You are on page 1of 81

बोिध काशन

सी-46, सुदशनपुरा इंडि यल ए रया ए सटशन


नाला रोड, 22 गोदाम, जयपुर-302006
फोन : 0141-2213700, 9829018087
ई-मे ल : bodhiprakashan@gmail.com

कॉपीराइट : कृ णा कुमारी
थम सं करण : जनवरी, 2019
ISBN : 978-93-89177-01-5
क यूटर ािफ स : बनवारी कुमावत ‘राज’
आवरण संयोजन : बोिध टीम
नैनीताल
अ मोड़ा
कौसानी
रानीखेत को...
कृित-स दभ
ग सािह य क िविवध िवधाओं म ‘या ा-व ृ ’ का अपना ही मह व है। ‘अ ेय’ जी क
का या मक ग भाषा म जब उन के या ा-वणन कािशत हो रहे थे, तब इस िवधा-िवशेष ने
यान आकिषत िकया था। रांगेय राघव ने बंगाल के अकाल पर ग -िवधा म या ा-व ृ , डायरी
तथा रपोताज को िमला कर एक नया प तुत िकया था।

कृित के ित िजन स दय सािह यकार म सहज आकषण है, उ ह या ा क सुखानुभिू त,


रचना-कम क ओर े रत कर रही है। कृ णा कुमारी के अ कािशत िसंगापुर क या ा के
वणनानुभव देखने का अवसर िमला है। लेिखका ने िजस कार सू म ि से बारीक यौर म
वहाँ के व तु-जगत से स पिकत अनुभिू तय का जो िच ण िकया है, वह अिव मरणीय है। म
अपने जीवन म, देश-िवदेश म बहत घम ू ा हँ, पर न जाने य यौरे और उन के िच पर बनी
मिृ तयाँ, समय के साथ धिू मल होती चली गई है। यह िवधा, शु अितरे क क माँग करती है, वह
मता कृ णा जी के पास है। उन का मन सहज िज ासा, कौतुहल के साथ व तु-जगत से
स पक करता है। यह इि य ज य ान, अ सर बुि के दाँव-पेच छोड़ता हआ, उन के अनुभव-
जगत म उ ह ले जाता है। यह उन का सहज वभाव है, यहाँ कृि म, बनावटीपन नह है। कृित
उन के ही स मुख अपना दय खोल पाती है, जहाँ अनुभव क या ा म बुि ज य यय बाधक
न हो, एक दपण क तरह मनो ाही दशन, िचि त होता चला जाता है।

‘आओ नैनीताल चल’ क भाषा वाही तथा भावी है। कोटा से गािजयाबाद ़ तथा वहाँ से
काठगोदाम, नैनीताल अ मोड़ा, कौसानी, म लीताल, त लीताल, िहमालय, िफ़ म क
शिू टंग...छाटे-छोटे यौरे और उन के साथ जुड़ी आ मीयता िवरल है। या ा व ृ एक मवू ी कैमरे क
आँख से स पण ू प र य को िदखाता चला जाता है।

भाषा क यही िच ा मकता, सघन िब बा मकता...किवता के साथ, गित लेती है, लगता है
पास बहती हई नदी कल-कल धारा के साथ आप भी चल रहे ह । यह बात दूसरी है िक आज क
दुिनया म मण तो होता है, पर उस का अनुभव-जगत बाहर ही रह जाता है। बुि गत अिभगम,
भीतर तक उस अनुभव को वािहत नह होने देता। लेिखका का यह कथन तु य है िक ‘ मण-
अनुभव भी ाना मक स वेदनाओं क ी विृ म मह वपण ू कारक है।

लेिखका का म ाघनीय है, उन के पास का या मक, िच ा मक भाषा स पदा है, िजस


से वे सुपिठत ग क इस उ कृ कृित के स व न म सफल रही ह।

-डॉ. नरे चतव


ु दी
1-ल-1, दादाबाड़ी कोटा-324009
कृ णा कुमारी ‘कमिसन’ : एक प रचय
उपनाम : कमिसन

माता-िपता : ीमती रामदुलारी एवं ी भू लाल वमा

पित : ी कृ ण काश

ज म : 09 िसत बर, चेचट, कोटा (राज थान) म।

िश ा : एम.ए., एम.एड.(मे रट अवाड), सािह य र न, आयुवद र न, बी.जे.एम.सी.

सजृ न िवधाएं : मु यत: किवता, गीत, ग़ज़ल िवधाओं म सजृ न के साथ-साथ अनुवाद, रपोताज,
लोगन, लघुकथा, कहानी, सं मरण, सा ा कार, या ा-व ृ ांत, बाल-गीत इ यािद िह दी,
राज थानी, उदू व अं ेजी भाषाओं क िविभ न िवधाओं म भी िनरं तर सज
ृ न।

अिभ िचयाँ : संगीत, वा एवं िच का रता म िवशेष िच के साथ सािह य पठन, लेखन एवं
िव जन क सुसंगित।

काशन : ‘म पुजा रन हँ’ (किवता सं ह, 1995), ‘ ेम है केवल ढाई आखर’ (िनबंध, 2002),
‘िकतनी बार कहा है तुमसे’ (किवता सं ह, 2003), ‘...तो हम या कर’ (ग़ज़ल, 2004),
‘ योितगमय’ (आलेख, 2006), ‘ वि नल कहािनयाँ’ (कहानी, 2006), ‘आओ नैनीताल चल’
(या ा व ृ ांत, 2009), ‘जंगल म फाग’ (बाल-गीत, 2014), ‘नाग रक चेतना’ (िनब ध,
2018)। िविभ न रा ीय एवं रा य तरीय प -पि काओं, संकलन आिद म रचनाएँ कािशत।
‘अ छे ब चे’ (बाल-किवता), ‘क़तरा नदी म’ (ग़ज़ल), ‘दि ण क ओर’ (या ा व ृ ांत), ‘कुछ
अपनी कुछ उनक ’ (सा ा कार), ‘अ ुत है िसंगापुर’ (या ा व ृ ांत) काशनाधीन। िश ा
िनदेशालय बीकानेर ारा पु तक समी ाएं कािशत एवं िश क िदवस पर कािशत पु तक
शंख
ृ ला म रचनाएँ िनरं तर कािशत। कई पु तक -पि काओं म आधुिनक रे खािच व आवरण
िच कािशत। कई शोध- ंथ , संदभ ंथ एवं गु नानक देव िव.िव. क एम.िफल. म
अनुशंिसत पु तक म िव ततृ प रचय एवं रचनाएँ कािशत। कई रचनाओं का अं ेजी, उदू व
गुजराती म अनुवाद कािशत।

अ तरा ीय काशन : तुलसा, ओ के 74136 य.ू एस.ए. से कािशत मािसक पि का ‘रोशनी’


(उदू) म ग़ज़ल, लघुकथाय आिद कािशत।

सारण : आकाशवाणी एवं दूरदशन से समय-समय पर रचना पाठ व वाताय सा रत और


अनेक किव स मेलन , मुशायर म भागीदारी।

स मान-परु कार : पयावरण िवभाग, राज थान, कोटा नामदेव सभा, कथांचल उदयपुर ारा
‘पगली’ कहानी को कथािश पी राजे स सेना सव म कहानी पुर कार। नारा लेखन व प -
वाचन म कई िवभाग ारा पुर कृत। अ रधाम सिमित कैथल ारा ‘ थम रा ीय अ र गौरव’
स मान। संगम कला प रषद बैतल ू म य देश ारा ‘का य कुसुम’ उपािध। दैिनक भा कर ारा
‘आशीवाद एचीवस एवाड’ तथा ‘मधुबाला मिृ त स मान’। िजला शासन ारा ‘नाग रक
स मान’। सं कार भारती सं थान दौसा ारा ी िशवनारायण मिृ त स मान। अनुराग यिू जकल
एं ड क चरल सोसायटी, लालसोट (राज थान) ारा ‘अनुराग सािह य स मान 2007’। सािह य
म डल ीनाथ ारा क ओर से ‘िह दी भाषा भषू ण स मान’। चेतना सािह य प रषद लखनऊ
ारा ‘ ीमती गीता मिृ त स मान’। ‘ ीन अथ’ एन.जी.ओ. कु े ारा आयोिजत ‘रा
तरीय मिहला किवता ितयोिगता-2017’ पयावरण संव न म ि तीय थान।

िवशेष परु कार : एयर इि डया एवं राज थान पि का ारा आयोिजत ‘रे क ए ड बो ट’
ितयोिगता म िजला तरीय एवं रा य तरीय थम पुर कार, िसंगापुर क या ा अिजत। िश क
िदवस 2008 म ‘रा य तरीय िश क स मान’। राज थान सािह य अकादमी उदयपुर ारा
‘देवराज उपा याय पुर कार’।

िवशेष : सलाहकार संपादक ‘द क टे ेरी हज ह’ अमे रक काशन। उपा य , रा ीय िश क


रचनाकार गित मंच कोटा शाखा। िजला य , संगम कला प रषद बैतल ू । भारतीय सािह य
प रषद कोटा ारा ‘ ीमती कृ णा कुमारी का सािह य म योगदान’ मोनो ाफ (लेखक-सुरेश
वमा) कािशत। कुछ िह दी आलेख का राज थानी म अनुवाद।

स पक : ‘िचर-उ सव’ सी-368, मोदी हॉ टल लाइन, तलवंडी, कोटा-324005


मो. : +91-91668 87276
ई-मेल : krishna.kumari.kamsin9@gmail.com
लॉग : kavysrijan.blogspot.com
लो हम नैनीताल चले
‘‘सैर कर दुिनया क ग़ािफ़ल, िज़ दगानी िफर कहाँ
िज़ दगानी ग़र रही तो नौजवानी िफर कहाँ।’’

कृित क अि तम सु दरता म, नैसिगक सौ दय म जादुई आकषण होता है। िजस के पाश म


बँध कर इ सान पयटक बनने को िववश हो जाता है। जो एक बार इस अ ुत रस का आ वादन
कर लेता है, वह बार-बार इसे पीने के िलए मचल-मचल जाता है। यही कुछ हमारे साथ होने लगा
है। एक बार पवतीय वािदय म या घम ू आए िक थोड़े -थोड़े िदन म वहाँ जाने के बहाने ढूँढने
लगते ह। हम ग़लत भी कहाँ ह। इस दौड़ती-भागती िज़ंदगी म कुछ पल चैन और सुकून के
िबताना भी चािहऐ तािक जीवन म स तुलन बना रहे । और िफर क़ुदरत का वह शा त वातावरण,
हरी-भरी वािदयाँ, कलकल िननािदत िनझर, च ान से फूट कर बेतहाशा भागती दौड़ती निदयाँ,
गगन चम ू ती पवत मालाऐं, सागर का सौ य व प अहा! आनंद के ऐेसे ोत भला और कहाँ ा
हो सकते ह। अब तो वि नल (िबिटया) भी बार-बार मण करने क िज़द करने लगी है।

हमारे रचनाकार होने का भी हम कुछ लाभ िमल रहा है। देश के कोने-कोने म काय म
होते रहते ह, हम भी ख़बू आम ण िमलते ह। ख़बू सरू त थान के ो ाम को हम िब कुल नह
छोड़ते। िसत बर, 2002 ई. म ग़ािजयाबाद
़ से हम ‘दिलत सािह य अकादमी’ के वािषक समारोह
का िनम ण िमला और हम लोग ने वहाँ से नैनीताल जाने का काय म भी बना डाला। य िक
ू ने के िलए िसत बर-अ टूबर का समय ही े होता है। पयटन थल पर इस समय मई-जन
घम ू
जैसी भीड़-भाड़ नह रहती एवं क़ मत भी क़ाफ कम हो जाती ह।

इस काय म म कोटा के दो रचनाकार भी हमारा साथ दे रहे थे। अकेले तो हम भी नह


जाते। िनि त समय पर हम देहरादून ए स ेस से रवाना हए। शाम का खाना हम लोग के साथ
था ही। रात को 10 बजे हम सब ने िमल कर खाना खाया, िफर कुछ हँसी-मज़ाक़ िवनोद होता
रहा। लगभग 12 बजे हम सब अपनी-अपनी बथ पर हो िलए। थोड़ी देर आँख लगती, िफर खुल
जाती। लेिकन सुबह 4 बजे बड़ी ज़ोर क आवाज़ होने लग । न द खुलनी ही थी, हम ने नीचे देखा
तो हमारे पास क बथ पर एक छोटा-सा सामा य प रवार था, िजन का सुबह का काय म ार भ
हो चुका था। उ ह के दो ब चे बहत चुलबुले थे, बहत बितया रहे थे, उन क बोल-चाल म गाँव का
भाव प नज़र आ रहा था। ब चा सातव क ा म पढ़ता था, ऐसा उसी क बात से ात हआ।
लड़क छोटी थी, होगी कोई 7-8 वष क । दोन क मासम ू बात, िज ासाऐं जहाँ मन को अ छी
लग रही थ । वह न द म ख़लल भी हो जाने के कारण थोड़ी-थोड़ी खटक भी रही थी। उन सरल,
िन छल ब च क भी ज़ोर-ज़ोर से क जाने वाली बात आप भी सुनगे तो ख़ुश ज़ र ह गे।

कभी लड़का कहता, देख-देख िकतनी ऊँची िबि डं ग है। बाप रे बाप! कैसे बनाते ह गे इसे।
तभी एक गाड़ी पास से गुज़री और दोन के मँुह से िकलकारी फूट पड़ी। आ ािदत ब चे आपस म
गाड़ी क तेज़ गित को ले कर बितयाने लगे। ब ची पछ ू ने लगी- भैया! रे लगाड़ी पटरी पर कैसे
भागती है। अब िद ली न दीक आने लगी। कुछ देर बाद िज ासु बालक को न जाने कहाँ
दूरदशन के नज़र आ गया और चहकते हए बोला, पापा...पापा देखो! यहाँ से ही अपने टी.वी.
काय म आते ह ना। सारांशत: उन क चुहलबाज़ी से ज़ािहर हो रहा था िक वो पहली बार गाड़ी म
बैठे ह और िद ली क ओर जा रहे ह। पास ही बैठे या ीगण मसरू ी जाने क बात कर रहे थे। उन
क बात सुन कर वह ब चा िफर पापा से मुख़ाितब हो कर बोला िक अपन भी मसरू ी चल। मालम ू
है, उस के िपताजी ने या जवाब िदया। नह मालम
ू ? ...हम बताते ह। वे बोले िक जब तेरी शादी हो
जाए तब अपनी प नी के साथ जाना। अब ब चे क सरू त देखने लायक़ थी। चुप व िन र हो
कर िखड़क से आकाश को ताकने लगा। अब दोन ब चे अपनी पढ़ाई, िश क , पु तक क
बात म मशगल ू हो गए। ब च क यारी- यारी बात अ छी लग रह थ । इन क बात पर कुछ शैर
अज़ ह-

‘‘छोड़ो ये िकरदार क बात


और ह कुछ संसार क बात
दूध के भी तो दाँत न टूटे
करते ह हिथयार क बात
कड़वी लगती ह ब च को
अब तो िश ाचार क बात।’’

इधर बैर क ‘चाय-चाय’ शोर मचाने लगी। लेिकन हमारा यान केवल ब च पर ही केि त
था। य न हो, ब चे तो ब चे ही ह। इन क मासम ू व िन छल बात भला िकस स दय को नह
लुभाती। ये बचपन ही तो है जब आदमी इतना भोला रहता है। बाद म िकतना ख़ुद ग़रज़, म कार
हो जाता है। कभी-कभी तो लगता है िक काश! आदमी हमेशा-हमेशा ब चा ही रहता, बड़ा य हो
जाता है। इस पर अपनी किवता याद आ गई- ‘काश! िक हम ब चे ही रहते’। लेिकन...तब एक
मुसीबत हो जाती, दुिनया आगे कैसी चलती, यानी नए ब चे कैसे ज म लेते। िनदा फ़ाज़ली का
एक शैर हो ही जाए इस बात पर-

‘‘मेरे िदल के िकसी कोने म इक मासम


ू -सा ब चा
बड़ क देख कर दुिनया, बड़ा होने से डरता है।’’

अरे , इन ब च क बात ही बात म कब िद ली आ गई पता ही नह चला। यहाँ हम लोग े श


हए, चाय-ना ता िकया। अपने िनि त समय पर हम ग़ािजयाबाद
़ पहँचे। वहाँ दो िदवसीय
सािहि यक काय म म िशरकत क । राि को मुशाइरे म किवता-पाठ भी िकया। भोजन व
आवास क यव था आयोजक क थी ही। कोई परे शानी नह हई। कई बड़े -बड़े सािह यकार से
पहचान बढ़ी। हमारी ि म ऐसे काय म का दूसरा उ े य यही है िक कई नए एवं कई
िति त रचनाकार से प रचय हो जाता है। िवचार का आदान- दान होता है। हाँ, वि नल यहाँ
बोर ज़ र हई।

इस कार अपने काय मानुसार हम 24 अ टूबर, 2002 ई. को राि 8:30 बजे नैनीताल
पहँचे। लेिकन बस के सफ़र म काफ़ परे शानी उठानी पड़ी। एक तो ख़ ता हाल बस, ऊपर से
गम । बीच म ओवरटेक करने के च कर म दुघटना होते-होते भी बची। एक बस हमारी बस को
ओवरटेक करने के च कर म हमारी बस के सामने आ कर एकदम खड़ी हो गई। वो तो भला हो
ाइवर सािहब का जो एकदम ेक लगा िदया। िफर 10-15 िमिनट तक दोन म काफ़ गमागम
बहस हई। हापुड़ म पापड़ का पैकेट लेने क भारी इ छा हई लेिकन परू े सफ़र म उ ह सँभालने क
परे शानी के म े -नज़र ख़रीद कर बस वाद चख िलया। हाँ, कह क भी कोई भी व तु िस
होती है तो घर लाने का मन तो होता ही है, िम व घरवाल को िखलाने के िलए।

मुरादाबाद होते हए हम लगभग शाम 6:30 बजे ह दानी पहँचे। इसी इ तज़ार म िक
नैनीताल अब आए, अब आए। लेिकन बस यह ख़ाली कर दी गई। जब िक हम से नैनीताल
पहँचाने क बात हई थी। ाइवर साहब से िशकायत करने पर वे बोले िक यहाँ से नैनीताल क
बस िमल जाऐंगी। मेरी बस म नैनीताल क कम सवा रयाँ होने के कारण म आगे नह जा रहा,
सामने िद ली िनगम क बस खड़ी है। उस म बैठ जाओ और हाँ, म ने आप से ह दानी तक का ही
िटिकट िलया है। अब हमारे पास चारा भी या था। डे ढ़ घ टे बाद उसी से रवाना हए। थोड़ी देर बाद
अ धकार गहराने लगा और हम खबू सरू त रा ते के सौ दय-पान से वि चत रह गए। हम व
वि नल को काफ़ च कर आने लगे। जी है िक घबराता ही जाए, जब िक ऐसा पहले कभी नह
हआ था। अ तु।

यँ ू समिझए, बड़ी मुि कल से जैसे-तैसे नैनीताल पहँचे। सद से हमारा िज म कँपकँपाने


लगा। बस से उतरते ही एजे ट ने हम घेर िलया। उन से जैसे-तैसे पीछा छुड़ाया और नज़र घुमाई
तो अलौिकक य सामने था। पहाड़ से िघरी हई झील म लहराती हई रोशनी से लग रहा था,
जैसे पहाड़ पर बसी हई ब ती व रोशनी झील म उतर कर नहा रही ह । लेिकन सद के मारे बुरा
हाल जो हो रहा था। सो पहले गम कपड़ से िज म को राहत पहँचाई, िफर एक रे ाँ म जा कर
कुछ देर तस ली से बैठे, गमागम चाय पी, तब जा कर कुछ राहत िमली। कुछ थकान भी दूर हई।
वापस बाहर आ कर देखा तो कुछ ऐजे ट अभी भी हमारे इ तज़ार म वह खड़े थे। अरे हाँ, इस
या ा म शािमल ह- वि नल िबिटया, इस के िपता ीकृ ण काश, ग़ज़लकार ी पु षो म
‘यक़ न’। वैसे तो कोटा के अ य रचनाकार का मानस भी था नैनीताल क या ा का। मगर
ग़ािजयाबाद
़ से ही ये लोग कोटा वापस लौट गए। हम लोग रे ाँ के बाहर आए, एक एजे ट से
कुछ बात क , उस ने एक होटल म हम कमरा िदला िदया जो पहाड़ी क आधी ऊँचाई पर था।
सामान रख कर कुछ देर बालकनी म गए, जहाँ से नैनी झील का मनोरम य प िदखाई दे
रहा था। वाह! आन द आ गया। नैनी झील िझलिमल-िझलिमल िसतार का आँगन लग रही थी,
दु हन क ओढऩी क तरह दमक रही थी। कुछ देर बाद हम कमरे म आ गए। कल कैसे घम ू ना
है? यह अभी हम तय करना था। सो ‘यक़ न’ साहब व वि नल ने तो खाने-पीने क यव था
सँभाली। हम लोग नीचे आए। झील के िकनारे बस टे ड के पास एक ऑमलेट का ठे ला लगा हआ
था। हम ने उस के मािलक से ट्यू र ट िडपाटमे ट के ऑिफ़स का पता पछू ा तो बोले- म वह काम
करता हँ। पिू छए, या पछू ना है। हम ने बताया िक हम नैनीताल घम
ू ना है, उसी संग म कुछ
पछू ताछ करनी है, तो महाशय जी बोले- सुबह 7-8 बजे आ जाइए, अभी सारा बाज़ार ब द हो चुका
है। ऐसे म करते भी या? वापस होटेल आए। गम पानी के नाम पर एक बा टी ही िमल सक । सो,
सब ने हाथ-मँुह धो कर ही काम चलाया। नहाने क बड़ी इ छा थी मगर ठ डे पानी के आगे
िकसी क िह मत नह पड़ी। गमागम खाना अ छा िमल गया। थकान से चरू तो थे ही, पड़ते ही
सब न द क आग़ोश म चले गए। सुबह न द खुलते ही हम तुर त बालकनी म आए। झील व
नैनीताल का अ ितम सौ दय देख कर दंग रह गए। राि को अलग ही मंज़र था, िकंतु अब
विणम और अभी बाल-रिव क थम रि म का पश करता हआ भ य अ ुत य अँिखय के
सम सा ात् था। चार ओर पहािडय़ से िघरी झील बहत मासम ू लग रही थी। एकदम शा त,
िन छल, िनमल वीतराग-सी, िजस म पवत-मालाओं क हरीितमा घुल रही थी, िजस से इस का
जल हरा-भरा हो रहा था। पहािडय़ पर छोटे से ले कर भ य होटेल क होड़-सी लगी थी। घर कम
होटल ही अिधक नज़र आए। वैसे भी िहल टेशन पर घर कम व होटेल अिधक िमलते ह। वहाँ पर
वे ही लोग रहते ह, िजन का वहाँ रोज़गार चलता है और यह रोज़गार सैलािनय से ही चलता है।
य िक वहाँ थानीय ब ती इतनी होती ही नह िक सब को रोज़गार िमल सके। इस िलए वहाँ के
लोग मैदान म रोज़ी-रोटी कमाने के िलए आते ह और जो मैदान के धनाढ्य यापारी ह वे वहाँ
होटल, टैि सयाँ चला कर करोड़ कमा रहे ह।

ख़ैर छोिडए,
़ वह नैनीताल क सुबह अिव मरणीय रहे गी। देखा और देखते ही रह गए थे।
इतना अनुपम सौ दय... मँुह से बस ‘वॉव’ िनकला। फोटा ाफर ‘यक़ न’ साहब साथ थे ही। वह
बालकनी म हम लोग ने फोटो िखंचवाए। इधर सद का तो कहना ही या? मैदान म तो सद भी
बुरी लगती है। लेिकन यहाँ तो वह भी यारी लग रही थी, बेहद सुहानी, सद हवा पोर-पोर को छू
कर गुज़रती और तन-मन म िसहरन-सी होती। अब तक सड़क पर भी ख़बू आवा-जाही होने
लगी थी। सारा शहर पि दत हो गया था। रा ते चलने लगे थे। दूकानदार ने सफ़ाई कर के
दूकान खोल ली थ । सड़क के िकनार पर फ़ुटपाथ भी चीज़ से सजने लगे थे। ब चे यन ू ीफॉम म
कूल जाने लगे थे। लड़िकयाँ िततली क तरह चोिटय पर रबन बाँधे इठलाती, बितयाती,
चहकती हई कूल क ओर बढ़ी चली जा रही थ । टैि सय के चालक अपनी टैि सय को
झाडऩे-प छने म लगे हए थे। क़ुली एवं एजे ट लोग काम क तलाश म झील के साथ-साथ खड़े थे
या इधर-उधर नज़र दौड़ा रहे थे।

झील भी अलसाई-सी अंगड़ाई ले रही थी। लग रहा था िक अभी तक उस क रात क ख़ुमारी


परू ी तरह िमटी नह है। पलक कुछ-कुछ उन दी नज़र आ रही थ । लेिकन वो भी शनै: शनै:
ख़ुशनुमा शहर का वागत करने हे तु सँवरने लगी। हम दोन कमरे के भीतर आए तब तक ये
लोग े श हो कर चाय क ती ा कर रहे थे। हम देख कर िफर ये भी बाहर बालकनी म चले
गए। हमने मंजन कर के पानी िपया एवं बालकनी म ही सब के साथ चाय का लु फ़ उठाया। तैयार
हो कर हम लोग नीचे उसी ठे ले के पास आ गए। जब घम ू ने व ट्यू र ट ऑिफ़स क बात चली तो
मालम ू है वह या कहने लगा- अरे साहब छोिडए,़ कहाँ ट्यू र ट िडपाटमे ट के च कर म पड़ते
हो, मेरे भाई क अपनी टै सी है, उसी से नैनीताल घिू मए, मज़ा आ जाएगा। जब जहाँ िजतनी देर
ठहरो ठहर सकते ह, अपनी मज़ से घम ू सकते ह। िफर िकराए म यादा फ़क़ भी कहाँ पड़े गा। जो
थोड़ा ऊपर नीचे होगा, उस का फ़ायदा आप को िमल जाएगा। हमारी गार टी है, शाम को घम ू कर
आने के बाद आप हम दुआऐं दगे। हम म से कोई कुछ कहता उस के पहले ही उस ने अपने भाई
को इशारा कर के टै सी लाने को कह िदया। हमारे ओ जे शन करने पर बोला- हम आप को
ग़लत सलाह नह देगा, हम पर िव ास रखो। आज टै सी से घम ू कर देख लो, कल आप अपनी
मज़ से देखो। हम आप से यादा नह लेगा, 750 पए दे देना, तभी टै सी सामने आ गई। सात
सौ पए म मोल-भाव हआ। या- या िदखाना है, यह भी उस ने हम बता िदया। तभी ‘यक़ न’
साहब ने जवाब म कहा- हम तो परदेसी ह साहब, हम या जान? आप जहाँ घुमाऐंगे घम ू लगे।
आप क स चाई आप जानो और हमारा एक शैर पेश कर िदया-

‘‘तेरे हवाले है ये जाँ


ले इस को, जी भर के सता’’

सच कह तो टै सी म घम ू ना तो वि नल व हम भी अ छा लग रहा था। अपनी मज़ के


मािलक। िफर इस का आन द तो अलग है ही। वैसे यह ऑमलेट के ठे ले वाला कोई 30 वष का
नवयुवक ही था। अ डे से बना ना ता बेच रहा था। काफ़ भीड़ थी इस के ठे ले पर। भाई भी एक-दो
वष के अ तर पर था। दोन पढ़े -िलखे व माट कहे जा सकते ह। हाँ, हम उन से ई या हई िक
िकतने ख़ुशनसीब ह जो नैनीताल म रहते ह।

इस कार सब तय हो जाने पर हम लोग ने वह कॉफ़ पी, टै सी से ही कमरा िश ट िकया,


य िक उस होटल म गीज़र नह था और िबना इस के हम काफ़ परे शानी उठानी पड़ी थी। वह
पास ही ‘िहमालय’ होटल म 300 पए म कमरा िमल गया। जहाँ से नैनी झील ल बाई म परू ी
नज़र आ रही थी। काँच क गोल-गोल दो ‘डी’ नुमा िखड़िकय से कमरा ख़बू सरू त लग रहा था।
अब तक 9:30 हो चुके थे।

अब हम चलते ह नैनीताल का दीदार करने के िलए। लेिकन हम नैनीताल देखने चल, इस


के पहले कुछ बात इस के नाम व सौ दय को ले कर हो जाऐं। कुमाऊँ अ चल का यह मुख
पवतीय नगर है एवं िज़ला मु यालय भी। नैनीताल दो श द से िमल कर बना है- ‘नैनी’ एवं
‘ताल’। ‘नैनी’ देवी का नाम है, िजस का मि दर झील के िकनारे बना है और ताल क तो यह
अनुपम नगरी है ही। नैनीताल का िज़ हमारे ाचीन थ म भी िमलता है। यह मुखत: तीथ-
थल है, य िक च सठ शि -पीठ म से इसे एक माना जाता है। पौरािणक कथानुसार आिददेव
भगवान शंकर अपनी प नी सती का हवन कु ड म झुलसा हआ शरीर अ य त ोधाव था म ले
कर जा रहे थे, तब जहाँ-जहाँ रा ते म उन के तन के अंग िगरे , वहाँ शि -पीठ क थापना क
गई। नैनीताल म माता सती क बाई ं आँख िगरने का िज़ िमलता है। जहाँ आँख िगरी, वहाँ आँख
क आकृित क झील बन गई, इस िलए इस थल को नैनीताल कहते ह। इस के नैसिगक
सौ दय एवं अ ितम ाकृितक छटा को देख कर इसे ि वटजरलै ड भी कह द तो ग़लत नह
होगा। सागर तल से 1938 मीटर क ऊँचाई पर ि थत नैनीताल का मुख आकषण है इस का
लै ड केप। देवदार, चीड़, बाँस, बुराँस क घनी ह रयाली के साथ धपू -छाँव से आँख-िमचौली
करता यह नगर छरवाता परगने म आता है। िजस का शु प है- ‘षि खात’ यानी साठ साल
पहले यहाँ साठ ताल हआ करते थे। िजन म से कुछ समय के साथ िवलीन हो गए कुछ छोटे-छोटे
ताल बन कर रह गए। जो भी हो नैनीताल कृित ेमी सैलािनय पवतारोिहय के िलए परीलोक
से कम नह है। वैसे यह मनोरम थल नैनािपक आलमा, शेर का द डा, ला रया का ता, आयार
प ा या डोरोथी िसट, हा डी बु दी, केम स बैक तथा देव प ा नामक गगन चु बी िशखर से िघरा
हआ है। इस क थापना एवं खोज भी अ य पवतीय े क तरह अं ेज़ ने ही क थी। 1942 ई.
म पी. बैरन को जाता है, इस शहर क खोज का पहला ेय।

नो यू वॉइ ट
हाँ, तो अब चलते ह, नैनीताल क सैर के िलए। सब से पहले देखते ह, ‘ नो यू वॉइ ट’।
जैसा िक नाम से ही ज़ािहर है, यहाँ से िहमा छािदत पवत-मालाओं का भ य य िदखाई देता
होगा। जी हाँ, यही िकलबरी है या िहमालय दशन भी कह लीिजए। शु , व छ, सद हवाओं से,
पहाड़ी रा त से घम ू ते-घामते हम यहाँ पहँचे। परू े रा ते िहमालय दशन क बल िज ासा मन को
उ फुिलत करती रही थी। जैसे ही हम अपनी मंिजल ़ पर पहँचे। सामने लेिशयर बाँहे फै लाए
वागतातुर थे। एकदम अिनवच सौ दय, पलक ठगी-सी रह गई ं। सच कह तो इस य ने ठग
िलया हम को। बफ़ से ढक ये पवत-मालाऐं थ तो कई िकलोमीटर दूर लेिकन यँ ू लग रहा था िक
थोड़ा हाथ बढ़ा कर इ ह छू सकते ह, ये सामने ही तो खड़ी ह। वाह रे ! कृित, ध य है वह असीम
स ा, उस क लीला, या कुछ नह बनाया उस ने, कौन पार पा सका है आज तक उसक माया
का? यह आ कर िववश मानव ‘नेित-नेित’ कह उठता है। हम अनायास ही गीत याद आ गया-
‘ये कौन िच कार है...ये कौन िच कार है...’। यहाँ पर दूरबीन वाला तो होना ही था। केवल 5
पए म हम ने दूरबीन का योग िकया। वह पर कुमाऊँ क पर परागत े स िमल रही थ , िज ह
पहन कर फोटो िखंचवाया जा सकता था। लेिकन हम तो इस तरह के अ य िहल टेशन पर कई
नेप ले चुके थे। ऐसी पोशाक के साथ फोटो का शौक़ न हम है न वि नल को। लेिकन यहाँ का
य देखते-देखते िदल नह भर रहा था। नीचे घाटी म असं य जाितय के पेड़-पौधे लदे पड़े थे।
एकदम श य यामला घाटी, नयन को परमानंद िमल रहा था। आँख ह िक थकती ही नह थी
इन नज़ार को देखते-देखते। बस देखते ही जाओ। हाँ, जब मनाली गए थे तब लेिशयर तक हो
कर आए थे। रोहतांग दरा पर लेिशयर को छू कर देखा था, उस का आन द अलग था, वो
अहसास भी अवणनीय है। लेिकन यहाँ दूर से देखना भी अ छा लग रहा था। यहाँ लेिशयर िवशाल
फलक तक एक साथ सम खड़ा था जब िक रोहतांग म बफ़ से ढका कम े था।

वहाँ से थोड़ा नीचे उतर कर एक चोटी क तरफ़ इशारा करते हये ाइवर महोदय ने, िजन
का अ छा-सा नाम पंकज ितवारी है, कहा िक वो जो सब से ऊँची चोटी आप को नज़र आ रही है
वह ‘चाइना पीक’ है, जो 2600 मीटर ऊँची है। वहाँ से चीन क दीवार प त: देखी जा सकती
है। हम ने तुर त कहा- चिलए ना, तो वो हम आ त करने के अ दाज़ म बोले, मैडम, वहाँ जाने
के िलए िदन भर चािहए। वहाँ पहँचने के िलए 3 िकमी. तो आप को पैदल ही या ा करनी पड़े गी।
मन हआ िक चिलए लगे हाथ संसार का दूसरा आ य देख लेते, ताज तो देख ही रखा है लेिकन
हमारे हमसफ़र इस के िलये तैयार नह थे। हम ने पंकज जी से सवाल िकया िक या आप
‘चाइना पीक’ जा चुके ह? वहाँ से चीन क दीवार कैसी लगती है? उ ह ने हामी भरते हए सर
िहलाया और बोले म तो कई बार जा चुका हँ, अ छा तो लगता ही है। कुछ देर वह हम लोग सड़क
के िकनारे खड़े हो कर देवदार के, बुराँस के व ृ को देख-देख कर कृताथ हए जा रहे थे। इन
पेड़ का नाम पु तक म पढ़े थे, आज सामने खड़े थे ये हमारे । वाक़ई, हमारी पहाड़ी वन पितयाँ,
पेड़-पौधे बड़े ही सु दर होते ह। जब नाम ही देवदार है, जहाँ देव श द आ जाए वहाँ प है
सौ दय तो होगा ही। वैसे इस के श दाथ पर जाऐं तो ‘देव ’ वाला पेड़ कहा जा सकता है, हो
सकता है इसे ही क प-व ृ कहा जाता हो, वैसे भी यह देव-भिू म म ही तो लगता है, िमलता है
और परू े िहमाचल देश ही या सारा िहमालय ही देव-भिू म कहलाता है। यह तो हमारे बड़े -बड़े
ऋिषय ने तप िकए ह। कैलाश पवत पर तो सा ात् िशव िवराजते ह। जो भी हो, बड़ा खबू सरू त
होता है यह व ृ , िब कुल नाम के अनु प ही है।

हम सड़क के िकनारे खड़े -खड़े यह सब सोच रहे थे, तभी पंकज जी ने हमारे ख़याल क
दुिनया को झकझोरते हए कहा िक देिखए, यहाँ से नैनीताल व नैनी झील परू ी तरह नज़र आ रही
है। यह झील आम के आकार म ह। वाक़ई, यह झील ऐसी ही िदखाई दे रही थी। वहाँ से परू े
नैनीताल को कैमरे म क़ैद कर के हम नीचे आते ह,

केव गाडन
‘केव गाडन’। जी हाँ, पहली बार यह नाम सुना था। गुफाओं का भी कोई बाग़ हो सकता है,
वाह भई! यहाँ पर कुछ िटिकट भी लगा था। गाडन के भीतर कुल छ: गुफाऐं थ िजन म से
गुज़रना था। गुफाऐं ाकृितक ही ह गी, जैसा िक हम ने महसस ू िकया। िज़यादातर सैलानी दो-
तीन गुफाओं को पार कर के ही तौबा कर रहे थे। के.पी. सर तो बाहर ही खड़े हो गए। वि नल,
‘यक़ न’ सर व हम, तीन गुफाओं म से हो कर बाहर आ गए। वाक़ई, भीतर से ये काफ़ सँकरी,
अँधेरी, ऊबड़-खाबड़ थ , बीच-बीच म खड़ी च ान भी थ । चढ़ना-उतरना, िफसलना सब करना
था। बीच-बीच म कुछ जगह तो बैठ-बैठ कर, काफ़ झुक कर बड़ी ही मुि कल से िनकलना पड़ा।
‘यक़ न’ जी ने तो तीन के बाद हिथयार डाल िदए। पर हम कहाँ मानने वाले थे। हमारी िज ासा
तो ब च से भी बलवती है, साहब। हम ने कहा जब िटिकट िलया है तो छह गुफाओं को य नह
देख। वि नल व हम चौथी गुफा म गए, वह भी अिधक किठन तो नह थी, आराम से पार कर
ली। पाँचव म काफ़ मुि कल आई। छठी म तो नानी याद आ गई। अकेले जाने का साहस तो कर
नह पा रहे थे, मगर एक अ य पयटक मिहला-पु ष व ब चे को जाते देख कर उन के पीछे हो
िलए। ब चे म बड़ा उ साह था। सब से आगे चल रहा था। उ लगभग 12 वष होगी। यह उ होती
ही ऐसी है। बीच म काफ़ अँधेरा, बेहद सँकरी एवं इतनी ऊबड़-खाबड़ िक वो लोग साथ न होते तो
हम कह के नह रहते न तो वापस आ पाते, न ही आगे जा पाते, चढ़ना और उतरना काफ़
ख़तरनाक व मुि कल था। िबना सहारे के यह स भव नह था। वो तो भला हो साथ वाले भ जन
का िज ह ने हम दोन को हाथ से पकड़ कर चढ़ाया-उतारा, वना हम तो वह अटक जाते। जब
तक कोई िनकालने नह आता और िफर वो भी गुफा म, क ड़े -मकोड़ का डर भी होता ही है।
बाहर आ कर उन महोदय को हम ने बहत ध यवाद िदया। ये काफ़ संजीदा व ख़ुशिमज़ाज
नवयुक लगे हम। उ कोई 25-30 के लगभग ही होगी। मुि कल तो आई मगर यह अहसास
काफ़ रोमांचक रहा व नया भी। वि नल को भी काफ़ अ छा लगा, कुछ हट कर जो था। हट कर
होना तो अपने-आप म काफ़ आन ददायक एवं अि तीय अहसास होता ही है। जब बाहर आ कर
इन दोन को हम ने सारी ि थित बतलाई तो बोले, फँस जाते तो हम ढूँढने आते ही सही। शेष
गाडन ठीक था। वहाँ संगीतमय फ़ वारा भी था, लेिकन राि को 7 से 9 बजे के बीच चलता था।
मैसरू के व ृ दावन गाडन के बाद दूसरी जगह यह फ़ वारा देखने को िमला था।

हाँ, यिद आप नैनीताल जाऐं तो छठी गुफा म ज़ र जाऐं मगर अकेले नह । अरे हाँ, हट कर
चलने वाली बात पर ‘यक़ न’ जी का ही शैर याद आ गया-

‘‘इसी इक बात पर अहले-ज़माना ह ख़फ़ा हम से


लक र हम ज़माने से ज़रा हट कर बनाते ह।’’

खप
ु ाताल
चिलए, यहाँ से हमारी गाड़ी मोड़ लेती है, खुपाताल क ओर लेिकन हम इस ताल तक पहँच,
उस के पवू य न एक झरने के आन द म नहाया जाए। तो जैसे ही हम थोड़ा आगे बढ़े एक
झरना पहाड़ी च ान से िगर कर लुढ़कता हआ, सीधे रा ते पर अपने पलक पाँवड़े िबछा रहा था।
यह झरना अिधक ऊँचाई से नह िगर रहा था, य िक यहाँ ऊँचाई कम थी केवल ढलान थी। कई
धाराओं म िवभ हो कर बहते इस झरने को ‘वाटर फॉल’ क जगह ‘वॉिकंग वाटर, रिनंग वाटर
या लोइंग केना स’ भी कह सकते ह। इस के शीतल जल को पाँव से छुआ तो ग़ज़ब का सद
अहसास िमला, बहत ही सुकून। कोटा क भीषण गम से यहाँ हम बहत राहत िमल रही थी। कुछ
देर हम सब लोग जल से ड़ाऐं करते रहे , इठलाते रहे , म ती म झम ू ते शरारत म मशगल
ू होते
रहे । कभी एक-दूसरे पर पानी उछालते तो कभी अंजुरी म इसे भर कर पी जाते। वह पास म एक
रे ाँ था ही। कुछ देर बाद हम लोग ने गमागम चाय पी व ेड पकौड़ का ना ता िकया, य िक
भखू से तो बेहाल हो ही रहे थे। सुबह से कुछ खाया भी कहाँ था। िफर यहाँ क िवशु जलवायु के
सबब भख ू तो बहत लगती है ही। श य- यामल वािदय क आग़ोश म बैठ कर चाय-
पान...आ...हा...। इस के प ात एस.टी.डी. से कोटा बात भी कर ली, केवल 12 पए म। ये या,
पकंज जी ने खुपाताल पहाड़ी के ऊपर से ही िदखा िदया, जो घाटी म था। इसे खुपाताल इस िलए
कहते ह िक इस क आकृित गाय के खुर क तरह है। यहाँ जाने के िलए शायद D.M. Nanital क
अनुमित लेनी पड़ती है। वैसे घाटी म नज़र आता यह ताल भी 1635 मी. क ऊँचाई पर है, जो
नैनीताल से मा 7 िकमी. दूर है। इस ताल म हम जो िवशेषता नज़र आई वो ये िक इस का जल
एकदम गहरे हरे रं ग का था। हाँ, सीढ़ीनुमा खेत व पहािडय़ से िघरे होने के कारण दूर से भी
काफ़ आकषक लग रहा था। यहाँ मछिलयाँ बहत होने के कारण यह जगह मछली पकडऩे के
िलए भी िस है।

चलते-चलते पंकज जी ने एक भरू े रं ग क ह रयाली िवहीन पहाड़ी क ओर संकेत कर के


बताया िक इसे ‘केमल बेक िहल’ कहते ह, य िक इस क आकृित ऊँट क तरह है। हाँ, लग तो
ऐसी ही रही थी। चार ओर हरी-भरी पहािडय़ के बीच यही पहाड़ी भरू े रं ग क थी। पंकज जी ने
बताया िक इस पहाड़ी पर आज तक कोई पेड़ या वन पित नह उगी है। कारण जो भी हो, क़ुदरत
का क र मा मान लीिजए या कोई भौगोिलक कारण। वैसे हम मान ल िक यह पहाड़ी प थर क
च ान क हो सकती है, तब भी ओने-कोने म कह न कह कुछ घास-फूस तो उग ही जाता है।
बाद म के.पी. जी कह रहे थे िक ये टू र म वाले भी ग़ज़ब का सोचते ह। सैलािनय को लुभाने के
िलये वाइ ट बढ़ाने के िलए कह भी कोई वॉइ ट गढ़ लेना इन के बाऐं हाथ का खेल है। ख़ैर,
यह तो हम ने भी नोट िकया है िक ये पयटक को अपनी सच ू ी म बताऐंगे िक िदन भर म हम आप
को 20 अमुक-अमुक जगह ले जाऐंगे, उन म से देखने यो य िनकलगी मा 8 जगह। शेष तो यँ ू
ही चलते-चलते कुछ भी वॉइ ट्स के नाम बना लेते ह, जैसे-’केमल बेक’। हम ने जब ग़ौर िकया
तो पाया िक कई पहािडय़ क ऊपर से आकृित िकसी पशु क तरह होती है। ख़ैर ये लोग भी या
कर। िदन भर घुमाना है तो कुछ न कुछ तो िदखाऐंगे ही। इन के िलए भी पापी पेट का सवाल जो
होता है और िफर इन क अ छी कमाई भी तो साल म 7-8 महीने ही होती है। शेष समय यँ ू ही हाथ
पर हाथ धर कर बैठे रहना पड़ता है। म बरू ी है, इसी िलए िकतने ही पहाड़ी युवक रोज़गार क
तलाश म मैदान म भटकते रहते ह। भख ू होती ही ऐसी है, जो या- या पाप नह करवाती। भख ू
पर एक सिू भी बहत बार पढ़ चुके ह-

‘‘बभ
ु िु त: िकम न करोित पापम’् ’

मेरा अपना शैर भी लीज़ सुन लीिजए-

‘‘मरु ाद इतनी है अब तो बस दुआ-ए-ख़ैर म ‘कमिसन’


जहाँ भर म िकसी का भख ू से हरिगज़ न दम िनकले’’

सात ताल
यँ ू तो त ऱीह करते-करते अब बारी आई जनाब सातताल क । कहा ना नैनीताल तो है ही
ताल क नगरी। ‘सातताल’ जैसा िक नाम से ही ज़ािहर हो रहा है िक यह सात ताल का समहू
होना चािहए। देिखए ना हमारा िवचार एकदम सही िनकला। यही बात पंकज जी कहने लगे िक
यहाँ सात ताल क शंख ृ ला है। लेिकन अब केवल दो ही ताल बचे ह, िजन म नल-दमय ती भी
शािमल ह। वैसे एक राज़ क बात यह है िक अभी भी नाव वाले ‘सातताल’ म पयटक को नौका-
िवहार के समय यही कहते ह िक यह रामताल है, थोड़ी नाव आगे ले जा कर कहगे अब ल मण
ताल आ गया, िफर सीताताल कहगे, यानी एक ही ताल म सात ताल आप को घुमा दगे और
पयटक ख़ुश िक एक ही ताल म सात िमले हए ह, जब िक हक़ क़त कुछ और ही है, जो िक म ने
अभी आप को बताई, लेिकन रोज़ी-रोटी के च कर म यह सब चलता है। हाँ, ये सात ताल राम,
ल मण, भरत, श ु न, सीता, नल, दमय ती नाम से ही जाने जाते थे, जो पहले अलग-अलग थे।
अब िवलीन हो गए, सख ू गए। पंकज जी ने सारा ख़ुलासा कर िदया। एक बहत ही िचकर बात
तो बताना ही भल ू रहे ह िक इस समय नैनीताल म ‘बाज़’ िफ़ म क शिू टंग चल रही थी और
आज यह शिू टंग ‘सातताल’ म ही हो रही है। इसी िलए ‘सातताल’ पहँचने के पवू रा ते म एक
रे टोरे ट पर पंकज ितवारी जी कार रोक कर हम भोजन करने को कहते ह। इस िलये िक
‘सातताल’ म शिू टंग होने के कारण वहाँ रे टोरे ट म काफ भीड़ होगी। आप को खाना भी ठीक
से नह िमल पाएगा। हम कार म से उतर कर रे ाँ मे गए लेिकन यह या, ये तो पहले ही
हाउसफ़ुल। परू ा हॉल बंगािलय से लबालब भरा हआ है। ती ा म लगो या चलो। िफर दूसरी बात,
यहाँ कुछ िवशेष कार क बू भी आ रही थी। शायद यहाँ वेज व नॉनवेज दोन भोजन उपल ध थे।
सफ़ाई व पिव ता भी कम ही थी। िफर जहाँ नॉनवेज िमलता हो वहाँ खाने का तो सवाल ही कहाँ
उठता है। हम तो नह खा सकते, य िक स भवत: बतन, चाक़ू, भगोिनयाँ, च मच सब कॉमन
ही होते ह। दाल भी उसी ऱाई ंग पेन म ाई होती है, िजस म कुछ देर पहले नॉनवेज ाई हआ है।
च मच भी िमल ही जाती ह गी। इस य ततम समय म िकसे इतनी फ़ुसत है िक आप का इतना
यान रखे। शायद आप को हमारे िवचार ग़लत लग रहे ह । हो भी सकते ह, अपवाद िमल भी जाते
ह, लेिकन अमम ू न ऐसा ही होता है।

अरे , िफर हम िवषय से भटक रहे ह। अब हम ने यहाँ खाने का आइिडया ॉप कर िदया। हाँ,
आप के ही काम क एक बात और है जो अभी बता ही द। नैनीताल म िसत बर-अ टूबर िवशेष
कर बंगािलय का सीज़न होता है। इस व त शायद वहाँ दीपावली-दशहरा या दुगा-पज ू नक
छु याँ होती ह, अत: ये लोग अवकाश का लु फ़ उठाने इधर ही आते ह, य िक दािजिलंग के बाद
यही िहल टेशन इन के िनकट पड़ता है और माउ ट आबू इस समय गुजराितय से भरा िमलेगा,
य िक वहाँ से गुजरात एकदम क़रीब है। या बताऐं आप को, परू ा नैनीताल बंगािलय से भरा
हआ था। हम िजधर भी जाते लगभग 98 ितशत बंगाली ही नज़र आ रहे थे, हम ने सोचा महज
इि फ़ाक़ होगा, लेिकन ितवारी जी ने ही बताया िक यह तो सीज़न ही इन का कहलाता है। इन
िदन इन के कारण महँगाई भी बढ़ जाती है। हम ने सोचा, यह भी ख़बू रही। हम तो ऑफ़ सीज़न
मान कर ही यहाँ आए थे तािक न यादा भीड़-भाड़ होगी, न ही महँगाई। ख़ैर, ान तो घर से
बाहर िनकल कर ही िमलता है, जानकारी बढ़ती है। आप भी नैनीताल जाऐं तो यह बात याद
रिखएगा। वैसे तो कोई बात नह लेिकन एक बात है िक घम ू ते समय टू र ट बस म क पनी नह
िमल पाती, य िक भाषा सम या सामने खड़ी हो जाती है। हम िकसी हमसफ़र से बात नह कर
पाते, घुलिमल नह पाते, पर पर प रचय- े नह बढ़ पाता। इन सब के बीच म अपना वयं का
समहू अकेला पड़ जाता है, हर चीज़ के दाम भी ऊँचे हो जाते ह। आप इस सीज़न म जाऐं तो
िसत बर के पहले स ाह म जाइए, परू ा लु फ उठा पाऐंगे। इधर बा रश क िवदाई होने का समय
होने के कारण इस समय कण-कण ह रयल रहता है, ह रयाली क छटा देखते ही बनती है।
अ टूबर म छोटी-छोटी दूब व घास सखू चुक होती है और बंगाली मौसम अ टूबर म ही होता है।
आप सोच रहे ह गे िक मई-जन ू म भी महँगाई के कारण नह जाऐं, भीड़-भाड़ भी रहती है तो कब
जाऐं, िसत बर म जाय। सौ बात क एक बात तो यह िक अपनी सुिवधानुसार ही जाऐं। वैसे भी सब
अपनी प रि थितय के अनुसार ही ो ाम बनाते ह। सॉरी, हम सलाह नह देनी चािहए। एक
कोटेशन पढ़ा था- ‘‘संसार अपराध कर के इतना अपराध नह करता, िजतना वह दूसर को
सलाह दे कर करता है।’’

िब कुल बजा फ़माया है। भारतीय वैसे भी मु त मि रा देने के िलए िवशेष प से म हर ह।


ज़रा ग़ौर िकया जाए तो िकतने अचरज क बात है, हम अपनी अमू य सलाह मु त म दे देते ह।
जब िक आजकल तो इस क भी भारी भरकम फ़ स वसल ू ी जाती है। इस के िलए कई बड़े -बड़े
के खुले हए ह। एक हम ह िक मु त म सलाह बाँटते िफरते ह। आदत से लाचार जो ठहरे ।

अब हम बढ़ते ह सातताल क तरफ़ और दूर से ही हम िदखाया जाता है, ‘नल-दमय ती’


ताल। कहा जाता है िक अपने जीवन के किठन समय म नल-दमय ती इसी ताल के पास रहे थे।
िजन मछिलय को उ ह ने काट कर कढ़ाई म डाला था, वे भी उड़ गई थ । वही कटी हई मछिलयाँ
यहाँ अभी भी िदखाई देती है। वैसे यहाँ मछली का िशकार मना है। जब ताल का नाम नल-
दमय ती है तो ज र इन का स ब ध इस थान से रहा ही होगा। नाम के पीछे सबब तो ज़ र
होता ही है। हाँ, समयानुसार बहत कुछ बदल जाता है। घटनाऐं, कथाऐं बदल जाती ह। कुछ छूट
जाता है, कुछ नया जुड़ता जाता है, यह समय क कठोर स चाई है।

यहाँ से सीधे हम सातताल पहँचे। कार से उतरे तो मु य ार के साथ ही एक और छोटे से


ार पर दो गाड तैनात थे। कुछ शाही गािडय़ाँ भी पाक थ । हम समझते देर नह लगी िक शिू टंग
यह चल रही है। हम ॉप कर के ितवारी जी एकाध घ टे का समय दे कर गाड़ी क मर मत
करवाने चले गए। हम लोग ने िज ासावश संत रय से पछ ू ही िलया िक शिू टंग यह चल रही है
या? वे बड़ी शालीनता से बोले िक यह पहाड़ी के नीचे नीबू के एक बाग़ म चल रही है। हम उधर
जाने लगे तो हम टोकते हए बोले, मैडम, लीज़ आप इधर नह जा सकती, डायरे टर ने मना कर
रखा है। अब या था। हम चार ने ताल के अ दर वेश िकया। ताल काफ़ दूर व नीचे था। रा ते
म चार-पाँच रे टोरे ट िमले। हम लोग कुछ देर ठहर कर िवचारने लगे िक खाना पहले खाया जाए
या ताल म उतरा जाए। तभी दो-चार युवक सामने से आते हए हमारा चेहरा पढ़ कर बोले जाइए,
शिू टंग देख आइए, सामने से चले जाइए। अब या था। सोचा, खाना तो रोज़ ही खाते ह, शिू टंग
देखने का तो जीवन म पहली बार अवसर िमल रहा है, महज़ इि फ़ाक़ हआ है। इसे देखने क
तम ना सदैव िदल म रही है। वैसे के.पी. जी व ‘यक़ न’ साहब क इ छा नह थी। दोन रज़व
नेचर के तो ह ही। लेिकन हम कोई मानने वाले थे। वि नल और हम तेज़-तेज़ क़दम से उधर ही
बढऩे लगे। ये लोग या करते, िववश हो कर हमारे पीछे -पीछे हो िलये। पहाड़ी झाड़-झखाड़ को
पार करते हए हम मंिजल ़ पर पहँच तो गए। यह या! यहाँ तो पहले से ही भीड़ जमा है। हम भी
इसी भीड़ का िह सा बन गए। लेिकन शिू टंग देखने म कामयाब नह हो पा रहे थे। तभी एक
शालीन-सा लड़का बोला, िस टर थोड़ा उधर (इशारा करते हए सामने वाले झाड़ क तरफ़) जा
कर देिखए, क र मा कपरू व दीनू मो रया साफ़ नज़र आऐंगे। चिलए साहब, उधर गए। रा ता तो
ऊबड़-खाबड़ था। लेिकन वहाँ से कुछ नीचे समतल पर वाक़ई शिू टंग चल रही थी। कोई धुन बज
रही थी, शायद िफ म के गीत क हो। क र मा कपरू को दीनू मो रया अपने एक हाथ से पानी
िपला रहा था। दूसरे हाथ म बोतल िलए हए, िजस से पानी डाल रहा था। य िक क र मा के हाथ
क चड़ म सने होते ह। आज बरस क मुराद परू ी हो रही थी। क र मा लाल सुख टी-शट, िसर पर
टोपी व जी स म थी। एक दम गौर वण, बहत सु दर व यारी लग रही थी। शॉट बार-बार ‘कट’ हो
रहे थे। हम ने देखा िक वह नीचे उ ह के पास लगभग 10-20 फ़ ट क दूरी पर ही कुछ लोग
खड़े शिू टंग देख रहे थे। जैसे ही हम भी उतरने लगे। गाड ने इ कार कर िदया िक आप नीचे नह
जा सकती। हम वापस लौटे, य िक सीन समा हो चुका था। क र मा अपने कै प म चली गई।
वह पर परू ी टीम के िलए भोजन बनाया जा रहा था तथा कुछ लोग खाना खा भी रहे थे। टीम के
कुछ लोग भीड़ को िततर-िबतर करते हए कह रहे थे िक आप लोग हम खाना खाने दीिजए।
क र मा जी भी अब ल च करगी, बाद म आना।

हम झँुझलाहट व ग़ु सा तो बहत आ रहा था। ये लोग आिख़र समझते या ह अपने आप को?


िजधर से भी शिू टंग देखने का यास करते ह, उधर जाने से इ कार कर देते ह। यिद हम लोग
िफ़ म नह देखगे तो ये ही भख ू े मर जाऐंगे। हमारे पैस पर ही तो इन के ऐश होते ह। बाद म
मालम ू पड़ा िक क र मा ने खाना दो घ टे बाद खाया था। मन ख़राब हो गया, वापस लौट आए।
वहाँ का सैट भी हटा िलया गया था। सो, हम ने अब बोिटंग करने का मानस बनाया। सब क
सहमित से यही तय हआ। हमने सौ पए म म लाह वाली नाव ली और चल पड़े सातताल क सैर
को। वाक़ई यह ताल बहत-बहत मनोरम है। चार ओर सघन वन पित, रं ग-िबरं गे फूल, लताओं से
आ छािदत यह ताल नैनीताल का सवािधक िव यात, रमणीय है। हरी-भरी वािदय से िघरा होने
के कारण पानी का रं ग यहाँ भी हरा ही नज़र आ रहा था। िकनारे से ताल क यटू ी बहत अलग
लग रही थी, तो पानी के बीच म से कुछ अलग ही सौ दय झलक रहा था। वाक़ई, जीवन का
अ ल सुख यही कृित द सुकून है। इस के सम भौितक स साधन कुछ नह ह। कुछ भी
नह है झल ू -झलू कर, झम ू -झम
ू कर, बाय-बाय करती बाज़-व ृ क डािलयाँ, पि य क चहक-
गुनगुनाहट, पतवार के चलने पर ‘छप-छप’ होती पानी क आवाज़, हम सब को म मु ध िकए
हए थी। थोड़ी दूर जा कर म लाह कहने लगे िक यहाँ रामताल है, थोड़ा बढ़ तो सीता ताल
बताया, थोड़ा आगे ल मण ताल का नाम िलया। उस ने कहा िक अब ये सारे ताल एक हो गए ह।
पहले अलग-अलग थे। हम ितवारी जी क बात याद आ गई। मन ही मन हँसी-सी आने लगी। 100
पए म एवं एक घ टे म हम परू े ताल क प र मा करवानी थी म लाह जी को। बहत दूर अ दर
तक नाव ले कर गए। हम ने वहाँ आस-पास के कुछ फ़ोटो ा स भी िलए।

मगर हमारा यान शिू टंग क ओर ही िज़यादा था। पुराना सैट हटा िलया था। हमारा मन
िख न होने लगा िक अब शिू टंग नह होगी। म लाह से हम बार-बार उसी िकनारे क ओर ले
जाने क िज़द करते तो वह कहता- मेमसाब, शिू टंग तो िदन भर चलेगी। इधर एक घ टे का व त
बीतता जा रहा था। तभी हम ने देखा िक िब कुल झील के िकनारे एक और सैट बनने लगा है।
हम आ त हए। वैसे नौकायन का आइिडया ‘यक़ न’ जी का ही था। जब शिू टंग वाली टीम
शिू टंग थल से हटने लगी थी। तब उ ह ने कहा था िक चिलए हम लोग नाव को शिू टंग वाले
िकनारे के पास ले जा कर खड़ी कर लेते ह। वहाँ से कोई हटा नह सकता। वाक़ई 2-3 नाव वह
तैर रही थ । वे लोग पहले से ही इसी कार शिू टंग देख रहे थे। वैसे ‘यक़ न’ साहब के आइिडए तो
धासँ ू होते ही ह। बुि मान तो बहत ह ही। लगे हाथ इन का थोड़ा प रचय भी हो जाए। इन का परू ा
नाम पु षो म ‘यक़ न’ है। फोटो ाफ का यवयास तो है ही, साथ ही कोटा के े तम शाइर ह।
हरफ़न मौला ह, ऐसा कोई काम नह जो इ ह नह आता हो। िच कला, संगीत, अिभनय म
पारं गत कह सकते ह। उदू शाइरी म भी महारत हािसल है। वयं के हाथ से िलखी उदू िलिप म इन
क पु तक कािशत है। देश के जाने-माने रचनाकार ह। हमारे सािहि यक उ ताद ह। बस, इतना
ही काफ़ है, वना िवषया तर हो जाएगा।

शनै: शनै: हमारी तरी शिू टंग थल क ओर बढऩे लगी। ‘यक़ न’ जी म त हो कर बाँसुरी
बजाने लगे। फ़ज़ाओं म मधु रम वर लह रयाँ घुलने लग । वािदयाँ, नौका-िवहार, सुर य
वातावरण, उस म मुरली-वादन...सब का रोम-रोम िथरकने लगा। कब हम झील के दूसरे छोर पर
पहँच गए पता ही नह लगा। हम नाव को वह खड़ी कर के शिू टंग का मुआयना करने लगे। इन
क लगभग ढाई सौ लोग क टीम थी। झील म से फ़ वारा चलने लगा, िजस से व ृ , लताओं को
िभगोयो गया। िफर एक मशीन ारा धुऐ ं के बादल बनाए गए। वाक़ई अ ली बादल लग रहे थे।
एक नाव ारा दो-तीन कैमरे झील के दूसरे छोर पर ले जाए गए। गाने क धुन बजने लगी।
डायरे टर वयं नाच कर सही जगह चुनने लगे। हवा के बड़े -बड़े पंख ारा न ली बा रश होने
लगी।

इधर एक घ टा परू ा होने म ही था। हम थोड़ी देर और-और कर के समय को टालते रहे ।
शिू टंग म काफ़ देर लग रही थी। उधर हमारा मन दुखी हो रहा था िक कैसे ठहर कुछ देर और।
तभी एक नाव म से कुछ युवक उतर कर िकनारे पर खड़े हो गए शिू टंग देखने हे तु। हम यह
आइिडया अ छा लगा। हम ने म लाह को नाव िकनारे पर ले जाने को कहा। हम लोग भी वह
उतर गए। जहाँ शिू टंग होने ही वाली थी। लेिकन अब तो वि नल भी चलो-चलो क िज़द करने
लगी। सब के पेट म चहू े कूद रहे थे। हम समझ म नह आ रहा था िक कैसे कुछ देर और रोक।
तभी आवाज़ आई िक ‘लोलो’ को बुलाओ। वि नल बोली म मी क र मा आने वाली है, लोलो उस
का ही यार का नाम है, म ने एक जगह पढ़ा था। ‘लोलो’ एक िमठाई होती है जो क र मा को
बहत पस द थी, इस िलए उस क माँ बबीता ने उस का नाम ‘लोलो’ रख िदया। हम कुछ राहत
िमली, हम ने यही कह कर इन लोग को रोक िलया। लेिकन काफ़ देर तक भी लोलो के आने
का कोई पता ही नह । पेड़ क नमी सख ू गई, धुऐ ं के बादल उड़ गए। पुन: सैट तैयार हए, धुआँ
उड़ा, बा रश हई। सैट, सेट िकया गया। डायरे टर बार-बार ‘लोलो-लोलो’ आवाज़ लगाता रहा।
तभी एक महाशय आ कर बोले िक आप के ाइवर महोदय आप को खोज रहे ह। अब तो जाना ही
होगा, कोई बहाना नह चलेगा, दो घ टे हो चुके थे। हम लोग लौटने लगे िक पंकज जी वह आते
िमले। हमारी िदली इ छा जान कर बोले दो-पाँच िमिनट म शिू टंग होने ही वाली है, देख लीिजए,
ऐसे अवसर बार-बार नह िमलते। आ...हा! हमारे मन क बात कह दी उ ह ने, हम ने उन को
ख़बू ध यवाद िदया। वह शिू टंग के कायकता भी ‘लोलो’ क ती ा म बोर हो चुके थे। उन म से
एक हम से वत: ही बोला, या हाल है मैडम। हम ने कहा िक ठीक है। िफर हम ने उन से िफ़ म
का नाम, उन के काय अनुभव सिहत कई िफ मी रोचक जानका रयाँ ा क ।
ी इ ाहीम ‘अ क’ जो अभी िफ़ मी गीतकार ह। उन से हमारी प ारा अ छी पहचान है,
उन के बारे म पछ ू ा, उ ह नमन कहलवाया था। बात यह थी िक वो लोग भी बोर हो रहे थे। इस
िलए हम से बितया कर व त पास करे रहे थे। हमारी भी यही हालत थी। वैसे शिू टंग देखने वाले
लगभग 50-60 दशक यहाँ मौजदू ह गे। शायद हमारे चहरे क सरलता देख कर उ ह ने बात क
हो, तभी क र मा जी हरी े स म हाथ म दुप ा िलए हए पधारी, इसी के साथ सारी टीम हरकत म
आ गई। यँ ू तो चटख़ धपू िखली हई थी, िफर भी र ले शन के िलए बड़ी-बड़ी ए यम ू ीिनयम शीट
लगाई हई थ । कैमरा ऑन हआ, क र मा जी ने पहले बाल पर कंघी क , िफर डे क ऑन हआ,
गाने क धुन बजने लगी। लगभग 20-25 फ़ ट तक क र मा दुप े को पकड़ कर सर के ऊपर
लहराती हई, गोल-गोल घम ू ती हई चली, शॉट ओके हो गया, पहली ही बार म, िफर उ ह ने बाल
सँवारे , आईना पकड़े हए एक यि सामने खड़ा हआ और शॉट चार बार दोहराया गया। शिू टंग
ख़ म होते ही दशक आगे बढऩे लगे, लेिकन टीम वाल ने मना कर िदया। लेिकन दशक कहाँ
मानने वाले थे। फोटो लेने के िलए कैमर के बटन दबाने शु कर िदए। लैश पर लैश चमकने
लगी। शिू टंग के व त फोटो लेना मना था, ठीक भी है, वना लैश भी िफ़ म म शटू हो जाएगी।
हम ने क र मा को यहाँ से िब कुल क़रीब से देखा। एकदम स तुिलत शरीर वाकई अ छी लग
रही थी। शॉट के बाद वह वापस अपनी गाड़ी म बने केिबन म चली गई। बाद म मालम ू पड़ा िक
भोजन के उपरा त मैडम आराम फ़मा रही थ , इस िलए िवल ब से शिू टंग हई। बात सही भी थी
और इन के नख़रे भी होते ही ह। दोन ही बात सही ह।

हाँ, िफ़ म के िलए ये लोग काफ़ महनत करते ह। 4-5 सैक ड क शिू टंग के िलए इ ह 3-
4 घ टे लगे। जबिक परू ी िफ़ म होती है लगभग ढाई घ टे क और िकतनी ही बार दशक एक
िमिनट म कह देते ह, यार िफ़ म बेकार है। सारे िकए-कराए पर एक िमनट म पानी िफर जाता है।
िफ़ म चलती ह तो करोड़ पए कमाए जाते ह, लॉप होती ह तो बबाद होने म भी देर नह
लगती, दोन ही बाते ह, ये भी यापार के उसल ू ह। अब या था, वो लोग ताम-झाम समेटने लगे।
हम तो फूले नह समा रहे थे। साहब, आिख़र शिू टंग देख ली थी हम ने। बरस क इ छा परू ी हई
थी हमारी। हम लोग कार तक आए, ितवारी जी से खाने क अनुमित ले कर वह खाना खाया जो
अपे ा से अ छा िमल गया, अ य पयटक भी वह भोजन का आन द ले रहे थे। साथ म लगी एक
मेज़ पर कई लड़के लोग बैठे थे। उन म से िकसी बात पर एक लड़का कहने लगा- यार! खाना
तो रोज़ ही खाते ह, शिू टंग तो आज ही देखने को िमली है। चिलए, हमारे िवचार का साथी कोई
तो िमला। रे ाँ ऊपर रोड से लगा हआ था। िफ़ म वाल क गािडय़ाँ नैनीताल क तरफ़ दौडऩे
लगी। हम पेमे ट कर रहे थे तभी दीनू मो रया क कार भी रवाना हई। वि नल वह रोड पर कार
के पास खड़ी थी।

भीम ताल
हम ने भी भीमताल क तरफ़ ख़ िकया। रा ते म देखते या ह िक दीनू मो रया क कार
हमारी कार के आगे-आगे चल रही है। वह कार के पीछे वाली शीट पर िवराजमान है एवं हसीन
वािदय को िनहार रहा है। वि नल ने ही हम उन क कार बताई थी। हम लोग काफ़ लेट हो चुके
थे, सो, पंकज जी उन क कार को ओवरटेक करना चाह रहे थे। ख़बू हॉन बजाया, ख़बू कोिशश
क , मगर उन के ाइवर ने साइड नह दी। साइड िमल जाती तो एक बार और सामने से देख
लेते। शिू टंग भी हम इस िलए देखना चाहते थे िक िफ़ मी िकरदार वा तिवकता म वैसे ही लगते ह
या? ये ही देखना था, सो देख िलया। क र मा काफ़ मेकअप म थी िफर भी य त: सामने थी
ही। दूसरी बात यह िक शिू टंग कैसे होती है। या वाक़ई जो िदखाते ह वह होता है या...। वाक़ई
यहाँ सब बनावटी ही था। बा रश, बादल, रोशनी सब कुछ न ली। ख़ैर इस म बुराई भी या है,
डायरे टर बा रश या बादल क ती ा करने लगे तो एक िफ़ म म ही 10-20 साल लग जाऐं
और िफर दशक को तो मनोरं जन चािहए ढाई घ टे का। वैसे भी सब कुछ का पिनक ही होता है।
पद पर हम सब कुछ ख़बू सरू त देखना चाहते ह, वैसा ही िदखाया भी जाता है। अ ल से भी बहतर
और या चािहए 20-25 पए म। अ तत: हम साइड िमल ही गई, एक मोड़ पर उन क गाड़ी
नैनीताल क ओर मुड़ी एवं हमारी गाड़ी भीमताल क ओर। शायद, साइड इस िलए नह दी गई
होगी िक कोई उन क गाड़ी के आगे आ कर रा ता रोक द। कुछ ऐसा ही रहा होगा, जैसा हम
सोचते ह। कुछ गड़बड़ करने लग जाए या बदतमीज़ी पर उतर आए। दीनू जी के साथ मा एक
पु ष और बैठे थे। लोग का कोई भरोसा भी नह है। वैसे ही जनता इन के पीछे पागल होती है,
कई बार अदाकार के साथ ऐसी वारदात होती भी रही ह। अत: फँ ू क-फँ ू क कर क़दम रखने पड़ते
ह। कहने का ता पय है िक अगर पीछे क गाड़ी म ग़लत लोग ह तो कुछ भी कर सकते ह। यह
बात हम के.पी.जी ने बताई जो हम सही भी लगी। ऐसे मुआमल म इन के िवचार का जवाब नह ।
िकसी पर आसानी से िव ास नह करना, ज़ रत से यादा सावधानी बरतना, इन का िस ा त
है, जो वतमान समय म ज़ री भी है।

अभी िजस सात ताल से हम घमू कर आ रहे ह, वह नैनीताल से 21 िकमी. मीटर दूर है,
सागर तल से 1371 मी. ऊँचाई पर है। उ लेखनीय है िक यहाँ अमे रका के िमशनरी रे वारे ड
टानले जॉ स का आ म है, िजस का नाम भी सातताल आ म है। हाँ, इस ताल क ल बाई 990
मीटर, चौड़ाई 315 मीटर व गहराई 150 मीटर है। टानले जॉ स ने यहाँ आ म इसी िलए तो
बनवाया है िक उ ह यह थान बहत ि य लगा। इस क नैसिगक छटा पर वे मोिहत हो गए।

जैसे ही हम भीमताल पहँचे शाम गहराने लगी। अत: अिधक देर नह ठहर सके। वाह! यह
ताल भी बेहद मनोरम िनकला। पहाड़ी क सु दर तलहटी म सुशोिभत, पहाड़ी भी िवशाल व
काफ़ ऊँची है। दूसरी तरफ खुला हआ था, साथ ही के म ख़बू सरू त टापू िजस म यारा-सा
उ ान अपनी उपि थित दज करवा रहा है। इस लासानी मंज़र को हम देखते रह गए। नैनीताल
का सब से बड़ा ताल भीमताल, भीमाकार होने के कारण ही शायद इसे यह नाम िदया गया होगा।
हम तो यह इतना िदलकश लगा िक काश! श द म बयाँ कर पाते। जल पर तैरती िततिलय -सी
नौकाऐं इस सौ दय म चार चाँद लगा रही थ । नौका िवहार का मन तो बहत हआ मगर
हनुमानगढ़ भी जाना था, ‘सनसेट’ के देखने के िलए और ‘सनसेट’ तो सनसेट के समय ही
देख सकते ह। आज हम ‘नकुिचया ताल’ भी जाना था, मगर शिू टंग म िवल ब हो जाने के कारण
इसे छोड़ना पड़ा।
भीमताल भी 1371 मीटर क ऊँचाई पर ही है। इस क ल बाई 265 मीटर, चौड़ाई 175 मीटर
तथा गहराई लगभग 15-20 मीटर बताई जाती है। नैनीताल से इस क दूरी 22.5 िकमी. है।
नैनीताल क तरह ही इस के भी त लीताल व भ लीताल दो कोने ह। टापू सुर य िपकिनक थल
है। वहाँ पर अ छे रे ाँ है। वैसे ही इस ताल का स ब ध महाभारत के भीम से भी जोड़ा जाता है।
भीम ने ही ज़मीन खोद कर इस क उ पि क थी। ऐसा कहा जाता है। ोपदी क यास बुझाने
के िलये भीम ने गदा से हार िकया और जल ोत फूट पड़ा, वह यह झील बनी। वा तिवकता तो
ई र जाने। भीमे र मि दर भी यहाँ है िजसे या तो भीम ने बनवाया होगा या उस क मिृ त म
बनाया गया होगा, दोन ही िकंवदि तयाँ चिलत ह। इस लेक म मछली के िशकार क य था भी
है। कुछ नहर भी इस म से िनकाली गई ह। िजन से िसंचाई होती है। यहाँ पर टेलीिवज़न का
कारख़ाना भी है। इस क एक धारा ‘ वाला’ नदी म भी िमलती बताई है। हाँ, भीमे र मि दर
महादेव जी का मि दर है। जब हम इस ताल का अवलोकन कर रहे थे, तब वह खड़े कुछ युवक
पर पर वातालाप कर रहे थे िक कल नैनीताल के एक मि दर म शिू टंग होगी। वैसे जहाँ तक
शिू टंग का सवाल है, परू ा नैनीताल ही इस के िलए सु दर थल है।

यहाँ का तो ज़रा-ज़रा, च पा-च पा इतना मोहक है िक आँख ब द कर के कोई भी इसे कैमरे


म क़ैद कर सकता है। यहाँ के लोग ने बताया िक यहाँ तो बारह महीन शिू टंग चलती रहती है।
यहाँ के िनवासी तो यान तक नह देते। कलाकार लोग भी यह घम ू ते रहते ह। सही भी है जो
चीज़ नह िमलती, आदमी उस के िलए ही तरसता है, जब िमल जाती है तो ‘घर क मुग दाल
बराबर’ हो जाती है। अभी िपछले स ाह ही हम ने ‘अ दाज़’ मवू ी देखी थी िजस का ार भ ही
नैनीताल झील के दशन से होता है। इस म कैमरा झील के चार तरफ़ घुमा िदया गया था बस।
अरे हाँ, हम ने िजस िफ़ म क शिू टंग देखी थी उस का नाम ‘बाज़’ था। यह िफ म हम ने कुछ
महीन पवू देख ली है, बड़ा अ छा लगा। जैसा वहाँ देखा, वैसा ही लगा। प ृ भिू म म िदखाए गए
बादल, भीगे पेड़ नज़र नह आए। वैसे भी दो-पाँच सैके ड म या- या नज़र आ सकता है। हम ने
घर पर सीडी भी मँगवा कर देखी, िजस म एक गाना िनकाला हआ था, वही बादल के य
वाला। दूसरा दीनू मो रया ारा क र मा को पानी िपलाने वाला य, हम ने बार-बार ि थर
करके देखा। इस िफ़ म क कहानी से शायद आप बोर हो चुके ह गे, अ छा भई, इसे यह िवराम
देते ह और चलते ह- धपू गढ़।

धूप गढ़
वही सु दर लहराती हई वािदयाँ, रा त व गगन चु बी व ृ ाविलय का लु फ़ उठाते हए हम
पहँचे हनुमानगढ़, जहाँ पहले से ही सैलािनय का ताँता लगा हआ था। अभी सय ू ा त होने का
व त था। ितवारी जी बड़ी तेज़ गित से कार चला कर लाए थे। पहले हम ने संकट मोचन हनुमान
जी के दशन िकए। मि दर भी सु दर व ितमा भी आकषक। उन का मुकुट देखते ही बनता था,
बड़ी सु दर कला मक व िवशाल ितमा। इतना यारा मुकुट हनुमान जी का पहली बार देख रहे
थे। सद काफ़ बढ़ गई थी। के.पी. जी व ‘यक़ न’ साहब ने तो ऊनी कपड़े पहने हए थे। मि दर के
प रसर म इधर-उधर घम ू े, अ छा तो लग रहा था, मगर फ़श इतना ठ डा िक पैर नह रखे जा रहे
थे, जैसे िक बफ़ ही हो। अ दर तक िसहर गए हम चार । हम ने प डे जी से कारण पछ ू ा तो बोले,
यहाँ के सद वातावरण का असर है। सद म तो यहाँ बफ़ ही बफ़ हो जाती है, िजसे हटा-हटा कर
हम लोग परे शान हो जाते ह, अभी तो सद ही या है? हाँ, सीिढय़ पर ज र मेट िबछी हई थी,
तािक दशनािथय के पैर ठ ड से बच सक। यहाँ फुलवारी भी बड़ी यारी थी। गदा तो चटख रं ग
म िखला हआ था।

अब सय ू ा त क बारी थी। यहाँ पहाड़ पर बादल तो छाए हए रहते ही ह, इस कारण सरू ज


दादा पहाड़ी के पीछे उतरने के पवू कुछ ऊँचाई पर ही बादल म ख़ुद को िछपा लेते ह। बेचारे सय

दादा, बादल क शरारत के सामने इन क कभी चली ही कहाँ है। उन का िदखना, न िदखना
इन के वश म रहता है और िफर भी इन क महरबानी देिखए जो बादल को इतना चमकदार
विणम व चटख़ बना देते ह, िज ह दुिनया देखती ही रह जाती है। दूर-दूर तक एक के बाद एक
पवत-मालाओं क शंख ृ ला, उन के र थान म आराम फ़माती दु ध- वल धु ध, ऊपर से
चु बन लेते मेघा और उन म डूबते सरू ज दादा, वाह या य है! कई कैमरे बार-बार ऑन हो रहे
ह। लैश क चमक एक के बाद एक क ध रही है। कोई सैलानी हथेली पर रख रहा है सरू ज को
तो कोई अपनी अँिखय के सामने, कोई िकस मड ू म तो कोई िकस मड ू म खड़ा हो कर, इस
समच ू े सौ दय को कैमरे म क़ैद करने क ित प ् धा म शािमल है। सब क ि िटक हई है
ि ितज पर जैसे अजुन क ि िचिडय़ा क आँख पर थी। सब िनिममेष हो कर अ ुत य को
देखने के िलए उ सुक थे। देश या दुिनयाभर के सैकड़ सैलानी यहाँ इक े हो गए थे। हम ने भी
वि नल के साथ अपनी एक-एक हथेली को ऊपर-नीचे कर के अँजुरी बना कर बीच म सरू ज को
क़ैद कर के कैमरे म उतार िलया है। नीचे हमारी हथेली, ऊपर उस क हथेली, ठीक रहा ना। एक
ही नेप से काम चल गया। हमारे दोन हमसफ़र को तो फोटो िखंचवाने का शौक़ है नह । ये
ू जी ने बादल के घँघ
या...! देखते ही देखते सय ू ट म वयं को िछपा िलया। हम ठगे से देखते ही
रह गये। ठग ही िलया इस य ने तो हम सभी को। सय ू क तरह थके-माँदे सैलानी लौटने लगे
अपनी-अपनी मंिजल ़ क ओर।
हमारी दादी कहा करती थी िक डूबते सरू ज को नह देखना चािहए, इस से दोष लगता है।
शायद इसी िलए िक वह एक िदन के अ त का समय होता है और सरू ज का िणक अवसान
होता है, जो दुखद ही माना गया है। उस के बाद अ धकार छा जाता है, जो दुख, िनराशा, अस य,
अधम का तीक माना जाता है। इसी िलए तो कहा गया है- ‘ओम तमसोमा योितगमय’। िकसी
को िगरते हए देखना ग़लत होता है। िकतनी बुि मान थी हमारी दादी ी देखो, उगते सरू ज को
ख़बू देखो जो ऊजा का, आशा का, उ साह का तीक है। नवो मेष है। सरू ज ही देखना है तो
सुबह का देखो, लेिकन इस आधुिनक कहलाने वाली पीढ़ी का या िकया जाए, जो उिदत सय ू तो
यदा-कदा ही देख पाती है, य िक अ राि के बाद सोती है तो सय ू दय के पवू उठने का तो
सवाल ही नह । जब सय ू िसर पर आ जाता है तब आँख खोलते ह। बहत से लोग क तो िदनचया
ही ऐसी हो चुक है। उनके िलए ‘‘Early to bed and early to rise...’’ तो जैसे बीते कल क
बात हो चुक ह, कोई िव ास नह करता अब इन जीवनपयोगी म म, इ ह तो आज क पीढ़ी
दिक़यानस ू ी बात कह कर नकार देती है। व त-व त क बात है िक अब सय ू ा त को देखना
परमान द का िवषय तथा पयटन का िवशेष आकषण बन गया है। बेताब-से दौड़ते ह लोग, इसे
देखने। एक किवता पढ़ी थी हम ने, िजस का भाव यही था िक िकसी को िगरते हए देख कर
उठाना, सहलाना तो दूर क बात है, अब तो ऐसा होने पर लोग आनि दत होते ह, यही है वतमान
क ासदी।

त ली ताल
हम लोग भी अब नैनीताल क तरफ़ हो िलए। थोड़ा नीचे उतर ही रहे थे िक पंकज जी ऊपर
से ही इशारा करते हए बोले िक घाटी म जो मि दर िदखाई दे रहा है, वह नैना देवी का है, अभी
जाते समय दशन कर लीिजएगा। तभी पहाड़ी मोड़ पर अचानक एक कार सामने आ गई,
‘यक़ न’ जी का हाथ टीय रं ग पर दौड़ा और पंकज जी ने ेक लगाया, एकदम ज़ोर का झटका
लगा, गाड़ी थम गई। यह सब एक सैक ड से भी कम समय म हआ होगा। हम लोग को सारी
ि थित बाद म समझ आई, हमारे रोम-रोम खड़े हो गए। बाल-बाल बचे, जान बची लाख पाए।
हआ यह िक ितवारी जी मि दर िदखाने म लग गए और कार सड़क के बीच म थी ही, उन का
यान नीचे मि दर पर था, उसी ण सामने मोड़ से अचानक दूसरी कार आ गई, जो अपनी
साइड पर थी। हमारी कार ही बीच म थी, न जाने िकस क दुआऐं काम आई ं, ई र क कृपा हई,
उस क मन से हाथ जोड़ कर दया वीकार क । पंकज जी भी घबरा से गए। वो तो ‘यक़ न’
साहब को कार चलाना खबू आता है, वे ाइवर के पास ही बैठे थे, सो ि वक िनणय ले िलया।
वाक़ई ाइिवंग के समय केवल और केवल यान गाड़ी पर ही होना चािहए। िफर पहाड़ी रा त पर
तो िवशेष कर, इसी िलए तो हर मोड़ पर सावधानी बरतने के िलए िनदश लगे हए होते ह।

ई र क कृपा और आप क दुआओं से हम महफ़ूज़ होटल आए। आधा-एक घ टा सब ने


आराम िकया, िफर वह िखड़क म बैठ कर चाय पी, जहाँ से नैनी झील का िवहंगम य सामने
िदखाई दे रहा था, िजस ने चाय के ज़ायक़े को और बढ़ा िदया था। कुछ देर बाद हम लोग े श हो
कर, माल रोड पर त लीताल से म लीताल क ओर चहलक़दमी करने िनकल पड़े । इस ताल का
म ला भाग म लीताल व िनचला भाग त ली ताल कहलाता है। म लीताल पर एकदम लैट
खुला-सा मैदान है। यहाँ शाम को सैलािनय का जमघट जमा हो जाता है, जहाँ से स या के
समय स पण ू नैनीताल का जगमगाता य अनुपम बन पड़ता है। म लीताल के इस मैदान म
आए िदन खेल-तमाशे, सां कृितक काय म यानी नैनीताल के सारे भ य आयोजन यह होते ह।

ू ने का लु फ़ उठाऐं। झील के िकनारे टहलते हए हम काफ़ दूर तक िनकल गए।


चिलए, घम
यहाँ पर म लीताल क ओर जाने के िलए झील के िकनारे कुछ नीचे अलग से सड़क बनी हई है,
पैदल चलने वाल के िलए। शाम को म लीताल से त लीताल को वाहन नह चलते तािक पयटक
सुहानी शाम का बख़बू ी लु फ़ उठा सक। एक तरफ़ झील का िकनारा, वािदय क सु मा दूसरी
तरफ़ िव त ु छटा से दैदी यमान दुकान, शो- म, होटेल वाह! या कहना इस अनोखी व सुहानी
शाम का। शीतल म द-म द पवन के झ क म िदन भर क जो थोड़ी थकान थी, यँ ू ही छू-म तर
हो गई, रोम-रोम तरो-ताज़गी से भर गया। वो रोमांिचत शाम अिव मरणीय बन गई। कब हम
िकतनी दूर पहँच गए पता ही नह चला। शनै: शनै: िनशा गहराती गई। रोशनी म नहाया दीिपत
नैनीताल िकसी विणम लंका नगरी से कम नह लग रहा था। हम तो लंका नगरी से भी यादा
आलोिकत लगा। लंका का जैसा वणन पढ़ा है, उस के अनुसार कह रहे ह। वह तो मा पढ़ा भर है,
यह य तो सा ात् था। पानी म घुलती रोशनी जैसे िकसी ने कंचन पानी म घोल िदया हो।
िब कुल मायावी नगरी लग रही थी। िनर तर देखते-देखते भी आँख त ृ होने का नाम नह ले
रह थ । झील के दूसरी तरफ़ बाज़ार म जा कर कुछ खरीदना था, बतौर िनशानी। लेिकन वो
सड़क इस से लगभग तीन फुट ऊँची होगी। ॉिसंग बहत आगे था। सो, पु ष गण पहले चढ़ गया
िफर हाथ पकड़ कर हम चढ़ाया। बाज़ार क रौनक़ देखते ही बनती थी। जहाँ एक से बढ़ कर एक
चीज़ िमल रही थ , मगर दाम बाप रे बाप, आ मान को नह पहाड़ क चोिटय को छू रहे थे। एक
तो पयटन थल उस पर माल रोड। अभी तक िजतने भी पयटन थल यानी िहल टेशन पर हम
गए, जैसे-मसरू ी, िशमला, अ मोड़ा आिद सभी जगह का जो मु य पयटन बाजार या सड़क होती
है, उस का नाम माल रोड ही होता है। इस नाम के पीछे या रह य है, समझ म नह आया, ज़ र
इस नाम क कुछ न कुछ साथकता रही होगी। कोई भी नाम इतना चिलत यँ ू ही नह होता।

हम ने सुना भी है िक अ य शहर म भी माल या मालारोड अिधक ही चिलत है। हाँ, सभी


माल रोड म अ मोड़ा माल रोड सवािधक िस है। यानी इस क िसि भी है। स भव है यह
नाम अं ेज़ ने ही िदया हो, य िक िज़यादातार िहल टेशन क खोज अं ेज़ ने ही क है। ठ डे
देश के वािश दे गम देश म आ तो गए मगर गम उ ह सताने लगी। अत: बेहद परे शान हो जाने
पर उ ह ने ठ डे थल क खोज क , उ ह बसाया, वहाँ अपना आवास ही नह अिपतु ऐसे शहर
को राजधािनयाँ भी बनाया। इस कार इन थान का सततï िवकास होता गया और िव मान-
िच पर इन का नाम उभर कर सामने आया। आज भी िकतने ही थल , दशनीय जगह के नाम
अं ेज़ के िविश अिधका रय के नाम से जाने जाते ह या उ ह खोजने वाले के नाम से उन का
नामकरण हआ है। मसरू ी के एक मुख झरने का नाम है- ‘कै प टी फ़ॉल’। कहते ह िक अं ेज़
लोग यहाँ गम के मौसम म पहाड़ क वादी म आ कर कै प लगा कर रहा करते थे एक कै प म
चाय का लु फ़ उठाया करते थे, इसी िलए उस जगह का नाम ‘कै प टी फ़ॉल’ हो गया। कोई बड़ी
बात नह है अगर यह सच भी है तो। अं ेज़ गए, लेिकन उन क सं कृित यहाँ रच-बस गई है,
िजस क जड़ काफ़ गहरे तक पहँच चुक ह, िज ह उखाड़ना अब िकसी के वश क बात नह
लगती है। ल बे समय तक िकसी क सुहबत म रहो तो असर आता है और गहरा-गहरा होता चला
जाता है। जहाँ तक नामकरण का सवाल है, वो लगभग शा त हो जाते ह।

हाँ, तो हम बात कर रहे थे ‘माल रोड’ क । आिख़र, घर आ कर ामािणक जानकारी के िलए


हम ने श दकोष का सहारा िलया। िजस के अनुसार माल का अथ है- ‘ठ डी सड़क’ एवं ‘ठहरने
का छायादार माग’। एकदम िब दास वाक़ई पहाड़ पर माल रोड ‘ठ डी सड़क’ तथा टहलने का
छायादार माग ही तो होता है, जहाँ सैलानी टहलने का भरपरू लु फ़ उठाते ह और खबू माल दे कर
और बतौर िनशानी महँगे-महँगे माल भी ख़रीदते ह। अब माल रोड को ले कर सारा संशय दूर हो
गया। वा तव म जान होती है माल-रोड शहर क । व तुत: ये बाज़ार पयटक को लुभाने म कोई
कसर नह छोड़ते। वो जानते ह िक इतनी दूर से आए सैलानी कुछ न कुछ ज र ख़रीदते ह एवं
थान िवशेष का िवशेष उ पाद तो लेते ही लेते ह, य िक उन के शहर म वो व तुऐ ं न तो शु
प म िमलती ह न ही वािजब दाम पर और िफर िज़यादातर या ी सम ृ प रवार से होते ह, िजन
के पास पैस क कमी कम ही होती है। हम भी िकसी से कम थोड़े ही ह। जहाँ भी जाते ह कुछ न
कुछ ज़ र ले लेते ह, चाहे िफर ि लप, िबंिदया या छ ला ही य न ह । अपनी हैसीयत का
ख़याल ज़ र रखते ह। वरना ये तो मन है, इस क उड़ान क कोई सीमा ही कहाँ है। इस माल
रोड से बहत कुछ लेना चाह रहे थे, मगर काले अंगरू वाला छ ला ले कर ही तस ली कर ली, वो
भी बतौर िनशानी, तािक घर म उसे देख-देखकर ख़ुश होते रह, अपने िम को गव से बताते भी
रह, और या...! अब हम थकने लगे ह, भख ू भी अपना रौब िदखाने लगी है। वि नल फा ट-फूड
ख़रीदना चाह रही है। रे ाँ पर ात भी िकया, मगर उस का पस दीदा कुछ भी नह िमला। अब
तो पैर भी दद करने लगे, चला भी नह जा रहा था और होटेल जाने का कोई साधन भी नह था।
सो, धीरे -धीरे पैदल ही हम अपने होटेल के क़रीब पहँचे। आस-पास कोई ढं ग का रे ाँ नह िमला।
आिख़र आलू के पराठ से ही काम चलाया। यह माल रोड है भाई। हाँ, यहाँ क थानीय ब ती क
तरफ़ जो थानीय बाज़ार है, वहाँ सब चीज़ वािजब दाम पर, अ छी िमल जाती ह, यह बात वहाँ के
एस.टी.डी. वाले ने बताई, लेिकन ये बात अजनबी लोग कैसे जान पाते? ख़ैर अगले िदन से हम
ने उसी बाज़ार म सारे काम िकए।

मालरोड ख म होता है, वह बस टे ड से ऊपर क तरफ़ लोकल बाज़ार ार भ हो जाता है।


अरे हाँ, सुना आप ने, हमारे कोटा म भी मालारोड है। भोजनोपरा त हम ने कोटा फ़ोन िकया तथा
कोसानी, अ मोड़ा, रानीखेत के मण क जानकारी भी ली, य िक एस.टी.डी. वाले क
ेविलंग ऐजे सी भी थी। िहना ेव स नाम से। वैसे हमारे ाइवर साहब ने िदन म हम लोग के
दो-िदन के मण क बुिकंग करवा दी थी। इन दो िदन म उपरो तीन जगह हम घम ू ना था।
िदन म मण के समय उन से कुछ यँ ू ही बात िक थी िक उ ह ने एक जगह कार रोक कर
बुिकंग करवा दी, उ ह यहाँ क सेवाओं क हम से िज़यादा जानकारी है ही, ये जान कर हम लोग
आ त थे। बाद म मालम ू पड़ा िक नैनीताल म सव े सेवा िहना ेव स क ही है। हम
एस.टी.डी. पर फ़ोन कर के कुछ बात कर ही रहे थे िक उन के मैनेजर बोले िक कुछ देर पहले
क र मा जी भी यह से अिभषेक ब चन को फ़ोन कर के गई ह। सुखद आ य हो रहा था िक इन
लोग के तो पसनल मोबाइल होते ह िफर भी एस.टी.डी. पर...। ख़ैर उन क वो जान, हम य
इतना सोच, रही होगी कोई म बरू ी। हाँ, िजस रोड पर यह ऐजे सी है वह रोड नैनीताल के आस-
पास के सभी मु य माग को जोड़ती है। आस-पास के थान से आवागमन इसी सड़क से होता
है। शिू टंग वाले भी इसी रोड से आते-जाते ह। इसी िलए क र मा ने बीच म यह क कर बात क
होगी। उस ने कहा िक इस बीच थोड़ी बहत भीड़ जमा भी हो गई थी।

यहाँ से वापस होटल आते समय हम एक बार िफर ‘अिभषेक ेव स’ से िमले, यह होटेल क
बग़ल म ही था। हम ने उस से खरा-खरा कर पछ ू ा िक बस अ छी होगी ना, तो बोला आप को
कोई िशकायत नह होगी। बस ि सीटस होगी। पुश बैक वाली बस तो परू े नैनीताल म नह है,
पहाड़ पर ऐसी बस सटू ेबल नह रहत । जब िक 10 िमिनट पहले ही ‘िहना’ वाले से टू शीटस पुश
बेक क बात हई है। जो सच थी, य िक अगले मण के दौरान कई थल पर उस क बस हम
ने देखी थ । लगभग 15 िमिनट काफ़ बहस हई, लेिकन प रणाम वही- ‘ढाक के तीन पात’। ये
लोग ाहक को बेवकूफ़ बनाने के िसवा करते भी या ह। बहत सफ़ाई से पयटक को परे शान
करना इन क आदत म शुमार हो चुका है। अब या था, अपने कमरे म लौट आए। अ मोड़ा,
रानीखेत व कोसानी यि गत प से जाना चाहते थे, मगर लािनंग नह कर पाए। इधर इन
दोन महानुभाव को यानी के.पी. जी एवं ‘यक़ न’ साहब क तो िज़यादा िच है ही नह िकसी
बात म। हम ने वह वातायन म बैठ कर स ,ू मँगू फली व कुछ िबि कट खाए, िज ह हम कोटा से
ले गए थे। वाक़ई घर से कुछ खाने क चीज़ ज़ र साथ रख लेनी चािहए। बाहर वास म ये बहत
काम आती ह। ज़ री नह िक व त पर वहाँ अपनी पस द का खाना िमल जाए। स भव है उस
व त हम बस या ेन म ह । पुराने लोग का तो यह उसल ू रहा है िक जब भी घर से िनकलो,
खाना साथ ले कर ही िनकलो। वे लोग तो ल बी या ाओं पर िड बे भर-भर कर स ,ू शकरपारे ,
बफ़ आिद ले जाया करते थे। हमारी दादी भी या ा पर जाते समय ये सब चीज़ ले जाया करती थ ।
यह बात अलग है िक कुछ लोग तो खाना बनाने के सारे सामान भी साथ ले कर चलते ह। तािक
बाहर के भोजन क ख़रािबय से बच सक।

थोड़ी-बहत पेट-पज ू ा करने के बाद हम ने डायरी म िदन भर क गितिविधय को बाक़ायदा


िलखा जो अभी काम आ रही ह। हम िलखते देख कर ‘यक़ न’ जी बड़े शायराना अ दाज़ म बोले
िक आप को ‘ ान-पीठ पुर कार’ ज़ र िमलेगा, ये म आज कह रहा हँ। वो हमारी लगन एवं
लेखन के ित समपण भाव को देख कर बोले थे। िदन भर क इतनी मश क़त के बाद भी हम
राि को िलखने जो बैठे थे। इस काय से िनव ृ हो कर हम पलंग पर आ कर आराम से अधलेट
गए, जहाँ से परू ी नैनी झील पहाड़ के आग़ोश म िसमटी िदपिदपा रही थी। वाह, या नज़ारा था।
सड़क पर केवल चहलक़दमी बची थी, वाहन से इसे लगभग िनजात िमल चुक थी।

अब केवल ख़ामोशी का सा ा य था। सद हवा के झोक से बीच-बीच म जल के लहराने से


उस म उतरी हई रोशनी कि पत हो उठती थी। ऐसा लगा जैसे हवा उस क न द म ख़लल पैदा कर
रही है। चार ओर िघरी पहािडय़ाँ, ोणाचल पवत क तरह िटमिटमा रही थ , जैसे इन पर भी
संजीवनी बिू टयाँ िदपिदपा रही ह । यही िदपिदपाहट पानी म वण घोल रही थी। जैसे हीर जिडत

सोने क चादर, वो भी लहर वाली, इस झील को ओढ़ा दी गई हो। वाक़ई अलौिकक य था, यह
भी। बार-बार मन म यही आ रहा था िक काश! हमारा ज म ऐसी जगह हआ होता। इस नैसिगक
यटू ी के ऊपर लाख भौितक सुिवधाऐं िनछावर क जा सकती ह। बहत ही भा यशाली ह ये लोग,
जो यह पैदा हए ह या यहाँ रहते ह।

इसी तरह िच तन-मनन करते-करते िन ा रानी हमारी आँख म आ कर सो गई। आँख


खुली तो नैनीताल क एक ओर सुहावनी सद सुबह हमारे वागत म ार पर द तक दे रही थी।
हम ने ार खोल कर उस का वागत िकया, बाहर लॉन म जा कर पवतीय भोर के अनुपमेय
सौ दय का च ुओ ं से पान िकया और तन-मन म आन द क सुरिभ घुल गई, पोर-पोर नत ू न
ऊजा से शराबोर हो चुका था। कल क तरह रा त पर आवा-जाही ार भ हो चुक थी। इस
विणम सुबह का सब अपने-अपने तरीक़े से वागत कर रहे थे।

हवा बहत ही सद व तीखी थी, मगर उस अलौिकक आन द क अनुभिू त म सद का


अहसास नह हो पा रहा था। कुछ देर हम चार वह लॉन म चहलक़दमी करते रहे एवं गरमागरम
चाय का लु फ़ भी लेते रहे । बारी-बारी से सभी िन यकम एवं नान से िनव ृ हो कर, पुन: लॉन
म चाय के याल के साथ एक हो गए। वह बग़ल म िव ालय था, उस क घ टी बज उठी,
बालक क ध पर ब ता टाँके शाला म वेश करते, जैसे यहाँ क़ुली पीठ पर सामान ले कर चलते
ह, वैसे ही ब चे भी छोटे क़ुली लग रहे थे। दोन ही तो बोझा ढो रहे थे, िकस का ढो रहे थे यही
अ तर था। कुछ देर बाद ाथना होने लगी। वहाँ केवल मिहला िश क ही नज़र आई ं। वैसे भी छोटे
ब च के िलए मिहला िश क रखना ही उिचत है, य िक वे कोमल दय जो होती ह। कूल
स भवत: ाइमरी ही था, ाइवेट तो था ही। मन म आया यह इसी शाला म नौकरी करने लग
जाए व यह रहने लग। यह सब हमारे मन म ही चल रहा था, हम ने िकसी को बताया भी नह ।
हाँ, बचपन से ही कूल जाते-जाते, यही ढरा देखते-देखते अब कूल से हम बहत िचढ़ होने लगी
है। छोिडए
़ इसे यह । अब ना ते क बारी थी, सो हम और वि नल पास ही बाज़ार चले गए कुछ
फल खरीदने। जहाँ सेब, मौसमी व केले िलए, वहाँ स तरे के आकार के न बू व रामकरे ला भी
देखा। ना ते से िनव ृ होते-होते नौ बज गए। अिभषेक ऐजे सी तो बग़ल म थी ही सो, वह सामने
झील के िकनारे बच पर बैठे-बैठे हम बस क ती ा करने लगे, झील का साथ होने के कारण
बो रयत का तो सवाल ही बेमानी था। दस बज गए लेिकन न तो एक या ी ही िदखाई िदया न
बस ही। आिख़र माजरा या है, यह मालम ू करने के.पी. जी मैनेजर के पास गए तो मालमू पड़ा
िक बस अमुक जगह खड़ी है। आप को वह पहँचना है। भला आदमी रात को ही बता देता तो या
जाता। पहले उन से रा ते के बारे म जानकारी ली, िफर सामान उठा कर चल िदए। नई जगह,
पहाड़ी रा ते, चलते-चलते भी न तो बस ही िमली, न कोई या ी। िकसी से कुछ पछ ू ते तो यही
कहते िक नाक क सीध म चले जाओ, बस थोड़ी ही दूर और। भले आदमी को कोई यि हमारे
साथ तो भेजना चािहए था। इधर समय अलग हो चुका था। ज दी-ज दी पाँव उठाते-उठाते काफ़
दूर पहाड़ी मोड़ पर वह थान िमला और चैन क साँस ली। लेिकन वहाँ तो बस थी ही नह कुछ
या ी ज़ र बैठे व खड़े थे। मालम ू पड़ा िक बस अभी नह आई है। काठगोदाम याि य को लेने गई
है, रा ते म िकसी म ी के आने के कारण च का जाम हो गया, बस वह फँस गई है। 10:45
बज चुके थे। इस के पहले होटेल के पास ही रज़वशन ऑिफ़स होने के कारण के.पी. जी ने कोटा
का रज़वशन ज़ र करवा िलया था।

ती ा बड़ी भारी पड़ रही थी, कभी इधर-उधर टहलते, कभी अटैची पर बैठते, वि नल भी
काफ़ परे शान हो रही थी। व त के साथ-साथ हमारा ग़ु सा भी बढऩे लगा। हमारे िसवा सारे
पयटक बंगाली ही थे। बस य नह आ रही, सब अपनी-अटकल लगाने लगे, कुछ को थोड़ा-
बहत ग़ु सा भी आ रहा था। लगभग 12 बजे बस महारानी पधार जो िस पल रोडवेज़ जैसी थी।
इसे देखते ही हम सब का पारा और चढ़ गया, ऊपर से ढाई घ टा लेट। बारह बजे तो अ मोड़ा
पहँचना था। सब चुपचाप चढ़ गए। हम चार क ड टर से उलझते रहे , य िक मािलक तो
चुपचाप सटक िलया था। क ड टर को हम से 550 पए लेने शेष थे। हम ने कहा िक ढाई घ टे
के पैसे कम कर लो या कोसानी म ले लेना, लेिकन उसे िव ास नह हआ, बोला- गाड़ी म पै ोल
नह है, कैसे जाएगी। उस ने सारे याि य को अपनी तरफ़ कर िलया। एक-दो जो हमारी तरफ़ थे
यानी याय क ओर, वो भी उन क ओर हो िलए। काफ़ कहा सुनी हई। बोला िक आप लोग उतर
जाओ। हम भी तैयार थे, य िक ऐसी बस से, ऐसे हालात म हम नह जाना चाह रहे थे। िकसी
दूसरी बस से चले जाऐंगे, मगर वो पैसे भी नह लौटा रहा था। उसे हम पर िव ास नह था,
लेिकन हम उन पर यक़ न कर। सारे या ी हम से ही उलझने लगे। आिख़र हमेशा क तरह सच
क ही हार हई, अ याय जीता और हम 550 पए देने पड़े तभी बस रवाना हई। वैसे हम, सभी के
िलए लड़ रहे थे िक सब को ढाई घ टे के पैसे लौटाए जाऐं, मगर सब हमारे ही िख़लाफ़ रहे ।

शायद यही दुिनया का द तरू है। हम ही शोषण सहते ह, तभी शोषण िकया जाता है। यही
ासदी है िक अ याय के िव बोलने का साहस िवरले लोग म ही होता है। इसी बात पर
‘यक़ न’ जी का शेर याद आ गया-

‘‘बोलो भैया बोलो वरना बोल रही है ख़ामोशी


िदन पर िदन अब ज़ािलम का िदल खोल रही है ख़ामोशी।’’

बस िब कुल असुिवधाजनक थी। बात तो मािलक ने रात को बहत बड़ी-बड़ी क थी-


म लन, नैनीताल म हमारी एजे सी का भी नाम है, इतनी बड़ी दुकान ले कर ऐसे ही थोड़े बैठे ह,
वग़ैरह...वग़ैरह।

हम परू े तीन घ टे िवल ब से रवाना हो रहे थे। रा ते म हम जाते देख कर िहना वाला बोला
भी था िक आप क बस अभी नह गई या। वैसे भी पैसे देने के बाद आप कुछ कर ही नह सकते,
उस के हवाले वयं को करने के िसवा। इसी िलए कह भी पैसे देने के पहले सौ बार सोच लेना
चािहए, िफर भी ग़लती हो जाती है, मानव वभाव जो है, ऐसा भी होता रहता है, जीवन है यह
जीवन। हाँ, इस तमाम घटनाच से हम बहत कुछ सीखने को ज़ र िमला, ये ख े-मीठे अनुभव
ही तो हमारी अ ल िश ा होती है, यिद हम इन पर ईमानदारी से अमल कर तो। घर से बाहर
िनकल कर ही तो यह सब सीखा जा सकता है।

अ मोड़ा क ओर
अब हमारी बस रवाना होती है। लेिकन यह या... इतनी तेज र तार और रफ़ ाइिवंग, एक
तरफ़ घुमावदार रा ता और दूसरी तरफ खाईयाँ, डर-सा लगने लगा। देर हो गई वो तो ठीक है,
मगर उस क हड़बड़ाहट म तेज़ गाड़ी चलाना, यह तो ‘चोरी और सीनाज़ोरी’ हो गई। िवल ब का
एक यह भी नकारा मक पहलू बन जाता है। आिख़रकार हम ने सब याि य से कहा िक इस
मुआमले म तो एक हो जाओ और ाइवर से गाड़ी धीरे चलाने को कहो। डर सभी रहे थे, बोलने भी
लगे। के.पी. जी ाइवर के पास गए एवं धीमे चलाने को कह कर आए। तब वो गाड़ी ढं ग से
चलाने लगा और सब क जान म जान आई। अब तक हम नैनीताल पार कर चुके होते ह। हमारे
चार ओर चीड़ ही चीड़ के घने वन फै ले हए ह। गगन का चु बन करते ये वन, चटख़ ह रयाली,
झर-झर झरते झरने, बहते झरने, इठलाते झरने, वाह री क़ुदरत, यही तो है वो विगक वैभव
िजस के िलए आदमी तरसता है, जो उस के आस-पास ही िबखरा पड़ा है। बहत ख़बू सरू त है यह
रा ता। चटख़ धपू क िकरण पि य पर िगर कर िबजली-सी पैदा कर रही ह। नज़र हटाए नह
हटती ह, ऐसा लगा िक इन नज़ार को आँख म भर ल। थोड़ी देर बाद बस पै ोल प प पर ठहरती
है। हम नीचे उतरते ह। चार और िबखरे हए सौ दय को देख कर अिभभत ू हो उठते ह। य नह
सुिम ान दन प त कृित के सुकुमार किव कहलाऐं, िजन का ज म ही इस के बीच हआ है। इस
सुषुमा को देख कर तो प थर से भी किवता फूट सकती है। यहाँ का तो कण-कण अपने आप म
ही का य से कम नह है। यह वैभव उतना ही अिभभत ू करता है िजतनी िक सरस किवता स दय
को ग द करती है। कृित तो वयं म ही महाका य या परमका य है। वैसे भी कृित और पु ष
अिखल ा ड के जनक ह। तीन घ टे िवल ब हो जाने के कारण गरम पानी, कची आिद दो
तीन वॉइंट जो रा ते म िदखाने थे, नह िदखाए गए। यह आ ासन िदया िक लौटते म िदखाएं गे,
जो मा आ ासन ही रह गया। हाँ, लौटते म ‘कची’ ज़ र िदखाया गया।

कुछ आगे चले िक एक नदी िमली, जल इतना पारदश व िनमल िक काँच भी या चीज़ है,
उस के आगे। इसी िलए व छ पानी के िलए ‘काँच का टूक’ मुहावरा चिलत है। इस नदी क
धारा के प के तो अ दाज़ ही िनराले िनकले, कह नाियका क ीण-किट सी तो कह उस क
गदराई देह-सी तो कह -कह कई धाराओं म अपनी शोिख़याँ िदखाती, खबू मन बहलाया इस ने
हम लोग का, वरना तो उस िदन हमारे मन क घबराहट हम रा ते म उतरने को बा य कर देती।
हआ यँ ू िक बस के रवाना होने के थोड़ी देर बाद ही वि नल का और हमारा जी बुरी तरह घबराने
लगा, कुछ समझ म नह आ रहा था या कर? ऐसा हम दोन के साथ पहली बार हआ था।
वि नल को हम ने िखड़क क तरफ़ बैठाया, यान बँटाने का मशिवरा भी िदया, उस क
घबराहट से हम और भी परे शान होने लगे। हम भी इधर-उधर कभी पहाड़ को तो कभी नदी को
देख-देख कर यान बँटाते रहे , कभी इधर बैठते कभी उधर। वि नल काफ़ छटपटा रही थी, तभी
‘यक़ न’ साहब ने बैग म से मौसमी छील कर िखलाई, के.पी. जी ने एक गोली भी चस ू ने को दी।
िखड़क के बाहर मँुह िनकाल-िनकाल कर ताज़ा हवा का सेवन भी करते रहे । मौसमी का लेवर
मँुह पर भी लगाते रहे । धीरे -धीरे घबराहट कुछ कम हई। तब ात हआ िक यही हाल ‘यक़ न’ जी
का भी हो रहा था, मगर उ ह ने ज़ािहर नह िकया तािक हम िच ता न कर। कुछ घबराहट के.पी.
जी को भी हो रही थी। यही अ तर है मिहला और पु ष म। मिहलाऐं बिहमुखी होती ह, तुर त
हाय-तौबा मचा देती है, बेचारे पु ष सब कुछ चुपचाप सहन करते रहते ह, इसी िलए नारी को
नदी व पु ष को सागर क सं ा से अिभहीत िकया गया है। मिहलाएँ सब कुछ उगल देती ह, इस
िलए ह क -फु क होती ह, इसी उ मु ता रहने के कारण अिधक जीती ह। इसी स दभ म ‘होती
ह मिहलाऐं बातन ू ी’ हम ने किवता भी िलखी है, जो अभी-अभी हमारे ‘िकतनी बार कहा है तुम से’
सं ह म कािशत हई है। उस िदन तो हम ने िबना हाथ धोए ही मौसमी खा ली। हम कुछ नह
सझ ू ा, वाक़ई ‘आपातकाले मयादा नाि त’।

वो तो भला हो उस ख़बू सरू ती का, नैसिगक सुषमा का जो मन लगाए रही, वरना बीच म
उतरना पड़ता। मौसमी से काफ़ राहत िमल गई। कुछ िदन पवू हम ने पढ़ा था िक सफ़र म नीबू
का सेवन करने से जी नह घबराता, आज अनुभव भी हो गया। हम चार ने यही िन कष िनकाला
िक हम लोग ने बस म ोध िकया था, उसी का प रणाम है यह। ोध से शरीर म िवषैले पदाथ
का ाव होता है, ज़ र ऐसा ही हआ होगा। य िक अभी तक िजतनी भी या ाऐं क ह, उन म
कभी न तो जी घबराया, न ही उ टी हई। अमम
ू न ऐसा होता रहता तो अलग बात थी। भई, हम ने
तो इस घटना से यही सीख ली िक ोध करने से केवल वयं का ही नु सान होता है। सामने
वाले का कुछ नह िबगड़ता, य िक अिधकांशत: दुिनया वाले प थर िदल हो चुके ह और िफर
ग़ु सा करने से हम हािसल या हआ? अरे , एक शेर याद आ रहा है, इजाज़त हो तो िख़दमत म
पेश कर, अजऱ् िकया है-

‘‘हो गया प थर- दय ही आदमी का


कोई चहरा इस िलए दरपन नह है।’’

मालमू है आप को जो स रता हमारी संिगनी रही, उस का नाम या है, उस का नाम है


‘खेरना नदी’। वाक़ई इस रा ते का सौ दय ग़ज़ब का रहा है, काश! हम आप को बता पाते। कुछ
आगे एक पुल आता है, िजस के उस तरफ़का रा ता रानीखेत जाता है। हम तो अ मोड़ा जा रहे ह,
पुल के इधर ही चलना है। पहाड़ी रा ते पर इतनी अ छी समतल सड़क देख कर दंग ह हम। वैसे
होना तो यही चािहए, कम से कम घुमावदार रा त पर तो सड़क िवशेषत: उ म ह ही ह । ऊटी से
एक टी ए टेट देखने जाते समय सड़क इतनी सँकरी व ऊबड़-खाबड़ थ िक पिू छए मत। कुछ
आगे चले िक िहमा छािदत पवत मालाऐं लुकािछपी करने लग ।

कभी पहािडय़ क ओट से एकदम कट हो जात तो कभी दु हन क तरह शमा कर


व ृ ाविलय के घँघ
ू ट म अपना सलोना प िछपा लेत । अब या था, हम उ ह से बितयाते रहे ,
उ ह नए-नए उपमान देते, कभी कृित क िविच लीला पर िवमु ध होते, जगत िनय ता को
ध यवाद देते। मौसम क मादकता, इस सौ दयपान म हाला का काय करती। अब हम सब क
घबराहट नह के बराबर रह गई थी।

ऐसे आन द के ण कब पंख लगा कर उड़ गए, मालम ू ही नह चला और गाइड महोदय


अपने अ दाज़ म बस को स बोिधत करने लगे- अब हम अ मोड़ा म वेश करने वाले ह। यह वही
अ मोड़ा है, जहाँ क बाल, माल, पटाल िस है। बाल यानी बाल िमठाई, माल यानी मालरोड,
पटाल यानी या ी बाज़ार का नाम। माल रोड यहाँ का सभी अ य िहल टेशन से ल बा है। बाल
िमठाई को बड़े भी खाते रह जाऐंगे। पटाल बाज़ार म शॉिपंग का आन द ही कुछ और है। और एक
बात िजस का आप को परू ा यान रखना है िक अ मोड़ा क ी, मिनयादार का िम ी,
नैनीताल का मौसम और ब बई का फै शन कब बदल जाए कोई भरोसा नह । अत: िकसी भी
पसी से आँख चार होने लग तो यह बात ज़ र याद कर ल, िफर हम दोष न द िक पहले य
नह बताया, यिद कुछ गड़बड़ हो जाए तो। आगे ख़ुदा ख़ैर करे ।

बस यहाँ केवल एक घ टा केगी, य िक हम काफ़ लेट हो चुके ह। पुन: बस म से ही


िववेकान द मारक बताते हए बोले िक यह िववेकान द मारक है, यह से देख ल, बस यहाँ
नह कती है और उ ह ने अपने मागदश य उ ोधन को सध यवाद समा िकया, लेिकन
बंगािलय क िज़द, या िकया जाए वो कब मानने वाले थे, आिख़र बस कवा कर ही छोड़ी और
सारे के सारे पहाड़ी पर उतर कर चले गए साहब, मारक देखने। हम लोग वह आस-पास टहलते
रहे । इ ह वापस लौटने म परू ा आधा घ टा लगा। इधर बेचारे क ड टर साहब ज दी-ज दी
िच लाते ही रहे । कुछ आगे चल कर बस बाज़ार म ठहरी, वहाँ कई रे टोरे ट थे। गाइड महोदय ने
सब को लंच लेने के िलए कह कर एक घ टे म वापस लौट आने क िहदायत दी। हम लोग भी
भखू से बेहाल हए जा रहे थे। एक अ छा-सा भोजनालय िमल भी गया। पहले कुछ ऱे श हए और
सब ने जम कर खाना खाया। खाने से पहले अचार िमला था, उसे हम लोग खाना आने के पहले
ही चट कर गए। अपनी भख ू से और क भख ू का अहसास हम ख़बू हआ और उन के ित मन म
क णा का भाव वत: ही उदय होने लगा था। शायद त-उपवास के पीछे मल ू अवधारणा यही रही
होगी िक हम दूसर क भख ू के दद को महससू कर सक। इ लाम धम म तो रोज़ा रखने का एक
उ े य यह भी है िक भख ू े रहने से आदमी को अ य इंसान क भख
ू का अहसास हो सके और वह
उन क मदद करने को आगे आए। दूसरी बात हमारी अ प बुि म जो आती है वह यह िक
उपवास से भोजन क बचत भी होती ही है। वही भोजन कह न कह िकसी ज़ रतम द के काम
आता ही आता है। एक िदन म हम िजतना खाना खाते ह उस के नह खाने से उतनी बचत तो
होती ही है।

खाना खा चुकने के बाद वेटर िबल ले कर आया और धीरे से बोला साहब, म ने आप क


चपाितय को कम िगना है। तीन-चार चपाती कम िलखवाई है, वो पैसे िटप के प म हम दे दो तो
कृपा होगी। हाँ, मािलक को मत बताना कुछ देर हम चार अजीब कशमकश म पड़ गए। सच का
साथ द या झठ ू का या िववशता का। न जाने यँ ू उस लड़के पर दया-सी आ रही थी। वह चोर नह
म बरू नज़र आ रहा था। हम ने उसे चुपचाप चार चपाितय के पैसे दे िदए, जो हम ने उिचत
समझा। मािलक तो उन का खन ू चस
ू -चस
ू कर लखपित बना बैठा था। उ ह परू ी म दूरी नह देता
होगा। यानी शोषण होता है। यही शोषण और अ याय, ग़रीब को झठ ू बोलने के िलए म बरू करता
है। दोष इस बालक का ही नह था, इस के पीछे मािलक ारा िकए जाने वाले शोषण का था। यिद
यव थाऐं सही ह तो अपराध होने का सवाल ही नह उठता। ग़लत यव थाऐं व प रि थितयाँ
अपराध के पीछे मु य भिू मका िनभाती ह। आज क अथ यव था के तहत ग़रीब और ग़रीब तथा
अमीर और अमीर बनता जा रहा है। यिद म का परू ा-परू ा पा र िमक आदमी को बराबर िमले तो
न कोई ग़रीब रहे न ही कोई अमीर बने। सब ठीक-ठाक रहे । य िक ग़रीबी बहत बड़ा ाप है
और धन को छठी इि य भी कहा गया है। यही अिभशाप हज़ार पाप का ज म दाता है। कहा भी
तो गया है- ‘बुभुि त: िकम न करोित पापम।’

अब कुछ देर त ऱीह करते ह। वह बाज़ार म एक दूकान से बाल िमठाई ख़रीदी। यह चॉकलेट
व मावे क बनी हई लगी, िजस पर साबदू ाने जैसे सफेद श कर के दाने चार तरफ़ िचपके हए थे।
खाने म अ छी भी लगी। वैसे यह िमठाई नैनीताल म भी िमल रही थी, मगर वहाँ भी यही बताया
गया था िक अ मोड़ा म अ छी िमलती है। कुछ कलाक द भी िलया वो भी अ छा िनकला। इस
शॉप पर दो मिहलाऐं बैठी हई थ । पहाड़ी मिहलाऐं काफ़ महनती होती ही ह। दूकान पर बैठना तो
उन के िलए छोटा-मोटा काम है। मिहलाऐं या, वहाँ के सभी िनवासी कड़े म से ही अपनी
आजीिवका चलाते ह। इन म शह रय जैसी चालाक िबलकुल नह होती। जीवन एकदम अलम त
व िनि त, य न हो, शहर क चकाच ध व िम या सुख-सुिवधाओं से कोस दूर ह ये लोग।
केवल कृित ही इन क पालक व सहचरी है, इस िलए उस क ही तरह सरल व भोले ह ये। जीवन
का सही आन द ये ही भोग रहे ह। ख़ैर, हमारी े स देख कर हम से पछ ू ा िक आप राज थान से
आए ह। हम ने हाँ म िसर िहला िदया। िफर पछ ू ती ह वहाँ तो काफ़ गम पड़ती है ना। हम ने कहा
हाँ, बहत गम है, तभी तो हम यहाँ कुछ िदन के िलए ठ डक के अहसास के िलए आए ह, िफर
पछू ा आप को तो यहाँ सद लगती होगी। हम ने कहा नह ...। बि क यहाँ तो मौसम बड़ा सुहाना
लग रहा है, बहत ही यारा। हम मन ही मन सोचने लगे, िकतनी भा यशाली ह ये ललनाएँ , जो
पवत म रहती ह। वैसे एक बात बताऐं, नैनीताल, अ मोड़ा आिद शहर म पहाड़ी रहन-सहन,
पोशाक आिद कम ही देखने को िमल । यहाँ पर नगरीय सं कृित परू ी तरह हावी है। हाँ, आसपास
के ामीण इला क़ म ज़ र पहाड़ी सं कृित के दशन हए। मनाली म ज़ र परू ी तरह पवतीय
सं कृित रची-बसी हई है। वहाँ के बारे म जैसा पु तक म पढ़ा था, वैसा ही दशनीय था। उन के
घर, उन के प रधान, मिहलाओं के काफ, पु ष के सर क टोिपयाँ, कुल िमला कर स पण ू प
से आ चिलक रहन-सहन। शायद इसी िलए िक वह शहर नह अिपतु ामीण अ चल है।

इधर के.पी.जी. बोले भई, एक घ टा हो चुका है, चलो भी वरना बस छोड़ जाएगी। हम सब
बस के पास आ कर खड़े हो गए। लगभग प ह िमिनट के बाद बस रवाना हई। चिलए, बस म
चलते-चलते अ मोड़ा क कुछ और बात हो जाऐं। अ मोड़ा जो सागर-तल से 1646 मीटर ऊँचा है
और 11.9 वग िकलोमीटर के े म िव तार पाता है। अ य पवतीय नगर क ही भाँित यह
पहाड़ एवं घािटय म रचा-बसा है। सच पछ ू ा जाए तो अ मोड़ा कुमाऊँनी सं कृित का मुख के
है। इस सं कृित के गीत , न ृ य व अ य रीित- रवाज क महक है, यहाँ के कण-कण म। वेष-
भषू ा हो या कुमाऊँनी भाषा या अ य पर परा, सब का सफल िनवाह यहाँ देखा जा सकता है।
पहाड़ी, भोजन बाल िमठाई का वाद भी यहाँ ले सकते ह आप, लेिकन इस का अथ यह कदािप
नह िक यहाँ से आधुिनकता कोस दूर है। परप परा एवं आधुिनकता के रं ग म बराबर भीगा है
यह नगर।

जलवायु देख तो एकदम वा यव क। िहमा छािदत िशखर से िघरा ह रत व ृ ाविलय से


लदा अ मोड़ा िजस के सौ दय का कहना ही या। उधर पवत िशखर पर मि दर म बजती न-
झुन घ टाविलयाँ, अ या म एवं नैसिगकता के साम ज य क पताकाएँ लहराती-सी नज़र आती
ू दय के समय तो इन पर जैसे क चन बरसता है। यही नह थाप य कला भी मोिहत करने
ह। सय
म कोई कसर नह रखती। पटािलय से आवतृ गिलयाँ और मकान बेहद ख़बू सरू त लगते ह। यहाँ
का लाल बाज़ार जो बहत पुराना है, सु दर एवं कटावदार पहाड़ से िनिमत है, िजस म घम
ू -घम

कर ाकृितक सौ दय का रसा वादन िकया जा सकता है। कहते ह बस त ऋतु म तो यहाँ क
ख़बू सरू ती म चार चाँद लग जाते ह। लेिकन शीतल जलवायु होने के कारण सवािधक सैलानी
गम म, सद का लु फ़ उठाने यहाँ आते ह। यँ ू तो बारह महीन इन क चहलक़दमी बनी ही रहती
है।

हाँ, कुमायँ ू के राजा क याण च द ने 1560 ई. म अ मोड़ा क खोज क थी, इस के प ात,


च वंशीय राजा भीम च के द क पु कुमार बाल क याण खिसया ने दलपित गजवा को
हरा कर खागमारा म नई राजधानी बना कर उसे अ मोड़ा नाम िदया था। इस के पहले यहाँ क
राजधानी च पावत थी। यहाँ अं ेज क द ल दाज़ी रही है। 1814-15 ई. म गोरखा यु म
नेपाल से अ मोड़ा अं ेज़ के हाथ म आया। 1842 ई. म यहाँ अं ेज़ ने लॉक टावर बनवाया।
िव णु पुराण के अनुसार कौिशक और सालमेल निदय के बीच का य पहाड़ पर िव णु का
िनवास बताया गया है। जो भी हो यहाँ क आबो-हवा िकसी के िलए दवा से कम नह है।

अ मोड़ा म ‘खगमारा’ िक़ला, दशनीय है, वह न दा देवी का मि दर तो इस क शान है ही।


यहाँ क इ देवी भगवती पावती है। न दा अ मी को यहाँ िवशेष पज ू न-अचन होता है। मेला भी
लगता है, झोड़ा, चाँचरी, छपेली आिद लोकन ृ य का सरस आयोजन भी दशक को मु ध कर
देता है। इस के अलावा रघुनाथ मि दर, महावीर मि दर, मुरली मनोहर मि दर, ब ी नाथ मि दर
आिद भी िवशेष उ लेखनीय ह। िसमतोला, कालीमठ, मोहनजोशी पाक का भी सैलानी आन द
उठा सकते ह।

‘ ाइट ए ड कॉनर’ तो यहाँ का अ ुत थल है, िजतनी भी तारीफ़ क जाए कम है। सय ू दय


व सयू ा त के व त का नज़ारा तो ग़ज़ब ढाता ही है। इं लै ड के ‘ ाइट बीच’ के नाम पर ही इस
का नामकरण हआ है। वहाँ भी इस बीच पर सुबह-शाम का य चम कारी होता है। वाक़ई
अ मोड़ा बड़ी यारी जगह है। रवी नाथ टैगोर, महा मा गाँधी, जवाहर लाल नेह , न ृ य स ाट
उदय शंकर, वामी िववेकान द आिद महान पु ष का भी यह अतीव ि य नगर रहा है। इस के
िसवा कटारगल का सय ू मि दर, िबनसर महादेव मि दर, गणनाथ, लाख क गुफाऐं, सीतलाखेत
भी िविश आकषण के के ह। लाख क गुफाओं म ‘शैलिशला’ क कला कृितयाँ देखते ही
बनती ह। अज ता क याद इ ह देख कर बरबस ही आ जाती है। उपत, कािलका, मजखाली,
अ मोड़ा के आस-पास ह, जहाँ क ाकृितक सुषमा का आन द लेने म कोई हरज नह है, यिद
समय हो तो।

हाँ, क ध पुराण के मानस ख ड के अनुसार कोसी व शा मली नदी के बीच जो पावन


पवत अ मोड़ा है, वहाँ िव णु का िनवास तो माना ही जाता है तथा िव णु का कुभावतार भी इसी
पहाड़ पर हआ था, ऐसी मा यता है। इसी के साथ यहाँ क माँ भगवती कोिशका देवी ने शु भ-
िनशु भ नामक रा स का संहार भी इसी े म िकया बताते ह, जो भी हो सां कृितक व
सािहि यक ि से अ मोड़ा परू े कुमायँु े यानी कुमायुनी सं कृित का मुख के है, इस म
कोई स देह नह है। हाँ, यह नगर घोड़े क नाल के आकार के अ च कार पवत िशखर पर
बसा है। इस नगर क एक और िवशेषता है, कृित के सुकुमार किव सुिम ान दन प त क
ज म थली यही है। कृित का आ मीय स सग ही तो था, िजस ने प त को कालजयी किव
बनाया है। इस बात को वयं किव ने वीकार िकया है-

‘‘छोड़ ुम क छाया
तोड़ कृित से भी माया
बाले! तेरे बाल-जाल म कै से उलझा दूँ लोचन...।’’

छायावाद के त भ किव ‘प त’ का सािह य-सज


ृ न आज िह दी क अमू य िनिध है। यँ ू न
हो अ मोड़ा है ही इतना अनुपमेय। ‘जहाँ न पहँचे रिव वहाँ पहँचे किव’ यह कहावत ऐसे ही नह
बनी है। अ मोड़ा के पवतीय इला क़ म, घािटय म चीड़ व देवदार के इतने घने वन ह िक िकतनी
ही जगह रिव क िकरण धरती तक नह पहँच पाती ह। कभी हम ने यह बात सुनी थ , लेिकन
आज सा ा कार कर रहे थे। धरती, िम ी, प थर तो कह -कह ही िदखाई देते थे। केवल ह रयाली
बस...ह रयाली। जहाँ च ान थ उन पर भी सरू ाख़ म कुछ न कुछ उगा हआ था। यही तो है वो
जड़ी-बिू टयाँ, स जीविनयाँ, िजन का सं पश कर के आती हई हवा ही तन-मन म नत ू न उजा व
आन द का स चार कर जाती है। आ य तो यह है िक इन म एक भी प ी अनुपयोगी नह होती
है। एक बोध-कथा याद आ रही है िजस का सारांश इतना ही है िक गु अपने िश य क परी ा
लेने हे तु जंगल से अनुपयोगी बटू ी ले कर आने को कहते ह। सारे जंगल क खाक छान कर
िश य ख़ाली हाथ लौट आता है और गु से बड़ी िवन ता से कहता है िक मा कर, गु वर मुझे
तो एक भी प ी ऐसी नह िमली जो उपयोगी न हो। गु स न हए और िश य को आशीवाद दे
कर भेज िदया िक तु हारी िश ा परू ी हो गई, जाओ मानव-सेवा करो। ख़ैर इन क तो मिहमा ही
अपर पार है, यह िवराम देते ह। हाँ, अ मोड़ा का ‘ ाइट ए ड कॉनर’ देखने क हमारी बल
इ छा थी, य िक इस क सुषमा के बारे म हमने काफ़ पढ़ रखा था, िच भी देखे थे, मगर
पैकेज टूअर क ये िववशताऐं होती ह। जहाँ तक हो पैकेज टूअर से बचना ही चािहए, हमारा यही
अनुभव रहा है। थोड़े से झंझट से बचने के िलए ही मन मुआिफ़क़ कुछ न देख सक, ये तो कोई
बात नह हई, भाई। हम सुिवधाभोगी जो हो गए ह, या ा कर और परे शािनयाँ भी न झेल, ये तो
वही बात हई िक बा रश म सड़क पर घम ू और भीगे भी नह । अरे या ा म परे शािनयाँ न आऐं तो
िफर या ा का आन द ही या? इन म ही तो या ा का लु फ़ िछपा होता है। नए-नए अनुभव तो
इन परे शािनय से ही ा होते ह। सौ दयपान तो सफ़र का एक पहलू है, दूसरा पहलू मुसीबत ही
ह। कहा भी गया है िक सागर म गोते लगाने पर ही गौहर ा िकए जा सकते ह। वैसे हम आप से
कह तो रहे ह, मगर हम ने यहाँ एक बार गलती कर के भी दुबारा ित पित म दोहरा िलया, यानी
क याकुमारी रामे रम् का पैकेज टुअर कर के वहाँ क टू र ट एजे सी ने तो हमारे साथ जो
धोखाधड़ी क , पिू छए ही मत, ला, ला िदया हम। सच तो ये है िक इन ऐजे ट के मायावी
छलाव म भोले-भाले सैलानी आ जाते ह। पहले तो याि य को मीठे -मीठे सपने िदखाते ह, बड़े
लोभन देते ह और पैसे हाथ म आ जाने के बाद बस म िबठा कर भिू मगत हो जाते ह। िदए गए
लोभन म से एक चौथाई भी सच नह होते, कुछ अपवाद को छोड़ कर, ये हमारा कटु अनुभव
है।

कौसानी
तो, जनाब हम बाल िमठाई व कलाक द का वाद लेते-लेते बस तक पहँचे, कुछ देर बाद
सभी सहया ी आ गए और लगभग तीन बजे हमारी बस रवाना हई। मौसम भी सुहाना और सफ़र
भी सुहाना, साथ म कोसी नदी क अठखेिलयाँ और या चािहए सफ़र म? ये नदी भी बड़ी
नटखट िनकली, कभी एकदम भिू मगत हो जाती तो कभी एकदम अवत रत हो कर च का देती,
लुभाने लगती। आगे चल कर पहाड़ी क सघनता कम होती गई, पठार आ गए और तापमान कुछ
बढऩे लगा। गम का अहसास होने लगा। ये तो होना ही था। सद तो पहाड़ क म बानी है और
ऊँचाई क । एक डे ढ़ घ टे बाद बस एक यस ू क दुकान पर क जहाँ िनता त एका त जंगल
एवं ख़ामोशी का सा ा य था। आ य भी हआ इस अकेली अदद दूकान को देख कर, लेिकन
पहाड़ी रा त म वैसे ऐसी कई त हा दूकान िमल जाती ह। यह बस मािलक के मामा ी क
दूकान थी, बस ठहरने का तो ये भी एक राज़ था जो बाद म समझ आया। दूकान म ु ट, यस ू व
कुछ पहाड़ी फल से बनी हई कुछ व तुएँ थ , जो दवा का काम भी करती थ । हमारे सभी बंगाली
बाबू तो इन चीज़ पर टूट पड़े । हम लोग बाहर िनकले और पहाड़ी हवा का सेवन कर के ही दवा
का काम चला िलया। य िक शु हवा से े दवा कोई होती भी नह । लगभग आधे घ टे बाद
हम लोग रवाना हए और पाँच बजे क़रीब मंिजल ़ के दीदार हए। ‘कौसानी’ िजस के दीदार करने
के िलए मन कब से आतुर हो रहा था। इस के सौ दय के बारे म इतना कुछ पढ़ चुके थे िक
िज ासा होना वाभािवक था ही। बस जहाँ आ कर क वह िहमालय पीत दुशाला ओढ़े
वागतातुर खड़ा था। शायद बफ़ के कारण उसे भी सद लग रही होगी, सो शाम होते ही पीला
दुशाला ओढ़ िलया होगा। सय ू ा त तो पहाड़ पर वैसे भी ज दी हो जाता है, य िक ऊँचे-ऊँचे
पवत उसे अपनी आग़ोश म समेट लेते ह। इधर महीना अ टूबर का, िजस म मैदान म भी सय ू ा त
ज दी हो जाता है।

सरू ज पहाड़ी क ओट म ज़ र िछप चुका था, लेिकन उस क पीताभा बफ़ को रं गीन बना


रही थी। ऐसा लग रहा था, मान िहमालय पर सुनहरी बफ अ छािदत हो। यहाँ से िहमालय इतना
क़रीब महसस ू हो रहा था, यानी ऐसा लग रहा था िक हाथ बढ़ा कर छू ल, जब िक अभी भी यह
35 िकमी. दूर था और ल बाई म जो िदखाई दे रहा था, जरा सा लग रहा था, मगर 340 िकमी.
ल बाई म िव तार था इस का। यही है कौसानी का भ य आकषण, िजस के मोहपाश म बँध कर
सैलानी चु बक क तरह यहाँ िखंचे आते ह। बहत ख़बू , बहत ख़बू सरू त है यह नज़ारा, आन द आ
गया। इस के बाद हम होटेल म ले जाया गया। होटेल या इसे धमशाला कह सकते ह। हम लोग
के ठहरने क यव था पाँचव मंिजल ़ पर क गई, चढ़ते-चढ़ते थक-से गए, य िक सीिढय़ाँ
एकदम खड़ी लगी हई थ । अब बारी-बारी से सब को कमरे एलोट िकए जा रहे थे। हमारी बारी
आती है, हम दो कमरे का सैट िदया जाता है। हम सब कमरे म वेश करते ह। कमरे एकदम
साधारण, छत इतनी नीची िक हाथ से छू लो। कुछ अजीब तरह क ग ध भी आ रही थी, कहाँ से
आ रही थी, पता नह चल पाया। ‘यक़ न’ साहब ने परू ा मुआयना भी कर िलया, ग ध िज़यादा ही
परे शान कर रही थी, सो, अगरब ी का सहारा लेना पड़ा। बाथ म के बारे म तो कुछ कहना
िनरथक ही होगा। चादर भी नह बदली गई थ , सो हम ने कह कर चज करवाई। कुछ देर हम
लोग रले स हो कर बैठे, तब तक चाय भी आ जाती है, चाय कैसी हो सकती है, ज़ािहर है, िफर
भी हमारे िसवा सब ने सेवन िकया ही सही, य िक थकान से हाल जो बुरा हो चुका था, हम से
नह पी गई, वैसे भी हम चाय छोड़े हए काफ़ व त हो गया है। अब यह शाम तो हमारी अपनी थी।
हम लोग कुछ े श हए एवं कौसानी घम ू ने का ो ाम बनाया।

अब तक अँधेरा हो चुका है। हम कमरे से बाहर आते ह व ताला लगा कर गाँधी बाबा का
आ म देखने के िलए चल पड़ते ह। हमारे साथ लखनऊ से आई च दा व उस के पित भी ह। इन
दोन से नैनीताल म बस क ती ा के दौरान कुछ पहचान हो गई थी। हम लोग पहाड़ी रा त
पर चढ़ते-उतरते मैन रोड तक पहँचते ह। रा ते म पर पर बात व ख़बू हँसी-मज़ाक़ होता है।

होटेल म पानी क यव था व टॉयलेट को ले कर च दा काफ़ मज़ाक़ करती है। बोलती है


िक मालम ू चले िक अपन लोग सुबह-सुबह बा टी ले कर क़तार म लगे खड़े ह। इसी कार ऱे श
होने के िलए भी क़तार म ही लगना पड़े गा य िक उन के म म टॉयलेट नह था। कुल िमला
कर होटेल क यव था व पैकेज टूअर क सारी गोल-मोल बात व वाद से ये दोन काफ़ दुखी
ह, हम लोग क ही तरह। हर बात को ले कर हमारी ही तरह बहत परे शान ह। बार-बार एक ही
बात कहते ह िक कहाँ फँस गए पैकेज टुअर के च कर म। च दा अपने पित पर झ लाती है िक
सब इन के ही कम ह। इन को घर लौटने क ज दी है सो पैकेज टुअर म ले आए। मुझे तो
व छ द हो कर खबू घम ू ना था, यहाँ ठहरना था, बार-बार कौन आता है। च दा क बात हम बड़ी
अ छी लग रही थ , य िक हमारे ही मन क बात बोल रही थी। इस मुआमले म हम दोन के
िवचार एकदम एक थे। हमारी ही तरह हर बात का उसे भी काफ़ शौक़ है, हर चीज़ को जी भर
कर जीना चाहती है। उन दोन क नई-नई शादी हई है, ेम िववाह है, बड़ी मुि कल से घरवाल
को राज़ी कर के इ ह ने यह िववाह िकया है।

च दा एम. एससी. क टूडे ट है, देखने म ख़बू सरू त है, गौर वण, क़द ठीक-ठाक है।
मेकअप करने पर तो और आकषक हो जाती है। उस के पित िबज़नेस मैन ह, इसी िलए उ ह घर
जाने क ज दी है, लेिकन च दा काफ़ नाराज़ है, इस बात को ले कर। उन के पित महोदय को
भी है डसम कह सकते ह, पर तु च दा उन के मुक़ाबले अिधक ख़बू सरू त व माट है। वैसे भी
भारतीय समाज म नारी क सु दरता व पु ष का यवसाय देख कर ही िववाह करने क कोिशश
क जाती है। च दा के आकषण का के उस का है दी होने के साथ-साथ, उस का गोल-मटोल
भरा हआ चहरा भी है। साथ ही हास-प रहास म भी वह वीण है, कहते ह िक हास वह चु बक य
शि है, िजस से सभी लोग वत: ही िखंचे चले आते ह। इसे हम छूत क बीमारी भी कह सकते
ह। बीच-बीच म हम लोग शैरो-शाइरी भी सुना रहे थे, य िक शाइर भला अपनी बात म अपने
शैर नह सुनाए, यह हो सकता है या? जब हमारे व ‘यक़ न’ साहब के शाइर होने का पता
च दा व उस के पित को चला तो उ ह बड़ा आ य भी हआ व ख़ुशी भी। य िक आज भी आम
लोग क नज़र म किव या सािह यकार बहत बड़ी ह ती मानी जाती है। उ ह ऐसा लगता है िक
कोई शाइर उन के साथ चल रहा है, इस बात से वो वयं को गौरवाि वत मानने लगते ह। उन
दोन क फ़माइश पर हम लोग ने कुछ शेर सुनाए।

अब तक हम पछ ू ते-पाछते पहाड़ी पर काफ़ ऊँचाई तक पहँच चुके थे, लेिकन कह भी कोई


धाम नज़र नह आ रहा था, िजस से भी पछ ू ते वह यही कहता बस थोड़ा दाऐं-बाऐं चले जाओ
आ म आ जाएगा। आप को यह जान कर आ य होगा िक इस रा ते म घु प अँधेरा था। एक तरफ़
पहाड़ी व दूसरी ओर गहरी खाई, रा ता वही बल खाता हआ। ज़रा-सी भी असावधानी यहाँ दुघटना
का सबब बन सकती है। बड़ा तरस आ रहा था शासन पर। जहाँ हज़ार सैलानी ितिदन गाँधी
बाबा के आ म म इसी रा ते से आते-जाते ह, वह घु प अँधेरा। वाह रे मेरे देश। ख़ैर, अब शासन
को गाँधी से मतलब भी या है। देश तो आज़ाद हो ही चुका है। रही बात कृत ता क , वो तो लोग
के ख़नू म ही नह है। वि नल बार-बार अँधेरे के मारे वापस लौट आने क िज़द करती रही,
लेिकन समहू के साथ बँधे थे हम भी, उसे भी बहत ग़ु सा आ रहा था। ‘यक़ न’ साहब क टॉच ही
हम रा ता बता रही थी व गड्ढ से बचा रही थी। कुछ लौटते पयटक से जानकारी लेते-लेते हम
चल रहे थे। आगे सीिढय़ाँ आई ं उ ह बेहद सावधानी से चढ़ना पड़ा। काफ सीिढय़ाँ चढऩे के बाद
हम पहँचे आ म तक। एक तरफ़ तो शायद कुछ लोग रह रहे थे, दूसरी ओर बड़ा-सा हॉल था,
िजस म लोग ाथना कर रहे थे, गाँधी बाबा क त वीर लगी हई थी। यह कौसानी क सब से
ऊँची चोटी है।

वहाँ से तलहटी म बसे क़ ब , िजन म वै नाथ भी शािमल है, तार क तरह िझलिमला रहे
थे, जैसे आकाश के सारे िसतारे ज़म पर आ कर यहाँ िबखर गए ह । बहत ख़बू । सद परू े यौवन
पर थी ही। च दा मेमसाहब को फोटो ख चना था, लेिकन ाथना होने के कारण िहचिकचा रही
थी। कुछ देर बाद ाथना समा हई और लोग चले गए तब वहाँ के बाबा के साथ आ म का फोटो
िलया तब जा कर उसे चैन आया। वाक़ई, बड़ी शौक़ न लड़क है। हम ने तो बाहर बोड पर लगी
जानकारी ज र नोट क । इस से ज़ािहर है िक महा मा गाँधी ने कौसानी क यटू ी पर मु ध हो
कर बारह िदन तक इसी अनासि योग आ म म िनवास िकया था तथा गीता का ‘अनािस
योग अ याय’ क रचना भी यह क थी। यह बात 1929ई. क है। गाँधी जी ने ही कौसानी क
तुलना ि वटज़र लै ड से क थी एवं ‘यंग इि डया’ म लेख के मा यम से यहाँ के नैसिगक,
अलौिकक सौ दय को ितपािदत कर के देशी-िवदेशी पयटक का यानाकिषत िकया था एवं
िव -मानिच पर कौसानी का मह व िदपिदपा उठा था। इस म कोई स देह भी कहाँ है िक
कौसानी ि वटज़र लै ड से कह उ नीस नह है। सद म जब यह परू ा इलाक़ा दु ध-धवल बफानी
दुशाला ओढ़ लेता है, तब इस का सौ दय अ ितम हो उठता है।

जानकारी नोट कर के हम वह कुछ देर टहलते रहे । छोटा-सा, सु दर-सा गाडन था, िजस म
बड़े -बड़े सु दर पु प िखले हए थे। वह कुछ दुकान भी चमचमा रही थ , िजन म ह त-िश प क
व तुऐ ं बेची जा रही थ । हम वापस उसी अँधेरे रा ते से नीचे उतरे , बड़े स भल-स भल कर।
वि नल का हाथ हम ने थाम रखा था। कुछ नीचे आने पर रोशनी के दशन हए वह आलीशान
होटेल भी िदखाई िदया। मालम ू पड़ा िक दाम भी आलीशान ह।

अब रोशनी िमल जाने से हम लोग को काफ़ राहत िमल गई थी। होटेल को देख कर अपने
होटेल क बात चल पड़ी। च दा कब चुप रहने वाली थी। शाम क चाय पर िट पणी करती हई
बोली िक चाय इतनी बेकार थी िक पी ही नह गई और बंगाली बाबू तो ऐसे टूट पड़े थे िक जैसे
उ ह ऐसी चाय कभी िमली ही नह हो। हम ने उसे टोकते हए कहा िक इतनी थकान के बाद चाय
िमली, इस िलए इतने शौक़ से पी रहे ह गे, जैसी िमलेगी, वैसी ही तो िपऐंगे। हम बीच म ही टोकते
हए अपनी बात जारी रखते हए बड़े ह के-फु के मड ू म बोली िक सुबह सब को नहाने के िलए
एक-एक गम पानी क बा टी िमलेगी, ज़ािहर है क़तार लगेगी ही और बंगाली लोग ही सब से
आगे ह गे और अपना न बर आते-आते तो स भव है, पानी ही ख़ म हो जाए और मालम ू पड़े िक
लोग हम िबना नहाए ही रहे गए। सच तो यह है िक टूअर वाल क यव था व चीिटंग से वह भी
काफ़ परे शान थी। अ मोड़ा म भी इ ह ने हम लोग को एक वॉइ ट नह िदखाया था। तब भी
अपने पित से नाराज़ होते हए बोली थी िक जब लोग पछू गे िक अ मोड़ा म या- या देखा तब
या जवाब दगे, बताइए। उस का यह तक हम भी अ छा लगा। अ मोड़ा जैसी सु दर जगह से आप
खाली हाथ आ जाऐं तो पीड़ा तो होगी ही। या हम केवल प र मा करने आए ह? िज़यादा नह
तो एक-दो थान तो िदखा ही सकते थे। भला इतनी दूर कोई बार-बार आता है? िकतनी मुि कल
से योग बनता है, घर से बाहर िनकलने का। हम वयं दो बार रज़वशन किसल करवा चुके थे,
लेिकन ‘अब पछताए होत या’।

अब हम नीचे बाज़ार म आ गए ह। एक दूकान से पानी क बोतल ख़रीदी वह एक िपंजरे म


आठ-दस मुिगयां बड़ी िठठुरी-िठठुरी, िसकुड़ी हई बैठी थ , जो बड़ी यारी लग रही थ , हम इ ह
देख ही रहे थे तभी एक े ता आया और एक मुग को ख़रीद कर ले गया, जब िक हम लोग को
यह मालम ू नह था िक यह िबकाऊ भी ह, वि नल के मन म यह ख़याल आ चुका था िक ज़ र
इ ह भी बेचा जा रहा होगा, उस क सोच सही िनकली। हम सोचने लगे िक एक िमिनट पहले
तक इसे या मालम ू था िक कोई उसे ख़रीद ले जाएगा और...। बेचारी िकतने इ मीनान से जी
रही थी। हम दोन को बड़ा दुख हो रहा था। यह आदमी नाम का जीव बड़ा भयंकर है, िकसी भी
मासम ू ाणी को नह छोड़ता। ई र ने हज़ार तरह क व तुऐ ं भोजन हे तु उसे कृित के ारा
द क ह मगर ािणय को ही...। हर जीव को ई र ने उ प न िकया है। हर ाणी को अपना
जीवन जीने का परू ा-परू ा हक़ है। हर ाणी को दुख-दद बराबर महसस ू होता है, लेिकन यह
स वेदनशीलता क बात आदमी को कहाँ महसस ू होती है। जब ख़ुद के हाथ-पैर म काँटा भी
चुभता है तो िकतना दद होता है, िफर भी वह िकसी ाणी के दद को महसस ू नह कर पाता, वाह
रे आदमी! अपने मतलब के आगे िकसी का भी सगा नह है। एक शैर अज़ है-

‘‘उन को तो है मतलब से मतलब


चाहे िकसी क जान िनकले।’’

आज सब से ख़तरनाक ाणी है तो वह है केवल आदमी। बेचारी मुिग़याँ। हम दोन यह देखते


रहे तब तक ये लोग कुछ आगे िनकल गए। हम ने ज दी-ज दी इन को पकड़ा। अपने होटेल
पहँचे, खाना तैयार था। वैसे हम म से भख
ू िकसी को नह थी, मगर थोड़ा बहत खा िलया। खाना
सो-सो था, वह बन रहा था। सुबह 5:30 बजे उठना था, ‘सन राइज़’ देखने के िलए। सो खाना
खाते ही सोना पड़ा। एक तो िदन भर क थकान, ऊपर से पहाड़ी पर चढऩे क थकान से कब
न द आ गई पता ही नह चला। सुबह पाँच बजे ही न द खुली, वो तो खुलनी ही थी। श- श
िकया। जलपान कर के हम लोग सय ू दय के दशनाथ चल पड़े । वि नल को ख़बू जगाया मगर
वह नह उठी, बोली आप जाओ। ब ची है कल काफ़ परे शान हो चुक थी और िफर सुबह ज दी
उठना िकसी तप या से कम थोड़ी ही है। इस क माँ ही ज दी उठने से कतराती है तो िबिटया यँ ू
न कतराए। सच कह हम से चाहे सारी रात जागरण करवा लीिजए, मगर ज दी उठने क मत
किहए। यह हमारे वश म नह है, बरस तक देर रात पढऩे क आदत जो रही थी। हम मानते ह
िक यह बहत ख़राब आदत है, इस के कारण घर म कई बार झगड़ा भी होता है, लेिकन या कर
यह हमारी कमज़ोरी है, िजसे हम सहष वीकार करते ह। अब आदत तो आदत है, वह तो बहत ही
ढीठ होती है, या िकया जाए। दु य त कुमार का िस शैर अज़ है-
‘‘एक आदत-सी बन गई है त ू
और आदत कभी नह जाती।’’

ख़ैर, म के ताला लगा कर हम तीन िहमालय दशन के िलए चल पड़े । जैसे ही हम गाइड
महोदय ारा बताए थान पर पहँचे, वहाँ पहले से ही बहत-से लोग जमा हो चुके थे। िजन क
आँख म आतुर िज ासा साफ़ िदखाई दे रही थी। सय ू भगवान के उदय होने का इतनी बेस ी से
इ तज़ार कुछ ही थान पर होता है। वरना िकसे फ़ुसत है िक उन के आने-जाने क बाट िनहारे ।
सब व त व थान िवशेष क बात ह। हम ने पहाड़ी पर अपना मुक़ाम बनाया व खड़े हो गए
ि ितज क ओर टकटक लगा कर, लगभग सब के हाथ म कैमरे थे, लेिकन हम लोग होटेल से
लाना भल ू गए थे। सरू ज भगवान ने दशन देने के िलए काफ़ ती ा करवाई, सो इन घिडय़ को
हम लोग ने कॉफ़ क चुि कय के साथ बाँटा। कुछ देर म िहमा छािदत पहाड़ी के िशखर पर
नारं गी-सी गोल-गोल आभा िदखाई देने लगी और सब क नज़र िहमालय पर िटक गई ं। ऐसा
अनुमान हो रहा था मानो गोला सय ू नह सरू ज का ितिब ब हो। देखते ही देखते, धीरे -धीरे शैल
िशखर को पीताभा चम ू ने लगी। ेत-धवल िहम नारं गी रं ग म नहाने लगी। एकदम अ ुत य।
ऐसा लगने लगा मानो शैल-िशखर पर नारं गी गोटा लगाया जा रहा हो। धड़ाधड़ कैमर क लैश
ऑन होने लगी। एक के बाद एक शैल, वण जिडत ़ मुकुट धारण करते जा रहे थे, िज ह हम
अपलक िनहारते रहे । सारा बफ़ पीली चादर ओढ़ चुका था, मगर सरू ज देव कह नज़र नह आ रहे
थे, य िक अ टूबर होने के कारण सय ू देव सीधे पवू म उदय नह हो कर थोड़े -थोड़े दि ण क
तरफ़ बढऩे लगे थे। यिद हम मई-जन ू म यहाँ आते तो सय ू पहाड़ी के पीछे से कट होते हए ज़ र
िदखाई देते। सारा य सामने यँ ू था िक दौड़ कर बाह म भर लो। लगभग आधे घ टे तक सैलानी
इस अलौिकक य को देखते रहे । इस के बाद शनै: शनै: िखसकने लगे।

लो, अब सरू ज दादा बग़ल वाली पहाड़ी क ओर से आकाश म कट हए, लेिकन अब तक ये


काफ़ च ड हो चुके थे। वह खड़े एक सैलानी व च दा के ीमान् जी बोले िक सय ू दय देखना
हो तो दािजिलंग जाओ। वहाँ एकदम पहाड़ी के पीछे बड़े गोले के प म भा कर-भगवान
अवत रत होते ह। वह नज़ारा देखते ही बनता है। लोग वहाँ सुबह साढ़े तीन बजे से ही जमा होने
लगते ह। आप पलक तक नह झपक सकते, इतना अ ुत सय ू दय होता है। हम ने कहा- देखते
ह, वहाँ भी जाकर कभी। वहाँ से हम वापस होटेल आ गए। वि नल को जगाया, े श हए। चाय
पीने के िलए, रसोई-घर म चले गए। वहाँ रसोइए से कई बात हम ने पछ ू , इस कार उन के साथ
सु दर वातालाप हआ। वहाँ के रसोइए ने बताया िक िहमालय यहाँ से 35 िकमी. दूर है कौवे क
उड़ान से। यह सुन कर हम काफ़ हैरत हई य िक ऐसा लग रहा था िक ये सामने रहा। शायद
उस क िवशालता के कारण ऐसा लग रहा हो। उस क जगह कोई पेड़ होते तो या नज़र भी
आते। ख़ैर, यह भौितक का िवषय है, हम यँ ू बहस कर। रसोइए महाराज ने यह भी बताया िक
िजतना िहमालय ल बाई म नज़र आ रहा है वह 340 िकमी. है। एक और बड़ा अचरज। लगता यँ ू है
जैसे एक-दो िकलोमीटर ही ल बा है। वाह रे दुिनया! बड़ी हैरतअंगेज़ है। कल शाम को सयू ा त के
व त इस बात पर के.पी.जी से हमारी काफ़ बहस हई। हआ यँ ू िक गाइड महोदय ने बताया िक
सामने जो िहमालय िशखर नज़र आ रहे ह। वो यहाँ से 340 िकमी. दूर ह, लेिकन हम मानने को
तैयार नह िक सामने जो पवत-शंख ृ ला है, वह इतनी दूर हो सकती है। आिख़र थोड़ा अनुमान तो
होता ही है ना। लेिकन के.पी. जी के अनुसार यह दूरी 340 िकमी. होगी ही होगी। तक यह िक
यह िवशाल पवत है, इस िलए पास नज़र आ रहा है। य िक गाइड महोदय का तो यह रात-िदन
का काम है, उ ह ने तो सब रट रखा है। लेिकन ग़लती भी तो हो सकती है। ख़ैर, बहस से कोई
फ़ायदा नह , हम ने आिख़र कह ही िदया- आप जीते और हम हारे । लेिकन हआ यँ ू था िक उस ने
ग़लती से ल बाई को सामने क दूरी बता दी थी।

चिलए वापस रसोइए जी से बात करते ह। हम ने पुन: सवाल िकया िक आप तो लेिशयर


तक जा चुके ह गे। वो बोले- मैडम, हमारा तो ज म ही बफ़ म हआ है। यह इतना बफ़ िगरता है व
जमता है िक वहाँ जाने क ज़ रत ही कहाँ है। हम तो बफ़ ही बफ़ म रहते ह। जब हम ने रसोई म
सफ़ाई क बात पछ ू ी तो उ र िमला िक हमारा तो रोज़ का ही काम है, रहना भी यह है, अत:
सफाई नह रखगे तो, असर हम पर ही पड़े गा। बात ही बात म उ ह ने हमारे िलए गमागम चाय
कब बना दी मालम ू ही नह चला। चाय अ छी बनी थी। हाँ, हम ये महोदय काफ़ बुि मान,
िमलनसार व सीधे-सादे लगे। पहाड़ी सं कृित म तो रँ गे हए थे ही, उ यही कोई चालीस के
लगभग, बोली म िमठास, आदर-भाव, काम के ित ईमानदार, ये सब बात आजकल कम ही
िमलती ह। पढ़ा भी है िक पहाड़ी लोग काफ़ महनती व सरल होते ह, जो सच है। इन से बितयाना
हम अ छा लग रहा था। सुबह चार बजे से रात को यारह बजे तक ये रसोई-घर को ही स भालते
ह, सब को भोजन करवाते ह, भला इस से े काम या होगा। हम चाय पी कर बाहर आए और
वो बनाने लगे पिू डय़ाँ। गम पानी क यव था तो थी, मगर बाथ म के व प को देख कर
नहाने का मन नह हो रहा था। सव स मित से यह ताव पा रत हआ िक सब हाथ-पैर धो कर
व बदल ल, यही हआ। इस के बाद ना ते का व त हो गया। गरम पिू डय़ाँ व छोले, साथ ही
ज़ायक़ेदार ख़ुशबू भी। कहते ह ना, भोजन क ख़ुशबू से ही अ छे -अ छ के मँुह म पानी आ जाता
है, य िक इस का भी असर हमारी भख ू पर पड़ता है। यह सारी ि याऐं वै ािनक ढं ग से
स प न होती ह। यिद भोजन मन-पस द का नह हो तो तेज़ भख ू भी समा हो जाती है, य ,
सही कह रहे ह ना हम? बात ये है जनाब, भख ू हम नह थी, वि नल भी ना ते म तली हई चीज़
पस द नह करती है, लेिकन भोजन क ख़ुशबू ने हम खाने पर म बरू कर ही िदया। वैसे यह
ना ता है और इस म सब को चार ही पिू डय़ाँ िमलनी ह। या करते, इ छा तो और थी मगर...! वैसे
भी या ा के समय जो िमले खा लेने म ही समझदारी है। य िक िदन म कहाँ, कब, या िमले, न
िमले, पता चले िक िदन भर पेट म चहू े कूदते रहे ।

बैजनाथ
हम लोग ना ता कर के बाहर लॉन म आए वहाँ गाइड महोदय मु कुरा कर हाल पछू ने लगे।
य िक हमारी नाराज़ी उन पर ज़ािहर थी। हम ने उन से आगे के काय म क जानकारी ली व
िनवेदन िकया िक आप अपनी ओर से कुछ थल और िदखला द तो महरबानी होगी। वैसे भी अब
तो सब-कुछ आप लोग के हाथ म ही है। उ ह ने हमारे सामने नैनीताल गाड़ी मािलक से बात
क , या बात हई यह तो पता नह , मगर हई मण स ब धी ही थी, फोन रख कर वो बोले िक
उ ह ने जो िनदश िदए ह, वही हम िदखा सकते ह, हम ने सोचा ठीक भी तो है, उ ह तो मािलक
क नौकरी करनी है। पयटक तो रोज़ ही आते रहते ह। इस के बाद सामान क पैिकंग कर के
हम लोग लगभग 10 बजे बैजनाथ के िलए रवाना हए। आज च दा ने साड़ी पहनी थी व ख़बू
मेकअप भी िकया हआ था। आज तो वह अलग ही लग रही थी। बहत ख़बू सरू त...। साड़ी म कुछ
िज़यादा ही जम रही थी। कहते भी ह िक नारी साड़ी म िज़यादा ही सु दर िदखती है। वैसे हमारा
मानना कुछ अलग है, वो ये िक सु दरता अ दर से फूटती है। मन िनमल है तो काला-कलटू ा
श स भी अ छा लगने लगता है। ई र को भी तो िनमल- दय ही भाते ह। बाबा तुलसी दास जी
कह तो गए-

‘‘िनमल मन जनसो मोिह पावा


मोिह कपट छल िछ न भावा।’’

जहाँ तक कौसानी का सवाल है, इस के नाम का सवाल है, इितहासानुसार यहाँ कौिशक
ऋिष ने तप या क थी। स भवतया उ ह के नाम पर इस थान का नाम कौशानी पड़ा होगा और
खोज तो िनि त ही अं ेज़ ने क होगी। य िक उ ह ठ डे देश क ज़ रत होती थी। उ ह ने
सन् 1884 ई. म इस सु दर थल को खोज कर यहाँ चाय के बाग़ान लगाए थे। िजन के कुछ
अंश बैजनाथ के रा ते म हम िमले थे। कृित क अ ुत देन कौशानी किववर सुिम ा न दन क
ज म थली तो है ही, यहाँ क नैसिगक यटू ी ने ही, उ ह इतना सुकोमल किव बनाया है। आज
िह दी सािह य म उन का अित िविश नाम है, िवशेष कर कृित- ेमी किव के प म। उन के
तो रोम-रोम म, श द-श द म ाकृितक सौ दय रचा-बसा था।

कौशानी से प थर फकने िजतनी दूर पर गिवत खड़े िहमालय क शंख ृ लाओं म चौख भा,
ि शल ू , न दा देवी, पंचकूली एवं न दा घँघ
ू टी मुख ह, िजन क अ ुत सुषमा देखते ही बनती
है। कौसी एवं ग ड़ नदी के म य ढलवाँ पहािडय़ पर ि थत है कौशानी। यह थल समु तल से
1890 मीटर ऊँचाई पर ि थत है। यहाँ ग ड़ घाटी व सोमे र का िशव मि दर िविश दशनीय है
व िव यात है। यही नह चीड़, देवदार, बुराश, बाज़ आिद पवतीय पेड़ के घने वन से आ छािदत
है कौसानी। यहाँ सय ू ा त व सयू दय के बीच िहमिशखर के बदलते रं ग अतुलनीय सौ दय को
उ ािटत करते ह। कभी-कभी तो ऐसा लगता है मानो बफ़ म आग लग गई हो। यहाँ ठहरने के
िलए ‘कुमायँ ू म डल िवकास िनगम’ का आवासगहृ , अनासि योग आ म के एवं गाँधी जी
क िश या सरला बहन के आ म बने ह, जहाँ सैलािनय को काफ़ सुिवधाऐं िमल जाती ह।

हाँ, तो हम बैजनाथ चल रहे ह, घुमावदार पहाड़ी रा त से गुजरते हए। हम वहाँ तक मा 20


िकमी. क दूरी तय करनी है। य - य आगे बढ़ते ह, िहमिगरी और-और क़रीब आता जा रहा है।
रा ते म गाइड महोदय ने इशारा करते हए बताया िक ये चाय के कुछ खेत ह। यहाँ क चाय बड़ी
वािद है। आते समय कुछ देर यहाँ ठहरगे। अब हम सीधे बैजनाथ पहँच गए ह। यही रा ता आगे
जा कर िपनाके र व बाग़े र पहँचता है, जहाँ जाने को हमारा मन मचल रहा है। य िक वहाँ
क सु दरता के बारे म हम ने काफ़ पढ़ रखा है। लेिकन िववशता है, पैकेज टूअर म या ा कर
रहे ह। यहाँ मन से कुछ कर नह सकते। छोिडए, ़ जो हो ही नह सकता उस के बारे म या
सोचना। हम बढ़ रहे ह बैजनाथ के मि दर क ओर जो गौमती नदी के सु दर तट पर ह। हम यहाँ
पहँच कर चार ओर के भ य य का अवलोकन कर रहे ह। देवा मा िहमालय तो जैसे दो-चार
हाथ दूर ही खड़ा है। चार ओर हरीितमा से लदी घाटी क सु दरता का कहना ही या। वि नल
व के.पी. जी नदी के सुर य तट पर बैठ जाते ह। ‘यक़ न’ साहब वह पास खड़े कैमरे म से
िहमालय देख रहे ह, फोटो ाफर जो ह, असर कहाँ जाएगा। हर य को कैमरे के एं गल से ही
देखते ह िक कौन-सा य िकस कोने से कैमरे म ख़बू सरू ती से क़ैद िकया जा सकता है?

इस बीच हम मि दर क ओर हो रहे ह। एक-एक कर के सब के दशन करते ह। मि दर तो


ऐितहािसक ह ही। दशन के प ात हम भी नदी तट पर आते ह और कोमल-कोमल जल का पश
कर के मुिदत होते ह। एकदम शीतल एवं पारदश । हाथ-पैर िभगोते ही सारा तन-मन तरो-ताज़ा
हो गया। थकान एकदम छू-म तर। ये वही गौमती नदी है, जो सारे रा ते हमारा साथ िनभा रही
थी। हाँ, इस धारा का यहाँ सब से बड़ा आकषण है, धारा म तैरती हज़ार मछिलयाँ। वाक़ई, मीन-
ड़ाऐं देख कर आन द आ रहा है। इन क अठखेिलयाँ व चंचलता देखते ही बनती है। इन का
रं ग साँवला है, बहत ही यारी लग रही ह ये मछिलयाँ। एक के बाद एक कैमरे लैश हो रहे ह।
पयटक इ ह दाना डाल-डाल कर आन द क अनुभिू त कर रहे ह। हम भी फोटो लेने के िलए कह
रहे ह, मगर के.पी. जी इ कार कर रहे ह। तभी पीछे मुड़ कर देखते ह, ये या? एक बड़ा-सा
गोल प थर है, िजसे हमारे सहया ी पु ष तजनी से उठाने का यास कर रहे ह, मगर उठ नह
रहा। गाइड महोदय ने रा ते म ही बता िदया था िक वहाँ का मुख आकषण, एक तो इठलाती
हज़ार मछिलयाँ ह व दूसरा आकषण है एक गोल बड़ा-सा पाषाण। इसे यारह पु ष तजनी से
उठाऐं तो उठ जाता है, मगर एक भी मिहला हाथ लगाए तो नह उठता है।

गाइड महोदय कह रहे ह िक प थर ज़ र उठे गा, मगर आप लोग यारह नह ह। एक कम


है, तभी के.पी.जी भी ज़ोर आ माने लगे। वाक़ई, यारह तजिनय से प थर पाँच फुट तक ऊपर
उठ रहा है। सुखद आ य। ई र जाने इस के पीछे या लीला है। पु ष से ही उठ सकता है,
मिहलाओं से य नह , पता नह । मन म आया िक य न यारह मिहलाओं को इक ा कर के
आ माइश क जाए, इस म हरज ही या है? लेिकन हमारी सहया ी मिहलाऐं इस के िलए तैयार
नह हो रह , हम अकेले तो कुछ कर नह सकते।

कुछ देर हम वह टहलते रहे । पुन: हम सब मि दर गए व दशन िकए। कहते ह िक इन


मि दर को पा डव ने बनवास के समय एक ही रात म बनवाया था। इन म िशव, पावती व गणेश
तो िवराजते ही ह, इन के साथ-साथ कुबेर, ू देव, चि डका माँ के भी आकषक मि दर
ा, सय
ह। अनुमान है िक ये मि दर 11व से 13व शता दी के म य बने ह। यहाँ मिू त-कला व थाप य-
कला देखते ही बनती है। इितहास व पुरात व के िलए अनमोल िनिध ह ये मि दर। बैजनाथ क
िसि परू े भारत म है। यहाँ पर आन द दाियनी, गौमती नदी धनुषाकार म वािहत हो रही है।
यह थल 1125 मीटर ऊँचा है एवं ग ड़ उप यका म आता है।

बैजनाथ म भारत का एकमा पावती मि दर है। मिू त 6 फ ट ऊँची है व संगमरमर से िनिमत


है। यहाँ के मि दर क सं या 9 है। इ ह के युरी राजाओं ने बनाया है। इन मि दर से एक और
िकंवद ती जुड़ी हई है। ऐसी मा यता है िक गौमती व ग ड़ गंगा के पावन संगम पर ही भगवान
शंकर ने िहमालय पु ी पावती से िववाह रचाया था। काला तर म उन के पु काितकेय ने ग ड़
घाटी के बैजनाथ थल पर रा य िकया और इस कार काितकेय से के युनी राजवंश क
थापना हई। यहाँ पर पुराताि वक व तुओ ं का सं हालय भी बना हआ है, जो हम नह िदखाया
गया। इस कार रं ग-िबरं गी च ान से िदपिदपाते सौ दय, िवशाल पवतमालाओं के भ य िव तार
व पु य स रता गौमती से िवदा हो कर हम वापस कौसानी क ओर मुड़े। हमारी बस वह िनकट
गौमती पर बने सु दर सेतु पर खड़ी थी। वहाँ से रवाना हो कर बस कुछ देर चाय के बाग़ान म
ठहरी, यहाँ पर चाय के थोड़े बहत ही खेत थे। हम ऊटी म इतने िवशाल बाग़ान देख चुके ह, सो
हम यहाँ कोई िवशेष आकषण नज़र नह आ रहा था। कौसानी पहँच कर हम ने ाइवर साहब से
िनवेदन कर के कुछ देर बस कवाई एवं ‘यक़ न’ जी के साथ सुिम ान दन प त सं हालय
देखने गए। यहाँ उन के जीवन-च र व सािहि यक योगदान का पया िववरण दशाया गया है।
सरसरी नज़र ही डाल पाए। वह बाहर आ कर िहमा छािदत िहमालय क सुबह क धपू म
‘यक़ न’ साहब ने हमारी त वीर ख ची। धपू म बड़ा ही विणम लग रहा था स पण ू । वहाँ से हम
लोग नीचे उतरे । जगह-जगह दुकान म दीपावली क सामि याँ सजी हई थ । उ ह देख कर हम
भी घर क िच ता सताने लगी। य िक अब दीपावली आने म मा एक स ाह शेष रह गया था।
लेिकन हम ने मन को तस ली दी िक ये सब तो टीन के काम ह, दुिनयादारी तो हमेशा ही
चलती रही है। घमू ने के अवसर तो यदा-कदा िक़ मत से ही िमलते ह।

रानी खेत
अब हम रानीखेत जा रहे ह। रा ते म पहाड़ व ह रयाली काफ़ कम हो गई है। यहाँ पर
िज़यादातर खेत ह, वो ही सीढ़ीनुमा। गाइड जी ने बताया िक यहाँ आलू क खेती ख़बू होती है।
कई जगह िकसान हल चला रहे थे। हमारी अ पबुि के अनुसार यहाँ पवत को नह तो कम से
कम पेड़ को काट-काट कर खेत बना िलए गए ह तािक यहाँ के िनवािसय क ज़ रत परू ी हो
सक। जहाँ आदमी होगा वहाँ ग दगी भी होगी व दूषण भी। थोड़ा आगे चले तो गहरी घािटयाँ व
ऊँची पवत शंख ृ लाऐं िमल । नैसिगक सौ दय का पान कर के दय को सुकून िमला। अब पठार
लगभग समा हो गए थे। वही सघन वन, चीड़, रबर के व ृ , इठलाती-बलखाती सड़क। इन से
गुज़रते हए हम पहँचे रानीखेत और हमारी बस ठहरी एक पहाड़ी मि दर के िनकट। वहाँ सब
या ी बस से उतर कर इधर-उधर होने लगे। आज हम सुबह से देख रहे थे िक च दा हम से कुछ
िज़यादा बात नह कर रही है। वह एक बंगाली अंकल-आँटी से ही दो ती कर रही है। बस से उतर
कर पहले तो हम लोग कुछ े श हए। हाँ, च दा आज भी बहत ग़ु से म थी, अपने पित से। य
िक उस के पित महाशय उ ही बंगाली अंकल के साथ एक शॉप पर िसगरे ट पी रहे थे। कुल िमला
कर वो इस टुअर से परे शान थी, िब कुल हमारी तरह और इस के िलए उस क नज़र म दोषी उस
के पित ही थे। सब से पहले हम सब ने कॉफ़ पी, य िक कौसानी म नह पी पाए थे। च दा के
पित महोदय ने भी उस से कुछ पीने का आ ह िकया तो झ ला कर बोली आप ने तो िसगरे ट पी
ही ली, िफर आप को मुझ से या मतलब है। जो पीना है आप ही पी लीिजए। लेिकन वो चुप रहे ,
य िक उ ह ात था िक च दा का ग़ु सा जायज़ है। चढ़ाई चढ़ कर मि दर तक पहँचे। ‘यक़ न’
साहब रा ते म ही ठहर गए य िक वो कमका ड व पज ू ा-पाठ म ‘यक़ न’ नह रखते, केवल
एक ई र म िव ास रखते ह। मि दर म बड़ी शाि त थी, अ छा था। दीवार पर माँ दुगा के ोक
खुदे हए थे, जैसे िक बनारस म तुलसीमानस मि दर म संगमरमर म राम च रत मानस के आठ
ख ड के दोहे उ क ण ह। िपछले वष ही एक काय म के दौरान मण का अवसर िमला था, तब
इस मि दर के दशन का सौभा य ा हआ था। यही इन दोन मि दर क िवशेषता है। यहाँ से
हमारा कारवाँ गो फ़ मैदान म का, जो दुिनया म समु तल से ऊँचाई के आधार पर सब से ऊँचा
गो फ़ मैदान है। मैदान काफ़ ल बा-चौड़ा था। य तो... आहा...कहने ही या? चीड़ क ल बी-
ल बी व ृ ाविलय से िघरा हआ। सुखद, शीतल, सुहावनी हवा चल रही थी। हम लोग पैदल-पैदल
इधर-उधर घम ू ने लगे। कृित के रस का आ वादन िकया, बहत आन द आ रहा था, कुछ नेप
िलए। गाइड महोदय ने मैदान के विजत े म नह जाने को िनदिशत िकया था, मगर वही
मानव- विृ िक िजस के िलए मना करो वह काम तो ज़ र करना ही करना है। हमारे सहया ी
तो ज़ र उधर गए लेिकन हम ने िश नाग रक के कत य का पालन िकया, हम विजत े से
दूर ही रहे । यहाँ का सौ दय लाजवाब िनकला।

हम बाज़ार म पहँचे। अब लंच टाइम हो चुका है, ेक िदया गया भोजन करने के िलए। सारे
या ी अपने-अपन के साथ इधर-उधर रे ाँ तलाश करने लगे। हम ने सोचा च दा के साथ ही
भोजन करगे। लेिकन वह तो अंकल-आ टी के साथ हो ली। उसे नए िम िमल गए थे। हम चार
एक होटेल पहँचे, गाइड महोदय ारा िनदिशत जगह पर। खाना अ छा िमला, साफ़-सफ़ाई का
यान भी परू ा रखा हआ था। हाँ, बस वाले का यहाँ भी कमीशन सुिनि त रहा होगा। वह थोड़ी
दूर पर च दा भी अपने नए िम के साथ बड़ी फु लता से भोजन कर रही थी। यहाँ से िनव ृ हो
कर हम लोग नीचे आए, वह हम ने च दा से कहा िक हम लोग बस को यह छोड़ कर रानीखेत
व अ मोड़ा देख कर नैनीताल लौट चलगे। उस के पित तो मान भी गए मगर च दा ने मना कर
िदया, ग़ु से ही ग़ु से म। हम लोग अब अलग-अलग रा त से बाज़ार को हो िलए। हम ने कई
टै सी वाल से रानीखेत घम ू ने के बारे म बात क , लेिकन एक दो वॉइ ट के 700-800 पए से
कम लेने को कोई तैयार नह हआ। हमेशा क तरह हम िनणय नह कर पाए और वापस बस तक
आ गए। एक-दो सहया ी माकट गए हए थे, जो िनयत समय तक नह लौटे। सब को एक घ टे
तक ती ा करनी पड़ी। बाद म मालम ू पड़ा िक वो रा ता ही भल
ू गए थे। बड़ी मुि कल से पछ
ू ते-
पाछते बस तक आए थे। नई जगह पर यह स भावना रहती ही है। हम भी ऊटी म होटल का रा ता
भलू चुके थे। िकतनी मश क़त के बाद हम होटेल िमला था। अब लगभग साढ़े चार बज चुके थे।
बस म सब सवार हए, च दा अपनी बंगाली िम आ टी को िलए कुछ उपहार ख़रीद कर लाई थी,
िजसे बस म दे रही थी। पर पर पत का आदान- दान भी हो रहा था।

हाँ, तो हम रवाना होने से पहले एक नज़र रानीखेत के भौगोिलक एवं ऐितहािसक प र े य


पर डाल ही ल। रानीखेत जैसा िक नाम से ज़ािहर है, यह रानी एवं खेत दो श द से िमल कर
बना है। यानी इस का स ब ध रानी से होना ही चािहए। जी, हाँ, च वंश क रानी पि नी को
यह े यानी रानीखेत बहत पस द आया और उ ह ने यह पर अपनी छावनी बना डाली। यह
बात सन् 1869 ई. क है। रानी का खेत हो गया- ‘रानीखेत’।

जहाँ तक इस क खोज का सवाल है, वो तो अं ेज़ ही कर सकते ह, इस म कोई स देह ही


नह हो सकता। भला ठ डे देश के िनवािसय को गम जलवायु कैसे रास आ सकती थी। सो, वे
लोग हरदम ठ डे देश क तलाश म रहा करते थे। सारे पहाड़ी इला क़ को खोजने, वहाँ शहर
बसाने एवं वहाँ का पया िवकास करने का ेय अं ेज़ लोग को ही जाता है। भारत को उन का
ग़ुलाम रहने का यह एक फ़ायदा ज़ र िमला है। सच बात कहने म व मानने म हरज भी या है?
वाइसराय लाड मेयो ने रानीखेत म सेना का ी मावास लाने का यास तो िकया, लेिकन सफल
नह हो सका। लेिकन 1869 ई. म यह अं ेज़ी सेना का ी मावास बना जो बाद म कुमायँ ू
रे ज़ीडसी का कायालय बनाया गया। अं ेज़ यहाँ िपकिनक मनाने लगे, गो फ़ खेलने लगे व
मण के कई रा ते भी उ ह ने यहाँ बनाए। साथ ही इसे बसाने व िवकास करने म मुख भिू मका
िनभाई।

भौगोिलक ि से देख तो यह े समु तल से 1829 मीटर ऊँचाई पर है एवं 21.76 वग


िकमी. तक िव तार है। यहाँ के नैसिगक सौ दय के तो कहने ही या। कौसानी क ही तरह यहाँ
से भी िहमा छािदत िहमालय क सु दरता का पान िकया जा सकता है। ि शल ू , न दाकोट, गौरी
पवत, नीलका त, हाथी-पवत आिद िशखर का िवहंगालोकन का लु फ़ भी िलया जा सकता है।
साइ स, चीड़, ओक बाज़ आिद पहाड़ी पेड़ तो यहाँ हरी क तरह अपनी ड्यटू ी पर तैनात ह ही,
वह खग-व ृ द भी अपना मधुर कलरव िविभ न राग म सैलािनय को सुनाने को त पर रहते ह।
घने जंगल म जंगली पशुओ ं का िसंहनाद सुन कर भयभीत भी हआ जा सकता है।

एकदम ‘नीट ए ड लीन’ रानीखेत के माल रोड पर टहलने का तो अलग ही आन द है।


हम ने कहा ना िक सभी िहल टेशन पर हम माल रोड ज़ र िमले ह। फ़ुसत से आने पर यहाँ
कई मि दर के दशन का लाभ सैलानी उठा सकते ह, साथ ही चौबिटया (सेब व फल का बाग
एवं शोध सं थान) जो रानीखेत से मा 10 िकमी. दूर है, ज़ र जाना चािहए। 13 िकमी. दूर
भालू बाँध भी देखा जाए तो अ छा है। इसी के साथ ताड़ीखेत, ाराहाट, मनीला, गणाई,
चौखुिटया, पालीपछाऊँ का अपना-अलग सौ दय एवं मह व है। दूनािग र यानी ोणािग र
रानीखेत से 52 िकमी. दूर एक िवशाल थल है, यहाँ से िहमालय-दशन तो होते ही ह, ाचीन
दुगा-मि दर भी दशनीय है। इस के नाम से पौरािणक मह व क ग ध भी आ रही है। िकंवद ती है
िक जब हनुमान जी ोणाचल पवत से संजीवनी बटू ी ले कर जा रहे थे, तब उस म से एक प थर
यहाँ पर िगर जाता है। िजस से ोणािग र पवत बना है। परू ी स चाई तो ई र ही जाने। नाम सा य
होने का कारण स भव है यही रहा हो। पहाड़ी थल है, सो, सौ दय तो है ही।

नैनीताल के िलए वापसी


चिलए, चलते ह अब वापस नैनीताल क ओर। बस रवाना होती है। यह या! यह रा ता तो
और भी ख़बू सरू त िनकला। बस, ये मािनए िक देखते-देखते आँख नह थक रही ह। वाक़ई कृित
माँ का तो जवाब है ही नह , हो भी कैसे सकता है, सारी सिृ क जननी है और जननी तो
लाजवाब ही होती है, ये है तभी तो हम ह। िकतने यार से सहलाती है, दुलराती है हम। इस क
गोद म रहने का आन द तो अलौिकक है ही देिखए...देिखए...पथ क सहभािगनी धारा क
अठखेिलयाँ िब कुल ब च -सी िकलका रयाँ भर रही है, दूसरी तरफ़ देखने तक नह देती। मानो,
कह रही हो िक आओ मेरे पास, खेलो मेरे साथ, छुओ मुझे... िफर देखो, तु हारे भीतर िकतना
मधु रम अहसास िहलोर लेता है... तु हारे रोम-रोम म िद य आन द छलकने लगता है... तु हारी
इस अनुपमेय ख़ुशी म, म हँ तु हारे साथ। तुम से तु हारे भौितक सुख का आ वादन नह भुला दँू
तो मेरा नाम बदल देना...। कुछ आगे चलते ह, शीतल जल का चलना, दौड़ना, भागना-कूदना,
गाना-इठलाना... िकतना सुखद हो सकता है। यह केवल महसस ू करने का ही िवषय है, सुनने
या पढऩे का नह । आहा...सुरिभल वायु का कोमल पारदश सं पश...सेवन...पहाड़ी झरन का
नीचे उतरना, वो भी घनघोर गजना के साथ...एक से एक मनभावन य...इस सौ दय का
रसपान कर के भला कौन मु ध होकर बेसुध नह होगा। सच ही कहा गया है िक देवता भी इस
देव-भिू म पर रहने को तरसते ह। िब कुल तरसते ह गे... भला वग म यह ाकृितक आन द,
सुषमा कहाँ है। इसी िलए देवता मानव योिन के िलए तरसते ह और अवसर िमलते ही इस पु य
भिू म पर आने का अवसर नह छोड़ते। ये तो मनु य ही है जो व छ द हो कर, जी भर-भर कर
इस वैभव को भोग सकता है। इसी िलए मानव जीवन को सवािधक दुलभ बताया गया है। ये बात
िकतनी दुखद है िक आज ये ही मानव इस वा स यमयी कृित का सब से बड़ा दु मन बन गया
है। वाह रे ! मढ़
ू मित... कहते ह ना- ‘िवनाश काले िवपरीत बुि ।’

हाँ, तो हम कह रहे ह िक िकतने ख़ुशनसीब ह ये लोग जो इन वािदय म रहने का नसीब


िलखवा कर लाए ह। अपने जीवनयापन के िलए हल जोत रहे ह, कुछ गुड़ाई कर रहे ह। अपने
सीिमत साधन म िकतने स तु िदखाई दे रहे ह। इन के चहर पर छाई लािलमा देखते ही बनती
है। रा ते म यही सब देखने को िमल रहा है। इन से बहत ई या हो रही है।

हम इ ह िवचार म खोए हए थे िक गाइड महोदय खेत क ओर इशारा करते हए बोले िक


यहाँ आलू क खेती बहत होती है। आलम ये है िक ज़रा-सी पठारनुमा जगह िमली िक खेती करने
लग जाते ह, लोग। कुछ आगे चलते ह िक िफर घनी ह रयाली सामने है। पवत-िशखर पर एक-
सी ऊँचाई के पेड़, वो भी लगातार क़तार क तरह, इ ह देख कर तरह-तरह क क पनाऐं मन म
न ृ य करने लग , जैसे पैर क झाँझर या सर का मुकुट या दुआओं के िलए आ मान क ओर
उठते हए हज़ार हाथ, कभी-कभी साड़ी के बोडर का आभास भी होता रहा। पहाड़ पर कई सुरई
के पेड़ भी िमले, िज ह हम देवदार ही समझ रहे थे, बाद म मालम
ू पड़ा िक ये देवदार जैसे लगते
ह, मगर सुरई के पेड़ ह।

चलते-चलते अचानक बस क । गाइड महोदय बोले यहाँ नैनीताल का िस मि दर


‘कची टे पल’ है। यहाँ आप लोग को आधा घ टा िमलेगा, जाइए, दशन कर आइए। बस से उतरे ,
चार ओर नज़र घुमाई तो देखते ही रह गए। बेहद मनोरम यावली, एकदम अलौिकक सौ दय।
िवशाल पवतमालाऐं, कल-कल िननािदत झरने, घनी ह रयाली। दो-चार िमिनट तो हम अपलक
चहँ ओर िनहारते रहे , िफर मि दर क ओर चले। सड़क एवं मि दर के बीच पतली-सी िनमल धारा
बह रही थी, िजस पर छोटा-सा पुल बना था। पानी इतना िनमल था िक उतरो और पी लो, लेिकन
उतरने का कोई रा ता नह था। पुल पार कर के मि दर म दशन िकए। बहत ही सु दर ितमाय
एवं उन का शंग ृ ार भी उतना ही आकषक, पास ही नल लगे हए थे। हम सबने पानी का पान
िकया। बाद म हम लोग वह पास म बने रे टोरे ट गए और खुले थान म बैठ गए। कई िवदेशी
पयटक भी वहाँ चाय-ना ता करते िदखाई िदए। के.पी.जी. एवं वि नल तो रे ाँ म चले गए, हम
गाइड महोदय से वह बैठ कर कुछ जानका रयाँ नोट करने लगे। हम ने पछ ू ा िक इस टे पल को
‘कची टे पल’ य कहते ह? तो वो मु कुरा कर बोले िक यहाँ पहाड़ी पर जो सड़क बनी हई है
उस म कची जैसा बै ड है, सड़क िदखाते हए बताया। इसी के साथ हम ने अ य कई बात भी नोट
क , जैसे यहाँ नीम कटोरी बाबा का आ म भी है, िजस म 15 जनू को भ डारा होता है, बहत बड़ा
समारोह मनाया जाता है। कहते ह िक बाबा के भ का िवशाल रे ला यहाँ एक होता है। जन ू के
अलावा नवरा ा म भी उ सव होते ह, पजू न-अचन होता है। नीम कटोरी बाबा बहत बड़े िस पु ष
थे। इन पर हनुमान जी क बड़ी कृपा थी, यानी हनुमान िस थे। इसी कारण वे जहाँ भी जाते थे,
वहाँ हनुमान जी का मि दर ज़ र बनवाते थे। हनुमान जी क कृपा से ही उ ह िवपुल यश ा
हआ। यह आ म दीन-दुिखय क शरण- थली भी है। गाइड महोदय ने जाते समय ‘गरम पानी’
पर बस रोकने का भी वादा िकया, सो हम ने उ ह यह बात भी याद िदलाई तो िहचिकचाते हए
बोले, मािलक ने इ कार कर िदया, मैडम अब हम उन क बात को तो टाल नह सकते, हम तो
उ ह का नमक खाते ह ना।

हम ने पछ ू ा वहाँ पर या िवशेष है, बता ही दीिजए! तो बोले यह छोटा-सा नगर है, यहाँ से
कुछ आगे, वहाँ का पहाड़ी भोजन िस है। पयटक चाय एवं भोजन के िलए वहाँ कते ह। वहाँ
क पहाड़ी सि जयाँ बाहर भी भेजी जाती ह। बाहर से मतलब िवदेश से नह है, देश म ही। हम ने
कहा, हाँ...हाँ समझ गए भई, समझ गए, आप का मतलब हम। इस के थोड़ा आगे खेरना आता है,
जहाँ कोसी नदी पर झल ू ता हआ पुल है। यहाँ मछिलय का ख़बू िशकार होता है। वह से कुछ आगे
एक रा ता रानीखेत को जाता है, दूसरा अ मोड़ा को। हम तुर त याद आ गया, य िक जाते
व त वह पुल भी हम ने देखा था और रा ते भी। एक ओर हम मुड़े थे, दूसरे रा ते पर रानीखेत
का नाम िलखा था, ‘ऐरो’ के साथ। उ ह ने यह भी बताया िक रामनगर से खेरना नदी कोसी
नदी म एकमेक हो जाती है और अ मोड़ा से कुछ आगे बाई ं तरफ से कोसी नदी बहती है। इतना
कह कर वो उठ कर बस क ओर हो िलए। हमने शुि या अदा िकया। लीिजए वि नल चाय ले
आई है। इन तीन क चाय टील के िगलास म है, सो ज दी ठ डी हो गई और ये पी गए। हमारी
थमाकॉल के िगलास म होने के कारण ठ डी होने का नाम ही नह ले रही है। उधर बस ने हॉन दे
िदया। ज दी-ज दी पीने के यास म ज़ुबान जल गई, सो अलग। इतने को ड मौसम म भी चाय
का ठ डा नह होना हमारे िलए आफ़त बनता जा रहा है। हम एक बार िफर चार ओर िवहंगम
ि डाल कर सारे सौ दय को ने म समेट लेने का यास करते हए, चाय ले कर बस तक
चले आए। अभी जब यह संग िलख रहे ह, वही सारा य मानस-पटल पर मत ू हो रहा है। ऐसा
लग रहा है, मान अभी हम वह यह सब कर रहे ह। यानी, वह िवचरण कर रहे ह। सब कुछ
आँख म साकार हो रहा है और बड़ी याद आ रही ह वो हसीन घिडय़ाँ, वहाँ भी हमारी यही ि थित
थी िक काश! हमारा घर वह होता। चिलए, वापस यथाथ के धरातल पर उतरते ह। हम ाइवर
महोदय से कह रहे ह िक लीज़, एक िमिनट, चाय पी ल, उ ह ने ओ.के. कहा, लेिकन
िखड़िकय म हमारे सहया ी हम पर िच ला रहे ह, िक चाय के िलए हम सब को देर कर रहे हो।
लड़िकयाँ हम घरू कर बोल िक िड पोज़ेबल म तो चाय ले रखी है, कब ठ डी होगी? लेिकन हम
ने इन क बात पर यान नह िदया, मगर हम समझ गए िक अब इन सब को ज दी हो रही है,
सो हम चाय ले कर ही बस पर चढ़ गए। ये बात अलग है िक पीने म बड़ी मुि कल आई, एक तो
घुमावदार रा ता, ऊपर से चढ़ाई-उतराई। जब मोड़ आता, बस लो होती और हम चाय क एक
चु क मार िलया करते।

अब शाम भी गहराने लगी थी। बादल पहािडय़ पर उतरने लगे थे, मानो, िदन भर क थकान
से चरू अपने घर को लौट रहे ह । सच भी है, यही तो इन के घर ह, पहाड़ी क गोद, घािटयाँ, यह
तो आराम फ़माते रहते ह, जनाब। मैदान म तो इ ह ऐसा थान िमल पाता नह । इस िलए यह
अपना घर बनाते ह। मौसम ख़राब होने के परू े -परू े आसार बन रहे थे। हाँ, वातावरण के सुहानेपन
के िलए तो कुछ पिू छए ही मत, लेिकन यह सब हम अ छा नह लग रहा था। पिू छए य ? इस िलए
िक मसरू ी एवं कोडाईकेनाल म इ ह बादल क शरारत के मारे हम वहाँ के सौ दय-पान से
वि चत रह गए थे। खाली हाथ लौटना पड़ा था। इ ह बादल ने नीचे उतर कर सारे थान को
अपनी आग़ोश म भर िलया था। लो! इसी कशमकश म कब नैनीताल भी आ गया पता ही नह
चला। लगभग छह बजे थे। च दा से व बंगाली द पती से िवदा ली। च दा से अपे ानुसार रे पॉ स
नह िमला, अ तु।

सामान उतार कर हम खड़े हए, तभी ‘यक़ न’ साहब ने ऑिफ़स म जा कर बस के मािलक


से इतना ज़ र कहा िक हम आप के टुअर से िब कुल भी ख़ुश नह ह, या कहता झप कर चुप
हो गया। उस के िलए पयटक को बेवकूफ़ बनाना, पैसा ऐंठना, रोज़ का ही काम है। उसे फ़क
पड़े गा भी य ? उसी ने जाते समय कहा था िक हमारे टुअर से लौट कर आप हम ख़ुश हो कर
ध यवाद दगे। उसी का जवाब िदया था ‘यक़ न’ साहब ने।

हआ यँ ू िक हम टुअर पर जाते समय पानी क बोतल यह भल ू गए थे। यानी बस एजे सी के


ऑिफ़स म। सो, उसे लेने जाना था, िशकायत भी कर दी लगे हाथ । िवदा होते समय गाइड
महोदय से उन का नाम भी पछ ू ा, मदद हे तु ध यवाद भी िदया। उधर बंगाली बाबू कह रहे थे िक
दािजिलंग के आगे नैनीताल तो कुछ भी नह है। वहाँ तो ऐसा लगता है मानो पवतमालाओं पर
हीरे जड़े ह , कभी आइएगा, हम ने आ ासन िदया और सामान उठाने लगे तो चार ओर होटेल
के एजे ट इक ा हो गए। सब अपनी-अपनी बोलते जा रहे थे, कोई हम लोग क सुन ही नह रहा
था। एक एजे ट तो सामान उठा कर बरबस ही हम अपने ‘पयटक’ नामक होटल क तरफ़ ले ही
चला। रा ते म हम ने ‘लेक यू होटेल’ म भी पछ ू ा, मगर वो भर चुका था। पहाड़ी पर चढ़ते-चढ़ते
हम थक गए, मगर ‘पयटक’ कह नज़र नह आ रहा था। थोड़ा और...थोड़ा और...बदा त नह हो
पा रहा था। वो बार-बार यही कहे जा रहा था िक होटेल नया है, क बल नए ह यानी, हर व तु नई
है, इसी लोभ म हम भी चले जा रहे थे, मगर के.पी.जी. ने इ कार कर िदया और कुछ नीचे उतर
कर ‘गौरी होटेल’ देखा 300 पए म, जो अिधक लगे। वह पास के एक होटेल म 250 पए म
म ले िलया। ठीक-ठाक कमरा, सब ने हाथ मँुह धोए, गरम पानी बा टी से ही िमला। बाथ म म
टाइ स होने के कारण वि नल िफसल गई, वो तो ख़ुदा का शु है िक कह लगी-वगी नह ।
हम तो सीधे पलंग पर आ कर लेट गए, कुछ देर म ये तीन नीचे बाज़ार जा कर खाना खा आए।
रात भर खबू सनन-सनन सन...हवा चलती रही। यही डर रहा िक कह मौसम ऊटी जैसा न हो
जाए। ख़ैर, यहाँ कृित माँ महरबान रही। सुबह चटख़ धपू िखली हई िमली। चाय-ना ता कर के
िम टर के.पी.जी. गौरी होटेल म कमरा बुक करवा आए। 10 बजे हम लोग ने िश ट िकया। म
एकदम परफे ट। वेल फिन ड, कालीन। यही म सीज़न म कम से कम एक हज़ार से कम नह
िमलता। हमारे पास नैनीताल घमू ने के िलए अभी दो िदन थे।

नैनी झील
बस, हम तैयार हो कर पैदल ही टहलने िनकल पड़े । माल रोड म टहलते-टहलते नैनी झील
म नौकायन के िलए उतर गए और झील म नौका-िवहार का ख़बू लु फ़ उठाया। यहाँ से नैनीताल
का नज़ारा कुछ अलग ही महसस ू हआ, कारण यह था िक कोई भी य िविभ न कोण से
अलग-अलग िदखाई देता है। चार ओर गगन चु बी पहािडय़ाँ, बीच म झील, जैसे पानी का कटोरा
भरा हो। एक-दो नेप भी िलए। बात ही बात म झील के पानी क बात चली। पानी इतना व छ
नह था। ह रयाली क ित छाया से ीिनश ज़ र लग रहा था। इसी स दभ म िखवैया से हम ने
कुछ सवाल िकए तो उ ह ने फ़माया िक नैनीताल के सारे नाल का पानी इसी झील म िमलता
है, जो वाभािवक है। य िक झील तो गहराई म है ही। ज़ािहर है पहाड़ी का पानी नीचे उतरे गा ही
उतरे गा। यह तो उस का वभाव ही है, जैसा िक किव िबहारी ने फ़माया है-

‘‘नर क अ नल नीर क , गित एकै कर जोय

जेतौ नीचै ै चले, तेतौ ऊँचौ होय।’’

पीने के पानी के संग म पछ


ू ने पर उ ह ने कहा िक पेयजल भी इसी झील से स लाई होता
है, हम ने कहा िक िफर यह खाली नह होती, तो बोले िक बा रश म लबालब भर जाती है, वही
पानी काम आ जाता है और िफर नाले भी इसी म िमलते ह। सभी निदय क यही राम कहानी है-
गंगा भी भला कहाँ बच पाई है दूषण से। यह आदमी नाम का जीव भला कब िकसी क मानता
है, जब तक िक पानी सर से नह गुज़र जाए। इस ने कृित को मिटयामेट करने क मानो
सौग ध ही ले ली है। पानी पर त ऱीह कर के एक घ टे म हम नैना देवी के मि दर पहँचे। नाव
वाले को पैसे दे कर ध यवाद िदया और माता जी के दशन िकए। मि दर के बाहर ढे र दुकान
लगी हई थ ही। कुछ देर यहाँ भी िवचरण िकया, यहाँ काफ़ भीड़ नज़र आ रही थी। एकदम रे ला
आ रहा हो जैसे, चार और ब चे ही ब चे...हम ने सोचा आए ह गे। हम वापस झील के िकनारे
मि दर के पास बच पर आ बैठे और सुकून से तमाम गितिविधय एवं हलचल का अवलोकन
करने लगे। लेिकन मौसम क लुकािछपी ज़ र परे शान कर रही थी। कभी एकदम धपू तेज़ तो
कभी एकदम शीत लहर।

अब यहाँ वि नल का मन नह लग रहा था। कोटा जाने क िज़द करने लगी मगर


रज़वशन था परस का। उसे ख़ुश करने के िलए हम कभी कुछ िदखाते तो कभी कोई लोभ देते।
इसे हँसाने क बात पर लीिजए चै नई क एक बड़ी ही िदलच प बात याद आ गई। चिलए कुछ
देर हमारे साथ चै नई के ‘मरीना बीच’ पर। यहाँ वेश- ार से थोड़ा-सा आगे जाते ही एक आदमी
खड़ा िकया हआ है। िजस क वेश-भषू ा ामीण जैसी है, िसर पर साफ़ा है। वह एक ही मु ा म
िब कुल ितमा क तरह खड़ा रहता है। वाक़ई देखने म मिू त ही लगता है। इस को यिद कोई
हँसा दे तो उसे...हज़ार पए का पुर कार हाथ -हाथ िदया जाता है। चै नई घम ू ते समय गाइड
महोदय ने बताया िक अभी तक इस को केवल एक मिहला ने हँसाया है। वाक़ई वो यि एकदम
मिू तवत खड़ा रहता है िदन भर। हज़ार सैलानी उसे हँसाने का यास करते ह, जाने या- या
बोलते ह, लेिकन मजाल या िक वह हँस जाए! वो तो िकसी भी तरफ़ देखता तक नह । पलक
भी कब झपकता है, पता नह चलता। अब तो उस क आदत भी हो गई होगी, यह तो उस का
यवसाय है और सैलािनय के िलए कौतहू ल का िवषय। आप को भी जानकारी िमली। चिलए
वापस नैनीताल चलते ह।

हम वि नल को हँसाने के यास म थे िक दो युवक एवं दो युवितयाँ वहाँ दशनाथ आई ं।


दशन कर के वो लोग फोटो िखंचवाने लगे। हम दोन उ ह देखते रहे , उन क गितिविधय का
अवलोकन करने म बड़ा आन द आ रहा था। दोन साल-दो साल पवू ही शादी िकए हए लग रहे
थे। एक युवती तो काफ मेकअप म थी, मगर अ छी भी लग रही थी, दूसरी बेहद इतरा रही थी।
आ य एवं हँसी का फ़ वारा तो तब फूटा जब हम िज ह पित-प नी समझ रहे थे, वो ख़याल ग़लत
िनकला तो हम अ छा नह लगा। य िक दोन जोिडय़ाँ अटपटी लग रही थ । एक जोड़े म तो
युवक बहत ही हे दी व युवती एकदम पतली। हम यह सब केवल मनोरं जन के िलए ही देख रहे
थे। इस दिमयान ‘यक़ न’ साहब एवं के.पी. जी कुछ दूर पड़ी बच पर जा कर लेट गए। हम भी बोर
होने लगे एवं चार पीछे बाज़ार क ओर हो िलए। वहाँ जा कर इधर-उधर टहलने लगे। कई पयटक
बार-बार हम से टकराते रहे , यानी वो भी वह समय गुज़ार रहे थे। बाज़ार से लगा हआ है,
नैनीताल का सब से बड़ा मैदान, िजसे झील छोटी कर के बनाया गया है। ऐसा एक टै सी वाले ने
बाद म बताया। सच भी है, इन पहािडय़ म भला मैदान का या काम, लेिकन अब श बस गए ह
तो मैदान क भी ज़ रत पड़े गी ही। नैनीताल के सारे खेल-कूद व अ य काय म इसी मैदान म
होते ह।

आज इस मैदान म काफ़ गहमा-गहमी है, मंच सज रहे ह, िव ािथय क कूल-यिू नफॉम म


टोिलयाँ बस म से उतर रही ह। कई टोिलयाँ िविभ न रं ग-िबरं गी वेष-भषू ाओं म सजी-धजी हई ह,
वो भी सारे मेकअप के साथ। ज़ािहर है इन कलाकार को ो ाम देने ह गे, इसी िलए अपने घर
से ही तैयार हो कर आ गए ह। भीड़ से परे शान हो कर हम कुछ ऊपर मैन रोड पर आ गए ह। पहले
तो कुछ केले ले कर खाते ह एवं वह खड़े हो कर सोच रहे ह िक नसीब से िमले इस अ छे ख़ासे
िदन का या सदुपयोग िकया जाए। हमारा मन तो दूर पहािडय़ म टहलने का है, मगर वहाँ पहँच
तो कैसे? सो ‘िहमालय य’ू जाने का ो ाम बना डाला। जहाँ पर हम खड़े ह, वहाँ से पैदल रा ता
भी पहाड़ी पर जाता है एवं ‘रोप-वे’ तो है ही। पैदल रा ता जाता तो है, मगर कुछ आस-पास से
जाता है। अत: वह के एक िनवासी से जानकारी लेते ह। वह हम इशारा कर के रा ता बता देता
है, िफर हम ने वहाँ चल रही भीड़-भाड़ के बारे म पछ ू ा तो वो बोले िक यह ‘शरदो सव’ क
तैया रयाँ चल रही ह, उ ह ने दीवार पर लगे हए पे पलेट को िदखाते हए कहा िक इस म सारी
जानकारी िलखी है। हम ने एक नज़र उस पर डाली िजस म यह उ सव 28 अ टूबर, 2002 से 2
नव बर, 2002 तक होना िलखा है। पाँच िदवसीय इस आयोजन म िविभ न सां कृितक
काय म ह गे जैसे, गायन, लोकगीत, न ृ य, नाटक, खेलकूद, किवतामय कृ ण-गीत,
क़ वाली, क थक, न ृ य, पंजाबी-लोकगीत, शोभाया ा, पतंगबाज़ी, तैराक़ , संगीत-न ृ य,
अ पना ितयोिगता, पवतारोहण, घुड़सवारी, राज थानी संगीत, नौकायन, आितशबाज़ी आिद-
आिद। इन सभी ो ा स म देश के कोने-कोने से कलाकार भाग लेने के िलए आमि त िकए
गए ह।

िहमालय यू वॉइ ट
इस ‘कुमाऊँ शरदो सव’ का सारा आयोजन कुमाऊँ शरदो सव सिमित, नैनीताल ारा
िकया जाता है। हाँ, किव स मेलन भी होता है। हम अपनी ख़ुशनसीबी पर फ़ हो रहा है िक हम
िकतने शुभ अवसर पर नैनीताल आए ह। आज इस उ सव का शुभार भ है, इस िलए इतनी चहल-
पहल चल रही है। गािडय़ पर गािडय़ाँ आ रही ह, सड़क क सफ़ाई चल रही है। सोच-िवचार कर
हम ने बहमत से फै सला िलया िक ‘रोप-वे’ ारा ही ‘िहमालय यू वॉइ ट’ चला जाए। पैदल चढ़ाई
करने म थक भी सकते ह, और देखते ही देखते हम लोग िटिकट ले कर दस िमिनट म पहँच गए
पवत क चोटी पर। यहाँ से परू ा नैनीताल न शे क तरह नज़र आने लगा। कुछ देर इधर-उधर
टहलते हए, हम लोग पीछे क ओर गए जहाँ से िहमा छािदत चोिटयाँ नज़र आती ह, शायद इसी
िलए इस थल का नाम ‘िहमालय य’ू रखा गया होगा। लेिकन ये या... जहाँ-जहाँ बफ़ है, वहाँ
सब जगह ेत मेघ लेटे हए ह, जैसे परू ी लािनंग से यह सािजश
़ क गई हो। िपछले िदन कौसानी
से लौटते समय भी यही हाल था। वो तो ख़ुदा का शु है िक जाते समय बादल का षड्य नह
था, वरनाï तो यह अलौिकक य देखने से वंिचत रह जाते। यहाँ भी ख़बू सारी दूकान तो ह ही।
पहले तो इधर-उधर ख़बू टहले, सारा मंज़र देखा। कुछ ब चे वहाँ वीिमंग भी कर रहे थे। िफर एक
रे टोरे ट पर जा कर बैठ गए, जहाँ से ‘चाइना पीक’ भी िदखाई देती है एवं परू े नैनीताल के साथ-
साथ वहाँ आने का पैदल रा ता भी साफ़ िदखाई देता है। पहले हम लोग ने एक-एक याला चाय
ली। वहाँ से समचू ा य बेहद सु दर लग रहा था। िकतने ही सैलानी आ रहे थे-जा रहे थे। कुछ
खा भी रहे थे, वह झल ू े म बालक झल
ू रहे थे।

इसी बीच एक पंजाबी द पि आया। पित-प नी दोन काफ़ माट। साथ म 3-4 वष का
यारा-सा ब चा भी। उन दोन ने वि नल को बुला कर नेप िखंचवाया, ब चा भी बड़ा बुि मान
था। पहले ख़ाली झल ू े को झल
ू ा देता, िफर ख़ुद बैठता तािक दूसरे के ारा झल
ू ा देने के भरोसे
नह रहना पड़े । कभी हम देवदार के व ृ को ग़ौर से देखते तो कभी चाइना पीक को, तो कभी
नीचे से ऊपर झाँकते नैनीताल को। वापस नीचे आने का मन नह कर रहा था। लेिकन ‘रोप-वे’
वाले ने मा एक घ टा ही ठहरने के िलए िदया था। हम ने उन से िनवेदन कर के कुछ समय
बढ़वा िलया, तािक सुकून से वहाँ सौ दयपान कर सक। यिद वो नह मानते तो हम ठहर कर
पैदल ही उतरने का िन य भी कर चुके थे। ‘चाइना पीक’ से चीन क दीवार िदखाई देने क बात
पर रे टोरे ट के मािलक ने कहा िक अब वहाँ से भी चीन क दीवार िदखाई नह देती, य िक
‘चाइना पीक’ के कुछ िह से का खलन हो गया है, जहाँ से यह दीवार िदखाई देती थी। जब िक
हमारे टै सी ाइवर पंकज जी ने दो िदन पवू ही िकलबरी म कहा था िक ‘चाइना पीक’ से चाइना
क दीवार प िदखाई देती है। पता नह कौन-सी बात सच है। हाँ, चाइना क दीवार देखने क
इ छा ज़ र हो रही थी। वहाँ से कुछ ऊपर जा कर पहाड़ी पर बैठ गए। वहाँ एक टमाटर के पौधे म
बेर के बराबर टमाटर लगे हए थे, लेिकन िबना परू ी जानकारी के खाते तो कैसे।

अब सयू देव पि म क पहािडय़ पर उतरने को आतुर िदखाई देने लगे। वैसे भी पहाड़ी इला
क़ म एक घ टा पहले ही शाम ढल जाती है। य िक पहाड़ सरू ज को अपने आँचल म िछपा जो
लेते ह। इसी कार सुबह भी लगभग एक घ टे तक भा कर को आ मान म ऊपर नह आने देते,
भई उन का इलाक़ा है, उन क मज़ हो सो कर सकते ह, मािलक ह ये। इ ह को देखने के िलए
तो हज़ार मील क या ा कर के पयटक यहाँ आते ह। शाम होने लगी, सुबह का खाना खाने क
तो जैसे हम म से िकसी को याद ही नह आई। िकतनी ही बार बड़े लोग, ब च क भल ू ने क
आदत पर डाँटते ह िक ‘खाना, खाना तो नह भल ू ते’, लेिकन जनाब यह सच नह है। कभी-
कभी आदमी अित य तता या बहत सुकून िमलने पर खाना, खाना भी भल ू जाता है। खाने से
िज़यादा जब उसे वैसे ही कुछ और िमल जाता है। यही सोचते हए हम वहाँ छोटे से बाज़ार म गए,
कुछ खाना-पीना टटोला। वि नल ने तो यस ू मँगवा िलया। ‘यक़ न’ साहब ने कॉफ़ , के.पी.जी
ने चाय। अब बचे हम, हम ने भी यसू ही पस द िकया तािक कुछ एनज िमल जाए। वहाँ से कुछ
नए पेड़ भी िदखाई दे रहे थे, उन के नाम जानने क िज ासा भी हो रही थी, सो वह के एक
थानीय भ जन से हम ने इन पेड़ के नाम पछ ू े और उ ह ने बड़ी शालीनता से नाम बताते हए
और भी जानकारी हम दे दी। ये बात अलग है िक हम वो नाम याद नह रहे ।

इसी बाज़ार के पीछे ऊँचे टीले पर जहाँ हम िहमालय दशन करने गए थे, वहाँ बड़ी ग दगी
नज़र आई। वहाँ कुछ थानीय लोग के झ पड़े थे, कुछ पशु पालक भी थे, शायद इसी िलए होता है
ऐसा, जहाँ आदमी है, वहाँ ग दगी होगी ही, जब तक िक हम सफ़ाई का यान नह रखगे।
लेिकन, ये ग दगी भी ाकृितक थी, रासायिनक नह । इस िलए ख़ास बुरी नह लगी। वापस नीचे
आने पर देखा िक मैदान म काय म का ीगणेश होने ही वाला है। बालाऐं रं ग-िबरं गी न ृ य
पोशाक म सजी-धजी, िसर पर कलश िलये न ृ य करने को उ त थ । मन हो रहा था िक यह
ठहर जाऐं, मगर एक तो सद काफ़ बढ़ गई थी और हम लोग के पास पया ऊनी व नह थे।
साथ ही कुछ ऱे श होने क भी ज़ रत महसस ू रही थी। सोचा, होटेल जा कर तरो-ताज़ा हो कर
वापस आते ह। इधर ‘िहमालय य’ू पर ‘रोप-वे’ के एक कमचारी ने बताया था िक यहाँ वेधशाला
भी है, जो आम-आदमी के िलए खुली रहती है। वहाँ भी जाने का मन था।

अब हम काफ़ थक चुके थे, सो र शे से जाने का मानस बनाया, लेिकन यहाँ तो र शे के


िलए बुिकंग होती है, िटिकट लेना होता है। ऐसा पहली बार देख रहे थे। बुिकंग िव डो पर काफ़
ल बी क़तार थी ही। यहाँ र शे त लीताल से म लीताल एवं म लीताल से त लीताल ही चलते
ह। यहाँ समतल रा ता भी मा झील के चार ओर ही तो है। इस के िसवा तो र शा कह जा ही
नह सकता। ठे ल से तो यहाँ कोई काम ही नह । क़ुली होते ह, वो ही सामान ढोते ह। हाँ, र श
का िकराया िफ़ स, मा पाँच पए, कोई लटू -खसोट का काम नह । ठीक भी है, यिद सारी
क़ मत शासन तय कर दे तो बहत कुछ बहस-बाज़ी कम हो सकती है। क़ मत िफ़ स होने पर
िकसी कार का कोई स देह भी नह रहता।

ल बी क़तार देख कर हम लोग पैदल ही चल िदए। रा ते म नैनीताल का पहाड़ी के ऊपर से


िलया गया बड़ा ही सु दर पो टर देखा। लेने का मन भी िकया िक कह या ा वणन के काशन
के व त काम आ जाएगा। मगर 38 पए क क़ मत िज़यादा लगी। वैसे भी मालरोड सैलािनय
का बाज़ार होता है, सो यहाँ सब चीज़ अिधक महँगी िमलती ह। हम ने सोचा, उधर बस टे ड क
बग़ल म थानीय माकट से ले लगे। शायद स ता िमल जाए। ये बात अलग है िक उधर यह पो टर
िमला ही नह । एक-दो छोटे काड ज़ र ख़रीदे जो ए बम म लगे हए ह। रा ते म वि नल ने तो
पी जा ले िलया और आगे-आगे चल कर ज दी से होटेल पहँच गई। जब तक हम लोग वहाँ पहँचे,
वि नल हाथ-पैर धो कर पी जा खाने क तैयारी कर रही थी।

आज सद कुछ िज़यादा ही थी। हम लोग ने भी गम पानी से हाथ-मँुह धोए एवं रज़ाई म दुबक
गए। आज शरदो सव म ‘अिमत कुमार नाइट’ का भी आयोजन था। जाने क बहत इ छा हो रही
थी मगर सद ...। इधर ‘यक़ न’ जी को बुख़ार भी होने लगा। कुछ देर बाद पटाख़ क आवाज़
आ मान म गँज ू ने लग । अब हम से न रहा गया, वि नल और हम दोन बाहर बालकनी म आए
तो देखते या ह- सारा आकाश आितशी नज़ार से दमक रहा था। पहाड़ी रात रं ग-िबरं गी
रोशिनय से जगमगा उठी। जैसे दीपावली आज ही आ गई हो। 10-15 िमिनट तक हम लोग क
नज़र नीची नह हो पाई ं। िब कुल वैसी ही आितशबाज़ी हो रही थी जैसी िक कोटा के दशहरे मेले
के समापन के दौरान ‘राज थान पि का’ समाचार प क ओर से तीन-चार वष से आयोिजत
हो रही है। अब हम काय म म उपि थत नह होने का मलाल और िज़यादा होने लगा। कुछ देर
बाद अ दर आए, भोजन के बारे म भी कुछ सोचना था। इधर ‘यक़ न’ साहब को बुख़ार चढ़ ही
रहा था। उन से हम ने होटेल म कने को कहा एवं हम लोग खाना खाने जाने लगे, मगर वो
नह माने और कपड़े पहन-ओढ़ कर साथ हो िलए, वैसे काफ़ िह मत वाले ह। बस टे ड के पास
थानीय बाज़ार म 20 पए थाली म खाना अ छा िमल गया। हम लोग ो ाम म जाने क बात
करने लगे तो, दूकान मािलक बोले िक 9-10 बजे इतनी सद हो जाएगी िक हम भी सहन नह
कर सकते, आप कैसे कर पाऐंगे। वेधशाला भी जाना था, मगर मौसम साफ़ नह होने के कारण,
चाँद-तारे भी ओझल थे, कई कारण से काय म र करना पड़ा। वह कुछ पो टर भी िबक रहे थे,
हम ने वही पो टर ढूँढा (िजस का पवू म िज़ िकया था), मगर नह िमला, दूकान वाले ने कहा,
बहन जी ऐसे पो टर मालरोड पर ही िमलते ह, वो सैलािनय का बाज़ार है, दाम भी वैसे ही ह।
वाक़ई सही ही तो कह रहा था। इस बाज़ार म समोसा दो पए का था, उधर हम 12 पये का
बताया था। वह से बुख़ार क दवाइयाँ भी ख़रीद । ‘यक़ न’ साहब पहले डॉ टर क पे्रि टस भी
कर चुके ह, सो इस बारे म काफ ान रखते ही ह। मु य प से तो इन का बुख़ार देख कर ही
अिमत कुमार को सुनने नह जा सके। सद क व ह से तो शायद चले भी जाते। यहाँ एक बात
यह भी बताने का जी हो रहा है िक ‘यक़ न’ साहब को नैनीताल म मेिडकल टोर ढूँढने म
काफ़ िद क़त हई। मेिडकल टोर बहत अ दर एक गली म जा कर िमला। रसे शिन ट से पछ ू ा
तो मालम ू हआ िक यहाँ क जलवायु ही ऐसी है िक यहाँ के लोग बहत कम बीमार होते ह। इस
िलए मेिडकल टोस और डॉ टर यहाँ नह के बराबर ही िमलगे। देखा जलवायु क व छडता का
असर? अपने मैदानी इलाक म तो शहर क हर गली म दजन डॉ टर और मेिडकल टोस होते
ह और अब तो गाँव-गाँव म ाइवेट ि लिनक खुल गए ह। वापस आ कर रज़ाइय म डट गए।
वि नल तो खाना खाने गई नह थी, सो आराम से रज़ाई का लु फ़ उठाते हए टी.वी. के दशन
कर रही थी। अपने पस द के सी रयल देख रही थी। ब च को टी.वी. िमल जाए, िफर या चािहए।
वो टी. वी. देखती रही और हम न द देवी क शरण म चले गए। हाँ, बीच-बीच म एक-दो बार थोड़ी
आँख खुली तो देखा साँय-साँय करती हई काफ़ तेज़ हवा चल रही थी, जैसे कोई तफ़ ू ान आने
वाला हो। मौसम काफ़ ख़राब होना चािहए, ऐसा आभास हो रहा था। हम सब कुछ भगवान पर
छोड़ कर सो गए।

सुबह उठते ही बाहर िनकले तो मौसम एकदम काँच क तरह साफ़ िनकला। ई र क लीला
है सािहब, पल म तोला पल म माशा। भगवान जी को ध यवाद िदया और दैिनक कम से िनव ृ
होने लगे। चाय-वाय पी, ‘यक़ न’ साहब का बुख़ार परू ी तरह उतर चुका था। लगभग एक घ टे म
हम लोग नहा-धो कर एकदम तरो-ताज़ा हो िलए। पेिकंग भी क , य िक आज वापसी का हमारा
रज़वशन था। सारी पैिकंग कर के पहाड़ी से नीचे आए। हमेशा क तरह झील के िकनारे लगे नल
से पानी क बोतल भरी। होटेल के पानी क शु ता का भरोसा नह , बो रं ग का होता है, या िफर
टोर िकया हआ। पानी के मुआमले म तो हम एकदम स त ह। वह एक छोटी-सी छतरीनुमा
चबतू री बनी है, िजस म ालु आते ह, हाथ जोड़ते ह एवं घ टा बजाते ह। घ टे क आवाज़ सुबह
के चार बजे से ार भ हो कर िनशा के बारह बजे तक आती रहती है। कई बार हम व वि नल
सोचते रहे िक यह घ टा- विन कहाँ से आती है, आज इस का राज़ खुला, लेिकन कई सवाल िफर
भी मन म ही रह गए। िकसी से पछ ू ना चाह रहे थे, मगर पछ
ू नह पाए। दो-चार िमिनट तक झील
को जीभर िनहारते रहे , य िक इस से िवदा लेने का व त था, शाम को सीधे काठगोदाम
पहँचना था। पहाड़ -देवव ृ को भी आँख भर-भर कर देखा, कुछ देर तो ऐसा लगा मानो, िवदाई
के पल म इन का भी जी भर आ रहा हो, हम लोग से िबछड़ कर।

आज इस सकल कृित से हम िवशेष आ मीयता का पश महसस ू हआ। बार-बार ऐसा


महसस ू हआ िक मानो वे कह रहे ह िक िफर ज दी हम से िमलने आना, हम तु हारी ती ा
करगे। वैसे तो यहाँ हज़ार पयटक आते ह, लेिकन िज़यादातार िवलास एवं ऐ य के िलए आते ह,
या पैसे को भोगने के िलए आते ह या गम से राहत पाने हे तु। मगर तु हारे जैसे िन ल कृित
ेमी िबरले ही आते ह। कृित से ेम करने के िलए बालक क तरह मासम ू , िनमल, िन छल मन
ज़ री है, ऐसा मन ही कृित के कण-कण म पर स ा का अहसास कर सकता है। कृित के
अपवू सौ दय को िनहारने के िलए ख़बू सरू त ि भी चािहए। प ृ वी एवं पयावरण को बचाने के
िलए आज सवािधक ज़ रत है तो कृित- ेम क ही। सम त पयावरणीय सम याओं का हल
कृित- ेम से चुटक बजाते हल हो सकती है।
मन को ढाढस बँधा कर हम िहना ेवल ऐजे सी गए। मु े र घम ू ने के उस ने 1000 पए
माँगे साथ ही काठगोदाम तक भी छोड़ दगे। वापस आ कर हम ने ितराहे पर पंकज जी के भाई से
भी बात क । पहले वो भी 1000 पए ही बोले िफर 900 पए म बात बनी। उ ह ने कई िवशेष
थल िदखाने क भी बात कही। कहा िक यहाँ क ऐसी िविश जगह िदखाऊँगा िक आप भी
याद रखोगे। हम लोग ने उ ह गाड़ी लेने भेजा एवं पहाड़ी न ब,ू बाल-िमठाई जो िक अ मोड़ा म
नह ख़रीदी थी, ख़रीदी। पहाड़ी न बू स तरे के बराबर होते ह। कई घर म एवं पहाड़ी रा त म
लगे हए भी देखे थे। रामकरे ले भी िलए, उन के बनाने क िविध भी पछ
ू ी। करे ले घर आ कर बनाए,
कड़वे िब कुल नह लगे, हाँ, उन के ऊपर उगे महीन काँटे मँुह म चुभे ज़ र। इन क ऊपरी परत
मैदानी करे ल से िभ न थी, खुरदरे पन क जगह, सपाट परत िजस पर बारीक-बारीक काँटे लगे
हए थे। यहाँ नारं गी रं ग क िशमला िमच जैसी स ज़ी भी िमल रही थी। हम ने नाम पछ ू ा तो बताया
गया िक इसे कोक का फूल कहते ह, लगभग एक ऐसा ही फल हम ने मनाली म देखा था, िजसे
वहाँ जापानी फल कहा जाता है। इस म रसीला गदू ा होता है, छील कर खाते ह, बड़ा ही वािद
लगता है। खाया था। एक पान क दूकान पर मािलक ने कु े को शॉल ओढ़ा कर िलटाया हआ
था। यह य हम ने वि नल को िदखाया। सही है, ाणीमा के ित सहानुभिू त रखनी चािहए।
वैसे यह पालतू कु ा था।

अरे , हाँ यह तो बताना ही भल


ू गए िक यहाँ सुअर एवं म छर नह थे। इतने सुहाने मौसम एवं
सद म बेचारे म छर कैसे रह सकते ह, िफर दोन के िलए ग दगी भी ज़ री है, जो यहाँ कम ही
देखने को िमली। लगातार सफ़ाई होती रहती है। यहाँ भी अ य िहल टेशन क तरह पॉलीथीन
पर परू ी पाब दी है। काश! ऐसी पाब दी परू े देश म होती, पयावरण सुर ा के िलए इतने अहम
सवाल पर भी िकसी का यान नह है। जनता तो अपनी ज़ रत व टशन म इतनी उलझी हई है
िक उसे फ़ुसत ही नह , इन बात पर ग़ौर करने के िलए। सब लोग वाथ एवं आराम तलब हो
गए ह। कुछ भी ख़रीदना है तो घर से थैला ले कर कौन जाए, पॉलीथीन जो है। पहले भी तो सब
चीज़ झोले म आया करती थ । अब भी आ सकती ह, यिद पॉलीथीन बने ही नह तो, मगर नेताओं
को, देश के भा यिवधातओं को कुस , घस ू , वोट एवं घोटाल से फ़ुसत िमले तब ना। पयावरण से,
कृित से िकस को या मतलब? उन क बला से जाऐं भाड़ म। िवदेश म स ती होने से बहत
अनुशासन है, बहत कुछ सम याय कम ह, िवकास भी अिधक है। जुमाना लग जाए एवं कमचारी
ईमानदार ह तो क़ानन ू -पालन बड़ा आसान है। च डीगढ़ क सड़क पर कोई पशु िवचरण नह
कर सकता। ऐसा होने पर 500 पए जुमाना होता है, तो जनाब एक भी पशु हम वहाँ नज़र नह
आया, वहाँ पालन होता है क़ानन ू का। लोग ने िवदेश क तरह घर के बाहर िबना फै सी के ही
गाडिनंग कर रखी है। हम ने वयं ही यह सब देखा है। आज िजधर भी देिखए कचरे म 90
ितशत पॉलीथीन क थैिलयाँ ही िमलगी, जो भिू म क दु मन तो ह ही, िकतनी गौ-माताओं क
जान भी ले चुक ह। बेचारी भोली-भाली गाय थैली सिहत फक क गई व तुओ ं को खा लेती ह।
शनै: शनै: उन के पेट म कई िकलो थैिलयाँ इक_◌ी हो जाती ह। वो या जान िक थैली नह
खानी चािहए, ये तो मक ू , सरल जीव ह, लेिकन हम िकसी क र ा नह कर सकते तो कम से
कम िकसी क जान लेने का हक़ भी तो नह रखते। चिलए कह तो िनयमन है, इसी म स
करते ह। िबना पॉलीथीन के भी काम चल सकता है, पहले भी चलता ही था। कहना आसान है
सो, हम ने भी कह डाला इतना कुछ, अमल क बात आए तो शायद हम भी क नी काटने लग
जाऐं। लेिकन सच कह, हम पयावरण-र ा के िलए यथा-स भव यास हमेशा करते रहते ह।
पंकज जी क ती ा म हम वह स ज़ी वाले से कुछ पछ ू ताछ करते रहे । चे ट-नट को ये लोग
बॉगड़ कहते ह, ऐसा बात ही बात म मालम ू चला। वैसे ये लोग पर पर कुमायँ ू बोली म बात
करते ह। यही यहाँ क सवािधक बोली जाने वाली े ीय बोली है। कुछ देर म हाथ से चलाने
वाली ोली म ढे र सारी ताज़ा सि ़ जयाँ आई ं। कहा ना! यहाँ ठे ले तो चलते ही नह , या तो क़ुली ह,
जो पीठ पर सामान बाँध कर चलते ह या िफर ोिलयाँ ह।

कुछ भी हो मगर क़ुली भी तो इ सान ही ह। हम तो बड़ी दया आती है, जब वो ढे र सारे


सामान को पीठ पर बाँध कर पहाड़ पर चढ़ते ह, लेिकन उन क भी म बरू ी है। पापी पेट के िलए
यह सब करना पड़ता है। सब हमारी ही तरह दयावान हो जाऐं तो बेचारे क़ुली तो भखू ही मर
जाऐंगे। हर भावना का मू य प रि थित सापे भी होता है।

घोड़ा खाल मि दर
लीिजए, पंकज जी गाड़ी ले कर आ गए। हम उ ह होटेल से थोड़ी दूर छोड़ कर सामान ले कर
आए एवं इस े को ‘बाय’ कह कर चले अगली मंिजल क ओर, यानी ‘घोड़ाखाल मि दर’।
सुबह क चटख़ धपू सुर य वािदय म फूल बन कर िबखरी थी। चीड़ के पेड़ के बीच से धरती को
िनहारने के यास म वन क सघनता म घुसपैठ करता िदखाई दे रहा था सरू ज। इधर चीड़,
बाज़, सुरई के पेड़ भी उस के यास को असफल करने म कोई कसर नह छोड़ रहे थे। इ ह ने
धरा-सु दरी को कह हरी पि य से तो कह सख ू ी पि य से परू ी तरह िछपा रखा था, बेचारा
सरू ज िकतना िववश हो रहा था, इस सघन ह रयाली क िज़द के आगे अपनी ेयसी धरती का
ि - पश भी नह कर पा रहा था। हाँ, रही-सही कसर परू ी कर दी डामर क गहरी सलेटी
सड़क ने, जो भी हो ऊपर नीलाभ, चार और हरीितमा, बीच म लहराती, बल खाती सड़क क
तो बात ही मत पिू छए, मन तो होता है िक टै सी म से उतर कर पैदल ही चला जाए। इतना
ख़ुशनुमा मौसम और पैदल मण। बीच-बीच म प पर पड़ती धपू काँच क तरह आँख को
ज़ र चँुिधया रही थी। ऐसा लगता था मानो, इन पेड़ पर हज़ार काँच जड़ ह । बेचारा सरू ज सारा
ग़ु सा इन पि य पर ही उतार रहा था। उस क रोशनी यह से ितिबि बत हो रही थी। हवा का
झ का आता और सारे काँच िझलिमला उठते। िब कुल लहर क तरह दमक रह थ , पि याँ भी।
शायद िनमलता क व ह से। मैदानी सड़क के िकनारे पर लगे पेड़ क पि य पर तो धल ू क
इतनी पत जमा हो जाती ह िक इन क वाभािवक हरीितमा न जाने कहाँ गुम हो जाती है और
तब ये पेड़ हम बहत बुरे लगते ह। इ ह देख कर घबराहट-सी होने लगती है, अ तु। इन ऊँचे-नीचे
रा त पर चलते हए जीवन के उतार-चढ़ाव का भी अहसास हो रहा था। इ ह रा ते क तरह
िज़ंदगी म भी तो सदैव उतार-चढ़ाव चलते ही रहते ह, जैसे ये नह घबराते, सहज स तुिलत रहते
ह, वैसे ही हम भी हर हाल म ख़ुश रहने क ेरणा जाने-अनजाने म ये प थ दे जाते ह।
सच, पहाड़ी हवा म एक अलग ही महक होती है, एक सुहाना अहसास भीतर जागता है, ऐसा
लगता है िक जैसे ये हवा रोम-रोम को जीव तता दान कर रही है। साथ यँ ू ही लग रहा था िक
यह सफ़र ऐसे ही चलता रहे , कभी ख़ म ही न हो, बस चलते रह-चलते रह...। काश! ऐसा होता,
लेिकन इस दुिनयादारी म यह सब हो ही कहाँ पाता है। चलना, िफर िवराम, िफर चलना यही
वा तिवक जीवन है। ये तो किव मन है, इसे जो अ छा लगता है, वैसी क पनाऐं करता रहता है
और िफर एक किव यह भी तो कह गए ह, जो बड़े पते क बात है। कहा तो पानी के स दभ म है,
लेिकन जीवन पर सौ फ़ सदी लागू होता है। वो यह िक- ‘बह जाए तो पानी है, ठहर जाए तो मोती
है।’ वाक़ई, बड़े मम क बात है। हम इ ह ख़याल म खोए थे िक ाइवर साहब ने गाड़ी के ेक
लगाया और हम लोग हक़ क़त क धरती पर एक ही झटके म आ गए। कार के दरवाज़े खोलते
हए बोले िक- लीिजए ‘घोड़ाखाल मि दर’ आ गया। यहाँ से सीिढय़ से पहाड़ी पर जाइए, ऊपर
मि दर है। हम लोग टै सी से बाहर आए। पहले चार ओर बरबस ही आँख घम ू गई ं। या ग़ज़ब का
य था। पहाड़ म तो कह भी िनकल जाइए, सौ दय कण-कण म िबखरा पड़ा है। बस देखने
वाली आँख व महसस ू करने वाला मन चािहए। कहा भी तो है- ‘‘सौ दय आँख म होता है, व तु
म नह ।’’

कोई भी व तु एक यि के िलए बेहद ख़बू सरू त होती है, दूसरे के िलए साधारण। हम
नैनीताल इतना यारा लग रहा है, स भव है िकसी दूसरे श स को यह िब कुल भाए ही नह ।
‘जैसी ि वैसी सिृ ’। मि दर क यथाि थित एवं वहाँ लगा छोटा-सा बाज़ार देखने लगे। यहाँ
सब से िज़यादा घ ट क तथा घि टय क दूकान लगी हई थ ।

हम लोग पहाड़ी पर चढऩे लगे। धीरे -धीरे आन द के साथ मि दर तक पहँच गए। वहाँ कई
छोटे-छोटे मि दर बने हए थे। भैरव जी का, िशव-पावती जी का, इन मि दर म ितमाओं के साथ
घोड़े क मिू तयाँ भी थ । भीड़ बहत अिधक थी। दशन म परे शानी ज़ र आई। दशनोपरा त इधर-
उधर घम ू कर परू े मि दर का अवलोकन िकया। घि टय को भी देखा। हम सवािधक आकिषत
िकया यहाँ चार ओर लगी हई घि टय ने, छोटी से ले कर बड़ी-बड़ी घि टयाँ, वो भी हज़ार क
तादाद म थी। घि टयाँ ही घि टयाँ...आन द आ गया। िगनने लगो तो सारा िदन लग जाए।
वि नल ने तो इन के लगाए जाने का कारण भी पछ ू ा। हम ने इसे तस ली दी िक ज़ र
मनोकामनाऐं मानने व इन के परू ी होने के उ े य से ही ये घि टय का मेला लगता होगा। दूर-दूर
से इन मि दर म ालु इसी िलए भी आते ह और िन: वाथ भाव से भी आते ह। पंचमढ़ी िहल
टेशन पर भी एक पहाड़ी पर महादेव जी का मि दर है, वहाँ भी मनौितयाँ परू ी होने पर घ टा
चढ़ाने क ा है। वहाँ भी लाख क तादाद म घ टे लगे हए ह। भई! हमारा देश तो है ही धम
ाण। मि दर म पीछे क तरफ़ कुछ बकरे भी बँधे हए थे, नीचे ज़म भी लाल थी। शायद यहाँ बिल
देने क था भी है। हम सब तो इन घि टय को देख-देखकर बेहद हैरान हो रहे थे। बिल के िलए
तो या कह? बेचारे िनरीह ाणी और बिल? कहने लगगे तो पचास प ृ भर जाऐंगे। आप भी वही
सोचते ह गे जो हम सोचते ह। ख़ुद ही समझ लीिजए।

अरे हाँ, घ टे मि दर म ही नह लगे थे, अिपतु सीिढय़ तक लगे हए थे। शायद मि दर म ठौर
नह होने पर भ गण सीिढय़ पर ही लगा जाते ह। यहाँ लगे बड़े -बड़े घ ट को र सी से बाँध
रखा था तािक या ी इ ह नह बजा सक। वना तो...। यहाँ का तो फोटो भी ज़ र लेना चािहए था,
मगर कैमरा तो हम नीचे ही भल ू गए थे। अब िकस क िह मत िक नीचे जा कर कैमरा ले कर
आए। सब एक-दूसरे से कहते रहे ...कहते-कहते नीचे भी आ गए। पंकज जी से जब हम ने घि टय
के बारे म पछ
ू ा तो बोले- लाख घि टयाँ तो नीचे गोदाम म भरी ह। हम यही सोच रहे थे िक जब
कह ख़ाली जगह ही नह बचेगी तो ालु घ टे कहाँ बाँधगे? हमारी िज ासा का समाधान हो
गया। हम ने पुन: पछ ू ा, लेिकन मि दर का नाम घोड़ाखाल य पड़ा? तो बोले िक मि दर म
घोड़ क ितमाऐं भी लगी हई ह, इसी िलए। मगर हम पण ू त: आ त नह हो सके। अभी भी
हमारे मन म यह िज ासा है। हम ने उन से एक सवाल और िकया िक इन घि टय को बेचते नह
ह या? वो बोले, शायद नह , इसी िलए तो गोदाम भरे ह। उ ह ने एक बड़ी इ ेि टंग बात बताई
िक यहाँ वष म सैकड़ शािदयाँ होती ह। अपनी मज़ से शादी करने वाले जोड़े भाग कर यहाँ शादी
कर लेते ह, जो वैध मानी जाती है। हम ने कहा यह भी ख़बू रही।

नीचे आ कर समझ म आया िक यहाँ इतनी घि टयाँ य िबक रही ह। याद है आप को, अभी
2-3 िदन पवू सातताल म हम ने ‘बाज़’ िफ़ म क शिू टंग देखी थी, वही िफ़ म कुछ महीन पवू
पद पर देखी, िजस म इस मि दर क कई िमिनट क शिू टंग है। यथा, जब क र मा कपरू
नैनीताल आती है तो रा ते म क कर इस मि दर म दशनाथ जाती है। शायद म नत भी माँगती
है, दीनू मो रया के साथ होती है। वह पछ
ू ता है िक या माँगा है? अपनी देखी हई जगह को िफ़ म
म देख कर बड़ा अ छा लगा। भीमताल म कुछ युवक बात कर भी रहे थे िक कल मि दर म
शिू टंग है, तब हम पता नह था िक इसी मि दर म होनी थी।

वैसे पंकज जी वभाव से सरल एवं ख़ुशिमज़ाज लगे। परू े रा ते कुछ न कुछ सुनाते ही रहते
थे, लेिकन हम डर भी लगता था िक कह यान न बँट जाए, गाड़ी जो चला रहे ह। हाँ, ाइिवंग
पर परू ा कमा ड है इन का, टेढ़े-मेढ़े पहाड़ी रा त पर इतनी अ छी ाइिवंग क़ािबले-सताइश थी।
मैदान वाला अ छा ाइवर भी यहाँ गाड़ी नह चला सकता। इस बारे म हम ने उन क तारीफ़ भी
क तो बोले, देवी माँ क कृपा है। रोज़ का ही काम है हमारा, वष से यही काम करता आ रहा हँ।
जहाँ भी रा ते म धािमक थल आते, वे िसर ज़ र झुकाते। ई र म इन क गहरी आ था साफ़
ज़ािहर थी। क़द ठीक-ठाक, रं ग गोरा, हालां िक यहाँ के सभी िनवासी हम गोरे ही नज़र आए।
जलवायु का असर कहाँ जाएगा, पहाड़ी ब ती है। पंकज जी पढ़े -िलखे एवं सं का रत भी ह, जो
इन के यवहार से झलक रहा था। य िक आदमी के रहन-सहन, बोलचाल से उस क सं कृित
एवं स यता का कुछ तो पता लग ही जाता है। हम ने िपछले टुअर म, उन से पछ ू ा था िक इस
यवसाय म रोज़ी-रोटी चल ही जाती होगी तो वे बोले थे िक- ‘‘हाँ दाल-रोटी िमल जाती है और
हम पहाड़ी बािश द को चािहए भी या? यहाँ के लोग स तोष द होते ह, अिधक लोभ-लालच
यहाँ नह िमलेगा। बाहर के जो यापारी यहाँ ह, उन के बारे म हम नह जानते। हाँ, घम ू ने के
मौसम म ही हमारी आय अ छी होती है, उसी से साल भर का गुज़ारा होता है। हमारा पहाड़ी
यवसाय केवल सीज़न म ही चलता है, इसी िलए हम लोग दाल-रोटी से िज़यादा कमा भी नह
पाते, य िक सिदय म तो बैठ कर ही खाना होता है। हमारे तो दाता पयटक ही ह।’’

जो भी हो पंकजी जी बड़े िवनोदी वभाव के िनकले। गाड़ी म कई चुटकुले सुनाते चलते या


िफर सैलािनय के िक़ से। कभी-कभी गाड़ी क आवाज़ म हम परू ी बात ठीक से सुन नह पाते
तो, हम पुन: पुन: पछ ू ते अैर वो बताते जाते। बात ही बात म िपछली रात के नैनी झील पर होने
वाले ो ाम क बात चली तो वे बोले िक आप लोग गए या नह ? बड़ा अ छा समारोह रहा। हज़ार
दीप झील क सतह पर तैराए गए। परू ी झील रोशनी से नहा उठी। पानी और अि न का ये मेल
देखते ही बनता था। िब कुल आग घुल गई थी पानी म। िकतना रोमाि टक था वह य, पिू छए
मत। उसी के साथ एक कलाकार ने एक ही डोरी से ढाई सौ पतंग उड़ाई ं। आकाश रं गीन हो उठा।
रं ग-िबरं गी िततिलय -सी पतंग हवा से बात करत बड़ी यारी लग रही थ । हम ने कहा, हम नह
जा पाए तो वे बोले, आप को जाना चािहए था। ऐसे सुनहरे अवसर पर यहाँ आए और समारोह देखा
भी नह । वैसे म भी 8:30 बजे सद अिधक होने के कारण घर आ गया था। अिमत कुमार को नह
सुन सका। हम ने उन से पछ ू ा िक इस समारोह म किव-स मेलन नह करवाते? वे बोले-
आयोजक हमारे ख़ास िमलने वाले ह, अगले वष करवाऐंगे और आप को ज़ र बुलवाऐंगे। हम ने
अपने किव होने का जरा-सा इशारा जो कर िदया था। यिद आप आज क जाऐं तो किव-स मलेन
तो हम कल ही करवा द। हम ने कहा रज़वशन हो चुका है। उ ह ने ‘ नो फाल’ म हमारी िच
देखते हए कहा िक ‘ नो फाल’ पर भी फोन कर दँूगा। उ ह ने हमारा प रचय काड भी िलया।

टी ए टेट
एक के बाद एक सु दर पवत शंख ृ लाऐं, घािटयाँ, हम पार करते रहे । बीच म िफर वो बोले िक
अब आप को म टी ए टेट ले चलता हँ, वहाँ जा कर आप ख़ुश हो जाऐंगे। हम ने कहा िक टी ए टेट
तो ऊटी म हम ख़बू देख चुके ह। वे तपाक़ से बोले, यहाँ का देिखए िफर किहएगा। अपनी-अपनी
जगह का अलग-अलग सौ दय होता है। म वहाँ आप को वह क बनी हई चाय िपलवाऊँगा,
चिखएगा, िफर बताइएगा। वैसे चाय तो वे लोग पयटक को िपलाते नह , मगर मुझसे िवशेष नेह
रखते ह सो, मेरी बात टालगे नह और ये कहते-कहते आ गए हम चाय के बाग़ान म। वॉव,
वि नल के मँुह से अनायास ही िनकल पड़ा। वाक़ई, ग़ज़ब का मनोरम य था। ऊटी का अलग
था, यहाँ का अलग। यहाँ क हरीितमा गहरे हरे रं ग क थी। गाड़ी से उतरे , रोड़ के दोन तरफ़
चाय के बाग़, िजन म देवदार के पेड़, चार चाँद लगा रहे थे। बाग़ म ्रवेश िकया, तीन-चार
मिहलाऐं चाय क पि याँ चुन रही थ , वैसे ही जैसे िफ़ म देखा करते थे। पीठ पर टोक रयाँ बँधी
थ , िजन म वे पि याँ चुन कर रखत ह। सब से पहले हम दोन , माता एवं पु ी उन के पास पहँचे।
उ ह पि याँ तोड़ते हए देखने लगे। िफर उन से ढे र सारी बात क । हम से अपनापन पा कर वे भी
बड़ी स न हो रह थ । बड़े ेम से बितया रह थ । हम ने दो-चार पि याँ तोड़ और उ ह द तो वे
बोली िक ऐसे नह तोड़ते, केवल ऊपर वाली ढाई पि याँ ही काम क होती ह। ‘यही तोड़ी जाती
ह’। हम ने पछू ा, और सारी पि याँ बेकार ह? वे बोली हाँ, ये िकसी काम क नह ह, य िक
ायर पर ये ही चलती ह, पर हमारा मन मानने को तैयार नह । ढाई ही य चलेगी, दो य
नह ...हम मन म सोचने लगे। हम ने ‘यक़ न’ जी को इशारा कर के बुलाया एवं उन बालाओं के
साथ दो-तीन फोटो िखंचवाए, तो वे भी बड़ी स न हई ं। हम ने कुछ फोटो पि याँ तोड़ते हए भी
िखंचवाए एवं कुछ पि याँ बैग म रख ल ।

इन ललनाओं क भाषा कुमाऊँनी और िह दी का िमला जुला व प थी। बड़ी भोली लग ,


िब कुल पहाड़ी नदी क तरह। रहन-सहन, वेश-भषू ा पहाड़ी ही थी। इन को देख कर इतना ज़ र
लग रहा था, जैसे यहाँ भी नारी- म का शोषण होता होगा। िजतना काय ये िदन भर करती ह गी,
उतना पा र िमक शायद इ ह नह िदया जाता होगा। वैसे भी हर े म म दूर वग का शोषण
सिदय से हो रहा है, कोई नई बात नह है, िश ा का अभाव, इन क म बू रयाँ, धनी वग क
वाथ िल सा अभी भी हमारे देश म यथावत है। तदुपरा त हम सब लोग िमल कर खेत म इधर-
उधर िवचरण करने लगे। खेत के पीछे का य गहरी ह रयाली से अलग ही सुर य बन पड़ा था।
के.पी. जी भी अिभभत
ू हो रहे थे। यहाँ चाय के छोटे-छोटे पौधे भी तैयार िकए जा रहे थे। छोटे गमल
म नसरी क हई थी। मन हआ िक दो-चार घ टे यह बैठ कर ाकृितक सौ दय का रसपान िकया
जाए। आँख ह िक त ृ होने का नाम ही नह ले रही थ । पहाड़ पर जाओ तो काफ़ फ़ुसत म ही
जाना चािहए। भागते-भागते जाने म परू ा लु फ़ नह उठा पाते। बस इतना हो जाता है िक देख
िलया।

हम तो पहाड़ पर सवािधक सु दर देवदार के व ृ लगे। ज़ र देवताओं के यहाँ लगे ह गे ये,


तभी इन का नाम उन के नाम से जुड़ा होगा। इन का नाम देवदार है तो देवताओं से ज़ र इन का
स ब ध होगा। देवभिू म क तरह इन का सौ दय अ ितम एवं िद य है। इस के बाद पंकज जी चाय
क छोटी सी फै ी म ले गए। वहाँ पर बड़ा-सा ायर लगा हआ था, बड़ी-बड़ी छलिनयाँ भी थ ।
वहाँ के मैनेजर ने ायर चला कर भी िदखाया और हम समझाया िक चाय-पि य को इस म दो-
तीन बार चलाया जाता है, उस के बाद छान कर पैक कर िदया जाता है। यानी िब कुल ाकृितक
चाय। ऊटी म तो गाइड ने टी-ए टेट से गुज़रते हए दूर से ही पहाड़ी पर लगी हई बड़ी-सी चाय-
फै ी िदखाई थी। जब िक काय मानुसार उसे भीतर ले जा कर िदखाना था। कुछ देर बाद हम
वह क चाय भी िपलाई गई। सादा पानी म थोड़ी चाय क प ी उबाल कर उसम चीनी और नीबू
क कुछ बंदू िमलाई और छान कर कप म डाल दी, चाय तैयार। पहली बार चाय का अ ल वाद
चखा था, जो बाज़ार क चाय से एकदम अलग था। बड़ा उ दा लैवर। अब हम महसस ू हआ िक
बाज़ार क चाय म कुछ न कुछ तो अलग िमलावट क ही जाती है, चाहे लैवर ही सही। यह फै ी
सरकारी थी। यहाँ 260 पए म एक िकलो चाय के पैकेट भी िमल रहे थे। हम ने 65 पये म 250
ाम का पैकेट िलया, य िक उस से बड़ा हम लेने नह िदया गया। यह फै ी 1965 ई. म
ार भ हई थी। इस का परू ा नाम ‘उ रा चल ख ड चाय िवकास प रयोजना, चाय बागान नसरी
(घोड़ाखाल), नैनीताल’ है।

यिद आप चाय का वा तिवक वाद ही चाहते ह, तो उ पते पर स पक थािपत कर के


चाय मँगवा सकते ह। वैसे यह चाय बाज़ार म स लाई होती है, मगर हमारी तरफ़ राज थान नह
आ पाती है। स भव है वह आस-पास के इला क़ म इस क खपत हो जाती होगी। वैसे यह चाय
हमारे पास अभी भी है, य िक कभी-कभार ही पीते ह एवं ख़ास िम को िपलाते ह। आप भी
आइए, वागत है। वहाँ से कुछ चाय के बीज भी हम लाए ह, रखे हए ह, उ ह उगाने का यास
अभी नह िकया है। वैसे वे उगगे भी नह य िक यह तो पहाड़ी खेती है, मैदान म कैसे होगी?
ऐसा होता तो या यहाँ के रईस अभी तक बड़े -बड़े चाय ए टेट नह बना डालते। िफर भी यास
करगे। मैनेजर साहब से िवदा ले कर हम बाहर सड़क पर टै सी तक आए। पंकज बाबू बड़े ख़ुश
नज़र आ रहे थे। उ ह वयं पर गव महसस ू हो रहा हो जैसे। उन क पहचान से हम लोग क हई
िवशेष आवभगत के कारण, शायद। कुछ देर सड़क पर टहल कर क़ुदरत का नज़ारा करते रहे ।
पंकज जी बोले, किहए कैसा लगा? आप ख़ुश तो ह ना...म आप को नैनीताल क वो जगह िदखा
रहा हँ, िजसे कोई नह िदखाता। हम ने मु कुराते हए उन क हाँ म हाँ िमलाई िक हम वाक़ई
बहत ख़ुश ह। सब कुछ बड़ा अ छा लग रहा है। वो यह सब कहते जा रहे थे एवं गाड़ी भी साफ़
करते रहे थे, तभी एक दो टैि सयाँ वहाँ आ कर क । उन म से जो ाइवर िनकले, एक पंकज
जी को देख कर बोला िक ‘यार िज़यादा गाड़ी मत प छ, गाड़ी का रं ग उड़ जाएगा।’ इस पर पंकज
जी बोले- ‘यार उडऩे दे, रं ग तो होते ही उडऩे के िलए ह। उड़े गा तभी तो दुबारा होगा।’ यह कहते
हए पंकज जी ने गाड़ी टाट क एवं हम लोग का कारवाँ रामगढ़ क ओर रवाना हआ, जहाँ
फल के बगीचे ह। लेिकन इस समय पेड़ ह, फल नह , य िक सेब एवं अ य पहाड़ी फल मई म
ही पक चुके होते ह। उस समय तो हमारे यहाँ के आम क तरह पहाड़ पर तो सेब लटके होते ह,
बस तोड़ो और खा लो। इस समय तो केवल झािडय़ाँ ही रह जाती ह। लेिकन या कर, पेड़ ही देख
िक सेब के, आडू के, बुलम, ख़बू ानी के पेड़ ऐसे होते ह भई। यह माग भी बेहद ख़बू सरू त है।

गागर
इस सुर य रा ते से हो कर हम ‘गागर’ पहँचे, जो रामगढ़ से कुछ पहले है। यह 2300 मीटर
ऊँचाई पर है। कहते ह िक ऋिष गगाचाय ने यहाँ तप या क थी, इसी िलए इस थल का नाम
गगाचाय हआ, जो बाद म बोलते-बोलते, काम म आते-आते लोकभाषा म ‘गागर’ हो गया। यहाँ
पर गग र शंकर भगवान का मि दर भी है। यहाँ उतर कर हम चार ओर के मंज़र का अवलोकन
करने लगे, अरे , यह या? यहाँ से तो दु ध-धवल िहमालय और क़रीब आ गया। बहत ही िद य,
बहत ही अलौिकक य...मन होता िक हाथ बढ़ा कर छू ल। आज िहम से शायद बादल क
िकसी बात पर लड़ाई हो जाने के कारण मानो, कु ी हो गई हो। य िक दो-तीन िदन बाद, आज
इन से दूर-दूर तक बादल का नामो-िनशान तक नह । िब कुल ेत फिटक पवत मालाऐं। एक
बार िफर िहमालय हमारे सामने था। जी भर कर देखा, इन िहमिशखर को। गागर का मुख
आकषण यही है।

म ला रामगढ़
यहाँ से पुन: रवाना हए और मा 3 िकमी. दूर, कुछ ही देर म हम आ गए ‘म ला रामगढ़’
जी हाँ, वही रामगढ़, जो फल के िलए परू े देश म िव यात है और यहाँ िहमालय के अि तम
सौ दय के तो कहने ही या। जहाँ तक नज़र जाती वहाँ तक िव तार है इस थल का। सारी
पवत शंख ृ लाऐं फल के पेड़ से भरी पड़ी ह। बड़़े ही सुिनयोिजत तरीक़े से यह बाग़ मे टेन िकया
हआ है। हम लोग नीचे उतर कर घाटी तक गए जहाँ सेब के पेड़ थे। बस, मलाल यही िक एक भी
सेब डाली पर नह था, मा प े ही शेष थे। उ ह ही छू कर देखा और क पना क िक जब इन म
सेब लगे होते ह गे तब कैसा लगता होगा। किव ह भई, कई काम क पना से ही चलाने पड़ते ह।
इन पेड़ से सट कर बारी-बारी से सब ने फोटो िखंचवाए तािक घर आ कर िम पर आब जमा
सक िक देखो सेब के पेड़ ऐसे होते ह। इतना िवशाल उ ान िक िकधर जाऐं, िकधर नह जाऐं।
कुछ और नीचे घाटी म तरह-तरह के फूल के पौधे भी लगे थे, िजन म बेहद ख़बू सरू त फूल िखले
हए थे। हम वहाँ जाना भी चाह रहे थे, लेिकन वो थल काफ़ दूर था, लगने म लगता है िक यह
तो है, मगर ऐसा नह होता पहाड़ी इला क़ म। हम मैदान वाल को इस का अनुमान नह होता।
सब ने मना कर िदया तो िफर जाने का सवाल ही कहाँ उठता है। वह आस-पास घम ू ते रहे , दूर के
य का भी वह से आन द लेते रहे । आप को एक बात बता ही देते ह, वैसे इस परू े उ ान म
घमू ने क अनुमित है भी नह । कुछ सीिमत दूरी तक ही सैलानी जा सकते ह, य िक यह िनजी
स पि है, माधवराज िसंिधया क । उन का बाग़ है ये, ऐसा पंकज जी ने बताया, फल का
मुआमला है और िफर लोग को तो आप जानते ही ह, िजस काम के िलए मना करो उसे ज़ र
करते ह, यह मानव वभाव है। फल को तोड़े या छुए िबना कोई मानेगा तो नह और ऐसा होता
रहे तो बाग़ बचेगा भी नह , सब कुछ चौपट...। पंकज जी ने वह आस-पास लगे पेड़ म से हम
बताया िक यह पेड़ अमुक़ फल का है, यह अमुक़ का। कई फल के दुलभ पेड़ भी बताए। फल के
साथ-साथ देवदार सिहत अ य पहाड़ी पेड़ क ख़बू सरू ती भी ग़ज़ब ढा रही थी। एक तो सुहाना
मौसम, ऊपर से नीिलमा िलए ह रयाली, उस पर सय ू -रि मय क पड़ती आभा, भला कौन दीवाना
नह हो जाए इस कृित का। एक हवा का झ का आता और सारे प े एक साथ चाँदी के हो जाते,
दमक उठते, आँख म चकाच ध भर देते। वाह, या य था। वाह रे कृित माँ, तेरी ख़बू सरू ती का
भी कोई छोर नह , आदमी को छोड़ कर।
कविय ी महादेवी वमा यँ ू ही कुछ वष तक यहाँ रह और यहाँ का बेिमसाल सौ दय उन के
ज़ पर इस क़दर छा गया िक उ ह ने यह पहाड़ी पर अपना घर बनवाया और वष तक यह
िनवास िकया। ज़ र उन क अ ितम का य-साधना म इस सौ दय का िविश योगदान रहा
होगा। उन क रह यवादी एवं आ याि मक किवताओं म कृित ही तो मल ू ेरक है, और िफर इस
से िज़यादा अि तीय सु दरता उ ह कहाँ िमली होगी। महादेवी वमा ही या, चाचा नेह ,
रवी नाथ टैगोर, आचाय नरे देव भी तो रामगढ़ आ कर स मोिहत हो गए थे। गु देव
रवी नाथ यहाँ आए तो िहमालय को देख कर इस िद य कृित का रसा वादन करते रहे यथा
‘गीता जिल’ एवं ‘सा य’ संगीत क सजना भी यह क । गीता जिल िव िस सािहि यक
कृित है, िजसे नोबेल पुर कार से नवाज़ा गया है। इस क किवताऐं कृित व अ ात को ही तो
स बोिधत ह। ऐसे थान पर ऐसा रचना कम होगा ही होगा। वातावरण का भाव भला कहाँ
जाएगा। यहाँ क पवत चोटी पर एक बँगला है, िजस म वो ठहरे थे, इस िलए उस का नाम ही
‘टैगोर टॉप’ पड़ चुका है। यह भी कहा जाता िक आचाय नरे देव ने भी इस िवराट सौ दय का
पान िकया एवं अपने थ ‘बौ दशन’ को यह परू ा िकया और चाचा नेह तो कृित के वैसे ही
दीवाने थे, तभी तो सदैव गुलाब को अपने सीने से लगाए रखते थे। वो भी मु ध थे रामगढ़ पर।
चिलए अब रामगढ़ क थोड़ी-सी भौगोिलक जानकारी भी ल ही ल। हाँ, तो जनाब यह यारी-
सी जगह गागर से 3 िकमी. दूर तो है ही, साथ ही सागर तल से 1,789 मीटर ऊपर है एवं
नैनीताल से मा 25 िकमी. दूर है। यहाँ फल क बहार तो है ही, बफ़ पडऩे के बाद सब से पहले
ीन सेब यह पकता है। इस बात पर याद आया िक मनाली म एक महाशय ने बताया था िक
िजतना िज़यादा बफ़ पड़ता है उतने ही अ छी सेब क खेती होती है। ज़ािहर है, जहाँ हरे सेब क
बात है, बहत ही वािद होते ह। सेब, जो हम मैदान म खाते ह, उन से एकदम िभ न होते ह।
उन का तो वाद एवं लेवर ही अलग होता है और यहाँ के अलग ही लगते ह। इतने अ छे लगते ह
िक बस, खाते जाओ, खाते जाओ, जब िक हम से सेब िज़यादा खाए ही नह जाते, जो हमारे यहाँ
िमलते ह। वैसे भी फल ताज़ा ही अ छे लगते ह, लेिकन अब फल कई िदन , महीन के रखे हए
नसीब होते ह। डाल से टूटे हए फल तो अब सपने क बात हो गई। लोभ-लालच म व ज दबाज़ी म
मािलक क चे फल को तोड़ कर रसायन से पकाते ह, ऐसे म वाभािवक वाद व गुण क तो
क पना ही बेमानी हो कर रह गई है। सब कुछ बासी एवं ज़हरीला। सच बात तो यह है िक अब तो
फल भी खाने का धम नह रहा, य िक उन के साथ रसायन का ज़हर भी पचाना पड़ता है। हाँ,
बालपन म ज़ र गाँव म खाए ह, डाली से तोड़-तोड़ कर फल, या वाद होता था, ऐसा िक मन
ही नह भरता, पिू छए ही मत। िब कुल अलग, अ ल वाद एवं महक िजसे आज के ब चे कभी
जान ही नह सकगे, न चख सकगे।

अब तो हाल ये है िक या खाऐं और या नह खाऐं? सोचने बैठ तो एक भी चीज़ िनरापद


नज़र नह आएगी। जब हवा-पानी ही या स पण ू पयावरण ही िवषमय हो चुका हो तब फल,
स ज़ी या दूध या चीज़ है? आदमी क अ ल एवं लालच का फल है सब। अब तो हाल ये है िक
इंजे शन ारा फल व सि ़ जय को रात -रात छोटे से बड़ा कर िलया जाता है, मुरझाए फल को
रसायन म डाल कर तरो-ताज़ा करना िव ताओं के बाऐं हाथ का खेल है। सेहत के साथ इतना
बड़ा िखलवाड़...? शासन भी कुछ नह कर पाता।

हमारे यहाँ क़ानन ू है, मगर सज़ा नह हो पाती, य िक ाचार चरम पर है। अपराधी
आराम से बच कर िनकल जाता है, इस िलए बेधड़क हो कर यह सारा खेल खेला जा रहा है। सच
पछू ो तो कभी अमत ृ -पु कहलाने वाला मानव अब िवष-पु बन चुका है। स भव है अब उसे शु
प य ह म ही न हो। रात-िदन ज़हर खाते रहने से शरीर भी तो वैसा ही होता जाता है। िवष
क याऐं ऐसे ही बनती ह। वाह रे , मनु य या कमाल कर िलया तू ने! आज-कल रसायन से पके
फल खाने का मन नह करता। बाज़ार म देखते ह, खाने चािहऐं, इस िलए खा लेते ह। िफर माँ-
बाप कहते ह, ब चे फल नह खाते। खाऐंगे भी कैसे? दूध म ऑ सीटॉिनन इंजे शन का िवष,
फल म भी िवषैले रसायन, ऊपर से क टनाशक का ज़हर। अ छा करते ह, जो नह खाते। कुछ
खाने-पीने का मन भी तो हो, तब ही खाएं गे। ब चे सहज होते ह, जो चीज़ उ ह अ छी नह
लगती, वे नह खाते। लाइए, वाभािवक ढं ग से िनकाला गया शु दूध, डाल पर पके फल, देख
कैसे नह खाते? दु मन तो हम बन रहे ह इन के। हाँ, गाँव म हम ने आम को ज़ र पकाते
देखा है, वो भी इस िलए िक डाली पर पकने से पहले जो कै रयाँ हवा से िगर जाती थ , उ ह
पलाश के प एवं भुस म दबा कर उन पर िब तर यानी गोदड़े डाल िदए जाते थे। ऐसे पकते थे
पहले आम। हम ख़ुद कै रय को अनाज क बोरी म रख कर पकाते थे बचपन म, चोरी िछपे दादी
जी, दादा जी से। वो भी अ छे लगते थे। कहा ना, नैसिगकता ज़ री है। आदमी ने बुि का योग
िकया, कई खोज क , मगर उन का दु पयोग कर के ख़ुद ही ख़ुद का दु मन बन बैठा। दूध का
अ ल वाद इन ब च को चखा दीिजए, खाना छोड़ कर दूध क ही िज़द करने लगगे। इसी बात
पर अपनी ही किवता याद आ रही है, आप भी पिढए ़ किवता का एक अंश-
‘‘ह अभी छोटे ये ब चे
िक ले कर चीज़
हो जाते ह खश ु ये
पर/ कल जब ये ह गे कुछ बड़े
और आते ही कूल से
माँगगे हम से परू ा जंगल
कोई ख़ाली टुकड़ा धरती का
करगे हठ/ हम परबत ही ला कर दो
कभी रोऐ ंगे
‘हम को प ेड़ िदखलाने चलो’
तब हमारे पास
बग़ल झाँकने ही के अलावा
चारा या होगा?
अभी भी है समय देखो
अभी छोटे ह ये ब चे
ढँ◌ूढ सकते ह िवक प इस का/ अभी तो हम
पहाड़ के हँसी पाव म
नझन ु घघुँ ओ ं क बाँध सकते ह
हवाओ ं को सग ु ध बाँट सकते ह
बना रख सकते ह
आकाश को नीला...’’

ओ... फो...! बात ही बात म काफ़ ल बी बात हो गई ं। ग़लत बात पर हम बड़ा दुख होता
है, सो कहना आ जाता है। मुआफ़ क िजएगा। वापस रामगढ़ क ही बात करते ह। जैसा िक हम ने
पहले बताया था, यहाँ पर कई तरह के सेब, जैसे गो डन िकंग, फै नी, िडलीिशयस जोनाथन
आिद के पेड़ ह, वह गौला, तोतापरी, िह सबन आिद िक़ म के आडू भी यहाँ िवशेष ह। यँ ू किहए
यह यहाँ का सब से े फल है। कई िक़ म के पुलम, ख़बू ािनय के अलावा कई कार के अ य
फल क खेती यहाँ होती है, जैसे- पाम, िपच, ि केट आिद। लेिकन अभी सारे के सारे पेड़ िन फल
खड़े थे, िबलकुल िन काम कमयोगी क तरह, बस कम करो, फल क आशा से कोई लेना न
देना। काश! ये फल से लदे होते तो यहाँ क ख़बू सरू ती म चार चाँद लग जाते। बाग़ान ही फल के
ह और एक भी फल न हो...सन ू ा तो लगेगा ही। हम ने मन ही मन िन य कर िलया िक एक बार
िफर सीजन म ज र आऐंगे। कृित क लीला भी अपर पार है। हर काय समय पर ही होता है।
मजाल या िक सरू ज अपने व त से एक पल भी िवल ब से िनकले। िकतना अनुशासन है
स पणू कृित म, इसी िलए यारी है। और हम आदमी ह िक एक भी काम समय पर नह करते।
कम से कम इस से ही सीख ले ल, समय क क़ मत नह पहचानने के कारण ही हम लोग इतने
दुख व तनाव के िशकार ह। एक-एक ण का मोल जान ल तो यह जीवन िकतना बहतर हो
सकता है, कभी सोचा हम ने...? नह ...। यह सोचने के िलए भी हमारे पास व त कहाँ है।
अिधकतर समय तो बेकार काम क भट चढ़ जाता है। वाक़ई िजस िदन कृित अपना अनुशासन
तोड़ देगी, लय हो जाएगा। आदमी है िक इस के अनुशासन को भंग करने म कोई कसर नह
छोड़ रहा, िजस के दु फल शनै: शनै: सामने आ रहे ह। वो तो अपना और कृित का जानी
दु मन बन बैठा है। इस का िवनाश करने पर तुला बैठा है। ई र इसे स ुि दान करे , देर से ही
सही, उसे यह मम समझ म आ जाए और कृित-पु ष दोन ही सुकून से रह सक।

इसी गहन िच तन से हम बाहर िनकले और देवदार के सु दर पेड़ को देख कर िनहाल


होने लगे। जहाँ ये पेड़ थे, वहाँ क प ृ -भिू म बहत सु दर लग रही थी, फोटो िखंचवाए िबना मन
नह माना। बाद म कुछ देर इन के नीचे सुकून से बैठे, बैग म कुछ िबि कट व मँग ू फली रखी थी,
सब ने िमल कर खाई। यहाँ तो इन का वाद ही अलग आया, यही चीज़ घर पर इतनी अ छी कहाँ
लगती ह? मन और वातावरण अ छा हो तो सब-कुछ अ छा लगता है। मन ही के है अ छे -बुरे
का। मन कहे तो अ छा, मन कहे तो बुरा, यही सच है। कुछ देर मटरग ती कर के रामगढ़ को
‘बाय’ कर के ऊपर सड़क पर आए, जहाँ रामगढ़ िलखा था। हम बार-बार सोचते रहे िक रामगढ़
के आगे ‘म ला’ य िलखा था। बाद म एक पु तक म पढ़ा िक रामगढ़ दो ह। एक रामगढ़ और
है, जो यहाँ से 10 िकमी. दूर है। यहाँ से मु े र 25 िकमी. दूर है। वहाँ जाने के िलए ही तो हम
आए ह। ‘जनस ा’ म इस के सुहानेपन क इतनी तारीफ़ पढ़ी िक वहाँ जाने का मानस हम घर से
ही बना कर आए थे।

हम ने पंकज जी से मु े र जाने के िलए कहा तो टालमटोल करने लगे। कहने लगे िक


यहाँ से 25 िकमी. दूर है। आने-जाने म शाम हो जाएगी। इतने समय म तो आप को अ य थल
िदखा दँूगा और िफर मु े र म अभी जाने से कुछ लाभ नह िमलेगा, य िक वहाँ भी फल के
बाग़ान ह, जो अभी फल हीन ह। वो लु फ़ वहाँ भी नह आएगा। जहाँ के िलए हम चले थे, वह तक
नह जा पा रहे थे। या ा के दौरान हम ने यह ख़बू अनुभव िकया िक म दूर हो या ाइवर, या
अ य, ये लोग अपनी बात मनवाना सामने वाले को बेवकूफ़ बनाना, उस क मानिसकता
बदलना, उ टे-सीधे तक दे कर गुमराह करना, बख़बू ी जानते ह। कुछ इस ढं ग से बाते बनाते ह
िक सामने वाला न चाहते हए भी मानने को तैयार हो जाए। जो काम ये नह करना चाहते, उस
के िलए कई कुतक दे कर उपभो ाओं को गुमराह करना इन के बाऐं हाथ का खेल है। अभी
हमारे मकान का िनमाण काय चल रहा है, अत: ताज़ा-ताज़ा अनुभव है। हम ने महसस ू िकया िक
सब से मुि कल काम है, दूसर से अपने मुआिफ़क़ काम करवाना। आिख़रश, पंकज जी ने अपनी
ही बात मनवाई, हम खुल कर नह बोल पाए, जब िक वहाँ जाने क हमारी ती इ छा थी, पता
नह यँ ू हम बेिहचक अपनी बात नह कह पाते। के.पी.जी बार-बार पछू ते रहे , चलना है तो कहो?
िफर कोटा पहँच कर िशकायत मत करना। लेिकन ये सब हमारा मन रखने के िलए ही कहा जा
रहा था। जाना तो वो भी नह चाह रहे थे। बस इस िलए हम चुप रहते ह, य िक साथ वाल क
अिन छा देख कर अपने मन को समझा लेते ह। अभी मा सवा बजा है। हमारे पास परू ा िदन है।
सो िह मत कर के रा ते म गाड़ी ज़ र कवाई। हम दोन ( वि नल व हम) उतर कर पहाड़ी
रा त पर टहलने लगे। इन रा त पर चहलक़दमी क सदैव इ छा रही है। सड़क पर इधर-उधर
घमू ने लगे, चार ओर क ख़बू सरू ती का पान करने लगे। बस, मज़ा आ गया...। या कहने? िफर
हम दोन पहाड़ी पर चढऩे लगे। यहाँ चार ओर सघन वन थे वो भी मा चीड़ के। पहाड़ पर उन
से िगरे प व उन के ितनक क बड़ी मोटी परत जमी हई थी। इतनी िक पैर िफसल-िफसल जा
रहे थे। चढ़ पाना िब कुल मुि कल हो रहा था। एक-दूसरे का हाथ पकड़-पकड़ कर चढ़ रहे थे।
कुछ दूरी पर तो च पल खोलनी ही पड़ , तब जा कर चढ़ पाए। वहाँ पर बड़ी सु दर-सु दर पि य
वाले पौधे उगे हए थे। ऐसा लगा िक उ ह तोड़ कर घर म सजा िलया जाए। हमारे पीछे -पीछे ये
दोन भी हो िलए। आकाश छूते पेड़, बीच-बीच म उन के छोटे-छोटे ब चे बड़े अ छे लग रहे थे। हम
िगरते-पड़ते चढ़ते गए, चढ़ते गए, काफ़ ऊँचाई तक। बीच-बीच म प म से छन-छन कर आती
हई, िबखरी हई धपू , जैसे पहाड़ पर धपू के माँडने मँडे ह , जो बड़े ही यारे लग रहे थे। शीतल
बयार वो भी पहाड़ी महक से शराबोर, पोर-पोर को सुरिभत िकए जा रही थी। वाह! या अ ुत
य था, वाह री क़ुदरत।

थोड़ी दूर जा कर हम एक म बत ू टहनी पर बैठ गए। कुछ ऊँचाई तक तो पंकज जी भी पीछे -


पीछे आते गए। वो भी यह लोभ सँवरण नह कर पाए। वहाँ एक िवशेष बात नज़र आई िक पेड़ के
तने बीच-बीच म जले हए थे। हम ने पंकज जी से इस का कारण पछ ू ा तो वे बोले िक इ ह जला
कर िलचिपचा भरू े रं ग का पदाथ िनकाला जाता है, िजस से तारपीन का तेल बनाया जाता है। हम
नई जानकारी पा कर सुखद आ य हआ। ये तो मालम ू पड़ा िक चीड़ से तारपीन का तेल बनता
है। अभी-अभी ‘मिस कागज’-03 के अंक म पढ़ा है िक ान ाि के िलए साधन है, मण, वण
और पठन। इन म भी पि डत राहल सांकृ यायन जो वयं उ च कोिट के घुम कड़ िव ान थे, ने
मण को सव े माना है, ये िलखा है पि का के स पादक डॉ. याम सखा ‘ याम’ ने, जो
एकदम स य है। जो कुछ हम देखगे महसस ू करगे, भोगगे, वही हम सब से िज़यादा जान सकगे।
ताजमहल ख़बू सरू त है, यह हम ने सुना, पढ़ा, ठीक है! है सु दर। लेिकन जब हम इसे देखगे तब
जो अहसास होगा वह पढऩे-सुनने से कदािप नह हो सकता। मण का आन द तो मण का ही
है जनाब, जानका रय का ख़ज़ाना। मन तो करता है िक वष म कम से कम दो बार मण को
जाऐं ही जाऐं।

चिलए, जानकारी तो हो गई, अब नेप लेते ह। इतनी सु दर जगह और फोटो न ल तो ये


या बात हई? ये नेप ही तो हमेशा नैनीताल क याद िदलाऐंगे। अभी जब भी मन होता है,
एलबम खोल कर याद ताज़ा कर लेते ह। एक म बत ू -सी टहनी पर हम बैठ गए और इसी पोज़ म
फोटो िखंचवाए, िफर सबने पेड़ के सहारे खड़े होकर तो िकसी ने अ य पोज़ म फोटो िखंचवाए।
अब वापसी का न बर था। होगा आप ने भी िक चढ़ाई से उतराई मुि कल होती है। पैर इस क़दर
िफसल रहे थे िक बैठ-बैठ कर, िफसल-िफसल कर उतरना पड़ा। च पल तो कभी क िफसल कर
काफ़ नीचे जा चुक थ । तभी ‘यक़ न’ जी ने कहा िक चीड़ के सख ू े फल ढूँढ कर ले चिलए। ऐसा
कहा जाता है िक पज ू ा-घर म इ ह रखने से सब शुभ होता है, समिृ व सुख आता है। उ ह ने
कहा िक बचपन म अपने घर म देखा था म ने चीड़ का फल। इस से हमारे घर म समिृ रही, ऐसा
मेरी माँ व िपताजी कहते ह। हम ने कहा, ये तो बड़ी अ छी बात है। जब हम चीड़ के वन म ह तो
य न उन के फल ढूँढ ही ल। हम ने काफ़ कोिशश क ते एक खि डत फल िमला। पंकज जी भी
इस मुिहम म शािमल हो गए। इधर-उधर पहाड़ी पर घम ू कर एक साबुत फल ले आए। एक
‘यक़ न’ जी को िमल गया। बस, हो गया हमारा काम। बड़े आ त हए हम।

नीचे आ कर वही सु दर पाम जैसी पि य वाला पौधा ढूँढने लगे। हम ऐसा लगा िक इस क
पि याँ ऊटी के फूल क तरह वष भर हरी रह सकती ह। पंकज जी ने भी हमारा समथन िकया
और पहाड़ी पर से कई पि याँ चुन लाए एवं उ ह डोरी से बाँध कर गाड़ी म रख िदया। हम उन के
आभारी हो गए। 2-3 िदन उन के साथ घम ू ने से हम लोग म पर पर काफ आ मीयता हो चुक
थी। अपनापन-सा लगने लगा था। इस बीच, यानी इन दो-तीन िदन म उ ह ने कई पयटक के
िदलच प िक़ से भी हम सुनाए। यहाँ एक और िदलच प बात हई। हम रा ते म घम ू ते हए देख कर
एक कार हमारे पास आ कर ठहर गई। वे लोग भी कार से उतर कर पहाड़ी सौ दय का
अवलोकन करने लगे। इस म दो मिहलाऐं, दो पु ष एवं दो ब चे थे। उस गाड़ी का ाइवर पंकज
जी का प रिचत िनकला, दोन म कुछ बात हई ं। हमारे रा ते म ठहरने का कारण पंकज जी ने
उ ह बता िदया। वे लोग पहाड़ी पर ब दर क तरह उछल-कूद करने लगे। उन क िकलका रय
से वािदयाँ गँज
ू उठ । तब हम कृित व ब चे एक से िन छल लगे। ब चे भी तो कृित क ही तरह
िनमल, िन छल, ख़बू सरू त और मासम ू होते ह। अभी हमारे सामने कृित के िब दास सौ दय क
बेशुमार दौलत िबखरी हई थी।

पंकज जी ने गाड़ी का हॉन बजाया और हम गाड़ी म सवार हो कर डामर क गहरे भरू े रं ग


क पगड डी पर दौडऩे लगे। ‘ये ह रयाली और ये रा ता’ गीत अनायास ही याद आ गया-

‘‘ये ह रयाली और ये रा ता
इन राह से
तेरा-मेरा
जीवन भर का वा ता
ये ह रयाली और ये रा ता...।’’

नकुिचया ताल
इ ह हरी-भरी वािदय से गुज़रते हए पंकज जी ने इशारे से कहा िक यह ‘रानी बाग़’ है। यहाँ
एच.एम.टी. घड़ी क फै ी है। चिलए घिडय़ क फै ी भी देखी। वो भी पहाड़ म। हम तो यही
सोचते थे िक फै ि याँ तो मैदान म ही होती ह गी, पहाड़ म भला इन का या काम, लेिकन हम
भलू गए िक यहाँ पठार भी तो होता है। जहाँ यह सब स भव है, लेिकन पहाड़ को तो कारख़ान
से बचाया जाना चािहए। कम से कम इ ह तो दूषण से मु रखने म या हरज है। कोई तो
जगह हो जहाँ आदमी शु ता का सेवन कर सके। आगे ाइवर साहब ने कहा िक घिडय़ क
फै ी नैनीताल म भी थी, मगर बेईमानी व धाँधली के कारण ब द हो गई। बात ही बात म हम
नकुिचया ताल पहँच गए और पता भी नह चला। उतर कर हम लोग ने पहले ताल तक जा कर
उस का अवलोकन िकया। ताल के दूसरी ओर पहाड़ी पर गे ट हाउस बने हए थे, जहाँ पर नौका
से ही जाया जा सकता था। थोड़ी सी त ऱीह कर के हम वापस गाड़ी तक आए। सुबह से खाना
नह खाया था, उस क यव था करनी थी। पंकज जी ने पास ही पहाड़ी पर बने छोटे से ढाबे क
ओर इशारा करते हए कहा िक यहाँ खाना खाया जा सकता है, ऑडर देने के बाद आधे घ टे म
गमागम भोजन तैयार हो जाएगा। तभी हम यान आया िक इ ह ने भी तो खाना नह खाया,
सुबह से हमारे साथ ही तो घम ू ा िक आप के लंच का या होगा। हँस
ू रहे ह। अत: हम ने उन से पछ
कर बोले आप को मेरी िफ़ है, बड़ा अ छा लग रहा है, यह जान कर। आप को िदल से ध यवाद।
वरना कोई भी पयटक गाड़ी वाले के भोजन क िच ता नह करता। आज पहली बार आप ने ऐसी
अ छी बात क है। वाक़ई आप बड़ी संवेदनशील व सरल दया ह। लेिकन आप को एक बात
बताऊँ िक सुबह तो म ना ता कर आता हँ और लंच साथ म ले कर आता हँ। जब भख ू लगती है,
गाड़ी म खा लेता हँ। हमारा तो यह रोज़ाना का ही काम है। अब रोज़-रोज़ होटल का खाना सेहत
के िलए अ छा नह होता और महँगा भी पड़ता है। वैसे आज तो म ने भी अभी तक खाना नह
खाया। आप ढाबे पर चिलए, आप वहाँ खाएं गे तो म भी आप के साथ ही लंच कर लँग ू ा, अ छा
लगेगा। हम ने हाँ क मु ा म सर िहलाया और पहाड़ी पर ढाबे म आ गए। भोजन क जानकारी
ली। दाल-रोटी, तरकारी, पकौड़े सब बना देते ह ये लोग। वैसे आज मंगलवार है, हमारा त है,ै हम
ने ‘यक़ न’ जी से कहा। वे बोले, कोई बात नह त खोलने का समय तो हो ही गया, दे दो सब
के िलए ऑडर। सो, वि नल क पस द से पकौड़े सिहत ऑडर बुक करवा िदया और ये दोन
वह लगी कुिसय पर बैठ कर आराम करने लगे। पहाड़ी पर बड़ी ही सु दर नसरी लगी हई थी।
हम माता-पु ी इस का अवलोकन करने लगे। कई नई िक़ म के पौधे यहाँ देखने को िमले। छोटे-
छोटे नीबू के पेड़ पर बड़े -बड़े पहाड़ी नीबू लगे हए थे। तोड़गे तो चोरी कहलाएगी। वैसे ऐसी
नटखट चो रयाँ चोरी क ेणी म नह होनी चािहऐं। जब खाने का मन है तो तोड़ कर खा लो।
कृित है ही सब के िलए। लेिकन िनजी स पि से सारी कृित का लु फ़ नह उठाया जा सकता।
जहाँ तक ग़लत काम का है, तो ऐसी बात कभी मन म आती ही नह । ऐसे सं कार ही नह
ह, हमारे । पछ
ू कर ज़ र तोड़ सकते थे। तभी वि नल चहक म मी-म मी, देखो दो नीबू वो नीचे
पड़े हए ह। इ ह तो हम ले ही सकते ह। िफर भी हम ने तो इ कार ही िकया, लेिकन बचपन ऐसी
छोटी-मोटी बात मान ले तो बचपन ही या? उस ने तो उठा िलए। ऐसा कर के ख़ुश होते हए
बोली, इ ह कोटा ले चलना, भैया को िखलाऊँगी। मतलब वहाँ उस पर रौब झाड़े गी िक देख हम
ने या- या नह देखा वहाँ। हम उस क बाल सुलभ च चलता व भोलेपन को देख कर इ कार
नह कर सके।

शनै: शनै: हम ने परू ी नसरी का बाक़ायदा िनरी ण िकया। बहत ही यारे व नए-नए पौधे व
फूल लगे हए थे। एक छोटे से पेड़ पर चेरी जैसा फल नज़र आया। तोड़ना चाहा मगर नह तोड़ा,
बाद म नीचे आ कर मालम ू चला िक है तो वह चेरी ही, मगर न ली है। खाने वाली नह । देखा
आप ने कभी-कभी सं कार भी हमारी सुर ा करते ह। हम चोरी कर के तोड़ कर खा लेते तो या
होता? हाँ, कोई भी नई चीज़ खाने के पवू उस क िव सनीयता एवं िनरापद होने क जाँच ज़ री
है। कुछ देर बाद हम नीचे आ कर सामने नकुिचया ताल का अवलोकन करने लगे। इस का कुछ
िह सा सख ू ा हआ था। आप सोच रहे ह गे इसे नकुिचया ताल य कहते ह। यही सवाल हमारे मन
म 2-3 िदन से आ रहा था, जब से इस का नाम सुना था। इस के नौ कोने होने के कारण इस का
नाम नकुिचया ताल पड़ा है, ऐसा पंकज जी ने बताया, साथ म यह भी कहा िक कोई भी यि
एक साथ इस के नौ कोन को नह देख सकता चाहे हे लीकॉ टर से ही य न कोिशश करे । यही
इस ताल क िवशेषता है। एक साथ नह देख पाने का कारण है, कोन का काफ टेढ़ा-मेढ़ा
होना। हाँ, सात कोने ज़ र एक साथ देखे जा सकते ह। हम ने सोचा, यह कृित का अपना
मुआमला है, आदमी द ल भी कैसे दे सकता है? हर जगह स भव भी नह है।

इस ताल म ख़बू सारे कमल के फूल िखले हए थे, जो बहत ही मनभावन लगे, यह यहाँ का
िवशेष आकषण है। फूल तो वैसे भी कृित का बेिमसाल ख़बू सरू त नज़राना है, आदमी के िलए।
ऐसी नज़ाकत, ऐसा सौ दय और कहाँ िमलेगा। फूल म िफर वो भी कमल ह तो कहने ही या।
हम इसे फूल का नवाब भी कह सकते ह, कोई हम से पछ ू े या हमारी माने तो। ल मी जी ने अपना
आसन सोच-समझ कर ही कमल को बनाया होगा। उ ह ने सु दरतम उपादान ही चुना होगा,
ज़ािहर है। ऊपर से जनाब एक और िवशेषता क़ािबले-ग़ौर है िक यह पानी म रह कर भी उस से
िन पहृ रहता है। मजाल या िक एक बँदू भी इस पर िटक रह जाए, पानी से एकदम अ भािवत,
वाक़ई है ना ग़ज़ब क बात। यह तो वो ही बात हो गई िक काजल क कोठरी म रहे और एक भी
दाग़ नह लगे। जल म भी सख ू ा, वाह री कृित माँ, तेरे रह य का भी जवाब नह । ‘जल म
कमलवत रहना’ कहावत इसी िलए इतनी चिलत है। कमल क बात पर एक और कहावत याद
आ गई िक ‘कमल क चड़ म िखलता है’ यानी क चड़ म इतनी ख़बू सरू त चीज़ भी िखल सकती
है। ता पय है िक हर चीज़ क अपनी मह ा है। क चड़ इतना हे य भी नह है और िकसी से उ प न
होने का कदािप यह अथ नह िक वो उस जैसा ही हो। ख़राब कुल म ज मे या ग़लत यवसाय से
जुड़े माता-िपता क स तान को समाज हे य ि से देखता है, लेिकन ज़ री तो नह िक ऐसा
बालक बुरा ही हो। वह क चड़ म कमलवत भी हो सकता है।

एक ग़ु डे -बदमाश के घर ईमानदार बालक भी ज म ले सकता है। उसे उस के कुल क सजा


देना अ याय संगत है। लेिकन हमारे समाज म ऐसा ही होता आया है। एक वै या क बेटी को कोई
भी अपनी वधू नह बनाना चाहता। दु:ख क बात है िक उस समय हम ‘क चड़ म कमल’ वाली
कहावत भल ू जाते ह। चिलए, अब कमल को यही िवराम दे कर इसी ताल क बात करते ह। यहाँ
कई जाित के प ी व मछिलयाँ ह, ज़ािहर है मछिलय का िशकार भी यहाँ होता होगा, होता है।
ऐसा हम ात हआ...बेचारे िनरीह ाणी, अब इस बुि मान ाणी मनु य को या कह, जीव को
तड़पा-तड़पा कर मार कर खाने म इसे यँ ू इतना आन द आता है। काश! हम एक िदन धान
म ी बनने का अवसर िमल जाए तो हम ऐसे तमाम काम पर तो ितब ध लगा ही द, जो जीव
को सताने वाले होते ह।

हाँ, यहाँ लगभग 25 पौ ड तक क मछिलयाँ भी िमल जाती ह। इस ताल क सागर तल से


1219 मीटर ऊँचाई है। यहाँ का पानी हम गहरा नीला नज़र आया। उस पार पहाड़ी पर सु दर
इमारत बनी हई है, हमारी ि म ज़ र वह होटेल ही होना चािहए। थोड़ा घम ू कर वापस हम
रे ाँ आ गए। भोजन तैयार हो चुका है। गरमागरम दाल, स ज़ी, चपाितयाँ, पकौड़े , िब कुल घर
जैसा खाना। आन द आ गया। वैसे भी जब हम हमेशा वयं के हाथ से बनाया हआ खाना खाते
ह, तब दूसर के हाथ से बना हआ भोजन हम और वािद लगता है। मिहलाओं को ऐसा
सुनहरा अवसर केवल मण पर ही िमलता है। जहाँ िदनचया क सारी एकरसता ख़ म हो जाती
है। बस, घम ू ो-िफरो, खाओ-िपओ, ख़बू मौज-म ती करो, आन द ही आन द। कुछ िदन चौके-
चू हे से िनजात िमल जाती है। सब ने बड़े मन से भोजन िकया, मेज़बान ने भी बड़े ही यार से
परोसा। इस मण म हमारे साथ यह इि फ़ाक़ ज़ र हआ िक िज़यादातर खाना होटेल म ही
खाया, यहाँ वाक़ई घर जैसा खाना िमला। हम सब ने उ ह ख़बू ध यवाद िदया, वो भी हमारे
आ मीय पश से फुि लत हो गए। पंकज जी का यहाँ खाने का ताव उ म रहा। ये लोग ख़बू
जानते ह िक कहाँ कैसा भोजन िमलेगा और िफर पयटक क िच भाँप कर वैसा ही मि रा ये
लोग देते ह। इन का यह रोज़ का ही काम जो है। पंकज जी का के.पी. जी ने भी आभार जताया।
िफर सब ने वह गमागम कॉफ़ भी पी। नीचे सड़क पर कुछ फल िमल रहे थे, कुछ अम द व केले
ख़रीद िलए और ताल के दूसरे छोर क ओर रवाना हए।

वहाँ भी सु दर-सु दर दूकान लग हई थ , दो-चार रे ाँ तो थे ही। वैसे इधर आने के िलए


पंकज जी से हम ने मना तो िकया था िक उधर जा कर या करगे? ताल तो यह से िदखाई दे
रहा है, लेिकन वे नह माने और इधर ले आए, वाक़ई इस ओर से ताल का य और भी ख़बू सरू त
िदखाई िदया। वा तव म लोकेशन का फ़क़ पड़ता है। बहत देर तक हम लोग िकनारे पर खड़े -
खड़े सौ दय का रसपान करते रहे , बहत ख़बू था यह नज़ारा भी। मन तो नौकायन करने को
मचल रहा था, य िक यहाँ पर नौका नह िशकारे थे, जैसे िक क मीर क डल झील म होते ह।
जैसा िक िफ़ म म देखा ह। अभी तक क मीर जाने का सुअवसर नह िमल पाया है।

य त: िशकारे यह देखने को िमले ह। िकराया पछ ू ा तो ढाई सौ पए, अत: िह मत नह


हई, इ छा ज़ािहर करने क । एक बात हम बार-बार परे शान कर रही थी िक इस िकनारे भी एवं
उस िकनारे भी जहाँ से हम आ रहे ह, हवाई च पल के अनेक सोल पानी पर तैर रहे थे। इस का
कारण हम िजतना समझ म आया, वह यह िक ज़ र यह -कह आस-पास इन च पल का
कारख़ाना होना चािहए, हम ग़लत भी हो सकते ह, पर वि नल और हम ने तो यही अनुमान
लगाया, चिलए छोिडए...इन
़ छोटी-मोटी बेकार क बात पर िज़यादा सोचने से लाभ भी या? हाँ,
इन के जल पर तैरने से पानी दूिषत हो रहा था, वो हम अ छा नह लग रहा था। सो ऐसा िवचार
आना वाभािवक भी है। इतना ख़बू सरू त ताल और िकनारा दूिषत। बेचारा शासन भी कहाँ तक
यान रखे। रा को व छ रखना तो एक नाग रक का कत य होता है। हाँ, शासन क़ानन ू
तोडऩे वाले के साथ स ती से पेश आए, यह ज़ री है।

िकनारे से लगे पहाड़ पर सघन हरीितमा थी, उन पर चढऩे का मन भी िकया, मगर फै सी


से रा ता ब द िकया हआ था। अत: हम दोन तो वह रे ाँ क छत पर चले गए, िजस क
सीिढय़ाँ खुले म थ । अब या कर? मिहलाऐं, लड़िकयाँ तो च चल होती ही है, िततिलय क तरह
इठलाती ह। यह हम अपने व वि नल के िलए कह रहे ह, िफ़ हाल। हम दोन वहाँ पयटक क
हरकत को व कुछ िनराली चीज़ को देख कर ख़बू हँसे। इस बीच ये दोन भ पु ष ताल के
िकनारे बै च पर आराम से बैठे रहे ।
बार-बार मन म आता रहा िक काश! कुछ देर समय ठहर जाए और हम कृित का और
लु फ़ उठा सक, मगर समय तो बड़ा ज़ािलम होता है, िकसी क नह सुनता, व त का पाब द
ठहरा, मुड़ कर तक नह देखता। इसे तो केवल चलना आता है, सब को पुराना करना आता है।
ख़ुद हर पल नया वेश धरता चलता है। काश! यह समय नह होता तो कुछ भी नह बुढ़ाता, सब
कुछ िचर युवा रहता, न नया होता, न ही कुछ पुराना।

हनम
ु ान गढ़ी
घड़ी क सइू याँ ऐसे समय म तेज़ गित से चलती तीत होती ह। अत: समय क नज़ाकत
देखते हए हम नीचे उतरे एवं नौला धारा ि थत हनुमानगढ़ी क ओर थान िकया। कुछ ही देर
म हम पवन-पु हनुमान जी क 40 फ ट ऊँची ितमा के सामने उतरे । इतनी िवशाल ितमा देख
कर ठगे-से रह गए। गाड़ी से उतर कर चार ओर के य पर नज़र घुमाई, हर तरफ़ सुषमा ही
सुषमा। पंकज जी बोले, देिखए आप को जो थल म िदखा रहा हँ, कैसे लग रहे ह? कोई भी
ट्यू र ट गाइड इन थान को अमम ू न नह िदखाते। जहाँ तक म समझता हँ आप को अ छा लग
रहा होगा। िज़यादातर ट्ïयू र ट गाइड ी संकटमोचन हनुमान जी को ही हनुमान गढ़ी के नाम
से िदखा देते ह। हम ने कहा- हाँ भई! बहत ही अ छा लग रहा है, हम सब खुश ह। इस से भी
िज़यादा ख़ुशी इस बात क है िक आप बड़ी आ मीयता से हम घुमा रहे ह। तभी पंकज जी बोले-
चिलए आप ख़ुश ह, यही मेरे िलए बहत बड़ी बात है। अब आप पहले नीचे वै णो देवी के मि दर म
दशन कर आइए, ये सामने गुफा म से हो कर रा ता जाता है। हम लोग ने गुफा म वेश िकया।
बहत ख़बू ...वाक़ई, सु दर तरीक़े से बनाई हई है, िब कुल पहाड़ी गुफा-सा नैसिगक टच िदया
गया है। तािक पयटक को िबलकुल वै णो देवी के मंिदर के जैसा ही अहसास हो सके। गुफा
काफ़ ल बी िनकली। इस के प ात माता जी का मि दर। परू ी ा से दशन िकए। वह पास ही
राधा-कृ ण का मि दर भी था, उन के दशन भी िकए। यहाँ ी कृ ण क ितमा को साँवले रं ग म
दशाया गया है, जो वाभािवक-सा लगा, कुछ हट कर भी, बस अ छा लगा, शायद साँवले रं ग के
कारण ही। राम-सीता जी का भी मि दर था, लेिकन वो ताले म ब द कर िदए थे, यानी पट ब द
थे। बेचारे भगवान को पुजा रय के इशार पर नाचना पड़ता है। उन क इ छा पर ही नहाना-
धोना, खाना-पहनना-ओढ़ना। भगवान के इशारे पर आदमी नाचता है या नह यह तो भगवान ही
जाने, लेिकन आदमी ज़ र भगवान को अपनी मज़ से नचा लेता है।

वह मि दर प रसर म कुछ फूल झल ू े म झल


ू रहे थे। यानी झल
ू म गमले रखे हए थे, िजन म
ऐसे फूले िखले थे िक अ ली व न ली म अ तर करना मुि कल लगा। जैसे हम पेि टंग करते ह,
वैसे लग रहे थे, मानो िकसी ने अभी-अभी इन म श से रं ग भरा हो। होता है भई, ऐसा भी होता है।
कभी-कभी बनावटी चीज़ भी इतनी कमाल क बन पड़ती है िक अ ल को मात दे देती है। यही तो
हाथ का हनर है। वहाँ से कुछ क़दम पर ही बड़ा यारा झरना बह रहा था, बड़ा सुकून िमला इस
इठलाते हए पानी को देख कर। कुछ देर यहाँ बैठ कर इस क शरारत को देखना िकसी परम
आन द से कम नह था। इस के बाद ‘यक़ न’ साहब नह माने और वै णो देवी माँ के मि दर के
बाहर ार का एक फोटो िलया ही सही। अब हम ऊपर आ कर हनुमान जी क िवशाल ितमा को
िनहारने लगे। इतनी िवशाल ितमा शायद पहली बार देखी होगी। स भव है मनाली म जो गौतम
बु क ितमा देखी थी वो भी लगभग इतनी ही हो, कह नह सकते। जग नाथपुरी का एक
प रवार भी हमारे साथ ही दशन कर के कृताथ हो रहा था। अनायास ही उन से हमारा वातालाप
होने लगा। बात तो बजरं ग बली क ही चल रही थी। इसी बात पर उन म से मिहला बोली िक
कलयुग म िवभीषण जी एवं हनुमान जी दोन ही िनराकार प म प ृ वी पर ह। हाँ, अ थामा के
िलए भी ऐसा ही कहा जाता है। बात ही बात म पुरी क बात चली, वहाँ के मि दर क बात चली।
बात हनुमान जी क िवशाल मिू त बनाने के स दभ म ार भ हई। इसी बात पर वे पुरी के कृ ण-
बलराम एवं सुभ ा क ितमाओं के िनमाण एवं हनुमान जी से उन के स ब ध पर रोचक
जानकारी देने लग ।

हम तो आप जान ही गए ह गे िक हमारा िज ासु मन नई-नई जानका रयाँ ा करने को


हमेशा आतुर रहता है। सो हम बड़े यान से सुनने लगे, आप भी सुिनए...तो बात का यँ ू शुभार भ
होता है िक पुरी म बारह वष म कृ ण-बलराम एवं सुभ ा क मिू तयाँ बदली जाती ह। उ ह बनाने
के िलए का हनुमान जी ही भेजते ह। यह का बहते-बहते वत: ही िकनारे पर आ लगता है।
उन मिू तय के िनमाता कलाकार मिू तय को भिू मगत ही रखते ह। जब तक मिू तयाँ तैयार नह हो
जात तब तक उ ह कोई नह देख सकता। यह काम पण ू पेण गोपनीय चलता है और हर पिू णमा
को जब तक पुरी के मि दर-िशखर पर प डा दीपक नह जलाता, िवभीषण जी भोजन नह
करते, य िक इस िदन वे दीपक देख कर ही भोजन करते ह। अपनी बात को परू ी करते हए
आ ह के साथ बोल िक कभी पुरी ज़ र आइएगा, बड़ा अ छा महसस ू करगी आप। हम ने बड़ी
आ मीयता से उ ह आ ासन भी दे डाला और वे िवदा हो कर अपन के साथ हो ल । हम ये
गढ़ ू ...रह या मक बात जान कर बड़ा ही अ छा लगा। कहते ह िक मण ान का भ डार होता
है, वाक़ई, दो सौ ितशत सच है। घर म बैठे-बैठे तो हम ये सब बात नह जान सकते। इस के िलए
तो बाहर िनकलना ही पड़े गा। वही सब से बड़ा ानी हआ है, िजस ने बहत मण िकया है, यानी
दुिनया देखी है। कबीर दास जी इस के सा ात् उदाहरण ह। वतमान म राहल सांकृ यायन को ही
लीिजए, बड़े घुम कड़ थे। उतने ही ानी भी। घर बैठे हम केवल पु तक से ान ा करते ह,
मगर अनुभव कहाँ से लाऐंगे। पहाड़ ऐसे होते ह, पहाड़ वैसे होते ह, पढ़ा और क पना कर ली,
मगर पण ू सुखानुभिू त तो पहाड़ से सा ा कार कर के ही िमल सकती है। अनुभव ही तो है ान
का ख़ज़ाना, और िफर सारी बात पु तक म ह एवं सारी पु तक हम उपल ध ह , साथ ही हम
इन सब को पढ़ पाऐं, कदािप स भव नह । माना िक घर, घर ही होता है, मगर बाहर भी बाहर ही
होता है। वो असं य नई चीज़, नए य, नए लोग बाहर ही िमलगे, घर म नह । दुिनया तो सारी
बाहर ही है, घर म तो केवल हम होते ह। अब तो हमारा भी मन बहत मचलता है, मण के िलए।

अभी-अभी अनौपचा रक पि का के फरवरी 2004 अंक म कैलाश या ा के सं मरण एवं िच


देखे तो देखते ही रह गए। इतना मन हआ जाने का िक मत पिू छए और िववशता देख कर उदास
बैठ गए, िफर ख़ुद को समझा कर यह या ाव ृ िलखने लगे। सच बतलाऐं, वहाँ के य देख
कर, पढ़ कर मन ही नह , ने भी भर आए। यह मन क बात अभी तक केवल आप को ही बताई
है। एक बात और सुन लीिजए, आप से नह कहगे तो िकस से कहगे? हमारे तो ि य पाठक व
ोता आप ही ह। हआ यँ ू िक अभी यानी 2003 के ‘िह दी-िदवस’ 14 िसत बर को िह दी सािह य
स मेलन याग ारा पुरी म ो ाम हआ था, दो िदवसीय। आम ण भी आया, हमेशा आता ही है,
लेिकन उ ह ने भी बड़ी अजीब शत रखी इस बार। शत िक गत जन ू म आयोिजत काय म म जो
िच कूट म स प न हआ था, जो सहभागी आए थे, उ ह दोन ओर का रे ल-िकराया िदया जाएगा
एवं जो नह आ सके, उसे कोई भाड़ा देय नह , भोजन-आवास क सुिवधा के िलए भी बहत बाद म
घोषणा क गई। अत: हम चाह कर भी िच कूट नह जा पाए थे। यँ ू तो हर चाहत परू ी होती ही कब
है। किव हे म त गु ा का िववाह उसी िदन था। उस म जाना ज़ री कह या यवहार वश, जो भी हो
आ मीयता के कारण हम शादी म शरीक हए, िच कूट नह जा पाए। सोचा, शादी तो एक ही बार
होगी, िच कूट तो कभी भी जाया जा सकता है। फै सला सही था या ग़लत? बस, पुरी जाने का
सुअवसर हाथ से िनकल गया। सौभा य से ही िमलते ह, ऐसे अवसर भी। हम दोन तरफ़ का
िकराया दे कर भी ज़ र जाते, य िक मन क ख़ुशी बड़ी होती है, पैसा तो हाथ का मैल है।
कभी-कभी पैसे होते हए भी कह नह जा पाते और कभी अवसर िमल जाए तो सारे इ तज़ामात
हो जाते ह। वैसे भी हम पैसे को बहत कम अहमीयत देते ह, दूसरी ज़ री बात के सामने। मगर
एक तो साथ जाने वाला साथी नह िमला, दूसरा इि फ़ाक़ ये िक उसी िदन उदयपुर क
‘कथारं ग’ सं था ारा हमारी कहानी ‘पगली’ को पुर कृत िकया जाना था। ज़ािहर है हम
पुर कार लेने ही जाना था। हम वि नल के साथ वहाँ गए। भ य-समारोह म ‘नवनीत’ पि का के
स पादक ारा हम यह पुर कार िदया गया। यह हमारे िलए बड़ा गौरव का अवसर व िदन था।
बस, अ सोस यही रहा िक हम पुरी नह जा सके। अब इस स चाई को भी कैसे झुठलाऐं िक कुछ
पाने के िलए कुछ खोना पड़ता है। व त-व त क बात एवं अवसर क बात होती ह। होता
है...ऐसा भी होता है। अभी नह तो या, िफर कभी अवसर िमलेगा। लो, आप को परू ी रामकहानी
ही सुना डाली, मुआफ़ करना लीज़!

हम सब ने रोड पर खड़े हो कर हनुमान जी क भ यता के दशन िकए। अलग-अलग कोण


से उन क ख़बू सरू ती िनहारी। मि दर एकदम सड़क िकनारे होने के कारण अवलोकनाथ कुछ
दूर सड़क पर आना पड़ा। गदन भी काफ़ ऊँची उठानी पड़ी। बजरं ग बली को णाम कर के, ढोक
दे कर हम लोग काठगोदाम के िलए रवाना होते, इस से पहले के.पी. जी के अनुरोध पर ‘यक़ न’
साहब ने हनुमान जी का एक नेप ले डाला। वैसे अभी सयू ा त म काफ़ व त था, एक-दो थल
और देखे जा सकते थे, मगर गाड़ी तो ाइवर साहब के हाथ म थी। मु े र नह जा सकने के
कारण व त बचना ही था।

काठगोदाम
यहाँ से हम काठगोदाम के िलए रवाना हए। रा ते म भीमताल के। वही भ य पहाड़ी क
आग़ोश म िखलिखलाती झील बहत िवल ण यावली। यहाँ को क फल िमल रहा था। हम ने
लेना चाहा, मगर पंकज जी बोले नैनीताल म तो इसे कोई नह खाता, सो हम ने भी लेना र कर
िदया। िकसी के कह देने से मन पर बहत फ़क़ पड़ता है। इसी िलए कहा जाता है िक हर ल ज़
सोच-िवचार कर बोलो, एक श द िज़ंदगी को आबाद कर देता है तो एक श द जीवन को बरबादी
क राह पर ले जाता है। यहाँ कुछ देर ठहरे , पहाड़ी सौ दय का जी भर रसपान िकया। भोजन क
पछू ताछ क , मगर कुछ पस द का नह था, अत: काठगोदाम जा कर ही खाने का सामिू हक प
से िनणय िलया। तभी कुछ देर के िलए ाइवर साहब ग़ायब हो गए, वापस आए तो मँग ू फली का
पैकेट एवं टॉिफ़याँ हमारे हाथ म थमा द । बोले दोन को साथ खाना अ छा लगेगा। इसी बात पर
अचानक किव रामनारायण ‘हलधर’ का दोहा याद आ गया, आप भी सुन-

‘‘अहसान का िसलिसला, इतना ना बढ़ जाए


तेरी नीयत पर उसे, शक होने लग जाए।’’

वैसे यहाँ अहसान नह , उन क आ मीयता का वाद था, मँग


ू फली म। हम लोग िदन भर से
िबना भोजन िकए थे, यह भी व ह हो सकती है, लेिकन वाद म ेम घुला हआ था। मँग
ू फिलयाँ
खाते हए काठगोदाम के िलए रवाना हए। राज थान म हम लोग मँ◌ूगफिलय को गुड़ के साथ
खाते ह, यहाँ ये लोग टॉफ़ के साथ, यानी कुछ मीठा ज़ री है, वाक़ई टॉफ़ के साथ बड़ी
वािद लग रही थ , पंकज जी का यह आइिडया आगे क या ाओं म बहत काम आ रहा है। य
िक गुड़ सुलभ नह होता हर जगह, टॉफ़ आसानी से िमल जाती है।

काठगोदाम यहाँ से मा 20 िकलोमीटर था। वही पहाड़ी रा ते, वही मनमोहक ह रयाली।
नैनीताल य - य पीछे छूटता जा रहा था, य - य हम दुख हो रहा था, मुड़-मुड़ कर पीछे देखते
जा रहे थे। सु दरता से जी भी भरे तो कैसे। ख़च एवं समय क सीमा से अिधक ठहर भी नह
सकते, लौटना तो िनयित है। लेिकन मन म एक िव ास होता है िक िफर सुअवसर िमलेगा और
क़ुदरत के वैभव से पुन: -ब- ह गे। बीच म एक-दो जगह हम ने गाड़ी कवाई और रा ते के
िकनारे खड़े हो कर घािटय -वािदय का दीदार करने लगे। इतना ख़ुशनुमा मौसम और या
चािहए? वहाँ से तलहटी म बहती एक जलधारा िदखाते हए, पंकज जी ने कहा िक यह वाला
नदी है। नैनीताल के अ चल म कं ट एवं रे त यह से स लाई होती है। कुछ देर खुले म टहले,
सयू ा त होने को था। दूर पहािडय़ क ओट म उतरने को उ त सरू ज मन को बहत लुभा रहा था।
िकसी सनसेट वॉइ ट से कम ख़ुशनुमा नह था, यह य। के.पी. जी बोले- लो देख लो एक बार
और सनसेट यह से। मँग ू फिलयाँ सब गटक ही रहे थे। य िक पंकज जी ने िहदायत दी थी िक
काठगोदाम तक इ ह हर हाल म ख़ म करना ही है। िकसी के नेिहल आदेश को नकारने का
दु साहस भला कोई कर सकता है? हम पंकज जी को मँग ू फली ऐसे िखला रहे थे, मानो हम ने ही
ख़रीदी ह । सब ेम क बात ह, साहब। यही जीवन का स चा सुख है। िमल जाए तो अहो भा य।
कहने को ढाई आखर ह, मगर- मेरा ही एक शेर न है-

‘‘कहने को तो ेम के ह बस ढाई आखर


पढऩे म तो इन को जीवन भर लगता है।’’

अरे ...बात -बात म काठगोदाम ही आ गया। जाते समय यानी चढ़ते समय ल बी ्रती ा के
बाद नैनीताल आया था। यह भी हम ने अनुभव िकया है िक कह भी जाते समय व त अिधक
लगता है, मगर लौटने म तुर त ही मंिजल ़ आ जाती है। काठगोदाम के बाज़ार म कई रे ाँ हम
ाइवर साहब ने िदखाए, मगर सभी वेज़-नॉनवेज़ िम स थे। आिख़र उ ह ने एक ऑटो र शे वाले
से पछू ा तो उस ने टू र ट िडपाटमट का पता िदया और सीधे हम वह ले गए। वहाँ पहँच कर हम ने
देखा िक सफ़ाई भी ख़बू थी, घर के जैसी रसोई, क़ मत भी वािजब। सामान उतार कर पंकज जी
ने िवदा माँगी। दो-तीन िदन इन के साथ रहने से आ मीयता-सी हो गई थी, आदमी भी अ छे लगे,
भले इ सान िनकले। उ यही कोई 35-40 वष क । इन से जुदा होने का िजतना दुख हम सब
को हो रहा था, उतना ही उ ह भी था। पंकज जी के चहरे पर भी उदासी झलकने लगी थी। िकराए
के िलए भी बोले िक जो आप क मज़ हो दे दो। बहत इसरार करने पर भी मँुह से कुछ नह बोले।
शायद ेमवश ही ऐसा हो रहा था। आिख़र ‘यक़ न’ साहब ने 750 पए उन के हाथ म थमा िदए।
बहत आ मभाव झलक रहा था, उन क आँख म िवदा के समय। ‘बाय’ कह कर वो नैनीताल क
ओर हो िलए। हम लोग भीतर रसे शन म कुछ देर सु ताए। िफर खाने का ऑडर कर के आराम
फ़माया। मा 15 िमिनट म भोजन तैयार था। य िक खाना हमारे ही िलए बना था। उस समय
वहाँ अ य कोई सैलानी था ही नह । दाल-रोटी, स ज़ी एकदम घर जैसी। बहत िदन बाद इतना
अ छा खाना िमला था। िदन भर क ती ा फिलत हो गई। ुधा शा त होने से काफ़ स तुि
िमली। ई र को ध यवाद िदया।

आ अब लौट चल
अभी ेन के आने म काफ़ समय था, सो वह टू र ट ऑिफ़स म कुछ जानकारी लेने लगे।
उ रा चल मण क बुकलेट भी ली। कमर का िकराया पछ ू ा तो 400 पए म डबल बेड वाला
कमरा था। कमरा एकदम व छ, बड़ा व अ छा। हम दंग रह गए। हाँ, मौसम के अनुसार कुछ कम
िज़यादा ज़ र हो जाता है, मगर अिधक फ़क़ नह पड़ता। मलाल हो रहा था, इस िडपाटमे ट के
होटेल म नह ठहरने का, अत: आगे याद रखने का मन म संक प िलया। ये बात अलग है िक
हम अगली या ा तक सब भल ू जाते ह। अरे ... यहाँ सीिढय़ पर उ रा चल के पयटन थल क
दूरी व नाम िलखे हए ह, तािक सैलािनय को िबना पछ ू े ही जानकारी िमल जाए। बड़ा अ छा लगा
हम यह आइिडया, ख़ैर यह टू र ट होटेल है, यह होना ही चािहए।

तभी अचानक मैनेजर साहब आ कर हम से बोले िक आप को अिधक देर ठहरना होगा तो


कृपया म ले ल। अब और पयटक भी आऐंगे। उन का मतलब हम सब समझ गए और हम ने
कहा िक बस गाड़ी का समय हो गया, हम लोग िनकलने ही वाले है।ै हम लोग बो रया-िब तर
उठा कर जं शन क ओर हो िलए। टेशन काफ़ मे टेन िकया हआ था, िजस का पुर कार भी
इसे िमल चुका है, वही पुर कार-प वहाँ टँका हआ था। अरे हाँ, जं शन आते व त रा ते म अपने
बेटे नवनीत से कोटा बात भी क और बात ही बातो म पानी क बोतल वह भल ू गए। शरीफ़
मािलक दौड़ा-दौड़ा आ कर दे गया, वरना सफ़र म काफ़ िद क़त आ सकती थी।

टेशन पर गाड़ी ठीक समय पर लग चुक थी। हमारा रज़वशन दो अलग-अलग िड ब म


िनकला, सो एक कोच के या ी जो आधी सीट के मािलक थे उन से िनवेदन कर के एडज ट
िकया। वि नल व हम दोन तो सो गए, दोन पु ष लोग एक िसंगल सीट पर िटके रहे सारी
रात। थकान के मारे हम द न को कब न द आ गई पता ही नह चला। सुबह पाँच बजे िद ली
पहँच चुके थे। अब डे ढ़ बजे वाली ेन क ती ा करनी थी। उस का आर ण जो था। सो वेिटंग
म म आराम से े श- ेश हो िलए, चाय-वाय पी, िफर सामान लॉक म म जमा करवाया,
ताला भी ख़रीदना पड़ा बैग म लगाने हे तु। िफर र शे से चाँदनी चौक क ओर िनकल गए। थोड़ी
दूर चलने पर र शा भी छोड़ना पड़ा, य िक दीपावली क व ह से भारी भीड़ थी, वन वे ेिफ़क
चल रहा था। पैदल-पैदल चाँदनी चौक म घम ू ते हए नैनीताल वाला जापानी फल भी देखा, नाम
पछू ने पर बताया गया िक कुछ भी कह दो इसे।

नवनीत के िलये एक टी-शट ख़रीदी, अपने िलए एक बैग जो रोज़ाना कूल ले जाते-ले जाते
अब फट चुका है। वो बैग वाला भी, ‘िसलाई तो नह खुलेगी’, यह पछ ू ने पर बड़ा िबफरा था, िफर
हम ने भी सोचा िक 65 पए म या आता है? एक पिटयाला सटू ख़रीदा। कुछ और ख़रीददारी
कर के रे ाँ पर खाना खाया। खाना स ता व अ छा था। िद ली म वैसे भी खाने क कोई
सम या नह है। ये तो देश का से टर है। हर तरह क सुिवधा यहाँ उपल ध होती ही है। हम ने
बादाम का दूध िपया, वि नल ने छोले-पड़ ू ी ली। इधर व त होने को था, भाग कर टेशन आए,
लॉक म से सामान िनकाले, टेशन पर ात हआ िक ेन 4 घ टे लेट है। अब सामान भी
िनकाल चुके थे, समझ म नह आ रहा था या कर? इधर-उधर होते रहे , मै ज़ीन पढ़ते रहे , िफर
वि नल व हम वापस चाँदनी-चौक क ओर चल िनकले। सीडी खरीदने हे तु लाला लाज पतराय
माकट जाना था, मगर लाल िक़ले से ही वापस मुड़ गए, भीड़ इतनी थी िक िह मत नह कर सके
आगे जाने क । आदमी से िज़यादा तो र शे थे यहाँ। थकान भी बहत हो चुक थी, अत: माल व
मौजे ही ख़रीदे। वापसी म देखा सड़क के िकनारे भी खाना िमल रहा था। हर वग के िलए यहाँ
खाना उपल ध है। अ छी बात है िकसी को भख ू ा नह रहना पड़े । टेशन पर आ कर पता चला िक
गाडी 8:30 तक आने क संभावना है। कह िकसान आ दोलन के तहत गािडय़ाँ रोक ली गई ह,
कुछ का माग प रवतन िकया गया है। आ दोलन िकस का, सज़ा कौन भुगते? अब या था, सो
ए जॉय करने म ही अपनी भलाई समझी, य िक जहाँ वश नह चले वहाँ दुखी होने से फ़ायदा
भी या? ए जवॉय करो, म त रहो। हम लोग या ी लोग क िविभ न हरकत देखते उन के
मनोभाव को पढऩे क कोिशश करते, बात बनाते व हँसते, लेिकन यह भी अनुभव म बढ़ोतरी ही
हो रही थी। काफ़ िवल ब के बाद गाड़ी का इ तज़ार ख़ म हआ और हम लोग कोटा पहँचने के
ख़याल म डूब गए। किव-कथाकार आन द संगीत का यह शैर याद आया, आप क भी न है-

‘‘य ूँ तो दुिनया भी कम हसीन न थी


चैन तो घर ही लौट कर आया।’’

और चलते-चलते एक शैर कृ णा कुमारी का भी हो जाए-

‘‘लोग घणाँ ई घम
ू बा-फरबा जावै छै
फै ँ हँई तो हारो घर ही भावै छै।’’
-इित शुभम...।
◆ ◆ ◆

You might also like