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Chapter – 5 VERSE – 29

“कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म”

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहे श्र्वरम् |


सु हृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृ च्छति || २९ ||

मु झे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा दे वताओं का परमे श्र्वर एवं
समस्त जीवों का उपकारी एवं हितै षी जानकर मेरे भावनामृ त से पूर्ण पु रुष भौतिक दुखों से शान्ति
लाभ-करता है |

तात्पर्य :
माया से वशीभूत सारे बद्धजीव इस सं सार में शान्ति प्राप्त करने के लिए उत्सु क
रहते हैं |
किन्तु  भगवद्गीता के इस अं श में वर्णित शान्ति के सूतर् को वे नहीं जानते | शान्ति
का सबसे बड़ा सूतर् यही है कि भगवान् कृष्ण समस्त मानवीय कर्मों के भोक्ता हैं |

मनु ष्यों को चाहिए कि प्रत्ये क वस्तु भगवान् की दिव्यसे वा में अर्पित कर दें क्योंकि
वे ही समस्त लोकों तथा उनमें रहने वाले दे वताओं के स्वामी हैं |
उनसे बड़ा कोई नहीं है | वे बड़े से बड़े दे वता, शिव तथा ब्रह्मा से भी महान हैं |

वे दों में (श्र्वे ताश्र्वतर उपनिषद् ६.७) भगवान् को तमीश्र्वराणां परमं महे श्र्वरम् कहा
गया है | माया के वशीभूत होकर सारे जीव सर्वत्र अपना प्रभु त्व जताना चाहते
हैं ,ले किन वास्तविकता तो यह है कि सर्वत्र भगवान् की माया का प्रभु त्व है |
भगवान् प्रकृति (माया) के स्वामी हैं और बद्धजीव प्रकृति के कठोर अनु शासन के
अन्तर्गत हैं

| जब तक कोई इन तथ्यों को समझ नहीं ले ता तब तक सं सार में व्यष्टि या समष्टि


रूप से शान्ति प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं है |

कृष्णभावनामृ त का यही अर्थ है | भगवान् कृष्ण परमे श्र्वर हैं तथा दे वताओं सहित
सारे जीव उनके आश्रित हैं | पूर्ण कृष्णभावनामृ त में रहकर ही पूर्ण शान्ति प्राप्त
की जा सकती है |

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