International Journal of Sanskrit Research 2022 8 (4) : 246-248

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International Journal of Sanskrit Research 2022; 8(4): 246-248

ISSN: 2394-7519
IJSR 2022; 8(4): 246-248
© 2022 IJSR अर्थिविि
े में िाम्पत्य प्रेम
www.anantaajournal.com
Received: 07-06-2022
Accepted: 13-07-2022

चिरञ्जीत सरकार चिरञ्जीत सरकार


शोधार्थी, संस्कृ त चिभाग, दिल्ली
चिश्वचिद्यालय, दिल्ली, भारत
प्रस्तािना:-
अर्थिविेि में सिािार एिं नैचतकता के अनेक तत्त्ि चमलते हैं, जो व्यचि के जीिन को श्रेष्ठ से
श्रेष्ठतम बना िेते हैं। नैचतकता के उन तत्त्िों में परस्पर चमत्रभाि से रहना, पचत-पत्नी में
मैत्री-भािना इत्यादि िेखने को चमलता है। पचत-पत्नी की इस मैत्रीभाि से ही सम्पूर्व संसार
में सुख और शाचतत व्यापक रहती है। पचत-पत्नी के मैत्रीभाि से ही आिशव समाज का
चनमावर् होता है और आिशव समाज से राष्ट्र की उन्नचत होती है। अर्थिविि
े कालीन समाज में
पचत-पत्नी में अपार प्रेम िेखने को चमलता है, जैसे पचत या पत्नी को अपने िश में रखना हो,
एक-िूसरे का प्यार जीतने के चलए उपयुि कायव करना हो, पत्नी को अपने मन के अनुकूल
करने की प्रार्थवना हो इत्यादि िेखने को चमलता है।

गृहस्र्थाश्रम में प्रिेशार्थी के चलए आशीिविन:-


गृहस्र्थाश्रम में प्रिेश के चलए स्त्री और पुरुष का होना अचनिायव है और इसीचलए सृचिकताव
परमेश्वर ने प्रत्येक स्त्री के चलए दकसी एक पुरुष को जतम दिया ही है।1 गृहस्र्थाश्रम में प्रिेश
की इच्छा करने िाले पुरुष िुभाविनाओं का चिनाश करने िाली तर्था सद्भािनाओं से मन को
जीतने िाली अप्सरा के समान सुतिर गृचहर्ी की कामना करते है।2 गृहस्र्थ जीिन में प्रिेश
करने िाली कतया को आशीिविन िेते हुए कहा गया है दक चििाह के बतधन में बतधकर
गृहस्र्थ रूपी सौभाग्य की नौका पर आरूढ़ होकर तर्था सिािरर् का पालन करते हुए पचत
और स्ियं को इस भि सागर से पार करे ।3 स्त्री को शीघ्र ही पचत के सार्थ जीिन चबताने का
सौभाग्य प्राप्त करने का आशीिविन भी चमलता है।4

1 त्ििा जायाम् अजनयत् त्ििाऽस्यै त्िां पचतम्।


त्ििा सहस्रम् आयूंचष िीर्वम् आयुुः कृ र्ोतु िाम्॥ अर्थिव.6/78/3
2 उचद्भतितीं संजयततीम् अप्सरां साधुिेचिनीम्।
Corresponding Author: ग्लहे कृ ताचन कृ ण्िानाम् अप्सरां ताम् इह हुिे॥ अर्थिव.4/38/1
चिरञ्जीत सरकार 3 भगस्य नािम् आरोह पूर्ावमानुपिस्ितीम्।
शोधार्थी, संस्कृ त चिभाग, दिल्ली
तयोपप्रतारय यो िरुः प्रचतकाम्युः॥ अर्थिव.2/36/5
चिश्वचिद्यालय, दिल्ली, भारत 4 ओषं पत्या सौभगम् अस्त्िस्यै” अर्थिव.2/36/1
~ 246 ~
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इसके पश्चात् पचत के सार्थ रहते हुए पुत्रों को जतम िेकर भी मुझसे चलपट जाओ, चजससे तुम कभी भी मुझसे िूर ना
सौभाग्यिती होकर पररिार में राज करने के चलए अचि िेि
हो सको।’13 और भी कहता है दक ‘हे चप्रये! तुम मेरे शरीर,
से चनिेिन दकया गया है-इयम् अिे नारी पततं चििेि सोमो
मेरी आाँख आदि प्रत्येक अङ्गों से इतना प्रेम करो दक यदि
चह राजा सुभगां कृ र्ोचत”।5 पत्नी को आशीिावि िेते हुए कहा हम दकसी कारर् िश कभी अलग हो भी जाएाँ तो तुम्हारी
है दक पत्नी श्वशुर के चलये तर्था अपने पचत के चलये सुख ये आाँखें मेरी प्रतीक्षा करें , तुम्हारे बाल संस्कार के अभाि में
िाचयनी हो।6 पत्नी अपने पचत के चलए माधुयवयुि ििन सुख जाएाँ।’14 गृहस्र्थ जीिन को बैल गाडी से तुलना करते
िाली एिं शाचतत िेने िाली हो -जाया पत्ये मधुमतीं िािं हुए पचत कहता है “दक चजस प्रकार गाडी खींिते समय बैल
िितु शाचततिाम्।7 इस प्रकार पचत-पत्नी का मन और हृिय एक िूसरे के सार्थ रहते हैं, ठीक िैसे ही गृहस्र्थरूपी गाडी
परस्पर चमले रहने का तर्था एक-िूसरे का ही चिततन करने को िलाने के चलये तुम्हरा मन मेरे मन के सार्थ-सार्थ रहे”
का िर्वन चमलता है।
।15
इस प्रकार िेखा जाता है दक सुखी गृहस्र्थाश्रम बनाने के
पत्नी का प्रेम:- चलये पत्नी का चजतना कतवव्य होता है उतना ही कतवव्य पचत
पचत दकसी परस्त्री के िश में होने पर सपत्नी को पराभूत का भी होता है। पचत-पत्नी िोनों के सहयोग से ही गृहस्र्थ में
करने के चलए एिं पचत को अपना बनाने के चलए औषचध का सुखों का उिय होता है।
प्रयोग करने का भी िर्वन चमलता है-सपत्नीं मे परा र्ुि पततं
मे के िलं कृ चध”8 । इसमें एक पत्नी का अपने पचत के प्रचत पचत-पत्नी में मैत्री-भािना:-
इतना अपार प्रेम है दक पत्नी स्ियं को अर्पवत करती हुई पचत-पत्नी का सम्बतध लोक में चमत्रता के रूप में प्रचसद्ध
कहती है दक तेरा मन मेरे पीछे उसी प्रकार िौड़ता रहेगा, होना िाचहए। िोनों के सहयोग से चिद्या की िृचद्ध करनी
चजस प्रकार गौ निजात चशशु के पीछे भागती है।9 पचत का िाचहए अपने समान िूसरों के भी सुख की कामना करनी
प्यार जीतने के चलए पत्नी अपने हार्थों से चनर्मवत िस्त्र पचत िाचहए एिं धन की उन्नचत करनी िाचहए। अर्थिविेि संचहता
में पचत-पत्नी को युद्ध में भी एक िूसरे का सार्थ न छोड़ने के
को पहनाती है।10 इस प्रकार पत्नी अपने पचत को प्रेम-पाश
चलये कहा गया है।16 तत्कालीन समाज में पचत-पत्नी का
में बााँधके रखती है।
व्यिहार प्रेममय होता र्था और सिैि एक िूसरे को प्रसन्न
करने के चलये प्रयत्न करते र्थे। कई स्र्थानों पर पचत ईश्वर से
पचत का प्रेम:- प्रार्थवना भी करता है दक उसकी पत्नी तन-मन से के िल उसी
पचत अपने प्रेम भाि से पत्नी को सहभागी बनाके रखता है। की होकर रहे, उसके अचतररि दकसी परपुरुष की कल्पना
अर्थिविेि संचहता में पत्नी को अपने िश में रखने का
तक न करे । 17 पत्नी का मन पचत की ओर उसी प्रकार
प्रार्थवनाएाँ भी िेखने को चमलता है। 11 इसीप्रकार अतयत्र आकर्षवत होता रहे चजसप्रकार अश्व रर्थ को अपनी ओर
कहते हैं ‘मैं तुम्हें अपने हृिय में स्र्थान िेता हाँ, चजससे तुम खींिता।18
मेरे व्रत के समान व्रत िाली और मेरे मन के अनुकूल हो सार्थ ही पचत-पत्नी को उपिेश दिया गया है दक ‘तुम िोनों
जाओ।’।12 पचत अपनी चप्रया से कहता है दक चजस प्रकार एक पररिार में सिैि एक सार्थ समानभाि से रहो’। गृहस्र्थ
एक बेल िृक्ष के िारों ओर चलपट जाती है, उसी प्रकार ‘तुम कमों में समान भाि से रहने के चलये कहा गया है, के िल
गृहस्र्थाश्रम में नहीं अपीतु उपासना आदि कमव में तर्था मोक्ष
5 अर्थिव.2/36/3
6 स्योना भि श्वशुरेभ्युः स्योना पत्ये गृहभ्े युः” अर्थिव.14/2/27 13 यर्था िृक्षं चलबुजा समततं पररषस्िजे।
7 अर्थिव.3/30/2 एिा परर ष्िजस्ि मां यर्था मां काचमतयसो यर्था मन् नापगा असुः॥ अर्थिव.6/8/1
8 अर्थिव.3/18/2 14 िाञ्छ मे ततिं पािौ िाञ्छाक्ष्यौ३ िाञ्छ सक्थ्यौ।
9 माम् अनु प्र ते मनो ित्सं गौररि धाितु……॥ अर्थिव.3/18/6 अक्ष्यौ िृषण्यतत्याुः के शा मां ते कामेन शुष्यततु॥ अर्थिव.6/9/1
10 अचभ त्िा मनुजातेन िधाचम मम िाससा। 15 यर्थायं िाहो अचश्वना समैचत सं ि ितवते।
यर्थासो मम के िलो नातयासां कीतवयाश्चन॥ अर्थिव.7/37/1 एिा माम् अचभ ते मनुः समैतु सं ि ितवताम्॥ अर्थिव.6/102/2
11 व्यस्यै चमत्रािरुर्ौ……… ममैि कृ र्ुतं िशे” अर्थिव.3/25/6 16 अर्थिव.11/49
12 मम त्िा िोषचर्चश्रषं कृ र्ोचम हृियचश्रषम्। 17 एिा म्नाचम ते मनो यर्था मां काचमतयसो यर्था मन् नापगा असुः” अर्थिव.2/30/1
यर्था मम क्रताि् असो मम चित्तम् उपायचस॥ अर्थिव.6/9/2 18 आहं चखिाचम ते मनो राजाश्वुः पृष्याचमि” अर्थिव.6/102/2
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मागव में भी पचत-पत्नी को एक सार्थ िलने की बात की गई सतिभवग्रतर्थसूिी


है।19 इसप्रकार परस्पर चमत्रता का व्यिहार करते हुए र्र 1. अर्थिविेि संचहता, माधिािायव शास्त्री, माधि
को स्िगव बनाने का सतिेश दिया गया है । पुस्तकालय, दिल्ली 1935
िेि पत्नी को पचत के आिेशानुसार िलने, उसके मन के 2. अर्थिविेि का सुबोध भाष्य, पचण्डत श्रीपाि िामोिर
अनुसार कायव करने एिं पचत से कभी चिरोध न करने का सातिलेकर, स्िाध्यायमण्डल पारडी,1958
चनिेश िेता है-“ संचप्रया पत्याचिराधयतती”20 पचत-पत्नी का 3. अर्थिविेिभाष्य, प्रो. चिश्वनार्थ चिद्यालङ्कार,
हृिय परस्पर चमला हुआ होना िाचहए, उन िोनों को एक- िैदिकपुस्तकालय, राजस्र्थान, चि.सं. 2070
िूसरे का ही चिततन करना िाचहए। पचत-पत्नी का प्रेम
4. िेिामृतम् : िैदिक मनोचिज्ञान, डां.कचपलिेि चद्विेिी,
इतना प्रबल हो दक िोनों एक-िूसरे के हृिय को उसी प्रकार
चहला िे जैसे िायु चतनके को चहला िेती है। एक िाम्पत्य चिश्वभारती अनुसतधान पररषि्, ज्ञानपुर (भिोही)
जीिन का लक्ष्य राष्ट्र की सेिा होनी िाचहए सार्थ ही धन- 2015
धातय आदि ऐश्वयव को प्राप्त करना िाचहए।21 5. िैदिक साचहत्य एिं संस्कृ चत, डां कचपलिेि चद्विेिी,
इस प्रकार िम्पती को पाररिाररक, सामाचजक उन्नचत के चिश्वचिद्यालय प्रकाशन, िारार्सी 2015
सार्थ-सार्थ राष्ट्रोन्नचत का भी ध्यान रखना िाचहये। 6. िैदिक साचहत्य एिं संस्कृ चत, उपाध्याय बलिेि, शारिा
संस्र्थान, िारार्सी 2015
चनष्कषव-
7. िैदिक िाङ्मय का इचतहास, रमाकातत शास्त्री,
उपयुवि सतिभव से प्रतीत होता है दक िैदिक ऋचष द्वारा
दिया गया चनिेश ितवमान समाज के चलए बहुत ही िौखम्भा चिद्याभिन िारार्सी 1998
महत्िपूर्व है। पररिार को मानि समाज का मूल माना
जाता है, क्थयोंदक पररिार से ही एक समाज का चनमावर्
होता है। चजस पररिार में बड़ों का आिर सम्मान होता है,
समान आयु के लोगों से प्रेम होता है, पचत-पत्नी में चमत्र-
भाि होता है, सिैि एक िूसरे के सार्थ िेते हैं, चनचश्चत रूप
से िह पररिार एक आिशव पररिार कहलाता है। इसीकारर्
आिशव समाज चनमावर् के चलए आिशव पररिार का होना
अत्यतत आिश्यक है और एक आिशव पररिार का चनमावर्
पचत-पत्नी के सि्-व्यिहार एिं कतवव्यों से ही होता है।
आिशव पररिार होने पर समाज की उन्नचत होती है और
समाज की उन्नचत होने पर ही राष्ट्र की उन्नचत होती है।
आिशव पररिार में ही उत्तम संस्कारिान् सततान होता है,
जो समाज को एक नई दिशा िेने का कायव करता है। इसी
कारर् िैदिक ऋचषयों ने आिशव पररिार चनमावर् के चलए
पचत-पत्नी के आिशव प्रेम सम्बचतधत मतत्रों का साक्षात्कार
दकया हैं। ितवमान पररप्रेक्ष्य में यदि अर्थिविेि में प्रचतपादित
िाम्पत्य जीिन शैली को अपनाया जाए तो चनचश्चत रूप से
एक आिशव मानि समाज का चनमावर् होगा।

19 समचस्माँल्लोके समु िेियाने सं स्मा समेतं यमराज्येषु।


पूतौ पचित्रैरुप तद्धध्ियेर्थां यद्यद्रेतो अचध िां संबभूि॥ अर्थिव.12/3/3
20 अर्थिव.2/36/4
21 अचभ िधवतां पयसाऽचभ राष्ट्रेर् िधवताम्।
रय्या सहस्रििवसेमौ स्तामनुपचक्षतौ॥ अर्थिव.6/78/2
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