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International Journal of Sanskrit Research 2022 8 (4) : 246-248
International Journal of Sanskrit Research 2022 8 (4) : 246-248
International Journal of Sanskrit Research 2022 8 (4) : 246-248
ISSN: 2394-7519
IJSR 2022; 8(4): 246-248
© 2022 IJSR अर्थिविि
े में िाम्पत्य प्रेम
www.anantaajournal.com
Received: 07-06-2022
Accepted: 13-07-2022
इसके पश्चात् पचत के सार्थ रहते हुए पुत्रों को जतम िेकर भी मुझसे चलपट जाओ, चजससे तुम कभी भी मुझसे िूर ना
सौभाग्यिती होकर पररिार में राज करने के चलए अचि िेि
हो सको।’13 और भी कहता है दक ‘हे चप्रये! तुम मेरे शरीर,
से चनिेिन दकया गया है-इयम् अिे नारी पततं चििेि सोमो
मेरी आाँख आदि प्रत्येक अङ्गों से इतना प्रेम करो दक यदि
चह राजा सुभगां कृ र्ोचत”।5 पत्नी को आशीिावि िेते हुए कहा हम दकसी कारर् िश कभी अलग हो भी जाएाँ तो तुम्हारी
है दक पत्नी श्वशुर के चलये तर्था अपने पचत के चलये सुख ये आाँखें मेरी प्रतीक्षा करें , तुम्हारे बाल संस्कार के अभाि में
िाचयनी हो।6 पत्नी अपने पचत के चलए माधुयवयुि ििन सुख जाएाँ।’14 गृहस्र्थ जीिन को बैल गाडी से तुलना करते
िाली एिं शाचतत िेने िाली हो -जाया पत्ये मधुमतीं िािं हुए पचत कहता है “दक चजस प्रकार गाडी खींिते समय बैल
िितु शाचततिाम्।7 इस प्रकार पचत-पत्नी का मन और हृिय एक िूसरे के सार्थ रहते हैं, ठीक िैसे ही गृहस्र्थरूपी गाडी
परस्पर चमले रहने का तर्था एक-िूसरे का ही चिततन करने को िलाने के चलये तुम्हरा मन मेरे मन के सार्थ-सार्थ रहे”
का िर्वन चमलता है।
।15
इस प्रकार िेखा जाता है दक सुखी गृहस्र्थाश्रम बनाने के
पत्नी का प्रेम:- चलये पत्नी का चजतना कतवव्य होता है उतना ही कतवव्य पचत
पचत दकसी परस्त्री के िश में होने पर सपत्नी को पराभूत का भी होता है। पचत-पत्नी िोनों के सहयोग से ही गृहस्र्थ में
करने के चलए एिं पचत को अपना बनाने के चलए औषचध का सुखों का उिय होता है।
प्रयोग करने का भी िर्वन चमलता है-सपत्नीं मे परा र्ुि पततं
मे के िलं कृ चध”8 । इसमें एक पत्नी का अपने पचत के प्रचत पचत-पत्नी में मैत्री-भािना:-
इतना अपार प्रेम है दक पत्नी स्ियं को अर्पवत करती हुई पचत-पत्नी का सम्बतध लोक में चमत्रता के रूप में प्रचसद्ध
कहती है दक तेरा मन मेरे पीछे उसी प्रकार िौड़ता रहेगा, होना िाचहए। िोनों के सहयोग से चिद्या की िृचद्ध करनी
चजस प्रकार गौ निजात चशशु के पीछे भागती है।9 पचत का िाचहए अपने समान िूसरों के भी सुख की कामना करनी
प्यार जीतने के चलए पत्नी अपने हार्थों से चनर्मवत िस्त्र पचत िाचहए एिं धन की उन्नचत करनी िाचहए। अर्थिविेि संचहता
में पचत-पत्नी को युद्ध में भी एक िूसरे का सार्थ न छोड़ने के
को पहनाती है।10 इस प्रकार पत्नी अपने पचत को प्रेम-पाश
चलये कहा गया है।16 तत्कालीन समाज में पचत-पत्नी का
में बााँधके रखती है।
व्यिहार प्रेममय होता र्था और सिैि एक िूसरे को प्रसन्न
करने के चलये प्रयत्न करते र्थे। कई स्र्थानों पर पचत ईश्वर से
पचत का प्रेम:- प्रार्थवना भी करता है दक उसकी पत्नी तन-मन से के िल उसी
पचत अपने प्रेम भाि से पत्नी को सहभागी बनाके रखता है। की होकर रहे, उसके अचतररि दकसी परपुरुष की कल्पना
अर्थिविेि संचहता में पत्नी को अपने िश में रखने का
तक न करे । 17 पत्नी का मन पचत की ओर उसी प्रकार
प्रार्थवनाएाँ भी िेखने को चमलता है। 11 इसीप्रकार अतयत्र आकर्षवत होता रहे चजसप्रकार अश्व रर्थ को अपनी ओर
कहते हैं ‘मैं तुम्हें अपने हृिय में स्र्थान िेता हाँ, चजससे तुम खींिता।18
मेरे व्रत के समान व्रत िाली और मेरे मन के अनुकूल हो सार्थ ही पचत-पत्नी को उपिेश दिया गया है दक ‘तुम िोनों
जाओ।’।12 पचत अपनी चप्रया से कहता है दक चजस प्रकार एक पररिार में सिैि एक सार्थ समानभाि से रहो’। गृहस्र्थ
एक बेल िृक्ष के िारों ओर चलपट जाती है, उसी प्रकार ‘तुम कमों में समान भाि से रहने के चलये कहा गया है, के िल
गृहस्र्थाश्रम में नहीं अपीतु उपासना आदि कमव में तर्था मोक्ष
5 अर्थिव.2/36/3
6 स्योना भि श्वशुरेभ्युः स्योना पत्ये गृहभ्े युः” अर्थिव.14/2/27 13 यर्था िृक्षं चलबुजा समततं पररषस्िजे।
7 अर्थिव.3/30/2 एिा परर ष्िजस्ि मां यर्था मां काचमतयसो यर्था मन् नापगा असुः॥ अर्थिव.6/8/1
8 अर्थिव.3/18/2 14 िाञ्छ मे ततिं पािौ िाञ्छाक्ष्यौ३ िाञ्छ सक्थ्यौ।
9 माम् अनु प्र ते मनो ित्सं गौररि धाितु……॥ अर्थिव.3/18/6 अक्ष्यौ िृषण्यतत्याुः के शा मां ते कामेन शुष्यततु॥ अर्थिव.6/9/1
10 अचभ त्िा मनुजातेन िधाचम मम िाससा। 15 यर्थायं िाहो अचश्वना समैचत सं ि ितवते।
यर्थासो मम के िलो नातयासां कीतवयाश्चन॥ अर्थिव.7/37/1 एिा माम् अचभ ते मनुः समैतु सं ि ितवताम्॥ अर्थिव.6/102/2
11 व्यस्यै चमत्रािरुर्ौ……… ममैि कृ र्ुतं िशे” अर्थिव.3/25/6 16 अर्थिव.11/49
12 मम त्िा िोषचर्चश्रषं कृ र्ोचम हृियचश्रषम्। 17 एिा म्नाचम ते मनो यर्था मां काचमतयसो यर्था मन् नापगा असुः” अर्थिव.2/30/1
यर्था मम क्रताि् असो मम चित्तम् उपायचस॥ अर्थिव.6/9/2 18 आहं चखिाचम ते मनो राजाश्वुः पृष्याचमि” अर्थिव.6/102/2
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