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शी गनेस सुिमरन करं, उपजै बुिद पकास।

सो चिरत बरनन करं, जासो दािरद नास।।

ज‍यो गंगा जल पान ते, पावत पद िनवारन।

त‍यो िसन‍धुर मुख बात ते, मूढ होत बुिधवान।।

कृ स‍न िमत कै जन‍म को, ताको बरनन कीन‍ह।

सुख सम‍पित माया िमलै, सो उपदेस जु दीन‍ह।।

िबप सुदामा बसत है, सदा आपने धाम।

िभका किर भोजन करै , िहये जपै हिर नाम।।

ताकी धरनी पितवता, गहे वेद की रीित।

सुलज, सुसील, सुबुिद अित, पित सेवा मे पीित।।

कही सुदामा एक िदन, कृ स‍न हमारे िमत।

करत रहित उपदेस ितय, ऐसो परम िविचत।।

महाराज िजनके िहतू, है हिर यदुकुल चन‍द।

ते दािरद सन‍ताप ते, रहै न क‍यो िनरदंद।।


कहो सुदामा बाम सुन,ु वृथा और सब भोग।

सत‍य भजन भगवान को, धमर सिहत जप-जोग।।

लोचन-कमल दुखमोचन ितलक भाल,

सवनिन कु ण‍डल मुकुट धरे माथ है।

ओढे पीत बसन गरे मै बैजयन‍ती माल,

संख चक गदा और पद धरे हाथ है।।

कहत नरोतम सन‍दीपिन गुर के पास,

तुमही कहत हम पढे एक साथ है।

दािरका के गए हिर दािरद हरै गे िपय,

दािरका के नाथ वे अनाथन के नाथ है।।

िसच‍छक हौ िसगरे जग को, ितय! ताको कहा अब देित है िसच‍छा।

जे तप कै परलोक सुधारत, सम‍पित की ितनके नही इच‍छा।।

मेरे िहये हिर के पद पंकज, बार हजार लै देिख पिरच‍छा।

औरन को धन चािहये बाविर, बामहन को धन के वल िभच‍छा।।

दानी बडे ितहँ लोकन मे, जग जीवत नाम सदा िजनको लै।

दीनन की सुिध लेत भली िविध, िसद करौ िपय मेरो मतौ लै।।

दीनदयाल के दार न जात सो, और के दार पै दीन हवै बोलै।


शी जदुनाथ से जाके िहतू सो, ितहँपन क‍यो कन माँगत डोलै।।

कितन के पन जुद जुवा, सिज बािज चढे गजराजन ही।

बैस के बािनज और कृ सी पन, सूद को सेवन साजन ही।।

िवपन के पन है जु यही, सुख सम‍पित को कु छ काज नही।

कै पिढयो कै तपोधन है, कन माँगत बांभनै लाज नही।।

कोदो सवां जुरतो भिर पेट, न चाहित हौ दिध-दूध िमठौती।

सीत िवतीत भयो िसिसयातिह, हौ हठती पै तुम‍है न पठौती।।

जौ जनती न िहतू हिर सो, तुम‍हे काहे को दािरका ठे िल पठौ‍ती।

या घरते न गयो कबहँ, िपय! टू टो तवा अर फू टी कठौती।।

छांिड सबै जक तोिह लगी बक, आठह जाम यहै िजय ठानी।

जातिह दैहै लदाय लढाभिर, लैहो लदाय यहै िजय जानी।।

पैहौ कहाँ ते अटारी अटा, िजनके िविध दीन‍ही है टू टी सी छानी।

जो पै दिरद िलख‍यो है िललार, तो काह पै मेिट न जात अजानी।।

पूरन पैज करी पहलाद की, खम‍भ सो बांध‍यो िपता िजिह बेरे।

दौपदी ध‍यान धयो जबही तबही पट कोिट लगे चहँ फे रे ।।

गाह ते छू िट गयन‍द गयो िपय, यािह सो है िनशय िजय मेरे।

ऐसे दिरद हजार हरै वे कृ पािनिध लोचन-कोर के हेरे।।


चक‍कवै चौिक रहे चिक से, तहाँ भूले से भूप िकतेक िगनाऊं।

देव गन‍धवर औ िकन‍नर जच‍छ से, सांझ लौ ठाढे रहै िजिह ठाऊं।।

ते दरबार िबलोक‍यो नही अब, तोही कहा किहके समझाऊं।

रोिकए लोकन के मुिखया, तहँ हौ दुिखया िकिम पैरन पाऊं।।

भूल से भूप अनेक खरे रहौ, ठाढे रहौ ितिम चक‍कवे भारी।

देव गन‍धवर औ िकन‍नर जच‍छ से, मेलो करै ितनकौ अिधकारी।।

अन‍तरयामी ते आपुही जािनहै, मानौ यहै िसिख आजु हमारी।

दािरकानाथ के दा गए, सब ते पिहले सुिध लैहै ितहारी।।

दीन दयाल को ऐसोई दार है, दीनन की सुिध लेत सदाई।

दौपदी तै गज तै पहलाद तै, जािन परी ना िबलम‍ब लगाई।।

याही ते भावित मो मन दीनता, जौ िनबहै िनबहै जस आई।

जौ बजराज सौ पीित नही, के िह काज सुरेसह की ठकु राई।।

फाटे पट टू टी छािन खाय भीक मांिग मांिग,

िबना यज िवमुख रहत देव िततई।

वे है दीनबन‍धु दुखी देिख कै दयालु है है,

दै है कछु जौ सौ हौ जानत अिगनतई।।

दािरका लौ जात िपया! एतौ अरसात तुम,


काहे कौ लजात भई कौनसी िविचतई।

जौ पै सब जन‍म या दिरद ही सतायौ तोपै,

कौन काज आई है कृ पािनिध की िमतई।।

तै तो कही नीकी सुनु बात िहत ही की,

यही रीित िमतई की िनत पीित सरसाइए।

िचत के िमलेते िचत धाइए परसपर,

िमत के जौ जेइए तौ आपह जेवाइए।।

वे है महाराज जोिर बैठत समाज भूप,

तहाँ यिह रप जाइ कहा सकु चाइए।

दुख सुख के िदन तौ अब काटे ही बनैगे भूिल,

िबपत परे पै दार िमत के न जाइए।।

िवपन के भगत जगत के िविदत बनधु,

लेत सब ही की सुिध ऐसे महादािन है।

पढे एक चटसार कही तुम कय बार,

लोचन अपार वै तुम‍है न पिहचािन है।।

एक दीनबंध,ु कृ पािसधु के िर गुरबन‍ध,ु

तुम सम को दीन जािह िनजिजय जािनहै।

नाम लेत चौगुनी, गए ते दार सौगुनी सो,

देखत सहसगुनी पीित पभु मािनहै।।


पीित मे चूक नही उनके हिर, मो िमिल है उिठ कण‍ठ लगाय कै ।

दार गए कछु दै है पै दै है, वे दािरका दािरका जू है सब लायकै ।।

जै िबिध बीित गए पन दै, अब तो पहँचो िबरधापन आय कै ।

जीवन शेष अहै िदन के ितक, होहँ हरी से कनावडो जाए कै ।।

हजै कनावडो बार हजार लौ, जौ िहतू दीन दयालु सो पाइए।

तीिनह लोक के ठाकु र जे, ितनके दरबार न जात लजाइए।।

मेरी कही िजय मै धिर कै िपय!, भूिल न और पसंग चलाइए।

और के दार सो काज कहा िपय, दािरका नाथ के दारे िसधाइए।।

दािरका जाह जू दािरका जाह जू, आठह जाम यहै झक तेरे।

जौ न कहौ किरए तौ बडो दुख, जैये कहां अपनी गित हेरे।।

दार खडे पभु के छिरया तहं, भूपित जान न पावत नेरे।

पांचु सुपािर तौ देखु िबचािर कै , भेट को चािर न चांवर मेरे।।

यिह सुिन कै तब बाहणी, गई परोिसन पास।

पाव सेर चाउर िलए आई सिहत हलास।।

िसिद करी गनपित सुिमिर, बांिध दुपिटया खूंट।


मांगत खात चले तहां, मारग बाली-बूंट।।

तीन िदवस चिल िवप के , दूिख उठे जब पांय।

एक ठौर सोए कहँ, घास पयार िबछाय।।

अन‍तरजामी आपु हिर, जािन जगत की पीर।

सोबत लै ठाढो िकयो, नदी गोमती तीर।।

पात गोमती दरस ते, अित पसन‍न भो िचत।

िवप तहां असनान किर, कीन‍हो िनत िनिमत।।

भाल ितलक घिस कै िदयो, गही सुिमिरनी हाथ।

देिख िदव‍य दारावती, भयो अनाथ सनाथ।।

दीिठ चकाचौिध गई देखत सुबनरमई,

एक ते आछे एक दािरका के भौन है।

पूछे िबनु कोऊ कहँ काह सो बात करै ,

देवता से बैठे सब सािध सािध मौन है।।

देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पांय,

कृ पा किर कहो िवप कहां कीन‍हो गौन है।

धीरज अधीर के हरन पर पीर के ,


बताओ बलबीर के महल यहाँ कौन है।।

दीन जािन काह पुरस, कर गिह लीन‍हो आय।

दीन दार ठाढो िकयो, दीन दयाल के जाय।।

दारपाल िदज जािन कै , कीन‍ही दण‍ड पनाम।

िवप कृ पा किर भािषए, सकु ल आपनो नाम।।

नाम सुदामा, कृ स‍न हम, पढे एकई साथ।

कु ल पांडे वृजराज सुिन, सकल जािन है गाथ।।

दार पाल चिल तहं गयो, जहाँ कृ स‍न यदुराय।

हाथ जोिर ठाढो भयो, बोल‍यो सीस नवाय।।

सीस पगा न झँगा तन मे, पभु! जानै को आिह बसे के िह गामा।

धोती फटी-सी लटी-लुपटी अर, पांय उपानह की निह सामा।।

दार खडो िदज दुबरल एक, रहो चिक सो बसुधा अिभरामा।

पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत अपनो नाम सुदामा।।

बोल‍यो दारपाल एक 'सुदामा नाम पांड'े सुिन,

छांडे काज ऐसे जी की गित जानै को?


दािरका के नाथ हाथ जोिर धाय गहे पांय,

भेटे भिर अंक लपटाय दुख साने को।।

नैन दोऊ जल भिर पूछत कु सल हिर,

िवप बोल‍यो िवपदा मे मोिह पिहचानै को?

जैसी तुम करी तैसी करी को दया के िसन‍ध,ु

ऐसी पीित दीनबन‍ध!ु दीनन सो मानै को?

लोचन पूिर रहे जलसो, पभु दूिर ते देखत ही दुख भेटो।

सोच भयो सुरनायक के , कलपदुम के िहय माझ खसेटो।।

कम‍प कु बेर िहये सरस‍यो, परसे पग जात सुमेर समेटो।

रं क ते राउ भयो तबही, जबही भिर अंक रमापित भेटो।।

भेिट भली िविध िवप सो, कर गिह ितभुवनराय।

अन‍त:पुर को लै गए, जहाँ न दूजो जाय।।

मिन मंिडत चौकी कनक, ता ऊपर बैठाय।

पानी धयो परात मे पग धोवन को लाय।।

राजरमिन सोरह सहस, सब सेवकन समीत।

आठो पटरानी भई, िचतै चिकत यह पीत।।


िजनके चरनन को सिलल, हरत जगत सन‍ताप।

पांय सुदामा िवप के धोवत ते हिर आप।।

ऐसे बेहाल िबवाइन सो, पग कं टक जाल लगे पुिन जोए।

हाय महा दुख पायो सखा तुम, आए इतै न िकतै िदन खोए।।

देखी सुदामा की दीन दसा, करना किर कै करना-िनिध रोए।

पानी परात को हाथ छु यौ निह, नैनन के जल सो पग धोए।।

धोय पाँय पट-पीत सो, पोछत है जदुराय।

सतभामा सो यो कही, करो रसोई जाय।।

तन‍दल
ु ितय दीने हते, आगे धिरयो जाय।

देिख राज सम‍पित िवभव, दै निह सकत लजाय।।

अन‍तरजामी आपु हिर, जािन भगत की रीित।

सुहद सुदामा िवप सो, पकट जनाई पीित।।

कछु भाभी हमको िदयो, सो तुम काहे न देत।

चाँिप पोटरी काँख मे, रहो कहो के िह हेत।।

आगे चना गुरमातु दए ते, लए तुम चािब हमे निह दीने।


स‍याम कहो मुसुकाय सुदामा सो, चोरी की बािन मे हौ जू पवीने।।

पोटरी काँख मे चाँिप रहे तुम, खोलत नािह सुधारस भीने।

पािछली बािन अजौ न तजी तुम, तैसई भाभी के तन‍दल


ु कीने।।

खोलत सकु चत गाँठरी, िचतवत हिर की ओर।

जीरन पट फिट छु िट पख‍यो, िबथिर गये तेिह ठौर।।

एक मुठी हिर भिर लई, लीन‍ही मुख मे डािर।

चबत चबाउ करन लगे, चतुरानन ितपुरािर।।

कांिप उठी कमला मन सोचत, मोसो कहा हिर को मन ओको?

ऋिद कँ पी सब िसिद कँ पी, नविनिद कँ पी बम‍हना यह धौ को?

सोच भयो सुरनायक के , जब दूसरी बार िलयो भिर झोको।

मेर डसयो बकसे िनज मेिह, कु बेर चबावत चाउर चोको।।

हल िहयरा मे सब कानन परी है टेर,

भेटत सुदामा स‍याम चािब न अघात ही।

कहै नरोतम िरिध िसिदन मे सोर भयो,

ठाढी थर हरै और सोचे कमला तही।।

नाक लोग नाग लोक, ओक-ओ‍क थोक-थोक,

ठाढे थरहरे मुख सूखे सब गात ही।


हाल‍यो पयो थोकन मे, लालो पयो लोकन मे,

चाल‍यो पयो चकन मे चाउर चबात ही।।

भौन भरो पकवान िमठाइन, लोग कहै िनिध है सुखमा के ।

साँझ सबेरे िपता अिभलाखत, दाखन चाखत िसन‍धु छमा के ।।

बामहन एक कोउ दुिखया सेर, पावक चाउर लायो समा के ।

पीित की रीित कहा किहए, तेिह बैिठ चबात है कन‍त रमा के ।।

मुठी तीसरी भरत ही, रकिमिन पकिर बांह।

ऐसी तुम‍हे कहा भई, सम‍पित की अनचाह।।

कही रकिमिन कान मे, यह धौ कौन िमलाप।

करत सुदामा आपु सो, होत सुदामा आप।।

क‍यो रस मे िवष बाम िकयो, अब और न खान िदयो एक फं का।

िवपिह लोक तृतीयक देत, करी तुम क‍यो अपने मन संका।।

भािमिन मोिह जेवाइ भली िविध, कौन रहौ जग मे नर रं का।

लोक कहै हिर िमत दुखी, हमसो न सहोो यह जात कलंका।।

भागरव ह सब जीित धरा, दय िवपन को अित ही सुख मानो।

िवपन कािढ िदयो तुमको, िनिश तािदन को िबसरो िखिसयानो।।


िसन‍धु हटाय करो तुम ठौर, िदजन‍म सुभाव भली िविध जानो।

सो तुम देत िदजै सब लोक, िकयौ तुमने अब कौन िठकानो।।

भािमिन देव िदजै सब लोक, तजौ हट मोर यहै मन भाई।

लोक चतुदस
र की सुख सम‍पित, लागत िवप िबना दुखदाई।।

जाय रहौ उनके घर मे, औ करौ िदज दम‍पित की सेवकाई।

तो मन मािह रचै न रचै, सो रचै हम कौ वह ठौर सुहाई।।

भािमिन क‍यो िबसरी अबही, िनज ब‍याह समय िदज की िहतुआई।

भूिल गई िदज की करनी, जेिह के कर सो पितया पठवाई।।

िवप सहाय भयो तेिह औसर, को िदज के समुहे सुखदाई।

योग‍य नही अदारिगनी है, तुमको िदज हेतु इती िनठु राई।।

यिह कौतुक के समय मे कही सेवकिन आय।

भई रसोई िसद पभु, भोजन किरये आय।।

िवप सुदामिह नहाय कर धोती पिहिर बनाय।

सन‍ध‍या किर मध‍यान‍ह की, चौका बैठे जाय।।

रपे के रिचर थार पायस सिहत िसता,

सोभा सब जीती िजन सरद के चन‍द की।


दूसरे परोसो भात सोधो सुरभी को घृत,

फू ले फू ले फु लका पफु ल‍ल दुित मन‍द की।।

पापर मुंगोरी बरा व‍यंजन अनेक भांित

देवता िवलोक रहे देवकी के नन‍द की।

या िविध सुदामा जु को आछे कै जेवाये पभु,

पाछै कै पछाविर परोसी आिन कन‍द की।।

सात िदवस यिह िविध रहे, िदन िदन आदर भाव।

िचत चल‍यो घर चलन को, ताकौ सुनह हवाल।।

दािहने वेद पढै चतुरानन, सामुहे ध‍यान महेस धयो है।।

बाँए दोउ कर जोिर सुसेवक, देवन साथ सुरेस खयो है।।।

एतइ बीच अनेक िलए धन, पायन आय कु बेर पयो है।

देिख िवभौ अपनो सपनो, बापुरो वह बांमहन चौिक पयो है।।

देनो हतो सो दै चुके, िवप न जानी गाथ।

मन मे गुनो गुपाल जू, कछु ना दीनो हाथ।।

वह पुलकिन वह उिठ िमलन, वह आदर की बात।

यह पठविन गोपाल की, कछू न जानी जात।।


घर घर कर ओडत िफरे , तनक दही के काज।

कहा भयो जो अब भयो, हिर को राज-समाज।।

हौ आवत नाही हतौ, वािह पठायो ठे िल।

अब किह हौ समुझाय कै , बह धन धरौ सके िल।।

बालापन के िमत है, कहा देउँ मै साप।

जैसो हिर हमको िदयौ, तैसो पैइहै आप।।

नौ गुन धारी छगन सो, ितगुने मध‍ये जाय।

लायो चापल चौगुनी, आठो गुनिन गंवाय।।

और कहा किहए जहाँ, कं चन ही के धाम।

िनपट किठन हिर को िहयो, मोको िदयो न दाम।।

बह भंडार रतन भरै , कौन करै अब रोष।

लाग आपने भाग को, काको दीजै दोस।।

इिम सोचत-सोचत झखत, आये िनज पुर तीर।

दीिठ परी एक बार ही, हय गयन‍द की भीर।।


हिर दरसन से दूिर दुख, भयो गये िनज देस।

गौतम ऋिष को नाउँ लै, कीन‍हो नगर पवेस।।

वैसोइ राज समाज बनो गज, बािज घने मन सम‍भम छायो।

कै धौ पयो कहँ मारग भूिल, िक फे िर कै मै अब दािरका आयो।।

भौन िबलोिकबे को मन लोचत, सोचत ही सब गांव मंझायो।

पूछत पांडे िफरे सब सो पर, झोपरी को कहँ खोज न पायो।।

देव नगर कै जच‍छ पुर, हौ भटक‍यो िकत आय।

नाम कहा यिह नगर को, सो न कहौ समुझाय।।

सो न कहौ समुझाय नगर वासी तुम कै से।

पिथक जहाँ झंखािह तहाँ के लोग अनैसे।।

लोग अनैसे नािह, लखौ िदज देव नगर तै।

कृ पा करी हिर देव, िदयौ है देव नगर कै ।।

सुन‍दर महल मिन-मािनक जिटल अित,

सुबरन सूरज-पकास मानो दै रहौ।

देखत सुदामा जू को नगर के लोग धाये,

भेटे अकु लाय जोई सोई पग छू वै रहौ।।


बांमहनी के भूसन िविवध िविध देिख कहौ,

जैहौ हौ िनकासो सो तमासो जग ज‍वै रहौ।

ऐसी दसा िफरी जब दािरका दरस पायो,

दािरका के सिरस सुदामापुर हवै रहौ।।

कनक दण‍ड कर मे िलए, दारपाल है दार।

जाय िदखायो सबिन लै, या है महल तुम‍हार।।

कही सुदामा हँसत हौ, हवै किर परम पवीन।

कु टी िदखावह मोिह वह, जहाँ बाँझनी दीन।।

दारपाल सो ितन कही, क‍िह पठवह यह गाथ।

आये िवप महाबली, देखह होह सनाथ।।

सुनत चली आनन‍द युत, सब सिखयन लै संग।

नूपुर िकिकिन दुन‍दभ


ु ी, मनह काम चतुरंग।।

कही बाँमहनी आय कै , यहै कन‍त िनज गेह।

शीजदुपित ितहँ लोक मे, कीन‍हो पकट सनेह।।

हमै कन‍त जिन तुम कहौ, बोलौ बचन सँभािर।


इहै कु टी मेरी हती, दीन बापुरी नािर।।

मै तो नािर ितहािर पै, सुिध सँभािरये कन‍त।

पभुता सुन‍दरता सबै, दई रिकमनी कन‍त।।

टू टी सी मडैया मेरी परी हती याही ठौर,

तामे परी दुख काटे कहा हेम धाम री।

जेवर जराऊ तुम साजे सब अंग अंग,

सखी सोहै संग वह छू छी हती छामरी।।

तुम तो पटम‍बर सो ओढे हौ िकनारीदार,

सारी जरतारी वह ओढे कारी कामरी।

मेरी पंिडताइिन ितहारे अनुहािर पतो,

मोको बतलाओ कहाँ पाऊँ वािह बामरी।।

ठाढी है पँडाइन कहत मंजु भावन सो,

प‍यारे परौ पाइन ितहारोई जु घर है।

आए चिल हरौ शम कीन‍हो तुम भूिर दुख,

दािरद गमायो यो हँसत गहोो कर है।।

िरिद िसिद दासी किर दीन‍ही अिवनासी कृ स‍न,

पूरन पकासी, कामधेनु कोिट बर है।

चलो पित भूलो मित तुम‍हे दीन‍हो जदुपित,


सम‍पित सो लीिजए समेत सुरतर है।।

समुझायो िनज कन‍त को, मुिदत गई लै गेह।

अन‍हवायो तुरतिह उबिट, सुिच सुगन‍ध सो देह।।

पूज‍यो अिधक सनेह सो, िसहासन बैठाय।

सुिच सुगन‍ध अम‍बर रचे, वर भूसन पिहराय।।

सीतल जल अँचवाइ कै , पानदान धिर पान।

धयो आय आगे तुरत, छिब रिव-पभा समान।।

भरिह चौर चहँ ओर ते, रम‍भािदक सब नािर।

पितबृता अित पेम सो ठाढी करै बयािर।।

स‍वेत छत की छाँह मे, राजत शक समान।

बाहन गज रथ तुरँग वर, अर अनेक सुभ वान।।

कामधेनु सुरतर सिहत, दीन‍ही सबै बलबीर।

जािन पीर गुर बन‍धु हिर, हिर लीन‍ही सब पीर।।

िबिबध भाँित सेवा करी, सुधा िपयायो बाम।


अित िवनीत मृद ु वचन किह, सब पूरो मन काम।।

लै आयसु ितय स‍नान किर, सुिच सुगंध सब लाइ।

पूजी गौिर सोहाग िहत, पीित सिहत सुख पाइ।।

षटरस िविवध पकार के , भोजन रचे बनाय।

कं चन थार मँगाय के , रिच रिच धरे बनाय।।

चन‍दन चौकी डािर कै , दासी परम सुजान।

रतन जिटत भाजन कनक, भिर गंगाजल आन।।

घट कं चन को रतन युत, सुिच सुगिनध जल पूिर।

रच‍छा धान समेत कै , जल, पकास भरपूिर।।

रतन जिटत पीढा कनक, आन‍यो बैठन काम।

मरकत मिन चौकी धरी, कछु क दूिर छिब धाम।।

चौकी लई मँगाय कै , पग धोवन के काज।

मिन पादुका पिवत अित, धरी िविवध िविध साज।।

चिल भोजन अब कीिजए, कहोो दास मृद ु भािख।


कृ स‍न कृ स‍न सानन‍द किह, धन‍य भरी हिर सािख।।

बसन उतारे जाइ कै , धोवत चरन सरोज।

चौकी पै छिब देत यो, जनु तनु धरे मनोज।।

पिहिर पादुका िवप जब, पीढा बैठे जाय।

रित ते अित छिब आगरी, पित सो हँिस मुसकाय।।

िविवध भाँित भोजन धरे , व‍यंजन चािर पकार।

जोरी पिछऔरी सकल, पथम कहे निह पार।।

हिरिह समपो कन‍त अब, कही मन‍द हँिस बाम।

किर घंटा को नाद त‍यो, हिर समिप लै नाम।।

अिगिन जेवाय िवधान सो, वैस‍व देव किर नेम।

बली कािढ जेवन लगे, करित पवन ितय पेम।।

बार बार पूछित िपया, लीजै जै रिच होय।

कृ ष‍ण कृ पा पूरन सबै, अबै परोसो सोय।।

जेइ चुके अँचवन लगे, करन गए िवसाम।


रतन जिटल पलका कनक, बुनी सुरेशम दाम।।

लिलत िबछौना, िबरिच कै , पाँयत किस के डोिर।

राखे बसन सुसेवकिन, रिचर अतर सो बोिर।।

पानदान नेरे धयो, भिर वीरा छिब धाम।

चरन धोय पौढन लगे, करन हेत िवशाम।।

कोउ चँवर कोउ बीजना, कोउ सेवत पद चार।

अित िविचत भूसन सजे, गजमोितन के हार।।

किर िसगार िपय पै गई, पान खाित मुसुकात।

कहौ कथा सब आिद ते, िकिम दीन‍हो सौगात।।

कही कथा सब आिद ते, राह चले की पीर।

सोवत िजिम ठाढो िकयो, नदी गोमती तीर।।

गए दार िजिम भाँित सो, सो सब करी बखान।

किह न जाय मुख लाख सो, कृ स‍न िमले िजिम आन।।

कर गिह भीतर लै गए, जहाँ सकल रिनवास।


पग धोवन को आपुही, बैठे रमा िनवास।।

देिख चरन मेरे चल‍यो, पभु नयनन ते बािर।

ताही सो धोए चरन, देिख चिकत नर नािर।।

बहिर कही शीकृ स‍न िजिम, तन‍दल


ु लीन‍हे आप।

मेरे हदय लगाइ कै , मेटे भम सन‍ताप।।

बहिर करी जेवनार सब, िजिम कीन‍ही बह भाँित।।

बरिन कहाँ लिग को कहौ, सब व‍यंजन की पाँित।।

जािदन अिधक सनेह सो, सपन िदखायो मोिह।

सो देख‍यो परतच‍छ ही, सपन न िनसफल होिह।।

बरिन कथा यिह िविध सबै, कहो आपनो मोह।

कृ स‍न कृ पािनिध भगत िहय, िचदानन‍द सन‍दोह।।

साजे सब साज बाज बािज गज राजत है,

िविबध रिचर रथ पालकी बहल है।।

रतन जिटत सुभ िसोेहासन बैिठबे को,

चौक पित कामधेनु कल‍पतर लहल है।।


देिख-देिख भूसण बसन दािस दासन के ,

सुखपाल सासन के लागत सहल है।।

सम‍पित सुदामाजू को कहाँ लौ दई है पभु,

कहाँ लौ िगनाऊँ जहाँ कं चन महल है।।

बािजसाला गजसाला दीन‍हे गजराज खरे ,

गजराज महाराज राजन-समाज के

बािनक िविवध बाने मिनदर कनक सोहै,

मािनक जरे से मन मोहै देवतान के ।

हीरालाल लिलत झरोखन मे झलकत,

िझिम-िझिम झूमत झूमत मुकतान के ।

जानी निह िवपित सुदामाजू की कहाँ गई,

देिखए िवधान जदुराय के सुदान के ।।

कहँ सपनेहँ सुबरन के महल होते,

पौिर मन मण‍डप कलस कब धरते?

रतन जिटत िसहासन पर बैिठबे को,

खरे है खवास मोपै चौर कब ढरते?

देिख राजसामा िनज वामां सो सुदामा कहै,

कब ये भण‍डार मेरे रतनन से भरते?

जो पै पितबरता न देतो उपदेस तू तौ,


एती कृ पा मो पै कब दािरके स करते?

उठे पिहिर अम‍बर रिचर, िसहासन पर आय।

बैठे पभुता देिख कै , सुरपित रहौ लजाय।।

कै वह टू टी सी छान हती, कहँ कं चन के अब धाम सुहावत।

कै पग मे पनही न हती, कहँ लै गजराजह ठाढे महावत।

भूिम कठोर पै राित कटै, कहँ कोमल सेज पै नीद न आवत।

किह जुरतो निह कोदौ सवाँ, पभु के परताप ते दाख न भावत।।

धन‍य-धन‍य जदुवंस मिन, दीनन पै अनुकूल।

धन‍य सुदामा सिहत ितय, किह सुर बरसिह फू ल।।

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