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संस्कृ त, हिन्दी

और संस्कृ ति

डॉ. उमेश कु मार सिंह


umeshvaidik@gmail.com
परियोजना प्रबन्धक
भारतीय भाषा कार्पोरा उपक्रम
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
संस्कृ ति क्या है?

सम्+कृ ति=संस्कृ ति

किसी समाज के सदस्यों द्वारा जो किया जाता है वह संस्कृ ति है।

जिन कार्यों की समाज में प्रशंसा की जाय या बढ़ावा दिया जाय वह भी।

सामाजिक प्रवृत्तियाँ भी संस्कृ ति का अंग हैं।

समाज भले ही मान्यता न दे किन्तु यदि समाज में अपराध की बहुलता है तो वह भी पतित संस्कृ ति
का द्योतक है।
संस्कृ ति क्या है?

वैज्ञानिक प्रगति भी संस्कृ ति है।

युद्ध सम्बन्धी आचार भी संस्कृ ति है। यथा महाभारत में धर्मयुद्ध के नियम

मध्यकाल में शिवाजी आदि राजाओं द्वारा शत्रुओं की स्त्रियों और बच्चों का संरक्षण

पाश्चात्य देशों की संस्कृ ति इस मामले में घृणा के योग्य रही है।

वेशभूषा भी संस्कृ ति है।


संस्कृ ति क्या है?

संस्कृ ति का भाषा के साथ अनिवार्य सम्बन्ध है।

भारत में भाषाओं के साथ विभिन्न प्रकार की संस्कृ तियों का भी विकास हुआ।

उत्तर भारत में मामा-भांजी या ममेरी बहन के साथ विवाह वर्जित है, लेकिन कर्नाटक में ऐसा होता
है।
दक्षिण भारत में कु छ जातियों में शव की समाधि या कब्र भी बनाई जाती है।

पूर्वोत्तर में महिला प्रधान समाज भी है।


संस्कृ त साहित्य द्वारा संस्कृ ति का निर्माण

ऋग्वेद

रामायण

महाभारत

पुराण

बौद्धसाहित्य (जातक कथाएँ आदि)

जैन साहित्य (मूर्तिपूजा एवं मन्दिर निर्माण शैली)


ऋग्वेद

एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति (अस्यवामीय सूक्त)


महद्देवानामसुरत्वमेकम्
के वलाघो भवति के वलादी
नासदीय सूक्त- भारतीय संस्कृ ति की दार्शनिक पृष्ठभूमि
पुरुष सूक्त ने वर्गीकरण की व्यवस्था दी। ब्राह्मण और क्षत्रिय के रूप में के वल मनुष्य ही नहीं देवता, वर्णमाला के
अक्षर, छन्द, धातुओं के प्रकार भी आते हैं।
सृष्टि का कोई भी पदार्थ इस से अछू ता नहीं रखा गया।
उपनिषद्

मातृ देवो भव
अतिथि देवो भव
पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव
तेन त्यक्ते न भुञ्जीथा, मा गृधः कस्यस्विद्धनम्
और भी बहुत सारी धार्मिक, दार्शनिक एवं नीतिशास्त्रीय मान्यताएँ
रामायण

 अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः


 राम और अन्य पात्रों का जनता पर प्रभाव
 रामायण में नैतिकता का पतन उतना नहीं दिखाया गया जितना कि महाभारत में।
 वैज्ञानिक प्रगति के रूप में दिव्यास्त्रों और पुष्पक आदि विमानों के वर्णन का भी भारतीय जनमानस पर बहुत
बड़ा प्रभाव रहा है।
महाभारत-१

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।


उदारचरितानां तु वसुधैव कु टुम्बकम्॥

अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो तपः।


अहिंसा परमो सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते।
अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो दमः।
अहिंसा परमं दानं, अहिंसा परमो तपः॥
अहिंसा परमो यज्ञः अहिंसा परमो फलम्‌।
अहिंसा परमं मित्रः अहिंसा परमं सुखम्‌॥ महाभारत/अनुशासन पर्व (११५-२३/११६-२८-२९)
महाभारत-२

१. गीता का उपदेश
२. गीता जैसी और कई गीताएँ महाभारत में विद्यमान हैं।
३. शान्तिपर्व का भीष्मद्वारा युधिष्ठिर को राजधर्म का उपदेश
४. महाभारत में वर्णित वैज्ञानिक प्रगति
५. वनस्पतियों में भी जीवन है यह सर्वप्रथम महाभारत में कहा गया।
६. प्रकृ ति और जीवों का व्यवस्थित विभाजन सर्वप्रथम आदिपर्व में किया गया।
७. दर्शन और आयुर्वेद के विकास में भी महाभारत का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
पुराण-१

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।


परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्॥

यही जब हिन्दी में अनूदित होता है तो-


परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई॥

चार वेद छः शास्त्र में बात लिखी हैं दोय।


सुख दीने सुख होत है दुख दीने दुख होय
पुराण-२

पुराणों का भारतीय जनमानस पर प्रभाव-


भागवत पुराण (विद्यावतां भागवते परीक्षा)
गरुड़ पुराण (किसी की अकालमृत्यु पर इसका पाठ करवाया जाता है।)
नारद पुराण- ज्योतिष
स्कन्दपुराण तीर्थों का इतिहास।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण- वृक्षायुर्वेद एवं बागवानी
अग्निपुराण- काव्यशास्त्र एवं संगीतशास्त्र
पुराण साहित्य सृजन की एक विधा थी जिसके कारण सैद्धान्तिक विरोध के बाद भी जैनियों और बौद्धों को अपने
पुराण रचने पड़े।
हिन्दी का संस्कृ ति निर्माण में योगदान-१

रामचरितमानस का भारतीय जनमानस पर प्रभाव-


परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई
अनुज वधू भगिनी सुत नारी। सुनु शठ यह कन्या सम चारी॥
इनहिं कु दृष्टि बिलोकत जेई। तेहि के बधे कछु पाप न होई।
३. क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात।
गोस्वामी जी की इन पंक्तियों का आज भी बहुत प्रभाव है।
हिन्दी का संस्कृ ति निर्माण में योगदान-२

अन्य हिन्दी कवियों का भारतीय जनमानस पर प्रभाव-


कबीर दास
सूरदास
मीरा
बिहारी
रहीम
हिन्दी का संस्कृ ति निर्माण में योगदान-३

हिन्दी में उपलब्ध उपेक्षित शास्त्रीय साहित्य-


आयुर्वेद से सम्बन्धित ग्रन्थ
चिकित्सा से समबन्धित कहावतें
घाघ और भड्डरी की कहावतें
गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन आचार्य तुलसीदास का रसकल्लोल
कामशास्त्र सम्बन्धी हिन्दी ग्रन्थ
चरकसंहिता आदि ग्रन्थों का हिन्दी छायान्तर किया गया किन्तु हिन्दी के प्रोफे सर और शोधार्थी इस पर काम नहीं
करते, जो कि जनता के लिए भी लाभकारी हो।
हिन्दी का संस्कृ ति निर्माण में योगदान-४.१

आचार्य तुलसीदास का रसकल्लोल-


यह हिन्दी भाषा में लिखा गया रस और रसदोष सम्बन्धी अद्वितीय ग्रन्थ है, इसके रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास
से कनिष्ठ एवं समकालीन अन्य तुलसीदास के द्वारा रचा गया है। इसमें कु ल नौ कल्लोल हैं। अष्टम कल्लोल की
पुष्पिका में लिखा गया है-
बुधजन वारिद स्नेह कै बरषो सदा अलोल।
जाते नित ही अधिक ह्वै बाढे रसकल्लोल।९५॥

संवत् सत्रह सै बरष येकादश की आदि।


मास सो माधव जानिबो सूधपक्ष वारादि॥९९॥
धर्म सुतिथि पूरन जहाँ धर्म सम्पूरन जानि।
ता दिन पूरन ग्रन्थ यह कीनो है सुखदानि॥१००॥
हिन्दी का संस्कृ ति निर्माण में योगदान-४.२

आचार्य तुलसीदास का रसकल्लोल-

देसिक को परिणाम वारँहि बार सो करत हौं।

है सब सुष को धाम जाइ न कछु महिमा कही॥१०२॥

इति श्री तुलसीदासविरचिते रसकल्लोले अष्टमः कल्लोलः सम्पूर्णः।

यहाँ ध्यातव्य है कि इस आचार्य तुलसीदास को गोस्वामी तुलसीदास की भाँति संस्कृ त से कोई परहेज नहीं है।
हिन्दी का संस्कृ ति निर्माण में योगदान-४.३

आचार्य तुलसीदास का रसकल्लोल

आचार्य तुलसीदास ने रसों का नया वर्गीकरण प्रस्तुत किया है-


शृंगार (संयोग एवं वियोग)
हास्य
करुण
रौद्र
वीर
भयानक
बीभत्स
अद्भुत
माया
हिन्दी का संस्कृ ति निर्माण में योगदान-४.४

आचार्य तुलसीदास का माया रस

अथ मायारसः-
प्रबुद्ध जे मिथ्या ज्ञानु, ताकी जो है वासना।
सो माया रस मानु, समुझत है यह विरल नर॥८८॥
इति तुलसीदासकृ तिः समाप्तः।
रसकल्लोल अथाह मै, जो अवगाहै नित्त।
सोई रस आस्वादिहै जोई निश्चल चित्त॥
हिन्दी का संस्कृ ति निर्माण में योगदान-४.५

आचार्य तुलसीदास का रसकल्लोल

इस प्रकार हम देखते हैं कि शास्त्रचिन्तन की जो परम्परा संस्कृ त के आचार्यों ने डाली थी उसका पुष्पन और
पल्लवन भलीभाँति हिन्दी के शास्त्रकारों ने किया। यहाँ पर ध्यातव्य है कि आचार्य तुलसीदास ने संस्कृ त के
शास्त्रकारों का अन्धानुकरण नहीं किया है अपितु इसमें अपना भी योगदान दिया है तभी इनके द्वारा नवें रस के रूप
में माया रस को मान्यता दी गई है। ध्यातव्य है कि संस्कृ त के प्राचीन आचार्य मम्मट ने शान्तरस को नवें रस के
रूप में मान्यता दी है। किन्तु इस आचार्य तुलसी नें शान्त को नवाँ रस न मानकर मायारस को नवाँ रस घोषित
किया है। इस तरह अगर दोनों आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित रसों को मान्यता दी जाय तो भारतीय काव्यशास्त्र में
रसों की संख्या १० तक पहुँच जाती है।
हिन्दी की वर्तमान दशा एवं दिशा-१

हिन्दी अपनी जड़ों से कट रही है।


हिन्दी में गुणवत्तापूर्ण लेखन के स्थान पर अपने-२ मनोविकारों का प्रदर्शन हो रहा है।
यदि हिन्दी के तथाकथित दलितविमर्श और स्त्री विमर्श को साहित्य कहा जा सकता है तो, इसका और विकास
सम्भव है-
परम दलित या महादलित विमर्श भी एक विषय हो सकता है, क्यों कि आज के तथाकथित दलितों नें भी मुसहर
आदि जातियों को अपनी अपेक्षा नीच समझा है और उनके साथ खान-पान नहीं रखा है, आज भी इस
भटके साहित्य में उन्हें कोई स्थान नहीं मिला है।
इसी के साथ सवर्णदलित विमर्श भी होना चाहिए, क्यों कि बहुत सी सवर्ण जातियाँ भी पतित हुई हैं, उदाहरण के
रूप में कं जर और भंगी का नाम लिया जा सकता है।
स्त्री-विमर्श को कु लांगना-विमर्श और वारांगना-विमर्श में बाँटा जा सकता है। स्त्रियाँ भी दो वर्गों में विभाजित की जा
सकती हैं- शोषिका और शोषिता। इसके बाद पीड़ित वेश्या विमर्श और स्वैच्छिक पोर्नस्टार विमर्श भी
आएगा।
हिन्दी की वर्तमान दशा एवं दिशा-२

ऐसे हिन्दी लेखन को कदापि साहित्य नहीं कहा जा सकता है।


कहीं न कहीं हिन्दी आलोचना की ही यह असफलता कही जाएगी जो ऐसे विषय साहित्य की श्रेणी में रखे जा रहे
हैं।
वाल्मीकि जैसे पतित को भी साहित्य ने महर्षि और सबका माननीय बनाया।
इतरा नामक शूद्रा दासी के पुत्र द्वारा लिखित ऐतरेय ब्राह्मण आज भी वेदों के समान माननीय है।
हमेशा साहित्य नें व्यक्ति के उत्थान का कार्य किया है और आज व्यक्ति अपनी चारित्रिक निकृ ष्टता के चलते उसे
पतित करने करने पर तुला है।
क्या दलित साहित्य एक अपनाम नहीं है?
साहित्य कभी दलित नहीं हो सकता।
क्या अंग्रेजी भाषा में जो कु छ लिख दिया जाय वह सब साहित्य होगा?
आज साहित्य को पुनः व्याख्यायित करने की आवश्यकता नहीं है?
धर्म, मजहब और रिलीजन की भाँति अब साहित्य और लिट्‍रेचर में भी अन्तर बताना आवश्यक है।
हिन्दी की वर्तमान दशा एवं दिशा-३

शोध सामग्री की दृष्टि से आज भी हिन्दी में गुणवत्तापूर्ण शोध सामग्री का अभाव

हिन्दी के अतिरिक्त किसी भी विषय में शोध करना हो तो अंग्रेजी अनिवार्य बन जाती है।

आज भी अंग्रेजी रानी और हिन्दी नौकरानी है, क्यों?

क्या इसके लिए आज हिन्दी साहित्य की दिशा उत्तरदायी नहीं है?


हिन्दी में करणीय कार्य-१

 हिन्दी विश्वकोष का पुनः सम्पादन एवं उसकी अभिवृद्धि

 रसकल्लोल और आचार्य तुलसीदास जैसे कवियों और रचनाकारों की खोज के लिए शोधार्थियों को प्रेरित

करना चाहिए न कि विकलांग-विमर्श और हिजड़ा-विमर्श के लिए

 रणनैतिक दृष्टि से हिन्दी का एक दबाव-समूह बनाना चाहिए जो कि सरकारी नीति को प्रभावित कर सके ।

 तकनीक और मीडिया में प्रभावशाली दखल होना चाहिए। आज अंग्रेजी मीडिया प्रमुख है।
हिन्दी में करणीय कार्य-२

 जन दबाव समूह के माध्यम से यह निश्चित किया जाना चाहिए कि भारतवर्ष में जो भी शोधकार्य हों उनका

लेखन हिन्दी में ही किया जाय, भले ही उसका अनुवाद क्यों न कराना पड़े।

 विज्ञान आदि विषयों के शोधछात्र भी अपना शोधलेखन अपनी मातृभाषा में अथवा हिन्दी में करें।

 अंग्रेजी का यदि बहिष्कार नहीं किया गया तो हिन्दी ही नहीं अपितु किसी भी भारतीय भाषा को बचाना

सम्भव नहीं होगा।


हिन्दी में करणीय कार्य-३

 विदेशी साहित्य की अपेक्षा भारत की अन्य भाषाओं के साहित्य का अनुवाद हिन्दी में एवं हिन्दी के साहित्य

का अनुवाद भारतीय भाषाओं में बढ़े इसकी सरकारी स्तर पर व्यवस्था की जानी चाहिए।

 हिन्दी भाषी क्षेत्र को बड़ी-२ कम्पनियाँ बाजार के रूप में देखती हैं और उनका शोषण करती हैं चाहे वे देशी

हों या विदेशी। इसलिए हिन्दी लेखकों को उनके मालिकों से यह आग्रह करना चाहिए और कदाचित् बाध्य

भी कि वे अपने सभी उत्पादों का नामकरण हिन्दी अथवा किसी अन्य भारतीय भाषा में करें।
हिन्दी में करणीय कार्य-४

 रचनाकारों का यह दायित्व होना चाहिए कि वह अपराध और उत्पीड़न से सम्बन्धी साहित्य को परे करके

अपराधी के दण्डित होने का चित्रण अपने साहित्य में करें क्यों कि शोषण, उत्पीड़न और अत्याचार को

अपनी रचना में जगह देने से अनजाने में आप इसका विज्ञापन करते हैं- “रामादिवत् वर्तितव्यं न रावणादि

वत्।”

 छात्रों में राजनीति के प्रति रुचि और संस्कार विकसित करने चाहिए क्यों कि वर्तमान शासन व्यवस्था में

विना राजनेताओं की इच्छा के कोई भी नीति परिवर्तन नहीं हो सकता है।


धन्यवाद!

प्रश्न आमन्त्रित हैं।

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