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आि तकता की उपयोिगता

और आव यकता

लेखक—

पं0 ीराम शमार् आचायर्

प्रकाशक :

युगा तर चेतना शाि त कंु ज,

पो0 स त सरोवर हिर वार

प्रथम बार ] [1976


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िच त शिद्ध
ु के अ य साधन को अगर म सोड़ा या साबन
ु की उपमा
दं ू तो ई वरापर्ण को जल की उपमा दं ग
ू ा। सोड़ा साबन
ु जल के िबना
नहीं दे त,े लेिकन सोड़ा साबुन के िबना भी, शुद्ध जल से धोने का काम हो
जाता है ।

—िवनोबा
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अभाग्य से हमारा धन, नीचता से हमारा यश, मुसीबत से हमारा
जोश, रोग से हमारा वा य, म ृ यु से हमारे िमत्र छीने जा सकते ह
िक तु हमारी म ृ यु के बाद भी हमारा पीछा नहीं छोड़गे।

—को टन
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आ मा और परमा मा का स ब ध
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जीव क्या है ? चेतना के िवशाल सागर की एक छोटी सी बंद
ू अथवा लहर। हर
शरीर म थोड़ा आकाश भरा होता है , उसका िव तार सीिमत है उसे नापा और जाना
जा सकता है , पर वह अलग दीखते हुए भी ब्र मा ड यापी आकाश का ही एक
है । उसका अपना अलग से कोई अि त व नहीं। जब तक वह काया कले वर म
िघरा है तभी तक सीिमत है, काया के न ट होते ही वह िवशाल आकाश म जा
िमलता है । फेफड़ म भरी सांस सीिमत है। पानी का बबूला वतंत्र है , िफर भी इनके
इनके सीमा ब धन अवा तिवक है । फेफड़े म भरी वायु का वतंत्र अि त व नहीं।
ब्र मा ड यापी वायु ही पिरि थितवश फेफड़ की छोटी पिरिध म कैद है । ब धन न
रहने पर वह यापक वायत
ु व से पथ
ृ क ि टगोचर न होगी। पानी का बबल
ू ा
हलचल तो वतंत्र करता दीखता है पर हवा और पानी का छोटा-सा संयोग िजस
क्षण भी झीना पड़ता है पानी पानी म और हवा हवा म जा िमलती है । बबूले का
वतंत्र अि त व समा त हो जाता है ।

जीव अथार्त यापक ई वरीय स ता का पिरि थितवश वतंत्र िदखाई पड़ने


वाला एक छोटा और अ थायी घटक। चेतना का एक असीम समुद्र सवर्त्र लहलहा
रहा है । हम सब उसी म ज मने, मरने और जीिवत रहने वाले जल ज तु ह। यह
उपमा अधरू ी लगती हो तो सागर और उसकी लहर का उदाहरण ठीक समझा जा
सकता है । हर लहर पर एक वतंत्र सूयर् चमकता दे खा जा सकता है , पर उतने सूयर्
है नहीं। यह य की िविचत्रता है । व तुतः एक ही सूयर् के पथ
ृ क प्रितिब ब भर
चमकते ह।

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 4


जीव और ई वर के संबंध की यथाथर्ता को समक्ष लेने पर कई बात उभर का
आती ह एक तो यह है िक अंश म अंशी के सम त गण
ु होने चािहए दस
ू रे यह िक
पथ
ृ कता के पद म पीछे से झांकती हुई एकता का दशर्न िकया जाना चािहए। और
भी कई त य ह जो स य के िनकट तक पहुंचाते ह पर अभी हम इन दो पर ही
िवचार कर लेना उिचत होगा।

आग की छोटी िचनगारी म वे सभी िवशेषताएं िव यमान ह जो िवशाल कायर्


भट्टी म पाई जाती ह। िचनगारी म गमीर् भी है और रोशनी भी। यिद अवसर िमले तो
तो उपयुक्त ईंधन पाकर उसकी लघुता सिव
ु तत
ृ हो सकती है । आकार को लघुता
िवशालता तो यथाथर् है पर संभावना-ताि वकता एवं एकता म कोई अ तर नहीं।
जीवा मा उ हीं िवशेषताओं और संभावनाओं से भरा पूरा है जो परमा मा म
िव यमान है । इतना होते हुए भी िचनगारी अपने छोटे पन के कारण दब
ु ल
र् और
अशक्त िदखाई पड़ती है । कई बार तो वह दग
ु र् ध युक्त ईंधन के साथ रहने पर
और घिणत
ृ भी प्रतीत होती है । च दन की लकड़ी म और मल के ढे र म जलने
वाली अिग्नय म से एक आन द दायक होती है और सुग ध कहलाती है दस
ू री
क ट कारक दग
ु र् ध के प म ितर कृत होती है । य यिप मूलतः एक ही अिग्न
इन दोन थान म काम कर रहा होता है ।

आ मा की मिहमा और गिरमा को समझा जा सके तो उसे उसके तर के


अनु प ि थित म रखने की इ छा होगी। इसके िलए जगी अिभलाषा और िवकिसत
हुई ि थित आ म गौरव कहलाती है । गौरवाि वत को स तोष िमलता है और
आन द भी। ितर कृत को हीनता अनभ
ु व होती है और लि जत एवं दख
ु ी रहना
पड़ता है । आ म बोध जब तक न हो तब तक भेड़ के झु ड म पले िसंह शावक की
की तरह हे य ि थित म नर पशु की तरह रहना पड़ता है पर िजस क्षण अपने
अि त व की यथाथर्ता एवं गिरमा का बोध होता है उसी समय म वह आतुरता

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 5


उ प न होती है िक ल जा पद ि थित से उबरना ही चािहए। गौरवाि वत होकर ही
रहना चािहए। हे य और हीन बनकर रहना जब िधक्कार के योग्य लगता है तो
भीतर से एक िवशेष तड़पन और ितलिमलाहट उठती है । त व ज्ञािनय ने इसी
ि थित को ई वर भिक्त कहा है । हे य तर अथार्त ् भव ब धन। उ कृ ट
अथार्त ई वर िमलन।

ब्र म िव या म आ म बोध को प्रथम थान िदया गया है और अपने आपे


वा तिवकता समझाने के िलए कई सूत्र संकेत िदये गये ह अयमा मा ब्र म,
प्रज्ञानब्र म, िशवोऽहम ्, सि चदानंदोऽहम ्—सोऽहम ्—त वमिस आिद सूत्र म ई वर और
आ मा की एकता का प्रितपादन है । अंश और अंशी की ि थित का उ बोधन है ।
जीवन चेतना को ब्र म चेतना का छोटा सं करण माना गया है और कहा गया है
िक उसम सत ्, िचत,् आन द की स यं िशवं सु दरम ् की सम त िवशेषताएं िव यमान
ह।

संकट प्रसु त ि थित का है । सोया हुआ मनु य अधर्मत


ृ क ि थित म पड़ा
रहता है । उस ि थित म उसे ग दगी, दग
ु र् ध, अपमान, दग
ु िर् त का बोध नहीं होता।
कुछ भी भला बरु ा होता रहे गहरी नींद म कुछ सझ
ू ता ही नहीं ठीक आ म बोध से
रिहत ि थित म जीव की असीम दग
ु िर् त रहती है । खम
ु ारी यह िविदत ही नहीं होने
दे ती िक उसकी कैसी दग
ु िर् त हो रही है । इस खम
ु ारी के कारण उ प न हुई अधर्
मूिछर् त ि थित को ‘माया’ कहते ह। माया को ही जीव की दयनीय दग
ु िर् त का कारण
बताया गया है ।

माया ग्रिसत ि थित म जीव अपने को आ मा न मानकर शरीर अनुभव


करने लगता है । और उसी के लाभ हािन को अपना मानने लगता है । इसकी इ छा
आकांक्षा अिभ िच इ हीं बात म सीमाबद्ध हो जाती है जो शरीर और मन को िप्रय
है । अपने व प को भूला हुआ आ मा अपने ल य, एवं िहत को भी भूल जाता है

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 6


और मात्र उतना ही सोचता है िजतना शरीर को िचकर लगे। यह िविचत्र ि थित है
है िक कोई अपने वाहन, उपकरण, व त्र घर आिद को सुसि जत रखने के िलए तो
समय, बिद्ध
ु और धन को खचर् करता रहे िक तु अपनी भूख यास का, आरोग्य
आजीिवका का कुछ भी िवचार न करे । शरीर और मन जीवन रथ के दो पिहये ह
इ ह दो घोड़े दो सेवक भी कहा जा सकता है । इनके सहारे जीवन यात्रा सिवधा

पूवक
र् स प न हो सके इस िलए परम िपता ने अपने राजकुमार के िलए इन बहुमू य
बहुमू य साधन की यव था की है । इ ह संभालकर रखा जाना चािहए और
सदप
ु योग िकया जाना चािहए यह बिद्धम
ु ता पूणर् है । िक तु जब जीव अपना ल य
भूलकर मात्र इन दो वाहन की साज स जा म लगे रहने के अितिरक्त और कुछ
सोचता ही नहीं तो इस ि थित को माया मूढ़ता कहते ह।

जीव की उ कृ ट और असीम संभावनाओं से भरी पूरी ि थित को दीन


दयनीय ि थित से िघरा दे खा जाय तो यह उसकी वाभािवक ि थित नहीं मानी
जानी चािहए, वरन ् माया मढ़
ू ता का अिभशाप समझा जाना चािहए। ब धन की
जकड़न शरीर और मन के िलए इतनी क टकारक होती है इसे कोई भी भक्
ु तभोगी
समझ सकता है । िकसी के हाथ पैर कसकर मुंह से पट्टी बांधकर अंधेरी कोठरी म
डाल िदया जाय तो उसे िकतनी शारीिरक पीड़ा और मानिसक यथा होगी इसकी
सहज ही क पना की जा सकती है । ई वर के अंश जीव की दग
ु िर् त का कारण यही
माया ब धन है । इ हीं को काटने के िलए जो प्रबल पु षाथर् िकया जाता है उसे
साधना एवं उपासना कहते ह।

ई वर भिक्त का अ यिधक माहा य बताया गया है । उसके असंख्य भौितक


एवं आि मक लाभ िगनाये गये ह। वह प्रितपादन सवर्था सही है । भिक्त का
प्रयोजन—अपना मूल व प समझना और मायाज य दग
ु िर् त से छुटकारा प्रा त
करना है । आ म बोध को इसी पिरवतर्न का के द्र िब द ु माना गया है । इसे आ म

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साक्षा कार अथवा ई वर दशर्न भी कहते ह। ब धन मुिक्त, जीवन मुिक्त, नव
प्रकाश प्राि त आिद श द म इसी ि थित की चचार् की गई है । इस उपलि ध को
परम पु षाथर् की परम सफलता कहा गया है । इस ि थित म पहुंचे हुए यिक्त को
जो िद य संतुि ट एवं प्रस नता होती है उसे ब्र मान द परमान द आिद के नाम से
जाना जाता है । इसी को जीवन ल य की पूितर् कहते ह। इस ल य तक पहुंचने के
िलए जो प्रय न करने पड़ते ह उ ह योग और तप के नाम से पुकारते ह।

िबजली घर से स बि धत रहने पर ब ब जलते और पंखे चलते ह।


कनेक्शन कट जाने पर अ छे खासे िव युत उपकरण भी गित हीन बने पड़े रहते
ई वर और आ मा के बीच सघन आदान प्रदान की ंख
ृ ला को सु ढ़ बनाने के िलये
भिक्त भावना की आव यकता पड़ती है । चेतना का व प भावना मक है । उसम
संवेदना भरी रहती है । सह से बड़ी सब से प्रखर भावना प्रेम है । इसी को भिक्त
कहते ह। इसी के साथ-साथ दया क ण, उदारता, सेवा, सहकािरता, पिवत्रता, जैसी
अ य उदा त भावनाएं सहचरी बन कर चलती है । इ ह प्रेम पी सय
ू र् की िकरण भी
कह सकते ह। ई वर िद य संवेदनाओं का के द्र है । उसके साथ घिन ठता के संबंध
जोड़ने के िलए भिक्त भावना के िवकास का अ यास करना पड़ता है उपासना मक
अनेक िक्रया-प्रितिक्रयाएं इसी आ म िवकास का पथ प्रश त करती है ।

ई वर की मिहमा अपार है , उसकी साम यर् अन त है , उसका कतर्ृ व महान है ,


जो कुछ मह वपूणर् है सभी उसके गभर् म िव यमान है , मनु य की इ छा और
आव यकता को पूरा कर सकने से कहीं अिधक िवभिू तयां ई वरीय स ता म
ह पर अपनी पकड़ और पात्रता व प होने के कारण जो िमलता है वह व प होता
होता है । व प से संतोष नहीं होता। अपनी स ता लघु है इसिलए उसके उपाजर्न
भी सीिमत रहते है । असीम आकांक्षाओं की तिृ त असीम के समुद्र म ही िमलने से
पूरी होती है । गंगा का उद्भव िहमालय से हुआ है तो भी वह जानती है िक वह वयं

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वयं पाषाण नहीं जल है । प थर के टुकड़े प थर के ढे र म जमा होने पर गवर् कर
सकते ह पर जल धारा को तो असीम जल रािश म िमल कर ही पूणत
र् ा का आन द
आन द िमल सकता है । अ तु गंगा की धारा दौड़ती हुई समद्र
ु तक पहुंचती है और
उसी म िवलीन हो जाती है ।

जीवा मा को गंगा की तरह भौितकता के पाषाण पवर्त से अस तोष ही बना


रहता है । तिृ तदायक संतोष उसे असीम के अिध ठाता ई वर के साथ िमलने पर ही
हो सकता है । यही है वह आकांक्षा िजसके अत ृ त रहने पर वह हर िदशा म यासा
िफरता है और िनराशा हाथ लगने पर थकान से चूर और खीज से उ िवग्न बना
रहता है । मग
ृ त ृ णा म भटकने वाले िहरन की तरह जीव भी एक छोड़ दस
ू रा
का आधार खोजता है । दस
ू रे से तीसरे पर और तीसरे से चौथे पर उसकी खोज
चलती रहती है । हर प्रयास के बाद नई यास की अतिृ त तब तक चलती रहती है
जब तक ई वर की प्राि त नहीं हो जाती। गंगा को समुद्र म िमलने से ही तो
िमल सकी है ।

आ मा का परमा मा से िमलन ही जीवन का परम ल य और परम लाभ है


इसी को प्रा त करने के िलए ल बा मागर् परू ा करना पड़ता है । अमीबा से लेकर
ब दर तक—और ब दर से मनु य तक की ल बी यात्रा इसी प्रयोजन के िलए परू ी
करनी पड़ी है िक लघु से महान बनने के िलए जो पु षाथर् करना पड़ता है उसके
अनुभव िलए जाय और क्रमशः अिधक बिद्धम
ु ता का पिरचय दे ते हुए अपूणत
र् ा से
चलकर पूणत
र् ा तक पहुंचा जाय। इसी क्रीड़ा क लोल म जीव को धकेला गया है ।
प्रायः सभी पश-ु पक्षी अपने ब च को सुयोग्य एवं समथर् बनाने के िलए इसी तरह
की िशक्षा पद्धित से काम लेते ह। स भवतः ई वर ने भी जीव को क्रमशः
अिधकािधक सक्षम बनने की ल बी यात्रा पर चल पड़ने के िलये िववश िकया है । अ य
अ य योिनय म यह यात्रा धीमी गित से चलती है । ब चा भी तो ठुमक ठुमक कर

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चलता है । जवान की साम यर्- परीक्षा ल बी दौड़ और ऊंची कूद जैसे उपक्रम से
परखी जाती है । मनु य जीवन जीवा मा की जवानी है । उससे उसे पूणत
र् ा का ल य
परू ा करने के िलए िवशेष अवसर और िवशेष साधन िमला है । त व ज्ञानी इसीिलए हर
हर िववेकवान को सजग करते ह िक वह यथाथर्ता को समझे। जीवन का मू यांकन
करे और इस दल
ु भ
र् अवसर का जो लाभ उठाया जा सकता है उसकी ओर से आंख
ब द न िकये रहे ।

जीवन का व प उ े य ल य और उपयोग समझने- समझाने की पु य


प्रिक्रया को ब्र म िव या के नाम से जाना जाता है । इसी को चरम ज्ञान कहा गया
सामा य यिक्त शरीर के इि द्रय सख
ु और मन के अहं कार तोष को ही सब कुछ
मानते ह और उ हीं के िलए साधन जट
ु ाने म िनर तर लगे रहते ह। वासना और
त ृ णा को पूरा करने म ही उनका मनोयोग म और समय िनरत रहता है । कृिम
कीटक से लेकर पशु- पिक्षय तक सभी सामा य जीव पेट और प्रजनन की प्रेरणा से
से ही अपनी गित िविधयां चलाते ह। मनु य की ि थित िवशेष है । उसे ऊंची बात
सोचनी चािहए और यथाथर्ता को खोजना चािहए। समझदारी इसी म है और इसी
को दरू दिशर्ता, िववेकशीलता एवं बिद्धम
ु ता कह सकते ह।

‘‘निहं ज्ञानेन स श पिवत्र िमह िव यते’’ की गीता उिक्त म इस लोक की—इस


जीवन की सबसे बड़ी उपलि ध स ज्ञान को ही कहा है । िजस पैनी ि ट से जीवन
का व प एवं ल य समझा जा सके और उस दल
ु भ
र् अवसर के सदप
ु योग की
योजना बन सके, ब्र मज्ञान या आ मज्ञान उसी को कहते ह। यह उपल ध होने पर
जीवनो े य को पण
ू र् कर सकने वाली िनि चत योजना बन जाती है । ि ट साफ हो
जाती है और मागर् के स ब ध म स दे ह नहीं रह जाता। इसे प्रकाश की प्राि त
गया है और सबसे बड़ा सौभाग्य माना गया है शा त्र म इस उपलि ध के कई
ह ऋत भरा प्रज्ञा, िद य ि ट भूमा आिद। इसी को गायत्री कहते ह। गायत्री महा

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म त्र म िजस सिवता की समीपता का वरे य की उपासना का भगर् की आराधना का
का दे व की अनुभूित का, धी की धारणा का, प्रकाश की प्रेरणा का अनुरोध आग्रह
िकया गया है वही एक मात्र ई वरीय वरदान है । वह िमल सके तो िफर और कुछ
प्रा त करना शेष नहीं रह जाता। इतना िमल जाने के बाद तो उस थोड़े से साहस
का अ यास करना पड़ता है िजसके सहारे पशु प्रविृ तय के अ यास की आदत
जा सके और िद य जीवन की रीित नीित का िदनचयार् म समावेश िकया जा सके।

ई वर के अित िनकट होते हुए भी हम उसे अनुभव नहीं कर पाते। इन िविचत्र


िविचत्र यामोह का िनवारण करने के िलए ही यान प्रिक्रया अपनानी पड़ती है और
और जो बहुमू य र न खो गया है उसे ग भीरता पव
ू क
र् तलाश करना पड़ता है ।
आ चयर् यह है िक अित समीप त व हमारे िलए अित दरू बन गया है । गले म बंधे
हुए कंठे की याद नहीं रहती है उसकी खोज म भारी दौड़ धूप की जा रही है और
तो और उस प्राणिप्रय िप्रयतम का हम नाम तक भूल गये ह और प तक िव मिृ त
िव मिृ त के गतर् म चला गया है । कैसी है यह िविचत्र ि थित अपनी। उसे उ म त
की िविक्ष त की मनोदशा कहा जा सकता है । भल
ु क्कड़ तो तरह-तरह के दे खे गये ह
पर जो अपने को अपने ल य को ही भूल बैठे उसके िलए क्या कहा जाय? ऐसी
िविचत्रता हम अपने भीतर ही दीख पड़ेगी। न अपना व प याद आता है और न
ल य की मिृ त शेष रही है । इसी िव मिृ त को मिृ त म बदलने के िलए नाम जप
और इ टदे व के यान की प्रिक्रया बनाई गई है ।

ई वर को उसके व प एवं िक्रया कलाप को—आदशर् िनदश को यिद दे खना


खोजना हो तो वह अपने भीतर ही भली प्रकार ि टगोचर हो सकता है । उसे बाहर
दे खने का मन हो तो उसका व प और लीला िवलास दे खने म भी कुछ किठनाई
नहीं है । अ तर म झांके तो वह परम प्रभु हं सता मुसकराता और कुछ कहता करता
िदखाई पड़ेगा। ऊंचा उठने और आगे बढ़ने की अद य आकांक्षा ही िकसी के भीतर

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 11


बनी रहती है —आ म गौरव हर िकसी को अभी ट है —सत ् और असत ् का िववेक
सभी म है — े ठ आचरण से आ म संतोष और िनकृ ट से आ म िवद्रोह का
हर कोई करता है । यही दे व व है भावना क्षेत्र म इ हीं िद य संवेदनाओं के प म
ई वरीय चेतना को अपने अ तःकरण म िवराजा हुआ दे खा जा सकता है । मानवी
आ मा की मूल प्रविृ तयां यही ह। भौितकतावादी अ वेषण ने मानवी चेतना को
और िपशाच के प म खोजा है । ये उसे भय, आक्रमण, वाथर् से प्रेिरत पीिड़त मानते
मानते ह और प्रकारा तर से म य याय एवं सवर् भक्षी उपभोग का समथर्न करते
ह। उ ह ने तो जीवन को रासायिनक उ पादन माना है और पुनजर् म, परलोक, कमर्
फल, जीव स ता एवं परमा मा के अि त व तक से इंकार िकया है । इस समय उस
िववाद म नहीं उलझा जा सकता केवल इतना ही कहा जा सकता है िक यिद यह
प्रितपादन सही रहे होते तो अब तक याय, नीित, धमर्, सदाचार एवं मानवी मयार्दाएं
कब की समा त हो गई होतीं और बिद्धबल
ु का पैशािचक प्रयोग करके एक दस
ू रे का
रक्त पान करते हुए मनु य कब के मर खप कर समा त हो गये होते। तब इस
संसार म सद्भावना और आदशर्वािदता नाम की कोई पर परा शेष नहीं रही होती।
यिद अब तक इन त य का पता न रहा होगा और भौितकवादी प्रितपादन ने इन
रह य का उ घाटन िकया होगा तो िन चय ही अगले िदन वही मा यता सवर्त्र
वीकायर् होगी। यिद वैसा हुआ तो इतनी भिव यवाणी िनि चत प से की जा
सकती है िक बिद्धहीन
ु पशु तो आदशर् िवहीन रहकर भी िनवार्ह करते रहगे पर
बिद्धमान
ु मनु य अमयार्िदत वासना और अिनयि त्रत त ृ णा को अपना कर िपशाच
कृ य पर उतरे गा तो राजद ड व समाज दं ड भी उसे रोक न सकगे और
व छ दतावाद को िचता म कूद कर मानव जाित को सामूिहक आ म ह या के
िलए िववश होना पड़ेगा।

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 12


हमारा िव वास है िक न तो वे मा यताएं सही ह और न उ ह मानवी िववेक
कभी वीकार करे गा आ मा की उ कृ टता अक्षु ण बनी रहे गी और वह क्रिमक
िवकास के पथ पर चलते हुए अिधकािधक समु नत पिर कृत होती चलेगी। जैसे जैसे
जैसे हम अ या म की यथाथर्ता और मह ता को समझगे वैसे वैसे उसे अिधक
उ साह पूवक
र् अपनाने और अिधक द्धा पव
ू क
र् दयंगम करने के िलए उ साह प्रकट
प्रकट करगे। साहस पूवक
र् उस मागर् पर चलने के िलए प्रयास करगे।

हां तो कहा यह जा रहा था िक अपने भीतर ई वर की झांकी उ कृ टतावादी


और अद य स प्रेरणाओं के प म की जा सकती है । ऊंचा उठने, आगे बढ़ने,
गौरवा पद बनने और आ म-स तोष पाने की आकांक्षा केवल िद य जीवन क्रम
अपनाकर ही पूरी की जा सकती है । औिच य अपना कर एक सीमा तक भौितक
उ नित भी हो सकती है और उसका सदप
ु योग भी बन पड़ सकता है पर यिद
आदशर् िवहीन संग्रह, उपभोग और आतंक की गित अपनाई गई तो आि मक
आकांक्षाओं म से एक भी परू ी न हो सकेगी। कुछ पाया भी तो वह उतना महं गा
पड़ेगा िक बा य अवरोध एवं आ तिरक िवद्रोह उसे नीरस एवं भारभत
ू बनाकर रख
दगे। अ तःकरण के ममर् थल से िजस महानता की प्राि त के िलए हूक उठती रहती
है उसे उ कृ ट आदशर् वािदता अपना कर ही पूरा िकया जा सकता है । इसी प्रेरणा
को ई वरीय चेतना दै वी संदेश आ मा की पक
ु ार एवं वेदवाणी कहा जा सकता है ।
िजसकी यह अ तःप्रेरणा िजतनी प्रबल है उसकी आ मा म ई वर की योित उतनी
ही अिधक दीि तमान दे खी जा सकती है ।

भगवान के अवतार समय समय पर होते रहे ह। उनके अवतरण का उ े य


एक ही रहा है अधमर् का िवनाश और धमर् का सं थापन। द ु कृत का िनराकरण
और साधुता का पिरत्राण, इस एक ही प्रयोजन के िलए िविभ न तर के नाम प
वाले अवतरण हुए ह। उनके िक्रया कलाप म िमत्रता तो रही है पर प्रयोजन एक ही

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 13


ही रहा है । जो त य वेद प म बा य जगत म प्रकट होता रहा है वही अ तःकरण
म भी अवतिरत होता हुआ दे खा जा सकता है । अपनी भीतरी दिु नया भी कम
िव तत
ृ नहीं है । इसम भी अनेक अवांछनीय असरु ताएं द ु प्रविृ तय के प म
अट्टहास करती हुई दे खी जा सकती है । ई वर का अवतार िजस भी अ तःकरण म
प्रकट होगा वहां उसका द ु प्रविृ तय के उ मूलन का कायर् तेजी के साथ स प न
रहा होगा। राम अवतार म लंकाका ड का—कृ ण अवतार म महाभारत का युद्ध
प्रसंग सवर् प्रमख
ु एवं सवर् िविदत है । यही अ तः संघषर् प्र येक ई वर भक्त के
चलता है । िवकृितय के प्रित उसका रोष आक्रोश बढ़ता जाता है और िक्रयाक्षेत्र म
िवचार क्षेत्र म जो भी द ु प्रविृ तयां जड़ जमाकर बैठ गई है उनके उ मूलन का
पूणर् संवेग के साथ चल पड़ता है । भगवान परशुराम ने इस प ृ वी का असुर िवहीन
कर िदया था। रामच द्र जी को भी िन चरहीन कर मही का भज
ु उठाये प्रण करना
पड़ा था। प्र येक भक्त अ तरा मा म ई वर का अवतरण इसी प म होता है ।
से आर भ होकर यह शोधन प्रिक्रया क्रमशः िवकिसत होती चली जाती है और दीपक
दीपक िजस प्रकार वयं प्रकाशवान बनने के साथ साथ अपने क्षेत्र को भी प्रकािशत
करता है उसी प्रकार यिद अवांछनीयताओं का उ मल
ू न करने की प्रिक्रया उभरती
दीख पड़े तो उस उभार को प्र यक्ष ई वर दशर्न के प म दे खा जा सकता है ।

ई वर के अवतार का दस
ू रा उ े य है धमर् की थापना—साधत
ु ा का उ कषर्।
यह परू क प्रिक्रया हुई। अधमर् का उ मल
ू न िनषेधा मक—धमर् की थापना
िवधेया मक, दोन ही एक दस
ू रे के पूरक ह। नींव खोदने के उपरा त दीवार चुनी
जाती है । खेत जोतने के बाद बीज बोया जाता है । झािड़यां काटकर समतल खेत
बनाये जाते ह अनीित को हटाकर नीित की थापना की जाती है । असुरता का
उ मल
ू न और दे व व का अिभवधर्न एक ही प्रयोजन के दो पक्ष ह। दजीर् कपड़े को
काटता भी है और सीता भी है । डॉक्टर आपरे शन के बाद मरहम पट्टी भी करता है ।

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 14


है । मल िवसजर्न जैसे िन य कमर् करने के बाद भोजन यव था भी की जाती है ।
अधमर् का उ मूलन तभी साथर्क होता है जब उसके साथ साथ धमर् का सज
ृ न भी
होता चले। असरु ता के िवनाश की पण
ू त
र् ा दे व व के अिभवधर्न म अिवि छ न प से
से जड़
ु ी रहती है ।

िकसी म ई वर का अवतरण िकतने आवेश और आलोक का है उसका


िनधार्रण इस साधारण आधार पर हो सकता है िक वह यिक्त अपने भीतर और
बाहरी क्षेत्र म अवांछनीयताओं के उ मूलन और स प्रविृ तय के अिभवद्धर्न म
िकतनी त परता के साथ संलग्न है ।

दग
ु ण
ुर् को हटा दे ना ही पयार् त नहीं, स गण
ु का बीजारोपण िसंचन एवं
अिभवधर्न भी उसी उ साह के साथ होना चािहए। गण
ु कमर् वभाव म समाई हुई
द ु प्रविृ तय को हटा दे ना तो खाई पाट दे ना भर हुआ। उस थान पर नये दे व
मि दर का सज
ृ न करने के साधन भी जट
ु ाये जाने चािहए। दब
ु िद्ध
ुर् छोड़ दे ना एक
पक्ष है उतने से तो हािन भर केगी लाभ कमाने के िलए स बिद्ध
ु को सिक्रय होना
चािहए। दहु ने पात्र के पदे म हुए छे द ब द करने से उसम भरी व तु के फैलने का
संकट भर दरू होता है । उस पात्र को दध
ू से भरने के िलए तो कुछ अ य आ तिरक
प्रयास करने पड़गे। छे द ब द कर दे ने मात्र से कोई यिक्त उस उ े य को परू ा
कर सकता िजसके िलए दध
ू दह
ु ने वाला पात्र खरीदा गया था।

गण
ु कमर्, वभाव के क्षेत्र म उ कृ टता का समावेश करते चलने वाली िद य
धारा का जब अ तःकरण म उभार आने लगे तो समझना चािहए िक ई वर का
अवतरण हो रहा है । गमीर् की ऋतु आते ही हर व तु का तापमान बढ़ जाता है
समझना चािहए िक यिक्त म ई वर का अवतरण आदशर्वादी गितिविधयां अपनाने
के िलए उ साह और साहस भरी ऊ मा उ प न िकये िबना रहे गा नहीं। वषार् ऋतु
आती है तो हवा म नमी बढ़ती है और धरती पर हिरयाली उगती है । ई वर वषार्

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 15


ऋतु की तरह है उसकी लहर आती है तो आकाश से सद्भावनाओं के बादल बरसते
ह, कुछ े ठ तम कर गुजरने की उमंग िबजली की तरह कड़कती ह। जीवन के
धरातल पर स प्रविृ तय की घास अनायास ही उग पड़ती है और िजधर भी नजर
उठाई जाय हिरतमा नजर आती है । अ तरं ग म स गण
ु का उभार होता है और
बाहर भी इस िव व उ यान की शोभा सु दरता दे खने म आंख आन द अनुभव
ह। शीत ऋतु म िजसे भी छुआ जाय ठं डा प्रतीत होता है । अपने भीतर की शांित
बढ़ चले और संपकर् क्षेत्र म शाि त सं थापन का प्रयास सफल होने लगे तो
समझना चािहए िक यह ई वरीय अवतरण का चम कार है । वक्ष
ृ के पुराने प ते
पड़ते और झड़ते हुए शीत ऋतु म दे खे जाते ह। यही हाल ई वर भिक्त के प्रभाव
होता है परु ानी वे आदत, पुरानी वे इ छाएं, झड़ती िगरती चली जाती ह िजनके
कारण मनु य को पट और प्रजनन तक सीमा बद्ध व पशु तर का जीवन जीना
पड़ता है । वस त म नये प लव नये पु प से वक्ष
ृ वन पितय को लदा हुआ दे खा
जाता है । ई वर अवतरण का प्रभाव ऐसा उ लास उ प न करता है िजससे
के कण कण दे व चेतना का सौ दयर् िखलता हुआ दे खा जा सके। ऋतुओं के प्रभाव
से बदलता हुआ वातावरण सहज ही पहचाना जा सकता है और अनुमान लगाया
जा सकता है िक इन िदन अमक
ु मौसम है । िकसी के यिक्त व को—िच तन और
कतर् ृ व को उ कृ टता युक्त दे खा जाय तो समझना चािहए यहां ई वरीय अवतरण
पु य प्रभाव हो चला।

गंगावतरण की कथा प्रिसद्ध है भागीरथ ने तप िकया था और वे उ ह वगर् से


से धरती पर लाये थे। भागीरथी ने िवशाल भूख ड की यास बुझाई और स पि त
उगाई। िशव की जटाओं से भी गंगा के प्रकट होने की चचार् है । हमारा मि त क
ब्र मलोक है इसी को वगर् कहते ह। स ज्ञान की गंगा का अवतरण यहीं से होता
और उसकी धारा सिव
ु तत
ृ भूख ड पर प्रवािहत हो चलती है । स ज्ञान का िव तार

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 16


स कमर् म होता है । सद्भावनाएं अवतिरत होती ह और वे स प्रविृ तयां बनकर कमर्
क्षेत्र म बहती हो तो समझना चािहए िक भक्त भागीरथ की तप साधना सफल हो
चली और ई वर दशर्न का प्रयोजन पण
ू र् हो गया।

अपने जीवन म ई वर की िव यमानता दे ख सकना कुछ भी किठन नहीं है ।


उ कषर् को आ म गौरव को प्रा त करने की आकांक्षा प टतः यही अंगिल
ु िनदश
करती है िक पशु तर का जीवन यापन अपयार् त है —अतिृ त कर है —अवांछनीय है
इस ि थित से आगे बढ़ा जाय ऊंचा उठा जाय। मात्र जीवा मा न रहकर
महाना मा—दे वा मा एवं परमा मा बनने का सौभाग्य प्रा त िकया जाय। भटकाव के
कारण यह लाभ भौितक व तए
ु ं समेटने और दस
ू र को चम कृत करने वाले जादई

िवलास वैभव के संग्रह म इस ल य की पूितर् सोची जाती है । बड़ पन के ठाठ रोपे
जाते ह और उस उ माद म कुमागर् अपना कर प्रगित के नाम पर पतन के गतर् म
िगरा जाता है । यिद यथाथर्ता को समझा जा सके तो यह आि मक आकांक्षा
स प नता संग्रह करने के िलए महानता स पािदत करने के िलए मागर् दशर्न करती
िदखाई पड़ेगी। उ कषर् की उमंग के प म अपने भीतर हम ई वरीय स ता को
िनदश करती हुई दे ख सकते ह।

िववेक के प म उिचत को अपनाने और अनिचत


ु से बचने की प्रिक्रया भी
ई वर हर घड़ी पूरा करता है । प्र येक स कमर् हम आ तिरक स तोष दे ता है और
प्र येक द ु कमर् के प्रयास से छाती धड़कती है । अ त र्व व खड़ा होता है और पैर
कांपते ह। औिच य के िलए प्रो साहन दे ने वाले और अनौिच य के प्रित िन साह
उ प न करने वाले इस अ तःप्रकाश को ई वरीय स ता की िव यमानता के प म
दे खा जा सकता है ।

क णा, प्रेम, दया, द्धा जैसी सद्भावनाएं असीम आ म-संतोष प्रदान करती ह।
इ ह चिरताथर् करने के िलए कुछ क ट सहना, संयम बरतना और याग करना

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 17


पड़ता है तो भी उससे दख
ु नहीं संतोष ही होता है । इसे ई वरीय चेतना का िद य
िशक्षण कह सकते ह। उ कृ टता की भूख अद य है — याय और औिच य का
समथर्न शा वत है । चोर भी चोरी के िसद्धा त का समथर्न नहीं कर सकता—वह
अपने घर चोर को नौकर रखने के िलए तैयार न होगा। यह स य की ई वर व की
िदिग्वजय है । हमने िनर तर ई वरीय वाणी की अवज्ञा और प्रेरणा की अवहे लना
है सो आदत भी वैसी बन गयी है । धिल
ू जमते- जमते दपर्ण धुंधला हो गया है
अ यथा हर कोई अ तरा मा के भीतर महानता की िदशा म बढ़ चलने की प्रेरणा
के प म कोई भी कभी भी जीव त िक तु धिमल
ू बनाई गई ई वरीय चेतना का
दशर्न कर सकता है ।

शरीर के ढांचे पर ि ट डाली जाय और उसके भीतर कायार्ि वत हो रही रीित


नीित पर गहराई से यान िदया जाय तो प्रतीत होगा िक ई वरीय चेतना की प्रकृित
क्या है और वह यि ट एवं समि ट म िकस प्रकार काम करती है । घटक की
घिन ठता और अवयव की सहकािरता दे खते ही बनती है । य जीवाणओ
ु ं की
स ता है पर उन सबने इस प्रकार का िनवार्ह क्रम अपनाया है िक घिन ठता दे खते
बनती है । उलट पुलट कर दे खा जाय तो वे एक दस
ू रे के साथ गथ
ुं े हुए लगगे।
उनम से िकसी की इ छा अलग रहने या अलग बढ़ने की नहीं होती। हर घटक का
संतोष पािर पिरक आ मीयता का आन द लेने म ही केि द्रत हो रहा है । इनम से
िकसी घटक को काटकर अलग िकया जाय तो छोटी सी काट छांट भी सारे शरीर को
को यिथत कर दे ती है और जहां से कुछ कटा था वहीं रक्त के आंसू बहने लगते
ह। प्र येक जीवाणु अहिनर्िश म िनरत रहता है और अपनी स ता का लाभ समूचे
शरीर को दे ता है । यह सघनता ई वरीय है । यिक्त को घटक बनकर रहना चािहए
और उसका वाथर् और परमाथर् एक रहना चािहए।

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 18


अवयव की सहकािरता दशर्नीय है । हाथ कमाता है —उस कमाई को मुंह
खाता है —मुंह पेट म पहुंचाता है —पेट पचाकर रक्त बनाता है —रक्त दय के
अिधकार म पहुंचता है और वहां से सारे शरीर म पहुंचता है । छोटी बड़ी निलकाएं
इस िवतरण की समथर्क और सहायक बनकर रहती ह। साम यर् का अिधकािधक
उपयोग—उपभोग के िलए यूनतम से तुि ट, यही है प्र येक छोटे बड़े अवयव की
नीित। यह घाटे का सौदा नहीं है । हाथ ने कमा कर शरीर पोषण के िलए अपना
समग्र उपाजर्न समिपर्त कर िदया, यह थल
ू ि ट के िलए घाटे का मख
ू त
र् ा का काम
था। पर व तुतः इसम लाभ ही लाभ रहा। सुरक्षा की िच ता—अहं कार की उद्धतता-
संग्रह की सड़न से बचत हो गई और उपािजर्त अ न धन-बहूमू य रक्त मांस
हाथ के िलए वािपस आ गया। सू म दिशर्य के िलए वह बिद्धम
ु ता का काम रहा।
हाथ ने आदशर्वािदता का ेय प्रा त िकया और अ या य अवयव के सहयोग से
का बहुमू य भंडार उपल ध कर िलया। यह ई वरीय रीित नीित है यिक्त और
समाज के बीच वैसा ही सामंज य सौमन य रहना चािहए जैसा िक शरीर को
सु यवि थत बनाये रहने के िलए ई वर ने अवयव के बीच थािपत िकया है ।

उपयोगी आव यक का गह
ृ ण अनुपयोगी अनाव यक का पिर याग शरीर के
िनवार्ह क्रम का अिवि छ न अंग है । भोजन िमलता है उससे जो त व िजतनी मात्रा
मात्रा म प्रयक्
ु त हो सकता है उतना ग्रहण कर िलया जाता है और शेष मल प म
बाहर हटा िदया जाता है । संग्रह की तिनक भी उपयोिगता नहीं—संग्रह बढ़े गा तो
मलावरोध उ प न होगा और सड़न से अनेकानेक रोग उठ खड़े ह गे। मल िवसजर्न
की िक्रया दे खते ही बनती है । िवकृितयां जहां भी उ प न ह वहीं से उ ह खदे ड़
बाहर िकया जाना चािहए। शरीर म बड़े बड़े नौ िछद्र ह वे सभी मल िवसजर्न म
िनरत रहते ह। वचा के असंख्य िछद्र पसीने के मा यम से िवकृितय को बाहर
खदे ड़ते ह। फेफड़े म जाने वाली हर सांस उ प न हुए िवष को समेट कर लाती है

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 19


और उ ह बुहार कर बाहर फकती ह। हमारे भीतर गण
ु कमर् वभाव के—शरीर मन
और भावना के क्षेत्र म जहां भी—जब भी—लेने की आव यकता नहीं है । जो े ठ
हो—उ कृ ट हो उसी को हम संग्रह कर और शेष को उपेक्षा के गतर् म धकेल कर
बाहर करद। इतना सहज िशक्षण ई वर की इस रीित-नीित को दे खकर सीखा जा
सकता है जो शरीर स ता के अ तगर्त आजीवन काम करती रहती है ।

ज म से लेकर मरण पयर् त शरीर का सारा ढांचा मशील रहता है । ि थित


बदल दे ना भर िव ाम है । हर अवयव अपनी िनयत मयार्दा का पालन करता है और
और अपने िज मे का उ तरदािय व िनवाहता है । क तर् यिन ठा-मयार्दाओं का
उदार सहकािरता का िनवार्ह—अिव ाम मशीलता जैसी रीित नीित अपना कर ही
शरीर का वा य—मन का संतुलन और अ तःकरण का चिरत्र ि थर रखा जा
सकता है । थूल, सू म और कारण शरीर के बिल ठ रहने का यही उपाय है । ई वर
का कतर्ृ व शरीर के िक्रया कलाप के चल रहे िविध िवधान को दे खकर समझा जा
सकता है अभ य पदाथर् खाने से उदरशल
ू रे चक से द त, नशा पीने पर उ माद, िवष
पीने से म ृ यु , असावधानी से चलने पर ठोकर जैसे घटनाक्रम को दे खकर कमर् फल
का िसद्धा त समझा जा सकता है । अपने भीतर झांककर यिद दे खा जा सके तो
िजनकी चचार् की गई है वे दो चार प्रसंग ही नहीं, असंख्य आधार ऐसे िदखाई पड़गे
जो ई वर की रीित नीित का िदग्दशर्न कराते ह। चेतना सदा िनराकार होती है
इसिलए उसे चमर् चक्षुओं से तो नहीं दे खा जा सकता पर ज्ञान नेत्र से उसकी गित
िविधय का दशर्न िकया जा सकता है । यही है ई वर का साक्षा कार। इसका प्रितफल
प्रितफल यही होना चािहए िक हम अपनी यावहािरक रीित नीित का िनधार्रण उसी
आधार पर करना चािहए िजसे ई वरीय स ता वारा अपनाया गया है । ई वर
का—उसका उपासना साधना का प्रयोजन यही है िक हम उसी राह पर चल जो
उसने हमारी प्र यक्ष पा य पु तक म िलख दी है ।

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 20


आ तर क्षेत्र की तरह बा य जगत म भी ई वरीय स ता का दशर्न उसकी
नीित के प म दे खते हुए िकया जा सकता है । समुद्र म जमा रहने पर जल खारा
रहता है और िन पयोगी बनता है । कुछ ही समय म खाद बन जाता है । आततायी
आपस म ही लड़ते मरते और समा त होते रहते ह। अवांछनीयता अपनाने वाली
असुरता सदा हारी और दै वी स ता ने अपना वचर् व घोर संघष के बीच भी कायम
रखा है । एक से एक बढ़कर अनाचारी आये और असीम घण
ृ ा एवं अन त अशाि त
लेकर महाकाल की करालता म समा गये पर बद्ध
ु और ईसा अभी भी िज दा ह।
िशिव, दधीिच हिर चंद्र की—ध्रव
ु प्रहलाद की—सूर कबीर की, मीरा और तुलसी की
स ता अभी भी जीिवत ह। कालजयी महामानव को इितहास के प ृ ठ पर से िमटाया
न जा सकेगा जब तक धरती और आसमान है तब तक महामानव की दे व स ता
अमत
ृ वाणी-अजर अमर बनी रहे गी और उनके चरण िच ह पर द्धा के शत दल
कमल मानवी आ मा िनर तर अिपर्त करनी रहे गी।

उपभोग वादी संग्रही और आिधप य जताने वाले अतिृ त और असंतोष का


रोना रोते रहगे पर िज ह सौ दयर् का बोध है वे नील आकाश के िझलिमलाते तारक
तारक म रात भर—लहलहाती हिरतमा म िदन भर िद य सौ दयर् का अनुभव
करते हुए हर घड़ी हष लास म डूबे रहगे। िचत्र िविचत्र प्रािणय के चलते बोलते
िखलौने िकतने सु दर ह। भोला बचपन इठलाता यौवन और पिरपक्व वद्ध
ृ व िकतना
िकतना भावा मक होता है इसे िकसी भी कलाकार की आंख दे खतीं और ठगी सी रह
रह जाती ह। प्रकृित की छोटी बड़ी हलचल को यिद भाव भरी आंख से दे खा जा
सके तो प्रतीत होगा िक इस सिृ ट के कण कण से सौ दयर् बरसता है —पार पिरक
नेह सहयोग का यहां िकतना िनमर्ल प्रवाह बह रहा है । सत ् की ये स ता चेतना के
समद्र
ु म िकस प्रकार क्रीड़ा क लोल कर रही है ये दे खते ही बनता है । यहां सत िचत
िचत और आन द के अितिरक्त और कुछ है ही नहीं। संघषर्, पाप और संग्रह जहां

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 21


भी होगा वहीं िवकृत बनेगा और संकट उ प न करे गा। बादल जल लाते ह सख
ू े
भूतल को सींचते ह। उनका िक्रया कलाप उ ह ऊंचा चढ़ाता है , दे वता बनाता है ,
आगमन पर सवर्त्र मोद मनाया जाता है । बरसने पर भी वे खाली नहीं होते। हर
वषर् उनका अि त व यथावत ् बना रहता है । बादल का पानी जमीन को िमलता
है —जमीन से निदय म निदय से समुद्र म जा पहुंचता है । यह एक से दस
ू रे को
दे ने की पद्धित ही सिृ ट को सुि थर और समु नत रखे हुए ह। यिद रोक रखने की
लोभ नीित अपनाई जाय, तो बादल क्य बरसगे? जमीन अपनी नमी निदय को
क्य दे गी? निदयां सारा पानी अपने म भरे रहगी। संग्रह विृ त के अपनाने पर
िकतना बड़ा प्रकृित संकट उठ खड़ा होगा यह क पना करने मात्र से जी दहल जाता
है । प्रकृित की हलचल म ई वर के कतर्ृ व को यिद झांका जा सकेगा तो प्रभु
का प्रकाश हम सहज ही िमल सकता है ।

वन पित उगती है दस
ू र के िलए, वक्ष
ृ फलते ह दस
ू र के िलए, गाय दध
ू , भेड़
ऊन, मिक्खयां मधु दे ती ह, फूल िखलते और सुगध
ं िबखेरते ह—झरने झरते ह और
निदयां बहती ह—धरती अपने असंख्य अनद
ु ान से प्रािणय का पोषण करती है ।
पवन चलता है —सूरज उगता है , च द्रमा चमकता है और तारे िझलिमलाते ह। इन
सबका अपना प्र यक्ष लाभ क्या है ? ई वर ने वयं इस िवशाल सिृ ट का
क्य संभाला हुआ है ? इन प्र न का उ तर यिद खोजने के िलए उतरा जाय सिृ ट
कण कण उ कृ टता से ओत प्रोत हो रहा है और उसी के आधार पर इस िव व का
सूत्र संचालन हो रहा है । अवांछनीयताएं भी इस संसार म उ प न होती ह पर वे
पनपने नहीं पातीं अपनी मौत मरती है और े ठता की सघनता म उनका
िटक नहीं पाता। अंधेरा आता तो है पर प्रकाश के स मुख िटक नहीं पाता। प्रािणय
वारा यागा दग
ु िर् धत मल अनाचार की भी यहां स ता है पर वह है वहीं जहां
ई वरीय स ता की यूनता है । संसार म क ट, शोक, स ताप, िव वेष और िवघटन की

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 22


असुरता भी िमल सकती है पर वह कृित नहीं िवकृित है । कृित और िवकृित का संघषर्
संघषर् भी उस परम पु ष की एक फुरणा है िजसके सहारे असत पर सत ् की—
मरण पर जीवन की और अ धकार पर प्रकाश की िवजय की प्र यक्ष अनभ
ु िू त िमल
सकती है ।

ई वर का दशर्न—ई वर का अनग्र
ु ह जीवन का ल य है । यह चमर् चक्षुओं से
संभव नहीं। चमड़े के बने नेत्र तो केवल जड़ पदाथ को दे ख सकते ह, चेतना तो
इि द्रयातीत है , उसकी अनुभूित ज्ञान चक्षुओं से, िववेक ि ट से हो सकती है ।
अ तरं ग को खोजने और बिहरं ग को िनहारने से हम ई वर की स ता का दशर्न हो
सकता है । परमाणु के पटक अ ततः िव यत
ु प्रवाह वे फुि लंग मात्र ह। पदाथर् की
मूल इकाई रासायिनक नहीं िव युतीय है । शिक्त ही य का प धारण करती है
समूचा िपंड और ब्र मांड ब्रा मी स ता का कलेवर है । यहां सवर्त्र ब्र म ही ब्र म
है । माया के आवरण ने उसके दशर्न आन द म यवधान उ प न िकया है । उपासना
उपासना और साधना की छे नी हथोड़े से उसी अवरोध को न ट करने की हटाने की
प्रिक्रया पण
ू र् की जाती है यिद इस त य को समझा जा सके तो ई वर दशर्न की
यास को सहज ही बुझा सकते ह। ई वर को जीवन का सहचर बना लेने उसकी
प्रकृित और प्रेरणा को दयंगम कर लेने पर जो असीम आन द िमलता है , शिक्तय
का अज ोत हाथ लगता है , तर म दे व व पिरलिक्षत होता है वही है जीव का
चरम ल य और वही है परम पु षाथर् का महानतम प्रितफल।

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आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 23


ई वर की कमर् फल यव था
*******
ई वरीय स ता का मानवी चेतना पर अंकुश रखा जा सके तो इस बहुमू य
मनु य ज म को स चे अथ म म साथर्क बनाने का अवसर िमल सकता है । य
शरीर यंत्र और मानिसक त त्र दोन ही ई वर िविनिमर्त ह। वही उनकी मूल
गितिविधय का संचालन करता है । हम अपने आप तो िमट्टी का िखलौना भर बना
बना सकते ह। जीव त प्रािणय का ज म प्रािणय के प्रय न और शरीर से होता है
पर कोई नहीं जानता िक इस काया का िनमार्ण िकस प्रकार िकया जा सकता है ।
प्रयोगशालाओं म मनु य कृत रसायिनक यांित्रक प्राणी उ प न नहीं िकये जा सके
रक्त मांस अि थ जैसे पदाथर् यिद कोई बना सका होता तो रक्तदान या अंगदान
आव यकता क्य पड़ती? आंख जैसी ि ट और कान जैसी वण शिक्त वाले य त्र
यिद बनाये जा सके होते तो िकतना अ छा होता। मि त क की संरचना दे खकर तो
तो उसके सज
ृ ेता की सूझ-बूझ, कारीगरी और सू मता पर चिकत रह जाना पड़ता है ।
है । इि द्रय की संवेदना और सिक्रयता िकतनी अद्भत
ु है िजसकी तुलना मानव कृत
प्रयास म कहीं भी नहीं दे खी जा सकती।

अनवरत चलने वाला रक्त संचार, िनमेष, उ मेष, आकंु चन-प्रकंु चन, वास-
जैसी हलचल को दे ख कर इस य त्र का अनोखापन दे खते- दे खते तिृ त नहीं होती।
मन की िवचार शिक्त की उपयोिगता और गिरमा का तो कहना ही क्या? िनजीर्व जड़
जड़ पदाथ से बनी सिृ ट को िकतनी सु दर, सुखद और संवेदनशील बना िदया है ,
इस मन ने। यिद मन न होता तो गु म पादप की तरह उगते बढ़ते ज र पर
अनुभूित के हाथ सरसता का कोई आन द ले सकना संभव न रहा होता।

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 24


हम न तो शरीर य त्र बना सकते ह और न मनः त त्र। यह ई वर की
मू यवान कला कृितयां ह, िज ह सज
ृ ेता ने अपनी सम त कुशलता का समावेश
करके बड़ी आशा और भावना के साथ बनाया है । इसके संचालन का उ तरदािय व
मनु य को स पा गया है और अपेक्षा की गई है िक वह उसका सदप
ु योग करके
वयं लाभाि वत होगा और सिृ ट की सु यव था म सहायक िसद्ध होगा। िनमार्ण
ई वर के हाथ, संचालन मनु य के हाथ। इस प्रकार की साझेदारी इस कारखाने के
साथ जड़
ु ी हुई है । ई वर ने अपना कायर् परू ा कर िदया अब मनु य की बारी है िक
वह सुसंचालन करते हुए अपनी प्रामािणकता और कुशलता का प्रमाण प्र तुत करे ।

परीक्षा से ही िकसी की प्रामािणकता िसद्ध होती है । प्रितयोिगताओं म भाग लेकर


लेकर ही िवजेता अपना वचर् व िसद्ध करते ह। बहुमू य जीवन त त्र का संचालन
कुशलता पूवक
र् िकया गया या उसे मूखत
र् ा अपना कर न ट-भ्र ट, अ त य त कर
िदया गया यही परीक्षा काल जीवन अविध के प म सामने प्र तुत है । उ तीणर्
छात्र को प्रमाण पत्र िमलते ह और प्रितयोिगता म खरे िसद्ध होने वाल को
गौरवशाली पद एवं उ तरदािय व स पे जाते ह। जीवन स पदा का उपयोग िकस
प्रकार िकया गया है यही वह परख िजसम मनु य की कुशलता एवं प्रामािणकता
परखी जा रही है । यिद हम खरे िसद्ध होते ह तो अ य बढ़े चढ़े बहुमू य उपहार एवं
एवं उ तरदािय व को प्रा त कर सकने की अपेक्षा कर सकते ह।

शरीर हम बना तो नहीं सकते पर उसकी िक्रया शिक्त का इ छानुसार


कर सकते ह। िवचारशिक्त, इ छाशिक्त जैसी चेतनाओं का िनमार्ण हम नहीं कर
सकते यिद कर सके होते तो पालतू पशओ
ु ं को अपने जैसे बना लेते और पागल
को बिद्धमान
ु कर दे ते। इतने पर भी इतना अिधकार हर िकसी को प्रा त है िक वह
अपनी मानिसक क्षमता का कुछ भी—कैसा भी-उपयोग कर। उपयोग की छूट तो
िमली है पर एक अिधकार ई वर के हाथ म सुरिक्षत है िक कतर्ृ व के अनु प दं ड

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 25


और पुर कार दे ने की यव था अपने हाथ म रखे। हम इ छानुसार भले और बुरे
कमर् करने म पूणत
र् या वत त्र ह, पर उसके पिरणाम व प जो सुख और दख

िमलते ह उनसे बच नहीं सकते। आमतौर से यही चक
ू होती रहती है । इसी चौराहे
पर लोग भटक जाते ह और प्रलोभन से प्रेिरत होकर उस राह पर चल पड़ते ह जो
आकषर्क सी लगती है पर अ ततः ले पहुंचती है कंटीली झािड़य से भरे जंगल म—
म—िचपकन और सड़न भरे दल दल म।

शरीर और मन का कुछ भी उपयोग कर सकने म हम वत त्र ह। यह एक


ल य है । हम चाह तो आ म ह या तक कर सकते ह। चाह तो आ म साधना म
िनरत होकर कुछ भी समय म दे व व की साधना म लग सकते ह। दोन म से
िकसी भी मागर् पर चलने की छूट है । पर वहां एक भयंकर भ्राि त भी अपनाली
जाती है िक कमर् फल से बचे रहने की छूट भी हम प्रा त कर सकते ह। ऐसा नहीं
हो सकता। जमालगोटा खाया जा सकता है पर उसके फल- व प द त होने की
बात रोकी नहीं जा सकती। िवष पीने की हर िकसी को वत त्रता है पर उसके
फल व प मरण से बच सकना संभव नहीं। नशा पीना अपने हाथ म है पर
उ माद से बचाव कैसे हो सकता है ? हम म से अिधकांश की मा यता यही बनी
होती है िक द ु कमर् करते हुए भी उसके दं ड से बचे रह सकते ह। समाज के
ितर कार और शासकीय दं ड से बच िनकलने म अपनी चतरु ता के आधार पर
सफल हो सकते ह। इसी मा यता के कारण पाप कमर् होते ह और लोग उस राह
पर चलते ह िजसम पग पग पर कांटे और कंकड़ िबछे ह।

नाि तकता की पिरभाषा कमर् फल की िनि चतता से इनकारी के प म की


जा सकती है । नाि तकता की शा त्रकार ने कटु भ सर्ना की है । इसम ई वर के
सज
ृ ेता और संचालक होने की बात को मानना न मानना उतना मह वपूणर् नहीं
िजतना इस सिृ ट म कमर् फल से बच िनकलने की बात सोचना। इसम इतना भर

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 26


हो सकता है िक कोई अित धूतत
र् ा बरतने पर सामािजक ितर कार और शासकीय
दं ड से बच जाय पर ई वरीय यव था से चल रहे कमर् िवपाक से कोई बच नहीं
सकता। जो यह सोचता है िक चतरु ता इस क्षेत्र म भी काम द सकती है पर
ई वरीय याय और शासन से इ कार करता है । यही है वह िब द ु जहां नाि तकता
पनपती है और यिक्त तथा समाज का भारी अिहत होता है ।

ई वर का ब्र म-सज
ृ ेता होना असंिदग्ध है । यिद संयोग से प्राणी और पदाथर्
बनते ह तो ई वरीय यव थाक्रम का यितरे क करके मानवी कुशलता के सहारे
िकसी अ य प्रकार से प्रािणय और पदाथ का नव िनमार्ण िकया जाना चािहए। ऐसा
ऐसा कर सकना मनु य के िलए संभव नहीं है । वह चल रही प्रकृित प्रिक्रया की
गितिविधय की जानकारी प्रा त करके—उस यव था का लाभ भर उठा सकता है ।
नया परमाणु—नया त व—नया जीवाणु मनु य की सारी कुशलता िमलकर भी नहीं
बना सकती। अ तु ई वर का सज
ृ ेता, स ृ टा ब्र म होना वयं िसद्ध है । इस क्षेत्र म
ई वर के न मानने का दरु ाग्रह कहीं आड़े नहीं आता और सिृ ट क तार् प्रकृित है
अथवा पु ष इस िववाद से कुछ बनता नहीं। जब हम नये सय
ू र् च द्र, तारागण, समद्र
ु ,
समुद्र, पवर्त, वक्ष
ृ प्राणी आिद नहीं बना सकते। सिृ ट म चल रही हलचल से िभ न
प्रकार की पिरपाटी खड़ी नहीं कर सकते तो ई वर को सिृ ट कतार् एवं ब्र मा मानने
की बात वीकार करने न करने से िकसी का कुछ बनता िबगड़ता नहीं। कोई सय
ू र्
के अि त व से इनकार करता रहे तो इससे उसे ही िविक्ष त दरु ाग्रही आिद माना
जायगा। सूयर् पर अथवा उससे लाभाि वत होने वाली सिृ ट पर इस इनकारी का
कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

भगवान का दस
ू रा व प है पोषण कतार्—िवकासवान, अग्रगामी िव णु। यह
स ता भी सवर्त्र काम करती हुई दे खी जा सकती है । परमाणु पिरवार से लेकर
सौरम डल तक सवर्त्र अग्रगामी सिक्रयता काम कर रही है । प्रािण जगत म शैशव,

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 27


यौवन, वद्ध
ृ व और पिरवतर्न का क्रम यथावत चल रहा है । अमीवा से बढ़कर मनु य
बनने तक की—आिदम काल से लेकर आज के स य युग की—गवेषणा करने पर
प्रगित चक्र के गितशील होने की बात प ट है । चौरासी लाख योिनय म भ्रमण
करने के उपरा त मनु य ज म पाने की पौरािणक मा यता की भी िववेक युक्त
संगित बैठती है । यह ब्र मा ड गोल है । अणु की स ता भी गोल है इसिलए आगे ही
आगे चलते रहने पर गोलाई के धरातल पर भ्रमण करने वाले को अ ततः वहीं आ
पहुंचना पड़ता है जहां से वह चला था। चक्र गित की यापकता सवर्मा य है । इसे
दस
ू रे श द म अग्रगमन कह सकते ह।

हर पदाथर् को कहीं न कहीं से पोषण िमलता है । अ यथा गितशीलता म खचर्


होने वाली शिक्त की क्षित पूितर् कैसे होगी। हम अ न, जल और वायु से आहार
करते ह। वक्ष
ृ को जड़ के और पत्र के मा यम से खरु ाक िमलती है । धरती को
आकाश से पोषण िमलता है और आकाश को धरती से। खाद से खेत की भूख
बझ
ु ती है और उसके उ पादन को खाकर प्रािणय की मल िवसजर्न िक्रया से उस खाद
खाद की पुनः पिू तर् होती है । यह पोषण चक्र असंिदग्ध है । िव णु का कतर्ृ व प्र यक्ष
है । इससे जो इ कार करे वह अ न, जल और वायु के िबना जीिवत रहकर िदखाये
िबना ईंधन और ऊजार् का साधन जट
ु ाये मशीन चलाये। िबना खाद पानी के पौधे
उगाये। भगवान के िव णु व से इनकारी या वीकृित भी कुछ मह व नहीं रखती।
जो प्र यक्ष है उसे अ वीकार करना अपनी ही मख
ू त
र् ा का पिरचय दे ता है ।

गड़बड़ तब मचती है जब भगवान के िशव व प से इनकार िकया जाता है ।


िशव को िनयामक कहा गया है । वह व छ द को सीिमत करता है और िनय त्रण
का अंकुश लगाये रहता है । यिद ऐसा न होता तो वे छाचारी परमाणु एक दस
ू रे से
टकरा कर भयंकर िव फोट खड़े करते। ग्रह नक्षत्र आये िदन पर पर टकराया करते।
करते। बकरी के पेट से ब दर होते और चने के पौध म चावल उग पड़ते। सूयर् की

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 28


जब मजीर् होती िनकलता और जब मौज आती चादर तानकर सो जाता। उस दशा
म जो अ यव था उ प न होती उससे यमान सिृ ट का अि त व ही खतरे म
जाता। इस सिृ ट क्रम म सि निहत मयार्दा और िनय त्रण की यव था कूट
भरी दे खकर हम चेतना ब्र म की िशव शिक्त का प्र यक्ष दशर्न कर सकते ह। पर
इसी क्रम को जब मानवी कमर् यव था म से काट दे ने हटा दे ने का द ु साहस िकया
िकया जाता है तब उसे अना था या नाि तकता कहते ह। जो है —उसे नहीं है , कहा
जाय माना जाय तो उससे गितिविधय म अवांछनीय यितरे क उ प न होगा। इसका
इसका पिरणाम दभ
ु ार्ग्य पूणर् ही हो सकता है । नाि तकता से उ प न होने वाले
िवग्रह को यान म रखते हुए उससे बचने के िलए ही नाि तकता को अवांछनीय
ठहराया गया है और उसकी कटु भ सर्ना की गई है ।

एक श द म नाि तकता का अथर् कमर् फल की इनकारी कहा जा सकता है ।


यह भ्राि त पनपती इसिलए है िक मनु य की िववेक शीलता और उ कृ टता को
चिरताथर् होने का अवसर दे ने के िलए इतनी गज
ंु ाइश छोड़ी गई है िक कम का तर
तर िनधार्िरत करने म मनु य अपने तर का पिरचय दे सके। यिद इतनी भी
छूट न िमली होती तो हम य त्रवत बन जाते। िजस प्रकार सांस लेने और पलक
झपकने का क्रम चलता है उसी प्रकार कमर् करने की इ छा और प्रिक्रया भी ई वर
ने अपने हाथ म रखी होती तो िफर हर कोई एक ही प्रकार के कमर् करते रहने के
िलए िववश होता। उससे जीव त प्राणी भी मशीन जैसे बन जाते उनम जो िविचत्रता
िविचत्रता और िविवधता पाई जाती है उसके दशर्न भी न होते। तब कोई न ऊंचा उठने
उठने का ेय प्रा त करता और न पतन के कारण िकसी की भ सर्ना होती। ई वर
अपने जे ठ पुत्र पर उतना अंकुश लगाना उिचत नहीं समझा और उसे वे छा पूवक
र्
कमर् करने की परू ी परू ी छूट प्रदान कर दी। यह उिचत भी था और प्र यक्ष भी है ।
हम कुछ भी भला बुरा कर सकने की अपनी वत त्रता से पिरिचत है और उसका

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 29


उपयोग भी करते ह। किठनाई तब उ प न होती है जब कमर् फल पाने न पाने की
छूट भी पाने की उ छृंखलता अपनाई जाती है । इसी मयार्दा यितरे क का नाम
नाि तकता है । िन दा उसी की होती है ।

मनु य की वत त्र िववेकशीलता को परखने के िलए, त काल कमर्फल न


िमलने की ढील दी गई है और परखा गया है िक दे ख यह सिृ ट का मक
ु ट मिण
प्राणी अपनी गिरमा, शालीनता और मयार्दा का वे छा पूवक
र् पालन कर सकता है
या नहीं? इसी परख के िलए त काल कमर् फल न िमलने की ढील पोल चलती है ।
दे खा जाता है िक नशा पीने से उ माद, रे चक खाने से द त व िवषपान से मरण और
और आग छूने से जलने की तरह त काल कमर् फल नहीं िमलते। उनकी प्रितिक्रया
समाज ितर कार और राजदं ड के प म तो िमलती रहती है पर जो चतुरता पूवक
र्
उस पकड़ से बच आते ह वे त काल ई वरीय द ड नहीं पाते। प्रितफल म प्रायः दे र
लग जाती है इसी प्रसंग म यह समझ िलया जाता है िक चतुरता सफल हो गई।
मानवी याय यव था को चकमा दे ने की तरह ई वरीय िवधान को झठ
ु लाना भी
संभव हो गया। इस भ्राि त के कारण ही मनु य द ु कमर् करने का द ु साहस करते
ह और स काय के स पिरणाम त काल सामने न आने के कारण िनराश होकर
बैठ जाते ह। इसी द ु साहस एवं नैरा य को प्रकारा तर से नाि तकता कहा जाता
है ।

झूठ बोलने से मुंह म छाले पड़ जाने, चोरी करने वाल के हाथ म ददर् उठ
पड़ने, कुमागर् गािमय को लकवा मार जाने, अिच य िच तन से िसरददर् होने, कु ि ट
वाल पर अ धता छा जाने जैसी त काल कमर् फल की यव था रही होती तो
अपनी दिु नया म कोई भी कुकमर् करने का द ु साहस न करता। आग पकड़ने,
िबजली छूने और िवष पीने की गलती कोई इसीिलए नहीं करता िक उनके पिरणाम
त काल सामने आ खड़े होते ह। स कमर् करने के प्रितफल यिद तुर त िमला करते

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 30


तो हर यिक्त की िच उसी मागर् पर होती। इि द्रय की ललक िल सा अपनाने के
िलए हर यिक्त इसीिलए आतरु िदखाई पड़ता है िक उस उपभोग म त काल
रसा वादन िमलता है । चोरी, बेईमानी की नीित इसी से अपनाई जाती है िक उनसे
अथर् लाभ तुर त होता है इसी प्रकार यिद स कमर् से स पिरणाम तुर त िमलते तो
हर यिक्त अपनी सहज बिद्ध
ु से उ ह ही इि द्रय भोग की तरह अपनाते हुए
ि टगोचर होता, पर वैसी यव था इस संसार म है नहीं द ु कम के द ु पिरणाम
स कम के पु य फल प्रायः दे र से िमलते ह। इसी से अधीर होकर मनु य उस
यव था को ही अमा य ठहराने पर उता हो जाता है । इसी अधीरता को
नाि तकता कहा जा सकता है । दस
ू रे श द म इसे अदरू दिशर्ता कहना भी उिचत
होगा।

बीज को वक्ष
ृ बनने म दे र लगती है । खेत बोते ही िकसान फसल कब काटता
काटता है ? िव यालय म भतीर् होते ही नातक कौन बनता है । यायामशाला म
करते ही पहलवान बन सकना कहां संभव होता है । नवजात िशशु को प्रौढ़ बनने म
समय लगता है । िक्रया और प्रिक्रया के बीच जो अ तर रहता है उसकी धैयर् और
िव वास के साथ प्रतीक्षा करने वाल को ही दरू दशीर् कहा जाता है । वे ही कोई
मह वपूणर् कायर् कर सकते ह और दरू गामी योजना बना सकते ह। हथेली पर सरस
जमाने और बालू के महल बनाने के िलए आतरु लोग को उतावले और उपहासा पद
उपहासा पद कहा जाता है । ऐसी ही बाल बिद्ध
ु यिद कमर् फल के स ब ध म बरती
जाय तो उसे नाि तकता कहा जायगा।

अपने संसार की सबसे बड़ी भल


ू भल
ु ैया यही है िक राजद ड की हलकी सी
पकड़ से बच जाने वाल को यह भ्रम हो जाता है िक ई वरीय यव था म भी ऐसी
ही ढील पोल है और यिद कोई सु यवि थत िवधान है भी तो उसे चापलूसी, भट
उपहार जैसे हथक ड के सहारे झुठलाया जा सकता है । अमुक पूजा िवधान के

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 31


सहारे द ु कम का प्रितफल समा त हो जाने की मा यता ऐसे ही हथकंडे बाज ने
गढ़ ली है और सोच िलया है िक गंगा नान, दे व दशर्न पूजा प्रसाद जैसे स ते
उपचार के सहारे पाप दं ड से छुटकारा िमल सकता है । ई वरीय अनग्र
ु ह प्रा त करने
के िलए जीवन शोधन एवं परमाथर् प्रयास जैसे क ट सा य कदम उठाने की ज रत
नहीं है । अमुक िविध िवधान से की गई छोटी सी पूजा पत्री से ई वर एवं दे वताओं
को वशवतीर् बनाया जा सकता है और उनसे उिचत अनिचत
ु कुछ भी करा लेने का
उ लू सीधा हो सकता है । आज आि तकता के नाम पर यही भ्रम जंजाल सवर् यापी
हो रहा है । पूजा पाठ के छोटे िविध िवधान भी बड़े धमार्नु ठान प्रायः इसी ि ट से
िकये जाते ह। कैसी िविचत्र िवड बना है िक आि तकता की आड़ म नाि तकता ने
अपना डेरा जमा िलया है और कमर् फल के िसद्धा त को झुठलाना ही पूजा का
माहा य बन गया है । यिद यह मा यता सच है भी तो इसकी प्रितिक्रया सवर्नाशी
होगी। िफर िकसी को पाप द ड से डरना न पड़ेगा। िफर कोई स कमर् करने म समय
समय और शिक्त न ट न करे गा। जब स ती पूजा पत्री से ही पाप से डरने और
पु य करने की आव यकता पूरी हो जाती है तब िफर िकसी को क्या पड़ी है जो
स प्रविृ तयां अपनाने के िलए साधन जट
ु ाये और द ु प्रविृ तय से िमलने वाले लाभ
को छोड़ने की बात सोचे? जो मा यताएं कमर् फल िसद्धा त को झठ
ु लाती है वे
नाि तकता के अग्रदत
ू है भले ही उनका नाम पूजा पाठ—धमार्नु ठान या और कुछ
भी नाम दे कर प्रित ठा के िसंहासन पर िबठाया जाता रहे । दभ
ु ार्ग्य वश आज
प्र छ न नाि तकता ही आि तकता का मुखौटा पहन कर जन मानस को भ्रिमत
करने पर उता हो रही ि टगोचर होती है ।

यिक्त व का तर सुसं कृत बना रहे और समाज का ढांचा सु यवि थत


रहे यह उभय पक्षीय ेय साधन मात्र आि तकता की मा यता अपनाने से ही
संभव हो सकता है । ई वर का अि त व मानना उस तर पर िनता त आव यक है

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 32


िक कमर् फल की यव था का सुिनि चत सूत्र संचालक है । उसकी इस यव था म
दे र की गुंजाइश तो है पर अ धेर की संभावना तिनक भी नहीं है । बीज बोने और
फल तोड़ने के बीच समय का यवधान तो है पर िफर भी अमा य नहीं ठहराया
जाना चािहये। जो अमा य ठहरायेगा उसे नाि तक कहा जायगा। ऐसे बधीर लोग
तो कभी उ यान लगाने िवल ब सा य िक तु अ य त महान काय को हाथ ही नहीं
लगायगे। इस आधार पर तो नशे बाजी जैसी धीमी आ म ह या से बचने की बात
भी नहीं सोची जा सकेगी। प्र यक्ष लाभ की उतावली म ही तो ये अवांछनीय कायर्
िकये जाते ह िजनके कारण भिव य अ धकारमय बनता है और वातावरण
द ु प्रविृ तय की घुटन से भरता है । यही है अना था की दख
ु द प्रितिक्रया िजसके
कारण उसे िन दनीय और िवधातक ठहराया गया है ।

मनु य की पतनो मुख चतुरता सवर्िविदत है । लाख क्षुद्र योिनय म भ्रमण


करते करते उसकी चेतना पर क्षुद्रता के कुसं कार की गहरी परत जम गई ह।
पानी ढुलकते ही नीचे की ओर बहता है । मनु य को अवसर िमले तो वह पशु
प्रविृ तय की ओर ही बढ़े गा। चतरु ता उसका साथ दे गी और वे सामािजक एवं
राजनैितक प्रितब ध को तोड़ते हुए भी अपने को सुरिक्षत रख सकने म सफलता
प्रा त कर लेगा। मदो म त हाथी कुछ भी कर गुजरता है । फसल को र द डालना,
पौध को उखाड़ फकना और प्रािणय को पछाड़ दे ना उसके िलए खेल है । इसी प्रकार
प्रकार कमर् फल से िनभर्य होकर मनु य भी उ ंडता पर उता होता है और नैितक
एवं सामािजक मयार्दाओं को कुचलता र दता चला जाता है । इन पशु प्रविृ त पर
अंकुश ई वर की सु ढ़ और सुिनि चत क्रम यव था पर िव वास उ प न करने
आि तकता की आ था अपनाने पर ही संभव हो सकती है ।

आि तकता का िन कषर् है िक मनु य ई वर की कमर्फल यव था के


अप्र यक्ष रहते हुए भी उसे प्र यक्ष की तरह अनुभव करे । इथर त व आकाश म

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 33


भरा है उसे खल
ु ी इि द्रय से अनुभव नहीं िकया जा सकता उसे बिद्ध
ु की सू मता से
से ही जाना जा सकता है । ई वर के अि त व को िकसी प्रयोगशाला म िसद्ध नहीं
िकया जा सकता तो भी उसकी सिृ ट यव था म संतल
ु न और सामंज य दे खकर
िकसी सज
ृ नकतार् और िनयामक स ता को मा यता दे नी पड़ती है । िबना बताये
कपड़ा, बतर्न मकान पु तक आिद कुछ भी नहीं चलता। जड़ पदाथ का क्रमबद्ध
संचालन िकसी चेतना की प्रेरणा से ही हो सकता है । मशीन बहुत शिक्तशाली और
उपयोगी होती ह, पर वे अपने आप नहीं चलतीं। रे ल, मोटर वायय
ु ान, जलयान यिद
सभी यंत्र यहां तक िक वसंचािलत होने पर भी िकसी मनु य की इ छा एवं चे टा से
से ही चलते ह। शरीर य त्र भी तभी चलता है जब उसम जीव रहता है और उसका
संक प काम करता है । िफर इतने बड़े िव व ब्र मा ड की सु यव था िकसी कतार् एवं
िनयामक के िबना बन और चल नहीं सकती। यही ई वर है । उसे जानते तो बहुत
पर मानता कोई कोई ही है । मानने का अथर् है उसके अनश
ु ासन को वीकार
करना।

िबजली बड़ी समथर् है और उपयोगी भी। पर उससे लाभ उठाने के िलये त


िवषयक िविध िवधान और अनुशासन का पालन आव यक है । सही उपयोग करके
ब ती, पंखा, हीटर, कूलर, रेिफ्रजरे टर आिद छोटे उपयोगी और िवशालकाय यंत्र के कल
कारखाने चल सकते ह और तरह तरह के लाभ उठाये जा सकते ह, पर यिद
अनिचत
ु रीित से छे ड़ छाड़ की जाय और खल
ु े तार पकड़ िलये जायं तो उससे प्राण
संकट उपि थत हो जाने का खतरा है । ई वर की िविध यव था को समझा जाय
और अपने ि टकोण, िच तन एवं िक्रया कलाप को सही रखा जाय तो परम िपता के
के अज अनुदान का अिधकािधक लाभ उठाया जा सकता है । उद्धत आचरण करने
पर ई वरीय रोष का भागी बनना पड़ेगा और आिध दैिवक, आिध भौितक एवं
आ याि मक प्रताड़नाएं सहने के िलये िववश होना पड़ेगा। माता का यार सवर् िविदत

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 34


िविदत है पर उ ंडता बरतने पर उसे भी लाल पीली आंख िनकालते, कान ऐंठते और
और चपत लगाते दे खा जाता है । राज स ता का उ े य सबकी सुख सिवधा
ु बढ़ाना
और सरु क्षा का प्रबंध करना है । उसकी मल
ू प्रविृ त रचना मक है । िशक्षा, िचिक सा,
यातायात, संचार, उ योग आिद के अिभवधर्न म ही उसकी अिधकांश शिक्तयां
िनयोिजत रहती ह िक तु उ ंडता बरतने वाल के साथ कठोरता बरतने का काम
भी—िनषेधा मक कायर् भी उसी को करना पड़ता है । ई वर के यार दल
ु ार का लाभ
हम पग पग पर प्रा त कर सकते ह िक तु यह भी िनता त स य है िक मयार्दाय
तोड़ने पर उता लोग उसकी पकड़ और प्रताड़ना से बच नहीं सकते।

थल
ू ि ट से दे खने पर त काल कमर् फल न िमलने के कारण यह भ्रम
होता है िक उ पादन का कोई क्रम भले ही हो िनयंत्रण की यव थता यहां नहीं है ।
ऐसे ही अंधेरगदीर् मची हुई है । पाप कमर् का दं ड और पु य का पुर कार संिदग्ध है ।
इसी भ्रांित से नाि तकता का ज म होता है । आि तकता का उ े य मनु य की
िच तन की गहराई म उतरना और यह समझना है िक दे र से कमर् फल िमलने की
यव था दे ख कर अधीर होने और अनिचत
ु पर उता होने की आव यकता नहीं है ।
है । गंभीर बना जाय और दे खा जाय िक अवांछनीयता की प्रितिक्रया न सही मंद
गित से होने की यव था िकस प्रकार चल रही है ।

अपना अंतःकरण ‘समाज का प्रचलन’ राजकीय कानून िजस अनैितक


आचरण का िनषेध करता है उ ह ही अपनाने पर अ य सूत्र की दं ड यव था तो
पीछे लागू होगी पहले अपना ही अ तरा मा िवद्रोह खड़ा कर दे ता है अंत र्व द
अिनवायर् है । क्रूर कमर् करने वाले प्रायः नशा पीकर या कृित्रम आवेश उ प न करके
ही आ म िवद्रोह को िशिथल कर पाते ह अ यथा कई बार तो हाथ कांपने, पैर
लड़खड़ाने और िदल धड़कने की घबराहट म वे कायर् बन ही नहीं पड़ते और उलटे
पैर लौटना पड़ता है । नौिसिखय पर तो प्रायः यही बीतती है और वे अनेक बार

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 35


पिरि थित की िवषमता म न ही मनःि थित की िवषमता म ही घबराकर वािपस लौट
लौट आते ह। इस प्रकार की असफलताएं ई वरीय िवद्रोह की िवजय और अना था
की पराजय कही जा सकती है । आ मा की पक
ु ार को िनर तर दवाते चलने पर जब
द ु टता चरम सीमा पर पहुंच जाती है , तभी क्रूर कम को सरलता पूवक
र् कर सकने
का अ यास बनता है अ यथा कोई भीतर ही भीतर न चता काटता रहता है । कने
और लौटने के िलये कहता रहता है । इस उपदे टा को आ मा की पुकार और
परमा मा की योित कह सकते ह। इसे धिमल
ू िकया जा सकता है पर सवर्था बझ
ु ा
बुझा दे ना िकसी के भी बस की बात नहीं है ।

मनु य की सबसे बड़ी स पि त उसका मनोबल है इसी के सहारे वह पतन


रोकने और उ थान के क्रम को बढ़ाने म समथर् होता है । कुकमर् उद्धत तो हो उठता
है आतंक फैलाने एवं वंस करने म आवेश ग्र त उ मािदय की तरह एक सीमा
तक सफल भी हो जाता पर उसके िलए यिक्त व को कुछ मह वपूणर् बना सकना
संभव नहीं रहता। सज
ृ न की क्षमता ही िकसी को सफल स प न एवं सिवकिसत

बनाती है । इसके िलए प्रखर मनोबल चािहए। कुकमीर् का मनोबल िनर तर िगरता
चला जाता है । इस दब
ु ल
र् ता के कारण वह अपनी आंख म िगरता है साथ ही हर
कोई उसे घण
ृ ा की ि ट से दे खता है । धन-हीन की उपेक्षा होती है और क्षीण
मनोबल वाले पर ितर कार बरसता है । उसका स चा िमत्र एक भी नहीं रहता।
वाथर् वश जो िमत्रता का ढ ग बनाते थे वे भी कुसमय आने पर प ला झाड़कर दरू
दरू जा खड़े होते ह। पाप की प्रितिक्रया घण
ृ ा के प म होकर ही रहती है । कुकमीर्
के िमत्र मह
ंु से समथर्न भले ही कर पर भीतर ही भीतर घोर ितर कार भरे रहते ह।
ह। जब अशिक्त एवं िवपि त ग्र तता आती है तो वे तथा किथत िमत्र उिचत अवसर
पाकर अपनी दबी हुई घण
ृ ा को उभारते ह और असहयोग ही नहीं उलटे प्रहार भी
करते ह। चोर, डाकुओं के वगर् म आज के िमत्र कल शत्रु बनते रहते ह। मुखिबरी

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 36


करने और पकड़वाने म प्रायः उनके सािथय का ही हाथ रहता है । गड
ुं े आपस म ही
कटते मरते रहते ह।

िजसे िकसी का यार नहीं िमल सके, िजसके िलए िकसी के अंतःकरण म द्धा
द्धा नहीं जग सके, िजसका कोई स चा सहयोगी न हो वह बाहर से िकतना ही
ठाठ-बाट बना ले भीतर से अशा त और अत ृ त ही बना रहे गा। इस िवक्षोभ की
जलन से उ प न उ िवग्नता की अनुभूित हलकी करने के िलए ही प्रायः ऐसे लोग
नशेबाजी के अ य त बनते ह। इतना तो सुिनि चत है िक उद्धत मनु य कोई
मह वपूणर् सज
ृ ना मक कायर् करने म सफल नहीं हो सकते। वंस म िकसी की
गिरमा नहीं। एक छोटा ब चा भी िदयासलाई की तीली लेकर िकसी बड़े कारखाने
को भ म करने की भिमका
ू बना सकता है । गिरमा की परीक्षा तो सज
ृ न काय से
होती है । कारखाना खड़ा करने म िकसी की क्षमता आंकी जायगी। जला दे ने का
कायर् तो कोई बीमार और पागल भी कर सकता है ।

कुकमीर् म वंस क्षमता तो एक सीमा तक पाई जाती है पर वह भी िनिवर्रोध


नहीं रहती। समाज और शासन उस पर अंकुश लगाते ह। वजन सिविधय तक म
भरी रहने वाली घण
ृ ा और अनवरत बनी रहने वाली आ म प्रताड़ना ऐसे लोग को
सदा ही िवक्षु ध बनाये रहती है । यिद गंभीरता पव
ू क
र् दे खा जाय तो घन
ु की तरह
यिक्त व को खोखला करती चलने वाली यह पाप प्रितिक्रया कम-िवधातक नहीं है ।
ती गित से न सही मंद गित से सही ई वरीय द ड यव था का वह चाबक

प्र येक कुकमीर् पर बरसता दे खा जा सकता है । पेड़ को कु हाड़ी से काटने की
प्र यक्ष िक्रया दीखती है और उस घटना का प्र यक्ष िचत्र आंख के सामने आता है ।
पेड़ को खाद-पानी न दे कर सुखा िदया जाय तो लोग को इसम कोई अनहोनी या
काटने जैसी िवद्रप
ू घटना प्रतीत न होगी पर पिरणाम की ि ट से दोन ही
ि थितयां पेड़ के िलए समान प से घातक है । राजद ड िमले अथवा आ म द ड,

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 37


तलवार से काटा जाय या सांस ब द करके ह या की जाय, इससे य का अ तर
हो सकता है पर पिरणाम तो एक ही हुआ। आ म प्रताड़ना से पीिड़त यिक्त जीवन
की मह व पण
ू र् उपलि धय से प्रायः सवर्था ही वंिचत रह जाता है । गण
ु कमर् वभाव
की ि ट से जो यिक्त ओछे ह वे सदा ओछे ही बने रहगे।

यह मनोिवज्ञान स मत त य है िक अवांछनीयता अपनाने के कारण उ प न


हुए अ त र्व द के कारण अचेतन मन म िकतनी ही िवघातक ग्रि थयां बनती ह
और उनके कारण अनेक शारीिरक एवं मानिसक रोग उठ खड़े होते ह। आिध
यािधय से िघरे रहने वाले ये प्रायः वे ही बहु संख्यक होते ह िज ह ने सरल नहीं
जिटल जीवन िजया। सरल अथार्त ् सीधा, नैितक, सौ य। जिटल अथार्त ् कुिटल
अनैितक एवं उद्धत। दस
ू रे श द म धमर् को सरल और अधमर् को जिटल कह सकते
ह। पाप म उ िवग्नता की जलन और पु य म स तोष की शाि त है । कोई समय
था जब रोग का कारण वात िप त कफ को—आठी वादी खाकी को िवषाणु को—
रासायिनक पदाथ की कमी वेशी को माना जाता था और उसी आधार पर िनदान
उपचार का क्रम चला करता था। अब नवीनतम वैज्ञािनक शोध ने िसद्ध िकया है िक
िक जड़ शरीर के कण कण पर मि त कीय चेतना का आिधप य होने के कारण
उसी को भली बुरी ि थित व थता और अ व थता के प म पिरलिक्षत होती है ।
पागल िन र्व द रहते ह अ तु आहार िवहार की अ त य तता रहने पर भी वे
और िनरोग दे खे गये ह। हं सोड़ यिक्त प्रायः िनरोग रहते ह इसके िवपरीत घट
ु ने
और कुढ़ने वाले यिक्त अनेक रोग के िशकार रहते पाये जाते ह। नवीनतम मनो
वैज्ञािनक िन कषर् यह है िक शारीिरक वा य पी वक्ष
ृ की जड़ मानिसक वा य
वा य पी जमीन म गहरी घुसी होती ह। खरु ाक से रक्त मांस बन सकता है
आरोग्य की आधार िशला मानिसक तर पर जमी रहती है और उसी के द्र से
वा तिवक पोषण िमलता है । िन र्व द वनवािसय के सु ढ़ शरीर और एका त वन

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 38


पवर्त म रहने वाले स त महा माओं का दीघर् जीवन इस बात का प्रमाण है िक
घिटया कहे जाने वाले आहार िवहार के रहते हुए भी िचर थायी आरोग्य प्रा त कर
सकना िकस प्रकार संभव होता है । इसके िवपरीत जो घट
ु ते जलते रहते ह वे िकसी
प्रकार िचंता और खीज को आग म ितल ितल करके अपने को जलाते घुलाते रहते
ह और ग्ण रहकर अकाल म ृ यु के िशकार होते ह। ऐसे लोग बिढ़या आहार िवहार
उपल ध करने पर भी उसका कोई लाभ नहीं उठा पाते।

कहना न होगा िक मानिसक संतुलन—सौमन य स तोष एवं उ लास बनाये


रहने म कोई कृित्रम तरकीब कायर् नहीं द सकती। दस
ू र को झुठलाया जा सकता है
पर अपने आपे के साथ चालबाजी नहीं हो सकती। उ कृ ट िच तन और आदशर्
कतर्ृ व अपनाये िबना िकसी का अंतरा मा आन द और उ लास की अनुभूित नहीं
कर सकता। यह वरदान मात्र आि तकता की दे वी के दरबार से ही िमलता है । ई वर
ई वर िव वास जीभ से कहने भर का अथवा मि त क की जानकारी तक सीिमत हो
तो बात दस
ू री है अ यथा यिद उसे अ तःकरण म प्रवेश पाने और आ था प म
जड़ जमाने का अवसर िमल गया तब तो उसकी सिु नि चत प्रितिक्रया अ या मवादी
आदशर्वािदता अपनाने के प म ही ि टगोचर होगी। ई वर को हािजर नजीर
वाला कमर् फल के िवधान पर िव वास करे गा और अपने पैर आप कु हाड़ी मारने
की मख
ू त
र् ा न करे गा। आि तकता और स जनता दोन पयार्यवाची श द ह। जो
अपने को आि तक तो कहता है पर कुमागर् पर चलता है उसे िवसंगितय का के द्र
ही कहना चािहए। पूवर् को मुंह और पि चम को पैर करके चलने वाले को िविक्ष त
कहा जाय या और कुछ! आि तकता के साथ अनीित को जोड़े रहना असंभव है ।
जो दोन को िमला कर चल रहा है उसे आि तक की गणना म नहीं ही िगना जा
सकता भले ही वह पज
ू ा पाठ के ढ ग ढकोसले िकतने ही रचता रहता हो।

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 39


दे र सवेर से क्या कुछ बनता िबगड़ता है । आज का िलया कजर् कमाई नहीं है
कल याज सिहत दे ना पड़ता है । आज का दध
ू कल दही बनता है । आज का पौधा
कल वक्ष
ृ बनता है । आज प्र न-पत्र हल करने का प्रमाण पद कल िमलता है । इस
िवल ब से िवचिलत होने और आ था खोने की आव यकता नहीं है । आ मा अमर है ,
है , उसे िनत नये ज म लेने पड़ते ह। एक ज म का प्रित फल दस
ू रे म िमल सकता
है । आज चोरी करने पर आज ही िगर तारी नहीं होती या सजा नहीं िमलती तो
उसम िकसी को यह नहीं समझ लेना चािहए िक चोरी अपराध नहीं है और उसका
द ड नहीं िमलेगा। िकतने ही ज मजात अिवकिसत एवं अपंग होते ह। िकतने ही
अप्र यािशत दघ
ु ट
र् ना और िवपि तय से आ छािदत होते ह। अ पताल , पागलखान ,
जेलखान , मरघट म जाकर यह जाना जा सकता है िक त काल का न सही कोई
पव
ू क
र् ृ त कदम भी मनु य के आड़े आ सकता है । कुकिमर्य को िन न योिनय म
ज मने और नरक भग
ु तने की जो शा त्र मा यता है वे झठ
ु लाने योग्य नहीं है ।
कुमागर्गामी की अ तःचेतना पर जमे हुए कुसं कार मनोिवज्ञान-शा त्र के अनुसार
जब शारीिरक और मानिसक यािधयां खड़ी कर सकते ह तो अवांछनीयता की गहरी
गहरी परत वारा अगले ज म म क टकारक पिरि थितय के घेरे म जकड़े जाने
बात भी अमा य नहीं ठहराई जा सकती।

िकतने ही बालक ज म से ही असाधारण मेधावी, स गण


ु ी, प्रितभावान और
दरू दशीर् होते ह। इनका िच तन और कतर्ृ व एक िनि चत िदशा म चलता है फलतः
वे व प काल म ही असाधारण प्रगित के उ च िशखर तक जा पहुंचते ह। िकतने
ही ब चे ऐसी पिरि थितय म ज मते ह िज ह प्रगित की िविश ट सिवधाएं
ु उपल ध
रहती ह अथवा उ साह वधर्क संयोग िमलते ह। इ ह पूवर् कृत पु य का प्रितफल
कहा जा सकता है । कई बालक म दब
ु िद्ध
ुर् और कुप्रविृ तय का प्रचंड उभार होता है
वे न वातावरण से प्रभािवत होते ह न यिक्तय से। उनकी उद्धत प्रकृित उ ह

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 40


पतनो मुख बनाती चली है फलतः वे दभ
ु ार्ग्य पूणर् िवपि तय के िशकार बनते ह।
ऐसे लोग म उनके प्रार ध का उदय हुआ दे खा जा सकता है । मनु य-मनु य के
बीच पायी जाने वाली िभ नता को पव
ू र् कृत का प्रितफल मानने के अितिरक्त और
कोई समाधान नहीं िमलता। यिद यह िभ नता ई वर कृत हो तो ई वर समदशीर् कैसे
रहा? यिद प्रकृित कृत है तो प्रकृित की सवर् यापी िनयम िन ठा का यितरे क कैसे
हुआ? एक जाित के प्राणी प्रायः एक ही आकृित प्रकृित के होते ह उनकी मनः
ि थित एवं पिरि थित लगभग एक ही होती है अ तर रहता भी है तो नग य ही
पर मनु य-मनु य के बीच जो आकाश पाताल िजतना अ तर पाया जाता है उसे न
तो ई वर कृत मानते बनता है न प्रकृित की अ यव था कहा जा सकता है । इसे
कृत कम की प्रितिक्रया कहने के अितिरक्त और कोई चारा नहीं। स मागर्गािमय
को स य पिरणाम दे ने और कुमागर्गािमय को द ु पिरणाम भग
ु तने के िलए बा य
करने वाली सवर् यापी यव था को ई वर माना गया है । ई वर िव वास की प्रितिक्रया
आ म िहत सोचते हुए स मागर् पर चलने की त परता के प म ही पिरलिक्षत हो
सकती है । आि तक और नाि तक का वगीर्करण पूजा करने न करने के आधार पर
नहीं, इस कसौटी पर कसा जाना चािहए िक कमर्फल की यव था पर सिु नि चत
िव वास िकया गया या नहीं। यिद िकया गया होगा तो आग को छूने की गलती न
करने की तरह पाप विृ तय को अपनाने से ही परहे ज िकया जा रहा होगा। स ची
आि तकता की सही कसौटी यही हो सकती है ।

ई वर ने मनु य जीवन जैसा सिृ ट का अनुपम, अद्भत


ु और अ िवतीय साधन
हम इसिलए िदया है िक इसकी गिरमा समझ और अवसर का े ठतम सदप
ु योग
करके अपनी दरू दिशर्ता एवं प्रामािणकता िसद्ध कर पशु प्रकृितय को काटने उखाड़ने
म प्रव ृ त होकर यिद उसम दे व प्रविृ तय का उ यान लगा सक तो इसे सराहनीय
दरू दिशर्ता कहा जायगा। पद के अनु प ही वेषभष
ू ा धारण करनी पड़ती है । वैसे ही

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 41


आचार- यवहार एवं िश टाचार का िनवार्ह करना पड़ता है । बड़े अिधकारी इस
स ब ध म आव यक सतकर्ता बरतते ह। मनु य भगवान का ये ठ पुत्र एवं
राजकुमार है उसकी सम त गितिविधयां ऐसी होनी चािहए िजससे मानवीय गिरमा
पर आंच न आवे उसकी धवलता पर दाग ध बा न लगे। अपूणत
र् ा से पीछा छुड़ा
कर पूणत
र् ा प्रा त करने का अवसर केवल मनु य योिन म ही है । यही वह वार है
िजसम प्रवेश करके वगर् एवं मुिक्त जैसी िद य उपलि धयां प्रा त की जा सकती
सामा य जीवा मा से ऊंचा उठकर महान आ मा, दे वा मा और परमा मा बनने का
एक मात्र यही अवसर है । ई वर पर आ था रखने वाला न केवल परमा मा पर
वरन ् उसके िदये दै व उपहार की गिरमा पर भी आ था रखता है और जीवन के
सदप
ु योग की उ च तरीय यव था बनाता है । कहना न होगा िक उ कृ ट िच तन
और आदशर् कतर्ृ व अपनाने से ही यह प्रयोजन परू ा होता है । यिक्त व की
उ कृ टता से ही ई वर भिक्त की झांकी की जा सकती है ।

साधन स प न मनु य जीवन मौज-मजा करने के िलए ठाठ बाठ रोपने और


लोभ मोह की अहं ता प्रदिशर्त करने के िलए नहीं िमला है । ऐसा करने से ई वर
पक्षपाती नहीं कहा जा सकता है । इससे तो उसका समदशीर् गौरव ही न ट हो जाता
है । अ य प्रािणय को जो नहीं िदया गया है वह मनु य को िमला तो इसका कोई
िवशेष प्रयोजन होना ही चािहए। समझा जाना चािहए िक यह िवशद्ध
ु अमानत है िजसे
िजसे इस सिृ ट को सस
ु ं कृत समिचत
ु बनाने के िलए ही िनयोिजत िकया जाना
चािहए। कहा जा चुका है िक खजांची-िमिन टर-अफसर, टोरकीपर आिद के हाथ म
म कई तरह के साधन रहते ह और वे उ ह िनजी लाभ के िलए नहीं वरन ् िनिद ट
उ े य के िलए ही प्रयुक्त करते ह। आि तकता की आ था िनर तर यही मरण
िदलाती है िक इस धरोहर को लोक मंगल के िलए ही प्रयक्
ु त िकया जाना है ।
यिक्तगत आव यकताएं यूनतम रखी जायं। सादगी और िमत यियता का जीवन

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 42


जीया जाय। न ठाठ बाठ का अप यय बढ़ाया जाय और न संतान संख्या बढ़ाने
जैसा अनाव यक भार िसर पर लादा जाय। यिक्तवादी संकीणर् वाथर्परता से जो
िजतना छूट सके और ई वरीय प्रयोजन म अपने को िजतना िनरत रख सके वह
उतना ही ई वर भक्त है । हनुमान को आदशर् ई वर भक्त माना गया है । वे अपने
नहीं भगवान के िलए िजए और अपने को भूले रहे और भगवान को याद रखे रहे ।
याद रखने का ता पयर् है उसी प्रयोजन म िनरत रहना। केवल मरण करते रहने
से तो कुछ बनता िबगड़ता नहीं। ऐसे तो िकतने ही तथा किथत भक्त लोग ई वर
की क पना करते हुए िचत्र िविचत्र उड़ाने उड़ते रहते ह। स चा मरण तो ल य के
साथ एकाकार होने म अपने को इसी के साथ घुला दे ने से स प न एवं साथर्क
होता है ।

आि तकता का फिलताथर् है सवर् यापी परमे वर स ता का दशर्न—िवराट ब्र म


की िद य साक्षा कार करने वाले को जड़ पदाथ का सदप
ु योग और चेतन प्रािणय
का सद्भाव भरा सहयोग करने के अितिरक्त और कोई रा ता रहता ही नहीं। ई वर
भक्त को अपना यही संसार िवशालकाय िशविलंग की तरह सिव
ु तत
ृ शािलग्राम की
तरह दीखता है । गोलाकार िशविलंग और शािलग्राम की प्रितमाएं िवराट ब्र म का
मरण िदलाती ह। भगवान कृ ण ने अजन
ुर् को गीता सुनाते समय और माता
यशोदा को िमट्टी खाने के अपराध म मंह
ु खोल कर िदखाते समय अपना यही िवराट
िवराट प िदखाया है । भगवान कृ ण ने कौिश या को पालने म झल
ू ते समय और
काकभुशिड
ुं के उदर प्रवेश को प्रवेश करने का अवसर दे कर इसी िवराट की झांकी
कराई थी। तुलसीदास िसयाराम मय सब जग जानी के प म इसी ब्र म का दशर्न
करते थे। ुित ने ‘‘ईशा वा यिमदं सवर्’’ के प म ई वर के सवर् यापी प का
िदग्दशर्न कराया है । आि तकता की प्रेरणा इस िवराट िव व को सींचने संजोने की,
पूजा आराधना म िनरत रहने की िदशा म चल पड़ने के िलए प्रो साहन दे ती है ।

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 43


आि तकता की मा यता को सुि थर बनाने के िलए ही पज
ू ा उपासना के
िविभ न कमर् कांड बनाये गये ह। हम मानवी आदश से भटककर पशु प्रविृ तय म
लोट-पोट करते ह इसी अवांछनीय तिु त से उबारने के िलए प्राथर्ना की पक
ु ार की
जाती है । ई वर के साथ जीव की असीम दरू ी को िनकटता, घिन ठता म पिरणत
करने के िलए उपासना की जाती है । उसी की ई वर भिक्त साथर्क है जो कमर्फल
अटूट िव वास करे और अपने जीवन को आदशर् बनाने की शपथ ग्रहण कर।
आि तक वही है जो चिरत्र िन ठ रहता है और लोक मंगल के िलए बढ़ चढ़ कर
अनुदान प्र तुत करता है । ऐसी वा तिवक ई वर भिक्त ही अमत
ृ , पारस और
क पवक्ष
ृ की तरह मनु य को सवर् स प न बनाती है और उसी आधार पर जीव को
ब्र म, नर को नारायण, पु ष को पु षो तम, लघु को महान और दीन दब
ु ल
र् को ऋिद्ध
िसिद्ध स प न बनाने का अवसर िमलता है ।

----***----
*समा त*

आि तकता की उपयोिगता और आव यकता 44

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