You are on page 1of 7

कामायनी ('लज्जा' पिरच्छे द)

गोधुली क धूिमल पट में दीपक क ःवर में िदपती-सी। े े कोमल िकसलय क अंचल में नन्हीं किलका ज्यों िछपती-सी, े मंजुल ःवप्नओं की िवःमृित में मन का उन्माद िनखरता ज्यों -

वैसी ही माया से िलपटी अधरों पर उँ गली धरे हए, ु

सुरिभत लहरों की छाया में बुल्ले का िवभव िबखरता ज्यों -

माधव क सरस कतूहल का आँखों में पानी भरे हए। े ु ु कोमल-बाहें फलाये-सी आिलंगन का जाद ू पढ़ती! ै

नीरव िनशीथ में लितका-सी तुम कौन आ रही हो बढ़ती? िकन इं िजाल क फलों से लेकर सुहाग-कण राग-भरे , े ू

िसर नीचा कर हो गूँथ रही माला िजससे मधु धार ढरे ? पुलिकत कदं ब की माला-सी पहना दे ती हो अन्तर में, झुक जाती है मन की डाली अपनी फलभरता क डर में। े वरदान सदृश हो डाल रही नीली िकरनों से बुना हआ, ु सब अंग मोम से बनते हैं कोमलता में बल खाती हँू , यह अंचल िकतना हल्का-सा िकतना सौरभ से सना हआ। ु

िःमत बन जाती है तरल हँ सी नयनों में भर कर बाँकपना, ूत्यक्ष दे खती हँू सब जो वह बनता जाता है सपना। अनुराग समीरों पर ितरता था इतराता-सा डोल रहा। मेरे सपनों में कलरव का संसार आँख जब खोल रहा,

मैं िसमट रही-सी अपने में पिरहास-गीत सुन पाती हँू ।

िकरनों की रज्जु समेट िलया िजसका अवलम्बन ले चढ़ती,

जीवन भर क बल-वैभव से सत्कृ त करती दरागत को। े ू

अिभलाषा अपने यौवन में उठती उस सुख क ःवागत को, े

कलरव पिरहास भरी गूँजें अधरों तक सहसा रुकती हैं । संकत कर रही रोमाली चुपचाप बरजाती खड़ी रही, े भाषा बन भौहों की काली रे खा-सी ॅम में पड़ी रही।

ू छने में िहचक, दे खने में पलक आँखों पर झुकती हैं , ें

रस क िनझर्र में धँस कर मैं आनन्द-िशखर क ूित बढ़ती। े े

तुम कौन! हृदय की परवशता? सारी ःवतंऽता छीन रही, संध्या की लाली में हँ सती, उसका ही आौय लेती-सी,

ःवच्छं द सुमन जो िखले रहे जीवन-वन से हो बीन रही!" छाया ूितमा गुनगुना उठी, ौद्धा का उत्तर दे ती-सी।

"इतना न चमकृ त हो बाले! अपने मन का उपकार करो, अंबर-चुंबी िहम-ौृगों से कलरव कोलाहल साथ िलये, ं मैं एक पकड़ हँू जो कहती ठहरो कछ सोच-िवचार करो। ु

भोला सुहाग इठलाता हो ऐसा हो िजसमें हिरयाली,

मंगल ककम की ौी िजसमें िनखरी हो ऊषा की लाली, ुं ु हो नयनों का कल्याण बना आनन्द सुमन-सा िवकसा हो,

िवद्युत की ूाणमयी धारा बहती िजसमें उन्माद िलये।

आँखों क साँचे में आकर रमणीय रूप बन ढलता-सा, े

जो गूँज उठे िफर नस-नस में मूछर्ना समान मचलता-सा,

वासंती क वन-वैभव में िजसका पंचमःवर िपक-सा हो, े

वह कौंध िक िजससे अन्तर की शीतलता ठं ढक पाती हो, िहल्लोल भरा हो ऋतुपित का गोधुली की सी ममता हो, जागरण ूात-सा हँ सता हो िजसमें मध्याह्न िनखरता हो,

नयनों की नीलम की घाटी िजस रस घन से छा जाती हो,

हो चिकत िनकल आई सहसा जो अपने ूाची क घर से, े

उस नवल चंििका-से िबछले जो मानस की लहरों पर से,

फलों की कोमल पंखिड़याँ िबखरें िजसक अिभनन्दन में, ू े कोमल िकसलय ममर्र-रव-से िजसका जयघोष सुनाते हों, मकरं द िमलाती हों अपना ःवागत क ककम चन्दन में, े ुं ु

िजसमें दःख सुख िमलकर मन क उत्सव आनंद मनाते हों, े ु िजसमें अनंत अिभलाषा क सपने सब जगते रहते हैं । े ठोकर जो लगने वाली है उसको धीरे से समझाती, उज्जवल वरदान चेतना का सौन्दय्यर् िजसे सब कहते हैं , मैं उसई चपल की धाऽी हँू , गौरव मिहमा हँू िसखलाती,

लाली बन सरल कपोलों में आँखों में अंजन सी लगती, चंचल िकशोर सुन्दरता की मैं करती रहती रखवाली,

मतवाली सुन्दरता पग में नूपुर सी िलपट मनाती हँू ,

मैं रित की ूितकृ ित लज्जा हँू मैं शालीनता िसखाती हँू ,

लीला िवलास की खेद-भरी अवसादमयी ौम-दिलता-सी,

अविशष्ट रह गईं अनुभव में अपनी अतीत असफलता-सी,

बन आवजर्ना-मूितर् दीना अपनी अतृिप्त-सी संिचत हो,

मैं दे व-सृिष्ट की रित-रानी िनज पंचबाण से वंिचत हो,

किचत अलकों सी घुँघराली मन की मरोर बनकर जगती, ुं मैं वह हलकी सी मसलन हँू जो बनती कानों की लाली।" "हाँ, ठीक, परन्तु बताओगी मेरे जीवन का पथ क्या है ?

यह आज समझ तो पाई हँू मैं दबर्लता में नारी हँू , ु

इस िनिवड़ िनशा में संसित की आलोकमयी रे खा क्या है ? ृ

पर मन भी क्यों इतना ढीला अपने ही होता जाता है , सवर्ःव-समपर्ण करने की िवश्वास-महा-तरु-छाया में,

अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर मैं सबसे हारी हँू ।

घनँयाम-खंड-सी आँखों में क्यों सहसा जल भर आता है ?

अिभनय करती क्यों इस मन में कोमल िनरीहता ौम-शीला? िनःसंबल होकर ितरती हँू इस मानस की गहराई में, चाहती नहीं जागरण कभी सपने की इस सुघराई में।

छायापथ में तारक-द्युित सी िझलिमल करने की मधु-लीला,

चुपचाप पड़ी रहने की क्यों ममता जगती हैं माया में?

रुकती हँू और ठहरती हँू पर सोच-िवचार न कर सकती, पगली-सी कोई अंतर में बैठी जैसे अनुिदत बकती। मैं जभी तोलने का करती उपचार ःवयं तुल जाती हँू ,

अःफट रे खा की सीमा में आकार कला को दे ती हो। ु

नारी जीवन की िचऽ यही क्या? िवकल रं ग भर दे ती हो,

मैं दे दँ ू और न िफर कछ लूँ, इतना ही सरल झलकता है । ु तुम दान कर चुकी पहले ही जीवन क सोने-से सपने। े "क्या कहती हो ठहरो नारी! संकल्प-अौु जल से अपने -

इस अपर्ण में कछ और नहीं कवल उत्सगर् छलकता है , ु े

भुजलता फसा कर नर-तरु से झूले-सी झोंक खाती हँू । ँ े

पीयूष-ॐोत बहा करो जीवन क सुंदर समतल में। े

नारी! तुम कवल ौद्धा हो िवश्वास-रजत-नग पगतल में, े

आँसू से भींगे अंचल पर मन का सब कछ रखना होगा ु

संघषर् सदा उर-अंतर में जीिवत रह िनत्य-िवरुद्ध रहा।

दे वों की िवजय, दानवों की हारों का होता युद्ध रहा,

तुमको अपनी िःमत रे खा से यह संिधपऽ िलखना होगा।"

कामायनी ('िनवेर्द' पिरच्छे द क कछ छं द) े ु


"तुमल कोलाहल कलह में ु मैं हृदय की बात रे मन!

िवकल होकर िनत्य चंचल, खोजती जब नींद क पल, े चेतना थक-सी रही तब,

मैं मलय की वात रे मन! िचर-िवषाद-िवलीन मन की, मैं उषा-सी ज्योित-रे खा,

इस व्यथा क ितिमर-वन की; े

कसुम-िवकिसत ूात रे मन! ु जहाँ मरु-ज्वाला धधकती, चातकी कन को तरसती, उन्हीं जीवन-घािटयों की, मैं सरस बरसात रे मन! पवन की ूाचीर में रुक

जला जीवन जी रहा झुक,

इस झुलसते िवश्व-िदन की मैं कसुम-ऋतु-रात रे मन! ु

मधुप-मुखर-मरं द-मुकिलत, ु मैं सजल जलजात रे मन!"

ूितच्छाियत अौु-सर में,

िचर िनराशा नीरधर से,

ूयाणगीत
िहमािि तुग ौृग से ूबुद्ध शुद्ध भारती ं ं ःवयंूभा समुज्जवला ःवतंऽता पुकारती अमत्यर् वीर पुऽ हो, दृढ़-ूितज्ञ सोच लो, ूशःत पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो।

सपूत मातृभूिम क रुको न शूर साहसी। े

असंख्य कीितर्-रिँमयाँ िवकीणर् िदव्य दाह-सी।

अराित सैन्य िसंधु में - सुबाड़वािग्न से जलो, ूवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो बढ़े चलो।

बीती िवभावरी जाग री!


बीती िवभावरी जाग री! अम्बर पनघट में डबो रही ु तारा घट ऊषा नागरी।

खग कल-कल सा बोल रहा, ु ु

िकसलय का अंचल डोल रहा,

ु मधु मुकल नवल रस गागरी।

लो यह लितका भी भर लाई

अधरों में राग अमंद िपये,

अलकों में मलयज बंद िकये

तू अब तक सोई है आली आँखों में भरे िवहाग री।

You might also like