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बनारस अपने आप में एक अनोखा शहर है । इसके इतने रं ग और रूप हैं कि लिखने और

समझने के लिए सदियां कम पड़ जाएं। अगर बनारस को थोड़ा सा भी समझना हो तो एक ठे ठ


बनारसी ही यहां के बारे में बता सकता है । 

वैसे मैं भी बनारसी हूं, एकदम ठे ठ बनारसी। बनारस की बात आते ही जेहन में कई फिल्मों की
झलकियां सामने दिखती हैं। उनमें से एक है 'रांझणा'। फिल्म राझणां के कंु दन की ही तरह
मेरा बचपन भी गंगा घाटों पर बड़े-बड़े सपने दे खते, खेलते-कूदते और मस्ती करते बीता है ।
मैंने भी यहां वो सारे मौसम दे खें हैं जो शहर को ही नहीं बल्कि जिंदगी को भी खुशनुमा बना
दे ते हैं। इस शहर से अगर आप अपनी लाइफ को relate करें गे तो कुछ अलग ही पाएंगे।

राजधानी एक्सप्रेस से भी तेज भागती जिंदगी को एक पल ठहर के समझना हो तो जनाब


आइए गंगा किनारे । यहां आकर आपको महसस
ू होगा कि जिंदगी इतनी भी बोझिल और
उलझी हुई नहीं है । इसमें थोड़ा ठहराव है , उतार-चढ़ाव है , मस्ती, सक
ु ू न और नशा है । 

इस शहर की सबसे खास बात ये है कि यहां आने वाला हर एक अजनबी इससे दोस्ती करके
जाता है । यहां की कुछ खास चीजें हैं जिसे मैंने महसूस किया है , जिसे जानकर आपको जरूर
इच्छा होगी कि एक बार इस शहर में घूमना तो बनता ही है । तो चलिए एक ठे ठ बनारसी
अपनी भावनाओं के जरिए इस शहर से आपको मिलवाने जा रही हूं। 

असि घाट, सपनों का सौदागर 


बनारस के बारे में तो एक बात हर किसी को पता होगी कि यहां की population से ज्यादा
यहां घाट और मंदिर हैं। हर गली के मोड़ पर एक मंदिर जरूर मिलेगा।

अगर घूमने निकले हैं तो इस घाट को अपनी लिस्ट में सबसे अंत में रखें क्योंकि जनाब यहां
आप अपने सपनों से सौदा कर जाएंगे। इस घाट पर आकर बेजान लोग भी बड़े-बड़े ख्वाब
दे खने लगते हैं। वहीं कुछ लोग जिनके ख्वाब बड़े होते हैं वो सब कुछ भूलकर इसकी
मनमोहक छवि में रं ग जाना चाहते हैं। 

यहां रोज सब
ु ह-शाम गंगा आरती और रात तक लोगों की चौपाल लगी रहती है । मेरी फेवरे ट
जगहों में से एक असि घाट इसलिए है क्योंकि फोटोग्राफी करने के लिए ये एक बेस्ट ऑप्शन
है । इस घाट पर आपको हर एक दे श के लोग मिल जाएंगे। 

यही वजह है कि घाटों की सैर कराने वाले नाविकों को इंग्लिश से लेकर तमिल तक लगभग
हर एक भाषा आती है । यहां सीखने वालों के लिए बहुत कुछ है । गरीबी और अमीरी actually
में होती क्या है , मैंने यहीं से समझा है । अगर आप हुक्का पीने की शौकीन हैं तो जनाब ये
जगह हुक्का वालों के लिए फेमस है । 
अगर गंगा के पानी में पैर डूबोकर लहरों की धुन सुनना हो और हवाओं से बातें करनी हो तो
असि घाट आइए। मैं challenge के साथ कहती हूं आपको यहां से प्यार हो जाएगा।

Read More: कार्तिक पर्णि


ू मा पर इन जगहों पर स्नान करने से परू ी होती है मन्नत
दशाश्वमेध घाट, शिव भक्तों का ठिकाना 
असि घाट से दशाश्वमेध घाट की दरू ी लगभग 3 किमी है । मैं हूं बनारसी इसलिए इस दरू ी को
आंखें बंद करके पैदल ही तय करना मेरे लिए बहुत आसान है । अगर आप बाहर से घम ू ने आएं
हैं तो शायद इस दरू ी को तय कर पाना आपके लिए थोड़ा मुश्किल हो। 

अगर आपको भरपूर मजे के साथ लोगों से मिलने, उन्हें जानने और तस्वीरें लेने का शौक है
तो आप पैदल ही जाएं। लेकिन सावधान रहें क्योंकि जेब कतरों से इस रास्ते पर आप चाह कर
भी नहीं बच पाएंगी। 

भस्म लगाकर कुछ साधू-संत और अवगड़ बाबा आपको डरा भी सकते हैं। यहां भीख मांगने
वाले तब तक आपका पीछा करें गे जब तक आप उन्हें कुछ दे न दें । इस रास्ते पर लोगों की
भीड़ के अलावा अलग-अलग variety की गायों का झड
ूं भी अपने गले में चमेली के फूलों की
माला पहने आपका स्वागत करती मिलेंगी। इन सब चीजों का मजा लेना है तो असि घाट से
दशाश्वमेध घाट पैदल ही चले आइए। अगर आप भगवान शिव के सच्चे भक्त हैं तो सोचिए
मत इस घाट पर आपको भगवान शंकर मिल सकते हैं।

मणिकर्णिका घाट, जिंदगी की सबसे कड़वी सच्चाई


जिंदगी और मौत दोनों से एक साथ मिलना हो तो इस घाट पर जरूर आइए। अगर मौत से
डरते हैं तो यहां आकर वो डर गायब हो जाएगा। एक ओर जहां कुछ खूबसूरत घाट लोगों को
जिंदगी जीना सीखाते हैं वहीं लोग मर-मिटने के बाद भी इन्हीं घाटों से मिलने आते हैं।
मणिकर्णिका घाट उन्हीं घाटों में से है जहां लोग मरने के बाद आते हैं अपनी जिंदगी का
हिसाब-किताब निपटाने। 

फिल्म ‘मसान’ के किस्से इसी घाट के हैं। मैंने इस घाट पर अकेले दे र रात तक बैठ कई
जिंदगियों को धुमिल होते दे खा है और धुएं की तरह उड़ जाते दे खा है । 
वाराणसी   भारत के उत्तर प्रदे श राज्य का प्रसिद्ध नगर है । इसे 'बनारस' और 'काशी' भी
कहते हैं। इसे हिन्द ू धर्म में सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक माना जाता है और इसे अविमुक्त
क्षेत्र कहा जाता है ।  इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्म में भी इसे पवित्र माना जाता है । यह
संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक और भारत का प्राचीनतम बसा शहर है ।

काशी नरे श (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी
धार्मिक क्रिया-कलापों के अभिन्न अंग हैं। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके
धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है । ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर
भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है । हिन्दस्
ु तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस
घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है । भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक,
संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें  कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलग

स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल,
पंडित रवि शंकर, गिरिजा दे वी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि
कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्द ू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथरामचरितमानस यहीं लिखा था
और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था।

वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्द ू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी
काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत
विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक
बोली है । वाराणसी को प्रायः 'मंदिरों का शहर', 'भारत की धार्मिक राजधानी', 'भगवान शिव
की नगरी', 'दीपों का शहर', 'ज्ञान नगरी' आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है ।

प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी परु ातन है , परं पराओं से
परु ाना है , किंवदं तियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें , तो उस
संग्रह से भी दोगन
ु ा प्राचीन है ।"

इतिहास

मख्
ु य लेख : वाराणसी का इतिहास

पौराणिक कथाओं के अनुसार, काशी नगर की स्थापना हिन्द ू भगवान शिव ने लगभग ५०००


वर्ष पूर्व की थी, जिस कारण ये आज एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल है । ये हिन्दओ
ु ं की
पवित्र सप्तपुरियों में से एक है । स्कन्द पुराण, रामायण, महाभारत एवं प्राचीनतम
वेद ऋग्वेद सहित कई हिन्द ू ग्रन्थों में इस नगर का उल्लेख आता है । सामान्यतया वाराणसी
शहर को लगभग ३००० वर्ष प्राचीन माना जाता है ।, परन्तु हिन्द ू परम्पराओं के अनुसार काशी
को इससे भी अत्यंत प्राचीन माना जाता है । नगर मलमल और रे शमी कपड़ों, इत्रों, हाथी दांत
और शिल्प कला के लिये व्यापारिक एवं औद्योगिक केन्द्र रहा है । गौतम बुद्ध (जन्म ५६७
ई.पू.) के काल में , वाराणसी काशी राज्य की राजधानी हुआ करता था। प्रसिद्ध चीनी
यात्री ह्वेन त्सांग ने नगर को धार्मिक, शैक्षणिक एवं कलात्मक गतिविधियों का केन्द्र बताया
है और इसका विस्तार गंगा नदी के किनारे ५ कि॰मी॰ तक लिखा है ।

विभूतियाँ

काशी में प्राचीन काल से समय समय पर अनेक महान विभति


ू यों का प्रादर्भा
ु व या वास होता
रहा हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

 महर्षि अगस्त्य
 धन्वंतरि
 गौतम बद्ध

 संत कबीर
 अघोराचार्य बाबा कानीराम
 लक्ष्मीबाई
 पाणिनी
 पार्श्वनाथ
 पतञ्जलि
 संत रै दास
 स्वामी रामानन्दाचार्य
 वल्लभाचार्य
 शंकराचार्य
 गोस्वामी तल
ु सीदास
 महर्षि वेदव्यास
 वल्लभाचार्य
प्राचीन काशी

मुख्य लेख : काशी का इतिहास


अतिप्राचीन

वाराणसी (बनारस), १९२२ ई

गंगा तट पर बसी काशी बड़ी परु ानी नगरी है । इतने प्राचीन नगर संसार में बहुत नहीं
हैं। हजारों वर्ष पूर्व कुछ नाटे कद के साँवले लोगों ने इस नगर की नींव डाली थी। तभी यहाँ
कपड़े और चाँदी का व्यापार शुरू हुआ। कुछ समय उपरांत पश्चिम से आये ऊँचे कद के गोरे
लोगों ने उनकी नगरी छीन ली। ये बड़े लड़ाकू थे, उनके घर-द्वार न थे, न ही अचल संपत्ति
थी। वे अपने को आर्य यानि श्रेष्ठ व महान कहते थे। आर्यों की अपनी जातियाँ थीं, अपने कुल
घराने थे। उनका एक राजघराना तब काशी में भी आ जमा। काशी के पास ही अयोध्या में भी
तभी उनका राजकुल बसा। उसे राजा इक्ष्वाकु का कुल कहते थे, यानि सूर्यवंश। काशी में  चन्द्र
वंश की स्थापना हुई। सैकड़ों वर्ष काशी नगर पर भरत राजकुल के चन्द्रवंशी राजा राज करते
रहे । काशी तब आर्यों के पूर्वी नगरों में से थी, पूर्व में उनके राज की सीमा। उससे परे पूर्व का
दे श अपवित्र माना जाता था।
महाभारत काल

महाभारत काल में काशी भारत के समद्ध


ृ जनपदों में से एक था। महाभारत में वर्णित
एक कथा के अनुसार एक स्वयंवर में  पाण्डवों और कौरवों के पितामह भीष्म ने काशी
नरे श की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण किया था। इस अपहरण के
परिणामस्वरूप काशी और हस्तिनापरु  की शत्रत
ु ा हो गई। कर्ण ने भी दर्यो
ु धन के लिये काशी
राजकुमारी का बलपूर्वक अपहरण किया था, जिस कारण काशी नरे श महाभारत के युद्ध में
पाण्डवों की तरफ से लड़े थे। कालांतर में गंगा की बाढ़ ने हस्तिनापुर को डुबा दिया, तब
पाण्डवों के वंशज वर्तमान इलाहाबाद जिले में  यमुना किनारे  कौशाम्बी में नई राजधानी
बनाकर बस गए। उनका राज्य वत्स कहलाया और काशी पर वत्स का अधिकार हो गया।

बनारस का तैल चित्र, १८९०


उत्तर वैदिक काल

इसके बाद ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का काशी पर अधिकार हुआ। उस कुल में बड़े


पंडित शासक हुए और में ज्ञान और पंडिताई ब्राह्मणों से क्षत्रियों के पास पहुंच गई थी। इनके
समकालीन पंजाब में  कैकेय राजकुल में राजा अश्वपति था। तभी गंगा-यमुना के दोआब में
राज करने वाले पांचालों में राजा प्रवहण जैबलि ने भी अपने ज्ञान का डंका बजाया था। इसी
काल में जनकपुर, मिथिला में विदे हों के शासक जनक हुए, जिनके दरबार में  याज्ञवल्क्य जैसे
ज्ञानी महर्षि और गार्गी जैसी पंडिता नारियां शास्त्रार्थ करती थीं। इनके समकालीन काशी
राज्य का राजा अजातशत्र ु हुआ।[31] ये आत्मा और परमात्मा के ज्ञान में अनुपम था। ब्रह्म
और जीवन के सम्बन्ध पर, जन्म और मत्ृ यु पर, लोक-परलोक पर तब दे श में विचार हो रहे
थे। इन विचारों को उपनिषद् कहते हैं। इसी से यह काल भी उपनिषद-काल कहलाता है ।

महाजनपद युग

युग बदलने के साथ ही वैशाली और मिथिला के लिच्छवियों में साधु वर्धमान


महावीर हुए, कपिलवस्तु के शाक्यों में गौतम बुद्ध हुए। उन्हीं दिनों काशी का राजा अश्वसेन
हुआ। इनके यहां पार्श्वनाथ हुए जो जैन धर्म के २३वें  तीर्थंकर हुए। उन दिनों भारत में चार
राज्य प्रबल थे जो एक-दस
ू रे को जीतने के लिए, आपस में बराबर लड़ते रहते थे। ये राह्य
थे मगध, कोसल, वत्स और उज्जयिनी। कभी काशी वत्सों के हाथ में जाती, कभी मगध के
और कभी कोसल के। पार्श्वनाथ के बाद और बुद्ध से कुछ पहले, कोसल-श्रावस्ती के
राजा कंस ने काशी को जीतकर अपने राज में मिला लिया। उसी कुल के राजा महाकोशल ने
तब अपनी बेटी कोसल दे वी का मगध के राजा बिम्बसार से विवाह कर दहे ज के रूप में काशी
की वार्षिक आमदनी एक लाख मुद्रा प्रतिवर्ष दे ना आरं भ किया और इस प्रकार काशी मगध के
नियंत्रण में पहुंच गई। राज के लोभ से मगध के राजा बिम्बसार के बेटे अजातशत्र ु ने पिता को
मारकर गद्दी छीन ली। तब विधवा बहन कोसलदे वी के दःु ख से दःु खी उसके भाई कोसल के
राजा प्रसेनजित ने काशी की आमदनी अजातशत्रु को दे ना बन्द कर दिया जिसका परिणाम
मगध और कोसल समर हुई। इसमें कभी काशी कोसल के, कभी मगध के हाथ लगी। अन्ततः
अजातशत्रु की जीत हुई और काशी उसके बढ़ते हुए साम्राज्य में समा गई। बाद में मगध की
राजधानी राजगह
ृ  से पाटलिपुत्र चली गई और फिर कभी काशी पर उसका आक्रमण नहीं हो
पाया।
काशी नरे श और रामनगर

वाराणसी १८वीं शताब्दी में स्वतंत्र काशी राज्य बन गया था और बाद के ब्रिटिश


शासन के अधीन, ये प्रमुख व्यापारिक और धार्मिक केन्द्र रहा। १९१० में ब्रिटिश प्रशासन ने
वाराणसी को एक नया भारतीय राज्य बनाया और रामनगर को इसका मुख्यालय बनाया,
किंतु इसका अधिकार क्षेत्र कुछ नहीं था। काशी नरे श अभी भी रामनगर किले में रहते हैं। ये
किला वाराणसी नगर के पूर्व में गंगा के तट पर बना हुआ है । रामनगर किलेका निर्माण काशी
नरे श राजा बलवंत सिंह ने उत्तम चुनार बलुआ पत्थर ने १८वीं शताब्दी में करवाया
था। किला मुगल स्थापत्य शैली में नक्काशीदार छज्जों, खुले प्रांगण और सुरम्य गुम्बददार
मंडपों से सुसज्जित बना है । काशी नरे श का एक अन्य महल चैत सिंह महल है । ये शिवाला
घाट के निकट महाराजा चैत सिंह ने बनवाया था।

रामनगर किला और इसका संग्रहालय अब बनारस के राजाओं की ऐतिहासिक धरोहर


रूप में संरक्षित हैं और १८वीं शताब्दी से काशी नरे श का आधिकारिक आवास रहे हैं। आज भी
काशी नरे श नगर के लोगों में सम्मानित हैं। ये नगर के धार्मिक अध्यक्ष माने जाते हैं और
यहां के लोग इन्हें भगवान शिव का अवतार मानते हैं। नरे श नगर के प्रमुख सांस्कृतिक
संरक्षक एवं सभी बड़ी धार्मिक गतिविधियों के अभिन्न अंग रहे हैं।

काशी तीर्थ का इतिहास

वाराणसी शहर का बड़ा अंश अतिप्राचीनकाल से काशी कहा जाता है । इसे हिन्द ू
मान्यता में सबसे बड़ा तीर्थ माना जाता है , किन्तु तीर्थ के रूप में वाराणसी का सबसे पुराना
उल्लेख महाभारत मे मिलता है । महाभारत-पूर्व के किसी साहित्य में किसी भी तीर्थ आदि के
बारे में कोई उल्लेख नहीं है । आज के तीर्थस्थल तब अधिकतर वन प्रदे श में थे और मनुष्यों से
रहित थे। कहीं-कहीं आदिवासियों का वास रहा होगा। कालांतर में तीर्थों के बारे में कही गयी
कथाएं अस्तित्त्व में आयीं और तीर्थ बढ़ते गये, जिनके आसपास नगर और शहर भी बसे।
भारतभमि
ू में  आर्यों के प्रसार के द्वारा तीर्थों के अस्तित्व तथा माहात्मय का पता चला।
महाभारत में उल्लेख है पथ्ृ वी के कुछ स्थान पुण्यप्रद तथा पवित्र होते है । इनमें से कोई तो
स्थान की विचित्रता के कारण कोई जन्म के प्रभाव और कोई ॠषि-मुनियों के सम्पर्क से
पवित्र हो गया है । यजुर्वेदीय जाबाल उपनिषद में काशी के विषय में महत्वपूर्ण वर्णन आता है ,
परन्तु इस उपनिषद् को आधुनिक विद्वान उतना प्राचीन नहीं मानते हैं।

जाबाल-उपनिषद् खण्ड-२ में महर्षि अत्रि ने महर्षि याज्ञवल्क्य से अव्यक्त और


अनन्त परमात्मा को जानने का तरीका पूछा। तब याज्ञवल्क्य ने कहा कि उस अव्यक्त और
अनन्त आत्मा की उपासना अविमुक्त क्षेत्र में हो सकती है , क्योंकि वह वहीं प्रतिष्ठित है ।
और अत्रि के अविमुक्त की स्थिति पूछने पर। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि वह वरणा तथा
नाशी नदियों के मध्य में है । वह वरणा क्या है और वह नाशी क्या है , यह पूछने पर उत्तर
मिला कि इन्द्रिय-कृत सभी दोषों का निवारण करने वाली वरणा है और इन्द्रिय-कृत सभी
पापों का नाश करने वाली नाशी है । वह अविमुक्त क्षेत्र दे वताओं का दे व स्थान और सभी
प्राणियों का ब्रह्म सदन है । वहाँ ही प्राणियों के प्राण-प्रयाण के समय में भगवान रुद्र तारक
मन्त्र का उपदे श दे ते है जिसके प्रभाव से वह अमत
ृ ी होकर मोक्ष प्राप्त करता है । अत एव
अविमुक्त में सदै व निवास करना चाहिए। उसको कभी न छोड़े, ऐसा याज्ञवल्क्य ने कहा है ।

जाबालोपिनषद के अलावा अनेक स्मति


ृ यों जैसे लिखितस्मति
ृ , श्रंग
ृ ीस्मति
ृ तथा
पाराशरस्मति
ृ , ब्राह्मीसंहिता तथा सनत्कुमारसंहिता में भी काशी का माहात्म्य बताया है ।
प्रायः सभी परु ाणों में काशी का माहात्म्य कहा गया है । ब्रह्मवैवर्त परु ाण में तो काशी क्षेत्र पर
काशी-रहस्य नाम से पूरा ग्रन्थ ही है , जिसे उसका खिल भाग कहते हैं। पद्म पुराण में काशी-
महात्म्य और अन्य स्थानों पर भी काशी का उल्लेख आता है । प्राचीन लिंग पुराण में सोलह
अध्याय काशी की तीर्थों के संबंध में थे। वर्त्तमान लिंगपुराण में भी एक अध्याय है । स्कंद
पुराण का काशीखण्ड तो काशी के तीर्थ-स्वरुप का विवेचन तथा विस्तत
ृ वर्णन करता ही है ।
इस प्रकार पुराण-साहित्य में काशी के धार्मिक महात्म्य पर सामग्री है । इसके अतिरिक्त,
संस्कृत-वाड्मय, दशकुमारचरित, नैषध, राजतरं गिणी और कुट्टनीपतम ् में भी काशी का वर्णन
आता है । १२वीं शताब्दी ईसवी तक प्राप्त होने वाले लिंग पुराण में तीसरे से अट्ठारहवें अध्याय
तक काशी के दे वायतनों तथा तीर्थें का विस्तत
ृ वर्णन था। त्रिस्थलीसेतु ग्रन्थ की रचना (सन ्
१५८० ई.) में लिंगपुराण वैसा ही रहा था।

लैंङ्गोडपि तत
ृ ीयाध्यायात्षोऽशान्तं लिंङ्गान्यक्
ु तवोक्तम ्

अर्थात लिंगपुराण में भी तीसरे से सोलहवें अध्याय तक लिंगो का वर्णन किया है ।


वर्तमान लिंग पुराण में केवल एक ही अध्याय काशी के विषय में है , जिसमें केवल १४४ श्लोक
हैं। इस प्रकार महाभारत के अलावा यदि सभी पुराणों के उल्लेख दे खें, तो काशी के तीर्थ रूप के
उल्लेख की सूची बहुत लंबी बनती है । शब्दकल्पद्रमु मे २६४ तीर्थों का उल्लेख है , परन्तु
महिमा के विचार से भारत के तीर्थों में चार धाम और सप्तपुरियों के नाम शीर्षस्थ माने जाते
है । प्रयाग, गया और गंगासागर तक के नाम इनमें नहीं आते। अतः इसे नकारा भी जा सकता
है ।

क्षेत्र का विस्तार

वाराणसी क्षेत्र के विस्तार के अनेक पौराणिक उद्धरण उपलब्ध हैं। कृत्यकल्पतरु में दिये तीर्थ-
विवेचन व अन्य प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार
 ब्रह्म पुराण में भगवान शिव पार्वती से कहते हैं कि- हे सुरवल्लभे, वरणा और असि
इन दोनों नदियों के बीच में ही वाराणसी क्षेत्र है , उसके बाहर किसी को नहीं बसना
चाहिए।
 मत्स्य पुराण में इसकी लम्बाई-चौड़ाई अधिक स्पष्ट रूप से वर्णित है । पूर्व-
पश्चिम ढ़ाई (२ ½) योजन भीष्मचंडी से पर्वतेश्वर तक, उत्तर-दक्षिण आधा (1/2) योजन,
शेष भाग वरुणा और अस्सी के बीच। उसके बीच में मध्यमेश्वर नामक स्वयंभू लिंग है ।
यहां से भी एक-एक कोस चारों ओर क्षेत्र का विस्तार है । यही वाराणसी की वास्तविक
सीमा है । उसके बाहर विहार नहीं करना चाहिए।
 अग्नि पुराण के अनुसार वरणा और असी नदियों के बीच बसी हुई वाराणसी का
विस्तार पूर्व में दो योजन और दस
ू री जगह आधा योजन भाग फैला था और दक्षिण में यह
क्षेत्र वरणा से गंगा तक आधा योजन फैला हुआ था। मत्स्य पुराण में ही अन्यत्र नगर का
विस्तार बतलाते हुए कहा गया है - पूर्व से पश्चिम तक इस क्षेत्र का विस्तार दो योजन है
और दक्षिण में आधा योजन नगर भीष्मचंडी से लेकर पर्वतेश्वर तक फैला हुआ था।
 ब्रह्म पुराण के अनुसार इस क्षेत्र का प्रमाण पांच कोस का था उसमें उत्तरमुखी गंगा
है  जिससे क्षेत्र का महात्म्य बढ़ गया। उत्तर की ओर गंगा दो योजन तक शहर के साथ-
साथ बहती थी।
 स्कंद परु ाण के अनस
ु ार उस क्षेत्र का विस्तार चारों ओर चार कोस था।
 लिंग पुराण में इस क्षेत्र का विस्तार कृतिवास से आरं भ होकर यह क्षेत्र एक-एक कोस
चारों ओर फैला हुआ है । उसके बीच में मध्यमेश्वर नामक स्वयंभू लिंग है । यहां से भी
एक-एक कोस चारों ओर क्षेत्र का विस्तार है । यही वाराणसी की वास्तविक सीमा है । उसके
बाहर विहार न करना चाहिए।

उपरोक्त उद्धरणों से ज्ञात होता है कि प्राचीन वाराणसी का विस्तार काफी दरू तक था।
वरुणा के पश्चिम में राजघाट का किला जहां प्राचीन वाराणसी के बसे होने में कोई संदेह नहीं
है , एक मील लंबा और ४०० गज चौड़ा है । गंगा नदी उसके दक्षिण-पूर्व मुख की रक्षा करती है
और वरुणा नदी उत्तर और उत्तर-पूर्व मुखों की रक्षा एक छिछली खाई के रूप में करती है ,
पश्चिम की ओर एक खाली नाला है जिसमें से होकर किसी समय वरुणा नदी बहती थी। रक्षा
के इस प्राकृतिक साधनों को दे खते हुए ही शायद प्राचीन काल में वाराणसी नगर के लिए यह
स्थान चुना गया। सन ् १८५७ ई. के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय अंग्रेजों ने भी
नगर रक्षा के लिए वरुणा के पीछे ऊंची जमीन पर कच्ची मिट्टी की दीवारें उठाकर किलेबन्दी
की थी। पुराणों में आयी वाराणसी की सीमा राजघाट की उक्त लम्बाई-चौड़ाई से कहीं अधिक
है । उन वर्णनों से लगता है कि वहां केवल नगर की सीमा ही नहीं वर्णित है , बल्कि पूरे क्षेत्र को
सम्मिलित कर लिया गया है । वरुणा के उस पार तक प्राचीन बसावटों के अवशेष काफी दरू
तक मिलते हैं। अतः संभव है कि पुराणों में मिले वर्णन वे सब भाग भी आ गये हों। इस क्षेत्र
को यदि नगर में जुड़ा हुआ मानें, तो पुराणों में वर्णित नगर की लम्बाई-चौड़ाई लगभग सही
ही बतायी गई है ।

गौतम बद्ध
ु  के जन्म पर्व
ू  महाजनपद यग
ु में वाराणसी काशी जनपद की राजधानी
थी। किंतु प्राचीन काशी जनपद के विस्तार के बारे में यथार्थ आदि से अनम
ु ान लगाना कठिन
है । जातकों में  काशी का विस्तार ३०० योजन दिया गया है । काशी जनपद के उत्तर में कोसल
जनपद, पर्व
ू में  मगध जनपद और पश्चिम में  वत्स था। इतिहासवेत्ता डॉ॰ ऑल्टे कर के
मतानस
ु ार काशी जनपद का विस्तार उत्तर-पश्चिम की ओर २५० मील तक था, क्योंकि
इसका पर्व
ू का पड़ोसी जनपद मगध और उत्तर-पश्चिम का पड़ोसी जनपद उत्तर पांचाल था।
जातक (१५१) के अनस ु ार काशी और कोसल की सीमाएं मिली हुई थी। काशी की दक्षिण सीमा
का सही वर्णन उपलब्ध नहीं है , शायद इसलिये कि वह विंध्य श्रंख
ृ ला तक गई हुई थी व आगे
कोई आबादी नहीं थी। जातकों के आधार पर काशी का विस्तार
वर्तमान बलिया से कानपुर तक फैला रहा होगा। यहां श्री राहुल सांकृत्यायन कहते हैं, कि
आधुनिक बनारस कमिश्नरी ही प्राचीन काशी जनपद रहा था। संभव है कि
आधुनिक गोरखपुर कमिश्नरी का भी कुछ भाग काशी जनपद में शामिल रहा हो।

दस
ू री वाराणसी

परु
ु कुल के राजा दिवोदास द्वारा दस
ू री वाराणसी की स्थापना का उल्लेख महाभारत
और अन्य ग्रन्थों में आता है । इस नगरी के बैरांट में होने की संभावना भी है । इस बारे में
पंडित कुबेरनाथ सुकुल के अनुसार बैराट खंडहर बाण गंगा के दक्षिण (दाएं) किनारे पर है वाम
(बाएं) पर नहीं। इस प्रकार गोमती और बैरांट के बीच गंगा की धारा बाधक हो जाती है । गंगा
के रास्ते बदलने, बाण गंगा में गंगा के बहने और गंगा-गोमती संगम सैदपुर के पास होने के
बारे में आगे सुकुलजी ने महाभारत के हवाले से बताया है कि गंगा-गोमती संगम पर
मार्क ण्डेय तीर्थ था, जो वर्तमान में कैथी के समीप स्थित है । अत: ये कह सकते हैं कि यदि
गंगा-गोमती संगम सैदपुर के पास था तो यह महाभारत-पूर्व हो सकता है , न कि तत
ृ ीय
शताब्दी ईसवी के बाद का।

मार्क ण्डेयस्य राजेन्द्रतीर्थमासाद्य दल


ु भम ्।
गोमतीगङ्गयोश्चैव सङ्गमें लोकविश्रुते।।महाभारत
भूगोल तथा जलवायु

भूगोल

वाराणसी का गंगा नदी और इसके तट पर बसे असंख्य मंदिरों से अटूट संबंध है ।

वाराणसी शहर उत्तरी भारत की मध्य गंगा घाटी में , भारतीय राज्य उत्तर प्रदे श के
पूर्वी छोर पर गंगा नदी के बायीं ओर के वक्राकार तट पर स्थित है । यहां वाराणसी जिले का
मुख्यालय भी स्थित है । वाराणसी शहरी क्षेत्र — सात शहरी उप-इकाइयों का समह
ू है और ये
११२.२६ वर्ग कि॰मी॰ (लगभग ४३ वर्ग मील) के क्षेत्र फैला हुआ है । शहरी क्षेत्र का विस्तार
(८२°५६’ पूर्व) - (८३°०३’ पूर्व) एवं (२५°१४’ उत्तर) - (२५°२३.५’ उत्तर) के बीच है । उत्तरी
भारत के गांगेय मैदान में बसे इस क्षेत्र की भूमि पुराने समय में गंगा नदी में आती रहीं बाढ़ के
कारण उपत्यका रही है ।

खास वाराणसी शहर गंगा और वरुणा नदियों के बीच एक ऊंचे पठार पर बसा है ।
नगर की औसत ऊंचाई समुद्र तट से ८०.७१ मी. है । यहां किसी सहायक नदी या नहर के
अभाव में मुख्य भमि
ू लगातार शुष्क बनी रही है । प्राचीन काल से ही यहां की भौगोलिक
स्थिति बसावट के लिये अनुकूल रही है । किन्तु नगर की मूल स्थिति का अनुमान वर्तमान से
लगाना मुश्किल है , क्योंकि आज की स्थिति कुछ प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित स्थिति से भिन्न
है ।

अर्थ-व्यवस्था

वाराणसी में विभिन्न कुटीर उद्योग कार्यरत हैं, जिनमें  बनारसी रे शमी साड़ी, कपड़ा
उद्योग, कालीन उद्योग एवं हस्तशिल्प प्रमुख हैं। बनारसी पान विश्वप्रसिद्ध है और इसके
साथ ही यहां का कलाकंद भी मशहूर है । वाराणसी में बाल-श्रमिकों का काम जोरों पर है ।

बनारसी रे शम विश्व भर में अपनी महीनता एवं मल


ु ायमपन के लिये प्रसिद्ध है ।
बनारसी रे शमी साड़ियों पर बारीक डिज़ाइन और ज़री का काम चार चांद लगाते हैं और साड़ी
की शोभा बढ़ाते हैं। इस कारण ही ये साड़ियां वर्षों से सभी पारं परिक उत्सवों एवं विवाह आदि
समारोहों में पहनी जाती रही हैं। कुछ समय पूर्व तक ज़री में शुद्ध सोने का काम हुआ करता
था।

भारतीय रे ल का डीजल इंजन निर्माण हे त ु डीजल रे ल इंजन कारखाना भी वाराणसी में
स्थित है । वाराणसी और कानपरु का प्रथम भारतीय व्यापार घराना निहालचंद किशोरीलाल
१८५७ में दे श के चौथे ऑक्सीजन संयंत्र की स्थापना से आरं भ हुआ था। इसका नाम इण्डियन
एयर गैसेज़ लि. था। लॉर्ड मकॉले के अनस ु ार, वाराणसी वह नगर था, जिसमें समद्धि
ृ , धन-
संपदा, जनसंख्या, गरिमा एवं पवित्रता एशिया में सर्वोच्च शिखर पर थी। यहां के व्यापारिक
महत्त्व की उपमा में उसने कहा था: " बनारस की खड्डियों से महीनतम रे शम निकलता है ,
जो सेंट जेम्स और वर्सेल्स के मंडपों की शोभा बढ़ाता है "।

प्रशासन एवं राजनीति

वाराणसी के प्रशासन में कई संस्थाएं संलग्न हैं, जिनमें से प्रमख


ु है  वाराणसी नगर
निगम एवं वाराणसी विकास प्राधिकरण जो वाराणसी शहर की मास्टर योजना के लिये
उत्तरदायी है । यहां की जलापर्ति
ू एवं मल-निकास व्यवस्था नगर निगम के अधीनस्थ जल
निगम द्वारा की जाती है । यहां की विद्यत
ु आपर्ति
ू  उत्तर प्रदे श पावर कार्पोरे शन
लिमिटे ड द्वारा की जाती है । नगर से प्रतिदिन लगभग ३५ करोड़ लीटर मल एवं ४२५ टन कूड़ा
निकलता है । कूड़े का निष्कासन लैण्ड-फ़िल स्थलों पर किय़ा जाता है । बडी मात्रा में मल
निकास गंगा नदी में किया जाता है । शहर और उपनगरीय क्षेत्र में नगर निगम द्वारा बस
सेवा भी संचालित की जाती है । नगर की कानून व्यवस्था उत्तर प्रदे श पुलिस सेवा की
वाराणसी मंडल में वाराणसी क्षेत्र के अधीन आती है । नगर में पलि
ु स के उच्चतम अधिकारी
पुलिस अधीक्षक हैं। बनारस शहर वाराणसी लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र में आता है । वर्ष २०१४ में
हुए आम चुनावों में  भारतीय जनता पार्टी के नरे न्द्र मोदी यहां से सांसद चुने गये थे। वाराणसी
जिले में पाँच विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र आते हैं। ये इस प्रकार से हैं:

 ३८७-रोहनिया,
 ३८८-वाराणसी उत्तर,
 ३८९-वाराणसी दक्षिण,
 ३९०-वाराणसी छावनी और
 ३९१-सेवापुरी।

वाराणसी उन पांच शहरों में से एक है , जहां गंगा एकशन प्लान की शुरुआत हुई थी।
शिक्षा

वाराणसी के उच्चतर माध्यमिक विद्यालय इंडियन सर्टिफिकेट ऑफ सैकेंडरी


एजक
ु े शन (आई.सी.एस.ई), केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सी.बी.एस.ई) या उत्तर प्रदे श
माध्यमिक शिक्षा परिषद (यू.पी.बोर्ड) से सहबद्ध हैं।

संस्कृति

वाराणसी में लाखों हिन्द ू तीर्थयात्री प्रतिवर्ष आते हैं।

भित्ति चित्र, वाराणसी, १९७४

वाराणसी का पुराना शहर, गंगा तीरे का लगभग चौथाई भाग है , जो भीड़-भाड़ वाली
संकरी गलियों और किनारे सटी हुई छोटी-बड़ी असंख्य दक ु ानों व सैंकड़ों हिन्द ू मंदिरों से पटा
हुआ है । ये घम
ु ाव और मोड़ों से भरी गलियां किसी के लिये संभ्रम करने वाली हैं। ये संस्कृति
से परिपर्णू परु ाना शहर विदे शी पर्यटकों के लिये वर्षों से लोकप्रिय आकर्षण बना हुआ
है । वाराणसी के मख्ु य आवासीय क्षेत्र (विशेषकर मध्यम एवं उच्च-मध्यम वर्गीय श्रेणी के
लिये) घाटों से दरू स्थित हैं। ये विस्तत
ृ , खल
ु े हुए और अपेक्षाकृत कम प्रदष
ू ण वाले हैं।
रामनगर की रामलीला

यहां दशहरा का त्यौहार खूब रौनक और तमाशों से भरा होता है । इस अवसर पर


रे शमी और ज़री के ब्रोकेड आदि से सुसज्जित भूषा में काशी नरे श की हाथी पर सवारी
निकलती है और पीछे -पीछे लंबा जलूस होता है ।[9] फिर नरे श एक माह लंबे चलने
वाले रामनगर, वाराणसी की रामलीला का उद्घाटन करते हैं। रामलीला में  रामचरितमानस के
अनुसार भगवान श्रीराम के जीवन की लीला का मंचन होता है । ये मंचन काशी नरे श द्वारा
प्रायोजित होता है अर पूरे ३१ दिन तक प्रत्येक शाम को रामनगर में आयोजित होता है ।
अंतिम दिन इसमें भगवान राम रावण का मर्दन कर युद्ध समाप्त करते हैं
और अयोध्या लौटते हैं। महाराजा उदित नारायण सिंह ने रामनगर में इस रामलीला का
आरं भ १९वीं शताब्दी के मध्य से किया था।

बनारस घराना

बनारस घराना भारतीय तबला वादन के छः प्रसिद्ध घरानों में से एक है । ये घराना


२०० वर्षों से कुछ पहले ख्यातिप्राप्त पंडित राम सहाय (१७८०-१८२६) के प्रयासों से विकसित
हुआ था। पंडित राम सहाय ने अपने पिता के संग पांच वर्ष की आयु से ही तबला वादन आरं भ
किया था। बनारस-बाज कहते हैं। ये बनारस घराने की विशिष्ट तबला वादन शैली है । इन्होंने
तत्कालीन संयोजन प्रारूपों जैसे जैसे गट, टुकड़ा, परान, आदि से भी विभिन्न संयोजन किये,
जिनमें उठान, बनारसी ठे का और फ़र्द प्रमख
ु हैं।

शाहिद परवेज़ खां, बनारस घराने के अन्य बड़े महारथी पंडित किशन महाराज के साथ एक
सभा में ।

आज बनारसी तबला घराना अपने शक्तिशाली रूप के लिये प्रसिद्ध है , हालांकि


बनारस घराने के वादक हल्के और कोमल स्वरों के वादन में भी सक्षम हैं। घराने को पर्वी
ू बाज
मे वर्गीकृत किया गया है , जिसमें  लखनऊ, फर्रु खाबादऔर बनारस घराने आते हैं। बनारस
शैली तबले के अधिक अनन
ु ादिक थापों का प्रयोग करती है , जैसे कि ना और धिन। बनारस
घराने में एकल वादन बहुत इकसित हुआ है और कई वादक जैसे पंडित शारदा सहाय,
पंडित किशन महाराज और पंडित समता प्रसाद, एकल तबला वादन में महारत और प्रसिद्धि
प्राप्त हैं। घराने के नये युग के तबला वादकों में पं॰ कुमार बोस, पं.समर साहा, पं.बालकृष्ण
अईयर, पं.शशांक बख्शी, संदीप दास, पार्थसारथी मुखर्जी, सुखविंदर सिंह नामधारी, विनीत
व्यास और कई अन्य हैं। बनारसी बाज में २० विभिन्न संयोजन शैलियों और अनेक प्रकार के
मिश्रण प्रयुक्त होते हैं।

पवित्र नगरी

वाराणसी के एक घाट पर लोग हिन्द ू रिवाज करते हुए।

वाराणसी या काशी को हिन्द ू धर्म में पवित्रतम नगर बताया गया है । यहां प्रतिवर्ष १०
लाख से अधिक तीर्थ यात्री आते हैं। यहां का प्रमख
ु आकर्षण है  काशी विश्वनाथ मंदिर,
जिसमें भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग में से प्रमख
ु शिवलिंग यहां स्थापित है ।

हिन्द ू मान्यता अनुसार गंगा नदी सबके पाप मार्जन करती है और काशी में मत्ृ यु
सौभाग्य से ही मिलती है और यदि मिल जाये तो आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो कर
मोक्ष पाती है । इक्यावन शक्तिपीठ में से एक विशालाक्षी मंदिर यहां स्थित है , जहां
भगवती सती की कान की मणिकर्णिका गिरी थी। वह स्थान मणिकर्णिका घाट के निकट
स्थित है । हिन्द ू धर्म में शाक्त मत के लोग दे वी गंगा को भी शक्ति का ही अवतार मानते हैं।
जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने हिन्द ू धर्म पर अपनी टीका यहीं आकर लिखी थी, जिसके
परिणामस्वरूप हिन्द ू पुनर्जागरण हुआ। काशी में  वैष्णव और शैव संप्रदाय के लोग सदा ही
धार्मिक सौहार्द से रहते आये हैं।
वाराणसी बौद्ध धर्म के पवित्रतम स्थलों में से एक है और गौतम बुद्ध से संबंधित चार
तीर्थ स्थलों में से एक है । शेष तीन कुशीनगर, बोध गया और लुंबिनी हैं। वाराणसी के मुख्य
शहर से हटकर ही सारनाथ है , जहां भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन दिया था। इसमें
उन्होंने बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्दांतों का वर्णन किया था। अशोक-पूर्व स्तप
ू ों में से कुछ ही शेष
हैं, जिनमें से एक धामेक स्तूप यहीं अब भी खड़ा है , हालांकि अब उसके मात्र आधारशिला के
अवशेष ही शेष हैं। इसके अलावा यहां चौखंडी स्तप
ू  भी स्थित है , जहां बुद्ध अपने प्रथम शिष्यों
से (लगभग ५वीं शताब्दी ई.पू या उससे भी पहले) मिले थे। वहां एक अष्टभुजी मीनार
बनवायी गई थी।

वाराणसी हिन्दओ
ु ं एवं बौद्धों के अलावा जैन धर्म के अवलंबियों के लिये भी पवित तीर्थ है । इसे
२३वें  तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का जन्मस्थान माना जाता है । वाराणसी पर इस्लाम संस्कृति ने
भी अपना प्रभाव डाला है । हिन्द-ू मुस्लिम समुदायों में तनाव की स्थिति कुछ हद तक बहुत
समय से बनी हुई है ।

गंगा नदी

गंगा वाराणसी की जीवनरे खा।

भारत की सबसे बड़ी नदी गंगा करीब २,५२५ किलोमीटर की दरू ी तय कर गोमुख से


गंगासागर तक जाती है । इस पूरे रास्ते में गंगा उत्तर से दक्षिण की ओर यानि उत्तरवाहिनी
बहती है । केवल वाराणसी में ही गंगा नदी दक्षिण से उत्तर दिशा में बहती है । यहां लगभग ८४
घाट हैं। ये घाट लगभग ६.५ किमी लं‍बे तट पर बने हुए हैं। इन ८४ घाटों में पांच घाट बहुत ही
पवित्र माने जाते हैं। इन्हें सामूहिक रूप से 'पंचतीर्थी' कहा जाता है । ये हैं अस्सी घाट,
दशाश्वमेध घाट, आदिकेशव घाट, पंचगंगा घाट तथा मणिकर्णिक घाट। अस्सी ‍घाट सबसे
दक्षिण में स्थित है जबकि आदिकेशवघाट सबसे उत्तर में स्थित हैं।
घाट

वाराणसी में १०० से अधिक घाट हैं। शहर के कई घाट मराठा साम्राज्य के अधीनस्थ
काल में बनवाये गए थे। वर्तमान वाराणसी के संरक्षकों में मराठा, शिदं े
(सिंधिया), होल्कर, भोंसले और पेशवा परिवार रहे हैं। अधिकतर घाट स्नान-घाट हैं, कुछ घाट
अन्त्येष्टि घाट हैं। कई घाट किसी कथा आदि से जड़ ु े हुए हैं, जैसे मणिकर्णिका घाट, जबकि
कुछ घाट निजी स्वामित्व के भी हैं। पूर्व काशी नरे श का शिवाला घाट और काली घाट निजी
संपदा हैं। वाराणसी में अस्सी घाट से लेकर वरुणा घाट तक सभी घाटों की दक्षिण की ओर से
क्रमवार सूची इस प्रकार से है :

 अस्सी घाट  मानसरोवर घाट  जटार घाट


 गंगामहल घाट  नारद घाट  ग्वालियर घाट
 रीवां घाट  राजा घाट  बालाजी घाट
 तुलसी घाट  गंगा महल घाट  पंचगंगा घाट
 भदै नी घाट  पाण्डेय घाट  दर्गा
ु घाट
 जानकी घाट  दिगपतिया घाट  ब्रह्मा घाट
 माता आनंदमयी  चौसट्टी घाट  बँद
ू ी परकोटा घाट
घाट  राणा महल घाट  शीतला घाट
 जैन घाट  दरभंगा घाट  लाल घाट
 पंचकोट घाट  मश
ुं ी घाट  गाय घाट
 प्रभु घाट  अहिल्याबाई घाट  बद्री नारायण घाट
 चेतसिंह घाट  शीतला घाट  त्रिलोचन घाट
 अखाड़ा घाट  प्रयाग घाट  नंदेश्वर घाट
 निरं जनी घाट  दशाश्वमेघ घाट  तेलिया- नाला घाट
 निर्वाणी घाट  राजेन्द्र प्रसाद घाट  नया घाट
 शिवाला घाट  मानमंदिर घाट  प्रह्मलाद घाट
 गुलरिया घाट  त्रिपुरा भैरवी घाट  रानी घाट
 दण्डी घाट  मीरघाट घाट  भैंसासुर घाट
 हनुमान घाट  ललिता घाट  राजघाट
 प्राचीन हनुमान  मणिकर्णिका घाट  आदिकेशव या
घाट  सिंधिया घाट वरुणा संगम घाट
 मैसरू घाट  संकठा घाट
 हरिश्चंद्र घाट  गंगामहल घाट
 लाली घाट  भोंसलो घाट
 विजयानरम ् घाट  गणेश घाट
 केदार घाट  रामघाट घाट
 चौकी घाट
 क्षेमेश्वर घाट

काशी के घाट। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र। सन


ु ील झा। अभिगमन तिथि:२९ अप्रैल २०१०
प्रमुख घाट

वाराणसी में दशाश्वमेध घाट पर गंगाजी की आरती का दृश्य

दशाश्वमेध घाट

काशी विश्वनाथ मंदिर के निकट ही स्थित है और सबसे शानदार घाट है ।इससे


संबंधित दो पौराणिक कथाएं हैं: एक के अनुसार ब्रह्मा जी ने इसका निर्माण शिव जी के
स्वागत हे तु किया था। दस
ू री कथा के अनस
ु ार ब्रह्माजी ने यहां दस अश्वमेध यज्ञ किये थे।
प्रत्येक संध्या पुजारियों का एक समूह यहां अग्नि-पूजा करता है जिसमें भगवान शिव, गंगा
नदी, सूर्यदे व, अग्निदे व एवं संपूर्ण ब्रह्मांड को आहुतियां समर्पित की जाती हैं। यहां दे वी गंगा
की भी भव्य आरती की जाती है ।

मणिकर्णिका घाट

इस घाट से जड़
ु ी भी दो कथाएं हैं। एक के अनुसार भगवान विष्णु ने शिव की तपस्या
करते हुए अपने सुदर्शन चक्र से यहां एक कुण्ड खोदा था। उसमें तपस्या के समय आया हुआ
उनका स्वेद भर गया। जब शिव वहां प्रसन्न हो कर आये तब विष्णु के कान की मणिकर्णिका
उस कंु ड में गिर गई थी। दस
ू री कथा के अनुसार भगवाण शिव को अपने भक्तों से छुट्टी ही
नहीं मिल पाती थी। दे वी पार्वती इससे परे शान हुईं और शिवजी को रोके रखने हे तु अपने कान
की मणिकर्णिका वहीं छुपा दी और शिवजी से उसे ढूंढने को कहा। शिवजी उसे ढूंढ नहीं पाये
और आज तक जिसकी भी अन्त्येष्टि उस घाट पर की जाती है , वे उससे पूछते हैं कि क्या
उसने दे खी है ?प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार मणिकर्णिका घाट का स्वामी वही चाण्डाल था,
जिसने सत्यवादी राजा हरिशचंद्र को खरीदा था। उसने राजा को अपना दास बना कर उस घाट
पर अन्त्येष्टि करने आने वाले लोगों से कर वसल
ू ने का काम दे दिया था। इस घाट की
विशेषता ये है , कि यहां लगातार हिन्द ू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता की अग्नि
लगातार जलती ही रहती है , कभी भी बुझने नहीं पाती।

सिंधिया घाट

सिंधिया घाट, जिसे शिन्दे घाट भी कहते हैं, मणिकर्णिका घाट के उत्तरी ओर लगा
हुआ है । यह घाट काशी के बड़े तथा संद
ु र घाटों में से एक है । इस घाट का निर्माण १५० वर्ष
पूर्व १८३० में  ग्वालियर की महारानी बैजाबाई सिंधिया ने कराया था तथा और इससे लगा हुआ
शिव मंदिर आंशिक रूप से नदी के जल में डूबा हुआ है । इस घाट के ऊपर काशी के अनेकों
प्रभावशाली लोगों द्वारा बनवाये गए मंदिर स्थित हैं। ये संकरी घुमावदार गलियों में सिद्ध-
क्षेत्र में स्थित हैं। मान्यतानुसार अग्निदे व का जन्म यहीं हुआ था। यहां हिन्द ू लोग वीर्येश्वर
की अर्चना करते हैं और पत्र
ु कामना करते हैं। १९४९ में इसका जीर्णोद्धार हुआ। यहीं पर
आत्माविरे श्वर तथा दत्तात्रेय के प्रसिद्ध मंदिर हैं। संकठा घाट पर बड़ौदा के राजा का महल है ।
इसका निर्माण महानाबाई ने कराया था। यहीं संकठा दे वी का प्रसिद्ध मंदिर है । घाट के अगल-
बगल के क्षेत्र को "दे वलोक' कहते हैं।

मान मंदिर घाट

जयपुर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने ये घाट १७७० में बनवाया था। इसमें


नक्काशी से अलंकृत झरोखे बने हैं। इसके साथ ही उन्होंने वाराणसी में  यंत्र मंत्र वेधशाला भी
बनवायी थी जो दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा के संग पांचवीं खगोलशास्त्रीय वेधशाला है ।
इस घाट के उत्तरी ओर एक सुंदर बारजा है , जो सोमेश्वर लिंग को अर्घ्य दे ने के लिये बनवाया
गई थी।

ललिता घाट

स्वर्गीय नेपाल नरे श ने ये घाट वाराणसी में उत्तरी ओर बनवाया था। यहीं उन्होंने
एक नेपाली काठमांडु शैली का पगोडा आकार गंगा-केशव मंदिर भी बनवाया था, जिसमें
भगवान विष्णु प्रतिष्ठित हैं। इस मंदिर में  पशुपतेश्वर महादे व की भी एक छवि लगी है ।
असी घाट

असी घाट असी नदी के संगम के निकट स्थित है । इस सुंदर घाट पर स्थानीय उत्सव
एवं क्रीड़ाओं के आयोजन होते रहते हैं। ये घाटों की कतार में अंतिम घाट है । ये चित्रकारों और
छायाचित्रकारों का भी प्रिय स्थल है । यहीं स्वामी प्रणवानंद, भारत सेवाश्रम संघ के प्रवर्तक ने
सिद्धि पायी थी। उन्होंने यहीं अपने गोरखनाथ के गरु
ु गंभीरानंद के गरु
ु त्व में भगवान शिव
की तपस्या की थी।

अन्य

आंबेर के मान सिंह ने मानसरोवर घाट का निर्माण करवाया था। दरभंगा के महाराजा


ने दरभंगा घाट बनवाया था। गोस्वामी तल
ु सीदास ने तल
ु सी घाट पर ही रामचरितमानस की
रचना की थी। बचरज घाट पर तीन जैन मंदिर बने हैं और ये जैन मतावलंबियों का प्रिय घाट
रहा है । १७९५ में  नागपुर के भोसला परिवार ने भोसला घाट बनवाया। घाट के ऊपर लक्ष्मी
नारायण का दर्शनीय मंदिर है । राजघाट का निर्माण लगभग दो सौ वर्ष पूर्व जयपुर महाराज ने
कराया।

मंदिर

रामनगर, वाराणसी में दर्गा


ु मंदिर
वाराणसी मंदिरों का नगर है । लगभग हर एक चौराहे पर एक मंदिर तो मिल ही
जायेगा। ऐसे छोटे मंदिर दै निक स्थानीय अर्चना के लिये सहायक होते हैं। इनके साथ ही यहां
ढे रों बड़े मंदिर भी हैं, जो वाराणसी के इतिहास में समय समय पर बनवाये गये थे। इनमें
काशी विश्वनाथ मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर, ढुंढिराज गणेश, काल भैरव, दर्गा
ु जी का मंदिर,
संकटमोचन, तल
ु सी मानस मंदिर, नया विश्वनाथ मंदिर, भारतमाता मंदिर, संकठा दे वी
मंदिर व विशालाक्षी मंदिर प्रमुख हैं।

काशी विश्वनाथ मंदिर, जिसे कई बार स्वर्ण मंदिर भी कहा जाता है , अपने वर्तमान
रूप में १७८० में  इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्करद वारा बनवाया गया था। ये मंदिर
गंगा नदी के दशाश्वमेध घाट के निकट ही स्थित है । इस मंदिर की काशी में सर्वोच्च महिमा
है , क्योंकि यहां विश्वेश्वर या विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग स्थापित है । इस ज्योतिर्लिंग का एक बार
दर्शनमात्र किसी भी अन्य ज्योतिर्लिंग से कई गुणा फलदायी होता है । १७८५ में तत्कालीन
गवर्नर जनरल वार्रन हास्टिं ग्सके आदे श पर यहां के गवर्नर मोहम्मद इब्राहिम खां ने मंदिर के
सामने ही एक नौबतखाना बनवाया था। १८३९ में  पंजाब के शासक पंजाब केसरी महाराजा
रणजीत सिंह इस मंदिर के दोनों शिखरों को स्वर्ण मंडित करवाने हे तु स्वर्ण दान किया था।
२८ जनवरी १९८३ को मंदिर का प्रशासन उत्तर प्रदे श सरकार नेल लिया और तत्कालीन काशी
नरे श डॉ॰विभूति नारायण सिंह की अध्यक्षता में एक न्यास को सौंप दिया। इस न्यास में एक
कार्यपालक समिति भी थी, जिसके चेयरमैन मंडलीय आयुक्त होते हैं।

इस मंदिर का ध्वंस मस्लि


ु म मग
ु ल शासक औरं गज़ेब ने करवाया था और इसके
अधिकांश भाग को एक मस्जिद में बदल दिया। बाद में मंदिर को एक निकटस्थ स्थान पर
पन
ु र्निर्माण करवाया गया।

दर्गा
ु मंदिर, जिसे मंकी टे म्पल भी कहते हैं; १८वीं शताब्दी में किसी समय बना था।
यहां बड़ी संख्या में बंदरों की उपस्थिति के कारण इसे मंकी टे म्पल कहा जाता है । मान्यता
अनुसार वर्तमाण दर्गा
ु प्रतिमा मानव निर्मित नहीं बल्कि मंदिर में स्वतः ही प्रकट हुई
थी। नवरात्रि उत्सव के समय यहां हजारों श्रद्धालुओं की भीड़ होती है । इस मंदिर में अहिन्दओ
ु ं
का भीतर प्रवेश वर्जित है ।

इसका स्थापत्य उत्तर भारतीय हिन्द ू वास्तु की नागर शैली का है । मंदिर के साथ ही
एक बड़ा आयताकार जल कुण्ड भी है , जिसे दर्गा
ु कुण्ड कहते हैं। मंदिर का बहुमंजिला शिखर
है  और वह गेरु से पुता हुआ है । इसका लाल रं ग शक्ति का द्योतक है । कुण्ड पहले नदी से
जुड़ा हुआ था, जिससे इसका जल ताजा रहता था, किन्तु बाद में इस स्रोत नहर को बंद कर
दिया गया जिससे इसमें ठहरा हुआ जल रहता है और इसका स्रोत अबव र्शषआ या मंदिर की
निकासी मात्र है । प्रत्येक वर्ष नाग पंचमी के अवसर पर भगवान विष्णु और शेषनागकी पूजा
की जाती है । यहां संत भास्कपरानंद की समाधि भी है । मंगलवार और शनिवार को दर्गा
ु मंदिर
में भक्तों की काफी भीड़ रहती है । इसी के पास हनुमान जी का संकटमोचन मंदिर है । महत्ता
की दृष्टि से इस मंदिर का स्थागन काशी विश्वभनाथ और अन्नेपूर्णा मंदिर के बाद आता है ।

संकट मोचन मंदिर राम भक्त हनुमान को समर्पैत है और स्थानीय लोगों में लोकप्रिय


है । यहां बहुत से धार्मिक एवं सांस्कृतिक आयोजन वार्षिक रूप से होते हैं। ७ मार्च २००६ को
इस्लामी आतंकवादियों द्वारा शहर में हुए तीन विस्फोटों में से एक यहां आरती के समय हुआ
था। उस समय मंदिर में श्रद्धालओ
ु ं की भीड़ थी। साथ ही एक विवाह समारोह भी प्रगति पर
था।

व्यास मंदिर, रामनगर प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार जब वेद


व्यास जी को नगर में कहीं दान-दक्षिणा नहीं मिल पायी, तो उन्होंने पूरे नगर को श्राप दे ने
लगे उसके तुरंत बाद ही भगवान शिव एवं माता पार्वतीएक द पति रूप में एक घर से निकले
और उन्हें भरपूर दान दक्षिणा दी। इससे ऋषि महोदय अतीव प्रसन्न हुए और श्राप की बात
भूल ही गये। इसके बाद शिवजी ने व्यासजी को काशी नगरी में प्रवेश निषेध कर दिया। इस
बात के समाधान रूप में व्यासजी ने गंगा के दस
ू री ओर आवास किया, जहां रामनगर में
उनका मंदिर अभी भी मिलता है ।

बनारस हिन्द ू विश्वविद्यालय के परिसर में नया विश्वनाथ मंदिर बना है , जिसका
निर्माण बिरला परिवार के राजा बिरला ने करवाया था। ये मंदिर सभी धर्मों और जाति के
लोगों के लिये खुला है ।

कला एवं साहित्य

बी.एच.यू में नये विश्वनाथ मंदिर का स्थापत्य


वाराणसी की संस्कृति कला एवं साहित्य से परिपूर्ण है । इस नगर में महान भारतीय
लेखक एवं विचारक हुए हैं, कबीर, रविदास, तल ु सीदास जिन्होंने यहां रामचरितमानस लिखी,
कुल्लुका भट्ट जिन्होंने १५वीं शताब्दी में  मनुस्मति
ृ  पर सर्वश्रेष्ठ ज्ञात टीका यहां
लिखी एवं भारतेन्द ु हरिशचंद्र और आधुनिक काल के जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र
शुक्ल, मुंशी प्रेमचंद, जगन्नाथ प्रसाद रत्नाकर, दे वकी नंदन खत्री, हजारी प्रसाद द्विवेदी,
तेग अली, क्षेत्रश
े चंद्र चट्टोपाध्याय, वागीश शास्त्री, बलदे व उपाध्याय, सुमन पांडय
े (धमि
ू ल)
एवं विद्या निवास मिश्र और अन्य बहुत।

यहां के कलाप्रेमियों और इतिहासवेत्ताओं में  राय कृष्णदास, उनके पत्र


ु  आनंद कृष्ण,
संगीतज्ञ जैसे ओंकारनाथ ठाकुर, रवि शंकर, बिस्मिल्लाह खां, गिरिजा दे वी, सिद्देश्वरी
दे वी, लालमणि मिश्र एवं उनके पत्र
ु  गोपाल शंकर मिश्र, एन राजम, राजभान सिंह,
अनोखेलाल, समता प्रसाद, कांठे महाराज, एम.वी.कल्विंत, सितारा दे वी, गोपी कृष्ण, कृष्ण
महाराज, राजन एवं साजन मिश्र, महादे व मिश्र एवं बहुत से अन्य लोगों ने नगर को अपनी
ललित कलाओं के कौशल से जीवंत बनाए रखा। नगर की प्राचीन और लोक संस्कृति की
पारं परिक शैली को संरक्षित किये ढे रों उत्सव और त्यौहार यहां मनाये जाते हैं। रात्रिकालीन,
संगीत सभाएं आदि संकटमोचन मंदिर, होरी, कजरी, चैती मेला, बुढ़वा मंगल यहां के अनेक
पर्वों में से कुछ हैं जो वार्षिक रूप से सभी जगहों से पर्यटक एवं शौकीनों को आकर्षित करते हैं।

महान शल्य चिकित्सक सुश्रुत, जिन्होंने शल्य-क्रिया का संस्कृत ग्रन्थ सुश्रुत


संहिता लिखा था; वाराणसी में ही आवास करते थे।

पर्यटन

संभवतः अपनी अनुपम और अद्वितीय संस्कृति के कारण वाराणसी संसार भर में


पर्यटकों का आकर्षण बना हुआ है । शहर में अनेक ३, ४ और ५ सितारा होटल हैं। इसके अलावा
पश्चिमी छात्रों और शोधकर्ताओं के लिये पर्याप्त और दक्ष रहन सहन व्यवस्था है । यहां के
स्थानीय खानपान के अलावा लगभग सभी प्रकार की खानपान व्यवस्था शहर में उपलब्ध है ।
शहर के लोगों का स्व्भाव भी सत्कार से परिपर्ण
ू है । वाराणसी बनारसी रे शम की साड़ियों और
पीतल के सामान के लिये भी प्रसिद्ध है । इसके अलावा उच्च कोटि के रे शमी वस्त्र, कालीन,
काष्ठ शिल्प, भित्ति सज्जा एवं प्रदीपन आदि के सामान के साथ-साथ बौद्ध एवं हिन्द ू दे वी-
दे वताओं के मख
ु ौटे विशेशः आकर्षण रहे हैं। मख्
ु य खरीदारी बाजारों में चौक, गोदौलिया,
विश्वनाथ गली, लहुराबीर एवं ठठे री बाजार हैं। अस्सी घाट शहर के डाउनटाउन इलाके
गोदौलिया और यवु ा संस्कृति से ओतप्रोत बी.एच.यू के बीच एक मध्यस्थ स्थान है , जहां यव
ु ा,
विदे शी और आवधिक लोग आवास करते हैं।
वर्तमान काल की प्रमुख विभति
ू याँ

 मदन मोहन मालवीय, बनारस हिन्द ू विश्वविद्यालय के संस्थापक


 लाल बहादरु शास्त्री, भारत के पूर्व प्रधान मंत्री
 बिस्मिल्लाह खां, शहनाईवादक, भारत रत्न
 कृष्ण महाराज, तबला वादक, पद्म विभष
ू ण
 रवि शंकर, सितारवादक, भारत रत्न
 सिद्धेश्वरी दे वी, खयालगायिका
 विकाश महाराज, सरोद के महारथी
 नैना दे वी, खयाल गायिका
 भगवान दास, भारत रत्न
 समता प्रसाद (गद
ु ई महाराज) तबला वादक, पद्मश्री
 जय शंकर प्रसाद - हिंदी साहित्यकार)
 प्रेमचंद - हिंदी साहित्यकार
 भारतें द ु हरिश्चंद्र - हिंदी साहित्यकार

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