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उनसे जो पचास के हो चले

लेखक :

पं0 शर्ीराम शमार् आचायर्

उनसे जो पचास के हो चले 1


पर्काशक :
युग िनमार्ण योजना
गायतर्ी तपोभूिम, मथुरा

लेखक :
पं. शर्ीराम शमार् आचायर्

सन् 2006

मुदर्क :
युग िनमार्ण योजना पर्ेस
गायतर्ी तपोभूिम, मथुरा
फोन : (0565) 2530128, 2530399

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उनसे—जो पचास के हो चले
*******
मानव-जीवन को सुिवधा की दृि से दो भाग म बांटा जा सकता है—पूवार् र् दूसरा
उ रा ।र् यिद सौ वषर् की आयु मानी जाय तो पर्थम पचास वष को पूवार् र् और इक्यावन से सौ
वषर् की आयु को उ रा र् कहा जा सकता है।
मनीिषय ने इन दो खण्ड को दो कायर्कर्म म िवभक्त िकया है। पर्थम पचास वषर् का
समय समाज के सहयोग एवं अनुदान के आधार पर वह अपनी िक्तगत शिक्तय और
सुिवधा को बढ़ाते हुए सुखोपभोग करता है। धन, मान, िवनोद, पिरवार आिद वैभव पर्ा
करते हुए िविभ पर्कार के लाभ एवं आनन्द लेता है। उ रा र् म इस ऋण-अनुदान को चुकाता
है तािक उसे इस संसार से ऋणी होकर िवदा न होना पड़े। इस जगत म ई र की िविध-
वस्था पूणर् तथा िनयमब है। जो िक्त ऋणी बनकर मरते ह, वे उस ऋण भार को अगले

जन्म म चुकाते ह। 84 लाख योिनय म से एक मनुष्य योिन को छोड़कर शेष सभी भोग
योिनयां ह। उनम नया िवचारपूणर् कतृर्त्व सम्भव नह । बुि के अभाव म जो िवधान उनके साथ
जुड़ा हुआ है, उसके अनुसार वे अपनी िजन्दगी के िदन पूरे करते ह।

मनुष्य जीवन इसिलए नह िमला—मनुष्य जीवन सुख-चैन के िलए मौज-मजा करने के

िलए नह है। इसके साथ अगिणत वैयिक्तक, पािरवािरक, सामािजक, उ रदाियत्व एवं कतर्

जुड़े हुए ह। पर्धानमन्तर्ी को ऊंचा वेतन, कोठी, सवारी, नौकर आिद िकतनी ही तरह की ऐसी

सुिवधाय िमलती ह, जो अन्य सरकारी कमर्चािरय को नह िमलत , पर िवशेष सुिवधा के


साथ-साथ पर्धानमन्तर्ी पर अनेक उ रदाियत्व भी होते ह। यिद वह उन्ह पूरा नह करता तो
तत्काल पदच्युत कर िदया जाता है और सारे रा की घृणा एवं भत्सर्ना का भागी बनता है।
फौज के ऊंचे अफसर यिद अपना कतर् पालन नह करते तो उन्ह कोटर्माशर्ल करके मौत के
घाट उतार िदया जाता है। मनुष्य को अन्य सभी पर्ािणय से अिधक सुिवधाय पर्ा ह, पर साथ
ही उतने ही अिधक कतर् एवं उ रदाियत्व भी उसके कन्धे पर ह। सामािजक वस्था को
सन्तुिलत बनाये रखना सभी जीव की सुख-सुिवधा के उपयुक्त वातावरण बनाना, आस-पास की

गन्दगी को साफ करना, िपछड़े हु को ऊंचा उठाने म सहायता करना, दुःिखय की सहायता

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करना जैसे अनेक कतर् भी उसके ऊपर ह। जो बुि , पर्ितभा एवं मह ा उपलब्ध हुई है, वह

खाने, पीने, मौज उड़ाने और अपनी ही संकीणर् स्वाथर्परता म समा कर देने के िलए नह है।

यिद पर्ा उपलिब्धय को आहार, िनदर्ा, भय, मैथुन म, तृष्णा-वासना म ही खचर् कर िदया

जाय तो जो सृि -सन्तुलन के कतर् इसे स पे गये थे, वे पूरे नह होते और इस उपेक्षा के दण्ड
स्वरूप फौजी अफसर के कोटर् माशर्ल जैसी सजा चौरासी लाख योिनय म भर्मण करने को
िमलती है। हर योिन म िविवध पर्कार के क एवं अभाव सहने पड़ते ह।
कु छ पर्ाणी ऐसे ह जो मनुष्य पर्ाणी से सम्ब ह और उसी के िलए आजीवन शर्म एवं
त्याग करते रहते ह। गाय, बैल, भस, बकरी, घोड़ा, गधा, ऊंट, कु ा आिद ऐसे ही जीव ह, िजन्ह
मनुष्य के िलए आजीवन कठोर शर्म करना पड़ता है। यह वही लोग ह िजन्ह ने िपछले जन्म म
मनुष्य होने पर ऋण तो अनेक का िलया, िकन्तु चुकाया नह । कजर् मारकर भाग जाने की इस

सृि म कोई सुिवधा नह । मरने के बाद भी वह वसूल कर िलया जाता है। गधे, घोड़े, बैल, ऊंट
आिद को अपना कजर् चुकाते हुए सारी िजन्दगी तीत करनी पड़ती है। यिद मनुष्य जन्म से ही
उनने यह ध्यान रखा होता िक जो ऋण हम ले रहे ह, उसे चुकाने का भी ध्यान रख तो उन्ह इन
योिनय म जन्मने और इस पर्कार का ऋण चुकाने का क सहन न करना पड़ता।

ऋण से उऋण ह -ऋण के वल पैसे का ही नह होता। शर्म, सहयोग एवं भावना का


भी होता है। अन्य पर्ाणी तो जन्म से कु छ ही समय बाद स्वावलम्बी हो जाते ह और अपने आप
अपनी शारीिरक, मानिसक आवश्यकताएं पूरी करने लगते ह, पर मनुष्य का बालक बहुत समय

तक स्वावलम्बी तो क्या बन सके गा, दूसर की सहायता के िबना जीिवत भी नह रह सकता।

माता उसे दूध न िपलाये, मल-मूतर् न धोये, ान न कराये, कपड़े न पिहनाये तो उसका जीिवत
रह सकना संभव नह ।आरम्भ म तो वह करवट तक नह बदल पाता वह भी माता को ही
बदलवानी पड़ती है। बड़ा होने पर जब तक अपनी कमाई न करने लगे तब तक उसे िपता की
कमाई और माता की पाकशाला पर िनभर्र रहना पड़ता है। भोजन, व , िनवास, मनोरं जन,

जेवर, खचर्, फीस, पुस्तक, दवा-दारू सभी खचर् तो अिभभावक उठाते ह। क्या बच्चा इसका मूल्य

चुकाया करता है? नह , यह सब कु छ िबना मूल्य सेवा एवं सहृदयता के उपहार रूप म उसे पर्ा

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हुआ। अध्यापक ने िशक्षा दी, उसकी फीस जरूर देनी पड़ी, पर वह ज्ञान जो िमला, फीस से
हजार गुने अिधक मूल्य का था। शब्द म उच्चारण से लेकर अक्षर के िलखने तक को जो
पिरष्कृ त स्वरूप सामने आया, उसम हजार वष की, लाख िक्तय की सूझ-बूझ और शर्म-

साधना सिम्मिलत है, िफर स्कू ल म अक्षर और शब्द ही तो नह पढ़ाये जाते, इितहास, भूगोल,

गिणत, िवज्ञान अनेक िवषय सिम्मिलत होते ह, उस ज्ञान की शोध करके वतर्मान स्वरूप तक
पहुंचने म सहसर् लोग का अनवरत शर्म सिम्मिलत है। उसकी कीमत दो-चार रुपया स्कू ली
फीस के रूप से नह चुकाई जा सकती। बेशक पुस्तक पैसे के बदले म खरीदी गई ह, पर वह

कीमत कागज, छपाई तथा मुदर्क, पर्काशक एवं िवकर्ेता के शर्म की है। जो कु छ पुस्तक म िलखा

गया है, उस जानकारी के िलए अपना जीवन खपाने वाल का तो अपने ऊपर अनन्त उपकार
का बोझ बना ही रहा।

िववाह हुआ, धमर्प ी आई। उसकी सेवा, सहायता, स ावना, आत्म–समपर्ण का मूल्य

क्या रोटी-कपड़े के रूप म ही चुक जायगा? शरीर िनवार्ह की वस्था तो के वल ब्याज मातर् है,

प ी का आत्मदान तो ऋण रूप म अपने ऊपर लदा ही रहा। ापार िकया, लाभ हुआ, पर वह

लाभ तो गर्ाहक के सहयोग से ही सम्भव हुआ। यिद वे असहयोग करते, आपकी दुकान पर

खरीद करने न आते तो लाभ कहां से होता? नौकरी म तरक्की हुई, वेतन बढ़ा तो इसम अफसर ,
सािथय एवं िजनने अपने से सन्तोष पूवर्क सेवा स्वीकार की उन सबका भी तो सहयोग है। यिद
वे सभी रु हो गये होते, तो वेतन बढ़ना तो दूर, नौकरी बनी रहना भी किठन हो जाता।

बीमारी के समय िजन िचिकत्सक ने उपचार िकया और मृत्यु तक के खतरे को टाल िदया, उनके
उपकार का मूल्य दवा की कीमत आिद के रूप म नह चुकाया जा सकता। वह तो औषिधय म
पड़े सामान तथा बनाने वाले, बेचने वाले के पिरशर्म का मूल्य है। िजस पर्य और अध्यवसाय

ारा िचिकत्सा शा का िनमार्ण हुआ, औषिधय म पड़ने वाले पदाथ म वनस्पितय के गुण-

दोष की खोज हुई और सांगोपांग िचिकत्सा प ित का ढांचा बनकर खड़ा हुआ, उसम लगे हुए

अगिणत अन्वेषक के अध्यवसाय का मूल्य कौन चुकायेगा?

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यह सब उपकार ही उपकार ह, िजतने भी सुख-सुिवधा के साधन हम उपलब्ध ह उनम से
एक-एक को बताने म िचर अतीत से अगिणत लोग का शर्म लगता रहा है और अब भी लाख -
करोड़ िक्तय का शर्म लग रहा है। यिद ऐसा न हुआ तो एकाकी मनुष्य समस्त साधन
सुिवधा से वंिचत रहकर आजन्म वन्य पशु की तरह िकसी पर्कार िजन्दगी के िदन पूरे कर
रहा होता।

अगिणत िक्तय के अगिणत उपकार — अपने उपयोग म आने वाली एक छोटी-सी


वस्तु को लीिजए और देिखए िक उसे वतर्मान रूप म पहुंचने म िकतने लोग का शर्म लगा है।
एक छोटे से रूमाल को लीिजए, वह कहां से आया, कै से बना, इस पर्कार गम्भीरतापूवर्क िवचार

कीिजए। िकसान ने खेत म कपास बोई, उससे रुई बनी, सूत कता, कपड़ा बुना, दुकान पर आया,

आपने खरीदा, मोटी दृि से उतने ही लोग का शर्म-सहयोग उसम लगा है, पर बारीकी से देखा

जाय तो इस छोटी-सी पर्िकर्या म ही अगिणत लोग का ज्ञान, शर्म-सहयोग, अध्यवसाय एवं


स ाव सिम्मिलत िमलेगा। िकसान ने िजस हल से खेत जोता उसे बनाने म लुहार और बढ़ई का
शर्म लगा, जो लोहा उसम लगा वह लोहे की खान म से िनकलने के बाद गला, ढला एक स्थान
से दूसरे स्थान को ले जाया गया। खान से लोहा िनकालने और उसे साफ करने म बड़ी मशीन के
बनाने म अनेक कारीगर , इं जीिनयर का सहयोग िमला। इं जीिनयर ने यह चन्द पुस्तक से

पढ़ा। वे पुस्तक पर्ेस म छप , पर्ेस और कागज बनाने म िफर अनेक का शर्म एवं ज्ञान लगा।

पुस्तक, मशीन आिद इधर से उधर लाने ले जाने म रे ल, मोटर आिद वाहन का उपयोग हुआ।

इन वाहन म छोटी-बड़ी असंख्य वस्तुएं लग और उनके बनाने, उपयोग करने से िकतन को


ही बहुत कु छ करना पड़ा। इतनी लम्बी बेल तो अके ले हल की फे ल रही है। उस रूमाल के बनाने
म हल के अितिरक्त रुई उत्प होने से लेकर कपड़ा बुने जाने और खरीदे जाने तक जो-जो काम
हुए ह, उन सबकी यिद ऐसी ही बेल फै लाई जाय तो पता चलेगा िक पर्त्यक्ष एवं परोक्ष रूप से
करोड़ िक्तय का सहयोग िकसी न िकसी रूप से रूमाल म लग चुका है। रूमाल जैसी ढेर
चीज हमारे दैिनक उपयोग म आती ह। साबुन, शीशा, कं घी, तेल, मंजन, रुई, िदयासलाई जैसी
छोटी-छोटी चीज के बनाने म समाज के िकतने लोग सहयोगी रहे ह। िफर जीवन की पूरी
गितिविधय और आवश्यकता से सम्बिन्धत वस्तु एवं िक्त के सहयोग सम्बन्धी िवचार

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िकया जाय तब तो स्प तः संसार के अिधकांश मनुष्य का ही नह पशु-पिक्षय एवं वृक्ष का भी
असाधारण उपकार जुड़ा हुआ िमलेगा।
तात्पयर् है िक मनुष्य की बुि म ा एवं पर्गित इस बात पर िनभर्र है िक उसे दूसर का
िकतना अिधक सहयोग िमला। भेिड़ये ने आगरा िजले के खन्दोली गांव के पास एक मनुष्य के
बच्चे को उठा िलया और खाने के स्थान पर उसे पाल िलया। िशकािरय ारा उस भेिड़ये को
मारकर यह मनुष्य का आठ वष य बालक पकड़ा गया तो उसकी बोलने, खाने, चलने आिद की

सारी चे ाय भेिड़य जैसी ही थी, बच्चे को लखनऊ मेिडकल कॉलेज म रखा गया, उसका नाम

राजू था। उसे मनुष्य की तरह रहने, खाने की िशक्षा 8 वष से दी जाती रही, पर वह अपने
जंगली संस्कार नह छोड़ पाया। उससे पर्कट होता है िक यिद मनुष्य को दूसर के सहयोग से
वंिचत रहना पड़े तो वह वन्य पशु से भी गया-गुजरा अशक्त-असमथर् ही बना रहे। उसकी
बुि म ा का िवकास तो सहयोग पर्वृि के कारण हुआ है। परस्पर िमल-जुलकर रहने और एक-
दूसरे की सेवा-सहायता करने से ही मनुष्य की अब तक की सारी पर्गित सम्भव हुई।

सहयोग से ही पर्गित सम्भव — मनुष्य पग-पग पर दूसर से उपकृ त होता है। जो

िजतना सुखी, समृ एवं पर्स है, समझना चािहए िक उसे दूसर के उपकार का उतना ही

अिधक लाभ िमला है। यह सहयोग िजसे िजतना कम िमलता है, वह उतना ही िनराश िचिन्तत,

दुखी, असफल एवं अस्वस्थ पाया जाता है। िजसके पिरवारी असहयोग रखे रहे ह गे, ी का

िवरोध, पुतर् की अवज्ञा, भाइय का ष


े चल रहा हो तो उस घर म रहते हुए क्या सुख

िमलेगा? िजसके स्वजन सम्बन्धी ेह की वषार् करते ह, उसे आिथक या शारीिरक किठनाई
रहते हुए भी जीवन-यापन करना भार नह लगता। पर्ेम के आनन्द का बखान करते-करते कभी
थकते नह , शा म पर्ेम को परमे र का रूप बताया गया है। यह पर्ेम पारस्पिरक सहयोग का

शारीिरक एवं मानिसक समीपता का ही दूसरा नाम है। जो िजसे पर्ेम करता है, उसे उसके
उपकार एवं सहयोग की ही बात िनरन्तर सोचते रहना पड़ता है और यह भाव जहां पर्ेमी को
लाभ पहुंचाता है, वहां पर्ेम करने वाले को भी कोई दोष पर्दान नह करता।

िजसने इस संसार म िजतना सुख पाया है, समझना चािहए िक उसे दूसर का उतना ही
सहयोग िमला है। यह ठीक है िक उस सहयोग की अपने म पातर्ता होनी चािहए अन्यथा

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कु पातर्ता से िख होकर उदार िक्त भी अनुदार और सहयोगी भी ष
े ी बन जायगे। िफर भी
पातर्ता अपने आप म अपूणर् है। सामने वाल का स ाव भी उसम समिन्वत होना चािहए। हम
िजतनी पर्गित कर पाते ह, उसके मूल म िकसका िकतना सहयोग रहा है इस पर उदार दृि से

िवचार कर तो यही पर्तीत होगा िक अगिणत िक्तय की िविभ पर्कार की सज्जनता,


स ावना एवं उदारता के फलस्वरूप ही अिधक सुखी एवं सन्तु रहने का अवसर िमला।

उ रा र् का शर्े ता म सदुपयोग — जीवन का पूवार् र् पर्ायः इसी पर्कार तीत होता है,
िजसम िक्तगत सफलता एवं सुखोपभोग का बाहुल्य रहता है। िव ा पढ़ने से लेकर िववाह
होने और धन कमाने से लेकर सन्तान सुख तक िजतने पर्कार की उपलिब्धयां ह, वे पर्ायः इस
पूवार् र् म अिधकािधक मातर्ा म िमल लेती ह। अस्तु सहयोिगय का ऋण भी अिधकािधक चढ़
जाता है। इन उपकार का ऋण चुकाने के िलए जीवन का उ रा र् िनधार्िरत िकया गया है। अब
तक लोग का उपकार अिधक िमला और उसका बदला कम चुकाया गया था। अब उ रा र् म
यह कर्म बनाना है िक उपकार िकया अिधक जाय, िलया कम जाय। िहसाब तभी तो बराबर
होगा अन्यथा जीवन के अन्त तक यिद दूसर की उदारता का लाभ ही अिधकािधक मातर्ा म लेते
रहा गया, बदला न चुका तो ऋण इतना अिधक चढ़ जायगा िक शरीर त्यागने का अवसर आने
तक उसका भार असहनीय िदखाई देने लगेगा।
सृि के समस्त पर्ािणय की अपेक्षा अिधक उत्कृ मानव-जीवन हम ई र ने इसिलए
पर्दान िकया है िक उसम सि िहत अगिणत शर्े सामथ्य को इस पर्कार खचर् िकया जाय िक इस
संसार को अिधकािधक सुख, शािन्तमय शर्े एवं सुन्दर बनाने के ई रीय पर्योजन म सहायता

िमल सके । यिद ऐसा न होता तो मनुष्य को ही ऐसे िद -जीवन का लाभ क्य देता? अन्य

पर्ािणय को इन िवशेषता से वंिचत क्य रखता? िकसी की अच्छी िकसी की बुरी

पिरिस्थितय वाला शरीर देने म य ई र का पक्षपात दीखता है, पर वस्तुिस्थित यह है िक


ऐसा उसने िवशेष पर्योजन के िलए ही िकया है। उसने आशा रखी है और कामना की है िक
मानव-पर्ाणी इन अितिरक्त उपलिब्धय का सृि -सन्तुलन की वस्था म सहयोगी बनकर
सदुपयोग करे गा, पर जब मनुष्य उस िनधार्िरत कतर् की ओर से मुंह मोड़कर खड़ा हो जाता है
और दूसर से अिधकािधक सहयोग बटोरता हुआ अपने िक्तगत लाभ का उपाजर्न करता रहता

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है, तो ई र को िनराशा ही होती है। उसकी दृि म मनुष्य कतर् त्यागने के पाप का अपराधी
ही ठहरता है।
स्वाथ जीवन िबताना आध्याित्मक दृि से एक अपराध है। सामािजक दृि से ऋण
बटोरने और कजर्दार बनने जैसा अनैितक है। दोन ही दृि से जो पापी-अपराधी बनता चला
जाता है, वह आगे िफर मनुष्य-जन्म न पा सके गा। उसे िनकृ क दायक योिनय म भर्मण
करना पड़ेगा। कानून तोड़ने वाले और दूसर के साथ अन्याय बरतने वाले अपराधी न्यायालय से
दण्ड पाते ह और जेलखाने की कठोर यातनाय भुगतते ह। इसी पर्कार वे िक्त, िजनने सारा

जीवन स्वाथर्परता म गंवा िदया, मनुष्य-शरीर त्यागते ही कीट-पतंग जैसी योिनय म चले

जाते ह और अभावगर्स्त क साध्य जीवन तीत करते ह गधा, घोड़ा, ऊंट, बैल, कु ा आिद

बनकर उनका ऋण चुकाते ह िजनका सहयोग िलया तो बहुत कु छ था, पर बदला चुकाने से
कतराते रहे थे। मनुष्य कमर् करने म स्वतंतर् होने से ऋण समेटने की चतुरता करने और बदला
चुकाने म आनाकानी कर जाने को स्वतंतर् ह, पर उस कु िटलता के दण्ड से बच नह सकता। ई र

की इस सु विस्थत सृि म न्याय की, कमर्फल की समुिचत वस्था िव मान है। यहां कोई

चालाक धूतर्ता के आधार पर मनमानी नह कर सकता। आज के दुष्कम का फल, कल तो उसे

भोगना ही होता है। आज अपनी बारी है तो स्वाथर्परता बुि मानी जैसी लगती है, पर कल जब
न्याय का पलड़ा ऊपर होगा और अपने को नारकीय यन्तर्णाय सहने को िववश होना पड़ेगा तो
आज िजसे चतुरता समझकर गवर् िकया जाता है, कल वही परले िसरे की मूखर्ता पर्तीत होगी।

शर्े परम्परा का पालन कर — इस दुखद िस्थित से मानव-पर्ाणी को बचाये रहने के


िलए शा कार ने मानव-जीवन का कर्म-िवभाजन इस सुन्दर-ढंग से िकया है िक मनुष्य जन्म
का आनन्द भी पिरपूणर् मातर्ा म िमलता रहे और ई रीय पर्योजन की उपेक्षा करने एवं ऋण
भार से लदकर भिवष्य को अन्धकारमय बनाने का अवसर भी न आये। यह वस्था पूवार् -र्
उ रा र् के िवशेष कायर्कर्म के रूप म हमारे सामने है। चार आशर्म म बर् चयार्शर्म और
गृहस्थाशर्म जन सहयोग का लाभ लेकर अिधक सशक्त बनने और उपलिब्धय का भौितक
आनन्द लेने के िलए ह। य िप इनम भी साथ-साथ पर्त्युपकार करते रहने का िवधान है, पर
उ रा र् को तो ऋण चुकाने के परमाथर् म लगाना ही आवश्यक माना जाता है। यिद सौ वषर् की

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आयु मानी जाती है तो पचास वषर् बाद उ रा र् पर्ारम्भ हो जाता है। य िप आजकल सौ वषर्
कोई िवरला ही जीता है, बहुधा स र-अस्सी तक भी कम ही पहुंच पाते ह। इस दृि से तो

उ रा र् और भी जल्दी, चालीस से ही आरं भ हो जाना चािहए, पर चूंिक पूवर्कालीन वस्था


को भी अपने लाभ की दृि से ठीक माना जाय तो भी पचास वषर् के बाद आरम्भ होने वाला
जीवन काल ऋण चुकाने की दृि से िकए जाने के िलए है। इसी अविध म वानपर्स्थ एवं संन्यास
आशर्म आते ह। उनकी उपयोिगता एवं आवश्यकता भी वैसी ही है, जैसे जीवन के पूवार् र् म

िव ा पढ़ने, िववाह करने और पैसा कमाने की।

देखा जाता है िक जो िव ा नह पढ़ते, गृहस्थ नह जमा पाते या रोटी नह कमा पाते


उनसे लोग घृणा करते ह और उसे असफल मानते ह िकन्तु आ यर् यह है िक उ रा र् के िलए जो
जीवन-कर्म िनधार्िरत है उसकी उपेक्षा करने वाल को घृणा एवं ितरस्कार की दृि से नह देखा
जाता। होना यही चािहए िक िजस पर्कार स्कू ल जाने से कतराने वाले िकशोर को हर कोई
धमकाता है और रोटी न कमाने वाले पर्ौढ़ की आवारागद की भत्सर्ना करता है, उसी पर्कार
पचास वषर् का हो जाने पर भी वानपर्स्थ गर्हण न करने और समाज का ऋण चुकाने म तत्पर न
होने का पर्माद बरतता है उसकी भी सवर्तर् िनन्दा एवं भत्सर्ना की जाय। यह अवसर होते हुए भी
जो ऋण नह चुकाता कजर् मारकर भागने की नीयत रखता है वह अनैितकता अपनाने वाला
िक्त लोग की दृि म िगरा हुआ रहता है, उसी पर्कार पचास वषर् का होने पर भी सेवा-धमर्

को अपनाने के वानपर्स्थ कतर् को जो िशरोधायर् नह करता, वह लोक-िनन्दा, सामूिहक घृणा


एवं सामािजक ितरस्कार का भागी होना चािहए। अच्छा हो ऐसे लोग को एक सामािजक
अपराधी घोिषत कर उनका ितरस्कारपूणर् बिहष्कार आरम्भ कर िदया जाय। िबरादिरय की
पंचायत िकसी जातीय िनयम तोड़ने वाले को जाित बाहर कराने आिद के दण्ड िदया करती ह।
क्या यह अच्छा होता उन लोग को भी ऐसा ही दण्ड िमलता जो गृहस्थ के संचालन भार से
मुक्त होने पर भी वासना, तृष्णा की सड़ी हुई कीचड़ म कु ल-बुलाने वाले कीड़े बने रहना चाहते
ह।

जीवन का समुिचत िवभाजन — भारतीय धमर् म आशर्म वस्था का महत्वपूणर् स्थान


है। जीवन को चार भाग म बहुत सोच-समझकर दूरदिशतापूणर् सूझबूझ के साथ िवभािजत
िकया गया। पर्थम चौथाई जीवन यिद िव ा पर्ाि , स्वास्थ्य संवधर्न, अनुभव, संचय, सद्गुण के

उनसे जो पचास के हो चले 10


अनुशीलन म न लगाया जाय तो जीवन की इमारत िकस पर खड़ी होगी? न व ही मजबूत न

होगी तो दीवार का अिस्तत्व कब तक रहेगा? चौथाई आयु जीवन की न व भरने म, अध्ययन


आिद म लगाने के बाद एक चौथाई आयु पिरवार संस्था के संचालन म तीत की जानी चािहए
तािक संसार की भौितक पर्गित एवं समृि का वस्था कर्म यथावत् चलता रहे। उपयोगी
पिरवार संस्था का तारतम्य न टूटे। भावी पीिढ़य का िनमार्ण होता िविधवत् रहे और
इिन्दर्यजन्य तथा कामना जन्य भौितक आकांक्षाएं भी तृ होती रह। यह पर्योजन गृहस्थ से ही
पूरे होते ह। अब दान-पुण्य का नम्बर आया, जैसे ही बड़ी संतान गृहस्थ का बोझ सम्भालने

लायक हो जाय, वैसे ही उसके ऊपर पािरवािरक उ रदाियत्व को धीरे -धीरे स पते रहना
चािहए और अपनी उं गली पत्थर के नीचे से िनकालते चलना चािहए। िव ास हो जाय िक बड़े
बच्चे ने घर संभाल िलया तो िफर पर्ायः सारा ही समय सामािजक ऋण चुकाने म लग जाना
चािहए। यही वानपर्स्थ का पर्योजन है।

मनुष्य जाित की नैितक, मानिसक, सामािजक पर्गित की पूरी सम्भावना वानपर्स्थ


आशर्म पर िनभर्र है। समाज का आध्याित्मक एवं धािमक िवकास इसी आशर्म की सफलता एवं
सु वस्था पर िटका हुआ है। लोक िशक्षण के िलए अनुभवी, चिरतर्वान एवं िनःस्वाथर् कायर्क ार्

चािहए। वे कहां से िमल? अल्प आयु के नव-युवक म उत्साह एवं शारीिरक चेतना तो होती है,
पर अन्य कई तर्ुिटयां उनम रहती ह। अतृ इच्छाएं उन्ह काम और लोभ की ओर ख च ले जाती
ह, फलतः िकतने ही लोकसेवी नवयुवक इस िफसलन म अपना चिरतर् खोते देखे गये ह। यह

कमी राजनीित के नेतृत्व म तो िकसी पर्कार खप सकती है, पर सामािजक एवं नैितक क्षेतर् म

सेवा-कायर्, नेतृत्व कराने वाले के िलए उसकी मौत का कारण बन जाती ह। िफर नई उमर् के
कायर्क ार् पर यिद गृहस्थ की िजम्मेदािरयां लदी ह गी तो उसे वेतन लेना पड़ेगा। वेतन-भोगी
कायर्क ार् अपना सम्मान खो बैठते ह, िजसका सम्मान नह उसका पर्भाव भी कहां पड़ता है?
इसिलए नई आयु के सामािजक कायर्क ार् अपने दैिनक जीवन म थोड़ा समय िनकाल कर
सामािजक काय म थोड़ा योगदान तो दे सकते ह, पर पूरा समय लगा सकना उन्ह के िलए

सम्भव होता है, जो आिथक दृि से आत्म-िनभर्र ह और पािरवािरक िजम्मेदािरयां बड़े लड़के के
कन्ध पर चले जाने से अवकाश भी िजनके पास है। ऐसे लोग ही पूरे मन और पूरे शर्म के साथ

उनसे जो पचास के हो चले 11


सावर्जिनक पर्वृि य के अिभवधर्न म जुट सकते ह। वानपर्स्थ इसी आवश्यकता को पूणर् करता
है।

धािमक नेतृत्व का उ रदाियत्व — जन समाज की स ावना एवं सत्पर्वृि य को जागृत

रखने के िलए िजन उज्ज्वल िक्तय का नेतृत्व एवं कतृर्त्व आवश्यक है, वे पर्ायः वानपर्स्थ
आशर्म म से ही िमलते ह। वे न िमल तो सावर्जिनक एवं सामूिहक रचनात्मक पर्य का
गितशील रहना किठन हो जाय। अवकाश, अनुभव, स ाव और सत्पर्योजन के सिम्मशर्ण से
वानपर्स्थ जन जागरण की महती आवश्यकता को पूणर् करता है और पर्ाचीन काल म समस्त
िशक्षण संस्था को वानपर्स्थ लोग ही चलाते थे, कथा-पर्वचन के माध्यम से लोक मानस को

सुसन्तुिलत रखते थे, रचनात्मक पर्वृि य का संचालन करते थे। सम्मेलन-सतर्, धमार्नु ान एवं
िवचार गोि य की वस्था करते एवं घर-घर जाकर सन्मागर् का पथ-पर्दशर्न करते थे। जहां भी
अनीित वस्था एवं अिव ा को पनपते देखते वहां उसका िवरोध करने डट जाते थे। इस पर्कार
साधु-बर्ा ण की एक बड़ी आवश्यकता यही आशर्म पूरी करता था। समाज को तपे हुए अनुभवी
और िनस्वाथर् पथ-पर्दशर्क पर्दान करते थे। इस पर्कार साधु-बर्ा ण की एक बड़ी आवश्यकता
यही आशर्म पूरी करता था। समाज को तपे हुए, अनुभवी और िनस्वाथर् पथ-पर्दशर्क पर्चुर मातर्ा

म िमलते रहते थे। उसी दशा म उसका सबल, समृ , सुसंस्कृ त एवं सुिवकिसत रहना

स्वाभािवक ही था। भारतीय समाज की संसार भर म जो शर्े ता मानी जाती रही है, उसम

वानपर्स्थ का महत्वपूणर् योगदान रहा है। बर्ा ण के दो वगर् ह—एक जन्मजन्य दूसरे कमर्जन्य।

जन्मजन्य बर्ा ण म समुिचत संस्कार के अभाव म दोष रह सकते ह, पर िजसने ढलती आयु म,

संसार के अनुभव से तृ होकर लोक-मंगल के िलए अपना जीवन समिपत िकया है, उसके

िफसलने की संभावना कम ही रहती है। अनुभवी और कर्मब वानपर्स्थ, िफर वे िकसी भी वणर्

म क्य न जन्मे ह , एक सच्चे बर्ा ण, एक सच्चे साधु की ही आवश्यकता पूणर् करते ह। कमर्जन्य
बर्ा ण की उपयोिगता और भी अिधक असंिदग्ध रहती है। ऐसे देवपुरुष िजस देश म बढ़गे
उसका सब पर्कार कल्याण ही कल्याण होगा।
आज की पिरिस्थितय म ऐसे लोक-नेता की अत्यिधक आवश्यकता है। गन्दगी ज्यादा
फै ली हो तो सफाई करने वाले भी अिधक ही चािहए। संकर्ामक बीमािरय का पर्कोप हो रहा

उनसे जो पचास के हो चले 12


हो, तो िचिकत्सक एवं पिरचयार्क ार् की भी आवश्यकता बहुत होगी। भयंकर अिग्नकाण्ड का
दावानल धधक रहा हो तो उसे बुझाने वाले स्वयं सेवक भी अिधक चािहए। शतर्ु की पर्बल
सेना का मुकाबला करने के िलए रक्षाबल की संख्या भी अिधक ही होनी चािहए। इन िदन ऐसी
ही पिरिस्थितयां ह। नैितक-सामािजक, आिथक-बौि क, शारीिरक-मानिसक हर दृि से अपना

देश िपछड़ गया है। उसे संभालने, सुधारने एवं उठाने के िलए सबल, समथर् एवं पर्ितभा सम्प
वानपर्स्थ की िजतनी अिधक आवश्यकता है उतनी और िकसी की नह । समाज को खोखला
करने म लगी हुई कु रीितय , अन्ध-परम्परा , मूढ़-मान्यता एवं अनैितक आकांक्षा से

तेजस्वी वानपर्स्थ के अितिरक्त और कौन लड़ेगा? असंगिठत, अवसादगर्स्त, गुण-कमर्-स्वभाव

की मलीनता से आकर्ान्त जनता का उ ार कौन करे गा? अकमर्ण्यता, िवलािसता और भौितकता


की मूछार् म पड़े हुए इस रा -ल मण को संजीवन बूटी लाकर वानपर्स्थ हनुमान के िबना और
कौन पुनज िवत करे गा। आज आड़े समय म मातृभूिम की पुकार योगी एवं वानपर्स्थ के िलए है,
आगे बढ़कर आय और अपनी िजम्मेदािरयां संभाल तो कायाकल्प होते देर न लगे। आज के दुिदन
कल ही स्विणम सौभाग्य के रूप म पिरणत होते हुए दृि गोचर होने लग।

सिम्मिलत पिरवार का स्विणम सूतर् — सिम्मिलत पिरवार की सुन्दर सु विस्थत


परम्परा तब चले जब वानपर्स्थ गर्हण करने के िलए जन-साधारण म उत्साह पैदा हो। बड़े लड़के
अपनी बिहन-भाइय को भी अपने कतर् , उ रदाियत्व म सिम्मिलत रख तो आज जो

आपापूती की संकीणर्ता घर करती जा रही है, वह न पनपे। आज तो पिरवार म जो भी कमाऊ

होता जाता है, अपनी प ी को लेकर अलग ही बैठता है, जो कमाता है अपने और अपनी प ी के

शौक-मौज म ही लगाता है। बिहन-भाइय , माता-िपता आिद की िचन्ता ही नह करता। वह

जानता है िक बूढ़ा बाप िकसी तरह घर की गाड़ी धके लता रहेगा। हम क्य इस झंझट म पड़,
पर जब उसे यह िविदत होगा िक िपताजी अपने कतर् की पूित के िलए वानपर्स्थ लगे और
उसे पिरवार का उ रदाियत्व संभावना होगा, तो वह दूसरी बात सोचेगा और लोक िनन्दा से
बचने के िलए उदार दृि कोण अपनावेगा। यही वृि अन्य लड़क म भी पनपेगी। दूसरा लड़का
बड़ा होगा तो वह भी बड़े भाई का अनुकरण करे गा और छोटे भाई-बिहन के िवकास-िनमार्ण म
हाथ बंटायेगा। इस पर्कार पिरवार म उदार-परम्परा बनी रहेगी। उन बच्च के बच्चे भी इसी

उनसे जो पचास के हो चले 13


पर्कार सोचगे और करगे। आज तो बाप को भी जब बुढ़ापे तक तृष्णा-वासना से छु टकारा नह
तो बेटे भी उसका अनुकरण क्य न करगे? वतर्मान परम्परा के अनुसार छोटे बच्च की वस्था
पूरी करने तक िपता को गृहस्थ ही संभालते रहना पड़ता है। जब वानपर्स्थ की बात ध्यान म
होगी तो कम बच्चे पैदा करने और उनकी िजम्मेदािरय से जल्दी िनवृ होने की बात भी
सोचेगा। बुढ़ापे म सन्तान पैदा न करे गा। यह बात मन म रहे तो समाज का अनेक दृि य म
िहत-साधन ही होगा। पिरवार म उत्कृ ता एवं आदशर्वािदता का वातावरण रहने लगेगा।
बुढ़ापे तक सन्तानोत्पादन की पर्िकर्या जारी रहने पर बच्चे अशक्त उत्प होते ह और ढलती आयु
के लोग का शरीर भी बर् चयर् के अभाव से जजर्र एवं अनेक रोग से गर्िसत बना रहता है। यिद
बर् चयर् िमिशर्त वानपर्स्थ का उपकर्म िफर पूवर्वत् चल पड़े तो बर् चयर् से होने वाले लाभ का
पर्ितफल ि य , पुरुष , बच्च सभी को िमले और दुबर्लता एवं रुग्णता का वातावरण सबलता
एवं साथर्कता म पिरणत होने लगे।
आज की पिरिस्थित का आदशर्-संन्यास-वानपर्स्थ परम्परा पहले घर छोड़कर वन म रहने
की भले ही रही हो, पर आज की पिरिस्थितय म वैसी ही आवश्यकता नह रही। न तो अब

पर्ाचीनकाल जैसे वन रहे न उनम ऐसे कन्द-मूल फल होते ह, िजनसे हर ऋतु म आनन्दपूवर्क
गुजारा हो सके । जंगल म रहने वाले साधु लोग भी अ ाहार ही करते ह और वह भी उन्ह
गृहस्थ से ही जुटाना पड़ता है। आज लोग की कमाई शु नह रही। अनीितपूवर्क कमाया हुआ
अ खाकर कोई िक्त अपनी पर्वृि यां सावधान नह रख सकता। िभक्षा जीवी सन्त-
महात्मा को आलस्य एवं अवसाद घेरे रहता है, मन म कु मागर् दौड़ता है, भजन म मन नह

लगता क्य िक िजस दान से उनका रक्त और मन बनता है, वह साित्वक नह होता।

अन्यायोपािजत धन जहां जाता है, वह गड़बड़ी फै लाता है। इसिलए अब न साधु को, न

वानपर्स्थ को, िकसी को भी जहां तक संभव हो िभक्षा-जीवी नह होना चािहए। िजन्ह

आजीिवका की हािन से पूणर् स्वावलम्बन पर्ा नह है, आधा समय उपाजर्न के िलए और आधा

समय लोक सेवा के िलए लगाकर भी इस वर्त का पालन कर सकते ह। रोटी, कपड़े का पर्बन्ध
घर म रखना चािहए। इसके बदले दोपहर तक आधा िदन पिरवार की देखभाल की वस्था म
लगाना चािहए। वैसे भी िजस घर म रहना होता है, उसकी वस्था की देखभाल करना, मागर्-

दशर्न करना, परामशर् देना और संभालना-सुधारना मानवोिचत कतर् है। जब दूसर के सुधारने

उनसे जो पचास के हो चले 14


एवं सेवा करने का कायर्कर्म बनाया है तो अपने घर वाल को उस सेवा-लाभ से िवमुख क्य
रखा जाय? घर छोड़ने की तिनक भी आवश्यकता नह है। इसी घर म रहना चािहए, हां मोह-

ममता, के बन्धन तोड़ देने चािहए। अपने घर वाल को भी जनता मातर् मानकर इसकी
यथोिचत सेवा करते रहना चािहए।
यह मोह-बन्ध िशिथल करने इसिलए आवश्यक है िक आत्मीय की छोटी सीमा का बन्धन
तोड़कर ापक क्षेतर् म िवस्तृत हो सके और सेवा धमर् पूरे मनोयोग के साथ पालन िकया जाता
रहे। अगले जन्म की उ म गित भी मोह बन्धन तोड़ने से ही होती है, अन्यथा जीव लौटकर
िफर घर के ही समीप अपनी वासना के ारा िखचा चला आता है। मोहगर्स्त की मुिक्त नह हो
सकती। सीिमत दायरे म अपने को बांधे रखने वाला असीिमतता का, आध्याित्मकता का आनन्द
नह ले सकता। अतएव वानपर्स्थ को ममता-त्याग के िलए कहा गया है। घर की एक कोठरी
अलग से अपने िलए ले लेनी चािहए या खेत, बगीचे म एक झ पड़ी बनाकर रहने लगना

चािहए। अके ला रहना, अपनी कोठरी को ही अपना एकान्त तपोवन मान लेना वानपर्स्थ आशर्म

के उपयुक्त है। प ी का यिद बच्च म लगाव हो तो उसका इन्ह के साथ रहना उिचत है, पर यिद
वह भी आत्म-कल्याण के िलए लोकसेवा का वर्त धारण करे तो दो साथी साधु की तरह वह
भी पित के साथ रह सकती है। प ी को त्यागने की आवश्यकता नह है, पर शरीर-आसिक्त को
त्याग देना चािहए। उसे स्वामी नह वरन् छोटा भाई मानना चािहए।

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उनसे जो पचास के हो चले 15


वानपर्स्थ संस्कार िववेचन
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जन्म और मरण की अविध म दो बार संचय काल और दो बार उपयोग काल आता है।
बालकपन और बुढ़ापा संचय काल ह और यौवन तथा परलोक-भोग उपयोग काल ह। संचय की
अविध म जो इक ा कर िलया जाता है, उपभोग-काल म उसी का आनन्द उपलब्ध होता है

बचपन म िव ाध्ययन एवं ायाम आिद के ारा जो शारीिरक, मानिसक बल उपािजत कर

िलया जाता है, उसी का सत् पिरणाम यौवन काल म वैभव एवं आनन्द के रूप म उपभोग करने
को िमलता है।

िजन्ह ने बचपन म पिरशर्मपूवर्क पढ़ाई जारी रखी, उच्च िशक्षा पर्ा की, अच्छी शर्ेणी म

उ ीणर् हुए कला-कौशल सीखी, वे अपने उस अध्ययन-तप का लाभ युवावस्था म उठाते ह।

उनकी बौि क क्षमता बढ़ी-चढ़ी होने के कारण अच्छा वसाय, अच्छी नौकरी, अच्छा काम
िमल जाता है। अच्छी आमदनी होती है। पर्ित ा का पद िमलता है। इन उपलिब्धय के
फलस्वरूप वे शौक-मौज के , ऐश-आराम के , गौरव-सम्मान के अनेकानेक साधन जुटा लेते ह।

स्वयं मौज म रहते ह, अपने घर वाल को मौज म रखते ह और दूसर का भी बहुत कु छ भला
कर देते ह।

इसी पर्कार िजनने ायाम, बर् चयर्, आहर-िवहार के संयम ारा अपनी स्वास्थ्य बना

िलया वे सदा िनरोग रहते ह, बहुत िदन जीते ह, पिरपु रहने से यौवन म इिन्दर्य सुख भी
भोगते ह। अच्छी न द सोते और हंसी-खुशी के िदन िबताते ह। पु शरीर से काम भी खूब होता
है और िवरोधी भी डरते रहते ह। जो खाते ह, पच जाता है। बीमािरय की थाय नह सहनी

पड़त , सन्तान स्वस्थ होती ह और दवा-दारू का खचर् नह करना पड़ता। तात्पयर् यह है िक

िजसने बचपन म स्वस्थ बनने की तप यार् कर ली, वह उसका लाभ जवानी म उठाता है।

बचपन और कु छ नह , यौवन को जैसा भी कु छ बनाना हो, उसकी तैयारी का समय है। िकसी

को डॉक्टर, इं जीिनयर, वैज्ञािनक, पर्ोफे सर, अफसर, पहलवान आिद जो कु छ महत्व पर्ा करना

उनसे जो पचास के हो चले 16


हो उसकी तैयारी का तप बचपन म ही करना होता है। जो लोग उस तैयारी की अविध आलस्य,

पर्माद और उच्छृ ंखलता म िबता देते ह, उन्ह उसका दुष्पिरणाम युवावस्था म भोगना पड़ता है।

िजन लड़क ने बचपन म पढ़ने से जी चुराया है, वे बड़े होने पर िबना पढ़े-गंवार बने रहे

और आजीिवका, पद तथा सामािजक सम्मान की दृि से गये-गुजरे स्तर पर पड़े रहने के िलए

िववश हुए, कोई अच्छा काम न पा सके , उच्चस्तरीय लोग के बीच िसर उठाकर बैठ सकने की

िस्थित न रही। इसी पर्कार िजनने ायाम न िकया, आहार-िवहार, म असंयम बरता, बर् चयर्
तोड़ा उनको जवानी आने से पूवर् ही बुढ़ापे ने धर दबाया। तरह-तरह की बीमािरय के िशकार
बने रहे। देह से कु छ महत्वपूणर् काम न हो सका। दवा-दारू म पैसा उड़ता रहा, देह क पाती

रही, इिन्दर्य सुख भोगने का सौभाग्य ही न िमला, सन्तान दुबली हुईं, अल्प अविध म ही काल-

कविलत हो गईं, जब तक िजए तब तक भी दूसरे उपहास, उपेक्षा अथवा ितरस्कार की दृि से


देखते और घृणा भरा वहार करते रहे। बलवान शतर्ु ने सताने म कमी न छोड़ी। अपनी
दुबर्लता अपने को ही डराती एवं परे शान करती रही। बचपन म शरीर बल संचय के कतर् की
जो उपेक्षा की गई थी उसका दण्ड यौवन म भुगता ही जाना था, भुगतना भी पड़ा। संचयकाल

की बबार्दी उपभोगकाल म िवपि बनकर सामने आती है, यह एक सुिनि त तथ्य है।

िजन्ह यौवन काल समुिचत िस्थित म तीत करने की महत्वाकांक्षा हो, उन्ह बचपन
एवं िकशोर अवस्था म उसके िलए आवश्यक तप करना ही होता है। उसके िबना और कोई
रास्ता युवावस्था को शानदार बनाने का है नह । अपवाद की बात दूसरी है, छप्पन फाड़कर

िकसी को दौलत िमले तो यह उसका पूवर् संिचत भाग्य ही कहा जायगा, पर आमतौर से ऐसा

होता नह , होता यही है िक जो िकया जाता है, उसका फल िमलता है। इसिलए क्या

अिभभावक, क्या अध्यापक, क्या शुभिचन्तक, क्या अच्छे िमतर् सभी िकशोर और नवयुवक को

यही नेक सलाह देते ह िक वे पूरी मेहनत, एकागर्ता और िदलचस्पी से अपने बौि क एवं
शारीिरक िवकास म लगे रह। जो लउ़के इस सलाह को मान लेते ह वे आगे चलकर सुख पाते ह।
जो इन परामश पर कान नह धरते उन्ह समय आने पर उस उपेक्षा का बेतरह प ा ाप करना
पड़ता है।

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दृश्य यौवन की तरह एक अदृश्य यौवन भी है। स्थूल की अपेक्षा सू म की शिक्त एवं
मह ा कह अिधक होती है। स्थूल शरीर की तुलना अिधक सामथ्यर्वान है। शरीर बल की
तुलना म बुि बल का उपयोग अिधक है। ठीक उसी पर्कार मरणो र का महत्व इस दृश्य यौवन
की अपेक्षा हजार -लाख गुना अिधक है। दीखने वाली जवानी दस-बीस वषर् ठहरती है, पर
मरने के बाद स्वगर्-नरक की अविध उसकी तुलना म बहुत अिधक लम्बी होती है। उसम िमलने
वाले सुख एवं दुख का स्तर भी जवानी म िमलने वाली थोड़ी-सी सुिवधा-असुिवधा की
तुलना म कह अिधक गहरा है। स्वगर् म जो आनन्द है, वह सांसािरक पदाथ म कहां? नरक म

जो था-वेदना है, स्थूल जगत उसका हजारवां अंश भी नह । यहां तो सुख-दुख बटाने वाले भी

कई िमल जाते ह, पर वहां तो सब कु छ अके ले ही सहना पड़ता है। यौवन उसे कहते ह िजसम
शिक्तयां पूणर् रूप से िवकिसत ह । सांसािरक जीवन म हमारी अन्तःचेतना बहुत करके पर्सु
िस्थित म पड़ी रहती ह। इिन्दर्य-िलप्सा एवं सांसािरक आकषर्ण एवं मानिसक भर्म-जंजाल उसे
दबाये बैठे रहते ह, पर मरणो र काल म वे सभी हट जाते ह और अन्तःचेतना अपने पर्ौढ़ रूप म
िवकिसत होती है। तब उसके सुख-दुख की अनुभूितयां भी तीवर् हो जाती ह।
स्वगर्-नरक के सुख-दुःख का स्तर इसिलए इस संसार की अपेक्षा बहुत अिधक बढ़ा-चढ़ा
होता है। नये जन्म की सारी भूिमका भी इसी मरणो र यौवन म बन जाती है। िजस पर्कार
युवावस्था म जैसा होता है वैसा ही सन्तान का भी स्वास्थ्य होता है। ठीक इसी पर्कार पर्ाणी को
मरणो र काल म जैसी संवेदनाय भुगतनी पड़ती ह, ठीक उसी स्तर का पुनजर्न्म भी होता है।
नरक भोगने वाले पर्ाणी संसार म उतरते ह तो उन्ह नीच योिनय म क कारक पिरिस्थितय म
जन्मना पड़ता है और जो स्वगर् से आते ह वे अपनी आित्मक िस्थित के अनुरूप उत्कृ स्तर के
वातावरण म जन्मते और महत्वपूणर् जीवन-यापन करते ह।

उच्चस्तरीय सुख के िलए उच्चस्तरीय तप — इस मरणो र जीवन को सुखी एवं समु त


स्तर का बनाने के िलए बुढ़ापे म तैयारी करनी पड़ती है। िजस पर्कार बचपन की सीमा रे खा से
यौवन जुड़ा हुआ है, उसी पर्कार बुढ़ापे की सीमा रे खा से मरणो र यौवन जुड़ा हुआ है। इसिलए

उस सू म, अदृश्य िकन्तु महान यौवन की तैयारी भी ठीक इन्ह िदन करनी पड़ती है। िजन्ह ने

अपनी ढलती आयु का ठीक उपयोग कर िलया, उनने मरणो र यौवन को सु विस्थत बनाने

की योजना बना ली, िकन्तु जो उस महत्वपूणर् अविध को आलस्य, पर्माद और माया मोह म

उनसे जो पचास के हो चले 18


गंवाते रहे उनका महान मरणो र यौवन उसी पर्कार अन्धकारमय बनता है जैसा िक उच्छृ ंखल
और आवारा बच्च का सांसािरक जीवन अस्त- स्त रहता है। िकतने ही बेवकू फ लड़के अपनी
ढीठता म इतने गर्िसत होते ह िक भावी जीवन के िबगड़ने की बात म उन्ह कोई सार िदखाई
नह देता। उसी तरह िकतने ही बूढ़े ऐसे अदूरदश होते ह िक वे अजर-अमर बने रहने पर
िव ास करते ह और मरणो र यौवन की समस्या को फू टी आंख से भी नह सोचना चाहते।
उस सम्बन्ध म सोचने की उन्ह फु रसत ही नह िमलती। नाती-पोत की ममता उन्ह छोड़ती ही
नह । जो कमाना, जो करना, जो सोचना सो सब बेटे-पोत के िलए ही। इस पर्कार के मूढ़तागर्स्त
बु े िफर चाह वे पढ़े-िलखे ह या अनपढ़ सच्चे अथ म मूढ़मित कहे जायगे। आज हमारा समाज
उच्छृ ंखल लड़क और अदूरदश मन्द मित बूढ़ से भरा पड़ा है। फलस्वरूप हम पर्ाचीन गौरव
गिरमा से िदन-िदन नीचे िगरते हुए पतन के गहरे गतर् म िगरते चले जा रहे ह।

इस िस्थित को बदलना ही होगा। नव िनमार्ण की, युग पिरवतर्न की समस्या इसी पर्कार

हल होगी। बालक म अनुशासन संयम, पिरशर्म एवं िश ाचार की भावनाएं िवकिसत करके
उन्ह सांसािरक पर्गित म योगदान कर सकने योग्य बनाना आवश्यक है। उसी पर्कार वयोवृ
को कहना होगा िक वे मरणो र जीवन को समु त बनाने की तैयारी म लग जाय। यह तैयारी
दुहरे लाभ की है। उनका िनज का परलोक स्वग य सुख-शािन्त से पिरपूणर् होगा, पुनजर्न्म की
महती सम्भावना रहेगी एवं मुिक्त का आनन्द िमलेगा। साथ ही इस पर्योजन की पूित के िलए जो
साधना करनी पड़ेगी, वह संसार म सवर्तोमुखी स ावना उत्प करने की दृि से अत्यन्त
महत्वपूणर् िस होगी। वे करगे तो अपने आत्म-कल्याण का कायर् पर उसके फलस्वरूप िव
शािन्त म जो योगदान िमलेगा वह लोक-कल्याण की दृि से भी अत्यंत महत्वपूणर् माना
जायगा। इसिलए दूरदश महिषय ने भारतीय जीवन के अिन्तम अध्याय को िजस पर्कार
तीत करने की परम्परा बनाई है, उसम दुहरा लाभ है। वृ पुरुष अपना परलोक तो सुधारते
ही ह साथ ही संसार की भी इतनी बड़ी सेवा करते ह िक इस लोक म स्वगर् के अवतरण का
मनोरम दृश्य िदखाई देने लगता है। जन साधारण को उनके इस तप से गुलाब या चन्दन की
सुगिन्ध की तरह अनायास ही महत्वपूणर् लाभ िमलता है।

ढलती उमर् का तकाजा है-वानपर्स्थ — पािरवािरक िजम्मेदािरयां जैसे ही हलकी होने

लग, घर को चलाने के िलए बड़े बच्चे समथर् होने लग और अपने छोटे भाई-बिहन की देखभाल

उनसे जो पचास के हो चले 19


करने लग, तब वयोवृ िक्तय का एक मातर् कतर् यही रह जाता है िक वे पािरवािरक
िजम्मेदािरय से धीरे -धीरे हाथ ख च और कर्मशः वह भार समथर् लड़क पर बढ़ाते चल। ममता
को पिरवार की ओर िशिथल कर समाज की ओर िवकिसत करते चल। सारा समय घर के लोग
के िलए ही खचर् न कर द वरन् उसका कु छ अंश कर्मशः अिधक बढ़ाते हुए समाज के िलए
समिपत करते चल।
घर छोड़कर एकान्त कु टी म जा बैठना और भजन के नाम पर िनिष्कर्य जीवन िबताने
लगना आजकल लोग ने भिक्त या वैराग्य का रूप मान िलया है। इसी दृि से कई अध्यात्मवादी
िक्त तीथ म, निदय के िकनारे एकान्त कोठिरय म जा बैठने को ही बड़ा आध्याित्मक

पुरुषाथर् मान बैठते ह, यह धारणा अज्ञानान्धकार युग के िनराशावादी और अकमर्ण्य लोग ने

फै लाई िजसके फलस्वरूप आज 80 लाख िक्त धमर् के नाम पर िनिष्कर्य, अनुपयोगी जीवन

िबताते हुए िभक्षुक बने हुए जनता पर भार बनकर जी रहे ह। यह िवडम्बना न अध्यात्म है, न

धमर्, न योग है, न वैराग्य। न उससे िक्त का भला होता है और न समाज का। पर्ाचीनकाल का

वैराग्य रचनात्मक वैराग्य था, िजसम िक्त के कल्याण तथा समाज के उत्कषर् का उभय पक्षीय
कायर्कर्म समान रूप से सि िहत थे। बुढ़ापे को वानपर्स्थ के िलए समिपत करने का जो शा ीय
िवधान है। उसका स्वरूप यह है िक (1) उपासना (2) स्वाध्याय, (3) संयम, (4) सेवा, इन चार
कायर्कर्म म अपनी शिक्तय को सु विस्थत रीित से संलग्न िकया जाय। वृ को उिचत है िक
घर-पिरवार से अपना समय और मन िजस अनुपात म बचाव, उसे उसी अनुपात से इन चार
काय म संलग्न करते चल।
वानपर्स्थ का अथर् घर छोड़कर िकसी दूर देश म चले जाना कदािप नह । घर से सम्पकर्
िशिथल हो, पािरवािरक ममता घटे, इस दृि से घर म एक अलग कमरा लेकर रहने लगना और

यह सोचना िक म छातर्ावास िनरीक्षक की तरह इस पिरवार का मागर्दशर्क तो हूं, पर इनसे

बंधा हुआ नह , वरन् मेरा जीवन समाज की सम्पि है, वास्तिवक वानपर्स्थ है। जहां तक

सम्भव हो, पिरवार की िस्थित यिद उपयुक्त है तो िनवार्ह खचर् घर से ही लेना चािहए। िजनकी

पेन्शन है या िजनकी पूवर् संिचत सम्पि , कृ िष आिद है वे उसका उपयोग अपने िनवार्ह म भी
कर तो यह न्यायोिचत है। यह जरूरी नह िक अपनी उपािजत अब तक की सारी सम्पदा

उनसे जो पचास के हो चले 20


पिरवार को ही दे दी जाय और खुद िभक्षुक बनकर दूसर की रोटी पर िजया जाय। आजकल
दूसर को धान्य कु धान्य ही है। उसे खाने से आित्मक िवकास म सहायता नह िमलती वरन्
बाधा ही पड़ती है। इसिलए सेवा कायर् म संलग्न िस्थित म कह अवसर आने पर िकसी के यहां
रोटी खाली यह बात दूसरी है, साधारणतया गुजारा अपने बलबूते पर ही करना चािहए। यिद
पािरवािरक िस्थित ठीक न हो तो कु छ समय पिरशर्म करके गुजारे की वस्था िनकाल ले और
बाकी समय अपने आध्याित्मक कायर्कर्म म लगाव।

कायर् प ित की रूपरे खा — िकसी जमाने म वानपर्स्थ लोग वन म रहते थे। उस जमाने

म वन म कन्दमूल फल इतने अिधक थे िक जीवन िनवार्ह की वस्था गांव, नगर की अपेक्षा

कह अिधक सरलता से हो जाती थी। अब कह ऐसा जंगल नह रहा, इसिलए िनवार्ह की


सुिवधा गांव-नगर के माध्यम से ही जुटानी पड़ती है। अतएव िनवास का पर्बन्ध भी वैसा ही
करना उिचत है। पर्ाचीनकाल म वानपर्स्थी पीत व धारण करके ऋिषय के गुरुकु ल म छातर्
की तरह ही स्वाध्याय करते थे। बच्च की पढ़ाई म और बूढ़ की पढ़ाई म अन्तर तो होता है, पर
रीित एक ही है। वानपर्स्थ को अपना मानिसक िवकास करने के िलए स्वाध्याय की अिनवायर्
आवश्यकता रहती है। पर्ाचीनकाल म वानपर्स्थ संयम की दृि से बर् चयर् और आहार के सम्बन्ध
म पूरी कड़ाई बरतते थे। आज की पिरिस्थित म इतनी ढील रखी जा सकती है िक इं िदर्य का
संयम अिधकािधक सावधानी से िकया जाय, पर ऐसा कोई वर्त न िलया जाय जो टूट जाय तो
आत्मग्लािन म जलना पड़े। उपासना का ार गृहस्थ और िवरक्त सबके िलए समान रूप से खुला
है। गृहस्थी की उपासना बहुत थोड़ी चल पाती है और अिनयिमत भी हो जाती है, वानपर्स्थ इस

सम्बन्ध म अिधक तत्परता बरत। उनकी साधना संकल्पपूवर्क, िनयिमत एवं विस्थत चलनी

चािहए। समय भी अपेक्षाकृ त अिधक लगाना चािहए, चौथा काम सेवा का है। वयोवृ

वानपर्स्थ को जनमानस का स्तर ऊंचा उठाने, जनता म स ावना एवं सत्पर्वृि यां उत्प करने
के िलए सामािजक पिरिस्थितय के अनुरूप रचनात्मक कायर्कर्म बनाने चािहए और उन्ह पूरा
करने के िलए उसी उत्साह से लगा रहना चािहए जैसे िक गृहस्थ म धन उपाजर्न के िलए
तत्परता बरती जाती है। वानपर्स्थ का पर्तीक पीत व है। सारे व पीले न ह तो एक दुप ा
या रूमाल पीले रं ग का अपने पास एक धािमक वद की तरह रखा जा सकता है। उपयुर्क्त कर्म म

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यिद अपना जीवन कर्म ढाल िलया जाय तो समझना चािहए िक वानपर्स्थ की तैयारी एवं
वस्था पूणर् हो गई।

उपयुर्क्त पर्कार की सुिवधा जो जुटा सकते ह, उन्ह पचास वषर् की आयु के बाद भी
वानपर्स्थ ले लेना चािहए। िजनके पास पिहले से ही पािरवािरक गुजारे की वस्था बनाने के
िलए पैतृक सम्पि मौजूद है, या िजनके बाल-बच्चे ह ही नह वे िकसी भी आयु म वानपर्स्थ ले
सकते ह। उन्ह एक ही बात का ध्यान रखना होगा िक वानपर्स्थ के उपरान्त सन्तानोत्पादन न
कर।
आशर्म वानपर्स्थ संस्कार भारतीय धमर् और संस्कृ ित का पर्ाण है। जीवन को ठीक पर्कार
जीने की समस्या उसी से हल होती है। युवावस्था के कु संस्कार का शमन एवं पर्ायि त इसी
साधना ारा होता है। िजस देश, धमर्, जाित तथा समाज म उत्प हुए ह, उनकी सेवा करने

का, ऋण-मुक्त होने का अवसर भी इसी िस्थित म िमलता है। इसिलए िजन भी नर-नािरय की
िस्थित इसके िलए उपयुक्त हो उन्ह वानपर्स्थ लेना चािहए। एक पर्ितज्ञा बन्धन म बंध जाने पर
िक्त अपने जीवन कर्म को तदनुरूप ढालने म अिधक सफल होता है। िबना संस्कार कराये
मनोभूिम पर वैसी छाप गहराई तक नह पड़ती। इसिलए कदम कभी आगे बढ़ते, कभी पीछे

हटते रहते ह। िववाह न होने तक पर्ेिमका का सहचरत्व संिदग्ध रहता है, पर जब िववाह हो
गया तो सब कु छ स्थाई एवं सुिनि त हो जाता है। संस्कार के िबना पारमािथक भावना का
उफान कभी िशिथल या समा भी हो सकता है, पर यिद िविधवत् संस्कार कराया गया तो
अन्तःपर्ेरणा तथा लोक-लज्जा दोन ही िनधार्िरत गित-िविध अपनाये रहने की पर्ेरणा देती
रहगी। इसिलए शा मयार्दा के अनुरूप िजन्ह सुिवधा हो वे िविधवत् संस्कार करा ल। िजन्ह
सुिवधा न हो वे िबना संस्कार के भी उपयुर्क्त पर्कार की रीित-नीित अपनाने के िलए यथा सम्भव
पर्य करते रह।

सुसंस्कार का सृजन — वृ ावस्था म जो संस्कार जमते ह वे ही मरणो र जीवन म साथ

जाते ह, इसिलए इस अविध म उत्कृ िवचार को मिस्तष्क म भरे रहने और उत्कृ


गितिविधयां अपनाये रहने का पर्य करना चािहए। िवचार और कमर् दोन के सिम्मलन से ही
संस्कार बनते ह और यह संस्कार ही पर्ाणी के साथ जाते ह। िवचार की उत्कृ ता अिजत करने
के िलए शा का स्वाध्याय िनतान्त आवश्यक है। इस अध्ययन की पुि तब होती है, जब उसे

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दूसर को भी सुनाया जाय। िजस पर्कार पढ़ने और िलखने की दोन िकर्याय िमलने पर पढ़ाई का
पूरा कर्म बनता है, के वल पढ़ते ही रह िलख नह तो साक्षरता अधूरी रहेगी। इसी पर्कार
स्वाध्याय तो कर पर उसे िकसी को सुनाव नह तो वह अध्ययन भी ठीक तरह हृदयंगम नह हो
सके गा। ज्ञान अजर्न और ज्ञान दान दोन ही वानपर्स्थी के आवश्यक कतर् ह। उपासना भी उसी
पर्कार उभय पक्षीय है। भगवान का भजन, ध्यान, पूजन, जप, कीतर्न एक पक्ष है, दूसरा पक्ष

िव मानव के , िवराट् बर् के इस मूितमान स्वरूप संसार की रचनात्मक सेवा करने से, िवचार

और कायर् का समन्वय होने से भजन म समगर्ता आती है। जो के वल माला फे रते ह, सेवा से

कतराते ह, उनका भजन वैसा ही है जैसा िक रोटी तो खाना पर पानी न पीना। आहार-िवहार

का संयम शारीिरक, मानिसक स्वस्थता की दृि से आवश्यक है। इिन्दर्य िनगर्ह की तप यार् से

मनुष्य की भावनात्मक पर्वृि य का मोड़ वासना, तृष्णा से हटकर परमाथर् पर्योजन की ओर


पर्वािहत होता है। यह सारी िविध- वस्था ऐसी है िजससे वयोवृ िक्त अपनी अन्तःचेतना
को उस मागर् पर िवकिसत करते ह िजस पर चलते हुए मरणो र यौवन म अक्षय सुख-शािन्त
को पर्ा कर सकना सरल हो जाता है।

लोक िशक्षण की आवश्यकता — इस गितिविध के अपनाने से समाज की भी भारी सेवा


होती है। पर्ाचीनकाल म लोक िनमार्ण की सारी गितिविधयां एवं पर्वृि य के संचालन का
उ रदाियत्व साधु, बर्ा ण, वानपर्स्थ पर ही था। वे अपनी सारी शिक्तयां परमाथर् भावना से
पर्ेिरत होकर जन साधारण को सन्मागर् की ओर पर्वृ िकए रहने म लगाये रहते थे। फलस्वरूप
चार ओर धमर्, कतर् , सदाचार का वातावरण ही बना रहता था। वयोवृ , अनुभवी, परमाथर्
परायण लोक सेिवय का पर्भाव जन-साधारण पर स्वभावतः बहुत गहरा पड़ता है। िटकाऊ भी
होता है। ऐसे लोग जन नेतृत्व करने के िलए जब धमर्तंतर् का उिचत उपयोग करते थे तो सारे
समाज म सत्पर्वृि य के िलए उत्साह उमड़ पड़ता था। िशक्षा, स्वास्थ्य, सदाचार, न्याय,

िववेक, वैभव, शासन, सुरक्षा, वस्था आिद सभी क्षेतर् म यह वयोवृ लोग ही नेतृत्व करते
थे। इतने अिधक अनुभवी और धमर् परायण िक्तय की िनःशुल्क सेवा िजस देश या समाज को
उपलब्ध होती हो उसको संसार का मुकुटमिण होना ही चािहए। पर्ाचीन काल म ऐसी ही िस्थित

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थी। आज वानपर्स्थ की परम्परा न हुई, बूढ़े लोग को लोभ, मोह के बन्धन म ही गर्िसत रहना

िपर्य लगा तो िफर देश का पतन अवश्यंभावी था, हुआ भी, हो भी रहा है।

यह पुण्य परम्परा पुनः सजीव हो — पर्य यह िकया जाना चािहए िक समाज म


पूवर्काल की भांित यह पर्था पर्चिलत हो िक हर ढलती आयु का िक्त वानपर्स्थ लेकर
पारमािथक जीवन िजए और समाज ारा िविवध-िवध पर्ा हुईं सुख-सुिवधा का ऋण
वृ ावस्था म समाज सेवा का वर्त लेकर चुकाये। अपना परलोक सुधारे , जीवन साथर्क करे और
संसार को सुरम्य बनाने म समुिचत योगदान करे ।

मूल पर्योजन समझा जाय — वानपर्स्थ का मूल पर्योजन अपनी आत्मीयता एवं ममता
को छोटे से पिरवार तक सीिमत न रखकर िव -मानव तक िवस्तृत एवं िवकिसत कर देना है।
आत्मो ित इसी को कहते ह। आत्मा तो सीिढ़य पर चढ़ती है और न उसकी धन, वजन, पद

आिद की दृि से उ ित होती है। िजतने छोटे दायरे म पहले अपनेपन का भाव सीिमत था, वह

यिद बढ़ता है, िवस्तृत होता है, अनेक पिरवार अपने ही पिरवार दीखते ह और अनेक िक्त

अपने ही कु टुम्बी लगते ह, तो समझना चािहए िक आत्मा की, उसके दृि कोण एवं स ाव की
वृि हुई है। यही पर्गित आत्मा को परमात्मा एवं नर को नारायण बनाती है। जब तक मनुष्य
अपने शरीर एवं पिरवार को ही अपना मानेगा तथा अन्य शरीर के पर्ित परायेपन का भाव
रखेगा तक तक वह बन्धन म बंधा हुआ ही कहा जायगा। स्वाथर्परता के बन्धन जैसे-जैसे ढीले
होते जाते ह, परमाथर् म स्वाथर् िदखाई देता है, िबराने, अपने जैसे लगते ह और अपन के पर्ित

जो ममता होती है, वह िवस्तृत होकर सवर्साधारण के िलए ापक हो जाती है। तब यह समझा
जाता है िक आत्मा अपनी लघुता छोड़कर महान् बनने के िलए अणु से िवभु और आत्मा से
परमात्मा बनने के िलए अगर्सर हो रही है। भजन करने का उ ेश्य इसी िस्थित को पर्ा करने का
मनोवैज्ञािनक ायाम करना है। यह लघुता जैसे-जैसे महानता म, स्वाथर्परता ‘‘वसुधैव

कु टुम्बकम्’’ स्तर म िवकिसत होती जाती है, वैसे ही वैसे ई र अपने िनकट आता जाता है।
िजस िदन सबम अपनी ही आत्मा पर्काशवान् िदखाई पड़े तो कहते ह िक शारीिरक साक्षात्कार
हो गया। इसी पर्कार यिद अपनेपन का भाव अन्य शरीर रूपी दपर्ण म दीख पड़े तो समझना
चािहए आत्म-साक्षात्कार होने लगा। स्व म िकसी देवता की पर्ितमा दीख पड़ना या जागर्त

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अवस्था म ध्यान, एकागर्ता से कोई उपासना पर्तीक चलते-िफरते नजर आ जाना, यह तो अपनी
कल्पना की सघनता अथवा भावना की एकागर्ता का छोटा-सा चमत्कार मातर् है। ऐसे भाव दशर्न
तो उन िपर्यजन के भी होते रहते ह िजनके पर्ित अपना आकषर्ण अिधक होता है। इनका अिधक
मूल्य या महत्व नह । इस पर्कार का अनुभव यिद िकसी को होने लगे तो उससे यह मान्यता न
बना लेनी चािहए िक हम ई र-दशर्न हो गये या भगवान की अनुकम्पा पर्ा हो गई। वास्तिवक
आत्म–साक्षात्कार तो पर्ािणमातर् म ई र की स ा समाई हुई देखकर, उनके पर्ित स वहार
करने की भावना का उदय होने को ही कहते ह। कल्याण तो उसी िस्थित म पहुंचने वाले का ही
होता है।

योगाभ्यास एवं तप यार् — वानपर्स्थ म इसी आत्म-िवस्तार का योगाभ्यास करना

पड़ता है। यह सब कहने-सुनने म तो सरल है, पर करने म किठन है। जब तक कोई मान्यता
वहार रूप म न उतरे तब तक मान्यता का कोई वास्तिवक मूल्य नह होता है। सवर् ापी
परमे र की पर्त्यक्ष आराधना, उपासना, सेवा-धमर् अपनाये िबना नह हो सकती। इसिलए
वानपर्स्थ म नर-नारायण की सेवा के िलए िवस्तृत कायर्कर्म बनाना पड़ता है और अपने
अिधकांश समय, शर्म, धन एवं मनोयोग इसी पर्योजन के िलए समिपत करने होते ह। यह कमर्-
प ित िवशु रूप से योग साधना एवं तप यार् है। धूप म या पानी म खड़े रहने की अपेक्षा
जन-सेवा की साधना अिधक उपयुक्त है क्य िक उससे दूसर को लाभ पहुंचता है और अपने को
तत्काल सन्तोष िमलता है। धूप म खड़े रहने से उन दोन म से एक भी पर्योजन नह सधता, न
िकसी को लाभ पहुंचता है और न अपने अन्तःकरण म कु छ शर्े कायर् करने जैसा सन्तोष ही
अनुभव होता है।

ई र उपासना एवं भजन — वह भजन भी करता है और भिक्त भी। पर्ातः-सायं

शर् ापूवर्क पर्भु का नाम स्मरण करता है-गायतर्ी मन्तर् जपता है, हृदय खोलकर पर्भु के सामने

रखता है, आध्याित्मक दृि कोण एवं गुण-कमर्-स्वभाव म उत्कृ ता बढ़ाने की पर्ाथर्ना करता है,
सत्पथ पर चलने म आने वाली किठनाइय से जूझ सकने लायक आत्मबल एवं साहस की
याचना करता है। भाव-िवभोर होकर की हुई ऐसी पर्ाथर्ना भी ई र के अन्तःस्थल पर चोट
करती है। ऐसे सच्चे सदु ेश्य के िलए, न्याय और नीित की मयार्दाय सुरिक्षत रखने वाली पर्ाथर्ना

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सुनकर ई र दर्िवत हो उठता है और वह उस ज्ञानी भक्त के ऊपर अपने प्यार की, अनुगर्ह की,
अिवरल वषार् करने लगता है।
ऐसे ई र-भक्त वानपर्स्थ के िलए यह आवश्यक नह िक पूरा िदन माला घुमाने म ही
लगा दे। महात्मा गांधी की तरह वह एक घण्टे भी सच्चे मन से िनकली हुई, ई र की अंतरात्मा

को छू ने वाली पुकार-पर्ाथर्ना करता रहे, तो वह चौबीस घण्टे आंख बन्द िकए ध्यान-भजन करते
रहने से कह अिधक शर्ेयस्कर है। धमर् यु के मोच पर लड़ने वाले सैिनक यिद अपना गोला-
बारूद चलाते हुए दो-पांच िमनट भी ई र का नाम ले िलया कर तो वे उनका पूरा सन्ध्या-
वन्दन हो जाता है। वह कथा पर्िस है िजसके अनुसार एक देवदूत की बगल म भक्त की
नामावली देखकर िकसी लोकसेवी ने इसम अपना नाम होने न होने की िजज्ञासा की थी। नाम न
िनकला तो दुःखी भी हुआ था, जप जब दूसरा देवदूत आया और उसकी बगल म लगी छोटी
पुस्तक के बारे म लोकसेवी ने पूछ-ताछ की तो देवदूत ने बताया िक उसम उन लोग के नाम ह
िजनका भजन ई र स्वयं करते ह और उस पुस्तक म सबसे पहले इस लोकसेवी का नाम था।
कथा चाहे अलंकािरक ही क्य न हो पर उसम एक अत्यंत महत्वपूणर् वास्तिवकता का
नग्न उ ाटन िकया गया है। एक महान सचाई को ज्य की त्य खोलकर रख िदया गया है।
अध्यात्मवाद का सार यही है। भजन शब्द ‘भज्’ धातु से बना है िजसका अथर् ‘सेवा’ ही होता है।

कहते भी ह ‘पूजा-सेवा’ करते ह। पूजा, सेवा के साथ अिविच्छ रूप से जुड़ी हुई है। िजस
िवधान म सेवा सिम्मिलत नह वह न तो पूजा है न आराधना। सेवा की गंगा म ान िकए िबना
िकसी की आत्मा पिवतर् नह हो सकती। जो ई र का अनुगर्ह चाहता है, उसे ई र के पुतर् पर

अनुगर्ह करना होता है। जो मनुष्य रूपी खेत म दया के बीज बोता है, उसे ही ई र की छाया

पर्ा करने का पर्ितफल उपलब्ध होता है। जनता-जनादर्न की, नर-नारायण की, पुरुष-पुरुषो म
की भिक्त करने के िलए सेवा-धमर् को जीवन म ओत-पर्ोत करना होता है और यही वह तप यार्
है िजसके आधार पर वानपर्स्थ को या िकसी को भी पर्भु का वास्तिवक अनुगर्ह पर्ा कर सकना
संभव होता है।

स्वेद एवं ेह का अिभिसचन — वानपर्स्थ की उपासना प ित लोक-सेवा के साथ जुड़ी

रहती है। यह पर्ातः-सायं आवश्यक पूजा-भजन करता रहता है, साथ ही िदन-रात अपने चार
ओर ई र की चलती-िफरती पर्ितमा को अपने स्वेद एवं ेह से िसिचत करने का भी ध्यान
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रखे रहता है। इस भावना से पर्ेिरत होकर वह अपनी योग्यता और िनकटवत पिरिस्थितय का
तालमेल िबठाकर इस पर्कार के कायर्कर्म बनाता रहता है, िजसके आधार पर समीपवत लोग

का आन्तिरक स्तर ऊंचा उठे , िववेक जागे, सत्पर्वृि य का उदय हो और गुण, कमर्, स्वभाव म

पिरष्कार आरम्भ हो। मनुष्य का आन्तिरक स्तर ऊंचा उठाना, यही तो उस पर अमृत वषार्

करना है। िजस आत्मा का बुझा हुआ पर्काश चमक उठा, समझना चािहए िक उसके िलए सभी
िवभूितय को पर्ा करने का ार खुल गया। मनुष्य अपनी कु पातर्ता के फलस्वरूप ही अवनित
के गतर् म पड़ा नरक भोगता रहता है। जब उसकी पातर्ता पर्खर होती है, तो वह गई-गुजरी
पिरिस्थितय को तोड़-मरोड़ कर रख देता है और हर हालत म अपने िलए स्वग य पिरिस्थितय
का िनमार्ण कर लेता है। मनुष्य अपने भाग्य का िनमार्ता आप है, िजसने अपनी गितिविधय के
िनमार्ण की कला सीख ली उसके भाग्योदय म देर ही िकतनी लगती है। इन तथ्य की
वास्तिवकता को समझते हुए वानपर्स्थ के सेवा कायर्-कर्म का कर्म उसी पर्कार बनता है िजससे
समीपवत लोग सि चार एवं सत्कम को अपनाने की पर्ेरणा पर्ा कर। इससे बढ़कर मनुष्य की
और कु छ सेवा हो भी नह सकती। अ , व , धन आिद देने से िकसी की क्षिणक आवश्यकताएं

पूणर् होती ह और कु छ समय बाद वही अभाव िफर सामने आ उपिस्थत होता है, पर िजसका

अन्तःकरण, मानिसक स्तर एवं चिरतर् ऊंचा उठा िदया गया, वह तेजी से आगे बढ़ता है, अपना
उ ार करता है और दूसरे अनेक के िलए पर्काश स्तम्भ का काम करता है।
जो कायर्-प ित साधु-बर्ा ण की सदा से रही है उसी को वानपर्स्थी अपनाते ह। जन-
जागरण, िववेक का पिरष्कार, चिरतर्गठन, स ाव-अिभवधर्न, कतर् -पालन, सहृदयता एवं

सेवा भावना का उ यन िजन भी काय के ारा सम्भव हो सके , उनका आयोजन करते रहना ही
उसे अभी होता है। चूंिक इस पर्कार की पर्वृि यां धािमक वातावरण म ही पनपती और
पिरपु होती ह इसिलए उसे ऐसे धािमक कमर्काण्ड , िविध-िवधान , आयोजन , उत्सव एवं

रचनात्मक कर्म-िवधान की भी वस्था करनी होती है, िजससे धमर्-िशक्षा के उपयुक्त

वातावरण िविनिमत हो सके । स्वाध्याय एवं सत्संग का, िशक्षा एवं िव ा का कोई न कोई
िविध-िवधान उसे रचते ही रहना पड़ता है। जनसम्पकर् के िलए सम्मान एवं संकोच को छोड़कर
घर-घर अलख जगाता िफरता है। जन-जन के पास जाता है, कोई उसकी उपेक्षा करता है या

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उपहास करता है तो भी िवचिलत नह होता, वरन् ऊसर म खेती करने वाले साहसी िकसान की

तरह िदन, रात चौगुने उत्साह के साथ अपने पर्य को जारी ही रखे रहता है।

शतसूतर्ी साधना कर्म — युग िनमार्ण योजना के अन्तगर्त शतसूतर्ी कायर्कर्म की


सुिवस्तृत शृंखला इसी उ ेश्य से बनाई गई है। आज की पिरिस्थितय म िजन सवार्ंगीण सुधार-
सेवा की आवश्यकता है, उन्ह इस शतसूतर्ी योजना म जोड़ िदया गया है। साधु-बर्ा ण और

वानपर्स्थ को इनम से जो भी कु छ जहां िजस पर्कार करना उपयुक्त लगे, वहां-वहां आरम्भ

िकया जा सकता है। कायर्कर्म का बा माध्यम कु छ भी क्य न हो, उसके मूल म िक्त के
अन्तःकरण का िवकास ही सि िहत रहना चािहए। भौितक उ ित की योजना म दूसरे लोग
लगे ह, वह राजनैितक एवं आिथक क्षेतर् म संलग्न िक्तय का काम है। उनम हम नह उलझना
चािहए। धािमक लोग का सेवा-क्षेतर् िवशु रूप से भावनात्मक होना चािहए। यह इतना बड़ा
और महत्वपूणर् है िक उसे यिद धमर्क्षेतर् के लोग पूरा कर सक तो मानव जाित की अगिणत
समस्या म से 99 पर्ितशत का हल हो सकता है। भौितक लाभ बढ़ जाय िकन्तु आन्तिरक स्तर
िगरा रहे तो मनुष्य का कु छ भी भला न होगा िकन्तु यिद आित्मक स्तर उठ जाय तो भौितक
स्तर िगरा हुआ रह ही नह सकता, यिद रहे भी तो उससे कु छ िबगड़ नह सकता। अतएव जन-

मानस म स ावना की, सत्पर्वृि य की कृ िष करना और उसे सुरिभत फलते-फू लते उ ान के

रूप म बनाये रहना, यही साधु पुरुष का काम होता है। चतुर माली की तरह वे धािमकता,
आध्याित्मकता एवं सुसंस्कािरता की वािटका को सुरम्य बनाने म एक कमर्ठ माली की तरह लगे
रहते ह। इस साधना एवं तप यार् म लगा हुआ उनका पर्त्येक स्वेद-िबन्दु पर्त्येक भाव-कण उनके
स्वयं के िलए ही नह समस्त संसार के िलए वरदान बनकर सामने आता है, उससे िव -शािन्त
की वास्तिवक सम्भावना का सृजन होता है।

िजनके जीवन का पूवार् र् बीतने की सीमा तक पहुंचा हो, उन्ह िवचार करना चािहए िक

क्या शेष जीवन भी इसी तरह गुजारना है जैसा िक आम लोग गुजारते ह? मनुष्य जीवन की
मह ा एवं उसके अनुपम सौभाग्य का मूल्य-महत्व हम समझना चािहए और इस अलभ्य अवसर
को ऐसे ही अ त
र् ंिदर्त अवस्था म िबता नह देना चािहए। उन उ ेश्य की पूित के िलए कु छ
करना ही चािहए, िजनके िलए यह मनुष्य जन्म िमला है। समाज का वह ऋण चुकाना ही

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चािहए िजसका लाभ हम तथा हमारे पिरवार उठा रहे ह। प ी की वैसी िस्थित न हो तो उसका
कजर् भी हम चुकाव, क्य िक वह आत्म-समपर्ण करने के बाद अपने को लय कर चुकी तो उसकी
िजम्मेदारी भी अपने ही ऊपर आ गई। माता-िपता कजर् छोड़ करते ह तो वह भी बेटे को चुकाना
पड़ता है। यिद हमारे माता-िपता कोई अिभनव आदशर् अपने पीछे नह छोड़ गये ह, या िबना

समाज का ऋण चुकाये ही रह गये ह, तो वह भी हम चुकाना चािहए। वानपर्स्थ वर्त लेकर अपने


को और अपने पिरवार को एक नैितक ऋण से मुक्त करना चािहए। सेवा धमर् अपनाये िबना
जीवन की साथर्कता नह हो सकती। इसिलए िवचारशीलता एवं दूरदिशता का आशर्य लेकर
हम यही िन य करना चािहए िक जीवन का उ रा र् पारमािथक काय के िलए समिपत कर
िदया जाय।

जन्म–जन्मान्तर की यातना सहकर आज जो हमने यह मानव जीवन पाया है, इस जीवन


का सदुपयोग कर परमात्म स ा का ज्ञान पर्ा कर। हम जान ल िक हम उसी परमात्म स ा के
अंश ह। यह बड़ी मूखर्ता होगी िक हम अपने उस सत्य स्वरूप को पाने का पर्य न कर पुनः
असंख्य अधम योिनय म भटकने के िलए वापस चले जाय, इसे पागलपन के िसवाय और क्या
कहा जा सकता है। जो िजन कक्षा को उ ीणर् कर चुका है और उन्ह म वापस जाने की सोचे।
उच्च पद पर से पितत हो जाने से बढ़कर जीवन की असफलता और क्या हो सकती है? पर यिद
हम परमात्मा को पाने के िलए उसके उपाय म समय रहते नह लगते तो इस अमूल्य मानव
जीवन की िनस्सारता एवं असफलता की आशंका बनी ही रहेगी। अतः उस उच्च िस्थित को पाने
तक हमारा पावन कतर् है िक हम ई र पर्ाि को शेष जीवन की अिनवायर् आवश्यकता
बनाकर तदनुरूप जीवन तीत कर। स्मरण रिखए िजसको जीवन के सदुपयोग की िचन्ता हो
गई, िजसने सत्य का, धमर् का तथा पिवतर्ता का अवलम्बन गर्हण कर िलया उसे अपने अन्दर

आत्म–सन्तोष और बाहर से सहयोग एवं सम्मान की तरं ग उठती िदखाई दगी और वह


परमानन्द म िनमग्न होकर मानव जीवन भर की सफलता का रसास्वादन कर रहा होगा। ई र
ने हम इस कमर्क्षेतर् म मुख्यतः भेजा ही इसीिलए है िक हम सत्कमर् और साित्वकी साधना तथा
उपासना करके दैवी मागर् पर अगर्सर ह और जीवन को उच्चतर बनाते हुए अपने महान ल य
को पर्ा कर अतः शर् ा, लगन व दृढ़ आत्म-िव ास के साथ अपने इस शेष जीवन को ल य
पर्ाि के िनिम उत्सगर् करने म िनयोिजत कीिजए।

उनसे जो पचास के हो चले 29


----***----

*समा *

उनसे जो पचास के हो चले 30

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