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कृ ण क आ मकथा-७

संघष
मनु शमा
आ मक य
िनयित ने हमेशा मुझपर यु थोपा—ज म से लेकर जीवन क अंत तक। य िप मेरी मानिसकता सदा यु -िवरोधी
रही; िफर भी मने उन यु का वागत िकया। उनसे घृणा करते ए भी मने उ ह गले लगाया। मूलतः म यु वादी
नह था।
जब से मनु य पैदा आ तब से यु पैदा आ—और शांित क ललक भी। यह ललक ही उसक जीवन का
सहारा बनी। इस शांित क ललक क ह रयाली क गभ म सोए ए ालामुखी क तरह यु सुलगता रहा और
बीच-बीच म भड़कता रहा। यही मानव स यता क िवकास क िनयित बन गया।
लोग ने मेर यु वादी होने का चार भी िकया; पर मने कोई परवाह नह क , य िक मेरी धारणा थी—और ह
िक मानव का एक वग वह, जो वैमन य एवं ई या- ेष क वशीभूत होकर घृणा और िहसा का जाल बुनता रहा—
यु क ह वह, यु वादी ह वह। पर जो उस जाल को िछ -िभ करने क िलए तलवार उठाता रहा, वह कदािप
यु वादी नह ह, यु क नह ह।...और यही जीवन भर म करता रहा। म यु क फन पर भी शांित क वंशी बजाता
रहा।
एक
महिष वेद यास क भिव यवाणी से युिध र इतने उि न हो गए थे िक वे मुझे छोड़ना नह चाहते थे। सभी लोग
चले गए। यहाँ तक िक पूर ह तनापुर क िबदाई हो गई, िफर भी वे मुझे रोक रह। रह-रहकर उनक मन म महिष
क एक ही बात मथ रही थी िक पांडव पर आनेवाली िवपि क मूल म तु ह रहोगे। जब भी मने ारका जाने क
बात कही तब ही उ ह ने मुझे यह कहकर रोक िलया िक अभी तुमसे गंभीर मं णा करनी ह।
यह तो किहए िक िशशुपाल क वध क बाद जब छदक से मुझे सूचना िमली िक िशशुपाल क सार िम
अचानक अ य हो गए ह, तो म सावधान आ। िपताजी क साथ ही ु न, अिन आिद को तुरत ारका
भेजा। म तो बलराम भैया को भी भेज रहा था; पर वे हमेशा क तरह मुझे छोड़कर जाना नह चाहते थे।
मने ु न को एकांत म ले जाकर सतक करते ए कहा, ‘‘तुमने देखा नह , िशशुपाल क धराशायी होते ही उसक
िम यहाँ से एकदम अ य हो गए।’’
‘‘वे डर क मार भाग गए ह गे।’’ उसका कहना भी सहज सोच क बाहर नह था।
‘‘पर भय त नाग सामा य नाग से अिधक खतरनाक होता ह। अवसर िमलते ही आ ामक हो जाता ह और िबना
बदला िलये चैन नह लेता।’’ मने उससे यह भी कहा, ‘‘प क वासुदेव क िचंता नह ह और न िचंता ह दंतव
क । मुझे यिद कोई य अिधक िचंितत कर रहा ह तो वह ह शा व। वह िशशुपाल क िम म सबसे घिन
और सबसे श शाली ह। वह यहाँ आया भी था; पर आ यजनक प से चुप रह गया था। वह माितकावत
(आबू पहाड़ी क िनकट का देश) का अिधपित ह। ारका से िनकट ह। वह हमार देश पर आ मण करने से
चूकगा नह । जब उसे पता चलेगा िक म ारका म नह तब उसक नीचता और ग भ हो उठगी। इसिलए
उससे सावधान रहने क अिधक आव यकता ह। वह िकसी भी समय कछ भी कर सकता ह।
उन लोग क साथ ही मने अपने सारिथ दा क एवं छदक को भी भेज िदया था; िफर भी म शा व क श
और साम य से िचंितत था। मेरी य ता ारका क सुर ा को लेकर थी। पर या करता! मुझे महाराज युिध र
क घबराहट ऐसे जकड़ थी िक या बताऊ।
वे मुझे िशिवर से िनकालकर अपने ासाद म ले गए।
आज सं या से ही मेघ छाए थे। रात होते-होते घनघोर वषा होने लगी। आषाढ़ क बादल ऐसे उमड़-घुमड़कर
ब त कम ही इ थ पर छाते ह गे जैसे आज छाए थे। अँधेरा और भी गाढ़ा हो गया था। जैसे अंधकार पर भी
िकसीने कािलख पोत दी हो। आकाश क याम पट पर तड़पती ई िबजली जब योित ऋचा िलखती और पुरवैया
उसे तुरत प छ देती तो मुझे ब त अ छा लगता। पता नह य अंधकार से मेरा बड़ा लगाव था। पैदा होते ही कित
ने अंधकार ही मुझे स पा था, शायद अनजाने ही आज तक उसे म अपनी मानिसकता से लगाए ए ।
पयक पर पड़ा-पड़ा म वषा क इसी मोहक पंच म खोता रहा। सोचता िक मेरी ही यह थित नह ह। वैिदक
युग का मानव भी जब अंधकार से ऊब गया होगा, तभी उसने ाथना क होगी—‘तमसो मा योितगमय’—मुझे
अंधकार से काश क ओर ले चलो। वैिदक मनु य अंधकार से ऊबा था; िकतु मुझे अंधकार से ऊब नह होती। म
तो उसीको जीता , उसीको पीता । शायद तभी तो मुझे काश उगलने क श भी िमलती ह।
म अपने िचंतन म इतना त ीन था िक क क दीपदान म कब योित जलाई गई और कब वायु क झ क ने
उसे बुझा िदया, कछ पता नह चला।
मेर िचंतन को झकझोरा महाराज युिध र क आवाज ने—‘‘म तो अंधकार म था ही, तुम भी अँधेर म पड़ हो!’’
‘‘अंधकार ही तो मेर जीवन का साथी ह।’’ मने कहा और उठकर खड़ा हो गया। इसक बाद वे कछ नह बोले।
चुपचाप उसी पयक पर मेर साथ बैठ गए।
मौन का यह अंतराल न तो ब त लंबा था और न ब त उबाऊ; य िक इठलाती कित का स मोहन हम घेर रहा।
‘‘अँधेर म ही रहगे?’’ महाराज बोले।
‘‘ या बुरा ह!’’ मने कहा, ‘‘और ार क बाहर तो मशाल जल ही रही ह।’’
िफर भी महाराज ने करतल विन कर ितहारी को बुलाया और दीपदान को पुनः िलत करने को कहा। य िप
हवा अब भी तेज थी और वषा क झ क वातायन से आ रह थे।
‘‘म भी काश क खोज म िनकला ।’’ युिध र बोले। उनका वर िचंता से बोिझल था। उ ह ने कहा,
‘‘ ारकाधीश, जब से महिष से सुना ह िक हर िवपि का मूल कारण म ही बनूँगा तब से मेरी य ता ब त बढ़
गई ह। सोचता , सं यास ले लूँ।’’
‘‘ य ?’’
‘‘न रहगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी।’’ युिध र बोले, ‘‘जब मूल ही नह रहगा तब फल-फल कहाँ से आएँगे!
पांडव पर िवपि का आधार ही समा हो जाएगा।’’
मुझे हसी आ गई। म बोला, ‘‘तब आप सं यासी होकर पांडव क िलए िवपि बनगे।’’ अब मेरी आवाज कछ
और तेज ई—‘‘जब देिखए तब आप सं यासी होने क बात शु कर देते ह। यह पलायनवादी कित एक ि य
को शोभा नह देती। जीवन से भािगए नह , जीवन को भोिगए। आप िवपि से िजतना मुँह िछपाएँगे, िवपि उतनी
ही आपक सामने खड़ी िदखेगी।’’
‘‘तब बताइए िक म या क ?’’
‘‘आप जैसे धमिन और अनुभवी को भी बताने क आव यकता पड़गी!’’ मने मुसकराते ए युिध र क
दुबलता क ओर संकत भी िकया और उ ह सावधान भी िकया—‘‘आप तो जानते ह िक राजनीित चौसर का खेल
ह, िजसम आप द भी ह और जो आपको ि य भी ह। िजसम एक चतुर िखलाड़ी कवल गोटी पर ही यान नह
देता वर पासे फकते समय िवरोधी क हाथ पर भी यान रखता ह। इसीिलए राजनीित जो ह उसपर ही नह , जो
होने वाला ह उसक पूवाभास पर भी यान देती ह।’’
युिध र अब भी गंभीर थे। मुझे िव ास था िक चौसर क बात कहने पर वे अपनी हलक -फलक िति या
य करगे—और नह कछ हो सकगा तो मुसकराएँगे अव य, तनाव ढीला होगा; पर उनम कोई प रवतन नह
आ वर वे और िचंितत हो बोले, ‘‘जो होने वाला ह, उसीक पूवाभास ने तो मुझे परशान कर िदया ह।’’
‘‘परशान मत होइए। कवल सावधान होइए।’’ मने कहा, ‘‘मृ यु अव य संभावी ह, यह एक स य ह; पर मृ यु से
परशान रहनेवाला य जीवन को भोग नह सकता। मृ यु से सावधान रिहए और जीवन को आनंदपूवक
भोिगए।’’
युिध र क गंभीरता अब भी नह बदली। िफर अचानक मुझे लगा िक क क बाहर कोई य टहल रहा ह।
मने महाराज युिध र से कहा, ‘‘शायद आपको कोई बुलाने आया ह।’’
‘‘इस समय मुझे कौन बुलानेवाला हो सकता ह?’’
‘‘अब म कसे क िक कौन बुलानेवाला होगा!’’ मेरी हसी बड़ी किटल थी—‘‘वह वाला भी हो सकता ह और
वाली भी।’’ िफर भी मेरा यं य युिध र क सहजता ने नह समझा। मुझे कछ और प करना पड़ा—‘‘हो
सकता ह, ौपदी आपको बुलाना चाह रही हो।’’
मुझे थोड़ी सी सफलता िमली। युिध र क आकित पर मुसकराहट उभरी।
वे बोले, ‘‘इस गंभीरता म भी आपको प रहास सूझता ह! यह तो सोिचए िक म नाग क फन पर खड़ा ।’’
‘‘और म कािलय क फन पर नृ य कर चुका ।’’ मने कहा, ‘‘यिद आप मृ यु क गोद म भी मुसकराएँगे तो वह
भी मुसकराती ई िदखाई देगी।’’ िफर मने अचानक मु ा बदली—‘‘इतना लथपथ अँधेरा, इतनी भीगी रात, ऐसी
मादक ऋतु और इतनी वासना से वािसत वायु! अर, आपको भले ही िवचिलत न कर, पर ौपदी को तो बेचैन कर
रही होगी।’’
‘‘ ौपदी क िलए म ही थोड़ ही ।’’ उ ह ने मुसकराते ए बड़ सहजभाव से कहा। मुझे लगा िक वे अपनी य
मानिसकता से लगभग मु हो रह ह।
मने िफर कहा, ‘‘ ौपदी न होगी, पौरवी (युिध र क दूसरी प नी) होगी; पर ह कोई-न-कोई अव य; य िक
ितहारी ार क भीतर झाँक-झाँककर लौट जा रहा ह। वह समझ रहा ह िक हम लोग िकसी गंभीर मं णा म य त
ह। हम रोकना उिचत नह ह।’’
इसी बीच उसने एक बार िफर झाँका। अब युिध र ने उसे देख िलया। उसे बुलाकर पूछा।
उसने बताया—‘‘कह से एक चर आया था। वह ारकाधीश को पूछ रहा था।’’
‘‘इस बरसाती अँधेरी काली रात म!’’ युिध र बोले।
ितहारी ने बताया—‘‘वह पानी से भीगकर लथपथ था।’’
‘‘तो उसे बुलाओ।’’ मेरा िचंतन उ ेिलत हो उठा।
‘‘मने उससे आ ह िकया था िक वह आपसे िमले।’’ ितहारी बोला, ‘‘तब उसने कहा िक म िमलकर या
क गा! आप मेरा संदेश उनसे कह दीिजएगा।’’
‘‘तो या ह उसका संदेश?’’ मने पूछा।
‘‘उसने बड़ा अशुभ समाचार सुनाया ह।’’ इतना कहकर ितहारी ने मेरी ओर देखा। िफर िहचिकचाते ए धीर से
बोला, ‘‘उस चर ने बस इतना कहा िक ारकाधीश क पू य िपताजी का अपहरण हो गया ह।’’
‘‘अर, यह कसे आ?’’ युिध र तो चिकत रह गए।
ितहारी ने कहा, ‘‘मने उससे अनेक न िकए। कब आ? कहाँ आ? कसे आ? पर उसने कछ उ र नह
िदया। कवल इतना बोला िक ‘मने जो कहा ह, आप ारकाधीश से कह दीिजएगा।’ इतना कहने क बाद उसने
अपना अ मोड़ा और चला गया।’’
‘‘तुमने उससे यह भी नह पूछा िक िकसने उसे भेजा ह?’’ युिध र बोले।
‘‘यह भी बताने को वह तैयार नह था।’’
‘‘कोई बात नह । नह बताया तो नह सही।’’ मने कहा, ‘‘मने समझ िलया िक िकसने उसे भेजा ह!’’
‘‘तो िकसक ारा वह भेजा गया था?’’ युिध र ने पूछा।
‘‘अ क ारा।’’ मने कहा और हसने लगा।
‘‘तुम इस दुःखद सूचना क बाद भी हस रह हो!’’ युिध र चिकत थे।
‘‘जीवन म जब कभी म रोया ही नह तब हसूँ नह तो और या क !’’ मने हसते ए ही कहा, ‘‘मेर माता-िपता
तो कहते ह िक म ज म क बाद भी नह रोया था। मेरी िकलकारी म ही उ ह िकसी देव व क दशन ए थे।’’
मेरी हसी पर युिध र चम कत थे; जबिक वे वयं परशान थे। वह कौन था? कहाँ से आया था? आिद न
उनक मन म उबलने लगे थे।
धमराज को अिधक य देखकर मेर मन म आया िक कह दूँ िक यह मेरी सम या ह, मुझपर छोिड़ए। आप
अिधक परशान मत होइए। पर, म ऐसा कह नह पाया; य िक वह मुझसे बड़ थे। मेरी िश ता अभ ता का
सीमो ंघन करने क प म नह थी।
मने बस इतना पूछा, ‘‘आप इतने परशान य ह?’’
‘‘ऐसी िचंताजनक सूचना और म य न होऊ!’’
‘‘यह सूचना गलत भी हो सकती ह।’’
‘‘यह तुम कसे कह सकते हो?’’
‘‘यिद सूचना सही थी तो वह य का य नह ? उसने मेरा सामना य नह िकया? दूसर, िपताजी तो ु न
और अिन क साथ गए ह। उनक साथ छदक भी गया ह। इन लोग क रहते िपताजी का अपहरण मुझे तो संभव
नह लगता।’’ म अपनी मुसकराहट क साथ सहजभाव से बोलता रहा—‘‘यह तो प ह िक वह चर ारका से
नह आया था और न मेर िकसी िम ारा भेजा गया था। यह मेर िकसी श ु क म त क क ही उपज ह, िजससे
म अपना संतुलन खो बैठ।’’
‘‘आपक म ऐसा कौन हो सकता ह?’’
‘‘शा व क अित र ऐसा कौन हो सकता ह!’’ मने कहा, ‘‘िशशुपाल वध क बाद तो वह घायल िसंह क तरह
तड़प रहा होगा।’’
‘‘पर उस समय तो वह भी उप थत था, जब िशशुपाल िववाद म उलझा था। वह तो एक श द नह बोला।’’
युिध र ने कहा, ‘‘जबिक प क वासुदेव और दंतव क िववाद सि य थे।’’
‘‘और उसका िवरोध िन य।’’ मने कहा, ‘‘जबिक सारी योजना क पीछ बुि उसीक रही होगी। िशशुपाल तो
मा पु तक क भूिमका था। उसक आ ामक होते ही मुझे शा व क हमले का सामना करना पड़ता। तब तो सब
खड़मंडल हो जाता। आपक अनु ान म भी यवधान पड़ता। आपने देखा नह िक िशशुपाल अपना अ िनकाल
नह पाया। वह मेरी बात म ही उलझा रह गया और मने च चला िदया! मेरा वह आ मण अ यािशत था। सब
भ च क रह गए। िफर मेरी रता का नाटक और यह उ ोष करना िक ‘कोई िहलेगा नह , जो जहाँ ह वह बैठा
रह। शव को पड़ा रहने दो।’...िफर मेरी ललकार—‘यिद िशशुपाल का कोई समथक हो तो आगे आए।’ मेरी उन
सारी ि या ने इतना भय और आतंक पैदा कर िदया था िक वह उस समय न कछ बोल पाया और न कछ कर
पाया। चुपचाप चला गया।’’
कछ समय तक चुप रहकर म शा व क िवषय म सोचता रहा। युिध र भी मौन ही रह। िफर म बोला, ‘‘वह
िकतना बड़ा दु ह, इसका अनुमान आप लगा नह सकते।’’ तब मने उ ह मणी-हरण क घटना सुनाई
—‘‘उस समय तो िशशुपाल, जरासंध और शा व—तीन थे। एक ाण, तीन देह। उस समय भी मने ऐसी ि ता
और चपलता िदखाई थी िक तीन िखिसयानी िब ी क तरह खंभा नोचते रह गए थे।’’
‘‘तब तो बड़ झुँझलाए ह गे!’’ युिध र बोले।
‘‘आप झुँझलाने क बात करते ह!’’ मने कहा, ‘‘मेर गु चर ने सूचना दी िक आपक चले जाने क बाद शा व
और जरासंध मंिदर म गए थे। उ ह ने ािभषेक िकया था। शा व ने अ यथना क िक ‘ह देवािधदेव देव,
तुम मुझे ऐसी श दो िक म पृ वी से यादव को समूल न कर सक।’ ’’
‘‘तब तो वह बड़ा भयंकर ह।’’ युिध र बोले।
‘‘भयंकर भी नह , भयंकरतम।’’ मने कहा, ‘‘वह यु क सार िनयम तोड़ते ए यु करता ह। उसका िव ास
मानव यु म नह , रा सी यु म ह।’’
युिध र चुप थे। देखने से लग रहा था िक उ ह गंभीर प से िचंता हो गई ह। म उ ह बड़ सहजभाव से
तनावमु करते ए बोला, ‘‘आप िब कल िचंता न कर। यह मेरी सम या ह और म इसे देख लूँगा।’’
इस बीच हवा का तेज झ का आया और मेर क म जलते दीप म से दो एक साथ बुझ गए। मने उनक ओर
संकत िकया और प रहास म बोला, ‘‘दीप बुझ गए तो जलाने पर जल भी जाएँगे। यिद वे बुझ गई ह गी तो जलाने
पर भी नह जलगी। यह बरसाती रात आपक िलए यथ जाएगी।’’
सीधे-सादे युिध र महाराज मेरा प रहास समझ नह पाए। मने संकत से ही उ ह समझाया—‘मेरा ता पय ौपदी
या पौरवी क आग से ह।’
इस पूर संदभ म युिध र पहली बार खुलकर हसे—अंधकार म तिड़त तरग क तरह।
‘‘तुम भी अ ुत हो, क हया! जीना कोई तुमसे सीखे।’’ इतना कहते ए वे चले गए।
म िफर उसी अंधकार म खो गया। म सोचने लगा, एक क बाद दूसरा, या मेरा जीवन संघष का ही एक
अंतहीन िसलिसला ह? या मेर जीवन म शांित दो यु क बीच क अंतराल का ही नाम ह?...अचानक जोर क
िबजली चमक । गड़गड़ाहट ई और पानी से भीगा तेज हवा का झ का आया। लगा, बादल क बीच जैसे कोई
मुझपर हस रहा ह और कह रहा ह, ‘तु हारा िचंतन भी कभी बवंडर म उड़ते टट पीपल क प े-सा िदशाहीन हो
जाता ह। बंद जीवन क ऊब का कभी तुमने अनुभव िकया ह? िफर संघष से भागना य चाहते हो?...पर भागकर
जाओगे कहाँ?’
मुझे लगा जैसे मेरा ही यय मुझे िध कार रहा ह। वह बोलता गया—‘िजसे तुम संघष समझते हो, वह भी
तु हारा कम ह—अिन छत कम। तुम उसे करना नह चाहते; पर तु ह करना पड़ता ह। कवल इसिलए िक वह
तुमपर लादा गया ह। उस लादनेवाली िनयित क इ छा पर तु हारा कोई अिधकार नह । कवल तु हारा अिधकार ह
कम करने का—कम येवािधकार ते।’
इसी बीच िफर िबजली चमक । िफर हवा का झ का आया और दीपदान म रहा-सहा एक जलता दीप भी बुझ
गया। िफर अँधेरा ही मेर साथ था। म उसीसे िलपटकर सो गया।
q
सवेर उठते ही म ारका चलने क योजना बनाने म लग गया। दूसरी ओर राजभवन क लोग मेर क म जुटने
लगे। रात का समाचार िजसने सुना, उसे उसक य ता मेर यहाँ ख च लाई। पाँच पांडव क अित र कती बुआ,
उनक पु वधु और पौ क अ छी-खासी भीड़ मेर क म लग गई; पर बलराम भैया का अभी तक कह
पता नह था। म तो उनक कित को अ छी तरह जानता था। जब मेघ आकाश म छाने लगते तब वे मैरय म
डबना आरभ कर देते—और बीती रात जैसी मादक रात तो शायद ही उ ह इस वष िमली हो। इसिलए इस समय
उनक उठने क क पना कर पाना भी मेर िलए किठन था। पर और क िलए तो यह आ य क बात थी। िपता
का अपहरण हो गया और पु सोता रह! एकदम िव ास से पर।
कती बुआ ने पूछ ही िलया—‘‘बलराम कहाँ ह?’’
‘‘भैया अभी सो रह ह गे।’’ मने कहा।
‘‘अ ुत ह उसक न द!’’ बुआ बोली, ‘‘इतनी बड़ी घटना हो गई और वह सो रहा ह!’’
‘‘घटना हो गई मत किहए। बस इतना सोिचए िक यह अशुभ समाचार सा रत िकया गया ह।’’ िफर मने वे सार
तक बुआ को िदए, जो युिध र को दे चुका था और कहा, ‘‘लगता ह, भैया को यह समाचार नह िमला होगा।’’
तुरत भैया को समाचार भेजकर बुलाया गया।
आकाश क बादल तो छट गए थे, पर वे मैरय क भाव से मु नह हो पाए थे। बड़ आवेग म वे मेर यहाँ
आए और उसी झ क म बोले, ‘‘देखा, या हो गया! यह सब तु हार कम का फल ह। साँप को अधमरा कर
छोड़ने का यही प रणाम होता ह। कई बार तुमने उसे परा त िकया और छोड़ िदया।’’
मुझे खूब डाँटने-डपटने क बाद भैया का भी यही िन कष था िक हम लोग को यथाशी यहाँ से चल देना
चािहए।
बुआ तथा अ य लोग का कहना था िक अब अकले यहाँ से जाना िनरापद नह ह। उनका आ ह था िक म
इ थ से सेना क एक टकड़ी भी साथ लेता जाऊ।
‘‘पर म अकला कहाँ !’’ मने कहा, ‘‘मेर साथ भैया ह—और होगा यादव का एक िवरा समूह; य िक शा व
तो सभी यादव का घोर श ु ह। उसने उ ह समूल न करने का त िलया ह।’’
‘‘इसक िलए तो यादव को जगाना पड़गा।’’ बलराम भैया बोले।
‘‘कोई िकसीको जगाता नह ह। जब सूय िनकलता ह तब सब जाग जाते ह।’’ मने मुसकराते ए दबी जबान म
कहा; य िक इसक चोट भैया को भी लग सकती थी—‘‘कवल इ क-दु क लोग ही सोते रह जाते ह, िज ह
हमार रथ क घड़घड़ाहट ही जगा देगी।’’
िफर भी कती बुआ और महाराज युिध र मुझे अकले जाने देने क प म नह थे। उनक मोह ने मेर देव व को
ऐसा ढक िलया था िक म उ ह उनक भतीजे व भाई क अित र कछ और नह िदखाई दे रहा था। अंत म उ ह ने
अजुन को मेर साथ लगा ही िदया।
मेरा रथ और सारिथ पहले ही चले गए थे। अतएव मुझे अजुन का रथ लेना पड़ा। यह सफद घोड़ वाला वही
रथ था, िजसे खांडव वन भ म करने क िलए महिष अ न ने िदया था। अजुन को रथ पर बैठा मने सार य
सँभाला। भैया अपने रथ पर थे।
आज कित कल क अपे ा अिधक शांत थी। आकाश म बादल क चीथड़ अव य तैर रह थे, पर वषा नह हो
रही थी। वायु आनंददायक और तेज थी। उसका वाह पूरब से प म क ओर था। इसीिलए वह हमार रथ क
गित क सहायक हो गई थी। बीती वषा ने माग को बीच-बीच म काटकर अवरोधक बना िदए थे; पर उनक साथ
हम अिधक संघष नह करना पड़ा।
संघष का वा तिवक सामना तो चम वती क उफनती धारा से आ। बड़ी-बड़ी नाव को बाँधकर बनाए गए
बेड़ पर जब हमार रथ चढ़ाए गए और हम धारा म आगे बढ़, तब लगा िक नीचे भूचाल ह और ऊपर आकाश
झुका जा रहा ह। रह-रहकर जल क थपेड़ हमारी किट तक आ जाते थे और जब बेड़ा डगमगाता था तो हम एक-
दूसर को थाम लेना पड़ता था।
चम वती क पार करते ही हमारा माग सुकर हो गया; य िक वषा का उतना भाव इधर नह था। धीर-धीर माग
भी सूखा होता गया। सं या होते-होते हम लोग पु कर क राजमाग पर आ गए। कछ आगे चलने क बाद हमने
अपना रथ राजधानी क ओर मोड़ा। मने सोचा िक राि -िवराम तो लेना ही होगा, य न हम चेिकतान से िमलते
ए चल।
मेरा अिभ ाय शायद अजुन और भैया दोन समझ गए थे। इसीसे िकसीने कोई िज ासा नह क । हम अपनी गित
से चलते चले जा रह थे िक सामने से एक तेज रथ आता िदखाई िदया। उसपर पु कर का महामा य योितकतु था।
वह हम देखते ही ह का-ब का हो गया। उसने हमारा रथ कवाया और वयं कने क चे ा क ; पर हम दोन
इतनी गित म थे िक कते- कते भी हमार और उसक बीच का अंतर काफ हो गया। उसे ब त दूर से लौटना
पड़ा।
आते ही उसने कहा, ‘‘अर, आप यहाँ! मेर महाराज तो आपक यहाँ गए ह।’’
‘‘ य , या बात ह?’’
‘‘अर, आपको कछ मालूम नह !’’ उसने कहा, ‘‘आपक पू य िपताजी का अपहरण हो गया ह।’’
‘‘यह आपको कसे ात आ?’’
‘‘परस रात को कोई सूचना दे गया था।’’
‘‘ऐसी सूचना कहाँ से आई थी?’’ मने पूछा, ‘‘और उसको देनेवाला कौन था?’’
‘‘यही तो नह मालूम।’’ महामा य बोला, ‘‘हमम से िकसीने उसे देखा भी नह । वह राजभवन क हरी धान क
कायालय म कहकर चला गया। जब वहाँ क अिधकारी ने उसे रोकना चाहा तब उसने कहा िक म इस समय कने
क थित म नह । मुझे और कई थान पर सूचना देनी ह।’’
‘‘उसक इतना कहने मा से आप लोग को िव ास हो गया?’’
‘‘िव ास तो नह आ, पर शंका तो हो ही गई।’’ योितकतु बोला, ‘‘महाराज भी िव ास नह कर रह थे। बड़ी
ि िवधा म थे। उनका िवचार पहले तो यह आ िक िकसी चर को भेजकर वा तिवकता का पता लगाऊ। िफर
सोचने लगे िक यिद ि िवधा म पड़ा रहा और बात स य हो तो अनथ हो जाएगा। िफर उ ह ने यह भी कहा िक
कौन जाने क हया ारका म ह या नह । िशशुपाल क अं ये क संग म उ ह इ थ म क जाना पड़ा था।’’
‘‘तो िफर वे उसी िदन चले गए?’’
‘‘जी हाँ, वे उसी िदन अपनी पूरी सै य श क साथ चले गए।’’
‘‘अब आप मेरी एक सलाह मािनए िक इस तरह क यिद िफर कोई सूचना आए तो सूचना देनेवाले को रोक
रिखए। यिद वह बला जाना चाह तो उसे बंदीगृह म डाल दीिजए। उससे पूरी जानकारी लीिजए िक इस तरह क
सूचना भेजनेवाला कौन ह।’’
िसर िहलाकर महामा य ने मेरी बात मान ली। पर उसने इतना अव य कहा, ‘‘आपको या िव ास ह िक इस
कार क सूचना िफर आएगी?’’
‘‘अव य आएगी।’’ मने जोर देकर कहा, ‘‘और हो सकता ह, वह िपछली सूचना से भयानक भी हो।’’
राि का दूसरा हर शु हो गया था। हम अ यिधक थक थे। हम शी िव ाम क आव यकता थी। हम महामा य
क साथ ही राजभवन म चले आए। अितिथगृह क सबसे िवशाल क म हम तीन ठहराए गए।
‘‘देखा, यहाँ क घटना भी ठीक वैसी ही ह जैसी इ थ क थी। कवल एक सूचना सा रत ह; पर िकसीको कछ
नह ात ह िक यह सूचना िकधर से आई ह और िकसने सा रत क ह।’’ मने कहा।
छटते ही अजुन बोला, ‘‘और यह ामािणक ह या नह ?’’
‘‘ ामािणकता का न तो तब उठता ह जब कह जड़-मूल का पता चले!’’ मने कहा।
‘‘िफर इस तरह क सूचना फलानेवाले का योजन या हो सकता ह?’’
‘‘यादव म एक कार का आतंक पैदा करना।’’ मने अजुन को िव तार से समझाया—‘‘जरासंध, नरकासुर और
िशशुपाल क वध का आतंक हमार भु व-िवकास म हमार िजन िवरोिधय को सहायक िदखा, यह उनक ओर से
िदया गया उ र ह। इसे कहते ह आतंक यु । ब त से श ु तो ऐसे आतंक से ही प त हो जाते ह।’’
‘‘इसका ता पय ह िक हम िनरतर यु क ि या से ही गुजर रह ह?’’
‘‘इसम भी कोई संदेह ह!’’ मने उसे िफर समझाया—‘‘इस आतंक का कभी उलटा भी प रणाम हो जाता ह। भय
से या तो मनु य िकसी कोने म दुबककर बैठ जाता ह या उसक सि यता ब त बढ़ जाती ह। वह अपने िम को
एकजुट करने लगता ह और यह एकजुटता कभी-कभी उन लोग से अिधक श शाली हो जाती ह, जो आतंक
फलानेवाले होते ह। तब आतंक यु क संचालक को लेने क देने पड़ जाते ह। अब इसी चेिकतान को ही लो।
इसक सि यता बढ़ गई। यह ारका तो गया ही होगा, साथ ही इसने स ािज और सा यिक जैसे राजा से
संपक भी िकया हो तो आ य नह ।’’
‘‘पर आपम तो ऐसी कोई सि यता नह िदखाई दे रही ह।’’
‘‘कवल िदखाई नह दे रही ह।’’ म हसा—‘‘ ‘िदखाई न देना’ और ‘न होना’ दोन अलग-अलग बात ह।’’ मने
उसे अपनी मनोदशा बताई—‘‘मने इस सूचना को न तो हलक-फलक िलया ह और न इससे कम िचंितत । िकतु
यिद म ही भय त हो जाऊगा तो और क या थित होगी? उन सोलह हजार मिहला का या होगा, जो मुझे
देवता क तरह पूज रही ह? वे या सोचगी? वे सोचगी िक हमार भगवा का िपता अप त हो गया। उन राजा
का समूह, िज ह हमने जरासंध क कारा से मु कराया था, वह या सोचेगा िक हमार ाता क पू य तात बंदी
बना िलये गए। मेरी भगव ा क भामंडल को व त करने क िलए ही यह आतंक फलाया जा रहा ह।’’
मने बोलना जारी रखा—‘‘इसीिलए तो म इस आतंक यु का सामना वयं को भयिनरपे िदखाकर कर रहा ।
भयिनरपे ता वह थित ह, िजसक िसर क ऊपर से आतंक यु का बाण चला जाता ह। इस यु म भयभीत होते
ए भी भयभीत मत िदिखए। सि य होते ए भी सि य मत िदिखए।’’
‘‘इसीिलए हम लोग भयमु होने का दशन कर रह ह?’’ अजुन बोला।
‘‘भयमु नह वर भयिनरपे होने का।’’ मने कहा, ‘‘भयमु ता तो भय से भािवत होना ही ह और भय तता
भी। कवल भयिनरपे ता ही भय से अ भािवत रहना ह।’’
मने देखा, भैया गहरी न द म ह। उनक खराट पूर क म फल रह ह।
मने प रहास करते ए अजुन से कहा, ‘‘भयिनरपे ता क इससे अ छी और कोई दूसरी थित नह हो
सकती।’’
राि अपने पूर यौवन पर थी। आिलंगनब रािधका क साँस क तरह हवा कछ गरम और नम थी। वातायन से
योदशी क चं मा का ितयक मुख झाँक रहा था। उस चं मा को देखता आ म रािधका क मृित से िलपटकर सो
गया।
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सुबह जब आँख खुल तो काफ िदन िनकल आया था। अजुन मुझसे पहले जागा; पर भैया अब भी सो रह थे।
उनक यह म ती हम लोग क िलए ई या क व तु थी। उनक मन पर कोई भी घटना ब त देर तक नह िटकती थी
—और अिधक िटकती भी थी तो वे उसे मैरय क मादकता से प छ देते थे।
मेर जागने क सूचना ारपाल ने तुरत महामा य क यहाँ प चाई। वे दौड़ ए आए। उ ह देखते ही उनक
य ता का आभास हो गया।
आते ही उ ह ने कहा, ‘‘कल रात एक भयानक सूचना और आई ह।’’
सूचना क िवषय म न पूछकर मने सूचना देनेवाले क बार म पूछा, ‘‘सूचना देनेवाला कहाँ ह?’’
‘‘आपक िनदशानुसार उसे बंदी बना िलया गया ह।’’ उसने कहा।
‘‘उसे बंदी बनाने क थित आ गई!’’ मने मुसकराते ए पूछा, ‘‘शायद वह कना नह चाहता होगा?’’
‘‘जी हाँ, वह तो भाग रहा था।’’
मने मुसकराते ए अजुन क ओर देखा। िफर बोला, ‘‘थोड़ी देर बाद उसे आप मेर सामने उप थत कराने क
कपा कर। तब तक म तैयार हो लेता ।’’
कछ समय बाद ही वह मेर सामने उप थत िकया गया—काँपता आ, डरा-डरा-सा। ऐसा लगा जैसे वह मृ यु क
सामने लाया गया हो।
‘‘तुम इतने भय त य हो?’’ मने मुसकराते ए पूछा, ‘‘तुमने कोई अपराध तो िकया नह ह!’’
वह एकदम चुप, सकपकाई आँख से मुझे देखता रहा।
‘‘तुम कौन सी सूचना लाए हो?’’ मेरी मुसकराहट अब भी बनी रही।
वह अब भी चुप था।
‘‘तुम बोलते य नह ?’’ मने कहा, ‘‘तुम िव ास करो, तुम पूरी तरह भयमु हो। बताओ, मेर िलए कौन सी
अशुभ सूचना ह?’’
वह िफर भी बोल नह पाया।
मने िफर पूछा, ‘‘तुम मुझे तो पहचानते हो?’’
उसने िसर िहलाकर मेरा पहचाना जाना वीकार िकया।
‘‘शायद मुझे पहचान लेना ही तु ह बोलने म बाधक हो रहा हो। मने कहा न िक तुम अभय हो। तु हारा यहाँ बाल
भी बाँका नह होगा। अब बताओ, तुम कौन सी सूचना लाए हो?’’
िफर उसने अपने िबखर ए साहस क येक कण को बटोरा और लड़खड़ाती जबान म बोला, ‘‘मुझे यह
आदेश आ ह िक म आयाव क हर मुख शासक को सूिचत कर दूँ िक ारका पर महाराज शा व का अिधकार
हो गया ह।’’
म हसा।
‘‘हम तो वह जा रह थे। चलो, अ छा आ िक अब हमारा ारका जाना नह होगा। जब हमारा रा य ही चला
गया तब हम वहाँ जाकर करगे या! पर यह तो बताओ, यह सूचना सा रत िकसने करवाई ह?’’
‘‘मेर महाराज शा व ने।’’
म िफर नाटक य ढग से हसा। मने कहा, ‘‘तुम मु िकए जाते हो।’’
मेर इतना कहते ही महामा य क आकित का रग बदला। ऐसा लगा िक उसक शासन क याय यव था पर म
डाका डाल रहा । िफर भी मने उसक ओर यान नह िदया।
मने उसी चर से कहा, ‘‘पर तु ह मेरा एक आदेश ह। या तुम उसका पालन करोगे?’’
वह िफर बोल नह पाया। सकपकाया-सा मुझे देखता रहा। शायद उसने ऐसा य कह देखा नह था और न
देखने क कभी क पना क थी।
मने उससे कहा, ‘‘तुम यह से ारका लौट जाओ और अपने महाराज से कहो िक ारकाधीश मुझे िमले थे।
उ ह ने ारका क िवजय पर आपको बधाई दी ह।’’
िफर भी वह िसर नीचा िकए खड़ा रहा; जैसे धरती म गड़ा जा रहा हो। मुझे लगा िक अब इसका मन प ा ाप
क च वात म फस चुका ह। शायद यह च कर खाकर िगर न पड़। म वयं अपने थान से उठा और उसक पास
गया।
मने उसक पीठ ठ क और बोला, ‘‘तुम एक अ छ वामीभ हो। वामी क आ ा का पालन तु हारा धम था
और वह तुमने िकया। इसम तु हारा या दोष? िकतु म तो तु हारा वामी नह । यिद तुम मेरी आ ा का पालन
करोगे तो एक परोपकार करोगे, जो कभी-न-कभी तु हार काम आएगा। अब तुम जा सकते हो। हाँ, तुम उिचत
समझो तो अपना नाम बताते जाओ।’’
‘‘चं कांत।’’ उसने अपना नाम बताया और लड़खड़ाता आ ऐसे गया जैसे कोई टटा वृ चल रहा हो।
िफर मने ितहारी से कहा, ‘‘इसक ारका जाने क पूरी यव था करो।’’
भैया क खराट अब भी गूँज रह थे।
अजुन इस पूर करण म मौन रहा। वह सबकछ बड़ िज ासाभाव से चुपचाप देखता और सुनता रहा। महामा य
क आँख म कतूहलपूण यं य था।
अजुन क मुख से तो िनकल ही पड़ा—‘‘ऐसी अटल िन ा मने नह देखी।’’
अब मने प रहास करते ए कहा, ‘‘यह सु ाव था क थत दशा ह।’’
लोग को हसी आ गई।
िफर मने महामा य से मायाचना क मु ा म कहा, ‘‘िकसीको दंड देने या मु करने का अिधकार शासन
का ह, िजसक शीष िबंदु पर आप ह। मने चं कांत को मु कर आपक अिधकार े म ह त ेप िकया ह।’’
महामा य िवन तापूवक कछ कहना चाहता था, पर अजुन बोल पड़ा—‘‘पर आपने ऐसा िकया य ?’’
‘‘इसिलए िक म त काल उसे उिचत दंड देना चाहता था।’’ मने कहा।
‘‘पर आपने तो उसे मु कर िदया।’’
‘‘तुमने अनुभव नह िकया िक यह मु होना ही उसे िकतना भारी पड़ा!’’ मने कहा, ‘‘वह दंड क िलए तो तैयार
था ही। शायद िजस समय से उसने सूचना देने का काम अपने हाथ म िलया था, उसी ण से उसक मानिसकता
दंड भोगने क िलए तैयार हो चुक होगी। उसने मृ युदंड तक सोचा होगा; पर मेरा िदया दंड उसक िलए
अक पनीय था। तुमने देखा नह , वह कसी शान से मेर सामने आया था और कसा टटा आ गया ह! तुम या
समझते हो, वह शा व क पास जाकर मेरी ओर से बधाई दे सकगा?’’
इसी समय ितहारी भीतर आया। उसने बताया—‘‘महाराज, चं कांत ारा दी गई सूचना झूठी ह।’’
‘‘यह तुम कसे कह सकते हो?’’
‘‘आपक आदेशानुसार जब म उसक ारका जाने क यव था कर रहा था तब उसने कहा, ‘म ारका जाकर या
क गा! यिद म जा सका तो माितकावत जाऊगा।’
‘‘ ‘ य ? तु हार महाराज तो अब ारका म ही ह गे?’ मने जब इतना कहा तब उसने बताया िक मने जो समाचार
िदया ह वह झूठा ह।’’
‘‘देखा मेर दंड का भाव!’’ मने अजुन से मुसकराते ए कहा, ‘‘यिद उसे ाणदंड दे िदया गया होता तो स य
और झूठ का इतनी ज दी िनराकरण न हो पाता। इसीिलए म कहता िक मनु य को श क अपे ा बुि से भी
जीता जा सकता ह।’’
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थोड़ी देर बाद भैया उठ। आँख खोलते ही उ ह लगा िक काफ िदन िनकल आया ह।
‘‘बड़ी देर हो गई।’’ उ ह ने कहा, ‘‘तुम लोग ने मुझे जगाया य नह ?’’
‘‘हम लोग ने जगाने क आव यकता नह समझी।’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘हमने सोचा, आप िजतना चाह
उतना सो ल; य िक सोने का इससे अ छा अवसर अब कहाँ िमलेगा!’’
‘‘ यं य बोल रह हो!’’ भैया क आवाज थोड़ी टढ़ी ई—‘‘आिखर ारका चलना ह िक नह ?’’
‘‘अब चलकर या होगा! काफ देर हो गई।’’
‘‘तु हारा ता पय?’’
‘‘ता पय यही िक अब ारका पर शा व का अिधकार हो गया।’’ मने मुसकराते ए ही कहा।
‘‘यह कसे हो सकता ह?’’ भैया ोध म काँपने लगे—‘‘उस नीच क यह िह मत!’’ िफर उनका िचंतन जागा
—‘‘िपताजी का या आ होगा? नानाजी का या आ होगा? अंतःपुर क या दशा ई होगी? हमार ब े तो
मार ही गए ह गे; य िक जीते जी कभी उ ह ने ऐसा होने नह िदया होगा।’’ अब उ ह ने पुनः मेरी ओर देखा
—‘‘िफर तुम मुसकरा रह हो! मेरी समझ म कछ नह आ रहा ह।’’
‘‘यह अँधेर म आई सूचना ह।’’ मने कहा।
अब वे कछ हलक ए।
‘‘तब इसका परी ण काश म करना चािहए।’’ उ ह ने कहा।
‘‘ काश म तो कछ और ही िदखाई देता ह।’’ मने कहा और उसी म म उ ह सारी घटना सुनाई।
िफर वे हसते ए बोले, ‘‘तेरी बचपन क आदत अभी ग नह ।’’
िकतु उनका यह िन य सवमा य आ िक हम यथाशी ारका प चकर शा व को पाठ पढ़ाने क योजना
बनानी चािहए।
महाकाल क दशन कर चलने क बाद जब हमार ती गामी रथ ने पु कर का तीथ छोड़ा तब सूय हमार िसर पर
चमक रहा था। म या था। इधर वषा का कोई िच नह । न बादल और न धरती म नमी। एकदम सूखा-सपाट
रा ता हम िमलता जा रहा था और हम धड़धड़ाते ए बढ़ते जा रह थे।
ब त कछ आ त होने क बाद भी मन तो शंकाकल हो ही गया था। कह -न-कह आग तो ह ही, जो धुआँ उठा
ह। चलते ए भी शंका त मन ने कई करवट बदल और बात-बात म बात िनकलती चली गई। पर अंत म इसी
िबंदु पर क िक हम या करना चािहए।
‘‘सीधे शा व पर आ मण करक उसक राजधानी माितकावत को भ म कर देना चािहए।’’ भैया बोले।
म चुप ही रहा; य िक म समझता था िक यह इतना आसान नह ह। िफर श ु क श क वा तिवकता जाने
िबना म कभी भी उसपर आ मण करने क प म नह था। अजुन भी लगभग मेर िवचार का था। पर भैया को तो
जो सनक चढ़ जाती थी, उसीम बहने लगते थे।
उ ह ने कहा, ‘‘मान लो िक वह मुझसे श शाली ह, तो या उसे छोड़ देना चािहए?’’
‘‘छोड़ना तो नह चािहए; पर िबना सोचे-समझे उसपर आ मण भी नह करना चािहए।’’ मने कहा।
भैया एकदम िबगड़ उठ—‘‘तु हार सोचने-समझने ने ही सदा हमार िवरोिधय को पनपने िदया ह।’’ उ ह ने कई
घटनाएँ सुना , जो जरासंध, कालयवन, शा व, स ािज आिद से संबंिधत थ ।
‘‘आप कहते तो ठीक ह।’’ मने कहा, ‘‘आिखर सब परािजत ए न! वैसे ही शा व भी परािजत होगा। पर इस
समय उसने अपनी श ब त बढ़ा ली ह।’’ इसी संदभ म मने उसक ारा क गई क तप या, उससे िमले
वरदान, यादव क िवनाश क उसक संक प क चचा क और कहा, ‘‘उसने एक ‘सौभ’ नामक िवमान क भी
यव था कर ली ह। इसीिलए उसका यु आकाशीय भी होगा और रा सी भी।’’
‘‘तब हम या करना चािहए?’’ भैया ने पूछा।
‘‘सभी यादव राजा को उसक िवरोध म खड़ा करना चािहए और इस स य को सा रत करना चािहए िक शा व
ने कवल ारका क िवरोध का नह वर सभी यादव क िवनाश का बीड़ा उठाया ह।’’
भैया और अजुन दोन ने मेरी इस योजना का समथन िकया।
मने उ ह बताया—‘‘इसम हम कछ नह करना ह, कवल सभी यादव को एकजुट करना ह। बाक काम तो शा व
ने वयं कर िदया होगा।’’
‘‘वह कसे?’’
‘‘उसने अपना संक प िव तार से सा रत िकया होगा। िफर ये सारी अफवाह उसने यादव नरश क यहाँ मुखता
से प चाई ह गी।’’ मने कहा, ‘‘हो सकता ह, उन अफवाह को सुनकर ही चेिकतान क तरह कछ यादव ारका
भी प च गए ह ।’’
‘‘तब अफवाह फलाना उसक िव ही पड़ा।’’ अजुन बोला।
‘‘िव भी पड़ सकता ह और इसका लाभ भी उसे िमल सकता ह।’’ मने कहा, ‘‘जैसािक मने पहले कहा ह,
कछ वाथ , दुबल और आ मकि त यादव राजा इस चार से दुबककर रह सकते ह। कौन दूसर क जलते घर म
हाथ डाले! य भी ब त से लोग शा व से डरते ह।’’
हमारा रथ आगे बढ़ा चला जा रहा था। हम लोग माग म जहाँ ठहरते, िव ाम करते, वह हमारी इस तरह क चचा
चलती रहती; य िक इस बार िनतांत मायावी य से हमारा सामना था।
‘‘सोचता , ससुराल होता चलूँ!’’ मने हसते ए कहा। पहले झ क म तो उ ह ने मेरा ता पय समझा भी नह । तब
मने कहा, ‘‘यिद महाराज स ािज से िमलता चलूँ तो कसा हो?’’
‘‘अर, वह तो कभी शा व का िम था।’’ भैया बोले।
‘‘कभी न!’’ मने कहा, ‘‘जब स ािज ने मुझे यमंतक मिण क चोरी लगाई थी और मुझे चार ओर ‘चोर’
चा रत िकया था, तब श ु का श ु िम क आधार पर वह स ािज का िम हो गया था; पर स यभामा क
िववाह क बाद तो िफर दोन म ठन गई।’’
स ािज क यहाँ प चने पर भी पता चला िक वे नह ह। हमार आगमन क सूचना िमलते ही महामा य दौड़ा आ
आया। वह हम देखकर अवा रह गया।
‘‘अर, आप यहाँ! महाराज तो आपक यहाँ ारका गए ह।’’ स ािज क महामा य ने कहा और अ यंत य हो
पूछा, ‘‘सब कशल तो ह?’’
उसक य ता से प था िक उसे भी ारका क परािजत होने क सूचना िमल चुक ह।
मने सहजभाव से कहा, ‘‘हम लोग तो इ थ से आ रह ह।’’
‘‘आपको मालूम नह या?’’
‘‘ऐसी ही उड़ती सूचनाएँ िमली ह। स य, अ स य और अस य क बीच क ।’’ मने कहा।
िफर उसने वे ही बात बता , िज ह हम जानते थे। उसने बताया—‘‘अपने महाराज को जब अ राि म जगाकर
हमने सूचना दी तब वे ोध म िवि होने लगे। उसी समय उ ह ने शा व क िलए अनेक अपश द का योग
िकया और हम लोग से बोले, ‘देखा शा व क नीचता! हो सकता ह, अभी क हया इ थ से भी न लौट ह और
उसने ारका पर आ मण कर िदया। राजा क अभाव म राजधानी पर हमला! यह तो नीित-िव ह। सरासर
अधम ह!’ ’’
महामा य ने यह भी बताया—‘‘महाराज उसी समय तैयार ए और सेना क श शाली यो ा को लेकर
ारका क ओर चल पड़ तथा सावधान करते गए—‘कोई भी थित हो सकती ह। आप लोग भी तैयार रिहएगा।
हो सकता ह, आपको भी ारका आना पड़। हम लोग क जीते जी ारका शा व क हाथ म चली जाए, इसक
पहले हम डब मरना चािहए।’ ’’
मने अजुन क ओर मुसकराते ए देखा। मेरी मुसकराहट क भाषा म िलखा था—‘देखा, यह भी सूचना अ राि
को ही आई ह। यह सारी लड़ाई अंधकार क ह। ान का सूय िनकलते ही प र थितयाँ एकदम बदल जाएँगी।’
‘‘तो हम आपक या सेवा कर?’’ महामा य ने पूछा।
‘‘सोचता , आज क रात यह िबताऊ। कल ातः आराम से िनकलूँगा।’’ मने सहजभाव से कहा।
मेरी सहजता पर वह चिकत था। उसने कहा भी—‘‘आप तो एकदम िन ंत लगते ह।’’
मेरी वाभािवक हसी िफर उभरी। मने कहा, ‘‘िजसक इतने लोग िचंता करनेवाले ह , उसे िचंता करने क या
आव यकता! और अब िचंता करक क गा भी या! जो होना था, वह तो हो गया होगा।’’
हम सस मान अितिथगृह म ठहराया गया। भैया क चु पी से प था िक वे इन सार संग से बेहद नाराज ह;
य िक उनक कित थी िक जब वे अ स होते थे या जब उनक वाली नह होती थी तो वे मुँह बंद कर लेते थे।
सबकछ सुनकर भी ऐसा लगता था जैसे वे सुनते ही नह ह ।
इस समय भैया क अ स ता इस बात को लेकर थी िक उनक िवचार क अनुसार हम सीधे ारका चलना
चािहए और शा व को पकड़कर चीर देना चािहए। हम िजतना समय न कर रह ह, उतना बुरा कर रह ह।
मने उ ह समझाया—‘‘हमने उसक िव यु का मोरचा बनाना आरभ कर िदया ह। इन यादव राजा क यहाँ
म जो होता चल रहा , इसका प उ े य ह इ ह एक मंच पर लाना।’’
‘‘जब ारका समा ही हो जाएगी तब हम इ ह एक मंच पर लाकर या करगे?’’
‘‘कसे समा हो जाएगी?’’ मने कहा, ‘‘हमारी पूरी सेना ह, हमार ब े ह; िफर ये यादव राजा हमसे पहले वहाँ
प च गए ह। हम तो बस ऐसा वातावरण बनाना ह िक लोग समझ िक शा व का यह आ मण ारका या हमार
िव नह ह वर यादव क िवनाश का ीगणेश ह। जहाँ हमने यह वातावरण बनाया वहाँ यु क िदशा ही
बदल जाएगी। तब यह यु यादव और शा व क बीच हो जाएगा—और यही म चाहता ।’’
‘‘यिद तुम चाहते हो तो जो चाहो, सो करो।’’ भैया बोले और चुप हो गए।
भैया का िचंतन िकसी िबंदु पर ब त थर नह रहता था और न उसक हर प पर दूर तक वे िवचार कर सकते
थे। आवेग म वे कछ भी कर सकते थे, कर देते थे।
दूसर िदन ातःकाल ही हम लोग वहाँ से चलने को ए। महामा य ने हम भरपूर जलपान कराया और माग क
भोजन क भी यव था क । िफर बोला, ‘‘म आपक और या सेवा कर सकता ?’’
उसका ता पय था िक यिद आप थोड़ी-ब त सेना भी चाह तो म उसे दे सकता ।
मने प कहा, ‘‘हम सेना क नह , महाराज क आशीवाद क आव यकता थी, जो िमल गया।’’
जब म राजभवन से िनकला तो भैया बोल उठ—‘‘अब तो सीधे ारका चलोगे?’’
‘‘सोचता िक जरा सा यिक को भी देखता चलूँ।’’ मने कहा।
‘‘अर, वह तो तु हारा िम ही ह। समाचार सुनते ही ारका प चा होगा। यिद िमलना ही ह तो ारका म ही िमल
लेना।’’
म एक ण चुप रहा। अब भैया को कसे समझाऊ। मने उनक अह को सहलाते ए िकसी कार कहा, ‘‘आप
कह तो ठीक रह ह। िन य ही वह ारका गया होगा। िफर भी उसक यहाँ चलना इसिलए आव यक ह िक हम
माग म सभी यादव नरश क यहाँ होते चल रह ह। कह उसक पू य िपता ी स यक यह न सोच िक वे लोग
सबक यहाँ गए, पर मेर यहाँ नह आए। वे हम तो पािलत ान समझते ह। सोचते ह, जब चाहगे, उ ह िकसीक
िव भ कने क िलए खड़ा कर दगे।’’
भैया सोचने लगे। बोले, ‘‘इसका ता पय ह िक वहाँ भी तुम एक िदन का िव ाम लोगे!’’
‘‘नह , िब कल नह । स यक चाचा से िमलकर चल प ँगा।’’
मने ऐसा िकया भी। और क तरह सा यिक भी समाचार िमलते ही ारका थान कर चुका था। उस समय
उसक वृ िपताजी ही िमले। वे भी हम देखते ही चिकत हो गए—और जब उ ह ने सुना िक हम इ थ से आ रह
ह तो अ य लोग क तरह ही उनका आ य भी िशखर पर था।
मने बड़ी आ मीयता य करते ए कहा, ‘‘ ारका क सुर ा क िलए आप लोग तो ह ही। आप ही लोग क
बल पर म इतने-इतने िदन तक ारका से बाहर रह जाता । िफर शा व से यह लड़ाई कवल हमारी तो ह नह ।
इस बार तो उसने सार यादव को ललकारा ह। यादव को समूल न करने का संक प िलया ह।’’
‘‘कह यही संक प उसक िवनाश का कारण न बने!’’ उ ह ने कहा।
‘‘यिद आप जैसे लोग का आशीवाद और भागीदारी रहगी तो ऐसा ही होगा।’’
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ारका क रा य सीमा म प चते-प चते सं या हो चली थी। माग म िमलते लोग क आकित क हवाइयाँ उड़ी
ई थ । भय और आतंक से ऐसे सहमे-सहमे िक कछ बोल नह पा रह थे। कवल हाथ उठाकर अिभवादन क
औपचा रकता िनभा रह थे। उनको देखने से प लग रहा था िक िवपि का कोई अ न- ार उनक ऊपर से
गुजर गया ह। उसक चुभती िचनगा रयाँ अब भी उनक मृित म शेष ह।
हम लोग क मानिसकता भी उन लोग को देखकर आंदोिलत हो उठी थी। आकाश म पसरी सं या क लाली म
हम उस अ न- ार क ित छाया ही िदखाई दे रही थी। िवधवा क उजड़ सुहाग क तरह सं या का ऐसा उदास
प मने कभी नह देखा था।
सा यिक क यहाँ प चते-प चते ही हमार आगमन क सूचना गु चर ने ारका प चा दी थी। िफर भी न कोई
हमारी अगवानी म आया और न हमार आगमन पर कोई उ ास ही िदखाई िदया। कवल अमा य मंडल क कछ
लोग नगर ार पर मेरी ती ा कर रह थे।
न तो हमारी या ा क बार म िकसीने िज ासा क , न तो देर से लौटने का िकसीने कारण पूछा; वर अमा य मंडल
क एक सद य ने िबना िकसी भूिमका क कहा, ‘‘भगवा क कपा थी िक ारका बच गई।’’
‘‘आप लोग क सहायता क िलए कोई नह आया?’’ मने पूछा।
‘‘हम लोग कई जगह गए थे। पता चला िक हमार प चने क पहले ही वे लोग यहाँ क िलए चल पड़ ह। हम
आ य था िक यह कसे हो सकता ह? उ ह सूचना िकसने दी? पर यहाँ आकर देखा िक चेिकतान, स ािज ,
सा यिक आिद कई महारथी एवं अितरथी पधार चुक ह। यिद वे समय से न आए होते तो पता नह या हो जाता!’’
हमार पूछने क पहले ही अमा य मंडल क लोग िपछली िवभीिषका क िवषय म बताने लगे। इसी िसलिसले म
उ ह ने कहा, ‘‘कमार ु न बुरी तरह घायल ह।’’
‘‘ या उसे ब त चोट आई ह?’’ भैया बोल उठ।
‘‘हाँ, वे तो िब कल फस गए थे। शा व क सेना ने उ ह घेर िलया था और समरभूिम म ही वे अचेत होकर िगर
गए थे। सारी ारका ािह- ािह कर रही थी।’’
‘‘तब उसे छड़ाया िकसने?’’
‘‘कौन छड़ाता उ ह! पू य िपताजी तो बंदी बना िलये गए थे।’’
‘‘तो या िपताजी का अपहरण भी आ था?’’ मने पूछा।
‘‘हाँ, एक िदन क िलए वे शा व क यहाँ थे ही।’’ एक अमा य बोला, ‘‘आप इसे अपहरण ही समिझए।’’
‘‘तो िफर जो सूचना हम िमली थी, वह सही थी।’’ मने भैया और अजुन को संबोिधत करते ए कहा।
‘‘िफर वे कसे मु ए?’’ हमारी त काल िज ासा थी।
‘‘यह तो आप उ ह से पूिछएगा।’’ अमा य बोला, ‘‘शायद इस िवषय म कोई और नह जानता।’’
‘‘हाँ, तो तुम ु न क िवषय म बता रह थे।’’ भैया बोले।
अमा य पुनः ु न क िवषय म बताने लगा—‘‘वे यु म अचेत हो िगर गए थे। वे श ु ारा चार ओर से
िघर गए थे। िन त था िक ऐसी थित म वे मार जा सकते थे िक अचानक वह आ, िजसे न कभी हम लोग ने
देखा था और न सुना था—और न इसका पूवाभास श ु ही कर सकता था।’’ िफर अमा य क मु ा एकाएक
बदली। उसने बताया—‘‘िफर लोग ने अचानक देखा िक एक रथ पर, िजसका संचालन दा क कर रहा ह, एक
वीरांगना श ु को चीरती ई सीधे शा व क िनकट प ची और ऐसी घुमाकर गदा मारी िक शा व का मुकट िगर
गया। उसक िसर से र धारा बह चली। वह लगभग अचेत होने क थित म आ गया। उसका सारिथ उसक
ाणर ा करता आ भागा। बस यु का पासा ही पलट गया।’’
म समझ गया िक रवती भाभी क अित र वह वीरांगना कोई दूसरी नह हो सकती। मने अपनी सहज मुसकराहट
क साथ ही भैया क ओर देखकर सयास कहा, ‘‘कभी रवती भाभी ने गदायु म आपक दाँत ख िकए थे, आज
शा व को िकनार लगा िदया।’’
‘‘चुप रहो। यथ क बात मत करो!’’ भैया झुँझलाए—‘‘आप लोग यह बताइए िक िफर ु न को यु से
िनकाला िकसने?’’
अमा य ने िफर कहना शु िकया—‘‘शा व क ढलकते ही उसक सेना भाग चली। तब महारानी ने दा क क
सहायता से अचेत कमार ु न को उठाया और अपने रथ म डाल िलया।’’
रवती भाभी क इस शौय पर हम एक-दूसर का मुँह देखते रह गए। मेर मन म कई तरह क िवचार आए। पहली
बात तो यह थी िक हमार समाज ने यु े म य क वजना करक अ छा नह िकया गया। य िप अतीत म
ऐसा नह था। दूसरी बात क िलए मने भगवा को कोिटशः ध यवाद िदया िक उसने दा क को इ थ से पहले
भेजने क ेरणा दी। यिद दा क न होता तो शायद रवती भाभी भी वह शौय िदखा नह पात । तब ारका का या
होता? मेर िलए यह सोचना भी एक भयावह व न देखना था।
इसक बाद सीधे हम लोग राजभवन म आए और उस क म प चे, जहाँ ु न क िचिक सा हो रही थी।
हमने देखा, उस िवशाल क म कई य ओषिध तैयार कर रह ह। राजवै वहाँ बैठ ह। उनक िनदश पर कछ
लेप ु न क घायल अंग पर लगाए जा रह ह। ारपाल से यह भी ात आ िक महाराज स ािज क साथ
चेिकतान आिद कई राजे-महाराजे राजकमार को देखने आए थे। अभी कछ समय पहले ही वे यहाँ से गए ह।
वै राज ने हम देखते ही पहली सूचना यही दी िक घबराने क कोई बात नह ह। राजकमार दो-एक िदन म
उठकर खड़ हो जाएँगे।
जब हम लोग ने ु न से बात क तो वह बड़ उ साह म िदखा। उसक आकित एक िवजयी यो ा क तरह
अपनी पीड़ा पीकर मुसकराहट उगल रही थी। हम लोग ने उसक यु -कौशल क सराहना करते ए उसक
शंसा क । उसका उ साहव न िकया।
मेरी तो बरबस अपनी प नय पर लगी थी। य ही म क म आया, वे रवती भाभी क साथ एकदम
िकनार जाकर खड़ी हो ग । न आपस म बात कर रही थ , न मेरी ओर देख ही रही थ । मेर आने पर उ ह ने िकसी
कार का अिभवादन भी नह िकया। प लगा िक वे मुझसे बेहद नाराज ह।
अब बात कसे शु क जाएँ? म सबको छोड़कर आगे बढ़ा और रवती भाभी क चरण छते ए बोला, ‘‘आिखर
आपको भी गदा उठानी पड़ी!’’
‘‘जब तुम लोग ने चूिड़याँ पहनकर ारका छोड़ दी तब म या करती!’’
‘‘अपने ब को मरने देत ।’’ यह धधकती आग मणी क दय क थी—‘‘और उनक िचंतामु िपता एवं
ताऊ को आयाव म घूम-घूमकर आनंद लेने देत ।’’
िफर या था, एक-एक करक सबने उलाहने देने शु िकए। इस काय म उनक वाणी ने िश ता क मयादा
का कई बार उ ंघन िकया। िकसीने हम कायर कहा, िकसीने घुमंतू कहा, िकसीने घर क िचंता िकए िबना संसार
क िलए याकल कहा, िकसीने यहाँ तक कहा िक आपको तो गृह थ जीवन म आना ही नह चािहए था।
पर म एक चुप, हजार चुप। मने सोचा, धुएँ को भभककर िनकल जाने दो। रह जाएगी आग, वह धीर-धीर खुद
बुझ जाएगी। इसिलए मने अपनी प नय क उबाल को पूरी तरह िनकलने िदया।
म कवल इतना ही बोला, ‘‘आपको हमारी प र थितय का ान नह ह, अ यथा आप हमार िलए ऐसे श द का
योग नह करत । व तुतः ोध म बुि पर िनयं ण रहता नह ; िफर भी म आपक इस ोध का अिभनंदन करता
।’’
‘‘हमार ोध का अिभनंदन क िजए या मत क िजए।’’ मणी बोली, ‘‘पर हम यह अव य चाहती ह िक आप
लोग राजधानी छोड़कर ब त िदन तक उससे दूर रहना छोड़ दीिजए।’’
‘‘हम भी गंभीरतापूवक ऐसा ही अनुभव कर रह ह।’’ मने कहा। िफर राजवै से िपताजी क िवषय म पूछा।
‘‘उ ह कह चोट नह लगी थी।’’ राजवै ने कहा, ‘‘िदन भर वे शा व क पकड़ म रह अव य।’’
‘‘िफर उनको उसने छोड़ा कसे?’’
‘‘यह तो वे ही बता सकते ह।’’ राजवै ने कहा।
हमारी िज ासा चरम सीमा पर थी। उस नीच ने उ ह पकड़कर छोड़ कसे िदया? यह तो उस दु क कित क
िव ह। हम लोग वह से सीधे िपताजी क पास प चे।
जैसािक आप जानते ह, हमार िपताजी का आवास ासाद प रसर म ही था, पर था राजभवन से बाहर। हम लोग
राज ासाद से बाहर आए। अँधेरा हो चला था। हर जगह मशाल जला दी गई थ । जब हम िपताजी क आवास पर
प चे, वे सं या-वंदन पर थे। माताजी से ात आ िक िपताजी अब पूजन से उठने ही वाले ह। तु हार आने क
सूचना उ ह िमल गई ह।
तब तक हम लोग माताजी क चरण छकर उ ह क पास बैठ गए। उ ह ने भी कछ वैसी ही उलाहना दी जैसी
हमारी प नयाँ दे चुक थ ; िकतु उनम जरा भी आ ोश नह था वर माता का सहज मम व था, हमारी लाचारी क
समझ थी और था िनयित क सदयता पर उसक ित आभार।
पूजन से उठते ही िपताजी ने सबसे पहले हमारा ही हाल पूछा।
शी ही संदभ बदलते ए हमने अपनी िज ासा य क —‘‘उस नीच ने आपका अपहरण कर िलया था?’’
‘‘हाँ, अपहरण ही समझो।’’ उ ह ने मुसकराते ए कहा, ‘‘एक िदन तक तो वह बंदी बनाए ही रहा और पूरी
ारका म मेरा अपहरण िकए जाने का समाचार सा रत करा िदया। हाहाकार मच गया।’’
‘‘इस समाचार को उसने ारका म ही नह , पूर आयाव म सा रत कराया।’’ मने कहा, ‘‘िजससे उस दु क
परा म से सारा देश थरा उठ।’’
‘‘बड़ा नीच ह वह!’’ िपताजी बोले, ‘‘तुम लोग भी घबरा गए होगे?’’
‘‘बात ही ऐसी थी।’’ मने कहा, ‘‘पर यह सब आ कसे?’’
‘‘बात यह ई िक तीन िदन तक ु न ने उसका जमकर सामना िकया। चौथे िदन उसने रात को भी यु जारी
रखने क योजना बनाई। वह तो मायावी और रा सी यु का भी जानकार ह। मुझे यह सूचना िदन डबते-डबते
िमली। जब यु बंद नह आ तब मने एक सेनापित से इसका कारण पूछा। तब उसने राि यु करने क उसक
योजना बताई।’’
िपताजी बोलते जा रह थे—‘‘म एकदम घबरा गया। सोचने लगा, अब तो मेरा पौ परशानी म पड़ जाएगा। तुम
लोग म से कोई था भी नह , या िकया जाए? मने वयं यु म जाने का िन य िकया। महामा य ने मुझे रोका।
धान सेनापित ने भी कहा िक आपक अव था और वा य दोन यु म जाने यो य नह ह। आप राजभवन म
िव ाम कर और वह से हम आशीवाद तथा िनदश द। हम लोग क जीते जी कोई भी अि य घटना नह होगी। पर
मने िकसीक एक बात नह सुनी। म अपना रथ ले यु थल म आ गया।’’
िपताजी कहते जा रह थे—‘‘म कछ कर पाऊ, इसक पहले ही म उसक मायायु क च कर म फस गया। उसका
सौभ िवमान ठीक मेर रथ क आगे आकर खड़ा हो गया। चालक ने ऐसा स मान िदखाया जैसे वह मेरा श ु नह ,
िम हो। उसने बड़ आ ह से कहा, ‘मुझे क हया ने भेजा ह। उनका कहना ह िक आप यु न कर और इस
िवमान म बैठकर मेर पास आ जाएँ।’ उसने यह भी बताया—‘क हया यहाँ से मु कल से एक योजन क दूरी पर
ह। अब तो वे प चते ही ह गे, िफर तो यु क थित ही बदल जाएगी।’
‘‘बस, म उसक धोखे म आ गया।’’ िपताजी ने बताया—‘‘ य ही म िवमान पर चढ़ा, वह शा व क िशिवर क
ओर उड़ा और म बंदी बना िलया गया।
‘‘िफर म या कर सकता था!’’ िपताजी ने कहा, ‘‘मुझे एक िशिवर म रखा गया। बाहर कठोर पहरा था। भीतर
क यव था राजसी थी। मेरी सेवा म दास-दासी सब थे। सुना, मेर बंदी होते ही यु समा हो गया। राि म कई
बार मेर िशिवर क सामने अ हास करता और यह कहता आ शा व गुजरा िक आज ारकाधीश का िपता मेरा
बंदी ह। म उसका कछ भी कर सकता ।’’
‘‘तब आप भयभीत नह ए?’’ भैया ने पूछा।
‘‘मुझे भयभीत करने क िलए तो उसने यह सब िकया था। यह जानते ए म भयभीत य होता!’’ िपताजी ने कहा,
‘‘िफर मने तो कस क बंदीगृह क यातना झेली ह, बेट, जहाँ हर ण ाण सूली पर टगा रहता था। म तो इस
कार का जीवन जीने का आदी था और आज भी ।’’
िपताजी बोलते गए—‘‘सवेरा होते-होते शा व क िशिवर म एक िविच कार का कोलाहल आ िक स ािज ,
सा यिक आिद कई यादव राजा क सेना आ रही ह। यह सामूिहक आ मण भयानक होगा। बस शा व क
िस ी-िप ी गुम हो गई।’’
‘‘दूसर को भयभीत करनेवाला वयं भयभीत हो गया।’’ मने कहा, ‘‘जब आतंक यु उलटता ह तब ऐसे ही
प रणाम होते ह। िजन यादव को आतंिकत कर शा व एक-दूसर से अलग कर देना चाहता था, वे उसीक िव
एकि त होने लगे।’’ इसक बाद मने िव तार से िपताजी को िपछली घटनाएँ सुना ।
िपताजी हसने लगे। बोले, ‘‘काग क चतुराई ब धा उसे गंदगी म च च मारने को िववश कर देती ह।’’ िफर वे चुप
हो गए। लगा, कछ कहना चाहकर भी उ ह ने कहना उिचत नह समझा। मने कई न िकए; पर वे सभी इधर-
उधर क बात से टालते गए। ब त जोर देने पर उ ह ने आपबीती का अंितम अंश सुनाया—‘‘िफर मुझे अचानक
शा व क सामने उप थत िकया गया। उसका अह मुझे देखते ही चीखा—‘जानते ह, इस समय आप मेर बंदी ह।
म चा तो आपक ह या कर सकता ।’
‘‘ ‘तुम करने को तो कछ भी कर सकते हो।’ मने बड़ी िनभ कता से कहा, ‘पर तुम करोगे नह ।’
‘‘ ‘ य ?’
‘‘ ‘ य िक तुमने अभी कहा ह िक आप मेर बंदी ह—और बंदी को यायािधकरण ही ाणदंड दे सकता ह, तुम
नह ।’ ’’
िपताजी ने आगे बताया—‘‘वह मेरा मुख देखने लगा। बोला, ‘म आपको मार नह सकता?’
‘‘ ‘मारने क िलए मुझे मु करना होगा।’ मने कहा, ‘तब म बंदी नह रह जाऊगा। कवल तु हारा श ु र गा।
िफर भी तुम मेरी ह या नह कर पाओगे; य िक म िनर र गा। िनर श ु को मारना शा -विजत ह।’
‘‘ ‘और यिद म आपको श दे दूँ तब या होगा?’
‘‘ ‘तब मुझम और तुमम यु होगा।’ म बोला। इसक बाद वह गंभीर हो गया। बोला, ‘अब आपसे या यु क !
आप वय म मुझसे ब त बड़ ह।’ इस बीच गंभीर कोलाहल आ। उसक य ता और बढ़ी। घबराकर उसने
ह रय से कहा, ‘जहाँ से इ ह ले आए हो वह ले जाओ और इनपर रखो।’ ’’
िपताजी कहते गए—‘‘िफर म या क बाद ही म छोड़ िदया गया। उसक सैिनक मुझे ारका क नगर ार तक
छोड़ गए। स ािज आिद मेरी खोज म िनकलने ही वाले थे िक मुझे सकशल देखकर बड़ स ए।’’
हम लोग ने अनुभव िकया िक शा व क य ता हमार पू य िपताजी क िलए वरदान िस ई, अ यथा वह
नीच कछ भी कर सकता था। भैया तो इतने उ ेिजत थे िक उसका उपचार शी कर देना चाहते थे। सं ित म मौन
रहा।
हम बाहर आए तो िफर महामा य हमार साथ हो िलया। हमार अभाव म ारका म या- या घिटत आ, उसका
लेखा-जोखा देने लगा। अचानक वह अपने िवचार रथ क अ को रोकते ए बोला, ‘‘एक िविच घटना ई,
िजसक िवषय म कछ िवशेष बताया नह जा सकता।’’
हमारी िज ासा िवशेष प से उसका मुख देखने लगी।
उसने बताया—‘‘एक चर आया था। वह सीधे मुझसे िमला। उसने कहा, ‘ ारकाधीश जब आएँ तो उनसे किहएगा
िक म उनक आ ा का पालन करने यहाँ तक आया था; पर यहाँ अपने वामी शा व को न पाकर उनसे
ारकाधीश का संदेश कह नह पाया।’ इतना कहते-कहते वह िगर गया और देखते-देखते उसने दम तोड़ िदया।’’
‘‘आप लोग ने उसे बचाने क चे ा नह क ?’’ मने पूछा।
‘‘ब त क । उसे उठाकर िचिक सालय म ले जाया जा रहा था।’’ महामा य ने बताया—‘‘चर ने कहा, ‘अब मुझे
कह मत ले जाइए। मेरा प ा ाप मेर तन और मन को चाल चुका ह। म थोड़ ही समय का मेहमान । िगनी-
चुनी साँस ही रह गई ह। ारकाधीश का संदेश न देना होता तो मेरी िजजीिवषा यहाँ तक शायद मुझे न ला पाती।’
इतना कहते-कहते वह थ होने लगा और उसक ाण-पखे देखते-देखते उड़ गए।’’
म तो समझ गया िक वह कौन रहा होगा। िफर भी पूछा, ‘‘आप लोग ने उसका नाम नह पूछा?’’
‘‘हाँ, पूछा था। वह तो बताना ही भूल गया।’’ महामा य बोला, ‘‘उसका नाम था चं कांत।’’
अब मने अजुन क ओर देखा। वह भी बड़ा गंभीर हो गया। उसने कहा, ‘‘आपका मा करना उसे बड़ा भारी
पड़ा।’’
‘‘मने उसक दंड को मा नह िकया था, ब क मा का दंड िदया था।’’
इस संदभ को यहाँ हम और अजुन दो ही जानते थे, इसिलए और कोई समझ नह पाया।
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य िप रात अिधक जा चुक थी, िफर भी मने अपने अितिथ राजा से आज ही िमलना उिचत समझा।
‘‘यिद वे सो गए ह तो?’’ अजुन ने शंका क ।
‘‘तो हम लौट आएँगे।’’ मने कहा, ‘‘उ ह यह कहने का अवसर तो नह िमलेगा िक ारका म प चते ही हमने
उनक सुिध नह ली।’’
पर आपको जानकर आ य होगा िक हमारी ती ा म सभी जाग रह थे। प चते ही अितिथभवन क हरी ने
हम सूचना दी िक लोग म य क िवशाल क म बैठ आप लोग क ती ा कर रह ह। हम लोग क क म
प चते ही स ािज को छोड़कर लोग खड़ हो गए। यथोिचत अिभवादन का आदान- दान आ।
सा यिक ही पहले बोला, ‘‘ ारका को िवपि म फसी सुनकर ही हम दौड़ पड़। हमने आपक बुलावे क ती ा
तक नह क ।’’
‘‘हम आप सबक इस कपा क आभारी ह।’’ मने सिवनय कहा, ‘‘आप यह न सोच िक हमने आपको मरण नह
िकया था। चर भेजना तो दूर, हम आप लोग क यहाँ वयं गए थे; पर यह हमारा सौभा य ही था िक हमार प चने
क पूव ही आप सभी ारका क िलए थान कर चुक थे।’’
‘‘पर आपक और िम अभी तक नह पधार!’’ चेिकतान बोला।
‘‘हो सकता ह, वे देर-सबेर आएँ या न आएँ।’’ मने कहा, ‘‘वे लोग ही आएँगे न, जहाँ शा व ने सूचना भेजी ह!’’
‘‘तो या यह सूचना शा व ारा भेजी गई थी?’’ मेर सुर स ािज ने पूछा।
‘‘आप इस त य पर चिकत ह न!’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘यह सूचना उसने ही िभजवाई थी और यादव
राजा क यहाँ ही िभजवाई थी।’’
‘‘ऐसा य िकया उसने?’’
‘‘यादव राजा को आतंिकत करने क िलए।’’ मने कहा, ‘‘िजससे लोग देख ल िक जब शा व ारका पर
अिधकार कर सकता ह, तो उसक सामने िटकने क और क ह ती ही या ह!’’
‘‘तो इस सूचना क सा रत करने का उसका एकमा उ े य यही था िक लोग आतंिकत होकर उसक शरण म
चले जाएँ!’’ चेिकतान बोला।
‘‘इसक अित र और या हो सकता ह!’’ मने कहा। िफर मने अचानक बात बदल दी—‘‘जो भी हो, इस समय
आप िव ाम कर। राि अिधक जा चुक ह। कल ातः पूजन क बाद हम िफर िमलगे, तब िव तार से चचा होगी।
आप लोग ने ऐन मौक पर पधारकर ारका को बचाया। हम आपक इस उपकार को कभी नह भूलगे।’’
मने उ ह यह कहने का भी अवसर नह िदया िक हमार आगमन क पूव ही ारका बच गई थी। िफर हम
अितिथगृह से वापस चले आए। मने भैया को थम उनक भवन प चाया। अब मेर साथ कवल अजुन रह गया
था।
कित क अचानक मु ा बदली। ऐसा लगा िक तेज तूफान आने वाला ह। मने रथ समु क ओर मोड़ िदया।
‘‘आज िव ाम नह करगे या?’’ अजुन बोला।
‘‘जब कित क उ पात क मु ा ह तब हम िव ाम य कर!’’ मने कहा।
‘‘तब हम भी उ पात कर।’’ अजुन मुसकराते ए बोला।
‘‘कहाँ?’’
‘‘श या पर।’’ इतना कहते ही वह जोर से हस पड़ा—और म भी।
अजुन म एक िवशेष बात थी। और क उप थित म तो वह बड़ा गंभीर रहता था, पर एकांत होते ही वह मुझपर
चोट करने से बाज नह आता था। इस समय भी उसक मु ा चुटीली थी—‘‘अ ज े , इतने िदन तक भािभय
को आप छोड़ रह। आज तो वे आँख िबछाए करवट बदल रही ह गी। इस तूफान से कह अिधक हाहाकार करता
उनक दय का तूफान होगा।’’
‘‘पर मुझे तो सागर का तूफान अपनी ओर ख चता ह।’’ मने कहा, ‘‘पता नह य , अंधकार म जब समु तड़पता
ह तब मुझे ब त अ छा लगता ह।’’
‘‘तुम बड़ िन ुर हो, क हया!’’ अजुन क प रहास ने उलाहना भरी मु ा बदली—‘‘तुम समु को ही तड़पाया
करो, भािभय को नह । यिद तु ह उ ह तड़पाना ही ह तो भािभय क सं या य बढ़ाते जा रह हो?’’
‘‘म भािभय क सं या बढ़ा रहा ! यह या कह रह हो, पाथ? म तु हार जैसा थोड़ ही िक जहाँ जाऊ वह
एक िववाह कर लूँ।’’
‘‘अर, िववाह करो या फसाकर लाओ—कहने का ता पय ह िक भ बनाकर लाओ, दोन म कोई अंतर तो ह
नह ।’’
‘‘ य नह अंतर ह!’’ मने कहा, ‘‘भ म एकप ीय समपण ह और िववाह म ि प ीय। भ म भगवा क
वीकित ह और िववाह म समाज क ।’’
‘‘अर वाह र भगवा ! तुम भी अ ुत हो।’’ अजुन इतना कहकर चुप हो गया। प लगा िक वह कछ और
कहना चाहता था, पर मेर य व ने उसक अधर पर अँगुली धर दी।
अब हम समु क िकनार आ गए थे। सामने उसका गजन था। उ ाल तरग का हाहाकार था। वा याच म
लहर का नतन-िववतन था और थी समु क फिनल जल म गहन अंधकार क घुली-िमली कािलमा। वहाँ
प चकर हम दोन आ मकि त हो गए थे। ब त देर तक मेरा मन उस िसंधु-गजन म खोता रहा। मने अंधकार का
मौन तो अनेक बार सुना था, पर आज मौन का ची कार सुन रहा था। हम समय क सीमा का भी ान नह रहा;
पर तार क िझलिमलाहट ने राि क उतार क ओर हमारा यान ख चा, तब हम वहाँ से चल पड़।
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पूव िन य क अनुसार दूसर िदन ातः पूजन क बाद म भैया को लेकर अितिथगृह क मं णाक म प चा।
अजुन पहले से ही वहाँ उप थत था।
बात शु ।
‘‘अब या करना चािहए?’’ स ािज ने पूछा।
‘‘जैसी आप सबक राय हो।’’ मने कहा।
‘‘शा व ने आ मण िकया था ारका पर। िवपि म थी ारका। संकटाप ह आप लोग क ित ा। ऐसे म हम
लोग या कर सकते ह?’’ स ािज ने पूछा।
‘‘कदािच आप गहर म म ह।’’ मने कहा, ‘‘यह सम या ारका क ही नह ह और न कवल हमारी ित ा
संकटाप ह। व तुतः यह संकट संपूण यादव समाज का ह।’’ मने कहा और शा व क -पूजन तथा उसक
संक प क पुनः चचा क और बताया—‘‘ ारका पर आ मण तो उसक संक प का आरभ मा ह। व तुतः
उसने हमपर आ मण नह िकया ह वर हमार मा यम से सम त यादव पर आ मण िकया ह।’’
अब सभी क िचंता वाभािवक थी।
चेिकतान ने कहा, ‘‘तब तो हम इस िवषय पर नए िसर से िवचार करना चािहए।’’
‘‘िवचार या करना ह!’’ भैया बोले, ‘‘नाग हम एक-एक कर काट, इसक पहले ही उसका फन कचल देना
चािहए।’’
लोग और गंभीर हो गए। उनक िचंतन पर शा व क बढ़ी ई श का आतंक प िदखाई िदया।
‘‘हम लोग िजतनी सेना लेकर यहाँ आए ह, या उतनी सेना से काम चल जाएगा, या उसपर आ मण करने क
िलए हम पूरी श लगानी पड़गी?’’
मने हसते ए कहा, ‘‘शा व श यु म कम िव ास करता ह। वह आतंक यु का महारथी ह। आतंक
फलाकर श ु को इतना आतंिकत कर देगा िक वह सामने ही न आए। उसक यु का मूल ह आतंक। ारका क
इस चढ़ाई म भी उसने श से कम और आतंक से अिधक काम िलया।’’ इसी म म मने चं कांतवाली पूरी
कथा सुनाई—‘‘उसक मा यम से उसने आप लोग को इतना आतंिकत कर देना चाहा िक आप चुप होकर अपने-
अपने ासाद म ही पड़ रह जाएँ। िकतु आप लोग क साहस और मेर ित आपक िचंता ने उसक योजना पर
पानी फर िदया।’’
िफर मने उसक यु नीित क िवशेष चचा क ।
‘‘मानव होकर भी वह मानवी यु क अपे ा रा सी यु म अिधक िव ास करता ह—और रा सी यु का
आधार ह आतंक पैदा करना। व तुतः रा स हमसे अिधक श शाली नह होते वर आतंक क कारण ही उनक
श कई गुना िदखाई देती ह—और यही आतंक उ ह परािजत भी कर देता ह। यिद हम लोग सामूिहक आ मण
कर तो थम हमार सामूिहक होने का आतंक ही उसे परािजत कर देगा।’’
इसी िसलिसले म मने उन लोग को िपताजी ारा बताई गई वा तिवकता से प रिचत कराया और कहा, ‘‘आप
लोग ारा सामूिहक प से ारका म आ धमकने क य ता ने ही हमार िपताजी को मु कराया।’’
‘‘यिद आतंक यु का ही सहारा लेना ह तो अभी से ही य नह िलया जाए!’’ सा यिक बोला, ‘‘उसक रा य म
यह समाचार सा रत करा िदया जाए िक माितकावत पर यादव क सामूिहक चढ़ाई होने वाली ह।’’
म कछ ण तक मौन रहकर सा यिक क ताव पर िवचार करने लगा और लोग भी चुप ही रह। िफर मने कहा,
‘‘यह चाल भी उलट सकती ह। इससे वह सावधान हो श -सं ह म लग जाएगा।’’
‘‘तब हम या करना चािहए?’’ चेिकतान बोला।
‘‘मेरी राय म तो उसपर अ यािशत और कई ओर से आ मण करना चािहए। ऐसी शी ता और चपलता िदखानी
चािहए िक उसक जा म भगदड़ मच जाए। सेना भी कछ समझ न पाए। ऐसा आतंक छा जाए िक देखते-देखते
हम शा व को बंदी बना ल। इसम हम र पात भी कम करना पड़गा।’’
‘‘इसक िलए तो हम अपनी सारी योजना गु रखनी पड़गी।’’ स ािज बोले, ‘‘शा व को कान कान भनक न पड़
िक ऐसा भी हो सकता ह।’’
यही योजना सवमा य ई। उसी समय इसे गोपनीयता क िपटारी म बंद कर िदया गया। महामा य तक को आज
क चचा क िन कष का आभास नह लगा; िकतु मने अपने महामा य को तुरत आदेश िदया िक सेना को हर समय
तैयार रहने को कह। एक घड़ी क सूचना पर उ ह आ मण क िलए िकसी भी समय चल देना पड़ सकता ह।
‘‘िकधर जाना पड़गा?’’ महामा य ने दबी जबान पूछा, ‘‘ य िक सेना को वहाँ क कित क अनुसार तैयारी करनी
पड़गी।’’
‘‘यह भी अभी नह बताया जा सकता।’’ मने कहा, ‘‘पर इतना जािनए िक जहाँ भी जाना होगा वहाँ क कित
और मौसम यहाँ से अिधक िभ नह ह।’’
महामा य चुपचाप चला गया। उसने और कोई िज ासा नह क ।
ारका म पधार अ य यादव राजा क साथ आई सेना को भी ऐसा ही सचेत रहने का आदेश दे िदया गया।
सेना क सतकता ने एक अजीब दहशत-सी पैदा कर दी। ारका एक बार िफर थरथराने लगी।
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दो िदन तक लोग ऊहापोह क थित म थे। तरह-तरह क अनुमान लगाए जा रह थे; पर सार अनुमान शा व
पर ही कि त थे। कोई कहता, शा व इस बार भारी सेना लेकर अपने िम क सहायता क साथ आ मण करगा।
वह भाई सरीखे अपने िम िशशुपाल क वध से ब त नाराज ह। उसीक ितरोध क िलए इतनी सतकता बरती जा
रही ह।
कछ लोग शा व पर आ मण क भी बात सोचते थे; पर यह भी कहते थे िक ारकाधीश का य व
आ ामक नह ह। उ ह ने आज तक िकसी िवशाल सेना क साथ िकसी रा य पर चढ़ाई नह क ह। रा य तर क
यु से वे सदा िवरत रह ह। हाँ, य गत यु म उ ह ने ब त को परा त िकया ह।
यह स य ह िक मने सदा रा य तर क यु का िवरोध िकया ह। इसम िनरपराध जा मारी जाती ह। उसक
बड़ी हािन होती ह। दोषी ह राजा तो जा य मारी जाए?
इस बार भी अचानक आ मण करने क पीछ मेरा यही उ े य था। जा को आतंिकत करना, भयभीत करना;
पर उसक जरा भी हािन न होने देना। इसीिलए हमने उ कोिट क गोपनीयता बरती। न मने िपताजी से इसक
चचा क और न नानाजी से। अपने कलगु आचाय गग को भी िव ास म नह िलया। यहाँ तक िक बात फट
जाने क डर से मु त पर भी िवचार नह िकया गया। िजस िदन हम आ मण करना था, उससे पहली रात क थम
हर म हम लोग ने िवचार-िवमश िकया। अपने म वयोवृ स ािज को नेतृ व स पा और सेना को सूिचत कर
िदया गया िक ा मु त क पहले थान करना ह। पर कहाँ और िकधर, इसका कोई िनदश नह ।
दूसर िदन ा मु त क पहले ही सैिनक िशिवर म खटपट होने लगी। मंिदर अभी जागे नह थे, पर धीर-धीर
सारी ारका जाग गई। सहमी-सहमी, पर भयभीत नह । कछ होने का मौन आभास चार ओर छाता आ।
चलते समय िनयमानुसार म सभी छोट-बड़ से िमला। सबने िज ासा क ; पर म सबको टालता गया। ु न ने
भी पूछा।
मने बस इतना कहा, ‘‘तु हार घाव अभी भर नह ह, अ यथा तु ह भी ले चलते।’’
वह मणी भी थी। उसने त ण मुझसे न िकया—‘‘ या आपका घाव भर गया ह? शा व ने जो आपक
ित ा पर आघात िकया था, या वह चोट अ छी हो गई ह?’’
‘‘वह घाव ऐसे थोड़ ही भरगा।’’ मने कहा, ‘‘उसे भरने ही जा रहा ।’’
बस इतना संकत पया था मणी क िलए। धीर-धीर अ य रािनय तक यह बात रग गई। उ ह ने तुरत मेरा
ितलक िकया। आरती उतारी। यु म जा रह अपने पित—अथा मुझे भावभीनी िबदाई देते ए भगवा से मेरी
सफलता क कामना क ।
बाद म पता चला िक भैया ने रवती भाभी को भी बता िदया ह। ना रय क बीच क बात को जंगल क आग
बनते देर नह लगती। मने समझ िलया िक यिद शी ता नह क गई तो गोपनीयता िबखर जाएगी। अतएव मने शी
ही थान क यव था क ।
जब हमारी सेना नगर ार से पार ई तब मंिदर म मंगला क आरती क घंट बजने लगे। हम सबका यान
अनायास उस ओर िखंच गया। हमने मन-ही-मन अपने इ देवता को णाम िकया। हम लोग ने सोचा िक यह
शुभ ल ण ह। हमारी सफलता असंिद ध ह।
सेना रसद साम ी से भरी थी। हम सभी य से तैयार हो चले थे। हमारी गित भी सामा य से अिधक थी। माग
म जो भी हम देखता, उसक नवाची हम िनहारती रह जाती।
माितकावत प चने म हम राि का िव ाम भर लेना पड़ा। दूसर िदन आधी रात को हम नगर म वेश कर चुक
थे।
माग म सैिनक को यह अ छी तरह िनदश िदया गया था िक जा क जरा भी हािन नह होनी चािहए। हमार इस
िनदश का अ रशः पालन िकया गया। जब हम लोग ने नगर म वेश िकया, हम एक बात सालने लगी थी िक
आधी रात म िकसी नगर म तो द यु आ मण करते ह, यो ा नह । और यह तो चिलत यु िवधान क िव भी
ह। पर या करते! हमारी योजनानुसार तो यही समय उपयु था। इसीिलए हम लोग ने सैिनक से जा क िलए
उ ोष कराया—
‘‘ जाजन अिवचिलत होकर िव ाम करते रह। हमारा उ े य नगर पर आ मण करना नह ह। हमारा एकमा
उ े य ह, उस शा व नामक जीव को उसक करनी का फल चखाना।’’
सेना का यह उ ोष बराबर चलता रहा। इसका सबसे अ छा प रणाम यह आ िक जा एकदम बीच म नह
आई। वह चुपचाप अपने वातायन से तमाशा देखती रही। यिद जा सि य होती तो हम एक श शाली िवरोध
का सामना करना पड़ता; पर जा क ओर से कोई िवरोध नह आ। शा व क सैिनक तैयार ही नह थे, वे िवरोध
या करते! जब तक वे उठ, समझ तब तक हमारी सेना पूर नगर म फल चुक थी; सैिनक छाविनय को घेर चुक
थी।
शा व और उसक प रवार क िलए यह भयावहता अ यािशत थी। अचानक आई िवपि से वह घबरा उठा।
सैिनक का कोलाहल और हम लोग क ललकार से वह और भी य हो गया। उसने तुरत अमा य क यहाँ चर
भेजे। सेनापित को बुलाया। पर जब उसे पता चला िक म अकला नह , मेर साथ सा यिक, स ािज , चेिकतान
आिद अ य यादव नरश भी ह तब तो उसक पैर क नीचे क धरती ही िखसक गई। अब हमारा सामना करने क
उसक िह मत छट गई। इस बीच हम लोग ने उसक राज ासाद को अ छी तरह घेर िलया।
उसने चुपचाप अपने सौभ िवमान को ासाद क िपछले ार क ओर मँगवाया। उधर चेिकतान अपनी सेना क
साथ था। उसने कभी यह िवमान तो देखा नह था, अतः पहले तो वह समझ नह पाया; पर जब शा व उसपर
चढ़ने लगा तब उसने आ मण िकया। सैिनक ने उसे घेर िलया; पर शा व को रोक पाना चेिकतान क वश क
बात नह थी। उसने उसका पहला आ मण िवफल कर िदया। अकले शा व ने चेिकतान क कई सैिनक को
धराशायी कर िदया।
अब वह िच ाया—‘‘देिखए, शा व भाग रहा ह!’’
उसक यह िच ाहट एक मुख, दो मुख—और िफर कई मुख से होती ई मुझ तक प ची। मेरा रथ तुरत उस
ओर मुड़ गया।
‘‘यादव का समूल नाश करने का संक प लेनेवाले! कहाँ भाग रहा ह? अब यादव का सामना कर।’’
इस थित म भी उसने हमारी ललकार का उ र िदया—‘‘मुझे नह मालूम था िक यादव चोर, लुटर और
द यु क तरह आ जाएँगे।’’
सैिनक क बल िवरोध को चीरता आ वह िफर िवमान क िनकट प चा और उसपर चढ़ने क चे ा करने
लगा िक मने अिभमंि त करक अपना सुदशन च चलाया। िवमान क टकड़-टकड़ हो गए। अब वह लाचार था।
िककत यिवमूढ़ होकर खड़ा हो गया।
चेिकतान उसे बेधने ही वाला था िक म िच ाया—‘‘देखो, इसपर हार मत करना। इसे हम बंदी बनाना ह।’’
मेरा इतना कहना था िक चेिकतान ने पाश फका। शा व उसम जकड़ गया।
पर भैया इस प म नह थे। उनका कहना था िक या करोगे इस िवषधर को बंदी बनाकर? इसे यह कचलकर
समा करो। इसक िलए वे काफ नाराज भी ए।
मने उनसे धीर से कहा, ‘‘म इसे ारका ले चलूँगा और इसी हालत म पूर नगर म घुमाऊगा।’’
‘‘इससे लाभ या होगा?’’
‘‘जो हमारी जा इससे आतंिकत ह, उसका आतंक समा होगा।’’ मने कहा।
हमारी बात सा यिक सुन रहा था। उसने तुरत बीच म ह त ेप िकया और कहा, ‘‘इससे एक लाभ और होगा।
चाचाजी (वसुदेव) क अपहरण का जो चार इसने िकया था और आयाव क यादव नरश पर इसने जैसा आतंक
जमाया था, इसको बंदी बनाने क चार से वह भी समा हो जाएगा।’’
‘‘तुम तो क हयावाली करोगे ही।’’ भैया बोले, ‘‘जैसा तुम लोग चाहो, करो। मुझसे कोई मतलब नह ।’’ उ ह ने
िझड़ककर कहा और हम लोग से थोड़ा दूर हो गए।
भैया को समझाते ए सा यिक कछ कहने ही वाला था िक मने उसका हाथ दबाकर चुप रहने का संकत िकया;
य िक भैया का यह वभाव था, िजसे झेलने क हम आदी हो गए थे। उनका ोध बड़ा फिनल होता था।
अचानक वह बड़ी तेजी से फफकता था और िफर थोड़ी देर बाद ही शांत हो जाता था।
बंदी शा व क देखभाल क और उसपर पूरी सावधानी रखने क िज मेदारी मने चेिकतान को ही स पी। िफर भी
मने उसका रथ चार सेनापितय क बीच म ही रखवाया, िजससे वह िकसी कार िनकलकर भाग न सक।
सूय दय क पूव ही हम लोग ने माितकावत छोड़ िदया। हम लोग अपनी योजना म पूण सफल रह। जा का
बाल बाँका न हो सका और राजा को बंदी बना िलया गया। हम बाद म पता चला िक इसका माितकावत क
जनता पर बड़ा अ छा भाव पड़ा। वह िकसी कार से भी असंतु नह थी। उसका मानना था िक मनु य को
अपने कम का फल तो भोगना ही पड़ता ह। िजसने अपराध िकया, उसे दंड िमला। उ ह स ता थी िक उ ह
िकसी कार क हािन नह ई।
ारका म लाकर हम लोग ने शा व को उसी थित म नगर भर म घुमाया। जा ने उसका खूब मजाक
उड़ाया। शा व ने कोई िति या य नह क । वह पाश से आब रथ म चुपचाप बैठा रहा और जब उसका
रथ राजभवन क सामने रोका गया तब उसका चेहरा तमतमाया था, एकदम लाल। लगा, ालामुखी िकसी भी
समय फट सकता ह। भैया ने िफर वही पुरानी बात दुहराई। अब इसे छोड़ना चोट खाए साँप को छोड़ना ह। यह
िबना बदला िलये एक ण भी चैन से नह बैठगा। यही िवचार मेर अ य िम क भी थे; पर म शा व क वध क
प म नह था।
मुझे लग रहा था िक अब इसका वध करना ब त बड़ी कायरता होगी। लोग या कहगे िक ारका म एक बंदी
क ह या कर दी गई। पर म अपना िनणय और पर थोप पाने क थित म नह था। म तो कवल अपनी राय दे
सकता था। िनणय तो यादव को लेना था। सं ित मने उसे कारा म डलवाकर उसक मृ यु क घड़ी कछ समय क
िलए टाल दी।
पूर िदन ारका म िवजयपव मनाया गया। ारका को तो ऐसा लग रहा था जैसे उसने अपने जीवन का पहला
यु जीता हो; जैसे एक परािजत और हताश को अचानक िकसीने िवजय क िसंहासन पर बैठा िदया हो।
राजभवन क स ता का भी पारावार नह । जरासंध और नरकासुर क वध क बाद भी ये लोग उतने स नह
िदखे िजतने आज िदखाई दे रह थे।
िकसी और से तो म कछ नह बोला, कवल मणी से कहा, ‘‘आज जैसी स तो मने तु ह इसक पहले कभी
नह देखा; जबिक मेरी और उपल धयाँ इससे मह व क थ ।’’
‘‘आपने वह य नह देखा ह, जब हमारा बेटा यु भूिम म सं ाशू य होकर िगरा था। सारी ारका रो रही थी। उस
हताशा म अपना िसर धुनना बस हमार अिधकार म रह गया था। वह तो किहए जेठानीजी (रवती) जैसी वीरांगना
थ , िजसने यु का न शा ही बदल िदया।’’
‘‘यह ठीक ह, पर हमारी स ता को िवजय क उ माद क सीमा नह छनी चािहए।’’
‘‘भयानक अंधकार म जब सूय क उगने क कोई संभावना हो तब एक िम ी क दीये क योित भी हम िकतनी
आ ािदत करती ह! िकतु आज तो सूय दय आ ह। इस थित म जो उ मािदत होते ह, उ ह उ मािदत होने
दीिजए। उनक उ माद पर आपका या अिधकार!’’
‘‘िकसीक उ माद पर मेरा कोई अिधकार नह ; पर उसका अपना तो अिधकार ह। लोग को अपने उ माद को वयं
िनयंि त करना चािहए; य िक उ माद म त क क िवकत अव था ह। उससे य अपनी ही हािन कर सकता
ह।’’
‘‘आपने मुझसे ऐसी बात क तो क , पर मवती और शुभांगी ( ु न क पूव प नयाँ) क सामने ऐसी बात मत
क िजएगा। उनका उ माद देखना हो तो मंगला गौरी क मंिदर म देिखए, जहाँ वे नृ य कर रही ह। आज उनका
सौभा य बुझते-बुझते भभक उठा ह।’’
इसक बाद ही मने अनुभव िकया िक िकसीको समझाने का कोई भाव नह । आज सारी ारका िवजयो माद म
नाच रही ह।
म वहाँ से चुपचाप िनकला और आज सं या को ही अितिथगृह क मं णा-क म यादव नरश क बैठक
बुलाई। िवषय था—कारागार म पड़ शा व क साथ या यवहार िकया जाए?
उस बैठक म भैया पहले व ा ए। उनका बस एक ही कथन था—‘‘अभी तक हमने उस नीच को य जीिवत
रखा ह, यही बड़ा आ य ह!’’
‘‘िकसीक ाण लेने क पहले हम अ छी तरह सोचना चािहए।’’ मने कहा।
‘‘यिद हर सैिनक तु हार जैसा सोचेगा तो वह दाशिनक हो जाएगा और यु थल दशनशा य का आ म।’’
स ािज बोला।
कोई मेरी बात सुननेवाला नह था। म सोचता था िक शा व का इतना अपमािनत होना उसक मृ युदंड से िकसी
कार कम नह ह। उससे सावजिनक प से वचन लेकर िक अब वह कभी यादव क िव िसर उठाने का
साहस नह करगा, उसे छोड़ देना चािहए। म िकसीक ाण लेने का तभी समथन करता था जब उसका ाण लेना
अित आव यक हो, समाज क िलए अिनवाय हो गया हो, उसक अित र कोई और माग िदखाई नह देता हो।
पर म इस बैठक म अपना प रख नह पाया। हर य एक ही राग अलाप रहा था—और वही आ, जो वे
चाहते थे।
कल ातः शा व को ाणदंड देने का िन य सवस मत आ। मेरी एक भी यु काम नह आई।
शी ही ारका म यह सा रत हो गया िक कल ातः कारागार क सम क श त ांगण म शा व को
मृ युदंड िदया जाएगा। सूचना से ही नगर आ ािदत हो गया। दूसर िदन समय से पूव ही वहाँ लोग इक होने
लगे। बस एक यही बात सबक जबान पर थी िक ारका क सवसवा होने का िजसने व न देखा था, आज वह
मृ यु क गोद म सुला िदया जाएगा। उसक मु ी म बंद होती-होती ारका उसक ाण पर सवार हो गई।
कारागार क िनयम क अनुसार ा मु त से ही शा व को धम ंथ का पाठ सुनाया जाने लगा। य - य समय
िखसकने लगा, मृ यु उसक िनकट आती जान पड़ी।
ठीक समय पर शा व बिल थल पर लाया गया; पर उसक चेहर पर जरा भी िशकन नह थी वर कल से वह
अिधक ऊजासंप और स िदखाई दे रहा था। बिलमंच पर चढ़ने क ि ता और उसक उ साह ने हम सबको
चिकत कर िदया।
सा यिक ने मेर कान म धीर से कहा, ‘‘इसक पीछ कोई रह य अव य ह।’’
िफर दंडनायक ने आकर शा व को उसका अपराध सुनाया और कहा, ‘‘आपक पास कछ ही समय और ह। आप
चाह तो अपने इ देव क वंदना कर ल और अपनी अंितम इ छा बताएँ। यिद संभव होगा तो उसे पूरा करने क
चे ा क जाएगी।’’
‘‘मेरी मा एक ही इ छा ह। म वसुदेव से बात करना चाहता ।’’ शा व ने कहा। उसक कथन म बड़ी िनभ कता
और साहस का भाव था, साथ ही बड़ी अिश ता और ऐंठ भी। िपताजी का नाम भी उसने आदर क साथ नह
िलया था। िफर भी मरनेवाले क अंितम इ छा थी। िपताजी से उसक भट कराना अिनवाय था।
एक बात का हम सबको आ य था िक राजभवन का हर पु ष सद य यहाँ उप थत था, पर न िपताजी थे
और न नानाजी। नानाजी तो अश थे, उनका आ पाना असंभव था; पर िपताजी को होना चािहए था और वे नह
थे।
िपताजी यथाशी बुलवाए गए। इस बीच शा व का पाठ चलता रहा। वर क आरोह-अवरोह और उसक
त मयता से ऐसा लगता रहा िक उसने अव य को स िकया होगा। उसक त मयता क एक ऐसी भी थित
आई, जब जनता को उसक विन छने लगी और वहाँ खड़ अिधकांश लोग उसक वर म वर िमलाने लगे।
िपताजी आए। बिलमंच क िनकट ही वे खड़ ए। पर शा व क बंद आँख, जो ाथना म त ीन थ , खुल
नह । वध थल पर ाथना चलती रही। और अंत म जब ाथना समा ई, एक कतूहल भरा स ाटा लोग क
आकितय पर िचपक गया।
शा व ने िपताजी क ओर देखा और िबना िकसी अिभवादन क बोला, ‘‘आप मुझे देख रह ह! एक िदन आप
भी मेर यहाँ इसी थित म थे। म भी आपका वध कर सकता था—और िन त करता, यिद आपने धम को लाकर
बीच म न खड़ा कर िदया होता। आपने पूछा था िक बंदी का वध करना कहाँ तक यु संिहता क अनुकल ह! याद
ह आपको?’’
िपताजी ने वीकित म िसर िहलाया।
‘‘आपने कहा था िक धम क अनुसार बंदी को दंड देने का अिधकार राजा को भले ही हो, पर दंड िन त करने
का अिधकार यायािधकरण का ह। आपको याद ह?’’
िपताजी ने वीकित म िफर िसर िहलाया।
‘‘पर आपक िवषय म यायािधकरण ने ही दंड िन त िकया ह।’’ इस बार दंडनायक बोला।
‘‘कसा यायािधकरण!’’ शा व गरजा—‘‘वह कौन सा यायािधकरण ह, िजसने मुझे सुने िबना ही अपना दंड
िन त कर िदया? िजसने मेर नैसिगक अिधकार का गला घ टा? या यही ारका क याय यव था ह? यही
यादव का धम ह?’’
स ाटा और अिधक गहरा हो गया।
शा व बोलता रहा—‘‘मेर शरीर को पाश म जकड़कर मुझे रथ म िजस तरह पूरी ारका म घुमाया गया, मेरा
जो अपमान िकया गया, या वह दंड नह था? यिद दंड था तो िकस यायािधकरण ने वह दंड िन त िकया था?
आप लोग जो आधी रात को चोर और द यु क तरह चुपचाप मेर नगर म घुस आए थे, उसम िकस यु नीित
का पालन िकया गया ह?’’
अब मुझसे नह रहा गया। मने कहा, ‘‘इस समय तु ह यु नीित याद आ रही ह। उस समय तु हारी यु नीित कहाँ
थी, जब राजािवहीन रा य ( ारका) पर तुम सदल-बल चढ़ आए थे?’’
‘‘उसीका फल तो म भोग रहा ।’’ उसने तुरत कहा। िफर अनेक बार मेर ारा कही ई बात उसक मुख से
िनकली—‘‘हर य को अपने कम का फल तो भोगना ही पड़ता ह, चाह वह फल िनयित दे या कोई य
दे।’’
मेर मन ने कहा, ‘ य तो िनिम ह, मा यम ह। देती तो िनयित ही ह।’
वह िफर गरजा—‘‘वसुदेव, यह मत समझना िक तुम इस नैसिगक िनयम से मु हो! तु ह िनयित अव य ही
इन कम का फल देगी।’’
मुझे लगा िक वध थल पर खड़ शा व क मुख से िनयित ही हम शािपत कर रही ह। म कछ बोल नह पाया।
उसने िफर मेर िपताजी को संबोिधत करते ए कहा, ‘‘ऐसे ही तक आपने उस समय िदए थे, जब आप मेर बंदी
थे। मने अपनी भूल वीकार करते ए आपको न कवल छोड़ िदया था वर अपने सैिनक ारा ारका क नगर
ार तक सस मान प चवाया भी था। अब आप सोिचए िक आप लोग क ारा मेर साथ या करना उिचत
होगा!’’
िपताजी को ऐसा िन र होते मने ब त कम देखा था। वे बड़ गंभीर हो गए। सभी लोग चुप—जैसे स ाटा भी
शा व को सुनकर स हो गया हो।
िपताजी ने पहले मुझसे कछ कहना चाहा; िफर वे अचानक स ािज क ओर मुड़। उनक कान म कछ कहा।
कछ उ र- यु र भी आ। स ािज ने भैया से भी सलाह लेनी चाही; पर भैया मौन ही रह गए। ोध म उनक
आकित लाल हो गई थी।
इसी बीच स ािज ने उ ोषणा क िक शा व को मु िकया जाए। िफर सेनापित को आदेश िदया गया िक
उसे सस मान माितकावत प चाने क यव था करो।
हम, ारकावासी पूर संदभ को एक नाटक क तरह देखते रह गए।
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दो
शा व क अह का ऐसा पतझड़ आ िक िफर उसम वसंत नह आया, वर अपयश क झंझा ने उस पतझड़ क
सूखे प को पूर आयाव म िबखेर िदया। यादव क िवनाश का उसका संक प बालक क घर द क तरह चूर
हो गया। राजा क पाप क छाया उसक जा पर भी पड़ी—माितकावत ीहीन हो गई।
उसक सौभ िवमान क टटकर िबखरने क बाद ही उसक यशकाया भी िबखर गई। िकसीको िव ास नह था
िक वह दैवी यान कभी न भी हो सकता ह। इसका सबसे बड़ा प रणाम यह आ िक शा व क िम ऐसे बुझे
िक उनका धुआँ भी उड़ता िदखाई नह िदया। इस संदभ म दंतव और प क वासुदेव क िति या एकदम
शू य थी। िज ासावश हमने उनक रा य म अपने गु चर भी भेजे थे। गु चर का कहना था िक इस घटना से
उनक जा भीतर-ही-भीतर बड़ी स थी, पर महाराज वयं एकदम िनरपे लगे; जैसे इस सार कांड से
अनिभ ह । गु चर का कहना था िक बताने पर भी वे सुनी-अनसुनी कर गए।
उनक राजधािनय म गए एक गु चर ने यहाँ तक कहा िक राजा को तो जाने दीिजए, उनक मं ीगण भी इस
िवषय पर बंद क म अपनी जबान नह खोलते।
मने अजुन से कहा, ‘‘देखा, आतंक क मेघ जब दूसर क यहाँ नह छा पाते तो अपने ही घर लौटकर बरसते ह
—और तब तक बरसते ह जब तक िक उनक िनमाता का सपना चूर नह हो जाता।’’
हमारा िव ास था िक यिद शा व ारका म मारा जाता तो हमारा यश कलुिषत हो जाता; पर भैया अब भी
अपने िवचार पर अटल थे। उनका कहना था िक शा व को छोड़कर हम लोग ने ऐसी भूल क ह, िजसका फल
हम एक-न-एक िदन भोगना पड़गा। उसक िवषदंत अभी टट गए ह; पर जब वे िफर उगगे तो वह फफकारता
आ हमार सामने होगा।
व तुतः इस समय ारका क िन कलुष ित ा िशखर पर थी। सार आयाव म हमार यश क दुंदुभी बज रही
थी। हर ारकावासी गव त था। स ािज , सा यिक, चेिकतान क साथ ही जब हम लोग ने अजुन को िबदाई दी,
उसम जा क भूिमका अ ुत थी। सारा नगर उमड़ पड़ा था, िजसम अितिथ-आितथेय और राजा- जा सभी डब-
उतरा रह थे। ारका का यह िबदाई समारोह अनुपम था।
इसी उ साह क साथ समय का रथ चलता गया। जीवन आगे बढ़ता गया।
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छदक मेरा एक ऐसा साथी था, िजसक िबना म आधा-अधूरा हो जाता था। पर इधर वह अ यािशत प से
गायब था। पूर िवजय पव म वह कह िदखाई नह िदया; पर आज वह अचानक कट हो गया था।
उसे देखते ही मने कहा, ‘‘ब त िदन बाद िदखाई पड़ रह हो। इतने िदन तक कहाँ थे?’’
‘‘आप लोग जब िवजय पव म त ीन हो गए तब मने सोचा, मेरी यहाँ या आव यकता!’’ छदक बड़
यं या मक ढग से बोला, ‘‘तो म उस थान क खोज म िनकल गया, जहाँ मेरी आव यकता थी।’’
‘‘तब तुम यह य नह कहते िक तुम शा व क साथ माितकावत चले गए थे?’’
‘‘ या मुझे अपनी ह या करानी थी िक म शा व क साथ जाता!’’ छदक बोला, ‘‘वह तो मुझे आपक ितमूित
समझता ह। और इस समय आपसे इतना नाराज ह िक यिद वह आपको पाए तो क ा चबा जाए। अब उसका
सारा ोध यादव से हटकर आप पर कि त हो गया ह।’’
‘‘चलो, यह अ छा आ। यादव तो मु ए।’’ मने हसते ए कहा, ‘‘पर यह बात भैया से मत कहना। यह तो
बताओ, तुम गए कहाँ थे?’’
‘‘सोचा, ससुराल होता आऊ।’’ इतना कहते ए वह हसने लगा। उसका संकत िवदभ क ओर था।
अब म गंभीर हो उसका मुख देखने लगा। उसका म त क उधर चला गया िजधर अभी हम लोग क नह
गई थी। मने मन-ही-मन उसक सोच को सराहा।
बात यह थी िक िवदभराज भी मक (मेर सुर) बूढ़ हो गए थे। रा य का सवसवा उनका पु मी था, जो
मेरा क र िवरोधी था। िशशुपाल का घिन िम भी था। उसक वध क बाद वह मेर ित आग उगलने लगा था।
शा व क इस घटना क बाद तो उसका िवि हो जाना वाभािवक था।
पर एक दूसरी बात और थी। वह भोजवंशी था। भोजवंश मूल प म कह -न-कह से यदुवंश क िकसी शाखा-
शाखा से जुड़ता था। इसिलए उसे मूलतः शा व का िवरोधी होना चािहए था। यदुवंिशय क िवनाश का श ु होना
चािहए था। पर या इस संदभ म वह सोचता ह?
छदक ने बताया—‘‘इधर अनेक िदन से जा ने उसक आकित तक नह देखी ह। मुझे भी म आ िक हो-न-
हो, वह माितकावत न चला गया हो; पर वह राजभवन म ही था। िकसीसे िमलता भी नह था। एकदम िवषाद त,
अवसाद क थित म।’’
म गंभीर हो सोचने लगा। मने छदक से कहा, ‘‘यह अवसाद तो हमार ित उसक वैरभाव को और अिधक गाढ़ा
कर देगा। पर इसक मुझे उतनी िचंता नह ह। िचंता कवल इस बात क ह िक इस समय कई ऐसे मी आयाव
म अपने कोटर म पड़ ह गे, जो अवसर िमलते ही एकजुट हो जाएँगे।’’
‘‘तो इ ह एकजुट होने का अवसर ही नह देना चािहए।’’ छदक बोला।
‘‘यही तो हमार हाथ म नह ह।’’ मने अपनी असमथता कट क —‘‘यही तो वह थित ह, जब िनयित क वाह
क सम हम अश हो जाते ह, छदक!’’
िफर अचानक मेरी म युिध र आए और आ उनक संबंध म क गई भिव यवािणयाँ। मने सोचा, वही
एक िबंदु हो सकता ह, जहाँ मेर सार िवरोधी एक हो सकते ह। पर म इस संबंध म या कर सकता । परम िनरीह

ऐसे ही तनाव क ण म एक ितहारी क अि य आवाज सुनाई पड़ी—‘‘एक िभखारी आपसे िमलना चाहता
ह।’’
मेरी तनाव तता तुरत झुँझला उठी—‘‘मेर रा य म भी कोई िभखारी ह!’’
ितहारी मेरी आवाज से सहम-सा गया; य िक लोग ने मेरी झुँझलाहट ब त कम देखी ह। न उसको मुझसे
ऐसी उ मीद थी।
वह दबी जबान ही बोला, ‘‘वह हमार रा य का नह ह।’’
‘‘तो जो वह माँगता हो, उसे दे दो।’’ मने कहा, ‘‘आिखर उसक कोई आकां ा होगी, उसे पूरा करो।’’
‘‘हम लोग ने उससे उसक आकां ा क संबंध म ब त कछ पूछा। ब त कछ देना भी चाहा; पर वह कछ लेने
को तैयार नह ह।’’ ितहारी ने बताया—‘‘उसक बस एक ही आकां ा ह—आपसे िमलने क ।’’
अब मेरी आकित पर मुसकराहट आई। मने कहा, ‘‘जो कछ नह चाहता, उसे तुम िभखारी कसे कह सकते हो?’’
‘‘महाराज, उसक वेशभूषा तो ऐसी ही ह।’’
‘‘मनु य वेशभूषा से नह वर अपनी अतृ इ छा से िभखारी होता ह।’’
‘‘पर वह हाव-भाव और आकित से भी द र लगता ह। हमार भवन को ऐसी सकपकाई से देख रहा ह जैसे
कोई आ यजनक सपना देख रहा हो।’’
‘‘कोई गु चर तो नह ह?’’ छदक का सोच यहाँ तक प च गया।
‘‘गु चर िवभाग ने भी उसे इस संदभ म अ छी तरह जाँचा-परखा ह। उ ह भी वह गु चर नह लगा। वह कवल
महाराज क ही बार म बात करता ह और स होता ह। कभी-कभी अितशय भावुकता म उसक आँख टपकने भी
लगती ह—और िफर ऐसा लगता ह िक वह कह खो गया ह।’’
‘‘इतनी छानबीन करने क बाद भी तुमने उसका नाम और प रचय नह पूछा?’’ मने पूछा।
‘‘पूछा गया था।’’ ितहारी ने बताया—‘‘पर वह हर बात म तो सहमता ह। उसक सहमी-सहमी, उसक
चाल सहमी-सहमी, उसक विन भी सहमी-सहमी। कोई बात कई बार पूछने पर वह एक बार मुँह खोलता ह।’’
‘‘कहाँ ह वह?’’
‘‘ ती ागृह म।’’
‘‘जाकर कहो िक हमार महाराज तभी िमलगे जब तुम अपना नाम और योजन बताओगे।’’ मने कहा, ‘‘यिद
मुझसे िमलना ही उसका एकमा उ े य ह तो उससे कहो िक जब सं या-पूजन क िलए म मंिदर जाता तो माग
म िमल लेगा।’’
ितहारी चला गया। म भी सोचने लगा िक ऐसा कौन मेर ार पर आया ह, िजसक पहचान करने म मेरा
शासन असमथ ह। वह भी ऐसा द र , फटी धोती पहने। तार-तार आ उ रीय। बुढ़ापा भी लकटी टकता आ।
ितहारी का कहना था िक िजतना वह ारका को देखकर सकपकाया ह, उससे अिधक सकपकाई से
ारकावासी उसे देख रह थे। िफर वह मेरी अंतरग बात क िवषय म िज ासा करता ह। मेरी रािनयाँ िकतनी ह? मेर
िपताजी कसे ह? मेर नाना और माताजी का या हाल ह? मेर भैया साथ रहते ह या अलग ह? आिद-आिद।
म सोचने लगा िक ऐसा य कौन हो सकता ह, िजसका मुझसे इतना लगाव हो? वह िभखारी जैसा हो सकता
ह, पर िभखारी तो नह होगा; य िक उसने कछ चाहा नह , कछ माँगा नह । िभखारी ऐसा यागी तो नह होता।
िभखारी िकसी व तु को याग नह सकता। यिद िकसी चीज को याग सकता ह तो संकोच को, ल ा को; पर उसे
तो बड़ा संकोची और लजाधुर बताया गया ह।
म सोच ही रहा था िक ितहारी लौटा। उसने बताया—‘‘पूछने पर वह बोला, ‘मेरा नाम उ ह बताकर या
करोगे? शायद वह अब मुझे पहचान भी न सक। कभी हम दोन ने एक ही आ म म िश ा पाई थी—आचाय
सांदीपिन क यहाँ। तब से अब तक समय क यमुना का ब त सा पानी बह गया। मेरा लड़कपन भी बुढ़ापे म बदल
गया। जो पहचाना जा सकता था, वह सबकछ चला गया।’ ’’
इतना सुनते-सुनते मेरी य ता झुँझला उठी—‘‘पर नाम तो वही होगा, नाम कहाँ बदलता ह!’’
‘‘हाँ, नाम उसने बताया ह—सुदामा।’’
बस इतना सुनना था िक मेरी मृित म जैसे भूचाल आ गया। म िबना कछ सोचे, िबना कछ कह, एकदम उठा और
दौड़ पड़ा। पद म पद ाण भी नह । एकदम नंगे पैर। छदक तो मुझे देखता रह गया। ितहारी भी अचंभे म पड़
गया। स य क तो म अपने होश म नह था। याद क झंझा मुझे उड़ा ले चली। अंतःपुर क ार क िनकट म एक
तंभ से टकरा भी गया। मेरा मुकट िसर पर ही लड़खड़ाया, पर िगरा नह । वंशी किट से िनकलकर छटक गई।
उ रीय ने भी कधा छोड़ िदया और अंतःपुर क गिलयार म िगरा। मणी ने देखा।
‘‘अर, या आ?’’ कहती ई वह चिकत-सी मेर पीछ दौड़ पड़ी। िजस िकसीने भी मुझे इस थित म देखा, सभी
तंिभत, अवा और िव मत। कई लोग तो मेर पीछ दौड़ते ए ार तक आए।
मेर ती ागृह म प चते ही सुदामा उठ खड़ा आ और मने उसे व से लगा िलया। उसक पश क यह थम
अनुभूित महा क द थी। ऐसा लगा िक म िकसी य से नह , मानव ककाल से िलपट रहा ।
इितहास म मने अपनी अ ािलका क खंडहर देखे थे। आज खंडहर म म अपने बचपन का इितहास देख रहा
था। मुझे क पना भी नह थी िक मेरा िम द र ता क ऐसी गिलत थित म िमलेगा। मुझे रोना आ गया। जीवन म
शायद म पहली बार रोया था और आिखरी बार भी। इतने िदन से संगृहीत आँसू आज ही िनकलकर बह जाना
चाहते थे। कदािच इसीिलए वे थमने का नाम नह ले रह थे। न सुदामा मुझे छोड़ रहा था और न म सुदामा को।
ती ागृह क बाहर अ छी-खासी भीड़ लग गई थी—मेरी प नय क , ब क , राजभवन क कमचा रय क ।
िजसने देखा, िजसने सुना, वही दौड़ा आ चला आया और चिकत रहा। उ ह ने हमेशा मुझे मुसकराता आ देखा
था। आज रोता आ देख रह थे—िससिकय भरी लाई। क णा क बादल झूमकर नह , फटकर बरस रह थे।
हम हर देखनेवाला मौन था। आ य क चरम सीमा पर उसे जैसे काठ मार गया था। वैभव का द र ता से ऐसा
क णा िमलन और इितहास से वतमान का ऐसा िवत आिलंगन उनक िलए क पनातीत था। वे चुपचाप हम
देखते रह गए।
हम लोग ने जब एक-दूसर को छोड़ा, तब भी िससिकयाँ हम न छोड़ पाई थ । हम दोन आँसु से लथपथ
वह एक-दूसर को देखते ए बैठ गए। न म कछ बोल पा रहा था और न वह। वह मुझे देख रहा था और मुझे
वतमान क भीतर से झाँकता उसका बचपन िदखाई दे रहा था। उस समय वह िकतना सुंदर था! कसा गौर वण
और िकतना आकषक! कसा भभकता आ उसका चय था! िकतनी लगन से यह िव ा यास करता था!
िकतनी शु थी आवृि इसक ! शायद इसीिलए गु जी और उनक प नी को सबसे ि य था यह।
इस समय यह कवल ककाल रह गया ह। व क येक अ थ िगनी जा सकती ह। झूलते मांस क थैिलय म
लकिड़य क तीिलय क तरह चरमराती ये अ थयाँ अपनी अश ता का बड़ी सफलता से बोध करा रही थ ।
शरीर का बोझ भी सँभाल पाने म असमथ िदखते उसक काँपते पैर को देखकर आ य होता था िक लकटी टकता
आ यह अपने गाँव से यहाँ तक चला कसे आया।
यह स य ह िक सुदामा वय म मुझसे बड़ा था; पर इतना बड़ा तो नह िक वह इतना जीण हो जाता। द र ता से
बड़ा जीवन का कोई श ु नह । उसक मार से बड़ी संसार क कोई मार नह ।
जब हम कित थ ए, बात शु ।
मने पूछा, ‘‘तुमने अपनी यह या दशा बना रखी ह?’’
‘‘यह सब प र थित का प रणाम ह।’’ मुसकराने क असफल चे ा करते ए वह बोला। धीर-धीर वह खुलने
लगा—‘‘तु ह देखकर अचरज हो रहा ह न! पर यही अचरज हमारा जीवन ह। इसे म झेलता नह , बड़ ेम से
कमफल मानकर भोगता —आनंद लेते ए। और शा का अ ययन करता । ा ण , िभ ा ही हमारी
जीिवका ह।’’
‘‘और तुम इसम वीण भी हो।’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘मुझे याद ह, अ ययन क समय आ म क िलए सबसे
अिधक िभ ा तु ह माँगकर लाते थे।’’
‘‘पर अब म माँगता नह । माँगने का अ यास छट गया।’’ सुदामा मुसकराते ए बोला। िफर उसीका िव तार
िकया—‘‘पहले आ म क िलए माँगता था, अब तो अपने िलए माँगना होता। अब तो िबना माँगे जो िमल जाता ह,
उसी पर िकसी तरह िनवाह कर लेता ।’’
मेर मन ने धीर से कहा, ‘तभी तो यह दशा ह।’ पर म कछ बोला नह । कवल एक िज ासा क —‘‘तुमने आ म
नह बनाया?’’
‘‘ या करता आ म बनाकर!’’ उसक वर म पता नह कहाँ से वेदना उतर आई—‘‘तुम देखते नह हो, क हया,
िक आजकल आ म क या थित ह! समाज से उपेि त ह। रा य से उपेि त ह। संप लोग आचाय को
वण िन क म खरीद लेते ह। आचाय उनका पािलत ान हो जाता ह।...न वह आ म रह, न वह आचाय रह
और न वह िश ा रही। आ म क नाम पर अभाव और द र ता से भर कह -कह कछ झ पड़ अव य रह गए ह,
िजनम िकसी वृ नैितकतावादी आचाय क कराई जा रही आवृि याँ अब भी सुनाई पड़ जाती ह।’’
आ म का नाम लेकर जैसे मने उसक मम पर ही अँगुली धर दी हो।
वह बड़बड़ाता रहा—‘‘अब आ म को राजकोष से दी जानेवाली वृि याँ भी बंद हो गई ह। आ म वयं
राजभवन म जाकर वेतनभोगी हो गए। जब राजा क यह थित ह तब जा से आशा या! जैसा राजा वैसी
जा। अब समाज ने भी िश ा को सामािजक से वैय क बना िदया ह। वैय कता क घेर म कि त होकर िश ा
वण क चाकर हो गई ह। अब आ म का युग गया, क हया! अब तु ह बताओ िक तु हार रा य म िकतने
आ म चल रह ह?’’
व तुतः न नह वर एक बड़ा चाँटा था, जो मेर मुख पर मारा गया। म तो उस समय अपनी पीड़ा भी य
करने क थित म नह था। अपने अतीत क गौरव को समेटते ए देश क संपूण मनीषा इस समय एक असहाय,
अश और द र ा ण क प म अपनी सम या क तलवार लेकर मेर सामने आ ामक थी और वैभव का
तीक म चुपचाप िसर झुकाए बैठा रहा।
ती ागृह क बाहर लोग इक ा होते गए। वे हमारी बात सुनते रह और आ य करते रह िक ारकाधीश का
यह कसा िम ! उ ह लग रहा था िक यह धरती-आकाश का िमलन ह, संप ता और िवप ता का िमलन ह—और
िमलन ह असहाय का सहाय से।
बाहर भीड़ बढ़ती जा रही थी।
अभी तक तो हम यान ही नह रहा िक हम लोग खड़ ह। मेरी आ म-िवभोरता ने न वयं को बैठने को कहा
और न उसे बैठाया। अचानक मुझे लगा िक उसने कछ अिधक लकटी का सहारा िलया और पैर ढीला िकया। मने
तुरत उसे ती ागृह क वण िसंहासन पर बैठाया। वह बैठ नह रहा था।
उसने कहा भी—‘‘अर! मेर िलए यह नह ह।’’
‘‘अब यह तु हार ही िलए ह।’’ मने कहा और उसे बला उसपर लगभग ढकल ही िदया।
उसक लकटी बगल म िगरी। उसक कधे से लटकती उ रीय म बँधी दो पोटिलयाँ थ , जो अचानक सरक
आ । उ ह म उठाऊ, इसक पहले ही उसने झपटकर उ ह उठाया और अपनी बगल म दबा िलया; जैसे वे मेर
िलए अ पृ य ह । िफर उसने िगरी ई अपनी लकटी उठानी चाही।
मने वयं उसे उठा िलया—‘‘अब यह तु हार हाथ म अ छी नह लगेगी। पर तुम इस वण िसंहासन पर ब त
अ छ लग रह हो।’’
‘‘मेरा प रहास तो नह कर रह हो, क हया?’’ उस िसंहासन को सकपकाई से देखते और उसका कतूहल से
पश करते ए वह बोला, ‘‘कभी द र ता भी वण िसंहासन पर बैठी ह!’’
‘‘कभी बैठी हो या न बैठी हो, पर आज तो बैठी ह। शायद इसीिलए ब त अ छी भी लग रही ह।’’ मने कहा और
उसक पैर क िनकट पड़ एक मंचक पर बैठ गया।
सुदामा िजस वण िसंहासन पर बैठा था, उसीक सामने पग टकने क िलए एक छोटी वण क ही ग ीदार
मिचया थी। यह हर उ िसंहासन क सामने रहती ह। मने देखा, वह उसपर मार संकोच क पैर नह रख रहा था।
िसंहासन क नीचे उसक पैर झूल रह थे। कभी-कभी वह उ ह उठाकर िसंहासन क ऊपर तक ले जाता। प ासन
लगाने क मु ा भी बनाता। िफर यह सोचकर िक यह अभ ता होगी, वह नीचे कर लेता।
इस थित पर जाते ही अब उसक पैर क पंजे िदखाई िदए और मन रो पड़ा। क चड़ और धूल से
मांसपेिशयाँ ऐसी अ ैत हो गई थ िक अँगुिलयाँ फल-फलकर दूनी िदखाई दे रही थ । म कछ बोल नह पाया।
चुपचाप अपने मंचक से उठकर उसक एक-एक पैर उठाकर बला उस मंचक पर धर िदए। वह ‘अर र र’ कहता
रह गया। इसक आगे बैखरी नह फटी। आँख टपकने लग ।
म अनुभव कर रहा था िक बाहर भीड़ बढ़ती जा रही ह। लोग झाँक-झूँक लगाए ए ह। इसका भाव मुझसे
अिधक सुदामा पर पड़ रहा था। उसे लग रहा था िक म कहाँ का जंगली जीव िसंहासन पर बैठा िदया गया ।
उसने एक बार कहा भी िक लोग या सोच रह ह।
मने ितहारी से कहा िक बाहर क लोग से चले जाने का आ ह कर। म अपने बालसखा का दशन बाद म
सावजिनक प से सबसे कराऊगा।
िफर मने सुदामा क पैर धोने क िलए जल मँगवाया। साथ ही अंतःपुर क अपनी प नय को भी बुलवाया। वे
पहले से तैयार बैठी थ । तुरत उप थत ।
मने सुदामा से उनका प रचय कराया—‘‘हम लोग ने आचाय सांदीपिन क आ म म एक साथ िश ा पाई ह।
हम सहपाठी रह ह।’’
मेरी प नय ने त काल सुदामा क पैर छकर अिभवादन िकया।
सुदामा ने आशीवाद देते ए कहा, ‘‘म तु ह पहली बार देख रहा । परपरानुसार तु ह कछ देना चािहए।’’ िफर
उसक बगल क पोटिलय पर गई और अ यंत संकोच क साथ वह बोला, ‘‘मेरा दुभा य ह िक तु ह देने क
िलए मेर पास कछ नह ह।’’
‘‘आशीवाद तो ह ही—और वह तुमने दे ही िदया।’’ मने कहा।
िफर म वण थाल म उसक पैर पखारने चला। मेरी प नयाँ भी आगे बढ़ । मने उ ह रोकते ए कहा, ‘‘नह ,
इसक पैर म ही धोऊगा। तुम लोग ऊपर कलश से पानी क पतली धार िगराती जाओ।’’
य - य म पैर धोता जाता था, िम ी उतरती जाती थी। अंत म फटी िबवाइय क बीच कछ िम ी ऐसी जमी
थी िक उसका िनकलना मु कल था। मोट कपड़ से प छ-प छकर उसका िनकालना संभव हो सका। िम य क
हटाते ही उनम र चुभचुभा आया।
मने कहा, ‘‘लगता ह, तुम पैदल ही अपने गाँव से चल पड़ हो।’’
‘‘हाँ।’’
मुझे बड़ी दया आई। मने पूछा, ‘‘तुमने इतना क सहा, पर यहाँ य नह आए?’’
‘‘तुम मुझे देखकर िजतने दुःखी हो रह हो, म व तुतः ऐसा दुःखी नह ।’’ सुदामा क इस कथन म मेर ित
सां वना थी और थी झेले गए क को िछपाने क संभावना। वह बोला, ‘‘मने कई बार यहाँ आने क िलए सोचा
था, पर संकोच क कारण रह गया।’’
‘‘िम क यहाँ आने म तु ह संकोच लगा!’’
पर वह चुप ही था। शायद वह कह रहा था िक जब तुम िम थे तब थे, पर अब तो ारकाधीश हो और म एक
िभखारी ा ण! तु ह या मालूम िक यहाँ तक आने म मुझे िकतना साहस जुटाना पड़ा।
उसने बस इतना कहा, ‘‘अतीत क बात छोड़ो। अब उसपर काफ धूल जम चुक ह। वह धुँधला और लगभग
अ य हो चुका ह।’’
‘‘ या तु ह लग रहा ह िक वह िम ता अ य हो गई?’’
‘‘इस समय तो नह लगता।’’ उसने कहा, ‘‘पर यह ज र लग रहा ह िक म समय क धरती क नीचे दबा इितहास
था, िजसे एक भूकप ने ऊपर कर िदया। इसिलए वह मोहक भी ह और आकषक भी।’’
छदक पीछ बैठा अब तक चुपचाप सबकछ देख रहा था, सुन रहा था। िफर अचानक बोला, ‘‘उस संकोच क
दीवार आज आपने कसे लाँघ ली?’’
‘‘म आज भी न लाँघ पाता, यिद क हया क भाभी ने दबाव न डाला होता।’’ इसक बाद वह खुलता गया
—‘‘उसने कह से सुन िलया था, या मने ही िकसी बात क िसलिसले म कह िदया होगा िक ारकाधीश मेर
बालसखा ह। हमने एक ही आ म म िश ा पाई थी।...िफर या था? वह खोज रही थी ितनका और िमल गया
पहाड़। इतनी स ई िक या बताऊ!
‘‘अब उसने तु हार नाम क रट लगा दी। उसने कहा िक इतना महा य तु हारा सहपाठी और तुम ऐसी
द र ता भोग रह हो!’’
‘‘ठीक ही तो कहा भाभी ने।’’
‘‘मने उसे ब त समझाया िक जो िमल जाता ह, उसी पर संतोष करो। ा ण का धन उसका याग ह, सं ह नह ।
हमारी संपि तो हमारा िव ा यास ह।’’ िफर उसने अपनी िदनचया बताई—‘‘ ा मु त से ही अ यास आरभ
कर देता । िफर राि म उसपर मनन करता । िदन म जो िज ासु आ जाता ह, उसक िज ासा शांत करने क
चे ा करता और जो मेर िभ ापा म डाल देता ह, उसीसे पेट भरता ।’’
म बात करते ए उसे अंतःपुर म ले आया था। यह बातचीत भी अंतःपुर म ही चल रही थी। मुझे लगा िक यह
बड़ा वािभमानी और सा वक ा ण ह। िकसीसे कछ माँगता नह ह—और यहाँ तो और भी मुँह नह खोलेगा।
अब तक मेरी माँ भी चली आई थी। माँ को देखते ही सुदामा एकदम हड़बड़ाकर उठा और उसक चरण पर
िगर पड़ा।
माँ ने तुरत उसे उठाया और छाती से लगाकर क णा वर म बोली, ‘‘सुदामा, तुम बचपन म िकतने सुंदर थे!’’
‘‘बचपन तो सुंदर होता ही ह, माँ!’’ कहते ए उसक पोपले मुख पर हसी उभर आई; जैसे क हलाया आ कोई
फल अपने कली जीवन को याद कर मन-ही-मन िखल उठा हो।
िफर मने िपछली बात आगे बढ़ाई—‘‘िफर तो तु ह आने म बड़ा क आ होगा?’’
‘‘कोई शारी रक क तो नह आ, पर संकोच ने बड़ा क िदया।’’ वह िफर मुसकराया—‘‘पर नारीहठ और
बालहठ क सामने तो हर य को झुकना ही पड़ता ह।’’ इसक बाद उसने स यभामा एवं मणी क ओर देखा
और बड़ यं या मक ढग से बोला, ‘‘नारीहठ को तो तुम जानते ही हो!’’
‘‘और म बालहठ को जानती ।’’ तुरत माँ मेरी ओर देखकर बोल पड़ी।
हम सब हसने लगे।
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सुदामा को आए महीन बीत गए। उसक वेशभूषा बदल गई। उसक संकोच म भी कमी आई; य िक जब म
अपने िसंहासन पर बैठता, उसे बला ख चकर बैठा लेता था। वह ऐसा िसकड़ता आ बैठता जैसे ग ी म धँस ही
जाएगा।
एक बार तो मने कहा, ‘‘तुम तो मिहला जैसा नाटक करते हो।’’
‘‘ मणी क थान पर बैठता जो !’’ उसने मेर कान म कहा और हसने लगा।
‘‘तुम मणी क थान पर नह , म भाभी क थान पर बैठता ।’’ व तुतः म उसक बाएँ बैठता था और
स मानाथ उसे दािहने बैठाता था।
सबकछ बदलने क बाद दो चीज ऐसी थ , जो नह बदल । एक तो उसक शरीरय । उसक जजरता क िलए
त काल उसका यौवन कहाँ से लाता! य तो मने उसक अतीत पर एक बदला आ वतमान अ छी तरह िचपका
िदया था; पर इससे या होता! उसका यौवन तो लौट नह आया। यिद इितहास बीते युग क कहानी न कहकर उस
युग को ही लौटा पाता तो संसार िचरयुवा हो जाता। दूसरी व तु थी वे दो पोटिलयाँ, िज ह थम बार िमलते समय
ही उसने अपनी बगल म िछपा िलया था। तब से आज तक उ ह िछपाता रहा। उसक मत क सार कपड़ बदल गए,
पर वे पोटिलयाँ िजस चीथड़ म बँधी थ , वे नह बदल । उनक ित उसका मोह नह बदला। उ ह वह अपने
आसपास ही िछपाए रखता।
एक िदन वह अंतःपुर म ही मेर प रवार क साथ भोजन पर आया। मने उसे अपनी बगल म ही बैठाया। कहिनय
क पश से लगा िक पोटिलयाँ इसक कमर म बँधी ह। उनक ऊपर से इसने किटबंध बाँध रखा ह।
मने एक झटक म किटबंध क नीचे से वे पोटिलयाँ िनकाल ल और बड़ी बे खी से बोला, ‘‘बचपन क तु हारी
चोरी क आदत अभी गई नह ।’’
वह एकदम सकपका गया। अब सबक उस पोटली क ओर गई। मने तुरत से उसे खोल िदया। उसम धान
का िचउड़ा था।
‘‘बस इतनी सी मामूली चीज को तुम इतना िछपा रह थे!’’ मने कहा।
वह मार संकोच क कछ बोल नह पाया।
‘‘तु ह यहाँ खाने क या कमी थी िक तुमने उसे िछपाकर रखा था?’’ मने पुनः पुराने घाव पर ही अँगुली धरी
—‘‘तुम िछपाकर खाने म लड़कपन से ही वीण रह हो।’’
उसे तुरत पुरानी बात याद आ गई। उसका सारा य व ल ा से गड़ गया। उसने धीर-धीर पूर संकोच क साथ
कहा, ‘‘इसे मुझे खाने क िलए नह , तु ह िखलाने क िलए भेजा गया ह।’’
‘‘िकसने भेजा ह?’’
‘‘तु हारी भाभी ने।’’ उसने बताया—‘‘उसने इ ह देते ए कहा था िक अपने बचपन क साथी क यहाँ जा रह हो,
या खाली हाथ जाओगे!’’
‘‘तब तुमने इसे मुझे िदया य नह ?’’
‘‘ या प रहास करते हो, क हया!’’ सुदामा बोला, ‘‘म देख रहा िक िजसे नवनीत, दिध और दाख भी अ छा
नह लगता, उसे घुने िचउड़ िखलाऊ!’’
िफर वह चुप हो गया। मुझे लगा िक यिद वह बोलेगा तो रो पड़गा।
हम सब चुपचाप सुदामा क मु ा देखते रह। हमार यहाँ क भोजन क यव था जैसे थोड़ समय क िलए थम
गई थी।
िफर उसने काँपते वर से बताया—‘‘घर म कछ था नह । माँगने का अ यास नह । आिखर वह या करती!
अंततः उसे वह करना पड़ा, िजसका म प धर नह । पड़ोस म माँगने गई और माँगकर ले आई यह िचउड़ा। इसे
तु हार िलए बाँध िदया। म उसे भी ‘ना’ न कर सका और भला इ ह तु ह या देता!’’
‘‘पागल ए हो!’’ मने कहा और िचउड़ा उ साह से चबाते ए बोला, ‘‘भाभी िजसे तु हार न माँगने क त को
भंग करक ले आ , उसक िमठास का अनुमान तो म ही लगा सकता ।’’
सुदामा आँख नीची िकए मौन था। अ य लोग चिकत-से मुझे देखते रह। आज या हो गया ह क हया को! जब
एक मु ी चबा लेने क बाद मने दूसरी मु ी उठाई और उसे मुँह म डाला तो लोग क चेहर पर हवाइयाँ उड़ने
लग । ऐसा लगा जैसे गजब हो गया। स यभामा ने तो अपनी आँख पर दोन हाथ रख िलये; जैसे वह कछ और
देखना ही नह चाहती हो।
पर जब मने अपनी तीसरी मु ी उठाई तब मणी बड़ झटक से उठी और मेरी बगल म आ गई। म िचउड़
को अपने मुँह म डालता, इसक पहले ही उसने मेरा हाथ पकड़ िलया और बोली, ‘‘िचउड़ा ही खा लोगे तो और
भोजन या करोगे!’’
अब सुदामा भी बोल पड़ा—‘‘बस-बस, अब ब त हो गया। एक द र क व तु का आप इतना स मान करगे,
इसक कभी मुझे क पना न थी।’’
‘‘तुम द र कसे?’’ मने कहा, ‘‘द र तो वह होता ह, जो माँगता ह; जो माँगने को ही अपना धन समझता ह; पर
तु हारा धन तो याग ह, िव ा यास ह, िव ादान ह। और दानी कभी द र नह हो सकता; य िक िकसीसे वह
कछ चाहता नह ह। तुम तो उन बड़-बड़ राजा-महाराजा से भी महा हो, जो दूसर का रा य हड़पने क िलए
लालाियत रहते ह।’’
मने सुदामा क अह को शायद पहली बार सहलाया था। वह बड़ा संतु लगा।
भोजन क ही बाद अंतःपुर क एक क म िव ाम क िलए हम चले आए। मने उसे सबसे ब मू य पयक पर
िलटाया। इस पयक पर भी उसका संकोच उसे लेटने नह दे रहा था। मुझे उठना पड़ा। हलक सी झटका-झटक
भी ई। अंत म मने उसे पयक पर बला ढलका िदया। िकतनी लंबी थकावट का शरीर था। शी ही सो गया।
नाक बोलने लगी।
म और छदक बगल क उससे अपे ाकत छोट पयक पर लेट गए; पर हमारी आँख म न द कहाँ। मेरी आँख म
तो अतीत म डबा आचाय सांदीपिन का आ म था और छदक क मन म िज ासा का पुंज।
‘‘यह बड़ा िविच ा ण ह!’’ छदक ने मेरी ओर करवट लेते ए कहा।
‘‘यिद िविच न होता तो इसक यह हालत होती।’’ मने कहा, ‘‘यह बता रहा था िक जब प नी ने सुना िक म और
तुम सहपाठी ह, तब बड़ा हठ करक उसने इसे यहाँ भेजा। इसका ता पय तुम समझते हो? यह मेर यहाँ भी आने
वाला नह था। इसने अपनी प नी से कहा, ‘ या क गा जाकर! जब जीवन बीत गया ऐसे ही, िकसीका एहसानमंद
नह आ, तो इस बुढ़ापे म िकसीका एहसान लेकर या क गा!’ इसका ता पय भी प ह।’’
छदक चुपचाप मुझे सुनता रहा।
‘‘इसका मतलब यह ह िक यह मुझसे भी कछ नह माँगेगा।’’ मने कहा, ‘‘और यिद म कछ देना भी चा गा तो
इसक अह को चोट लगेगी।’’
‘‘यह आप कसे समझते ह?’’ छदक ने पूछा।
मने देखा, सुदामा क खराट और तेज हो गए थे। अब म िव तार से उसक बात बताने लगा—‘‘यह ह बड़ा सरल।
कल रात मेरी बगल म ही सोया था और देर तक बात करता रहा। इसने बताया िक जब प नी ने ब त हठ िकया
तब मने उसे डाँटा भी—‘तू या समझती ह िक मेर जाते ही वे छकड़ लदा दगे! और यिद वे लदा भी दगे तो म
या उसे ले आऊगा!...अर, यह भी हो सकता ह िक वह मुझे पहचानने से भी इनकार कर द।’ ’’
‘‘पर ऐसा तो नह आ।’’ छदक ने तुरत कहा।
‘‘यह तो ठीक ह; पर दूसरी बात सबसे मह वपूण ह िक यिद म इसे कछ देना भी चा गा तो यह लेगा नह ।’’
‘‘यिद कोई नह ही लेना चाहगा तो आप या करगे?’’
‘‘उसे देना चा गा।’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘म तो चा गा िक अपना पूरा राजपाट दे दूँ और इसका महामा य
बन जाऊ।’’
मेरा इतना कहना था िक पता नह कसे मणी अचानक भीतर चली आई। लगता ह, वह दरवाजे क बाहर से
हम लोग का यान रख रही थी। उसक मन म कोई उि नता थी।
उसने आते ही कहा, ‘‘मुझे आपक इस मनः थित का आभास उसी समय लग गया था, जब आप िचउड़ा चबा
रह थे।’’
‘‘तुम ठीक कहती हो, मणी।’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘मुझे आ य ह िक तु ह मेर मन का आभास लग
गया।’’
‘‘म आपक प नी —और यिद कोई प नी अपने पित क मन क बात जानने का साम य नह रखती तो उसे प नी
होने का अिधकार नह ।’’ िफर वह बड़ी िचंितत हो बोली, ‘‘िफर जरा सोच, महाराज, तब हम लोग कहाँ जाएँगे?
आपक बाल-ब का या होगा?’’
‘‘पागल ई हो!’’ मने हसते ए कहा, ‘‘वह ऐसा यागी ा ण ह िक तुम उसे यिद रा य भी देना चाहोगी, तो भी
वह नह लेगा। तुमने अभी उसे ठीक से पहचाना नह ।’’
इसक बाद मणी चुपचाप चली गई। मने देखा िक छदक भी ऊघने लगा ह। म भी करवट बदलकर चुपचाप
सो गया।
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जब आँख खुल , सूय प मी ि ितज क ओर ढलक रहा था। सं या होने को थी। मने देखा और चुपचाप
उठकर चलता बना; पर सुदामा अभी खराट भर रहा था। उसको आए इतने िदन हो गए थे, पर उसक थकावट
नह गई थी। इसीसे जहाँ भी उसे अवसर िमलता, उसका शरीर आराम का पूरा लाभ उठाता। ऐसी संतोष भरी न द
शायद ही उसे अपने जीवन म कभी िमली हो।
मने उसे झकझोरकर जगाया—‘‘अर, उठो िम ! लगता ह, अपने जीवन क सारी संिचत न द यह खच कर
दोगे!’’
‘‘संचय म तो मेर पास न द भी नह ह।’’ सुदामा मुसकराते ए बोला।
इसक बाद म उसे जलपान आिद से िनवृ करा मोद वन म ले गया। उसक ाकितक छटा और रमणीयता ने
उसे मोह िलया। प म से आती तेज समु ी हवा, सामने तरगाियत सरोवर, झूमते वृ और नाचते मयूर देखकर
वह वयं को खो बैठा। उसक सारी इि याँ िशिथल हो जड़व हो ग ।
मने उसका कधा िहलाया और पूछा, ‘‘कहाँ खो गए?’’
‘‘म व न देख रहा या यथाथ!’’ उसने जीवन भर कित क रता ही देखी थी। मनोरमता नह ।
‘‘अभी तक तो तुमने यथाथ देखा ह।’’ मने कहा, ‘‘पर अब म तु ह व न भी िदखाता ।’’ इतना कहते ए मने
करतल विन क । तीन-चार मिहला हरी तुरत उप थत । मोद वन क इस े म पु ष ह रय का वेश
िनषेध था।
मने उन मिहला ह रय से पूछा, ‘‘कहाँ ह कलवधुएँ?’’ (इस मोद वन क आसपास बसाई ग और नरकासुर क
अंतःनगर से आ मिहला को यहाँ ‘कलवधुएँ’ ही कहा जाता था।)
‘‘उनक पधारने का अभी समय नह आ ह।’’ ह रय म से एक बोली।
‘‘उनसे कहो िक महाराज क एक िम पधार ह। वे तुम लोग से िमलना चाहते ह।’’
वह मिहला हरी चली गई और कछ ही देर म वे कलवधुएँ अपने े क परपरागत नृ य क वेशभूषा म
पधार । वे उ र क ओर से उस मोद वन क बनावटी ऊचाई से रग-िबरगे वेशमु ा म िततिलय जैसी फदकती
ई आ और हम दोन क स मुख एक पं म करब खड़ी हो ग । उनक मु ा पूछ रही थी—‘किहए, या
आ ा ह?’
पहले मने सुदामा का प रचय िदया—‘‘ये मेर िम ह। िम ही नह , घिन िम ह और बालसखा भी।’’
‘‘बालसखा!’’ उनका मुख खुला-का-खुला रह गया। उनका आ य उस अकालवृ शरीर को देखकर था।
सुदामा उ ह मुझसे ब त बूढ़ा लगा।
उनक आ य का समाधान भी सुदामा ने ही िकया—‘‘तु हारा चिकत होना वाभािवक ह; पर स य यही ह िक
मेरा िम िचरयुवा ह और म िचरवृ ।’’
वे सभी हसने लग और बात वह समा हो गई।
िफर उनका नृ य शु आ। पहले तो वे वयं नाचती रह ; िफर मने संकत िकया और सुदामा को वे अपने बीच
ख च ले ग । उस बेचार क या थित ई, इसे तो भगवा ही जाने। िजसने जीवन म कभी पर ी का पश न
िकया हो, नतिकयाँ उसक दोन बाँह पकड़कर और किट म हाथ डालकर नाचने को िववश कर, या गित ई
होगी उसक !
पहले तो वह झुँझलाया, इधर-उधर थोड़ा झटकने क कोिशश भी क ; पर वे सब कहाँ मानने वाली थ । मेरा
संकत जो िमला था। उनका उ े य तो उसे िकसी तरह नचाना था। वे उसम सफल भी । बूढ़ बाबा नाचते या!
अंततः लाचार होकर उनक साथ िहलने-डलने और किट िहलाने लगे। म भी बाँसुरी बजाने लगा।
कित नाच रही थी, कलवधुएँ नाच रही थ , सुदामा नाच रहा था और नाच रही थ मेरी वंशी क िछ पर मेरी
अँगुिलयाँ।
इस थित का सामना सुदामा अिधक देर तक कर नह पाया। वह च कर खाकर िगर गया। तुरत नृ य बंद
आ। उसे उठाया गया और लाकर वह िलटा िदया गया जहाँ म बैठा था। मने उसका िसर उठाकर अपनी जाँघ पर
रखा और सहलाने लगा।
सारी कलवधुएँ चुपचाप हम घेरकर खड़ी हो ग । उनक मु ा म एक कार का अपराधबोध था िक यह हमने
या िकया!
मने उ ह आ त करते ए कहा, ‘‘तुम घबराओ मत! मेर िम का अ यास नह था। उसे च कर आ गया।’’
‘‘म भी सोचता िक म िकस च कर म पड़ा।’’ सुदामा आँख बंद िकए ए ही बोला।
मुझे हसी आ गई। वे सब भी मुँह पर हाथ रखकर हसने लग ।
‘‘अब मेरा िम लेट-लेट ही तु हारा नृ य देखेगा।’’ मने कहा और वे िफर नाचने लग । पर इस बार वह बात नह
थी। न वह गित थी और न वह ि ता। कवल मेर आदेश का एक औपचा रक पालन मा था।
‘‘िकस झमेले म तुम ले आए, क हया!’’ सुदामा कित थ होते ए बोला, ‘‘म ा ण तप वय का जीवन
जीनेवाला य । इन सबसे मेरा या वा ता!’’ उसक कथन म बड़ी िवतृ णा थी।
‘‘इसीिलए तो तुम अधूर हो।’’ मेर इतना कहते ही उसने मेरी ओर बड़ी गंभीरता से देखा िक यह म या कह रहा
। म उसी मु ा म कहता गया—‘‘तप या जीवन नह ह और न वह सा य ह। वह तो साधन ह जीवन क पूणता
का।’’
‘‘तो यही तु हारा जीवन ह?’’ उसने पूछा।
‘‘न यह पूणता ह और न वह पूणता ह, िजसे तुमने जीया ह।’’ मने कहा, ‘‘दोन जीवन क अितयाँ ह। एक ‘अित’
का छोर वह ह और दूसरी का यह। म इन दोन अितय क म य म जीवन क पूणता खोजने क िलए तु ह यहाँ
लाया ।’’
‘‘खोजकर भी या क गा? मुझे तो वही जीवन जीना ह।’’
‘‘यह तुम कसे कह सकते हो?’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘म तो तु हार ललाट पर िलखा राजयोग पढ़ रहा ।’’
वह एकदम चिकत हो उठा।
‘‘यह तुम या कह रह हो, क हया?’’
‘‘ठीक कह रहा , सुदामा!’’
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इस घटना का सुदामा पर ऐसा भाव पड़ा िक वह अंतःपुर छोड़कर अितिथभवन म चला गया। जब मने इसक
िवषय म पूछा तो उसने बताया—‘‘म एकांतजीवी । वहाँ मुझे पूजा-पाठ म बाधा पड़ती थी।’’
व तुतः वह वैभव से घबराकर अंतःपुर से भागा था।
अितिथभवन म जो सेवक और सेिवकाएँ उसक साथ संल न क गई थ , उ ह भी उसने अपनी ओर से हटा
िदया था। िफर भी मने उ ह उसक पीछ लगा रखा था। अपने राजकाज से जब भी मुझे अवकाश िमलता था, म
उसक पास प च जाता था। भोजन तो म उसक साथ ही करता—चाह राजभवन क भोजनालय म करना हो या
अंतःपुर म या अितिथभवन म। एक-एक पकवान उसक मुख म मुझे बला डालना पड़ता।
वह सकचाते ए कहता—‘‘यह सब मेर भा य म कहाँ, क हया!’’
‘‘पर म तो तु हार भा य म देख रहा ।’’ म कहता और वह चिकत होता; िकतु इसक आगे बात न बढ़ती।
जब कभी वह िकसी तरह अंतःपुर म भोजन क िलए बुलाया जाता तब मेरी दोन प नयाँ भी वहाँ साथ होत । म
बैठता अपने िम क िनकट ही, पर मुझे वहाँ उसक मुख म डालने क वतं ता न होती। इसीिलए म बराबर उसक
मुख क ओर मुड़कर देखता जाता था।
एक बार मणी ने मुझे टोका भी—‘‘आप खाते समय बार-बार अपने िम क ओर य देखते ह? इसी संकोच
म तो िबचार खा नह पाते।’’
‘‘तब तु ह िखला िदया करो।’’
‘‘म तो तैयार ।’’ मणी अपने थान से उठी।
इधर सुदामा महाराज भड़क उठ—‘‘तुमने शु कर दी अपनी शरारत! तुम मुझे खाने दोगे िक म उठकर यहाँ से
चला जाऊ!’’
‘‘नह , महाराज, आप खाइए। आपको कोई तंग नह करगा।’’ मने कहा, ‘‘मने उस िदन तो तु ह तंग िकया ही
नह , जब तुम चुराकर खा रह थे, तो आज या तंग क गा!’’
‘‘चुराकर खा रह थे!’’ प नयाँ हस पड़ ।
‘‘इसम आ य मत करो। मेर िम को चुराकर खाने क पुरानी आदत ह।’’ मने िफर सुदामा को संबोिधत करते
ए कहा, ‘‘यिद तुम कहो तो म तु हारी पोल खोल दूँ।’’
‘‘अब पोल खोलने म बच ही या गया ह!’’ वह मुसकराते ए बोला।
और म वह पुरानी कहानी सुनाने लगा—‘‘बात उन िदन क ह, जब हम दोन सांदीपिन आ म म िश ा हण
कर रह थे। हमार िम का िव ा यास ब त अ छा था। प र मी, आ ापालक और िनल भी—अथा एक अ छ
िश य म िजतने गुण होने चािहए, वह सब इसम थे। इसीिलए आचायजी—और उनसे भी अिधक आचायप नी इसे
मानती थ । इसीिलए इसे वे अपनी सेवा म अिधक रखती थ । जहाँ कोई आव यकता ई वहाँ सुदामा क पुकार
ई।’’
म कहता जा रहा था। लोग क भोजन क गित मंद पड़ती जा रही थी—‘‘जाड़ क िदन थे और एक सं या को
जलावन क लकड़ी घट गई। मेर िम क पुकार ई। यह आचाय क पणकटी म गया। वहाँ से मने इसे क हाड़ी
लेकर िनकलते देखा और िफर इसक पीछ हो गया। आचाय ने मुझे टोकते ए कहा, ‘तुम भी जा रह हो?’ उनक
इ छा मुझे जाने देने क नह थी। उनक मन म कह -न-कह यह बात अव य थी िक यह संप ता म पला बालक
ह। इससे इस कार का काम लेना इसक वभाव और कित क ितकल ह।
‘‘पर माताजी तुरत बोल पड़ —‘जाने दीिजए, िदन डब रहा ह। दोन साथ रहगे तो अ छा ही रहगा।’
‘‘हम लोग चल पड़।’’ म देख रहा था िक य - य म कहानी सुनाता जा रहा था य - य लोग क उ सुकता
बढ़ती जा रही थी और मेर िम क झुकती जा रही थी।
‘‘चलते-चलते आचायजी ने अपना बार-बार िदया गया िनदश पुनः दुहराया—‘देखो, हरा पेड़ मत काटना।’ हम
लोग ने िसर िहलाकर इस िनदश को वीकार िकया और चल पड़।
‘‘पर दुभा य से आसपास कोई सूखा पेड़ था ही नह । म तो पहली बार इस उ े य से आ म से िनकला था। मने
इससे िज ासा क —‘आसपास तो एक भी सूखा पेड़ नह ह?’
‘‘ ‘तुम या समझते हो, आसान ह सूखी लकिड़याँ खोजना!’ बड़ ताव से बोला था उस समय मेरा यह िम !’’
मने िफर सुदामा क ओर देखा। उसक अधर क बीच हलक -हलक मुसकराहट उग आई थी।
मने बात आगे बढ़ाई—‘‘तब इसने कहा, ‘माग म देखते जाओ। जो सूखी टहिनयाँ िगरी िदखाई पड़, उ ह बीनते
जाओ।’
‘‘ ‘पर इससे या होगा? कह ओस चाटने से यास बुझेगी!’ मुझे याद ह, सुदामा, उस समय भी तू बड़ ताव से
बोला था, ‘हम जंगल म चलना पड़गा। तुम जंगल म चलने से डरते हो! वहाँ बड़ िसंह, भालू, साँप रहते ह। तु ह
डरना ही चािहए।’...उस िदन तो िम ! रा ते भर तुम मुझे डरवाते चल रह थे।’’
उसक मुसकराहट ण भर क िलए हसी म बदली।
‘‘हम चलते गए, चलते गए। ब त दूर िनकल गए। अँधेरा हो गया। आकाश म मेघ िघर आए। अब अँधेरा और
गाढ़ा हो गया। माग िदखाई पड़ना भी किठन हो गया। अब मने उलट इसे डरवाना शु िकया—‘अब या होगा,
जब िसंह दहाड़गा, बड़-बड़ अजगर आएँगे!’
‘‘िफर मेरा िम काँपने लगा। मने कहा, ‘पहले तो बड़ी ड ग मारते थे, अब काँपते य हो?’
‘‘यह बोला, ‘सद लग रही ह।’ ’’
इतना सुनते ही सभी हस पड़। सुदामा भी जरा उभरकर मुसकराया।
भोजन तो लगभग समा हो चुका था। बात ही चल रही थ और म बोलता ही जा रहा था। मने कथा का पुराना
सू आगे बढ़ाया—‘‘हाँ, तो उसक बाद आकाश भी टपकने लगा। धीर-धीर वषा तेज ई। अब न था िक कहाँ
शरण ली जाए? िकसी घने वृ पर चढ़कर बैठने क िसवा अब कोई चारा नह था।
‘‘रात घनी होती चली गई। बा रश भी तेज होने लगी। जाड़ क रात और पेट खाली। सद और भूख का पूरा
आ मण। अब या िकया जाए? िकसी कार समय काटना था। चुपचाप हम लोग डाल पर वृ क मोट तने क
सहार बैठ थे। ऊपर क डाल पर यह (सुदामा) और नीचे क डाल पर म। अचानक लगा िक यह कोई कड़ी चीज
खा रहा ह। मने पूछा, ‘ या खा रह हो, िम ?’
‘‘इसने कहा, ‘कछ तो नह ।’
‘‘ ‘िफर तु हार दाँत य बोल रह ह?’
‘‘ ‘जाड़ से िकटिकटा रह ह।’ इसने और काँपते ए कहा।’’
सभी िफर हस पड़। इस बार सुदामा का भी पोपला मुख पूरा-का-पूरा खुल गया।
‘‘आपने भी िव ास कर िलया?’’ इस बार स यभामा बोल पड़ी।
‘‘िव ास न करता तो या करता!’’ मने कहा, ‘‘सोचा थोड़ ही था िक यह इतना बड़ा छल करगा मेर साथ!
व तुतः माताजी ने जंगल जाते समय इसे थोड़ से भुने चने िदए थे। उसीको यह चोर उस समय चुपचाप चबा रहा
था।’’
इस बार सबक सब तािलयाँ पीटकर हस पड़।
सुदामा भी ल ा भरी हसी हसते ए बोला, ‘‘ब त आ। सबक बीच बैठाकर अब मेरा और पानी मत
उतारो।’’
इसक बाद हम लोग भोजन पर से उठ गए।
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िदन पर िदन िखसकते चले गए। सुदामा को भी पधार एक प से ऊपर हो गया। इस बीच हमार प रवार से
उसक िनकटता भी बढ़ी। भैया-भाभी उसे खूब मानते थे। नानाजी क यहाँ तो वह ब धा चला जाता था और
धािमक संदभ क अनेक कथाएँ सुनाता था। अ या म रामायण तो वे उससे संपूण सुनना चाहते थे। भोजन क बाद
अब सुदामा नानाजी क यहाँ ही जाता था और सं या तक वह रहता था। मेर माता-िपता भी उस समय वहाँ प च
जाते थे।
इधर सुदामा को पूरी शासन यव था से प रिचत कराया गया। वह सभी अमा य से प रिचत आ। अमा य
मंडल क कई सभा म भी उसे आमंि त िकया गया। पर इन सार संग म उसक िच न थी।
कभी-कभी उसक िवतृ णा मुखर भी हो जाती थी—‘‘ या क गा यह सब जानकर?’’
म कहता—‘‘जैसे तु हार व बदले ह वैसे तु हारा सारा य व बदल देना चाहता ।’’
‘‘म यहाँ से जाते ही जैसे तु हार व उतारकर फक दूँगा वैसे ही इस य व को भी फक दूँगा।’’
‘‘जब फकना ही था तो इसे पहना य ?’’
‘‘तु हारी ित ा क िलए।’’ उसने कहा।
म िन र हो गया। मन म बनी उसक छिव पर रग क एक परत और चढ़ गई।
इसक बाद मने उसक पूरी देखभाल छदक को स पी और उसे सावधान करते ए कहा, ‘‘एक िनतांत िवल ण
य व तु ह स प रहा । इसका गहराई से अ ययन करो।’’
छदक बोला, ‘‘ह तो बड़ा यागी य व!’’
‘‘तथाकिथत यािगय से भी महा !’’ मने कहा, ‘‘ यािगय म भी एक अहकार होता ह— यागने का अहकार। मने
इस व तु का याग िकया। मने उस व तु का याग िकया। मने राजपाट छोड़ा। वैभव-िवलास छोड़ा। सब छोड़ने क
बाद भी वे याग क इस अहकार को नह छोड़ पाते। उसे दय से बंद रया क मर ए ब े क तरह िचपकाए रहते
ह।...पर इसम यह अहकार ही नह ह।’’
छदक ने मेरी बात का समथन िकया। उसने बताया—‘‘एक िदन मने अितिथभवन क उसक क म झाँका तो
देखा िक आपका िम उस ब मू य पयक पर नह वर कोरी धरती पर पड़ा खराट भर रहा था। म उसी क म
बैठ गया। जब वह जगा तब मने उससे पूछा। वह पयक क ओर संकत करते ए बोला, ‘वह हमारी नह ह।
हमारी तो कवल धरती ह और उसी पर मुझे न द भी आती ह।’ ’’
उसक इस कथन पर मुझे आ य नह आ। मने मन-ही-मन समझ िलया िक यहाँ का िदया तो वह यह छोड़
दे रहा ह। पर मुझे तो इसे देना ही ह। तब य नह म इसे न देकर इसक प नी को दूँ! और वह जाकर इसे िदया
जाए।
इतना होने पर भी म अपने िम का ाम नह जानता था। कई बार मने कारांत से उससे पूछा भी था; पर वह
हर बार टाल गया। इसी िवशेष जानकारी क िलए मने छदक को उसक पीछ लगाया था।
मने छदक से कहा, ‘‘िकसी कार इसक जानकारी लो। मुझे तो लगता ह िक इसका ाम मेरी रा य सीमा क
िकसी छोर पर ही पड़ता होगा; य िक इसक पैदल या ा से कछ ऐसा ही अनुमान लगता ह। हो सकता ह, रा य
क सीमा क बाहर भी हो। तब उसे खरीदना होगा। िजस िकसी राजा या सामंत क सीमा म पड़ता होगा, उससे
संपक करना पड़गा। यह काय म गु चर और अपने अिधका रय से भी करा सकता ; पर म नह चाहता िक
इस बात को मेर और तु हार अित र कोई तीसरा भी जाने।’’
‘‘आिखर इतनी गोपनीयता य ?’’ छदक ने िज ासा क ।
‘‘ य िक अपने िम को उस ाम का वामी बनाना चाहता ।’’ मने कहा, ‘‘यिद तुम शी संभव कर दो तो म
अपने िम क नाम पर एक छोटी सी नगरी ही बसा दूँ। यिद यह बात जरा सी भी फटी तो सुदामा चुपचाप यहाँ से
कह चला जाएगा; य िक वह मेरा एहसान नह लेना चाहगा। ऐसी थित म यह अपनी प नी क यहाँ भी नह
जाएगा। यह बड़ा िविच जीव ह।’’
‘‘तो या समझते ह िक उसक नाम क नगरी बसाकर आप उसे उसका वामी बना सकगे?’’ छदक बोला, ‘‘मुझे
तो लगता ह, वह आपका कछ भी वीकार नह करगा।’’
‘‘वह वीकार कर या न कर, उसक प नी तो वीकार करगी; िजसने उसे हठ कर यहाँ भेजा ह।’’ मने कहा,
‘‘िफर तुम मेरी लीला देखते जाओ।’’
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िफर लंबे अरसे तक सुदामा ारकापुरी म रह गया। य िप यहाँ उसका मन नह लगता था। ितिदन सवेर ही
याण क योजना बनाता था; पर िकसी-न-िकसी बहाने उसे रोक िलया जाता था, य िक मेरा उ े य अभी पूरा
नह आ था। अभी उसक ाम को ‘सुदामापुरी’ म बदला नह जा सका था। (आज भी पोरबंदर क पास एक
सुदामापुरी ह।) छदक लगा था। िदन-रात काम जारी था।
अतएव सुदामा को उलझाए रखना आव यक था। इसक िलए उसे कथा-वा ा म लगा िदया गया था। य तो
नानाजी को म या म कथा सुनाता ही था। इसक अित र सं या को िवशाल िशव मंिदर म और ातः ारका क
प मी छोर पर सूय मंिदर म उसक कथा होती थी।
यह िदनचया उसक कित और ान क अनु प थी। िफर भी उसका जी उचटा-उचटा रहता था। वह ब धा
कहता था—‘‘अब जाने दो, िम , ब त हो गया। मेरी प नी या सोच रही होगी!’’
‘‘वह यही सोच रही ह गी िक पित महोदय अपने बालसखा ारकाधीश क यहाँ गए ह। वे ज दी छोड़नेवाले थोड़
ही ह।’’ मने कहा, ‘‘िफर तुम अपने मन से तो आए नह हो, भाभी ने ही तु ह भेजा ह।’’
वह मेर सामने तो चुप हो जाता, अिधक खुलता छदक क सामने। य िक छदक ने उसक दय क अ यिधक
िनकट प चने म अ छी सफलता ा कर ली थी।
एक िदन सुदामा उससे कह रहा था—‘‘म तो यहाँ िवलास कर रहा । इतना अ छा खाता-पीता , िन य नए
उ म व धारण करता । अब धरती पर सोना तो दूर, धरती पर पैर रखना भी यदा-कदा ही होता ह; पर वह
बेचारी कसी होगी? एक समय क िलए भी कछ जुटा पाती होगी या नह ?’’
‘‘इस न का उ र तो ारकाधीश ही दे सकते ह।’’ छदक ने कहा।
सुदामा गंभीर हो गया।
छदक ने िफर कहा, ‘‘आप इस िवषय म ारकाधीश से बात कर।’’
‘‘उनसे बात करने से या होगा! मेरी िचंता तो बनी ही रहगी।’’ उसने कहा, ‘‘वह तो हर बात प रहास म उड़ा देता
ह।’’
‘‘िफर भी आप उनक अितिथ ह। आपक पूरी िचंता करना उनका कत य ह।’’ छदक ने कहा और उसे इतना
समझाया िक वह िकसी कार बात करने मेर पास आया।
‘‘कल तक मुझे जाने दो।’’ उसने आते ही कहा।
‘‘ य ?’’
‘‘ब त िदन मुझे आए हो गए।’’
‘‘म तो चाहता िक कछ िदन यहाँ और रहते। जैसे तु हारी वेशभूषा बदली, िदनचया बदली वैसे ही तु हारा रग-
प भी बदल जाता। तु हारी ह य पर थोड़ा और मांस चढ़ जाता।’’
‘‘तब तो बड़ी िविच थित होगी।’’ इस बार सुदामा ने ही प रहास िकया। वह मुसकराते ए बोला, ‘‘यिद मेरा
य व ही बदल जाएगा, तब तो एक बड़ा खतरा हो सकता ह।’’
‘‘वह या?’’
‘‘तु हारी भाभी ही मुझे पर पु ष समझकर अ वीकार कर दे तो?’’
‘‘िफर तो वह कभी अ वीकार नह करगी। य िक ‘ व’ से ‘पर’ म यादा रस होता ह।’’ मने कहा और हम दोन
ठहाका मारकर हस पड़। उस िदन भी इसी हसी म मु य बात उड़ गई।
जीवन ऐसी ही सामा य गित से आगे बढ़ता रहा। कछ िदन और बीते।
एक िदन एक िविच घटना ई।
अभी म या नह आ था। म कायालय म अमा य मंडल क बैठक कर रहा था। रा य क गित का लेखा-
जोखा तुत िकया जा रहा था िक अचानक लगा जैसे कोई मुझे पुकार रहा ह। मेरी तुरत वातायन क ओर
गई। कह कछ नह िदखा। िफर भी मुझे लग रहा था िक कोई मुझे पुकार रहा ह।
मने प रचर धान से कहा, ‘‘जरा बाहर िदखवाओ, कोई मुझे पुकार रहा ह।’’
अमा य मंडल क सद य क भी कान खड़ ए। उ ह ने भी बड़ यान से सुनने क चे ा क ; पर कह कछ सुनाई
नह पड़ा। प रचर भी िनराश ही लौट।
‘‘बाहर कोई नह ह।’’ उनम से हर एक ने कहा।
पर आवाज बराबर सुनाई पड़ रही थी। घबराई ई आवाज, पीड़ा से भरी ई आवाज, जानी-पहचानी आवाज।
मने िफर कहा, ‘‘कोई पुकार रहा ह, जरा आप लोग यान से सुिनए।’’
बैठक अपनी कायवाही पर जैसे थम गई। अब उसक सामने एक यही िवषय था।
मने िफर कहा, ‘‘कोई बुला रहा ह। बार-बार बुला रहा ह। उसक विन मुझे य कर रही ह।’’
मेरी य ता ने सभी अमा य को िवचिलत कर िदया। सभी उठ गए। कछ वातायन से झाँकने लगे। कछ
सकपकाई से चार ओर देखने लगे। कछ आवाज क खोज म बाहर भी िनकल गए। मनु य, पशु-प ी सभी
िदखाई पड़; पर आवाज कह न सुनाई पड़ी और न कोई पुकारता सुनाई पड़ा।
लोग को परम आ य था िक यह या चम कार ह; पर म कह जा रहा था—‘‘नह , कोई पुकार रहा ह। वह
िवपि म ह। मुझे ज दी वहाँ प चना चािहए।’’
मने यही बात जोर-जोर से कई बार दुहराई। य - य म अपनी बात दुहराता गया, मेर अमा य च कर म पड़ते
गए। मेरी थित देखकर उ ह ने समवेत आ ह िकया—‘‘महाराज, आप अशांत ह। आपको िव ाम क
आव यकता ह।’’
तुरत राजभवन से िशिवका मँगवाई गई और अंतःपुर म िव ाम क िलए भेजा गया। सभी िचंितत थे िक मुझे या
हो गया। मेर म तक पर पसीने क बूँद भी उ ह ने देख । उ ह लगा िक मेर वा य क असामा य थित ह।
महामा य ने राजवै को बुलाने क िलए प रचर भेजा। इधर अंतःपुर क िव ामक म मेरी घबराहट करवट
बदलने लगी। मुझे वही आवाज य िकए जा रही थी। बड़ी पीड़ा भरी आवाज, वही आत विन—‘बचाओ!
क हया, बचाओ! मेरी ल ा रखो, क हया! भरी सभा म म न न क जा रही । तुमने कहा था न िक जब म
पुका गी, तुम आ जाओगे! आज म पुकार रही । असहाय होकर पुकार रही । अब कोई सहारा नह रहा। यिद
तुम नह आए तो म लुट जाऊगी।’
यह आवाज मुझे और तेज सुनाई पड़ने लगी। मेरी य ता बढ़ती गई। मेरी प नयाँ मेर पयक क चार ओर
घेरकर बैठी थ ।
मने उनसे पूछा, ‘‘तु ह कछ सुनाई पड़ रहा ह?’’
उन सबने नकारा मक ढग से िसर िहलाया। मेरी याकलता और बढ़ी। म पसीने-पसीने हो गया। मेरी प नयाँ
और घबरा । उ ह ने कभी मुझे ऐसी थित म देखा नह था। उ ह ने तुरत शीतल जल मँगवाया। मुझे िपलाया।
मुझपर िछड़काव भी िकया। मेर सामने तो आवाज थी, उनक सामने कोई आवाज नह थी। इसिलए वे और भी
य थ । मुझे शांत करने क उ ह कोई यु िदखाई नह दे रही थी।
मने अपनी प नय को शांत करने क चे ा क —‘‘जब तु ह कछ नह सुनाई दे रहा ह तब तुम सब य य
हो?’’
‘‘आपक य ता देखकर।’’
‘‘तो लो, अब म शांत हो रहा ।’’ मने कहा तथा इसक बाद आँख बंद क और यान िकया। िफर समािध म
चला गया। मेर पास योग साधने क अित र और कोई चारा नह रहा।
लोग ने मुझे बाद म बताया िक कछ ही ण बाद मेरी काया सं ाशू य हो गई थी। लोग ने उस समय मेर शरीर
को छआ था। कह कोई पंदन नह । लोग और घबराए। तब तक राजवै भी आ चुक थे। उ ह ने सारा वृ ांत
सुना। मुझे बड़ यान से देखा। िफर नाड़ी पर हाथ रखा और ब त देर तक मौन रह।
िफर बड़ी गंभीरता से बोले, ‘‘इ ह िकसी ओषिध क आव यकता नह ह।’’
मेरी प नयाँ अब और घबरा । रोने लग ।
‘‘ या इनम जीवन शेष नह ?’’
‘‘सं ित नाड़ी म पंदन तो नह ह, पर शरीर िनज व नह ह।’’ वै राज ने कहा, ‘‘आप ही देिखए, पहले से अिधक
तेज वता ह आकित पर। तन क कांित िनखरी पड़ रही ह। यह शरीर क साधारण अव था नह , असाधारण
अव था ह। यह योिगराज क योगिस थित ह। महाराज योगिन ा म ह। अपने थूल शरीर से सू म शरीर को
अलग कर िलया ह।’’*
‘‘तो इनका सू म शरीर कहाँ होगा?’’
‘‘इस ांड म कह भी हो सकता ह।’’ वै राज ने कहा, ‘‘आप लोग घबराएँ नह , वह सू म शरीर अपना काय
पूरा कर कभी भी आ सकता ह।’’
लोग ने मुझे बताया था िक उस समय तक मेर प रवार का येक सद य मेर िनकट उप थत हो गया था। सभी
य ; पर शांत, थर, एकदम जड़व ।
उ ह म सुदामा भी था; पर वह यानाव थत था। कछ देर तक वह कछ सोचता रहा। िफर चुपचाप वहाँ से उठा
और आचाय को बुला लाया।
गगाचाय क आते ही लोग क जड़ता टटी। इधर-उधर हटकर मुझ तक प चने क िलए लोग ने उ ह माग
िदया। उ ह ने भी मुझे यान से देखा और उसी िन कष पर आए, िजसपर राजवै आ चुक थे।
उ ह ने मुसकराते ए कहा, ‘‘क हया क यह योग थ काया ह।’’ िफर उ ह ने मेरी योग साधना क सिव तार
चचा क ।
िपताजी ने कहा, ‘‘िकतु हम लोग ने कभी इसे इस थित म देखा नह था।’’
‘‘तो आज देख लीिजए।’’ गगाचाय मुसकराते ए बोले। उनक आकित पर न तो कोई य ता थी और न तनाव।
उ ह ने बड़ सहजभाव से िपताजी से कहा, ‘‘आपने तो अपने पु क लीला ज म से देखी ह। आज भी देिखए;
िकतु शांत और सहजभाव से।’’
आचायजी क आने से थित एकदम बदल गई। य ता शांित म बदलने लगी। मेर शरीर को िकसी कार क
न हो, मेरी योगिन ा म िकसी कार का यवधान न पड़, इस से लोग चुपचाप हटने-बढ़ने लगे। भैया ने तो
पूर राजभवन म और उसक चार ओर शांित क यव था कराई।
धीर-धीर समाचार नगर म भी फल गया। लोग को काठ मार गया। देखते-देखते ारका क ऐसी थित हो गई
जैसे समय ही थम गया हो। लोग योगिन ा से जगने क मेरी ती ा साँस रोककर करने लगे।
मुझे पहले ही से लग रहा था िक छटपटाती आवाज मेरी जानी-पहचानी ह। अब य ही मने अपने थूल शरीर
से सू म शरीर अलग िकया य ही वह आवाज और प हो गई। य िप सू म शरीर इि यिवहीन होता ह; िफर
भी सांसा रक अनुभूित वह हण कर सकता ह। मुझे अब वह चीख प तः ौपदी क लग रही थी। िन त ही
वह भयंकर िवपि म ह और बड़ कातरभाव से मुझे मरण कर रही ह।
मेरा यह सू म शरीर उस आत विन को पकड़कर आकाश माग से उड़ चला। मेर िलए समय और थान दोन
अ यिधक िसमट गए थे। देखते-देखते म ह तनापुर क राजदरबार म प च गया। मने देखा, एकव ा ौपदी
घबराई ई सभा म खड़ी ह। उसक कश िबखर ह। ोध से उसका सारा तन काँप रहा ह। आँख से िचनगा रयाँ
छट रही ह। िफर भी वह विधक से िघरी ई िहरणी क तरह िनरीह ह। उसक पाँच पित कवल किटव पहने
सभा म मूक-असहाय बैठ ह। कवल रह-रहकर भीम का ोध कभी-कभी भभक रहा ह; पर वह फिनल सागर क
तरह उफान लेकर यथ हो जा रहा ह। म कछ समझ नह पाया। आिखर िपतामह, आचाय ोण, कप, िवदुर और
महाराज धृतरा जैसे वर य वृ मौन य ह? गांधारी तो आँख पर प ी बाँधे ही रहती ह, इन लोग ने मुँह पर
प याँ य बाँध रखी ह? म कछ समझ नह पा रहा था िक थित या ह।
म शी ही ौपदी क सम आ गया।
वह बोल पड़ी—‘‘आ गए, नाथ!’’
लगा िक म उसे िदखाई पड़ रहा । लोग क भी सकपकाई; पर उ ह कछ िदखाई नह िदया।
ौपदी बोलती गई—‘‘म कब से पुकार रही , भो! तुमने इतनी देर य कर दी? यिद ण भर क और देर हो
जाती तब तो मेरी इ त ही उतर जाती।’’ उसने दुःशासन क ओर संकत करते ए कहा, ‘‘यह दु मेर कश
ख चते ए मुझे अपने भवन से यहाँ तक ले आया ह। इस समय म सभा म आने क थित म भी नह थी। म
रज वला , एकव ा । यहाँ यह दु मेरा चीर ख चकर मुझे न न करना चाहता ह। तु हार रहते मेरी यह थित
होने जा रही ह, नाथ!’’
पूरी सभा सकपकाई ई चार ओर देखने लगी िक ौपदी िकसको संबोिधत कर रही ह; पर िकसीको कछ
िदखाई नह िदया। मने देखा िक िपतामह क एकदम नीची ह, धरती म गड़ी जा रही ह; जैसे उ ह न तो कछ
सुनाई पड़ रहा ह और न कछ िदखाई पड़ रहा ह। मने उनक ऐसी िनरीह थित कभी नह देखी थी। और वृ क
आकितय पर भी दुःख था, आ ोश था तथा दास जैसी लाचारी थी।
दुय धन अ हास करते ए बोला, ‘‘इस नाटक से कोई लाभ न होगा। तुम समझती हो िक यहाँ भी तु हारा कोई
जादू चलने वाला ह। अब तुम जुए म हारी हमारी दासी हो। हम जैसा चाह, तु हार साथ यवहार कर सकते ह।’’
इसक बाद दुय धन ने दुःशासन से कहा, ‘‘अब तुम अपना काम पूरा करो। यह क ण को पुकारती ह, पुकारने
दो। देख, इस समय कहाँ से आता ह इसको बचाने क िलए इसका क हया!’’
अब ौपदी चीखी—‘‘अर पािपयो! वह कहाँ से आता नह ह वर आ चुका ह। तु हार पास उसे देखने क
आँख नह ह। तुम सब अंधे हो चुक हो।’’
अब म दुःशासन को िदखाई देने लगा था। मेर दािहने हाथ क तजनी पर अिभमंि त च चलने लगा था।
दुःशासन िशशुपाल वध क समय का ही मेरा प देखने लगा था। वह चम कत भी आ और हतो सािहत भी।
लगभग त धता क थित म।
तब तक कण का ितशोध गरजा—‘‘ या अपािहज जैसे मौन खड़ हो! युवराज क आ ा का पालन करो।’’
अब दुःशासन ने ौपदी क व पर हाथ लगाया। मेर मन म आया िक म अभी इसका अंत कर दूँ; पर उसी
समय ौपदी पुनः चीखी—‘‘तु हार रहते म न न हो जाऊगी, क हया! मेर भैया!’’
बस मेरा िवचार बदल गया। मने सोचा िक ौपदी क मु य ाथना दुःशासन क वध क नह वर उसक न न
न होने देने क ह। मेरा सू म शरीर तुरत ौपदी क िनकट आया।
अब दुःशासन ने मुझे ौपदी क व क ओर हाथ बढ़ाते और अ हास करते देखा। उसने मेर मुख से यह
कहते ए भी सुना िक ‘ख चो व , िजतना ख च सकते हो, ख चो। पूरी श से ख चो। देखूँ, िकतनी श ह
तुमम!’
मेर ारा ललकारा जाना, मेरा आ ोश भरा अ हास और यह सब उसीको िदखाई देना। मुझे न देख पाने क
कारण कौरव और िवशेषकर कण ारा उसे ललकारना—‘‘ या देखता ह! ख च ले व और िनव कर दे इस
मािननी को।’’
एक ओर मेरी आवाज और दूसरी ओर उस सभा क । एक ओर ललकारता आ मेरा अ हास और दूसरी ओर
सभा का क सत दुरा ह। दुःशासन िब कल हत भ हो गया। उसने सचमुच साड़ी को ख चना भी चाहा, पर मेर
प म अपना अंत देखकर उसक श समा हो गई। वह अचेत होकर िगर पड़ा।
हाहाकार मच गया।
‘‘यह या आ? यह या आ?’’ लोग िच ा पड़।
‘‘यह मेर क हया क कपा ह।’’ ौपदी िव ल होकर बोली।
लोग क िफर चार ओर गई। म कह िदखाई देता तब तो।
‘‘कहाँ ह क हया?’’ कई लोग ने एक साथ पूछा। शायद इसम िपतामह क भी आवाज थी।
ौपदी अब भी मुझे मुसकराता आ देख रही थी। उसने िफर कहा, ‘‘यह तो अंध क सभा ह। इसीिलए इ ह
कछ िदखाई नह पड़ रहा ह।’’
इसी समय एक िविच बात और ई। गांधारी दौड़ी ई अंतःपुर से आई। वह एकदम घबराई ई थी। उसने
अपने पित क चरण पकड़ते ए कहा, ‘‘महाराज! यह या अनथ हो रहा ह! आप कछ सुन रह ह?’’
पूरी सभा सकते म आ गई। आवाज अब और साफ तथा भयावह सुनाई दे रही थ । य शाला म सार गाल
एक साथ होकर रो रह थे। गदह रक रह थे। प ी उड़ते ए िवशेष विन करने लगे थे। लोग को ये सार
अपशकन एक साथ होते िदखाई िदए।
महाराज धृतरा एकदम घबरा गए। बोले, ‘‘बंद करो यह सब नाटक और अिन क आवाज सुनो।’’
अब िवदुरजी को भी मौका िमला। उ ह ने प कहा, ‘‘यह स ा क िवनाश क सूचक ह।’’
संपूण सभा म आतंक छा गया। अचानक अ याय क इस नाटक का पटा ेप हो गया। ौपदी छोड़ दी गई।
पांडव दास व से मु ए। शकिन अपने हाथ म ही पासे िलये अवा रह गया।
अब मने िफर ारका क ओर देखा। मेरा थूल शरीर पयक पर पड़ा ह; जैसे बड़ शांतभाव से म सो रहा ।
चार ओर लोग मौन यानाव थत ह। मेरी सभी प नयाँ आँख बंद िकए चुपचाप बैठी मानो कोई जाप कर रही ह ।
पूर अंतःपुर का गिलयारा लोग से भरा ह। उ ह म मोद वन क कलवधुएँ भी ह।
ह तनापुर म मेरा काम पूरा हो चुका था। भ को ाण िमल चुका था। म तुरत लौट पड़ा। य ही मेर सू म
शरीर ने थूल शरीर म वेश िकया, मेरी शांत आकित पर मुसकराहट लौटी।
मने वहाँ बैठ लोग से मुसकराते ए कहा, ‘‘आप सब चिकत हो गए थे न!’’
‘‘चिकत ही नह , हम सब दुःखी भी थे।’’ मणी ने कहा।
‘‘दुःखी थे! आिखर िकसिलए?’’ मने कहा, ‘‘शायद आप लोग ने सोचा िक मेरा अंत हो गया ह, या हो रहा ह;
पर िव ास क िजए, मेरा कभी न अंत आ ह और न होगा। म अनंत । ज म और मृ यु क बीच रहकर भी म
ज म और मृ यु से पर ।’’
मने देखा िक मेर इतना कहते ही सामने खड़ मेर माता-िपता क आँख भ भाव से झुक गई थ । मेर देव व को
वे ा से णाम कर रह थे। उनक इस मानिसकता को यथाथ क धरातल पर लाने क िलए म तुरत उठा और
उनक चरण छए। इसी म म म सभी अपने से बड़ क पैर छने क म म आगे बढ़ा। उनम भैया भी थे और
भाभी भी थ । भाभी तो मेर चरण छने से इतनी ग द िक उ ह ने मुझे गले लगा िलया। कसे क िक वे मुझे
गले लगाती थ तो ब त अ छा लगता था।
बात यह भी थी िक माता-िपता और नानाजी क चरण छने क बाद म पुनः पयक पर चला गया था; य िक मेर
म त क पर ह तनापुर पूरी तरह छाया था। उसीम और क पग छने का िव मरण हो गया। जब मुझे अपनी भूल
याद आई तब म पुनः उठकर उनक पैर छने लगा। इससे भैया से अिधक भाभी खुश । मने वीकारा िक मुझसे
भूल ई।
‘‘ या भूल ई?’’
‘‘या ा से लौटकर सभी बड़ का चरण न छना।’’
मेर इस कथन पर लोग क आ य ने मुझे एक बार िफर घेर िलया था—‘‘तो तू या या ा पर गया था?’’
सबक शंका भाभी ने ही मुख रत क —‘‘हम तो देख रह थे िक तुम पयक पर मौन पड़ हो।’’
‘‘वह तो मेरा थूल शरीर था। म तो या ा सू म शरीर से कर रहा था।’’
सब चिकत हो मुझे देखते रह और सबक शंका को भाभी ही वाणी देती रह —‘‘तो या सू म शरीर को थूल
शरीर से अलग िकया जा सकता ह?’’
‘‘यिद न िकया जा सकता तो म कसे करता!’’ मने हसते ए बड़ सहजभाव से कहा, ‘‘आज मने इस थूल शरीर
को छोड़ा ह। एक िदन ऐसा आएगा िक यह थूल शरीर मुझे ही छोड़ देगा।’’
मने ऐसी बात इसिलए छड़ द िक पूर माहौल को योग और दशन क ओर ले जाना चाहता था। मेरा मन इन
न का सामना नह करना चाहता था िक म कहाँ गया था, य गया था और मने या िकया। पर म िजतना दूर
हटना चाहता था, यह थित मेरा उतना ही पीछा कर रही थी।
अंत म रवती भाभी ने न चाहते ए भी पूछ ही िदया—‘‘यह या ा कहाँ क थी?’’
‘‘ह तनापुर क ।’’ मने कहा, ‘‘मुझे लगा िक ौपदी मुझे पुकार रही ह और बड़ी पीड़ा से पुकार रही ह। सचमुच
उसे मेरी आव यकता थी।’’
‘‘ ौपदी और ह तनापुर म!’’ मेरी माँ का माथा ठनका—‘ या बात ई िक उसे इ थ से वहाँ जाना पड़ा?’
उ ह ने तुरत न िकया—‘‘ऐसी या आव यकता ई िक तु ह यहाँ से जाना पड़ा? सब कशल तो ह?’’
अब म या उ र देता! सही बात बताकर म अपनी िचंता को पूरी ारका पर लादना नह चाहता था। मने टालने
क िलए कहा, ‘‘कशल ही समिझए।’’
िफर म गंभीर हो गया। पर महिष वेद यास क भिव यवाणी झूठी तो होगी नह । जो ‘होनी’ ह, वह तो होकर
रहगी। हम उसे टाल नह सकते। कवल सजग रह सकते ह।
मुसकराते ए मने दूसरी बात छड़ दी—‘‘मेर अचानक चले जाने क बाद तो आप लोग ब त य हो गए ह गे?’’
‘‘यह भी कोई पूछने क बात ह!’’
q
मने कछ बताया तो नह , पर मन िनरतर य था। भीतर-ही-भीतर घुटता रहा। मन म यही िवचार आता रहा िक
शकिन क नीचता, दुय धन क मह वाकां ा और कण क ौपदी से ितशोध लेने क भावना पांडव को शांित से
जीने नह देगी। जो कछ मने उस िदन देखा था, उसक कभी क पना भी नह क थी। पर यह सब कसे आ, य
आ, मुझे कछ भी पता नह ।
लगता ह, पांडव क साथ कोई भयानक धोखा िकया गया। जो कछ आ, अव य ही आनन-फानन म आ।
अ यथा वे मुझे अव य सूिचत करते। इस कार म अंधकार म पांडव क प र थित को टटोलता रहा और घुटता
रहा। अ य लोग भी मेर िवषय म उतने ही अंधकार म थे िजतना म पांडव क िवषय म। िकसीसे कछ कहने क
थित म भी नह था। िफर भैया का अभी तक का ख ब त प नह था। पांडव क प म होते ए भी उनक
आ मीयता दुय धन से थी। वह उनका ि य िश य था। मेर िवचार से भी दुय धन उतना बुरा नह था िजतनी बुराइय
का वह अगुआ बना।
यिद भैया को कछ पता चल जाता तो वे तुरत सि य हो जाते। वह थित पांडव क िवपरीत भी हो सकती थी।
इसीिलए मने इसे अ यंत गोपनीय रखा; पर भीतर क अ न का ताप मेर बा य व पर उभर आया था। लोग
को म काफ सु त और िचंितत िदखाई दे रहा था; पर िकसीने कछ पूछा नह । यिद पूछा भी तो म टाल गया।
एक िदन एकांत म मुझसे सुदामा िमला। उसने कहा, ‘‘अब मुझे जाने क अनुमित दो।’’
‘‘ य ? तुम यहाँ से इतनी ज दी घबरा गए?’’
‘‘म तो घबराया आ ही, पर तुम मुझसे अिधक घबराए लगते हो।’’ सुदामा ने कहा, ‘‘इसम तु हारा दोष या!
अितिथ का ब त िदन तक रहना भी ब धा उबाऊ हो जाता ह। और तो और, अब तु हारा िम छदक भी मुझसे
नह िमलता। पहले तो वह छाया क तरह मेर साथ लगा रहता था; अब जो गायब आ, सो आ।’’
म उसक बात सुनकर हसने लगा। िजस मानिसक थित म था, उसम हसने क िसवा म करता भी या! मने
छदक को एक किठन काय म लगाया था। उसे सुदामापुरी बसानी थी। हसी-खेल नह था। हम तो इ थ को
बसाने का अनुभव था। कसी-कसी बाधाएँ आती ह, उ ह म ही जानता था। बेचारा या झेल रहा होगा! ह तनापुर
क सम या क कारण उसक भी खबर नह ले सका और न वह दे पाया।
मने सुदामा क िकसी बात का उ र नह िदया। कवल इतना ही कहा, ‘‘अ छा भाई, अब म तु हार साथ ही
र गा। अब तुम भी स रहोगे और म भी।’’
इतना कहना था िक उसने मेरी बात पकड़ ली—‘‘इसका ता पय ह िक तुम स नह हो। कह -न-कह , कोई-
न-कोई िचंता अव य ह। आज ही नह , समािध लगाने क पहले से ही और बाद म जब तु हारा सू म शरीर इस
शरीर म लौटकर आया ह तब से जब भी मने देखा, तुम िचंितत ही िदखाई िदए।’’
मने िफर बात टाली—‘‘घर छोड़कर चले जाने क बाद िफर घर म आकर यव थत होने म कछ समय तो लगता
ही ह।’’
‘‘मुझे यथ समझाने क कोिशश मत करो।’’ सुदामा ने कहा, ‘‘कह अपने घर म यव थत होने म समय लगता
ह! म ही जब यहाँ से जाऊगा तो या घर म यव थत होने म मुझे समय लगेगा?’’
‘‘मुझे तो लगता ह िक ज र समय लगेगा।’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘मुझे तो अपना घर पहचानने म देर नह
ई, तुम तो शायद अपना घर ही पहचान न पाओ।’’
‘‘ या यं य कर रह हो!’’
म िफर हसा। इस बार मेरी हसी उसे रह यमय लगी।
‘‘और चम कार तो तब हो जब भाभी ही तु ह पहचान न पाएँ।’’
वह और च कर म पड़ा।
मने िफर कहा, ‘‘अ छा, कभी तुमने अपना मुख दपण म देखा ह? या तुम अपने को पहचानते हो?’’
‘‘अपने को पहचानना तो बड़ी बात ह। शायद ान क चरम सीमा ह यह।’’ वह और भी गंभीर आ—‘‘पर दपण
क सामने जो जाता ह, वह मेरा शरीर ह। उसे म पहचानता । उसक मांसलता बढ़ी ह। आकित पर तु हार
वैभवपूण आित य से अ िणमा आ गई ह। व -भूषा बदल गई ह। इससे भी मेरा शरीर अपनी पहचान खो नह
पाया ह।’’
‘‘इसक स यता का माणप वह देगा, जो तु ह इतने िदन बाद अचानक देखेगा।’’ मने हसते ए कहा।
‘‘इसका ता पय या यह ह िक तु हारी भाभी भी मुझे पहचान नह पाएगी?’’
‘‘यह म कसे क !’’ म हसा और मेर साथ वह भी।
अब म अपना िन त समय उसक साथ िबताता। हम बड़ आनंद म रहते। पुरानी बात होत । ग प लड़त ।
कभी-कभी म उसे मोद उ ान म भी ले जाता और उन मिहला क किल ड़ा म भी उसे ढकल देता।
वह झुँझलाता था—‘‘तुम मेर सं कार िबगाड़ रह हो!’’
‘‘िबगाड़ नह , बदल रहा ।’’
‘‘एक सा वक य को राजसी बनाना या उसे िबगाड़ना नह ह?’’
‘‘तुम इसे िबगाड़ना कह सकते हो!’’ मने कहा, ‘‘पर म सोचता िक आज का हर राजा यिद तु हार जैसा
सा वक होता तो आयाव क यह थित न होती।...ब क तु ह राजसी नह , राजा बनाना चाहता ।’’
‘‘आिखर दोन म अंतर या ह?’’ सुदामा ने हसते ए कहा, ‘‘कवल एक शा दक उलझाव ह।’’
‘‘तुम भी रह गए प गा पंिडत ही!’’ म हसते ए ही बोला और उसे ेम का एक धौल जमाया—‘‘तुम वयं
शा हो। य तो शा म ब त सी बात िलखी ह, पर सा वकता को राजस से अलग करनेवाली बस एक ही
खतरनाक िवभाजन रखा ह, वह ह मह वाकां ा। आज िसंहासन क मह वाकां ा को देख रह हो! कोई राजसूय
य कर रहा ह, च वत स ा बनना चाहता ह। कोई इ ासन क ओर दौड़ लगा रहा ह। मह वाकां ा क िपशाच
का यह तांडव िकसिलए? दूसर को हड़पने क िलए। सही ढग से न हो तो गलत ढग से ही सही। आज आयाव
का राजसमाज ‘तेन य ेन भु ीथा’—उपिनष का यह वा यांश भूल गया ह।’’ मुझे लगा िक मेरा कथन गंभीर
भी हो गया और लंबा भी। मने पुनः अपनी मु ा बदली। हसते ए बोला, ‘‘इसीिलए म तु ह ऐसा राजा बनाना
चाहता , जो याग करते ए िसंहासन का भोग कर। एक आदश थािपत हो।’’
‘‘तो या म राजा बनूँगा?’’ सुदामा बड़ नाटक य ढग से हसा—‘‘र गा झ पड़ी म और व न देखूँगा राजमहल
का!’’
‘‘नह , तुम राजमहल म रहोगे और तु हार व न म रहगी झ पड़ी।’’
वह अब भी मेरी बात को प रहास समझता और हसता रहा। म भी उसे ऐसे भुलावे म ही रखना चाहता था। पर
इतना अव य कह देता रहा िक तुमने सार शा पढ़ ह, पर भा य का िलखा नह पढ़ा ह। कौन जाने िनयित कब
िकसक साथ कौन सा खेल खेल दे! िकसे राजा बना दे और िकसे ण म रक!
‘‘तु हारा लड़कपन गया नह , क हया! तुम आज भी वैसा ही मूख बनाते हो जैसा आचाय सांदीपिन क आ म म
बनाया करते थे।’’ उसने कहा और हसा।
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कछ िदन और बीते। म छदक क ती ा करता रहा। आिखर एक िदन आकर उसने शुभ सूचना दी िक आपक
आ ा का अ रशः पालन हो गया।
‘‘कमाल कर िदया तुमने, छदक! यह काय उतना आसान नह था, िजस आसानी से मने तु ह स पा था।’’
‘‘इसे तो अपना दािय व वीकार करते ही म समझ गया था।’’ छदक बोला।
‘‘तुमको कई बड़ी किठनाइय का सामना करना पड़ा होगा?’’
‘‘अर, कछ मत पूिछए।’’ अब छदक िव तार से बताने लगा—‘‘बात यह हो गई िक िश पय क अनुसार पास क
और ाम िमलाए िबना नगर का व प ही नह बन रहा था। इनम कछ ाम ऐसे सामंत क भाव म थे, जो उ ह
छोड़ना ही नह चाहते थे।...िफर आपक भाभी ही अपनी झ पड़ी छोड़ना नह चाहती थ । उनका सोचना था िक
भले ही यह झ पड़ी ह, पर ह तो अपनी। इसे म अपने हाथ से जाने देना नह चाहती।’’
‘‘जब उनक यह हालत थी तब गाँव क लोग ने भी बाधाएँ खड़ी क ह गी?’’ िफर मने पूछा, ‘‘हमार
अिधकार े म तो बाधाएँ नह खड़ी ई ह गी?’’
‘‘आप भी कसी बात करते ह!’’ छदक बोला, ‘‘जब प ी अपना नीड़ सरलता से नह छोड़ना चाहता तब मनु य
अपना घर आसानी से छोड़ देगा! जब मने उनसे यह कहा िक हम तु हारी इन सामा य झ पिड़य और पणकिटय
क थान पर अपना भवन बनाकर दगे, तो उ ह िव ास ही नह हो रहा था। वे कहने लगे िक इस युग म ऐसा
कौन दाता-दानी पैदा आ ह, जो दीन पर इतनी कपा कर!’’
छदक ने कहा, ‘‘आपने पहले ही सावधान कर िदया था िक कछ भी बला मत करना। इस काय म एक बूँद
भी र पात न होने पाए। इसिलए मेर पास समझाने क िसवा कोई दूसरा माग नह था।’’
मने हसते ए कहा, ‘‘तुम दाता-दानी क बात करते। बताते िक अब भी ऐसे लोग ह, िज ह ने यह सारा ाम दूसर
को दान कर िदया ह।’’
‘‘आप या समझते ह िक मने ऐसा नह कहा! कहा था। तब उनका न था—‘ऐसा कौन ह?’
‘‘मने कहा, ‘ ारकाधीश।’
‘‘ ‘ ारकाधीश ने इन सार ाम को दान कर िदया!’ सभी चिकत हो गए—‘पर िकसे?’
‘‘अब म या कहता! आपका िनदश था िक बात िब कल फटने न पाए। मने कहा, ‘एक ा ण को। अब तुम
लोग यादव रा य से मु होकर ा ण रा य म आ जाओगे। िकतना अ छा होगा! िकतनी शांित होगी!’ तब
जानते ह, उ ह ने या कहा?’’
छदक क कथन ने मेरी िज ासा को और भी जगाया।
छदक ने बताया—‘‘तब उ ह ने कहा, ‘हाँ, रावण का रा य भी ा ण का रा य था।’
‘‘मने कहा, ‘रावण रा स था। यहाँ िजसका रा य होगा, वह देवता ह।’ तब तो उ ह ने अ ुत उ र िदया।’’ इतना
कहकर छदक मेरी आँख म आँख डालकर मुसकराने लगा।
‘‘ या हर बात को रह य बना देते हो, छदक! प कहते य नह ?’’
छदक हसने लगा। बोला, ‘‘आप नह समझ पाए न िक उ ह ने या कहा!’’ उसने बताया—‘‘वे बोले, ‘अब
तक यहाँ भगवा का रा य था। अब हमार यहाँ देवता का रा य होगा।’ ’’
इतना सुनते ही म त ध रह गया। अब तक म सोचता था िक मेर ित यह सोच मेर ारा उपकत लोग क या
िहतैिषय क ह। म यह नह जानता था िक सुदूर ाम क लोग भी मुझे भगवा मानने लगे ह। म भीतर-ही-भीतर
बड़ा ग द आ। सोचने लगा, शायद ही िकसीको समाज ारा उसक जीवनकाल म ऐसी मा यता िमली हो।
मन बड़ी देर तक इस क पना क अनुभूित म डबा रहा।
‘‘ या सोचने लगे?’’ छदक ने मुझे झकझोरा।
‘‘सोचता , तब तो तु ह उनक घर लेने म और भी किठनाई ई होगी?’’
‘‘उसम परशानी तो िब कल न होती, यिद उ ह मारकर ठीक कर देना होता; पर आपक वजना से बँधा था। िकसी
कार लोभन देकर वण िन क से उ ह य करना पड़ा।’’
‘‘ब त ठीक िकया। अब तो सुदामापुरी देखने यो य हो गई होगी?’’
‘‘इसका उ र तो उसे देखने पर ही िमल सकता ह।’’ छदक बोला, ‘‘म तो ब त संतु ।’’
इसक बाद छदक िफर सुदामा क सेवा म लग गया। उसक सा य से मेर िम का मन एक बार िफर ारका
म रम गया। अब मेर सामने दो सम याएँ पैदा । एक तो सुदामा क िबदाई क पूरी तैयारी हो गई थी। अब म
उससे कसे क िक तुम यहाँ से जा सकते हो। कई बार भाभी (उसक प नी) क चचा क ; पर या तो उसने यान
ही नह िदया या टाल गया।
एक बार मने उससे कहा, ‘‘भाभी ने जो िचउड़ा भेजा था, उसका वाद ब त िदन तक याद आएगा।’’
‘‘तु ह तो िचउड़ का ही वाद याद आता ह।’’ उसने हसते ए कहा, ‘‘पर मुझे तो भाभी का ही वाद नह
भूलता।’’
सुदामा क इस बात पर गहरा अ हास आ। हमने अनुभव िकया िक आज सुदामा का प रहास अपनी मयादा
क कछ नीचे आ गया ह। यह भी शायद मेरी संगित का ही फल हो। िफर िम ता म सबकछ चलता ह।
उसक इस मनः थित क बाद भी अभी यहाँ से उसक िबदा होने क घड़ी नह आई।
इधर ह तनापुर क अनजान थित मुझे य िकए जा रही थी। मेर पास छदक क अित र ऐसा कोई य
नह था, िजसे चुपचाप भेजकर म कोई गोपनीय सूचना वहाँ िभजवाता।
एक िदन मने छदक को एकांत म बुलाकर पूछा, ‘‘तुम मेर िम से कब तक मु होगे?’’
‘‘यह तो आपका िम ही जाने।’’ उसने मुझपर यं य भी िकया—‘‘जब आपने सा वकता पर राजस का लेप
चढ़ाया, तब आप उसे भोिगए भी।’’
मुझे इसक स ता तो थी ही िक मने सुदामा को ब त बदल िदया, पर िव ास यही था िक सब ऊपर-ऊपर
ही हो रहा ह। यही होना भी चािहए और यही आ भी। भीतर पुराना सुदामा ही जीिवत था। उसे जीिवत रहना भी
चािहए।
एक िदन सवेर-सवेर अचानक वह बड़ा घबराया आ आया और बड़ अ यािशत प से उसने कहा, ‘‘आज
म अपने गाँव जाना चाहता ।’’
मुझे भी आ य था िक अचानक यह या हो गया! कह छदक ने कोई यु तो नह लगाई?
मने पूछा, ‘‘बात या ह? कल तक तो ऐसा कछ नह था। अचानक या हो गया? कह स कार म कोई चूक हो
गई या?’’
‘‘नह , ऐसी कोई बात नह ह। अब ब त िदन हो गया। मुझे जाने दीिजए।’’ उसने कहा, ‘‘मने व न देखा िक मेरी
झ पड़ी िकसीने उजाड़ दी।’’
‘‘तो इसम घबराने क या बात ह?’’ मने कहा, ‘‘हो सकता ह, िकसीने झ पड़ी उजाड़कर तु हार िलए महल
बनवाने का सोचा हो!’’
‘‘ या बात करते हो, क हया!’’ उसने बड़ी िवतृ णा से कहा, ‘‘यिद आज दीन पर दया करनेवाले ऐसे लोग होते
तो मुझे तु हार यहाँ आने क आव यकता न होती।’’
सचमुच सुदामा क िनधनता ने ही उसे यहाँ भेजा; पर वह कछ माँग न सका। आज उसक िववशता खुलकर
मेर सामने आ गई; पर म भी कछ बोल न सका। उसे देखता और मुसकराता आ चुप ही रहा।
मने तुरत उसक िभजवाने क यव था क । छदक को बुलाया। उसक कान म धीर से कहा, ‘‘वह थित अपने
आप आ गई, िजसक हम ती ा कर रह थे।’’
छदक भी अवसर क खोज म था। उसने त काल उसक यव था आरभ क । इसी बीच मने अपने प रजन से
उसे िमलवाया। उनको अचानक उसक चले जाने का दुःख था।
मेर माता-िपता ने एक ही बात कही—‘‘िफर आना, सुदामा!’’
‘‘भगवा कर वह प र थित िफर तु हार जीवन म न आए, िजसक कारण तु ह यहाँ आना पड़ा।’’ मने कहा या,
उसने समझा या। पर उसक आँख अव य डबडबा आई थ ।
मने अपने रथ पर ही उसे िबदा िकया। अपना रथ, अपना सारिथ दा क और अपना साथी छदक उसक साथ कर
िदए। पर वह बड़ा सकपकाया-सा था; पर य , मेरी कछ समझ म नह आया।
‘‘इस रथ आिद क या आव यकता थी? मुझे ऐसे ही जाने दीिजए।’’ उसने बड़ी िवतृ णा से कहा, ‘‘जैसे आया
वैसे ही िबना माँगे जो िमलेगा, खाते-पीते पैदल चला जाऊगा।’’
‘‘ या बात करते हो!’’ मने हसते ए कहा, ‘‘अब तु ह जो देखेगा, वह माँगने पर भी भीख नह देगा। भीख
माँगनेवाले य का भी एक वेश होता ह, िजसे तुम खो चुक हो।’’
‘‘ऐसा!’’ उसका मुख खुला-का-खुला रह गया।
वह इतना दुःखी होगा, इसक मुझे क पना तक नह रही। शायद वह पूछना चाहता था िक उस य व को
खोकर मने यहाँ आिखर पाया या?
पर म उसका या उ र देता।
जब उसका रथ चला, म दूर तक उसे िबदाई देने पैदल ही उसक रथ क साथ चला। मेरी देखा-देखी मेर
अिधकारी, अमा य मंडल क सद य, मेर प रजन-पुरजन; िजसने भी देखा, मेर साथ हो िलये।
छदक तो पहले से ही मेर साथ पैदल चल रहा था। मने उसक कान म धीर से कहा, ‘‘देखना, यह बड़ा िनराश
जा रहा ह। इसक सारी िति या मन पर िलखते जाना और अंत म मुझे बताना।’’
ारका क थम ार तक म ऐसे ही आया। िफर उसे िबदा करते ए बोला, ‘‘भाभी से मेरा चरण पश कह
देना। उ ह ने जैसे मीठ िचउड़ भेजे थे वैसी िमठास ारका क िकसी व तु म न थी, नह तो उसक पोटली बाँधकर
अपनी ओर से भाभी को भेजता। कवल अपना दय भेज रहा । शायद उसम उ ह कोई िमठास िमल जाए।’’
इस वा य पर भी उसक आकित िति याशू य थी। शायद वह िकसी प र थित पर गंभीरता से िवचार कर रहा
था।
ब त कछ सोचते रहने क िलए देकर सुदामा चला गया।
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म अपने राजकाज म लगा। मेरी य तता भी इधर काफ बढ़ गई थी। इस बीच प न पर जल द यु का
उ पात कछ बढ़ गया था। म सैिनक का अभी योग करना नह चाहता था, इससे रा य म आतंक बढ़ता। जा
क य ता बढ़ती। अतएव प न सुर ा का एक नया िवभाग बनाकर थित सँभालने का सारा दािय व उसे दे
िदया। यह सब करने म कई िदन बीत गए। इस थित म उलझे रहने क कारण इतना तो अव य आ िक मन म
बैठा सुदामा म त क क ओर नह बढ़ा। उसक िचंता करने का अवसर नह िमला।
प न क सम या से हटते ही छदक क बार म सोचने लगा। अब तक तो उसे आ जाना चािहए। आिखर नई
सुदामापुरी यहाँ से िकतनी दूरी पर ह, जो उसे इतना समय लग रहा ह।
इधर मन क बड़ी िविच थित थी। सुदामा क मुझे अिधक िचंता नह थी। िफर भी म मानिसक प से बड़ा
उि न था। जैसे कह कछ गड़बड़ हो गया ह, या हो रहा ह, जो मेर अनुकल नह ह। व तुतः म िकसी अमूत
अिन क आशंका से िचंितत हो उठा था। सोचता था िक ऐसा य हो रहा ह? मने कई बार यान म जाने क
चे ा क ; पर मन को एका कर नह पाया।
इसी बीच छदक आ गया। मेरी िचंताधारा बदली। यह तो म सोच ही रहा था िक छदक कोई िवशेष सूचना लाता
होगा; पर वह िजस तरह खुश और हसता आ िमला, उसक क पना मुझे नह थी। उसने जो कछ बताया, वह
इतना हा य द और नाटक य था िक या बताऊ।
उसका कहना था—‘‘नगर क बाहर िनकलते ही आपक िम ने न करने शु कर िदए—‘ या आपक यहाँ
ा ण को िबदाई देने क परपरा नह ह?’
‘‘मुझे हसी आ गई। नगर क बाहर िनकलते ही आपक िम को अभाव ने सना शु कर िदया।’’
तब मने छदक से पूछा, ‘‘िफर तुमने या कहा?’’
‘‘मने कहा, ‘ ा ण को िबदाई देने क परपरा तो ह ही।’ इतना सुनकर सुदामा चुप ही रहा। म उसक मन क बात
समझ गया। मने कहा, ‘पर आप तो ारकाधीश क िलए ा ण नह वर अंतरग िम थे। उ ह ने आपको िम
क तरह ही िबदा िकया। देखा नह , वे कसे भाविवभोर थे! पैदल दौड़ते ए नगर ार तक चले आए थे। उनक
आँख बराबर रसती चली जा रही थ ।’
‘‘सुदामा चुप ही था। म कहता जा रहा था—‘आप जब आए थे तो ा ण क तरह आए भी नह थे। उनक एक
अंतरग िम क तरह आए थे। एक िम क तरह उनको देने क िलए भाभी ने भट भी दी थी।’
‘‘इसपर सुदामा गंभीर हो गया। ब त देर तक चुप था। थोड़ी देर बाद बड़ टट मन से बोला, ‘तुम अपने िम क
बड़ यो य सहायक हो।’ ’’
छदक क इस कथन पर मुझे िफर हसी आई। मने उससे हसते ए पूछा, ‘‘तुमने उसे कछ बताया नह ?’’
‘‘कसे बताता! आपने तो मना िकया था।’’ छदक बोला, ‘‘िफर इस रह य को मने भी न तोड़ने का मन बना िलया
था। मुझे भीतर-ही-भीतर मजा आने लगा था। इसक िलए मने एक योजना बनाई।’’
‘‘इसका ता पय ह िक तुम भी मेर िम क अभाव क अनुभूित का आनंद लेने लग गए।’’ मने कहा।
‘‘म उसक उस मनः थित क िति या देखना चाहता था, जो अ यािशत प से सबकछ बदला देखकर य
होती।’’
मुझे िफर हसी आ गई।
‘‘तुमने कहा िक मने इसक िलए योजना बनाई?’’ मने पूछा।
‘‘हाँ, बनाई न!’’ छदक बोला, ‘‘नविनिमत सुदामापुरी े क पहले पड़ने वाले अर य म म क गया। वह एक
जलाशय क िकनार एक िशव मंिदर था—टटा-फटा, जीण-शीण; जैसे उसपर िकसीका यान ही न गया हो। म वह
क गया। मने आपक िम से मा माँगते ए कहा, ‘इस अर य क बाद ही आपका े आ जाएगा।’ उसने बड़
िव ास क साथ कहा, ‘हाँ, जानता ।’
‘‘ ‘तब तो कोई सम या नह ।’ मने कहा, ‘मुझे इस मंिदर म पूजन-अचन करने क अनुमित द।’ ’’
अब छदक ने मेरी ओर देखकर मुसकराते ए कहा, ‘‘तब आपका िम मुझे देखता ही रह गया और टट ए मन
से बोला, ‘इसका ता पय ह िक आप मेरी झ पड़ी तक नह चलगे!...एक से यह अ छा ही ह।’
‘‘ ‘ य ?’ मने पूछा।
‘‘ ‘शायद मेरी मड़या आपक वागत यो य न हो।’ सुदामा ने कहा।
‘‘ ‘आप या बात करते ह!’ म बोला, ‘म इतना भा यवा िक िजस थान पर जाता , उस थान म मेर
वागत का साम य वयं आ जाता ह।’ इतने पर भी आपक िम क सहज कित कछ भी सोचने-समझने या
अनुमान लगाने क िलए तैयार न थी वर अपने ही िवचार म डबी रही—और ऐसी बात उसने कही, िजसका पूव
अनुमान मुझे नह था।’’
‘‘ या कहा मेर िम ने?’’
‘‘कहा िक ‘मने क हया को जाड़ क उस भयानक बरसाती रात म चने खाने को नह िदए थे। झूठ बोलकर और
िछपाकर सब खा गया था। शायद आज कछ न देकर उसने उसी समय क कसर िनकाली ह।...िफर भी िम तो ह
ही। कभी-न-कभी कपा तो करगा ही।’ ’’
मेरा दय िपघल गया। मेर मुँह से वतः िनकल पड़ा—‘‘द र ता से सताए य क अंतःपीड़ा थी यह, जो हजार
िछपाने पर भी उघड़ गई। िफर या आ?’’
‘‘सुदामा को दा क ले गया। मने उसे आ त िकया िक चार-पाँच घड़ी बाद म आ रहा । तुमसे िमले िबना नह
जाऊगा; पर वह कछ नह बोला। यह भी नह पूछा िक आप कसे आएँगे? जाकर यह रथ भेज दूँ, या या क ?
कछ भी नह ।’’
बात इस मोड़ पर चली आई थी िक छदक सुनाता गया और म सुनता गया।
पाँच-छह घड़ी बाद प चने पर छदक ने जो सुनाया, वह अ ुत था। छदक बोलता गया—‘‘पहले तो आपक िम
को लगा, िकसी दूसर नगर म आ गया । उसने दा क से कहा, ‘हम लोग माग तो नह भटक गए ह? यह तो
भ य नगर ह; पर हमारा तो गाँव था। इसी पहाड़ी पाद से पूरा गाँव िदखाई देता था। ऐसा तो नह िक हमार न रहने
पर गाँव पर िकसी राजा का आ मण आ हो? उसने यहाँ क लोग को मारकर भगा िदया हो और अपनी नगरी
बसा दी हो? मेरी पँड़ाइन का या आ होगा?’
‘‘दा क का कहना था िक इतना सोचते-सोचते वह एकदम घबरा गया था। तरह-तरह क आशंका से िघरा वह
बराबर बड़बड़ाता रहा—‘उसने बार-बार कहा था, पर ारका जाने को मेरा मन तैयार नह हो रहा था। मेरी
िब कल इ छा नह थी; पर वह अपने हठ पर अड़ी रही और उसका फल भी उसने भोग िलया। पता नह , वह
कहाँ होगी और िकस थित म होगी!’ इतना कहकर वह िससक-िससककर रोने लगा।’’
छदक ने बताया—‘‘दा क का कहना था िक उसक तो िविच थित हो गई। वह तो कछ जानता ही नह था िक
बात या ह। उसने सुदामा को ढाढ़स बँधाना चाहा—‘आप घबराते य ह? वा तिवकता या ह, इसका पता न
आपको ह और न मुझे ह। आगे तो चिलए।’
‘‘ ‘अब आगे चलकर या होगा! म तो लुट चुका , दा क!’ इतना कहते-कहते सुदामा फट-फटकर रोने लगा।
दा क रथ बढ़ाता चला गया। नगर म वेश करते-करते सुदामा को पहचाननेवाले िमलते गए। वे उसका अिभवादन
भी करते; पर सुदामा अपने म ही खोया था। दा क का कहना था िक अब तक वह ब त कछ जान गया था।
उसने सुदामा से कहा, ‘महाराज, यही सुदामापुरी ह।’
‘‘ ‘मेर नाम क कोई पुरी तो थी नह , ज र इसम कह धोखा ह।’ सुदामा बोला। उसक आँख पर य ता का
ऐसा पट पड़ा था िक यथाथ िदखाई नह दे रहा था। उसक आशंका ही उसक सम साकार थी—‘अव य ही मेर
साथ कोई ष ं िकया गया ह। लोग मेरा राजा जैसा वागत कर रह ह। लगता ह, उ ह म हो रहा ह। क हया
ठीक कह रहा था िक म तु हारी पहचान िमटाकर ही र गा। अव य ही वह इसम सफल हो गया। मेरी ह य पर
मांसलता बढ़ गई ह। उसपर उसने राजसी व भी पहना िदए। अव य ही म लोग को राजा लग रहा होऊगा।
लोग म म नह पड़गे तो या करगे! ऐसी थित म छदक ने भी साथ छोड़ िदया। यह उसीका ष ं तो नह ?’
दा क ने बताया िक एक थित तो ऐसी आई िक सुदामाजी बड़बड़ाते-बड़बड़ाते जोर से िच ा पड़—‘अर, म
राजा नह ! म वही सुदामा पांड —द र ा ण। मुझे पहचानने क कोिशश करो।’
‘‘कई बार उसने ऐसा कहा। लोग मुसकराते ए रथ क चार ओर एक होने लगे। िवि -सा बार-बार वह इसी
बात को दुहराता रहा।
‘‘अजीब थित थी। कोई हसता, कोई मुसकराता तो कोई उसक चेतना को झकझोरने क िलए कहता—‘म
पहचानता । आप सुदामा पांड ही ह।’
‘‘ ‘मुझे मूख मत बनाओ। मेरा मजाक मत उड़ाओ। यह वेश म नह । म वही सुदामा पांड ।’ दा क ने बताया
िक उसका रथ य - य आगे बढ़ता गया, सुदामा और बड़बड़ाता गया। यहाँ तक िक अपने भवन क समीप
प चकर वह एकदम सकपकाया-सा िदखाई पड़ा। उस समय उसक आँख म बाढ़ आ गई थी। उसे यही लग रहा
था िक यह कह मेरी झ पड़ी थी। उसे उजाड़कर िकसी सामंत या राजा ने अपना भवन बनवा िलया ह।
‘‘अंत म दा क को कहना पड़ा—‘ऊपर अिलंद म खड़ी एक ी दूर से लगातार आपको देख रही ह। वह
आपक प नी तो नह ?’
‘‘इतना सुनते ही सुदामाजी एकदम दा क पर उबल पड़—‘तुम भी मुझे मूख बनाने लगे! वह भला मेरी प नी हो
सकती ह! वह कहाँ झ पड़ी म रहनेवाली, मैले-कचैले व पहननेवाली और कहाँ यह अलंकार से सुशोिभत
महलवािसनी!’ ’’
छदक का कहना था—‘‘इसी समय म प च गया। मने देखा िक आपका ि य िम लगभग िवि हो गया ह।
वह मुझे देखते ही रथ से जैसे कद पड़ा और मुझसे िलपटकर रोने लगा—‘अब तुम आ गए, छदक! म तो बरबाद
हो चुका !’
‘‘तब तक ऊपर से उतरकर उसक प नी भी आ गई थी। वह उसक चरण पर िगर पड़ी। उसने सुदामा का
कशल ेम भी पूछा। कई बार उसक िलए ‘ वामी’ श द का योग भी िकया; पर सुदामा का मानिसक संतुलन
इतना गड़बड़ा गया था िक वह उसे पहचान नह पा रहा था।
‘‘जब लोग ने बार-बार उसे झकझोरा तो वह गंभीर प से मौन हो अपनी प नी को देखता रहा और बाद म
सहमा-सहमा बोला, ‘मेरी वह पँड़ाइन आपक ही तरह थी। िवपि क मारी वह इस समय कहाँ होगी?’ उसक
आँख िफर डबडबा आ ।
‘‘ ‘वह यही ह, वामी, आपक सामने खड़ी ह।’ अपने पित क यह थित देखकर उसक भी आँख म आँसू आ
गए।’’
‘‘इसका मतलब ह िक मेरा िम अपना मानिसक संतुलन एकदम खो बैठा था!’’ मने कहा।
‘‘ य नह खोता!’’ छदक बोला, ‘‘अचानक और अ यािशत एक द र को कबेर का भंडार जो िमल गया था।’’
म उसक बात सुनकर गंभीर हो गया। पता नह य , उसक यह उपमा मुझे अ छी नह लगी; पर वह अपनी बुि
क अनुसार इससे अ छी दूसरी उपमा दे नह सकता था।
‘‘ या सोचने लगे आप?’’ छदक बोला।
‘‘सोच रहा िक अपनी का पिनक आशंका से ही सुदामा िकतना डर गया था! वह अपनी प नी को पहचानते ए
भी नह पहचान रहा था। ि िवधा उसे घेर थी। इसीिलए वह अपनी प नी को सीधे-सीधे ‘प नी’ कहने से
िहचिकचाया। उसने ‘प नी’ कहा और कह वह दूसर क प नी िनकल गई, तब तो लेने क देने पड़ जाएँगे।
इसीिलए उसने कहा, मेरी वह प नी तु हारी ही तरह थी।’’
म इस थित पर िजतना सोचता उतनी हसी आती। छदक भी मेर साथ हसता रहा।
पर मेरी यह हसी ब त देर तक ठहर न सक । ह तनापुर और इ थ क संबंध म बराबर बनी रही मेरी
घबराहट ने उस हसी को ब त देर तक रहने नह िदया।
q
तीन
संघष! संघष! संघष! जब से पैदा आ तभी से संघष मेर पीछ लग गया; य िक वह मेर ज म क पहले ही पैदा
हो गया था। जीवन का वही साथी बना। एक िदन भी म उससे मु हो नह पाया। छदक कहता ह, यिद िचंता
और संघष से मु होना होता तो आपका ज म िनरथक होता। िन योजन संसार म कछ नह होता। शायद मेरा
ज म भी िकसी योजन क िनिम हो।
यह िवचार बराबर मेर मन म आता रहा। इसीसे मुझे सम या से जूझने म श भी िमलती रही और संतोष
भी। और या क सम या क िवषय म? एक ख म नह होती और दूसरी आ धमकती ह।
अभी म पांडव क िवषय म ही िचंितत था। य िक मने जो कछ देखा था, वह एक अंश था अपने िवकराल
व प का। आिखर यह थित य आई? अब पांडव िकस थित म ह? कौरव का ेष और वैरभाव िकस
सीमा तक पांडव को घेर बैठा ह? यह सब म कछ नह जानता था। क पना म जो प र थित उभरती थी, वह
अ प होते ए भी भयावह थी। म यह भी नह जानता था िक ारका क और लोग भी उस थित से अवगत ह
या नह । इसीसे म िकसीक सामने खुलता नह था। कवल भीतर-ही-भीतर घुटता था।
मेरी िचंता का एक प और था िक इतनी बड़ी बात हो गई, िफर भी पांडव ने मुझे अवगत नह कराया। अर,
उनका कोई भाई, उनका कोई अमा य, उनका कोई साथी—कोई भी तो समाचार दे ही सकता था; पर िकसीने ऐसा
नह िकया। आिखर रह य या ह? सबकछ जानने क िलए मने एक अमा य सु त को भेजा था और उससे कहा
था िक जो कछ जानकारी ा करना, सीधे मुझसे कहना। पर वह भी अभी तक लौटा नह था।
इसी बीच एक घटना घट गई।
पाँच-छह िदन से ु न का कह कोई पता नह था। ब धा वह आखेट म दूर िनकल जाता था, िफर दो-तीन
िदन म चला आता था; पर इस बार छह िदन हो गए। िचंता बढ़ी। सबसे यादा िचंितत मणी थी। पहले तो उसे
समझा िदया िक कह दूर िनकल गया होगा, आ जाएगा; पर इसी तरह ती ा म कई िदन और िनकल गए। अब
मेरी भी य ता बढ़ी। मने तुरत गु चर िवभाग को लगाया और आदेश िदया िक ितिदन का समाचार देते रहना।
दूसर िदन ात आ िक ु न अपना रथ भी नह ले गया ह। वह अकला गया ह या उसक साथ और लोग भी
ह, यह पता नह चला। गु चर िवभाग क अिधकारी ने कहा िक इसक गहरी छानबीन क जा रही ह।
धीर-धीर िचंता का दायरा बढ़ा और वह गंभीर होती गई। लोग इस िन कष पर प चने लगे िक कह -न-कह
उसका अपहरण आ ह। अब मणी क य ता और बढ़ी। उसका सोचना था िक यह िकसी अ सरा का
कक य ह; य िक ु न अ ुत सुंदर था। जो कोई उसे देखता, काम देवता का अवतार कहता। उसक अव था
भी बीस वष क पार थी।
य तो म भी था, पर भीतर-ही-भीतर। अमा य मंडल ारा अपहरण क अंितम िन कष पर प चने पर भी म
शांत और कित थ था। यिद म भी य दीखता तो संपूण ारका य हो जाती और मणी का बुरा हाल होता।
अतएव म शांत ालामुखी क तरह भीतर से धधकता आ भी ऊपर ह रयाली ओढ़ रहा। जब कोई उसक संबंध
म य ता य करता तब म बड़ सहजभाव से कहता िक आजकल क लड़क को तो आप लोग जानते ही ह।
िजतने लोग, उनक उतने अनुमान। भैया का सोचना था िक अपहरण क पीछ उस दु शा व का हाथ ह। तुमने
उसे जीिवत छोड़कर ब त बुरा िकया।
नानाजी ब त दुःखी थे। लगभग योित खो चुक बूढ़ी आँख िदन-रात पसीजती रहती थ । उनका कहना था
—‘‘ ु न क जीवन क साथ भी कोई कस लगा ह। तु ह याद होगा, बचपन म िकसीने उसे उठाकर समु म
फक िदया था। यह तो कहो िक एक मछए क जाल म फसकर वह िनकल आया। तब वह इतना छोटा था िक
कछ भी बता नह पाया।’’
उस समय क घटना पर िवचार करते ए मने कहा, ‘‘यह भी हो सकता ह, वह खेलते-खेलते वयं िसंधुतट पर
चला गया हो और लहर उसे ख च ले गई ह ।’’
इतना सुनना था िक नानाजी एकदम भड़क उठ—‘‘कभी-कभी तुम ब से भी नादान लगते हो! या कोई
राजप रवार का ब ा समु तट पर चला जाएगा और उसपर िकसीक न पड़; जबिक समु तट पर रात-िदन
पहरा भी रहा करता ह!’’
वे बड़ आवेश म थे। य भी उनक ित मेरा आदरभाव उनसे िववाद करने क मुझे अनुमित नह देता था। उस
समय भी म चुप ही रह गया।
वे बोलते गए—‘‘तुम बड़ी ज दी ही सब भूल जाते हो। मुझे याद ह, उसक दूसर या तीसर ही िदन तुमने
तटर क क एक बड़ी सिमित बुलाई थी। उ ह बड़ी डाँट-फटकार पड़ी थी। तब गहन पड़ताल ई और पता चला
िक एक सुंदर सा ब ा िकसी मछआर क जाल म फसकर आता िदखाई िदया था। तब उस मछआर क खोज
आरभ ई थी।’’
मुझे तो सारी बात याद ही थ । मने उ ह शांत करते ए कहा, ‘‘हाँ, नानाजी, मुझे सब याद हो आया। म िफर से
सघन जाँच क िनदश देता ।’’
यह कहकर म नानाजी क यहाँ से चल पड़ा। माग म सोचता रहा िक उस समय भी बड़ी िविच थित हो गई
थी, जब वह मछआरा पकड़कर लाया गया था और जाल म जीिवत ब ा फसकर आने क बात वीकार क ; पर
साथ ही उसने यह भी कहा, ‘पर वह ब ा अब मेर पास नह ह।’
‘िफर कहाँ गया?’
ब ा कहाँ गया, यह बताने क िलए वह ज दी तैयार नह हो रहा था। पहले उसने आनाकानी क । बड़ बहाने
बनाए। जब उसे िव ास हो गया िक अब वह िकसी तरह बच नह सकता तब उसने अ यंत िगड़िगड़ाते ए कहा
था—‘न बताऊ तो आप ाण ले लगे और बताऊ तो दूसर लोग।’ लगभग आँसा होकर वह बोलता गया—‘मेर
ाण तो दोन ओर से संकट म ह।’
‘उनम से एक तु ह चुनना होगा।’ मेर ह रय म से एक तड़पा।
‘यिद आपका ब ा आपको वापस िमल जाए तो?’
‘तो तुम पुर कत होगे।’
‘तब आप लोग मेर साथ चल।’ इसक बाद मछआरा उन ह रय को लेकर चला गया।
ारका ने इतनी बड़ी राजनीितक भूल कभी नह क थी; य िक हमार यहाँ क सैिनक और गु चर िवभाग ने
यह जानने क िब कल चे ा नह क थी िक वह उन सैिनक को लेकर िकस ओर गया।
िदन बीता, रात बीती; पर िकसीको पता नह िक वे सैिनक िकधर गए। मछआरा उ ह कहाँ ले गया। पूरा प रवार
य हो उठा। पूरी ारका िचंितत हो उठी।
अब हर य का सोच एक ही बात पर कि त था िक यिद बालक जीिवत होगा तो अब उसक जीवन पर भी
खतरा आ जाएगा। उन सैिनक क सुर ा भी खतर म होगी। अब या िकया जाए? कोई माग िदखाई दे नह रहा
था। उस समय भी मणी क दशा बड़ी खराब हो गई थी। वह रह-रहकर चेतनाशू य हो जाती थी। और जब
चेतना म लौटती थी तो ु न क िलए छटपटाने लगती थी।
एक-दो िदन तक तो अिन तता, भय और आशंका ने पूरी नगरी का गला दबोच रखा था। स ाट म हमारा
सोच डबता-उतराता रहा। हम कोई माग नह सूझ रहा था िक तीसर िदन बड़ नाटक य ढग से बालक ु न
िमला।
तीसर िदन क आधी रात को अचानक एक हरी को लहर पर खेलती ई एक नौका िदखाई दी। उसने यह भी
देखा िक उस नाव को छोड़कर एक बड़ी नाव भाग रही ह। अमा िनशीथ। घने-काले अंधकार क नीचे गरजता
िसंधु। तुरत लोग क म त क म आया िक िकसी जल द यु का करतब ह यह। कछ हो सकता ह। आसपास क
हरी भी आ गए। घंट और शंख बजाकर तट क सुर ा क संकत िदए गए। योित तंभ का काश तेज िकया
गया। अिवलंब कछ नाव लेकर तट सैिनक उस छोटी नाव क ओर लपक। िनकट जाकर देखा, उसम एक बालक
सो रहा ह। वह कोई और नह , ु न ही ह।
िफर या था, िनशीथ म ही पूरी ारका जाग उठी। जो अब भी सो रह थे, उ ह इस कोलाहल ने झकझोर-
झकझोरकर जगा िदया।
अमा क काले अंधकार ने ु न को उगल िदया। कभी ऐसे ही काले अंधकार ने मुझे भी उगला था। हर सूय
को ऐसा ही अंधकार उगलता ह। म सोचने लगा, पर वह कहानी यह ख म नह ई।
न वह भागती नाव िमली और न वह मछआरा पकड़ा जा सका। बड़ी खोज क गई; पर सब यथ। ु न तो
छोटा ब ा था। कछ भी बता पाने म असमथ। हमने अपने सािथय क यहाँ गु चर भी भेजे; पर कछ हाथ न
लगा। रह य रह य बना रह गया।
अब लगभग बीस वष बाद उसक िफर अचानक लु होने को लोग उसी िपछली घटना से जोड़ रह थे; य िक
उसका कह अता-पता नह था। लोग का य होना वाभािवक था। नानाजी क भी आशंका िनमूल नह थी िक
तु हारी ही तरह उसका भी जीवन ह। िकसी कस क काली छाया उसपर बराबर पड़ रही ह।
‘‘अगर यही बात ह, तो देिखएगा िक वह भी िकसीक मार नह मरगा; वर मेरी तरह वह िवरोिधय का संहार कर
िकसी-न-िकसी िदन अव य अवतीण होगा।’’
मणी तो मेर इस तरह क उ र पर एकदम िचढ़-सी गई—‘‘तुम बाप हो न, यिद माँ होते तो मेरी यथा समझ
सकते।’’
‘‘माँ होता कसे!’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘यिद तु हारी तरह म भी उसक माँ होता, तब तो वह पैदा ही न
होता।’’
मणी इसपर एकदम खीज उठी और म हसता आ चला आया। ऐसी गंभीर थित म मेर इस तरह क
प रहास को कछ लोग मेरी लापरवाही समझते थे—जैसा मुझे नह होना चािहए था—और कछ लोग इसे मेरी लीला
से भी जोड़ते थे। सोचते थे िक इसक भी पीछ मेरा कोई रह य ह। मेर माता-िपता इसी कोण क थे; पर नानाजी
नह थे। उनका सोचना पहले कार का था। वे मुझपर काफ नाराज थे।
मुझपर कछ-न-कछ करने का अ यिधक दबाव भी था। पर म क भी तो या क ? िककत यिवमूढ़ था, ऊपर
से िन ंतता ओढ़ ए।
मणी क उलाहने पर उलाहने सुनता रहा—‘‘ ौपदी क पुकार पर योगसाधना से उसक पास प च सकते थे, पर
उसी साधना से अपने पु क पास नह प च सकते?’’
‘‘ य नह प च सकता, यिद वैसी ही पुकार उसक भी हो!’’ मने उसे समझाया—‘‘कई बार यास िकया और
अपने िन कष क अनुसार यही कह सकता िक वह जहाँ ह, स ह।’’
िफर भी वह मेरी बात माननेवाली थोड़ ही थी।
म ासाद म था। अचानक कतूहल और अवसादपूण अ स ता हण-मु ई। िकसी ओर से सुनाई पड़ा,
ु न आ रहा ह। जैसे म भूिम म कोई झरना फटा हो, जैसे सूखते वृ म अचानक फल आ गया हो। सारी
ारका खुशी से नाच उठी।
आया भी तो बड़ी शान क साथ। कई रथ और सैिनक साथ म थे। िवजयी यो ा क तरह।
सभी स और संतु थे; पर िकसीको उसने कछ बताया नह । ब त से तो कछ बोला तक नह । घरवाल ने
जब पूछा िक बात या थी? कहाँ चले गए थे? हम लोग को तु हार अपहरण िकए जाने क आशंका थी। तब
उसने दबी जबान से कहा, ‘‘िकया तो गया था अपहरण ही।’’
‘‘तब तुमने िकसी तरह हम लोग को सूचना य नह िभजवाई?’’ यह उसक माँ मणी ने पूछा।
यहाँ यह बात जान लेने क ह िक उसका संपक उसक माँ से ही अिधक था। मेरी-उसक दूरी तो अंत तक बनी
रही। इसीसे उसम और उसक माँ म आ मीयता भी अिधक थी और उसक उसक ित आकां ा भी अिधक थी।
उसने माँ क न का उ र देते ए कहा, ‘‘पहले तो म सूचना दे पाने क थित म नह था और जब थित म
आया तो सोचा िक पूरी सूचना म ही चलकर दूँगा; य िक अपनी सफलता क शुभ सूचना, वह भी अपनी माँ को
वयं देना चािहए।’’ इतना कहते ए उसने अपनी माँ क गले म माला क तरह अपनी भुजाएँ डाल द । म चुपचाप
वहाँ से हटकर बगल क क म चला गया।
कछ समय तक गुड़चू-ँ गुड़चूँ होता रहा। िफर अचानक मणी क तेज आवाज सुनाई पड़ी—‘‘तुमने हम लोग
क अनुमित क िबना यह काय िकया। िनकल जा यहाँ से!’’
विन से प लगा िक मणी ोध म आपे से बाहर ह। म दौड़कर आया, तब मालूम आ िक राजा शंबर ने
उसका अपहरण िकया था। कछ िदन तक ु न उसका बंदी था। िकसी तरह मु आ तो उसने शंबर क ह या
कर दी और उसक प नी मायावती से िववाह कर िलया। इसी पर मणी आगबबूला हो गई।
उसका कहना था—‘‘िववाह तो जीवन का एक मह वपूण सं कार ह। इतना बड़ा काम कर िलया और हम
सूचना तक नह दी! म इसका मुँह भी नह देखना चाहती। इससे किहए िक यह मेरी आँख से अभी ओझल हो
जाए।’’
मुझे हसी आ गई। उसी हसी क बीच म बोला, ‘‘शायद हम अपना िववाह भूल गए ह। या हम लोग ने अपने
माता-िपता से अनुमित ली थी? या उ ह कोई सूचना दी थी? वृ जैसा होगा, उसका बीज वैसा ही होगा न!’’
इसपर मणी और भभक उठी—‘‘आपको तो इसको भूल बतानी चािहए, इसे समझाना चािहए—और न माने
तो इसे दंिडत करना चािहए। आप तो इसे िसर चढ़ा रह ह। और हमार व इसक क य क तुलना या! आपने तो
क या का हरण िकया था। वह क या भी वय म आपसे छोटी थी। इसने तो एक रा स क प नी का हरण िकया ह।
वह भी अव था म कम-से-कम इससे दस वष बड़ी ह। और आप इसका समथन कर रह ह!’’
म चुप रह गया। मने देखा िक ोध म मणी काँप रही ह। मुझे लगा िक उसने ु न क संबंध म बड़-बड़
व न देखे थे, जो अचानक चूर हो गए।
अपने पु को ाण से भी अिधक माननेवाली माँ क ममता घायल हो गई थी। आ ोश म जलती मणी चीख
उठी—‘‘इसे अभी मेरी आँख क सामने से हटा ले जाइए! म इसे देखना तक नह चाहती।’’
मने कभी मणी को इतने ोध म नह देखा था। उसपर जैसे कराला काली सवार हो गई थी। मेरी अ य
प नयाँ भी उसक इस प को देखकर चिकत थ । म ु न को लेकर क से बाहर िनकल आया।
दोपहर हो गई थी। मने उससे कहा, ‘‘पहले ानािद से िनवृ हो भोजन करो। िफर मेर ही क म िव ाम करो।
शाम को बात ह गी।’’ मने उसे सावधान भी िकया—‘‘अब ार बंद कर लो, न िकसीसे िमलना और न बात
करना।’’
म भी नह चाहता था िक जब तक व तु थित जान न ली जाए तब तक िववाह क बात कह फट। इस संबंध म
मने मणी को भी सचेत िकया। पर माँ-बेट क बीच तनाव क बात तुरत फल गई। या बात ह िक जो माँ बेट क
िलए इतनी याकल थी, वही उसको देखते ही आगबबूला हो गई। बेट क आगमन पर राजभवन खुलकर िकसी
कार क खुशी न मना सका। एक िविच कार क तनाव ने ज म िलया। एक ओर ारका क स ता थी तो
दूसरी ओर ारका का आ ोश।
सं या को एकांतवा ा क िलए म ु न को लेकर मोद उ ान चला आया। मेरा िवचार था िक ु न अब
ब ा नह रहा। वय भी बीस क पार ह। उसे न तो शारी रक प से दबाया जा सकता ह और न मानिसक प से।
मने िम व बात आरभ क । साफ-साफ कहा, ‘‘तुमने िववाह करक कोई अपराध नह िकया ह।’’
‘‘यही तो म सोचता ।’’ ु न बोला, ‘‘कभी-कभी प र थित ऐसी आ जाती ह िक हम वह करना पड़ता ह, िजसे
हम करना नह चाहते। या आपको इसका अनुभव नह ह?’’
मने अनुभव िकया िक ु न का सीधा हार मुझपर ह। वह सीधे-सीधे तो नह कह पाया िक आपने भी तो ऐसा ही
िकया था; पर वह यही बात बड़ी चतुराई से कह गया। मुझे हसी आ गई।
‘‘िफर माँ इतनी अ स य ह?’’ उसने पूछा।
‘‘अ स ता का कारण तो प ह। तु हारा िववाह पहले ही हो चुका ह और तुम यह भी जानते हो िक वह कौन
ह!’’
ु न का मौन वीकित क िलए पया था। उसक आकित पर अपराधबोध क गंभीरता भी िदखाई पड़ी।
मने इस गंभीरता पर एक परत और चढ़ाई—‘‘यह तो तुम जानते ही हो िक तु हारी प नी शुभांगी तु हार मामा क
बेटी ह। या कोई भी बहन यह चाहगी िक मेर भाई क लड़क उपप नी बने और वह भी उसका पु चुपचाप िबना
िकसीको कोई सूचना िदए उसक रहते दूसरी प नी ले आए। िफर उसने जब यह सुना िक वह असुर क या ह, तब
तो उसका अ स होना और भी वाभािवक ह।’’
वह इसका भी उ र दे सकता था; य िक सुभ ा-हरण क समय वह नादान ब ा नह था। िफर भी वह मौन ही रह
गया। मेरी गंभीर आवाज उसपर भारी पड़ रही थी। िफर उसम और मुझम वह िनकटता नह थी, जो एक िपता और
पु म होनी चािहए। यह दूरी कित ने ही बना रखी थी। इसम संयोग क कछ िविच भूिमका रही। शायद इसीिलए
मेर कहने पर उसका साहस आव यकता से अिधक डगमगाया।
‘‘तुम तो यह जानते ही हो िक असुर क सं कित हमारी सं कित से मेल नह खाती। जब सं कित एक नह तब
सं कार भी एक कसे हो सकते ह?’’
‘‘यह ठीक ह िक उसक जीवन-प ित मेरी जीवन-प ित से िभ ह।’’ उसने दबते-दबते ही कहा, ‘‘पर िपताजी,
वह असुर होकर भी असुर नह ह।’’
‘‘यह तो तुम दोन बात एक साथ कह रह हो।’’ मने कहा, ‘‘िफर वय म भी तो वह तुमसे ब त अिधक ह।’’
‘‘दोन बात एक साथ ह, इसिलए एक साथ कह रहा ।’’ उसने अपना थोड़ा साहस और बटोरा—‘‘वय म तो
िजतना आप समझते ह, हो सकता ह िक वह उससे भी बड़ी हो; पर वह देखने म बड़ी नह लगती।’’
‘‘तुम तो एकदम पहली बुझा रह हो।’’ मुझे िफर हसी आ गई। मने कहा, ‘‘रह य को और रह य बनाते जा रह हो।
अब तुम मेर न का प उ र दो।’’
मेरा पहला न था—‘‘तुमने उससे िववाह य िकया?’’
‘‘मने उससे िववाह नह िकया, उसने ही मुझसे िववाह िकया।’’ वह बोला, ‘‘यिद म उसे वीकार न करता तो
शायद मेर जीवन क र ा न हो पाती। िफर भी म िव ास िदलाता िक मने अपनी जीवनर ा क िलए ही िववाह
नह िकया।’’
‘‘तब य िकया?’’
‘‘ य िक मेरा िववाह मेर ज म क पूव ही हो चुका था।’’
उसक इस कथन पर म अवा रह गया। अव य ही यह िकसी रह य म उलझा िदया गया ह। अब मेरी िज ासा
और बढ़ी। मने उसे िनभयतापूवक सबकछ बता देने क िलए आ त करते ए कहा, ‘‘सारी बात सहजभाव से
जान लेने क बाद ही कोई माग िनकाला जा सकता ह।’’
अब उसने जो कछ बताया, वह िनतांत रह यमय और आ यजनक था। उसक पूरी कहानी इस कार ह—
‘‘म उस िदन आखेट क च कर म ब त दूर िनकल गया था। व तुतः म याम मृग क खोज म था। मुझे अपनी
श और बा बल पर भरोसा था। मुझे शंबरासुर क ब त से सैिनक ने माग म रोका भी िक यहाँ आप दूसर क
रा य क सीमा म घुस आए ह। िनयमतः आप यहाँ आखेट नह कर सकते। तब मने कहा, ‘जानते नह हो, म
ारकाधीश का पु !’
‘‘उस समय तो सैिनक कछ नह बोले; पर लगता ह, बाद म उ ह ने अपने महाराज शंबरासुर को इसक सूचना दी।
सं या को आखेट से लौटते समय सह सैिनक ारा मेरा अपहरण कर िलया गया।’’
म मौन था। िसंधु से आता मंद गंधवाह हमारी मानिसकता को सहलाता रहा। ु न अपनी कथा सुनाता रहा
—‘‘िफर म बंदीगृह म डाल िदया गया। मुझे कछ नह मालूम िक ऐसा मेर साथ य िकया गया। आपक जीवन
क तरह एक अ य िनयित मेर जीवन क पीछ भी पड़ी। तीन िदन बाद मुझे कछ ऐसा आभास आ िक दो-एक
िदन म मेरी ह या कर दी जाएगी।’’
‘‘यह तु ह कसे पता चला?’’ मने पूछा।
‘‘जो मुझे भोजन देने मेर बंदीगृह म आते थे, उनम से एक क अ यािशत कपा मुझपर हो गई। उसने यह अशुभ
सूचना दी। तब मने उससे पूछा, ‘जब मेरा वध ही करना ह तब दो िदन बाद य ? मुझपर कोई वाद तो चलाया नह
जाएगा। म आपक महाराज क जा तो नह । आपक रा य म अनायास घुस आया एक िवदेशी ।’
‘‘ ‘बात देशी-िवदेशी या वाद चलाने क नह ह।’ इतना कहते-कहते उस हरी को लगा िक दूर खड़ उसक दो
साथी उसे बड़ यान से देख रह ह। उसने उनक ओर संकत िकया और िफर भट होने क बात कहकर वह चला
गया।
‘‘दूसर िदन सवेर-सवेर उस बंदीगृह क एकमा गवा से उसी हरी ने ताका। मुझे गवा क ओर पीठ िकए पड़ा
देखकर उसने एक ककड़ी मुझपर फक । मने उधर देखा। उसने गवा क ओर मुँह सटाकर धीर से िनकट आने क
िलए कहा। म तुरत उधर गया।
‘‘उसने बताया—‘लगता ह, तु हार ह अनुकल चल रह ह। तु ह लेकर महाराज और महारानी म अनबन हो गई
ह। इसिलए तु हार वध क घड़ी बार-बार टलती जा रही ह और शायद हमेशा क िलए भी टल जाए।’ इतना कहकर
उस िदन वह चला गया।’’
ु न क कहानी िविच और कतूहलपूण लगी। िबना कोई िज ासा य िकए म यान से उसे सुनता रहा। वह
कहता गया—‘‘म िफर कारागार क अँधेर से अिधक अिन तता क अँधेर म िघरता चला गया। पास खड़ी मौत भी
मुझे िनहारती रही।
‘‘ठीक उसक दूसर िदन म य राि क घने अँधेर म बंदीगृह क सीिढ़य से उतरने क िकसीक आहट लगी। म
सचेत हो गया। शी ही मुझे ऐसा लगा िक कोई छाया ितमा मेरी ओर बढ़ रही ह। इसका भी आभास आ िक वह
कोई नारी ह। उसक पीछ उसक दो सेिवकाएँ और थ । वह मेर ब त करीब आकर बोली, ‘आप मुझे नह पहचान
रह ह, पर म आपको पहचानती ।’
‘‘उसक आवाज म बड़ी आ मीयता एवं ा का भाव था। मने कहा, ‘यिद अंधकार न होता तो म भी आपको
पहचानने क चे ा करता।’
‘‘ ‘िफर भी आप न पहचान पाते।’ उस अंधकार म भी उसक मुसकराने का आभास लगा। ‘शायद म भी आपको न
पहचानती, यिद सर वती क कपा न होती।’ िफर वह रह यमय ढग से हसने लगी।
‘‘म अवा था। मेरी वाणी ने अपनी सारी श मेरी को दे दी थी। आँख और गहराई से उसे टटोलने लग ।
उसने अपना िपछला वा य िफर दुहराया—‘शायद म भी आपको न पहचानती, यिद सर वती क कपा न होती।’
‘‘वह य - य बोलती जा रही थी, रह य और भी घना होता जा रहा था। ‘यह सर वती कौन ह? उसने मेर बार म
और या बताया? और िफर उसने ऐसी कौन सी बात बताई िक वह मेर ित ऐसी आकिषत ह?’ म सोच ही रहा
था िक वह बोल पड़ी—‘सूय दय क पूव ही म अपना रथ लेकर आऊगी। आपको मेर साथ चलना पड़गा।’
‘‘ ‘कहाँ? वध थल क ओर?’ मने कहा। राजक य परपरा क अनुसार, िकसीको वध का दंड देने का सामा यतः
यही समय होता था। शायद इसीिलए इस सोच तक म प च गया।
‘‘वह एकदम हस पड़ी। बोली, ‘आप प रहास अ छा कर लेते ह।’ िफर उसने बताया—‘आपको सर वती मंिदर म
चलना ह।’
‘‘ ‘कौन सा सर वती मंिदर ह? कहाँ ह सर वती मंिदर?’ म कछ भी नह पूछ पाया और वह चली गई। इसक बाद
मुझे न द नह आई। झपिकयाँ लेते ए म उस ी क पुनः आने क ती ा करने लगा।
‘‘मु य ार क िनकट क गवा से अब कछ-कछ काश आने लगा था। बंदीगृह का अँधेरा धुँधला पड़ गया था
िक अचानक मु य ार खुलने का आभास आ। मेरी मानिसकता पहले से ही बन गई थी। मने वयं को िनयित क
धारा म बहने देने क िलए तैयार कर िलया था।
‘‘आहट लगते ही म बंदीगृह क सीिढ़य क ओर बढ़ा। एक ण क िलए मेरा िव ास डगमगाया भी—यह
सामा य ी तो नह दीखती, कह कोई रह य तो नह । उसी समय मेर मन म एक दूसरी आवाज उठी। जो भी हो,
इसका सामना करो। तुम अपने को पूरी तरह िनयित को स प चुक हो।’’
म मौन सुनता रहा। ु न कहता रहा—‘‘पर मेरी आशंका िनमूल थी। वह ी धड़ाधड़ सीिढ़याँ उतरती ई चली
आई। वह बंदीगृह धरातल से नीचे था। ी सैिनक वेश म थी। आते ही उसने कहा, ‘बस, उिठए! चिलए।’
‘‘मने बाहर आकर उसे देखा और चिकत-सा कछ ण तक उसे देखता ही रहा। सचमुच ऐसी अिनं सुंदरी मने
अपने जीवन म कभी नह देखी थी।’’ इतना कहते ही ु न एकदम चुप हो गया; जैसे िकसीने उसक अधर पर
अँगुली धर दी हो। ल ा से उसका िसर झुक गया। उसक चेतना ने उसे झकझोरा था िक वह अपने िपता से बात
कर रहा ह। िकसी ी पर मोिहत होने क बात इतनी भावुकता और आकषण क साथ उसे कहनी चािहए थी? या
यह उसक िनल ता नह ह? िफर कछ देर तक ु न मौन ही रहा।
पहले तो म चुप ही रहा। िफर उसक मौन का अंतराल लंबा होता देखकर म बोल पड़ा—‘‘तो आगे या आ?’’
‘‘उसने मुझे अपने ही रथ पर बैठा िलया। उसक साथ सैिनक क कई रथ थे। लगता ह, राजा ा से उसने ऐसा
िकया था, या अपने वामी क सीधी अव ा पर उतर आई थी।’’
‘‘अ छा! तो अपने वामी क उसने तु हार िलए अव ा क !’’ मेरा इतना कहना था िक ु न और भी लजा गया।
अब मने हसते ए कहा, ‘‘इसम संकोच या! जब पु बीस से अिधक का हो जाता ह तब वह पु तो रहता ही
ह, िपता का िम भी हो जाता ह। इसिलए जो घिटत आ हो, उसे िन संकोच भाव से कहो।’’
अब वह आँख बंद कर कहने लगा; जैसे वह मेरी अनुप थित म या अपनी ेयसी क उप थित म बोल रहा हो
—‘‘अब भी वह बराबर देखती जा रही थी। उसक इस आकषण का मुझपर भी भाव पड़ा। मेरी भी आँख उसपर
िचपकने लग ।
‘‘ ‘इतना यान से या देख रह हो?’ उसने मुझसे पूछ ही िलया।
‘‘ ‘आप य देख रही ह?’ मने कहा।
‘‘ ‘आप यिद मुझको ‘आप’ न कहकर ‘तुम’ किहए तो म आपको बताऊ।’ वह बड़ रह यमय ढग से बोली, िफर
हसते-हसते दोहरी हो गई। म आ य से उसे देखता रह गया।
‘‘ ‘ य िक म आपक प नी ।’ उसक िखलिखलाहट और बढ़ गई। मेरा िव मय भी बढ़ा। यह मुझे िकस मायावी
च कर म डाल रही ह। इसक माया मुझे िकसी मंिदर म ले जाकर बिल चढ़ाने क तो नह ? म तरह-तरह क
आशंका से िघरने लगा।
‘‘ ‘चुप य हो गए आप?’ उसने पूछा।
‘‘ ‘म चिकत िक यह कसी माया ह!’
‘‘ ‘यही स य ह। माँ सर वती इसक सा ी ह।’
‘‘ ‘तुम तो असुर प नी हो। हमार देवी-देवता म िव ास करती हो?’
‘‘ ‘असुर प नी अव य , पर आसुरी नह —देववण ।’ उसने कहा।
‘‘ य - य वह अपने बार म बताती गई य - य वह मुझे रह यमय लगती गई। रथ क गित इतनी ती थी िक हम
शी ही सर वती नदी क कछार क ढह पर थत एक अ यंत पुराने मंिदर क पास प चे।
‘‘िदन का थम हर चल रहा था। सामने क ि ितज पर अ निपंड-सा उठा सूय उधर से ही बहते चले आ रह
स रत वाह म सोने क एक िवशाल गोले क तरह ढलक रहा था। पर उस ाचीन मंिदर म अब भी अंधकार था।
रथ से उतरकर हम दोन वहाँ प चे। हम लोग क साथ और कोई नह था।
‘‘मेरी बा ओर एकदम मुझसे सटकर वह चल रही थी। ोढ़ी पर प चते ही उसने अपना म तक टका और मेरा
भी िसर पीछ से पकड़कर उसने झुका िदया।
‘‘ ‘आओ, रित और कामदेव।’ भीतर से एक अित गंभीर वर सुनाई िदया, जो मंिदर म कई ओर से गूँजता रहा।
मने चार ओर देखा, कह कोई नह । म इस चम कार पर िव मृत था। सामने सर वती क ितमा थी और पा म
थी उसक उ मु मुसकराहट।’’
ु न कहता गया—‘‘म िव मृत एवं िनतांत िमत, एकदम पाषाणव खड़ा रहा। उसने माँ क चरण म अपना
म तक टका। यिद उसने मेरा िसर भी पूवव दबाकर झुकाया न होता तो म वैसा ही खड़ा रह जाता।
‘‘ ‘जब हम पूवज म क बात भूल जाते ह तब स य हम ऐसा ही चिकत करता ह।’ यह आवाज भी हमार मंिदर
वेश क समय क जैसी थी—‘जब पहले पहल वह यहाँ आई थी तो वह भी ऐसे ही अचरज म पड़ी थी।’ िफर ऐसा
लगा जैसे देवी िखलिखला रही ह ।
‘‘मेर मुख से िनकला—‘म कछ समझ नह पाया!’
‘‘ ‘समझने क िलए इसक िसवा और कछ नह ह िक तुम पूवज म म कामदेव थे और यह रित।’
‘‘ ‘यह कसे?’
‘‘ ‘इसका उ र तुम अपने मन म ढढ़ो। वह तु ह िमल जाएगा।’
‘‘म मौन खड़ा रहा।
‘‘वहाँ से वह शी ही बाहर िनकली। पीछ-पीछ म भी आया। दूर खड़ी मिहला सैिनक को उसने संकत से बुलाया।
पूजन का थाल लेकर वे यथाशी उप थत और हम लोग ने िविधव माँ क पूजा क ।
‘‘स मुख क गवा से सूय क सीधी िकरण मूित क आकित पर पड़ रही थ । माँ मुसकरा रही थ —मानो हम दोन
को आशीवाद दे रही ह ।’’
िफर ु न चुप हो गया; जैसे कहना चाहकर भी कछ न कह पाया हो।
मने िफर कहा, ‘‘लगता ह, संकोच पुनः तु हारी वाणी क सामने खड़ा हो गया।’’ मने मुसकराते ए सांकितक
भाषा का योग िकया—‘‘जब नाचना शु ही कर िदया ह तब इसका संकोच मत करो िक व कहाँ जा रहा
ह!’’
वह भी मुसकराया और बोला, ‘‘िफर तो वह मुझे रित ही िदखाई देने लगी।’’
‘‘और तुम उसे कामदेव!’’ मने उसका अधूरा वा य हसते ए पूरा िकया।
य िप मेर कथन म न यं य था और न व विन, मने तो बड़ सहजभाव से सीधी बात कही थी; पर इस बार
िफर ल ा क लािलमा उसक चेहर पर दौड़ती िदखाई दी।
मने पुनः कहा, ‘‘हमारी बदली ई मानिसकता व तु को बदल देती ह; य िक हम िकसी व तु को वैसा नह देखते
जैसी वह ह वर जैसा मन होता ह, व तु हम वैसी िदखाई देने लगती ह।’’
‘‘यह हो सकता ह।’’ ु न बड़ी दबी जबान बोला।
िफर हम लोग वहाँ से चल पड़। रात िघर आई थी। मोद उ ान म अपने िनिद थान पर मशाल जलाई जा
चुक थ । म अपने रथ पर ही उसे ले गया था और उसी पर लौट चला।
माग म मने एक दूसरा संदभ छड़ा—‘‘जानते हो, तु हारी माँ तुमपर नाराज य ह?’’
जानते ए भी ु न ने कहा, ‘‘इसे तो भगवा जाने।’’
‘‘भगवा ही नह , म भी जानता ।’’ मने मुसकराते ए पूछा, ‘‘ या तु हारी पूव प नयाँ सुंदर नह ह?’’
‘‘सुंदर तो ह, पर वे रित नह ह।’’ इतना कहते ए ु न क आँख िफर झुक ग ।
q
उस रात ु न को मने उसक क तक छोड़ा और सीधे अंतःपुर म प चा। मने मणी को समझाया—‘‘अब
तुम ु न से कछ मत कहना। वह बेचारा एक िवषम प र थित से िघर गया था।’’
‘‘म सब समझती ।’’ मणी का ोध एक बार िफर भभका—‘‘बाप-बेट को िवषम प र थितयाँ ही घेरती ह,
िजसका प रणाम होता ह िववाह।’’
उसका सीधा-सादा यं य जांबवती पर था। पर म कछ बोला नह ; य िक ोध को छड़ना भी आग म घृत
डालना होता ह।
वह बड़बड़ाती रही—‘‘आप लोग क प र थितय क मूल म मेरी स नता ह। मेरी िसधाई का गलत लाभ बाप
ने भी उठाया और अब बेटा भी उठाने लगा ह।’’
दूसर िदन जलपान क समय न मणी मेर क म आई और न मेरी अ य रािनयाँ ही। लगता ह, मणी क
आ ोश ने उ ह भी दहला िदया। पर ु न आया—और िफर उसी संदभ म बात होने लग ।
‘‘कल क तु हारी बात से कई न अनायास मन म उठ ह।’’ मने कहा, ‘‘आिखर इन बात से तु हार अपहरण
का या संबंध ह?’’
‘‘शंबरासुर से िकसीने बता िदया था, या माँ सर वती क मंिदर से ही उसे ात आ िक ु न कामदेव का अवतार
ह और उसीक ारा तुम मार जाओगे। इसीसे वह बचपन से ही मेरी ह या क िलए य नशील था।’’ ु न ने अपने
म त क पर जोर देते ए कहा, ‘‘कदािच आपक ही मुख से मने सुना था िक िकसीने मुझे बचपन म ही उठाकर
समु म फक िदया था; तो वह कोई और नह , शंबरासुर ही था।’’
मने सोचा िक यह तो इितहास वयं को दुहरा रहा ह। कभी मेर मामा कस को यह बताया गया िक देवक क
आठव गभ से तेरा िवनाश होगा और वह मेर ज म क पूव से ही मेर ाण का यासा हो गया। ठीक यही थित मेर
पु क सामने भी आई।
इसी म म ु न ने यह भी बताया—‘‘इसक बाद एक मछआर क जाल म म फस गया। उस मछआर ने मुझे
िफर शंबरासुर क यहाँ ही ले जाकर बेचा।’’
‘‘पर तुझे तो आधी रात को एक नौका म कछ लोग मेर तट पर छोड़ गए थे।’’ मने कछ और जानने क इ छा से
कहा।
‘‘हाँ, जब उसे पता चला िक म कामदेव ही तब उस ी ने एक रात चुपचाप मुझे ारका से उठा ले जाने क
सारी यव था क ।’’
‘‘िकस ी ने?’’
‘‘वही, जो मेरी प नी ह।’’
‘‘तब तो उसक अव था तुमसे ब त अिधक होगी!’’ मने कहा, ‘‘हम लोग क क पना से भी अिधक।’’
‘‘हो सकती ह।’’ ु न बोला, ‘‘पर वह मुझसे ब त बड़ी नह लगती।’’
‘‘लगता ह, उसने तुझपर कोई वशीकरण कर िदया ह।’’ मने कहा, ‘‘समय कभी थमता नह ह, तब उस नारी पर
या थमा होगा!’’
‘‘इस शंका का समाधान तो आप उसे देखकर ही कर सकते ह।’’
मुझे सारी कथा कछ अ ुत-सी लगी; पर अिव सनीय नह । सबकछ मेर ि कालदशन क प रिध म था। भूत-
वतमान-भिव य कवल इस जीवन म ही नह ह। उसक िव तार म मा एक जीवन नह , अनेक जीवन क िनरतरता
ह।* इसीक सा ी ु न क जीवन क यह घटना ह। िकतु इस कार क िचंतन क भाव म वह नह था। उसपर
तो एक कार का ऐं जािलक भाव था। मने यादा इस संदभ म उससे पूछा भी नह । यिद पूछता तो वह घूम-
िफरकर वही उ र देता।
इसिलए मने बात बदल दी—‘‘तु हार इस कथा म म मछआरा भी ह। आज तक हम लोग यह नह जान पाए िक
उसका या आ!’’
‘‘उसक बड़ी दुगित ई।’’ ु न बोला, ‘‘लोग ने मुझे बताया िक शंबरासुर ने उसे जीिवत िसंह क सामने छोड़
िदया था।’’
‘‘यह नृशंसता तो रा स का वभाव ह।’’ मने कहा।
‘‘पर शंबर ने उसक ित कछ अिधक ही नृशंसता िदखाई।’’ ु न ने कहा, ‘‘ य िक उसने असुरराज से िनवेदन
िकया था िक उस बालक को छोड़ दीिजए। इसीम आपका िहत ह। िजस बालक को वह अपनी मृ यु का कारण
समझता था, उसीको छोड़ने क बात सुनकर वह आगबबूला हो गया। इसीसे उसने इतना कठोर िनणय िलया।’’
‘‘िफर शंबरासुर मारा कसे गया?’’ मने पूछा, ‘‘ य िक िबना उसक ह या क उसक प नी को पाना संभव नह
था।’’
‘‘वह मारा तो मेर ही ारा गया; पर म मा मा यम बना, िकया सबकछ मायावती ने।’’ ु न ने बताया—‘‘लोग
शंबरासुर से काफ नाराज थे। उ ह मायावती ने िमला िलया था। िविच थित थी। शंबरासुर लोग को नाराज
करता चलता था और मायावती उ ह आ य देती चलती थी। जा हर ण उससे मु चाहती रही। इस थित को
पैदा करने म माँ सर वती क मह वपूण भूिमका थी। अ य रहकर भी उ ह ने वह काय िकया, जो य रहकर भी
कोई नह कर सकता।’’
उसक बात सुनकर मुझे हसी आ गई। मने कहा, ‘‘अ यता वयं म महानता ह; य िक अ यता आ मा को
देवता बना देती ह और यता उसे जीव।’’
वह चुपचाप मुझे देखता रहा और म बोलता गया—‘‘तुम जब अनंग थे तब देवता थे। अब तुम मनु य हो—मा
ु न, क ण क पु । और ब त आ तो लोग तु ह ारका का राजकमार कहगे।’’
‘‘इसका ता पय ह िक मने य होकर अ छा नह िकया। अपनी महानता क ा क िलए िफर मुझे अ य होना
चािहए।’’
मेर अधर पर पुनः मुसकराहट उभर आई—‘‘ऐसा सोचने से तु हारा कोई लाभ नह ; य िक तु हारा ‘होना’ या ‘न
होना’ तुमपर िनभर नह ह।’’
‘‘िफर तो जो कछ आ, उसे होना ही था।’’
मने वीकारा मक ढग से िसर िहलाया। वह स हो गया।
‘‘पर इसे तु हारी माँ वीकार कर तब तो!’’
उसक उ ास क सम िफर एक अवरोधक लग गया। उसक खुशी आकाश से िगरकर पेड़ पर अटक गई।
मने उसे ढाढ़स बँधाया—‘‘अभी तु ह अपनी माँ से िमलने क आव यकता नह ह। म वयं उससे बात क गा।
दूसरी बात यह ह िक म मायावती से िमलना चा गा। इसका यह अथ तुम कदािप मत लगाना िक मुझे तु हारी बात
का िव ास नह ह। म तो कवल इसका पता लगाना चाहता िक उसे देखकर तु हारा िचंतन स य को िकस सीमा
तक छ पाया ह।’’
मने एक बात और प क —‘‘म मायावती से िमलना तो चा गा; पर म उसक रा य क सीमा म नह जाऊगा
और न अ छी तरह सोचे-समझे िबना उसे अपने रा य क सीमा म बुलाऊगा।’’
‘‘वह भी अपने रा य म नह ह।’’ इस सूचना क साथ ु न ने बड़ भावुक ढग से अपनी बात पूरी क
—‘‘शंबरासुर क वध क बाद उसक िसंहासन पर मायावती को ही बैठना चािहए था; पर उसने वह िसंहासन
वीकार नह िकया। लोग ने ब त आ ह िकया। यहाँ तक कहा िक आपक चले जाने पर हम अनाथ हो जाएँग।े
तब उसने उ ह ऐसा उ र िदया िक मेरा मन भी िवत हो गया।’’ थोड़ी देर ककर ु न िफर बोलने लगा
—‘‘उसने कहा, ‘अपने सनाथ होने क िलए आप लोग िफर मुझे अनाथ मत क िजए। प नी का िसंहासन तो उसक
पित का दय होता ह। अब मुझे उसी िसंहासन पर बैठने दीिजए।’ ’’
‘‘इसका ता पय ह िक असुर सं कित म पली वह नारी अपने सं कार से असुर नह ह।’’ मेर मुख से िनकला।
‘‘य भी वह असुर नह ह।’’
‘‘यह तु हारा िन कष ह, तु हारी का िन कष ह।’’ मने हसते ए कहा।
‘‘अब तो आप अपनी से वयं उसे देखगे।’’ ु न बोला।
अब म एकदम चुप हो गया। थोड़ी देर बाद बोला, ‘‘हाँ, तो तुम उससे भट कहाँ कराओगे?’’
‘‘वह आ तो रही थी, पर अपने रा य क सीमा पर आकर क गई।’’ ु न ने कहा, ‘‘और बड़ी यथा से बोली,
‘पहले आप जाकर इस थित का पता लगाइए िक लोग मुझे वीकार करगे या नह ।’ ’’
‘‘तुमने कहा नह िक म तो तु ह वीकार करता ही ?’’
‘‘आप या समझते ह, मने कहा नह होगा!’’ ु न बोला, ‘‘तब उसने बड़ी गंभीरता से कहा, ‘अ नपरी ा देने
क बाद भी लोग ने सीता को नह वीकारा, तब म िकस डाल क िचिड़या िक मेर जैसे लोग क िलए तु हारा
समाज िपंजड़ा दे ही देगा!’ ’’
मायावती क इस संवाद से भी म ब त भािवत आ और उससे िमलने क मेरी लालसा बढ़ी। मने कहा, ‘‘इसका
ता पय यह ह िक हम लोग को उसक रा य क सीमा क भीतर चलना होगा?’’
‘‘आपक आने क सूचना पाकर वह अपने रा य क सीमा क बाहर ही आ जाएगी।’’ ु न बोला।
अब मुझे कवल मणी को तैयार करना था। कछ करने क पहले उसक मानिसकता को सामा य तल पर तो
लाना ही होगा। आिखर वह ु न क माँ ह। उसक चोट खाए मन का उपचार तो करना ही होगा।
मने ु न से कहा, ‘‘तुम आज-कल म मायावती से िमलने क यव था करो। पर हाँ, अभी तुम अपनी माँ क
पास मत जाना। आग को छड़ना नह । धीर-धीर उसपर राख जम जाने दो। तु ह देखते ही वह िफर भभक पड़गी।
अतएव उससे मुझे ही िमलने दो।’’
जब से ु न आया था तब से मणी मुझसे नह िमली थी। न तो जलपान क समय और न भोजन पर ही। वह
मेर सामने आना भी पसंद नह करती थी। जलपान और भोजन वह अपने क म ही मँगवा लेती थी। पूर अंतःपुर म
इसक चचा हो गई थी िक वह मुझसे नाराज ह। पर अभी इस नाराजगी का धुआँ भीतर-ही-भीतर था, बाहर िनकला
नह था। अभी मेर माता-िपता और भैया-भाभी तक इसक चचा नह प ची थी। जबिक ु न अपनी माँ को
छोड़कर सभी जगह जाता था। उसे यथोिचत मम व और ेह भी िमलता था। व तुतः वे लोग सारी बात नह जानते
थे, जो हम लोग को पता हो गई थ ।
आज ातःकाल म वयं मणी क क म गया। वह उठकर खड़ी हो गई। कछ बोली नह । उसका ोध अब
भी सुलग रहा था।
मने उसक दोन कधे िहलाते ए बड़ी आ मीयता से कहा, ‘‘तुमने मुझसे िमलना तो छोड़ ही िदया, अब बोलोगी भी
नह ?’’
‘‘आपको ही कौन मुझसे िमलने क फरसत ह!’’ उसक आवाज ब त ही इठलाई ई थी—‘‘अब तो पु का मोह
मुझसे िमलने का आपको अवकाश देगा तब तो। कल पु वधू लाओगे, तब कदािच िमलने का भी अवसर न
िमले।’’
म कछ समय क िलए चुप हो गया। कवल उसक दोन कधे दबाता आ अपनी ऐं जािलक उसपर फकता
रहा।
‘‘ऐसे या देखते हो?’’ उसने अपनी मुसकराहट दबाते ए कहा, ‘‘आपका बेटा ह, उसे चाह िबगाड़ो या
बनाओ।’’
‘‘मेरा तो बेटा ह, पर वह या तु हारा बेटा नह ह?’’
‘‘मेरा बेटा जब था तब था। अब म उसे छोड़ चुक । उसक िलए मने या- या सपने देखे थे और उसने मेर साथ
कसा धोखा िकया! अपनी प नी क साथ कसा िव ासघात िकया!’’ इतना कहते-कहते उसका गला भर आया।
आँख रसने लग ।
मने तुरत अपने उ रीय से उसक आँख प छ द और कहा, ‘‘तु हारी यह दशा इस बात क सा ी ह िक तुम
उसे छोड़ नह पा रही हो—और न कभी छोड़ पाओगी। कभी कोई माँ अपने बेट को छोड़ पाई ह!’’
इतना सुनना था िक फोड़ा फट गया। वह फफककर रो पड़ी—‘‘वह िकतना यारा था मुझ!े िकतने क से मने
उसे पाला था! उसक ज म क समय भी आप नह थे। आप कहाँ रहते ह ारका म! इधर कछ समय से आपका
रहना हो रहा ह।’’ िफर वह और खुली—‘‘ या उसक प नी शुभांगी मायावती से िकसी बात म कम ह? उसे तो
अभी तक कछ पता नह ह। जब से ु न आया ह तब से उससे िमला भी नह ह। जब वह सारी कथा सुनेगी तब
उसक मन पर या भाव पड़गा! एक नारी ही नारी क यथा समझती ह।’’
‘‘म भी समझता ।’’
मने ऐसे झटक से कहा िक उसक मु ा तुरत बदल गई। वह खीजकर बोली, ‘‘चिलए हिटए! आप तो हर थित
को प रहास म ही उड़ा देना चाहते ह।’’
‘‘म कब कह रहा िक शुभांगी से उसका िववाह नह आ ह!’’ मने कहा।
‘‘तो या शुभांगी अब उसक दूसरी प नी कहलाएगी?’’ उसक आवाज म जरा तीखापन आया।
मने धीर से कहा, ‘‘वह उसक पहली प नी तो हो ही नह सकती, िजसक ज म क पूव से ही एक प नी हो।’’ बात
िजतने रह य क थी, उससे भी अिधक रह यमय ढग से मने कहा।
‘‘यह आप या कह रह ह?’’ मणी बोली, ‘‘यिद ऐसा ह तो उसने शुभांगी से िववाह य िकया?’’
‘‘यह उसक िववशता थी, अ ान था।’’ म रह यमय ढग से मुसकराता रहा।
ण भर अवा रहकर िफर मणी ने मु ा बदली—‘‘शायद शुभांगी को आपने यान से देखा नह ह। वह अिनं
सुंदरी ह।’’
‘‘िन त ही वह अिनं सुंदरी होगी; पर वह ‘रित’ तो नह होगी।’’ म मुसकराता रहा और उसक पीड़ा मेरी
मुसकराहट म खोती गई।
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सबकछ मणी क समझ म तो नह आया, िकतु उसने इतना अव य समझ िलया िक कोई ब त मह वपूण
बात अव य ह। उसका ोध कछ मुलायम पड़ा। अब ु न क करण म वह िच लेने लगी। दो-एक िदन क
भीतर उन दोन म बात भी आरभ ; पर अभी वे पहले जैसी िनकटता से काफ दूर थे।
एक िदन ातःकाल उपाहार हण करने क बाद मणी का हाथ पकड़कर बड़ी आ मीयता से ख चते ए उसे
म अपने क म ले गया। मेरी अ य प नयाँ देखती रह ग ।
स यभामा ने यं य भी िकया—‘‘यिद आप कह तो म अपना ार भी बंद कर लूँ।’’ इतना कहकर वह बाहर से
अपना ार ख चते ए चली गई। और दूसर ही ण अ य प नय क साथ उसक समवेत िखलिखलाहट सुनाई
पड़ी।
मने मणी को ले जाकर पयक पर बैठाया और उससे सटकर बैठते ए बड़ ेम से बोला, ‘‘एक बात पूछ?’’
‘‘ या?’’
‘‘ या तुम अपनी नववधू को लेने चलोगी?’’
उसक क पना जैसे धोखा खा गई। वह बड़ी इठलाती ई बोली, ‘‘यही पूछने क िलए आपने ऐसा नाटक िकया
था! या सोच रही ह गी मेरी सहभािगन!’’
‘‘उनको जो सोचना चािहए वही सोच रही ह गी।’’ मने कहा, ‘‘मुझे अपने न का उ र चािहए; य िक म सोचता
िक शुभ काय म देरी नह करनी चािहए।’’
‘‘मेर िवचार से तो आप ही जाइए और अपनी रित को देख आइए।’’ मणी ने मुसकराते ए कहा, ‘‘ य िक यिद
म चलूँगी तो आपक सभी प नय को ले चलूँगी। घर म बड़ बेट क ब आ रही ह। और जो थित ह, उसम
ऐसा करना उिचत नह ह।’’ सारी घटना खुले और लोग उसक असिलयत जान ल, मणी अभी भी नह चाहती
थी।
मेर मन क थित बड़ी िविच थी। एक ओर यह नई सम या आ गई थी। जब इसका समाधान िनकलने लगा
तब एक बार िफर इ थ और ह तनापुर म त क पर छा गया। मने जो चर ह तनापुर भेजा था, वह अभी तक
नह आया था। जो कछ मने देखा था, वह ारका क य ता क िलए काफ था। िफर मेरी य ता क बात ही मत
पूिछए। ऐसी थित म छदक क िसवा कोई और मेरा सहारा नह था। वही एक ऐसा िम था, जीवनसाथी था,
िजसक सामने म पूरा-का-पूरा खुलता था और हलका हो जाता था; अ यथा िचंता क अ न पर आशंका क जो
वा प बनती, वह भीतर-ही-भीतर घुटती, बाहर न िनकल पाती और शरीर का यह घट ही फट जाता।
अब मने छदक को बुलवाया। एकांत म ले जाकर उससे सारी बात क । समािध थ होने क , ह तनापुर प चने क
और वहाँ जो कछ मने अनुभव िकया था, उसे िव तार से बताया।
‘‘तब तो ह तनापुर क सम या अव य ही भयंकर ह। इस बार म आपने इसक पहले मुझे कछ भी नह बताया
था।’’ छदक बोला।
‘‘मने तु ह अव य ही बताया होगा।’’ मने कहा, ‘‘भले ही संकत से ही कहा हो, पर कहा अव य होगा।’’
‘‘पर मुझे याद नह आता।’’ वह बोला, ‘‘खैर, जो आप बता रह ह, वह पांडव पर आई िवपि का अवसान नह
ह, वर आरभ ही किहए। इस कार कवल एक बार ौपदी छट अव य गई होगी; पर इससे आप या समझते ह
िक वे लोग पांडव को छोड़ दगे? कौरव उ ह िफर घेरगे और पांडव को िन कटक रा य नह करने दगे। और
सबसे बड़ी िचंता क बात तो यह ह िक हमारा दूत भी इतने िदन बाद वापस नह आया। हो सकता ह, वह
आयाव म भटक ही रहा हो।’’
‘‘तुम भी कसी बात करते हो!’’ मने कहा, ‘‘ या इ थ का रा ता अनजाना ह?’’
‘‘अनजाना तो नह ह, पर इ थ म पांडव ह गे तब तो!’’
‘‘तब वे कहाँ चले जाएँग?े ’’
‘‘जहाँ उनका भा य ले जाएगा।’’ छदक और गंभीर आ—‘‘ या ऐसा नह हो सकता िक पांडव से इ थ ले
िलया गया हो और उ ह वन म भटकने क िलए िववश िकया गया हो?’’
मेरा माथा ठनका। य िप म जानता था िक छदक क सोचने क यह कित ह। उसका मन िकसी सम या पर
सोचते ए उससे संबंिधत आशंका क िशखर पर चला जाता था और वह वह से उस सम या को देखता था।
मेरा मन ब त देर तक इस आशंका पर जमा नह । मने कहा, ‘‘यह कसे हो सकता ह?’’
‘‘जैसे भरी सभा म ौपदी को न न करने का यास िकया जा सकता ह।’’ उसने तुरत कहा और म गंभीर सोच म
डब गया।
‘‘यिद ऐसी बात ई तो बेचार पांडव सचमुच आयाव क वन म भटक रह ह गे।’’ म बोला, ‘‘तो ऐसे म या
करना चािहए?’’
‘‘िनणय तो आपको ही लेना ह।’’
‘‘मेरा एक िन कष तो यह ह िक म तु ह वहाँ भेजूँ।’’ िफर मने कछ और सोचा और कहा, ‘‘सं ित मेर िलए यह
उिचत न हो; य िक कल ातः म ु न क साथ जा रहा । चाहता तो था िक तुम भी साथ चलो, पर यह भी
संभव नह लगता।’’
‘‘ य ?’’
‘‘मेरी मंशा ह िक मेर अभाव म तु ह ारका म रहो तथा जो भी समाचार इ थ या पांडव क िवषय म आए,
उसे तु ह अपने पास गोपनीय रखो और आकलन करो; य िक वह कोई शुभ समाचार तो होगा नह । भैया तो उसे
ितल का ताड़ बना दगे और िफर वे उसक बार म पता नह या सोच ल! माताजी एवं िपताजी पर उसक दुःखद
िति या होगी—और सबसे बड़ी बात जा क ह। जा जानती ह िक मेरा झुकाव पांडव क ओर ह। पांडव क
पराजय वे मेरी पराजय समझगे। इससे जा दुःखी भी होगी और मेरी दुबलता भी समझी जाएगी। शासन दुबल हो
रहा ह, यह भावना ही जा म अनुशासनहीनता को ज म देती ह। इस समय मेर श ु क सं या म भी कछ वृि
हो गई ह। इसी बहाने वे उठ खड़ हो जाएँगे।’’ इन थितय क बार म मने काफ दूर तक सोचा और छदक से
कहा, ‘‘ऐसी थितय म तु हारा ारका म रहना ही उिचत होगा और इ थ क ओर आँख-कान दोन लगाए
रखो। और जो कोई जानकारी िमले, उसे अपने तक ही सीिमत रखना।’’
‘‘हो सकता ह, पांडव म से ही कोई आता हो।’’ छदक ने कहा।
‘‘हो सकता ह।’’ मने कहा, ‘‘तब तु ह उसे समझाना पड़गा िक जब तक म न आऊ तब तक वह िकसीक सामने
खुलेगा नह । अितिथगृह म उसे अपने साथ ही रखना।’’
‘‘यह िकतना असंभव ह िक पांडव म से कोई आए और वह यहाँ क िकसीसे न िमले।’’ छदक हसा—‘‘अर, वह
नह जाएगा, तब भी लोग उससे िमलगे ही। उसक या मजाल ह िक वह भैया और माताजी से न िमले! बात तो
खुलगी ही।’’
‘‘अर भाई, उसे भी मेरी थित समझाना।’’ मने कहा, ‘‘यह तो जगि िदत ह िक गोपनीयता क पूणता असंभव
होती ह। िफर भी िजतनी उसक र ा हो सक, मेर ित उतनी ही लाभ द होगी।’’
दूसर िदन ु न क साथ अपनी नई पु वधू से िमलने क योजना मने बनाई। ा मु त म मंगला आरती क
बाद देवािधदेव महादेव क दशन कर म चल पड़ा। या ा सुदूर उ र क थी। मने अपने शासन क सहयोिगय को
संकत दे िदया िक सात-आठ िदन लग सकते ह। इसक अित र और िकसीसे मने कछ नह कहा।
मने ु न को भी अपने रथ म बैठा िलया था, इसिलए यह या ा भी एक रथ क ही थी। एक ही रथ पर म,
ु न और मेरा सारिथ दा क। माग भी मने नगर क बाहर-बाहर का ही पकड़ा। मोद वन क बीच से चल पड़ा
और सूय दय होते-होते ारका क सीमा से दूर हो गया। सं या होते-होते आिदवािसय क एक ाम म प चा। वहाँ
क लोग हम दोन को पहचानते थे; पर यह नह जानते थे िक हम िपता-पु ह। उनक सोच क अनुसार हम दो राजा
थे, जो एक ही रथ पर और एक ही पताका क नीचे आ रह थे। उनक िलए यह आ यजनक था। दो राजा एक रथ
पर तो हो सकते ह; पर रथ पर भी पताका एक ही हो, यह कसे हो सकता ह? अव य ही एक ने दूसर क ित
अपना समथन य कर िदया होगा।
पर उ ह ने अपने मन क शंका मन म ही रखी। पूरी आवभगत क । चम वती क कछार पर िनिमत यह िम ी
क झ पिड़य का गाँव था। पता चला, हर साल वषा म गाँव डब जाता ह। यहाँ क लोग कित क इस मार क
भयंकरता क सीमा भी पहचान गए ह। इसिलए वे इसे बड़ी सहजता से झेलते ह और म ती से जीते ह। बाढ़ क
उतरते ही इन झ पिड़य क दीवार खड़ी हो जाती ह। कित क कठोरता म अ य त ह। इनका हर िदन म और
संघष का तथा हर रात उ सव और हष क होती ह।
आज क रात भी उ सवी थी। जो भी बन पड़ा, उसे हम िखलाया और वयं भी खा-पीकर म त। सारा गाँव एक
बड़ मैदान म एक आ। अ न जलाई गई। िफर उ ह ने अ न का पूजन िकया। मैरय चढ़ाया और नर-नारी सभी
ने साद हण िकया। देखते-देखते उनक मु ा से उ ास झलकने लगा। उनक पैर िथरकने लगे और िफर राि
का थम हर उनक नृ य एवं राग-रग म डब गया।
हमार िलए दो-तीन चौिकयाँ सटाकर उनपर मोट ग े िबछा िदए गए थे। हम दोन उसी पर ऐसे ढलक िक एक
न द म सवेरा हो गया। थकावट धुल गई।
सवेर अ छी तरह जलपान कराकर उ ह ने जब हम छोड़ा तो पाँच धनुधारी आिदवासी यो ा हमार साथ कर िदए।
जब मने उनक इस सहयोग को लेने म आनाकानी क , तब उ ह ने ु न क ओर संकत करते ए कहा, ‘‘इनका
तो सब जाना-बूझा ह। अभी कछ ही िदन पहले इधर से गए ह; पर आपक िलए तो माग नया ह। अभी चम वती
पार करते ही ऋ वा पहाड़ी ंखला आरभ हो जाएगी। तब आपक िलए संकट उप थत हो सकता ह।’’
‘‘ य ?’’
‘‘ऋ का घनघोर जंगल ह।’’ इसक बाद वह बड़ रह यमय ढग से मुसकराया—‘‘उनक अपनी भाषा ह, उनक
समाज क अपने िनयम ह।’’
मने यह तो नह कहा िक उनसे मेरा पाला पड़ चुका ह, कवल मुसकराता आ उ ह सुनता रहा।
वे बोलते रह—‘‘तब ये हमार गाँव क रखवाले आपक सहायता करगे।’’
‘‘पर इनक पास कोई वाहन तो ह नह । मेरी इ छा तो अपने रथ पर अ यंत गित क साथ या ा करने क थी।’’
‘‘तो आप अपने रथ पर जाएँ न! िजतनी इ छा हो उतनी गित से रथ चलाएँ।’’ उन लोग ने हसते ए कहा, ‘‘ह तो
ये पैदल ही, पर रहगे आपक रथ क साथ ही।’’
‘‘तो ये लोग कहाँ तक और कब तक साथ दगे?’’
‘‘जब तक आपका साथ देनेवाले दूसर िमल नह जाते।’’
वे भी हसे और मुझे भी हसी आ गई।
उनक िदए वे पाँच यो ा सचमुच वैसे ही िनकले जैसा उ ह ने कहा था। हमार रथ क तूफानी गित से वे जरा भी
पीछ नह ए।
सचमुच वह भयानक अर य था। ु न से मने पूछा, ‘‘तुम यहाँ तक चले आए थे आखेट क खोज म और तु ह
आखेट नह िमला था!’’
‘‘यही तो मुझे भी आ य ह।’’ उसने कहा, ‘‘उस िदन जैसे कोई एक अलौिकक श मुझे ख चे िलये जा रही
थी और म िखंचता चला गया।’’
िफर मने कछ नह पूछा।
हमार साथ आए उस ाम क लोग ने कहा, ‘‘अब आपको िकधर जाना ह? आगे तो शंबरासुर का रा य ह।’’
मने कत ता ािपत करते ए कहा, ‘‘हमारा गंत य आ गया। अब आप लोग जा सकते ह।’’
हम म या तक उस दुग क पास प च गए, िजसम ु न ने मायावती का िनवास बताया था। उसने मुझे दुग म
चलने क िलए कहा।
मने ु न को दु कारते ए कहा, ‘‘ ेम म तुम अंधे हो सकते हो, तु हार जैसे अंध क िलए म अंधा नह हो
सकता। म तब तक दुग म वेश नह क गा जब तक सस मान बुलाया नह जाऊगा।’’
इतना सुनते ही ु न ल ा से गड़ गया। उसे इसका भान ही नह रहा िक म उसका िपता होने क साथ-साथ
ारकाधीश भी । वह चुपचाप चला गया।
दुग तो मु यतः सैिनक संर ण क िलए िनिमत होते थे। वह दुग भी लगभग वैसा ही था। िन त प से यह
कभी शंबरासुर क सैिनक छावनी रही होगी; पर इस समय यह राजक य आवास क प म बदला आ ात हो रहा
था।
ु न क जाने क कछ ही ण बाद दुग से कछ मिहला सैिनक िनकल और मुझे सस मान ले ग । अ थायी
बने अितिथगृह म मुझे सादर वण िसंहासन पर बैठाया गया। उस िसंहासन से ही मने शंबरासुर क वैभव का
अनुमान लगाया। वह मुझे अपने इस स य क ामािणकता भी िमली िक हम लोग िजस संसार म रहते ह, यह
संसार उस संसार से कह अिधक चम कारपूण ह।
तब तक कई मिहला क साथ वनज स ा से सजी एक अ ुत सुंदरी आई और मेर चरण पर एक पु पहार
अिपत कर िसर नीचा िकए मेर सामने मौन खड़ी हो गई। म उसे देखता ही रह गया। वह मेर िव ास से अिधक
सुंदर, क पना से अिधक सुंदर—और कह सुंदरता क भी कोई ितमा होती तो वह उससे भी सुंदर थी। अ यंत
सुघड़, मोम-सी शरीरय और लपलपाती मोम वितका-सा उसका भभकता य व वयं अपना प रचय दे रहा
था िक पहचािनए, म ही रित । सृ का सारा नारी स दय मुझम समािहत ह। काल क गित भी मेरी मु ी म बंद
ह।
इस स दय त जड़ता से मेरी चेतना ने जब मुझे झकझोरकर जगाया तब मने उससे पूछा, ‘‘तु ह मायावती
हो?’’
वह कछ न बोली। कवल एक सल मुसकराहट उसक अधर से छटी और मेर चरण छती ई धरती म समा गई।
‘‘सचमुच तु हारा वरण करने म मेर पु ने कोई भूल नह क ह।’’ मने कहा।
‘‘इसक िलए म बधाई क पा ।’’ वह नीचे खड़ी वैसी ही धीर-धीर मुसकराती ई बोली।
म जोर से हस पड़ा। अ य खड़ी मिहला क चेहर भी िखल गए। िफर मने ु न को बुलाया।
वह तुरत उप थत आ। मने दोन को एक-दूसर क बगल म खड़ा िकया और बड़ िन पृह भाव से बोला, ‘‘िबना
िकसी देवता क आमंि त िकए और िबना अ न क सा ी िदए तुम दोन पित-प नी ए।’’
‘‘हम तो कई ज म से पित-प नी ह।’’ मायावती बोली, ‘‘हम िकसीको सा ी म रखने क आव यकता या? और
िफर आपसे बढ़कर भी कोई देवता होगा!’’
मने हसते ए कहा, ‘‘तु हार इस कथन से सवमा य इस िव ास को बल िमलता ह िक जीवन क तरह िववाह
भी पूवज म का एक बंधन ह।’’
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मने उस समय मायावती को वह छोड़ िदया तथा ु न को भी उसक साथ रहने का आदेश िदया और कहा,
‘‘शी ही ारका से महामा य क साथ सेना आएगी और आप लोग को राजसी स मान क साथ ले जाएगी।’’
दूसर िदन ातःकाल ही मने वहाँ से थान िकया। लोग रोक रह थे; पर एक ण भी वहाँ कना मेर िलए
संभव नह था। मेरा मन हर ण इ थ का समाचार जानने क िलए उ सुक था।
म यथाशी ारका प चा। इधर छदक मेर िलए याकल हो रहा था। िपछले दो िदन से तो उसक िविच थित
थी। ती ा क घिड़याँ जब उसे अिधक य करत तब वह नगर क उ री ार से अर य तक मेर आगमन क
पूवाभास म चला आता। इस समय भी वह मुझे नगर ार क बाहर ही िमला।
मुझे देखते ही बोला, ‘‘ ु न कहाँ ह?’’
‘‘म उसे वह छोड़ आया ।’’ म बोला और दो-एक वा य म वा तिवकता बताते ए कहा, ‘‘वा तव म वह रित
ह—और यिद वह रित नह ह, तब तो वह रित से भी सुंदर ह।’’
‘‘आप या कह रह ह!’’ छदक बोला, ‘‘कोई ी रित से भी सुंदर हो सकती ह!’’
‘‘यिद हो सकती ह तो वह मायावती ह।’’ और संदभ समेटते ए मने कहा, ‘‘दोन का िववाह हो चुका ह। अब
िकसी शुभ मु त म महामा य, दंडनायक आिद क साथ सेना क एक टकड़ी भेजकर उ ह सस मान बुलाया
जाएगा। अब बताओ, तुम यहाँ तक कसे चले आए?’’
‘‘आपक ती ा म।’’ उसने कहा।
‘‘ य , या बात ह? या इ थ भेजा गया हमारा दूत आया ह?’’
‘‘जी, दूत भी आया और नकल भी।’’ काफ गंभीर होकर वह बोला और िफर चुप हो गया। इससे म समझ गया
िक जो कछ समाचार ह, वह शुभ नह ह।
मेरी य ता ने अंितम उछाल ली—‘‘अ छा बताओ, इ थ का या समाचार ह?’’
‘‘जब इ थ ही नह तब इ थ का समाचार कसा!’’
‘‘यह या कह रह हो!’’ म तो अवा रह गया। व तुतः या आ और कसे आ, म यह सबकछ पूछ नह पाया।
इतना य था िक अपने रथ पर छदक को न िलवा जाकर वह उसीक रथ पर बैठ गया। िफर मने छदक से
िव तार से बताने क िलए कहा।
उसने इतना ही बताया िक यह सारा तमाशा शकिन क पास ने िकया। पांडव जुए म अपना सारा राजपाट हार
गए। अब वे का यक वन म ह।
इस समय शकिन पर मुझे इतना ोध आया िक या बताऊ। वह यिद मेर सामने होता तो िन त ही म उसका वध
कर देता; पर इस समय म या कर सकता था! अपने ोध पर िनयं ण करते ए मने छदक से पूछा, ‘‘इस
समाचार क ारका पर या िति या ह?’’
‘‘अभी ारका इस समाचार से अनिभ ह।’’ उसने कहा, ‘‘दूत ने तो िकसीसे कछ नह बताया। जब मने उससे
पूछा तो उसने साफ इनकार करते ए कहा िक दौ य धम क अनुसार जो कछ म जानता , सबसे पहले उ ह को
सुनाऊगा। उ ह ने मुझे इसक िलए सावधान भी िकया था।...पर उसक िचंितत मु ा ने इतना तो बता ही िदया था िक
जो सूचना उसक पास ह, वह शुभ नह ह।
‘‘इसक दूसर िदन, सं या को मोद वन क ओर घूमते समय नकल अपने अ ‘दिध वा’ पर िदखाई िदया।’’
‘‘इसका ता पय ह िक उसने सीधे माग से नगर म वेश नह िकया!’’ मने कहा, ‘‘वह िछपे तौर से आर यक पथ
से आया होगा।’’
‘‘अब िछपने-िछपाने क कोई बात रही ही नह ।’’ छदक झुँझलाते ए बोला, ‘‘सीधे तौर पर कौरव ने पांडव क
साथ छल िकया ह और िबना यु क उ ह ने इ थ जीतकर उ ह िनकाल िदया ह।’’
य भी म हमेशा सहज रहने क चे ा करता था; पर जब कभी छदक का मानिसक संतुलन गड़बड़ देखता था तो म
और भी सहज हो जाता था। इस समय भी मने ऐसा ही िकया।
‘‘नकल को ारका म आया देखकर लोग ने िज ासा तो क ही होगी?’’
‘‘पर वह ारका म आया कहाँ ह!’’ छदक ने बताया—‘‘उससे धमराज युिध र ने नगर से दूर रहने क िलए कहा
ह। उनका कहना था िक जब हमने बारह वष तक वन म रहने क बात मान ली ह तब हम नगर से दूर ही रहना
चािहए।’’
‘‘धमराज क अितशय धमि यता और दुय धन क अंधी मह वाकां ा से जनमी अितशय अनैितकता ने तो स यानास
कर िदया ह।’’ मेर मुख से िनकला। िफर मने पूछा, ‘‘तब नकल कहाँ ठहरा ह?’’
‘‘उसी मोद वन म। वह एक को म िछपकर पड़ा रहता ह। ब धा वह सवेरा होते ही जंगल म चला जाता ह
और िदन डबते-डबते आता ह। वह भी कवल आपक ती ा म का ह।’’
मन बड़ा दुःखी हो गया। म िजस उ साह से आ रहा था, उसपर हण लग गया। िफर भी अपनी स मु ा
बनाए रखने का हर संभव यास करता रहा।
नगर म वेश क साथ-ही-साथ लोग ने ु न क संबंध म पूछना आरभ िकया। मने मुसकराते ए सबको एक
ही उ र िदया—‘‘ ती ा क िजए और नई वधू क अगवानी क तैयारी क िजए।’’
मेर इतना कहने से लोग ने यह तो समझ िलया िक ु न ने सचमुच िववाह कर िलया ह; पर मेरी मु ा से उ ह
ऐसा अव य लगा िक इस िववाह से म स नह ।
राजभवन म प चते ही मेर सामने न था िक पहले िकससे िमलू,ँ मणी से या नकल से? िज ासा मुझे नकल
क ओर ख च रही थी और कत य मणी क ओर। म ि िवधा म था। पर शी ही मुझे ात हो गया िक नकल
तो इस समय िमलेगा ही नह । अतएव म सीधे मणी क क म प चा और जाते ही बोला, ‘‘म सीधे तु हार पास
यह सूचना देने क िलए आया िक तुम पूर धूमधाम क साथ नई वधू क वागत क तैयारी करो। यह तु हार पु
ारा िकसी क या का न वरण ह और न हरण। यह सीधे-सीधे कामदेव और रित का िववाह ह।’’
‘‘ या प रहास करते ह आप!’’ मणी एकदम हस पड़ी—‘‘कहाँ रित और कहाँ वह असुर सुंदरी!’’
‘‘उसे देखने क पहले म भी कछ ऐसा ही सोचता था। तुम भी जब देखोगी तो तु हार भी िवचार बदल जाएँगे और
तुम भी इसी िन कष पर प चोगी।’’
‘‘आप पर िकया इ जाल मुझपर काम नह आएगा।’’ कहा तो उसने मुसकराते ए ही, पर म झुँझला उठा; य िक
मेरी मानिसकता पहले से ही खराब थी। म छटकारा पाना चाहता था और नाराजगी िदखाता आ लौट पड़ा।
अब न था, कसे सं या हो और कसे म मोद वन प चू!ँ िदवस का शेषांश जैसे-तैसे ही बीत चला। सूया त होने
लगा। म छदक को लेकर मोद वन प चा। अभी नकल आया नह था। उसी को म बैठकर म छदक से बात
करने लगा।
‘‘मेरा सारा सपना ही न हो गया। मेर सामने तो धधकता आ वह खांडव वन िदखाई दे रहा ह। उसम रहनेवाले
अथव शाखा क वे तांि क याद आ रह ह। कह यह सारी करामात उ ह क तो नह ?’’
‘‘अब आप भी ऐसा सोचते ह!’’ छदक ने मुझे समझाते ए कहा, ‘‘अर, हम लोग सोच तो और बात ह, आप जैसे
ि काल का िचंतन इस सीमा पर आ जाएगा—कोई सुनेगा तो या कहगा!’’
‘‘चाह कोई कछ कह, पर पराभव क य ता कभी-कभी मनु य क िचंतन को उस तल तक नीचे ले जाती ह, जहाँ
उसे कछ नह सूझता; कवल अँधेरा ही िदखाई देता ह। तब उसक ि कालदशन क मता भी साथ छोड़ देती ह।
पांडव मुझम इतने लीन ह िक पांडव क यह पराजय मुझे अपनी पराजय लगती ह।’’ म बोलता जा रहा था—‘‘मेर
सामने एक दूसरा संकट और ह। म इसे अपना पराभव तो समझता , पर इस पराभव क चचा िकसीसे कर नह
सकता। तुमने कभी ऐसे समु क क पना क ह, छदक, िजसम ार तो उठता हो, पर जो अपनी कभी सीमा नह
लाँघता हो?’’
दिध वा क पैर क टाप और से अलग ही थी। वह दूर से आती सुनाई पड़ी। इसक पहले िक नकल हम तक
आए, हम लता को से बाहर आ चुक थे।
उसक ारा चरण छने क बाद मेरा पहला न था—‘‘ या आ?’’
‘‘ आ या! महिष यास क भिव यवाणी स य िस ई।’’ वह बड़ सहजभाव से बोला। म िजतना दुःखी था,
वैसी य ता उसक चेहर पर नह थी। वह मुसकराते ए कहता जा रहा था—‘‘एक व न था, जो टट गया। हम
लोग िफर अपने धरातल पर आ गए।’’
म तो उसक आकित ही देखता रह गया। सा ीभाव से जीने और घटना-िनरपे रहने का ान बघारनेवाला म
इस समय उससे ब त छोटा हो गया था।
िफर मने उससे कछ कहा नह । उसक कधे पर हाथ रखकर टहलने लगा।
थोड़ी देर बाद बड़ सामा य भाव से म बोला, ‘‘यह तो म भी नह मानता था िक महिष यास क भिव यवाणी
कभी झूठी हो सकती ह; पर मेरी िज ासा यह ह िक आिखर या आ? होनेवाला कसे घिटत आ?’’
तब नकल ने पूरी कहानी बड़ सं ेप म सुनाई िक कसे कौरव ने ष ं रचा? कसे जुए क योजना बनाई और
कसे िवदुर चाचा को जुए का िनमं ण लेकर भेजा गया?
‘‘वह िनमं ण लेकर आए अव य थे, पर संकत से उ ह ने सावधान कर िदया था िक आप लोग क साथ छल
होगा। इस सारी योजना क पीछ शकिन का म त क ह। उसीक पासे रहगे और उसीक हाथ से फक जाएँगे।’’
‘‘िफर आप लोग ने इस िनमं ण को वीकार य िकया?’’ मने पूछा।
‘‘आप तो युिध र भैया को जानते ही ह।’’ नकल बोला, ‘‘एक तो जुआ उनक सबसे बड़ी दुबलता ह। हम लोग
ने िवदुर चाचा क संकत पर उ ह मना िकया था। तब उ ह ने बड़ प प से एक बात कही थी िक यह स ा का
सामा य िश ाचार ह िक यिद कोई जुए का िनमं ण देता ह तो उसे अव य वीकार िकया जाना चािहए।’’
‘‘िवदुरजी क इतना संकत देने पर भी वीकार िकया जाना चािहए! यह िविच मानिसकता थी धमराजजी क !’’
मने बीच म ही टोका।
‘‘यही तो हम सभी भाइय का कहना था।’’ नकल बोला, ‘‘तब उ ह ने ब त सोचते ए कहा िक म इसे अ वीकार
कर सकता ; पर दुय धन इसीको बहाना बनाकर यंचा चढ़ाएगा। तब ब क अजुन भैया भभक पड़ थे—‘उसक
यंचा चढ़ाने से यिद आप भागते रह तब तो शासन कर चुक!’ तब उ ह ने हम लोग को संबोिधत करते ए कहा
िक ‘आप लोग अ छी तरह समझ ल, म िकसी भी थित म यु नह चाहता—और वह भी भाई-भाई क बीच।’
िफर वे यासजी क भिव यवाणी से ब त आतंिकत थे।’’
नकल का कहना था—‘‘हम लोग ने उ ह ब त समझाया—‘भिव यवाणी से आतंिकत होने से तो जीना दूभर हो
जाएगा।’
‘‘ ‘वह तो अभी भी ह।’ धमराज बोले।
‘‘ ‘इतनी भय त मानिसकता म तो हम राजपाट सब गँवा दगे।’ अजुन भैया ने कहा।
‘‘धमराज बोले, ‘भले ही गँवा द, पर हमार भाई तो सुरि त रहगे।’ ’’ इतना बताते-बताते नकल आवेश म आ गया
और यं य म बोला, ‘‘चला गया न राजपाट! अब उनक भाई पूर सुरि त ह। और हम खूब आनंद ले रह ह वन-
वन घूमते ए।’’
‘‘आजकल आप लोग ने कहाँ पड़ाव डाला ह?’’ मने पूछा।
‘‘का यक वन म।’’ नकल बोला और चुप हो गया।
इसक बाद अभी ब त कछ जानना मेर िलए शेष था। िज ासा जोर मार रही थी।
‘‘आ य, िपतामह और िवदुरजी क रहते यह अनथ हो गया!’’
नकल ने कहा, ‘‘हम लोग ने भैया को ब त समझाया। यहाँ तक िक ौपदी ने कहा, ‘इस जुए म भी वही होगा, जो
िपछले जुए म आ ह। वही शकिन पासे फकगा और आप िफर हार जाएँगे।’
‘‘ ‘फकने दो उसे। मेरी हार ही होगी न!’ धमराज भैया बोले। व तुतः महिष यास क यह बात उनक मन क
गहराई तक प च गई थी िक एक भीषण महायु होगा, िजसक क म तुम होगे।’’
‘‘तुमने खुद सुना था? या सुनी-सुनाई कह रह हो? या यह बात कही थी यासजी ने?’’
‘‘जब धमराज भैया ने उनसे तेरह वष क संभािवत िवपि क बार म कछ जानने क इ छा य क थी, तब कही
थी। मने वयं अपने कान से सुना था।’’ नकल बोला।
म कछ समझ नह पा रहा था। रह-रहकर मेर मन म एक ही बात उठ रही थी, आिखर िपतामह क भी कोई भूिमका
थी! िवदुरजी को तो जो करना था, भरसक िकया; पर िपतामह ने या िकया? वे कौरव एवं पांडव प रवार क
अिभभावक थे। उ ह ने अपने धम का िनवाह य नह िकया?
‘‘इस समय तो वे अिधक दोषी नह मालूम होते।’’ नकल बोला।
‘‘यह कसे कह सकते हो?’’
‘‘उ ह इस ष ं का य ही पता चला, उ ह ने इसका िवरोध िकया।’’ नकल बोला, ‘‘उ ह ने वयं महाराज
धृतरा को समझाया िक ‘जानते हो, इसका प रणाम या होगा—एक भयंकर यु , िजसम सार क वंश का िवनाश
हो जाएगा। और क वंश ही य , सार आयाव क चूल िहल जाएँगी। ऐसा िव फोट होगा िक हम सब वाहा हो
जाएँगे।’ सुना ह, ताऊजी उस समय गंभीर हो गए थे; पर दुय धन का मोह वह छोड़ न सक। उसने उ ह धमकाया
था िक आपने या िकसीने भी मुझे रोका तो म आ मह या कर लूँगा। वे बाहरी आँख से तो अंधे थे ही, पु - ेम ने
उनक भीतरी आँख क भी योित छीन ली थी। सुना ह, दूसरी ही शाम वे िपतामह क पास पुनः प चे और उनसे
ाथना करने लगे िक आप इस बीच म न पड़ने क कपा कर।’’
नकल ने कहा, ‘‘िवदुर चाचा ने बताया था िक िपतामह एकदम भभक पड़। उस समय वे बड़ खे वर म बोले थे
—‘ य ? आज या आ? कल मने इतना समझाया था, आज सबकछ धुल गया। म य न बीच म प ?ँ म
क वंश का संर क । मेरा संपूण जीवन क वंश क क याण क ित वचनब ह। जब तक हो सकगा, म इस
अ याय का िवरोध क गा।’
‘‘ ‘तो या म पु िवहीन हो जाऊ?’ महाराज धृतरा ने कहा। तब िपतामह बड़ी ढ़ता से बोले, ‘यिद पु िवहीन
होना ही तु हार भा य म िलखा ह तो या तुम दुय धन क बात मान लेने पर पु िवहीन होने से बच जाओगे? जब
तुम ऐसे भी पु िवहीन होगे और वैसे भी, तब य नह धम का पालन करते?’
‘‘सुना ह िक ताऊजी ने इतने पर भी िपतामह को नह छोड़ा। उ ह ने िफर कहा, ‘आप मेरी ाथना पर पुनिवचार
कर।’
‘‘ ‘और पुनिवचार क बाद भी यिद मेरा यही िन कष रहा तो?’
‘‘ ‘तो...’ ताऊजी अब बोल नह पा रह थे। िपतामह क ब त जोर देने पर उ ह ने ब त धीर से कहा, ‘आपक
अवमानना होगी और लोग िकसी भी सीमा तक जा सकते ह।’
‘‘ ‘साफ कहते य नह ,’ िपतामह ने बड़ आवेश म कहा, ‘िक आपक ह या भी क जा सकती ह!’ ’’
‘‘इतने ढ़ िन य क बाद भी तो िपतामह िडग गए।’’ मेर मुख से िनकला।
‘‘िपतामह का मन फरने म हमार भैया क भी अ ुत भूिमका रही।’’ नकल बोला। िफर जो कछ उसने बताया,
उसे सुनकर मुझे भी दाँत तले अँगुली दबानी पड़ी।
‘‘जब भैया को यह मालूम आ िक िपतामह कछ करना चाहते ह तो वे वयं िपतामह क पास गए।’’
‘‘ वयं गए!’’ मुझे आ य था।
‘‘ वयं न भी कह, पर यह कह सकते ह िक वे गए।’’ नकल ने कहा, ‘‘हम लोग क सलाह ई िक जब िपतामह
क सहानुभूित हम लोग क ित ह तो भैया को भी उनक पास आभार दिशत करने या णाम करने जाना चािहए।
हम उनक भेजने क पीछ औपचा रकता भी थी और भिव य क ित नाकबंदी भी थी। तब भैया गए थे।’’
‘‘तब मामला उलट कसे गया?’’
‘‘यही तो हम लोग को भी आ य ह।’’ नकल ने बताया—‘‘माग म ऐसा या आ िक वहाँ जाने क बाद उनका
म त क बदल गया। उ ह ने आभार तो दिशत िकया, पर कहा, ‘आज यायि यता और धािमकता का युग नह ह।
आप यथ म अपने को बीच म डालकर अपना अपमान मत कराइए।’
‘‘ब क िपतामह ने ही वयं पूछा, ‘ य ? मेर रहते अ याय हो और म चुप र ! और यह बात तुम कहते हो!’
‘‘ ‘ या क ? जब उन लोग का सारा यास इ थ को ह तगत करने क िलए ही ह, तो करने दीिजए।’
‘‘तब िपतामह ने पूछा, ‘तो या तुम अपना रा य छोड़ सकते हो?’
‘‘ ‘छोड़ सकता ; पर यु नह क गा। भाइय क र पात का दािय व नह लूँगा।’
‘‘ ‘ध य हो, युिध र!’ िपतामह माथा ठ कते ए बोले, ‘तुम इतने भया ांत य हो?’
‘‘ ‘म यु से भया ांत नह । म भय त महिष यास क भिव यवाणी से।’ भैया ने कहा, ‘महिष ने ह-
न क गणना कर बताया िक एक महायु होगा, िजसम आयाव का महािवनाश संभािवत ह; िजसक क म
तुम होगे।...तो म िकसी यु क क म नह होना चाहता, चाह मुझे राजपाट ही य न छोड़ देना पड़!’ ’’
‘‘जब यह बात तुम लोग को मालूम ई तो तुम लोग ने धमराज का जमकर िवरोध य नह िकया?’’ मने पूछा।
‘‘उस समय यह सब कहाँ बताया उ ह ने!’’ नकल बोला, ‘‘िपतामह क यहाँ से लौटने क बाद वे िब कल सामा य
िदखे। हम लोग तो अंत तक म म थे िक यिद कोई िवशेष बात होगी तो िपतामह ह त ेप करगे ही।’’
‘‘तब तु ह ये सारी बात कब मालूम ?’’ मने पूछा।
‘‘ये सारी बात तो का यक वन आकर उ ह ने िव तार से बता , जब ौपदी िपतामह को उलटा-सीधा कहने लगी।’’
नकल बोला, ‘‘उसका सबसे अिधक ोध तो िपतामह पर ही था। तब भैया ने अपना पुराना तक देते ए हम
समझाया—‘इसम िपतामह को दोष देना ठीक नह ह। यह सब तो ह-न का फर ह।’ ’’
‘तब िपतामह का या दोष?’ मेरा मन बोल उठा। अब िच लगभग प होने लगा था। मेरा सारा आ ोश
आकर शकिन पर कि त हो गया था।
मने कहा, ‘‘इस ष ं क क म उसी दु का म त क ह! तुम लोग ने उसका िवरोध य नह िकया? कम-से-
कम उसक पासा फकने का तो िवरोध करना ही चािहए था।’’
‘‘आप या समझते ह िक िकया नह गया था!’’ नकल ने कहा, ‘‘भैया ारा लाख दबाए जाने क बाद भी हम
लोग ने उसका िवरोध िकया था। तब जानते ह, दुय धन ने या कहा?’’ नकल बोलता रहा—‘‘तब दुय धन ने
कहा, ‘मने पासा फकने क िलए मामाजी को अिधकत िकया ह। आप भी चाह तो िकसी और को अिधकत कर
सकते ह।’
‘‘ ‘पर यह खेल तो तु हार और हमार भैया क बीच हो रहा ह।’ इस बार भीम भैया बोले थे।
‘‘ ‘खेल तो हम दो खेल ही रह ह। बाजी तो हम दो लगाएँग।े ’ दुय धन ने अ हास करते ए कहा, ‘और हार-
जीत भी हम दोन क बीच होगी।’
‘‘िफर तो सारी सभा दुय धन का समथन करने लगी।’’ नकल बोला।
‘‘इस सारी सभा से तु हारा या ता पय ह?’’ मने पूछा।
‘‘ ूत ड़ा म दुय धन ने आसपास क अपने सार िम राजा को बुला िलया था। थित यह थी िक हम कछ भी
कहते तो सब िमलकर हमारा िवरोध करते और तलवार िनकल आत । हम इसक कोई परवाह नह थी; पर जब हम
लोग ोध म उठते थे, भैया हाथ पकड़कर बैठा लेते थे।’’ कहते-कहते नकल आवेश म यहाँ तक बोल गया
—‘‘जब राजा यु भी होता ह तब जा क जो दशा होती ह, वही आज हम लोग क ह।’’
हमारी बात मोद वन म चल रही थ । मने नकल को समझाया—‘‘तुम बड़ भैया को यु भी तो नह कह
सकते। हाँ, तुम धमभी कह सकते हो, भिव या ांत कह सकते हो। जहाँ उनक इस काय क आलोचना होगी, वहाँ
इितहास उ ह स यवादी ह र ं क तरह याद करगा। एक ने स य क र ा क िलए रा य दे िदया, दूसर ने धम
और शांित क िलए भाई क दु ता को िसंहासन समिपत कर िदया। युिध र क स ा-िनिल ता क संदभ म लोग
को राम ही याद आएँगे।’’
नकल तो चुप हो गया, पर उसका मन मेरी बात मानने को तैयार नह था। वह भीतर-ही-भीतर मिण छीने गए उस
नाग क तरह छटपटा रहा था, जो छीनने वाले का ाण ले सकता था, पर ले नह पाया। िजसक साम य क हाथ
उसक भाई क नैितकता ने ही बाँध िदए थे।
म उसक मनः थित समझ रहा था। मने उसे समझाते ए कहा, ‘‘अब तो जो होना था, हो चुका। उसपर छटपटाने
से अ छा ह िक हम आगे क भी सोच।’’
‘‘इसक िलए का यक वन म हम लोग ने अपने कछ िहतैिषय को आमंि त िकया ह।’’ नकल ने इसी म म
बताया—‘‘हम लोग ने भोज, वृ ण, अंधक आिद वंश क यादव राजा को तथा पांचाल क धृ ु न, चेिद देश
क धृ कतु और ककय देश क सगे-संबंिधय को संवाद भेजे ह।’’
‘‘तुम लोग ने इतने दूर तक संदेश भेज िदए!’’ मने आशंका य क —‘‘कह ऐसा न हो िक कौरव यह सोच िक
तुम लोग यु क तैयारी करने लगे; य िक इस थित म यु लाभ द नह होगा।’’
‘‘कौरव इतने मूख नह ह। वे खूब जानते ह िक भैया अपने िदए गए वचन से एक पग भी पीछ नह हट सकते।’’
नकल बोला।
संभव ह, वह मेरी नासमझी पर मुसकराया भी हो। पर म सोच रहा था िक पांडव को ऐसी थित म एक थान
पर ब त िदन तक नह रहना चािहए। कौरव क नीचता कछ भी कर सकती ह। मने इससे उसे सावधान भी
िकया।
िफर अचानक मुझे कती बुआ क याद आई। मने पूछा, ‘‘िफर बुआ तुम लोग क ही साथ ह गी?’’
‘‘नह , िवदुर चाचाजी ने उ ह रोक िलया।’’ नकल ने बताया—‘‘यिद उन दु क चलती तो हमार साथ उ ह भी
भेज देत।े वयं माँ भी कना नह चाहती थ । उनका कहना था िक ‘म भी अपने बेट क साथ र गी। उनक दुःख-
सुख म हाथ बँटाऊगी।’ पर चाचाजी ने कहा िक ‘अब आपक अव था उनक साथ वन-वन भटकने क नह रही।
कवल आपका आशीवाद ही उनक साथ जाएगा।’
‘‘तब माँ ने कहा, ‘ब त होगा, माग म ाणांत हो जाएगा। उनक िबना यहाँ भी जीकर या क गी!’
‘‘ ‘अभी भी आपका जीवन पांडव क िलए अमू य ह।’ चाचाजी ने समझाया—‘आपक पु को आपक अभी
बड़ी आव यकता पड़गी। अर, बारह-तेरह वष का समय भी जब बीतने लगेगा तब देखते-देखते बीत जाएगा। िदन
जाते देर थोड़ ही लगती ह।’ ’’
‘‘ठीक कहा िवदुरजी ने।’’ मने कहा, ‘‘काल का नैरतय ही उसका भोजन ह। वह वयं को िनगलता आ भी
िवशाल िदखाई देता ह।’’ यह बात मने नकल को ढाढ़स देने क िलए कही थी और िफर बोलता गया—‘‘मने सोचा
िक कह बुआ भी साथ न ह । यिद वह ह तो म उ ह ारका म ही रोक लूँ।’’
बात क म म समय का यान न रहा। आधी रात से अिधक िखसक चुक थी। अ धती प म क ओर
ढलक चुक थी। अब हम लौट पड़। राजभवन क ओर बढ़ते ए मने नकल से भी चलने का ताव िकया।
उसने कहा, ‘‘ या क गा राजभवन म जाकर? अब तो भोजन का भी समय िनकल गया। यह थोड़ा िव ाम कर
ातः ही चला जाऊगा।’’
मने उससे पुनः आ ह िकया। िफर उसक मनः थित कछ िविच हो चली थी। वह प रिचत लोग से िब कल
िमलना नह चाहता था। उसम एक िविच कार का पराजयबोध था। बुरी तरह हारा आ अनुभव करने क बाद भी
उसका मन कहता था िक हम लोग हार ए नह ह, हरा िदए गए ह। अब यह मुँह लेकर हम और से या िमल!
उसने कहा भी—‘‘मेरी अब िकसीसे िमलने क इ छा नह ह। सभी एक तरह क बात करगे। एक ही न और
एक ही उ र। म अपनी मूखता क यथा-कथा बार-बार दुहराना नह चाहता।’’ इसक बाद उसक अधर क बीच
एक िवशेष कार क खीज भरी मुसकराहट उभर आई। िफर मने उससे राजभवन म चलने का आ ह नह िकया।
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‘‘लगता ह, नकल टट चुका ह।’’ लौटते ए छदक बोला।
‘‘जब इसक यह हालत ह तब अजुन क या थित होगी और या दशा होगी भीम क ! ौपदी क हालत तो और
खराब होगी। वह जीवन भर भभकती रही ह। आग म पानी छोड़ने पर जैसे आग और भभकती ह वैसे ही चोट खाई
नािगन होकर अपने पितय को ही फफकारती होगी।’’ मने कहा।
जब हम लोग राजभवन म प चे तब ा मु त घड़ी-दो घड़ी ही हमसे दूर रह गया था।
मने छदक से कहा, ‘‘इस समय तुम िव ाम न लेते तो अ छा होता।’’
‘‘ य ?’’
‘‘हम नकल क भोजन क यव था कर देनी चािहए।’’ मने कहा, ‘‘उसे बाँधकर इतना दे दो िक माग म िफर उसे
भोजन क परशानी न हो।’’
छदक उसी समय भोजनालय क ओर चला गया।
थकावट का आ तरण ओढ़कर म पयक पर पड़ गया था। िफर भी न द मुझसे दूर ही रही। बीच-बीच म आती
झपिकय म भी म पांडव क प र थित पर ही िवचार करता रहा।
उस रात मणी मेर ही क क दूसर पयक पर लेटी ई थी। मेर न रहने पर वह आई थी। शायद उसे अपने पु
क िववाह क संबंध म मुझसे कछ िवशेष मं णा करनी थी। पर म जब नह था तब वह यह ढलक गई थी और
मेरी ती ा करती सो गई थी। पर मेर आने पर मेरी आहट से उसक न द अव य खुली होगी; य िक जब म ातः
उठा, उसने तुरत टोका—‘‘आज या बात ह? ब त परशान लगते ह! रात म भी बड़ी देर से लौट।’’
‘‘कछ बात ही ऐसी ह।’’ मने कहा। िफर मेर िचंतन ने ही वाणी ली—‘‘यह तो म सोचता था िक महिष यास क
भिव यवाणी कभी झूठी नह होगी; पर यह िव ास नह था िक उसका स य इतना शी िदखाई पड़ जाएगा।
सबकछ अ यािशत, िनतांत अ यािशत; जैसे अचानक भूकप आ जाए, अचानक रत का महल धराशायी हो
जाए।’’
िफर तो वह थित जानने क िलए य हो उठी। मने उसे सं ेप म सब बता िदया; पर उसे सावधान भी िकया
—‘‘देखो, इसका ब त चार मत करना। य बात तो िछपेगी नह , धीर-धीर सभी जान जाएँगे; िकतु हम यान
रखना चािहए िक इस घटना का हमारी जा और शासन पर अिधक भाव न पड़।’’
मणी भी काफ िचंितत िदखी। उसने इस थित को कभी सोचा भी नह । उसने कहा भी—‘‘लगता ह, राजसूय
य एक सपना था, जो न द खुलने क पहले टट गया।’’
‘‘अब भी युिध र क न द खुले तब तो।’’ मेर मुख से िनकला।
पर मणी का िचंतन िकसी दूसरी ओर मुड़ गया था। उसने कहा, ‘‘इस घटना का भाव हमार शासन और जा
पर तो नह पड़ना चािहए।’’
‘‘ य नह पड़गा?’’ मने कहा, ‘‘पांडव क जय और पराजय से हम ब त दूर तक जुड़ ह। और राजा क पराजय
ही नह , पराजय का आभास भी जा म अराजक थित पैदा कर देता ह।’’
िफर म अंतःपुर से िनकला और सीधे िपताजी क पास गया। वे अभी-अभी पूजन से उठ थे। मुझे अचानक आया
देखकर सकपका-से गए; य िक यह समय मेरा उनसे िमलने का नह था। मने उ ह सारी घटना सं ेप म सुनाई। वे
पहले भी मौन रह, सुनते ए भी मौन रह और सुनने क बाद भी। जीवन क िविभ प र थितय को उ ह ने इतना
झेला था िक अब वे जीवन को सा ीभाव से देखते थे और हर घटना को भगवा क इ छा का प रणाम मानते थे।
पता नह य , माताजी और नानाजी से इस घटना क बार म कछ कहने का साहस म पहले जुटा नह पाया। िफर
धीर-धीर साहस बटोरकर म उनक पास प चा। मौका देखकर मने कहा। वे सारी बात सुनते तो रह; पर इसम संदेह
ह िक उ ह ने सबकछ सुना या नह । य िक अ यंत वृ होने क कारण उनक सुनने क मता ब त कम हो गई
थी।
सबकछ सुनने क बाद भी वे चुप ही रह—एकदम िनिल । उनक खुली आँख आकाश क ओर लगी थ ।
तट थ ा क तरह वे सबकछ सुनते रह।
िफर म भैया क यहाँ प चा। भाभी ही िमल । पता चला, भैया अभी सो रह ह। मने भाभी से कहा, ‘‘लगता ह, रात
म उ ह ने अिधक मैरय चढ़ा िलया ह। आप उ ह मना नह करत ?’’
‘‘म अपनी सौत से डाह नह करती।’’ उ ह ने कहा और हस पड़ ।
पर हसने क थित होते ए भी म हस नह पाया। वे बड़ी चतुर मिहला थ । उ ह मेरी मनः थित का अनुमान
लग गया। बोल , ‘‘आज तुम भीतर से काफ य िदखाई पड़ रह हो। िकसी गंभीर प र थित पर िवचाराथ ही
अपने भैया क पास आए हो!’’
मने िसर िहलाकर वीकार िकया।
‘‘लगता ह, मुझसे कहने लायक बात नह ह।’’ उ ह ने कहा।
‘‘आपसे िछपाने यो य मेर पास कछ नह ह।’’ मने मुसकराते ए कहा।
पर वे भी दाँव देने म पीछ रहनेवाली नह थ । तुरत बोल पड़ —‘‘पर िछपाते तो ब त कछ हो—कछ शील क नाते
और कछ संकोच क नाते।’’
‘‘िफर भी आपक िवल ण सब देख लेती ह।’’ मने कहा।
‘‘वह नारी या, िजसक पारदशक न हो!’’ वह पुनः िखलिखला ।
उनक िखलिखलाहट म अपनी िखलिखलाहट िमलाने का अवसर होने पर भी म हस नह पाया। उ ह ने तुरत मेरी
यथा का अनुमान लगा िलया और भैया को जगाने शयनक क ओर बढ़ ।
मुझे आया सुनकर भैया ने मुझे अपने क म बुला िलया। उनका अलसाया शरीर अभी भी श या पर ढलका था।
मुझे देखते ही वे बोल पड़—‘‘आज तु हार आँख क अ िणमा से प ह िक तुम रात को सोए नह हो।’’
‘‘आज मुझे न द नह आई।’’ और िफर मने नकल क आने से शु करक वे सारी बात बता द , जो पांडव पर
बीती थ ।
बड़ी यथा क साथ सुनते ए हर बार क तरह उलाहने क साथ ही उ ह ने अपनी िति या य क —‘‘यह
सब तु हारा पाप ह, तु ह भोगो।’’
मने कहा, ‘‘म कहाँ भोग रहा , भोगनेवाले तो बेचार दूसर ह।’’
‘‘यह सारी खुराफात तो उस मामा क ह।’’ अब वे अपनी कित क अनुसार िफर आवेश म आ गए थे—‘‘मने तो
उसक खा मे का कई बार मन बनाया था; हर बार तुमने मुझे रोका। अब थित यहाँ तक आ गई िक राजसूय य
करनेवाले बेचार दर-दर ठोकर खाने क िलए िववश ह।’’
हर बार क तरह इस बार भी म उ ह चुपचाप सुनता रहा। इतना होने पर भी वे दुय धन को दोषी मानने को तैयार
नह थे। गु -िश य क गाढ़ आ मीयता उनक आँख पर परदा डाले रही और वे शकिन तथा कण को ही दोषी
ठहराते रह। साथ ही वे ौपदी को भी कम नह समझते थे। उनका तो कहना था िक जब से उस कलि णी क पैर
पड़ ह तब से पांडव पर िवपि पर िवपि आ रही ह।
‘‘पर वारणावत क िवपदा तो पांडव पर उस कलि णी क छाया पड़ने क पहले आ गई थी।’’ मने कहा और
िफर वे कछ नह बोले।
बाद म काफ सोच-िवचार क बाद कछ श द और संकत का सहारा लेते ए उ ह ने जो कछ सुनाया, उसका
सारांश यही था िक अब पांडव और कौरव क झगड़ म हम नह पड़ना चािहए। दोन लड़, चाह मर—हम य
परशान ह ? य उसे ित ा का न बनाएँ?
‘‘आप ित ा का न बनाइए या न बनाइए, पर या आयाव हम कभी पांडव से अलग समझ सकता ह?’’
मने कहा, ‘‘मानव होने क नाते हमार या कत य ह? या हम अनथ होने द और एक िन य ा क तरह उसे
देखते रह?’’
‘‘धम का ठका तो तुमने ही िलया ह और तु ह उसे देखो।’’ वे हमेशा क तरह झुँझला गए।
अब म चुप हो गया और वे भी।
मौन का यह अंतराल काफ लंबा हो गया; य िक वे िब तर से उठकर िकसी ाकितक िववशतावश भीतर चले
गए। म एकाक शांत बैठा रहा।
थोड़ी देर बाद भैया आए और िफर जलपान क साथ रवती भाभी भी। अब मने भैया का मन बदलने क िलए
ु न और मायावती का संग छड़ा।
भैया बड़ स ए—‘‘रित को काम और काम को रित िमले, इससे बड़ी स ता क बात और या हो
सकती ह!’’
अवसर देखकर मने कहा, ‘‘उनक िववाह और राजधानी म लाने आिद क यव था यिद आप देख लेते तो बड़ी
कपा होती।’’
‘‘ य ? तुम कहाँ जा रह हो?’’
‘‘सोचता , का यक वन होता आऊ।’’ मने कहा, ‘‘नकल बुलाने ही आया था। पांडव ने अ य यादव नरश और
अपने शुभिचंतक को बुलाया ह। ऐसी थित म यिद ारका से कोई नह जाएगा तो यह न हमार िलए उिचत होगा
और न पांडव क िलए ही। हर य अपने ढग से हमारी अनुप थित क या या करने लगेगा। ऐसी थित म
हम और पांडव को लेकर अनेक ामक अफवाह भी पैदा हो सकती ह।’’
भैया कछ बोले नह । मने इसे उनक मौन वीकित मान ली।
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चार
नकल क बताए माग पर हम बढ़ते रह। साथ म छदक भी था। अभीषु तो दा क क हाथ म था ही। का यक वन
क भौगोिलक थित का मुझे सही ान नह था। क े से योजन-दो योजन दूर प म क ओर सर वती नदी
पर मुझे बताया गया था; पर िजस माग से मने या ा आरभ क थी वह मेर िलए एकदम नया, अनजाना और
अनची हा था। घने अर य क बीच से जाता था। कह -कह त से आिलंिगत लताएँ इतनी घनी हो गई थ िक
मेर रथ का िनकलना किठन हो जाता था। तब दा क उ ह क हाड़ी से काटता था। िफर भी अ क पैर तो ब धा
फसते ही थे। उ ह बड़ा सँभलकर चलना पड़ता था। इसिलए उनक गित काफ मंद पड़ गई थी।
एक थान पर तो झुँझलाकर छदक ने कहा भी—‘‘जब गंत य सर वती क तट पर ही ह, तब हम सर वती क
िकनार-िकनार ही चलना चािहए था। ारका से उ र चलकर हम सीधे सर वती को पा जाते और िफर उसका सीधा
रा ता पकड़ लेत।े िकनार-िकनार ाम भी िमलते, या ा सुखद हो जाती।’’
‘‘म या करता!’’ मने कहा, ‘‘मुझसे नकल ने कहा था िक शी प चने क िलए आपको जंगल का रा ता
अपनाना होगा।’’
छदक ने तुरत िट पणी क —‘‘जो अपने जीवन का ही रा ता भूल गया हो, वह दूसर को सही रा ता या बता
सकता ह!’’
मुझे यह िट पणी अ छी नह लगी। मने कहा, ‘‘इस समय तुम चाह जो कह लो, पर पांडव क धमिन ता एवं
परा म का ठीक आभास तु ह नह ह। इस समय आयाव म उनक समता करनेवाला कोई दूसरा नह ह। इस
समय वे िवपि म फसे ह, कोई भी कछ कह सकता ह।’’
इसक बाद छदक कछ नह बोला। पूरी या ा भर पांडव क संदभ म उसक जबान बंद रही।
माग संि अव य था, पर समय काफ लग गया। य तो किहए िक हमने ऋ वा और दशाण क पहािड़य
क म य का माग पकड़ा, अ यथा और समय लगता। लोग ने हम बताया िक उप ल य क उ र का म थल जहाँ
समा आ, आप का यक वन म प च जाएँगे। उ ह लोग से हम यह भी ात आ िक हम इस समय सर वती
क िकनार नह वर उसक एक शाखा पु कर क िकनार ह।
बात भी सही िनकली। कई िदन क बाद क, आज क भात म एक िवशेष कार क लािलमा थी—माग क
सफलता क लािलमा। जब हम लोग ककर पु कर म ान- यान कर रह थे तभी हम उस पार कछ लोग और
ान करते िदखाई पड़। म तो उ ह न पहचान सका, पर वे हम पहचान गए। वे इ थ क ही लोग थे, िजनका
मम व पांडव क साथ उ ह यहाँ तक ले आया था। उ ह लोग ने बताया िक आप यहाँ से थोड़ा पूव क ओर
चिलए। धारा ब त उथली ह। रथ पानी म होकर चला जाएगा। पर आप लोग उसपर बैठकर न जाएँ तो उ म हो;
य िक भूिम दलदली ह और रथ क धँसने का डर ह।
हम लोग ने ऐसा ही िकया। दा क रथ का ईषादंड (जुए क लकड़ी) पकड़ आगे-आगे चला और रथ क पीछ-
पीछ म एवं छदक।
इस तट पर आते ही मने उनक ित आभार य करते ए कहा, ‘‘इस समय हम आप लोग क कपा से पार
उतर सक।’’
इतना सुनते ही वे एकदम मेर चरण पर िगर गए। पांडव क बार म पूछने पर वे कछ बोल न सक। िकसी तरह
इतना ही उनक गले से िनकला—‘‘हम तो पांडव क जा ह।’’ इसक बाद कठ अव और आँख सजल हो
ग।
‘‘अब न धमराज राजा रह और न आप उनक जा।’’ मने कहा।
‘‘ऐसा कसे हो सकता ह!’’ जैसे जो कछ आ, वह अब भी उनक िलए अिव त हो। उनक आँसू टपकाती
आँख धरती देखने लग ; मानो उ ह ने वयं कोई बड़ा अपराध िकया हो और पु कर क तट पर उसका प ा ाप
कर रह ह —अथवा उनका कोई विणम व न टटकर उसी रत म िबखर गया हो और उनका दुःखी मन उसे
बटोरने क चे ा कर रहा हो।
कित थ होते ही वे लोग हम उस थल पर ले चले, जहाँ पांडव ठहर थे। हम भी उनक साथ पैदल ही चले।
य िप उ ह ने कई बार हमसे रथ म बैठ जाने का आ ह िकया। अंत म यह भी कहा, ‘‘अभी दूर चलना ह।’’
‘‘जब आप लोग चल सकते ह तब हम भी चल सकते ह।’’ म बोला।
मने अनेक बार अनुभव िकया ह िक जो आपको ब त बड़ा समझता हो, आप वयं को उसक समान िदखाइए
तो उसक सहज आ मीयता आपक िलए और सहज हो जाती ह। इस समय भी ऐसी ही थित ई। उनक
आ मीयता ने मेर िलए पलक िबछा द ।
उ ह लोग से बातचीत म मालूम आ िक कई देश क राजा महाराज से िमलने आ चुक ह। शायद आप उनम
अंितम ह ।
‘‘अंितम कसे कह सकते हो?’’ उ ह म से एक ने ितवाद िकया—‘‘अभी तो ककय क महाराज बृह आने
वाले ह।’’
इससे प लगा िक युिध र क मन म कोई योजना ह; पर प चने पर पता चला िक इस बुलावे क पीछ कोई
योजना नह ह। कवल ौपदी का आ ह था, जो दुरा ह क सीमा तक प च गया।
ौपदी चाहती थी िक हमार साथ जो अ याय आ ह, उसे हमार िम भी जान। चुपचाप वन चले जाने का ता पय
होगा, अ याय व अधम को िसर झुकाकर और मौन होकर वीकार कर लेना। पर हमार युिध र महाराज इसक
िव थे। उनका सोचना था िक अब िकसीसे कछ कहने-सुनने से या लाभ! यथ म घर क बात फटगी।
‘‘अब घर घर कसा?’’ ौपदी का ोध भभका—‘‘जब घर का आँगन यु े हो जाए तब भी या घर घर रह
जाता ह? अब जब आग लगाई गई ह तब घर तो भ म होगा ही—और जाने िकतने लोग भ म ह गे! उ ह अपने
भ म होने क पूव तो सही जानकारी होनी चािहए।’’
पता चला िक युिध र को छोड़ शेष पितय का ौपदी को समथन िमला। प रणामतः उ ह अपने िहतैिषय को
बुलाने क िलए िववश होना पड़ा। शायद इसीिलए उ ह ने का यक वन म अपना लंबा पड़ाव डाला।
व तु थित बड़ी िविच थी। युिध र और ौपदी क वभाव म धरती-आकाश का अंतर था। एक अधम व
अ याय को भी िनयित क इ छा और भु क कपा मानकर िसर झुकाकर मान लेने को तैयार तो दूसरी उसका
खुला िवरोध करने क िलए सदैव त पर। एक हर ताप सहने क मता रखनेवाला िहमालय तो दूसरी जरा से भी
अ याय क सम कराला काली। पर दोन पित-प नी हर काय म साथ-साथ रहने क िलए िववश। यही िववशता
ौपदी से वह सब वीकार कराती थी, जो उसक कित क िव था; िकतु उसक अ य पित उसक साथ थे। पर
बड़ भाई क आ ाका रता उनक भी हाथ-पैर बाँध देती थी।
जब हम प चे, िदन चढ़ आया था। हमने दूर से देखा, युिध र एक सभा को संबोिधत कर रह थे। इतने लोग
इस वन म। ये यहाँ क आिदवासी तो हो नह सकते। अव य ही ये पांडव क जा ह, जो यहाँ तक चले आए ह।
जा का ऐसा ेह शायद ही कभी िकसी राजा को िमला हो। और इतने ेह क बावजूद िकसी राजा ने अपने रा य
को दाँव पर लगाकर गँवाया हो।
कछ और िनकट प चने पर धमराज क आवाज साफ सुनाई पड़ने लगी थी। हम लोग एक वट क आड़ म
खड़ होकर उ ह सुनने लगे; य िक यह सा ा धम क आवाज थी और अपनी उप थित से हम उसम बाधा
डालना नह चाहते थे।
धमराज अपने साथ आई जा को समझा रह थे—‘‘यह ठीक ह िक आप लोग को दुःख आ ह। आपक पीड़ा म
समझता ; पर या क ! यही िनयित क इ छा थी। आप ही समिझए, वह ूत ड़ा थी। जुए का खेल था। यिद
हम अपने भाइय का ही जुए का िनमं ण न वीकार करते तो यह उिचत न होता; जबिक परपरानुसार एक राजा को
दूसर राजा ारा भेजा जुए क खेल का िनमं ण अ वीकार नह करना चािहए। इससे मनमुटाव बढ़ता ह। आपसी
ेम म खलल पड़ती ह। िफर म अपने भाइय ारा भेजा िनमं ण वीकार न क , यह कसे हो सकता ह!
‘‘और जब दो य जुआ खेलते ह तो िकसीक हार और िकसीक जीत होती ही ह। अब हम हार गए और हमारा
राजपाट चला गया तो िकसीका या दोष? आज हमारी यह थित हो गई। यिद कौरव हार जाते तो उनक भी यही
थित होती।’’
‘‘उनक यह थित नह होती।’’ जा बीच म ही िच ाई—‘‘यह दो य य क बीच जुए का खेल नह था वर
एक अ यायी और दूसर यायि य क बीच सुिनयोिजत ष ं था। शकिन क बेईमानी जग-जािहर ह। पूरा संसार
उन पास क मन क बात जानता था।’’ इतना कहते-कहते एक य उस भीड़ क बीच से खड़ा हो गया था। वह
आवेश म काँपता आ जोर-जोर से बोल रहा था।
‘अर, इसे तो म जानता !’ मेर मन ने कहा। पर पूरा याद आ नह रहा ह। मने छदक से पूछा, ‘‘तुम इसे पहचानते
हो? यह तो जाना-बूझा-सा लगता ह।’’
‘‘अव य इसे कह देखा गया ह।’’ छदक बोला, ‘‘यह कह ह तनापुर से हटाया गया उसका पुराना नगर मुख तो
नह , जो पांडव क साथ इ थ आ गया था और बाद म वहाँ का नगर मुख बनाया गया?’’
‘‘हाँ-हाँ, अब मुझे भी याद आया। यह वही ह।’’ मने कहा।
‘‘मेरा बस एक न आपसे ह।’’ वह य बोलता रहा—‘‘शकिन तो पूर आयाव म छल क िलए क यात ह।
जब आप इस वा तिवकता को जानते थे तब आपने जुए का िनमं ण वीकार य िकया?’’
‘‘वह आमं ण उसक ओर से नह था, वह तो ह तनापुर क ओर से था।’’ युिध र ने कहा।
‘‘तब आपने उसे पासा फकने य िदया?’’ उस य ने िपटा-िपटाया सवाल नए तेवर क साथ दुहराया—‘‘यिद
कौरव इसक िलए दबाव दे रह थे तो आप उठकर चले य नह आए? एक बार हारकर आप पुनः खेलने क िलए
राजी हो गए! पुनः उसी पापी, दु और बेईमान क चंगुल म फस गए! या रा य को दाँव पर लगाते समय आपको
इसका ान नह रहा िक आप जा को भी दाँव पर लगा रह ह? हमार जीवन क साथ इस कार का िखलवाड़
करने का आपको या अिधकार था?’’
अब मेर िलए वट वृ क आड़ म खड़ा रहना असंभव हो गया। मने सोचा िक यह य युिध र को िन र
कर देगा। उ र देने म उनक य ता प िदखाई दे रही थी। म तुरत वट वृ से िनकलकर सभा क ओर लपका।
मुझे अचानक उप थत देखकर पूरी सभा सकते म आ गई। वट क तने क पीछ से अ यािशत िनकलते देखकर
लगा जैसे खंभ फाड़कर नृिसंह अवतार आ हो। एक िव मय भरा स ाटा लोग क आकितय पर उभर आया।
पहले तो वे सकपकाए, िफर सबक सब मेर वागत म खड़ हो गए।
मने उ ह बैठाते ए कहा, ‘‘राजा जा क सम इस सीमा तक उ रदायी नह होता िजस सीमा तक आप उसक
बार म सोच रह ह।’’
सबक चु पी और गहरी हो गई तथा िनगाह मुझपर गड़ । इसक बाद मने आगे बढ़कर युिध र क चरण छए।
उ ह ने मुझे व से लगा िलया। उनक ने िपघलने लगे। उ ह ने कछ कहा नह । अ ुकण ने अव य अपना
प रचय िदया िक हम प ा ाप क आँसू ह। अब मेरी ौपदी क ओर गई। वह एकदम गंभीर थी, भीतर से
उबलती ई।
इसक बाद ही मने इ थ से आई जा से बात आरभ क —‘‘ब त कम धरती पर ऐसे राजा ए ह गे, िज ह जा
का ऐसा समपण और मम व ा आ हो। म तो आपक आँख से टपकती पीड़ा को देख रहा । िकतना क ह
आपको धमराज से िबछड़ने का! पर अब या िकया जाए? जो होना था, वह हो चुका ह। यह भी मत समिझए िक
इसम िकसीका दोष था। यह सब तो िनयित का खेल ह। जैसी भिवत यता होती ह, हमारी बुि वैसी ही हो जाती ह।
कता हम िदखाई देते ह, पर वा तिवक कता कोई और होता ह। िजसे हम दोषी समझते ह, व तुतः वह दोषी नह
होता।
‘‘जुआ तो एक मा यम था। खेल तो िनयित का था। वह िकसीक भी साथ ऐसा खेल खेल सकती ह। आज महाराज
युिध र क साथ उसने ऐसा िकया; कभी राजा नल क साथ उसने ऐसा िकया था। इसी जुए क मा यम से दोन
राजा रक ए ह। आपक भा य म भी ऐसा हो सकता ह। आपको भी कोई शकिन छल सकता ह।’’
‘‘हम भा य क बात तो नह जानते, पर हमम से कोई शकिन नह हो सकता।’’ उसी पूव नगर मुख ने मेर भाषण
म ह त ेप िकया।
‘‘इसे आप कसे जानते ह िक आपक बीच कोई शकिन नह ह?’’ मने हसते ए कहा, ‘‘शकिन क कोई ‘स ग-
पूँछ’ तो ह नह !’’
‘‘वह िबना ‘स ग-पूँछ’ का पशु ह।’’ यह आवाज भीड़ क थी।
‘‘यिद पशु होता तो जुआ न खेलता।’’ मने बड़ी गंभीर विन म कहा, ‘‘ य िक पशु जुआ नह खेलते। जुआ तो
बस मनु य खेलता ह। और यिद म यह क तो शायद अिधक गलत नह होगा िक िजसक मनु यता िजतनी ऊची
होती ह वह उतना ही हारता ह। िफर भी खेलता ह। िविच ह यह मनु य भी।’’
मेर इस यं य ने युिध र पर हजार घड़ पानी डाल िदए।
सभा को भी जैसे पाला मार गया। कोई कछ बोल नह पाया। सब एक-दूसर का मुँह देखते रह गए।
मने िफर स ाट को तोड़ा—‘‘महाराज को आप सबका कत होना चािहए। आपने उ ह िपतृव ेम िदया, समपण
और सहयोग िदया। िफर भी आप उनक भा य का िलखा िमटा तो सकते नह थे। िफर आपका यह भी सौभा य था
िक आपको ऐसा धमा मा राजा िमला था, िजसका जोड़ आज धरती पर नह ; जो हर तरह क िवपि वीकार करते
ए धम से जरा भी िवचिलत नह आ। ऐसे राजा इितहास म ह र ं , रितदेव, िशिव आिद क तरह अमर होते ह।
अब मेरी बात मािनए और तेरह वष क िलए इ ह छोड़ दीिजए। भु से ाथना क िजए िक ये इस बीच तप या क
अ न म तपकर खर सोने क तरह िनकल और िफर वन से लौटकर ीराम क तरह आप पर शासन कर।’’
‘‘तेरह वष तो एक युग होता ह।’’ िफर भीड़ से आवाज आई।
‘‘हाँ, होता तो ह; पर बीतते देर नह लगती।’’ मने कहा। िफर िककत य क थित और एक गंभीर स ाटा।
इ थवासी पांडव को छोड़ना नह चाहते थे। पर वे या करते! िववश थे। वे अपने लौटने का काय म बनाने
पर मजबूर ए।
आँसु से भीगी वह सं या सचमुच िससकती रही, जब उ ह ने हम छोड़ा।
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का यक वन शायद आर यक े का अंितम वन ह। इसक बाद म भूिम का आरभ ह। सर वती भी आगे
चलकर लु हो जाती ह। इसीिलए यहाँ क जलवायु म िदन म उ णता अिधक होती ह और राि म शीत। सं या
और सवेरा बड़ा लुभावना होता ह। पर आज क सं या इतनी उदास और िख थी िक िकसीने िकसीसे बात तक
नह क । य पांचाल से आए धृ ु न, ककय से पधार बृह तथा चेिद से आया धृ कतु—सभी मुझसे िमले
और अिभवादन एवं कशल ेम क बाद अपने-अपने िशिवर म चले गए; जैसे िकसीक पास कोई नई बात ही न हो।
धीर-धीर राि का याम आ तरण िबछ गया। लोग िशिवर म चले गए। मशाल जलाई ग । यह सारी यव था
भी उसी जा क ओर से क गई थी, जो अब चली गई थी। जो दो-चार लोग बचे थे, वे अब जा रह थे। इसीिलए
यह यव था राजसी न थी। िशिवर भी लगभग छोट-छोट, िकसी तरह एक-दो लोग क िलए एकाध रात क लायक।
पणा छािदत कोरी धरती पर, वा याच और अंधड़ क कपाकां ा करते ए।
इस े म ब धा िदन और रात क तापमान म इतना अंतर पड़ता रहता ह िक वा याच आते रहते ह। तब ऐसे
झ पड़ को तो हवा पंख कट कपोत क तरह िजधर चाहती ह, उड़ा ले जाती ह। इस थित म सबसे पहले मशाल
बुझाई जाती थ , इसका हम अनुभव था।
आज क कित रोज क अपे ा अिधक शांत थी। हमारी उदासी और पीड़ा का उसपर पूरा भाव था। हम लोग
ने आिखर क तीन िशिवर चुन िलये थे। यह काम छदक ने िकया था; य िक हमार आितथेय तो अपने ही दुःख म
थ थे। उनम िकसीक खोज-खबर लेने क इतनी सुिध कहाँ।
मुझे तो हर थित म सुखी रहने का अ यास था। म उ ह तीन म से पहले िशिवर क पण-श या पर एक व
िबछाकर लेट गया और ार पर जल रही मशाल क लौ को देखता रहा।
मुझे ऐसा लग रहा था िक पूरा आयाव मशाल क एक लौ ह, जो ऐसा िवषा धूम उगल रहा ह, िजससे
वतमान तो घुट ही रहा ह, भिव य क मुख पर भी कािलख पुत रही ह। हर जलनेवाले क अंितम प रणित कािलख
ही ह। कौरव क हाथ म भी अंत म कािलख क िसवा कछ न रहगा; पर इस समय तो उनक मह वाकां ा भभक
रही ह।
ऐसे म मेरा कत य या ह? आगे बढ़कर इस लौ को बुझा दूँ या ह तनापुर और इ थ का िन पृह ा हो
जाऊ? जो कछ हो रहा ह, उसे एक तमाशबीन क तरह देखता र ? मेरा यह िचंतन धीर-धीर बैखरी म प रवितत
होने लगा। अब म बड़बड़ाने लगा िक िसरहाने बैठी ौपदी बोल पड़ी—‘‘ऐसा कसे हो सकता ह? या वन-वन
भटकने क िलए तुम ौपदी को ऐसे ही छोड़ सकते हो? वयंवर क पूव तुमने मुझसे या- या वादे िकए थे! म उस
समय भी तुमसे ेम करती थी और आज भी करती । जब म वयं को तु ह समिपत करना चाहती थी तब तुमने
कहा था िक म तु ह एक ऐसे य को स पना चाहता , िजसम और मुझम कोई िवशेष अंतर नह ह। और
ह तनापुर क सारी कहानी िछपाकर वयंवर का नाटक रचा गया था। उसक परी ा को अजुन क अनुकल बनाने
क सार दाँव-पच लगाए गए थे।’’
उसक यह अ यािशत आवाज मुझे जैसे झकझोर गई। वह बोलती रही—‘‘तु हार ही कहने पर मने कण का िवरोध
िकया था।’’ यह एकांत उसे खुलकर कहने क िलए काफ अनुकल था—‘‘म तो कण पर पहली म ही मोिहत
हो गई थी। ऐसा तेजोमय और ओज वी य व मने पहली बार देखा था; पर तुमने बार-बार अपने संकत से
मुझपर दबाव डाला और ऐसी बात कहवाई, जो सचमुच मुझे नह कहनी चािहए थी। उस अपमान क दंश से आज
तक वह ितलिमला रहा ह। यिद वह मुझे पा जाए तो क ा चबा जाए।’’
‘‘वह तु ह पा जाए तो या करगा, यह तो वही बता सकता ह।’’ मने हसते ए कहा, िजससे ौपदी क वाणी क
दाहकता थोड़ी कम हो।
‘‘तु ह इस प र थित म भी प रहास सूझता ह!’’ मेर सोच क िवपरीत उसक दाहकता और भभक उठी। उसने
अपने खुले ए कश िदखाते ए कहा, ‘‘इस वेणी को देखते हो, िजसक कश िबखर ह! और तब तक िबखर रहगे
जब तक म इ ह दुःशासन क र से धो न लूँगी। इ ह दुःशासन ख चता आ मुझे ह तनापुर क उस सभा म ले
आया था—और यह थित कवल इसिलए आई थी िक कण का ितशोध मेर िव िकसी सीमा तक जाने को
तैयार था। यिद मने उसका अपमान न िकया होता तो वह देववण य व नीचता क इस प रिध तक न आता।’’
मेर मुख से तुरत िनकला—‘‘तुम कसे जानती हो िक वह देववण ह?’’
पर उसका कहना अँधेर म मारा गया तीर था, जो अपने िन त ल य पर और िन त समय पर लगा िदखाई
िदया। उसने उलट न िकया—‘‘उसे देखने पर तु ह ऐसा नह लगता?’’
म कछ बोल न सका। रह य को रह य ही रहने िदया।
वह बोलती गई—‘‘यिद उसका सहयोग न िमलता तो थित यहाँ तक न आती। उसीक बल पर कौरव कदते ह
और उसीक ितशोध क भावना से थित यहाँ तक आई िक आज हम जंगल क धूल फाँक रह ह।’’
िफर वह ण भर क िलए क । उसक मु ा बदली। उसने कहा, ‘‘तु ह ने अनेक बार कहा ह िक जो मुझे िजस
भाव से देखता ह, म उसे उसी भाव से देखता । म पहले भी तुमसे ेम करती थी, पर दूसर भाव से; आज भी ेम
करती , पर दूसर भाव से। म पहले भी तु हारी ेिमका थी, आज भी ; तो या तुम मेरी सम या को िन पृह भाव
से ही देखते रहोगे—जैसे इस मशाल को देख रह हो?’’
‘‘नह , ौपदी, नह ।’’ मने कहा।
िफर भी उसने मुझे सुना नह और बोलती गई—‘‘अ नकड से उ प मेरी तेज वता को या तुम धूल म ही
िमला देना चाहते हो? बोलते य नह ?’’
म मौन उसक ओर देखता और मुसकराता रहा।
‘‘तु ह इसिलए भी मेरी र ा करनी चािहए िक तुम मेर संबंधी हो और सभी य से समथ हो। यिद तुम भी मेर
पितय क तरह िन पाय और असमथ होते तो म तुमसे कछ न कहती।’’ इसक बाद ौपदी ने बड़ी लगती बात
कही—‘‘ या पांडव का यह आ अपमान तु हारा अपमान नह ह? या हमार अपमािनत होने क बाद भी तुम
स मािनत रह जाओगे?’’
मने अनुभव िकया िक ौपदी आपे से बाहर ह। यिद उसे नह सँभाला तो वह फटकर िबखर जाएगी। मने कहा,
‘‘ ौपदी, तुम धैय रखो। आज तुम िजस तरह दुःखी हो, उसी तरह कौरव क याँ भी एक िदन दुःखी ह गी,
रोएँगी—दहाड मारकर रोएँगी। उनक आँसू प छनेवाला भी कोई नह रहगा। तुम िव ास करो, पांचाली, थोड़ ही
िदन म अजुन क बाण ऐसा लय मचाएँगे िक कौरव को धरती नह िदखाई देगी और न आकाश।’’
‘‘पर कब? जब हम धरती म हमेशा क िलए सो जाएँगे तब?’’ वह बोली।
‘‘जब िनयित क भृकिट िफरगी तब!’’ अब म आवेश म था—‘‘और वह िकसी भी समय िफर सकती ह। तुम
िव ास करो। आकाश फट सकता ह, िहमालय धूल हो सकता ह, समु सूख सकता ह; पर मेरी बात झूठी नह हो
सकती, ौपदी!’’
इस पूर घटना म म पहली बार ौपदी ने थोड़ी शांित का अनुभव िकया।
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दूसर िदन ातः सर वती म जब ान करने चला तब मेर साथ छदक और दा क भी थे। दोन गंभीर थे। दोन
पर यहाँ क प र थित का काफ गहरा असर पड़ा था। मने दोन को हलका करने क िलए प रहास क मु ा म
दा क से कहा, ‘‘अ छा होता तुम अपने दोन घोड़ को भी साथ ले लेत।े कम-से-कम िहनिहनाते ए तो चलते।’’
दा क िब कल समझ नह पाया िक म या कह रहा । वह सकपकाया-सा मेरा मुख देखता रह गया।
िति या य क छदक ने—‘‘दोन सर वती म डबक लगाते। हो सकता ह, इससे उन अ क ही सर वती
जाग उठती।’’
‘‘अर, िजनक सर वती जागी ई ह, जब म उन लोग को िकसी िवषम थित म घोड़ जैसा मुँह िनकाले ए मौन
देखता , तब म उन घोड़ क ही सर वती जगाकर या क गा!’’
अब दा क मुसकराया। उसने मेरा यं य समझा।
िफर भी छदक गंभीर था। वह िविच मु ा म बोला, ‘‘सचमुच अब पांडव को बारह वष वन म और एक वष
अ ातवास म िबताना पड़गा?’’
‘‘लगता तो ऐसा ही ह।’’
‘‘आप िकसी म यम माग क िवषय म नह सोच रह ह?’’
‘‘अभी हमार सोचने का समय नह आया ह।’’
‘‘आप भी िविच बात करते ह!’’ छदक कछ झुँझलाया—‘‘आिखर आपक सोचने का समय कब आएगा?’’
‘‘अपने वचन क अनुसार पांडव को सफलतापूवक तेरह वष िबता लेने क बाद।’’ मने कहा, ‘‘मुझे नह लगता
िक इसक पहले कछ संभव ह।’’
अब हम लोग स रता क तट पर आ चुक थे। धृ ु न उधर से ान करक पांचाल से आए अपने सहयोिगय क
साथ लौटा आ रहा था। उसे देखते ही बात का म थम गया।
‘‘म यहाँ से सीधे आपक यहाँ ही जा रहा था।’’ उसने कहा।
मने कहा, ‘‘रात काफ देर से सोया।’’ ौपदी क आने और उससे ई वा ा क चचा मने िब कल नह क
—‘‘इसीसे आज ठीक समय से उठ नह पाया।’’
इसक बाद वह अपने सािथय को छोड़कर मेर साथ हो गया। एकदम शांत, गंभीर और िचंितत; जैसे मशान क
ओर चल रहा ह।
मेर ान क सारी शांित और उ मु ता धृ ु न क अशांित ने छीन ली। न म छदक क साथ हस-बोल पाया
और न अपनी कित क अनुसार तैर ही सका। िकसी धारा म िबना संतरण क ान मेर िलए वैसा ही आधा-अधूरा
था जैसे िबना वंशी क मेरा जीवन।
माग म वह कछ नह बोला। उसे दा क क उप थित कछ खल रही थी। िशिवर म लौटते ही वह बोल पड़ा
—‘‘पांचाल से चलते समय ही म सेना स रखने का आदेश दे आया ।’’
मने वैसी ही गंभीरता से पूछा, ‘‘ य , िकसिलए?’’
मेरा यह न उसे बड़ा अटपटा-सा लगा। िफर उसने कहा, ‘‘आप या समझते ह, यु क अित र भी इस
सम या का कोई समाधान ह?’’
‘‘सं ित कोई दूसरा समाधान तो नह ह।’’ मने कहा, ‘‘ य िक दुय धन क मह वाकां ा और कण का ितशोध
यु से कम पर शांत नह होगा।’’
‘‘तब यु क तैयारी पर आपने शंका य य क ?’’
‘‘यु क अिनवायता तो ह; य िक इस सम या क समाधान का कोई दूसरा रा ता नह ह।’’ मने कहा, ‘‘पर म
हारने क िलए यु करने क प म नह ।’’
‘‘यह आप कसे समझते ह िक यु म आपक हार ही होगी?’’
‘‘ य िक इस अ याय को पूरा आयाव अभी जानता नह ह।’’ मने कहा, ‘‘पहले इस अ याय का अ छी तरह
चार होना चािहए; य िक िबना जनमत को प म िकए कोई यु नह लड़ा जा सकता। िफर हम या आपको तो
लड़ना ह नह । लड़ना तो पांडव को ह। अ णी तो उ ह को होना ह।’’
‘‘अजुन, भीम, नकल—सभी यु क प म ह।’’
मुझे हसी आ गई।
‘‘पर धमराज ह या नह ?’’ मने पूछा, ‘‘आगे तो उ ह को रहना ह। ूतयु म वे ही आगे थे।’’
‘‘वह तो ूत ड़ा थी। उसम उनक िच ह।’’
‘‘जी नह , वह ूतयु था, जो पास से चौपड़ पर आ। उसम कौरव ने यूह-रचना क । सेनापित का चुनाव भी
उसी यूह-रचना का एक अंश था।’’ मेर इतना कहते ही धृ ु न चुप होकर कछ सोचने लगा।
धृ ु न पांडव का सबसे बड़ा िहतैषी था। वह ौपदी का सहोदर ही नह था, सहा न भी था। दोन पु े य
क उपल ध थे। य क तेज वता दोन क य व म िव मान थी; िफर उसक िपता ुपद और ोण का िवरोध
जग-जािहर था। ोण इस समय कौरव क भाव म थे। ह तनापुर और पांचाल का पु तैनी िवरोध भी था। सब
िमलाकर थित ऐसी थी िक धृ ु न कछ भी करने को तैयार था। अतएव मने उससे सारी बात खुलकर क ; जैसा
म युिध र क सामने नह कर सकता।
‘‘यु तो अंितम उपाय ह।’’ मने उसे समझाया—‘‘जब कोई रा ता िदखाई न देगा तब तो यु होगा ही। यहाँ हम
लोग इसी पर तो िवचार करने आए ह। ब क आए नह , बुलाए गए ह। देख, इस थित म युिध र या सोचते
ह! आिखर सब तो उ ह को करना ह।’’
‘‘उनक मंशा का पता तो कल इ थ से आई जा क सामने य उनक िवचार से प हो गया ह। आपने
देखा नह िक जा िकतनी हताश और िनराश होकर गई ह! उसका वश चलता तो कौरव को क ा चबा जाती।’’
‘‘यिद उसका वश चलता तब तो!’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘कछ िशलाखंड क भभक उठने से ालामुखी नह
बनता।’’
अंत म िन य आ िक आज क बैठक म हम िकसी िन कष पर अव य आ जाना चािहए। इसक बाद म चला
गया।
अपरा म ही हम लोग उस वट क नीचे उप थत ए, जहाँ आज क बैठक आ त थी। मेर रथ से उतरते ही
ककय से पधार बृह मेर पास आया। बोला, ‘‘मुझे आपसे ब त सी बात करनी ह, पर अवसर नह िनकाल
पाया।’’
‘‘यही थित तो मेरी थी।’’ मने कहा, ‘‘िफर मने सोचा िक जब तक पांडव क इ छा क सही जानकारी न िमले
िक वे व तुतः या चाहते ह तब तक हम लोग क कछ सोचने या आपसी िवमश का कोई मतलब नह ह।’’
मने आते ही देखा िक एक ओर भीम युिध र से िकसी बात पर उलझ रहा ह और दूसरी ओर अजुन को ौपदी
कछ समझा रही ह। नकल और सहदेव चुपचाप सिमित थल पर मुँह लटकाए बैठ ह।
यह तो म पहले से जानता था िक सभी भाइय म मतै य नह ह। इस समय तो थित िव फोटक ह। मने कहा,
‘‘आपने अपने लोग को बुलाया ह और आपस म आप ही उलझे लगते ह। ऐसे म आप हमारी थित का या
लाभ उठा सकते ह? हमारा आना िकस सीमा तक आपक िलए साथक हो सकता ह?’’
मेर कथन का त काल भाव पड़ा। लोग चुपचाप आकर बैठ गए।
तब मने कहा, ‘‘अब महाराज ही बताएँ िक ऐसी िवषम थित पांडव क सामने य आई और महाराज हमसे
या आशा करते ह?’’
सब एक-दूसर का मुँह देखते ए चुप रह गए।
महाराज ने बड़ टट मन और भीगी आवाज म बोलना आरभ िकया—‘‘ थित से तो आप महानुभाव अवगत ह गे
ही। इस सार संकट क मूल म म ही । यही मेर भाई कहते ह। यही आप लोग कहगे और आगे चलकर यही संसार
भी कहगा।’’
‘‘ य िक आप प रवार- मुख ह।’’ मने देखा िक जब युिध र वयं टट चुक ह तब मुझे उ ह सँभालना चािहए
—‘‘प रवार क सफलता एवं असफलता का दािय व उसक मुख पर आता ह। यही थित रा य म शासक क
भी होती ह। सभी प रणाम का यश और अपयश जा उसीको देती ह; पर वह यह नह जानती िक राजा को िकन
प र थितय म यह करना पड़ा ह। इसिलए महाराज से मेरा यह िनवेदन ह िक संसार या कहता ह या प रवार क
लोग या कहते ह, इसपर जरा भी यान न द और व तु थित से अवगत कराएँ।’’
‘‘व तु थित भी आप लोग ब त कछ जानते ह।’’ उ ह ने कहा, ‘‘म तेरह वष क िलए राजपाट से अलग कर िदया
गया ।’’
‘‘ या आप जानते ह िक तेरह वष बाद राजपाट आपको िफर िमल जाएगा?’’ इस बार बृह बोला।
‘‘हाँ, िमल तो जाना चािहए।’’ उ ह ने सोचते ए कहा, ‘‘महिष का कहना तो यही था।’’
‘‘िकस महिष का?’’ बृह ने ही यह िज ासा क ।
‘‘महिष वेद यास का।’’
‘‘इस ूत ड़ा म उनक या भूिमका थी?’’ बृह क िज ासा बढ़ी।
युिध र ने कहा, ‘‘ ूत ड़ा म तो उनक कोई भूिमका नह थी; पर हमार ह-न क गणना कर उ ह ने बताया
था िक आगामी तेरह वष पांडव क िलए अ यंत संकटाप ह गे।’’
‘‘तो भी आप अब भी कौरव क नीचता को इस थित का दोषी नह समझते?’’
‘‘कसे समझूँ?’’ युिध र क उदास िनराशा बोल उठी—‘‘जब मेर ही ह-न अनुकल नह ह तो दूसर को
कसे दोष दू!ँ ’’
मने मन-ही-मन माथा ठ का। अ ुत ह यह य भी। इतना बड़ा धोखा खाने क बावजूद यह अब भी कौरव को
दोषी नह मानता।
‘‘जब आप जानते थे िक ह-न राजपाट आपक पास रहने नह दगे, तो िफर जुए म हारने क आव यकता या
थी? आप ऐसे ही कौरव को दे देते। उनपर आपका अहसान भी होता और आप लोग क इतनी खराब थित भी
न होती।’’
‘‘यिद म कर पाता तब तो!’’ युिध र बोले।
उनक इतना कहते ही भीम तैश म आ गया—‘‘आपको रोक कौन रहा था? और आप िकसीक माननेवाले तो ह
नह , जो आपको रोकता।’’ आवेश म आकर भीम खड़ा हो गया और युिध र क ओर संकत करक बोलने लगा
—‘‘आप लोग इनसे पूिछए—पहली बार जुए म हारने और इतना अपमान सहने क बाद भी दूसरी बार खेलने क
िलए िफर तैयार होने क या आव यकता थी; जबिक मालूम था िक हम िफर हराए जाएँगे और िफर उ ह पास
से वही य खेलेगा?’’
‘‘न खेलता तो या करता?’’ युिध र क आवाज पहले से तेज ई—‘‘तुम लोग ने देखा नह िक कौरव ने हम
िकस तरह घेर रखा था! हम ह तनापुर से इ थ तक तो आने िदया नह ।’’
‘‘आपने वयं आना नह चाहा। नह तो िकसम िह मत थी िक हम रोकता!’’ इस बार भीम का ोध अपने पूर
उफान म था।
‘‘अर भाई, या बात करते हो!’’ युिध र ने लगभग उतने ही ऊचे वर म कहा, ‘‘हम चार ओर से कौरव से
और उनक सहायक तथा िम क सेना से िघर थे।’’
‘‘तो उनक घेरने से या होता ह!’’ भीम िफर बोला, ‘‘आपने वयं िनकलना नह चाहा।’’
‘‘इसिलए िनकलना नह चाहा िक जरा भी हमारी ओर से कछ होता तो र पात हो जाता।’’ युिध र बोले, ‘‘और
यही म नह चाहता।’’
‘‘आपक चाहने से या होगा! आपक ह यिद चाहते ह तो र पात होगा ही।’’ इस बार ौपदी बोली।
युिध र चुप हो गए। यह यं य उ ह चुभ गया। उनक आकित ोध म लाल हो गई—एकदम भीतर से
धधकती ई। युिध र इतने आवेश म ब त कम आते थे। मने देखा िक थित तनावपूण होती जा रही ह। यिद
बीच-बचाव नह िकया गया तो यह और भी भयंकर प ले सकती ह।
म तुरत खड़ा हो गया। मने कहा, ‘‘अब इसका िवचार करने क आव यकता या ह? जो हो चुका, वह तो हो
चुका। समिझए, वह एक दुःखद व न था, जो भंग आ। एक और ला ागृह था, जो भ म हो गया। अब तो
क द अतीत को भुलाने और सुखद भिव य क क पना म ही आपका क याण ह। उसीसे आपको श और
ऊजा िमलेगी। अब हम सोचना ह िक करणीय या ह!’’
मेरी बात सुनकर सब चुप हो गए और मेरी ओर देखकर ती ा करने लगे िक म उ ह कोई काय म दूँगा; पर
म ऐसी भूल करनेवाला नह था, य िक म जानता था िक युिध र क मन म यास क भिव यवाणी का भय ऐसा
समाया था िक वे प र थित का कछ भी ितरोध करना नह चाहते थे। नकल ने इनक एक तक का उ ेख ारका
म िकया था। उसने कहा था िक भैया का कहना ह िक महिष ने भी तेरह वष का संकट बताया था और दुय धन ने
भी बाजी तेरह वष क लगाई, तो एक ही सं या दोन ओर से य आती?
धमराज ने इसी तरह क बात इस समय भी शु क , िजसका बृह ने तुरत ितवाद िकया—‘‘इस बाजी क
पीछ दुय धन क क सत मंशा ह।’’
इतना सुनते ही लोग क नवाचक मु ा बृह क ओर ई। वह कहता रहा—‘‘बारह वष का एक युग होता
ह। यिद एक युग तक कोई य अ य रह तो उसे मरा आ मान िलया जाता ह। धमशा म उसक अं ये
करने का िवधान ह। इसी तरह यिद कोई धरती िकसीक पास बारह साल तक न रह और वह इस समय क भीतर
अपना अिधकार न जताए तो वह सदा क िलए उसक हो जाती ह, िजसक पास वह रहती ह। इसीिलए एक वष
अ ातवास का नाटक भी रचा गया ह।’’
बृह क इस घोषणा क बाद पांडव िचंितत हो गए।
‘‘पर चौदह वष क वनवास क बाद राम ने अपना रा य पा िलया था!’’ युिध र बोले।
बृह हसा। उसक हसी पांडव क अ ान पर धूल उड़ाती िनकल गई। उसने हसते ए ही कहा, ‘‘व तुतः वह
भरत क मिहमा थी, िजसने उस रा य को कभी वीकार ही नह िकया और िसंहासन पर राम क खड़ाऊ रखकर
उनका अ त व बनाए रखा। ककयी क सारी पेशबंदी बेकार गई। अयो या क थित भी दूसरी थी। य िप ककयी
ने अपनी ओर से कोई कमी छोड़ नह रखी थी।’’
‘‘ य रखती! आिखर थी तो आपक वंश क मिहला!’’ मने प रहास क से कहा था। सोचा था िक यहाँ का
तनाव कछ ढीला पड़गा। कछ गुदगुदी अव य लगी; पर अिधक भावकर नह ई। वातावरण गंभीर ही रहा।
अब मने िफर थित को सामा य करने क चे ा क और समझाया—‘‘अर भाई, तेरह वष बाद जो होगा, देखा
जाएगा। यहाँ तो एक-एक िदन म प र थितयाँ बदल रही ह। कोई सोच सकता था िक राजसूय य करनेवाले इतने
तापी राजा क यह दशा हो जाएगी। िफर हम िकसी थित का कवल याम प ही य सोच! तेरह वष बाद तो
बादल छटगे; िफर िदन बदलते देर नह लगेगी। इसिलए महाराज क इ छा का अ रशः पालन कर।’’
‘‘उनक आ ा का प रणाम ही था िक हम इस थित म आ गए।’’ भीम ने दबी जबान से कहा।
अब मने अपना तेवर बदला—‘‘यिद आ ा-पालन नह करोगे तो अब या कर लोगे? अब तो एकजुट रहना
आपका पहला धम ह। यिद आपक िवरोधी सुनगे िक आप आपस म ही लड़ रह ह तब तो जो खुशी वे तेरह वष
बाद मनाने क क पना कर रह ह, उसे आज से ही मनाने लगगे। आप वयं को आज से ही पराजय क मुँह म
ढकल दगे।’’
लोग एकदम शांत हो गए। भीम तो लगभग बुझ-सा गया। पर म बोलता गया—‘‘इसिलए म िफर कह रहा िक
जो हो गया, उसे भूल जाइए। जो हो रहा ह, उसक िलए तैयार होइए और जो होने वाला ह वह मुझपर छोड़
दीिजए।’’
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जब म अपने िशिवर म आया, सं या उतर आई थी। आ न क िचलिचलाती दोपहरी का अंत सुहावना था। पूव
क आकाश म अभी-अभी उगा चं िबंब कछ बड़ा, पर धुँधला िदखाई दे रहा था; जैसे कित क िकसी युवा
िखलाड़ी ने िकसी पदकदुक को आकाश म मारा हो और वह वह टग गया हो। आज आ न पूिणमा थी—शर
पूिणमा। तरह-तरह क क पनाएँ मन म उठने लग ।
आज क इस बैठक क सबसे बड़ी िवशेषता यह थी िक आरभ से अंत तक छदक मेर साथ था और चुप था।
िशिवर म आकर मने उसे खोदा—‘‘आज बड़ शांत थे, छदक!’’
‘‘जब सभी अशांत थे तो ऐसी थित म शांत ही रहना मने उिचत समझा।’’
‘‘आज तो बड़ी समझदारी क बात कर रह हो, छदक!’’ मने कहा।
पर अभी भी छदक गंभीर था। वह थोड़ी देर बाद बोला, ‘‘मुझे तो लगता ह िक तेरह वष बाद भी पांडव को
िसंहासन आसानी से नह िमलेगा।’’
‘‘लगता तो मुझे भी ह।’’ मने कहा, ‘‘पर यह बात अभी कहने क नह ह। मन म रखकर उस थित क तैयारी
करने क ह।’’
मने और मंथन िकया। िफर अपना िन कष छदक को सुनाया—‘‘यह तैयारी दो तर पर होनी चािहए। पहले तर
पर तो वयं पांडव को मानिसक प से ढ़ करना चािहए, िजससे वे आनेवाली सभी प र थितय का ढ़ता से
सामना कर सक और दूसर तर पर पूर आयाव म इस अ याय का चार होना चािहए।’’
‘‘यहाँ तो एक ही तर पर हम सोचना ह, वह ह पांडव का मनोबल बढ़ाना।’’ छदक बोला, ‘‘सबसे बड़ा संकट
तो यह ह िक वे एक िन कष पर नह ह।’’
मने उसक बात को मौन वीकित दी और सर वती क तट पर सं या-पूजन क िलए चल पड़ा। सर वती म गोता
लगाते-लगाते सं या डब चुक थी। िफर धीर-धीर राका िनिश क मादकता बरसने लगी। िसकता कण म चं िकरण
क जगमगाहट अ ुत थी। मने छदक क गंभीर मनः थित को गुदगुदाया—‘‘यह नीरव एकांत, ऐसी मादक राका
और यह स रता का तट। छदक! ऐसे वातावरण म तु हारा मन और कह तो नह रम रहा ह?’’
‘‘हाँ, आपक साथ वृंदावन म रम रहा ह।’’ उसक चेहर पर मुसकराहट आ गई। प लगा िक उसका तनाव ढीला
पड़ा। हम लोग यमुनातट पर अपनी िकशोराव था क मृित म जीने लगे।
आज यित म हो गया। सं या का पूजन राि म िकया। डबते ए सूय को अ य न देकर मने प म को अ य
िदया। हमार यहाँ आप म म इस सबक यव था ह। जब रात को वहाँ से चला तब चाँदनी का रशमी आँचल
अ छी तरह फल चुका था।
जब हम रथ पर चढ़ने वाले थे, सामने से दूसरा रथ आता िदखाई िदया। मने समझा िक धृ ु न अपनी िकसी
योजना क साथ आ रहा ह। हो सकता ह, उसक मन म कोई और बात रह गई हो, िजसे वह उस बैठक म कह नह
पाया हो। अतएव म जहाँ था वह क गया। कछ पास आने पर मने देखा, वह धृ ु न नह , बृह ह।
मुझे देखकर वह भी रथ से उतर गया। पैदल चलकर ही मेर पास प चा और बोला, ‘‘म िशिवर म आपसे िमलने
गया था। वहाँ आपको न देखकर समझ िलया िक आप इस समय सर वती तट पर ह गे।’’
‘‘मेरी इतनी खोज य ?’’ मने मुसकराते ए कहा।
वह एकदम खुल पड़ा—‘‘आप यहाँ क थित तो देख ही रह ह। कोई िकसीक बात सुनने और माननेवाला नह
ह। राजनीितक कटनीित ता धमराज को तो छ तक नह पाई ह। ऐसी थित म आप ही पांडव को सँभािलए। म तो
कल ातः चला जाऊगा।’’
मने समझ िलया िक यह सोचता ह, मने इसक कथन क उपे ा क । इसक अह को ध का लगा ह। मने थित
सँभाली—‘‘अभी जाने क इतनी ज दी या ह! अभी तो हम आपसे लंबी बात करनी ह। आप ही यहाँ एक ऐसे ह,
िजसका िचंतन पांडव क भिव य क बार म अिधक सही लगता ह।’’
‘‘पर आपक से तो अभी आगे क बात सोचना िनरथक ह।’’
मुझे हसी आ गई। मने बृह क पीठ पर आ मीयता का धौल जमाते ए कहा, ‘‘अर िम , यह तो मने पांडव से
कहा था। आपक बात का ितकार नह िकया था। मने पांडव से वैसी ही बात कही थ , जो हार और हताश लोग
से कहनी चािहए।’’ वह चुपचाप सुनता रहा। म कहता गया—‘‘म भी तु हार ही मत का । तेरह वष बाद भी
कौरव पांडव का रा य आसानी से नह दगे।’’
‘‘आसानी से तो जाने दीिजए, वे िकसी भी हालत म नह दगे। युिध र िकतना भी र पात से दूर रह, पर यही
र पात उनक िलए अिनवाय हो जाएगा।’’
‘‘पर इस समय तो हम पांडव को तेरह वष तक क सहने क िलए तैयार करना ह।’’
‘‘क ही नह , उ ह दुय धन का छ आ मण भी सहना पड़गा; य िक उनका मामा, वह जो शकिन ह, महा
दु ह!’’ बृह कहता गया—‘‘वह तो चाहगा िक इस समय क भीतर पांडव का अ त व ही समा हो
जाए।’’
‘‘आिखर वह ह तो तु हारा ही िम न!’’ मने प रहास म कहा।
‘‘हमारा िम ! यह या कहते हो, क हया!’’ बृह बोला, ‘‘जब तक वह गांधार म रहा तब तक ककय और
गांधार क श ुता बराबर बनी रही; यहाँ तक िक सामा य यवहार भी नह था। उसक न रहने पर इतना तो आ िक
महाराज सुबल से बात होने लग ।’’
‘‘ या वह जीवन भर यहाँ रहगा?’’ मने कहा, ‘‘तब तो तुम उससे भी बात आरभ करो और उसे यहाँ से ले
जाओ।’’ ब त सी बात जानते ए भी मने उसे करदा।
वह एकदम खुल गया—‘‘आप बात ही नह समझ पा रह ह। वह यहाँ नह रहगा तो रहगा कहाँ? महाराज सुबल
ने उस दु को घर से िनकाल िदया ह।’’
िफर बृह ने वही कथा सुनाई, िजसे आधी-अधूरी म सुन चुका था।
उसने बताया—‘‘महाराज सुबल अपनी सुंदर बेटी गांधारी का िववाह एक अंधे राजकमार से नह करना चाहते थे;
पर महाराज भी म अड़ गए।’’
‘‘तब तो गांधारी क सुंदरता ही उसक जीवन क िलए अिभशाप बन गई।’’ छदक बोला।
‘‘जी नह , एक अंधे क िलए सुंदरता का या मह व!’’ बृह ने कहा। हम लोग को भी हसी आ गई। उसने
बताया—‘‘व तुतः बात यह ह िक गांधारी ने क बड़ी आराधना क थी। सुना ह, ने उसे सौ पु क जननी
होने का वरदान िदया था। इस वरदान क बात ह तनापुर िकसी तरह प च गई। इधर ह तनापुर िनरवंिशय का
िसंहासन था। अंधा या चाह, दो आँख। अब भी मजी को अपने अंधे क िलए गांधार म आँख िदखाई द ।’’
‘‘ओ, तो यह बात थी!’’ मेर मुख से िनकला।
‘‘सुबल को तो ऐसी आशंका ह िक गांधारी क वरदान क बात भी शकिन ने ही ह तनापुर प चाई थी। कहते ह िक
गांधारी और धृतरा क िववाह म शकिन ने छ प से भी म क हर तरह से सहायता क ।’’
‘‘शायद इसीिलए िपतामह उसक एहसान से दबे िदखाई पड़ते ह।’’ मने कहा, ‘‘हम लोग को आ य था िक या
बात ह िक िपतामह शकिन से इतनी घृणा करते ह। उसे दु , नीच और सबकछ कहते ह; पर एक बार भी उसे
ह तनापुर से चले जाने क िलए नह कहते।’’
‘‘हो सकता ह, िववाह क पूव दोन म कोई गु संिध हो गई हो।’’ बृह बोला, ‘‘पर इतना तो िन त ह िक
क सत भाई क पाप ने बहन क वरदान को अिभशाप म बदल िदया। शकिन क वाथ ने अपनी बहन क आँख
पर जीवन भर क िलए प ी बाँध दी।’’
म सोचने लगा। मेर मौन का अंतराल थोड़ा लंबा आ।
‘‘ या सोचने लगे?’’ बृह ने पूछा।
‘‘इन सार िवषय से हटकर म गांधारी क जीवन संदभ पर सोचने लगा।’’ मने कहा, ‘‘इसका ता पय ह िक धृतरा
से िववाह क पीछ गांधारी क िब कल इ छा नह थी।’’
‘‘मने तो यही सुना ह।’’
‘‘इतनी गहरी अिन छा से ए िववाह क पीछ ऐसा गहरा पाित त िक पित क अंधे होने से प नी भी अपनी आँख
पर प ी बाँध ले!’’ मने कहा।
‘‘तब आप या समझते ह?’’
‘‘म तो समझता , आरभ म उसने घृणा से अपनी आँख पर प ी बाँध ली होगी।’’ मने कहा, ‘‘यह घृणा धीर-
धीर समा हो गई हो और आँख पर बँधी प ी पर पित ता का पानी चढ़ गया हो।’’
‘‘यह भी हो सकता ह।’’ बृह बोला, ‘‘पर इतनी गहराई तक तु ह सोच सकते हो।’’
बात क झ क म पैदल ही हम सर वती तट से चलते ए अपने िशिवर तक आ चुक थे। हमार रथ, सारिथ,
छदक और बृह क सेवक भी हमारा अनुसरण कर रह थे।
मने सोचा, बात तो पटरी से उतर गई ह। हम लोग िकस सम या का समाधान खोज रह थे और िकस उधेड़बुन म
पड़। शायद वह भी कछ ऐसी बात सोचते ए मेर साथ ही मेर िशिवर म आ गया।
अब मेर िशिवर म हम दोन ही थे।
बात उसीने शु क —‘‘तो अब आपने या सोचा ह?’’
‘‘िकसक िवषय म?’’
‘‘िजसक िवषय म हम इस का यक वन म भेजा गया ह!’’ उसने कहा।
मने अपना पूव िन कष प प से बृह को सुनाया—‘‘अभी कछ भी संभव नह ह; य िक युिध र महाराज
क इ छा क िवपरीत जाना सं ित नह हो सकता। इसे तो आप जानते ही ह िक युिध र महाराज अपने धमबोध से
िजतने िववश ह उतने ही महिष यास क भिव यवाणी से भयातुर ह। वह अपनी हारी ई बाजी क अनुसार बारह
वष का अर यवास और एक वष का अ ातवास िबताएँगे ही। इस बीच उनक साथ जो अ याय आ ह, उ ह जुए
म जैसे हराया गया ह, उसका चार हम योजनाब प से करना चािहए; िजससे पूरा आयाव जान जाए िक
पांडव का रा य हिथयाने क िलए िकस कार का कच कौरव ने रचा ह। दूसरी ओर इस बीच पांडव जंगल म
घूम-घूमकर अर य श अिजत कर।’’
‘‘अर य श !’’ बृह जोर से हसा—‘‘कहाँ ह तनापुर और कहाँ अधनंगे जंगली लोग! तुम भी या बात
करते हो, क हया! उनक श क भरोसे हम कौरव का या सामना कर सकते ह?’’
‘‘उनक श क भरोसे तो ीराम ने रावण जैसे श शाली स ा को प त कर िदया था। उन आिदवािसय को
आप या समझते ह? उनक िव सनीयता और िन वाथ समपण ही इनक श ह। ये आ था क दास होते ह।
यिद आपक ित इनक आ था हो गई तो िफर ये अपने ाण क भी िचंता नह करते।’’
‘‘तो िफर यही नीित अपनाई जाए।’’ बृह बोला, ‘‘तो म चलता । ा मु त म ही म यहाँ से ककय क िलए
थान क गा। अब पांडव को आप सँभािलएगा। यह मेर अकले का काम नह ह।’’
मने कहा, ‘‘हम सबको िमलकर पांडव पर तेरह वष तक सजग रखनी पड़गी िक वे कौरव क िकसी ष ं
का िशकार न हो सक।’’
‘‘तेरह य , हम बारह ही वष य न कह? एक साल जब वे वयं अ य रहगे तो हम या रख सकगे! एक
साल तो पांडव और कौरव क बीच लुका-िछपी का खेल होगा।’’ वह हसा और चलने लगा।
‘‘खेल नह , लुका-िछपी का यु कहो।’’ मने कहा।
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दूसर िदन युिध र क िशिवर म प चने क पहले ही पता चला िक आज ा मु त म बृह चला गया। माग म
यह बात मुझे धृ ु न ने बताई। वह दुःखी भी था। उसका कहना था िक िवपि म लोग ब त दूर तक साथ नह
देते।
‘‘िफर िजतनी दूर तक वे साथ द, उतनी दूर तक ही वीकार करो।’’ मने हसते ए कहा। वह चुप हो गया। मने
िफर समझाया—‘‘िवपि म कोई साथ नह देता, राजकमार! यहाँ तक िक बुि भी साथ छोड़ देती ह। कवल एक
भु का ही साथ रह जाता ह।’’
‘‘वह तो आपको ही अपना भु समझते ह।’’
‘ भु! इस श द क तो िवरा अथव ा ह।’ म बोला नह , मन-ही-मन मुसकराया।
‘‘जो मुझे अपना समझते ह, म उनसे अलग कभी नह रहता। म हमेशा उनक साथ रहता ।’’
म उसे समझाने लगा—‘‘आिखर हम सब यहाँ से लौट जाएँग।े बृह आज चला ही गया। तुम भी कल-परस म
चले जाओगे। हम लोग म से कोई भी पांडव का साथ नह देगा। उनक साथ तो रहगे उनक धम, कम और बुि ।
इसिलए िकसीक जाने का कोई दुःख नह । िफर बृह को मने समझा िदया ह। वह काफ समझदार य ह।
माग से ही अपने काय म लग जाएगा।’’
‘‘माग से ही!’’ वह हसने लगा।
मने उसे समझाया—‘‘इस समय हमारा मु य काय आयाव म इस घटना का चार करना ह, िजससे लोग म
कौरव क ित एक कार क घृणा पैदा हो और जनमत का ऐसा दबाव उ प हो िक उनका जीना दूभर हो जाए।
तब शायद युिध र क प म वातावरण बने।’’
म उसीक साथ युिध र क िशिवर म आया। अभी पूवा था। दोपहर होने म घड़ी-दो घड़ी क देर थी। मुझे
देखकर उसी वटवृ क नीचे सभी भाई एक हो गए। ौपदी थानीय ामवासी मिहला क साथ भोजन बनाने म
लगी थी। वह भी मुझे देखते ही आ गई।
उन लोग को िव ास था िक ारकाधीश इस समय हमारा कोई िदशा-िनदश करगे। शायद वे ह तनापुर जाकर
िपतामह से बात कर। पर म इसे ब त साथक नह समझता था।
बात क म म मने प कहा, ‘‘हम ये सार अवसर खो चुक ह।’’
‘‘यही तो म कहता िक अब कवल यु ही एक उपाय ह।’’ भीम बोला।
‘‘हम उसका भी अवसर खो चुक ह।’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘अब कवल एक ही बात हो सकती ह िक हम
कवल आपस म ही लड़।’’
मने इतने नाटक य ढग से कहा था िक लोग एकदम स रह गए। काफ देर तक स ाटा छाया रहा। इस स ाट
को तोड़ा ौपदी ने। बड़ी दबी जबान म उसने कहा, ‘‘आपने अभी कहा ह िक हमने यु का भी अवसर खो िदया
ह। कपा कर आप बताएँ िक वह अवसर कब था?’’
‘‘मेर िवचार से वह अवसर दो समय आया था और दोन समय अगुआई तु ह ही करनी थी।’’ मने कहा, ‘‘एक
समय तो वह था, जब तु हारा चीर ख चा जा रहा था। जब तुमने मुझे पुकारा था और बार-बार कहा था िक ‘मेरी
ल ा रखो’, पर एक बार भी नह कहा िक इस दु का संहार क िजए। मेर मन म आया िक म इस दु का संहार
कर दूँ। तु ह याद होगा िक मने तु ह चल पड़ने क िलए स च को भी िदखाया था; पर तुमने बार-बार यही
कहा िक मेरी र ा क िजए। मने वही िकया। मने देखा, तु हारा आ ोश भयंकर ह; पर अब भी वह कौरव का
िवनाश नह चाहता।’’
‘‘िफर भी तो आप उसका संहार कर सकते थे!’’
‘‘कसे कर सकता था?’’ मने कहा, ‘‘जब तु हारी इ छा नह थी! म तु हारी पुकार पर आया था और तु हारी इ छा
क िव काय करता! भगवा भी भ क इ छा क िव नह करता, म तो मानव । िफर क या म र पात
का िवरोधी । िफर भय एवं आतंक से कौरव मानिसक प से ऐसे सं त लगे िक मने सोचा िक अब वे पांडव
को मु कर दगे और उनसे मा माँगगे। मने सुना िक ऐसा आ भी।’’
सब चुप हो मेरी ओर देखते रह। िफर ौपदी ने पूछा, ‘‘अ छा, तो दूसरा अवसर कौन सा था?’’
‘‘दूसरा अवसर तो इसक पूव ही था, तब तुम आ ामक हो सकती थ ।’’ मने कहा, ‘‘जब धमराज तु ह जुए म
हार गए थे, जब तुम िपतामह से भी न करक उिचत उ र नह पा रही थ । उस िववशता म तु ह अिस ख च लेनी
चािहए थी। सीधे-सीधे ललकार देना चािहए था—आ जाए! िजसने माँ का दूध िपया हो, वह मेर व को हाथ
लगाए!’’
‘‘उस समय एक बार तो मेर मन म आया था।’’ ौपदी बीच म ही बोल पड़ी—‘‘पर म अपने पितय से लाचार
थी।’’
‘‘ या करते तु हार पित? जब वे यह कह चुक थे िक अब तुमपर हमारा अिधकार नह रहा।’’ इतना कहने क बाद
मने युिध र क ओर देखा। वे िसर नीचे िकए चुपचाप सुनते जा रह थे। म कहता जा रहा था—‘‘यिद पित कछ
कहते तो तु ह उ ह भी ललकार देना चािहए था—जब आपका मुझपर कोई अिधकार ही नह तो आप बोलनेवाले
कौन होते ह? अब म परम वतं । म या सेनी । य कड क लपलपाती ाला । म पूरी सभा को भ म कर
दूँगी। म आयाव क नारी क अ मता , िजसक पिव तेज वता आज कराला काली हो गई ह; जो तु हार र
क एक-एक बूँद पी जाएगी।
‘‘तब देखत , िकसीका साहस आने का न होता। तुमने अनुभव नह िकया िक मेरी छाया क प चने क बाद जब
तुमने दुःशासन को ललकारा तब वह िकतना तेजहीन होकर िगर गया था!’’
सभी लोग एकदम शांत थे। ौपदी जैसे ितलिमलाकर रह गई।
थोड़ी देर बाद युिध र क मुख से िनकला—‘‘संघष तो होता ही।’’
‘‘ या बात करते ह आप!’’ मने कहा, ‘‘य िप आप मुझसे बड़ ह। मुझे आपक मुँह तो नह लगना चािहए। धम
क एक मामूली िकरण भी अधम क सागर क सम अग य हो जाती ह, यिद धम अपनी श को समझे।
आततायी क आ मक श िकतनी दुबल होती ह, इसका अनुमान आप लोग को नह ह।’’
एक अ यािशत गंभीरता लोग क आकितय पर आ गई। मुझे लगा िक लोग कह यह न सोच िक म युिध र
क कायरता को ललकार रहा । धृ ु न भी बड़ी हय से उ ह देखने लगा था।
इसी बीच ौपदी बोल पड़ी—‘‘अब जो हो गया, उसे छोिड़ए। अब बताइए, मुझे िफर ऐसा अवसर कब िमलेगा?’’
‘‘म तुमसे अलग एकांत म बात क गा।’’
वह चुप हो गई।
‘‘अब हम लोग क िलए या आदेश ह?’’ अब तक क ई बातचीत म एकदम चुप रहनेवाला अजुन बोल उठा।
‘‘आप लोग क िलए म या कह सकता !’’ म मुसकराते ए बोला, ‘‘महाराज तो वय म, ान म, धमपरायणता
म—सबम मुझसे आगे ह। जहाँ उ ह ने मुझे आगे िकया ह, उसम भी उनक कपा रही ह। उसे भी मने उ ह का
आदेश समझकर ही पालन िकया ह। इस समय भी यिद वे अ यथा न ल तो म कछ िनवेदन क !’’
युिध र ने अनुमित दी और म िफर बोलने लगा—‘‘ये तेरह वष तो आपक संकट क वष ह—और आप यह भी
यान रख िक िजसने आपक ित इतना बड़ा अ याय िकया ह, वह कभी नह चाहगा िक आप इस समय को शांित
से काट द। वह बीच-बीच म भी कोई खुराफात करता रहगा। वह आप लोग पर हर िवपि ढहाने क पूरी कोिशश
करगा।’’
‘‘तो या वह आ मण भी कर सकता ह?’’ यह न धृ ु न का था।
‘‘ य नह कर सकता?’’ मने मुसकराते ए पूछा, ‘‘पर यह आ मण हमेशा सेना ारा ही नह होता, चौसर क
पास ारा भी होता ह।’’
लोग क युिध र क ओर गई और युिध र ने आँख मूँद ल ।
म बोलता रहा—‘‘िकसी भी प म कौरव आपको छोड़नेवाले नह ह। दुय धन क मह वाकां ा और कण का
ितशोध कछ भी कर सकता ह।’’ मने तुरत अनुभव िकया िक मेरा िन कष कछ अिधक ठीक नह ह। मने वयं
को सुधारा—‘‘कण उतना बड़ा नीच नह ह, उसका ितशोध इस घटना क बाद शांत भी हो सकता ह; पर शकिन
ऐसा होने नह देगा।’’
‘‘इसका ता पय ह िक हमारा मु य श ु शकिन ह?’’
‘‘हम ऐसा लगता ह।’’ मने कहा, ‘‘पर हमारा मु य श ु समय ह। वह िकसी भी ओर से और िकसी भी प म
हमार िव खड़ा हो सकता ह। और समय का सामना करने क मु य ताकत धैय म ही ह। ऐसे म आपका धैय
और आपक एकजुटता हर जगह आपक र ा करगी। आप कछ भी ऐसा न कर, िजससे लोग यह समझ िक
आपम आपस म ही कलह ह। िफर कछ बात और ह, िजनसे आपको सावधान रहना होगा। अब िकसी भी थित म
आप जुआ मत खेिलएगा—आपस म मनोरजन क िलए भी नह ।’’ इसी संदभ म मने उ ह राजा नल क याद
िदलाई। लोग ने मेरी बात को गंभीरता से िलया। यहाँ तक िक युिध र ने भी मेरी बात क वीकित म िसर
िहलाया।
म आगे बोलने लगा—‘‘दूसरी बात यह ह िक आप पर य से सदा सावधान रिहएगा। उनसे ब त अिधक
हल-मेल मत बढ़ाइएगा।’’ मने िवशेषकर अजुन और भीम क ओर संकत िकया।
अजुन ने दबी जबान ितवाद भी िकया—‘‘और आप ऐसा कह रह ह!’’
उसका सीधा यं य मेर च र पर था। इस बार एक हलक सी िखलिखलाहट भी उभरी।
‘‘हाँ, कम-से-कम मुझे तो ऐसा नह कहना चािहए।’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘पर मेर िम , यह सामा य थित
नह ह। यिद इस थित म म भी होता तो म भी इसका क रता से पालन करता। य िक पु ष क कठोरतम
एकजुटता को ये रित क अनुकितयाँ या वासना क पु िलकाएँ ही तोड़ सकती ह। इितहास इस बात का सा ी ह।
ीराम और ल मण क बीच कोई शूपणखा आ सकती ह तो कसे समझा जाए िक आप लोग क बीच कोई नह आ
सकता! राम को तो चौदह वष क बाद यु नह लड़ना था। उनका रा य तो सुरि त था। जा उनक य तापूवक
ती ा कर रही थी। भरत नंिद ाम से ही शासन चला रह थे। िसंहासन उनक खड़ाऊ क नीचे सुरि त था। उस
थित से आज क थित िब कल िभ ह। आज क थित म राम होते तो दि ण से भी उ ह लड़ना होता और
उ र से भी।’’
‘‘तो या आप समझते ह िक तेरह वष बाद भी हम यु लड़ना पड़गा?’’ इस बार शंका सीधे-सीधे धमराज ने क
थी।
मने कहा, ‘‘मुझे तो कोई थित ऐसी नह िदखाई देती, िजसक आधार पर म यह कह सक िक िबना यु िकए
आपका रा य िमल जाएगा।’’
‘‘पर इसक िलए अब कौरव का बहाना या होगा?’’ सरल िच युिध र ने ब त सोचते ए पूछा।
‘‘यह समय बताएगा।’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘समय आपका सबसे बड़ा श ु ह।’’
भिव यवािणय से भया ांत युिध र क िच क या थित ई होगी, इसे तो भगवा ही जाने; पर मने बड़
शांतभाव से बात आगे बढ़ा और कहा, ‘‘अंितम बात, पर बड़ मह व क बात एक ह िक इन तेरह वष क बीच
आप आखेट से िनरपे रह। ब क मेर कथन का ता पय यह िक आप जीव-ह या से दूर रहने का त ले
लीिजए।’’
भीम तुरत बोल पड़ा—‘‘आखेट नह करगे तो खाएँगे या?’’
मुझे हसी आ गई।
‘‘म जानता था िक कोई भी ि य इस वजना को सुनकर िवचिलत हो जाएगा—और यिद वह पेट आ तो तुरत
उसका िवरोध करगा।’’ मेर इस कथन पर और क अधर िखल गए।
मने अपनी बात को और प िकया—‘‘मेरी वजना इस आधार पर ह िक जंगल म यही पशु-प ी आपक
साथी और मागदशक ह गे। ऐसे लोग क ह या तो शा म भी विजत ह। और, रह गई आदरणीय अ ज (भीम)
क पेट भरने क बात! वह तो जंगली फल-फल से भी भरा जा सकता ह।’’
अपने कथन क पीछ क एक रह य का मने और उ ाटन िकया। मने कहा, ‘‘य िप आप वयं श शाली ह
और धम क श भी कम नह होती, िफर भी आपको अर य क िवरा श क आव यकता पड़ सकती ह।
इसक अित र आपक थायी श ु कौरव हर थित म आपको िवपि म डालने से बाज नह आएँगे। तब इ ह
पशु-पि य क िवरा सेना आपक साथ होगी—जैसे राम क साथ थी।’’
‘‘राम का युग दूसरा युग था, ारकाधीश!’’ इस बार धृ ु न बोला, ‘‘उस समय पशु म भी मानवता थी। आज
तो मनु य ही पशु हो गया ह।’’
‘‘इसीिलए तो हम जंगल क सहानुभूित क और भी आव यकता ह।’’ मने कहा और मेरा यं य लोग समझ, इसक
पहले ही म उठ गया।
सभा िवसिजत हो गई।
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कल ातः ही मुझे यहाँ से चल देना था, इसिलए सोचा िक य नह आज ही म ौपदी से भी िमलता चलू।ँ मने
उसे वचन भी िदया था।
राि का थम हर। काितक क ओस से धरती क भीगी धूल मेर पद ाण म िचपकती गई। जब म ार पर
प चा तो ार बंद था। भीतर िकसी पु ष से बात करती ौपदी का अ प वर सुनाई पड़ा। म ार पर ही िठठक
गया। हो सकता ह, म-प रहार कर रह पांडव म से कोई एक भीतर हो। ऐसे म या मेरा घुस पड़ना उिचत होगा?
म सोचता रहा। तब तक युिध र का क ा मुझे देखकर भ कने लगा। युिध र को क से ेम था। क े भी
जीवन भर उनक साथ रह और अंत म उ ह म से एक िहमालय म गलने भी गया।
लगातार क े का भ कना सुनकर भीतर से ौपदी बोली, ‘‘कौन ह? कौन ह बाहर?’’
‘‘म , क हया!’’
इतना सुनते ही वह एकदम ार क ओर झपटी।
‘‘अर, आपको तो आ ही जाना चािहए था। मने तो पछवा हवा से बचने क िलए ार बंद कर िलया था।’’
‘‘कोई बात नह ।’’ मने देखा, न वहाँ युिध र थे और न पांडव म से कोई और। पर था िशशुपाल का पु
धृ कतु और उसक बहन—नकल क प नी करणुमती।
‘‘ मा करना! म तुम लोग क गंभीर मं णा क बीच बाधक आ।’’
‘‘नह , ऐसी कोई बात नह ह।’’ ौपदी बोली। उसने करणुमती क ओर संकत करते ए कहा, ‘‘हम लोग इसे
समझा रह ह िक यह अपने भाई क साथ चली जाए। यह अपने िपतृगृह म सुरि त रहगी।’’
‘‘सारी सुर ा क िचंता मेर ही िलए ह, जीजी क िलए नह !’’ करणुमती ने कहा, ‘‘आिखर ीराम क साथ सीता भी
थ िक नह । वैसे ही म भी अपने पित क साथ र गी।’’
‘‘हाँ, तभी न वह राम क िलए िवपि बन । राम को िजन सम या का सामना करना पड़ा, उनम से अिधकांश क
मूल म सीता थ ।’’ म बोला, ‘‘और मने बार-बार कहा ह िक आपक सम या ीराम क सम या से िब कल िभ
ह।’’ िफर मने करणुमती को समझाया—‘‘राम क िलए एक साल का अ ातवास नह था। आप या समझती ह,
पांडव कभी कौरव क गु चर यव था से ओझल हो पाएँग!े वह सदा उनक साथ लगी रहगी और अ ातवास क
समय तो उनक हजार आँख उनका पीछा करगी। ऐसी थित म तो उ ह अपने को िछपाना ही किठन होगा, तुम तो
उनक िलए और संकट हो जाओगी।’’
‘‘म ही संकट होऊगी? या जीजी संकट नह ह गी?’’ करणुमती अपने हठ पर ढ़ थी।
मुझे प रहास सूझा। मने कहा, ‘‘तु हारा तो शरीर ऐसा ह िक यिद उसे काटा जाए तो उसम से यिद तीन नह तो
ढाई जीिजयाँ अव य िनकल आएँगी। (‘करणु’ का एक अथ हिथनी भी होता ह, इसीिलए वह अव य थूलकाय
रही होगी) इसीिलए तु ह िछपाने म जीजी से ढाई गुना अिधक किठनाई होगी।’’
इतना सुनते ही जोर का ठहाका लगा। करणुमती भी पहले मुसकराई, िफर ल ा से उसक आँख झुक ग । मने
भी अनुभव िकया, आिखर वह मेरी बहन ही ह और वय म भी काफ छोटी ह। मुझे ऐसा प रहास नह करना
चािहए।
मने तुरत बात बदली—‘‘ ौपदी तो पांडव क अिनवायता ह। उसक िबना उनका काम नह चल सकता; पर
तु हार िबना तो उनका काम चल जाएगा।’’
वह कछ नह बोली।
िफर भी म उसे समझाता रहा—‘‘जानती हो, अ ातवास क समय तु हार पित का पता लगाने क िलए ह तनापुर
क गु चर तु ह ही पहली सीढ़ी बनाएँगे; य िक तुम उनक िलए च ट फसाने क िलए गुड़ का काम करोगी।’’
वह सोच म पड़ गई।
मने धृ कतु क कान म धीर से कहा, ‘‘अ ातवास शु होते ही तुम इसे ारका लाकर मेर यहाँ छोड़ देना;
य िक तु ह कौरव बड़ा परशान करगे। तुम शायद न जानते हो िक अपने भाइय क बीच दुय धन ने गु चर मुख
से कहा था िक ‘वनवास आरभ होने क दस-पं ह िदन बाद नकल आया था और एक रात अपनी प नी को लेकर
चुपचाप गुम हो गया।’ उसक इस कथन का कछ अथ ह।’’
धृ कतु मुसकराता आ मेरा चेहरा देखता रह गया। उसक मुसकराहट म मुझे अपनी कटनीित क वीकित िदखाई
दी।
‘‘इससे तो लगता ह, कौरव क गु चर क से ारका शायद ही बची रह। पर जो भी होगा, मेर िलए सम या
आप लोग से कछ कम ही उ प होगी।’’
मेरी और धृ कतु क ये बात ब त धीर-धीर हो रही थ । ौपदी को यह अ छा नह लगा। उसने मुसकराते ए
ही कहा, ‘‘आप लोग को यिद कान म ही बात करनी ह तो किहए, हम कह और चली जाएँ!’’
मने अपनी बात पर और बल िदया—‘‘यह गोपनीय बात मने आप दोन क सम ही करना उिचत समझा, िजससे
आप लोग भी समझ िक ये बात आप ही लोग क संबंध म क जा रही ह, िफर भी आपसे िछपाई जा रही ह।’’
‘‘ या म जान सकती िक ऐसा य ह?’’ न तो करणुमती का ही था, पर पूछा कवल ौपदी ने।
‘‘ य िक नारी वभाव क धता पर कटनीितक गोपनीयता बड़ी ज दी िफसल जाती ह।’’ मेरी बात सुनकर सभी
हस पड़।
दूसर िदन जब म ारका क िलए चल पड़ा तो ौपदी ने मुझे टोका—‘‘आज तो आप मुझसे कछ िवशेष बात
करने वाले थे।’’
मुझे मरण आया िक सामूिहक वा ा क समय िकसी बात क संदभ म मने कहा था िक उसक िवषय म म िफर
कभी बात क गा। उस समय मने उसे चुप करने क ही िलए कहा था। इस समय म िफर टाल गया—‘‘जब कहा
था तब कहा था। तब से समय ब त आगे बढ़ गया।’’ और एक नाटक य अ हास म मने उसे उड़ा देना चाहा।
पर ौपदी गंभीर हो गई। मेरा अ हास उसक गंभीरता िहला नह पाया। तब मने कहा, ‘‘अभी या सोचती हो! हो
सकता ह, समय हम िनकट भिव य म िफर िमलने क िलए िववश कर।’’
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हम ारका चले आए। िदन बीतते गए।
िचंता तो लगी रहती थी। मेरा सारा प रवार िचंितत रहता था।
माँ ने तो यहाँ तक कहा, ‘‘उन लोग को ारका ही लाना था। बारह साल यह िबताते, िफर अ ातवास क समय
कह चले जाते।’’
‘‘मने इस संदभ म भी सोचा था।’’ मने माँ को बताया—‘‘पर युिध र इस ताव को वीकार न करते। न तो यह
उनक धम क अनुकल होता और न हारी ई बाजी क शत क अनुकल। उ ह तो अर य म िनवास करना ह—
राजधानी म नह , वैभव क िनकट नह ।’’
माँ चुप तो हो गई; पर िचंता उसे घेर रही।
समय क परत पर परत पड़ती गई। घटना भी पुरानी पड़ने लगी। पीड़ा भी धुँधलाती गई। अचानक एक िदन
गु चर से सूचना िमली िक कौरव ने दुवासा क मा यम से एक ष ं रचा ह। ष ं का िव तृत िववरण तो
नह िमला, पर गु चर ने यह बताया िक ह तनापुर म एक िदन महिष दुवासा पधार थे। दुय धन और कण ने
उनका खूब सेवा-स कार िकया ह। महिष स हो गए। उ ह ने वरदान माँगने को कहा।
य िप दुवासा ब त कम वरदान देने क थित म होते थे। ऐसे ोधी कित का ऋिष या, य भी शायद
िदखाई दे। ोधा न तो सारी तप या को भ म कर देती ह; िफर भी उनक तप या िहमिग र क िशखर-सी कभी
गलती ही नह । ऋिष परपरा क एकमा अपवाद ह दुवासा।
वह वरदान माँगने को कह तो अव य अनहोनी बात ह। ज र इससे कौरव ने पांडव क िव उनका उपयोग
करने का अवसर ा िकया होगा। पर मेर गु चर यह न बता सक िक उनका या उपयोग होगा; पर उ ह ने यह
अव य बताया िक जब वे लौट रह थे तो महिष अपने िश य क साथ का यक वन क ओर जाते िदखाई िदए थे।
‘‘और पांडव का कछ पता ह?’’ मने गु चर से पूछा।
‘‘वे भी अभी का यक वन म ही ह।’’ गु चर म से एक ने बताया।
मेरी आशंका को बल िमला। अव य ही कोई ष ं ह। यिद समय रहते ही उसका उपचार न िकया गया तो
पांडव िन त प से िकसी संकट म पड़ जाएँगे।
मेर म त क म मंथन शु आ। म इस िन कष पर प चा िक मुझे तुरत वहाँ प चना चािहए; य िक ऋिषवर
वहाँ प च चुक ह गे।
ारका से ब त तेज चलने क बाद भी का यक वन दो िदन का माग तो था ही। मने तुरत दा क एवं छदक को
बुलाया और िकसीसे िबना िकसी कार क मं णा िकए चल पड़ा।
छदक ने कहा भी—‘‘आप तो हमेशा वयं िवपि म कद पड़ते ह। अर, कछ शांित से जीने क भी कभी
सोिचए!’’
म जोर से हसा; य िक म उस समय िववाद करने क थित म नह था। मने कहा, ‘‘चलो, माग म ही बात
ह गी।’’
लोग को यह तो सूचना थी िक म कछ िदन क िलए ारका छोड़ रहा ; पर कहाँ जा रहा , िकसीको पता
नह । कवल माता-िपता और भैया से बताया िक म पांडव से िमलने जा रहा ।
माता-िपता तो कछ बोले नह , कवल भैया ने ही आपि क —‘‘पांडव क संबंध म ही सोचोगे या कभी अपनी
जा क ओर भी देखोगे? कभी सोचा ह िक हमारी पकड़ जा पर कमजोर होती जा रही ह!’’
‘‘आप कहते तो ठीक ह; पर इस समय पांडव को मेरी बड़ी आव यकता ह।’’
‘‘आव यकता तो उ ह तु हारी हमेशा बनी रहगी।’’ इतना कहकर भैया चले गए। प लगा िक वे न तो मेर उ र
से संतु ह और न मुझसे स ।
भैया याय और अ याय से तो भािवत होते थे, पर क या वह पांडव और कौरव क मामले से दूर ही रहना
चाहते थे। िफर भी रथ म बैठने क पहले मने उनक चरण छए और आशीवाद िलया। न उ ह ने िव तृत जानकारी
चाही और न मने कछ कहा।
माग म इसी संदभ को छदक ने उठाया—‘‘भैया काफ नाराज मालूम होते ह।’’
‘‘नाराज तो ह; पर तु ह सोचो, या म पांडव को छोड़ सकता ? और यिद छोड़ भी दूँ तो या संसार िव ास
करगा? अब तो कछ ऐसी प र थितयाँ बन गई ह िक उनक जय-पराजय हमार साथ जुड़ी ह। और िफर यह कवल
कौरव और पांडव का यु नह ह। यह यु ह स य और अस य का, धम और अधम का, याय और अ याय
का। यह यु ह पाशिवकता से पोिषत मह वाकां ा और मानव क सहज संतोष का—और म ऐसे म तट थ रह
जाऊ, यह कसे हो सकता ह?’’
‘‘तब आप खुलकर सामने य नह आते?’’ छदक ने साफ-साफ कहा, ‘‘म य रखा पर चलते ए एक ओर
झुका रहना— या यह दूसर क ित छल नह ह? या तो आप संसार क साथ छल कर रह ह या कौरव क ित।’’
मुझे हसी आ गई। मने हसते ए कहा, ‘‘म छल नह , नट क लीला कर रहा । म देख रहा िक िकस सीमा तक
नीित और अनीित क बीच कसी डोर पर संतुलन साधा जा सकता ह। अंत म तो वह होना ही ह, िजसक ओर
तु हारा संकत ह।’’
‘‘जब अंत म वही होना ह तो य नह वह अभी से हो जाए? लोग य परशान ह ? आप भी उलझे रह और पांडव
भी तेरह वष तक वन क धूल फाँक!’’
‘‘ य िक वह अभी से हो नह सकता।’’ म हसते ए ही बोलता रहा—‘‘िजस व तु को जब होना होता ह, वह तभी
होती ह।’’ मने उसीसे न िकया—‘‘एक िदन तेर बाल पक जाएँग।े आकित पर झु रयाँ उभर आएँगी। तू वृ हो
जाएगा। तू यिद चाह िक अभी से वृ हो जाए तो या तू वृ हो सकता ह?’’
‘‘इसका तो ता पय यह आ िक काल पर िकसीका िनयं ण नह ह।’’
‘‘ वयं काल का भी नह ।’’ मने कहा, ‘‘काल को भी अपने िनयम क अनुसार ही चलना पड़ता ह। जैसे राजा
रा य क यव था का िनयामक होता ह, सार िनयम उसक बनाए होते ह; पर वह उन िनयम क ऊपर नह होता।
ये िनयम ही राजस ा क मदमाते हाथी पर अंकश होता ह, छदक! जैसे िनरकश मतवाला हाथी सबकछ तहस-नहस
कर देता ह वैसे िनरकश राजस ा वयं अपना नाश कर लेती ह। जो राजा वयं िनयम का पालन नह करगा, वह
जा से या आशा रख सकता ह! और काल जब अपने िनयम तोड़ता ह तब जानते हो, या होता ह?’’
छदक मेरा मुँह देखता रह गया।
‘‘तब होता ह लय! काल क ही िनयम का काल म ही लय होना लय ह।’’
जब हम का यक वन प चे, एक घड़ी िदन िनकल आया था। हम लोग तो सर वती म ान- यान करक प चे
थे और सोचा था िक आज का ातः जलपान पांडव क साथ ही होगा; पर लोग िचंितत मु ा म बड़ गंभीर िदखाई
िदए। मुझे अचानक देखकर सभी चिकत थे। हर य मेरी आव यकता का अनुभव कर रहा था। पर उ ह
िव ास नह था िक उनक मरण मा से म उप थत हो जाऊगा।
सभी स िदखे। सूखते धान पर जैसे पानी पड़ा। मेर आने क पहले अव य ही ये बड़ दुःखी रह ह गे, इसका
आभास मुझे हो गया।
‘‘यह आपका महा अनु ह ह, ारकाधीश, िक इस बार आप ला ागृह जलने क पूव ही आ गए।’’ युिध र ने
कहा और वे भी बड़ स िदखे।
‘‘ य ? या िफर कोई लाख का महल बनाया गया ह?’’ मने हसते ए पूछा।
‘‘वह भी एक ष ं का महल था, जो लाख का था।’’ युिध र ने अपने कथन का िव तार िकया—‘‘इस बार
ष ं का महल महिष दुवासा क ोध का ह। जल उठना दोन क िनयित ह।’’
‘‘और आप सबका बच जाना भी उसी िनयित का एक प होगा।’’ मने उ ह क वर म वर िमलाते ए कहा और
सभी क आकितयाँ िखल ग । प लगा िक वे गंभीर तनाव से मु ए।
युिध र ने मुसकराते ए कहा, ‘‘अब आप उठ। ान- यान से िनवृ ह । अब हम अपनी सारी िचंता क हया
को स पते ह।’’
म मुसकराता आ सुनता रहा। पर मुझे अभी तक पता नह था िक पांडव क िचंता या ह। म चुपचाप ौपदी
क पास गया। वह भोजनालय म थी। यह पहली बार था िक उसका अह मेर चरण म पड़ा था।
उसक आँख भर आई थ । वह िससकती ई मुझसे िलपट गई। मने उसक आँसू प छ।
‘‘सचमुच आप भगवा ह, जो अपने भ क पीड़ा सुनकर दौड़ पड़ते ह।’’
‘‘बहन क पीड़ा सुनकर तो हर भाई दौड़ पड़ता ह, तो या वह उसका भगवा ह?’’
‘‘ या बात करते ह आप भाई क !’’ ‘भाई’ श द सुनते ही वह एकदम उबल पड़ी—‘‘भाई का करतब तो आप
देख ही रह ह। आज भाई अपने भाई क गरदन काटने क िलए तैयार ह। इसीका फल हम भोग रह ह—और आज
उसका चरम उ कष हम भोगने जा रह ह।’’
‘‘तुम यह कसे कह सकती हो िक जो होने जा रहा ह, वह कौरव क नीचता का चरम उ कष ह?’’ मने पूछा।
वह ण भर क िलए क । िफर बोली, ‘‘जब दुवासा का ोध हम भ म कर देगा तब हम और या भोगने
लायक रह जाएँगे?’’
इसक बाद उसका धधकता ोध कौरव क ओर भभका। अपने िव बनाए गए उस ष ं को उसने बताना
आरभ िकया, िजसका आधा-तीहा भी म नह जानता था।
उसने बताया—‘‘सुना ह, महिष दुवासा ह तनापुर गए थे। वहाँ हमार तथाकिथत भाइय ने उनक खूब सेवा-शु ूषा
क । उ ह ने उ ह स कर िलया। तब उ ह ने कहा, ‘तुमने मेरी इतनी सेवा क । मुझे इतना िखलाया-िपलाया। म
चाहता िक मेर िश य का भी एक िवरा भंडारा हो जाए।’
‘‘इतना सुनते ही शकिन ने िफर अपना दाँव खेल िदया—‘मने सुना था िक आपक िश य का एक िवरा भंडारा
पांडव का यक वन म करना चाहते ह।’
‘‘ ‘ऐसा!’ दुवासा सुनकर बड़ स ए और का यक वन आने का उ ह ने िन य िकया।’’
‘‘इस बात का तो मुझे पता चला था।’’ मने कहा, ‘‘जो कछ मने सुना था, वह दूसर ढग का था।’’
‘‘वह या था?’’ ौपदी ने पूछा।
‘‘मने सुना था, कौरव ने अपनी सेवा और आवभगत से दुवासा को स िकया। तब महिष ने उनसे वर माँगने को
कहा। तब दुय धन ने कहा िक मेरी ाथना ह िक आप का यक वन जाएँ और पांडव से वैसा ही भंडारा ल जैसा
आप हमसे चाहते ह—और यिद वे न द तो उ ह शािपत कर।’’
‘‘तब या कहा महिष ने?’’
‘‘वे कहते या!’’ म मुसकराते ए बोलता रहा—‘‘ऐसे अवसर क िलए उनक पास मा एक श द ह—
एवम तु।’’
‘‘ह भगवा ! अब तो आशंका भी स य म प रवितत हो गई।’’ ौपदी माथा ठ कते ए बोली, ‘‘इसका ता पय ह
िक महिष अपने सभी िश य क साथ पधारगे।’’
‘‘पर कब आएँगे वे, अभी तो िन त नह ह। तब अभी से य होने क आव यकता या?’’
‘‘मेर भाई, वे आज ही आ रह ह गे—और ब त आ तो कल तक आ जाएँगे।’’ ौपदी ने खीजते ए कहा और
बताया—‘‘एक बार वे आ चुक ह। हम लोग ने उनक बड़ी आवभगत क थी। बड़ स ए और कहा िक हम
अपने सभी िश य क साथ तु हार यहाँ भोजन करगे।’’
‘‘तब तु हार धमराज बोल उठ ह गे िक अव य पधार।’’ मने कहा।
‘‘वे तो आ यजनक प से मौन थे। उ ह ने चरण पश करते ए बस इतना ही कहा था—‘जैसी आपक इ छा।
आप तो अंतयामी ह। हमारा आपसे कछ िछपा नह ह।’ ’’
मने मन-ही-मन सोचा िक अ ुत तप वी ह यह दुवासा भी, िजसे अपने मान-अपमान का जरा भी िवचार नह । तब
तक ौपदी वयं बोल उठी—‘‘आितथेय क असमथता से लाभ उठाते हमने िकसी अितिथ को अभी तक तो देखा
नह ।’’
‘‘पर वे अितिथ ह या?’’ मेरी आवाज और गंभीर ई—‘‘न वे शा ीय से अितिथ ह और न यावहा रक
से। अितिथ का आगमन तो अ यािशत होता ह। तब आितथेय को अपनी असमथता कहने क गुंजाइश रहती
ह। लोग समझते भी ह। पर इस थित म कोई या कर सकता ह! पर दुवासा तो तु हार श ु ारा यु एक
अमोघ अ क तरह तुम लोग पर आ िगरगे।’’
‘‘तब या होगा?’’
‘‘तु हारी िवजय होगी।’’ मने मुसकराते ए कहा।
ौपदी चिकत थी। वह मेरा मुख देखती रह गई। िफर बोली, ‘‘तुम हस रह हो! िवपि को आस देखकर भी हस
रह हो!’’
‘‘इसिलए िक िवपि भी हसता देखकर एक बार चकरा जाए। तुमने मुझे कभी रोते देखा ह? आँसू तो अनेक बार
आए ह गे, पर दुःख क नह ।’’ मने उसे अपने जीवन का गुर बताया—‘‘म कािलय क फन पर भी नृ य कर रहा
था। य व को ऐसा बनाइए िक उसे देखकर िवपि भी चिकत रह जाए। िफर ोध से ोध को नह जीता जा
सकता और न अहकार को अहकार से।’’
वह मेरी बात समझ न पाई। मने तुरत बात बदली—‘‘महिष क िलए तुमने या तैयारी क ह? उ ह और उनक
िश य को िखलाने क िलए तु हार पास या ह?’’
‘‘कछ भी नह ।’’ उसने अ यंत शी ता से कहा।
मुझे िफर हसी आ गई।
वह झुँझलाई—‘‘हसते या हो! जो कछ था, अभी तु ह िखला िदया। खाली हाँड़ी पड़ी ह।’’
‘‘खाली हाँड़ी!’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘हाँड़ी कभी खाली नह हो सकती। वह कछ-न-कछ हमेशा अपने पास
रख लेती ह। यह उसक कित ह।’’
वह बड़ आवेश म उठी और उसक अनुसार जो खाली हाँड़ी थी, उसे उठा ले आई। उसने उसे िदखाते ए कहा,
‘‘देखो, यह खाली नह तो और या ह!’’
‘‘पर मुझे तो यह खाली नह िदखाई दे रही ह।’’
अब वह और भी चिकत ई। उसने वयं हाँड़ी म डाली। चावल क दो-चार उबले दान क अित र और
कछ िदखाई नह िदया।
उसने कहा, ‘‘हाँड़ी क दीवार से चावल क कछ उबले दाने िचपक ह।’’
‘‘तब यह खाली कहाँ ह? ये दो-चार दान ही ब त ह।’’ म मुसकराता रहा। उस रह य भरी मुसकराहट म वह
डबती चली गई।
िफर मेरी अितशय गंभीर विन फटी—‘‘ ौपदी, इसे अ छी तरह समझो िक ोध अहकार का ही िशशु ह और
अहकार अ ान से पैदा होता ह। अहकार से पैदा होने क बाद ोध अपने िपतामह अ ान क छाया म ही रहता ह।
जहाँ अ ान हटा िक ोध भी लु और अहकार भी।’’
ौपदी ने मुझे सुना बड़ी गंभीरता से, पर वह समझ नह पाई। उसने कोई िज ासा नह क । कभी उस खाली
हाँड़ी को और कभी मेरा मुँह देखती रही। व तुतः वह रह य क और गहराई म डब गई।
मने उसे िफर समझाया—‘‘आज या कल, जब भी महिष और उनक िश य पधार तो आप सभी लोग उनका खूब
स मान करना।’’
उसने बीच म ही टोका—‘‘मेर ि तीय पितदेव (भीम) तो कहते ह िक आप लोग घबराते य ह? आते ही उस
दाढ़ीवाले को उठाकर ऐसा पटकगा िक शाप देना तो दूर, उसक आवाज तक िनकल नह पाएगी।’’
‘‘इससे अिधक उनका सोच जा ही नह सकता।’’ मने हसते ए कहा और अपनी बात क छटी डोर पुनः थाम ली
—‘‘उनक आवभगत म िकसी कार क कमी मत करना। यह बात म अभी चलकर पांडव को भी समझाता
िक वे उनक पूरी अचना और अ यथना कर। उनक पद पखार, चरणामृत ल। उ ह भोजन क िलए बैठा भी द।’’
‘‘आप भी िविच बात करते ह!’’ ौपदी िफर झुँझलाई—‘‘जब हम भोजन क िलए बैठा ही दगे तो या
िखलाएँगे?’’
‘‘उनका अहकार ही उनक सामने परोस देना।’’ इतना कहकर म िफर हसा। एक ण क िलए का, िफर बोला,
‘‘हर प ल पर, िजसे तुम खाली हाँड़ी कहती हो, उसे उड़लती चली जाना।’’
‘‘अर बाप र बाप!’’ इतना सुनते ही वह बोल उठी—‘‘वे समझगे िक हम िचढ़ा रही ह। उनका ोध तुरत भभक
पड़गा। तब तो वे यिद न भी शािपत करना चाहगे, तो भी शाप दे दगे।’’
‘‘शािपत करना इतना आसान नह ह।’’ मने कहा, ‘‘शािपत करने क पहले य ब त सोचता ह।’’ िफर िवचार
आया िक ऐसा तो शोकज य शाप म होता ह। मु यतः शाप दो थितय म िदए जाते ह। एक तो महा क या
दुःख क ण म—जैसा वणकमार क िपता ने राजा दशरथ को िदया था तथा दूसरा ोधज य होता ह। दुवासा क
ोध को सोचने का अवसर कहाँ िमलेगा िक वह हाँड़ी का एक दाना देख और चेतना तुरत िहल उठ। उसे तो
झकझोरना पड़गा।
तब मने ौपदी को समझाया—‘‘अ छा, तुम एक काम करना। उनसे कहना—‘क हया आए थे, खा गए। जब
हमने िश य क साथ आपक पधारने क बात कही, तब वे एकदम हस पड़ और बोले िक वे तो तु ह शािपत करने
ही आ रह ह। उ ह ने तु ह शािपत करने का वचन कौरव को िदया ह। उ ह पेट भर िखलाओ, चाह न िखलाओ, वे
िकसी-न-िकसी बहाने तु ह शाप दगे ही।’ ’’
‘‘पर इतना कहने से या होगा?’’ ौपदी और िचंितत ई।
‘‘उनक चेतना हाँड़ी से िचपक अ क दान म अपना अहकार देखने लगेगी।’’
जैसे उसे िव ास नह आ।
‘‘अ छा, तुम एक बात और कहना िक ‘क हया यह भी कह रह थे िक अ ुत ऋिष ह दुवासा भी। वरदान और
शाप इतना िबखेरने पर भी न उनक स ता चुक ह और न ोध ही। हाँ, िचंतन अव य चुक गया ह।’ ’’
‘‘यह कसे कह सकती ?’’
‘‘ या बात कहती हो, ौपदी!’’ म बोला, ‘‘तुम तो वह कह सकती हो, जो तु हार पित नह कह सकते; य िक
तुमम य क धधकती आग ह। उसपर पड़ी संकोच क राख उड़ाओ और भ म कर दो दुवासा क ोध को।’’
वह िफर सोचती रह गई।
‘‘जरा भी मत घबराओ। मने जो भी कहा ह और जैसे भी कहा ह वैसे कह देना।’’ मने कहा, ‘‘म इस थित क
िलए धमराज को भी एक मं देता और अ य पांडव को भी तैयार करता ।’’
‘‘अर र र, ऐसा मत क िजए। धमराज कह कछ-का-कछ न कह द।’’ ौपदी बोली।
‘‘ऐसा कसे होगा िक वे कछ-का-कछ कह दगे! जब म कहने को क गा तो वे वही कहगे, जो म क गा। िव ास
न हो तो तुम भी मेर साथ आओ।’’
हम दोन भोजनालय से िनकले। छदक बाहर ही टहल रहा था। मने देखा िक वह अितशय गंभीर ह। मने उसे
िलया और पांडव क िशिवर क ओर आया।
िशिवर क पास ही, वट क नीचे क िवशाल चबूतर पर पौष क धूप म लोग मृगछाला पर थ पड़ थे। ऐसे
िचंितत जैसे िकसी िनदय द यु ारा लूट िलये गए ह । उनक मानिसकता िन पाय तथा अंधकार म भटक उस
बटोही क तरह थी, िजसे आगे का हर रा ता बंद िदखाई देता ह।
मने प चते ही उ ह झकझोरा—‘‘आप तो यु क पहले ही हार मानकर धराशायी हो गए दीखते ह।’’
‘‘तो या क ? गीत गाऊ? नाचू?ँ मं ो ार क ?’’ भीम अपनी कित क अनुसार बोला, ‘‘अब आप ही
बताइए, या क ? दुवासा क चढ़ाई अभी अपने िश य क साथ होने वाली ह।’’
‘‘अभी होने वाली ह!’’ मने कहा, ‘‘यह तु ह कसे मालूम?’’
‘‘एक चारी सूचना दे गया ह।’’
‘‘तब आप लोग उिठए और वागत क तैयारी क िजए।’’
‘‘म वागत क गा! शािपत करनेवाले का वागत क गा!’’ ोध म काँपता भीम उठा—‘‘हाँ, म उसक जाँघ पर
चढ़कर उसक दो टकड़ कर सकता ।’’
मने हसते ए उसक ोध को थपथपाया—‘‘यह तो तुम कर ही सकते हो और ब त का िकया भी ह! तु हार
सामने दुवासा या ह! मु ी भर हाड़-मांस का य ! पर तु ह यह सब नह करना ह। तु ह तो उस सप का
कवल िवषदंत तोड़ना ह—और यह तु हार वश का काम नह ह।’’
‘‘तब िकसक वश का काम ह?’’ भीम िफर बोला।
मने देखा िक इस बार अजुन ने उसका हाथ दबाया। वे लोग मेरी बात सुनने क मु ा म ए।
‘‘मुझे जो ौपदी से कहना था, वह कह चुका और जो आपसे कहना ह, उसपर यान दीिजए।’’ िफर मने वे
सारी बात सं ेप म कह सुना , जो ौपदी से कही थ । िफर धमराजजी को संबोिधत करते ए बोला, ‘‘इसक बाद
आपक भूिमका शु होती ह।’’ म बताता रहा—‘‘जब तक ौपदी अपनी भूिमका करती रहगी, आप सब करब ,
िनतांत िचंताकल मु ा म िसर झुकाए एक पं म महिष का वागत करते ए खड़ रहगे। एकदम चुप, मौन,
मूितव ।’’
‘‘यिद वे हमसे कछ पूछगे तो भी हम मुँह सीए ही रहगे?’’ भीम क इस कथन म मुझे अपने ित प रहास क कछ
गंध लगी।
‘‘यह समय प रहास का नह ह।’’ मने कछ िचढ़कर कहा, ‘‘आप इसे प समझ िक िजस गंभीर सम या पर
िवचार चल रहा ह, वह मा एक िदन क घटना नह ह और न कवल आज समा होनेवाली कोई बात ह; वर
आपक वनवास क पूर काल म अनवरत चलनेवाले यु क आरिभक अवतारणा ह। यिद आप इसम ही हार जाएँगे
तब तो वनवास का समय काटना आपक िलए किठन हो जाएगा। यिद पहली फफकार क समय ही नाग का मुँह
कचल गया, तब तो वह िफर इधर मुँह फरकर देखेगा भी नह ।’’
अब सभी भाइय क आँख भीम क ओर ग । सभी क य ने उसे दबाया। वह अब शांत आ। मने िफर
अपनी मूल बात आगे बढ़ाई।
मने धमराज से कहा, ‘‘जब ौपदी अपनी बात समा करगी और आपको लगे िक हाँड़ी म िचपक अ का
दाना महिष क अहकार को परा त नह कर पाया, उनक ोध म िव फोट होने ही वाला ह, तब आप किहएगा
—‘महाराज, यिद आज हमारी माँ हमार साथ होत तो हम यह िदन शायद देखना न पड़ता। उ ह देखने क बाद
आपका न ोध रह जाता और न आप हम शािपत करने क थित म होते।’ ’’
इतना सुनते ही सबक नवाची हो गई। म मुसकराया; य िक म वह जानता था, िजसका आभास भी इन
लोग को नह था। िकसी संदभ म कभी मने कती बुआ क बचपन म दुवासा क सेवा और उनक आशीवाद क
कथा सुन रखी थी।
िकतु मने वह कथा बतानी उिचत नह समझी। कवल अपनी बात आगे बढ़ाई और धमराज को संबोिधत करते
ए कहता गया—‘‘जब देिखएगा िक अभी बात आगे नह बढ़ी तब वा य या अमोघ बाण मा रएगा—‘हम लोग तो
आपक मं ज* पु ह।’ बस इतना सुनते ही सप धरती पर ही अपना फन पटकने लगेगा। िफर भी आप कहते
जाइएगा—‘जब हम आपक पु ह तो या कोई िपता अपने िनरपराध पु को कभी शािपत करना चाहगा? वह भी
तब जब उनका राजपाट छीन िलया गया हो और वे िन पाय वन-वन भटक रह ह ।’ ’’
पूरी बात सुन लेने क बाद युिध र अपनी िज ासा रोक नह पाए—
‘‘मं ज पु का या रह य ह?’’
‘‘इस रह य को जानने का यह समय नह ह, धमराज! आपको आम खाने से मतलब ह, न िक गुठिलयाँ िगनने से।
तो जैसा मने कहा वैसा क िजए।’’
मने ऐसे ढग से कहा था िक इसक बाद लोग को बात बढ़ाने का साहस न रहा। समय भी बड़ी तेजी से भाग रहा
था। मने देखा िक ईशान (उ र-पूव) क ओर से आकाश म कछ प ी उड़ते चले आ रह ह। थोड़ी देर बाद कछ
जंगली पशु भी दौड़ते ए उसी िदशा से आने लगे। प लगा िक कोई मानव समूह उधर से आ रहा ह। िकतना
िविच ह, जंगल म मानव समूह जाता ह तब पशु-पि य का समूह भागने लगता ह।
‘‘लगता ह, महिष अपने िश य क साथ आ रह ह।’’ मने कहा, ‘‘अब मुझे जाने दीिजए।’’
पांडव कछ बोल नह पाए। वे अब भी काफ घबराए ए थे।
म छदक को लेकर चल पड़ा। छदक पहले अपने िशिवर क ओर बढ़ा।
‘‘इस समय िशिवर म चलना ठीक नह । तुम दा क को तुरत रथ क साथ ले जाओ। म दि ण क ओर बढ़ रहा
।’’
‘‘तो या हम लोग उधर से सीधे ारका चले चलगे?’’
‘‘िजस बड़ नाटक क तैयारी क गई ह, उसक फल ुित क िबना ही!’’ मने मुसकराते ए कहा।
थोड़ी देर बाद दा क रथ दौड़ाता आ मेर पीछ आ गया। उसी पर छदक भी था। म उसी रथ से और दूर जंगल क
ओर िनकल गया। िज ासा तो थी ही। मने रथ कवाया और छदक से बोला, ‘‘जरा देखना चािहए िक या होता
ह!’’
‘‘म भी तो यही कहना चाहता था।’’ छदक बोला, ‘‘पर आप तो एकदम चल पड़।’’
‘‘चल पड़ तो या आ! कोई ारका जाने क िलए तो नह चल पड़।’’ मने कहा, ‘‘अभी तो सारा सामान िशिवर
म पड़ा ह।’’
िफर हम लोग ने रथ छोड़कर ऐसे थान क खोज आरभ क , जहाँ से वह थान िदखाई पड़ जहाँ पांडव का
िशिवर ह।
‘‘वह थान ऐसा भी होना चािहए िक वहाँ से कोई हम देख न सक।’’ मने कहा।
खोजते-खोजते एक पुराने मंिदर का भ नावशेष िदखाई िदया, िजसका खंडहर अपने म पुरानेपन क िसवा और
कोई िच रख नह पाया था। वहाँ न कोई िशविलंग िदखा और न उसक अरघा, न नंदी तथा न िकसी कार क
कोई और मूित। हम लोग उसीक टटी दीवार पर चढ़ गए। यहाँ से सबकछ िदखाई पड़ रहा था। हमारी दािहनी ओर
उगे पीपल क एक शाखा क उप थित हम अपनी छाया म िछपा लेने क िलए भी यहाँ उप थत थी। हम लोग
उसी बड़ी दीवार पर बैठकर अवा नाटक देखने लगे।
िश य क काफ लंबी कतार। आगे-आगे दाढ़ी-मूँछ से यु एवं शायद संसार क सबसे लंबी कायावाला एक
तेज वी य व िदखाई िदया। िन त ही यह दुवासा ही ह। दूर से उ ह आता देखकर धरती पर लेटकर सभी
पांडव ने उ ह दंडव णाम िकया। भीम तुरत एक बड़ से कां य पा म जल ले आया। युिध र ने गु एवं
िश य सबक चरण धोए। पूर प रवार ने चरणामृत िलया। िफर सभी िश य को वट क नीचे बैठाया गया।
हम लोग देख तो सब रह थे, पर उतनी दूर से हम कछ सुनाई नह दे रहा था। तब तक छदक बोला, ‘‘मुझे
स ता ह िक सबकछ आपक कथनानुसार ही हो रहा ह।’’
‘‘यह तो ठीक ह, पर देखो, इसका प रणाम या होता ह!’’ म बोला।
‘‘प रणाम भी आपक कह अनुसार ही होना चािहए।’’ छदक ने कहा।
‘‘होना चािहए।’’ मने कहा, ‘‘पर इसका होना न होना हमार हाथ म नह ह—और यही हमार दुःख का एक बड़ा
कारण ह, छदक, िक जैसे कम मनु य क हाथ म होता ह वैसे ही वह उसक फल को भी अपने हाथ म समझता ह;
जबिक उसपर िनयित का अिधकार ह।’’
‘‘यह या तमाशा ह!’’ छदक एकदम उखड़ गया—‘‘तब मनु य कम क ओर े रत य होगा? कम हम करगे
और फल आप दगे?’’
‘‘इसीिलए िक हमार कम क ित हमारी िनणायक बुि काम नह करती; जैसे आँख सबकछ देखती ई वयं को
नह देख पात ।’’ मुझे लगा िक छदक मेर कथन का दूसरा अथ भी िनकाल सकता ह। इसिलए मने अपने कथन
को थोड़ा और प िकया—‘‘वैसे ही हमारी ि यमाण बुि अपने कम का सही मू यांकन नह कर पाती।
अनजाने हम चूक पर चूक करते जाते ह और अभी फल क कामना करते ह।’’
‘‘िबना फल क आशा क मनु य कम क ओर े रत नह होगा।’’ अपनी कही ई बात पर छदक ने िफर जोर
िदया।
‘‘म कब कहता िक फल क आशा मत क िजए। फल पर भी रिखए, उसक आशा भी क िजए; पर उसपर
आस मत क िजए।’’ मने उसे और समझाया—‘‘फल पर आस से हमार कम कमजोर भी हो सकते ह और
सा य क िलए साधन क पिव ता भी खो सकते ह। यह भी हो सकता ह िक हमार कम भी हो जाएँ। दूसर,
जब हम फल पर अपना अिधकार नह समझगे तो अपने मनोनुकल फल न ा होने से हम दुःखी नह ह गे। एक
बात और ह। फल तक प चना ही कम क पूणता ह। इस पूणता पर एक कार का अहकार भी पैदा होता ह। हमने
यह िकया ह, हमने वह िकया ह। फल को दूसर क हाथ म समझने से हमम अहकार का भी ज म नह होता।’’
छदक मेरी बात पर गंभीरता से सोचने लगा था।
बाद म मोह त अजुन से जो मने ‘गीता’ कही थी, उसका एक अ याय उसी समय ज म ले चुका था। अब तक
सामने जो कछ हो रहा था या हो चुका था, उसे देखते ए भी हम उसे देख नह पाए थे। अब िदखाई पड़ा िक
वटवृ क नीचे पं म भोजन क िलए बैठ चा रय को िदखाने क िलए ौपदी भोजनालय से वह खाली हाँड़ी
ले आ रही ह। सभी पांडव भाई अ यंत गंभीर एवं भयातुर मु ा म चुपचाप हाथ बाँधे खड़ ह। सबक झुक ई
ह।
उस खाली हाँड़ी को लेकर अब ौपदी ने पं क अंितम छोर से िदखाना शु िकया। यह उसक चतुराई थी
िक अंत म वह महिष क पास प ची।
हम लोग साँस रोक देखते रह— चा रय का आ य, असंतोष एवं ितित ा—और ती ा कर रह थे ौपदी
क महिष तक प चने क ।
हमार िलए एक किठनाई और थी िक हम तक कवल य प च रहा था, य नह । आँख ही सुनने और देखने—
दोन का काम कर रही थ । य ही उसने महिष को हाँड़ी िदखाई, वे बड़ झटककर उठ खड़ ए; जैसे कोई नाग
फनफनाकर उठ खड़ा आ हो। उनक आँख िनकल आ और वे दािहने हाथ क िब व क टहनी घुमाते ए कछ
कहने लगे।
‘‘महिष दािहने हाथ म हमेशा िब व क टहनी य िलये रहते ह?’’ छदक ने िज ासा क ।
‘‘यह तो वे ही बता सकते ह।’’ मने कहा, ‘‘पर यही िब व क टहनी इनक पहचान बन गई ह। इसीको घुमाते ए
ये सभी जगह घूमते ह।’’
पर ौपदी बड़ शांतभाव से बोल रही थी, हम देख रह थे। लगता ह, वह हमारा िसखाया संवाद ही बोल रही ह।
महिष थोड़ शांत तो अव य ए, उनक हाथ क टहनी भी भूिम देखने लगी। पर अचानक यह या आ? पाँच
पांडव िफर महिष क चरण पर म तक धरकर धरती पर लेट गए।
म एकदम दीवार पर से कद पड़ा। छदक का हाथ पकड़कर ख चते ए कहा, ‘‘ज दी चलो। लगता ह, कछ
अि य होने वाला ह।’’
हम सब एक ही रथ पर चल पड़।
हमार धड़धड़ाते ए आते रथ को देखकर महिष और उनक िश य एकदम क गए। पांडव मुझे देखते ही रह।
ौपदी कनिखय से मुसकराई। म समझ गया िक मेरी ओषिध काम कर गई।
रथ से उतरते ही मने महिष को णाम िकया।
वे बोल पड़—‘‘अ छा, तो आप भी उप थत हो ही गए!’’
‘‘म तो यह देखने चला आया िक अपने मं ज पु को िपता कसे शािपत करता ह!’’ मने मुसकराते ए कहा,
‘‘कसे एक तप वी पु हता क पाप से वयं को आब करता ह!’’
‘‘अ छा, तो यह मं तु हारा ही िदया आ ह!’’ उनक मु ा और वर से प लगा िक उनका ोध परािजत
आ ह, पर धराशायी नह ।
म कछ बोला नह , कवल मुसकराता रहा।
‘‘पर याद रखना, क हया! आज तो जो आ, सो आ, पर यह मं िफर और कह काम नह आएगा।’’
‘‘यह आप शाप दे रह ह, भु, िक यास क तरह पांडव क िलए भिव यवाणी कर रह ह?’’
‘‘जैसा तुम समझो।’’ इतना कहकर वे एक ण भी वहाँ क नह सक।
वे चले गए—जैसे रा ने चं मा को छोड़ िदया हो, हण-मो आ। पांडव क आकित पर चाँदनी िछटक
आई।
q
पाँच
कई वष बीत गए। पांडव का कोई िवशेष समाचार नह िमला। इस बीच हमसे जो कछ हो सकता था, वह िकया
गया। गु चर िवभाग क मुख अंग को कवल एक काम स पा गया था िक वह पूर आयाव म घूम-घूमकर
पांडव पर ई यादितय का चार कर और पूर आयाव से कह िक धम क यिद ऐसी उपे ा ई तो िफर देश म
अधम क खेती होने लगेगी—और तब उसका फल हम सबको भोगना पड़गा। अनावृ और अितवृ होगी,
दुिभ पड़गा, महामारी फलेगी, मनु य का सुख-चैन िछन जाएगा; य िक मनु य धम का पराभव देखकर चुप रह
सकता ह, पर कित चुप नह रह सकती। वह तो दंड देगी ही। उसका दंड सव प र ह। उसे हम झेलना ही पड़गा।
मने इस काय म छदक को लगाया। उसक कित हवा क तरह थी। वह चार क धुएँ को हर ओर उड़ा
सकता था, कोने-अँतर तक प चा सकता था। उसने स य पर अपना रग चढ़ाकर खूब चार िकया। ह तनापुर क
ित ा पर धूल जमने लगी। उसक अपयश क गंध चार ओर फल गई।
एक ओर जुए का िवल ण संदभ था ही, दूसरी ओर का यक वन म दुवासावाला ष ं भी कम नह था। और
िफर अपयश क जो आँधी चली, उसने कवल एक ही पेड़ नह उखाड़ा, माग क सार वृ झकझोरकर रख िदए।
अब भीम को िवष देने से लेकर आज तक क सारी घटना को जोड़कर दुय धन क सार ककम का एक लंबा-
चौड़ा इितहास ही बना िदया गया और लोग क मन म यह बात बैठा दी गई िक यिद स ा धृतरा क पास न
होती, या धृतरा पु - ेम म न पड़ते तो पांडव क यह थित न होती।
उसने लोग म यह िव ास बैठा िदया िक यह संभव नह िदखता िक पांडव शत पूरी करने पर भी अपना रा य
पा सकगे।
छदक ने बताया—‘‘दशाण क महाराज ने प कहा, ‘ ूत ड़ा एक राजनीितक िश ाचार अव य ह; पर
िकसीको बला जुए क फड़ पर बैठाकर खेलने क िलए िववश करना—यह मा अनैितकता नह , अपराध ह।
इसका िवरोध होना चािहए।’
‘‘ ‘पर कौन करगा उसका िवरोध?’
‘‘ ‘हम सबको िमलकर इसका िवरोध करना चािहए।’ दशाणराज ने कहा। िफर कछ सोचते ए अचानक उनक
मु ा बदली—‘जब युिध र जैसे धमिन ने ही उसे यायसंगत मान िलया तब अब या िकया जा सकता ह! पर
आ बड़ा अंधेर ह।’ ’’ छदक का कहना था—‘‘इस िवषय पर बड़ी ढ़ता से अपने िन कष य करते ए
दशाणराज ने कहा था—‘देखना, छदक, पांडव अपने वचन का िनवाह भले ही कर ल; पर अब उनका रा य उ ह
िमलना नह ह। अंत म तलवार ही उठगी। पूर आयाव क शांित उस तलवार क साए म आ जाएगी—और तब
तु हारा िम भी िनरपे नह रह सकगा।’
‘‘ ‘वह िदन बड़ दुभा य का होगा।’ मने कहा, ‘म यु का कभी भी समथक नह रहा। म या, मनु य मूलतः
कभी यु नह चाहता। वह शांित ेमी ह। पर उसक मह वाकां ा सदैव उसे यु क ओर झ कती रही ह। स ा
क िल सा ऐसा अंगारा उगलती ह िक कभी-कभी पूरा शांित वन उससे जलने लगता ह।’ दशाण क महाराज ने मेरा
समथन िकया। उ ह ने कहा, ‘देखना, एक िदन कौरव का सारा पाप आयाव क ही िसर फटगा और पूरा
आयाव एक महासमर क चपेट म आ जाएगा।’ ’’
म चुप हो सोचने लगा। िफर बोला, ‘‘तुमने उनसे यह नह पूछा, छदक, िक यु आ तो आप िकधर ह गे?’’
‘‘यह पूछना मने उिचत नह समझा; य िक म देख रहा था िक उनक पूरी सहानुभूित पांडव क ओर ह।’’
मुझे बड़ा संतोष आ। कम-से-कम एक हवा तो बन रही ह।
मने छदक को ध यवाद देते ए कहा, ‘‘तुम ब त बड़ा काम कर रह हो। देखना, यह जनमत ह तनापुर को भी
भािवत करगा। आधा यु तो जनमत क अनुकल होते ही जीत िलया जाता ह।’’
आज यायपीठ पर बैठने का मेरा िदन था। य दंडनायक लगभग सभी वाद िनपटा देता था। जो थोड़ से पेचीदे
िववाद और िजसम वादी अपना िनणय मेर ारा ही कराना चाहता था, वे ही वाद मेर सम लाए जाते थे।
अतएव छदक से पुनिमलन का वादा करक म उठकर चल पड़ा। अपरा का सूय प म क ओर ढलक
चला था। आज िवलंब हो गया था।
अंतःपुर से िनकलते ही गु चर िवभाग क मुख कमचारी ने झुककर मेरा अिभवादन िकया और बोला, ‘‘एक
मह वपूण सूचना ह।’’
‘‘ या?’’ मेर पैर िठठक और एक ण क िलए मने यह अनुभव िकया िक अंतःपुर क ार पर यह कमचारी ब त
देर से खड़ा रहा होगा।
उसने बताया—‘‘राजमाता कती तीथ पर िनकली ह।’’
‘‘वह तुमसे कहाँ िमली थ ?’’
‘‘कहाँ बताऊ?’’ उसने कहा, ‘‘वे जहाँ िमली थ , वह ऐसा कोई िवशेष थान नह ह, िजसका कोई सविविदत
नाम हो। यह कह सकता िक इस समय वे भासतीथ म ह गी।’’
‘‘उनसे िमलकर तुमने यह नह कहा िक आप ारका भी होती चल?’’
‘‘मेर मन म एक बार यह बात आई अव य थी। िफर सोचा िक इससे मेरी गोपनीयता उघड़ जाएगी। एक खुली
गोपनीयता का गु चर बुझी ई आग क तरह यथ हो जाता ह।’’
म उसक सूझ-बूझ एवं कत यिन ा पर कछ बोला तो नह , पर मुसकराया अव य। मेरी मुसकराहट म उसक
यो यता क वीकित थी। मने उसक पीठ ठ क और कहा, ‘‘म अभी बुआजी को बुलाने क िलए राजक य
आमं ण क साथ एक दूत भेजता ।’’
तुरत ही िबना िकसीको पूव सूचना िदए मने बुआजी को बुलाने क िलए एक अमा य क साथ यथािनयम एक
सैिनक टकड़ी भेजी। जाना तो वयं मुझे था, पर य तता क कारण जा नह पाया।
ठीक इसक तीसर िदन ा मु त म राजमाता क सवारी ारका आ गई। नगर म वेश करते ही उ ह ने समु
म ान िकया और िफर ारका क िवरा िशव मंिदर म पूजन क िलए पधार । ऐसी यानम न िक म उनक
पीछ ही खड़ा था, इसका उ ह आभास नह आ।
समय अपनी गित से आगे बढ़ता जा रहा था। ातःकाल क पूजा आरभ हो गई थी। घंट, शंख, घिड़याल—सब
बज रह थे; पर कती बुआ पर इसका कोई भाव नह । वह मंिदर म बैठ एकदम जड़व ; जैसे उनक आ मा भु
म लीन हो अपने वनवासी ब क िलए कशल ेम क याचना कर रही हो और शरीर मूित क सम मूितव हो।
धूप-चंदन क गंध और पूजा क विनय क बीच उनका तपोिन य व मंिदर क िन कप दीपिशखा क तरह
पिव तथा आकषक लगा। य िप वे पहले से ब त कशकाय हो गई थ , िफर भी उनक आकित पर एक अपूव
शांित थी। थक-हार जीवन क नह वर िनयित को समिपत, सामािजक संदभ क एक िनरपे ा क , िजसको
समझने क चे ा करना िहमा छािदत गितहीन गंगा म गोते लगाना था। म बस देखता रह गया। पूजन चलता रहा।
िफर मने उस अमा य को बुलाया, िजसे बुआजी को आमंि त करने क िलए भेजा था। उसे एकांत म ले जाकर
मने पूछा, ‘‘तुम उन लोग को जानते हो, जो राजमाता क साथ आए ह?’’
पहले तो वह सकपकाया, िफर बोला, ‘‘इतना तो जानता ही िक वे राजमाता क सेवक ह, सैिनक ह और
हमार अितिथ भी।’’
म मुसकराया और बोला, ‘‘तुमने सही बात तो कही ही नह ।’’
‘‘ या?’’
‘‘वे ह तनापुर क गु चर भी ह, जो ारका म आए ह।’’ मने कहा, ‘‘इनम से येक क ित हम सजग रहना ह।
सबसे पहले तुम अपने कमचा रय और सैिनक को उनसे अलग करो। उ ह एक िदन का अवकाश दे दो। वे
चुपचाप अपने घर चले जाएँ। और गु चर िवभाग क अमा य को बुलाओ।’’
शी ही गु चर िवभाग का अमा य बुलाया गया। मने उसे सारी थित समझाई—‘‘ह तनापुर क ये सैिनक आए
तो ह कती बुआ क सेवा और सुर ा म, पर इनम अिधकतर गु चर ह गे। जो नह ह गे, उनको भी उनक
अिधकारी ारका क िव कोई-न-कोई गु चरी का काम दे दगे।’’
‘‘तो या करना चािहए?’’
‘‘एक तो इनपर सजग रखनी चािहए।’’ मने समझाया—‘‘दूसर, सेवक क बहाने इनम हर एक क पीछ अपने
गु चर लगा देने चािहए, िजससे वे सेवा करते ए ह तनापुर क वतमान थित का पता लगाएँ।’’
‘‘उनक समाचार तो रोज आते रहते ह।’’ उसने कहा, ‘‘महामा य को रोज उनसे प रिचत कराता भी रहता ।’’
‘‘वह मुझे मालूम ह।’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘अब तक तुम समु म गोते लगाकर र न खोजते रह हो। इस
समय समु सौभा य से तु हार ताल म आ गया ह। जाल डालकर िजतना र न िनकालना हो, िनकाल लो।’’
उसने मुसकराते ए मेरी नीित वीकार क । मने अब उसे िव तृत काय म िदया—‘‘बुआजी क साथ आए सभी
सैिनक को आज सागर ान कराओ, िफर समु तट क सैर। आज का िदन ऐसे ही काट दो। कल ातः से ही उ ह
ारका दशन पर लगा दो। इस बीच भी उनक हर सैिनक क साथ तु हारा कोई-न-कोई य अव य रहना
चािहए।’’
‘‘यिद आपसे िमलने क कोई इ छा य कर तो?’’
‘‘तो उसे अव य िमलाओ।’’ मने कहा, ‘‘एक बार तो म उनसे सामूिहक प से िमलूँगा ही। यिद हो सकगा तो
कल क बाद परस ही; य िक उ ह म संबोिधत भी करना चा गा।’’ इसक बाद म कछ और सोचने लगा। पर
िकसी िन कष पर नह आया। तब मने कहा, ‘‘अ छा, कल िफर िमलना, तब बात ह गी।’’
‘‘एक बात शायद हमार यान म नह ह।’’ अमा य बोला।
‘‘ या?’’
‘‘यही िक उनम से कोई यह कह रहा था िक पांडव का अब अ ातवास भी आरभ हो गया होगा।’’
‘‘हाँ, देिखए, आई न बात िबंदु पर।’’ मने कहा, ‘‘कौन कह रहा था?’’
‘‘िकसी एक य को अलग नह िकया जा सकता।’’ अमा य ने कहा, ‘‘सुगबुगाहट सभी सैिनक म थी।’’
अँगुिलय पर िगनते ए मने कहा, ‘‘िन त ितिथ या ह, यह तो मुझे मालूम नह । इसक िलए गगाचाय से राय
लेनी होगी।’’ इसी समय मेरी मृित म िबजली-सी क धी। करणुमती को ारका प चाने क िलए मने धृ कतु से
कहा था। हो सकता ह, वह आ ही रहा हो। यिद वह आज-कल म आ धमकता ह तो बना-बनाया काम िबगड़
सकता ह। उसक आगमन क सूचना तुरत ह तनापुर को हो जाएगी और तब उसक शंिकत सीधे ारका पर
पड़गी। यह हमारी अब तक क सुरि त तट थता क िलए घातक होगी।
‘‘आप िकसी गहरी िचंता म खो गए?’’ अमा य बोला।
‘‘नह , ऐसी कोई बात नह ह।’’ मने कहा, ‘‘व तुतः म अनुभव करता िक म िजसे अिधक ढकना चाहता ,
उसक उघड़ने क उतनी ही संभावना अिधक हो जाती ह।’’ िफर मने उसे सारी कथा बता दी।
तब उसने राय दी—‘‘जब धृ कतुजी अभी तक नह आए ह तब वे भगवा कर िक दो-चार िदन तक और न
आएँ। इस बीच आप िकसी य को भेजकर करणुमती को चुपचाप बुला लीिजए और धृ कतु को आने से रोक
दीिजए।’’
‘‘मुझे तो लगता ह िक अभी भी देर नह ई ह।’’ मने कहा, ‘‘इसक िलए तु ह अपने िवभाग क िकसी िव त
सैिनक को भेज दो।’’
और ऐसा ही आ।
उधर कती बुआ सीधे िपताजी और माताजी से िमल । उ ह देखकर वे कछ बोल नह पा । आँख भरी थ । कठ
अव था। और िफर कठ फटा तो वह फफककर रो पड़ । लोग समझाते रह और वह रोती रह । थोड़ी देर बाद
जब वे कित थ तब उ ह ने सारी कथा बताई। उनक कथन का सारांश था िक कभी भी मेरा जीवन
आशंकामु नह रहा। पित भी िमला तो रोगी; िफर भी वे मेर िलए देवता थे। उनक सारी किमय को अपना
कमफल समझकर उ ह भोगती रही। अब तो जीवन क सं या आई; पर कभी सूय बादल से मु नह िदखा।
अब जीवन क अंत म क क अपार सागर म पड़ी थपेड़ खा रही ।
तब मने समझाया—‘‘बुआजी, आपको इतना िनराश नह होना चािहए। जब सुख क िदन नह रह तब यह दुःख
क रात भी नह रह जाएगी। और िफर आपको अपने पु क परा म पर िव ास करना चािहए। ऐसे परा मी,
धमा मा, धनुधर और सुंदर पु इस समय आयाव म िकसक ह!’’
‘‘यह तो तुम ठीक कहते हो, क हया! इसका मुझे गव अव य ह।’’ कती बुआ बोल , ‘‘पर, व स, म तो एक
दूसर ही िन कष पर प ची । िकसी माँ को धमा मा पु हो चाह न हो, परा मी हो चाह न हो, धनुधर और गुणी
हो चाह न हो; पर उसक पु को भा यवा अव य होना चािहए।’’
मने अनुभव िकया िक कती बुआ क जीवन का यही कठोर स य ह। बड़-से-बड़ पु षाथ को ार ध चुटक
बजाकर िनरथक कर देता ह।
मने उ ह िफर समझाया—‘‘यिद मनु य क कम उिचत ह तो उसक ार ध को भी झुकना पड़ता ह।’’
‘‘कहने और सुनने म तो यह अ छा लगता ह, बेटा! यथाथ इसक िवपरीत ह।’’
म कछ कह नह पाया; य िक एक ओर जीवन का कठोर स य था और दूसरी ओर मेरा कोरा जीवन दशन।
एक का आधार भोगा आ यथाथ था और दूसर का आधार िचंतन। भोग क सम िचंतन हमेशा असमथ िदखता
ह; पर होता नह ह। भोग वतमान का होता ह, इसिलए उसम ताजापन होता ह, स ता होती ह। िचंतन तो शा त
होता ह, वह समझ से कछ दूर होता ह। उस तक प चने क िलए समझ को कछ य न करना पड़ता ह।
हमारा चलना ह कम। य न या पु षाथ चाह जो कह, पर गित का िस ांत ह ार ध। हम अपनी चाल का
प रणाम गित क िस ांत क अनुसार ही िमलेगा। (इसीिलए तो म कहता , फल पर तु हारा अिधकार नह ) जबिक
हम फल चाहते ह अपनी चाल क अनुसार। यह भूल होती ह। िकतु एक पीिड़त माँ क आगे यह िस ांत बघारना
िनरथक भी होता ह और उसे िचढ़ाने जैसा भी। म चुपचाप उ ह सुनता रहा।
वह कहती ग —‘‘मेर पु क पु षाथ म कोई कमी नह ह; पर ार ध उनका साथ नह दे रहा ह।’’
‘‘घबराओ मत, बहन, भगवा पर भरोसा रखो। वह सब ठीक कर देगा।’’ माँ बोली।
‘‘अब तक तो उसीका भरोसा िकए ए ।’’ बुआजी बोल , ‘‘म रोज ही ाथना करती िक भु, यिद सबको
तुम स ुि नह दे सकते तो कम-से-कम दो-एक य को तो अव य स ुि दो।’’
‘‘हाँ, दुय धन और उसक भाइय क मह वाकां ा न होती तो यह थित शायद न आती।’’ माँ बोली।
‘‘यही तो हम सबका म ह, भाभी!’’ बुआ ने कहा, ‘‘दुय धन िजतना दु िदखाई देता ह उतना ह नह । उस गोल
म सबसे दु तो ह शकिन। वह ऐसा नाग ह, िजसका िवष कभी समा होता ही नह । वह बराबर दुय धन को भरा
करता ह। दूसरा ह कण। वह तो ब त समझदार ह; पर पांडव क ित उसक मन म ऐसी ई या ह िक वह उसीम
जला करता ह। पर म उसे दोष य दूँ? वह तो...’’ इतना कहते-कहते कती बुआ क ग । उनक आँख नीची हो
ग । मेर माता-िपता भी अ यािशत प से गंभीर हो गए। उ ह ने मेरी ओर भी देखा। मुझे लगा िक इस समय उ ह
मेरी उप थित कछ भारी पड़ी।
पर मेरी बराबर बुआ क ओर थी। उनक आँख नम थ । भीतर से उमड़ते आँसु को उनक धैय क बाँध
ने आँख तक ही सीिमत कर रखा था। दो-एक अ ुकण नयन कोर म िनरतर झलक रह थे। उन मोितय म पीड़ा
क आभा पर रह य का पानी चढ़ा था।
िपताजी अब भी मौन थे। उनक थित उस व ऐसी थी, जो या तो सबकछ जानता ह या कछ भी जानना नह
चाहता। मुझे ठीक याद ह, उस समय माँ ने ही बात आगे बढ़ाई थ —‘‘खैर, अब तो बारह साल लगभग बीतने को
आए। एक साल अ ातवास का रह गया ह। भगवा उसे भी काट देगा।’’
‘‘आप तो ऐसे कह रही ह जैसे बारह साल बड़ी शांित से बीत गए ह ।’’ बुआजी ने कहा।
‘‘तो या उन बारह साल म भी कौरव ने परशान िकया था?’’
‘‘खुराफात तो शु क ही थी, पर उ ह उलट मुँह क खानी पड़ी।’’ बुआ ने कहा।
अब माँ क मु ा िज ासु हो गई।
‘‘आपको घटना नह मालूम ह या?’’
माँ ने नकारा मक ढग से िसर िहलाया।
‘‘तु ह भी नह मालूम?’’ अब बुआ ने मुझसे पूछा और तुरत बोल पड़ —‘‘तुम तो ारकाधीश हो, शासक हो।
गु चर क से तु ह सार आयाव को देखना चािहए।’’
‘‘एक बार मुझे कछ सूचना अव य िमली थी। साथ ही यह भी पता चला था िक पांडव ने वह गौरवशाली लड़ाई
शी ही जीत ली थी। इसिलए मने और कछ जानने क चे ा नह क थी।’’
‘‘मुझे भी कछ मालूम न होता, यिद दुय धन ‘ ायोपवेशन’ ( ायोपवेशन उस त को कहते ह, िजसम य मृ यु
क आकां ा से अ -जल छोड़ देता ह) पर उता न हो जाता।’’ बुआ ने बताया—‘‘सार ह तनापुर म हाहाकार
मच गया। दो िदन तक दुय धन ने कछ खाया-पीया नह । ब त ने उसे समझाया; पर उसने िकसीक बात नह
मानी। तब िवदुर ने सारी थित मुझे बताई और कहा, ‘महाराज का सोचना ह िक शायद आपक मनाने से वह मान
जाए।’
‘‘ ‘जब इतने लोग कहकर हार गए तब भला मेर कहने का उसपर या भाव पड़गा! मुझे वह या समझता ह!’
‘‘ ‘हो सकता ह, इस समय वह आपको समझे।’ िवदुर ने बताया—‘सबसे बड़ी बात यह ह िक आपसे कहने क
िलए महाराज ने बड़ दुःखी मन से कहा ह।’
‘‘ ‘महाराज धृतरा ने कहा ह!’ जैसे मुझे िव ास ही न हो। तब िवदुर ने बताया—‘हाँ, भाभी, आप िव ास कर।
कल से तो उ ह ने भी अ -जल हण नह िकया ह। वयं महारानी गांधारी रो रही थ । वह आपक पास आना
चाह रही थ । उनका िव ास ह िक दुय धन जो िन य कर लेता ह, उससे वह ज दी नह हटता। वह बचपन से
ही हठी ह।’
‘‘तब मने िवदुर से कहा, ‘आिखर वा तिवक बात या ह? तुम तो मुझे पहली बुझाने म लगे हो।’
‘‘तब िवदुर ने एक लंबा ष ं ब त सं ेप म सुनाया। उनका कहना था—‘इस ष ं क अवतारणा भी
ह तनापुर क राजभवन म दुय धन क क म ई थी। दुवासावाले कच म परािजत हो जाने क बाद कौरव बड़
िनराश ए। उ ह ने सोचा िक जब तक क हया ही उनक सहायता करता रहगा तब तक उनका कोई कछ िबगाड़
नह सकता। पांडव हमारी शत को पूरा कर एक िदन आ धमकगे और अपना रा य माँगगे। यह िचंता य क
कण ने।’ ’’
मेर मन म अचानक एक बात आई—‘‘यह कण हमेशा ह तनापुर म ही रहता ह?’’
‘‘यही तो आ य ह।’’ बुआ बोल , ‘‘मने उसे कभी अंग देश जाते नह सुना। िफर भी वह अंगराज ह। ह तनापुर
से इतना दूर अंग का शासन करने क उसम अ ुत मता ह।’’
‘‘और वह भी सूतपु होकर!’’ मने कहा, ‘‘ज मजात तो वह शासक ह भी नह ।’’
‘‘यह तुम कसे कह सकते हो?’’ बुआ क मुख से अचानक िनकल गया। िफर ऐसा लगा िक भीतर से उठ रही
िकसी बात को उ ह ने अचानक भीतर ढकल िदया और तुरत बात क दूसरी पगडडी क ओर पैर बढ़ा िदए
—‘‘यही हालत शकिन क भी ह। गांधार का राजकमार होकर भी ह तनापुर म ही पड़ा रहता ह। दुभा य ह िक
इस समय ह तनापुर का शासन वे चला रह ह, िजनसे ह तनापुर का कछ लेना-देना नह ह।’’
जल का एक घूँट गले क नीचे उतार लेने क बाद बुआजी ने कथा क छोड़ी डोर पुनः थाम ली—‘‘हाँ, तो उन
लोग ने तय यह िकया िक हम लोग को ैत वन म चलना चािहए। वह का यक वन क िनकट भी ह और वह से
पांडव से छड़छाड़ भी क जा सकती ह। इसक िलए महाराज से आदेश लेना पड़गा और वह िमल भी जाएगा;
य िक ैत वन ह तनापुर क गो (जहाँ गाय पाली जाती ह) म से एक ह। उसक िनरी ण क बात िकसी तरह
उनक सामने उठाई जाए।
‘‘ ‘और यिद महाराज ने पूछ िलया िक इस समय ैत वन क गो क िनरी ण क बात तुम लोग क मन म य
आ रही ह? कह तुम लोग पांडव क िव िकसी ष ं क रचना करने म तो नह लगे हो, तब या कहा
जाएगा?’ यह शंका भी शकिन ने उठाई थी और इसका समाधान भी उसीने िदया।
‘‘शकिन ने सुझाव रखा िक पहले ैत वन क गो धान संगम को बुलाया जाए और उसक ारा ही युवराज क
आमं ण का ताव महाराज क सम रखवाया जाए।
‘‘इस कार कौरव क ैत वन जाने का माग श त आ। संयोग से उस िदन म कौरव क ासाद म ही थी—
और वह भी दुय धन क क क बगल म। उ ह लगभग इस गितिविध का आभास लग रहा था। सेना स त करने
क आ ा भेज दी गई थी। राजकमार क साथ उनक प नयाँ भी जाने वाली थ । उनक दािसयाँ उनक तैयारी म
लग और सैरि याँ रािनय का ंगार करने म।’’
बुआ ने बताया—‘‘मने िवदुर से पूछा, ‘यह सब िकसिलए हो रहा ह?’
‘‘िवदुर बोले, ‘म कछ कह नह सकता। म तो उतना ही जानता िजतना राज ासाद जानता ह।’
‘‘ ‘म तो वह भी नह जानती।’ म बोली। तब िवदुर ने कछ िव तार से चचा क —‘ ैत वन का गो धान संगम
आया था। दुय धन क कहने पर ही महाराज ने उसे ैत वन का अिधपित बनाया था। गाय क देखभाल और
उनक रखवाली का दािय व उसी पर ह। एक से ैत वन क गो का उसे वामी ही समिझए। इसीसे
उसक दुय धन म पूण िन ा ह। दुय धन जैसा चाहता ह, उससे वैसा कराता ह।’
‘‘िवदुर बोलते जा रह थे—‘इस बार भी वह दुय धन क बुलावे पर तुरत आ गया। तब उसे सारा पाठ शकिन ने
पढ़ाया। उससे महाराज क सम कहलवाया गया िक उस े क सारी गाय इस समय ैत वन म एकि त कर दी
गई ह। एक बार उनक िगनती और उनक वा य क परी ा कर लेनी चािहए। ऐसा िकए ब त िदन हो गए ह।
इससे हम अपनी गो-संपि का सही अनुमान भी हो जाएगा और हम उनक देखभाल म सहायता भी िमलेगी।’
‘‘ ‘यह तो तु हारा काम ह।’ महाराज ने कहा।
‘‘तब संगम बोला, ‘सबकछ करगे हम और हमार सहायक, पर यिद युवराज क देखभाल म यह काय संप होता
तो और बात होती। मेरा तो आ ह ह िक आप युवराज को अव य भेज। यिद वे चाह तो अपने िम क साथ आएँ।
कछ िदन तक अर य जीवन का भी आनंद ल।’
‘‘बस, इतने पर महाराज ने वही कर िदया, िजसे दुय धन और उसक िम चाहते थे। एक बड़ी सेना और अधूर
रिनवास क साथ लोग ैत वन प चे।’’
अब सब बताने क बाद बुआजी कछ समय क िलए चुप हो ग । िफर हसते ए बोल , ‘‘मने भी कहाँ का पचड़ा
छड़ा! िजस कथा को छोड़कर म आगे क बात बता रही थी, उसीको िव तार से कहने लगी।’’
‘‘नह -नह , आप िव तार से ही सुनाइए।’’ मेरी िज ासा बोल पड़ी।
‘‘अब िव तार करने को रह या गया ह! लगभग सारी बात तो िव तार से सुना दी गई ह।’’ बुआ ने कहा।
‘‘पर अभी तक पता नह चला िक वह ष ं य रचा गया था?’’ मने कहा।
‘‘यह तो मुझे भी नह मालूम।’’ बुआ बोल , ‘‘िवदुर का कहना ह िक मेर अनुमान से यह सब कवल पांडव को
िचढ़ाने क िलए िकया गया था। कौरव पांडव को यह िदखाना या बताना चाहते थे िक देखो, हम लोग कसा
िवलास भोग रह ह और तुम लोग िकतने क म हो!’’
‘‘हो सकता ह।’’ मने कहा, ‘‘ य िक का यक वन एवं ैत वन िनकट ही ह—और पूरा आयाव जानता ह िक
का यक वन ही पांडव क वनवास का क िबंदु ह। वे कह भी जाते ह तो लौटकर वह चले आते ह।’’
िफर मने इसका कारण बताया—‘‘जीवन क सुिवधा वहाँ ह—भूिम उपजाऊ ह। जंगल क अिधकांश वृ फलदार
ह। गोधन भी पया ह। और सबसे बड़ी बात ह िक कई वन को एक-दूसर से अलग करती उपसागर जैसी एक
िवशाल झील ह, िजसक लंबाई-चौड़ाई लगभग एक योजन क आसपास होगी। यही झील उस थली को नंदन
कानन जैसा स दय दान करती ह।’’
‘‘तभी उस झील पर गंधव उतरते ह।’’ बुआ बोल और कछ-कछ मुसकराते तथा कछ-कछ हसते ए उ ह ने
कहा, ‘‘और वही झील कौरव क िलए चुनौती बन गई।’’
हम लोग क िज ासा और बढ़ी।
‘‘कोई िच सेन गंधव अपने दल क साथ वहाँ िशिवर डाले था।’’ बुआ िफर कथा म म आ ग ।
मने बीच म ही टोका—‘‘अर, िच सेन को तो म जानता । वह श शाली गंधव म से एक ह। उ कोिट का
कलाकार ह। अजुन ने उससे नृ य क िश ा ली थी।’’
‘‘हाँ, तो उसीको कौरव ने झील खाली करने का आदेश िदया।’’ बुआ ने बताया—‘‘वहाँ महारािनयाँ ान करने
वाली थ और दुय धन भी सदल-बल जल-िवहार करने वाला था। इसीको लेकर गंधव एवं कौरव म कछ कहा-
सुनी हो गई और िफर दोन म यु िछड़ गया। ऐसा भयंकर हार गंधव ने िकया, िजसक कौरव ने कभी क पना
भी नह क थी। यहाँ तक िक कौरव भागने लगे। तब उ ह ने कवल दुय धन को घेर िलया।’’
‘‘ऐसा य ?’’
‘‘ य िक वही दल का नायक था।’’ बुआ क आवाज कछ तेज और ने िव फा रत हो गए। बड़ उ साह से
उ ह ने ब त सारी बात बता और कहा, ‘‘अर, मिहला को तो छोड़ो, दुःशासन, कण, शकिन—सभी बुरी तरह
घायल होकर रण े से भागे।’’
‘‘कण रण े से भागा! यह या कह रही ह आप?’’
‘‘ठीक कह रही , व स!’’ उनक आँख अचानक गीली हो ग और बड़ टट वर म वह बोल , ‘‘बड़-से-बड़ा
परा मी भी जब पािपय क प म खड़ा होता ह तब उसका मनोबल परािजत रहता ह और उसका परा म कछ
कर नह पाता।’’ इतना कहकर बुआ कछ ण क िलए मौन ।
मेर माता-िपता तो चिकत, मूितव कवल सुनते रह। मने ही बात आगे बढ़ाई—‘‘िफर या आ, बुआ?’’
‘‘होता या! यिद वे लोग भागे न होते तो वे भी बंदी बना िलये गए होते। बाद म तो िजसने भी उनका सामना
िकया, उसे उ ह ने बंदी बना िलया। दुःशासन, दुमुख, दुजय आिद कौरव और उनक रािनयाँ आिद सभी बंदी
ए।’’ बुआ िफर चुप हो कछ सोचने लग । िफर उ ह ने वयं बताया—‘‘इसक बाद क थित का लोग ने जो
वणन िकया, वह मुझसे तो नह कहा जा सकता।’’
‘‘आप भले ही न कहना चाह, पर उसे सुने िबना मेरा मन मानेगा नह ।’’ मने कहा।
िफर बुआजी ने सँभल-सँभलकर उस स य का उ ाटन िकया, िजसे कोई मिहला िकसी पर पु ष से तो
खुलकर नह कह सकती—वह भी मातृतु य मिहला।
उ ह ने बताया—‘‘बड़ा दयिवदारक य रहा होगा। सुना ह, एक ओर घायल कौरव बंधन म जकड़ छटपटा रह
थे और दूसरी ओर गंधव उनक रािनय को जंगल म घसीट-घसीटकर ले जा रह थे। उनक व लता और
झािड़य म उलझकर िचथड़-िचथड़ ए जा रह थे। अनेक तो िनव हो गई थ । अनेक क अंग िछल गए थे। ह
भगवा , या िकया होगा उन पशु ने!’’
‘‘पर गंधव कभी ऐसी अभ ता नह करते।’’ अब तक मौन रह िपताजी बोल पड़—‘‘उनम इतनी पशुता आ कसे
गई?’’
‘‘यु और ोध म मनु य क पशुता ही तो ग भ होती ह, िपताजी!’’ मने कहा।
‘‘ ौपदी ने सुना होगा तो बड़ी स ई होगी।’’ माँ बोली, ‘‘उसक ितशोध को बड़ी शांित िमली होगी।’’
‘‘हो भी सकता ह और नह भी हो सकता।’’ बुआ ने कहा, ‘‘मेरी ब बड़ी िविच ह। उसका ितशोध कण से ह,
दुःशासन से ह, उनक रािनय से नह । यह संपूण घटना सुनकर उसका कह नारी व न झकझोर उठा हो। तब तो
वह वयं गंधव का र पीने क िलए महाकाली हो गई होगी।’’ इसक बाद बुआ ने यह भी बताया—‘‘वहाँ से
लौटने क बाद कछ चुनी ई दािसय को छोड़कर िकसी बाहरी मिहला को अंतःपुर म जाने नह िदया गया।’’
‘‘इस थित म होते ए भी कौरव लौट आए?’’ िपताजी बोले, ‘‘ या उ ह चु ू भर पानी डबने को नह
िमला?’’ िपताजी जैसे सहज, िनरपे और िनयितवादी क यह िट पणी मुझे िविच लगी।
बुआजी ने भी वर म वर िमलाया—‘‘जबिक पानी से लबालब भरी झील सामने थी।’’
मने अनुभव िकया िक य क िचंतना सामूिहक तर पर वैसी गंभीर नह रहती जैसी वह य गत तर पर
रहती ह।
मेरी िज ासा तो आगे क कथा क ओर थी। मने उस ओर पुनः बुआ का यान आकिषत िकया।
उ ह ने सुनी-सुनाई घटना वैसे ही सुनानी आरभ क —‘‘भागनेवाले तो भाग खड़ ए। िज ह बंदी बनाना था उ ह
िच सेन ने बंदी भी बना िलया और िजनक फजीहत करनी थी उनक खूब फजीहत भी क ; पर गंधव ने सैिनक
क साथ िवशेष अ याचार नह िकया। िज ह ने पराजय वीकार क उ ह एकदम छोड़ िदया—और अमा य को तो
छआ तक नह ।’’ इसक बाद बुआ कछ देर क िलए क और कछ सोचने लग —जैसे कछ भूला-िबसरा याद
कर रही ह । िफर िसर खुजलाते ए बोल , ‘‘देखो, याद नह आ रहा ह। या नाम बता रह थे उसका!...अर भाई,
िच सेन...ऐसा ही नाम ह।’’
‘‘िच रथ तो नह ?’’ मने कहा।
‘‘हाँ-हाँ, िच रथ ही। तु ह कसे मालूम?’’
‘‘म उसे अ छी तरह जानता । वह िच सेन का अनुज ह।’’
‘‘तो अपने अनुज को ही िच सेन ने आ ा दी िक इन बंदी लोग को आकाश माग से ले चलो। िच रथ ने तुरत
अपने भाई क आ ा का पालन िकया और शेष गंधव को इस काय म लगाया।’’
बुआ कहती ग —‘‘अब शेष बचे कौरव सैिनक घबरा गए। कौन सा मुँह लेकर अब हम ह तनापुर लौटगे। यही
थित अब अमा य क भी ई। ब त सोच-समझकर अमा य ने िन य िकया िक हम का यक वन म पांडव से
अिवलंब संपक करना चािहए।’’
‘‘पर का यक वन ैत वन क इतना िनकट तो ह नह िक वे तुरत प च गए ह गे!’’ मने कहा।
‘‘यह सब तो म नह जानती।’’ बुआ बोल , ‘‘तुम इतना ही समझो िक वे िकसी तरह वहाँ प च गए और सारी
बात उ ह ने युिध र से कह । संयोग कछ ऐसा िक युिध र अपनी किटया से दूर उसी सरोवर क एक छोर पर
एक िदन म समा होनेवाला राजसी य कर रह थे। य म ौपदी भी उनक साथ थी। वे वहाँ से उठने क थित
म नह थे। उ ह ने अपने भाइय को किटया पर से तुरत बुलवाया।’’ बुआ ने बताया—‘‘मने सुना ह िक भीम ने
पहले िकसीको उनक पास जाने नह िदया और कहा, ‘मरने दो दु को! जो जैसा करगा वैसा भोगेगा। आए थे
नीच अपना वैभव और िवलास िदखाकर हम जलाने, अब मृ यु से सा ा कार करने क थित आ गई। हमम से
कोई भैया क पास नह जाएगा; य िक हम जानते ह िक ऐसी थित म भैया हम या आ ा दगे!’ ’’
‘‘आपको इतने िव तार क साथ ये सारी बात मालूम कसे हो ग ?’’ मने मुसकराते ए पूछा।
उ ह ने भी मुसकराते ए और लगभग हसते ए ही उ र िदया—‘‘ य िक मुझे भी यह घटना ब त स कर
थी।’’
उनक इस उ र से हम लोग को भी हसी आ गई।
वे बताती जा रही थ —‘‘वहाँ से लौट एक अमा य ने अपने महामा य (िवदुरजी) से सारी घटना अ रशः बताई
थी। उ ह ने भी िव तार से बड़ा रस ले-लेकर एक-एक बात मुझे सुनाई थी। जब वे राजभवन से सं या को लौटते
तब पूजन से िनवृ हो अपने प रवार को भी मेर साथ बैठा लेते तथा एक-एक बात को सिव तार सुनाते। इितहास,
पुराण और वैिदक कथा क तरह उसक या या भी करते जाते। मुझे याद ह, इसी म म उ ह ने कहा था
—‘हम भले ही अ याय सहकर चुप रह जाएँ, पर िनयित अ यायी को उसक कम का फल अव य देती ह और
वैसी ही प र थित उ प कर देती ह। अब देिखए, कौरव से हमम से िकसीने वह करने क िलए नह कहा था,
िजसे करने वे वहाँ चले गए थे।’ ’’
इसी म म बुआजी ने एक बड़ मह व क बात बताई। उ ह ने कहा, ‘‘मने िवदुर से कहा िक कौरव को तो इस
घटना से िश ा लेनी चािहए। तब िवदुर ने कहा, ‘लेनी तो चािहए। पर वे कभी नह लगे और इसी तरह हमेशा
अ याय तथा अनीित करते रहगे।’
‘‘ ‘आपक कहने का तो यह भी ता पय आ िक अ ातवास क अविध समा होने पर भी वे अनीित का माग
अपना सकते ह?’
‘‘ ‘मुझे तो ऐसा ही लगता ह।’ िवदुर बोले।
‘‘ ‘तो या मेर पु को यु करना पड़गा और अपने भाइय को ही मारना पड़गा?’
‘‘ ‘पांडव ारा मार जाने क पहले ही िनयित उ ह मार चुक होगी।’ िवदुर ने बड़ िव ास से कहा था।’’
और यही बात यु म मोह त अजुन से मने भी कही थी।
मने िफर कथा को आगे ढकला—‘‘िफर या आ?’’
‘‘ आ या! युिध र ने पुनः अपने अनुज को बुलाया। इस बार सभी उनक सेवा म उप थत ए। भीम अपनी
कित क अनुसार वहाँ भी रोष कट करने से वयं को रोक न सका। युिध र ने बड़ शांतभाव से उसे समझाया
—‘तुम ठीक कहते हो, भीम! हम उनक अ याचार और अनीित क िशकार ए ह और क भोग रह ह। इसका
अथ यह नह ह िक यिद उनक बुि मारी गई ह तो हमारी भी मारी जाए। जरा सोचो तो, इस थित म हमारा या
धम ह? यह तो संयोग ह िक वे हमार भाई ह। यिद िकसी और पर िवपि पड़ी होती और वह हमारी शरण म आता
तो हम या करते?’
‘‘युिध र क इस न पर भीमािद चुप तो हो गए; पर अपने िनणय से िहलते नह िदखाई िदए। तब युिध र ने
कहा, ‘तो म वयं य भंग करक उठता ।’ सुना ह, तब अजुन आगे आया। उसने कहा, ‘आप य भंग न कर।
पहले तो म िच सेन को समझाऊगा। वह मेरा िम भी ह और मने उससे नृ य कला सीखी ह—वह मेरा गु भी
रहा ह।’
‘‘भीम ने िफर टोका—‘और यिद उसने तु हारी बात नह मानी तो?’
‘‘ ‘तो िफर यु होगा। भले ही अर य क यह देवभूिम र रिजत हो जाए, पर म कौरव को गंधव से मु
कराकर ही दम लूँगा।’ ’’ बुआ ने बड़ी स ता से कहा, ‘‘िवदुर का कहना था िक ऐसा कोई अमा य और कौरव
सैिनक नह था, िजसने उस समय युिध र तथा अजुन क सराहना न क हो और पांडव क प म जयघोष न
िकया हो।’’
बुआ सुनाती रह —‘‘आते ही अजुन ने िच सेन को बुलवाया। िच सेन ने जब सुना िक मेरा पुराना िम और िश य
अजुन आया ह तो वह तुरत उप थत आ—‘अर, तुम यहाँ कसे?’
‘‘ ‘यही तो म तुमसे पूछने आया िक तुम यहाँ कसे? और यहाँ आए भी तो अनीित और अ याचार से इस
तपोभूिम को अपिव करने!’
‘‘ ‘म कछ समझ नह पाया?’
‘‘ ‘मने सुना ह िक तुमने कौरव को बंदी बनाया ह और उनक रािनय क साथ बला कार िकया ह तथा उ ह
हरकर भी ले जा रह हो?’
‘‘वह मुसकराते ए बोला, ‘ य िक वे इस तपोभूिम को िवलासभूिम बना रह थे।’
‘‘ ‘अ छा, तो तुमने इसका ठका ले रखा ह!’ अजुन ने कहा, ‘यिद वे तपोभूिम अपिव कर रह थे तो वे उसका
दंड पाते।’
‘‘ ‘उ ह ने उसका दंड ही तो पाया ह।’
‘‘ ‘दंड पा िलया तो अब उ ह मु कर दो।’
‘‘ ‘यह तो असंभव ह।’
‘‘ ‘मेर िवचार से तो यही संभव ह। अ यथा अब तुम दंड क भागी हो।’ अजुन ने कहा, ‘देखो िच सेन, तुम मेर
पुराने िम हो, इसिलए अभी म तु ह समझा रहा । तुमने पर य का अपहरण कर उनक साथ बला कार िकया
ह। इसिलए उ ह छोड़कर तुरत उनसे मा माँगो या दंड भोगने क िलए तैयार हो जाओ।’ ’’
बुआ ने बताया—‘‘इसपर िच सेन भी थोड़ा असामा य आ। बोला, ‘कौन देगा हम दंड?’
‘‘ ‘उनक भाई-बंधु दगे।’ अजुन ने कहा।
‘‘ ‘अ छा, तो आप ही उनक भाई-बंधु ह, जो हम दंड दगे!’ यं य करते ए िच सेन ने कहा, ‘आप ही लोग ह
न, िजनका रा य छीनकर कौरव ने िन कािसत कर िदया ह! अर, आप लोग को तो मुझे पुर कत करना चािहए
और आप चले ह हम दंड देने!’
‘‘इतना सुनते ही अजुन ोध म आ गया।’’ बुआ बोल , ‘‘िफर तो घमासान यु होने लगा।’’
मेर मुख से िनकला—‘‘घमासान या आ होगा? अजुन और भीम क हार से वह धराशायी हो गया होगा।’’
‘‘नह , नह ! ऐसा नह आ।’’ बुआ ने बताया—‘‘एक सं या तो िवदुर ने उस यु क भयंकरता म ही िबता दी
थी। उनका कहना था िक िदन भर तो यु चलता रहा, जब रात ई तब वह और भयंकर हो गया। आप लोग तो
जानते ही ह िक राि क अंधकार म गंधव और दानव क श दूनी हो जाती ह। यु क भयंकरता का आभास
इसीसे लगता ह िक अजुन को ‘ थूलकण’, ‘इ जाल’, ‘सौर’, ‘आ नेय’, ‘सौ य’ जैसे िद य अ का योग
करना पड़ा।’’
‘‘अर, ये श याँ तो अ ुत ह!’’ मुझे आ य आ। मुझे तो सामा य यु क ही सूचना दी गई थी। अब मने
वीकार िकया—‘‘तब तो यु अ ुत आ होगा।’’
‘‘यिद अजुन ने इतनी श याँ न लगाई होत तो शायद उसे यह सफलता न िमलती।’’ बुआ बोल । िफर उ ह ने
अपने साथ आई सेिवका क ओर देखा। उसने भी अपनी वािमनी क कथन पर िसर िहलाया।
बुआ क साथ कवल एक सेिवका थी। िवदुर प रवार क पुरानी सेिवका सुखदा।
मुझे लगा िक बात म बड़ा समय िनकल गया। पूवा क कायालय का समय तो लगभग समा हो चुका था।
अब तो भोजन क बाद अपरा ही कायालय जा पाऊगा। आजकल शासन क थित भी असामा य थी। हर ण
सजग रहना पड़ता था। ह तनापुर से आए सैिनक क गितिविधय पर यान रखने क िलए अलग से यव था
करनी पड़ी थी और ितिदन उनम फर-बदल करना पड़ता था। इधर बुआजी क कथा बढ़ती चली जा रही थी।
उसे आगे ढकलते ए मने पूछा, ‘‘िफर या आ?’’
‘‘होना या था! िकसी तरह छटकर कौरव ह तनापुर आए।’’ बुआ बोल , ‘‘सुना ह, दुय धन आना नह चाहता
था। वह कह रहा था िक अब म ह तनापुर जाकर कौन सा मुँह िदखाऊगा? लोग या कहगे िक िजन लोग को
तुमने िनवािसत कर िदया, उ ह लोग ने तु ह मृ यु क मुख से िनकाला? िध कार ह तु हार इस जीवन पर!’’ बुआ
का कहना था—‘‘एक अमा य ने िवदुर को यह भी बताया िक दुय धन इस बार अपने मामा पर बड़ा नाराज आ।
उसने ोध म उ ह बड़ा अंड-बंड कहा। बोला, ‘आपक िकसी योजना पर आज तक मुझे सफलता नह िमली।
हर बार हम मुँह क खानी पड़ी।’ ’’
‘‘तब मामा ने या कहा?’’ मने पूछा।
‘‘उसने कहा, ‘इस समय तो तुम ोध म हो, भानजे, जो चाह, कह लो। पर जब तुम शांत होना तब सोचना िक
एक बूँद र बहाए िबना सार इ थ पर तु हारा अिधकार िकसक योजना से आ!’ ’’
इसक बाद बुआ ने मुसकराते ए कहा, ‘‘इसी संदभ म शकिन ने एक जोरदार बात कही, िजसपर िवदुर काफ
देर तक हसते रह। उसने कहा िक ‘भानजे, पासा तो हर बार म िचत ही फकता , उसका फल यिद तु ह न िमल
पाए तो इसम मेरा या दोष! कभी-कभी अपने भा य क ओर भी देखा करो।’ ’’
हम लोग को हसी आ गई।
मने कहा, ‘‘बड़ी जोरदार बात कही मामा ने। िफर तो दुय धन चुप ही हो गया होगा!’’
‘‘हाँ, उसक बाद उसने शकिन से शायद कछ नह कहा।’’ बुआ बोल ।
‘‘िफर ायोपवेशनवाली थित कसे पैदा हो गई?’’ मने पूछा।
‘‘यह थित तो माग म ही पैदा हो गई थी।’’ बुआ बोल , ‘‘मने सुना ह िक दुय धन ने माग म ही िन य कर
िलया था िक अब म अ -जल हण नह क गा और ाण दे दूँगा। जीिवत ह तनापुर नह जाऊगा। जो
जीवनदान पांडव क कपा से िमला ह, उसे िध कार ह।...तब उसे रथ म डालकर लोग िकसी तरह ह तनापुर ले
आए। यहाँ भी उसने अपना संक प नह तोड़ा। थित भयानक होती गई। अब वह कशकाय भी होने लगा।’’
इतना कहते-कहते बुआ को कछ और याद हो आया। वह अचानक हस पड़ ।
‘‘ या बात ह, बुआजी, अचानक य हस पड़ ?’’ मेरी िज ासा बढ़ी।
तब बुआ ने बताया—‘‘एक ओर दुय धन ने अ -जल याग िदया—पूर राजभवन म उदासी छा गई, दूसरी ओर
जा को इस थित पर िव ास ही नह था। जा क म दुय धन नाटक कर रहा था; य िक जब कभी भी
महाराज उसक इ छावाली नह करते थे, वह िवष खा लेने और ाण याग देने क धमक देता था। इस बार भी
जा ने कछ ऐसा ही सोचा। इसक पीछ भी उसे िकसी रह य या िकसी ष ं क गंध लगी। इसिलए राज ासाद
क सारी उदासी और सारा हाहाकार राज ासाद म ही सीिमत रह गया। जा तो यं य और प रहास ही करती
रही।’’
‘‘यही होता ह बार-बार क अस य का प रणाम िक लोग का िव ास हमार स य से ही उठ जाता ह।’’ माँ बोली।
माँ क इस बात पर िकसीने अपनी िति या य नह क ; य िक सबका मन आगे जानने क ओर था।
‘‘हाँ, तो आप महाराज धृतरा क कहने पर दुय धन को समझाने चली ग !’’ मने मुसकराते ए कहा।
‘‘हाँ, लोग जानते भी यही ह और म सबसे ऐसा कहती भी ; य िक थोड़ी-ब त म भी राजनीित जानने लगी ।’’
इतना कहकर वे हसने लग ।
हम लोग को भी हसी आ गई।
कती बुआ क मु ा संतोष से भरी थी। इस घटना पर तो उ ह संतोष था ही, साथ-ही-साथ उनक मन म रह-रहकर
यह बात भी उठ रही थी िक उनक पु क वनवास का समय अब पूरा हो रहा ह। शायद इसका संतोष उ ह
अिधक था।
‘‘संसार जानता ह िक महाराज क कहने पर म दुय धन को समझाने गई थी; पर उसक पीछ बात दूसरी थी। वा तव
म दो बार तात ी िवदुर से कह चुक थे िक कती को दुय धन क यहाँ समझाने क िलए भेजो। एक बार तो उ ह ने
संकत से कहा था। दूसरी बार उ ह ने प कहा, तब म गई। वह भी म दुय धन क यहाँ नह वर गांधारी जीजी से
िमलने गई थी।’’
बुआ कहती जा रही थ —‘‘वह िमलते ही मुझसे िलपटकर जैसे फट पड़ । आँख क बाँध टट गए और ऐसी बाढ़
आई िक म भी बह गई। म गई तो थी उ ह समझाने और समझ न पाई िक या क । उनक आँख से पु - ेम क
गंगा और मेरी आँख से सहानुभूित क यमुना बहती रही।
‘‘ ‘अब मुझे बताओ, म या क ?’ मने उ ह से पूछा, ‘कहो तो म दुय धन को समझाऊ। कई बार मेर मन म यह
बात आई िक म उससे यह त तोड़ने क िलए क । शायद वह मेरी बात मान ले। पर मन म यह भय भी बना रहा
िक कह वह मुझे देखते ही िचढ़ न जाए तथा उसका हठ और भी कठोर न हो जाए।’
‘‘वह गंभीर हो कछ समय तक सोचती रह । िफर बोल , ‘तुम ठीक सोचती हो, बहन! दोन संभावनाएँ ह। वह
नीच हमेशा उससे िचपका रहता ह।’ शायद उ ह ने ‘नीच’ श द का योग शकिन क िलए िकया; य िक भाई होते
ए भी वह उसे भीतर से िब कल नह चाहती थ । पर इस समय वह ‘नीच’ संबोधन क आगे िब कल नह बढ़ ।
चुप हो ग ।
‘‘ ‘तो म या कर सकती ?’ मने उनसे पुनः पूछा।
‘‘ ‘यिद उिचत समझो तो पहले तुम महाराज से िमलो। तुम अपनी शंका उनक सामने रखो और एकांत म रखो।’
जब गांधारी जीजी ने कहा तब म महाराज क यहाँ गई।
‘‘पहले तो महाराज भी सुनकर सोच म पड़ गए थे। िफर बोले, ‘तुम अव य जाओ और उसे समझाने क चे ा
करो। ब त होगा तो वह तुमसे नाराज हो जाएगा। िफर इससे बुरा या होगा, जो होने वाला ह।’
‘‘तब म दुय धन क यहाँ अ यािशत प ची। वहाँ दुय धन क रािनय क अित र कण और शकिन भी थे। कण
तो एक औपचा रक अिभवादन क बाद चुपचाप बाहर चला गया। शकिन ने मुझे देखते ही खड़ होकर णाम िकया
और खड़ा ही रहा। ब ने मेर चरण पश िकए और उसक पास से थोड़ा दूर हट ग । अब मुझे देखने क िलए
दुय धन ने आँख खोल । तब मने उसका िसर सहलाते ए कहा, ‘यह या दशा बना रखी ह, ि य व स?’
‘‘वह मेरी गोद म िसर रखकर िससकने लगा। िन त ही यह उसक प ा ाप क आँसू थे। पहाड़ शी िपघलता
नह और जब िपघलता ह तब अपने अ त व को ही बहा देता ह। म उसका िसर सहलाती और समझाती रही
—‘जो कछ आ, उसे भूल जाओ। तु हारा जीवन अमू य ह। तुम नह रहोगे तो िफर इस ह तनापुर म या रह
जाएगा!’
‘‘वह जोर से रोने लगा। मने िफर समझाया—‘इन आँसु से अपना मन धो डालो और एक नए जीवन क
शु आत करो। तु हारा यह समय ‘ ायोपवेशन’ संक प लेने का नह ह। अभी तो हम लोग बैठ ही ह।’ इतना
सुनकर वह कछ कहना चाहकर भी बोल नह पाया।’’
बुआ बोलती रह —‘‘इस सहानुभूित क वषा उस िसंधु से उठ बादल से हो रही थी, िजसे कल तक वह अ लीय
समझता था। मने अब शकिन क ओर देखा, उसका चेहरा फक; जैसे सारा पानी उतर गया हो। दुय धन क भी
िससकन कछ कम । मने अवसर देखा। तुरत रजत पा म मधुिमि त गंगाजल लाने को कहा।
‘‘भानुमती उठी और वण पा म मधुिमि त गंगाजल ले आई। मने ितकार िकया—‘इस समय युवराज क
धधकते मन को रजत क शीतलता चािहए, वण क दाहकता नह ।’
‘‘िफर भी दुय धन कछ नह बोला। जब मने पा उसे थमाया तब वह िससकते ए बोला, ‘आपक बेट ने मुझे
बंधनमु कराया और अब आपसे जीवनदान लूँ!’
‘‘तब मने कहा, ‘गंगाजल िपलाकर म तुमपर कोई अहसान करने नह आई और न म तुमसे िकसी तरह क
कपा क आकां ा ही करती । तु हारी चाची , अपना कत य-पालन करने आई । तु हार कम एवं
मह वाकां ा पर रोक लगाना न तो मेरा धम ह और न मेरी मंशा। मेरी तो कवल इतनी ही इ छा ह िक तुम जल
हण करो और इस ब मू य जीवन को सुरि त रखो।’ ’’
बुआ ने बताया—‘‘अब शकिन क भी बैखरी फटी—‘हाँ, भानजे, जो कछ आ, उसे भूल जाओ। बहनजी क हाथ
से जल हण करो। ये ठीक कह रही ह। इन सार संदभ का तु हार और पांडव क संबंध से कछ भी लेना-देना
नह ह।’
‘‘दुय धन ने एक बार िफर शकिन क ओर देखा। उसने िफर आ ह िकया। तब दुय धन ने मेर हाथ से जल हण
िकया। उसने एक घूँट िपया। िफर उस पा को मने भानुमती को थमा िदया और उठ खड़ी ई। दुय धन ने मेर
चरण छए और म आशीवाद देकर चली आई।
‘‘मने उसी समय समझ िलया था िक लाख करो, पर क े क दुम कभी सीधी नह हो सकती।’’
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इस कथा क मेर प रवार म ब त िदन तक चचा चलती रही। लोग इसका आनंद भी लेते रह और इसक
प रणाम क भी अपने ढग से भिव यवाणी करते रह; पर बुआजी ने एक बात और कही थी, िजसपर हम लोग म
से िकसीने उस समय यान नह िदया। बुआ ने कहा था िक िजस समय उ ह ने दुय धन क क म वेश िकया
उस समय वहाँ एक क या भी िदखाई पड़ी थी; िकतु ण भर म वह अ य हो गई।
पर बुआजी से िफर कभी मने उसक बार म नह पूछा; य िक पूछकर म उनक मन म एक नई शंका पैदा करना
नह चाहता था। कवल वयं सोचता और िन कष िनकालता रहा। मेरी िवचार-प रिध म वे तांि क आते रह, िज ह
खांडव वन को जलाते समय हम लोग ने भगा िदया था। उनका पांडव से थायी वैर होना वाभािवक था। हो
सकता ह, दुय धन ने उन तांि क को इ थ म पुनः बसा िलया हो। यह भी हो सकता ह िक यह क या (क या
तांि क क मं श से उ प एक श ह, जो उनका आ ा-पालन करती ह, िजनक मं से वह उ प होती
ह।) उ ह क ारा भेजी गई हो और उसको दुय धन का त तुड़वाने क िलए ही भेजा गया हो। यिद यह स य ह तो
वे तांि क कभी नह चाहगे िक पांडव िफर स ा म आएँ। इस िनतांत रह यपूण िन कष को मने अपने िचंतन तक
ही सीिमत रखा।
इस बीच एक सुर ािधकारी करणुमती को बड़ गोपनीय ढग से ले आया। वह वयं शु मती (चेिद क
राजधानी) गया था। करणुमती क आने क िकसीको भी कान कान खबर नह थी। उसने पहली सूचना मेर पास
भेजी।
मने तुरत उसे बुलवाया और पूछा, ‘‘इसक सूचना िकसी और को भी ह?’’
उसने मुसकराते ए कहा, ‘‘हाँ, एक य को और ह।’’
मेर तो कान खड़ हो गए। मने उसी समय पूछा, ‘‘वह कौन ह?’’
‘‘मेरी प नी।’’ उसने हसते ए कहा, ‘‘अब वह करणुमती क सखी ह।’’
बात यह ई िक वह सुर ािधकारी ारका म करणुमती को लाकर सीधे राजभवन नह आया। सुर ा और
गोपनीयता क से वह अपने घर ही गया। दो-तीन िदन बाद जब लोग को यह अ छी तरह िव ास हो गया
िक वह जो ी सुर ािधकारी क घर आई ह, वह उसक िनकट संबंधी ह, तब वह आया।
मने उस सुर ािधकारी क चतुराई क बड़ी शंसा क और कहा, ‘‘कल तु हारी प नी को उसक नई सखी
(करणुमती) क साथ अपने अंतःपुर म आमंि त करता । आप लोग म या क पूव पधार तो बड़ी कपा हो।’’
मने हसते ए कहा और उसने हसते ए ही मेरा िनमं ण वीकार िकया।
कती बुआ मेरी माँ क साथ ही ठहरी थ । उसी सं या को मने उनसे िमलकर कहा, ‘‘कल पूवा म म आपक
यह एक ऐसे य से भट कराऊगा, िजसे देखकर आप परम स ह गी, साथ ही आ यचिकत भी।’’
एक पहली क तरह बात मने उछाल दी। वहाँ बैठ मेर माता-िपता भी उस पहली म उलझ गए। उन य य का
अनुमान पांडव म से िकसीक संबंध म था। पर बुआ कहती थ िक मेर पु म से कोई भी यहाँ आ ही नह
सकता; य िक शत क अनुसार उ ह वनवास करना ह, नगरवास नह ।
‘‘हो सकता ह, क हया उनक भट कराकर उ ह वन म िफर भेज दे।’’ माँ हसते ए बोली, ‘‘ य िक इस छिलया
का कोई िठकाना नह । इसक लीला म बचपन से देख रही ।’’
‘‘ऐसी बात नह ह।’’ मने हसते ए कहा, ‘‘न इसम कोई लीला ह और न छल—और जो बुआजी कह रही ह,
वह बात भी ठीक ह।’’ इसी म म मने उ ह बताया—‘‘नकल जब का यक वन का िनमं ण लेकर आया था तब
भी नगर म नह आया था।’’
‘‘तब कौन ह वह?’’ माँ बोली।
बुआजी भी िसर खुजलाते ए अनुमान लगाती रह ।
‘‘यह म आप लोग को य बताऊ? कम-से-कम एक िदन-रात आप डबती-उतराती तो रह।’’ म िफर रह यमय
ढग से मुसकराया।
िफर मेर सोच को अचानक एक झटका लगा। मने उ ह सावधान िकया—‘‘यह घटना बड़ी गोपनीय और
रह यमय ह। आप लोग न तो िकसीसे इसक चचा क िजएगा और न मेरी लीला देखने क िलए िकसी और को
बुलाइएगा; य िक िकसी और क उप थित म वह य उप थत नह होगा।’’
लोग और रह य म डब गए।
वह थित बड़ी िविच होती ह जब अपने िनकटतम य से भी कोई बात िछपानी पड़ती ह। उस समय मुझे
बड़ा अटपटा लगा, जब मने दा क से कहा िक तुम मुझे रथ दे दो और आज िव ाम करो। वह मेरा मुँह देखता रह
गया। यह तो वह समझ ही गया होगा िक कोई अ यंत गोपनीय बात ह, जो उससे िछपाई जा रही ह।
वह चुपचाप रथ छोड़कर चला गया। म उसे लेकर सीधे पूव िन यानुसार सुर ािधकारी क यहाँ प चा और
उसक प नी क साथ करणुमती को लेकर िपताजी क आवास पर गया। लगता ह, ारपाल ने लोग को पूव संकत
दे िदया था; य िक अभी मेरा रथ राजपथ पर ही था िक भवन क वातायन म माँ क साथ बुआजी िदखाई पड़ ।
मेर रथ पर वे दो मिहला को देखकर परम चिकत ई ह गी; य िक उ ह क पना भी नह थी िक िमलनेवाला
पु ष नह , मिहला होगी। उनका अनुमान पांडव क इद-िगद घूम-िफरकर असमथ हो चुका था।
जब म उनक िनकट प चा तब भी वे उन मिहला को देखकर िव मय से भर ग । दोन ने सबका चरण
छकर अिभवादन िकया।
सबसे पहले बुआजी क सेिवका ने पहचाना—‘‘अर ब जी, यहाँ कसे?’’
अब तो कती बुआ एकदम उससे िलपट ग । दोन क आँख म गंगा-यमुना बहने लग । िकतने वष क बाद
सास-ब का िमलन हो रहा था। िकतना सुख-दुःख उन आँसु म बह रहा था, सो कसे बताऊ!
बाद म जब यह िमलन कित थ आ तब मने का यक वन म करणुमती क िमलने से लेकर आज तक क
सारी घटनाएँ सुना और अंत म यह भी बताया िक इसे मने यहाँ य बुलाया ह।
सबने मेरी बुि क शंसा क । बुआ बोल , ‘‘तुमने ब त अ छा िकया, क हया! अ ातवास क समय तो मेर पु
को वयं को िछपाना ही एक सम या हो जाएगी; िफर इसे िछपाना तो असंभव होता।’’
‘‘ या जीजी ( ौपदी) क िलए यह सम या नह होगी?’’ करणुमती ने कई बार मुझसे पूछा आ न पुनः
दुहराया।
‘‘होगी य नह !’’ माँ बोली, ‘‘पर वह तुमसे ब त होिशयार ह।’’
बस इतना सुनना था िक उसका चेहरा एकदम लाल हो गया। उसे लगा िक उसक बुि को हीन बताकर
उसका अपमान िकया जा रहा ह। वह भीतर-ही-भीतर कसमसाकर रह गई। बोलना चाहकर भी वह बोल न पाई।
उसक शालीनता ने उसक मुख पर अपने अ य हाथ धर िदए थे।
म उसक मनः थित समझ गया। का यक वन म भी जब उसने ऐसे न िकए थे तो म हसकर उ ह टाल गया
था। इस समय भी मने उसक घाव पर लेप लगाने क चे ा क —‘‘माँ, आपक बात सही हो सकती ह; पर
करणुमती का याग भी ल मण क प नी उिमला से कम नह ह। एक ओर इसका तेरह वष तक पित से अलग
रहने का संक प और दूसरी ओर ौपदी ारा अपने पितय को एक िदन भी न छोड़ पाना, या दोन म कोई अंतर
नह ह? या ौपदी से करणुमती म पितसेवा क भावना कम ह? और रह गई होिशयारी क बात, उसपर हम
इतना शी िन कष नह िनकालना चािहए।’’
लगभग सभी ने मेरी बात का समथन िकया। मने देखा िक करणुमती क आकित का तनाव कछ ढीला पड़ा।
अब बुआजी ने बात को दूसरी ओर मोड़ते ए कहा, ‘‘म जानना चाहती िक मेरी इस यारी ब क अ ातवास
क पीछ िकसका हाथ ह?’’
‘‘मेरा।’’ मने मुसकराते ए वीकार िकया—‘‘इसम ही मुझे पांडव का िहत िदखाई िदया।’’
‘‘तुम लोग तो यथ क िववाद म उलझ गए।’’ अब माँ ने ह त ेप िकया—‘‘इतने िदन जब झेल िलया तो अब
िकतने िदन रह गए ह उसे समा होने म! तुम गगाचाय से पूछने वाले थे न िक पांडव का अ ातवास कब से
आरभ होगा?’’
‘‘मने पूछा भी था; पर उ ह ने एक नई शंका उ प कर दी।’’
‘‘ या?’’
‘‘उ ह ने कहा िक ‘इसक िलए हम यह जानना चािहए िक पांडव ने ितिथ क आधार पर या ा आरभ क थी या
न क आधार पर। यिद न क आधार पर या ा आरभ क होगी तो वनवास ठीक उसी न पर समा
होगा। यिद ितिथ क अनुसार या ा आरभ क गई होगी तो वनवास ठीक उसी ितिथ को समा होगा। और
अ ातवास क गणना भी वनवास शु होने क ितिथ अथवा न क आधार पर ही क जाएगी।’
‘‘ ‘यह योितषीय सम या ह, इसका समाधान तो आप लोग ही कर सकते ह।’ मने आचाय से कहा।
‘‘ ‘म तब तक कछ नह कर सकता जब तक मुझे व तु थित ात न हो।’
‘‘म सोचने लगा। मेरा तो इस ओर यान गया नह था और न यह मेरा िवषय था। मने िफर पूछा, ‘ितिथ और
न से गणना करने पर सामा यतः िकतने िदन का अंतर पड़ सकता ह?’
‘‘ ‘सामा यतः तीन-चार िदन का अंतर पड़ता ह और कभी-कभी उससे अिधक भी हो जा सकता ह।’
‘‘ ‘तब तो यह न झगड़ क जड़ बन सकता ह।’
‘‘ ‘यिद कोई बनाना चाह तो अव य बन सकता ह।’ गगाचाय ने कहा, ‘पर जहाँ तक म सोचता , युिध र जैसे
सरल य का इस ओर यान ही न गया होगा और न कभी उ ह ने इस संदभ म सोचा होगा।’
‘‘म थोड़ा य आ। सोचा, बात तो आचायजी ठीक कहते ह। यिद िकसीने दुय धन का यान इस ओर िदलाया,
तब तो वह सम या खड़ी ही कर सकता ह। िफर मेरा यान महिष धौ य क ओर गया। मने गगाचाय से कहा, ‘य
युिध र महाराज महिष धौ य से िनरतर संपक बनाए रहते ह।’
‘‘ ‘तब तो तु हार न का सही उ र भी धौ याचाय ही दे सकते ह।’ आचायजी का सीधा जवाब था।’’
इन बात से बुआजी भी कछ िचंता म पड़ ग । िकतु शी ही उनक मानिसकता िगर ए पहलवान क तरह
तुरत धूल झाड़कर खड़ी हो गई। वे बोल , ‘‘अब तो सब भगवा भरोसे ह। जैसी उसक इ छा होगी वैसा ही
होगा।’’
ण भर बाद उनक िचंता करणुमती पर कि त हो गई—‘‘चाह चार िदन पहले हो या चार िदन बाद, अब वनवास
क अविध तो ख म होगी ही। इस बीच मेरी ब का पूरा यान रखना।’’
‘‘यिद यान न होता तो म इसे यहाँ य लाता!’’ मने कहा, ‘‘अब म इसे यहाँ रखने क गोपनीय यव था क बार
म सोच रहा ।’’
‘‘ या तु ह मेर यहाँ कोई क ह?’’ उस सुर ािधकारी क प नी ने करणुमती से पूछा।
‘‘िब कल नह ।’’ उसने सहष वीकार िकया।
‘‘मने इनक गोपनीयता क पूरी यव था कर ली ह।’’ सुर ािधकारी क प नी ने कहा, ‘‘पहले तो म इ ह िकसीसे
ब त िमलने-जुलने नह देती। अपने भवन क चाकर से भी कह रखा ह िक िवदभ से आई मेरी यह र ते क बहन
ह। कछ अ व थ ह। िचिक सक ने इसे समु ी जलवायु-सेवन क सलाह दी ह। कछ िदन यहाँ रहकर लौट
जाएगी।’’
‘‘तो या तुम भी िवदभ क हो?’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘िवदभ से तो मेरा पुराना र ता ह ( मणी िवदभ क
ही थी)।’’
मुसकराती ई ल ा क अ िणमा उसक चेहर पर िबखर गई।
मुझे बड़ा संतोष आ िक मेरी सम या उ ह लोग ने हल कर दी। करणुमती को वहाँ कोई क भी न था।
उसक देखभाल राजरानी क तरह होती थी। िदन भर वह भवन म रहती थी। सं या होने क बाद अँधेर म उसे वायु-
सेवन क बहाने िसंधुतट पर सैर कराई जाती थी। तब वह सुर ािधकारी, उसक प नी और कई सुर ाकम उसक
साथ होते थे। उसे कोई खतरा नह था; िफर भी उसे और सुर ाकिमय क आव यकता ह, ऐसा म अनुभव करता
था।
पर िनयमतः और सुर ाकम लगाए नह जा सकते थे। इसक िलए मामला गोपनीय िवभाग को स पना पड़ता,
जो म नह चाहता था। िजतने मुँह बात फलती उसक फटने का उतना ही खतरा होता। इसक िलए मुझे एक उपाय
सूझा। य नह उसक पदो ित कर अमा य बना िदया जाए। तब उसे और सुर ाकम य ही िमल जाएँगे।
मने तुरत महामा य को बुलवाया और इस संदभ म उसक सलाह चाही।
उसने सुनते ही पूछा, ‘‘इस पदो ित का कारण या बताया जाएगा?’’
एक ण क िलए तो म चुप हो गया।
‘‘अकारण पदो ित का अथ होगा, राजक य सेवा से संब अ य कमचा रय क ित अ याय। इससे असंतोष
बढ़गा और स ा क ित उनक आ था म कमी आएगी।’’
मने पहली बार अनुभव िकया िक सबसे ऊपर होने पर भी िसंहासन िवधायी िनयम क ऊपर नह ह। म कछ
ण तक सोचता रहा। िफर कहा, ‘‘उसने ऐसा सुर ा काय िकया ह और उसक पूणता क िज मेदारी भी ली ह,
िजसक संबंध म इस समय कछ भी कहना रा यिहत म नह ह।’’ मने इतना ही संकत िदया महामा य को। सारी
घटना नह बताई।
उसने मौन हो सम या क सभी पहलु पर िवचार िकया। िफर बोला, ‘‘एक सम या और होगी। इस समय तो वह
सुर ा अमा य ह ही। उसे हटाया कसे जाएगा िक आप दूसरा सुर ा अमा य बना दगे?’’
‘‘म िकसीको हटाने क बात कहाँ कर रहा !’’ मने कहा, ‘‘ य िक वतमान प र थितयाँ भीषण ह। पूरा आयाव
भीतर-ही-भीतर उबल रहा ह। ालामुखी फट सकता ह। पांडव का वनवास भी पूरा होने वाला ह। उनक
राजनीितक थित भी िनणायक मोड़ पर ह। िकसी समय कछ भी हो सकता ह। ऐसे म यिद ारका म दो सुर ा
अमा य ह तो िकसीको या आपि होगी?’’
‘‘मुझे तो कोई आपि नह ह और न िकसीको होगी।’’ महामा य ने कहा, ‘‘कवल िविध-िवधान का यान रखना
पड़गा। अ छा हो, इसक घोषणा आप ही अपने ीमुख से कर।’’
म समझ गया िक महामा य दो सुर ा अमा य िन त करने का जोिखम वयं उठाना नह चाहता। इस काय क
औिच य को भीतर-ही-भीतर उसका मन वीकार नह कर रहा था। मने भी उसपर अिधक दबाव नह िदया। मने
सोचा िक दो-एक िदन म बुआजी चली ही जाएँगी। य भी तीथाटन म िकसी िम या र तेदार क आवास पर
अिधक िव ाम विजत ह। तीथ म तो आप िजतने िदन रह ल, संबंधी और िहतैिषय क यहाँ का िव ाम माग क
िव ाम से अिधक नह होना चािहए। बुआजी भी अपने चलने क इ छा को कई बार दुहरा चुक थ ।
अतएव हमने उनक िलए एक सीधी-सादी पा रवा रक िबदाई का आयोजन िकया। उसी अवसर पर बुआ क
साथ आए सैिनक को हमार सैिनक ने भावभीनी िबदाई दी। उ ह उपहार से लाद िदया गया। बदले म उ ह ने िदल
खोलकर हम गु और अगु सूचनाएँ द ।
इसी अवसर पर मने आयाव क वतमान राजनीित क िवशद चचा क तथा बुआजी का समथन ा करते
ए एक और सुर ा अमा य क िनयु कर दी तथा प घोषणा क िक यह थायी नह वर अ पकािलक
एवं अ थायी यव था ह। िकसीने कोई शंका तक नह क ।
इसक दूसर ही िदन मेर िनदश पर गु चर िवभाग क एक बैठक गु चर अमा य ने बुलाई। उसम उसने मुझे भी
सादर आमंि त िकया। िवषय था—‘ह तनापुर से आए सैिनक ारा िमली सूचना पर िवचार’।
पहली बात तो उ ह ने वही बताई, जो हम लोग को मालूम थी िक अ ातवास क बाद भी पांडव को इ थ
लौटाया नह जाएगा। उन लोग से िमली सूचना क आधार पर यह बताया गया िक ह तनापुर क राजदरबार म यह
न िकसीने उठाया था, तब शकिन एकदम अ हास कर बैठा। दुय धन आिद भी मुसकराकर रह गए। शकिन ने
कवल इतना कहा िक यिद लौटाना होता तो बारह वष वनवास और एक वष अ ातवास क ितकड़म भरी शत य
रखी जाती। पास क लड़ाई म शत भी एक यूह-रचना ही ह।
सैिनक क कथनानुसार—िपतामह इतना सुनकर चले गए थे।
‘‘तुमने यह नह पूछा िक और लोग क िति या या थी?’’ मने गु चर अमा य से जानना चाहा।
‘‘उ ह ने बताया था िक य तो ोण और कपाचाय आिद भी स नह िदखे, पर सबसे तीखी िति या महामा य
िवदुर क थी। उ ह ने कहा, ‘यिद िनवाह नह करना था तो शत लगाई य गई? आप जानते ह, इससे पूर आयाव
म हमारी ित ा पर या भाव पड़गा?’
‘‘उस सैिनक का कहना था िक इसपर महाराज धृतरा ने कहा, ‘यह सबकछ नह , शत का पूरा पालन िकया
जाएगा।’ प मिहषी ने भी महाराज का समथन िकया। तब दुय धन उठकर कछ कहना चाहता था िक शकिन ने
उसका हाथ थामकर शांत करा िदया।’’
मेर मन म गगाचाय का वचन एक बार िफर क ध गया।
िफर मेर गु चर िवभाग क अमा य ने िनतांत च का देनेवाली एक दूसरी सूचना दी—‘‘एक िदन जब अपने आ म
म ौपदी अकली थी, पांडव वन म ा ण क िलए भोजन एक करने गए थे तो एक आधुिनक रावण ने ौपदी
का हरण कर िलया था।’’
‘‘इस नीचता पर भी कौरव उतर आए!’’ मेर मुख से सहज ही िनकल गया।
‘‘सैिनक का तो कहना था िक इसक पीछ कौरव का कोई हाथ नह था।’’
‘‘तब िकस दु साहसी का यह काय था?’’
‘‘बुआजी क साथ आए सैिनक से मालूम आ िक एक ऐसे य क हाथ यह कक य आ, जो पांडव को
जानता भी नह था।’’
इसक बाद उसने पूरी कहानी सुनाई। उसने बताया—‘‘सौवीर नरश जय थ अपने िववाह क िलए िकसी सुंदरी क
खोज म था।’’
‘‘अर, सौवीर े तो यहाँ से िनकट ही ह। जो िसंधु क दि णी भाग म पड़ता ह, वही देश न?’’ मने बीच म ही
टोका।
‘‘हाँ, वही।’’ उसने वीकित म िसर िहलाते ए कहा।
‘‘सुंद रय क खोज म उसे िसंधु क उ र पंचनद देश म जाना चािहए था, या कांधार अथवा ककस क ओर
बढ़ना चािहए था। वह उ र न जाकर पूव क ओर य मुड़ गया?’’
‘‘यही तो उसका दुभा य था।’’ अमा य बोला, ‘‘उन सैिनक ने बड़ा रस लेकर यह कथा सुनाई थी िक ौपदी उ ह
अ ितम सुंदरी लगी। कहते ह, उस समय आकाश म बादल छाए थे। वायुमंडल म म ती भरी आ ता थी और वह
कतवसना अपने आ म क िनकट कदंब क िनचली डाल दोन हाथ से पकड़ झूम रही थी। जय थ और उसक
सािथय क रथ दूर पथ से जा रह थे। जय थ क पहली ही जो उसपर पड़ी तो वह िचपक रह गई। उसक
सािथय म उसक अंतरगता सुरथ राजा क पु कोिटका य से थी। उसने भी उधर देखा।’’
अमा य सुनाता रहा—‘‘उसने कोिटका य से कहा, ‘अ ुत ह सुंदरी! लगता ह, कोई वनक या होगी।’
‘‘ ‘हाँ, लगती तो अ ुत ही ह।’ कोिटका य ने उसका समथन िकया।
‘‘ ‘तो या तुम इसे मेर िलए तैयार कर सकते हो?’ जय थ ने कहा, ‘तुम उसक पास जाओ और मेर यश, वैभव
तथा परा म क शंसा कर उसे मेर िलए राजी करो।’ ’’
अमा य कहता गया—‘‘पहले तो कोिटका य ने अपना प रचय िदया; िफर उसक स दय क बड़ी शंसा क ।
बोला, ‘तुम वनक या हो अथवा कोई देवक या हो? हम लोग तु हार स दय को देखकर चिकत ह।’ तब ौपदी ने
पूछा, ‘इस एकांत वन म आप प चे कसे? आप कोई रा स तो नह , जो मायावी प म यहाँ उप थत ए ह?
आिखर आपक मंशा या ह? य िक िकसी मनु य क िलए एकांत म पर ी से िमलना विजत ह और उसक
स दय क शंसा करना तो धम-िव भी।’
‘‘अब कोिटका य बड़ फर म पड़ा। उसने अपने प रवार, अपने देश आिद का िव तार से वणन िकया और
बताया—‘म रा स नह । अपने िम सौवीर नरश जय थ क साथ आया । वे अपने िववाह क िलए उपयु
क या क खोज म िनकले ह। वे पहली ही म आप पर मु ध हो गए ह। यिद आप िववाह का ताव वीकार
कर ल तो बड़ी कपा हो।’
‘‘अब ौपदी ने अपना प रचय िदया और कहा, ‘तुम पांडव को तो जानते ही होगे। म उ ह क प नी । िकसी
िववािहत ी से िववाह का ताव करना भी शा विजत ह।’
‘‘सैिनक क कथनानुसार कोिटका य का कोई भाव ौपदी पर नह पड़ा वर वह उसका प रहास ही करती रही।
िविच थित थी। ौपदी ने ब त देर तक कोिटका य को मूख बनाते ए उसे उलझाए रखा। उधर जय थ
समझता रहा िक प थर िपघलने क थित म ह। पर जब कोिटका य असफल लौटा तब उसे बड़ा आघात लगा।
उसने झुँझलाते ए कोिटका य से पूछा, ‘तुम इतनी देर तक वहाँ या करते रह?’
‘‘इसक बाद जय थ वयं गया। उसने भी हर से ौपदी को मनाने क चे ा क ; पर जब वह नह मानी और
जय थ को लगा िक यह मेर पौ ष, वैभव एवं स दय को अपने आगे कछ नह समझती, तब उसक िसर पर रावण
सवार हो गया तथा उसने ौपदी को बला ख चकर अपने रथ पर बैठा िलया और भाग चला। ौपदी िच ाती
रही—‘तुम मेर पितय को नह जानते। वे बड़ श शाली ह। वे तु हार ाण ले लगे। तुम अंत म पछताओगे,
जय थ!’ पर उसने एक नह सुनी।’’
अब मेर मुख से िनकला—‘‘मने पांडव को इतना समझाया था िक ौपदी को कभी अकले मत छोड़ना; पर
उ ह ने यह भूल कर ही दी।’’
‘‘व तुतः उ ह ने अकले कहाँ छोड़ा! उन िदन धौ य ऋिष भी उसी वन क दूसर छोर पर डरा डाले थे और ौपदी
क सेिवका ‘धा ेियका’ उसीक पास थी। उसने दौड़कर महिष को समाचार िदया। वे अपने आ म से दौड़।
जय थ क रथ क पीछ कछ दूर तक िच ाते रह; पर ऐसा लगा िक जय थ ने उ ह देखा तक नह ।’’
‘‘कसे देखता! कामांध जो था।’’ मने कहा, ‘‘अंधे को कम-से-कम अंत तो होती ह, कामांध क तो अंत
भी अंधी हो जाती ह। िफर या आ?’’
‘‘िफर होना या था!’’ अमा य बोला, ‘‘मेरी सूचना क अनुसार तब तक पांडव आ गए। धा ेियका ने िबलखते
ए उ ह सारा वृ ांत सुनाया।
‘‘ ‘वह पापी गया िकधर?’ आगबबूला हो भीमसेन बोले।
‘‘तब महिष ने अपने य न क असमथता बताते ए उस िदशा क ओर संकत िकया, िजधर उनक रथ गए थे।
अब वे तुरत उस ओर लपक और कछ दूर पर ही उसे पा िलया। िफर तो भीषण यु आ।’’
‘‘भीषण यु आ!’’ म चिकत था—‘‘एक जय थ इतना लड़ा?’’
‘‘वह एक कहाँ था!’’ अमा य बोला, ‘‘इ वाक और िशिववंश क बारह-तेरह राजा उसक साथ थे और उनम
सबसे अिधक सि य कोिटका य था। सबको पांडव ने मार डाला। िकसीको भागने तक नह िदया। पर िकसी
तरह जय थ भाग िनकला।’’
‘‘साथी मार गए और वह भागने लगा! बड़ा नीच ह जय थ! िसंधुराज और ऐसा हो! उसे तो चु ू भर पानी म डब
मरना चािहए।’’
‘‘वह मरने को तैयार हो तब न!’’ अमा य ने बताया—‘‘उसे भागते देखकर युिध र तो उसे जाने देने क प म
थे, अ य भाई क भी; पर भीम कब मानने वाले थे। उ ह ने दौड़कर पकड़ा और एक मु क हार म उसे धरती
सुँघा दी। उसक नािसका और मुख से र बहने लगा। अब वह िगड़िगड़ाते ए ाण क भीख माँगने लगा। तब
भीम ने चं हास से उसक िसर क बाल छील िदए।
‘‘अब जय थ का िविच बानक बना। उसक िसर म पाँच जगह बाल रह गए थे, बाक िसर सफाचट। उसे भीम
ध का देते ए ले आए। जो भी उसक पाँच चोिटय वाले िसर को देखता, वही हस पड़ता। अब भी वह ाण क
भीख माँग रहा था।
‘‘ ‘ ाणदान म तु ह दे नह सकता।’ भीम बोला, ‘यिद देना होगा तो बड़ भैया दगे या ौपदी देगी।’ ’’
अमा य का कहना था—‘‘सैिनक बता रह थे िक इसक बाद भीम उसे युिध र क पास ले गए। वह उसे देखकर
ही हसने लगे। िफर अपने वभाव क अनुसार शी ही िवत हो गए और बोले, ‘इससे तो अ छा था िक तुम
इसक ाण ले लेते। यह बेचारा यह प लेकर कहाँ जाएगा? अपनी आकित िकसे िदखाएगा? मेरी मानो तो अब
इसे छोड़ दो।’
‘‘ ‘हम लोग इसे छोड़नेवाले कौन होते ह?’ भीम ने अपने बड़ भाई को ही टोका—‘इसे तो वही छोड़ सकती ह,
िजसक साथ इसने अपराध िकया ह।’
‘‘ ‘तब इसे ौपदी क पास ले जाओ।’ युिध र ने कहा।
‘‘अब वह ौपदी क पास ले जाया गया। ौपदी तो उसे देखते ही ताली पीटकर हस पड़ी। उसने हसते ए ही
अपनी कित क अनुसार पूछा, ‘अब तुम मुझसे िववाह नह करोगे?’
‘‘उसने नीची कर िसर िहलाया और धीर से कहा, ‘नह ।’
‘‘तब ौपदी ने उसे ाणदान देते ए कहा, ‘तु ह छोड़ तो िदया जाता ह; पर ऐसे ही कान पकड़ ए तु ह अपने
सैिनक क बीच जाना पड़गा।’
‘‘सुना ह, वह बेचारा वैसे ही गया।’’
अमा य से सारी कथा सुन लेने क बाद म व तुतः िचंितत हो गया। मेरी मु ा से मेरी मनः थित का अनुमान
अमा य को लग गया। वह सोचने लगा िक इस घटना से तो महाराज को स होना चािहए था। इसम दुःखी होने
क कोई बात नह । जब म ब त देर तक सोचता रहा तब मुझसे अमा य ने पूछा, ‘‘आपका वा य तो ठीक
ह?’’
‘‘ वा य तो ठीक ही ह, पर मेरा मन बड़ा दुःखी ह।’’ मने कहा, ‘‘यह ौपदी आयाव म आग लगाकर ही
रहगी। या कर, वह भी अपने वभाव से िववश ह। इ थ क राजभवन म उसने दुय धन का मजाक उड़ाया,
िजसका प रणाम वे भोग ही रह ह। और अब जय थ क मामले म तो हद ही कर दी।’’
अमा य मेरा मुँह देखता रह गया। िफर बोला, ‘‘ऐसा करक पांडव ने या अनुिचत िकया?’’
‘‘मेर िवचार से तो िब कल उिचत नह िकया।’’ मने कहा, ‘‘मने तो उ ह वनवास क थित म िकसी पशु-प ी
तक क ह या करने से मना िकया था। उ ह ने इतने राजा को मार डाला और जय थ का ऐसा अपमान िकया।’’
‘‘िफर वे ऐसी थित म या करते?’’
‘‘पहले तो ऐसी थित आने देनी नह चािहए थी। ौपदी को अकले छोड़ने क या आव यकता थी? अर भाई,
उसक सुर ा म एक य रह जाता और लोग को जहाँ जाना था, जाते।’’ मने उसे समझाया—‘‘पहली बात तो
यह ह िक यिद ौपदी अकली न होती तो वह जय थ का ऐसा प रहास न करती। म उसक कित जानता ।
एकाक पन म उसका अह आकाश म उड़ता ह। वह पता नह अपने को या समझती ह! दूसर, यिद पांडव म से
कोई उसक साथ होता तो जय थ वहाँ आने का साहस नह करता। वह तो उसक एकाक पन का लाभ उठाने
आया था।’’
‘‘यह तो उसक भूल थी।’’ अमा य बोला, ‘‘िफर तो जो आ, वही होना था।’’
‘‘उसे भी नह होना चािहए। वह भी टाला जा सकता था।’’ मने कहा, ‘‘जय थ को पकड़ा। उसे बाँधकर ले आए।
इतना काफ था। उसे ौपदी से मा करा देते। जो इ वाक और िशिववंश क राजा भाग रह थे, उ ह भाग जाने
देते। उनका पीछा कर उ ह मार डालने क या आव यकता थी? अब जानते हो, इसका या प रणाम होगा? अब
जय थ क साथ ही पूरा इ वाक और िशिववंश पांडव का थायी श ु हो जाएगा। पांडव जानते ह इस त य को।
लोग ने उ ह संकत भी िकया ह—और मने कई बार कहा ह िक हो सकता ह, आप लोग को एक महायु लड़ना
पड़। िफर भी भिव य का उ ह यान नह ह। वे श ु पर श ु बनाते जा रह ह।’’
म थोड़ा आवेश म था। बोलता गया—‘‘िसंधुराज ने ऐसी भूल क थी, िजस भूल को भुलाया जा सकता ह—उसे
छोड़कर, उसपर अहसान जताकर। इसक बाद उससे वचन ले िलया जाता िक इसका युपकार तु ह कभी करना
पड़गा। हो सकता ह, संभािवत यु म वह पांडव का साथ न देता; पर उनक िवरोध म भी कभी खड़ा न होता।’’
इसी संदभ म मने बताया—‘‘हमने कई बार जरासंध को बंदी बनाया था; पर हर बार मने उसे छोड़ा। भैया क
इ छा क िव म ऐसा करता रहा। वे बार-बार नाराज होते रह; िफर भी मने उसे मारने का मन तब तक नह
बनाया जब तक उसक रा य क जनता उसक िव न हो गई और जब तक उसक पु सहदेव क मन म यह
बात न आई िक अब मेर िपताजी न रहते तो अ छा होता। वह भी उसे वयं नह मारा, भीम से मरवाया; िजससे
उसक बंदी सभी राजा पांडव क कत ता वीकार कर। तुम जानते नह , अमा य, कटनीित न तो धमनीित ह और
न राजनीित का अचार या मुर बा; वर वह काग का वह अंडा ह, िजसे कोिकल सेती ह और काम आता ह काग
क।
‘‘अब या समझते हो!’’ म कहता ही गया—‘‘अब देखना, जहाँ कौरव को इस घटना का पता चलेगा, सीधे
उनका दल-का-दल सौवीर प चेगा। सबसे खतरनाक तो वह मामा ह। वह तुरत राय देगा िक िसंधुराज से िमलने
दुय धन वयं अपने भाइय क साथ जाए और िजन राजा क ह या पांडव ने क ह, वहाँ संवेदना य करने
क िलए ह तनापुर क राज ितिनिध भेजे जाएँ।’’
‘‘यह तो होगा ही।’’ अमा य बोला, ‘‘यह तो राजनीित का सामा य िनयम ह।’’
‘‘पर जब हमारा वाथ सामा य िनयम का पालन िवशेष ढग से करता ह तब उसका िवशेष प रणाम होता ह।’’
मने मुसकराते ए कहा, ‘‘दुय धन ऐसे थोड़ ही चला जाएगा। यासे क पास कएँ क तरह जाएगा। वह िसंधुराज
क सम सीधा ताव रखेगा िक म अपनी बहन का िववाह आपसे करना चाहता । िफर उसक परा म, शौय
और वैभव का सेतु बाँध देगा।’’
अमा य मेरी िचंता समझ रहा था। िफर भी उसने मुझे हलका करना चाहा—‘‘म यह नह कहता िक आपक
िचंता िनराधार ह; पर झूठी शंसा हवा म खड़ा िकया गया महल ह। वह कब तक खड़ा रहगा? िफर ‘श ु का श ु
िम ’ क आधार पर िम ता ब त िदन तक नह िटकती।’’
मुझे हसी आ गई—अमा य क बुि पर या मुझे समझाने क उसक य न पर, कछ कह नह सकता। मने उसे
बताया—‘‘तुम कसे कह सकते हो िक दुय धन ारा क गई सौवीर क वैभव क कथा हवाई होगी। वह आयाव
का बड़ा संप रा य ह। सौवीर का वैभव ह तनापुर से कम नह ह। िफर मामला कवल ‘श ु का श ु िम ’ तक
ही सीिमत नह रहगा। तुम देखना, दुय धन िन त प से अपनी बहन का िववाह उससे कर देगा।’’
‘‘जय थ वीकार करगा तब न!’’ अमा य बोला, ‘‘उसे तो जग सुंदरी चािहए।’’
‘‘दुःशला भी असुंदर नह ह वर अपने भाइय और जय थ से तो सुंदर ही ह। अर, वह गांधारी क बेटी ह और
गांधारी पर गई भी ह।’’
अब अमा य चुप हो मुझे देखता रह गया।
िफर काफ देर तक हम अपने म खोए रह। अचानक मेर मुख से िनकला—‘‘राजनीितक मह वाकां ा य
को िकस सीमा तक िगरने क िलए िववश करती ह, इसका अनुमान करना आसान नह ।’’
q
छह
काल क रथ का पिहया चलता गया, पर म थर रहा— ारका म ही; कछ समय क िलए—तन और मन दोन
से।
मेरा िनरतर ारका से बाहर रहना मेर प रवारवाल को पसंद नह था। सबसे अिधक नाराज थ तो मेरी प नयाँ।
बेचारी कछ बोल भी नह पाती थ । पर सबसे अिधक िव ोह िकया मणी, जांबवती और स यभामा ने। उन
लोग ने लगातार तीन िदन तक मेरा बिह कार िकया। न कभी मेर साथ भोजन िकया और न कभी जलपान। कभी
मेर क म झाँक तक नह । मुझे आता देखकर वे दूर से ही हट जाया करती थ । उनक ता का म कारण भी
समझता था और उसक िनवारण का उपाय भी म जानता था; पर कछ संकोच तथा कछ पित होने का मेरा अह
आड़ आ रहा था।
एक रात म काफ िवचिलत हो उठा। बड़ी मादक सं या क बाद वह रात आई थी। िसंधु क शीतल मंद समीरण
पर ितरती लहर क थपथपाहट जैसे रोमांिचत कर उठी। मेर पित होने क अह का आवरण वह सागर समीरण
अचानक उड़ा ले गया। अब म कवल पित था—एक संकोचिवहीन कवल पित, और उससे भी अिधक वासना-
िवचिलत मन से परािजत एक सहज मानव।
म चुपचाप अपने क से िनकलकर मणी क क क ओर बढ़ा। अचानक मुझे अपना बचपन याद आया,
जब म ऐसे ही चुपक से दबे पाँव राधा क घर जाया करता था और उसे वंशी बजाकर बुलाया करता था। और तब
हम चुपचाप चाँदनी रात म यमुना िकनार िनकल जाया करते थे। आज न बचपन ह, न वह यमुना का िकनारा, न
चाँदनी रात और न इस समय वंशी बजाने का अवसर।
म मणी क क क ओर बढ़ा चला जा रहा था। अंतःपुर क इस आंत रक क म भी मिहला सैिनक का
पहरा था। पहले तो ऐसा कभी नह होता था, इधर ऐसा प रवतन य ? पर मेरा मन इस नूतन सम या पर अिधक
ठहर नह सका। वह िफसला चला जा रहा था मणी क क क ओर।
उसक क क ार पर ही दो मिहला हरी थ । मुझे देखते ही दोन हट ग । भीतर वेश करते ही मने देखा,
सामने पयक पर मणी हाथ-पैर फलाए बेसुध पड़ी ह। घने बाल चं मुख पर बादल क तरह छाए ह। व से
आँचल हट गया ह। जब वह न द म गहरी साँस लेती तो कचुक फाड़कर बाहर िनकल आने क िलए आतुर लगते
उसक उ त उरोज खुला आमं ण देते जान पड़।
अब म अपने को रोक नह पाया। वासना क झ क से टटकर कदली तंभ क तरह उसपर िनढाल हो गया। वह
एकदम च ककर हड़बड़ा उठी। पर अब वह मेर आिलंगनपाश म थी।
चेतना लौटते ही वह बोल पड़ी—‘‘अर आप!...तो इतने चुप-चुप आने क या आव यकता पड़ी?’’
‘‘ य िक चार ओर पहरा पड़ रहा ह।’’ मने धीर से कहा, ‘‘अंतःपुर क इस आंत रक क म भी पहरा! अब
मुझसे भी तुम लोग को भय लगने लगा!’’
‘‘आप कहाँ आते ह िक आपसे भय लगे!’’
‘‘तब िकससे भय ह?’’
वह चुप रह गई। िफर मौन का इतना गहरा आ तरण पड़ गया िक कोई कछ बोल नह पाया। एकदम शांित; पर
कित म ऐसी शू यता नह थी। िसंधु समीरण से अ थ वृ क खड़खड़ाहट और वातायन क कपाट क पंख
कट कपोत जैसी फड़फड़ाहट कित क इस िन त धता को झकझोर रही थी।
रात कसे बीत गई, पता नह । जब अ थ क को से झाँकते कोिकल ने उषा क अगवानी म तराना छड़ा
तब मेरी न द खुली। िफर भी म अलसाया वैसे ही पड़ा रहा। मुझपर ढलक मणी का बायाँ हाथ मेर व म
होता आ मुझे बाँधे रहा। वह बंधन बड़ा मोहक था। इसीसे म उसे तोड़ नह पाया।
जब उसक हाथ कछ ढीले पड़ और वह जागने को ई, तब मने उसे छड़ा—‘‘ऐसा बाँध रखा ह जैसे म
भागनेवाला ही होऊ!’’
‘‘आपक जैसे मर का िव ास या!’’ उसने हसते ए कहा और उठकर अपने व ठीक करने लगी।
अब म उठकर चलने को आ; पर उसने क से िनकलने नह िदया। बोली, ‘‘आप ऐसे नह जा सकते। पहले म
आपको उनक पास ले चलूँगी, िज ह ने मेर साथ ही आपका भी बिह कार करने का संक प िकया ह। वा तव म
मने धोखा िदया ह; य िक आपने चुपचाप दबे पाँव आकर मेरा त भंग िकया।’’
‘‘म कछ समझ नह पाया।’’ मने कहा। य िप म सब समझ रहा था।
‘‘अभी समझ म आ जाएगा।’’ उसने कहा और मुझे लेकर स यभामा तथा जांबवती क यहाँ ले जाने क िलए अपने
क से िनकली।
पर यह या, वे दोन तो कपाट क ओट म ही खड़ी थ । इस थित म मुझे देखकर न हस , न मुसकरा वर
गंभीर बनी रह ।
मुझे ही मुसकराते ए पूछना पड़ा—‘‘तुम दोन यहाँ या कर रही हो?’’
‘‘हम आपसे नह बोलते। यिद यही न मणी करगी तो हम उसका उ र दगे।’’ जांबवती तो चुप थी।
स यभामा ही बोली।
मणी बड़ संकोच म पड़ी। वह कछ बोल नह पाई। लगा, मुझसे िमलकर उसने कोई अपराध िकया हो।
मने स यभामा से कहा, ‘‘अ छा, यही समझो िक यह न मणी ही कर रही ह।’’
अब उसने कहा, ‘‘हम यहाँ यह देखने आए थे िक हमारी बड़ी बहन ने हमार साथ कसा धोखा िकया ह!’’
‘‘धोखा तु हारी बड़ी बहन ने नह िकया, धोखा तो मने िकया ह।’’ मने हसते ए कहा, ‘‘ या तु ह यह नह
मालूम िक म लड़कपन से ही धोखेबाज और छिलया ?’’
जैसे रोका आ झरना फट पड़ वैसे ही उनक रोक ई हसी एकदम फट पड़ी; लेिकन जांबवती ने मानो अपनी
हसी का गला दबा िदया। वह पहले क जैसी गंभीर हो गई। नीची और ऐसी उदास जैसे िकसी दुःख का
पहाड़ उसक िसर पर हो।
मने पूछा भी—‘‘ या बात ह, जांबवती?’’
वह कछ बोल नह पाई। मने अपनी अ य प नय क सामने भी संकत से इसी न को दुहराया; पर वे भी वैसी
ही उदास जांबवती को देखती रह । मुझे प लगा िक सबकछ जानती ई भी ये बोल नह पा रही ह।
मुझे चलना था िन यकम क िलए। िवलंब हो रहा था। मने इस उदासी का लाभ उठाया और िफर िमलने का
आ ासन देकर चला आया।
दोपहर क भोजन क बाद िव ाम करक जब म अपने कायालय प चा तब मुझे सूचना िमली िक नरकासुर क
वध क बाद मोद वन क आसपास बसाई गई मेरी भाव प नय ने आज क सं या अपने यहाँ िबताने का करब
िनवेदन भेजा ह। मने कोई िज ासा नह क । समझ गया िक यह सं या भी उलाहना भरी होगी। पर उनक उलाहने
भी बड़ मादक ह गे—और इस समय तो और भी आनंदकर। यही सोच-सोचकर पुलिकत होते ए म िदन ढलने
क ती ा करता रहा।
कछ समय बाद मुझे दूसरी सूचना िमली—‘यिद आप एकाक पधार तो बड़ी कपा होगी।’ उनका प संकत
छदक क ओर था। तुरत मेरा माथा ठनका। कछ-न-कछ िवशेष बात अव य ह।
मने उनका आ ह तो वीकार कर िलया, पर छदक को बुलाकर उसे सारी बात बता और एकाक बुलाने का
कारण जानना चाहा।
‘‘जब आप जा ही रह ह तब सारी बात वह मालूम हो जाएँगी। म या बताऊ!’’
‘‘इसका ता पय ह िक तुम जानते हो।’’
‘‘थोड़ा-ब त तो जानता ही ।’’ छदक ने इस गोपनीयता म थोड़ी गंभीरता और िमलाई—‘‘यिद संभव हो तो
सारिथ को भी न ले जाएँ।’’
‘‘तो एकदम अकला जाऊ!’’ म मुसकराते ए बोला, ‘‘ऐसा कौन सा रह य ह?’’
‘‘कठाँव का घाव िदखाने क िलए िनतांत अकलेपन क ही आव यकता होती ह।’’ इतना कहकर वह वहाँ से चला
गया, िजससे म कछ और न पूछ सक।
सं या होते ही म रथ लेकर एकाक मोद वन प चा। जहाँ से उनका आवास शु होता था, उसक पहले ही
मने रथ छोड़ िदया। एक घुटन भर स ाट ने मेरा वागत िकया और अगवानी क वहाँ पर िनयु दो-चार मिहला
ह रय ने। उनम से एक ने शायद बढ़कर मेर आने क सूचना दी।
थोड़ी देर बाद मेरी उन भाव प नय म से दो-चार मेर पास आ । आज वे मेरी क पना क िब कल िवपरीत थ ।
बाल खुले ए। व भी सामा य-से और आकित एकदम उदास। मुझे उसी लता को म ले जाया गया, जहाँ म
हमेशा बैठता था। सामने वही पु क रणी, वही िक ोल करते ए हस क जोड़ और वैसे ही मुँदते ए कमल क
पाँत—सबकछ था; पर उनम ऐसा रस नह िदखा।
थोड़ी देर बाद ही मेरी भाव प नय क सं या बढ़ती गई और देखते-ही-देखते लगभग सभी वहाँ आ ग । वे
मुझे घेरकर धरती पर बैठ ग । सभी उदास और चुप।
पर मेरी िज ासा चुप न रह सक —‘‘आज तुम लोग इतनी उदास और िख य हो? मुझे बुलाकर भी तुम लोग
ने न तो ंगार िकया और न राग-रग क कोई यव था ह?’’
‘‘आप तो ारका म रहते नह , तो िकसक िलए हम बनाव और ंगार कर, उस रा स क िलए?’’
‘म ारका म रहता नह ’—िन त प से यह मुझपर यं य था। यिद रहता होता तो वह भी बात न जानता,
िजसक जानकारी छदक को ह।
म चुपचाप इस यं य को पी गया और पूछा, ‘‘कौन ह वह रा स?’’
उनम से कोई नह बोला।
अब मेरा तापमान और बढ़ा—‘‘तुम लोग चुप य हो?’’
‘‘हम लोग चुप इसिलए ह िक शायद आप उसे सुन न सकगे; य िक वह रा स आपका ही पाप ह।’’
िन त ही इतना कहने म उ ह ने अपना सारा साहस बटोरा होगा; य िक आज तक मने अपने िलए ऐसी
िशकायत कभी नह सुनी थी।
अब म अपना िनयं ण खोते ए काफ तेज आवाज म बोला, ‘‘ प कहो न, या बात ह? कौन ह वह
रा स?’’
‘‘आपका पु सांब।’’ उ ह क बीच से एक आवाज आई।
िफर वह कहानी सं ेप म सुनाई गई, जो न कहने यो य ह और न िलखने यो य। एक रात मैरय क नशे म धु
होकर सांब ने इन नाचती-गाती आनंदिवभोर मिहला क साथ जो कक य िकए िक मत पूिछए।
अब मुझे काटो तो खून नह । अपार क आ। पर मुझे आ य नह था; य िक म सांब क कित जानता
था। वह ु न-सा ही सुंदर, आकषक तथा परा मी था। उसने अनेक यु म िवजय पाई थी; पर वह वैराचारी
था। मैरय पीने क बाद उसक बुि िठकाने नह रहती थी। िफर वह अिधकतर ारका से बाहर ही रहता था। इससे
उसक दुगुण म बढ़ोतरी होती गई और वे इस सीमा पर आ गए। म भीतर-ही-भीतर खौलता और सोचता रहा।
अब मुझे ल ा से गड़ी जा रही य क भाषा समझ म आई। अब म समझ पाया िक अंतःपुर क आंत रक
क म भी पहर का रह य या ह। य - य सोचता गया, मेरा ोध बढ़ता गया। मेरा ‘म’ वयं मुझे िध कारने
लगा िक पूर मानव समाज म धम क थापना का संक प लेनेवाले का पु ऐसा वैराचारी हो! दीपक तले ही
अँधेरा। िध कार ह तु ह!
म एकदम िवचिलत हो उठा। आ ोश म काँपने लगा। मेरी यह थित देखकर उन मिहला ने समझा िक उनसे
कोई भूल हो गई।
‘‘आप मा कर, यिद हमसे कोई भूल हो गई हो!’’ उ ह ने कहा और अपने कह पर प ा ाप करने लग ।
‘‘प ा ाप तो मुझे करना चािहए।’’ म उसी आ ोश म बोला, ‘‘सचमुच सांब मेर ही पाप का फल ह। शा
कहते ह िक पु िपता क आ मा होता ह। मेर भीतर का सारा कलुष उसम ही एकि त हो गया ह। तुम िव ास
करो, उसक इस अपराध का उसे दैवी दंड िदया जाएगा।’’
इसक बाद म कछ बोल नह पाया। जहाँ बैठा था वह ढलक गया।
सबक सब घबराकर दौड़ । सुगंिधत जल मँगवाया गया। मेरी सेवा-शु ूषा आरभ ई; पर म अचेत नह था। म
एकदम थ हो गया था। मने कभी क पना भी नह क थी िक मुझे अपने प रवार क संबंध म कभी ऐसा भी
सुनना पड़गा। भैया क संबंध म सुनता था; पर कभी वे मयादािवहीन नह ए। एक बार यमुना क सम ऐसी
थित आई थी। इसक बाद उ ह ने वयं ही अपने को सँभाला।
मुझे लगा िक इन मिहला को यह अनुभव हो रहा ह िक इ ह ने सांब क िशकायत करक अ छा नह िकया।
मने उनक इस अपराधबोध पर लेप लगाना आरभ िकया और कहा, ‘‘आप लोग ने यह सूचना देकर बड़ा अ छा
िकया। आप उन पतंग क तरह नह रह , जो जलता तो जाता ह, िफर भी नह बताता िक दीपक, तु हार नीचे ही
अँधेरा ह। इससे उनक याग का तो पता चलता ह, पर अपने ि य क ित उनक कत यबोध का पता नह
चलता।’’
इसी संदभ म मने अंतःपुर क सजगता क बार म उ ह बताया और कहा, ‘‘आज िदन भर उसीक संबंध म
सोचता रहा। ब त से पूछा; पर िकसीने कछ नह बताया। यिद तुम लोग भी न बतात , तब तो यह रह य बना ही
रह जाता। मेर अंग का यह ण भीतर-ही-भीतर सड़ता जाता और मुझे पता तब चलता जब दुगध ऊपर आती।’’
इसक बाद म वहाँ से उठा और सीधे मोद वन से बाहर आया। ार पर दा क से छदक कछ बात कर रहा था।
मने उसे भी रथ पर बैठा िलया। िकसीसे कछ नह बोला। मेरा म त क उस च क तरह घूम रहा था, जो गित
क चरम सीमा पर थर िदखाई देता ह।
म ासाद प चकर सीधे अपने क म आया और िबना व बदले श या पर ढलक गया। ह रय ने दौड़कर
वातायन क कपाट खोले।
एक दीप तो पहले से ही जल रहा था, उ ह ने और दीपदान को जलाने क चे ा आरभ क । मने मना करते ए
कहा, ‘‘आज मुझे अिधक काश क आव यकता नह ह। मुझे अँधेर म ही रहने दो और तुम लोग भी ार का पट
िगराकर चले जाओ।’’
वे भी समझ गए िक मेरी मनः थित ठीक नह ह। शीतल जल का वण कलश और चषक मेर पलंग क िनकट
एक मंचक पर रखकर वे चले गए।
म घुटन भर उस अंधकार म घुटता रहा। कवल एक दीप क िससकती लौ मेर छटपटाते मन का साथ देती रही।
म सोच म डबता गया। िफर एक थित ऐसी भी आई जब म बड़बड़ाने लगा—‘ य िकसी और से नह , अपने
से ही हारता ह। लोग मुझे देखकर या सोचगे? म अमा य से या क गा? जा भी यिद ऐसी वैरचा रणी हो गई
तो या होगा? उसे कसे दंड दूँगा? जब िसंहासन ही ह तब जा क होते िकतनी देर लगेगी? िफर आज
जब यह थित ह तो जब म नह र गा तब ारका क या थित होगी?’
अचानक मुझे एक हसी सुनाई पड़ी—अ हास क ओर बढ़ती ई एक हसी; एकदम अपने जैसी हसी जैसे
शू यता ही हस रही हो—‘जब तुम नह रहोगे तो या होगा? तुम भी भिव य क िचंता करने लगे? जग को
भिव य क िचंता न करने का उपदेश देनेवाले, आज तुम भी उस िचंता से य हो गए! या भिव य तु हार हाथ म
ह? तु हार हाथ म तो कवल वतमान ह। तुम उसीक भो ा हो। भिव य पर तु हारा कोई अिधकार नह । उसे िनयित
क हाथ म स पो। इस मूढ़ता को यागो िक जब म नह र गा तो ारका का या होगा?’
वह हसी और वह आवाज मशः बढ़ती गई और अंत म उसने सािधकार कहा, ‘यह तुम कसे सोचते हो िक
तु हार न रहने पर ारका रह जाएगी? म कहता िक जब तुम नह रहोगे तब ारका भी नह रहगी।’
‘यह या कह रह हो? कौन हो तुम यह कहनेवाले िक मेर न रहने पर ारका भी न रहगी? इतने ेम से मने
इसका िनमाण िकया ह और इसे बसाया ह और यही नह रहगी तो कौन रहगा?’
‘कवल ‘म’ र गा।’ उसका अ हास और सघन हो गया। उसने यं य क वर म पूछा, ‘तुमने इसका िनमाण
िकया ह! यह या कह रह हो? और, तुम कह रह हो!’ अब उसका हास अ यिधक गंभीर था—‘यह िम याभास
तु ह कसे हो गया िक तुम वयं को कता समझने लगे? तुम कता नह हो और न तुम कछ करने क मता रखते
हो। कता तो म । तुम तो मेर ‘करण’ मा हो।’
‘म कवल ‘करण’ ! म कवल ‘करण’ !’ म पागल -सा िच ाया।
‘हाँ, तुम कवल ‘करण’ हो!’ वह अ हास और गहराया—‘कता तो तुम तब होगे जब म तुमम समा जाऊगा।’
इसक बाद अ हास मेरी ओर बढ़ता जान पड़ा। य - य वह मेर पास आता गया य - य वह मंद पड़ता गया
और अंत म एकदम लु हो गया।
िफर कह कछ नह । एक जलता दीप था, िजसे हवा क झ क ने पता नह कब का बुझा िदया था। अब कवल
अँधेरा—िनतांत अंधकार। लगा जैसे इसक पूव क अँधेर म िबखर जो योित कण थे, वे ही समवेत होकर मुझम
समा गए।
अब मेरी अशांित एक िज ासा म उभरी। म सोचने लगा िक यह िकसक आवाज थी, जो मुझपर छाई रही, िफर
मुझम ही समा गई? कह यह मेरा ही ‘ यय’ तो नह , जो मुझे यथाथबोध कराने आया हो? य िक जो बात उसने
कही थ , वे ही बात मने बाद म यु थल म मोह त अजुन से कही थ ।
अब म बाहर से एकदम शांत था; य िक बात करनेवाला और उसका उ र देनेवाला—दोन मेर भीतर थे। भीतर
ही मेरा मंथन चलता रहा।
शांत िदखनेवाला म भीतर से उबलता रहा। रह-रहकर उठती मेरी गहरी साँस म उसक भाप िनकलती रही। िसरहाने
चुपचाप खड़ी मणी को मेरी मनः थित का अनुमान हो गया था।
‘‘आप इतने य य ह?’’ उसने कहा।
मने मुड़कर देखा।
‘‘तुम कहाँ थ ?’’
‘‘म तो कब से िसरहाने खड़ी थी! कवल मौका देख रही थी िक कब आप थोड़ शांत ह और म आपसे बात
क ।’’ इतना कहते ए वह मेरा िसर सहलाने लगी और उसी पयक पर बैठ गई।
‘‘हम लोग ने इसीसे कछ कहा नह था; िफर भी सबकछ आपको मालूम हो गया।’’ मणी बोली।
‘‘ या यह बात िछपाने क थी?’’ मने कहा, ‘‘यिद यह बात तुम लोग मुझसे िछपात तो मेर ित धोखा होता;
जबिक इसे पूरी ारका जान गई होगी—और यिद न जानती होगी तो जान जाएगी। मुझे तो लगता ह, सांब का
अपराध मृ युदंड का ह। इस पाप का कोई और ाय नह ।’’
‘‘अर र र, यह या कह रह ह आप? िपता पु को ाणदंड देगा!’’ मणी एकदम घबरा गई।
म बोलता गया—‘‘ मणी, यह मत भूलो िक सांब का िपता होने क साथ-साथ म ारका का शासक भी ।
शासन का आधार ह याय—और याय अपना-पराया कछ नह देखता।’’
मणी कछ नह बोली, कवल मेरा िसर सहलाती रही। कछ समय क िलए हम दोन चुप रह। िफर उसने मुझे
समझाने क िलए एक दूसर तक का सहारा िलया। उसने धीर से कहा, ‘‘िपता क िनयं ण क िबना पु का मु हो
जाना वाभािवक ह।’’
‘‘मु होना दूसरी बात ह और वे छाचारी एवं दुराचारी होना एकदम दूसरी बात। अब तु ह समझो, मुझपर िकस
िपता का िनयं ण था? परम मु तो म भी था; पर मने कभी दुराचरण नह िकया।’’
‘‘दुराचारी तो नह कहा जा सकता; पर वासनाज य चे ाएँ आपक भी कम नह रही ह।’’ मणी ने हसते ए
कहा, जो मेरा मन फरने क िलए था।
पर म एकदम उबल पड़ा—‘‘मेरी वासना मेर िनयं ण म थी; पर म वासना क िनयं ण म कभी नह था। या मने
भी अपनी माता क साथ ऐसा ही िकया था जैसा सांब ने िकया?’’ मेरी आवाज और तेज ई—‘‘तुम मुझको
दोष देती हो िक मने पु पर िनयं ण नह रखा! यिद यह बात स य ह, तब तो मेर सभी पु को सांब क तरह
होना चािहए। या तु हारा पु ु न भी सांब क तरह ह? या सांब से उसक वासना िकसी कार दुबल ह? मने
तो जब भी उसक बार म पता लगाया, वह मायावती क पीछ लगा रहता ह।... ु न क वासना सरोवर क उस
बँधे जल क तरह ह, जो कमल को सुरिभत और स दययु करता ह। सांब क वासना तो नाली म बहता सड़ा
आ बदबूदार पानी ह, जो वयं तो गंदा रहता ही ह, समाज को भी गंदा करता ह।’’
‘‘अ छा, अब आप सो जाइए।’’ ऐसा कहते ए उसने िसर छोड़ िदया और पैर सहलाने लगी।
म कब सो गया, पता नह । सवेर आँख खुल तो सूय-र मयाँ मेरी श या का पश कर चुक थ । मणी कब क
बगल म ढलक पड़ी थी। मने उसे जगाया नह ; पर मेर उठ बैठते ही वह भी जाग गई।
‘‘आज खूब खराट लेती रही।’’ मने कहा, ‘‘लगता ह, तू मेर सोने क ब त देर बाद सोई।’’
‘‘ या करती! आप सोए ए भी बड़बड़ाते रह। मुझे लग रहा था िक कह आप जाग न जाएँ। म ब त देर तक पैर
सहलाती और चुपचाप आपका मुख देखती रही।’’
q
लगता ह, राि क घटना क जानकारी सांब को हो गई थी। वह ातः से ही ासाद से गायब था। मने तुरत
गु चर िवभाग से उसपर रखने को कहा।
कायालय जाने क पूव मणी आज वयं जलपान लेकर मेर क म आई। उसक साथ स यभामा भी थी;
जबिक सदा ऐसा नह होता था। हम लोग उपाहार क म ही िमलते थे।
मने मुसकराते ए पूछा, ‘‘आज यह िवशेष कपा य ?’’
अब मणी ने स यभामा क ओर देखा। स यभामा ने अपने अधर पर एक कि म मुसकराहट उगाई और बोली,
‘‘ य िक आपका मन आज िवशेष अशांत ह।’’
‘‘अशांत ह नह , अशांत था।’’ मने कहा, ‘‘ य िक अशांत होना मन क सं मणकालीन अ थायी थित ह।
उसक मूल कित तो शांत रहने क ह। अब म शांत , िब कल शांत। अब मने िन य कर िलया ह िक मुझे
या करना ह!’’
‘‘िबना सांब और जांबवती को सुने आपने िन य कर िलया िक अब आपको या करना ह!’’ मणी बोली,
‘‘तब या पूण याय हो सकगा? जबिक जांबवती आपसे कछ िनवेदन करना चाहती ह।’’
‘‘उसे िकसने रोका ह!’’
मेरा इतना कहना था िक जांबवती अपने क से बुलवाई गई। वह तुरत आई और हाथ जोड़, नीची िकए
एक अपरािधनी क तरह खड़ी हो गई।
मने उससे बड़ी आ मीयता से कहा, ‘‘अब तु ह भी मेर पास आने क िलए िसफा रश करानी पड़ती ह!’’
‘‘यह मेरा दुभा य ह।’’ वह धीर से बोली, ‘‘मेर मुख पर ऐसी कािलख लगी ह िक म यही सोचती रहती िक म
अपना मुख आपको कसे िदखाऊ!’’
‘‘तु ह इतना अपराधबोध य ?’’
‘‘ य िक म उसक माँ । उसक अपराध का बोध भी मुझे ह। उसक दंड क पीड़ा भी मुझे होगी।’’ जांबवती
इसक आगे कछ बोल नह सक । उसका गला ध गया।
‘‘पर य को अपने कम का फल तो भोगना ही पड़ता ह, जांबवती, चाह वह हसकर भोगे या रोकर।’’ मने यह
भी प िकया—‘‘एक शासक क िलए यह संभव नह ह िक वह अपने पु क अपराध क भी अनदेखी कर दे
या उसे मा कर दे।’’
‘‘आप चाह जो भी कर, पर इसका यान रख िक जहाँ आप ारकाधीश ह वह आप एक िपता भी ह।’’
‘‘तुम िसंहासन क ग रमा को नह समझत , जांबवती!’’ मने कहा, ‘‘ ारकाधीश क िसंहासन पर बैठकर म
ारकाधीश पहले , सांब का िपता बाद म।’’
‘‘पर आप जरा ममता क िसंहासन पर बैठकर देिखए।’’ वह आँसे वर म बोली, ‘‘जरा माँ बनकर देिखए।’’
‘‘जो म बन ही नह सकता, उसक िवषय म य सोचूँ?’’ मने हसते ए कहा। सोचा था, मेरी हसी से उसक
जलते मन पर शीतल लेप हो जाएगी; पर वह भावहीन ही रही। जांबवती क आँख रसने लग । मने उसको बगल
म बैठाया अव य, पर कछ बोला नह ।
मुझे लगा िक म उसक आँसु क धारा म बह जाऊगा। मोह-माया क कटीली झािड़य क बीच से होकर
याय क गंत य तक प चा नह जा सकता। इसीिलए यथाशी जलपान से मु हो म क से िनकला और सीधे
कायालय आया। तुरत महामा य को बुलाने का आदेश िदया।
मने सारी थित महामा य को बताई और कहा, ‘‘ऐसा नह िक सांब क क य क जानकारी आपको न हो। और
यिद नह ह तो आपको महामा य नह होना चािहए।’’ म बड़ आ ोश म था। मुझे तुरत लगा िक जो कछ मने कह
िदया, वह मुझे नह कहना चािहए।
पर महामा य बेचारा कछ नह बोला। वह बड़ शांतभाव से सुनता रहा।
‘‘आपक िवचार से सांब को या दंड देना चािहए?’’ मने पूछा।
वह तो एकदम सकपका गया और मेरी मु ा ही देखता रहा।
‘‘आप बोलते य नह ह?’’ म बोला, ‘‘आप िनभ क होकर कह।’’
ब त संकोच क साथ महामा य ने धीर से कहा, ‘‘म या क ! आप वयं समझदार ह, जैसा उिचत समझ...।’’
‘‘जब राजा का िववेक डगमगाता ह तब उिचत-अनुिचत पर अपना प मत देना महामा य का कत य ह।’’ मने
कहा, ‘‘पर यहाँ तो उलटा ही िदखाई दे रहा ह िक मुझसे अिधक आपका ही िववेक किपत ह।’’
‘‘म तो सोचता , यह कमार सांब क जीवन का पहला अपराध ह।’’
‘‘यह उसक ही जीवन का नह वर हमार सामािजक अनुशासन और ारका क शासन क पहली घटना ह।’’
मने और जोर देकर कहा, ‘‘जानते ह, महामा य, यिद दंड देने म जरा भी िढलाई बरती गई, तब ऐसे अपराध को
ो साहन िमलेगा। लोग ऐसे जघ य काय करगे और कहगे िक महाराज, यह तो अपराधी का पहला अपराध ह।
य नह ऐसे िवषवृ को पनपने क पहले ही जड़ से उखाड़कर समु म फक िदया जाए!’’
महामा य अब भी कछ बोल नह पा रहा था।
अब मने उसे आदेश िदया—‘‘आज अपरा मेर ही कायालय म अमा य मंडल क बैठक आ त क िजए और
उसी समय सांब को भी बुलाइए।’’
िफर तो यह समाचार अर या न क तरह पूरी ारका म फल गया। एक थरथराहट-सी सार शासन म या
हो गई। लगा जैसे कछ होने वाला ह। लोग तरह-तरह क आशंकाएँ करने लगे।
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आदेश क अनुसार अमा य मंडल क बैठक आ त ई। उसीक सम सांब को उप थत िकया गया। कोई कछ
नह बोला। पूरी बैठक पर एक आशंिकत स ाटा छाया था। हर कोई सोच रहा था िक देख या होता ह।
इसी समय मने सांब क भ सना आरभ क —‘‘आप लोग यह तो जानते ही ह गे िक यह मेरा पु ह। इसका
सुगिठत तन देिखए। इसका स दय देिखए। इसक अिभनय कला से तो आप प रिचत ही ह गे। यह असामा य
य व इसे य ही नह िमला ह। इसक ज म क िलए मने भगवा आशुतोष से ाथना क थी। यह उसी भगवा
शंकर का आशीवाद ह, िजसने काम को भ म कर िदया था। पर इसक िसर पर वही काम सवार हो गया; वर
काम नह , काम का रा स सवार हो गया और ऐसा क सत अपराध कर डाला, िजसने पूरी ारका क मुख पर
कािलख पोत दी।’’
सांब िसर नीचा िकए पूर अपराधबोध क साथ मेरी बात सुनता रहा।
मने अमा य को संबोिधत करते ए पूछा, ‘‘अब आप ही बताइए िक इसक िलए कठोर-से-कठोर कौन सा दंड
होगा?’’
पूरी अमा य प रष मौन। सद य एक-दूसर का मुँह देखने लगे।
थोड़ी देर बाद उ ह म से एक आवाज उभरी—‘‘दंड का िन य करना महादंडनायक का काय ह, िजसक
िसरमौर आप ह। अमा य प रष को न तो उसक काय म ह त ेप करना चािहए और न अिधकार पर आघात।’’
मुझे हसी आ गई। मने मुसकराते ए कहा, ‘‘आप लोग ने अपने दािय व से मु होने क िलए आिखर एक
माग िनकाल ही िलया!’’
इतना कहकर मने अमा य प रष क बैठक को वह समा कर िदया और नगर शासक को आदेश िदया
—‘‘गोधूिल क समय सांब मोद वन म उप थत िकया जाए। इसे इसक उन माता क सामने ही दंड िदया
जाएगा, िजनक ित इसक म तक पर पाप सवार हो गया था।’’
थित और गंभीर हो गई। सारी ारका म भय का स ाटा रगने लगा। मेरी मु ा से लोग को प लगा िक
आज कछ होकर रहगा। यहाँ तक िक छदक भी घबरा गया; पर वह भी कछ कह नह पाया। मने सोचा, इस काय
म भैया थोड़ा सा आड़ आ सकते ह। उनका िलहाज भी मुझे करना पड़गा। वे सांब क ओर से अव य कछ
कहगे; य िक वे सदा उसका प लेते थे। पर अंत तक न तो भैया ने और न रवती भाभी ने ही कछ कहा। मोद
वन म वेश करते समय भी म भैया क उप थित क संभावना पर िवचार करता रहा।
नगर शासन ने आव यकता से कछ अिधक ही सावधानी बरती। मेर प चने क पूव ही कड़ पहर म सांब को
उप थत कर िदया गया। ारका क िकसी भी य को उस िदन मोद वन म वेश क अनुमित नह थी।
आव यक सैिनक क अित र तीन बिधक को भी बुला िलया गया था और उ ह िकसी भी प र थित का सामना
करने क िलए स रखा गया था।
इन सारी तैया रय का किपत कर देनेवाला भाव मेरी उन भाव प नय पर पड़ा था। सचमुच वे भीतर से काँप
रही थ और िनतांत आशंिकत थ ।
मने उनसे कहा, ‘‘अपराधी को म आपक बीच ले आया —कवल इसिलए िक आप जो भी उिचत दंड देना
चाह, उसे द।’’
िफर मने नगर शासक से पूछा, ‘‘सारी यव था ठीक ह न?’’
‘‘जी, महाराज!’’
मने पुनः अपनी उन भाव प नय को संबोिधत करते ए कहा, ‘‘आप चाह तो कशाघात से अंग-भंग कर इसे
िनक मा बनाकर छोड़ द। आप चाह तो इसे मृ युदंड देकर इसक िविधव अं ये करा द, या इसका शव जंगली
पशु क बीच नोचने और खाने क िलए छोड़ द। दंड क ये तीन िवक प आपक सामने ह। उनम से जो चाह,
आप तुरत चुन; य िक इस काय म िवलंब होना हमारी िनणायक बुि क कमजोरी समझी जाएगी।’’
अब उन सारी मिहला को तो जैसे काठ मार गया। कोई कछ कह नह पा रही थ । कछ को तो यह भी लगने
लगा िक उस िदन हमने िशकायत करक उिचत नह िकया।
मने िफर कहा, ‘‘शी ता क िजए। म चाहता िक राि क थम हर तक दंड क सारी ि या समा हो
जाए।’’
‘‘पर दंड क ये तीन िवक प तो मानवीय दंड क ह। आपने तो उस िदन कहा था िक उसे दैवी दंड िदया
जाएगा।’’ यह दबी आवाज उन मिहला क बीच से उभरी।
कछ ण क िलए म सोच म पड़ गया। पर शी ही म सँभला। मेरा आ ोश कछ-न-कछ तुरत कर डालने क
प म था। मने बात आगे नह बढ़ाई। मने कहा, ‘‘यिद ऐसा ह तो आप सभी यान से सुन। िजस देवािधदेव
महादेव ने इसे इतना सुंदर प िदया ह, उ ह से मेरा अिभत मन ाथना करता ह िक इस जघ य अपराध क िलए
इसे कोढ़ी कर द। इसक कचनवण काया रजतवण हो जाए।’’
सभी हाय-हाय करने लग ।
‘‘यह तो बड़ा कठोर दंड होगा। अपने एक िदन क अपराध क िलए यह जीवन भर अिभश होकर समाज म
सबका ितर कार सहगा। िकसी धािमक अनु ान और युवराज पद से वंिचत रहगा।’’ उनक पहली िति या कछ
ऐसी ही थी।
पर मने िकसीक कछ नह सुनी। मने कहा, ‘‘म चाहता िक िफर ारका म ऐसा िघनौना पाप न हो। लोग
देख िक ऐसे जघ य अपराध का प रणाम या होता ह!’’
गाढ़ और काँपते अंधकार म मोद वन को छोड़कर म उस िदन तुरत वहाँ से चला आया।
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मेर शाप का भाव तो कछ िदन बाद से आरभ आ, पर सांब का अपराध उसी िदन से ारका क मआ
गया। उसी िदन से वह लोग क उपे ा का पा होने लगा। इसका भाव उसक मन पर बड़ा बुरा पड़ा। उसम
हीनता क भावना आई और वह बढ़ती गई। अब वह हम लोग से दूर होता गया।
उसम अिभनय क अ ुत कला थी। उसने एक अिभनय मंच भी बनाया था। िदन-रात वह अपने िम क साथ
वह लगा रहता। उस नाटक मंडली म भी उसका पहले जैसा स मान नह रहा, या रहा भी हो, पर उसे नह लग
रहा था। उसक मानिसकता अब चार ओर उपे ा-ही-उपे ा देख रही थी।
हीनता का बोध हीन होने से अिधक भयावह होता ह। दूसर आपको हीन समझ या न समझ, पर आप अपने को
हीन समझने लगते ह। य को अपनी स ृि य पर िव ास ही नह रह जाता। हर अ छाई से वह वयं दूर हटने
लगता ह, तब बुराइय को खुला े िमल जाता ह।
सांब क संदभ म भी ऐसा ही आ। अब वह मैरय क चषक म डबा आ अपने ही क म पड़ा रहता। और
से उसका िमलना-जुलना भी कम हो गया था। िमलता भी तो बात नह करता। यिद कोई बात करना भी चाहता तो
उसे भी िझड़क देता। मने सुना ह िक अब अपनी माँ क साथ भी उसका यवहार ठीक नह रहा। पर जांबवती
इसक बार म कछ कहती नह थी। अब वह मेर सामने भी नह आती थी। कभी म वयं बुलाता भी तो वह बुझी-
बुझी-सी मेर पास आने क प नीधम का बला िनवाह करती ई आती।
इसी मानिसकता म सांब ने एक लड़कपन और कर िदया। उसे भी या मालूम था िक खेल-खेल म िकए गए
इस प रहास का इतना भयंकर प रणाम होगा। पर जो नह होना चािहए था, वह हो गया। िनयित ने अपना खेल खेल
िदया।
इस म म सारण क चचा अिनवाय हो गई ह। सारण मेरी दूसरी माता रोिहणी का पु था। मेरा भाई था; पर
क या मुझसे दूर था। उसक न तो मुझसे पटती थी और न बलराम भैया से ही। वह भी अपनी हीन भावना का
िशकार था। हमार और उसक बीच एक लंबी खाई थी—ई या और ेष से भरी ई, जो हम कभी िमलने नह देती
थी। उसक चार पु थे—मा , मा मत, िशशु और स यधृित। ये सब अपने िपता क ही माग पर थे—लंपट,
िनठ े और दुराचारी। ये सभी सांब क अिभनय मंच क सद य थे। सब अिभनय म सांब क भागीदार थे।
मेरा थम पु ु न भी अिभनय म भाग लेता था। इन लोग ने सुपुर नगरी म ‘रभािभसार’ नामक नाटक िकया
था। उसम सुपुर क राजा व नाभ क क या भावती ने भी भूिमका क थी। सुना ह, सांब ने भावती क साथ भी
अभ ता क थी; िकतु इस नाटक क इतनी यश-चचा ई िक सांब क आचरण पर लोग का यान नह गया।
बात मेर कान म भी पड़ी थी; पर मने भी ब त यान नह िदया। सांब मेर सामने ब त कम पड़ता था। हाँ, मने
ु न से इतना अव य कहा था िक तुम लोग ारका क राजकमार हो। तु ह सदा ऐसे काय से बचना चािहए,
िजससे लोग तु हारी ओर अँगुली उठा सक।
िफर बाद म मुझे यह भी पता चला िक ु न सांब क नाटक मंडली से अलग हो गया। उसक अलग होते ही
सांब अब िब कल ही सारणपु से िघर गया और उ ह क च कर म उसने वह क य कर डाला, जो संपूण यदुवंश
क नाश का कारण बना।
एक िदन गु चर से समाचार िमला िक महिष दुवासा अपने िश य क साथ ारका क ओर आ रह ह। मने
तुरत उनक वागत क तैयारी क आदेश िदए। रातोरात ारका म कई तोरण ार बनवाए गए। पर इसे म ारका
का दुभा य या सौभा य क िक महिष ारका म नह पधार।
गु चर ने बताया िक महिष ने ारका से एक योजन दूर से ही अपना माग बदल िदया। मने राहत क साँस ली।
य भी महिष का वागत करना आग से खेलना था और मने का यक वन म उ ह अ स ही िकया था। मुझे लगा,
कह वे ितशोध क भावना से तो नह आ रह ह। य िप यह शंका िनमूल थी।
पर मेरा मन इस थित का भी सामना करने को तैयार था। िजस ाम म वे िटक थे, वहाँ क सरदार से भी मने
िनवेदन करवाया—‘‘महिष जब इधर आए ह तो या ारका जाने क भी कपा करगे?’’
‘‘जाने क कोई योजना तो नह ह।’’ महिष क अधर पर कछ िझझक और संकोच भरी मुसकराहट थी—‘‘उस
छिलया से मेरा सामना का यक वन म हो चुका ह।’’
इतना कहने क बाद वे पूरी घटना को एकदम पी गए।
मने समझ िलया िक महिष क मानिसक पराजय का घाव तो भर चुका ह, पर वह अपना िच अव य छोड़
गया ह। वह घातक हो सकता ह—और आपको जानकर क ही होगा िक वह घातक आ भी। मेर ही िलए नह ,
मेर संपूण वंश क िलए घातक आ। उसका मा यम भी सांब बना।
इधर सारण क पु और सांब क चौकड़ी का बस एक ही काम था—िकसी स माननीय या िकसी सीधे-सादे
य को मूख बनाना और उसका प रहास करना। अब तक उ ह ने यह काय ारका और उसक आसपास ही
िकया था। इसीसे लोग उ ह राजकमार जानकर छोड़ देते थे। मुझ तक िशकायत नह आती थी। लोग कढ़ते तो
ब त थे। यिद कोई उ ह तािड़त करने क चे ा भी करता था तो लोग उसे समझा देते थे—‘‘अर भाई, जाने दो!
यह वयं शािपत ह। देखते नह हो, इसक शरीर का रग बदलने लगा ह। अपने कम का फल तो यह वयं भोग
रहा ह।’’
जब उस चांडाल चौकड़ी को दुवासा क आने का समाचार िमला तो वे बड़ स ए। उ ह लगा िक मूख
बनाने क िलए इससे अ छा अब कौन पा िमलेगा। अंगार से खेलनेवाल ने ालामुखी से खेलने क योजना
बनाई।
उ ह ने िकसी तरह इसका भी पता लगा िलया िक महिष ारका न आकर िकस ाम म ठहर ह। अब सारणपु
ने सांब का वेश बदला। उसे सुंदर नारी बनाया। उसक लंबे कश और आकषक आकित इसक अनुकल थी।
उन सारणपु ने वयं अमा य का वेश धारण िकया। िफर सब एक रथ पर वहाँ गए जहाँ महिष ठहर थे। इतना
हो गया, पर मुझे पता नह । गु चर ने भी इधर यान नह िदया। वे यही सोचते रह गए िक यह चांडाल चौकड़ी
कह अिभनय करने जा रही ह। उ ह या पता था िक ारका क उ पाती तथा सपाितय क यह गोल महा तप वी,
तापी और तेजवा सूय को िचढ़ाने जा रही ह।
उन सबने योजना बनाई िक गोधूिल क समय सं योपासना से य ही महिष उठ य ही उनक सम प चा
जाए, िजससे सूया त क बाद क धुँधलक म हमारी असिलयत पहचानी न जा सक।
अपनी योजनानुसार समय से वे प चे। रथ को उस थान से काफ दूर रखा गया, जहाँ महिष ठहर थे। उनम से
एक उतरा और महिष क साथ आए चा रय से कहा िक महाराज ब ु यादव क राजरानी महिष क दशनाथ
पधारी ह।
चा रय ने यथाशी महिष क पास सूचना प चाई। बभु्र यादव क प नी और यहाँ? वह भी इस समय?
दुवासा को आ य आ।
उ ह ने कहा, ‘‘जाओ, कह दो िक गोधूिल क बाद ऋिषय का िकसी पर ी से िमलना शा िविहत नह ह।
अतएव आज राि िव ाम कर। कल ातः अ नहो क बाद वे िमल सकती ह।’’
यह सुनकर चांडाल चौकड़ी िनराश ई। अब या होगा? राि िव ाम क योजना भी नह , यव था भी नह ।
िफर रात भर म तो वयं यह कि म प भी अ त- य त हो जाएगा। वा तिवकता उजागर हो जाएगी।
सारणपु ने पुनः चारी से कहा िक हम लोग क ओर से आप महिष से िफर ाथना कर। महारानी को
इसी समय लौटना ह। वे महिष क दशन क िलए य ह। वे उनका आशीवाद लगी और चली जाएँगी।
िकसी कार महिष राजी ए। अब धड़धड़ाती ई चांडाल चौकड़ी महिष दुवासा को मूख बनाने क लालसा
िलये प च गई। प चते ही सांब महिष क चरण म िगर गया।
महिष क मुख से बड़ सहजभाव से िनकल पड़ा—‘‘सौभा यवती भव!’’
सारणपु ने सोचा िक हम आंिशक सफलता िमल गई। दुवासा हमार च कर म फस गए। उ ह ने सांब को
सचमुच मिहला समझ िलया।
िफर उ ह म से एक बोला, ‘‘महिष, ये यादवराज ब ु क राजमिहषी ह। इ ह कोई पु नह ह। सारा प रवार
रात-िदन संतान क िचंता म डबा रहता ह। सौभा य से महारानी इस समय गभवती भी ह। आप जरा अपने
यानयोग से बताने क कपा कर िक इ ह पु होगा या पु ी?’’
महिष ण भर क िलए यानाव थत ए।
सारणपु क मूखता या सांब का दुभा य या यादव का अिन अथवा िनयित क िवडबना—आप जो भी चाह,
कह ल; पर उन युवक क नादानी भरी शरारत ने सा ा काल को आमंि त िकया।
ालामुखी फटा। महिष क अ हास म उस ालामुखी का लावा था। महिष तड़पे—‘‘अर बुि हीनो, तुम सब
मुझे मूख बनाने चले हो! म समझ गया िक यादवराज ब ु क यह प नी कौन ह!’’ इसक बाद उ ह ने दाँत पीसते
ए कहा, ‘‘तू क ण का पु सांब ह न! तू मेर तप क परी ा लेने आया ह, या मेरा प रहास करने? अ छा जा, म
तेरी ही बात मान रहा िक तू िकसीक प नी ह, गभवती ह। तो सुन, तेर गभ से या पैदा होगा! न पु होगा, न
पु ी वर एक ऐसा लौह मुशल पैदा होगा, जो यादव क िवनाश का कारण बनेगा।’’
इसक बाद या आ, मुझे नह मालूम।
बात तो अभी भी न फटती, यिद इस चांडाल चौकड़ी क मित न होती। इस घटना क दो-तीन िदन बाद
आधी रात को जब सारी ारका सो रही थी तब इन दुबुि य ने उस मुशल को िसंधु म फक देना चाहा। वे सब
िकसी कार साहस जुटा और वेश बदलकर िसंधु क िकनार गए भी; पर वहाँ समु ी ह रय ारा पकड़ गए। तब
इस रह य का उ ाटन आ।
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मुझे अचानक आधी रात को जगाया गया। म एकदम घबरा गया; जैसे ारका पर कोई आ मण हो गया हो।
गु चर अमा य ने मुशल क साथ सांब क पकड़ जाने क सूचना दी। मेरी म इस सूचना का मह व िकसी
आ मण से अिधक ही था; य िक यह संपूण यादव वंश क महानाश क सूचना थी।
मने िबना कोई िति या य िकए महामा य को तुरत सूचना देने क िलए ध यवाद िदया और कहा, ‘‘अ छा,
इस समय आप जाएँ, िव ाम कर। कल इसपर िवचार िकया जाएगा।’’
मेरा मन तो अ थर हो ही गया था। म पुनः पयक पर जाकर ढलक गया। मुझे सांब पर इतना ोध था िक यिद
वह सामने होता तो म उसको समा कर देता; पर इससे या होता! यादव क र ा तो हो नह जाती। ऐसी
थितय म म अपने से ही नो र करने लगता और िचंतन म डब जाता । इस समय भी मुझे यही िचंता सता
रही थी िक या मेर रहते ही मेरा सारा िनमाण व त हो जाएगा?
‘ या कहा, ‘मेरा’ िनमाण! तू या िनमाण कर सकता ह? इस म म मत रह। कता तो म ।’ एक जानी-
पहचानी आवाज मेर कान से पुनः टकराई—‘तू िनिम मा ह। म ही बनाता , म ही िबगाड़ता । सृ का
िनयामक भी म और िवनाशक भी। म िविध भी , िवधायक भी और महाकाल का पयाय भी। न तेर िकए कछ
आ ह और न तेर चाह कछ होगा।’ इस विन क साथ ही एक िव ूप-सी हसी सुनाई देती रही।
ऐसा मेर साथ कई बार आ ह, इसिलए इस बार म घबराया नह । म कवल उसे सुनता रहा—‘िचंतामु हो, तू
अपने से अलग होकर िनरपे भाव से देख, जैसा साधना क समय तू अपने को देखता ह। तू पाएगा िक जब तू नह
था तब भी यह सृ थी और तू नह रहगा तब भी यह सृ रहगी। इसम िनमाण एवं िवनाश का म सदा रहा ह
और चलता रहगा। तेर जैसे लोग कभी उसक िनमाण क और कभी उसक िवनाश क बस िनिम बन सकते ह।
करण बन सकते ह, कारण बन सकते ह; पर कता नह । बस तेरा अ त व यह तक ह। जब तू कता होने क
अहकार से मु हो जाएगा, जीवन को सा ीभाव से देखेगा, तब तू पाएगा िक जब तेरा यह जीवन नह था तब भी
तू था और जब यह जीवन नह रहगा तब भी तू रहगा। तब िवनाश और िनमाण क बीच क रखा तुझे बड़ी ीण-
सी लगेगी। तब तू मान लेगा, िजसका िनमाण आ ह उसका अव य एक-न-एक िदन िवनाश होता ह और िजसका
िवनाश होता ह उसीका िनमाण होता ह।’
म मं मु ध-सा उसे सुनता रहा—‘इसिलए यादव क नाश का कारण तुझे सांब क करनी और दुवासा का शाप
भले ही लगे, पर वा तिवकता यही ह िक उ ह न होना ह और वे न ह गे।’
इसक बाद मुसकराती ई मेरी जैसी आकित ही मुझे िदखाई दी। िफर वह मुझम ही लु हो गई। मुझे लगता ह
िक म कई य व एक साथ जी रहा ; िजसम धान दो ह, जो सदा मेर साथ रहते ह। एक तो मेरा ि याशील
य व—बा य व—सबको िदखाई पड़नेवाला साकार प, सारा दूषण और दूषणयु , संसारसापे
और मरणधमा। दूसरा मेरा िचंतनशील य व—आंत रक य व—अ य को िदखाई पड़ना तो दूर, मुझसे भी
अ य रहनेवाला य व, िकसी कार क दूषण और ज म-मरण क बंधन से मु । जब कभी मेरा बा
य व िकसी उलझन म पड़ता ह तब मेरा आंत रक य व सामने आता ह और मेरा मागदशन करता ह। इस
समय भी वही सामने आया था और िजस समय क े म अजुन मोह त आ था उस समय भी मेरा यही
य व सामने आया था।
इन सबका प रणाम यह आ िक मने सांब से बोलना छोड़ िदया और मन-ही-मन संक प िलया िक अब
उसका मुँह भी नह देखूँगा। इस घटना क बाद वह खुद भी मेर सामने नह पड़ा।
दूसर िदन कायालय आते ही मने धान शासक को बुलवाया और कहा, ‘‘एक अिभमंि त लौह मुशल िसंधु क
ह रय क पास ह। उसे लेकर राजक य श ागार म जमा कर दो।’’
‘‘ ह रय ने उसक िवषय म मुझे बताया ह; पर उ ह ने यह नह बताया िक वह उनक पास ह।’’ धान शासक ने
कहा।
‘‘तब हो सकता ह, सांब क पास हो।’’ मने कहा, ‘‘जहाँ हो, उसे ा करो। वह अिभमंि त और अिभशािपत भी
ह। (वह धान कटनेवाला मुशल नह था वर महाभारतकालीन एक अ था। क े क यु म मुशल का भी
योग आ था।) वह कभी भी कोई चम कार कर सकता ह।’’
धान शासक मुझसे आदेश लेकर िनकला ही था िक एक दूसरी सूचना मेर पास आई िक पांडव का मु य
सारिथ इ सेन खाली रथ लेकर आया ह। उसक साथ कछ सैिनक तथा अ भी ह। एक नई सम या और खड़ी
हो गई ह।
मेर िचंतन पटल पर अब पांडव थे। या हो गया िक उ ह ने इ सेन को मेर यहाँ भेज िदया? वे इतनी सरलता से
न तो परािजत हो सकते ह और न मार जा सकते ह। यह हो सकता ह िक िकसी वनज िवपदा ने या य क िकसी
माया ने उ ह घेर िलया हो।
मने उसी समय इ सेन को अपने कायालय म बुलवाया और उससे थित क जानकारी चाही।
उसने बताया—‘‘हमार वािमय क वनवास क बारह वष बीत गए। अब अ ातवास शु हो गया। इसीिलए
उ ह ने कहा िक तुम रथ, अ और अपने साथ क कछ सैिनक को लेकर चुपचाप ारका चले जाओ। इसक
साथ ही उ ह ने यह भी बताया िक महिष धौ य दास-दािसय और सेवक-सेिवका तथा अ नहो क साम ी को
लेकर पांचाल चले गए ह।’’
‘‘यह पांडव ने बड़ी बुि म ा का काय िकया।’’ मने कहा, ‘‘इन दो थान से अिधक िनरापद उनक िलए कोई
तीसरा थान नह हो सकता था।’’
‘‘पर यह योजना हमार वामी क नह ह।’’ इ सेन ने कहा, ‘‘िकसको कहाँ जाना ह, िकसे रहना ह, या करना ह
—इन सबका िनधारण भी महिष ने ही िकया।’’
‘‘तो पांडव क िलए उ ह ने अ ात रहने क या सलाह दी?’’
‘‘इसे तो उन लोग ने अ यंत गोपनीय रखा।’’
‘‘इसका ता पय ह िक यह तु ह भी नह मालूम!’’
‘‘यह म कसे क , महाराज?’’ उसने मुसकराते ए बड़ िवनीतभाव से कहा, ‘‘म आपक सामने झूठ नह बोल
सकता।’’
‘‘इसका मतलब ह िक तुम जानते ए भी बता नह सकते हो!’’
‘‘ऐसा ही उनका आदेश ह।’’
‘‘तब तो यह अ छी बात ह।’’ मने कहा, ‘‘यिद इस आदेश का पूरी स ाई क साथ तथा ढ़तापूवक पालन आ,
तब तो पांडव िन य ही अपना अ ातवास सफलतापूवक िबता लगे। यिद अ ातवास क िलए उ ह ने कोई सबल
और संप रा य चुना होगा तो और भी अ छा होगा।’’
‘‘ऐसा ही ह वह रा य।’’ मुसकराते ए वह बोला।
‘‘साथ ही यह भी देखना होगा िक उस रा य का ह तनापुर से संबंध कसा ह!’’
‘‘उस रा य का ह तनापुर से संबंध अ छा नह ह।’’
‘‘यह भी एक खतरा ह।’’ मने कहा।
‘‘ य ?’’
‘‘ य िक कौरव क गु चर सबसे पहले अपने श ु देश म ही उनका पता लगाने क चे ा करगे।’’
अब इ सेन ने अपनी बात थोड़ी और प क —‘‘मेर ‘अ छा नह ’ कहने का ता पय यह नह था िक वह
कौरव का श ु देश ह। व तुतः वह रा य न कौरव का श ु ह, न िम । हाँ, इतना अव य ह िक पांडव से
उसक सहानुभूित ह। पर पांडव ने अपना प रचय तो उ ह िदया नह ह। सारी वा तिवकता िछपाकर वे उनक
चाकर ए ह।’’
इसी म म इ सेन ने बताया—‘‘पांडव ने अपने नाम भी बदल िलये ह। अपनी यो यतानुसार अपने काय करने
क मता बताई—और सुना ह, एक ही राजा क यहाँ उनक यो यता क अनुसार उ ह काम भी िमल गया।’’
‘‘चलो, ठीक ही आ।’’ मने कहा।
मेर कहने क ढग से उसे लगा िक म उससे अिधक संतु नह । उसने पूछा, ‘‘ या आपको लगता ह िक उनक
इस यव था म कोई कमी ह?’’
‘‘एक थान पर सबका रहना एक से ठीक भी ह और ठीक नह भी। ठीक इसिलए नह ह िक एक का
रह य खुलते ही और का भी रह य खुल जाएगा। आपस म रोज का िमलना होगा, बातचीत होगी। उनक आपस म
जो संबोधन ह गे, उससे उनक गोपनीयता उघड़ सकती ह।’’ मने कहा।
‘‘इसपर भी उ ह ने िवचार िकया था।’’ इ सेन ने बताया—‘‘और उ ह ने इसक भी तैयारी कर ली ह।’’
‘‘ या तैयारी क ?’’ मने हसते ए पूछा।
‘‘उन लोग ने बातचीत क िलए दूसर नाम िन त िकए ह।’’ इ सेन ने मुसकराते ए इतना रह यो ाटन िकया।
‘‘तब तो एक-एक य क कई-कई नाम हो गए ह गे?’’
‘‘जी हाँ, तीन-तीन नाम ह गे।’’* उसने हसते ए बताया। पर इससे अिधक उसने कछ नह कहा और न मने
उससे बताने क िलए दबाव िदया।
‘‘िजतना तुमने मुझे बताया ह उतना भी और से मत बताना और अपने िम से भी ऐसी सावधानी बरतने क िलए
कहना।’’ मने उसे सावधान करते ए कहा, ‘‘जब तु हार वािमय ने इतने नाम बदले तो तु ह भी अपने िछपाव क
िलए कछ करना पड़गा।’’
‘‘जैसी आपक आ ा।’’
इसक बाद मने उसे तथा उसक साथ आए लोग को ारका क सेवा म रख िलया और उसे सावधान िकया िक
िकसीको अपनी वा तिवकता मत बताना और अपने िम को भी सतक करना।
* युिध र ने अपना नाम ‘कक’ रखा था; पर सभी भाई और ौपदी उ ह ‘जय’ नाम से संबोिधत करते थे। भीम का नाम ‘ब व’ था। ‘ब व’
का शा दक अथ होता ह भोजन बनानेवाला। आपस म उसे लोग ‘जयंत’ कहते थे। अजुन ‘बृह ला’ था; पर आपसी बात म लोग उसे ‘िवजय’ कहते
थे। नकल का नाम था ‘ ंिथक’। ंिथक को आपसी बातचीत म लोग ‘जय सेन’ कहते थे। सहदेव ने अपना नाम ‘तंितपाल’ रखा था। इसका शा दक
अथ ‘गोपाल’ होता ह; पर बातचीत म उसका नाम ‘जय ल’ था। ौपदी ‘सैर ी’ थी। ‘सैर ी’ अंतःपुर क दासी को भी कहते ह। िवशेषकर वह
प मिहषी क मुख सेिवका होती थी।
‘‘लेिकन ब धा लोग पूछगे ही, तो या क गा?’’ इ सेन ने पूछा।
अब म सोचने लगा िक सचमुच इसका कछ न बताना भी संदेह का कारण हो जाएगा। लोग जब इससे प रचय
पूछगे तो इसे कछ-न-कछ तो कहना ही चािहए। यिद यह झूठ कहगा तो पकड़ा भी जा सकता ह; य िक झूठ क
चादर इतनी बड़ी नह होती िक वह स य को पूरा-का-पूरा ढक सक। एक अंग िछपाएगा तो दूसरा िदखाई देने
लगेगा। लोग न पर न करते जाएँगे तो कभी-न-कभी इसक झूठ को नंगा होना पड़गा। ह तनापुर क गु चर
तो इसे पहचानते भी ह गे। यिद उन लोग से इसने झूठ कहा तो संकट म पड़ सकता ह।
‘‘लगता ह, आप कछ सोचने लगे।’’ वह पुनः बोला।
‘‘यही तो झूठ का सबसे बड़ा संकट ह िक उसे बोलने क िलए ब त सोचना पड़ता ह।’’ मने कहा, ‘‘तो तुम स य
ही य नह कहते! तुम कहो िक हम लोग पांडव क सेवा म थे। इ थ से ही वे हम लाए थे। बारह साल
वनवास म भी हम उनक साथ थे। जब उनक अ ातवास का समय आनेवाला था तब उसक पहले ही उ ह ने हम
लोग को अपनी सेवा से मु करते ए कहा िक आप लोग जहाँ मन हो वहाँ जाइए। अब हम अपना तन ही
िछपाना किठन होगा, हम आप लोग को साथ कसे रख पाएँगे। तब हम लोग ने ारका क शरण ली।’’
इ सेन मुसकराते ए बोला, ‘‘पर यह भी पूण स य नह ह।’’
‘‘स य क िनकट तो ह न!’’ मने हसते ए कहा, ‘‘इससे जरा भी आगे बढ़ोगे तो संकट क रखा पर पैर पड़
जाएगा।’’
इ सेन ने स तापूवक इसे वीकार िकया और चला गया। उसी िदन से चा रत हो गया िक पांडव क कछ
सेवक ारका म शरण ले रह ह।
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इस घटना क कछ ही िदन बाद।
एक सुहावनी सं या को मुझे सूचना दी गई िक ह तनापुर से कछ लोग आए ह। वे मुझसे िमलना चाहते ह। एक
रह य िफर मेर सामने खड़ा हो गया। मेर मन म तुरत आशंका उ प ई िक कह पांडव सैिनक से कोई बात
फट तो नह गई।
‘‘कौन ह वे लोग?’’ मेरा ता पय उनक पद को जानने का था—‘‘और वे या चाहते ह?’’
‘‘वे आपसे िमलकर महाराज धृतरा का िनमं ण देना चाहते ह।’’
म बड़ असमंजस म पड़ा। ह तनापुर से आनेवाले लोग िवभागीय धान क हिसयत क थे। ारकाधीश को
आमंि त करने क िलए ह तनापुर क महाराज ऐसे साधारण कमचा रय को भेज, यह बात कछ समझ म नह
आई। अर, अपने सौ बेट म से िकसीको भी इन लोग क साथ भेज देते। नह तो िकसी अमा य को तो आना ही
चािहए था। उ ह ने राजक य िश ाचार का पालन नह िकया।
पहले तो मने अपने हरी से कहा भी िक उनसे कहो, िनमं ण कायालय म दे द। महाराज को िमल जाएगा।
िफर सोचा िक यह तो िनमं ण भेजनेवाले का अपमान होगा। महाराज धृतरा या सोचगे? िफर मुझे यह भी नह
मालूम था िक िनमं ण िकस बात का ह। मेरा म त क पांडव क सेवक क ओर गया। हो सकता ह, उ ह को
लेकर कोई बात न पैदा हो गई हो!
मने अपना िनणय बदला और उ ह सस मान बुलाया।
उनसे पूछा, ‘‘ या ह, भाई?’’
‘‘युवराज दुय धन क पु ी ल मणा का वयंवर ह। महाराज ने आपको आमंि त िकया ह।’’ उसने िनमं ण क
‘ ंिथ मंजूषा’ समिपत क ।
मने उस ंिथ मंजूषा को िसर लगाया। उसका पूरा स मान करते ए मने यह तो कह ही िदया—‘‘राजक य
िनमं ण का यह िश ाचार भी पा रवा रक िनमं ण क तरह ही ह।’’ िफर मने एक कि म हसी हसते ए हरी से
कहा िक इ ह भैया क पास ले जाओ और उस िनमं ण मंजूषा को लौटाते ए उन आगंतुक से बोला, ‘‘यह तो
पा रवा रक िनमं ण ह। अ छा हो, इसे आप अपने हाथ से ही बड़ भैया को दे द।’’
िनमं ण लेकर वे लोग हरी क साथ चले गए।
मने सोचा िक जरा भैया भी अपने िश य और िम क धृ ता देख ल।
िन य ही भैया को दुय धन का िनमं ण भेजने का यह तरीका अ छा नह लगा होगा। इसीिलए इस संदभ म न
तो उ ह ने मुझसे कछ कहा और न मने उनसे कछ पूछा। बात हम दोन क चु पी क भीतर ही रह गई।
बाद म पता चला िक भैया ने सांब को उस वयंवर म भाग लेने क िलए भेज िदया। उस समय मुझे इसक कोई
जानकारी नह ई। उसे शािपत करने क बाद मेरा और उसका सामना नह होता था और न म उसक बार म कछ
जानना ही चाहता था। जांबवती िमलती तो थी, पर पहले जैसी हहाकर नह । पित और प नी क बीच औपचा रकता
तो थी, पर आ मीयता म काफ कमी आ गई थी।
हम दोन क बीच मणी और स यभामा क भूिमका ‘सेतु’ क थी। दोन इस प क थ िक सांब क संदभ म
जो कछ आ, उसे दोन ओर से भुला देना चािहए; पर न जांबवती भुला पाती थी और न म।
ब धा स यभामा इस िवषय म चचा छड़ती थी और बात क डोर बड़ी होिशयारी से मणी को थमा देती थी।
उस िदन स यभामा ने सांब क बार म बात शु क और कहलवाया मणी से—‘‘बेचार का शरीर एकदम ेत
हो चला ह। अब वह सूय क ताप से भी ब त घबराता ह। उसने अपने िकए का फल तो पा ही िलया।’’
‘‘अब जो हो गया, सो हो गया।’’ स यभामा बोली, ‘‘अब सारी घटना को भूलने म ही हम सबका क याण ह।’’
‘‘सारी घटनाएँ ही य , म तो सांब को ही भूल जाने क चे ा कर रहा ।’’ मने हसते ए कहा।
‘‘पर या आप ऐसा कर पाएँगे?’’ स यभामा ने मेरी ही बात पकड़ी—‘‘ऐसा आप इसिलए कह रह ह िक इस
समय सांब क संदभ म आपका म त क घृणा से भरा ह। पर आपने ही अनेक बार कहा ह िक घृिणत से नह ,
घृणा से घृणा करो। घृिणत को तो यापक उदारता और क णा क आव यकता ह। िफर ममता का आ ह आप
जैसा भावुक य ठकरा सकता ह!’’
‘‘तु हार कहने का ता पय या ह?’’
‘‘यही िक आप घटनाएँ तो भूल सकते ह, पर सांब को नह भुला सकते।’’
‘‘और यिद म सांब को भुला दूँ तो?’’
‘‘म समझूँगी िक आप िपता नह ह।’’ उसने छटते ही कहा।
म हस पड़ा।
एक ओर इस तरह का आ ह चल रहा था, दूसरी ओर सांब ने ऐसा करतब िदखाया िक उसक ित मेरी ही
नह , और क भी घृणा और भी गाढ़ी हो गई।
दूसर िदन जब म सोकर उठा तो मने देखा िक मणी और स यभामा दोन मुँह लटकाए चुपचाप बैठी ह।
उनक आकित पर एक अ यािशत आघात क अिभ य मने देखी।
मने तुरत पूछा, ‘‘ या बात ह?’’
‘‘कोई िवशेष बात नह ।’’ मणी ने कहा। िफर वह जल पा से पानी देती ई बोली, ‘‘पहले आप हाथ-मुँह
धोइए।’’
‘‘वह तो सवेर उठकर म रोज ही धोता ; पर उस समय तू तो नह धुलाती! यह काय अ य सेवक करते ह।’’
‘‘प नी भी सेिवका ही होती ह। यिद आज यह काय हम लोग कर रह ह तो आपको इतनी घबराहट य ?’’
‘‘घबराहट मुझम नह ह। घबराहट तो म तु हारी आकितय पर देख रहा । हो सकता ह, उसक छाया मुझपर पड़
रही हो।’’ मने कहा।
वे चुप हो ग ।
इसक बाद मने हाथ-मुँह धोया। िन यकम से िनवृ आ। सं या क पूजन पर बैठा। िफर भी वे चुपचाप बैठी
रह । जलपान म उ ह ने साथ िदया; पर नाम मा का—िचिड़य क तरह चुगती ।
जब जलपान समा आ तब मने पूछा, ‘‘अ छा, अब बताइए, या बात ह?’’
‘‘हमारी ाथना ह िक आप जरा जांबवती क क म चल।’’
‘‘ य , या बात ह?’’ मने पूछा तो सही, पर समझ िलया िक अव य ही सांब ने कोई करामात कर िदखाई होगी।
अब मणी ने बताया—‘‘जांबवती ने परस से खाना-पीना छोड़ िदया ह और िनरतर रो रही ह।’’
‘‘आिखर य ?’’ मने पूछा।
वे दोन एक-दूसर का मुँह देखती रह ग ।
‘‘कहती य नह िक सांब ने िफर कोई ‘ककम’ िकया ह!’’
मेरी आशंका को वीकारते ए उनका मौन अब भी बना रहा। िफर भी स यभामा ने अपना आ ह धीर से पुनः
दुहराया—‘‘यिद आप चलते तो उसे बड़ी शांित िमलती। वह बार-बार यही कहती ह िक अब वह कौन सा मुख
आपको िदखाएगी।’’
मेरी िज ासा क सामने िजतना परदा खड़ा िकया गया, वह उतनी ही ितलिमलाई—‘‘इसका ता पय ह िक कछ
ऐसा हो गया, िजससे उसक यह थित ह।...तुम लोग अब भी मुझसे मु य बात िछपाए जा रही हो।’’ मेरी
आवाज कछ तेज ई।
जब स यभामा ने देखा िक कह यह गोपनीयता मेर िलए बरदा त क बाहर न हो जाए तब उसने बताया
—‘‘सांब को बंदी बनाकर दुय धन ने कारागार म डाल िदया ह।’’
इतना सुनना था िक म एकदम उबल पड़ा—‘‘उसका यह साहस! पर यह सब कब आ? कसे आ? अभी
तक इस मह वपूण घटना से म अनजान रखा गया। मेर गु चर िवभाग ने मुझसे कछ नह कहा? अव य ही मुझसे
यह जान-बूझकर िछपाया गया।’’ इस सूचना से म इतना िवचिलत आ जैसे मेर म त क क धमिनयाँ फट
जाएँगी।
मुझे मेरी प नय ने काफ शांत करने क चे ा क ।
‘‘हो सकता ह, यह सूचना गु चर िवभाग को भी न िमली हो।’’
‘‘ऐसा कसे हो सकता ह!’’ म िफर आवेश म आ गया—‘‘यिद ऐसा ह तो म अभी चलकर गु चर अमा य को
िनलंिबत करता । ारका का राजकमार बंदीगृह म डाल िदया जाए और ारका को पता न हो!’’
‘‘ ारका को तो पता ह, पर आपसे अब तक इसिलए िछपाया गया िक इस सूचना को देने का भार हम लोग को
स पा गया।’’
‘‘िकसने स पा?’’
‘‘इस तूल म यिद आप इस समय न पड़ तो बड़ी कपा हो और आप जांबवती क क म चल।’’
जब म जांबवती क क म प चा तब वह मुझे देखते ही एकदम फट पड़ी। वह मुझसे िलपटकर ऐसा िससक-
िससककर रोती रही िक या बताऊ! उसे ऐसा फट-फटकर रोते ए मने कभी देखा नह था।
दुय धन क ित उभरा मेरा सारा आ ोश अब जांबवती क आँसु क बाढ़ को रोकने म लग गया। मने उसे
समझाना आरभ िकया िक अब मन छोटा करने से या लाभ! जो प र थित आई ह, उसका सामना एक वीरांगना
क तरह करो।
मुझे लगता ह, सांब क बंदी बनाए जाने क सूचना कल ातःकाल ही आ गई थी। तभी तो कल ातःकाल से
राजभवन म एक कार का भयभीत आतंक साँय-साँय करने लगा था। सं या तक यह स ाटा नगर म भी रग गया।
म सोचता रहा िक या बात ह; पर िकसीने मुझे कान कान खबर नह क ।
‘‘अ छा, घबराओ नह , जांबवती, म अभी दुय धन का िदमाग ठीक करता ।’’ मने जांबवती को सां वना दी
—‘‘अ छा ह या बुरा ह, सांब हमारा पु ह। उसको बंदी बनाकर हमारी ित ा को कारागृह म डालकर उसने
ारका क स मान को चुनौती दी ह। यह समय रोने का नह ह वर ह तनापुर क िव फ कार उठने का ह। तुम
शांत हो, जांबवती, म अभी इसका उपाय सोचता ।’’
इतना कहकर म उसक क से िनकला। मने तुरत छदक को बुलवाया।
‘‘तुमने कछ सुना?’’ उसक आते ही म बोल पड़ा।
वह सबकछ समझ गया। उसने कहा, ‘‘परस सं या को ही सूचना िमली थी।’’
‘‘पर तुमने मुझे बताया नह !’’
‘‘ या बताता! आपका मन िबगाड़ने से मुझे कोई लाभ िदखाई नह िदया।’’
‘‘पर गु चर िवभाग को तो सूिचत करना चािहए था।’’
‘‘मने ही गु चर अमा य को रोक िदया था।’’ उसने बताया—‘‘अचानक वह माग म िमल गया था। उसने मुझे
सूचना दी और कहा, ‘अब म ारकाधीश को सूिचत करने जा रहा ।’
‘‘मने कहा, ‘ या करोगे उ ह सूिचत करक? जब अपना ही िस का खोटा ह तब परखनेवाले का या दोष!’ िफर
वह आपको सूिचत करने नह आया।’’
‘‘पर ऐसी घटना क सूचना तो िसंहासन को होनी ही चािहए।’’ मने कहा।
‘‘आप ठीक कहते ह।’’ छदक ने कहा, ‘‘इसम गु चर अमा य का कोई दोष नह ह। दोष मेरा ह। म इस झमेले
म आपको पड़ने देना नह चाहता था। मेरा िवचार था िक िजसने सांब को ह तनापुर भेजा था, प रणाम भी पहले
उसीको बताया जाना चािहए था।’’
‘‘तो या भैया को यह समाचार िमल चुका ह?’’ मने पूछा।
‘‘जी हाँ, उ ह समाचार भी िमल चुका ह और सेना क एक टकड़ी लेकर वे ह तनापुर जा भी चुक ह—अपने
िश य और िम का अिभनंदन करने!’’ उसने बड़ यं या मक ढग से कहा।
मने मन म सोचा िक छदक ने अ छा ही काम िकया। िफर भी मने उससे कहा, ‘‘भैया मुझसे कछ कह िबना चले
गए?’’
‘‘उ ह ने कछ कहा भी नह और अमा य को कहने से भी रोक िदया तथा बोले, ‘क ण को अभी इसक सूचना
िब कल मत देना। म तो जा ही रहा , यथ उसे िवचिलत मत करना।’ ’’
छदक बोलता रहा—‘‘मुझे लगता ह, आपको िबना बताए सांब को भेजने क भूल का अनुभव भैया ने गंभीरता
से िकया और उनक इसी अपराधबोध ने चाहा िक इस थित क सुधार क बाद ही आपको सारी घटना से अवगत
कराया जाए।’’
म भैया क कित जानता था। इसीिलए छदक क िन कष पर मुझे संदेह नह आ। उसने यह भी बताया िक भैया
अ यिधक आ ोश म गए ह।
‘‘आ ोश तो आना ही चािहए था। यह ारका क स मान का न ह।’’ मने कहा।
छदक थोड़ा गंभीर आ। िफर बोला, ‘‘म कह नह सकता िक उनका आ ोश सांब पर था या दुय धन पर;
िकतु वे कह -न-कह भीतर से गंभीर प से घायल ए थे।’’
छदक क इस कथन से लगा िक उसे इस संदभ क सारी जानकारी ह, पर वह उसे िछपा रहा ह।
मने कहा, ‘‘शायद भैया ने तुझे भी मुझसे सारी बात बताने से रोका ह।’’
वह चुप ही रहा।
‘‘अ छा, सारी बात जाने दो, मुझे कवल यह बताओ िक यह थित आई कसे?’’ मने पूछा।
‘‘तब सारी बात बताए िबना इस न का उ र नह हो सकता।’’ उसने मुसकराते ए कहना जारी रखा—‘‘बात
यह ई िक जब सांब ह तनापुर प चा तब उसने वयंवर क िलए भाग लेने क िनिम अपने आगमन क सूचना
राजभवन म भेजी। बड़ी आवभगत क साथ उसे अितिथगृह म ठहराया गया। सुना ह िक युवराज दुय धन वयं सांब
से िमलने भी आए और उसे देखकर पहले तो त ध रह गए। िफर बोले, ‘यह तु हारा सारा शरीर तो ेत हो गया
ह। तुम तो कोढ़ी हो। िकसी शुभ काय म तु हारी उप थित शा ारा विजत ह। अतएव कपा कर तुम यह रहो।
वयंवर म उप थत होने क चे ा मत करना।’ ’’
‘‘बात तो ठीक थी दुय धन क ।’’ मने कहा।
‘‘पर इस बात को सांब को भेजने क पहले भैया को तो समझना चािहए था।’’ छदक बोला।
इसपर मने कोई िति या य नह क । कवल जानना चाहा िक आगे या आ।
उसने बताया—‘‘सुना ह, इस वजना क बाद सांब राजभवन म चुपक से जाकर ल मणा से िमला। उसने कहा,
‘ वयंवर म म वेश से विजत कर िदया गया । इसिलए तु हार पास आया । अब तुम बताओ, तुम मेरा वरण
करोगी िक नह ?’ ’’
छदक कहता जा रहा था—‘‘बतानेवाले ने बताया ह िक इसपर ल मणा ने भी उसे ितर कत िकया। अब सांब
को भी ोध आ गया। उसने ोध म ही कहा, ‘तुम चाह मेरा वरण करो या न करो, पर मने तो तु हारा दय से
वरण कर िलया ह। अब तु ह छो ँगा नह ।’ इतना कहकर उसने ल मणा को अपने कधे पर लादा और उसक
क से िनकलकर राजभवन से ले भागा। वह ‘बचाओ-बचाओ’ िच ाती रही।’’
‘बड़ा दु साहस िकया सांब ने।’ मने मन-ही-मन सोचा।
छदक सुनाता रहा—‘‘राजमहल क बाहर रथ म जब वह ल मणा को डाल रहा था तब ह तनापुर क सैिनक ने
उसे घेर िलया। वह बंदी बना िलया गया और दुय धन क आ ा से उसे कारागार म डाल िदया गया।
‘‘दुय धन का सोचना था िक यह तो वयंवर क पहले ही मेर स मान को धूल म िमला देता। मेरी नाक काट लेता।
म िकसीको मुँह िदखाने यो य भी नह रह जाता।’’
‘‘दुय धन का यह भी सोचना ठीक ही था। उसम सारी गलती तो सांब क ह।’’ मेर मुँह से िनकल पड़ा—‘‘पर उसे
कारागार म नह डालना चािहए था। राजभवन म ही कड़ पहर म रखकर सीधे मुझे सूचना देनी चािहए थी। उसे
सोचना चािहए था िक उसने सांब को नह वर ारका क ित ा को बंदी बनाया ह।’’
‘‘यह तो मने सुनी-सुनाई बात आपको बताई ह। इसम स य िकतना ह, इसे तो भगवा ही जाने।’’ छदक बोला,
‘‘सारी बात का एक ही िन कष िनकलता ह िक इसम सारी गलती या भूल उस य क ह, िजसने सांब को
वयंवर म भेजा ह।’’
‘‘इसीिलए तो भैया चुपचाप चले गए ह। न मुझसे कहा और न लोग को मुझसे कहने िदया।’’ मने कहा, ‘‘देखना,
वे सांब को अपने साथ ही लेकर आएँगे।’’
सबकछ सुन लेने क बाद व तु थित प हो गई। मेरा ोध भी ठडा पड़ा। मेरी िज ासा अब ती ारत ई।
‘‘तो या ारका इस सारी कथा को जानती ह?’’
‘‘अव य जानती होगी। जब म जानता , दूसर भी जानते ही ह गे। और यिद न जानते ह गे तो आज-कल म जान
ही जाएँगे।’’ उसने ऐसे ढग से कहा िक मुझे हसी आ गई।
भय और आतंक तो हमपर उतना नह था, पर ‘कछ हो सकता ह’ क भावना से ारका सावधान होने लगी।
हमार जीवन का शांत िसंधु ऊपर से शांत था, पर भीतर से काफ आंदोिलत था। हम एक अिन य क थित म
जी रह थे। हर ण यही सोच रह थे िक ह तनापुर से कोई समाचार आ रहा होगा। हमारी आँख उ र-प म क
ओर थ और कान यु क शंख विन क ती ा म।
इस मनः थित म सा यिक आ प चा। हम जब सूचना िमली तो हमने सोचा िक ह तनापुर से ही कोई समाचार
लाया होगा। उसने नगर म आते ही मुझसे िमलने क आतुरता य क । म उससे िमलने क िलए य तो था ही।
उसक िमलते ही मने पूछा, ‘‘ह तनापुर से कोई समाचार लाए हो या?’’
‘‘नह तो! म तो इधर ब त िदन से ह तनापुर गया ही नह ।’’ मेर इस न पर वह बड़ आ य म पड़ा। बोला,
‘‘अभी तो पांडव का अ ातवास चल रहा होगा। य , कोई नई बात हो गई या?’’
‘‘नह , य ही मने पूछा।’’ मेर बोलने म इतनी सहजता थी िक उसे मेर संदभ और मेरी य ता का पता नह चला।
म समझ गया िक इसे कछ नह मालूम ह। िफर म य झूठ-मूठ अपने िव चार क । इसिलए मने उससे ही
पूछा, ‘‘अ छा बताओ, अचानक आना कसे आ?’’
‘‘एक बड़ी िविच थित पैदा हो गई ह।’’ उसने कहा और िफर एकदम चुप हो गया।
मने समझ िलया िक कोई अशुभ सूचना ही ह, िजसे बताने म यह घबरा रहा ह या संकोच कर रहा ह।
‘‘िजस समाचार को तुम इतनी दूर से यहाँ देने चले आए, वह अब तु हार गले म य अटक रहा ह?’’ मने
मुसकराते ए कहा।
‘‘मेर पास एक िदन ेममूित आया था।’’ सा यिक बोला।
‘‘कौन ेममूित? वह—शा व का सेनापित या?’’
सा यिक ने िसर िहलाकर वीकार िकया।
‘‘हाँ, तो या कह रहा था?’’
‘‘उसका कहना था िक आपने कोई अिभमंि त मुशल ा िकया ह। उससे आप यादव का नाश करना चाहते
ह!’’
‘‘म और यादव * का नाश चा गा!’’ मुझे बड़ा िव मय आ—‘‘अर भाई, म भी यादव ही । यिद यादव क
नाश क िलए अ सर होऊगा तो वयं न हो जाऊगा।’’
‘‘आप जैसा सोचते ह, वे वैसा नह सोचते।’’
‘‘तब वे या सोचते ह?’’
‘‘वे सोचते ह िक िजसक पास वह मुशल रहगा, उसका तो कछ नह होगा; पर दूसर यादव का वह नाश कर
देगा।’’ सा यिक बोला, ‘‘उन सबका तो कहना ह िक सबका नाश करक पूर आयाव पर एक छ रा य करने
क िलए ही क ण ने उसे ा िकया ह।’’
इतना सुनते ही मुझे लगा िक दुवासा क शाप ने अपना काम शु कर िदया। यह समाचार लोग क यहाँ कसे
प चा? मुशल क ित यह धारणा कसे बनी? इसका मुझे पता नह । सा यिक भी इसका उ र नह दे पाया।
मने कहा, ‘‘तु ह नह , मेर इन न का उ र कोई नह दे पाएगा; य िक कोई इसे जानता ही नह होगा।
अंधिव ास क जड़ नह होती, वह आकाशबेिल क तरह कवल हवा म लहलहाती ह।’’
अब सा यिक भी सोच म पड़ गया। उसने कहा, ‘‘पर जो हो, इसे यादव बड़ी गंभीरता से ले रह ह। कई थान पर
वृ णय और अंधक म संघष भी हो गए ह।’’
‘‘देखा, एक शंका ने ज म ले िलया। अब हमार भाई भी हमार श ु बन जाएँगे। यह शंका ही यादव का नाश कर
देगी। मुशल तो अपनी जगह धरा-का-धरा रह जाएगा।’’ मेरा िचंतन और आगे बढ़ा। मने कहा, ‘‘ य नह म वह
मुशल अंधक को ही दे दूँ? मेर ित उठी उनक शंका तो समा हो जाएगी।’’
‘‘नह -नह , ऐसा कभी मत क िजएगा।’’ सा यिक एकदम भड़क उठा—‘‘वह आपक पास ह तो कम-से-कम हम
लोग तो सुरि त ह।’’
मने अनुभव िकया िक िजस मानिसक रोग से अंधक त ह, उसीसे वृ ण भी। शंका और आशंका क सागर से
उठी अफवाह क यह भाप कह िवनाश का बादल न बन जाए! यादव आपस म कट मर और मुशल अपनी जगह
पड़ा-का-पड़ा न रह जाए! यह ह महिष क शाप का भाव। इसक बाद मने दुवासा क शाप वाली पूरी घटना
सा यिक को सुनाई।
पूरी बात समझ लेने क बाद सा यिक ने भी माथा ठ का—‘‘ या सूझा था सांब को!’’
‘‘सांब तो दोषी ह ही।’’ मने कहा, ‘‘पर िनयित क जैसी मंशा होती ह, हमारी बुि भी वैसी ही हो जाती ह। इसक
िलए कोई-न-कोई तो िनयित का कारण बनेगा ही।’’
‘‘इसका ता पय ह िक आप िव ास करने लगे ह िक अब यादव का िवनाश िनकट ह।’’ सा यिक अ यंत िचंितत
हो बोला।
‘‘िव ास करना हमारी बा यता ह। िनयित क मंशा जब प हो जाती ह तब हम और या कर सकते ह!’’ मने
कहा, ‘‘िफर यादव का उ कष इस समय अपने चरम िबंदु पर प च चुका ह। जो भभकगा, उसका बुझना
वाभािवक ह। यही इस सृ का इितहास भी ह और यही इसका िनयम।’’
सा यिक चुप हो गया। संयोग कछ ऐसा िक इसी समय गु चर िवभाग क अमा य ने िमलने क अनुमित माँगी।
ज र कोई सूचना ह तनापुर से आई होगी, मने सोचा और अमा य को उसी समय बुलवा िलया।
सा यिक उठकर जाने लगा। उसने सोचा िक इस गोपनीय चचा म उसका रहना उिचत नह । िकतु मने यह कहते
ए उसे रोक िलया िक मेरी कोई बात तुमसे िछपी तो नह ह।
गु चर अमा य पहले तो सा यिक को देखकर िहचका, िफर मेर संकत पर कौरव से िमली सूचना बताई
—‘‘अभी-अभी पता चला ह िक राजकमार सांब और ल मणा का िववाह िन त हो गया ह।’’
‘‘ वयंवर का या आ?’’
‘‘इस संबंध म तो कोई सूचना नह ह।’’
‘‘लगता ह, भैया क आ ोश क सम दुय धन नतम तक हो गया।’’ मने अमा य से कहा, ‘‘देखो, ह तनापुर से
आिधका रक सूचना आ भी रही होगी और नह भी आ सकती ह। जैसे भैया ने इस संदभ को मुझसे इतना िछपाया
ह, शायद यह भी िछपा ले जाएँ।’’
गु चर अमा य चला गया।
सा यिक क िज ासा ने जोर मारा—‘‘सांब का िववाह! ारकाधीश क युवराज का िववाह, वह भी ह तनापुर क
युवराज दुय धन क आ मजा से—और ऐसा चुपचाप िक कोई जाने और कोई जाने भी न!’’
तब मने सा यिक को सारी बात बता ।
उसने माथा ठ का—‘‘यह सांब भी आपक प रवार म कहाँ से पैदा हो गया! रसाल क वृ म िवषफल जैसा!’’
‘‘ या कहा जाए! यह सारी थित भैया क ही उ प क ई ह और उ ह ने इसे सुलझाया भी।’’ मने कहा, ‘‘पर
इससे एक दूसरी थित और पैदा हो जाएगी, िजसे म नह चाहता।’’
‘‘वह या?’’
‘‘इससे दुय धन मेरा समधी हो जाएगा। संबंध क ंखला म एक नया संबंध और जुड़ जाएगा। जबिक म कौरव
से अपनी दूरी बनाए रखना चाहता ; य िक पांडव से उनका यु अव य संभावी ह। उसे कोई टाल नह
सकता। वे बेचार पूणतया मुझपर ही िनभर ह। यह संबंध उनक ित मेर झुकाव पर आघात करगा।’’
‘‘ऐसी असमंजसता तो भैया क सामने भी आई होगी?’’ सा यिक बोला।
‘‘नह , भैया क सामने ऐसी कोई असमंजसता नह ह।’’ मने कहा, ‘‘दुय धन उनका िश य भी ह और िम भी।
उनका संबंध इससे और गाढ़ हो जाएगा—और यह भी हो सकता ह िक इस िववाह को वीकारने क पीछ
ह तनापुर क कटनीित भी हो। वहाँ सोचा गया होगा िक इससे पांडव का ारकावाला सहारा भी समा हो
जाएगा।’’
‘‘वे सोच चाह न सोच, पर आप तो सोच ही रह ह।’’ सा यिक हसते ए बोला।
‘‘म इसिलए सोचता िक शकिन नाम का एक दु कौरव क साथ ह। वह कछ भी सोच सकता ह और करा
सकता ह।’’ मने कहा।
सा यिक इस िवषय म अिधक िच न ले सका। उसक िचंतन ने सांब संदभ को माग म पड़ाव क तरह छोड़
िदया और िफर मुशल क आशंका से िचपक गया।
मने कहा िक यिद सभी यादव सरदार िमलकर कह तो म उस मुशल को समु म भी फकने को तैयार ।
‘‘पर इससे या होगा?’’ सा यिक बोला, ‘‘इससे आपक हाथ से वह अिभमंि त अ भी चला जाएगा और जो
पाएगा, वह सुरि त हो जाएगा।’’
मुझे हसी आ गई। मने कहा, ‘‘तुम सोचते हो िक वृ ण सुरि त रह और अंधक आिद वंश का नाश हो जाए।
यह संभव नह ह। जब यादव क घर आग लगेगी तब हमारा भी घर जलेगा।’’
सा यिक सोच म पड़ गया। उसने िचंता भर वर म पूछा, ‘‘िफर आप दुवासा से नह िमले?’’
‘‘एक बार िमला था। उनक इस शाप क चचा क थी। मने यह भी कहा िक ‘अपराध िकया था मेर पु ने और
शािपत सारा यदुवंश हो गया। जरा इसपर सोच, महाराज।’ तब उ ह ने कहा, ‘तुम कहते तो ठीक हो; पर धनुष से
छोड़ा गया बाण और मुख से िनकली वाणी िफर वापस नह आती। हाँ, यादव को कछ और जीवन िदया जा
सकता ह।’ ’’
‘‘तो िफर अंितम िनणय या आ?’’ सा यिक बोला।
‘‘यही िक हम यादव को पतीस से चालीस वष क बीच आयाव से समा हो जाना ह।’’
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सात
काल का रथ आगे बढ़ता गया।
आयाव क राजनीितक ि ितज म काले मेघ का उठना आरभ हो गया था। संशय त यादव ने अपने िवनाश
क भूिमका बना ली थी। दूसरी ओर ह तनापुर भी भीतर-ही-भीतर उबल रहा था। तीसरी ओर अ ातवास भोग रह
पांडव क संबंध म िन य नई अफवाह उड़ती थ । एक बार तो बड़ी जोर क हवा चली िक पांडव पहचान िलये
गए। अब जुए क शत क अनुसार उ ह पुनः बारह वष वनवास और एक वष अ ातवास भोगना पड़गा। तब तो
उनका जीवन ही जंगल क पगडिडयाँ छानते बीत जाएगा। यह सोच-सोचकर लोग घबरा जाते थे। पर अफवाह
का जीवन तो समु क लहर जैसा होता ह। जरा सी हवा से उठी, िफर िगरी। िफर िसंधु कछ समय क िलए शांत
हो गया।
एक िदन तो घबराया आ इ सेन मेर पास आया। उसने इसी कार क सूचना दी और बोला, ‘‘कल एक य
मुझे खोजता आ आया और उसने बताया िक पांडव पहचान िलये गए ह। वे िफर का यक वन म आ गए ह।
उ ह ने तु ह अपने सािथय क साथ बुलाया ह।’’
‘‘तुमने उसका प रचय नह पूछा?’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘आिखर या बात थी, जो उसने तुमपर इतनी कपा
क ?’’
‘‘पूछा था। उसने बताया िक म सामा य राही । ह तनापुर से शु मती (चेिद रा य क राजधानी) जा रहा था।
माग म का यक वन म पांडव िमले थे। उ ह ने तुम तक सूचना प चाने क िलए िवनीत आ ह िकया था।’’
‘‘और वह पांडव पर कपा करने यहाँ तक चला आया!’’ मने हसते ए कहा, ‘‘िफर तुमने या कहा?’’
‘‘मने कहा िक अब हम पांडव से या लेना-देना! पहले वहाँ चाकरी करते थे, अब यहाँ चाकरी कर रह ह।’’
‘‘ब त अ छा! तु हार इस उ र से म स आ।’’ मने कहा, ‘‘जब तुमने ऐसा कहा तो तु ह िब कल नह
घबराना चािहए और जैसा कहा वैसा ही आचरण भी करना चािहए। याद रखना, िकसीक कह पर कभी मत चले
जाना। इस समय तो ह तनापुर क गु चर िवभाग म पूरी सि यता होगी। वे िकसी भी तरह पांडव का अ ातवास
भंग कर देना चाहते ह। ये अफवाह भी उ ह क ओर से उड़ाई जा रही ह। वे यह भी जानते ह िक तुम पांडव क
रह य क एक कजी हो।’’
अफवाह क इन गरम हवा क बीच मुझे गु चर िवभाग ने एक सूचना और दी िक म यराज िवराट का
सेनापित क चक मारा गया। पर िकसने मारा, कब मारा, कसे मारा, कछ पता नह । िफर क चक कोई सामा य
य नह था। उसने ि गत (वतमान पंजाब) को र द डाला था। तब से पूर आयाव म उसक श का दबदबा
था और उसने कई यु म िवराट को िवजय भी िदलाई थी। िफर वह उ कोिट का म था। म यु म उससे
बड़-बड़ यो ा हार मान चुक थे।
वह िवराट का सेनापित भी था और उसका सगा साला भी। इससे म य देश क लोग उसे ही शासक समझते थे।
ऐसा य मारा गया! वह भी िकसी यु म नह , राि क गहन अंधकार म। मुझे यही बताया गया िक मारनेवाले
ने उसे ऐसा मारा िक मांस का एक बड़ा िपंड बनाकर छोड़ िदया।
‘‘बड़ी रह यमय ह उसक मृ यु।’’ मने कहा, ‘‘पर कभी भी मृ यु अकारण नह होती। हम उसक कारण का पता
लगाना चािहए।’’
‘‘मने इसक पहले ही गु चर का एक समूह म य देश भेज िदया ह।’’ गु चर अमा य बोला।
मेर मुख से िनकला—‘‘ऐसे िवरा म को आिखर मारनेवाला कौन हो सकता ह?’’
‘‘यही तो सभी सोच रह ह।’’ उसने कहा, ‘‘पर जो सूचना आधी-अधूरी िमली ह, वह भी बड़ी िविच और
चम कारी ह।’’
‘‘वह या ह?’’
अब उसने वह बात बताई, िजससे मेरा म और पु आ। उसने कहा, ‘‘महाराज िवराट क प मिहषी सुदे णा
क एक सैर ी ह, जो ब त ही सुंदर ह। उसी पर क चक आस था। उससे बार-बार उसने णय िनवेदन िकया,
अपनी राजरानी बनाने तक का ताव रखा; पर वह राजी नह ई और उसने बार-बार कहा िक म िववािहत ।
मेर पाँच गंधव पित ह। वे सदा मेरी र ा म स रहते ह। िफर भी क चक ने उसक बात नह मानी। वह चे ा
करता रहा। जब सफल नह आ तब उसने ष ं रचा।’’
‘‘ या था वह ष ं ?’’ मने पूछा।
‘‘यह तो ात नह हो सका।’’ अमा य ने कहा, ‘‘पर इतना अव य ात आ ह िक इस ष ं म प मिहषी भी
शािमल थ ।’’
‘‘िफर तो सैर ी इस संघष म परािजत हो गई होगी?’’
‘‘अर नह , अ भवा ! यिद वह परािजत हो गई होती तब तो इस घटना पर िकसीको आ य ही न होता।’’
अमा य ने बड़ िव मय भर वर म कहा, ‘‘वह ी भी अ ुत ह। इतना होते ए भी वह ष ं का रय क चंगुल
से िनकल भागी और सीधे राजदरबार म आई। क चक भी उसे अपने भवन से दौड़ाता आ िवराट क राजसभा
तक आया। देखनेवाले त ध रह गए िक यह या हो रहा ह।
‘‘सभा म क चक ने सैर ी क बाल ख चकर उसे जमीन पर िगरा िदया और लगा लात -घूँस से मारने। वह तो
किहए, लोग ने बीच-बचाव िकया, नह तो वह उसे मार ही डालता।’’
‘‘मार डालता!’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘मुझे तो नह लगता।’’
‘‘ य , महाराज?’’
मुझे लगा, शायद इसका उ र देने म म खुल न जाऊ। मने तुरत बात बदली—‘‘ य िक सैर ी को उस िदन मरना
नह था। मृ यु तब तक नह आती जब तक उसका समय नह आता। यह समय जीवन नह जानता, कवल मृ यु ही
जानती ह। इसीिलए ‘काल’ मृ यु का भी पयाय ह और समय का भी।’’ मेरी मु ा तुरत बदली—‘‘तु हारा तो कहना
यह था िक तु ह कछ िवशेष नह मालूम; पर तुम तो क चक क मृ यु क बार म ब त कछ जानते हो।’’
‘‘कहाँ जानता !’’ िफर उसने िज ासा क —‘‘वे गंधव या सचमुच गंधव ह, या इसक पीछ कोई और रह य
ह? यिद उसक पित सचमुच गंधव ह तो उस मिहला को राजभवन म चाकरी य करनी पड़ रही ह? इन सारी
घटना को संयोिजत करता आ कोई िच नह उभर रहा ह।’’
‘‘हो सकता ह, वे इसक िलए शािपत ह ।’’ मने कहा, ‘‘जीवन वयं म एक रह य ह, अमा य!’’ िफर मने
नाटक य अ हास िकया और बोला, ‘‘अ छा, अब तुम जा सकते हो। यिद इस संदभ म कछ और पता चले तो
बताना।’’
वह चला तो गया, पर मेर अ हास का रह य उसक म त क से िलपटा रहा।
इसक बाद मने पांडव क सारिथ इ सेन को बुलवाया। वह बड़ सहजभाव से उप थत आ। मेर आदेश क
ती ा करने लगा। उसक मु ा से ऐसा नह लगा जैसे उसे कछ मालूम हो। िनतांत भावहीन, िति यािवहीन।
‘‘तु ह यह ात ह या नह िक म यराज का सेनापित क चक मारा गया?’’
‘‘हाँ, लोग क मुख से सुना ह।’’ बोला तो इ सेन सहजभाव से ही था, पर उसक सहजता कछ कि म मालूम हो
रही थी।
‘‘तु ह यहाँ आए लगभग एक वष तो पूरा हो रहा होगा?’’
मेरा यह न उसे बड़ा अ यािशत लगा। वह थोड़ा घबराया। बोला, ‘‘तो या मेरी यह िनयु कवल एक
वष क िलए ई ह?’’
मुझे हसी आ गई। मने कहा, ‘‘नह जी, म जानना चाहता था िक अभी पांडव का अ ातवास पूरा होने म िकतना
समय ह?’’
‘‘मेर यहाँ आने को यिद आधार मानकर जोड़ तो अभी एक मास से कछ ऊपर ही ह।’’ इ सेन ने कहा।
म िफर िचंता म पड़ा। सोचने लगा िक िन त प से यहाँ आने क पूव यह समाचार ह तनापुर प चा होगा
और उसक गु चर ने िवराटनगर को घेर िलया होगा। िफर मने अपनी आशंका इ सेन क सामने रखी।
उसने कोई िति या य नह क । कवल इतना कहा, ‘‘इधर इस तरह क घटनाएँ िवराटनगर म कई हो ग ।
इसी तरह से महाम ‘जीमूत’ भी मारा गया। पर उसने तो म यु क िलए अ वाट (अखाड़) म खुली चुनौती
दी थी। सुना ह, जब उससे लड़ने क िलए कोई तैयार नह आ तो महाराज क रसोइए ने उसे उठाकर ऐसा पटका
िक उसक ाण-पखे ही उड़ गए।’’
‘‘इसक सूचना मुझे नह ह। यह कब क घटना ह?’’ मने कहा।
‘‘मेर यहाँ आने क लगभग चार महीने बाद क ।’’ उसने बताया—‘‘यह कोई रह यमय अनहोनी या चम कारी
घटना तो ह नह , िजसक सूचना गु चर िवभाग आपको देता।’’ अब उसने थोड़ा िव तार िकया—‘‘म यराज हर
वष महो सव कराते ह। उसीम म यु क पधा होती ह। यह उसी समय क घटना ह।’’
‘‘तुम उस रसोइए का नाम जानते हो?’’
‘‘पहलवान का कहना ह िक उसका नाम ब व था।’’
‘‘अर भाई, ब व तो हर रसोई बनानेवाले को कहते ह। आिखर उसका कोई नाम तो होगा?’’
‘‘वह तो नह मालूम।’’
‘‘या तु ह मालूम ह और तुम बताना नह चाहते?’’
वह कछ नह बोला। मुसकराहट क एक रखा उसक आकित पर अव य दौड़ गई। मने कहा, ‘‘तु हारी
मुसकराहट कह रही ह िक एक महीने क बाद जब अ ातवास समा हो जाएगा तब तुम वयं बता दोगे।’’
‘‘जब सब आप जानते ही ह तब मुझे बताने क आव यकता ही या!’’
‘‘पर यह सब हम लोग क िलए हसने क नह , बड़ संकट क घड़ी ह।’’ मने सावधान िकया—‘‘यिद यही
सूचना ह तनापुर प च जाएगी तो वे लोग भी शी ही उस िन कष पर प च जाएँगे, िजस िन कष पर म प चा
।’’
उसक मौन क गंभीरता ने मेरी बात क पु क ।
म बोलता रहा—‘‘ य िक सैर ी क अ ितम सुंदरता, उसपर क चक का आस होना, पाँच महाश शाली
गंधव को सैर ी का पित कहा जाना, रह यमय ढग से क चक का मारा जाना—और जैसा तुम बताते हो िक
जीमूत का म यु म िवराट क रसोइए ारा मारा जाना—यह सबकछ ऐसा ह, जो हम सहज ही ौपदी और
पांडव क याद िदलाते ह। हमारा मन बड़ सहजभाव से उधर चला जाता ह। ह तनापुर का भी ऐसा सोच लेना
असंभव नह ह। ऐसी थित म यिद वे िवराट पर टट पड़गे, तब तो पांडव पहचान ही िलये जाएँगे।’’
‘‘यह सब तो पांडव को भी सोचना चािहए था।’’ वह बोला, ‘‘इतनी ज दी या थी! अर, क चक को एक महीने
बाद भी मारा जा सकता था।’’
म िफर सोचने लगा और बोला, ‘‘परािजत काम का ोध बड़ा भयानक होता ह, इ सेन! भरी सभा म जब
ौपदी आई होगी और उसका पीछा करते ए क चक ने घायल सप क तरह फनफनाते ए उसपर आ मण
िकया होगा, तब उसने या िकया होगा? उसने ौपदी को कसे और िकतना मारा होगा, इसक क पना ारका से
नह क जा सकती। ौपदी पर जो बीती होगी, वह बात तो अलग ह; पर उसक पित इसे कसे सह गए, यह
आ य क बात ह। उ ह तो ौपदी का चीर-हरण याद आया होगा। िफर भी वे खून का घूँट पीकर रह गए।
कवल इसिलए िक इस समय उनका अ ातवास चल रहा था।’’
उसका मौन मेरा मुँह देखता रह गया। मने भगवा से ाथना क िक िकसी कार पांडव का अ ातवास
सकशल कट जाए।
इसक बाद एक-एक िदन कटना किठन हो गया। भीतर-ही-भीतर म उबलता रहा।
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म तो पांडव क अ ातवास को लेकर िचंितत था और ारका क सामा य जन ह तनापुर म सांब को बंदी बना
लेने को लेकर। उ ह सांब और ल मणा क िववाह का कछ भी पता नह था। सारा समाचार राजभवन क भीतर ही
घुटकर रह गया था।
अचानक ह तनापुर से एक अमा य मंडल क आने क सूचना िमली थी। अब या मामला ह? सबकछ तो हो
गया ह।
पता चला िक वह सांब क िववाह का िनमं ण लेकर आया ह।
मने अमा य मंडल क धान से कहा, ‘‘िववाह तो हो चुका ह। अब इस िनमं ण और िफर आयोजन क या
आव यकता?’’
उसने बड़ िवनीतभाव से हसते ए कहा, ‘‘आपको िमली सूचना म कछ चूक रह गई ह। आप ही समिझए,
िबना आपक उप थित क सांब का िववाह संभव ह या!’’ िफर उसने िव तार से बताया—‘‘अभी तो युवराज
दुय धन ने महाराज बलराम क पास िविधव ल मणा और सांब क िववाह का ताव रखा ह, िजसे उ ह ने
वीकार कर िलया ह। अब वैवािहक आयोजन म लोग लगे ह। िनमं ण प िविभ रा य म भेजे जा रह ह। इसी
संदभ म हम लोग भी आपक सेवा म आए ह और आपसे िववाह म उप थत होने का िवन आ ह करते ह।’’
मने पूर स मान क साथ िनमं ण प वीकार िकया और दुय धन को िलखा िक ‘सं ित थित ऐसी नह ह िक
ारका क िसंहासन को खाली छोड़ा जा सक। म अपने ये आ मज ु न को भेज रहा । िफर मेर पू य भैया
तो वहाँ ह ही। उ ह को आप सांब का सबकछ समिझए। गु , िपता, अिभभावक आिद सबकछ।’
मेरा प ऐसा था, िजसे पढ़कर भैया स न ए ह गे; पर यह अव य समझ गए ह गे िक म इस सबसे ब त
स नह । शायद इसीिलए जब वे ल मणा और सांब क साथ लौट तब सारी औपचा रकता क िनवाह क
यव था वयं करने क बाद मेर पास आए—वह भी अकले नह , रवती भाभी को लेकर।
उ ह ने सारी कथा सुनाई। म चुपचाप सुनता रहा। िफर उ ह ने कहा, ‘‘अब हम अपने यहाँ क भी औपचा रकताएँ
पूरी करनी चािहए।’’
‘‘जैसे अब तक क औपचा रकताएँ पूरी ई ह, आगे भी हो जाएँगी।’’ मेरा यह उ र दबी जबान था, पर था बड़ा
तीखा।
वे कछ अव य बोलते; पर रवती भाभी ने अपने संकत से उ ह सँभाल िलया और बड़ी आ मीयता से बोल ,
‘‘देवरजी, अब जो हो गया, उसे भूलने म ही क याण ह।’’
‘‘इसक िसवा और चारा ही या ह?’’ म मुसकराते ए बोला, ‘‘पर गहराई से छ गई बात को भुलाने म भी कछ
समय तो लगेगा ही।’’
इतना सुनते ही भैया चुपचाप चले गए और उनक साथ भाभी भी।
उस समय मणी मेर ही क म थी। वह मेर इस यवहार से बड़ी दुःखी थी। उसने पूछा, ‘‘तो या अपने यहाँ
होनेवाले पु क िववाह क औपचा रकता म आप स मिलत नह ह गे?’’
‘‘ या अब तक क औपचा रकता म म स मिलत था?’’ मने कहा, ‘‘तब अब इसका न ही कहाँ ह?’’
‘‘िफर हम लोग क िलए या आ ा ह?’’
‘‘ऐसी थित तो तुम लोग क सामने नह ह।’’ मने कहा, ‘‘तुम लोग स तापूवक उप थत हो और जांबवती
को तो अव य लेती जाना।’’
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सार काय िविधव संप ए; पर म िकसीम नह था—यहाँ तक िक देवािधदेव महादेव क मंिदर म वर-वधू
ारा िकए जाने वाले पूजन क अवसर पर भी नह । पर मने कभी नाराजगी य नह क । तट थभाव बनाए रखा।
इसको लेकर िकसीसे भी मने अपने संबंध म खटास आने नह दी।
एक िदन भाभी और भैया मेर क म पुनः पधार। मने उनक चरण छए। यथोिचत वागत और अिभवादन
िकया। वे लोग भी बड़ स ए।
भाभी तो एकदम मेरी बगल म आकर बैठ ग और मेर कान म धीर से बोल , ‘‘बड़ नाराज लगते हो!’’
‘‘आप पर तो ही।’’
‘‘मुझपर य नाराज हो, भैया? मने या गलती क ह?’’
‘‘आप भैया क साथ चुपचाप ह तनापुर चली ग और मुझे पूछा तक नह !’’ मने कि म नाराजगी य करते ए
कहा।
‘‘म कहाँ गई थी!’’ उ ह ने भैया क ओर संकत करते ए कहा, ‘‘गए चुप-चुप ये थे। ये जान और तुम जानो,
इसम मेरा या दोष! म तो इनक जाने क बाद तुमसे िमली भी थी। तुम भूल गए या?’’
‘‘यह तुमको नह , मुझको कह रहा ह।’’ भैया ने कहा, ‘‘चुप-चुप तो म चला गया था।’’ अब वे सफाई देने लगे
—‘‘बात यह थी िक सांब को कारागार म डाल देने का समाचार सुनते ही म िवचिलत हो उठा। दुय धन का इतना
साहस िक वह मेर ातृज को कारा का दंड दे! हजार उसने भूल क ह , उसक सूचना मुझे देनी चािहए थी। म
उसे दंड देता। य - य सोचता गया, आगबबूला होता गया। इसी धधकती मनः थित म मने चुपचाप सेना क
एक टकड़ी ली और ह तनापुर क ओर चल पड़ा। रा ते भर तो मेरा ोध भीतर-ही-भीतर उबलता रहा; पर जब
ह तनापुर प चा, वह एकदम फट पड़ा।’’ भैया सुनाते-सुनाते ही इस समय पूर आवेश म आ गए थे। वे बोलते जा
रह थे—‘‘प चते ही मने नगर ह रय को ललकारा—‘कहाँ ह तु हारा दुय धन? बुलाओ उसे। देखूँ, उसक
भुजा म िकतना बल ह! उसक गदा म िकतनी श ह!’
‘‘म पागल क तरह िच ाते ए राजभवन क ओर बढ़ा। िकसीक िह मत नह , जो मुझे रोक। पूर नगर म
हगामा हो गया। राजभवन भी थराने लगा। म जब ासाद क ांगण म प चा तो महामा य िवदुरजी वहाँ मेरी
अगवानी म खड़ थे। वे मेर रथ तक आए। मेर गले म मालाएँ डाली ग । िवदुरजी ने बड़ िवनीतभाव से कहा,
‘आप शांत ह , युवराज ने अपनी भूल वीकार कर ली ह। वे सांब को लेकर आपक चरण पश करने थोड़ी देर म
आ रह ह। तब तक आप अितिथगृह म िव ाम कर।’ ’’
भैया जब बोलने लगते थे तब मेरी िह मत उ ह टोकने क नह होती थी। इस समय भी म चुपचाप उ ह सुनता
रहा।
वे बोलते गए—‘‘तब मेरा ोध ठडा पड़ा जब मने सांब क साथ दुय धन और शकिन को अितिथगृह क ओर
आते देखा। मेर मन ने कहा िक अब इसका म त क रा ते पर आ गया ह। उसने आते ही मेर पाँव छए और
बोला, ‘ मा क िजएगा, मुझसे भूल हो गई ह। सांब जैसे आपका पु ह वैसे मेरा भी। मने तो इसक एक गलती क
िलए कवल धमकाने क िनिम कारागार म डाला था। आज-कल म तो यह वयं ही छट जाता।’ शकिन ने भी
उसक हाँ म हाँ िमलाई।
‘‘ ‘िफर भी तु ह या अिधकार था इसे कारा म डालने का?’
‘‘ ‘ य , मेरा कोई अिधकार नह !’ दुय धन झपते ए बोला, ‘जैसे सांब पर आपका अिधकार ह वैसे ही मेरा भी;
य िक म इसे अपने प रवार का ही बालक समझता । और जब इसक िपता इसक भूल क कारण इसे सदा क
िलए शािपत कर सकते ह तो या म इसक भूल पर इसे दो िदन क िलए कारा म भी नह डाल सकता?’
‘‘म तो चुप ही था; पर मेरी ओर से शकिन बोला, ‘भानजे, तुमने भूल क ह तो भूल वीकार करो। उसे यायोिचत
ठहराने क चे ा करना और बड़ी भूल होगी।’
‘‘ ‘आप सावजिनक प से भूल कर, पूर आयाव क सामने ारका क मुख पर कािलख पोत द और एक क
म य गत प से उसक िलए मा भी माँग ल, तो या ारका क मुख पर लगी कािलख िमट जाएगी?’ मने
आवेश म ही कहा।
‘‘ ‘उस कािलख को िमटाने क िलए सावजिनक प से भी तु ह कछ करना पड़गा, भानजे! बलरामजी ठीक कहते
ह।’ अब शकिन को उसे समझाना पड़ा।’’
भैया का कहना था—‘‘इस अवसर पर शकिन क भूिमका ब त अ छी थी। उसीने ताव रखा िक इस भूल
का सुधार तभी हो सकता ह, भानजे, जब तुम सांब से ल मणा क िववाह का ताव करो।’’
भैया क कथनानुसार—‘‘दुय धन इस ताव को मानने क िलए तैयार नह था। तब शकिन ने उसे एकांत म ले
जाकर पता नह या- या समझाया। तब वह िकसी तरह मान गया और िनकटतम मु त म दोन का िववाह कर
देने का िन य िकया गया। ज दी-ज दी म लोग क यहाँ िनमं ण भेजे गए। तु हार यहाँ भी िनमं ण आया होगा।
जो लोग मौक पर प च गए, उ ह क उप थित म िववाह संप हो गया। अंततः तुम भी वहाँ उप थत नह हो
सक।’’
‘‘जब आप वहाँ उप थत थे ही तब मने अपनी उप थित क कोई आव यकता नह समझी।’’ मने कहा और
उ ह ने भी बात आगे नह बढ़ाई।
थोड़ी देर बाद भैया ने मुझे िफर छड़ा। उ ह ने कहा, ‘‘म इस वैवािहक संबंध को अ छा ही समझता ; य िक
इसक मा यम से पूर आयाव क सम दुय धन ने अपना अपराध वीकार िकया। दूसर, हमारा और ह तनापुर
का संबंध और गाढ़ा आ। हम दोन एक नए र ते म पुनः बँध गए।’’
‘‘और यही म नह चाहता था।’’ मने प कहा, ‘‘आिखर शकिन यहाँ भी दाँव खेल गया।’’
रवती भाभी क िज ासा मुझे देखने लगी।
भैया भी पूछ ही बैठ—‘‘इसम दाँव या ह?’’
‘‘नए र ते से जोड़कर राजनीितक से ारका को अपनी मु ी म कर लेने का दाँव।’’ मने कहा, ‘‘िजससे
हम कोई भी िनणय ह तनापुर क िव न ले सक।’’
‘‘तो इसम बुराई या ह?’’ भैया बोले, ‘‘यिद तुम इसे राजनीितक संदभ म ही देख रह हो, तो भी मुझे इसम कोई
कमी िदखाई नह देती। उस श क क पना करो, जो ारका और ह तनापुर क इस गाढ़ गठबंधन से पैदा
होगी।’’
‘‘िफर उनका या होगा, िज ह कौरव क िव खड़ा होना पड़गा?’’ मने पूछा।
‘‘उनका कोई हमने ठका िलया ह!’’
‘‘पर मने तो िलया ह।’’ म तुरत बोला, ‘‘उन बेचार का या होगा, िजनका एक सहारा ारका ही ह!’’
अब भैया सोच म पड़ गए।
म बोलता गया—‘‘अब पांडव का अ ातवास पूरा होने ही वाला ह। आप या समझते ह िक अ ातवास सकशल
पूरा होने पर भी कौरव खुशी-खुशी उनका रा य लौटा दगे? यिद िकसी थित म लौटाना भी चाहगे तो यही शकिन
उ ह लौटाने नह देगा। ऐसी दशा म यु होगा। और ऐसी थित आई तो आप िकसक ओर ह गे—कौरव क
ओर या पांडव क ओर?’’ मने भैया से सीधा न िकया।
‘‘म िकसीक ओर नह होऊगा; य िक मुझे यु से घृणा हो गई ह।’’
‘‘तो या मुझे यु से बड़ा ेम ह!’’ मने हसते ए कहा, ‘‘कोई भी सामा य य मूलतः यु क नह होता।
उसक मूल वृि शांिति य होती ह। िफर भी, जब से मनु य पैदा आ ह, यु उसक पीछ लगा ह। न चाहते ए
भी यु मनु य पर थोपा जाता ह। िविच बात ह, थोपनेवाला भी मनु य ह और िजसपर थोपा जाता ह, वह भी
मनु य ह; य िक लोभ और वासना हमारी ज मजात वृि याँ ह—और यु इ ह ज मजात वृि य का िवकत
िशशु।’’ भैया चुप थे और म बोलता रहा—‘‘हम भले ही यु न चाह, पर यु तो होगा ही।’’
‘‘म यु म भाग लेकर यु ापराधी नह बनना चाहता।’’ भैया बोले।
‘‘आपक यह धारणा भी कछ ामक ह। यु ापराधी वह ह, जो दूसर का अिधकार छीनने क िलए तरह-तरह का
ष ं बुनता ह, यु को आमंि त करता ह; पर वह यु ापराधी कभी नह ह, जो उस ष ं को िछ -िभ
करने क िलए अपनी तलवार उठाता ह।’’
‘‘तुम चाह जो कहो, कौरव और पांडव का यु आ तो म उसम भाग नह लूँगा।’’ इतना कहकर भैया एक
झटक से उठकर चले गए और रवती भाभी मुसकराती ई बैठी रह ग ।
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थितयाँ बड़ी तेजी से बदल रही थ । हर िदन आयाव का प र य प रवितत होता जा रहा था। उस िदन मने
संतोष क साँस ली िजस िदन इ सेन ने मुझे बताया िक आज वह शुभ िदन ह, जब पांडव का अ ातवास समा
हो जाएगा।
म बड़ा स आ। मने इ सेन को जी भर पकवान िखलाया। मेरी स ता का अितरक ऐसा था जैसे मुझे
िव ास ही न हो िक सचमुच वह घड़ी आ गई। अ ातवास समा हो गया।
मने उससे पुनः पूछा, ‘‘तुमने कसे गणना क ?’’
‘‘मेरी गणना तो सीधे-सीधे ह। जब उ ह ने छोड़ा था, उसी ितिथ से मने जोड़ िलया।’’
‘‘तब तो अभी संदेह क गुंजाइश ह।’’
‘‘कसे?’’ इ सेन ने पूछा।
तब मने गगाचाय ारा बताई गई काल-गणना क तीन प ितयाँ बता ।
‘‘ह भगवा ! काल-गणना म भी मीन-मेष!’’ इ सेन बोला।
‘‘कह -न-कह कौरव मीन-मेष िनकालगे ही।’’ मने कहा, ‘‘तु हार वािमय को अपनी स ा पाना इतना सहज
नह ह।’’
मेरी बात सुनकर इ सेन बड़ा िचंितत आ।
मने उसे समझाया—‘‘घबराओ नह , जैसे इतने िदन िनकल गए वैसे पाँच-सात िदन और िनकल जाएँगे; य िक
तीन कार क गणना म अिधक-से-अिधक सात-आठ िदन का ही इधर-उधर होता ह।’’
िफर हम लोग ने एक-एक िदन िगनने का िसलिसला आरभ िकया।
एक सं या म मोद वन म था। ी म ऋतु का आरभ ही था; पर गरमी अ यिधक हो चली थी। इसिलए इधर हर
सं या म इसी वन म चला आता था। मुझे लगता था, यही संसार मेरा वा तिवक संसार ह—आनंदमय संसार। िदन
भर तो म कम संसार म रहता ही । सोचता , यिद मनु य का कम संसार ही आनंदमय हो जाए तो िकतना अ छा
हो!
म ऐसी ही ऊटपटाँग बात सोच रहा था िक मुझे सूचना िमली िक िवराटनगर पर आ मण हो गया ह। अब तो
मेर कान खड़ ए। िकसने आ मण िकया, कहाँ से आ मण आ—यह सबकछ पता नह । िफर ऐसा भी तो हो
सकता ह िक िबना पंख क अफवाह हवा म उड़ती चली आई हो!
अब मेरा वहाँ थर रहना संभव नह था। म चुपचाप वहाँ से चल पड़ा।
मने माग म छदक से पूछा।
छदक ने बताया—‘‘मुझे भी बस इतनी ही सूचना ह।’’ िफर उसने कहा, ‘‘हो सकता ह, कौरव ने ही आ मण
कर िदया हो।’’
‘‘हो सकता ह और नह भी हो सकता। जब तक हम पूरी बात नह जानते तब तक कछ भी हो सकता ह; पर
कौरव क आ मण क अिधक आशंका ह।’’
‘‘िफर आप इतने घबराए ए य ह?’’ छदक बोला, ‘‘यिद कौरव ने ही आ मण कर िदया हो तो या आ?
अब तो ह तनापुर से आपका नया-नया र ता आ ह। उनका रा य-िव तार आपका रा य-िव तार होगा।’’
‘‘यह समय प रहास करने का नह ह, छदक!’’ मने उसे डाँटा—‘‘यह घटना आयाव क जीवन-मरण से जुड़ी ह
और तुम इसे इतने हलक से ले रह हो!’’
िफर वह कछ बोला नह , चुपचाप िखसक गया।
म रात भर इसी उधेड़बुन म रहा िक कौन ह िवराट पर आ मण करनेवाला? िफर मन म िवचार आया िक यिद
कौरव का आ मण होता तो हमारा गु चर िवभाग अव य मुझे सूिचत करता। उसे िवराट पर िवशेष रखने
का आदेश भी मने िदया ह।
िफर भी आधी रात तक म सो नह पाया। यही सोचता रहा िक कसे सवेरा हो और कसे गु चर अमा य को
बुलाऊ। इसी िचंतन म झपक लग गई।
आपको जानकर आ य होगा िक मेर सोकर उठने क पहले से ही गु चर अमा य मेर जागने क ती ा म
अिलंद म टहल रहा था।
य ही म अपने क से बाहर आया य ही उसक स ता भरी आवाज सुनाई पड़ी—‘‘महाराज क जय हो!
महाराज क जय हो! आपको बधाई ह।’’
‘‘िकस बात क बधाई?’’
‘‘...िक पांडव ने म यराज क यहाँ ही अपना अ ातवास सकशल िबता िलया।’’
‘‘यह तु ह कसे मालूम?’’
‘‘ य िक ि गतराज सुशमा क आ मण क समय पांडव को खुलकर आना पड़ा।’’
‘‘तो कल से ही ारका म िवराट पर ए िजस आ मण क चचा थी, वह सुशमा क ही आ मण क संबंध म
थी?’’
‘‘हाँ, महाराज!’’ गु चर अमा य ने कहा।
तब तक छदक भी आ गया। उसने भी इसी कार का समाचार िदया। अब मेरा तनाव ढीला पड़ा।
मने दोन से लगभग एक ही न िकया—‘‘इसका या िव ास ह िक पांडव अ ातवास क बाद ही पहचाने गए
ह?’’
‘‘मु य बात तो यह ह िक वे िकसीक ारा पहचाने नह गए वर इस बात क घोषणा महाराज िवराट ने बड़ी
स तापूवक राजसभा म क ।’’
मेर मन ने कहा िक इ सेन ने भी तो गणना करक बताया था िक अ ातवास क अविध पूरी हो गई ह और अब इस
समाचार ने भी उसका समथन कर िदया। तब संदेह का अवसर कहाँ? िफर भी मेर मन म एक नई शंका ने ज म
िलया। मने कहा, ‘‘ऐसा तो नह िक सुशमा को िवराट क यहाँ आ मण करने क िलए कौरव ने ही भेजा हो?
इधर कछ िदन से वहाँ पांडव क होने का संदेह हर िकसीको हो गया था। य न कौरव ने सोचा हो िक इस
आ मण से वा तिवकता खुल ही जाएगी!’’
‘‘नह , ऐसा िब कल नह ह।’’ गु चर अमा य ने बड़ िव ास से कहा, ‘‘मुझे जहाँ तक सूचना ह, अभी
ह तनापुर को महाराज िवराट क घोषणा का भी पता नह ह। इधर एक-दो िदन म उ ह सूचना िमली हो तो कह
नह सकता।’’
‘‘तब ि गतराज सुशमा ने आ मण य िकया?’’
‘‘बात यह ई िक क चक क मार जाने क बाद सुशमा ने सोचा िक िवराट अब श क से अनाथ हो गया
ह। जब िकले का िसंह ार ही व त हो गया, उसक देखरख करनेवाला कोई नह रहा, तब भीतर घुसकर संपदा
आसानी से लूटी जा सकती ह। बस उसने िवराट क गाय को हका ले जाने क योजना बनाई और दि ण-पूव से
आ मण कर िदया गया।’’
‘‘िफर िवराट को उस आ मण का सामना करना पड़ा होगा?’’
‘‘व तुतः उनका उ े य आ मण करने का नह था।’’ गु चर अमा य ने बताया—‘‘इसीिलए आरभ म उन
सैिनक ने कोई उप व नह िकया। वे कवल गाय हकाकर ले चले।’’
‘‘िकतनी रही ह गी वे गाय?’’
‘‘ धान गोप क अनुसार लगभग एक लाख थ । िवराट क गो-संपदा का संभवतः आधे से अिधक।’’ गु चर
अमा य बताता गया—‘‘तभी तो रा य का धान गोप भागा आ महाराज िवराट क पास आया और उसने सारी
थित बताई। महाराज य हो गए। पर सुशमा क िवशाल सै य श का वणन सुनकर घबराए भी और सोचने
लगे।
‘‘ ‘महाराज, यह समय सोचने का नह ह। यिद आपने सुशमा को शी ही नह रोका तो इतनी िवशाल गो-संपदा
आपक हाथ से िनकल जाएगी।’ धान गोप बोला। तब महाराज िवराट ने अपने छोट भाई शतानीक से कहा, ‘तुम
सेना तैयार करो। म तो चलूँगा ही, पर मेर चलने से काम नह चलेगा।’ ’’
गु चर अमा य सुनाता रहा िक म बीच म ही बोल पड़ा—‘‘इसका ता पय ह िक बड़ा कमजोर ह िवराट!’’
‘‘बात यह ह िक जीवन भर तो क चक क भरोसे रहा। अब अचानक उसपर िवपि आ पड़ी तो वह घबरा गया।
अब उसने सोचा िक पांडव का अ ातवास समा हो गया ह तो य न हम उनको अपनी सुर ा क िलए ले ल।
तब पांडव ने ही सुशमा क वह गित बना दी।’’
‘‘तो या उसे मार डाला?’’
‘‘ ाण ही उसक नह िलये, बाक सब करम हो गए।’’ गु चर अमा य बोला, ‘‘भीम क चलती तो वह उसे मार
ही डालता। यह तो किहए, युिध र ने उसक ाणर ा क । उसे बंदी बनाकर दरबार म लाया गया और
अना मण संिधप पर ह ता र करने पर ही उसे छोड़ा गया।’’
मने मन-ही-मन सोचा िक यह घटना तो ठीक ई, पर अब इसपर या िति या होती ह? मने गु चर अमा य से
कहा, ‘‘अभी भी िवराट पर यान रखने क आव यकता ह—और िवराट पर ही नह वर ह तनापुर पर भी। अब
वहाँ क भी गितिविधयाँ तेज हो जाएँगी। आप जाने द, यह काय म छदक को स पूँगा।’’
‘‘छदक बेचारा या कर लेगा?’’ पीछ चुपचाप खड़ा छदक बोल पड़ा—‘‘ या अकला चना भाड़ फोड़
सकगा?’’
‘‘ य नह फोड़ सकगा!’’ मने हसते ए कहा, ‘‘छदक, तुमम नारद क तरह हर जगह उप थत होने क कला
ह। तुमने यह कला कहाँ से सीखी?’’
‘‘सारी कला तो आपम समािहत ह। म तो उसक छाया मा ।’’ छदक भी हसने लगा और म भी।
िफर मने गंभीरतापूवक उससे ह तनापुर क संदभ म बात करने क इ छा य क । उसने कहा िक यिद बात
ही करनी ह तो वह िफर कभी भी हो सकती ह। प था िक वह गु चर अमा य क उप थित म बात करना नह
चाहता था। अमा य ने भी इसे समझा और चला गया।
उस समय बात भी टल गई। छदक क ह तनापुर जाने क मु त क खोज म ही दो-चार िदन और बीत गए। इस
बीच भैया से भी मने ह तनापुर क बार म बात क । म यराज पर ि गत नरश क आ मण क चचा क और
संभावना य करते ए मने कहा, ‘‘मुझे तो ऐसा लगता ह िक हो न हो, पांडव महाराज िवराट क ही सेवा म
ह।’’ यह बात मने ऐसे भोलेपन से कही जैसे अभी-अभी ही म इस िन कष पर आया ।
भैया छटते ही बोले, ‘‘क चक वध क बाद ही यह बात मेर मन म आई थी।’’ िफर वे कछ सोचते ए बोले,
‘‘चलो, अ छा आ, पांडव का अ ातवास सकशल बीत गया।’’
‘‘इसे कौन कह सकता ह िक पांडव क अ ातवास क अविध पूरी ई या नह !’’ मने कहा।
‘‘पांडव न इतने मूख ह और न इतने भोले—जैसा तुम समझते हो। यिद अ ातवास क अविध पूरी न होती तो वे
कभी सामने न आते।’’
‘‘िफर भी वे भूल तो करते ही ह और कर भी सकते ह।’’
‘‘िब कल नह कर सकते।’’ भैया क वाणी म अ यिधक ढ़ता थी—‘‘सहदेव क योितष और ह-न क
गणना का लोहा पूरा आयाव मानता ह। वह वष-काल क िनणय म कभी भूल कर सकता ह!’’
सचमुच इधर तो मेरा यान ही नह गया था। यह तो स य ह िक सहदेव क रहते काल-िनणय म पांडव से भूल
नह हो सकती; पर मन म अब भी शंका थी।
वह शंका मने भैया क सामने रखी—‘‘िफर वे खुले तौर पर सामने य नह आते और अपने रा य का दावा पेश
य नह करते?’’
‘‘इसे तो पांडव जान। होगी इसम कोई नीित।’’ भैया बड़ िनरपे भाव से बोले।
‘‘आपक िवचार से इस थित म उ ह या करना चािहए?’’ मने भैया को जरा और खोलने क नीयत से कहा।
‘‘हम यथ य माथा-प ी करने जाएँ! हम इसक बीच म पड़ने से या लाभ!’’ भैया ने इस िवषय म अपनी
तट थता पुनः दुहराई—‘‘और िवशेष प से म इस िवषय से दूर ही रहना चा गा।’’
भैया को छोड़कर मेरा पूरा प रवार पांडव क प म था। भैया भी उनक िवप म नह थे, कवल िनरपे थे; पर
पांडव क आ मीयता मुझे िकसी भी ण छोड़ नह पाती थी। वे मेर अिभ थे। मुझे उनक बराबर िचंता लगी
रहती थी।
इसी बीच छदक िफर िमला। मने उसे देखते ही पूछा, ‘‘तुम ह तनापुर नह गए?’’
‘‘म तो नह गया, पर ह तनापुर वयं मेर पास चला आया था।’’ छदक बोला।
म उसक बात समझने क चे ा क , इसक पहले ही उसने बताया—‘‘मेर सािथय क ह तनापुर प चने क
पूव ही कौरव क सेना िवराटनगर क ओर चल पड़ी थी—और वह भी अपनी पूरी श क साथ ही। यिद उस
सेना क कौरव महारिथय क नाम आप सुनगे तो दाँत तले अँगुली दबाएँगे।’’
िफर वह ह तनापुर क उन वीर क नाम वयं िगनाने लगा—‘‘िपतामह भी म, आचाय ोण, कण, कपाचाय,
अ थामा, शकिन, दुःशासन, िविवंशित, िवकण, िच सेन, दुमुख, दुःशल।...’’
वह बताता जा रहा था िक म बोल पड़ा—‘‘अर, बस-बस! अब ब त हो गया।’’
छदक हसने लगा।
मने प रहास क से कहा, ‘‘अर, एक नाम तो तुम बताना ही भूल गए।’’
‘‘वह या ह?’’ उसने पूछा।
‘‘महारथी दुय धन।’’ इतना कहकर म भी हसा और वह भी।
मेरी हसी िचंता क अ न म िहमखंड जैसी शी ही गल गई और म िफर सोच म पड़ गया िक इतने महारिथय का
सामूिहक आ मण पांडव कसे सँभाल पाए ह गे?
‘‘पर वे लोग िवराट पर आ मण करने क नीयत से नह गए ह।’’ मुझे िचंितत देखकर छदक ने कहा।
‘‘तब या वे िवराट क पूजा करने गए ह?’’
‘‘न पूजा करने गए ह और न आ मण करने।’’ अब छदक ने वह सब बताया, जो उसे ात था। उसने मेरी
आशंका ही दुहराई—‘‘क चक वध क बाद ही ह तनापुर क कान खड़ हो गए थे; पर बराबर िपतामह ने यह
कहकर टाला िक अभी हम लोग क चलने का अवसर नह आया। पहले हम गु चर से सही जानकारी ा
करनी चािहए। पर गु चर यह पता लगाने म असफल रह िक व तुतः सैर ी क गंधव पित कौन ह!’’ इतना बताते
ए छदक हसा—‘‘अब दुय धन गंधव से अिधक सावधान ह।’’ िफर उसने आगे कहना जारी रखा—‘‘इसी
उधेड़बुन म समय अपनी गित से आगे बढ़ता गया िक अचानक सुशमा क गो-हरण क उ ह सूचना िमली और
साथ ही उसक दुदशा क भी। अब उ ह िव ास हो गया िक पांडव क अित र िवराट का सहायक कोई दूसरा
नह ह। तब उ ह ने इस सैिनक याण क योजना बनाई।’’
‘‘पर िकसिलए?’’ मने पूछा।
‘‘योजना तो आ मण क िलए ही बनाई गई थी।’’ छदक ने बताया—‘‘पर िपतामह ने उ ह सलाह दी थी िक
‘आ मण करने से कोई लाभ नह । जो मधु िपलाने से मरता हो, उसे िवष देने क आव यकता या! तुम लोग भी
कवल गौ क हरण क योजना बनाओ। पांडव ह गे तो वयं सामने आ जाएँगे।’
‘‘ ‘और कह पांडव ए और सामने आ गए तो? तब तो हम लेने क देने पड़ जाएँगे। इसिलए हम चािहए िक हम
पूरी श क साथ जाएँ।’ यह ताव शकिन का था।’’
‘‘इसका ता पय ह िक शकिन क िचंतन म पांडव एकदम छाए ह।’’ मने कहा, ‘‘इसका प रणाम यह ह िक कौरव
और पांडव का यु अव य संभावी ह।’’
छदक को इससे अिधक और कछ नह मालूम था; पर बात लगभग प हो चली थ । अब मेरी िज ासा और बढ़
गई। मने छदक से कहा, ‘‘अब हम िवराट क ओर और सजग रखनी चािहए।’’
‘‘वह े मेरा नह ह।’’ छदक बोला, ‘‘उधर तो आपका िवभाग ि याशील ह ही।’’
िफर म कछ नह बोला। छदक भी चला गया। उसक साथ ही िदन का काश भी डबने लगा। सं या ने अपनी
श या िबछा ली।
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एक िदन स यभामा ने मुझे सूचना दी िक आपक नई ब ल मणा यहाँ आकर ब त स नह ह। हो सकता
ह, उससे जांबवती ने कहा हो या स यभामा ने वयं अनुभव िकया हो।
मने कहा, ‘‘वह य स नह रहती? उसक अ स ता का कारण जानने क चे ा करो और उसको दूर करने
क िलए हर संभव उपाय करो।’’
‘‘ब त से कारण तो ऐसे होते ह, िज ह दूर ही नह िकया जा सकता।’’ स यभामा बोली।
‘‘ य ?’’
‘‘ य िक वे नैसिगक ह।’’ स यभामा ने कहा, ‘‘कारण तो वे ही दूर िकए जा सकते ह, जो दूर करने यो य ह ।’’
‘‘म तु हार कथन का ता पय नह समझा।’’ मने कहा।
अब उसने कछ संकोच क साथ धीर-धीर वयं को उ ािटत िकया—‘‘मुझे कछ ऐसा लगता ह िक वह यह
सोचती रहती ह िक मुझे अभी सत पित नह िमला। िववश होकर उसे शािपत पित से िववाह करना पड़ा और इस
िववाह क पीछ उसक िपताजी का जो उ े य था, वह भी पूरा आ नह दीखता।’’
‘‘ य , या इस िववाह क पीछ उसक िपता का कोई उ े य भी था?’’ मने पूछा।
‘‘या तो इसे वह बता सकती ह या ये जी बता सकते ह।’’ स यभामा ने कहा।
‘‘पर भैया से अब कछ पूछना म उिचत नह समझता।’’ मने कहा, ‘‘अ छा हो, तु ह ल मणा से बात करो।’’
‘‘आप या समझते ह, हम लोग ने बात नह क होगी! पर वह कछ खुलती ही नह । हर न क उ र म मौन रह
जाती ह। अ छा हो, जरा आप ही उससे बात करक देख।’’
‘‘पर मने कभी उससे बात ही नह क ह। जब भी सामने पड़ी, औपचा रकता क िनवाह से अिधक और कछ नह
आ।’’
‘‘इसीिलए तो मेरा आ ह ह िक आप ही उससे बात कर।’’ स यभामा बोली, ‘‘मेरा पूरा िव ास ह िक जहाँ
आपक आ मीयता का उसे पश िमला तहाँ उसक वाणी क बंद ार खुल जाएँगे।’’
मुझे बड़ा अटपटा लगा; पर यह एक ऐसा आ ह था, िजसे म टाल नह सका।
‘‘िकतु मेरा या ब क क म जाना उिचत होगा?’’ मने स यभामा से कहा, ‘‘तु ह उसे मेर यहाँ ले आओ।’’
‘‘म उसे लाने को तो ला सकती , पर इससे काम बनेगा नह । वह सजग हो जाएगी। य तो वह शंिकत रहती ह,
आपक सम लाए जाने पर वह तरह-तरह क बात सोचने लगेगी। िफर वह खुलने क थान पर और बंद होने क
चे ा करगी।’’
‘‘तब म और या कर सकता ?’’ मने कछ झुँझलाते ए कहा।
‘‘आप एक काम कर सकते ह।’’ स यभामा बोली, ‘‘भोजन क बाद सं या तक वह ब धा जांबवती क ही क म
रहती ह—और कभी-कभी तो उ ह क बगल म ढलक जाती ह।’’
‘‘इसका ता पय यह ह िक सांब से भी उसक संबंध ठीक नह ह।’’
‘‘जैसा होना चािहए वैसा तो नह ही लगता।’’
‘‘तब तो यह भी उसक अ स ता का कारण हो सकता ह।’’
‘‘हो सकता ह।’’
दूसर िदन भोजन क बाद स यभामा वयं मुझे जांबवती क क तक छोड़ आई। य ही मने क म वेश
िकया, सास-ब अचकचाकर खड़ी हो ग । मेरी अ यािशत उप थित देखकर दोन को िव मय आ।
जांबवती बोली भी—‘‘आज सूय ने अपनी िदशा य बदल दी?’’
‘‘सूय कभी अपनी िदशा नह बदलता।’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘कभी-कभी बादल क घेर म आ जाता ह,
कभी-कभी हण लग जाता ह तब लोग समझते ह िक असमय अँधेरा हो गया ह—और िफर जब वह उिदत होता
ह तब लोग को म होता ह िक सं या को सूय उिदत हो रहा ह।’’
यह कोई तक नह था वर तकाभास था। कवल बात करने क िलए बात शु क गई थी और बात उसी पर
चल पड़ी।
जांबवती बोली, ‘‘उन बादल को भी बनाता ह सूय ही।’’
‘‘यही तो सूय का दुभा य ह िक िजन बादल का वह िनमाण करता ह, अंत म वे ही उसे घेरते ह।’’ मने कहा और
उन लोग को हसाने क िलए हसा भी।
जांबवती क चेहर पर मुसकराहट भी आई; पर ल मणा एकदम गंभीर थी जैसे वह मेरी बात से िनरपे हो।
मने कहा भी—‘‘आज ब बड़ी उदास लग रही ह!’’
‘‘आज ही नह वर रोज ही यह ऐसी रहती ह।’’ जांबवती बोली।
‘‘ या बात ह, ब ? तू इतनी उदास य ह?’’ मने पूछा।
‘‘ या क ?’’ एक मुसकराहट बला उसने ओठ पर उगाई—‘‘आपको तो लोग अंतयामी कहते ह, तो आप ही
समझ लीिजए।’’
‘‘तुम मेर ित लोग क धारणा को चुनौती दे रही हो?’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘यह लोग क धारणा को नह
वर एक नवल वधू ारा अपने सुर क मनःश को चुनौती ह; पर कोई बात नह ।’’
मने यानम न होने का नाटक िकया। जांबवती मेरी मु ा देखकर मुसकरा रही थी; पर ल मणा अब भी गंभीर थी।
‘‘तुम िजस घर म आना नह चाहती थ उसी घर म तु ह आना पड़ा। व स, शायद तु हारी उदासी का यही कारण
ह।’’ मेरी यानाव थत मु ा योिगय जैसी थी और विन अ यंत गंभीर—‘‘पर न इसम हमारा दोष ह, न तु हारा
और न तु हार िपतृगृह का। यह तो िनयित ारा तुमपर लादी गई िववशता ह।’’
‘‘िनयित क इस र िनणय को मेर कपाल म िलखी भा यिलिप का आप इसे प रणाम मानते ह? आप कहते ह,
कह, आप मानते ह, मान; पर इन दोन को न मने देखा ह और न इसम िव ास करती । मुझे तो प लगता ह
िक मेर पू य िपता ने अपनी िववशता मुझपर लाद दी ह।’’
‘‘यह तु हारा म ह, बेटी।’’
मने अनुभव िकया िक ल मणा को जैसा म समझता था, वह वैसी नह ह। उसका वैदु य अ ुत ह। कहाँ सांब क
कित, उसक दु ता व नीचता और कहाँ ल मणा क िचंतन क यह ऊचाई! कोई सा य नह ।
‘‘मुझे तो लगता ह िक मेरा िववाह आपक आ मीयता खरीदने क िलए आपक पु क मा यम से आ एक सौदा
ह।’’ ल मणा क भीतर धधकती आग क लपट एकदम बाहर आई—‘‘नारी क भा य म कवल परवशता ही तो
िलखी ह। ज म से िपता क वशता और ज म क बाद पित क वशता। कह भी तो वह मु नह ।’’
‘‘अ छा िकया तुमने, जो सुर क वशता क बात नह कही। नह तो तु हारी सूची म म भी आ जाता।’’ मने
हसते ए उसे हसाने क चे ा से कहा।
िफर भी ल मणा हसी नह । म िफर गंभीर होकर बोला, ‘‘तु हार िपताजी हम सबक आ मीय ह। भैया तो उनक गु
भी ह। िफर हमारी आ मीयता खरीदने का कोई न ही नह । जो वयं ा हो, उसे खरीदना या!’’
‘‘म यह नह कहती िक मेर िपता से आपक आ मीयता नह ह।’’ ल मणा बोलती गई—‘‘पर यह भी स य ह िक
िजतनी आ मीयता आपक पांडव क साथ ह उतनी मेर िपतृकल क साथ नह ।’’
म बड़ नाटक य ढग से हसा। िफर भी जब मने उसक मु ा म िवशेष अंतर नह देखा तो बोला, ‘‘तुम ठीक ही
कहती हो, बेटी। बात यह ह िक पांडव ने अपनी सारी िनभरता मुझपर ही छोड़ दी ह; जैसे मेर िसवा इस संसार म
उनका कोई न हो। उनक इस िव ास क कारण ही मेरी आ मीयता उनक ओर ढलक ई ह। और तुम तो जानती
हो, बेटी, जो मुझम िजतना ही िव ास करता ह, म उसे उतना ही आ य देता । ताली एक हाथ से नह बजती।’’
वह कछ बोली तो नह , पर लगा, उसका तनाव कछ ढीला अव य पड़ा।
इसी बीच एक मिहला हरी अचानक क म घुस आई। उसने आते ही कहा, ‘‘ ती ाक म गु चर अमा य
बैठ ह।’’
अंतःपुर से कोई मुझे बुलाता नह ह, जब तक िक कोई बड़ी घटना न घट जाए। अव य ही कोई गंभीर बात
होगी। म तुरत ही उठा। मने ल मणा क पीठ थपथपाई और कहा, ‘‘हम तुमपर गव ह, ल मणा, और कम-से-कम
तु हारी समझदारी पर। मेरी क पना से कह अिधक तुम समझदार और िवदुषी हो। मुझपर भरोसा रखो। म जो
क गा, अपनी समझ से ठीक ही क गा।’’
म अिवलंब राजभवन क कायालय म आया। गु चर अमा य ने मुझे देखते ही कहा, ‘‘कौरव ने िवराट पर
आ मण कर िदया। उनक भी रणनीित वही ह, जो सुशमा क थी।’’
‘‘तु हारा ता पय?’’
‘‘ता पय यही िक वे लोग भी आए थे गो-हरण क बहाने ही, पर थी उनक पूरी श । मुझे तो लगता ह िक वे
पांडव से यु करने ही आए थे। उ ह अ छी तरह िव ास हो गया था िक पांडव िवराटनगर म ही ह।’’
‘‘जब हम लोग को िव ास था तब उ ह य न िव ास हो!’’ मने कहा, ‘‘पर उनक िवचार अ ातवास क
अविध समा होने क िवषय म या ह?’’
‘‘इस िवषय को लेकर भी उनम दो मत ह।’’ गु चर अमा य ने बताया—‘‘आचाय ोण, कपाचाय, अ थामा
आिद का मत था िक यिद अविध समा न हो गई होती तो अजुन कभी सामने न आता; पर कण, दुय धन और
उसक भाइय का कहना था िक अभी अ ातवास क अविध समा नह ई ह। तब िपतामह को यह िवषय स प
िदया गया और कहा गया िक वे ही गणना कर बताएँ िक अभी अ ातवास क अविध समा ई ह या नह ।’’
‘‘तो या िपतामह भी इस यु म आए ह?’’ मने पूछा।
‘‘अर, कछ मत पूिछए। शायद ही ह तनापुर का ऐसा कोई यो ा रह गया हो, जो इस आ मण म स मिलत न
आ हो।’’
‘‘तब ह तनापुर क सुर ा म कौन रह गया होगा?’’
‘‘इसे तो भगवा ही जान।’’
‘‘इसे छोड़ो। यह बताओ िक गणना कर या बताया िपतामह ने?’’
‘‘िपतामह ने यह बताया िक अ ातवास समा ए पाँच माह और बारह िदन अिधक हो गए ह।’’
‘‘िपतामह ने ऐसा कहा!’’ मेरी साँस म साँस आई। बड़ संतोष क साथ म बोला, ‘‘तब तो यह आिधका रक िनणय
ह। चलो, एक संदेह दूर आ।’’
‘‘पर संदेह दूर होने वाला कहाँ ह?’’ इसी संदेह म गु चर अमा य ने बताया—‘‘जब िपतामह ने अपना िनणय
सुना िदया तब दुय धन बड़ा िचंितत आ। इतना उदास िक उसने चुपचाप िवराट क े म वेश करने क पहले
ही लौटने क इ छा य क । तब मामा शकिन उसे एकांत म ले गया और समझाया िक तुम इतने उदास य
हो? कोई कछ कहा कर, उसका मानना न मानना तो तुमपर िनभर करता ह। लोग िच ाते रह िक अविध समा
हो गई ह, पर तुम यही कहो िक अ ातवास पूण होने क पहले ही पांडव पहचान िलये गए ह।’’
गु चर अमा य क कथनानुसार—‘‘इसक बाद दुय धन म नया उ साह जागा और वह यु करने क िलए तैयार
हो गया। योजना ऐसी बनाने लगा जैसे वह अभी ही अजुन का िवनाश कर देगा। तब ोण ने उसे हतो सािहत करते
ए कहा, ‘तु ह याद ह, दुय धन, िच सेन गंधव से यु करते ए तु हारी या थित ई थी और उसे परा त कर
इस अजुन ने तु ह कसे छड़ाया था? यह मत समझो िक वनवास और अ ातवास से उनक श कम ई ह। इसी
थित म अजुन ने िकरात क प म भगवा िशव क दाँत ख कर िदए थे। िनयात कवच और कालकय का
लोहा देवता भी मानते ह। अजुन ने उ ह भी परा त िकया। उसक धनुष क टकार सुन रह हो? ऐसा लगता ह िक
इतने िदन शांत रहने क बाद उसम दूनी श आ गई ह। इस समय उससे यु करना िकसी भी से ेय कर
नह होगा।’ ’’
गु चर अमा य कहता गया—‘‘पर वह तो बुरी तरह अपने मामा से भरा गया था। उसक मनः थित क त
तवे पर आचाय क वाणी छनछनाकर रह गई। दुय धन ने ोणाचाय को ही उलटा-सीधा कहना आरभ िकया;
जबिक दोन आचाय और अ थामा एक मत क थे। पर कण और दुय धन ने िकसीक नह सुनी। वे इसी समय
पांडव को परा त कर सदा क िलए काँटा िनकाल देना चाहते थे। मने सुना ह िक िपतामह उन दोन क िजद पर
ब त िबगड़; पर अंत म दुय धन क ओर झुक गए। िफर भी उ ह ने इतना तो िकया ही िक पूरी सेना का चौथाई
भाग लेकर दुय धन एवं कण को ह तनापुर भेज िदया और कहा, ‘यिद यहाँ रहोगे और मार जाओगे तो ह तनापुर
का या होगा?’ ’’
मने कहा, ‘‘बूढ़ का झुकाव अंततः कौरव क ओर ही आ और वह बड़ी होिशयारी से दुय धन को बचा ले
गया।’’
‘‘पर वह बचा कहाँ!’’ गु चर अमा य बोला, ‘‘महाराज िवराट का पु उ र रथ का संचालन कर रहा था।’’
एक ण कने क बाद उसने िव तार से कहना शु कर िदया—‘‘बात यह ई िक पहले अजुन ही सारिथ था
और उसी रथ पर बैठकर उ र अपनी सेना का नेतृ व कर रहा था। जब उसने कौरव क िवशाल सेना देखी तब
वह रथ से उतरकर भाग चला। उसे अजुन ने पकड़कर ब त समझाया। पर उसक िह मत िब कल छट चुक थी।
वह िकसी भी कार तैयार नह हो रहा था। तब अजुन उसे मशान क िनकट एक शमी वृ क पास ले गया। वह
उसने अपने गांडीव आिद अ िछपाए थे।
‘‘वहाँ से उसने अपने अ उतार और तुरत रथ पर आया। रथ का संचालन उसने उ र को दे िदया और कहा िक
जैसे म क वैसे तुम रथ का संचालन करो। तब उ र िकसी तरह तैयार आ।
‘‘अजुन ने बड़ी तेजी से रथ को यु थल क ओर ले चलने को कहा। रथ क घड़घड़ाहट और धनुष क टकार
से लोग ने समझ िलया िक यह अजुन ह।’’
मुझे इस वणन से कोई मतलब नह था। मेरी िज ासा उछाल मार रही थी—‘‘यह बताओ िक इसक बाद या
आ?’’
पर गु चर अमा य अपने ही ढग से कहता चला जा रहा था—‘‘जब अजुन यु े म आया तब उसे कह
दुय धन िदखाई नह िदया। उसने बड़ी खोज क । लोग से पूछा-जाँचा, तब पता चला िक वह चौथाई सेना लेकर
ह तनापुर क ओर गया ह।’’
‘‘वही गाय को लेकर गया होगा?’’ मने उसे बीच म टोका।
‘‘नह , गाय को लेकर तो एक-चौथाई सेना दूसरी िदशा म गई थी। बड़ी होिशयारी क थी िपतामह ने। इस कार
आधी सेना को छोड़, बाक वे ह तनापुर क ओर भेज चुक थे। पर अजुन भी अ ुत ह, उसने दुय धन को खोज
िनकाला और बाण क हार से उसे घायल कर िदया। उसक र ा म कण भी आया और उसे भी मुँह क खानी
पड़ी। इसी संघष म उसका भाई सं ामिज मारा गया।’’
गु चर अमा य बताता गया—‘‘तब सभी यो ा ने अजुन को चार ओर से घेर िलया।’’
‘‘तब तो अजुन को बड़ी किठनाई का सामना करना पड़ा होगा?’’ मने कहा।
‘‘किठनाई क थित तो थी ही, तभी तो उसे स मोहन बाण मारना पड़ा। सारी कौरव सेना मू छत हो गई। तब
अजुन ने अपना शंख बजाया और उ र से कहा, ‘अब तुम इन यो ा क व उतार लो।’ उसने देखते-देखते
दोन आचाय क ेत, कण क पीले और अ थामा एवं दुय धन क नीले व उतार िलये।’’
‘‘अ छा िकया िक िपतामह को छोड़ िदया!’’ मने हसते ए कहा।
य िप यह कहानी गु चर ारा आधी-अधूरी लाई गई थी और उसे भी छानकर अमा य ने सुनाई थी, तथािप
इससे कई प रणाम ऐसे िनकल रह थे, िजनपर मेरा िचंितत होना वाभािवक था। म सोचने लगा िक जैसे आ मा का
व यह शरीर ह वैसे ही शरीर का व वह आवरण ह, िजससे हम उसे ढकते ह; जो ब त कछ हमारी पहचान
और ित ा से जुड़ा ह। जब व ही उतार िलया गया तब तो ित ा ही चली गई। इसिलए कौरव को यह हार
बड़ी गहराई तक चुभी होगी। कसे सहा होगा इसे दुय धन और कण ने? उनका ितशोध तो इस समय धधक रहा
होगा।
मुझे अ यंत गंभीर देखकर गु चर अमा य भी गंभीर हो गया।
उसने कहा, ‘‘मने तो सोचा था िक आप इस समाचार से स ह गे; पर लगता ह, आप पांडव क इस िवजय से
खुश नह ह।’’
‘‘िवजय से स ता तो होती ह। म भी स ही ।’’ मने कहा, ‘‘पर म कछ और देख रहा । एक क िवजय
और दूसर क पराजय—यही तो प रणाम होता ह यु का। आज तक ऐसा कोई यु नह आ, िजसम दोन क
िवजय ई हो। और जानते हो, िम , यही प रणाम आगामी यु क भूिमका भी बनता ह।’’ मेरी आवाज पूणतः
िचंता से बोिझल थी—‘‘मुझे लगता ह, हमार पैर क नीचे ालामुखी ह, जो िकसी भी समय फट सकता ह।’’
q
आठ
पवत से िगरते िशलाखंड क तरह घटना का वेग िनरतर बढ़ता ही रहा।

िवराटनगर म कौरव क पराजय से मेरा प रवार बड़ा स था। यहाँ तक िक मेर नानाजी—जो घर म रहकर
भी एक सं यासी का जीवन िबता रह थे, संसार क िकसी गितिविध से अ भािवत और जीवन से िनरपे थे—वे भी
स ही िदखे। उनक मुख से कवल इतना ही िनकला िक वण अ न म तपकर और भी सुंदर हो गया ह।
भैया तो सारी कथा सुनकर हसने लगे। बोले, ‘‘व िवहीन होकर ये महा यो ा कसे गए ह गे ह तनापुर? ऐसी
न नता या कहगी जा से?’’ िफर कछ सोचते ए बोले, ‘‘चलो, एक से तो बड़ा अ छा आ। अब पांडव
से लड़ने का ये सब नाम नह लगे।’’
‘‘शकिन मामा क रहते या संभव ह?’’ मने कहा।
भैया एकदम मौन हो गए। वे शकिन क िव कछ सुनना नह चाहते थे या मेरी बात को उ ह ने बड़ी गंभीरता
से िलया, यह तो भगवा ही जाने।
सबसे अिधक स सुभ ा और उसका बेटा अिभम यु थे। अ ातवास शु होने क पहले ही वे मेर यहाँ आ
गए थे। जब से उ ह ने सारी घटना सुनी थी तब से वे अजुन से िमलने क िलए छटपटा रह थे; पर माँ उ ह जाने देने
क िलए तैयार न थी। माँ का कहना था िक अभी ज दी या ह? उनक (पांडव क ) उिचत यव था हो जाने पर
जाना। िपताजी भी इसी मत क थे।
गरमी आ गई थी। वसंत क मादकता को ये क क णप क धूप झुलसाने क पूरी कोिशश कर रही थी; पर
सागर समीरण उसे ऐसा करने नह दे रहा था। ारका क तीन ओर क म भूिम क त वायु से उसका यु आरभ
हो गया था। िदन म समु क ओर से और रात म म भूिम क ओर से बड़ी तेज हवाएँ चलती थ । मोद वन
झकझोर उठता था। वहाँ िनवास कर रह मेरी भाव प नय का कहना था िक सं या तक यह झंझावात कभी-कभी
उ ह अ न न करने क अभ ता तक उतर आता ह। मने वयं एक िदन इसका अनुभव िकया था। हवा का झ का
इतना तेज आया िक टकराकर हम एक-दूसर क आिलंगन म आ गए। हमार व भी अ त- य त हो गए। यह
कित ड़ा हमम मादकता भर देती। उधर सागर लहराता रहता और इधर हम रस क सागर म डबते रहते।
ऐसी ही एक मादक सं या िबताकर म लौट रहा था िक माग म छदक क साथ इ सेन िमला। मने रथ रोककर
उसे भी बैठा िलया। य िप मेर साथ बैठने म इ सेन सकचा रहा था, िफर भी मने उसका हाथ ख च िलया।
उसीसे ात आ िक सुभ ा और अिभम यु को बुलाने क िलए पांडव ने एक दूत भेजा ह।
‘‘पहले उ ह अपने िनवास क उिचत यव था करनी चािहए।’’ मने कहा, ‘‘माँ उ ह कभी जाने क आ ा नह
दगी।’’
‘‘पर मने सुना ह िक उनक िनवास क समुिचत यव था हो गई ह।’’ छदक बोला।
‘‘ या ई ह?’’
‘‘इसे तो आप आए ए दूत से ही पूिछएगा।’’
‘‘आिखर तु ह भी तो कछ बताया होगा?’’ मने कहा, ‘‘तुम हर बात को पहली य बनाते हो?’’
‘‘आप ही ने तो कभी कहा था िक जीवन एक अबूझ पहली ह। यिद यह पहली न होता तो इतना िज ासापूण और
आनंददायक न होता।’’
इस बकवास से म झुँझला उठा और उसक ओर से बड़ी नाराजगी से मुँह फर िलया। िफर म उससे कछ बोला
भी नह ।
रथ से उतरते ही मने इ सेन से कहा, ‘‘य िप रात तो हो चुक ह; पर या तुम इस समय पांडव क दूत से िमला
सकते हो?’’
‘‘ य नह !’’ कहता आ वह अितिथगृह क ओर लपका। राजभवन म मशाल जल चुक थ । राि का थम
हर आरभ हो चुका था।
इ सेन क साथ कई लोग आए। सभी स िदखे। मने भी उ ह बधाई देते ए कहा, ‘‘आपक वािमय क
संकट क मेघ कट गए। उ ह मेरी ओर से बधाई दे दीिजएगा। आप िजस योजन से आए ह, उसक सूचना मुझे
िमल चुक ह; पर या इस समय सुभ ा और अिभम यु को भेजना उिचत होगा?’’
सब मेरा मुँह देखते रह गए। कछ बोले तो नह , पर उनक स मु ा मानो मुझसे पूछ रही हो—‘आपको शंका
य ह?’
तब मने उसका कारण बताते ए कहा, ‘‘हमारा सोचना ह िक जैसे अ ातवास क समय तु हार वािमय ने अपनी
वधू और ब को यहाँ छोड़ िदया था वैसे कछ िदन और उ ह छोड़ रहते तो अ छा होता। इस बीच अपने िनवास
आिद क उिचत यव था कर लेते।’’
‘‘ यव था हो गई ह, तभी तो उ ह ने आ ह भेजा ह।’’ उनका धान बोला।
‘‘ या हो गई ह?’’
िफर उसने वह सारी कथा सुनाई, िजसका अिधकांश म जानता था—‘‘यह जानकर िक पांडव हमारी सेवा म ह,
महाराज िवराट को परम स ता ई। उ ह ने अपनी भूल-चूक क िलए मा माँगी और उनसे आदरपूवक कहा
िक जब तक कोई यव था नह होती तब तक आप मेर उप ल य* नगर म सस मान रिहए।’’
‘‘मने तो उप ल य देखा ह। उसे म यराज क दूसरी राजधानी भी कह सकते ह।’’ मने कहा और मन म सोचा
िक इससे अ छा थान पांडव क िलए दूसरा नह हो सकता। यहाँ रहकर पांडव अपनी सै य श भी जुटा सकते
ह और िफर ह तनापुर से दूर भी ह। यहाँ रहकर कौरव से श क तर पर बात भी क जा सकती ह।
मुझे मौन देखकर दूत धान ने कहा, ‘‘अभी एक शुभ समाचार आपको और िमलने वाला ह।’’
‘‘िमलने वाला ह!’’ म हसते ए बोला, ‘‘आप नह दगे या?’’
‘‘मुझे देना तो नह चािहए।’’ उसने भी हसते ए ही उ र िदया—‘‘पर हमार वािमय क ओर से कोई मनाही भी
नह ह।’’ अब उसने बताया—‘‘महाराज िवराट क राजकमारी उ रा से अिभम यु का िववाह तािवत ह। दोन
ओर क वीकित ह; पर अंितम वीकित महाराज अजुन आपसे राय लेकर ही दगे।’’
मेरी स ता का िठकाना न रहा। मने कहा, ‘‘तब तो सुभ ा और अिभम यु का वहाँ जाना अ यंत आव यक ह।
पर यह सब आ कसे?’’
* इस नगर क िवषय म महाभारत क मुख टीकाकार नीलकठजी ने िलखा ह—िवराट समीप थ नागरा तर । िकतु पािजटर ने म य क राजधानी
उप ल य को माना ह। मुझे नीलकठजी उिचत मालूम होते ह और इसीसे कथा का तारत य भी बैठता ह। उप ल य आज क जयपुर क िनकट ही रहा
होगा। —लेखक
‘‘यह तो आप जानते ही ह िक उ रा को हमार वामी (अजुन) बृह ला क प म नृ य क िश ा देते थे।
अ ातवास क समा पर जब वा तिवकता सामने आई तब महाराज िवराट ने सहष यह ताव अजुन क सामने
रखा िक ‘आपने पूर वष मेरी क या को नृ य िसखलाया ह। नृ य क कला तो आपक अ ुत ह। अपने को
िछपाने क कला म भी आपक कोई तुलना नह । हमम से कोई यह जान नह पाया िक आप पु ष ह।’
‘‘इसी बीच महाराज अजुन ने उ ह टोकते ए कहा, ‘और उ रा भी नह जान पाई।’
‘‘ ‘तभी तो म आपक कला क साथ ही आपक च र का भी शंसक । मने ऐसा मनु य नह देखा, जो ी क
संपक म साल भर रह और वह ी भी न जान पाए िक यह पु ष ह।’
‘‘ ‘यह मेर ही च र क परी ा नह थी, यह उ रा क भी च र क परी ा थी। नृ य क मु ाएँ बताने क िलए म
उसक अंग को यदा-कदा छता भी था; पर कभी मने उसक आकित पर वासना क भाव नह देखे। ताली एक हाथ
से नह बजती। यिद आप मुझे शंसा क यो य समझते ह तो उ रा भी मुझसे कम शंसा क यो य नह ह।’
‘‘म यराज ने स होकर कहा, ‘तब तो मेरा आपसे एक आ ह ह। िव ास ह िक आप मेरा आ ह नह
ठकराएँगे।’ वे कहते गए—‘मेरी पु ी अभी तक कमारी ह। वह सवथा िववाह क यो य ह। म उसक यो य वर
खोज ही रहा था। वह वष भर आपक संपक म रही ह। उसक संबंध म आपक धारणा भी बड़ी ऊची ह। अब मेरा
िवनीत आ ह ह िक आप उससे िववाह कर लीिजए।’
‘‘अजुन महाराज यह सुनते ही गंभीर हो गए।’’ दूत ने बताया—‘‘पर भीमसेन क मु ा से ऐसा लगा िक वे ब त
स नह ह। उ ह ने धमराज क कान म धीर से कहा, ‘यह अजुन भी िविच ह। जहाँ हम लोग से अलग आ
वह एक िववाह का िवधान कर लेता ह। इसको िनयंि त करना चािहए।’ ’’
मुझे हसी आ गई। मने पूछा, ‘‘तब धमराज ने या कहा?’’
‘‘वे भी हस पड़। कछ बोले नह । िफर महाराज अजुन ने भी अपने च र क एक और ऊचाई का प रचय िदया।
उ ह ने कहा, ‘उ रा सुंदर ह। वष भर नृ य क िनरतर अ यास से उसका शरीर और भी सुगिठत हो गया ह। गायन
का भी उसका अ यास अ छा ह। सवगुणसंप ह वह। पर मने उस से कभी उसे देखा ही नह , िजस
से देखने क िलए आपने ताव करने क कपा क ह। वह मेरी िश या ह, ि य िश या ह और म उसका गु ।
मने उसे िश या क से ही देखा ह और मेर ित भी उसका पू यभाव ही रहा ह। और िश या से िववाह करना
विजत ह। ऐसी थित म आपक आ ह क ित म वयं को असमथ पाता ।’
‘‘इतना सुनते ही महाराज िवराट एकदम उदास हो गए। उ ह ऐसे उ र क आशा नह थी। तब हमार वामी ने
पुनः कहा, ‘यिद आप अ यथा न ल तो मेर बेट अिभम यु से उ रा का िववाह िकया जा सकता ह; पर मेरा यह
ताव अभी अधूरा समिझए।’
‘‘महाराज िवराट बड़ स ए। बोले, ‘िफर यह ताव अधूरा य ?’
‘‘ ‘ य िक हम इस संदभ म ारकाधीश से अनुमित लेनी होगी। वे हमार िम भी ह, भाई भी ह और हमार बेट क
मामा भी।’
‘‘ ‘तब इस ताव को शी पूरा क िजए।’ महाराज बोले, ‘शुभ काय क िलए िवलंब य ?’ ’’
इस सारी सूचना क बाद मने मुसकराते ए पूछा, ‘‘अजुन ारा िववाह वयं क िलए अ वीकार करने क बाद भीम
क या िति या रही?’’
‘‘वे संकोच से ऐसा दबे िक िफर उनक ऊपर नह उठी।’’
q
इस समाचार से ारका स ता से झूम उठी। येक भवन दीपमािलका से जगमगा उठा। ये क णप
क यह रजनी हर जगह योितहार पहने िदखाई दी। दूसर ही िदन सुभ ा और अिभम यु को िबदाई दी गई। पूरा
नगर उमड़ पड़ा। नानाजी ने तो श या पर लेट-लेट ही आशीवाद िदया। माताजी एवं िपताजी ासाद क बाहर ब त
दूर तक उ ह छोड़ने आए। भैया क स ता भाभी से अिधक थी। उनक स ता क मूल म थी वह िनरपे ता,
जो पांडव और कौरव क संभािवत यु क अवसर पर वे बनाए रखना चाहते थे। उनक सोच क अनुसार, पांडव
ने िविधव शत पूरी क ह। अब सारा झगड़ा शांित और सौहाद म प रणत हो जाना चािहए।
हम लोग नगर क बाहर तक उ ह छोड़ने आए। भीड़ क ार-भाट का य और उ साह ऐसा था जैसे कोई यु
जीत िलया गया हो। लौटते समय सुभ ा मेर प रवार एवं प रजन म से एक-एक से िमली और सबका य गत
तौर से अिभवादन िकया। जब वह मेर पास आई तब लगी मेर पैर पकड़कर रोने। लोग को यह अितशय भावुकता
का प रणाम लगा। पर उसने रोते ए मुझसे कहा, ‘‘म ब त घबरा रही , भैया! मेरा यान रखना।’’
‘‘अब घबराने क या बात ह?’’ मने उसे समझाया—‘‘अब तो बादल छट गए ह। तु हारा भा य-सूय उिदत होने
वाला ह—और रह गई तु हार यान रखने क बात! िजसक यान म म रहता , वह मेर यान म रहता ही ह।’’
िफर भी वह रोती ही रही। समझा-बुझाकर मने उसे रथ म बैठाया।
िफर मने पांडव क भेजे दूत धान को बुलाया और उसे एक िकनार ले जाकर कहा, ‘‘अपने वािमय से
कहना िक इस िववाह क ित मेरी पूरी सहमित ह और मेरा सुझाव ह िक िववाह का िनमं ण ह तनापुर अव य
भेजा जाए। पांडव म से िकसीको य गत प से धृतरा को आमंि त करने अव य जाना चािहए। िववाह क
तैयारी पूरी धूमधाम और राजक य स मान क अनु प होनी चािहए। इस उ सव को पांडव को अपनी श - दशन
का मा यम बनाना चािहए, िजससे कौरव को अनुभव हो जाए िक तेरह साल वन क धूल फाँकने क बाद भी
उनम िकसी तरह क दुबलता नह आई ह।’’
मने इतना और कहा, ‘‘इससे दुय धन और उसक मंडली को इसका ान हो जाएगा िक पांडव ने वह काय बड़
ऊचे तर पर िकया, िजसे दुय धन ने बड़ नीचे िगरकर िकया था।’’
‘‘आपका ता पय?’’
िफर मने उसे ल मणा और सांब क िववाह का सारा संदभ बताकर कहा, ‘‘कदािच इसक जानकारी पांडव
को न हो। वे सुनगे तो आ य करगे िक दुय धन ने ारका से एक नया संबंध जोड़ने क िलए अपनी दुिहता एक
शािपत क साथ बाँध दी; जबिक अजुन ने इस िववाह क मा यम से म यराज को सदा क िलए अपने पीछ खड़
होने क िलए बा य कर िदया ह। इस िववाह का राजनीितक प रणाम दूरगामी होगा; य िक आयाव म िवराट का
भी अपना मह व ह। इसक िलए पांडव को मेरी हािदक बधाई भी देना।’’
मने उसे यह भी बताया—‘‘इस समय मेरी थोड़ी सी सेना आप लोग क साथ जा रही ह; पर जब म िववाह म
आऊगा तो िवशाल वािहनी क साथ आऊगा।’’
जब म पांडव क उस दूत से बात कर रहा था तब मेर पीछ कछ दूरी पर भैया भी खड़ थे। मने उ ह देखा नह
और उ ह ने भी अपनी कित क अनुसार बीच म टोका नह । बात तो सुनी ही ह गी; य िक म धीर-धीर नह बोल
रहा था।
बाद म भी उ ह ने कोई िति या य नह क । वे रथ तक मेर साथ ही आए। उ ह ने मुसकराते ए इतना ही
कहा, ‘‘तुम कभी राजनीित छोड़ नह सकते!’’
‘‘जैसे वंशी नह छट सकती।’’ मने हसते ए कहा, ‘‘पर दोन म एक मौिलक अंतर ह। वंशी को मने पकड़ा ह
और राजनीित ने मुझे पकड़ा ह। िजसे मने पकड़ा ही नह , उसे छोड़ने का न कहाँ? यह स य ह िक म आयाव
क राजनीित क क चड़ म धँसा और वंशी बजाता । एक को म नह छोड़ता और दूसरी मुझे नह छोड़ती। यही
मेरा जीवन ह—और शायद यही िनयित क इ छा भी।’’
भैया चुपचाप अपने रथ पर चले गए।
मने सोचा, ‘यह सब न कहकर मुझे बस एक बात कहनी चािहए थी िक िजसने दय से मुझे पकड़ा ह, म उसे
कसे छो ँ?’
शायद इस घटना क तीसर िदन ही उप ल य से िनमं ण मंजूषा आई। उसक साथ ही महाराज युिध र का एक
प भी था—‘आपक आदेश का पूरा पालन हो रहा ह। कवल ह तनापुर ही नह , अ य िनकट संबंिधय क यहाँ
भी मने पांडव को भेजा ह। इससे आपक यहाँ कोई जाने वाला नह ह। आप इसे अ यथा नह लगे और पूर
प रवार क साथ पधारने क कपा करगे।’
म उसी समय िनमं ण लानेवाले अमा य क साथ भैया क यहाँ प चा। भैया-भाभी दोन बड़ स ए।
भैया ने पूछा, ‘‘िववाह का मु त या ह?’’
‘‘मु त तो ये क णप एकादशी ह।’’
‘‘अर, यह तो पाँच िदन बाद ही पड़गी। इतनी शी ता म वे यव था िकतनी कर पाएँगे!’’
मन म तो आया िक कह दूँ, िजतनी आप सांब क िववाह म कर पाए थे; पर मने कहना उिचत नह समझा। म
कवल इतना ही बोला, ‘‘लगता ह, शुभं शी क नीित अपनाई गई ह।’’
भैया सहज ही चलने को तैयार हो गए। अ पकाल म िजतनी तैयारी हो सकती थी, हम लोग ने क । य तो वह
मेरा भानजा ही था। इधर एक साल क िनवास क बीच उसने अपने नाना-नानी और परनाना का मन भी मोह िलया
था। इसिलए उसक िववाह क िलए लोग ने िदल खोलकर उपहार िदए। उसक परनानाजी (उ सेन) ने तो अपना
संिचत कोष ही खोल िदया था।
मने सा यिक को कहलवाया िक तुम इस िववाह म सै य दल-बल क साथ पधारो। हो सक तो अंधक, वृ ण
और भोज राजा को भी लेते आओ।
मेरी सूचना प चने क पहले ही उसे युिध र का िनमं ण िमल चुका था।
इधर मने भी ारका क सारी यव था ु न को स प दी और भैया क साथ चला। भैया ने सांब को भी अपने
साथ ले िलया। िपताजी इसक पहले ही चले गए थे।
जब हम लोग एक िवरा चतुरिगणी सेना क साथ चले तब माग क लोग को ऐसा लगा जैसे हम िकसी यु म
जा रह ह। पर वा तिवकता क मालूम होते ही सब अिभम यु क िववाह क खुशी म नाचने लगते।
माग म ही सा यिक क दल से भट हो गई। जैसा मने चाहा था उसने वैसा ही िकया था। उसने अंधक, वृ ण
और भोजवंशी सबल राजकमार को भी साथ ले िलया था। वे लोग भी अपनी सै य श क साथ थे; पर उनम
कोई स ािधकारी नह था। सभी स ा क उ रािधकारी थे।
एक बात और थी। वृ णय को छोड़कर और िकसीने मुझे नम कार तक नह िकया। मने जब उनसे िमलने क
चे ा क तब भी वे खुलकर नह बोले। कछ तो मुझे देखते ही मुँह फर लेते; जैसे उनसे मेरा कभी का प रचय
नह ।
इस िवषय म भैया ने मुझसे पूछा भी—‘‘ऐसी अ यमन कता य ?’’
तब मने सारा रह य खोला और दुवासा क शाप क बात कही।
‘‘उस ‘मुशल’ ने यादव को संशय त कर िदया ह। वृ णय क िवरोध म आज सभी यादव एक हो गए ह।’’
‘‘िविच बात ह! जब संकट आता ह तो सबको एकजुट हो जाना चािहए। यादव क नाश क दुवासा क उस शाप
म या वृ ण नह आते?’’
‘‘ य नह आते!’’ मने कहा, ‘‘मुशल से तो यादव का नाश शायद न हो सक, पर यह संशय उनका िवनाश
अव य कर देगा; िजसका मा यम अंततः मुशल बनेगा।’’ इस म म मने बताया—‘‘यादव म एक िविच
िव ास घर कर गया ह। उनका सोचना ह िक िजसक पास वह मुशल रहगा, वह तो सुरि त ह, और का िवनाश
अव य संभावी ह।’’
‘‘तो इस संशय को दूर नह िकया जा सकता?’’ भैया बोले।
‘‘नह । मने इसपर ब त सोचा ह, ब त से राय ली ह और अंत म इसी िन कष पर आया िक इसे दूर करने क
हर चे ा अ न को घृत से बुझाने क चे ा ही िस होगी। इस िवषय म म महिष से भी िमला था। अपने पु क
पाप क िलए मा माँगी। मने उनसे अनुरोध भी िकया। तब वे बोले, ‘शाप तो ोध क यंचा से छटा आ वह
बाण ह, जो वापस नह होता। हाँ, उससे आहत य क कछ िचिक सा क जा सकती ह।’
‘‘ ‘तो वही क िजए, भु!’ मने कहा।
‘‘तब उ ह ने बड़ी कपा कर यादव का जीवन कछ बढ़ा िदया।’’
भैया बड़ी गंभीरता से सुनते रह। मने सोचा, वे सांब पर कछ िति या य करगे; पर ऐसा कछ नह आ।
उलट उ ह ने सांब क रथ को बुलाकर अपने और मेर रथ क बीच म कर िदया। ऐसा उ ह ने सुर ा क से
िकया था। अभी तक वह सबसे पीछ अलग-थलग चल रहा था।
हम लोग मु त क एक-दो िदन पहले ही प च गए। लगभग आधी सेना दूसर िदन प ची। एक तो उनका माग
दूसरा था और दूसर हमारी गित तेज थी।
प चते ही राजक य स मान क साथ हमारा वागत िकया गया। पाँच पांडव उप थत थे। बड़ी भ य यव था
थी। दो कार क िशिवर लगाए गए थे— विणम और रजतवण । विणम शासनाधीश क िलए थे और रजतवण
महामा य एवं अमा य क िलए। सेना क िलए नगर क बाहर क ओर यव था थी।
मने भैया से कहा, ‘‘आप चल, म आ रहा ।’’
मने देखा, सांब भी उ ह क साथ चला गया।
मने अपने िशिवर म छदक को ठहराया। अपने सारिथ दा क को और दो-एक सेवक छोड़कर म सीधे उप ल य
क राज ासाद म आया। मेरा मु य उ े य था इसक जानकारी ा करना िक कौन-कौन आए ह; य िक मुझे
आज क नह , पांडव क आनेवाले कल क िचंता थी।
सा यिक तो मेर साथ ही आया था। उसक अित र कतवमा, अ र चाचा तथा दशाण क अनेक लोग पधार
थे। पांडव क िनकट संबंधी तो लगभग सभी आए थे—और वह भी अपनी सै य श क साथ।
पांचाल से धृ ु न और िशखंडी ब त सार उपहार लेकर ब त बड़ी सेना क साथ थे। इनक अित र अनेक
नरश थे। कई को तो म पहचानता भी नह था। उप ल य क देखने से ऐसा लगता था जैसे िकसी ब त बड़ यु
क तैयारी हो। इतने अ प समय क सूचना पर यह उप थित सचमुच गौरव क बात थी।
समारोह क भ यता और उप थित ने पांडव क यश को मिहमामंिडत कर िदया था। वे फले नह समा रह थे।
‘‘िज ह आना चािहए था, उनम से कोई आया ही नह ।’’ म बोला।
‘‘आप िकनक संबंध म कह रह ह?’’ भीम बोल पड़ा।
‘‘मेरा ता पय ह तनापुर से ह।’’ मने कहा।
‘‘न आएँ, न सही। उनक न आने से हमारा काम तो नह कगा!’’ भीम क स ता उ तता म बदल गई।
‘‘काम तो कभी िकसीक अभाव म नह कता; पर जानते हो, उ ह िवशेष प से अ यिधक स मान क साथ
बुलाने क िलए मने य कहा था?’’ मेर वर म तीखापन आया—‘‘कवल इसिलए िक हमार इस श - दशन
को देखकर उनका यह म दूर हो जाए िक इस बारह वष क वनवास और एक वष क अ ातवास क बाद भी
पांडव अकले नह ह।’’
िफर भीम कछ बोला नह । अ य पांडव भी चुप ही रह।
इसक बाद म एक प रचा रका को लेकर अंतःपुर क ओर चला। यहाँ ौपदी बड़ी सज-धजकर बैठी थी। य िप
सुभ ा ने भी ंगार िकया था, पर ौपदी क कछ बात ही और थी। मने भी ौपदी को ब त िदन बाद देखा था।
कित क सा य म उसका स दय और भी िनखर आया था। अब मुझे लगता ह िक सचमुच यह वही ौपदी ह,
िजसे देखकर जय थ पागल हो गया था। राजसी वेशभूषा म तो वह रित को भी ल त कर रही थी।
उसे देखते ही मेर मुख से िनकल पड़ा—‘‘आज सचमुच तुम राजरानी लग रही हो।’’
‘‘ या पहले राजरानी नह थी?’’ उसने हसते ए कहा, ‘‘म पहले भी राजरानी थी और आज भी —और बाद म
भी र गी।’’
‘‘पहले तो सुना ह िक तुम नौकरानी (सैर ी) थ ।’’ मने कहा।
इतना सुनकर वहाँ उप थत अ य याँ मुँह िछपाकर हसने लग ।
‘‘नौकरानी होकर भी म राजरानी थी और क चक क मार जाने क बाद सुदे णा ऐसी भयभीत हो गई थ िक उनपर
मेरा ही शासन चलता था।’’
‘‘पर तु ह आज तो ऐसा नह कहना चािहए था। वह तु हारी समिधन हो रही ह।’’ मने कहा और वह मुसकराती
ई मिहला मंडली म गजगािमनी-सी चली गई।
मने देखा, उप ल य ासाद का अंतःपुर भी आज मधुर संगीत से आ ािदत ह। अपरा म ही वैवािहक
काय म आरभ हो गया। सुदे णा भी अपने अंतःपुर क सिखय और प रचा रका क साथ खूब सजी-सँवरी
उ रा को लेकर ौपदी क पास आई। उ रा को भी मने उस समय पहली बार देखा था। बड़ी-बड़ी आँख वाली
वह गौरवण मुझे बड़ी आकषक लगी। िनरतर नृ य क अ यास ने उसक शरीर को अ यंत सुगिठत कर िदया था।
ौपदी क बगल म ही वह बैठाई गई। सुभ ा भी वह खड़ी थी। दोन ने उसे अिभम यु क िलए वीकार िकया।
इसक बाद महाराज िवराट क आगमन क सूचना थी। महाराज युिध र ने भी अपने यहाँ पधार राजा को
उनक अगवानी क िलए सस मान आगे िकया और सबसे आगे मेर िपताजी को रखा। उनक पीछ वे मुझे रखना
चाहते थे; पर मेरी कटनीित ने इसे वीकार करना नह चाहा। मने कहा िक इस थान क अिधकारी तो मेर भैया ही
ह—और उनका हाथ पकड़कर मने आगे िकया। उनक अह को बड़ी संतु िमली। वे परम स िदखे।
म चाहता था िक यिद इस मौक पर कौरव का ितिनिध व हो जाता, तब वे भी देख लेते िक दुय धन क गु
और िम यहाँ पांडव क अगुआई कर रह ह।
आज म उस संदभ को याद करता तो मुझे लगता ह िक म अपने भाई से भी राजनीित करने से नह चूकता;
य िक म वयं उस क चड़ म आकठ िनम न और िजसे छता , उसे क चड़ लगा ही देता ।
अब महाराज युिध र ने मेर थान क िचंता करते ए कहा, ‘‘आिखर आप?’’
‘‘आप लोग अपने-अपने थान हण कर।’’ मने कहा, ‘‘आनेवाल को पहचाननेवाला भी तो कोई होना चािहए।
मुझे उ ह क वागत क िलए छोड़ दीिजए।’’
महाराज िवराट क आने पर भ य वागत िकया गया। िववाह आरभ आ। ा ण क मं -पाठ, अ नहो क
सुगंध, ढोल, मृदंग व शंखनाद से वह उ सािहत एवं आनंिदत वातावरण और भी सुरिभत हो गया। मामा क सारी
औपचा रकता भैया ने िनबाही। म और छदक राजा-महाराजा क वागत-स कार म ही लगे रह।
मने देखा, सांब भैया क बगल म बैठा उस भीड़ म भी अकला था। न कोई उससे बात कर रहा था और न
िकसीसे वह।
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िववाह बड़ी धूमधाम से संप आ। ा ण को युिध र ने जी खोलकर दान िदया। मेर यहाँ से जो भी उपहार
आया था, वह सब दे डाला। अंत म और क उपहार म भी हाथ लगाया। यह उपहार एक ऐसे य ारा िदया
जा रहा था, िजसने तेरह वष तक स ा से दूर रहकर वनवासी और सेवक का जीवन िबताया था। िजसने देखा, वही
इस अितशय उदारता से चिकत था। य िप प रवार क लोग भी इतनी दूर तक नह जाना चाहते थे, िफर भी कोई
कछ नह बोला।
रात से ही िशिवर म कौरव और पांडव संबंध पर गंभीर चचा हो रही थी।
छदक ने बताया—‘‘आज ह तनापुर क अनुप थित लोग को अिधक खटक रही थी। लगभग सभी ने अपनी
िति या कौरव क िव य क ।’’
‘‘कोई ऐसा भी था, जो मौन ही रह गया?’’ मने पूछा।
मेरी म िवशेष प से भैया थे; पर ात आ िक उ ह भी यह अ छा नह लगा। उनका कहना था िक
आपसी संबंध को राजनीित से नह जोड़ना चािहए।
मने मन-ही-मन सोचा िक कह कौरव म भी ऐसी समझ होती तो आयाव क धरती भीतर-ही-भीतर सुलगने न
लगती।
मुझे कछ सोचता देखकर छदक ही बोला, ‘‘मुझे तो नह लगता िक कौरव पांडव को उनका रा य खुशी-खुशी
वापस कर दगे।’’
‘‘यह तुम सोचते हो न!’’
‘‘यहाँ पधार सभी राजे-महाराजे ऐसा ही सोचते ह। भले ही वे यहाँ आने क पूव कछ और सोचते रह ह ।’’ छदक
कहता गया—‘‘और यिद यु होना ही ह, तब य नह उसक तैयारी आज से ही क जाए!’’
म भी छदक क मत का था; पर म नह चाहता था िक संसार हमपर यु म अ सर होने का दोष मढ़; हम
यु ापराधी समझे जाएँ। यह बात मने छदक से भी कही।
‘‘पर यु नीित कहती ह िक सुर ा यव था करने से कह उ म ह, अ यािशत आ मण करना।’’
‘‘इस स य को वीकार करते ए भी हम आगे नह आना चािहए।’’ मने अपनी योजना बताते ए कहा, ‘‘आज
राजा क िबदाई ह। इसक पहले य नह उनक एक सभा बुलाई जाए और यु क बात उ ह क मुख से
कहलवाई जाए? इसक िलए महाराज युिध र को तैयार िकया जाए।’’
‘‘पर सबसे बड़ा संकट यह ह िक वे यु नह चाहगे।’’ छदक बोला।
‘‘चाहता तो म भी नह ।’’ म झुँझलाया—‘‘पर यिद यु थोपा गया तो हम या करगे?’’ अपनी योजना को ठोस
प देते ए मने कहा, ‘‘म पहले धमराज को राजी क गा िक वे उस सभा म कवल सुन और एक श द न बोल।
यिद वे बोलने क आव यकता समझ तो म उनक बगल म र गा ही। मेर कान म धीर से कह। म उनक ओर से
वह बात अपने ढग से कह दूँगा।’’
छदक को मेरा सुझाव ठीक लगा। म ातः ही उप ल य क राज ासाद म गया। जाते ही मने कहा, ‘‘मेरी इ छा
ह, आज म आप लोग क साथ ही जलपान क ।’’
ौपदी ने यं य म कहा, ‘‘मने वातायन से ही देख िलया था िक आप आ रह ह। तभी मने आकाश क ओर
देखा।’’
‘‘आ य ह िक तुम मेरी ओर न देखकर आकाश क ओर देख रही थ ।’’
‘‘आपको देखना या ह! आप तो मेरी म ही रहते ह।’’ उसने मुसकराते ए कहा, ‘‘म तो यह देख रही थी
िक आज सूय िकस िदशा म उिदत आ ह, जो आप िबना िकसी पूव सूचना क सवेर-सवेर चले आ रह ह।’’
उसक मु ा और कहने क ढग पर हम सभी हस पड़।
िफर उपाहार हण करते समय बात -ही-बात म मने अपनी योजना समझाई—‘‘आज राजा क िबदाई क पहले
हम आभार य करना चािहए और उनक िवचार भी सुनने चािहए।’’
‘‘इसम तो बड़ा समय लग सकता ह।’’ युिध र ने कहा, ‘‘ य िक आज क थित म जो िवचार य करना
चाहगे, हम उन सबको सुनना पड़गा। िकसीको रोकना तो सरासर अभ ता होगी।’’
‘‘यह तो ह ही।’’ मने युिध र का समथन िकया और ताव रखा—‘‘पहले आभार गो ी हो जाए, िफर
आमंि त लोग अपने िवचार रख।’’
मेरी बात मान ली गई। अपरा आभार गो ी का आयोजन रखा गया। उसी समय महामा य को उप ल य क
ासाद ांगण म सभी राजा को सादर आमंि त करने का आदेश िदया गया।
मने युिध र से कहा, ‘‘मेरा एक अनुरोध और ह।’’
‘‘वह या?’’
‘‘यही िक जब महाराजगण अपने िवचार य कर तो आप उ ह गंभीरता से सुन, पर अपनी कोई िति या य
न कर। यिद आव यक ही हो तो मेर कान म धीर से कह। म अपने ढग से लोग से कह दूँगा।’’
‘‘आिखर मुझपर इतना बंधन य ?’’ युिध र हसते ए बोले।
‘‘बंधन नह , कवल यह अनुरोध ह; य िक ऐसा करना आपक ग रमा क अनुकल होगा। अब आप वनवासी या
िकसीक चाकर युिध र नह ह। आप राजसूय य क कता स ा युिध र ह।’’
धमराज ने मेरी बात मान ली।
म एक हर िदन चढ़ते-चढ़ते वहाँ से चल पड़ा। अजुन मेर िशिवर तक मुझे छोड़ने आया। वह बड़ा स था
िक मने सभा म न बोलने का भैया से वचन ले िलया ह।
अपरा परपरागत वेशभूषा म सभी राजे-महाराजे उप थत होने लगे। सभा थल महाराज िवराट क ग रमा क
अनुकल सजाया गया था। संपूण ांगण म एक सुरिभत भ यता थी। य ही ितहारी ने सभा आरभ क घोषणा क ,
शंख- विन ई और ा ण ने व तवाचन आरभ िकया।
िफर इसक बाद मा यापण का काय म था। सबसे पहले महाराज युिध र ने मेर िपताजी को माला पहनाई।
शायद वे ही इस सभा म सबसे वयोवृ थे। िफर पांचालराज ुपद को और िफर महाराज िवराट को। इसक बाद वे
माला लेकर मेरी ओर बढ़। मने तुरत भैया क ओर संकत िकया। भैया को माला पहनाने क बाद वे मेर गले म
माला डालना चाहते थे। मने उठकर उनक हाथ से माला लेकर स मानपूवक उसे माथे से लगाया।
इस बीच अ य पांडव बड़ी िवन ता से अ य लोग को मालाएँ पहनाने लगे थे। पता नह य , रह-रहकर मेरी
सांब क ओर ही जा रही थी। मने देखा, युिध र का पु ितिवं य उसे माला पहना रहा ह।
िफर अपने थान पर युिध र खड़ ए। उ ह ने आभार दिशत करते ए एक संि भाषण िदया। वह मेरी
मृित क अनुसार इस कार था—
‘‘स मा य शासना य ो! हम आपका सादर अिभवादन करते ह। (इसक बाद उ ह ने चार ओर घूमकर सबको
करब णाम िकया।) हमारा सौभा य ह िक हमारी अ प सूचना पर आपने सदल-बल पधारने क कपा क । हम
तो वनवासी, महाराज िवराट क चाकर, अिकचन ह। इस अिकचन पर आपक ऐसी कपा ने मुझे िफर राजसूय
य वाले युिध र क याद िदला दी ह। हम ध य ए।
‘‘जब वे सुख क िदन नह रह तो यह तेरह वष लंबी दुःख क रात भी नह रही। अब न रात ह और न िदन, कवल
ह भात का धुँधलका। सूय उगने वाला ह। वह भी आपक कपा से ही उगेगा; पर हमारी िज ासा मा यह ह िक
हमारा अ त सूय ही आज उग रहा ह या कोई दूसरा सूय। जो भी उगेगा, वह आपक कपा, सहयोग और आशीवाद
से ही उगेगा। मने हमेशा भु क कपा और आपक शुभाशंसा पर िव ास िकया। आज भी कर रहा और भिव य
म भी क गा। भगवा सबका क याण कर और हम स ुि द।’’
भाषण समा होते ही अ ुत विन ई। ‘साधु-साधु’ क वर से सभामंडप गूँज उठा।
मेरी बगल म बैठ छदक ने धीर से कहा, ‘‘आपका आधा काम तो धमराजजी ने ही पूरा कर िदया।’’
इसक बाद उ ोषक क आवाज सुनाई दी—‘‘अब पांडव वग आपका अिभवादन चाहगे। इसक िलए म सबसे
पहले ारकाधीश से आ ह करता िक वे मंच पर पधार और अपनी ओर से तथा अपने पू य िपताजी क ओर से
आशीवाद द।’’
िपता का नाम लेकर तो उ ोषक ने मुझे पहले बुलाए जाने का औिच य दान िकया, अ यथा वहाँ ब त से
लोग थे, जो मुझसे वृ थे।
मने अपने भाषण का आरभ ही िपताजी क संदभ से िकया—‘‘िपताजी इस सार संग से बड़ खुश ह। उनका
मानना ह िक अिभम यु और उ रा का यह िववाह पांडव क तप या क थम फल ुित ह। यह उनक तेरह साल
क काली राि क बाद इस बात का ोतक ह िक अब उनक वैभव का सूय दय होने वाला ह। िपताजी ने वनवास
और अ ातवास सफलतापूवक समा करने क िलए पांडव को बधाई दी ह। वर-वधू क दीघ और मंगलमय
जीवन क शुभ कामना क ह और आशा य क ह िक भगवा पांडव को आधा रा य देने क िलए लोग को
स ुि देगा।’’
‘‘पर या ऐसा हो सकता ह?’’ मेर भाषण क बीच म यह आवाज िकधर से आई, मुझे पता नह ; पर इसने मेर
भाषण को अपने अभी माग पर ला िदया।
म बोला, ‘‘यह संदेह आपक ही मन म नह ह, हमार मन म भी ह; य िक स मानपूवक आमंि त िकए जाने पर
भी ह तनापुर से िकसीका न आना इस संदेह क पु करता ह।
‘‘हमार पास संदेह का कवल यही आधार नह ह। आरभ से ही कौरव क पांडव का रा य हड़पने क रही
ह।’’ इसी म म मने अनेक घटनाएँ िगना —‘‘पर धमिन पांडव ने सदा उनका भला चाहा।’’ इसी िसलिसले
म मने का यक वन म गंधव से यु तक क चचा क और यह भी कहा, ‘‘भगवा कर, यह सारी घटना अतीत
क हो जाए। अब हम एक उ वल और िनमल भिव य क ओर बढ़।
‘‘यह मेरी आकां ा ह; पर मनु य क सारी आकां ाएँ पूरी कहाँ होती ह! यिद होने लग तो िफर कोई वग क
चाह य कर?’’ मने िफर अपने भाषण का ख बदला—‘‘िकतु म अब भी ब त िनराश नह । इस िववाह म
ह तनापुर क अनुप थित से ब त सोचना नह चािहए। कभी-कभी प र थितयाँ भी वह करने को िववश करती ह,
िज ह हम करना नह चाहते। इसीिलए हमम से िकसीको ह तनापुर जाकर वहाँ क वा तिवक थित तथा कौरव
क मनः थित का पता लगाना चािहए और संभावनाएँ ढढ़नी चािहए िक दोन का और रा का िहत िकसम ह!’’
इसक बाद म शुभ कामना और आभार य करते ए बैठ गया।
लोग ने मेर ताव का समथन िकया। लोग ने यह भी अनुभव िकया िक मने आशीवाद गो ी को िवचार
गो ी म बदल िदया। सभा क स ता क ऊपर एक गंभीर आ तरण चढ़ गया।
इसक बाद भैया बोलने क िलए खड़ ए। उ ह ने उन बात का समथन िकया, जो उनक िवचार क अनुकल थ ।
उ ह ने कहा, ‘‘जैसा क हया ने कहा, हम अतीत को भूलकर भिव य और वतमान क ओर यान देना चािहए। इस
समय इस बात क चचा करने से कोई लाभ नह होगा िक िकसने िकसक ित िकतना अ याय िकया। यिद हम
उनक िव ेषण म उलझ तो शायद ही िकसी िन कष पर प च पाएँ। दुय धन ने महाराज युिध र को यिद
ूत ड़ा क िलए आमंि त िकया तो इसम कौन सी बुराई थी? राजा-महाराजा का यह खेल ह और महाराज
युिध र को ि य भी। युिध रजी ने उस िनमं ण को वीकार कर राजक य परपरा का िन ा और धम क साथ
िनवाह िकया ह। ऐसी थित म यिद दुय धन ने अपनी ओर से शकिन को खेलने क िलए कहा, तो मेरी म
इसम कोई अनैितक बात नह थी। युिध र महाराज भी अपनी ओर से िकसीको खेलने का ताव कर सकते थे;
िकतु उ ह ने ऐसा नह िकया। युिध र ने वयं भी शकिन क खेलने का िवरोध नह िकया। बात प ह िक एक
ओर से यिद परपरा का िनवाह िकया गया तो दूसरी ओर से धम और परपरा दोन का। इस से मेर सोच क
अनुसार महाराज युिध र दुय धन से महा ह। आयाव म ऐसा शायद ही कोई य होगा, जो उनक ईमानदारी
और धमिन ता पर संदेह कर।’’
भैया का यह कटनीित भाषण उनक कित क अनुकल नह था। इस समय वे अपने सामा य सोच से ब त
ऊपर िदखाई िदए। वे बोलते गए—‘‘ ीक ण ने जो कछ कहा, उसपर हम िवचार करना चािहए। उनका कहना
धमसिहत और प पातरिहत ह। पांडव भी आधा रा य ही माँगते ह, िजसक वे व तुतः अिधकारी ह। हम सबक
मंशा ह िक यह उ ह िमलना चािहए। हम पूरा िव ास ह िक कौरव ऐसा करगे। िबना उनका प सुने हम उनक
नीयत पर अिव ास नह करना चािहए। क हया क तरह मेरा भी िवचार यही ह िक हम एक धमिन और
बुि मान दूत ह तनापुर भेजना चािहए। उस दूत को उस जनसभा म अपना प रखना चािहए, िजसम पुरवासी
और धृतरा पु क अित र िपतामह, आचाय और महामा य िवदुर भी ह। िफर हम िकसी िन कष पर प चना
चािहए।’’
भैया क भाषण का वैसा वागत नह आ जैसी वे अपे ा करते थे।
सभा क बीच से ही प थर क तरह एक आवाज फक गई—‘‘अभी भी हम कौरव क मंशा जानने क िलए
परशान ह!’’
लोग यह पता लगा ही रह थे िक यह आवाज िकधर से आई िक सा यिक एकदम तमतमाता आ उठ खड़ा
आ। मंच पर जाकर भैया का उसने खुला िवरोध िकया—‘‘अब भी यिद लोग को यह पता नह चला िक कौरव
या चाहते ह तो म बताता —वे सीधे-सीधे पांडव का रा य हड़पना चाहते ह। उ ह वे िभखारी बना देना चाहते
ह। एक तरह से तो उ ह ने बना ही िदया था। वनवासी होकर भी यह पांडव क तप या थी िक उ ह ने कौरव क
हर ष ं का सामना िकया।’’ इस म म उसने दुवासा आिद सभी कांड क चचा क और बड़ गव से कहा,
‘‘िफर भी पांडव ने अपनी स नता नह छोड़ी और गंधव से यु कर दुय धन एवं कण को बचाया। उस प रवार
क नाक रखी। और कौरव ने या िकया, यह िकसीसे िछपा नह ह।’’
सा यिक इतने ोध म था िक वह अपने भाषण का तारत य भी नह बैठा पा रहा था। उसने िफर जुए क चचा
क —‘‘वह मा राजा क बीच एक जुए का खेल नह था। वह भयानक ष ं था। वह कपटयु था, जो
शकिन क पास से खेला गया। इसे पूरा आयाव जानता ह। इसक स यता यह सभा भी वीकार करगी।’’
इतना सुनते ही ब त से लोग खड़ हो गए और बोलने लगे—‘‘यह स य ह! यह स य ह!’’
मने भैया क ओर देखा, वे कछ अपमान अनुभव कर रह थे। वे अपनी मंच से हटाकर पद ाण से धरती
पर कछ रखाएँ बनाते िदखाई िदए।
सा यिक बोलता चला जा रहा था और ला ागृह आिद ष ं क चचा कर रहा था। ‘साधु-साधु’ क आवाज
और करतल विन से िमले ोता क समथन से उसका आवेश भी बढ़ता जा रहा था।
उसने आिद से अंत तक पांडव क ित िकए गए ष ं क चचा क । िफर बड़ िव ास से बोला, ‘‘पांडव
अपनी अ नपरी ा म हर बार खर उतर ह। इस बार भी उनक तप या से िनखार आया ह। अब वे अपने पैतृक
रा य क पूर अिधकारी ह। उ ह उनका रा य िमलना चािहए। यिद कौरव ने कोई और चाल चली और पांडव को
उनका अिधकार नह िमला तो महायु होगा। र क स रता बहगी—और उसम कौरव क तैरते नरमुंड िदखाई
दगे। हम वह दुबल न समझ। च पािण ीक ण हमार साथ ह। गांडीवधारी अजुन हमार पास ह। दुधष भीम हमार
पास ह। धनुधर नकल, सहदेव, वीरवर िवराट तथा ुपद और धृ ु न हमार साथ ह। या कौरव इनका वेग सह
सकगे?’’
म नह चाहता था िक सा यिक इस सीमा तक जाए। उसक दय क आवाज बड़ तीखे ढग से िनकल रही थी।
उसम कटनीित नह थी। उसक य व क सहजता का उ माद था। उसने सावजिनक प से मेरा भी नाम ले
िलया; जबिक अब भी म अपनी तट थता बनाए रखना चाहता था। िफर वह सीधे अगली पीढ़ी पर उतर आया।
उसने अिभम यु, ु न और सांब का नाम लेते ए कहा, ‘‘हमार उभरते इन यो ा का सामना करनेवाला
कौरव म ह कोई?’’
उसक से पांडव को इस समय दुबल समझनेवाला य या तो अ ानी ह या मो माद से त ह।
उसने अंत म यह भी कहा, ‘‘सारी प र थितय को देखने क बाद म तो इसी िन कष पर प चा । िफर भी यहाँ
पर अनेक वयोवृ और अनुभवी लोग बैठ ह। उनक सलाह का अनुसरण करना हमारा कत य ह। वे जो भी
आदेश दगे, हम िशरोधाय होगा।’’
इसक बाद पांचालराज ुपद बोलने क िलए खड़ ए। उनक खड़ होते ही सभा क उ ेजना का िसंधु एकदम
थम गया। एक तो उनक वृ ता, दूसर पांचाल जैसे रा य का व वािधकार इस गंभीरता म सहायक बना।
वे वभाव से िमतभाषी थे। उ ह ने प कहा, ‘‘बलदेवजी क बात मेरी बुि म ब त नह धँसी; य िक लगभग
यह बात िन त हो चुक ह िक दुय धन सरलता से पांडव को रा य नह लौटाएगा। यिद ह तनापुर यहाँ उप थत
होता तो कछ आशा बँधती। ारका से नया र ता जोड़ने क बाद भी वहाँ से कोई नह आया। इसपर भी बलदेवजी
को िवचार करना चािहए था। शायद उनक स नता इस ओर देख नह पाई।
‘‘धृतरा अंधे तो ह ही, पु - ेम ने उनक भीतर क आँख भी फोड़ दी ह। वे वही करगे, जो दुय धन चाहगा—
और दुय धन वही करगा, जो शकिन एवं कण चाहगे। शकिन ष ं म अ णी ह और कण अ ुत यो ा ह। वह
कौरव से उपकत ह और पांडव से घोर अपमािनत। वह िकसी कार भी उन लोग से न कभी अलग हो सकता ह
और न उनक इ छा क िव सोच सकता ह।
‘‘रह गए िपतामह, आचायगण और िवदुरजी। िपतामह य िप यु नह चाहते, िफर भी वे हमेशा कौरव क ओर
ढलकते रह ह। आगे भी ढलकगे। उनक िववशता या ह, यह तो वे ही जान। और आचायगण? वे बेचार तो
चाकर ह। आचाय व जब चाकर हो जाता ह तब उसका ान पंगु हो जाता ह और िनणय-अ मता खो जाती ह।
उन आचाय से मौिखक आशीवाद क िसवा और कोई आशा नह क जा सकती। हाँ, िवदुरजी से हम कछ उ मीद
रख सकते ह। वे महा नीित और धमिन ह; पर उनक सामने भी एक ल मण रखा ह—और वह ह उनक
महामा य पद क ।’’
‘‘ या वे इस अ याय क िवरोध म अपना महामा य पद नह छोड़ सकते?’’ यह भी ोता म से उठी आवाज
थी।
‘‘पर उनक पद छोड़ने से हमारा या लाभ होगा?’’ तुरत महाराज ुपद ने ोता पर ही एक न ठ क िदया।
स ाटा छा गया। उ ह ने िफर अपने बोलने का म पकड़ िलया—‘‘वर वे पद पर रहते ए हमारा लाभ अिधक
कर सकते ह। पद और स ािवहीन महामा य नख-दंतहीन वृ िसंह हो जाता ह।’’ िफर वे अपने भाषण क मु य
धारा म आए—‘‘म बलदेवजी क इस बात का भी समथक नह िक हम कौरव क सम कोई िवन ता िदखानी
चािहए। यह तो ठीक ह िक हम िश ता नह छोड़नी चािहए; पर हमारी िवन ता को वे श हीनता समझगे। यह
नीित हमार िलए घातक होगी। हम तो सा यिक क बात अ छी लगी िक हम कोई िभखारी नह ह। हम िभ ा नह
माँगते वर अपना अिधकार माँगते ह।’’
अपना भाषण समा करते ए उ ह ने कहा, ‘‘हम दो काम करने चािहए। एक तो हम एक ऐसा सुयो य दूत
ह तनापुर भेजना चािहए, जो हमारी सभी थितय को प करते ए हमारी माँग ढ़ता से रख सक। इससे
कौरव को भी अपना प रखने का अवसर िमलेगा।
‘‘यह पहला काय तो नीितगत ह, दूसरा उससे मह वपूण और यावहा रक। हम यह मानकर चलना चािहए िक
यु िन त ह। इसक िलए पांडव को अपने िम क पास दूत भेजने चािहए। श य, धृ कतु, जय सेन और
ककयराज क पास पांडव का यु -िनमं ण गु प से जाना चािहए। शी ता अिनवाय ह। इस संदभ म कौरव
कछ कर, उसक पहले ही हम इन रा य क पास दूत क मा यम से प च जाना चािहए; य िक यिद ये कौरव को
वचन दे बैठगे, तब हमारा प चना बेकार हो जाएगा।’’
सा यिक और ुपद क भाषण अपे ा से अिधक लंबे थे; पर उनम उनक मंशा प य ई थी। उनक
िवचार क साथ ोता क भी सहमित का पता चला। दूसरी ओर समय भी अपनी गित से काफ आगे बढ़ गया।
सं या डबने को आई। अब मने पुनः ह त ेप िकया; य िक मने देखा िक महाराज िवराट कछ उलझन का
अनुभव कर रह ह। उनक आकित पर बनती-िबगड़ती रखा से प लगा िक वे इस िववाद को शी समा
करना चाहते ह।
मेर खड़ होते ही िफर लोग शांत हो गए। मने पहले महाराज ुपद क खूब शंसा क और कहा, ‘‘वे हमम
वयोवृ और अनुभवी ह। उ ह ने बड़ उपयोगी और यावहा रक सुझाव िदए ह। इससे िन त ही महाराज
युिध र का काय िस होगा। उ ह ने एक ओर शांितदूत ह तनापुर भेजने का ताव िकया और दूसरी ओर गु
प से यु क तैयारी क भी बात कही। इस कार शांित और यु —दोन क ार उ ह ने खुले रखे ह। अब
ह तनापुर पर ह िक वह इन दोन म से िकसे पसंद करता ह!’’
‘‘आप या पसंद करते ह?’’ ोता म से िकसीने पूछा।
मने तुरत उ र िदया—‘‘जो पसंद करता , वही तो कह रहा ।’’
लोग हस पड़।
म कहता गया—‘‘महाराज ुपद ने बड़ी ऊची बात कही ह। हम उसपर गंभीरता से यान देना चािहए। िजस रा य
को इतने छल और कपट से कौरव ने िलया ह, उ ह पांडव को पुनः लौटाने क िलए नह । हम इसक िलए भी
सावधान रहना चािहए। साथ ही, हम महाराज धृतरा क पास भी शांितदूत भेजना चािहए; जो धम, परपरा और
नीित क बात कहकर उनका दय पु - ेम से ख च सक। ऐसा नह ह िक जहाँ िपतामह जैसे अनुभवी नीित ह ,
जहाँ िवदुर जैसे महामा य ह , ोण और कप जैसे आचाय ह वहाँ हमारी बात न सुनी जाए।’’
‘‘तो अब तक य नह सुनी गई?’’ यह ह त ेप भी ोता क ओर से ही िकया गया।
‘‘कोई आव यक नह िक हर बात का उ र िदया ही जाए।’’ मने अपना भाषण चालू रखा—‘‘हम ब त आशा तो
नह ह; िफर भी आशा क दो-एक िचनगारी अव य ह, जो शायद धधक उठ और सम या का कोई शांितपूण हल
िनकल आए। इसिलए हम ह तनापुर दूत भेजने क ताव का समथन करते ह; पर यह काय िकसी साधारण
य से संभव नह । इसक िलए य क यो यता और अनुभव क गहरी आव यकता ह।’’
‘‘इसक िलए आपसे उपयु और कौन हो सकता ह?’’ दशाणराज ने कहा।
मने मुसकराकर उनका समथन िकया और बोला, ‘‘आप या उपयु नह ह?’’
इसपर िफर हसी ई।
‘‘म तो समझता िक इस सभा म िजतने लोग उप थत ह, वे सभी इस दौ य कम क िलए उपयु ह। िफर भी,
मेरा ताव ह िक दूत क संबंध म िनणय लेने क िलए उप थत कछ व र लोग क सिमित बना दी जाए, जो
आज ही बैठक करक अपना िनणय महाराज युिध र को बता दे।’’
मेरा ताव सवस मित से वीकार आ और महाराज िवराट, ुपद, सा यिक, भैया एवं मुझे लोग ने चुन िदया।
हम लोग ने आपस म बात करक यह िन य िकया िक आज राि का भोजन मेर िशिवर म हो और वह पर दूत
भेजने का िनणय ले िलया जाए।
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भोज क बाद म सीधे राजभवन प चा। मुझे पांडव प रवार से िमलना था। म पु ष से तो िमल ही चुका था।
सीधे अंतःपुर म चला गया। पहले कती बुआ िमल । मने उनक चरण छए।
आशीवाद देते ए बुआजी बोल , ‘‘अब तो, क हया, तु हारा ही भरोसा ह।’’ उ ह ने अ यंत िनरीह भाव से
कहा। इतनी िनराशा तो उनक आवाज म उस समय भी नह थी, जब पांडव अ ातवास म थे।
मने उ ह ढाढ़स िदलाते ए कहा, ‘‘सब भगवा का भरोसा ह, बुआजी!’’
‘‘म तो तु ह को भगवा समझती ।’’ वे नतम तक होते ए बोल ।
‘‘यह म आपने भी पाल िलया ह, बुआजी!’’ मने हसते ए कहा, ‘‘इस मृ युलोक म कोई भगवा नह रहता।
भगवा भी यहाँ आकर मनु य हो जाता ह।’’
म अपनी सधी-सधाई मायावी हसी हसते ए सीधे ौपदी क क म आया।
उसने मुझे देखते ही उलाहना िदया—‘‘अब आपको मुझसे िमलने क सुिध आई ह!’’
‘‘सुिध तो तु हारी हमेशा रहती ह। यहाँ आने क बाद म राजरानी ौपदी से िमला भी था। उससे बात भी क थ ।
आज िफर तुमसे िमलने आया ; य िक कल ही यहाँ से थान करने का िवचार ह।’’
‘‘बड़ी कपा क आपने।’’ उसने ठने क मु ा बनाई। िफर छटते ही कहा, ‘‘म आज तक तु ह समझ नह
पाई।’’
‘‘ब त से लोग मुझे समझ नह पाते, तो इसम मेरा या दोष?’’
‘‘तुम मुझे बहकाओ मत और न म अब तु हार बहकावे म आने वाली । सीधे-सीधे बताओ, तुम चाहते या हो
—यु या शांित?’’
‘‘िजसम तु हारा िहत हो।’’ म मुसकराते ए ही बोलता रहा—‘‘लेिकन एक बात सवमा य ह, ौपदी, िक शांित से
सबका भला होता ह और यु से िकसीका नह ।’’
‘‘तो या ऐसा कौरव भी सोचते ह?’’
‘‘उ ह सोचना चािहए। यिद नह सोचते ह तो भोगगे।’’
‘‘ऐसी थित म तु हार उस भाषण का या होगा, िजसे तुमने उस सभा म तुत िकया था?’’ इसपर उसने मेर
भाषण को उ ृत करते ए पूछा, ‘‘तु हारी आशा क यह िचनगारी या धधक सकती ह?’’
‘‘न भी धधक, िफर भी हम धधकाने क कोिशश तो करनी ही चािहए। नीित ऐसा ही कहती ह।’’ मने बड़ िव ास
क साथ कहा, ‘‘जो कछ हो रहा ह, उसे देखती जाओ, ौपदी! िनयित जो भी करगी, उसे तो िशरोधाय करना ही
पड़गा।’’
अंतःपुर से िनकलकर म सीधे अपने िशिवर म आया। लगभग अँधेरा हो चला था। िशिवर क ार पर मशाल जलने
लगी थ । कछ दूर चलने क बाद मुझे लगा िक छदक मेरी ओर आ रहा ह।
‘‘म तो आपको बुलाने ही जा रहा था।’’ उसने कहा, ‘‘ य िक भैया और सा यिक आ चुक ह।’’
‘‘तो इसम ज दी या थी? कछ देर तो उ ह बात करने देते।’’
‘‘वे बात कर चुक ह और अब एकदम चुप भी हो चुक ह।’’
‘‘एकदम चुप!’’
‘‘जी हाँ, शायद अब वे एक-दूसर से बात करना भी नह चाहते।’’ छदक ने मुसकराते ए कहा।
म सारी थित समझ गया। यह तो प ही था िक कौरव-पांडव संदभ म दोन क ख एक-दूसर क िवरोधी
ह। उ ह म टकराहट हो गई होगी। इससे आव यक हो गया ह िक म अपनी गित थोड़ी बढ़ाऊ।
म अपने िशिवर क ओर लपका चला जा रहा था िक छदक ने मेरी बा ओर दूर देखते ए कहा, ‘‘लगता ह,
ुपद महाराज अपने िशिवर से िनकल रह ह।’’
मेरी भी उधर गई। मशाल क काश म प लगा िक धृ ु न से वे मं णा कर रह ह।
वे मेर यहाँ ही आ रह थे। तब य न आगे बढ़कर उनक अगवानी क जाए। अब छदक और म—दोन उधर
मुड़ गए। मुझे आता देखकर धृ ु न अपने िशिवर म लौट गया और ुपद अपने दो प रचर क साथ आगे बढ़।
जब हम लोग ने िशिवर म वेश िकया तब भी सा यिक और भैया मौन बैठ ही िदखाई िदए। हम लोग क
प चने पर उन दोन का तनाव ढीला होना चािहए था; पर कोई िवशेष अंतर नह आया।
मने उनका मौन तोड़ने क िलए मुसकराते ए कहा, ‘‘आप सब यहाँ चुप बैठने क िलए तो पधार नह ह।’’
‘‘तो या क ? मार क ?’’
मने ही नह , ुपद ने भी समझ िलया िक भैया आवेश म ह। उ ह ने मुसकराते ए कहा, ‘‘मार मत क िजए, पर
मार करने क तैयारी क िजए। और अभी तो हम मार टालने क योजना क िलए यहाँ आए ह। यिद हमने यु क
बात मान ली होती तो िफर दूत भेजने का अिभ ाय या था? दूत भेजने का ताव तो मु यतः ारका का ही ह।
आप दोन भाइय ने दूत भेजने का ताव िकया ह।’’
बात चल ही रही थ िक तब तक महाराज िवराट भी आ गए। अब मु य िवषय पर वा ा आरभ ई। िकसे दूत
बनाकर ह तनापुर भेजा जाए, इसपर सबसे पहले ुपदजी ने ही अपनी राय रखी—‘‘इस काय क िलए मुझे ऐसा
य चुनना चािहए, िजसक मन म पूरा िव ास हो िक मामला शांितपूण ढग से ही हल हो जाएगा और पांडव
एवं कौरव क बीच यु क कोई संभावना ही नह पैदा होगी। वही हमारा स ा शांितदूत होगा।’’ इतना कहकर
उ ह ने भैया क ओर देखा और बोले, ‘‘इस से सबसे उपयु य बलरामजी ह। यिद वे हमारी ाथना
वीकार कर कौरव को समझाने क िलए जाने क कपा कर तो हमारा भी सौभा य होगा और पांडव का काय भी
बनेगा।’’
अपना नाम सुनते ही भैया एकदम भड़क उठ—‘‘मुझे इस बीच म मत डािलए।’’
‘‘बीच म तो आप उसी समय पड़ गए, िजस समय आपने सभा म िवचार रखे।’’ महाराज ुपद ने हसते ए कहा।
‘‘भाई, हम अपने संबंध िबगाड़ना नह चाहते। हमार र ते दोन से अ छ ह।’’
‘‘इसीिलए तो आप हमार इस काय क िलए सबसे उपयु य ह।’’
अब भैया बुर फसे। उनक उलझन भी एक झुँझलाहट म कट ई—‘‘देिखए, एक बात साफ ह। म िकसी झंझट
म नह पड़ना चाहता। आप कह तो म यहाँ बैठ या यहाँ से उठकर चला जाऊ।’’
‘‘नह -नह , आप बैिठए।’’ अब महाराज िवराट ने ह त ेप िकया—‘‘यिद आप नह जाना चाहते तो कोई आपको
बला नह भेजेगा।’’
िफर अनेक नाम पर िवचार आ। यहाँ तक िक ु न और धृ ु न तक का नाम िलया गया। भैया तो मौन ही
रह। गंभीर िवचार-मंथन क बाद हम इस िन कष पर प चे िक ऐसा य भेजा जाए, िजसका हम लोग क
प रवार से कोई संबंध न हो। जो सही अथ म तट थ हो और तट थ मालूम पड़।
‘‘तब हम अपने पुरोधा को भेज, तो कसा हो?’’ ुपद ने पूछा।
‘‘अित उ म।’’ सबने समवेत वर म उनका समथन िकया।
‘‘उनक गुण क अित र एक बात और ह िक वे ा ण भी ह।’’
‘‘ या दूत को ा ण होना अिनवाय ह?’’ मौन बैठ भैया अचानक बोल उठ।
‘‘आव यक तो नह ह।’’ ुपद ने बड़ी गंभीरता से कहा, ‘‘जैसीिक गु चर ने मुझे सूचना दी ह िक आजकल
ह तनापुर क मानिसकता बड़ी िविच ह। वहाँ शा ता और स ालोलुपता, नीित और अनीित, सदाशयता और
नीचता तथा दया और रता समानांतर पलते ह। इस समय तो स ालोलुपता, नीचता और रता का ही पलड़ा
भारी ह। ऐसी थित म हमारा दूत ऐसे ही य को होना चािहए, जो पूरी तरह अव य हो।’’
हम लोग चुप ही थे। ुपद बड़ी गंभीरता से कह रह थे—‘‘इधर ह तनापुर म स ा क िनरकशता चरम सीमा पर
ह। जहाँ एक श द भी कोई कौरव क िव कहता ह वहाँ उसक ह या कर दी जाती ह। हो सकता ह, दूत को
भी कौरव का िवरोध करना पड़।’’ िफर उ ह ने मुसकराते ए कहा, ‘‘य तो दूत वयं अव य होता ह—और यिद
वह ा ण भी ह तो उसक अव यता दोहरी हो जाती ह।’’
‘‘आपक इस सतकता क िलए हम सब ध यवाद देते ह।’’ मने हसते ए कहा और मेरी हसी सबक हसी बन
गई।
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नौ
जब हम उप ल य से िबदा होने लगे और नगर क मु य ार पर आए तब अचानक मेर म त क म एक बात
आई। मने उसक िलए महाराज को सावधान करना अित आव यक समझा। य िप हमारी सेना पहले जा चुक थी।
कछ सैिनक, महामा य, भैया और छदक मेर ही साथ थे; पर म इनम से िकसीको भी लेकर महाराज िवराट से
िमलना नह चाहता था।
मने कहा, ‘‘आप कछ ण तक िव ाम करने क कपा कर, म अभी आता । महाराज से एक अित आव यक
बात कहने को रह गई ह।’’
‘‘ याण करक कना नह चािहए।’’ भैया बोले।
‘‘अभी हमारा याण आरभ कहाँ आ! अभी तो हम नगर ार क भीतर ह।’’ मने मुसकराते ए दा क को तुरत
रथ बढ़ाने का संकत िकया।
चलते-चलते भैया क आवाज सुनाई पड़ी—‘‘ऐसा च य मने नह देखा।’’
म जब महाराज िवराट क पास प चा तो वहाँ ुपद बैठ थे। मने मन-ही-मन सोचा िक यह बड़ा सुखद संयोग
ह। मुझे देखते ही दोन य खड़ हो गए।
मने कहा, ‘‘य तो म इस या ा का अंितम णाम करने चला आया ; पर आते-आते मेर म त क म एक बात
और उभर आई।’’ मने बताया—‘‘जो कछ िनणय आ, उसे आप उप ल य तक ही सीिमत न समझ। उसक गंध
ह तनापुर प च रही होगी। हमने लगभग एक िदन िवचार-िवमश म ही खच कर िदया; पर वह भी आव यक ही
था। अब पांडव को ुतगामी दूत तुरत भेजने चािहए; य िक दुय धन समाचार िमलते ही सि य हो जाएगा। यह
मानकर चिलए िक यु अिनवाय ह। हमारा शांितदूत तो कवल ऐसी संभावना क खोज म जा रहा ह, िजससे हम
यु न करना पड़।’’
मेरी सलाह से ुपद बड़ स ए; य िक वे भी इसी मत क थे और इसी िबंदु पर िवराट को सहमत करने
सवेर-सवेर पधार थे।
पर िवराट चुप थे। उनक मौन क गंभीरता यु क िवभीिषका का अनुमान लगा रही थी। उनक प िवचार थे
िक यिद िबना यु ए कछ हो जाता तो उ म होता। वे िकसी भी शत पर समझौता चाहते थे; जबिक ुपद का
कहना था िक शत बराबरी क और स मानजनक होनी चािहए। मेर वहाँ प चने क पहले दोन म यह तकयु चल
ही रहा था।
मने अपनी बात प करते ए कहा, ‘‘कोई भी भलामानुष यु नह चाहता। हमारा भी पहला य न यु न
होने देने का ही होना चािहए। इसीिलए हम ह तनापुर शांितदूत भेज रह ह, यु दूत नह । इसपर भी यिद सार य न
क बावजूद पांडव को उनका पावना नह िमलता तो िफर हमार पास यु क िसवा और चारा या ह?’’
मेरी बात सुनकर िवराट गंभीर हो गए।
मेर पास समय नह था। म सोच रहा था िक भैया कड़बुड़ा रह ह गे। मने संि प से अपनी बात कही
—‘‘आप लोग को दूत क हाथ एक प भी भेजना चािहए। वह प आपक ओर से हो या महाराज पांचाल क
ओर से। उसम सारी प र थित का उ ेख होना चािहए और प िलखना चािहए िक पांडव यु नह चाहते वर
अपना उिचत अिधकार चाहते ह। इसक िलए वे हर शांित य न कर रह ह। इसम यिद उ ह सफलता नह िमली तो
हमपर इस लादे गए यु म हम आपक सहयोग क सादर आकां ी ह।’’
इतना सुनते ही ुपद िखलिखला पड़। उ ह ने कहा, ‘‘आपने तो हम दोन को एक िबंदु पर लाकर खड़ा कर
िदया।’’
म मुसकराते ए उ ह णाम कर चल पड़ा।
रथ क िनकट प चते ही भैया बोले, ‘‘यिद तुम कछ ण और न आते तो म तो चला जाता।’’
‘‘मुझे छोड़कर चले जाते!’’ मने मुसकराते ए ही कहा।
‘‘ य , तुम मुझको छोड़कर नह चले गए थे!’’ भैया बड़ी बे खाई से बोले।
मने अनुभव िकया िक मेरा अकले जाना उ ह अ छा नह लगा। अब म अपने रथ पर नह वर भैया क रथ पर
चला गया—उनक ोध का शमन करने क िलए।
य िप हम लोग ने पहाड़ी क तलहटी का रा ता पकड़ा था, िफर भी ये क दोपहरी क तपन परशान िकए
दे रही थी। तलहटी म िव ाम कर रही नंगी और संत पहािड़य क गरम हवा का झ का जब य करता था तब
उसक हलचल हम थोड़ी राहत देती थी। पर ढलते वृष का सूय हमार पीछ लगा था। वह हम िव ाम क िलए
िववश कर देता था। एक जलाशय क िकनार वृ क छाया म हम कछ घड़ी क िलए िव ाम लेना पड़ा।
यह भैया कछ खुले—‘‘तुम हमेशा वयं को झंझट म डाले रहते हो। यिद इितहास कभी हम लोग को याद करगा
तो इस युग क सबसे िववादा पद य क प म तु हारा नाम लेगा।’’
‘‘मेरा नाम!’’ म मुसकराते ए ही बोला, ‘‘यिद ऐसा होगा तो मुझे आ य ह। मेर िचंतन म न कह उलझाव ह
और न मेरी काय-प ित म। म सदा पाले क एक ओर रहता ; पर म य रखा पर चलते ए संतुलन बनाए रखने
क चे ा करता िदखाई अव य पड़ता ।’’
‘‘जो तुम िदखाई पड़ोगे, वही तो लोग देखगे।’’
‘‘पर म वह नह , जो िदखाई पड़ता । यह तो मेरा थूल शरीर ह। म तो इससे पर ।’’
‘‘िविच बात ह!’’ भैया बोले, ‘‘म तो तुमसे बात कर रहा था और बीच म खड़ा हो गया तु हारा दशन।’’
भैया का यह वा य मुझे चुभ गया। संसार का सारा भोग तो थूल शरीर का ह और म उसे ही नकार रहा ।
शायद म भैया से इस बातचीत म िचंतन और जीवन का सामंज य नह कर पाया।
दूसर िदन अपरा तक हम ारका प च गए थे। नगर ार पर हमारा भ य वागत िकया गया। िशव मंिदर म
दशन-पूजन क बाद हमने उ ेिलत सागर को णाम िकया। डबता आ सूय सागर म र उगलता जान पड़ा। जहाँ
तक गई, सागर र म ही िदखा। अचानक पता नह य , मेर मन म यह िवचार उठा िक ऐसा तो नह िक
ह तनापुर का डबता सूय भी पूर आयाव म ऐसा ही र उड़ल दे।
मेरी चेतना वयं मुझपर हसने लगी। म भी कसा िविच य ! अभी यु और शांित—दोन क संभावनाएँ
खुली ह, िफर भी म ऐसी बात कर रहा !
साथ म छदक था। उसने मुसकराते ए कहा, ‘‘आप इस संसार से अिधक िचंतन क संसार म ही रहते ह।’’
‘‘पर रहता इसी संसार क िचंतन म।’’ मने उसी मु ा म कहा और सीधे राजभवन क ओर चल पड़ा।
राजभवन म सभी मेरी ती ा कर रह थे। मणी ने कहा, ‘‘आपक साथ वहाँ से चले सैिनक पहले ही यहाँ
आ गए थे। आप कहाँ रह गए थे?’’
अब मेरी पीछ खड़ी माताजी एवं िपताजी पर पड़ी। माँ क म उ ेजना थी, िज ासा का सहजभाव था।
लगता था, िपताजी ने उ ह कछ बताया नह था। मने दोन क चरण छए और िफर वैभवपूण तथा मिहमामंिडत
िववाह क एक-एक बात मने उ ह सं ेप म बताई।
माँ बड़ी स ई; पर िपताजी क आकित पर कोई िवशेष भाव नह था। स ता क एक झलक भी नह ।
दुःख-सुख समभाव से झेलते-झेलते उनका य व समु क िकनार क उस च ान क तरह हो गया था,
िजसपर न ार का भाव पड़ता ह, न भाट का।
उनक मा एक ही िज ासा थी—‘‘ या सोचते हो, पांडव का गया रा य उ ह िमल जाएगा?’’
‘‘ य न तो िकया जा रहा ह।’’ मने बड़ी असमंजसता क वर म कहा।
िफर उ ह ने ही मेरा अधूरा वा य पूरा िकया—‘‘पर कहा कछ नह जा सकता।’’ कछ सोचते ए वे बोलते गए
—‘‘पांडव क कपाल क भा य रखा कौन पढ़ सकता ह!’’ इतना कहकर वे पूवव गंभीर हो गए।
िफर म अंतःपुर क ओर बढ़ा। सामने रवती भाभी पड़ ग । मुझे देखते ही बोल , ‘‘तु हार भैया बड़ नाराज ह।’’
‘‘तभी आप मेर यहाँ चली आई ह।’’
‘‘दु कह क, हर बात प रहास म ही उड़ा देते हो!’’ भाभी झुँझला —‘‘मुझपर नह , तुमपर नाराज ह।’’
‘‘इसका ता पय ह िक वे ब त नाराज ह। तो करना या चािहए?’’
‘‘करना या ह! तुम अपना काय करो और उ ह अपना काय करने दो।’’ भाभी मुसकराते ए बोल , ‘‘अपने भैया
क कित तो तुम जानते ही हो। अभी झंझा क तरह आकाश म उठ, िफर पानी बनते देर नह लगती।’’
म िफर राजभवन म और िकसीसे नह िमला। सीधे अपने कायालय चला आया। महामा य क बात से ऐसा लगा
िक लगभग पूरी ारका पांडव क प म ह। उ ह याय िमलना चािहए। यिद नह िमला तो हम कछ करना
चािहए।
‘‘ या कछ लोग ऐसे नह ह, जो यह सोचते ह िक हम इस झमेले म नह पड़ना चािहए?’’ मने महामा य से पूछा।
‘‘मुझे तो कोई ऐसा नह िमला।’’ उसने कहा।
‘‘पर मुझे तो िमले।’’ मने मुसकराते ए कहा।
उसक िज ासा मेरा मुँह देखती रह गई।
मुझे बड़ा संतोष आ िक जनमत पांडव क साथ ह। या यही थित पूर आयाव क होगी? स ाधा रय का
झुकाव िकधर होगा? उनक राजनीित या होगी? अनुमान तो लगाया जा सकता ह, पर अभी से िकसी िन कष पर
प चा नह जा सकता।
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लगभग एक प बाद।
आषाढ़ शु ही आ था। िसंधु क ओर से आकाश म ई क ढर उठने लगे थे। मौसम क मु ा बदलने लगी
थी। ये ऋिषय और मुिनय क पधारने क िदन थे। आसपास क वान थी और सं यासी ारका म ही चौमासा
िबताते थे। सारा शासन उनक आवभगत और तैयारी म लगा था। म वयं यव था क देखभाल म लगा था।
इसिलए भी िक िकसीको िकसी कार का क न हो तथा इसिलए भी िक कह से कोई दुवासा न आ जाए और
हम शािपत न होना पड़। पूरी यव था क मूल म आनंद भी था और भय भी।
ारका क ऐसी मानिसकता म उप ल य से एक दूत आया। उसने महाराज युिध र का एक प िदया।
अिभवादन और कशल ेम क औपचा रकता क बाद उसम कवल इतना िलखा था िक आप यथाशी पधारने क
कपा कर। हम लोग बड़ी य ता से आपक ती ा कर रह ह।
आिखर बात या ह? ुपद का पुरोिहत शांित ताव क िलए गया था। उसका य न असफल आ या? मेर मन
म बैठी यु क आशंका िफर फनफनाने लगी। मने दूत से पूछा, ‘‘और कछ नह कहा ह महाराज ने?’’
‘‘और तो कछ नह कहा ह।’’ उसने बड़ सहजभाव से कहा।
िकतु उसक बात से ात आ िक पुरोिहतजी ह तनापुर से लौट आए ह, पर घबराने क कोई बात नह ह।
मेरी य ता को शांित िमली; पर िज ासा बल ई—‘‘कछ तो पुरोिहतजी ने बताया होगा िक उनक जाने का
प रणाम या आ?’’
‘‘जाने का यही प रणाम आ िक धृतरा क दूत बनकर संजय पधार रह ह।’’ दूत ने बताया।
मने समझ िलया िक इसी अवसर क िलए म बुलाया गया ।
मन-ही-मन म बड़ा संकट त आ। आशा क एक िकरण िदखाई दी; य िक संजय क बुि म ा और
नीित ता से म प रिचत था। धृतरा का सारिथ होते ए भी वह उनका सलाहकार था। वह महाराज का इतना
िव ासभाजन था िक वे उसे ब धा अपना दूत बनाकर भेजते थे। युिध र क राजसूय य म यही महाराज का दूत
बनकर आया था। सबसे बड़ी बात यह थी िक धृतरा पु म शायद दो-एक से ही उसक बनती थी। िवकण से
उसक आ मीयता थी; पर दुय धन क चांडाल चौकड़ी उसे पसंद नह करती थी। शकिन तो उसक िव बराबर
महाराज क कान भरता रहता था। इसीिलए मुझे लगा िक हम अँधेर म भी माग पर ह।
मने दूत से कहा, ‘‘लगता ह, पुरोिहतजी का जाना साथक रहा।’’
‘‘ य नह साथक होता! आपका आशीवाद जो ा था।’’
‘‘मेरा आशीवाद!’’
‘‘जी। सुना ह, आपक ही बताए माग का उ ह ने अनुसरण िकया था।’’ दूत ने पुरोिहत संदभ को और अिधक
िव तार िदया—‘‘जाते ही वह िपतामह एवं महाराज से िमले और कहा, ‘सभी जानते ह िक धृतरा और पांड एक
ही िपता क पु ह। िपता क संपि पर दोन का समान अिधकार ह; पर पांडपु सं ित इस अिधकार से वंिचत ह
—और आपक पु उ ह सदा क िलए वंिचत कर देना चाहते ह। उनक नीयत पांडव क संपि और वैभव पर
हमेशा रही ह। इसक िलए उ ह ने जो कम और ककम िकए ह, वे आपसे िछपे नह ह। िफर भी पांडपु वे सब
सहते रह। भगवा ीक ण पर और आप पर भरोसा करते रह। आपक पु ने उ ह हमेशा माग का कटक समझा।
उ ह सदा क िलए न कर देने म उ ह ने अपनी ओर से कोई कोर-कसर नह छोड़ी; िफर भी वे बचते गए।
उ ह ने घृणा, ेष और िहसा का उ र ेम, आ मीयता और अिहसा से िदया। अधम क िव धम ही उनका अ
भी था और कवच भी। आज भी वे अपने इसी माग पर अिडग ह। वे चाहते ह िक सं ाम िकए िबना ही उनका
रा य िमल जाए। शव क ढर पर पैर रखकर उ ह िसंहासन पर चढ़ना न पड़।’ ’’
दूत कहता जा रहा था—‘‘पुरोिहतजी बता रह थे िक इतना सुनते ही िपतामह और महाराज दोन गंभीर हो गए।
तब उ ह ने पांडव क श का िव तार से वणन िकया और बड़ िव ास से कहा, ‘यिद रण होगा तो पांडव क
जीत िन त ह; य िक उनक पास श भी ह, धम भी और ीक ण भी।’ ’’
मेरा सोच था िक मेर नाम को इतना उछालकर ठीक नह िकया गया। म भले ही पांडव क साथ , पर मुझे
प तः अपने पाले म इस समय ख चना उपयु नह था। नीित तो यही कहती ह िक अभी मुझे दोन पाल क
बीच क रखा पर ही रहना चािहए था।
िकतु इस मंशा क िव मेरा ही तक खड़ा हो गया—‘जहाँ तुम हो वह न िदखाई दोगे।’ इस स य से मुँह
मोड़ना मेर िलए किठन ह; पर कटनीित का पहला पाठ ह िक जो तुम हो, वह िदखाई मत पड़ो।
इस आंत रक तक-िवतक म म मौन हो गया और उस दूत को गंभीर भी िदखाई िदया।
उसने तुरत पूछा, ‘‘आप इतने गंभीर य हो गए? या सोचने लगे?’’
मने हसते ए कहा, ‘‘पुरोिहतजी क िजस तक को सुनकर िपतामह और महाराज धृतरा गंभीर हो गए ह , उ ह
सुनकर मेरा गंभीर होना वाभािवक था।’’
दूत भी हसने लगा और उसने आगे कहना शु िकया—‘‘पुरोिहतजी ने कवल आपका ही नाम िलया; उ ह ने
सा यिक, श य आिद अनेक पांडव प ीय यो ा क नाम नह िलये। सै य श का िव तार से वणन िकया
और अंत म कहा, ‘इतनी श होते ए भी पांडव यु नह चाहते—और उनक इसी वृि को आपक पु
पांडव क कमजोरी समझते ह।’
‘‘ ‘नह -नह ! ऐसी बात तो नह ।’ िपतामह ने बीच म ही ह त ेप िकया—‘कौरव को ऐसा तो नह समझना
चािहए। पांडव क श का प रचय उ ह अनेक बार िमला ह—और जब वयं ीक ण उनक साथ ह तब उ ह
दुबल समझना सबसे बड़ी मूखता होगी।’
‘‘इसक बाद पुरोिहतजी ने बताया िक िपतामह ने अ यंत स ता य करते ए कहा, ‘हमारा सौभा य ह िक
आप संिध का ताव लेकर आए ह।’ इसी म म उ ह ने पांडव क वीरता का िवरा वणन िकया। पर जब वे
अजुन क परा म पर बोल रह थे तब कण भभक पड़ा।’’
‘‘ या कण भी वहाँ था?’’ मने दूत से पूछा।
‘‘यही न तो पुरोिहतजी से हमार महाराज ने िकया था। तब उ ह ने कहा िक वा ा शु होने क समय तो नह
था। बाद म आ गया था। हो सकता ह, शकिन या दुय धन ने यह जानने क िलए उसे भेजा हो िक देखो, वहाँ या
हो रहा ह!’’
िफर कण क संबंध म पुरोिहतजी से िमली जानकारी दूत देने लगा—‘‘कण का कहना था िक ‘पुराना राग अलापने
से या लाभ! हम लोग जानते ह िक पांडव िकतने वीर और परा मी ह! सीधी-सीधी बात यह ह िक शकिन ने
दुय धन क िलए जुए म युिध र को हराया था। पांडव को जुए क शत क अनुसार वनवास करना पड़ा। अब वे
जुए क शत पूरी िकए िबना म यराज क यहाँ शरण लेकर मूख क भाँित अपनी संपि का दावा पेश कर रह ह
और ऊपर से धमका भी रह ह। ऐसी थित म दुय धन उ ह आधा या, चौथाई रा य भी नह देगा। यिद पैतृक
संपि उ ह लेनी ह तो वे शत क अनुसार िफर से बारह वष का वनवास और एक वष का अ ातवास कर।’
‘‘पुरोिहतजी का कहना था िक इसपर िपतामह ने कण को डाँटा और कहा, ‘तुम हम लोग क बीच म बोलनेवाले
कौन हो? तुम सूतपु हो, अपनी सीमा पहचानो। हम यिद यह संिध ताव नह मानगे तो तु हार जैसे परा िमय
को रण े क धूल फाँकनी पड़गी; जैसे अभी िवराटनगर क चढ़ाई म फाँक थी।’
‘‘पुरोिहतजी क अनुसार, महाराज ने भी उसे डाँटा। वह ितलिमलाकर उठकर चला गया।’’
‘‘पुरोिहतजी जब सारी घटना बता रह थे तो या वहाँ कती बुआ भी थ ?’’ मने पूछा। य िक बुआ क कित थी
िक वह कण का अपमान सह नह पाती थ । मने कई अवसर पर देखा था। इसीिलए मुझम िज ासा ई। पर दूत
कछ बता नह पाया। उसने उधर यान ही नह िदया था।
दूत का यह भी कहना था—‘‘पुरोिहतजी एक-दो िदन क िलए ह तनापुर म रोक िलये गए थे। इस बीच महाराज ने
संजय से कछ गूढ़ मं णा क । उसीक प रणाम व प संजय का आगमन हो रहा ह।’’
‘‘चलो, शांित क बात तो चली।’’ मने संतोष य िकया।
‘‘पर या आपको िव ास ह िक आप लोग का यह शांित य न सफल होगा?’’ दूत का अिव ास बोल उठा।
मुझे हसी आ गई। मने कहा, ‘‘ य नह सफल हो सकता? जब यहाँ तक सफलता िमली ह तब आगे भी सफल
होना चािहए। हम अंितम ण तक िव ास रखना चािहए। तभी हम उस िदशा म बढ़ सकगे।’’
‘‘और न बढ़ सक तब?’’
‘‘तब हमारा िव ास घायल होगा, या मारा जाएगा।’’ मेरी मु ा िफर दाशिनक जैसी हो गई—‘‘तब हमार िव ास
क शव म तु हार जैसे अनेक क अिव ास क आ माएँ घनीभूत होकर िव हो जाएँगी। िफर एक नए िव ास
का ज म होगा। यह होगा शांित का नह , यु का िव ास—और यही होगी पांडव क िलए यु क अिनवायता—
यु क यह िववशता। तब जनमत उनक साथ होगा—और जनमत का साथ होना आधा यु जीत लेना ह।’’
मने अनुभव िकया िक म बात करते-करते शांित और यु क दशन पर बोलने लगा। वह दूत भी चुपचाप मुझे
सुनता रहा।
म यह अ छी तरह जानता था िक इस दूत का अिव ास लगभग संपूण आयाव का अिव ास ह। लोग समझ
रह थे िक पांडव को रा य नह िमल सकता। जो राजस ाएँ इस िवषय से दूर या उदासीन थ , उ ह भी ुपद क
दूत सोचने क िलए िववश कर चुक थे।
ारका भी करीब-करीब इसी मत क थी—कवल भैया को छोड़कर। जब ारकावािसय को इस बात का पता
चला िक महाराज धृतरा ने संिधवा ा क िलए संजय को उप ल य भेजा ह और उस अवसर क िलए पांडव ने
मुझे बुलाया ह, तब उ ह संतोष आ। संतोष क वह लहर मेर प रवार को भी िभगो गई। मेर माता-िपता बड़ स
ए। उनम एक अनहोनी होने क भावना जागी।
माँ का तो इतना ही कहना था—‘‘संिधवा ा म तुम कोई शत मत रखना। पांडव को यिद उनक अिधकार से कछ
कम ही िमले, तो भी मान लेना, संतोष करना।’’
‘‘ऐसा संतोष ब धा दुबलता का ल ण समझा जाता ह।’’ मने कहा।
‘‘लोग चाह जो समझ, पर संतोष का फल हमेशा मीठा होता ह—और उसक िमठास म कभी क ड़ नह पड़ते।’’
िपताजी बोल पड़—‘‘इसी संतोष म मने तु ह पाया ह।’’ कभी न िदखाई पड़नेवाली मुसकराहट भी उनक चेहर पर
िदखाई पड़ी।
मुझे भी अपना ज म संदभ याद हो आया। मने हसते ए कहा, ‘‘उस संतोष म भी लोग को आपक िनरीहता ही
िदखाई पड़ी थी।’’
‘‘देखा कर मेरी िनरीहता।’’ उ ह ने बड़ िव ास से कहा, ‘‘म इतना िनरीह तो नह था िक म अपनी और तु हारी
जान लेकर मथुरा से भाग नह सकता था। जब तु ह कारा से हटाने म भगवा ने सफलता दी तब हमारी िववशता
भी वह काट सकता था।’’
सचमुच अपने िपता जैसा संतोषी जीव मने कह नह देखा। वे हर थित म संतु रहते थे—शांितपूण जीवन
जीते ए जीवनिनरपे एक सं यासी क तरह।
उप ल य जाने क मेरी तैयारी पूरी होने लगी। मने भैया को भी सूिचत करना उिचत समझा। म वयं उनक पास
गया और उ ह सारी थित बताई। वे भी स थे।
मने उनसे आ ह िकया—‘‘यिद आप भी चल तो अिधक उ म होगा।’’
‘‘ या उ म होगा! बुलाया तु ह गया ह और चलूँ म भी!’’ उनक मुँह से िनकल तो गया, पर शी ही उ ह ने
अनुभव िकया िक उनको ऐसा कहना नह चािहए था। उ ह ने वयं को सँभाला—‘‘इस समय पांडव को
राजनीितक िनपुणता क अिधक आव यकता ह। यह कला िजतनी तुमम ह उतनी मुझम नह । िफर तुम यह तो
जानते ही हो िक म स ा से दूर रहनेवाला य । स ा संघष म मेरी जरा भी िच नह ।’’
मने हसते ए कहा, ‘‘संघष क नह , बात तो संिध क ह।’’
‘‘संिध क बात वह होती ह जहाँ कोई संघष होता ह।’’ भैया क इस तक क सम म मौन रह गया।
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मेरी इ छा थी िक उप ल य चलने क पहले म अपने आचायजी से भट क ; य िक मेर मन म इस संिधवा ा
को लेकर अनेक ि िवधाएँ पैदा हो रही थ । ऐसी थित म म आचायजी क न क गणना का सहारा लेता था
और वैसा ही मन बनाता था। पर दूत का आ ह था िक आप यथाशी याण कर द। हो सकता ह, ह तनापुर से
संजय आ गए ह । दूसरी बात यह थी िक ह तनापुर से उप ल य का माग भी सीधा नह ह। हम कई पहािड़य को
पार करते ए चलना पड़गा। िफर इधर वषा भी ई ह। चौमासा आरभ हो गया ह। कित भी हमार माग म बाधा
उ प कर सकती ह।
दूत का यह कहना भी उिचत लगा िक आचायजी से िमलने म एक खतरा और ह। वे याण का मु त िन त
करगे। इसम और देर हो सकती ह।
उप ल य म मेरी ती ा हो रही थी। माग म कित ने भी साथ नह िदया। दो-एक िदन का िवलंब हो ही गया।
पांडव क घबराहट बढ़ी। उ ह ने मेरा समाचार लेने क िलए भीम को ही भेज िदया। वह उप ल य से थोड़ा ही
आगे बढ़ा होगा िक माग म ही मुझसे िमल गया। उससे पता चला िक संजय परस से ही आ गया ह। उससे उसक
बात भी ई ह। मेरा यथाशी प चना परम आव यक ह।
‘‘बात तो आप लोग को ही उससे करनी ह।’’ मने हसते ए कहा, ‘‘दो क बात म इस तीसर क आव यकता
या ह? व तुतः म तो आप लोग क बुलाने पर चला आया ।’’
‘‘यिद आपक आव यकता न होती तो आपको क न िदया गया होता और ती ा म हम इतने य न होते।
लोग ने आपको देखने क िलए मुझे यहाँ तक भेजा ह। आप कसे समझते ह िक आपक आव यकता नह ह?’’
अब भीम अपना रथ छोड़कर मेर रथ पर चला आया। मुझे आभास लग गया िक वह कछ बात करना चाहता
ह; पर संकोच क कारण कछ बोल नह पा रहा ह। रथ बड़ी तेजी से आगे बढ़ता चला जा रहा था। उधर मेघ भी
आकाश म दुंदुभी बजाने लगे थे। यहाँ से उप ल य का रा ता सीधा और सपाट नह था। दा क ने इसक िचंता
िकए िबना रथ क गित तेज क ।
अब भीम का संकोच तोड़ने क िलए मने कहा, ‘‘जब संजय परस से आया ह तब बात तो शु ही हो गई ह गी।’’
‘‘बात तो शु हो गई ह, पर अभी वे अनथ क सीमा पर नह आई ह।’’ भीम अभी तक अपनी कित क िव
शांत था। अब वह अपने मूल प म आया। उसने िफर अपने कथन को दुहराया—‘‘यिद आप न आते तो िन त
ही अनथ हो जाता।’’
‘‘ य ? ऐसी या बात थी?’’
अब उसने िव तार से बताया—‘‘हम लोग को भैया ने वा ा म स मिलत नह िकया। म िन त ही इसका
िवरोध करता; पर अजुन क यह कहने पर िक संजय इस समय ह तनापुर क राजदूत क प म आया ह। वह बड़
भैया से ही बात करना चाहता ह। ऐसी थित म हम लोग का उसम शािमल होना उिचत नह ह। तब हम चुप रह
गए।’’
भीम थोड़ा आवेश म आया। उसने कहा, ‘‘पर मेरा मन अजुन क बात मानने क प म नह था। मने
िवरोध व प कहा, ‘तब हम उनक बात सुननी भी नह ह। जब हम हर समय भैया क िनणय को मानने क िलए
िनयित ारा बा य िकए गए ह, तब हम इस समय भी उनका िनणय मानकर जो भोगना होगा, भोग लगे। अब
हमारा इस सभा म बैठना यथ ह; य िक यिद हम बैठगे तो बोलगे अव य। अब हम अ याय सहने क थित म
नह ह।’ ’’
भीम का कहना था—‘‘तब अजुन बड़ा कातर होकर बोल पड़ा—‘यही तो हमारी िववशता ह, भैया, िक हम बैठगे
भी और कछ बोलगे भी नह । हमारा संिध सभा म न बैठना राजदूत का अपमान होगा और राजदूत का अपमान
ह तनापुर का अपमान होगा। तब हम लोग क िसर अपयश का ठीकरा फटगा।’
‘‘ ‘तब हमारी बात कौन कहगा?’ मने कहा, ‘ य िक हमेशा यह खतरा बना रहता ह िक कह भैया ऐसी बात न
मान बैठ िक हम िफर िवपि का सामना करना पड़।’ तब अजुन ने कहा, ‘ ारकाधीश आ रह ह न! हम लोग का
प वे ही रखगे।’ और जब आपका समय पर आना नह आ तब हम िनराश हो गए।’’
‘‘िनराशा क ऐसी कोई बात ह नह ।’’ मने कहा, ‘‘संजय अजुन का िम ह। या अजुन उससे नह िमला था?’’
‘‘िमला तो था।’’ भीम बोला, ‘‘लेिकन उससे इधर-उधर क ही बात होती रह ग । अजुन का िन कष था िक इस
समय संजय ह तनापुर का राजदूत ह। उसका धम ह िक वह इस समय वही कह और वही कर, िजसक िलए
महाराज धृतरा ने उसे भेजा ह।’’
‘‘यह तो ठीक ह।’’ मने कहा, ‘‘िफर उसने ऐसा या कहा ह, िजसक िलए तुम इतने य हो? अर भाई, वह संिध
क बात करने आया ह और हम सब संिध चाहते ह।’’
भीम एकदम गंभीर हो गया। वषा तेज हो गई थी। हम लगभग भीग गए थे। जब हम उप ल य क नगर ार पर
प चे तो मने देखा िक पानी म भीगते ए लथपथ लोग हमारी ती ा कर रह ह।
िपछली बार क तरह इस बार भी म सीधे राजभवन म गया। सबसे िमला और िफर अितिथभवन म आ गया—
संजय क बगलवाले क म। य िप लोग ने मेर रहने क यव था अितिथभवन म ही क थी। िकसीने भी मेर इस
िनणय का िवरोध नह िकया।
मेर वहाँ प चते ही संजय पूर आदरभाव से मुझसे िमला और बोला, ‘‘हम लोग आपक ती ा कर रह थे।’’
‘‘आकाश हमार अनुकल नह था।’’ मने मुसकराते ए कहा, ‘‘और लगता ह िक आकाश आयाव क भी
अनुकल नह ह।’’
संजय क समझदारी म कोई कमी नह थी। उसने तुरत उ र िदया—‘‘अब आप आ गए ह, आकाश भी अपनी
मु ा बदल देगा।’’ और िफर हसते ए उसने मुझे गले लगाया।
अ य भाई तो क क सारी यव था कर लौट गए, पर भीम बैठा रह गया। म समझ गया िक यह कछ कहना
चाहता ह, जो अभी तक कह नह पाया ह।
मने उसे छड़ा—‘‘लगता ह, तु हारी गंभीरता मुखर होने को याकल ह!’’
‘‘ या मेरा मौन कभी मुखर हो पाएगा?’’ भीम ने वयं एक न कर िदया—‘‘वह तो आपक शांित-मु ा और
संिध-समथन क नीचे समािध थ हो गया ह।’’
‘‘तुम या शांित और संिध क प म नह हो?’’
‘‘कसे होऊगा!’’ भीम थोड़ा आवेश म आया—‘‘सोचता , मेरी उन ित ा का या होगा, जो मने ौपदी क
चीर-हरण क समय क थ ?’’
‘‘उस समय तो म नह था।’’ मने छटते ही कहा।
‘‘यही तो आ य ह, ारकाधीश! आप नह होते ए भी होते ह। सबने आपका चम कार देखा ह।’’
मुझे हसी आ गई।
अब वह वयं खुलने लगा—‘‘उस समय जब दुय धन ने ौपदी को अपनी नंगी बा जाँघ िदखाई थी तब मने उसी
ण ित ा क थी िक जब तक यु म उसक जाँघ तोड़ नह दूँगा तब तक चैन नह लूँगा। इसी तरह दुःशासन
जब ौपदी को बाल पकड़कर ख च लाया था और बला उसे न न करने लगा था तब मने ित ा क थी िक यु
म उसका व चीरकर र पान क गा। अब सोचता िक जब आप जैसे शुभिचंतक ही शांित और संिध क बात
सोचने लगे तब मेर उन संक प का या होगा?’’
‘‘तुमने तो यह भी ित ा क थी िक म धमराज का वह दािहना हाथ जला दूँगा, िजससे उ ह ने चौपड़ क पासे
फक ह।’’ मने कहा।
भीम तुरत बोल पड़ा—‘‘मने यह ित ा नह क थी। मने कवल सहदेव को आदेश िदया था िक तुम कह से
अ न लाओ। म भैया का वह हाथ जला दूँ िजससे उ ह ने पासे फक ह। व तुतः उस समय ोध क कारण मेरा
िववेक लु हो चुका था।’’
‘‘जब ोध आता ह तब िववेक लु ही हो जाता ह।’’ मने कहा और पूछा, ‘‘जब तुमने ोध म दुय धन और
दुःशासन क िव ित ा क थी तब या तु हारा िववेक नह था?’’
‘‘दुय धन और दुःशासन क िव ित ा करते समय मेरा िववेक रहा हो या न रहा हो, पर बुि तो थी। मनु य
िववेकहीन हो सकता ह, बुि हीन नह । मने सोच-समझकर वह िनणय िलया था।’’
मुझे भीम से ऐसे उ र क आशा नह थी। मने कभी समझा ही नह िक उसका िचंतन इस तर को भी छ सकता
ह।
म बड़ा स आ। उसे छाती से लगा िलया और बोला, ‘‘िकसीक संक प क ढ़ता उसक मन क ढ़ता
पर आधृत होती ह। यिद तु हारा मन ढ़ ह तो संक प अव य पूरा होगा।’’
इतना सुनते ही वह ग द हो गया। मुझे पकड़ ए ब त देर तक झूमता रहा; मानो वह संतोष क झूले पर झूम
रहा हो।
हम लोग क ही नह गई थी, ार पर अजुन खड़ा मुसकरा रहा था।
‘‘तुम वहाँ खड़ या कर रह हो?’’ मने पूछा।
‘‘भरत िमलाप देख रहा ।’’ उसने कहा और हम तीन हस पड़।
अजुन क वेश करते ही भीम चला गया।
म या ा म काफ थका था। श या पर लेट गया। पैर क ओर अजुन बैठा।
मने उसे टोका भी—‘‘िम , अ छा नह लगता। तुम मेर किट क िनकट आ जाओ।’’
‘‘वह थान और क िलए आरि त ह।’’ उसने अपने प रहास क िलए बड़ी दूर से ल य साधा।
मने भी उसी मु ा म उ र िदया—‘‘न यहाँ राधा ह, न मणी और न स यभामा।’’
‘‘पर उनका थान म तो नह ले सकता।’’ उसने कहा और हम दोन हस पड़। अजुन बोलता गया—‘‘शरणागत
होकर भी मुझे आपसे बात करने म आनंद आता ह।’’
अजुन िजतना बाण चलाने म िनपुण था, उतना ही बात करने म भी।
म एक ही बात जानना चाहता था िक अब तक युिध र क संजय से िकन िबंदु पर वा ा ई। मने इस
संबंध म अजुन से सीधी िज ासा क ।
अजुन गंभीर हो गया। बोला, ‘‘भीम भैया ने आपको कछ नह बताया?’’
‘‘उ ह ने कोई िवशेष बात नह कही। कवल धमराज क ाकितक कमजोरी का ही संकत देते रह।’’
‘‘बात अब तक िकसी िबंदु पर नह ई और न कोई िन त ताव संजय लेकर आया ह। उसका कहना मा
इतना था िक आपने जो दूत भेजा था, उसक बात से िपतामह और महाराज धृतरा ब त भािवत ए ह। वे भी
िकसी थित म यु नह चाहते।’’
‘‘तो या चाहते ह?’’
‘‘यही तो वह प नह बताता।’’ अजुन ने हसते ए कहा, ‘‘शायद उससे कछ कहने को कहा भी नह गया ह।
वह कवल एक बात बार-बार दुहराता ह िक दोन महानुभाव क मंशा शांित क प म ह।’’
‘‘इसका ता पय ह िक तु हार नीित-िनपुण दूत ने अपनी श का उ ह अ छी तरह आभास दे िदया ह। संजय क
कथन म शांित क ित आ था नह ह वर िवनाश-भय ह।’’
‘‘मुझे भी कछ ऐसा ही लगता ह।’’ अजुन बोला।
‘‘दो िदन तक आप लोग या करते रह?’’
‘‘एक िदन तो एक-दूसर क कशल ेम म बीत गया। भैया ने ह तनापुर क एक-एक य क बार म पूछा। आप
भैया क भावुकता तो जानते ही ह। तेरह वष बाद उ ह कोई ऐसा य िमला था, जो मनु य या, पशु-पि य क
बार म भी उ ह बता रहा था। भैया क आँख म वहाँ क सजीव िच उभरने लगे थे और एक िनतांत पुरानी
आ मीयता, जो लगभग पथरा गई थी, आँख से टपकने लगी।’’
अजुन कहता गया—‘‘संजय ने भैया क इस भावुकता का लाभ उठाते ए उनक भू र-भू र शंसा क िक आप
िन कलुष ह। ेत व जैसा आपका च र ह। उसम कह भी कोई दाग नह ।’’ इस संग म उसने महाराज ुपद
क तथा आपक भी बड़ी शंसा क और कहा, ‘म तो ारकाधीश और महाराज ुपद को णाम कर उ ह स
करने आया ।’ ’’
‘‘पर अभी तो वह णाम करने भी नह आया। हो सकता ह, तु हार जाने क बाद आए।’’ मने हसते ए कहा,
‘‘वह कवल मुझे स करने आया ह!’’
‘‘मुझे भी कछ ऐसा ही लगता ह।’’ अजुन ने कहा, ‘‘उसने भैया से बार-बार कहा िक ‘आप जैसे शांिति य और
धमिन य को कभी भी यु क बात नह सोचनी चािहए।’ इसपर भैया ने एक बड़ी अ छी बात कही
—‘तुमने या तु हार महाराज ने हमार बार म कौन सी बात सुनी ह िक वे इस िन कष पर प चे ह िक म यु
चाहता ? अर, संिध का अवसर पाकर भी कौन ऐसा होगा, जो यु चाहगा!’ ’’
‘‘इसपर या कहा उसने?’’
‘‘कछ बोला नह , कवल भैया को सुनता रहा। इसी वाह म भैया ने उन सार कक य और ष ं क चचा कर
डाली, जो कौरव ने हमार ित िकए थे और कहा िक यह हमारी उदारता ह िक हमने उन सबको मा िकया।
‘‘ ‘इसीिलए तो आपक क ित-पताका चार िदशा म फहरा रही ह। आप अजातश ु ह। आप जैसे महानुभाव तो
कभी यु करने को सोच भी नह सकते, भले ही उनका रा यभाग िमले या न िमले।’ ’’
‘‘अर र र, यह कहने आया ह वह!’’ मुझे आ य आ—‘‘वह संिध का ताव लेकर आया ह या शांित, धम
और मा क िश ा देने!’’ मेर तो कान खड़ हो गए। मने अजुन से पूछा, ‘‘तुम उससे अितिथभवन म नह िमले
थे? वह तो तु हारा िम ह। एकांत म तु हार सामने अव य खुलता।’’
‘‘म िमला था; पर उसने राजनीित क कोई बात नह क । कवल इधर-उधर क बात करता रहा।’’
‘‘इसका ता पय ह िक वह ह तनापुर का दूत ह, संजय नह ।’’ मने कहा, ‘‘उसे यह नह भूलना चािहए िक
िपतामह और महाराज ने उसका चुनाव दूत क प म इसिलए िकया होगा िक वही एक ऐसा य ह, जो पांडव
से घुल-िमल सकता ह।’’
‘‘इस बात को तो वह भी वीकार करता ह।’’ अजुन ने कहा।
‘‘िविच बात ह। य व क िजस प क कारण उसका चुनाव आ, वह उसीको भूल रहा ह।’’ िफर मने सोचा
िक संजय एक से तो ठीक ही कर रहा ह, भले ही वह हमार िहत म न हो। जैसे सं यासी को अपना अतीत
भुला देना चािहए वैसे ही राजदूत को अपने सार पुराने संबंध को याद नह रखना चािहए।
मने िफर अजुन से कहा, ‘‘ थित तो प ह, अजुन! यह सारी संिधवा ा तो ऊपर का आ तरण मा ह, िजसक
नीचे ह कौरव का ई या- ेष और स ा-लोलुपता का गलीचा। मुझे तो लगता ह, यु अव य संभावी ह।’’
‘‘तब इस िनरथक संिधवा ा क आव यकता या? य नह आप संजय को कोरा लौटा द?’’
‘‘नह -नह , ऐसी भूल नह करनी चािहए।’’ मने कहा, ‘‘यह वा ा िनरथक भले ही हो, पर ह परम आव यक। हम
अंितम समय तक शांित क िलए य न करना चािहए। यिद य न न कर तो य न करते ए िदखना चािहए—और
साथ म यु क तैयारी भी करनी चािहए।’’
‘‘यु क िलए दूत तो हमार गए ही ह।’’ अजुन क वर म एक कार क िन ंतता थी।
‘‘तु हारी यही िन ंतता तु हार िलए घातक होगी।’’ मेर वर म ता आई—‘‘तुम या समझते हो िक तु हार ही
दूत दौड़ रह ह, दुय धन चुपचाप बैठा होगा?’’
अजुन गंभीर हो गया।
मने उसे सीधा काय म िदया—‘‘दूत से काम नह चलेगा। यु का औपचा रक िनमं ण पांडव को वयं ले
जाना होगा और वह भी आज से ही—अभी से ही। यह िकसी स ािधकारी को अपने प म करने का न ह। वह
भले ही तु हार प म हो या न हो। दूत से भेजे गए औपचा रक िववाह क िनमं ण पर तो लोग यान देते ही नह ;
िफर यह तो यु ह, जीवन-मरण का न ह। इतने गंभीर िवषय पर िकसी भी स ािधकारी को बड़ा सोचना-
समझना पड़गा। वह अपने अमा य मंडल क बैठक करगा। तु हार ताव क उसे वीकित लेनी होगी और तब
उसक सारी सेना तथा श तु हार प म आएगी। इसिलए अपने िनकटतम य य क यहाँ पांडव को जाना
पड़गा। उसम तुम मुझ जैसे य को भी नह छोड़ सकते। समझ लो, यह यु नह , महायु ह।’’
अजुन कछ कह, इसक पहले ही म बोल पड़ा—‘‘संिध य न तो श याशायी ह। अपने अंितम िदन िगन रहा ह।
कौरव क कारण रोग असा य ह। हम लोग उपचार म लगे ह।’’
इसक बाद म एकदम मौन हो गया। अजुन भी िचंतन म डब गया। सं या िघरने लगी। योितवाहक ने योित
कलश जलाने आरभ िकए।
मुझे झपक आने लगी। अजुन चुपचाप उठकर चला गया; पर मुझे न द नह आई। अकला था। आज मुझे
छदक का अभाव ब त खला। म उठकर क म ही टहलने लगा। वातायन खोलकर खड़ा हो गया। पानी से
लथपथ वायु का झ का जैसे ध का मार भीतर घुस आया। बाहर घनघोर वषा हो रही थी। मने झाँककर देखा, चार
ओर अंधकार बरस रहा था। सबकछ तमाल क प े क तरह काला िदखता था। मुझे याद आया िक कित क
ऐसी ही मु ा क समय एक बार नंद बाबा ने मुझसे कहा था—‘राधा अकली ह। तुम इसे घर तक छोड़ आओ।’
गलबिहयाँ डाले हम ऐसी वषा म चल पड़ थे। भीगकर व तन से िचपक गए थे। दोन का अ त व अ ैत हो
गया था। अँधेर ने हम ढककर हमारी न नता क भी र ा क थी और हमार आनंद क भी। ऐसे म जब िबजली
चमकती थी, अंधकार फट जाता था, राधा और भयभीत होकर मुझसे िलपट जाती थी। िकतना अ छा लगता था।
कित हमारी किल ड़ा का मा यम भी हो गई थी और सहायक भी।
म उ ह मृितय म खो गया था। मुझे लग रहा था िक अभी राधा मेरी बगल म खड़ी िबजली चमकने क ती ा
कर रही ह। अचानक क म िकसीक होने क आहट लगी। मने मुड़कर देखा, संजय मुसकरा रहा था।
‘‘आओ, ह तनापुर क राजदूत!’’ मने यं य से ही उसका वागत िकया।
उसने कछ झपते ए कहा, ‘‘पर आपक िलए तो संजय ही ।’’
‘‘पर म ारका से यहाँ संजय से िमलने नह आया ।’’ मने कहा, ‘‘मुझे तो ह तनापुर क राजदूत से िमलने क
िलए बुलाया गया ह।’’
‘‘वह तो कल आपसे सभा म िमलेगा।’’ उसक इस कटनीितक उ र पर मुझे हसी आ गई—और वह तो हस ही
रहा था।
‘‘म कब से क म आया और आपको िवचार म त ीन देख रहा । आप कछ बुदबुदा भी रह थे।’’
‘‘ या क , जब भी एकांत म होता तो अतीत मेर पास आ जाता ह। म उसीसे बात करने लगता ।’’ म बोलता
गया—‘‘अतीत मुझसे कह रहा था िक या िदन थे ह तनापुर क, जब उसे बसाया गया था! वह आयाव का
िशखर था—और आज उस िशखर क भीतर ाला धधक रही ह। शी ही यह िशखर ाला बनकर फटगा, तब
तुम सब जलकर भ म हो जाओगे। या तुम यह होने दोगे? आिखर तु हारा भी तो कछ कत य ह?’’
य िप संजय इस संदभ म मुँह खोलने क प म नह था। िफर भी उसे कहना ही पड़ा—‘‘यिद यही िचंता हम
सबको होती तो या यह ालामुखी सुलगता?’’
मने संजय को उधेड़ने क भरपूर चे ा क । उसे लगा िक वह कहाँ आकर फस गया। उसने ब त धीर से कहा,
‘‘िपतामह और महाराज तो काफ िचंितत ह।’’
‘‘और उनका िचंितत होना भी वाभािवक ह।’’ मने कहा, ‘‘वे ही य , महामा य िवदुरजी भी िचंितत ह गे और
तु हार जैसे लोग भी िचंितत ह गे; जो नीित म, धम म और याय म िव ास करते ह। िपतामह और महाराज क
यायि यता म िकसीको संदेह नह ; पर दोन क अपनी सीमाएँ और िववशताएँ ह। एक क सामने ह तनापुर क
िसंहासन क ित वचनब ता क दीवार खड़ी ह तो दूसर ने पु - ेम क अंधकार म वयं को डाल रखा ह।
महामा य क सुनता कौन ह! वे तो बँधे ए िसंह ह, जो कवल दहाड़ सकता ह, कछ कर नह सकता। अब देखना
ह िक तु हार जैसे लोग या कर पाते ह!’’
संजय अब चुप, एकदम चुप; जैसे मुँह िसल िदया गया हो।
िफर मने उसे सँभाला—‘‘आिखर तुम िकतना कर पाओगे? तु हार भी साम य क एक सीमा ह।’’
मने देखा, अब भी वह एक कार क ऊब का अनुभव कर रहा था। िफर मने अपनी बात क िदशा बदली
—‘‘इसका अथ यह नह ह िक हम लोग को हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाना चािहए। कौरव और पांडव क
बीच शांित एवं संिध क िलए य न करना एक पिव काय ह। तुम उसम लगे हो, यह हम सबक िलए गौरव क
बात ह। कोई-न-कोई माग तो िनकलेगा ही।’’
‘‘आपको ऐसी आशा ह?’’ वह बोला और चुप हो गया।
‘‘िब कल ह। यिद आशा न होती तो तुमसे िमलने ारका से भागा य चला आता!’’
उसने मेरी थाह लगानी चाही और मने उसक । इस य न म कछ समय और बीत गया।
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दूसर िदन मौसम भी स था और राजभवन का वातावरण भी। पांडव इसिलए खुश थे िक अब संजय का
कोई फदा भैया को घेर नह पाएगा। य पांडव क घबराने और य होने का कोई कारण नह था। संजय
ह तनापुर का राजदूत अव य था, पर कवल बात करने और युिध र क थाह लगाने क िलए। उसक पास
अंितम िनणय का अिधकार नह था। क या भी उसे पांडव क िहत क िव नह होना चािहए था।
वा ा क िलए राजभवन का सभाक चुना गया था। मने उस थान को अ वीकार करते ए कहा, ‘‘तीन य य
क बात करने क िलए इतना बड़ा क ! इसक िवशाल र ता हमपर प रहास करगी।’’
‘‘हो सकता ह, और लोग भी आएँ।’’ युिध र ने कहा। उनका संकत अपने भाइय क ओर था।
‘‘नह , आप एवं संजय क िसवा हमारी वा ा म और कोई नह रहगा।’’ मने आरभ से ही अपना तेवर बदला।
तब हम वहाँ से उठकर युिध र क मं णाक म चले आए।
आते ही मने कहा, ‘‘अब बतलाइए, हमम थम व ा कौन होगा?’’
इतना सुनते ही दोन मेर मुख क ओर देखने लगे। मेरी ऐसी मु ा उ ह ने कभी देखी नह थी। सदा मुसकराते ए
बात करनेवाला आज आरभ से ही धुआँ उगलने लगा। संजय समझ गया िक लपट भी िनकल सकती ह।
‘‘पहले म इसक सूचना दे दूँ िक संजय क साथ अब तक मेरी या बात ई ह!’’ युिध र बोले।
‘‘आपको बताने क आव यकता नह ह। मुझे सारी सूचना िमल चुक ह।’’
‘‘तब आप ही शु कर अ य सवाल।’’
‘‘मेरी पहली िज ासा तु ह से ह, संजय।’’ मने कहा, ‘‘म और धमराज युिध र कभी अधम क माग पर नह जा
सकते, चाह जो भी थित हो। धमराज ने कौन सा क नह भोगा; पर कभी इ ह ने धम नह छोड़ा। जुए क खेल
म हारने क बाद यह कह सकते थे िक म जुए म नह हारा; य िक यह दुय धन से नह हार थे। शत दुय धन क थी
और हराया शकिन ने था। उस समय सार पांडव महाराज युिध र क िव थे। उनक प नी भरी सभा म न न क
जा रही थी। एक ऐसी नारी, जो रज वला थी। िफर भी धमराज धम से जरा भी िवचिलत नह ए। इसपर भी तुम
दो िदन से शांित और धम का उपदेश करते रह हो। ऐसी कौन सी घटना तुमने सुनी या देखी ह, िजसम धमराज ने
अधम का रा ता चुना हो?’’
अब संजय या बोलता, बगल झाँकने लगा। िफर ब त सँभलकर बोला, ‘‘मने भी तो कहा िक आपने कभी अधम
का पालन नह िकया। अब स ा क लोभ म उससे िवचिलत मत होइए। धम ही आपक जीवन भर क कमाई ह।’’
‘‘ प समझो, संजय, पांडव को स ा का लोभ नह ह। उसपर उनका अिधकार ह।’’ मने कहा, ‘‘लोभ तो तुम
तब कह सकते हो जब वे दूसर क स ा हड़पने क बात सोच रह ह । यह उनक वह स ा ह, जो महाराज
धृतरा क यहाँ धरोहर थी। वे अपनी धरोहर माँग रह ह। जो व तु उनक थी और ह, वह तो वही माँग रह ह।
इसम बाधा या ह?’’
‘‘बाधा तो हम िदखाई नह देती।’’
‘‘पर हमको िदखाई देती ह।’’ मने िव ास से कहा, ‘‘वह बाधा ह—महाराज का अंधा पु -पे्रम। वे दुय धन क
इ छा क िबना एक पग नह चल सकते। और दुय धन पर िनयं ण ह कण एवं शकिन का। तुमने उनक भी इ छा
जानने क चे ा क ह िक वे या चाहते ह?’’
‘‘म इस समय िपतामह एवं महाराज का दूत , दुय धन, कण और शकिन का नह ।’’ अब संजय क वाणी थोड़ा
और मुखर ई—‘‘म ह तनापुर का दूत , िकसी य िवशेष का नह ।’’
‘‘यही दुभा य ह, संजय, िक ह तनापुर क िसंहासन पर बैठा कोई और ह तथा स ा िकसी और क हाथ म ह। वे
भी टाँग अड़ाते ह, िजनका ह तनापुर से कोई संबंध नह ह।’’ मने अपनी बात को और प िकया—‘‘इस
शकिन का ह तनापुर से या लेना-देना ह? अर भाई, वह प मिहषी का भाई ह तो भाई क तरह रह, या अपने
घर चला जाए।’’
‘‘शकिन क िवषय म तो िकसीक धारणा अ छी नह ह। िपतामह तो उसे फटी आँख नह देखना चाहते। ब धा
उसे फटकारते भी ह। पर पता नह उसने उनक कौन सी दुखती नस पकड़ रखी ह िक वे अिधक बोल नह
पाते।’’
‘‘िपतामह को वह फटी नजर नह सुहाता और महाराज क आँख पर ज म से ही भगवा क कपा ह!’’
मेरी इस िट पणी पर संजय क साथ ही युिध र भी मुसकरा उठ।
मने अब बात क छोड़ी ई डोर िफर पकड़ी—‘‘सुना ह िक तुम िपछले दो िदन से महाराज युिध र को यही
समझा रह हो िक धम और यु म से यिद आपको चुनना पड़ तो आप धम को चुिनए। तो या ये सं यासी हो जाएँ
और वन-वन भटक? तुम इस तरह क बात यिद िकसी ा ण से कहते तो शायद िकसी अंश तक ठीक भी होता।
वह भी पूण नह , िकसी अंश तक; य िक कछ लोग कमयोग को यागकर ानयोग से पारलौिकक िसि क बात
करते ह। कछ लोग धम क अनुसार कम करते ए िसि का ितपादन करते ह। पर ानयोगी और कमयोगी—
दोन क पास पेट ह, भूख ह। जहाँ भूख ह वहाँ कम ह। इसिलए म ान और कम क सम वय को े मानता ।
वे ा ानी भी अगृह थ क घर क िभ ा नह लेता।’’ म कहता गया—‘‘और ि य का धम ह शासन करना।
यिद युिध र भी शासन करने क िलए स ा चाहते ह—और वह भी अपनी ही स ा, तो कौन सा अधम कर रह
ह?’’
संजय बड़ यान से सुनता रहा। िफर बोला, ‘‘मने इस से यह बात नह कही थी। मने तो कहा था िक धम म
िहसा का कोई थान नह ह और यु म िहसा अव य संभावी ह। इसिलए आप जैसे धमा मा को यु से िवरत
रहना चािहए।’’
‘‘यु का कोई भी भलामानुष समथन नह करता। म भी यु का िवरोधी । म पांडव का िजतना भला चाहता
उतना ही कौरव का भी। यह तभी होगा जब पांडव का रा यभाग कौरव लौटा दगे। तभी धम क भी र ा होगी,
शांित क भी र ा होगी और आयाव क भी; अ यथा िवनाश क वह ाला जलेगी, िजसम सबकछ भ म हो
जाएगा।’’
‘‘मेर महाराज इसक िवरोधी नह ह।’’ संजय बोला। उसने अपने कथन को और प िकया—‘‘मेरा कहना
धमराज से कवल यही था िक जो हो गया, उसे भुला दीिजए और नए िसर से वा ा आरभ क िजए।’’
‘‘तो तुम वा ा करने नह वर नए िसर से वा ा करने क भूिमका बनाने आए हो।’’ युिध र भी इस बार मुसकरा
उठ।
‘‘एक से आपका कहना ठीक ह।’’ संजय बोला, ‘‘संिध का माग श त िकया था आपक पुरोिहत दूत ने
और भूिमका बनाई मने। अब आगे का काय आप संप क िजए।’’
मने देखा, संजय िफर मुझे अपने पाले म घसीटना चाहता ह और वयं उससे दूर होने का य न कर रहा ह। मने
उसीक बात को आगे बढ़ाया—‘‘तुम कहते हो िक िपछला सबकछ भुला देना चािहए; पर याद रखो िक भुला देना
और भूल जाना—दोन अलग-अलग बात ह। भूल जाना म त क क एक वाभािवक ि या ह। भुला देना य
क िनरथक चे ा। कोई बात िजतनी भुलाई जाती ह उतनी ही याद आती ह। या पांडव जुए का वह प र य भुला
सकते ह, जब एकव ा रज वला ौपदी अपने सुर क बीच बाल ख चते ए लाई गई थी और दुय धन उसे
अपनी नंगी जाँघ िदखा रहा था? कण क यह िह मत हो गई थी िक उसने कहा, ‘या सेनी, अब तेर िलए दूसरी
गित नह ह। तू दासी बनकर दुय धन क महल म चली जा। तेर पित तो तुझे हार चुक ह। अब िकसी और को
अपना पित चुन ले।’ ’’ म भी आवेश म था। बोलता गया—‘‘िजस समय वनवास क िलए पांडव काला मृगचम
पहन रह थे, तब दुःशासन ने िकतनी कड़वी बात कह दी थी—‘ये सबक सब नपुंसक हो न हो गए ह। िचरकाल
तक नरक क गत म िगर गए ह।’ वे सारी घटनाएँ या भुलाई जा सकती ह? या पांडव उ ह भुला सकगे? म
पूछता , या हो गया था कौरव को? उ ह कह से नह लग रहा था िक ये हमार ही भाई ह!’’
‘‘मेर ‘भूल जाना’ कहने का ता पय यह था िक इन सार अपराध क िलए पांडव उ ह मादान दे द।’’
‘‘ये उ ह मादान द और वे इ ह कछ न द?’’
‘‘इ ह सब पर तो िवचार करना ह।’’
‘‘पर यह बड़ा किठन काम ह, संजय।’’ मने कहा, ‘‘जो मा माँग रहा ह, उसे अपनी ओर से कछ देने का
अिधकार नह ह। सारा अिधकार होते ए भी िववश ह। मा माँगनी चािहए दुय धन और उसक मंडली को; पर
पांडव क दु भा य से उस मंडली ने आपको भेजा ही नह ह।’’
इसक बाद उस बैठक म गंभीर शांित हो गई। युिध र तथा संजय दोन क मेरी आकित पर थी और म
थोड़ी देर तक आँख बंद कर उसी मंच आसन पर ढलक गया।
थोड़ी देर बाद जब मेरी आँख खुल तब मने संजय से पूछा, ‘‘ या सोचा तुमने? या िन कष ह तु हारा?’’
‘‘सोचना तो आपको ही ह और िन कष भी आपको ही िनकालना ह।’’
‘‘िन कष तो प ह िक कौरव और पांडव दोन का भला होना चािहए। मेरी म तो दोन एक-दूसर क पूरक
ह। पांडव यिद अ थ वृ ह तो कौरव लता क समान ह। पांडव म अ थ जैसी िजजीिवषा भी ह, अ यथा
इतनी िवपि क बाद वे सूख गए होते। पर आपि याँ उ ह ढ़ करती ग । आज वे पहले से अिधक मजबूत ह।
उनक यश म इधर काफ िनखार आया ह।’’
अंत म यही िन य आ िक इस म क अंितम वा ा ह तनापुर म होगी।
‘‘बड़ी कपा हो, यिद उसम आप भी पधार।’’ संजय ने मुझे िवशेष प से संबोिधत करते ए कहा।
वा ा क समा क बाद संजय अितिथगृह क अपने क म चला गया और म राजभवन क अपने क म
चला आया। अंतःपुर क वेश ार पर ही मेरी भट भीम और अजुन से हो गई। दोन ने वा ा क िलए बधाई दी।
भीम ने यहाँ तक कहा िक आपने संजय क िकए-कराए पर पानी फर िदया।
पर उन लोग से िमलकर म ब त स नह था। मने अजुन से कहा, ‘‘मने तुमसे या कहा था? मने तुमसे कहा
था न िक इस समय हाथ पर हाथ धरकर बैठने से काम नह चलेगा। तु ह िविधव यु का िनमं ण लेकर अपने
िम राजा क यहाँ जाना चािहए।’’
‘‘जी हाँ, आपक कहते ही मने नकल और सहदेव को इस काय क िलए भेज िदया ह।’’
‘‘और आप लोग कब िनकल रह ह?’’
‘‘शी ही।’’
‘‘िफर मेर यहाँ कौन आएगा?’’
‘‘आपक यहाँ तो म ही आना चाहता ।’’ इतना कहने क बाद अजुन ने भीम क ओर देखा।
उसने तुरत संकत से वीकित दे दी।
म आगे बढ़ा; य िक अंतःपुर म मुझे कती बुआ और ौपदी से िमलना था। जब तक म अंतःपुर म वेश क ,
पीछ से दौड़कर आते िकसी हरी क आहट लगी। वह मेरी ओर दौड़ा चला आ रहा था। म क गया। उसने
सूचना दी िक ारका से बुलाने क िलए एक दूत आया ह और बड़ी य ता से आपको मरण कर रहा ह।
मने हरी से कहा िक दूत से कहो, म अभी आ रहा ।
इस समाचार ने मुझे िचंितत कर िदया। कोई-न-कोई बड़ी बात अव य हो गई होगी, अ यथा दूत न आता। य
होते ए भी बुआजी से िमले िबना चलना मेर िलए उिचत नह था। िफर ौपदी या सोचेगी, िजसने मुझे हर िवपि
का एकमा सहारा मान िलया ह।
य िप मेरा यह िमलन कवल एक औपचा रकता ही थी। दोन क पास मुझसे बात करने और कहने को ब त
था; पर म ारका याण क िलए आतुर हो चुका था; य िक यह पहला अवसर था, जब मुझे बुलाने क िलए दूत
भेजा गया था। वष म ारका से दूर था, पर कह कभी इस कार बुलाया नह गया था। ज र कोई बात हो गई
होगी, जो उ ह दूत भेजना पड़ा। इधर प र थितय का ताप िनरतर बढ़ता चला जा रहा था। कह भी कछ हो सकता
था।
बुआजी ने मुझसे ठहरने का आ ह िकया। बोल , ‘‘एक िदन मेर पास बैठो। मुझे तुमसे कई बात करनी ह।’’
मने अपनी प र थित बताई। िफर वह कछ नह बोल ।
यही थित ौपदी से िमलते समय ई। वह िबना अपनी बात कह मुझे छोड़ना नह चाहती थी। उसका कहना था
—‘‘सारी वा ा तो पु ष क बीच ई; जबिक जुए क दाँव पर म ही लगाई गई थी और हारी गई थी—और मेरी
सुननेवाला आज कोई नह ह।’’
‘‘यह तुम कसे कह सकती हो?’’ मने कहा, ‘‘तु हारी मने सदा सुनी ह।’’
‘‘पर आज तो सुनने को तैयार नह हो।’’
मने उसे अपनी प र थित बताई।
तब उसने कहा, ‘‘इसका ता पय यह ह िक तुम मुझे सुने िबना ही पांडव क दूत बनकर ह तनापुर चले
जाओगे?’’
‘‘नह , तु ह सुने िबना नह जाऊगा।’’ मने कहा, ‘‘ह तनापुर जाते समय उप ल य होकर ही जाऊगा। बुआजी से
भी बात करनी ह और तुमसे भी। म तुमसे सहमत िक पु ष प का मत तो काश म आ गया, पर इस संदभ म
नारी प क अवधारणा म जान नह पाया था; जबिक उनक क भी पु ष क तुलना म कम नह रह ह।’’
‘‘तु हार आ ासन पर म िव ास करती , क हया।’’ उसने बड़ी कातर विन म कहा, ‘‘बस इतना ही समझो
िक मुझे कछ नह कहना ह। जो कछ कहना ह, वह तेरह वष से खुले इन कश को।’’ इतना कहकर उसने अपने
सार कश मुँह क सामने कर िलये। उसक आकित ढक गई। लटकते नाग से िघर चं मा क तरह उसक मु ा
िकसी लयंकर शंकर क खोज म िदखी।
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