You are on page 1of 8

1

।। श्री भृगु संहिता सर्ाारिष्ट हिर्ािण स्तोत्र।।(


िोज सकाळ संध्याकाळ मोठयांिी र्ाचणे )
ॐ गं गणपतये िमः। सर्ा-हर्घ्न-हर्िाशिाय,
सर्ाारिष्ट हिर्ािणाय, सर्ा-सौख्य-प्रदाय,
बालािां बुद्धि-प्रदाय, िािा-प्रकाि-धि-
र्ािि-भूहम-प्रदाय, मिोर्ांहित-फल-प्रदाय
िक्ां कुरू कुरू स्वािा।।
ॐगुिर्े िमः,ॐ श्रीकृष्णाय िमः,ॐ
बलभद्राय िमः,ॐ श्रीिामाय िमः,ॐ ििुमते
िमः,ॐ हशर्ाय िमः,ॐ जगन्नाथाय िमः,ॐ
बदिीिािायणाय िमः,ॐ श्री दुगाा -दे व्यै िमः।।
ॐ सूयााय िमः,ॐ चन्द्राय िमः,ॐ भौमाय
िमः,ॐ बुधाय िमः,ॐ गुिर्े िमः,ॐ भृगर्े
िमः,ॐ शहिश्चिाय िमः,ॐ िािर्े िमः,ॐ
पुच्छाियकाय िमः,ॐ िर्-ग्रि िक्ा कुरू
कुरू िमः।।

1
2

ॐ मन्येर्िं िरिििादय एर् दृष्ट्वा द्रष्टेषु येषु


हृदयस्थं त्वयं तोषमेहत हर्हर्क्ते ि भर्ता भुहर्
येि िान्य कहिन्मिो ििहत िाथ
भर्ान्तिे ऽहप।ॐ िमो महणभद्रे । जय-हर्जय-
पिाहजते ! भद्रे ! लभ्यं कुरू कुरू स्वािा।
ॐ भूभुार्ः स्वः तत्-सहर्तुर्ािेण्यं भगो दे र्स्य
धीमहि हधयो यो िः प्रचोदयात्।। सर्ा हर्घ्नं
शांन्तं कुरू कुरू स्वािा।।
ॐ ऐं ह्ी ं क्ी ं श्रीबटु क-भैिर्ाय
आपदुिािणाय मिाि्-श्याम-स्वरूपाय
हदर्ाारिष्ट-हर्िाशाय िािा प्रकाि भोग प्रदाय
मम (यजमािस्य र्ा) सर्ारिष्टं िि िि, पच
पच, िि िि, कच कच,िाज-द्वािे जयं कुरू
कुरू,व्यर्िािे लाभं र्ृद्धिं र्ृद्धिं ,िणे शत्रुि्
हर्िाशय हर्िाशय,पूणाा आयुः कुरू
कुरू,स्त्री-प्राद्धतं कुरू कुरू,हुम् फट् स्वािा।।

2
3

ॐ िमो भगर्ते र्ासुदेर्ाय िमः। ॐ िमो


भगर्ते, हर्ि-मूताये, िािायणाय,
श्रीपुरूषोत्तमाय िक् िक्, युग्मदहधकं प्रत्यक्ं
पिोक्ं र्ा अजीणं पच पच, हर्ि-मूहताकाि् िि
िि, ऐकाहिकं द्वाहिकं त्राहिकं चतुिहिकं ज्विं
िाशय िाशय, चतुिहि र्ाताि् अष्टादष-क्याि्
िांगाि्, अष्टादश-कुष्ठाि् िि िि, सर्ा
दोषं भंजय-भंजय, तत्-सर्ं िाशय-िाशय,
शोषय-शोषय, आकषाय-आकषाय, मम शत्रुं
मािय-मािय, उच्चाटय-उच्चाटय, हर्द्वे षय-
हर्द्वे षय, स्तम्भय-स्तम्भय, हिर्ािय-हिर्ािय,
हर्घ्नं िि िि, दि दि, पच पच, मथ मथ,
हर्ध्वंसय-हर्ध्वंसय, हर्द्रार्य-हर्द्रार्य, चक्रं
गृिीत्वा शीघ्रमागच्छागच्छ, चक्रेण िि िि,
पा-हर्द्ां िे दय-िे दय, चौिासी-चेटकाि्
हर्स्फोटाि् िाशय-िाशय, र्ात-शुष्क-दृहष्ट-
सपा-हसंि-व्याघ्र-हद्वपद-चतुष्पद अपिे बाह्यं

3
4

तािाहभः भव्यन्तरिक्ं अन्यान्य-व्याहप-केहचद्


दे श-काल-स्थाि सर्ााि् िि िि, हर्द् युन्मेर्-
िदी-पर्ात, अष्ट-व्याहध, सर्ा-स्थािाहि, िाहत्र-
हदिं, चौिाि् र्शय-र्शय, सर्ोपद्रर्-
िाशिाय, पि-सैन्यं हर्दािय-हर्दािय, पि-
चक्रं हिर्ािय-हिर्ािय, दि दि, िक्ां कुरू
कुरू, ॐ िमो भगर्ते , ॐ िमो िािायणाय,
हुं फट् स्वािा।।
ठः ठः ॐ ह्ी ं ह्ी ं। ॐ ह्ी ं क्ी ं भुर्िेियााः श्री ं
ॐ भैिर्ाय िमः। िरि ॐ उद्धच्छष्ट-दे व्यै िमः।
डाहकिी-सुमुखी-दे व्यै, मिा-हपशाहचिी ॐ ऐं
ठः ठः।
ॐ चहक्रण्या अिं िक्ां कुरू कुरू, सर्ा-
व्याहध-ििणी-दे व्यै िमो िमः। सर्ा प्रकाि
बाधा शमिमरिष्ट हिर्ािणं कुरू कुरू फट् ।श्री ं
ॐ कुद्धिका दे व्यै ह्ी ं ठः स्वािा।।शीघ्रमरिष्ट
हिर्ािणं कुरू कुरू शाम्बिी क्री ं ठः स्वािा।।
4
5

शारिका भेदा मिामाया पूणं आयुः कुरू।


िे मर्ती मूलं िक्ा कुरू। चामुण्डायै दे व्यै शीघ्रं
हर्ध्नं सर्ं र्ायु कफ हपत्त िक्ां कुरू।
मन्त्र तन्त्र यन्त्र कर्च ग्रि पीडा िडति, पूर्ा
जन्म दोष िडति, यस्य जन्म दोष िडति,
मातृदोष िडति, हपतृ दोष िडति, मािण
मोिि उच्चाटि र्शीकिण स्तम्भि उन्मूलिं
भूत प्रेत हपशाच जात जादू टोिा शमिं कुरू।
सद्धन्त सिस्वत्यै कद्धिका दे व्यै गल
हर्स्फोटकायै हर्हक्त शमिं मिाि् ज्वि क्यं
कुरू स्वािा।। सर्ा सामग्री भोगं सत हदर्सं
दे हि दे हि, िक्ां कुरू क्ण क्ण अरिष्ट
हिर्ािणं, हदर्स प्रहत हदर्स दुःख ििणं मंगल
किणं काया हसद्धिं कुरू कुरू। िरि ॐ
श्रीिामचन्द्राय िमः।

5
6

िरि ॐ भूभुार्ः स्वः चन्द्र तािा िर् ग्रि


शेषिाग पृथ्वी दे व्यै आकाशस्य सर्ाारिष्ट
हिर्ािणं कुरू कुरू स्वािा।।
ॐ ऐं ह्ी ं श्री ं बटु क भैिर्ाय आपदुिािणाय
सर्ा हर्घ्न हिर्ािणाय मम िक्ां कुरू कुरू
स्वािा।।
ॐ ऐं ह्ी ं क्ी ं श्रीर्ासुदेर्ाय िमः, बटु क
भैिर्ाय आपदुिािणाय मम िक्ां कुरू कुरू
स्वािा।।
ॐ ऐं ह्ी ं क्ी ं श्रीहर्ष्णु भगर्ाि् मम अपिाध
क्मा कुरू कुरू, सर्ा हर्घ्नं हर्िाशय, मम
कामिा पूणं कुरू कुरू स्वािा।।
ॐ ऐं ह्ी ं क्ी ं श्रीबटु क भैिर्ाय
आपदुिािणाय सर्ा हर्घ्न हिर्ािणाय मम िक्ां
कुरू कुरू स्वािा।।
ॐ ऐं ह्ी ं क्ी ं श्री ं ॐ श्रीदुगाा दे र्ी रूद्राणी
सहिता, रूद्र दे र्ता काल भैिर् सि, बटु क
6
7

भैिर्ाय, ििुमाि सि मकि ध्वजाय,


आपदुिािणाय मम सर्ा दोषक्माय कुरू
कुरू सकल हर्घ्न हर्िाशाय मम शुभ
मांगहलक काया हसद्धिं कुरू कुरू स्वािा।।
एष हर्द्ा मािात्म्यं च, पुिा मया प्रोक्तं ध्रुर्ं।
शम क्रतो तु िन्त्येताि्, सर्ााश्च बहल दािर्ाः।।
य पुमाि् पठते हित्यं, एतत् स्तोत्रं हित्यात्मिा।
तस्य सर्ााि् हि सद्धन्त, यत्र दृहष्ट गतं हर्षं।।
अन्य दृहष्ट हर्षं चैर्, ि दे यं संक्रमे ध्रुर्म्।
संग्रामे धाियेत्यम्बे , उत्पाता च हर्संशयः।।
सौभाग्यं जायते तस्य, पिमं िात्र संशयः।
द्रुतं सद्ं जयस्तस्य, हर्घ्नस्तस्य ि जायते।।
हकमत्र बहुिोक्तेि, सर्ा सौभाग्य सम्पदा।
लभते िात्र सन्दे िो, िान्यथा र्चिं भर्ेत्।।
ग्रिीतो यहद र्ा यत्नं, बालािां हर्हर्धैिहप।
शीतं समुष्णतां याहत, उष्णः शीत मयो भर्ेत्।।
िान्यथा श्रुतये हर्द्ा, पठहत कहथतं मया।
7
8

भोज पत्रे हलखेद् यन्त्रं, गोिोचि मयेि च।।


इमां हर्द्ां हशिो बध्वा, सर्ा िक्ा किोतु मे।
पुरूषस्याथर्ा िािी, िस्ते बध्वा हर्चक्णः।।
हर्द्रर्द्धन्त प्रणश्यद्धन्त, धमाद्धस्तष्ठहत हित्यशः।
सर्ाशत्रुिधो याद्धन्त, शीघ्रं ते च पलायिम्।।
।। श्रीभृगु संहिता सर्ाारिष्ट हिर्ािण
स्तोत्र सम्पूणा।।

You might also like