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प्राक्कथन

आर्थिक क्षेत्र में दे श ददनोंददन ऋणजाल में फँसता जा रहा है। १९८५ में ४५००० करोड़
रुपये का विदे शी कजज था, आज िह २,७६,००० करोड़ रुपये से भी अधिक हो चुका
है। ऋण-सेिा ३० प्रवतशत की खतरनाक सीमा को पार कर चुकी है तथा ऋण चुकाने
हेतु ऋण लेना पड़ रहा है। विश्व बैंक ि अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष की शतों के कारण हमारे
रुपये का अिमूल्यन हुआ, विदे शी पूज ूं ी-वनिेश पर बूंिन लगभग समाप्त हो गये, सस्ते
दाम पर अन्न की वितरण-व्यिस्था और वकसानों को धमलने िाला समथजन-मूल्य समाप्त
या कम वकया जा रहा है। भारत सरकार द्वारा कस्टम (तटकर) कम करने ि उत्पादन-
शुल्क को बढ़ाने का फैसला भी ऋण-दाताओं की वहत-पूर्ति के ललए उनके दबाि के
कारण वकया गया है।

कई सरकारी उद्यागों में विदे शी कूंपवनयाँ सीिे भागीदार बनने की ताक ि चेष्टा में हैं तथा
उपभोक्ता क्षेत्र की छोटी-बड़ी कूंपवनयाँ विदे लशयों के हाथों बेची या उनके वनयूंत्रण में जा
रही हैं।

इन्हीं पररस्थस्थवतयों में हमारे कच्चे माल और खेती से उत्पाददत माल का बड़े पररमाण में
वनयाजत हो रहा है। साथ-साथ विदे शी दबाि के कारण गेहँ का महँगे दाम पर हमें आयात
भी करना पड़ रहा है। गत िषों में हमें रासायवनक खाद, विषैली कीटनाशक दिाओं
तथा सूंकर बीज का प्रयोग बढ़ाना पड़ा है। उसके दुष्पररणाम सामने आ रहे हैं। अमरीका
अपने ३०१ स्पेशल एक्ट के द्वारा हम पर भारत के पेटेण्ट कानून को पररिर्तित करने
के ललए सतत् दबाि डाल रहा है। भारत को रॉकेट प्रौद्योवगकी न दे ने के ललए रूस को
वििश कर दे ने में िह सफल हुआ है।

िे विदे शी शलक्तयाँ गैट के माध्यम से भारत के कृवष, औषि और जैविक क्षेत्र में हमारे
पेटेण्ट कानून में पररितजन करने के ललए दबाि डाल रही हैं। उनका लक्ष्य उन पर अपना
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एकाधिकार करना है। इसकी पूिज-तैयारी के रूप में बहुराष्ट्रीय कूंपवनयों ने बीज उद्योग
में बड़े पररमाण में प्रिेश वकया है। कारवगल कम्पनी उसका एक उदाहरण है। नमक'
जैसी सामान्य िस्तु के वनमाजण हेतु इस विदे शी कूंपनी ने ११००० एकड़ भूधम भारत
सरकार से माँगी है। िह भूखण्ड काूंडला बूंदरगाह के वनकट होने के कारण अत्यन्त
सूंिेदनशील है। िहाँ विदे लशयों की व्यापक गवतविधि अनेक प्रश्न उत्पन्न कर रही है। क्या
हमें उस क्षेत्र में वकसी विदे शी उद्योग को स्थावपत होने दे ना चावहए? क्या हमें उस
प्रौद्योवगकी की आिश्यकता है जो उनसे प्राप्त हो रही है? क्या यह आत्मवनभजरता की
ओर बढ़ने का मागज है? हमारे दे श के जो विस्फोटक प्रश्न हैं, जैसे-बेकारी, गरीबी,
वनरक्षरता, मूल्यिृद्धि ि मुद्रास्फीवत को रोकना ि विषमता को कम करना, क्या इस
प्रकार हम उनको हल करने िाले हैं? क्या इस प्रकार हम पयाजिरण को सूंकट में नहीं
डाल रहे हैं और दे श की नैसर्गिक सूंपत्ति के अनाप-शनाप दोहन का मागज नही खोल रहे
हैं? क्या हम अपनी स्ितन्त्रता को खतरे में नहीं डाल रहे हैं? सरकार से ये प्रश्न पूछना
जागरूक समाज का दाधयत्ि है। सरकार को गलत नीवतयों पर चलने से रोकना और
उसके ललए जनमत का प्रखर आन्दोलन उत्पन्न करना भी हमारा दाधयत्ि है। िैकस्थल्पक
लसिान्त, नीवत तथा प्रत्यक्ष प्रयोगों और स्िदे शी जीिन-मूल्यों के आिार पर स्िदे शी
कायजतूंत्र विकलसत करने का दाधयत्ि समाज के वियाशील लोगों को स्िीकारना होगा।

सुरुलच प्रकाशन ने इस विषय को समाज तक पहुँचाने का कायज अपने हाथ में लेकर मा.
डॉ. मुरलीमनोहर जोशी और मा० दिोपन्त ठें गड़ी जी के दो भाषण तथा अन्य प्रासूंवगक
सामग्री सूंकललत करके यह सामधयक पुस्स्तका प्रकालशत की है। स्िदे शी जागरण मूंच
की ओर से मैं इसका स्िागत करता हँ।

- मदनदास दे िी

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प्रकाशकीय ननवेदन
उपवनिेशों के शोषण की परजीिी परम्परा में पले, आर्थिक दृधष्ट से विकलसत दे श
निस्ितूंत्र विकासशील दे शों को वफर से अपने जाल में फँसाने के जो षड् यन्त्र रच रहे
हैं, उनका िह जाल फैंकने का दाधयत्ि आई.एम. एफ., िर्ल्ज बैंक और लेट जैसी
कठपुतली सूंस्थाओं को सौंपा गया है। बहुराष्ट्रीय कम्पवनयाँ, दबाि डालकर कराये जा
रहे तथाकलथत आर्थिक सुिार और डूंकेल प्रस्ताि उसी जाल के अियि हैं। यह सूंकट
वकतना भयािह है, इससे प्रत्येक दे शिासी को अिगत कराना राष्ट्रभक्त सूंस्थाएूं अपना
कतजव्य मानती हैं। आगामी पृष्ठों में इसी का प्रामात्तणक वििरण द्धजन दो लेखकों ने ददया
है, यद्यवप िे जाने-माने विद्वान् और समाजनेता हैं, तो भी अवत सूंक्षेप में उनका
ओपचाररक पररचय यहाँ ददया जा रहा है। ख्यावतप्राप्त विचारक, लेखक, श्रधमक-नेता
एिूं वकसानों के पथ-प्रदशजक सखा श्री दिोपन्त ठें गड़ी राष्ट्रीय अथजनीवत, श्रमनीवत एिूं
कृवषनीवत के ममजज्ञों में से एक हैं। वकन्तु इतने से ही उनका सम्पूणज कतृजत्ि प्रकट नहीं
होता। उनकी विशेषता तो यह है वक इसके साथ ही भारतीय मजदूर सूंघ और भारतीय
वकसान सूंघ जैसे विशाल अखखल भारतीय सूंगठनों के सूत्रिार सूंगठक के रूप में भी
िे असामान्य रूप से यशस्िी हुए हैं। उन्होंने अपना सम्पूणज जीिन राष्ट्रीय स्ियूंसेिक सूंघ
के माध्यम से, उसके प्रचारक के रूप में, राष्ट्र-सेिा में अर्पित वकया है। सप्तिम, ध्येय-
पथ पर वकसान, पत्तिमीकरण के वबना आिुवनकीकरण, सूंकेत-रेखा, फोकस इत्यादद
अनेक प्रलसि पुस्तकों की रचना कर राष्ट्रीय विचार-कोष की श्रीिृद्धि करने का श्रेय उन्हें
प्राप्त है।

भारतीय जनता पाटी के पूिज-अध्यक्ष डा. मुरलीमनोहर जोशी प्रयाग विश्वविद्यालय में
भौवतकी विभाग के अध्यक्ष हैं। राष्ट्रोन्नयन की सविय राजनीवत और उच्चस्तरीय ज्ञान-
विज्ञान का जो विरल सूंयोग उनमें दृश्यमान है, िह बरबस तक्षलशला और वििमलशला
जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों के आचायों की महान् परम्परा का स्मरण करा दे ता है।
बाल्यािस्था से ही राष्ट्रीय स्ियूंसेिक सूंघ के सूंस्कारों में ढले ऐसे िैज्ञावनक अब तक

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मैकाले के सपनों को ध्िस्त करते आ रहे हैं तो अब डूंकेल के दूं श को तोड़ने में भी िे
पीछे नहीं हैं।
इस पुस्तक के लेखों में विद्वान् विचारकों ने पािात्य दे शों से बढ़े चले आ रहे आर्थिक
साम्राज्यिाद के सूंकट का भलीभाँवत विश्लेषण कर रक्षोपाय के रूप में स्िदे शी का
महत्त्ि प्रवतपाददत वकया है।
आशा है, सभी पाठकों को यह कृवत सामधयक प्रतीत होगी।

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अनुक्रमणिका
१. वहन्दु अथजशास्त्र

२. मेरा महान् भारत आज कजजदार क्यों?

३. आर्थिक साम्राज्यिाद का अग्रदूत डूंकेल प्रस्ताि

४. साििान (कविता)

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निन्दू अथथशास्त्र
- दत्तोपन्दत ठें गड़ी

यह सौभाग्य की बात है वक परम पूज्य शूंकराचायज जी तथा अवतविलशष्ट सन्तों के इस


मूंडल के द्वारा स्िदे शी और आर्थिक सूंरचना जैसे विषय को मान्यता धमल रही है। प्राय:
लोग सरकार द्वारा दी गयी मान्यता को महत्त्ि दे ते हैं। परन्तु िास्ति में हमारे दे श में प०
पू० शूंकराचायज जी तथा सन्तों द्वारा दी गयी मान्यता को सिजश्रेष्ठ माना जाता रहा है। मैं
परम पूज्य शूंकराचायज जी को विनम्रतापूिक ज प्रणाम करते हुए अपना विषय प्रारम्भ
करता हँ।* इतने सूंत-महात्माओं के सामने खड़ा होकर मैं ऐसा अनुभि कर रहा हँ वक
जैसे अनेक श्रेष्ठ परीक्षकों के सामने मैं अकेला विद्याथी खड़ा हँ। इसके कारण मेरी "मुखूं
च पररशुष्यवत" की अिस्था हो रही है। वकन्तु ऐसा लगता है वक इसका लाभ भी है।
जैसा वक काललदास ने कहा है - "अपररतोषात् विदुषाम् सािु न मन्ये प्रयोगविज्ञानम्"।
इसललए जो विचार होगा, िह आपके सामने रखने से उसकी समुलचत समालोचना हो
सकेगी ओर वफर आपके आशीिाजद से िह आगे बढ़े गा।

कुछ ददन पहले स्िदे शी जागरण मूंच की ओर से वहन्दू अथजशास्त्र (वहन्दू इकोनॉधमक्स)
नाम की पुस्तक का प्रकाशन हुआ तो उस समय कम्युवनस्ट पाटी ऑफ इस्थण्डया के
सेिेटरी श्री इन्द्रजीत गुप्त ने कहा वक ये राम-मूंददर िाले आर्थिक क्षेत्र में भी प्रिेश कर
रहे हैं क्या? ये राम-मूंददर की बात करते थे िहाँ तक ठीक था, आर्थिक क्षेत्र तो हमारा
है। यहाँ के ललए वनकलने से पूिज कुछ लोग मुझे आकर धमले भी। उन्होंने कहा वक िहाँ
तो सब सािु-सूंत इकट् ठे हो रहे थे, उनको डूंकल प्रस्ताि से क्या लेना-दे ना? उस
समय मुझे परम पूज्य श्रीगुरुजी के शब्द स्मरण आये। मैं सूंघ का प्रचारक हँ। जब
पहली बार मुझे कहा गया वक आर्थिक क्षेत्र में सूंगठन प्रारम्भ करना है तो मेरे मन में
यही विचार था वक हमारा ध्येय तो वहन्दू राष्ट्र के परम िैभि की प्राप्प्त है। उसका
सािन हमने माना है-- "वििायास्य िमजस्य सूंरक्षणम्"। िमज-क्षेत्र की बात तो अलग है,
वकन्तु आर्थिक क्षेत्र तो विशुि भौवतक है, िहाँ मुझे क्यों भेजा जा रहा है? जब मैंने पू
० श्रीगुरुजी के सम्मुख अपना मनोभाि प्रकट वकया तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा वक
तुम भी क्या बाकी लोगों जैसा सोचते हो? उस प्रसूंग में उन्होंने िमज के विषय में जो
कहा, उसका स्मरण मुझे हो रहा है।
दो णिन्न वैणिक दशथन
िमज के विषय में मुझे कोई जानकारी नही है, वकन्तु श्रीगुरुजी के शब्दों को तोते के
समान आज पुन: दोहरा सकता हँ। उन्होंने बताया वक वहन्दु और पािात्य विचारों में
और व्यिहार में स्थान-स्थान पर जो अन्तर ददखाई दे ता है, उसका कारण उनके और
हमारे िैत्तश्वक दशजन में है। उनका िैत्तश्वक दशजन भौवतकता-प्रिान है। हमारा िैत्तश्वक दशजन
चैतन्यमय है। इसके कारण िे वित्तभन्न नाम-रूपिारी िस्तुओं को पृथकृ-पृथक् मानते हैं।
हमारे ऋवषयों ने सत्य का साक्षात्कार वकया और अपनी अनुभूवत को ''अहम् ब्रह्मास्स्म''
कहकर प्रकट वकया। 'तत्त्िमलस (िह तुम हो) या 'सिं खस्थल्िदूं ब्रह्म'' (यह सब ब्रह्म
है) के सूत्र को आिुवनक मानि को समझाना हो तो कहना पड़ेगा -- सब एक है (ऑल
इज िन)। सब एक हैं (ऑल आर िन) नही, क्योंवक इसमें पूरा भाषान्तर आ जाता है।
हमारे यहाँ इस प्रकार का चैतन्यमय िैत्तश्वक दशजन है, सम्पूणज आददतत्त्ि में एक ही चैतन्य
की अनुभूवत की गयी है, जबवक उनके यहाँ पृथक्-पृथक् िस्तुओं को अलग-अलग नाम-
रूपिारी माना गया है। जीिन का ध्येय हमारे यहाँ और उनके यहाँ, दोनों के द्वारा सुख
माना गया है। वकन्तु सुख' की कल्पना हमारी और उनकी अलग-अलग है। हमारे यहाँ
माना गया वक 'सुख' का अथज केिल 'शारीररक सुख' नही, बस्ल्क शारीररक, मानलसक,
बौद्धिक तथा आध्यात्त्मक-समग्र सुख है। िह भी िनीभूत और लचरन्तन। इस प्रकार के
सुख को ही हमारे यहाँ सम्पूणज जीिन का लक्ष्य माना गया है। उसी के सिोच्च स्िरूप
को हम मोक्ष कहते हैं। उनके यहाँ लक्ष्य होता है व्यलक्त का शारीररक सुख और िह भी
तात्काललक। ऐसी है उनकी मनोरचना।

पुरुषाथथ चतुष्टय
यह सुख प्राप्त कैसे हो? हमारे यहाँ कहा गया वक पुरुषाथज से यह सुख प्राप्त होगा।
पुरुषाथज एक ही है, चार अलग-अलग पुरुषाथज नहीं हैं। पुरुषाथज चतुर्ििि है, वकन्तु है एक
ही। उससे जीिन का जो लक्ष्य लसि होता है, िह है मोक्ष और जीिन का अधिष्ठान
माना गया है िमज। इस प्रकार अधिष्ठान अथाजत् िमज और लक्ष्य अथाजत् मोक्ष, इन दोनों
के बीच में अथज और काम को मयाजददत (सैण्डविच) वकया गया। अथज और काम का
वनषेि नहीं वकया गया वकन्तु उन्हें िमज और मोक्ष के बीच में ही वबठाया है। जैसा वक
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भगिान् श्रीकृष्ण ने कहा -- "िमाजविरुिो भूतेषु कामोऽस्स्म भरतषजभ।" काम इसललए
वक शायद उस समय काम की चचाज चल रही थी। अथज का विषय चलता होता तो भगिान्
यह अिश्य कहते -- 'िमाजविरुिो भूतेषु अथोऽस्स्म भरतषजभ।' तो िमज की दृधष्ट में अथज
और 'काम' का स्थान है, वकन्तु सािन रूप में, लक्ष्य अथिा अधिष्ठान के रूप में नही।

एकात्म-दशथन
अथज के सूंबूंि में जब विचार होता है तो हमारा व्यलक्त अलग ढूं ग से विचार करेगा और
पत्तिम का अलग ढूं ग से, क्योंवक िह भौवतकता- प्रिान है - िह तात्काललक शारीररक
सुख को ही प्रिानता दे ता है। िह मानता है वक उसके ललए कुछ भी करना उलचत है।
हमारा सोचने का ढूं ग उससे त्तभन्न है। हमारा ढूं ग हमारे िैत्तश्वक दशजन के आिार पर है।
हमारी दृधष्ट में सम्पूणज अस्स्तत्ि अथाजत् ब्रह्माण्ड या विश्व था। इस दृधष्ट से सम्पूणज मानिता
अूंगी और विविि राष्ट्र ि समाज उसके प्रत्यूंग (अियि) हैं। उसी प्रकार यदद राष्ट्र या
समाज अूंगी है तो व्यलक्त उसका अियि है। इस प्रकार की समग्रता का विचार पूं०
दीनदयाल जी के 'एकात्म मानिदशजन' का एक भाग है। समग्रता हमारा आदशज िचन है
जब वक पािात्य जगत् में व्यलक्त ही प्रिान है। उनके ललए समाज मौललक इकाई नही
है। वकन्तु उसके वबना भी उनका चलता नही। व्यलक्त अकेले सुखी नही रह सकता
इसललए क्लब में जाता है। क्लब कोई मौललक इकाई नहीं, इकाई तो व्यलक्त है। प्रत्येक
व्यलक्त अपने सुख के ललए आता है। चार लोगों के वबना हम सुख प्राप्त नहीं कर सकते
इसललए क्लब हैं, समाज है। क्लब मौललक इकाई न होने के कारण व्यलक्त का क्लब के
साथ एक प्रकार से अनुबन्ध होता है। क्लब का एक सूंवििान होता है, सदस्यता होती
है, चूंदा दे ना पड़ता है। उसके अधिकार और कतजव्य वनत्तित होते हैं। िैसे ही िे समाज
के साथ अनुबन्ध जैसा सम्बन्ध मानते हैं। सोशल कॉण्रै क्ट थ्यॉरी (सामाद्धजक सूंविदा
लसिान्त) उनके यहाँ है। हमारा आदशज िचन 'भाि' है, 'अूंगागी भाि', और उनका आदशज
िचन (िाच िडज) है 'सोशल कॉण्रै क्ट'। इस कारण सम्पूणज लचन्तन में ही पररितजन आ
जाता है। यह सब सृधष्ट एक है - इसमें से उदय होती है ‘सिे भिन्तु सुखखन:’ की भािना
और ' सिजभूत वहतेरत:' का विचार। जहाँ सोशल कॉण्रै क्ट थ्यॉरी है, िहाँ मौललक इकाई
व्यलक्त है और शेष सारा सूंसार उसके सुख के ललए है। िहाँ 'सिे सुखखन: सन्तु' का प्रश्न

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ही नही उठ सकता। जहाँ व्यलक्त अपने ललए ही विचार करता है, उसका प्रभाि िहाँ की
अथजनीवत, समाज-नीवत, राजनीवत अथाजत् राष्ट्रजीिन के सभी क्षेत्रों में ददखाई दे ता है।

अथथ-नवचार : िमारा और पणिम का


अब हम दोनों प्रकार की चचितनिाराओं के आर्थिक क्षेत्र में पड़ने िाले प्रभाि का विचार
करें। हमारे यहाँ विचार हुआ वक अथज-रचना ऐसी हो द्धजससे सभी सुखी हो। उनके यहाँ
विचार होगा वक अथज-रचना ऐसी हो वक सबको न सही, वकन्हीं व्यलक्तयों, िगों अथिा
समुदायों को सुख धमले उनका पैसा बढ़े , उनका मुनाफा बढ़े । उनके यहाँ असीम
'उपभोगिाद' है और हमारे यहाँ है. सूंयधमत उपभोग। यह उनके और हमारे जीिन-मूल्यों
का अन्तर है। इसका अथजशास्त्र पर पररणाम यह होता है वक व्यलक्तगत उपभोग,
व्यलक्तगत लाभ के कारण िहाँ लोगों मे शोषण करने की प्रिृत्ति बढ़ती है। यहाँ प्रत्येक
के मन में 'अस्िोदय' का विचार आता है – ‘अूंटू द लास्ट’। यहाँ प्राणी तथा िनस्पवत का
विचार भी आत्मीयता के साथ वकया जाता है, िहाँ मनुष्य मनुष्य का ही विचार नही
करता। ऐसी उनकी सूंस्कृवत है, उनका दशजन है, द्धजससे उनकी सारी अथजव्यिस्था
प्रभावित होती है। इसका मैं विस्तार नहीं करता वकन्तु व्यािहाररक प्रयोग में उसका क्या
प्रभाि पड़ता है, क्या अन्तर पड़ता है, इसका एकाि उदाहरण दे ना आिश्यक समझता
हँ।

हमारे विचारों का पररणाम व्यािहाररक स्तर पर क्या होता है? सिज-सािारण सोचता है
वक अथज अथाजत् सम्पत्ति का विचार सभी मानिों का समान ही होगा। इसमें दो
विचारिाराएूं हैं। उनका मत अलग है, हमारा मत अलग है। वहन्दु का परम्परागत विचार
यह है वक दे श में द्धजतनी िस्तुएँ हैं, द्धजतनी सुवििाएूं हैं, यह सब कुछ धमलाकर दे श की
सम्पत्ति है। हमारा िह "अथज" है। अूंग्रज े ी में इसे कहते हैं - "द बास्केट ऑफ गुड्स ऐंड
सर्ििसेज" -- िस्तुओं और सेिाओं की टोकरी। यह विचार पत्तिम का नही है। पत्तिम का
विचार है- ये जो िस्तुएूं हैं और सेिाएूं हैं, उनका जो बाजार-मूल्य (माकेट प्राइस) है, िह
दे श की सम्पत्ति है। आप कहेंगे, इसमें अूंतर क्या है? एक उदाहरण पर विचार करें तो
ध्यान में आयेगा वक व्यिहार में वकतना अूंतर पड़ता है।

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मान लीद्धजए वक हमारे दे श में कुल धमलाकर सम्पत्ति है सो िोवतयाँ। सौ िोवतयाँ हमारे
यहाँ वनर्मित हुईं। हम कहेंगे वक यह हमारी राष्ट्रीय आय है। यदद प्रत्येक िोती का मूल्य
(कीमत) पाँच रुपये है तो िे लोग कहेंगे वक हमारी सम्पत्ति पाँच सौ रुपये है। आप कहेंगे
वक दोनों में केिल भाषा का ही तो अूंतर है। परन्तु यदद कल सौ के स्थान पर दो सौ
िोवतयों का उत्पादन होगा तो िोवतयाँ सस्ती हो जायेंगी। आपूर्ति जहाँ अधिक होती है,
बाजार में उस िस्तु का मूल्य घट जाता है। मान लीद्धजए, इसके कारण एक िोती का
मूल्य पाँच रुपये के स्थान पर दो रुपये हो गया। अब बाजार में दो सौ िोवतयाँ जाने पर
केिल चार सौ रुपये धमलेंगे। िे कहेंगे वक राष्ट्रीय आय सौ रुपये घट गयी, जब वक हम
कहेंगे -- राष्ट्रीय सम्पत्ति दुगुनी हो गयी।

एक और छोटा-सा उदाहरण, जो उनके ही एक अथजशास्त्रज्ञ टीबू ने ददया है। िे मूल्य को


ही जोड़ते है; सम्पत्ति या आय नही। मान लीद्धजए वकसी नौकरानी को माललक
(वनयोजक) दो सौ रुपये प्रवतमास दे ता है। यह िेतन रुपये की पररभाषा में धमलता है तो
राष्ट्रीय सम्पत्ति की वगनती करते समय उसका दो सौ रुपया जोड़ा जायेगा। वकन्तु मान
लीद्धजए, उस नौकरानी से माललक को प्रेम हो गया। दोनों का वििाह हो गया। अब पत्नी
बन जाने पर भी िह घर का िह सब काम करती है जो पहले करती थी। शायद मालवकन
बन जाने के कारण अपना काम समझकर अधिक अच्छा करती होगी। लेवकन उसके
काम को राष्ट्रीय आय में इसललए. नहीं जोड़ा जायेगा क्योंवक रुपये की पररभाषा में अब
िह कुछ भी नहीं कमाती। इसललए दो सौ रुपये प्रवतमाह राष्ट्रीय आय कम हुई, ऐसा
उनकी ररपोटज में कहा जायेगा। हमारी ररपोटज में होगा वक सेिाएूं द्धजतनी थी उतनी ही है।
िह नौकरानी थी और अब वकसी की पत्नी हो गयी, इससे हमें कोई प्रयोजन नहीं। तो
यह जो िस्तुओं और सेिाओं की सत्म्मललत सूंकल्पना है, अथाजत् िस्तुएूं और सेिाएूं
दोनों ही सूंपत्ति हैं, यह वहन्दु सूंकल्पना है; और उनका बाजार-मूत्य सूंपत्ति है, यह पत्तिम
की सूंकल्पना है। इन दोनों सूंकल्पनाओं से व्यिहार में वकतना अूंतर पड़ता है यह हम
दे ख सकते हैं। उदाहरण केिल विषय को स्पष्ट करने के ललए ददया गया है।

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सौ िाथों से संग्रि कर िजार िाथों से बााँटो
सूंक्षेप में यही कहा जा सकता है वक दे श की सुख-समृद्धि के ललए सम्पत्ति की विपुल
मात्रा होना आिश्यक है। उत्पादन विपुल हो। हम 'सिेऽत्र सुखखन: सन्तु' कहते है। सबके
सुख के ललए आिश्यक है वक उत्पादन विपुल मात्रा में हो। जीिनोपयोगी िस्तुएूं जब
अधिक मात्रा में होगी तो अधिकाधिक लोगों के सुख का िे कारण बनेंगी। यह हमारा
जो िैददक अथजशास्त्र है, यह विपुलता का अथजशास्त्र है।

यह पािात्य लोगों को जच नहीं सकता। इसका कारण है- जब िस्तु बाजार में अधिक
मात्रा में आती है तो उसका मूल्य घट जाता है और कीमत घटने पर 'मुनाफे' का 'भार्जिन'
घट जाता है। पत्तिम का चचितन भौवतकिादी होने के कारण उनको यह स्थस्थवत पसूंद नही
आती। उनके चचितन में तो इतना ही है वक मेरा मुनाफा कैसे बड़े ?' मुनाफा बढ़ने के
ललए िस्तु का मूल्य बढ़ना चावहए और मेरी िस्तु का मूल्य अधिक आने के ललए बाजार
में उसकी आिक कम होनी चावहए। इसललए विपुलता नहीं चावहए। इस स्थस्थवत को
युलक्तजवनत अभाि (कण्राइव्ड स्केयरलसटी) कहा जाता है। एक बार अमेररका में ऐसा
हुआ वक उत्पादन प्रचुर मात्रा में होने पर माल को इसललए जला डाला और समुद्र में
डाल ददया वक यदद यह माल बाजार में आया तो मूल्य कम हो जायेंगे। मूल्य कम होंगे
तो उनका लाभ कम होगा। इसललए उन्होंने अपने द्वारा ही उत्पाददत माल स्ियूं नष्ट
वकया। उद्देश्य यही था वक माल के भाि बढ़ने से मुनाफा बढ़े गा। अत: पािात्य अथज-
व्यिस्था एकोनॉमी ऑफ कण्राइव्ड स्केयरलसटी' (जान-बूझकर पैदा वकया हुआ
अकाल) की व्यिस्था है। यह उनका आर्थिक लचन्तन है। हमारे यहाँ विपुलता की
अथजव्यिस्था है। अधिकाधिक उत्पादन करो - "शतहस्त समाहर, सहस्रहस्त सूंवकर" (सौ
हाथों से सूंग्रह करके हजार हाथों से बाँट दो) यह आदे श है। इसमें अधिकाधिक लोगों
को उपभोग्य िस्तुएूं प्राप्त होती है, वकन्तु िस्तुओं के भाि घटते है। हमारी िैददक
अथजव्यिस्था बाजार भाि लगातार कम होने की व्यिस्था है। इस प्रकार की स्थस्थवत पत्तिम
में सन् १९२९-३॰ आयी थी तो हाहाकार मचा था। उन्होंने उसे 'वडप्रेशन' कहा- मूंदी आ
गयी है।' मूंदी आने का अथज था िस्तुओं का उत्पादन अधिक हो जाने के कारण मूल्य
वगर गये थे। मूल्य वगरने से इनके मुनाफे कम हो गये थे। आप दे खखए, वकतनी विलचत्र
बात है! िस्तुओं के दाम कम होने से सिजसामान्य नागररक की सुवििा बढ़नी चावहए या
नही? िह बढ़ती है। वकन्तु िहाँ सामान्य नागररक की सुवििा का विचार नहीं होता।

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केिल मुनाफा बढ़ने-घटने का विचार होता है। यदद िह बढ़ा नही तो उसको वडप्रेशन
और अिाूंछनीय कहा जाता है। दोनों चचितन-िाराओं में इतना अूंतर हमें यह वनणजय
करना होगा वक यदद "सिे भिन्तु सुखखन:" का लक्ष्य पूरा करना है तो हमारे िेदों की
विपुलता की अथजव्यिस्था ठीक है या जानबूझ कर अकाल का वनमाजण करने िाली
पत्तिमी अथजव्यिस्था ठीक है? व्यलक्तगत लाभ-केद्धन्द्रत अथजव्यिस्था ठीक है या
मानिमात्र के लाभ को केन्द्र बनाकर चलने िाली अथजव्यिस्था ठीक है? मूल्य वनरन्तर
बढ़ते रहने िाली अथजव्यिस्था ठीक है या िस्तु-मूल्यों के वनरूंतर घटते जाने िाली
अथजव्यिस्था ठीक है? आज सम्पूणज विश्व को इसका वनणजय करने का समय आ गया है,
क्योंवक कम्यूवनज्म समाप्त हो गया है और उसका जो दूसरा विकल्प पूज ँ ीिाद है िह
अपने ही अन्तर्ििरोिों के कारण अधिक समय तक दटकने िाला नहीं है। मैं विश्वास के
साथ कहता हँ वक आने िाले २०१० ई० तक आज जो सूंसार में सम्पन्नता की दृधष्ट से
सिजश्रेष्ठ दे श माना जाता है, िह अमेररका, उस स्थान पर नहीं रहेगा और पूँजीिाद
(कैवपटललज्म) भी समाप्त हो जायेगा। यह अूंिश्यम्भािी है। इसललए अब विश्व को यह
सोचना अवनिायज हो गया है वक तीसरा विकल्प कौन-सा होगा? िास्ति में तीसरा मागज
ही एकमात्र विकल्प हो सकता है द्धजसके ललए 'एषः पन्था' कहा जा सकता है। वकन्तु
आज तीसरे विकल्प (थडज िे) की चचाज सम्पूणज विश्व में चल रही है।

ऐसी स्थस्थवत में अपना विचार क्या है, यह समझना और समझाना महत्त्ि का हो गया
है। इतना ही मैं बताना चाहता हँ। प० पू० श्रीगुरुजी ने जो कहा था, उसे ध्यान में
रखते हुए राष्ट्रीय श्रम आयोग को हमें जो स्मरण-पत्र दे ना था, उसका प्रारूंभ हमने एक
श्लोक से वकया था –
अभािो िा प्रभािो िा यत्र नास्त्यथजकामयो:।
समाजेष्िात्मरूपत्िूं िमजचि प्रितजनम्।।

इसका अत्तभप्राय यह है वक जहाँ (समाज में) अथज का और काम का अभाि भी नहीं


रहता और उसका प्रभाि भी नहीं रहता तथा समाज में ही व्यलक्त का आत्मभाि रहता
है, िहीं िमजचि का प्रितजन होता है।

* २६ जून १९९३ को हररद्वार में सन्त-मूंडल के समक्ष ददया गया भाषण।

*********
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(स्िदे शी जागरण मूंच द्वारा प्रकालशत डा. एम.जी, बोकरे के ग्रन्थ 'वहन्दू इकॉनॉधमक्स,
की प्रस्तािना में श्री ठें गड़ी ने ललखा है :)

प्रगवत और विकास की वहन्दू सूंकल्पना से पािात्य विचार सिजथा त्तभन्न है। १६७२ की
ठाणे बैठक में श्री गुरुजी (मा. स. गोलिलकर) ने आर्थिक समस्याओं पर आिारभूत
वहन्दु दृधष्टकोण स्पष्ट वकया था। उनके प्रवतपादन से सहज ही प्राप्त वनष्कषज वनम्नललखखत
हैं :
(१) प्रत्येक नागररक राधष्ट्रक की जीिन की मूलभूत आिश्यकताएूं अवनिायजत: पूरी
होनी चावहए।
(२) भौवतक सम्पदा का अजजन परमेश्वर के व्यक्त रूप समाज की सेिा के उद्दे श्य
से, सिोिम नैवतक पिवत से वकया जाय और उस िन या सम्पत्ति में से अपने
ऊपर न्यूनतम अूंश ही व्यय वकया जाय। स्ियूं उतना ही स्िीकार कररए द्धजतना
आपको सेिा कर सकने योग्य बनाये रखने के ललए आिश्यक हो। उससे
अधिक का स्ियूं व्यलक्तगत उपयोग करना अथिा उस पर अपना स्ित्ि बताना
(अधिकार जताना) समाज की चोरी करना है।
(३) इस प्रकार हम समाज के न्यासी (रखिाले) मात्र हैं। समाज के सच्चे न्यासी
बनकर ही हम उसकी सिोिम सेिा कर सकते हैं।
(४) पररणामत: व्यलक्तगत सूंग्रह की कुछ सीमा अिश्य वनिाजररत की जानी चावहए।
वनजी लाभ के ललए वकसी अन्य के श्रम का शोषण करने का अधिकार वकसी
को नही है।
(५) करोड़ों लोग जब भुखमरी से ग्रस्त हैं, तब अभद्र, आडम्बरयुक्त एिूं
दुरुपयोगपूणज व्यय पाप है। सभी प्रकार के उपभोग पर समुलचत मयाजदाएूं
अिश्य होनी चावहए। उपभोक्तािाद वहन्दु सूंस्कृवत की भािना (अन्तिेतना)
से मेल नही खाता।
(६) हमारा आदशजिाक्य 'अधिकतम उत्पादन और समतायुक्त वितरण' होना
चावहए तथा राष्ट्रीय स्िािलम्बन' हमारा तात्काललक लक्ष्य।
(७) अनाजीविका और अपूणज जीविका (बेकारी तथा अविकारी। की समस्या से
युि स्तर पर वनपटा जाना चावहए।

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(८) यद्यवप औद्योगीकरण अपररहायज है, तो भी उसमें पत्तिम के अन्धानुकरण की
आिश्यकता नहीं है। प्रकृवत का दोहन करना चावहए, हत्या नहीं। पयाजिरण
के घटक, प्रकृवत का सन्तुलन तथा भािी पीदढ़यों की आिश्यकताएूं कभी
दृधष्ट से ओझल नही होनी चावहए। लशक्षा, पयाजिरण, अथजशास्र और नीवतशास्र
का समेवकत (एक साथ, समग्र) विचार वकया जाना चावहए।
(९) पूूंजीपरक उद्योगों की अपेक्षा श्रमात्तभमुख उद्योगों पर अधिक बल दे ना
चावहए।
(१०) हमारे प्रौद्योवगकीविदों का यह दाधयत्ि होना चावहए वक िे लशस्थल्पयों के वहत
के ललए उत्पादन की परम्परागत प्रविधियों में ऐसे ग्राह्य पररितजन समाविष्ट करें
द्धजनसे कामगारों के वनयुलक्त (रोजगार) खो बैठने, उपलब्ध प्रबन्धकीय एिूं
प्राविधिक वनपुणता के व्यथज हो जाने तथा उत्पादन के ितजमान सािनों के पूणज
विपूूंजीकरण का जोखखम न हो; उत्पादन-प्रविया के विकेन्द्रीकरण पर
अत्यधिक बल दे ते हुए िे ऐसी स्िदे शी प्रोद्योवगकी विकलसत करें द्धजसमें विद्युत्
शलक्त का उपयोग हो, वकन्तु उत्पादन का केन्द्र कारखाना नहीं िरन् घर को
बनाया जाये अथाजत् उत्पादन-कायज घर-घर में हो, केन्द्रीकृत कारखानों में नही।
(११) दक्षता ओर सेिायोजन (रोजगार) के प्रसार में तालमेल वबठाना आिश्यक है।
(१२) प्रत्येक उद्योग में श्रम भी एक प्रकार की पूूंजी है। प्रत्येक कामगार के श्रम का
मूल्याूंकन अूंशपूज ूं ी (शेयर) के रूप में होना चावहए और कामगारों को श्रम के
रूप में अूंशदान करने िाले अूंशिाररयों (शेयरहोर्ल्र) के स्तर पर उन्नत वकया
जाना चावहए।
(१३) उपभोक्ता का वहत राष्ट्रीय वहत का वनकटतम आर्थिक समतुल्य है। सभी
औद्योवगक सम्बन्धों में समाज तीसरा और अपेक्षाकृत अधिक महत्त्िपूणज पक्ष
है। 'सत्म्मललत सौदे बाजी' की ितजमान पािात्य सूंकल्पना इस दृधष्टकोण से
सूंगत नहीं है। इसके स्थान पर राष्ट्रीय प्रवतबिता' जैसी वकसी अन्य शब्दािली
का प्रयोग वकया जाना चावहए, द्धजसका अथज होगा वनयोक्ता और वनयुक्त
(माललक ओर कामगार) दोनों की राष्ट्र से प्रवतबिता। उद्योगों के स्िाधमत्ि के
बारे में वकसी प्रकार की अनम्य रूदढ़िाददता की आिश्यकता नही है। वनजी
उद्यम, राज्य-स्िाधमत्ि, सहकाररता, नगरपाललका-स्िाधमत्ि, स्िवनयोजन
(स्िरोजगार), सूंयक्त ु स्िाधमत्ि (राज्य तथा वनजी), जनतूंत्रीकरण इत्यादद जैसे
उसके अनेक प्रकार हैं। प्रत्येक उद्योग के स्िाधमत्ि का प्रकार उसकी स्िगत

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विलशष्टताओं तथा राष्ट्रीय अथजव्यिस्था की समस्त आिश्यकताओं के अनुरूप
वनिाजररत वकया जाना चावहए।
(१४) सामाद्धजक-आर्थिक व्यिस्था के वकतने भी प्रकार विकलसत करने के ललए हम
स्ितन्त्र हैं, शतज यह है वक िह 'िमज' के मूलभूत लसिान्तों से सुसगूं त हो।
(१५) वकन्तु यदद प्रत्येक नागररक का व्यलक्तगत मानस समुलचत रूप से न ढाला
जाये तो समाज की बाहरी सूंरचना में लाये गये पररितजन व्यथज जायेंगे। िस्तुत:
वकसी भी प्रणाली का सफल या असफल होना उसमें कायज करने िालों पर
वनभजर है।
(१६) व्यलक्त और समाज के पारस्पररक सम्बन्धों के बारे में हमारा दृधष्टकोण सूंघषज
का नही है िरन् सदा ही सामूंजस्य एिूं सहयोग का रहा है। ऐसे भािों का
सृजन इस अनुभूवत से होता है वक सभी व्यलक्तयों का अन्तयाजमी सत् एक ही
है। एकल व्यलक्त सूंयक्तु सामाद्धजक व्यलक्तत्ि का एक जीवित अूंग है।
(१७) सम्पूणज राष्ट्र के साथ तादात्म्य (एकात्मता) के सूंस्कार वकसी भी सामाद्धजक-
आर्थिक व्यिस्था के िास्तविक सामाद्धजक ताने-बाने का वनमाजण करते हैं।
सभी वहन्दू सूंस्कारों में यज्ञ (अपजण) सिाजधिक महत्त्िपूणज है... बाह्य भौवतक
जगत् में पररितजन आने से पूिज मनुष्य की अन्तिेतना का उपयुक्त विकास
होना आिश्यक है।
*****

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मेरा महान् भारत
आज कजथदार क्यों?

डॉ. मुरल़ीमनोिर जोश़ी

हमारे दे श पर आज विदे शी ऋण की मात्रा २ लाख ७६ हजार करोड़ रुपये है। प्रत्येक


भारतिासी पर लगभग ३२०० रुपये का विदे शी ऋण है। इसमें घरेलू ऋण भी शाधमल
कर ललया जाये तो ५ लाख करोड़ आज भारत के ऊपर ऋण है। प्रत्येक भारतिासी पर
लगभग ६ हजार रुपये ऋण है। वबरला, टाटा, ररलायन्स, मफतलाल, चसिघावनया जो भी
विदे श में जायें िे भले ही कहें वक हम खरबपवत हैं, हम शूंख, दस शूंख रखते है, िह
कहेगा-भाई जी, रखते होंगे, पर आप मेरे कजजदार हैं। यह आज हमारे दे श की पररस्थस्थवत
है। मैस्थक्सको और ब्राजील के बाद भारत पर सबसे अधिक ऋण है और यह ऋण बढ़ता
जा रहा है। जैसा वक विदे शी सूंस्थाएूं हम पर दबाि डाल रही हैं, हम ऋण लेते जा रहे
हैं। सन् दो हजार में हम विश्व के सबसे बड़े कजजदार होंगे। "मेरा भारत महान्, मेरा कजाज
भी महान्" पररस्थस्थवत यह है।

दुननया में सबसे अधिक बेरोजगारों का दे श


आज हमारा दे श दुवनया में सबसे अधिक बेरोजगारों का दे श है। १ कोदट से अधिक पढ़े
अथिा अिजलशत्तक्षत नियुिक हमारे दे श में बेरोजगार हैं। इसके अवतररक्त जो पढ़े नही हैं
और १ १- १६ िषज की अिस्था में हैं, उनके सामने जीविकोपाजजन का कोई सािन नहीं।
ऐसे लोगों को यदद इसमें जोड़ दें तो सूंख्या ८-९ करोड़ तक पहुँच जाती है।

सबसे अधिक गऱीबों का दे श


विश्व में सबसे अधिथे। सरकार भी ३०- ३५ करोड़ मानती है। यदद हम िही मान लें तो
३५ करोड़ लोग इस दे श में वनिजनता की सीमा-रेखा के नीचे रहते हैं, जो लगभग रूस,
फ्ाूंस, जमजनी इन दे शों की जनसूंख्या को धमला दें तो उसके बराबर होगी।

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सबसे अधिक अपढ़ लोगों का दे श
विश्व में सबसे अधिक ''वनरक्षर भट्टाचायज' हमारे दे श में हैं। हमारे यहाँ ४० प्रवतशत
साक्षरता मानी गयी है। सरकारी आँकड़ों को मान लें तो ६० प्रवतशत वनरक्षर हमारे दे श
में हैं। ५० प्रवतशत भी वनरक्षर मान लें तो ४५ करोड़ सूंख्या होती है। जगद्गरु
ु भारत में
४५ करोड़ वनरक्षर है।

सबसे अधिक क्षयरोग़ी, कुष्ठरोग़ी तथा नेरि़ीनों का दे श


विश्व में सबसे अधिक क्षयरोगी (टी.बी.पेशेण्ट) हमारे ही दे श में हैं। विश्व में सबसे अधिक
कुष्ठरोगी हमारे दे श में हैं और विश्व में सबसे अधिक नेत्रहीन भी हमारे ही दे श में हैं। और
अूंिे भी दोनों प्रकार के हैं-नेत्रहीन भी और नेत्रसवहत भी। नेत्रहीन तो आपको हररद्वार
में, लखनऊ में और ददल्ली में भीख माँगते हुए धमलेंगे और नेत्रसवहत अूंिे इूंग्लैंड,
अमेररका और िाचशिगटन में भीख माँगते हुए धमलेंगे। "कजाज दे दे राम के नाम पर,
भगिान् तुम्हारा भला करेगा।'' अभी मनमोहन चसिह ४-५ करोड़ डालर कजाज लेकर आये
हैं। तो हम विश्व में सबसे अधिक कजजदार हैं, सबसे अधिक बीमार हैं और सबसे अधिक
बेरोजगार हैं और वनिजन तो हैं ही। यह पररस्थस्थवत है आज हमारे दे श की!

डटकर लूटा िै नवदे णशयों ने, िारत को!


कैसे हो गयी यह स्थस्थवत? क्या भारत सदा से गरीब था? क्या हम हमेशा से कजजदार थे?
हम तो कभी कजजदार नहीं थे। जब दे श स्िािीन हुआ, तब भी हम कजजदार नहीं थे।
बहुत लूट हुई हमारी, मैं विस्तार सेक वनिजन हमारे दे श में हैं। ५० करोड़ लोग पहले नहीं
बताऊूंगा। लसकन्दर ने इस दे श में लूट की दृधष्ट से आिमण वकया था, िह लूट नहीं
पाया, चला गया, लेवकन मोहम्मद वबन कालसम से माउण्टबैटन तक वनरन्तर लूट होती
रही। लसख. लुटा, सोमनाथ लुटा, मथुरा लुटी, काूंची लुटी, सूरत लुटा, पलासी लुटी,
बूंगाल लुटा, तैमूर लग ने लूटा, नाददरशाह ने लूटा, गजनी ने लुटा, बाद में क्लाइि, िारेन
हेसस्टिग्ज ने लूटा। इस प्रकार वनरन्तर लूट होती रही। हालथयों पर, ऊँटों पर लादकर हमारे
यहाँ से हीरे, जिाहरात, सोना, चाँदी ले जाया गया। मु. गजनी ने तो कई बार इस दे श
को लुटा और उसने केिल एक बार की लूट के माल की नुमाइश जब गजनी में लगायी
(यह वकसी भारत के इवतहासकार ने नही ललखा है, िह ललखता भी तो दुख के साथ

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ललखता, वकन्तु विदे शी इवतहासकार ने ललखा है) तो उसने कई दे शों के लोगों को दे खने
के ललए बुलाया। लोगों ने दे खा वक बड़े-बड़े बतजनों में लाल शराब में बफज तैर रही है। जब
पास जाकर दे खा तो मात्तणक के ऊपर हीरे रखे हुए थे। मथुरा से ले जायी गयी एक-एक
मूर्ति का मूल्य उस समय ३ लाख दीनार था। उसने बताया वक इस मूर्ति को बनाने में
१० साल लगेंगे। ऐसी कई मूर्तियाँ िह ले गया था। हमारा तख्ते ताऊस यहाँ से गया,
कोवहनूर भी गया। और अूंग्रेजों की सूट का वहसाब यदद मैं बताऊँ तो सारा ददन वनकल
जायेगा। अग्रेजों ने १७५७ में पलासी का युि जीता और १७६० में इूंग्लेंड में औद्योवगक
िाप्न्त हुई। हम वहसाब लगा सकते हैं वक डलहौजी ने वकस ददन वकस राज्य को जीता
और इूंग्लैंड में वकतना भेजा? अूंग्रजे जब आया तो बूंगाल का लगान तीन लाख पौण्ड
था और जब गया तो ३॰ लाख पोण्ड हो गया था। बड़ी लूट मचायी और उसी लूट से
उनका औद्योवगक विकास हुआ। आज यूरोप और अमेररका जो िनिान् बने हैं, िे अपने
पुरुषाथज से नही बने हैं। उन्होंने छल से, बल से सीिे-सादे भारतिालसयों का शोषण वकया
और उस शोषण के बल पर आज ये िनिान् बने हुए हैं। मैं उनको विकलसत दे श नही
कहता, विकलसत काहे के? झूठे, चोर, बेईमान लोग क्या विकलसत कहे जा सकते हैं?
इनको विकलसत कहना तो विकास शब्द का ही अपमान करना है। क्या हालत है आज
उनके समाज की! उसका आज िणजन नहीं करता, जो लोग विदे श जाते हैं उन्हें मालूम
है। लेवकन आज स्थस्थवत यह है।

ऋि की अथथव्यवस्था
इतनी लूट के बाद जब अूंग्रज े यहाँ से गया था तब ३ हजार २ सौ करोड़ रुपये हमारे
पास थे, हम साहकार थे और अूंग्रेज हमारा दे नदार था। स्िािीनता के पिात् आज हम
२ लाख ७६ हजार करोड़ रुप…….ये के विदे शों के दे नदार हो गये हैं। यह पररस्थस्थवत
दे श की हो गयी है। पहली पूंचिषीय योजना के अूंत तक िह ३२४३ करोड़ रुपया हमने
सब फूँक ददया और हम कजजदार हो गये। द्धजस पर हमने पीछे मुड़कर कभी दे खा ही
नही।
'यावत् ज़ीवेत,् सुखं ज़ीवेत् ऋिं कृत्वा घृतं नपबेत्। िस्त्म़ीिूतस्त्य दे िस्त्य पुनरागमनं
कुत: ।''

वकसने लेना, वकसने दे ना। यह जो ऋण की अथजव्यिस्था है, इसने सिजनाश वकया है।

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तब दे श ऩीलाम िोता िै
इसके बहुत सारे कारण हैं द्धजनमें हमारा वनयोजन भी एक है। सन् १९८० से ९० तक
इन १० िषों में २ लाख ६३ हजार करोड़ रुपये का ऋण भारत पर हो गया। चौथी
पूंचिषीय योजना में हमारा लक्ष्य था ''स्िािलम्बन'' और उसमें यह सोचा गया था वक
हमारी योजना विदे शी ऋण पर आिाररत न हो। वकन्तु आज हमारी सभी योजनाएूं
विदे शी ऋण पर आिाररत हैं। हमारे दे श के बजट का ५० प्रवतशत भाग विदे शी कजज
की वकश्त चुकाने में जाता है। हमने यह बड़ी भारी भूल की है। अब जब हमने कजाज
ललया तो िापस तो करना ही पड़ेगा। मैं कजाजज लूँ और िापस न कर पाऊँ तो मेरी
सम्पत्ति नीलाम हो जायेगी। मुकदमा होगा, मुझे जेल होगी। वकन्तु सरकारें यदद कजाज
लें ओर िापस न कर पायें तो प्रिानमूंत्री और विि मूंत्री या मूंवत्रपररषद् की सम्पत्ति
नीलाम नहीं होती, तब तो दे श नीलाम होता है।

व्यथा सुनकर पाषाि ि़ी रुदन करेगा


मैं बहुत सारे दे शों का उदाहरण नही दूूं गा। केिल चार दे शों की बात करूूंगा अजेण्टीना,
ब्राजील, मैस्थक्सको, और लचली। ये ऐसे दे श हैं द्धजनकी व्यथा सारे विश्व को मालूम है।
वकतना करुण-िन्दन िहाँ की जनता कर रही है! उसको सुनकर पत्थर भी रुदन करने
लगेगा। अजेण्टीना कजाज िापस नही कर पाया, लचली, मैस्थक्सको और ब्राजील भी िापस
नही कर पाये। द्धजसका ललया थारसे तो िापस करना ही था। उसने कहा, यदद कजाज
िापस नहीं कर सकते तो टे लीफोन कम्पनी हमें सौंप दीद्धजए। हम चलायेंगे और उसके
मुनाफे से कजाज िापस ले लेंगे। उससे भी पूरा नहीं हुआ तो कहने लगे, िायुसेिा भी हमें
सौंप दीद्धजए। उससे भी पूरा नहीं हुआ तो कहने लगे रेल सेिा भी हमें सौंप दीद्धजए।

कजाथ ि़ी न चुका सका


अब इन दे शों की रेलगावड़याँ, डाक-तार, टे लीफोन, हिाई जहाज उन दे शों की सरकारें
नही चलातीं बस्ल्क विदे शी कम्पवनयाँ चलाती हैं। उससे भी पूरा नहीं हुआ, क्योंवक िह
जाल ऐसा है वक द्धजतना ऋण चुकाओ उतना ही बढ़ता जाता है। सुरसा की कहानी तो
बहुत पुरानी हो गयी है। कजाज न चुका पाने से इन दे शों को कारखाने भी दे ने पड़े।
कारखाने िे चलाने लगे। वफर कहा, अपने 'स्टील धमल्स, कागज धमल्स हमें दे दो। वफर
बारी आयी कच्चे माल की। िह भी दे ना पड़ा। अभी भी कजाज पूरा नहीं हुआ है।

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ऋि से जजथर िो गया निधलप़ीन
इसी प्रकार बड़ी ददज नाक कहानी है वफललपीन की! िहाँ का राष्ट्रपवत माकोस था। िह
कजाज तो लेता था दे श के नाम और खचज करती थी श्रीमती माकोस। जब माकोस को
वफललपीन से भगाया गया तो इमेर्ल्ा माकोस का तहखाना खोला गया। इमेर्ल्ा का एक-
एक जूता हीरे-जिाहरातों से जड़ा हुआ ६० हजार डालर मूल्य का वनकला। एक ओर
उस जमाने में वफललपीन की आर्थिक दशा अत्यूंत खराब थी तो दूसरी ओर इमेर्ल्ा का
जूता लाखों डालसज का होता था। उसका ममिककोट बीस से तीस हजार डालसज का हुआ
करता था। चश्मे ५००/७०० सौ डालसज के होते थे। फाउूं टेन पेन ५००० डालसज का होता
था। माकोस ने कजाज तो ललया दे श को परमाणु-शलक्तसम्पन्न बनाने के ललए और खचज
वकया अपनी पत्नी इमेर्ल्ा के जूते पर। ऐसे माकोस को अमेररका राष्ट्रपवत पद पर बनाये
रखना चाहता था। लेवकन कजाज तो चुकाना ही होता है। तो वफललप्पीन में जो िान होता
है उसे कजे की वकश्त के रूप में चुकाना पड़ता है। कजाज िापस तो विदे शी मुद्रा में ही
करना पड़ता है। वफललपीन का वकसान िान पैदा करके भी खा नही सकता, क्योंवक
िह तो अमेररका के पेट में चला जाता है। वफललपीन का वकसान कुपोषण का लशकार
है। दुवनया में कुपोषण से सबसे अधिक पीवड़त लोग यदद वकसी दे श में हैं तो िह है
वफललपीन। वफललपीन के वकसान को जूंगल की इमारती लकड़ी नही धमलती क्योंवक
िह अमेररका और जापान को चली जाती है। िहाँ का वकसान तो बाँस की झोपड़ी में
ही रहता है। हर साल अपनी झोपड़ी की छप्पर छाता है। वफललपीन जाकर दे खो तो
आपको ददखाई दे गा िहाँ का कुपोषण से पीवड़त वकसान द्धजसका पेट और पीठ एक हो
रहे हैं, ऐसा वकसान! हवियों का ढाँचा मात्र।

सब कुछ लुट गया निल़ीप़ीन का!


लेवकन इस पर भी पूरी नहीं होती कजज चुकाने के ललए विदे शी मुद्रा! तो वफललपीन के
नौजिानों को घरेलू नौकर बन कर विदे शों में जाना पड़ता है। आज दुवनया में सबसे
अधिक घरेलू नौकर वफललपीन के हैं। उनके ललए झूल नही हैं, अस्पताल नही, कुछ
नहीं है। उन्हें तो एक ही काम करना होता है और िह है लोगों के घरों की सफाई!
इतने पर भी जब विदे शी मुद्रा की कमी पूरी नहीं हो पाती तो िहाँ की बह-बेदटयों को
अपना शील बेचकर सबसे अधिक विदे शी मुद्रा कमानी पड़ती है। दुवनया में सबसे
अधिक िेश्याएूं वफललप्पीन की हैं। विदे शी कजाज लेने के बाद नही चुकाने पर उन्हें
अपना कच्चा माल, कल-कारखाने, दे श के नौजिानों का पौरुष, अपनी माँ-बवहनों का
20
शील आदद सब कुछ विदे लशयों के हिाले करना पड़ता है। अब आप कजाज कैसे
चुकायेंगे?

गऱीब दे शों की सूच़ी में िमारा दे श ४३ वें स्थान पर िै


अपने दे श में भी यही हो रहा है। अभी गोदरेज कूंपनी को विदे शी कूंपनी ने ले ललया है।
हमारी सरकार ने इस कजे की अथजव्यिस्था से मुलक्त के ललए कोई काम नहीं वकया। हमें
यह बताया गया वक आप सबसे गरीब हें, वनिजन हैं, आप कुछ नही कर सकते। सब कुछ
पत्तिम से आता है। इससे बड़ा झूठ, राष्ट्र के पुरुषाथज को समाप्त करने िाला, मनोबल
को तोड़ने िाला और कोई नहीं हो सकता। यह सब हमारी लशक्षा नीवत, हमारे पाठ्
यिमों का दुष्पररणाम है। हम अपने आपको भूल गये। अपने दे श को भूल गये। िास्ति
में हमारे दे श जैसा जनबल (मैन पािर ), हमारे दे श जैसे सूंसािन वकसके पास हैं?
विदे शी कहते हैं वक आज भी १० हजार से २० हजार टन सोना भारतिालसयों के पास
है; मूंददरों, मठों, गुरुद्वारों के पास है, आम लोगों के पास है, सरकार के पास है। वफर
भी भारत दुवनया में वनिजन दे शों की सूची में है। हम दुवनया के गरीब दे शों की सूची में
५२िें स्थान पर हैं। यह है आज हमारे दे श की स्थस्थवत।

िमारे दे श का नाम ि़ी िारत, िरि-पोषि करने वाला िै


हमारे पास विश्व का सबसे बड़ा उपजाऊ मैदान है। अमृतसर से कलकिे तक जो
भूखण्ड है, िह विश्व का सबसे बड़ा उपजाऊ मैदान है। विश्व के वकसी दे श में १२
प्रवतशत भूधम कृवष-योग्य नही है। केिल भारत के ही पास है। अपने दे श का नाम ही
भारत है। िह भारत है जो सबका भरण-पोषण करता है। हमारा यह कतजव्य है वक
भगिान् ने दुवनया का भरण-पोषण का जो काम हमें सौंपा है उसे हम पूरा करें।

यि िूमम अन्नपूिाथ िै
...... वकन्तु पानी बहता चला जा रहा है। जो चसिचाई की योजना हमने बनायी है उसमें
एक करोड़ हैक्टर भूधम चसिचाई के वबना रह जाती है। पानी है वकन्तु चसिचाई नही हो रही
है। दे श की केिल ३० प्रवतशत भूधम चसिलचत है। बाकी सब प्रकृवत पर वनभजर है। केिल
चसिचाई उपलब्ध कराइए, और सब बातें बूंद कीद्धजए। केिल पानी दे ने से ही दे श की शेष
७० प्रवतशत भूधम तीन गुना फसल दे गी और यदद हम मान लें वक खाद के अभाि में
कुछ कम पैदा करेगी तो भी दुगुना तो करेगी ही। आज भी हम १७.६ करोड़ टन अनाज
21
पैदा कर रहे हैं। इसका तीन गुणा अथाजत् ५३ करोड़ टन अनाज हम पैदा कर सकते हैं
जो भारत की आिश्यकता से बहुत अधिक है। २० करोड़ टन में हमारा काम चल जाता
है। और यदद हम १३ करोड़ टन पैदा करेंगे तो कम से कम ३० करोड़ टन हम दुवनया
को दे सकेंगे। कोई सोमाललया और अफ्ीका में भूखा नही मरेगा। यह अन्नपूणाज भूधम है।
सारे विश्व का भरण-पोषण कर सकती है। इतनी शलक्त हममें है।

रत्नगिाथ िै िारतमाता
लेवकन इन्होंने कभी इस बात की चचिता ही नहीं की। वकसान को त्रस्त करो, वकसान को
ध्िस्त करो। वकसी प्रकार भारत की कृवष को विकलसत न होने दो। यह षड् यन्त्र है
अूंतरराष्ट्रीय। मैं आज उसकी चचाज नहीं करूूंगा, लेवकन यह हो रहा है। हमारे पास शस्य-
श्यामला भूधम है। पयस्स्िनी नददयाँ हैं, रत्नगभाज है हमारी भारत माता! दुवनया का ऐसा
कोई प्रमुख कच्चा माल नही है, जो हमारे पास न हो, हमारे पास कोयला है, लोहा है
और अब तो विश्व का सिोिम यूरेवनयम हमारे पास है। सोने का अभाि था लेवकन अब
वफर सोना धमलने लगा है। जो थोड़ा-बहुत वकसी िस्तु का अभाि हो सकता है उसे हम
दुवनया के बाजार से खरीद सकते हैं। हमारे पास क्या नहीं है? सीमेण्ट के भूंडार हैं,
वनकल, बॉक्साइट, ताूंबे की खानें तो हैं ही, प्लेदटनम भी है। तेल और गैस के कुएूं भी
धमलने लगे हैं। इतना भारी कच्चा माल है हमारे पास!

आज ि़ी नवि का सवथश्रेष्ठ मनुष्य िै िारत में!


जापान के पास लोहे का एक कण भी नहीं है, जब वक िह सब कुछ बनाकर बेचता है
और हमारे पास लोहे के भूंडार भरे हुए हैं वकन्तु हमारी क्या दशा है! आज भी हम दाढ़ी
बनाने के ललए विदे शी ब्लेड का प्रयोग करते हैं। यह पररस्थस्थवत है। हमारे पास सिाजधिक
क्षमता िाली जनशलक्त (मैन पािर) है। विश्व का सिजश्रेष्ठ मनुष्य है भारत में! यह मैं
इसललए नहीं कह रहा वक मैं वहन्दु हँ और भारतिासी हँ। द्धजतनी दुवनया मैंने दे खी है
और िहाँ के मनुष्य दे खे, उसके अनुभि के आिार पर मैं कह सकता हँ वक भारत का
मनुष्य अब भी परमात्मा का स्िरूप है। हमारे शास्त्रों में तो कहा ही है, "गायप्न्त दे िा:
वकल गवतकावन, िन्यास्तु ते भारतभूधमभागे।।' बािजूद इसके हमारे यहाँ सबसे अधिक
बेरोजगार हैं, सबसे अधिक अूंिे हैं, सबसे अधिक कोढ़ी हैं और सबसे अधिक क्षयरोगी
हैं। इसके बाद भी हम बहुत अच्छे हैं।

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पणिम के िऩी दे शों का पतन
वपछले साल हम जमजनी गये थे। होटल में ब्रीफकेस रखकर खड़े हो गये तो होटल के
कमजचारी ने कहा- भाई साहब। आप ब्रीफकेस दोनों पैरों के बीच दबाकर खड़े हो जाइए।
मैंने कहा, क्यों? तो उसने कहा वक कोई उठाकर भाग जायेगा। विश्व के इतने िनी दे श
की यह हालत है। और इटली में तो जेब रोज कटती हैं। िाइम कूंडीशन सारे पत्तिमी
दे शों में क्या है? न्यूयाकज में जाने पर लोग कहेंगे वक आप अकेले ललफ्ट में मत जाइए
और आप मूत्रालय या शौचालय में जा रहे हैं तो दे ख लीद्धजए वक िहाँ कोई लछपा हुआ
तो नहीं है। केिल दस-बीस डालसज के ललए आपकी हत्या हो जायेगी। सब प्रकार के
अपराि, यौन अपराि, मादक द्रव्यों के अपराि और हत्या, बलात्कार के अपराि द्धजतने
पत्तिमी दे शों में हैं, भारत में उसके शताूंश भी नही हैं। भारत का मनुष्य िमजभीरु है। अब
भी अनुशालसत है।

ननिथन निर ि़ी बचत में आगे


जापान विश्व में एक िनी दे श है। उसकी बचत २४ प्रवतशत है। और हम विश्व के सबसे
गरीब दे शों में से होने पर भी दो िषज पूिज हमारी बचत २४ प्रवतशत थी। आज २१ प्रवतशत
रह गयी है। हम वनिजनता में भी बचाते हैं। हम इतने अपररग्रही हैं। ये सब हमारे दे श के
गुण हैं। दे िदुलजभ मनुष्य हैं भारत में! जहाँ गये, िही प्रवतष्ठा प्राप्त की। वकसी जमाने में
अमेररका में यहदी सबसे अधिक िनी हुआ करते थे। आपको यह जानकर प्रसन्नता
होगी वक जो भारतिासी आज अमेररका में हैं, उन्होंने यहददयों को पीछे छोड़ ददया है।
आज अमेररका में जो अन्य दे शों के लोग हैं, उनमें भारतीय. सबसे िनी हैं। द्धजतने होटल
थे उन्हें गुजरात के पटे ल भाइयों ने खरीद कर मोटल बना ददया है। मैं जब लन्दन गया
तो िहाँ के प्रिानमूंत्री जॉन मेजर से धमला। िे कहने लगे, आपके भारतिासी जो वहन्दू
हैं िे बड़े अच्छे हैं, बड़े कमजठ हैं, बड़े अनुशालसत हैं। उन्होंने कहा वक उनकी पत्नी जब
भी सामान खरीदती है, वहन्दू व्यापारी से ही खरीदती है। उसके साथ कभी िोखा नही
हुआ, कभी दुव्यजिहार नहीं हुआ। यदद मेरी लड़की वकसी और दुकान पर चली जाती है
तो आिा घूंटा तो उसे छे ड़खानी सहनी पड़ती है और वबल में वकतनी गड़बड़ी होती होगी,
मुझे पता नही। छ: प्रवतशत िहाँ भारतीयों की सूंख्या है और ४३ प्रवतशत व्यापार पर
उनका वनयूंत्रण है। यूरोप के यदद दस िनी नाम वगनाये जायेंगे तो उनमें से एक भारतीय
अिश्य ही होगा।
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बहुराष्ट्ऱीय कंपननयों को लूट की छू ट
विश्व में भारतीय जहाँ भी गया उसने िहाँ नाम कमाया। भारत का मनुष्य क्या अपने
दे श में कुछ नहीं कर सकता? यहाँ भी कर सकता है लेवकन उसे अिसर नहीं ददया
जाता। हमने तो बहुराष्ट्रीय कूंपवनयों को अिसर ददया है। क्या बना रही हैं ये कूंपवनयाँ?
आलूलचप्स। जो आलू एक रुपया साठ पैसे वकलो है, उसकी लचप्स ''अूंकल लचर? के
नाम से १६० रुपया वकलो वबकती है। आज यह पररस्थस्थवत है। पाप कोंने (मक्का का
लइया), मैगी (लसमैयाँ) बनाने के ललए विदे शी कूंपवनयाँ भारत में बुलायी जा रही हैं। क्या
हम लोग इन को अब तक नही बनाते थे? क्या इसके ललए विदे शी तकनीक की
आिश्यकता है? चटनी, अचार, मुरब्बा, सब कुछ अब विदे शी कूंपवनयाँ बनायेंगी। जूता
कौन बना रहा है? "बाटा"। और मालचस कौन बना रहा है? "विमको"। मूंजन कौन बना
रहा है? "कोलगेट", पहले चार रुपये की ट् यब ू आती थी अब ३० रुपये दे ने पड़ते हैं।
जब कूंपनी बनी थी तो एक लाख रुपया लगाया था, आज ४०० करोड़ रुपये की है। ये
कूंपवनयाँ १० रुपये के शेयर पर ८ रुपये मुनाफा दे ती हैं और हर साल बोनस भी दे ती
हैं। हर दूसरे साल एक पर एक। द्धजन्होंने १०० शेयर खरीदे थे उनके दो-दो हजार शेयर
हो गये हैं और प्रत्येक शेयर पर ८ रुपया मुनाफा धमलता है। एक साल तो १० रुपये पर
१२ रुपये का मुनाफा ददया था। ये कूंपवनयाँ एक पैसा भी एक्साइज नही दे ती। कोलगेट
लगाओ और दाँतों को चमकाओ। और वफर नकली दाँत लगाने के ललए डाक्टर के पास
जाओ। ट् यूब ऐसी बनाते हैं वक जरा-सा दबाते ही बहुत सारा वनकल जाता है और
द्धजतना वनकलता है सब रगड़ना पड़ता है। िापस डालने का तो उपाय ही नही है। मध्य
प्रदे श में एक सज्जन बोले, मैंने तो ट् यूब दबाया तो केिल हिा वनकल कर रह गयी। ये
हैं मल्टी-नेशनल (बहुराष्ट्रीय) कूंपवनयों की करामात! दाढ़ी बनाने का ब्लेड मल्टी-
नेशनल, दिाइयाँ मल्टी-नेशनल, नमक मल्टीनेशनल। महात्मा जी ने नमक पर टै क्स
लगाये जाने पर आन्दोलन वकया था, सरकार नमक नहीं बनायेगी। भारतिासी स्ियूं
नमक बनायेंगे। आज उन्ही गाूंिी जी के नाम पर काम करने िालों ने अमेररका की
कारवगल कूंपनी को बुलाकर गाूंिी जी के उसी गुजरात में नमक बनाने का काम सौंपा
है। अब नमक भी हम नहीं बना सकेंगे। क्या नमक में आयोडीन हम नही धमला सकते?
स्िािीन भारत के ४७ िषों में क्या हम घास खोदते रहे? यह २ लाख ७६ हजार करोड़
कजज का रुपया आखखर कहाँ गया? द्धजस दे श में इच्छाशलक्त होती है िह सब कुछ करता
है। हम भी जहाँ हम करना चाहें, कर सकते हैं। हमने अूंतररक्ष में द्धजतना भी अनुसूंिान
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वकया है उसमें न तो विदे शी तूंत्रज्ञ हैं और न ही विदे शी पूूंजी। भारत के िैज्ञावनकों ने
अपनी इच्छाशलक्त से उसे सफलतापूिजक करके ददखा ददया है और आज हम पर
अूंतररक्ष-कायजिम बूंद करने के ललए विदे शी शलक्तयाँ दबाि डाल रही हैं। प्रक्षेपास्त्रों के
प्रयोगों को रोकने को कहा जा रहा है। पृथ्िी' प्रक्षेपास्त्र हमने बना ललया है, 'अखग्न'
प्रक्षेपास्त्र बन रहा है। बनना चावहए। अखग्न का वनमाजण होना ही चावहए। एटम बम बनाना
ही चावहए। दोनों का सूंयोग होना ही चावहए।

नवि में िमारा उत्पादन सस्त्ता और सवोत्तम िोगा


इससे अूंतरराष्ट्रीय प्रवतष्ठा बढ़ती है। लोगों का मनोबल, पौरुष जागता है। हमारा पड़ोसी
चीन है। उसकी भी चचाज करके मैं समाप्त करूूंगा। आज हमारे पाँि तो स्िदे शी हैं लेवकन
जूता विदे शी है। दाढ़ी स्िदे शी है और ब्लेड विदे शी। दाँत स्िदे शी हैं तो मूंजन विदे शी।
बीड़ी स्िदे शी है, मालचस विदे शी। बीमारी स्िदे शी है तो दबाई वबदे शी। इस वबदे शी के
प्यार और स्िदे शी के वतरस्कार से हो गया भारत बीमार, भारत बेरोजगार और भारत
कजजदार! इसी िम में हो तो रहा था काूंग्रेस स्िदे शी और उसका अध्यक्ष विदे शी। पर
बच गया स्िदे शी। लोग यह समझते हैं वक हम कुछ नही कर सकते। क्या हम यह भूल
गये वक २५०० िषज पूिज हमारा जो स्टील (फौलाद) बनाने का उद्योग था िह विश्व में
प्रलसि था। लसकन्दर जब भारत में आया था तो उसने पोरस राजा से कुछ मन लोहे की
त्तभक्षा माँगी थी, द्धजस लोहे से यूरोप में उस जमाने में तलिारें बनती थीं। यह ग्रीक
इवतहासकार ने ललख रखा है, वकसी वहन्दु ने नही। उस जमाने में दधमश्क की तलिारें
(सोअडज ऑफ दधमश्क) प्रलसि थी, लेवकन उसके ललए लोहा भारत से ही जाता था।
पोरस ने लसकूंदर को जो लोहा ददया उसी लोहे का लोहस्तम्भ गत ढाई हजार िषों से
ददल्ली की कुतुबमीनार के पास खुले आकाश के नीचे खड़ा है। उस पर जूंग का नाम
नहीं। मैं चुनौती दे ता हँ वक विदे शी िैज्ञावनक केिल ५० िषज तक पानी में रखकर भी जूंग
न लगने िाला लोहा बनाकर तो ददखा दें । भारत की प्रवतभा, उसके उद्योग और तकनीक
विश्व में प्रलसि थी। आज, भी हममें िह प्रवतभा ओर कौशल है। हम दे श में सिजश्रेष्ठ
और सबसे सस्ते उत्पादन कर सकते हैं। दे श को समझने की जरूरत है।

नवपुल उत्पादन और संयममत उपिोग में ि़ी िै संकट का िल


प्रभु श्रीराम ने सीता-हरण के बाद रािण से सीता को मुक्त कराने के ललए राजा जनक
से दो वडिीजन सेना की माँग नहीं की थी। उन्होंने भरत से सेना माँगना तो दूर, उसे
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सीता-हरण की सूचना तक नहीं दी। उन्होंने भारत के अवत सामान्य िानर और रीछ
एकत्र वकये और आज द्धजस प्रकार आसुरी सूंपदा के स्िामी यूरोप-अमेररका हैं, उस
काल की आसुरी सूंपदा के सोने की लूंका िाले स्िामी को परास्त वकया। उसका नाश
कर सीता को मुक्त वकया। भारत की सामान्य जनता की शलक्त को जगाइए, िह विश्व से
आसुरी अथजव्यिस्था को समाप्त करके "सिे सुखखन: सन्तु"ूं की अथजव्यिस्था का वनमाजण
कर सकती है। स्िदे शी का अथज यही है, उसका अथज तकली नही है। इसका अथज है अपने
अूंदर के सुप्त पौरुष को जगाना, अपनी प्रवतभा और मेिा को समझना, राष्ट्रीय पुरुषाथज
का अनुसूंिान करना। हम मल्टी-नेशनल कूंपवनयों से आतूंवकत नहीं हैं। भारत भी
विश्वभर में जाकर बहुराष्ट्रीय कूंपवनयाँ बनायेगा। लेवकन भारत न वकसी का कजजदार
बनेगा और न वकसी को कजजदार बनायेगा। विश्व में सबको सब िस्तुएँ उपलब्ध हों,
सूंयधमत उपभोग हो। हम इस असूंयधमत उपभोग के हामी नहीं हैं। पत्तिम की आज जो
ये सारी दुव्यजिस्थाएूं हैं, असूंयधमत उपभोग के कारण हैं। सूंयधमत उपभोग और विपुल
उत्पादन में से होगी बचत। इसी में से सबको आिश्यक सामग्री उपलब्ध होगी। भारत
यह कर सकता है। इसीललए है स्िदे शी अपनाओ का अत्तभयान!

च़ीन कृनष और स्त्वदे श़ी से ि़ी मिाशधि बन रिा िै


अब मैं चीन की चचाज करके समाप्त करूूंगा। चीन की इस समय प्रगवत बड़ी तीव्रगामी
है। १२ प्र. श. की दर से चीन की अथजव्यिस्था की प्रगवत हो रही है। इतनी प्रगवत वकसी
दे श की नही हो रही है। उसका पड़ोसी दे श जापान जो वक विश्व की प्रमुख आर्थिक
शलक्त माना जाता है, िह भी तीन प्र. श. से अधिक नहीं बढ़ रहा है। इूंग्लेंड, फ्ाूंस,
जमजनी, अमेररका भी ३ प्र. श से अधिक प्रगवत नहीं कर रहे। एक अरब लोगों का दे श
१२ प्र. श. की रफ्तार से बढ़ रहा है। इसे दे खकर विश्व आज कम्पायमान हो रहा है।
रूस वतरोवहत हो गया, चीन अब निीन शलक्त के रूप में उभर रहा है। परमाणु-शलक्त-
सम्पन्न एक अरब जनसूंख्या िाला चीन अमेररका के ललए चुनौती बन सकता है। उसकी
यह आियजजनक प्रगवत कृवष और स्िदे शी की ओर ध्यान दे ने से हुई है। आज चीन
महाशलक्त बन रहा है। उसने भारत की उिरी सीमा पर सुरक्षा के ललए प्रक्षेपास्त्र स्थायी
रूप से लगा रखे हैं।
विश्व में इस्लामी आतूंकिाद उभर रहा है। स्िामी िामदे िजी ने जैसा कहा, भारत को
इस्लाधमक राष्ट्र में पररिर्तित करने का षड् यन्त्र चल रहा है। भारत की अथजव्यिस्था चौपट
की जा रही है। ऐसे में यह आिश्यक है वक हम अपने आपको पवहचानें। हम जानें वक

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हम कौन हैं। इस हनुमान को जगाने के ललए जरूरत है आप सब सूंतों की। एक बार
भारत के पुरुषाथज को जगा दीद्धजए, मैं आपको विश्वास ददलाता हँ वक हम १० िषों में
भारत को विश्व की आर्थिक, सामररक महाशलक्त बनाकर ददखाने का सामथ्यज रखते हैं।

***

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आर्थिक साम्राज्यवाद का अग्रूत डंकेल प्रस्त्ताव

-दत्तोपन्दत ठें गड़ी

अब हम डूंकेल प्रस्ताि पर विचार करें। दूसरे महायुि के पिात् साम्राज्यिादी दे श,


अन्तरराष्ट्रीय पररस्थस्थवतयों के दबाि के कारण, सभी औपवनिेलशक दे शों को स्ितूंत्रता
दे ने के ललए वििश हुए थे। उनका साम्राज्य होने के कारण ऐसा ददखाई दे ता है जैसे िे
बहुत समृि दे श थे। वकन्तु िास्ति में िे अपने पैरों पर खड़े नही थे, उपवनिेशों के शोषण
से िे समृि हुए थे। एक उदाहरण-िे वहन्दुस्थान के शासक होने के कारण यहाँ की
कपास को कम से कम मूल्य में खरीद कर ले जाते थे और लूंकाशायर तथा मैनचेस्टर
में कपड़ा बनाकर वफर वहन्दुस्थान में लाते थे। यहाँ के बाजार में उस माल को अधिक
दाम पर बेचकर ये साम्राज्यिादी दे श हमारा शोषण करते रहे। इस कारण िे समृि बने।
िे अपने पैरों पर खड़े नहीं थे। उनके पास अपने कोई सािन-स्रोत (ररसोसेज) नहीं थे।
अथजशास्त्र में इस शब्द पर ध्यान दे ने की आिस्यकता है। जैसे-जापान के पास अपने
सािन नहीं हैं, वकन्तु भारत के पास सािन-स्रोत बहुत है। सािन-स्रोतों का अभाि होते
हुए भी जापान समृि दे श है और सािन-स्रोतों से सम्पन्न होते हुए भी हम गरीब दे श
हें। अत: सािन-स्रोत एक बात है।

शोषकों के मागथ का रोडा-दे शिधि


लेवकन उनकी अथजव्यिस्था अब चरमराने लगी है। िे समझ गये हैं वक वकसी का शोषण
वकये वबना उनकी अथजव्यिस्था नहीं चल सकती। अब उनके सामने समस्या है वक नि-
स्ितूंत्र दे श अपना शोषण पहले जैसा कैसे होने दें गे। यदद िहाँ की जनता जागृत ि राष्ट्र-
भलक्त-युक्त रही तो यह सूंभि नहीं होगा। िे अपना शोषण पराये लोगों द्वारा नही होने
दें गे। वद्वतीय विश्वयुि के पिात् स्ितूंत्र हुए सभी विकासशील दे शों को तीसरी दुवनया'
कहा जाता है। विश्व का मानलचत्र दे खने से पता लगता है वक ये दे श विश्व के दत्तक्षणी
भाग में हैं और गोरे साम्राज्यिादी दे श उिर में थे। तीसरी दुवनया का शोषण करना उनके
ललए अवनिायज था, जीिन-मरण का प्रश्न था। वकन्तु अपना शोषण कौन करने दे गा? यह
तो तभी सूंभि है जब इन दे शों में राष्ट्रभलक्त न हो और उनके वपट् ठुओं की सरकार िहाँ
हो।

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ननयोजजत पणिम़ीकरि
इस दृधष्ट से वक अविकलसत दे शों के लोग राष्ट्रभक्त न हों, िहाँ पािात्य रीवत-नीवत ि
पिवत का प्रचार वकया जाता है। लोगों का योजनापूिजक पत्तिमीकरण हो रहा है। ऐसे
ही सूंस्कार-भ्रष्ट लोग उन पत्तिमी शोषक दे शों के सहयोगी बने हुए है।

नपट्ठु ओं की सरकार: नननित स्त्वाथों की सााँठ-गााँठ


इन सभी विकासशील दे शों को अघजथेक विषयों में भी अूंिेरे में रखा गया। उन्होंने यह
सोचा वक राज्यकताज यदद भ्रधमत रहेंगे तभी शोषण के ललए अनुमवत दें ग,े और िह
अनुमवत तभी प्राप्त होगी जब सरकार में अपने ही लोगों का शोषण करने िाले व्यलक्त
रहें। अत: उनके ललए आिश्यक था वक उन सभी विकासशील दे शों में, द्धजनका िे शोषण
करना चाहते हैं, ऐसी सरकारें आनी चावहए जो शोषण की अनुमवत दें । यह स्पष्ट ही है
वक सरकार में यदद राष्ट्रभक्त लोग हैं तो िे इसकी अनुमवत नहीं दें गे।
साम्राज्यिादी जानते थे वक पैसे में बड़ी शलक्त होती है। उनके सामने प्रश्न था वक
राज्यकताजओं को कैसे खरीदा जाये। हमारे दे श के नेताओं के सामने भी एक प्रश्न था
वक िे सिा में कैसे बने रहें? उन्होंने दे श में एक ऐसा सूंवििान स्िीकार वकया जो पत्तिमी
ढूं ग का, विशेष रूप से एूंग्लोसेक्सन ढूं ग का है। द्धजस दे श में ४४ प्र० श० जनता वनरक्षर,
अलशत्तक्षत और गरीबी की रेखा के नीचे हो और १२ प्र० श० अिजलशत्तक्षत हो, िहाँ िेस्ट
धमस्टर मॉडल का सूंवििान चल ही नहीं सकता। जहाँ काला अक्षर भैंस बराबर की
स्थस्थवत हो, िहाँ इसे पड़ेगा कौन?

जापान-जमथऩी और िम
अब जापान-जमजनी का विचार करें और दे खें वक िहाँ क्या हुआ? दूसरे विश्वयुि के
पिात् जापान और जमजनी खण्डहर हो गये थे। उनके उद्योग नष्ट हो गये। िहाँ भूधम पर
युि हुए थे, लेवकन हमारी भूधम पर तो लड़ाई हुई भी नहीं थी। हम उतने उजड़े भी नही
थे। वकन्तु जापान और जमजनी की जनता और सरकार का दृढ़ सूंकल्प था वक िे राष्ट्र
का पुनर्निमाजण करके रहेंगे। इसके विपरीत, हमारै यहाँ स्ितूंत्रता के बाद जैसे ही लोग
सिा में आ गये, िे सोचने लगे वक राष्ट्रवनमाजण का काम हमारा नहीं है। उन्हें जो नया
सुख धमला था, उसका अधिकाधिक उपभोग करने की उनमें होड़ लग गयी।

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"यद्यदाचरवत श्रेष्ठस्तिदे िेतरो जना:" (बड़ा माना जाने िाला व्यलक्त जैसा आचरण करता
है, िैसा ही अन्य लोग भी करने लगते हैं।) अत: अन्य लोग भी स्िाथज-सािन में लग गये।
स्िाथज-लसद्धि के ललए लोग हुकूमत में भी शाधमल होने लगे।

पैसे की राजऩीनत
जहाँ इतनी गरीबी है, िहाँ शासन-सिा में आने के ललए सबसे सरल सािन पैसा है।
पैसे से िोटों' को खरीदा जा सकता है। लेवकन पैसा तो पैसे िालों से आता है। िे राजा
हषज या कणज तो हैं नहीं, वक दान की दृधष्ट से दें गे। पैसा दे नेिाला यह तो कहेगा नहीं वक
'आइए नेताजी, मेरा खजाना लूट ले जाइए। मैं तो मायाजाल से. मुक्त होना चाहता हँ।'
जो पैसा दे गा िह एक-एक पैसे की कीमत माँगेगा। यदद आप हमारे पैसे के बल पर
राजसिा में आते हैं तो आपकी सिा का उपयोग हमारा पैसा बढ़ाने के ललए होना
चावहए'। इस समझौते के साथ पैसा ददया और ललया जाता है। द्धजनसे पैसा ललया जाता
है, उनके सामने शासकों की आँखें शमज से झुकी रहती हैं। पैसे िालों के ये कबूतर नेता
उनके सम्मुख गुटर-गूूं नहीं कर सकते। भले ही िे बातें समाजिाद की करें, लेवकन
व्यिहार में उनका ही साथ दें गे। यहाँ हमारे नेता राह दे खते बैठते हैं वक उन्हें खरीदने के
ललए अभी तक कोई क्यों नहीं आ रहा हे? इसके ललए बेचैन रहते है।

नवदे श़ी जाल


साम्राज्यिादी दे शों का यह सोच रहता है वक तीसरी दुवनया' के दे शों में द्धजनको खरीदा
जा सकता है, िे सिा में कैसे आये। दोनों का सूंयोग होने पर विदे शी आर्थिक
साम्राज्यिाद की नीि पड़ जाती है। इस विषय में मैं विस्तार में नहीं जाना चाहता और
केिल एक ही बात कहूंगा। १९५२-५३ पी० एल०- ४८० की व्यिस्था की गयी। उस
समय हमारे यहाँ गेहँ पयाजप्त था, तो वफर यहाँ गेहँ क्यों मँगाया गया? एक और उदाहरण-
१९६५ में पावकस्तान के साथ नहरी पानी के बँटिारे के बारे में एक समझौता हुआ। िह
समझौता पावकस्तान के पक्ष में जाने िाला और हमारे वहतों के विरुि था। उस समय
प० पू० गुरुजी (श्री मािि सदालशिराि गोलिलकर) ने एक सािजजवनक िक्तव्य द्वारा
भारत सरकार को चेतािनी दी थी वक यह समझौता गलत है, विश्व बैंक के दबाि के
कारण वकया गया है। विदे शी पूँजी के दबाि के कारण यदद समझौता करने का अभ्यास
बना तो दे श में विदे लशयों का आर्थिक साम्राज्य आ जायेगा। यह चेतािनी १६६१ में
श्रीगुरुजी ने दी थी, द्धजसे अनसुना कर ददया गया। यह रोग बढ़ता चला गया। पहले
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विदे शी सहभावगता फर कॉलेबरेशन) के समझौते हुए। उनमें दे श के वहत में कुछ
प्रवतबूंिक शतें होती थी। इस कारण दे शिालसयों ने उस पर विशेष आपत्ति नहीं की और
ये आत्मघाती नीवतयाँ फलने-फूलने लगीं। भारत में विदे शी आर्थिक साम्राज्य की जड़ें
जमाने का प्रयास तीन माध्यमों द्वारा प्रारम्भ हुआ:--
१. अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आई० एम० एफ०)
२. विश्व बैंक (िर्ल्ज बैंक)
३. बहुराष्ट्रीय कम्पवनयाँ (मल्टीनेशनल कम्पनीज),
उसकी ये तीन एजेंलसयाँ थी।

नवदे श़ी पूाँज़ी का प्रपंच


विदे शी पूँजी के हाथ बहुत लम्बे होते हैं। यह हम समझ नहीं पाते हैं वक उनकी पहुँच
कहाूं तक है। अपनी भािी रणनीवत को वियाप्न्ित करने के िषों पहले से उन्होंने हम
लोगों को भ्रधमत और पथभ्रष्ट करने का प्रयास प्रारम्भ कर ददया था। इसका बोि सभी
को हो सके, इसके ललए कुछ उदाहरण दे ना आिश्यक है अन्यथा इसे समझना कदठन
होगा। अब यही दे खे वक यहाँ बैठे हुए लोगों को भी यही तो लगता होगा वक पैसे का
प्रिाह विकलसत दे शों की ओर से विकासशील दे शों की ओर आता है। हम सबकी यही
िारणा है वक 'अरे भाई। जो िन ऋण (कजज) के रूप में आता है उस पर तो सूद दे ना
पड़ेगा, लेवकन जो सहायता के रूप में प्राप्त होता है उसका तो अथज यही होता है वक
उसे िापस नही करना है। हमको यदद बेचारे सहायता दे रहे हैं तो हमें उनके प्रवत कृतज्ञ
होना चावहए, न वक नाराज होना चावहए।' वकन्तु क्या यह सत्य है वक विकलसत दे शों से
विकासशील दे शों की ओर िन आ रहा है? यह एकदम झूठ है-वनतान्त असत्य। बात
वबल्कुल इसके विपरीत है। एक झूठ को सौ बार सत्य के रूप में प्रवतपाददत करने पर
िह सत्य मान ललया जाता है, यह जमजनी के तानाशाह वहटलर के प्रचारमूंत्री डॉ०
गोएबल्स का लसिाूंत था। इसके उदाहरण के रूप में दो िषज पूिज के कुछ आूंकड़े मैं
बताता हँ। विकलसत दे शों ने विकासशील दे शों के साथ जो व्यिहार वकया, उसके
उदाहरण से सब स्पष्ट हो जायेगा। ये आूंकड़े सन् १९९१ के हैं। उस िषज विकलसत दे शों
ने विकासशील दे शों को ४९ अरब डॉलर ददये थे, और उसी िषज में प्रोवफट ररपेदरएशन
के रूप में अथाजत् इन दे शों से प्राप्त मुनाफे के रूप में १४७ अरब डॉलर की िनरालश
विकासशील दे शों से विकलसत दे शों की ओर गयी। प्रचार विकासशील दे शों को सहायता
दे ने का तो हुआ; लेवकन इन दे शों से १४७ अरब डॉलर िे ले गये, इसका प्रचार नही

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हुआ। इसका लेखा-जोखा करने पर पता चलता है वक ९८ अरब डॉलर की िनरालश
विशुि मुनाफे के रूप में साम्राज्यिादी दे शों में गयी।
केिल समाचार-पत्र पढ़कर यह बात ध्यान में नहीं आती। ऐसे अूंडरहैण्ड डीचलिग्स' (अूंिे
सौदे होते हैं वक पता नहीं चलता। जब राज्यकताज और विदे शी पूज ूं ी में साँठगाँठ होती है
तो जनता को अूंिेरे में रखकर होती है, जनता के वहत या विकास के ललए नहीं। और
विदे शी पूूंजी लगाने िालों का यह भी प्रयत्न रहता है वक िे ही लोग पुन: सिा में आने
चावहए, अन्यथा उनका सारा खेल ही खत्म हो जायेगा। राज्यकताज और विदे शी पूँजी में
साँठगाँठ होने पर क्या-क्या होता है, इसका एक और उदाहरण दे ता हँ।
आपने वफललपीन के माकोस का नाम सुना होगा। िह भ्रष्टाचाररयों का सम्राट् था।
माकोस ने लोगों की दे शभलक्त का आह्िान वकया। उसने कहा वक हमारा दे श सामररक
दृधष्ट से वपछड़ा रहे, यह अच्छा नहीं। अपने दे श में हम पारमास्थण्िक सूंयन्त्र (न्यूस्थक्लयर
प्लाण्ट) लगायेंगे।'समाचारपत्रों ने इसका स्िागत वकया। समाचारपत्र वकसका और क्यों
समथजन करते हैं, यह हम सभी जानते हैं। माकोस ने इस न्यूस्थक्लयर प्लाण्ट के ललए
विदे श से दो अरब डॉलर का ऋण ललया। कजाज लेने के बाद प्रश्न उपस्थस्थत हुआ वक इस
सूंयन्त्र को खड़ा कौन करेगा। टे ण्डर मँगिाये गये, लेवकन उन्हें दे खा भी नहीं गया।
द्धजससे पहले ही साँठगाँठ हो चुकी थी उसी को बुलाया। उससे आठ करोड़ पचास लाख
डॉलर का सौदा हुआ। माकोस ने इतनी रालश का ड्राफ्ट ठे केदार (काण्रे क्टर) को ददया।
वकन्तु वफललपीन के लोगों के कथनानुसार िह ड्राफ्ट टे बल के नीचे से पुन: माकोस के
हाथ में आ गया। सूंयन्त्र का वनमाजण तो क्या, नीि रखने तक का काम भी प्रारम्भ ही
नहीं वकया गया। लेवकन विदे शी कजज के दो अरब डॉलर का प्रवतददन तीन लाख पचपन
हजार डॉलर सूद वफललपीन चुका रहा है। वफर न्यूस्थक्लयर प्लाण्ट का क्या हुआ? माकोस
को जनता ने भगा ददया। उसके स्थान पर श्रीमती एस्थक्िनो आ गयी। उसने िैज्ञावनकों
को कहा-इस न्यूस्थक्लअर प्लाण्ट के विषय में क्या वकया जा सकता है, दे खखए। िैज्ञावनकों
ने कहा, हम माकोस को बराबर कहते रहे वक यहाँ पारमास्थण्िक सूंयन्त्र लगाना ठीक
नहीं; यह सारा क्षेत्र भूकम्प- प्रभावित है। अथाजत् यहाँ भूचाल आता रहता है, अत: यहाँ
कोई भी बड़ा वनमाजण करना जोखखम भरा है। ऐसी स्थस्थवत में न्यूस्थक्लयर प्लाण्ट का विचार
ही छोड़ दे ना पड़ा। इस प्रकार अणुभट् टी तो लगी नहीं, लेवकन अमेररका से ललये गये दो
अरब डॉलर के ऋण का सूद तीन लाख पचपन हजार डॉलर प्रवतददन वफललपीन आज
भी चुका रहा है।

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अब सोचें वक यह सौदा क्या वफललपीन के विकास के ललए हुआ था? तब आप दे खग ें े
वक राज्यकताज और विदे शी पूज ँ ी की साँठगाँठ से क्या-क्या अनथज हो सकते हैं।
इसी प्रकार का एक और उदाहरण दे ता हँ। खाड़ी युि (गल्फ िार) के समय अरब
सरकार का अत्तभनन्दन हमारे यहाँ के समाचार-पत्रों ने भी वकया था। क्यों? क्योंवक
उनका ११३ अरब डॉलर का कजाज माफ वकया गया था। यह एक कूटनीवतक कहानी
(वडप्लोमेदटक वहस्री) है, ऐसा कहा गया था। अमेररका चाहता था वक इराक के राष्ट्रपवत
सद्दाम हुसैन के विरुि सारे अरब दे श उसके पक्ष में हों। सऊदी अरब और धमस्र
(ईद्धजप्ट) आदद दे श सद्दाम का साथ न दें , यही थी अरब दे शों का कजाज माफ करने में
अमेररका की चाल। इसीललए अमेररका ने ११३ अरब डॉलर का कजाज अरब दे शों का
माफ कर ददया और इसीललए धमस्र की सेना अमेररका के नेतृत्ि िाली सूंयुक्त सेनाओं में
शाधमल थी। लोगों ने समाचार-पत्रों में इन दोनों ही बातों को पढ़ा था; लेवकन दोनों बातों
का परस्पर सूंबूंि है, यह समाचार-पत्र नहीं बताते।

कजथ की मृग-मऱीधचका
इतना गलत प्रचार होता है, जैसे-हमारे विि मूंत्री विदे शों से ५००० (पाँच हजार) करोड़
डॉलर का कजज ले आते हैं, सिजसािारण जनता यह समझती है वक अब इस िन से हमारे
दे श का पयाजप्त आर्थिक और औद्योवगक विकास होगा। लेवकन जनता यह नहीं जान
पाती वक इनकी कुछ शतें भी रहती हैं। इसमें उसी आईटम पर पहले जो कजज ललया था,
उस कजज की जो वकश्तें दे नी होंगी और जो ब्याज बकाया होगा िह काट ललया जाता है।
यदद मान ललया जाय वक पहले के ऋण की वकश्तें और उस पर ब्याज की रालश सब
३५०० करोड़ डॉलर होते होंगे तो उतने तो पहले ही काट ललये गये, शेष रहे १५००
करोड़ डॉलर। लेवकन िह रालश भी धमलने में कदठनाई यह आती है वक उनके यहाँ विज्ञान
और प्रोद्यौवगकी के क्षेत्र में तेजी से प्रगवत हो रही है, इस कारण उनकी प्रविधि (तकनीक)
तेजी से बदलती रहती है। इस समय जो टे क्नोलॉजी (प्रौद्योवगकी) है, िह छ: मास-एक
िषज में कालबाह्य (आउट ऑफ डेट) हो जाती है। उसके स्थान पर नयी प्रविधि
(तकनीक) लानी पड़ती है। और जब नयी प्रविधि का आविष्कार होता है तो पुरानी
प्रविधि की मशीनरी का क्या करें, यह उनकी समस्या होती है। आज के यन्त्र (मशीनरी)
गोदामों में जूंग खाने के ललए तो नहीं रखे जा सकते। आखखर उस तकनीक के विकास
में भी लाखों डॉलर खचज हुए हैं। इसललए ऐसी कालबाह्य मशीनरी उस कजे के अन्तगजत
भेजने की शतें ऋण के समझौते में सत्म्मललत रहती हैं। अथाजत् शेष बचे १५०० करोड़

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डॉलर में विकासशील दे श के मत्थे िह बेकार हो रही मशीनरी मढ़ी जाती है। यह नहीं
दे खा जाता वक उस दे श के ललए ऐसी मशीनरी की उपयोवगताहै भी या नहीं।

प्रौद्योनगकी-आयात की रासदी
हमारे प्रिानमूंत्री ने कहा था वक इक्कीसिीं सदी का स्िागत करने के ललए हम 'अप-टु -
डेट' साइस और टे स्थक्नक (अद्यतन विज्ञान और प्रविधि) का आयात करेंगे। वकन्तु साइन
और टे क्नोलॉजी कभी स्थायी रूप से अप-टु -डेट होती नहीं। उसमें तो वनरूंतर प्रगवत
होती रहती है। और िे पूज ँ ीिादी दे श भी ऐसे पागल नहीं हैं वक हम जहाँ-जहाँ चाहते हैं,
िहाँ िे हमें साइन्स और टे क्नोलॉजी दें गे। हम चाहते हैं उनकी टे क्नोलॉजी सुरक्षा
(वडफेन्स) में। हम तकनीक चाहेंगे जहाँ वनयाजत (एक्सपोटज ) के उद्योग हैं। परन्तु िहाँ िे
दें गे नहीं। हम जहाँ नही चाहते, िहाँ िे दे ते हैं। िे उपभोक्ता-सामग्री (कूंज्युमर-गुड्स) के
क्षेत्र में घुसते हैं, उपभोक्ताओं के बाजार में आते हैं जो हमारे वहत में नहीं। साराूंश यह
वक िे अपनी नयी प्रौद्योवगकी जहाँ हम चाहते हैं िहाँ दे ने को तैयार नहीं होते और जो
मशीनें हमें िे दे ते है िे उनके ललए वनरुपयोगी अथाजत् पुरानी हो चुकी होती हैं। वकन्तु िह
पुरानी मशीनरी यहाँ आ जाने पर भी उसका पूरा लाभ हम नहीं उठा पाते क्योंवक उसका
पूरा उपयोग करने के ललए द्धजस स्तर का विकास हमारे यहाँ अपेत्तक्षत है, िह तो है नहीं।
अत: लगभग ६०-७० प्रवतशत उसका उपयोग नही हो पाता। िे यन्त्र हमारे ललए सफेद
हाथी या बोझ (लाएवबललटी) हो जाते हैं। कहने का तात्पयज यह है वक इस लेन-दे न में
जो गलत प्रचार चलता है उससे वकस-वकस प्रकार की भ्राूंवत फैलती है, यह बात उपयुक्त ज
उदाहरण से स्पष्ट है। विदशी पूज ँ ी-वनिेश का झाँसा
भारतीय मजदूर सूंघ और भारतीय वकसान सूंघ ने जब यह आिाज उठायी वक विदे शी
पूँजी-वनिेश (फॉरन इन्िेस्टमेंट) गलत ढूं ग से हो रहा है तो समाचारपत्रों ने इस बात को
लेकर यह प्रचार वकया ये भा० म ० सूं ० और भा ० वक० सूं ० िाले दवकयानूसी हैं। ये
नहीं जानते वक दुवनया२१िीं शताब्दी में जा रही है। ये लोग दे श को १५ िीं सदी में ढकेल
ले जाना चाहते हैं। जब विकलसत दे श हमारे दे श में पूज ँ ी लगा रहे हैं, तो इससे दे श का
लाभ ही होगा। इसके वबना दे श प्रगवत कैसे करेगा? दे श महान् कैसे होगा? इत्यादद।
वकन्तु ये समाचारपत्र यह नहीं बताते वक विदे शी पूज ँ ी प्रत्येक दे श में लगायी तो जाती
है, पर उन दे शों में और हमारे दे श में विदे शी पूज ँ ी-वनिेश के प्रकार क्या हैं? विकलसत
दे शों द्वारा जो पूज ँ ी-वनिेश विकासशील दे शों में होता है, िह वनिेशकताज दे श की शतों
पर ही तो होता है। यह ठीक है वक लसिान्त: समझौते समानता के आिार पर, आदान-
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प्रदान की भूधमका से ही होते हैं, द्धजनमें कुछ बातें दोनों को छोड़नी पड़ती हें, लेवकन
िस्तुस्थस्थवत यह है वक ऋणदाता दे श अपने दे श के वहतों को केन्द्र बनाकर अपनी शतों
पर समझौते करते हैं जबवक हमारी सरकार ने आज तक द्धजतने भी समझौते वकये हें,
हमारी समझ में नहीं आता वक राष्ट्रीय वहत को हावन पहुँचाने िाली बातें ही प्रत्येक बार
क्यों स्िीकार की गयी? हमारे विदे शी सहयोग समझौते (फारेन कोलेबरेशन एग्रीमेंट्स)
पढ़ने पर, समझ में नहीं आता वक इतनी गलत बातें आखखर क्यों स्िीकार की गयी?
कौन-सी ये वििशताएँ थीं? राष्ट्रीय वहतों को ध्यान में रखकर और हमारी शतों पर आज
तक कोई समझौता वकया गया हो, यह दे खने को नही धमलता। प्रत्येक समझौता हमारे
राष्ट्रीय आत्मसम्मान के आत्मसमपजण का दस्तािेज ही है। आखखर हमारी ओर से
समझौता-िाताज में भाग लेनेिालों ने ऐसा क्यों वकया? क्यों वकया, यह अब बताने की
आिश्यकता नहीं। आज तो वबल्कुल ही नहीं, क्योंवक बोफोसज घोटाले के बाद उससे भी
बड़ा शेयर घोटाला काण्ड हो गया है। यह समझ लेना भी गलत हे वक जो िाताज करने
जाते थे उनकी कुछ मजबूररयाँ थीं। कारण, समझौता िाताज में कोई वकसी पर उपकार
नही करता। हमारे ललए लेना आिश्यकता थी, तो दे नेिाला भी तो वकसी लेनदार की ही
खोज में था। अन्यथा िे दे ते वकसललए? िास्ति में बात तो यह थी वक हमारे लोग खरीद
ललये जाते थे, इस कारण समझोता करने जाने िाले हमारे प्रवतवनधियों ने राष्ट्रवहत की
बलल दे ने में कभी वहचवकचाहट नही ददखायी।

राष्ट्ऱीय प्रौद्योनगकी-ऩीनत बने


प्रौद्योवगकी के विषय में आज एक भ्राूंवत फैली है वक विकलसत दे शों की सारी टे क्नोलॉजी
अच्छी है। क्या यह सही है? हम लोगों ने कहा, राष्ट्रीय प्रौद्योवगकी-नीवत विकलसत होनी
चावहए। उसके अूंतगजत चार बातें आनी चावहए :

१. हमारे प्रौद्योवगकीविद् (टे क्नोलाद्धजस्ट) दुवनयाभर की टे क्नोलॉजी का अध्ययन करें


और उनमें से यह वनणजय वकया जाय वक कही की भी प्रौद्योवगकी का कौन सा भाग ऐसा
है द्धजसे ज्यों का त्यों अपना लेना राष्ट्रीय वहत में होगा--द्धजसे कहा जाता है आत्मसात्
(एडॉप्ट) करना। २. कौन सा भाग ऐसा है द्धजसमें कुछ सूंशोिन करके ललया जा सकता
है-द्धजसे रूपान्तरण (मोवडवफकेशन) कहा जाता है।
३. कौन-सा भाग ऐसा है द्धजसे अस्िीकार (ररजेक्ट) करना होगा। हमारी समस्या
बेरोजगारी की है और उनकी समस्याएूं उत्पादन (प्रोडक्शन) से सूंबत्न्धत। अत: हमारे

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दे श के ललए जो अनुकूल नही है और द्धजसे अस्िीकार कर दे ना ही उलचत है, ऐसे भागों
की पहचान करना। ४. कौनसे क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ उनकी टे क्नोलॉजी उपलब्ध नहीं है।
उसमें हमें अपनी प्रौद्योवगकी विकलसत करनी होगी, जैसे-हमारा हस्त-लशल्प उद्योग
(हैण्डीिाफ्ट् स)।
इन चार बातों का विश्लेषणात्मक विचार होना चावहए और इसी आिार पर राष्ट्रीय
प्रौद्योवगकी-नीवत विकलसत की जानी चावहए। लेवकन हम जानते हें आज की सरकार
इन सब पर विचार नहीं करेगी।
सरकार यह जो प्रचार कर रही हे वक पत्तिमी दे शों की समस्त प्रौद्योवगकी अच्छी ही है,
िह गलत है। पत्तिमी दे शों के ललए तो उनके विज्ञान ओर प्रौद्योवगकी का विकास ही
प्रगवत है। वकन्तु आपको यह जानकर आियज होगा वक उनके विज्ञान और उनकी
प्रौद्योवगकी का विकासप्रगवत है या नहीं, इस विषय में िहाँ के िैज्ञावनकों के मनो में सूंदेह
हैं। उदाहरण दे खखए जेनेदटक्स का, द्धजसे अपने यहाँ प्रजनन शास्त्र कहते हैं। उन्होंने
घोषणा की थी वक उनका शास्त्र २०४० ई ० तक मनचाहे आकार-प्रकार, रूंग-रूप,
ऊूंचाई-चौड़ाई िाले मनुष्य का वनमाजण करने में सफलता प्राप्त कर लेगा। जेनेदटक्स की
सबसे बड़ी प्रयोगशाला (लेबोरेरी) लसएटल में है। जुलाई १९७९ में उस प्रयोगशाला में
वकये जा रहे प्रयोगों में एक स्थस्थवत ऐसी आयी वक एक नये जीि के वनमाजण की सम्भािना
ददखने लगी। ऐसी स्थस्थवत में म्यूवनलसपल कॉरपोरेशन (नगर-वनगम) की अनुमवत लेनी
पड़ती है। िैज्ञावनकों के द्वारा अनुमवत माँगी जाने पर कॉरपोरेशन ने यह पूछा वक इसकी
वनर्मिवत के पररणाम क्या होंगे? उन्होंने कहा-यह बताना कदठन है; हो सकता है वबकुल
वनरुपयोगी हो और यह भी हो सकता है वक विश्व की एक-वतहाई जनसूंख्या के विनाश
का कारण बने। कॉरपोरेशन ने अनुमवत नहीं दी। उन्होंने कहा वक जब आप ही ऐसी
सूंभािना बता रहे हैं तो हम कैसे जोखखम उठा सकते हैं? िैज्ञावनकों द्वारा प्रयोगशाला
की दीिारें 'फुल प्रूफ' करने का आश्वासन दे ने पर कॉरपोरेशन ने कहा वक आप
प्रयोगशाला में जीवित रहेंग,े इसकी क्या गारण्टी है? अनुमवत नही दी गयी। फलस्िरूप
कॉरपोरेशन के विज्ञान-विरोिी होने का प्रचार वकया गया।

सेवा-व्यापार का अमेररकी प्रपंच


हमारे यहाँ तीन अत्तभकरण (एजेंलसयाँ) इसी प्रकार िुआँिार प्रचार वकया करते हैं --
आई० एम० एफ०, िर्ल्ज बैंक, और मल्टी-नेशनल कम्पनीज। अब इसी सूंदभज में डूंकेल
प्रस्ताि पर विचार करें। डूंकेल एक सूंस्था के महावनदे शक (डाइरेक्टर जनरल) का नाम
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है। उस सूंस्था को जनरल एग्रीमेण्ट ऑन टै ररफ एण्ड रे ड (गेट)अथाजत् ‘शुल्क और व्यापार
पर सामान्य अनुबन्ध:’ कहा जाता है। इसकी स्थापना १ जनिरी १९४८ में हुई। स्थापना
के समय कहा गया वक अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में परस्पर सुवििा हेतु इसे स्थावपत वकया
गया है। इसमें केिल एक ही विषय था: माल का अन्तरराष्ट्रीय व्यापार। विकलसत दे शों
के वहत के ललए इसका उपयोग होता था। इस कारण १९७३ में विकासशील दे शों के
प्रवतवनधियों ने एकवत्रत होकर इस व्यापार को समानता के आिार पर लाने की माँग
की। इसका प्रत्युिर दे ने के ललए विकलसत दे शों के प्रवतवनधियों ने १९८१ में मेस्थक्सको
में एकत्र होकर विकासशील दे शों की माँग को ठु करा ददया। वफर १९८६ में िाताज
(वनगोलशएसन्स) का आठिाँ चि प्रारम्भ हुआ। पहले की िाताजओं में केिल पण्य िस्तुओं
के अन्तरराष्ट्रीय व्यापार की चचाज हुई थी और उसमें केिल शुल्क घटाने (टै ररफ-
ररडक्शन) का ही विचार था। आठिें चि में एक विलचत्र बात सामने आयी वक अभी
तक हम वनगोलशएसन्स में िस्तुओं पर विचार करते थे लेवकन अब हम सेिा-व्यापार
(रे ड इन सर्ििसेज) को भी बातचीत की मेज पर लायेंगे। सेिाओं (सर्ििसेज) में आती हें
वििीय सूंस्थाएूं, जैसे -- बैंक, बीमा, दूर-सूंचार (टे ललकम्युवनकेशन्स), पररिहन
(रान्सपोटज ), लशक्षा आदद। ये क्यों लाये गये? अब तक तो केिल सामग्री या िस्तुओं का
व्यापार था, अब सेिाओं को क्यों लाया गया? इसके पीछे एक कारण था। १९८६ तक
अन्तराष्ट्रीय व्यापार में अमेररका प्रथम स्थान पर था और उसकी स्पिाज की क्षमता भी
अधिक थी। १९८६ के बाद कुछ विषयों (आईटम्स) में अमेररका वपछड़ने लगा तो उसने
सोचा वक अब नया क्षेत्र खोजना चावहए, और उसने यह रे ड-इन-सर्ििसेज का नया प्रपूंच
रचा।
हमारे नेता हमें समझाते हैं वक डूंकेल प्रस्ताि में कुछ बातें यदद हमारे अवहत की होंगी
तो उन्हें िाताज की मेज पर बदलिा लेंगे। उन्हें पता ही नहीं वक यहाँ भाषण दे ना अलग
बात है ओर ' वनगोलसयेसन्स टे बल' पर िाताज में अपनी बात मनिाना अलग बात हे। िहाँ
तो एटमॉस्फेयर ऑफ एि' ,भय-विस्मय या दहशत का िातािरण होता है। विकलसत
दे शों की तुलना में विकासशील दे शों के प्रवतवनधियों की सूंख्या अधिक होते हुए भी िे
िहाँ अपनी बात रखने का साहस ही नहीं जुटा पाते। केिल अनौपचाररक (इनफॉमजल)
बैठकों में िे कुछ बोल पाते हैं। सामान्य सभा (जेनरल मीटटिग्स) में तो िे मुहँ भी नहीं
खोल पाते। सेिा-व्यापार (रे ड-इन-सर्ििसेज) का जब विषय आया, अनौपचाररक बैठकों
में, तो विकासशील दे शों के प्रवतवनधियों ने कहा वक विषय नया है, हमें इस पर विचार
करने दीद्धजए, तो विकलसत दे शों के प्रवतवनधियों ने कहा वक इसमें सोचने की क्या बात

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है? विकासशील दे शों ने पूछा वक सेिाओं से अत्तभप्राय क्या है? रे ड-इन-सर्ििसेज अथाजत्
क्या? इनको पररभावषत करना चावहए। विकलसत दे शों ने कहा वक इसमें तो तीन-चार
िषज लग जायेंगे और सूंसार इतनी तेजी से आगे जा रहा है वक तीन-चार िषज तक प्रतीक्षा
नहीं की जा सकती। इसके बजाय हम अनुबूंि कर लें, वफर पररभाषा विकलसत होती
रहेगी। कुछ दे शों ने कहा वक आपके प्रस्ताि का हमारे दे शों पर क्या प्रभाि होगा, यह
हम यहाँ नहीं बता सकते। उसके ललए साूंस्थख्यकी (स्टै दटप्स्टक्स) की आिश्यकता होगी,
तो आकड़े (स्टै दटप्स्टक्स) एकत्र करने के ललए तो आप हमें समय दें गे? इस पर विकलसत
दे शों का तकज था वक ये आँकड़े एकत्र करने में चार-पाँच िषज लग जायेंगे। इतने समय
तक दुवनया रुक नही सकती। इसललए हम 'एग्रीमेण्ट' कर लें और बाद में आप अपने
आँकड़े एकवत्रत करते रहना। और, विकासशील दे शों को िाताज आगे बढ़ाने के ललए
वििश वकया गया। ऐसा दबाि का िातािरण होता है िहाँ।
लेवकन थोड़े ही समय बाद अमेररका ने यह अनुभि वकया वक रे ड-इन-सर्ििसेज के भी
कुछ विषयों (आईटम्स) में िे अब वपछड़ रहे हैं। यह दे खकर िे घबरा गये और िे तीन
नये विषयों को िाताज की मेज पर ले आये। ये थे:--
१. व्यापार सम्बन्धी बौद्धिक सम्पदा अधिकारों का व्यापार (रे ड इन रे ड ररलेटेड
इूंटेलेक्चुअल प्रोपटी राइट् स),
२. व्यापार सम्बन्धी वनिेश के उपायों का व्यापार (रे ड इन रे ड ररलेटेड इनिेस्टमेंट मेजसज)
३. कृवष (एग्रीकल्िर)।

१. व्यापार सम्बन्ध़ी बौणिक सम्पदा अधिकार का व्यापार


इूंटेलेक््युअल प्रोपटी राइट का अथज होता है -- बौद्धिक सम्पदा- अधिकार। बौद्धिक
सम्पदा पर अधिकार होता है एकस्िाधिकार (पेटेन्ट) के द्वारा। जब कोई एकस्िाधिकार
(पेटेण्ट) लेता है तो उसे बौद्धिक सम्पदा माना जाता है। जैसे, उसने वकसी िस्तु या
पदाथज की खोज की-आविष्कार वकया -- और उसको अपने नाम पर पेटेण्ट करिा ललया
तो वफर दूसरा व्यलक्त िह काम नही कर सकता। इसी को पेटेण्ट या एकस्िाधिकार कहते
हैं। हमारे दे श में १९७० में पेटेण्ट का वििान (कानून) बना था। उसे बहुत सोच-समझकर
बनाया गया था। वििान बनने के पूिज दो बार उस पर सूंसदीय सधमवत ने विचार वकया।
वफर सूंयुक्त सूंसदीय सधमवत ने विचार वकया। हमारे यहाँ के इस वििान में िे दो प्रकार
के सूंशोिन चाहते हैं। हमारे यहाँ के कानून में पेटेण्ट का एकाधिकार केिल पाँच से सात

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िषज तक ददया जाता है। अमेररकी कानून में २० से २५ िषज तक ददया जाता है। िे हमारे
यहाँ भी २० से २१ िषज तक का अधिकार चाहते हैं।

ियावि पेटेण्ट कानून


हमारे यहाँ विशेष बात यह है वक प्रविया (प्रोसेचसिग) का पेटेण्ट ददया जाता है। उनके
यहाँ उत्पाद (प्रोडक्ट) का पेटेण्ट कराया जाता है। उदाहरणत: मान लीद्धजए गुरुकुल
काूंगड़ी ने ्यिनप्राश बनाया। उसे बनाने की उनकी अपनी एक विशेष प्रविया और
फामूजला है। तो गुरुकुल काूंगड़ी ्यिनप्राश की उस प्रविया का पेटेण्ट ले सकते हैं।
अथाजत् उस प्रविया से दूसरा कोई ्यिनप्राश नहीं बना सकेगा। इस प्रकार हमारे यहाँ
एकस्िाधिकार प्रविया का होता है। यदद कोई अन्य उस प्रविया से ्यिनप्राश बनायेगा
तो उसे जेल की हिा खानी पड़ेगी। वकन्तु यदद कोई वकसी दूसरी प्रविया से ्यिनप्राश
बनाये तो िह भी उसे बाजार में ला सकता है, बेच सकता है। उस पर कोई आपत्ति नही
हो सकती क्योंवक हमारे यहाँ उत्पाद का नही, प्रविया का पेटेण्ट है। लेवकन अमेररका
में प्रोडक्ट (उत्पाद) का पेटेण्ट है। इसका अथज हुआ वक एक बार आपने वकसी प्रविया
से ्यिनप्राश तैयार वकया और उसे पेटेण्ट करिा ललया तो वफर दूसरे वकसी के द्वारा
्यिनप्राश बनाये जाने पर िह दण्डनीय अपराि होगा, चाहे िह दूसरी वकसी भी प्रविया
से उसे तैयार करे। यह वकतनी खतरनाक बात है।

इसमें और भी एक बात है वक हमारे यहाँ के पेटेण्ट कानून में िृक्षों के पेटेण्ट का प्राििान
नहीं है और पशुओं का भी पेटेण्ट नही है। ये राक्षस पशुओं का और िृक्षों का भी पेटेण्ट
चाहते हैं। हमारे यहाँ की औषिीय जड़ी-बूदटयाँ ये लोग पहले ही अपने दे श में ले जा
चुके हैं। अब िे कहते हैं - हमारी लेबोरेरी (प्रयोगशाला) में हमने इन जड़ी-बूदटयों पर
रीटमेण्ट (उपचार) वकये हैं, इसललए यह प्रोडक्ट (उत्पाद) हमारा हो गया, हम इसका
पेटेण्ट लेते हैं। अब आप इस िनस्पवत से वहन्दुस्थान में दिा नहीं बना सकते। आपको
यह जानकर आियज होगा वक हमारा औषि-वनमाजण उद्योग (फामाजस्यूदटकल्स इण्डस्री)
सूंसार भर में प्रथम स्थान पर है। हमारे यहाँ वनर्मित दिाएूं अमेररका के बाजार में
अमेररका में वनर्मित दिाओं से भी कम मूल्य में बेची जाती हैं।

अब केिल ओषधियों की ही बात नही है। आपके यहाँ का यदद गेहँ-चािल िे ले जाते
हैं तो िे कहेंगे वक हमने अपनी प्रयोगशाला में उस पर प्रयोग वकये हैं, इसललए अब आप

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गेहँ-चािल भी पैदा नही कर सकते। हमारे यहाँ का वकसान फसल आने पर अगली
फसल के ललए भी उसी में से बीज के ललए रख लेता है और उसी से दूसरी बार की
फसल लेता है। लेवकन अब िे यह कहेंगे वक हमने अपनी प्रयोगशाला में उन बीजों का
उपचार (रीटमेण्ट) वकया है और हमने उसका प्रोडक्ट पेटेण्ट ललया है। हमारा वकसान
अपने बीज से खेती नही कर सकेगा, बीज उनसे खरीदना होगा। यदद उनके पास यह
जानकारी पहुँचती है वक भारत का वकसान अपने ही बीज का प्रयोग कर खेती कर रहा
है तो अमेररका की बहुराष्ट्रीय कूंपनी भारत सरकार को केिल एक पत्र द्वारा, भारत में
अपने ही खेत का बीज बो कर खेती करने िाले वकसानों को दस्थण्डत करने को ललखेगी।
सामान्य कानून के अनुसार तो आरोप करने िाले को अपना आरोप लसि करना पड़ता
है, इसे 'ओनस' (दाधयत्ि) कहते हैं। वकन्तु डूंकेल प्रस्ताि में इसके विपरीत प्राििान है।
आरोप करने िाली कूंपनी की आरोप लसि करने की द्धजम्मेिारी नहीं होगी। द्धजन पर
आरोप लगाया जायेगा, उन वकसानों को यह लसि करना होगा वक हमने अपने बीजों
का उपयोग नहीं वकया। यदद िे लसि न कर सकें तो िे हमारी ही सरकार के द्वारा दस्थण्डत
वकये जायेंगे। पेटेण्ट के सूंबूंि में यही कानून सब पर लागू होगा। हमारे िैज्ञावनक
रासायवनक खाद का वनमाजण नहीं कर सकेंगे, यहाँ तक वक हमारी अपनी आिस्यकता
की पूर्ति के ललए भी नही।

िमाऱी सम्प्रिुता को चुनौत़ी


डूंकेल का कानून हमारे दे श के वकसानों पर लागू हो, इसे हम लोग हमारी सािजभौम
सिा के ललए चुनौती मानते है। वकसान सूंघ के माध्यम से हम इसी बात पर सरकार का
विरोि भी कर रहे हैं। यह हमारी सम्प्रभुता पर आिमण है।
अब इसका उदाहरण दे खखए-भारत में पैदा हुए अनाज का समथजन-मूल्य क्या रहे, इसके
बारे में हमारा सरकार से झगड़ा है। हमारा कहना है वक सरकार भारत की है, हम भारत
के हैं, हम अपना झगड़ा आपस में वनपटा लेंगे। आज डूंकेल समझौता हमारी सरकार
को आदे श दे ता है। िह हमारी सरकार को वडक्टे ट' करता है वक सहायता-रालश
(सबलसडी) न बढ़ायी जाय। दूसरी ओर अमेररका में वपछले दो िषों में उन्होंने वकसानों
की सबलसडी' बढ़ायी है और हमारे ऊपर सबलसडी बद करने के ललए दबाि डाले जा रहे
हैं। हमें कहा जा रहा है मुक्त व्यापार के ललए, ओर अमेररका में सूंरक्षणिाद
(प्रोटे श्यवनज्म) चला रहे हैं, व्यापार को सूंरक्षण ददया जा रहा है। वफर बफर स्टॉक
भण्डारण के ललए जो अनाज खरीदना पड़ता है उसे बाजार भाि (माकेट प्राइस) पर ही

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खरीदने का हम पर बूंिन है और यह भी वक जो सािजजवनक वितरण प्रणाली है उसका
लाभ पोषण-स्तर के नीचे जो लोग हैं, केिल उन्हीं को धमले।
अब उनके ये सुझाि अच्छे या बुरे हैं, इसकी चचाज करना हम अभी अनािश्यक समझते
हैं। सरकार की आज नीवत खराब होगी तो हम उसके ललए झगड़ा कर लेंगे। सरकार
भारत की है, हम भारत के हैं और वकसान भी भारत के हैं। लेवकन हमारी कृवष-नीवत
विदे श में बैठा हुआ कोई व्यलक्त या सूंस्था वनिाजररत करे, यह तो हमारी सम्प्रभुता को ही
चुनौती होगी। अभी एक नेता हमें यह समझाने आये थे वक हमारे यहाँ की िैज्ञावनक
खोजों में उन्होंने जो बूंिन लगाये हैं, उनका आिार नैवतक है। इन साम्राज्यिादी दे शों के
हाथ बहुत लम्बे हैं। इनके जाल में कौन-कौन हैं, इसकी सूची बनाने के बजाय कोन-
कौन नही हैं इसकी सूची बनाना सरल होगा। उस वकसान-नेता' ने सािजजवनक रूप से
कहा वक हमारे िैज्ञावनक चोर हैं। बेचारे पत्तिमी दे शों के िैज्ञावनक पैसा खचज करते है,
अनुसन्धान करते हैं; उनके उन आविष्कारों को हमारे िैज्ञावनक चुरा लाते हैं और पैसा
कमाते हैं। उस महान', वकसान-नेता के ये िचन समाचार-पत्रों में भी प्रकालशत हो चुके
हैं। उसी नेता के एक लशष्य ने, जो अथजशास्त्र के प्राध्यापक हैं, कहा -- हमारे नेताजी का
कहना है वक आप अनैवतकता को बढ़ािा दे ना चाहते हैं। मैंने कहा वक हमारे िैज्ञावनक
चोर है या नहीं और उनके िैज्ञावनक पररश्रमी, उदार और प्रवतभािान हैं या नहीं, यह न
तो मैं जानता हँ न आप, और न ही आपके नेता जानते हैं। लेवकन वफर भी हम आपकी
बात मान लेते हैं वक हमारे िैज्ञावनक चोर हैं और उन्हें नैवतकता का पालन करना चावहए।
आपके नेताजी का यह कहना वक उन िैज्ञावनकों को प्राणदण्ड भी दे ना चावहए, यहाँ
तक भी मैं मान लेता हँ। अब आपसे थोड़ा मतभेद इस बात पर है वक हमारे िैज्ञावनक
को दण्ड दे ने का अधिकार वकसके पास हो? यह मेरा प्रश्न है। दण्ड दे ने का अधिकार
भारत सरकार को हो, भारत के न्यायालय के पास हो, जनता को हो। ऐसे अपरािों को
वनपटाने के ललए अलग से कोई व्यिस्था की जाये। वकन्तु भारत से बाहर के वकसी
व्यलक्त या सूंस्था को ऐसा अधिकार दे ना उलचत नहीं है। िह तो भारत की सम्प्रभुता पर
आिमण के समान है। हमने कहा वक यह आिमण हम सहन नहीं करने िाले हैं।

टू टत़ी अथथव्यवस्था को बचाने के छल-छद्म


इस प्रकार के विलचत्र तकज डूंकेल प्रस्ताि के पक्ष में ददये जाते हैं। इसकी पृष्ठभूधम हमें
समझनी होगी। िास्तविकता यह है वक उनकी अथजव्यिस्था आज टू ट रही है। िे अपना
आर्थिक साम्राज्य खड़ा करना चाहते हैं, लेवकन अपने बल पर नही। िे स्ियूं डू ब रहे हैं,

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इसललए विकासशील दे शों की प्राणिायु (आक्सीजन) के शोषण से िे अपने प्राण बचाना
चाहते हैं। विकासशील दे शों की कृवषमूंवडयों पर कब्जा करेंग,े अपने कृवष-उत्पादों से
उनकी मूंवडयाँ पाट दें गे। इस प्रकार इन दे शों के शोषण के द्वारा कुछ अधिक समय तक
जीवित रहें, यही उनका प्रयास है। तृतीय विश्व के दे शों का शोषण करते हुए, उन्हें मारकर
भी अपने को जीवित रखने का यह राक्षसी प्रयोग है। यह बड़े ही खेद की बात है वक
हमारे दे श के विचारिान् लोग इस षड् यत्रूं को नही समझ रहे।

इस प्रकार यदद हमारी कृवष और हमारी कृवष उपज मूंवडयाँ उनके हाथ में चली जाती
हैं, प्रोडक्ट पेटेण्ट िे ले लेते हैं, खाद्य प्रसूंस्करण (फूड प्रोसेचसिग) आदद सभी कुछ उनके
हाथ में जाने िाला है, इस पेटेण्ट के साथ ही हमारे ऊपर ऐसे बूंिन लगने िाले हैं तो
हम स्ितूंत्र, सािजभौम सिा-सम्पन्न राष्ट्र कहाँ रहेंगे?

डूंकेल ने कहा है वक आपके दे श में अनाज का विपुल मात्रा में उत्पादन होने के बाद भी
आपको २.२ प्र० श० से ३.३ प्र० श० अनाज का आयात करना ही होगा। हम पूछते हैं
- यह बताने िाले आप होते कौन हैं?
हमारे ऊपर जबरन आयात करने का बूंिन लगाने िाले आप कौन होते हैं? हमें यदद इस
प्रकार की शतें मानने के ललए वििश होना पड़ता है तो इसका अथज है वक उस सीमा तक
हमारी सम्प्रभुता पर आिमण हुआ है।

२ .व्यापाररक ननवेशों के उपाय का व्यापार


इसी प्रकार की अब दूसरी बात है पूज ूं ी-वनिेश-गवतविधियों की। पहले विदे शी व्यापार
पर बन्धन थे। विदे शी पूँजी वकतनी और कहीं लगे, इसके ललए वनयम थे। दे शी िन्धों को
सूंरक्षण ददया जाता था। अब तो विदे शी पूज ँ ी के ललए मुक्त द्वार हो गया है। आपने
टॉमको और गोदरेज के उदाहरण (नाम) सुने होंगे। आज भारत के सभी क्षेत्रों में विदे शी
पूँजी लगाने िालों को छू ट दी गयी है। जहाँ टॉमको और गोदरेज जैसी बड़ी कूंपवनयाँ
उनके सामने नही दटक सकीं, क्या हमारे लघु उद्योग इस विदे शी आर्थिक आिमण के
सामने दटक पायेंगे? हमारा करघा उद्योग, हमारे कुटीर उद्योग, सभी कुछ चौपट हो
जायेंगे। हमारा सारा औद्योवगक क्षेत्र बहुराष्ट्रीय कम्पवनयों के हाथ में चला जायेगा। उनके
एकस्िीकरण (पेटेण्टाइजेशन) से हमारे यहाँ अनुसन्धान के ललए कोई क्षेत्र ही नहीं

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बचेगा। प्रयोगशालाएूं बूंद होंगी, िैज्ञावनक बेकार होंगे, हमारी कृवष चौपट होगी। इस
प्रकार सम्पूणज दे श आर्थिक दासता में जकड़ ददया जायेगा।

सत्तािाररयों से गुप्त सााँठ-गााँठ


एक बात और भी ध्यान में रखने की है वक उनका प्रचार अवतसूक्ष्म और दूरगामी पररणाम
करने िाला होता है। हमारी सरकार ने अभी कहा वक डूंकेल प्रस्ताि के सूंबूंि में अभी
हमने अपना मत-वनिाजरण (माइण्ड मेकअप) नहीं वकया है, वनणजय नहीं ललया है। आप
सबसे बात करेंगे, सबको विश्वास में लेंगे। सरकार ने यह भी कहा है वक हमने अभी
डूंकेल प्रस्ताि स्िीकार नही वकये हैं। वकन्तु सरकार ने हस्ताक्षर न करते हुए भी डूंकेल
के प्रस्तािों को शनै-शनै:: मानना प्रारम्भ कर ददया है। सबसे पहले वकसानों को सबलसडी
दे ना बूंद करने की शतज मान ली। वकसानों के आन्दोलन के दबाि में आकर उसमें अभी
थोड़ी ढील दी है। वफर सािजजवनक वितरण, प्रणाली के विषय में जो डूंकेल ने कहा है
िह अक्षरश: स्िीकार वकया। डूंकेल की शतें तो बजट में स्िीकार कर ली हैं, अब इस
हस्ताक्षर न करने का क्या अथज रह गया हे?
हमें कुछ विकासशील दे शों के दे शभक्तों के साथ धमलने का अिसर प्राप्त हुआ। दे श थे
- चसिगापुर, मलयेलशया, वफललपीन और श्रीलूंका। उन्होंने कहा - अब हमारी समझ में
आया वक विदे शी पूँजी और हमारे दे श के नेताओं की पहले से ही साँठ-गाँठ थी। आर्थिक
समझौती के विषय में जनता को अन्धेरे में रखा गया। डूंकेल के साथ समझौते के ब्योरे
की जानकारी लोगों को कभी न कभी तो होगी ही और िह ज्ञात होने पर जनता कही
विद्रोह न कर बैठे, इसललए उन्होंने डूंकेल से अनुरोि वकया है वक हम तो आपकी सारी
शतें मानने िाले हैं वकन्तु यह िीरे-िीरे ही जनता के गले उतर सकेगा। जैसे पोस्टकाडज
पाँच पैसे का, वफर ११ पैसे का। िीरे-िीरे लोग अभ्यस्त हो जाते हैं। जैसे वकसी को
कड़िी दिा वपलाते समय एक बार शहद, वफर दिा, वफर शहद -- इस िम से पूरी
खुराक ही वपलायी जाती है। ऐसा शनै-शनै: करना पड़ेगा, अन्यथा हमें ही जनता उखाड़
फेंकेगी और वफर आने िाली सरकार आपकी बातें मान ही लेगी इसकी कोई गारण्टी
नहीं।

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डंकेल की िूतथता
डूंकेल ने एक चाल चली है। जहाँ आई० एम० एफ०, िर्ल्ज बेंक, तथा बहुराष्ट्रीय कूंपवनयों
के साथ हुए अनुबन्धों में नयी सूंसद् या नया सिािारी दल पररितजन कर सकते हैं, िहाँ
डूंकेल के साथ हुए अनुबन्ध में सिा में आनेिाला दूसरा कोई भी दल, चाहे िह भाजपा
ही क्यों न हो, उसके स्िरूप में अिजविराम का भी पररितजन नहीं कर सकेगा। सूंसद् को
भी इसका अधिकार नहीं होगा। इस प्रकार भािी पीदढ़यों को भी आर्थिक दासता के
चशिकजे में जकड़ दे गा यह डूंकेल प्रस्ताि। समाचारपत्र यह बात नहीं बताते। अधिकाूंश
लोगों को यह पता ही नही है वक एक बार अनुबन्ध (एग्रीमेण्ट) होने के बाद उसे बदला
नही जा सकेगा। िे समझते हैं वक भाजपा के सिा में आने के बाद हम सब बदल दें गे।
हम आई ० एम० एफ ०, िर्ल्ज बैंक और मल्टीनेशनल्स के साथ हुए समझौतों को बदल
सकते हैं, वकन्तु 'गैट' को नही, और बदलना ही हो तो युि के ललए तैयार होना होगा या
आर्थिक बवहष्कार का सामना करना होगा।

दे शिधि िो तो कुछ ि़ी अशक्य निीं


प्रलसि उद्योगपवत श्री घनश्यामदास वबड़ला ने एक बार कहा था वक हम अन्तरराष्ट्रीय
सूंबूंिों की बातें बहुत वकया करते है, वकन्तु मान लीद्धजए वक शेष दुवनया से हमारा सूंबूंि
टू ट गया तो भी हमारी जनशलक्त इतनी है, हमारे सािन-स्रोत इतने हैं, हमारे पास
प्रवतभािान् लोग इतने हें वक भारत स्ियूं एक विश्व है। व्यापाररक दृधष्ट से भी अन्तरराष्ट्रीय
सूंबूंि टू ट जाने के बाद भी हम अपना घरेलू बाजार (डोमेप्स्टक माकेट) चला सकते हैं।
और यह भी सच है वक जापान और जमजनी आज पुन: जो एक आर्थिक शलक्त के रूप
में उभरकर आये हैं िह सब राष्ट्रभलक्त- जागरण के कारण ही हो सका है। उन्होंने अपने
लोगों में राष्ट्रभलक्त जागृत की थी। इसी प्रेरणा से लोगों ने अधिक कष्ट सहे, पेट काटकर
बचत की और राष्ट्र की सम्पत्ति में िृद्धि की। हमारे यहाँ राष्ट्रभलक्त की कमी होने के
कारण इस दे श में लोग काम नही करना चाहते, बचत करना नहीं चाहते। राष्ट्रभलक्त का
वनमाजण होने पर राष्ट्र का प्रत्येक घटक सिजतोभािेन राष्ट्र को िैभिशाली बनाने के ललए
अधिकाधिक त्याग और कष्ट झेलने को प्रस्तुत हो जाता है। राष्ट्रभलक्त जागृत होने पर
कैसे चमत्कार होते हैं, इसका एक उदाहरण मैं जमजनी का दे ता हँ : आज हम द्धजस गयी-
बीती अिस्था में हैं, उससे भी खराब हालत जमजनी की थी। सन् १९१४ से १८ तक के
प्रथम महायुि में जमजनी बुरी तरह परास्त हुआ था। उसके उद्योग नष्ट हो चुके थे। िह

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एक कृवष-प्रिान दे श बन गया था। युि के कारण जमजनी एक ऋणग्रस्त दे श बन चुका
था और उस कजज की वकश्तें भी नही चुका पा रहा था। लगातार १ ४- १५ िषज तक यह
स्थस्थवत बनी रही। यद्यवप हम उनके राजनीवतक तत्त्िज्ञान से सहमत नहीं हैं, वफर भी
ऐसी आर्थिक दुगजवत से उबरने के ललए जमजनी ने क्या वकया था, यह दे खना रोचक होगा
क्योंवक केिल इसी से हमारा सूंबूंि है। वहटलर ने सिाप्राप्प्त के बाद एक वनष्पक्ष
अथजशास्त्री डॉ० शेक्ट को अपना अथजमूंत्री बनाया। ये डॉ० शेक्ट बहुत बुद्धिमान् थे। द्धजन
दे शों के साथ पहला महायुि िे लड़े थे और द्धजनके साथ दुबारा महायुि लड़ने की
आशूंका थी, उन्हीं के ऋणभार से जमजनी दबा हुआ था। उन्हीं दे शों के प्रमुखों के पास
जाकर डॉ० शेक्ट ने कहा वक क्या आप यह विश्वास करते हैं वक जमजनी आज द्धजस
प्रकार कृवष-प्रिान दे श बन गया है, आपका कजज कभी चुका सकेगा? उन राष्ट्र-प्रमुखों
ने कहा वक है तो यह असूंभि, लेवकन वफर इसका उपाय क्या है? डॉ० शेक्ट ने कहा
वक आप हमें और कजज दीद्धजए, उससे हम दे श का औद्योगीकरण करके राष्ट्रीय सम्पत्ति
बढ़ायेंगे। िह कुछ हमारे राष्ट्र की उन्नवत करने के काम में आयेगी और कुछ आपका कजज
चुकाने में। उन राष्ट्र-प्रमुखों ने कहा वक यह हो तो सकता है, वकन्तु आपको हमारी कुछ
शतें माननी होंगी। उनकी शतज थी वक हमारे द्वारा ददये जाने िाले कजज की एक पाई भी
युिक शस्त्रों के वनमाजण में खचज नहीं होनी चावहए, और शतज का पालन वकस प्रकार हो
रहा है यह दे खने के ललए पैसा दे ने िाले सब दे शों के गुप्तचर जमजनी में तैनात कर ददये
गये। सन् १९३३ में हुए इस समझौते के बाद केिल छ: िषज में जमजनी ने सारा निा ही
बदल ददया। जमजनी ने उद्योग प्रारम्भ वकये। युिक शस्त्रों के वनमाजण के कारखाने नहीं
चलाये। जमजनी को कजज दे ने िाले राष्ट्रों के गुप्तचर वनरीक्षण कर रहे थे। उसमें से भी
जमजन राष्ट्र ने मागज वकस प्रकार वनकाला, इसका एक उदाहरण दे खखए: एक बाबा गाड़ी
(बच्चों की गाड़ी) की फैक्टरी थी। िहाँ का एक मजदूर था। उसे पुत्र होने पर एक बाबा
गाड़ी की आिश्यकता अनुभि हुई। िह अपनी फैक्टरी के वित्तभन्न विभागों से यह
सोचकर एक-एक पुजाज ले आया वक घर पर ही उन्हें जोड़कर एक बाबा गाड़ी बना लेंगे।
रात में पवत-पत्नी दरिाजा बद करके बाबा गाड़ी बनाने जब बैठे तो वकसी प्रकार से भी
पुजे जोड़ने पर बाबा गाड़ी तो नहीं, राइफल ही बनती थी। केिल छ: िषों में अथाजत्
१६३९ में जमजनी ने कजज दे नेिाले राष्ट्रों को महायुि की चुनौती दे डाली। प्रत्येक नागररक
में वकतनी प्रखर राष्ट्रभलक्त रही होगी वक अनेक राष्ट्रों के गुप्तचरों के द्वारा कड़ी दृधष्ट रखी
जाने पर भी िह राष्ट्र युि के ललए आिश्यक लसिता, कर सका और एक ददन सूचना
घोवषत की गयी वक वहटलर एक वनत्तित वतलथ को महत्त्िपूणज घोषणा करेंगे। वहटलर ने

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उस ददन घोषणा कर दी वक हमारा राष्ट्र ददिाललया (इनसॉल्िेंट) हो गया है, वकसी का
एक पैसा भी हम नहीं दे सकते। इसका अथज हुआ वक लेना हो तो युि करके ही ले
सकते हो।
क्या हमारी ऐसी लसिता है? इस प्रकार की प्रखर राष्ट्रभलक्त जनता में और प्रचण्ड
इच्छाशलक्त सरकार में हो तो दोनों का परस्पर सहयोग होने पर हम इस आकण्ठ कजज
की दलदल में से वनकल सकते हैं।
अूंत में एक बात और बताकर में अपना कथन पूरा करूूंगा। लोगों को भ्रधमत करने के
ललए बहुत ददनों से एक कुतकज ददया जा रहा है वक डूंकेल प्रस्ताि में अनेक अवनष्ट बातें
होंगी, वकन्तु कुछ अच्छी भी तो होंगी, उनका भी तो विचार वकया जाना चावहए। मनुष्य
को एकाूंगी विचार नहीं करना चावहए, सन्तुललत विचार रखना चावहए, वहन्दु मानस को
यह तकज तुरन्त प्रभावित करता है। सन्तुललत विचार की बात करने िालों से यदद यह पूछें
वक आपने डूंकेल प्रस्ताि पूरा पढ़ ललया है क्या? तो कहते है- पढ़ा तो नही, वकन्तु यह
कुछ अवतिादी विचार ददखता हे। लोग जब यह कहते हैं वक डूंकेल प्रस्ताि में जो अच्छी
बातें हैं, उन्हें ले लेना चावहए, तब िे यह भूल जाते हैं वक यह 'पैकेज डील' (एकमुश्त
समझौता) है। यह ठीक है वक इस डर से वक कही आज ही जनता विद्रोह करकें ितजमान
राज्यकताजओं को हटाने को बाध्य न हो जाय, िीरे-िीरे पग बढ़ाये जा रहे है। इसके ललए
विदे शी पूजँ ी और ितजमान शासक साँठगाँठ करके िीरे-िीरे कुछ शहद वफर कड़िी दिा,
वफर शहद चटा-चटाकर यह डूंकेल प्रस्ताि लोगों के गले उतार रहे हैं, वकन्तु यह है तो
एक पैकेज डील। इसका अथज आप समझते हैं? उदाहरण के ललए एक लड़का है, एक
लड़की है। दोनों ही अवत सुन्दर हैं, वकन्तु लड़के को कूबड़ है। क्या आप लड़की को यह
समझा सकते हैं वक तुम लड़के के सुन्दर चेहरे को स्िीकार करो और उसके कूबड़ को
छोड़ दो। अरे, वििाह करना होगा तो दोनों बातों को स्िीकार करना पड़ेगा। डूंकेल
प्रस्ताि भी ऐसा ही पूरा एक पैकेज डील है। लोग इसे समझते नही। उन्हें भ्रधमत वकया
जा रहा है।
अब इसे मैं यह कहकर यही समाप्त करता हँ वक ये जो हमारे नेता आज कह रहे हैं वक
िमज को राजनीवत में हस्तक्षेप नही करना चावहए, इसका स्पष्ट अथज यह है वक िे राजदण्ड
पर िमजदण्ड का अूंकुश चाहते नहीं। उसी प्रकार िे अथजनीवत को भी िमज से अनुशालसत
नही होने दे ना चाहते। यह िमज का ही क्षेत्र है। “िमाजदथजि कामि” - ऐसा कहा गया है।
इसललए यह िमज का ही दाधयत्ि है वक हमारे दे श की अथजनीवत कैसी चले।

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साविान!
भारत यिन आिमणकाररयों से अपने को लगभग मुक्त कर चुका था, अथाजत् ददल्ली
की मुगलशाही कठपुतली मात्र रह गयी थी। उस ही समय इूंगलैंड से अूंग्रज
े यहाँ व्यापारी
बनकर आया और अपना जाल फैला ददया। उस समय का लचत्र इस प्रकार अूंवकत है :-
-
ललये हाथ में बाट-तराजू, एक विदे शी फेरीिाला --
हमने दे खा दीन-दुखी है, घर में ठौर उसे दे डाला।
यह लो खाना, यह लो पानी, यह लो विस्तर, यों समझाया;
दे ख हमारा िैभि भारी, उसके मन में पाप समाया।
गहरी वनद्रा में सोते थे, हम सब अपने पैर पसारे;
चोर-उच्चकों का डर क्या था, द्वार खुले थे घर के सारे।
दे ख हमें यों वनभजय सोता, चुपके से िह भीतर आया,
जूंजीरों से जकड़-जकड़ कर, बन्दी उसने हमें बनाया।
नींद खुली, तब हमने दे खा, ऐं, यह तो मेहमान िही है;
िही तराजू, बाट िही है, वबिी का सामान िही है।
वकन्तु अरे, ये तेग-तमूंच!े इन्हें कहाँ से यह ले आया?
अब समझे हम, हाय कमर में था िह उसने कभी लछपाया।
क्या करते? अब हाथ बँिे थे, भूल हुई थी हमसे भारी;
हम समझे व्यापारी, िह था कपटी, डाकू, अत्याचारी।

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स्िातन्त्रय के बाद आज वफर से िैसा ही सूंकट दे श के सामने खड़ा है। अमेररका के
नेतृत्ि में पूँजीिादी दे श डूंकल प्रस्ताि ि अन्य समझौतों के माध्यम से अपने षड् यूंत्र
फैला रहे हैं। आज हम इन कपटी व्यापाररयों को दे श में प्रिेश न करने दें और विचार
करें :
आज उसी के सूंगी-साथी, जहाँ-तहाँ पर लूट मचाते;
बड़े-बड़े हलथयार जमा कर, दुवनया भर में रोब जमाते।
िैसे, कुछ आपस की उनमें छीना-झपटी मची हुई है;
पर यह सब तो धमलीभगत है, गोरी चमड़ी गढ़ी हुई है।
डूंकल प्रस्तािों की साद्धजश-बँिी रहे यह दुवनया सारी;
द्धजनके बीज चुराये पहले, उनसे लेगा कीमत भारी।
भारत में भी यही ताकतें, गृि-दृधष्ट से झाँक रही हैं।
आपस में हम लड़-त्तभड़ जायें, ऐसा अिसर ताक रही हैं।
स्ितन्त्रता पर आया खतरा, बुद्धि-युलक्त से कर लें दूर;
करें स्िािलम्बी भारत को, ललये स्िदे शी-व्रत भरपूर।
' जो होता है होने दो जी' ', यह तो पौरुषहीन कथन है;
' जो हम चाहेंगे, िह होगा'', यह कहने में ही जीिन है।
अपना दे श, िररत्री अपनी, अपने खेत, पहाड़ जगायें,
साििान हो घर-घर जाकर जयतु स्िदे शी नाद गुज ँ ायें।
जयतु स्िदे शी नाद गुज ँ ायें।
-रमाशूंकर अखग्नहोत्री

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