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वैसे मैं भी बनारसी हूं, एकदम ठे ठ बनारसी। बनारस की बात आते ही जेहन में कई फिल्मों की
झलकियां सामने दिखती हैं। उनमें से एक है 'रांझणा'। फिल्म राझणां के कंु दन की ही तरह
मेरा बचपन भी गंगा घाटों पर बड़े-बड़े सपने दे खते, खेलते-कूदते और मस्ती करते बीता है ।
मैंने भी यहां वो सारे मौसम दे खें हैं जो शहर को ही नहीं बल्कि जिंदगी को भी खुशनुमा बना
दे ते हैं। इस शहर से अगर आप अपनी लाइफ को relate करें गे तो कुछ अलग ही पाएंगे।
इस शहर की सबसे खास बात ये है कि यहां आने वाला हर एक अजनबी इससे दोस्ती करके
जाता है । यहां की कुछ खास चीजें हैं जिसे मैंने महसूस किया है , जिसे जानकर आपको जरूर
इच्छा होगी कि एक बार इस शहर में घूमना तो बनता ही है । तो चलिए एक ठे ठ बनारसी
अपनी भावनाओं के जरिए इस शहर से आपको मिलवाने जा रही हूं।
अगर घूमने निकले हैं तो इस घाट को अपनी लिस्ट में सबसे अंत में रखें क्योंकि जनाब यहां
आप अपने सपनों से सौदा कर जाएंगे। इस घाट पर आकर बेजान लोग भी बड़े-बड़े ख्वाब
दे खने लगते हैं। वहीं कुछ लोग जिनके ख्वाब बड़े होते हैं वो सब कुछ भूलकर इसकी
मनमोहक छवि में रं ग जाना चाहते हैं।
यहां रोज सब
ु ह-शाम गंगा आरती और रात तक लोगों की चौपाल लगी रहती है । मेरी फेवरे ट
जगहों में से एक असि घाट इसलिए है क्योंकि फोटोग्राफी करने के लिए ये एक बेस्ट ऑप्शन
है । इस घाट पर आपको हर एक दे श के लोग मिल जाएंगे।
यही वजह है कि घाटों की सैर कराने वाले नाविकों को इंग्लिश से लेकर तमिल तक लगभग
हर एक भाषा आती है । यहां सीखने वालों के लिए बहुत कुछ है । गरीबी और अमीरी actually
में होती क्या है , मैंने यहीं से समझा है । अगर आप हुक्का पीने की शौकीन हैं तो जनाब ये
जगह हुक्का वालों के लिए फेमस है ।
अगर गंगा के पानी में पैर डूबोकर लहरों की धुन सुनना हो और हवाओं से बातें करनी हो तो
असि घाट आइए। मैं challenge के साथ कहती हूं आपको यहां से प्यार हो जाएगा।
अगर आपको भरपूर मजे के साथ लोगों से मिलने, उन्हें जानने और तस्वीरें लेने का शौक है
तो आप पैदल ही जाएं। लेकिन सावधान रहें क्योंकि जेब कतरों से इस रास्ते पर आप चाह कर
भी नहीं बच पाएंगी।
भस्म लगाकर कुछ साधू-संत और अवगड़ बाबा आपको डरा भी सकते हैं। यहां भीख मांगने
वाले तब तक आपका पीछा करें गे जब तक आप उन्हें कुछ दे न दें । इस रास्ते पर लोगों की
भीड़ के अलावा अलग-अलग variety की गायों का झड
ूं भी अपने गले में चमेली के फूलों की
माला पहने आपका स्वागत करती मिलेंगी। इन सब चीजों का मजा लेना है तो असि घाट से
दशाश्वमेध घाट पैदल ही चले आइए। अगर आप भगवान शिव के सच्चे भक्त हैं तो सोचिए
मत इस घाट पर आपको भगवान शंकर मिल सकते हैं।
फिल्म ‘मसान’ के किस्से इसी घाट के हैं। मैंने इस घाट पर अकेले दे र रात तक बैठ कई
जिंदगियों को धुमिल होते दे खा है और धुएं की तरह उड़ जाते दे खा है ।
वाराणसी भारत के उत्तर प्रदे श राज्य का प्रसिद्ध नगर है । इसे 'बनारस' और 'काशी' भी
कहते हैं। इसे हिन्द ू धर्म में सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक माना जाता है और इसे अविमुक्त
क्षेत्र कहा जाता है । इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्म में भी इसे पवित्र माना जाता है । यह
संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक और भारत का प्राचीनतम बसा शहर है ।
काशी नरे श (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी
धार्मिक क्रिया-कलापों के अभिन्न अंग हैं। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके
धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है । ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर
भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है । हिन्दस्
ु तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस
घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है । भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक,
संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलग
ं
स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल,
पंडित रवि शंकर, गिरिजा दे वी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि
कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्द ू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथरामचरितमानस यहीं लिखा था
और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था।
वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्द ू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी
काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत
विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक
बोली है । वाराणसी को प्रायः 'मंदिरों का शहर', 'भारत की धार्मिक राजधानी', 'भगवान शिव
की नगरी', 'दीपों का शहर', 'ज्ञान नगरी' आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है ।
प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी परु ातन है , परं पराओं से
परु ाना है , किंवदं तियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें , तो उस
संग्रह से भी दोगन
ु ा प्राचीन है ।"
इतिहास
मख्
ु य लेख : वाराणसी का इतिहास
विभूतियाँ
महर्षि अगस्त्य
धन्वंतरि
गौतम बद्ध
ु
संत कबीर
अघोराचार्य बाबा कानीराम
लक्ष्मीबाई
पाणिनी
पार्श्वनाथ
पतञ्जलि
संत रै दास
स्वामी रामानन्दाचार्य
वल्लभाचार्य
शंकराचार्य
गोस्वामी तल
ु सीदास
महर्षि वेदव्यास
वल्लभाचार्य
प्राचीन काशी
वाराणसी (बनारस), १९२२ ई
गंगा तट पर बसी काशी बड़ी परु ानी नगरी है । इतने प्राचीन नगर संसार में बहुत नहीं
हैं। हजारों वर्ष पूर्व कुछ नाटे कद के साँवले लोगों ने इस नगर की नींव डाली थी। तभी यहाँ
कपड़े और चाँदी का व्यापार शुरू हुआ। कुछ समय उपरांत पश्चिम से आये ऊँचे कद के गोरे
लोगों ने उनकी नगरी छीन ली। ये बड़े लड़ाकू थे, उनके घर-द्वार न थे, न ही अचल संपत्ति
थी। वे अपने को आर्य यानि श्रेष्ठ व महान कहते थे। आर्यों की अपनी जातियाँ थीं, अपने कुल
घराने थे। उनका एक राजघराना तब काशी में भी आ जमा। काशी के पास ही अयोध्या में भी
तभी उनका राजकुल बसा। उसे राजा इक्ष्वाकु का कुल कहते थे, यानि सूर्यवंश। काशी में चन्द्र
वंश की स्थापना हुई। सैकड़ों वर्ष काशी नगर पर भरत राजकुल के चन्द्रवंशी राजा राज करते
रहे । काशी तब आर्यों के पूर्वी नगरों में से थी, पूर्व में उनके राज की सीमा। उससे परे पूर्व का
दे श अपवित्र माना जाता था।
महाभारत काल
महाजनपद युग
वाराणसी शहर का बड़ा अंश अतिप्राचीनकाल से काशी कहा जाता है । इसे हिन्द ू
मान्यता में सबसे बड़ा तीर्थ माना जाता है , किन्तु तीर्थ के रूप में वाराणसी का सबसे पुराना
उल्लेख महाभारत मे मिलता है । महाभारत-पूर्व के किसी साहित्य में किसी भी तीर्थ आदि के
बारे में कोई उल्लेख नहीं है । आज के तीर्थस्थल तब अधिकतर वन प्रदे श में थे और मनुष्यों से
रहित थे। कहीं-कहीं आदिवासियों का वास रहा होगा। कालांतर में तीर्थों के बारे में कही गयी
कथाएं अस्तित्त्व में आयीं और तीर्थ बढ़ते गये, जिनके आसपास नगर और शहर भी बसे।
भारतभमि
ू में आर्यों के प्रसार के द्वारा तीर्थों के अस्तित्व तथा माहात्मय का पता चला।
महाभारत में उल्लेख है पथ्ृ वी के कुछ स्थान पुण्यप्रद तथा पवित्र होते है । इनमें से कोई तो
स्थान की विचित्रता के कारण कोई जन्म के प्रभाव और कोई ॠषि-मुनियों के सम्पर्क से
पवित्र हो गया है । यजुर्वेदीय जाबाल उपनिषद में काशी के विषय में महत्वपूर्ण वर्णन आता है ,
परन्तु इस उपनिषद् को आधुनिक विद्वान उतना प्राचीन नहीं मानते हैं।
लैंङ्गोडपि तत
ृ ीयाध्यायात्षोऽशान्तं लिंङ्गान्यक्
ु तवोक्तम ्
क्षेत्र का विस्तार
वाराणसी क्षेत्र के विस्तार के अनेक पौराणिक उद्धरण उपलब्ध हैं। कृत्यकल्पतरु में दिये तीर्थ-
विवेचन व अन्य प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार
ब्रह्म पुराण में भगवान शिव पार्वती से कहते हैं कि- हे सुरवल्लभे, वरणा और असि
इन दोनों नदियों के बीच में ही वाराणसी क्षेत्र है , उसके बाहर किसी को नहीं बसना
चाहिए।
मत्स्य पुराण में इसकी लम्बाई-चौड़ाई अधिक स्पष्ट रूप से वर्णित है । पूर्व-
पश्चिम ढ़ाई (२ ½) योजन भीष्मचंडी से पर्वतेश्वर तक, उत्तर-दक्षिण आधा (1/2) योजन,
शेष भाग वरुणा और अस्सी के बीच। उसके बीच में मध्यमेश्वर नामक स्वयंभू लिंग है ।
यहां से भी एक-एक कोस चारों ओर क्षेत्र का विस्तार है । यही वाराणसी की वास्तविक
सीमा है । उसके बाहर विहार नहीं करना चाहिए।
अग्नि पुराण के अनुसार वरणा और असी नदियों के बीच बसी हुई वाराणसी का
विस्तार पूर्व में दो योजन और दस
ू री जगह आधा योजन भाग फैला था और दक्षिण में यह
क्षेत्र वरणा से गंगा तक आधा योजन फैला हुआ था। मत्स्य पुराण में ही अन्यत्र नगर का
विस्तार बतलाते हुए कहा गया है - पूर्व से पश्चिम तक इस क्षेत्र का विस्तार दो योजन है
और दक्षिण में आधा योजन नगर भीष्मचंडी से लेकर पर्वतेश्वर तक फैला हुआ था।
ब्रह्म पुराण के अनुसार इस क्षेत्र का प्रमाण पांच कोस का था उसमें उत्तरमुखी गंगा
है जिससे क्षेत्र का महात्म्य बढ़ गया। उत्तर की ओर गंगा दो योजन तक शहर के साथ-
साथ बहती थी।
स्कंद परु ाण के अनस
ु ार उस क्षेत्र का विस्तार चारों ओर चार कोस था।
लिंग पुराण में इस क्षेत्र का विस्तार कृतिवास से आरं भ होकर यह क्षेत्र एक-एक कोस
चारों ओर फैला हुआ है । उसके बीच में मध्यमेश्वर नामक स्वयंभू लिंग है । यहां से भी
एक-एक कोस चारों ओर क्षेत्र का विस्तार है । यही वाराणसी की वास्तविक सीमा है । उसके
बाहर विहार न करना चाहिए।
उपरोक्त उद्धरणों से ज्ञात होता है कि प्राचीन वाराणसी का विस्तार काफी दरू तक था।
वरुणा के पश्चिम में राजघाट का किला जहां प्राचीन वाराणसी के बसे होने में कोई संदेह नहीं
है , एक मील लंबा और ४०० गज चौड़ा है । गंगा नदी उसके दक्षिण-पूर्व मुख की रक्षा करती है
और वरुणा नदी उत्तर और उत्तर-पूर्व मुखों की रक्षा एक छिछली खाई के रूप में करती है ,
पश्चिम की ओर एक खाली नाला है जिसमें से होकर किसी समय वरुणा नदी बहती थी। रक्षा
के इस प्राकृतिक साधनों को दे खते हुए ही शायद प्राचीन काल में वाराणसी नगर के लिए यह
स्थान चुना गया। सन ् १८५७ ई. के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय अंग्रेजों ने भी
नगर रक्षा के लिए वरुणा के पीछे ऊंची जमीन पर कच्ची मिट्टी की दीवारें उठाकर किलेबन्दी
की थी। पुराणों में आयी वाराणसी की सीमा राजघाट की उक्त लम्बाई-चौड़ाई से कहीं अधिक
है । उन वर्णनों से लगता है कि वहां केवल नगर की सीमा ही नहीं वर्णित है , बल्कि पूरे क्षेत्र को
सम्मिलित कर लिया गया है । वरुणा के उस पार तक प्राचीन बसावटों के अवशेष काफी दरू
तक मिलते हैं। अतः संभव है कि पुराणों में मिले वर्णन वे सब भाग भी आ गये हों। इस क्षेत्र
को यदि नगर में जुड़ा हुआ मानें, तो पुराणों में वर्णित नगर की लम्बाई-चौड़ाई लगभग सही
ही बतायी गई है ।
गौतम बद्ध
ु के जन्म पर्व
ू महाजनपद यग
ु में वाराणसी काशी जनपद की राजधानी
थी। किंतु प्राचीन काशी जनपद के विस्तार के बारे में यथार्थ आदि से अनम
ु ान लगाना कठिन
है । जातकों में काशी का विस्तार ३०० योजन दिया गया है । काशी जनपद के उत्तर में कोसल
जनपद, पर्व
ू में मगध जनपद और पश्चिम में वत्स था। इतिहासवेत्ता डॉ॰ ऑल्टे कर के
मतानस
ु ार काशी जनपद का विस्तार उत्तर-पश्चिम की ओर २५० मील तक था, क्योंकि
इसका पर्व
ू का पड़ोसी जनपद मगध और उत्तर-पश्चिम का पड़ोसी जनपद उत्तर पांचाल था।
जातक (१५१) के अनस ु ार काशी और कोसल की सीमाएं मिली हुई थी। काशी की दक्षिण सीमा
का सही वर्णन उपलब्ध नहीं है , शायद इसलिये कि वह विंध्य श्रंख
ृ ला तक गई हुई थी व आगे
कोई आबादी नहीं थी। जातकों के आधार पर काशी का विस्तार
वर्तमान बलिया से कानपुर तक फैला रहा होगा। यहां श्री राहुल सांकृत्यायन कहते हैं, कि
आधुनिक बनारस कमिश्नरी ही प्राचीन काशी जनपद रहा था। संभव है कि
आधुनिक गोरखपुर कमिश्नरी का भी कुछ भाग काशी जनपद में शामिल रहा हो।
दस
ू री वाराणसी
परु
ु कुल के राजा दिवोदास द्वारा दस
ू री वाराणसी की स्थापना का उल्लेख महाभारत
और अन्य ग्रन्थों में आता है । इस नगरी के बैरांट में होने की संभावना भी है । इस बारे में
पंडित कुबेरनाथ सुकुल के अनुसार बैराट खंडहर बाण गंगा के दक्षिण (दाएं) किनारे पर है वाम
(बाएं) पर नहीं। इस प्रकार गोमती और बैरांट के बीच गंगा की धारा बाधक हो जाती है । गंगा
के रास्ते बदलने, बाण गंगा में गंगा के बहने और गंगा-गोमती संगम सैदपुर के पास होने के
बारे में आगे सुकुलजी ने महाभारत के हवाले से बताया है कि गंगा-गोमती संगम पर
मार्क ण्डेय तीर्थ था, जो वर्तमान में कैथी के समीप स्थित है । अत: ये कह सकते हैं कि यदि
गंगा-गोमती संगम सैदपुर के पास था तो यह महाभारत-पूर्व हो सकता है , न कि तत
ृ ीय
शताब्दी ईसवी के बाद का।
भूगोल
वाराणसी शहर उत्तरी भारत की मध्य गंगा घाटी में , भारतीय राज्य उत्तर प्रदे श के
पूर्वी छोर पर गंगा नदी के बायीं ओर के वक्राकार तट पर स्थित है । यहां वाराणसी जिले का
मुख्यालय भी स्थित है । वाराणसी शहरी क्षेत्र — सात शहरी उप-इकाइयों का समह
ू है और ये
११२.२६ वर्ग कि॰मी॰ (लगभग ४३ वर्ग मील) के क्षेत्र फैला हुआ है । शहरी क्षेत्र का विस्तार
(८२°५६’ पूर्व) - (८३°०३’ पूर्व) एवं (२५°१४’ उत्तर) - (२५°२३.५’ उत्तर) के बीच है । उत्तरी
भारत के गांगेय मैदान में बसे इस क्षेत्र की भूमि पुराने समय में गंगा नदी में आती रहीं बाढ़ के
कारण उपत्यका रही है ।
खास वाराणसी शहर गंगा और वरुणा नदियों के बीच एक ऊंचे पठार पर बसा है ।
नगर की औसत ऊंचाई समुद्र तट से ८०.७१ मी. है । यहां किसी सहायक नदी या नहर के
अभाव में मुख्य भमि
ू लगातार शुष्क बनी रही है । प्राचीन काल से ही यहां की भौगोलिक
स्थिति बसावट के लिये अनुकूल रही है । किन्तु नगर की मूल स्थिति का अनुमान वर्तमान से
लगाना मुश्किल है , क्योंकि आज की स्थिति कुछ प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित स्थिति से भिन्न
है ।
अर्थ-व्यवस्था
वाराणसी में विभिन्न कुटीर उद्योग कार्यरत हैं, जिनमें बनारसी रे शमी साड़ी, कपड़ा
उद्योग, कालीन उद्योग एवं हस्तशिल्प प्रमुख हैं। बनारसी पान विश्वप्रसिद्ध है और इसके
साथ ही यहां का कलाकंद भी मशहूर है । वाराणसी में बाल-श्रमिकों का काम जोरों पर है ।
भारतीय रे ल का डीजल इंजन निर्माण हे त ु डीजल रे ल इंजन कारखाना भी वाराणसी में
स्थित है । वाराणसी और कानपरु का प्रथम भारतीय व्यापार घराना निहालचंद किशोरीलाल
१८५७ में दे श के चौथे ऑक्सीजन संयंत्र की स्थापना से आरं भ हुआ था। इसका नाम इण्डियन
एयर गैसेज़ लि. था। लॉर्ड मकॉले के अनस ु ार, वाराणसी वह नगर था, जिसमें समद्धि
ृ , धन-
संपदा, जनसंख्या, गरिमा एवं पवित्रता एशिया में सर्वोच्च शिखर पर थी। यहां के व्यापारिक
महत्त्व की उपमा में उसने कहा था: " बनारस की खड्डियों से महीनतम रे शम निकलता है ,
जो सेंट जेम्स और वर्सेल्स के मंडपों की शोभा बढ़ाता है "।
३८७-रोहनिया,
३८८-वाराणसी उत्तर,
३८९-वाराणसी दक्षिण,
३९०-वाराणसी छावनी और
३९१-सेवापुरी।
वाराणसी उन पांच शहरों में से एक है , जहां गंगा एकशन प्लान की शुरुआत हुई थी।
शिक्षा
संस्कृति
वाराणसी का पुराना शहर, गंगा तीरे का लगभग चौथाई भाग है , जो भीड़-भाड़ वाली
संकरी गलियों और किनारे सटी हुई छोटी-बड़ी असंख्य दक ु ानों व सैंकड़ों हिन्द ू मंदिरों से पटा
हुआ है । ये घम
ु ाव और मोड़ों से भरी गलियां किसी के लिये संभ्रम करने वाली हैं। ये संस्कृति
से परिपर्णू परु ाना शहर विदे शी पर्यटकों के लिये वर्षों से लोकप्रिय आकर्षण बना हुआ
है । वाराणसी के मख्ु य आवासीय क्षेत्र (विशेषकर मध्यम एवं उच्च-मध्यम वर्गीय श्रेणी के
लिये) घाटों से दरू स्थित हैं। ये विस्तत
ृ , खल
ु े हुए और अपेक्षाकृत कम प्रदष
ू ण वाले हैं।
रामनगर की रामलीला
बनारस घराना
शाहिद परवेज़ खां, बनारस घराने के अन्य बड़े महारथी पंडित किशन महाराज के साथ एक
सभा में ।
पवित्र नगरी
वाराणसी या काशी को हिन्द ू धर्म में पवित्रतम नगर बताया गया है । यहां प्रतिवर्ष १०
लाख से अधिक तीर्थ यात्री आते हैं। यहां का प्रमख
ु आकर्षण है काशी विश्वनाथ मंदिर,
जिसमें भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग में से प्रमख
ु शिवलिंग यहां स्थापित है ।
हिन्द ू मान्यता अनुसार गंगा नदी सबके पाप मार्जन करती है और काशी में मत्ृ यु
सौभाग्य से ही मिलती है और यदि मिल जाये तो आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो कर
मोक्ष पाती है । इक्यावन शक्तिपीठ में से एक विशालाक्षी मंदिर यहां स्थित है , जहां
भगवती सती की कान की मणिकर्णिका गिरी थी। वह स्थान मणिकर्णिका घाट के निकट
स्थित है । हिन्द ू धर्म में शाक्त मत के लोग दे वी गंगा को भी शक्ति का ही अवतार मानते हैं।
जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने हिन्द ू धर्म पर अपनी टीका यहीं आकर लिखी थी, जिसके
परिणामस्वरूप हिन्द ू पुनर्जागरण हुआ। काशी में वैष्णव और शैव संप्रदाय के लोग सदा ही
धार्मिक सौहार्द से रहते आये हैं।
वाराणसी बौद्ध धर्म के पवित्रतम स्थलों में से एक है और गौतम बुद्ध से संबंधित चार
तीर्थ स्थलों में से एक है । शेष तीन कुशीनगर, बोध गया और लुंबिनी हैं। वाराणसी के मुख्य
शहर से हटकर ही सारनाथ है , जहां भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन दिया था। इसमें
उन्होंने बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्दांतों का वर्णन किया था। अशोक-पूर्व स्तप
ू ों में से कुछ ही शेष
हैं, जिनमें से एक धामेक स्तूप यहीं अब भी खड़ा है , हालांकि अब उसके मात्र आधारशिला के
अवशेष ही शेष हैं। इसके अलावा यहां चौखंडी स्तप
ू भी स्थित है , जहां बुद्ध अपने प्रथम शिष्यों
से (लगभग ५वीं शताब्दी ई.पू या उससे भी पहले) मिले थे। वहां एक अष्टभुजी मीनार
बनवायी गई थी।
वाराणसी हिन्दओ
ु ं एवं बौद्धों के अलावा जैन धर्म के अवलंबियों के लिये भी पवित तीर्थ है । इसे
२३वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का जन्मस्थान माना जाता है । वाराणसी पर इस्लाम संस्कृति ने
भी अपना प्रभाव डाला है । हिन्द-ू मुस्लिम समुदायों में तनाव की स्थिति कुछ हद तक बहुत
समय से बनी हुई है ।
गंगा नदी
वाराणसी में १०० से अधिक घाट हैं। शहर के कई घाट मराठा साम्राज्य के अधीनस्थ
काल में बनवाये गए थे। वर्तमान वाराणसी के संरक्षकों में मराठा, शिदं े
(सिंधिया), होल्कर, भोंसले और पेशवा परिवार रहे हैं। अधिकतर घाट स्नान-घाट हैं, कुछ घाट
अन्त्येष्टि घाट हैं। कई घाट किसी कथा आदि से जड़ ु े हुए हैं, जैसे मणिकर्णिका घाट, जबकि
कुछ घाट निजी स्वामित्व के भी हैं। पूर्व काशी नरे श का शिवाला घाट और काली घाट निजी
संपदा हैं। वाराणसी में अस्सी घाट से लेकर वरुणा घाट तक सभी घाटों की दक्षिण की ओर से
क्रमवार सूची इस प्रकार से है :
दशाश्वमेध घाट
मणिकर्णिका घाट
इस घाट से जड़
ु ी भी दो कथाएं हैं। एक के अनुसार भगवान विष्णु ने शिव की तपस्या
करते हुए अपने सुदर्शन चक्र से यहां एक कुण्ड खोदा था। उसमें तपस्या के समय आया हुआ
उनका स्वेद भर गया। जब शिव वहां प्रसन्न हो कर आये तब विष्णु के कान की मणिकर्णिका
उस कंु ड में गिर गई थी। दस
ू री कथा के अनुसार भगवाण शिव को अपने भक्तों से छुट्टी ही
नहीं मिल पाती थी। दे वी पार्वती इससे परे शान हुईं और शिवजी को रोके रखने हे तु अपने कान
की मणिकर्णिका वहीं छुपा दी और शिवजी से उसे ढूंढने को कहा। शिवजी उसे ढूंढ नहीं पाये
और आज तक जिसकी भी अन्त्येष्टि उस घाट पर की जाती है , वे उससे पूछते हैं कि क्या
उसने दे खी है ?प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार मणिकर्णिका घाट का स्वामी वही चाण्डाल था,
जिसने सत्यवादी राजा हरिशचंद्र को खरीदा था। उसने राजा को अपना दास बना कर उस घाट
पर अन्त्येष्टि करने आने वाले लोगों से कर वसल
ू ने का काम दे दिया था। इस घाट की
विशेषता ये है , कि यहां लगातार हिन्द ू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता की अग्नि
लगातार जलती ही रहती है , कभी भी बुझने नहीं पाती।
सिंधिया घाट
सिंधिया घाट, जिसे शिन्दे घाट भी कहते हैं, मणिकर्णिका घाट के उत्तरी ओर लगा
हुआ है । यह घाट काशी के बड़े तथा संद
ु र घाटों में से एक है । इस घाट का निर्माण १५० वर्ष
पूर्व १८३० में ग्वालियर की महारानी बैजाबाई सिंधिया ने कराया था तथा और इससे लगा हुआ
शिव मंदिर आंशिक रूप से नदी के जल में डूबा हुआ है । इस घाट के ऊपर काशी के अनेकों
प्रभावशाली लोगों द्वारा बनवाये गए मंदिर स्थित हैं। ये संकरी घुमावदार गलियों में सिद्ध-
क्षेत्र में स्थित हैं। मान्यतानुसार अग्निदे व का जन्म यहीं हुआ था। यहां हिन्द ू लोग वीर्येश्वर
की अर्चना करते हैं और पत्र
ु कामना करते हैं। १९४९ में इसका जीर्णोद्धार हुआ। यहीं पर
आत्माविरे श्वर तथा दत्तात्रेय के प्रसिद्ध मंदिर हैं। संकठा घाट पर बड़ौदा के राजा का महल है ।
इसका निर्माण महानाबाई ने कराया था। यहीं संकठा दे वी का प्रसिद्ध मंदिर है । घाट के अगल-
बगल के क्षेत्र को "दे वलोक' कहते हैं।
ललिता घाट
स्वर्गीय नेपाल नरे श ने ये घाट वाराणसी में उत्तरी ओर बनवाया था। यहीं उन्होंने
एक नेपाली काठमांडु शैली का पगोडा आकार गंगा-केशव मंदिर भी बनवाया था, जिसमें
भगवान विष्णु प्रतिष्ठित हैं। इस मंदिर में पशुपतेश्वर महादे व की भी एक छवि लगी है ।
असी घाट
असी घाट असी नदी के संगम के निकट स्थित है । इस सुंदर घाट पर स्थानीय उत्सव
एवं क्रीड़ाओं के आयोजन होते रहते हैं। ये घाटों की कतार में अंतिम घाट है । ये चित्रकारों और
छायाचित्रकारों का भी प्रिय स्थल है । यहीं स्वामी प्रणवानंद, भारत सेवाश्रम संघ के प्रवर्तक ने
सिद्धि पायी थी। उन्होंने यहीं अपने गोरखनाथ के गरु
ु गंभीरानंद के गरु
ु त्व में भगवान शिव
की तपस्या की थी।
अन्य
मंदिर
काशी विश्वनाथ मंदिर, जिसे कई बार स्वर्ण मंदिर भी कहा जाता है , अपने वर्तमान
रूप में १७८० में इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्करद वारा बनवाया गया था। ये मंदिर
गंगा नदी के दशाश्वमेध घाट के निकट ही स्थित है । इस मंदिर की काशी में सर्वोच्च महिमा
है , क्योंकि यहां विश्वेश्वर या विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग स्थापित है । इस ज्योतिर्लिंग का एक बार
दर्शनमात्र किसी भी अन्य ज्योतिर्लिंग से कई गुणा फलदायी होता है । १७८५ में तत्कालीन
गवर्नर जनरल वार्रन हास्टिं ग्सके आदे श पर यहां के गवर्नर मोहम्मद इब्राहिम खां ने मंदिर के
सामने ही एक नौबतखाना बनवाया था। १८३९ में पंजाब के शासक पंजाब केसरी महाराजा
रणजीत सिंह इस मंदिर के दोनों शिखरों को स्वर्ण मंडित करवाने हे तु स्वर्ण दान किया था।
२८ जनवरी १९८३ को मंदिर का प्रशासन उत्तर प्रदे श सरकार नेल लिया और तत्कालीन काशी
नरे श डॉ॰विभूति नारायण सिंह की अध्यक्षता में एक न्यास को सौंप दिया। इस न्यास में एक
कार्यपालक समिति भी थी, जिसके चेयरमैन मंडलीय आयुक्त होते हैं।
दर्गा
ु मंदिर, जिसे मंकी टे म्पल भी कहते हैं; १८वीं शताब्दी में किसी समय बना था।
यहां बड़ी संख्या में बंदरों की उपस्थिति के कारण इसे मंकी टे म्पल कहा जाता है । मान्यता
अनुसार वर्तमाण दर्गा
ु प्रतिमा मानव निर्मित नहीं बल्कि मंदिर में स्वतः ही प्रकट हुई
थी। नवरात्रि उत्सव के समय यहां हजारों श्रद्धालुओं की भीड़ होती है । इस मंदिर में अहिन्दओ
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का भीतर प्रवेश वर्जित है ।
इसका स्थापत्य उत्तर भारतीय हिन्द ू वास्तु की नागर शैली का है । मंदिर के साथ ही
एक बड़ा आयताकार जल कुण्ड भी है , जिसे दर्गा
ु कुण्ड कहते हैं। मंदिर का बहुमंजिला शिखर
है और वह गेरु से पुता हुआ है । इसका लाल रं ग शक्ति का द्योतक है । कुण्ड पहले नदी से
जुड़ा हुआ था, जिससे इसका जल ताजा रहता था, किन्तु बाद में इस स्रोत नहर को बंद कर
दिया गया जिससे इसमें ठहरा हुआ जल रहता है और इसका स्रोत अबव र्शषआ या मंदिर की
निकासी मात्र है । प्रत्येक वर्ष नाग पंचमी के अवसर पर भगवान विष्णु और शेषनागकी पूजा
की जाती है । यहां संत भास्कपरानंद की समाधि भी है । मंगलवार और शनिवार को दर्गा
ु मंदिर
में भक्तों की काफी भीड़ रहती है । इसी के पास हनुमान जी का संकटमोचन मंदिर है । महत्ता
की दृष्टि से इस मंदिर का स्थागन काशी विश्वभनाथ और अन्नेपूर्णा मंदिर के बाद आता है ।
बनारस हिन्द ू विश्वविद्यालय के परिसर में नया विश्वनाथ मंदिर बना है , जिसका
निर्माण बिरला परिवार के राजा बिरला ने करवाया था। ये मंदिर सभी धर्मों और जाति के
लोगों के लिये खुला है ।
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