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BPHS English Girish Chand Sharma Volume 1
BPHS English Girish Chand Sharma Volume 1
वृहत्पाराशर-होराशास्रम्
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अथ बृहत्पाराशरहोराशाखम्
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[गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजप्बुफलसारथक्षणम्।
उणासुतं शोकविनाशकारणं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजप् ॥
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सृषिक्रमकथनाध्यायः ॥९॥
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अथेकदा पुिश्रष्ठं त्रिकालं पराशरम्।
पप्रच्छोपेत्य मेत्रेयः प्रणिपत्य कृताञ्जलिः ॥९॥
भगवन्! परमं पुण्यं गुह्यं वेदाद्धमुत्तम्।
त्रिस्कन्धं ज्योतिषं होरा गणितं संहितेति च॥२॥
एतेष्वपि त्रिषु श्रेष्ठा होरेति श्रूयते युने!।
त्वत्तस्तां श्रोतुमिच्छामि कृपया वद मये प्रथो! ॥३॥
कथं सृष्टिरियं जाता जगतश्च लयः कथम् ?।
खस्थानां भूस्थितानां च ` सम्बन्धं वद विस्तरात्2॥४॥
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अआअथावतारकथनाध्यायः ।॥२ ॥
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रापकृष्णादयो ये ये हावतारा रमापतेः।
तेऽपि जीवांशसंयुक्ताः किंवा ब्रूहि मुनीश्वर !॥९॥
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रामः कृष्णश्च भो विप्र! नृर्विहः सूकरस्तथा।
एते पूर्णावताराश्च ह्यन्ये जीवांशकान्विताः ॥२ ॥
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अवताराण्यनेकानि ह्यजस्य परमात्मनः ।
जीवानां कर्मफलदो ग्रहरूपी जनार्दनः ॥३ ॥
दैत्यानां बलनाश्ाय देवानां वलवृद्धये ।
धर्मसंस्थापनार्थाय ग्रहाज्जाताः शुभाः क्रमात् ॥४॥
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अथ ग्रहगुणस्वरूपाध्यायः ॥३ ॥
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कथितं भवता प्रेम्णा ग्रहाव्तरणं मुने!।
तेषां गृणस्वरूपाद्य कृपया कथ्यतां पुमः ॥१॥
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श्रणु विप्र! प्रवक्ष्यामि भग्रहाणां परिस्थितिम् ।
आकाशे यानि दृश्यन्ते ग्योतिरविम्बान्यनेकशः ॥२ ॥
तेषु नक्षत्रसंज्ञानि ग्रहसंज्ञानि कानिचित् ।
तानि यक्षत्रनामानि स्थिरस्थानानि यानि वै1२॥
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क्टु - क्षार - तिक्त - मिश्र - मधुराम्ल - कपषायकाः।
क्रमेण स्वे व्जियाः सूर्यादीनां रसा इति॥रे६४॥
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वुधेज्यो बलिनौ पूर्वे रवि-भोमो च दक्षिणि।
पर्चिमे सूर्यपुत्रश्च सितचन्द्रौ तथोत्तरे ॥३५ ॥
निशायां बलिनश्चन्र-कुज-सोरा भवन्ति हि)
सर्वदा ज्ञो बली ज्ञेयो दिने शेषा द्विजोत्तम! ॥३६॥
कृष्णे च बलिनः क्रूराः सोप्या वीर्ययुताः सिते।
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अथ राणशिस्वरूपाध्यायः ।॥४॥
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06501060 :
अहोरात्रस्य पूर्वान्यलोपाद् होराऽवशिष्यते ।
तस्य विज्ञानमात्रेण जातकर्मफलं वदेत् ॥९।
यदव्यक्तात्मको विष्णुः कालरूपो जनार्दनः ।
तस्याद्गानि निबोध त्वं क्रमाम्मेषादिराशयः।२॥
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पेषो वृषश्च मिथुनः . कर्क-सिह-कुमारिका।
तुलाऽलिश्च धनुनक्रे कुम्भो `मीनस्ततः परम् ॥३॥
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शीर्षानने तथा बाहू हत्क्रोडकटिवस्तयः ।
गुहयोस्युगले जानुयुग्मे वै जङ्खके तथा।॥४॥
चरणो द्रो तथा मेषात्ेयाः शीर्षादयः क्रमात् ।
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अथातः सम्प्रवश््यामि श्रुणुष्व मुनिपुंगव !
जन्मलग्नं च संशोध्य निषेकं परिशोधयेत् ॥२५॥
तदहं संप्रवश्यामि मैत्रेय ! त्वं विधारय
जन्मलग्नात् परिज्ञानं निषेकं सर्वजन्तु यत् ॥२६॥
यस्मिन् भवे स्थितो मन्दस्तस्य माद्देर्यदन्तरम्।
लग्नभाग्यान्तरं योज्यं यच्च॒ राश्यादि जायते ॥२७॥
मासादि तन्मितं ज्ञेयं जन्मतः प्राक् मिषेकजम्।
यद्यदृश्यदलेद्ेशस्तदेम्दोरभुक्तभागयुक् ॥२८॥
तत्काले साधयेल्लग्नं शोधयेत् पूर्ववत्तनुम्।
तस्माच्छुभाशुभं वाच्यं गर्भस्थस्य विोषतः ॥२९॥
शुभाशुभं वदेत् पित्रोर्जीवनं मरणं तथा।
एवं निषेकलम्नेन सम्यग् ज्ञेयं स्वकल्पनात्
२० ॥
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अथ ग्रहादिसाधनाध्यायः ॥५ ॥
11201€ा 5
10 †ी7त 0 लिवान का
0091101
पञ्चाद्स्थो पिश्रपानकालः पदि्तसमाह्ययः ।
सूर्योदयाद्यातकालः सावनेषट उदीरितः ॥९॥
1. 1/6 1५1511181881711.8818' ॥1 {116 8॥118186 5 ©8॥तं (रकता.
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खखशुन्याष्टवेदेन गतिर्भ॑भोगभाजिता।
एवं चन्द्रस्य विज्ञेया रीति स्यष्टतरा बुधैः ॥९॥
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स्फुटोऽ्कः सायनः कार्यो भुक्तभोग्याशंका्छ ये।
स्वीयोदयगुणा चिज क्ताः कालास्तदाह्वयाः ।\९८ ॥
अभीष्टनादीपलतो भोग्यकालान् विशोधयेत्।
ततक्ाग्निमराशीनां स्वोदयांश्चाथ शेषकम्॥९५ ॥
त्रिशता गुणितं भक्तयशुद्धोदयतः फलम्।
लवाद्यं सहितं मेषादिकैः शुद्धस्तु राशिभिः ॥१६॥
भुक्ते विधौ युक्तकालान् षष्टिशुदधष्टकालतः ।
विशोध्य, गतराीनां स्वोदयांस्तत्र॒ शोधयेत् ९७ ॥
लवादयं तु फलं शुद्धमशुद्धाजादिशशितः ।
अयनांशविहीनं सत् स्फुटं लग्नं प्रजायते १८ ॥
षड़ाशिसहितं तच्च सप्तमं भवनं मतम्।
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लग्नं सुखात् सुखं कापाद् विशोध्य श्रिभिराहरेत्।
एकांशं दिगुणञ्चापि युञ्ज्याल्लग्नचतुर्थयोः ॥२२ ॥
षद्भावाः सन्धय््छैवं पर्वापरयुतेर्दलात्।
ससन्धयः षडेवं ते बार्धयुक्ताः परेऽपि च।॥२४॥
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अथाहं सम््रवश््यामि तवाग्रे द्विजसत्तम ! ।
भाव-होरा-घटी-संज्ञलग्नानीति पृथक् पृथक् ॥९ ॥
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एवं त्म्वादिभावानां कर्तव्या वर्णदा दणशा।
पूर्ववच्च फलं ज्ञेयं देहिनां च शुभाशुभम् ॥२४॥
ग्रहाणां वर्णदा नैव रा्ीनां वर्णदा दशा!
कृत्वाऽ्कधा राशिदशां क्रमादन्त्दशां वदेत् ॥२५॥
एवमत्तर्दशादि च कृत्वा तेन फलं वदेत्।
क्रम व्युत्रमभेदेन लिखेदन्तदंशामपि ॥२६॥
स्वस्वदेशोदभवं लग्न जन्मलग्नमिहोच्येत !
भावहोरादिलग्नानां सर्वत्रैव समक्रिया ॥२७॥
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1५4 | 390 | ^ [74 |6€५ | ५ |160 |५६ | (18 | 800 | 846 | 46 |404 |98
स्वामी |राशि | मेष , वृषभ |भिथुन सिंहं |कन्या |तुला | वृष्चिक | धनु
देवता |5|
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कर्क | सिंह |कन्या |तुला | वृश्चिक | धनु | मकर |कुम्भं |पीन
स्वर्षादिकेनद्रपतयस्त्याशिशाः क्रियादिषु ।
सनकश्च खनब्दश्च कुमारश्च सनातनः ॥९॥
9. (/121८/1/81/77508 - 1) {116 51015 165 &@©., {16 (जतऽ
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भांशाधिपाः क्रमाहस्रयपवह्िपितामहाः ।
चद्दरणादितिजीवाहिपितरो भगसक्ञिताः ॥२४ ॥
अर्यपार्कत्वष्टरुपरच्छक्राग्निमित्रवासवाः ।
निर्र्युदकविश्वेऽजगोविग्दो वसवोऽग्बुपः २५ ॥
ततोऽजपाददिवध्यः पूषा चैव प्रकीर्तिताः ।
नश्त्रणास्तु भांशेा पेषादिचरभक्रात् ।।२६ ॥
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त्रिशांशेशाश्च विषमे कुजार्कीज्यज्ञभार्गवाः ।
पंचपंचाएसप्ताश्चभागानां व्यत्ययात् समे ॥२७॥
वद्वि समीरश्क्रो च धनदो जलदस्तथा।
विषमेषु क्रमा्तेयाः सपराशो विपर्ययात् ॥२८ ॥
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९114-81208, ^नि१/4 /31118, §(17-5(4/8, 1४/१1/8918, [५५२-118 ५12, 5114-811210397, ॥॥|1५118, ४/5. \/258५, १५।९-२8॥९७11258, \/॥२-४/३८५78.,
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लगे देहस्य विज्ञानं होरायां सम्पदादिकम्।९॥
द्रष्काणे भ्रातजं सौख्यं तूर्याणि भाग्यचिन्तनम्।
पुत्रपोत्रादिकानां वै चिन्तनं सप्तमांशके॥२॥
नवर्पाणे कलत्राणां दशमांशे महत्फलम् ।
द्ादशांशे तथा पित्रोश्विन्तनं षोडशांशके ॥२॥
सुखाऽसुखस्य विज्ञानं वाहनानां तथैव च।
उपासनाया विज्ञानं साध्यं विशतिभागके ।४॥
वद्या वेदबाहशे भांशे चैवे बलाऽबलम्।
त्रिशांशकेऽरिष्टफलं खवेदांे शुभाऽशुभम् ॥५॥
अक्षवेदांशके चेव षष्टयंशेऽखिलयीक्षयेत् ।
यत्र॒ कुत्रापि सम्प्राप्तः क्रूरषष्टयेशकाधिपः ॥६॥
तत्र॒ नाशो न सखद्देहो गर्गादीनां व्यो यथा।
यत्र॒ कुत्रापि सम्प्राप्त क्लाशाधिपतिः शुभः ॥७॥
तत्र॒ वृद्धिश्च पुष्टिश्च मर्गादीनां वचो यथा।
इति षोडशवर्गाणां भ्रदास्ते प्रतिपादिताः ॥८ ॥
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वर्गविश्वाः स्वविश्वलनाः पुनर्वितिभाजिताः।
विशष्वाफलोपयोमग्यं त्त्यञ्चोनं फलदो म हि॥२६॥
तदूर्ध्व स्वत्पफलदं दशोर्ध्वं मध्यमं स्पृतम्।
तियूर्धं पूर्णफलदं बोध्यं सर्व खचारिणाम् ॥२७॥
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दृष्िचक्रमहं वश्ये यथावद् ब्रह्मणोदितम्।
यस्य॒ विन्यासमात्रेण दृष्टिभिदः प्रकाश्यते ॥६ ॥
प्राचि मेषवृषो लेख्यौ कर्कसिहौ तथोक्ते ।
तुलाऽली पश्चिमे विप्रः पृगकुम्भो च दक्ठिणि॥७॥
ईंश-कोणे तु पिशुनं वायव्ये कन्यकां तथा।
नैऋत्यां चापमालिख्य वद्धिकोणे इषं लिखेत्
॥८ ॥
एवं चतुर्भुजाकारं वृत्ताकारषथापि वा।
दृ्टिचक्रं प्रविन्यस्येवं ततो दृष्टि क्चारयत् ॥९॥
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पराशर उवाच-
लग्नचन्रान्तरालस्थगरहेः स्युरुपसूतिकाः ।
दृ्यादृश्यविभागाप्यां वहिरन्त्छ ताः स्पृताः ॥९२॥
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आदौ जन्मादूततो विप्र! रिष्टाऽरिष्टं विचारयेत्।
ततस्तम्वादिभावानां जातकस्य फलं वदेत् ॥१॥
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चतुर्विंशतिवर्षाणि यावद् गच्छन्ति
जन्पारिष्टं॑तु तावत् स्यादायुर्दायं न चिन्तयेत् ॥२॥
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चन्द्रसूर्यग्रहे राहुश्च्दरसूरययुतो यदि।
सौरिभोमे्चितं लग्नं पक्षमेकं स जीवति ।७॥
कर्मस्थाने स्थितः सौरिः शत्रुस्थाने कलानिधिः।
श्ितिजः सप्तमस्थाने सह मात्रा विपे ॥८॥
लग्ने भास्करपुत्र्व निधने चन्द्रमा यदि।
तृतीयस्थो यदा जीवः स , याति यपमद्दिरम् ॥९॥
होरायां नवमे सूर्यः सप्तमस्थः शमेश्चरः।
एकादशे गुरु शुक्रो मासमेकं स जीवति ॥९०॥
व्यये स्वे ग्रहा नेष्टा सूर्यशुक्र्दुराहवः।
विशेषाननाशकर्तारो दृष्टयया वा भडुकारिणः ॥११॥
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व्ययशत्रुगतेः ्रररमत्युद्रव्यगतेरपि ।
पापमध्यगते लग्ने सत्यमेव यृति वदेत् ॥१६॥
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लग्नसप्तपगो पापौ चन्द्रोऽपि क्रूरसंयुतः ।
यदा नावेश्ितः सौम्यैः श्ीप्रानृत्यरभवेत्तदा ॥१७ ॥
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क्षीणे शशिनि लग्नस्थे पपेः केन्द्राष्टसंस्थितैः।
यो जातो मृत्युमाप्नोति स व्िपरिश! न सं्यः॥९१८॥
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पापयोरमध्यगज्चन्द्र लग्ना्टान्तिमसप्तयः ।
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अथाऽरिषटभंगाध्यायः ॥१२ ॥
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^111-600165 10 ८५/15
इत्यरिष्टं मया प्रोक्तं तदभद्श्चापि कथ्यते ।
यत् समालोक्यं जातानां रिष्टाऽरिष्टं॑वदेद् बुधः ॥९॥
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एकोऽपि ज्ञर्यशुक्राणां लग्नात् केन्द्रगतो यदि।
अरिष्टं निखिलं हन्ति तिमिरं भास्करो यथा॥२॥
2. 1 &“& 016 80710104 ॥५ल ला, 4८06 806 61105 12006115
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एक एव बली जीवो लग्नस्थो रिष्टसंचयम्।
हन्ति पापक्षयं भक्त्या प्रणाम इव शूलिनः ॥३॥
3. ^ 51016 004 91004 4८001681 ॥ 116 [248 01 4566 185
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अष्टिं तत्रं च श्रुतं त्वतो पया पुने!।
कस्माद् भावात् फलं किं किं विचार्यमिति? मे वद ॥९१॥
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खीग्रहो भ्रात भावेशः श्रीग्रह भ्रातृभावगः ।
भगिनी स्यात् तथा भ्राता पुंगृहे पुंग्रहो यदि॥४॥
मिश्रे पिश्रफलं वाच्यं बलाबलविनिर्णयात् ।
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मृतो कुजतृतीयेशो सहोदरविनाशको ॥५ ॥
केन्द्रत्रिकोणगे वाऽपि स्वोच्मित्रस्ववर्णगे ।
कारके सहजेशे या भ्रातृसौख्यं विनिर्दिशेत् ॥६॥
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षष्ठाधिपः स्वगेहे वा देहे वाऽप्यष्टमे स्थित।
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लग्नाधिपः कुजे बुधभे यदि संस्थितः।
यत्र॒ कुत्र स्थितो ज्ञेन वीक्चितो मुखरुकप्रदः ।।६॥
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जायाभावफलं वध्ये श्रृणु त्वं द्विजस्त्तप!।
जायाधिपे स्वभे स्वोच्चे खीसुखं पूर्णमादिशेत् ॥९॥
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कलत्रपो विना स्वरं व्ययषष्ठाष्टपस्थितः ।
रोगिणीं कुरूते नारीं तथा तुङ्गादिकं विना॥२॥
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वन्ध्यासङ्ञो मदे भानौ च्रे राशिसमच्ियः।
कुजे रजस्वलासङ्खो रजस्वहा सङ्खो वन्ध्यासद्श्च कीर्तितः ।॥७ ॥
बुध वेश्या च हीना न वणिक् सी वा प्रकीर्तिता।
गुरौ ब्राह्मणभार्या स्यादर्धिणीसङ्ग एव च ॥८॥
हीना च पुष्पिणी वाच्या मन्दराहुफणीशवरः।
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कर्णे लग्नभावस्थे लम्नेशेन समन्विते ।
केन्त्रिकोणगे चदे सत्कर्मनिरतो भवेत् ॥९५॥
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कर्मस्थानगते मन्दे नीचखेचरसंयुते ।
कमशि पापसंयुक्ते कर्महीनो भवेन्नरः ॥१६॥
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कर्मेशे नाशराशिस्थे रन्धेशे कमेसंस्थिते ।
पापग्रहेण संयुक्ते दुष्कर्म निरतो भवेत् ॥१७॥
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कर्मेशे नीचराशिस्थे कर्मस्थे पापखेचरे ।
कर्मभात्कर्मगे पापे कर्मवैकल्यमादिशेत् ॥।१८ ॥
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लाभभावफलञ्चाथ कथयामि द्विजोत्तम ! ।
श्रूयतां जातको लोके यच्छुभत्वे सदा सुखी ॥९॥
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लाभाधिपो यदा लाभे तिष्ठेत् केद्धत्रिकोणयोः।
बहुलां तदा कुर्यादुच्चे सूर्याशगोऽपि वा॥२॥
2. ##1)611 16 1111 [0 5 आप्संलत ॥ {16 111 110८५56 54 ज
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अथाहं व्ययभावस्य कथयामि फलं द्विज! ।
व्ययेे शुभसंयुक्ते स्वभे स्वोच्चगतेऽपि वा॥१॥
व्यये च शुभसंयुक्ते शुभकर्यै व्ययस्तदा।
चनो व्ययाधिपो धर्मलाभमन््ेषु संस्थितः ॥२॥
स्वोच्च स्वरं निजांशे वा लापघर्मात्मजांशके।
दिव्यागारादिपर्यको दिव्यगन्धेक भोगवान् ३ ॥
परा्ध्यरमणो िव्यवखमाल्यादिभुषणः ।
परार््यवित्तसंयुतो विज्ञो दिनानि नयति प्रभुः ।४॥
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वं स्वशत्रुनीचांशेऽष्टमांशे वाऽष्टमे रिपो।
संस्थितः कुरुते जातं कान्तासुखविवर्जितम्॥५ ॥
व्ययाधिक्यपरिक्लान्तं दिव्यभोगनिराकृतम्।
सहि केच्धत्रिकोणस्थः स्वखियाऽलंकृतः स्वयम् ॥६॥
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लगने लग्नगे देहसुखभाग् भुजविक्रमी ।
मनस्वी चश्चलष्वैव द्विभार्यो परगोऽपि वा॥९॥
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लग्ने धनगे बालो लाभवान् पण्डितः सुखी।
सुशीलो धर्मविन्मानी बहुदारो गुणेर्युतः ॥२ ॥
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लग्नेणे लाभगे जातः सदा लाभसमन्वितः ।
सुज्नीलः ख्यातकीर्ति बहुदारगुणेर्युतः ॥९९ ॥
11. 1! 6856 116 ¢56611080† [016 [185 0661 12660 ॥0 116 11111
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लग्नेशो व्ययभावस्थे देहसोख्यविवर्जितः ।
व्यर्थव्ययी महाक्रोधी शुभदृग्योगवरजिते ।।९२ ॥
12. ॥1 {116 €हौं ज 16 ^ऽ(6लातैढ | 010 06/70 ०8666 ॥ 1/6
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धनेशे सुखभावस्थे सर्वसप्यतसमम्वितः ।
गुरुणा संयुते स्वोच्चे राजतुल्यो नरो भवेत् ॥९६॥
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लग्नगे सहजाधीशे स्वभुजा्जितवित्तवान्।
सेवाज्ञः साहसी जातो विद्याहीनोऽपि बुद्धिमान् ॥२५ ॥
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स्थेशे रिपुभावस्थे शतरुजेता भवेज्जनः ।
रोगयुक्तशरीरश्च बाल्ये सर्पजलाद् भयम्॥९० ॥
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ग्रेण दारभावस्थे तस्य भार्याद्वयं भवेत्।
व्यापारे च भवेदहानिस्तस्मिन् पापयुते ध्रुवम् ॥९९॥
91. 116 8।) [00 ऽ 12660 ॥ 1/6 71 1106056, {116 1५6 ५/॥
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नौलावा711)0 106 0५655 8110 0065 110 6816 ज ॥15 11811665.
कर्मेशे लग्नगे जातो विद्रान ख्यातो धनी कविः।
बाल्ये रोगी सुखी पाद् धनवृद्धि्दिने दिते ॥९०९॥
109. $॥०५ 116 10111 [अर्ध 06 आपशंलतं ॥ 1116 ^56नादा; 1116
111५6 ५५॥ 06 1681160, 8111005, 06 8 00६, \#॥ 116" 01568565 ॥1
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राज्येशे धनथावस्थे धनवान् गुणसंयुतः ।
राजमान्यो वदान्यश्च पित्रादिसुखसंयुतः ॥११० ॥
110. [116 10) [जप ०८८५0165 1116 206 11056 116 1६1५6 ५५॥
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81८५द101 ५५॥ 06 071६८ ॥॥1 {116 | 10174 ^5(6लाापठाा.
कर्मेशे सहजे जातो भ्रातृभृत्यसुखाम्वितः ।
विक्रपी गुणसप्यन्नः वाग्मी सत्यरतो नरः ॥११९॥
111. [116 101 [-जर्ध ऽ अओपरन्वं #॥ 116 उप 11०56, 116 (५९
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कर्मेशे सुखभावस्थे सुखी मातृहिति रतः।
यान-पूमि-गृहाधीशो गुणवान् धनवानपि ॥१९२ ॥
112. 5110410 1/6 1011 |०ध 06 ८86 ॥ {16 41/ [10056, 1/6
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कर्मेरो सुतभावस्थे सर्वविद्यासमन्वितः ।
सर्वदा दर्षसंयुक्तो धनवान् पुत्रवानपि ॥९९३॥
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लाभेशे लग्नगे जातः सात्विको धनवान् सुखी।
समदृष्टिः कविर्वाग्मी सदा लाभ-सपम्वितः ॥१२९॥
121. [1/6 111 [01५ 5 ०866 [0116 056८्लतदाा 116 प1५6 ५1
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लाभेशे धनभावस्थे जातः सर्वधनान्वितः ।
सर्वसिद्धियुतो दाता धार्मिकश्च सुखी सदा ॥१२२॥
122. ऽ॥01 116€ {114 10त 0€ ०६666 ॥) 1116 210 1101156, 1/6
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लाभेशे सहजे जातः कुशलः सर्वकर्मसु ।
धनी भ्रातृसुखोपेतः शलरोगभयं क्वचित् ९२२ ॥
123. 1/6 111) [01घ 06 9८ब€त ॥ 116 316५ 1160056, 116 07811५6
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लाभेशे सुखभावस्थे लाभो मातृकुलाद् भवेत्।
तीर्थयात्राकरो जातो गृहभूमिसुखान्वितः ॥१२४॥
124. ॥1 ©856 1/6 1114 | 016 ऽ 9(48€्त ॥1 106 411 (056, 1/€
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1111000/ 116 ७26 3010 04161856 अ 18005, 11250011, ३164106,
१५156 &6.
लाभेशे सुतभावस्थे भवन्ति सुखिनः सुताः।
विद्यवन्तोऽपि सच्छीलाः स्वयं धर्मरतः सुखी ॥१२५॥
125. 1116 1111 [06 {ऽ ०1३68 ॥ 116 511 110८056, 116 ॥81\€*5
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06011 गं६€्५.
लाभेशे रोगभावस्थे जातो रोगसमम्वितः ।
करूरवुद्धि प्रवासी च शत्रुभि परिपीडितः ।१२६॥
126. 0 6856 1/6 111) [० ऽ 0056 ॥ 16 ©) 11056, 16
111५6 \/॥ 06116178॥४ 1671810) 566४ 116 ५५॥ 06 6068, ॥५॥00 ॥ फि्ता
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लाभेशे दारभावस्थे लाभो दारकुलात् सदा।
उदाश्छ गुणी कामी जनो भार्यावशानुगः ९२७ ॥
127. 1 {16 111 [अप ऽ अपधवां€त ॥1 1/6 7) 10056, 106 ॥वा1५6
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व्ययेशे सहजे जातो भ्रातृसोख्यविवर्जितः।
भवेटन्यजनदरेषी स्वशरीरस्य पोषकः ॥९३५ ॥
135. 1 116 1210) [0/८ ।5 12666 ॥1 116 31५ 110५568, 116 781५€
\/॥ 06 06५0 ज ¶ वं 18| 3155, ४५॥ 118५6 वल 01 09/16 00016 वा
\॥ जा०ं6 561 10476 0 ४५८1 06 5 66760.
व्ययेशे सुखभावस्थे मातुः सुखविवर्जितः ।
भूमियानगृहादीनां हानिस्तस्य दिने-दिने ॥९३६॥
1368. 10 1116 € ज 16 121 [0त 0670 08660 ॥ 116 41
11001568, 1116 (वा. ५/॥ 06 ०6५0 ज ॥ाश॑लि118| 1180010655 8110 ५५॥ ५2४
0\/ 29 1188 1095565 10 16506 र 18005, ©00५6#/80685 2010 11011565.
॥५०९8 : ^ 11५6 118५100 1115 ©01110107811010 9१७0 565 11185 8105,
©00\6/8/1665 800 11011565 0 ०6110 80607105) 115 06660 10168100
10 €811114 \/68॥1). ¶6र्धा०'€ ॥ 1125 0660 92801118 11116 121॥ [6010 5
9118160 ॥1 1116 4111 1100156 1116 781५6 ५५ [8५6 ५३४ 0 ५३४ 1055656 ॥1
{650661 18005, 60/68/1665 8010 1104965. ।६ ऽ 1116 81165 [8५100
@@1111 206 |60 56670815 ५110 216 ५6५०५ ज तार्थ) 0155
06680156 1 11656 ^\566708715 1116 1211 06 ५/1 06 ५601. 6५॥01116
4/1 1100968. 1116 ॥ 8५65 0011) ॥0 1116 ^1165 200 5601190 ^56610608/15
\/॥ 18५6 506618| (71861112 01195 06091456 ॥1 11656 ^\56681108॥18 116
1211) |0105 ४५॥ 06 6).8॥160 ॥0 116 4 [-6458.
व्ययेशे सुतभावस्थे सुतविदाविवर्जितः ।
पुत्रार्थे; च व्यस्तस्य तीथाटनपरो नरः ॥१३७॥
137. 5110046 1116 121) [016 ०6600 1116 51) 11056, 1116 ॥8॥1५6
\/1॥ 06 061 ज 5005 810 1681100. [16 \५॥ 50606 1006 8000 2150
11246 (01011126 10 0606 8 501).
॥०१€§ : ^60060100 10 11115 1116, 1116 121) [10156 01 {16 1100156
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व्ययेशे व्ययभावस्थे व्ययाधिक्यं हि जायते।
न शरीरसुखं तस्य क्रोधी द्वेषपरो नृणाम् ९४४ ॥
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इति ते कथितं विप्र भावेशानां च यत् फलम्।
बलाऽबलविवेकेन सर्वेषां तत्समादिशेत् ॥१४५ ॥
दविराश्ीशस्य खेटस्य विदित्वोभयथा फलम्।
विरोधे तुल्यफलयोद्रैयोनशः प्रजायते ९४६ ॥
विभित्रयोस्तु फलयोर्हयोः प्रपिर्भवेदश्ुवम्।
ग्रहे पूर्णबले पूर्णमर्धमर्थबले फलम् ॥९४७॥
पादं हीनबले खेटे ज्ञेयपित्थं वुधेरिति।
उक्तं भावस्थितानां ते भावेशानां फलं मया ॥९४८ ॥
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रव्यादिसप्तखेटानां प्रोक्तं भावफलं मया ।
अप्रकाशप्रहाणं चं फलानि कथयाम्यहम् ॥१॥
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कोपी च बहुकर्माढ्यो व्यगो धर्मस्य दूषकः)
व्ययस्थाने गते पाते विद्रधी निजबन्धुषु ॥२५॥
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विद्वान् सत्यरतः शान्तो धनवान् पुत्रवाच्छुचिः।
परिधौ तनुगे दाता जायते गुरुवत्सलः ॥२६॥
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ईश्वरो रूपवान् भोगी सुखी ध्मपरायणः।
धनस्थे परिधौ जातः प्रभुर्भवति मानवः ॥२७॥
27. {161 ?8।10|11 [ऽ 12080 ॥0 116 216 11058, 116 71811५6 \॥
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खीवल्लभः सुरूपांगो देवस्वजनसंगतः ।
तृतीये परिधौ भृत्यो गुरुभक्तिसमन्वितः ॥२८ ॥
28. ॥ 22101 15 51618160 10 116 316 10456, 11/16 ॥वा।५९ ५८1 06
06110 ॥115 ५16, ५/॥ [12५6 61811111 0615001४ 06 06/0166 अ ७0५5
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[15 60615.
परिधौ सुखभावस्थे विस्मितं त्वरिमंगलम्।
अक्रूरं त्वथ सम्पूर्णं कुर्ते गीतकोविदम् ।।२९॥
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0) 2 ४५/९॥ 10 ५0 जि71॥४
श्ुधालुर्दःखितः क्रूरस्तीक्णरोषोऽतिनिर्ृणः ।
र्रगे गुलिके निस्वो जायते गुणवर्जितः ॥६९॥
69 ॥ ७८३ [ऽ 016 ॥ 1116 81) (10056, 1/6 11५९ ४ 06
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बहुक्लेशः कृशतनुर्ुष्टकर्मातिनिर्घृणः ।
गुलिके धर्मगे मन्दः पिशुनो बहिराकृतिः ।\७० ॥
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पत्रान्वितः सुखी भोक्ता देवाग््र्चनवत्सलः।
दशमे गुलिके जातो योगधर्मश्रितः सुखी ॥७१॥
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भगवन्! कतिधा दृष्ट्बलं कतिविधं तथा।
इति मे संशयो जातस्तं भवान् छेनतम्हति ॥९॥
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एका राशिवशाद् दृष्टि पूर्वमुक्ता च या द्विज।
अन्या खेटस्वभाकेत्था स्फुटा तां कथयाप्यहम्।।२ ॥
त्रिदशे च त्रिकोणे च चतुरस्रे च सप्तमे।
पादवृद्ध्या प्रपश्यन्ति प्रयच्छन्ति फलं तथा॥२३॥
पूणं च सप्तमं सरव, शनि-जीव-कुजाः पुनः।
विशेषतश्च त्रिदश-त्रिकोण-चतुरष्टमान् ॥४॥
इति सामान्यतः पू्वराचार्ये प्रतिपादिता ।
स्फुटान्तरवशाद्या च दृष्टि साऽतिस्फुटा यथा।॥५॥
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अथ स्पष्ट्बलं व्ये स्थान-कालादिसम्भवम्।
नीचोने खचरं भार्थाधिकं चक्राद् विशोधयेत् ॥९॥
भागीकृत्य त्रिधिर्भक्त लब्धमुच्चवलं भवेत् ।
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118118191। 2818911818 ॥ 5101. 21-23.
एवं ग्रहबलं प्रोक्तमथ भावबलं श्रणु।
कन्यायुग्मतुलाकुम्भचापादार्थाशच सप्तमम् ॥२६ ॥
गोऽजसिहमृगाद्यार्थ चापान्तयार्धात सुखं त्यजेत्।
कर्कवृश्चिकतो लग्नं पृगान्त्यार्थाड्डषाच्च खम् ।२७॥
शोध्यमद्भाधिकं चक्राच्चयुतं भागीकृतं त्रिह्।
सद्दृष्टिपादयुक् ~ पापदृष्टिपादविवर्जितम् ॥२८ ॥
जञज्यदृष्टियुतं तच्च स्वस्वस्वामिबलान्वितम्।
इति भावबलं स्पष्टं सामान्य च पुरोदितम् ॥२९॥
26-29. ॥ 5 ॥1 {115 ५8४ 1#7 । [18५6 5001661 ग 1106 5300148 088
(3600) म 116 08165. ५०५५ 196) {0 (2004 {€ 1161006 ज
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1121 106 51415 र ^1165, 1811119, (60, 0201607) 01 10 1116 16 ।4
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बुधेज्ययुक्त भावस्य खलमेकेन संयुतम् ।
मन्दाररवियुक्तस्य बलमेकेन वर्जितम् ॥३० ॥
दिनि शीर्षोदयो भावः सन्ध्यायामुभयोदयः।
निशि पृष्ठोदयाख्यश्च दद्यात् पादमितं बलम् ॥३९ ॥
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अंकागनयोऽद्रामा्च खाग्नया करसिन्धवः।
नवाग्नयः सुराखिंशद् दशसंगुणिताः क्रमात् ॥३२ ॥
रव्यादीनां बलैक्येत् तदा सुबलिनो पमताः।
अधिकं पूर्णमेव स्याद् बलं चेद्वलिनो द्विज!३२ ॥
68/08 (8/858/8 (0/2 5/1251/8 413
©1182४/8 08085
कथयाम्यथ भावानां खेटानां , च पदं द्िज।।
तद्विशेषफलं ज्ञातुं यथोक्तं प्रादमहर्षिभिः ॥९॥
लग्नाद् यावतिथे रशो त्िष्ठेल्लम्ेश्वरः क्रमात्।
ततस्तावतिथे राशौ लग्नस्य पदमुच्यते ॥२॥
सर्वेषापपि भावानां ज्ञेयपेवं पदं द्विज!।
तनुभावपदं तत्र॒ बुधा मुख्यपदं विदुः ॥३॥
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यस्माद् यावतिथे राशौ खेटात् तद्धवनं द्विज!।
ततस्तावतिथं राशि खेटारूढं प्रयश्चते ॥६॥
द्विनाथद्िभयोरेवं विज्ञेयं सवलावधि ।
विगणय्य पदं विप्र! ततस्तस्य फलं वक्देत्॥७॥
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पदादेकादशे स्थाने ग्रैर्यक्तेऽथवेक्षिते ॥८ ॥
धनवान् जायते बालस्तथा सुखसमन्वितः ।
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अथोपपदाध्यायः ।।३२ ॥
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अथोपपदपाश्रित्य कथयामि फलं द्विज !।
यच्छुभत्वे भ्वे्रृणां पुत्रदारादिजं सुखम् ॥१॥
तनुभावपदं विप्र! प्रधानं पदमुच्यते ।
तनोरनुचरादत् स्यादुपारूढं तदुच्यते ॥२ ॥
तदेवोपपदं नाम तथा गौणपदं स्मृतप्।
शुभखेटगृहे तस्मिन् शुथग्रहयुतेशचिते ॥३॥
पुत्रदारसुखं पर्ण जायते द्विजसत्तम ! ।
पापग्रहयुते तत्र पापभे पापवी्िते ॥४॥
परव्राजको भवेज्जातो दारहीनोऽथ वा नरः|
शुभद्ग्योगतो नैव योगोऽयं दारनाशकः॥५॥
रविरनैवात्र॒ पापः स्यात् स्वोच्वमित्रस्वभस्थितः।
नीचश्तुगृहस्थश्ेत्तदाऽसो पाप एवं हि ॥६॥
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शुभग्रहाणां दृषिदुपारूढाद् द्वितीयके ।
शुभं शुभयुक्ते च पूर्वोक्तं हि फलं स्पृत्तम्।॥७॥
उपारूढाद् द्वितीयं च नीचांशे नीचखेटयुक् ।
्रूरगरहसमायुक्तं जातको दारहा भवेत् ॥८ ॥
स्वोच्चांशे स्वोच्चसंस्थे वा तुदधदष्टिवशात् तथा।
भवन्ति बहवो दारा रूपलक्षणसंयुताः ॥९ ॥
उपारूढे द्वितीये वा पिथुने संस्थिते सति।
तत्र॒ जातनरो विप्रं बहुदारयुतो भवेत् ॥१० ॥
उपारूढे द्वितीयेऽपि स्वस्वामिग्रहसंयुते ।
स्वर्गे तत्पतौ वापि यत्र कुत्रापि भूसुर ॥१९॥
यस्य॒ जन्मनि योगोऽयं स नरो द्विजसत्तम !।
उत्तरायुषि निर्दारो भवत्येव न संशयः ॥१२॥
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भगवन्! याऽगला प्रोक्ता शुभदा भवताऽधुना।
तापहं श्रोतुमिच्छामि सलक्चणफलां पुने! ॥१॥
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मैत्रेय! सार्गला नाम यया भावफलं दृढम्।
स्थिरं खेटफलं च स्यात् साऽधुना कथ्यते मया ॥२॥
च्तुर्थे च धने लाभे ग्रहे ज्ञेया तदर्गला।
तद्राधकाः क्रमात् खेटा व्योपरिष्फतृतीयगाः ॥२॥
निर्बला व्यूनसंख्या वा बाधका नैव सम्मताः।
तृतीये त्र्यधिकाः पापा यत्र॒ मैत्रेय! बाधकाः ॥४॥
तत्रापि चार्गला ज्ञेया विपरीता द्विजोत्तम !।
तथापि खेटथावानां फलपर्गलितं विदुः ॥५॥
पञ्चमं चार्गलास्थानं नवमं तद्विरोधकृत्।
, तपोग्रहभवा सा च व्यत्ययाज् ज्ञायते द्विज! ॥६॥
एकाग्रहा कनिष्ठा सा द्वियहा मध्यमा स्पृता।
अर्गला हयधिककोत्यत्ना मुनिभिः कथितोत्तमा ॥७॥
राशितो ग्रहतश्चापि विज्ञेया दविविधाऽर्गला ।
नि्बाधका सुफलदा विफला च सवाधका॥८॥
यत्र॒ राशौ स्थितः खेटस्तस्य पाकान्तरं यदा।
तस्मिन् काले फलं ज्ञेयं निर्विशंकं द्विजोत्तम! ॥९॥
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अथाऽहं सण््रवश्ष्यापि ग्रहानात्मादिकारकान् ।
सप्तरव्यादिषन्यन्तान् रहन्ता वाष्टसंख्यकान् ॥९॥
उशिः समौ ग्रहौ दौ चेद्राह्वान्तान् चिन्तयेत् तदा।
सप्तैव कारकानेवं केचिदषौ प्रचक्षते २ ॥
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आत्मा सूर्यादिखेटानां मध्ये हांशाधिको ग्रहः।
अंशसाप्ये कलाधिक्यात् तत्साप्ये विकलाधिकः ॥३॥
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अथ कारकाशफलाध्यायः ॥३५ ॥
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अथाऽहं सम्रवक्षयामि कारकांशफलं द्विज! ।
मेषादि-राशिगे स्वांशे यथावद् ब्रहमभाषितम्॥९॥
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गृहे मूषकमार्जारा मेषांशे हयात्मकारके ।
खदा भयप्रदा विप्र! पापयुक्ते विरोषतः॥२॥
वृषांशकगते स्वस्मिन् सुखाश्च चतुष्पदाः ।
पिशुनांशगते तस्मिन् कण्ड्वादिव्याधिसम्भवः ॥३ ॥
कर्कांशे च जलाद् भीतिः सिंहांशे श्रपदाद् भयम्।
कण्टूः स्थौल्यञ्च कन्यांशे तथा वह्विकणाद् भयम् ॥४॥
तुलांशे च वणिग् जातो वस््रादिनिर्मितौ पटुः ।
अल्यंशे सर्पतो भीतिः पीडा यातुः पयोधरे ॥५॥
धनुरंशे क्रमादुच्चात् पतनं वाहनादपि ।
मकरंशे जलोदभूतेरजन्तुभिः खेचरस्तथा ॥६ ॥
शंख-मुक्ता-प्रवालायर्लाभो भवति निश्चितः ।
कुम्भांशे च तडागादि-कारको जायते जनः॥७॥
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कारकांशवशदेवं फलं प्रोक्तं मया द्विज! ।
अथ भावाधिपत्येन ग्रहयोगफलं श्रृणु ॥१॥
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केन््राधिपतयः सौम्या न दिशन्ति शुभं फलम्।
क्रूरा नैवाऽशुपं कुर्युः शुभदाश्च त्रिकोणपाः॥२॥
लग्नं केद्धत्रिकोणत्वाद् विशेषेण शुभग्रदम्।
पञ्चमं नवमे चैव विशेषधनयुच्यते ॥२॥
सप्तमं दशमं चैव विशोषसुखमुच्यते ।
त्रिषडायाधिपाः सर्वे ग्रहाः पापफलाः स्मृताः ॥४॥
व्ययद्वितीयरन्धेशाः साहचर्यात् फलप्रदाः ।
स्थानान्तरानुरोधातते प्रबलाश्वोत्तरोत्तरम् ॥५ ॥
तत्र भाग्यव्ययेशत्वाद्रन्धेशो न शुभप्रदः ।
त्रिषडायाधिषपत्वेऽथो कोणपत्वे तु सत्फलः॥६॥
उक्तेष्येषु बली योगो निबैलस्य प्रवाधकः।
न रप्रशत्वदोषोऽत्र सूरयाचन्द्रमसोर्भवेत् ७ ॥।
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केन्द्रकोणपती स्यातां परस्यरगृहोपगो ।
एकभे दौ स्थितौ वाऽपि होकभेऽन्यतरः स्थितः ॥९९॥
पर्णदृष्टयेश्चिततौ वाऽपि मिथौ योगकारौ तथा।
योगेऽस्मिन् जायते भूयो विख्यातो
वा जनो भवेत् ॥९२॥
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भोपजीवारुणाः पापाः एक एव कविः शुभः।
शैशवेणः जीवस्य योगो पेषभवो यथा॥२५॥
शशी पुख्यनिहन्ताऽसो साहचर्याच्च पाकदः।
हद्रलग्नोद्धवस्येवं फलान्यूह्यानि पंडितैः ॥२६॥
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कुजजीवेन्दवः पापाः शुभो भागेवचनद्रजो ।
मन्दः स्वयं न हन्ता स्याद् हन्ति पापाः कुजादयः ॥२३९ ॥
सूर्यः समफलः प्रोक्तः कविरेकः सुयोगकृत्।
मृगलम्नोद्धवस्यैवं फलान्यूह्यानि सूरिभिः ॥४०॥
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एवं भावाधिपत्येन जन्मलग्नवशादिह ।
शुभत्वमशुभत्वं च ग्रहाणां प्रतिपादितम् ।४५॥
अन्यानपि पुनर्योगान् नाभसादीन् विचिन्त्य वै।
देहिनां च फलं वाच्यं प्रवश्यामि च तानहम् ।४६ ॥
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अधुना नाभसा योगाः कथ्यन्ते द्विजसत्तम) ।
वात्रिशत् तत्मभेदास्तु शतध्नाष्टादणोन्िता ॥९ ॥
आश्रयाख्याख्यो योगा दलसंज्ञं हयं ततः।
आकृतिर्विशशतिः संख्याः सप्त योगाः प्रकीर्तिताः ॥२॥
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32
रज्जु पुसलटैव नलक्मत्याश्रयाखयः ।
मालाख्याः सर्पसंज््ठ॒ दलयोगौ प्रकीर्तितो ।।२॥
गदाख्याः शकटाख्याश्च श्रुाटक-विहंगमो ।
हलवत्रयवष्ैव कमलं वापियुपको ।[४॥
शर-शक्ति-दण्ड-नोका-कूट-च्छत्र-धनूषि च।
अर्धचन्द्रस्तु चक्रं च समुद्रेति विशत्िः॥५॥
संख्याख्या - वल्लकी - दाम - पाश - केदार - शूलकाः ।
युगो गोलश्च सप्तैते युक्ता दन्तमिता द्विज! ॥६॥
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सर्वकेन्द्रभतेः स्वैर्मिश्र कमलसंज्ञकः ।
केद्रादन्यत्रगैः सर्वैरयोगो वापीसमाह्यः ॥९२ ॥
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15 फिगा160 50 {ऽ 0817160 85 \8/0। 008.
युपो लग्नाच्चतुर्भस्यैः शरसतर्याच्चतुरभगे ॥
शक्तिर्मदाच्चतुर्भस्थेरदण्डो मध्याच्चतुर्भगेः ।॥९२॥
68/18 (22/258/8 110/8 5/1450व 499
८8१४ अ 70४ ला५४९65 11098 ४५110 816 8016 10 ५५,३॥< 81070 ऽ106 #नीौ
171.
पानज्ञानधनाचोरयक्ता भूपप्रियाः ख्याताः ।
बहुपुत्राः स्थिरचित्ता मुसलसमुत्था भवन्ति नराः ॥१९ ॥
19. ॥॥454^ 0064: ॥8।५४65 {819 (८5818 0०48 ॥1 ¶॥7ना
110/1056006 2/6 ७10०५५6 भनौ 110170८; ऽततो 810 ५0५6606,
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न्यूनातिरिक्तदेहा धनसश्चयभागिनोऽतिनिपुणा्च ।
बन्धुहिताश्च सुरूपा नलयोगे सम््रसूयन्ते ॥२०॥
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नित्यं सुखप्रधाना वाहनवसखान्न भोगसम्यत्ना ।
कान्ताः सुबहुखीका मालायां सम्प्रसूताः स्युः ॥२१॥
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विषमाकरूरा न्ष्स्वा नित्यं दु-खार्दिताः सुदीना्च।
परभक्षपाननिरताः सर्पप्रभवा भवन्ति नराः ॥२२॥
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सततोदुक्तार्थवशा यज्यानः शाखगेयकुशलाष्च ।
धनकनकरलसप्पत्छयुक्ता मानवा गदायां तु ॥२२॥
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रोगार्ताः कुनखा मूर्खाः शकटानुजीविनो निःस्वा।
मित्रस्वजनविहीनाः शकटे जाता भवन्ति नराः ॥२४॥
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प्रमणसुचयोविकृष्टा दूताः सुरतानुजीवनो धृष्टः ।
कलहप्रियाश्च नित्यं विहगे योगे सदा जाताः ॥२५॥
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विभवगुणाढयाः पुरुषाः स्थिरायुषो विपुलकीर्तयः शुद्धाः ।
शुभशतकाः पृश्वीशाः कमलभवाः मानवा नित्यम् ॥३० ॥
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निधिकरणे निपुणधियः स्थिराथसुखसंयुताः सुतयुताश्च ।
नयनसुखसण््हष्टा वापीयोगेन राजानः ॥३१॥
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बहुरलधनसमृद्धा भोगयुता धनजनप्रियाः ससुता ।
उदधिसयुत्थाः पुरुषाः स्थिरविभवाः साधुणीला्च ॥४२ ॥
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प्रियगीतनृत्यवाद्या निपुणाः सुखिनश्च धनवन्तः ।
नेतारो बहुभृत्या वीणायां कीर्तिताः `पुरुषाः ।४२ ॥
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लग्ने शुभयुते योगः शुभः पापयुतेऽशुभः।
व्ययस्वगैः शुभैः पापैः क्रमाद्योगो शुभाऽशुभो ॥९॥
शुभयोगोद्धवोः वाग्मी सुपशीलगुणान्वितः ।
पापयोगोद्धवः कामी पापकर्मा परा्थयुक् ॥२॥
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केन देवगुरौ लग्नाच्चनदरादर शुभृगुयुते ।
नीचास्तारिगरहर्दनि योगोऽयं गजकेसरी ॥३॥
गजकेसरिसञ्चातस्तेजस्वी धनवान् भवेत् ।
मेधावी गुणसम्पन्नो राजप्रियकरो नरः ॥४॥
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कर्मेशे सुतगे केन्द्रे बुधेऽर्के सबले स्वभे।
चद््ात् कोणे गुरौ ज्ञे वा कुजे लाभे च शारदाः ॥१९॥
धनखीपुत्रसंयुक्तः सुखी विद्वान् नृपप्रियः ।
तपस्वी धर्मसंयुक्तः शारदे जायते जनः ॥२०॥
19-20. 6/1464/24 0084 : 11116 1011 (010 15 ॥1 116 511 [10096,
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धर्मलग्नगते सोष्ये पञ्चमे सदसदुते ।
पाये च चतुरसरस्थे योगोऽयं पत्स्यसंज्ञकः ॥२९॥
कालज्ञ करुणामूर्तिर्गुणधीबलरूपवान् ।
यशोविद्यातपस्वी च मत्स्ययोगे हि जायते ॥२२॥
2 -22. ॥14754 )064 : \/\/116/1 1|61€ 816 06765 ॥ 1/6 9}
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३४871508
भावहोराधटीसंन्लप्नानि च प्रपश्यति ।
स्वोच्चग्रहो राजयोगो लम्द्वयमथापि वा॥२४॥
24. ॥ {€ ९8५8 [-30018, [1018 ।-80018, 61181148 |8408 8॥ 1/8
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(12811५6 ४५॥ 06 8 ।<114.
राशेद्रेष्काणतोऽशाच्च राशेरंशादथापि वा।
यद्रा राशिद्काणाभ्यां लम्बरा तु योगद ॥२५॥
25. 60 10€ 5814 ^566108115., 1061 ५ 26818165 8014
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51001. ॥ 6805658 028|8/008.
पदे स्वोच्चखगाक्रान्ते चन््राक्रान्ते विशेषतः ।
क्रान्ते च गुरु-शुक्राभ्यां केनाप्युच्चग्रहेण वा ॥२६॥
दुष्टार्गलग्रहाभावे राजयोगी न॒ संशयः।
शुभारूढे तत्र॒ चन्र धने देवगुरौ तथा॥२७॥
26-27. \^/11611 116 ‰‰10/8 2808 15 06600160 0४ 201 6३60
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दुःस्थानेशोऽपि नीचस्थो यदि लग्नं प्रपश्यति।
तदाऽपि राजयोगः स्यादि ज्ञेयं द्विजोत्तम! ॥२८॥
28. 0 &(८८९॥
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चतुर्थदशमार्थाय-पतिदृष्टे विलग्नभे।
पदाल्लाभे तु शुक्रेण दुष्टेऽप्यारूढभे शुभे॥२९॥
राजा वा तत्समो वापि जातको जायते धुवम्।
षष्ठाष्टमगते नीचे लग्नं पश्यति वा तथा॥३०॥
तृतीयलाभगे नीचे लग्ने प्रश्यति वा तथा।
लम्नांशकेग्धेषु शुभे निग्रहानुग्रहक्षमः ३९ ॥
29-31. | {06 [0105 ॐ 10€ 410, 10), 216 800 111) 11056
@6/108{ (8/858/8 /10/8 5/00851/8 551
सुतकर्म-सुहल्लग्ननाथा धर्मपसंयुताः।
यस्य॒ जन्मनि पुपोऽसौ कीर्त्या ख्यातो दिगन्तरे ॥२६ ॥
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सुखकर्माधिपो वापि मनच्निनाथेन संयुतो ।
धर्मनाथेन वा युक्तौ जातक्चेदिह राज्यभाक् ॥२७॥
37. 1 1€ 4 01 {16 1010 10त 246 ॥ (जा्तारलीणि) ५4011 1126 51)
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७06618। @011011811015
101 68110
अथाऽतः संप्रवश्यामि धनयोगं विशेषतः ।
यस्मिन् योगे सभुतयन्नो निश्चितो धनवान् भवेत् ॥१॥
1. ५०५४ । 58 3068६ 9 30668 ©0710811015 110 ५/68111
0011) 11 ४1116॥ 106 [६1५९ (लावो ४ 065 ५४९7४.
पंचमे भृगुजशचत्रे तस्मिन् शुक्रेण संयुते।
लाभे भौमेन संयुक्ते बहुद्रव्यस्य नायकः ॥२॥
2./0045 06 06641 4/7/1 (46/५८ - 1111616 5 8 51471 0५817145
{18115 0/1 1012) 11116 91 1101456 8110 † 15 06600160 0४ 8105 615
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पंचमे तु शशि्चत्रे तस्मिन् शशियुते सति।
शनो लाभस्थिते जातो बहुद्रव्यस्य नायकः ॥८ ॥
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भानुशेत्रगते लग्ने तस्मिन् पानुयुते पुनः।
भौमेन गुरुणा युक्ते दृष्टे जातो युतो धनैः॥९॥
9.#/00645 (05 ॥#54(1/7.- 1 ॥ 1115 ०५८ 5/1 [60 #॥6€ 5८1
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पारिजाते सुताधीशे विधा चैव कुलोचिता।
उत्तमे चोत्तमा ज्ञेया गोपुरे भुवनांकिता॥२०॥
सिंहासने तथा वाच्चवा साचिव्येन समम्विता।
पारावते च विज्ञेया ब्रह्मविधा द्विजोत्तम !॥२१॥
सुतेशे देवलोकस्थे कर्मयोगश्च जायते ।
उपासना ब्रह्मलोके भक्तिस्त्वरावतोशके ।२२ ॥
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धर्मेशे पारिजातस्थे तीर्थकृत्व्र जन्मनि।
पूर्वजन्मन्यपि ज्ेयस्तीर्थकृच्चोत्तमांशके ॥२२३॥
गोपुरे परकर्तां च परे चैवाऽत्र जन्पनि।
सिंहासने प्वेदीरः सत्यवादी जितेन्द्रियः ॥२४॥
सर्वधर्मान् परित्यज्य बहौकपदपाश्रितः ।
पारावते च परमो हंसषटैवात्र जन्मनि ॥२५॥
लगुडी वा त्रिदण्डी स्याद्ेवलोके न संशयः।
ब्रह्मलोके षटक्रपदं याति कृत्वाऽश्वमेधकम् ॥२६॥
एराव्ते तु धर्मात्मा स्वयं धर्मो भविष्यति।
श्रीरामः क्रुन्तिपुत्राद्यो यथा जातो द्विजोत्तम ! ॥२७॥
23-27.6/60775 @¢ 11£ 917/4+ (06805 ०५4७0५4८
010/4/7165: # 1/6 9† 1 ।§ ॥ गिविशशंडा)5118, 1116 11811५6 ५५॥
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पारिजाते स्थितौ तौ चेनूनृपो लोकानुरक्षकः।
उत्तमे चोत्तमो भूपो गजवाजिरथादिमान् ।॥२९॥
गोपुरे नृपशार्दूलः पूजितांपिनषिर्भवेत्।
सिंहासने चक्रवर्ती सर्वभूमिप्रपालकः ॥३० ॥
अस्मिन् योगे हस्रो मनुैवोत्तमस्तथा ।
बलिर्वैश्चानरो जातस्तथान्ये चक्रवर्तिनः २१ ॥
वर्तमानयुगे जातस्तथा राजा युधिष्ठिरः ।
भविता शालिवाहादयस्तथैव द्विजसत्तम !॥२२॥
पारावतांशके प्येवं जाता मन्वादयस्तथा ।
विष्णोः सर्वेऽवतारा्च जायन्ते देवलोकके ॥२२॥
ब्रह्मलोके तु ब्रह्माद्या जायन्ते विश्वपालका।
एिरावतांशके जातः पूर्व स्वार्यपवो मनुः ॥३४॥
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बहवो धनदा योगा श्रुतास्त्व्तो मया मुने!।
दरिद्रजन्पदान् योगान् कृपया प्रभो | ॥१॥
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लगेणे च व्ययस्थाने व्ययेशे लग्नमागते।
मारकेशयुते दृष्टे निर्धनो जायते नरः॥२॥
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लग्नेशे षष्ठभावस्थे षष्ठेशो लग्नपागते।
मारकेशेन युगृटषटे धनहीनः प्रजायते ॥।२ ॥
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0106४11:
धनाधनाख्ययोगो च कथितौ भवता मुने।
नराणामायुषो ज्ञानं कथयस्व महामते! ॥१॥
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साधु पृष्टं त्वया विप्र! जनानां च हितेच्छया।
कथयाम्यायुषो ज्ञानं दुरञेयं यत् सुरैरपि॥२॥
आयुर्ञानविपेदास्तु कहुभिर्बहुधोदिताः ।
तेषां सारांशमादाय प्रवदामि तवाऽग्रतः ॥२३॥
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स्वोच्चनीचादि-संस्थित्या ग्रहा आयुप्रदायकाः।
स्वस्ववीर्यवरशर्नैवं नकश्त्रणि च राशयः।४॥
पिण्डायुः प्रथमं तत्र ग्रहस्थितिवशादहम् ।
कथयामि द्विजश्रेष्ठ ! श्रणुषवेकाय्रामानसः ॥५ ॥
क्रमात् सूर्यादिखेटेषु स्वस्वोच्चस्थानगेष्विह ।
नन्दन्दवस्त्वमितास्तिथयोऽर्काः शरेम्दवः ॥६ ॥
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पिण्टायुरिव तत्रापि हानिं कुर्याद् विचक्षणः।
अत्राऽपरो विशेषोऽपि केम्विद् वि्नैरुदाहेतः ।(२० ॥
साधितायुः खगे स्वोच्चे स्वरे वा त्रिगुणं स्पृतम्।
द्विगुणं स्वनवाशस्थे स्वद्रष्काणे तथोत्तमे ॥२९॥
उभयत्र गते खेटे कायं त्रिगुणमेव हि।
हानिद्रयेऽर्धहानिः स्यादित्यायुः प्रस्फुटं नृणाम् ॥२२॥
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दीर्घे योगत्रयेणैवं मखचनद्रसपाब्दकाः ।
योग्येन वस्वाशा योगेकेन रसांककाः॥४९॥
मध्ये योगत्रयेणैवं राष्तुल्याब्दकाः स्मृताः ।
द्रयगा योगदयेनाऽत्रयोगेकेनाव्धिषण्मिताः ॥४२ ॥
अल्पे योगत्रयेणाऽत्दत्रिशन्पितवत्सराः ।
योग्येन षटत्रिंशत् योगैकेन च खाब्ययः ।४२३॥
एवं दीर्घसमात्पेषु खाव्धयो रसवह्मयः ।
खण्डा दन्तपितास्तेभ्यः स्फुटमायुः प्रसाधयेत् ।॥४४॥
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(11615)
बहुधाऽधयुर्भवा योगाः कथिता भवताऽधुना।
नृणां पारकथेदा्॒ कथ्यन्तां कृपया मुने!॥१॥
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तृतीयमष्टमस्थानमायुः स्थानं रयं द्विज! ।
मारकं तद्व्ययस्थानं द्वितीयं सप्तमं तथा ॥२॥
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तत्रापि सप्तमस्थानाद् द्वितीयं बलवत्तरम् ।
तयोरीशो तत्र॒ गताः पापिनस्तन संयुताः ।॥२३॥
ये खेटाः पापिनस्ते च स्वे मारकसंज्ञकाः।
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सत्यपि स्वेन सप्बन्थे न हन्ति शुभभुक्तिषु।
हन्ति सत्यप्यसम्बन्धे मारकः पापभुक्तिषु ८ ॥
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पारकग्रहसग्बन्धात्निहन्ता पापकृच्छनिः।
अतिक्रम्येतरान् सर्वान् भवत्यत्र न संशयः ॥९॥
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नवालयारामसुखं नृपत्वं कलापटत्वं विदधाति पुंसाम्।
सदार्थलाभं व्यवहारवृद्धिं फलं विशेषादिह गर्वितस्य ॥२४॥
भवति मुदितयोगे वासशालाविशाला
विमलवसनभूषाभूमियोषायु सोख्यम्।
स्वजनजनविलासो भूमिपागारवासो
रिपुनिवहविनाशो बुद्धिविद्याविकाशः ॥२५॥
दिश्ाति लज्जितभाववशाद्रति विगतराममतिं विपतिश्चयम्।
सतुगदागमनं गमने वृथा कलिकथाभिरुचिं च रुचि शुभे ॥२६॥
संक्षोभितस्यापि फलं विशेषादरिद्रजातं कुमति च कष्टम ।
करोति वित्त्चयमेधिबाधां धनाप्तिवाधापवनीशकोपात्
।।२७ ॥
श्ुधितखगवशादर शोकमोहादिपातः
परिजनपरिता पादाधिभीत्या कृशत्वम् ।
कलिरपि यिुलोकेरर्थवाधा नराणा-
मखिलबलनिरोधो बुद्धिरोधो विषादात् ॥२८ ॥
तृषितखगभवे स्वादंगनासंगमध्ये
भवति गदविकारो दुष्टका्याधिकारः।
निज्जनपरिवादादर्थहानिः कृशत्वंवं
खलकृतपरितापो मानहानिः सदैव ॥२९॥
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विवर्णोद्धवप्रीतियुक् ८९ ॥
गुणानामानम्द विमलसुखकन्दं वितनुते
सदा तेजः पुञ्चे व्रजपतिनिकुञ्चं प्रतिगमम्।
प्रकाशं चेदुच्चे दुतमुपगतो वासवगुरु-
गुरुत्वं लोकानां धनपतिसमत्वं तनुभृताम्
९० ॥
साहसी भवति मानवः सदा पित्रवगंसुखपूरितो मुदा ।
पण्डितो विविधव्त्तिमण्डितो वेदविद्यादि गुरो गमं गते ।।९१॥
आगयने जनता वरजाया यस्य॒ जनुःसमये हरिमाया।
मुञ्चति नालमिहालयपद्धा देवगुरौ परितः परिबद्धा ।।९२ ॥
सुरगुरुखमवक्ता शुश्रमुक्ताफलाढयः
सदसि सपदि पूर्णो वित्तमाणिक्यमानैः ।
गजतुरगरथाद्यो देवताधीशपुज्यो
जनुषि विविधविधागर्वितो मानवः स्यात्॥९३॥
नानावाहनपानयानपटलीसौखयं गुरावागमे ।
भत्यापत्यकलत्रमित्रजसुखं विद्ाऽनवदया भवेत्।
श्चोणीपालसमानतानवरतं चाऽतीव हृद्या मतिः
काव्यानन्दरतिः सदा हितगतिः सर्वत्र मानोन्नतिः ॥९४ ॥
भोजने भवति देव्तागुरो यस्य तस्य॒ सततं सुभोजनम्।
नैव गुश्चति रमालयं तदा वाजिवारणरथेश्च पप्डितम् ॥९५ ॥
नृत्यलिप्सागते राजमानी धनी देवताधीशवन्ः सदा धर्मवित्।
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