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अपने मन को एक गहरी सोच के लिए तै यार कर ले ना चाहिए । यह कच्चे , चं चल मन और सतही व्यक्तित्व- वालों के
लिए नहीं बल्कि परमार्थी, पक्के और दृढ विश्वास, तटस्थ मन और गहरे पानी में पै ठने वालों के लिए है । यह
शूरवीरों का ग्रन्थ हैं जो गु रु के आदे श पर अपना सर (अपना-आपा या अहम भाव) कुर्बान कर सके । यह कायरों का
ग्रन्थ नहीं है । यह प्रेमियों का ग्रन्थ है । ऐसा जपु जी में क्या है जो इसे कलियु ग का एक बे जोड़ ग्रन्थ बनाता है
?
'जपु जी' एक अनु पम और बहुमूल्य रचना है । इसके रचयिता ने उस परम-पिता परमात्मा से मिलाप
करके उसके स्वरुप, उसके द्वारा रची गयी रचना, रचना में लागू विधान और आत्मा के परमात्मा के साथ
मिलाप के अनादि साधन और मार्ग पर प्रकाश डालता है ।
जपु जी बहुआयामी रचना है जो ज़िं दगी के कई पहलु ओं के बारे में मार्ग-निर्- ेशन करता है । इसमें
परमार्थी सिद्धान्त, परमात्मा के साथ मिलाप की यु क्ति, सदाचारिक नियमावली, व्यक्तिगत आचरण
और सामाजिक आचार आदि को विशु द्ध रूहानी दृष्टि से पे श किया गया है ।
'जपु जी' एक ऐसी खान है जिसकी जितनी गहरी खु दाई करते हैं , उसमें से विचारों के उतने रं ग-बिरं गे- ,
सु न्दर और अमूल्य हीरे बाहर निकलते हैं । 'जपु जी' वह सागर है , जिसमें जिसमें जितनी गहरी डुबकी
लगायी जाये , अर्थों के उतने ही कीमती मोती हाथ लगते हैं । 'जपु जी' को जितनी बार भी पढ़ा-सु ना
जाये , थोड़ा है । 'जपु जी पर जितना भी आत्म-मं थन, विश्ले षण, विवे चना किया जाये , थोड़ी है ।
'जपु जी' का पढ़ना धन्य है , सु नना धन्य है , पर 'जपु जी' गहरे विचार की माँ ग करता है ताकि इसके
उपदे श को भली-भाँ ति समझकर तथा श्रद्धापूर- ्वक मन में बिठाकर, जीवन को उसके अनु रूप ढाला
जा सके ।
तीरथु तपु दइआ दतु दानु ॥जे को पावै तिल का मानु ॥
सु णिआ मं निआ मनि कीता भाउ ॥ अं तरगति तीरथि मलि नाउ ॥
सभि गु ण ते रे मै नाही कोइ ॥विणु गु ण कीते भगति न होइ ॥
सु असति आथि बाणी बरमाउ ॥ सति सु हाणु सदा मनि चाउ ॥
कवणु सु वे ला वखतु कवणु कवण थिति कवणु वारु ॥
कवणि सि रुती माहु कवणु जितु होआ आकारु ॥
वे ल न पाईआ पं डती जि होवै ले खु पु राणु ॥
वखतु न पाइओ कादीआ जि लिखनि ले खु कुराणु ॥
थिति वारु ना जोगी जाणै रुति माहु ना कोई ॥
जा करता सिरठी कउ साजे आपे जाणै सोई ॥
किव करि आखा किव सालाही किउ वरनी किव जाणा ॥
नानक आखणि सभु को आखै इक द ू इकु सिआणा ॥
वडा साहिबु वडी नाई कीता जा का होवै ॥
नानक जे को आपौ जाणै अगै गइआ न सोहै ॥२१॥ (SGGS 4-5)
दईआ - दया; दतु दानु - दान दे ना; तिल - तिल के समान; अं तरगति - अपने अन्दर, ह्रदय में ;
सु असति - नमस्कार; आथि - माया; बरमाऊ - ब्रह्मा; सु हाणु - सु न्दर; सदा मन चाउ - सदा प्रसन्न
रहने वाला, आनन्द - रूप; वे ला - वक़्त, समय; पं डती - पण्डितों को; पु राणु - हिन्दुओं की धर्म-पु स्त-
ों; कादिआ - काजियों का; कुराणु - कुरान-शरीफ; किउ वरनी - किस तरह वर्णन करूँ; नाई -
प्रशं सा, महिमा; न सोहै - शोभा नहीं पाता ।
तीर्थ-- ात्रा, तप-साधना, दया करने तथा दान दे ने से तिल-मात्र मान प्राप्त हो सकता है । राम-
नाम के श्रवण, मनन और प्रेम द्वारा अपने अन्दर उस तीर्थ तक पहुँच जाते हैं जिसमें स्नान करने से
मन की मलिनताएँ उतर जाती हैं और पूर्ण निर्मलता प्राप्त हो जाती है । दरअसल गं गा, यमु ना और
सरस्वती अन्दर की सत, रज और तम की चे तन धारा के नाम हैं जिसके सं गम को त्रिवे णी कहा गया है
। इन चे तन धाराओं का मूल श्रोत मान सरोवर है जिसको अमृ तसर या हौज़े -कौसर भी कहा जाता है ।
यह वह अमृ त का सरोवर है जिसमें आत्मा मन की मे ल धो ले ती हैं और असं ख्य जन्मों के कर्मों की मै ल
यहाँ साफ़ हो जाती है । पु रातन काल के ऋषियों-मु न- यीं ने ध्यान के ज़रिये अन्तर के स्थानों और
दे वी-दे वता- ं को प्रत्यक्ष किया और लोगों को वहाँ की महत्वता समझाने के लिए प्रतीकों का
सहारा लिया ले किन लोग इसी में उलझ कर रह गये । बाहर की तीर्थों को भी नमस्कार है क्योंकि ये वह
स्थान हैं जिन पर बै ठकर सन्तों-महा- ्माओं ने ध्यान-मनन किया । पर यहाँ पर अब सिर्फ ईंट-पत्थर
ही हैं और यहाँ पर माथा रगड़ने से कुछ नहीं होगा । जो कुछ है वो आपके अन्दर है ।
हे प्रभु ! तू सब गु णों का खज़ाना है , मु झमें कोई गु ण नहीं । जब तक मु झमें गु ण पै दा नहीं होते , मु झे
ते री भक्ति हासिल नहीं हो सकती ।
हे प्रभु ! तु झे नमस्कार (सु असति) है । हे प्रभु ! तू ही माया (आथि) है , तू वाणी रूप है , तू ही ब्रह्मा है
। हे प्रभु ! तू सत्य है , तू सु न्दर है , तू आनन्द रूप है । ते रे अन्दर सदा खु शी, चाव और आनन्द भरा
रहता है । वह कौन सा समय था, कौन सी घड़ी थी, वह कौन सी तिथि या तारीख थी और कौन सा वार
था, वह कौन सी ऋतू थी और कौन सा महीना था, जिस समय रचना का आकार अस्तित्व में आया ।
पण्डितों को सृ ष्टि धारण करने के समय का कुछ पता नहीं । उनकों तभी पता होता जब किसी पु राण में
यह समय लिखा होता । काजियों को भी इस बारे में पता नहीं क्योंकि अगर कुरान शरीफ में लिखा होता
तभी उनको पता होता । उस कर्ता द्वारा सृ ष्टि के सृ जन किये जाने की तारीख, वार, ऋतू और महीने के
बारे में योगियों को भी कुछ पता नहीं । इसके बारे में केवल वह कर्ता जानता है जिसने सृ ष्टि की रचना
की है ।
मैं उस कर्ता के बारे में कैसे कुछ कह सकता हँ ,ू मैं उसकी सिफत-सलाह कैसे कर सकता हँ ,ू मैं कैसे
उसका वर्णन कर सकता हँ ू और मैं कैसे उसको जान सकता हँ ू ? कहने को तो सभी बहुत कुछ कह दे ते हैं
और हर कोई एक-दस ू रे से समझदार बन कर दिखाता है पर सच्ची बात तो यह है कि वह साहिब
जिसका किया सबकुछ हो रहा है , बड़े से बड़ा है और उसकी बडाई (नाई) भी बहुत बड़ी है । यदि कोई
अपने आपको बड़ा या जानने वाला समझता है तो वह आगे जाकर शोभा नहीं पाता है ।