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हिन्दी संस्कृत और संस्कृति
हिन्दी संस्कृत और संस्कृति
और संस्कृ ति
सम्+कृ ति=संस्कृ ति
जिन कार्यों की समाज में प्रशंसा की जाय या बढ़ावा दिया जाय वह भी।
समाज भले ही मान्यता न दे किन्तु यदि समाज में अपराध की बहुलता है तो वह भी पतित संस्कृ ति
का द्योतक है।
संस्कृ ति क्या है?
युद्ध सम्बन्धी आचार भी संस्कृ ति है। यथा महाभारत में धर्मयुद्ध के नियम
मध्यकाल में शिवाजी आदि राजाओं द्वारा शत्रुओं की स्त्रियों और बच्चों का संरक्षण
भारत में भाषाओं के साथ विभिन्न प्रकार की संस्कृ तियों का भी विकास हुआ।
उत्तर भारत में मामा-भांजी या ममेरी बहन के साथ विवाह वर्जित है, लेकिन कर्नाटक में ऐसा होता
है।
दक्षिण भारत में कु छ जातियों में शव की समाधि या कब्र भी बनाई जाती है।
ऋग्वेद
रामायण
महाभारत
पुराण
मातृ देवो भव
अतिथि देवो भव
पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव
तेन त्यक्ते न भुञ्जीथा, मा गृधः कस्यस्विद्धनम्
और भी बहुत सारी धार्मिक, दार्शनिक एवं नीतिशास्त्रीय मान्यताएँ
रामायण
१. गीता का उपदेश
२. गीता जैसी और कई गीताएँ महाभारत में विद्यमान हैं।
३. शान्तिपर्व का भीष्मद्वारा युधिष्ठिर को राजधर्म का उपदेश
४. महाभारत में वर्णित वैज्ञानिक प्रगति
५. वनस्पतियों में भी जीवन है यह सर्वप्रथम महाभारत में कहा गया।
६. प्रकृ ति और जीवों का व्यवस्थित विभाजन सर्वप्रथम आदिपर्व में किया गया।
७. दर्शन और आयुर्वेद के विकास में भी महाभारत का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
पुराण-१
यहाँ ध्यातव्य है कि इस आचार्य तुलसीदास को गोस्वामी तुलसीदास की भाँति संस्कृ त से कोई परहेज नहीं है।
हिन्दी का संस्कृ ति निर्माण में योगदान-४.३
अथ मायारसः-
प्रबुद्ध जे मिथ्या ज्ञानु, ताकी जो है वासना।
सो माया रस मानु, समुझत है यह विरल नर॥८८॥
इति तुलसीदासकृ तिः समाप्तः।
रसकल्लोल अथाह मै, जो अवगाहै नित्त।
सोई रस आस्वादिहै जोई निश्चल चित्त॥
हिन्दी का संस्कृ ति निर्माण में योगदान-४.५
इस प्रकार हम देखते हैं कि शास्त्रचिन्तन की जो परम्परा संस्कृ त के आचार्यों ने डाली थी उसका पुष्पन और
पल्लवन भलीभाँति हिन्दी के शास्त्रकारों ने किया। यहाँ पर ध्यातव्य है कि आचार्य तुलसीदास ने संस्कृ त के
शास्त्रकारों का अन्धानुकरण नहीं किया है अपितु इसमें अपना भी योगदान दिया है तभी इनके द्वारा नवें रस के रूप
में माया रस को मान्यता दी गई है। ध्यातव्य है कि संस्कृ त के प्राचीन आचार्य मम्मट ने शान्तरस को नवें रस के
रूप में मान्यता दी है। किन्तु इस आचार्य तुलसी नें शान्त को नवाँ रस न मानकर मायारस को नवाँ रस घोषित
किया है। इस तरह अगर दोनों आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित रसों को मान्यता दी जाय तो भारतीय काव्यशास्त्र में
रसों की संख्या १० तक पहुँच जाती है।
हिन्दी की वर्तमान दशा एवं दिशा-१
हिन्दी के अतिरिक्त किसी भी विषय में शोध करना हो तो अंग्रेजी अनिवार्य बन जाती है।
रसकल्लोल और आचार्य तुलसीदास जैसे कवियों और रचनाकारों की खोज के लिए शोधार्थियों को प्रेरित
रणनैतिक दृष्टि से हिन्दी का एक दबाव-समूह बनाना चाहिए जो कि सरकारी नीति को प्रभावित कर सके ।
तकनीक और मीडिया में प्रभावशाली दखल होना चाहिए। आज अंग्रेजी मीडिया प्रमुख है।
हिन्दी में करणीय कार्य-२
जन दबाव समूह के माध्यम से यह निश्चित किया जाना चाहिए कि भारतवर्ष में जो भी शोधकार्य हों उनका
लेखन हिन्दी में ही किया जाय, भले ही उसका अनुवाद क्यों न कराना पड़े।
विज्ञान आदि विषयों के शोधछात्र भी अपना शोधलेखन अपनी मातृभाषा में अथवा हिन्दी में करें।
अंग्रेजी का यदि बहिष्कार नहीं किया गया तो हिन्दी ही नहीं अपितु किसी भी भारतीय भाषा को बचाना
विदेशी साहित्य की अपेक्षा भारत की अन्य भाषाओं के साहित्य का अनुवाद हिन्दी में एवं हिन्दी के साहित्य
का अनुवाद भारतीय भाषाओं में बढ़े इसकी सरकारी स्तर पर व्यवस्था की जानी चाहिए।
हिन्दी भाषी क्षेत्र को बड़ी-२ कम्पनियाँ बाजार के रूप में देखती हैं और उनका शोषण करती हैं चाहे वे देशी
हों या विदेशी। इसलिए हिन्दी लेखकों को उनके मालिकों से यह आग्रह करना चाहिए और कदाचित् बाध्य
भी कि वे अपने सभी उत्पादों का नामकरण हिन्दी अथवा किसी अन्य भारतीय भाषा में करें।
हिन्दी में करणीय कार्य-४
रचनाकारों का यह दायित्व होना चाहिए कि वह अपराध और उत्पीड़न से सम्बन्धी साहित्य को परे करके
अपराधी के दण्डित होने का चित्रण अपने साहित्य में करें क्यों कि शोषण, उत्पीड़न और अत्याचार को
अपनी रचना में जगह देने से अनजाने में आप इसका विज्ञापन करते हैं- “रामादिवत् वर्तितव्यं न रावणादि
वत्।”
छात्रों में राजनीति के प्रति रुचि और संस्कार विकसित करने चाहिए क्यों कि वर्तमान शासन व्यवस्था में