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|| श्री नाथ संप्रदाय ससद्ांत - भाग २ ||

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"नाथ अवधूत का लक्षण और स्वरुप"
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कौन है अवधूत? :-

नाथ संप्रदाय और योग के इस अद् भुत मागग में


गुरु ही समस्त मंगलो का स्वरुप है,
और एक मात्र आधार है,
सिना पूणगगुरु के सभी जप,तप और सिया सभी व्यथग है.
एक मात्र पूणग अवधूत गुरु ही साधक को पूणगता प्रदान कर सकते है,
केवल मात्र अवधूत ही नाथ मागग में गुरु हो सकते है,
अवधूत सकसे कहना चासहए?
अवधूत कौन है?
- सजसके प्रत्येक शब्द और वचन में वेद मंत्र और उसका सार समाया हो,
सजनके पद पद पर तीथग िसते है,
सजनके चलने मात्र से पादस्पशग से भूसम तीथगस्वरुप हो जाती है,
सजसकी दृष्टी में कैवल्य मोक्ष प्रदान करने की क्षमता है,
और सजनके सासनध्य मात्र से योग साधक को
अपने सनरं जन स्वरुप का िोध (ज्ञान) हो जाए,
वह "अवधूत" ही हमारा कल्याण कर सकता है |
सजनके एक हाथ में त्याग (सनवृसि, मोक्ष) है
और दु सरे हाथ में भोग (प्रवुसि मागग के सभी सुखसाधन) है
पर सनवृसि और प्रवुसि अथागत त्याग और भोग
के रहते हुए भी उससे परे और असलप्त है, वही "अवधूत" है.

नाथ अवधूत के लक्षण :-

जो प्रकृसत के समस्त सवकार


(दे हगत आसक्ति और उससे सम्बंसधत धन, स्त्री, पुत्र, के प्रसत मोह)
का त्याग कर दे ता है वह अवधूत कहा जाता है,
वही योग को जानने वाला है.
सारे प्रपंच और षडररपु
(काम, िोध,लोभ, मोह, मद आसण मत्सर.)
इनका अवधुनन कर अंत करने वाला तथा सनत्य अखंड अपने
सनज स्वरुप में सचि का लय रखने वाला ही अवधूत है.

शक्ति सृसष्ट का सवस्तार (संचार, प्रसार) प्रकासशत करती है,


और सशव सृसष्ट का संकोच (सवलय, संहार) प्रगट करते है,
पर अवधूत योगी तो जो इन दोनों सिया (संकोच, सवस्तार) को
करने में समथग है, पर असपतु इन इससे पर रहते है,
वही ससद् योसगराज है.

आब्रह्मस्तम्बपयंत सम्पूणग परमात्मसन |


सभन्नासभन्नं न पश्यासम तस्याहं पंचमाश्रमी ||

ब्रह्मा से लेकर स्तंभ (सनजीव खंिे) तक समस्त (चराचर)


जगत परमात्मा में ही समाया है,
ब्रह्मचयग , गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम से भी
परे पंचमाश्रम में अवधूत क्तस्थत है,
वह सकसी भी सवषय में भेद अभेद नहीं दे खते .
वह सनत्य सनरं तर अभेद दृष्टी ही रखते है,
ऐसे मूसतगमान और प्रगट "अवधूत" ही नाथ योगी होते है,
क्ोंसक नाथ योसगयों को पांचो आश्रम
(ब्रह्मचयग , गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) इन से
ऊपर कहा गया है और नाथ योगी चतुथगः वणग
(ब्राह्मण, क्षसत्रय, वैश्य, क्षुद्र) इन्हें नहीं मानते ,
वह सवगत्र मुि और स्वछं द है,
आश्रमों और वणग से िंधे हुए गुरु अपने वेशमात्र (िहाररक रूप)
से सन्मान और प्राप्त करते है और
पररधान तथा अपने वंश-कुल के कारण गुरु पद प्राप्त करते है,
पर कही कारणों से वह स्वयं मुि नहीं है,
इसी कारण गुणातीत
(तीनो गुणों की वृसतयों में सवगथा सनरपेक्ष या परे रहने वाले)
अत्याश्रमी "अवधूत" को ही मुक्ति प्रदान करने वाला
गुरुपद प्राप्त हो सकता है,
पूणग अवधूत गुरु ही अपने सशष्य को सवषयभोगो के िंधन से
छु टकारा दे कर संसार -सागर से पार उतारने में समथग होते है,
ऐसा असधकार और सामर्थ्ग सकसी दु सरे को प्राप्त नहीं है,
स्वयं महायोगी जगतगुरु गोरक्षनाथ जी महाराज अपने
द्वारा प्रसतपासदत ग्रंथ "अमन्यस्क योग" में कहते है

"कुलाचारसवहीनस्तु गुरुरे कोही दु लगभः"


(अमन्यस्क योग - २\१७)

कुल आश्रम और आचार (वणागश्रम की मयागदा/ िंधन)


से मुि और सवहीन तथा उनसे ऊपर उठा हुआ
(अत्याश्रमी अवधूत योगी) ही पूणग गुरु है,
वह तीनो लोको में दु लगभ है.

नाथ अवधूतो का स्वरुप :-

नाथ अवधूत योगी भगवे अथवा श्वेत वस्त्र धारण करते है,
अपनी इच्छा अनुसार कोई पूणग वस्त्र तोह कोई योगी जन
ससर्ग लंगोट और कटीवस्त्र पहनते है ,
कर्नी कंथा, अल्फी, गाती यह कुछ प्रकार के अन्य वस्त्र है
और साथ ही अपने ससर पर सार्ा, पघडी, अथवा
"गोरख टोपी" धारण करते है,
नाथ योगी अपने ससर को सनत्य आराधना और अन्य कमग ,
जैसे की ध्यान धारणा, आरती पूजा, भोजन के
समय ढक कर रखते है,
सजससे आतंररक योग उजाग का "सहस्रार चि" से क्षय न हो,
इसी कारण नाथ योगी और साधक खुले ससर को ठीक नहीं मानते ,

कई नाथ अवधूत पंचकेश और जटा रखते है,


तो कई योगीजन रुंडमुंड (केश रसहत) रहते है,
तपस्वी अवधूत सनत्य अपने शरीर पर भस्म रमाते है,
और श्वेत सुन्दर अद् भुत रूप िनाकर साधनारत रहते है,
भस्म संसार के नश्वर (ख़त्म होने वाला) होने का प्रसतक है,
भस्म लगाने का अथग है की इस नश्वर संसार का िोध रख कर,
उसमे प्रगट रहना,
इसी प्रकार प्रलय के िाद संसार भस्मीभूत हो जाता है
पर सशव तत्व उसीमे प्रगट और सवराजमान रहता है,
और उसी भस्म से नई सृसष्ट की रचना होती है,
वैसे ही उत्पसि और सवलय के चि में
अवधूत तोह अखंड रूप से रहते है,
भस्म मंसडत हो कर.
नाथ संप्रदाय के योगी अपने गले में
काले उन से सनमीत जनेऊ धारण करते हैं
जो 16 तंतुओ को आपस में गुंथ कर 12 ½ हाथ लंिी
होती है, यह जनेऊ तीन नाडी का प्रसतक मानते है,
१. इडा २.सपंगळा ३.सूषुमना
जनेऊ के साथ पसवत्री रुद्राक्ष, मूंगा, स्फसटक और "नादी"
जुडी हुई रहती है, जो कार्ी दशगनीय लगती है
नादी अनहद नाद और ओमकार का प्रतीक मानी जाती है,
नादी द्वारा जो सूक्ष्म नाद प्रगट होता है
उसे अनहद नाद का स्थुल स्वरुप माना गया है,
इसे ही "अनाहत शंगी" कहा गया है.

कुछ अवधूत योगी अपने साथ झोली, कमंडल,


िटु आ, सचमटा, सत्रशूल, डमरू भैरव दं ण्ड,
कड़ा, करद, इत्यासदक भी धारण करते है,
सजनका सवसशष्ठ साधनात्मक अथग होता है,

नाथ संप्रदाय के अवधूत योगी अपने कानो में कुंडल धारण करते है,
यह "जीवात्मा" और "परमात्मा" का असभन्न-एकत्व ससद् करते है,
इन्हें मुद्रा या दशगन भी कहते है,
सशष्य के पररपक्व और योग्य होने पर सदगुरु द्वारा उन्हें
कुंडल पहनाये जाते है. सजसमे दोनों कानो के मध्य चीरा लगा कर
समट्टी से सनसमगत िड़े कुंडल पहनाये जाते है,
यह सम्पूणग सिया असत गुप्त रूप से होती है,
सजसे साधारण जन में नहीं िताया जाता,

नाथ संप्रदाय में ऐसी कहावत प्रख्यात है की


"दशगनी (कुंडलधारी) काया, सशव की काया"
अथागत मुद्रा (कुंडल) धारण सकये हुए "अवधूत योगी"
स्वयं सशव-गोरक्ष रूप ही माने जाते है,
उनकी काया (दे ह) और सशव की काया में कोई र्कग नहीं,
सशरोमसण और पूज्य ऐसे अवधूत योगी,
जो अन्य योसगयों और मनुष्यों के साथ दे वताओ में भी सप्रय और
पुजनीय माने जाते है, जो योगी अपने कानो मे मुद्रा धारण सकये हुए है,
उसे असधकाररक रूप से पूणग मान नाथ संप्रदाय में
अवधूत, ससद्, योगीराज और नाथजी,
ऐसे शुभ नामो से संिोसधत सकया जाता है
कुंडलधारी योगी और उनके कानो में मुद्रा को दे ख
दे वतागण असत प्रसन्न होते है, वह उस योगी के सम्पूणग कायग
अनुष्ठान और संकल्ों में सहाय होते है,
असुरवगग कुंडलधारी योगी को दे खकर भयभीत होते है,
इसी कारण मुद्रा (कुंडल) सदा कल्याणकारी कहे गए है.

इसी प्रकार स्वयं सशव रूप हो कर नाथ अवधूत इस भूसम पर


सवचरण करते हुए अथवा अपने मठ अस्थानो से
जनमानस और लोक कल्याण हेतु कायगरत रहते है,
आसदगुरू श्री भगवान आसदनाथ जी,
सनत्यनाथ दादा गुरु श्री योगी मत्स्येन्द्रनाथ जी
तथा सदासशव महायोगी जगतगुरु
श्री गोरक्षनाथ जी के मूसतगमान और प्रगट स्वरुप
"भेख भगवान" (श्री नाथ संप्रदाय) के रूप में
योग ज्ञान और गुरु सशष्य परं परा का सनवागहन
गुरु रूप अवधूत नाथ योगी आज भी कर रहे है.

"सशवगोरक्ष शरणम् - नाथ धमग शरणम् "


सलक्तखतं :- योगी अवंसतकानाथ,
गुरु श्री श्री १०८ महंत योगी
श्री तुलसीनाथ जी महाराज
(सगरनार)

आदे श आदे श अलख असतत


ससद्ो, अवधूतो, गुरुवरो को आदे श
नाथ ससद्ो का धमग जागे
अलख आदे श
ॐ सशव गोरक्ष

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