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Even a dull person becomes sharp by his association
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up the work started.

  


 


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impeded by obstacles again and again do not give
impediments, people of high calibre, even though
leave the work initiated, midway when faced with
the simple fear of obstacles, people of medium calibre
People of low calibre do not initiate any activity for

A 
सकू ्‍तिसौरभम्
तृतीयपुष्‍पम्
उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर के शिक्षार्थियों के लिए
प्रथम सस्ं ‍करण ISBN 978-93-5007-352-0
अगस्‍त 2015 श्रावाण 1937 q प्रकाशक की पर्वू अनमु ति के ि‍बना इस प्रकाशन के किसी
भाग को छापना तथा इलेक्‍ट्राॅनिकी, मशीनी, फोटोप्रतिलिपि,
पुनर्मुद्रण रिकॉर्डिंग अथवा किसी अन्‍य विधि से पनु : प्रयोग पद्धति द्वारा
जनू 2020 ज्ये� 1942 उसका संग्रहण अथवा प्रसारण वर्जित है।
q इस प‍स्‍त
ु क की बिक्री इस शर्त के साथ की गई है कि प्रकाशक
की पर्वू अनमु ति के बिना यह पस्‍त
ु क अपने मल ू आवरण अथवा
PD 143T RPS जिल्‍द के अलावा किसी अन्‍य प्रकार से व्‍यापार द्वारा उधारी पर,
पनु विक्रय या किराए पर न दी जाएगी, न बेची जाएगी।
q इस प्रकाशन का सही मल्‍यू इस पृष्‍ठ पर मद्ु रित है। रबड़ की महु र
© राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनसु ंधान और प्रशिक्षण अथवा चिपकाई गई पर्ची (स्‍टीकर) या किसी अन्‍य विधि द्वारा
परिषद,् 2015 अकि ं त कोई भी संशोधित मल्‍य
ू गलत है तथा मान्‍य नहीं होगा।

एन.सी.ई.आर.टी. के प्रकाशन प्रभाग के कार्यालय


एन.सी.ई.आर.टी. कैं पस
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नयी दिल्‍ली 110 016 फोन : 011-26562708
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प्रकाशन सहयोग
एन.सी.ई.आर.टी. वाटरमार्क 80 जी.एस.एम. अध्‍यक्ष, प्रकाशन प्रभाग : अनपू कुमार राजपतू
पेपर पर मद्ु रित। मख्ु ‍य संपादक : श्‍वेता उप्‍पल
मख्ु ‍य उत्‍पादन अधिकारी : अरुण चितकारा
सचिव, राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनसु धं ान और
प्रशिक्षण परिषद,् श्री अरविदं मार्ग, नयी दिल्‍ली मख्ु ‍य व्‍यापार प्रबंधक : िवपिन िदवान
110 016 द्वारा प्रकाशन प्रभाग में प्रकाशित उत्‍पादन सहायक : मक
ु े श गौड़
तथा लक्ष्‍मी प्रिंट इडं िया, 519/1/23, संसार
इडस् आवरण
ं ट्रियल कॉम्‍पलैक्‍स, दिलशाद गार्डन,
दिल्‍ली 110 095 द्वारा मद्ु रित। अमित श्रीवास्‍तव
पुरोवाक्

प्रस्तुत पस्त
ु क सकू ्‍तिसौरभम-् तृतीयपष्प ु म् राष्ट्रीय शैक्षिक अनसु ंधान एवं
प्रशिक्षण परिषद् के पर्वू त: सामाजिक विज्ञान एवं मानविकी शिक्षा विभाग
की लघु पस्त ु क माला योजना के अन्तर्गत, सम्प्रति भाषा शिक्षा विभाग
द्वारा कक्षा 11-12 के छात्रांे के लिए परू क पस्त ु क के रूप में एवं सामान्य
संस्कृ त जिज्ञासओ ु ं को ध्यान में रखकर विकसित की गई है। इसे प्रस्तुत
करते हुए मझु े हार्दिक प्रसन्नता हो रही है।
मझु े विश्‍वास है कि यह पस्‍त ु क सस्‍कृ
ं त छात्रों तथा सामान्‍य सस्‍कृ ं त
जिज्ञासओ ु ं के लिए अत्‍यधिक लाभकारी होगी।
पस्‍त ु क के प्रणयन ि‍वशेषत: सामग्री-संकलन, पाण्‍डुलिपि संशोधन
तथा निर्माणादि कार्यों में अनेकविध सहयोग के लिए श्रीमती उर्मिल खगंु र
सहित भ्‍ााषा शिक्षा विभाग के पर्वू संस्‍कृ त आचार्य डॉ. कमलाकान्‍त मिश्र,
डॉ. जतीन्‍द्र मोहन मिश्र, उपाचार्य, सस्‍कृ ं त एवं डॉ. रणजि‍त बेहरे ा, पर्वू
सहायक आचार्य तथा वर्तमान विभागाध्‍यक्ष प्रो. कृ ष्‍णचन्‍द्र त्रिपाठी हमारे
धन्‍यवाद के पात्र हैं।
पस्‍त ु क की पाण्‍डुलिपि समीक्षा के लिए आयोजित गोष्ठियों में
उपस्थि‍त होकर जिन विषय-विशेषज्ञों एवं अनभु वी संस्‍कृ त अध्‍यापकों
ने अपने बहुमल्‍य ू सझु ावों एवं सहयोग से पस्‍त ु क को उपयोगी बनाने में
योगदान दिया है, परिषद् उनके प्रति हार्दिक कृ तज्ञता ज्ञापित करती है।
पाठ्यक्रम तथा पाठ्यपस्‍त ु क का विकास एक निरन्‍तर चलने वाली
प्रक्रिया है। अत: पस्‍तु क को और उपयोगी बनाने के लिए विशेषज्ञों एवं
अध्‍यापकों के अनभु व पर आधारित परामर्शों का सहर्ष स्‍वागत किया
जाएगा तथा सश ं ोधित सस्‍क
ं रण तैयार करते समय उनका समचु ित उपयोग
किया जाएगा।
बी.के . त्रिपाठी
नई दिल्‍ली निदेशक
14 अगस्‍त 2015 राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनसु धं ान एवं प्रशिक्षण परिषद्
भूमिका

सस्‍कृ
ं त विश्‍व की प्राचीनतम भाषा है जिसका विशाल साहित्‍य (वेद,
वेदा�, उपनिषद,् परु ाण, विविध शास्‍त्र, काव्‍य अादि) अनेक दृष्टियों से
महत्त्‍वपर्णू है। यह उदात्त संस्‍कारों के साथ ही साथ शास्‍त्रीय ज्ञान तथा
मौलिक चिन्‍तन का अगाध स्रोत भी है। इसमें विद्यमान सभु ाषित भारतीय
मनीषियों के ऐसे सवु चन हैं जो अनभु वों पर आधारित होने के कारण
शाश्‍वत सत्‍य का उदघ् ाटन करते हैं तथाा विषमता से यक्त ु इस जगत में
संकटग्रस्‍त किंकर्तव्‍य‍विमढ़ू मनष्ु ‍यों का मार्गदर्शन करते हैं। लोक-कल्‍याण
के ि‍लए प्रयक्तु ये सक्त‍ि
ू याँ जीवन की विस�तियों को सहज एवं सरल रूप
से सल ु झाने का कार्य करती हैं। इनमें नीति, कर्त्तव्‍य, सत्‍य, व्‍यवहार, परिवार,
समाज, राष्‍ट्र तथा विश्‍वबन्‍धुत्‍व संबंधी अनेकानेक शाश्‍वत जीवनमल्‍य ू
विद्यमान हैं। जीवन के यथार्थ का दिग्‍दर्शन कराने वाली एवं नैतिक मलू ्‍याें
कोे मन-मस्तिष्‍क में आरूढ़ करने वाली इन सक्त‍ि ू यों से लोकहित की
सहज प्रेरणा मिलती है जिसकी सहायता से मनष्ु ‍य अपने जीवन में सत्‍यम,्
शिवम् और सन्ु ‍दरम् की अलौकिक छवि प्रकट कर सकता है। भाषागत
सरलता, भावों की सहजता तथा संवेदना की गहराई के साथ ही साथ
अभिव्‍यक्त‍ि की मनोरम शैली के कारण सक्ति ू साहित्‍य निश्‍चय ही विशेष
रूप से अवलोकनीय है।
शभु चिन्‍तक मित्र की तरह संस्‍कृ त-सक्ति ू याँ जन-जन का मार्गदर्शन
करती हैं। ये जीवन में परिस्थिति-जनित समस्‍याओ ं का सद्य: समाधान
सझु ाकर मानव को सख ु -शान्ति तथा सन्‍मार्ग की अोर अग्रसर होने की
प्रेरणा प्रदान करती हैं। इनके लघु आकार में जनमानस के लिए व्‍यावहारिक
संदश े तथा शाश्‍वत जीवनदर्शन के संकेत 'गागर में सागर' की भाँति समाए
हुए हैं। इनकी मधरु ता की प्रशसं ा में एक सक्ति ू है-
'तस्‍माद्धि काव्‍यं मधुरं तस्‍मादपि सभु ाषितम'्
अर्थात् काव्‍य मधरु होता है और उसमें भी सभु ाषित (अधिक मधरु
होता है)
आज जब समाज में मानवीय मल्‍यों ू का ह्रास हो रहा है, राष्‍ट्रीय
शै‍क्षिक अनसु ंधान और प्रशिक्षण परिषद् इन मल्‍यों ू को छात्रों एवं सामान्‍य
लोगों में ि‍वकसित करने हेतु प्रयत्‍न कर रही है। संस्‍कृ त वाङ्मय से चयनित
स‍क्ति
ू यों का विशेष महत्त्‍व है— इसी उद्देश्‍य से परू क पाठ�-सामग्री के
ि‍वकासक्रम में सस्‍कृत ं लघु पुस्‍तकमाला योजना के अतं र्गत विभिन्‍न
शास्‍त्रों से संकलित एवं छात्रों के बौद्धिक स्‍तर के अनरू ु प एक सभु ाषित
सग्रं ह प्रस्‍तुत किया गया है। यह सग्रं ह सक्ू तिसौरभम,् तीन खण्‍डों (तीन
पष्ु ‍पों) में क्रमश: उच्‍च प्राथमिक, माध्‍यमिक एवं उच्‍चतर माध्‍यमिक छात्रों
के लिए विभक्‍त है, जिसका यह तृतीय खण्‍ड है।
प्रस्तुत सकू ्‍तिसौरभम् सक ु ु मारमति विद्यालय-स्‍तरीय छात्रों में संस्‍कृ त
साहित्‍य के प्रति अभिरुचि उत्‍पन्‍न करने एवं उनमें नैतिक मल्‍यों ू का विकास
करने में उपादेय होगा। इस पस्‍त ु क के ि‍नर्माण में जिन ग्रन्‍थों, ग्रन्‍थकारों एवं
विद्वानों का सहयोग प्राप्‍त हुआ है, सम्‍पादक उनके प्रति हार्दिक कृ तज्ञता
व्‍यक्त करता है। पस्‍त ु क के प्रकाशन में विविध सहयोग के ि‍लए विभाग के
पर्वू कर्मचारी श्री रामप्रकाश और डॉ. दयाशक ं र तिवारी एवं श्री अविनाश
पाण्‍डेय, जे.पी.एफ., श्री प्रभाकर पाण्‍डेय, जे.पी.एफ., रे खा तथा अनिता
कुमारी, डी.टी.पी. ऑपरे टर धन्‍यवाद के पात्र हैं।

vi
पुस्‍तक निर्माण समिति

अविनाश पाडं ,े जे.पी.एफ., भाषा शिक्षा विभाग, एन.सी.ई.आर.टी. नई दिल्‍ली


आद्या प्रसाद मिश्र, पर्वू कुलपति, इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय, इलाहाबाद,
उत्तर प्रदेश
उमा शक ं र शर्मा ऋषि, पर्वू विभागाध्‍यक्ष, संस्‍कृ त विभाग, पटना
विश्‍वविद्यालय, पटना
कमला कान्‍त मिश्र, पर्वू आचार्य, भाषा शिक्षा विभाग, एन.सी.ई.आर.टी.,
नई दिल्‍ली
चन्‍द्रकान्‍त शक्ु ‍ल, पर्वू कुलपति, कामेश्‍वर सिहं दरभगं ा सस्‍कृ ं त
विश्‍वविद्यालय, दरभगं ा, बिहार
छविकृ ष्‍ण आर्य, पर्वू प्राचार्य, के न्‍द्रीय वि़द्यालय, जामनगर, गजु रात
जगदीश प्रसाद सेमवाल, पर्वू निदेशक, विश्‍वेश्‍वरानन्‍द वैदिक शोध
संस्‍थान, होशियारपरु , पंजाब
नीलाभ तिवारी, सहायक आचार्य, राष्‍ट्रीय सस्‍कृ ं त संस्‍थान, भोपाल
परिसर, भोपाल, मध्‍य प्रदेश
प्रभाकर पाण्‍डेय, जे.पी.एफ., संस्‍कृ त, भाषा शिक्षा विभाग, एन.सी.ई.आर.टी.
नई दिल्‍ली
योगेश्‍वर दत्त शर्मा, दिल्‍ली वि‍श्‍वविद्यालय, दिल्‍ली
लता अरोडा, पर्वू सस्‍कृत ं अध्‍यापक, के न्‍द्रीय विद्यालय, आर.के .परु म,
सेक्‍टर-8, नई दिल्‍ली
वासदु वे शास्‍श्री, पर्वू प्रभारी, सस्‍कृ ं त, एस.सी.ई.आर.टी., उदयपरु ,
राजस्‍थान
श्‍वेता उप्‍पल, मख्ु ‍य संपादक एवं अनवु ादक (अग्ं रेजी), प्रकाशन प्रभाग,
एन.सी.ई.आर.टी., नई दिल्‍ली
सरु े श चन्‍द्र शर्मा, पर्वू सचिव, दिल्‍ली संस्‍कृ त अकादमी, दिल्‍ली
श्रीकृ ष्‍ण सेमवाल, पर्वू उपाध्‍यक्ष, गोस्‍वामी गिरिधारिलाल शोध सस्‍था ं न,
नई दिल्‍ली
सह सयं ोजक एवं सपं ादक
जतीन्‍द्र मोहन मिश्र, एसोसिएट प्रोफे सर, भाषा शिक्षा विभाग,
एन.सी.ई.आर.टी. नई दिल्‍ली
रणजित बेहरे ा, पर्वू सहायक आचार्य, भाषा शिक्षा विभाग, एन.सी.ई.आर.टी.
नई दिल्‍ली
सयं ोजक एवं सपं ादक
कृ ष्‍ण चन्‍द्र त्रिपाठी, विभागाध्‍यक्ष, भाषा शिक्षा विभाग, एन.सी.ई.आर.टी.
नई दिल्‍ली

viii
विषयानुक्रमणिका
परु ोवाक् iii
भमिू का v
1. आत्‍म-विश्‍वास: 1
2. आत्‍म-सम्‍मान: 2
3. त्‍यागभावना 4
4. उत्तमजन: 5
5. उत्‍साह: 6
6. उदारता 7
7. उद्यम: 8
8. कर्त्तव्‍यपरायणता 9
9. कार्य-दक्षता 10
10. सत्‍स�ति: 11
11. क्षमा 13
12. चतरु ता 14
13. ज्ञानमार्गस्‍वरूपम् 15
14. तेजस्विता 16
15. द:ु खमक्ु ‍त्‍युपाय: 17
16. धैर्यम ् 18
17. मानववैचित्र्यम् 20
18. परोपकार: 21
19. प्रियवादिता 22
20. मद्य-निषेध: 23
21. शौर्य 24
22. महापरुु ष: 25
23. मित्रता 26
24. आत्‍मसंयम: 28
25. वाग्‍भूषणम ् 29
26. विनम्रता 30
27. विश्‍वास: 31
28. शिष्‍टाचार: 32
29. सज्‍जन: 33
30. सदग् णु ा: 35
31. सन्‍तोष: 37
32. सत्‍य-निष्‍ठा 38
33. सर्व-समभाव: 39
34. स्‍वाभिमान: 40
श्‍लोकानाम् अकारादिक्रमसची
ू 41

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प्रथमो भाग:

1. आत्‍म-विश्‍वास:
विस्‍मय: सर्वथा हेय:
प्रत्‍हयू : सर्वकर्मणाम् ।
तस्माद् विस्‍मयमतु ्‍सृज्‍य
साध्‍ये सिद्धिर्विधीयताम् ।।1।।
(सभु ाषितरत्‍नभाण्‍डागारम् 155.95)
(हितोपदेश:2.15)
संदहे का सर्वथा परित्‍याग करना चाहिए क्‍योंकि यह सभी कर्मों में व्‍यवधान
स्‍वरूप होता है। इसलिए अनिश्‍चय को छोड़कर लक्ष्‍य की सिद्धि करनी
चाहिए ।
Confusion should be always avoided, for it is an
obstruction to all actions. Therefore, avoiding
confusions one should accomplish one's tasks.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 1


2. आत्‍मसम्‍मान:
यज्‍जीव्‍यते क्षणमपि प्रथितं मनषु ्‍यै:
विज्ञानशौर्यविभवार्यगणु :ै समेतम् ।
त�ाम जीवितमिह प्रवदन्ति तज्‍ज्ञा:
काकोऽपि जीवति चिराय बलिञ्च भङु ्क ्ते ।।2।।
(पञ्चतन्‍त्रम,् ि‍मत्रभेद:, 24)
मनष्‍य
ु ों के द्वारा ज्ञान, शरू ता, वैभव तथा उच्‍च गणु ों से यक्ु ‍त जो जीवन
क्षणभर के ि‍लए भी कीर्तिपूर्वक जिया जाता है, उसी को ऋषिजन वास्‍तविक
जीवन कहते हैं। वैसे तो कौवा भी बलि का भक्षण करते हुए चिरकाल तक
जीवित रहता है।
The seers only call that life worth living which is
full of knowledge, bravery, prosperity, virtues and
praised by the people even for a moment. Otherwise,
even a crow lives long by eating offerings from
others.

2 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


मनस्विनो न मन्‍यन्‍ते
परत: प्राप्‍य जीवनम् ।
बलिभग्ु ‍भ्‍यो न काके भ्‍य:
स्‍पृहयन्ति हि कोकिला: ।।3।।
(सभु ाषितरत्‍नभाण्‍डागारम् 83/2)
मनस्‍वी लोग दसू रों से जीवन पाकर जीना पसन्‍द नहीं करते । कोयल बलि
खाने वाले कौओ ं से हिस्‍सा नहीं चाहती।
A confident person does not like to live the life
dependent on others. As the cuckoo does not desire
to eat from the offerings being enjoyed by the crows.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 3


3. त्‍यागभावना
ईशावास्‍यमिदं सर्वं
यत्किञ्च जगत्‍यां जगत् ।
तेन त्‍यक्तेन भञु ्जीथा
मा गृध: कस्‍यस्विद्धनम् ।।4।।
(शक्ु ‍लयजर्ु वेद:,40/1)
इस संसार में ि‍वद्यमान (चराचर) सभी वस्‍तुएँ ईश्‍वर से व्‍याप्‍त हैं। अत:
उनका त्‍यागपूर्वक उपभोग करो। किसी के भी धन के प्रति लोभ मत करो।
Everything that exists in this world, belongs to the
Almighty. Therefore, enjoy only with the spirit of
renunciation. Do not desire the wealth of others.

4 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


4. उत्तमजन:
घृष्‍टं घृष्‍टं पनु रपि पनु श्‍चन्‍दनं चारुगन्‍धं
छि�ं छि�ं पनु रपि पनु : स्‍वादु चैवेक्षुदण्‍डम् ।
दग्‍धं दग्‍धं पनु रपि पनु : काञ्चनं कान्‍तवर्णं
न प्राणान्‍ते प्रकृतिविकृतिर्जायते चोत्तमानाम् ।।5।।
(सभु ाषितरत्‍नभाण्‍डागारम/् 53/229)
बार-बार घिसने पर भी चन्‍दन सगु ंध करता है। बार-बार काटने पर भी गन्‍ना
स्‍वादिष्‍ट रहता है। बार-बार तपाने पर साेना चमक जाता है। उत्तम जनों के
स्‍वभाव में प्राण जाने के समय तक भी किसी प्रकार का विकार नहीं आता।
Sandalwood, when rubbed continuously becomes
fragrant, the sugarcane becomes tasty even
when cut again and again. Gold glitters when it is
repeatedly heated. The nature of the good people
does not change even in the face of death.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 5


5. उत्‍साह:
विजेतव्‍या लंका चरणतरणीयो जलनिधि:
विपक्ष: पौलस्‍त्‍यो रणभवु ि सहायाश्‍च कपय: ।
पदातिर्मर्त्योऽसौ सकलमवधीद् राक्षसकुलं
क्रियासिद्धि: सत्त्‍वे भवति महतां नोपकरणे ।।6।।
(भोजप्रबन्‍ध:, 170)
लंका को जीतना था, समद्रु को पैदल ही पार करना था, रणभूमि में रावण
जैसा शत्रु सामने था, बन्‍दर ही सहायक थे, फिर भी नश्‍वर राम ने पैदल
ही यद्ध
ु भूमि में सम्‍पूर्ण राक्षसकुल का विनाश कर दिया । महापरुु षों की
उपस्थिति मात्र पर क्रिया की सफलता (उनके आत्‍मबल पर आश्रित) हाेती
है, साधनों पर नहीं।
Lanka had to be conquered, the ocean was to be
crossed on foot, Ravana was the enemy in the battle
field, monkeys were the supporters. Yet the mortal
on foot, Rama, killed the entire clan of demons in
the battle, the success of the great men depend on
the fortitude and not on the means.

6 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


6. उदारता
भक्तंु स्‍वादफल
ु ं कृ तं च शयनं शाखाग्रजै: पल्‍लवै:
त्‍वच्‍छायापरिशीतलं ससु लिलं पीतं व्‍यपेतश्रमै:।
विश्रान्‍ता: सचि
ु रं परं समन ु स: प्रीति: किमत्रोच्‍यते
त्‍वं सन्‍मार्गतरुर्वयं च पथिका: याम: पनर्दर्शनम
ु ् ।।
(सभु ाषितरत्‍नभाण्‍डागारम् 247/20)
हमने स्‍वादिष्‍ट फल खाए। शाखाओ ं पर उत्‍पन्‍न पत्तों (की छाया) पर सोया।
थकावट रहित होकर हमने तमु ्हारी छाया में शीतल जल ि‍पया, और बहुत
देर तक विश्राम किया। अच्‍छे मन वाले तमु ्‍हारी प्रीति के बारे में क्‍या कहना।
तमु सगु म पथ के वृक्ष हो और हम पथिक हैं। तमु ्‍हारा फिर दर्शन हो, (इस
कामना से) हम जा रहे हैं।
We have eaten tasty fruits, we have slept on the
leaves from your branches, we have taken water
cooled under your shade and freshened ourselves.
We have taken a long rest. What to say about the
affection of your heart. You are the tree of the good
path and we are travellers. We leave now and hope
to see you again.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 7


7. उद्यम:
काष्‍ठादग्निर्जायते मथ्‍यमानात्
भूमिस्‍तोयं खन्‍यमाना ददाति ।
सोत्‍साहानां नास्‍त्‍यसाध्‍यं नराणां
मार्गारब्‍धा: सर्वयत्‍ना: फलन्ति ।।8।।
(प्रतिज्ञायौगन्‍धरायणम,् 1/4)
निरन्‍तर घिसने से लकड़ी से अग्नि उत्‍पन्‍न करना संभव है। (गहरा) खोदने
से जल प्राप्‍त किया जा सकता है। उत्‍साही परुु षों के ि‍लए कुछ भी असाध्‍य
नहीं है । उचित दिशा में प्रारंभ किए गए समस्‍त प्रयत्‍न सफल होते हैं।
Repeated friction of wood produces fire, constant
digging of earth gives water. There is nothing
impossible for persons with perseverance. All the
efforts started in right directions bear fruits.

8 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


8. कर्त्तव्‍यपरायणता
कुर्व�ेवेह कर्माणि
जिजीविषेच्छतं समा: ।
एवं त्‍वयि नान्‍यथेतोऽस्ति
न कर्म लिप्‍यते नरे ।।9।।
(यजर्ु वेद:, 40/2)
इस संसार में कर्म करते हुए ही मनष्‍य ु को सौ वर्षों तक जीने की इच्‍छा
करनी चाहिए । इस प्रकार तझु (मनष्‍य ु ) में कर्म लिप्‍त नहीं होगा (तम्‍ह
ु ें कर्म
नहीं बाँधगे ा) । इससे भिन्‍न कोई मार्ग नहीं है ।
One should desire to live for hundred years only
if fulfilling his duties (throughout). If you behave in
this manner and not otherwise the Karma will not
be attached with you (you will not wish for results).

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 9


9. कार्य-दक्षता
गणु वदगणु वद् वा कुर्वता कार्यजातं
परिणतिरवधार्या यत्‍नत: पण्डितेन ।
अतिरभसकृ तानां कर्मणामाविपत्ते:
भवति हृदयदाही शल्‍यतल्‍यो
ु विपाक: ।।10।।
(नीतिशतकम,् 99)
बद्ु धिमान् व्‍यक्‍ति को यत्‍नपूर्वक उचित अथवा अनचि ु त कार्य करते हुए
उसके परिणाम को ि‍नश्‍चित रूप से जानना चाहिए; नहीं तो बहुत जल्‍दी में
ि‍कए हुए कार्यों का फल मृत्‍युपर्यन्‍त मनष्‍य
ु को हृदय में गड़ी कील के समान
निरन्‍तर सन्‍तप्‍त करता रहता है।
A wisemen should carefully think over the results of
the right or the wrong action he is going to perform.
(Otherwise) the results of the deeds done in haste
would go on hurting till death like a nail (pierced in
the heart).

10 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


10. सत्‍स�गति:
कीटोऽपि समनु : स�ादारो‍हति सतां शिर: ।
अश्‍माऽपि याति देवत्‍वं महद्भि: सप्रु तिष्ठित: ।।11।।
(सभु ाषितरत्‍नभाण्‍डागारम् 10/11)
पष्‍प
ु के सम्‍पर्क से कीड़ा भी सज्‍जनों के मस्‍तक पर पहुचँ जाता है ।
महापरुु षों द्वारा स्‍थापित पत्‍थर भी देवता बन जाता है ।
Even an insect reaches the head of the virtuous
people with the flower. (Similarly) A stone also
assumes the status of the deity if consecrated by
great men.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 11


जाड�ं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्‍यं
मानो�तिं दिशति पापमपाकरोति ।
चेत: प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिम्
सत्‍स�ति: कथय किं न करोति पंसु ाम् ।।12।।
(नीतिशतकम,् 24)
सज्‍जनों की स�ति बद्ु धि की जड़ता को समाप्‍त कर देती है, वाणी में
सत्‍यता लाती है, स्‍वा‍िभमान को उ�त करती है, पाप को दरू करती है, चित्त
को प्रस� करती है तथा चारों दिशाओ ं में यश काे फै लाती है । बताओ,
सत्‍संगति मनष्‍य
ु का कौन-सा कल्‍याण नहीं करती?
The association with the saintly people removes
dullness of the intellect; brings forth truthfulness
in the speech, provides one with self-respect and
advancement, dispels one’s sins, pleases the heart
and spreads one’s glory in all directions. Tell, what
good does the company of the noble men not do to
the people?

12 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


11. क्षमा
य: समत्‍पति
ु तं क्रोध,ं
क्षमयैव निरस्‍यति ।
यथोरगस्‍त्‍वचं जीर्णां,
स वै परुु ष उच्‍यते ।।13।।
(वाल्‍मीकिरामायणम,् 5/53/6)
वही मनष्‍य
ु वास्‍तव में 'परुु ष' कहलाता है, जो अपने उभरते हुए क्रोध को
क्षमा के बल से उसी प्रकार त्‍याग देता है जिस प्रकार साँप परु ानी कें चल
ु ी
को त्‍याग देता है ।
That person, indeed, is called ‘Man’ who gets rid of
his surging anger by way of forgiveness just as a
serpent casts away its decaying slough (old skin).

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 13


12. चतुरता
व्रजन्ति ते मूढधिय: पराभवं
भवन्ति मायाविषु ये न मायिन: ।
प्रविश्‍य हि घ्‍नन्ति शठास्‍तथाविधान्
असंवृतांगान् निशिता इवेषव: ।।14।।
(किरातार्जुनीयम् 1/30)
जो मन्‍दबद्ु धि (नृप अादि) लोग मायावी (छल-कपटी) लोगों के साथ छल-
कपट नहीं करते उन्‍हें पराभव (पराजय) का सामना करना पड़ता है । दष्‍ट ु
लोेग ऐसे लोगों में प्रविष्‍ट होकर उन्‍हें कवचरहित अगं ों में प्रविष्‍ट बाण के
समान नष्‍ट कर देते हैं।
The dull who do not play tricks with cunning and
vicious people face defeat. The wicked people mixing
with such persons harm them, as, sharp arrows
piercing the limbs of people having armourless
bodies and destroy them.

14 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


13. ज्ञानमार्गस्‍वरूपम्
उत्तिष्‍ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत ।
क्षुरस्‍य धारा निशिता दरु त्‍यया
दर्गंु पथस्‍तत्‍कवयो वदन्ति ।।15।।
(कठोपनिषद,् 3/14)
उठो, जागो और श्रेष्‍ठ आचार्यों के पास जाकर ज्ञान प्राप्‍त करो । तत्त्‍वदर्शियों
ने ज्ञान के मार्ग को छुरी की तीक्ष्‍ण और दस्ु ‍तर धार के समान दर्गम
ु कहा है ।
Arise, awake and gain knowledge in the company
of wisemen. The scholars consider the path of
knowledge as sharp and difficult to walk edge of
the knife.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 15


14. तेजस्विता
अवन्‍ध्‍यकोपस्‍य विहन्‍तुरापदां
भवन्ति वश्‍या: स्‍वयमेव देहिन: ।
अमर्षशून्‍येन जनस्‍य जन्‍तुना
न जातहार्देन न विद्विषादर: ।।16।।
(किरातार्जुनीयम् 1/33)
सार्थक क्रोध करने वाले और विपत्तियों को दरू करने वाले प्राणी के वश में
लोग स्‍वयं ही अा जाते हैं। क्रोध रहित व्‍यक्‍ति की ि‍मत्रता से न किसी के मन
में अादर भाव होता है और न ही उसकी शत्रुता से भय होता है।
People, on their own, come under the power of the
man whose fury bears fruit and who is able to solve
problems. The people neither respect the friendship
nor fear the enemity of the one who is devoid of
passion.

16 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


15. दु:खमुक्‍त्‍युपाय:
ॠणशेषं चाग्निशेषं
शत्रुशषे ं तथैव च ।
व्‍याधिशेषं च ि‍न:शेषं
कृ त्‍वा प्राज्ञो न सीदति ।।17।।
(पञ्चतन्‍त्रम,् 4, 239)
जो बद्ु धिमान् व्‍यक्‍ति ॠण, अग्नि, श्‍ात्रु अौर रोग को जड़ से नष्‍ट कर देता
है, वह द:ु खी नहीं होता।
The wise who completely puts an end to debt, fire,
enemy and diseases is not resentful.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 17


16. धैर्यम्
त्‍याज्‍यं न धैर्यं विधरु े ऽपि काले,
धैर्यात्‍कदाचित्स्थितिमाप्‍नुयात् स: ।
जाते समद्रेु ऽपि ि‍ह पोतभ�े
सांयान्त्रिको वाञ्छति तर्तुमेव ।।18।।
(पञ्चतन्‍त्रम,् मित्रभेद:, 216)
(मनष्‍य
ु को) कठि‍न परिस्थितियों में भी धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए, क्‍योंक‍ि
सम्भव है धैर्य से वह पनु : पूर्व स्थिति को प्राप्‍त कर ले जैसे कि नाविक
समद्रु में जलयान के टूट जाने पर भी समद्रु पार करना ही चाहता है ।
A man should not give up his courage even in
adverse times, for it is possible he may regain his
prior position because of patience, just as a sailor
wants to cross over the sea even when his ship is
broken down in the sea.

18 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


कदर्थितस्‍यापि च धैर्यवृत्ते:
बद्धेर्विन
ु ाशो न ि‍ह शङ्कनीय: ।
अध: कृ तस्‍यापि तनूनपातो,
नाध: शिखा याति कदाचिदेव ।।19।।
(हितोपदेश:, सहृु दभ् दे :, 68)
अापत्तियों से ि‍घर जाने पर भी धैर्यशाली व्‍यक्‍ति की बद्ु धि के ि‍वनाश की
आशक ं ा नहीं करनी चाहिए । आग को नीचे की अोर कर देने पर भी उसकी
लपटें कभी भी नीचे नहीं जाती ।
A man of fortitude though surrounded by a lot of
difficulties, must not be suspected of loss of intellect.
The flames of fire, though overturned, do not ever go
downwards.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 19


17. मानववैचित्र्यम्
एके सत्‍पुरुषा: परार्थघटका: स्‍वार्थान् परित्‍यज्‍य ये,
सामान्‍यास्‍तु परार्थमद्यु मभृता: स्‍वार्थाविरोधेन ये ।
तेऽमी मानषु राक्षसा: परहितं स्‍वार्थाय निघ्‍नन्ति ये,
ये निघ्‍नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ।।20।।
(सभु ाषितरत्‍नभाण्‍डागारम,् 64.266)
एक वे सज्‍जन परुु ष हैं जो स्‍वार्थ की उपेक्षा करके परोपकार करते हैं । दसू रे
वे सामान्‍य जन हैं जो स्‍वार्थ को त्‍यागे बिना परोपकार के ि‍लए प्रयास करते
हैं । तीसरे वे मनष्‍य
ु के रूप में राक्षस हैं जाे अपने स्‍वार्थ के लिए दसू रों के
हित की हानि करते हैं, (और एक वह परुु ष) जो किसी कारण बिना ही
दसू रों को हानि पहुचँ ाते हैं, वे न जाने किस कोटि में अाते हैं ।
There are saintly people who without any self-
interest do good to others. There are those ordinary
people who put in efforts for the good of others
without sacrificing their own. There are devilish
people who for their own interest spoil the interst of
others. Those who harm others without any reason,
we do not know under which category do they fall.

20 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


द्वितीयाे भाग:

18. परोपकार:
अहो एषां वरं जन्‍म
सर्वप्राण्‍युपजीवनम् ।
धन्‍या महीरुहा येभ्‍यो
निराशां यान्ति नार्थिन: ।।21।।
(श्रीमदभ् ागवतपरु ाणम,् 22/23)
अहो! जन्‍म तो इन्‍हीं वृक्षों का श्रेष्‍ठ है क्‍योंकि ये सब प्र‍ाणियों के उपकारी
हैं। ये वृक्ष धन्‍य हैं कि इनके पास आकर याचक निराश नहीं लौटते।
The life of the trees is worthiest because they
support all living beings. Blessed are the trees from
whom no beggar goes back disappointed.

पत्र-पष्‍प
ु -फलच्‍छाया-मूलवल्‍कलदारुभि: ।
गन्ध-निर्यास-भस्‍मास्थितोक्‍मै: कामान् वितन्‍वते ।।22।।
(श्रीमदभ् ागवतपरु ाणम,् 22/34)
ये वृक्ष अपने पत्तों, फूलों, फलों, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्‍ध, गोंद,
राख, गठल ु ी और कोपलों से लोगों की इच्‍छाएँ पूर्ण करते हैं ।
Trees fulfill the desire of the people by (giving) their
leaves, flowers, fruits, shades, roots, barks, wood,
fragrance, gum, ashes, kernels and sprouts.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 21


19. प्रियवादिता
आकोपितोऽपि कुलजो न वदत्‍यवाच्‍यं
निष्‍पीडितो मधरु मेव वमेत् किलेक्षु: ।
नीचो जनो गणु शतैरपि सेव्‍यमानो
हासेषु तद्वदति यत् कलहेषु वाच्‍यम् ।।23।।
(सभु ाषितावलि:, 44/277)
कुलीन व्‍यक्‍ति बार-बार क्रोध दिलाने पर भी न बोलने लायक वचन नहीं
बाेलता जैसे गन्‍ना बार-बार निचोड़ा जाने पर भी मिठास ही देता है । परंतु
नीच व्‍यक्‍ति सैकड़ों गणु ों से यक्ु ‍त व्‍यक्‍ति के द्वारा सेवा किए जाने पर भी
हँसी-हँसी में वह बात कह देता है जो लड़ाई-झगड़े में कही जाती है ।
A noble man does not speak abusive words even
when pushed to anger, like the sugarcane remains
sweet even after being pressed again and again.
On the other hand, a mean person even if served by
a man with hundreds of virtues, utters in jest what
is generally spoken during squibbles.

22 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


20. मद्य-निषेध:
धृतिं लज्‍जां च बद्धिं
ु च
पानं पीतं प्रणाशयेत् ।
तस्‍मा�रा: सम्‍भवन्ति
निर्लज्‍जा: निरपत्रपा: ।।24।।
(महाभारतम् अ./145)
पी हुई मदिरा (मनष्‍य
ु के ) धैर्य, लज्‍जा और बद्ु धि को नष्‍ट कर देती है ।
उससे मनष्‍य
ु निर्लज्‍ज और अशोभनीय हो जाते हैं ।
The wine when drunk spoils the confidence,
modesty and wisdom (of a person). Hence, people
become shameless and immodest.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 23


21. शौर्य
को वीरस्‍य मनस्विन: स्‍वविषय: को वा विदेशस्‍तथा,
यं देशं श्रयते तमेव कुरुते बाहुप्रतापार्जितम् ।
यद् द्रंष्‍ट्रानखला�ूलप्रहरण: सिंहो वनं गाहते,
तस्मि�ेव हतद्विपेन्‍द्ररुधिरै स्‍तृष्‍णां छिनत्त्‍यात्‍मन: ।।25।।
(हितोपदेश:, मित्रलाभ:, 172)
मनस्‍वी वीर के लिए स्‍वदेश क्‍या और विदेश क्‍या? जिस देश में वह रहता
है, उसी को बाहुबल से अर्जित कर लेता है । दाढ़, नाखून तथा पँछू रूपी
शस्‍त्र वाला ि‍संह जिस वन में रहता है, उसी में गजराज को मारकर उसके
रक्‍त से अपनी प्‍यास को बझु ाता है ।
What is his own country or what is a foreign land
to a respectful and a brave person. Whichever place
he resides at, he assumes a power with his might,
just as whichever forest a lion armed with jaws,
nails and tail lives in, he quenches his thirst with
the blood of the mighty elephant.

24 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


22.महापुरुष:
तृणानि नोन्‍मूलयति प्रभञ्जनो
मृदूनि नीचै: प्रणतानि सर्वत: ।
स्‍वभाव एवो�तचेतसामयं,
महान् महत्‍स्‍वेव करोति विक्रमम् ।।26।।
(पञ्चतन्‍त्रम,् ि‍मत्रभेद:, 133)
नीचे झक ु ी हुई कोमल घास को आँधी नहीं उखाड़ती। ऊँचे विचार वाले
व्‍यक्‍तियों का यह स्‍वभाव ही है ि‍क महान (समकक्ष) व्‍यक्‍ति पर ही अपना
पराक्रम दिखाता है।
The storm does not uproot the tender and small
grass. It is the nature of the great men, to show their
valour only against the great.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 25


23. मित्रता
आरम्‍भगर्ु वी क्षयिणी क्रमेण
लघ्‍वी परु ा वृद्धिमती च पश्‍चात् ।
दिनस्‍य पूर्वार्धपरार्धभि�ा
छायेव मैत्री खलसज्‍जनानाम् ।।27।।
(नीतिशतकम/् 60)
दष्‍ट
ु और सज्‍जनों की ि‍मत्रता दिन के पूर्वार्ध और परार्ध की छाया के समान
भिन्‍न होती है। (दष्‍ट
ु ों की मित्रता) प्रारंभ में अधिक और बाद में क्रमश:
क्षीण होती जाती है जबकि सज्‍जनों की मित्रता प्रारंभ में कम और बाद में
बढ़ती जाती है ।
The friendship of an evil person and a good person
is like the shadow in the forenoon and afternoon.
The former is long in the beginning but decreases
afterwards whereas the latter is short in the
beginning but becomes long afterwards.

26 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


परोऽपि हितवान् बन्‍धु: बन्‍धुरप्‍यहित: पर: ।
अहितो देहजो व्‍याधि: हितमारण्‍यमौषधम् ।।28।।
(हितोपदेश:)
अपना हित करने वाला पराया व्‍यक्‍ति भी अपना बन्‍धु होता है और अहित
करने वाला बन्‍धु भी पराया होता है जैसे अपने शरीर में ही उत्‍पन्‍न बीमारी
अहितकारी होती है और जंगल में उत्‍पन्‍न औषधि (जड़ी-बूटी) ि‍हतकारी
होती है ।
A stranger who is beneficial for us is a friend,
whereas, a friend who harms is distant to us.
(Like) Illnes from within our (own) body is harmful,
whereas medicine (herb) available in (distant) forest
is beneficial.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 27


24. आत्‍मसयम
ं :
अाशाया ये दासा:
ते दासा: सर्वलोकस्‍य ।
आशा येषां दासी
तेषां दासायते लोक: ।।29।।
(सभु ाषितरत्‍नभाण्‍डागारम,् 79/28)
जो व्‍यक्‍ति आशा के दास हैं, वे सम्‍पूर्ण संसार के दास बने रहते हैं। जो
इच्छाओ ं (आशा) को अपनी दासी बना लेते हैं, सारा संसार उनका दास
बन जाता है।
Those who are the slaves of desires are the slaves of
the whole world, but those who enslave the desires
make the entire world their slave.

28 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


25. वाग्‍भूषणम्
के यरू ा: न विभूषयन्ति परुु षं हारा: न चन्‍द्रोज्‍ज्वला:
न स्‍नानं न विलेपनं न कुसमु ं नाल�ृता: मूर्धजा: ।
वाण्‍येका समल�रोति परुु षं या संस्‍कृ ता धार्यते ।
क्षीयन्‍ते खलु भूषणानि सततं वाग्‍भूषणं भूषणम् ।।30।।
(नीतिशतकम,् 19)
बाजूबन्‍द मनष्‍य ु को शोभित नहीं करते । (इसी तरह) चन्‍द्रमा के समान
उज्‍ज्वल हार, न स्‍नान, न (सगु न्धित) लेप, न पष्‍प
ु और न सजे हुए के श
परुु ष को सश ु ोभित करते हैं । एक वाणी ही मनष्‍य
ु को अलंकृत करती है,
यदि वह ससु स्‍कृं त रूप में धारण की जाये। अन्‍य सभी प्रकार के आभूषण
नश्‍वर हैं। वस्‍तुत: वाणी ही मनष्‍य
ु का आभूषण है।
The armlets do not adorn a person, nor the moonlike
bright necklace nor the bath nor any lotion, nor the
flower and neither the well dressed (locks of) hair.
It is only the refined speech which adorns a person.
All other ornaments are perishable, the ornament of
speech the real ornament.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 29


26. विनम्रता
भवन्ति नम्रास्‍तरव: फलागमै:
नवाम्‍बुभिर्भूरिविलम्बिनो घना: ।
अनद्ध
ु ता: सत्‍पुरुषा: समृद्धिभि:
स्‍वभाव एवैष पराेपकारिणाम् ।।31।।
(अभिज्ञानशाकुन्‍तलम,् 5/12)
फल आने से पेड़ झक ु जाते हैं, नया जल धारण करने से बादल बहुत
नीचे आ जाते हैं । इसी तरह सज्‍जन परुु ष सम्‍पत्तियों से यक्ु ‍त होकर भी
निरभिमान (विनम्र) रहते हैं । परोपकारी जनों का यही स्‍वभाव है ।
The trees bend when laden with fruits, the
clouds come down when they have new (rain)
water. Similarly, the virtuous people are humble
even though prosper. It is the very nature of the
benevolent.

30 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


27. विश्‍वास:
न देवो विद्यते काष्‍ठे ,
न पाषाणे न मृण्‍मये ।
भावे हि विद्यते देव:,
तस्‍माद् भावो ि‍ह कारणम् ।।32।।
(हितोपदेश:, 314)
देवता काष्‍ठ में नहीं है, न ही वह पत्‍थर में है अौर न ही मिट्टी की मूर्ति में
है, देवता तो ि‍नस्‍सन्‍देह भावना (विश्‍वास) में रहता है । इसलिए भावना ही
(देवसिद्धि में) मख्ु ‍य कारण है ।
The deity resides neither in the idol of wood or
in stone nor in clay. He is (resides) only in faith.
Therefore, the faith is the supreme cause (in the
existence of the deity).

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 31


28. शिष्‍टाचार:
प्रियं वा यदि वा द्वेष्‍यं शभु ं वा यदि वाऽशभु म् ।
अपृष्‍टोऽपि हितं ब्यरू ात् यस्‍य नेच्‍छे त् पराभवम् ।।33।।
(पञ्चतन्‍त्रम,् मित्रभेद:, 262)
मनष्‍य
ु जिस व्‍यक्‍ति का अहित नहीं चाहता उसका हित बिना पछू े ही कह
देना चाहिए, चाहे वह बात उसे अच्‍छी लगे या बरु ी लगे, शभु लगे या
अशभु ।
To one whose harm is not intended, one should tell
him his benefits whether it is pleasant or unpleasant,
(seems to be) auspicious or inauspicious even if not
asked for.

32 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


29. सज्‍जन:
कटु क्‍वणन्‍तो मलदायका: खला:
तदु न्‍त्‍यलं बन्‍धनश्रृंखला इव ।
मनस्‍तु साधध्‍वनिभि
ु : पदे पदे
हरन्ति सन्‍तो मणिनूपरु ा इव ।।34।।
(कादम्‍बरी, कथामख
ु म,् 6)
बरु ाइयों को जन्‍म देने वाले दष्‍ट
ु व्‍यक्‍ति बेड़ियों के समान कटु शब्‍द कहते
हुए अत्‍यधिक पीड़ा पहुचँ ाते रहते हैं । किन्‍तु श्रेष्‍ठ व्‍यक्‍ति अपने प्रत्‍येक
शब्‍द की मधरु ध्‍वनि से मन को वैसे ही आकृष्‍ट करते रहते हैं जैसे पग-पग
पर मणियक्ु ‍त नूपरु की ध्‍वनि ।
The evil cause immense pain to others by speaking
bitter words, like the rattling shackles. The good
people attract the hearts of others by their sweet
words like the anklets studded with gems.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 33


मृदघ् टवत् सखु भेद्यो,
द:ु सन्‍धानश्‍च दर्जन
ु ो भवति ।
सजनस्‍तु
ु कनकघटवद,्
दर्भेु द्यश्‍चाशु सन्‍धेय: ।।35।।
(हितोपदेश: मित्रलाभ: 93)
दर्जन
ु व्‍यक्‍ति मिट्टी के घड़े के समान होता है जिसे सरलता से तोड़ा जा
सकता है, परन्‍तु उनको जोड़ना कठिन होता है जबकि सज्‍जन सोने के घड़े
के समान होता है जिसे तोड़ना तो कठिन होता है, परन्‍तु सरलता से जोड़ा
जा सकता है।
The evil person is like an earthern pot – easy to
break but difficult to join. Whereas, a good person
is like a golden pot – difficult to break but still easy
to join.

34 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


30. सद्गुणा:
क्षान्तिश्‍चेत् कवचेन किं, किमरिभि: क्रोधोऽस्ति चेद्देहिनां,
ज्ञातिश्‍चेदनलेन किं, यदि सहृु द् दिव्‍यौषधै: किं फलम् ।
किं सर्पैर्यदि दर्जन
ु ा:, किमु धनैर्विद्याऽनवद्या यदि,
व्रीडा चेत्किमु भूषणै:, सक ु विता यद्यस्ति राज्‍येन ि‍कम् ।।36।।
(नीतिशतकम् 22)
यदि ि‍कसी के पास सहनशीलता है तो कवच की क्‍या आवश्‍यकता? यदि
क्रोध है तो शत्रु की क्‍या? यदि ईर्ष्यालु बन्‍धुजन ि‍वद्यमान है तो अग्नि की
क्‍या? यदि मित्र है तो चमत्‍कारी औषधियों की क्‍या? यदि दष्‍ट ु लोग हैं तो
साँपों की क्‍या? यदि शद्ध ु विद्या है तो धन की क्‍या? यदि लज्‍जा है तो
आभूषण की क्‍या? यदि काव्‍य प्रतिभा है तो राज्‍य की क्‍या?
If a person is tolerant why would he need an
armour? If angry then why an enemy? If jealous
friends then why Fire? If has friends then why
miraculous medicines? If evil people (surrounded
by) then why a snake? If has pure knowledge then
why need wealth? If has modesty then why need
ornaments? If possesses poetic genius then why
need a kingdom?

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 35


व‍ह्नि‍स्‍तस्‍य जलायते जलनिधि: कुल्‍यायते तत्क्षणात्
मेरु: स्‍वल्‍पशिलायते मृगपति: सद्य: कुर�ायते ।
व्‍यालो माल्‍यगणु ायते विषरस:पीयूषवर्षायते,
यस्‍या�े ऽखिललोकवल्‍लभतमं शीलं समन्‍मीलति ु ।।37।।
(नीतिशतकम/् 108)
जिसके शरीर में सभी लोकों का अतिप्रिय श्‍ाील विद्यमान है उसके सम्‍मुख
आग जल के समान (शीतल) हो जाती है, समद्रु छोटी नहर के समान (तैरने
योग्‍य) हो जाता है, समु रुे पर्वत साधारण शिला के समान (चढ़ने योग्‍य) हो
जाता है, सिहं हिरण के समान हो जाता है, साँप माला के समान (धारण
करने योग्‍य) हो जाता है और विष भी अमृत की वर्षा के समान (ग्राह्य) हो
जाता है ।
For a person in whose personality resides the
virtuous conduct, dearest to the entire world, before
him, even fire immediately behaves like water,
ocean as a canal; Sumeru mountain as a rock; lion
as a deer; Snake as a garland and poison as nectar.

36 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


31. सन्‍ताेष:
सन्‍तोषामृततृप्‍तानां यत्‍सुखं शान्‍तचेतसाम् ।
कुतस्‍तद् धनलबु ्‍धानामितस्ततश्‍च धावताम् ।।38।।
(सभु ाषितरत्‍नभाण्‍डागारम,् 78/1)
सन्‍तोष रूपी अमृत से तृप्‍त तथा शान्‍तचित्त लोगों काे जो सख
ु मिलता है,
वह इधर-उधर भटकने वाले धन के लोभियों को कहाँ मिल सकता है ।
The happiness, that people with content and
peaceful mind get, cannot be enjoyed by those who
are greedy of wealth and are wandering (minds).

सर्पा: पिबन्ति पवनं न च दर्बल ु ास्‍ते


शषु ्‍कैस्‍तृणैर्वनगजा बलिनो भवन्ति ।
कन्‍दै: फलैर्मुनिवरा क्षपयन्ति कालं,
सन्‍ताेष एव परुु षस्‍य परं निधानम् ।।39।।
(पञ्चतन्‍त्रम,् ि‍मत्रसम्‍प्राप्ति:, 159)
साँप के वल हवा पीते हैं तथापि दर्बल
ु नहीं होते । जगं ली हाथी के वल सख
ू ी
घास खाकर शक्‍तिशाली रहते हैं । श्रेष्‍ठ मनि
ु गण के वल कन्‍दमूल तथा फल
से जीवन-निर्वाह करते हैं । वस्‍तुत: सन्‍तोष ही मनष्‍य
ु का परम धन है ।
Serpents take only the air but they are not weak,
the wild elephants are strong enough by only
eating dry grass. The saints live on roots and fruits.
Contentment is indeed, the greatest asset of man.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 37


32. सत्‍यनिष्‍ठा
हिरण्‍मयेन पात्रेण
सत्‍यस्‍यापिहितं मख ु म् ।
तत्त्‍वं पूष�पावृण,ु
सत्‍यधर्माय दृष्‍टये ।।40।।
(ईशावास्‍योपनिषद,् 16)
सत्‍य का मख ु स्‍वर्णमय पात्र से ढका रहता है, हे (सर्वपोषक) सूर्यदेव ! उस
सत्‍य के तत्त्‍व के दर्शन के लिए तमु उस (ढक्‍कन) को हटा दो ।
The face of truth is covered with a golden lid.
O Sun! (the nourisher of all), remove that (lid) so that
we may have the vision of that truth.

38 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


33. सर्वसमभाव:
समानी व आकूति: समाना हृदयानि व: ।
समानमस्‍तु वो मनो यथा व: ससु हासति ।।41।।
(ॠग्‍वेद: 10/1/4)
तमु सबका अभिप्राय समान हो, तमु ्‍हारा हृदय समान हो, तमु ्‍हारा मन समान
हो ि‍जससे तमु में मेल-मिलाप (सहयोग) बना रहे ।
May your thoughts be directed towards a common
goal; your hearts be the same, similar may be your
mindset so that your companionship may last.

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 39


34. स्‍वाभिमान:
तावदाश्रीयते लक्ष्‍म्‍या,
तावदस्‍य स्थिरं यश: ।
परुु षस्‍तावदेवास्ति,
यावन्‍माना� हीयते ।।42।।
(किरातार्जुनीयम,् 11/61)
व्‍यक्‍ति तभी तक लक्ष्‍मीवान् रहता है, तभी तक उसकी कीर्ति स्थिर है अौर
वह तभी तक (वास्‍तव में) ‘परुु ष’ है, जब तक ि‍क वह सम्‍मान से व‍‍ञ्चि‍त
नहीं होता ।
A man is considered wealthy, famous and a ‘Man’
in true sense till he is not deprived of his self respect.

40 सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम्


श्‍लोकानाम् अकारादिक्रमसच
ू ी
श्‍लोकादि प.ृ सख
ं ्‍या श्‍लोकादि प.ृ सख
ं ्‍या
अवन्ध्यकोपस्य विहन्तुरापदां 16 तृणानि नोन्मूलयति 25
अहो एषां वरं जन्म 21 त्याज्यं न धैर्यं विधरु े ऽपि 18
आकोपितोऽपि कुलजो 22 धृतिं लज्जां च बद्धिं ु च 23
आरम्भगर्ु वी क्षयिणी क्रमेण 26 घृष्‍टं घृष्‍टं पनु रपि 5
आशाया ये दासा 28 न देवो विद्यते काष्ठे, 31
ईशावास्यमिदं सर्वं 4 परोऽपि हितवान् बन्धु: 27
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्‍य वरान ् 15 प्रियं वा यदि वा द्वेष्यं 32
ॠणशेषं चाग्निशेष ं 17 भवन्ति नम्रास्तरव: 30
एके सत्पुरुषा: परार्थघटका: 20 भक्तंु स्वादफल ु ं कृ तं च 7
कटु क्वणन्तो मलदायका: 33 मनस्विनो न मन्यन्ते 3
मृदघ् टवत् सख ु भेद्यो 34
कदर्थितस्यापि च धैर्यवृत्ते: 19
य: समतु ्पतितं क्रोधं 13
काष्ठादग्निर्जायते 8
यज्जीव्यते क्षणमपि 2
कीटोऽपि समन ु : संगादारोहति 11 विजेतव्या लंका चरणतरणीयो 6
कुर्वन्‍नेवेह कर्माणि 9 विस्मय: सर्वथा हेय: 1
के यरू ा: न विभूषयन्ति परुु ष ं 29 वह्निस्‍तस्‍य जलायते 36
को वीरस्य मनस्विन: स्वविषय: 24 व्रजन्ति ते मूढधिय: 14
क्षान्तिश्चेत् कवचेन किं 35 सन्तोषामृततृप्तानां 37
गणु वदगणु वद् वा कुर्वता 10 समानी व आकूति: समाना 39
जाड�ं धियो हरति सिञ्चति 12 सर्पा: पिबन्ति पवनं 37
तावदाश्रीयते लक्ष्म्या, 40 हिरण्मयेन पात्रेण सत्‍यस्‍य 38

सकू ्‍तिसौरभम् तृतीयपष्ु ‍पम् 41


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People of low calibre do not initiate any activity for

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