Professional Documents
Culture Documents
पाठ-पुनः पाठ
लॉ क डा उ न
76 वें दिन का पाठाहार
52वीं िक़स्त
क्रम
प्रकाशकीय
4
धरती आबा
नाटक-अंश
हृषीकेश सुलभ
7
अनुपस्थिति की जगह
पूर्वा भारद्वाज
37
फू ल-पत्ती
कैलाश वानखेड़े
44
प्रकाशकीय
अशोक महेश्वरी
प्रबंध निदेशक, राजकमल प्रकाशन समूह
5
चित्र : गूगल से साभार
बिरसा मुंडा
जन्म : 15 नवम्बर 1875
निधन : 9 जून 1900
धरती आबा
*
हृषीकेश सुलभ
7
पाठ-पुनः पाठ
सब। सब झूठ है। नहीं मरा हमारा धरती आबा। हमारे भगवान को कुछ
नहीं हो सकता। वह ज़िन्दा भगवान था। भगवान का एक ही मतलब
नहीं होता। उसने कहा था...
[बिरसा पर प्रकाश दीप्त होता है।]
बिरसा : सुनो, मुंडा लोगो सुनो! मैं धरती का आबा हूँ। माटी से बनी
है मेरी और सबकी देह। जब तक मैं माटी की यह देह नहीं बदलता,
तुम लोग नहीं बच सकोगे। हिम्मत मत छोड़ना। मैंने तुम्हें सारे हथियार
दिए हैं। छाती में साहस दिया है। तुम्हें तुम्हारे दुश्मन की पहचान करा
दी है मैंने। हथियार मत छोड़ना। एक दिन तुम्हें ही जीतना है। लौटकर
आऊँगा मैं...जल्दी ही लौटूँगा मैं अपने जंगलों में, अपने पहाड़ों पर।...
मुंडा लोगों के बीच फिर आऊँगा मैं।...तुम्हें मेरे कारण दुख न सहना
पड़े इसलिए माटी बदल रहा हूँ मैं।...उलगुलान ख़त्म नहीं होगा। आदिम
ख़ून है हमारा।...काले लोगों का ख़ून है यह। भूख...लांछन... अपमान...
दुख...पीड़ा ने मिल-जुलकर बनाया है इस ख़ून को। इसी ख़ून से जली
है उलगुलान की आग। यह आग कभी नहीं बुझेगी...कभी नहीं।...जल्दी
ही लौटकर आऊँगा मैं।
[बिरसा पर से प्रकाश सिमटता है।]
धानी : सुना? सुना आपने? जल्दी लौटकर आएगा वह। जल्दी ही लौटेंगे
हमारे धरती आबा।...मैंने फिर शुरू किया है कुचला के विषवाले तीर
बनाना। आओ धरती आबा, आओ। जंगल तुम्हें बुला रहे हैं। धरती तुम्हें
पुकार रही है। तुम्हारी माँ रो रही है।
[धानी पर से प्रकाश सिमट जाता है। नेपथ्य से गायन शुरू होता
है। सारे पात्र मंच पर आते हैं और गायन में शामिल होते हैं।]
9
फ़ोटो साभार : अखिलेश
*
सुधाकर यादव
मराठी से अनुवाद
डॉ. गोरख थोरात
अमृता शेरगिल के कारण भारतीय कला पूरी तरह से बदल गयी। ब्रिटिश
यथार्थवाद का विरोध करते हुए स्वदेशी की प्रेरणा से भारतीय परम्परा
का पुनरुत्थान करनेवाला आन्दोलन भी अमृता के कारण फ़ीका पड़
गया। इस दौर में अजन्ता, लघुचित्र, वैदिक दर्शन, पुराण, संस्कृत,
सौन्दर्यशास्त्र आदि बिन्दुओं को जोडऩेवाला भारतीय कला का एक
मानचित्र ही तैयार हो गया था। भारतीय कलाकारों पर बस यही धुन
सवार थी कि भारतीय परम्परा का कोई एक लक्षण अपनी कला में आ
जाये। ऐसे बाह्य लक्षणों के कारण कला में कृत्रिमता, तार्किकता और
रोमांटिकता आती है, जिसे उतार फेंककर अमृता की कला ने भारतीय
जीवन, ग्रामीण यथार्थ को केन्द्र बिन्दु बनाया था। अमृता शेरगिल की
कला की इस तीव्र संवेदना की आँच को आनेवाली पीढिय़ों के चित्रकार
वहन नहीं कर पाये। इसी कारण अमृता के बाद नये कलाकारों की पीढ़ी
11
पाठ-पुनः पाठ
उन्होंने भारत भर में भ्रमण करते हुए भारतीय शिल्प, वास्तु संस्कृति का
अवलोकन शुरू किया। अमृता शेरगिल में जो जिज्ञासा थी, वही हुसेन
में दिखायी देती है। हुसेन पर गुप्तकालीन शिल्प का प्रभाव इसी दौर
में पड़ा। भारतीय सिनेमा, कला, पुराण, परम्परा, मिथक के प्रति हुसेन
आकर्षित थे। राममनोहर लोहिया के विचारों से भी वे प्रभावित थे। इसी
प्रभाव से उन्होंने रामायण के दृश्यों पर सैकड़ों चित्र बनाये। बाद में भी
उनकी महाभारत आदि पर अनेक चित्र-शृंखलाएँ जारी रहीं।
रामायण, महाभारत, एलोरा, अजन्ता, कालिदास, ग़ालिब, उर्दू काव्य,
मिथक वग़ैरह सभी का समाहार हुसेन की कलाशैली में है। शैली यानी
निर्मिति सूत्र। सबका साझा सूत्र यानी प्रतीकवाद। हुसेन के बिलकुल
आरम्भिक चित्रों से लेकर अन्तिम चित्रों तक यह प्रतीकवाद दिखायी
देता है। चित्र में बार-बार आनेवाले घोड़े, हाथी, बाघ, कमल, मानवीय
देह की मुद्राएँ—सारी चिह्न-व्यवस्था हुसेन के चित्रों के विशेष अंग हैं।
मानवीय देह की गठन हमेशा गुप्तकालीन शिल्प, खजुराहो तथा कोणार्क
की याद दिलाती है।
हुसेन के कई चित्र आत्मचरित्रात्मक हैं। क्योंकि बचपन से उन पर असर
करनेवाली आसपास की वस्तुएँ चित्र में प्रतीक-चिह्न की तरह आती
हैं। ढिबरी, साइकिल, दिया जैसी सामान्य लगनेवाली बातें चित्र में गहरी
भाव संवेदना भर देती हैं। Between the spider and the lamp,
1958 चित्र इस सन्दर्भ में विशेष उल्लेखनीय है।
हुसेन जब इन्दौर में रहते थे, तब होलकर रियासत के घोड़े, मुहर्रम में
जुलूस के ‘डुल डुल’ घोड़े अथवा प्रतिमाएँ उनके मन पर हमेशा के
लिए अंकित हो गयी थीं। इसी से प्रेरित होकर हुसेन ने घोड़े के चित्रों की
शृंखला बनायी। घोड़ों के अलग-अलग आवेगों से लैस इस चित्र-शृंखला
के कारण हुसेन के चित्र पिकासो के चित्रों-से लगते। क्योंकि पिकासो के
लॉकडाउन : 76वाँ दिन
मक़बूल फ़िदा हुस
‘गुअरनिका’ चित्र में भी आवेगपूर्ण घोड़े का चित्रण है। इसी कारण सभी
ने यह मान लिया कि हुसेन पर पिकासो का प्रभाव है। दरअसल, हुसेन
ने घनवादी पद्धति के चित्र कभी नहीं बनाये, परन्तु आकृति साधम्र्य के
कारण सभी ने उन पर यह प्रभाव मढ़ दिया था।
चित्र में लोक प्रतीक और लोक प्रतिमाओं का इस्तेमाल होने के कारण
हुसेन जनमानस में लोकप्रिय थे। इसमें उनकी रहन-सहन की शैली
का भी योगदान था। हर विषय, माध्यम में हुसेन ख़ुद को आसानी से
अभिव्यक्त कर पाते थे और इसी कारण वे किसी लोक कलाकार की
भाँति सहज थे। उनके चित्रों की रेखाएँ और रंग लोककला की ही देन
हैं, जिसके कारण वे लोकाभिरुचि को स्पर्श करते थे। सिनेमा के बैनर
आम तौर पर सिनेमा थियेटर, बाज़ार, मेला आदि जगहों पर लगते थे
जहाँ लोकसमूह होता, हुसेन का काफ़ी समय वहीं बैनर बनाने में बीत
जाता। भड़कीले रंग, साफ़ और स्पष्ट रेखा, गतिशील रंग-संयोजन आदि
बैनर की आवश्यकताएँ होती हैं। इसी से ठोंक-पीटकर हुसेन में रेखा,
रंग और संयोजन की समझ आयी थी। एक अर्थ में यह लोककला का
हिस्सा था, जो कि हुसेन के चित्रों की ख़ासियत है। लोककला के इसी
प्रभाव के कारण अनेक समीक्षकों को हुसेन और जामिनी रॉय के बीच
आन्तरिक साम्य नज़र आता है। परन्तु, पिकासो और जामिनी रॉय का
हुसेन पर कोई प्रभाव नहीं है। कुछ साम्य स्वभावत: है। यदि हुसेन पर
किसी का प्रभाव है तो वह है भारतीय प्रतीकवाद का। इसी प्रभाव के
कारण हुसेन अन्य किसी भी कलाकार की तुलना में अधिक भारतीय
प्रतीत होते हैं।
महाराष्ट्र के पण्ढरपुर में जन्म और बचपन बीता, इन्दौर में होलकर मराठा
रियासत में। बाद में मुम्बई आने पर सिनेमा और सिनेमा बैनर के बहाने
प्रभात सिनेमा के ठेठ मराठीपन के प्रभाव में रहे। इसी कारण हुसेन को
भारतीय नहीं, बल्कि ‘महाराष्ट्रीय’ या ‘दक्खिनी’ कलाकार कहना ज़्यादा
15
पाठ-पुनः पाठ
रसिकों के लिए भी कभी सम्भव नहीं हुआ। इसी कारण हुसेन के बारे
में विवाद होते रहे, परन्तु, हुसेन ने कभी उनका प्रतिवाद नहीं किया।
श्वेताम्बरी ‘इन्स्टालेशन’ हो या ‘गजगामिनी’ का विवाद हो। ‘गजगामिनी’
के विवाद की परिणति यह हुई कि उनकी ‘मीनाक्षी’ फ़िल्म प्रदर्शित नहीं
होने दी गयी। ‘श्वेताम्बरी’ प्रदर्शित करने पर जहाँगीर आर्ट गैलरी ने उन
पर पाबन्दी ही लगा दी। लगता है, हुसेन की प्रतीकात्मक शैली कभी-कभी
दुर्बोध बन जाती है और इसी कारण उसे ग़लत अर्थ में लिया जाता है।
दरअसल, ‘श्वेताम्बरी’ एक सुन्दर कलाकृति थी। जैन मत के दिगम्बर
और श्वेताम्बर के सन्दर्भ में श्वेताम्बरी का अर्थ लगाने से पूरे प्रदर्शन
का आशय स्पष्ट हो जाता है। अत्यन्त सादगी भरा प्रदर्शन—पूरी गैलरी
में लय की दृष्टि से मात्र सफ़ेद कपड़ा और ज़मीन पर अख़बार के
काग़ज़ के टुकड़े। परन्तु उसका भाव, अनुभूति श्वेताम्बर साध्वियों
तक जा पहुँचती है। नंगे पैर चलने का अहसास हो, इसलिए काग़ज़
का इस्तेमाल। संवेदना का मामला दर्शकों की अनुभूति पर सौंपा हुआ।
परन्तु, हमेशा से ज़रा हटकर अनुभव प्राप्त करना यहाँ के रसिकों के
लिए असम्भव था। ऊपर से हमेशा की तरह प्रतीकात्मक रचना और
हुसेन का नज़ाकत भरा आत्मचित्रण।
प्रतीकात्मकता इस देश की विशेषता है। रामायण, महाभारत, एलोरा,
अजन्ता आदि आभिजात्य कलाएँ, साहित्य और अनेक देसी परम्पराएँ
प्रतीक रूप में ही तो अभिव्यक्त होती हैं! हुसेन ने ऐसी ही लोक-संवेदनाएँ,
व्यक्तिगत अहसास, गंगा, यमुना, सरस्वती, बनारस, पण्ढरपुर जैसी
अमूर्त संवेदनाएँ और छाता, घोड़े जैसी मूर्त संवेदनाओं को प्रतीकात्मक
रूप में अभिव्यक्त किया। लोक परम्परा से लेकर आभिजात्य परम्परा
तक का विशाल फलक हुसेन का विषय था। भौतिक परम्परा की
तुलना में काव्यशास्त्र, कला-परम्परा को हुसेन ने ज़्यादा तरज़ीह दी।
लॉकडाउन : 76वाँ दिन
मक़बूल फ़िदा हुस
19
मक़बूल फ़िदा हुसेन : सदी की (सं )वेदना
*
गुलाम मोहम्मद शेख
गुजराती से अनुवाद
किरन सिंह
मैंने सबसे पहले हुसैन को देखा तब मैं 1956-57 में फाइन आर्ट्स के
दूसरे या तीसरे वर्ष का विद्यार्थी था। बेन्द्रे साह1 ने उनको बुलाया था। उस
ज़माने में चित्र ‘बनाकर’ दिखाने का कुछ वैसा चलन था जिस प्रकार
संगीतकार गाकर सुनाते हैं। बेन्द्रे साहब हमेशा कक्षा में विद्यार्थियों को इस
तरह ‘डेमोन्स्टे्रशन’, रेखांकन या चित्र बनाकर दिखाते। हमने हुसेन को
इससे पहले कभी नहीं देखा था। और आज मन में उस समय का स्पष्ट
चित्र नहीं उभरता कि तब वे कैसे दिखायी देते थे। फिर भी 1961 में मैंने
उन पर एक लेख2 लिखा था जिसमें उनका वर्णन कुछ इस प्रकार किया
था : ‘ऊँचा, लम्बा, जिसे चीन में सद्गृहस्थ की उपमा देते हैं वैसा बाँस
जैसा शरीर, काली दाढ़ी में उतने ही सफ़ेद बाल, मितभाषी और काफ़ी
कुछ कहने वाली आँखें’। हालाँकि मुझे अच्छी तरह याद है कि उन्होंने
चित्र कैसे बनाया। शुरुआत में तूलिका के स्ट्रोक से (और फिर शायद
लॉकडाउन : 76वाँ दिन
मक़बूल फ़िदा हुसेन : सदी की (सं)वे
‘पेलेट नाइफ’ से?) पीले मटीले ‘यलो ओकर’ रंग से ओइल पेपर पर
मोटे बैल जैसा जानवर बनाया था। सभी शिक्षक और विद्यार्थी उन्हें घेरे
हुए टकटकी लगाये देखते ही रह गये थे।
‘दूसरी बार जब उनसे बड़ौदा में मिला तब मैंने उन्हें डरते-डरते अपने
चित्र भी दिखाये थे। चितकबरी दाढ़ी से उन्होंने ऐसा भाव व्यक्त किया
था मानो उन्हें वे पसन्द आये थे। बस इतनी ही पहचान।’3 लेकिन जब
बम्बई जाना हुआ तब बारह-पन्द्रह फुट की गराज से बनायी हुई उनकी
‘गैलेरी’ में जा पहुँचा। दीवारों पर और नीचे इकट्ठे किये हुए ढेर सारे
चित्र थे, जिनमें से कुछ उनके मित्रों के भी थे। एक दिल्लीवासी रामकुमार
का भी। उनके एक चित्र का गहरा अकेलापन और अन्तरपीड़ा मन को
छू जाने वाली थी। उसे देखकर उन्होंने ‘यह तो काफ्का है’ ऐसा ही
कुछ कहा था। उसके बाद उनके साहित्य रस के बारे में भी परिचय
हुआ : सुना है कि एक प्रदर्शनी में उन्होंने मालार्मे का पाठ किया था।
मैंने यह भी सुना था कि वे लिखते भी हैं इसलिए दूसरी मुलाकात में
ही उनसे उनके लेखन के बारे में पूछा। बम्बई की एक रेस्तरां में खुले
गलियारे में मित्र अनिरुद्ध ब्रह्मभट्ट, सुनील कोठारी और भूपेन खख्खर
के साथ, एस्प्रेसो कॉफी के घूँट भरते हुए उन्होंने कविताएँ पढ़ीं, जिसमें
से ‘तरसते गलियारे’, ‘स्याही भरी काली हवेलियाँ’ और ‘नहीं जानते
उनकी बातें करती हुई छतें’ जैसे बिम्ब याद रह गये। उस दौरान उनकी
चित्र-रचनाओं के बारे में कुछ ऐसा लिखा था : ‘गहरे रंग के सपाट
अवकाश विभागों में पेड़ों की तरह बोई गयी और शाखाओं की तरह
उगकर विकसती हुई, काली, चौड़ी रेखाओं में बद्ध उनकी आकृतियाँ’
में ‘टूटी हुई, मुरझाती मनुष्य-जाति की नग्नता प्रतिबिम्बित होती थी।’4
फिर मिलने का पता बदला। बम्बई के वोर्डन रोड पर भूलाभाई मेमोरियल
इन्स्टीट्यूट में कलाकारों को काम करने की सुविधा पैदा हुई। स्थापना
का वर्ष तो याद नहीं लेकिन यह याद है कि उसका संचालन सोली
21
पाठ-पुनः पाठ
27
हुसेन का (न) जाना
*
अखिलेश
मैंने अपने जीवन में जो कुछ भी किया है, आसानी से हासिल किया
जा सकता है। ईश्वर भेदभाव नहीं रखता। : मक़बूल फ़िदा हुसेन
हालाँकि
फिर भी
वह रेशमी सूरज वहाँ
मुझे तीखी आवाज़ देता है
अनुवाद : शिवदत्त शुक्ल
न होता। मैं ख्शुद फ़ोन करने में हमेशा डरता रहा कि वे इस अधिकार
का इस्तेमाल न कर लें। मुझे नहीं पता कि अन्य युवा कलाकारों के साथ
उनके सम्बन्ध किस तरह के रहे हैं, किन्तु यह विश्वास ज़रूर है कि वे
भी उतने ही स्नेहिल अधिकार भरे होंगे।
मक़बूल की मक़बूलियत का कायल मैं ही नहीं सारा जहाँ है। मुझे नहीं
याद पड़ता कि किसी भी चित्रकार ने अपने देश की कला के लिये इस
क़दर रचनात्मक अन्तरराष्ट्रीय स्तर का योगदान दिया होगा। चित्रकला
के लिये अनेकों चित्रकारों द्वारा ज़रूर कुछ न कुछ किया गया है और वे
सब अपनी तरह से अनूठे चित्रकार रहे हैं। मक़बूल के लिये हम उन्नीस
सौ सैंतालीस के नये-नये आज़ाद हिन्दुस्तान की समकालीन कला पर
नज़र डालेें, तो एक दो या कुछ प्रतिभाशाली चित्रकारों के अनूठे प्रयासों
के अलावा पूरा कला संसार अँगरेज़ी ढँग की भारतीय चित्रकला के
लिजलिजे, पिचपिचे, रूमानियत से भरे, भावुकतावादी ग्रामीण जीवन के
अश्लील चित्रों से भरा पड़ा था।
यथार्थवाद की अधकचरी समझ की बदबू राजा रवि वर्मा के चित्रों से
आती थी। इस कचरे की सफ़ाई का जिम्मा उठाने वाले युवा पीढ़ी के
अधिकांश चित्रकार आज़ादी प्राप्त होते ही संसार के बड़े कला-केन्द्रों-
पेरिस, लंदन और न्यूयार्क- की तरफ़ चल दिये। हुसेन हिन्दुस्तानी लोक
संस्कृति की जीवनदायी रामलीला के पीछे-पीछे उन अनेकों गाँवों की
यात्रा कर बैठे, जहाँ सादे, सहज, सरल; किन्तु जीवट जीवन से उन्होंने
वह सब सीखा जो दुनिया के किसी कला-केन्द्र में सीखा नहीं जा सकता
था। मक़बूल के चित्रों की ताकत, कथ्य की सपाट बयानी और अबूझ
रहस्यात्मकता इन्हीं यात्राओं की देन रही होगी, वो सहज सरल होते हुए
भी कला के कड़े मानदण्डों पर खरी उतरती रही, जहाँ विशेषज्ञता की
कसौटी की कठिन परीक्षाएँ हुआ करती हैं।
ताकत रखते रहे हैं। साथ ही बिगाड़ते हुए रचने की क्षमता रखते हैं।
वे अकेले ऐसे चित्रकार हैं, जो चित्रण के दौरान ही रूप रचना करते
चले जाते हैं, जिसका प्रमाण सिर्फ़ वही चित्र हो सकता है। दूसरा चित्र
अगला रूप प्रमाण होगा। वे निरन्तरता की रचनात्मक प्रक्रिया से बिंधे
थे, जिसमें जिस्मानी आराम हराम था। हुसेन को स्वामीनाथन अक्सर
‘भीष्म पितामह’ कहा करते थे। मुझे लगता है कि कर्त्तव्यपरायण होने
की गहरी आत्मचेतना से जगे हुसेन भारतीय कला साम्राज्य के निर्धारक,
पोषक, पालक और निर्माता रहे हैं। भीष्म पितामह की तरह कला संसार
के प्रति कर्त्तव्य-बोध, कर्त्तव्य-नीति का पालन उन्होंने जीवन भर किया।
वे अपनी सहज बुद्धि से यह सारे काम बग़ैर किसी दावे के करते रहे।
वे बनाते रहे, रचते रहे और उसके सेहतमन्द होने की सलाहियत रखते
लॉकडाउन : 76वाँ दिन
हुसेन का (न) जान
35
जगलेखा
इन दिनों फेसबुक
अनुपस्थिति की जगह
*
पूर्वा भारद्वाज
8 जून, 2020
है, ज़िंदगी को पटरी पर लाना क्या होता है, अपनी दिनचर्या को दुहराना
क्या होता है और इन सबका अनुपस्थिति से क्या रिश्ता है। अपूर्व पहले
अक्सर कहा करते थे कि हमारा जीवन accidents से बनता है यानी
आकस्मिकता का तत्त्व उसे दिशा देता है। अब वे यह कहने लगे हैं कि
हम सबका जीवन अनुपस्थितियों से बनता है। वाकई। हमें अनुपस्थिति
से निपटना सीखना होता है। अनुपस्थिति कभी किसी और से भरती
नहीं है, उसका विकल्प कोई नहीं होता है। वह रहती है। ताउम्र। उसके
अगल-बगल से रास्ता बनाना होता है। धीरे-धीरे पगडंडी बनने लगती है।
आगे चलकर मुमकिन है कि वह मुख्य मार्ग बन जाए, मगर अनुपस्थिति
अपनी जगह बरकरार रहती है।
7 जून, 2020
9 जून, 2020
41
पाठ-पुनः पाठ
ड्राफ्ट के आंसू। स्क्रीन पर तैर रही है काली छाया। मैं अब उड़ रहा था।
शाम खत्म होते क्या उस ऊँचाई तक पहुंच जाऊंगा जहां कोई किसी को
जानता नहीं होगा। जहां सवाल होने पर सिर्फ जवाब होंगे बिना ज्ञान और
सलाहों के। नींद खुलती है तो गले में कुछ अटका-सा महसूस होता है।
कितने महीने हो गये। ये प्रोथियाडेन क्या दो महीने से अटकी ही है गले
में। नीचे उतरकर घुल क्यों नहीं जाती नसों में...
पता है, इते बरस जी लेने के बाद मैंने यह मान लिया कि सपने सिर्फ
सपने ही होते हैं, भले ऊंघ में देखे हों या जागती आँखों से। जो घट
रहा है, सच वही है। जो घटने का इंतज़ार है वो सिर्फ भ्रम है। रोज
थोड़ा-थोड़ा टूटता हुआ भ्रम। हम बड़े हो रहे थे दुनिया को समझते हुए।
43
फू ल-पत्ती
*
कैलाश वानखेड़े
8 जून, 2020
तलाश में न जाने कहाँ-कहाँ निकल जाते थे और उसे पूरा कर लेते थे।
उम्र के साथ निरंतर कम होती गई भटकन।
किशोरावस्था और उसके बाद की कथा-व्यथा फिर कभी।
और जब मौका मिला तो हजारों पौधे लगाए/लगवाये।बहुत बड़ी संख्या
में यह काम किया। इन तीन सालों में जैसे मैंने अपने बचपन की तमाम
ख्वाहिशें पूरी कर लीं।
45
पाठ-पुनः पाठ
अभी भी जमीन का ऐसा कोई हिस्सा हमारे पास नही है जहां पौधे लगाये
जा सकें। लेकिन मन अभी भी बहुत बड़ा है। जमीन न सही, गमले ही
सही तो यह सिलसिला चलता आ रहा है। अब तो इन पौधों उर्फ फूल-
पत्ती को बनाये रखने का सारा श्रेय पत्नी को जाता है। मैं महज क्लिक
करने में अपना योगदान देता हूँ।
फोटो निकालना ढलते उम्र का इरादा है, मन है और इस पर मेरा कोई
जोर नही है। जब कभी मन मौका मिले कोई पौधा लगा दीजिएगा। हो
सके तो उसकी देखभाल करिये कि पौधे लगाने या उन्हें बचाये रखने
की खुशी का यह झरना कभी भी सूखता नही है।
https://bit.ly/3f38T6U https://bit.ly/37i0VUW
https://bit.ly/2UnYFpJ