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यज्ञ
यज्ञ
1 अथर्
1
2 3 यज्ञीय िवज्ञान
दध
ू के जल का यह प्रतीकात्मक प्रयोग ■सफर् यह ज्ञान देता है िक 3 यज्ञीय िवज्ञान
मनुष्य के अिनयंित्रत िवचार या अनुभव, संसार म अथर् हीन ह और
वह प्राकृतक ■सद्धांत द्वारा नह फैल सकता। कोई भी अनुभव
सवर् व्यापी नह होता। कोई व्यिक्त जो दख
ु ी है वह अपने दख ु के मन्त्र म अनेक शिक्त के स्रोत दबे ह। ■जस प्रकार अमुक स्वर-
अनुभव को कैसे व्यक्त कर सकता है? और यिद वह अपनी बात िवन्यास ये युक्त शब्द क रचना करने से अनेक राग-रागिनयाँ
कहता भी है या रोता िबलखता है, तो भी कोई दस ू रा व्यिक्त उस बजती ह और उनका प्रभाव सुनने वाल पर िवभन्न प्रकार का
दखु को नह समझ सकता। होता है, उसी प्रकार मंत्रोच्चारण से भी एक िवशष्ट प्रकार क ध्विन
तरंग िनकलती ह और उनका भारी प्रभाव िवश्वव्यापी प्रकृत पर,
दध ू को मथने से उसका जल और घी अलग अलग हो जाते ह।
सू म जगत् पर तथा प्राणय के स्थूल तथा सू म शरीर पर पड़ता
अब उसी अिग्न म घी डाला जाता है, ■जस से अिग्न उसे प्रकाश म
प रवतत कर देती है।। अिग्न और घी का यह प्रतीकात्मक प्रयोग है।
■सफर् यह ज्ञान देता है िक जब ज्ञान को उसी अिग्न पी सत्य म यज्ञ के द्वारा जो शिक्तशाली त व वायुमण्डल म फैलाये जाते ह,
डाल िदया जाता है तब इस कमर् का प्रभाव अलग हो जाता है और उनसे हवा म घूमते असंख्य रोग क टाणु सहज ही नष्ट होते ह।
अिग्न उस ज्ञान को संसार म प्रकाशत हो अंधकार को दरू करती डी.डी.टी., िफनायल आिद छड़कने, बीमा रय से बचाव करने
है। वाली दवाएँ या सुइयाँ लेने से भी कह अधक कारगर उपाय यज्ञ
मुिदता मथइ, िवचार मथानी। दम आधार, रज्जु सत्य सुबानी। तब करना है। साधारण रोग एवं महामा रय से बचने का यज्ञ एक
मथ कािढ़, लेइ नवनीता। िबमल िबराग सुभग सुपुनीता ॥ 116.8 सामूिहक उपाय है। दवाओं म सीिमत स्थान एवं सीिमत व्यिक्तय
उत्तरकाण्ड को ही बीमा रय से बचाने क शिक्त है; पर यज्ञ क वायु तो सवर् त्र ही
पहुँचती है और प्रयतन न करने वाले प्राणय क भी सुरक्षा करती
िबमल ज्ञान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगत उर छायी ॥
121.6 उत्तरकांड है। मनुष्य क ही नह , पशु-पक्षय , क टाणुओं एवं वृक्ष-वनस्पतय
के आरोग्य क भी यज्ञ से रक्षा होती है।
प्रसन्नता के साथ, सांस रक िवचार को मथ कर उसे शुद्ध करने
क िक्रया, इंिद्रय के संयम को खंबे क तरह खड़ा कर, सत्य और यज्ञ क ऊष्मा मनुष्य के अंतःकरण पर देवत्व क छाप डालती
वाणी के रस्सी द्वारा क जाती है। दध ू अथार्त संसार के िवचार है। जहाँ यज्ञ होते ह, वह भूिम एवं प्रदेश सुसंस्कार क छाप अपने
के इसी तरह मथने से घी िनकाला जाता है, ■जसम मल अथार्त अन्दर धारण कर लेता है और वहाँ जाने वाल पर दीघर् काल तक
अशुद्ध नह होती और उसम उत्सगर् या वैराग्य होता है और वह प्रभाव डालता रहता है। प्राचीनकाल म तीथर् वह बने ह, जहाँ
सुंदर और पिवत्र है। जो भी उस िनमर् ल या मल रिहत, ज्ञान से बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे। ■जन घर म, ■जन स्थान म यज्ञ होते ह, वह
स्नान करता है, उसके हऋदय म श्री राम क भिक्त, अपने आप भी एक प्रकार का तीथर् बन जाता है और वहाँ ■जनका आगमन
प रछायी क तरह आ जाती है। रहता है, उनक मनोभूिम उच्च, सुिवक■सत एवं सुसंस्कृत बनती
ह। मिहलाएँ , छोटे बालक एवं गभर् स्थ बालक िवशेष प से यज्ञ
दध ू , घी और अिग्न और प्रकाश, क्रमशः अनुभव और ज्ञान और
शिक्त से अनुप्राणत होते ह। उन्ह सुसंस्कारी बनाने के लए यज्ञीय
िववेक और सत्य ह और यज्ञ उनका एक सामंजस्य है।
वातावरण क समीपता बड़ी उपयोगी ■सद्ध होती है।
यिद यज्ञ भावना के साथ मनुष्य ने अपने को जोड़ा न होता, तो
ु एवं दष्ु कम से िवकृत मनोभूिम म यज्ञ से
कुबुद्ध, कुिवचार, दगु र् ण
अपनी शारी रक असमथर् ता और दबु र् लता के कारण अन्य पशुओं
भारी सुधार होता है। इस लए यज्ञ को पापनाशक कहा गया है।
क प्रतयोिगता म यह कब का अपना अ स्तत्व खो बैठा होता।
यज्ञीय प्रभाव से सुसंस्कृत हुई िववेकपूणर् मनोभूिम का प्रतफल
यह ■जतना भी अब तक बढ़ा है, उसम उसक यज्ञ भावना ही एक
मात्र माध्यम है। आगे भी यिद प्रगत करनी हो, तो उसका आधार जीवन के प्रत्येक क्षण को स्वगर् जैसे आनन्द से भर देता है, इस लए
यही भावना होगी। यज्ञ को स्वगर् देने वाला कहा गया है।
प्रकृत का स्वभाव यज्ञ परंपरा के अनु प है। समुद्र बादल को यज्ञीय धमर् प्रिक्रयाओं म भाग लेने से आत्मा पर चढ़े हुए मल-िवक्षेप
उदारतापूवर्क जल देता है, बादल एक स्थान से दस ू रे स्थान तक दरू होते ह। फलस्व प तेजी से उसम ईश्वरीय प्रकाश जगता है।
उसे ढोकर ले जाने और बरसाने का श्रम वहन करते ह। नदी, नाले यज्ञ से आत्मा म ब्राह्मण त व, ऋिष त व क वृद्ध िदनानु-िदन होती
प्रवािहत होकर भूिम को स चते और प्राणय क प्यास बुझाते ह। है और आत्मा को परमात्मा से िमलाने का परम ल य बहुत सरल
वृक्ष एवं वनस्पतयाँ अपने अ स्तत्व का लाभ दस ू र को ही देते ह। हो जाता है। आत्मा और परमात्मा को जोड़ देने का, बाँध देने का
पुष्प और फल दस ू रे के लए ही जीते ह। सूयर्, चन्द्र, नक्षत्र, वायु कायर् यज्ञािग्न द्वारा ऐसे ही होता है, जैसे लोहे के टू टे हुए टु कड़ को
आिद क िक्रयाशीलता उनके अपने लाभ के लए नह , वरन् दस ू र बै ल्डग क अिग्न जोड़ देती है। ब्राह्मणत्व यज्ञ के द्वारा प्राप्त होता है।
इस लए ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लए एक तहाई जीवन यज्ञ कमर्
के लए ही है। शरीर का प्रत्येक अवयव अपने िनज के लए नह ,
के लए अ पत करना पड़ता है। लोग के अंतःकरण म अन्त्यज
वरन् समस्त शरीर के लाभ के लए ही अनवरत गत से कायर् रत
वृ त्त घटे-ब्राह्मण वृ त्त बढ़े, इसके लए वातावरण म यज्ञीय प्रभाव
रहता है। इस प्रकार ■जधर भी िष्टपात िकया जाए, यही प्रकट
क शिक्त भरना आवश्यक है।
होता है िक इस संसार म जो कुछ स्थर व्यवस्था है, वह यज्ञ वृ त्त
पर ही अवल म्बत है। यिद इसे हटा िदया जाए, तो सारी सुन्दरता, िवधवत् िकये गये यज्ञ इतने प्रभावशाली होते ह, ■जसके द्वारा
कु पता म और सारी प्रगत, िवनाश म प रणत हो जायेगी। ऋिषय मान■सक दोष -दर् गु ुण का िनष्कासन एवं सद्भाव का अभवधर् न
ने कहा है- यज्ञ ही इस संसार चक्र का धुरा है। धुरा टू ट जाने पर िनतान्त संभव है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईष्र्या,
द्वेष, कायरता, कामुकता, आलस्य, आवेश, संशय आिद मान■सक
गाड़ी का आगे बढ़ सकना किठन है।
उद्वेग क चिकत्सा के लए यज्ञ एक िवश्वस्त पद्धत है। शरीर के
असाध्य रोग तक का िनवारण उससे हो सकता है।
3
अिग्नहोत्र के भौतक लाभ भी ह। वायु को हम मल, मूत्र, श्वास तथा अपनाने वाले व्यिक्त न केवल समाज का, ब ल्क अपना भी सच्चा
कल-कारखान के धुआँ आिद से गन्दा करते ह। गन्दी वायु रोग कल्याण करते ह। संसार म ■जतने भी महापु ष, देवमानव हुए ह,
का कारण बनती है। वायु को ■जतना गन्दा कर, उतना ही उसे उन सभी को यही नीत अपनानी पड़ी है। जो उदारता, त्याग,
शुद्ध भी करना चािहए। यज्ञ से वायु शुद्ध होती है। इस प्रकार सेवा और परोपकार के लए कदम नह बढ़ा सकता, उसे जीवन
क साथर् कता का श्रेय और आनन्द भी नह िमल सकता।
सावर् जिनक स्वास्थ्य क सुरक्षा का एक बड़ा प्रयोजन ■सद्ध होता
है। यज्ञीय प्रेरणाओं का मह व समझाते हुए ऋग्वेद म यज्ञािग्न को पु-
यज्ञ का धूम्र आकाश म-बादल म जाकर खाद बनकर िमल जाता रोिहत कहा गया है। उसक शक्षाओं पर चलकर लोक-परलोक
दोन सुधारे जा सकते ह। वे शक्षाएँ इस प्रकार ह-
है। वषार् के जल के साथ जब वह पृथ्वी पर आता है, तो उससे
प रपुष्ट अन्न, घास तथा वनस्पतयाँ उत्पन्न होती ह, ■जनके सेवन
से मनुष्य तथा पशु-पक्षी सभी प रपुष्ट होते ह। यज्ञािग्न के माध्यम 1. जो कुछ हम बहुमूल्य पदाथर् अिग्न म हवन करते ह, उसे वह
से शिक्तशाली बने मन्त्रोच्चार के ध्विन कम्पन, सुदरू क्षेत्र म िबखरकर अपने पास संग्रह करके नह रखती, वरन् उसे सवर् साधारण
लोग का मान■सक प रष्कार करते ह, फलस्व प शरीर क तरह के उपयोग के लए वायुमण्डल म िबखेर देती है। ईश्वर प्र-
मान■सक स्वास्थ्य भी बढ़ता है। दत्त िवभूतय का प्रयोग हम भी वैसा ही कर, जो हमारा
यज्ञ पुरोिहत अपने आचरण द्वारा ■सखाता है। हमारी शक्षा,
अनेक प्रयोजन के लए-अनेक कामनाओं क पूत के लए, अनेक
समृद्ध, प्रतभा आिद िवभूतय का न्यूनतम उपयोग हमारे
िवधान के साथ, अनेक िवशष्ट यज्ञ भी िकये जा सकते ह। दशरथ
ने पुत्रेिष्ट यज्ञ करके चार उत्कृष्ट सन्तान प्राप्त क थ , अिग्नपुराण म लए और अधकाधक उपयोग जन-कल्याण के लए होना
चािहए।
तथा उपिनषद म वणत पंचािग्न िवद्या म ये रहस्य बहुत िवस्तार-
पूवर्क बताये गये ह। िवश्वािमत्र आिद ऋिष प्राचीनकाल म असुरता 2. जो वस्तु अिग्न के सम्पकर् म आती है, उसे वह दरु दरु ाती नह ,
िनवारण के लए बड़े-बड़े यज्ञ करते थे। राम-ल मण को ऐसे ही वरन् अपने म आत्मसात् करके अपने समान ही बना लेती है।
एक यज्ञ क रक्षा के लए स्वयं जाना पड़ा था। लंका युद्ध के बाद जो िपछड़े या छोटे या िबछुड़े व्यिक्त अपने सम्पकर् म आएँ ,
राम ने दस अश्वमेध यज्ञ िकये थे। महाभारत के पश्चात् कृष्ण ने उन्ह हम आत्मसात् करने और समान बनाने का आदशर् पूरा
भी पाण्डव से एक महायज्ञ कराया था, उनका उद्देश्य युद्धजन्य कर।
िवक्षोभ से क्षुब्ध वातावरण क असुरता का समाधान करना ही था।
जब कभी आकाश के वातावरण म असुरता क मात्रा बढ़ जाए, तो 3. अिग्न क लौ िकतना ही दबाव पड़ने पर नीचे क ओर नह
उसका उपचार यज्ञ प्रयोजन से बढ़कर और कुछ हो नह सकता। होती, वरन् ऊपर को ही रहती है। प्रलोभन, भय िकतना ही
सामने क्य न हो, हम अपने िवचार और काय क अधोगत
आज िपछले दो महायुद्ध के कारण जनसाधारण म स्वाथर् परता क
न होने द। िवषम स्थतय म अपना संकल्प और मनोबल
मात्रा अधक बढ़ जाने से वातावरण म वैसा ही िवक्षोभ िफर उत्पन्न अिग्न शखा क तरह ऊँचा ही रख।
हो गया है। उसके समाधान के लए यज्ञीय प्रिक्रया को पुनज िवत
करना आज क स्थत म और भी अधक आवश्यक हो गया है। 4. अिग्न जब तक जीिवत है, उष्णता एवं प्रकाश क अपनी िव-
शेषताएँ नह छोड़ती। उसी प्रकार हम भी अपनी गतशीलता
क गम और धमर् -परायणता क रोशनी घटने नह देनी चा-
िहए। जीवन भर पु षाथ और कत्तर्व्यिनष्ठ बने रहना चािहए।
4 यज्ञीय प्रेरणाएँ
5. यज्ञािग्न का अवशेष भस्म मस्तक पर लगाते हुए हम सीखना
होता है िक मानव जीवन का अन्त मुट्ठी भर भस्म के प
यज्ञ आयोजन के पीछे जहाँ संसार क लौिकक सुख-समृद्ध को
म शेष रह जाता है। इस लए अपने अन्त को ध्यान म रखते
बढ़ाने क िवज्ञान सम्मत परंपरा सन्निहत है-जहाँ देव शिक्तय के
हुए जीवन के हर पल के सदपु योग का प्रयत्न करना चािहए।
आवाहन-पूजन का मंगलमय समावेश है, वहाँ लोकशक्षण क भी
प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है। ■जस प्रकार 'बाल फ्रेम' म लगी हुई
रंगीन लकड़ी क गो लयाँ िदखाकर छोटे िवद्याथय को िगनती अपनी थोड़ी-सी वस्तु को वायु प म बनाकर उन्ह समस्त जड़-
■सखाई जाती है, उसी प्रकार यज्ञ का श्य िदखाकर लोग को चेतन प्राणय को िबना िकसी अपने-पराये, िमत्र-शत्रु का भेद िकये
यह भी समझाया जाता है िक हमारे जीवन क प्रधान नीत 'यज्ञ' साँस द्वारा इस प्रकार गुप्तदान के प म खला देना िक उन्ह पता
भाव से प रपूणर् होनी चािहए। हम यज्ञ आयोजन म लग-परमाथर् भी न चले िक िकस दानी ने हम इतना पौिष्टक त व खला िदया,
परायण बन और जीवन को यज्ञ परंपरा म ढाल। हमारा जीवन यज्ञ सचमुच एक श्रेष्ठ ब्रह्मभोज का पुण्य प्राप्त करना है, कम खचर् म
के समान पिवत्र, प्रखर और प्रकाशवान् हो। गंगा स्नान से ■जस बहुत अधक पुण्य प्राप्त करने का यज्ञ एक सव त्तम उपाय है।
प्रकार पिवत्रता, शा न्त, शीतलता, आदरता को हऋदयंगम करने
यज्ञ सामूिहकता का प्रतीक है। अन्य उपासनाएँ या धमर् -प्रिक्रयाएँ
क प्रेरणा ली जाती है, उसी प्रकार यज्ञ से तेज स्वता, प्रखरता,
परमाथर् -परायणता एवं उत्कृष्टता का प्रशक्षण िमलता है। यज्ञ वह ऐसी ह, ■जन्ह कोई अकेला कर या करा सकता है; पर यज्ञ ऐसा
कायर् है, ■जसम अधक लोग के सहयोग क आवश्यकता है।
पिवत्र प्रिक्रया है ■जसके द्वारा अपावन एवं पावन के बीच सम्पकर्
होली आिद पव पर िकये जाने वाले यज्ञ तो सदा सामूिहक ही
स्थािपत िकया जाता है। यज्ञ क प्रिक्रया को जीवन यज्ञ का एक
रहसर् ल कहा जा सकता है। अपने घी, शक्कर, मेवा, औषधयाँ आिद होते ह। यज्ञ आयोजन से सामूिहकता, सहका रता और एकता
बहुमूल्य वस्तुएँ ■जस प्र्रकार हम परमाथर् प्रयोजन म होम करते ह, क भावनाएँ िवक■सत होती ह।
उसी तरह अपनी प्रतभा, िवद्या, बुद्ध, समृद्ध, सामर् थ्य आिद को प्रत्येक शुभ कायर् , प्रत्येक पवर् -त्यौहार, संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न
भी िवश्व मानव के चरण म सम पत करना चािहए। इस नीत को होता है। यज्ञ भारतीय संस्कृत का िपता है। यज्ञ भारत क एक
4 4 यज्ञीय प्रेरणाएँ
मान्य एवं प्राचीनतम वैिदक उपासना है। धा मक एकता एवं भा- कई ती णव्रती होकर योग करते ह यह स्वाध्याय यज्ञ करने वाले
वनात्मक एकता को लाने के लए ऐसे आयोजन क सवर् मान्य पु ष शब्द म शब्द का हवन करते है। इस प्रकार यह सभी कुशल
साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दरू दशतापूणर् है। और यत्नशील योगाभ्यासी पु ष जीव बुद्ध का आत्म स्व प म
गायत्री सद्बुद्ध क देवी और यज्ञ सत्कम का िपता है। सद्भावनाओं हवन करते ह। द्रव्य यज्ञ- इस सृिष्ट से जो कुछ भी हम प्राप्त है
एवं सत्प्रवृ त्तय के अभवधर् न के लए गायत्री माता और यज्ञ िपता उसे ईश्वर को अ पत कर ग्रहण करना। तप यज्ञ- जप कहाँ से हो
रहा है इसे देखना तप यज्ञ है। स्वर एवं हठ योग िक्रयाओं को
का युग्म हर िष्ट से सफल एवं समथर् ■सद्ध हो सकता है। गायत्री
भी तप यज्ञ जाना जाता है। योग यज्ञ- प्रत्येक कमर् को ईश्वर के
यज्ञ क िवध-व्यवस्था बहुत ही सरल, लोकिप्रय एवं आकषर् क
लया कमर् समझ िनपुणता से करना योग यज्ञ है। ती ण वृती-
भी है। जगत् के दबु र् ु द्धग्रस्त जनमानस का संशोधन करने के लए यम िनयम संयम आिद कठोर शारी रक और मान■सक िक्रयाओं
सद्बुद्ध क देवी गायत्री महामन्त्र क शिक्त एवं सामर् थ्य अद्भुत भी द्वारा मन को िनग्रह करने का प्रयास. शम, दम, उपरत, ततीक्षा,
है और अिद्वतीय भी। समाधान, श्रद्धा। मन को संसार से रोकना शम है। बाह्य इ न्द्रय
नगर, ग्राम अथवा क्षेत्र क जनता को धमर् प्रयोजन के लए एक- को रोकना दम है। िनवृत्त क गयी इ न्द्रय भटकने न देना उपरत
ित्रत करने के लए जगह-जगह पर गायत्री यज्ञ के आयोजन करने है। सद -गम , सुख-दःु ख, हािन-लाभ, मान अपमान को शरीर धमर्
चािहए। गलत ढंग से करने पर वे महँगे भी होते ह और शिक्त क मानकरसरलता से सह लेना ततीक्षा है। रोके हुए मन को आत्म
बरबादी भी बहुत करते ह। यिद उन्ह िववेक-बुद्ध से िकया जाए, चन्तन म लगाना समाधान है। कई योगी अपान वायु म प्राण वायु
तो कम खचर् म अधक आकषर् क भी बन सकते ह और उपयोगी का हवन करते ह जैसे अनुलोम िवलोम से सम्बंधत श्वास िक्रया
भी बहुत हो सकते ह। तथा कई प्राण वायु म अपान वायु का हवन करते ह जैसे गुदा
अपने सभी कमर् काण्ड , धमार्नुष्ठान , संस्कार , पव म यज्ञ संकुचन अथवा ■सद्धासन। कई दोन प्रकार क वायु, प्राण और
आयोजन मुख्य है। उसका िवध-िवधान जान लेने एवं उनका अपान को रोककर प्राण को प्राण म हवन करते ह जैसे रेचक
प्रयोजन समझ लेने से उन सभी धमर् आयोजन क अधकांश और कुम्भक प्राणायाम। कई सब प्रकार के आहार को जीतकर
आवश्यकता पूरी हो जाती है। अथार्त िनयिमत आहार करने वाले प्राण वायु म प्राण वायु का
हवन करते ह अथार्त प्राण को पुष्ट करते ह। इस प्रकार यज्ञ द्वारा
लोकमंगल के लए, जन-जागरण के लए, वातावरण के प रशोधन
काम क्रोध एवं अज्ञान पी पाप का नाश करने वाले सभी; यज्ञ
के लए स्वतंत्र प से भी यज्ञ आयोजन सम्पन्न िकये जाते ह।
को जानने वाले ह अथार्त ज्ञान से परमात्मा को जान लेते ह। यज्ञ
संस्कार और पवर् -आयोजन म भी उसी क प्रधानता है।
से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले पर ब्रह्म परमात्मा को
प्रत्येक भारतीय धमार्नुयायी को यज्ञ प्रिक्रया से प रचत होना ही प्राप्त होते ह अथार्त यज्ञ िक्रया के प रणाम स्व प जो बचता है
चािहए। वह ज्ञान ब्रह्म स्व प है। इस ज्ञान पी अमृत को पीकर वह योगी
तृप्त और आत्म स्थत हो जाते ह परन्तु जो मनुष्य यज्ञाचरण नह
...................................................................................................................................................................................................................
भगवद्गीता के अनुसार यज्ञ' भगवद्गीता के अनुसार परमात्मा के करते उनको न इस लोक म कुछ हाथ लगता है न परलोक म।
िनिमत्त िकया कोई भी कायर् यज्ञ कहा जाता है। परमात्मा के इस प्रकार बहुत प्रकार क यज्ञ िवधयां वेद म बताई गयी ह। यह
िनिमत्त िकये कायर् से संस्कार पैदा नह होते न कमर् बंधन होता यज्ञ िवधयां कमर् से ही उत्पन्न होती ह। इस बात को जानकर कमर्
है। भगवदगीता के चौथे अध्याय म भगवान श्री कृष्ण द्वारा अजुर्न क बाधा से जीव मुक्त हो जाता है। द्रव्यमय यज्ञ क अपेक्षा ज्ञान
को उपदेश देते हुए िवस्तार पूवर्क िवभन्न प्रकार के यज्ञ को यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है। द्रव्यमय यज्ञ सकाम यज्ञ ह और अधक
बताया गया है। श्री भगवन कहते ह, अपर् ण ही ब्रह्म है, हिव ब्रह्म से अधक स्वगर् को देने वाले ह परन्तु ज्ञान यज्ञ द्वारा योगी कमर्
है, अिग्न ब्रह्म है, आहुत ब्रह्म है, कमर् पी समाध भी ब्रह्म है बन्धन से छुटकारा पा जाता है और परम गत को प्राप्त होता
और ■जसे प्राप्त िकया जाना है वह भी ब्रह्म ही है। यज्ञ परब्रह्म है। सभी कमर् ज्ञान म समाप्त हो जाते ह। ज्ञान से ही आत्म तृिप्त
स्व प माना गया है। इस सृिष्ट से हम जो भी प्राप्त है, ■जसे अपर् ण होती है और कोई कमर् अवशेष नह रहता। प्र व लत अिग्न सभी
िकया जा रहा है, ■जसके द्वारा हो रहा है, वह सब ब्रह्म स्व प है काष्ठ को भस्म कर देती है उसी प्रकार ज्ञानािग्न सभी कमर् फल
अथार्त सृिष्ट का कण कण, प्रत्येक िक्रया म जो ब्रह्म भाव रखता को; उनक आसिक्त को भस्म कर देती है। इस संसार म ज्ञान के
है वह ब्रह्म को ही पाता है अथार्त ब्रह्म स्व प हो जाता है। कमर् समान पिवत्र करने वाला वास्तव म कुछ भी नह है क्य िक जल,
योगी देव यज्ञ का अनुष्ठान करते ह तथा अन्य ज्ञान योगी ब्रह्म अिग्न आिद से यिद िकसी मनुष्य अथवा वस्तु को पिवत्र िकया
अिग्न म यज्ञ द्वारा यज्ञ का हवन करते ह। देव पूजन उसे कहते ह जाय तो वह शुद्धता और पिवत्रता थोड़े समय के लए ही होती है,
■जसम योग द्वारा अधदैव अथार्त जीवात्मा को जानने का प्रयास जबिक ज्ञान से जो मनुष्य पिवत्र हो जाय वह पिवत्रता सदैव के
िकया जाता है। कई योगी ब्रह्म अिग्न म आत्मा को आत्मा म हवन लए हो जाती है। ज्ञान ही अमृत है और इस ज्ञान को लम्बे समय
करते ह अथार्त अधयज्ञ (परमात्मा) का पूजन करते ह। कई
तक योगाभ्यासी पु ष अपने आप अपनी आत्मा म प्राप्त करता है
योगी इ न्द्रय के िवषय को रोककर अथार्त इ न्द्रय को संयिमत
क्य िक आत्मा ही अक्षय ज्ञान का श्रोत है। ■जसने अपनी इ न्द्रय
कर हवन करते ह, अन्य योगी शब्दािद िवषय को इ न्द्रय प
का वश म कर लया है तथा िनरन्तर उन्ह वशम रखता है, जो
अिग्न म हवन करते है अथार्त मन से इ न्द्रय िवषय को रोकते ह
िनरन्तर आत्म ज्ञान म तथा उसके उपाय म श्रद्धा रखता है जैसे
अन्य कई योगी सभी इ न्द्रय क िक्रयाओं एवं प्राण िक्रयाओं को
गु , शा , संत आिद म। ऐसा मनुष्य उस अक्षय ज्ञान को प्राप्त
एक करते ह अथार्त इ न्द्रय और प्राण को वश म करते ह, उन्ह
िन ष्क्रय करते ह। इन सभी वृ त्तय को करने से ज्ञान प्रकट होता होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होते ही परम शा न्त को प्राप्त होता
है। ज्ञान प्राप्त होने के बाद उसका मन नह भटकता, इ न्द्रय के
है ज्ञान के द्वारा आत्म संयम योगािग्न प्रज्व लत कर सम्पूणर् िवषय
िवषय उसे आक षत नह करते, लोभ मोह से वह दरू हो जाता
क आहुत देते हुए आत्म यज्ञ करते ह। इस प्रकार भन्न भन्न
है तथा िनरन्तर ज्ञान क पूणर्ता म रमता हुआ आनन्द को प्राप्त
योगी द्रव्य यज्ञ तप यज्ञ तथा दस ू रे योग यज्ञ करने वाले है और
होता है।
5
5 सन्दभर्
[1] Hindu Sa�skāras: Socio-religious Study of the Hindu
Sacraments, Rajbali Pandey (1969), see Chapter VIII,
ISBN 978-8120803961, pages 153-233
6.1 पाठ
• यज्ञ स्रोत: https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E?oldid=3355419 योगदानकतार्: मनीष
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4
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AF%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E_%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%AA%29.jpg लाइसस: CC
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