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यह जपु जी साहिब की २१ वीं पौड़ी पर आधारित पहली पोस्ट हैं । जपु जी साहिब की कोई भी पौड़ी पढने से पहले

अपने मन को एक गहरी सोच के लिए तै यार कर ले ना चाहिए । यह कच्चे , चं चल मन और सतही व्यक्तित्व- वालों के
लिए नहीं बल्कि परमार्थी, पक्के और दृढ विश्वास, तटस्थ मन और गहरे पानी में पै ठने वालों के लिए है । यह
शूरवीरों का ग्रन्थ हैं जो गु रु के आदे श पर अपना सर (अपना-आपा या अहम भाव) कुर्बान कर सके । यह कायरों का
ग्रन्थ नहीं है । यह प्रेमियों का ग्रन्थ है ।  ऐसा जपु जी में क्या है जो इसे कलियु ग का एक बे जोड़ ग्रन्थ बनाता है
?
 
'जपु जी' एक अनु पम और बहुमूल्य रचना है । इसके रचयिता ने उस परम-पिता परमात्मा से मिलाप
करके उसके स्वरुप, उसके द्वारा रची गयी रचना, रचना में लागू विधान और आत्मा के परमात्मा के साथ
मिलाप के अनादि साधन और मार्ग पर प्रकाश डालता है ।
 
जपु जी बहुआयामी रचना है जो ज़िं दगी के कई पहलु ओं के बारे में मार्ग-निर्- ेशन करता है । इसमें
परमार्थी सिद्धान्त, परमात्मा के साथ मिलाप की यु क्ति, सदाचारिक नियमावली, व्यक्तिगत आचरण
और सामाजिक आचार आदि को विशु द्ध रूहानी दृष्टि से पे श किया गया है ।
 
'जपु जी' एक ऐसी खान है जिसकी जितनी गहरी खु दाई करते हैं , उसमें से विचारों के उतने रं ग-बिरं गे- ,
सु न्दर और अमूल्य हीरे बाहर निकलते हैं । 'जपु जी' वह सागर है , जिसमें जिसमें जितनी गहरी डुबकी
लगायी जाये , अर्थों के उतने ही कीमती मोती हाथ लगते हैं । 'जपु जी' को जितनी बार भी पढ़ा-सु ना
जाये , थोड़ा है । 'जपु जी पर जितना भी आत्म-मं थन, विश्ले षण, विवे चना किया जाये , थोड़ी है ।
'जपु जी' का पढ़ना धन्य है , सु नना धन्य है , पर 'जपु जी' गहरे विचार की माँ ग करता है ताकि इसके
उपदे श को भली-भाँ ति समझकर तथा श्रद्धापूर- ्वक मन में बिठाकर, जीवन को उसके अनु रूप ढाला
जा सके ।
 
तीरथु तपु दइआ दतु दानु ॥जे को पावै तिल का मानु ॥
सु णिआ मं निआ मनि कीता भाउ ॥ अं तरगति तीरथि मलि नाउ ॥
सभि गु ण ते रे मै नाही कोइ ॥विणु गु ण कीते भगति न होइ ॥
सु असति आथि बाणी बरमाउ ॥ सति सु हाणु सदा मनि चाउ ॥
कवणु सु वे ला वखतु कवणु कवण थिति कवणु वारु ॥
कवणि सि रुती माहु कवणु जितु होआ आकारु ॥
वे ल न पाईआ पं डती जि होवै ले खु पु राणु ॥
वखतु न पाइओ कादीआ जि लिखनि ले खु कुराणु ॥
थिति वारु ना जोगी जाणै रुति माहु ना कोई ॥
जा करता सिरठी कउ साजे आपे जाणै सोई ॥
किव करि आखा किव सालाही किउ वरनी किव जाणा ॥
नानक आखणि सभु को आखै इक द ू इकु सिआणा ॥
वडा साहिबु वडी नाई कीता जा का होवै ॥
नानक जे को आपौ जाणै अगै गइआ न सोहै ॥२१॥ (SGGS 4-5)
 
दईआ - दया; दतु दानु - दान दे ना; तिल - तिल के समान; अं तरगति - अपने अन्दर, ह्रदय में ;
सु असति - नमस्कार; आथि - माया; बरमाऊ - ब्रह्मा; सु हाणु - सु न्दर; सदा मन  चाउ - सदा प्रसन्न
रहने वाला, आनन्द - रूप; वे ला - वक़्त, समय; पं डती - पण्डितों को; पु राणु - हिन्दुओं की धर्म-पु स्त-
ों; कादिआ - काजियों का; कुराणु - कुरान-शरीफ; किउ वरनी - किस तरह वर्णन करूँ; नाई -
प्रशं सा, महिमा; न सोहै - शोभा नहीं पाता ।
  
तीर्थ-- ात्रा, तप-साधना, दया करने तथा दान दे ने से तिल-मात्र मान प्राप्त हो सकता है । राम-
नाम के श्रवण, मनन और प्रेम द्वारा अपने अन्दर उस तीर्थ तक पहुँच जाते हैं जिसमें स्नान करने से
मन की मलिनताएँ उतर जाती हैं और पूर्ण निर्मलता प्राप्त हो जाती है । दरअसल गं गा, यमु ना और
सरस्वती अन्दर की सत, रज और तम की चे तन धारा के नाम हैं जिसके सं गम को त्रिवे णी कहा गया है
। इन चे तन धाराओं का मूल श्रोत मान सरोवर है जिसको अमृ तसर या हौज़े -कौसर भी कहा जाता है ।
यह वह अमृ त का सरोवर है जिसमें आत्मा मन की मे ल धो ले ती हैं और असं ख्य जन्मों के कर्मों की मै ल
यहाँ साफ़ हो जाती है । पु रातन काल के ऋषियों-मु न- यीं ने ध्यान के ज़रिये अन्तर के स्थानों और
दे वी-दे वता- ं को प्रत्यक्ष किया और लोगों को वहाँ की महत्वता समझाने के लिए प्रतीकों का
सहारा लिया ले किन लोग इसी में उलझ कर रह गये । बाहर की तीर्थों को भी नमस्कार है क्योंकि ये वह
स्थान हैं जिन पर बै ठकर सन्तों-महा- ्माओं ने ध्यान-मनन किया । पर यहाँ पर अब सिर्फ ईंट-पत्थर
ही हैं और यहाँ पर माथा रगड़ने से कुछ नहीं होगा । जो कुछ है वो आपके अन्दर है ।
 
हे प्रभु ! तू सब गु णों का खज़ाना है , मु झमें कोई गु ण नहीं । जब तक मु झमें गु ण पै दा नहीं होते , मु झे
ते री भक्ति हासिल नहीं हो सकती ।
 
हे प्रभु ! तु झे नमस्कार (सु असति) है । हे प्रभु ! तू ही माया (आथि) है , तू वाणी रूप है , तू ही ब्रह्मा है
। हे प्रभु ! तू  सत्य है , तू सु न्दर है , तू आनन्द रूप है । ते रे अन्दर सदा खु शी, चाव और आनन्द भरा
रहता है । वह कौन सा समय था, कौन सी घड़ी थी, वह कौन सी तिथि या तारीख थी और कौन सा वार
था, वह कौन सी ऋतू थी और कौन सा महीना था, जिस समय रचना का आकार अस्तित्व में आया ।
पण्डितों को सृ ष्टि धारण करने के समय का कुछ पता नहीं । उनकों तभी पता होता जब किसी पु राण में
यह समय लिखा होता । काजियों को भी इस बारे में पता नहीं क्योंकि अगर कुरान शरीफ में लिखा होता
तभी उनको पता होता । उस कर्ता द्वारा सृ ष्टि के सृ जन किये जाने की तारीख, वार, ऋतू और महीने के
बारे में योगियों को भी कुछ पता नहीं । इसके बारे में केवल वह कर्ता जानता है जिसने सृ ष्टि की रचना
की है ।
 
मैं उस कर्ता के बारे में कैसे कुछ कह सकता हँ ,ू मैं उसकी सिफत-सलाह कैसे कर सकता हँ ,ू मैं कैसे
उसका वर्णन कर सकता हँ ू और मैं कैसे उसको जान सकता हँ ू ? कहने को तो सभी बहुत कुछ कह दे ते हैं
और हर कोई एक-दस ू रे से समझदार बन कर दिखाता है   पर सच्ची बात तो यह है कि वह साहिब
जिसका किया सबकुछ हो रहा है , बड़े से बड़ा है और उसकी बडाई (नाई) भी बहुत बड़ी है । यदि कोई
अपने आपको बड़ा या जानने वाला समझता है तो वह आगे जाकर शोभा नहीं पाता है ।

तीरथु तपु दइआ दतु दानु ॥जे को पावै तिल का मानु ॥


सु णिआ मं निआ मनि कीता भाउ ॥ अं तरगति तीरथि मलि नाउ ॥
सभि गु ण ते रे मै नाही कोइ ॥विणु गु ण कीते भगति न होइ ॥
 
 
ू री पोस्ट है । पहली पोस्ट में हमने पौड़ी के शाब्दिक अर्थ
यह जपु जी साहिब की २१ वीं पौड़ी की  दस
पर विचार किया था, अब हम हर   लाईन की विवे चना करें गें ।
 
पहले हम इन लाईनों का अर्थ 'पु रातन टीका' के अनु सार करें गें जो गु रुवाणी के प्रसिद्द और महान
टीकाकार सन्त वरियम सिं ह जी द्वारा लिखी गयी है :
 
"तो बाबा जी (गु रु नानक) ने कहा तीर्थों पर रहना और तप करना और दया करना, दान दे ना इत्यादि जो
पूण्य हैं जो कोई करते हैं तिल-तिल का, मन-मन फल प्राप्त होता है । अथवा उनका फल तिल-मात्र
है उनका सु ख भोगकर चक्कर (जीव जन्म-मरण के चक्कर में रहता है ) में रहता है । जिन्होंने परमात्मा
के नाम को सूना और माना है और मन में भाउ (प्रेम) किया है उस्हें मन के अन्दर ही वाहे गुरु प्राप्त
हुआ है । जो शब्द के तीर्थ में मल-मल कर नहाते हैं ॥ मल कर नहाना बार-बार अभ्यास करना है ॥ सब
गु ण वाहे गुरु के हैं ॥ हम गु णों के योग्य नहीं हैं ॥ सदा शु भ कर्म करें , नाम जपें गु णों के बिना भक्ति की
प्राप्ति नहीं होती है ॥" (पु रातन टीका, प्र - १८)    
 
टीका- ार ने 'मल-मल कर नहाने ' का अर्थ बार-बार शब्द का अभ्यास करना और शु भ कर्म करने का
अर्थ नाम जपना किया है । 
  
मनु खिनु खिनु भरमि भरमि बहु धावै तिलु घरि नही वासा पाईऐ ॥
गु रि अं कसु सबदु दारू सिरि धारिओ घरि मं दरि आणि वसाईऐ ॥१॥ (SGGS 1179)
 
इन पं क्तियों की एक गूढ़ व्याख्या यह की गयी है कि अगर किसी को 'तिल' में पहुँचने का मान प्राप्त
हो जाये तो समझे कि इसको जप-तप, तीर्थ-व्रत, दान-पूण्य आदि सब कर्मों का फल मिल गया । 'तिल'
में पहुँच जाना हर तरह के पु ण्य कर्मों से ऊँचा दर्ज़ा रखता है । डा शरद चन्द्र वर्मा ने दिल्ली गु रुद्वारा-
प्रबन्धक कमे टी द्वारा छपवाई गयी अपनी पु स्तक 'गु रु नानक एण्ड दि लोगास ऑफ़ डिवाइन
मै नीफैसटे श- न' में इस प्रसं ग की टीका इस तरह से की गयी है - तीर्थ, तप, दया और दान का कोई
लाभ नहीं, जब तक ज्ञान-चक्ष- प्राप्त नहीं होता । (प्र-२८४)
 
ले - क तिल का अर्थ समझाता हुआ कहता है कि 'तिल' सं स्कृत का शब्द है । इसका अर्थ तिल का दाना
है । इस शब्द के बहुत गहरे अर्थ हैं । इसे 'आत्मा के ने तर् ' , 'चौथी सूझ' या 'शिव-ने तर् ' के लिए प्रयोग
किया गया है ।गु रु रामदास जी ने भी इसका प्रयॊग इन अर्थों में किया है । (प्र-४२२)हर
 
- ेखक का इशारा गु रु रामदास जी की वाणी के इस प्रसं ग की तरफ है जिसमें आपने 'तिल' शब्द का
प्रयोग है । मन (हाथी की तरह) मुँ ह-जोर होकर अन्दर से बाहर रचना रूपी भ्रम की तरफ़ दौड़ता है
और यह पल-भर के लिए भी अपने असल घर में चै न से नहीं बै ठता । मन रूपी हाथी के सिर पर गु रु के
शब्द का अं कुश रखा जाये तो यह सहज-रूप से ही  घर-रूपी मन्दिर में टिककर बै ठ जाता है । शब्दार्थ
गु रु ग्रन्थ साहिब में 'तिल घर' के अर्थ इस तरह किये जाते हैं - 'असली घर में , निज घर में , निज स्वरुप
में , जहाँ हरि बसता है ।
 
गु रु साहिब शरीर में आँ खों के ऊपर उस नु क्ते को 'निज घर' कह रहे हैं जहाँ से उतारकर मन रचना में
फैलता है और जहाँ वापस पहुँचकर यह उस प्रभु का दर्शन कर सकता है । इस तरह 'तिल' को आँ खों के
पीछे स्थित सूक्ष्म स्थान अर्थों में या अन्दर की आँ ख या शिव-ने तर् के अर्थों में प्रयोग किया गया
प्रतीत होता है । भाई गु रदास जी कवित्त २१३ में कहते हैं :
 
प्रीतम- की पु तरी मै तनक तारका सिआम ता को प्रतिबिं बु- तिलु तिलकु त्रिलोक को ।
बनिता बदन परि प्रगट बनाइ राखिओ कामदे व कोटि लोट पोट अविलोक को ।
कोटनि कोटानि रूप की अनूप रूप छबि सकल सिं गारु को सिं गारु स्रब थोक को ।
किंचत कटाछ क्रिपा तिलकी अतु ल सोभा सु रसती कोट मान भं ग धिआन कोक को ॥२१३॥
 
 
भाई गु रदास जी 'तिल' को प्रियतम की पु तली का प्रतिबिम्ब- , त्रिलोकी का तिलक और गु रुमु ख
जीवात्मा की सु हाग की बिं दी कहकर सराहते है । आप कहते हैं कि तिल परम-पवित्र, परम-आकर्षक है
। तिल में दाखिल होने पर आत्मा का श्रग ृं ार का वर्णन कर सकना असम्भव है । तिल की पवित्रता
करोडो गं गा भाव तीर्थों की पवित्रता का मान तोडती है और करोडो चन्द्रमा इसके अनु पम प्रकाश
का मु काबला नहीं कर सकते । इसकी इस लु भावनी सु न्दरता के कारण अभ्यासी रूहें अपने आप इसकी
तरफ खिं ची चली आती है ।
 
गु रु साहिब के समय अने क शब्द गूढ़ अर्थों में प्रयु क्त किये जाते हैं । उस समय के लोग इन शब्दों के
गूढ़ अर्थों से परिचित थे पर समय पाकर इस प्रकार के अने क शब्दों के गूढ़ अर्थ लु प्त हो गये । सम्भव
है कि गु रु साहिबान ने 'तिल' शब्द का उन अर्थों में प्रयोग किया हो जिनका भाई गु रदास जी की वाणी
से सं केत मिलता है । परन्तु आज इसके सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कह सकना शायद सम्भव न
हो । 'तिल' के जो भी अर्थ हों, इस बात में कोई सन्दे ह नहीं कि गु रु साहिब नाम के अं तर्मुख स्नान को
हर तरह के बाहरमु खी पु ण्य कर्मों के ऊपर मानते हैं ।
 
कबीर साहिब फरमाते हैं :
 
अं तरि मै लु जे तीरथ नावै तिसु बै कुंठ न जानां ॥
लोक पतीणे कछू न होवै नाही रामु अयाना ॥१॥
पूजहु रामु एकु ही दे वा ॥
साचा नावणु गु र की से वा ॥१॥ रहाउ ॥
जल कै मजनि जे गति होवै नित नित में डुक नावहि ॥
जै से में डुक तै से ओइ नर फिरि फिरि जोनी आवहि ॥२॥
मनहु कठोरु मरै बानारसि नरकु न बां चिआ जाई ॥
हरि का सं तु मरै हाड़्मबै त सगली सै न तराई ॥३॥
दिनसु न रै नि बे दु नही सासत्र तहा बसै निरं कारा ॥
कहि कबीर नर तिसहि धिआवहु बावरिआ सं सारा ॥४॥४॥३७॥
 
पु राने समय में लोगों की मान्यता थी कि बनारस में गं गा के तट पर प्राण त्यागने वाला व्यक्ति स्वर्गों
में जाता है और हाड्म्बा नामक स्थान पर प्राण त्यागने वाला नरकों का भागी बनता है । आप समझाते
हैं कि जब तक मन मै ला है , गं गाजल का स्नान व्यर्थ है । तीर्थों पर स्नान करने से लोगों पर निर्मलता का
रोब डाला जा सकता है , पर परमात्मा को धोखा नहीं दिया जा सकता । परमे श्वर मन की कोमलता
तथा निर्मलता से प्रसन्न होता है और ये गु ण सतगु रु के उपदे श अनु सार राम-नाम की कमाई करने से
पै दा होते हैं । निर्दयी व्यक्ति बनारस के तट पर प्राण त्यागने के बाबजूद नरकों का भागी बने गा और
परमात्मा के सच्चे भक्त हाडम्बा नामक स्थान पर प्राण त्यागने पर भी अपने से वकों सहित परमात्मा
के चरण-कमलों में पहुँच  जायें गें । गु रु नानक साहिब की वाणी है :
 
तीरथि नावण जाउ तीरथु नामु है ॥
तीरथु सबद बीचारु अं तरि गिआनु है ॥
गु र गिआनु साचा थानु तीरथु दस पु रब सदा दसाहरा ॥
हउ नामु हरि का सदा जाचउ दे हु प्रभ धरणीधरा ॥
सं सारु रोगी नामु दारू मै लु लागै सच बिना ॥
गु र वाकु निरमलु सदा चानणु नित साचु तीरथु मजना ॥१॥ (SGGS 687)
  
आप कहते हैं कि अगर मन की मलिनताऐं उतारने के लिए तीर्थ पर स्नान करना चाहते हो तो वह
असली तीर्थ राम-नाम है । शब्द या राम-नाम का तीर्थ आपके अन्दर है और इस तीर्थ पर स्नान करने से
ही सत्य का ज्ञान प्राप्त होगा । गु रु द्वारा दिया हुआ आध्यात्मिक- ज्ञान ही सच्चा तीर्थ है जो दस
इन्द्रियों- (पांच कर्मेन्द्र- ियाँ और पाँच ज्ञाने न्द्- रियाँ ) से परे हैं । मैं हमे शा परमात्मा से उस अमूल्य
राम-नाम का दान माँ गता हँ ू । सारा सं सार अहम् और माया के रोग से ग्रस्त है और राम-नाम ही
उसकी दवा है । गु रु का दिया हुआ राम-नाम निर्मल और पवित्र है और प्रकाशमान है और उस रूहानी
चे तन में स्नान करना ही सच्चा तीर्थ है ।   गु रु रामदास जी फरमाते हैं :
  
एहु सरीरु सरवरु है सं तहु इसनानु करे लिव लाई ॥१३॥
नामि इसनानु करहि से जन निरमल सबदे मै लु गवाई ॥१४॥ (SGGS 909)
  
गु रु रामदास जी कहते हैं कि  मन की मलिनताएँ दरू करने के लिए असली साधन राम-नाम है । यह
राम-नाम शरीर के अन्दर है । अन्तर में राम-नाम के साथ लिव लगाने पर ही आत्मा पूरी तरह निर्मल
होकर परमात्मा से मिलाप करने के काबिल बन सकती है ।
 

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