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पाठ-पुनः पाठ
लॉ क डा उ न
76 वें दिन का पाठाहार
52वीं ि‍क़स्त‍
क्रम
प्रकाशकीय
4

धरती आबा
नाटक-अंश
हृषीकेश सुलभ
7

मक़बूल फ़िदा हुसेन


(१९१५-२०११)
लेख
सुधाकर यादव
11

मक़बूल फ़िदा हुसेन : सदी की (सं )वेदना


लेख
गुलाम मोहम्मद शेख
20

हुसेन का (न) जाना


स्मरण
अखि‍लेश
28
जगलेखा
इन दिनों फेसबुक

अनुपस्थिति की जगह
पूर्वा भारद्वाज
37

कितना बचेंगे हम...


कंचन पंत
39

थोड़ा-थोड़ा टू टता हुआ भ्रम


सुमेर सिंह राठौड़
41

फू ल-पत्ती
कैलाश वानखेड़े
44
प्रकाशकीय

कोरोना का संकट अब वैश्विक बदलाव का नया प्रस्थान बिंदु बन


चुका है। इसका असर मानव जीवन पर कई रूपों में पड़ने वाला है।
कुछ संकेत अब स्पष्ट रूप से दिखने लगे हैं। यह हमारी पढ़ने-लिखने
की आदतों पर भी अपनी छाप छोड़ेगा, ऐसा लग रहा है। अभी आप
चाहते हुए भी अपनी मनचाही किताब खरीद नहीं सकते, हम आपकी
कोई मदद कर नहीं सकते। जितनी ई-बुक या ऑडियो बुक ऑनलाइन
प्लेटफॉर्म पर मौजूद हैं, उनमें से ही चयन करना, पढ़ना और सुनना
एक विकल्प है। दूसरा विकल्प है, घर में उपलब्ध पढ़ी-अनपढ़ी किताबों
को इस लॉक डाउन की अवधि में पढ़ जाना। हमसे कई साहित्य-
अनुरागियों ने अपने ऐसे अनुभव साझा किए हैं कि उन्हें आजकल कई
भूली-बिसरी रचनाएँ याद आ रही हैं। उन्हें पढ़ने का मन हो रहा
है। कुछ को नई किताबों के बारे में भी जानने की उत्सुकता है,
जिनके बारे में चर्चा सुन रखी है। हमने इन सब स्थितियों के
मद्देनज़र जब तक लॉकडाउन है तब तक प्रतिदिन आप सबको एक
पुस्तिका उपलब्ध कराने का संकल्प किया है। व्हाट्सएप्प पर
निःशुल्क पाठाहार।

लॉकडाउन : 53वाँ दिन


प्रकाशक

22 मार्च 2020 से हमने फेसबुक लाइव के जरिये अपने व्यापक


साहित्यप्रेमी समाज से लेखकों के संवाद का एक सिलसिला बना रखा
है। जब से सोशल डिस्टेंसिंग यानी संग-रोध का दूसरा दौर शुरू हुआ
है, तब से हम अपनी जिम्मेदारी और बढ़ी हुई महसूस कर रहे हैं।
सभी के लिए मानसिक खुराक उपलब्ध रहे, यह अपना सामाजिक
दायित्व मानते हुए अब हम ‘पाठ-पुनर्पाठ’ पुस्तिकाओं की यह श्रृंखला
शुरू कर रहे हैं। ईबुक और ऑडियोबुक डाउनलोड करने की सुविधा
सबके लिए सुगम नहीं है। इसलिए हम अब व्हाट्सएप्प पर सबके
लिए नि:शुल्क रचनाएँ नियमित उपलब्ध कराने जा रहे हैं। इन्हें प्राप्त
करने के लिए आप राजकमल प्रकाशन समूह का यह व्हाट्सएप्प नम्बर
98108 02875 अपने फोन में सुरक्षित करें और उसके बाद उसी नम्बर
पर अपना नाम लिखकर हमें मैसेज करें। आपको नियमित नि:शुल्क
पुस्तिका मिलने लगेगी। हम समझते हैं कि यह असुविधाकारी नहीं है।
आप जब चाहें, पावती सेवा बंद करवा सकते हैं। जब चाहें, पुनः
शुरू करा सकते हैं। जब तक लॉक डाउन है, आप घर में हैं लेकिन
अकेले नहीं हैं। राजकमल प्रकाशन समूह आपके साथ है। भरोसा रखें।

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अशोक महेश्वरी
प्रबंध निदेशक, राजकमल प्रकाशन समूह

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चित्र : गूगल से साभार

बिरसा मुंडा
जन्म : 15 नवम्बर 1875
निधन : 9 जून 1900
धरती आबा
*
हृषीकेश सुलभ

धानी : सेंतरा के पास जंगल के एक कोने से धुआँ उठा। अंग्रेज़ों के


आतंक और भूख से बेहाल इनाम के लोभियों ने धुआँ देखा और रेंगते
हुए पहुँचे। उन्होंने दबोच लिया अपने ही पिता को, अपने भगवान को।
अंग्रेज़ों की साध पूरी हुई।
[बेड़ियों में जकड़े बिरसा का प्रवेश। सिपाही साथ है। बिरसा
पर तीव्र प्रकाश।]
जेल की अकेली कोठरी में दिन और रातें कटती रहीं। जेल से कचहरी
आना-जाना लगा रहा। जेल की उस कोठरी में बिरसा और उनका सूनापन
था। सिर्फ़ बेड़ियों की आवाज़ थी। पत्थर पर घिसटती हुई बेड़ियों की
आवाज़। देह गल रही थी। मन आँधी की तरह जंगलों में भटक रहा
था।...फिर हैजा हुआ।...नहीं, मन नहीं मानता। तो फिर? अंग्रेज़ों ने ज़हर
दिया? क्या पता, दिया ही हो!...और 9 जून, 1900 की सुबह बिरसा
(अचानक भंगिमा बदलकर वृद्ध धानी की भूमिका में)...नहीं! झूठ है

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पाठ-पुनः पाठ

सब। सब झूठ है। नहीं मरा हमारा धरती आबा। हमारे भगवान को कुछ
नहीं हो सकता। वह ज़िन्दा भगवान था। भगवान का एक ही मतलब
नहीं होता। उसने कहा था...
[बिरसा पर प्रकाश दीप्त होता है।]
बिरसा : सुनो, मुंडा लोगो सुनो! मैं धरती का आबा हूँ। माटी से बनी
है मेरी और सबकी देह। जब तक मैं माटी की यह देह नहीं बदलता,
तुम लोग नहीं बच सकोगे। हिम्मत मत छोड़ना। मैंने तुम्हें सारे हथियार
दिए हैं। छाती में साहस दिया है। तुम्हें तुम्हारे दुश्मन की पहचान करा
दी है मैंने। हथियार मत छोड़ना। एक दिन तुम्हें ही जीतना है। लौटकर
आऊँगा मैं...जल्दी ही लौटूँगा मैं अपने जंगलों में, अपने पहाड़ों पर।...
मुंडा लोगों के बीच फिर आऊँगा मैं।...तुम्हें मेरे कारण दुख न सहना
पड़े इसलिए माटी बदल रहा हूँ मैं।...उलगुलान ख़त्म नहीं होगा। आदिम
ख़ून है हमारा।...काले लोगों का ख़ून है यह। भूख...लांछन... अपमान...
दुख...पीड़ा ने मिल-जुलकर बनाया है इस ख़ून को। इसी ख़ून से जली
है उलगुलान की आग। यह आग कभी नहीं बुझेगी...कभी नहीं।...जल्दी
ही लौटकर आऊँगा मैं।
[बिरसा पर से प्रकाश सिमटता है।]
धानी : सुना? सुना आपने? जल्दी लौटकर आएगा वह। जल्दी ही लौटेंगे
हमारे धरती आबा।...मैंने फिर शुरू किया है कुचला के विषवाले तीर
बनाना। आओ धरती आबा, आओ। जंगल तुम्हें बुला रहे हैं। धरती तुम्हें
पुकार रही है। तुम्हारी माँ रो रही है।
[धानी पर से प्रकाश सिमट जाता है। नेपथ्य से गायन शुरू होता
है। सारे पात्र मंच पर आते हैं और गायन में शामिल होते हैं।]

लॉकडाउन : 76वाँ दिन


धरती आबा

गायन-स्वर : धरती आग की लपटों में


लपटें हैं जीभ निकाले
असहाय काँपता देश हमारा
जैसे पत्ते काँपें
अँधियारे में छिपा देश
आठों कोने खोजो
तुम उगो सूर्य के जैसे जन जन में
तुम आँधी बनकर गरजो हर वन में।

[धरती आबा : बिरसा मुंडा के जीवन पर केन्द्रित नाटक से]

9
फ़ोटो साभार : अखिलेश

मक़बूल ि‍फ़दा हुसैन


जन्म : 17 सितम्बर, 1915
निधन : 9 जून, 2011
मक़बूल फ़िदा हुसेन
(१९१५-२०११)

*
सुधाकर यादव
मराठी से अनुवाद
डॉ. गोरख थोरात

अमृता शेरगिल के कारण भारतीय कला पूरी तरह से बदल गयी। ब्रिटिश
यथार्थवाद का विरोध करते हुए स्वदेशी की प्रेरणा से भारतीय परम्परा
का पुनरुत्थान करनेवाला आन्दोलन भी अमृता के कारण फ़ीका पड़
गया। इस दौर में अजन्ता, लघुचित्र, वैदिक दर्शन, पुराण, संस्कृत,
सौन्दर्यशास्त्र आदि बिन्दुओं को जोडऩेवाला भारतीय कला का एक
मानचित्र ही तैयार हो गया था। भारतीय कलाकारों पर बस यही धुन
सवार थी कि भारतीय परम्परा का कोई एक लक्षण अपनी कला में आ
जाये। ऐसे बाह्य लक्षणों के कारण कला में कृत्रिमता, तार्किकता और
रोमांटिकता आती है, जिसे उतार फेंककर अमृता की कला ने भारतीय
जीवन, ग्रामीण यथार्थ को केन्द्र बिन्दु बनाया था। अमृता शेरगिल की
कला की इस तीव्र संवेदना की आँच को आनेवाली पीढिय़ों के चित्रकार
वहन नहीं कर पाये। इसी कारण अमृता के बाद नये कलाकारों की पीढ़ी
11
पाठ-पुनः पाठ

तैयार हुई ही नहीं।


अमृता शेरगिल से प्रभावित के. के. हेब्बार, एन. एस. बेन्द्रे आदि
चित्रकार अत्यन्त मासूमियत से ग्रामीण जीवन, लोकजीवन जैसे विषयों
पर काम कर रहे थे। परन्तु, उनकी कला में अमृता की कला जैसी जान
नहीं थी। अमृता से ही प्रभावित युवा चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसेन ने
अमृता के चित्रों की नक़ल उतारते-उतारते उनका अध्ययन किया और
अपनी चित्रकारिता शुरू की। मक़बूल फ़िदा हुसेन उस दौर में सिनेमा के
बैनर बनाते थे। अमृता के प्रभाव की अपेक्षा अमृता के चित्रों से प्रेरणा
लेकर उन्होंने अपनी निर्मिति शुरू की।
आजीविका के लिए इन्दौर से मुम्बई आये हुसेन खिलौने बनाना,
सिनेमा के बैनर और पोस्टर बनाना जैसे काम करते थे। एक तरह
से यह चित्रकला का दिहाड़ी मज़दूर बनना ही था। उनके पिता का
पत्तर के दीये, ढिबरी, लालटेन बनाना, छातों की मरम्मत आदि काम
करना व्यवसाय था। बचपन में जिस कारीगरी को हुसेन ने बड़ी
जिज्ञासा से देखा था, वही कारीगरी मुम्बई में खिलौने बनाने में उनके
काम आयी।
अमृता शेरगिल के चित्र देखकर हुसेन ने पेंटिंग शुरू की। उसी दौर में
चित्रकार फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा से उनका परिचय हुआ। सूज़ा के कारण
हुसेन का कला और कलाक्षेत्र से परिचय हुआ और वे पूरी तरह से
कला में ही रम गये।
भारतीय स्वतन्त्रता के बाद स्वदेशी का विचार पीछे छूटता गया और
देशभर में वामपन्थी विचारों की लहर फैल गयी। कला और साहित्य में
भी इस प्रगतिशील विचार से अनेक परिवर्तन हुए। नाटक क्षेत्र के लोगों ने
‘इप्टा’ नाम से संगठन स्थापित किया। साहित्य के क्षेत्र में भी ‘प्रगतिशील

लॉकडाउन : 76वाँ दिन


मक़बूल फ़िदा हुस

लेखक संघ’ स्थापित हुआ। ‘प्रोग्रेसिव’ नाम से कुछ चित्रकारों ने एक


ग्रुप बनाया। फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा कम्युनिस्ट आन्दोलन के समर्पित
कार्यकत्र्ता थे। उन्होंने ही कुछ चित्रकार और शिल्पकारों को जोड़कर
यह ग्रुप बनाया था।
मक़बूल फ़िदा हुसेन भी इस समूह के सदस्य थे। सूज़ा, के. एच.
आरा, बाकरे, गाडे, रज़ा और हुसेन। सतह से ऊपर उठे कलाकार में
हमारे सामने ऐसा आदमी खड़ा होता है, जो ग़रीबी से अथवा ग्रामीण,
आदिवासी समुदाय से आया हो। परन्तु, हुसेन एक ऐसा चित्रकार है जो
कला की बुनियादी कारीगरी से ऊपर आया है। इसी कारण उसमें कला
और तकनीक का अलग अहसास है। खिलौने बनाने से लेकर सिनेमा
बनाने की तकनीक और सिनेमा का बैनर बनाने से लेकर पेंटिंग कला
का हुनर हुसेन में एक जैसा था। इन सभी कलाओं की अहमियत हुसेन
के लिए एक जैसी थी।
प्रोग्रेसिव ग्रुप औपचारिक ही था। उसके चित्रकारों का एक-दूसरे की
कला से, विचारों से कोई मेल नहीं था। उनमें हुसेन और आरा का
अपवाद छोड़ दें, तो बाक़ी सभी कलाकार यूरोप चले गये और वहीं बस
गये। उस दौर के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कला समीक्षक मुल्कराज आनन्द
और निस्सिम एजि़कल हुसेन और आरा को ‘दक्खिनी कलाकार’ के रूप
में सम्बोधित करते थे क्योंकि ये दोनों दक्षिण भारत से मुम्बई में आये थे।
दक्खिनी गुण और व्यक्तित्व हुसेन में विशेष रूप से था। दक्खिनी होने
के कारण ही हुसेन में हिन्दू-मुसलमानों की साझा संस्कृति और धर्म के
अहसास का समाहार था। हुसेन की प्रकृति, जीवन शैली किसी सूफ़ी
औलिया जैसी ही थी।
कुछ ही अवधि में प्रोग्रेसिव ग्रुप समाप्त हो गया। उसके लगभग सभी
कलाकार यूरोप जाकर बस गये। परन्तु, हुसेन ने भारत को नहीं छोड़ा।
13
पाठ-पुनः पाठ

उन्होंने भारत भर में भ्रमण करते हुए भारतीय शिल्प, वास्तु संस्कृति का
अवलोकन शुरू किया। अमृता शेरगिल में जो जिज्ञासा थी, वही हुसेन
में दिखायी देती है। हुसेन पर गुप्तकालीन शिल्प का प्रभाव इसी दौर
में पड़ा। भारतीय सिनेमा, कला, पुराण, परम्परा, मिथक के प्रति हुसेन
आकर्षित थे। राममनोहर लोहिया के विचारों से भी वे प्रभावित थे। इसी
प्रभाव से उन्होंने रामायण के दृश्यों पर सैकड़ों चित्र बनाये। बाद में भी
उनकी महाभारत आदि पर अनेक चित्र-शृंखलाएँ जारी रहीं।
रामायण, महाभारत, एलोरा, अजन्ता, कालिदास, ग़ालिब, उर्दू काव्य,
मिथक वग़ैरह सभी का समाहार हुसेन की कलाशैली में है। शैली यानी
निर्मिति सूत्र। सबका साझा सूत्र यानी प्रतीकवाद। हुसेन के बिलकुल
आरम्भिक चित्रों से लेकर अन्तिम चित्रों तक यह प्रतीकवाद दिखायी
देता है। चित्र में बार-बार आनेवाले घोड़े, हाथी, बाघ, कमल, मानवीय
देह की मुद्राएँ—सारी चिह्न-व्यवस्था हुसेन के चित्रों के विशेष अंग हैं।
मानवीय देह की गठन हमेशा गुप्तकालीन शिल्प, खजुराहो तथा कोणार्क
की याद दिलाती है।
हुसेन के कई चित्र आत्मचरित्रात्मक हैं। क्योंकि बचपन से उन पर असर
करनेवाली आसपास की वस्तुएँ चित्र में प्रतीक-चिह्न की तरह आती
हैं। ढिबरी, साइकिल, दिया जैसी सामान्य लगनेवाली बातें चित्र में गहरी
भाव संवेदना भर देती हैं। Between the spider and the lamp,
1958 चित्र इस सन्दर्भ में विशेष उल्लेखनीय है।
हुसेन जब इन्दौर में रहते थे, तब होलकर रियासत के घोड़े, मुहर्रम में
जुलूस के ‘डुल डुल’ घोड़े अथवा प्रतिमाएँ उनके मन पर हमेशा के
लिए अंकित हो गयी थीं। इसी से प्रेरित होकर हुसेन ने घोड़े के चित्रों की
शृंखला बनायी। घोड़ों के अलग-अलग आवेगों से लैस इस चित्र-शृंखला
के कारण हुसेन के चित्र पिकासो के चित्रों-से लगते। क्योंकि पिकासो के
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मक़बूल फ़िदा हुस

‘गुअरनिका’ चित्र में भी आवेगपूर्ण घोड़े का चित्रण है। इसी कारण सभी
ने यह मान लिया कि हुसेन पर पिकासो का प्रभाव है। दरअसल, हुसेन
ने घनवादी पद्धति के चित्र कभी नहीं बनाये, परन्तु आकृति साधम्र्य के
कारण सभी ने उन पर यह प्रभाव मढ़ दिया था।
चित्र में लोक प्रतीक और लोक प्रतिमाओं का इस्तेमाल होने के कारण
हुसेन जनमानस में लोकप्रिय थे। इसमें उनकी रहन-सहन की शैली
का भी योगदान था। हर विषय, माध्यम में हुसेन ख़ुद को आसानी से
अभिव्यक्त कर पाते थे और इसी कारण वे किसी लोक कलाकार की
भाँति सहज थे। उनके चित्रों की रेखाएँ और रंग लोककला की ही देन
हैं, जिसके कारण वे लोकाभिरुचि को स्पर्श करते थे। सिनेमा के बैनर
आम तौर पर सिनेमा थियेटर, बाज़ार, मेला आदि जगहों पर लगते थे
जहाँ लोकसमूह होता, हुसेन का काफ़ी समय वहीं बैनर बनाने में बीत
जाता। भड़कीले रंग, साफ़ और स्पष्ट रेखा, गतिशील रंग-संयोजन आदि
बैनर की आवश्यकताएँ होती हैं। इसी से ठोंक-पीटकर हुसेन में रेखा,
रंग और संयोजन की समझ आयी थी। एक अर्थ में यह लोककला का
हिस्सा था, जो कि हुसेन के चित्रों की ख़ासियत है। लोककला के इसी
प्रभाव के कारण अनेक समीक्षकों को हुसेन और जामिनी रॉय के बीच
आन्तरिक साम्य नज़र आता है। परन्तु, पिकासो और जामिनी रॉय का
हुसेन पर कोई प्रभाव नहीं है। कुछ साम्य स्वभावत: है। यदि हुसेन पर
किसी का प्रभाव है तो वह है भारतीय प्रतीकवाद का। इसी प्रभाव के
कारण हुसेन अन्य किसी भी कलाकार की तुलना में अधिक भारतीय
प्रतीत होते हैं।
महाराष्ट्र के पण्ढरपुर में जन्म और बचपन बीता, इन्दौर में होलकर मराठा
रियासत में। बाद में मुम्बई आने पर सिनेमा और सिनेमा बैनर के बहाने
प्रभात सिनेमा के ठेठ मराठीपन के प्रभाव में रहे। इसी कारण हुसेन को
भारतीय नहीं, बल्कि ‘महाराष्ट्रीय’ या ‘दक्खिनी’ कलाकार कहना ज़्यादा
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पाठ-पुनः पाठ

सही होगा। उनकी ‘गजगामिनी’ फ़िल्म में भी यही बात प्रतीकात्मक


ढंग से नज़र आती है। ‘पण्ढरपुर से निकली लड़की’—मुम्बइया बोली
का यह वर्णन यानी उनकी ‘गजगामिनी’ की नायिका का पण्ढरपुर से
निकलना और बनारस पहुँचना है। उनकी ‘गजगामिनी’ का रूप यानी
नौ गजी साड़ी, सिर पर गठरी और पैरों में पैंजनी। अपनी काले रंग की
साड़ी से तो वह अबीर रंग की यानी प्रतीकात्मक रुक्मिणी ही लगती है।
इस तरह हुसेन अन्तर्बाह्य एक दक्खिनी कलाकार हैं।
मक़बूल फ़िदा हुसेन लोकमानस में एकाकार हो चुके थे और अपनी
समकालीन घटनाओं की चित्रात्मक प्रतिक्रियाएँ तुरन्त देते थे। लातूर-
सास्तूर का भूकम्प हो, बाबरी मस्जिद गिरा देने की घटना हो अथवा
इन्दिरा गाँधी की हत्या हो, हुसेन उन पर चित्र-शृंखला बनाकर अपनी
ती$खी प्रतिक्रिया देते थे। इसमें प्रतीकों का इस्तेमाल होने के कारण
वे चित्र केवल प्रसंग अथवा वर्तमान प्रतीत नहीं होते, बल्कि उनमें
नाटकीयता आ जाती। प्रतीकों के प्रयोग से उनके चित्र भावाभाव की
रहस्यपूर्ण रचना लगते हैं, जो उनकी ‘मदर टेरेसा’ चित्र-शृंखला में नज़र
आता है। चित्र में मदर टेरेसा कहीं भी शारीरिक रूप में विद्यमान नहीं
हंै, परन्तु केवल उचित प्रतीकों के कारण ही हम यह जान पाते हैं कि
चित्र मदर टेरेसा का है।
हुसेन के चित्र में आयीं स्त्री प्रतिमाएँ उथली और आकर्षक कभी नहीं
रहीं, वे सदैव आदर-युक्त देवी के रूप में ही आयीं। मदर टेरेसा और
गजगामिनी में यह प्रतिमा ख़ास तौर से नज़र आती है। हुसेन बचपन में
ही अनाथ हो गये थे। ऐसा लगता है कि अपनी माँ को कभी देख न पाये
इसलिए हुसेन सभी स्त्रियों में अपनी माँ को ही ढूँढ़ते हैं। उन्होंने अपने
भीतर के इस कारुण्य को अन्त तक बनाये रखा है। यही कारुण्य उनका
और उनकी चित्रनिर्मिति का प्रेरणास्रोत था। उनके नंगे पैरों के कारण
यह और भी ज़्यादा तीव्रता से महसूस होता है।
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मक़बूल फ़िदा हुस

हुसेन की सम्पूर्ण चित्रकला पर भारतीय काव्य-परम्परा का गहरा प्रभाव


है। चाहे घोड़ों की शृंखला हो या गजगामिनी, सभी में यह काव्यात्मकता
नज़र आती है। उसमें भी ग़ालिब या कालिदास, कालिदास की काव्य
प्रतिमा, प्रतीक तो हुसेन की प्रतीक शैली के लिए प्रेरक ही हैं।
हुसेन को अन्य कलाओं में भी दिलचस्पी थी। संगीत, नाटक, काव्य,
मिथक आदि को तो उन्होंने अपने चित्रों का विषय बनाया ही था, परन्तु
मराठी के ‘घासीराम कोतवाल’ नाटक पर भी उन्होंने एक चित्र-शृंखला
प्रदर्शित की थी। समाज का कोई भी विषय हो, रेखा और रंग विशिष्ट
हुसेन शैली के होने के कारण उनका साधारण विषय भी कलात्मक बन
जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि कला का अपना कोई दर्शन नहीं होता।
वह स्वतन्त्र होती है। हुसेन ने अनेक माध्यमों, तकनीकों में काम किया
है, परन्तु अमूर्त होने का प्रयास उन्होंने कभी नहीं किया। अमृता शेरगिल,
रामकिंकर बैज, रवीन्द्रनाथ ठाकुर आदि का प्रयोजन अमूर्तिकरण होता
था। हुसेन के बाद के कलाकारों की धारणा है कि अमूर्त ही ‘विशुद्ध’
कला है। असल चीज़ है, रंग, रेखा और आकार के ज़रिये अभिव्यक्त
होना। हुसेन के रंग और रेखा में इतना सामथ्र्य था कि एक मामूली-सी
रेखा से भी पता चल जाता था कि वह हुसेन की है। इस कारण अमूर्त के
लिए कुछ और करने की उन्हें ज़रूरत ही नहीं थी। हुसेन ने किसी शैली,
वाद या किसी भी प्रकृति से ख़ुद को नहीं जोड़ा। उनका लक्ष्य सामाजिक
और सांस्कृतिक होता था। इसमें कलाएँ, परम्पराएँ, इतिहास आदि को
अलग-अलग रूप में देखने की आवश्यकता ही नहीं होती। इसी कारण,
भारत की लोक-संवेदनाएँ जहाँ केन्द्रित हैं, वहीं हुसेन की दिलचस्पी होती
थी। फिर चाहे बनारस हो या हैदराबाद हो; हिन्दी, मराठी, उर्दू हो या
रामायण, महाभारत या मदर टेरेसा हो। हुसेन सम्भवत: भारत के एकमात्र
चित्रकार हैं, जिनमें लोक संवेदनाओं के प्रति सम्मान का भाव है। हुसेन
की सही आलोचना करना या उनके बारे में तर्क करना आलोचकों और
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पाठ-पुनः पाठ

रसिकों के लिए भी कभी सम्भव नहीं हुआ। इसी कारण हुसेन के बारे
में विवाद होते रहे, परन्तु, हुसेन ने कभी उनका प्रतिवाद नहीं किया।
श्वेताम्बरी ‘इन्स्टालेशन’ हो या ‘गजगामिनी’ का विवाद हो। ‘गजगामिनी’
के विवाद की परिणति यह हुई कि उनकी ‘मीनाक्षी’ फ़िल्म प्रदर्शित नहीं
होने दी गयी। ‘श्वेताम्बरी’ प्रदर्शित करने पर जहाँगीर आर्ट गैलरी ने उन
पर पाबन्दी ही लगा दी। लगता है, हुसेन की प्रतीकात्मक शैली कभी-कभी
दुर्बोध बन जाती है और इसी कारण उसे ग़लत अर्थ में लिया जाता है।
दरअसल, ‘श्वेताम्बरी’ एक सुन्दर कलाकृति थी। जैन मत के दिगम्बर
और श्वेताम्बर के सन्दर्भ में श्वेताम्बरी का अर्थ लगाने से पूरे प्रदर्शन
का आशय स्पष्ट हो जाता है। अत्यन्त सादगी भरा प्रदर्शन—पूरी गैलरी
में लय की दृष्टि से मात्र सफ़ेद कपड़ा और ज़मीन पर अख़बार के
काग़ज़ के टुकड़े। परन्तु उसका भाव, अनुभूति श्वेताम्बर साध्वियों
तक जा पहुँचती है। नंगे पैर चलने का अहसास हो, इसलिए काग़ज़
का इस्तेमाल। संवेदना का मामला दर्शकों की अनुभूति पर सौंपा हुआ।
परन्तु, हमेशा से ज़रा हटकर अनुभव प्राप्त करना यहाँ के रसिकों के
लिए असम्भव था। ऊपर से हमेशा की तरह प्रतीकात्मक रचना और
हुसेन का नज़ाकत भरा आत्मचित्रण।
प्रतीकात्मकता इस देश की विशेषता है। रामायण, महाभारत, एलोरा,
अजन्ता आदि आभिजात्य कलाएँ, साहित्य और अनेक देसी परम्पराएँ
प्रतीक रूप में ही तो अभिव्यक्त होती हैं! हुसेन ने ऐसी ही लोक-संवेदनाएँ,
व्यक्तिगत अहसास, गंगा, यमुना, सरस्वती, बनारस, पण्ढरपुर जैसी
अमूर्त संवेदनाएँ और छाता, घोड़े जैसी मूर्त संवेदनाओं को प्रतीकात्मक
रूप में अभिव्यक्त किया। लोक परम्परा से लेकर आभिजात्य परम्परा
तक का विशाल फलक हुसेन का विषय था। भौतिक परम्परा की
तुलना में काव्यशास्त्र, कला-परम्परा को हुसेन ने ज़्यादा तरज़ीह दी।
लॉकडाउन : 76वाँ दिन
मक़बूल फ़िदा हुस

इसी कारण भारतीय अथवा स्वदेशी की बजाय वे देश के ठेठ ‘देसी’


चित्रकार अधिक लगते हैं।
उनकी प्रतीकात्मकता का लोगों ने ग़लत अर्थ लगाया। इस कारण उनका
व्यक्तिगत जीवन हमेशा विवादों से भरा रहा। आख़िरकार, अपना ही देश
त्यागने के लिए उन्हें विवश होना पड़ा और अन्त में करुण स्थिति में
विदेश में ही उनका निधन हो गया।
[चित्रमय भारत पुस्तक से]

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मक़बूल फ़िदा हुसेन : सदी की (सं )वेदना
*
गुलाम मोहम्मद शेख
गुजराती से अनुवाद
किरन सिंह

मैंने सबसे पहले हुसैन को देखा तब मैं 1956-57 में फाइन आर्ट्स के
दूसरे या तीसरे वर्ष का विद्यार्थी था। बेन्द्रे साह1 ने उनको बुलाया था। उस
ज़माने में चित्र ‘बनाकर’ दिखाने का कुछ वैसा चलन था जिस प्रकार
संगीतकार गाकर सुनाते हैं। बेन्द्रे साहब हमेशा कक्षा में विद्यार्थियों को इस
तरह ‘डेमोन्स्टे्रशन’, रेखांकन या चित्र बनाकर दिखाते। हमने हुसेन को
इससे पहले कभी नहीं देखा था। और आज मन में उस समय का स्पष्ट
चित्र नहीं उभरता कि तब वे कैसे दिखायी देते थे। फिर भी 1961 में मैंने
उन पर एक लेख2 लिखा था जिसमें उनका वर्णन कुछ इस प्रकार किया
था : ‘ऊँचा, लम्बा, जिसे चीन में सद्गृहस्थ की उपमा देते हैं वैसा बाँस
जैसा शरीर, काली दाढ़ी में उतने ही सफ़ेद बाल, मितभाषी और काफ़ी
कुछ कहने वाली आँखें’। हालाँकि मुझे अच्छी तरह याद है कि उन्होंने
चित्र कैसे बनाया। शुरुआत में तूलिका के स्ट्रोक से (और फिर शायद
लॉकडाउन : 76वाँ दिन
मक़बूल फ़िदा हुसेन : सदी की (सं)वे

‘पेलेट नाइफ’ से?) पीले मटीले ‘यलो ओकर’ रंग से ओइल पेपर पर
मोटे बैल जैसा जानवर बनाया था। सभी शिक्षक और विद्यार्थी उन्हें घेरे
हुए टकटकी लगाये देखते ही रह गये थे।
‘दूसरी बार जब उनसे बड़ौदा में मिला तब मैंने उन्हें डरते-डरते अपने
चित्र भी दिखाये थे। चितकबरी दाढ़ी से उन्होंने ऐसा भाव व्यक्त किया
था मानो उन्हें वे पसन्द आये थे। बस इतनी ही पहचान।’3 लेकिन जब
बम्बई जाना हुआ तब बारह-पन्द्रह फुट की गराज से बनायी हुई उनकी
‘गैलेरी’ में जा पहुँचा। दीवारों पर और नीचे इकट्ठे किये हुए ढेर सारे
चित्र थे, जिनमें से कुछ उनके मित्रों के भी थे। एक दिल्लीवासी रामकुमार
का भी। उनके एक चित्र का गहरा अकेलापन और अन्तरपीड़ा मन को
छू जाने वाली थी। उसे देखकर उन्होंने ‘यह तो काफ्का है’ ऐसा ही
कुछ कहा था। उसके बाद उनके साहित्य रस के बारे में भी परिचय
हुआ : सुना है कि एक प्रदर्शनी में उन्होंने मालार्मे का पाठ किया था।
मैंने यह भी सुना था कि वे लिखते भी हैं इसलिए दूसरी मुलाकात में
ही उनसे उनके लेखन के बारे में पूछा। बम्बई की एक रेस्तरां में खुले
गलियारे में मित्र अनिरुद्ध ब्रह्मभट्ट, सुनील कोठारी और भूपेन खख्खर
के साथ, एस्प्रेसो कॉफी के घूँट भरते हुए उन्होंने कविताएँ पढ़ीं, जिसमें
से ‘तरसते गलियारे’, ‘स्याही भरी काली हवेलियाँ’ और ‘नहीं जानते
उनकी बातें करती हुई छतें’ जैसे बिम्ब याद रह गये। उस दौरान उनकी
चित्र-रचनाओं के बारे में कुछ ऐसा लिखा था : ‘गहरे रंग के सपाट
अवकाश विभागों में पेड़ों की तरह बोई गयी और शाखाओं की तरह
उगकर विकसती हुई, काली, चौड़ी रेखाओं में बद्ध उनकी आकृतियाँ’
में ‘टूटी हुई, मुरझाती मनुष्य-जाति की नग्नता प्रतिबिम्बित होती थी।’4
फिर मिलने का पता बदला। बम्बई के वोर्डन रोड पर भूलाभाई मेमोरियल
इन्स्टीट्यूट में कलाकारों को काम करने की सुविधा पैदा हुई। स्थापना
का वर्ष तो याद नहीं लेकिन यह याद है कि उसका संचालन सोली
21
पाठ-पुनः पाठ

बाटलीवाला करते थे। उस महालय जैसे मकान में नीचे और ऊपर की


मंजि़ल के चारों ओर के बरामदों को बाँटकर स्टूडियो बनाये गये थे।
अब यहाँ कलाकारों के काफ़िले आ गये। उसमें हुसैन और गायतोंडे के
साथ दशरथ पटेल, नसरीन मोहमदी और मेरे बड़ौदा के मित्र प्रफुल्ल
दवे जैसे लोग सारा दिन रहते थे और चित्र बनाया करते थे। वहीं दाख़िल
होने वाले हिस्से में एक कमरा था जहाँ इब्राहीम अलकाज़ी बैठा करते
थे, जिसमें उनका विशाल स्लाइड संग्रह था। उनके नाटकों की शुरुआत
वहीं से हुई लेकिन वे साथ-ही-साथ विश्व-कला पर स्लाइड्स के साथ
वक्तव्य भी दिया करते थे। उन्होंने ‘मीडिया’ (MEDEA) नाटक का
मंचन किया था जिसकी रंगभूषा के चित्र हुसेन ने किये थे। बाल छाबड़ा,
वैसे तो फ़िल्म के वितरक थे और बाद में चित्रकार बने लेकिन हुसैन के
अन्तरंग मित्र थे। उन्होंने इन्स्टीट्यूट के प्रवेश-द्वार पर ही ‘गैलरी 1959’
नाम की आर्ट गैलरी बनायी। उन दिनों बम्बई में उँगलियों के पोरों से
भी गिनती पूरी नहीं हो सके इतनी गिनी-चुनी गैलरियाँ हुआ करती थीं
इसलिए जब भी जाना होता था तब वोर्डन रोड के अड्डे का चक्कर
ज़रूर लगता।
हुसेन को खोजना मुश्किल था : वे तो घुमक्कड़ थे। फिर भी मिल जाया
करते, कभी अचानक बिना बताये मुलाकात हो जाया करती। साख ऐसी
कि वे वक्त की पकड़ में नहीं आते। वैसे तो बम्बई में ही उनका कबीला
था लेकिन दिल्ली की जामा मस्जिद की पीछे वाली गली में ‘फ्लोरा’
नाम के होटल में उनका लम्बा डेरा लगता था। इसके अलावा गाँव-
कस्बों में मित्रों के घर आना-जाना, रहना। मन होते ही निकल पड़ते।
हैदराबाद में ब्रदीविशाल पित्ती उनके बड़े संग्राहक थे, वहाँ पहुँचे तो
वहीं से सीधे राजस्थान के गाँव में। फिर बम्बई की चाली हो या चाँदनी
चौक के गली-कूचे, वे वहाँ भटकते हुए मिल जाते। जहाँ जाते रेखांकन
करते, चित्र बनाते। सामग्री लेकर नहीं चलते। ऐसे तो चित्र के साधन
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हर जगह पड़े रहते और न भी हों तो मिलना कहाँ मुश्किल है? रोम की


प्रदर्शनी की दन्तकथा कुछ ऐसी कि ख़ाली हाथ ही गये और वहीं सारे
चित्र बनाकर सारी प्रदर्शनी खड़ी कर दी!
पश्चिम के कलाकारों के बारे में पढ़ा था वैसे वे ‘बोहेमियन’ होते हैं
लेकिन यह तो नज़र के सामने, जीता-जागता उदाहरण था। हमारे जैसे
उगते कलाकारों के लिए वे सच्चे ‘बोहेमियन’ या अलगारी थे। उनका
बड़ौदा आना कई बार होता था। यहाँ उनके परिवार के लोग भी थे।
कलाकारों का परिवार तो था ही, उनका बेटा शमशाद फाइन आर्ट्स में
पढ़ रहा था। वे जब भी मिले, प्यार से मिलते, बिना किसी बोझ के।
जब मैंने भूलाभाई इन्स्टीट्यूट जाना शुरू किया तब मैं तीसरे (या चौथे)
वर्ष का विद्यार्थी था लेकिन गायतोंडे आदि से वे हमउम्र के रूप में मेरी
पहचान करवाई। जाति और धर्म के भेद तो बड़ौदा के कला-जगत् में
शामिल होने के साथ ही भुलाए जाने लगे थे। हुसेन के सम्पर्क से छोटे-
बड़े और गुरु-चेले के भेद भी मिटने लगे। यहाँ धर्म मात्र एक था और
वह था चित्र कर्म का। छोटे से शहर में पले-बढ़े मेरे जैसे के लिए यह
तो अनूठी देन थी। इस नये कला-परिवार में सारे देश के कलाकार जुड़े
थे : बड़ौदा के शिक्षक और विद्यार्थी भी इसमें शामिल। कुछ विदेशी
लोग भी, इसलिए अँग्रेज़ी और हिन्दी में ही बातचीत। हिन्दी तो आती थी
लेकिन अँग्रेज़ी भारी मुश्किल, कई बार तो छक्के छुड़ाने वाली, कठिन
लेकिन ठोकरें खाते-खाते सब कुछ सीखा। हुसेन भी जब इन्दौर से बम्बई
आये तब इसी तरह सीखे होंगे। हमने देखा कि उन्होंने हिन्दी-उर्दू पकड़
रखी थी। मेरी तो गुजराती के साथ मिलकर त्रिवेणी बनी। मुझे यह भी
याद है कि विश्व-कला के साथ विश्व-साहित्य के दरवाज़े सुरेश जोशी
के साथ अँग्रेज़ी की चिटकनी हटाने से ही खुले थे। हालाँकि साहित्य की
तुलना में चित्र-भाषा में अनुवाद की रुकावट नहीं, उसका रूप विश्व में
कहीं भी समझा जा सकता है। पिकासो स्पेनिश, बेक्मान जर्मन या बिनोद
23
पाठ-पुनः पाठ

बिहारी बंगाली पर उनके चित्रों की वाणी सभी को साध्य।


भूलाभाई इंस्टीट्यूट के अड्डे पर जब चक्कर लग रहे थे, उसी दौरान
1961 में मेरी पहली प्रदर्शनी जहाँगीर आर्ट गैलरी में आयोजित हो रही
थी। उसमें मैंने हुसेन को आने की विनती की। वे आये और कविता पाठ
करके उद्घाटन किया। कुछ ऐसा पढ़ा था—’मैं चित्र करूँ तब आकाश
को दोनों हाथों से पकड़े रखना, क्योंकि मेरे कैनवास की सीमाओं का
मुझे पता नहीं’। उस समय में मैं घोड़ों के चित्र बनाता था जिसमें हुसेन
का सीधा या अप्रत्यक्ष प्रभाव होगा, हालाँकि उनके घोड़े मेरे घोड़ों से
थोड़े अलग थे। उनके घोड़े देश काल से परे, निरंकुश ऊर्जा के प्रतीक
जैसे, पंख उड़ते दिखायी देते। और मेरा घोड़ा या तो गाँव की घोड़ागाड़ी
से जुड़ा हुआ या फिर वीराने में घूमता हुआ एकाकी जानवर। उनकी
जैसलमेर और बूँदी आदि में बनायी हुई फ़िल्म ‘चित्रकार की आँखों से’
(थू्र द आइज ऑफ़ अ पेन्टर) और उनके जैसलमेर विषयक चित्रों की
पाश्चद-भू में ही भूपेन के साथ मेरा जैसलमेर का चक्कर और कविताएँ
सम्भव हो पाये थे। अब कुछ और क़रीब आने पर उनसे ‘क्षितिज’ की
जि़ल्द पर जैसलमेर की आकृतियों का आग्रह किया तो उन्होंने चार-पाँच
बड़े रेखांकन भेज दिये। उसमें से एक ‘क्षितिज’ के उपन्यास विशेषांक
(फ़रवरी 1963) के दोनों पृष्ठों पर छपा है।
आज इन बातों को आधी सदी होने को आयी है। दुनिया बदली, लेकिन
हुसेन की चित्र यात्रा अविरत रही। एक बार सुना था कि ग़रीबी में कवि
मुक्तिबोध की हुई मौत की श्मशान यात्रा में जाने के बाद उन्होंने जूते
पहनना छोड़ दिया था, लेकिन वे चलते रहे। पैर की तरह ही मन जितना
ज़मीन पर होता था उतना ही हवा में। चैन से बैठने का नाम नहीं। उन्हें
तो मानो बहुत कुछ करना था और जो सोचा वह करके ही रहे। छोटे-
बड़े चित्र तो बनाये ही; दीवारें भी चित्रों से भर दीं। यह कहने में ज़रा
भी अतिशयोक्ति नहीं कि जो देखा, जाना, समझा, जिससे पीडि़त हुए,
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जिसकी कल्पना की, वह सब चित्रों में डाला। उनके चित्रों की कहानी


कई लोगों ने अनेक रूप से लिखी है; उन्होंने ख़ुद भी ‘हुसेन की कहानी,
अपनी ज़ुबानी’ में आत्मकथा कही है। एक बार जहाँगीर आर्ट गैलरी में
सफ़ेद कपड़े के ताके डालकर, टाँगकर, बिछाकर ‘श्वेताम्बरी’ नाम का
‘इंस्टॉलेशन’ किया तो दूसरी बार सारे देश में घूम कर सिनेमा के चित्रित
‘होर्डिंग्ज’ के फोटो लेकर शहरी लोक-कला की प्रतिष्ठा की। फ़िल्म तो
पहले भी आज़मायी थी लेकिन बड़े ‘बजट’ वाली बिना लाभवाली दूसरी
दो और फ़िल्में भी बनायीं और चित्रों से जो कमाया सब उसी में लुटा
दिया। उस आधी सदी में उनकी सक्रियता कई बार उनसे आधी उम्र के
लोगों को भी लाँघ जाती थी। उस पाँच दशक की मंजि़ल में कलाकारों
की लगभग तीन पीढिय़ाँ आयीं लेकिन तब भी वे ऊँचे ही दिख रहे थे।
1980 के दौरान देश की राजनीति में ‘उदारीकरण’ की हवा बही। फिर
अभी तक अनछुए रहे कला-जगत् ने सामान्य जगत् में प्रवेश किया। कला
का बाज़ार खुला : कला की नीलामी करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय पीढिय़ाँ
आयीं और कलाकृतियाँ महँगी बिकनी शुरू हुईं। समाज के सीमित वर्ग
में प्रवर्तित आधुनिक कला-चित्र अब नीलामी से उपजे आँकड़ों के साथ
अँग्रेज़ी और प्रादेशिक भाषाओं के अख़बारों में छपने लगे और समाज
के अनेक वर्गों तक पहुँचे जिसमें हुसेन के चित्र प्रथम पंक्ति में हुआ
करते थे, इसलिए वे आधुनिक कला के मात्र अग्रणी ही नहीं बल्कि
पर्याय माने जाने लगे।
बदलते हुए वातावरण में दक्षिणपन्थियों ने सर उठाया और साम्प्रदायिकता
का ज्वर फैलने लगा जिसने देश की संस्कृति और कला को भी घेर लिया।
कला और कलाकार को धर्म के माध्यम से पहचानने की पहल हुई और
साझी अस्मिता का बँटवारा हो गया। हम जिस ग़ैरसाम्प्रदायिकता में पले-
बढ़े थे उसे शंका की नज़र से देखा जाने लगा। हुसेन को अल्पसंख्यक
कौम के मानकर उनको हिन्दू धर्म के पवित्र पात्रों को विकृत रूप से
25
पाठ-पुनः पाठ

चित्रित करने के कारण निशाने पर लिया गया। पाँच दशकों तक देवी-


देवता और रामायण-महाभारत के पात्रों के सैकड़ों चित्र समादर और
भावपूर्ण रूप से बनाये थे उसे दरकिनार कर, दो-चार चित्रों में उन्होंने
जो ‘छूट’ ली थी उसे लेकर हंगामा किया गया जिसने कला की समझ
और सहिष्णुता की धज्जियाँ उड़ गयी। नग्नता का आरोप लगाने वालों के
लिए हज़ारों वर्षों तक आराध्य-मूर्तियों के निर्वस्त्र देह-वैभव की महिमा
करने वाले चित्र-शिल्प से भी ज़्यादा उन्नीसवीं सदी में और बाद में, रवि
वर्मा ने देवी-देवताओं को समकालीन कपड़े पहनाकर नाटकीय रूप से
चित्रित किया था वह विकल्प आदर्श रूप था। वैसे भी साम्प्रदायिकता
इतिहास बोध या विचार स्वातन्त्र्य से परे चलती है इसलिए स्वतन्त्रता
स्वछन्दता के रूप में दिखती है। हुसेन को काफ़ी कुछ भुगतना पड़ा
लेकिन वे चित्र बनाते रहे। विरोधियों की निन्दा किये बिना, किसी को
अनजाने में भी ठेस पहुँचाई हो तो उसके लिये उन्होंने सार्वजनिक रूप
से माफ़ी भी माँगी, लेकिन उससे कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ा।
जब विवाद की आँधी ज़रा हल्की होती तब वे फिर से घूमना शुरू कर
देते। सूरत के गार्डन सिल्क मिल्स के परिसर में सन् 2004 में प्रफुल्ल
और शिल्पा शाह का आधुनिक कला संग्रह है, उस समय मैंने लगभग
पचास वर्ष के बाद हुसेन को लोगों के सामने चित्र बनाते हुए देखा।
उस दिन सब कुछ अच्छी तरह पार उतर गया तो लगा कि विरोध के
अभियान थोड़े ढीले पड़े हैं, लेकिन वह भ्रम साबित हुआ। दो-तीन दिनों
में ही, अख़बार में उनके सार्वजनिक रूप से चित्र बनाने की ख़बरें छपीं
और संग्रहालय पर हमला हुआ। भीड़ आयी, उनमें से किसी को भी
पता नहीं था कि कौन-सा चित्र किसने बनाया है इसलिए जो मिला उस
पर टूट पड़े। एक चित्र जो भीड़ ने फाड़ा वह बेन्द्रे का था और दूसरा
चित्तोवनु मज़ूमदार का। हुसेन के चित्र वहीं प्रदर्शित थे लेकिन उन्हें
किसी ने छुआ तक नहीं!
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फिर तो विवाद ने हद कर दी। किसी जुनूनी ने कलाई काटने तो दूसरे ने


सिर काटने का ऐलान किया। अहमदाबाद में वास्तुकार बालकृष्ण दोशी
के साथ ‘हुसेन-दोशी की गुफा’ नाम का कला-केन्द्र था वहाँ भी भीड़
ने हमला किया और उनके चित्रों की ‘होली’ जलायी। और उसके बाद
उसका नाम ‘अहमदाबाद की गुफा’ बन गया। कोर्ट में उनके विरुद्ध
सैकड़ों केस हुए। आख़िरकार विवाद इतने भयानक और पीड़ादायक हुए
कि उन्होंने विदेश का रास्ता पकड़ा, लन्दन, दुबई और दोहा में रहकर
भरपूर चित्र बनाते रहे लेकिन उनके प्राण वापस लौटने को तड़पते रहे।
वह आशा भी ठगिनी निकली तब आख़िरकार, उन्हें कतर जैसे खाड़ी देश
की नागरिकता स्वीकार करनी पड़ी। अन्त में ९ जून २०११ को उन्होंने
लन्दन में आँखें मूँद लीं।
आज वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन पहली बार देखा था वैसा ही बाँस की
लकड़ी जैसी तनी हुई और बाद में खुले पैरों घूमती हुई वह देह आँखों
के सामने तैरती रहती है। (‘समीपे’, १९, जनवरी, २०१०, पृ. ७४-८०)
टिप्पणी
१. चित्र विभाग के अध्यक्ष और प्रसिद्ध चित्रकार नारायण श्रीधर बेन्द्रे
२. ‘क्षितिज’, जुलाई १९६१
३. वही
४. वही
५. जगदीप स्मार्त के द्वारा किया हुआ गुजराती अनुवाद ‘दादानो डंगोरो लीधो, तेनो तो में घोड़ो
कीधो’ (‘आर्चर’, प्रथम आवृत्ति : २००४) इस शीर्षक के तहत छापा गया है।

[शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक निरखे वही नज़र]

27
हुसेन का (न) जाना
*
अखिलेश

मैंने अपने जीवन में जो कुछ भी किया है, आसानी से हासिल किया
जा सकता है। ईश्वर भेदभाव नहीं रखता। : मक़बूल फ़िदा हुसेन

जिन्दादिल और जहीन, मनमौजी मगर मक़बूल, जिद्दी जबरदस्त,


शर्मीले निडर, मज़बूत, लचीले मक़बूल फ़िदा हुसेन का इस दुनिया से
रुख़सत होना, इन सब ख़ासियतों का एक शख़्स के साथ चला जाना
नहीं है, बल्कि बिखर जाना है। अब शायद ही किसी एक व्यक्ति में यह
सारे गुण देखने को मिले। मनुष्यों की दुनिया में हुसेन का होना निश्चित
ही एक अजूबा रहा। हम सब उनकी अविश्वसनीय ऊर्जा और चित्रकला
के लिये लबरेज़ लगन से अक्सर प्रेरणा पाते रहे। पिचानवें साल की उम्र
में भी उनकी व्यस्तता और अपने काम के प्रति चौकन्नापन किसी भी
युवा चित्रकार के लिये मनचाही मुराद की तरह है। हुसेन की सक्रियता,
सृजनात्मक क्षमता, आवारगी और मक़बूलियत अब दुर्लभ हुई।
पिछले कई सालों की मुलाक़ातों में उनका स्नेह मेरे लिये ही नहीं, बल्कि
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हुसेन का (न) जान

युवा कलाकारों- साथ ही युवा कवियों- के प्रति भी मैंने कम होते नहीं


देखा। वे उत्सुक रहे नयी उपलब्धियों के लिये। नये विचारों को सहज
ही आत्मसात कर उसके विस्तार में चले जाना उनकी प्रतिभा का ही
कमाल था। वे नयी कविता के प्रति अपनी रुचि अन्त तक बनाये रहे।
पिछले बरस ही उनके अनुरोध पर मैं दस युवा कवियों की कुछ कविताएँ
साथ ले गया था, जिसे उन्होंने सबसे पहले सुनना पसन्द किया। शेष
खोज-ख़बर बची रही। हुसेन का कविता प्रेम का एक उदाहरण 1966
में स्वामीनाथन की पत्रिका ‘कान्ट्रा’ में छपी एक कविता से देना चाहूँगा,
जिसमें हुसेन की कविता छपी, जो उनकी चित्र-भाषा से भरी है-
मुझे अहसास है
रेम्ब्रां के चित्रों की तड़कन का
जिनके कत्थई मुझमें जलते हैं

हालाँकि

चट्टानी गेरू सी धूल से सने जूते


गहरे धँसे हैं

फिर भी
वह रेशमी सूरज वहाँ
मुझे तीखी आवाज़ देता है
अनुवाद : शिवदत्त शुक्ल

अक्सर उनका फ़ोन आने पर मेरी पहली घबराहट यही होती थी कि


अन्त में वे यह न कहें ‘कल यहाँ आ जाओ, यहीं बात करते हैं’। उनका
अधिकारपूर्वक कहना और उसके जवाब में जाने के अलावा कोई चारा
29
पाठ-पुनः पाठ

न होता। मैं ख्शुद फ़ोन करने में हमेशा डरता रहा कि वे इस अधिकार
का इस्तेमाल न कर लें। मुझे नहीं पता कि अन्य युवा कलाकारों के साथ
उनके सम्बन्ध किस तरह के रहे हैं, किन्तु यह विश्वास ज़रूर है कि वे
भी उतने ही स्नेहिल अधिकार भरे होंगे।
मक़बूल की मक़बूलियत का कायल मैं ही नहीं सारा जहाँ है। मुझे नहीं
याद पड़ता कि किसी भी चित्रकार ने अपने देश की कला के लिये इस
क़दर रचनात्मक अन्तरराष्ट्रीय स्तर का योगदान दिया होगा। चित्रकला
के लिये अनेकों चित्रकारों द्वारा ज़रूर कुछ न कुछ किया गया है और वे
सब अपनी तरह से अनूठे चित्रकार रहे हैं। मक़बूल के लिये हम उन्नीस
सौ सैंतालीस के नये-नये आज़ाद हिन्दुस्तान की समकालीन कला पर
नज़र डालेें, तो एक दो या कुछ प्रतिभाशाली चित्रकारों के अनूठे प्रयासों
के अलावा पूरा कला संसार अँगरेज़ी ढँग की भारतीय चित्रकला के
लिजलिजे, पिचपिचे, रूमानियत से भरे, भावुकतावादी ग्रामीण जीवन के
अश्लील चित्रों से भरा पड़ा था।
यथार्थवाद की अधकचरी समझ की बदबू राजा रवि वर्मा के चित्रों से
आती थी। इस कचरे की सफ़ाई का जिम्मा उठाने वाले युवा पीढ़ी के
अधिकांश चित्रकार आज़ादी प्राप्त होते ही संसार के बड़े कला-केन्द्रों-
पेरिस, लंदन और न्यूयार्क- की तरफ़ चल दिये। हुसेन हिन्दुस्तानी लोक
संस्कृति की जीवनदायी रामलीला के पीछे-पीछे उन अनेकों गाँवों की
यात्रा कर बैठे, जहाँ सादे, सहज, सरल; किन्तु जीवट जीवन से उन्होंने
वह सब सीखा जो दुनिया के किसी कला-केन्द्र में सीखा नहीं जा सकता
था। मक़बूल के चित्रों की ताकत, कथ्य की सपाट बयानी और अबूझ
रहस्यात्मकता इन्हीं यात्राओं की देन रही होगी, वो सहज सरल होते हुए
भी कला के कड़े मानदण्डों पर खरी उतरती रही, जहाँ विशेषज्ञता की
कसौटी की कठिन परीक्षाएँ हुआ करती हैं।

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हुसेन का (न) जान

भारतीय चित्रकला में मक़बूल फ़िदा हुसेन और स्वामीनाथन- ये दो ऐसे


चित्रकार हुए हैं, जिन्होंने अपनी शर्तों पर काम किया। जिनके लक्ष्य
हमेशा ऊँचे रहे, जिनका ध्येय कला का संवर्धन और उसकी पवित्रता
रही है। स्वामीनाथन पर फिर कभी कहीं। यहाँ मक़बूल की बात करते
वक्त मैं नहीं भूल सकता कि हुसेन को किसी बात के लिये राज़ी कर
लेना आसान नहीं था, जबकि वे आसानी से नये विचारों के प्रति समर्पित
हुआ चाहते रहे। ऐसे कई मौक़ों का गवाह रहा हूँ, जहाँ हुसेन ने अपनी
ही शर्त पर काम किया और एक सीख भी दी कि ‘कलाकार होने का
लायसेंस’ कब और कैसे इस्तेमाल किया जाना चाहिये। वे उतना ही
खुले थे जितना एक आसमान और किसी भी नये विचार को सोख लेने
की क्षमता उनमें सूखी धरती पर गिरती पानी की बूँद की तरह रही, जहाँ
से एक नया ‘बिरवा’ पैदा होने की सम्भावना हमेशा रहती है।
हुसेन की ज़िद ही आज समकालीन कला की दशा और दिशा तय कर
रही है। आज भी एक नौजवान चित्रकला महाविद्यालय में प्रवेश के
लिये हुसेन के जगाये आत्मविश्वास के साथ ही जाता है। उसके मन के
भीतरी कोने में कलाकार की छवि हुसेन की ही है। यह अद्वितीय जगह
किसी और भारतीय चित्रकार को प्राप्त नहीं है। हुसेन की सहज समझ
ही उनसे वह सब करवाती रही है जिसका भरोसा उन्हें अपनी यात्राओं
से मिला था। वे घटनाओं से सीधा सम्बन्ध उसी तरह बनाते रहे, जैसे
एक आम आदमी अचम्भित या द्रवित होता रहा है। वे अमिताभ बच्चन
को चित्रित करते वक्त उसकी फ़िल्मी छवि को छिटका चित्र छवि रचते
हैं, जिसका नाम अमिताभ है। यह आसान काम नहीं है। अमिताभ की
लोकप्रियता के बीच उस छवि को नष्ट करते हुए नयी छवि चित्रित
करना हुसेन की अकल्पनीय प्रतिभा का ही प्रमाण है। उनकी रूप की
समझ अद्वितीय है। वे कहीं से भी शुरू करते हुए कहीं भी रुकते हुए
लगातार रूपाकारों के साथ खेलते हुए उन्हें रचते हुए बिगाड़ सकने की
31
पाठ-पुनः पाठ

फ़ोटो साभार : अखिलेश

ताकत रखते रहे हैं। साथ ही बिगाड़ते हुए रचने की क्षमता रखते हैं।
वे अकेले ऐसे चित्रकार हैं, जो चित्रण के दौरान ही रूप रचना करते
चले जाते हैं, जिसका प्रमाण सिर्फ़ वही चित्र हो सकता है। दूसरा चित्र
अगला रूप प्रमाण होगा। वे निरन्तरता की रचनात्मक प्रक्रिया से बिंधे
थे, जिसमें जिस्मानी आराम हराम था। हुसेन को स्वामीनाथन अक्सर
‘भीष्म पितामह’ कहा करते थे। मुझे लगता है कि कर्त्तव्यपरायण होने
की गहरी आत्मचेतना से जगे हुसेन भारतीय कला साम्राज्य के निर्धारक,
पोषक, पालक और निर्माता रहे हैं। भीष्म पितामह की तरह कला संसार
के प्रति कर्त्तव्य-बोध, कर्त्तव्य-नीति का पालन उन्होंने जीवन भर किया।
वे अपनी सहज बुद्धि से यह सारे काम बग़ैर किसी दावे के करते रहे।
वे बनाते रहे, रचते रहे और उसके सेहतमन्द होने की सलाहियत रखते
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हुसेन का (न) जान

रहे। यह सब वे ‘गोरिल्ला छापामार’ की तरह करते रहे।


वे विद्रोही थे, जिसका विद्रोह रचनात्मक था। वे पोर-पोर से स्वतन्त्रता
को महसूस करते रहे, जो गुलामी के हर रेशे को नेस्तनाबूद करता जाता
था। उनके लिये देश की स्वतन्त्रता उसके नागरिक की स्वतन्त्रता का
गहरा अहसास रही, जिसे उन्होंने अपनी चित्रभाषा से रचा, महसूस किया
और उसका अहसास दूसरों को कराया। उनकी आत्मचेतस् चित्रभाषा
में शास्त्रीयता, परम्परा, समकालीन आधुनिकता का मिश्रण दर्शक के
लिये अक्सर कई समय को एक साथ महसूस करने जैसा रहा है। उन्होंने
चित्रकारों के लिये आज़ाद मुल्क की स्वाधीनता का पाठ लिखा। उनकी
दूरदृष्टि में साधारण जनजीवन की सांस्कृतिक चेतना भरपूर थी। वे
आधुनिक होने की शर्तों पर पारम्परिक थे। उनकी चित्रभाषा समकालीन
होते हुए पारम्परिक शास्त्रीय रचनाशीलता से निकली थी, जिसके विषय
जनमानस में बसी मिथकीय समझ को सम्बोधित थे। वे कभी भी भारतीय
समझ से बाहर नहीं गये, बल्कि उन्हें लम्बी सांस्कृतिक विरासत के
अनछुए पहलू हमेशा प्रेरणा देते रहे, जिसके साथ उन्होंने हर बार एक
नया सम्बन्ध बनाते हुए उसे पुर्नपरिभाषित किया। गजगामिनी फ़िल्म में
कालिदास और सी.वी. रमण साथ-साथ हैं। शकुन्तला और गजगामिनी
की युति अद्वितीय है। वे प्रेमचन्द और श्रीकान्त वर्मा के साथ अनायास ही
अतिक्रमित रूप खोज लेने की प्रतिभा रखते थे। मक़बूल की अपनी समझ
का कोई ऐसा दावा हमें नज़र नहीं आता, जहाँ वे निर्लज्ज घोषणा करते
मिलते हों। उनके चित्र और छवि चित्र भी एक के बाद एक सृजनशील
नैरन्तर्य का प्रमाण हैं, जहाँ वे निर्माणाधीन हैं। सक्रिय रचनाकार की तरह
वे खामोश हैं, मुखर हैं अपनी चित्राकृति में।
पिछले साल अगस्त में हुई मुलाक़ात में हुसेन साहेब ने अपनी व्यस्तताओं
को दरकिनार कर पूरा समय साथ गुज़ारा। उन दिनों वे लंदन में भारतीय
संस्कृति, कतर में अरब संस्कृति, दुबई में भारतीय सिनेमा और घोड़ों
33
पाठ-पुनः पाठ

के संग्रहालयों पर काम कर रहे थे। घोड़ों के संग्रहालय के लिये काँच


के पाँच घोड़ों के शिल्प इटली की कार्यशाला में बना रहे थे। वे लगातार
यात्राएँ और उसके बीच चित्रण कर रहे थे। उनका लंदन वाला स्टूडियो
चित्रों से भरा हुआ था। चारों तरफ़ चित्र, रंग और ब्रश बिखरे हुए थे,
बीच में यहाँ-वहाँ पुस्तकें और एक मेज़ पर घोड़ों के शिल्प का मैकेट,
जो काँच में बनकर आया हुआ था, रखा था। वे जितने उत्साह से अपनी
इन योजनाओं के बारे में बता रहे थे, उतनी ही जिज्ञासा से हिन्दुस्तान के
बारे में ताज़ा जानकारी लेते जा रहे थे।
उनसे मिलने में एक ख़तरा अक्सर बना रहता था कि वे मिलने वाले को
उसके बिना जाने ही अपनी रचनात्मकता में इतनी ख़ामोशी से शामिल
कर लेते कि उससे बाहर निकलने के लिये उसे प्रयास करना होता था।
उसके चले जाने पर भी वही निरन्तरता उनकी प्रेरणा बनी रहती। वे चित्र
बनाते, चित्र पहनते, चित्र बिछाते-ओढ़ते रहते। उनके साथ रहना एक
‘चित्र-संसार’ में रहना है।
मेरे पहुँचने पर मेरे लिये चाय और आमलेट बनाकर लाना उनके उस
बड़प्पन का परिचायक है, जहाँ पहुँचने की उम्मीद अनेकों कलाकारों
की होती होगी, किन्तु होता कोई एक है। यह भी आसान नहीं है किसी
चित्रकार के लिये, कि वह मुझ जैसे ‘खद्योत सम’ के लिये अपना
कामकाज छोड़ मुझे लंदन घुमाने ले जाए और रात एक बजे मुझे घर
तक छोड़ आने की ज़िद करे। हुसेन साहब का आगाज़ और अन्दाज़
अविश्वसनीय रहा है। वे कब क्या करने वाले हैं, क्या कहने वाले हैं,
इसका अन्दाज़ा लगाना मुश्किल है। वे अपने इन्हीं अनआभासित अचम्भों
के चलते वह सब कर सके जिसकी प्रेरणा उन्हें- उन्हीं के शब्दों में
कहूँ- ‘‘यहाँ मैं अकेला प्रतिभाशाली नहीं हूँ’’- इस बात के अहसास से
हमेशा मिलती रही है।

लॉकडाउन : 76वाँ दिन


हुसेन का (न) जान

उनका जाना इन सारी योग्यताओं का बिखर जाना है। वे अद्वितीय हैं,


अनूठे और अकेले मक़बूल हैं, जिस पर हम सब फ़िदा हैं। वे हुसेन
हैं और रहेंगे आने वाली पीढ़ी के लिये भी और जाती हुई पीढ़ी के लिये
भी।
2011

[मक़बूल फ़िदा हुसेन पुस्तक से]

35
जगलेखा
इन दिनों फेसबुक
अनुपस्थिति की जगह
*
पूर्वा भारद्वाज

8 जून, 2020

“तुम अगर भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको,


मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है”
सुधा मल्होत्रा का गाया यह गाना जैसे ही शुरू हुआ, मुझे लगा कि स्वर
इतना तेज़ कर दूँ कि पापा* के कानों तक उनका पसंदीदा गीत पहुँच
जाए। मैंने माँ को तुरत फोन लगाया। बात हुई, पर पापा को तो नहीं
सुना सकती न! एक बार यूट्यूब पर उनको सुनाने की कोशिश की थी,
मगर धीमे नेटवर्क के कारण पापा आनंद नहीं उठा पाए थे। सोचा था
कि कभी माँ-पापा के मनपसंद गानों का भंडार उनको थमा दूँगी, मगर
वह ‘कभी’ कभी नहीं आया। देखते-देखते 8 तारीख आ गई। जून की।
मैं 8 मई की रात को दिल्ली से निकली थी। पापा से मिलने। मिलना
हुआ। आँखों से केवल। और अभी सोच रही हूँ कि भूलना क्या होता
* नंदकिशोर नवल
37
पाठ-पुनः पाठ

है, ज़िंदगी को पटरी पर लाना क्या होता है, अपनी दिनचर्या को दुहराना
क्या होता है और इन सबका अनुपस्थिति से क्या रिश्ता है। अपूर्व पहले
अक्सर कहा करते थे कि हमारा जीवन accidents से बनता है यानी
आकस्मिकता का तत्त्व उसे दिशा देता है। अब वे यह कहने लगे हैं कि
हम सबका जीवन अनुपस्थितियों से बनता है। वाकई। हमें अनुपस्थिति
से निपटना सीखना होता है। अनुपस्थिति कभी किसी और से भरती
नहीं है, उसका विकल्प कोई नहीं होता है। वह रहती है। ताउम्र। उसके
अगल-बगल से रास्ता बनाना होता है। धीरे-धीरे पगडंडी बनने लगती है।
आगे चलकर मुमकिन है कि वह मुख्य मार्ग बन जाए, मगर अनुपस्थिति
अपनी जगह बरकरार रहती है।

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कितना बचेंगे हम...
*
कंचन पंत

7 जून, 2020

अब हम भी कन्टेनमेंट जोन में हैं। अब तक बहुत पास में करोना के


मामले नहीं थे तो लग रहा था कि थोड़ी सावधानी से बचा जा सकता
है, पर शायद वह मुमकिन नहीं है। एक पल को आज यह खयाल भी
आया कि व्हाट इफ ये ज़िन्दगी के आखिरी दिन हों? मौत ख़तरनाक नहीं
होती। मौत की आहट ख़तरनाक होती है।इतनी कि वह आहट (अगर)
होगी तो शायद यह खयाल नहीं रहेगा कि फेसबुक पर लिखकर दुनिया
को बताया जाए कि मरना कैसा लग रहा है। ज़िन्दगी एक एब्स्ट्रैक्ट
आर्ट जैसी महसूस हो रही है, जिसमें हर बात के कई-कई अर्थ निकल
रहे और कोई भी अर्थ मन को शांत नहीं करता। कभी बिना बात के
झल्लाने लगती हूँ। कभी मौन ओढ़ कर एक एकांत में बैठ जाना चाहती
हूँ। कभी अपनी ही ज़िन्दगी की मूकदर्शक बन जाती हूँ, तो कभी उन
सपनों को जल्दी से जल्दी पूरा कर लेने की कोशिश में लग जाती हूँ जो
इस ज़िन्दगी में पूरे करने हैं। अभी कल ही फेसबुक पर एक मित्र को
39
पाठ-पुनः पाठ

कह रही थी कि निराशा रास्ता नहीं है, और आज ख़ुद निराश महसूस


कर रही हूँ। रिग्रेट्स हैं? बहुत! लेकिन यह निराशा उन रिग्रेट्स के कारण
नहीं है, दिल टूटने, सपनों के पूरे ना हों पाने, वायरस से संक्रमित होने
यहाँ तक कि मरने के खयाल से भी नहीं है, या शायद निराशा की वजह
ये सब बातें भी हों; लेकिन इस वक़्त उन लोगों के बारे में सोच रही हूँ
जो घर जाने को निकले थे और रास्ते में ही खो गए। जो बीमार हैं पर
अस्पताल में उनके लिए बेड नहीं है। उन लोगों के बारे में सोच रही हूँ
जिन्हें संक्रमण की आशंका है, लेकिन टेस्ट नहीं करा पा रहे। उन लोगों
के बारे में सोच रही हूँ जो मर रहे हैं, पर एक आखिरी बार अपने प्रिय
लोगों को गले नहीं लगा पा रहे हैं, उन लोगों के बारे में सोच रही हूँ जो
एकदम अकेले हैं और इसी तरह अकेले रह जायेंगे। उन लोगों के बारे
में सोच रही हूँ जो कभी प्यार को, रिश्तों की ऊष्मा को महसूस नहीं कर
पाए और इन सब का साझा दुख कोहरे की तरह सब ओर से घेर रहा
है। यह सब देखने के बाद बच भी गए तो हम कितना बचे रह पाएँगे?

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थोड़ा-थोड़ा टू टता हुआ भ्रम
*
सुमेर सिंह राठौड़

9 जून, 2020

‘सड़े हुए फलों की पेटियों की तरह


बाज़ार में एक भीड़ के बीच मरने की अपेक्षा
एकांत में किसी अनसुने पेड़ के नीचे
गिरकर सूख जाना बेहतर है।’
—सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

झुलसी आँखों की डायरी पढ़ी है किसी ने?


कोई और दुनिया है यह एकदम नई-सी। आँखों पर चढ़ा दिया गया है
रंगीन चश्मा। सबकुछ स्लो मोशन में हो रहा है। शरीर छत्त पर से उड़कर
तैर रहा हवा में। जमाना धीरे-धीरे ओझल होता जा रहा है। कानों में गूँज
रही है बरगद के पास धूप में तड़पकर मरती चिड़िया की आवाज़।
दूर किसी चारपाई पर खिड़की से आई धूप में चमक रहे हैं अटके पड़े

41
पाठ-पुनः पाठ

ड्राफ्ट के आंसू। स्क्रीन पर तैर रही है काली छाया। मैं अब उड़ रहा था।
शाम खत्म होते क्या उस ऊँचाई तक पहुंच जाऊंगा जहां कोई किसी को
जानता नहीं होगा। जहां सवाल होने पर सिर्फ जवाब होंगे बिना ज्ञान और
सलाहों के। नींद खुलती है तो गले में कुछ अटका-सा महसूस होता है।
कितने महीने हो गये। ये प्रोथियाडेन क्या दो महीने से अटकी ही है गले
में। नीचे उतरकर घुल क्यों नहीं जाती नसों में...
पता है, इते बरस जी लेने के बाद मैंने यह मान लिया कि सपने सिर्फ
सपने ही होते हैं, भले ऊंघ में देखे हों या जागती आँखों से। जो घट
रहा है, सच वही है। जो घटने का इंतज़ार है वो सिर्फ भ्रम है। रोज
थोड़ा-थोड़ा टूटता हुआ भ्रम। हम बड़े हो रहे थे दुनिया को समझते हुए।

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थोड़ा-थोड़ा टूटता हुआ

और जितना जानते थे उतनी ही ज्यादा करप्ट दिखती दुनिया। इस करप्ट


दुनिया में सबसे मुश्किल था सिर्फ हमारे सही होने का भ्रम। चुभता था
हमारे करप्ट ना हो पाने का सच।
ऐसे लगता था जैसे अपने लिये एक दुनिया गूंथ रहे हैं हम। लोग उन
गुंथते डोरों को तोड़ते हुए चिल्लाये, ‘ये जाल हैं।’ और वो सच में जाल
था। लगा जैसे मैंने सारी दुनियाओं के गुंथने को देख लिया था। और
मेरी दुनिया का गुंथना भरम था।
इस सारे भरम में बनी हुई दुनिया से अलग होना ही सच था। अलग
जीना नहीं। और अलग होने का बस एक ही सच हो सकता है कि हम
अलग मौत मरेंगे। अगर अलग मौत नहीं मरे तो! यह अलग होना भी
खुद का बुना गया भरम होगा।
हलुसिनेसन्स था सब कुछ। होना, सपने देखना, रिश्ते, दोस्त--सब।
आसपास बजता संगीत किसी और दुनिया में ले जाता है। आसमान से
पेड़ गिर रहे थे और सारी दुनिया हरी हो गई थी। बीच जंगल में किसी
छतरी के नीचे कोई चरवाहा गा रहा है। यह वह राग था जिसे जिसने भी
सुना, वह उसके बारे में दूसरों से कभी कुछ कह नहीं पाया...

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फू ल-पत्ती
*

कैलाश वानखेड़े
8 जून, 2020

इसमें सुबह का इतना वक्त दिया है जिसमें कुछ पढ़-लिख-सुन सकता


था। इतना वक्त देने पर कहने-लिखने वाले कह-लिख सकते हैं कि
फूल-पत्ती पर समय बर्बाद न कर ये कर सकते थे, वो कह सकते थे।
वैसा न कर इन फूल-पत्तियों पर वक्त को जाया क्यों करते हो?
जब वे फूल-पत्ती शब्द का उपयोग करते हैं तो एक अजीब-सा भाव
होता है। वे मानते हैं कि इतना तुच्छ कार्य करने के बजाय कुछ और
करते या कहते।
फूल-पत्तियों की हसरत का एक सिरा मेरे अपने बचपन में खुलता है। उस
वक्त जमीन का उतना टुकड़ा नही मिलता था कि अदद एक पौधा रोपा
जा सकें। लेकिन जब मौका मिलता पौधे को लगाने की हसरत को बढ़ा
देता। और जुनून की तरह पौधे को लगाने में ‘जमीन तलाश अभियान’ पर
निकल जाते। इसके साथ फिर बीजरोपण का एक सिलसिला शुरू हुआ।
बीज लगाए, उस जगह जहां बाद में जा न सकता। रत्तीभर जमीन की

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फूल-पत्

तलाश में न जाने कहाँ-कहाँ निकल जाते थे और उसे पूरा कर लेते थे।
उम्र के साथ निरंतर कम होती गई भटकन।
किशोरावस्था और उसके बाद की कथा-व्यथा फिर कभी।
और जब मौका मिला तो हजारों पौधे लगाए/लगवाये।बहुत बड़ी संख्या
में यह काम किया। इन तीन सालों में जैसे मैंने अपने बचपन की तमाम
ख्वाहिशें पूरी कर लीं।

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पाठ-पुनः पाठ

अभी भी जमीन का ऐसा कोई हिस्सा हमारे पास नही है जहां पौधे लगाये
जा सकें। लेकिन मन अभी भी बहुत बड़ा है। जमीन न सही, गमले ही
सही तो यह सिलसिला चलता आ रहा है। अब तो इन पौधों उर्फ फूल-
पत्ती को बनाये रखने का सारा श्रेय पत्नी को जाता है। मैं महज क्लिक
करने में अपना योगदान देता हूँ।
फोटो निकालना ढलते उम्र का इरादा है, मन है और इस पर मेरा कोई
जोर नही है। जब कभी मन मौका मिले कोई पौधा लगा दीजिएगा। हो
सके तो उसकी देखभाल करिये कि पौधे लगाने या उन्हें बचाये रखने
की खुशी का यह झरना कभी भी सूखता नही है।

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फूल-पत्
पाठ-पु नः पाठ

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