बनत सावन िरसे औरं न के घरमे ब ंदगी की धुप छाव ले मोरे मनमे सावन के आनेका इं त ार हर सालमें।।१।। मुझको है इं त ार उसकी चाहत में शहनाई करे मधुर गुनगुन मन मे प्रकृबत के रं ग पकड़ नही ं पाऊं तनमें नही ं घोलू बकसी इन्द्रधनुष के रं गमें ।।२।। कोई कहे वक्त से खम है भरता वक्त मेरा खम और बचघलाता बिन िादल घटे है बदलके झरने िादलोंका सावनके िंद कवाडोंने ।।३।। कांच के टू टने की आवा तो है आती बदलके टू टने की आवा नही ं आती आभास सही कभी तुम मुझको बमलते मेरे इन घायाल हालात को सहलाते ।।४।। अिके िार इस सावन में ए िादल तू बनराश ना कर धुमड घुमड़ कर यूूँ िरस रं गलू मै सप्तरं ग इन्द्रधनुष में ।।५।। कमलाकर बवश्वनाथ आठल्ये २१-०२-२०१३