Professional Documents
Culture Documents
हिंदी परियोजना कार्य
हिंदी परियोजना कार्य
राष्ट्रीय भावना और ओज के कवि माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल 1889 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले के
बावई में हुआ। आरंभिक शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई, जिसके उपरांत अध्यापन और साहित्य-सृजन से संलग्न हुए। 1913
में उन्होंने ‘प्रभा’ पत्रिका का संपादन शुरू किया और इसी क्रम में गणेश शंकर विद्यार्थी के संपर्क में आए, जिनके देश-प्रेम
और सेवाव्रत का उनपर गहन प्रभाव पड़ा। 1921 के असहयोग आंदोलन के दौरान राजद्रोह के आरोप में सरकार ने
कारागार में डाल दिया जहाँ से एक वर्ष बाद मुक्ति मिली। 1924 में गणेश शंकर विद्यार्थी की गिरफ़्तारी पर ‘प्रताप’ का
संपादन सँभाला। कालांतर में ‘संपादक सम्मेलन’ और ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ के अध्यक्ष भी रहे। उनकी सृजनात्मक
यात्रा के तीन आयाम रहे—एक, पत्रकारिता और संपादन जहाँ उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का
जागरण किया; दूसरा, साहित्य-सृजन, जहाँ काव्य, निबंध, नाटक, कहानी आदि विधाओं में मौलिक लेखन के साथ
युगीन संवाद और सर्जनात्मकता का विस्तार किया; और तीसरा, उनके व्याख्यान, जहाँ प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक-
साहित्यिक-राजनीतिक प्रश्नों से दो-चार हुए। 1943 में उन्हें 'देव पुरस्कार' से सम्मानित किया गया जो उस समय
साहित्य का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार था। 1953 में साहित्य अकादेमी की स्थापना के बाद इसका पहला साहित्य
अकादेमी पुरस्कार 1955 में उन्हें ही प्रदान किया गया।
बालकृ ष्ण शर्मा नवीन
द्विवेदी युग के समादृत कवि, पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी पंडित बालकृ ष्ण शर्मा नवीन का जन्म 8 दिसम्बर 1897 को
ग्वालियर राज्य के भयाना नामक ग्राम में हुआ था। 1917 में स्कू ली शिक्षा पूरी कर गणेशशंकर विद्यार्थी के कानपुर
आश्रम में रहकर कॉलेज की पढ़ाई कर रहे थे तभी 1920 में गांधीजी के सत्याग्रह आंदोलन के आह्वान पर पढ़ाई छोड़
देश की व्यावहारिक राजनीति में शामिल हो गए और फिर जीवनपर्यंत राजनीति से उनका नाता बना रहा। स्वतंत्रता के
बाद भारतीय संविधान निर्मात्री परिषद के सदस्य, संसद सदस्य और राजभाषा आयोग के सदस्य के रूप में उन्होंने
महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनका लेखन-कर्म स्कू ली दिनों से ही शुरू हो गया था लेकिन 1917 में गणेशशंकर विद्यार्थी के
संपर्क में आने के बाद व्यवस्थित लेखन की शुरुआत हुई। इस दौरान उनकी संबद्धता गणेशशंकर विद्यार्थी द्वारा प्रकाशित
‘प्रताप’ पत्र से हो गई थी। वर्ष 1921-23 के दौरान वह ‘प्रभा’ पत्रिका के संपादक रहे और गणेशशंकर विद्यार्थी की
मृत्यु के पश्चात 1931 में ‘प्रताप’ के प्रधान संपादक का उत्तरदायित्व सँभाला। इन पत्र-पत्रिकाओं में अभिव्यक्त उनकी
संपादकीय टिप्पणियों को उनकी निर्भीकता और मुखरता के लिए सराहा गया। वह एक ओजस्वी वक्ता भी थे। ‘कुं कु म’,
‘रश्मिरेखा’, ‘अपलक’ और ‘क्वासि’ उनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं. ‘उर्मिला’ उनका प्रशंसित प्रबंध-काव्य है.
उन्होंने ‘विनोबा स्तवन’ शीर्षक प्रशस्ति एवं उद्बोधन की भी रचना की।साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में अप्रतिम
योगदान के लिए भारत सरकार ने वर्ष 1960 में उन्हें ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया।
29 अप्रैल, 1960 को कानपुर में उनका निधन हो गया।
हरिशंकर परसाई
श्री हरिशंकर जी का जन्म मध्य प्रदेश में इटारसी के निकट जमानी नामक स्थान पर 22 अगस्त, 1924 ई० को
हुआ था। आरम्भ से लेकर स्नातक स्तर तक इनकी शिक्षा मध्य प्रदेश में हुई। नागपुर विश्वविद्यालय से इन्होंने हिन्दी में
एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। परसाई जी ने कु छ वर्षों तक अध्यापन-कार्य किया तथा साथ-साथ साहित्य-सृजन
आरम्भ किया।परसाई जी हिन्दी व्यंग्य के आधार-स्तम्भ थे। इन्होंने हिन्दी व्यंग्य को नयी दिशा प्रदान की है और अपनी
रचनाओं में व्यक्ति और समाज की विसंगतियों पर से परदा हटाया है। 'विकलांग श्रद्धा का दौर' ग्रन्थ पर इन्हें साहित्य
अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त 'उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य संस्थान' तथा 'मध्य प्रदेश कला परिषद द्वारा
भी इन्हें सम्मानित किया गया। इन्होंने कथाकार, उपन्यासकार, निबन्धकार तथा सम्पादक के रूप में हिन्दी-साहित्य की
महान सेवा की।परसाई जी हिन्दी साहित्य के एक समर्थ व्यंग्यकार थे। इन्होंने हिन्दी निबन्ध साहित्य में हास्य-व्यंग्य प्रधान
निबन्धों की रचना करके एक विशेष अभाव की पूर्ति की है। इनकी शैली का प्राण व्यंग्य और विनोद है। अपनी विशिष्ट शैली
से परसाई जी ने हिन्दी साहित्य में अपना प्रमुख स्थान बना लिया है।नौकरी को साहित्य-सृजन में बाधक जानकर
इन्होंने उसे तिलांजलि दे दी और स्वतन्त्रतापूर्वक साहित्य-सृजन में जुट गये। इन्होंने जबलपुर से 'वसुधा'
नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन आरम्भ किया, परन्तु आर्थिक घाटे के कारण
उसे बन्द कर देना पड़ा। इनकी रचनाएँ साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग आदि पत्रिकाओं में नियमित रूप से
प्रकाशित होती रहीं। परसाई जी ने मुख्यत: व्यंग्यप्रधान ललित निबन्धों की रचना की है। 10 अगस्त,
1995 ई० को जबलपुर में इनका देहावसान हो गया।
शरद जोशी
शरद जोशी का जन्म 21 मई 1931 में मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले में मुगरमुट्टे नामक मोहल्ले में एक कर्मकांडी ब्राह्मण
परिवार में हुआ था | वे एक स्थापित और सम्मानित व्यंग्यकार थे | उनके बचपन का नाम बच्चू था | एक ऐसे दौर में जब
देश में साम्प्रदायिकता अपने चरम पर थी, एक अन्य धर्म की स्त्री से प्रेम और फिर विवाह कर उन्होने अपनी
धर्मनिरपेक्षता, स्वतन्त्र विचार और निर्भीकता का अदम्य परिचय दिया | जोशी जी ने सामाजिक, राजनैतिक परिवेश पर
अपने व्यंग्य रचनाओं के माध्यम से गहरी चोट की है | कई फिल्मों और टेलीफिल्म्स के लिए रचनाएँ की और संवाद का
भी लेखन किया | उनकी प्रारंभिक शिक्षा उज्जैन में हुयी | उन्होंने दौलतगंज मिडिल हाई स्कू ल से शिक्षा का आरम्भ किया
| बाद में उन्होंने इंदौर के होलकर महाविद्यालय से स्नातक तक की शिक्षा हासिल की | लेखन से वे अपनी शिक्षा के काल
से ही जुड़ गये थे | यहाँ तक की उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा का व्यय भी अपने लेखन के पारिश्रमिक के बदौलत ही उठाया
| आधुनिक व्यंग्य का जनक जहाँ हरिशंकर परसाई जी को माना जाता है, तो उसके पालन – पोषण का श्रेय
शरद जोशी जी को दिया जा सकता है | शरद जोशी ने अपने लेखकीय जीवन का आरम्भ कहानियों से किया
था | वर्ष 1951 से लेकर बीस वर्ष की आयु तक आते-आते उनकी रचनाएँ देश की सुप्रसिद्ध पत्र – पत्रिकाओं
में अपना स्थान पा चुकी थी | इंदौर के दैनिक नयी दुनिया में वर्ष 1951 में उन्होंने ‘परिक्रमा’ नामक व्यंग्य
स्तम्भ लिखना आरम्भ कर दिया था | जन-संपर्क अधिकारी के पद से स्तीफा देने के समय तक उनकी
पहचान एक व्यंग्यकार के रूप में प्रतिस्थापित हो चुकी थी |
भवानी प्रसाद मिश्र
छायावादोत्तर कविता के सहज और लयकारी स्वर भवानीप्रसाद मिश्र
का जन्म 29 मार्च 1913 को होशंगाबाद, मध्य प्रदेश के टिगरिया में हुआ। उन्होंने
छोटी आयु से ही लिखना शुरू कर दिया था और समकालीन साहित्य पढ़ने
लगे थे। बक़ौल उनके ‘‘निराला, प्रसाद पंत फ़ै शन में थे। मेरी कमबख़्ती (जिसे
कहने में भी डर लगता है) ये तीनों ही बड़े कवि मुझे लकीरों में अच्छे लगते
थे। किसी एक की भी एक पूरी कविता बहुत नहीं भा गई उन्हें रवींद्रनाथ, वाल्मीकि, कालिदास
और भक्ति-काल के संत कवि अच्छे लगे। उन्होंने अँग्रेज़ी स्वच्छं दतावाद के
कवियों वर्ड्सवर्थ और ब्राडनिंग को भी पढ़ा। उन्हें वर्ड्सवर्थ की यह बात बहुत
जँची कि “कविता की भाषा यथासंभव बोलचाल की भाषा हो’’ और संभवतः इसे ही कविता में
बरतते रहे।वे युवा जीवन में ही गाँधीजी के प्रभाव में आए तो एक विद्यालय
खोल अध्यापन कराने लगे। 1943 में तीन वर्षों की जेल की सज़ा भी
पाई। 33 की आयु से खादी पहनने लगे थे। गाँधी वांग्मय के हिंदी खंडों का
संपादन किया और गाँधी विचार-दर्शन से ओतप्रोत 500 कविताओं का ‘गाँधी
पंचशती’ शीर्षक से संकलन किया। उनकी कविताओं के सहज लय का साम्य
चरख़े की लय से करते हुए उन्हें ‘कविता का गाँधी’ भी कहा गया है।‘चकित है
दुख’, ‘अँधेरी कविताएँ’, ‘बुनी हुई रस्सी’, ‘व्यक्तिगत’, ‘ख़ुशबू के शिलालेख’, ‘परिवर्तन
जिए’, ‘त्रिकाल संध्या’, ‘अनाथ तुम आते हो’, ‘इदं न मम’, ‘शरीर कविता फ़सलें और
फू ल’, ‘मान सरोवर दिन’, ‘सम्प्रति’, ‘तुकों के खेल’, ‘नीली रेखा तक’, ‘तूस की
आग’, ‘कालजयी’, ‘अनाम’, ‘नीली रेखा तक’, ‘सन्नाटा’ उनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं।
के शवदास
कवि के शवदास जी रीतिकाल के प्रमुख कवि और युग प्रवर्तक थे. वे आचार्यत्व के साथ – साथ ही कवित्व की द्रष्टि से भी
जाने जाते हैं हिंदी काव्य जगत में अपनी पहचान बनाने वाले कवि के शवदास जी का जन्म सन 1555 ई. में भारत के
बुंदेलखंड राज्य ओरछा मध्य – प्रदेश में हुआ था. के शवदास काफी मिलनसार और भावुक दिल के व्यक्ति थे. के शवदास
जी सनाढ्य ब्राह्मण पं. काशीनाथ के पुत्र थे. ऐसा कहा जाता है कि इनकी महाराजा अकबर, बीरबल और टोडरमल से
काफी घनिष्ठ मित्रता थी हिंदी साहित्य के यह एक प्रमुख कवि रहे, जिन्होंने संस्कृ त के आचार्यों की परम्परा का हिंदी में
अनुवाद किया था. इनकी साहित्यिक रचनाएं के वल संस्कृ त भाषा में ही मिलती हैं. रीतिकाल के महाकवि के शवदास जी
सूरदास और तुलसीदास के बाद भक्ति के लिए जाने जाते हैं. इन्होने कई वास्तु, ललित कलाओं से परिपूर्ण ग्रन्थ समाज
को दियें. इनके प्रमुख ग्रन्थ हैं – कवि-प्रिया और रसिक-प्रिया के शवदास जी को महाराजा वीर सिंह देव का आश्रय प्राप्त
था इसीलिए इन्हें कभी भी कोई समस्या का सामना नहीं करना पड़ा. के शवदास जी संस्कृ त भाषा में अधिक रूचि लेते थे
तथा इन्हें संस्कृ त भाषा से बचपन से ही बहुत लगाव था. लगाव होने के कारण ये अपने आस – पास के लोगों को भी
संस्कृ त में वार्तालाप करने की प्रेरणा देते थे. उनके घर पर काम करने वाले नौकर भी संस्कृ त में बात किया करते थे.
इन्हें हिंदी भाषा में बात करना अपमानजनक लगता था हिंदी महकाव्य के अद्भुत रचयिता व संस्कृ त के अनेक छंदो को
अपनी भाषा में ढालने वालें कवि के शवदास जी का सन 1617 ई. में निधन हो गया था ।
राजकु मार कुं भज
राजकु मार कुं भज का जन्म 12 फ़रवरी 1947 को मध्य प्रदेश के इंदौर में एक स्वतंत्रता सेनानी एवं किसान परिवार में
हुआ। छात्र-जीवन से ही कविताएँ लिखने लगे थे और राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे। 1972 में अपनी कविताओं की
पोस्टर-प्रदर्शनियों के लिए चर्चित हुए, गिरफ़्तार भी किए गए। 1975 के आपातकाल में सक्रिय रहे और पुलिस दबिश
का शिकार हुए। ‘चौथा सप्तक’ (1979) में शामिल किए जाने पर नाम-चर्चा और बढ़ी। ‘मानहानि विधेयक’ का विरोध
करने के लिए ख़ुद को ज़ंजीरों में बाँध सड़क पर उतर आए थे। कवि-लेखक और स्वतंत्र-पत्रकार के रूप में सक्रिय बने रहे
हैं। भावना के साथ तर्कों से सामंजस्य बनाने के लिए विवश करने की शैली के धनी राजकु मार कु म्भज की कविताओं का
चयन श्री सचिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने अपने संपादन में निकले चौथा सप्तक में सम्मिलित कर इस बात पर
मोहर भी लगाई कि कविता के मानकों पर अमिट छाप छोड़ने का सामर्थ्य भी कु म्भज जी में विद्यमान है। प्रकाशित प्रमुख
कृ तियाँ : ‘कच्चे घर के लिए’, ‘बुद्ध को बीते बरस बीते’, ‘मैं चुप था जैसे पहाड़’, ‘प्रार्थना से मुक्त’, ‘अफवाह नहीं हूँ
मैं’, ‘जड़ नहीं हूँ मैं’, ‘और लगभग इस ज़िन्दगी से पहले , ‘शायद ये जंगल कभी घर बने , ‘आग का रहस्य’, ‘निर्भय
सोच में’, ‘घोड़े नहीं होते तो ख़िलाफ़ होते’ֹ , ‘खौलेगा तो खुलेगा’, ‘पूछोगे तो जानोगे’, ‘एक नाच है कि हो रहा है’,
‘अब तो ठनेगी ठेठ तक’ आदि अनेक महत्त्वपूर्ण तथा चर्चित कविता-संकलनों में कविताएँ सम्मिलित और अंग्रेज़ी सहित
भारतीय भाषाओं में अनूदित।
धन्यवाद