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प्रिय तुम्हें पहली बार दे खकर

प्रेम नहीं हुआ था तुमसे,

बल्कि हुआ था बहुत आश्चर्य

कि तुम इतनी मासूमियत लेकर क्यों आ गये

इस निष्ठुर संसार में ?

क्यों इतना भोलापन लेकर आना पड़ा तुम्हें ,

इस कपटी संसार में ?

क्या अभिशप्त हुए हो,

या आए हो मुझे भ्रमित करने?

कौन चाहे गा तुम्हें यहां परियों की दनि


ु या की तरह ।

कौन तुम्हारी इन झील सी आंखों में झांककर अपना होने का एहसास दिलाएगा?

कौन तम् ु होंठ रख पाएगा?


ु हारे औरों से अधिक लाली लिए अधरों पर अपने नाजक

कौन तुम्हारे बर्फ से भी धवल दं त पंक्तियों को इस संसार की विषैली चीजों से बचाएगा?

तम्
ु हारी सच्ची मस् ु ाएगा?
ु कान पर कौन अपनी हं सी लट

कौन तुम्हारे फूल सी कोमल वक्ष पर अपना सर टिका कर तुम्हारी धड़कने महसूस कर तुम्हीं में खो जाएगा?

वो शायद मैं तो ना हो पाऊंगा क्यों कि मैं इस काबिल तो नहीं हूं।

मुझे डर लगता है कहीं मेरा ये आश्चर्य मेरा प्यार ना बन जाए।

ु े डर लगता है , तम्
मैं नहीं कर पाऊंगा ये सब मझ ु हें खोने से।

तुम्हारी आंखों में आंखें डालकर अपनी धड़कनें बढ़ाने से ।

मुझे डर लगता है तुम्हारे करीब आने से ।

कि कहीं हमारा मिलना हमारा बिछड़ना ना बन जाए।

परियों की दनि
ु याँ से आई ये परी मुझसे दरू ना हो जाए।

-आनंद राज

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