जब साधक की चे तना 'साधना' के पांचवे आयाम से गु जर रही होती है तो वह
अपने लिए कुछ भी करना नहीं चाहता, वह सदा दस ू रों के कल्याण के लिए ही जीता है ।प्रथम अवस्था के भाव में अपने को भी वह एक दस ू रे व्यक्ति के रूप में दे खता है । अपने में लिप्त नहीं होता। अपने शरीर को , अपने मन को, अपने व्यक्तित्व को, अपने सूक्ष्मयं तर् को, अपने मस्तिष्क को, अपने विचारों को, अपने पूर्व सं स्कारों को, अपने भीतर में उठने वाले भावों को, अपनी जीव- आत्मा को, अपनी आत्मा को व अं तत: अपने ही भीतर में उपस्थित ऊर्जा की विभिन्न अभिव्यक्तियों के रूपमें उपस्थित परमात्मा की शक्ति 'आदि शक्ति' को अलग-अलग कर के महसूस कर पाता है । इन सभी सं स्थाओं की विभिन्न आवशयकताओं के प्रति पूर्ण रूप से जागृ त होता है , और उनकी पूर्ति के प्रति कर्तव्य-निष्ठ होता है । इनसभी स्तरों को साक्षी बन कर अनु भव करता है और इनको ऐसे मानता है जै से अलग-अलग स्वभाव वाले व्यक्ति उसके भीतर अने कों प्रकार के व्यक्तित्वों के रूप में उपस्थित हैं । इन सभी के प्रति उसके मन में करुणा बहती है । क्योंकि 'वो' समझ पता है कि इन सभी की रचना स्वम 'परमपिता' ने की है । इन सभी की भिन्न-भिन्न जरूरतों को पूरा करने के लिए स्वम के भीतर 'परमात्मा' को महसूस कर उनकी 'दिव्य ऊर्जा' से इन सभी सं स्थाओं को सराबोर करता रहता है । क्योंकि 'वो' समझ पता है कि ये सभी जीवं त अस्तित्व है और इन्हें भी अपनी-अपनी जिम्मे दारियों से मु क्त होना है । समस्त ३३ करोड़ दे वी-दे वता जो उसके भीतर हैं उनकी मु क्ति का प्रबं ध उसने ही परमात्मा' के साथ जु ड़कर करना है । अपने इस 'शरीर रूपी' मं दिर को उसने स्वच्छ रखना है । दस ू री अवस्था के भाव में वह परमात्मा के द्वारा निर्मित हर प्राणी व रचना के प्रति सच्चा प्रेम रखता है व सभी के भीतर में परम-प्रिय परमात्मा को चित्त के माध्यम से ऊर्जा के रूप में अपने सहस्त्रार व मध्य हृदय में अनु भव करता है । उनकी बनाई इस पृ थ्वी से बहुत प्रेम करता है । उनके द्वारा रचित 'सु दरू ' दुनिया, ग्रह-नक्षत्रों, आकाश-गं गाओं व अनं त ब्रहम्मांड में चित्त रुपी 'यान' द्वारा अपने 'प्रिय' परमात्मा को अपने सहस्त्रार व मध्य हृदय पर महसूस करता है व उनकी उन स्थानों पर व्याप्त शक्तियों का 'विभिन्न चै तन्य धाराओं' के रूप में स्वाद चखता है । इस धरती के कोने -कोने पर व कण-कण में व्याप्त 'आदि शक्ति' को चित्त की सहायता से अपने दोनों मु ख्य केन्द्रों पर महसूस करता है व आनं दित होता है । वह ये तकनीकी रूप से जान जाता है कि भगवान कण-कण में होते है । तीसरी अवस्था के भाव में वह समस्त चरा-चर जगत को, अपने भीतर में 'ऊर्जा धाराओं'(चै तन्य) के रूप में आने वाले व जागृ त होने वाले परमपिता जो स्वम अपनी शक्ति'आदि शक्ति' के रूप में उसके भीतर प्रवाहित हो रहे है , कोअपने प्रकाशित चित्त के द्वारा वां छित स्थानों, मानवों, प्राणियों, व समस्त प्रकृति प्रदत्त सम्पददा को चै तन्यतित करता है ताकि इन सभी में व्याप्त 'आदि शक्ति' के अनु पात को अपने स्वम से जोड़ कर जागृ त कर अपने में जागृ त कर सके। वो किसी भी मानव के भीतर में 'चित्त रूप' में परिवर्तित होकर (सूक्ष्म होकर) उसकी शारीरिक व्याधियों को दरू करने का प्रयास करता है , मन में प्रवे श करके उनके मन को जड़ताओं से हटा कर उसमें परमात्मा का प्रेम भर दे ता है , किसी के घर पर चित्त की सहायता से जाकर उसके घर के कुल दे वताओं व स्थान दे वताओं को जगा कर उन्हें परम शक्ति का प्रेम केकर उन्हें आराम दे ता है , विश्व्यापी समस्याओं पर चित्त के द्वारा 'परमे श्वरी' के प्रेम को बहा कर उनके निराकरण का प्रयास करता है । आने वाली प्राक् रतिक आपदाओं के समय उत्ते जित 'पञ्च तत्वों' को चित्त की सहायता द्वारा अपने भीतर में जागृ त 'माँ जगदम्बा' का प्रेम दे कर उन्हें शांत करने का प्रयास करता है । सद कार्यों के लिए सभी को उत्साहित करता है । और जो भी ज्ञान व प्रेम परमात्मा ने उसे दिया है वो सभी को खु ले हृदय स बांटता है व कोशिश करता है कि सभी लोग परमात्मा के द्वारा बनाई गई इस दुनिया को बचाने का प्रयास करें । यानि वो जो भी करता है कल्याण कारी ही होता है । ' "Jai Shree Mata Ji"