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कॉपीराइट : कृ णा कुमारी
थम सं करण : जनवरी, 2019
ISBN : 978-93-89177-01-5
क यूटर ािफ स : बनवारी कुमावत ‘राज’
आवरण संयोजन : बोिध टीम
नैनीताल
अ मोड़ा
कौसानी
रानीखेत को...
कृित-स दभ
ग सािह य क िविवध िवधाओं म ‘या ा-व ृ ’ का अपना ही मह व है। ‘अ ेय’ जी क
का या मक ग भाषा म जब उन के या ा-वणन कािशत हो रहे थे, तब इस िवधा-िवशेष ने
यान आकिषत िकया था। रांगेय राघव ने बंगाल के अकाल पर ग -िवधा म या ा-व ृ , डायरी
तथा रपोताज को िमला कर एक नया प तुत िकया था।
‘आओ नैनीताल चल’ क भाषा वाही तथा भावी है। कोटा से गािजयाबाद ़ तथा वहाँ से
काठगोदाम, नैनीताल अ मोड़ा, कौसानी, म लीताल, त लीताल, िहमालय, िफ़ म क
शिू टंग...छाटे-छोटे यौरे और उन के साथ जुड़ी आ मीयता िवरल है। या ा व ृ एक मवू ी कैमरे क
आँख से स पण ू प र य को िदखाता चला जाता है।
भाषा क यही िच ा मकता, सघन िब बा मकता...किवता के साथ, गित लेती है, लगता है
पास बहती हई नदी कल-कल धारा के साथ आप भी चल रहे ह । यह बात दूसरी है िक आज क
दुिनया म मण तो होता है, पर उस का अनुभव-जगत बाहर ही रह जाता है। बुि गत अिभगम,
भीतर तक उस अनुभव को वािहत नह होने देता। लेिखका का यह कथन तु य है िक ‘ मण-
अनुभव भी ाना मक स वेदनाओं क ी विृ म मह वपण ू कारक है।
पित : ी कृ ण काश
सजृ न िवधाएं : मु यत: किवता, गीत, ग़ज़ल िवधाओं म सजृ न के साथ-साथ अनुवाद, रपोताज,
लोगन, लघुकथा, कहानी, सं मरण, सा ा कार, या ा-व ृ ांत, बाल-गीत इ यािद िह दी,
राज थानी, उदू व अं ेजी भाषाओं क िविभ न िवधाओं म भी िनरं तर सज
ृ न।
अिभ िचयाँ : संगीत, वा एवं िच का रता म िवशेष िच के साथ सािह य पठन, लेखन एवं
िव जन क सुसंगित।
काशन : ‘म पुजा रन हँ’ (किवता सं ह, 1995), ‘ ेम है केवल ढाई आखर’ (िनबंध, 2002),
‘िकतनी बार कहा है तुमसे’ (किवता सं ह, 2003), ‘...तो हम या कर’ (ग़ज़ल, 2004),
‘ योितगमय’ (आलेख, 2006), ‘ वि नल कहािनयाँ’ (कहानी, 2006), ‘आओ नैनीताल चल’
(या ा व ृ ांत, 2009), ‘जंगल म फाग’ (बाल-गीत, 2014), ‘नाग रक चेतना’ (िनब ध,
2018)। िविभ न रा ीय एवं रा य तरीय प -पि काओं, संकलन आिद म रचनाएँ कािशत।
‘अ छे ब चे’ (बाल-किवता), ‘क़तरा नदी म’ (ग़ज़ल), ‘दि ण क ओर’ (या ा व ृ ांत), ‘कुछ
अपनी कुछ उनक ’ (सा ा कार), ‘अ ुत है िसंगापुर’ (या ा व ृ ांत) काशनाधीन। िश ा
िनदेशालय बीकानेर ारा पु तक समी ाएं कािशत एवं िश क िदवस पर कािशत पु तक
शंख
ृ ला म रचनाएँ िनरं तर कािशत। कई पु तक -पि काओं म आधुिनक रे खािच व आवरण
िच कािशत। कई शोध- ंथ , संदभ ंथ एवं गु नानक देव िव.िव. क एम.िफल. म
अनुशंिसत पु तक म िव ततृ प रचय एवं रचनाएँ कािशत। कई रचनाओं का अं ेजी, उदू व
गुजराती म अनुवाद कािशत।
स मान-परु कार : पयावरण िवभाग, राज थान, कोटा नामदेव सभा, कथांचल उदयपुर ारा
‘पगली’ कहानी को कथािश पी राजे स सेना सव म कहानी पुर कार। नारा लेखन व प -
वाचन म कई िवभाग ारा पुर कृत। अ रधाम सिमित कैथल ारा ‘ थम रा ीय अ र गौरव’
स मान। संगम कला प रषद बैतल ू म य देश ारा ‘का य कुसुम’ उपािध। दैिनक भा कर ारा
‘आशीवाद एचीवस एवाड’ तथा ‘मधुबाला मिृ त स मान’। िजला शासन ारा ‘नाग रक
स मान’। सं कार भारती सं थान दौसा ारा ी िशवनारायण मिृ त स मान। अनुराग यिू जकल
एं ड क चरल सोसायटी, लालसोट (राज थान) ारा ‘अनुराग सािह य स मान 2007’। सािह य
म डल ीनाथ ारा क ओर से ‘िह दी भाषा भषू ण स मान’। चेतना सािह य प रषद लखनऊ
ारा ‘ ीमती गीता मिृ त स मान’। ‘ ीन अथ’ एन.जी.ओ. कु े ारा आयोिजत ‘रा
तरीय मिहला किवता ितयोिगता-2017’ पयावरण संव न म ि तीय थान।
िवशेष परु कार : एयर इि डया एवं राज थान पि का ारा आयोिजत ‘रे क ए ड बो ट’
ितयोिगता म िजला तरीय एवं रा य तरीय थम पुर कार, िसंगापुर क या ा अिजत। िश क
िदवस 2008 म ‘रा य तरीय िश क स मान’। राज थान सािह य अकादमी उदयपुर ारा
‘देवराज उपा याय पुर कार’।
हमारे रचनाकार होने का भी हम कुछ लाभ िमल रहा है। देश के कोने-कोने म काय म
होते रहते ह, हम भी ख़बू आम ण िमलते ह। ख़बू सरू त थान के ो ाम को हम िब कुल नह
छोड़ते। िसत बर, 2002 ई. म ग़ािजयाबाद
़ से हम ‘दिलत सािह य अकादमी’ के वािषक समारोह
का िनम ण िमला और हम लोग ने वहाँ से नैनीताल जाने का काय म भी बना डाला। य िक
ू ने के िलए िसत बर-अ टूबर का समय ही े होता है। पयटन थल पर इस समय मई-जन
घम ू
जैसी भीड़-भाड़ नह रहती एवं क़ मत भी क़ाफ कम हो जाती ह।
कभी लड़का कहता, देख-देख िकतनी ऊँची िबि डं ग है। बाप रे बाप! कैसे बनाते ह गे इसे।
तभी एक गाड़ी पास से गुज़री और दोन के मँुह से िकलकारी फूट पड़ी। आ ािदत ब चे आपस म
गाड़ी क तेज़ गित को ले कर बितयाने लगे। ब ची पछ ू ने लगी- भैया! रे लगाड़ी पटरी पर कैसे
भागती है। अब िद ली न दीक आने लगी। कुछ देर बाद िज ासु बालक को न जाने कहाँ
दूरदशन के नज़र आ गया और चहकते हए बोला, पापा...पापा देखो! यहाँ से ही अपने टी.वी.
काय म आते ह ना। सारांशत: उन क चुहलबाज़ी से ज़ािहर हो रहा था िक वो पहली बार गाड़ी म
बैठे ह और िद ली क ओर जा रहे ह। पास ही बैठे या ीगण मसरू ी जाने क बात कर रहे थे। उन
क बात सुन कर वह ब चा िफर पापा से मुख़ाितब हो कर बोला िक अपन भी मसरू ी चल। मालम ू
है, उस के िपताजी ने या जवाब िदया। नह मालम
ू ? ...हम बताते ह। वे बोले िक जब तेरी शादी हो
जाए तब अपनी प नी के साथ जाना। अब ब चे क सरू त देखने लायक़ थी। चुप व िन र हो
कर िखड़क से आकाश को ताकने लगा। अब दोन ब चे अपनी पढ़ाई, िश क , पु तक क
बात म मशगल ू हो गए। ब च क यारी- यारी बात अ छी लग रह थ । इन क बात पर कुछ शैर
अज़ ह-
इधर बैर क ‘चाय-चाय’ शोर मचाने लगी। लेिकन हमारा यान केवल ब च पर ही केि त
था। य न हो, ब चे तो ब चे ही ह। इन क मासम ू व िन छल बात भला िकस स दय को नह
लुभाती। ये बचपन ही तो है जब आदमी इतना भोला रहता है। बाद म िकतना ख़ुद ग़रज़, म कार
हो जाता है। कभी-कभी तो लगता है िक काश! आदमी हमेशा-हमेशा ब चा ही रहता, बड़ा य हो
जाता है। इस पर अपनी किवता याद आ गई- ‘काश! िक हम ब चे ही रहते’। लेिकन...तब एक
मुसीबत हो जाती, दुिनया आगे कैसी चलती, यानी नए ब चे कैसे ज म लेते। िनदा फ़ाज़ली का
एक शैर हो ही जाए इस बात पर-
इस कार अपने काय मानुसार हम 24 अ टूबर, 2002 ई. को राि 8:30 बजे नैनीताल
पहँचे। लेिकन बस के सफ़र म काफ़ परे शानी उठानी पड़ी। एक तो ख़ ता हाल बस, ऊपर से
गम । बीच म ओवरटेक करने के च कर म दुघटना होते-होते भी बची। एक बस हमारी बस को
ओवरटेक करने के च कर म हमारी बस के सामने आ कर एकदम खड़ी हो गई। वो तो भला हो
ाइवर सािहब का जो एकदम ेक लगा िदया। िफर 10-15 िमिनट तक दोन म काफ़ गमागम
बहस हई। हापुड़ म पापड़ का पैकेट लेने क भारी इ छा हई लेिकन परू े सफ़र म उ ह सँभालने क
परे शानी के म े -नज़र ख़रीद कर बस वाद चख िलया। हाँ, कह क भी कोई भी व तु िस
होती है तो घर लाने का मन तो होता ही है, िम व घरवाल को िखलाने के िलए।
मुरादाबाद होते हए हम लगभग शाम 6:30 बजे ह दानी पहँचे। इसी इ तज़ार म िक
नैनीताल अब आए, अब आए। लेिकन बस यह ख़ाली कर दी गई। जब िक हम से नैनीताल
पहँचाने क बात हई थी। ाइवर साहब से िशकायत करने पर वे बोले िक यहाँ से नैनीताल क
बस िमल जाऐंगी। मेरी बस म नैनीताल क कम सवा रयाँ होने के कारण म आगे नह जा रहा,
सामने िद ली िनगम क बस खड़ी है। उस म बैठ जाओ और हाँ, म ने आप से ह दानी तक का ही
िटिकट िलया है। अब हमारे पास चारा भी या था। डे ढ़ घ टे बाद उसी से रवाना हए। थोड़ी देर बाद
अ धकार गहराने लगा और हम खबू सरू त रा ते के सौ दय-पान से वि चत रह गए। हम व
वि नल को काफ़ च कर आने लगे। जी है िक घबराता ही जाए, जब िक ऐसा पहले कभी नह
हआ था। अ तु।
ख़ैर छोिडए,
़ वह नैनीताल क सुबह अिव मरणीय रहे गी। देखा और देखते ही रह गए थे।
इतना अनुपम सौ दय... मँुह से बस ‘वॉव’ िनकला। फोटा ाफर ‘यक़ न’ साहब साथ थे ही। वह
बालकनी म हम लोग ने फोटो िखंचवाए। इधर सद का तो कहना ही या? मैदान म तो सद भी
बुरी लगती है। लेिकन यहाँ तो वह भी यारी लग रही थी, बेहद सुहानी, सद हवा पोर-पोर को छू
कर गुज़रती और तन-मन म िसहरन-सी होती। अब तक सड़क पर भी ख़बू आवा-जाही होने
लगी थी। सारा शहर पि दत हो गया था। रा ते चलने लगे थे। दूकानदार ने सफ़ाई कर के
दूकान खोल ली थ । सड़क के िकनार पर फ़ुटपाथ भी चीज़ से सजने लगे थे। ब चे यन ू ीफॉम म
कूल जाने लगे थे। लड़िकयाँ िततली क तरह चोिटय पर रबन बाँधे इठलाती, बितयाती,
चहकती हई कूल क ओर बढ़ी चली जा रही थ । टैि सय के चालक अपनी टैि सय को
झाडऩे-प छने म लगे हए थे। क़ुली एवं एजे ट लोग काम क तलाश म झील के साथ-साथ खड़े थे
या इधर-उधर नज़र दौड़ा रहे थे।
नो यू वॉइ ट
हाँ, तो अब चलते ह, नैनीताल क सैर के िलए। सब से पहले देखते ह, ‘ नो यू वॉइ ट’।
जैसा िक नाम से ही ज़ािहर है, यहाँ से िहमा छािदत पवत-मालाओं का भ य य िदखाई देता
होगा। जी हाँ, यही िकलबरी है या िहमालय दशन भी कह लीिजए। शु , व छ, सद हवाओं से,
पहाड़ी रा त से घम ू ते-घामते हम यहाँ पहँचे। परू े रा ते िहमालय दशन क बल िज ासा मन को
उ फुिलत करती रही थी। जैसे ही हम अपनी मंिजल ़ पर पहँचे। सामने लेिशयर बाँहे फै लाए
वागतातुर थे। एकदम अिनवच सौ दय, पलक ठगी-सी रह गई ं। सच कह तो इस य ने ठग
िलया हम को। बफ़ से ढक ये पवत-मालाऐं थ तो कई िकलोमीटर दूर लेिकन यँ ू लग रहा था िक
थोड़ा हाथ बढ़ा कर इ ह छू सकते ह, ये सामने ही तो खड़ी ह। वाह रे ! कृित, ध य है वह असीम
स ा, उस क लीला, या कुछ नह बनाया उस ने, कौन पार पा सका है आज तक उसक माया
का? यह आ कर िववश मानव ‘नेित-नेित’ कह उठता है। हम अनायास ही गीत याद आ गया-
‘ये कौन िच कार है...ये कौन िच कार है...’। यहाँ पर दूरबीन वाला तो होना ही था। केवल 5
पए म हम ने दूरबीन का योग िकया। वह पर कुमाऊँ क पर परागत े स िमल रही थ , िज ह
पहन कर फोटो िखंचवाया जा सकता था। लेिकन हम तो इस तरह के अ य िहल टेशन पर कई
नेप ले चुके थे। ऐसी पोशाक के साथ फोटो का शौक़ न हम है न वि नल को। लेिकन यहाँ का
य देखते-देखते िदल नह भर रहा था। नीचे घाटी म असं य जाितय के पेड़-पौधे लदे पड़े थे।
एकदम श य यामला घाटी, नयन को परमानंद िमल रहा था। आँख ह िक थकती ही नह थी
इन नज़ार को देखते-देखते। बस देखते ही जाओ। हाँ, जब मनाली गए थे तब लेिशयर तक हो
कर आए थे। रोहतांग दरा पर लेिशयर को छू कर देखा था, उस का आन द अलग था, वो
अहसास भी अवणनीय है। लेिकन यहाँ दूर से देखना भी अ छा लग रहा था। यहाँ लेिशयर िवशाल
फलक तक एक साथ सम खड़ा था जब िक रोहतांग म बफ़ से ढका कम े था।
वहाँ से थोड़ा नीचे उतर कर एक चोटी क तरफ़ इशारा करते हये ाइवर महोदय ने, िजन
का अ छा-सा नाम पंकज ितवारी है, कहा िक वो जो सब से ऊँची चोटी आप को नज़र आ रही है
वह ‘चाइना पीक’ है, जो 2600 मीटर ऊँची है। वहाँ से चीन क दीवार प त: देखी जा सकती
है। हम ने तुर त कहा- चिलए ना, तो वो हम आ त करने के अ दाज़ म बोले, मैडम, वहाँ जाने
के िलए िदन भर चािहए। वहाँ पहँचने के िलए 3 िकमी. तो आप को पैदल ही या ा करनी पड़े गी।
मन हआ िक चिलए लगे हाथ संसार का दूसरा आ य देख लेते, ताज तो देख ही रखा है लेिकन
हमारे हमसफ़र इस के िलये तैयार नह थे। हम ने पंकज जी से सवाल िकया िक या आप
‘चाइना पीक’ जा चुके ह? वहाँ से चीन क दीवार कैसी लगती है? उ ह ने हामी भरते हए सर
िहलाया और बोले म तो कई बार जा चुका हँ, अ छा तो लगता ही है। कुछ देर वह हम लोग सड़क
के िकनारे खड़े हो कर देवदार के, बुराँस के व ृ को देख-देख कर कृताथ हए जा रहे थे। इन
पेड़ का नाम पु तक म पढ़े थे, आज सामने खड़े थे ये हमारे । वाक़ई, हमारी पहाड़ी वन पितयाँ,
पेड़-पौधे बड़े ही सु दर होते ह। जब नाम ही देवदार है, जहाँ देव श द आ जाए वहाँ प है
सौ दय तो होगा ही। वैसे इस के श दाथ पर जाऐं तो ‘देव ’ वाला पेड़ कहा जा सकता है, हो
सकता है इसे ही क प-व ृ कहा जाता हो, वैसे भी यह देव-भिू म म ही तो लगता है, िमलता है
और परू े िहमाचल देश ही या सारा िहमालय ही देव-भिू म कहलाता है। यह तो हमारे बड़े -बड़े
ऋिषय ने तप िकए ह। कैलाश पवत पर तो सा ात् िशव िवराजते ह। जो भी हो, बड़ा खबू सरू त
होता है यह व ृ , िब कुल नाम के अनु प ही है।
हम सड़क के िकनारे खड़े -खड़े यह सब सोच रहे थे, तभी पंकज जी ने हमारे ख़याल क
दुिनया को झकझोरते हए कहा िक देिखए, यहाँ से नैनीताल व नैनी झील परू ी तरह नज़र आ रही
है। यह झील आम के आकार म ह। वाक़ई, यह झील ऐसी ही िदखाई दे रही थी। वहाँ से परू े
नैनीताल को कैमरे म क़ैद कर के हम नीचे आते ह,
केव गाडन
‘केव गाडन’। जी हाँ, पहली बार यह नाम सुना था। गुफाओं का भी कोई बाग़ हो सकता है,
वाह भई! यहाँ पर कुछ िटिकट भी लगा था। गाडन के भीतर कुल छ: गुफाऐं थ िजन म से
गुज़रना था। गुफाऐं ाकृितक ही ह गी, जैसा िक हम ने महसस ू िकया। िज़यादातर सैलानी दो-
तीन गुफाओं को पार कर के ही तौबा कर रहे थे। के.पी. सर तो बाहर ही खड़े हो गए। वि नल,
‘यक़ न’ सर व हम, तीन गुफाओं म से हो कर बाहर आ गए। वाक़ई, भीतर से ये काफ़ सँकरी,
अँधेरी, ऊबड़-खाबड़ थ , बीच-बीच म खड़ी च ान भी थ । चढ़ना-उतरना, िफसलना सब करना
था। बीच-बीच म कुछ जगह तो बैठ-बैठ कर, काफ़ झुक कर बड़ी ही मुि कल से िनकलना पड़ा।
‘यक़ न’ जी ने तो तीन के बाद हिथयार डाल िदए। पर हम कहाँ मानने वाले थे। हमारी िज ासा
तो ब च से भी बलवती है, साहब। हम ने कहा जब िटिकट िलया है तो छह गुफाओं को य नह
देख। वि नल व हम चौथी गुफा म गए, वह भी अिधक किठन तो नह थी, आराम से पार कर
ली। पाँचव म काफ़ मुि कल आई। छठी म तो नानी याद आ गई। अकेले जाने का साहस तो कर
नह पा रहे थे, मगर एक अ य पयटक मिहला-पु ष व ब चे को जाते देख कर उन के पीछे हो
िलए। ब चे म बड़ा उ साह था। सब से आगे चल रहा था। उ लगभग 12 वष होगी। यह उ होती
ही ऐसी है। बीच म काफ़ अँधेरा, बेहद सँकरी एवं इतनी ऊबड़-खाबड़ िक वो लोग साथ न होते तो
हम कह के नह रहते न तो वापस आ पाते, न ही आगे जा पाते, चढ़ना और उतरना काफ़
ख़तरनाक व मुि कल था। िबना सहारे के यह स भव नह था। वो तो भला हो साथ वाले भ जन
का िज ह ने हम दोन को हाथ से पकड़ कर चढ़ाया-उतारा, वना हम तो वह अटक जाते। जब
तक कोई िनकालने नह आता और िफर वो भी गुफा म, क ड़े -मकोड़ का डर भी होता ही है।
बाहर आ कर उन महोदय को हम ने बहत ध यवाद िदया। ये काफ़ संजीदा व ख़ुशिमज़ाज
नवयुक लगे हम। उ कोई 25-30 के लगभग ही होगी। मुि कल तो आई मगर यह अहसास
काफ़ रोमांचक रहा व नया भी। वि नल को भी काफ़ अ छा लगा, कुछ हट कर जो था। हट कर
होना तो अपने-आप म काफ़ आन ददायक एवं अि तीय अहसास होता ही है। जब बाहर आ कर
इन दोन को हम ने सारी ि थित बतलाई तो बोले, फँस जाते तो हम ढूँढने आते ही सही। शेष
गाडन ठीक था। वहाँ संगीतमय फ़ वारा भी था, लेिकन राि को 7 से 9 बजे के बीच चलता था।
मैसरू के व ृ दावन गाडन के बाद दूसरी जगह यह फ़ वारा देखने को िमला था।
हाँ, यिद आप नैनीताल जाऐं तो छठी गुफा म ज़ र जाऐं मगर अकेले नह । अरे हाँ, हट कर
चलने वाली बात पर ‘यक़ न’ जी का ही शैर याद आ गया-
खप
ु ाताल
चिलए, यहाँ से हमारी गाड़ी मोड़ लेती है, खुपाताल क ओर लेिकन हम इस ताल तक पहँच,
उस के पवू य न एक झरने के आन द म नहाया जाए। तो जैसे ही हम थोड़ा आगे बढ़े एक
झरना पहाड़ी च ान से िगर कर लुढ़कता हआ, सीधे रा ते पर अपने पलक पाँवड़े िबछा रहा था।
यह झरना अिधक ऊँचाई से नह िगर रहा था, य िक यहाँ ऊँचाई कम थी केवल ढलान थी। कई
धाराओं म िवभ हो कर बहते इस झरने को ‘वाटर फॉल’ क जगह ‘वॉिकंग वाटर, रिनंग वाटर
या लोइंग केना स’ भी कह सकते ह। इस के शीतल जल को पाँव से छुआ तो ग़ज़ब का सद
अहसास िमला, बहत ही सुकून। कोटा क भीषण गम से यहाँ हम बहत राहत िमल रही थी। कुछ
देर हम सब लोग जल से ड़ाऐं करते रहे , इठलाते रहे , म ती म झम ू ते शरारत म मशगल
ू होते
रहे । कभी एक-दूसरे पर पानी उछालते तो कभी अंजुरी म इसे भर कर पी जाते। वह पास म एक
रे ाँ था ही। कुछ देर बाद हम लोग ने गमागम चाय पी व ेड पकौड़ का ना ता िकया, य िक
भखू से तो बेहाल हो ही रहे थे। सुबह से कुछ खाया भी कहाँ था। िफर यहाँ क िवशु जलवायु के
सबब भख ू तो बहत लगती है ही। श य- यामल वािदय क आग़ोश म बैठ कर चाय-
पान...आ...हा...। इस के प ात एस.टी.डी. से कोटा बात भी कर ली, केवल 12 पए म। ये या,
पकंज जी ने खुपाताल पहाड़ी के ऊपर से ही िदखा िदया, जो घाटी म था। इसे खुपाताल इस िलए
कहते ह िक इस क आकृित गाय के खुर क तरह है। यहाँ जाने के िलए शायद D.M. Nanital क
अनुमित लेनी पड़ती है। वैसे घाटी म नज़र आता यह ताल भी 1635 मी. क ऊँचाई पर है, जो
नैनीताल से मा 7 िकमी. दूर है। इस ताल म हम जो िवशेषता नज़र आई वो ये िक इस का जल
एकदम गहरे हरे रं ग का था। हाँ, सीढ़ीनुमा खेत व पहािडय़ से िघरे होने के कारण दूर से भी
काफ़ आकषक लग रहा था। यहाँ मछिलयाँ बहत होने के कारण यह जगह मछली पकडऩे के
िलए भी िस है।
‘‘बभ
ु िु त: िकम न करोित पापम’् ’
सात ताल
यँ ू तो त ऱीह करते-करते अब बारी आई जनाब सातताल क । कहा ना नैनीताल तो है ही
ताल क नगरी। ‘सातताल’ जैसा िक नाम से ही ज़ािहर हो रहा है िक यह सात ताल का समहू
होना चािहए। देिखए ना हमारा िवचार एकदम सही िनकला। यही बात पंकज जी कहने लगे िक
यहाँ सात ताल क शंख ृ ला है। लेिकन अब केवल दो ही ताल बचे ह, िजन म नल-दमय ती भी
शािमल ह। वैसे एक राज़ क बात यह है िक अभी भी नाव वाले ‘सातताल’ म पयटक को नौका-
िवहार के समय यही कहते ह िक यह रामताल है, थोड़ी नाव आगे ले जा कर कहगे अब ल मण
ताल आ गया, िफर सीताताल कहगे, यानी एक ही ताल म सात ताल आप को घुमा दगे और
पयटक ख़ुश िक एक ही ताल म सात िमले हए ह, जब िक हक़ क़त कुछ और ही है, जो िक म ने
अभी आप को बताई, लेिकन रोज़ी-रोटी के च कर म यह सब चलता है। हाँ, ये सात ताल राम,
ल मण, भरत, श ु न, सीता, नल, दमय ती नाम से ही जाने जाते थे, जो पहले अलग-अलग थे।
अब िवलीन हो गए, सख ू गए। पंकज जी ने सारा ख़ुलासा कर िदया। एक बहत ही िचकर बात
तो बताना ही भल ू रहे ह िक इस समय नैनीताल म ‘बाज़’ िफ़ म क शिू टंग चल रही थी और
आज यह शिू टंग ‘सातताल’ म ही हो रही है। इसी िलए ‘सातताल’ पहँचने के पवू रा ते म एक
रे टोरे ट पर पंकज ितवारी जी कार रोक कर हम भोजन करने को कहते ह। इस िलये िक
‘सातताल’ म शिू टंग होने के कारण वहाँ रे टोरे ट म काफ भीड़ होगी। आप को खाना भी ठीक
से नह िमल पाएगा। हम कार म से उतर कर रे ाँ मे गए लेिकन यह या, ये तो पहले ही
हाउसफ़ुल। परू ा हॉल बंगािलय से लबालब भरा हआ है। ती ा म लगो या चलो। िफर दूसरी बात,
यहाँ कुछ िवशेष कार क बू भी आ रही थी। शायद यहाँ वेज व नॉनवेज दोन भोजन उपल ध थे।
सफ़ाई व पिव ता भी कम ही थी। िफर जहाँ नॉनवेज िमलता हो वहाँ खाने का तो सवाल ही कहाँ
उठता है। हम तो नह खा सकते, य िक स भवत: बतन, चाक़ू, भगोिनयाँ, च मच सब कॉमन
ही होते ह। दाल भी उसी ऱाई ंग पेन म ाई होती है, िजस म कुछ देर पहले नॉनवेज ाई हआ है।
च मच भी िमल ही जाती ह गी। इस य ततम समय म िकसे इतनी फ़ुसत है िक आप का इतना
यान रखे। शायद आप को हमारे िवचार ग़लत लग रहे ह । हो भी सकते ह, अपवाद िमल भी जाते
ह, लेिकन अमम ू न ऐसा ही होता है।
अरे , िफर हम िवषय से भटक रहे ह। अब हम ने यहाँ खाने का आइिडया ॉप कर िदया। हाँ,
आप के ही काम क एक बात और है जो अभी बता ही द। नैनीताल म िसत बर-अ टूबर िवशेष
कर बंगािलय का सीज़न होता है। इस व त शायद वहाँ दीपावली-दशहरा या दुगा-पज ू नक
छु याँ होती ह, अत: ये लोग अवकाश का लु फ़ उठाने इधर ही आते ह, य िक दािजिलंग के बाद
यही िहल टेशन इन के िनकट पड़ता है और माउ ट आबू इस समय गुजराितय से भरा िमलेगा,
य िक वहाँ से गुजरात एकदम क़रीब है। या बताऐं आप को, परू ा नैनीताल बंगािलय से भरा
हआ था। हम िजधर भी जाते लगभग 98 ितशत बंगाली ही नज़र आ रहे थे, हम ने सोचा महज
इि फ़ाक़ होगा, लेिकन ितवारी जी ने ही बताया िक यह तो सीज़न ही इन का कहलाता है। इन
िदन इन के कारण महँगाई भी बढ़ जाती है। हम ने सोचा, यह भी ख़बू रही। हम तो ऑफ़ सीज़न
मान कर ही यहाँ आए थे तािक न यादा भीड़-भाड़ होगी, न ही महँगाई। ख़ैर, ान तो घर से
बाहर िनकल कर ही िमलता है, जानकारी बढ़ती है। आप भी नैनीताल जाऐं तो यह बात याद
रिखएगा। वैसे तो कोई बात नह लेिकन एक बात है िक घम ू ते समय टू र ट बस म क पनी नह
िमल पाती, य िक भाषा सम या सामने खड़ी हो जाती है। हम िकसी हमसफ़र से बात नह कर
पाते, घुलिमल नह पाते, पर पर प रचय- े नह बढ़ पाता। इन सब के बीच म अपना वयं का
समहू अकेला पड़ जाता है, हर चीज़ के दाम भी ऊँचे हो जाते ह। आप इस सीज़न म जाऐं तो
िसत बर के पहले स ाह म जाइए, परू ा लु फ उठा पाऐंगे। इधर बा रश क िवदाई होने का समय
होने के कारण इस समय कण-कण ह रयल रहता है, ह रयाली क छटा देखते ही बनती है।
अ टूबर म छोटी-छोटी दूब व घास सखू चुक होती है और बंगाली मौसम अ टूबर म ही होता है।
आप सोच रहे ह गे िक मई-जन ू म भी महँगाई के कारण नह जाऐं, भीड़-भाड़ भी रहती है तो कब
जाऐं, िसत बर म जाय। सौ बात क एक बात तो यह िक अपनी सुिवधानुसार ही जाऐं। वैसे भी सब
अपनी प रि थितय के अनुसार ही ो ाम बनाते ह। सॉरी, हम सलाह नह देनी चािहए। एक
कोटेशन पढ़ा था- ‘‘संसार अपराध कर के इतना अपराध नह करता, िजतना वह दूसर को
सलाह दे कर करता है।’’
मगर हमारा यान शिू टंग क ओर ही िज़यादा था। पुराना सैट हटा िलया था। हमारा मन
िख न होने लगा िक अब शिू टंग नह होगी। म लाह से हम बार-बार उसी िकनारे क ओर ले
जाने क िज़द करते तो वह कहता- मेमसाब, शिू टंग तो िदन भर चलेगी। इधर एक घ टे का व त
बीतता जा रहा था। तभी हम ने देखा िक िब कुल झील के िकनारे एक और सैट बनने लगा है।
हम आ त हए। वैसे नौकायन का आइिडया ‘यक़ न’ जी का ही था। जब शिू टंग वाली टीम
शिू टंग थल से हटने लगी थी। तब उ ह ने कहा था िक चिलए हम लोग नाव को शिू टंग वाले
िकनारे के पास ले जा कर खड़ी कर लेते ह। वहाँ से कोई हटा नह सकता। वाक़ई 2-3 नाव वह
तैर रही थ । वे लोग पहले से ही इसी कार शिू टंग देख रहे थे। वैसे ‘यक़ न’ साहब के आइिडए तो
धासँ ू होते ही ह। बुि मान तो बहत ह ही। लगे हाथ इन का थोड़ा प रचय भी हो जाए। इन का परू ा
नाम पु षो म ‘यक़ न’ है। फोटो ाफ का यवयास तो है ही, साथ ही कोटा के े तम शाइर ह।
हरफ़न मौला ह, ऐसा कोई काम नह जो इ ह नह आता हो। िच कला, संगीत, अिभनय म
पारं गत कह सकते ह। उदू शाइरी म भी महारत हािसल है। वयं के हाथ से िलखी उदू िलिप म इन
क पु तक कािशत है। देश के जाने-माने रचनाकार ह। हमारे सािहि यक उ ताद ह। बस, इतना
ही काफ़ है, वना िवषया तर हो जाएगा।
शनै: शनै: हमारी तरी शिू टंग थल क ओर बढऩे लगी। ‘यक़ न’ जी म त हो कर बाँसुरी
बजाने लगे। फ़ज़ाओं म मधु रम वर लह रयाँ घुलने लग । वािदयाँ, नौका-िवहार, सुर य
वातावरण, उस म मुरली-वादन...सब का रोम-रोम िथरकने लगा। कब हम झील के दूसरे छोर पर
पहँच गए पता ही नह लगा। हम नाव को वह खड़ी कर के शिू टंग का मुआयना करने लगे। इन
क लगभग ढाई सौ लोग क टीम थी। झील म से फ़ वारा चलने लगा, िजस से व ृ , लताओं को
िभगोयो गया। िफर एक मशीन ारा धुऐ ं के बादल बनाए गए। वाक़ई अ ली बादल लग रहे थे।
एक नाव ारा दो-तीन कैमरे झील के दूसरे छोर पर ले जाए गए। गाने क धुन बजने लगी।
डायरे टर वयं नाच कर सही जगह चुनने लगे। हवा के बड़े -बड़े पंख ारा न ली बा रश होने
लगी।
इधर एक घ टा परू ा होने म ही था। हम थोड़ी देर और-और कर के समय को टालते रहे ।
शिू टंग म काफ़ देर लग रही थी। उधर हमारा मन दुखी हो रहा था िक कैसे ठहर कुछ देर और।
तभी एक नाव म से कुछ युवक उतर कर िकनारे पर खड़े हो गए शिू टंग देखने हे तु। हम यह
आइिडया अ छा लगा। हम ने म लाह को नाव िकनारे पर ले जाने को कहा। हम लोग भी वह
उतर गए। जहाँ शिू टंग होने ही वाली थी। लेिकन अब तो वि नल भी चलो-चलो क िज़द करने
लगी। सब के पेट म चहू े कूद रहे थे। हम समझ म नह आ रहा था िक कैसे कुछ देर और रोक।
तभी आवाज़ आई िक ‘लोलो’ को बुलाओ। वि नल बोली म मी क र मा आने वाली है, लोलो उस
का ही यार का नाम है, म ने एक जगह पढ़ा था। ‘लोलो’ एक िमठाई होती है जो क र मा को
बहत पस द थी, इस िलए उस क माँ बबीता ने उस का नाम ‘लोलो’ रख िदया। हम कुछ राहत
िमली, हम ने यही कह कर इन लोग को रोक िलया। लेिकन काफ़ देर तक भी लोलो के आने
का कोई पता ही नह । पेड़ क नमी सख ू गई, धुऐ ं के बादल उड़ गए। पुन: सैट तैयार हए, धुआँ
उड़ा, बा रश हई। सैट, सेट िकया गया। डायरे टर बार-बार ‘लोलो-लोलो’ आवाज़ लगाता रहा।
तभी एक महाशय आ कर बोले िक आप के ाइवर महोदय आप को खोज रहे ह। अब तो जाना ही
होगा, कोई बहाना नह चलेगा, दो घ टे हो चुके थे। हम लोग लौटने लगे िक पंकज जी वह आते
िमले। हमारी िदली इ छा जान कर बोले दो-पाँच िमिनट म शिू टंग होने ही वाली है, देख लीिजए,
ऐसे अवसर बार-बार नह िमलते। आ...हा! हमारे मन क बात कह दी उ ह ने, हम ने उन को
ख़बू ध यवाद िदया। वह शिू टंग के कायकता भी ‘लोलो’ क ती ा म बोर हो चुके थे। उन म से
एक हम से वत: ही बोला, या हाल है मैडम। हम ने कहा िक ठीक है। िफर हम ने उन से िफ़ म
का नाम, उन के काय अनुभव सिहत कई िफ मी रोचक जानका रयाँ ा क ।
ी इ ाहीम ‘अ क’ जो अभी िफ़ मी गीतकार ह। उन से हमारी प ारा अ छी पहचान है,
उन के बारे म पछ ू ा, उ ह नमन कहलवाया था। बात यह थी िक वो लोग भी बोर हो रहे थे। इस
िलए हम से बितया कर व त पास करे रहे थे। हमारी भी यही हालत थी। वैसे शिू टंग देखने वाले
लगभग 50-60 दशक यहाँ मौजदू ह गे। शायद हमारे चहरे क सरलता देख कर उ ह ने बात क
हो, तभी क र मा जी हरी े स म हाथ म दुप ा िलए हए पधारी, इसी के साथ सारी टीम हरकत म
आ गई। यँ ू तो चटख़ धपू िखली हई थी, िफर भी र ले शन के िलए बड़ी-बड़ी ए यम ू ीिनयम शीट
लगाई हई थ । कैमरा ऑन हआ, क र मा जी ने पहले बाल पर कंघी क , िफर डे क ऑन हआ,
गाने क धुन बजने लगी। लगभग 20-25 फ़ ट तक क र मा दुप े को पकड़ कर सर के ऊपर
लहराती हई, गोल-गोल घम ू ती हई चली, शॉट ओके हो गया, पहली ही बार म, िफर उ ह ने बाल
सँवारे , आईना पकड़े हए एक यि सामने खड़ा हआ और शॉट चार बार दोहराया गया। शिू टंग
ख़ म होते ही दशक आगे बढऩे लगे, लेिकन टीम वाल ने मना कर िदया। लेिकन दशक कहाँ
मानने वाले थे। फोटो लेने के िलए कैमर के बटन दबाने शु कर िदए। लैश पर लैश चमकने
लगी। शिू टंग के व त फोटो लेना मना था, ठीक भी है, वना लैश भी िफ़ म म शटू हो जाएगी।
हम ने क र मा को यहाँ से िब कुल क़रीब से देखा। एकदम स तुिलत शरीर वाकई अ छी लग
रही थी। शॉट के बाद वह वापस अपनी गाड़ी म बने केिबन म चली गई। बाद म मालम ू पड़ा िक
भोजन के उपरा त मैडम आराम फ़मा रही थ , इस िलए िवल ब से शिू टंग हई। बात सही भी थी
और इन के नख़रे भी होते ही ह। दोन ही बात सही ह।
हाँ, िफ़ म के िलए ये लोग काफ़ महनत करते ह। 4-5 सैक ड क शिू टंग के िलए इ ह 3-
4 घ टे लगे। जबिक परू ी िफ़ म होती है लगभग ढाई घ टे क और िकतनी ही बार दशक एक
िमिनट म कह देते ह, यार िफ़ म बेकार है। सारे िकए-कराए पर एक िमनट म पानी िफर जाता है।
िफ़ म चलती ह तो करोड़ पए कमाए जाते ह, लॉप होती ह तो बबाद होने म भी देर नह
लगती, दोन ही बाते ह, ये भी यापार के उसल ू ह। अब या था, वो लोग ताम-झाम समेटने लगे।
हम तो फूले नह समा रहे थे। साहब, आिख़र शिू टंग देख ली थी हम ने। बरस क इ छा परू ी हई
थी हमारी। हम लोग कार तक आए, ितवारी जी से खाने क अनुमित ले कर वह खाना खाया जो
अपे ा से अ छा िमल गया, अ य पयटक भी वह भोजन का आन द ले रहे थे। साथ म लगी एक
मेज़ पर कई लड़के लोग बैठे थे। उन म से िकसी बात पर एक लड़का कहने लगा- यार! खाना
तो रोज़ ही खाते ह, शिू टंग तो आज ही देखने को िमली है। चिलए, हमारे िवचार का साथी कोई
तो िमला। रे ाँ ऊपर रोड से लगा हआ था। िफ़ म वाल क गािडय़ाँ नैनीताल क तरफ़ दौडऩे
लगी। हम पेमे ट कर रहे थे तभी दीनू मो रया क कार भी रवाना हई। वि नल वह रोड पर कार
के पास खड़ी थी।
भीम ताल
हम ने भी भीमताल क तरफ़ ख़ िकया। रा ते म देखते या ह िक दीनू मो रया क कार
हमारी कार के आगे-आगे चल रही है। वह कार के पीछे वाली शीट पर िवराजमान है एवं हसीन
वािदय को िनहार रहा है। वि नल ने ही हम उन क कार बताई थी। हम लोग काफ़ लेट हो चुके
थे, सो, पंकज जी उन क कार को ओवरटेक करना चाह रहे थे। ख़बू हॉन बजाया, ख़बू कोिशश
क , मगर उन के ाइवर ने साइड नह दी। साइड िमल जाती तो एक बार और सामने से देख
लेते। शिू टंग भी हम इस िलए देखना चाहते थे िक िफ़ मी िकरदार वा तिवकता म वैसे ही लगते ह
या? ये ही देखना था, सो देख िलया। क र मा काफ़ मेकअप म थी िफर भी य त: सामने थी
ही। दूसरी बात यह िक शिू टंग कैसे होती है। या वाक़ई जो िदखाते ह वह होता है या...। वाक़ई
यहाँ सब बनावटी ही था। बा रश, बादल, रोशनी सब कुछ न ली। ख़ैर इस म बुराई भी या है,
डायरे टर बा रश या बादल क ती ा करने लगे तो एक िफ़ म म ही 10-20 साल लग जाऐं
और िफर दशक को तो मनोरं जन चािहए ढाई घ टे का। वैसे भी सब कुछ का पिनक ही होता है।
पद पर हम सब कुछ ख़बू सरू त देखना चाहते ह, वैसा ही िदखाया भी जाता है। अ ल से भी बहतर
और या चािहए 20-25 पए म। अ तत: हम साइड िमल ही गई, एक मोड़ पर उन क गाड़ी
नैनीताल क ओर मुड़ी एवं हमारी गाड़ी भीमताल क ओर। शायद, साइड इस िलए नह दी गई
होगी िक कोई उन क गाड़ी के आगे आ कर रा ता रोक द। कुछ ऐसा ही रहा होगा, जैसा हम
सोचते ह। कुछ गड़बड़ करने लग जाए या बदतमीज़ी पर उतर आए। दीनू जी के साथ मा एक
पु ष और बैठे थे। लोग का कोई भरोसा भी नह है। वैसे ही जनता इन के पीछे पागल होती है,
कई बार अदाकार के साथ ऐसी वारदात होती भी रही ह। अत: फँ ू क-फँ ू क कर क़दम रखने पड़ते
ह। कहने का ता पय है िक अगर पीछे क गाड़ी म ग़लत लोग ह तो कुछ भी कर सकते ह। यह
बात हम के.पी.जी ने बताई जो हम सही भी लगी। ऐसे मुआमल म इन के िवचार का जवाब नह ।
िकसी पर आसानी से िव ास नह करना, ज़ रत से यादा सावधानी बरतना, इन का िस ा त
है, जो वतमान समय म ज़ री भी है।
अभी िजस सात ताल से हम घमू कर आ रहे ह, वह नैनीताल से 21 िकमी. मीटर दूर है,
सागर तल से 1371 मी. ऊँचाई पर है। उ लेखनीय है िक यहाँ अमे रका के िमशनरी रे वारे ड
टानले जॉ स का आ म है, िजस का नाम भी सातताल आ म है। हाँ, इस ताल क ल बाई 990
मीटर, चौड़ाई 315 मीटर व गहराई 150 मीटर है। टानले जॉ स ने यहाँ आ म इसी िलए तो
बनवाया है िक उ ह यह थान बहत ि य लगा। इस क नैसिगक छटा पर वे मोिहत हो गए।
जैसे ही हम भीमताल पहँचे शाम गहराने लगी। अत: अिधक देर नह ठहर सके। वाह! यह
ताल भी बेहद मनोरम िनकला। पहाड़ी क सु दर तलहटी म सुशोिभत, पहाड़ी भी िवशाल व
काफ़ ऊँची है। दूसरी तरफ खुला हआ था, साथ ही के म ख़बू सरू त टापू िजस म यारा-सा
उ ान अपनी उपि थित दज करवा रहा है। इस लासानी मंज़र को हम देखते रह गए। नैनीताल
का सब से बड़ा ताल भीमताल, भीमाकार होने के कारण ही शायद इसे यह नाम िदया गया होगा।
हम तो यह इतना िदलकश लगा िक काश! श द म बयाँ कर पाते। जल पर तैरती िततिलय -सी
नौकाऐं इस सौ दय म चार चाँद लगा रही थ । नौका िवहार का मन तो बहत हआ मगर
हनुमानगढ़ भी जाना था, ‘सनसेट’ के देखने के िलए और ‘सनसेट’ तो सनसेट के समय ही
देख सकते ह। आज हम ‘नकुिचया ताल’ भी जाना था, मगर शिू टंग म िवल ब हो जाने के कारण
इसे छोड़ना पड़ा।
भीमताल भी 1371 मीटर क ऊँचाई पर ही है। इस क ल बाई 265 मीटर, चौड़ाई 175 मीटर
तथा गहराई लगभग 15-20 मीटर बताई जाती है। नैनीताल से इस क दूरी 22.5 िकमी. है।
नैनीताल क तरह ही इस के भी त लीताल व भ लीताल दो कोने ह। टापू सुर य िपकिनक थल
है। वहाँ पर अ छे रे ाँ है। वैसे ही इस ताल का स ब ध महाभारत के भीम से भी जोड़ा जाता है।
भीम ने ही ज़मीन खोद कर इस क उ पि क थी। ऐसा कहा जाता है। ोपदी क यास बुझाने
के िलये भीम ने गदा से हार िकया और जल ोत फूट पड़ा, वह यह झील बनी। वा तिवकता तो
ई र जाने। भीमे र मि दर भी यहाँ है िजसे या तो भीम ने बनवाया होगा या उस क मिृ त म
बनाया गया होगा, दोन ही िकंवदि तयाँ चिलत ह। इस लेक म मछली के िशकार क य था भी
है। कुछ नहर भी इस म से िनकाली गई ह। िजन से िसंचाई होती है। यहाँ पर टेलीिवज़न का
कारख़ाना भी है। इस क एक धारा ‘ वाला’ नदी म भी िमलती बताई है। हाँ, भीमे र मि दर
महादेव जी का मि दर है। जब हम इस ताल का अवलोकन कर रहे थे, तब वह खड़े कुछ युवक
पर पर वातालाप कर रहे थे िक कल नैनीताल के एक मि दर म शिू टंग होगी। वैसे जहाँ तक
शिू टंग का सवाल है, परू ा नैनीताल ही इस के िलए सु दर थल है।
धूप गढ़
वही सु दर लहराती हई वािदयाँ, रा त व गगन चु बी व ृ ाविलय का लु फ़ उठाते हए हम
पहँचे हनुमानगढ़, जहाँ पहले से ही सैलािनय का ताँता लगा हआ था। अभी सय ू ा त होने का
व त था। ितवारी जी बड़ी तेज़ गित से कार चला कर लाए थे। पहले हम ने संकट मोचन हनुमान
जी के दशन िकए। मि दर भी सु दर व ितमा भी आकषक। उन का मुकुट देखते ही बनता था,
बड़ी सु दर कला मक व िवशाल ितमा। इतना यारा मुकुट हनुमान जी का पहली बार देख रहे
थे। सद काफ़ बढ़ गई थी। के.पी. जी व ‘यक़ न’ साहब ने तो ऊनी कपड़े पहने हए थे। मि दर के
प रसर म इधर-उधर घम ू े, अ छा तो लग रहा था, मगर फ़श इतना ठ डा िक पैर नह रखे जा रहे
थे, जैसे िक बफ़ ही हो। अ दर तक िसहर गए हम चार । हम ने प डे जी से कारण पछ ू ा तो बोले,
यहाँ के सद वातावरण का असर है। सद म तो यहाँ बफ़ ही बफ़ हो जाती है, िजसे हटा-हटा कर
हम लोग परे शान हो जाते ह, अभी तो सद ही या है? हाँ, सीिढय़ पर ज र मेट िबछी हई थी,
तािक दशनािथय के पैर ठ ड से बच सक। यहाँ फुलवारी भी बड़ी यारी थी। गदा तो चटख रं ग
म िखला हआ था।
त ली ताल
हम लोग भी अब नैनीताल क तरफ़ हो िलए। थोड़ा नीचे उतर ही रहे थे िक पंकज जी ऊपर
से ही इशारा करते हए बोले िक घाटी म जो मि दर िदखाई दे रहा है, वह नैना देवी का है, अभी
जाते समय दशन कर लीिजएगा। तभी पहाड़ी मोड़ पर अचानक एक कार सामने आ गई,
‘यक़ न’ जी का हाथ टीय रं ग पर दौड़ा और पंकज जी ने ेक लगाया, एकदम ज़ोर का झटका
लगा, गाड़ी थम गई। यह सब एक सैक ड से भी कम समय म हआ होगा। हम लोग को सारी
ि थित बाद म समझ आई, हमारे रोम-रोम खड़े हो गए। बाल-बाल बचे, जान बची लाख पाए।
हआ यह िक ितवारी जी मि दर िदखाने म लग गए और कार सड़क के बीच म थी ही, उन का
यान नीचे मि दर पर था, उसी ण सामने मोड़ से अचानक दूसरी कार आ गई, जो अपनी
साइड पर थी। हमारी कार ही बीच म थी, न जाने िकस क दुआऐं काम आई ं, ई र क कृपा हई,
उस क मन से हाथ जोड़ कर दया वीकार क । पंकज जी भी घबरा से गए। वो तो ‘यक़ न’
साहब को कार चलाना खबू आता है, वे ाइवर के पास ही बैठे थे, सो ि वक िनणय ले िलया।
वाक़ई ाइिवंग के समय केवल और केवल यान गाड़ी पर ही होना चािहए। िफर पहाड़ी रा त पर
तो िवशेष कर, इसी िलए तो हर मोड़ पर सावधानी बरतने के िलए िनदश लगे हए होते ह।
यहाँ से वापस होटल आते समय हम एक बार िफर ‘अिभषेक ेव स’ से िमले, यह होटेल क
बग़ल म ही था। हम ने उस से खरा-खरा कर पछ ू ा िक बस अ छी होगी ना, तो बोला आप को
कोई िशकायत नह होगी। बस ि सीटस होगी। पुश बैक वाली बस तो परू े नैनीताल म नह है,
पहाड़ पर ऐसी बस सटू ेबल नह रहत । जब िक 10 िमिनट पहले ही ‘िहना’ वाले से टू शीटस पुश
बेक क बात हई है। जो सच थी, य िक अगले मण के दौरान कई थल पर उस क बस हम
ने देखी थ । लगभग 15 िमिनट काफ़ बहस हई, लेिकन प रणाम वही- ‘ढाक के तीन पात’। ये
लोग ाहक को बेवकूफ़ बनाने के िसवा करते भी या ह। बहत सफ़ाई से पयटक को परे शान
करना इन क आदत म शुमार हो चुका है। अब या था, अपने कमरे म लौट आए। अ मोड़ा,
रानीखेत व कोसानी यि गत प से जाना चाहते थे, मगर लािनंग नह कर पाए। इधर इन
दोन महानुभाव को यानी के.पी. जी एवं ‘यक़ न’ साहब क तो िज़यादा िच है ही नह िकसी
बात म। हम ने वह वातायन म बैठ कर स ,ू मँगू फली व कुछ िबि कट खाए, िज ह हम कोटा से
ले गए थे। वाक़ई घर से कुछ खाने क चीज़ ज़ र साथ रख लेनी चािहए। बाहर वास म ये बहत
काम आती ह। ज़ री नह िक व त पर वहाँ अपनी पस द का खाना िमल जाए। स भव है उस
व त हम बस या ेन म ह । पुराने लोग का तो यह उसल ू रहा है िक जब भी घर से िनकलो,
खाना साथ ले कर ही िनकलो। वे लोग तो ल बी या ाओं पर िड बे भर-भर कर स ,ू शकरपारे ,
बफ़ आिद ले जाया करते थे। हमारी दादी भी या ा पर जाते समय ये सब चीज़ ले जाया करती थ ।
यह बात अलग है िक कुछ लोग तो खाना बनाने के सारे सामान भी साथ ले कर चलते ह। तािक
बाहर के भोजन क ख़रािबय से बच सक।
ती ा बड़ी भारी पड़ रही थी, कभी इधर-उधर टहलते, कभी अटैची पर बैठते, वि नल भी
काफ़ परे शान हो रही थी। व त के साथ-साथ हमारा ग़ु सा भी बढऩे लगा। हमारे िसवा सारे
पयटक बंगाली ही थे। बस य नह आ रही, सब अपनी-अटकल लगाने लगे, कुछ को थोड़ा-
बहत ग़ु सा भी आ रहा था। लगभग 12 बजे बस महारानी पधार जो िस पल रोडवेज़ जैसी थी।
इसे देखते ही हम सब का पारा और चढ़ गया, ऊपर से ढाई घ टा लेट। बारह बजे तो अ मोड़ा
पहँचना था। सब चुपचाप चढ़ गए। हम चार क ड टर से उलझते रहे , य िक मािलक तो
चुपचाप सटक िलया था। क ड टर को हम से 550 पए लेने शेष थे। हम ने कहा िक ढाई घ टे
के पैसे कम कर लो या कोसानी म ले लेना, लेिकन उसे िव ास नह हआ, बोला- गाड़ी म पै ोल
नह है, कैसे जाएगी। उस ने सारे याि य को अपनी तरफ़ कर िलया। एक-दो जो हमारी तरफ़ थे
यानी याय क ओर, वो भी उन क ओर हो िलए। काफ़ कहा सुनी हई। बोला िक आप लोग उतर
जाओ। हम भी तैयार थे, य िक ऐसी बस से, ऐसे हालात म हम नह जाना चाह रहे थे। िकसी
दूसरी बस से चले जाऐंगे, मगर वो पैसे भी नह लौटा रहा था। उसे हम पर िव ास नह था,
लेिकन हम उन पर यक़ न कर। सारे या ी हम से ही उलझने लगे। आिख़र हमेशा क तरह सच
क ही हार हई, अ याय जीता और हम 550 पए देने पड़े तभी बस रवाना हई। वैसे हम, सभी के
िलए लड़ रहे थे िक सब को ढाई घ टे के पैसे लौटाए जाऐं, मगर सब हमारे ही िख़लाफ़ रहे ।
शायद यही दुिनया का द तरू है। हम ही शोषण सहते ह, तभी शोषण िकया जाता है। यही
ासदी है िक अ याय के िव बोलने का साहस िवरले लोग म ही होता है। इसी बात पर
‘यक़ न’ जी का शेर याद आ गया-
हम परू े तीन घ टे िवल ब से रवाना हो रहे थे। रा ते म हम जाते देख कर िहना वाला बोला
भी था िक आप क बस अभी नह गई या। वैसे भी पैसे देने के बाद आप कुछ कर ही नह सकते,
उस के हवाले वयं को करने के िसवा। इसी िलए कह भी पैसे देने के पहले सौ बार सोच लेना
चािहए, िफर भी ग़लती हो जाती है, मानव वभाव जो है, ऐसा भी होता रहता है, जीवन है यह
जीवन। हाँ, इस तमाम घटनाच से हम बहत कुछ सीखने को ज़ र िमला, ये ख े-मीठे अनुभव
ही तो हमारी अ ल िश ा होती है, यिद हम इन पर ईमानदारी से अमल कर तो। घर से बाहर
िनकल कर ही तो यह सब सीखा जा सकता है।
अ मोड़ा क ओर
अब हमारी बस रवाना होती है। लेिकन यह या... इतनी तेज र तार और रफ़ ाइिवंग, एक
तरफ़ घुमावदार रा ता और दूसरी तरफ खाईयाँ, डर-सा लगने लगा। देर हो गई वो तो ठीक है,
मगर उस क हड़बड़ाहट म तेज़ गाड़ी चलाना, यह तो ‘चोरी और सीनाज़ोरी’ हो गई। िवल ब का
एक यह भी नकारा मक पहलू बन जाता है। आिख़रकार हम ने सब याि य से कहा िक इस
मुआमले म तो एक हो जाओ और ाइवर से गाड़ी धीरे चलाने को कहो। डर सभी रहे थे, बोलने भी
लगे। के.पी. जी ाइवर के पास गए एवं धीमे चलाने को कह कर आए। तब वो गाड़ी ढं ग से
चलाने लगा और सब क जान म जान आई। अब तक हम नैनीताल पार कर चुके होते ह। हमारे
चार ओर चीड़ ही चीड़ के घने वन फै ले हए ह। गगन का चु बन करते ये वन, चटख़ ह रयाली,
झर-झर झरते झरने, बहते झरने, इठलाते झरने, वाह री क़ुदरत, यही तो है वो विगक वैभव
िजस के िलए आदमी तरसता है, जो उस के आस-पास ही िबखरा पड़ा है। बहत ख़बू सरू त है यह
रा ता। चटख़ धपू क िकरण पि य पर िगर कर िबजली-सी पैदा कर रही ह। नज़र हटाए नह
हटती ह, ऐसा लगा िक इन नज़ार को आँख म भर ल। थोड़ी देर बाद बस पै ोल प प पर ठहरती
है। हम नीचे उतरते ह। चार और िबखरे हए सौ दय को देख कर अिभभत ू हो उठते ह। य नह
सुिम ान दन प त कृित के सुकुमार किव कहलाऐं, िजन का ज म ही इस के बीच हआ है। इस
सुषुमा को देख कर तो प थर से भी किवता फूट सकती है। यहाँ का तो कण-कण अपने आप म
ही का य से कम नह है। यह वैभव उतना ही अिभभत ू करता है िजतनी िक सरस किवता स दय
को ग द करती है। कृित तो वयं म ही महाका य या परमका य है। वैसे भी कृित और पु ष
अिखल ा ड के जनक ह। तीन घ टे िवल ब हो जाने के कारण गरम पानी, कची आिद दो
तीन वॉइंट जो रा ते म िदखाने थे, नह िदखाए गए। यह आ ासन िदया िक लौटते म िदखाएं गे,
जो मा आ ासन ही रह गया। हाँ, लौटते म ‘कची’ ज़ र िदखाया गया।
कुछ आगे चले िक एक नदी िमली, जल इतना पारदश व िनमल िक काँच भी या चीज़ है,
उस के आगे। इसी िलए व छ पानी के िलए ‘काँच का टूक’ मुहावरा चिलत है। इस नदी क
धारा के प के तो अ दाज़ ही िनराले िनकले, कह नाियका क ीण-किट सी तो कह उस क
गदराई देह-सी तो कह -कह कई धाराओं म अपनी शोिख़याँ िदखाती, खबू मन बहलाया इस ने
हम लोग का, वरना तो उस िदन हमारे मन क घबराहट हम रा ते म उतरने को बा य कर देती।
हआ यँ ू िक बस के रवाना होने के थोड़ी देर बाद ही वि नल का और हमारा जी बुरी तरह घबराने
लगा, कुछ समझ म नह आ रहा था या कर? ऐसा हम दोन के साथ पहली बार हआ था।
वि नल को हम ने िखड़क क तरफ़ बैठाया, यान बँटाने का मशिवरा भी िदया, उस क
घबराहट से हम और भी परे शान होने लगे। हम भी इधर-उधर कभी पहाड़ को तो कभी नदी को
देख-देख कर यान बँटाते रहे , कभी इधर बैठते कभी उधर। वि नल काफ़ छटपटा रही थी, तभी
‘यक़ न’ साहब ने बैग म से मौसमी छील कर िखलाई, के.पी. जी ने एक गोली भी चस ू ने को दी।
िखड़क के बाहर मँुह िनकाल-िनकाल कर ताज़ा हवा का सेवन भी करते रहे । मौसमी का लेवर
मँुह पर भी लगाते रहे । धीरे -धीरे घबराहट कुछ कम हई। तब ात हआ िक यही हाल ‘यक़ न’ जी
का भी हो रहा था, मगर उ ह ने ज़ािहर नह िकया तािक हम िच ता न कर। कुछ घबराहट के.पी.
जी को भी हो रही थी। यही अ तर है मिहला और पु ष म। मिहलाऐं बिहमुखी होती ह, तुर त
हाय-तौबा मचा देती है, बेचारे पु ष सब कुछ चुपचाप सहन करते रहते ह, इसी िलए नारी को
नदी व पु ष को सागर क सं ा से अिभहीत िकया गया है। मिहलाएँ सब कुछ उगल देती ह, इस
िलए ह क -फु क होती ह, इसी उ मु ता रहने के कारण अिधक जीती ह। इसी स दभ म ‘होती
ह मिहलाऐं बातन ू ी’ हम ने किवता भी िलखी है, जो अभी-अभी हमारे ‘िकतनी बार कहा है तुम से’
सं ह म कािशत हई है। उस िदन तो हम ने िबना हाथ धोए ही मौसमी खा ली। हम कुछ नह
सझ ू ा, वाक़ई ‘आपातकाले मयादा नाि त’।
वो तो भला हो उस ख़बू सरू ती का, नैसिगक सुषमा का जो मन लगाए रही, वरना बीच म
उतरना पड़ता। मौसमी से काफ़ राहत िमल गई। कुछ िदन पवू हम ने पढ़ा था िक सफ़र म नीबू
का सेवन करने से जी नह घबराता, आज अनुभव भी हो गया। हम चार ने यही िन कष िनकाला
िक हम लोग ने बस म ोध िकया था, उसी का प रणाम है यह। ोध से शरीर म िवषैले पदाथ
का ाव होता है, ज़ र ऐसा ही हआ होगा। य िक अभी तक िजतनी भी या ाऐं क ह, उन म
कभी न तो जी घबराया, न ही उ टी हई। अमम
ू न ऐसा होता रहता तो अलग बात थी। भई, हम ने
तो इस घटना से यही सीख ली िक ोध करने से केवल वयं का ही नु सान होता है। सामने
वाले का कुछ नह िबगड़ता, य िक अिधकांशत: दुिनया वाले प थर िदल हो चुके ह और िफर
ग़ु सा करने से हम हािसल या हआ? अरे , एक शेर याद आ रहा है, इजाज़त हो तो िख़दमत म
पेश कर, अजऱ् िकया है-
अब कुछ देर त ऱीह करते ह। वह बाज़ार म एक दूकान से बाल िमठाई ख़रीदी। यह चॉकलेट
व मावे क बनी हई लगी, िजस पर साबदू ाने जैसे सफेद श कर के दाने चार तरफ़ िचपके हए थे।
खाने म अ छी भी लगी। वैसे यह िमठाई नैनीताल म भी िमल रही थी, मगर वहाँ भी यही बताया
गया था िक अ मोड़ा म अ छी िमलती है। कुछ कलाक द भी िलया वो भी अ छा िनकला। इस
शॉप पर दो मिहलाऐं बैठी हई थ । पहाड़ी मिहलाऐं काफ़ महनती होती ही ह। दूकान पर बैठना तो
उन के िलए छोटा-मोटा काम है। मिहलाऐं या, वहाँ के सभी िनवासी कड़े म से ही अपनी
आजीिवका चलाते ह। इन म शह रय जैसी चालाक िबलकुल नह होती। जीवन एकदम अलम त
व िनि त, य न हो, शहर क चकाच ध व िम या सुख-सुिवधाओं से कोस दूर ह ये लोग।
केवल कृित ही इन क पालक व सहचरी है, इस िलए उस क ही तरह सरल व भोले ह ये। जीवन
का सही आन द ये ही भोग रहे ह। ख़ैर, हमारी े स देख कर हम से पछ ू ा िक आप राज थान से
आए ह। हम ने हाँ म िसर िहला िदया। िफर पछ ू ती ह वहाँ तो काफ़ गम पड़ती है ना। हम ने कहा
हाँ, बहत गम है, तभी तो हम यहाँ कुछ िदन के िलए ठ डक के अहसास के िलए आए ह, िफर
पछू ा आप को तो यहाँ सद लगती होगी। हम ने कहा नह ...। बि क यहाँ तो मौसम बड़ा सुहाना
लग रहा है, बहत ही यारा। हम मन ही मन सोचने लगे, िकतनी भा यशाली ह ये ललनाएँ , जो
पवत म रहती ह। वैसे एक बात बताऐं, नैनीताल, अ मोड़ा आिद शहर म पहाड़ी रहन-सहन,
पोशाक आिद कम ही देखने को िमल । यहाँ पर नगरीय सं कृित परू ी तरह हावी है। हाँ, आसपास
के ामीण इला क़ म ज़ र पहाड़ी सं कृित के दशन हए। मनाली म ज़ र परू ी तरह पवतीय
सं कृित रची-बसी हई है। वहाँ के बारे म जैसा पु तक म पढ़ा था, वैसा ही दशनीय था। उन के
घर, उन के प रधान, मिहलाओं के काफ, पु ष के सर क टोिपयाँ, कुल िमला कर स पण ू प
से आ चिलक रहन-सहन। शायद इसी िलए िक वह शहर नह अिपतु ामीण अ चल है।
इधर के.पी.जी. बोले भई, एक घ टा हो चुका है, चलो भी वरना बस छोड़ जाएगी। हम सब
बस के पास आ कर खड़े हो गए। लगभग प ह िमिनट के बाद बस रवाना हई। चिलए, बस म
चलते-चलते अ मोड़ा क कुछ और बात हो जाऐं। अ मोड़ा जो सागर-तल से 1646 मीटर ऊँचा है
और 11.9 वग िकलोमीटर के े म िव तार पाता है। अ य पवतीय नगर क ही भाँित यह
पहाड़ एवं घािटय म रचा-बसा है। सच पछ ू ा जाए तो अ मोड़ा कुमाऊँनी सं कृित का मुख के
है। इस सं कृित के गीत , न ृ य व अ य रीित- रवाज क महक है, यहाँ के कण-कण म। वेष-
भषू ा हो या कुमाऊँनी भाषा या अ य पर परा, सब का सफल िनवाह यहाँ देखा जा सकता है।
पहाड़ी, भोजन बाल िमठाई का वाद भी यहाँ ले सकते ह आप, लेिकन इस का अथ यह कदािप
नह िक यहाँ से आधुिनकता कोस दूर है। परप परा एवं आधुिनकता के रं ग म बराबर भीगा है
यह नगर।
‘‘छोड़ ुम क छाया
तोड़ कृित से भी माया
बाले! तेरे बाल-जाल म कै से उलझा दूँ लोचन...।’’
कौसानी
तो, जनाब हम बाल िमठाई व कलाक द का वाद लेते-लेते बस तक पहँचे, कुछ देर बाद
सभी सहया ी आ गए और लगभग तीन बजे हमारी बस रवाना हई। मौसम भी सुहाना और सफ़र
भी सुहाना, साथ म कोसी नदी क अठखेिलयाँ और या चािहए सफ़र म? ये नदी भी बड़ी
नटखट िनकली, कभी एकदम भिू मगत हो जाती तो कभी एकदम अवत रत हो कर च का देती,
लुभाने लगती। आगे चल कर पहाड़ी क सघनता कम होती गई, पठार आ गए और तापमान कुछ
बढऩे लगा। गम का अहसास होने लगा। ये तो होना ही था। सद तो पहाड़ क म बानी है और
ऊँचाई क । एक डे ढ़ घ टे बाद बस एक यस ू क दुकान पर क जहाँ िनता त एका त जंगल
एवं ख़ामोशी का सा ा य था। आ य भी हआ इस अकेली अदद दूकान को देख कर, लेिकन
पहाड़ी रा त म वैसे ऐसी कई त हा दूकान िमल जाती ह। यह बस मािलक के मामा ी क
दूकान थी, बस ठहरने का तो ये भी एक राज़ था जो बाद म समझ आया। दूकान म ु ट, यस ू व
कुछ पहाड़ी फल से बनी हई कुछ व तुएँ थ , जो दवा का काम भी करती थ । हमारे सभी बंगाली
बाबू तो इन चीज़ पर टूट पड़े । हम लोग बाहर िनकले और पहाड़ी हवा का सेवन कर के ही दवा
का काम चला िलया। य िक शु हवा से े दवा कोई होती भी नह । लगभग आधे घ टे बाद
हम लोग रवाना हए और पाँच बजे क़रीब मंिजल ़ के दीदार हए। ‘कौसानी’ िजस के दीदार करने
के िलए मन कब से आतुर हो रहा था। इस के सौ दय के बारे म इतना कुछ पढ़ चुके थे िक
िज ासा होना वाभािवक था ही। बस जहाँ आ कर क वह िहमालय पीत दुशाला ओढ़े
वागतातुर खड़ा था। शायद बफ़ के कारण उसे भी सद लग रही होगी, सो शाम होते ही पीला
दुशाला ओढ़ िलया होगा। सय ू ा त तो पहाड़ पर वैसे भी ज दी हो जाता है, य िक ऊँचे-ऊँचे
पवत उसे अपनी आग़ोश म समेट लेते ह। इधर महीना अ टूबर का, िजस म मैदान म भी सय ू ा त
ज दी हो जाता है।
अब तक अँधेरा हो चुका है। हम कमरे से बाहर आते ह व ताला लगा कर गाँधी बाबा का
आ म देखने के िलए चल पड़ते ह। हमारे साथ लखनऊ से आई च दा व उस के पित भी ह। इन
दोन से नैनीताल म बस क ती ा के दौरान कुछ पहचान हो गई थी। हम लोग पहाड़ी रा त
पर चढ़ते-उतरते मैन रोड तक पहँचते ह। रा ते म पर पर बात व ख़बू हँसी-मज़ाक़ होता है।
च दा एम. एससी. क टूडे ट है, देखने म ख़बू सरू त है, गौर वण, क़द ठीक-ठाक है।
मेकअप करने पर तो और आकषक हो जाती है। उस के पित िबज़नेस मैन ह, इसी िलए उ ह घर
जाने क ज दी है, लेिकन च दा काफ़ नाराज़ है, इस बात को ले कर। उन के पित महोदय को
भी है डसम कह सकते ह, पर तु च दा उन के मुक़ाबले अिधक ख़बू सरू त व माट है। वैसे भी
भारतीय समाज म नारी क सु दरता व पु ष का यवसाय देख कर ही िववाह करने क कोिशश
क जाती है। च दा के आकषण का के उस का है दी होने के साथ-साथ, उस का गोल-मटोल
भरा हआ चहरा भी है। साथ ही हास-प रहास म भी वह वीण है, कहते ह िक हास वह चु बक य
शि है, िजस से सभी लोग वत: ही िखंचे चले आते ह। इसे हम छूत क बीमारी भी कह सकते
ह। बीच-बीच म हम लोग शैरो-शाइरी भी सुना रहे थे, य िक शाइर भला अपनी बात म अपने
शैर नह सुनाए, यह हो सकता है या? जब हमारे व ‘यक़ न’ साहब के शाइर होने का पता
च दा व उस के पित को चला तो उ ह बड़ा आ य भी हआ व ख़ुशी भी। य िक आज भी आम
लोग क नज़र म किव या सािह यकार बहत बड़ी ह ती मानी जाती है। उ ह ऐसा लगता है िक
कोई शाइर उन के साथ चल रहा है, इस बात से वो वयं को गौरवाि वत मानने लगते ह। उन
दोन क फ़माइश पर हम लोग ने कुछ शेर सुनाए।
वहाँ से तलहटी म बसे क़ ब , िजन म वै नाथ भी शािमल है, तार क तरह िझलिमला रहे
थे, जैसे आकाश के सारे िसतारे ज़म पर आ कर यहाँ िबखर गए ह । बहत ख़बू । सद परू े यौवन
पर थी ही। च दा मेमसाहब को फोटो ख चना था, लेिकन ाथना होने के कारण िहचिकचा रही
थी। कुछ देर बाद ाथना समा हई और लोग चले गए तब वहाँ के बाबा के साथ आ म का फोटो
िलया तब जा कर उसे चैन आया। वाक़ई, बड़ी शौक़ न लड़क है। हम ने तो बाहर बोड पर लगी
जानकारी ज र नोट क । इस से ज़ािहर है िक महा मा गाँधी ने कौसानी क यटू ी पर मु ध हो
कर बारह िदन तक इसी अनासि योग आ म म िनवास िकया था तथा गीता का ‘अनािस
योग अ याय’ क रचना भी यह क थी। यह बात 1929ई. क है। गाँधी जी ने ही कौसानी क
तुलना ि वटज़र लै ड से क थी एवं ‘यंग इि डया’ म लेख के मा यम से यहाँ के नैसिगक,
अलौिकक सौ दय को ितपािदत कर के देशी-िवदेशी पयटक का यानाकिषत िकया था एवं
िव -मानिच पर कौसानी का मह व िदपिदपा उठा था। इस म कोई स देह भी कहाँ है िक
कौसानी ि वटज़र लै ड से कह उ नीस नह है। सद म जब यह परू ा इलाक़ा दु ध-धवल बफानी
दुशाला ओढ़ लेता है, तब इस का सौ दय अ ितम हो उठता है।
जानकारी नोट कर के हम वह कुछ देर टहलते रहे । छोटा-सा, सु दर-सा गाडन था, िजस म
बड़े -बड़े सु दर पु प िखले हए थे। वह कुछ दुकान भी चमचमा रही थ , िजन म ह त-िश प क
व तुऐ ं बेची जा रही थ । हम वापस उसी अँधेरे रा ते से नीचे उतरे , बड़े स भल-स भल कर।
वि नल का हाथ हम ने थाम रखा था। कुछ नीचे आने पर रोशनी के दशन हए वह आलीशान
होटेल भी िदखाई िदया। मालम ू पड़ा िक दाम भी आलीशान ह।
अब रोशनी िमल जाने से हम लोग को काफ़ राहत िमल गई थी। होटेल को देख कर अपने
होटेल क बात चल पड़ी। च दा कब चुप रहने वाली थी। शाम क चाय पर िट पणी करती हई
बोली िक चाय इतनी बेकार थी िक पी ही नह गई और बंगाली बाबू तो ऐसे टूट पड़े थे िक जैसे
उ ह ऐसी चाय कभी िमली ही नह हो। हम ने उसे टोकते हए कहा िक इतनी थकान के बाद चाय
िमली, इस िलए इतने शौक़ से पी रहे ह गे, जैसी िमलेगी, वैसी ही तो िपऐंगे। हम बीच म ही टोकते
हए अपनी बात जारी रखते हए बड़े ह के-फु के मड ू म बोली िक सुबह सब को नहाने के िलए
एक-एक गम पानी क बा टी िमलेगी, ज़ािहर है क़तार लगेगी ही और बंगाली लोग ही सब से
आगे ह गे और अपना न बर आते-आते तो स भव है, पानी ही ख़ म हो जाए और मालम ू पड़े िक
लोग हम िबना नहाए ही रहे गए। सच तो यह है िक टूअर वाल क यव था व चीिटंग से वह भी
काफ़ परे शान थी। अ मोड़ा म भी इ ह ने हम लोग को एक वॉइ ट नह िदखाया था। तब भी
अपने पित से नाराज़ होते हए बोली थी िक जब लोग पछू गे िक अ मोड़ा म या- या देखा तब
या जवाब दगे, बताइए। उस का यह तक हम भी अ छा लगा। अ मोड़ा जैसी सु दर जगह से आप
खाली हाथ आ जाऐं तो पीड़ा तो होगी ही। या हम केवल प र मा करने आए ह? िज़यादा नह
तो एक-दो थान तो िदखा ही सकते थे। भला इतनी दूर कोई बार-बार आता है? िकतनी मुि कल
से योग बनता है, घर से बाहर िनकलने का। हम वयं दो बार रज़वशन किसल करवा चुके थे,
लेिकन ‘अब पछताए होत या’।
ख़ैर, म के ताला लगा कर हम तीन िहमालय दशन के िलए चल पड़े । जैसे ही हम गाइड
महोदय ारा बताए थान पर पहँचे, वहाँ पहले से ही बहत-से लोग जमा हो चुके थे। िजन क
आँख म आतुर िज ासा साफ़ िदखाई दे रही थी। सय ू भगवान के उदय होने का इतनी बेस ी से
इ तज़ार कुछ ही थान पर होता है। वरना िकसे फ़ुसत है िक उन के आने-जाने क बाट िनहारे ।
सब व त व थान िवशेष क बात ह। हम ने पहाड़ी पर अपना मुक़ाम बनाया व खड़े हो गए
ि ितज क ओर टकटक लगा कर, लगभग सब के हाथ म कैमरे थे, लेिकन हम लोग होटेल से
लाना भल ू गए थे। सरू ज भगवान ने दशन देने के िलए काफ़ ती ा करवाई, सो इन घिडय़ को
हम लोग ने कॉफ़ क चुि कय के साथ बाँटा। कुछ देर म िहमा छािदत पहाड़ी के िशखर पर
नारं गी-सी गोल-गोल आभा िदखाई देने लगी और सब क नज़र िहमालय पर िटक गई ं। ऐसा
अनुमान हो रहा था मानो गोला सय ू नह सरू ज का ितिब ब हो। देखते ही देखते, धीरे -धीरे शैल
िशखर को पीताभा चम ू ने लगी। ेत-धवल िहम नारं गी रं ग म नहाने लगी। एकदम अ ुत य।
ऐसा लगने लगा मानो शैल-िशखर पर नारं गी गोटा लगाया जा रहा हो। धड़ाधड़ कैमर क लैश
ऑन होने लगी। एक के बाद एक शैल, वण जिडत ़ मुकुट धारण करते जा रहे थे, िज ह हम
अपलक िनहारते रहे । सारा बफ़ पीली चादर ओढ़ चुका था, मगर सरू ज देव कह नज़र नह आ रहे
थे, य िक अ टूबर होने के कारण सय ू देव सीधे पवू म उदय नह हो कर थोड़े -थोड़े दि ण क
तरफ़ बढऩे लगे थे। यिद हम मई-जन ू म यहाँ आते तो सय ू पहाड़ी के पीछे से कट होते हए ज़ र
िदखाई देते। सारा य सामने यँ ू था िक दौड़ कर बाह म भर लो। लगभग आधे घ टे तक सैलानी
इस अलौिकक य को देखते रहे । इस के बाद शनै: शनै: िखसकने लगे।
बैजनाथ
हम लोग ना ता कर के बाहर लॉन म आए वहाँ गाइड महोदय मु कुरा कर हाल पछू ने लगे।
य िक हमारी नाराज़ी उन पर ज़ािहर थी। हम ने उन से आगे के काय म क जानकारी ली व
िनवेदन िकया िक आप अपनी ओर से कुछ थल और िदखला द तो महरबानी होगी। वैसे भी अब
तो सब-कुछ आप लोग के हाथ म ही है। उ ह ने हमारे सामने नैनीताल गाड़ी मािलक से बात
क , या बात हई यह तो पता नह , मगर हई मण स ब धी ही थी, फोन रख कर वो बोले िक
उ ह ने जो िनदश िदए ह, वही हम िदखा सकते ह, हम ने सोचा ठीक भी तो है, उ ह तो मािलक
क नौकरी करनी है। पयटक तो रोज़ ही आते रहते ह। इस के बाद सामान क पैिकंग कर के
हम लोग लगभग 10 बजे बैजनाथ के िलए रवाना हए। आज च दा ने साड़ी पहनी थी व ख़बू
मेकअप भी िकया हआ था। आज तो वह अलग ही लग रही थी। बहत ख़बू सरू त...। साड़ी म कुछ
िज़यादा ही जम रही थी। कहते भी ह िक नारी साड़ी म िज़यादा ही सु दर िदखती है। वैसे हमारा
मानना कुछ अलग है, वो ये िक सु दरता अ दर से फूटती है। मन िनमल है तो काला-कलटू ा
श स भी अ छा लगने लगता है। ई र को भी तो िनमल- दय ही भाते ह। बाबा तुलसी दास जी
कह तो गए-
जहाँ तक कौसानी का सवाल है, इस के नाम का सवाल है, इितहासानुसार यहाँ कौिशक
ऋिष ने तप या क थी। स भवतया उ ह के नाम पर इस थान का नाम कौशानी पड़ा होगा और
खोज तो िनि त ही अं ेज़ ने क होगी। य िक उ ह ठ डे देश क ज़ रत होती थी। उ ह ने
सन् 1884 ई. म इस सु दर थल को खोज कर यहाँ चाय के बाग़ान लगाए थे। िजन के कुछ
अंश बैजनाथ के रा ते म हम िमले थे। कृित क अ ुत देन कौशानी किववर सुिम ा न दन क
ज म थली तो है ही, यहाँ क नैसिगक यटू ी ने ही, उ ह इतना सुकोमल किव बनाया है। आज
िह दी सािह य म उन का अित िविश नाम है, िवशेष कर कृित- ेमी किव के प म। उन के
तो रोम-रोम म, श द-श द म ाकृितक सौ दय रचा-बसा था।
कौशानी से प थर फकने िजतनी दूर पर गिवत खड़े िहमालय क शंख ृ लाओं म चौख भा,
ि शल ू , न दा देवी, पंचकूली एवं न दा घँघ
ू टी मुख ह, िजन क अ ुत सुषमा देखते ही बनती
है। कौसी एवं ग ड़ नदी के म य ढलवाँ पहािडय़ पर ि थत है कौशानी। यह थल समु तल से
1890 मीटर ऊँचाई पर ि थत है। यहाँ ग ड़ घाटी व सोमे र का िशव मि दर िविश दशनीय है
व िव यात है। यही नह चीड़, देवदार, बुराश, बाज़ आिद पवतीय पेड़ के घने वन से आ छािदत
है कौसानी। यहाँ सय ू ा त व सयू दय के बीच िहमिशखर के बदलते रं ग अतुलनीय सौ दय को
उ ािटत करते ह। कभी-कभी तो ऐसा लगता है मानो बफ़ म आग लग गई हो। यहाँ ठहरने के
िलए ‘कुमायँ ू म डल िवकास िनगम’ का आवासगहृ , अनासि योग आ म के एवं गाँधी जी
क िश या सरला बहन के आ म बने ह, जहाँ सैलािनय को काफ़ सुिवधाऐं िमल जाती ह।
रानी खेत
अब हम रानीखेत जा रहे ह। रा ते म पहाड़ व ह रयाली काफ़ कम हो गई है। यहाँ पर
िज़यादातर खेत ह, वो ही सीढ़ीनुमा। गाइड जी ने बताया िक यहाँ आलू क खेती ख़बू होती है।
कई जगह िकसान हल चला रहे थे। हमारी अ पबुि के अनुसार यहाँ पवत को नह तो कम से
कम पेड़ को काट-काट कर खेत बना िलए गए ह तािक यहाँ के िनवािसय क ज़ रत परू ी हो
सक। जहाँ आदमी होगा वहाँ ग दगी भी होगी व दूषण भी। थोड़ा आगे चले तो गहरी घािटयाँ व
ऊँची पवत शंख ृ लाऐं िमल । नैसिगक सौ दय का पान कर के दय को सुकून िमला। अब पठार
लगभग समा हो गए थे। वही सघन वन, चीड़, रबर के व ृ , इठलाती-बलखाती सड़क। इन से
गुज़रते हए हम पहँचे रानीखेत और हमारी बस ठहरी एक पहाड़ी मि दर के िनकट। वहाँ सब
या ी बस से उतर कर इधर-उधर होने लगे। आज हम सुबह से देख रहे थे िक च दा हम से कुछ
िज़यादा बात नह कर रही है। वह एक बंगाली अंकल-आँटी से ही दो ती कर रही है। बस से उतर
कर पहले तो हम लोग कुछ े श हए। हाँ, च दा आज भी बहत ग़ु से म थी, अपने पित से। य
िक उस के पित महाशय उ ही बंगाली अंकल के साथ एक शॉप पर िसगरे ट पी रहे थे। कुल िमला
कर वो इस टुअर से परे शान थी, िब कुल हमारी तरह और इस के िलए उस क नज़र म दोषी उस
के पित ही थे। सब से पहले हम सब ने कॉफ़ पी, य िक कौसानी म नह पी पाए थे। च दा के
पित महोदय ने भी उस से कुछ पीने का आ ह िकया तो झ ला कर बोली आप ने तो िसगरे ट पी
ही ली, िफर आप को मुझ से या मतलब है। जो पीना है आप ही पी लीिजए। लेिकन वो चुप रहे ,
य िक उ ह ात था िक च दा का ग़ु सा जायज़ है। चढ़ाई चढ़ कर मि दर तक पहँचे। ‘यक़ न’
साहब रा ते म ही ठहर गए य िक वो कमका ड व पज ू ा-पाठ म ‘यक़ न’ नह रखते, केवल
एक ई र म िव ास रखते ह। मि दर म बड़ी शाि त थी, अ छा था। दीवार पर माँ दुगा के ोक
खुदे हए थे, जैसे िक बनारस म तुलसीमानस मि दर म संगमरमर म राम च रत मानस के आठ
ख ड के दोहे उ क ण ह। िपछले वष ही एक काय म के दौरान मण का अवसर िमला था, तब
इस मि दर के दशन का सौभा य ा हआ था। यही इन दोन मि दर क िवशेषता है। यहाँ से
हमारा कारवाँ गो फ़ मैदान म का, जो दुिनया म समु तल से ऊँचाई के आधार पर सब से ऊँचा
गो फ़ मैदान है। मैदान काफ़ ल बा-चौड़ा था। य तो... आहा...कहने ही या? चीड़ क ल बी-
ल बी व ृ ाविलय से िघरा हआ। सुखद, शीतल, सुहावनी हवा चल रही थी। हम लोग पैदल-पैदल
इधर-उधर घम ू ने लगे। कृित के रस का आ वादन िकया, बहत आन द आ रहा था, कुछ नेप
िलए। गाइड महोदय ने मैदान के विजत े म नह जाने को िनदिशत िकया था, मगर वही
मानव- विृ िक िजस के िलए मना करो वह काम तो ज़ र करना ही करना है। हमारे सहया ी
तो ज़ र उधर गए लेिकन हम ने िश नाग रक के कत य का पालन िकया, हम विजत े से
दूर ही रहे । यहाँ का सौ दय लाजवाब िनकला।
हम बाज़ार म पहँचे। अब लंच टाइम हो चुका है, ेक िदया गया भोजन करने के िलए। सारे
या ी अपने-अपन के साथ इधर-उधर रे ाँ तलाश करने लगे। हम ने सोचा च दा के साथ ही
भोजन करगे। लेिकन वह तो अंकल-आ टी के साथ हो ली। उसे नए िम िमल गए थे। हम चार
एक होटेल पहँचे, गाइड महोदय ारा िनदिशत जगह पर। खाना अ छा िमला, साफ़-सफ़ाई का
यान भी परू ा रखा हआ था। हाँ, बस वाले का यहाँ भी कमीशन सुिनि त रहा होगा। वह थोड़ी
दूर पर च दा भी अपने नए िम के साथ बड़ी फु लता से भोजन कर रही थी। यहाँ से िनव ृ हो
कर हम लोग नीचे आए, वह हम ने च दा से कहा िक हम लोग बस को यह छोड़ कर रानीखेत
व अ मोड़ा देख कर नैनीताल लौट चलगे। उस के पित तो मान भी गए मगर च दा ने मना कर
िदया, ग़ु से ही ग़ु से म। हम लोग अब अलग-अलग रा त से बाज़ार को हो िलए। हम ने कई
टै सी वाल से रानीखेत घम ू ने के बारे म बात क , लेिकन एक दो वॉइ ट के 700-800 पए से
कम लेने को कोई तैयार नह हआ। हमेशा क तरह हम िनणय नह कर पाए और वापस बस तक
आ गए। एक-दो सहया ी माकट गए हए थे, जो िनयत समय तक नह लौटे। सब को एक घ टे
तक ती ा करनी पड़ी। बाद म मालम ू पड़ा िक वो रा ता ही भल
ू गए थे। बड़ी मुि कल से पछ
ू ते-
पाछते बस तक आए थे। नई जगह पर यह स भावना रहती ही है। हम भी ऊटी म होटल का रा ता
भलू चुके थे। िकतनी मश क़त के बाद हम होटेल िमला था। अब लगभग साढ़े चार बज चुके थे।
बस म सब सवार हए, च दा अपनी बंगाली िम आ टी को िलए कुछ उपहार ख़रीद कर लाई थी,
िजसे बस म दे रही थी। पर पर पत का आदान- दान भी हो रहा था।
हम ने पछ ू ा वहाँ पर या िवशेष है, बता ही दीिजए! तो बोले यह छोटा-सा नगर है, यहाँ से
कुछ आगे, वहाँ का पहाड़ी भोजन िस है। पयटक चाय एवं भोजन के िलए वहाँ कते ह। वहाँ
क पहाड़ी सि जयाँ बाहर भी भेजी जाती ह। बाहर से मतलब िवदेश से नह है, देश म ही। हम ने
कहा, हाँ...हाँ समझ गए भई, समझ गए, आप का मतलब हम। इस के थोड़ा आगे खेरना आता है,
जहाँ कोसी नदी पर झल ू ता हआ पुल है। यहाँ मछिलय का ख़बू िशकार होता है। वह से कुछ आगे
एक रा ता रानीखेत को जाता है, दूसरा अ मोड़ा को। हम तुर त याद आ गया, य िक जाते
व त वह पुल भी हम ने देखा था और रा ते भी। एक ओर हम मुड़े थे, दूसरे रा ते पर रानीखेत
का नाम िलखा था, ‘ऐरो’ के साथ। उ ह ने यह भी बताया िक रामनगर से खेरना नदी कोसी
नदी म एकमेक हो जाती है और अ मोड़ा से कुछ आगे बाई ं तरफ से कोसी नदी बहती है। इतना
कह कर वो उठ कर बस क ओर हो िलए। हमने शुि या अदा िकया। लीिजए वि नल चाय ले
आई है। इन तीन क चाय टील के िगलास म है, सो ज दी ठ डी हो गई और ये पी गए। हमारी
थमाकॉल के िगलास म होने के कारण ठ डी होने का नाम ही नह ले रही है। उधर बस ने हॉन दे
िदया। ज दी-ज दी पीने के यास म ज़ुबान जल गई, सो अलग। इतने को ड मौसम म भी चाय
का ठ डा नह होना हमारे िलए आफ़त बनता जा रहा है। हम एक बार िफर चार ओर िवहंगम
ि डाल कर सारे सौ दय को ने म समेट लेने का यास करते हए, चाय ले कर बस तक
चले आए। अभी जब यह संग िलख रहे ह, वही सारा य मानस-पटल पर मत ू हो रहा है। ऐसा
लग रहा है, मान अभी हम वह यह सब कर रहे ह। यानी, वह िवचरण कर रहे ह। सब कुछ
आँख म साकार हो रहा है और बड़ी याद आ रही ह वो हसीन घिडय़ाँ, वहाँ भी हमारी यही ि थित
थी िक काश! हमारा घर वह होता। चिलए, वापस यथाथ के धरातल पर उतरते ह। हम ाइवर
महोदय से कह रहे ह िक लीज़, एक िमिनट, चाय पी ल, उ ह ने ओ.के. कहा, लेिकन
िखड़िकय म हमारे सहया ी हम पर िच ला रहे ह, िक चाय के िलए हम सब को देर कर रहे हो।
लड़िकयाँ हम घरू कर बोल िक िड पोज़ेबल म तो चाय ले रखी है, कब ठ डी होगी? लेिकन हम
ने इन क बात पर यान नह िदया, मगर हम समझ गए िक अब इन सब को ज दी हो रही है,
सो हम चाय ले कर ही बस पर चढ़ गए। ये बात अलग है िक पीने म बड़ी मुि कल आई, एक तो
घुमावदार रा ता, ऊपर से चढ़ाई-उतराई। जब मोड़ आता, बस लो होती और हम चाय क एक
चु क मार िलया करते।
अब शाम भी गहराने लगी थी। बादल पहािडय़ पर उतरने लगे थे, मानो, िदन भर क थकान
से चरू अपने घर को लौट रहे ह । सच भी है, यही तो इन के घर ह, पहाड़ी क गोद, घािटयाँ, यह
तो आराम फ़माते रहते ह, जनाब। मैदान म तो इ ह ऐसा थान िमल पाता नह । इस िलए यह
अपना घर बनाते ह। मौसम ख़राब होने के परू े -परू े आसार बन रहे थे। हाँ, वातावरण के सुहानेपन
के िलए तो कुछ पिू छए ही मत, लेिकन यह सब हम अ छा नह लग रहा था। पिू छए य ? इस िलए
िक मसरू ी एवं कोडाईकेनाल म इ ह बादल क शरारत के मारे हम वहाँ के सौ दय-पान से
वि चत रह गए थे। खाली हाथ लौटना पड़ा था। इ ह बादल ने नीचे उतर कर सारे थान को
अपनी आग़ोश म भर िलया था। लो! इसी कशमकश म कब नैनीताल भी आ गया पता ही नह
चला। लगभग छह बजे थे। च दा से व बंगाली द पती से िवदा ली। च दा से अपे ानुसार रे पॉ स
नह िमला, अ तु।
नैनी झील
बस, हम तैयार हो कर पैदल ही टहलने िनकल पड़े । माल रोड म टहलते-टहलते नैनी झील
म नौकायन के िलए उतर गए और झील म नौका-िवहार का ख़बू लु फ़ उठाया। यहाँ से नैनीताल
का नज़ारा कुछ अलग ही महसस ू हआ, कारण यह था िक कोई भी य िविभ न कोण से
अलग-अलग िदखाई देता है। चार ओर गगन चु बी पहािडय़ाँ, बीच म झील, जैसे पानी का कटोरा
भरा हो। एक-दो नेप भी िलए। बात ही बात म झील के पानी क बात चली। पानी इतना व छ
नह था। ह रयाली क ित छाया से ीिनश ज़ र लग रहा था। इसी स दभ म िखवैया से हम ने
कुछ सवाल िकए तो उ ह ने फ़माया िक नैनीताल के सारे नाल का पानी इसी झील म िमलता
है, जो वाभािवक है। य िक झील तो गहराई म है ही। ज़ािहर है पहाड़ी का पानी नीचे उतरे गा ही
उतरे गा। यह तो उस का वभाव ही है, जैसा िक किव िबहारी ने फ़माया है-
िहमालय यू वॉइ ट
इस ‘कुमाऊँ शरदो सव’ का सारा आयोजन कुमाऊँ शरदो सव सिमित, नैनीताल ारा
िकया जाता है। हाँ, किव स मेलन भी होता है। हम अपनी ख़ुशनसीबी पर फ़ हो रहा है िक हम
िकतने शुभ अवसर पर नैनीताल आए ह। आज इस उ सव का शुभार भ है, इस िलए इतनी चहल-
पहल चल रही है। गािडय़ पर गािडय़ाँ आ रही ह, सड़क क सफ़ाई चल रही है। सोच-िवचार कर
हम ने बहमत से फै सला िलया िक ‘रोप-वे’ ारा ही ‘िहमालय यू वॉइ ट’ चला जाए। पैदल चढ़ाई
करने म थक भी सकते ह, और देखते ही देखते हम लोग िटिकट ले कर दस िमिनट म पहँच गए
पवत क चोटी पर। यहाँ से परू ा नैनीताल न शे क तरह नज़र आने लगा। कुछ देर इधर-उधर
टहलते हए, हम लोग पीछे क ओर गए जहाँ से िहमा छािदत चोिटयाँ नज़र आती ह, शायद इसी
िलए इस थल का नाम ‘िहमालय य’ू रखा गया होगा। लेिकन ये या... जहाँ-जहाँ बफ़ है, वहाँ
सब जगह ेत मेघ लेटे हए ह, जैसे परू ी लािनंग से यह सािजश
़ क गई हो। िपछले िदन कौसानी
से लौटते समय भी यही हाल था। वो तो ख़ुदा का शु है िक जाते समय बादल का षड्य नह
था, वरनाï तो यह अलौिकक य देखने से वंिचत रह जाते। यहाँ भी ख़बू सारी दूकान तो ह ही।
पहले तो इधर-उधर ख़बू टहले, सारा मंज़र देखा। कुछ ब चे वहाँ वीिमंग भी कर रहे थे। िफर एक
रे टोरे ट पर जा कर बैठ गए, जहाँ से ‘चाइना पीक’ भी िदखाई देती है एवं परू े नैनीताल के साथ-
साथ वहाँ आने का पैदल रा ता भी साफ़ िदखाई देता है। पहले हम लोग ने एक-एक याला चाय
ली। वहाँ से समचू ा य बेहद सु दर लग रहा था। िकतने ही सैलानी आ रहे थे-जा रहे थे। कुछ
खा भी रहे थे, वह झल ू े म बालक झल
ू रहे थे।
इसी बीच एक पंजाबी द पि आया। पित-प नी दोन काफ़ माट। साथ म 3-4 वष का
यारा-सा ब चा भी। उन दोन ने वि नल को बुला कर नेप िखंचवाया, ब चा भी बड़ा बुि मान
था। पहले ख़ाली झल ू े को झल
ू ा देता, िफर ख़ुद बैठता तािक दूसरे के ारा झल
ू ा देने के भरोसे
नह रहना पड़े । कभी हम देवदार के व ृ को ग़ौर से देखते तो कभी चाइना पीक को, तो कभी
नीचे से ऊपर झाँकते नैनीताल को। वापस नीचे आने का मन नह कर रहा था। लेिकन ‘रोप-वे’
वाले ने मा एक घ टा ही ठहरने के िलए िदया था। हम ने उन से िनवेदन कर के कुछ समय
बढ़वा िलया, तािक सुकून से वहाँ सौ दयपान कर सक। यिद वो नह मानते तो हम ठहर कर
पैदल ही उतरने का िन य भी कर चुके थे। ‘चाइना पीक’ से चीन क दीवार िदखाई देने क बात
पर रे टोरे ट के मािलक ने कहा िक अब वहाँ से भी चीन क दीवार िदखाई नह देती, य िक
‘चाइना पीक’ के कुछ िह से का खलन हो गया है, जहाँ से यह दीवार िदखाई देती थी। जब िक
हमारे टै सी ाइवर पंकज जी ने दो िदन पवू ही िकलबरी म कहा था िक ‘चाइना पीक’ से चाइना
क दीवार प िदखाई देती है। पता नह कौन-सी बात सच है। हाँ, चाइना क दीवार देखने क
इ छा ज़ र हो रही थी। वहाँ से कुछ ऊपर जा कर पहाड़ी पर बैठ गए। वहाँ एक टमाटर के पौधे म
बेर के बराबर टमाटर लगे हए थे, लेिकन िबना परू ी जानकारी के खाते तो कैसे।
अब सयू देव पि म क पहािडय़ पर उतरने को आतुर िदखाई देने लगे। वैसे भी पहाड़ी इला
क़ म एक घ टा पहले ही शाम ढल जाती है। य िक पहाड़ सरू ज को अपने आँचल म िछपा जो
लेते ह। इसी कार सुबह भी लगभग एक घ टे तक भा कर को आ मान म ऊपर नह आने देते,
भई उन का इलाक़ा है, उन क मज़ हो सो कर सकते ह, मािलक ह ये। इ ह को देखने के िलए
तो हज़ार मील क या ा कर के पयटक यहाँ आते ह। शाम होने लगी, सुबह का खाना खाने क
तो जैसे हम म से िकसी को याद ही नह आई। िकतनी ही बार बड़े लोग, ब च क भल ू ने क
आदत पर डाँटते ह िक ‘खाना, खाना तो नह भल ू ते’, लेिकन जनाब यह सच नह है। कभी-
कभी आदमी अित य तता या बहत सुकून िमलने पर खाना, खाना भी भल ू जाता है। खाने से
िज़यादा जब उसे वैसे ही कुछ और िमल जाता है। यही सोचते हए हम वहाँ छोटे से बाज़ार म गए,
कुछ खाना-पीना टटोला। वि नल ने तो यस ू मँगवा िलया। ‘यक़ न’ साहब ने कॉफ़ , के.पी.जी
ने चाय। अब बचे हम, हम ने भी यसू ही पस द िकया तािक कुछ एनज िमल जाए। वहाँ से कुछ
नए पेड़ भी िदखाई दे रहे थे, उन के नाम जानने क िज ासा भी हो रही थी, सो वह के एक
थानीय भ जन से हम ने इन पेड़ के नाम पछ ू े और उ ह ने बड़ी शालीनता से नाम बताते हए
और भी जानकारी हम दे दी। ये बात अलग है िक हम वो नाम याद नह रहे ।
इसी बाज़ार के पीछे ऊँचे टीले पर जहाँ हम िहमालय दशन करने गए थे, वहाँ बड़ी ग दगी
नज़र आई। वहाँ कुछ थानीय लोग के झ पड़े थे, कुछ पशु पालक भी थे, शायद इसी िलए होता है
ऐसा, जहाँ आदमी है, वहाँ ग दगी होगी ही, जब तक िक हम सफ़ाई का यान नह रखगे।
लेिकन, ये ग दगी भी ाकृितक थी, रासायिनक नह । इस िलए ख़ास बुरी नह लगी। वापस नीचे
आने पर देखा िक मैदान म काय म का ीगणेश होने ही वाला है। बालाऐं रं ग-िबरं गी न ृ य
पोशाक म सजी-धजी, िसर पर कलश िलये न ृ य करने को उ त थ । मन हो रहा था िक यह
ठहर जाऐं, मगर एक तो सद काफ़ बढ़ गई थी और हम लोग के पास पया ऊनी व नह थे।
साथ ही कुछ ऱे श होने क भी ज़ रत महसस ू रही थी। सोचा, होटेल जा कर तरो-ताज़ा हो कर
वापस आते ह। इधर ‘िहमालय य’ू पर ‘रोप-वे’ के एक कमचारी ने बताया था िक यहाँ वेधशाला
भी है, जो आम-आदमी के िलए खुली रहती है। वहाँ भी जाने का मन था।
आज सद कुछ िज़यादा ही थी। हम लोग ने भी गम पानी से हाथ-मँुह धोए एवं रज़ाई म दुबक
गए। आज शरदो सव म ‘अिमत कुमार नाइट’ का भी आयोजन था। जाने क बहत इ छा हो रही
थी मगर सद ...। इधर ‘यक़ न’ जी को बुख़ार भी होने लगा। कुछ देर बाद पटाख़ क आवाज़
आ मान म गँज ू ने लग । अब हम से न रहा गया, वि नल और हम दोन बाहर बालकनी म आए
तो देखते या ह- सारा आकाश आितशी नज़ार से दमक रहा था। पहाड़ी रात रं ग-िबरं गी
रोशिनय से जगमगा उठी। जैसे दीपावली आज ही आ गई हो। 10-15 िमिनट तक हम लोग क
नज़र नीची नह हो पाई ं। िब कुल वैसी ही आितशबाज़ी हो रही थी जैसी िक कोटा के दशहरे मेले
के समापन के दौरान ‘राज थान पि का’ समाचार प क ओर से तीन-चार वष से आयोिजत
हो रही है। अब हम काय म म उपि थत नह होने का मलाल और िज़यादा होने लगा। कुछ देर
बाद अ दर आए, भोजन के बारे म भी कुछ सोचना था। इधर ‘यक़ न’ साहब को बुख़ार चढ़ ही
रहा था। उन से हम ने होटेल म कने को कहा एवं हम लोग खाना खाने जाने लगे, मगर वो
नह माने और कपड़े पहन-ओढ़ कर साथ हो िलए, वैसे काफ़ िह मत वाले ह। बस टे ड के पास
थानीय बाज़ार म 20 पए थाली म खाना अ छा िमल गया। हम लोग ो ाम म जाने क बात
करने लगे तो, दूकान मािलक बोले िक 9-10 बजे इतनी सद हो जाएगी िक हम भी सहन नह
कर सकते, आप कैसे कर पाऐंगे। वेधशाला भी जाना था, मगर मौसम साफ़ नह होने के कारण,
चाँद-तारे भी ओझल थे, कई कारण से काय म र करना पड़ा। वह कुछ पो टर भी िबक रहे थे,
हम ने वही पो टर ढूँढा (िजस का पवू म िज़ िकया था), मगर नह िमला, दूकान वाले ने कहा,
बहन जी ऐसे पो टर मालरोड पर ही िमलते ह, वो सैलािनय का बाज़ार है, दाम भी वैसे ही ह।
वाक़ई सही ही तो कह रहा था। इस बाज़ार म समोसा दो पए का था, उधर हम 12 पये का
बताया था। वह से बुख़ार क दवाइयाँ भी ख़रीद । ‘यक़ न’ साहब पहले डॉ टर क पे्रि टस भी
कर चुके ह, सो इस बारे म काफ ान रखते ही ह। मु य प से तो इन का बुख़ार देख कर ही
अिमत कुमार को सुनने नह जा सके। सद क व ह से तो शायद चले भी जाते। यहाँ एक बात
यह भी बताने का जी हो रहा है िक ‘यक़ न’ साहब को नैनीताल म मेिडकल टोर ढूँढने म
काफ़ िद क़त हई। मेिडकल टोर बहत अ दर एक गली म जा कर िमला। रसे शिन ट से पछ ू ा
तो मालम ू हआ िक यहाँ क जलवायु ही ऐसी है िक यहाँ के लोग बहत कम बीमार होते ह। इस
िलए मेिडकल टोस और डॉ टर यहाँ नह के बराबर ही िमलगे। देखा जलवायु क व छडता का
असर? अपने मैदानी इलाक म तो शहर क हर गली म दजन डॉ टर और मेिडकल टोस होते
ह और अब तो गाँव-गाँव म ाइवेट ि लिनक खुल गए ह। वापस आ कर रज़ाइय म डट गए।
वि नल तो खाना खाने गई नह थी, सो आराम से रज़ाई का लु फ़ उठाते हए टी.वी. के दशन
कर रही थी। अपने पस द के सी रयल देख रही थी। ब च को टी.वी. िमल जाए, िफर या चािहए।
वो टी. वी. देखती रही और हम न द देवी क शरण म चले गए। हाँ, बीच-बीच म एक-दो बार थोड़ी
आँख खुली तो देखा साँय-साँय करती हई काफ़ तेज़ हवा चल रही थी, जैसे कोई तफ़ ू ान आने
वाला हो। मौसम काफ़ ख़राब होना चािहए, ऐसा आभास हो रहा था। हम सब कुछ भगवान पर
छोड़ कर सो गए।
सुबह उठते ही बाहर िनकले तो मौसम एकदम काँच क तरह साफ़ िनकला। ई र क लीला
है सािहब, पल म तोला पल म माशा। भगवान जी को ध यवाद िदया और दैिनक कम से िनव ृ
होने लगे। चाय-वाय पी, ‘यक़ न’ साहब का बुख़ार परू ी तरह उतर चुका था। लगभग एक घ टे म
हम लोग नहा-धो कर एकदम तरो-ताज़ा हो िलए। पेिकंग भी क , य िक आज वापसी का हमारा
रज़वशन था। सारी पैिकंग कर के पहाड़ी से नीचे आए। हमेशा क तरह झील के िकनारे लगे नल
से पानी क बोतल भरी। होटेल के पानी क शु ता का भरोसा नह , बो रं ग का होता है, या िफर
टोर िकया हआ। पानी के मुआमले म तो हम एकदम स त ह। वह एक छोटी-सी छतरीनुमा
चबतू री बनी है, िजस म ालु आते ह, हाथ जोड़ते ह एवं घ टा बजाते ह। घ टे क आवाज़ सुबह
के चार बजे से ार भ हो कर िनशा के बारह बजे तक आती रहती है। कई बार हम व वि नल
सोचते रहे िक यह घ टा- विन कहाँ से आती है, आज इस का राज़ खुला, लेिकन कई सवाल िफर
भी मन म ही रह गए। िकसी से पछ ू ना चाह रहे थे, मगर पछ
ू नह पाए। दो-चार िमिनट तक झील
को जीभर िनहारते रहे , य िक इस से िवदा लेने का व त था, शाम को सीधे काठगोदाम
पहँचना था। पहाड़ -देवव ृ को भी आँख भर-भर कर देखा, कुछ देर तो ऐसा लगा मानो, िवदाई
के पल म इन का भी जी भर आ रहा हो, हम लोग से िबछड़ कर।
घोड़ा खाल मि दर
लीिजए, पंकज जी गाड़ी ले कर आ गए। हम उ ह होटेल से थोड़ी दूर छोड़ कर सामान ले कर
आए एवं इस े को ‘बाय’ कह कर चले अगली मंिजल क ओर, यानी ‘घोड़ाखाल मि दर’।
सुबह क चटख़ धपू सुर य वािदय म फूल बन कर िबखरी थी। चीड़ के पेड़ के बीच से धरती को
िनहारने के यास म वन क सघनता म घुसपैठ करता िदखाई दे रहा था सरू ज। इधर चीड़,
बाज़, सुरई के पेड़ भी उस के यास को असफल करने म कोई कसर नह छोड़ रहे थे। इ ह ने
धरा-सु दरी को कह हरी पि य से तो कह सख ू ी पि य से परू ी तरह िछपा रखा था, बेचारा
सरू ज िकतना िववश हो रहा था, इस सघन ह रयाली क िज़द के आगे अपनी ेयसी धरती का
ि - पश भी नह कर पा रहा था। हाँ, रही-सही कसर परू ी कर दी डामर क गहरी सलेटी
सड़क ने, जो भी हो ऊपर नीलाभ, चार और हरीितमा, बीच म लहराती, बल खाती सड़क क
तो बात ही मत पिू छए, मन तो होता है िक टै सी म से उतर कर पैदल ही चला जाए। इतना
ख़ुशनुमा मौसम और पैदल मण। बीच-बीच म प पर पड़ती धपू काँच क तरह आँख को
ज़ र चँुिधया रही थी। ऐसा लगता था मानो, इन पेड़ पर हज़ार काँच जड़ ह । बेचारा सरू ज सारा
ग़ु सा इन पि य पर ही उतार रहा था। उस क रोशनी यह से ितिबि बत हो रही थी। हवा का
झ का आता और सारे काँच िझलिमला उठते। िब कुल लहर क तरह दमक रह थ , पि याँ भी।
शायद िनमलता क व ह से। मैदानी सड़क के िकनारे पर लगे पेड़ क पि य पर तो धल ू क
इतनी पत जमा हो जाती ह िक इन क वाभािवक हरीितमा न जाने कहाँ गुम हो जाती है और
तब ये पेड़ हम बहत बुरे लगते ह। इ ह देख कर घबराहट-सी होने लगती है, अ तु। इन ऊँचे-नीचे
रा त पर चलते हए जीवन के उतार-चढ़ाव का भी अहसास हो रहा था। इ ह रा ते क तरह
िज़ंदगी म भी तो सदैव उतार-चढ़ाव चलते ही रहते ह, जैसे ये नह घबराते, सहज स तुिलत रहते
ह, वैसे ही हम भी हर हाल म ख़ुश रहने क ेरणा जाने-अनजाने म ये प थ दे जाते ह।
सच, पहाड़ी हवा म एक अलग ही महक होती है, एक सुहाना अहसास भीतर जागता है, ऐसा
लगता है िक जैसे ये हवा रोम-रोम को जीव तता दान कर रही है। साथ यँ ू ही लग रहा था िक
यह सफ़र ऐसे ही चलता रहे , कभी ख़ म ही न हो, बस चलते रह-चलते रह...। काश! ऐसा होता,
लेिकन इस दुिनयादारी म यह सब हो ही कहाँ पाता है। चलना, िफर िवराम, िफर चलना यही
वा तिवक जीवन है। ये तो किव मन है, इसे जो अ छा लगता है, वैसी क पनाऐं करता रहता है
और िफर एक किव यह भी तो कह गए ह, जो बड़े पते क बात है। कहा तो पानी के स दभ म है,
लेिकन जीवन पर सौ फ़ सदी लागू होता है। वो यह िक- ‘बह जाए तो पानी है, ठहर जाए तो मोती
है।’ वाक़ई, बड़े मम क बात है। हम इ ह ख़याल म खोए थे िक ाइवर साहब ने गाड़ी के ेक
लगाया और हम लोग हक़ क़त क धरती पर एक ही झटके म आ गए। कार के दरवाज़े खोलते
हए बोले िक- लीिजए ‘घोड़ाखाल मि दर’ आ गया। यहाँ से सीिढय़ से पहाड़ी पर जाइए, ऊपर
मि दर है। हम लोग टै सी से बाहर आए। पहले चार ओर बरबस ही आँख घम ू गई ं। या ग़ज़ब का
य था। पहाड़ म तो कह भी िनकल जाइए, सौ दय कण-कण म िबखरा पड़ा है। बस देखने
वाली आँख व महसस ू करने वाला मन चािहए। कहा भी तो है- ‘‘सौ दय आँख म होता है, व तु
म नह ।’’
कोई भी व तु एक यि के िलए बेहद ख़बू सरू त होती है, दूसरे के िलए साधारण। हम
नैनीताल इतना यारा लग रहा है, स भव है िकसी दूसरे श स को यह िब कुल भाए ही नह ।
‘जैसी ि वैसी सिृ ’। मि दर क यथाि थित एवं वहाँ लगा छोटा-सा बाज़ार देखने लगे। यहाँ
सब से िज़यादा घ ट क तथा घि टय क दूकान लगी हई थ ।
हम लोग पहाड़ी पर चढऩे लगे। धीरे -धीरे आन द के साथ मि दर तक पहँच गए। वहाँ कई
छोटे-छोटे मि दर बने हए थे। भैरव जी का, िशव-पावती जी का, इन मि दर म ितमाओं के साथ
घोड़े क मिू तयाँ भी थ । भीड़ बहत अिधक थी। दशन म परे शानी ज़ र आई। दशनोपरा त इधर-
उधर घम ू कर परू े मि दर का अवलोकन िकया। घि टय को भी देखा। हम सवािधक आकिषत
िकया यहाँ चार ओर लगी हई घि टय ने, छोटी से ले कर बड़ी-बड़ी घि टयाँ, वो भी हज़ार क
तादाद म थी। घि टयाँ ही घि टयाँ...आन द आ गया। िगनने लगो तो सारा िदन लग जाए।
वि नल ने तो इन के लगाए जाने का कारण भी पछ ू ा। हम ने इसे तस ली दी िक ज़ र
मनोकामनाऐं मानने व इन के परू ी होने के उ े य से ही ये घि टय का मेला लगता होगा। दूर-दूर
से इन मि दर म ालु इसी िलए भी आते ह और िन: वाथ भाव से भी आते ह। पंचमढ़ी िहल
टेशन पर भी एक पहाड़ी पर महादेव जी का मि दर है, वहाँ भी मनौितयाँ परू ी होने पर घ टा
चढ़ाने क ा है। वहाँ भी लाख क तादाद म घ टे लगे हए ह। भई! हमारा देश तो है ही धम
ाण। मि दर म पीछे क तरफ़ कुछ बकरे भी बँधे हए थे, नीचे ज़म भी लाल थी। शायद यहाँ बिल
देने क था भी है। हम सब तो इन घि टय को देख-देखकर बेहद हैरान हो रहे थे। बिल के िलए
तो या कह? बेचारे िनरीह ाणी और बिल? कहने लगगे तो पचास प ृ भर जाऐंगे। आप भी वही
सोचते ह गे जो हम सोचते ह। ख़ुद ही समझ लीिजए।
अरे हाँ, घ टे मि दर म ही नह लगे थे, अिपतु सीिढय़ तक लगे हए थे। शायद मि दर म ठौर
नह होने पर भ गण सीिढय़ पर ही लगा जाते ह। यहाँ लगे बड़े -बड़े घ ट को र सी से बाँध
रखा था तािक या ी इ ह नह बजा सक। वना तो...। यहाँ का तो फोटो भी ज़ र लेना चािहए था,
मगर कैमरा तो हम नीचे ही भल ू गए थे। अब िकस क िह मत िक नीचे जा कर कैमरा ले कर
आए। सब एक-दूसरे से कहते रहे ...कहते-कहते नीचे भी आ गए। पंकज जी से जब हम ने घि टय
के बारे म पछ
ू ा तो बोले- लाख घि टयाँ तो नीचे गोदाम म भरी ह। हम यही सोच रहे थे िक जब
कह ख़ाली जगह ही नह बचेगी तो ालु घ टे कहाँ बाँधगे? हमारी िज ासा का समाधान हो
गया। हम ने पुन: पछ ू ा, लेिकन मि दर का नाम घोड़ाखाल य पड़ा? तो बोले िक मि दर म
घोड़ क ितमाऐं भी लगी हई ह, इसी िलए। मगर हम पण ू त: आ त नह हो सके। अभी भी
हमारे मन म यह िज ासा है। हम ने उन से एक सवाल और िकया िक इन घि टय को बेचते नह
ह या? वो बोले, शायद नह , इसी िलए तो गोदाम भरे ह। उ ह ने एक बड़ी इ ेि टंग बात बताई
िक यहाँ वष म सैकड़ शािदयाँ होती ह। अपनी मज़ से शादी करने वाले जोड़े भाग कर यहाँ शादी
कर लेते ह, जो वैध मानी जाती है। हम ने कहा यह भी ख़बू रही।
नीचे आ कर समझ म आया िक यहाँ इतनी घि टयाँ य िबक रही ह। याद है आप को, अभी
2-3 िदन पवू सातताल म हम ने ‘बाज़’ िफ़ म क शिू टंग देखी थी, वही िफ़ म कुछ महीन पवू
पद पर देखी, िजस म इस मि दर क कई िमिनट क शिू टंग है। यथा, जब क र मा कपरू
नैनीताल आती है तो रा ते म क कर इस मि दर म दशनाथ जाती है। शायद म नत भी माँगती
है, दीनू मो रया के साथ होती है। वह पछ
ू ता है िक या माँगा है? अपनी देखी हई जगह को िफ़ म
म देख कर बड़ा अ छा लगा। भीमताल म कुछ युवक बात कर भी रहे थे िक कल मि दर म
शिू टंग है, तब हम पता नह था िक इसी मि दर म होनी थी।
वैसे पंकज जी वभाव से सरल एवं ख़ुशिमज़ाज लगे। परू े रा ते कुछ न कुछ सुनाते ही रहते
थे, लेिकन हम डर भी लगता था िक कह यान न बँट जाए, गाड़ी जो चला रहे ह। हाँ, ाइिवंग
पर परू ा कमा ड है इन का, टेढ़े-मेढ़े पहाड़ी रा त पर इतनी अ छी ाइिवंग क़ािबले-सताइश थी।
मैदान वाला अ छा ाइवर भी यहाँ गाड़ी नह चला सकता। इस बारे म हम ने उन क तारीफ़ भी
क तो बोले, देवी माँ क कृपा है। रोज़ का ही काम है हमारा, वष से यही काम करता आ रहा हँ।
जहाँ भी रा ते म धािमक थल आते, वे िसर ज़ र झुकाते। ई र म इन क गहरी आ था साफ़
ज़ािहर थी। क़द ठीक-ठाक, रं ग गोरा, हालां िक यहाँ के सभी िनवासी हम गोरे ही नज़र आए।
जलवायु का असर कहाँ जाएगा, पहाड़ी ब ती है। पंकज जी पढ़े -िलखे एवं सं का रत भी ह, जो
इन के यवहार से झलक रहा था। य िक आदमी के रहन-सहन, बोलचाल से उस क सं कृित
एवं स यता का कुछ तो पता लग ही जाता है। हम ने िपछले टुअर म, उन से पछ ू ा था िक इस
यवसाय म रोज़ी-रोटी चल ही जाती होगी तो वे बोले थे िक- ‘‘हाँ दाल-रोटी िमल जाती है और
हम पहाड़ी बािश द को चािहए भी या? यहाँ के लोग स तोष द होते ह, अिधक लोभ-लालच
यहाँ नह िमलेगा। बाहर के जो यापारी यहाँ ह, उन के बारे म हम नह जानते। हाँ, घम ू ने के
मौसम म ही हमारी आय अ छी होती है, उसी से साल भर का गुज़ारा होता है। हमारा पहाड़ी
यवसाय केवल सीज़न म ही चलता है, इसी िलए हम लोग दाल-रोटी से िज़यादा कमा भी नह
पाते, य िक सिदय म तो बैठ कर ही खाना होता है। हमारे तो दाता पयटक ही ह।’’
टी ए टेट
एक के बाद एक सु दर पवत शंख ृ लाऐं, घािटयाँ, हम पार करते रहे । बीच म िफर वो बोले िक
अब आप को म टी ए टेट ले चलता हँ, वहाँ जा कर आप ख़ुश हो जाऐंगे। हम ने कहा िक टी ए टेट
तो ऊटी म हम ख़बू देख चुके ह। वे तपाक़ से बोले, यहाँ का देिखए िफर किहएगा। अपनी-अपनी
जगह का अलग-अलग सौ दय होता है। म वहाँ आप को वह क बनी हई चाय िपलवाऊँगा,
चिखएगा, िफर बताइएगा। वैसे चाय तो वे लोग पयटक को िपलाते नह , मगर मुझसे िवशेष नेह
रखते ह सो, मेरी बात टालगे नह और ये कहते-कहते आ गए हम चाय के बाग़ान म। वॉव,
वि नल के मँुह से अनायास ही िनकल पड़ा। वाक़ई, ग़ज़ब का मनोरम य था। ऊटी का अलग
था, यहाँ का अलग। यहाँ क हरीितमा गहरे हरे रं ग क थी। गाड़ी से उतरे , रोड़ के दोन तरफ़
चाय के बाग़, िजन म देवदार के पेड़, चार चाँद लगा रहे थे। बाग़ म ्रवेश िकया, तीन-चार
मिहलाऐं चाय क पि याँ चुन रही थ , वैसे ही जैसे िफ़ म देखा करते थे। पीठ पर टोक रयाँ बँधी
थ , िजन म वे पि याँ चुन कर रखत ह। सब से पहले हम दोन , माता एवं पु ी उन के पास पहँचे।
उ ह पि याँ तोड़ते हए देखने लगे। िफर उन से ढे र सारी बात क । हम से अपनापन पा कर वे भी
बड़ी स न हो रह थ । बड़े ेम से बितया रह थ । हम ने दो-चार पि याँ तोड़ और उ ह द तो वे
बोली िक ऐसे नह तोड़ते, केवल ऊपर वाली ढाई पि याँ ही काम क होती ह। ‘यही तोड़ी जाती
ह’। हम ने पछू ा, और सारी पि याँ बेकार ह? वे बोली हाँ, ये िकसी काम क नह ह, य िक
ायर पर ये ही चलती ह, पर हमारा मन मानने को तैयार नह । ढाई ही य चलेगी, दो य
नह ...हम मन म सोचने लगे। हम ने ‘यक़ न’ जी को इशारा कर के बुलाया एवं उन बालाओं के
साथ दो-तीन फोटो िखंचवाए, तो वे भी बड़ी स न हई ं। हम ने कुछ फोटो पि याँ तोड़ते हए भी
िखंचवाए एवं कुछ पि याँ बैग म रख ल ।
गागर
इस सुर य रा ते से हो कर हम ‘गागर’ पहँचे, जो रामगढ़ से कुछ पहले है। यह 2300 मीटर
ऊँचाई पर है। कहते ह िक ऋिष गगाचाय ने यहाँ तप या क थी, इसी िलए इस थल का नाम
गगाचाय हआ, जो बाद म बोलते-बोलते, काम म आते-आते लोकभाषा म ‘गागर’ हो गया। यहाँ
पर गग र शंकर भगवान का मि दर भी है। यहाँ उतर कर हम चार ओर के मंज़र का अवलोकन
करने लगे, अरे , यह या? यहाँ से तो दु ध-धवल िहमालय और क़रीब आ गया। बहत ही िद य,
बहत ही अलौिकक य...मन होता िक हाथ बढ़ा कर छू ल। आज िहम से शायद बादल क
िकसी बात पर लड़ाई हो जाने के कारण मानो, कु ी हो गई हो। य िक दो-तीन िदन बाद, आज
इन से दूर-दूर तक बादल का नामो-िनशान तक नह । िब कुल ेत फिटक पवत मालाऐं। एक
बार िफर िहमालय हमारे सामने था। जी भर कर देखा, इन िहमिशखर को। गागर का मुख
आकषण यही है।
म ला रामगढ़
यहाँ से पुन: रवाना हए और मा 3 िकमी. दूर, कुछ ही देर म हम आ गए ‘म ला रामगढ़’
जी हाँ, वही रामगढ़, जो फल के िलए परू े देश म िव यात है और यहाँ िहमालय के अि तम
सौ दय के तो कहने ही या। जहाँ तक नज़र जाती वहाँ तक िव तार है इस थल का। सारी
पवत शंख ृ लाऐं फल के पेड़ से भरी पड़ी ह। बड़़े ही सुिनयोिजत तरीक़े से यह बाग़ मे टेन िकया
हआ है। हम लोग नीचे उतर कर घाटी तक गए जहाँ सेब के पेड़ थे। बस, मलाल यही िक एक भी
सेब डाली पर नह था, मा प े ही शेष थे। उ ह ही छू कर देखा और क पना क िक जब इन म
सेब लगे होते ह गे तब कैसा लगता होगा। किव ह भई, कई काम क पना से ही चलाने पड़ते ह।
इन पेड़ से सट कर बारी-बारी से सब ने फोटो िखंचवाए तािक घर आ कर िम पर आब जमा
सक िक देखो सेब के पेड़ ऐसे होते ह। इतना िवशाल उ ान िक िकधर जाऐं, िकधर नह जाऐं।
कुछ और नीचे घाटी म तरह-तरह के फूल के पौधे भी लगे थे, िजन म बेहद ख़बू सरू त फूल िखले
हए थे। हम वहाँ जाना भी चाह रहे थे, लेिकन वो थल काफ़ दूर था, लगने म लगता है िक यह
तो है, मगर ऐसा नह होता पहाड़ी इला क़ म। हम मैदान वाल को इस का अनुमान नह होता।
सब ने मना कर िदया तो िफर जाने का सवाल ही कहाँ उठता है। वह आस-पास घम ू ते रहे , दूर के
य का भी वह से आन द लेते रहे । आप को एक बात बता ही देते ह, वैसे इस परू े उ ान म
घमू ने क अनुमित है भी नह । कुछ सीिमत दूरी तक ही सैलानी जा सकते ह, य िक यह िनजी
स पि है, माधवराज िसंिधया क । उन का बाग़ है ये, ऐसा पंकज जी ने बताया, फल का
मुआमला है और िफर लोग को तो आप जानते ही ह, िजस काम के िलए मना करो उसे ज़ र
करते ह, यह मानव वभाव है। फल को तोड़े या छुए िबना कोई मानेगा तो नह और ऐसा होता
रहे तो बाग़ बचेगा भी नह , सब कुछ चौपट...। पंकज जी ने वह आस-पास लगे पेड़ म से हम
बताया िक यह पेड़ अमुक़ फल का है, यह अमुक़ का। कई फल के दुलभ पेड़ भी बताए। फल के
साथ-साथ देवदार सिहत अ य पहाड़ी पेड़ क ख़बू सरू ती भी ग़ज़ब ढा रही थी। एक तो सुहाना
मौसम, ऊपर से नीिलमा िलए ह रयाली, उस पर सय ू -रि मय क पड़ती आभा, भला कौन दीवाना
नह हो जाए इस कृित का। एक हवा का झ का आता और सारे प े एक साथ चाँदी के हो जाते,
दमक उठते, आँख म चकाच ध भर देते। वाह, या य था। वाह रे कृित माँ, तेरी ख़बू सरू ती का
भी कोई छोर नह , आदमी को छोड़ कर।
कविय ी महादेवी वमा यँ ू ही कुछ वष तक यहाँ रह और यहाँ का बेिमसाल सौ दय उन के
ज़ पर इस क़दर छा गया िक उ ह ने यह पहाड़ी पर अपना घर बनवाया और वष तक यह
िनवास िकया। ज़ र उन क अ ितम का य-साधना म इस सौ दय का िविश योगदान रहा
होगा। उन क रह यवादी एवं आ याि मक किवताओं म कृित ही तो मल ू ेरक है, और िफर इस
से िज़यादा अि तीय सु दरता उ ह कहाँ िमली होगी। महादेवी वमा ही या, चाचा नेह ,
रवी नाथ टैगोर, आचाय नरे देव भी तो रामगढ़ आ कर स मोिहत हो गए थे। गु देव
रवी नाथ यहाँ आए तो िहमालय को देख कर इस िद य कृित का रसा वादन करते रहे यथा
‘गीता जिल’ एवं ‘सा य’ संगीत क सजना भी यह क । गीता जिल िव िस सािहि यक
कृित है, िजसे नोबेल पुर कार से नवाज़ा गया है। इस क किवताऐं कृित व अ ात को ही तो
स बोिधत ह। ऐसे थान पर ऐसा रचना कम होगा ही होगा। वातावरण का भाव भला कहाँ
जाएगा। यहाँ क पवत चोटी पर एक बँगला है, िजस म वो ठहरे थे, इस िलए उस का नाम ही
‘टैगोर टॉप’ पड़ चुका है। यह भी कहा जाता िक आचाय नरे देव ने भी इस िवराट सौ दय का
पान िकया एवं अपने थ ‘बौ दशन’ को यह परू ा िकया और चाचा नेह तो कृित के वैसे ही
दीवाने थे, तभी तो सदैव गुलाब को अपने सीने से लगाए रखते थे। वो भी मु ध थे रामगढ़ पर।
चिलए अब रामगढ़ क थोड़ी-सी भौगोिलक जानकारी भी ल ही ल। हाँ, तो जनाब यह यारी-
सी जगह गागर से 3 िकमी. दूर तो है ही, साथ ही सागर तल से 1,789 मीटर ऊपर है एवं
नैनीताल से मा 25 िकमी. दूर है। यहाँ फल क बहार तो है ही, बफ़ पडऩे के बाद सब से पहले
ीन सेब यह पकता है। इस बात पर याद आया िक मनाली म एक महाशय ने बताया था िक
िजतना िज़यादा बफ़ पड़ता है उतने ही अ छी सेब क खेती होती है। ज़ािहर है, जहाँ हरे सेब क
बात है, बहत ही वािद होते ह। सेब, जो हम मैदान म खाते ह, उन से एकदम िभ न होते ह।
उन का तो वाद एवं लेवर ही अलग होता है और यहाँ के अलग ही लगते ह। इतने अ छे लगते ह
िक बस, खाते जाओ, खाते जाओ, जब िक हम से सेब िज़यादा खाए ही नह जाते, जो हमारे यहाँ
िमलते ह। वैसे भी फल ताज़ा ही अ छे लगते ह, लेिकन अब फल कई िदन , महीन के रखे हए
नसीब होते ह। डाल से टूटे हए फल तो अब सपने क बात हो गई। लोभ-लालच म व ज दबाज़ी म
मािलक क चे फल को तोड़ कर रसायन से पकाते ह, ऐसे म वाभािवक वाद व गुण क तो
क पना ही बेमानी हो कर रह गई है। सब कुछ बासी एवं ज़हरीला। सच बात तो यह है िक अब तो
फल भी खाने का धम नह रहा, य िक उन के साथ रसायन का ज़हर भी पचाना पड़ता है। हाँ,
बालपन म ज़ र गाँव म खाए ह, डाली से तोड़-तोड़ कर फल, या वाद होता था, ऐसा िक मन
ही नह भरता, पिू छए ही मत। िब कुल अलग, अ ल वाद एवं महक िजसे आज के ब चे कभी
जान ही नह सकगे, न चख सकगे।
हमारे यहाँ क़ानन ू है, मगर सज़ा नह हो पाती, य िक ाचार चरम पर है। अपराधी
आराम से बच कर िनकल जाता है, इस िलए बेधड़क हो कर यह सारा खेल खेला जा रहा है। सच
पछू ो तो कभी अमत ृ -पु कहलाने वाला मानव अब िवष-पु बन चुका है। स भव है अब उसे शु
प य ह म ही न हो। रात-िदन ज़हर खाते रहने से शरीर भी तो वैसा ही होता जाता है। िवष
क याऐं ऐसे ही बनती ह। वाह रे , मनु य या कमाल कर िलया तू ने! आज-कल रसायन से पके
फल खाने का मन नह करता। बाज़ार म देखते ह, खाने चािहऐं, इस िलए खा लेते ह। िफर माँ-
बाप कहते ह, ब चे फल नह खाते। खाऐंगे भी कैसे? दूध म ऑ सीटॉिनन इंजे शन का िवष,
फल म भी िवषैले रसायन, ऊपर से क टनाशक का ज़हर। अ छा करते ह, जो नह खाते। कुछ
खाने-पीने का मन भी तो हो, तब ही खाएं गे। ब चे सहज होते ह, जो चीज़ उ ह अ छी नह
लगती, वे नह खाते। लाइए, वाभािवक ढं ग से िनकाला गया शु दूध, डाल पर पके फल, देख
कैसे नह खाते? दु मन तो हम बन रहे ह इन के। हाँ, गाँव म हम ने आम को ज़ र पकाते
देखा है, वो भी इस िलए िक डाली पर पकने से पहले जो कै रयाँ हवा से िगर जाती थ , उ ह
पलाश के प एवं भुस म दबा कर उन पर िब तर यानी गोदड़े डाल िदए जाते थे। ऐसे पकते थे
पहले आम। हम ख़ुद कै रय को अनाज क बोरी म रख कर पकाते थे बचपन म, चोरी िछपे दादी
जी, दादा जी से। वो भी अ छे लगते थे। कहा ना, नैसिगकता ज़ री है। आदमी ने बुि का योग
िकया, कई खोज क , मगर उन का दु पयोग कर के ख़ुद ही ख़ुद का दु मन बन बैठा। दूध का
अ ल वाद इन ब च को चखा दीिजए, खाना छोड़ कर दूध क ही िज़द करने लगगे। इसी बात
पर अपनी ही किवता याद आ रही है, आप भी पिढए ़ किवता का एक अंश-
‘‘ह अभी छोटे ये ब चे
िक ले कर चीज़
हो जाते ह खश ु ये
पर/ कल जब ये ह गे कुछ बड़े
और आते ही कूल से
माँगगे हम से परू ा जंगल
कोई ख़ाली टुकड़ा धरती का
करगे हठ/ हम परबत ही ला कर दो
कभी रोऐ ंगे
‘हम को प ेड़ िदखलाने चलो’
तब हमारे पास
बग़ल झाँकने ही के अलावा
चारा या होगा?
अभी भी है समय देखो
अभी छोटे ह ये ब चे
ढँ◌ूढ सकते ह िवक प इस का/ अभी तो हम
पहाड़ के हँसी पाव म
नझन ु घघुँ ओ ं क बाँध सकते ह
हवाओ ं को सग ु ध बाँट सकते ह
बना रख सकते ह
आकाश को नीला...’’
ओ... फो...! बात ही बात म काफ़ ल बी बात हो गई ं। ग़लत बात पर हम बड़ा दुख होता
है, सो कहना आ जाता है। मुआफ़ क िजएगा। वापस रामगढ़ क ही बात करते ह। जैसा िक हम ने
पहले बताया था, यहाँ पर कई तरह के सेब, जैसे गो डन िकंग, फै नी, िडलीिशयस जोनाथन
आिद के पेड़ ह, वह गौला, तोतापरी, िह सबन आिद िक़ म के आडू भी यहाँ िवशेष ह। यँ ू किहए
यह यहाँ का सब से े फल है। कई िक़ म के पुलम, ख़बू ािनय के अलावा कई कार के अ य
फल क खेती यहाँ होती है, जैसे- पाम, िपच, ि केट आिद। लेिकन अभी सारे के सारे पेड़ िन फल
खड़े थे, िबलकुल िन काम कमयोगी क तरह, बस कम करो, फल क आशा से कोई लेना न
देना। काश! ये फल से लदे होते तो यहाँ क ख़बू सरू ती म चार चाँद लग जाते। बाग़ान ही फल के
ह और एक भी फल न हो...सन ू ा तो लगेगा ही। हम ने मन ही मन िन य कर िलया िक एक बार
िफर सीजन म ज र आऐंगे। कृित क लीला भी अपर पार है। हर काय समय पर ही होता है।
मजाल या िक सरू ज अपने व त से एक पल भी िवल ब से िनकले। िकतना अनुशासन है
स पणू कृित म, इसी िलए यारी है। और हम आदमी ह िक एक भी काम समय पर नह करते।
कम से कम इस से ही सीख ले ल, समय क क़ मत नह पहचानने के कारण ही हम लोग इतने
दुख व तनाव के िशकार ह। एक-एक ण का मोल जान ल तो यह जीवन िकतना बहतर हो
सकता है, कभी सोचा हम ने...? नह ...। यह सोचने के िलए भी हमारे पास व त कहाँ है।
अिधकतर समय तो बेकार काम क भट चढ़ जाता है। वाक़ई िजस िदन कृित अपना अनुशासन
तोड़ देगी, लय हो जाएगा। आदमी है िक इस के अनुशासन को भंग करने म कोई कसर नह
छोड़ रहा, िजस के दु फल शनै: शनै: सामने आ रहे ह। वो तो अपना और कृित का जानी
दु मन बन बैठा है। इस का िवनाश करने पर तुला बैठा है। ई र इसे स ुि दान करे , देर से ही
सही, उसे यह मम समझ म आ जाए और कृित-पु ष दोन ही सुकून से रह सक।
नीचे आ कर वही सु दर पाम जैसी पि य वाला पौधा ढूँढने लगे। हम ऐसा लगा िक इस क
पि याँ ऊटी के फूल क तरह वष भर हरी रह सकती ह। पंकज जी ने भी हमारा समथन िकया
और पहाड़ी पर से कई पि याँ चुन लाए एवं उ ह डोरी से बाँध कर गाड़ी म रख िदया। हम उन के
आभारी हो गए। 2-3 िदन उन के साथ घम ू ने से हम लोग म पर पर काफ आ मीयता हो चुक
थी। अपनापन-सा लगने लगा था। इस बीच, यानी इन दो-तीन िदन म उ ह ने कई पयटक के
िदलच प िक़ से भी हम सुनाए। यहाँ एक और िदलच प बात हई। हम रा ते म घम ू ते हए देख कर
एक कार हमारे पास आ कर ठहर गई। वे लोग भी कार से उतर कर पहाड़ी सौ दय का
अवलोकन करने लगे। इस म दो मिहलाऐं, दो पु ष एवं दो ब चे थे। उस गाड़ी का ाइवर पंकज
जी का प रिचत िनकला, दोन म कुछ बात हई ं। हमारे रा ते म ठहरने का कारण पंकज जी ने
उ ह बता िदया। वे लोग पहाड़ी पर ब दर क तरह उछल-कूद करने लगे। उन क िकलका रय
से वािदयाँ गँज
ू उठ । तब हम कृित व ब चे एक से िन छल लगे। ब चे भी तो कृित क ही तरह
िनमल, िन छल, ख़बू सरू त और मासम ू होते ह। अभी हमारे सामने कृित के िब दास सौ दय क
बेशुमार दौलत िबखरी हई थी।
‘‘ये ह रयाली और ये रा ता
इन राह से
तेरा-मेरा
जीवन भर का वा ता
ये ह रयाली और ये रा ता...।’’
नकुिचया ताल
इ ह हरी-भरी वािदय से गुज़रते हए पंकज जी ने इशारे से कहा िक यह ‘रानी बाग़’ है। यहाँ
एच.एम.टी. घड़ी क फै ी है। चिलए घिडय़ क फै ी भी देखी। वो भी पहाड़ म। हम तो यही
सोचते थे िक फै ि याँ तो मैदान म ही होती ह गी, पहाड़ म भला इन का या काम, लेिकन हम
भलू गए िक यहाँ पठार भी तो होता है। जहाँ यह सब स भव है, लेिकन पहाड़ को तो कारख़ान
से बचाया जाना चािहए। कम से कम इ ह तो दूषण से मु रखने म या हरज है। कोई तो
जगह हो जहाँ आदमी शु ता का सेवन कर सके। आगे ाइवर साहब ने कहा िक घिडय़ क
फै ी नैनीताल म भी थी, मगर बेईमानी व धाँधली के कारण ब द हो गई। बात ही बात म हम
नकुिचया ताल पहँच गए और पता भी नह चला। उतर कर हम लोग ने पहले ताल तक जा कर
उस का अवलोकन िकया। ताल के दूसरी ओर पहाड़ी पर गे ट हाउस बने हए थे, जहाँ पर नौका
से ही जाया जा सकता था। थोड़ी सी त ऱीह कर के हम वापस गाड़ी तक आए। सुबह से खाना
नह खाया था, उस क यव था करनी थी। पंकज जी ने पास ही पहाड़ी पर बने छोटे से ढाबे क
ओर इशारा करते हए कहा िक यहाँ खाना खाया जा सकता है, ऑडर देने के बाद आधे घ टे म
गमागम भोजन तैयार हो जाएगा। तभी हम यान आया िक इ ह ने भी तो खाना नह खाया,
सुबह से हमारे साथ ही तो घम ू ा िक आप के लंच का या होगा। हँस
ू रहे ह। अत: हम ने उन से पछ
कर बोले आप को मेरी िफ़ है, बड़ा अ छा लग रहा है, यह जान कर। आप को िदल से ध यवाद।
वरना कोई भी पयटक गाड़ी वाले के भोजन क िच ता नह करता। आज पहली बार आप ने ऐसी
अ छी बात क है। वाक़ई आप बड़ी संवेदनशील व सरल दया ह। लेिकन आप को एक बात
बताऊँ िक सुबह तो म ना ता कर आता हँ और लंच साथ म ले कर आता हँ। जब भख ू लगती है,
गाड़ी म खा लेता हँ। हमारा तो यह रोज़ाना का ही काम है। अब रोज़-रोज़ होटल का खाना सेहत
के िलए अ छा नह होता और महँगा भी पड़ता है। वैसे आज तो म ने भी अभी तक खाना नह
खाया। आप ढाबे पर चिलए, आप वहाँ खाएं गे तो म भी आप के साथ ही लंच कर लँग ू ा, अ छा
लगेगा। हम ने हाँ क मु ा म सर िहलाया और पहाड़ी पर ढाबे म आ गए। भोजन क जानकारी
ली। दाल-रोटी, तरकारी, पकौड़े सब बना देते ह ये लोग। वैसे आज मंगलवार है, हमारा त है,ै हम
ने ‘यक़ न’ जी से कहा। वे बोले, कोई बात नह त खोलने का समय तो हो ही गया, दे दो सब
के िलए ऑडर। सो, वि नल क पस द से पकौड़े सिहत ऑडर बुक करवा िदया और ये दोन
वह लगी कुिसय पर बैठ कर आराम करने लगे। पहाड़ी पर बड़ी ही सु दर नसरी लगी हई थी।
हम माता-पु ी इस का अवलोकन करने लगे। कई नई िक़ म के पौधे यहाँ देखने को िमले। छोटे-
छोटे नीबू के पेड़ पर बड़े -बड़े पहाड़ी नीबू लगे हए थे। तोड़गे तो चोरी कहलाएगी। वैसे ऐसी
नटखट चो रयाँ चोरी क ेणी म नह होनी चािहऐं। जब खाने का मन है तो तोड़ कर खा लो।
कृित है ही सब के िलए। लेिकन िनजी स पि से सारी कृित का लु फ़ नह उठाया जा सकता।
जहाँ तक ग़लत काम का है, तो ऐसी बात कभी मन म आती ही नह । ऐसे सं कार ही नह
ह, हमारे । पछ
ू कर ज़ र तोड़ सकते थे। तभी वि नल चहक म मी-म मी, देखो दो नीबू वो नीचे
पड़े हए ह। इ ह तो हम ले ही सकते ह। िफर भी हम ने तो इ कार ही िकया, लेिकन बचपन ऐसी
छोटी-मोटी बात मान ले तो बचपन ही या? उस ने तो उठा िलए। ऐसा कर के ख़ुश होते हए
बोली, इ ह कोटा ले चलना, भैया को िखलाऊँगी। मतलब वहाँ उस पर रौब झाड़े गी िक देख हम
ने या- या नह देखा वहाँ। हम उस क बाल सुलभ च चलता व भोलेपन को देख कर इ कार
नह कर सके।
शनै: शनै: हम ने परू ी नसरी का बाक़ायदा िनरी ण िकया। बहत ही यारे व नए-नए पौधे व
फूल लगे हए थे। एक छोटे से पेड़ पर चेरी जैसा फल नज़र आया। तोड़ना चाहा मगर नह तोड़ा,
बाद म नीचे आ कर मालम ू चला िक है तो वह चेरी ही, मगर न ली है। खाने वाली नह । देखा
आप ने कभी-कभी सं कार भी हमारी सुर ा करते ह। हम चोरी कर के तोड़ कर खा लेते तो या
होता? हाँ, कोई भी नई चीज़ खाने के पवू उस क िव सनीयता एवं िनरापद होने क जाँच ज़ री
है। कुछ देर बाद हम नीचे आ कर सामने नकुिचया ताल का अवलोकन करने लगे। इस का कुछ
िह सा सख ू ा हआ था। आप सोच रहे ह गे इसे नकुिचया ताल य कहते ह। यही सवाल हमारे मन
म 2-3 िदन से आ रहा था, जब से इस का नाम सुना था। इस के नौ कोने होने के कारण इस का
नाम नकुिचया ताल पड़ा है, ऐसा पंकज जी ने बताया, साथ म यह भी कहा िक कोई भी यि
एक साथ इस के नौ कोन को नह देख सकता चाहे हे लीकॉ टर से ही य न कोिशश करे । यही
इस ताल क िवशेषता है। एक साथ नह देख पाने का कारण है, कोन का काफ टेढ़ा-मेढ़ा
होना। हाँ, सात कोने ज़ र एक साथ देखे जा सकते ह। हम ने सोचा, यह कृित का अपना
मुआमला है, आदमी द ल भी कैसे दे सकता है? हर जगह स भव भी नह है।
इस ताल म ख़बू सारे कमल के फूल िखले हए थे, जो बहत ही मनभावन लगे, यह यहाँ का
िवशेष आकषण है। फूल तो वैसे भी कृित का बेिमसाल ख़बू सरू त नज़राना है, आदमी के िलए।
ऐसी नज़ाकत, ऐसा सौ दय और कहाँ िमलेगा। फूल म िफर वो भी कमल ह तो कहने ही या।
हम इसे फूल का नवाब भी कह सकते ह, कोई हम से पछ ू े या हमारी माने तो। ल मी जी ने अपना
आसन सोच-समझ कर ही कमल को बनाया होगा। उ ह ने सु दरतम उपादान ही चुना होगा,
ज़ािहर है। ऊपर से जनाब एक और िवशेषता क़ािबले-ग़ौर है िक यह पानी म रह कर भी उस से
िन पहृ रहता है। मजाल या िक एक बँदू भी इस पर िटक रह जाए, पानी से एकदम अ भािवत,
वाक़ई है ना ग़ज़ब क बात। यह तो वो ही बात हो गई िक काजल क कोठरी म रहे और एक भी
दाग़ नह लगे। जल म भी सख ू ा, वाह री कृित माँ, तेरे रह य का भी जवाब नह । ‘जल म
कमलवत रहना’ कहावत इसी िलए इतनी चिलत है। कमल क बात पर एक और कहावत याद
आ गई िक ‘कमल क चड़ म िखलता है’ यानी क चड़ म इतनी ख़बू सरू त चीज़ भी िखल सकती
है। ता पय है िक हर चीज़ क अपनी मह ा है। क चड़ इतना हे य भी नह है और िकसी से उ प न
होने का कदािप यह अथ नह िक वो उस जैसा ही हो। ख़राब कुल म ज मे या ग़लत यवसाय से
जुड़े माता-िपता क स तान को समाज हे य ि से देखता है, लेिकन ज़ री तो नह िक ऐसा
बालक बुरा ही हो। वह क चड़ म कमलवत भी हो सकता है।
हनम
ु ान गढ़ी
घड़ी क सइू याँ ऐसे समय म तेज़ गित से चलती तीत होती ह। अत: समय क नज़ाकत
देखते हए हम नीचे उतरे एवं नौला धारा ि थत हनुमानगढ़ी क ओर थान िकया। कुछ ही देर
म हम पवन-पु हनुमान जी क 40 फ ट ऊँची ितमा के सामने उतरे । इतनी िवशाल ितमा देख
कर ठगे-से रह गए। गाड़ी से उतर कर चार ओर के य पर नज़र घुमाई, हर तरफ़ सुषमा ही
सुषमा। पंकज जी बोले, देिखए आप को जो थल म िदखा रहा हँ, कैसे लग रहे ह? कोई भी
ट्यू र ट गाइड इन थान को अमम ू न नह िदखाते। जहाँ तक म समझता हँ आप को अ छा लग
रहा होगा। िज़यादातर ट्ïयू र ट गाइड ी संकटमोचन हनुमान जी को ही हनुमान गढ़ी के नाम
से िदखा देते ह। हम ने कहा- हाँ भई! बहत ही अ छा लग रहा है, हम सब खुश ह। इस से भी
िज़यादा ख़ुशी इस बात क है िक आप बड़ी आ मीयता से हम घुमा रहे ह। तभी पंकज जी बोले-
चिलए आप ख़ुश ह, यही मेरे िलए बहत बड़ी बात है। अब आप पहले नीचे वै णो देवी के मि दर म
दशन कर आइए, ये सामने गुफा म से हो कर रा ता जाता है। हम लोग ने गुफा म वेश िकया।
बहत ख़बू ...वाक़ई, सु दर तरीक़े से बनाई हई है, िब कुल पहाड़ी गुफा-सा नैसिगक टच िदया
गया है। तािक पयटक को िबलकुल वै णो देवी के मंिदर के जैसा ही अहसास हो सके। गुफा
काफ़ ल बी िनकली। इस के प ात माता जी का मि दर। परू ी ा से दशन िकए। वह पास ही
राधा-कृ ण का मि दर भी था, उन के दशन भी िकए। यहाँ ी कृ ण क ितमा को साँवले रं ग म
दशाया गया है, जो वाभािवक-सा लगा, कुछ हट कर भी, बस अ छा लगा, शायद साँवले रं ग के
कारण ही। राम-सीता जी का भी मि दर था, लेिकन वो ताले म ब द कर िदए थे, यानी पट ब द
थे। बेचारे भगवान को पुजा रय के इशार पर नाचना पड़ता है। उन क इ छा पर ही नहाना-
धोना, खाना-पहनना-ओढ़ना। भगवान के इशारे पर आदमी नाचता है या नह यह तो भगवान ही
जाने, लेिकन आदमी ज़ र भगवान को अपनी मज़ से नचा लेता है।
काठगोदाम
यहाँ से हम काठगोदाम के िलए रवाना हए। रा ते म भीमताल के। वही भ य पहाड़ी क
आग़ोश म िखलिखलाती झील बहत िवल ण यावली। यहाँ को क फल िमल रहा था। हम ने
लेना चाहा, मगर पंकज जी बोले नैनीताल म तो इसे कोई नह खाता, सो हम ने भी लेना र कर
िदया। िकसी के कह देने से मन पर बहत फ़क़ पड़ता है। इसी िलए कहा जाता है िक हर ल ज़
सोच-िवचार कर बोलो, एक श द िज़ंदगी को आबाद कर देता है तो एक श द जीवन को बरबादी
क राह पर ले जाता है। यहाँ कुछ देर ठहरे , पहाड़ी सौ दय का जी भर रसपान िकया। भोजन क
पछू ताछ क , मगर कुछ पस द का नह था, अत: काठगोदाम जा कर ही खाने का सामिू हक प
से िनणय िलया। तभी कुछ देर के िलए ाइवर साहब ग़ायब हो गए, वापस आए तो मँग ू फली का
पैकेट एवं टॉिफ़याँ हमारे हाथ म थमा द । बोले दोन को साथ खाना अ छा लगेगा। इसी बात पर
अचानक किव रामनारायण ‘हलधर’ का दोहा याद आ गया, आप भी सुन-
काठगोदाम यहाँ से मा 20 िकलोमीटर था। वही पहाड़ी रा ते, वही मनमोहक ह रयाली।
नैनीताल य - य पीछे छूटता जा रहा था, य - य हम दुख हो रहा था, मुड़-मुड़ कर पीछे देखते
जा रहे थे। सु दरता से जी भी भरे तो कैसे। ख़च एवं समय क सीमा से अिधक ठहर भी नह
सकते, लौटना तो िनयित है। लेिकन मन म एक िव ास होता है िक िफर सुअवसर िमलेगा और
क़ुदरत के वैभव से पुन: -ब- ह गे। बीच म एक-दो जगह हम ने गाड़ी कवाई और रा ते के
िकनारे खड़े हो कर घािटय -वािदय का दीदार करने लगे। इतना ख़ुशनुमा मौसम और या
चािहए? वहाँ से तलहटी म बहती एक जलधारा िदखाते हए, पंकज जी ने कहा िक यह वाला
नदी है। नैनीताल के अ चल म कं ट एवं रे त यह से स लाई होती है। कुछ देर खुले म टहले,
सयू ा त होने को था। दूर पहािडय़ क ओट म उतरने को उ त सरू ज मन को बहत लुभा रहा था।
िकसी सनसेट वॉइ ट से कम ख़ुशनुमा नह था, यह य। के.पी. जी बोले- लो देख लो एक बार
और सनसेट यह से। मँग ू फिलयाँ सब गटक ही रहे थे। य िक पंकज जी ने िहदायत दी थी िक
काठगोदाम तक इ ह हर हाल म ख़ म करना ही है। िकसी के नेिहल आदेश को नकारने का
दु साहस भला कोई कर सकता है? हम पंकज जी को मँग ू फली ऐसे िखला रहे थे, मानो हम ने ही
ख़रीदी ह । सब ेम क बात ह, साहब। यही जीवन का स चा सुख है। िमल जाए तो अहो भा य।
कहने को ढाई आखर ह, मगर- मेरा ही एक शेर न है-
अरे ...बात -बात म काठगोदाम ही आ गया। जाते समय यानी चढ़ते समय ल बी ्रती ा के
बाद नैनीताल आया था। यह भी हम ने अनुभव िकया है िक कह भी जाते समय व त अिधक
लगता है, मगर लौटने म तुर त ही मंिजल ़ आ जाती है। काठगोदाम के बाज़ार म कई रे ाँ हम
ाइवर साहब ने िदखाए, मगर सभी वेज़-नॉनवेज़ िम स थे। आिख़र उ ह ने एक ऑटो र शे वाले
से पछू ा तो उस ने टू र ट िडपाटमट का पता िदया और सीधे हम वह ले गए। वहाँ पहँच कर हम ने
देखा िक सफ़ाई भी ख़बू थी, घर के जैसी रसोई, क़ मत भी वािजब। सामान उतार कर पंकज जी
ने िवदा माँगी। दो-तीन िदन इन के साथ रहने से आ मीयता-सी हो गई थी, आदमी भी अ छे लगे,
भले इ सान िनकले। उ यही कोई 35-40 वष क । इन से जुदा होने का िजतना दुख हम सब
को हो रहा था, उतना ही उ ह भी था। पंकज जी के चहरे पर भी उदासी झलकने लगी थी। िकराए
के िलए भी बोले िक जो आप क मज़ हो दे दो। बहत इसरार करने पर भी मँुह से कुछ नह बोले।
शायद ेमवश ही ऐसा हो रहा था। आिख़र ‘यक़ न’ साहब ने 750 पए उन के हाथ म थमा िदए।
बहत आ मभाव झलक रहा था, उन क आँख म िवदा के समय। ‘बाय’ कह कर वो नैनीताल क
ओर हो िलए। हम लोग भीतर रसे शन म कुछ देर सु ताए। िफर खाने का ऑडर कर के आराम
फ़माया। मा 15 िमिनट म भोजन तैयार था। य िक खाना हमारे ही िलए बना था। उस समय
वहाँ अ य कोई सैलानी था ही नह । दाल-रोटी, स ज़ी एकदम घर जैसी। बहत िदन बाद इतना
अ छा खाना िमला था। िदन भर क ती ा फिलत हो गई। ुधा शा त होने से काफ़ स तुि
िमली। ई र को ध यवाद िदया।
आ अब लौट चल
अभी ेन के आने म काफ़ समय था, सो वह टू र ट ऑिफ़स म कुछ जानकारी लेने लगे।
उ रा चल मण क बुकलेट भी ली। कमर का िकराया पछ ू ा तो 400 पए म डबल बेड वाला
कमरा था। कमरा एकदम व छ, बड़ा व अ छा। हम दंग रह गए। हाँ, मौसम के अनुसार कुछ कम
िज़यादा ज़ र हो जाता है, मगर अिधक फ़क़ नह पड़ता। मलाल हो रहा था, इस िडपाटमे ट के
होटेल म नह ठहरने का, अत: आगे याद रखने का मन म संक प िलया। ये बात अलग है िक
हम अगली या ा तक सब भल ू जाते ह। अरे ... यहाँ सीिढय़ पर उ रा चल के पयटन थल क
दूरी व नाम िलखे हए ह, तािक सैलािनय को िबना पछ ू े ही जानकारी िमल जाए। बड़ा अ छा लगा
हम यह आइिडया, ख़ैर यह टू र ट होटेल है, यह होना ही चािहए।
नवनीत के िलये एक टी-शट ख़रीदी, अपने िलए एक बैग जो रोज़ाना कूल ले जाते-ले जाते
अब फट चुका है। वो बैग वाला भी, ‘िसलाई तो नह खुलेगी’, यह पछ ू ने पर बड़ा िबफरा था, िफर
हम ने भी सोचा िक 65 पए म या आता है? एक पिटयाला सटू ख़रीदा। कुछ और ख़रीददारी
कर के रे ाँ पर खाना खाया। खाना स ता व अ छा था। िद ली म वैसे भी खाने क कोई
सम या नह है। ये तो देश का से टर है। हर तरह क सुिवधा यहाँ उपल ध होती ही है। हम ने
बादाम का दूध िपया, वि नल ने छोले-पड़ ू ी ली। इधर व त होने को था, भाग कर टेशन आए,
लॉक म से सामान िनकाले, टेशन पर ात हआ िक ेन 4 घ टे लेट है। अब सामान भी
िनकाल चुके थे, समझ म नह आ रहा था या कर? इधर-उधर होते रहे , मै ज़ीन पढ़ते रहे , िफर
वि नल व हम वापस चाँदनी-चौक क ओर चल िनकले। सीडी खरीदने हे तु लाला लाज पतराय
माकट जाना था, मगर लाल िक़ले से ही वापस मुड़ गए, भीड़ इतनी थी िक िह मत नह कर सके
आगे जाने क । आदमी से िज़यादा तो र शे थे यहाँ। थकान भी बहत हो चुक थी, अत: माल व
मौजे ही ख़रीदे। वापसी म देखा सड़क के िकनारे भी खाना िमल रहा था। हर वग के िलए यहाँ
खाना उपल ध है। अ छी बात है िकसी को भख ू ा नह रहना पड़े । टेशन पर आ कर पता चला िक
गाडी 8:30 तक आने क संभावना है। कह िकसान आ दोलन के तहत गािडय़ाँ रोक ली गई ह,
कुछ का माग प रवतन िकया गया है। आ दोलन िकस का, सज़ा कौन भुगते? अब या था, सो
ए जॉय करने म ही अपनी भलाई समझी, य िक जहाँ वश नह चले वहाँ दुखी होने से फ़ायदा
भी या? ए जवॉय करो, म त रहो। हम लोग या ी लोग क िविभ न हरकत देखते उन के
मनोभाव को पढऩे क कोिशश करते, बात बनाते व हँसते, लेिकन यह भी अनुभव म बढ़ोतरी ही
हो रही थी। काफ़ िवल ब के बाद गाड़ी का इ तज़ार ख़ म हआ और हम लोग कोटा पहँचने के
ख़याल म डूब गए। किव-कथाकार आन द संगीत का यह शैर याद आया, आप क भी न है-
‘‘लोग घणाँ ई घम
ू बा-फरबा जावै छै
फै ँ हँई तो हारो घर ही भावै छै।’’
-इित शुभम...।
◆ ◆ ◆