से, सारा कु छ चला जाता है। माली
पेड़ क जड़ को स चता है तो पेड़ फल फू ल से लदकर खुद भी अघाता है और माली को भी खुश कर देता है।
एक नाम को जािन कर, दूजा दया बहाय।
जप तप तीरथ त नह , सतगु चरण समाय।।

एक ई र का नाम सुिमरन कर, िजतने भी नाम थे सबको बहा दया। जप, तप, तीथ, त आ द को छोड़ दया
और बस ई र के चरण म ही खुद को अ पत कर दया, जीवन-मरण के बंधन से सदा के िलए मुि िमल गई।
म अबला िपव िपव क ं , िनरगुन मेरा पीव।
सु सनेही राम िबन और न देखूं जीव।।

भि न नारी कहती है - म अबला यानी एक शि हीन नारी ं और ेमवश अपने वामी के नाम को भजती
।ं मेरा ेम कोई मामूली- ेम नह है बि क मेरा वामी िनगुण है। शू य के वासी, उस अ तयामी राम के िबना
उ ार भी तो नह है। मेरे अ तयामी वामी ही मेरा क याण कर सकते ह।
सु द र तो सा भजै, तजै खलक क आस।
तािह न कब ं प रहरै , पलक न छाड़ै पास।।

स गुण वाली सुंदरी, अपने वामी के नाम को ही हमेशा भजती है, वह दुिनया क हर चीज क उ मीद छोड़
देती है। तभी तो उसका ि यवर उसका कभी प र याग नह करता और पल-भर के िलए भी कभी उसका साथ
नह छोड़ता।
घर परमे र पा ना, सुनो सनेही दास।
खटरस भोज भि क र, कब ं छाड़ै पास।।

कबीर कहते ह - हे स नो! ेमपूवक म जो कहता ,ं उसे सुनो। तु हारे शरीर पी मं दर म अितिथ क तरह
ई र मौजूद है, छह रस वाले भोजन से भोग लगाकर उसक भि करो। फर वह कभी भी तु हारा साथ नह
छोड़ेगा।
ऊंची जाित पपीहरा, िपये न नीचा नीर।
कै सुरपित को जांचई, कै दुःख सहै सरीर।।

पपीहा पि य म उ जाित का होता है, इसीिलए वह कभी भी नीच नीर यानी तालाब, नदी, कु आं आ द का
जल बूंद-भर भी नह पीता है। वह हर पल वाित जल के इं तजार म रहता है या फर इं से इसके िलए ाथना
करता रहता है या फर खुद ही इस दुःख को बदा त करता रहता है।
पड़ा पपीहा सुरसरी, लागा बिधक का बान।
मुख मूंदै सुरित गगन म, िनकिस गये यूं ान।।

कसी िशकारी के बाण से घायल पपीहा गंगा म जा िगरा, फर भी उसने अपना मुंह बंद करके अपना यान
आसमान क तरफ लगा दया। वाित जल क आस म उसके ाण िनकल गए, पर गंगा जैसी पिव नदी का जल
हण नह कया।
पपीहा पन को ना तजै, तजै तो तन बेकाज।
तन छाड़ै तो कु छ नह , पन छाड़ै है लाज।।

पपीहा भूलकर भी कभी अपनी वाभािवक वृि को नह छोड़ता है। य द वह ऐसा करता है तो उसका तन
यानी जीवन बेकार है। ण भंगुर शरीर का याग कर दे तो कोई बात नह , पर अपनी वाभािवक वृि को
छोड़ देगा तो जग हंसाई हो जाएगी। फर उसे पपीहा कौन कहेगा? उसक मयादा ही चली जाएगी।
तीर तुपक स जो लड़ै, सो तो सूरा ना हं।
सूरा सोइ सरािहये, बां ट बां ट धन खांिह।।

तीर-कमान, बंदकू यानी श आ द से जो यु करते ह, वे शूरवीर नह होते। उसी शूरवीर को सरािहए, जो


सब म बांटकर धन का सदुपयोग करते ह।
कहने का भाव है क सबके ित िजसके मन म समभाव है, वही असली सूरमा है। श से सबको परा त जो
कर दे, वह सूरमा शंसा के यो य नह है।
घायल क गित और है, औरन क गित और।
ेम बान िहरदै लगा, रहा कबीरा ठौर।।

घायल के दद को एक घायल ही जानता है और जो ेम म घायल होते ह, उनके तन-मन म एक अनजानी-सी


पीड़ा उठती-दबती रहती है। दूसर क जो दशा होती है, वह सामा य भी होती है और दूसरी तरह क भी होती
है। कबीर कहते ह क जब ेम-बाण दय म लग जाता है तो ई र को चाहने वाला भ उिचत थान पर ि थर
हो जाता है और परमा मा से उसका जुड़ाव हो जाता है।
िचत चेतन ताजी करै , लौ क करै लगाम।
शबद गु का ताजना, प ंचै संत सुठाम।।

अपनी मनोवृि को घोड़ी बनाओ, यान को लगाम बनाओ और गु के उपदेश- ान का कोड़ा ले लो। इस
कार से संत-साधु भु के सुंदर धाम को ा कर जाते ह।
मेरे संशय कोय नह , गु सो लागा हेत।
काम ोध स जूझता, चौड़े मांड़ा खेत।।

भ कहता है - मेरे मन म तिनक-सा भी संशय नह है। मेरा तो ई र से गहरा ेम है। यही तो वजह है क म
काम, ोध आ द िवकार से चौड़ा होकर लड़ता- फरता ।ं
लालच लोभ न मोह मद, एकल भला अनीह।
ह रजन ऐसा चािहए, जैसा बन का संह।।

लोभ-लालच, मोह और घमंड आ द न करो, इनम कभी भी तु हारा िहत नह हो सकता। ई र का भ तो


ऐसा होना चािहए जैसा जंगल का राजा संह होता है।
कहने का भाव है क भ को संह क तरह साहसी, प वादी और अके ला िवचरण करने वाला होना चािहए,
तभी वह िनभय होकर ान क बात बोल सकता है।
कोनै परा न छू ट ह, सुन रे जीव अबूझ।
कबीर मंड़ मैदान म, क र इि यन स जूझ।।

कबीर कहते ह - हे ाणी! तू मेरी बात सावधानीपूवक सुन, इस तरह चुपचाप पड़े रहने से तुझे कभी भी मुि
नह िमलने वाली। सजग हो जा और अपने जीवन के मैदान म अपनी इं य से घनघोर यु कर।
कहने का भाव है क श ु पी इं य से लड़ो। सारे पाप क जड़ यही ह। इनके उकसाने पर ही शरीर तरह-
तरह के कम कर अपना अगला-िपछला ज म बेकार कर डालता है।
कबीर चढ़ै िसकार को, हाथै लाल कमान।
मूरख नर सो रिह गये, मारे संत सुजान।।

कबीर कहते ह क अपने हाथ म तीर-कमान िलए शूर जन िशकार के िलए बढ़ चले, ले कन जो कायर मूख
जन थे, वे सब यूं ही सोचते रह गए और िस संत शूरवीर ने अपने दु मन को मार िगराया।
कहने का भाव है क जो संत होते ह वे कसी शूरवीर से कम नह होते ह और ान पी श से मूख क
अ ानता को मारकर उ ह नवजीवन दान करते ह।
रन रहै सूरा भये, सूर भये जो सूर।
सूरा पूरा रिह गये, भािग गये सब कू र।।

जो जंग के मैदान म लड़ते रहते ह, वे ही असली शूरवीर होते ह और उ ह ही शूरवीर कहा जाता है। जो जंग के
मैदान म वा तव म ही शूरवीर थे वही रह गए और जो कायर थे, वे सब-के -सब ही मैदान से भाग खड़े ए।
जो शूरवीर साधक होता है, वह शूरवीर क तरह साधना- थल म डटा रहता है और जो ढ गी होता है, वह
भाग खड़ा होता है।
सूरा तो ब तक िमले, घायल िमला न कोय।
घायल कूं घायल िमले, राम भि दृढ़ होय।।

शूरवीर तो ब त िमले, ले कन जो यु के मैदान म घायल आ हो, ऐसा कोई नह िमला। जब घायल को


घायल िमलता है यानी जब घायल साधक को घायल साधक िमलता है तभी राम क भि म मजबूती आती है।
कहने का भाव है क अनुभवी संत से दूसरा अनुभवी संत िमलता है तो ई र तक प च
ं ना आसान हो जाता है।
कबीर किलयुग आय के , क या ब त जमीत।
िजन दल बांधा एक से, ते सुख सोच िन चंत।।

कबीर कहते ह क किलयुग म आकर ब त से ी-पु ष ने एक से अिधक संबंध वाथवश बनाए और ऐसा कर
दुःखी ही रहे, ले कन िजसने एक से दल लगाया, उसे िनि त प से ही जीवन का असली आनंद ा आ, ब
संबंध को कबीर गलत ठहराते ह।
गु मरजाद न भि पन, न हं िपव का अिधकार।
कह कबीर िबिभचा रनी, िन नया भरतार।।

कबीर कहते ह क जो िभचा रणी (पितता ी) होती है, वह रोजाना नया यार तलाशती है। उसका न तो
गु -मयादा पर, न भि -साधना पर और न ही अपने पित पर कोई अिधकार होता है। उसका िसफ अपने
िभचार पर ही अिधकार होता है और वह भी युवाव था तक ही, इसके बाद वह रो-रो नरक भोगती है।
िबिभचा रन के बस नह , अपनो तन मन दोय।
कह कबीर पितबरत िबन, नारी गई िबगोय।।

िभचा रन ी के वश म उसका अपना तन-मन नह होता। कबीर कहते ह क पित त धम के िबना नारी
क ी-मयादा ख म हो जाती है।
ना र कहावै पीव क , रहै और संग सोय।
जार सदा मन म बसै, खसम खुशी य होय।।

ी ( िभचा रणी) तो अपने पित क ही कहलाती है, ले कन वह कसी दूसरे के साथ सोती है। उसके मन म
हमेशा यार बसा आ होता है तो फर ऐसी ी का पित उससे कै से स रह सकता है?
सेज िबछावै सु दरी, अ तर परदा होय।
तन स पे मन दे नह , सदा दुहािगन सोय।।

सु दरी यानी िभचा रणी ी अपने अ तमन म कपट भाव रखे ए पित क सेज सजाती है। शरीर पित को
स प देती है, पर मन नह देती है। ऐसी ककशा और कलं कनी औरत सदा ही तनाव त रहती है और भयंकर क
सहती है।
कबीर मन दीया नह , तन कर डाला जेर।
अ तरजामी लिख गया, बात कहन का फे र।।

कबीर कहते ह - मन तो दया नह और शरीर को पित के सामने कर दया, ऐसी बदचलन ी का पित उसके
मन के भाव को जान जाता है। बस, मयादा वश वह कु छ नह कह पाता है।
कहने का भाव है क कु लटा प ी को पित समझ जाता है।
कबीर जो कोई सु दरी, जािन करै िबिभचार।
तािह न कब ं आदरै , परम पु ष भरतार।।

कबीर कहते ह क जो कोई सुंदरी अथात् िभचा रणी ी जान-बूझकर िभचार करती है, उसे परम पु ष
परमा मा क ओर से भी कभी आदर नह िमलता है। कहने का भाव है क अ छे-बुरे का ान होने के बाद भी
अगर कोई ी पर पु ष के साथ संबंध बनाती है तो परम परमे र भी उसको माफ नह करते ह और उनक
भि उसे ा नह होती है।
नौ सत साजै सु दरी, तन मन रही संजोय।
िपय के मन मानै नह , िवडंब कये या होय।।

प ी ने सोलह शृंगार कर अपने तन-मन को खूबसूरत बना िलया है, ले कन पित को उसका यह शृंगार पसंद
नह है। फर इस कार के शृंगार का या करना।
सौ बरसां भि करै , एक दन पूजै आन।
सौ अपराधी आतमा, पड़ै चौरासी खान।।

कबीर कहते ह क कामी, ोधी, लोभी अनेक भव सागर पार कर गए, ले कन िज ह ने स गु को भुलाकर
दूसरे क पूजा क , वे नह तर पाए।
कहने का भाव है क जो लोग अपने आरा य से िवमुख हो जाते ह, उनका उ ार नह हो पाता है।
माइ मसािन िस ढ िसतला, भै भूत हनुमंत।
सािहब स यार रहै, जो इनको पूज त।।

अ ानता वश जो लोग माई, मसान, चुड़ल ै , भैरव, भूत- ेत, हनुमंत आ द क अराधना करते ह, वे पूण
परमे र से दूर रहते ह और इस भवसागर से उनका कभी भी उ ार नह होता। वे ज म-ज मांतर जीवन-मृ यु के
च म पड़े रहते ह।
चलो चलो सब कोई कहै, प ंचै िबरला कोय।
एक कनक अ कािमनी, दुरगम घाटी दोय।।

वग जाने क बात सभी करते ह अथात् जाना सभी चाहते ह, ले कन कोई िबरला ही वहां तक प च
ं पाता है
य क एक कनक यानी सोना और दूसरी कािमनी यानी सु दर ी-इन दोन ही दुगम घा टय को पारकर वग
लोक तक जाना क ठन है। अिधक धन और सु दर ी क लालसा ये दोन ही, मनु य को स कम करने नह देत।े
एक कनक अ कािमनी, ये ल बी तरवार।
चाले थे ह र िमलन को, बीचिह ली हा मार।।

सोना और सु दर ी - ये दोन ही ल बी तलवार ह। लोग चले थे ह र-दशन के िलए, ले कन बीच रा ते म


इ ह ने सबको ही मार दया। सभी धन व कािमनी म उलझकर स गु क भि से दूर हो गए।
एक कनक अ कािमनी, तिजये भिजये दूर।
गु िबच पाडै अ तरा, जम देसी मुख धूर।।

कनक और कािमनी दोन से ही दूर-दूर रिहए। उनका याग कर उनसे ब त दूर भाग जाइए, य क ये गु
और ान के बीच अंतर पैदा कर देते ह और मुख म िवषय-वासना क धूल भी झ कते रहते ह।
ना र पराई आपनी, भोगै नरकै जाय।
आग आग सब एकसी, हाथ दये ज र जाय।।

ी दूसरे क हो या अपनी हो, है तो वह ी ही, उसम अिधक आसि दुःख का कारण है। जो भी ि
दन-रात उसी क छिव म या देह म उलझा रहता है, उसे नरक क ाि िनि त प से होती है। आग भ ी क
हो, गैस क हो या फर कसी क भी हो, आग तो आग है, उसक कृ ित म कोई भी फक नह है। उसम हाथ
डालने पर हाथ जल ही जाता है।
कहने का भाव है क ी के ित अिधक आसि लौ कक-परलौ कक हािन का कारण बनती है।
जहर पराया आपना, खाये से म र जाय।
अपनी र ा ना करै , कह कबीर समुझाय।।

जहर अपना हो या पराया हो, उसे खाने के बाद मौत िनि त है। कबीर समझाकर कहते ह क भोग-
िवलािसता क चीज कभी भी िवलासी क र ा नह करत । उनका वभाव ही होता है मारना।
ना र िनरिख न देिखये, िनरिख न क जै दौर।
देखत ही ते िवष चढ़ै, मन आवै कछु और।।

ी को गौर से मत देिखए और न यान से देखकर चंतन - मनन क िजए। उसे देखते ही काम भावना पी
जहर सारे बदन म चढ़ने लगता है और मन म तरह-तरह के कु िवचार ज म लेने लगते ह।
नारी नाह नाहरी, करै नैन क चोट।
कोइ कोइ साधू उबरै , ले सतगु क ओट।।

ी तो संहनी क तरह खूंखार होती है, जो आंख के कोर से वार करती है। कोई साधु कृ ित का ि या
जो ई र-भजन म खुद को लवलीन कर लेता है, नयन के बाण क चोट से बच पाता है।
ना र पु ष को इ तरी, पु ष ना र का पूत।
याही ान िवचा र के , छािड़ चला अवधूत।।

नारी पु ष क ी है और पु ष नारी का पु है। यही सोचकर ानीजन नारी को छोड़कर सं यास ले लेते ह।
पर नारी पैनी छु री, िवरला बांचै कोय।
कब ं छे िड़ न देिखये, हंिस हंिस खावे रोय।।

पर-नारी पैनी छु री के समान तेजधार वाली है, इससे शायद ही कोई योगी बच पाता है। पर- ी को कभी भी
छेड़कर न देखो। यह हंस-हंसकर भी और रो-रोकर भी यानी दोन कार से ही खाती है।
पर नारी का राचना, यूं लहसुन क खान।
कोने बैठे खाइये, परगट होय िनदान।।

पर- ी के साथ दल लगाना जैसे लहसुन का खाना है। लहसुन को कोने म बैठकर भी य न खाया जाए,
उसक गंध सबको मालूम हो जाती है। पर- ी के साथ कया गया ेम भी िछपता नह है य क गंध व ेम दोन
ही ब त ज दी चार तरफ फै ल जाते ह।
छोटी मोटी कािमनी, सबही िवष क बेल।
बैरी मारै दाव से, यह मारै हंिस खेल।।

छोटी हो चाहे बड़ी, कै सी भी ी हो, दोन ही िवष-बेल क तरह ह। दु मन तो दांव से मारता है, ले कन वह
हंस-हंसकर ही ख म कर देती है।
जो कब ं के देिखये, बीर बिहन के भाय।
आठ पहर अलगा रहै, ताको काल न खाय।।

जब भी ी को देिखए तो बहन व मां के भाव से देिखए। जो ि ी से आठ हर अलग रहता है, उसको


काम क पना पी काल मार नह पाता है।
सरब सोने क सु दरी, आवै वास सुवास।
जो जननी वै आपनी, तऊ न बैठे पास।।

ी वग क अ सरा-सी सुंदर य न हो, उसके अंग से खुशबू ही य न आती हो, चाहे वह मां ही य न हो
तो भी िनजन थान म उसके साथ न बैठ। कहने का भाव है क हर हाल म ी से अलग रह।
दीपक झोला पावन का, नर का झोला ना र।
साधू झोला श द का, बोलै नांिह िवचा र।।

वायु का झ का दीपक के िलए खतरनाक है और ी का झ का पु ष के िलए खतरनाक है, श द का झ का


साधु के िलए खतरनाक है, य द वह िवचारकर नह बोलता है।
नारी नरक न जािनये, सब संतन क खान।
जाम ह रजन ऊपजे, सोई रतन क खान।।

ऐसा भी नह है क हर ी नरक यानी दुःख का कारण होती है; वह तो सब संत क जननी है, िजसम ह र
भ पैदा ए। उन सब अनमोल र पी संत क खान यानी जननी नारी ही तो है।
पि डत और मसालची, दोन सूझत नांिह।
औरन को करै चांदना, आप अंधेरे मांिह।।

पंिडत और मसाल दखाने वाले दोनो को कु छ नजर नह आता। दूसर को तो रोशनी दखाते ह, ले कन खुद
अंधेरे म रहते ह। पहले उ ह वयं के उजाले क व था करनी चािहए ता क वे दूसर को सही ढंग से काश
( ान का काश) दखा सक।
पि डत पोथी बांिध के , दे िसरहाने सोय।
वह अ र इनम नह , हंिस दे भावै रोय।।

पंिडत! तुम अपनी पोथी समेटकर िसरहाने रखो और सो जाओ। इस पोथी म वह श द- ान नह है, जो रोते
ए के मन को सुकून दे और वह खुश हो जाए।
पोथी प ढ़ प ढ़ जग मुआ, पंिडत आ न कोय।
एकै अ र ेम का, पढ़ै सो पंिडत होय।।

पोथी पढ़-पढ़कर सारा संसार मर गया, ले कन कोई भी पंिडत नह आ। बस एक अ र ेम का िजसने पढ़


िलया, वही पंिडत है।
कबीर पढ़ना दूर कर, अित पढ़ना संसार।
पीर न उपजै जीव क , य पावै करतार।।

कबीर कहते ह क यह पढ़ना-िलखना बंद, अिधक पढ़ना तो सांसा रक लोग के िलए है। पढ़ाई से ज री है
दया भाव का ान, य क जब तक मनु य के अंदर दयाभाव उ प नह होगा, तब तक वह ई र को कै से जान
सके गा।
म जान पढ़ना भला, पढ़ने ते भल जोग।
रामनाम स ीित कर, भावे िन दो लोग।।

मेरी जानकारी म पढ़ना अ छा था, ले कन बाद म पता चला क पढ़ाई से तो भली योग साधना है। भले ही
लोग िन दा कर, पर अगम-अगोचर राम से िनभय होकर ेम करो। इसी म जीवन का क याण है।
कबीर ा ण क कथा, सो चोरन क नाव।
सब अ धे िमिल बै ठया, भावै तहं लै जाव।।

कबीर कहते ह क ा ण क कहानी चोर क नाव क तरह है, िजसम सभी अ धे यानी अ ानी लोग बैठे ह,
वे उ ह जहां चाहे ले जाएं। भला चोर यानी अ ािनय क नाव भवसागर के उस पार कै से प च
ं ेगी।
किल का ा न मसखरा, तािह न दीजै दान।
कु टु ब सिहत नरकै चला, साथ िलया यजमान।।

कबीर कहते ह क किलयुग का ा ण मसखरा है, उसे दान न दीिजए। प रवार सिहत नरक चला और साथ
म यजमान को भी लेकर चल पड़ा।
पढ़ै पढ़ावै कछु नह , ा न भि न जान।
ाहै ा े कारनै, बैठा सूंडा तान।।

कलयुगी ा ण का या कहना, जो न तो पढ़ता है और न पढ़ाता है तथा भि का तो उसे ान है ही नह ।


वह बस याह- ा करने के िलए यजमान के घर पर मुंह खोलकर बैठा रहता है।
पढ़ते गुनते जनम गया, आसा लागी हेत।
बोया बीजिह कु मित ने, गया जु िनमल खेत।।

पढ़ते-समझते सारा जीवन यूं ही बीत गया और िवषय-वासना म लगे रहे। सं ह करने के लोभ ने कु छ करने
नह दया। कु मित ने पाप का ऐसा बीज बोया क सारा अनमोल जीवन पी खेत बरबाद हो गया।
पंिडत पढ़ते वेद को, पु तक ह ती लाद।
भि न जाने राम क , सबै परी ा बाद।।

पंिडत वेद-शा पढ़ते ह और हाथ म पु तक भार लादे रहते ह, ले कन फर भी भगवान राम से अनजान ही
रहते ह। पु तक म इतना िसर खपाने से या लाभ जब परमा मा को समझ तक भी न सके ।
ह र गुन गावे ह रष के , िहरदय कपट न जाय।
आपन तो समुझै नह , औरिह ान सुनाय।।

ह र गुण तो खूब ह षत मन से गाते ह, ले कन मन म जो कपट है वह गया नह । खुद को तो कु छ समझ म आता


नह और दूसर को ान देने चले ह। ऐसे ढ गी - पंची लोग क आजकल भरमार है। भजन क तन खूब करते ह,
पर मन म झूठ फरे ब का अंबार रहता है।
कै खाना कै सोवना, और न कोई िच ।
ह र सा ीतम बीसरा, बालापन का िम ।।

ई र से िवमुख जो ि होते ह, उ ह खाना-पीना या सोना अ छा लगता है, इसके िसवा उनके मन को कु छ


नह अ छा लगता है। जो बा याव था से ही मीत है (परमा मा) उसे िबसरा दया। ह र से ेम जो ि करते ह,
वे िवषय-िवकार म नह फं सते ह।
तारा म डल बै ठ के , चांद बड़ाई खाय।
उदै भया जब सूर का, तब तारा िछिप जाय।।

तारा मंडल बै ठ के अथात् अनेक तार के समूह म बैठा चांद अपनी ब त शंसा हांकता है अथात् गौरवाि वत
होता है, ले कन जब सूय िनकलता है तब तार के साथ च मा गायब हो जाता है। उसका सारा मान-अिभमान
चूर हो जाता है। अ ानी लोग भी ानी के सामने ऐसे ही भावहीन हो जाते ह।
कबीर वामी कोय न हं, वामी िसरजन हार।
वामी वै क र बैठही, ब त सहेगा मार।।

कबीर कहते ह क इस संसार म कोई कसी का मािलक नह है। स ा मािलक तो बस एक वही है; जो सबको
बनाने वाला है। इस सच का ान होने के बाद भी अगर तू वामी बनकर बैठा है तो तुझे ब त मार पड़ेगी, तू
ब त क सहेगा।
कबीर ास कथा कह, भीतर भेदे ना हं।
और कूं परमोधतां, गये मुहर का मा हं।।

कबीर कहते ह क ास क ग ी पर बैठकर पंिडत कथा बांचता है, ले कन वे बात जब उसे ही भािवत नह
कर पात तो दूसर को या भािवत करगी। वह दूसर को तो उपदेश देता है, ले कन खुद दान-दि णा के लालच
म पड़ा, अ ानता म जीता है।
कबीर कह हं पीर को, समझावै सब कोय।
संसय पड़ेगा आपकूं , और कहै का होय।।

कबीर कहते ह क जो खुद कसी गु का िश य ढंग से बन नह पाया, वह गु बन गया, ले कन उसे संशय से


उ प जीवन-मरण के क को जब भोगना पड़ेगा तो अधूरे ान के साथ गु बनने का अतः अव य ही पछतावा
होगा। अधूरे ान को लेकर दूसर को समझाने-बुझाने से या लाभ।
िन दक हमारा जिन मरो, जीवो आ द जुगा द।
कबीर सतगु पाइया, िन दक के परसा द।।

हमारा जो नंदक है, वह कभी न मरे । वह युग-युग तक जंदा रहे। कबीर कहते ह क नंदक के नंदा करने के
कारण ही स गु से भट ई है।
कहने का भाव है क नंदक या आलोचक जो होता है, वह दोष को ही बताता है, िजससे आ म-सुधार क
या शु हो जाती है और ि म गुण क वृि उ रो र होती चली जाती है और वह सफलता के िशखर
को छू लेता है।
कबीर िन दक म र गया, अब या किहये जाय।
ऐसा कोई ना िमले, बीड़ा लेय उठाय।।

कबीर कहते ह क नंदक जो था, वह तो मर गया। अब या कहा जाए, मुझे ऐसा कोई नह िमला, जो मेरी
नंदा करने का काय अपने हाथ म ले सके ।
का को न हं िनि दये, सबको किहये स त।
करनी अपनी से तरे , िमिल भिजये भगव त।।

कसी क भी नंदा न कर, सभी को संत कह। अपनी करनी से ही सब तरगे। सब िमलकर ई र का गुणगान
कर, सबका उ ार ई र-भजन से ही होगा।
आन देव को आस क र, मुख मेले मद मांस।
जाके जन भोजन करै , िन य नरक िनबास।।

ई र को भुलाकर मनगढंत देवी-देवता से शुभ क कामना कर, जो लोग उ ह पूजते ह और चढ़ावा चढ़ाते ह
तथा मांस-म दरा का सेवन करते ह, वे तो नरक म जाते ही ह, साथ ही उनके यहां जो भोजन करते ह, उ ह भी
नरक क ाि होती है।
काजल तजै न यामता, मु ा तजै न वेत।
दुजन तजै न कु टलता, स न तजै न हेत।।

काजल कभी भी कालेपन का याग नह करता है, मोती कभी भी सफे दपन का याग नह करता है, दुजन
कभी भी कु टलता का याग नह करता है और स न कभी भी स नता का याग नह करता है।
कहने का भाव है क अपने वाभािवक गुण का याग कोई भी नह करता है।
दुजन क क णा बुरी, भलौ स न क ास।
सूरज जब गरमी करै , तब बरसन क आस।।

दुजन क क णा म भी बुराई ही होती है। उसक क णा से तो स न का दया आ दद भला होता है, जैसे
सूरज जब असहनीय गरमी उ प करता है तब बा रश होने क आशा होती है।
कहने का भाव है क दु क क णा से स न क िनदयता भली होती है।
कछु किह नीच न छे िड़ये, भलो न वाको संग।
प थर डारे क च म, उछिल िबगाड़े अंग।

कु छ भी कहकर दु ि को भूलकर भी न छेड़ और साथ भी उसका अ छा नह है य क प थर क चड़ म


फकने से वयं के ऊपर ही क चड़ के छ टे पड़ते ह।
चंदा सूरज चलत न दीसे, बढ़त न दीसे बेल।
ह रजन ह र भजता ना दसे, ये कु दरत का खेल।।

चंदा, सूरज कभी चलते ए नह दखते ह, बढ़ती ई बेल भी कभी दखाई नह पड़ती है। ह र भ ह र भजन
करता आ नह दखता है। यह कु दरत का िनराला खेल है, समझना आसान नह है।
जो जाको गुन जानता, सो ताको गुन लेत।
कोयल आमिह खात है, काग लंबोरी लेत।।

जो िजस चीज का गुण जानता है, वह उसके गुण को लेता है। कोयल आम खाती है और कौआ नंबोली लेता है।
यही हाल स न-दुजन का है। जो स न होते ह सगुण का सेवन करते ह और जो दुजन होते ह, वे दुगुण का सेवन
करते ह।
इ क खु स खांिस जो, और पीवे मद पान।
ये छु पाया ना छु पे, परगट होय िनदान।।

इ क, ोध, खांसी और म दरापान ये छु पाने पर भी नह िछपते ह, अंततः सबके सामने आ ही जाते ह।


ना कछु कया न क र सका, न करने जोग शरीर।
जो कु छ कय सािहब कये, ताते भये कबीर।।

कबीर कहते ह - मने न तो कभी कु छ कया और न ही कु छ कर सकता ।ं कु छ करने के कािबल मेरा शरीर भी
नह है, जो कु छ भी अब तक आ है उसे ई र ने कया है, उ ह क कृ पा से म इतना समथवान दख रहा ।ं
जो कु छ कया सो तुम कया, म कछु क या नांिह।
क ं कह जो म कया, तुमह थे मुझ मांिह।।

कबीर कहते ह - जो कु छ भी कया, हे भु! तुमने कया। मने तो कु छ भी नह कया। अगर म क ं क कभी
मने कु छ कया है तो उस व भी तुम ही थे मेरे दय म और तु हारी ेरणा से ही यह सब हो सका।
क या कछू न होत है, अनक या ही होय।
क या जो कछु होत तो, करता औरे कोय।।

अिभमान वश कया आ काय पूरा नह होता है, ले कन जो वाभािवक प से होता है, वह काय िनि त
प से पूरा हो जाता है। कया आ काय अगर सफल होता भी है तो उसम ई र क ही मज होती है।
इत कू वा उत बावड़ी, इत उत थाह अथाह।
द ं दसा फान फन कढ़ै, समरथ पार लगाह।।

कबीर कहते ह - हे मािलक! इधर कु आं है, उधर तालाब है, इधर-उधर यानी चार तरफ ही थाह-अथाह है।
दस दशा म मोह-माया पी सप फन उठाए फुं फकार रहे ह। म संकट से िघर गया ।ं हे भु! तुम समथवान
हो, मुझे पार उतारो।
धन धन सा तूं बड़ा, तेरी अनुपम रीत।
सकल भुवन पित सांइया, वै क र रहै अतीत।।

हे अगम-अगोचर! तुम ध य हो। तुम ही सबसे बड़े हो और तु हारी रीित अनुपम और िनराली है। सारे संसार
के मािलक होने के बावजूद तुम अदृ य होकर रहते हो, कसी को भी नजर नह आते हो।
सा म तुझ बाहरा, कौड़ी न हं पाऊं।
जो िसर ऊपर तुम धनी, महंगे मोल िबकाऊ।।

हे भु! तु हारी कृ पा से वंिचत रहकर तो मेरा मोल एक कौड़ी भी नह है अथात् म िनरथक ।ं हे धनवान के
भी धनी, अगर तु हारा हाथ मेरे िसर पर रहे तो म महंगे से महंगे मू य पर िबक जाऊं।
कहने का भाव है क तु हारी कृ पा मुझ पर हो जाए तो म सबक नजर म स मानीय ि बन जाऊं।
सा मेरा बािनया, सहज करै ौपार।
िबन डांड़ी िबन पालड़े, तौले सब संसार।।

मेरा भु तो बिनया है यानी ापारी है, ले कन उसका ापार ब त ही सहज है। उसके ापार का कसी को
कु छ पता ही नह चलता। िबना डंडी-पलड़े के ही पूरा संसार तोलता रहता है और अ याय कसी एक के साथ भी
नह करता है।
सा तेरा ब त गुन, औगुन कोई नांिह।
जो दल खोजूं आपना, सब औगुन मुझ मांिह।।

हे वामी! आपम गुण ही गुण ह; ब त गुण ह और एक भी अवगुण नह है, ले कन म जब भी अपने भीतर


झांककर देखता ं तो मुझम अवगुण ही अवगुण नजर आता है, म अवगुण क खान ।ं मेरा उ ार कै से होगा,
आप ही सोचो।
बाट रया दूभर भई, मित कोय कायर होय।
िजन यह भार उठाइया, रबाहेगा सोय।।

हे स न ! यह सही है क ई र क भि ा करना ब त ही क ठन है, ले कन तुम इससे घबराकर पीछे मत


हटो। िजसने भ को भवसागर से पार उतारने क िज मेदारी ली है, वह इतना िनदयी नह है, वह भु पार
उतारकर अपनी िज मेदारी अव य ही िनभाएगा।
हाथी अट यो क च म, काढ़ै को समर थ।
क बल िनकलै आपनै, क सा पसारै ह थ।

हाथी क चड़ म अटक गया। उसे बाहर िनकालने म कौन समथ है? या तो वह अपने बल (शि ) से वयं बाहर
िनकले या फर उस परम शि मान ई र के आगे हाथ पसारकर िवनती करे । वही अपने हाथ का सहारा देकर
उसे क चड़ से बाहर िनकाल सकते ह।
कहने का भाव है क संकट क घड़ी म जब बुि काम न करे तब ि को ई र के भरोसे सब कु छ छोड़ देना
चािहए।
औगुन हारा गुन नह , मन का बड़ा कठोर।
ऐसे समरथ सा या, तािह लगावै ठौर।।

हे भु! तेरा कोई जवाब नह । िजसम अवगुण है, जो मन का ब त कठोर है, तू उसको भी अपनी शरण म ले
लेता है अथात् तू उसे भी तार देता है, फर जो गुणीजन ह, उनको तू य नह तारे गा।
बालक पी सा यां, खेलै सब घट मांिह।
जो चाहै सो करत है, भय का का नांिह।।

हे भु! तू बालक के प म सबके दय-सागर म खेल रहा है। जो तू चाहता है, वह करता है। तुझे कसी का भी
भय नह है।
कहने का भाव है क तू सवशि मान है। तुझसे बड़ा कोई नह है।
सािहब तुम जिन बीसरो, लाख लोग िमिल जांिह।
हमसे तुमको ब त ह, तुम सम हमको नांिह।।
भ कहता है - हे मेरे भु! तुझे कतने ही लोग य न िमल जाएं, ले कन मुझे कभी न भुलाना। म मानता ं
क मेरे जैसे ब तेरे तेरे भ ह, ले कन तु हारे जैसा मेरा कोई नह है।
तु है िबसारै या बनै, कसके सरनै जाय।
िसव िवरं िच मुिन नारदा, िहरदे नांिह समाय।।

हे भु! तुम ही मुझे भुला दोगे तो फर या बनेगा। म फर कसक शरण म जाऊंगा। शंकर, ा और नारद
मुिन तो मेरे दय म समाते नह , म िसफ तुम पर ही िव ास करता ।ं
कबीर भूल िबगािड़या, क र क र मैला िच ।
नफर तो दीन अधीन है, सािहब राखै िह ।।

कबीर कहते ह क हम संसारी लोग मोह-माया द म आकर भूल-िबगाड़ तो करते ही रहते ह य क हमारा
िचत जो मिलन होता है। यही वजह है क हम दीन, तु हारे अधीन ह। हे साहेब! मेरा भला कर।
सािहब तुमिह दयाल हो, तुम लग मेरी दौर।
जैसे काग जहाज को, सूझे और न ठौर।।

हे स गु ! तुम ही दयालु हो और मेरी दौड़ िसफ तुम तक ही है, जैसे सागर के बीच जहाज पर बैठे कौवे को
उस जहाज के अित र और कोई थान नह सूझता, वैसी ही ि थित मेरी भी है।
अजगर करै न चाकरी, पंखी करै न काम।
दास कबीरा यूं कह, सबके दाता राम।।

अजगर कसी क नौकरी नह करता है और प ी कसी का काम नह करता है, फर भी उनके भोजन क
व था होती ही रहती है। कबीर कहते ह क सभी के दाता राम गोसाई ह। सबका भरण-पोषण उनक ही कृ पा
से होता है।
जाको राखै सा या, मा र सकै न हं कोय।
बाल न बांका क र सके , जो जग बैरी होय।।

िजसक र ा ई र करते ह, उसे कोई नह मार सकता, बाल बांका यानी बाल भी टेढ़ा नह कर सकता है,
चाहे सारा संसार ही दु मन य न हो जाए।
आतम अनुभव जब भयो, तब न हं हष िवषाद।
िच दीप सम वै रहे, तिज कर वाद िववाद।।

जब आ म-अनुभव होता है तब शोक-हष नह रह जाता। सारे वाद-िववाद को यागकर आ म-अनुभवी ि ,


त वीर म ि थत दीपक के समान ि थर हो जाते ह।
आतम अनुभव ान क , जो कोय पूछै बात।
सो गूंगा गुड खाय के , कहै कौन मुख वाद।।

आ मा के अनुभव- ान क बात कोई पूछता है तो कु छ कहा नह जा सकता, जैसे गूंगा गुड़ खाने के बाद वाद
तो महसूस करता है, पर उसका वाद पूछने पर भी कसी को बता नह पाता है।
नर नारी के सूख को, खसी नह पिहचान।
य ानी के सूख को, अ ानी न हं जान।।

जैसे ी-पु ष के शारी रक िमलन के सुखानंद को छ े नह महसूस कर सकते, वैसे ही ानी के सुख को
अ ानी नह जान सकते ह। कहने का अथ है क एक-दूसरे के िवपरीत जो लोग ह, वे उन िवपरीत सुख
ा कता के सुख क अनुभूित नह कर सकते।
िलखा िलखी क है नह , देखा देखी बात।
दुलहा दुलिहन िमिल गए, फ क पड़ी बारात।

आ म- ान िलखने-िलखाने का नह है, यह खुद ही महसूस करके देखा-देखी क बात है। यह तो वह ि थित है


जब दू हा-दु हन िमल जाते ह तब बारात का कोई मह व नह रह जाता। कहने का भाव है क जीव और
परमा मा जब एक दूजे म िमल जाते ह तब सारी दुिनयादारी मह वहीन हो जाती है।
ान भि वैराग सुख, पीव ल धाय।
आतम अनुभव सेज सुख, तहां न दूजा जाय।।

ान, भि , वैरा य-सुख और भगवान ा तक भ जन क नजर दौड़कर चली जाती है, ले कन आ म-


अनुभव क सुख-सेज पर दूसरा कोई भी प च
ं नह पाता, वहां तो भु का स ा भ ही प च
ं पाता है।
कहने का भाव है क आ म-अनुभव ही स ा ान है।
भरा होय तो रीतई, रीता होय भराय।
रीता भरा न पाइये, अनुभव सोय कहाय।।

जो भरा आ होता है, वह खाली भी होता है और जो खाली होता है, वह भरता भी है, ले कन जो न तो भरा है
न खाली है, वही वा तिवक अनुभव- ान कहलाता है।
िनजानी स किहए कहा, कहत कबीर लजाय।
अ धे आगे नाचते, कला अकारथ जाय।।

कबीर कहते ह क मूख-अ ािनय से या कु छ कहना। ानी तो उनके िवषय म कु छ कहते ए भी शरमाता है।
अंध के सामने नाचने से अपनी नृ यकला बेकार ही जाती है।
कहने का भाव है क मूख को कु छ भी समझाना थ है।
ानी तो िनरभय भया, मानै नाह संक।
इि न के रे बिस पड़ा, भुगते नरक िनसंक।।

ानी तो िनभय हो जाता है। पाप-पु य क शंका उसे ानािभमान के कारण नह होती, ले कन ऐसे ही
अिभमानी ानी इं य के वश म पड़कर िनि त प से ही नरक का जीवन भुगतते ह।
ानी मूल गंवाइया, आप भये करता।
ताते संसारी भला, जो सदा रहै डरता।।

जो लोग ानी होते ह, वे अपने ान के अिभमान म स संग, भि , िववेक आ द मूल व प को यूं ही गंवा देते
ह और खुद ही करता-धरता बन जाते ह। इस तरह ानवान होकर भी वे ई र का स ा भ नह बन पाते ह।
उनसे अ छे तो संसारी लोग ह, पाप के डर से स कम करते रहते ह और इस तरह से ई र क भि भी वे ा
कर लेते ह।
आसा तो गु देव क , दूजी आस िनरास।
पानी म घर मीन का, सो य मरै िपयास।।

आशा तो गु देव क है य क दूसरी आशाएं िनराश ही करती ह। पानी म मछली का घर होता है, फर वह
यासी य मरे । वैसे भी जब मनु य का तन िमला है तो फर स गु का सुिमरन कर, यह ज म य न पारस
बनाया जाए।
आसा जीवै जग मरै , लोग मरै म र जांिह।
धन संचै ते भी मरै , उबरै सो धन खािह।।

न र संसार मरता है, ले कन आशा जीिवत रहती है। लोग मरते ह, फर मरते ह और मरते ही रहते ह। जो
धन जोड़ते ह, वे भी मरते ह और जो उनके पीछे बचे रह जाते ह, वे उस सं िहत धन को कु छ समय तक खाते ह।
आसा तृ ा संधु गित, तहां न मन ठहराय।
जो कोइ आसा म फं सा, लहर तमाचा खाय।।

आशा और तृ णा समु क उछलती तरं ग के समान ह, अतः इनके बीच मन ठहरता नह है। जो कोई भी
आशा म फं सता है, वह उसक लहर क चोट खाता है।
आसन मारे कह भयो, मरी न मन क आस।
तेली के रे बैल य , घर ही कोस पचास।।

आसन लगाकर बैठने से या होगा, अगर मन क आस नह मरी। यह तो तेली के बैल वाली बात हो गई, वह
दन-भर म इतने च र काटता है क उसके िलए घर ही पचास कोस का हो जाता है।
कहने का भाव है क मन-ही-मन जप करने से या फायदा, जब मन ही ि थर नह है। आशा को पूरा करने
के िलए भटक रहा है।
तृ ा स ची ना बुझै, दन दन बढ़ती जाय।
जावासा का ख य , घन मेहा कु ि हलाय।।

तृ णा ऐसी है, जो िवषय-वासना पी जल से, पूरी तरह स च दी जाए तब भी वह नह शांत होती। वह


दन-पर- दन बढ़ती ही जाती है। जैसे जावास झाड़ का पेड़ अिधक बा रश से कु हला जाता है, वही हाल तृ णा
का है।
श द
स तोभि सतोगुरआनी।1।।
नारी एक पु ष दुई जाया। बूझो पि डत ानी।।2।।
पाहन फो र गंग एक िनकरी। च ं दश पानी पानी।।3।।
तेिह पानी दुइ पवत बूड़े। द रया लहर समानी।।4।।
उिड़ माखी तरवर को लागी। बोलै एकै बानी।।5।।
वह माखी को माखा नाह । गभ रहा िबनु पानी।।6।।
नारी सकल पु षवै खाये। ताते रहै अके ला।।7।।
कह हं कबीर जो अबक बूझ।ै सोई गु हम चेला।।8।।

संत अपने अ तमन म भि को पैदा करो। भि पी नारी एक है और उसने ान तथा वैरा य दो पु को


ज म दया है। हे ानी पंिडत ! इस मम को समझो। प थर को फोड़कर िजस तरह से गंगा िनकली और चार
तरफ पानी-ही-पानी भर दया, उसी तरह से मनु य के अ ानता पी प थर को फोड़कर भि पी गंगा का
अवतरण आ और आ याि मक-रस म सबको ही डु बो दया। इस भि पी गंगा म अिभमान व ममता के दोन
प थर डू ब गए और सदा के िलए ही िवलीन हो गए। कबीर कहते ह क िजस तरह से जलम हो जाने पर
मि खयां उड़कर पेड़ पर बैठ जाती ह और एक ही आवाज म बोलने लगती ह, वैसे ही आ याि मक-जल से जीवन
के जलम हो जाने पर भ सांसा रक बंधन के धरातल से उड़कर भि पी वृ पर जा बैठता है और ान क
बात करने लगता है। जब पु ष या वीय के िबना ही गभधारण हो जाए तो सबको ही आ य होगा क यह अजूबा
कै से हो गया? ऐसे ही िसफ भि के भाव से िवषय-वृि ान-वृि बन जाए तो आ य ही तो होगा। भि
पी नारी तो जगतता रणी है जब क माया पी नारी ने सारे पु ष को उनके माग से भटका दया है। ानी
पु ष को चािहए क वे माया पी नारी का प र याग कर, अके ले ही रह।
कबीर कहते ह क जो भी पु ष जीवन के इस स य को जान गया और उसे आ म-बोध हो गया तो वह वयं गु
है। म उसका िश य बनने के िलए तैयार ।ं
स तो घर म झगरा भारी।।1।।
राित- दवस िमिल उ ठ-उ ठ लाग। पांच ढोटा एक नारी।।2।।
यारो- यारो भेजन चाह। पांच अिधक सवादी।।3।।
कोइ का का हटा न मानै। आपुिह आपु मुरादी।।4।।
दुमित के र दोहिगन मेटै। ढोटिह चांप चपेरे।।5।।
किह हं कबीर सोई जन मेरा। जो घर क रा र िनबेरे।।6।।

हे संत ! हर ि के घर म ब त भारी झगड़ा है। ाने य पी पांच लड़के और कु मित पी एक ी- ये सब


आपस म िमलकर रात- दन जीवा मा से झगड़ते रहते ह। ये पांच इं यां खाने-पीने के मामले म ब त ही शौक न
ह, ये सब अलग-अलग खाने क मांग करती रहती ह। ये कसी का भी कहना नह मानत और अपने आप ही
अपनी इ छा व पसंद को पूरा करने म लगी रहती ह। भ को चािहए क पहले वह कु मित को जड़ से ही
समा कर दे और इं य पी ब को डांट-डपटकर शांत कर दे। कबीर कहते ह क स ा सेवक या स ा भ या
स ा ानी वही है जो अपने मन पी घर के झगड़े को िमटा दे।
स तो देखत जग बौराना।।1।।
सांच कह तो मारन धावै। झूठे जग पितयाना।।2।।
नेमी देखा धम देखा। ात करे अ ाना।।3।।
आतम मा र पषाणिह पूजे। उनम कछउ न ाना।।4।।
ब तक देखा पीर औिलया। पढ़े कतेब कु राना।।5।।
कै मुरीद तदबीर बताव। उनम उहै जो ाना।।6।।
आसन मा र िड भ ध र बैठे। मन म ब त गुमाना।।7।।
पीतर पाथर पूजन लागे। तीरथ गभ भुलाना।।8।।
टोपी पिहरे माला पिहरे । छाप ितलक अनुमाना।।9।।
साखी श दै गावत भूल।े आतम खब र न जाना।।10।।
िह दू कह मो हं राम िपयराा। तु क कह रिहमाना।।11।।
आपुस म दोउ ल र-ल र मूय।े मम न का जाना।।12।।
घर-घर म तर देत फरत ह। मिहमा के अिभमाना।।13।।
गु सिहत िश य सब बूड़े। अ त काल पिछताना।।14।।
कह हं कबीर सुनो हो स तो। ई सब भरम भुलाना।।15।।
के ितक कह कहा न हं माने। सहजे समाना।।16।।

हे संतो! संसार के पागलपन को देखो। सच कहो तो मारने को दौड़ते ह और झूठ बोलने पर झट से िव ास कर


लेते ह। िनयम से धमाचारी सुबह ान कर लेते ह, ले कन जीव को मारकर प थर को पूजते ह मानो उनम कोई
ान ही न हो। ऐसे ही ब त से पीर औिलया को कु रान क कताब पढ़ते देखा और वे अपने िश य व चाहने वाल
को भी यही बताते ह क िनद ष जीव क ह या करोगे तो खुदा तुम सब को ज त ब शेगा। जो अ ान उनके पास
होता है, वही ोता के मन म भी भर देते ह।
कई ि आसन मारकर बैठ जाते ह और मन म गुमान होता है क उ ह िसि यां ा ह। पीतल, प थर
पूजते ह और कहते ह क हमने बड़े-बड़े तीथ का दशन कया है। टोपी, माला धारण करते ह तथा छाप-ितलक
लगा, वयं को भुलाकर का पिनक प म डू बे रहते ह तथा साखी, श द गाने के गव म अकड़े फरते ह। िह दू
कहता है क मुझे राम यारा है और मुसलमान कहता है क मुझे रहीम यारा है। आपस म दोन इस बात को
लेकर लड़-लड़ मरते ह, पर इस मम को जानने क कोिशश नह करते ह क राम-रहीम म कोई भी फक नह है,
बस नाम-भर का ही फक है।
जो घर-घर गु मं देते फरते ह, खुद गु िवहीन होते ह। के वल जाित क मिहमा के घमंड म डू बकर गु बन
जाने वाले खुद तो डू बते ही ह, अपने िश य को भी डु बो देते ह। अंत समय म बस पछताना ही रह जाता है। कबीर
कहते ह क हे संत सुनो! ये सब म व भुलावे म पड़े ए ह। कतना भी कहो, पर कहना नह मानते, समझाने
पर भी नह सुनते। इनके आगे ान क बात करना गाल बजाने के बराबर ही है।
स त अचरज एक भौ भारी। कह तो को पितयाई।।1।।
एकै पु ष एक है नारी। ताकर कर िवचारा।।2।।
एकै अ ड सकल चौरासी। भरम भुला संसारा।।3।।
एकै नारी जाल पसारा। जग म भया अ देशा।।4।।
खोजत-खोजत का अ त न पाया। ा िव णु महेशा।।5।।
नाग फांस िलये घट भीतर। मूसेिन सब जग झारी।।6।।
ान ख ग िबनु सब जग जूझे। पक र न का पाई।।7।।
आपै मूल फू ल फु लवारी। आपुिह चुिन-चुिन खाई।।8।।
कह हं कबीर तेई जन उबरे । जेिह गु िलयो जगाई।।9।।

हे संत ! दुिनया का एक सबसे बड़ा आ य म बताता ।ं तुम सब खुद इस िवषय पर सोचो क एक जीव प
पु ष है और एक कृ ित प ी है। इस पर िवचार करो, इ ह के पीछे चौरासी लाख योिनयां इस दुिनया म
गितमान ह। इ ह के म म सारी दुिनया भूली ई है। इस माया पी नारी के मोहजाल म मनु य सब कु छ भूल
भालकर भटकते फर रहे ह, ले कन उ ह कह भी अंत नह िमल पा रहा है। यहां तक क ा, िव णु और महेश
भी उसके अंत क थाह नह लगा सके ह।
माया पी नारी ने सत, रज और तम क नागफांस ले, मनु य के दय म घर बना िलया है और इसी कारण
मनु य अपनी आ मा से अलग हो गया है। िबना ान क तलवार के सब लोग माया पी नारी से लड़ रहे ह,
ले कन मारना तो दूर उसे कोई पकड़ तक भी नह सका है। उसे पकड़ने के िलए ान पी तलवार क ज रत है।
जीव खुद माया क फु लवारी का रखवाला है और खुद ही उसके फल-फू ल को चुन-चुनकर खा भी जाता है।
कबीर कहते ह क इस माया पी नारी से वही भ उबर सकता है, िजसने स गु को स कर िलया है और
उनके स ान से अपनी आ मा को विलत कर िलया है।
स तो अचरच एक भौ भारी। पु धइल महतारी।।1।।
िपता के संगे भई बावरी। क या रहल कु वांरी।।2।।
खसमिह छािड़ ससुर संग गौनी। सो कन ले िबचारी।।3।।
भाई के संग सासुर गौनी। सासुिह सावत दी हा।।4।।
ननद भौज परपंच रचो है। मोर नाम किह ली हा।।5।।
समधी के संग नाह आई। सहज भई घरबारी।।6।।
कहिह कबीर सुनो हो स तो। पु ष ज म भौ नारी।।7।।

हे संत ! संसार म यह बड़े आ य क बात है। माता ने अपने पु को और पु ने अपनी माता को पकड़ िलया है
अथात् माया पी माता ने जीव पी पु को और जीव पी पु ने माया पी माता को पकड़ िलया है।
अब दूसरा आ य सुनो - एक अिववािहत क या अपने िपता के साथ बावली हो गई है अथात् माया पी
अिववािहत क या, जीव पी िपता के साथ बावली हो गयी है और जीव पी िपता को पितत बना दया है।
अब तीसरा आ य सुनो - माया पी नारी अपने पित पी जीव को छोड़कर घमंड पी ससुर के साथ भाग
गई है। मनोइ छा पी नारी अ ान पी भाई के साथ अपनी ससुराल चली गई। यह दुिनयादारी ही उसक
ससुराल है और संशय पी सास ही उसक सौत है जो उसे यातनाएं देती रहती है। आदमी क मनोवांछाएं शक-
संशय क वजह से ही तो उसे तरह-तरह के क देती रहती ह, ले कन आदमी समझता नह है।
न द-भाभी का झगड़ा तो सबको ही मालूम है। न द-भाभी आपस म कहती ह क तुमने मेरा नाम य िलया
और बस इसी कहा-सुनी म घर म महाभारत िछड़ जाता है। एक ी समधी यानी बुि के संग नह आई, फर भी
घर वाली बन गई। पु ष पी जीव क मनोवांछा ही नारी है। कबीर कहते ह क हे संत सुनो! पु ष का ज म
नारी से ही आ अथात् मनोवांछा पी नारी पु ष से ही तो पैदा ई या जीव पी पु ष नारी से ही तो पैदा
आ। कहने का भाव है क जीव सदा इ छा के साथ रहता है और उसी को महसूस करता है अतः जैसी
मनोवांछा अथात् मन क इ छा होती है, जीव वैसा ही सोचता है। मनोवांछा के आधार पर ही वह भ या कामी
बनता है। इन इ छा पर िनयं ण रखना आव यक है।
स तो कह तो को पितयाई। झूठ कहत सांच बिन आई।।1।।
लौके रतन अबेध अमोिलक। न हं ाहक न हं सा ।।2।।
िचिमक-िचिमक िचमकै दृग द ं दिश। अब रहा िछ रयाई।।3।।
आपै गु कृ पा कछु क हा। िनगुण अलख लखाई।।4।।
सहज समाधी उ मािन जागे। सहज िमले रघुराई।।5।।
जहं-जहं देखो तहं-तहं सोई। मन मािनक बेधो हीरा।।6।।
परम त व गु सो पावै। कह उपदेश कबीरा।।7।।

हे संत ! म कु छ कहता ं तो उस पर कोई भी यक न नह करता है। उसे सब झूठ मानते ह जब क साधना के


िशखर पर प च ं कर कोई देखे तो उसे मेरी बात सच ही सच लगगी। मन म जो आ म व प चेतन बैठा है, वह
अखंड, अनमोल र है। उसका न तो कोई ाहक है और न ही कोई वामी है। वह चमकता आ ान- काश है,
जो दस दशा म और उनके बाहर भी फै ला आ है। खुद पर क अनुकंपा से उनके िनज व प का बोध
आ है। मन और इ छाएं जब आ म- व प म लग ग तब उस अलख, अगोचर व प राम का दशन हो
गया। अब तो जहां देखो, बस वही है। हर जीव म राम-ही-राम तो ह। एक धागे म मन पी मोितय को िपरोकर
हीरा व प परमा मा का मरण जीव सदा करता रहता है। कबीर कहते ह क यह परम त व (ई र- ान)
स गु क अनुकंपा से ही ा होता है।
स तो। बोले ते जग मारे ।।1।।
अनबोले ते कै सक बिन है। श दिह कोई न िबचारे ।।2।।
पहले ज म पु का भयऊ। बाप जि मया पाछे ।।3।।
बाप पूत क एकै नारी। ई अचरज कोई काछे ।।4।।
दु दुर राजा टीका बैठे। िवषहर करै खवासी।।5।।
ास बापुरा ध रन ढाकनो। िब ली घर म दासी।।6।।
कार दुकार कार क र आगे। बैल करे पटवारी।।7।।
कह हं कबीर सुनो हो स तो। भसे याव िनबेरी।।8।।

हे संतो! स य वचन बोलने पर संसार के लोग मारने लगते ह, ले कन चुपचाप बैठने से भी तो कोई बात नह
बनने वाली। या कर, श द पर कोई चंतन-मनन करता ही नह है। पहले पु का ज म होता है, फर वह शादी
के बाद िपता बनता है।
कहने का भाव है क पु च र वान है तो वह समय आने पर च र वान िपता अव य बनेगा। इसम दो राय
नह है, दुिनया म िजतने भी लोग ह सब िपता और पु ही ह और सभी ी जाित से ही पैदा ए ह अथात् ी ही
जननी और ी ही प ी भी है। बाप-पूत क एक ही नारी है यह कहना गलत न होगा, ले कन इस सच को लोग
कहां मानते ह।
जब मढक के समान तामसी वृि के लोग टीका लगाकर राजा बन बैठे ह और सप के समान िवषैले लोग उस
राजा के चमचे व सेवक ह तथा कु े अपनी पूंछ से अपना गु ांग भी ढांप नह पाते और वे संसार को ढांपने के दंभ
भर तो आ य ही होता है।
कहने का भाव है क र क ही भ क है तो कै से बात बनेगी। िब ली को घर क दासी बना दया जाए तो या
घर का खाना जूठा करने से मानेगी? सब खाना जूठा कर देगी। लोभी लोग अिधकार पा जाते ह तो बीच म ही
सब माल हजम कर जाते ह जैसे बैल को पटवारी बना दया जाए तो या वह सारे खेत को चर नह जाएगा।
कबीर कहते ह क संत सुनो! अब भगवान ही भला करे य क भसे अथात् तामसी वृि वाले लोग यायासन
पर जज बनकर बैठ गए ह। अब तो ई र ही इस दुिनया का मािलक है।
स तो राह दुन हम दीठा।।1।।
िह दू तु क हटा न हं मान। वाद सबन को मीठा।।2।।
िह दू बरत एकादिश साधे। दूध संघारा सेती।।3।।
अ को यागे मन को न हटके । पारन करे सगौती।।4।।
तु क रोजा-िनमाज गुजारे । िबसिमल बांग पुकारे ।।5।।
इनको िबिह त कहां से होवै। जो सांझै मुरगी मारे ।।6।।
िह दू क दया मेहर तु कन क । दोन घट से यागी।।7।।
ई हलाल वै झटका मार। आग दुन घर लागी।।8।।
िह दू तु क क एक राह है। सतगु सोई लखाई।।9।।
कह हं कबीर सुनो हो स तो। राम न क ं खुदाई।।10।।

हे संत ! मने दोन ही माग पर चलकर देख िलया है। िह दू-मुसलमान दोन ही अ छी बात नह मानते। सभी
मीठे वाद के ही ेमी ह। िह दू एकादशी त तो करते ह, ले कन अनाज को छोड़कर दूध, संघाड़ा आ द सब खूब
छक कर खाते ह तथा दूसरे दन मांस के साथ त तोड़ते ह।
कहने का भाव है क यह एक ढ ग ही तो है। इसी कार से मुसलमान रोजा रखते ह। वे दन म उपवास रखते
ह और रात म खूब छक कर खाते ह। दन म नमाज पढ़ते ह, खुदा का नाम पुकार-पुकारकर मि जद म बांग देते ह
यानी अजान देते ह, ले कन रात होते ही मुग काटकर खा जाते ह, भला इ ह ज त कै से नसीब होगी।
िह दू-मुसलमान दोन ही खूंखार, बबर, ू र और िनम ही ह य क दोन ही बेजुबान जीव क नृशंस ह या
करते ह। िह दू एक झटके म ही ह या करते ह और मुसलमान धीरे -धीरे रे तकर जीव को हलाल करते ह।
ये दोन ही बबरता क अि म सुलग रहे ह। इन दोन के ही घर म आग लगी है। िह दू-मुसलमान दोन के एक
ही रा ते ह - स य और अ हंसा के दोन को ही रा ते स गु ने दखाए ह। कबीर कहते ह क सुनो संतो! न तो
कह राम है और न ही कह खुदा है। जीव ही भगवान है, जीव पर दया भाव रखना ही क याणकारी है।
स तो पांड़े िनपुण कसाई।।1।।
बकरा मा र भसा पर धाव। दल म दद न आई।।2।।
कर ान ितलक दै बैठे। िविध स देिव पुजाई।।3।।
आतमराम पलक म िबनसे। िधर क नदी बहाई।।4।।
अित पुनीत ऊंचे कु ल किहये। सभा मा हं अिधकाई।।5।।
इ हते दी ा सब कोई मांग।े हंसी आवै मोिह भाई।।6।।
पाप कटन को कथन सुनाव। कम कराव नीचा।।7।।
हम तो दून पर पर देखा। यम लाये ह धोखा।।8।।
गाय बधे ते तु क किहये। इनते वै या छोटे ।।9।।
कहिह कबीर सुनो हो स तो। किल मा ा ण खोटे ।।10।।

हे संत ! पांडे यानी ा ण भी कु शल कसाई ह। बकरा मारकर देवी-देवता पर चढ़ाते ह और भसे को भी


मारने से बाज नह आते ह। या उ ह ऐसा करते समय जरा-सी भी दया या दद क अनुभूित नह होती? वैसे तो
ान करते ह, ितलक लगाते ह, पूजा करते ह और मं के साथ िविधवत् प थर क पूजाकर उस िन ाण मू त के
सामने ही एक जीिवत जीव का गला काट देते ह। खून क नदी चार तरफ बह चलती है। इन ह यार को ही उ
कु ल का तथा पिव माना जाता है और सभा आ द म इनको ही े अिधकार सिहत े थान दया जाता है।
इनसे ही सब िश ा-दी ा लेते ह। मुझे तो यह सब देखकर हंसी आती है। मजे क बात है क ये खुद ह या करते-
करवाते ह और पाप से मु होने का उपाय भी यही सुझाते ह।
मने तो इन कम व कथन दोन को ही पर पर िमलाकर देखा है। यमराज नाम ही धोखा लगता है या यमराज
के धोखे म ये सब उलझ पड़े ह। गाय को जो मारता है उसे मुसलमान कहा जाता है, ले कन उनसे या कम ह यारे
ा ण ह। मुग , बकरा, भसा या जीव नह ह। जीव छोटा हो या बड़ा उसक ह या करना महापाप है। ा ण
मुसलमान से कम पापी नह ह।
कबीर कहते ह क सुनो हे संत ! इस किलयुग म जीव ह या करने वाले िजतने भी ा ण ह, वे सब-के -सब
खोटे ह अथात् हंसक, बबर, िनदयी और महापापी ह। वे ा ण ह, इससे वे इस महापाप से मु नह हो सकते।
राम तेरी माया दु द मचावै।।1।।
गित मित वाक समुिझ परे ना हं। सुर नर मुिनिह नचावै।।2।।
या सेमर ते र शाखा बढ़ाये। फू ल अनुपम बानी।।3।।
के तेक चातृक लािग रहे ह। देखत वा उड़ानी।।4।।
काह खजूर बड़ाई तेरी।। फल कोई न हं पावै।।5।।
ी म ऋतु जब आिन तुलानी। तेरी छाया काम न आवै।।6।।
आपन चतुर और को िसखवै। कनक कािमनी सयानी।।7।।
कह हं कबीर सुनो हो स तो। राम चरण ऋतु मानी।।8।।

हे राम! तु हारी माया चार तरफ ऊधम मचा रही है। लोग तु हारी न तो गित को ही समझ पाते ह और न ही
तु हारी लीला को ही समझ पाते ह। तु हारी माया सुर, नर, मुिन सबको ही अपने इशार पर नचा रही है। सेमल
वृ क डािलयां बड़ी हो ग तो या आ, फू ल भी उसके सु दर तो होते ह, पर उनम खुशबू तो नह होती है।
प ी उसक खूबसूरती देखकर मंडराते रहते ह, फू ल जब फल म प रव तत हो जाते ह तब प ी बड़ी आशा के
साथ च च मारते ह, ले कन ई देखकर उड़ जाते ह। उ ह िनराशा ही हाथ लगती है अथात् इस संसार से लोग
को िनराशा ही िमलती है। खजूर का पेड़ बड़ा आ तो या आ, फल तो कसी को भी नह िमलता है। तपती
गरमी म उसक छाया भी कसी के काम नह आती है। खजूर के पेड़ क तरह ही दूसर के काम न आने वाले
ि का या लाभ, जो धन और ी-सुख को जमा करने म िनपुण होते ह और दूसर को भी वैसा ही करने क
सीख देते ह।
कबीर कहते ह क हे संत सुनो! जो ि कािमनी व धन जमा करने के च र म लगे रहते ह, वे भी वयं को
राम के चरण का भ ही होने का दावा करते ह, ले कन या वे सही अथ म राम के भ होते ह?
रामुरा संशय गां ठ न छू टै । ताते पक र-पक र यम लूटै।।1।।
होय कु लीन िम क न कहावै। तू योगी सं यासी।।2।।
ानी गुणी सूर किव दाता। ये मित कन न नासी।।3।।
सुमृित वेद पुराण पढ़ सब। अनुभव भाव न दरसे।।4।।
लोह िहर य होय ध कै से। जो न हं पारस परसे।।5।।
िजयत न तरे उ मुये का त रहो। िजयतिह जो न तरै ।।6।।
गिह परतीत क ह िजन जास । सोई तहां अमरे ।।7।।
जो कु छ कयउ ान अ ाना। सोई समुझ सयाना।।8।।
कहां हे कबीर तास या किहये। जो देखत दृि भुलाना।।9।।

हे ाणी! तु हारे हाथ से संशय क गांठ नह छू ट रही है, यही कारण है क िवषय-वासनाएं तु ह पकड़-
पकड़कर लूट रही ह। चाहे तुम कु लीन हो, अकु लीन हो, चाहे तुम योगी हो या सं यासी हो, यानी, गुणी, सूर,
किव, दाता या कु छ भी हो, संशय पर िवजय नह पा सके तो िनभय होकर जी नह सकते। अपने आप को नह
जानते तो वेद, पुराण सब पढ़ना थ है। अनुभव से भाव दखाई देना चािहए। लोहा कतना भी अ छा हो, पर
पारस प थर के छु ए िबना सोना नह बन सकता। जब जीिवत रहने पर नह तरे तो मरने के बाद या तरोगे।
जीिवत अव था म ही सारे बंधन और पाप से मुि पा लो। िजसने भी पूरे यक न के साथ अपने मन को भु म
लगाया, उसे मुि अव य ही िमली।
कबीर कहते ह क तुम अपने ान-अ ान के बारे म सोचो और जो ऐसा सोचता है, वह चतुर-सयाना होता है।
उसे या कहा जाए, जो सब देखकर भी भूल रहा है। उसे तो ानोपदेश देना भी थ ही है।
रामिह गावै औरिह समझावै। ह र जाने िबनु िबकल फरे ।।1।।
जेिह मुख वेद गाय ी उचरे । ताके बचन संसार तरे ।।2।।
जाके पांव जगत उ ठ लागे। सो ा ण जीव ब करे ।।3।।
आपन ऊंच नीच घर भोजन। घीन कम ह ठ वो भरे ।।4।।
हण-अमावस ढु क-ढु क मांग।े कर दीपक िलये कू प परे ।।5।।
एकादशी त न हं जाने। भूत- ेम ह ठ दय धरे ।।6।।
तिज कपूर गांठी िवष बांधे। ान गवांये मु ध फरे ।।7।।
छीजै सा चोर ितपाले। स त जना क कू ट करे ।।8।।
कह हं कबीर िज या के ल पट। यिह िविध ाणी नक परे ।।9।।

जो राम नाम के महा य को गाता फरता है और दूसर को भी उनके नाम क मिहमा को समझाता है, वही
राम के बारे म कु छ नह जानता है और ाकु ल है राम के भेद को जानने के िलए।
िजसके मुख से वेद, गाय ी-मं िनकलता है और जो अपने आशीवाद से संसार के लोग को तारने वाला बना
है। िजसके पांव को संसार छू ता है, वह ा ण जीव क ह या करता है। जो ऊंच-नीच जाित वाल के घर अपने
वाथ के िलए भोजन करता है, इतना ही नह घृिणत कम करता है और हठपूवक वध कम करता है। सूय हण व
च हण के समय घूम-घूमकर दान भी मांगता है, वह शा पी ान का दीपक हाथ म लेने के बाद भी नरक
पी कु एं म िगर जाता है।
जो एकादशी त तो करता है, ले कन दश इं य और एक मन, इस एकादशी को नह जानता। भूत- ेम के
अि त व को जबरद ती वीकार करता है और दूसर को भी वीकार करवाता है, ऐसा ि ही तो कपूर यानी
ई र का यागकर अ ान यानी जहर को अपनी गांठ म बांध लेता है और ान को गंवाकर मोह माया के पीछे
भागता रहता है। ान-त व और वेद के रा ते का यागकर ऐसे लोग संत एवं स न को क देते ह। कबीर कहते
ह क इस तरह के जीभ के लोभी ही नरक म जाते ह।
राम गुण यारो यारो यारो।।1।।
अबुझा लोग कहां ल बूझ।ै बूझनहार िवचारो।।2।।
के तेिह रामच तपसी से। िज ह यह जग िबटमाया।।3।।
के तेिह का ह भये मुरलीधर। ित ह भी अ त न पाया।।4।।
म छ क छ बराह व पी। बामन नाम धराया।।5।।
के तेिह बौ िनकलंक किहये। ित ह भी अ त न पाया।।6।।
के तेिह िस साधक सं यासी। िज ह बनवास बसाया।।7।।
के तेिह मुिनजन गोरख किहये। ित ह भी अ त न पाया।।8।।
जाक गित ौ न हं जानी। िशव सनका दक हारे ।।9।।
ताके गुण नर कै सेक पैहो। कह हं कबीर पुकारे ।।10।।

राम गुण यारा है। इसे अ ानी लोग नह समझ सकते ह, समझने वाले िवचार कर-करके हार गए। समझने
वाला बस िवचार-भर ही कर सकता है। अनेक अवतार ए, जो ई र होने के म म छले गए। अयो या पित
रामच को जो लोग समझते ह क वे ही ई र ह, वे राम क असिलयत को नह जानते। ई र के अंत को पाना
क ठन है। मुरलीधर के समान कतने ही अवतार ए, पर वे खुद भी ई र को समझ नह सके । म य, क छप,
वराह, वामन, बु , कि क जैसे अवतारी पु ष भी ई र का भेद नह पा सके । कतने ही साधु सं यासी जंगल म
कु टी बनाकर रहे, ले कन वे भी ई र को समझ नह सके । िजसक गित ा, िव णु, महेश, िस गोरखनाथ
आ द शि य ने नह जानी तो तुम या जानोगे। ई र तो वह त व है, िजसे िजतना भी जानो, कम ही है।
ये त ु राम जपो हो ानी। तुम बूझ अकथ कहानी।।1।।
जागे भाव होत ह र ऊपर। जागत रै िन िबहानी।।2।।
डाइिन डारे वनहा डोरे । संह रहै बन घेरे।।3।।
पांच कु टु म िमिल जूझन लागे। बाजन बा घनेरे।।4।।
रे मृगा संशय बन हांके। पारथ बाणा मेल।ै ।5।।
सायर जरे सकल बन डाहे। म छ अहेरा खेल।ै ।6।।
कह हं कबीर सुनो हो स तो। जो यह पद अथावै।।7।।
जो यह पद को गाय िवचारे ।। आप तरे औ तारैै ।।8।।

हे ाणी! आ म- व प राम का सुिमरन करो। तुम इस अवणनीय कहानी को समझो। ई र से िजसका ेम


होता है, वह रात- दन जागता रहता है, माया उसे छू भी नह पाती है। मन जब वश म होता है तब कामातुर
कु को संयम क डोरी से बांध लेता है और दय पी वन म मन पी संह को अपने काबू म कर लेता है। उस
समय पांच इं य पी प रजन आपस म झगड़ने लगते ह, जैसे जंगल म बाजा बजवाकर िशकारी जंगली जीव
को पकड़ लेते ह वैसे ही सं यासी मन के दोष व संशय को ान के बाण चलाकर मार डालता है। फर भवसागर
तथा संशय का जंगल जल जाता है और मन पी मछली भावना पी जल म शेष मोह-कामना पी जीव को
खा जाती है। कबीर कहते ह क जो इस पद का अथ िनकालगे वे खुद भी तर जाएंगे और दूसर को भी भवसागर
से उबार लगे।
राम न रमिस कौन ड ड लागा। म र जैबै का क रबे अभागा।।1।।
कोई तीरथ कोई मुि डत के सा। पाख ड म भरम उपदेसा।।2।।
िव ा वेद प ढ़ करे हंकारा। अ तकाल मुख फांके छारा।।3।।
दुिखत सुिखत होय कु टु म जेवांवै। मरणबार एकसर दुख पावै।ै ।4।।
कह हं कबीर यह किल है खोटी। जो रहै करवा सो िनकरै टोटी।।5।।

जो ाणी अगम-अगोचर राम म यान नह लगाता है, उसे कौन-सा द ड िमला है। अरे भा यहीन! मर
जाएगा तो या मुि का उपाय कर सके गा? मुि के िलए तीरथ करता है, मुंडन करवाता है, मं -तं के च र म
पड़ा रहता है, उपदेश- वचन सुनता है। वेद-शा पढ़कर अिभमान म डू बा रहता है और अंतकाल म बस
पछतावा ही तेरे हाथ लगता है। दुःख-सुख सहकर प रवार के भरण-पोषण के िलए दन-रात लगा रहता है,
ले कन मरते समय तू अके ला ही होता है और तुझे घोर क भोगना पड़ता है। कबीर कहते ह क यह सब बेकार है।
माया-मोह के बंधन झूठे और खोखले ह। जो लोटे म होगा वही तो उसक ट टी से िनकलेगा अथात् जो तू करे गा,
वही तो तुझे िमलेगा।
अवधू सो योगी गु मेरा। जो यह पद का करे िनबेरा।।1।।
त रवर एक मूल िबनु ठाढ़ा। िबनु फू ले फल लागा।।2।।
शाखा प कछू न हं वाके । अ गगन मुख गाजा।।3।।
पौ िबनु प करह िबनु तु बा। िबनु िज या गुण गावै।।4।।
गावनहार के प न रे खा। सतगु होय लखावै।।5।।
पि छक खोज मीन को मारग। कह कबीर दोउ भारी।।6।।
अपरम पार पार पु षो म। मूरित क बिलहारी।।7।।
कबीर कहते ह क हे अवधू! जो भी मेरे इस पद का अथ लगा देगा वह मेरा गु हो जाएगा। एक ऐसा वृ है
जो िबना जड़ के खड़ा है और िबना फू ल के फल उसम लगे ए ह, शाखा, प े कु छ भी नह ह अथात् यह वृ रीढ़
क ह ी है, िजसम िबना फू ल के ही फल लगे ह। अ गगन मुख गाजा अथात् पौधे के िबना ही प े ह और डाली के
िबना ही तु बा यानी खोपड़ी का अंद नी भाग है तथा जीभ न होने पर भी गुण गाया जा रहा है और गाने वाले
का न तो प है न कोई िच न है। कोई स गु ही इसक पहचान करवा सकता है।
कबीर कहते ह क प ी और मछली के जाने के बाद उनका रा ता नह देखा जा सकता य क वे अपना
िनशान तक भी नह छोड़ते। पु षो म का माग िवहंगम व मीन माग है। कोई साधक ही उन रा त पर
चलकर परमे र तक प च
ं सकता है।
भाई रे नयन रिसक जो जागे।।1।।
पार अिवगित अिवनाशी। कै स कै मन लागे।।2।।
अमली लोग खुमारी तृ णा। कत ं स तोष न पावै।।3।।
काम- ोध दोन मतवाले। माया भ र-भ र आवै।।4।।
कु लाल चढ़ाइिन भाठी। लै इ ी रस चाहै।।5।।
संगिह पोच वै ान पुकारे । चतुरा होय सो पावै।।6।।
संकट सोच-पोच यह किलमा। ब तक ािध शरीरा।।7।।
जहां धीर ग भीर अित िन ल। तहां उ ठ िमल कबीरा।।8।।

हे भाई! ये जो नयन ह, वे बड़े रिसक ह। अगर ये जाग जाएं तो भु का रा ता ढू ंढने म बड़ी मदद िमलेगी।
िवषय-भोग म डू बे रहने वाले जो ह, उन पर हर व तृ णा का नशा होता है। उ ह कह भी सुख-संतोष नह
िमलता है। काम व ोध दोन ही मतवाले हाथी क तरह ह, जो मोह-माया वश हरदम मन म बनते रहते ह।
कई वादी जो ह, वे तो शराब बनाने वाले कलवार क तरह क पना क भ ी म ान क शराब बनाते
ह तथा इं य-सुख लेने क चाह रखते ह। वे अपने िवषय भोग क लालसा रखते ए भी ान क बड़ी-बड़ी बात
करते ह और वयं को भोग-मो साथ-साथ पाने वाला ानी एवं बुि मान ि मानते ह। कबीर कहते ह क
माया से िसत इस संसार म संकट भी है और शरीर म ब त-सी ािधयां भी ह। हे ाणी! ान-त व को जानने
वाले अ छे गु क शरण म जाओगे, तभी तु हारा भला हो सके गा, वरना यह जीवन थ ही चला जाएगा।
मानुष तन पाने का कोई लाभ तु ह नह होगा।
भाई रे दुई जगदीश जहां ते आया। क कौने बौराया।।1।।
अ लाह राम करीमा के शव। ह र-हजरत नाम धराया।।2।।
गहना एक कनक ते गहना। याम भाव न दूजा।।3।।
कहन सुनन को दुइ कर थापे। एक िनमाज एक पूजा।।4।।
बोही महादेव वोही मुह मद। ा आदम किहये।।5।।
को िह दू को तु क कहावै। एक िजमी पर रिहये।।6।।
वेद- कतेब पढ़ै वै कु तबा। वै मोलना वै पांडे।।7।।
बेगर-बेगर नाम धराये। एक िम ी के भांड़े।।8।।
कह हं कबीर वै दून भूल।े रामिह कन न पाया।।9।।
ये खसी वै गाय कटाव। बा दिह ज म गमाया।।10।।

हे भाई! ये दो जगदी र कहां से आ गए? अ लाह, राम, करीम, के शव, ह र व हजरत आ द नाम से ई र का
जूम, यह कै सा पागलपन है। एक वणधातु से कई तरह के गहने बनते ह, ले कन सब गहने वण धातु के ही होते
ह, उनम कोई दूसरी धातु नह होती है या कोई अंतर नह होता है। कहने-सुनने के िलए कोई नमाज तो कोई पूजा
करता है, पर दोन का भाव एक ही है।
कबीर कहते ह क जो महादेव व ा के ित आ था रखते ह, उ ह मुह मद और आदम के ित भी वैसी ही
िन ा और आ था रखनी चािहए। िह दू और मुसलमान एक ही जहां म रहते ह तो फर यह िह दू-मुसलमान का
सवाल कै सा? वेद-शा जो पढ़ते ह वे पंिडत और जो कु रान शरीफ पढ़ते ह वे मौलवी कहलाते ह। एक ही िम ी से
सब बने ह और अलग-अलग नाम रखे ए ह। कबीर कहते ह क दोन अपने माग से भटक गए ह। िह दू रहीम को
नह मानते और मुसलमान राम को नह मानते य क िह दू मं दर म बकरे काटते ह और मुसलमान खुदा के
नाम पर गाय काटते ह। ये दोन ही महा अ ानी ह और अ ानता वश अपना बेशक मती जीवन यूं ही गंवा देते
ह।
हंसा यारे सरवर तिज कहां जाय।।1।।
जेिह सरवर िबच मोितया चुगत होते। ब िविध के िल कराय।।2।।
सुखे ताल पुरइिन जल छांड़े। कमल गये कु ि हलाय।।3।।
कह हं कबीर जो अबक िबछु रे । ब र िमलो कब आय।।4।।

हे यारे हंसा! या तुमने कभी यह सोचा है क इस शरीर को छोड़ने के बाद कहां जाओगे? िजस सरोवर पी
देह म मोितय को चुगते हो और नाना कार क ड़ा करते हो, इसका याग करने के बाद तु हारा या होगा,
कभी सोचा है? ताल के सूखने पर पुरइन को जल छोड़ देता है और कमल सूख जाते ह अथात् वृ ाव था आने पर
देह पी सरोवर सूख जाता है और शरीर के सारे अंग अपनी आभा, चमक एवं चाल खो बैठते ह। फर ऐसे म या
होगा? कबीर कहते ह क तुमने इस ज म म सुिमरन को छोड़कर वासना से नाता जोड़ िलया तो फर देह का
याग करने पर अब कब मनु य योिन म आओगे, कु छ कहा नह जा सकता।
यह अ छा समय है, अपना अगला-िपछला सब सुधार-संवार लो। िवषय-वासना का यागकर भु क शरण
म आ जाओ, मुि म ही गित है।
ह र ठग ठगत सकल जग डोलै। गौन करत मोसे मुख न बोलै।।1।।
बालापन के मीत हमारे । हम हं तिज कहां चलेउ सकारे ।।2।।
तुम हं पु ष म ना र तु हारी। तु हारी चाल पाहन ते भारी।।3।।
मा ट को देह पवन को शरीरा। ह रठग ठग स डर कबीरा।।4।।

धम गु चार तरफ टहलते फरते ह और जब कसी मुझ-जैसे िवचारक से भट हो जाती है तो मुंह से बात
करना भी ठीक नह समझते ह। हे भु! तुम तो बालपन यानी गभकाल से ही मेरे मीत हो और मुझे ही छोड़कर
कहां चले गए। तुम पु ष हो, म तु हारी नारी ।ं मुझे दशन दो अथात् आ म- व प ान से हीन जीव, ई र को
ऐसे ही पुकारता है और याद करता है। पंच त व से बनी देह म बंधा आ मनु य धा मक वचन करने वाल से
डरता है तथा ह र के नाम पर ठगने वाल के अनुसार चलता है। पूरा जीवन उसका यूं ही गुजर जाता है, ले कन
वह अपना िवचार भी ठीक से कट नह कर पाता। उसका उ ार कभी नह हो पाता है।
ऐसो ह र सो जगत लरतु है। पा डु र कत ं ग ड़ धरतु है।।1।।
मूस-िबलाई कै सन हेतू। ज बूक करै के ह र स खेत।ू ।2।।
अचरज एक देखो संसारा। वनहा खेदै कुं जर असवरा।।3।।
कह हं कबीर सुनो स तो भाई। इहै सि ध का िबरलै पाई।।4।।

कबीर कहते ह क स े ह र व प भ से लोग जलते ह, लड़ते ह और तक-कु तक करते ह, क तु उ ह नह


पता क साधारण सांप ग ड़ प ी को कभी पकड़ पाता है, चूहा िब ली को कभी मार सकता है, गीदड़ या कभी
संह से झगड़ सकता है। सच तो यह है क ह र व प स े भ का आम जन कु छ नह िबगाड़ सकते ह।
कबीर समझाते ह - एक और अचरज इस संसार म देखो - हाथी पर सवार ि को कु ा भगा रहा है, पर
इस भेद को कोई ानी- यानी ही समझ सकता है - भला कु ा हाथी पर सवार ि को कै से भगा सकता है,
सच को भला अस य हरा सकता है।
न तो स य अस य के सामने हार सकता है और न ही संत का कोई कु छ िबगाड़ सकता है। सच तो सच है।
पि डत देख मन म जानी।।1।।
क ध छू ित कहां से उपजी। तब हं छू ित तुम मानी।।2।।
नादे िब दे िधर के संग।े घटही म घट सपचै।।3।।
अ कं वल होय प मी आया। छू ित कहां ते उपजै।।4।।
लख चौरासी नाा ब बासन। सो सब स र भौ माटी।।5।।
एकै पाट सकल बैठाये। छू ित लेत ध काक ।।6।।
छू ित हं जवन छू ित हं अंचवन। छू ित हं जगत उपाया।।7।।
कह हं कबीर ते छू ित िवव जत। जाके संग न माया।।8।।

हे पंिडत ! मन म िवचार करके देखो क यह छू आछू त का मज कहां से पैदा आ। जब यह नह देखा तो फर


तुमने ये बात य मान ल ? माता के रज, िपता के वीय और ाणवायु को लेकर जीव शरीर धारण करता है। वह
पेट म ही बढ़ता है; फर पेट से धरती पर आता है। यह शरीर धारण करने क या ब त ही गंदी है, फर भी
छू आछू त को लेकर झगड़ा होता है।
कबीर समझाते ह - लाख शरीर मरकर माटी म खो गए, सड़-गल गए। एक ही धरती पर सब मनु य बैठे ए
ह तो फर कसको अपिव मानकर अछू त कहा जाए, तु ह बोलो? कबीर कहते ह क यान से देखोगे तो
पाओगे‒भोजन म भी छू त है, पानी म भी छू त है और यह छू त का ही प रणाम है क आदमी संसार म उ प होता
है। छू त से तो वही बचा आ है, जो मोह-माया के बंधन से मु है और कु वृि य क जंजीर उसके पांव म नह
है, ले कन ऐसा तो एक भी कोई नह है। अछू त एक रोग है, इससे बचो। संसार म कोई भी अछू त नह है।
पि डत िम या कर ं िवचारा। ना वहां सृि न िसरजन हारा।।1।।
थूल-अ थूल पौन न हं पावक। रिव शिश धरिण न नीरा।।2।।
योित व प काल न हं जहंवा। बचन न आिह शरीरा।।3।।
कम धम कछु वो न हं उहंवा। ना वहां म न पूजा।।4।।
संजम सिहत भाव न हं जहंवा। सो ध एक क दूजा।।5।।
गोरख राम एकौ न हं उहंवा। ना वहां वेद िवचारा।।6।।
ह रहर ा न हं िशव शि । तीथउ ना हं अचारा।।7।।
माय बाप गु जहंवा नाह । सो ध दूजा क अके ला।।8।।
कह हं कबीर जो अबक बूझ।ै सोई गु हम चेला।।9।।

हे पंिडत ! झूठा िवचार य करते हो। न तो वहां सृि है और न ही सृि को सृजन करने वाला ही है। वहां
थूल-अ थूल, पवन, अि , सूय, च , धरती और न पानी ही है अथात् वहां ऐसा कु छ भी नह है। वहां योित
व प, काल, वचन, शरीर, धम, कम, पूजा, मं आ द कु छ भी तो नह ह, संयम सिहत समािध भी नह है। अब
तु ह कहो, वह एक है या दो है। गोरख और राम आ द अवतारी महापु ष वहां नह ह और वहां वेद-शा क
बात भी नह ह। िव णु, ा भी नह ह और िशव क शि भी वहां नह है। वहां पर तीथ और आचार भी नह
ह। मां, बाप, गु , भी वहां नह ह। तु ह कहो, वहां दूसरा कौन हो सकता है या वह अके ला है। कबीर कहते ह,
आज जो इस रह य को समझ ले, म उसी का चेला और वह मेरा गु ।
बुझ बुझ पि डत कर िवचारा। पु षा है क नारी।।1।।
ा ण के घर ा णी होती। योगी के घर चेली।।2।।
कलमा प ढ़-प ढ़ भई तु कनी। किल म रहत अके ली।।3।।
बर न हं बरे याह न हं करे । पु ज मावनहारी।।4।।
कारे मूंड को एक न छांड़ी। अज ं आ द कु मारी।।5।।
मैके रहै जाय न हं ससुरे। सा संग न सोव ।।6।।
कह कबीर म युग युग जीव । जांित पांित कु ल खोव ।।7।।

हे पंिडत ! बूझो माया या है, पु ष है या ी? ा ण के घर जाकर ा णी यानी उसक छल बुि बनी ई


है, िजससे वह वयं को े मानने लगा है। योगी के घर चेली बनकर उसे भी छलने लगी है, िजससे वह सबको
िमत करने लगा है। कलमा पढ़-पढ़कर मुसलमानी हो गयी और उ ार का उपाय बताने लगी। किल म रहत
अके ली अथात् किलकाल म मुसलमान को ही रखना चाहती है। इसका कोई पित नह और कसी से िववाह नह
करती यानी कसी एक क होकर नह रहती, ले कन अनेक म पी पु को पैदा करती है। आजीवन कुं आरी
होकर भी अनेक मूख को अपने मजाल म फांसे रखती है। छल- पंच पी मायके म ही रहती है और कभी भी
ान पी ससुराल म नह जाती है। ानी यानी के संग सोने से मना करती है अथात् वह ई र के भ के पास
नह जाती है।
कबीर कहते ह क जो आ म- व प भु म लीन हो जाएगा, वह जाित-पांित से ऊपर उठकर मो ा कर
लेगा।
को न मुवा कहो पि डत जाना। सो समुझाय कहो मोिह सना।।1।।
मुये ा िव णु महेशू। पावती सुत मुये गणेश।ू ।2।।
मूये च मुये रिव शेषा। मुये हनुमत िज ह बांधल सेता।।3।।
मूये कृ ण मुये कतारा। एक न मुवा जो िसजनहारा।।4।।
कह हं कबीर मुवा न हं सोई। जाको आवागवन न होइ।।5।।

हे पंिडत ! यह बताओ, इस संसार म आकर कौन नह मरा है - ा, िव णु, महेश, पावती सुत गणेश भी यहां
आकर मरे । च मा, सूय, हनुमंत और समु पर पुल बांधने वाले राम भी नह रहे। कृ ण और द जापित भी
मर गए, एक जो नह मरा, वह है सृि का रचियता पूण । कबीर कहते ह क वह नह मरा, िजसका
आवागमन न आ अथात् जो जीवन-मरण से परे है, वही कभी मरता या जनमता नह है। ऐसा तो एक ही है और
वह है अमर योित पूण ।
पि डत देख दय िवचारी। को पु षा को नारी।।1।।
सहज समाना घट घट बोलै। वाके च रत अनूपा।।2।।
वको नाम काह किह लीजै। न वाके वण न पा।।3।।
त म या करसी नर बौरे । या मेरा या तेरा ।।4।।
राम खुदाय शि िशव एकै । क ं धौ कािह िनहोरा।।5।।
वेद-पुराण कतेब कु राना। नाना भांित बखाना।।6।।
िह दू तु क जैिन औ योगी। ये कल का न जाना।।7।।
छौ दशन म जो परवाना। तासु नाम मनमाना।।8।।
कह हं कबीर हम हं पै बौरे । ई सब खलक सयाना।।9।।
हे पंिडत ! अपने दय म िवचार करके देखो क कौन पु ष है और कौन ी है। एक समान ही सबके दय म
आ मा का व प है, िजसका च र िवल ण है। अब तु ह बताओ, उसे ा ण, ि य, मुसलमान, जैनी कस
नाम से पुकारा जाए, न तो उसका कोई वण है और न कोई प ही है। हे पगले! तू-म या लगा रखा है। या तेरा,
या मेरा है। राम, खुदा, िशव सब एक ही के नाम ह, एक आ म- व प परमा मा को ही िविवध नाम से
पुकारा गया है। वेद, पुराण, कु रान सबने बस अलग-अलग प म उसक शंसा क है। िह दू, मुसलमान, जैनी
और योगी उस चैत य भु को नह जानते। योगी, सं यासी, संत, दरवेश आ द मत ने जो स य मान िलया, बस
उसी का अपनी मज से गुणगान कर रहे ह। कबीर कहते ह क म तो इनके बीच पागल बन जाता ं और ये सब
सयाने और समझदार बन जाते ह।
वै िबरवा ची है जो कोय। जरा-मरण रिहत तन होय।।1।।
िबरवा एक सकल संसारा। पेड़ एक फू टल ितिन डारा।।2।।
म य क डा र चारी फल लागा। शाखा प िगने को वाका।।3।।
बेिल एक ि भुवन लपटानी। बांधे ते छू टै न हं ानी।।4।।
कह हं कबीर हम जात पुकारा। पंिडत होय सो लेय िबचारा।।5।।

इस संसार पी वृ को जो पहचान जाता है, वह सब कु छ छोड़कर बुढ़ापा, मृ यु और जनम-मरण से मुि पा


लेता है। संसार पी इस पेड़ क यानी रज, सत, तम नाम क तीन डािलयां ह। बीच क डाली म धम, अथ, काम,
मो ये चार फल लगे ह। इस वृ क शेष डािलय और प को कौन िगन, िगनती करना क ठन है। इस वृ म
इ छा पी एक लता है, जो तीन लोक म िलपट गई है। इसम ानी- यानी सब िलपटे पड़े ह, जो लाख कोिशश
करने के बाद भी खुद को छु ड़ा नह पा रहे ह।
कबीर कहते ह क म कहकर जा रहा ,ं जो ानी- यानी पंिडत ह गे वे इन बात पर अव य ही यान दगे
और अपने ज म को सफल बना लगे।
नर को न हं परतीत हमारी।।1।।
झूठा बिनज कयो झूठे सो। पूंजी सबन िमिल हारी।।2।।
षट दशन िमिल प थ चलायो। ितरदेवा अिधकारी।।3।।
राजा देश बड़ो परपंची। रै यत रहत उजारी।।
इत ते उत उत ते इत रह । यम क सांड़ सवारी।।5।।
य किप डोर बांधु बाजीगर। अपनी खुशी परारी।।6।।
इहै पेड़ उ पि परलय का। िवषया सबै िवकारी।।7।।
जैसे ान अपावन राजी। य लागी संसारी।।8।।
कf हं कबीर यह अ बुद ाना। को मानै बात हमारी।।9।।
अ ं ले ं छु ड़ाय काल सो। जो करै सुरित संभारी।।10।।

कबीर कहते ह क लोग को मेरी बात पर तिनक-सा भी यक न नह है। वे तो झूठे ापा रय से झूठी
सौदेबाजी कर अपनी सारी पूंजी गंवा बैठे ह अथात् अपना ान पी खजाना िववेक के अभाव म हमेशा के िलए
खो बैठे ह। छः मत वाले लोग ने िमलकर अपना-अपना पंथ चला रखा है और जहां तक ि देव का शासन है,
वह तक उनका अिधकार है। ये िजतने भी पंथ के अिधकारी ह बड़े ही पंची ह और अपनी जा को ही उजाड़ने
म लगे ह। जा यानी जीव इधर-उधर घूम रहा है और ये वयं वासना पी सांड पर बैठे ह। वासना-िवकार के
मोह म फं सा जीव तो उस बंदर क तरह नाच रहा है, जो बाजीगर के इशारे पर खुशी-खुशी डोर से बंधा नाचता
रहता है। मनु य यानी जीव तो उस कु े क तरह है, जो गंदी व सूखी ह ी चूसकर तृ और स रहता है। कबीर
कहते ह क मेरी बात लोग को कोई अजूबा लगती ह, इसीिलए ये लोग मेरी बात पर िव ास नह करते। म तो
आज भी लोग को भव बंधन से छु ड़ा सकता ,ं अगर वे िवषय-वासना से दूर होकर मेरी बात पर यक न करने
लग।
माया महा ठिगनी हम जानी।।1।।
ि गुणी फांस िलये कर डोले। बोले मधुरी बानी।।2।।
के शव के कमला वै बैठी। िशव के भवन भवानी।।3।।
प डा के मूरित वै बैठी। तीरथ ं म पानी।।4।।
योगी के योिगिन वै बैठी। राजा के घर रानी।।5।।
का के हीरा वै बैठी। का के कौड़ी कानी।।6।।
भ ा के भि िन वै बैठी। ा के ानी।।7।।
कह हं कबीर सुनो हो स तो। ई सब अकथ कहानी।।8।।

हे माया! तू महाठिगनी है, मुझे अ छी तरह से पता है। ि गुणी फं दा हाथ म िलए डोलती फरती है और मधुर
वाणी म बोल-बोलकर ाणी को फं साती-उलझाती रहती है। के शव के घर म यह कमला, िशव के घर म भवानी
बनकर बैठी ई है। पंडा के घर म मू त बनकर और तीथ थल म पानी बनकर ठगती है। योगी के घर म योिगनी
बनकर और राजा के घर रानी बनकर बैठी है। कसी के घर म हीरा बनकर बैठी है तो कसी के घर म कौड़ी
बनकर बैठी है। भ के घर म भि न बनकर बैठी है और ा के घर म ाणी बनकर बैठी है। कबीर कहते ह
क सुनो ऐ संत ! माया अवणनीय है। इसक कहानी का कोई भी अंत नह है।
मााया मोह मोिहत क हा। ताते ान रतन ह र ली हा।।1।।
जीवन ऐसो सपना जैसो। जीवन सपन समाना।।2।।
श द गु उपदेश दी ह । त छाड़ परम िनधाना।।3।।
योित देिख पतंग लसै। पशू न पेखै आिग।।4।।
काल फांस नर मु ध न चेत । कनक कािमनी लािग।।5।।
शेख सै द कतेब िनरख। सुमृित शा िवचार।।6।।
सतगु के उपदेश िबनु त। जािन के जीव मार।।7।।
कर िवचार िवकार प रह र। तरण तारण सोय।।8।।
कह हं कबीर भगव त भजु नर। दुिनया और न कोय।।9।।

माया ने सबको वयं पर मोिहत कर िलया है और सबका ान पी र चुरा िलया है। जीवन तो व जैसा है
और स गु ही ान का बोध करा सकते ह अथात् माया-मोह के बंधन से मु स गु ही करा सकते ह। योित
यानी दीपक क लौ को देखकर पतंगे हंसते ए जल जाते ह, उ ह उस आग म तिनक-सा भी अपना अिहत नह
दखता है। माया पी फं दे पर मोिहत मनु य, सब कु छ भूल गया है और धन व ी पर आस हो गया है। उसके
आगे मौत क खाई है, यह भी नह सूझ रहा है।
शेख-मौलवी आ द इ लामी कताब देखकर और पंिडत पुराण-शा बांचकर सोचते-िवचारते ह, पर
त या मक- ान के अभाव म ये जानबूझकर जीव ह या कराते ह। हे ाणी! सोच-िवचार करो और माया, मोह,
हंसा इनका प र याग कर दो। स गु तुझे तारने के िलए तैयार ह। कबीर कहते ह क हे मनु य ! भगवान का
भजन करो। इस संसार म उनके िसवा तु हारा शुभ चंतक दूसरा कोई नह है।
म रहो रे तन का लै क रहो। ाण छु टे बाहर लै ड रहो।।1।।
काया िबगुचन अनबिन भांित कोइ जारे कोइ गाड़े माटी।।2।।
िह दू ले जारे तु क ले गाड़े। यिह िबिध अंत दुन घर छाड़े।।3।।
कम फांस यम जाल पसारा। जम धीमर मछरी गिह मारा।।4।।
राम िबना नर होइह कै सा। बाट मांझ गोबरौरा जैसा।।5।।
कह हं कबीर पाछे पछतैहो। या घर से जब वा घर जैहो।।6।।

हे ाणी! इस तन का या करोगे या इस शरीर पर या घमंड कर रहे हो, इसे तो एक दन मर जाना ही है।


ाण छू टते ही यह शरीर घर से बाहर िनकाल दया जाएगा। यह माटी का शरीर णभंगुर है, कब न हो जाए
कोई नह जानता और मरने के बाद कोई जला देता है तो कोई माटी म गाड़ देता है। िह दू जलाते ह और
मुसलमान ले जाकर गाड़ देते ह। इस कार दोन ही इस मृत शरीर का प र याग कर देते ह। िजस तरह से
मछु वारा जाल फै लाकर मछिलय को फं साता है, उसी तरह से मन पी यमराज जीव को माया के जाल म
फं साकर उलझा देता है, उसे कु छ सूझता ही नह है। राम क कृ पा के िबना ाणी का जीवन वैसा ही है जैसे
गोबरै ला का जीवन है, जो रा ते म गोबर क ढेली लुढ़काते ए चलता है और कसी के पांव पड़ते ही उसका
ाणांत हो जाता है।
कबीर कहते ह क बाद म पछताओगे जब इस घर से उस घर म यानी इस योिन से दूसरी योिन म जाओगे,
फर हाथ मलने के िसवा कु छ नह तु हारे रह जाएगा। गोबरै ला क तरह राह चलते मरना नह चाहते हो तो
ह रभजन म मन लगाओ।
योिगया के नगर बसी मित कोई। जो रे बसे योिगया होई।।1।।
ये योिगया के उलटा ान। काला चोला न हं वाके यान।।2।।
गट सो कं था गु ा धारी। ताम मूल सजीवन भारी।।3।।
वो योिगया क मुि जो बूझै। राम रम तेिह ि भुवन सूझ।ै ।4।।
अमृत वेली िछन िछन पीवै। कह कबीर योगी युग युग जीवै।।5।।

हे ाणी! योग क आड़ म सांसा रक सुख क इ छा रखने वाले इन योिगय क शरण म न जाओ। इनका
ान, ान नह है। अगर तुम नह माने तो इनक तरह ही अ ानी योगी बन जाओगे। इन योिगय का ान
िब कु ल ही उ टा है। आ म- ान क जगह ये इं य-सुख क चाह रखते ह अथात् इन योिगय क सोहबत म
रहने वाले साधक का भला नह होने वाला, ान क बजाय अ ान ही िमलेगा।
कबीर कहते ह क योगी कोई अ य नह , यह जीव ही योगी है और यह शरीर गुफा या गुदड़ी है तथा उसम
मूल सजीवन यानी आ म- व प योित जल रही है। िजस योगी या साधक को आ म- व प का ान हो गया,
समझो उसे मो ा हो गया। वह सदा ि भुवन के वामी राम म ही िवचरण करता रहेगा।
कबीर कहते ह क वह सदा क आ म चंतन पी अमृत-रस का पान करता रहेगा और योगी युग-युग तक
जीिवत रहेगा यानी युग -युग तक उसका नाम इस धरती पर िज दा रहेगा।
जो पै बीज प भगवान। तो पि डत का पूछो आन।।1।।
कहां मन कहां बुिध कहां हंकार। सत रज तम गुण तीन कार।।2।।
िवष अमृत फल फले अनेका। ब धा वेद कहै तरबे का।।3।।
कह हं कबीर तै म या जान। को ध छू टल को अ झान।।4।।

हे पंिडत ! सृि का बीज-त व भगवान यानी है तो तुम सब दूसरी बात य पूछते हो? और मन, बुि ,
अिभमान कहां ह तथा सत, राज, तम ये तीन गुण कहां से आ गए, य पूछते हो? संसार पी पर म ही
िवष-अमृत यानी पाप-पु य पी फल लगते ह और संसार के दुःख से मुि पाने के ब त-से उपाय वेद-शा
बताते ह। कहने का भाव है क तरकर कहां जाना है और कससे तरना है?
कबीर कहते ह क एक संसार यानी एक ही स ा म हम सब ही रहते ह और हम सबका एक ही ई र है तो
फर कौन नाि तक और कौन आि तक। एक है, फर झगड़ा तो होना ही नह चािहए।
जस मास पशु क तस मास न क । िधर एक सारा जी।।1।।
पशु क मास भख सब कोई नर हं न भख सब कोई।।2।।
कुं लाल मेदनी भइया। उपिज िवनिश कत गइया जी।।3।।
मास मछ रया तै पै खइया। य खेतन म बोइया जी।।4।।
माटी के क र देवी देवा। का ट-का ट िजव देइया जी।।5।।
जो तोहरा है सांचा देवा। खेत चरत य न लेइया जी।।6।।
कह हं कबीर सुनो हो स तो। राम नाम िनत लेइया जी।।7।।
जो कछु का िज या के वारथ। बदला पराया देइया जी।।8।।

जैसा मांस पशु का होता है, वैसा ही मांस मनु य का भी होता है और खून म भी कोई अंतर नह है। पशु का
मांस सभी खाते ह, ले कन आदमी का मांस कोई नह खाता है। घड़ा बनाने वाले कु हार को ा क उपमा दी
जाती है, ले कन वह भी पैदा होकर मृ यु को ा कर गया। मांस-मछली ऐसे खा रहे हो जैसे खेत म इनको बोया
है। सबसे अफसोस क बात तो यह है क िम ी के देवी-देवता को जीव क बिल दे रहे हो, या तुम मनु य
होकर इतने व ू र हो गए हो? अगर तु हारा िम ी व प थर का देव इतना ही स ा और परमशि शाली है
तो फर खेत म चरते ए पशु को य नह खा लेता है।
कबीर कहते ह क हे संत ! मेरी बात यान से सुनो। तुम राम का नाम रोजाना ही िलया करो। जो कु छ भी
जीभ के वाद के िलए कया है अथात् जीव को मारकर खाया है, उसके बदले म तु ह भी द ड भुगतना होगा।
यह कटु स य है, इसम लेशमा भी संशय नह है।
चल का टे ढ़ो-टे ढ़ो-टे ढ़ो।।1।।
दश ं ार नरक भ र बूड़े। तूं ग धी को बेड़ो।।2।।
फू टै नैन दय न हं सूझ।े मित एकौ न हं जानी।।3।।
काम ोध तृ णा के माते। बूिड़ मुये िबनु पानी।।4।।
जो जारे तन भ म होय धु र। गाड़े करिमटी खाई।।5।।
सीकर ान काग का भोजन। तन क इहै बड़ाई।।6।।
चेित न देखु मु ध नर बौरे । तोिह ते काल न दूरी।।7।।
को टन यतन करो यह तन क । अ त अव था धूरी।।8।।
बालू के घरवा म बैठे। चेतन ना हं अयाना।।9।।
कह हं कबीर एक राम भजे िबनु। बूड़े ब त सयाना।।10।।

कबीर कहते ह क आड़े-ितरछे या चलते हो। दश ं ार यानी िजतनी भी इं यां ह; वे सभी नरक के ार ह
और असीिमत तृ णा से भरी पड़ी ह। आंख फू ट गई ह, दय म कु छ सूझ नह रहा है और बुि भी नह है, फर
घमंड कै सा? काम, ोध, तृ णा म लवलीन मनु य, िबना पानी के ही डू ब मरता है। िजस शरीर पर तुम इतना
इतरा रहे हो वह जला दया जाता है और वह जलकर राख व धूल हो जाता है। अगर शव को गाड़ते ह तो उसे
क ड़े-मकोड़े खा जाते ह और अगर जलाते या गाड़ते नह ह तो िसयार, कु ,े कौए आ द का भोजन हो जाता है,
इस शरीर क यही गित है, फर इस पर घमंड कै सा? हे ाणी! जरा यान से देख और सावधान हो जा। मौत तेरे
से दूर नह है। तू करोड़ उपाय इस शरीर को बचाने के िलए कर ले, अंततः इसे िम ी म ही िमलना है। तू बालू
यानी रे त के घर म बैठा है। सावधान हो जा, रे त का यह घर कभी भी िगर सकता है।
कबीर आगे कहते ह क राम के भजे िबना ब त सयाना भी भवसागर म डू ब मरता है, सयानापन कसी काम
नह आता है।
आपन पौ आपुिह िबसरयो।।1।।
जैसे ान कांच मि दर म। भरिमत भूिस मरयो।।2।।
य के ह र बपु िनरिख कू प जल। ितमा देख परयो।।3।।
वैसे ही गज फ टक िशला म। दशनन आिन अरयो।।4।।
मकट मू ठ वाद न हं िब रे । घर-घर रटत फरयो।।5।।
कह हं कबीर ललनी के सुवना। तोिह कवने पकरयो।।6।।
मनु य अपने आ म- व प को वयं ही भूल गया है, जैसे कु ा कांच के मं दर म अपना ही चेहरा देखकर
भ कता आ मर जाता है। शेर अपनी छिव कु एं के जल म देखकर कू द मरता है। हाथी भी फ टक प थर पर
अपनी ितमा देखकर िसर पटक-पटककर मर जाता है। छोटे मुंह वाले बतन म रखे चने को अपनी मु ी म लेकर
ख चते-ख चते बंदर पकड़ा गया, ले कन मु ी खोलकर नह भागा। चने के लोभ म घर-घर नाच दखाता फरा।
कबीर कहते ह क हे ाणी! तु ह कोई नह पकड़ सकता, तुम तो अ सर ही अपने लोभ के कारण पकड़े जाते हो
और युग -युग तक नरक क यातना भोगते हो, लालच को छोड़कर वयं क पहचान करो, अपने आ म व प
को धारण करो।
आपन आश क जै ब तेरा। का न मम पावल ह र के रा।।1।।
इ ी कहां करे िव ामा। सो कहां गये जो कहत होते रामा।।2।।
सो कहां गये जो होत सयाना। होय मृतक वह पदिह समाना।।3।।
रामानंद रामरस माते। कह हं कबीर हम किह किह थाके ।।4।।

कबीर कहते ह क कोई भी ह र यानी ई र का रह य नह जान सका है, यही स य है। ई र को समझना
आसान नह है। अपने आप पर भरोसा करो, वही तु हारा है। जो राम के भरोसे थे, उ ह भी शांित नह िमली।
शरीरधारी को इस धरती पर आराम नह िमलने वाला। वे कहां ह; जो वयं को ब त सयाना समझते थे? मृ यु
को ा कर वे भी न हो गए। का पिनक राम क आस म बैठे, य जीवन यूं ही गंवा रहे हो। अपने आ म- व प
अथात् वयं को पहचानो।
कबीर कहते ह क म तो कह-कहकर थक गया क सा ात प म कोई राम नह है, ले कन मेरे गु रामानंद
भी कहां माने। वह तो का पिनक राम के रस म म त रहे और उ ह मो नह िमला। कहने का भाव है क आ म-
व प ही सबसे ऊपर है और इसी क पहचान करने म मुि है।
ब दे क रले आप िनबेरा।।1।।
आपु िजयत लखु आप ठौर क । मुये कहां घर तेरा।।2।।
यह औसर न हं चेत ाणी। अ त कोई न हं तेरा।।3।।
कह हं कबीर सुनो हो स तो। क ठन काल को घेरा।।4।।

कबीर कहते ह क हे ब दे! अपनी मुि का इं तजाम तू वयं कर ले अथात् तू अपने आपको पहचान ले, मुि
के िलए वयं क पहचान करना आव यक है। िज दा रहते ही आ म- व प को देख ले और अपना ठकाना भी
िनि त कर ले, मरने के बाद तेरा घर कहां होगा, इस पर िवचार करना ज री है। इस समय तूने अपने आपको
नह पहचाना तो फर तेरा कह ठकाना नह होगा। कबीर कहते ह क हे संत ! म जो कहता ,ं उसे यान
लगाकर सुनो - काल घेरा ब त क ठन है। वह कभी भी हमला बोलकर ाण शरीर से ख चकर ले जा सकता है,
फर तेरा कोई भी संगी-साथी नह होगा।
भूला बे अहमक नादाना। िज ह हरदम राम हं ना जाना।।1।।
बरबस आिन के गाय पछारी। गरा का ट िजव आपु िलया।।2।।
जीयत जीव मुदा क र डारे । ताके कहत हलाल आ। 3।।
जािह मांसु को पाक कहत हो। ताक उ पित सुन भाई।।4।।
रजो-बीय से मांस उपानी। सो मांस नपाक तुम खाई।।5।।
अपनी देिख कहत न हं अहमक। कहत हमारे बड़न कया।।6।।
उसक खून तु हारी गदन। िज ह तुमको उपदेश दया।।7।।
याही गई सफे दी आई। दल सफे द अज ं न आ।।8।।
रोजा बांग िनमाज या क जै। जरे भीतर पै ठ मुवा।।9।।
पि डत वेद पुराण पढ़ै सब। मुसलमान कु राना।।10।।
कह हं कबीर दोउ गये नरक म। िज ह हरदम राम हं ना जाना।।11।।

अरे बेरहम ! िजसने सभी जीव को राम के प म नह जाना, वह अपना मानुष ज म यूं ही गंवा रहा है।
जबरन गाय को ले आए और उसका गला काट दया। जीिवत जीव को मार दया और ऊपर से कहते हो क
हलाल हो गया। तु ह इस कु क य पर शम नह आती? िजस के मांस को पिव कहते हो उसक उ पि के बारे म
नह जानते तो सुनो मूख - अपिव रज और वीय के मेल से मांस बना है और उस अपिव मांस को तुमने खा
िलया। अरे मूख , जो तुम जघ य अपराध करते हो, इसे अपिव और ू रता का काम य नह कहते हो। अपने
इस कु कम को ढांपने के िलए कहते हो क हमारे बड़ ने ऐसा ही कया था और यह उ ह का म है। िज ह ने
तु ह ऐसा उपदेश दया है, इसका द ड उ ह भी भुगतना पड़ेगा और एक दन तु हारी गदन पर भी चाकू चलेगा।
तु ह भी एक दन हलाल होना पड़ेगा। जवानी चली गई और बुढ़ापा आ गया, ले कन दल सफे द नह आ, पहले
क तरह ही काला और मैला है, फर रोजा रखने, बांग देन,े नमाज पढ़ने से कोई भी लाभ नह । एकांत क म
बैठकर आराधना-पूजा करने से या लाभ आ। कबीर कहते ह क पंिडत वेद, पुराण पढ़ते ह, मुसलमान कु रान
पढ़ते ह, ले कन राम के व प को नह पहचान सके ।
िह दू-मुसलमान दोन ही नरक म जाएंगे और उ ह वहां भी जगह नह िमलेगी।
भूला लोग कह घर मेरा।।1।।
जा घर म तू भूला डोले। सो घर नह तेरा।।2।।
हाथी घोड़ा बैल बाहना। सं ह कयो घनेरा।।3।।
ब ती मासे दयो खदेरा। जंगल कयो बसेरा।।4।।
गांठी बांिध खच न हं पठयो। ब र न क यो फे रा।।5।।
बीबी बाहर हरम महल म। बीच िमयां का डेरा।।5।।
नौ मन सूत अ िझ न हं सुरझे। ज म-ज म उरझेरा।।7।।
कह हं कबीर सुनो हो स तो। यह पद का कर िनबेरा।।8।।

कबीर कहते ह क जो अ ानी ह या जगत क रीित को नह जानते ह, वे ही कहते ह क यह घर मेरा है। हे


अ ानी! िजस घर म तू डोलता फरता है, वह घर तेरा नह है। हाथी, घोड़ा, बैल, वाहन आ द का तूने सं ह कर
रखा है। एक दन ऐसा भी आएगा क ाण छू ट जाएगा और िजस घर को तू अपना समझ रहा था, उस घर से सब
बाहर कर दगे और जंगल यानी मशान ही तेरा घर बन जाएगा। फर तेरा घर वाल से कोई लेना-देना नह रह
जाएगा फर तू यहां कभी न आ सके गा। सारे र ते-नाते भी तूने झूठे ही बनाए थे य क तूने ान पी प ी को
घर से बाहर िनकाल दया था और अ ान पी वे या को घर म रखा था अथात् तूने संबंध भी गलत बना रखे थे,
िजससे नौ मन सूत उलझता चला गया।
कहने का भाव है क तूने बुि से काम नह िलया। कबीर कहते ह क हे संत ! इस पद पर िवचार करो और
अपने ान-च ु को खोलो।
सुभागे के िह कारण लोभ लागे। रतन ज म खोयो।।1।।
पूवल ज म भूिम कारण। बीज काहेक बोयो।।2।।
बु द से िज ह िप ड संजोयो। अि कु ड रहाया।।3।।
जब दश मास माता के गभ। ब री लागल माया।।4।।
बार ते पुिन वृ आ। होनहार सो वा।।5।।
जब यम अइह बांिध चल ह। नैनन भ र-भ र रोया।।6।।
जीवन क जिन आशा राखो। काल धरे ह ासा।।7।।
बाजी है संसार कबीरा। िचत चेित डारो पासा।।8।।

कबीर कहते ह क हे सु दर भा य वाले मानव! तुमने कसिलए माया के लोभ म पड़कर र समान ब मू य
मानुष ज म को गंवा दया। पूवज म क तरह ही, फर वासना का बीज य बो रहा है अथात् पूव ज म म जो
गलती तूने क उसे इस ज म म भी य दोहरा रहा है? िजस एक बूंद (वीय) ने जीव को गभ म ले जाकर मनु य
शरीर क रचना क और अि कु ड यानी माता के गभ म पलकर दस महीने के बाद गभ से बाहर आया तो फर
उसी भव जाल म य उलझता चला गया।
ब े से जवान आ, फर वृ आ। माया-मोह के बंधन ने एक भी नेक काय नह करने दया। जब राम
आएगा और तुझे बांधकर ले चलेगा तब तू आंख म आंसू भर-भरकर रोएगा। इस जीवन से आशाएं मत बांधो,
पता नह कब काल सांस पकड़कर िलए चला जाए और माटी का शरीर माटी म िमल जाए। कबीर कहते ह क
जंदगी जुए का एक खेल है और सोच-समझकर पासा फको। इस खेल म तु हारी जीत तभी होगी जब सांसा रक
बंधन के ित अनास होगे। इस खेल को जीतने क यह पहली और आिखरी शत है।
स त मह तो सुिमरो सोई। जो काल फांस ते बांचा होई।।1।।
द ा ेय मम न हं जाना। िम या साधु भुलाना।।2।।
सिलल मिथ घृतकै का ढ़न। तािह समािध समाना।।3।।
गोरख पवन रािख ना हं जाना। योग युि अनुमाना।।4।।
ऋि िसि संयम ब तेरा। पार न हं जाना।।5।।
विस े िव ा स पूरण। राम ऐसे िशष-शाखा।।6।।
जािह राम को करता किहये। ितन ं को काल न राखा।।7।।
िह दू कहै हम हं लै जार । तु क कह हमारो पीर।।8।।
दोऊ आय दीन म झगर। ठाढ़े देख हंस कबीर।।9।।

हे संत-महंत ! उसका सुिमरन करो, जो काल के बंधन से मु है और अज मा, अखंड तथा अगम है। द ा ेय
ने इस मम को नह जाना और पंच म ही उलझे रह गए अथात् पानी को मथकर घी िनकालने का नाकाम
यास करते रहे तथा क पना को स य मानकर उसी म समा गए, पाया कु छ भी नह । गु गोरखनाथ भी ाण
को सुरि त रखने व खोज करने के बावजूद आ म व प क पहचान नह कर सके । इतना ही नह गोरखनाथ ने
तो योग क कई युि यां भी िनकाल , िसि पाने के िलए क ठन योग भी कया, ले कन पर के व प को
नह जान-समझ सके अथात् वह आ म- व प म िवलीन नह हो सके । विश मुिन सारी िव ा के ाता थे
और महापु ष ी राम के गु भी थे, वे भी माया से ऊपर उठकर आ म- व प पर को जान न सके । िजस
राम को दुिनया जगपालनहार कहती है, वह भी काल के ास बन गए यानी उ ह भी शरीर का यागकर इस
धरती से जाना पड़ गया।
कबीर कहते ह क िह दू कहते ह क शव को हम जलाएंगे और मुसलमान कहते ह क हमारे पीर का म है
हम इसे दफनाएंगे। ये दोन ही इस बात पर आए दन झगड़ते रहते ह और जो चतुर ह तथा आ म- व प को
जानते ह, वे तो बस चुपचाप सब देखते रहते ह।
तन ध र सुिखया का न देखा। जो देखा सो दुिखया।।1।।
उदय अ त क बात कहत ह। सबका कया िववेका।।2।।
बाटे -बाटे सब कोई दुिखया। या िगरही बैरागी।।3।।
शु ाचाय दुख ही के कारण। गभिह माया यागी।।4।।
योगी-जंगम ते अित दुिखया। तापस के दुख दूना।।5।।
आशा-तृ णा सब घट ापी। कोई महल न हं सूना।।6।।
सांच कह । तो सब जग खीजै। झूठ कहा ना जाई।।7।।
कह हं कबीर तेई भौ दुिखया। िज ह यह राह चलाई।।8।।

िजसने शरीर धारण कया है, वह सुखी नह है अथात् इस संसार म कोई भी मनु य सुखी नह है। िजसे देखा,
उसे दुःखी ही देखा। म संसार के सभी ािणय क बात करता ं और मने पूरे िववेक के साथ सबको देख िलया है।
जगह-जगह लोग दुःखी ह, गृह थ ह या बैरागी सब दुःखी ह। महागु शु ाचाय संसार के दुःख को देखकर गभ
से बाहर आते ही सांसा रकता से िब कु ल ही िवर हो गए। योगी और सं यासी तो और भी यादा दुःखी ह और
जो तप वी ह उनका दुःख दोगुना है। सब के दय म आशा-तृ णा का वास है। कोई भी घर या कोई भी ि
इससे वंिचत नह है। म स य बोलता ं तो सारा संसार खीझ जाता है और मुझसे झूठ बोला नह जाता।
कबीर कहते ह क वे लोग भी दुःखी ह, िज ह ने पर को आ मा से हटकर माना और लोग को िमत कर
परमा मा से दूर रखा।
ता मन को ची हो मोरे भाई। तन छू टे मन कहां समाई।।1।।
सनक सन दन जैदेव नामा। भि सही मन उन ं न माना।।2।।
अ बरीष हलाद सुदामा। भि हेतु मन उन ं न जाना।।3।।
भरथ र गोरख गोपी च दा। ता मन िमिल-िमिल कयो अन दा।।4।।
जा मन को कोई जान न भेवा। ता मन मगन भये शुकदेवा।।5।।
िशव सनका दक नारद शेषा। तनके भीतर मन उन ं न पेखा।।6।।
एकल िनरं जन सकल शरीरा। तामहं िम- िम रहल कबीरा।।7।।

हे मेरे भाई! उस मन को पहचानो, जो तु हारा र ता संसार से जोड़ता है। जरा सोचो, तन के छू टने के बाद
अथात् मौत के बाद मन कहां जाकर िवलीन होगा। सनक, सनंदन, जयदेव, अंबरीष, लाद, सुदामा आ द भ
ने भि तो क , पर वे भी भि के मम को जान नह सके । भृतह र, गोरखनाथ, गोपीच द जैसे साधक ने
सांसा रक माया म डू बकर मन क सहायता से आनंद िलया, ले कन मन शरीर के छू टने के बाद कहां जाएगा,
इसके बारे म नह सोचा।
िजस मन को कोई भी जान न सका, उसी मन म शुकदेव भी म हो गए। िशव, सनका दक, नारद, शेष आ द
भी आ म- व प मन को पहचान न सके । कबीर कहते ह क एक मन ही येक शरीर धारी के भीतर िव मान है
और सभी जीव बस उसी के इद-िगद घूम रहे ह, ले कन उसके भेद को जान नह पा रहे ह।
कहने का भाव है क मन ही ई र है और मन से बड़ा कोई नह है। अपने भीतर बैठे ए आ म- व प मन को
पहचानो।
बाबू ऐसो है संसार ितहारो। इहै किल यौहारो।।1।।
को अब अनुख सहत ित दन को। नािहन रहिन हमारो।।2।।
सुमृित सोहाय सबै कोइ जानै। दया त व न बूझ।ै ।3।।
िन जव आगे स जव थोपे। लोचन कछउ न सूझ।ै ।4।।
तिज अमृत िवष काहेक अंचवै। गांठी बांिधन खोटा।।5।।
चोरन दी ह पाट संहासन। सा न से भौ ओटा।।6।।
कह हं कबीर झूठे िमिल झूठा। ठग ही ठग यौहारा।।7।।
तीिन लोक भरपू र रहा है। नाह है पितयारा।।8।।
हे बाबू! तु हारा संसार ब त ही यारा है। यहां तो के वल अनाचार का ही सा ा य है। अब कौन यहां रहकर
ित दन क रं िजश-झगड़ा बरदा त करे । यह जगत मेरे रहने लायक नह है। शा -पुराण क अनीितपूण बात
सबको अ छी लगती ह, ले कन मन क बात को कोई नह समझता। िनज व यानी प थर के देवी-देवता के
आगे सजीव यानी पशु-पि य क ह या यहां सब करते ह। सब यहां अपनी गांठ म स य को छोड़कर अस य को
बांध रहे ह यानी अमृत को छोड़कर िवषपान कर रहे ह। चोर को संहासन िमला आ है और साधु-संत से लोग
आंख बचाकर चल रहे ह। कबीर कहते ह क झूठे लोग से झूठे लोग का और ठग का ठग से मेलजोल है। तीन
लोक म ढू ंढने पर भी स यवादी लोग नह दखते ह।
कहने का भाव है क यह संसार झूठे लोग का डेरा बन गया है। यहां उनका ही सा ा य है।
कहो हो िनरं जन कौने बानी।।1।।
हाथ पांव मुख वण िज या न हं। का किह जप हो ानी।।2।।
योितिह योित- योित जो किहये। योित कौन सिहदानी।।3।।
योितिह योित योित दै मारै । तब क योित कहां समानी।।4।।
चार वेद ा जो किहया। उन ं न या गित जानी।।5।।
कह हं कबीर सुनो हो स तो। बूझो पि डत ानी।।6।।

िनराकार कै सा है? कोई कहता है उसके हाथ, पांव, मुख, कान, जीभ कु छ भी नह है। तुम फर या
कहकर उसका नाम लेते हो? अगर तुम कहोगे क वह योित के प म है और चांद, िसतारे , सूय सब िनराकार
के कारण ही चमक रहे ह तो ये तो सबको नजर आते ह, पर तु हारा वह कौन-सा है? य द योित व प
वह है तो वह कौन-सी योित के प म है, या तु ह उसक पहचान है? जब तुम कहते हो क सभी योितयां या
ांड का सब कु छ लय के व म िवलीन हो जाता है तो फर ये िमट जाने वाली योितयां तु हारी
मनगढंत - योित म कै से िवलीन ह गी अथात् सब ढ ग- पंच है।
कबीर कहते ह क ा जी ने चार वेद क रचना क , जब वह को जान न सके तो फर कसी को या
कह। हे संत , तुम को समझने का यास करो। मनगढ़ंत झूठे के फे र म यह मानुष ज म यूं ही न गंवाओ।
काको रोव गैल ब तेरा। ब तक मुवल फरल न हं फे रा।।1।।
जब हम रोया तब तुम न स हारा। गभवास क बात िबचारा।।2।।
अब त रोया या त पाया।। के िह कारण अब मो हं रोवाया।।3।।
कह हं कबीर सुनो स तो भाई। काल के बसी परो मित कोई।।4।।

कस- कस के िलए रोएं, ब त-से लोग मेरे सामने ही मर गए और सदा के िलए इस संसार से चले गए। ब त-
से मरे और वे दोबारा वापस नह आए।
हे ाणी! जब मने तुझे ब त समझाया, तब माया के वशीभूत होकर तूने मेरी बात नह सुनी और ऐसा कम
कया क तुम पुनः गभ म आ गए। तु हारा बुढ़ापा आ गया, शरीर दुबल और ण हो गया तब तू थ म ही
बैठकर रो रहा है, रो-धोकर अब मुझे य ला रहा है, अब कोई फायदा नह होने वाला। कबीर कहते ह क सुनो
हे संत ! काल के च र म कोई भी न पड़ो। यहां जो है, उसे न होना ही है।
अब कहां चलेउ अके ले मीता। उठ न कर घर क िच ता।।1।।
खीर खांड घृत िप ड संवारा। सो तन लै बाहर कै डारा।।2।।
जो िशर रिच-रिच बांध पागा। सो िशर रतन िबडारत कागा।।3।।
हाड़ जरे जस जंगल लकड़ी। के श जरै जस घास क पूली।।4।।
आवत संग न जात संगाती। काह भये दल बांधल हाथी।।5।।
माया के रस लेइ न पाया। अ तर यम िबला र होइ धाया।।6।।
कह हं कबीर नर अज न जागा। यम का मुगदर मांझ िशरलागा।।7।।

हे दंभी मनु य! अब अके ले-अके ले कहां चल दया? उठ, घर क िच ता कर। खीर, खांड, घी आ द खाकर िजस
शरीर को संवारा था, उस शरीर को घरवाल ने बाहर ले जाकर डाल दया है, िजस िसर पर बड़े गुमान से तू
पगड़ी बांधा करता था, उस र समान िसर को कौवे च च मार-मारकर खा रहे ह और तेरे शरीर क हि यां यूं
जल रही ह, जैसे जंगल क लकिड़यां जलती ह और िसर के बाल ऐसे जल रहे ह जैसे घास क पूली जलती है। न
तो आते समय कु छ लेकर आया था और न जाते समय कु छ लेकर जा रहा है। कोई संगी-साथी भी तेरे साथ नह
जा रहे। हाथी, घोड़ा, फौज आ द सब इक ा कया था, उसका कोई तु ह लाभ आ? तू तो माया यानी अपनी
इ छा को ठीक से पूरा भी नह कर पाया, तभी तुझे यम पी िब ली ने दौड़कर झपट िलया। तू य नह
समझा क तुम काल के सामने तू एक चूहे के बराबर ही है।
कबीर कहते ह क इतना सब कु छ देखने के बाद भी मनु य नह जागता यानी नह संभलता, तब तक यम का
मुगदर उसके िसर पर आकर लग जाता है।
कहने का भाव है क मनु य सब कु छ देखता है, ले कन आंख बंदकर लेता है और इस म म जीता है क मौत
उसक अभी नह होने वाली, ले कन उसे कल के बारे म या पता, मौत तो दबे पांव आती है और ढोल बजाकर
ाण िलए चली जाती है।
हो दारी के लै देऊं तोिह गारी। त समुिझ सुप थ िबचारी।।1।।
घर क नाह जो अपना। ितन ं से भट न सपना।।2।।
ा ण- ी बानी। ितन ं कहल न हं मानी।।3।।
योगी-जंगम जेते। आपु गहे ह तेते।।4।।
कह हं कबीर एक योगी। वो तो भरिम-भरिम भौ भोगी।।5।।

जो भी लोग माया के वशीभूत ह; म उ ह गाली देता ।ं तुम सब समझो और सुप थ यानी ान का रा ता


अपना लो। जो तु हारे शरीर पी घर का वामी है, उससे सपने म भी तुम कभी नह िमले अथात् अपने आ म-
व प को कभी नह पहचान सके । आ म- चंतन भी कभी नह कया। ा ण, ि य, बिनया सब अपने शरीर
के अिभमान म अंधे होकर आ म- व प से दूर ह। उ ह ने स य-माग को नह अपनाया। योगी-हठयोगी भी अपने-
अपने मत के साथ जी रहे ह। उ ह भी आ म- व प का ान नह है।
कबीर कहते ह क योगी भी भटककर सांसा रक भोग को भोगने लगे ह। दय म ही आ म- व प परमा मा
का वास है, कोई भी इस स य को नह समझ रहा।
लोगा तुमह मित के भोरा।।1।।
य पानी-पानी िमिल गयऊ। य धु र िमला कबीरा।।2।।
जो मैिथल को सांचा यास। तोहर मरण होय मगहर पास।।3।।
मगहर मरै , मरै न हं पावै। अ तै मरे तो राम लजावै।।4।।
मगहर मरै सो गदहा होय। भल परतीत राम सो खोय।।5।।
या काशी या मगहर ऊसर। जो पै दय राम बसै मोरा।।6।।
जो काशी तन तजै कबीरा।। तो रामिह क कौन िनहोरा।।7।।

कबीर कहते ह क हे मानव! तुम मन के ब त ही भोले हो, जैसे पानी म पानी िमल जाता है वैसे ही धूल-म-
धूल िमल जाती है। जो तुम िमिथला के स े ास हो अथात् स े ा ण हो तो तु ह मगहर म ही मरना चािहए।
मगहर म मरने वाला ई र को ा नह करता और इस अंधिव ास के कारण कोई इधर-उधर भटकता है और
मगहर से कह दूर जाकर मरता है तो वह अपने आ म- व प राम को श मदा ही करता है अथात् उसे वयं के
कम पर भरोसा नह , तभी वह ऐसा सोचता है या उसे अपने राम पर िव ास नह क वह मुि दला पाएंगे।
लोग कहते ह क मगहर म जो मरता है, वह गधा होता है, इसका मतलब उ ह ने राम-भि पर से भरोसा खो
दया है।
कबीर कहते ह क म इन बात म यक न नह करता। मुझे तो अपने राम पर भरोसा है। जब मेरे दय म राम
का बसेरा है तब या पिव काशी और या बंजर मगहर, दोन एकसमान ह। अगर मुझे मुि के िलए काशी म
शरीर का याग करना पड़े तो आ म- व प राम का िनहोरा करने का या लाभ अथात् मनु य आ म ानी है,
उसका आ मा, राम से सा ा कार हो गया है तो वह कह भी मरे कोई फक नह पड़ता।
कै से तरो नाथ कै से तरो, अब ब कु टल भरो।
कै सी तेरी सेवा पूजा कै से तेरो यान
ऊपर उजल देखो बगु अनुमान।
भाव तो भुजंग देखो अित िबिबचारी।
सुरित सचान तेरी मित तो मंजारी।
अित रे िवरोधी देखो अित रे सयाना
छौ दशन देखो भेष लपटाना
कह हं कबीर सुनो नर ब दा।
डाइिन िड भ सकल जग ख दा।।

महंत , मठाधीश , िव ान , संत , योिगय - िजतने भी तुम सब वयं को धम के ठे केदार मानते हो, तु हारा
उ ार कै से होगा? तुम सबके अंदर ब त ही कु टलता भरी है। तुम सबक कै सी सेवा पूजा है और कै सा यान योग
है, बाहर से देखने म तो स य के पुजारी लगते हो और अंदर बगुले क तरह घात लगाकर बैठे हो क कब मौका
िमले और कसी क जेब कतर ल। तुम सबका भाव सांप के िवष के समान ही िवषैला है और िववेकहीन होकर
गलत रा ते पर चल रहे हो। सोच, बाज प ी क तरह खतरनाक है और चाल िब ली क तरह खूंखार है। अित
िवरोधी को भी देखा और अित सयाने को भी देखा। छः दशन को मानने वाल को देखा अथात् कहने को तो ये सब
संत, वामी, महंत ह, पर एक-दूसरे के िवचार को वयं ही काटते ह। सयाने बनते ह और आ माराम से दूर ह।
कबीर कहते ह क सुनो हे बंद ! इस डायन पी माया और दंभ ने सारे संसार को स िलया है। महंत ह , संत
ह या वामी सब म ही वैचा रक िवरोधाभास है।
सब आ म व प परमा मा से दूर ह।
ये म भूत सकल जग खाया। िजन-िजन पूजा ते जहंड़ाया।।1।।
अ ड न िप ड न ाण न देही। को ट को ट िजव कौतुक देही।।2।।
बकरी-मुरगी क हेउ छे वा। आगल ज म उ ह औसर लेवा।।3।।
कह हं कबीर सुनो नर लोई। भुतवा के पुजले भुतवा होई।।4।।

भूत- ेत मानव-मन का म है, पूरा संसार इसी भूत- ेत के म म उलझा आ है। िजन-िजन लोग ने भूत- ेत
को पूजा है, उ ह ने वयं को छला है। भूत- ेत का न तो शरीर है और न ही अ ड यानी अि त व ही है और न ही
ाण है। यह िसफ मन का म है। करोड़ मनु य इस म म अ ानवश अपना समय थ गंवा रहे ह। का पिनक
देवी-देवता, भैरव, भूत, ेता द को स करने के िलए बकरी-मुग तथा दूसरे जीव क बिल देना मूखता ही
नह , पाप भी है। दूसरे ज म म इस मूखता पूण वहार का द ड अव य ही भुगतना पड़ेगा।
कबीर कहते ह क सभी यान लगाकर सुनो! भूत- ेता द क पूजा करने या उनके नाम पर जीव क बिल देने
से तुम सब भूत- म म पड़कर िमत अव य ही हो जाओगे और यह मनु य ज म थ म ही गंवा दोगे।
भंवर उड़े बग बैठे आई। रै न गई दवसो चिल जाई।।1।।
हल-हल कांपे बाला जीव। ना जान का क रह पीव।।2।।
कांचे बासन टके न पानी। उिड़ गये हंस काया कु ि हलानी।।3।।
काग उड़ावत भुजा िपरानी। कह हं कबीर यह कथा िसरानी।।4।।

काले भंवरे उड़ गए और सफे द बगुले आ गए अथात् जवानी चली गई और बुढ़ापा आ गया। रात ढल गई और
दन आ गया अथात् उ ढल गई और रोज-के -रोज ढलती ही जा रही है। मनु य अपने कम को याद कर थर-थर
कांप रहा है क उ ह भोगना पड़ेगा। पता नह ‘का क रह पीव’ अथात् परमा मा या सजा दगे।
क ी िम ी के पा म पानी नह ठहरता है। यह शरीर भी तो क ी िम ी का ही बना है। ाण पखे शरीर से
िनकल गए और शरीर िनज व, िन तेज पड़ा रह गया।
कबीर कहते ह क इं सान पूरी उ कौआ उड़ाता ही रह जाता है अथात् भोग-िवलास क इ छा म भागता
रहता है और यही करते-करते बूढ़ा हो जाता है, फर एक दन उसके शरीर से ाण िनकल जाते ह। यह कोई नई
बात नह है, यह कथा तो ब त पुरानी है।
कहने का भाव है क िवषय-वासना के सुख म मनु य आ म- व प को पहचान ही नह पाता है और मृ यु
आकर द तक दे देती है।
खसम िबनु तेली को बैल भयौ ।।1।।
बैठत ना हं साधु क संगत। नाधे ज म गयो।।2।।
बिह-बिह मर पच िनज वारथ। यम को द ड स ो।।3।।
धन दारा सुत राज काज िहत। माथे भार ग ो।।4।।
खसमिह छांिड़ िवषय रं ग राते। पाप के बीज बयो।।5।।
झूठी मुि नर आश जीवन क । उ ह ेत को जूंठ खयो।।6।।
लख चौरासी जीव ज तु म। सायर जात ब ो।।7।।
कह हं कबीर सुनो हो स तो। उन ान को पूंछ ग ो।।8।।

मनु य भी जाने कै सा ाणी है। दमाग है, पर उस दमाग क सुनता नह है। तेली के बैल क तरह को म
जुता हर पल चलता ही रहता है। ऐसा वह इसिलए करता है य क अपने आ म- व प का बोध उसे नह
है। संत-साधु के स संग म भी नह उठता-बैठता है, थ म ही इस ज म को गंवा देता है। अपने ि गत वाथ
के कारण कठोर प र म करने के बाद भी मृ यु को ा करता है, ऊपर से यम का द ड भी सहता है। धन, प ी,
पु और व था के भले के िलए िसर पर बोझ ढोता रहता है। अपने आ म- व प भु को छोड़ िवषय-वासना
के आनंद म खोया रहता है और खुद के िलए पाप के बीज बोता है। मुि क झूठी आशा म ेत यानी अभ य जीव
का जूठन भी खा जाता है। यही कारण है क चौरासी लाख योिन पी सागर म जीव डू बते-उतराते ए बहे जा
रहे ह।
कबीर कहते ह क सुनो हे संतो! लोग कु े क दुम थामकर भव सागर से पार उतरना चाहते ह, भला ऐसा
आ है जो होगा।
लोग बोले दू र गये कबीर। ये मित कोई कोइ-कोइ जानेगा धीर।।1।।
दशरथ सुत ित ं लोकिह जाना। राम नाम का मम है आना।।2।।
जेिह िजव जािन परा जस लेखा। रजु का कहै उरग सम पेखा।।3।।
य िप फल उ म गुण जाना। ह र छोिड़ मन मुि उनमाना।।4।।
ह र अधार जस मीनिह नीरा।। औ जतन कछु ं कह कबीरा।।5।।
लोग बोलते ह क कबीर दूर चले गए, ले कन इसका भेद कसी- कसी को ही मालूम होगा, दूर का मतलब
सांसा रक माया से वापस आकर आ म- व प म घुल-िमल जाना है। दशरथ पु राम को तो संसार के लोग जगत
का पालनकता और ई र मानते ह। उसक पूजा भी करते ह, ले कन जो पूजनीय है, वह तो आ म व प चैत य
ई र ही है। जो ाणी जैसा जानेगा, वैसा ही तो देखेगा। लोग तो र सी को सांप के प म मान लेते ह। इसम शक
नह क दशरथ पु राम अ छे गुण वाले थे, ले कन या यह सोचकर अपने आ म- व प चैत य भु को
छोड़कर का पिनक राम म मन लगाने से मुि िमलना संभव है?
कबीर कहते ह क मो पाना ही है तो पानी और मछली क तरह लगातार आ म- व प अगम, अगोचर और
अज मे भु को मन म बसाना आव यक है।
आपन कम न मेटो जाई।।1।।
कम का िलखा िमट ध कै से। जो युग को ट िसराई।।2।।
गु विश िमिल लगन सुधायो। सूय म एक दी हा।।3।।
जो सीता रघुनाथ िबवाही। पल एक संच न क हा।।4।।
तीन लोक के कता किहये। बािल बधो ब रयाई।।5।।
एक समय ऐसी बिन आई। उन ं औसर पाई।।6।।
नारद मुिन को बदन िछपायो। क ह किप को व पा।।7।।
िशशुपाल क भुजा उपारी। आपु भये ह र ठू ठा।।8।।
पावती को बांझ न किहये। ई र न किहये िभखारी।।9।।
कह हं कबीर कता क बात। कम क बात िननारी।।10।।

हे ाणी! अपना कया आ िमटता नह है, कम का फल भोगना ही पड़ता है। कम-फल को भला कौन िमटा
सकता है। कम का िलखा िबना भोगे कै से िमटेगा, भोगना तु ह ही है। गु विश जैसे मह ष ने राम-सीता के
िववाह क ल बनाई थी। विश ने राम को एक सूय मं भी दया था। जब सीता का िववाह राम से आ तब
एक पल भी दोन आराम से नह रहे। राम को लोग तीन लोक का वामी कहते थे। तीन लोक के उस वामी
राम ने बाली को पेड़ क ओट से धोखे से मारा। एक समय ऐसा भी आया क ी कृ णावतार म बहेिलए ने धोखे
से उनको मार दया।
ी-मोह से नारदमुिन को बाहर लाने के िलए वानर का प दे दया और नारद के ाप के कारण रामावतार
म ी-मोह के कारण जंगल-जंगल भटकते फरे । बंदर का प देकर नारद मुिन का मजाक बनाया था और एक
दन बंदर क मदद से ही उ ह ने लंका पर िवजय हािसल क थी।
कहने का भाव है िजस राम या कृ ण को तुम सब अवतारी मानते हो, या सही अथ म अवतारी थे?
ीकृ ण ने िशशुपाल क भुजा उखाड़ दी तो उ ह भी इसक सजा िमली और उनक भुजा भी ठूं ठ यानी बेकार
हो गयी। पावती भी तो बांझ ही थ , य क उ ह ने का तके य और गणेश को वयं नह जना था। िशव को ई र
कै से कहा जाए, वह तो िभखारी थे, भीख मांगकर खाते थे।
कबीर कहते ह क कता क और कम क बात यारी ह।
कहने का भाव है क कता हो या अवतारी पु ष हो कम-फल सबको ही भोगना पड़ता है। देवता, दानव,
क र, य , मानव, सबको ही कमफल चखना पड़ता है। िबना कम फल भोगे जीव को मुि िमल ही नह सकती,
इसीिलए तो कबीर बार-बार समझाते ह क कम धान है। मनु य का िनमाण उसके कम से ही होता है और
मो भी िमलता है। अपने कम को मांज कर प र कृ त करो।
है कोई गु ानी। जगत उल ट बेद बूझै।।1।।
पानी म पावक बरै । अ धिह आंिख न सूझ।ै ।2।।
गाई तो नाहर खायो। ह रन खायो चीता।।3।।
काग लंगर फां द के । बटे र बाज जीता।।4।।
मूस तो मंज र खायो। यार खायो ाना।।5।।
आ द को उपदेश जाने। तासु बेस बाना।।6।।
एकिह दादुर खायो पांचिह भुवंगा।।7।।
कह हं कबीर पुका र के । ह दोऊ एकै संगा।।8।।

ऐसा कोई गुणी या ानी है, जो संसार से जाने के बाद वेद, ान और आ म व प को समझ सके । जो ज म से
ही अंधा है उसे या सूझेगा, पानी म अि ही य न जले। यह तो संसार ही उलटा है। सब काय और सब घटनाएं
उ टी-सीधी ही हो रही ह - गाय ने संह को खा िलया, िहरण ने चीता को खा िलया, कौए ने फांद कर लंगूर को
धर दबोचा, बटेर ने बाज को हरा दया। इतना ही नह चूहे ने िब ली को खा िलया, िसयार ने कु े को खा िलया।
यहां तो अंधेर नगरी है और चौपट राजा है।
कहने का भाव है क ान को अ ान ने, स य को अस य ने, खुशी को गम ने, शांित को अशांित ने, िववेक को
वासना ने मार दया है। यहां सांस लेने लायक वातावरण भी नह बचा है। जो अपने आ द व प यानी मुि को
जानता है और उसके िलए य शील है, उसी पर वेशभूषा अ छी लगती है। कौआ लंगूर को पकड़ ले या िहरण
चीते को खा ले, यह कृ ित के िनयम के िव है। एक मेढ़क ने पांच सप खा िलए।
कबीर कहते ह क जीव हो या पशु हो या मनु य सब म ही आसुरी और दैवीय दोन ही वृि यां एक साथ
होती ह। कब कौन वृि जाग जाए और जीव आ यजनक काय कर बैठे कु छ कहा नह जा सकता। वैसे भी यह
मृ यु लोक है, यहां कु छ भी घट सकता है।
झगरा एक बढ़ो राजराम। जो िन वारे सो िनबान।।1।।
बड़ा क जहां से आया। बेद बड़ा क िज ह उपजाया।।2।।
ई मन बड़ा क जेिह मन माना। राम बड़ा क रामिह जाना।।3।।
िम- िम किबरा फर उदास। तीथ बड़ा क तीथ का दास।।4।।

कबीर कहते ह क एक ब त उलझा आ झगड़ा शु हो गया है और इसका सही-सही समाधान कोई मनु य
िनकाल देगा तो वह आ म- ानी माना जाएगा। बड़ा है क मनु य, िजसके मन से यह िवचार उ प आ।
वेद बड़े ह या वेद को िलखने वाला? यह मन बड़ा है या िजसने मन को माना वह मनु य। राम बड़ा है या वह
मनु य िजसने राम को जाना। कबीर कहते ह क तीथ बड़े ह या तीथ थान पर मुि के िलए जाने वाला मनु य?
तीथ , भगवान, मन, वेद यानी जो कु छ भी आज काश म ह, सब मनु य क ही का पिनक मा यताएं ह।
इसिलए मनु य ही सबसे बड़ा है। उसने ही तो इतने पंच रचे ह। कसे मालूम या सही है या गलत या कस
चीज का अि त व है और कस चीज का अि त व नह है। इस मृ यु लोक म मनु य बड़ा है, फर बंधन म जकड़े
आ म- व प को य नह पहचान पा रहा?
झूठेिह जिन पितयाउ हो। सुनु स त सुजाना।1।।
तेरे घर ही म ठग पूर है। मित खोव अपाना।।2।।
झूठी क म डाना है। धरती असमाना।।3।।
दश ं दशा वाक फ द है। जीव घेरे आना।।4।।
योग जप तप संयमा। तीरथ त दाना।।5।।
नौधा बेद कतेब ह। झूठे का बाना।।6।।
का के बचन हं फु रे । का करामाती।।7।।
मान बड़ाई ले रहे। िह दू तु क जाती।।8।।
बात योत असमान क । मु ित िनयरानी।।9।।
ब त खुदी दल राखते। बूड़े िबनु पानी।।10।।
कह हं कबीर कास कह । सकलो जग अ धा।।11।।
सांचे से भागा फरे । झूठे का ब दा।।12।।

हे ाणी! झूठी बात पर भूलकर भी यक न न करो। ानवान सभी संत को झूठ-सच म अ तर करना आना
चािहए। तेरे दय म ही ठग बैठा आ है। उसके बहकावे म आकर अपना मन मत खो। पृ वी से आकाश तक झूठ
का ही माया जाल िबछा आ है। इस झूठ के माया जाल ने दस दशा से जीव को घेर रखा है। योग, जप, तप,
संयम, तीथ, त, दान, नवधा भि , वेद, कु रान - ये सब झूठ के ताना-बाना ह। इन पर झूठ का गहरा आवरण
चढ़ा आ है। कोई वाणी और वचन म िस ह त होने का नाटक कर लोग को छल रहा है और कोई नट बना
आ है जो करतब दखाकर वयं को चम कारी मान रहा है। िह दू-मुसलमान दोन ही अपनी तारीफ खुद ही कर
रहे ह। आसमान क बात करते ह, ले कन वयं का जीवन नरक बना आ है।
कबीर कहते ह क झूठी शंसा तथा झूठे अिभमान के कारण ये लोग िबना पानी के ही डू बते जा रहे ह। इ ह
चाहकर भी कोई बचा नह सकता। यह सारी दुिनया धमाधत क भेड़चाल म शािमल हो गई है। कह भी कोई
आंख वाला नह रह गया है। स य से सब भाग रहे ह और झूठ से नाता जोड़े ए ह।
सार श द से बांिचहो। मन इतबारा हो।।1।।
आ द पु ष एक वृ है। िनरं जन डारा हो।।2।।
ितरदेवा शाखा भये। प संसारा हो।।3।।
ा वेद सही कयो। िशव योग पसारा हो।।4।।
िव णु माया उ पि कयो। ई उरले ौहारा हो।।5।।
तीन लोक दश ं दशा। यम रो कन ारा हो।।6।।
क र भये सब जीयरा। िलये िवष का चारा हो।।7।।
योित व पी हा कमा। िज ह अमल पसारा हो।।8।।
कम क ब शी लाय के । पकरो जग सारा हो।।9।।
अमल िमटावो तासु का। पठव भव पारा हो।।10।।
कह हं कबीर तोिह िनभय कर । परखो टकसारा हो।।11।।

हे ाणी! तुम इस बात क गांठ बांध लो, तुम ‘सार श द’ को हण करके ही भवसागर क यातना से बच
सकते हो अथात् तुम स य- ान से ही भव बंधन से मु हो सकते हो। मेरी इस बात पर एतबार करो। यह आ द
पु ष यानी अिवनाशी आ म- व प एक वृ और उसक शाखा यह मन है। सत, रज, तम ये तीन गुण उस वृ
क डािलयां ह और इस वृ के प े यह संसार है।
ा ने वेद क रचना क , िशव ने योग माग क थापना क और िव णु ने सगुण भि का माग दखाया
यानी सगुण भि पी माया म मनु य को फांस िलया, िजससे इन तीन ही माग का दन- ित दन फै लाव होता
ही चला गया। तीन लोक और दस दशा म मन पी काल ने अपनी झूठी माया के पंख फै लाकर मुि के माग
को ही बंद कर दया है। ाणी अब अपने क याण के बारे म सोचे तो आिखर कै से सोचे?
जैसे तोता लाल िमच को देखकर जाल म फं स जाता है, वैसे ही झूठी माया के मोह म आकर सब ाणी स य के
माग से भटक गए ह। जो जीव पर अपना म चलाने वाला मन है, उसने जीव को पूरी तरह से अपने वश म कर
िलया है। वह जीव को स य के माग पर चलने ही नह दे रहा है। मन पी अिधकारी ने जीव को माया जाल म
उलझाकर रख दया है। कम फं दे क बांसुरी क तान सुनाकर सारे संसार को ही मु ध कर दया है। सभी अपने
आ म- व प से अनिभ हो गए ह।
कबीर कहते ह क मन के इस अिधकार भाव को िमटा दो अथात् मन का कहना न मानो, तभी तुम भवबंधन से
मु होकर मो ा कर सकते हो।
तुम आ म व प चेतन क पहचान करना सीखो। म तु हारी मुि क िज मेदारी लेता ।ं म तु ह भव बंधन
के भय से िनभय कर सकता ।ं इतना ही नह भवसागर के उस पार तु ह िभजवा भी सकता ।ं
स तो ऐसी भूल जग माह । जाते जीव िम या म जाह ।।1।।
पिहले भूले अखि डत। झांई आपुिह मानी।।2।।
झांई म भूलत इ छा क ह । इ छा ते अिभमानी।।3।।
अिभमानी कता होय बैठे। नाना थ चलाया।।4।।
वोही भूल म सब जग भूला। भूल का मम न पाया।।5।।
लख चौरासी भूल ते किहये। भूल ते जब िबटमाया।।6।।
जो है सनातन सोई भूला। अब सो भूलिह खाया।।7।।
भूल िमटै गु िमल पारखी। पारख दे हं लखाई।।8।।
कह हं कबीर भूल क औषध। पारख सबक भाई।।9।।

संसार म भूल-ही-भूल है, िजसम आते ही ाणी अस य यानी झूठ के च र म पड़ जाता है। पहली भूल तो जीव
यही करता है क वयं को अिवनाशी मानने लगता है क संसार उससे ही चल रहा है। दूसरी भूल यह है क
वह इस संसार म नाना कार क इ छाएं करने लगता है और इ छा से ही जीव अिभमानी बन जाता है और जब
जीव अिभमानी हो जाता है तो वयं को ही जग का कता-धरता मान बैठता है और इसी सोच का यह प रणाम है
क आज अनेक ंथ संसार म िव मान ह। िजसने जैसा समझा वैसा िलख दया और वही ंथ बन गया।
अ ािनय को या पता क यह ंथ नह बि क छल- पंच है। भूल म ही सब जग भूलता चला गया, ले कन भूल
का भेद कोई नह पा सका। भूल के कारण ही जीव चौरासी लाख योिनय म यातना सहते ए भटक रहा है और
भूल से वह माया के जाल म फं सकर धोखे पर धोखा खाए जा रहा है।
कबीर कहते ह क जो जीव सनातन है, वह वयं को भूल गया है और चौरासी लाख योिनय म मण करता
आ अपार क झेल रहा है। यह भूल तो तभी िमट सकती है, जब कोई पारखी स गु िमल जाए ता क वह जीव
को दखा दे क तु हारा माग यह है। थ म ही भूल पर भूल कर यातनामय जीवन जी रहे हो। कबीर कहते ह क
वयं क पहचान ही भूल को दूर करने क सव म दवा है।
ान च तीसा
कार आ द जो जानै। िलख कै मेटै तािह सो मानै।
कार कह सब कोई। िज ह यह लखा सो िबरला होई।
कका कै वल कण म पावै। शिश ि गिसत स पुट न हं आवै।
तहां कु सुम रं ग जो पावै। औगह गिह के गगन रहावैै।।1।।

कार का मू य आदमी ही है। वह कार िलखकर िमटा सकता है। ऊँ-ऊँ का उ ारण तो सभी करते ह, पर ऊँ
का अथ कोई-कोई ही जानता है। तु ह आ म- व प क जानकारी िसफ कमल पी दय के स य- ान क
रोशनी से ही िमलेगी। मन को माया के बंधन म न बंधने दो। जब आ म- व प का बोध हो जाए तब अिवनाशी
त व को आ मसात कर लो और मन, वाणी, कम से ि थर रहो यानी आ म- व प चेतन पर िव ास करो।
खखा चाहै खो र मनावै। खसम हं छां ड़ं द ं दिश धावै।
खसमिह छािड़ िछमा हो रिहये। होय न खीन अ यपद लिहये।।2।।
गगा गु के बचन हं सान। दूसर श द करो न हं कान।
तहां िबहंगस कब ं न जाई। औगह गिह के गगन रहाई।।3।।

‘ख’ अ र को मा यम बनाकर कबीर कहते ह क मन व इं य को अपने वश म कर, उ ह िनद ष करके ही


मुि का उपाय कर सकते हो। मनोकामना पी ी अपने पित यानी मूल व प को भूलकर चार तरफ
भटकती ही रहती है। तुम म जो अवगुण ह, वही तु हारे दोष ह। अवगुण को छोड़ दो और मा भाव वयं म पैदा
कर मावान बनो, फर तुम अपने मूल- व प चेतन को पा सकते हो और तु ह कभी िख ता नह होगी। ‘ग’
अ र के मा यम से कबीर कहते ह क गु के वचन का स मान करो और थ क बात पर यक न न करो। गु
के बताए माग पर चलकर स य कम करने से आ म- व प पी आकाश म मन पी प ी न तो जा सकता है और
न ही उड़ सकता है। ऐसे म दली सुकून क अनुभूित ि को िमलने लगती है और वह आ म- व प के ब त
करीब आ जाता है।
घघा घट िबनसै घट होई। घटही म घट राखु समोई।
चो घट घटै घटिह फ र आवै। घट ही म फर घटिह समावै।।4।।
ड.ड. िनरखत िनिश दन जाई। िनरखत नैन रहे रतनाई।
िनिमष एक जो िनरखै पावै। तािह िनिमष म नैन िछपावै।।5।।

एक शरीर का िवनाश होने पर दूसरा शरीर पैदा हो जाता है। मो क कामना रखते हो तो इस ज म म ही
शरीर के मोह का याग कर दो य क जो सांसा रक-इ छा को मन म पालता है, शरीर से पूरे होने वाले
िवषय के ित आस होता है तो उसे बार-बार ज म लेना पड़ता है और बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है,
इ छा के ित अनाशि आव यक है।
‘ड’ अ र से कबीर समझाते ह क हे ाणी! पल-भर म ही िमट जाने वाली का पिनक चीज के लालच म
अपना समय य गंवा रहे हो। तु हारा समय पल-पल कम होता जा रहा है, िजसे िनहारते-िनहारते तु हारे नयन
लाल हो गए ह, क तु जब वही तु हारे सामने आता है तो तुम आंख बंद कर लेते हो अथात् जब तुम आ म- व प
को पहचानने क कोिशश करने लगते हो तो इस संसार से थान कर जाते हो। इसिलए कबीर कहते ह क समय
रहते चेत जाओ और चेतन- व प से नाता जोड़ लो।
चचा िच रचो बड़ भारी। िच छोिड़ त चेतु िच कारी।
िज ह यह िच िविच वै खेला। िच छोिड़ त के तु िचतेला।।6।।
छछा आिह छ पित पासा। छ क कन रह मे ट सब आसा।
म तोह िछन-िछन समुझावा। कसम छािड़ कस आपु बंधावा।।7।।

‘च’ अ र के ज रए कबीर कहते ह क हे ाणी! तुमने नाना कार के िमत करने वाले िच बना डाले ह।
िच बनाना छोड़कर हे चेतन व प जीव! तुम आगे क सुिध ले। जो तूने िच बनाए ह, उ ह िमटा दे। तुमने ही
तो नाना कार के िच बनाकर यह िच कारी का खेल खेला है। इसका िखलाड़ी तुम ही है। यह खेल अब बंदकर
और आ म- व प म रम जा।
‘छ’ अ र से कबीर समझाते ह क तुम तो छ पित यानी स ाट खुद ही हो अथात् मूल व प तो तु हारे
भीतर ही है..िब कु ल तु हारे पास। तुम इधर-उधर िनज व-सजीव चीज म, जो तुम म ही है उसे य खोजते
फरते हो। यह भटकना छोड़कर आ म- व प को ढू ंढो और आ म-तृि का अहसास करो।
कबीर कहते ह क म तु ह पल-पल समझा रहा ं क अपने आ म- व प चेतन को मत छोड़ो, वरना तुम
भवबंधन म बंध जाओगे।
टटा िबकट बाट मन माह । खोिल कपाट महल म जाह ।
रही लटाप ट जु ट तेिह माह । होिह अटल अब कत ं न जाह ।।11।।
ठठा ठौर दूर ठग िनयरे । िनत के िनठु र क ह मन घेरे।
जे ठग ठगे सब लोग सयाना। सो ठग ची ह ठौर पिहचाना।।12।।

‘ट’ अ र को मा यम बनाकर कबीर कहते ह क इस मन क राह ब त ही िवकट ह और जब चाहे कोई भी


दरवाजा खोलकर आ म- व प पी महल म दािखल हो सकता है य क जब ि आ म- व प म ि थत हो
जाता है तब कोई भी म उसे िमत नह कर पाता है।
‘ठ’ अ र के ज रए कबीर कहते ह क ि आ म- व प चेतन से दूर हो गया है और मन पी ठग पास म ही
है। िजस ठग पी मन ने बड़े-बड़े ानी- यानी को भी ठगा, ठग पी मन को पहचानकर उससे सदा सजग और
सतक रहो और ठौर यानी आ म व प को पहचानो।
डडा डर उपजे डर होई। डर ही म डर राखु समोई।
जो डर डरै फर आवै। डरही म फर डरिह समावै।।13।।
ढढा ह ड़त ही कत जान। ह ड़त ढू ंढत जाय परान।
को ट सुमे ढू ं ढ फ र आवै। जेिह ढू ंढा सो कत ं

‘ड’ अ र का हवाला देते ए कबीर कहते ह क मन म डर को पैदा करने से ही ि डरने लगता है। इसिलए
डर म ही डर को डु बोकर िनडर हो जाओ। जो ि डरता है उसे डर बार-बार डराता है।
‘ढ’ अ र से समझाते ए कबीर कहते ह हे ाणी! तू अपने मूल व प क तलाश करते-करते भटक गया है
और तू ढू ंढते-ढांढते ही इह लोक से चला जाएगा। करोड़ सुमे जैसे पहाड़ म ढू ंढने पर भी तू अपने मूल व प
को ढू ंढ नह सकता य क वह तो तुमम ही समाया आ है। का पिनक मजाल का यागकर अपने मूल व प
को देखने क कोिशश तो कर।
थथा अित अथाह थाहो न हं जाई। ‘ई’ िथर ‘ऊ’ िथर ना हं रहाई।
थोरे -थोरे िथर होउ भाई। िबन थ भे जस मि दर थंभई।।17।।
ददा देख िबनशनहारा। जस देख तस कर िवचारा।।
दश ं ारे तारी लावै। तब दयाल के दशन पावै।।18।।
‘थ’ अ र को ज रया बनाकर कबीर कहते ह क िवषय-वासना का समु ब त अथाह है और इसका थाह
लगाया नह जा सकता। य क इसम पड़कर जीव क ि थित अि थर हो गई है। िबना तंभ यानी ख भे के जैसे
मं दर क छत टक जाती है वैसे ही स य- ान के सहारे धीरे -धीरे ि थरता िमलेगी। घबराने से बात नह बनेगी,
घबराकर अपना लोक-परलोक ही िबगाड़ोगे।
‘द’ अ र को आधार बनाकर कबीर कहते ह क हे ाणी! यहां तो जो कु छ भी है न हो जाने वाला है...बदल
जाने वाला है। जो उिचत लगे या जैसा देखो वैसा िवचार करो। दस इं य को अपने वश म करके ि आ म
व प से सा ा कार करता है तब उसे पूण का दशन हो जाता है। इं य को और इं यजािनत इ छा को
वश म करने से ही बात बनेगी।
पपा पाप कर सब कोई। पाप के करे धम न हं होई।
पपा कहै सुन रे भाई। हमरे से इन कछु वो न पाई।।21।।
फफा फल लागे बड़ दूरी। चाखे सतगु देइ न तूरी।
फफा कहै सुन रे भाई। वग पाताल क खब र न पाई।।22।।

‘प’ अ र को अधार बनाते ए कबीर कहते ह क धम के नाम पर पशु-पि य का गला काटना सबसे बड़ा
पाप है और यह पाप यहां होता ही रहता है। वह धम कभी भी धम नह हो सकता, िजसम जीव ह या करने क
व था है। कबीर कहते ह क हे ाणी! धम के नाम पर इस तरह से िनःसहाय जीव क ह या करने से कु छ भी
हािसल नह होने वाला, के वल पाप के ।
‘फ’ अ र का हवाला देते ए कबीर कहते ह क भवसागर से मुि पाना सभी चाहते ह, ले कन मुि का फल
ब त दूरी पर फलता है, नजदीक नह है क हाथ बढ़ाकर तोड़ लोगे। कोई भी स गु तु ह यूं तोड़कर वह फल
थमा नह सकता, य क इसके िलए पहले तु ह स य- व प क पहचान करनी होगी।
कबीर कहते ह क हे संतो सुनो! स गु मुि -फल उसे कतई नह दगे िजसे वग-नरक क खबर ही नह है
यानी वह इस बात से अनजान है क मुि के िलए साधना करनी पड़ती है। साधक को ही मुि का फल िमलता
है।
बबा बरबर कर सब कोई। बरबर करे काज न हं होई।
बबा बात कहै अथाई। पुल का मम न जान भाई।।23।।
भभा भी र रहा भरपूरी। भभरे ते है िनयरे दूरी।
भभा कहै सुन रे भाई। भभरे आवै भभरे जाई।।24।।

‘ब’ अ र को साधन बनाकर कबीर कहते ह क हे ाणी! बड़-बड़ सभी करते ह, ले कन इस तरह से बड़ी-बड़ी
बात करने से काय िस नह होने वाला। स गु क बात तो तुम सुनते हो, ले कन इन बात का भाव या होगा
नह जान पाते। इसका मतलब तु ह मुि क नह , िवषय-वासना क अिभलाषा है। तु ह मुि भला कै से
िमलेगी।
‘भ’ अ र के मा यम से कबीर कहते ह क म से िमत मनु य हमेशा ही डरा-डरा-सा रहता है। यही कारण
है क उसे मन क शांित क अनुभूित नह होती। म के कारण ही जीव ज म लेता है और मरता है तथा बार-बार
यही म दोहराया जाता है। म से बाहर आने के बाद स ित संभव है।
ममा के सेये मम न हं पाई। हमरे से इन मूल गंमाई।
माया मोह रहा जग पूरी। माया मोहिह लख िबचारी।।25।।
यया जगत रहा भरपूरी। जगत ते है जाना दूरी।
यया कहै सुन से भाई। हमह ते इन जै जै पाई।।26।।

‘म’ अ र का हवाला देते ए कबीर कहते ह क माया के मोह म पड़कर मनु य बुि हीन हो जाता है और
अपना मूल ही गंवा देता है अथात् अपना सोने जैसा मानुष ज म यूं ही गंवा देता है। वह ताउ माया के इद-िगद
ही घूमता रह जाता है। इस संसार म माया का ही अि त व है। माया को द च ु से देखकर िवचार करो और
मुि का माग ढू ंढो।
‘य’ अ र को आधार बनाते ए कबीर कहते ह क हे ाणी! सांसा रक सुख को भोगने क अिभलाषा तुमम
भरपूर है और तुम इस बात को भी अनदेखा कर रहे हो क यहां से तु ह कभी भी जाना पड़ सकता है। कबीर
कहते ह क सुनो हे ाणी! इस माया क नगरी म अपने िहत को ढू ंढना, मूखता भरी कोिशश है य क यहां जो
कु छ भी है वह िणक है। आज जो तु हारे पास है, काल उसे तुमसे पल-भर म ही छीन सकता है। इसिलए चेतन
व प आ माराम से नेह का बंधन जोड़ो।
ररा रा र रहा अ झाई। राम के कहै दुख दा र जाई।
ररा कहै सुन रे भाई। सतगु पूंिछ के सेव आई।।27।।
लला तुतुरे बात जनाई। तुतुरे आय तुतुरे प रचाई।
आप तुतुरे और क कहई। एकै खेत दून िनबहई।।28।।

‘र’ अ र के मा यम से कबीर कहते ह क ब त दन से चार तरफ इस बात का झगड़ा चल रहा है क राम


का सुिमरन करने से दुःख-द र ता न हो जाती है और खुिशयां लौट आती ह। कबीर कहते ह क सुनो हे ाणी!
राम का सुिमरन करो, ले कन स गु से आ ा लेकर, ता क तु ह लाभ हो सके । कहने का भाव है क स गु क
कृ पा से ही राम क कृ पा ा हो सकती है।
‘ल’ अ र को आधार बनाकर कबीर कहते ह क अ ानी गु अपने िश य को बेटा, पु , बालक आ द
संबोधन से ही बुलाते ह और ान देने क बात आती है तो तुतलाकर बोलते ह अथात् जब वे वयं अ ानी ह तो
िश य को िमत नह करगे तो या ान का उपदेश दगे।
कबीर कहते ह क ऐसे अबोध और अ ानी गु के िलए हर तरह के धान एक ही खेत के होते ह यानी ान-
अ ान दोन ही इनके िलए एकसमान होते ह। इ ह सांसा रकता और असांसा रकता म कोई फक महसूस नह
होता है। इनके िश य जीवन-भर भटकाव म ही जीते ह और ये वयं भी।
ववा वह वह कह सब कोई। वह वह कहै काज न हं होई।
वह तो कहै सुनै जो कोई। वग पताल न देखै जोई ।।29।।
शशा सर न हं देखे कोई। सर शीतलता एकै होई।
शशा कहै सुन रे भाई। शू य समान चला जग जाई।।30।।

‘व’ अ र को आधार मानकर कबीर कहते ह क वह-वह यानी परमा मा का नाम तो सभी लेते ह, ले कन
के वल परमा मा या ई र कह देने से, जो ई र को पूरी तरह से जानना चाहते ह, उनक िज ासा शांत नह होती
यानी इससे बात नह बनती।
कबीर कहते ह क ई र का नाम ले लेने से वह संतु हो सकता है, जो महा अ ानी होगा। िज ासु भ तो
ई र के व प को जानने के बाद ही संतु होगा।
‘श’ अ र का सहारा लेते ए कबीर कहते ह क कोई भी पानी और ठं डक को एक भाव से नह देखता है
जब क ये दोन एक-दूसरे के पूरक ह। कबीर कहते ह क हे भाई सुनो! शू य के समान, सारा जग चलता चला जा
रहा है, लोग ान-त व से वा कफ नह ह।
षषा खरा करे सब कोई। खर खर करे काज न हं होई।
षषा कहै सुन रे भाई। राम नाम ले जा पराई।।31।।
ससा सरा रचो ब रआई। सर बेधे सब लोग तवाई।
ससा के घर सुन गुण होई। इतनी बात न जाने कोई।।32।।
‘ष’ अ र को आधार मानकर कबीर कहते ह क सभी सं दाय के लोग अपने-अपने िवचार को ठीक मानते
ह, पर ऐसा करना सही नह है। वयं को सही मानना और दूसर को गलत ठहराना, नैितक प से उिचत नह है।
इससे हािन ही होती है।
कबीर कहते ह क हे भाई सुनो! राम का नाम लेना है तो लो, ले कन साथ ही अवगुण का भी याग करो।
‘स’ अ र के मा यम से कबीर कहते ह क मनु य जान-बूझकर अ ान क चादर ओढ़ते ह और माया के बाण
से घायल होकर बेहोश हो जाते ह, पर इतनी-सी बात कोई नह जानता क इसका अंजाम या होगा।
हहा हाय हाय म सब जग जाई। हष सोग सब मा हं समाई।
हंक र हंक र सब बड़ बड़ गयऊ। हाहा मम न का पयऊ।।33।।
ा ि न म परलय सबिम ट जाई। छे वपरे तब को समुझाई।
छे वपरे का अ त न पाया। कह हं कबीर अगमन गोहराया।।34।।

‘ह’ अ र के मा यम से कबीर कहते ह क इस संसार केे सारे लोग माया म डू बकर, अंततः घोर क भोगते ह
और हाय-हाय करते ए चले जाते ह। सब म ही शोक व हष िव मान है अथात् सभी अ ानता के कारण
यातनाएं भुगत रहे ह। बड़े-बड़े ानी- यानी भी अपने दुःख के कारण का पता नह लगा सके और हाय-हाय
करते ए इस संसार से िवदा हो गए।
‘ ’ अ र के मा यम से कबीर कहते ह क ण-भर म ही लय होगी और सब कु छ ही समा हो जाएगा।
मृ यु या है लय ही तो है। तु हारे मरते ही तु हारा अपना जो है, उससे तु हारा र ता समा हो जाएगा।
कबीर कहते ह क म तु ह पहले ही सजग कर रहा ं य क जब तुम मर जाओगे और इस संसार से जाने लगोगे
तो तु ह समझाने वाला कोई नह होगा। अपने आ म- व प को पहचानो। तु हारा िहत इसी म है। मौत क लय
पास आ जाएगी, तब कोई भी ानोपदेश समझ म नह आएगा। तु हारे िलए सब थ हो जाएगा। स ान का
माग अपनाओ, तु हारी भलाई इसी म है।
िव मतीसी
सुन सबन िमिल िव मतीसी। ह र िबनु बूड़ी नाव भरीसी।।1।।
ा ण होय के न जाने। घर मा य ित ह आने।।2।।
जेिह िसरजा तेिह न हं पिहचाने। कम-धम मित बै ठ बखाने।।3।।
हण अमावस और दुईजा। शाि त पांित योजन पूजा।।4।।
ेत कनक मुख अ तर बासा। आ ित स य होम क आसा।।5।।
कु ल उ म जग मा हं कहाव। फर फर म यम कम कराव।।6।।
सुत दारा िमिल जूठो खाई। ह र भ त के छू ित लगाई।।7।।
कम अशौच उि छ ा खाई। मित ा यम लोक िसधाई।।8।।
नहाय खो र उ म होय आये। िव णु भ देखत दुख पाये।।9।।
वारथ लािग रहे बे काजा। नाम लेत पावक िजिम डाजा।।10।।

हे ाणी! सभी यान से सुनो। म आज के ा ण क सोच को बता रहा ,ं जो तीस चौपाइय म है।
ा ण क स गु ह र के िबना, भरी ई नाव डू ब गई है। ये ा ण होकर भी को जरा भी नह
पहचानते ह। घर-घर म अनु ान, य आ द हंसा मक काय को करवाकर दान-दि णा मनमाने ढंग से वसूल रहे
ह। िजसने इ ह बनाया, उसी को ये पहचानते नह ह और धम-कम म ही बुि लगाकर ऊंचे थान पर बैठकर
सृि कता का बखान करते ह। हण, अमाव या और यम ि तीया आ द का शांित पाठ और पूजा करवाकर दान-
दि णा वसूलते रहते ह। भूत- ेत, दु ह , काली, भैरव आ द देवता को शांत करने क पूजा कराते ह तथा
इसी को मो व सुख ाि का साधन मानते ह और लोग को भी यही बात समझाते ह। मृतक के मुख म सोना
रखवाते ह क उसे ेत योिन न िमले और होम, जप आ द करवाकर अपनी पूजा भी करवाते ह और इसी को
उ म मानते ह। वयं को े कु ल का कहलवाते ह और बार-बार म यम व नीच कम सबसे करवाते ह। ह र भ
को अछू त बताते ह और वयं प ी-पु के साथ बैठकर एक-दूसरे का जूठा खाते ह। ये ब त ही अपिव और िगरा
आ कम भी करते ह और ा कम आ द का दान हण करने म संकोच नह करते ह और इस तरह से मित
कर यम लोक के अिधकारी बन जाते ह। खुद तो नहा-धोकर आते ह और िव णु भ (साधु-सं यासी) को देखकर
दुःखी हो जाते ह क कह इनक वजह से इनके मान-स मान म कोई कमी न आ जाए।
कबीर कहते ह क वाथ वश ये हर ण बेवजह साधु-संत क आलोचना म लगे रहते ह और उनसे ा ण व
का अथ पूछने पर ऐसे हो जाते ह जैसे आग का शोला ह । कहने का भाव है क ा ण वेदपाठी होकर भी
ि गत वाथ वश ह र का गुणगान-दान-दि णा लेन-े भर तक ही करते ह, इसके बाद अपनी ही पूजा और
अपना ही गुणगान करवाना पसंद करते ह। साधु-संत को ये अपना ित ं ी मानते ह और फू टी आंख भी उ ह
पसंद नह करते ह।
राम कृ ण क छोड़िन आशा। प ढ़ गुिन भये कतम के दासा।।11।
कम पढ़ औ कम को धाव। जेिह पूछा तेिह कम दृढ़ाव।।12।।
िन कम क िन दा क जै। कम करे ताही िचत दीजै।।13।।
भि भगव त क दया लाव। हरणाकु श को प थ चलाव।।14।।
देख सुमित के र परकाशा। िबनु अ य तर भये कतम के दासा।।15।।
जाके पूजे पाप न ऊड़े। नाम मरणी भव मा बूड़े।16।।
पाप-पु य कै हाथ हं पासा। मा र जगत क क ह िबनाशा।17।।
ई बहनी कु ल बहिन कहावै। ‘ई’ गृह जारे ‘ऊ’ गृह मारे ।।18।।
बैठे तो घर सा कहावै। भीतर भेद मनमुख हं लगावै।।19।।
ऐसी िविध सुर िव भनीजे। नाम लेत पीचासन दीजे।।20।।

ा ण ने राम-कृ ण के उपदेश को एक तरफ रख दया है और लोग से भी यह कहना छोड़ दया है क वे


राम-कृ ण के उपदेश को धारण कर। पढ़-िलखकर माटी-प थर क मू त, भूत- ेत और कमकांड के गुलाम बन गए
ह। के वल कमकांड क पढ़ाई करते ह और उनका यान हमेशा कमकांड म ही रहता है। जो भी कोई मुि का माग
उनसे पूछता है तो उससे कमकांड संबंधी बात बताकर उसे भरमा देते ह। ि पूजा-अनु ान और टोने-टोटक म
ही पड़कर बरबाद हो जाता है। जो ि कमकांड नह करवाता है, दान-दि णा देने म िव ास नह करता है,
उसक ये नंदा करते ह और जो कमकांड इनसे करवाता है और झोली भरकर दान-दि णा देता है, उनसे ये स
रहते ह। ई र का भ तो ये वयं को कहते ह, पर कम रा सी होते ह। इनक बुि दुबुि म बदल गई है। इनके
दय म ान क योित नह है, िजससे ये कि म कमकांड के दास बन गए ह। इन ा ण को पूजने से पाप न
नह होने वाला है, बि क इनको मन म बसाने से पाप और बढ़ने ही वाला है। इनको याद कर भवसागर म
िनि त प से डू बने वाली बात है। पाप-पु य क लगाम जैसे इनके हाथ म यानी इनके ही वश म है। इ ह ने तो
अपनी दुबुि म फं साकर पूरे संसार का ही िवनाश कर दया है। इनको कु ल गु और भवबंधन िमटाने वाला कहा
गया है, पर इ ह ने तो मनु य का लोक-परलोक दोन ही िबगाड़ दया है। कहते तो ये वयं को यागी व वैरागी
ह और खुद मोह-माया म गले तक फं से ए ह। भेद-भाव का मु ा ये ही पैदा करते ह और आपस म सबको लड़ाते
ह।
कबीर कहते ह क इस कार ा ण जन, देवता तु य बनकर ऊंचे आसन, मान-स मान और वा द भोजन
क उ मीद पूरे समाज से करते ह। इन कमहीन ा ण के कारण ही जगत अंधकू प म पड़ा आ है।
बूिड़ गये न हं आपु संभारा। ऊंच नीच क कािह जोहारा।।21।।
ऊंच नीच है म य क बानी। एकै पवन एक है पानी।।22।।
एकै म टया एक कु हारा। एक सबन का िसरजन हारा।।23।।
एक चाक सब िच बनाई। नाद-िब द के म य समाई।।24।।
ापक एक सकल क योित। नाम धरे का किहये भौती।।25।।
रा स करनी देव कहावै। बाद करे गोपाल न भावै।।26।।
हंस देह तिज यारा कोई। ताकर जाित कहै ध कोई।।27।।
याह सफे द क राता िपयरा। अबरण बरण क ताता िसयरा।।28।।
िह दू तु क क बूढ़ो बारा। ना र पु ष का कर िबचारा।।29।।
किहये कािह कहा न हं माना। दास कबीर सोई पै जाना।।30।।

कबीर कहते ह क ा ण होने के झूठे अिभमान म ये लोग डू ब गए ह तथा वयं क र ा नह कर सके ह।


ऊंच-नीच का भेदभाव इनके मन म इतना है क कोई संत सामने पड़ जाता है तो उसे णाम तक भी नह करते ह,
यह सोचकर क पता नह कस जाित का है। सच तो है क ि ऊंच-नीच अपनी जाित से नह अिपतु अपनी
वाणी और काय से बनता है। एक ही पवन है, एक ही पानी है, एक ही माटी है, एक ही कु हार है और सब को
बनाने वाला भी एक ही है। एक ही चाक से सबको बनाया गया है और एक ही नाद यानी गभाशय म सब पलते-
बढ़ते ह, चार तरफ एक ही योित ा है तो फर अलग-अलग नाम, जाित, धम रख देने से या हो जाता है। ये
ा ण जन रा सी वृि के हो गए ह और देव कहलाते ह तथा इ ह तो गोपाल भी नह भाते ह य क ये लोग
कसी शा -वेद या देवी-देवता का उपदेश नह मानते ह।
कबीर कहते ह क जब ाण शरीर को छोड़कर चला जाता है तब उसक जाित या होती है। कसी भी जाित,
धम के ि को लाश ही तो कहा जाता है। सफे द, काला, लाल, पीला, ऊंच, नीच, िह दू, मुि लम, बूढ़ा, बालक,
ी, पु ष इनम से कसको या कहोगे...? सब थ है, स यवचन को कोई नह मानता है। कि म व का पिनक
यह दुिनया ही नह बि क यहां क हर चीज ही ऐसी है, तभी तो संत वचन क कोई क नह है। ये ा ण आ म-
त व को समझ जाएं और सभी को समझाने क कोिशश कर तो यह कि म संसार रहने लायक बन जाए, य क
ा ण क ही मह ा इस का पिनक संसार म है, वे चाह तो सबको ई रीय शि क मु यधारा से जोड़ सकते
ह, ले कन वे भला ऐसा य करगे? उ ह अपनी रोटी जो सकनी है।
कहरा
सहज यान र सहज यान र । गु के बचन समाई हो।।1।।
मेली सृि चरा िचत राख । रह दृि लौ लाई हो।।2।।
जस दुख देिख रह यह औसर। अस सुख होइह पाये हो।।3।।
जो खुटकार बेिग न हं लागे। दय िनवार को हो।।4।।
मुि क डो र गा ढ़ जािन खच । तब बिझह बड़ रो हो।।5।।
मनुविह कह रह मन मारे । िखजुवा खीिज न बोले हो।।6।।
मानू मीत िमतैये न छोड़े। कमऊ गां ठ न खोले हो।।7।।
भोगउ भोग मुि जिन भूल । योग मुि तन साध हो।।8।।
जो यह भांित कर मतविलया। ता मत को िचत बांध हो।।9।।
न हं तो ठाकु र ह अित दा ण। क रह चाल कु चाली हो।।10।।

कबीर कहते ह क हे ाणी! आ म- व प का यान लगाओ और स गु के वचन का पालन करो। इस


सांसा रक मोह-माया म डू बे, अि थर मन को अपने वश म रखो और अपनी दृि को सदा अपने मकसद पर ही
टकाए रखो। साधना के ारं िभक काल म जो दुःख तुम महसूस कर रहे हो, उसे सहज भाव से सह लो। जब यान
म सफलता िमलेगी तो सुख क भी अनुभूित अव य ही होगी। साधना का अंत हमेशा ही सुखदायक होता है। अभी
भी अवसर है, दय म ई या- ष े , काम, ोध आ द भाव ह तो तुरंत उ ह बाहर िनकालकर मन को शु कर लो।
ये साधना म बाधा उ प करते ह। मो के िलए अ यास धीरे -धीरे करो, इतनी ज दबाजी न करो क मुि क
डोर टू ट जाए यानी साधना बीच म ही अधूरी रह जाए। सहज भाव से आिह ता-आिह ता ही जगत गु के पास
प चं ा जा सकता है। मन से भी कह दो क वह वयं पर संतुलन बनाए रखे और संयम से काम ले अथात् मन को
वश म रखो। गु सा करके कसी से बात न करो, भले ही वह तु हारी नंदा ही य न करे अथात् सहनशील बनो।
हे ाणी! गु और स न क िम ता को कभी भी मत छोड़ना और उनके ेम क गांठ को कभी न खोलना।
सांसा रक क को शांितपूवक सहते रहो, साथ ही मुि क बात भी न भूलो। ेमपूवक योग-साधना म मन
लगाए रखने पर ही शरीर क गित है। ऐसा ही िवचार कर मन को योग-साधना म लगाओ, य क यह मन ब त
ही मतवाला है, इं य का मािलक है। िमत होते ही नाना कार के दुःख देना शु कर देता है और दूसर को
नह , बि क तुमको ही क देगा व कु चाल चलता रहेगा, स भल जाओ।
बांिध मा र ड ड सब लेह । छू ट हं तब मतवाली हो।।11।।
जबह सावत आिन प ंचे। पीठ सां ट भल टू टह हो।।12।।
ठाढ़े लोग कु टु म सब देख। कहै का के न छू टह हो।।13।।
एक तो िन र पांव प र िबनवै। िबनित कये ना हं माने हो।।14।।
अनची ह रहेउ न कये िच हारी। सो कै से पिहचनबेउ हो।।15।।
ली ह बुलाय बात ना हं पूछै। के वट गभ तन बोले हो।।16।।
जाकर गां ठ समर कछु नाह । सो िनधिनया होय डोले हो।।17।।
िजन सम युि अगमन कै रािखन। धरिन म छ भ र डेह र हो।।18।।
जेकर हाथ पांव कछु नाह । धरन लािग तेिह सोह र हो।।19।।
पलना अछत पेिल चलु बौरे । तीर-तीर का टोव हो।।20।।
कबीर कहते ह क हे ाणी! अपने मन को वश म कर स ाग पर नह चलेगा तो सब तुझे बांधकर मारगे और
सब तुझे दंिडत करगे। तब तेरा सारा मतवालापन एक झटके म ही छू ट जाएगा। काल जब आ प च ं ेगा और तु ह
बांधकर सबके सामने ही पीटेगा तथा ाण लेकर चल देगा तो तेरे घरवाले खड़े-खड़े देखते ही रह जाएंगे। वे तुझे
बचा नह पाएंग।े तु हारे बंधु-बांधव काल के पांव पकड़कर तु ह छोड़ देने क ाथना करगे, ले कन वह िन ु र
काल कसी क भी ाथना पर यान नह देगा। तू भी तो कभी स य को जान न सका और अस य से दो ती कर
ली, फर मृ यु के करीब आने पर स य से तेरा प रचय कै से हो? यमराज तो मुंह से बात ही नह करता। वह तो
बस अपने क का पालन करता है। मृ यु का समय आ गया तो वह भी हािजर हो गया, िजसने स गु का
उपदेश नह माना है, अपने आ म व प को नह पहचाना है, उसके पास तो कु छ होता ही नह है, वह तो दीन-
हीन बनकर इधर-उधर डोलता फरता है। िजन लोग को इस बात का ान होता है क मृ यु एक दन आनी है
और उ ह स य- व प भु के दरबार म हािजर होना है तो वे सावधान रहते ह और अपनी गांठ म आ म व प
ठोस ान का खजाना भरकर रखते ह, वे भु- ान से पूंजीवान होते ह, उनका काल कु छ नह िबगाड़ पाता।
कबीर कहते ह क जो ि हाथ पांव िवहीन ह और वे नौका के पाल क डोर थामकर पतवार चलाकर नाव
खेेने लग तो यह कसी चम कार से कम थोड़े ही है अथात् साधक को भी ऐसा ही होना चािहए और साधना के
बल पर भवसागर म पड़ी नाव को कनारे लगाने का भरपूर यास करना चािहए।
कबीर आगे कहते ह क समझ म नह आ रहा, इतना सु दर मनु य तन िमला आ है। िववेक, बुि , दमाग
सब कृ ित ने दया है, फर मनु य भव सागर के तट पर य घूमता फर रहा है? जीवन पी पतवार से पानी
को धके लते चलो, नाव कनारे लग ही जाएगी अथात् मुि का माग िनकल ही आएगा।
उथले रह पर जिन गिहरे । मित हाथ क खोव हो।।21।।
तर कै घाम ऊपर कै भुंभुरी। छांह कत ं न हं पाय हो।।22।।
ऐसेिन जािन पसीझे सीझे । कस न छतु रया छाय हो।।23।।
जो कछु खेड़ कय सो कय । ब र खेड़ कस होई हो।।24।।
सासु-ननद दोउ देत उलाटन। रह लाज मुख गोई हो।।25।।
गु भौ ढील गोनी भइ लचपच। कहा न माने मोरा हो।।26।।
ताजी तुक कब ं न साधे । चढ़े काठ के घोरा हो।।27।।
ताल झांझ भल बाजत आवै। कहरा सब कोइ नाचे हो।।28।।
जेिह रं ग दुलहा याहन आये। दुलिहिन तेिह रं ग रांचे हो।।29।।
नौका अछत खेवै न हं जाने। कै से कै लगबे तीरा हो।।30।।
कह हं कबीर राम रस माते। जोलहा दास कबीरा हो।।31।।

तुझे शक है क तू भव सागर को पार नह कर सकता तो कम पानी म ही रह, गहरे पानी म जाने क ज रत


ही या है। ऐसा कर, जो तेरे हाथ म है, उसे भी मत गंवा। कहने का भाव है क तू अ छा नह कर सकता है तो
बुरा भी मत कर ता क जो तेरे पास है, वह तो न न हो।
हे ाणी! तुम अंदर क कामना पी धूप और बाहर क तृ णा पी बालू से जलते रहे, तु ह कह भी छांह नह
िमली। फर भी तुमने यह िवचार नह कया क अपने ान व िववेक से कह छत बनाकर खड़े हो जाएं? कहने
का भाव है क तुम इतना क सहते रहे, ले कन यह कोिशश कभी नह क क अ छा कम कर इस तपन को सदा
के िलए ही िमटा डाल। तुमने अब तक जो भी कु कम कया सो कया, ले कन दोबारा उनक पुनरावृि करने क
कोिशश न करो य क तु हारी मनोकामना पी ब को संदह े पी सास और दुमित पी ननद यातना दे रही ह
और तुम शम के मारे चुपचाप हो। ऐसा न करो, स गु क शरण म जाओ ता क तु हारी मनोकामना पर लगाम
लग सके और संशय व कु मित के हाथ का िखलौना बनकर तु हारा यह ज म यूं ही थ न चला जाए।
कब तक कामना के इशारे पर नाचते फरोगे। यही सब करते-करते तुम गुड़ क बोरी क तरह िचपिचपे और
ढीले हो गए अथात् सारी उमर यूं ही ढल गई, ले कन तुमने मेरा कहा नह माना। जीवन-भर काठ के घोड़े पर ही
चढ़े रह गए यानी िवषय वासना म ही डू बे रहे और कभी नह सरपट दौड़ लगाने वाले घोड़े को साधा अथात्
िववेक से कभी भी काम नह िलया। ताल, झांझ, ढोल बजाते ए बारात आ गई और कहार सिहत सब नाच रहे
ह। िजस रं ग म दू हा िववाह करने के िलए आया है, उसी रं ग म दु हन भी रं गी ई है। कबीर कहते ह क शरीर
पी नाव होने पर भी नाव खेने का तरीका मालूम न होने के कारण भवसागर को पार करना क ठन हो गया है।
नाव कनारे पर कै से लगेगी? कबीर कहते ह क एक ही तरीका है और वह तरीका है राम रस म मदम त हो
जाना। यह जुलाहा तो राम रस म लवलीन है। यही तरीका है नाव भवसागर के उस पर ले जाने का।
मत सुनु मािनक मत सुनु मािनक। दया ब द िनवार हो।।1।।
अटपट कु हरा करै कु हरै या। चमरा गांव न बांचे हो।।2।।
िनत उ ठ को रया पेट भरतु है। िछिपया आंगन नांचे हो।।3।।
िनत उ ठ नौवा नाव चढ़तु है। बेरिह बेरा बोरे हो।।4।।
राउर क कछु खब र न जान ं। कै से कै झगरा िनबेर हो।।5।।
एक गांव म पांच त िन बसे। जेिहमा जेठ जेठानी हो।।6।।
आपन आपन झगरा कािसिन। िपया स ीित नसाइिन हो।।7।।
भिसन मा हं रहत िनत बकु ला। ितकु ला ता क न ली हा हो।।8।।
गाइन मांिह बसेउ न हं कब ं। कै सेक पद पिहचनबेउ हो।।9।।
प थी प थ बूिझ न हं ली हा। मूढ़िह मूढ़ गंवारा हो।।10।।
घाट छोिड़ कस औघट रग । कै से कै लगबे तीरा हो।।11।।
जतइत के धन हे रन ललिचन। कोदइत के मन दौरा हो।।12।।
दुइ चकरी जिन दरर पसार । तब पैहौ ठीक दौरा हो।।13।।
ेम बाण एक सतगु दी ह । गाढ़ो तीर कमाना हो।।14।।
दास कबीर क ह यह कहरा। महरा मांिह समाना हो।।15।।

हे बंद!े म जो समझता ,ं उसे समझो और अपने दय से माया जिनत बंधन को िमटा दो। मन एक कु हार है
और वह ब त ही अजीब है। शरीर पी घड़े को वह बनाता रहता है, ले कन चमड़े का शरीर भला कब तक ठीक
रहे। जुलाहा सुबह-सुबह उठकर ित दन कपड़ा बुनता है और बाजार म उसे बेचकर अपना पेट भरता है। रं गरे ज
रोजाना उसके घर आकर कपड़े ले जाता है और कपड़े छापकर दे जाता है। इसी कार से ित दन िनयम से मन
पी नािवक शरीर पी नाव पर चढ़कर अ ानतावश बार-बार नाव को डु बो देता है य क मन पी नािवक
िवषय-वासना के मोह म िल जो है। जब मन शरीर म ि थत आ माराम को ही नह पहचानता तो असीिमत
वासना का यह झगड़ा कै से समा होगा। कहने का भाव है क जब मन ही वश म नह है तो िवषय वासना
से मु कै से आ जा सकता है।
कबीर कहते ह क एक गांव म पांच युवितयां रहती ह अथात् शरीर म इं यां पी पांच युवितयां रहती ह
और उनम जेठ-जेठानी यानी मन व वासना सबसे अिधक बल ह। पांच युवितयां िवषय भोग क भूखी आपस
म लड़ती रहती ह और आ म- व प चेतन के ेम को अि त वहीन कर देती ह। भस के साथ बगुले घूमते रहते ह
उनके शरीर से िचपके क ड़ को खाने के िलए। वैसे ही यह मन भी इं य के संग लगा रहता है, ले कन यह ानी
जन के साथ कभी नह रहता है, फर भला मन आ म व प को कै से पहचानेगा? अगर कोई राही अनजान
रा ते पर िबना कसी से पूछे ही चलता चला जा रहा है तो इस भटकाव के िलए दोषी वही है। कहने का भाव है
क जो अिभमानी होते ह, वे कसी से ान नह लेते ह और जब डू बते ह तो इसम दोष उनका ही होता है।
सही राह को छोड़कर गलत राह पर चलने वाला भला कनारे पर कै से प च ं सकता है। रा ते क पहचान तो
स गु ही करवा सकते ह, पर यह जो मन है, बड़ा अिभमानी है, स गु के पास जाने ही नह देता है।
कबीर कहते ह क दो चाक के बीच म मन को डालकर असीिमत इ छाएं पैदा न करो। एक ेम-बाण स गु
ने दया है और वह तीर-कमान क ठन से क ठन िशकार को भी बेधने वाला है, उस ेम-बाण से कबीर इस कदर
घायल है क राम म ही िवलीन हो गया है। मन न तो उसे भटका पा रहा है और न इं यां लुभा पा रही ह। वह तो
यह कहरा गा-गाकर म त है। अब तो बस आ म- व प का ही यान हर पल रहता है, दूजा रं ग सुहाता ही नह
है।
राम नाम का सेव बीरा। दू र ना हं दू र आशा हो।।1।।
और देव का सेव बौरे । ई सब झूठी आशा हो।।2।।
ऊपर ऊजर कहा भौ बौरे । भीतर अज ं कारो हो।।3।।
तन के वृ कहा भौ बौरे । मनुवा अज ं बारो हो।।4।।
मुख के दांत गये कहा भौ बौरे । भीतर दांत लोहे के हो।।5।।
फर- फर चना चबाय िवषय के । काम ोध मद लोभ के हो।।6।।
तन क सकल सं ा घ ट गयऊ। मनिह दलासा दूना हो।।7।।
कह हं कबीर सुनो हो स तो। सकल सयाना प ंना हो।।8।।

हे ािनय ! जो तु हारे अंदर वा तिवक राम है, पहले उसको जानो। मुंह से राम-राम बोलने से कु छ नह
िमलने वाला। तु हारे दय म जो राम है, तु ह उससे दूर, तु हारी झूठी क पना ने ही कर दया है। दूसरे यानी
का पिनक देवी-देवता क सेवा करना बेकार है। यह सब झूठी आशा ही है। तु हारे अंदर मैल भरा है तो ऊपर
से साफ-सुथरा रहने से कोई िहत नह होने वाला है। शरीर बूढ़ा हो गया है, ले कन मन आज भी जवां है। तु हारे
अंदर असीिमत इ छा पी दांत लोहे के समान मजबूत ह तो फर मुंह के दांत िगरने से या फायदा? भीतर के
दांत से काम, ोध, मद, लोभ, मोह के चने चबाए जा रहे हो अथात् तृ णा य क य बनी ई है। शरीर क
सारी शि यां घट गयी ह, ले कन िवषय-वासना क अिभलाषा बढ़ गई है।
कबीर कहते ह क हे संत सुनो! यह मृ युलोक है। सारे ानी- यानी और चतुर-चालाक दो-चार दन के ही
प ना यानी अितिथ ह। सब कु छ छोड़कर यहां से जाना िनि त है।
ओढ़न मोरा राम नाम। म रामिह का बनजारा हो।।1।।
राम नाम का कर बिनिजया। ह र मोरा हटवाई हो।।2।।
सह नाम का कर पसारा। दन- दन होत सवाई हो।।3।।
जाके ेव वेद पछ राखा। ताके होत हटवाई हो।।4।।
कािन तराजू सेर ितिन पउवा। तु किन ढोल बजाई हो।।5।।
सेर पसेरी पूरा कै ले। पासंग कत ं न जाई हो।।6।।
कह हं कबीर सुनो हो स तो। जोर चला जहंड़ाई हो।।7।।

कबीर कहते ह क मेरा तो राम नाम का ही ओढ़ना और िबछौना है, यही मेरा र क है। म तो राम का ही
बंजारा ।ं राम के नाम का ही ापार करता ं और राम का नाम ही बेचता ।ं म हजार नाम चार- सार
करता ं और यह दन- दन सवाई होता जा रहा है। िजस ई र का गुणगान देवता और वेद ने कया है, चार
तरफ उसक ही खरीददारी हो रही है। दुकानदार का तराजू टेढ़ा तथा पसंगे वाला अथात् सेर तीन पाव का है।
स गु जो ह वे ढोल-मंजीरा बजाकर स न को गु मं देकर मो के उपाय सूझा रहे ह।
कबीर कहते ह क सेर-पसेरी सही कर ल तो भी पासंग वाला तराजू तथा ितरछापन कह नह जाएगा। कहने
का ता पय है क िववेक न होने पर आदमी को आ म- व प का बोध नह हो पाता है। हे संत सुनो! जान-बूझकर
गलत रा ते पर चलकर लोग खुद को छल बैठे ह।
राम नाम भजु राम भजु। चेित देखु मन माह हो।।1।।
ल करो र जो र धन गाड़े। चलत डोलावत बांह हो।।2।।
दादा-बाबा और परपाजा। िज हके यह भुई भांड़े हो।।3।।
आंधर भये िहय क फू टी। ित ह काहे सब छांड़े हो।।4।।
ई संसार असार को ध धा। अ तकाल कोई नाह हो।।5।।
उपजत िबनसत बार न लागे। य बादर क छाह हो।।6।।
नाता-गोता कु ल-कु टु ब सब। इ ह कर कौन बड़ाई हो।।7।।
कह हं कबीर एक राम भजे िबनु। बूड़ी सब चतुराई हो।।8।।

राम का नाम पूरे मनोयोग से भजो और सजग होकर मन म झांको। मनु य ! तुम तो लाख -करोड़ का धन
जोड़कर जमीन म गाड़कर रखते हो और उसी के घमंड म ठ कर चलते हो। तु ह तो यह मालूम ही है क तु हारे
दादा, बाबा और पर दादा ने जो संपि एकि त क थी, वे सारी दौलत यह छोड़कर चले गए थे।
कबीर कहते ह क हे ाणी! तुम बाहर क आंख से ही नह अंदर क आंख से भी अंधे हो, वे सब धन य
छोड़ गए। तुम भी तो इन बात से ेरणा लो और धन जोड़ने क वृि से बाज आओ। यह संसार असार है और
यहां जो कु छ भी है उसका कोई सार नह है। जब मौत आएगी तो धन, जन, ेम, िम यानी कोई भी चीज तु हारे
काम नह आएगी।
यहां ज म व िवनाश म देर नह लगती, जैसे बादल पल-भर म सूय को ढककर अंधेरा कर देता है और पल-भर
म ही सूय से हटकर उजाला कर देता है। र ता, गो , कु ल, प रवार इन सब णभंगुर चीज का कोई मह व नह
है, सब थ ह। समझ लो और यान से सुन लो - एक राम को भजे िबना सारी चतुराई और सारा सयानापन
बेकार है।
राम नाम िबनु राम नाम िबनु। िम या ज म गमायो हो।।1।।
सेबर सेइ सुवा य जहंड़े, ऊपर परे पिछताई हो।।2।।
जैसे मदपी गां ठ अथ दै। घर क अ कल गमाई हो।।3।।
वादे वो भरे ध कै से। ओसै यास न जाई हो।।4।।
दब हीन जैसे पु षारथ। मन ही मांिह तवाई हो।।5।।
गांठी रतन मम न हं जाने। पारख ली हा छोरी हो।।6।।
कह हं कबीर यह औसर बीते। रतन न िमले बहोरी हो।।7।।

हे ाणी! राम नाम के िबना तूने यह मानुष ज म थ म ही गंवा दया, जैसे तोता सेमल के फल म च च
मारता है और ई पाकर पछताता आ उड़ जाता है, वैसे ही मनु य सार हीन चीज से ेम कर छला जाता है।
कबीर कहते ह क शराबी अपनी जेब से पैसा देकर शराब पीता है और अथ तथा बुि दोन ही गंवा बैठता है।
वाद का अहसास करने से जैसे पेट नह भरता वैसे ही ओस को चाटने से यास नह िमटती है, जैसे धनहीन
ि सपने देखता है, बड़े-बड़े काय करने क सोचता है, ले कन उसके सपने धनाभाव के कारण पूरे नह होते ह,
वैसे ही आदमी आ म- ान के िबना सारहीन संसार म भटकता आ मर जाता है। सबसे बड़ा र तो राम र है,
िजसे पास रहते ए भी आदमी पहचान नह पाता है और उसे इधर-उधर खोजता फरता है। कबीर कहते ह क
यह समय बीत जाने के बाद फर दोबारा नह िमलेगा और न ही दोबारा मानुष ज म ही।
ऐसिन देह िनरालप बौरे । मुवल छु वे न हं कोई हो।।1।।
ड डवा क डो रया तो र लराइिन। जो को टन धन होई हो।।2।।
उध िन ासा उपिज तरासा। हंकराइिन प रवारा हो।।3।।
जो कोई आवै बेिग चलावै। पल एक रहन न पाई हो।।4।।
च दन चीर चतुर सब लेप। गरे गजमु ा के हारा हो।।5।।
च सठ गीध मुये तन लूटै। ज बुकन वो िबदारा हो।।6।।
कह हं कबीर सुनो हो स तो। ान हीन मित हीना हो।।7।।
एक-एक दना यािह गित सबक । कहा राव कहा दीना हो।।8।।

कबीर कहते ह क हे बावले! इस माटी क काया पर या इतराता है। यह शरीर तो णभंगुर और गंदगी क
ढेर है। मरने के बाद तो इस देह को कोई छू ना भी नह चाहता। कोई करोड़पित ही य न हो ाण शरीर से
िनकलते ही करधनी भी लोग कमर से तोड़ लेते ह। जब ि क सांस ऊपर क तरफ चलने लगती है और उसे
महसूस होने लगता है क अब वह जीिवत नह रहेगा तब वह अपने ारा कमाई पूंजी के यह पर रह जाने से
दुःखी, हताश और िनराश हो जाता है। वह अपने प रजन को देखना चाहता है, ले कन सांस िनकल जाने के बाद
जो कोई भी आता है, वह बस ज दी से मशान घाट ले चलने क सलाह देता है यानी कोई भी यह नह चाहता
क वह पल-भर भी घर म रहे। इतना ही नह चंदन, इ आ द खुशबु से शरीर को सुगंिधत रखने वाला और
गले म गजमु ा का हार धारण करने वाला तथा चतुर सयाना ि भी कह िनजन जगह म अचानक ही मृ यु
को ा कर लेता है तो उसके शरीर को चील, कौआ, िग , िसयार न च-न चकर खाने लगते ह और उसका पेट
तक भी फाड़ देते ह। वे यह नह देखते क यह बुि मान और शरीर से ेम करने वाला था, इसे न खाएं। इस शरीर
क यही गित है, पगले, चेत जा।
कबीर कहते ह क ऐ संत सुन ! बुि हीन और ानहीन ि इस संसार क सारहीनता को समझ नह पाते
ह। अमीर हो या गरीब मरने के बाद उसके साथ यहां एक जैसा ही वहार होना है।
ई माया रघुनाथा क बौरी। खेलन चली अहेरा हो।।1।।
चतुर िचकिनयां चुिन-चुिन मारे । कोइ न राखेउ यारा हो।।2।।
मौनी बीर दग बर मारे । यान धर ते योगी हो।।3।।
जंगल म के जंगम मारे । माया कन ं न भोगी हो।।4।।
वेद पढ़ ते वेदव
ु ा मारे । पूजा कर ते वामी हो।।5।।
अथ िवचारत पि डत मारे । बांधउ सकल लगामी हो।।6।।
ृंगी ऋिष बन भीतर मारे । िशर ा का फोरी हो।।7।।
नाथ मछ दर चले पीठ दै। संघल ं म बोरी हो।।8।।
साकट के घर करता-धरता। ह र भ के चेरी हो।।9।।
कह हं कबीर सुनो हो स त । य आवे य फे री हो।।10।।

कबीर कहते ह क जीव ने ही माया को पैदा कया है और यह माया ऐसी कपटी है क जीव को ही मार रही है
और उसके साथ हर पल छल कर रही है। इस माया ने तो सारे बुि मान और भावुकजन को चुन-चुनकर आहत
कर दया है। कसी को भी अपने माया जाल से बाहर नह रखा है। इस महा ठिगन ने तो मौन तधा रय ,
दगंबर , वीर , यान म लीन योिगय तक को भी नह छोड़ा है। जंगल म, तप या म लीन साधु को भी माया
ने नह ब शा है। माया को तो कोई नह भोग सका, पर उलटे माया ने िवषय वासना म िल सबको, अपने माया
जाल म फांस िलया है। वेद का पाठ करने वाले पुजारी तथा वािमय को भी माया ने अपने रं ग म रं ग िलया है।
माया ने अथ िवचार करने वाले या भा य बांचने वाले पंिडत को भी धर दबोचा है और लगाम लगा दी है। माया
ने ृंगी मुिन को वन म मार दया और ा का तो िसर ही फोड़ दया है। म य नाथ को भी माया ने नह छोड़ा
और जाते-जाते संघल म उ ह िवषय भोग म डू बो दया।
कबीर कहते ह क माया एक होकर भी अनेक है। दु और बदमाश के घर क वह वयं कता-धरता है, पर जो
ह र भ ह उनके घर पर उनक दासी बनकर उ ह ठगती है। हे संतो सुनो! म तो माया को जान गया ।ं वह जैसे
ही मेरे पास आती है, म उसे वापस लौटा देता ।ं माया से दूर रहो और उसे भी वयं से दूर ही रखो।
बसंत
रसना प ढ़ ले ी बस त। ब र जाय परबे यम के फ द।।1।।
मे ड ड पर डंक दी ह। अ कं वल परचा र ली ह।।2।।
अिगन कयो परकाश। अध ऊध तहां बहै बतास।।3।।
नौ नारी प रमल सो गांव। सखी पांच तहां देखन धाव।।4।।
अनहद बाजा रहल पू र। तहं पु ष बह र खेल धू र।।5।।
माया देिख कस र ो है भूिल। जस बन पित रिह ह फू िल।।6।।
कह हं कबीर यह ह र के दास। फगुआ मांगै बैकु ड बास।।7।।

हे रसना! जगदगु का सुिमरन कर लो। य द तूने सुिमरन नह कया तो फर अवसर नह िमलेगा और


आवा-गमन के फं दे म फं सकर इस सारहीन जगत म भटकते फरोगे। मे द ड पर साधक ने अपना यान लगाया
और मूलाधार च से ऊपर क तरफ बढ़ते ए अ कं वल यानी आठव सुरित कं वल म वेशकर उजाला भर
दया। सुरित कं वल म उजाला होते ही ाण वायु ऊपर आ गई। वहां नौ नािड़यां तथा ाणा द पांच सहेिलयां भी
प च
ं ग । बह र कोठ क वायु आकर उसी म िवलीन हो ग और अनहद बाजा लयब धुन म बजने लगा। ऐसे
आनंदमय वातावरण म साधक आनं दत होकर खेलने लगा।
कबीर कहते ह क यह तो माया का म जाल है। इस पर मु ध होकर यह य भूल रहे हो क इसका तो कोई
अि त व ही नह है। यह तो बसंत के फू ल क भांित है। कबीर कहते ह क ह र भ न जाने होली के इस खेल म
सांसा रक-सुख चाहते ह या बैकु ड प च
ं ना चाहते ह।
म आय मे तर िमलन त िह। ऋतु बस त पिहराव म िह।।1।।
ल बी पु रया पाई छीन। सूत पुरा खूंटा तीन।।2।।
सरलागै तेिह ितनसै साठ। सकिन बह र लागु गांठ।।3।।
खुरखुर-खुरखुर चालै ना र। बै ठ जोलािहन प थी मा र।।4।।
ऊपर नचिनयां करत कोड़। क रगहमा दुई चलत गोड़।।5।।
पांच पचीस दश ं ार। सखी पांच तहां रची धमार।।6।।
रं ग िबरं गी पिहरे चीर। ह र के चरण धै गाव कबीर।।7।।

हे स ाग क तरफ ले जाने वाले गु ! म तु हारी शरण म आया ।ं मुझे ान और अ या म का िमला-जुला


बासंती चोला पहना दो। मेरा जो यह शरीर पी चोला है पुराना हो गया है। स दय से म यही चोला पहनता आ
रहा ।ं इसको चमकाने वाली ान क जो पाई है, वह िघस गई है और ास भी इड़ा, पंगला, सुषु ा तीन
खूं टय म बंधा आ है। इस चोले म तीन सौ साठ ह ी पी सरकं डे ह तथा ये बह र थान पर कसकर बंधे ए
ह।
कबीर कहते ह क यह शरीर पी चोला या है, एक चरखा क मा नंद ही तो है। पा थी मारकर मनोकामना
पी जुलािहन बैठी है और खुरखुर-खुरखुर चरखा चलाकर सूत कात रही है।
कहने का भाव है क इस शरीर पी चरखे से कम के कपड़े तैयार कए जा रहे ह। पांच ाण, प ीस कृ ितय ,
दस ार वाले इस शरीर पी चोले म पांच इं यां खूब धमाल मचाती ह। कहने का भाव है क यह जो आ मा है,
वह िजस कसी भी योिन म जाती है, उसे शरीर पी चोला पहनना पड़ता है और इस चोले को पहनते ही उसे
तरह-तरह क सम या से लड़ना पड़ता है। जीव आवागमन से मु होना चाहता है, ले कन मन इं य के साथ
लगकर उसे मो के ार तक प च ं ने ही नह देता है।
कबीर कहते ह क जीव मुि के िलए कभी ई र से ाथना करता है तो कभी स गु क शरण म जाता है,
ले कन य द वह मन को वश म कर ले तो मुि क राह आसान हो जाए।
बु ढ़या हंिस बोली म िनतही बार। मोसे त िन कहो कविन नार।।1।।
दांत गये मोरे पान खात। के श गये मोर गंग नहात।।2।।
नैन गये मोरे कजरा देत। बैस गये पर पु ष लेत।।3।।
जान पु षवा मोर अहार। अनजाने का कर संगार।।4।।
कह हं कबीर बु ढ़या आनंद गाय। पूत भतार हं बैठी खाय।।5।।

कबीर कहते ह क माया पी बु ढ़या को देखकर साधक अचानक ही हंस पड़ा। बु ढ़या हंसकर कहने लगी‒तू
या हंस रहा है। म सदा बहार नवयौवना ।ं कोई भी अव था मुझे छू ती नह । मुझ जैसी युवती कौन है बताओ?
मेरे जो ह, वे पान खाने के कारण टू ट गए। गंगा म नहाने से मेरे बाल झड़ गए। आंख मेरी काजल लगाते-लगाते
चली ग । मेरा शरीर कमजोर पड़ गया पर-पु ष के साथ रास-िबहार करते रहने से, ले कन फर भी म अ त
यौवना ।ं जो ि मेरे ित आस होते ह, वही मेरे भोजन भी होते ह और जो मेरे ित अनास ह, म उ ह
वयं पर मु ध करने के िलए साज- शृंगार करती ।ं
कबीर कहते ह क देखने म यह माया पी बु ढ़या आनंददाियनी गाय क तरह सीधी-सादी लगती है, पर बैठे-
बैठे ही पूरे संसार के लोग को खाए जा रही है। यह कसी खूंखार शेरनी से कम नह है।
तुम बुझ-बुझ पि डत कौिन ना र। का न यािहल है कु मा र।।1।।
सब देवन िमिल ह रिह दी ह। चा रउ युग ह र संग ली ह।।2।।
थम पदुिमनी प आिह। है सांिपिन जग खे द खािह।।3।।
ई बर जोवत ऊ बर ना हं। अित रे तेज ि य रै िन तािह।।4।।
कह हं कबीर ये जग िपया र। अपने बलकव हं रहल मा र।।5।।

हे पंिडत ! बूझो वह कौन-सी नारी है, जो िववािहत होकर भी कुं वारी है अथात् वह प ी नह बन सक । सभी
देवता ने िमलकर ल मी को ी ह र को दया और ह र ने तब से ही ल मी को अपने साथ रखा है। ल मी का
पहला नाम पि नी है, ले कन जो कम है वह स पणी का है य क सबको भगा-भगाकर ही खा जाती है। यह
वयं के िलए यानी दू हा ढू ंढती है और न िमलने पर वासना के वेग को बदा त करती है। कबीर कहते ह क यह
नारी यानी ल मी सबको ही यारी लगती है, ले कन अपने ही चाहने वाल को धीरे -धीरे मारती रहती है।
घरिह म बाबुल बाढ़िलल रा र। उ ठ-उ ठ लागिल चपल ना र।।1।।
एक बड़ी जाके पांच हाथ। पांच के पचीस साथी।।2।।
पचीस बताव और - और। और बताव कई एक ठौर।।3।।
अ तर म ये अ त लेइ। झकझो र झोरा जीव हं देई।।4।।
आपन-आपन चाह भोग। क कै से कु शल प रह योग।।5।।
िववेक-िवचार न करे कोय। सब खलक तमाशा देख लोय।।6।।
मुख फा र हंसे राव रं क। ताते धरे न पाव एको अंक।।7।।
िनयरे न खोज बताव दू र। च ं दश बागुिल रहािल पू र।।8।।
ल छ अहेरी एक जीव। ताते पुकारै पीव-पीव।।9।।
अबक बार जो होय चुकाय। कह हं कबीर ताक पूरी दाव।।10।।

घर म ही झगड़ा शु हो गया है अथात् शरीर के अंदर ही अंत िछड़ा आ है। चपल ि यां बढ़-चढ़कर
झगड़ा कर रही ह। उनम एक ी सबसे बड़ी है, िजसका नाम वासना है और उसके आंख, नाक, वचा, जीभ व
हाथ ह और इन पांच इं य क प ीस वृि यां ह, जो जीव यानी मनु य को अलग-अलग रा त पर भरमाती
रहती ह। इससे जीव को कई उिचत-अनुिचत आदत पड़ जाती ह, जो जीव पी मनु य को इधर-उधर ख च कर
ले जाती ह।
कोई भी अपने िववेक का इ तेमाल नह करता है। सब अ ानतावश िवषय भोग म िल तमाशा देखते ह।
या राजा, या जा सब खुशी-खुशी िवषय वासना को िविवध या से भोगने म त ह। जो भी सांसा रक
वृि य म एक बार फं स जाता है उसको कह भी ठौर नह िमलता है। आ म- व प का बोध कसी को भी नह है
जब क वह शरीर के अंदर ही है। अ ानी जन उसे बाहर ढू ंढ रहे ह और बाहर तो चार तरफ माया पी िशकारी
बगुले घात लगाए बैठे ह। भला जीव आ म- व प का दशन करे तो कै से करे ? कबीर कहते ह क जीव पर लाख
िशकारी घात लगाए बैठे ह, जो डरा-सहमा आ पीव-पीव अथात् परम को पुकारता है।
कबीर कहते ह क िजसने भी माया को वयं से दूर रखा है और विववेक से काम िलया है, उसने अव य ही
मुि पा ली है। अवसर को जाने न दो और इस बाजी को जीत लो, अवसर बीत जाने पर गित नह है।
कर प लव के वल खेले ना र। पंिडत होय सो लेइ िबचा र।।1।।
कपरा न पिहरे रहै उघा र। िन जव से धिन अित रे िपय र।।2।।
उलटी पलटी बाजु तार। का मारै का उबार।।3।।
कह स गु कबीरदासन के दास। का सुख दै का िनरास।।4।।

कबीर कहते ह क माया महा ठिगन है, पर मु ध नर-नारी अपने व प को भुलाकर काल के मुंह म नाच रहे
ह। जो िववेकवान पंिडत होगा, वही इस रह य को समझ सकता है। माया पी औरत जो है, वह ब त ही िनल
और ू र भी है - व धारण नह करती है और िनव ही रहती है। सांसा रक सुख-सुिवधा के ित मनु य क
आसि भी यही बढ़ाती है और उसम डु बोकर मनु य को उसके आ म- व प चेतन से दूर कर देती है। माया पी
यह नारी अपनी हथेली को उलटा-सीधा कर थपथप क आवाज करती रहती है। कसी को यह मारती है तो
कसी को उबारती है। कबीर कहते ह क माया पी ी कसी को सुख और आनंद दान करती है और कसी को
इतना िनराश व तबाह कर देती है क वह बरबाद ही हो जाता है। यह बड़ी ही िविच और अ भुत है।
ऐसो दुलभ जात शरीर। राम नाम भजु लागू तीर।।1।।
गये बेनु बिल गये कं श। दुय धन को बूड़ो बंश।।2।।
पृथु गये पृिथवी के राव। ि िव म गये रहे न काव।।3।।
छौ चकवै म डली के झा र। अज ं हो नर देखु िबचा र।।4।।
हनुमत क यप जनक बािल। ई सब छकल यम के ा र।।5।।
गोपीच द भल क ह योग। जस रावण मारयो करत भोग।।6।।
ऐसी जात देिख नर सब हं जान। कह हं कबीर भजु राम नाम।।7।।

कबीर कहते ह क हे ाणी! तू य परे शान और दुखी है। यह मानुष तन बड़ी मुि कल से िमलता है और तू
ऐसी दुलभ देह को यूं ही गंवा रहा है। राम नाम भज, तेरा बेड़ा पार हो जाएगा। बेन, कं स, बिल जैसे शि शाली
राजा चले गए। दुय धन अपने वंश सिहत चला गया। महाराजा पृथु, महाराजा बिल को छलने वाले वामन भी
चले गए। कोई भी यहां िज दा नह रहा। छः च वती प रवार सिहत चले गए। हे मनु य! आज ही यह सब
देखकर िवचार कर। हनुमत, क यप, जनक, बाली ये सब-के -सब यम के ास बन गये। इनका कह भी कोई
अि त व नह है। गोपीच जैसा योगी चला गया और रावण जैसा तप वी, ानी, यानी, महाभोगी राजा चला
गया। कबीर कहते ह क हे ाणी! इसी तरह से सभी को जाना है, यह देखकर िववेक से काम ले। अपने आ म-
व प चेतन का सुिमरन कर, तेरा बेड़ा पार हो जाएगा।
सबह मद माते कोई न जाग। संगिह चो र घर मूसन लाग।।1।।
योगी माते योग यान। पि डत माते प ढ़ पुरान।।2।।
तपसी माते तप के भेव। सं यासी माते कर हमेव।।3।।
मोलना माते प ढ़ मुसाफ। काजी माते दै िनसाफ। 4।।
संसारी माते माया के धार। राजा माते क र हंकार।।5।।
माते शुकदेव उ व अ ू र। हनुमत माते लै लंगूर।।6।।
िशव माते ह र चरण सेव। किल माते नामा जयदेव।।7।।
स य-स य कह सुमृित-वेद। जस रावण मारे उ घर के भेद।।8।।
चंचल मन के अधम काम। कह हं कबीर भजु राम नाम।।9।।

कबीर कहते ह क यहां पर सभी कसी-न- कसी नशे म धु ह, कोई भी होश म नह है। कसी को भी इस
बात क खबर नह है क अिभमान और कामना पी चोर उनक सुख-शांित म सध लगा चुका है। योगी- यानी
अपने योग के मद म चूर ह। पंिडत पुराण-शा पढ़कर बौरा गए ह। तप वी अपने तप के घमंड म ह और सं यासी
लोग ‘हम ही सब कु छ ह’ इस गलतफहमी म मदमाते ह और जो मौलवी लोग ह वे कु रान शरीफ पढ़कर पगला
गए ह और काजी खुदाई कताब पढ़कर अपने आपको भूल गए ह। घर-गृह थी वाले माया क लहर म बहे जा रहे
ह और राजा अपने राजकाज को लेकर ही मद म चूर है। शुकदेव, उ व, अ ू र अपने ान के मद म और हनुमंत
अपनी पूंछ के ही मद म चूर ह।
िशवशंकर ह र सुिमरन म ही मदमाते ह और इस किलयुग म नामदेव व जयदेव ई र क भि के गुमान म ही
सब भूल गए। शा -वेद ठीक ही कहते ह क ि अपने अंदर पैदा होने वाले अिभमान और असीिमत इ छा
के कारण ही मारा जाता है। उसे मारता दूसरा कोई नह है, जैसे रावण अपने घर के भे दया िवभीषण के कारण
ही मारा गया। उसने अगर िवभीषण को घर से नह िनकाला होता तो उसे कौन मारता? कोई नह । कबीर कहते
ह क यह जो चंचल मन है, उसके सारे काय अधम ही होते ह। हे ाणी! राम-राम का सुिमरन कर, मो - ाि का
साधन यही है।
िशव काशी कै सी भई तु हा र। अज ं हो िशव ले िवचा र।।1।।
चोवा च दन अगर पान। घर घर सुमृित होत पुरान।।2।।
ब िविध भवने लागू भोग। ऐसे न कोलाहल करत लोग।।3।।
ब िविध परजा लोग तोर। तेिह कारण िचत ढीठ मोर।।4।।
हमरे बलकवा के इहै ान। तोिहरा को समुझावै आन।।5।।
जो जेिह मन से रहल आय। िजव का मरण क कहां समाय।।6।।
ताकर जो कछु होय अकाज। तािह दोष न हं साहेब लाज।।7।।
हर ह षत सो कहल भेव। जहां हम तहां दुसरा न के व।।8।।
दना चा र मन धर धीर। जस देख तस कह हं कबीर।।9।।

कबीर कहते ह क हे िशवशंकर! तु हारी काशी कै सी हो गई है। आज भी सोच लो। चोवा, चंदन, अगर, पान
तुम पर चढ़ाया जाता है। घर-घर मृित और पुराण भी पढ़े जाते ह और लोग तु हारा गुणगान करते ह, छ पन
कार के भोग लगाए जाते ह और इस काशी नगरी म चार तरफ तु हारे नाम क जय विन होती रहती है।
काशी म तु हारे भ क भीड़ है, तभी तो हे िशवशंकर! म िनःसंकोच भाव से पूछता ।ं म तु हारे सामने एक
अबोध ब ा ं और मेरा ान ब त ही सीिमत है, ले कन तु हारा ान तो असीिमत है और तुम ान के भंडार
हो, तु ह या समझाना। मेरे मन म जो संशय उ प आ है उसका िनवारण करो।
कबीर आगे कहते ह क िजसके मन म जैसा आता है, काशी क मिहमा का बखान करता है। कहा जाता है क
काशी म मरने वाला ह यारा और पापी भी मो ा कर लेता है। हे िशव शंकर! म पूछता ।ं मुझे बताओ, मृ यु
होने के बाद आ मा कहा जाता है और शरीर से िनकलने के बाद उसक ि थित कै से हो जाती है? काशी क मिहमा
म पड़कर मनु य यहां तनाव मु हो जाता है क ास िनकलने के बाद तो मुि िनि त ही है, ले कन य द जीव
को मो नह िमला तो कसूरवार तुम ही होगे। हे साहेब! वह कसूरवार नह होगा।
भगवान िशव ह षत होकर बोले क जहां हम ह वहां दूसरा कोई नह है अथात् काशी म िशव ह और काशी
िशव के ि शूल पर टक ई है, यहां यमराज नह आ सकता।
कबीर कहते ह क जो सच है, वही म कह रहा ।ं जो सामने है, वही सच है, झूठ नह है। कम धान है,
कमफल सबको ही भोगना पड़ता है। कमफल से भला कोई मु कै से हो सकता है। काशी म मरो या कह भी मरो,
कमफल तो साथ ही रहेगा। ऐसा कभी मत सोचो क पाप कम कर काशी म जाकर मरोगे तो स ित हो जाएगी
और यह सोचकर भी बुरे कम न करो क काशी म जाकर मर जाएंगे तो सारे पाप से छु टकारा िमल जाएगा। ऐसा
नह है।
चाचर
खेलित माया मोहनी। िज ह जेर कयो संसार।।1।।
रचेउ रं गते चूनरी। कोइ सु द र पिहरे आय।।2।।
शोभा अ भुत प वाक । मिहमा बरिण न जाय।।3।।
च बदिन मृगलोचनी। माया बु दका दयो उघार।।4।।
जती सती सब मोिहया। गजगित ऐसी जाक चाल।।5।।
नारद को मुख मांिड़ के । ली हो बसन छोड़ाय।।6।।
गभ गहेली गभ ते। उल ट चली मुसकाय।।7।।
िशव सन ा दौ र के । दून पकरे धाय।।8।।
फगुआ ली ह छु ड़ाय के । ब र दयो िछटकाय।।9।।

कबीर कहते ह क संसार के सम त जीव को छकाने वाली माया मोिहनी खेल रही है। उसने लाल, सफे द,
काले अथात् ि गुण वाली चुनरी बना ली, िजसे जीव धारण करते ह, फर माया के वश म हो जाते ह। माया
मोिहनी क शोभा अ भुत है और प बांका है और उसक मिहमा अवणनीय है।
च के समान मुख क शोभा है और मृग के समान आंख ह। ऐसी सुंदरता वाली माया ने घूंघट हटा दया है।
उसके माथे पर लाल टीका है। भला मोिहनी माया के इस प-स दय पर स यवादी, मुिन, सं यासी कै से मु ध न
ह गे। सबके सब माया पर मोिहत होते चले गए। हाथी जैसी मदम त चाल वाली माया से भला संसार का कोई
जीव कै से बचा रह सकता है। सबको पता है, नारद को भी माया ने नह छोड़ा था। माया पर मु ध नारद मुिन
बंदर का मुख िलए वयंवर सभा म, सुंदर होने का म िलए चले गए और ठिगन माया ने नारद पर मु कु राते
ए, ी ह र के गले म जयमाल डाल दया। िशव व ा को भी माया ने दौड़कर पकड़ िलया है और उसने
उनका भी यान, योग से हटाकर असीिमत इ छा क ओर मोड़ दया है। मायामय सारा संसार है, मुि कै से
िमले?
अनहद धुिन बाजा बजै। वण सुनत भौ चाव।।10।।
खेलनहारा खेिल ह। जैसी वाक दावँ।।11।।
ान ढाल आगे दयो। टारे टरै न पाँव।12।।
सुर नर मुिन और देवता। गोरख द औ यास।।13।।
सनक-सन दन हा रया। और क के ितक बात।।14।।
िछलकत थोथे ेम स । मारे िपचकारी गात।।15।।
कै ली ह बिस आपने। फर फर िचतवत जात।।16।।

माया क मीठी आवाज सबको ब त अ छी लगी और कान म वह आवाज पड़ते ही, सबके ही मन म माया को
पाने क लालसा जाग उठी। सब ही उसके पीछे भागने लगे। जो भी माया के साथ खेलने वाले ह मौका देखकर
अपनी इ छानुसार खेल रहे ह। कई िववेकवान लोग तो ान को ढाल बनाकर माया से लड़े भी, ले कन माया के
पांव तक भी िहल न सके अथात् उसका बाल बांका तक भी न कर सके । अ ानी िखलाड़ी माया को अ ा य
मानकर खेल रहे ह और इसी को अपना सौभा य भी मान रहे ह। माया के सामने तो सुर, नर, मुिन, गोरख,
द ा ेय और ास, सनक, सनका द भी हार गए तो और क या िबसात।
कबीर कहते ह क महाठिगन माया क िपचकारी सबके शरीर पर चलती है और सभी इस पल-भर के ेम म
हंसते-िखलिखलाते ह। सभी को यह अपने वश म कर लेती है और मुड़-मुड़कर यह भी देखती है क कोई इसके
मोहपाश से बच तो नह गया है।
ान डाँग ले रोिपया। ि गुण दयो है साथ।।18।।
िशवसन ा लेन कहो है। और क के ितक बात।।19।।
एक ओर सुर नर मुिन ठाढ़े। एक अके ली आप।।20।।
दृि परे उन का न छाड़े। कै ली ह एकै धाप।।21।।
जेते थे तेते िलए। घूँघट मा हं समोय।।22।।
क ल वाक रे ख है। अदग गया न हं कोय।।23।।
इ कृ ण ारे खड़े। लोचन ललिच लजाय।।24।।
कह हं कबीर ते ऊबर। जािह न मोह समाय।।25।।

कबीर कहते ह क बस दखावे के िलए माया ने ान का पुंज ले रखा है, पर उसके साथ ही ि गुण ह - सत,
रज, तम....िजससे माया सब पर ही भारी पड़ रही है। जब िशवशंकर और ा माया का साथ पाने के िलए
बेताब हो गए तो साधारण लोग क या बात कर। एक ओर सुर, नर, मुिन ह तो दूसरी ओर माया अके ली है।
िजस पर भी उसक नजर पड़ती है उसे नह छोड़ती। उसने तो एक दौड़ म सबको ही पछाड़ दया है। सब ही
उसके मोहपाश म बंध गए ह। िजतने भी उस पर मु ध थे, सभी को अपने घूंघट म समेट िलया है। उसके काजल
क रे खा ही इतनी बांक है क कलं कत ए िबना एक भी न रहा। इं और कृ ण भी माया के दरवाजे पर खड़े ह
और उसके पाने क इ छा पूरी न होने पर श मदा ह।
कबीर कहते ह क िजस ि के मन म मोह नह होता, वह इस माया के मोहपाश म नह आ पाता है।
जारो जग का नेहरा। मन बौरा हो।।1।।
जाम सोग स ताप। समुिझ मन बौरा हो।।2।।
तन धन से या गभ सी। मन बौरा हो।।3।।
भ म क ह जाके साज। समुिझ मन बौरा हो।।4।।
िबना नेव का देव घरा। मन बौरा हो।।5।।
िबन कहिगल क ट। समुिझ मन बौरा हो।।6।।
कालबूत क हि तनी। मन बौरा हो।।7।।
िच रचो जगदीश। समुिझ मन बौरा हो।।8।।
काम अ ध गज बिश परे । मन बौरा हो।।9।।
अंकुश सिहयो सीस। समुिझ मन बौरा हो।।10।।

कबीर कहते ह क हे बावले! संसार के ित तु हारा जो यह मोह है, वह एक जाल ही है, जो िवशेषकर तु ह
फं साने के िलए तु हारे सामने फका गया है। इसम शोक व दुःख ही है, इस दुिनया को जान-समझ और इसके ित
जो मोह है, उसका प र याग कर दे। अरे पगले! शरीर और धन पर या गव करता है। मरते ही शरीर जल जाएगा
और धन यह छू ट जाएगा। पगले! यह शरीर पी घर िबना न व का तो है ही, साथ ही िबना िगलवे और इट के
ही बना है। कब ढह जाए कोई ठीक नह । हे पगले! जैसे हाथी के बुत को देखकर हाथी उसके पास आता है और
उसे पकड़ िलया जाता है वैसे तू भी अपने प रजन के बुत म उलझकर ताउ उ ह म लगा रहता है और कभी
आजाद नह हो पाता है। यह संसार सारहीन है और इस संसार क चीज भी अि त व हीन ह।
सूने घर का पा ना। मन बौरा हो।।
य आव य जाय। समुिझ मन बौरा हो।।
नहाने को तीरथ घना। मन बौरा हो।।
पुजबे को ब देव। समुिझ मन बौरा हो।।
िबनु पानी नर बूड़ह । मन बौरा हो।।
तुम टे केउ राम जहाज। समुिझ मन बौरा हो।।
कह हं कबीर जग भ मया। मन बौरा हो।।
तुम छाड़ ह र क सेव। समुिझ मन बौरा हो।।

कबीर कहते ह क हे पगले! जैसे वीरान घर म अितिथ आकर भूखा- यासा ही वापस चला जाता है, वैसे ही
यह जीव आता है और खाली हाथ इस सार हीन संसार से चला जाता है। हे पगले! तुमने नहाने के िलए ब त से
तीथ बना डाले ह और पूजने के िलए ब त से देव बना िलए ह, फर िबना राम नाम के , तुझे िबना पानी के ही
डू बना है।
कबीर कहते ह क हे पगले! सब यहां भटक गए ह। सबने ही ह र क भि करना छोड़ दया है।
कहने का भाव है क यहां पर सबने ही अपने-अपने देवता बना िलया ह। राम नाम को वे सब भूल गए ह।
भला क याण उनका कै से हो।
बेिल
हंसा सरवर शरीर म। हो रमैया राम।।1।।
जागत चोर घर मूस हं। हो रमैया राम।।2।।
जो जागल सो भागल। हो रमैया राम।।3।।
सोवत गैल िबगोय। हो रमैया राम।।4।।
आजु बसेरा िनयरे । हो रमैया राम।।5।।
काल बसेरा बिड़ दूर। हो रमैया राम।।6।।
जइहो िबराने देश। हो रमैया राम।।7।।
नैन भरोगे दूर। हो रमैया राम।।8।।
ास मथन दिध मथन कयो। हो रमैया राम।।9।।
भवन मथेउ भरपू र। हो रमैया राम।।10।।

कबीर कहते ह क हे रमैया राम! शरीर पी मानसरोवर के हंस तु ह हो। तुम चेतन व प होकर भी शरीर
के अंदर के चोर को िनकालकर बाहर नह कर सके ; जो चोर ( ान) िववेक क चोरी कर मनु य को अधम बना
चुके ह। हे रमैया राम! जो जागृत अव था म यानी जो िववेकवान होता है, वह सजग रहता है और इन चोर को
अंदर घुसने तक नह देता है ले कन जो सो रहा होता है, वह सजग नह रहता है और अपना िववेक, ान,
चैत यता सब खोकर पितत हो जाता है।
हे रमैया राम! तु हारा घर अभी ठीक-ठाक है, पर तुम आ म- व प को नह पहचान सके तो तु ह मो ा
नह होगा, फर न जाने तुम चौरासी लाख योिनय म कब तक भटकते रहोगे। फर तुम मो के िलए साधना
नह कर सकोगे और दूर खड़े आंसू ही बहाते रहोगे।
हे रमैया राम! तुमने तो दुिनयादारी से तंग और परे शान होकर अपने आनंद के िलए पूरा संसार-सागर ही मथ
डाला तथा अपने शरीर को भी पूरी तरह से मथा, पर या तुझे कु छ िमला?
फ रके हंसा पा न भयो। हो रमैया राम।।
बेिधन पद िनबान। हो रमैया राम।
तुम हंसा मन मािनक। हो रमैया राम।
हटलो न माने मोर। हो रमैया राम।
जस रे कये तस पायेउ। हो रमैया राम।
हम दोष का दे । हो रमैया राम।
अगम का ट गम कये । हो रमैया राम।
सहज कये िव ास। हो रमैया राम।
राम नाम धन बिनज कयो। हो रमैया राम।
लादेउ ब तु अमोल। हो रमैया राम।

हे रमैया राम! अपनी अधूरी इ छा को पूरा करने के िलए फर से इस जीव ने शरीर धारण कर िलया और
इस संसार का मेहमान बनकर आ गया। इस अबोध जीव को कौन समझाए क यहां पर सुख नह है। हे रमैया
राम! तुम ही तो हंस हो तथा मन को उजाला दखाने वाले मािण य हो, ले कन माया के वशीभूत होकर स गु
का ान धारण नह करते हो, िजससे जीवन-मरण से तु हारा छु टकारा नह होता है।
हे रमैया राम! जैसा तुमने कया है वैसा तु ह िमला है। अब इसम मेरा या कसूर है। मने तो तु ह पहले ही
सजग कर दया था। तुमने अपनी अबोधता और अ ानता के कारण मो को क ठन व अ ा य मान िलया है,
ले कन तुमने का पिनक देवी-देवता और कमका ड पर सहज प से ही िव ास कर िलया और उ ह ही मुि
का मा यम मान िलया, अब इसम मेरा या कसूर है।
कबीर कहते ह क तुमने राम नाम के धन को समझने क बजाय उसे ापार बना िलया और उस ‘राम नाम
धन’ का ापार करने के बाद भी राम नाम को समझ न सके , उसका लाभ न उठा सके । जब तुम स े ापारी
नह बन सके तो भुगतो।
भल सुमृित जहंड़ायेउ। हो रमैया राम।।1।।
धोखे कयेउ िव ास। हो रमैया राम।।2।।
सो तो है ब सी कसी। हो रमैया राम।।3।।
सो रे कये िव ास। हो रमैया राम।।4।।
ई तो है वेद शा । हो रमैया राम।।5।।
गु दीहल मोिह थािप। हो रमैया राम।।6।।
गोबर कोट उठायेउ। हो रमैया राम।।7।।
प रह र जैबे खेत। हो रमैया राम।।8।।

हे रमैया राम! शा -पुराण पर अंधा िव ास कर तुमने वयं को छला है। ये सब तो झूठी और मनगढ़ंत बात
ह, जैसे कांटे म चारा फं साकर मछली को छला जाता है, वैसे तुमने का पिनक बात पर िव ास कर वयं को ही
ठगा है।
हे रमैया राम! तथा किथत गु ने तुम पर वेद क बात थोपकर तु ह एक ल मण रे खा के अंदर बांध दया
है अथात् तुमको जबरद ती मूल रा ते से भटका दया गया है।
हे रमैया राम! तुम सब शा -पुराण का हवाला देकर उस कार से भला करना चाहते हो िजस कार से
गोबर का कला बनाकर कोई राजा हमलावर से बचने का झूठा यास करता है। अब तुम आ म- व प चेतन से
नह िमलोगे, तु ह यूं ही कई ज म तक रण े से पलायन करना पड़ेगा। मो क बात तो भूल ही जाओ।
मन बुिध जहवां न प ंचे। हो रमैया राम।।
तहां खोज कै से होय। हो रमैया राम।।
यह सुिन के मन धीरज धर । हो रमैया राम।।
मन ब ढ़ रहल लजाय। हो रमैया राम।।
फर पाछे जिन हेर । हो रमैया राम।।
कालबूत सब आिह। हो रमैया राम।।
कह हं कबीर सुनो स तो। हो रमैया राम।।
मन बुि ढग फै लायउ। हो रमैया राम।।

हे रमैया राम! मन और बुि जहां पर नह प च ं ते, वहां पर खोज करना असंभव है। यह जानकर मन म
धीरज रखो और यह गांठ बांध लो क तु हारा आ म- व प ही पूण है। हे रमैया राम! लि त होने क
ज रत नह है। तुम पीछे मुड़कर कु छ भी तलाशने का यास न करो। तु हारा आ म- व प ही चेतन है।
बाक सब सारहीन है। इस न र संसार क सारी न र व तुएं यह रह जाएंगी। तु हारे साथ कु छ भी नह
जाएगा।
कबीर कहते ह क हे संत सुनो! मन और बुि पर भरोसा करो और इनका उजाला अपने भीतर ही फै लाओ।
अंदर ही है, बाहर तो माया का शासन है। बाहर भटकोगे तो कु छ भी हाथ नह लगेगा। जीवन थ ही तबाह
हो जाएगा।
िबर ली
आ द अ त न हं होते िबर ली।
न हं जर प लव डार िबर ली।।1।।
िनिश-बासर न हं होते िबर ली।
पौन पािन न हं मूल िबर ली।।2।।
ा दक सनका दक िबर ली।
किथ गये योग अपार िबर ली।।3।।
मास असारे शीतल िबर ली।
बोइिन सात बीज िबर ली।।4।।
िनत गोड़ै िनत स चै िबर ली।
िनत नव प लव डार िबर ली।।5।।
िछिछिल िबर ली िछिछिल िबर ली।
िछिछिल रहल ित ंलोक िबर ली।।6।।
फू ल एक भल फु लल िबर ली।
फुू िल रहल संसार िबर ली।।7।।

हे ाणी! न तो तेरा आ द है और न ही तेरा कोई अंत है। न तो तेरी जड़ है, न तो प े ह और न ही डाल है


अथात् तेरा कोई आकार नह है और कारण भी नह है। हे जीव! तू िबना आकार का है। तु हारे अंतर म न तो दन
है, न रात है, न पानी है, न हवा है और न ही मूल यानी कोई बीज है।
कबीर कहते ह क ा आ द और सनका दक ने भी आ म- व प को ा करने के िलए अपार योग कए ह‒
आषाढ़ के महीने म जैसे कृ षक शीतल यानी बा रश के बाद खेत म बीज डालते ह वैसे ही यह जीव भी सात
िवषय के बीज बोता है अथात् पांच इं य और मन, अहंकार से जीवन का ापार करता है। जीवन एक
ापार ही तो है। फर उसी के अनुसार उसे कम फल िमलते रहते ह। वह कसान क तरह ही िन गुड़ाई करता
है, स चता है और िनत नये प े व डाल िनकलती रहती ह। गुड़ाई करना और स चना ये सब जीव के कम ही ह।
जीव के इस कम पी पेड़ म इ छा और वासना का एक फू ल िखला है और यही एक फू ल सारे संसार म िखला
आ है अथात् येक जीव म इसी एक फू ल का िव तार है।
सो फु ल लोढ़े स त जना िबर ली।
बि द के राउर जाय िबर ली।।8।।
सो फल ब दे भ जना िबर ली।
डिसगो बैतल सांप िबर ली।।9।।
िवषहर म न मानै िबर ली।
गा ड़ बोले अपार िबर ली।।10।।
िवष क यारी तुम बोय िबर ली।
अब लोढ़त का पिछता िबर ली।।11।।
ज म-ज म यम अ तरे िबर ली।
फल एक कनयर डार िबर ली।।12।।
कह हं कबीर सच पाव िबर ली।
जो फल चाख मोर िबर ली।।13।।

और इस फू ल को स तजन तोड़कर सारे मोहा द बंधन से मु हो जाते ह, ले कन जो भ जन ह, उनका यान


उस फू ल पर नह जाता है, वे तो इस फू ल को छोड़कर बाहर ई र क खोज करते ह, िजससे वे दुःखी रहते ह और
उसी फू ल यानी ई र क खोज म भटकते रहते ह। भला जो ई र अंदर बैठा है, वह बाहर िमलने वाला है। उ ह
तो अ ानता पी िवषैले सांप ने काट रखा है। ग ड़ पी ानी संत ब त समझाते ह क ई र बाहर नह
अ तमन म है, ले कन ई र से अलग होने क जो छटपटाहट उनम होती है, वह स य वाणी पी मं उन पर कोई
काम नह करता है। कबीर कहते ह क हे जीव ! खुद क यारी म तुमने ही तो जहर यानी अ ानता का बीज
बोया है क ई र अ तर मन म नह , बाहर है। अब जब ये जहरीले फू ल तोड़ने पड़ रहे ह तो पछतावा य हो
रहा है? ज म-ज म तक जीवन-मरण के च म भटकते रहो। स य-वाणी कनेर के वृ क तरह कड़वी भले ही
होती है, पर अ ानता का जहर दूर करने वाली होती है। कबीर कहते ह क हे ाणी! स गु के कड़वे ान पी
फल को खाओगे, तभी आ म- व प चेतन से िमल पाओगे, दूसरा कोई भी रा ता नह है।
िह डोला
भरम िह डोला झूले। सब जग आय।।1।।
पाप-पु य के ख भा दोऊ। मे माया मांिह।।2।।
लोभ भंवरा िवषय म वा। काम क ला ठािन।।3।।
शुभ अशुभ बनाये डांड़ी। गहे दून पािन।।4।।
कम पट रया बै ठ के । को-को न झूले आिन।।5।।
झूलत गण ग धव मुिनवर। झूलत सुरपित इ ।।6।।
झूलत नारद शारदा। झूलत ास फिण ।।7।।
झूलत िबरं िच महेश शुक मुिन। झूलत सूरज च ।।8।।
आप िनगुण-सगुण होय। झूिलया गोिब द।।9।।
छौ चा र चौदह सात एकइस। तीिनउ लोक बनाय।।10।।

सृि के सम त जीव म के झूले म डोल रहे ह। पाप-पु य के दो तंभ ह, माया पी मे है, लोभ क भंवर ही
झूले को िहलाती है और इस झूले म िवषय वासना का म वा है, काम क क ल ठु क है। इस झूले म दो शुभ-
अशुभ डंिडयां ह, िज ह जीव ने दोन हाथ से पकड़ रखा है। कम पी पटरी पर बैठकर सभी झूल रहे ह और जाने
कतने ही झूल। इस झूले म बैठकर िशव के गण, गंधव, मुिनजन, इं , नारद, शारदा, ास, शेष, ा, महेश,
शुकदेव, सूरज, च , शिन और िनराकार कहे जाने वाले कृ ण, राम भी साकार बनकर झूल।े
कबीर कहते ह क जीव ने खुद अपने िलए मजाल बुना है - छः शा , चार वेद, चौदह कलाएं बनाकर तथा
सात वग, इ स जगत और तीन लोक का का पिनक नामकरण कर म एवं संशय का झूला बना िलया है, मुि
िमले तो कै से िमले। यह झूला ही तो मुि के माग म रोड़ा है।
खानी बानी खोिज देख । अि थर कोई रहाय।।
ख ड- ा ड खोिज देख । छू टत कत ं ना हं।।
साधु संगित खोिज देख । जीव िन त र कत जा हं।।
शिश सूर रै िन शारदी। तहां त व परलय ना हं।।
काल अकाल परलय नह । तहां स त िबरले जा हं।।
तहां से िबछु रे ब क प बीते। भूिम परे भुलाय।।
साधु संगित खोिज देख । ब र न उल ट समाय।।
ये झुलबे को भय नह । जो होय स त सुजान।।
कह हं कबीर सत सुकत िमलै। तो ब र न झूले आन।।

कबीर कहते ह क चार तरफ घूमकर देख िलया, खानी तथा वाणी के च ूह म पड़ा जीव अि थर है। इस
झूले से मुि का उपाय पूरे ांड म भी कह नह है, खोजने पर भी कोई साधन नह दखता, इससे छु टकारा
पाने का।
साधु-संगित म भी खोजकर देख िलया, छू टने का उपाय नह दखा। यह पता लगाना आव यक है क इस जीव
को मुि कै से िमलेगी। स गु बताते ह क आ म- व प चेतन का वास वहां है जहां चं , सूय, रात- दन, मौसम,
जड़ त व, ज म-मरण, लय, समय आ द का कोई असर नह है, ले कन वहां कोई-कोई संत ही प च ं पाता है।
कबीर कहते ह क जहां से िबछु ड़े ए कई क प बीत गए, उसका रा ता और वह जगह भी दमाग से िमट गई
है तो उसे फर से मृित म लाने के िलए साधु-संगित म बैठो और आ म व प-चेतन के धाम प च ं ने का उपाय
ढू ंढो ता क फर जनम न हो और मरण क पीड़ा सहनी न पड़े अथात् मुि िमल जाए। जो ानी संत ह, उ ह म
के झूले से कोई भय नह रहता। वे उस पर झूलकर भी आसानी से उतर जाते ह अथात् सांसा रक गितिविधय म
शािमल होने के बावजूद स ित ा कर लेते ह।
कबीर कहते ह क जो िववेकवान ह और िज ह ने स य क खोज कर ली, उ ह इस झूले म झूलना नह पड़ता है
और माया भी उन पर अपना कोई भाव नह दखा पाती है।
ब िबिध िच बनाय के । ह र रिचत ड़ा रास।।
जा हं न इ छा झूलबे क । ऐसी बुिध के िह पास।।
झूलत-झूलत ब क प बीते। मन न हं छाड़े आस।।
र यो रहस िह डोरवा। िनिश चा रउ युग चौमास।।
कब ंक ऊंचे कब ंक नीचे। वग भूत ले जाय।।
अित भरिमत भरम िह डोरवा। नेकु नह ठहराय।।
डरपत हौ यह झूलबे को। राखु यादव राय।।
कह कबीर गोपाल िबनती। शरण ह र तुम आय।।

कबीर कहते ह क तरह-तरह के िच बनाकर ह र ने म झूले क ड़ा रचना क है। ऐसी बुि कसी के भी
पास नह है क वह इस झूले पर न झूल।े इस झूले पर झूलते-झूलते न जाने कतना ही समय गुजर गया, फर इस
पर बैठकर झूलने क ही इ छा है। इसके ित आसि जीव क बनी ई है। यह झूला चार युग म रात- दन यूं
ही अपने रं ग म झूलता ही रहता है। इसक रास-लीला म कोई कमी नह आयी है। जीव पहले क तरह ही इस पर
आस व मु ध है। यह िह डोला जीव को कभी ऊंचे अथात् मनु य योिन म तो कभी नीचे अथात् पशु-पि य क
योिन म भटकाता रहता है और यह कभी आसमान म तो कभी धरती पर लाकर छोड़ देता है। कहने का भाव है
क अपने वभाव के अनुसार यह झूला झूलता ही रहता है और जीव को कसी एक जगह यानी कसी एक योिन
म नह रहने देता है।
कबीर कहते ह क जीव इस झूले से डरा आ है, यादव े कृ ण से कहता है क हे यादव पित! इस िह डोले
को ि थर कर दो ता क म इस पर से उतर जाऊं। हे गोपाल! मुझे अपनी शरण म ले लो। म तु हारी शरण म आना
चाहता ।ं
लोभ मोह के ख भे दोऊ। मन से र यो है िह डोर।।1।।
झूल हं जीव जहान जहां लिग। कत न देख िथत ठौर।।2।।
चतुर झूल हं चतुराइया। झूल हं राजा शेष।।3।।
चांद सूय दोउ झूलह । उन ं न आ ा भेष।।4।।
लख चौरासी जीव झूलह । रिवसुत ध रया यान।।5।।
को ट क प युग बीितया। अज ं न माने हा र।।6।।
धरित आकाश दोउ झूलह । झूल हं पौना नीर।।7।।
देह धरे ह र झूलह । ठाढ़े देख हं हंस कबीर।।8।।

कबीर कहते ह क लोभ-मोह के दो तंभ पर यह िह डोला टका आ है और सृि के सारे जीव इस पर


बैठकर झूल रहे ह, एक भी जीव ि थर नह है। जो चालाक-चतुर ह, अपनी चतुराई म झूल रहे ह, राजा अपने
राजमद के अिभमान म झूल रहा है और शेषनाग भी इसी झूले म सवार ह। चांद, सूय भी झूल रहे ह, वे भी इस
म-िह डोले से वंिचत नह ह।
कहने का अथ है क चौरासी लाख योिनय के जीव-जंतु भी इस झूले म झूल रहे ह, ले कन कसी ने भी इसे
अपना घर नह माना, सबको ही पता है क यहां से जाना है। करोड़ क प और युग बीत गए, ले कन जीव का इस
आवागमन से दल नह भरा है। धरती, आकाश दोन झूल रहे ह और हवा, पानी भी झूल रहे ह।
कबीर कहते ह क देह धारण कर ह र भी झूल रहे ह और जो ानी ह वे दूर खड़े होकर हंस रहे ह।
कहने का भाव है क इस म के हंडोले से कोई भी अछू ता नह है।

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