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ंकार

ंकार

रामधारी सह दनकर

उदयाचल काशन, पटना क ओर से

लोकभारती काशन
पहली मं जल, दरबारी ब डंग, महात्मा गाँधी माग, इलाहाबाद-1
लोकभारती काशन
पहली मं जल, दरबारी ब डंग, महात्मा गाँधी माग
इलाहाबाद-211 001211 001
वेबसाइट : www.lokbhartiprakashan.com
ईमेल : info@lokbhartiprakashan.com
शाखाएँ : 1-बी, नेताजी सुभाष माग, द रयागंज
नयी दल्ली-110 002
अशोक राजपथ, साइंस कॉलेज के सामने
पटना-800 006 ( बहार)
36-ए, शेक्स पयर सरणी
कोलकाता-700 017

© केदार नाथ सह, पटना

पहला संसकरण
् : 1938
वतमान संसकरण् : 2009
पुनमु ण : 2012, 2015

HUNKAR
by Ramdhari Singh Dinkar

ISBN : 978-81-8031-356-1
ा त का क व

राष् य क वता क जो परम्परा ‘भारतेन् ’ से ारम्भ ई; उसक प रण त ई है


‘ दनकर’ म।
जब क चार ओर अन्धकार ही अन्धकार था, दरबार के वषाक्त वायुमंडल ने बेचारी
क वता को ब -बे टय के नग्न-सौन्दय-वणन क बेहयाई मा बना रखा था, ज के चाँद
क तरह, एक पतली-सी काश-रेखा पश् चम- तज पर द ख पड़ी। पहली बार लोग ने
सुना,
आव सब म ल के रोव भारत-भाई
‘भारत दशा’ पर कट क गई इस दन-ध्व न का उ र दया भारत पर अपनी
जवानी और जन्दगी कुबान कर दे नेवाली महारानी ल मीबाई ् क प्यारी झाँसी के एक
चरगाँव ने। शायद, नगर म वह दय न रह गया था, जो दे श-माता के नाम के इस दन को
सुन भी सके। वह गुलामी के पट् टे के चाक चक्य पर मुगध
् हो रँगर लयाँ मना रहा था।
चरगाँव ने अपनी पूरी ‘भारती’ को ही भारत के नाम पर उत्सग करके आकां ा क —
भगवान्, भारतवष म गूँजे हमारी भारती।
नस्सन्दे ह, उसक भारती गूँजी, समूचे हन्द -भारत म गूँजी। शतपुरा क तलहट तक
गूँज उठ । नमदा-तट क एक कुट म जलती ई साधना क धुनी क लपट म ज्वार आया।
दन- दन, गूँज-गायन नह , एक ललकार दे श के त ण के त, जसक टे क थी,
ब लदान, ब लदान! ब लदान भी कैसा!

सफलता पाई अथवा नह , उन्ह क्या ात है? दे चुके ाण।


वश्व को चा हए उच्च वचार? नह केवल अपना ब लदान।

‘भारतीय आत्मा’ का यह आह्वान, और दे श म सचमुच ब लदान का एक ताँता लग


गया। सू लय क सेज, उछलती लाश। माँ क ब लवेद लाल हो रही थी।
इस लाल वेद से एक लाल दे वी का आ वभाव अ नवाय था। क्या आपक आँख उसे
दे ख पाती ह?
य द वैसे आप दे ख नह पाते, तो ‘ दनकर’ के काश म दे ख उसे।
जो पश्च मी तज पर शान्त- नग्ध ‘इन् ’ था, वह पूरब म ‘ दनकर’ होकर
अभी-अभी उगा है। उसके काश म अ णमा है, त णाई क सूचना, या उस दे वी क
तच्छाया?

हमारे ा त-युग का सम्पूण त न धत्व क वता म, इस समय ‘ दनकर’ कर रहा है।


ा तवाद को जन- जन दय-मन्थन से गुजरना होता है, ‘ दनकर’ क क वता
उनक सच्ची तस्वीर रखती है।
ा तका रय के भी दल होता है, दल म ेम नामक बना व्याख्या क एक अनुभू त
होती है; वह भी कसी को चाहता है, कसी पर अपने को न्योछावर करना चाहता है;
बसन्त उसके दल म भी गुदगुद लाता है, बरसात उसके दयाकाश म भी कभी रम झम
कर उठती है, सौन्दय चुम्बक क तरह उसक आँख को भी पकड़ लेता है।
ले कन, वह करे तो क्या? उसी समय उनके कान म कुछ सरी ही रा गनी बज उठती
है, उसक आँख कुछ सरे ही श्य दे खने लगती ह—

र णत वषम रा गनी मरण क आज वकट हसा-उत्सव म,


दबे ए अ भशाप मनुज के लगे उ दत होने फर भव म;
शो णत से रँग रही शु पट संसक
् ृ त नठु र लए करवाल,
जला रही नज सह-पौर पर द लत-द न क अ थ-मशाल।

और, उसे मालूम होता है, कोई शक्त उसे बुला रही है—जगा रही है। यह कौन? यह
तो वही है। वह झझक उठता है, अरी,

यह कैसा आह्वान!
समय-असमय का त नक न ध्यान।

तुम्हारी भरी सृ के बीच


एक क्या तरल अ न ही पेय?
सुधा-मधु का अ य भांडार
एक मेरे ही हेतु अदे य?
‘उठो’, सुन उठूँ , ई क्या दे व,
न द भी अनुचर का अपराध?
‘मरो’, सुन म ँ , नह क्या शेष
अभी दो- दन जीने क साध?

ले कन, सरे ही ण, वह कृ तस्थ होता है। अरे, उसका जीवन तो सम पत है। उस


पर उसका क्या अ धकार? और, मानो वह गरज उठता है—
फकता ँ लो, तोड़-मरोड़ अरी नष्ठु र!े बीन के तार,
उठा चाँद का उ वल शंख फूँकता ँ भैरव ंकार।
नह जीते जी सकता दे ख वश्व म झुका तुमहारा
् भाल,
वेदना-मधु का भी कर पान आज उगलूँगा गरल कराल।

गरल, गरल, गरल! ा तकारी क जन्दगी म अमृत का स्थान कहाँ? और,


हन् तान क ा त आज जो नया प ले रही है, उससे भी वह अप र चत नह । मालूम
होता है, मानो, अब तो उसक क वता का वही मुख ेरक है।

एक दन उसक क वता ने उससे मचल कर रहा था,

क व! असाढ़ क इस रम झम म धन-खेत म जाने दे ;


कृषक-सुन्दरी के स्वर म अटपटे गीत कुछ गाने दे ;
खय के केवल उत्सव म इस दम पव मनाने दे ,
रोऊँगी ख लहान म खेत म तो हषाने दे ।

ले कन, अब तो वह खुद भी कहता है,

जेठ हो क हो पूस, हमारे कृषक को आराम नह है,


छु टे बैल से संग, कभी जीवन म ऐसा याम नह है।
मुख म जीभ, शक् त भुज म, जीवन म सुख का नाम नह है,
वसन कहाँ? सूखी रोट भी मलती दोन शाम नह है।

यही नह , वह उस दन ‘नई दल्ली’ को दे खकर भी कह उठा था,

आह उठ द न कृषक क , मज र क तड़प, पुकार;


अरी, गरीब के लो पर, खड़ी ई तेरी द वार।

‘नई दल्ली’ को उसने एक नवीन वशेषण भी दया है—


कृषक-मेध क रानी दल्ली!

कभी हमारे राजे अश्वमेध, गोमेध करते थे; नई दल्ली कृषक-मेध करती है, वह उसक
रानी है।
सबसे बढ़कर हमारे आज के समाज म य क नग्नता और बच्च क भूख- ये दो
चीज़ ऐसी ह जो ‘ दनकर’ के भावुक दय को ा त के लए सबसे अ धक े रत करती
ह। अपने ‘हाहाकार’ म बच्च क भूख और ध के लए उनक चल्लाहट का उसने ऐसा
वणन कया है, जो पत्थर के दल को भी पघला सकता है-
क -क म अबुध बालक क भूखी हड् डी रोती है,
‘ ध- ध’ क कदम-कदम पर सारी रात सदा होती है।
‘ ध- ध’ ओ वत्स, म दर म बहरे पाषाण यहाँ ह!
‘ ध- ध’, तारे, बोलो इन बच्च के भगवान् कहाँ ह?
भगवान् बहर ह , तारे न बोल—ले कन, क व चुप बैठनेवाला नह । वह कहता है—
हटो व्योम के मेघ! पन्थ से स्वग लूटने हम आते ह,
‘ ध- ध’, ओ वत्स, तुम्हारा ध खोजने हम जाते ह।
मालूम होता है ‘ दनकर’ ने ा त को नकट से दे खा है और उसने उसे एक अच्छा-सा
नाम भी दे दया है— वपथगा! वपथगा क्य ? वह खुद कहेगी—
मुझ वपथगा मनी को न ात
कस रोज, कधर से आऊँगी?
जसके आने-जाने का ठौर- ठकाना नह , उसका सरा क्या नाम हो?
इस वपथगा को क व ने भारतीय प दया है। यह सर पर छ -मुकुट रखती है;
कुमारी है, तो भी सन् र लगाती है; आँख म अंजन दे ती है और रंगीन चीर पहन कर नाचती
है। ले कन, इसके मुकुट, सन् र, अंजन और चीर सब असाधारण ह। कैसे?
मेरे मस्तक का छ -मुकुट वसु-काल-स पणी के शत फण,
मुझ चर-कुमा रका के ललाट पर नत्य नवीन धर-चन्दन,
आँजा करती ँ चता-धूम का ग म अन्ध- त मर अंजन,
संहार-लपट का चीर पहन नाचा करती म छू म-छनन।
और नाचना शु कया क एक अजीब श्य—
पायल क पहली झनक, सृ म कोलाहल छा जाता है,
पड़ते जस ओर चरण मेरे, भूगोल उधर दब जाता है।
‘भूगोल उधर दब जाता है’— आप इसे अत्युक्त कहगे, ले कन नया का इ तहास
इसका सा ी है।
वश्व-सा हत्य म ा त पर जतनी क वताएँ ह, ‘ दनकर’ क ‘ वपथगा’ उनम से
कसी के भी समक आदर का स्थान पाने क योग्यता रखती है।
ा त-सम्बन्धी उसक सरी क वता ‘ दगम्ब र’ भी हन्द -संसार म जोड़ नह
रखती। मालूम होता है, क व आँख दे खी, कान सुनी बात कह रहा है—
धरातल को हला गूँजा धर ण म राग कोई,
तलातल से उभरती आ रही है आग कोई,
दशा के बन्ध से झंझा वकल है छू टने को,
धरा के व से आकुल हलाहल फूटने को।
और, इस ा त के वाहन कौन ह गे? युवक ही तो? अत: ‘ दनकर’ एक मौका भी ऐसा
नह जाने दे ता, जब वह इन युवक से दो-दो बात न कर ले। कभी वह उन्ह उलाहना दे ता है।
खेल रहे हल मल घाट म कौन शखर का ध्यान करे?
ऐसा वीर कहाँ क शैल- ह फूल का मधु-पान करे।
कभी उन्ह वह चेतावनी दे ता है
लेना अनल- करीट भाल पर ओ आ शक होनेवाले,
कालकूट पहले पी लेना, सुधा-बीज बोनेवाले।
दोस्तो, याद रखो
धरकर चरण व जत ृंग पर झंडा वही उड़ाते ह,
अपनी उँगली पर जो खंजर क जंग छु ड़ाते ह।
पड़ा समय से होड़, ख च मत तलव से काँटे क कर,
फूँक-फूँक चलती न जवानी चोट से बचकर, झुककर।
उन्ह ‘जय-या ा’ के लए उ े जत करते ए, मानो, आ खरी बार क व कहे दे ता है—
चल यौवन उद्दाम, चल, चल बना वराम,
वजय-मरण, दो घाट, समर के बीच कहाँ व ाम?
अन्त म एक बात।
जब मने राष् य क वता के वकास के सल सले म भारतेन् , मै थलीशरण, भारतीय
आत्मा और दनकर को लया है, तो उसका मतलब यह नह क इनके अ त रक्त कसी ने
दे शमाता के चरण पर अपनी ांज ल चढ़ाई ही नह ।

नह , यह कहना गुस्ताखी होगा—अ म्य अपराध होगा।


ये तो ‘मील के पत्थर’ मा ह—खास री के सूचक। बीच म और भी कतनी ही
णम्य, नमस्य दे व-मू याँ ह; कन्तु बीच म ही। ‘ दनकर’ के आगे का मैदान अभी उसी
का है। यह मेरा आज का दावा है। कल क बात म नह कहता।
- बेनीपुरी
काशी
रंगभरी, एकादशी
1995 व.
आमुख

समय-ढू ह क ओर ससकले मेरे गीत, वकल धाये;


आज खोजते उन्ह बुलाने वतमान के पल आये?

“शैल- ंगृ चढ़ समय- सन्धु के आर-पार तुम हेर रहे,


कन्तु, ात क्या तुम्ह, भू म का कौन दनुज पथ घेर रहे?

दो व का घोष, वकट संघात धरा पर जारी है,


व -रेणु, चुन स्वप्न सजा लो, छटक रही चनगारी है।

रण क घड़ी, जलन क वेला, धर-पंक म गान करो,


अपना साकल धरो कुंड म, कुछ तुम भी ब लदान करो।”

वतमान के हठ बाल ये रोते ह, बललाते ह,


रह-रह दय च क उठता है, स्वप्न टू टते जाते ह।

ृ छोड़ मट् ट पर आया, कन्तु, कहो क्या गाऊँ म?


ंग
जहाँ बोलना पाप, वहाँ क्या गीत से समझाऊँ म?

व ध का शाप, सुर भ-साँस पर लखूँ च रत म क्यारी का,


चौराहे पर बँधी जीभ से मोल क ँ चनगारी का?

यह बेबसी, गगन म भी छू ता धरती का दाह मुझे,


ऐसा घमासान! मट् ट पर मली न अब तक राह मुझ।े

तुम्ह चाह जसक , वह क लका इस वन म खलती न कह ,


खोज रहा म जसे, जन्दगी वह मुझको मलती न कह ।

कन्तु, न बुझती जलन दय क , हाय, कहाँ तक क स ँ?


बुलबुल सीना चाक करे औ’ म फूल -सा मूक र ँ?
रण क घड़ी; जलन क वेला, तो म भी कुछ गाऊँगा,
सुलग रही य द शखा य क , अपना हवन चढ़ाऊँगा।

‘वतमान क जय’ अभीत हो खुलकर मन क पीर बजे,


एक राग मेरा भी रण म, बन्द क जंजीर बजे।
नई करण क सखी; बाँसुरी के छ से लूक उठे ,
साँस-साँस पर, खड् ग-धार पर नाच दय क क उठे ।

नए ात के अ ण! त मर-उर म मरी च-सन्धान करो,


युग के मूक शैल! उठ जागो, ंकारो, कुछ गान करो।
कसक आहट? कौन पधारा? पहचानो, टु क ध्यान करो।
जगो भू म! अ त नकट अनागत का स्वागत-सम्मान करो।

‘जय हो’, युग के दे व पधारो! वकट, , हे अ भमानी!


मुक्त-के शनी खड़ी ार पर कब से भाव क रानी।
अमृत-गीत तुम रचो कला न ध! बुनो कल्पना क जाली,
त मर-ज्यो त क समर-भू म का म चारण, म वैताली,
हो लकोत्सव, 1995 व.
अनु म

ान् त का क व
आमुख
असमय आह्वान
स्वग-दहन
आलोकधन्वा
चाह एक
हाहाकार
दगम्ब र!
अनल- करीट
भीख
वन-फूल क ओर
शब्द-बेध
वसन्त के नाम पर
णत
मेघ-रन् म बजी रा गनी
दल्ली
व्यक्त
परा जत क पूजा
हमालय
आश्वासन
फूल के पूवजन्म
सपाही
कल्पना क दशा
तकद र का बँटवारा
वपथगा
भ वष्य क आहट
साधना और धा
क वता का हठ
प रचय
असमय आह्वान

(1)

समय-असमय का त नक न ध्यान,
मो हनी; यह कैसा आह्वान?

पहन मुक्ता के युग अवतंस,


रत्न-गु फत खोले कच-जाल,
बजाती मधुर चरण-मंजीर,
आ गई नभ म रजनी-बाल।

झ गुर के सुन शजन-नाद,


मलन-आकुलता से ु तमान,
भेद ाची का कज्जल-भाल,
बढ़ा ऊपर वधु वेपथुमान।

गया दन धू ल-धूम के बीच


तुम्हारा करते जयजयकार,
दे खने आया था इस साँझ,
पूण वधु का मादक ृंगार।

एक पल सुधा-वृ के बीच
जुड़ा पाए न क्लान्त मन- ाण,
क सहसा गूँज उठा सब ओर
तुमहारा
् चर-प र चत आह्वान।

(2)

यह कैसा आह्वान!
समय-असमय का त नक न ध्यान।
झुक जात पलक नस्पन्द
दवस के म का लेकर भार,
रह ग म म- म से खेल
नए, भोले, लघु स्वप्न-कुमार।

रक्त-कदम म दन भर फूक
रजत- ृंगी से भैरव नाद,
अभी लगता है कतना मधुर
चाँदनी का सुनना संवाद!

दग्ध करती दनभर सब अंग


तुम्हारे म क जलती धूल;
नशा म ही खल पाते दे व!
कल्पना के उन्मादक फूल।

अन्य अनुचर सोये नश्च न्त


श थल प रय को करते प्यार;
रात म भी मुझपर ही पड़ा
ार- हरी का गु तम भार।

सुलाने आई गृह-गृह डोल


न द का सौरभ लए बतास;
ए खग नीड़ म नस्पन्द,
नह तब भी मुझको अवकाश!

ऊँघती इन क लय को स प
कल्पना के मोहक सामान;
पुन: चलना होगा क्या हाय,
तुमहारा
् सुन नष्ठु र आह्वान।

(3)

यह कैसा आह्वान!
समय-असमय का त नक न ध्यान।

तुम्हारी भरी सृ के बीच


एक क्या तरल अ न ही पेय?
सुधा-मधु का अ य भांडार
एक मेरे ही हेतु अदे य?

‘उठो’ सुन उठूँ , ई क्या दे व,


न द भी अनुचर का अपराध?
‘मरो’ सुन म ँ , नह क्या शेष
अभी दो दन जीने क साध?

व पन के फूल-फूल म आज
रही वासन्ती स्वयं पुकार;
अभी भी सुनना होगा दे व!
खी धरणी का हाहाकार?

कम क्या एकमा वरदान?


सत्य ही क्या जीवन का ेय?
दग्ध, प्यासी अपनी लघु चाह
मुझे ही रही नह क्या गेय?

मचलता है उडु को दे ख
नकलने जब कोई अरमान;
तभी उठता बज अन्तर-बीच
तुम्हारा यह कठोर आह्वान!

(4)

यह कैसा आह्वान!
समय-असमय का त नक न ध्यान।

चाँदनी म छप कसक ओट
पुष्पधन्वा ने छोड़े तीर?
बोलने लगी को कला मौन,
खोलने लगी दय क पीर?

लताएँ ले म का अवलम्ब
सजाने लग नया ृंगार;
यक-त के पुल कत सब अंग
या का पाकर मधुमय भार।

नह यौवन का श्लथ आवेग


स्वयं वसुधा भी सक सँभाल,
शरा का कम्पन ले दया
सहरती ह रयाली पर डाल।

आज वृन्त पर बैठे फूल


पहन नूतन, कवुर प रधान;
व पन से लेकर सौरभ-भार
चला उड़ व्योम-ओर पवमान।

कया कसने यह मधुर स्पश?


वश्व के बदल गये व्यापार।
करेगी उतर व्योम से आज
कल्पना क्या भू पर अ भसार?

नील कुसुम के वा रद-बीच


हरे पट का अवगुंठन डाल;
स्वा मनी! यह दे खो, है खड़ी
पूव-प र चत-सी कोई बाल!

उमड़ता सुषमा को दे ख
आज मेरे ग म क्य नीर?
लगा कसका शर सहसा आन?
जगी अन्तर म क्य यह पीर?

न जान, कसने छू कर मम
जगा द छ व-दशन क चाह;
न जान, चली दय को छोड़
खोजने कसको सुर भत आह!

अचानक कौन गया कर ुब्ध


न जान उर का सन्धु अथाह?
जगा कसका यह मादक रोष
रोकने मुझ अजेय क राह?
न लूँगा आज रजत का शंख,
न गाऊँगा पौ ष का राग;
स्वा मनी! जलने दो उर-बीच
एक पल तो यह मीठ आग।

तपा लेने दो जी भर आज
वेदना म ाण के गान;
कनक-सा तपकर पीड़ा-बीच
सफल होगा मेरा ब लदान।

चन् - करण ने खोले आज


मेरी आह के ार;
मनाने आ बैठा एकान्त
मधुरता का नूतन त्योहार।

श थल ग म तन् ा का भार,
दय म छ व का मादक ध्यान;
वेदना का सम्मुख मधु पव,
और तब भी दा ण आह्वान।

(5)

यह कैसा आह्वान!
समय-असमय का त नक न ध्यान।

चाँदनी क अलक म गूँथ


छोड़ ँ क्या अपने अरमान?
आह! कर ँ क लय म बन्द
मधुर पीड़ा का वरदान?

दे व, कतना कटु सेवा-धम!


न अनुचर को नज पर अ धकार,
न छपकर भी कर पाता हाय!
तड़पते अरमान को प्यार।

हँसो, हल-डु ल वृन्त के द प!


हँसो, अम्बर के रत्न अनन्त!
हँसो, हल मलकर लता-कदम्ब!
तुम्ह मंगलमय मधुर वसन्त!

चीरकर मध्य नशा क शा त


को कले, छे ड़ो पंचम तान;
पल्लव म तुम से भी मधुर
सुला जाता ँ अपने गान।

भगोएगी वन के सब अंग
रोर कर जब अबक बरसात,
बजेगा इन्ह पल्लव बीच
वरह मेरा तब सारी रात।

फकता हँ लो, तोड़-मरोड़


अरी नष्ठु रे! बीन के तार;
उठा चाँद का उज्ज्वल शंख
फूँकता ँ भैरव - ंकार।

नह जीते-जी सकता दे ख
वश्व म झुका तुम्हारा भाल;
वेदना-मधु का भी कर पान
आज उगलूँगा गरल कराल।

सोख लूँ बनकर जसे अगस्त्य


कहाँ बाधक वह सन्धु अथाह?
कहो, खांडव-वन वह कस ओर
आज करना है जसका दाह?

फोड़ पैठँ ू अनन्त पाताल?


लूट लाऊँ वासव का दे श?
चरण पर रख ँ तीन लोक?
स्वा मनी! करो शी आदे श।

कधर होगा अम्बर म श्य


दे वता का रथ अब क बार?
ृंग पर चढ़कर जसके हेतु
क ँ नव स्वागत-मन् ोच्चार?

चाहती हो बुझना य द आज
होम क शखा बना सामान?
अभय दो, कूद पडँ जय बोल,
पूण कर लूँ अपना ब लदान!

उगे जस दन ाची क ओर
तुमहारी
् जय का स्वण वहान,
उगे अं कत नभ पर यह मन् ,
‘स्वा मनी का असमय आह्वान।’
स्वग-दहन

मेरी ध्व न के छा गए दव म तध्वान,


सुरवत्म स्तव्ध, क गया वभावसु का वमान।

मन्दार तप्त, तप रहा सुर का गन्धवाह,


म रहा स्वग म स्वरा ढ़ भू का दाह।

व ववश फट रहा छन्न घन-सा काश,


गुं जत अम्बर के रन् -रन् म अ न-हास।

मेरे मानस के व कुंड म द मान,


सुर समझ रहे, मानव के कतने वकल ाण।

ज्वालाकण बन उड़ रही चतु दक् कुसुम-रेणु,


दव च कत सोच, कसने फूक यह व -वेणु।

कोई कहता, खुल गया नरक का अनल- ार;


कुछ को म, जागा व पा का अहंकार।

सुर पत को भय, आया सुर प फर महाकार;


बोला वधु, “यह अम्बर के नीचे क पुकार।”

टक बीच पंथ म म हर सोचता लगा ध्यान,


धरती पर ऐसा जीव कौन मेरे समान—

कढ़ शखा-स श जसके अन्तर क वपुल आह


करने आई अम्बर पर चढ़ कर स्वग-दाह?

मृ का-पु मने म का पया ीर,


म म मल जानेवाला मेरा शरीर।

तू सत्य सोचता वभापुंज ओ ववस्वान,


धरती पर कोई जीव नह तेरे समान।

दव-दाह दे खना कसी काल मेरा न ध्येय,


अपराक कहा, लेना न चाहता मृषा ेय।

वंशी पर म फूँकता दय क क ण क,
जान, क्य शब्द से उठती है लपट-लूक।

धरती से तेरा स्वग बसा है ब त र,


जल जाए अगर तो क्या इसम मेरा कसूर?
आलोकधन्वा

ज्यो तधर क व म ज्व लत सौर-मंडल का,


मेरा शखंड अ णाभ, करीट अनल का।

रथ म काश के अश्व जुते ह मेरे


करण म उज्ज्वल गीत गुँथे ह मेरे!

म उदय- ान्त का सह द प्त वभा से,


केसर मेरे बलते ह कनक- शखा से।

ज्यो तम य अन्त: शखा अ ण है मेरी,


ह भाव अ ण, कल्पना अ ण है मेरी।

पाया नसग ने मुझे पुण्य के फल-सा,


तम के सर पर नकला म कनक-कमल-सा।

हो उठा द प्त धरती का कोना-कोना,


जसको मने छू दया आ वह सोना।

रँग गई घास पर क शबनम क प्याली,


हो गई लाल कुहरे क झीनी जाली।

मेरे ग का आलोक अ ण जब छलका,


बन ग घटाएँ बम्ब उषा-अंचल का।

उदयाचल पर आलोक-शरासन ताने,


आया म उज्ज्वल गीत वभा के गाने।

ज्यो तधनु क श जनी बजा गाता ,ँ


टं कार-लहर अम्बर म फैलाता ँ।
करण के मुख म वभा बोलती मेरी,
लो हनी कल्पना उषा खोलतो मेरी।

म वभापु , जागरण गान है मेरा,


जग को अ य आलोक-दान है मेरा।

कोदं ड-को ट पर स्वग लए चलता ,ँ


कर-गत लभ अपवग कए चलता ।ँ

आलोक- व शख से वेध जगा जन-जन को,


सजता ँ नूतन शखा जला जीवन को!

जड़ को उड़ने क पाँख दए दे ता ँ,
चेतन के मन को आँख दए दे ता ँ।

दौड़ा दे ता ँ तरल आग नस-नस म,


रहने दे ता बल को न बु के बस म।

स्वर को कराल ंकार बना दे ता ,ँ


यौवन को भीषण ज्वार बना दे ता ँ।

शूर के ग अंगार बना दे ता ँ,


हम्मत को ही तलवार बना दे ता ँ।

लो म दे ता ँ वह तेज रवानी,
जूझती पहाड़ से हो अभय जवानी।

मस्तक म भर अ भमान दया करता ँ,


पतनोन्मुख को उत्थान दया करता ँ।

यमाण जा त को ाण दया करता ,ँ


पीयूष- भा-मय गान दया करता ँ।

जो कुछ ज्वलन्त ह भाव छपे नर-नर म


है छपी वभा उनक मेरे खर शर म।

करण आती ह समय-व से कढ़ के,


जाती है अपनी राह धनुष पर चढ़ के।

ँ जगा रहा आलोक अ ण बाण से,


मरघट म जीवन फूँक रहा गान से।

म वभा-पु , जागरण गान है मेरा,


जग को अ य आलोक दान है मेरा।
चाह एक

म खोज रहा ँ त मर-बीच कब से ज्यो तमय दाह एक,


बल उठे कसी द श व -रा श, ले-दे कर मेरी चाह एक।

(1)

हो गई शान्त धरणी सभीत, फट- चट, हल-डु लकर एक बार,


रवगुण अम्बर हो गया मौन, बस, घहर-गरज कर एक बार
ऐसी जड़ता कस भाँ त सहे कब तक कोई चैतन्य जीव,
अन्तर म लेकर आग और आँख म सन्धु अथाह एक?
बल उठे कसी द श व -रा श, ले-दे कर मेरी चाह एक!

(2)

सूखी स रता, सूखे समु , धूसर अम्बर से मुझे प्यार,


यह भी क्या भाव-भरी झाँक , धरती क छाती म दरार!
वासना एकरस नह , बदल अपने मुख का ाचीन स्वाद,
बह चुक मलयवह वायु ब त, बह जाए आज वष-वाह एक।
बल उठे कसी द श व -रा श ले-दे कर मेरी चाह एक।

(3)

चक्खूँगा म सब एक-एक तीखे, मीठे , फल तोड़-तोड़,


हो अमृत या क वष-लता, सभी का रस लूँगा कुछ-कुछ नचोड़।
म र नह रहने आया, संघष-बीच दो मुझे स्थान।
भुज भर जीवन को भट सकूँ, मेरे मन म उत्साह एक।
बल उठे कसी द श व -रा श, ले-दे कर मेरी चाह एक।

(4)
स्वातन् य, पूजता म न तुझे इस लए क तू सुख-शा त- प,
हाँ, उसे पूजता, जो चलता तेरे आगे नत ा त- प।
मुझम उसका बल, तेज, रोष, तेरे दल म जसका ननाद,
वप्लव का जो है तूय-नाद, मेरे दल क वह आह एक।
बल उठे कसी द श व -रा श, ले-दे कर मेरी चाह एक।

(5)

क्या सुनू,ँ बोलत क्या नन्ह फूल क पंख ड़याँ अजान?


ँ खड़ा मुन्त ़जर, बोलगी कस दन ग र क द रयाँ महान।
अरमान एक यह शेष, कभी भूधर के ाण पसीज उठ,
पत्थर क छाती फोड़ बहे व्याकुल उद᳭दाम वाह एक।
बल उठे कसी द श व -रा श, ले-दे कर मेरी चाह एक।

(6)

जा रहा बीतता हवन-लग्न, करवट चुका ले शेष-व्याल,


मेरे मानस के इष्टदे व, आओ खोले नज जटा-जाल,
यह आमन् ण उसका, न मोहने को जनको ह धरा-धाम,
ह सीख चुके ये न:स्व वीर, है दहन मुक् त क राह एक।
बल उठे कसी द श व -रा श, ले-दे कर मेरी चाह एक।
हाहाकार

दव क ज्व लत शखा-सी उड़ तुम जबसे लपट ग जीवन म


तृषावन्त म घूम रहा क वते! तब से व्याकुल भुवन म।

उर म दाह, कंठ म ज्वाला, सम्मुख यह भु का म थल है,


जहाँ प थक जल क झाँक म एक बूँद के लए वकल है!

घर- र दे खा धुआँ धरा पर, सुना वश्व म आग लगी है,


जल-ही-जल जन-जन रटता है, कंठ-कंठ म प्यास जगी है।

सूख गया रस श्याम गगन का एक घूँट वष जग का पीकर;


ऊपर-ही-ऊपर जल जाते सृ -ताप से पावस-सीकर।

मनुज-वंश के अ ु-योग से जस दन आ सन्धु-जल खारा!


ग र ने चीर लया नज उर, म ललक पड़ा लख जल क धारा!

पर, व मत रह गया, लगी पीने जब वही मुझे सु ध खोकर,


कहती—‘ ग र को फाड़ चली ँ म भी बड़ी पपा सत होकर।’

यह वैषम्य नय त का मुझपर, कस्मत बड़ी धन्य उन क व क ,


जनके हत क वते! बनत तुम झाँक नग्न अनावृत छ व क ।

खी वश्व से र जन्ह लेकर आकाश-कुसुम के वन म,


खेल रह तुम अलस जलद-सी क स दव्य नन्दन-कानन म।

भूषण-वसन जहाँ कुसुम के, कह कु लश का नाम नह है,


दन भर सुमन-हार-गुम्फन को छोड़ सरा काम नह है।

वही धन्य, जसको लेकर तुम बस कल्पना के शतदल पर,


जसका स्वप्न तोड़ पाती है म नह चरण-तल बजकर।
मेरी भी यह चाह, वला स न! सुन्दरता को शीश झुकाऊँ,
जधर- जधर मधुमयी बसी हो, उधर वसन्ता नल बन धाऊँ।

एक चाह क व क यह दे ख—
ूँ छपकर कभी प ँच मा ल न-तट,
कस कार चलती मु न-बाला यौवनवती लए क ट पर घट।

झाँकूँ उस माधवी-कुंज म, जो बन रहा स्वग कानन म,


थम परस क जहाँ ला लमा सहर रही त णी-आनन म।

जनारण्य से र स्वप्न म म भी नज संसार बसाऊँ,


जग का आ नाद सुन अपना दय फाड़ने से बच जाऊँ।

मट जाती ज्य करण वहँस सारा दन कर लहर पर झल मल,


खो जाऊँ त्य हष मनाता, म भी नज स्वप्न से हल मल।

पर नभ म न कुट बन पाती, मने कतनी युक्त लगाई,


आधी मटती कभी कल्पना, कभी उजड़ती बनी-बनाई।

रह-रह पंखहीन खग-सा म गर पड़ता भू ही हलचल म,


झ टका एक बहा ले जाती स्वप्न-राज्य आँसू के जल म।

कु पत दे व क शाप- शखा जब व ुत् बन सर पर छा जाती,


उठता चीख दय व ोही, अन्ध भावनाएँ जात ।

नरख तीची-रक्त-मेघ म अस्त- ाय र व का मुख-मंडल,


पघल- पघल कर चू पड़ता है ग से ु भत, ववश अन्तस्तल।

र णत वषम रा गनी मरण क आज वकट हसा-उत्सव म;


दबे ए अ भशाप मनुज के लगे उ दत होने फर भव म।

शो णत से रंग रही शु पट संसक


् ृ त नठु र लए करवाल,
जला रही नज सहपौर पर द लत-द न क अ थ-मशाल।

घूम रही सभ्यता दानवी, ‘शा त! शा त’ करती भूतल म,


पूछे कोई, भगो रही वह क्य अपने वष-दन्त गरल म।

टाँक रही हो सुई चम, पर, शान्त रह हम त नक न डोल;


यही शा त, गरदन कटती हो, पर, हम अपनी जीभ न खोल?

बोल कुछ मत ु धत, रो टयाँ श्वान छ न खाँए य द कर से;


यही शा त, जब वे आएँ, हम नकल जाएँ चुपके नज घर से?

हब्शी पढ़ पाठ संसक् ृ त के खड़े ग लय क छाया म;


यही शा त, वे मौन रह जब आग लगे उनक काया म।

चूस रहे ह दनुज रक्त, पर, ह मत द लत बु कुमारी?


हो न कह तकार पाप का, शा त या क यह यु कुमारी!

जेठ हो क हो पूस, हमारे कृषक को आराम नह है;


छु टे बैल के संग, कभी जीवन म ऐसा याम नह है।

मुख म जीभ, शक्त भुज म, जीवन म सुख का नाम नह है,


वसन कहाँ? सूखी रोट भी मलती दोन शाम नह है।

वभव-स्वप्न से र, भू म पर यह खमय संसार कुमारी!


ख लहान म जहाँ मचा करता है हाहाकार कुमारी!

बैल के ये बन्धु, वष भर क्या जान, कैसे जीते ह?


जुबाँ बन्द, बहती न आँख, गम खा, शायद आँसू पीते ह?

पर, शशु का क्या हाल, सीख पाया न अभी जो आँसू पीना?


चूस-चूस सूखा स्तन माँ का सो जाता रो- बलप नगीना।

ववश दे खती माँ, अंचल से नन्ह जान तड़प उड़ जाती;


अपना रक्त पला दे ती य द फटती आज व क छाती।

क -क म अबुध बालक क भूखी ह ी रोती है;


“ ध, ध!” क कदम-कदम पर सारी रात सदा होती है।

“ ध, ध!” ओ वत्स! म दर म बहरे पाषाण यहाँ ह;


“ ध, ध!” तारे, बोलो, इन बच्च के भगवान् कहाँ ह?

“ ध, ध!” नया सोती है, लाऊँ ध कहाँ, कस घर से?


“ ध, ध!” हे दे व गगन के! कुछ बूँद टपका अम्बर से।
“ ध, ध!” गंगा, तू ही अपने पानी को ध बना दे ।
“ ध, ध!” उफ़! है कोई, भूखे मुद को जरा मना दे ?

“ ध, ध!” फर “ ध!” अरे, क्या याद ध क खो न सकोगे?


“ ध, ध!” मरकर भी क्या तुम बना ध के सो न सकोगे?

वे भी यह , ध से जो अपने श्वान को नहलाते ह!


ये बच्चे भी यह , क म “ ध- ध!” जो चल्लाते ह!

बेकसूर, नन्ह दे व का शाप वश्व पर पड़ा हमालय!


हला चाहता मूल वश्व का, दे ख रहा क्या खड़ा हमालय?

“ ध, ध!” फर सदा क क , आज ध लाना ही होगा;


जहाँ ध के घड़े मल, उस मं जल पर जाना ही होगा।

जय मानव क धरा सा णी! जय वशाल अम्बर क जय हो!


जय ग रराज! वन्ध्य- ग र जय-जय! हन्द महासागर क जय हो!

हटो व्योम के मेघ, पंथ से, स्वग लूटने हम आते ह,


“ ध, ध!” ओ वत्स! तुम्हारा ध खोजने हम जाते ह।
दगम्ब र!

उदय- ग र पर पनाक का कह टं कार बोला;


दगम्ब र! बोल, अम्बर म करण का तार बोला।

(1)

त मर के भाल पर चढ़कर वभा के बाणवाले;


खड़े ह मु त ज़र कब से नए अ भयानवाले।

ती ा है, सुन कब व्या ल न! फुंकार तेरा;


वदा रत कब करेगा व्योम को ंकार तेरा?

दशा के बन्ध से झंझा वकल है छू टने को;


धरा के व से आकुल हलाहल फूटने को।

कलेज से लगी बत्ती कह कुछ जल रही है;


हवा क साँस पर बेताब-सी कुछ चल रही है।

धराधर को हला गूँजा धर ण म राग कोई,


तलातल से उभरती आ रही है आग कोई।

तज के भाल पर नव सूय के सप्ताश्व बोले।


चतु दक् भू म के उत्ताल पारावार बोले।

नए युग क भवानी, आ गई वेला लय क ,


दगम्ब र! बोल, अम्बर म करण का तार बोला।

(2)

थक बेड़ी क़फ़स क हाथ म सौ बार बोली,


दय पर झनझनाती टू टकर तलवार बोली।

कलेजा मौत ने जब-जब टटोला इ तहाँ म,


ज़माने को त ण क टो लयाँ ललकार बोल ।

पुरातन और नूतन व का संघष बोला;


वभा-सा क धकर भू का नया आदश बोला;

नवागम-रोर से जागी बुझी, ठं डी चता भी,


नई ृंगी उठाकर वृ भारतवष बोला।

दरार हो ग ाचीर म बन्द -भवन के,


हमालय क दरी का सह भीमाकार बोला।

नए युग क भवानी, आ गई वेला लय क ,


दगम्ब र! बोल, अम्बर म करण का तार बोला।

(3)

लगी है धूल को परवाज़, उड़ती छा रही है,


कड़कती दा मनी, झंझा कह से आ रही है।

घटा-सी द खती जो, वह उमड़ती आह मेरी,


खड़ी जो वश्व का पथ रोक, वह है चाह मेरी।

सज चनगा रयाँ, नभय भंजन मग्न आया,


कयामत क घड़ी आई, लय का लग्न आया।

दशा गूँजी, बखरता व्योम म उल्लास आया,


नए युगदे व का नूतन कटक लो! पास आया।

पहन ोही-कवच रण म युग के मौन बोले,


ध्वजा पर चढ़ अनागत धम का ंकार बोला।

नए युग क भवानी, आ गई वेला लय क ।


दगम्ब र! बोल, अम्बर म करण का तार बोला।
(4)

दय का लाल रस हम वे दका म दे चुके ह!


वहँसकर वश्व का अ भशाप सर पर ले चुके ह!

परी ा म चे, वह कौन हम उपहार लाय?


बता, इस बोलने का मोल हम कैसे चुकाएँ?

युग से हम अनय का भार ढोते आ रहे ह;


न बोली तू मगर, हम रोज मटते जा रहे ह।

पलाने को कहाँ से रक्त लाय दानव को?


नह क्या स्वत्व है तशोध का हम मानव को?

जरा तू बोल तो, सारी धरा हम फूँक दगे;


पड़ा जो पंथ म ग र, कर उसे दो टू क दगे।

कह कुछ पूछने बूढ़ा वधाता आज आया;


कहगे, हाँ, तुम्हारी सृ को हमने मटाया।

जला फर पाप को, टू ट धरा य द जोड़ दगे;


बनेगा जस तरह, उस सृ को हम फोड़ दगे।

दय क वेदना बोली ल बन लोचन म;


उठाने मृ यु का घूँघट हमारा प्यार बोला।

नए युग क भवानी, आ गई वेला लय क ;


दगम्ब र! बोल, अम्बर म करण का तार बोला।
अनल- करीट

लेना अनल- करीट भाल पर ओ आ शक होनेवाले!


कालकूट पहले पी लेना, सुधा-बीज बोनेवाले!

(1)

धरकर चरण व जत ृंग पर झंडा वही उड़ाते ह,


अपनी ही उँगली पर जो खंजर क जंग छु ड़ाते ह।

पड़ी समय से होड़, ख च मत तलव से काँट ककर,


फूँक-फूँक चलती न जवानी चोट से बचकर, झुककर,

न द कहाँ उनक आँख म जो धुन के मतवाले ह?


ग त क तृषा और बढ़ती, पड़ते पद म जब छाले ह।

जाग क क जय न त है, हार चुके सोनेवाले;


लेना अनल- करीट भाल पर जो आ शक़ होनेवाले!

(2)

जन्ह दे खकर डोल गई हम्मत दलेर मरदान क ;


उन मौज पर चली जा रही कश्ती कुछ द वान क ।

बे फ़ का समाँ क तूफाँ म भी एक तराना है,


दाँत उँगली धरे खड़ा अचरज से भरा ज़माना है।

अभय बैठ ज्वालामु खय पर अपना मन् जगाते ह,


ये ह, वे, जनके जा पानी म आग लगाते ह!

ह ज़रा पहचान रख इनक जा -टोनेवाले,


लेना अनल- करीट भाल पर ओ आ शक़ होनेवाले!

(3)

तीन लोक च कत सुनते ह, घर-घर यही कहानी है,


खेल रही नेज़ पर चढ़कर रस से भरी जवानी है।

भू सँभले, हो सजग स्वग, यह दोन क नादानी है।


म का नूतन पुतला यह अल्हड़ है, अ भमानी है।

अचरज नह , ख च ट यह सुरपुर को बबाद करे।


अचरज नह , लूट जन्नत वीरान को आबाद करे।

तेरी आस लगा बैठे ह पा-पाकर खोनेवाले।


लेना अनल- करीट भाल पर ओ आ शक़ होनेवाले!

(4)

सँभले जग, खलवाड़ नह अच्छा चढ़ते-से पानी से,


याद हमालय को भड़ना कतना है क ठन जवानी से।

ओ महादे श! बुरा फल है शूर के शो णत पीने का;


दे ना होगा तुम्ह एक दन गन- गन मोल पसीने का।

कल होगा इंसाफ़, यहाँ कसने क्या कस्मत पाई है।


अभी न द से जाग रहा युग, यह पहली अँगड़ाई है।

मं जल र नह अपनी, ख का बोझा ढोनेवाले!


लेना अनल- करीट भाल पर ओ आ शक होनेवाले।
भीख

दाता से म माँगता तुमहारे


् लए भीख,
जीवन का पहला सत्य, दहन, तुम सको सीख।

दन-रात जलाती रहे ल क तुम्ह आग,


मन के सोये तूफ़ान तुम्हारे उठ जाग।

लहरो से उलझे लड़ो, बढ़ो, तुम फूल-फूल।


मुझ-सा ही तुमको मले महोद ध का न कूल।

घाट के नझर बढ़ो, बनो नद महाकार,


मत लो वराम, मत रचो कह अपनी कछार।

दे खो, अम्बर छू रहा शखर उन्नत, अभंग,


उससे भी ऊपर उड़े, तुमह् लेकर उमंग।

भीतर क दा ण शखा जलाती रहे ाण,


फूँके चनगारी असन्तोष क वतमान।

ग से शो णत के झर अ ु सायं- भात,
जीवन म हो हर रोज़ तुम्हारे अश न-पात।

दे वता दखा दपण अ ष्ट का तुम्ह ान्त।


कर द जीवन को और अ धक स्सह, अशान्त।

पारस-सी कोई चीज़ ज़ीस्त क बड़ी दे न,


तड़पे दल म, लेने न कभी दे तुम्ह चैन।

दाता से म माँगता भीख अंज ल पसार,


जीवन म जो कुछ भीष्म, उसे कर सको प्यार।
अंगार -से तुम रहो ज्व लत जा त- वमश।
दे खे जग, पर, भयवश न कभी कर सके स्पश।

जीवन के आ वल रत जला दे व -क ल,
बेचैन दय से कढ़े ता रका नृत्यशील।
वन-फूल क ओर

(1)

आज न उडु के नील कुंज म स्वप्न खोजने जाऊँगी;


आज चमेली म न चन् करण से च बनाऊँगी;
अधर म मुस्कान न लाली बन कपोल म छाऊँगी;
क व, कस्मत पर भी न तुमहारी,
् आँसू आज बहाऊँगी;
नालन्दा वैशाली म तुम ला चुके सौ बार,
धूसर भुवन-स्वग ाम म कर पाई न वहार!
आज यह राजवा टका छोड़
चलो क व! वनफूल क ओर।

(2)

चलो, जहाँ नजन कानन म वन्य कुसुम मुसकाते ह,


मलया नल भूलता, भूलकर जधर नह अ ल जाते ह।
कतने द प बुझे झाड़ी-झुरमुट म ज्यो त पसार,
चले शून्य म सुर भ छोड़कर कतने कुसुम-कुमार!
क पर म क व रोऊँगी,
जुगुनु-आरती सँजोऊँगी।

(3)

जला मृ का-द प, क ँ गी महल छोड़ तृण-कुट - वेश;


तुम गाँव के बनो भखारी, म भखा रनी का लूँ वेश।

स्वणाचला अहा! खेत म उतरी सन्ध्या श्यामपरी,


रोमन्थन करती गाय आ रह र दती घास हरी।

घर-घर से उठ रहा धुँआँ, जलते चूलहे


् बारी-बारी,
चौपाल म कृषक बैठ गाते—‘कहँ अटके बनवारी?’

पनघट से आ रही पीत-वसना युवती सुकुमार,


कसी भाँ त ढोती गागर; यौवन का वह भार!

बनूँगी म क व! इसक माँग,


कलश, काजल, सन् र, सुहाग।

(4)

वन-तुलसी क ग ध लये हलक पुरवैया आती है;


म दर क घंटा-ध्व न युग-युग का सन्दे श सुनाती है;

टम- टम द पक के काश म पढ़ते नज पोथी शशुगण;


परदे सी क या बैठ गाती यह वरह-गीत उन्मन—

‘भैया! लख दे एक कलम खत मो बालम के जोग,


चार कोने खेम-कुसल माँझे ठाँ मोर वयोग।”

तका म बन जाऊँगी,
सखी! सु ध उन्ह सुनाऊँगी।

(5)

पहन शु का कणफूल है दशा अभी भी मतवाली;


रहते रात रम णयाँ आ , ले-ले फूल क डाली;

स्वग-स् ोत, क णा क धारा, भारत-माँ का पुण्य तरल


भ -अ ु-धारा-सी नमल गंगा बहती है अ वरल।

लहर-लहर पर लहराते ह मधुर भाती गान,


भुवन स्वग बन रहा, उड़े जाते ऊपर को ाण।

पुजा रन क बन कंठ- हलोर,


भगो ँ गी अग-जग का छोर।
(6)

क व! असाढ़ क इस रम झम म धनखेत म जाने दो;


कृषक-सुन्दरी के स्वर म अटपटे गीत कुछ गाने दो।

खय के केवल उत्सव म इस दम पव मनाने दो;


रोऊँगी ख लहान म, खेत म तो हषाने दो।

म बच्च के संग जरा खेलूँगी, ब- बछौने पर;


मचलूँगी म जरा इन् -धनु के रंगीन खलौने पर।

ततली के पीछे दौडँगी, नाचूँगी दे -दे ताली;


म मकई क सुर भ बनूँगी, पके आम-फल क लाली।

वेण-ु कुंज म जुगनू बन म इधर-उधर मुसकाऊँगी;


हर सगार क क लयाँ बनकर वधु पर झड़ जाऊँगी।

सूखी रोट खाएगा जब कृषक खेत म धरकर हल


तब ँ गी म तृ त उसे, बनकर लोटे का गंगाजल।

उसके तन का दव्य स्वेदकण बनकर गरती जाऊँगी;


और खेत म उन्ह कण -से म मोती उपजाऊँगी।

शस्य-श्यामता नरख करेगा कृषक अ धक जब अ भलाषा;


तब म उसके दय-स् ोत म उमडँगी बनकर आशा।

अ नग्न दम्पती के गृह म म झ का बन जाऊँगी;


ल जत ह न अ त थ-सम्मुख वे, द पक तुरत बुझाऊँगी।

ऋण-शोधन के लए ध-घी बेच-बेच धन जोड़गे।


बूँद-बूँद बेचगे, अपने लए नह कुछ छोड़गे।

शशु मचलगे ध दे ख, जननी उनको बहलाएगी,


म फाडँगी दय, लाज से आँख नह रो पाएगी।

इतने पर भी धनप तय क उनपर होगी मार,


तब म बरसूँगी बन बेबस के आँसू सुकुमार।
फटे गा भू का दय कठोर,
चलो, क व! वन-फूल क ओर।
शब्द-बेध

खेल रहे हल मल घाट म कौन शखर का ध्यान करे?


ऐसा वीर कहाँ क शैल ह फूल का मधुपान करे?

ल ्यबेध है क ठन, अमा का सू चभे तमतोम यहाँ;


ध्व न पर छोड़े तीर, कौन यह शब्द-बेध सन्धान करे?

“सूली ऊपर सेज पया क ,” द वानी मीरा सो ले,


अपना दे श वही दे खेगा, जो अशेष ब लदान करे।

जीवन क जल गई फसल, तब उगे यहाँ दल के दाने;


लहराएगी लता, आग बजली का तो सामान करे!

सबक अलग तरी अपनी, दो का चलना मल साथ मना;


पार जसे जाना हो, वह तैयार स्वयं जलयान करे।

फूल झड़े, अ ल उड़े, वा टका का मंगल-मधु स्वप्न आ,


दो दन का है संग, दय क्या दय से पहचान करे?

सर दे कर सौदा लेते ह, जन्ह ेम का रंग चढ़ा;


फ का रंग रहा तो घर तज क्या गै रक प रधान करे?

उस पद का मंजीर गूँजता हो नीरव सुनसान जहाँ;


सुनना हो तो तज बसन्त नज को पहले वीरान करे?

म ण पर तो आवरण, द प से तूफाँ म कब काम चला?


गम पंथ, र जाना है, क्या पंथी अनजान करे?

तरी खेलती रहे लहर पर, यह भी एक समाँ कैसा?


डाँड़ छोड़, पतवार तोड़कर तू क व! नभय मान कर।
वसन्त के नाम पर

(1)

ात जगाता शशु वसन्त को नव गुलाब दे -दे ताली;


ततली बनी दे व क क वता वन-वन उड़ती मतवाली।

सुन्दरता को जगी दे खकर जी करता म भी कुछ गाऊँ;


म भी आज कृ त-पूजन म नज क वता के द प जलाऊँ;

ठोकर मार भाग्य को फोडँ, जड़ जीवन तजकर उड़ जाऊँ।


उतरी कभी न भू पर जो छ व, जग को उसका प दखाऊँ।

स्वप्न-बीच जो कुछ सुन्दर हो, उसे सत्य म व्याप्त क ँ ।


और सत्य-तनु के कु सत मल का अ तत्व समाप्त क ँ ।
(2)

कलम उठ क वता लखने को, अन्तस्तल म ज्वार उठा रे!


सहसा नाम पकड़ कायर का प म-पवन पुकार उठा रे!

दे खा, शून्य कुँवर का गढ़ है, झाँसी क वह शान नह है।


गादास- ताप बली का प्यारा राजस्थान नह है।

जलती नह चता जौहर क , मु म ब लदान नह है।


टे ढ़ मूँछ लए रण-वन फरना अब तो आसान नह है।

समय माँगता मूल्य मु का, दे गा कौन मांस क बोट ?


पवत पर आदश मलेगा, खाएँ चलो घास क रोट ।

चढ़े अश्व पर सक रहे रोट नीचे कर भाल को,


खोज रहा मेवाड़ आज फर उन अल्हड़ मतवाल को।
(3)

बात-बात पर बज करीच, जूझ मरे य खेत म;


जौहर क जलती चनगारी अब भी चमक रही रेत म।

जाग-जाग ओ थार, बता दे , कण-कण चमक रहा क्य तेरा।


बता रंच भर ठौर कहाँ वह, जस पर शो षत बहा न मेरा?

पी-पी खून आग बढ़ती थी, स दय जली होम क ज्वाला।


हँस-हँस चढ़े सीस साकल-से, ब लदान का आ उजाला।

सुन्द रय को स प अ न पर, नकले समय-पुकार पर।


बाल, वृ औ’ त ण बहँसते खेल गए तलवार पर।
(4)

हाँ, वसन्त क सरस घड़ी है, जी करता, म भी गाऊँ;


क व ,ँ आज कृ त-पूजन म, नज क वता के द प जलाऊँ।

क्या गाऊँ! सतलज रोती है, हाय! खल बे लयाँ कनारे।


भूल गए ऋतुप त, बहते ह, यहाँ धर के दव्य पनारे।

बहन चीख रह रावी-तट, बलख रहे बच्चे बेचारे,


फूल-फूल से पूछ रहे ह—‘कब लौटगे पता हमारे?’

उफ, वसन्त या मदन-बाण है? वन-वन प-ज्वार आया है।


सहर रही वसुधा रह-रह कर, यौवन म उभार आया है।

कसक रही सुन्दरी—‘आज मधु-ऋतु म मेरे कन्त कहाँ?’


र प म तध्व न उठती, ‘प्यारी और वसन्त कहाँ?’
णत

(1)

कलम, आज उनक जय बोल!


जला अ थयाँ बारी-बारी
छटकाई जनने चनगारी,
जो चढ़ गए पुण्य-वेद पर लए गरदन का मोल।
कलम, आज उनक जय बोल!

जो अग णत लघु द प हमारे
तूफान म एक कनारे,
जल-जल कर बुझ गए, कसी दन माँगा नह स्नेह
खोल!
कमल, आज उनक जय बोल!

पीकर जनक लाल शखाएँ


उगल रह लू-लपट दशाएँ।
जनके सहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल!
कमल, आज उनक जय बोल!

अन्धा चकाच ध का मारा


क्या जाने इ तहास बेचारा?
साखी ह उनक म हमा के सूय, चन् , भूगोल,
खगोल।
कमल आज उनक जय बोल!

(2)

नमन उन्ह मेरा शत बार!


सूख रही है बोट -बोट ,
मलती नह घास क रोट ,
गढ़ते ह इ तहास दे श का, सहकर क ठन सुधा क
मार।
नमन उन्ह मेरा शत बार!

अ नग्न जनक य माया,


शशु वषण्ण-मुख, जजर-काया;
रण क ओर चरण ढ़ जनके, मन के पीछे क ण
पुकार।
नमन उन्ह मेरा शत बार!

जनक चढ़ती ई जवानी,


खोज रही अपनी कुरबानी,
जलन एक जनक अ भलाषा, मरण एक जनका
त्यौहार।
नमन उन्ह मेरा शत बार!

खी स्वयं जग का ख लेकर,
स्वयं रक्त सबको सुख दे कर,
जनका दया अमृत जग पीता, कालकूट उनका
आहार।
नमन उन्ह मेरा शत बार!

वीर, तुम्हारा लए सहारा,


टका आ है भूतल सारा,
होते तुम न कह तो कब को उलट गया होता संसार!
नमन तुम्ह मेरा शत बार!

चरण-धू ल दो, शीश लगा लूँ,


जीवन का बल-तेज जगा लूँ,
म नवास जस मूक स्वप्न का, तुम उसके स य
अवतार।
नमन तुम्ह मेरा शत बार!

(3)
आनेवालो, तुम्ह णाम!
‘जय हो, नव होतागण, आओ,
संग नई आ तयाँ लाओ,
जो कुछ बने, फकते जाओ, य जानता नह वराम।
आनेवालो, तुम्ह णाम!

टू ट नह शला क कारा,
लौट गई टकरा कर धारा,
सौ धक्कार तुम्ह यौवन के वेगवन्त नझर उद᳭दाम!
आनेवालो, तुम्ह णाम!

फर डंके पर चोट पड़ी है,


मौत चुनौती लए खड़ी है,
लखने चली आग, अम्बर पर कौन लखाएगा नज
नाम?
आनेवालो, तुम्ह णाम!

(4)

आगे आओ वीर जवान!


दशा तप्त हो लरज़ रही है,
घटा ोध से गरज रही है,
लाल-लाल टु कड़े उड़ते ह, उठा चाहता है तूफान।
आगे आओ वीर जवान!

स्तर पारावार अगम है,


सम्मुख शैल ांश,ु गम है,
कोई, जो इन्ह लाँघकर करे आज जय अ भयान?
आगे आओ वीर जवान!

ीण ई जाती है लाली,
होम- शखा है बुझनेवाली,
एक लपट के लए स है क , करो नव स्नेह
दान।
आगे आओ वीर जवान!
मेघ-रन् म बजी रा गनी

सावधान ह न खल दशाएँ, सजग व्योमवासी सुरगण!


बहने चले आज खुल-खुलकर लंका के उनचास पवन।

हे अशेषफण शेष! सजग हो, थामो धरा, धरो भूधर,


मेघ-रन् म बजी रा गनी, टू ट न पड़े कह अम्बर।

गूँजे तुमुल वषाण गगन म, गाओ, हे गाओ कन्नर!


उतरो भावुक लय! भू म पर आओ शव! आओ सुन्दर!

बजे द प्ती का राग गगन म, बजे करण का तार बजे।


अघ पीनेवाली भीषण ज्वाला का त्यौहार सजे।

हले ‘आल्प्स’ का मूल, हले ‘राक ’, छोटा जापान हले,


मेघ-रन् म बजी रा गनी, अब तो हन् स्तान हले।

चोट पड़ी भूमध्य- सन्धु म, नील तट म शोर आ;


मकट चढ़े कोट पर दे खो, उठो, सलारी! भोर आ;

आ वधाता वाम, ‘जनेवा’ बीच सुधी चकराते ह।


बुझा रहे ज्वाला साँस से, कर से आँच लगाते ह।

‘राइन‘-तट पर खली सभ्यता, ‘ हटलर’ खड़ा कौन बोले?


सस्ता खून य द का है, ‘नाजी’ नज ‘स्व तक’ धो ले।

ले हलोर ‘अतलान्त’ भयंकर, जाग, लय का बाण चला;


जाग शान्त, कौन बोले, कस ओर आज तूफान चला?

‘दजला’! चेत, ‘फुरात’ सजग हो, जाग-जाग जो शंघाई!


लाल सन्धु बोले, कसपर यह घटा घुमड़ छाने आई।
बफ क द वार खड़ी, ऊँचे-नीचे पवत ढालू,
तो भी पंजा पजा रहा है साइबे रया का भालू।

‘काबल’ मूक, र ‘यूरल’ है, क्या भोली ‘आमू’ बोले?


उ े लत ‘भूमध्य’, स्वेज का मुख इटली कैसे खोले?

श्वेतानन स्वग य दे व हम! ये हब्शी रे गस्तानी!


ईसा साखी रह, ईसाई नया ने बछ तानी।

सन् 1935 ई. म रक्त पपासु इटै लयन फ़ॉ सस्ट के अबीसी नया पर आ मण के अवसर
पर ल खत।
दल्ली

यह कैसी चाँदनी अमा के म लन त मस् गगन म!


कूक रही क्य नय त व्यंगय ् से इस गोधू ल-लगन म?
मरघट म तू साज रही दल्ली कैसे ृंगार?
यह बहार का स्वांग अरी, इस उजड़े ए चमन म!

इस उजाड़, नजन खंडहर म,


छन्न- भन्न उजड़े इस घर म,
तुझे प सजाने क सूझी
मेरे सत्यानाश- हर म!

डाल-डाल पर छे ड़ रही कोयल म सया-तराना,


और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;
हम धोते ह घाव इधर सतलज के शीतल जल से,
उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छड़काना!

महल कहाँ बस, हम सहारा


केवल फूस-फास, तृणदल का;
अन्न न ह , अवलम्ब ाण का
गम, आँसू या गंगाजल का;

यह वहग का झु़ंड ल ्य है
आजीवन व धक के फल का;
मरने पर भी हम कफन है
माता शै ा के अंचल का।

गुलच नष्ठु र फक रहा क लय को तोड़ अनल म,


कुछ सागर के पार और कुछ रावी-सतलज-जल म;
हम मटते जा रहे, न य अपना कोई भगवान्।
यह अलका-छ व कौन भला दे खेगा इस हलचल म?
बखरी लट, आँसू छलके ह,
दे ख, व दनी है बलखाती,
अ ु प छने हम जाते ह
दल्ली! आह! कलम क जाती।

अरी, बवश ह, कहो कर क्या?


पैर म जंजीर हाय! हाथ —
म ह क ड़याँ कस जात ।

और कह क्या? धरा न धँसती,


ंकरता न गगन संघाती;
हाय, व दनी माँ के सम्मुख
सुत क नष्ठु र ब ल चढ़ जाती।

तड़प-तड़प हम कहो कर क्या?


‘बहै न हाथ, दहै र स छाती,’
अन्तर ही अन्तर घलते ह,
‘भा कुठार कुं ठत रपुघाती।’

अपनी गरदन रेत-रेत अ स क तीखी धार पर


राजहंस ब लदान चढ़ाते माँ के ंकार पर।
पगली! दे ख, जरा कैसी मर मटने क तैयारी?
जा चलेगा न धुन के पक्के इन बनजार पर।

तू वैभव-मद म इठलाती,
परक या-सी सैन चलाती,
री टे न क दासी! कसको
इन आँख पर है ललचाती?

हमने दे खा यह पांडु-वीर का क - सार,


वैभव का सुख स्वप्न, कला का महास्वप्न-अ भसार।
यह कभी अपनी रानी थी, तू ऐसे मत भूल,
अकबर, शाहजहाँ ने जसका कया स्वयं ृंगार।

तू न ठ मदमाती दल्ली!
मत फर य इतराती दल्ली!
अ व दत नह हम तेरी
कतनी कठोर है छाती दल्ली!

हाय! छनी भूख क रोट ,


छना नग्न का अ वसन है;
मज र के कौर छने ह,
जन पर उनका लगा दसन है;

छनी सजी-साजी वह दल्ली


अरी! बहा रशाह ‘ज़फ़र’ क ;
और छनी गद ्द लखनऊ क
वा जद अली शाह ‘अख् र’ क ।

छना मुकुट प्यारे ‘ सराज’ का,


छनी अरी, आलोक नयन का;
नीड़ छना, बुलबुल फरती है
वन-वन लए चंचु म तनका।

आह उठ द न कृषक क ,
मज र क तड़प-पुकार,
अरी! गरीब के लो पर
खड़ी तेरी दवार।

अं कत है कृषक के गृह म तेरी नठु र नशानी,


खय क कु टया रो-रो कहती तेरी मनमानी;
औ’ तेरा ग-मन्द यह क्या है? क्या न खून बेकस का?
बोल, बोल, क्य लजा रही, ओ कृषक-मेध क रानी?

वैभव क द वानी दल्ली!


कृषक-मेध क रानी दल्ली!
अनाचार, अपमान, ंगय् क
चुभती ई कहानी दल्ली!

अपने ही प त क समा ध पर
कुलटे ! तू छ व म इतराती;
परदे सी-संग गलबाँही दे
मन म है फूली न समाती!
दो दन ही के ‘बाल-डांस’ म
नाच ई बेपानी दल्ली!
कैसी यह नलज्ज न नता!
यह कैसी नादानी दल्ली!

अरी, हया कर, है ज़ईफ़ यह खड़ा कुतुब-मीनार,


इबरत क माँ जामा भी है यह अरी! शयार!
इन्ह दे खकर भी तो दल्ली! आँख आय फरा ले,
गौरव के गु रो न पड़े, हा घूँघट जरा गरा ले!

अरी, हया कर, हया अभागी!


मत फर लज्जा को ठु कराती;
चीख न पड़ क म अपनी,
फट न जाए अकबर छाती;

क न उठे जहाँ गर- दल म,


कूक न उठे क मदमाती!
गौरव के गु को रो न पडें़ हा,
दल्ली घूँघट क्य न गराती?

बाबर है, औरंग, यह है,


म दरा औ’ कुलटा का ोही,
बक्सर, पर मत भूल, यह है
वजयी शेरशाह नम ही।

अरी! सँभल, यह क न फटकर कह बना दे ार!


नकल न पड़े ोध म लेकर शेरशाह तलवार!
समझायेगा कौन उसे फर? अरी! सँभल नादान!
इस घूँघट पर आज कह मच जाए न फर संहार!

जरा गरा ले घूँघट अपना,


और याद कर वह सुख-सपना,
नूरजहाँ क ेम-व्यथा म
द वाने सलीम का तपना;

गुमबद
् पर े मका कपोती
के पीछे कपोत का उड़ना,
जीवन क आनन्द-घड़ी म
जन्नत क प रय का जुड़ना।

ज़रा याद कर, यह नहाती


थी मेरी मुमताज़ अतर म।
तुझ-सी तो सुन्दरी खड़ी
रहती थी पैमाना ले कर म।

सुख, सौरभ, आनन्द बछे थे


गली, कूच, वन, वी थ, नगर म;
कहती जसे इन् पुर तू वह
तो था ाप्त यहाँ घर-घर म।

आज आँख तेरी बजली से क ध-कौध जाती है!


हम याद उस स्नेह-द प क बार-बार आती है।

खल फूल, पर, मोह न सकती


हम अप र चत छटा नराली;
इन आँख म घूम रही
अब भी मुरझे गुलाब क लाली।

उठा कसक दल म लहराता है यमुना का पानी,


पलक जोग रह बीते वैभव क एक नशानी,
दल्ली! तेरे प-रंग पर कैसे दय फँसेगा?
बाट जोहती खँडहर म हम कंगाल क रानी।
व्य

(1)

तुम एक अनल-कण हो केवल;


अनुकूल हवा ले कन, पाकर,
छप्पर तक जा सकते उड़कर,
जीवन क ज्यो त जगा सकते,
अम्बर म आग लगा सकते,
ज्वाला चंड फैला सकती है छोट -सी चनगारी भी।
(2)

तुम फूल नह हो, शूल सही;


गुलच उपवन म आए जो,
फूल पर हाथ लगाए जो,
पैर म चुभ त कर सकते,
उँगली म उसक गड़ सकते,
तलवार बजत जहाँ, वहाँ आती काँट क बारी भी।
(3)

तुम कुछ भी नह , एक हमकण;


माना, तुम कुछ भी नह , मगर,
चू सकते कसी सुमन-उर पर,
हलका-सा कम्पन ला सकते,
मटकर तो दद जगा सकते,
मरते-मरते कुछ कर जाती नन्ह शबनम बेचारी भी।
परा जत क पूजा

वजया का पूजन करते, जनको जय का सामान नह ,


गरज रहा आकाश, पराजय का प तत को ध्यान नह ।

क्या होगा भगवान्, हाल म म पड़ी जवानी का?


इस कशोर खलती ज्वाला का इस चढ़ते-से पानी का।
इस गोरा-बादल क माँ का, इस जौहर क रानी का?
इन हल्द घाट वाल का, इस कबला-गुमानी का?

क खोद फर से फूँकेगी क्या मुद म जान नह ?


ग! बोल, उठे गा रेत से क्या राजस्थान नह ?
कसी भाँ त छु टती न छु ड़ाए, स दयाँ वगत अनेक ई,
लगी पुरानी जंग दे व! तलवार-म्यान मल एक ई।

युग-सं चत इस त मर-पुंज को भेद, कौन बढ़ पाएगा?


दे गा कौन धर? इस तम म द पक कौन जलाएगा?
जीवन का यह शाप! सेवते हम शैल के मूल रह;
बफ गर रोज, बेबस खलते-मुरझाते फूल रह।

बँधी धार, अव भंजन, वन-दे वी ीजीन ई;


एक-एक कर बुझ शखाएँ वसुधा वीर- वहीन ई?
दे व! वफल क्य नयन हाय, बछु ड़े वाहन को हेर रहे?
न थे आज मृगराज, ववश बन्द बन कोल् पेर रहे।

जला करे साकेत, दशानन क लंका आबाद रहे,


वजय र जा बसे, इन्ह ले कन, वजया क याद रहे।
1935 ई.
हमालय

मेरे नगप त! मेरे वशाल!


साकार, दव्य, गौरव वराट् !

पौ ष के पुंजीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हम- करीट!
मेरे भारत के दव्य भाल!
मेरे नगप त! मेरे वशाल!

युग-युग अजेय, नबन्ध, मुक्त,


युग-युग गव न्नत, नत महान;
नस्सीम व्योम म तान रहा
युग से कस म हमा का वतान?

कैसी अखंड यह चर-समा ध?


य तवर! कैसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्य म खोज रहा?
कस ज टल समस्या का नदान?

उलझन का कैसा वषम जाल!


मेरे नगप त! मेरे वशाल!

ओ मौन तपस्या-लीन यती!


पल भर को तो कर गुन्मेष,
रे! ज्वाला से दग्ध वकल,
है तड़प रहा पद पर स्वदे श!

सुख- सन्धु, पंचनद, ह्मपु ,


गंगा-यमुना क अ मय-धार;
जस पुण्यभू म क ओर बही
तेरी वग लत क णा उदार।

जसके ार पर खड़ा ान्त


सीमाप त! तू ने क पुकार—
‘पद-द लत इसे करना पीछे
पहले ले मेरा सर उतार।’

उस पुण्यभू म पर आज तपी
रे! आन पड़ा संकट कराल;
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे,
डस रहे चतु दक् व वध व्याल।
मेरे नगप त! मेरे वशाल।

कतनी म णयाँ लुट ग मटा


कतना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर
वीरान आ यारा स्वदे श।

कतनी पदा के बाल खुल,े


कतनी क लय का अन्त आ?
कह दय खोल चत्तौर यहाँ
कतने दन ज्वाल-वसन्त आ?

पूछे, सकताकण से हमप त,


तेरा वह राजस्थान कहाँ?
वन-वन स्वतन् ता-द प लए
फरने वाला बलवान कहाँ?

तू पूछ, अवध से राम कहाँ?


वृन्दा! बोलो, घनश्याम कहाँ?
ओ मगध! कहाँ मेरे अशोक?
वह चन् गुप्त बलधाम कहाँ?

पैर पर ही है पड़ी ई
म थला भखा रणी सुकुमारी,
तू पूछ, कहाँ इसने खो
अपनी अनन्त न धयाँ सारी?
री क पलवस्तु! कह बु दे व
के वे मंगल-उपदे श कहाँ?
तब्बत, इरान, जापान, चीन
तक गए ए स दे श कहाँ?

वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ; लच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गंडक ! बता,
व ाप त क व के गान कहाँ?

तू त ण दे श से पूछ, अरे!
गूँजा यह कैसा ध्वंस-राग?
अम्बु ध-अन्तस्तल-बीच छपी
यह सुलग रही है कौन आग?

ाची के ांगण-बीच दे ख,
जल रहा स्वण-युग-अ न ज्वाल,
तू सहनाद कर जाग तपी!
मेरे नगप त! मेरे वशाल!

रे! रोक यु ध र को न यहाँ,


जाने दे उनको स्वग धीर!
पर, फरा हम गांडीव-गदा,
लौटा दे अजुन-भीम वीर।

कह दे शंकर से आज कर,
वे लय-नृत्य फर एक बार;
सारे भारत म गूँज उठे ,
‘हर-हर-बम’ का फर महोच्चार।

ले अँगड़ाई उठ, हले धरा,


कर नज वराट् स्वर म ननाद,
तू शैल-राट् ंकार भरे,
फट जाय कुहा, भागे माद।

तू मौन त्याग, कर सहनाद,


रे तपी! आज तप का न काल,
नवयुग-शंख-ध्व न जगा रही,
तू जाग-जाग मेरे वशाल!
आश्वासन

रो मत, अ ु-घटा उमड़ी, उमड़े, रोना है पाप यहाँ,


जंजीरे मत गढ़े , अ ु होगा तेरा अ भशाप यहाँ!

सेतु यहाँ कच्चे धागे का, सभँल-सभँल चलना होगा;


इस नगरी क चाल यही, साँचे म खुद ढलना होगा।

उनका नाम रहा जौहरवाल म, जो हँस आप जले;


हाँ, सर पर ह वही हमालय पर चढ़ जो चुपचाप गले।

हलादो को जला सके जो, जग म ऐसा ताप नह ;


अम्बरीष के लए यहाँ वासा का अ भशाप नह ।

क लयो पर जो पले, कु लश क उनके लए कहानी है;


नीलकंठ क नद , सन्धु, दोनो का मीठा पानी है।

बनकर शखा चढ़े लंका पर, उनके हत रोना कैसा?


द वानो के लए भला जग का जा -टोना कैसा?

जो अशेष जीवन दे ता है, उसे मरण-सन्ताप नह ;


जलकर ज्वाला आ, उसे लगता ज्वाला का ताप नह ।

अल्हड़ वह , ठे लकर धाराओ को जो तकूल चले,


तूफानो से लड़े सदा, झ के-झ के पर फूल चले।

य तो अंचल पकड़ धार का सन्धू सभी पा जाते ह,


स्वग मलेगा उसे, खोजता जो गंगा के मूल चले।

ज्वाला म हँसनेवाल का छटका पुणय- ् ताप यहाँ;


रो मत, अ ु-घटा उमड़ी, उमड़े, रोना है पाप यहाँ।
फूल के पूवजन्म

य क पृथुल जाँघ पर लेट करती थ जो रँगर लयाँ,


उनक क पर खलती ह नन्ह जूही क क लयाँ।

पी न सका कोई जनके नव अधर क मधुमय प्याली,


वे भ र से ठ झूमत बनकर चम्पा क डाली।

त नक चूमने से शरमीली सहर उठ जो सुकुमारी;


सघन तृण म छप, उग आई वह बन छु ई-मुई प्यारी।

जनक अपमा नत सुन्दरता चुभती रही सदा बन शूल,


वे जगती से र झूमती सूने म बनकर वन-फूल।

अपने ब लदान से जग म जनने ज्यो त जगाई है,


उन पगल के शो णत क लाली गुलाब म छाई है।

अबुध वत्स जो मरे हाय, जनपर हम अ ु बहाते ह,


वे ह मौन मुकुल अलबेले खलने को अकुलाते ह!
सपाही

व नता क ममता न ई, सुत का न मुझे कुछ छोह आ।


ख्या त, सुयश, सम्मान, वभव का त्य ही कभी न मोह आ।

जीवन क क्या; चहल-पहल है, इसे न मने प हचाना;


सेनाप त के एक इशारे पर मटना केवल जाना।

म स क तो क्या बात? गली क ठकरी मुझे भुलाती है,


जीते-जी लड़ म ँ , मरे पर याद कसे फर आती है?

इ तहास म अमर र ,ँ है ऐसी मृतयु


् नह मेरी?
वश्व छोड़ जब चला, भुलाते लगती फर कसको दे री?

जग भूल,े पर मुझे एक, बस, सेवा-धम नभाना है,


जसक है यह दे ह, उसी म इसे मला मट जाना है।

वजय- वपट को वकच दे ख जस दन तुम दय जुड़ाओगे;


फूल म शो णत क लाली कभी समझ क्या पाओगे?

वह लाली हर ात तज पर आकर तुमह ् जगाएगा,


सायंकाल नमन कर माँ को त मर-बीच खो जाएगी।

दे व करगे वनय, कन्तु, क्या स्वग-बीच क पाऊँगा?


कसी रात चुपके उल्का बन कूद भू म पर आऊँगा।

तुम न जान पाओगे, पर, म रोज खलूँगा इधर-उधर,


कभी फूल क पंखु ड़याँ बन, कभी एक प ी बनकर!

अपनी राह चली जाएगी वीर क सेना रण म,


रह जाऊँगा मौन वृन्त पर, सोच, न जान, क्या मन म?
तप्त वेग धमनी का बनकर कभी संग म हो लूँगा;
कभी चरण-तल क मट᳭ ट म छपकर जय-जय बोलूँगा।

अगले युग क अनी क पध्वज जस दन लय मचाएगी,


म गरजूँगा ध्वजा- ृंग पर, वह पहचान न पाएगी।

‘न्योछावर म एक फूल’, पर, जग क ऐसी री त कहाँ?


एक पंक्त मेरी सु ध म भी, सस्ते इतने गीत कहाँ?

क वते! दे खो, वजन व पन म वन्य कुसुम का मुरझाना;


व्यथ न होगा इस समा ध पर दो आँसू-कण बरसाना।
कल्पना क दशा

( करणागम)
वष पहले, एक दवस उदयाचल
लाल आ जब ऊषा के आने से,
मुझे लगा, मन म जो लो हतवसना
आती थी, सम्मुख साकार वही है।

कसी र म ने व शख-वेग से आकर


खोल दए अन्त:कपाट ाण के,
ऊषा क अ णमा दौड़ती आई
मुझम भी, सर, शैल भू म पर जैस।े

पूरब क उद᳭भा सत छन्न घटाएँ


झलमल करने लग कनक-झालर-सी;
नयन मूँद दे खा, ऐसे ही मुझम
भाव के घन-खंड अनेक रँगे थे।

करण के भीतर कोई छप- छपकर


जगा रहा था मुझे गीत गाने को;
मुझे लगा, उस दन ऊषा आई थी
बढ़ा को ट कर मुझको उकसाने को।
धमनी मे सन-सन-सा कुछ चलता था,
गरम हो रही थी लो क धारा।

( व म)
ब त बार तब से मन के कानन म
आई ह खेलने स्वग क प रयाँ,
अपनी ही वासना चाँदनी बन कर
ब त बार आई है मुझे रझाने।

आह! वासना क वे आकुलताएँ,


आना उनका कभी चाँदनी बनकर,
कभी कल्पना क डाली म खलना
सुमन-वृन्त पर कसी परी के मुख-सा।

ध्यान-मग्न जन के आनन्द-गगन म
वधु-सा होना उ दत केश छलकाए,
खड् ग-द त म रणा ढ़ सै नक को
दखलाना मृ वभा या के मुख क !

कभी समर म हो अ श्य शूर के


ु त-पुट पर चुम्बन का नाद बजाना,
कभी त म ा म वला सनी-सी आ
क्लान्त शरा म जृम्भा फैलाना।

आना गीत म मादकता बनकर


ु त-पथ के आलस्य ाण म भरते,
जग म जीवन को य छोड़ बहाना,
मन्द-वा हनी स र म एक कुसुम ज्य ,
मन्द पवन म अथवा सुर भ सुमन क ।

(य ोन्मुखी)
सन-सन-सा बज रहा रक्त म अब भी,
तप्त अभी भी है लो क धारा,
कन्तु, चरण ढ़ जधर आज ह मेरे
चुम्बन क आवाज नह सुनता ँ।

रंग क नया जो एक मली थी,


मट᳭ ट को द चढ़ा भट वह मने!
य ार ण क कलम आज है कर म
सु णीत स ा न जलाने वाली।
म क्या जानूँ, य कौन फल दे गा?
ह रत शस्य या वृषभ पुष्ट बलशाली।
सुनता ,ँ जब याग पूण होता है,
दोन ही मलते ह यजमान को।

महाश्चय! सन्द त भूल कर अपनी


सह भीत हो छपा घनान्ध गुहा म;
जी करता है, इस कदय के मुख पर
मल ँ लेकर मुट᳭ठ भर चनगारी।

(महामानव क खोज)
ऊब गया ँ दे ख चतु दक् अपने
अजा-धम का ग्ला न- वहीन वतन,
युग-सत्तम सम्बु पुन: कहता है,
ताप कलुष है, शखा बुझा दो मन क ।

म मनुषय
् ँ, दहन धम है मेरा;
मृ साथ अ नस्फु लग है, मुझम;
तुम कहते हो ‘ शखा बुझा दो’, ले कन,
आग बुझी, तो पौ ष शेष रहेगा?

शास्ता का यह वचन, “ ोह को छोड़ो,


मानव हो, तुम उठो मल से ऊपर,
महामनोबल, शक्त अजेय तुम्हारी,
दानव को जीतो तुम दे व-गुण से।”

एक हाथ क भन्न-श रचनाएँ,


सुर होते कृशकाय, करणवपु केवल;
नर के होत अ थ, मांस, मज्जाएँ,
और आग-सी भी कुछ चीज ल म।

गरल – ोह – तशोधमयी ज्वालाएँ


भरी हमम, पर, हम मानव ह,
नरता, मानवता, पौ ष से बढ़कर
सुर म क्या गुण ेष्ठ, जन्ह हम सीख?
नर-जीवन सन्द प्त व वध राग से,
पल-पल नव संघष, श्न नत नूतन,
सा ी है इ तहास, कन्तु संगर म
स्वग हारता ही आया पृथ्वी से?

तृणाहार कर सह भले ही फूले


परमोज्ज्वल दे वत्व- ाप् त के मद म;
पर, ह के बीच भोगना होगा
नख-रद के य का अ भशाप उसे ही।

जहाँ व है धरा, कु टल ग त जल क ,
जहाँ पंथ ऋजु, जल सीधा बहता है,
मानव का जीवन वाह नझर का
धा- हो तजता नह ग त को।

सम्मुख ह दो पंथ मृ मय नर के,


ज्व लत- ाण योगी हो या क वजेता;
वृथा जन्म, बैठ न अंक म जसके
वबुध-भू म या वीर-वधू वसुधा ही।

अन्वेषी म उस चंड मानव का


चलता जो बाँह पर स्वग उठाए,
जसक साँस पर नाचता भंजन,
इं गत पर इ तहास बदल जाते ह।

खोज रहा, पर कह नह मलता है


वह, जो होगा घनीभूत ज्वाला-सा,
आहट-सी केवल उसक पाता ँ
कभी-कभी अपने ज्वलन्त छन्द म।

ज्यो तमय अद᳭भुत मनुषय


् वह, जसके
स्मरणमा से मनस्तेज बढ़ता है,
मानस क कुत्सा नहीन जल जाती,
लहरा उठता लोल सन्धु जीवन का।

वह मनुषय् जो रणा ढ़ होने पर


स्नु धम का पृष्ठ नह खोलेगा;
धा और व्यामोह घेरकर जसको
मृषा तक से बाँध नह पाएँग!े

पोतेगा इ तहास नह पौ ष का
आँख क क चड़ से जो बलशाली,
क्लीव-धम का च नह साजेगा
मा-दया के सुघर बेल-बूट से।

म उसका क व, जो क भुज ाणी को,


मानेगा समक चतुभुज सुर के,
स्वग और पृथ्वी दोन नत होकर
प र ाण-आ शष जससे माँगगे।

मानवेन् वह अ त धरणी का,


अमृत-कलशवाही, धम्मध्वजधारी,
व - ाण जसके अन्तर म क णा
छपी ई होगी ग र म नझर-सी।

शैल- शखर-सा ांशु, गम्भीर जल ध-सा,


दनम ण-सा सम , वनीत वनय-सा,
झंझा-सा बलवान, काल-सा ोधी,
धीर अचल-सा, ग तशील नझर-सा।

जस युग म, जस दे श, जा त या कुल म,
वतमान म या भ वष्य-गहव ᳭ र म,
पु ष व मी हो वह जहाँ कह भी,
है नमस्य मेरा वह शीश-मुकुट-सा।
तकद र का बँटवारा

है बँधी तकद र जलती डार से,


आ शयाँ को छोड़ उड़ जाऊँ कहाँ?
वेदना मन क सही जाती नह ,
यह जहर ले कन, उगल आऊँ कहाँ?

पा पनी कह जीभ काट जाएगी,


आँख-दे खी बात जो मुँह से क ,ँ
ह ड᳭ डयाँ जल जाएँगी, मन मारकर
जीभ थामे मौन भी कैसे र ँ?

तानकर भ ह, कड़कना छोड़कर


मेघ बफ -सा पघल सकता नह ,
शौक हो जनको, जल वे ेम से,
म कभी चुपचाप जल सकता नह ।

बाँसुरी जनमी तुम्हारी गोद म


दे श माँ, रोने- लाने के लए,
दौड़कर आगे समय क माँग पर
जीभ-क्या? गरदन कटाने के लए।

जन्दगी दौड़ी नई संसार म,


खून म सबके रवानी और है;
और ह ले कन, हमारी कस्मत,
आज भी अपनी कहानी और है।

हाथ क जसक कड़ी टू ट नह ,


पाँव म जसके अभी जंजीर है;
बाँटने को हाय! तौली जा रही,
बेहया उस कौम क तकद र है!
बेबसी म काँपकर रोया दय,
शाप-सी आह गरम आ मुझे;
माफ करना, जन्म लेकर गोद म,
हन्द क मट᳭ ट ! शरम आई मुझे!

गुद ड़य म एक मुट᳭ठ ह ड᳭ डयाँ,


मौत-सी गम क मलीन लक र-सी।
कौम क तकद र हैरत से भरी,
दे खती टु क-टु क खड़ी तसवीर-सी।

चीथड़ पर एक क आँख लग ,
एक कहता है क म लूँगा जबाँ,
एक ही जद है क पीने दो मुझे
खून जो इसक रग म है रवाँ!

खून! खूँ क प्यास, तो जाकर पयो


जा लमो, अपने दय का खून ही;
मर चुक तकद र हन् स्तान क ,
शेष इसम एक बूँद ल नह ।

मु लमो, तुम चाहते जसक जबाँ,


उस गरी बन ने जबाँ खोली कभी?
हन् ओ, बोलो, तुमहारी
् याद म,
कौम क तकद र क्या बोली कभी?

छे ड़ता आया जमाना, पर कभी


कौम ने मुँह खोलना सीखा नह ।
जल गई नया हमारे सामने,
कन्तु, हमने बोलना सीखा नह ।

ताब थी कसक क बाँधे कौम को


एक होकर हम कह मुँह खोलते?
बोलना आता कह तकद र को,
हन्दवाले आसमाँ पर बोलते!

खूँ बहाया जा रहा इनसान का


स गवाले जानवर के प्यार म!
कौम क तकद र फोड़ी जा रही
म जद क ट क द वार म।

सूझता आगे न कोई पंथ है,


है घनी गफलत-घटा छाई ई,
नौजवानो कौम के तुम हो कहाँ?
नाश क दे खो घड़ी आई ई।*

* सन् 1937 या 38 ई. म कां ेस और मु लम लीग के बीच समझौता वाता के वफल होने पर


वपथगा

झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।
मेरी पायल झनकार रही तलवार क झनकार म,
अपनी आगमनी बजा रही म आप ु ंकार म;
म अहंकार-सी कड़क ठठा हँसती व ुत् क धार म,
बन काल- ताशन खेल रही पगली म फूट पहाड़ म;
अँगड़ाई म भूचाल, साँस म लंका के उनचास पवन।
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

मेरे मस्तक के छ -मुकुट वसु-काल-स पणी के शत फण;


मुझ चर-कुमा रका के ललाट म नत्य नवीन धर-चन्दन;
आँजा करती ँ चता-धूम का ग म अन्ध त मर-अंजन,
संहार-लपट का चीर पहन नाचा करती म छू म-छु नन;
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

पायल क पहली झनक, सृ म कोलाहल छा जाता है;


पड़ते जस ओर चरण मेरे, भूगोल उधर दब जाता है;
लहराती लपट दशा म खलभल खगोल अकुलाता है;
परकटे वहग-सा नरवलम्ब गर स्वग-नरक जल जाता है;
गरते दहाड़ कर शैल- ृंग म जधर फेरती ँ चतवन।
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

रस्सी से कसे जवान पाप- तकार न जब कर पाते ह,


बहन क लुटती लाज दे ख कर काँप-काँप रह जाते ह।
शस् के भय से जब नरस् आँसू भी नह बहाते ह,
पी अपमान के गरल-घूँट शा सत जब होठ चबाते ह,
जस दन रह जाता ोध मौन, मेरा वह भीषण जन्म-लगन।
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

पौ ष को बेड़ी डाल पाप का अभय रास जब होता है,


ले जगद श्वर का नाम खड् ग कोई दल्लीश्वर धोता है।
धन के वलास का बोझ खी, बल, द र जब ढोता है,
नया को भूख मार भूप जब सुखी महल म सोता है,
सहती सब कुछ मन मार जा, कसमस करता मेरा यौवन।
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

श्वान को मलते ध-वस् , भूखे बालक अकुलाते ह,


माँ क हड᳭ डी से चपक, ठठु र जाड़ क रात बताते ह,
युवती के लज्जा-वसन बेच जब व्याज चुकाए जाते ह,
मा लक जब तेल-फुलेल पर पानी-सा व्य बहाते ह;
पापी महल का अहंकार दे ता मुझको तब आमन् ण।
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

डरपोक कूमत जुल्म से लोहा जब नह बजाती है,


हम्मतवाले कुछ कहते ह, तब जीभ तराशी जाती है।
उलट चाल ये दे ख दे श म हैरत-सी छा जाती है,
भट᳭ ठ क ओद आँच छपी तब और अ धक धुँधुँआती है;
सहसा चग्घार खड़ी होती गा म करने दस्यु-दलन।
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

चढ़कर जनून-सी चलती ँ मृतयु ् ंजय वीर कुमार पर;


आतंक फैल जाता कानूनी पालमट, सरकार पर;
‘नीरो’ के जाते ाण सूख मेरे कठोर ंकार पर;
कर अट᳭ टहास इठलाती ँ जार के हाहाकार पर;
झंझा-सी पकड़ झकोर हला दे ती दम्भी के सहासन।
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

म नस्तेज का तेज, युग के मूक-मौन क बानी ँ;


दल-जले शा सत के दल क म जलती ई कहानी ;ँ
स दय क जब्ती तोड़ जगी, म उस ज्वाला क रानी ँ;
म जहर उगलती फरती ँ; म वष से भरी जवानी ँ;
भूखी बा घन क घात ू र, आहत भुजं गनी का दशन।
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

जब ई कूमत आँख पर, जनमी चुपके म आह म,


कोड़ क खाकर मार पली पी ़डत क दबी कराह म;
सोने-सी नखर जवान ई तप कड़े दमन के दाह म;
ले जान हथेली पर नकली म मर- मटने क चाह म।
मेरे चरण म खोज रहे भय-क पत तीन लोक शरण।
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

अ स क नोक से मुकुट जीत अपने सर उसे सजाती ँ;


ईश्वर का आसन छ न, कूद म आप खड़ी हो जाती ;ँ
थर-थर करते कानून-न्याय, इं गत पर जन्ह नचाती ँ।
भयभीत पातक धम से अपने पग म धुलवाती ँ।
सर झुका घमंडी सरकार करत मेरा अचन-पूजन।
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

मुझ वपथगा मनी को न ात, कस रोज कधर से आऊँगी,


मट᳭ ट से कस दन जाग ु अम्बर म आग लगाऊँगी।
आँख अपनी कर बन्द दे श म जब भूकम्प मचाऊँगी,
कसका टू टेगा ृंग, न जान, कसका महल गराऊँगी।
नबन्ध, ू र, नम ह सदा मेरा कराल नतन-गजन।
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

अब क अगस्त क बारी है, पाप के पारावार! सजग;


बैठे ‘ वसू वयस’ के मख पर भोले, अबोध संसार! सजग।
रेश का रक्त कृशानु आ, ओ जुलमी ् क तलवार! सजग।
नया के ‘नीरो’, सावधान! नया के पापी ‘जार’! सजग।
जान, कस दन फुंकार उठ पद-द लत काल सप के फन।
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।
सासाराम, सन् 1938 ई.
भ वष्य क आहट

कल्पने, भावी दय से आज क्य


फूटती खरतर भयंकर रा गनी?
फूँकता ृंगी भयानक आ रहा
कौन यह ख से जटा म ना गनी?

ठती वसुधा सव क पीर से,


स्वेदमय ाची- दशानन लाल है,
व्योम का अन्तर वकल नघ ष से,
कस महार व के उदय का काल है?

पूव क छाती फट कस रोर से?


का लमा भागी अचानक रात क ।
खोलने हम ृंग पर चढ़कर लग
र मयाँ क्या ए शया के ात क ?

जाग, ती -मरी च मेरी कल्पने!


चीरकर तो दे ख भावी का दय,
कस महा-युग-दे व क वपुला अनी
आ रही तम-लोक म बनकर उदय?

चंड ज्यो त-भी त से क पता नशा घनी;


अजेय तेज क चली व ब्ध सन्धु-सी अनी;
अनन्त-भा करीट म लय शखा सुहा गनी,
कशोर भानु ने म, ललाट-मध्य ना गनी।

अनन्तर म कल्पने! व प को जहार ले;


वनाश-द प साज सृ -आरती उतार ले!

वषाण के ननाद से दशा सभीत मौन री।


वशाल पूव व्योम म वभा सन्न कौन री?

अखंड पाद-चाप ने सचेत शैल को कया;


चघार स हनी जगी, जगी वराट ए शया।

चूमता बढ़-बढ़ हमालय व्योम को,


हन्दसागर है नना दत रोर से;
स धु से ‘दजला’ मली ‘भागीरथी’
फूलती पा ेम ‘येलो’-ओर से।

कस अनागत लग्न क म हमा अरी,


क ण पुण्य- काश नव उत्कष का;
दे रहा सन्दे श पी ड़त वश्व को
ृंग चढ़ जय-शंख भारतवष का।

आज सहासन हला वश्वेश का,


न् भी बजती तुमुल आकाश म;
सन्धु से शैलेश तक कम्पन आ,
भू म रोमां चत ई उल्लास म।

धूल से उठ वीर उगते जा रहे


थार के सन्तप्त उर म फूल-से;
उठ रह गौरव-ध्वजाएँ मौय क ,
ज्यो त फूट बो ध-त के मूल से।

सू तका पावन तपोवन-सुन्दरी


व का दे ती सुधोपम ीर है;
चर-तृषाकुल वश्व- शशु पीता समु ;
जा रही मटती युग क पीर है।

चीख सुन :खात्त पी ड़त वश्व क


हम्य का अन्तर अतीव उदास है;
काट कुं चत केश नज अ स से स्वयं
ले रहा ता ण्य फर संन्यास है।

शैल ृंग पर गुहा म, सन्धु म,


कन्दरा, बीहड़ वन को झेलते;
खोजते कल्याण व्याकुल वश्व का
ाण पर योगी त ण नत खेलते।

आज क पत मूल क्य संसार का?


अथ का दानव भयाकुल मौन है;
झ पड़ी हँस च कती, वह आ रहा
साम्य क वंशी बजाता कौन है?

कौन तू, बोले वधायक, कौन है?


हल रहा भू का दय पद-चाप से,
द नता का रक्त पी जो-जो बढ़े ,
आज पल-पल काँपते वे पाप से।

शंख ले ता ण्य ग र चढ़ फूँकता—


‘आ भंजन! ध्वस्त हो वन क जरा;
अट᳭ टहासी! आ, वकट युगदे व! आ,
जोहती रण-क्लान्त पंथ वसुन्धरा।
साधना और धा

थी रात जब अलसा रही भू पर वसन्ती चाँदनी,


पुरवा चली जब आ रही थी र न ा-लोक से।

वन के कसी सुनसान म नज हाथ म मुरली लए,


बैठा पु लन पर तब कह क व साधना म लीन था।

धुल चाँदनी से थी बछ वा तट के स्वप्न-सी,


जब-तब म क डा लयाँ हलत दशा के मौन म।

थी ऊँघती सुषमा कली पर, कसलय क गोद म,


सारा व पन था रम्य दव के ीष्म-शयनागार-सा।

सहसा महावाणी ई अवतीण भू पर स्वग से,


क व के सम खड़ी ई अपने अनावृत प म।

खुल-से गये क व-ने , वंशी गुनगुनाने-सी लगी;


क पत आ जल ाण का अनुभू त क हलकोर से।

लहरा उठ नव चेतना ग र से तृण के मूल तक,


ललचा उठे सब गीत म अमरत्व पाने के लए।

“इन सम्पुट म कौन छ व, जसको नह हम खोलत ?


गाओ उसे भर गीत म“—य बाल-क लय ने कहा।

“ जसके लए घर से चली क व! धूल वन-वन छानती,


वह ाणवल्लभ है कहाँ?” कह नझरी रोने लगी।

ग र ने दरी-मुख से कहा—“ ष्टा! कहो, मेरी व्यथा,


वह कौन वस्मय है, जसे म दे खकर नवाक् ँ?”
बोले नखत—“जलते वफल हम कस नठु र क राह म?
हर ात बनकर ओस चू पड़ते पघल कस पीर से?”

“ शव-कंठ से नीचे न जा पाया हलाहल सन्धु का;


मने पया रस घूँट भर संसार का, औ’ जल गया।

मेरे दय-पीयूष-घट (शु ांश)ु म षण लगा।“


नभ ने कहा—“बोलो कवे! कतना गरल है वश्व म?”

तब लड़खड़ाती-सी हवा पर र लोकारण्य से


आई तध्व न गूँजती-सी ीण हाहाकार क ।

“नीचे बछ पृथ्वी, तना ऊपर वयत भगवान् का,


पर, इस भरे जग म गरीब का हतू कोई नह ।

चढ़ती कसी क बूट पर पा लश कसी के खून क ,


जी वत मराल क चता है स यता क गोद म।“
जस प क झाँक लए क लयाँ अभी तक बन्द ह,
ह ढूँ ढ़ती फरत जसे न दयाँ वकल संसार म।

जसके वराट् रहस्य को लख शैल युग से मौन ह,


नद ष हंस क पुरी जलती उसी के सामने।

शत कंठ ले वंशी ती ा कर रही आदे श क ;


व मत, च कत है, कन्तु क व नवाक् तब से शैल-सा।
क वता का हठ

“ बखरी लट, आँसू छलके, यह स मत मुख क्य द न आ?


क वते! कह, क्य सुषमा का वश्व आज ी-हीन आ?

स या उतर पड़ी उपवन म? दन-आलोक मलीन आ?


कस छाया म छपी वभा? ृंगार कहाँ उड᳭ डीन आ?

इस अ वकच यौवन पर प स, बता, श्वेत साड़ी कैसी?


आज असंग चता पर सोने क यह तैयारी कैसी?

आँख म जलधार, हच कय -पर- हचक जारी कैसी?


अरी, बोल, तुझपर वप आई यह सुकुमारी! कैसी?”

य कहते-कहते म रोया, ई मेरी वाणी,


ढार मार रो पड़ी लपट कर मुझसे क वता कल्याणी-

“मेरे क व! मेरे सुहाग! मेरे राजा! कस ओर चले?


चार दन का नेह लगा रे छली! आज क्य छोड़ चले?

“वन-फूल से घरी कुट क्य आज नह मन को भाती?


राज-वा टका दे ख तुम्हारी हाय, क्य ललचाती?

“क णा क म सुना बना पतझर कैसे जी पाऊँगी?


क व! वसन्त मत बुला, हाय, म वभा-बीच खो जाऊँगी।

“खँडहर क म द न भखा रन, अट᳭ टा लका नह लूँगी,


है सौगन्ध, तुमहारे
् सर पर रखने मुकुट नह ँ गी।

“तुम जाओगे उधर, इधर म रो-रो दवस बताऊँगी;


खँडहर म नीरव नशीथ म रोऊँगी, चल्लाऊँगी।
“व्योम-कुंज क सखी कल्पना उतर सकेगी धूल म?
नर गस के ेमी क व ढूँ ढ़गे मुझको वन-फूल म?

“हँस-हँस कलम-न क से चुन रजकण से कौन उठाएगा?


ठु कराई क णा का कण ँ, दल म कौन बठायेगा?

“जीवन-रस पीने को दे गा, यहाँ कौन ऐसा दानी?


उर क दव्य व्यथा कह अपनाएगी नया द वानी?

“गौरव के भ नावशेष पर जब म अ ु बहाऊँगी?


कौन अ ु प छे गा, पल भर कहाँ शा त म पाऊँगी?

“ कसके साथ कहो खेलूँगी ब क ह रयाली म?


कौन साथ मलकर रोएगा नालन्दा-वशाली म?

“कुसुम पहन म लए वपंची घूमूँगी यमुना-तीरे,


कन्तु, कौन अंचल भर दे गा चुन-चुन धूल-भरे हीरे?

“तेरे कंठ-बीच क व! म बनकर युग-धम पुकार चुक ,


कृ त-प ले रक्त-शो षणी संस्कृ त को ललकार चुक ।

“वार चुक युग पर तन-मन-धन; अपना ल ्य वचार चुक ,


कवे! तुमहारे
् महाय का साकल कर तैयार चुक ।

“उठा अमर तू लका, स्वग का भू पर च बनाऊँगी,


अमापूण जग के आँगन म आज च का लाऊँगी,

“ ला- ला आँसू म धो जगती क मैल बहाऊँगी,


अपनी दव्य श का प रचय भूतल को बतलाऊँगी!

“तू सन्दे श वहन कर मेरा, महागान म गाऊँगी,


एक वश्व के लए लाख स्वग को म ललचाऊँगी!

“ढोऊँगी म सुयश तुम्हारा, बन नवीन युग क वाणी,


ग्ला न न कर, सहचरी तुमहारी
् ँ म भाव क रानी।“

सन् 1934 ई.
प रचय

स लल-कण ँ क पारावार ँ म?
स्वयं छाया, स्वयं आभार ँ म।
बँधा ँ, स्वप्न है, लघु वृत्त म ,ँ
नह तो व्योम का वस्तार ँ म।

समाना चाहती जो बीन-उर म,


वकल वह शून्य क झंकार ँ म।
भटकता, खोजता ँ ज्यो त तम म,
सुना है, ज्यो त का आगार ँ म।

जसे न श खोजती तारे जलाकर,


उसी का कर रहा अ भसार ँ म।
जनम कर मर चुका सौ बार ले कन,
अगम का पा सका क्या पार ँ म?

कली क पंखड़ी पर ओस-कण म


रँगीले स्वप्न का संसार ँ म;
मुझे क्या, आज ही या कल म ँ म?
सुमन ,ँ एक लघु उपहार ँ म।

जलद ,ँ दद ँ, दल क कसक ँ,
कसी का हाय, खोया प्यार ँ म।
गरा ँ भू म पर नन्दन- व पन से,
अमर-त का सुमन सुकुमार ँ म।

मधुर जीवन आ कुछ ाण! जब से


लगा ढोने व्यथा का भार ँ म,
दन ही एक पथ य का, इसी से,
परोता आँसु का हार ँ म।
मुझे क्या गव हो अपनी वभा का?
चता का धू ल-कण ,ँ ार ँ म;
पता मेरा तुमह
् मट᳭ ट कहेगी,
समा जसम चुका सौ बार ँ म।

न दे खे वश्व पर मुझको घृणा से,


मनुज ँ सृ का ृंगार ँ म;
पुजा रन! धू ल से मुझको उठा लो,
तुम्हारे दे वता का हार ँ म।

सुनूँ क्या सन्धु! म गजन तुमहारा?



स्वयं युग-धम का ंकार ँ म;
क ठन नघ ष ँ भीषण अश न का,
लय-गांडीव क टं कार ँ म।

दबी-सी आग ँ भीषण ुधा क ,


द लत का मौन हाहाकार ँ म;
सजग संसार, तू नज को सँभाले,
लय का ुबध् पारावार ँ म।

बँधा तूफान ँ, चलना मना है;


बँधी उद᳭दाम नझर-धार ँ म;
क ँ क्या, कौन ँ? क्या आग मेरी?
बँधी है लेखनी, लाचार ँ म।

सन् 1935 ई.

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